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________________ णमो समणस्स भगवओ महावीरस्स श्री सौधर्मबृहत्तपोगच्छीय विश्वपूज्य प्रातःस्मरणीय कल्पप्रभु श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वर, पट्टप्रभावक चर्चाचक्रवर्ती परमपूज्य आचार्यदेव श्रीमद् विजय धनचन्द्रसूरीश्वर, साहित्यविशारद विद्याभूषण श्रीमद् विजय भूपेन्द्रसूरीश्वर, व्याख्यानवाचस्पति श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वर, शान्तमूर्ति कविरत्न श्रीमद् विजय विद्याचन्द्रसूरीश्वरगुरुभ्यो नमः / सकल-आगम रहस्यवेदी कलिकाल सर्वज्ञ कल्प विद्वन्मान्य प्रातः स्मरणीय प्रभु श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. निर्मित श्री अभिधानराजेन्द्रः (सकल आगमों के समस्त संकलित शब्दों का ससंदर्भ ज्ञानमय कोष अर्थात् जिनागम कुञ्जी) षष्ठमो भागः ('म' से 'वासु') मुनिराज दीपविजय-यतीन्द्रविजयाभ्यां प्रथमा आवृति संशोधिता संपादिता च प्रस्तुत तृतीय संस्करण प्रकाशन के प्रेरणादाता सुविशाल गच्छाधिपति-शासन सम्राट-धर्म चक्रवर्ती-राष्ट्रसन्त-श्रुत दिवाकर-स्मित भास्कर-अनेकांत के जगप्रस्तोता-श्रमण शाश्वत धर्म के प्राण व दिशादर्शक-क्षमा दानेश्वरी-जन जन के वात्सल्य महोदधि-सत्साहित्य विधायक-जीव जगत के अक्षय अभयारण्यश्रीमद् विजय जयन्तसेन सूरीश्वरजी महाराज साहब प्रकाशक श्री राजेन्द्रसूरि शताब्दि शोध संस्थान, उज्जैन (M.P.)
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________________ प्रकाशक: राजेन्द्रसूरी शताब्दि शोध संस्थान 87/2 विक्रम मार्ग, टावर चोक, एस.एम.कॉम्पलेक्ष, फीगंज, उज्जैन (M.P.)/ प्राप्ति स्थान: श्री अभिधानराजेन्द्र प्रकाशन संस्था श्री राजेन्द्रसूरी जैन ज्ञान मन्दिर, हाथीखाना, रतनपोल, अहमदाबाद-३८०००१ राज राजेन्द्र प्रकाशन ट्रस्ट : शेखनो पाडो, रीलीफ रोड, अहमदाबाद-३८०००१ राज राजेन्द्र जयंतसेन म्युजियम : मोहनखेड़ा तीर्थ मार्ग, राजगढ़, (M.P.) पार्श्व पब्लिकेशन : 102, नंदन कोम्प्लेक्ष, मीठाखली गाम, अहमदाबाद-३८०००६ विक्रम संवत् - 2071 वीर संवत - 2540 राजेन्द्रसूरि संवत - 108 तृतीय आवृत्ति इस्वीसन - 2014) (सुकृत् सहयोगी) श्री सौधर्म बृहत्तपोगच्छीय त्रिस्तुतिक जैन श्वेताबर संघ सुभाष चोक, गोपीपुरा, सुरत टाईप सेटिंग : श्रीमद् जयन्तसेनसूरि सत्साहित्य कृते श्री देवचन्द सुखराम डोलिया इन्दौर (M.P.) मुद्रण व्यवस्था : खुश्बू प्रकाशन 103, नंदन कोम्प्लेक्ष, मीठाखली गाँव, अहमदाबाद-६ मूल्यः संपूर्ण 7 भाग रु : 6000-00
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________________ सुविहितसूरिशक्रचक्रचूडामणि-कलिकालसर्वज्ञकल्प-परमयोगिराज जगत्पूज्य-गुरुदेव-प्रभुश्रीमद्-विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज OLLEN दृप्तभ्रान्तविपक्षदन्तिदमने पञ्चाननग्रामणी - राजेन्द्राभिधकोशसंप्रणयनात्सन्दीप्तजैनश्रुतः। मधम्योपकतिपयोगको नियंकती नाटण. कोयामरिण्टाटिकतो विजयराजेन्दारपण्यवान
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________________ श्री अभिधानराजेन्द्रः 2014 अनुक्रमणिका प्रस्तावना-तृतीय आवृत्ति 2. सौधर्म बृहत्तपागच्छीय पट्टावली 3. प्रस्तावना-द्वितीय आवृत्ति आभार प्रदर्शन 5. प्रशांत-वपुषं श्रीराजेन्द्रसूरि नुमः 6. श्रीअभिधानराजेन्द्रः-षष्ठमो भागः TW ल 7-11 12-13 14 01-1468
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________________ प्रस्तावना (तृतीय आवृत्ति) कलिकाल सर्वज्ञ कल्प–प्रभु श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में तब हुए जब मुगल साम्राज्य डाँवाडोल हो चुका था, मराठा परास्त हो चुके थे और इनके साथ ही राजपूत और नवाब सभी अंग्रेजों की कूटनीतिज्ञ चाल के सामने समर्पित हो चुके थे। भारतीय संस्कृति पर कुठाराघात अपनी चरम सीमा पर था / अंग्रेज अपनी योजित शैली में भारत की अन्तरात्मा कुचलने में सफल हो रहा था। भारत के सभी धर्मावलम्बियों में शिथिलाचार जोर पकड़े हुए था। ऐसे असमंजस भरे काल में विविध जीवनदर्शक साठ ग्रंथों के साथ अभिधान राजेन्द्रः (ज्ञान कोश) लेकर एक देदीप्यमान सूर्य के समान प्रकट हुए। इस ग्रंथ के निर्माण के साथ ही वे एक महान साधक, तपोनिष्ठ, क्रान्तिकारी युगदृष्टा के रूप में समाज और जगत् के असर कारक अप्रतिमपथप्रदर्शक के रूप में अवतरित हुए। आचार्य प्रवर का यह ग्रन्थराज भगवान् महावीर की वाणी का गणधरों द्वारा प्रश्रुत आर्षपुरुषों की अर्धमागधी भाषा, जिसमें सभी आगमों का संकलन हुआ है, शताब्दी का शिरमोर व विश्ववन्द्य ग्रन्थ है। यह विश्वकोश आगम साहित्य के संदर्भ ग्रन्थ के रूप में अत्यन्त मूल्यवान है। इस ग्रन्थराज की सुसमृद्ध संदर्भ-सामग्री ने, जिससे संसार सर्वथा अनभिज्ञथा, भारतीय विद्वता का मस्तक ऊँचा किया है और यूरोपीय विद्वानों ने इस ग्रन्थराज की मुक्तकंठ से भरपूर प्रशंसा की है। यह सत्यान्वेषक तथा अनुसन्धानकर्ताओं के लिए मूल्यवान पोषक रहा है। इस ग्रन्थराज के विशद ज्ञान गाम्भीर्य और विद्योदधि श्रीमद्राजेन्द्रसूरिजी कीचमत्कारपूर्ण अद्वितीय सृजन-शक्ति के प्रति हर कोई नतमस्तक हुए बिना नहीं रहता। इस ग्रंथराज के अवलोकन करनेवालों को जैन धर्म तथा दर्शन के अपरिहार्य तथ्यों की जानकारी मंत्रमुग्ध किये बिना नहीं रहती। सूरिजी ने अंधकार युग में अपना मार्ग स्वयं ही प्रशस्त किया और वे जगत् के लिए पथ-प्रदर्शक बने / उनका चारित्रिक बल, उनकी विद्वता और निर्भीकता प्रशंसनीय ही नहीं बल्कि समस्त विद्वज्जगत पर महान अनुग्रह हुआ है। इस महर्द्धिक ग्रन्थराज के निर्माण ने विद्वत्संसार को चमत्कृत ढंग से प्रभावित किया। इसके अनुकरण और इसकी
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________________ - सहायता तथा मार्गदर्शन पाकर अनेक विद्वानों ने पूरी शताब्दी भर अपने-अपने कोश-निर्माण की भावना में इस ग्रंथराज के बीजरूप में ही रखी है। यह ग्रन्थराज बीसवीं शताब्दी की एक असाधारण घटना ही है। इसने जैन-जैनेतर सभी विद्वन्मण्डल को निरन्तरउपकृत-किया है और करता रहेगा। इस ग्रन्थराज में तमाम जैनागमों के अर्धमागधी भाषा के प्रत्येक शब्द का संकलन किया गया है और प्रत्येक शब्द का संस्कृत अनुवाद, लिंग,व्युपत्ति, अर्थ तथा सूत्रानुसार विवेचन और संदर्भ सहित ज्ञान सुविधापूर्वक दिया है, जो सुगम और अवबोध्य है। इस ग्रन्थराज ने लुप्तप्राय अर्धमागधी भाषा को पुनरुज्जीवित करने के साथ ही इसे अमरत्व प्रदान किया है। आगम शास्त्र जिज्ञासुओं के लिए उनकी तमाम शंकाओं के समाधान के लिए यह अक्षय भंडार है। इस ग्रंथराज के प्रथम खण्ड के अनेकांतवाद, अस्तित्ववाद, अदत्तादान, आत्मा (अप्पा), अभय, अभयारण्य, अर्हन्त जैसे विषयों पर संदर्भ सहित विशद व्याख्या के साथ प्रत्येक पाठक को आश्चर्यचकित करे, इतना ज्ञान आकर्षक रूप से व्याख्यायित है, जिनके अर्थबोध को पाकर हर कोई प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। इस ग्रंथराज के निर्माण के समय कुछ अक्षरों की अनुपलब्धता के कारण उनके स्थान पर वैकल्पिक अक्षर का उपयोग किया गया था जिससे पाठक-वृंद को पठन करने में जो असुविधा होती रही है उसका इस आवृत्ति में जिन वैकल्पिक अक्षरों का उपयोग किया गया था, उन्हें दूर कर दिया गया है तथा सर्वबोध्य अक्षरों का उपयोग कर लिया गया है। जिनके लिए वैकल्पिक अक्षर उपयोग में लिये गये थे वे हैं- अ, इ,उ, ऊ, ऋ, छ, झ, ठ, ड, ड्ड, द,द्भ, द्ग, द्व्य, भ, ल, ट्ठ, क्ष, ज्ञ, त्र, द्ध, द्व, क्व, क्त, ह्र। अब इस प्रथम भाग की तृतीय आवृत्ति में वैकल्पिक रूप हटाकरप्रवर्त्तमान प्रचलित अक्षरों का यथास्थान उपयोग कर लिया गया है। प्रज्ञा-पुरुष के इस ग्रन्थराज के विषय में, इसकी ज्ञान-गरिमा और आध्यात्मिक साधना की अभिव्यक्ति के विषय में कुछ कहना दैदीप्यमान सूर्य को दीपक दिखाने के समान है। अन्त में इतना ही कि यह चिर प्रतिक्षित संशोधित आवृत्ति आपके हाथों में रखते हुए आनंद की अनुभूति हो रही है। आचार्य जयन्तसेनसूरि
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________________ श्री सौधर्म बहत्तपागच्छीय पट्टावली 60 श्रीमहावीरस्वामीशासननायक 1 श्रीसुधर्मास्वामी 2 श्रीजम्बूस्वामी 3 श्रीप्रभवस्वामी ___ श्रीसय्यंभवस्वामी 5 श्रीयशोभद्रसूरि श्रीसंभूतविजयजी श्रीभद्रबाहुस्वामी श्रीस्थूलभद्रस्वामी श्रीआर्यसुहस्तीसूरि श्रीआर्यमहागिरि श्रीसुस्थितसूरि श्रीसुप्रतिबद्धसूरि 10 श्रीइन्द्रदिन्नसूरि 11 श्रीदिन्नसूरि 12 श्रीसिंहगिरिसूरि 13 श्रीवास्वामीजी 14 श्रीवजसेनसूरिजी 15 श्रीचन्द्रसूरिजी 16 श्रीसामन्तभद्रसूरि 17 श्रीवृद्धदेवसूरि 18 श्रीप्रद्योतनसूरि 16 श्रीमानदेवसूरि 20 श्रीमानतुङ्गसूरि 21 श्रीवीरसूरि 22 श्रीजयदेवसूरि 23 श्रीदेवानन्दसूरि 24 श्रीविक्रमसूरि 25 श्रीनरसिंहमूरि 26 श्रीसमुद्रसूरि 27 श्रीमानदेवसूरि 28 श्रीविवुधप्रभसूरि 26 श्रीजयानन्दसूरि 30 श्रीरविप्रभूसरि 31 श्रीयशोदेवसूरि 32. श्रीप्रद्युम्नसूरि 33 श्रीमानदेवसूरि 34 श्रीविमलचन्द्रसूरि 35 श्रीउद्योतनसूरि 36 श्रीसर्वदेवसूरि 37 श्रीदेवसूरि 38 श्रीसर्वदेवसूरि श्रीयशोभद्रसूरि श्रीनेमिचन्द्रसूरि 40 श्रीमुनिचन्द्रसूरि 41 श्रीअजितदेवसूरि 42 श्रीविजयसिंहसूरि श्रीसोमप्रभसूरि श्रीमणिरत्नसूरि 44 श्रीजगचन्द्रसूरि श्रीदेवेन्द्रसूरि श्रीविद्यानन्दसूरि 46 श्रीधर्मघोषसूरि 47 श्रीसोमप्रभसूरि 48 श्रीसोमतिलकसूरि 46 श्रीदेवसुन्दरसूरि 50 श्रीसोमसुन्दरसूरि 51 श्रीमुनिसुन्दरसूरि 52 श्रीरत्नशेखरसूरि 53 श्रीलक्ष्मीसागरसूरि 54 श्रीसुमतिरसाधुसूरि 55 श्रीहेमविमलसूरि 56 श्रीआनन्दविमलसूरि 57 श्रीविजयदानसूरि 58 श्रीहीरविजयसूरि 56 श्रीविजयसेनसूरि श्रीविजयदेवसूरि श्रीविजयसिंहसूरि 61 श्रीविजयप्रभसूरि 62 श्रीविजयरत्नसूरि 63 श्रीविजयक्षमासूरि 64 श्रीविजयदेवेन्द्रसूरि 65 श्रीविजयकल्याणसूरि 66 श्रीविजयप्रमोदसूरि 67 श्रीविजयराजेन्द्रसूरि 68 श्री विजयधनचन्द्रसूरि 66 श्री विजयभूपेन्द्रसूरि 70 श्री विजययतीन्द्रसूरि 71 श्री विजयविद्याचन्द्रसूरि 72 प्रवर्तमान आचार्य श्री विजयजयन्तसेनसूरि
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________________ राजेन्द्र कोश धनचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. मोहनविजयजी म.सा. भूपेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. यतीन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. श्री गुलाबविजयजी म.सा. विद्याचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. जयन्तसेनसूरीश्वरजी म.सा.
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________________ प्रस्तावना (द्वितीयावृत्ति) अनादि से प्रवमान है श्री वीतराग परमात्मा का परम पावन शासन ! अनादि मिथ्यात्व से मुक्त होकर आत्मा जब सम्यक्त्व गुण प्राप्त करती है, तब आत्मिक उत्क्रान्ति का शुभारंभ होता है। सम्यग्दर्शन की उपलब्धि के पश्चात् ही सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्राका क्रम आत्मा में परिलक्षित होता है। मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान दोनों ही इन्द्रिय तथा मन से ग्राह्य हैं, अतः इनका समावेश परोक्षज्ञान में होता है, परन्तु अवधिज्ञान, मनः पर्यायज्ञान एवं केवलज्ञान आत्म ग्राह्य हैं अतः ये ज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञान में समाविष्ट हैं। सम्यक्त्व का सूर्योदय होते ही मिथ्यात्व काधना अंधेरा दूर हो जाता है और आत्मा संपूर्णता की ओर गतिमान होती है। यही सम्यक्त्व आत्मा को परोक्ष ज्ञान से प्रत्यक्ष ज्ञान की ओर अग्रेसर करता है। प्रत्यक्ष ज्ञान की उपलब्धि के लिए यह आवश्यक है कि आत्मा लौकिक भावों से अलग हो कर लोकोत्तर भावों की चिन्तनधारा में स्वयं को डुबो दे जिन खोजा तिन पाईयाँ गहरे पानी पैठ।' संसार परिभ्रमण का प्रमुख कारण है आश्रव और बन्धा दुःख से मुक्ति के लिए इनको दूर करना आवश्यक है तथा इसके साथ ही संवर और निर्जरा भी आवश्यक है। बन्धन सहज है, पर यदि उसके कारण भाव एवं कारण स्थिति से स्वंय को अलग रखा जाये तो अवश्य ही हम निर्बन्ध अथवा अपुनर्बन्धक अवस्था को प्राप्त कर सकते हैं। जिनागम में अध्यात्म समाया हुआ है। सहज स्थिति की कामना करनेवालों को चाहिये कि वे जिनवाणी का श्रवण, अध्ययन, चिन्तन, अनुशीलन आदि करते रहें। कर्म और आत्मा का अनादि से घना रिश्ता है, अतः कर्म आत्मा के साथ ही लगा रहता है, जैसे खदान में रहे हुए सोने के साथ मिट्टी लगी हुई होती है। मिट्टी सुवर्ण की मलिनता है और कर्म आत्मा की। प्रयोग के द्वारा मिट्टी सुवर्ण से अलग की जा सकती है। जब दोनों अलग अलग होते हैं तब मिट्टी मिट्टी रूप में और सुवर्ण सुवर्ण के रूप में प्रकट होता है। मिट्टी को कोई सुवर्ण नहीं कहता और न ही सुवर्ण को कोई मिट्टी कहता है। ठीक इसी प्रकार सम्यग्दर्शन प्राप्त आत्मा सम्यग्ज्ञान के उज्ज्वल आलोक में सम्यक् चारित्रा के प्रयोग द्वारा अपने में से कर्म रज पूरी तरह झटक देती है और अपनी मलिनता दूर करके उज्ज्व लता प्रकट कर देती है। कर्म की आठों प्रकृतियाँ अपने अपने स्वभावानुसार सांसारिक प्रवृत्तियों में रममाण आत्मा को कर्म के फल भुगतने के लिए प्रेरित करती रहती है। जिन्हें स्वयं का ख्याल नहीं है और जो असमंजस स्थिति में है, ऐसे संसारी जीवों की कर्म प्रकृतियाँ विभाव परिणमन करा लेती हैं। ज्ञानावरणीय कर्म आँखों पर रही हुई पट्टी के समान है। नजर चाहे जितनी सूक्ष्म हो, पर यदि आँखों पर कपड़े की पट्टी लगी हो, तो कुछ भी दिखाई नहीं देता, ठीक इसी प्रकार आत्मा की निर्मल ज्ञानदृष्टि को ज्ञानवरणीय कर्म आवृत कर लेता है। इससे ज्ञानदृष्टि पर आवरण छा जाता है। यह कर्म जीव को उल्टी चाल चलाता है। दर्शनावरणीय कर्म राजा के पहरेदार के समान है। जिस प्रकार पहरेदार दर्शनार्थी को राजदर्शन से वंचित रखता है, उसे महल में प्रवेश करने से रोकता है, उसी प्रकार दर्शनावरणीय कर्म जीव को आत्मदर्शन से वंचित रखता है। यह जीव को प्रमत्त भाव में आकण्ठ डुबो देता है, अतः जीव अप्रमत्त भाव से सर्वथा दूर रह जाता है। यह जीव के आत्मदर्शन के राजमार्ग को अवरुद्ध कर देता है और जीव को उन्मार्गगामी बनाता है। मधुलिप्त असिधार के समान है वेदनीय कर्म। यह जीव को क्षणभंगुर सुख का लालची बना कर उसे अनन्त दुःख समुद्र में धकेल देता है। साता का वेदनतो यह अत्यल्प करवाता है, पर असाता का वेदन यह अत्यधिक करवाता है। शहद लगी तलवार की धार को चाटने वाला शहद की मधुरतातो पाता है और सुख का अनुभव भी करता है, पर जीभ कट जाते ही असह्य दुःख का अनुभव भी उसे करना पड़ता है। इस प्रकार वेदनीय कर्म सुख के साथ अपार दुःख का भी वेदन करता है। मोहनीय कर्म मदिरा के समान है। मदिरा प्राशन करने वाला मनुष्य अपने होश-हवास खो बैठता है, इसी प्रकार मोहनीय कर्म से प्रभावित
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________________ जीव अपने आत्म-स्वरूप को भूल जाता है और पर पदार्थों को आत्मस्वरूप मान लेता है। यही एक मात्र कारण है जीव के संसार परिभ्रमण का। 'मोह महामद पियो अनादि, भूलि आपकुंभरमतबादि। यह जीव के सम्यग्दर्शन और सम्यक् चारित्र के मार्ग में रुकावट डालता है। जो मनुष्य इस मोहनीय कर्म के स्वरूप से अनभिज्ञ रहता है और जो इसकी स्थिति का अनुभव नहीं करता, वह अपने जीवन में आत्म विकास से वंचित रह जाता है। अहंकार और ममत्वजब तक हममें विद्यमान हैं। तब तक हम मोहनीय कर्म के बन्धन में जकड़े हुए ही हैं। अहंकार और ममत्व जितना जितना घटता जाता है, उतना ही मोहनीय कर्म का बन्धन शिथिल होता जाता है। यह मोहनीय कर्म समस्त कर्मसत्ता का अधिपति है और सबसे लम्बी उम्र वाला है। इस मोह राजा के निर्देशन में ही कर्म सेनाआगे कूच करती है। जीव को भेद विज्ञान से वंचित रखनेवाला यही कर्म है। इसने ही जीव को संसार की भूलभुलैया में भटकाये रखा है। और बेड़ी के समान है आयुष्य कर्म / इसने जीव को शरीर रूपी बेड़ी लगा दी है, जो अनादि से आज तक चली आ रही है। एक बेड़ी टूटती हैं,तो दूसरी पुनः तुरंत लग जाती है। सजा की अवधि पूरी हुए बिना कैदी मुक्त नहीं होता, इसी प्रकार जब तकजीव की जन्मजन्म की कैद की अवधि पूरी नहीं होती, तब तक जीव मुक्ति का आनंद नहीं पा सकता। नाम कर्म का स्वभाव है चित्रकार के समान। चित्रकार नाना प्रकार के चित्र चित्रपट पर अंकित करता है, ठीक इसी प्रकार नाम कर्मचर्तुगति में भ्रमण करने के लिए विविधजीवों को भिन्न-भिन्न नाम प्रदान करता है। इसके प्रभाव से जीव इस संसार पट पर नाना प्रकार के नामधारण करके देव, मनुष्य, तिर्यंच और नरकगति में भ्रमण करता है। गोत्र कर्म का स्वभाव कुम्हार के समान है। कुम्हार अनेक प्रकार के छोटे बड़े बर्तन बनाता है और उन्हें विभिन्न आकार प्रदान करता है।गोत्र कर्म भी जीव को उच्च और नीच गोत्र प्रदान करता है, जिससे जीव को उच्च या नीच गोत्र में जन्मधारण करना पड़ता है। ___ इसी प्रकार अन्तराय कर्म है- राजा के खजाँची के समान। खजाने में माल तो बहुत होता है पर कुञ्जी खजाँची के हाथ में होती है, अतः खजाने में से याचक कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकता। यही कार्य अन्तराय कर्म करता है। इसके प्रभाव से जीव को इच्छित वस्तु उपलब्धनहीं हो पाती ।दान,लोभ, भोग, उपभोग और वीर्य (आत्मशक्ति) के विषय में अन्तराय कर्म के उदय से जीव किसी प्रकार कालाभप्राप्त नहीं कर सकता। संक्षेप में ही है, जैन दर्शन का कर्मवाद। इसी प्रकार जिनागमों में आत्मवाद, अनेकान्तवाद, षद्रव्य, नक्तत्व, मोक्ष मार्ग आदि ऐसे विषयों का समावेश है, जो जीव के आत्म विकास में परम सहायक हैं। द्वादशांगी जिनवाणी का विस्तार है। आत्म कल्याण की कामना करने वालों के लिए द्वादशांगी का गहन अध्ययन अत्यंत आवश्यक है। संसारस्थप्रत्येक जीव को स्व-स्वरूप अर्थात् ईश्वरत्व प्राप्त करने का अधिकार केवल जैन धर्म-दर्शन ही देता है, अन्य कोई नहीं। सर्व धर्मान् परित्यज्य, मामेकं शरण व्रज। 'बुद्धं शरणं गच्छामि...........धम्म सरणं गच्छामि। और केवलिपण्णत्तं धम्मंसरणं पव्वज्जामि। इन तीनों पक्षों के सूक्ष्म एवं गहन अध्ययन से यही निष्कर्ष निकलता है कि अन्तिम पक्ष जीव के लिए केवलीप्रणीत धर्म के दरवाजे खुले रखता है। इस धर्म में प्रवेश करके जीव स्वयं अनन्त ऐश्वर्यवान, केवलज्ञान सम्पन्न बन जाता है। जीव अपने पुरुषार्थ के बल पर परमात्म पद प्राप्त कर सकता है। अन्य समस्तधर्म दर्शनों में जीवको परमात्म प्राप्ति के बाद भी परमात्मा से हीन माना गया है, जब कि जैनधर्मदर्शन में परमात्मपद प्राप्ति के पश्चात् जीव को परमात्मस्वरूप ही माना गया है। यह जैन धर्म की अपनी अलग विशेषता है। परमज्ञानी परमात्मा की पावन वाणीजीव की इस अनुपम एवं असाधारण स्थिति का स्पष्ट बोध कराती है। प्रमाण, नय, निक्षेप,सप्तभंगी एवं स्याद्वादशैली से संवृत्त जिनवाणीमय जिनागमों के गहन अध्ययन के लिए विभिन्न संदर्भ ग्रन्थों का अनुशीलन अत्यंत आवश्यक है। आज से सौ साल पूर्व उचित साधनों के अभाव में जिनागमों का अध्ययन अत्यन्त दुष्कर था। विश्व के विद्वान जिनागम की एक ऐसी कुंजी तलाश रहे थे,जो सारे रहस्य खोलदे और उनकी ज्ञानपिपासा बुझा सके। ऐसे समय में एक तिरसठ वर्षीय वयोवृद्ध त्यागवृद्धतपोवृद्ध एवं ज्ञानवृद्ध दिव्य पुरुष ने यह काम अपने हाथ में लिया। वे दिव्य पुरुषथेउत्कृष्ट चारित्र क्रिया पालक गुरुदेवप्रभु श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज। उन्होंने जिनागम की कुंजी निर्माण करने का जटिल कार्य सियाणा नगरस्थ श्री सुविधिनाथ जिनालय की छाछाया में अपने हाथ में लिया। कुंजी निर्माण की यह प्रक्रिया पूरे चौदह वर्ष तक चलती रही और सूरत में कुंजी बन कर तैयार हो गयी। यह कुंजी है 'अभिधान राजेन्द्र'। यह कहना जरा भी अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि आगमों का अध्ययन करते वक्त अभिधान राजेन्द्र पास में हो तो और कोई ग्रन्थ पास में रखने की कोई आवश्यकता नहीं है। जैनागमों में निर्दिष्ट वस्तुतत्त्व जो अभिधान राजेन्द्र' में है, वह अन्यत्रा हो या न हो, पर जो नहीं है; वह कहीं नहीं है। यह महान ग्रन्थ जिज्ञासु की तमाम जिज्ञासाएँ पूर्ण करता है।
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________________ भारतीय संस्कृति में इतिहास पूर्व काल से कोश साहित्य की परम्परा आज तक चली आ रही है। निघं कोश में वेद की संहिताओं का अर्थ स्पष्ट करने का प्रयत्न किया गया है। यास्क' की रचना' निरुक्त' में और पाणिनी के अष्टाध्यायी' में भी विशाल शब्द संग्रह दृष्टिगोचर होता है ये सब कोश गद्य लेखन में हैं। इसके पश्चात् प्रारंभ हुआ पद्यरचनाकाल। जो कोश पद्य में रचे गये, वे दो प्रकार से रचे गये। एक प्रकार है, एकार्थक कोश और दूसरा प्रकार है— अनेकार्थक कोश। कात्यायन की 'नाममाला', वाचस्पति का शब्दार्णव', विक्रमादित्य का 'शब्दार्णव' भागुरी का 'त्रिकाण्ड' और धनवन्तरी का निघण्टु. इनमें से कुछ प्राप्य हैं और कुछ अप्राप्य / उपलब्ध कोशों में अमरसिंह का 'अमरकोश' अत्यधिक प्रचलित है। धनपाल का'पाइयलच्छी नाम माला' 276 गाथात्मक है और एकार्थक शब्दों का बोध कराता है। इसमें 668 शब्दों के प्राकृत रूप प्रस्तुत किये गय है। आचार्य श्री हेमचन्द्रसूरिजीने पाइयलच्छी नाम माला' पर प्रामाणिकता की मुहर लगाई है। धनञ्जय ने 'धनञ्जय नाम माला' में शब्दान्तर करने की एक विशिष्ट पद्धति प्रस्तुत की है। 'धर' शब्द के योग से पृथ्वी वाचक शब्द पर्वत डाचक शब्द बन जाते हैं-जैसे भूधर, कुधर इत्यादि। इस पद्धति से अनेक नये शब्दों का निर्माण होता हैं। इसी प्रकार धनञ्जय ने 'अनेकार्थ नाममाला' की रचना भी की है। कलिकाल, सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य के अभिधान चिन्तामणि', 'अनेकार्थ संग्रह', निघण्टु संग्रह और ' देशी नाममाला' आदि कोश ग्रन्थ सुप्रसिद्ध हैं। इसके अलावा शिलोंछ कोश' 'नाम कोश' शब्द चन्द्रिका', 'सुन्दर प्रकाश शब्दार्णव', शब्दभेद नाममाला'' नाम संग्रह', शारदीय नाममाला',शब्द रत्नाकर', 'अव्ययैकाक्षर नाममाला' शेष नाममाला, 'शब्द सन्दोह संग्रह', 'शब्द रत्नप्रदीप', 'विश्वलोचन कोश', 'नानार्थ कोश' पंचवर्ग संग्रह नाम माला'.'अपवर्ग नाम माला', एकाक्षरी नानार्थकोश, 'एकाक्षर नाममलिका', एकाक्षर कोश', 'एकाक्षर नाममाला', 'द्वयक्षर कोश','देश्य निर्देश निघण्टु', 'पाइय सद्दमहण्णव', 'अर्धमागधी डिक्शनरी','जैनागम कोश','अल्पपरिचित सैद्धान्तिक कोश', 'जैनेन्द्र सिद्धांत कोश' इत्यादि अनेक कोश ग्रन्थ भाषा के अध्ययनार्थ रचे गये हैं। इनमें से कई कोश ग्रन्थ 'अभिधान राजेन्द्र के पूर्व प्रकाशित हुए हैं और कुछ पश्चात् भी। 'अभिधान राजेन्द्र' की अपनी अलग विशेषता है। इसी विशेषता के कारण यह आज भी समस्त कोश ग्रन्थों का सिरमौर बना हुआ है। सच तो यह है कि जिस प्रकार सूर्य को दीया दिखाने की आवश्यकता नहीं होती, उसी प्रकार इस महाग्रन्थ को प्रमाणित करने की आवश्यकता नहीं है। सूर्य स्वयमेव प्रकाशित है और यह ग्रन्थराज भी स्वयमेव प्रमाणित है, फिर भी इसकी कुछ विशेषताएं प्रस्तुत करना अप्रासंगिक नहीं होगा। 'अभिधान राजेन्द्र अर्धमागधी प्राकृत भाषा का कोश है। भगवान महावीर के समय में प्राकृत लोक भाषा थी। उन्होंने इसी भाषा में आम आदमी को धर्म का मर्म समझाया। यही कारण है कि जैन आगमों की रचना अर्धमगामी प्राकृत में की गई। इस महाकोष में श्रीमद्ने प्राकृत शब्दों का मर्म 'अकारादि क्रम से समझाया है , यह इस महाग्रंथ की वैज्ञानिकता है। उन्होंने मूल प्राकृत शब्द का अर्थ स्पष्ट करते वक्त उसका संस्कृत रूप, लिंग, व्युत्पत्ति का ज्ञान कराया है, इसके अलावा उन शब्दों के तमाम अर्थ सन्दर्भ सहित प्रस्तुत किये हैं। वैज्ञानिकता के अलावा इसमें व्यापकता भी है जैन धर्म-दर्शन का कोई भी विषय इससे अछूता नहीं रह गया है। इसमें तथ्य प्रमाण सहित प्रस्तुत किये गये हैं। इसमें स्याद्वाद, ईश्वरवाद, सप्तनय, सप्तभंगी, षड्दर्शन, नवतत्त्व, अनुयोग, तीर्थ परिचय आदि समस्त विषयों की सप्रमाण जानकारी है। सत्तानवे सन्दर्भ ग्रंथ इसमें समाविष्ट हैं। वैज्ञानिक और व्यापक होने के साथ-साथ यह सुविशाल भी हैं। सात भागों में विभक्त यह विश्वकोश लगभग दस हजार रॉयल पेजों में विस्तारित है। इसमें धर्म-संस्कृति से संबधित लगभग साठ हजार शब्द सार्थ व्यख्यायित हुए हैं। उनकी पुष्टि-सप्रमाण व्याख्या के लिए इसमें चार लाख से भी अधिक श्लोक उद्धृत किये गये हैं। इसके सात भागों को यदि कोई सामान्य मनुष्य एक साथ उठाना चाहे, तो उठाने के पहले उसे कुछ विचार अवश्य ही करना पड़ेगा। इस महाग्रंथ के प्रारंभिक लेखन की भी अपनी अलग कहानी है। जिस जमाने में यह महाग्रंथ लिखा गया, उस समय लेखन साहित्य का पूर्ण विकास नहीं हुआथा। श्रीमद् गुरुदेव ने रात के समय लेखन कभी भी नहीं किया। कहते हैं वे कपड़े का एक छोटा सा टुकड़ा स्याही से तर कर देते थे और उसमें कलम गीली करके लिखते थे। एक स्थान पर बैठ कर उन्होंने कभी नहीं लिखा। चार्तुमास काल के अलावा वे सदैव विहार-रत रहे। मालवा, मारवाड़, गुजरात के प्रदेशों में उन्होंने दीर्घ विहार किये , प्रतिष्ठा-अंजनशलाका, उपधान, संघप्रयाण आदि अनेक धार्मिक व सामाजिक
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________________ 10 कार्य सम्पन्न किये, जिज्ञासुओं की शंकाओं का समाधान किया और प्रतिपक्षियों द्वारा प्रदत्त मानसिक संतापभीसहन किये। साथ-साथ ध्यान और तपश्चर्या भी चलती रही। ऐसी विषम परिस्थिति में केवल चौदह वर्ष में एक व्यक्ति द्वारा इस' जैन विश्वकोश' का निर्माण हुआ, यह एक महान आश्चर्य है। इस महान ग्रंथ के प्रणयन ने उन्हें विश्वपुरुष की श्रेणी में प्रतिष्ठित कर दिया है और विश्वपूज्यता प्रदान की है। श्रीमद् विजय यशोदेव सूरिजी महाराज'अभिधान राजेन्द्र' और इसके कर्ता के प्रति अपना भावोल्लास प्रकट करते हुए लिखते हैं --आज भी यह (अभिधान राजेन्द्र) मेरा निकटतम सहचर है। साधनों के अभाव के जमाने में यह जो महान कार्य सम्पन्न हुआ है, इसका अवलोकन करके मेरा मन आश्चर्य के भावों से भर जाता है और मेरा मस्तक इसके कर्ता के इस भगीरथपुण्य पुरुषार्थ के आगे झुक जाता है। मेरे मन में उनके प्रति सम्मान का भाव उत्पन्न होता है, क्योंकि इस प्रकार के (महा) कोश की रचना करने का आद्य विचार केवल उन्हें ही उत्पन्न हुआ और इस विकट समय में अपने विचार पर उन्होंने पालन भी किया। यदिकोई मुझसे यह पूछेकिजैन साहित्य के क्षेत्र में बीसवीं सदी की असाधारण घटना कौनसी है, तो मेरा संकेत इस कोश की ओर ही होगा, जो बड़ा कष्ट साध्य एवं अर्थसाध्य है। प्रस्तुत बृहद् विश्वकोश को पुनः प्रकाशित करने की हलचल और हमारा दक्षिण विहारदोनों एक साथ प्रारम्भ हुए। बंबईचार्तुमास में हमारा अनेक मुनिजनों और विद्वानों से साक्षात्कार हुआ। जो भी मिला उसने यही कहा कि अभिधान राजेन्द्र' जो कि दुलर्भ हो गया है, उसे पुनःप्रकाशित करके सर्वजन सुलभ किया जाये। हमें यह भी सुनना पड़ा कि यदि आपके समाज के पास वर्तमान में इसके प्रकाशन की कोई योजना न हो, तो हमें इनके प्रकाशन का अधिकार दीजिये। हमनें उन्हें आश्वस्त करते हुए कहा कि स्तुितिक जैन संघ इस मामले में सम्पन्न एवं समर्थ है। अभिधान राजेन्द्र' यथावसर शीघ्र प्रकाशित होगा। श्रीमद्पूज्य गुरुदेव की यह महती कृपा हुई कि हम क्रमशः विहार करते हुए मद्रास पहुँच गये।तामिलनाडूराज्य की राजधानी हैयह मद्रास। दक्षिण में बसे हुए दूर-दूर के हजारों श्रद्धालुओं ने इसचार्तुमास में मद्रास की यात्रा की। मद्रास चार्तुमास आज भी हमारे लिएस्मरणीय है।चार्तुमास समाप्ति के पश्चात् पौष सुदी सप्तमी के दिन मद्रास में गुरु सप्तमी उत्सव मनाया गया। गुरु सप्तमी प्रातः स्मरणीय पूज्य गुरुदेव श्री राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज साहब का जन्म और स्मृति दिन है। गुरु सप्तमी के पावन अवसर पर एक विद्वद् गोष्ठी का आयोजन किया गया। उपस्थित विद्वानों ने अपने प्रवचन में पूज्य गुरुदेव श्री के महान कार्यों की प्रशस्ति करते हुए उनकी समीचीनता प्रकट की और प्रशस्तिमें अभिधान राजेन्द्र का उचित मूल्यांकन करते हुए इसके पुर्नमुद्रण की आवश्यकता पर जोर दिया। इस ग्रन्थराज का प्रकाशन एक भगीरथ कार्य है। इसमहत्त्वपूर्ण कार्य का बीड़ा उठाने का आह्वानमैंने मद्रास संघको किया। आह्वानहोतेही संघ हिमाचल से गुरुभक्तिगंगा उमड़ पड़ी। इस महत्कार्य के लिए भरपूर सहयोग का हमें आश्वासन प्राप्त हुआ।ग्रन्थ की छपाई गतिमान हुई, पर 'श्रेयांसि बहुविध्नानि' की उक्ति के अनुसार हमें यह पुनीत कार्य स्थगित करना पड़ा। कोई ऐसाअवरोध इसके प्रकाशन मार्ग में उपस्थित हो गया कि उसे दूर करना आसान नहीं था। प्रकाशन को स्थगित करना सबके लिए दुःखदथा, पर मैं मजबूर था।आंतरिक विरोध को जन्म देकर कार्य करना मुझे पसन्द नहीं है। हमारी इस मजबूरी से नाजायज लाभ उठाया-दिल्ली की प्रकाशन संस्थाओं ने............ ................. / उन्होंने इस पुनीत ग्रन्थ को शुद्ध व्यावसायिक दृष्टि से चुपचाप प्रकाशित कर दिया। श्रीमद् गुरुदेव ने जो भी लिखा, स्वान्तःसुखाय और सर्वजन हिताय लिखा, व्यवसायियों के लिए नहीं। यही कारण है कि इसकी प्रथम आवृत्ति में यह स्पष्ट कर दिया कि इसके पुनःप्रकाशन का अधिकार त्रिस्तुतिक सकलसंघको है। त्रिस्तुतिक समाजकी इस अनमोल धरोहर को प्रकाशित करने से पहले त्रिस्तुतिकसमाज को इसके प्रकाशन से आगाह करना आवश्यक था। ऐसा न करके अन्य प्रकाशकों ने एक तरह से नैतिकता का भंग ही किया है। श्रीभाण्डवपुर तीर्थ पर अखिल भारतीय श्रीसौधर्मवृहत्तपोगच्छीय श्री जैन श्वेताम्बर त्रिस्तुतिक संघका विराट अधिवेशन सम्पन्न हुआ। देश के कोने-कोने से गुरुभक्त उस अधिवेशन के लिए उपस्थित हुए। पावनपुण्यस्थल श्री भाण्डवपुर भक्तजनों के भक्तिभावकी स्वर लहरियों से गूंज उठा। अधिवेशन प्रारंभ हुआ / संयमयःस्थविर मुनिप्रवर श्री शान्तिविजयजी महाराज साहब आदि मुनि मण्डल की सान्निध्यता में मैंने संघ के समक्ष विश्व की असाधारण कृत्ति इस 'अभिधान राजेन्द्र के पुनःप्रकाशन का प्रस्ताव रखा / श्री संघ ने हार्दिक प्रसन्नता व हार्दिक व अपूर्व भावोल्लास के साथ मेरा प्रस्ताव स्वीकार किया और उसी जाजम पर श्रीसंघ ने इसे प्रकाशित करने की घोषणा कर दी / परमकृपालु श्रीमद् गुरुदेव के प्रति श्री संघ की यह अनन्य असाधारण भक्ति सराहनीय है। और आज अखिल भारतीय श्री सौधर्मबृहत्तपोगच्छीय श्री जैन श्वेताम्बर त्रिस्तुतिकसंध केद्वारा यह कोश ग्रन्थ पुनर्मुद्रित होकर विद्वज्जनों के समक्ष प्रस्तुत हो रहा है, यह हम सबके लिए परम आनंद का विषय है।
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________________ श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरपट्टप्रभाकर-चनाचक्रवर्ति-आगमरहस्यवेदी-श्रुतस्थविरमान्य श्रीसौधर्मबृहत्तपोगच्छीय-श्रीमद्विजयधनचन्द्रसूरिजी महाराज तोलारामराम विद्वच्चकोरजनमोदकरं प्रसन्नं, शुभ्रव्रतं सुकविकैरसवद्विलासम् / हृद्ध्वान्तनाशकरणे प्रसरत्प्रतापं, वन्दे कलानिधिसमं धनचन्द्रसूरिम् // 1 //
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________________ इस महाग्रन्थ के पुनर्मुद्रण हेतु एक समिति का गठन किया गया है, फिर भी इस प्रकाशन में अपना अमूल्य योगदान देने वाले श्रेष्ठिवर्य संघवी श्री गगलभाई अध्यक्ष अभा सौ वृत्रिस्तुतिक संघ गुजरात विभागीय अध्यक्ष श्री हीराभाई, मंत्री श्री हिम्मतभाई एवं स्थानीय समस्त कार्यकताओं की सेवाओं को कभी भी भुलाया नहीं जा सकता / इनकी सेवाएं सदा स्मरणीय हैं। इस कार्य में हमें पंडित श्री मफतलाल झवेरचन्द का स्मरणीय योगदान मिला है / प्रेसकार्य, प्रुफरीडिंग एवं प्रकाशन में हमें उनसे अनमोल सहायता मिली है। हम उन्हें नहीं भूल सकते / त्रिस्तुतिक संघ के समस्त गुरुभक्तों ने इस प्रकाशन हेतु जो गुरुभक्ति प्रदर्शित की है, वह इतिहास में अमर हो गई है। वे सब धन्यवाद के पात्र हैं, जिन्होंने इस कार्य में भाग लिया है / शुभम् / नेनावा (बनासकांठग) दिनांक 2-12-1985 - आचार्य जयन्तसेनसूरि
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________________ आभार-प्रदर्शनम्। सुविहितसूरिकुलतिलकायमान-सकलजैनागमपारदृश्व-आबालब्रह्मचारी-जङ्गमयुगप्रधान-प्रातःस्मरणीय-परमयोगिराजक्रियाशुद्ध्युपकारक-श्रीसौधर्मबृहत्तपोगच्छीय-सितपटाचार्य-जगत्पूज्य गुरुदेव-भट्टारक श्री 1008 प्रभु श्रीमद् - विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज ने 'श्रीअभिधानराजेन्द्र' प्राकृतमागधी महाकोश का सङ्कलनकार्य मरुधरदेशीय श्री सियाणा नगर में संवत् 1646 के आश्विनशुक्लद्वितीया के दिन शुभ लग्न में आरम्भ किया। इस महान् संकलनकार्य में समय समय पर कोशकर्ता के मुख्य पट्टधर शिष्य श्रीमद्धनचन्द्रसूरिजी महाराज ने भी आपको बहुत सहायता दी। इस प्रकार करीब साढे चौदह वर्ष के अविश्रान्त परिश्रम के फलस्वरूप में यह प्राकृत बृहत्कोष संवत् 1660 चैत्र-शुक्ला 13 बुधवार के दिन श्रीसूर्यपुर (सूरत-गुजरात) में बनकर परिपूर्ण (तैयार) हुआ। __गवालियर-रियासत के राजगढ (मालवा) में गुरुनिर्वाणोत्सव के समय संवत् 1663 पौष-शुक्ला 13 के दिन महातपस्वी मुनिश्रीरूपविजयजी, मुनिश्रीदीपविजयजी, मुनिश्रीयतीन्द्रविजयजी, आदि सुयोग्य मुनिमहाराजाओं की अध्यक्षता में मालवदेशीय -छोटे बडे ग्राम नगरों के प्रतिष्ठित-सद्गृहस्थों की सामाजिक-मिटिंग में सर्वानुमत से यह प्रस्ताव पास हुआ कि-मछुम गुरुदेव के निर्माण किए हुए 'अभिधानराजेन्द्र' प्राकृत मागधी महाकोश का जैन और जैनेतर समानरूप से लाभ प्राप्त कर सकें, इसलिए इसको अवश्य छपाना चाहिए, और इसके छपाने के लिए रतलाम (मालवा) में सेठ जसुजी चतुर्भुजजीत्-मिश्रीमलजी मथुरालालजी, रूपचंदजी रखबदासजीत्-भागीरथजी, वीसाजी जवरचंदजीत्- प्यारचंदजी और गोमाजी गंभीरचंदजीत-निहालचंदजी, आदि प्रतिष्ठित सद्गृहस्थों की देख-रेख में श्रीअभिधानराजेन्द्र-कार्यालय और 'श्रीजैनप्रभाकरप्रिन्टिगप्रेस स्वतन्त्र खोलना चाहिए। कोष के संशोधन और कार्यालय के प्रबन्ध का समस्त-भार दिवंगत पूज्य गुरुदेव के सुयोग्य शिष्य-मुनिश्रीदीपविजयजी (श्रीमद्विजयभूपेन्द्रसूरिजी) और मुनिश्रीयतीन्द्रविजयजी को सौंपा जाए। बस, प्रस्ताव पास होने के बाद सं० 1664 श्रावणसुदी 5 के दिन उक्त कोश को छपाने के लिए रतलाम में उपर्युक्त कार्यालय और प्रेस खोला गया और उक्त दोनों पूज्य- मुनिराजों की देख-रेख से कोश क्रमशः छपना शुरू हुआ, जो सं० 1981 चैत्रवदि 5 गुरुवार के दिन संपूर्ण छप जाने की सफलता को प्राप्त हुआ। इस महान् कोश के मुद्रणकार्य में कुवादिमतमतंगजमदभञ्जनकेसरीकलिकालसिद्धान्तशिरोमणी-प्रातःस्मरणीय-आचार्यश्रीमद्धनचन्दसूरिजी महाराज, उपाध्याय–श्रीमन्मोहनविजयजी महाराज, सच्चारित्रीमुनिश्रीटीकमविजयजी महाराज, पूर्णगुरुदेवसेवाहेवाक-मुनिश्रीहुकुमविजयजी महाराज, सत्क्रियावान्-महातपस्वी-मुनिश्रीरूपविजयजी महाराज; साहित्यविशारद-विद्याभूषण-श्रीमद्विजयभूपेन्द्रसूरिजी महाराज, व्याख्यानवाचस्पत्युपाध्याय-मुनिश्रीयतीन्द्रविजयी महाराज, ज्ञानी ध्यानी मौनी महातपस्वी-मुनिश्रीहिम्मतविजयजी मुनिश्री लक्ष्मीविजयजी, मुनिश्री-गुलाबविजयजी, मुनिश्री-हर्षविजयजी, मुनिश्रीहंसविजयजी, मुनिश्री-अमृतविजयजी, आदि मुनिवरों ने अपने अपने विहार में दरमियान समय समय पर श्रीसंघ को उपदेश दे देकर तन, मन और धन से पूर्ण सहायता पहुँचाई, और स्वयं भी अनेक भाँति परिश्रम उठाया है, अतएव उक्त मुनिवरों का कार्यालय आभारी है। जिन जिन ग्राम--नगरों के सौधर्मबृहत्तपोगच्छीय-श्रीसंघ ने इस महान् कोषाङ्कन-कार्य में आर्थिक सहायता प्रदान की है, उनकी शुभसुवर्णाक्षरी नामावली इस प्रकार है - श्रीसौधर्मबृहत्तपोगच्छीय श्रीसंघ-मालवा श्रीसंघ-रतलाम, वाँगरोद, राजगढ़,जावरा, वारोदा-बड़ा,झाबुवा,बड़नगर, सरसी, झकणावदा,खाचरोद, मुंजाखेडी, कूकसी,
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________________ सुविशाल गच्छाधिपति-शासन सम्राट-धर्म चक्रवर्ती-राष्ट्रसन्त-श्रुत दिवाकर-स्मित भास्कर अनेकांत के जगदर्शन श्रमण शाश्वत धर्म के प्राण व दिशादर्शक-क्षमा दानेश्वरी-जन जन के वात्सल्य महोदधि व प्रेरणा पुंज-सत्साहित्य विधायक-जीव जगत् के अक्षय अभयारण्य श्रीमद् विजय जयन्तसेन सूरीश्वरजी महाराज साहब
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________________ 13 मन्दसोर, खरसोद-बड़ी, आलीराजपुर, सीतामऊ, चीरोला-बड़ा, रींगनोद, निम्बाहेड़ा, मकरावन, राणापुर, इन्दौर, बरड़िया, पारा, उज्जैन, (भाट पचलाना, टांडा, महेन्दपुर, पटलावदिया, बाग, नयागाम, पिपलोदा, खवासा, नीमच-सिटी, दशाई, रंभापुर, संजीत, बड़ी-कड़ोद, अमला, नारायणगढ़, धामणदा, बोरी, बरड़ाबदा, राजोद, नानपुर श्रीसौधर्मबृहत्तपोगच्छीयसंघ-गुजरात श्रीसंघ-अहमदाबाद, थिरपुर (थराद्), ढीमा, वीरमगाम, वाव, दूधवा, सूरत, भोरोल, वात्यम, साणंद, धानेरा, वासण , बम्बई, धोराजी, जामनगर, पालनपुर, डुवा, खंभात, श्रीसौधर्मबृहत्तपोगच्छीय-संघ-मारवाड़ श्रीसंघ-जोधपुर, भीनमाल, शिवगंज, आहोर, साचोर, कोरटा, जालोर, बागरा, फतापुरा, भेसवाड़ा, धानपुर, जोगापुरा, रमणिया, आकोली, भारुंदा, मांकले सर, साथू, पोमावा, देवावस, सियाणा, बीजापुर, विशनगढ़, काणोदर, बाली, मांडवला, देलंदर, खिमेल, गोल, मंडवारिया, सांडेराव, साहेला, बलदूट, खुडाला, आलासण, जावाल, राणी, रेवतडा, सिरोही, खिमाड़ा, धाणसा, सिरोड़ी, कोशीलाव, बाकरा, हरजी, पावा, मोदरा, गुडाबालोतरा, एंदला का गुड़ा, थलवाड़, भूति, चाँणोद, मेंगलवा, तखतगढ, डूडसी, सूराणा, सेदरिया, थॉवला, दाधाल, रोवाडा, जोयला, धनारी, भावरी, काचोली, इनके सिवाय दूसरे भी कई गाँवो के संघों की ओर से मदद मिली है, उन सभी का कार्यालय शुद्धान्तःकरण से पूर्ण आभारी है। श्रीअभिधानराजेन्द्रकार्यालय, रतलाम (मालवा) || श्रीः // मत्तभ्रान्तविपक्षदन्तिदमने पञ्चाननग्रामणीराजेन्द्राभिधकोशसंप्रणयनात् संदीप्तजैनाऽऽगमः संघस्योपकृतिप्रयोगकरणे नित्यं कृती तादृशो, कोऽन्यः सूरिपदाङ्कितोविजयराजेन्द्रात्परोन्योस्तिकः / /
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________________ 14 प्रशान्त-वपुषं श्रीमद् राजेन्द्रसूरिं नुमः विद्यालङ्करणं सुधर्मशरणं मिथ्यात्विनां दूषणं, विद्वन्मण्डलमण्डनं सुजनता सदोधिबीजपदम् / सच्चरित्रनिधिं दयाभरविधि प्रज्ञावतामादिमम, जैनानां नवजीवनं गुरुवरं राजेन्द्रसूरिं नुमः // 1 // धुर्यो यो दशसंख्येकेऽपि यतिनां धर्मे दृढः संयमे, सत्वात्मा जनतोपकारनिरतो भव्यात्मनां बोधकः / शास्त्राणां परिशीलने दृढमतिानी क्षमावारिधि स्तं शान्तं करुणावतारमनिशं राजेन्द्रसूरि नुमः // 2 // वाणी यस्य सुधासमाऽतिमधुरा दृष्टिमहाजजुला, संव्रज्या सुखशान्तिदा खलु सदाऽन्यायादिदोषापहा / बुद्धिलॊकसुखानुचिंतनपरा कल्याणकत्रों नृणां, लोके सुप्रथिपताऽस्ति तं गुरुवरं राजेन्द्रसूरिं नुमः // 3 // य कर्ता जिनबिम्बकाञ्जनशलाका नामनेकाऽऽत्मनां, मूर्तिश्चापि जिनेश्वरस्य शतशः प्रातिष्ठिपन्मन्दिरे / जीर्णोद्धारमनेकजैननिलयस्याचीकरच्छ्रावकै स्तं सत्कार्यकरं मुदा गुरुवरं राजेन्द्रसूरिं नुमः / / 4 / / लोके यो विहरन् सदा स्ववचनैर्वरं मिथो देहिनां, दूरीकृत्य सहानुभूतिरुचिरां मैत्री समावर्धयत् / मूढाँश्चापि हितोपदेशवचसा धर्मात्मनः संव्यधाद्, देशोपद्रवनाशकं तमजित राजेन्दसूरिं नुमः / / 5 / / यो गङ्गाजलमिर्मलान् गुणगुणान् संधारयन् वर्णिराट्, . यं यं देशमञ्चकार गरनैस्तं तं त्वपायीन्मुदा। सच्छास्त्रामृतवाक्यावर्षणवशाद् मेघव्रतं योऽधरन्, तं सज्ज्ञानसुधानिधिं कृतिनुतं राजेन्दसूरिं नुमः // 6 // तेजस्वी तपसा प्रदीप्तवदनः सौम्योऽतिवक्ताचलः, शास्त्रार्थेषु परान् विजित्य विविधैनिस्तथा युक्तिभिः / शिष्यांस्तानकरोत्स्वधर्मनिरतान् यो ज्ञानसिन्धुः प्रभु स्ते सूरिप्रवरं प्रशान्त वपुषं राजेन्द्रसूरिंः नुमः // 7 // लोकान्मंदमतीन्स्वधर्मविमुखप्रायान् बहून् वीक्ष्य यो, जैनाचार्यनिबद्धसर्वनिगमानालोङय बुद्ध्या चिरम् / मान् बोधियितुं सुखेन विशदान धर्मान्महामागधीकोशं संव्यत्तनोत्तमच्छमनसा राजेन्द्रसूरि नुमः || 8 || गुरुवरगुणराजिभ्राजितं सारभूतं, परिपठति मनुष्यो योऽष्टकं शुद्धमेत्तद् / अनुभवति स सवा सम्पदं मानावानामिति वदति मुनीशो वाचको मोहनाख्यः // 6 // -उपाध्याय श्री मोहनविजयजी महाराज
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________________ श्री अभिधानराजेन्द्रः षष्ठमो भागः
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________________ / / श्री वीतरागो जयति / / अभिधानराजेन्द्रः। सिरिवद्धमाणसामि, नमिऊण जिणागमस्स गहिऊण। सारं छटे भागे, भवियजणसुहावहंवोच्छं।।१।। मइदंसण मकारः यत्तत्समाना प्रभूतार्थग्रहणोत्प्रेक्षणधरणसामर्थ्याभावेनाल्पत्वादस्थिरत्वाच अरञ्जरोदकं हि संक्षिप्तं शीघ्रं निष्ठित चेति / विदरोनदीपुलिनाऽऽदौ जलार्थो गर्तः, तत्र यदुदकं तत्समानाऽल्पत्वादपरापरार्थोहनमात्रसमर्थत्वाद् झगित्यनिष्ठितत्वाच, तदुदक. ह्यल्पं तथाऽपरापरम ल्पमल्पं स्यन्दते, अत एव क्षिप्रमनिष्टितञ्चेति, सरउदकसमाना तु विपुलम पुं० (ममा-कः / यमे, समये, मधुसूदने, वाच०। मन्त्रे, मन्दिरे, माने. त्वात् बहुजनोपकारित्वादनिष्ठितत्वाच प्रायः सरोजलस्याप्येवभूतत्वासूर्ये , चन्द्रे, शिवे, विधौ, मायाविनि, वृथामन्त्रे, मारणे, प्रतिदाने, दिति, सागरोदकसमाना पुनः सकलपदार्थविषयत्वेनात्यन्तविपुलत्वाएका० / स्त्रीकण्ठ, वही, सत्यवादे, जडे, कष्ट, सत्साक्षिणि, मदे, दक्षयत्वादलब्धमध्यत्वाच, सागरजलस्यापि होवम्भूतत्वादिति। स्था० कपिलवणे, पिङ्गलवणे , बन्धनेचा एका०। मौलौ, मोघवृत्तौ, नपुंसकजने 4 ठा०४ उ01 "सच्छंदबुद्धिमइविगप्पियं।" तत्रावग्रहे बुद्धिः, अपायधारणे च। न० एका०। मतिः / नं०। मनुतेअवगच्छति जगत्त्रयं कालत्रयोपेतं यया सा तथा / मअपुं० (मद) अहङ्कारे, “अवलेओऽहकारो, मओ मरट्टो मरप्फरो दप्पो"। सूत्र०१ श्रु०६ अ० / लोकालोकान्तर्गतसूक्ष्मव्यवहितविप्रकृष्टातीता(६) पाइ. ना०५५ गाथा। नागतवर्तमानपदार्थाऽऽविर्भावके केवलज्ञाने च। सूत्र०१ श्रु०११ अ०। मआई (देशी) शिरामालायाम्, दे० ना०६ वर्ग 115 गाथा। आचा० / प्रातिभबोधे, आचा०१ श्रु०५ अ०६ उ० / अध्यवसाये, मइ स्त्री. (मति) मन्- तिन् / मननं मतिः / ज्ञाने, अवधिमनः-पाय आचा०१ श्रु०८ अ०८ उ० / मतिरवायो, निश्चय इत्यर्थः। स०५ अङ्ग। केवलजातिस्मरणभेदाचतुर्धा। आचा०१ श्रु०१ अ०१ उ०। ज्ञा०ान। परवाद्युपन्यस्तसाधनस्यापूर्वापूर्वदूषणोहाऽऽत्मके ज्ञानविशेषे, बृ०५ मननं मतिरवबोधः / सा च मतिज्ञानाऽऽदि पञ्चधेति / आचा०१ श्रु०१ उ० / मननं मतिः। यद्वा-मन्यते इन्द्रियमनोद्वारेण नियतं वस्तुपरिच्छिअ०१3०। आ०म०। सूत्र०। मननं मतिः। पदार्थचिन्ताऽऽत्मके मानसे द्यतेऽनयेति मतिः। योग्यदेशावस्थितवस्तुविषये इन्द्रियमनोनिमित्तावव्यापारे, आचा०१ श्रु०५ अ०६ उ० / कथञ्चिदर्थपरिच्छित्तावपि गमविशेषे, कर्म०४ कर्म01 प्रव०। सूक्ष्मधर्माऽऽलोचनरूपायां बुद्धौ. न०। विशे० / बुद्धौ, स०११अङ्ग / आचा०। स्था०। सूत्र० / अवबोधशक्ती, विशे०। अभिनिवेशे, दश०६ मइअ (देशी) भर्त्सिते, दे०ना०६ वर्ग 14 गाथा। अ०२ उ०। मनसि च। सूत्र०१ श्रु०४ अ०२ उ०। इच्छायाम, स्मृती, मइअन्नाण न० (मत्यज्ञान) मिथ्यादृष्टर्मतिज्ञाने, “मिच्छद्दिट्ठिस्स मई क्तिच / शाकभेदे च। वाच० / आभिनिबोधिकज्ञान, स्था०६ ता०। मइअन्नाणं।" आ०चू०१अ०। आ०५०। प्रव०। (तद्वक्तव्यता आभिणियोहियणाण' शब्दे द्वितीयभागे मइअन्नाणस्स णं भंते ! केवइए विसए पण्णत्ते ? गोयमा ! से 255 पृष्ठे गता) बुद्धौ, “मेहा मई मनीसा, विन्नाणधी चिई बुद्धी।" (42) समासओ चउविहे पण्णत्ते / तं जहा-दव्वओ, खेत्तओ, पाइ० नः०३१ गाथा। मतिः स्मृतिः संज्ञा चिन्ताऽभिनिबोध इत्यन कालओ, भावओ। दव्वओ णं मइअण्णाणी मइअण्णाणपरिगथान्तरम् / सम्म०२ काण्ड। आचा। याई दवाई जाणइ, पासइ, एवं. जाव भावओ मइअण्णाणी चउव्विहा मई पण्णत्ता। तं जहा-उग्गहमई, ईहामई, अवायमई, मइअण्णाणपरिगए भावे जाणइ, पासइ। धारणामई / अहवा-चउटिवहा मई पण्णत्ता / तं जहा- (मइअण्णाणस्सेत्यादि) (मइ अण्णाणपरिगयाई ति) मत्यज्ञानेन अरंजरोदगसमाणा, वियरोदगसमाणा, सरोदगसमाणा, सागरो- मिथ्यादर्शनसंवलितेनावग्रहाऽऽदिनौत्पत्तिक्यादिना च परिगतानिदगसमाणा॥३६४॥ विषयीकृतानि द्रव्याणि यानि तानि तथा, जानात्यवायाऽऽदिना पश्यत्यमनन मतिः तत्र सामान्यार्थस्याशेषविशेषनिरपेक्षस्थानिद्देश्यस्य रूपा- वग्रहादिना। भ०८ श०२ उ०। दरव इति प्रथमतो ग्रहणं परिच्छदनमवग्रहः, स एव मतिरवग्रहमतिः, मइओग्गह पुं. (मत्यवग्रह) भावावग्रहोंदे, आचा०२ श्रु०२ चू०७ एवं सर्वत्र, नवरं तदर्थविशेषाऽऽलोचनमीहा, प्रक्रान्तार्थविशेषनिश्चयोऽ- अ०१ उ०। वाय., अवगतार्थविशेषधरणं धारणेति / उक्तं च-"सामन्नत्थावरगह- मइंद पुं० (मृगेन्द्र) मृगेषु इन्द्र इव सिंहे. वाच०। न०! जमोगही भेयमग्हणमिहेहा / तरसावगमोऽवाओ अविचुई धारणा तस्स | मइगुण पुं० (मतिगुण) बुद्धिपर्याय, स०२ अङ्ग ||1 / " इति। तथा अरजरम। उदकुम्भोऽलजरमिति यत्प्रसिद्ध तत्रोदकं | मइदंसण न० (मतिदर्शन) मतेर्बुद्धमत्था वा दर्शन प्रमेय
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________________ मइदंसण 2 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मउंद स्य परिच्छेदन मतिदर्शनम्। बुद्धेः परिच्छेदने, बुद्ध्या प्रमेयस्य परिच्छेदने / शरीरेण वस्त्रैर्वा मलीमसः। बृ०१ उ०२ प्रक० / “मलमइल पंकमइला, च। 015 श०। धूलीमइला न ते नरा मइला। जे पावकम्ममइला, ते मइला जीवलोयम्भि मइनाण न० (मतिज्ञान) ज्ञायतेऽनेनेति झानं मतिरूपं ज्ञानं मतिज्ञानम्। // 1 // " ध० 201 अधि०१० गुण / दूषिते, कृशे च / अन्धकारे, "काल विशे० / आभिनिबोधिकज्ञाने, आ०चू०१ अ०। प्रव० / कर्म० / पं० मइलं जंपि य, वियाण तं अंधयारं ति।" सूत्र०१ श्रु०१ अ०१ उ०। सं० / नं० विशे० / द्रव्यभावेन्द्रियाऽऽलोकमतिज्ञानाऽऽवरणक्षयोप- अस्वच्छे, “मइल मलीमसं (901)" पाइ० ना०२५६ गाथा। कलकलशमाऽऽदिसामग्रीप्रभवरूपाऽऽदिविषयग्रहणपरिणतिश्चावग्रहाऽऽदिरूपा गततेजसोः, देना०६ वर्ग 142 गाथा। मतिज्ञानशब्दवाच्यतामश्नुते / सम्म०२ काण्ड। मइलण न०(मलिनन) मालिन्यकरणे, “परदारं, गच्छति त्ति मइलिं ति।" मइनाणविउ त्रि० (मतिज्ञानवित्) मतिज्ञानेन वेत्तीति मतिज्ञानविद / प्रश्न०२ आश्र० द्वार / स्था०॥ मतिज्ञानेन वेदितरि, विशे०। मइलणा स्त्री० (मलिनना) प्रतिसेवायाम, प्रतिसेवनाया एकाथिकान्यमइनाणावरण न० (मतिज्ञानाऽऽवरण) मतिज्ञानमाब्रियते येन तत् मति धिकृत्य-“पडिसेवणा मइलणा।" ओघ०। ज्ञानाऽऽवरणम् / ज्ञानाऽऽवरणीयकर्मभेदे, पं० सं०५ द्वार। मइलारंभिण पुं० (मलिनाऽऽरम्भिन) गृहस्थे, “करोति मलिनाऽऽरम्भी।" मइनाणि (न) पुं० (मतिज्ञानिन्) आभिनिबोधिकज्ञानिनि, विशे०। ध०२ अधिक। मइपत्तिया स्त्री० (मतिप्राप्तिका) आचार्य्यरोहणात् निर्गतस्योद्देहगणस्य | मइलिय त्रि० (मलिनित) शरीराऽऽदिमलेन क्लेदिते, पिं० / कठिनमलचतसृषु शाखासुस्वनामख्यातायां तृतीयशाखायाम्, कल्प०२ अधि०८ युक्ते च। भ०६ श०३ उ०। मइल्लिया स्त्री० (मतल्लिका) तेतलिपुरस्थकनकरथनृपतेरमात्यस्य क्षण। मइभंग पुं० (मतिभङ्ग) मतेर्बुद्धर्भङ्गो विनाशो मतिभङ्गः / बुद्धर्विस्मृतौ, तेतलिपुत्रस्य पोट्टिलायां भाव्यामुत्पन्नायां स्वनामख्याताया दारिस्था०१० ठा०। कायाम, ज्ञा०१ श्रु०१४ अ01 (वक्तव्यता ततलि' शब्दे चतुर्थभागे 2353 मइभंगदोस पुं० (मतिभन दोष) मतेर्बुद्धर्भङ्गो विनाशो विस्मृत्यादिलक्षणो पृष्ठे गता।) मइविगप्पणाविगप्प पुं० (मतिविकल्पनाविकल्प) मतिर्बुद्धिस्तस्या दोषो मतिभङ्गदोषः / दोषभेदे, स्था०१० ठा०। विकल्पना विकल्पः क्लृप्तिभेदस्तथा / बुद्धेः क्लृप्तिभेदे औ० / मइमंत पुं० (मतिमत्) मननं मतिः सर्वपदार्थज्ञानम्, तद्विद्यते यस्यासौ मइविहल पुं० (मतिविह्वल) जयपुरनगरस्थस्य विक्रमसेननृपतेः तथा। केवलिनि, आचा०१ श्रु०८ अ०१ उ०। आव०। सूत्र० / ज्ञाना स्वनामख्याते मन्त्रिणि, दर्श०३ तत्त्व। न्विते, आचा०१ श्रु० अ०४ उ०। मतिरस्यास्तीति मतिमान्। विदुषि, भइसंघडणा स्त्री० (मतिसंघटना) मतेः-मतिज्ञानस्य संघटना रचना, आचा०१ श्रु०१ अ०५ उ०। पञ्चा ध० / मतिमान् श्रुतसंस्कृतबुद्धिः / मत्या बुद्ध्या वा संघटना रचना तथा। ज्ञानस्य रचनायाम, बुद्ध्या रचनायां आचा०१ श्रु०२ अट०५ उ० / विवेकिनि, सूत्र०१ श्रु०३ अ०४ उ० / च। सूत्र०१ श्रु०१ अ०१ उ०। आचा० / बुद्धिमति, दर्श०१ तत्त्व / मननं मतिः / सा शोभना यस्यासौ मइसंपया स्त्री० (मतिसंपद्) संपर्दोदे, दशा०४ अ०॥ध०र०। स्था०। मतिमान् / प्रशंसायां मतुप। शोभनमतियुक्ते, सूत्र०१ श्रु०१० अ०। प्रव०। (मतिसंपढ़ेदाः 'गणिसंपया' शब्दे तृतीयभागे 826 पृष्ठे गताः) मइमोहणी (देशी) सुरायाम, दे०ना०६ वर्ग११३ गाथा। मइसहिय त्रि० (मतिसहित) मत्यनुगते, “मतिसहितं ति वा, मतिअणुगतं मइय न० (मतिक) उप्तबीजाऽऽच्छादनसाधने काष्ठमये वस्तुविशेषे, ति वा एगहूं।" आ० चू०१ अ०। मतिकमुप्तबीजाऽऽच्छादनम्। दश०७ अ०।मतिकं येन कृष्ट्वा क्षेत्र मृद्यते। मइसार पुं० (मतिसार) जम्बूद्वीपाऽपरविदेहपुष्कर-विजयचम्पानगरीप्रश्न०१ सम्ब० द्वार। स्थस्य सुरसिद्धनृपतेः स्वनामख्याते मन्त्रिणि, "इहेव जम्बूदीवे दीवे मइरा स्त्री० (मदिरा) मद-किरन्। “माध्वीकं पानसं द्राक्षं, खारं ताल अवरविदेहे पुक्खरविजए चंपाए णयरीए सुर सिद्धो नाम राया, मइसारो मैक्षवम् / मैरेय माक्षिक टाढूं: मधूकं नारिकेलजम् / / 1 / / मुख्यमन्नवि नाम मंती हुत्था।" ती०६ कल्प। कारोत्थं, मद्यानि द्वादशैव तु।" इत्युक्ते मद्यसामान्ये, वाच०। वारुण्याम्, मइसूयग पुं० (मतिसूचक) पापे, "रहसं च अणरहस्सं करेइ मइसूयगो ग०१ अधि० / “कायंवरी पसण्णा, हाला तह वारुणी मइरा।" पाइ० पुरिसो।" पं०भा०४ कल्प। पं० चू०। ना०६४ गाथा / मत्तखञ्जने च / रक्तखदिरे, पुं० / वाच०। मइहर (देशी) ग्रामप्रधाने, दे० ना०६ वर्ग 122 गाथा। मइरेय न० (मैरेय) वारुण्याम्, “मइरे महुवारो, सीहू सरओ महू | मई (देशी) भरे, दे० ना०६ वर्ग 113 गाथा। अवक्करसो (107)" पाइ० ना०६४ गाथा। मउ त्रि० (मृदु) मृ-दुः। कोमले, अनु० / कर्म०। ज्यो०। कल्प०। मइल त्रि० (मलिन) मल-अस्त्यर्थे इनच् / मलीमसे, प्रश्न०३ आश्र० | मउंद पुं० (मुकुन्द) बलदेवे, "मउंदमहेइ वा।" रा०। वाद्यविशेषे च / द्वार ! "मलो जस्स विज्जइ तं मइल।" नि००१ उ० | तं० मलिनः / “महामउंदसंठाणसंठिए।" भ०२ श०८ उ०। पञ्चा०।आचा०।
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________________ मउअ 3 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मउयहियय मउअ (देशी) दीने, दे० ना०६ वर्ग 114 गाथा। भवति मौनमिति। उक्त चाऽऽचाराङ्गे-'जं मोणं ति पासहा, तं सम्भं ति मउईया स्त्री० (मृद्वीका) मृदु-ईकन्। द्राक्षायाम्, वाच०। आचा०१ श्रु०२ पासहा, जं सम्मति पासहा, तं मोणं ति पासहा।" इत्यादि। निश्चयतः अ०५ उ०। परमार्थेन निश्चयनयमतेनैव एतदेवमिति-"जो जह वायं न कुणइ, मउड पुं०न० (मुकुट) "उतो मुकुलाऽऽदिष्वत्" ||811 / 107 / / इति मिच्छट्टिी तओहु को अन्नो? वड्ढेइ य मिच्छत्तं, परस्स संक जणेमाणो प्राकृतसूत्रेणाऽऽदेरुकारस्यात्। प्रा०१ पाद। किरीट, ज्ञा०१ श्रु०१ अ० / / 11 / / " इत्यादिवचनप्रामाण्याद् / इतरस्य तु व्यवहारनयस्य सम्यक्त्वं, सूत्र० / प्रव० औ० / प्रव०। औ० / मस्तकाऽऽभरणविशेषे च / रा०। सम्यक्त्वं हेतुरप्यर्हच्छाशनप्रीत्यादि, कारणे कार्योपचारात्। श्रा०। प्रश्नः / आ०म० / मुकुट सुवर्णाऽऽदिमयशेखरक इति / औ० सूत्र० / तथाविपाः / मुकुटाश्चतुरस्राः शेखरविशेषाः, किरीटास्त एव शिखस्त्रय जं सम्म ति पासहा, तं मोणं ति पासहा, मोणं ति पासहा, युक्ताः। औ०! प्रज्ञा० / जी० / कल्प० / आ० चू० / आ०म० / भ० / तं सम्म ति पासहा॥ अञ्जलिमुकुलिते उत्थिते बाहुद्वये च। अञ्जलिमुकुलित बाहुद्वयमुच्छ्रितं (समं तिपासह इत्यादि) सम्यगिति सम्यग्ज्ञानं, सम्यक्त्वं वा तत्सहमुकुट उच्यते, स च हस्तद्वयप्रमाणः / यदाह बृहद्भाष्यकृत -"मउडो उण चरितम्, अनयोः सह भावादेकग्रहणे द्वितीयग्रहणं न्याय्यं यदिद दोरयणी-पमाणतो होइ हु मुणेयव्यो / " बृ०४ उ० / (ओडेलकोश सम्यग्ज्ञान सम्यक्त्वं वेत्येतत्पश्यत तन् मुनेर्भावो मौनं संयमानुष्ठानगुजराती) “कबरी कुंतलहारो, धम्भिल्लो केसहत्थओ मउडो (63)" मित्येतत्पश्यत; यन्त्र मौनमित्येतत्पश्यत तत्सम्यग्ज्ञानं नैश्चयिकसम्य क्त्वं वा पश्यत, ज्ञानस्य विरतिफलत्वात्। सम्यक्त्वस्य चाभिव्यक्तिपाइ० ना०५७ गाथा / किरीटे, “मउली मउडो किरीटो य” (251) कारणत्वात्सम्यक्त्वज्ञानचरणानामेकताऽध्यवसेयेतिभावार्थः / सर्वज्ञोक्ते पाइ० ना०११६ गाथा। प्रवचने च। आचा०१ श्रु०५ अ०३ उ०। मउडट्ठाण न० (मुकुटस्थान) मस्तकप्रदेशे च। स०३४ सम०। मउणचरय पुं० (मौनधरक) मौनं-मौनव्रतं तेन चरति मौनचरकः / स्था० मउडदित्तसिर पुं० (मुकुटदीप्तशिरस्) मुकुटेन दीप्तं शिरो यस्य सः / 5 ठा०१ उ०। परिव्राजकभेदे, औ०। तस्मिन्, कल्प०१ अधि०३ क्षण / मउणपय न० (मौनपद) मुनीनामिदं मौनम् / तच तत्पदं च मौनपदम् / मउडी (देशी) जूटे, दे० ना०६ वर्ग११७ गाथा। संयमे, सूत्र०१ श्रु०१३ अ०। मउडीकड पुं० [ मुकुटी (मौली) कृत ] अबद्धपरिधानकच्छे, स०११ मउणिंद पुं० (मौनीन्द्र) वीतरागे, वीतरागप्रवचने च / न० / द्वा०८ द्वा०। सम०ा उपा०ा परिधानवासोऽचलद्वयं कटीप्रदेशेनाऽबलम्बयति, अग्रे मउणिंदपयन०(मौनीन्द्रपद) संयमे, सूत्र०१ श्रु०२ अ०२ उ० / सर्वज्ञपृष्ठे चोन्मुक्तकच्छो भवति। दशा०६ अ०। प्रणीते मार्गेच। सूत्र०१ श्रु०१३ अ०। मउण न० (मौन) मुनेर्भावः / मुनि-अण। “अउः पौराऽऽदौ च" मउय त्रि० (मृदुक) कोमले, आचा०१ श्रु०५ अ०६ उ० / औ० / व्य०। / 8 / 1 / 162 / / इति प्राकृतसूत्रेणीकारस्य अउरादेशः / प्रा०१ पाद / भ० / रा०ा आव० / उत्त० जी०। मृदुकं मार्दवगुणोपेतमकर्कशम् / वाग्व्यापारराहित्ये, वाच / मौनं वाक्संयमः। आ०म०१ अ०। आचा०। जं०२ वक्ष० / त०। औ० / मृदुनेष्टस्वरेण यद्गीयते तन्मृदुकम् / अनु० / व्य०। प्रति०आव०। सूत्र०ा स्था०ा “भूत्रोत्सर्ग मलोत्सर्ग, मैथुनं स्नान मधुरस्वरे गेयभेदे च / स्था०७ ठा०। "कोमलयं सुहफंसं, सोमाल पेलवं भोजनम् / सन्ध्यादिकर्म पूजां च, प्रकुर्यात्पञ्च मौनवान्।।१।।" ध०२ मउयं (156)" पाइ० ना०५८ गाथा। अधि०। मुनेरिद मौन, मुनेर्भावी वा मौनम्। आचा०१ श्रु०५ अ०४ उ० / मउयत्तया न० (मृदुत्व) “त्वादेः सः" / 8 / 2 / 172 / / इति प्राकृतसूत्रेण संयमे, आचा०१ श्रु०२ अ०६ उ०। सूत्र० / उत्त० / संयमानुष्ठाने, आचा० क्त्वान्तात्तल् / मार्दवे, प्रा०२ पाद। 1 श्रु०५ अ०३ उ० / मौनमशेषसावद्यानुष्ठानवर्जनम्। आचा०१ श्रु०४ मउयफासणाम न० (मृदुकस्पर्शनामन्) नामकर्मभदे, यदुदयाजन्तुशरीर अ०३ उ०। "सुलभं वागनुचारं, मौनमेकेन्द्रियेस्वपि। पुद्गलेष्वप्रवृत्तिस्तु, हंसरुताऽदिवन्मृदु भवति तन्मृदुस्पर्शनाम / कर्म०१ कर्म० / गोगनां मौनमुत्तमम्।" अष्ट०१८ अष्ट०। मुनीनामाचारे, उत्त०१४ अ०। / मउयफासपरिणय त्रि० (मृदुकस्पर्शपरिणत) हंसरुताऽदिवत्स्पर्शपरिसाधुधर्मे, उत्त०१४ अ० / सम्यक्त्वे, ध०१ अधि० / प्रति० / मुनेः तभेदे, प्रज्ञा०१ पद। कम्भ मौनम् / तत्र सम्यक्चारित्रमिति। उत्त०१५ अ० / मउयरिभियपयसंचार न० (मृदुकरिभितपदसंचार)मृदु मृदुना स्वरेण युक्तं जं मोणं तं सम्भ, जं सम्म तमिह होइ मोणं ति। न निष्टुरेण तथा यत्र स्वराक्षरेषु घोलनास्वरविशेषेषु संचरन् रागे तीव्रता निच्छयओ इयरस्स उ,सम्म सम्मत्तहेऊ वि॥६१।। प्रतिभासते स पदसंचारो रिभित उच्यते मृदुरिभितः पदेषु गेयनिबद्धेषु मन्यते जगतस्त्रिकालावस्थामिति मुनिस्तपस्वी, तद्भावो मौनमविकलं संचारो यत्र गेये तत् मृदुरिभितपदसंचारम् / गेयभेदे, जी०३ प्रति०४ मुनिवृत्तमित्यर्थः; यन्मौनं तत् सम्यक् सम्यक्त्वं यत् सम्यक्त्वं तदिह / अधि०। स्था०।
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________________ मउर 4 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मंखावंत मउयहियय पु० (मृदुकहृदय) कुण्डलवरद्वीपरथकुण्डलपर्वतरथे रवनाग- निष्पन्ने संस्तारकाऽऽदौ च / त्रि० / आचा०२ श्रु०१ चू०२ अ०३ उ०। ख्यात नागकुमारे दी। मऊरचंदगागार त्रि० (मयूरचन्द्रकाऽऽकार) मयूरचन्द्रकसदृशे, 'मयूरमउर पुं० (मुकुल) "उतो मुकुलाऽऽदिष्वत्" ||6/1170 / / इति चन्द्रकाऽऽकारं, नीललोहितभासुरम् / प्रपश्यन्ति प्रर्द 'पाऽऽदेर्भण्डल प्राकृतसूत्रेणाऽदेरुकारस्याऽत्त्वम् / प्रा०१ पाद। कुड्मले, कलिकायाम. मन्दचक्षुषः।। 1 / / " षो०५ विक०। औ० / “कुंचल-कुंपल-कारय-छारय-कलिआ उ मउलं ति (88)" मऊरपिच्छ न० (मयूरपिच्छ) मयूरपुच्छे, “मोरपिच्छकयमुद्दयं कल्प०१ पाइ० ना०५४ गाथा। रा०। देहे, आत्मनि च / वाच० / अपामार्गे, दे० अधि०३ क्षण। ना०६ वर्ग 118 गाथा। मऊरसिहा स्त्री०(मयूरशिखा) मयूरस्येव शिखाऽस्याः। स्वनामख्याते मउल पु० न० (मुकुल) 'मउर' शब्दार्थे, प्रा०१ पाद। महौषधिभेद, ती०६ कल्प। मयूरचूडाऽऽदयोऽप्यत्र / वाच०। मउलि पुं० (मौली) स्त्री० मूलस्यादूरभवः इञ / चूडा, याम, किरीट. मऊह पु० (मयूख) माड् उख मयाऽऽदेशः / “न वा मयूख-लवण "अउः पौराऽऽदौ च" ||8/1162|| इति प्राकृतसूत्रेणीवारस्याऽ- चतुर्गुण-चतुर्थ-चतुर्दश-चतुरि-सुकुमार-कुतूहलोउरादेशः / प्रा०१ पाद। मौलिः शेखर इति। स्था०८ ठा० / मौलिमुकुट- दूखलो-लूखले" / / 8 / 1 / 171 / / इति प्राकृतसूत्रेणाऽऽदेः स्वरस्य विशेषः / उपा०२ अ01 मौलिः शिरोवेष्टनविशेषः / ध०२ अधि०। संयतके परेण सस्वरव्यञ्जनेन सह ओद्वा / प्रा०१ पाद। त्विषे, किरणे, शेषु च। अशोकवृक्षे, पुं०। भूमौ, स्त्री०।डीए / वाच० / शिखायाम, शोभाया च / वाच०। “असू रस्सी पाया, करा मकहा मउलि (ण) पु० (मुकुलिन) मुकुलं फणाविरहयोग्या शरीरावयवविशेषा-1 गभत्थिणो किरणा।” (73) पाइ० ना०४७ गाथा। ऽऽकृतिः, सा विधते यस्य स मुकुली। फणा, करणशक्तिविकले अहिभेदे, | मं अव्य० (मा) "एवं-परं-सम-ध्रुवं मा-मनाक् एम्व पर समाणु प्रज्ञा०१ पद। प्रश्न / किरीटे, “मउलो मउडो किरीडो य (251)" धूवु मं मणाउं" ||84418 // इति प्राकृतसूत्रेणापभ्रंशे मा इत्यस्य पाइ० ना०११५ गाथा। म इत्यादेशः। प्रा०४ पाद। निषेधे, वाच०। से किं तं मउलिणो? मउलिणो अणेगविहा पण्णत्ता। तं जहा- | मंकारअणुओग पुं० (मकारानुयोग) अनुस्वारोऽलाक्षणिको मकार दिव्वागा, गोणसा, कसाहीया, वइउला, चित्तलिणो, मंडलिणो, इत्यर्थः, तस्यानुयोगो मकारानुयोगः / शुद्धवागनुयोगभेदे, मकारानुयोगो मालिणो, अही, अहिसलागा, वासपडागा, जे यावण्णे यथा-"समणं वा महाणं व त्ति।" सूत्रे माशब्दो निषेधे। अथवा-"जेणामेव तहप्पगारा, सेत्तं मउलिणो / / रामण भगव महावीरे तेणामेवेति।" अत्र सूत्रे आगमिक एव. येनैवेत्यनेनैव एतेऽपिलोकतोऽवसेयाः / प्रज्ञा०१ पद। जी०। विवक्षितप्रतीतेः / स्था०१० ठा०। मउलिय त्रि० (मुकुलित) मुकुल-कुड्मलम्-कलिका संजाता अस्येति मंकुणहत्थि (ण) पुं० (मत्कुणहस्तिन) गण्डीपदजन्तुभेद, प्रज्ञा०१ पद / मुकुलितः / कलिकोपेते, रा० / आव० / जं० / मुकुलाऽऽकृतीकृते च। / मंख पुं० (मड्ख ) चित्रफलव्यग्रकरे भिक्षुकविशेषे, 2015 श० मताश्चिऔ० / “अजंलिमउलियहत्था / " आ० म०१ अ० / “संवेल्लिअं त्रफलकहस्ता भिक्षुका गौरीपुत्र इति प्रसिद्धाः। कल्प०१ अधि०५ क्षण। मउलिअं" पाइ० ना०१८२ गाथा। अनु० / ज्ञा० / प्रश्न०। जं०। रा०। औ०। आ० म०। आ० चू० / वृ०॥ मउली (देशी) हृदयरसोच्छलने, दे० ना०६ वर्ग 115 गाथा। स्था०। मङ्गः केदारको यः पीठमुपदर्य लोकमावर्जयति। पिं० अण्डे, मऊ (देशी) पर्वत, दे० ना०६ वर्ग 113 गाथा! दे० ना०६ वर्ग 112 गाथा। मऊर पुं० (मयूर) मी-उरन लोमपक्षिमे, १०१पद / षोता मयूरा: मंखंत त्रि० (मक्षत) मृक्षण कुर्वनि, नि० च०१० उ० / स्वकलापवर्जिता इति / प्रश्न०१ आश्र० द्वार / प्रा० / रा० / स्थान मंखपेक्खा रस्त्री० (मङ्कप्रेक्षा) ये चित्रपाटेकाऽऽदिहस्ता भिक्षां चरन्ति ते "मोरं केकाइण्णं / " अनु० ।मोरगीवाइ वा / रा० / प्रज्ञा० / जं० / स्त्रियां मलाः तेषां प्रेक्षा मन प्रेक्षा। मङ्कप्रेक्षणे,जी०३ प्रति४ अधि०। डीए। विद्याभेदे च। सा हि मयूरीरूपेण प्रतिवादिप्रयुक्ता वादिनमुपसर्ग- | मंखलि पुं० (मङ्ख लि) गोशालकपितरि, मङ्खल्यभिधाने मङ्के, 11010 यतीति। कल्प०२ अधि०८ क्षण : आक० / अनु० / जी० डा० / “गोसालस्स मखलिपुत्तस्रा मखलिणामे मंखे पिया होत्था।" मऊरग पु० (मयूराङ्क) निधिर थापक नामख्याले राजनि, नि० 1015 20 / कल्प। आ०५०। आ०म०। संथा। भ०॥ चू१३ उ०। मंखलिपुत्त पुं० (मङ्क लिपुत्र) मल्यभिधानमङ्खपत्रे गोशालके, संथा०। मऊरंगचूलिया स्त्री० (मयूराङ्ग चूलिक!) आमरणविशेषे, व्य०३ उ०। / मऊरग न० (मयूरक) स्वनामरख्यात सन्निवेशे, यत्र कुण्डपुरान्निगत्य | मंखसिप्प पु० (मस शिल्प) मङ्ख कलायाम्, "मंखसिप्प अहिजिओ।" आ० भगवान महावीरोगतः। स्था१० दाण्डले.बृ०४ उ० / मयूरपिच्छ- | म०१ अ०। मा
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________________ मगं 5 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मंगल मंखावंत त्रि० (मधयत) म्रक्षण कारयति, नि० चू०१७ उ०। मंग पुं०(मङ्ग) मन्यते-प्राप्यते स्वर्गोऽपवर्गोवाऽनेनेति मगः। “पुन्नाम्नि घ:" ||53 / 130 // इति (सूत्रेण) करणे घञ / धर्मे, आ०म०१अ०। विशे०। दर्श०। मंगरिया जी० (मङ्गरिका) वाद्यभेदे, अष्टशतं मग रिकाणाम् अष्टशत मग रिक वादकानाम्। रा०। मंगल पु० (मङ्गल) मगि अलच / स्वनामख्याते अङ्गारके ग्रहे, रथा०६ हा०। वाछितावासो, कल्प०१ अधि०१क्षण। कल्याण, पञ्चा०८ विव० / मङ्गलं श्रेयः कल्याणमिति। पा० / सदृशे, दे० ना०६ वर्ग 118 गाथा। प्रशंसाव क्य,सूत्र०१ श्रु०७ अ०। गानविशेषे, पञ्चा०८ विव० भ०1 ना० / विघ्नक्षये, मङ्गलं विघ्नक्षयस्तद्योगान्मङ्गलम् / स्था०३ ठा०१ उ० ! दुरितोपशमहेतौ स्वस्तिकाऽऽदिके, औ०। नि०। पञ्चा०। भ०। दशा० / रा० / प्रश्न० / चं० प्र० / सिद्धार्थदध्यक्षतर्वाडुराऽऽदिके, औला नि / भ० / विपा०। रा०। ज्ञा० / मङ्गलानिच सुवर्णचन्दनदध्यक्षतदूर्वासिद्धार्थकाऽऽदर्शस्पर्शनाऽऽदीनि। सूत्र०२ श्रु०२ अ० / पक्षा सियकमलकलससुत्थिय-नंदावत्तवरमल्लदामाणं / तेसिं पि मंगलाणं, संथारो मंगलं अहियं // 15 // शितः - शुभ्रः कलशो विवाहाऽऽदावुत्सवे यो मण्ड्यते तस्यैव माङ्गलिक्यत्वाद ग्रहण, शितकलशश्च कमलं च स्वस्तिकश्च नन्दावर्त्तश्च वरमाल्यदाम च सितकलशकमलस्वस्ति-कनन्दावर्त्तवरमाल्यदामानि तेषाम, एतानि च लोके नाङ्गल्यतया रूढानि तथापि तेषामपि मगलाना मध्ये | संस्तारकोऽधिकं मङ्गलमि ति भावः / संथा०। तह मंगलाइ सोत्थिय-सुवण्णसिद्धत्थगाईणि।।२१६।। मगलानि नाम-स्वस्तिकसुवर्णसिद्धार्थकाऽऽदीनि पूर्व देवैर्भगवतो मङ्गलबुद्ध्या प्रयुक्तानि ततो लोकेऽपि तथा प्रवृत्तानि। आ०म०१अ०। दश 0 माभूद गलो विघ्नो गालो वा नाशः शास्त्रस्येति मङ्गलम्। अचा०३ श्रु०१ अ०१ उ० / वृ०॥ दर्श० / ग्रन्थाऽऽरम्भाऽऽदौ विघ्नोपशमाय कर्तव्ये इष्टदेवतानमस्कारे, सूत्र०१ श्रु०१ अ०१ उ०। पञ्चा०। मङ्गलशब्दप्ररूपणामाह - नामं ठवणा दविए, भावम्मि य मंगलं भवे चउहा। एमेव होइनंदी, तेसिं तु परूवणा इणिमा / / 5 / / मगलं चतुर्धा-चतुःप्रकार भवति। तद्यथा-नाममङ्गलम, स्थापनामङ्गलम, द्रव्यमङ्गल, भावमङ्गल च। एवमेव नामाऽऽदिभेदेन चतुः प्रकारो भवति नन्दिः। तेषां च-नाममगलाऽऽदीनामियं वक्ष्यमाणस्वरूपा प्ररूपणा। तामेवाऽऽहएगम्मि अणेगेसु य, जीवद्दव्वे य तद्विवक्खे वा। मंगलसन्ना नियता, तं सन्नामंगलं होइ // 6 / / एकस्मिन् जीवद्रव्ये तद्विपक्षे वा अजीवद्रव्ये, अनेकेषु वा जीवद्रव्येष्वजीवद्रव्येषु वा या मङ्गलमिति संज्ञा नियता-नियमिता तत् “नामनामव तोरभेदोपचारात्।" संज्ञामङ्गलं-नाममङ्गल भवति। उक्त नाममङ्गलम्। स्थापनामङ्गलमाहजा मंगल त्ति ठवणा, विहिता सम्भावतो व असतो वा। तत्थ पुण असम्भावे, मंगल ठवणागतो अक्खो / / 7 / / जे चित्तभित्तिविहिया, उ घडादी ते य हुंति सब्भावे। तत्थ पुण आवकहिया, हवंति जे देवलोगेसु / / 8 / / या गगलगिति स्थापना सद्भावतो वा सद्भूताऽऽकारनिवेशनेन, असतो वा सद्ताऽऽकारस्याऽभावतो विहिता सा स्थापनामङ्गलम् / तत्र पुनरसदावे स्थापनामङ्गलं स्थापनागतोऽक्षः / उपलक्षणमेतत् वराटकाऽऽदिवा। इयमत्र भावना-अक्षवराटकाऽऽदिषु या मङ्गलमिति स्थापना विहिता न तत्र कश्चित् मङ्गलानुगत आकार इत्यसद्भावतः स्थापनामङ्गलम् / ये तु चित्रभित्तौचित्रकुड्ये विहिता घटाऽऽदयः, आदिशब्दात् स्थालाऽऽदिपरिग्रहः, ते सद्भावे सद्भावतः स्थापनामङ्गलानि भवन्ति। तत्र ये देवलोकेषु चित्तभित्तौ विहिता घटाऽऽदयस्ते स्थापनामङ्गलानि यावत्कथिकानि भवन्ति, अर्थादापन्नं यानि मनुष्यलोके तानीत्वराणि यावत्कथिकानि नाम शाश्वतिकानि. इत्वराण्यशाश्वतानि / द्रव्यमङ्गलमाह - उत्तरगुणनिप्फन्ना, सलक्खणा जे उ होति कुंभाई। तं दव्वमंगलं खलु, जह लोए अट्ठ मंगलगा ||6|| इह उत्तरगुणनिष्पन्ना मूलगुणनिष्पन्नापेक्षया, ततः प्रथमतः तद्भाव्यते। मूलो नाम-पृथिवीकायाऽऽदिजीवस्तस्य गुणात्-प्रयोगात पुद्गलाना द्रव्याऽऽदित्वेन व्यापारणात निष्पन्नं मूलगुणनिष्पन्न द्रव्याऽऽदि, तस्मादुत्तरगुणेन परापरप्रयोगेण चक्रदण्डसूत्रोदकाऽऽदिपुरुषप्रयत्नेनेत्यर्थः / ये निष्पन्नाः सलक्षणा-लक्षणसम्पन्ना अच्छिद्रा-अखण्डा वारिपरिपूर्णाः पद्मोत्पलप्रतिच्छन्ना इत्यादिलक्षणोपेताः कुम्भाऽऽदयः, आदिशब्दात्स्थालाऽऽदिपरिग्रहः। तत् द्रव्यमगलं भवति, यथा लोके अष्टौ मङ्गलानि / गंतियं अणिचं, तियं च दव्वे उ मंगलं होइ। तव्विवरीयं भावे, तं पिव नंदी भगवती उ॥१०॥ तत्पुनरनन्तरोक्तं द्रव्यमङ्गलमनेकान्तिकमनात्यन्तिकं च भवति / तथाहि-न पूर्णकलश एकान्तेन सर्वेषां मङ्गलाय, चौरस्य कर्षकस्य च शकुनतया रिक्त घट प्रशंसति शकुनविदो, गृहप्रवेशे पुनः पूर्णम्। उक्तं च - "चोरस्स करिसगस्स य, रित्तं कुडयं जणो पसंसेइ। गेहपवेसे भन्नइ, पुन्ना कुंभो पसत्थो उ / / 1 / / " तत एवमनैकान्तिकम् / नाप्यात्यन्तिकं, यथा कोऽपि शोभनैर्द्रव्यमङ्गलैर्विनिर्गतस्तेन चाने किश्चिदशोभनं दृष्ट, येन तानि सर्वाण्यपि प्राकृतानि प्रतिहतानि, तत एवमनात्यन्तिकमिति। उक्तं द्रव्यमङ्गलम्। अधुना भावमङ्गलमाह-तद्विपरीतमैकान्तिकमात्यन्तिकंच भावे भावविषयं मङ्गलम्। तथा हि-न तत्भावमङ्गलं कस्यचिद्धवति, कस्यचिन्न भवति किं तु-सर्वस्याऽविशेषेण भवतीत्यैकान्तिकम्। न च केनाप्यन्येन प्रतिहन्यते, इत्यात्यन्तिकं, तच्च भावमङ्गलं भगवान्
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________________ मंगल 6 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मंगल नन्दिर्वक्ष्यमाणोऽवगन्तव्यः। गाथायां स्त्रीत्वं प्राकृतत्वात्। वृ०१ उ०१ प्रक० ! आ०म०। ओघ०। आ० चू०। दशा०। प्रज्ञा० / विघ्नविनायकोपशान्तये शिष्याणां मङ्गलबुद्धिपरिग्रहाय स्वतो मङ्गलभूतस्याप्यस्याऽऽदिमध्यावसानेषु मङ्गलमभिधातव्यम्, आदिमङ्गलं ह्यविध्नेन शास्त्रपारगमनार्थम्, मध्यमङ्गलम्-अवगृहीतशास्त्रस्थिरीकरणार्थम्- | अन्तमङ्गलम्-शिष्यप्रशिष्यपरम्परया शास्त्रस्याऽव्यवच्छेदनार्थम्। उक्तञ्च (भाष्यकारैः)"तं मंगलमाईए, मज्झे पज्जतए य सत्थस्स। पढमं सत्थत्थावि-ग्घपारगमणाय निद्दिढ़।।१।। (13) तस्सेव य थेज्जत्थं, मज्झिमयं अंतिम पि तस्सेव। अव्वोच्छित्तिनिमित्तं, सिस्सपसिस्साइवंसस्स।।२।। (14)" प्रज्ञा०१ पदा तत्र परः प्रश्नयति-किमर्थं मङ्गलग्रहणमित्याह - विग्धोवसमो सद्धा, आयर उवयोग निराऽधिगमो। भत्तीपभावणा विय, निवनिहिविजाइ आहरणा॥२०॥ मङ्गले प्रकृते सति रोगाऽऽदिविघ्नोपशमो भवति, तदुपशमे च प्रतिबन्धकाभावात्महता प्रतिबन्धेनाऽऽचार्येणानुयोगः प्रारभ्यते, तथाऽनुयोगप्रारम्भे च शिष्यस्य शास्त्रग्रहणे महती श्रद्धा उपजायते, श्रद्धावतश्च शास्त्रावधारणे महानादरः, कृताऽऽदरस्य शास्त्रविषयेऽनवरतमुपयोगो, यदा यदा चोपयोगस्तदा सम्यग्ज्ञानत्वात् महती ज्ञानाऽऽवरणीयस्य कर्मणो निर्जरा, ज्ञानाऽऽवरणकर्मनिर्जरणाच स्फुटः स्फुटतरः शास्त्रस्याऽधिगमः, अधिगतशास्त्रस्य च गुरौ शास्त्रे प्रवचने च निष्कृत्तिमा भक्तिरुल्लसति, ततः प्रभावना तां दृष्ट्वाऽन्येषामपि तथा श्रद्धाऽऽदीनां करणात्, यदि पुनर्न क्रियते मङ्गलं तत एषां विघ्नोपशमाऽऽदिभावानाम् अप्रसिद्धिः अत्रोदाहरणानि दृष्टान्ता नृपनिधिविद्याऽऽदयः। आदिशब्दाद्योगो, मन्त्राश्च परिगृह्यन्ते। तत्रेयं नृपदृष्टान्तस्य भावना-यथा कोऽपि पुरुषः कार्यार्थी राजानमधिगन्तुकामो मङ्गलभूतानि पुष्पाऽऽदीन्यादाय तत्समीपमुपगच्छति। उक्तंच-"पुप्फपुडियाएँ जंपइ. गोरसघडओ करेइ कजाई। मणिबंधम्मि पर्वलिते, सानुऽग्गह होति सव्वगहा।।१।।" उपेत्य चाञ्जलिं करोति, पादयोश्च प्रणिपतति, ततो राजा तुष्यति, तुष्टे च तस्मिन् यस्तदधीनोऽर्थः स सिद्ध्यति। अथैवमुपचारं न करोति, तदान तुष्यति, तोषाभावे च तदधीनस्याऽप्रसिद्धिः, एवं निधिमुत्खनितुकामो विद्यां मन्त्रं वा साधयितुकामो यदि द्रध्यक्षेत्रकालभावयुक्तमुपचारं करोति, तद्यथा-द्रव्यतः-पुष्पाऽऽदिषु, क्षेत्रतः-श्मशानाऽऽदिषु, कालतःकृष्णपक्षचतुर्दश्या दिषु, भावतः-प्रतिलोमानुलोमोपसर्गसहिते, तदा निधिं विद्यां मन्त्र वा साधयति / द्रव्याऽऽधुपचाराभावे ते निध्यादयो न सिध्यन्ति, यस्माद्यो, यस्माद्यो यत्रोपचारः स तत्र कर्तव्यः। एतदेवाऽऽहजो जेण विणा अत्थो, न सिज्झई तस्स तविहं करणं / विवरीय अभावेण य, न सिज्झई सिज्मई इहरा // 21 // योऽर्थो येन विनान सिद्ध्यतितस्य निष्पत्तयेतद्विधं करणमवश्यमुपा- | दातव्यम्। यथा घट साधयितुकामेन चक्रदण्डमृत्पिण्डाऽऽदिकम् / यतो विपरीतैः करणैः, सर्वथा करणानामभावेन च, साऽधिकृतोऽर्थो न सिद्ध्यति यथा घटं साधयितुकामस्य, विपरीतं तुरीवेमाऽऽधुपकरणोपादाने, सर्वथा चक्रदण्डसूत्रोदकाऽऽदीनामुपकरणानामभावे या घटः इतरथा-अविपरीतोपकरणसद्भावे सिध्यति, यथाघट साधयितुकामस्य यथावस्थितानां चक्रदण्डसूत्रोदकाऽऽदीनामुपादाने घट,न सिध्यन्ति च मङ्गलमन्तरेण विघ्नोपशमाऽऽदयो भावा इति मङ्गलोपादानम् / पुनर-- प्याह-यदिशास्त्रस्याऽऽदिमध्यावसानेषु मङ्गलं ततः सामर्थ्यादिदमायातभपान्तरालद्वयाऽमङ्गलमिति। अत्राऽऽह - जइविय तिहाणकयं, तह विहु दोसो न वाहए इयरो। तिसमुन्भवदिटुंता, सेसं पिहु मंगलं होइ॥२२॥ यद्यपि त्रिषु स्थानेष्वादिमध्यावसानरूपेषु कृतं मङ्गलं तथाऽपि इतरोऽपान्तरालद्वयो मङ्गलत्व (त्व) लक्षणो दोषो न वाधते, तस्यैवाभावात्। कथमभाव इति चेदत आह-(तिसमुडभवेत्यादि) त्रिभ्यो गुडसमितिघृतेभ्यः समुद्भवो यस्य स मोदकः, तदृष्टान्तात्, शेषमपि (हु) निश्चितं मङ्गलं भवति। इयमत्र भावना-मोदक इव सकलं शास्त्रं द्विधा विभज्यते, तत्राऽऽदिमो भाग आदिमङ्गलेन मङ्गलीकृतो, मध्यमो मध्यमङ्गलेनान्तिमोऽन्तिममङ्गलेन्, ततः कुतोऽपान्तरालद्वयाऽमङ्गलत्वप्रसङ्गः। स्यादेतत्, यदिदं शास्त्रमारब्धमेतदादिमध्यावसानेषु सर्वाऽsत्मना मङ्गलं, ततो यद्यन्यत्तस्य मङ्गलमुपादीयते तदाऽनवस्थाप्रसङ्गः। कृतेऽपि मङ्गले पुनरन्यतममङ्गलमुपादेयं, विशेषाभावात्तत्राप्यन्यदित्येवं मङ्गलाऽऽनन्त्यप्रसक्तेः / अथ नन्दी मङ्गलं शास्त्रं पुनरमङ्गलं केवलं तन्नन्द्या मङ्गलीक्रियते, नन्वेवं तर्हि यदा नन्दीव्याख्यानमकृत्वा शास्त्रं व्याख्यातुमारभ्यते तदा शास्त्रम् अमङ्गलत्वाच न ज्ञानं, ज्ञानाभावाच्च न कर्तव्यस्तस्यामुपयोग इति। अत्राऽऽहन वि य हु होयऽभवत्था, न वि य हु मंगलममंगलं होइ। अप्पपराभिय्वतिया, लोणुण्हपदीवमादिच्य |23|| नापि च (हु) निश्चितं भवत्यनवस्था, यतो नन्दीशास्त्रादनान्तरभूता, शास्त्रं च स्वतः समस्तमङ्गलं, न च तस्य मङ्गकृतस्य सतोऽन्यत् मङ्गलमुपादीयते, ततो नानवस्था प्रसङ्गः। यदाऽपिनन्द्या व्याख्यानमकृत्वा शास्त्रमारभ्यते, तदाऽपि तच्छास्त्रं मङ्गलमिति तदमङ्गलं न भवति / एवं तावन्नन्द्या अनर्थान्तरतायाममङ्गलत्वमनवस्था च परिहता। सम्प्रत्यर्थान्तरत्वमधिकृत्य परिहियते-यद्यपि शास्त्रादर्थान्तरभूता नन्दी तथाऽप्यमङ्गलत्वमनवस्था चन भवति। कथमित्याह-(अप्पपरेत्यादि) नन्द्या आत्मनाऽपि मङ्गलशास्त्रमपि च मङ्गलीकरोति / शास्त्रमप्यात्मनाऽपि मङ्गलं नन्दीमपि च मङ्गलीकरोति / एवमात्मपराभिव्यक्तिता द्वयोरपि मङ्गलयोरेकीभूतयोः सुष्ठुतरो मङ्गलभावो भवति। कथमिवेत्यत आह-"लोणुण्हपदीवमादिव्व।" यथा द्वयोर्लवणयोरेकीभूतयोः सुष्ठुतरो लवणभावो, द्वयोर्वा उष्णयोरेकत्रमिलितयोः सुष्ठुतरभावो, यथा च द्वयोः प्रदीपयोः समीचीनतरः प्रकाशभावः, आदिशब्दात्
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________________ मंगल 7 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मंगल मधुरशीतलस्नेहाऽऽदिद्रव्याणां परिग्रहः। एवमिहापि द्वयोर्मङ्गलयोरेकीभूतयोः सुष्टुतरो मङ्गलभावः / स्यादेतत् / एवमपि प्रसजत्यनवस्था, तृ तीयाऽऽदिमङ्गलोपादाने सुछुतरमङ्गलभावोपपत्तेः, न प्रसज ति, प्रयोजनाभावात्तथालोकव्यवहारदर्शनात् / तथाहि-लोके कस्यचिदातुरस्य शर्करापलद्वयमौषधं केनाऽपि भिषग्वरेणोपादेशि, तत्र यद्यपि तृतीयाऽऽदिशर्करापलप्रक्षेपे विशिष्टतमो मधुरभावो भवति, तथाऽपि तन्न प्रक्षिप्यते, प्रयोजनाभावात्, एवमिहाप्यन्यस्तृतीयाऽऽदिक मङ्गलं नोपादीयतेप्रयोजनाभावदिति। वृ०१ उ०१ प्रक०। अथ तृतीय मङ्गलद्वारमधिकृत्याऽऽह - बहुविग्धाइँ सेयाई, तेण कयमंगलोवयारेहिं / घेत्तव्यो सो सुमहा-निहि व्व जह वा महाविज्जा / / 12 / / "श्रेयांसि बहुविघ्नानि भवन्ति महतामपि।" इति वचनाद्येन बहुविघ्नानि श्रेयांसि भवन्ति, तेन कारणेन परमश्रेयोरूपत्वात् कृतमङ्गलोपचारैव स आवश्यकानुयोगो ग्रहीतव्यः / किंवत् ? इत्याह-शोभनमहारत्नाऽऽदिनिधिवद महाविद्यावद् वा / इति गाथाऽर्थः / / 12 / / कपुनस्तन्मङ्गलं शास्त्रस्येष्यते ? इत्याह - तं मंगलमाईए, मज्झे पज्जंतए य सत्थस्स। पढमं सत्थत्थाऽवि-ग्घपारगमणाय निद्दिटुं।१३।। तद् मङ्गलं शास्त्रस्याऽऽदौ क्रियते, तथा मध्ये, पर्यन्ते चेति। अथैकैकस्य करणफलमाह-प्रथममङ्गलं तावच्छास्त्रार्थस्याऽविघ्नेन पारगमनाय निर्दिष्टम् / इति गाथाऽर्थः / / 13 / / तस्सेव य थेञ्जत्थं, मज्झिमयं अंतिम पि तस्सेव। अव्वोच्छित्तिनिमित्तं, सिस्सपसिस्साइवंसस्स॥१४॥ तस्यैव शास्त्रस्य प्रथममङ्गलकरणाऽनुभावादविघ्नेन परम्परामुपागतस्य स्थैर्यार्थ स्थिरताऽऽपादनार्थ मध्यमं मङ्गलम्, निर्दिष्टमिति वर्तते, 'अन्तिम पीति' अन्त्यमपि मङ्गलं तस्यैव शास्त्रार्थस्य मध्यममङ्गलसाम येन स्थिरीभूतस्याऽव्यवच्छित्तिनिमित्तम्, कस्य, योऽसौ शास्त्रार्थः ? इत्याहशिष्यप्रशिष्याऽऽदिवंशगतस्येत्यर्थः / शिष्यपशिष्याऽऽदिवशे शास्त्रार्थस्याऽव्यवच्छेदनिमित्तं चरममङ्गलमिति भावः। इति गाथार्थः / / 14 / / अवाऽऽहमंगलकरणा सत्थं, न मंगलं अह च मंगलस्सावि। मंगलमओऽणवत्था, न मंगलममंगलत्ता वा / / 15 / / प्रेरकः प्राह-भो आचार्य ! त्वदीयं शास्त्रं न मङ्गलं प्राप्नोति / कुतः? इत्याह-मङ्गलकरणात् अमङ्गले हिमङ्गलमुपादीयते, यत्तु स्वयमेव मङ्गलं तत्र किं मङ्गलविधानेन ? न हि शुक्लीक्रियते, नापि स्निग्धं स्नेह्यते; तस्मात् तन्मङ्गलोपादानान्यथाऽनुपपत्तेः शास्त्रं न मङ्गलम्। अथ मङ्गल शास्त्रम्, मङ्गलस्याऽपि सतस्तस्याऽन्यद् मङ्गलं क्रियत इत्यभ्युपगम्यते; अत एवं सति तर्खनवस्थामङ्गलानामवस्थानं न क्वचित् प्राप्नोति। तथाहि-यथा मङ्गलस्याऽपि सतः शास्त्रस्याऽन्यद् मङ्गलमुपादीयते, / तथा मङ्गलस्याऽपि तद्रूपस्य सतोऽन्यद् मङ्गलमुपादेयम् . तस्याऽप्यन्यत्, अपरस्याप्यन्यत, इत्येवमनवस्था आपतन्ती केन वार्यते ? अथ शास्त्र यदुपात्तं मङ्गलं तस्यान्यमङ्गलकरणाभावत इयं नेष्यते / तत्र दूषणमाह- (न मंगलमिति) शास्त्रमङ्गलीकरणार्थमुपात्तमङ्गलस्याऽनवस्थाभयेनाऽन्यमङ्गलाकरणेन तद् मङ्गलं न स्यात्, अन्यमङ्गलाभावात्, शास्त्रवत्। इत्यर्थः / इदमुक्तं भवति यदि मङ्गलस्याऽपरमङ्गलविधानाभावेनाऽनवस्था नेष्यतेतर्हि यथा मङ्गलमपि शास्त्रमन्यमङ्गलेऽकृते मङ्गलं न भवति, तथा मङ्गलमप्यन्यमङ्गलेऽविहिते मङ्गलं न भवेत्, न्यायस्य समानत्वात् / तथा च किमनिष्ट स्यात् ? इत्याह-अमङ्गलता मङ्गलाभावः-शास्त्रे यमङ्गलमुपात्तं तदन्य, मङ्गलशन्यत्यादनमङ्गलम, तस्य च मङ्गलवाभावे शास्त्रमपि न मङ्गलम्, इति व्यक्त एव मङ्गलाभाव इति भावः / वाशब्दः पक्षान्तरसूचकः, अनवस्था, मङ्गलाभावो येत्यर्थः / इति गाथाऽर्थः॥१५॥ अत्रोत्तरमाहसत्थत्थन्तरभूय-म्मि मंगले होज कप्पणा एसा। सत्थम्मि मंगले किं, अमंगलं काऽणवत्था वा ? ||16|| शास्त्राऽऽदावावश्यकाऽऽदेरान्तरभूते भेदवति मङ्गले उपादीयमाने भवेद्-घटेत परेण विधीयमाना 'मंगलकरणा सत्थं न मंगलं' इत्यादिका कल्पनादोषोत्प्रेक्षालक्षणा; शास्त्रे त्वावश्यकाऽदिके परममङ्गलस्वरूपेऽभ्युपंगम्यमाने, तद्भिन्ने मङ्गले चाऽनुपादीयमाने हन्त ! किममङ्गलम्, का वाऽनवस्था त्वया प्रेर्यते ? तस्मादाकाशरोमन्थमेव परस्य दोषोद्भावनमिति भावः। आह-यदिशास्त्रं स्वयमेव मङ्गलम् , तर्हि 'तं मंगलमाईए० (13) इत्यादि (भाष्य) वचनात् मङ्गलंतत्र किमित्युपादीयते? सत्यम्, किन्तु 'सीसमइमंगलपरिग्गहत्थमेत्तं तदभिहाणं / ' इत्यादिना वक्ष्यते सर्वमत्रोत्तरम्, मा त्वरिष्ठाः / इति गाथार्थः // 16 // अथ समर्थवादितयाऽर्थान्तरभूतत्वमपि मङ्गलस्याऽभ्युपगम्य समर्थयन्नाहअत्यंतरे वि सइ मंगलम्मि नामंगलाऽणवत्थाओ। सपराणुग्गहकारिं, पईव इव मंगलं जम्हा // 17 // शास्त्रादर्थान्तरे भेदवत्यपि मङ्गलेऽभ्युपगम्यमाने सति नाऽमङ्गलता शास्त्रस्य, नाप्यनवस्था। कुतः ? इत्याह-यस्मात् स्वपरानुग्रहकारि मङ्गलम्, प्रदीपवत्, यथाहि प्रदीप आत्मानप्रकाशयानः स्वस्याऽनुग्राहको भवति, गृहोदरवर्तिनस्तुघटपटाऽऽद्यर्थानाविष्कुर्वाणः परेषामनुग्राहकः संपद्यते, न तु स्वप्रकाशे प्रदीपान्तरमपेक्षते, यथा च लवणं रसवत्यामात्मनि च सलवणतामुपदर्शयत् स्वपरानुग्राहकं भवति, न त्वात्मनः सलवणतायां लवणान्तरमपेक्षते। एवमर्थान्तरभूतं मङ्गलमपि निजसामर्थ्याच्छास्त्रे स्वाऽऽत्मनि च मङ्गलता व्यवस्थापयत्स्वपरानुग्राहकं भवति / ततो मङ्गलाद् मङ्गलरूपताप्राप्तौ शास्त्रस्य तायद् नाऽमङ्गलता / यदा च मङ्गगलमात्मनो मङ्गलरूपतायां मङ्गलान्तरं नाऽपेक्षते, तदाऽनवस्थाऽपि दूरोत्सारितैव / इति गाथार्थः / / 17 / /
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________________ मंगल 8 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मंगल पुनरन्यथा परः प्रेरयति - मंगलतियंतरालं, न मंगलमिहत्थओ पसत्तं ते। जइ वा सव्वं सत्थं, मंगलमिह किं तियग्गहणं? ||18|| इह मङ्गलविचारप्रक्रमे, अर्थतोऽर्थापत्त्या एतत् (त) तव आचार्थ ! प्रसक्त-प्राप्तम् / किं तत् ? इत्याह-मङ्गलानामादिमध्यावसानलक्षण त्रिकं मङ्गलत्रिक तस्याऽन्तरालद्वयलक्षणमपान्तरालं न मलमिति / यदाहि-तं मंगलमाईए मज्झे पजंतएय सत्थस्स।' इत्यादिवचनादादिमध्यावानलक्षणेषु विष्वेव नियतस्थानेषु मङ्गलमुपादीयते, तदा तदध्यापमन्तरालद्वयमर्थापत्त्यैवाऽमङ्गलं प्राप्नोतीति भावः / पर एवा ह-यविना-सिद्धान्तवादिन् ! एवं ब्रूयारत्वं यदुतसर्वमेव शास्त्र महलमिति प्रायोक्तान, अतः किमेवं प्रेर्यते ? हन्स तर्हि 'तं मंगलमाईए०' इत्यादिना फिमिह मङ्गलत्रिकग्रहणं कृतम् ? न हि सर्वस्मिन्नपि शास्त्रे मन आदी मध्येऽवसाने चमङ्गलम्' इत्युच्यमानं युक्तियुक्तत्वमनुभवति। तस्मादपान्तरालद्वयस्याऽमङ्गलत्वं वा प्रतिपद्यस्व, मङ्गलत्रयग्रहणं वा मा कृश इति भावः / इति गाथार्थः / / 18 // आचार्यः प्राऽऽहसत्थे तिहा विहत्ते, तदन्तरालपरिकप्पणं कत्तो ? सव्वं च निज्जरत्थं, सत्थमओऽमंगलमजुत्तं / / 16 / / बुझ्या शास्त्रे त्रिधा विभक्ते तस्य शास्त्रस्यान्तरालं तदन्तराल तस्य परिकल्पनं कुतः संभवति ? न कुतश्चिदित्यर्थः / यथा हि-संपूर्ण मादकाऽऽदिवस्तुनि विखण्डे विकल्पितेऽन्तरालन संभवति, तथाऽत्रापि, इति कस्याऽमगलता स्यात् ? इति / यदि नाम शास्त्रं त्रिधा विभक्तम्, तथापि कथं तस्य सर्वस्यापि मङ्गलता? इत्याह-सर्वं चाऽऽवश्यकाऽऽदि शास्त्रं निर्जरार्थ कर्मापगमरूपा निर्जरा अर्थः प्रयोजनमरयेति निर्जरार्थम्, तथा च सतितपोवत् स्वयमेव मङ्गलमिदमिति सामदिवगम्यते। यदि नाम निर्जरार्थत्वात् तपोयत् स्वयमेवाऽऽवश्यकाऽऽदिशास्त्र मङ्गलम् , ततः किम् ? इत्याह-अतोऽमङ्गलमयुक्तम् , यतः सर्वमेव शास्त्रमङ्गलम्, अता मङ्गलाऽऽत्मनितस्मिंस्त्रिधा विभक्ते यदुच्यते-'अपान्तरालद्वयममडलम, तदयुक्तमित्यर्थः / यदि हि शास्त्रं स्वयं मङ्गलं न भवेत् तदाऽन्यमङ्गलाऽव्याप्तत्वात् वापि तदमङ्गलं भवेत, यदा तु सर्वमपि स्वयमेव तद् महलम, तदा कापि तस्याऽमगलतान युक्तेतिभावः। इतिगाथार्थः / / 16 / / __ अथ प्रेरकः प्राऽऽहजइ मंगलं सयं चिय, सत्थं तो किमिह मंगलग्गहणं ? सीसमइमंगलपरि-गहत्थमेत्तं तदमिहाणं // 20 // यदि हि रवयमेव शास्त्रं मङ्गलमिष्यते तदा त मङ्गलमाईए मज्झे०' इत्यादि वचनात् किमिह मङ्गलग्रहणं क्रियते ? स्वत एव मनले मङ्गलविधानस्याऽनर्थकत्वादिति भावः / इति परेण प्रेरिते गुरुराह-'सीसे' त्यादि, शिष्यस्य मतिः शिष्यमतिस्तस्या मङ्गलपरिग्रहः सोऽर्थःप्रयोजनमस्य तत् तथा तदर्थमेव शिष्यमतिमङ्गलपरिग्रहार्थमात्रं तदभिधान मङ्गलाभिधानमित्यर्थः। इदभुक्तं भवति-शास्त्रादनान्तरभूतमेव गगलमुपादीयते, नाऽर्थान्तरमिति प्रागेवोक्तम्, नन्दिहिं मगलत्वेनाऽभिधास्यते, सा च पशज्ञानाऽऽत्मिका, ततः शास्त्राण्यावश्यकाःऽदीनि सर्वाण्यपि श्रुतज्ञानरूपतया नन्द्यन्तर्गतान्येव, नन्दिरपि श्रुतरूप येनाऽऽवश्यकाऽऽदिशास्त्रान्तर्गतैव / तस्माद नन्देल वेनाऽभिधाने शास्त्रान्तर्गतमेव मङ्गलमभिहित भवति / तत्रापि नाऽमङ्गलस्र. सतः शास्त्रस्य मङ्गलताऽऽपादनार्थं तदभिधानम, किन्तु-शिष्यमति इलपरिग्रहार्थम्, शिष्यो हि तस्मिन्नभिहिते 'मङ्गलमेतच्छास्त्रम्' इत्येव स्वमतौ तन्मङ्गलतापरिग्रह करोतीति भावः। इति गाथार्थः ॥२ना आह-कि मङ्गलमपि मङ्गगलबुद्ध्या गृहीतमेव स्वकार्य करोति, नान्यथा? एवमेतत्, इत्याह - इह मंगलं पि मंगल-बुद्धीए मंगलं जहा साहू / मंगलतियबुद्धिपरिग्गहे वि नणु कारणं भणि।।२१।। इहलोके, मङ्गलमपि सवस्तु मङ्गलबुद्ध्या गृह्यमाणमभिनन्धमान वा मङ्गलं भवति। यथा साधुः, साधुर्हि स्वयं मङ्गलभूतोऽपि तद्वद्ध्या गृह्यमाण एव प्रशस्तचेतोवृत्ते व्यस्य मङ्गलकार्य करोति, अमङ्गलबुद्ध्या तु गृह्यमाण मङ्गलमपि तत्कार्य न करोति, यथा रा एव साधुः कालुष्यपह तचतोवृत्तेरभव्यस्या अत्राऽऽह कश्चित्- नन्वेषं सत्यऽमङ्गलमप्यसाध्यादिक मङ्गलबुद्ध्या गृहामाणं तत्कार्य करिष्यति, न्यायस्य समान पात्। तदयुक्तम्, असाधोः स्वतो मगलरूपताया अभावात, सत्यम णिर्हि सत्यमणितया गृह्यमाणो ग्रहीतुर्गारवमापादयति, न त्वसत्यमणिः स्त्यमणितया, इत्यल प्रसङ्गेना आह-यद्येवम्, त:कमेव मङ्गलमस्तु, तेनापि हि शिष्यमतिमङ्गलपरिग्रहः सेत्स्यति, कि मङ्गलत्रयकरणेन? इत्याह'मंगलतिये' त्यादि, मगलत्रये हि कृते शिष्यस्य बुद्धी तत्परिग्रहो भवति / तेनाऽपि किमिति चेत् ? इत्याह-ननु तत्रापि 'पढम सत्थत्थाविग्ध पार - गमणाय निट्टि' इत्यादिना कारण-निमित्त प्रागेव भणितं किमिति विस्मार्यते ? न च वक्तव्यमेकेनैव मङ्गलेन तत् कारणत्रयं से स्थति, यतो यथैव शास्त्र मङ्गलमपि सद् मङ्गलबुद्धिपरिग्रहमन्तरेण महलं न भवति साधुवत्, तथा शास्त्रस्याऽऽदि-मध्याऽवसानानि मङ्गलरूपाण्यपि मङ्गलबुद्धिपरिग्रह विना नमङ्गलकार्य कुर्वन्ति, इति मङ्गलबाभिधानम्। इति गाथार्थः // 21 // तदेव मङ्गलाभिधानमुपपत्तिभिर्व्यवस्थाप्यमङ्गलशब्दार्थ निरूपयितुमाहमंगिज्जएऽधिगम्मइ, जेण हि तेण मंगलं होइ। अहवा मंगो धम्मो, लाइ तयं समादत्ते // 22 // 'अगि-रगि-लगि-वगि-मगि' इत्यादौ मगिर्गत्यर्थों धातुः, अतस्तस्याऽलचप्रत्ययान्तरय मञ्यतेऽधिगम्यते साध्यते यतो हितमनेन तेन कारणेन मङ्गल भवति। अथवा-मङ्ग इति धर्मस्याऽऽख्या, 'ला' आदाने धातुः, ततश्च मङ्ग लाति समादत्ते इति मङ्गलं धर्मोपादानहेतुरित्यर्थः / इति गाथार्थः / / 22 / /
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________________ मंगल 6- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मंगल अहवा निवायणाओ, मंगलमिट्ठत्थपगइपञ्चयओ। सत्थे सिद्धं जं जह, तयं जहाजोगमाओजं / / 23 / / अथटा निपातनाद् मङ्गलमिति साध्यते / कथम् ? इत्याह-इष्टार्थप्रकृतिप्रत्ययत , तत्रेष्टो विवक्षितोऽर्थो यासां ता इष्टार्थाः प्रकृतयः / तद्यथा - 'मकि मण्डन,' 'मन ज्ञाने' 'मदी हर्षे' 'मुद-मोद-स्वप्न-गतिषु' 'मह पूजायाम' इत्येवमादि, प्रत्ययस्त्वेतासां प्रकृतीनां सर्वत्र 'अलच' एव विधीयते,तता मङ्गलमिति रुपं निपात्यते। व्युत्पत्तिस्त्वयम् मङ्यतेऽलफियते शास्त्रमनेनेति मङ्गलम्, तथा मन्यते ज्ञायते निश्चीयते विघ्नाभावोऽनेन तथ माद्यन्ति हृष्यन्ति मदमनुभवन्ति, मोदन्ते, शरत विघ्नाभावेन निष्प्रकम्पतया सुप्ता इव जायन्ते, शास्त्रस्यपार न्यनेनति, तथा मद्यन्ते पूज्यन्तेऽनेनेति मङ्गलमिति। एवमादि व्याकरण - शास्त्र पदयथा निपातनं सिद्धम, तदयथायोग यथासम्बन्धमत्र स्वधियाऽऽयं ज्यं लक्षणः / इति गाथाऽर्थः // 23 // मं गालयइ भवाओ, मंगलमिहेवमाइ नेरुत्ता। भासंति सत्थवसओ, नामाइ चउव्विहं तं च // 24 // अथण-मा गालयति भवादिति मङ्गल ससारादपनयतीत्यर्थः / इह / भङ्गविधारे एवादि नैरुक्ताः शब्दविदः शास्त्रवशतो व्याकरणानुसारण मापन्त-गइलशब्दार्थ व्याचक्षता आदिशब्दात्-शास्त्रस्य मा भूद गलीविनो स्मादिति मङ्गलम, अथवा-शारवस्य मा भृद गला-नाशोऽरिमन्निते मङ्गलम, सम्यग्दर्शनाऽऽदिमार्गलयनाद था मगलमित्यादि द्रष्टव्यम्, इत्यलं विस्तरेण / इह तत्व-पर्याय-भेदैव्याख्या, तब तत्वं शब्दाररूपम्, तत्तावद् निणीतम्। पर्यायास्तु मङ्गलम्, शान्तिः, विघ्न . विद्रावणमित्यादयः स्वयमेव द्रष्टव्याः। भेदाँ स्तुस्वयमेव निरूपयितुमाह'नाभाइ चउदिह त चेति' तच मङ्गलं नामाऽऽदिभेदतश्चतुर्विधं भवति / तहाथा - नाममइलम्, स्थापनामङ्गलम्, द्रव्यमङ्गलम्, भावमङ्गलं च / इति गाथाऽर्थः :|24|| विश०। आह विनयः-ननु सामान्यन द्रव्यलक्षणमवगतम, परं द्रव्यमङ्गलं किमभिधीयते? इति प्रस्तुतं निवेद्यताम, इत्याहआगमओऽणुवउत्तो, मंगलसद्दाणुवासिओ वत्ता। नन्नाणलद्धिसहिओ, विनोवउत्तो त्ति तो दव्वं // 26 / / इह द्रव्यमङ्गल तावद द्विधा भवति-आगमतः-आगमभाश्रित्य, नोआग- . गतश्च-ना आभिमाश्रिय तत्राऽऽगमो मगल शब्दार्थज्ञानरवरूपोऽनाऽभित: तश्रित्य 'द्रय द्रव्यमालगिति पर्यन्त सम्बन्धः / का? इत्याह-वका मइलशब्दार्थप्ररूपकः। किं सर्वोऽपि ? न, इत्याह -अनुपयुक्तः तदुपयोग्शून्यः / किं विशिष्टः ? इत्याह-मङ्गलशब्दानुवासितः मड़लशब्दार्थज्ञानाऽऽवरणक्षयोपशमसंस्कारानुरञ्जितमनाः, तज्ज्ञानलब्धिनानिति यावत्। ननुयदि तज्ज्ञानलब्धिमांस्तर्हि किमिति द्रव्यम् ? इत्याह-'तन्नाण' त्यादि, तज्ज्ञानलब्धिसहितोऽपि मङ्गलशब्दार्थज्ञानाऽऽवरणक्षयोपशमवानपि, नोपयुक्तस्तत्र मङ्गलशब्दार्थे यस्भादसो, 'तो / त्ति' तस्माद् द्रव्यमङ्गलम् / इदमुक्तं भवति-'अनुपयोगो द्रव्यम्' इति वचनाद् मङ्गलशब्दार्थ जानन्नपि तत्रानुपयुक्तस्तं प्ररूपयंस्तज्ज्ञानलडिधसहितोऽप्यागमतो द्रव्यमङ्गलमेव / इति गाथाऽर्थः / / 26 / / अत्राऽऽह कश्चित्-ननु कोऽयमागमो यमाश्रित्य द्रव्यमङ्गलमिदमभिधीयते ? अत्रोच्यतेमङ्गलशब्दार्थज्ञानमत्राऽऽगमः / तर्हि प्रेर्यते, किम् ? इत्याह - जइ नाणमागमो तो, कह दव्वं दव्वमागमो कह णु? आगमकारणमाया, देहो सद्दो यतो दव्वं // 30 // यदि मङ्गलशब्दार्थज्ञानभागमः तर्हि तद्वक्ता असौ कथं द्रव्यमङ्गलम् ? आगमस्य भावमङ्गलत्वेन द्रव्यमङ्गलत्वानुपपनेः / अथ द्रव्य द्रव्यमङ्गलमसौ तर्हि आगमः कथम् ? येनाऽऽगमतः-आगममाश्रित्येत्युच्यते द्रव्ये आग्भस्याऽभावात, भावे वा भावमङ्गलत्वप्रसङ्गात् / तस्मादागमतो दरामालगिति द्रविरुद्धमिदम् / इति परेणोक्ते आचार्यः प्राह-'आगमे त्यादि इदमुक्त भवति-आगमत इत्युक्तेनैतद् भावता बोद्धव्यं यदुत-न साक्षादेवाऽऽगमाऽत्रास्ति किं तहिं ? आगमस्य मङ्गलशब्दार्थज्ञानलक्षणस्य यत् कारण-निमित्तं तदेवेह विद्यत इत्यवगन्तव्यम्। किं पुनस्तदागमरय कारणमिहाऽवसेयम् ? इत्याह अनुपयुक्तस्य वक्तुः सम्बधी आत्मा जीवो देहः शब्दश्च, जीवशरीरे हि तावदागमस्य कारणम्, तलाधारविरहितस्याऽऽगमस्याऽसम्भवात्। शब्दोऽपि प्रत्याय्यशिष्यगताऽऽगमस्य कारणमेव, तमन्तरेण तस्याऽभावात् / यच कारणम् तद द्रव्यं भवत्येव “भूतस्य भाविनो वा, भावस्य हि कारणं तु यल्लोके, तद् द्रव्यम्” इत्यादिवचनात्, इत्याह- 'तो त्ति' यत एवम् , तस्माद् द्रव्यं द्रव्यमङ्गलमिदमित्यर्थः / यद्यागमकारणमेवेह विद्यते, तर्हि कथमिदमागमो येनाऽऽगमतो द्रव्यमगलं स्यात् ? इति चेत् / उच्यते-आगमस्य कारणभूता आत्माऽऽदयोऽपि कारणे कार्योपचारादागमत्वेनोच्यन्ते, भवति च कारणे कार्यव्यपदेशः, यथा 'तन्दुलान् वर्षति पर्जन्यः / ' तरमा वागमता द्रव्यमङ्गल न विरुध्यते। इति गाथाऽर्थः / / 30|| अथ “नधि नयेहिं विहूणं, सुत्तं अत्थो य जिणमए किंचि। आसज्ज उ सोयारं, नयेण य विसारओ बूया।।१।।" इति वचनाजिनमते रार्वेऽपि पदार्था नयैर्विचारणीयाः, इत्यतो द्रव्यमङ्गलमपि नयैर्विचारयन्नाह - एगो मंगलमेगं, णेगा णेगाइँ णेगमनयस्स / संगहनयस्स एकं, सव्वं चिय मंगलं लोए।।३१।। वायगाणशब्दार्थस्य नैगमनयस्य मतेनैकोऽनुपयुक्तो मङ्गलशब्दार्थप्ररूपक एक द्रव्यमङ्गलम्, अनेके त्वनुपयुक्तास्तत्प्ररूपका अनेकानि द्रव्यमङ्गलानि। अयं हि नयः सामान्य विशेषांश्चाऽभ्युपगच्छत्येव, तत्र विशेषवादित्वपक्षे एकोऽनुपयुक्त एक द्रव्यमङ्गलम्, अनेके त्वनुपयुक्ता अनेकानि द्रव्यमगलानीत्युपपद्यतएव, विशेषाणां पृथग भिन्नत्वादिति। संग्रहनयस्य तुवक्ष्यमाणस्वरूपस्य केवलसामान्यवादिनोमतेन सवस्मिन्नपिलोके एकमेव द्रव्यमङ्गलम्, सर्वेषां द्रव्यमङ्गलत्वसामान्यादव्यतिरिक्तत्वात, व्यतिरेके
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________________ मंगल 10- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मंगल चाऽद्रव्यमङ्गलत्वप्राप्तेः, सामान्यस्य च विभुवनेऽप्येकत्वात् / इति गाथाऽर्थः // 31 // एतदेवाऽह - एक निचं निरवय-वमक्कियं सव्वगं च सामन्नं / निस्सामन्नत्ताओ, नत्थि विसेसो खपुष्पं व // 32 // एकम्-अद्वितीयत्वादेकसङ्ख्योपेतं सामान्यम् / एकमपि क्षणिक स्यात्, तत्राऽऽह-नित्यमनपायि / नित्यमप्याकाशवत् सावयवं स्यात्, तन्निरवयवत्त्चे सवितुरुदयाऽस्तमनाऽयोगात्, इत्यत्राऽऽह-निरवयव- | मनश, पूर्वापरकोटिशून्यत्वादिति / निरवयवमपि परमाणुवत् सक्रिय स्यात्, अत आह-अक्रिय क्रियारहितम्, परिस्पन्दविनिर्मुक्तत्वादिति। अक्रियमपि दिगादिवत् सर्वगतं न स्यात्, अत्राऽऽह-सर्वगं च सकललोकाऽवाप्तसत्ताकम् / इदमित्थं भूतं सामान्यमे वाऽस्ति, न तु विशेषः कश्चनाऽपि विद्यते / कुत इत्याह-निःसामान्यत्वात्-सामान्यविरहितत्वात्, खपुष्पवत्, यचाऽस्ति तत् सामान्यविरहितं न भवति, यथा घटः / तस्मादेकस्माद् द्रव्यमङ्गलसामान्यादव्यतिरिक्तत्वाद् तद्व्यतिरेवेचाऽद्रव्यमङ्गलताप्रसङ्गात् सामान्यस्य च त्रिभुवनेऽप्येकत्वादकमेव | संग्रहनयमते द्रव्यमङ्गलम्, इति स्थितम्। इति गाथाऽर्थः / / 32 / / अत्र विशेषवादिनयमतस्थितः कश्चिदाह-ननु कथमनेकानि द्रव्यमइगलानि न सम्भवन्ति ? यथा हि वनस्पतिरित्युक्ते वृक्ष-गुल्म-लतावीरुदादयो विशेषा एव प्रतीयन्ते, न पुनस्तदतिरिक्तः कश्चिद्धनस्पतिः, एवमिहाऽपि द्रव्यमङ्गलमित्युक्तेऽनुपयुक्ततत्प्ररूपकलक्षणा विशेषा एवाऽ-- वगम्यन्ते, न तु तदधिक किञ्चित् सामान्यम्। अतः किं शून्य इवाऽस्मिन् जगत्येवमभिधीयते-'निस्सामन्नत्ताओ, नस्थि विसेसो खपुप्फव।' इति इति विशेषवादिना प्रोक्ते सामान्यवादि संग्रहः प्राऽऽह-ननु यत एय वनस्पतिरित्युक्ते वृक्षाऽऽदयः प्रतीयन्ते, अत एव ते तदनर्थान्तरभूताः, हस्तस्येवाऽङलयः, इह यस्मिन्नुच्यमाने यत् प्रतीयते, तत् ततो | व्यतिरिक्तं न भवति, यथा हस्त इत्युक्तेऽडल्यादयः प्रतीयमाना हस्ताद् न व्यतिरिक्ताः, प्रतीयन्ते च वनस्पतिरित्युक्ते वृक्षाऽदयः, इत्यमी न वनस्पतिव्यतिरिक्ताः, ततो नसामान्यादतिरिक्तः कोऽपि विशेषः समस्ति, इत्येकमेव सर्वत्र द्रव्यमङ्गलमिति। अथोपपत्त्यन्तरेणाऽपि सामान्यवाद्येव वृक्षाऽऽदीनां सर्वेषामपि वनस्पतिसामान्यरूपतां समर्थयत्राह - चूओ वणस्सइ चिय, मूलाइगुणो त्ति तस्समूहो च / गुम्मादओ वि एवं, सव्वे न वणस्सइविसिट्टे // 33 // चूतः-आम्रो वनस्पतिरेव वनस्पतिसामान्य नव्यभिचरतीत्यर्थः, इति प्रतिज्ञा, मूल-कन्द-रकन्ध-त्वक-शाखा-प्रवाल-पत्र-पुष्प-फल बीजाऽदिगुणत्वादिति हेतुः, चूतसमूहवदिति दृष्टान्तः, इह यो यो मूलाऽऽदिगुणः स स वनस्पतिसामान्यरूप एव, यथा चूतसमूहः, मूलाऽऽदिगुणश्च चूतः, तस्माद् वनस्पतिसामान्यरूप एव, गुल्माऽदयोऽप्येवं वाच्याः, तथाहि-विशेषवादिना विशेषतयाऽभ्युपगम्यमानो गुल्मोऽपि वनस्पतिसामान्यरूप एव, मूलादिगुणत्वाद् गुल्मसमूहवत्, इति। | एवमन्येषामपि लताऽऽदिविशेषाणां वनस्पतिसामान्यादव्यतिरिक्तत्व साधनीयम्। तद्व्यतिरेके सर्वत्र मृन्मयत्वाऽऽदिप्रसङ्गो बाधक प्रमाणम्। तस्मात् सामान्यमेवाऽस्ति, न विशेषाः / इति गाथाऽर्थः / / 33 / / किञ्चसामनाउ विसेसो, अन्नोऽणन्नो व होज जइ अण्णो। सो नत्थि खपुप्फ पिवऽणण्णो सामन्नमेव तयं // 34|| भो विशेषयादिन् ! सामान्याद् विशेषोऽन्यो वा स्यात्, अनन्यो वा? इति विकल्पद्वयम् / यद्याद्यो विकल्पः, तर्हि नास्त्येव विशेषः, निःसामान्यत्वात्, खपुष्पवत्- इह यद् यत् सामान्यविनिर्मुक्त तत् तद् नास्ति, यथा गगनारविन्दम्, सामान्यविरहितश्च विशेषवादिना विशेषोऽभ्युपगम्यते, तस्माद् नास्त्येवाऽयमिति। अथाऽनन्य इति द्वितीयः पक्षः कक्षीक्रियते हन्त ! तर्हि सामान्यमेवाऽसौ, तदनन्यत्वात् सामान्याऽऽत्मवद्यद्-यस्मादनन्यत्तत्तदेव, यथा सामान्यस्यैवाऽत्मा, अनन्यश्च सामान्या विशेषः, इति सामान्यमेवाऽयमिति। यदि च-अतिपक्षपातितया सामान्येऽपि विशेषोपचारः क्रियते, तर्हि न काचित् क्वचित् क्षतिः, न [पचारेणोच्यमानो भेदस्तात्त्विकमेकत्वं बाधितुमलम, तस्मात् सामान्यमेवाऽस्ति न विशेषः / इति संग्रहनयमतेन सर्वत्रैकमेव द्रव्यमइलम्। इति गाथाऽर्थः // 34 // तदेवं संग्रहेण स्वाभिमते सामान्ये प्रतिष्ठिते विशेषवादिनी नैगमव्यवहारावाहतुःन विसेसत्थंतरभू-अमस्थि सामण्णमाह ववहारो। उवलंभव्ववहारा-भावाओ खरविसाणं व / / 3 / / ननु भोः सामान्यवादिन् ! भवताऽपि वनस्पतिसामान्यं बकुलाऽशोकचम्पक-नाग-पुन्नागा-ऽऽम-सर्जा-ऽर्जुनाऽऽदिविशेषेभ्योऽर्थान्तर वाऽभ्युपगम्येत, अनर्थान्तरं वा ? यद्यर्थान्तरम्, तर्हि नास्त्येव तद् विशेषव्यतिरेकेण, उपलब्धिक्षणप्राप्तस्य तस्योपलम्भव्यवहाराभावाद्, खरविषाणवत्। क एवमाह ? व्यवहारनयः, उपलक्षणत्वाद् विशेषवादी नैगमश्च / एतौ हि लोकव्यवहारानुयायिनौ, तद्व्यवहारश्च प्रायो विशेषनिष्ठ एव, इति विशेषानेव समर्थयत इति भावः / अथानुपलब्धिलक्षणप्राप्तं तदभ्युपगम्यते, तथाऽपि नास्ति, विशेषेभ्यः सर्वथाऽन्यत्वात्, गगनकुसुमवदिति / अथ विशेषेभ्योऽर्थान्तरं तदिति द्वितीयपक्षः, तर्हि विशेषा एव तत्, तेभ्योऽनर्थान्तरभूतत्वात्, विशेषाणामात्मस्वरूपवदिति। यदि च-विशेषेष्वपि सामान्योपचारः क्रियते, तर्हि न काचित् क्षतिः, न ह्यौपचारिकमेकत्वं तात्विकमनेकत्वं बाधते। इति गाथाऽर्थः // 35 // एतदेव समर्थयते - चूयाईएहिंतो, को सो अण्णो वणस्सई नाम ? नत्थि विसेसत्थंतर-भावाओ सो खपुष्पं व॥३६।। चूताऽऽदिभ्यो विशेषेभ्योऽन्यः को नाम वनस्पतिः, यो व्रणपिण्डीपादलेपाऽऽदिके लोकव्यवहारे उपयुज्येत ? न कोऽपीत्यर्थः। तस्मात् समस्तलोकसंव्यवहारानुपयोगित्वाद् नास्ति सामान्यम्,
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________________ मंगल 11- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मंगल खपुष्पवत इति पूक्तिमेवार्थ निगमनद्वारेणाऽऽह-'नत्थीत्यादि' तस्माद् नास्त्यसो सामान्यवादिनाऽभ्युपगम्यमानो वनस्पतिः सद्रूपेभ्यो विशेषभ्योऽर्थान्तरभावात्, खपुष्पवत् सद्रूपेभ्यो हि विशेषेभ्योऽर्थान्तरं भवत् अराद्रूपमेव भवति तथाभूतं च नास्त्येव खपुष्पवत्। इति गाथाऽर्थः / / 36 / / किं पुनः कारणं यन नैगमव्यवहारौ विशेषान् समर्थयतः ? इत्याहजं नेगमववहारा, लोअव्ववहारतप्परा सोय। पारण विसेसमओ, तो ते तग्गाहिणो दो वि॥३७।। यद्-यरमाद् नैगमव्यवहारौ लोकव्यवहारतत्परौ, स च लोकव्यवहारन्यागाऽऽदानाऽऽदिकः प्रायेण विशेषमयो-विशेषनिष्ठ एव दृश्यते, सामान्यस्य ब्रणपिण्ड्यादौ लोकेऽनुप, योगात् / 'वन' 'सेना' इत्यादी कचित् कश्चित् कथञ्चित् सामान्यस्याऽपि दृश्यते उपयोगः, इति प्रायोग्रहणम् / यत एवम्, तस्मात् तौ नैगमव्यवहारौ द्वावपि तद्ग्राहिणी विशेषाभ्युपगमपरो / इति गाथाऽर्थः / / 37|| अत्र परः प्राऽऽह - तेसिं तुल्लमयत्ते, को णु विसेसोऽमिहाणओ अन्नो?1 तुल्लत्ते वि इहं ने-गमस्स वत्थंतरे भेओ॥३८॥ तयो गमव्यवहारयोस्तुल्यमतत्वे उक्तन्यायेन विशेषवा, दितया सदृशाभिप्रायत्वे सति 'गु' चितर्के, अभिधानं नाम ततोऽन्यस्तद् वर्जयित्वाऽपरः को विशेषः ? न कश्चिदित्यर्थः / एको नैगमः, अपरस्तु व्यवहार इत्येवमनयो मैव भिद्यते न त्वभिप्राय इति भावः। आचार्य आह-'तुल्लत्ते' इत्यादि, इह विशेषाऽभ्युपगमे यद्यपि नैगमस्य व्यवहारेण सह तुल्यत्वं सदृशाभिप्रायत्वम्, तथाऽपि तस्मिन् सत्यपि वस्त्वन्तरे सामान्याऽऽदिके भेदो नानात्वमस्त्येव / इति गाथाऽर्थः / / 38 / / अथवा नैगमव्यवहारयोरनेन तुल्यमतत्वाऽऽख्यापनेन सामान्यविशेषग्राहकस्य नैगमस्य संग्रहव्यवहारनयद्वयेऽन्तर्भावः सूचितो द्रष्टव्य इति दर्शयन्नाह - जो सामण्णग्गाही, स नेगमो संगहं गओ अहवा। इयरो ववहारमिओ, जो तेण समाणनिद्देसो // 36 / / अथवेति प्रकारान्तरेण समाधानमुच्यत इत्यर्थः / तत्र नैगमस्तावत् सामान्यं मन्यते विशेषांश्च / ततो यः सामान्यग्राही नैगमः स संग्रहं गतः प्राप्तोऽन्तर्भूत इति यावत्, इतरस्तु विशेषग्राही स व्यवहारनयमितः प्राप्तोऽन्तर्गतो यो नैगमनयस्तेन सह व्यवहारनयस्याऽयं समाननिर्देशः 'जं नेगगववहारा०' (37) इत्यादिना तुल्यनिर्देशः, ततश्च तसिं तुल्लमयत्ते कोणु विसेसो०' (38) इत्यादिना यदेकत्वं परेण प्रेरित तदस्माकं न क्षतिमावहति, नैगमस्य संग्रहव्यवहारनयद्वयेऽन्तर्भावस्येष्टत्वेन सिद्धसाधनादिति भावः / यद्येवं नैगमः सङ्ख्यायात्रुट्यति, तथा च सतिषडेव नयाः प्रसजन्तीति चेत्।मा औत्सुक्यं भजस्व, सर्वभत्रार्थे पुरस्ताद्वक्ष्यामः / इति गाथाऽर्थः // 36 / / अथ ऋजुसूत्रनयमतेन द्रव्यमङ्गलं विचारयितुमाहउज्जुसुअस्स सयं सं-पयं च जं मंगलं तयं एक / नातीतमणुप्पन्न, मंगलमिटुं परकं व॥४०॥ ऋजु अतीताऽनागतपरिहारेण परकीयपरिहारेण वाऽकुटिल वस्तु सूत्रयतीति ऋजुसूत्रो नयस्तस्य स्वकमात्मीयमेव, तथा साम्प्रतं च वर्तमानक्षणभाव्येव यद्रव्यमङ्गलं तदेवैकमभिमतम्। अनभिमतप्रतिपेधमाह-नातीतम्, अतिक्रान्तसमयभावि, नाऽप्यनुत्पन्न भविष्यत्समयभाविद्रव्यमङ्गलम्, अस्यष्टम्। 'परक व परकीयं वा यद् द्रव्यमङ्गलं तदप्यस्य नेष्टम, विवक्षितकप्रज्ञापकस्याऽऽत्मानं विहाय यत् परस्मिन् वर्तत तदपि द्रव्यमङ्गलमसौनेच्छतीत्यर्थः / मन्दमतिशिक्षाऽवबोधार्थश्चाऽनभिमतप्रतिषेधः, अन्यथा ह्यभिमते कथितेऽनभिमतमर्थापत्तितो गम्यत एव / इति गाथाऽर्थः / / 40|| अभुमेवार्थ प्रयोगोपदर्शनद्वारेण समर्थयन्नाह - नातीतमणुप्पन्नं, परकीयं वा पओअणाभावा। दिटुंतो खरसिंगं, परधणमहवा जहा विफलं / / 41 // अतीतमनुत्पन्न वस्तु नास्तीति प्रतिज्ञा, प्रयोजनस्य विवक्षितफलस्य तत्राऽभावात् सर्वप्रयोजनाऽकरणादित्यर्थ इत्ययं हेतुः, दृष्टान्तस्तु खरशृङ्गम्। असत्वे चातीतानागतयोर्द्रव्यमङ्गलता दूरोत्सारितैव, धर्मिसत्व एव धर्माणामुपपद्यमानत्वादिति द्वितीयप्रयोगः क्रियते-परकीयमपि यज्ञदत्तसम्बन्ध्यपि वस्तु देवदत्तापेक्षया नास्त्येव, प्रयोजनाऽकरणात् खरविषाणवदिति हेतुदृष्टान्तौ तावेव, अथवा-यथा परस्य यज्ञदत्तस्य धनं देवदत्तापेक्षया विफलं प्रयोजनाऽसाधकं सदनास्ति, तथा सर्वमपि परकीय नास्तीति द्वितीयो दृष्टान्तः। इति कुतः परकीयस्याऽपि द्रव्यमङ्गलत्वम् ? इति गाथाऽर्थः // 41 // शब्द-समभिरूढ-वम्भूतास्तु विशुद्धनयत्वादागमतो द्रव्यमङ्गल नेच्छन्त्येव कस्मात् ? इत्याह - जाणं नाणुवउत्तोऽ-णुबउत्तो वा न याणई जम्हा। जाणतोऽणुवउत्तो, त्ति बिति सद्दादयोऽवत्थु / / 4 / / (जम्हा) इति यस्मात् जानन्नवबुध्यमानो, 'मङ्गलं' इति गम्यते, नानुपयुक्तो न तज्ज्ञानोपयोगशून्यो भवति, ज्ञायकस्य ज्ञानोपयोगनान्तरीयकत्वात् / अनुपयुक्तो वा तत्र न तजानीते न तस्य ज्ञायकोऽसौ व्यपदिश्यते; अज्ञायकत्वाभिमतवत् काष्ठाऽऽदिवत् वेत्यर्थः। तस्माजानन्ननुपयुक्तश्चेति एतदप्यवस्तु असदभाव इति यावत्, एतद् ब्रुवते शब्दाऽऽदयः शब्द-समभिरूदैवम्भूतनयाः / इति गाथाऽर्थ, // 42 // अत्राऽर्थे उपपत्तिमाह - हेऊ विरुद्धधम्मत्तणा हि जीवो व्व चेअणारहिओ। न य सो मंगलमिटुं, तयत्थसुन्नो त्ति पावं व // 43 // जानन्ननुपयुक्त श्चेत्येतदवस्तु इत्यस्यामनन्तरातिक्रान्तगाथापर्यन्तकृतप्रतिज्ञायामयं हेतुः / कः ? इत्याह-विरुद्धधम्मत्तणा हि ति विरुद्धौ धर्मों यत्र तत् तथा तद्रावस्तरमाद् विरुद्धधर्मत्वादिति / दृष्टन्तमाह-यथा जीवश्चेतनारहितः। इदमुक्तंभवति-यथा जीवश्चेतनारहितश्च माता चबन्ध्या चेत्यादि विरुद्धधर्माध्यासादवस्तु, एवं ज्ञायकश्चाऽनुपयुक्तश्चेत्येतदप्यवस्त्वेव। भवतुवा ज्ञायकोऽनुपयुक्तश्च तथाऽपि नास्माकमसौमङ्गलत्वेनेष्टः,
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________________ मंगल 12- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मंगल तदर्थशून्यत्वाद् -मङ्गलार्थशून्यत्वात्, पापवदिति / भावमङ्गलग्राहिणो ह्यमी कथं द्रव्यमङ्गलमिच्छन्ति ? इति भावः। इति गाथाऽर्थः / / 4 / / तदेवं विचारितं नयैर्द्रव्यमङ्गलम् तथा च सति समर्थितमागमतो द्रव्यमङ्गलम्। अथ नो आगमतस्तदभिधीयते। तच्च ज्ञशरीरभव्यशरीरतदव्यतिरिक्तभेदात् त्रिधा। तत्र ज्ञशरीरभव्यशरलक्षणभेदद्वयमाह - मंगलपयत्थजाणय-देहो भवस्स वा सजीवो त्ति। नोआगमओ दवं, आगमरहिओ त्तिजं भणिअं॥४४।। 'नोआगमओ दव्वं ति' नो आगमतो ज्ञशरीरं द्रव्यमङ्गलमित्यर्थः। कः? इत्याह-मङ्गलपदार्थज्ञस्य देहः इदमुक्तं भवति-इह मङ्गलपदार्थः पूर्वं येन स्वयं सम्यग् विज्ञातः, परेभ्यश्च प्ररूपितः तस्य सम्बन्धी जीवविप्रमुक्तः सिद्धशिलातलाऽऽदिगतो देहोऽतीतकालनयानुवृत्त्याऽतीतमङ्गलपदार्थज्ञानाऽऽधारत्वाद् नोआगमतो द्रव्यमङ्गलमुच्यते। नोशब्दस्येह सर्वनिषेधवचनत्वात्, आगमस्य च सर्वथाऽत्राऽभावाद् नोआगमता द्रष्टव्या, अतीतमङ्गलपदार्थज्ञानलक्षणाऽऽगमपर्यायकारणत्वात्तु द्रव्यमङ्गलता, यथाऽतीतघृताऽऽधारपर्यायकारणत्वाद् रिक्तघृतकुम्भे घृतघटतेति / 'भवस्स वत्ति' वाशब्दो द्वितीयपक्षसमुच्चये, भव्यस्य च मङ्गलपदार्थज्ञानयोग्यस्य सम्बन्धी 'देहः' इति वर्त्तते, स जीवः सचेतनो नोआगमतो भव्यशरीरद्रव्यमङ्गलमित्यर्थः / इदमत्र हृदयम्- य इदानीं मङ्गलपदार्थन जानीते, भविष्यति तु काले ज्ञास्यति; तस्य सम्बन्धी सचेतनो देहो भविष्यत्कालनयाऽनुवृत्त्या भविष्यन्मङ्गलपदार्थज्ञानाऽऽधारत्वाद् नोआगमतो भव्यशरीरद्रव्यमङ्गलमिति। अत्राऽपि नोशब्दस्य सर्वनिषेधपरत्वात्; आगमस्य चेदानीमभावाद् नोआगमता समवसेया। भविष्यत्काले मङ्गलपदार्थज्ञानलक्षणस्याऽऽगमस्य कारणत्वात् तुद्रव्यमङ्गलता, यथा भविष्यद्धृताऽऽधारपर्यायकारणत्वाद् रिक्तघृतकुम्भे घृतघटता। नोआगमत इत्थेतद्, विवृण्वन्नाह-'आगमरहिओ' इत्यादि, नोशब्दस्य सर्वनिषेधवचनत्वाद्नोआगमत इत्यनेनैतदुक्तं भवति, किम् ? इत्याहमङ्गलपदार्थज्ञस्य भव्यस्य च सम्बन्धी अचेतनः सचेतनश्च देहो वर्तमानकाले सर्वयैवाऽऽगमरहितः। इति गाथाऽर्थः / / 44 // तदेवं सर्वनिषेधवचनत्वेनोशब्दस्यैवमुदाहरणमुपदर्शितम्, यदिवादेशनिषेधपरेऽपिनोशब्दे एतत् सम्बध्यत एवेति दर्शयन्नाहअहवा नो देसम्मी, नोआगमओ तदेगदेसाओ। भूयस्स भाविणो वा-ऽऽगमस्स जं कारणं देहो // 5|| अथवा 'नो' इति नोशब्दः 'देसम्मि ति देशनिषेधवचनो विवक्ष्यत इत्यर्थः / ततश्च नोआगमत इति कोऽर्थः ? इत्याह-तदेकदेशादागमैकदेशादागमैकदेशमाश्रित्य द्रव्यमङ्गलमित्यर्थः। किं पुनस्तत् ? इति चेत्। मङ्गलपदार्थज्ञस्याऽचेतनः, भव्यस्य तु सचेतनो देह इत्यनुवर्तमानं सम्बध्यते। कः पुनरिहाऽऽगमस्येकदेशो यमाश्रित्य नोभागमतो द्रव्यमगलमिदं स्यात् ? इति / अत्रोच्यते-यथोक्तो ज्ञभव्यशरीररूपो देह एवाऽत्राऽऽगमेकदेशः। ननु जडस्य देहस्य कथमागमेकदेशता ? इति। अत्राऽऽह-भूयस्से' त्यादि, यद्-यस्माद चेतनो देहो भूतस्याऽतीतस्य मङ्गलपदार्थज्ञानलक्षणस्याऽऽगमस्य कारणं हेतुः, सचेतनस्तु भव्यदेहो भाविनो यथोक्तस्याऽऽगमस्य कारणम्, तस्माद् निजकार्यस्याऽऽगमस्यैकदेशेवर्तत एव, कारणं हि कार्यस्येकदेशे वर्तत एव, यथा मृत्ति का घटस्य। अभेद एव घट-मृत्तिकयोरिति चेत्। नैवम्, भेदयोरेव जैनैरिष्टत्यात्, यद्वक्ष्यति सम्मतौ-"नत्थिपुढवीविसिट्ठो, घडो त्तिजंतेण जुज्जइ अणण्णो। जंपुण घडो त्ति पुव्वं, नासी पुढवी तओ अण्णो॥५२॥" आहननु मङ्गगलपदार्थज्ञानस्य परिणामिकारणं जीव एव, ततस्तस्य स्वकार्यकदेशे वृत्तिरस्तु, यथा मृत्तिकायाः, शरीरं त्वागमस्य परिणामिकारणं न भवति, अतः कथं तस्य तदेकदेशवृत्तिता? सत्यम्, किन्तु"अण्णण्णाणुगयाणं, इमंचतंच त्ति विभयणमजुत्तं / जह खीरपाणियाणं" इत्यादिवचनात् संसारिणो जीवस्य शरीरेण सहाऽभेद एव व्यवहियते, अतो जीवस्य परिणामिकारणत्वे शरीरस्याऽपि तद् विवक्ष्यते, इत्यस्याऽऽगमैकदेशता न विरुध्यते। भवत्वेवम्, तथाऽप्यागमतो द्रव्यमङ्गलम् प्राग यदुक्तं तेन सहाऽस्य को भेदः ? तत्रापि हि- "आगमकारणमाया देहो सहो य” इति वचनाच्छरीरमेव द्रव्यमङ्गलमुक्तम्, अत्राऽपि च तदेव; इति कथं नैकत्वम् ? सत्यम्, किन्तु-प्रागुपयोगरूप एवाऽऽगमो नास्ति, लब्धितस्तु विद्यत एव, अत्र तूमयस्वरूपोऽपि नास्ति, कारणमात्रस्यैव सत्त्वात्। इति गाथार्थः / / 4 / / तदेवं दर्शितं ज्ञशरीर-भव्यशरीरलक्षणं नोआगमतो द्रव्यमङ्गलभेदद्वयम्। साम्प्रतं ज्ञशरीर-भव्यशरीरव्यतिरिक्तस्यरूपं तत्तृतीयभेदं दर्शयन्नाह - जाणय-भवसरीरराऽइरित्तमिह दध्वमंगलं होइ। जा मंगल्ला किरिआ, तं कुणमाणो अणुवउत्तो।।४६|| इह तावद् भावतः-परमार्थतो मङ्गलं द्विविधम्-जिनप्रणीत आगमः, तत्प्रणीता मङ्गल्या प्रत्युपेक्षणाऽऽदिक्रिया च / इतश्च पूर्वमागमतो नोआगमतश्च यद् द्रव्यमङ्गलमुक्तं तत्सर्वमागममङ्गलापेक्षमेव, ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तंतुद्रव्यमङ्गलं मङ्गल्यक्रियामेवाऽऽश्रित्य भणिष्यतइति परिभावनीयम्। अथ गाथार्थो व्याख्यायते-तत्र ज्ञशरीरभव्यशरी-राभ्यां व्यतिरिक्तमिह द्रव्यमङ्गलं भवति। कः ? इत्याह-अनुपयुक्तः तांकुर्वाणोया। किम् ? इत्याह-या प्रत्युपेक्षणप्रमार्जनाऽऽदिका मङ्गल्या क्रिया / इदमुक्तं भवति-योऽनुपयुक्तो जिनप्रणीतां मङ्गलरूपांप्रत्युपेक्षणाऽऽदिक्रियां करोति, स नोआगमतोज्ञशरीरभव्यशरीरातिरिक्तंद्रव्यमङ्गलम्, उपयोगरूपोऽत्राऽऽगमो नास्तीति नोआगमता।ज्ञशरीरभव्यशरीरयोञ्जनापेक्षा द्रव्यमङ्गलता, अत्र तु क्रियापेक्षा, अतस्तद्व्यतिरिक्तत्वम्, अनुपयुक्तस्य क्रियाकरणात्
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________________ मंगल 13 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मंगल तु द्रव्यमानत्वं भावनीयम्, उपयुक्तस्य तु क्रिया यदि गृह्येत तदा भातमगलत व स्यादिति भावः / इति गाथाऽर्थः / / 46 / / अथ प्रकारान्तरेणाऽपि प्रस्तुतमङ्गलमाह - जं भूयभावमङ्गल-परिणामं तस्स वा जयं जोग्गं / जंवा सहावसोहण-वन्नाइगुणं सुवण्णाइ।१४७।। तं पि य हु भावमंगल-कारणओ मंगलं ति निद्दिट्ट / नोआगमओ दव्वं, नोसद्दो सव्वपडिसेहे // 48 // नोआगमता ज्ञशरीर-भव्यशरीरव्यतिरिक्तं द्रव्यं द्रव्यमङ्गलमित्यर्थ इति द्वितीयगाथोनरार्थे सबन्धः / किं तत् ? इत्याह-यद् भूतभावमङ्गलपरिणामम, इह भावमङ्गलशब्देन चरणकरणक्रियाकलापोऽभिप्रेतः, तस्य परिणमनं परिणतिः प्रवृत्तिर्भावमङ्गलपरिणामः, भूतः पूर्व संजातो भावमङ्गलपरिणामो यस्य तद् भूतभावमङ्गलपरिणामम, सांप्रतं तु तच्छ्न्य म्, तत्पुनः कस्यापि शरीरं जीवद्रव्यं वा, तद् नोआगमतो ज्ञशरीर भवाशरीव्यतिरिक्त द्रव्यमङ्गलं बोद्धव्यम्। 'तस्सवा जयं जोग्ग ति' अथवा-तस्य-यथोक्तस्य भावमङ्गलपरिणामस्य यद्योग्यमह शरीर जीवद्रव्यं वा, तद्नाआगमतो ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तं द्रव्यमङ्गलम्। अथवा-यत् स्वभावत एव शोभनवर्णाऽऽदिगुण सुवर्णाऽऽदिक वस्तु, आदिशब्दाद रत्न-दध्य-5क्षत-कुसुम-मङ्गलकलशाऽऽदिपरिग्रहः, तदेतज्ज्ञ-भव्यशरीव्यतिरिक्तं द्रव्यमङ्गलम्। ननु कथं तद् मङ्गलम् ? इत्याह-'तं पी' त्यादि, हुर्यस्मादर्थ, यस्मात् तदपि-सुवर्णाऽऽदिकं कस्यापि भावमङ्गलकारणत्वाद मङ्गलं निर्दिष्टम्। यच कारणं तद् "भूतस्य भाविनो वा, भावस्य हि कारणं तु यल्लोके। तद्रव्यम्" इत्यादिवचनाद द्रव्यलयाऽपि व्यपदिश्यते, अतो द्रव्यमङ्गलं भवति। नोशब्दः सर्वप्रतिषेधे, आगमस्येह सर्वथैवाऽभावादिति। पूर्वं ज्ञभव्यशरीरयोः केवलमागमाभावापक्षं द्रव्यमगलत्वमुक्तम्, अत्र तु क्रियाऽभावमाश्रित्य इति भावनीयम् / इति गाथाऽर्थः // 47 // 48 // तदेवं प्रतिपादितमागमतो नोआगमतश्च द्रव्यमङ्गलम् / अथ भावमइलमुच्यते, तस्य च लक्षणं नामस्थापना-द्रव्याणामिव भाष्यकृता कनापि कारणन नोक्रन्। तचेत्थमवगन्तव्यम् - "भावो विवक्षितक्रियाऽनु भुतियुक्तो हि वै समाख्यातः / सर्वज्ञैरिन्द्रादिव-दिहेन्दनाऽऽदिक्रियानुभवात् / / 1 / / " इति / अत्राऽयमर्थः-भवनं विवक्षितरूपेण परिणमनं भावः, अथवा-भवति विवक्षितरूपेण संपद्यत इति भावः / : पुनरयम ? इत्याह - वक्तुवक्षिता इन्दन-ज्वलन-जीवनाऽऽदिका या क्रिया तस्या अनुभलिरनुभव तथा युक्तो विवक्षितक्रियाऽनुभूतियुक्तः, सर्वज्ञः सभा१९५यातः / क इव ? इत्याहइन्द्राऽऽदिवत्-स्वर्गाधिपाऽऽदिवत्, आदिशब्दाद-ज्व तनजीवनाऽऽदिपरिग्रहः / सोऽपि कथं भावः ? इत्याह - इदिनादिक्रियाऽनुभयात्' इति, आदिशब्देन ज्वलन-जीवनाऽऽदिब्रियास्वीकारः। विवक्षितेन्दनाऽऽदिकियाऽन्धितो लोके प्रसिद्धः पारमाथिकपदार्थो भाव उच्यते। भावश्चासा मङ्गलंच भावमङ्गलम्, भावतोवा परमार्थतो महलं भावमङ्गलमिति प्रस्तुतयोजना। एतदपि द्विविधम् - आगमतश्च, नोआगमतश्च / तत्राऽऽगमतस्तावदाह - मंगलसुयउवउत्तो, आगमओ भावमंगलं होइ / नोआगमओ भावो, सुविसुद्धो खाइयाईओ।।४६|| ___ मङ्गल च तच्छ्रुतं च मङ्गलश्रुतं; मङ्गलशब्दार्थज्ञानमित्यर्थः, तस्मिन्नुपयुक्तो 'वक्ता' इति गम्यते, आगमतो भावमङ्गलं भवति / अत्राऽऽह-ननु मगलपदार्थज्ञानोपयोगमात्रेण कथं सर्वोऽपि वक्ता भावमङ्गलमुच्यते ? तदुपयोगमात्रस्येव तद्रूपताया युक्तिसङ्गतत्वात्, न ह्यग्निज्ञानोपयुक्तो माणवकोऽग्निरेव भवितुमर्हति, तदाह-पाकाऽऽदिक्रियाकरणप्रसङ्गादिति / अत्रोच्यते-उपयोगः, ज्ञानं, संवेदन, प्रत्यथ इति तावदनान्तरम्, अर्थाऽभिधानप्रत्ययाश्च लोके सर्वत्र तुल्यनामधेयाः, बाह्यः पृथुबुध्नोदराऽऽकारोऽर्थोऽपिघट उच्यते, तद्वाचकमभिधानमपि घटोऽभिधीयते, तज्ज्ञानरूपः प्रत्ययोऽपि घ्ज्ञटो व्यपदिश्यत इत्यर्थः / तथाहि लोके वक्तारो भवन्ति-किमिदं पुरतो दृश्यते ? घटः। किमसौ वक्ति ? घटम् : किमस्य चेतसि स्फुरति ? घटः। एवं च सति यद् घट इति ज्ञानं तदव्यतिरिक्तो ज्ञाता तल्लक्षणो गृह्यते, अन्यथा यदि ज्ञानज्ञानिनोरव्यतिरेको न स्यात् तदा ज्ञाने सत्यपि ज्ञानी नोपलभेत वस्तुनिवहम्, अतन्मयत्वात्. प्रदीपहस्ताऽन्धवत्, पुरुषान्तरवद् वा / न चाऽनाकारतज्ज्ञानम्, पदार्थान्तरवद् विवक्षितपदार्थस्याऽप्यपरिच्छेदप्रसङ्गात् / अपि च-घटाऽऽदिज्ञानतद्वतोय॑तिरेके बन्धाऽऽद्यभावः प्राप्नोति, यथा हि ज्ञानाऽज्ञानसुख-दुःखाऽऽदिपरिणामस्याऽन्यत्वे आकाशस्य बन्धाऽऽदयो न भवन्ति, एवं जीवस्याऽपि न भवेयुरिति भावः / / आह-यदि घटोपयोगानन्यत्वाद् देवदत्तोऽपिघटः, अग्न्युपयोगानन्यत्वाच माणवकोऽप्यनिः, तर्हि जलाऽऽहरणदाह-पाकाऽऽद्यर्थक्रियाप्रसङ्ग / तदयुक्तम्, न हि सर्वोऽपि घटो जलाऽऽहरणं करोति, नापि समस्तोऽप्यग्निहपाकाऽऽद्यर्थक्रियां सार्धयति, कोणेऽवामुखीकृतघटेन भस्मच्छन्नवह्निना च व्यभिचारात्। न चाऽसौ न घटः, नाग्निर्वा, लोकप्रतीतिबाधाप्रसगात्। तस्मादमङ्गलपदार्थज्ञानोपयोगाऽनन्यत्वादागमतस्तदुपयुक्तो भावमङ्गलमितिस्थितम् / / नोआगमतस्तु आगमस्य सर्वनिषेधमाश्रित्य सुविशुद्धः प्रशस्तः क्षायिकक्षायोपशमिकाऽऽदिको भावा भावमङ्गलम, भाव एव मङ्गलं भावमङ्गलमिति कृत्वा। उपलक्षणव्याख्यानादागमवर्जज्ञानचतुष्टय-दर्शन-चारित्राणि च नोआगमतो भावमहलतथा वाच्यानि, भावतः परमार्थतो मङ्गलं भावमङ्गलमिति कृत्वा। इति गाथाऽर्थः / / 46 / / प्रकारान्तरेणाऽपि नोआगमतो भावमङ्गलमाहअहवा सम्मइंसण-नाणचरित्तोवओगपरिणामो। नोआगमओ भावो, नोसहो मिस्सभावम्मि / / 5 / / अथवा- प्रतिक्रमण - प्रत्युपेक्षणाऽऽदिक्रियां कुर्वाणस्य यो ज्ञानदर्शन-चारित्रोपयोगपरिणामः, सनोआगमतो भावो भावङ्गलं भवति।
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________________ मंगल 14 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मंगल - नोशब्दश्याऽत्र मिश्रवचनः, यस्माद्नाऽसौ ज्ञान-दर्शन-चारित्रोपयोग- तथा द्रष्टुश्च यथा तदाकारदर्शनादिन्द्रबुद्धिरुपजायते, यथा चैनमुपरिणानः केवल एवाऽऽगमः, चारित्राऽऽदेरपि सद्भावात्, नाऽप्यनागम पसेवमानानां तद्भक्तिपरिणतबुद्धीनां नमस्करणाऽऽदिका क्रिया संधीएघ, ज्ञानस्याऽपि विद्यमानत्वात्, इति मिश्रता। इति गाथाऽर्थः / / 50|| क्ष्यते, फलं च यथा प्रायेणोपलभ्यते पुत्रोत्पत्त्यादिकम्, न तथा नामेन्द्रे, अथाऽन्येन प्रकारेणाऽऽह नाऽपि द्रव्येन्द्रे। ततो नाम-द्रव्याभ्यां तावद् व्यक्त एव भेदः स्थापनाया अहवेह नमुक्करो-इनाणकिरिआविमिस्सपरिणामो। इति भावः। इति गाथाऽर्थः / / 53 / / नोआगमओ भण्णइ, जम्हा से आगमो देसे / / 51 / / तदेवं रपष्टतया लक्ष्यमाणत्वादादावेव नाम-द्रव्याभ्यां स्थापनाया अथवेह नोआगमतो भावमङ्गलाधिकारे नमस्करणं नमस्कारोऽहंदादि भेदमभिधाय नाम-स्थापनाभ्यां प्रणतिरित्यर्थः, स आदिर्येषां स्तोत्राऽऽदीना ते नमस्काराऽऽदयस्तेषु द्रव्यस्य भेदमभिधित्सुराह - ज्ञानोपयोगो नमस्काराऽऽदिज्ञानम्, क्रिया शिरसि करकमलमुकुल- भावस्स कारणं जह, दव्वं भावो अतस्स पज्जाओ। विधानाऽऽदिका, नमस्काराऽऽदिज्ञानं च क्रिया च नमस्काराऽऽदिज्ञान- उवओगपरिणइमओ, न तहा नामं न वा ठवणा / / 5 / / क्रिये ताभ्यां विमिश्रश्वासौ परिणामश्च। स किम् ?, इत्याह- 'नो' यथाऽनुपयुक्तवक्तृप्रभृतिकं साधुद्रव्येन्द्राऽदिकं वा द्रव्यं भावस्योपइत्यादि, चैत्यवन्दनाऽऽद्यवस्थाया यो नमस्काराऽऽदिज्ञान-क्रिया- योगरूपस्य भावेन्द्रपरिणतिरूपस्य वा यथासंख्येन कारणं निमित्तं मिश्रितपरिणामः स नोआगमतो भावमङ्गलं भण्यत इत्यर्थः / कुतः?, भवति, यथा च-'उवओगपरिणइमओ त्ति' उपयोगमयो भावेन्द्रपरिणइत्याह-यस्मात् (से) तस्यैव भावतः परिणामस्याऽगमो नमस्काराss- तिमयश्च भावो यथासंख्येन तस्याऽनुपयुक्तवत्कृप्रभृतिकस्य साधुद्रव्येदिज्ञानोपयोगलक्षणो देशे एकदेशेऽवयवे वर्तते, नोशब्दश्चेहैकदेशवचनः / न्द्राऽऽदिकस्य वा द्रव्यस्य पर्यायो धर्मो भवति, न तथा नाम, नाऽपि इति गाथाऽर्थः / / 51 // स्थापनेति। इदमुक्तं भवति-यथाऽनुपयुक्तो वक्ता द्रव्यं कदाचिदुपयुक्तत्वतदेयमुपदर्शितं नाम-स्थापना-द्रव्य-भावभेदतश्चतुर्विधं मङ्गलम्। काले तस्योपयोगलक्षणस्य भावस्य कारणं भवति. सोऽपि वोपयोगएतेषु च नामाऽऽदिमङ्गलेष्वाद्यत्रयस्याऽन्योऽन्यमभेदं पश्यन् परः लक्षणो भावस्तस्याऽनुपयुक्तवक्तृरूप्रस्य द्रव्यस्य पर्यायो भवति, यथा प्रेरयति - वा साधुजीवो द्रव्येन्द्रः सन् भावेनद्ररूपायाः परिणतेः कारणं भवति, अभिहाणं दव्वत्तं, तयत्थसुन्नत्तणं च तुल्लाइं। सोऽपि वा भावेन्द्रपरिणतिरूपो भावस्तस्य साधुजीवद्रव्येन्द्रस्य पर्यायो को भाववजिआणं, नामाईणं, पइविसेसो ? ||52 / / भवति, न तथा नाम-स्थापने। अतस्ताभ्यां द्रव्यस्य भेदः, नाम्नस्तु भाववर्जितानां भावमेकं वर्जयित्वा शेषाणां-नामाऽऽदीना नाम- स्थापना-द्रव्याभ्यां भेदः सामदेिवाऽवसीयत इति / तदेवं यद्यपि स्थापना-द्रव्याणामित्यर्थः,कः प्रतिविशेषः? न कश्चिदित्यर्थः। कुतः? परप्रेरितप्रकारेण नाम-स्थापनाद्रव्याणामभेदः, तथाप्युक्तरूपेण प्रकाइति चेत् / उच्यते-यत एतानि त्रिष्वपि तुल्यानि / कानि पुनस्तानि? रान्तरेण भेदः सिद्धएव, नहि दुग्धतक्राऽऽदीनां श्वेतत्वाऽऽदिनाऽभेदेऽपि इत्याह-अभिधानं तावद् नाम त्रिष्वपि तुल्यम्, नामवति पदार्थ, माधुर्याऽऽदिनाऽपिन भेदः, अनन्तधर्माध्यासितत्वावस्तुन इति भावः / स्थापनाया, द्रव्ये चमङ्गलाभिधानमात्रस्य सर्वत्र भावात्। तथा द्रव्यत्वमपि इति गाथाऽर्थः / / 5 / / त्रिष्वपि तुल्यम, यतः-“जस्स णं जीवस्स वा अजीवस्स वा मंगलं ति तदेवं भेदव्याख्यापक्षे समर्थित भूयोऽप्यपरेण नाम कीरइ / " इत्यादि वचनाद नामनि तावद् द्रव्यमेवाऽभिसंबध्यते, प्रकारेणाऽऽह परःस्थापनायामपि “यत् स्थाप्यते" इति वचनाद द्रव्यमेवाऽऽयोज्यते, द्रव्ये इह भावो चिय वत्थु, तयत्थसुन्नेहि किं व सेसेहिं ? / तुद्रव्यत्वं विद्यतएव, इति त्रिष्वपि द्रव्यत्यस्य तुल्यता। तथा तदर्थशून्यत्वं नामादओ वि भावा, जं ते वि हु वत्थुपजाया // 55 / / च भावार्थशून्यत्वं च विष्वपि समानम्, नामस्थापनाद्रव्येषु भावमङ्ग- इह नामाऽदिविचारे प्रक्रान्ते भाव एव वस्तु, विवक्षितार्थक्रियासाधकलस्याऽभावात् / तस्मादभिधान-द्रव्यत्व-भावार्थशून्यत्याना समान- त्वात्, उभयसम्मतवस्तुवत्, न हि भावेन्द्रवद् विवक्षितार्थसाधनसमर्था त्वाद् नाम-स्थापना-द्रव्याणां परस्परमभेदः, भावे तु तदर्थशून्यत्वं गोपालदारकाऽद्या नामेन्द्राऽऽदयः, अतः किमत्र शेषैर्भावार्थशून्यैर्नामानास्ति, इत्येतावताऽसौ नामाऽऽदिभ्यो विशेष्यत इति भावः / इति ऽऽदिभिः ?, न किञ्चिदित्यर्थः / अत्रोत्तरमाह-'नामादओ' इत्यादि। गाथाऽर्थः / / 524 इदमुक्त भवति-यदि सामान्येनैव भावो वस्तुत्वेनाऽभ्युपगम्यते, तदा परेणैवमविशेषे प्रेरिते यो विशेषः, सिद्धसाझ्यता, यतो नामाऽऽदयोऽपि, आदिशब्दात स्थापना-द्रव्यपरितमभिघित्सुः सूरिराह - ग्रहः, भावाः, भावविशेषा इत्यर्थः / कुतः?, इत्याह-यद्-यस्मात् तेऽपिआगारोऽभिप्पाओ, बुद्धी किरिया फलं च पाएण। नामाऽऽदयो वस्तुनः पर्याथा धर्माः, तथाहि-अविशिष्ट इन्द्रवस्तुन्युचरिते जह दीसइ ठवपिंदे, न तहा नामे न दव्विंदे // 53 / / नामाऽऽदिकं भेदचतुष्टयमपि प्रतीयते-किमनेन नामेन्द्रो विवक्षितः यथा स्थापनेन्द्रे आकारो लोचनसहस्र-कुण्डल-किरीटशचीसनिधान- आहोस्वित् स्थापनेन्द्रः, द्रव्येन्द्रः, भावेन्द्रोवा?, इति। ततः सामान्यकरकुलिशधारण-सिंहासनाऽध्यासनाऽऽदिजनितातिशयो देहसौन्दर्य- | स्येन्द्रवस्तुनश्चत्वारोऽप्यमी पर्यायाः, इति नामाऽऽदयो भावविशेषा एव, भावो दृश्यते, तथा स्थापनाकर्तुश्च यथा सद्भूतेन्द्राभिप्रायो विलोक्यते, / इति भावस्य वस्तुत्वसाधने न किञ्चिद्, नः सूयते पर्यायः, भेदः, भाव
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________________ मंगल 15 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 इत्यनान्तरत्वात्। अथ विशिष्टार्थक्रियासाधक भावेन्द्राऽऽदिकं भावमाश्रित्य वस्तुत्वं साध्यते, तथाऽपि न काचित क्षतिः, यतो भावेन्द्राऽऽदेभर्भावस्य विशिष्टार्थकियानिर्वर्तकत्वे नामेन्द्राऽऽदिपर्यायाणामपि तद्द्रष्टव्यमेव, द्रव्यरूपतया पर्यायाण परस्परमभेदात्। इति गाथाऽर्थः / / 55 / / अथवा-भावमङ्गलाऽऽदिकारणत्वात् नामाऽऽदीन्यपि भावमङ्गलाऽऽदिरूपाण्येव, इति दर्शयन्नाहअहवा नाम-ठवणा-दव्वाइं भावमंगलंऽगाई। पाएण भावमंगल-परिणामनिमित्तभावाओ।।५६।। अथवा नाम - स्थापना-द्रव्याणि भावङ्गलस्यैवाऽङ्गानि कारणनि। कुतः ? इत्याह-'पारण इत्यादि भावमङ्गलपरिणामो भावमङ्गलोपयोगो भावमङ्गलसाध्वादिपरिणतिरूपो वा, तन्निमित्तभावात तत्कारणत्वादित्यर्थः / यच यस्य कारणं तत्तद्व्यपदेशं लभत एव, यथा आयुर्घतम्' 'रूपको भोजनम्' इत्यादि। क्लिष्टकर्मणा केषाश्चिद नामाऽऽदीनि भावभङ्गलकारणानि न भवन्त्यपि, इति प्रायोग्रहणम् / मङ्गलविचारश्चेह प्रकान्तः, तेन भावमङ्गलकारणानि नामाऽऽदीन्युक्तानि, यावता भावेन्द्राऽऽदेरपि तानि कारणत्वेन द्रष्टव्यान्येव / तस्माद् भावमङ्गलाऽऽदिकारणत्वाद् नामाऽऽदीन्यपि तद्रूपाण्येव, इति भावस्य वस्तुत्वसाधने नामाऽऽदीनामपि तत्कारणत्वात् तद् न भूयते। इति गाथाऽर्थः।।५६।। अथ नामाऽऽदीनां भावमङ्गलकारणत्वे उदाहरणान्याह - जह मंगलाभिहाणं,सिद्धं विजयं जिणिंदनामंच। सोऊण पेच्छिऊण य, जिणपडिमालक्खणाईणि / 57 / परिनिवुयमुणिदेहं, भव्वजइजनं सुवन्नमल्लाई। दहण भावमङ्गल-परिणामो होइ पाएण ||58 / / यथेत्युदाहरणोपदर्शनार्थः, तद्यथेत्यर्थः / मङ्गलमिति शब्दरूपमभिधानम्, तथा 'सिद्ध सिद्धाऽभिधानम्, विजयाऽभिधानम्, जिनेन्द्राऽ5दिनाम च केनचिदुचरितं श्रुत्वा कस्यचित् प्रायेण सम्यग्दर्शनाऽऽदिको भावमङ्गलपरिणामो भवति, इति नाम्नो भावमङ्गलकारणत्वे उदाहरणम् / तथा प्रेक्ष्य चाऽवलोक्य जिनप्रतिमालक्षणाऽदीनि जिनप्रतिमास्वस्तिकाऽऽदीनीत्यर्थः, आदिशब्दादनगारपदाऽऽदिपरिग्रहः भावमङ्गलपरिणामो भवतीत्यत्राऽपि संबध्यते। एतत्तु स्थापनाया भावमङ्गलकारणत्वे उदाहरणम् / अथ द्रव्यस्य तत्कारणत्वे दृष्टान्तमाह-परिनिर्वृतो मुक्ति गतो योऽसौ मुनिस्तद्देहम्, तथा भव्ययतिर्भविष्यद्यतिपर्यायो योऽसौ जनस्तम्, तथा सुवर्णमाल्याऽदि च दृष्ट्वा प्रायेण सम्यग्दर्शनाऽऽदिभावमङ्गलपरिणामो भवतीति / असस्तत्कारणत्वाद् नामाऽऽदीन्यपि भावमङ्गलानि, इति स्थितम् / इति गाथाद्वयाऽर्थः / / 57 / / 58 / / ननु नामाऽऽदीन्यपि यदि भावमङ्गलानि, तर्हि किं तान्यपि तीर्थ कराऽऽदिवत् पूज्यानि?, इत्याशङ्कयाऽऽहकिं पुण तमणेगंतिय-मचन्तं च न जओऽमिहाणाई। तविवरीअं भावे, तेण विसेसेण तं पुजं // 56 // नामाऽऽदीन्युपयुक्तयुक्या भावमङ्गलानि / किं पुनः ?, यो विशेषः स उच्यते-तदभिधानाऽऽदित्रयमनै कान्तिकम् समीहितफलसाधने | निश्चयाऽभावात्, तथाऽऽत्यन्तिकं च यतो न भवति, आत्यन्तिकप्रकर्ष - प्राप्ततथाविधविशिष्टफलसाधकत्वाभावात्। भावे-भावविषयं तु सगलमुक्तविपरीतस्वरूपम्, तेन विशेषतो यथा तत् पूज्यम्, नैवसितराणि। इति गाथाऽर्थः / / 56 / / तदेवं भिन्नवस्तुष विशेषतश्चिन्त्यमानानां नामाऽऽदीनां प्रधानतरभावो दर्शितः, सामान्यतः पुनर्विचिन्त्यमानाना सर्ववस्तुषु प्रत्येकं चतुर्णामप्यमीषा सद्भावः प्राप्यत एव, इति दर्शयन्नाहअहवा वत्थुभिहाणं, नामं ठवणा य जो तदागारो। कारणया से दवं, कजावनं तयं भावो // 60 / / अथवा सर्वस्याऽपि घट-पटाऽऽदिवस्तुनो यदाऽऽत्मीयमभिधानं तद् नाम्, यथोर्ध्वकुण्डलेष्वायतवृत्तग्रीवो घटः, आतानवितानीभूततन्तुसन्तानः पट इत्यादि / स्थापना पुनर्यस्तस्यैव सर्वस्य वस्तुनो निज आकारः / भाविकपालाऽऽदिकार्यापेक्षया तु या (से) तस्य सर्वस्याऽपि वस्तुनः कारणता-हेतुता तद्रव्यम्, “भूतस्य भाविननो वा; भावस्य हि कारणं तु यल्लोके। तद्रव्यम्” इति वचनात्। मृत्पिण्डाऽऽदिवस्तुनस्तु कार्याऽपन्नं जन्यत्वाऽऽपन्न तदेव घटाऽऽदिकं सर्वं वस्तु भावोऽभिधी यते, भवन भाव इति कृत्वा / इत्थंसर्व वस्तु चतूरूपाऽविनाभूतं दृष्टम्, एवमेव सम्यग्दर्शनव्यवस्थानात, सर्वनयसमूहाऽऽत्मकत्वाजिनमतस्य। तदेव सर्वस्याऽपि वस्तुनश्चतूरूपतायां किमुच्यते 'इह भावो चिय वत्थु, तयत्थसुन्नेहिं किं व सेसेहिं।' इत्यादि? नोकस्मिन्नेव वस्तुन्येककालं विद्यमानानां पर्यायाणां मध्ये 'अयं वस्तु' अपरस्त्ववस्तु, इति वक्तुं शक्यते, द्रव्यरूपतया सर्वेषामपितेषामेकत्वादिति भावः। इति गाथाऽर्थः // 60 // विशे०। तदेवमवसितं प्रासङ्गिकम् / प्रकृतमुच्यते, तच्चेदम्- पूर्वं नोआगमतो भवमङ्गलं नोशब्दस्य सर्वनिषेधवचनत्वे विश्पुक्षायिकाऽऽदिर्भाव उक्तः, मिश्रवचनत्वे तस्य ज्ञानदर्शनचारित्रोपयोगः, एकदेशवचने पुनस्तस्याऽहन्नमस्काराऽऽदिज्ञानक्रियाविमिश्रपरिणामः प्रोक्तः / साम्प्रतं नोशब्दस्यैकदेशवाचित्वे नोआगमतो भावमङ्गलं ज्ञानपञ्चकरूपा नन्द्यपि भवतीति दर्शयन्नाह - मंगलमहवा नन्दी, चउव्विहा मंगलं च सा नेया। दव्वे तूरसमुदओ, भावम्मि य पंच नाणाई / / 78|| सूत्रस्य सूचकत्वाद् नोआगमतो भावमङ्गलस्यैव च प्रस्तुतत्वाद् मङ्गलशब्देनेह नोआगमतो भावमङ्गलमिति द्रष्टव्यम्। अथवाशब्दस्तु पूर्वोक्तपक्षत्रयापेक्षया विकल्पार्थः, ततश्चायमर्थः-यदि वा नोआगमतो भवमगलमन्यद् द्रष्टव्यम्। किं तत् ? इत्याह-'नन्दी, नन्दनं नन्दी, नन्दन्ति समृद्धिमवाप्नुवन्ति भव्यप्राणिनोऽनयेति वा नन्दी, इयं च सूत्रे सामान्योक्तावपि व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तेरिह ज्ञानपञ्चकरूपा गृह्यते। सामान्यरूपेण तु चिन्त्यमानाऽसौ मङ्गलवद् नामाऽऽदिचतुर्विधा भवति। एतदेवाऽऽह-'चउन्विहेत्यादि तत्रनन्दी इतियत्कस्यचिद्नाम क्रियतेसा नामनन्दी / अक्षाऽऽदिषु स्थापिता स्थापनानन्दी। द्रव्यनन्दी तु द्विविधाआगमतः, नोआगमतश्चातत्राऽऽगमतोनन्दीपदार्थज्ञोऽनुपयुक्तः, नोआगमतस्तुज्ञ-भव्यशरीरोभयव्यतिरिक्ता द्रव्यनन्दीद्वादशप्रकारस्तूर्यसमुदयः।
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________________ मंगल 16 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मंगलावईविजय तद्यथा-"भंभा-मुगुन्द-मद्दल, कडब-झल्लरि-हुदुक्क-कंसाला / मंगलट्ठ त्रि० (मङ्गलार्थ) मङ्गलेनार्थ्यते प्राप्तुं साधयितुमिच्यते इति काहल-तलिमा वंसो, संखो पणवो य वारसमो" / / 1 / / इह च 'दव्ये मइलार्थः / अथवा-अर्थ्यते गम्यते साध्यत इत्यर्थो, मङ्गलस्याथ तरसमुदओ' इत्यनेन ज्ञ-भव्यशरीरव्यतिरिक्ता द्रव्यनन्दी सूत्रऽणि मङ्गलार्थः / मङ्गलसाध्ये, विशे०। दर्शिता, नामनन्द्यादिस्वरूपं तु पूर्वोक्तनाममइलाऽऽद्यनुसारण सुझाय. मंगलदीव पुं० (मङ्गलदीप) माङ्गल्यदीपे, पक्षा०८ विव०॥ त्वाद् नोक्तमिति / भावनन्द्यपि द्विधा-आगमतः, नोआगमतश्च / आगमता मंगलपडिसरण न० (मङ्गलप्रतिसरण) मङ्गलकङ्कणे, ध०३ अधिः / नन्दिपदार्थज्ञस्तत्रोपयुक्तः। नोआगमतस्त्वाह-'भावम्मि येत्यादि' भावे पशा०। भावनन्द्या विचार्यमाणायां पुनः 'नोआगमतो भावनन्दी' इति शेषः / का / मंगलपाढिया रत्री० (मङ्गलपाठिका) वैतालिक्यां वीणायाम, “धयालिए पुनरियम् ? इत्याह-पञ्च ज्ञानानि आगमस्य ज्ञानपञ्चकैकदेशत्वात वीणाए।" प्रातः सन्ध्यायां देवतायाः पुरतो या वादनायोपरथाप्यते सा नोशब्दस्य चेहाप्येकदेशकाचित्वादिति भावः। इयमेव चेह नोआगमता किल मङ्गलपाठिका तालाभावे च वाद्यत इति विताले तालाभावे भावमङ्गलत्वेन प्रस्तुतगाथाऽऽदो निर्दिश / इति गाथार्थः / / 78) / विश० / - भवतीति वैतालिकी। जी०३ प्रति०४ अधि०। म० ! आ०म० / आचा०। आ००। दशा० / प्रव० / 60 व०। जी० / मंगलपायच्छित्त न० (मङ्गलप्रायश्चित) मङ्गगलं दध्यक्षतचन्दनाऽऽदि भ० जीत०। सम्म० / जं० / ग०। पं०सं० / क० प्र०। बृ० / दर्श०। तदेव प्रायश्चित्तमिव प्रायश्चित्तम, दुःस्वप्नाऽऽदि प्रतिघातकत्वेनावश्यध०२० / स्था० / उत्त) ('लितपयरे गले'इति आवस्यकस्य मध्य-। कर्तव्यत्वात्। दुःस्वप्नाऽऽदिप्रतिघातायाऽऽवश्यकर्त्तव्ये दध्यक्षतचन्दमङ्गलप्रस्तावः 'सामाइय' शब्दे द्रष्टव्यः) मङ्गल द्विधा-नतिरूप, स्तुति- नाऽऽदिके, औ०। विपा०। रूपं च / तदप्येक त्रिधा-कायिक, वाचिक, मानसिकं च / दशा०१ मंगलपुर न० (मङ्गलपुर) मालवदेशस्थे स्वनामख्याते पुरे, ती०३१ अ01 अर्हदादीनां नमस्कारे. महा०३ अ०। पञ्चा० अर्हदादिके च। आव०। कल्प। चत्तारि मंगला-अरिहंता मंगलं, सिद्धा मंगलं, साहू मंगलं, मंगलभत्तिचित्त त्रि० (मङ्गलभक्तिचित्र) अष्टानां मङ्गलानां भक्तया केवलिपन्नत्तो धम्मो मंगलं / विच्छित्या चित्रमालेखो यस्य / मङ्गलविच्छित्या लेखिते, जी०३ प्रति०४ चत्वारः पदार्था मङ्गलमिति, के एते चत्वारः ? तानुपदर्श यन्नाह - अधिo1 'अरिहंता मंगल' मित्यादि, अशोकाऽऽद्यष्टमहाप्रातिहार्याऽऽदिरूपा मंगलसद्द पुं० (मङ्गलशब्द) मङ्गलमित्येवंरूपो मङ्गलभूतो वा विजयसिपूजामहन्तीत्यर्हन्तस्तेऽर्हन्तो मङ्गलं सितं, ध्मात येषां ते सिद्धास्ते च ड्यादिशब्दो मङ्गलशब्दः / मङ्गलमित्याकारके शब्दे मङ्गलभूते विजयसिद्धा मङ्गल, निर्वाणसाधकान् योगान् साधयन्ति इति साधवस्ते च सिद्धयादिशब्दे, मङ्गलध्वनौ च / “सोउं मङ्गलसद्द, सउणम्मि जहा उ मङ्गल, साधुग्रहणादाचार्योपाध्याया गृहीता एव दृष्टव्याः, यतो न हि ते न इससिद्धि त्ति।” पञ्चा०८ विव० / साधदः, धारयतीति धर्मः। केवलमेषां विद्यत इति केवलिनः केवलिभिः मंगला स्त्री० (मड़ला) दुर्गायाम, हरिद्रायाम, दूर्वायाम्, पतिव्रतायाम, सर्वज्ञः प्रज्ञप्तः प्ररूपितः केवलिप्रज्ञप्तः, कोऽसौ ? धर्मः श्रुतधर्मश्चारित्र- वाच / सुमतिजिनस्य जनत्यां च / प्रव०११ द्वार। आव०। स० / नं० / धर्मश्च मङ्गलम्, अनेन कपिलाऽऽदिप्रज्ञप्तधर्मव्यवच्छेदमाह / अर्हदादीना मंगलालया स्त्री० (मङ्गलाऽऽलया) मङ्गलावतीविजयक्षेत्रस्थायां स्वनामच मङ्गलता तेभ्य एव हितमङ्गलात्सुखप्राप्तेः / आव०४ अ० / “अर्हन्तो ख्यातायां नगम्,ि “इहेब विदेहे भंगलावई विजए मंगलालयाए नयरीए मङ्गल में स्युः, सिद्धाश्च मम मङ्गलम् / साधवो मङ्गलं सम्यग, जैनो मंगलकेऊ णरवई।" दर्श०१ तत्त्व। "धायईखंड दीवे पुय्वविदेहे मंगलाधर्मोऽस्तु मङ्गलम।।५।।" नं० / पा० "मंगलजयसदकयालोए।" औ०। लयाए गयरीए मंगलावईविजए दिणामो संनिवेसो।" आ०चू०१ अ०। भ०/वश्वा०। दश०। मंगलके उ पुं० (मङ्गलकेतु) विदेहमइलावतीविजयरथमङ्गलालगाया मंगलावई स्त्री० (मङ्गलावती) जम्बूद्वीपतिदेह पुष्कलावतीविजयपुण्डरीनगराः स्वनामख्यात नृप, “इहेक विदेह मंगलावईविजए मंगलालयाए किणीनगरीनृपते जिसनस्य धारण्यपरनामधेयाया स्वनामख्यातायाम् नयरीए मंगलकेऊ नरदई।" दर्श०१ (तरच / अग्रसहिष्याम, आ० चू०१ अ० / आ० म०। दशार्णपुरनगरनृपतेर्दशार्णमंगलग न० (गगलक) स्वरितकाऽऽदिके, "अटुटु मंगलगा पण्णत्ता। भद्रस्य रवनामख्यातायाभग्रमहिष्याम, आ० चू०१ अ०। संजहा-सौस्थियसिरिवच्छणं दिधावत्तबद्धमाणयभद्दासणकलसम- दो मंगलावई। स्था०२ ठा०३ उ०। च्छदप्पणा।" राo मंगलावईकूड न० (गहलावतीकूटी जा वृद्धीपसौमनसवक्षस्कारपर्वत - संगलचेइय नः मङ्गल ग्रहमादिनिष्कुटित-प्रतिभाऽऽदिके, रथचनामस्या कुट, मलावती विजयदेवस्य मङ्गलावती कूटमिति ! जीत। 467 / स्था० गलजयसद्दकयालोय पु० (मङ्गलमयशब्दकृताऽऽलोक) यग्य दर्शन | मंगलावई विजय 50 (मङ्गलावतीविजय) जम्बूद्वीपसौमनस . लार्जयजयशब्दः क्रियमाणोऽस्तीति ज्ञेयम् / तस्मिन्, कल्प०१ वक्षस्कारपर्व तमङ्ग लावतीकूट रथं स्वनामख्याते देवे. अधि०३क्षण। स्था०७ ठा० / रवनामख्याते चक्रवर्ति विजय क्षेत्रे च / ना
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________________ मंगलावईविजय 17 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मंजु "मगलावईविजए रयणसंचया रायहाणी। जं०४ वक्ष० : "धातकीखंड श्रुत्वा गुरुवचोऽदृष्ट-प्रत्यया गौरवेषु ते॥७॥ दीव पुष्वविदेहे गंगलावईविजए णदिग्गामो” / आ०म०१ अ०। आ० तदैवाऽऽवेद्य भव्यानां, व्यहार्दुस्त्यक्तगौरवाः।” आ०क०४०। च० / "इहेव विदेहे मगलावईविजए मगलालयाए णयरीए।"दर्श०१ तत्त्व / आर्यसमुद्रस्य शिष्ये स्वनामख्याते आचार्य, आर्यसमुद्रस्याऽपि स्था / जम्बूमन्दरपूर्वस्या शीताया महानद्या दक्षिणस्यामुत्तरस्यां च शिष्यमार्यमहूं वन्दे, किंभूतमित्याह - मड़लावतीविजयं नाम चक्रवर्तिविजयमिति। स्था०८ ठा०। भणगं करगं करगं, पभावर्ग णाणदसणगुणाणं / मंगलावत्त पु० (मङ्गलाऽऽवर्त) स्वनामख्याते विजये, स्था०। वंदामि अज्जमगुं, सुयसागरपारगं धीरं // 30 // नं०। दो मंगलावत्ता। स्था०२ ठा०३ उ०। (व्याख्या 'अज्जमंगु' शब्दे प्रथमभागे 211 पृष्ठे गता।) मंगलावत्तविजय न० (मङ्गलाऽऽवर्तविजय) विजयक्षेत्रे, जं०। | मंगुल त्रि० (मड्ल) असुन्दरे, दर्श०३ तत्त्व / आ० म०। व्य० / उपा०। कहिणं भंते ! महाविदेहे वासे मंगलाबत्ते णाम विजए पण्णत्ते? “इय मंगुल आयरिए, मंगुलसीसे मुणेयव्ये।” स्था०४ ठा०४ उ०। गोयमा ! णीलवंतस्स दक्खिणेणं सीताए उत्तरेणं णलिणकूडस्स। मंगुवायग पुं० (मङ्गुवादक) मनुवादनकारके, आ० चू०१ अ०। पुरच्छिमेणं पंकावईए पच्चच्छिमेणं एत्थ णं मंगलावत्ते णामं मंगुस पुं०(मडुस) भुजपरिसर्पभेदे, प्रज्ञा०१ पद। सूत्र०। विजए पण्णत्ते / जहा कच्छस्स विजए तहा एसो वि भाणिअव्यो० मंच पुं० (मञ्च) 'मचि' उच्छ्ये, घञ्। खट्वायाम्, स्तम्भन्यस्तफलकमये जाव मंगलावत्ते अइत्थ देवे परिवसइ, से एएणऽटेणं० / जं०४ (ज्ञा०१ श्रु०१ अ०) वंशनिर्मिते उचाऽऽसने, मञ्चः स्थूणानामुपरि स्थावक्ष०। पितवंशकटकाऽऽदिमयो लोकप्रसिद्धः / बृ०२ उ०। आचा० / “अकुट्टो मंगल्ल त्रि० (मङ्गल्य) मङ्गले साधुर्मङ्गल्यः / ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। अनर्थ- होइ मंचो।" स्था०३ ठा०१ उ० / भ० / प्रेक्षणकद्रष्टजनोपवेशननिमित्ते प्रतिघातके मङ्गलकारिणि, भ०१ श०५ उ०। मङ्गल्यं दुरितोपशमसाधु ! मालके, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। औ० / दश० / मञ्चो मञ्चसदृशः / योगभेदे, भ०२ 201 उ० / ज्ञा० / मङ्गलाय हितं यत् / रुचिरे च / चन्दने, सू०प्र०१२ पाहु० / स्वार्थे कन्। तत्रैव, वाच०। पगलागुरुणि, स्वर्णे, सिन्दूरे, दधिन च। 'सर्वमङ्गलमङ्गल्ये' इति चण्डी। | मंचाइमंच पुं० (मञ्चातिमञ्च) मञ्चो महोत्सवविलोकनजनानामुपवेशनअश्वत्थे, विल्वे, जीरके, मसूरके, नारिकेले, कपित्थे, रीठाकरजे च।। निमित्तमालकः, अतिमञ्चस्तस्योपरि मालकः / मालकोपरिवर्तिनि jo / वाच०। मालके, “मंचाइमंचकलिए।" कल्प०१ अधि०५ क्षण। औ०। दशा० / *माङ्गल्य न० / मङ्गलमेव मङ्गलाय हितं ध्या। मङ्गले, मङ्गलसाधने च / ज्ञा०ा मञ्चान व्यवहारप्रसिद्धान् द्विाऽऽदिभूमिकाभावतोऽतिशायी मञ्चो वाच० दुरितक्षये, साधुर्माङ्गल्यः / स्था०६ ठा० / अनर्थप्रतिघातके, मञ्चातिमञ्चस्तत्सदृशो योगोऽपि मञ्चातिमञ्चः / चन्द्रसूर्ययोर्नक्षत्रयोगेन त्रिकामह श०३३ उ०। औ०। जायमानेषु वृषभानुजाताऽऽदिकेषु दशसु योगेषु स्वनामख्याते चतुर्थे मंगी स्त्री० (मङ्गी) षट्जग्रामस्य सप्तसु मूर्च्छनासु प्रथममूर्च्छनायाम्, योगे, सू० प्र०१२ पाहु०। स्था०७ डा०। मंचिया स्त्री० (मचिका) आसनभेदे, “निवेशयात्र तन्वङ्गि, सत्वरं वरममंगु पुं० (मङ) स्वनामख्याते आचार्ये, आ० क०। चिके।" आ० क०१ अ०। तत्कथा चैवम् - मंजरी स्त्री० (मञ्जरी) मजुअच्छति। डीए। अभिनवोद्भूतायां सुकुमारायां "मथुरामागमन्मङ्गु-राचार्यः श्रुतपारगः। पल्लवाडररूपायां वल्लाम, वाच०। औ० / आचा०। डीबन्तस्तु धर्मोपदेशवान् लब्ध्वा, भविकप्रतिबोधकः।।१।। तत्र ! मुक्तायाम, तिलकलतायाम, तुलस्यां च / वाच०। सनृद्धाः श्रावका भक्त्या, भोज्यानि सरसानि च। मंजरीगुंडी स्त्री० (मञ्जरीगुण्डी) वल्लीभेदे, "(345) तोमरिगुंडी य सुखेनावस्थितिस्तत्र, तस्याऽभूत्सर्वकालिकी॥२॥ __ मंजरीगुंडी" पाइ० ना०१३६ गाथा। ऋद्धिरससातरूपं, ततोऽभूगौरवत्रयम्। मंजार पुं० (मार्जार) मृज-आरन्। “वक्राऽऽदावन्तः॥८।१।२६|| इति नित्यवासी स तत्राऽऽसी-दतो लौल्याद्विशेषतः॥३॥ प्राकृतसूत्रेणानुस्वारः / प्रा०१ पाद / विडाले, रक्तचित्रके, खट्टासे च / आयुःक्ष्ये स मृत्वाऽभू-द्यक्षो निर्धमने पुरः। ततः संज्ञायां कन्। मयूरे, वाच०। ज्ञात्वाऽवधेः स्वं शिष्यान् स्वान्, संज्ञाभूमिमुपागतान्॥४॥ मंजिट्ठदोणी स्त्री० (माञ्जिष्ठद्रोणी) मञ्जिष्ठरागभाजने, भ०८ श०६ उ०। दृष्ट्वा प्रासारयद्दीर्घा, जिहां बोधयितुं सुधीः। मंजिया स्त्री० (मञ्जिका) मध्यवर्तिनि भागे, आ० म०१ अ०। तेष्वेकः सात्त्विकः साधु-रूचे त्वं कोऽसि गुह्यक ! // 5 // मंजु त्रि० (म ) मनोहरे, वाच०। प्रिये, जी०३ प्रति०४ अधि०। रा०। सऊचे वो गुरुर्मृत्वा, लौल्यादीदृक् सुरोऽभवम्। ज०। कोमले, भ०६ श०३३ उ०। कल्प० / अतिकोमले, 'मंजुमंजुणा नित्यवासं ततो यूयं, परित्यज्य कृतोद्यमाः॥६।। घोसेण पडिबुज्झमाणे।' भ०६ श०३३ उ० / कल्प० / औ०। सुन्दरे, विहरध्वं क्रियानिष्ठाः, लभध्वं मा स्म दुर्गतिम्। पाइ० ना०८८ गाथा।
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________________ मंजुघोस 18 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मंडलपगरण मंजुघोस त्रि० (मञ्जुघोष) मछु प्रियो घोषो यस्य सः। रा० / कर्णमनः जे मंडवा ते सत्तविहा पण्णत्ता / तं जहा-ते मंडवा ते आरिट्ठा सुखदायिघोषोपेते, ज०१ वक्ष० / जी०। ते संमुत्ता ते हेरा ते एलावचा ते कंडिल्ला ते खारायणा / स्था० मंजुल त्रि० मञ्जुल मञ्ज उलच। मनोहरे, वाचा कोमले, ज्ञा०१ श्रु०१ 7 ठा। अ० / विपा० / स० / नि०। प्रश्न० 1 भ० / “अदु मंजुलाइँ भासंति।" मण्डपानकर्तरि, त्रि०। निष्पाच्याम्, शूकशिम्बीभेदे, रस्त्रीला वाचः। मञ्जुलानि-पेशलानीति ।सूत्र०१ श्रु०४ अ०१ उ० / म जुलाः अर्द्धगव्यूततृतीयान्तर्गामान्तररहिते ग्रामे, नारा०। स्वार्थ कना तय, सुललितवर्णमनोहरा इति / कल्प०१ अधि०३ क्षण / पाइ० ना०। ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। औ०। मंजुलप्पलाव त्रि० (मञ्जुलप्रलाप) मञ्जुलो मधुरः प्रलापो जल्पो यस्य | मंडविय पुं० (माण्डपिक) मण्डपाधिपे, ओ०। सः। मधुरजल्पे, प्रश्न०४ आश्रद्वार। मंडव्यायण पुं० (माण्डव्यायन) गोत्रभेदे, तद्गोत्रापत्ये च / चं० प्र०१० मंजुस्सर त्रि० (मञ्जुस्वर) मञ्जुः प्रियः स्वरो यस्य / जी०३ प्रति०४ पाहु 16 पाहु० पाहु०। सू० प्र०। जं०। अधि० तंअ। रा०ा कर्णमनः सुखदायिस्वरोपेते, जं०१ वक्षः। मंडल न० (मण्डल) मडिकलच। चक्रवाले, स्था०३ ठा०४ उ०। चक्राऽ:मंजूसा स्त्री० (मञ्जूषा) मन्ज-उषन् / पेटिकायाम्, वाच० "वारसदीहा कारण वेष्टने, भण्डलाऽऽकारेण विहिते पदार्थे, द्वादशनृपचक्रे,गोल, मंजूरससंठिया जाण्हवीइ मुहे।" स्था०६ टा०। आव० / जम्बूमन्दरपूर्वस्यां वाच० / मण्डलं वृत्तमिति / ज्ञा०१ श्रु०६ अ० / देशे, स्था०५ ठा०३ उ० / “मण्डलं ति विसयमंडलं!" आव०४ अ०।मण्डलमिड़ितं क्षेत्रम्। शीताया महानद्या उत्तरस्या स्वनामख्यातायां राजधान्याम, स्था०८ टा० / 0 / मञ्जूषायाम, वाच०। स्था०७ ठा०। समुदाये, स०३५ सम०ायत्रद्वावपि पादौ समौदक्षिणवाम तोऽपसार्य ऊरू प्रसारयति यथा मध्ये मण्डलं भवति अन्तरा चत्वारः दो मंजूसा। स्था०२ ठा०३ उ०। मंडगपुं० (मण्डक) मडि-ण्वुल। पिष्टकभेदे, वाच०। मण्डकाः सृवाणि पादास्तन्मण्डलम् इत्युक्तलक्षणे योधानां स्थानभेदे, व्य०१ उ० . आ०म०। आ०चू०। नि० चू० उत्त०। मण्डलं सर्वतो वृत्तिः इत्युक्तलक्षणे कामयाः / बृ०१ उ०२ प्रक० / समितिमायाम्, बृ०१ उ०२ प्रक०। सैन्यव्यूह भेदे, कृत्रिमरेखासन्निवेशेन रचिते पदार्थे, यथा ग्रहमण्डल दक्षिणापथे कुडवार्द्धमात्रया महाप्रमाणो मण्डकः क्रियते स हेमन्तकाले सर्वतोभद्रमण्डलमिति / बिम्चे, वाच० / सूर्याऽदीना मण्डले, सू०प्र० अरुणोदयवेलायायग्रीष्टिकायां पक्त्वा धूलीजङ्घाय दीयते। बृ०१ उ०३ अथ मण्डलनिष्पत्तिस्वरूपमाह - प्रक० / इत्थुक्तलक्षणे पदार्थ, वाच०। रविद्गममणवसाओ, निष्फजइ मंडलं इह एगं / मंडण पुं० (मण्डन) मण्डयतिमडिल्युः। अलङ्कारके, वाच० शोभाका तं पुण मंडलसरिसं, ति मंडलं वुचइ तहा हि // 13 // रिणि, स०। भावे ल्युट् / भूषायाम्, न०। वाच०। मण्डनं कणाऽऽ रविद्विकभ्रमणवशान्निष्पद्यते मण्डलम् इह एकं, तत्पुनर्वृत्ताऽऽकारतया दिमिरिति / अनु० उत०। मण्डलसदृशमिति हेतोर्व्यवहारेण मण्डलमुच्यते! सूर्याऽऽदीगं मागे, मंडणधाई स्त्री० (मण्डनधात्री) मण्डिकायाम्, तद्रूपे धात्रीभेदे च ज्ञा०१ मण्ड / स्था / सूर्याऽऽदीना मण्डलविष्कम्भे, मण्डलशब्देन मण्डलविश्रु०१ अ० / नि० चू०। ष्कम्भ उच्यते, परिमाणे परिमाणवत उवचारात। सू०प्र०१०पहु०११ मंडव (ग) पुं०न० (मण्डप (क)) मडि घञ्। मण्ड भूषां पाति रक्षति / पाहु० पाहु०। मण्डलपरिभ्रमणे, सू०प्र०१ पाहु०६ पाहु० पाहु०। यत्ता - पा-कः / मडि कपन्वा। जनविश्रामस्थाने, देवाऽऽदिगृहे, वाघ० / औ० / कार हृद्विशेषरूपे कुष्ठरोगभेदे, पि० / “संसारे से न अच्छइ मडले।" यज्ञाऽऽदिमण्डपे, प्रश्न०३ सम्ब० द्वार। नागवल्लीद्राक्षाऽऽदिभिर्वेष्टिते मण्डले चातुर्गतिकसंसारे। उत्त०३१ अ०। आदर्शचा वाच० "अंकामया स्थाने. उत्त०१८ अ०। औ०। जी०। छायाद्यर्थे पटादिमये आश्रयविशेष, मंडला / " मण्डलानि यत्र प्रतिबिम्बसम्भूतिः / रा० / कुकुरे, दश०५ जी०। अ०१ उ० / सर्पभदे च / पुं०। स्त्रियां गौरा० डीए / गण्डदूर्वायाम्, तस्स णं वणसंडस्स तत्थ तत्थ देसे तहिं तहिं बह वे जाइमंड वाच० / शुनि, "(62) साणा भसणा इंदमहकामुआ मंडला कविला" वगा जूहियामंडवगा मल्लियामंडवगा णवमालियामंडवगा पाइ० ना०४१ गाथा। वासंतीमंडवगा दहिवासुयामंडवगा सुरिल्लिमंडवगा तंबोली मंडलग्ग पुं०न०(मण्डलाग्र न.) खड्गे, (54) “खग्गो असी किवाणं, मंडवमा मुहियामंडवगा णागलयामंडवगा अतिमुत्तमंडवगा करवालं मंडलग्गं चा" पा० इ० ना०३७ गाथा। “जह णाम मंडलग्गेण।" अप्फोयामंडवगा अमेत्तामंडवगा मालुयामंडवगा सामलयामडं- सूत्र०१ श्रु०३ अ०४ उ० / खड्गविशेषे, प्रश्न०३ आश्र0 द्वार। वगा निचं कुसुमिया निच० जाव पडिरूवा / जी०३ प्रति०४ / मंडलज्झयण न० (भण्डलाध्ययन) बन्धदशानां परमेऽध्ययने, स्था० अधि० / प्रश्नस्था०1 १०टा०। मण्डोरपत्यं माण्डवः / गोत्रभेदे, तद्गोत्रापत्ये च। स्था०७ ठा०। मंडलपगरण न० (मण्डल प्रकरण) विनय कु शलविरचिते
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________________ मंडलपगरण 16 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मंगलसंकमण चन्द्रादेमण्डल'ऽऽदिविधारप्रतिपादके ग्रन्थे, मण्ड० / पणमिअ वीरजिणिंदं, भवमंडलभमणदुक्खपरिमुक्कं / चंदाइमंडलाई-विआरलवमुद्धरिस्सामि / / 1 / / मण्ड०। तवगणगयणदिणेसर-सूरीसरविजयसेण सुपसाया। नरखित्तचारिचंदा-इयाण मंडलगमाईणं / / 68|| एसो विआरले सो, जीवाभिगमाइआगमेहिंतो। विणयकुसलेण लिहिओ, सरणत्थं सपरगाहाहिं / / 66 स्टकृत्परकृतगाथाभिः स्मृत्यर्थ लिखितो विचारलेशः न नुतनो | विहितः किंतु श्रीमुनिचन्द्रसूरिकृतमण्डलकमेव प्रतिसंस्कृतं जीवाभि- | गनाऽऽटिगाथाभिः कतिभिः नूतनाभिश्च, शेष स्पष्टम् // 66 // मण्ड० / मंडलपय पुं० (मण्डलपद) मण्डलरूपं पदं मण्डलपदम् / सूर्य्याऽऽदि मण्डलस्थाने, सू० प्र०१ पाहु०७ पाहु० पाहु० / मंडलपवेस पु० (मण्डलप्रवेश) अखलकप्रविष्टस्यैकस्य मल्लस्य यल्लमां भूखण्ड तन्मण्डलं, तत्र वर्तमानस्य प्रतिद्वन्द्विनो मल्लस्य निपाताय यः प्रवेशः स मण्डलप्रवेशः / स्वमण्डले वर्तमानस्य मल्लस्य नेपाताय प्रतिद्वन्द्विनो मल्लस्य तन्मण्डलप्रवेशे, पिं० / यत्राऽध्ययने चन्द्रस्य सूर्यस्य दक्षिणेषु उत्तरेषुच मण्डलेषु च सञ्चरतो यथा मण्डलान्मनण्डले प्रवेशो भवति तथा व्यावर्ण्यत तदध्ययन मण्डलप्रवेशः / उल्कालिकश्रुतभेदे, नं०। पा०॥ मंडलमज्झत्थ त्रि० (मण्डलमध्यस्थ) मण्डलमध्यभागवर्तिनि, ज्यो० | 15 पाहु मंडलरोग पुं० (मण्डलरोग) वटुस्थानव्यापके रोगे, जं०२ वक्ष०। जी०। मंडलवइ स्त्री० (मण्डलपति) देशकार्यनियुक्ते, जं०३ वक्ष०। मंडलवंत न० (मण्डलवत्) मण्डलं मण्डलपरिभ्रमणमस्यास्तीति मण्ड लवत् / चन्द्राऽऽदिविमाने, सू० प्र०१ पाहु०७ पाहु० पाहु० / मंडलवत्ता स्त्री० (मण्डलवत्ता) मण्डलं मण्डलपरिभ्रमणमस्यास्तीति मण्डलवचन्द्राऽऽदिविमानम्, तद्भावो मण्डलवत्ता / चन्द्राऽऽदिविमाने, तत्रभेदोपचारात् चन्द्राऽऽदिविमानान्येव मण्डलवत्ता इत्युच्यनते। सू० प्र०१ पाहु०७ पाहु० पाहु। मंडलवरभद्द पुं० (भण्डलवरभद्र) कुण्डलवरद्वीपस्थे देवे, सू०प्र०१६ / पाह मंडलवरमहाभद्द पुं० (मण्डलवरमहाभद्र) कुण्डलरद्वीपस्थे देवे, सू० प्र०१६ पाहुन मंडलसंकमण न० (मण्डलसक्रमण) सूर्याऽऽदीनां मण्डलान्मण्डलान्तरसङ्क्रमणे, चं० प्र०। ता कहं ते मंडलाओ मंडलं संकममाणे संकममाणे सूरिए | चारं चरति आहिता ति वदेज्जा / तत्थ खलु इमाओ दुवे पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तत्थेगे एक्माहंसु-ता मंडलातो मंडलं संकममाणे संकममाणे सूरिए भेदधातेणं संकामति एगे एवमाहंसु / एगे पुण एवमाहंसु-ता मंडलातो मंडलं संकममाणे संकममाणे सूरिए कन्नकलं णिवेढेइ, तत्थ जे ते एवमाहंसु, ता मंडलातो मंडलं संकममाणे संकममाणे सूरिए भेयघाएणं संकमइ, तेसि णं अयं दोसे, ता जेऽणंतरेणं मंडलातो मंडलं संकममाणे संकममाणे सूरिए भेदधाएणं संकमति, एवतियं च णं अद्धं पुरतो ण गच्छति, पुरतो अगच्छमाणे मंडलकालं परिहवेइ, तेसिणं अयं दो से, तत्थ जे ते एवमाहंसु, ता मंडलातो मंडलं संकममाणे सूरिए कण्णकलं णिव्वेढेति, तेसि णं अयं विसेसे-ता जेणंतरेणं मंडलातो मंडलं संकममाणे सूरिए कण्णकलं निव्वेदेति, एवतियं च णं अद्धं पुरतो गच्छति, पुरतो गच्छमाणे मंडलकालं ण परिहवेति, तेसिणं अयं विसेसे, तत्थ जे ते एवमाहंसु-मंडलातो मंडलं संकममाणे सूरिए कण्णकलं निवेढेति, एएणं णएणं णेयध्वं णो चेव णं इतरेणं णेतव्वं / (सूत्रम्-२२) (ता कहमित्यादि) 'ता' इति पूर्ववत्, कथं भगवन् ! मण्डलात् मण्डल सक्रामन् सूर्यश्चारं चरति, चारं चरन् आख्यात इति वदेत् / किमुक्तं भवति ? कथं भगवन्नेष सूर्यश्चारं चरन् मण्डलान्मण्डल संक्रामन् आख्यात इति। अत्र हि मण्डलान्मण्डलान्तरसंक्रमणमेव वक्तव्यमतस्तदेव प्रधानीकृत्य वाक्यस्य भावार्थो भावनीयः। एवमुक्ते भगवानह-(तत्थ खलु इत्यादि) तत्र मण्डलान्मण्डलान्तरसंक्रमणविषये खल्विमे द्वे प्रतिपत्ती प्रज्ञप्त। तद्यथा-तत्रैक एवमाहुः-'ता' इति पूर्ववत् स्वयं भावनीय, मण्डलादपरमण्डल संक्रामन् -संक्रमितुच्छिन् सूर्यो भेदघातेन संक्रामति, भेदो मण्डलस्य मण्डलस्यापान्तरालं तत्र घातो गमनम्, एतच्च प्रागेवोक्तं, तेन संक्रामति, किमुक्तं भवति ? विवक्षिते मण्डले सूर्येणाऽऽपूरिते सति तदन्तरमपान्तरालगमनेन द्वितीयं मण्डलं संक्रामति संक्रम्य च तस्मिन्मण्डले चारं चरतीति / अत्रोपसंहारः-(एगे एवमाहंसु ) एके पुनरेवमाहुः 'ता' इति पूर्ववत्, मण्डलान्मण्डलं संक्रामन् संक्रतुमिच्छन् सूर्यस्तदधिकृतमण्डलं प्रथमक्षणादूर्वमारभ्य कर्णकलं निर्वेष्टयति मुञ्चति, इयमत्र भावना भारत ऐरावतो वा सूर्यः स्वस्वस्थाने उद्गतः सन्नपरमण्डलगत कर्ण प्रथमकोटिभागरूपं लक्ष्यीकृत्य शनैः शनैरधिकत मण्डलं तया कयाचनापि कलया मुञ्चन् चार चरति, येन तस्मिन्नहोरात्रऽतिक्रान्ते सति अपरानन्तरमण्डलस्याऽऽदौ वर्तते इति, कर्णकलामिति च क्रियाविशेषणं द्रष्टव्यम् / तचैवं भावनीयम्-कर्णमपरमण्डलगतप्रथमकोटिभागरूप लक्ष्यीकृत्याधिकृतमण्डलं प्रथमक्षणादूर्द्धवं क्षणे क्षणे कलयाऽतिक्रान्तं यथा भवति तथा निर्वेष्टयतीति, तदेवं प्रतिपत्तिद्वयमुपन्यस्य यद्वस्तुतत्त्वं तदुपदर्शयति-(तत्थेत्यादि) तत्र तेषां द्वयाना मध्ये ये एवमाहुः-मण्डलान्मण्डल संक्रामन् भेदघातेन संक्रामति तेषामयम्
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________________ मंडलसंकमण 20 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मंडलिअणुवजीवंत अनन्तरमुच्यमानो दोषः, तमेवाऽऽह-येन यावता कालेन अन्तरेण अपान्तरालेन मण्डलान्मण्डल संक्रामन् सूर्यः भेदघातेन संक्रामतीत्युच्यते, एतावतीमद्धां पुरतो द्वितीये मण्डले न गच्छति / किमुक्त भवति ? मण्डलान्मण्डलं संक्रामन् यावता कालनापान्तरालं गच्छति तावतकालानन्तरं परिभ्रमितुमिष्ट द्वितीयमण्डलसत्काहोरात्रमध्यात् त्रुट्यति, ततो द्वितीये मण्डले परिभ्रमन पर्यन्ते तावन्तं कालं न परिभ्रमेत्, तगताहोरात्रस्य परिपूर्णीभूतत्वात्, एवमपि को दोष इत्याह-पुरतो द्वितीयमण्डलपर्यन्ते अगच्छन् मण्डलकालं परिभवति, यावता कालेन मण्डल परिपूर्ण परिभभ्यते, तस्य हानिरुपजायते. तथा च सति सकलजगद्विदितप्रतिनियतदिवसरात्रिपरिमाणव्याघातप्रसङ्गः। (लेसि णमयं दोसे त्ति) तेषामयं दोषः (तत्थ इत्यादि) तत्र येते वादिन एवमाहुः-मण्डलान्मण्डलं संक्रामन् सूर्योऽधिकृतभण्डलं कर्णकलं निर्वेष्टयति मुद्धति तेषामयं विशेषो गुणस्तमेवाऽऽह-(जेणेत्यादि) येन यावता कालेनापान्तरालेन मण्डलान्मण्डल संक्रामन् सूर्यः कर्णकलमधिकृतं मण्डलं निर्वेष्टयति, एतावतीमद्धा पुरतोऽपि द्वितीयमण्डलपर्यन्तेऽपिगच्छति। इयमत्र भावना-अधिकृतं मण्डल किल कर्णकलं निष्टितमतोऽपान्तरालगमनकालोऽधिकृतमण्डलसत्क एवाऽहोरात्रेऽन्तर्भूतस्तथा च सति द्वितीये मण्डले संक्रान्तः सन्तगतकालस्य मनागप्यहीनत्वात् यावता कालेनाऽपान्तरालं गम्यते तावता कालेन पुरतो गच्छति, ततः किमित्याह-पुरतो गच्छन् मण्डलकालं न परिभवति, यावता कालेन प्रसिद्धेन तत् मण्डलं परिसमाप्यते तावता कालेन तन्मण्डलं परिपूर्ण समापयति, न पुनर्भनागपि भण्डलकालपरिहाणिस्ततो न कश्चित्सकलजगत्प्रसिद्धप्रतिनियतदिवसरात्रिपरिमाणच्याघातप्रसन्द :, एष तेषामेवंवादिनां विशेषो गुणः, तत इदमेव मतं समीचीन तरदित्यावेदयन्नाह-(तत्थेत्यादि) तत्रये ते वादिन एवमाहुः-मण्डलान्गण्डलं संक्रामन् सूर्योऽधिकृतं मण्डलं कर्णकलं निर्वेष्टयति, एतेन | नयेनाभिप्रायेणामस्मन्मतेऽपि मण्डलान्मण्डलान्तरसंक्रमणं ज्ञातव्यं, न चैवम् इतरेण नयेन, तत्र दोषस्योक्तत्वात् / च० प्र०२ पाहु०२ पाहु० पाहु० / सू०प्र०। मंडलसंठिय त्रि० (मण्डलसंस्थिति) मण्डलसंस्थाने, सू० प्र०। ता कहं ते मंडलसंठिती आहिता ति वदेजा! तत्थ खलु इमातो अट्टपडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तत्थेगे एवमाहंसु-ता सव्वा वि मंडलवता समचउरंससंठाणसंठिता पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु१, एगे पुण एवमाहंसु-ता सव्वा वि णं मंडलवता विसमचउरंससंठाणसंठिता पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु 2, एगे पुण एवमाहंसुसव्वा वि णं मंडलवया समचउक्कोणसंठिता पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु 3, एगे पुण एवमाहंसु-सव्वाऽविमंडलवता विसमचउकोणसंठिया पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु 4, एगे पुण एवमाहंसु-ता सव्वा वि मंडलवता समचक्कवालसंठिया पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु 5, एगे पुण एवामाहंसुता सव्वा वि मंडलवता विसमचक्कवालसंठिया पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु 6, एगे पुण एवमाहंसु-ता सव्वा विमंडलवता चक्कऽद्धबालसंठिया पण्णत्ता, एगे एवपाहंसु 7. एगे पुण एवमाहंसु-ता सव्वा वि मंडलवता छत्ताऽऽगारसंठिया पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु 8, तत्थ जे ते एवमाहंसु ता सव्वा वि मंडलवता छत्ताकारसंठिता पण्णत्ता, एतेणं णएणं णायव्वं णो चेवणं इतरेहिं, पाहुडगाहाओ भाणियव्वाओ। (सूत्र-१६) (ता कह ते मंडलसंठिई इत्यादि) 'ता' इति पूर्ववत्, कथं भगवन ! 'ते' त्वया मण्डलसंस्थितिराख्याता इति भगवान् वदेत, एवं भगवता गौतमेन प्रश्ने कृते सत्येतद्विषयपरतीर्थिकप्रतिपत्तीनां मिथ्याभावोपदर्शनार्थ प्रथमतस्ता एवोपदर्शयति-(तत्थ खलु इत्यादि) तत्र तस्यां मण्डलसंस्थितौ विषये खल्विमा वक्ष्यमाणस्वरूपा अष्टौ प्रतिपत्तयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-तत्र तेषामष्टाना परतीथिकानां मध्ये एके प्रथमे तीर्थान्तरीया एवमाहुः, 'ता' इति तेषामेव तीर्थान्तरीयाणामनेकवक्तव्यतोपक्रमे क्रमोपदर्शनार्थः (सव्वा विमंडलवय त्ति) मण्डल मण्डलपरिभ्रमणमेषामस्तीति मण्डलवन्ति चन्द्राऽऽदिविमानानि तद्भावो मण्डलबत्ता, तत्राऽभेदोपचारात्यानि चन्द्राऽऽदिविमानानितान्येव मण्डलवत्ता इत्युच्यन्ते, तथा चाऽऽह-सर्वा अपि समस्ता मण्डलवत्ता मण्डलपरिभ्रमणवन्ति चन्द्राऽऽदिविमानानि, समचतुरस्त्रसंस्थानसंस्थिताः प्रज्ञप्ताः / अत्रोपसंहारः-(एगे एवमाहंसु) एवं सर्वाण्युपसंहारवाक्यानि भावनीयानि।।१।। एके पुनर्द्वितीया एवमाहुः-सर्वा अपि मण्डलवत्ता विषमचतुरस्रसंस्थान - संस्थिताः प्रज्ञप्ताः / / 2 / / तृतीया एवमाहुः-सर्वा अपि मण्डलवत्ताः समचतुष्कोणसंस्थिताः प्रज्ञप्ताः // 3 / / चतुर्था आहुः-सर्वा अपि मण्डलवत्ता विषमचतुः कोणसंस्थिताः प्राप्ताः॥४॥ पञ्चमा आहुः-सर्वा अपि मण्डलवत्ताः समचक्रवालसंस्थिताः प्रज्ञप्ताः / / 5 / / षष्ठा आहुः-सर्वा अपि मण्डलवत्ता विषमचक्रवालसस्थिताः प्रज्ञप्ताः॥६॥ सप्तमा आहुःसर्या अपि मण्डलवत्ताश्चकार्द्धचक्रवालसंस्थिताः प्रज्ञाप्ताः // 7 // अष्टमाः पुनराहुः-सर्वा अपि मण्डलवत्ताश्छत्राऽऽकारसस्थिरताः प्रज्ञप्ताःउत्तानीकृतच्छवाऽऽकारसंस्थिताः।।८।। एवमष्टावपि परप्रतिपत्तीरुपदर्थ्य संप्रति स्वमतमुपदिदर्शयिषुराह-(तत्थ इत्यादि) तत्र तेषामष्टानां तीर्थान्तरीयाणां मध्ये ये एवमाहुः सर्वा अपि मण्डलवत्ताश्छत्राऽऽकारसंस्थिताः प्रज्ञप्ता इति, एतेन नयेन, नयो नाम प्रतिनियतैकवस्त्वंशविषयोऽभिप्रायविशेषो, यदाहुः समन्तभद्राऽऽदयो-'नयो ज्ञातुरभिप्रायः।' इति। तत एतेन नयेन-एतेनाभिप्रायविशेषेण सर्वमपि चन्द्राऽऽदिविमानज्ञानं ज्ञातव्यं, सर्वेषामप्युत्तानीकृतकपित्था संस्थानसंस्थितत्वान्न चैव नैव इतरैः शेषैर्नयैः तथावस्तुतत्त्वाभावात् (पाहुडगाहाओ भाणियव्वाओ त्ति) अत्रापि अधिकृतप्राभृतप्राभृतार्थप्रतिपादिकाः काश्चन गाथा वर्तन्ते, ततो यथासंप्रदाय भणितव्या इति। सू० प्र०१ पाहु०७ पाहु० पाहु०॥
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________________ मंडलिउवजीवंत 21 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मंडिय मंडलि (ण) पुं० मण्डलिन्) मण्डलं कुण्डलनमस्त्यस्य इति। सर्प, मण्डली क्व भवतीतिचेदुच्यते-पूर्वाधीते नष्ट उज्ज्याल्यमाने, धर्मकथायां ठिडाले, वटवृक्षे च। वाच०। अहीनामन्तर्गते मुकुलिसर्पभेदे, प्रज्ञा०१ धर्मकथाशास्त्रेषु, वादे वादशास्त्रेषु उज्ज्वाल्यमानेष्वधीयमानेषु वा, पद। कौत्सगोत्रान्तर्गत गोत्रभेदे, स्था०७ ठा०। अथवा-प्रकीर्णकश्रुते अधीयमाने बहुश्रुतेऽपि बहुश्रुतविषयेऽपि मण्डली मंडलिअणुवजीवंत पुं० (मण्डल्यनुपजीवत्) कारणतो मण्डल्यभोक्तरि भवति / तत्राप्याभाव्यभावलिकायामिव; अथ कथमावलिकायामिव सधी, 50302 द्वार। मण्डल्यामपि द्रष्टव्यमिति। व्य०४ उ०। (104 गा०) अस्याः व्याख्या, मंडलिउवजीवंत पुं० (मण्डल्युपजीवत्) मण्डलीभोक्तरि साधी, “दुविहो / 'खेत्त' शब्दे तृतीयभागे 767 पृष्ठे गता।) य होई साहू, मंडलिउवजीवओ य इयरो य।" 50 व०२ द्वार। मंडलीवेसण न० (मण्डलीवेशन) मण्डलीप्रवेशने, ध०३ अधिका मंडलितक्कि (ण) पुं० (मण्डलितर्किन्) मण्डल्युपजीवके, बृ०१ उ०२ | मंडावग पुं० (मण्डापक) मण्डनकर्तरि, मउडाऽऽदिणा मंडं तिजे ते मण्डाप्रक०। पकाः।' नि० चू०६ उ०। मंडलिबंध पुं० (मण्डलिबन्ध) मण्डलमिङ्गितं क्षेत्रम्, तत्रबन्धो नाऽस्मा- | मंडावण न० (भण्डापन) मण्डनकरणे, आचा०२ श्रु०३ चू०। प्रदेशाद गन्तव्यमित्येवंबन्धनलक्षण पुरुषमण्डलपरिचारणलक्षणो वा मंडावणधाई स्त्री० (मण्डापनधात्री) धात्रीभदे, आचा०२ श्रु०३ चू० मण्डलिबन्धः / दण्डनीतिभेदे, “मण्डलिबन्धम्मि होइ वियाओ।" स्था०७ मंडिय त्रि० (मण्डित) मडि-क्तः। भूषिते, औ०। भ०। अलंकृते, आचा०२ 3 / आ०म०। आव०। श्रु०२ चू०४ अ०। औ०। स्वनामख्याते, चौरे, उत्तका तत्कथा चैवम् - मंडलिय पुं० (माण्डलिक) स्वमण्डलमात्राधिपतौ, आ०म०१ अ०। बिन्नागयडे नयरे मंडितो नाम तुपणातो परदव्वहरणपसत्तो आसी, सो राजानश्चक्रवर्तिवासुदेवाः माण्डलिकाः। शेषा राजानः। स्था०३ ठा०१ य दुट्टगंडो मित्ति जणे पगासेंतो जाणुदेसेण णिच्चमेव अद्दयालेवलित्तण 301 माण्डलिकः सामान्यराजा अल्पर्धिकः। जी०१ प्रति०। प्रज्ञा० / रायमग्गे तुण्णागरस सिप्पमुवजीवति, चकमतोऽवि य दंडधरिएणं पाएण महाराजे, प्रश्न०५ आश्र० द्वार। मण्डलं चक्रवाल तदस्त्यस्य समाण्ड- किलिस्संतो कहिं वि चंकमति, रत्तिं च खत्तं खणिऊण दव्वजाय घेत्तूण लिकः / प्राकारवलयवदवस्थिते, स्था०३ ठा०४ उ०। णगरसंनिहिए उजाणेगदेसे भूमिधरं, तत्थ णिक्खिवति, तत्थय से भगिणी मंडलियखंधावार पुं० (माण्डलिकस्कन्धावार) सामान्यनृपतेग्राम- कन्नगा चिट्ठति, तस्स भूमिघरस्स मज्झे कूदो, जं च सो चोरो दव्वेण निवेशे, प्रज्ञा०१ पद। पलोभेउ सहायं दव्वोढारं आणेति तं सा से भगिणी अगडसमीवे मंडलियपव्वय पु० (माण्डलिकपर्वत) मण्डल चक्रवाल तदस्ति येषां ते पुव्वणत्थासणे णिवेसेउं पायसोयलक्खेण पाए गिण्हिऊण तम्मि कूवे माण्डलिकाः प्राकारवलयवदवस्थिताः, तेच ते पर्वताश्च माण्डलिक- पक्खिवइ, ततो सो तत्थेव विवज्जइ, एवं कालो वचति, नयर मुसंतस्स पर्वताः। मण्डलेन व्यवस्थितेषु मानुषोत्तराऽऽदिषु पर्वतषु, स०८५ सम०। चोरग्गाहा त ण सकिति गिहिउं, तओ नयरे उवरतो जातो। तत्थ तओ मंडलियपव्वया पण्णत्ता। तं जहा-माणुसुत्तरे, कुंडलवरे, / मूलदेवो राया, सो कहं राया संवुत्तो? उज्जेणीए नयरीए सव्वगणियापहाणा रुयगवरे / स्था०३ ठा०४ उ०। देवदत्ता नाम गणिया, तीए सद्धिं अयलो नाम वाणियदारओ विभवमंडलिया स्त्री० (मण्डलिका) वातोल्याम, उत्त०३६ अ० जी०। आचा०। संपण्णो मूलदेवो य संवसइ, तीए मूलदेवो इट्ठो, गणियामाऊए अयलो, मंडलियावाय पु० (मण्डलिकाबात) बातोलीरूपे बादरवायुकायभेदे, सा भणति-पुत्ति ! किमेएण जूइकारेणं ति? देवदत्ताए भण्णति-अम्मो ! आचा०१ श्रु०१ अ०७ उ० / भ०। उत्त० / मण्डलिकावातो मण्डलि- एस पण्डितोतीए भण्णइ-किएस अम्ह अमहिय विण्णाणंजाणति, अयलो काभिर्मूलत आरभ्य प्रचुरतराभिः संमिश्रो वातः 1 जी०१ प्रति०। प्रज्ञा०। बाहत्तरिक्लापंडिओएव, तीए भण्णति-वच्छ! अयलं भण-देवदत्ताए उच्छु मंडली स्त्री० (मण्डली) आवलिकाविशेषे, या विच्छिन्ना एकान्ते भवति खाइउंसद्धा, तीए गतूण भणितो, तेण चिंतिध-कओखुताई अहं देवदत्ताए मण्डली साऽऽवलिका, या पुनः स्वस्थान एव सा मण्डली। व्य०। पणतितो. तेणसगड भरेऊण उच्छुयलट्ठीण उवणीयं, ताए भण्णति-किमह अधुना मण्डलीमधिकृत्याह - हत्थिणी ? तीए भणियं-वच्च मूलदेव भण-देवदत्ता उच्छु खाइउं एमेव मंडलीए विपुव्वाहियन धम्मकहि वादी। अहिलसति, तीए गंतूण से कहियं, तेण य कइ उच्छुलट्ठीओ छल्लेउ अहवा पइण्णग सुए, अहिज्जमाणे बहुसुतेवि॥१०३॥ गंडलीतो काउंचाउजायगादिसुवासियाओकाउंपेसियाओ, तीए भण्णतियथा अधस्तादावलिकायामुक्तम्, एवमेव मण्डल्यामपि द्रष्टव्यम् / सा | पिच्छ विण्णणं ति, सा तुगिहक्का ठिया, मूलदेवस्स पओसमावण्णा अयलं
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________________ मंडिय 22 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मंडिय भणति-अहं तहा करेमि जहा मूलदेवं गिहिस्सि ति, तेण अट्ठसयं दीणाराण तीए भाडिणिमित्तं दिन्नं, तीए गंतुं देवदत्ता भण्णति-अज्ज अयलो तुमे समं वसिही, इमे दीणारा दत्ता, अवरण्हवेलाए गंतुंभणति-अयलस्स कजं तुरियं जायं तेण गामंगतो त्ति, देवदत्ताए मूलदेवस्स पेसियं, आगतो भूलदेवो, तीए समाणं अच्छइ, गणिया माऊए अयलो य अप्पाहितो, अन्नाओ पविट्ठो बहुपुरिससमग्गो वेदिउं गब्भगिह मूलदेवो अइसंभमेण सयणीयस्स हिट्ठा णिलुक्को, तेण लक्खितो, देवदत्ताए दासचेडीओ संवुत्ताओ अचलस्स सरीरऽभंगादि घेतुं उवट्ठिया, सो य तम्मि चेव सयणीए ठियनिसन्नो भणइ-इत्थ चेव सयणीए ठियं अब्भंगेहि, ताओ भणतिविणासिज्जइ सयणीयं, सो भणइ-अहं एत्तो उक्किट्ठतरं दाहामो, मया एवं सुविणो दिट्ठो, सयणीयऽब्भंगणउव्वलणण्हाणादि कायव्वं, ताहिं तधा कयं, ताहे ण्हाणगोल्लो मूलदेवो अयलेन वालेसु गहाय कड्डितो, संलत्तो यऽणेण-वचभुक्कोऽसि, इयरहा ते अज्ज अहं जीवियस्स बिवसामि, जदि मया जारिसो होजाहि ता एवं मुच्चेजाहि (ति) अयलाऽमिहितो तओ मूलदेवो अवमाणितो लजाए निग्गओ उज्जेणीए, पत्थयणविरहितो वेन्नायडं जतो पत्थितो, एगो से पुरिसो मिलितो, मूलदेवेण पुच्छितोकहिं जासि ? तेण भण्णति-विण्णायतडम्मि, मूलदेवेण भण्णति-दोऽवि समं वचामो त्ति, तेण संलत्तं-एवं भवउ त्ति, दोऽवि पट्ठिया, अंतरा य अडवी, तस्स पुरिसस्स संबलं अस्थि, मूलदेवा विचिं तेइ-एसो मम संबलेण संविभाग करेहि त्ति, इहि सुते परे ताए आसाए वचति, ण से किंचि देइ, तइयदिवसे छिपणा अडवी, मूलदेवेण पुच्छितो-अत्थि एत्थ अब्भासे गामो ? तेण भण्णति-एस णाइदूरे पंथस्स गामो, मूलदेवेण भणितो-तुमं कत्थ वससि ? तेण भण्णति-अमुगत्थ गामे, मूलदेवेण भणितो-तो खाइ अहं एवं गामं वयामि, तेण से पंथो उवदिट्ठो, गओ तं गाम मूलदेवो, तत्थऽणेण भिक्खं हिंडतेण कुम्मासा लद्धा, पवण्णो य कालो वट्टति, सो य गामातो निग्गच्छइ, साहू य मासखमणपारणएण भिक्खानिमित्तं पविसति, तेण य संवेगमावण्णेणं पराए भत्तीए तेहिं कुम्मासेहिं सो साधू पडिलामितो, भणियं चऽणेणं- 'धन्नाणं खु नराणं, कोम्भासा हुंति साहुपारणए।' देवयाए अहाससिहियाए भण्णति-पुत्त ! एतीए गाहाए पच्छद्धेज मग्गसितं देमि, 'गणियं च देवदत्त' दंतिसहस्संच रजंच॥१॥ देवयाए भण्णति-अचिरेण भविस्सतित्ति, ततोगतो मूलदेवो बेन्नायड, तत्थ खत्त खणंतोगहितो, वज्झाए नीणिज्जइ, तत्थपुण अपुत्तो राया मओ, आसो अहियासिओ, मूलदेवसगासमागतो, पट्टिदायणं रज्जे अहिसित्तो राया जाओ, सो पुरिसो सहाविओ, सो अणेण भणितो तुझं तणियाए आसाते आगतो अहं, इहरहा अहं अंतराले चेव विवजंलो, तेण तुज्झं एस मया गामो दत्तो, माय मम सगासं एजसुत्तिपच्छा उजेणीयण रण्णा सद्धिं पीति संजोएति, दाणमाणसंपूतियं च काउं देवदत्तं अणेण मग्गितो, तेण पचुवगारसंघिएण दिण्णा, मूलदेवेण अंतेउरे छूढा, ताए समभोगे जति। अन्नया अयलो पोयवहणेण तत्थाऽऽगतो, सुक्के विजंते भंडे जाति पाए दव्वणूमणाणि ठाणाणि ताणि जाणमाणेण मूलदेवेण सो गिण्हावितो, तुमे दव्वं णूमियं ति पुरिसेहि बद्धिऊण रायसयासमुवणीतो, मूलदेवेण भण्णति-तुमं मम जाणसि? सो भणति-तुमं राया, को तुमन जाणइ ? तेण भण्णइ-अहं मूलदेवो, सक्का रिउं विसज्जितो, एवं मूलदेवो राया जातो। ताहे सो अण्णं णगराऽऽरक्खियं ठवेति, सोऽपि न सक्को चोर गिहिउं, ताहे मूलदेवो सयं णीलपडं पाउणिऊण रत्तिं णिग्गतो, मूलदेवो अणशंतो एगाए सभाए णिव्दिण्णो अच्छति, जाव सो मंडियचोरो आगंतूण भणति-को इत्थ अच्छति ? मूलदेवेण भणियं-अहं कप्पडितो, तेण भण्णइ-एहि मणूसं करेमि, भूलदेवो उद्वितो, एगम्भि ईसरघरे खत्तं खयं, सुबहुं दव्वजायं णीणेऊण मूलदेवस्स उवरि चडाविउं पडिया नयरबाहिरियं, जातो मूलदेवो पुरतो, चोरो असिणा कड्डिएण पिट्ठओ एइ संपत्ता भूमिघरं, चोरो तं दव्वं णिहिणिउमारद्धो, भणिया अणेण भगिणी-एयस्स पाहुणयस्सपायसोयं देहि, ताए कूवतडसन्निविटे आसणे संणिवेसितो, ताए पायसोयलक्खेण पाओगहिओ कूर्व छूहामि त्ति, जाव अतीव सुकुमारा पाया ताए नायं-जहेस कोई भूयपुव्वरजो विहलियगो, तीए अणुकंपा जाया, तओ ताए पायतले सन्नितो णस्सति, मा मारिञ्जिहिसि त्ति, ततो पच्छा सो पलातो, ताए बोलो कतो-गट्ठो णट्ठो त्ति, सो असिं कड्डिऊण मग्गतो लग्गो, मूलदेवो रायप्पहे अइसन्निकिट्ठ णाऊण चचरसिवंतरितो ठितो; चोरो तं सिवलिंग एस पुरिसो त्ति काउं कंकागेण असिणा दुहा काऊण पडिनियत्तो, गतो भूमिघरं, तत्थ वसिऊण पहायाए रयणीए तओ निग्गंसूण गतो वीहिं, अंतरावणे तुण्णागतं करोत, रायणा पुरिसेहि सद्दावितो, तेण चिंतियं-जहा सो पुरिसो णूर्ण न मारितो, अवस्संच सो एस राया भविस्सइ ति, तेहिं पुरिसेहिं आणितो, रायणा अब्भुट्ठाणेण पूइतो, आसणे णिवेसावितो, स बहुं च पियं आभासिउं संलत्तो-मम भगिणीं देहि त्ति, तेण दिन्ना, विवाहिया, रायणा भोगाय से संपदत्ता, कइसु वि दिणेसु गएसु रायणा मंडिओ भणिओ-दव्वेण कजं ति, तेण सुन्नहुंदव्वजायं दिण्णं, रायणा संपूइतो, अण्णया पुणो भग्गितो, पुणोऽवि दिण्णं, तस्स य चोरस्स अतीव सक्कारसम्भाणं पउंजति, एएण पगारेण सव्वं दंव्वं दवावितो, भगिणी से पुच्छति, ताए भण्णति-इत्तियं वित्तं, तआ पुव्वावेइयलक्खाणुसारेण सव्वं दवावेऊणं मंडितो सूलाए आरोवितो।" उत्त० पाई०४ अ० / बाराणसीनगऱ्या तिन्दुकवनस्थे स्वनामख्याते यक्षे, उत्त०१२ अ०(तत्कथा 'हरिकेसीबल शब्दे वक्ष्यते) स्वनामख्याते महावीरस्य षष्ठे गणधरे च / कल्प०२ अधि०८ क्षण / स०।"भगहाजणवए मोरियसण्णिवेसे मंडिय-मोरिया दोभायरो।" आ० चू०१ अ०। विशेष अथषष्ठगणधरवक्तव्यतां विभणिषुराह - ते पव्वइए सोउं, मंडिओं आगच्छई जिणसयासं। क्यामिण वंदामी, वंदिता पजुवासामि।।१८०२||
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________________ मंडिय 23 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मंत व्याख्य! पूर्ववत् नवरं मण्डिको नाम षष्ठो विजोपाध्यायः श्रीमजिन- "नडुक्काइसरिसा खलु, अहिगारो होइ सुत्तस्स" मल्डूकः शालूरः रस स्काशमागच्छतीति ।।१२०२सा यथोत्प्लुत्य गच्छति। व्य०७ उ०। ततः किमित्याह - मंडुक्कपुत्त पु० (माण्डूकप्लुत्य) मण्डूकप्लुत्या योजातो योनः स माण्डूकआभट्ठोय जिणेणं, जाइ-जरामरणविप्पमुक्केणं / प्लुत्यः / ग्रहाणां नज्ञत्रयोगेन जायमाने वृषभानुजाताऽऽदिषु दशसु योगेषु नामेण य गोत्तेण य, सव्वग्णू सव्वदरिसी णं / / 1803 / / दशमे योगे, स तु ग्रहेण सह वेदितव्यः, अन्यस्य मण्डूकप्लुतिगमना'आभट्ट य' इत्यादि व्याख्या पूर्ववत्॥१८०३।। इति नामगोत्राभ्यामा- सम्भवाता उक्तंच-सूवचन्द्रनक्षत्राणि प्रतिनियतगतीनि ग्रहास्त्वनियतभाष्य पृष्टः भगवान महावीरा बन्धोक्षौ व्यवस्थाप्य बन्धमोक्षयोर्भावा- गतय इति। सू० प्र०१२ पाहु०। भादसंशय मण्डिकस्य निराकृतवान्। विशे०। मंडुक्कियासांग पुं० (मण्डूकिकाशाक) शाकभेदे, उपा०२ अ०। तदेव भगवता छिन्नस्तस्य संशयस्ततः किमित्याह - मंडूक्की स्त्री० (मण्डूकी) मण्डूक इव पण्यमस्त्यस्य अच् / गोरा. डीए / च्छिन्नम्मि संसयम्मी, जिणेण जरमरणविप्पमुक्केण / मञ्जिष्ठायाम, आदित्यभक्तायाम् द्राक्षायाम्, प्रगल्भनायिकायाम्, सो समणो पय्वइओ, अदुट्टिहि सह खंडियसएहिं / 1863 / माण्डूकयोषिति, वाच०। हरितवनस्पतिभेदे, प्रज्ञा०१ पद। महौषधिभेदे व्याख्या पूर्वदत, नवरम् अर्द्ध चतुर्थः शिष्यशतैः सह प्रव्रजितोऽयमिति। च। ती०६ कल्प। विश० / आ० भ०। मंडुग पुं० (मडुक) स्वनामख्याते श्रावके, भ०१८ श०७ उ० / (कथा मंडियकुच्छि न० मण्डितकूक्षि) राजगहे नगराद बहिः क्रीडाथ मण्डित- | 'मड्डुग' शब्दे वक्ष्यते) मंत पुं० (मन्त्र) मत्रि-अच् / गुप्तभाषणे, रहसि कर्त्तव्यावधारणार्थयुक्ती, कुक्षिदनं, उन० अ०॥ वाच / "रहस्सियंवा मत मतेति।" आ० वा०२ श्रु०१ चू०२ अ०३ उ० / मंडियपुत्व 0 (मण्डिक पुत्र मण्डिकापरनामधेये महावीरस्य षष्ठ गणधरे, राजाऽऽदिकार्याऽऽलोचने, ध०२ अधि०। ज्ञा० / भूताऽऽदिनिग्रहकारके, 3.82 उ० / “थेरे मंडियपुत्ते णं अछुट्टाई समसयाई वाएइ।" (ध०२ अधि01) ॐकाराऽऽदिस्वाहापर्य्यन्ते ह्रींकाराऽऽदिवर्णविन्याबाल्प०२ अधि०८ क्षण् / स० / आ०म०१ (एतद्वक्तव्यता 'बंधमोक्ख साऽत्मके शब्दभेदे वाच० / उत्त० 15 अ० / मन्त्राः प्रणवप्रभृत्तिका सिद्धि' शब्दे पञ्चमभाग 1240 पृष्ठ गता।) अक्षरपद्धतयः। पि० / मन्त्रो देवाधिष्ठितोऽसाधनो वाऽक्षररचनाविशेषः। मंडी स्त्री (मण्डः) अगकूर, आव०४ अ०॥ पशा०१३ विव०। ज्ञा० प्रक०। प० / व्य० / गादर्श० / रा.। पाठमात्रमंडीपाहुडिया स्त्री० (मण्डीप्राभृतिका) "मंडीपाहुडिया सा हुम्मि आगए सिद्धः पुरुषाधिष्टानो वा मन्त्रः / ध०३ अधि० / “मतो पुण होइ अगफू-मडी य / अन्नम्मि भायणम्नि, काउं तो देइ साहुस्स / / 1 / / " पढियसिद्धो।” पं० भा०१ कल्प। पं० चू०। पं० व०नि० चू० इत्युक्त लक्षण वस्तुनि, आव०४ अ. विद्यामन्त्रयोः स्वरूपं प्रतिपादयन्नाह - मंडु पु० मण्डु)न्वनामख्याते मुनौ, स्था०७ ठा०। इत्थी विजाऽमिहिया, पुरिसो मंतो त्ति तट्विसेसो य। मंडुक पु० (मण्डूक) मण्डयति वर्षासमयम्। मडि-उक। विजा ससाहणा वा, साहणरहितो भवे मंतो।। तैलाऽऽदौ / / 8 / 2 / 18 / / इति प्राकृतसूत्रेण द्वित्वम् / प्रा० 2 पाद। मेके स्त्री विद्या अभिहिता, पुरुषो मन्त्र इति अयं तद्विशेषः विद्यामन्त्रयोजलजन्तुभेदे, प्रश्न०१ आश्र० द्वार। आ०म० / मण्डूकः शालूर इति। विशेषः / इयमत्र भावना-यत्र मन्त्रदेवता स्त्री सा विद्या (विद्यास्वरूपम् व्य०७ उ० / राजगृहनगरस्थो नन्दो माणेकार: श्रेष्ठी मृत्वा मण्डूको भूत्वा 'सुयदेवया' शब्दे वक्ष्यते) यत्र पुरुषो देवता स मन्त्र इति / अथवाततः सौधर्मकल्पस्थददुरावतंसकविमानस्थदर्दुरसिंहानस्थो दर्दुरदेवो साधनसहिता विद्या, साधनरहितो मन्त्रः / शावराऽऽदिमन्त्रवत् इति यथा जातस्तथा ज्ञाताध्ययनाना त्रयोदशेऽध्ययने / ज्ञा०१ श्रु०१२ अ०। तद्विशेषः / आ०म०१ अ० / प्रणवनमः पूर्वके स्वाहान्ते तत्तन्नामरूपे (दर्दुरकथा 'दडुर' शब्दे पञ्चमभागे 2451 पृष्ठे गता) जिनाऽऽदिमन्त्रे। द्वा०। मंडुक्कजाइआसीविस पु० (मण्डूकजात्याशीविष) जात्याशीविषभेद, मन्त्रन्यासोऽहंतो नाम्ना, स्वाहान्तः प्रणवाऽऽदिकः (14) स्था०४ म०४ उ० (०म०(वक्तव्यता आसीविस' शब्दे द्वितीयभाग तथाऽर्हतोऽधिकृतस्य नाम्ना मध्यगतेन प्रणवाऽऽदिकः स्वाहान्तश्च 486 पृष्ठ गता मन्त्रन्यासो विधीयते, मननत्राणहेतुत्वेनास्यैव प रममन्त्रत्वात् / मंडुक्कज्झयण न. (मण्डुकाध्ययन) ज्ञाताध्ययनानां त्रयोदशेऽध्ययने, द्वा०५ द्वा०। तत्र राजगृहनगरस्थो नन्दा मणिकारः श्रेष्ठी मृत्वा मण्डूको भूत्वा दर्दुरदेवो यदाह - जात इति (ज्ञा०१ श्रु०१ अ० प्रश्न०। स०। आव०। आ० चू०।) उक्तम् मन्त्रन्यासश्च तथा, प्रणवनमः पूर्वकं चत्तन्नाम। 'दद्दुर' शल्दे चतुर्थभागे 2451 पृष्ठे) मन्त्रः परमो ज्ञेयो, मननत्राणे ह्यतो नियमात् // 11 / / मंडुक्कपुइस्त्री० (मण्डूकप्लुति) मण्डूकवदुत्प्लुत्य गमने, आव०५ अ०। | मन्त्रन्यासश्च तथा जिनबिम्बे कारयितव्यतयाऽभिप्रेते मन्त्रस्य
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________________ मंत 24 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मंताउं न्यासो विधेयः, कः पुनः स्वरूपेण मन्त्र इत्याह-प्रणवनमःपूर्वक च सकलाऽपि शिरोवेदना, जातोऽतिशयेन सूरीणामुपासकः, ततो विपुलं तन्नाम / मन्त्रः परमो ज्ञेयः, प्रणवः ॐकारो नमःशब्दश्च तौ, पूर्वावादी भक्तपानाऽऽदिक तेभ्यो दत्तवान्। यस्य तत्प्रणवनम पूर्वक, तस्य विवक्षितस्यऋषभाऽऽदेमि तन्नाममन्त्रः __ अत्र दोषानाह - परमः प्रधानो ज्ञेयो वेदितव्यः / किमित्याह-मननत्राणे ह्यतो नियमात। पडिमंतथंभणाई, सो वा अन्नो व से करिजाहि। हिर्यरमादतः प्रणवनमः पूर्वकान्नामः सकाशात् ज्ञानरक्षणे नियमाद् भवत पावाजीवियमाई, कम्मणगारी भवे बीयं ||4|| इति कृत्वा मन्त्र उच्यते, तन्नामै वेति / / 11 / / षो०७ विव० / ध०। इह कथानके न कोऽपि दोषो जातः, पादलिप्तसूरीणां मुरुण्डराज “वाउकुमाराईण आहवणं णियणिएहि मतेहिं / “तिजनिजैः-स्वकीय- प्रत्थुपकारित्वात्, केवलं प्रागुक्तविद्याकथानक इव मन्त्रेऽपि प्रयुज्यमाने स्वकीयः मन्त्रैः प्रणवनमः पूर्वकस्वाहान्ततन्नामरूपैः / पञ्चा०२ विव०। सम्भाव्यन्ते दोषाः ततस्तदुपदर्शनं क्रियते, तवेयं गाथा प्रागिव य्या - स्त्रीणां चतुषष्टिकलाऽन्तर्गत कलाभेदे, कल्प०१ सधि०७ क्षण। ख्येया, नवरं भवे वीयं ति' घुष्टमात्यमत्रनमधिकृत्य द्वितीयम्- अपवादप्रश्न० / औला जीवोद्धरणगारुहाऽऽदिमन्त्रशास्त्राऽऽत्मके पापश्रुतभेदे, पदं भवेत, सङ्घाऽदिप्रयोजने मन्त्रोऽपि प्रयोक्तव्य इति भावार्थः / पिं० / स्था०६ ठा० / “एगे मंते अहिजंति, पाणभूषविहेडिणो।" एके केचन मंतप्पहाण पुं० (मन्त्रप्रधान) मन्त्रेण प्रधानः उत्तमः, मन्वो था प्रधानमुत्तम पापोदयान्मन्त्रानामिचारकानाथर्वणानिति / सूत्र०१ श्रु० अ० / यस्य सः। मन्त्रेणोत्तमे, उत्तममन्त्रोपेते च / रा० / मन्त्राश्च हरिणेगमेष्याआचा। दिमन्त्राः / औ०॥ मंतजंभग पुं० (मन्त्रजृम्भक) जृम्भकदेवभेदे, भ०१४ श०८ उ०॥ मंतवाय पुं० (मन्त्रवाद) द्वासप्ततिकलाऽन्तर्गत कलाभेदे, कल्प०१ मंतण न० (मन्त्रण) गुप्तभाषणे, विचारणे च / आचा०२ श्रु०१ चू०२ | अधि०७ क्षण। अ०३ उ०। मंतराय पु०(मन्त्रराज) प्रधाने मन्त्रे, षो०८ विव० / मंतण्णास पुं० (मन्त्रन्यास) मन्त्राणामङ्गेषु न्यासे, ध०२ अधि० मंतसत्थ न० (मन्त्रशास्त्र) जीवोद्धरणगारुडाऽऽदिके पापश्रुतभेदे, मंतदोस पुं० (मन्त्रदोष) उत्पादनादोषभेदे, यदा कार्मणं मोहनं यन्त्रं स्था०६ ठा० / सूत्र। मन्त्र साधयित्वा कृत्वा दत्त्वा आहाराऽऽदिक गृह्णाति तदा मन्त्रदोष- मंतसाला स्त्री० (मन्त्रशाला) मन्त्रगृहे, नि०चू०८ उ०। स्त्रयोदशः / उत्त०२४ अ०। मंतसिद्ध पुं० (मन्त्रसिद्ध)सिद्धभेदे, आ०चू०१अ०। मंत्तपय न० (मन्त्रपद) विद्याप्रमार्जनविधौ, राजाऽऽदिगुप्तभाषणे, “णणि साम्प्रतं मन्त्रसिद्ध सनिदर्शनमुपदर्शयतिवहे मतपएण गोयं / " न राजाऽऽदिना सार्द्ध जन्तुजीवितोपमईक मन्त्र साहीणसव्वमंतो, बहुमंतो, वा पहाणमंतो वा। कुर्यात् / सूत्र०१ श्रु०१४ अ०। नेओस मंतसिद्धो, खंभाऽऽगरिसो व सातिसओ।। मंतपिंड पुं० (मन्त्रपिण्ड) मन्त्रणावाप्तः पिण्डो मन्त्रपिण्डः / उत्पादना- स्वाधीनसर्वमन्त्रो बहुमन्त्री वा प्रधानैकमन्त्रो वा झेयः स मन्त्रसिद्धः क दोषभेदे, आचा०१ श्रु०१ अ०६ उ० / ध० / पञ्चा० / जीत० / पिं०। इव स्तम्भाऽऽकर्ष इव सातिशयः / एष गाथाऽक्षरार्थः आ०म०१ अ०। (उदाहरणाऽऽदि मन्त्रपिण्डभोजने प्रायश्चितं 'विजामतपिंड शब्दे लक्ष्मीपुरं पुरं तस्मिन्, श्रीविलासो नराधिपः / वक्ष्यते) शब्दाऽऽदिविषयाऽऽसक्तः, सततं विललास यः।।१।। संप्रति मन्त्रविषये मुरुण्डराजोपलपक्षितपादलिप्सोदाहरणमाह- दृष्टा तेनान्यदा साध्वी, रूपातिशयशालिनी। जह जह पएसिणी जा-णुगम्मि पालित्तओ भमाडेइ। नागच्छन्त्यत्र रम्भाऽऽद्या, यल्लावण्यजिता इव / / 2 / / तह तह सीसे वियणा, पणस्सइ मुरुंडरायस्स // 46 // तद्भपदर्शनाऽऽक्षिप्त-श्चिक्षेपान्तापुरे सताम्। प्रतिष्ठानपुरे मुरुण्डो नाम राजा, पादलिप्ता नाम सूरयः, अन्यदा च तदैव मिलितः सङ्घः, शासितुंतं महीपतिम् / / 3 / / मुरुण्डराजस्य वभूवातिशयेन शिरोवेदना, न केनाऽपि विद्यामन्त्राऽऽदि- राज्ञः सौधाङ्गणे तस्य, महास्तम्भशतोद्धतः। भिरुपशमयितुं शक्यते, तत आकारिता राज्ञा पादलिप्ताः सूरयः, कृता- सुधायाः प्रतिच्छन्दो, मण्डपः सौधमण्डनम्।।४।। रस्तेषामागताना महती प्रतिपत्तिः, कथितं चाऽऽकारणकारणं शिरोवेद- साधुश्चैको मन्त्रसिद्धः सङ्घमध्येऽऽस्ति शक्तिमान्। नायाः, ततो यथा लोको न जानीते तथा मन्त्रं व्यायद्भिः प्रावरणमध्ये आचकर्ष स ताँस्तम्भान्, मन्त्रशक्त्या समण्डपान्॥५॥ निजदक्षिणजानुशिरसि पावतो नि जदक्षिणहस्तप्रदेशिनी यथा यथा उत्पेतुर्कोम्नि सर्वे ते, स्तम्भाः सौधगतास्ततः। भ्राम्यते तथा तथा राज्ञः शिरोतेदना अपगच्छति, ततः क्रमेणापगता गन्तुकामा इव तदा, जायन्ते स्म चलाचलाः // 6 //
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________________ मंताजोग 25 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मंदकुमारय कान्दिशीकस्तदा राजा, समागत्य कृताञ्जलिः। मंथर न० (मन्थर) मन्थ-करच / कोषे, फले, वाद्ये, मन्थानदण्डे च / साध्वी तामर्पयामास, सई चाक्षमयन् मुहुः / / 7 / / आ००१ अ०।। पुं० / वक्रे, नीचे, जडे, मन्दे, वाच० / 'विलंबते' विलम्बितो दीर्घकालमंतसोय न० (मन्त्रशौच) विद्याशौऽऽचात्मके शौचभेदे, स्था०५ टा०३ उ०। भावी। पशा०६ विव० / कैकैय्या दास्याम्, स्त्री० / वाचा मंताइविहाण न० (मन्त्राऽऽदिविधान) मन्त्राऽऽदीना-मन्त्रविद्याप्रभृतीनां | मंथु पुं० (मन्थु) चूर्णे, आचा०२ श्रु०१ चू०१ अ०८ उ०।वदराऽऽदिचूर्णे, प्रतिबद्धर वरूपाणां विधान-साधनविधिः / मन्त्राऽऽदिसाधनविधौ, दश०५ अ०१ उ०। प्रश्न उत्त०। आचा० दधनः सम्बन्धिन्यवयपक्षा०३ पिव०। वविशेष, तद्रूपे विकृतिभेदे च / दध्नः सम्बन्धी यो मन्थुः इति नाम्ना मंताइसरण न० (मन्त्राऽऽदिस्मरण) मन्त्रविद्याऽऽदिध्याने,पञ्चा०४ विव० / प्रसिद्धोऽवयवः स विकृतिरिति / बृ०१ उ०२ प्रक० मंताउं अन्य० (मत्वा) अवधार्येत्यर्थे, सूत्र०१ श्रु०१० अ० / मथुजाय न० (मन्थुजात) चूर्णमात्रे, “से जं पुण मंथुजाय जाणेजा। तं मंताजोगपुं० (मन्त्रयोग) मन्त्राणां योगो व्यापारो मन्त्रयोगः / मन्त्रव्यापारे, जहा-उवरमथु वा, णग्गोहमथु धा, पिलाखुमथु वा आसोत्थमथु वा मन्त्रश्च यंगश्च तथाविधद्रध्यसंयोगो मन्त्रयोगः / मन्त्रसहिते द्रव्यसंयोगे अण्णयरं वा तहप्पणारं मथुजायं।" आचा०२ श्रु०१ चू०१ अ०८ उ०। च / “मंताजोगं काउं।" ग०२ अधि०। मंद त्रि० (मन्द) मदि-अच् / जडे, मूर्खे, सूत्र०१ श्रु०१ अ०१ उ०। रा० / मंताणुओग पुं० (मन्त्रानुयोग) चेटकाऽऽदिमन्त्रसाधनाभिधायके पाप "तत्थ मंदा विसीयंति।" सूत्र०१ श्रु०३ अ०१ उ० / उत्त० / अज्ञ, शस्त्रे, स०२६ सम०। सदबुद्धिरहिते, मन्दः सदसद्विवेकाऽपटुः / सूत्र०१ श्रु०१ अ०२। दश०। मंताहिराय पुं० (मन्त्राधिराज) हिमाचलस्थे जायापाश्वे, हिमाचले आचा० / ग० / मन्दा ज्ञानाऽऽवरणीयेनावष्टब्धा इति / सूत्र०१ श्रु०३ जायापावें मन्त्राधिराजः श्रीस्फुलिङ्ग / ती०४३ कल्प। अ०१ उ०। अलसे बृ०१ उ०३ प्रक० ।पा० / अशक्ते, सूत्र०१ श्रु०३ मंति (ण) 0 (मन्त्रिण) भन्त्रयते णिनिः / राज्याधिष्ठायके अमात्ये, अअ१ उ० / अल्पसत्त्वे, सूत्र०१ श्रु०३ अ०१ उ०। “मन्दा जडालघुकल्प०१ अधि०३ क्षण ! आ०म० / औ०। रा० / “अप्रवृत्तिगतं भूपं, प्रकृतयः।" सूत्र०१ श्रु०३ अअ१ उ०। अल्पे, उत्त०१८ अ०६०व०। छन्दोवृत्त्यः स्तुवन्ति ये / लक्ष्मीहतिकृतोपायाः, शत्रवस्ते न मन्त्रिणः मृदौ, अभाग्ये, रोगिणि, स्वतन्त्रे, खले. वाच० / मन्द इव मन्दः / मिथ्यात्वमहारोगग्रस्ते च / उत्त०८ अ०। / / 2 / / " सङ्घा०१ अधि०१ प्रत्ता० / सो खलु सोचो मंदो मंदो पुण दव्वभावेणं / (बृ.)। मंतिपरिसास्त्री० (मन्त्रिपरिषद्) राज्ञो राहस्यिकायां पर्षदि, बृ०१ उ०१ अथ मन्द इति कोऽर्थः ? इत्याह-मन्दः पुनद्रव्यभावेन द्रव्यतो भावतश्च प्रक० / ( परिसा' शब्दे पञ्चमभागे 651 पृष्ठ विवृतिः) मन्दो भवतीत्यर्थः। मंतिय पुं० (मान्त्रिक) मन्त्रज्ञातरि, उत्त०१ अ०। एक्केलपुण उवचऍ, अवचयम्मि भावे उ अवचए पगतं / मंतु पुं० (मन्तु) मन-कु-तुट् च / अपराधे, मनुष्ये, प्रजापती, वाच० / तलिना वुड्डी सेट्ठा, उभयमओ के इ इच्छंति // 706 / / क्रोधे च ! "किं पुण मंतुप्पहरणेसु।” मंतुप्पहरणा कोहप्पहरणा ऋषयः। द्रव्यमन्दो, भावमन्दश्च / एकैकः पुनर्द्विधा-उपचये, अपचये च / नि० चू०२ उ०। अत्रोपचयद्रव्यमन्दो नाम-यः परिस्थूरतरशरीरतया गमनाऽऽदिव्यापार मंथ पुं० (मन्थ) मन्थ-करणे घञ् / द्रव्यतो दधिमन्थनदण्डे, भावतः कर्तुं न शक्नोति, अपचयद्रव्यमन्दस्तुयः कृशशरीरतया कमपि प्रयास कोकुचिकाऽऽदिके कल्पपरिमन्थौ, स्था०। इह च मन्थो द्विधा-द्रव्यतो, न कर्तुमाचष्टे, उपचयभावमन्दः पुनर्यो बुद्धरुपचयेन यतस्ततः कर्तु भारतश्च। यत आह-"दव्वम्मि मंथो खलु, तेणा मंथिजए जहा दहियं / नोत्सहते / अपचयभावमन्दस्तु यो निजसहजबुद्धेरभावेनान्यदीयाया दहितुल्लो खलु कप्पो, मंथिज्जइ कुक्कुयाईहिं / / 1 / / " स्था०६ ठा० / मन्थ बुद्धेरनुपजीवनेन हितप्रवृत्तिनिवृत्ति न कर्तुमीशः स बुद्धेरपचयेन भावतो इद मन्थः, केवलिना समुद्धातसमये दक्षिणोत्तरदिग्द्वयप्रसारणात् मन्दत्वादपचयभावमन्दः / अत्र चाऽनेनैव भावतोऽपचयमन्देन, प्रकृत्तं लोकान्तप्रापिणि, मन्थवत् क्रियमाणे जीवप्रदेशसङ्घाते च / स्था०६ शेषास्तु शिष्यमतिविकाशनार्थ प्ररूपिताः / अथवा-तलिना-सूक्ष्माटा० / आ०म० / सक्तुभिः सर्पिषाऽभ्यक्तैः, शीतवारिपरिप्लुतैः / नात्य कुशाग्रीया बुद्धिः श्रेष्ठा ततः सा सूक्ष्मतन्तुव्यूतपटीवदन्तः सारवत्त्वेनोपच्छो नातिसान्द्रश्च, चितेति कृत्वा यः कुशाग्रीयमतिः स उपचयभावमन्दः, यस्तु परिस्थूरमतिः मन्य इत्यभिधीयते।।१।।" इत्युक्ते पेयभेदे, सूर्यो, अर्कवृक्षे, नेत्रमले; किरणे स बुद्धेः स्थूलसूत्रतया स्थूलशाटिकाया इव अन्तर्निः सारतालक्षणमपचच / भावे घञ्। आलोडनाऽदौ, वाच०। यमधिकृत्याऽपचयभावमन्दः, इत्यतः केचिदाचार्या उभयमपचयमन्दमंथणिया स्त्री० (मन्थनिका) लघुमन्थनदण्डे, सूत्र०१ श्रु०१ अ०१ उ०। मिच्छन्ति। प्रथमव्याख्यानाऽपेक्षया निर्बुद्धिक, द्वितीयव्याख्यानपक्षे तु
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________________ मंदक्ख 26 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मंदर परिस्थूरबुद्धिकमपचयभावमन्दमत्र प्रस्ताव गृह्णन्तीति भावः। बृ०१ उ०१ प्रक० / तृतीयायां दशायाम्, स्त्री० / स्था० / उक्तं च-"तइयं च दसं पत्तो, आणुपुव्वीरें जो नरो। समत्थो भुंजिउं भोगे, जइसे अस्थि घरे धुवे |1 // " इति भोगोपार्जने तु मन्द इति भावना। स्था०१० ठा० / मान्य न० मन्दस्य भावः ष्यन् / रोगे, मन्दतायां च / सूत्र०१ श्रु०४ अ०१ उ०। मंदकुमारय पुं० (मन्दकुमारक) उत्तानशये बालके, प्रज्ञा०ा उत्तानशयायां बालिकायाम्, स्त्री० / “भंदकुमारए वा मंदकुमारिया वा।” मन्दकुमारक उत्ताशयो बालको, मन्दकुमारिका उत्तानशया बालिका / प्रज्ञा०११ पद। मंदक्ख न० (मन्दाक्ष) मन्द-संकुचितमक्षि यस्मात् अच् / लज्जायाम, वाच. / बृ०४ उ०। मंदग न० (मन्दक) गेयभेदे, स्था०४ ठा०४ उ०। मंदगइ स्त्री० (मन्दगति) मन्दगमने, मन्दगमनोपेते, त्रि०) सू० प्र०१ पाहु०१ पाहु० पाहु०। मंदग्गिकढिय त्रि० (मन्दाग्निक्वथित) मन्दमग्निना कथिते, अत्यग्निना | कथितं हि विरसं विगन्धाऽऽदि च भवतीति मन्दाग्रिक्वथितं गन्धेन विशिष्यते। विशे०। मंदधम्म पुं० (मन्दधर्म) धर्मे मन्दो मन्दधर्मः / राजदन्ताऽऽदिदर्शनात् धर्मशब्दस्य परनिपातः / संयमशिथिले, व्य०३ उ० / आ० चू० / ('दुव्वलचरिय' शब्दे चतुर्थभागे 2563 पृष्ठ एष उदाहृतः) मंदधी पुं०स्त्री० (मन्दधी) मन्दबुद्धौ, षो०६ विव०॥ मंदपरिणाम पुं० (मन्दपरिणाम) मन्दः परिणामः परिणतिर्यस्या ईषल्ल क्ष्यमाणस्वरूपे, आचा०१ श्रु०३ अ०१ उ०। मंदपुण्ण त्रि० (मन्दपुण्य) न्यूनभाग्ये, आ०म०१अ०। प्रश्न० / उत्त०॥ मंदबुद्धि पुं० (मन्दबुद्धि) सद्बुद्धिविकले, बृ०१ उ०३ प्रक० / पञ्चा०। आ०म० / अल्पमतौ, पं०व०१ द्वार। मन्दबुद्धिश्च मिथ्यात्वोदयात्। प्रश्न०१ आश्र० द्वार। मंदभग्ग त्रि० (मन्दभाग्य) न्यूनभाग्ये, आव०४ अ०। उत्त०। मंदमइ त्रि० (मन्दमति) अल्पमतौ, सूत्र०।"ये मय्यवज्ञा व्यधुरिद्धबोधा, | जानन्ति ते किञ्चन तानपास्य / मत्तोऽपि यो मन्दमतिस्तथाऽर्थी, तस्योपकाराय ममैष यत्नः / / 3 / / इहापसदसंसारान्तर्गतेनाऽसुमताऽवाप्याऽतिदुर्लभं मनुजत्वं सुकुलोत्पत्तिसमग्रेन्द्रियसमाग्रयाद्युपेतेनाऽर्हद्दर्शनमशेषकर्मोच्छित्तये यतितव्यम्, कर्मोच्छेदश्च सम्यग्विवेकसव्यपेक्षोऽसावप्याप्तोपदेशमन्तरेण न भवति, आप्तश्चाऽऽत्यन्तिकाद्दोषक्षयात्, स चाहन्नेव, अतस्तत्प्रणीताऽऽगमपरिज्ञाने यत्नो विधेयः, आगमश्च द्वादशाङ्गाऽऽदिरूपः, सोऽप्यार्यरक्षितमित्रैरैदंयुगीनपुरुषानुग्रह-बुद्ध्या | चरणकरणद्रव्यधर्मकथागणितानुयोगभेदाचतुर्धा व्यवस्थापितः, तत्राऽऽचाराङ्गं चरणकरणप्राधान्येन व्याख्यातम्; अधुनाऽऽवसराऽयातं द्रव्यप्राधान्येन सूत्रकृताऽऽख्यं द्वितीयमङ्ग व्याख्यातुमारभ्यते इति। ननु चार्थस्य शासनाच्छास्त्रमिदं, शास्त्रस्य चाशेषप्रत्यूहोपशान्त्यर्थमादिमङ्गलं तथा स्थिरपरिचयार्थ मध्यमङ्गलं शिष्याप्रशिष्याविच्छेदार्थ चान्त्यमङ्गलमुपादेयं तचेह नोपलभ्यते। सत्यमेतत्, मङ्गलं हीष्टदेवतानप्रस्काराऽऽदिरूपम्, अस्य च प्रणेता सर्वज्ञः, तस्य चापरनमस्कार्याभावाद् मङ्गलकरणे प्रयोजनाभावाच्च न मङ्गलाभिधानम्, गणधराणामपि तीर्थकृदुक्तानुवादित्वान्मङ्गलाकरणम्, अस्मदाद्यपेक्षया तु सर्वमेव शास्त्रं मंगलम्। अथवा-नियुक्तिकार एवात्र भावमङ्गलमभिधातुकाम आहतित्थयरे य जिणवरे, सुत्तकरे गणहरे य णमिऊणं / सूयगडम्स भगवओ, णिज्नुत्तिं कित्तइम्सामि // 1) गाथापूर्वार्द्धनेह भावमङ्गलमभिहितं, पश्चार्द्धन तु पेक्षा पूर्वकारिप्रवृत्त्यर्थं प्रयोजनाऽऽदित्रयमिति। तदुक्तम् -"उक्तार्थं ज्ञातसम्बन्धं, श्रोतुं श्रोता प्रवर्तते। शास्त्राऽऽदौ तेन वक्तव्यः, सम्बन्धः स प्रयोजनः / / 1 / / " तत्र सूत्र कृतस्येत्याभिधेयपदम्, नियुक्ति कीर्तयिष्ये इति प्रयोजनपदम्, प्रयोजनप्रयोजनं तु मोक्षावाप्तिः / सम्बन्धस्तु प्रयोजनपदानुमेय इति पृथक् नोक्तः। तदुक्तम्- "शास्त्रं प्रयोजनं चेति, संबन्धस्याऽऽश्रयावुभौ / तदुक्त्यन्तर्गतस्तस्माद्भिन्नो नोक्तः प्रयोजनात्।।१" इति समुदायार्थः / अधुनाऽवयवार्थः कथ्यते-तत्र तीर्थं द्रव्यभावभेदाद् द्विधा, तत्रापि द्रव्यतीर्थ नद्यादेः समुत्तरणमार्गः, भावतीर्थं तु सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि, संसारार्णवादुत्तारकत्वात्, तदाधारोवा, सङ्घः प्रथमगणधरो वा, तत्करणशीलास्तीर्थरास्तान् नत्वेति क्रिया / तत्राऽन्येषामपि तीर्थकरत्वसम्भवे तद्व्यवच्छेदार्थमाह-जिनवरानिति रागद्वेषमोहजितो जिनाः, एवम्भूताश्च सामान्यकेवलिनोऽपि भवन्ति, तद्व्यवच्छेदार्थमाह-वराः प्रधानाश्चतुस्त्रिंशदतिशयसमन्वितत्वेन, तान्नत्वेति, एतेषां च नमस्कारकरणमागमार्थोपदेष्टत्वेनोपकारित्वात्, विशिष्टविशेषणोपादानं च शास्त्रस्य गौरवाऽऽधानार्थ, शास्तुः प्राधान्येन हि शास्त्रस्यापि प्राधान्यं भवतीति भावः। अर्थास्य सूचनात्सूत्रतत्करणशीलाः सूत्रकारास्तेच स्वयंबुद्धाऽऽदयोऽपि भवन्तीत्यत आह-गणधराः,तांश्च नत्येति, सामान्याऽऽचार्याणां गणधरत्वेऽपि तीर्थकरनमस्कारानन्तरोपादानागौतमाऽऽदय एवेह विवक्षिताः। प्रथमश्चकारः सिद्धाऽऽधुपलक्षणार्थः, द्वितीयः समुचितौ / क्त्वाप्रत्ययस्य क्रियान्तरसव्यपेक्षत्वात्तामाहस्वपरसमयसूचनं कृतमनेनेति सूत्रकृतस्तस्य, महार्थवत्त्वाद्भगवांस्तस्य, अनेन च सर्वज्ञप्रणीतत्वमावेदितं भवति। सूत्र०१ श्रु०१ अ०१ उ०।
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________________ मंदर 27 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मंदर स मंदमण त्रिल (मन्दानम् मन्द मन्दस्येव वा मनो यस्य सः नात्यन्तधीरो मन्दमनाः / भीरा, हस्तिभेदे, पुरुषभेदे च। पुं० स्था०४ ठा०२ 301 मंदया स्त्री० (मन्द ना) मन्दस्य भावः तल / कायजड़तायाम्, अलस साबामाता मंदर पुं० (मन्दर) मेरो, नि००१ उ०। प्रज्ञा० / ति० स० / निः। प्रश्न रा0 1 "दो मंदरा।" स्था०२ ठा०३ 30 / मेरो सम्प्राते महाविदेहवर्षस्य पूर्वापरविभागकारिमर पृच्छन्नाह - कहिणं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे मंदरे णाम पव्वए पण्णत्ते ? गोयमा ! उत्तरकुराए दक्खिणेणं देवकुराए उत्तरेणं पुब्वविदेहस्स दासस्स पञ्चच्छिमेणं अवरविदेहस्स वासस्स दुरच्हिमेणं जंबुद्दीवस्स दीवस्स बहुमज्झदेसमाए एत्थ णं जंबुद्दीवे डीवे मंदरे णाम पव्वए पण्णत्ते / काहे पमित्यादि) प्रश्नः प्राग्वत् / उत्तरसूत्रे गौतम : उत्तरकुरूणा दक्षिणस्य देशकुरूणामुत्तरस्या पूर्वविदेहत्य वर्षस्य पश्चिगायां पश्चिममहाविदेहस्य वर्षम्य पूर्वस्यां जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य बहुमध्यदेशभाग बान्तरे जम्बूद्वीप द्वीप मन्दसे नाम पर्वतः प्राप:1 ऊर्द्धवमुच्चत्यम् / णवणउतिं जोअणसहस्साई उड्ढे उचेत्तेणं एगं जोअणसहस्सं उध्वेहेणं। नवनवनियाजनसहस्राणि उद्धवो चत्वेन एक योजनसहस्रमुद्वेधन रांग्रेण पूर्ण लक्षमित्यर्थः, वक्षमाणचूलासत्कानि चत्वारिंशद्योजनानि लाधिकान, उच्छ्यचतुर्थाशी भूम्यवगाहस्तु मेरुवर्जपर्वतषु ज्ञेय इति। उद्वेधविष्कम्भीमूले दसजोयणसहस्साइंणदइंच जोअणाई दस य एगारेसभाए जो अणस्स विक्खंभेणं धरणिअले दसजो अणसहस्सई विक्खंभेणं तयणंतरं च णं मायाए मायाएपरिहायमाणे परिहायमाणे उदरितले एगं जोअण सहस्सं विक्खंभेणं / मूल-कन्दे दश योजनसहस्राणि नवतिं च योजनानि दश चकादश भागान्यजनस्य विष्कम्भेन 10060 अशा: 50, एकादशरूपेण छेदन क्रनादपदीयमानविष्कम्भोऽसी धरणीतले समे भागे दशयोजनसहरमाणि विष्कम्भन मूलतो योजनसहरमूर्दध्वगमने मूलगतानि नवतियोजनानि दश च एकादश भागा योजनस्य तुत्रुटुरित्यर्थः, तदनन्तर मात्रया मात्रया ऊर्द्धवगमने उचत्वस्य यो जनैकादशांशवृद्ध्या विष्कामस्य याजनैकादशांशहानिस्तथोत्रत्वैकादशयोजनवृझ्या विभकयोजनहानि, एवमेकादशयःजनशतवृद्ध्या योजनशतहानिः, तथा एकादशयोजनस हरसवृद्ध्या योजनसहमहानिरित्येवरूपेण परिमाणेन परिहीयमाणः परिहीयमाणः उपारेतले शिरोभागे यत्र चूलिकाया उद्भवस्तत्र एकयोजनसहसं विष्कम्भेष्ट, समभूतलता नवनवतियोजनसहसाण्यूध्वगमने प्राथगननद्रयोजनसहस्राणि तुत्रुटुरित्यर्थः / अथास्य परिधिःमूले एकत्तीसं जोअणसहस्साई णव य दसुत्तरे जोअणसए तिणि अ एगारसभाए जोअणस्स परिक्खे वेणं धरणि अले एकत्तीसं जोअणसहस्साइंछच्च तेवीसे जोअणसए परिक्खेवेणं उवरितले तिणि जोअणसहस्साई एगं च वावटुं जोअणसयं किं चिविसेसाहिअंपरिक्खेवेणं मूले वित्थिपणे मज्झे संक्खित्ते उवरिं तणुए गोपुच्छसंठाणसंठिए सव्वरयणामए अच्छे सण्हे ति। मुले एकत्रिशयोजनसहस्राणि नव च शतानि दशोत्तराणिं त्रीश्च - कालापमान योजनस्य परिक्षेपेण, धरणीत ले एकत्रिंशद्योजनसहखाणि माविशत्यधिकानि योजनशतानि परिक्षेपण उपरितले त्रीणि योजनसहस्राणि एक च द्वाषट्यधिक योजनशतं किञ्चिद्विशेषाधिक परिक्षेपेण, अथाऽऽद्यपरिधिगणितं मूले विष्कम्भस्य सच्छेदत्याद्विष - ममिति दीत मूले च विष्कम्भो दशयोजनसहरमाणे नवत्यधेिकानि दश चैकादश भागा योजनस्य 1006010/11 योजनराशावकःदशभागकरणार्थमेकादशभिर्गुणिते उपरितनदशभागक्षेप यजता स्वाद माना लक्षमेकमेकादश च सहस्राणि 111000 तताऽ गाशेल.. करा आत्तम- एकको द्विकस्त्रिका द्विकः एकत; प र 12321000000 ततोऽस्य दशभिर्गुणने जातानि सप्तशनि 123210000000 अथाऽस्य वर्गमूलाऽऽनयने लब्धस्त्रिका पक्षक एककः शून्यमेकको दिकः 351012. अथास्ययोजनकरणार्थ 11 गम: लब्धं योजन 31610, अथास्य योजनकरणार्थ ११भागः लाया. सन 31610, अंश 2, शेषम् 575856 / 702025, अर्धाभ्यांधकल्याद्रप दर अंशाः३, समभूतलगतपरिधावपि 31622, योजनानि अक्षिणशानामद्धाभ्यधिकरवाद्रपे दत्त त्रयाविशाल योजनानि, शिवरार चार्द्धता न्यनत्वादशानां सूत्र किशिदधिकत्व न्यवेद, असम विस्तीणो मध्य साक्षातः उपरि जनुकः ऊद-खातिर उदस्तगोपच्छाऽऽकारण संस्थितः सर्वाऽऽत्मना रत्नमयः, इट च प्रायोवचनम, अन्यथा-काण्डत्रयविवेचने आद्यकाण्डरय पृथ्व्यपलशारावजमरात्वं तृतीयकाण्डे जाम्बूनदमयत्वं च भणिशमाण विरुणद्धि. शेष प्राग्वत्त। अथात्र पद्मवरवेदिकाऽऽद्याह - से णं एगाएपउमवरवेइआए एगेण य वणसंडेणं सव्वओ समता संपरिक्खित्ते वण्णओ त्ति। (से णं एगाए) इत्यादि व्यक्तम् अत्र चाऽऽरांहेऽवरोहे च इष्टस्थान विस्ताराऽऽदिकरणानि सूत्रेऽनुक्तान्यपि उतरग्रन्थे बहूपयोगानी दयन्त-तत्र कन्दादाराहे करणमिदम् ऊईवगतस्य यत्र योजनाऽऽदी विस्तारजिज्ञासा तस्मिन् योजनाऽदिके एकादशभिभक्ते यल्लब्ध तस्मिन् कन्दविस्तारादपनीते यदवशिष्टं स तत्र प्रदेशे मेरुव्यासः। तथाहि-कन्दाद्यो जनलक्षमई व गतस्ततो योजनलक्ष ध्रियते तस्मिन्ने कादशभिभक्ते लब्धानि नवतिशतानि नवत्यधिकानि योजनानां दश चैकादश भागा योजनस्य अस्मिन् कन्दव्यासात् दश
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________________ मंदर 28 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मंदर योजनसहस्राणि नवत्यधिकानि दश चैकादशभागा योजनस्येत्येवं परिमाणादपनीयते शेष योजनसहस्रम्. एतावानत्र प्रदेशे मेरूपरितले ध्यासः, अथवा-योजनसहस्त्रामारूढस्ततो योजनसह एकादशभिर्भक्त लब्धानि नवतियोजनानि दश च एकादश भागा योजनस्य अस्मिन पूर्वोक्तात् कन्दव्यासाच्छोधिते शेषं दश योजनसहस्राणि, एवमन्यत्रापि भाव्यम् / अथ शिखरादवरोहे करण, यथा मेरुशिखरादवपत्य यत्र योजनाऽऽदौ विष्कम्भजिज्ञासा तस्मिन् योजनाऽऽदिके एकादशभिर्भक्त यल्लब्धं तत्सहितं तत्र प्रदेशे मेरुव्यासमान, यथा शिखराधोजनलक्षमवतीर्णस्ततो लक्ष एकादशभिर्भक्त लब्धानि नवतिशतानि नवत्यधिकानि दश चैकादश भागाः अस्मिन् योजनसहस्रप्रक्षेपे जातानि 10060-10/11 इयान् कन्दे व्यासः / अथवा-शिखरान्नवनवतियोजनसहरसाण्यवतीर्णरततरतेषामेकादशभिभगि हृते लब्धानि नवसहस्त्राणि तानि सहरत्रसहितानि जातानि दशसहस्राणि एतावान-धरणीतले विस्तारः, एवमन्यत्रापि, अथ मेरौ मूलादारोहे मौलितोऽवरोहे च विष्कम्भविषयक हानिवृद्धिज्ञानार्थ करणमिदम्-उपरितनाधस्तनयोर्विस्तारयोविश्लेषे कृते तयोर्मध्यवर्त्तिना पर्वतोच्छ्रयेण भक्ते यल्लबध सा हानिर्वृद्धिश्च / तथाहि उपरितने विस्तारे योजनलहस्रम् अधस्तानाद्योजन 10060-11 11 इत्येवरूपाच्छोधिते शेष 6060-10/11 सवर्णनार्थ योजनराशिमेकादशगुणीकृत्य अधस्तना दश भागाः प्रक्षेप्या जातम् 100000/11 अस्य च भजनार्थ मध्यवर्तिनि पर्वतोच्छूये 100000 इत्येवंरूपे एकादशगुणीकृते जातं 1/11 शून्य/शून्य५/५ अत्र छेदराशेरेकादशगुणत्वाद्भागाप्राप्तौ उभयोर्लक्षणापवर्ते कृते जातम् 1/11 / इयती प्रतियोजनं हानिर्वृद्धिश्च, तथा इदमेव लब्धमीकार्यम् एककस्या संभवात् छेद एव द्विगुणीक्रियते जातम् 1/22 इयं मेरोरेकस्मिन् पार्वे वृद्धिानिश्चेति। अथोचत्वपरिज्ञानाय करणमिदममेरोर्यत्रभूतलाऽऽदौ प्रदेशे यो यावान् विस्तारः तस्मिन्मूलविस्ताराच्छोधिते यच्छेषं तदेकादशभिर्गुणितं सत् यावद्भवति तावत्प्रमाण उत्सेधः / तथाहि-शिखरव्यासो योजनसहस्र तस्मिन कन्दव्याप्तात्पूर्वोक्ताच्छोधित शेष नवतिसहस्राणि नवत्यधिकानि दश चैकादश भागा योजनस्येत्येतदात्मकं योजनराशिरेकादशभिर्गुणयते जातम 66660 ये च दशैकादशभागास्तेऽपि एकादशभिर्गुण्यन्ते जातम् 110 तस्यैकादशभिर्भागे हते लब्धानि दश योजनानि पूर्वराशौ, प्रक्षिप्यन्ते जातं योजनानां लक्षम्, एतावदधोविस्तारोपरितनविस्तारयोरन्तरे उच्चत्वम्, एवं मध्यभागाऽ5दावप्युचत्वपरिमाणं भावनीयमिति। नन्विह कस्मादकादशलक्षणः छेदः करमाद्वा तेन शेष गुण्यते ? उच्यते-एकादशानां योजनानामन्ते एक योजनम् एकादशानां योजनशतानामन्ते एक योजनशतम् एकादशाना योजनसहस्राणाम.ने एकं योजनसहस्त्र त्रुट्यति, तत एकादशलक्षणः छेदः, तेनोचत्वपरिज्ञानाय विस्तारशेषं गुण्यते, अन्यथा-योजनानां दशसहस्राणि नवत्यधिकानि दश चैकादश भागा योजनस्य त्येवं विस्तारात्कन्दादारोहणे धरणीतले नवतियोजनानि दश चैकादशभागाः कथं त्रुट्येयुरिति, ननु मेखलाद्वये प्रत्येक परितः पञ्चयोजनशतविस्तारयोनन्दनसैमनसवनयोः सद्भावात् प्रत्येक योजनसहरर स्य युगपत् त्रुटिः, ततः किमित्येकादशभागपरिहाणिः ? उच्यते-कर्णगत्या समाधेयमिति / का च कर्णगतिरिति चेदुच्यते-कन्दादारभ्य शिखरं यावदेकान्तऋजुरूपा यां दवरिकायां दत्तायां यदपान्तराले वाऽपि कियदाकाशं तत्सर्वं कर्णगत्या मेरोराभाव्यमिति मेरुतया परिकल्प्य गणितज्ञा सर्वत्रकादशभागपरिहाणिं परिवर्णयन्ति / अयं चार्थः श्रीजिनभद्रगणिक्षमा श्रमणपूज्यैरपि विशेषणवत्या लवणोदधिघनगणितनिरूपणावसरे दृष्टानतद्वारेण ज्ञापित एवेति। सम्प्रत्येतद्गतवनवक्तव्यतामाह - मंदरे णं भंते ! पव्वए कई वणा पण्णत्ता ? गोअमा! चत्तारि वणा पण्णत्ता / तं जहा-भद्दसालवण 1, णंदणवणे 2, सोमणसवणे 3, पंडगवणे / (मंदरे णमित्यादि) प्रश्नसूत्रं व्यक्तम्, उत्तरसूत्रे चत्वारि वनानि प्रज्ञप्तानि / तद्यथा-भद्राः सद्भूमिजातत्वेन सरलाः शालाः साला वातरुशाखा यस्मिन् तत् भद्रशालं भद्रसालं वा, अथवा-भद्राः शाला वृक्षा यत्र तद् भद्रशालम् / नन्दयति आनन्दयति देवाऽदीनिति नन्दनम् / सुमनसा देवानामिद सौमनसं देवोपभोग्यभूमिकाऽऽसनाऽऽदिमत्त्वात्। पण्डते-गच्छति जिनजन्माभिषेकस्थानत्वेन सर्ववनेष्वतिशायितामिति णक्प्रत्यये पण्डकम्, इमानि चत्वार्यपि स्वथाने मेलं परिक्षिप्य स्थितानि। ज०४ वक्ष०। (नन्दनवनाऽऽदिवक्तव्यता नन्दनवनाऽदिशब्देषूक्ता।) अथ मेरौ काण्डसंख्याजिज्ञासुाँतमः पृच्छति - मंदरस्स णं भंते ! पध्वयस्स कइ कंडा पण्णत्ता ? गोअमा ! तओ कंडा पण्णत्ता / तं जहा-हेट्ठिल्ले कंडे, मज्झिमिल्ले कंडे, उवरिल्ले कंडे / मंदरस्स णं भंते ! पव्वयस्स हिट्ठिल्ले कंडे कतिविहे पण्णत्ते? गोअमा! चउविहे पण्णत्ते / तं जहा-पुढवी 1, उवले 2, यइरे 3, सक्करा 4 मज्झिमिल्ले णं भंते ! कंडे कतिविहे पण्णत्ते ? गोअना ! चउव्विहे पण्णत्ते / ते जहा-अंके 1, फलिहे 2, जायरूवे 3, रयए 4, उवरिल्ले कंडे कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! एगागारे पण्णत्ते सव्वजंबूणयामए। मंदरस्स णं मंते ! पव्वयस्स हेट्ठिल्ले कंडे केवइयं बाहल्लेणं पण्णत्ते ? गोअमा ! एगं जोअणसहस्सं बाहल्लेणं पण्णत्ते / मज्झिमिल्ले कंडे पुच्छा? गोयमा ! तेवहिँ जोअणसहस्साई बाहल्लेणं पण्णत्ते / उवरिल्ले पुच्छा? गोयमा! छत्तीसं जोअणसहस्साई बाहल्लेणं पण्णत्ताई। एवामेव सपुव्वावरेणं मंदरे पव्वए एगं जोअणसयसहस्सं सव्वऽग्गेणं पण्णत्ते। (सूत्र-१०८) (मंदरस्स णमित्यादि) मेरो दन्त ! पर्वतस्य कति काण्डानि प्रज्ञप्तानि ? काण्डनाम-विशिष्टपरिणामानुगतो विच्छेदः पर्वतक्षेत्रविभागइतियावत्। गौतम ! त्रीणि काण्डानिप्रज्ञप्तानि। तद्यथा-अधस्तनकाण्ड, मध्ययंकाण्डम्, उपरितन काण्डम् / अथ प्रथम काण्ड कतिप्रकारमिति पृच्छति-(मंदरस्स इत्यादि) प्रश्नः प्रतीतः / निर्वचनसूत्रे पृथ्वी-मृत्तिकाः, उपलाः-पाषाणः, वज्राणि
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________________ मंदर 26 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मंदरचूलिया हीरकाः, शर्कराः-कर्करिकाः, एतन्मयः कन्दो मन्दरस्य / एतदेव हि बद्धे दीर्घदशानामष्टमेऽध्ययने, स्था०१० ठा० / मन्दरपर्वतदेवे, जं०४ प्रथमं काण्ड सहनयोजनप्रमाण, ननुप्रथमकाण्डस्य चतुः प्रकारत्वात् वक्ष० / त्रयोदशजिनस्य प्रथमशिष्ये, स०। तदीययोजनसहरस्य चतुर्विभजनेएकैकप्रकारस्य योजनसहस्रचतुर्था- मंदरकूड पुं०न० (मन्दरकूट) जम्बूमन्दरपर्वतस्थनन्दनवनस्थे कूट, शप्रमाणक्षेत्रता स्यात्तथा च सति विशिष्टपरिणामानुगतविच्छेदरूपत्वात् स्था०६ टा० / जम्बूमन्दरपश्चिमदिशि रुचकवरपर्वतस्थे स्वनामख्याते त एव काण्डसंख्यां कथं न वर्द्धयन्तीति ? उच्यते-क्वचित्पृथिवीबहुल कूटे, स्था०८ ठा०। कृचिदुपलबहुलं क्वचिद्वजबहुल क्वचिच्छर्कराबहुलम्। इदमुक्तम्भवति- मंदरचूलिया स्त्री० (मन्दरचूलिका) मन्दरे -मेरौ चूलिका / मेरोः उक्तचतुष्टयमन्तरेणान्यत्किमष्यङ्करत्नाऽऽदिक न तदारम्भकमिति अतो पण्डकवनमध्यगे शिखरविशेषे, स्था०। नैयत्येन पृथिव्यादिरूपविभागाभावान्न काण्डसंख्यावर्द्धनावकाश इति / दो मंदचूलियाओ। स्था०२ ठा०३ उ०॥ मध्यकाण्डगतवस्तुपृच्छार्थमाह-(मज्झिमिल्ले इत्यादि) अङ्करत्नानि चूलिका क्वेत्याहस्फटिकरत्नानि, जातरूपं सुवर्ण, रजतं रूप्यम् / अत्रापीयं भावना पंडगवणस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं मंदरचूलिआणाम क्वचिदबहुलमित्यादि। अथ तृतीयं काण्डम् (उवरिल्ले इत्यादि) प्रश्नो चूलिआं पण्णत्ता, चत्तालीसं जोअणाई उद्धं उच्चत्तेणं मूले वारस व्यक्तः / उत्तरसूत्रे एकाऽऽकार भेदरहितं सर्वाऽऽत्मना जम्बूनद रक्तसुवर्ण जोअणाई विक्खंभेणं मज्झे अट्ठ जोअणाई विक्खंभेण उप्पिं तन्मयमिति / काण्डपरिमाणद्वारा मेरुपरिमाणमाह-(मंदरस्स णमि चत्तारिजोअणाई विक्खंभेणं मूले साइरेगाइं सत्ततीसं जोअणाई त्यादि) भगवन् ! मन्दरस्याऽधस्तन काण्डं कियदाहल्येन-उचत्वेन परिक्खेवेणं मज्झे साइरेगाइं पणवीसं जोअणाइं परिक्खेवेणं प्रज्ञप्तम ? गौतम ! एकं योजनसहसं बाहल्येन प्रज्ञप्तम्। मध्यमकाण्डे उप्पिं साइरेगाइं बारस जोअणाई परिक्खेवणं मूले वित्थिण्णा पृच्छा प्रश्नपद्धतिर्वाच्या, सा च-"मंदरस्स णं भंते ! पव्वयस्स मज्झे संखित्ता उप्पिं तणुआगोपुच्छसंठाणसंठिओ सव्ववेरुलिमज्झमिल्ले कंडे केवइयं बाहल्लेणं पण्णते?" इत्यादिरूपा स्वयमभ्यू आमई अच्छा साणं एगाएपउमवरवेइयाए० जाव संपरिक्खित्ता ह्या। गौतम ! त्रिषष्टि योजनसहस्राणि बाहल्येन प्रज्ञप्तम् अनेन भद्रशालवन इति उप्पि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे०जाव सिद्धाययणं बहुमनन्दनवन सौमनसवनं द्वे अन्तरे चैतत् सर्व मध्यमकाण्डे अन्तर्भूतमिति, ज्झदेसभाए कोसं आयामेणं अद्धकोसं विक्खंभेणं देसूणगं कोसं उद्धं उच्चत्तेणं अणेखभसय० जाव धूवकडुच्छुगा। यत्तु समवायाने अष्टत्रिंशत्तमे समवाये द्वितीयकाण्डविभागोऽष्टत्रिंशत् (पंडगवणे त्ति) पण्डकवनस्य मध्ये द्वयोः चक्रबालविष्वम्भयोर्विचाले सहस्रयोजनान्युच्चयत्वेन भवतीत्युक्तं तन्मतान्तरेणेति / एवमुपरितने अत्रान्तरे मन्दरस्य-मेरोश्चूलिका शिखा इव मन्दरचूलिका नाम चूलिका काण्डे पृच्छा ज्ञेया, षत्रिंशद्योजनसहस्राणि बाहल्येन प्रज्ञाप्तम्, एवमुक्त प्रज्ञाप्ता, चत्वारिंशतं योजनान्यूर्ट्सवोच्चत्वेन मूले द्वादश योजनानीत्यादिरीत्या “सपुव्वावरेण” पूर्वापरमीलनेन मन्दरपर्वतः एकं योजनशतसहस्रं सत्रं प्राग्वत्। केवलं सर्वाऽऽत्मना वैडूर्यमयी नीवर्णत्वात्, सांप्रतं सूत्रेऽनुसर्वाग्रण सर्वसङ्घ यया प्रज्ञप्तः / ननु चत्वारिंशद्योजनप्रमाणा शिरः स्था कोऽपि वाचयितृणामपूर्वार्थजिज्ञापयिषया चूलिकाया इष्टस्थाने विष्कम्भचूलिका मेरुप्रमाणमध्ये कथं न कथिता? उच्यते-क्षेत्रचूलात्वेन तस्या परिज्ञानाय प्रसङ्गगत्योपायो लिख्यते, यथा-तत्राधोमुखगमने करणमिदं अगणनात्, पुरुषोच्छ्यगणाने शिरोगतकेशपाशस्येवेति, इयं च सूत्रत्रयी चूलिकायारसर्वोपरितनभागादवपत्य यत्र योजनाऽऽदावतिक्रान्ते विष्कएकार्थप्रतिबद्धत्वेन समुदितैवाऽलेखि / जं०४ वक्ष० / स०। सू०प्र० / म्भजिज्ञासा तस्मिन्नतिक्रान्ते योजनाऽऽदिके पञ्चभिर्भक्त लब्धराशिश्चतुच० ०जी०। समयक्षेत्र पञ्च मन्दराः प्रज्ञप्ताः। स०३६ सम01 (अस्य भिर्युतस्तत्र व्यासः स्यात्,तत्र उपरितलाद् विंशतियोजनान्यवतीर्णस्ततो घोडश नामानि 'मेरु' शब्दे वक्ष्यन्ते) विशतिः ध्रियते तस्याः पञ्चभिगि लब्धाश्चत्वारः ते चतुर्भिः सहिताः धायइखंडगाणं मंदरा दसजोयणसयाइं उव्वेहेणं धरणितले अष्टौ एतावानुपरितलाद् विंशतियोजनातिक्रमे विष्कम्भः, एवमन्यत्रापि देसूणाइंदसजोयणसहस्साइं विक्खंभेणं उवरि दसजोयणसयाई भावनीयम्, यदा तूर्द्धवमुखगत्या विष्कम्भजिज्ञासा तदाऽयमुपायः विक्खंभेणं पण्णत्ता / पुक्खरवरदीवडगाणं मंदरा दसजोयणा चूलिकाया मूलादुत्पत्य यत्र योजनाऽऽदौ विष्कम्भजिज्ञासा तस्मिन्नतिएवं चेव। क्रान्तयोजनाऽऽदिके पञ्जभिक्तियल्लब्धं तावत्प्रमाणे मूलविष्कम्भाद(मंदर त्तिपूर्वापरौ मेरू, तत्स्वरूपं सूत्रतः सिद्धं, विशेषत उच्यते पनीते अवशिष्ट तत्र विष्कम्भः। तथाहिमूलात्किल विंशतिर्योजनान्यूज़ "धायइखंड़े मेरू, चुलसीइसहस्सऊसिया दो वि। गतस्ततो विंशतिर्धियते तस्याः पञ्चभिर्भाग (हृते) लब्धानि चत्वारियोजओगाढा य सहस्सं होंति य सिहरम्मि वित्थिन्ना / 1 / / नानि लानि मूलविष्कम्भाद् द्वादशयोजनप्रमाणादपनीयते, शेषाण्यष्टी, भूले वणनउइसया, चउणवइसया य हुति धरणियले।" इति। स्था. 10 एतावान् मूलादूर्द्धव विंशतियोजनातिक्रमे विष्कम्भः, एवमन्यत्रापि ठा० / (मन्दरादन्येषामन्तरम् 'अंतर' शब्दे प्रथमभागे 73 पृष्ठे उक्तम्।) / भावनीयम्। यथा मेरौ एकादशभिरशैरेकोऽशः एकादशभिरंशैरेक योजन (अबाधा अबाहा' शब्दे प्रथमभागे 682 पृष्ठगता।) मन्दरवक्तव्यताप्रति- 1 व्यासस्य चीयतेऽपचीयते,तथाऽस्यां पञ्चभिरंशेरेकोऽशः पञ्चभिर्योजनैरेक
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________________ मंदरचूलिया 30 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मंस योजन शासम्येति तात्पर्यार्थः / अत्र बीजम्-द्वादशयोजनप्रमाणायूला- ख्याते सन्निवेशे, "मंदिरे सन्निवेशे अग्गिभूती णाम नाही " आ० चू०१ यारोह चत्वारिंशदयोजनेषु गतेषु अष्टौ योजनानि त्रुट्यन्ति, अवरोहे अ० / उत्त वेश्मनि, उत्त० अ० / प्रज्ञा०। घतान्येव वर्द्धन्ते, ततस्त्रैराशिकस्थापना 4018/1 / मध्यराशावन्न्य- | मंदिरपुर न० (मन्दिरपुर) शान्तिनाथस्य तीर्थकरस्य प्रथमभिक्ष लाभराशिना गुणिले एकेन गुणितं तदेव भवतीति जाता अष्टौ अस्य राशेश्च- स्थाने, आ०म०१ अ०। त्वारिंशता भजने भागाऽप्राप्तौ द्वयो राश्योरष्टभिरपयर्ते जातम्। 1/5 / मंदिरमउड न० (मन्दिरमुकुट)चन्द्रावत्यां प्रतिष्ठिते श्रीचन्दप्रभे, 043 अथास्या वर्णकसूत्रम् - "साणं एगाए पउमवर० जाव" इत्यादि प्रापयत्। कल्प। अथास्यां बहुसमरमणीयभूमिभागवर्णन सिद्धायतनवर्णनं चातिदेशेना- | मंदुरक्क न० देशीवचनम्। मन्दु मुखं तेन रक्क वृषभाऽऽदिशब्दकरण मन्दुऽऽह-(उप्पिं बहुसम इत्यादि) अस्याश्चूलिकाया उपरि बहुसमरमणीयो / रवम्। देवताऽऽदिपुरतो वृषभगर्जिताऽऽदिकरणे, उपा० 1 अ०। भूमिभागः प्रज्ञप्तः। स च यावत्पदकरणा त्"से जहाणामए आलिंगपुक्खरेइ | मंदोअरी स्त्री० (मन्दोदरी) लड्डेश्वररावणभार्यायाम्. ती०५० काल्प। वा" इत्यादिको ग्राह्यः, तथा तस्य बहुमध्यदेशभागे सिद्धायतनं वाच्यं, मंधादन पुं० (मन्धादन) मेषे, सूत्र०१ श्रु०३ अ०४ उ०। क्रोशमायामनार्द्धक्रोशं विष्कम्भेन देशोनं क्रोशमुचत्वेन अनेकस्तम्भ- मंस न० (मांस) पलले, प्रश्न०१ आश्र० द्वार तं०। ध०। तृतीये धातो, शतसंनिविष्टमित्यादिकः सिद्धायतनवर्णको वाच्यो, यावद्धपकडुच्छुका- तं० / शरीरावयवे, स० / पिशिते, उत्त०५ अ०। प्रश्नक। नामष्टोत्तरं शतमिति / जं०४ वक्ष० / स्था० / नि०चू० / सवा "मंदर- श्रावकेण त्रिविधं मांसं त्याज्यम् - चूलियाए सिहरम्मि।" आ०म०१ अ०। मांसं च त्रिधा-जलचरस्थलचरखेचरजन्तूद्भवभेदाचर्मरुधिरमांमंदराय पुं० (मन्दराज) राजभेदे, अक्षत्रिये कुलविशेषज्ञप्रवर्तक, आ० सभेदादा, तद्रक्षणमपि महापापमूलत्वाद्वयम्, यदाहुः / म०१ अ०। "पचिंदिय वहभूअ, मंसं दुग्गंधमसुइबीभच्छं। मंदलेस्सा स्त्री० (मन्दलेश्या) ईषदुष्णरश्मी, सू०प्र०१६ पाहु०॥ ज० रक्खपरितुलिअभक्खग-मामयजणयं कुगइमूलं // 1 // मंदवाय पुं० (मन्दवात) अमहावातेषु, मन्दाः शनैः संचारिणो वाताः / आमासु अपक्कासुअ, विपच्चमाणासुमंसपेसीसु। भ०५ श०२ उ०। सययं चिअ उववाओ, भणिओ अनिगोअजीवाणं / / 2 / / " मंदा स्त्री० (भन्द्रा) वर्षशताऽऽयुष्कस्य पुरुषस्य तृतीयदशायाम, तं०1 योगशास्त्रेऽपि - दश०। (सा च 'दसा' शब्दे चतुर्थभागे 2484 पृष्ठे दर्शिता) "सद्यः संमृच्छितानन्त-जन्तुसन्तानदूषितम्। मंदाइय न० (मन्दायित) मध्यभागे मूर्च्छनाऽऽदिगुणोपेततया मन्दमन्द- नरकाध्वनि पाथेयं, कोऽश्नीयात्पिशित सुधीः ? // 1 // " घोलनाऽऽत्मके मेयभेदे, जं०१ वक्ष०। . सद्यो जन्तुविशसनकाल एव संमूर्छिता उत्पन्ना अनन्ता निगोदरूपाये मंदाय नं० (मन्द) शनैःशब्दार्थ, “मंदाय मंदायं पव्वइयाए।" शनैः शनैः जन्तवरतेषां सन्तानः पुनः पुनर्भवनं तेन दूषितमिति तद्वृत्तिः / मांसप्रव्रजितायाः / जी०३ प्रति०४ अधि० / मंदायं मंदायमतिमन्दकम्।। भक्षकस्य च घातकत्वमेव। आ०म०१ अ० / मन्दकमध्यभागे सकलमूर्च्छनाऽऽदिगुणोपेतं मन्द मन्द यतःसंचरन् / अथवा मन्दम्-अयते गच्छति परिघोलनाऽऽत्मकत्वान्मन्दायम्। "हन्ता पलस्य विक्रेता, संस्कर्ता भक्षकस्तथा। गेयभेदे जं०१ वक्ष० / आ०म०रा० केताऽनुमन्ता दाता च, घातका एव यन्मनुः॥१॥" मंदार पु० (मन्दार) कल्पवृक्षे, "मंदारदामरमणिजभूयं"। कल्प०१ अधिक तथा भक्षकस्यैवान्यपरिहारेण वधकत्वं यथा - १क्षण। "ये भक्षयन्त्यन्यपलं, स्वकीयपलपुष्टये। मंदारमंजरी स्त्री० (मन्दारमञ्जरी) पुष्करद्वीपाढे मङ्गलावतीविजये स एव घातको यन्न, वधको भक्षकं विना / / 1 / / " ध०२ तभाललताया नगर्या राज्ञः समरनन्दनस्यागमहिष्याम्, दर्श०३ तत्त्व। अधिनाचं० प्र०। स्था०। प्रवामांसंविकृतिः-"जलथलखहयरमंस, मंदारसिह पुं० (मंदारशिख) भरतवर्षीयचोलदेशवृत्तिकञ्चनस्थलनगर-- चम्म वस सोणिय तिहेयं पि। आइल्ल तिन्नि चलचल, ओगाहिमगं च स्थे स्वनामख्याते सार्थवाहे, दर्श०३ तत्त्व। विगईओ॥५॥" आदिमानि त्रीणि चलचलेत्येवं पक्कानि विकृतिरित्यर्थः / मंदावत्थ त्रि० (मन्दावस्थ) विपाकदारुणे, पं०३०४ द्वार। स्था०४ ठा०१ उ०) 400) मासं निर्दोषमिति बौद्धाः-मास कल्किकमंदिय पुं० (मन्दिक) धर्मक्रियायामलसे, उत्त०८ अ० / धर्मकार्यम्प्रत्युद्यते, मित्युपदिश्य संज्ञान्तरसमाश्रयणान्निर्दोष मन्यन्ते, बुद्धसंघाऽऽदिउत्त०८ अ०. निमित्तं चाऽऽरम्भं निर्दोषमिति / तदुक्तम्- "मसनिवत्तिं काउं, सेवइद मंदिर न० (मन्दिर) गृहे प्रश्न०४ आश्र० द्वार। आ०म०। द्वी० स्वनाम- ककिगं तिधाणभेया। इय चइऊणाऽऽरम्भ, परववएसा कुण्इ बालो। 1 // "
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________________ मंस 31 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मंस न चैनथला निर्दोषना / न हि लूताऽऽनिक श्रीललिकाभिधाकन्नमात्रेण न्यथात्व भजते, विष वा गधरकाभिधाननति। "हिंसामाध्यम इत्यादि श्लोकः 'अदाकुमार शब्द प्रथम भाग 557 पृष्ठे : मासं - भागीयम्, शास्त्रनिषिद्धत्वात "न भालभक्षणे दोष" माने / .. नमानम् - धर्मवारमुपदर्शयता सूरिणा यथा हिंसाऽऽदीनि रात्र संध्या युज्यन्त यथा विचारितमश मांसभक्षणाऽऽदिक हिंसाति'निवृतैरपि कुत्पर्थिकैरदोषतयाऽभ्युपगतं तनतन्त्रव्यपेक्षया धर्मवादोपदर्शनार्थमय विचारयितुमुपक्रमते तत्र मांसभक्षणमधिकृत्य तावदाह - भक्षणीयं सता मांसं, प्राण्यङ्गत्वेन हेतुना। ओदनाऽऽदिवदित्येवं, कश्चिदाहातितार्किकः।।१।। भक्षणीय भाक्तव्यं सता विदुषा मासं पिशितमिति प्रतिज्ञा, केन हतुनेत्याह-प्रण्यगटेन हेतुना जीवावयवत्वाद्धेतोः, ओदनाऽऽदिवदिति भक्तप्रभृतिक यथा, इत्यन्वयदृष्टान्तः, इतिशब्दः प्रयोगार्थसमाप्तौ, प्रयोगश्चैवम् - यद्यत्प्राण्यङ्ग ततद्भक्ष्य दृष्टमोदनवन, प्राण्यङ्ग व मांस'मेति, मांसस्य च प्राण्यङ्ग तथा प्रत्यक्षसिद्धत्वान्नासिद्धो हेतुः, ओदनस्य चैकेन्द्रियप्राण्यङ्गत्वेन प्रतीतत्वान्न हेतुविकलो दृष्टान्तः / एवमित्वनन्तरोकप्रकारण कश्चित्कोऽपि, सौगत इत्यर्थः ! अतिशयवांस्तार्केिक इत्युपहासवचनं, प्रायः शुष्कतर्कप्रधानत्वात्तरय, अधिकृतप्रमाण स्य ग प्रमाणाऽऽभासत्वादिति // 1 // शुष्कतार्किकतां चाऽस्य पूर्वपक्षदूषणत आहभक्ष्याभक्ष्यव्यवस्थेह-शास्त्रलोकनिबन्धना। सर्वव भावतो यस्मात्, तस्मादे तदसाम्प्रतम् / / 2 / / ननु भक्षणीयं मांसं प्राण्यङ्गत्वादित्येतत रवतन्त्रसाधनं, प्रसङ्ग साधनं वा ? स्वतन्त्रसाधनपक्षे ओदनादिवदित्यय साधनविकलो दृष्टान्तः, बनस्यत्ययेकन्द्रियाणां बौद्धस्य प्राणित्वेनासिद्धत्वात्, ततश्च दृष्टान्ते पाण्यङ्गत्वलक्षणसाधनस्य भक्ष्यत्वलक्षणसाध्येन व्याप्यत्वासिद्धेरसिद्धान्वयाऽभिमानोऽनैकान्तिको हेतुः! प्रसङ्गसाधनपक्षे त्विदमुच्यतेभक्ष्य भक्षणीयमोदनाऽदि, अभक्ष्यं मधुमासपलाण्ड्यादितयोव्यवस्था पर्यादा भक्ष्याभक्ष्यध्यवस्था, उपलक्षणत्वादस्य पेयापेयगम्यागम्याऽऽदिपरिग्रहः / इहाऽस्मिन् लोके, शास्त्रमाप्तवचनं लोको लोकव्यवहारः, तौ निबन्धनं हेतुर्यस्याः सा तथा, न तु प्राण्यड्ने तरमात्रनिबन्धना, सर्वच निरवशेषैव नतु काचिदेव, भावतः पारमार्थेन, यस्मात्कारणात्तस्मादेतदनन्तरोक्त "भक्षणीरा सता मांसम् / “इत्यादि साधनमसाम्प्रतमयुक्तमिति / / 2 / / असाम्प्रतत्वमेव हेतोरनैकान्तिकतोपदशनतो भावयन्नाह - तत्र प्राण्यङ्गमप्येकं, भक्ष्यमन्य तु नो तथा। सिद्धं गवादिसत्क्षीर-रुधिराऽऽदौ तथेक्षणात् / / 3 / / तत्रति तयोः शास्त्रलोकयोक्यिोपक्षेयपमात्रार्था वा तत्र शब्दः / प्राण्यङ्गमपि जीवावयवोऽपि, आस्तामप्राण्यङ्गमपि, एक किञ्चिचि दक्ष्यं भोज्यम् अन्यत्तु परं पुनर्नो तथा तेन प्रकारेण, अभक्ष्यमित्यर्थः। सिद्ध सारसम / कुतः सिमित्याह - गवा दीनाम, आदिशब्दात मातृअभूताना, सच्छाजन आभिनवप्रसवधनुसन्कादरात, क्षीरं च, पयो रुधिर चलाहित गस्थित तथा, तन गवादिसतक्षीररुधिराऽऽदो विषय, आदिशदात गवादिनमांसाऽऽदौ च, तथा तेन भक्ष्याभक्ष्याऽऽदिप्रकारण, ईशाणादवलोकनात् / तथाहि गवा क्षीरं मूत्र वा पेयतया शास्त्रे लोकचन निविते. रुधिरमासे तु नानुमन्येते, ततश्च प्राण्यङ्ग सदस्य चोपलब्धमतः सपक्षविपक्षवृत्तित्वादनैकान्तिको हेतुरिति / / 3 / / किंव-प्रसङ्गसाधनं हि पराभ्युपगमानुसारेण भवति, न वाऽस्माकं प्राण्यङ्गमिति कृत्वा गासमभक्ष्यमित्यभ्युपगमः किं तु तदुत्थजीवापेक्षयेति दर्शयितुमाहप्राण्यङ्गत्वेन न च नोड-भक्षणीयं त्विदं मतम्। किं त्वन्यजीवभावेन, तथा शास्त्रप्रसिद्धितः / / 4 / / प्राण्यगत्वन जीवावयवतया हेतुना, न च नैव नोऽस्माकम्, अभक्षणीयमभोज्यमिदं मांस, मतं सम्मत, किं तु किं पुनः अन्यजीवभावेन मांसस्वामिव्यतिरिक्तप्राणिसमुत्पादेन हेतुना, अभक्षणीयमिदं मतमित्यावर्त्तते। अन्यजीवभाव एव कुतः सिद्ध? इत्यत्राऽऽह तथा तेन प्रकारेण जीवसंसक्तिलक्षणेन, शास्त्र प्रसिद्धितः आत्माऽऽगमप्रतिष्ठितेः प्रसिद्ध ह्यागमे मांसस्स जीवसंसक्तिनिमित्तत्वम् / यदाह-"आमासु य परमासु य, विपञ्चमाणासु मंसपेसीसु / आयतियमुवयाओ, भणिओ य निगोयजीवाणं / / 1 / / " एतेन च श्लोकेन परस्परमतानभिज्ञताऽऽपादनेतोऽधिकृतप्रमाणस्य प्रसङ्ग साधना निराकृतेति // 4 // ___ अथाऽधिकृतहेतोरेवानिष्टार्थसाधंकतां दर्शयन्नाह - भिक्षुमांसनिषेधोऽपि, नचैवं युज्यते क्वचित्। अस्थ्याद्यपि च भक्ष्यं स्यात्, प्राण्यङ्गत्वाविशेषतः॥५|| भिक्षाबोंदविशेषस्य मासं पिशितं तस्य निषेधो वर्जन भिक्षुमांसनिषेधः, स किल भवन्मतेन भिक्षारतिपूज्यत्वादवश्यं युक्तो भवति, सोऽपि, आस्तां गवादिमांसनिषेधः, न चनैव, एवं प्राण्यङ्गत्वेन मांसभक्षणाभ्युपगमे सति, युज्यत घटते, क्वचित् कुत्रचित् देशान्तरे कालान्तरे पुरुषान्तरे वा। अस्येवाभ्युच्चयमाह-अस्थिकीकसमादिर्यस्य तत्तथा, तदपि च न केवल भिक्षुभांसाऽऽदि यत्किल भक्षयितुभशक्यमस्थिशृङ्ग खुराऽऽदि तदपि च भक्ष्य भक्षणीयं स्याद्भवेत् / कुतः ? इत्याह-प्राण्यङ्गत्वस्य जीवावयवत्वरय हेतोरविशेषस्तुल्यत्व मासे अस्थ्यादौ चेति प्राण्यङ्गत्वाविशेषस्तस्मादतोऽभक्ष्यस्य भक्ष्यत्वाऽऽपादनेन विरुद्धा हेतुरिति / / 5 / / अत्रैव दूषणान्तरमाह - एतावन्मात्रसाम्येन, प्रवृत्तिर्यदि चेष्यते। जायायां स्वजनन्यां च स्त्रीत्वात्, तुल्यैव साऽस्तु ते / / 6 / / एतदेव एतत्परिमाणमेव एतावन्मात्र, तेन साम्यं सादृश्यम् एतावन्तमात्र साम्यं तेन, प्राण्यङ्गत्वमात्र सादृश्य नेत्यर्थः / प्रवृत्तिर्मा सभक्षणाऽऽदौ प्रवर्तन, यदीत्यभ्युपगमे, चशब्दः पुनरर्थः, इष्यते भवताऽभिमन्यते, तदा किमस्त्वित्याह-जायायां भायायां,
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________________ मंस 32 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 स्वजनन्या चाऽऽत्मीयमातरि च स्त्रीत्वादङ्ग नात्वेन हेतुना, तुल्यैव | समानवाभिगमरूपा पूज्यारूपव वा सा प्रवृत्तिरस्तु भवतु, ते तव, स्त्रीत्वाविशेषाद्वयोरपि, यथा प्राण्यङ्गत्वाविशेषान्मांसौदनयोरिति॥६॥ प्रकरणार्थनिगमनायाऽऽह - तस्माच्छास्त्रं च लोकं च, समाश्रित्य वदेद् बुधः / सर्वत्रैवं बुधत्वं स्या-दन्यथोन्मत्ततुल्यता॥७।। यस्माद्भवदुक्तसाधनमनन्तरोक्तनयायेन बहुदोषदुष्ट तस्मात्कारणाच्छास्त्रं चाऽऽतवचनं, लोक च विशिष्टजनं, समाश्रित्याङ्गीकृत्य, वदेत ब्रूयात, कोऽसौ ? बुधः पण्डितः, क्व विषये ? इत्याह-सर्वत्र न मांसभक्षणविषय एवाऽपि तु सर्वस्मिन्नपि विषये, अन्यथा हि बुवाणस्य लोकरूढिनिराकृताऽऽदयः पक्षदोषाः प्रासजेयुः, एवं ब्रुवाणस्स को गुण इत्याहएवमनेन प्रकारेण लोकशास्त्रसमाश्रयणपूर्वक वदनलक्षणेन, बुधत्वं पण्डितत्व, स्याद्भवेत्। विपर्यये किं स्यादित्याह-अन्यथा अन्येन प्रकारेण लोकशास्त्रानपेक्षतावदनलक्षणेन, उन्मत्ततुल्यता ग्रहगृहीतसमानता, स्यादिति गम्यते / आह च-"संता पथा प्रवृत्तस्य, तेजोवृद्धी रवेरिव / यदृच्छया प्रवृत्तस्य, रूपनाशोऽस्ति वायुवत् / / 1 / " इति // 7 // इति बौद्धाभ्युपगताऽऽप्तवचननिषिद्धत्वं मांसभक्षणस्य दर्शयन्नपसंहारर्थमाह - शास्त्रे चाऽऽप्तेन वाऽप्येत-निषिद्धं यत्नतो ननु। लङ्काऽवतारसूत्राऽऽदौ, ततोऽनेन न किञ्चन / / 5 / / न केवलं लोके, अरमच्छा स्त्रे चेदं निषिद्धं, शास्त्रे चाऽऽगमे चाऽऽअन क्षीणरागाऽऽदिदोषेण सुगतेन वाऽपि युष्माकमपि न केवलमस्माकमेव, एतन्मासभक्षणं निषिद्धं निवारित, यत्नत आदरेण, नन्वित्यक्षमाया, क शास्त्रे निषिद्धमित्याहलाऽवतारसूत्राऽऽदौ निशाचरविनयनाय लङ्कायामवतारः, सूच्यते तथागतस्य यत्र तल्लङ्काऽवतारसूत्र, तदादी, तत्र किलोक्तम्- "न प्राण्यङ्गसमुत्थं, मोहादपि शङ्खचूर्णमश्नीयात् / " आदिशब्दाच्छीलपटलाऽऽदिपरिग्रहः। 'तत इति' यस्मादेव तस्मादनेन मांसभक्षणसमर्थनेन, न किशन नास्ति किञ्चन, भवतोऽपि प्रयोजनमिति शेष इति / / 8 / / हा०१७ अष्ट० / तदेवं मांस न भक्षणीय, लोकशास्त्रविरोधादिति धर्मवादतो व्यवस्थापिते यः कश्चिदसहमान आह-"न मांसभक्षणे दोषः" इति तन्मतप्रस्तावनायाऽऽह - अन्योऽविमृश्य शब्दार्थ, न्याय्यं स्वथमुदीरितम्। पूर्वापरविरुद्धार्थ-मेवमाहात्र वस्तुनि।।१।। अन्यः-पूर्वपक्षीकृतबौद्धादपरो द्विज इत्यर्थः, अविमृश्यापर्यालोच्य, शब्दार्थ मांसमित्यस्य ध्वनेरभिधेयम् / आह इति संबन्धः किंभूतं शब्दार्थमित्याऽह-न्याय्य न्यायादनपेतम्, तथा स्वयमात्मना उदीरित प्रतिपादित "मास भक्षयिता" इत्यादिना श्लोकेन / कथमाहेत्याह पूर्वस्य ५वातस्य "मांस भक्षयिता" यासिभक्षणनिषेधार्थरय, अपरेण अपरोक्तेन "न मांसभक्षणे दोषः" इत्यनेन "प्रोक्षितं भक्षमेन्मासम् / " इत्यादि नावा। अथवा-"न मांसभक्षणे दोषः" इत्यस्य पूर्वस्य निति महाफलेत्यनेनापरेण सह विरुद्धो विसंवाद्यर्थोऽभिधेयो यत्र तत् पूर्वोपर विरुद्धार्थ क्रियाविशेषणं चेदम्, एवमिति वक्ष्यमाणप्रकारम्, आहबवीति, अत्र मांसभक्षणे, वस्तुनि पदार्थ इति / / 1 / / यदाह तदेव दर्शयति - न मांस भक्षणे दोषो, न मद्ये नच मैथुने। प्रवृत्तिरेषा भूतानां, निवृत्तिस्तु महाफला ||2|| (न) नैव मांसभक्षणे पिशिताशने दोष इति दूषणं कर्मबन्धलक्षण: अस्यैव चाऽऽद्यपदार्थस्य पूर्वश्लोकेन प्रस्तावना कृता तत्प्रसङ्गेन च शेष पदत्रयं श्कोकस्याधीनमिति तस्य व्याख्या-तथा (न) नैव मद्ये मधुनि, पीयमाने इति गम्यते, (न) नैव, चशब्दः सनुचयार्थः / मैथुने अब्रह्मचर्ये, क्रियमाणे इति गम्यते। कुत एतदेवमित्याह-यतः प्रवृत्तिः स्वभावः, एषा मासक्षणाऽऽदिकाऽनन्तरोक्ता, भूतानां प्राणि नां, निवृत्तिर्विरमणं पुनर्मा सभक्षणाऽऽदिभ्य इति गम्यते। महद बृहत फलं साध्यमभ्युदयाऽऽदिक यस्याः सा महाफलेति / / 2 / / योऽसौ स्वयमुदीरितो मांसशब्दार्थस्तमाह - मांस भक्षयिताऽसुत्र, यस्य मांसमिहाम्यहम् / एतन्मांसस्य मांसत्वं, प्रवदन्ति मनीपिणः||३|| मामिति भक्षक आत्मानं निर्दिशति, स इति भक्ष्यमाणो जीवः भक्षयितेति स्वस्तनीप्रथमपुरुषैकवचननिर्देशः, ततो भक्षयिष्यत इत्यर्थः / तृन् वाऽयंशीलार्थिकः / अभुत्र जन्मान्तरे कि विधेय इत्याह-यस्य पश्वादे सि पिशितमिहास्मिन् जन्मनि अघि भक्षयामि अहमित्यात्मानं भक्षको निर्दिशति, एतदनन्तरोदितं भक्षणलक्षणं, मांसस्य पिशितस्य, मांसत्वं मांसशब्दव्युत्पत्तिनिमित्तं, निरुक्तमित्यर्थः / प्रवदन्ति प्रतिपादयन्ति, मनीषिणो निरुक्तविधिकुशला हात / / 3 / / एतेन च मांसभक्षणापायप्राप्तिप्रतिपादनेन मांसभक्षणे दोषोऽस्तीति व्यक्तनेयोक्तमतः कथमुक्तम् "न मांसभक्षणे दोषः" इत्येतदेवाऽऽहइत्थं जन्मैव दोषोऽत्र, न शास्त्राद् बाह्यभक्षणम्। प्रतीत्यैष निषेधश्च, न्याय्यो वाक्यान्तरादतेः॥४॥ इत्थमनेन प्रकारेण भक्षकस्य भक्षितेन भक्षणीयत्वप्राप्तिलक्षणेन यञ्जन्म उत्पत्तिस्तदेव, किमपरदोषगवेषणेन, दोषो दूषणमनर्थावाप्तिरित्यर्थः, अत्र मांसभक्षणे, ततः कथमुक्तम्- "न मांसभक्षणे दोषः।" इति हृदयम्। अत्र किल परः प्राह-(न) नैवं यद्भक्षकस्य भक्षणीयत्वप्रानेा सभक्षणे दोष इति।कुत इत्याहयतः शास्त्राटागमाद, बाह्यभक्षणं बहिर्भूतमांसादनं, प्रतीत्याऽऽश्रित्य एषोऽनन्तरोक्त इत्थं जन्मलक्षणो दोषो, न पुनः शास्त्रीयमांसभक्षणे, तथा निषेधश्च मांसभक्षणप्रतिषेधोऽपि, “मांस भक्षा यितेत्यादिनिरुक्तबलप्रापितशास्त्राद्वाह्यभक्षणमेव प्रतीत्य न्याय्य उपपन्नः, कथं ! वाक्यान्तरात् “मांसभक्षयिता" इत्यादिवा क्यापेक्षया यदन्यद्वाक्यं तद्वाक्यान्तरं, तस्माद्गतेः परिच्छित्ते मसिभक्षणस्येति गम्यम् / अथवा-'इत्थ' जन्मैव दोषोऽत्र इत्येक तावद् दूषण, तथा अपर (न) नैव शास्त्राद्बाहाभक्षणं प्रतीत्यैषो ऽनन्तरोक्तो "न मांसभक्षणे दोष" इत्येवंलक्षणो निषेधो मांसभक्षणलक्षणे दोषप्रतिषेधः, चशब्दोदूषणान्तरसमुचयाओं, न्याय्यः सङ्गतः यक्ष्यमाणप्रोक्षिताऽऽदिविशेषमासादन एव दोषनिषेधो न्याय्य:, शास्त्रोक्तत्वादेव, न पुनः सामान्येनेति भावः /
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________________ मंस 33 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मंस कुन एतदिति चेदित्यत आह-वाक्यान्ताद्गतेरिति "न मांसभक्षणे दोष' इत्येपंविधान सामान्यत एव मांसादनदोषाभावप्रतिपादनपराद वाक्याधदायत प्रो क्षेतं भक्षयेदित्यादि वक्ष्यमाणं वाक्यं तद्वाक्यान्तरं तस्माद् गते: परिचित्तेः शास्त्रोक्तत्वेन मासादनविशेषस्य निर्दोषतयाऽवगमादित्यशः / / 4 / / एतदेव वाक्यान्तरमाह - प्रोक्षितं भक्षयेन्मांसं, ब्राह्मणानां च काम्यया। यथाविधि नियुक्तस्तु, प्राणानामेव वाऽत्यये / / 5 / / प्राक्षित वैदिकमन्त्रभ्युक्षितं, भक्षयेदश्नीयात्, मांसं पिशितं. ब्राहाणानां द्विजाना, चशब्दो विशेषणसमुचये, काम्यया इच्छया द्विजभुक्तावशेष प्रति तदनुइया, विधियायो या यत्र यागश्राद्धप्राघूर्णकाऽऽदौ प्रक्रिया, तास्थानतिक्रमण यथाविधि, तत्र यागविधिः पशुभेधाश्वधमेधाऽऽदिविधायकः, श्राद्धविधिः श्राद्धशास्त्रविहितः, शास्त्रविधिस्तु मांसविशेपापेक्षोऽयम् - "औरभेणेह चतुरः शाकुनेन तुपञ्च वै। पामासान छागम-सन, पार्षतीयेन सप्त वै॥१॥ दशमासांस्तुतृप्यन्ते, वराहमहिषऽऽमिषैः / कूर्मशशकमांसेन मासानेकादशैव तु॥२।। संवत्सरं तुतृष्यन्ति, पयसा पायसेन तु।" प्रपूर्णकविधिस्तु याज्ञवल्क्योक्तोऽयम् “महोशंवा महाजं वा, श्रोत्रियाय प्रकन्ययेत्।" इति। तथा नियुक्तस्तु गुरुभियापारित एव, नियुक्तशब्दस्य वा यथाविधीति विशेषणं, तुशब्द एवकारार्थः तथा प्राणानामेकेन्द्रियाऽऽदीनामेव न तु द्रव्याऽऽदीना, वाशब्दः पक्षान्तरद्योतकः, अत्यये विनाश, उपस्थिते इति शेषः / मांसं भक्षयेदित्यनुवर्तते। आत्मा हिरक्षगीयः / यदाम-"सर्वत एवाऽऽत्मानं गोपयेत्।" इति।५। परोक्तमेवार्थमनुवादद्वारेणाऽऽशक्य दूषयन्नाह-द्वितीयव्याख्यापेक्षया पुनरुत्तरश्लोकस्यैव पातनाभवटापादित एव शास्त्रीयमांसभक्षणे दोषाभावोऽस्माभिरभिधीयते, न सामान्येनति परमतमाय दूषयन्नाहअत्रैवासावदोषश्चे-निवृत्तिनास्य सज्यते। अन्यदा भक्षणादना-भक्षणे दोषकीर्तनात् // 6 // अत्रैव-अनन्तराभिहित एव प्रोक्षिताऽऽदिविशेषणमांसभक्षणे अन्यत्र तु दोष एव, असौ यो 'न मांसभक्षणे दोषः' इत्यनेन वचसाऽभ्युपगतोऽदोषो दाणभावश्चद्यद्येवं मन्यसे, तदिति शेषः / किं दूषणमित्याह-निवृत्तिवितिः (न) नैवास्य मांसभक्षणस्य, सज्यते प्राप्नोति।कुत इतयाह - अन्य दाऽन्यस्मिन् प्रोक्षिताऽऽदिमांसविशेषेणाभावकाले, अभक्षणादनभ्यवहरणात, उक्तविधिव्यतिरेकेण हि मांसं न भक्ष्यते, अतो मांसभक्षणस्याप्राप्तेः निवृत्तिास्य प्रसज्यते इत्युच्यते, प्राप्तिपूर्वको हि निषेधः सफलो भवतीति। अथ प्रोक्षिताऽऽदिविशेषणसद्भावे निवृत्तिर्भविष्यतीति। "निवृत्तिस्तु महाफला' इति वचः सफलीभविष्यतीत्यत्राऽऽहअत्र प्रोक्षिताऽऽदिविशेषणसद्भावेऽभक्षणेऽनशने मासस्य दोषकीर्तनाद् दूषणाभिधानान्निवृत्तेनस्यि प्रसज्यते इति प्रकृतमिति / / 6 / / दोषकीर्त्तनमेव दर्शयन्नाहयथाविधि नियुक्तस्तु, यो मांसं नात्ति वै द्विजः। स प्रेत्य पशुतां याति, संभवानेकविंशतिम् / / 7 / / योग्यो विधिः शास्त्रीयन्यायो यथाविधि तेन नियुक्तो युक्तो व्यापारितो या गुरुभिर्यथाविधि नियुक्तः, तुशब्दः पुनः शब्दार्थः, तस्य चैवं प्रयोगः विधिना मांसगखादन् निर्दोष एव यथाविधि नियुक्तः पुनर्योऽनिर्दिष्टनामा मांसं पिशित (न) नैव अत्ति भुक्ते, वै इति निपातो वाक्यालङ्कारार्थः, द्विजो विप्रः, स इति द्विजः, प्रेत्य परलोके, पशुतां तिर्यग्भावं, याति प्राप्नोति. कियतो भवान् यावदित्याह-संभवनानि संभवा जन्मानि, तान् सम्भवान, एकेनाधिका विंशतिस्तामिति / / 7 / / प्रोक्षिताऽदिविशेषणाभावे मांसस्य भक्षणे प्रत्यभावेन निवृत्तेरफलत्वात्प्रोक्षिताऽऽदिविशेषणस्यच तस्याऽभक्षणे दोषकीर्तनात्, "निवृत्तिर्नाऽस्य सज्यते” इति यदुक्तं तत्र परकीयं परिहारमाशङ्कयपरिहरन्नाहपारिव्रज्यं निवृत्तिश्चे-द्यस्तदप्रतिपत्तितः। फलाभावः स एवाऽस्य, दोषो निर्दोषतैव न॥८॥ परिवाजो भावः पारिवाज्यं मस्करित्वं, गृहस्थभावत्याग इत्यर्थः। तदेव निवृत्तिनिबन्धनत्वात् निवृत्तिमांसभक्षणोपरतिः, चेद्यद्येवं मन्यसेऽयमभिप्रायः-गृहस्थतायां प्रोक्षिताऽऽदिविशेषणं मांस भक्षणीयमेव, तस्भाच पारिवाज्यप्रतिपत्तिद्वारेण निवर्तत इत्येवं प्राप्तिपूर्विका निवृत्तिर्मासभक्षणस्य स्यात्, सा च महाफलेति, अतो 'निवृत्तिर्नाऽस्य सज्यते' इत्याचार्यवचन परंण दूषितम्। अत्र दूषणमाह-यः कोऽपि तदप्रतिपत्तितः पारिवाज्याप्रतिपत्तिमाश्रित्य फलाभावः अभ्युदयाऽऽदिप्रयोजनाप्राप्तिः, स एव किमपरदोषगवेषणेन, अस्य मांसभक्षणस्य दोषो दूषणम्। ततः किमित्याह-निर्दोषता निर्दूषणता, एवशब्दस्यान्यत्र संबन्धाचैव नास्त्येवातः कथमुच्यते-"न मांसभक्षणे दोषः" इति। तथा-"निवृत्तिस्तु महाफला" इत्यत्र विशेषेण किञ्चिदुच्यतेननु निवृत्तिनिरवद्या, वस्तुनो विधीयमाना महाफला, सावद्यावा ? यदि निरवद्या तदा यत्याश्रमाऽऽदेरपि निवृत्तिरङ्गीकर्तव्या; तस्य निरवद्यत्वान्न चैतदिष्टम् / अथ द्वितीयः पक्षस्तदा मांसभक्षणस्य सावद्यत्वेन सदोषताप्राप्तेरिति।।। हा०१८ अष्ट०। तथा स्मार्ता अपि - "न मांसभक्षणे दोषो, न मद्ये न च मैथुने। प्रवृत्तिरेषा भूताना, निवृत्तिस्तु महाफला // 1 // " इति श्लोकं पठन्ति। अस्य च यथाश्रुतार्थव्याख्यानेऽसंबद्ध प्रलाप एव, यस्मिन् हि अनुष्ठीयमाने दोषो नास्त्येव; तस्मान्निवृत्तिः कथमिव महाफला भविष्यति ? इज्याऽध्ययनदानाऽऽदेरपि निवृत्तिप्रसङ्गात् / तस्मादन्यदैदम्पर्यमस्यश्लोकस्य। तथाहि-"न मांसभक्षणे कृते अदोषः" अपि तु दोष एव, एवं मद्यमैथुनयोरपि / कथं नाऽदोषः ? इत्याह-यतः प्रवृत्तिरेषा भूताना-प्रवर्त्तन्ते उत्पद्यन्तेऽस्यामिति प्रवृत्तिरुत्पत्तिस्थान, भूतानां जीवाना, तत्तुज्जीवसंसक्तिहेतुरित्यर्थः। प्रसिद्धं च मासमद्यमैथुनाना जीवसंसक्तिमूलकारणत्वमागमे - "आमासु य पक्कासुय, विपच्चमाणासु मंसपेसीसु। आयंतिअमुववाओ, भणिओ उनिगोयजीवाणं।।१।। मज्जे महुम्मि मंसम्मि, नवणीयम्मि चउत्थए। उप्पज्जति अणंता, तव्वण्णा तत्थ जंतुणो।।२।।
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________________ मंस 34 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मंस मेहुणसन्नाऽऽरूढो, नवलक्ख हणेइ सुहुमजीवाणं। केवलिणा पन्नत्ता, सद्दहियव्वा सया कालं / / 3 / / " तथाहि"इत्थीजोणीए सं-भवंति बेइंदिया उजे जीवा। इक्को व दो व तिन्नि व, लक्खपुहुत्तं च उक्कोस।।४।। पुरिसेण सह गयाए, तेसिं जीवाण होइ उद्दवणं। वेणुगदिवतेणं, तत्तायसलागनाएणं / / 5 / / " संसक्तायां योनौ द्वीन्द्रिया एते, शुक्रशोणितसंभवास्तु गर्भजपञ्चेन्द्रिया इमे"पंचिंदिया मणुस्सा, एगनरभुत्तनारिंगभम्मि। उकोस नवलक्खा , जायंति एगवेलाए।।६।। नवलक्खाणं मज्झे, जायइइक्कस्स दुण्ह व समती। सेसा पुण एमेव य, विलयं वचंतितत्थेव / / 7 // " तदेवं जीवोपमईहेतुत्वान्न मांसभक्षणाऽऽदिकमदुष्टमिति प्रयोगः / अथवा-भूतानां पिशाचप्रायाणामेषा प्रवृत्तिः त एवात्र मांसभक्षणाऽदौ प्रवर्तन्ते, न पुनर्विवेकिन इति भावः / तदेवं मांसभक्षणाऽदेर्दुष्टता स्पष्टीकृत्य यदुपदेष्टव्यं तदाह-"निवृत्तिस्तु महाफला / " तुरेवकारार्थः “तुः स्यानेदेऽवधारणे" इति वचनात् / ततश्चेतेभ्यो मासभक्षणाऽऽदिभ्यो निवृत्तिरेव महाफला स्वर्गापवर्गफलप्रदा, न पुनः प्रवृत्तिरपीत्यर्थः / अत एव स्थानान्तरे पठितम"वर्षे वर्षेऽश्वमेधेन, यो यजेत शतं समाः। मांसानि च न खादेद्य-स्तयोस्तुल्यं भवेत् फलम्॥१॥ एकरात्रोषितस्यापि, या गतिर्ब्रह्मचारिणः / न सा क्रतुसहस्रेण, प्राप्तुं शक्या युधिष्ठिर ! / / 24 मद्यपाने तु कृतं सूत्रानुवादैः, तस्य सर्वविगर्हितत्वात्। तानेवप्रकारानर्थान् कथमिव बुधाऽभासास्तीर्थिका वेदितुमर्हन्ति इति कृतमतिप्रसङ्गेन। स्या०। मांसार्थ गच्छेत् - से भिक्खू वा भिक्खुणी वा० जाव समाणे से जं पुण जाणेजा मंसं वा मच्छं वा भजिज्जमाणं पेहाए तेल्लपूयं वा आएसाए उवक्खडिज्जमाणं पेहाए णो खलु खलु उवसंकमित्तु ओभासेजा, णण्णत्थ गिलाणणीसाए।।५।। स पुनः साधुर्यदि पुनरेवं जानीयात्, तहाथा-मास वा मरस्य वा, भज्यमानमिति पच्यमान लैलप्रधानं वा पूपं, तच्च किमर्थ क्रियते इति दर्शयति-यस्मिन्नयाते कर्मण्यादिश्यते परिजनः स आदेशः, प्राघूर्णकस्तदर्थ संस्कियमाणमाहारं प्रेक्ष्य लोलुपतया (नो) नैव (खद्धं खर्च ति) शीघ्र, शीघ्र द्विवचनमादरख्यापनार्थम् उपसक्रम्यावभाषेत याचेत, अन्यत्र ग्लानाऽदिकार्यादिति आचा०२ श्रु०१चू०१ अ०१ उ०। मांसाथ मांसस्थानं गच्छति - जे भिक्खू वा भिक्खुणीवा मंसादियं वा मच्छादियं वा मंसखलं वा मच्छखलं वा आहेणं वा पहेणं वा समेलं वा हिंगोलं वा अण्णयरं वा तहप्पगारं विरूवरूवं वा हीरमाणं पेहाए सीए असाए ताए पिवासाएतं रयणिं अण्णत्थ उवाइणादेइ, उवायणावंतं वा साइजइ॥१८६॥ जम्मि पगरणे मंस आसादीए दिजति पच्छा ओदणादि तं मंसादी भरणति / मंसाण वा मच्छं वा मच्छ वा आदावेव पकरणे करेंति, तं च / मसादिए आणीएसुधा मंसेसु आदावेव जणवयस्स मंसपगरण करेंति, / पच्छा सयं परि जति,तं वा मंसादी भणंति / एवं मच्छादियं पि बत्तव्यं / मंसखलं जत्थ मंसाणि सोज्झति, एवं मच्छरवलं पि जमन्नागेहातो आणिजति तं आहेणं, जमन्नं गिह णिज्जति तं पहेणगं। अहवाज बहुधरातो वरगिह णिज्जति तं पहेणगं सव्वाणमादिया णं जं हिज्जति णिज्जति त्ति तं हिंगोलं, हुज्जति वा तं हिं गोल / अहवा-ज मतभत्तं पा करुणादिय हिंगोल, वीवाहभत्तं संमेलो गोट्टीए वा भत्तं संमेलं भण्णति / अहवाकमाऽऽरम्भे सुण्हासिता जे ते संमेलो, तेसिं जं भत्तं तं संमेल गिहातो उज्जानादिसु हीरत नीयमानमित्यर्थः, पेहा प्रेक्ष्य तं लक्ष्यामीत्यसौ, अहवा-ओदनाऽदि असितुमिच्छा, तदाणि द्राक्षापानकाऽऽदि पातुमिच्छा पिपासा। अहवा-ताए पदेसाए प्रतिप्रयायेत्यर्थः जो ति साहू तम्मि दिणे पगरण भविस्सति तस्स आरतो जा रयणी, त जो अस्थ प्रतिश्रयं, उवातिणावेति, नयतीत्यर्थः, अन्नं वा नयतं सादिति, तस्स च उगुरूं, आणादिणो य दोसा, आयसंजमविराहणा उक्तसूत्रार्थः / इयाणि निजुत्ती, साय पायसो गतार्थव।। गाहामसाइपगरणा खलु, जेत्तियमेत्ता उ आहिया सुत्ते। सेज्जायरेतराण व, जे तत्था सागते भिक्खू / / 166|| तं पगरण सेवातरस्स सेज्जातरेतरस्स जे भिक्खू तत्थ आसा तत्थासा ते अण्ण वसहिं आगते आणाऽऽदयो दोसा भवन्ति। गाहातं रयणि अण्णत्तो, उवातिणा एतरे तु तत्थेव। सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्तबिराहणं पावे / / 167 / / मंसाणव मच्छाण व, गच्छंता पारियम्मि वयगादी। से आणेति संखडिं पुण, खलगा वा जहिय सोसिंति / / 168|| सेजायरभत्तो सेशायरपिंडो अकप्पिओ काउं अन्नवसहि गच्छति, इयरे तु तत्थ गत वसति, परिवयट्ठा मंसाण व गंधो गच्छमाणा संखडिं करें ति. कत्तियमासादि अमंसभक्खणवते गहिते तम्मि पुग्ने मंसादिषगरण काउं धिजातियाण दाउं पच्छा सयं पारेंति। अहवा-मंसादिभक्खणविरतिव्वतं घेत्तु तरस रक्खणला आदिए संखडिं करेंति, आणिए वा नसे संखडिं करें ति, खलग / जत्थ। मंसंसोसिति। गाधाआहेणं दारगइ-त्तगाण व धुइत्तगाण व पहेणं। वरइत्तादि बहूणं, पहेणगं णिति अण्णत्थ ||19| संमेलो य घरातो, जंवा अत्थारगाण पकरेंति। हिंगोलं जे मिज्जति, सिवटुं व सिवाइकरडुं वा (?) 200 हीरंतं णिज्जंतं, कीरंतं वा वि दिस्स तु तदासा। अण्णत्थ वसति गंतुं, उवस्सओ होसिओ एसो // 201 // सेज्जायरस्स पिंडो, गाहिति तेण अण्णहि वसति। इतरेसु परिजयट्ठा, अणागयं वसति गंतूण / / 202 / / गतार्था, तत्थ गच्छमाणस्स अंतरा छक्कायविराहणा, कंट गविसमादिएहि वा आयविराहणा।। इमे य दोसा तत्थ - दुण्णि य दोण्णि णिविट्ठा, मम्मत्ता य तत्थ इत्थीओ। द₹ भुत्ता कोउय-सरणे इयराण गमणादी / / 2033 // दुप्पाउयं दुन्नियच्छ वा दुन्नीतं अआउडा दुण्णिविट्ठा विभला णिभरा मत्ता मदक्खई सिं सवेयणा सविकारचे ढकारी उम्मत्ता भुत्तभोगिणो ताओ द₹ सति करणं, इयराण कोउयं ततो पडिगमणाऽऽदि करेज जम्हा एते दो सा सम्हा तत्थ गंतव्वं।
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________________ मंस 35 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मंसल वितियपदेण वा गच्देज्जा छेदसूत्राऽभिप्रायेण ग्रहणे सत्यपि कण्टकाऽऽदिप्रतिष्ठापनविधिरपि सुगम असिवे ओमोयरिए, रायढे भए व गेलण्णे। इति। आचा०२ श्रु०१ चू०१ अ०१ उ०। अद्धाण रोहए वा, अप्परिणामेसु जयणाए // 204 / / साधोसिभक्षणाधिकारः - अगिवाऽऽदिसु सत्तकारणेसु जति गीयत्था ततो पणगपरिहाणीए बहुअट्ठियं पुग्गलं, अणिमिसं वा बहुकंटयं / (73) वसधिट्टिता चैव गिण्हति। बह स्थिकं पुद्गलं-मांसम् अनिमिष वा मत्स्यं वा बहुकण्टकम्, अयं जतो भन्नति किल कालाऽऽद्यपेक्षया ग्रहणे प्रतिषेधः / अन्ये त्वभिदधतिवनस्पत्यपरिणामेसु य अच्छति, आउलछम्मेण जाइ इतरेसु। धिकारात्तथाविधफलाभिधानम् एते इति। दश०५ अ०१ उ०। (अमज्जजे दोसा पुव्वुत्ता, सा इतरे कारणे जयणा / / 205 / / मंसासी सिया) अमद्यमांसाऽशी भवेदिति योगः, अमद्यपोऽमांसाऽशी च अगीयत्था वि जति परिणामगा तो अच्छति. अह अगीतो अपरिणामी स्यात, एत च मद्यमांसौ लोकाऽऽगमप्रतीते एव, ततश्च यत्केचनाभियतो सेजाय संखडीते आधरितो भणति एत्थ कल्ल्ल जणाउल भविस्सइ, दति-आरनालारिष्ठाऽऽद्यपि संधानाद् ओदनाऽऽद्यपि प्राण्यङ्गत्वात्त्यातो निगच्छागो, अन्नवसहीए ठामो अ, सेज्जायरसंखडीए पुण संवासभद्दया ज्यमितिातदसत, अमीषां मद्यमांसत्वायोगात. लोकशास्त्रयोरप्रसिद्धभविसंति का अन्वसहीए वि वसेजा। नि०चू०११ उ०। त्वात्, सन्धानप्राण्यङ्गत्वतुल्यत्वादिना त्वसाध्वी, अतिप्रसङ्गदोषात्, बह्वस्थिक मास न ग्राह्यम् - द्रवत्वस्त्रीत्वतुल्यतया मूत्रपानमातृगमनाऽऽदिप्रसङ्गात् / इत्यलं प्रससे भिक्खू वा भिक्खुणी वि से जं पुण जाणेजा-बहुअट्ठियं ड्रेन, अक्षरगमनिकामात्रप्रक्रमात्। दश०२ चू० "पिसि खुल्लं मंसं।" मंसं वा मच्छं वा बहुकंटकं अस्सिं खलु पडिगाहितंसि अप्पे पाइ० ना० 113 गाथा / “हिंसे वाले मुसावाई, माइल्ले पिसुणे सढे / सिया भोयणजाए बहुउज्झियधम्मिए तहप्पगारं बहुअट्ठियं वा भुजमाने सुई मस, सेयमेयं ति मन्नइ / / 1 / / " उत्त०२ अ० / (धन्वन्तमंसं वा मच्छं वा बहुकंटगं लाभे संतेजाव णो पडिगाहेजा। रिरातुरार्थ मांसमुपदिशति इति 'उंवरदत्त' शब्दे द्वितीयभागे 684 पृष्ठ से भिक्खू वा भिक्खुणी वा० जाव समाणे सिया णं परो बहु- उक्तम) क्वचिच्छ्रमणा मांसभक्षकाः "कम्मि य विसए णज्जति समणा अहिएणं मंसेणं वा मच्छेणं वा उवणिमंतेजा-आउसंतो समणा ! भगवन्तो जहा मंस न खायं ति, कम्हि विपुण एस मंसभक्खाभक्खवियार अभिकंखसि बहुअट्ठियं मंसं पडिगाहित्तए? एयप्पगारं णिग्धोसं एवणत्थि।" नि० चू०१ उ०। गोक्षीरपाण्डुरमांसं शोणितमिति तृतीयोसोचा णिसम्म से पुवामेव आलोएन्जा-आउसो त्ति वा भइणि ऽतिशयस्तीर्थकृतः। स०१ सम०। औ० / फलानां विभागे, प्रज्ञा०१ पद। त्ति वा णो खलु मे कप्पइ बहुअट्ठियं मंसं पडिगाहेत्तए, अभिकं- मंसकच्छभ पु० (मासकच्छप) मांसबहुले कच्छपभेदे, प्रज्ञा०१ पदा खसि से दाउंजावइयं तावइयं पोग्गलं दलयाहि, मा य अट्ठियाई | मंसखल न० (मांसखल) मासशोषणस्थाने, नि०चू०१० उ० / यत्र मे सेवं वदंतस्स परो अभिहट्ट अंतो पडिग्गहगंसि बहुअट्ठियं / संखडीनिमित्त मांसं छित्त्वा छित्त्वा शोष्यते, शुष्क वा पुजीकृत मंसं परिभाएत्ता णिहटु दलएज्जा, तहप्पगारं पडिग्गहं परहत्थंसि स्थाप्यते / आचा०२ श्रु०१ चू०१ अ०४ उ०। वा परपायंसि वा परपायंसि वा अफासुयं अणेसणिजं. लाभे मंसखायग पुं० (मासखादक) मांसभक्षके पारध्यादौ, ति० चू०६ उ०। संते. जाव णो पडिगाहेजा। से आहच पडिगाहिए सिया तं णो / मंसग न० (मांस) पलले, उत्त०२ अ०। हित्ति वएज्जा णो अणहि त्ति वएजा, से तमायाय एगतमवक्कमेज्जा | मंसगढिय त्रि० (मासग्रथित) मासानुरागतन्तुभिः सन्दर्भिते, उत्त०५ अ०॥ 2, अहे आरामंसि वा अहे उवस्सयंसि वा अप्पंडे. जाव संताणए मंसचक्खु पुं० (मांसचक्षुष) छद्मस्थे ज्ञानचक्षूरहिते, दश०४ अ०। मंसगं मच्छगं भोचा अट्ठियाई कं टए गहाय से तमायाय मंसपेसिया स्त्री० (मांसपेशिका) मांसखण्डे, दशा०१० अ०नि००। एगंतमपक्कमेज्जा 2, अहे झामथंडिलंसि वा० जाव पमजिय आ०म०। पमञ्जिय परिट्ठवेजा। मंसबुट्ठि स्त्री० (मांसवृष्टि) पललवर्षणे, यत्र वृष्टौ मासखण्डानि पतन्ति। एवं मांससूत्रमपि नेयम् अस्य चोपादान क्वचिल्लूताऽऽद्युपशमनार्थ मांसवृष्टियस्मिन् शास्त्रे चिन्त्यते तस्मिश्च। सूत्र०२ श्रु०२ अ०। प्रव०। सद्वैद्योपदेशतो बाह्यपरिभोगेन स्वेदादिना ज्ञानाऽऽद्युपकारत्वात् फलवद् मंसभक्खण न० (मांसभक्षण) पिशिताशने, हा०१८ अष्ट० / दृष्ट, भुजिश्चात्र बहिः परिभोगार्थे, नाभ्यवहारार्थे, पदातिभोगवदिति। | मंसल त्रि० (मांसल) "मांसाऽऽदेवा एवं गृहस्थाऽऽमन्त्रणाऽऽदिविधिपुद्गलसूत्रमपि सुगममिति तदेवमादिना इत्यनुस्वारस्य वा लुग् / मांसोपचिते, प्रा० 1 पाद / “मंस
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________________ मंसल 36 36 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मक्खण लऽगहत्थी।” मासलावग्रहस्तौ वाऽग्रभागवर्तिनौ हस्तौ यासांता मांस- सेणिए राया, तत्थ णं मकाई नाम गाहावती परिवसइ अड्डे. लाग्रहस्ताः / जी०१ प्रति० / कल्प० / “मंसलसंठियपसत्थविउलह- जाव अपरिभूते / तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे गुयं।" मांसल उपचितमांसः संस्थितो विशिष्टसंस्थानः प्रशस्तः शुभः आदिगरे गुणसिलए. जाव विहरति, परिसा निग्गया तते णं से शार्दूलस्येव विपुलो विस्तीर्णो हनुश्चिवुकं यस्य स तथा। जी०३ प्रति०४ मकाई गाहावती इमीसे कहाते लद्धऽढे समाणे जहा पण्णत्तीए अधि०। औ०। (126) रुंदा पीणा थूला, य मंसला पीवरा थोरा।" गंगदत्ते बहवे इमो विजेट्ठपुत्तं कुटुंवे ठवेत्ता पुरिससहस्सवाहणीए पाइ० ना०७३ गाथा। सीयाए निक्खंते० जाव अणगारे जाते इरियासमिते०, तते णं मंससुहा स्त्री० (माससुखा) मांससुखकारिण्यां संबाधनायाम, ध०१ से मकाई अणगारे समणस्स भगवओ महावीरस्स तहारूवाणं अधिoi थेराणं अंतिए सामाइयमाझ्याई एक्कारस अंगाई अहिजति, मंससोल्लन० (मासशूल्य) शूले पच्यन्त इति शूल्यानि, मांसस्य शल्यानि सेसं जहा खंदगस्स, गुणरयणं तवोकम्मं सोलसवासाई मासशूल्यानि। मासखण्डेषु, उपा०३ अ०। परियाओ पाउणेत्ता तहेव विपुले सिद्धे॥६॥ अन्त०१ श्रु०६ वर्ग। मंसाइया स्त्री० (मांसादिका) मांसमादौ प्रधानं यस्यां सामासाऽऽदिका, | मकुद पु०(मकुन्द) मुरज वाधावशः मकुंद पुं० (मकुन्द) मुरजे वाद्यविशेषे, आ०म०१ अ०म०१ अ०। रा०। ता मांसनिवृत्तिं कर्तुकामैः पूर्णायां वा निवृत्तौ, मांसप्रचुरायां संखडी मकडकरण न०(मर्कटकरण) मर्कटमुद्दिश्य यत्किञ्चित् क्रियते तादृशे कृतायाम्. आचा०२ श्रु०१ चू०१ अ०४ उ० / नि० चू०। जम्मि पगरणे स्थाने, आचा०२ श्रु०२ चू०३ अ०। मंसं आसादीए दिजतिपच्छा ओदणादि तं मंसादी भण्णति, मसाण वा मक्कडग पुं० (मर्कटक) सूक्ष्मजीवविशेषे, आचा०१ श्रु८१ चू०० अ०१ मच्छं वा आदावेव पकरणे करेंति तं च मंसादिए आणीएसु वा गरोसु उ० / कोलिके, बृ०४ उ० / वानरे च। बृ०४ उ०। मक्कडतंतुचारण पुं० (मर्कटतन्तुचारण) कुब्जवृक्षान्तरालभाविनभः आदावेव जणवयस्स मंसपगरण करेति पच्छा सयं परिभुजति, त वा प्रदेशेषु, कुब्जवृक्षाऽऽदिसंबन्धमर्कटतन्त्वाऽऽलम्भनपादोद्धरणा निक्षेमंसादी भणंति / नि० चू०१० उ०। पावतदाता मर्कटतन्तून छिन्दतो यान्तो मकंटतन्तुचारणाः / चारणभेदेषु, मंसाणुणारि (ण) पुं० (मासानुसारिन्) मांसान्तधातुव्यापककिचिच्छो ग०२ अधि०। णितानुसारिणि द्रणे, स्था०६ टा० / मक्कडबंध पुं० (मर्कटबन्ध) नाराचसंहनिनः शरीरावरावबन्धप्रकार, मंसाय पुं० (मासाद) मांसान्येवाग्रिना प्रताप्य भक्षके नारके, सूत्र०१ श्रु०५ स्था०६ ठा०। अ०१ उ०। मक्कडसंताण पुं० (मर्कटसन्तान) मर्कटः कोलिकस्तस्य सन्तानो मंसासि (ण) पुं० (मांसाशिन्) मासखादके, सूत्र०१ श्रु०५ अ०१३० / जालकम् / लूतातन्तुजाले, ध०२ अधि० ! आचा० / कोलिकाजाले, मंसु न० (श्मश्रु) “वक्राऽऽदावन्तः॥८।१।२६।। इति सूत्रेणानुस्वारा आव०४ अ०। आ० चू०। आचा०। ऽऽगतः। प्रा०१ पाद। कूर्चरोमणि, स्था०३ ठा०४ उ०। तं० / प्रश्न०। मक्कन पु० (मार्गण) चूलिकापैशाचिके तृतीयतुर्ययोराद्यद्वितीयो" जी०। औ०। ज्ञा० उत्त० / (237) मंसू खुडूच मासुरी कुचं" पाइ० // 84 // 325 / / इति गस्थाने कः, णस्य नः / वाणे, प्रा०५ पाद। ना०११२ गाथा। मक्कार पु० (मस्करिन्) मस्करो ज्ञानं गतिर्वाऽस्त्यस्य इनि मा कर्तुं कर्म मंसुल्ल पु० (मांसवत्) उपचितमांसवति, "आल्विल्लोल्लाल निषेद्धं शीलमस्य इनि: / “मस्कर- मस्करिणौ वेणु परिव्राजकयोः" वन्तमन्तेत्तेर-मणा-मतोः" / / 8 / 2 / 156 / / इति मतुव उल्लाऽदेशः / // 6 / 1 / 154 / / इति इनिः / परिव्राजके, विधा नेन स्वकर्मपरित्याजके, प्रा०२ पाद। चन्द्रे च / वाचन मकरंडग पुं० (मकराण्डक) रा० जलचरविशेषाण्डके, ज०१ यक्ष०ा * माकार पुं० / तृतीयचतुर्थकुलकरकाले महत्यपराधे दातव्ये दण्डे, मकरकेउपुं० (मकरकेतु) "कगचज.-"||८/१।१७७।। इत्यादिसूत्रेण स्था०७ ठा० / कल्प० / ति०। आ०म० ज०। पैशाच्या कलोपनिषेधः / मकरध्वजे, प्रा०१ पाद। मकुण पुं० (मत्कुण) स्वेदजे, 'माकण' 'खटभल' इतिख्याते जन्तुभेदे, मकरिआ स्त्री० (मकरिका) मकराऽऽकारे आभरणविशेषे, ज०२ वक्ष०। / आचा०१ श्रु० अ०६ उ० / उत्त०।। मकरजलजन्तुभार्यायाम, आ०चू०१ अ०। मक्कोडय पुं० (मत्कोटक) कृष्णवर्णे, 'मकोडा' 'चींटा' इतिख्याते मकाई पु० (मकायिन्) राजगृहवासिनि स्वनामख्याते गृहपतौ, अन्त०। / जन्तुविशेषे, नि० चू०१ उ०। स्था०1 आ०म०। पढमस्स णं भंते ! अज्झयणस्स के अढे पन्नत्ते ? एवं खलु | मक्खण न० (मक्षण) नवनीते, स्था० 4 ठा०१ उ० / जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नगरे गुणसिलए चेतिते, / आचा० / बृ० / नि० / तैलाऽऽदिना गात्रस्य स्निग्धताऽप्पदने, नि०
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________________ मक्खण 37 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मग्ग 103 उ० / पर्युषितेन तैलाऽऽदिना न म्रक्षणीयम्। बृ०५ उ० / "मखेज वा / महता व्यनिचयेन समन्वितः प्रविष्टः, तद्रूपयोवनगुणगणद्रव्यसंपदा - भिलिंगज्ज वा।" आचा०२ श्रु०२ चू०६ अ०। मखत्ति अब्भंगेति एकम्भि क्षिप्तया मगधसेनयाऽसावभिसरितः, तेन चाऽऽयव्ययाऽक्षिप्तमानसेनासो मक्खे मक्खेत्ति, पुणो पुणो अब्भंगणं / अहवाथोवण अभंगण बहुणाम- नावलो किताऽपि, अस्याश्चाऽऽत्मीयरूपयौवनसौभाग्यावलेपान्महती क्खणं ति अभ्यंजनमजणयोर्भेदः / नि० चू०३ उ०। दुःखासिकाभूत. ततश्च तां परिम्लानवदनामवलोक्य जरासन्धेनामक्खलि (ण) पुं० (मस्करिन) सषोः संयोगे सोऽग्री प्रणे" भ्यधायि-किं भवत्या दुःखावासिकाकारणम् ? केन वा सार्द्धमुषितति। // 8 / 4 / 286 / / इति मागध्यां स्कस्य वा सः। परिव्राजके, प्रा०४ पाद। सा त्ववादीत- अमरेणेति। कथमसावमर इत्युक्ते तया सद्भावः कथितो मक्खिअ वि० (मेक्षित) स्नेहमर्दिते, “मक्खिअंतुष्पं / " (752) पाइ० निरूपितो यावत्तथैवाद्याप्यास्त इत्यतो भोगार्थिनोऽर्थे प्रसक्ता अजरान०२३३ गाथा। मरवत् क्रियासु प्रवर्तन्त इति। आचा०१ श्रु०२ अ०५ उ०। मक्खिय वि० (म्रक्षित स्नेहिते. ध०२ अधि० / (म्रक्षणविषय सूत्रम् मगहाहिव पुं० (मगधाधिप) मगधानां देशानामधिपे, “सेणिओ मगहा'अब्भंगण' शब्दे प्रथमभाग 686 पृष्ठ गतम्) पृथिव्यादिनाऽवगुण्ठिते, हिवो।" उत्त०२० अ०। प्रक०६७ द्वार / पिं० / आचा० / एषणाया द्वितीयो मक्षितो दोषः / स मंगुसा स्त्री० (मडसा) भुजपरिसर्पविशेषे, 'खाडदिल्ल' त्ति संभाव्यते। द्विविधः सचित्तेन खरण्टित आहारोऽचित्तेन खरण्टितश्चाऽऽहारो भवति, __ “मंगुसपुच्छ व से मंसू।" उपा०२ अ०॥ तदा मक्षितदाष उकः। उत्त०२४ अ०। स्था० / ध०। पं० चू०। आचा० / मगुक पु० (मद्गुक ) जलपक्षिभेदे, सूत्र०१ श्रु०११ अ०। अ० चूः / पिं० / मक्खियं तुप्पं" (752) पाइ० ना०२३३ गाथा / मग धा० (मग) सर्पणे, “शकाऽऽदीनां द्वित्वम्" ||8141230|| इत्य न्त्यस्य द्वित्वम्। मग्गइ। मङ्गति। प्रा०४ पाद। पश्चात् / दे० ना०६ वर्ग मक्षिते अविकृतिप्रायश्चित्तम् / जीत०। (मक्षितद्वारम् 'एलणा' शब्दे 111 गाथा। तृतीयभागे 55 पृष्ठ गतम्) #मार्ग पुं०। मृजू शुद्धौ, मृजन्ति शुद्धीभवप्त्यनेनातीचारकल्मषप्रक्षाल* माक्षिक न० मक्षिकासचितमधुनि, स्था०६ ठा० / जीत० / मगदुमइँजहाँ पारसीकः शब्दः / दौलताबादसुलतानजनन्याम, ती०५८ नादिति मार्गः / “व्यञ्जनाद् घञ्" // 5 / 3 / 13 / / इति घञ्प्रत्ययः / आगमे / व्य०१ उ०। प्रवचने, विशे०। कल्प। मार्गशब्दार्थमाह - मगर पुं०(मकर) जलचरविशेष, प्रश्न०४ आश्र० द्वार / रा०। सू०प्र०। मजिज्जइ सोहिजइ, जेणं तो पवयणं ततो मग्गो। औ० / प्रज्ञा० / महामत्स्ये, उत्त०३६ अ० / आ०म० / स० / तं०। अहवा सिवस्स मग्गो, मग्गणमन्नेसणं पंथो / 1381 / / विपा० / वं० प्र०: ज्ञा०। आव०। सूत्र० / प्रज्ञा० / ततस्तस्मात्प्रवचनं मार्ग उच्यते / येन, किम् ? इत्याह-मृज शुद्धौ, से किं तं मगरा ? मगरा दुविहा पण्णत्ता / तं जहा-सोंड मृज्यते शोध्यतेऽनेन कर्म मलिन आत्मा, तस्माद्धेतोः / अथवा-मार्गण मगरा, मच्छमगरा य / सेत्तं मगरा / प्रज्ञा०१ पद / जी०। मार्गोऽन्वेषण पन्थाः शिवस्येति / / 1381 / / (विशे०) इति व्युत्पत्तेः / मकरा इव मकरा जलविहारित्वान् धीवरेषु, प्रश्न०२ आश्र0 द्वार। ध०२०। आ०म० भ०। मगरंद पुं० (मकरन्द) पुष्परसे, द्वा०८ द्वा०॥ मार्गस्वरूपमाह - मगरज्झय पुं० (मकरध्वज) कामदेवे, ज०२ वक्ष०। मार्गः प्रवर्तकं मानं, शब्दो भगवतोदितः। मगरमच्छ पुं०(मकरमत्स्य) मत्स्यभेदे, जी०१ प्रति०। प्रज्ञा०। संविनाशठगीतार्थाऽऽचरणं चेति स द्विधा / / 1 / / मगरमुह न०(मकरमुख) पादाऽऽभरणविशेषे, औ०॥ मार्ग इतिप्रवर्तक स्वजनकेच्छाजनकज्ञानजननद्वारा प्रवृत्तिजनक, मान मगरासण न० (मकराऽऽसन) आसनभेदे, येषामधो लिखि ता मकरा प्रमाणं, सच भगवता सर्वज्ञेनोदितो विधिरूपः शब्दः, संविग्नाः संवेगवन्तः, भवन्ति। रा०। अशठा अभ्रान्ताः, गीतार्थाः स्वभ्यस्तसूत्रार्थाः, तेषामाचरण चेति द्विधा मगहपुं०(मगध) राजगृहनगरप्रतिबद्धे आर्यजनपदे, प्रज्ञा०१ पद। सूत्र०। विधेरिव शिष्टाऽऽचारस्यापि प्रवर्तकत्वात्। तदिदमाह धर्मरत्नप्रकरणग्था / कृत- “मग्गो आगमणीई, अहवा संविग्गबहुजणाइण्णं / " इति // 1 // मगहपुर न० (मगधपुर) राजगृहे, आ०चू०१ अ०। द्वितीयाऽनादरे हन्त, प्रथमस्याप्यऽनादरः। मगहसिरी स्त्री० (मगधश्री) राजगृहराजस्य जरासन्धस्य स्वनामख्या- जीतस्यापि प्रधानत्वं, साम्प्रतं श्रूयते यतः / / 2 / / तायां गणिकायाम्, आव०४ अ०। आ० चू०। द्वितीयेति-द्वितीयस्य शिष्टाऽऽचरणस्य अनादरे प्रवर्तकत्वेनानभ्युपमगहसुंदरी स्त्री० (मगधसुन्दरी) राजगृहराजस्य जरासन्धस्य स्वनाम- गमे, हन्त प्रथमस्यापि भगवद्वचनस्यापि अनादर एव। यतो जीतस्यापि ख्यातायां गणिकायाम, आव०४ अ०। आ० चू० / साम्प्रतं प्रधानत्वं व्यवहारप्रतिपादकशास्त्रप्रसिद्ध श्रूयते। तथा च जीतमगहसेणा स्त्री० (मगधरसेना) राजगृहे स्वनामख्यातायां गणिकायाम्, प्रधान्याऽनादरे तत्प्रतिपादकशास्त्रानादराव्यक्तमेव नास्तिकत्वमिति आचा० / राजगृहे नगरे मगधसेना गणिका, तत्र कदाचिद्वनः सार्थवाहो भावः / / 2 / /
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________________ मग्ग ३८-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मग्ग अनुमाय सतामुक्ताऽऽचारेणाऽऽगममूलताम्। पथि प्रवर्तमानानां, शङ्क्या नान्धपरम्परा ||3|| अनुमायेतिउक्ताऽऽचारेण संविग्नाऽशठगीतार्थाऽऽचारेण, आगममूलतामनुमाय, सतां मार्गानुसारिणां, पथि महाजनानुयातमार्ग, प्रवर्तमानानामन्धपरम्परा न शङ्कनीया। इत्थं चात्राऽऽगमबोधितेष्टोपायताकत्वमेवानुमेयम्, आगमग्रहणं चान्धपरम्पराशङ्काव्युदासायेति नाऽऽगमकल्पनोत्तरं विध्यर्थबोधकल्पनाद्वारव्यवधानेन प्रवर्तकतायाः शब्दसाधारण्यक्षतिः, अप्रत्यक्षेणाऽऽगमेन प्रकृतार्थस्य बोधयितुमशक्यत्वात्, व्यवस्थितस्य चानुपस्थितेः सामान्यत एव तदनुमानात्। तदिदमुक्तम्-“आयरणा विहु आण ति।" वस्तुत उपपत्तिकेन शिष्टाऽऽचारेणैव विध्यर्थसिद्धावागमानुमानं भगवद्हुमानद्वारा समापत्तिसिद्धये इति द्रष्टव्यम् // 3 // सूत्रे सद्धेतुनोत्सृष्ट-मपि कचिदपोद्यते।। हितदेऽप्यनिषिद्धेऽर्थे, किं पुनर्नास्य मानता था सूत्र इति-सूत्रे आगमे, उत्सृष्टमपि उत्सर्गविषयीकृतमपि, सद्धेतुना पुष्टनाऽऽलम्बनेन, क्वचिदपोद्यते अपवादविषयीक्रियते, हितदेऽपीष्टसाधनेऽपि, अनिषिद्धे सूत्रावारिते, किं पुनरस्य शिष्टाऽचारस्य न मानता न प्रमाणता // 4 // उदासीनेऽर्थे भवत्यस्यमानता, चारित्रं तुकारणसहस्रेणापि परावर्तयितुमशक्यमित्यत आहनिषेधः सर्वथा नास्ति, विधिर्वा सर्वथाऽऽगमे / आय व्ययं च तुलयेल्लाभाऽऽकाङ्क्षी वणिग्यथा ||5|| निषेध इति-सूत्रे विधिनिषेधौ हि गौणमुख्यभावेन मिथःसंवलितावेव प्रतिपाद्येते, अन्यथानेकान्तमर्यादाऽतिक्रम-प्रसङ्गादिति भावः / / 5 / / प्रवाहधारापतितं, निषिद्धं यन्न दृश्यते। अत एव न तन्मत्या, दूषयन्ति विपश्चितः॥६|| प्रवाहोत-शिष्टसम्मतत्वसन्देहेऽपितषणमन्याय्यं, किंपुनस्त-निश्चय इति भावः / तदिदमाह-"जं च विहिअंण सुत्ते, ण य पडिसिद्धं जणम्मि चिररूढं। स मइविगप्पियदोसा, तं पिण दूसंति गीयत्था // 1 // "||6|| संविनाऽऽचरणं सम्यक्कल्पप्रावरणाऽऽदिकम्। विपर्यस्तं पुनः श्राद्धममत्वप्रभृति स्मृतम् // 7 // संविग्रेतिसंविग्रानामाचराणं सम्यक् साधुनीत्या कल्पप्रावरणाऽदिकम्। तदाह"अन्नह भणियं पि सुए, किंची कालाइकारणाविक्खं / आइन्नमन्नह चिय, दीसइ संविग्गगीएहिं / / 1 / / कप्पाणं पावरणं, अगोअरचाओं झोलिआभिक्खा। उवम्गहियकडाहयतुंबयमुहदाणदोराई।।२।" इत्यादि। विपर्यस्तमसंविनाऽऽचरणं पुनः श्राद्धममत्वप्रभृति स्मृतम्। तदाह"जह सड्ढेसु ममत्तं, राढाइ असुद्धउवहिभत्ताई। णिदिवसहितूलीमसूरगाईण परिभोगे // 1 // " इति // 7 // आद्यं ज्ञानात्परं मोहादिशेषो विशदोऽनयोः। एकत्वं नानयोयुक्तं, काचमाणिक्ययोरिव ||8|| आद्यमिति-ज्ञानं तत्त्वज्ञानम्, मोहो गारवमग्रता // 8 // दर्शयद्रिः कुलाऽऽचारलोपादामुष्मिकं भयम्। वारयद्विः स्वगच्छीयगृहिणःसाधुसङ्गतिम् // ll दर्शयद्भिरिति-आमुष्मिक प्रेत्य प्रत्यवायविपाकफलम् / / 6 / / द्रव्यस्तवं यतीनामप्यनुपश्यद्विरुत्तमम्। विवेकविकल दानं, स्थापयद्भिर्यथा तथा॥१०॥ द्रव्यस्तवमितिअपिना आगमे यतीनां तनिषेधो द्योत्यते, अनुपश्यद्भिर्मन्यमानैः॥१०॥ अपुष्टाऽऽलम्बनोत्सितर्मुग्धमीनेषु मैनिकै / इत्थं दोषादसंविगैर्हहा विश्वं विडम्बितम्॥११॥ अपुष्टेति व्यक्तः॥११॥ अप्येष शिधिलोल्लायो,न श्राव्यो गृहमेधिनाम्।' सूक्ष्मोऽर्थ इत्यदोऽयुक्तं, सूत्रे तदुणवर्णनात्॥१२॥ अपीतिएषोऽपि शिथिलानाम्, उल्लापः यदुत न श्राव्यो गृहमेधिनाम् सूक्ष्मोऽर्थः, इत्यदो वचनमयुक्तम्, सूत्रभगवत्यादौ तेषां गृहमेधिनामपि केषाञ्चिदगुणवर्णनात्, “लट्ठा गहिअट्ठा" इत्यादिना साधूक्तसूक्ष्मार्थपरिल्लामशक्तिमत्त्वप्रतिपादनात, सम्यक्त्वप्रकरणप्रसिद्धोऽयमर्थः / / 12 / / तेषां निन्दाऽल्पसाधूनां, बहाचरणमानिनाम्। प्रवृत्ताऽङ्गीकृताऽत्यागे, मिथ्यादृग्गुणदर्शिनी॥१३॥ तेषामितितेषामसंविनानाम्, अल्पसाधूनां विरलानां यतीनां, बह्वाचरितमानिनां "बहुभिराचीर्ण खलु वयमाचरामः, स्तोकाः पुनरेते संविग्रत्याभिमानिनो दाम्भिकाः" इत्यभिमानवताम्, निन्दा अङ्गीकृतस्य मिथ्याभूतस्याऽपि बह्वाचीर्णस्याऽत्यागेऽभ्युपगम्यमाने मिध्यादृशां गुणदर्शिनी प्रवृत्ता, सम्यग्दृगपेक्षया मिथ्यादृशामेव बहुत्वात् / तदाह"बहुजणपवित्तिमिच्छ, इच्छं (त्थं) तेण इहलोइओ चेव / धम्मो न उच्झियव्यो, जेण तहिं बहुजणपवित्ती॥१॥॥१३|| इदं कलिरजः पर्वभस्म भस्मग्रहोदयः। खेलनं तदसंविनराजस्यैवाधुनाचितम्॥१४॥ इदमिति व्यक्तः // 14 // समुदाये मनाग्दोषभीतैः स्वेच्छाविहारिभिः। संविगैरप्यगीतार्थाः, परेभ्यो नातिरिच्यते॥१५|| समुदाय इतिसमुदाये मनाग्दोषेभ्य ईषत्कलहाऽऽदिरूपेभ्यो भीतैः, स्वेच्छाविहारिभिः स्वच्छन्दचारिभिः, संविगैरपि बाह्याऽऽचारप्रधानैरपि, अगीतार्थः, परेभ्योऽसंविनेभ्यो, नातिरिच्यते नाधिकीभूयते / / 15 / / वदन्ति गृहिणां मध्ये, पार्श्वस्थानामवन्द्यताम्। यथाच्छन्दतऽऽत्मानमवन्धं जानते न ते // 16|| वदन्तीतिपरदोषं पश्यन्ति, स्वदोषं च न पश्यन्तीति महतीयं तेषां कदर्थनेति भावः // 16 //
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________________ मंगलपगरण 36 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मंगलसंकमण गीतार्थपारतन्त्र्येण, ज्ञानमज्ञानिनां मतम्। विना चक्षुष्मदाधारमन्धः पथि कथं व्रजेत् ? / / 17 / / गोता तिमुख्य ज्ञानं गीतार्थानामेव तत्पारतन्ज्यलक्षण गोणमेव | स्टगीतार्थानामिति भावः / / 17 / / तत्त्यागेनाफलं तेषां, शुद्धोञ्छाऽऽदिकमप्यहो। विपरीतं फलं वा स्यान्नौभङ्ग इव वारिधौ / / 18 / / तदितितत्यागेन गीतार्थपारतन्त्र्यपरिहारेण, तेषा संविग्नाऽऽभासानां शुद्धोञ्छाऽऽदिकमप्यफल विपरीतफलं वा स्यात्, वारिधाविव नोभङ्गः // 18 // यदि मैतेषां नास्ति ज्ञान, कथं तर्हि मासक्षपणाऽऽदिदुष्करतपोऽनुष्ठातृत्वमित्यत् आहअभिन्नग्रन्थयः प्रायः, कुर्वन्तोऽप्यतिदुष्करम्। बाह्या इवाव्रता मूढाः, ध्वाज्ञातेन दर्शिताः॥१६॥ अभिन्नतिअभिन्नग्रन्थयोऽकृतग्रन्थिभेदाः, प्रायः कुर्वन्तोऽप्यतिदुष्कर मासक्षपणाऽऽदिक बाह्या इवाव्रताः स्वाभाविकव्रतपरिणामरहिताः, मूढा अज्ञानाऽऽविष्टाः, ध्वाङ्गज्ञातेन वायसदृष्टान्तेन दर्शिताः।यथा हि केचन बायस' निर्मलसलिलपूर्णसरित्परिसरं परित्यज्य मरुमरीचिकासु लत्ताभान्ति नाजस्त: प्रति प्रस्थिताः, तेभ्यः केचनान्यैर्निषिद्धाः प्रत्यायाताः सुखिनो बखः, ये च नाऽऽयातास्ते मध्याह्नार्कतापतरलिताः पिपासिता एव मृताः, एवं समुदायादपि मनाग्दोषभीत्या ये स्वमत्या विजिहीर्षवो गी लार्थनिटारिताः प्रत्यावर्तन्ते, तेऽपि ज्ञानाऽऽदिसंपदाजनं भवन्ति, अपरे तु-ज्ञानाऽदिगुणेभ्योऽपि भ्रश्यन्तीति / तदिदमाह - ''पार्य अभिन्न गंठी, रावाइ तह दुक्कर पि कुव्वंता / बज्झ व्व ण ते साहू:, घखाहरणेण विनेया / / 1 // " आगमेऽप्युक्तम्- "नममाणा वेगे जीविअं विप्परिणामति / " द्रव्यतो नमन्तोऽप्येके सयमजीवित विपरिणमंति। नाशयन्तीत्येत्दर्थः / इति / / 16 / / वदन्तः प्रत्युदासीनान, परुषं परुषाऽऽशयाः। विश्वासादाकृतेरेते, महापापस्य भाजनम्॥२०॥ वदन्त इति -उदासीनान मध्यस्थान् शिक्षापरायणान प्रति, परुष भवन एव सम्यक् क्रियां न कुर्वते कोऽयमस्मान् प्रत्युपदेशः" इत्यादिरूपं वचनं, वदन्तः, परुषो ज्ञानाऽवेशादाशयो येषां ते तथा, एते आकृतेरा-- कारस्य, विश्वासान्महापापस्य परप्रतारणलक्षणस्य भाजनं भवन्ति, पामराणां गुण ऽऽभासमात्रेणैव स्खलनसंभवात् / / 20 / / ये तु स्वकर्मदोषेण, प्रमाद्यन्तोऽपि धार्मिकाः। संविअपाक्षिकास्तेऽपि, मार्गान्याचयशालिनः / / 21 / / ये विति-ये तु स्वकर्मदोषेण वीर्यान्तरायोदयलक्षणेन, प्रमाहानतोऽपि 'क्रेयासु अवसीदन्तोऽपि, धार्मिका धर्मनिरताः, संविनपाक्षिकासंविनपक्षीकृतः, तेऽपि, मार्गस्यान्वाचयो भावसाध्वपेक्षया पृष्ठलग्नतालक्षणः तेन शालन्त इत्येवंशीलाः। तदुक्तम्-“लडिभहिसि तेण पहं ति" / / 21 / / शुद्धप्ररूपणैतेषां, मूलमुत्तरसंपदः / सुसाधुग्लानिभैषज्यप्रदानाभ्यर्चनाऽऽदिकाः।।२२।। शुद्धेति-एतेषा संविग्रपाक्षिकाणां, शुद्धप्ररूपणैव मूलसर्वगुणानामाद्यमुत्पत्तिस्थानं, तदपेक्षयतनाया एव तेषां निर्जराहेतुत्वात् / तदुक्तम्"हीणस्स वि सुद्धपरूवगरस संविमापक्खवाइस्स1जा जा हविज जयणा, सा सा से निजरा होइ।।१।।" इच्छायोगसंभवाचाऽत्र नेतराङ्ग वैकल्येऽपि फलवैकल्य, सम्यग्दर्शनस्यैवात्र सहकारित्वात्। शास्त्रयोग एव सम्यग्दर्शनचारित्रयोयोस्तुल्यवदपेक्षणात् / तदिदमुक्तम्-"दसणपक्खो सावय, चरितभट्ठे य मंदधम्मे य। दसणचरितपक्खो, समणे परलोगकंखिम्मि / / 1 / / " उत्तरसंपद उत्कृष्टसंपदश्च सुसाधूनां ग्लानेरपनायकं यद्वैषज्य तत्प्रदानं चाभ्यचनं च तदादिकाः // 22 // आत्माऽर्थ दीक्षणं तेषां, निषिद्धं श्रूयते श्रुते। ज्ञानाऽऽद्यर्थाऽन्यदीक्षा च, स्वोपसंपच नाहिता // 23 // आत्मार्थमिति आत्मार्थ स्ववैयावृत्त्याद्यर्थ, तेषां संविग्नपाक्षिकाणां दीक्षणं श्रुते निषिद्ध श्रूयते / “अत्तट्ठा न विदिरक्खई" इति वचनात् / ज्ञानाऽऽद्यर्थाऽन्येषां भावचरपरिणामवत्पृष्ठभाविनामपुनर्बन्धकाऽऽदीनां दीक्षा च तदर्थ तेषां स्वोपसंपच नाहिता नाहितकारिणी, असदग्रहपरित्यागार्थमपुनर्बन्धकाऽऽदीनामपि दीक्षणाधिकारात् / तदुक्तम् - "सइअपुणबंधगाणं, कुग्णहविरहं लहुं कुणइ कुण्इ" इति तात्त्विकानां तु तात्त्विकैः सह योजनमप्यस्याऽऽचारः। तदुक्तम् -“देइ सुसाहूण बोहेउं ति" // 23 // नाऽऽवश्यकाऽऽदिवैयर्थ्य , तेषां शक्यं प्रकुर्वताम् / अनुमत्यादिसाम्राज्यादावाऽऽवेशाच्च चेतसः॥२४॥ नेतिआवश्यकाऽऽदिवैयर्थ्य च तेषां, स्ववीर्यानुसारेण शक्यं स्वाचार प्रकुर्वता न भवति / तत्करण एवाऽऽचारप्रीत्येच्छायोगनिर्वाहात्। तथाऽनुमत्यादीनामनुमोदनाऽऽदीनां साम्राज्यात् सवर्थाऽभङ्गात्। चेतसश्चित्तस्य भावाऽऽवेशादर्थाऽऽधुपयोगाच्च श्रद्धामेधाऽऽघुपपत्तेः // 24 // द्रव्यत्वेऽपि प्रधानत्वात्तथाकल्पात्तदक्षतम्। यतो मार्गप्रवेशाय, मतं मिथ्यादृशामपि / / 2 / / द्रव्यत्वेऽपीतितदावश्यकस्य भावसाध्वपेक्षया द्रव्यत्वेऽपि प्रधानत्वादिछाऽऽद्यतिशयेन भावकारणत्वाद् द्रव्यपदस्य क्वचिदप्रधानार्थकत्वेन कनिच कारणार्थकत्वेनानुयोगद्वारवृत्ती व्यवस्थापनात् तथाकल्पात् तथाऽऽचारात्, तदावश्यक तेषामक्षतं, यतो मार्गप्रवेशाय मिथ्यादृशामपि तदावश्यक मतं गीतार्थरङ्गीकृतम्, अभ्यासरूपत्वात्, अस्खलितत्वाsऽदिगुणगर्भतया द्रव्यत्वोपवर्णनस्यैतदर्थद्योतकत्वाच / / 25 / / मार्गभेदस्तु यः कश्चिन्निजमत्या विकल्प्यते / स तु सुन्दरबुद्ध्याऽपि, क्रियमाणो न सुन्दरः // 26 / / मार्गतिव्यक्तः।।२६।। निवर्तमाना अप्येके, वदन्त्याचारगोचरम्। आख्याता मार्गमप्येको, नोञ्छजीवीति च श्रुतिः / / 27 / / निवर्तमाना इति-एके संयमान्निवर्तमाना अपि, आचारगोचरं यथावस्थित वदन्ति, “वयमे व कत्तु म सहिष्णव:
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________________ मग्ग 40 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मग्ग मार्गः पुनरियम्भूत एवेति।' यदाचारसूत्रग-"नियष्टमाना वेगे आयारगोअरमाइक्व ति।" अत्र संयमाल्लिङ्गाद्वा निवर्तमानाः, वाशब्दादनिवर्तमानाश्च लभ्यन्ते। उभयथाऽप्यवसीदन्त एव योजिता यथास्थिताऽऽ चारोक्त्या हि तेषामेकैकबालता भवति आचारहीनतया न तु द्वितीयाऽपि / ये तु हीना अपि वदन्ति-"एवम्भूत एवाऽऽचारोऽस्ति योऽरमाभिरनुष्टीयते, साम्प्रतंदुःषभानुभावेन बलाऽऽद्यपगमान्मध्यभूतव वर्तनी श्रेयसी, नोरावसर इति।" तेषां तु द्वितीयाऽपि बालता बलादापतति, गुणवघोषानुवादात / यदागमः- "सीलमंता उवसंता, संखाए रीयमाणा असीला। अणुवयमाणस्स बितिआमदास्स बालया।!।।१।।" तथा मार्गमेक आख्याता न चोञ्छजीवीत्यपि श्रुतिरस्ति / तदुक्त स्थानाने-“आद्याइत्ता णाम एगे, णो उंछजीवी" इति।।२७।। असंयते संयतत्वे, मन्यमाने च पापता। भणिता तेन मार्गोऽयं, तृतीयोऽप्यवशिष्यते // 28 / / असंयत इति-असंयते संयतत्वं मन्यमाने च पापता भगिता “असंजए संराजलप्पमाणे पावसभरण ति दुसइ" इति पापश्रमणीयाध्ययनपाठात। असंयते यथास्थितवतरि पामत्वानुक्तेः तेन कारणनायं संविग्नपक्षपस्तृतीयोऽपि मार्गोऽवशिष्यता साधुश्राद्धयोरिव संविनपाक्षिकस्याप्याचारेणाविसंवादिप्रवृत्ति सम्वाद / तदुक्तम्- “साधजजोगपरिवडणाइ सव्वुत्तमो अ जइधम्मो / पीओ सावगधम्मो, तइओ संविग्गपक्खपही {{1 // " योगाऽऽख्यो मार्गः संविग्नपाक्षिकाणां नासम्भवी मैञ्यादि समन्वितवृत्ताऽऽदिमत्त्वनाध्या भाऽऽदि प्रत्यवाक्षात् अदिकल्पतथाकाराविषयत्वन नेतद्धर्मो मार्गः "करपाका परिनिटिअस्स ठाणसु पथर टिअरसा संत्तगतयवहाररा उ, अनिगाण तहकारो।।१।।" इति वचनात्। साधुवचन एवादिकल्पेन लथाकार श्रवणादिति चेन्नतद्ववचबलादन्यत्र वनस्य विकल्पर वस्थितत्वेन व्याख्यानात् / व्यवस्था चय रस बननेकिनरोनेव तथाकारोऽन्यस्यतु विकल्पनेवति / चिचिल चदं समाचार राउमाभिः / / 28 / साधुः श्राद्धश्च संविग्न पक्षी शिवपथास्त्रयः। शेषा भवपथा गेहिद्रव्यलिङ्गि कुलिङ्गिनः॥२६।। साधुरिति-व्यक्तः // 26 // गुणी च गुणरागी च, गुणद्वेषी च साधुषु / श्रूयन्ते व्यक्तमुत्कृष्ट-मध्यमाधमबुद्धयः / / 30 / / गुणीति -- व्यक्तः / / 30 ते च चारित्रसम्यक्त्व-मिथ्यादर्शनभूमयः / अतो द्वयोः प्रकृत्यैव, वर्तितव्यं यथाबलम् / / 31 / / से चेतिव्यक्तः // 31 / / इत्थं मार्गस्थिताऽऽचारमनुसृत्य प्रवृतया। मार्गदृष्यैव लभ्यन्ते, परमाऽऽनन्दसम्पदः / / 3 / / इत्यमिति-व्यक्तः // 32 // द्वा०३ द्वा०। भावत्थयदव्यत्थय - रूवो सिवपंथसत्थवाहेण। सव्वण्णुणा पणीओ, दुविहो मग्गो सिवपुरस्स / / 8 / / तत्र भावः शुभपरिणामः प्रधान यत्र स्तवे स भावस्तवः / यद्वा-भानाऽऽन्तरप्रीत्या तथाविधकर्मक्षयोपशमापेक्षया सर्वविरतिदेशविरतिप्रतिपत्तिस्वभावेन स्तबो भावस्तवः द्रव्येण वा वित्तव्ययेन जिनभवनधिम्बपूजाऽऽदिकरणरूपः स्तवो द्रव्यस्तवः, भावस्तवश्च द्रव्यस्त पश्च भावस्तबद्रव्यस्तवौ तयोरूप स्वभावः स्तवरूपः शिवो मोक्षः पारमार्थिकनिरूपद्रव्यस्थान तस्य पन्था मार्ग: शिवपथरस्तस्य नार्थवाह इव रगर्थवाहरतेन मोक्षपथनायकेनेत्यर्थः / तस्याऽपि लोकरूढ्या नानात्वे विशेषयितुमाहसर्वज्ञान सर्वविदा प्रणीतः प्ररूपितः तदन्यकथन हि विसंवाददर्शनात, द्विविधो द्विप्रकारा मार्गः पन्थाः, कस्येत्याह-शिट एव पुरं शिवनगरं तस्य अयमाशयः। यो हि प्रयोजननिष्पत्ता भवमेवावलम्य्य बहिव्यव्यतिरेकेण प्रवर्तते, भगवती मरुदेवी स्वामिनी यनयश्च न्यभावेन भावशुद्धाध्यवसायन सम्यगविदिततत्त्वा अविदितत्त्वो वा वैरर वामिमाषा (आ) दिवा सदनुष्ठाने प्रवर्ती स द्विविधोऽपि भावस्वरूपो मोक्ष मार्ग इति। दर्शाता मोक्षप्रप्रापकत्वान्मार्गः। आवश्यक, विशे०। आ० चू० / अनु०। जनैः पद्भ्या क्षुण्णे पथि आचा०२ श्रु०१५०३ अ०१ उ० स०। सूत्र० / अष्टादर्श०: मोक्षपथे, आचा०१ श्रु०५ अ०२ उ उत्तका सम्यग्दर्शनाऽऽदिके, सूत्र०२ श्रु०६ अ०। पञ्चा० / सम्यग्दर्शनप्रशमाऽऽदिके, ध०३ अधि० / दर्श० आ० चू०। आव० / मोर, उत्त०२१ अ०। नरकतिर्यड्मनुष्यगमनपद्धती, आचा०१ श्रु०५ अ०२ उ०। प्रशरतो ज्ञानाऽऽदिको भावमार्गस्तदाधरण चात्राभिधेयमिति, नामनिष्पन्ने तु निक्षेपे मार्ग इत्यस्याध्ययनस्य नाम, तन्निक्षेपार्थं नियुक्तिकृदाह - गाणं ठवणा दविए, खेत्ते काले तहेव भावे य। एसो खलु मग्गस्स य, णिक्खेवो छव्विहो होइ / / 107 / / फलगलयंदोलणवि-त्तरज्जुदवणविलपासमग्गे य। खीलगअयपक्खिपहे, छत्तजलाकासदव्वम्मि।।१०।। खेत्तम्मि जम्मि खेत्ते, काले कालो जहिं हवइ जो उ। भावम्मि होति दुविहो, पसत्थ तह अप्पसत्थो य।।१०।। दुविहम्मि वि तिगभेदो, गेओ तस्स उ विणिच्छओ दुविहो सुगतिफलदुग्गतिफलो, पगयं सुगतीफलेणित्थं / / 110 / / दुग्गइफलवादीणं, तिन्नि तिसट्ठा सताइ वादीणं। खेमे य खेमरूवे, चउक्कगं मग्गपादीसु // 111 / / नामस्थापनाद्रव्यक्षत्रकालभावभदान्मार्गस्य पाढा निक्षेपः, तत्र नामरस्थापने सुगम वादनादृत्य ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्त द्रव्यमार्ग. मधिकृल्याऽऽहमलकमांर्गः कनकमार्गः यत्र कर्दमाऽऽदिभयान् मलकैर्गग्यते. लतामार्गस्तुवत्र लताऽवलम्बन गम्यते, अन्दोलनमार्गोऽपि यत्राऽन्दोलनेन दुर्गमति लङ्घ यते, वैत्रमार्गो यत्र वेत्रलतोपष्टम्भेन जलाऽऽदै गम्यते इति, तद्यथा-चारुदतो वेत्रलापष्टम्भेन वेत्रवती नदीमुत्तीये परकू स
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________________ मग्ग 41 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मग्ग लं गतः, र जुमार्गस्तु यत्र रज्जवा किश्चिदतिदुर्गमतिलड्डयते, 'दवनं ति' यान तन्मार्गो दवनमार्गः, विलमार्गो यत्र तु गु हाऽऽद्याकारण विलेन / गम्यते, पााप्रधानो मार्गः पाशमार्गः पाशकूटवागुरान्वितो मार्ग इत्यर्थः, कीलकमार्गे यत्र वालुकोत्कटे मरुकाऽऽदिविषये कीलकाभिज्ञानेन गम्यले, अजमार्गो यत्र अजेनवस्त्येन गम्यते, तत् यथा सुवर्णभूम्यां चारुदत्तोपत इति. पक्षिमार्गा यत्र भारुण्डाऽऽदिपक्षिभिर्देशान्तरमवाप्यत, ४त्रमार्गो यत्र छत्रमन्तरण गन्तुं न शक्यते, जलमार्गा यत्र नादादिना गम्यते, आकाशमार्गो विद्याधराऽऽदीनाम्, अयं सर्वोऽपि फलकाऽऽपिका 'द्रव्ये' द्रव्यविषयऽवगन्तव्य इति / क्षेत्राऽऽदिमार्गप्रतिपादनायाऽह-क्षेत्रमार्गे पर्यालोच्य मानं यस्मिन् 'क्षेत्रे' ग्रामनगराऽऽदी प्रदेश वा शालिक्षेत्राऽऽदि के वा क्षेत्रे यो याति मार्गे यस्मिन्वा क्षेत्रे | व्याख्यायर' रस क्षेत्रमार्गः, एवं कालेऽप्यायोज्यम्। भावे त्वालाक्ष्यमाने द्विविधो भवति मार्गः, तद्यथाप्रशस्तोऽप्रशस्तश्चेति / प्रशस्ताप्रशस्तभेदप्रतिपादनायाऽऽइ-"द्विविधेऽपि' प्रशस्ताप्रशस्तरूपे भावमार्ग प्रत्येक त्रिविधो भेदो भवति, तत्राप्रशस्तो मिथ्यात्वमविरतिरज्ञानं चेति, प्रशस्तस्तु सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररूप इति, 'तस्य' प्रशस्ताप्रशस्तरूपस्य भाटमार्गस्य 'विनिश्चयो' निर्णयः फल कार्यनिष्ठा द्वेधा। तद्यथाप्रशस्तः सुरतिफलः अप्रशस्तश्च दुर्गतिफल इति। इह तुपुनः 'प्रस्तावः' अधिकारः 'सुगतिफलेन' प्रशस्तमार्गेणिति / तत्राप्रशस्त दुर्गति फलं नागे प्रतिपिपादयिषुस्तत्कर्तृनिर्दिदिक्षुराह-दुर्गतिः फलं यस्य स दुर्गतिकलस्तद्वदनशीला दुर्गतिफलवादिनस्तेषां प्रावादुकानां त्रीणि त्रिषष्ट्यधिकानि शतानि भवन्ति, दुर्गतिफलमार्गोपदेष्टत्वं च तेषां मिथ्यात्वोपहतदृष्टितया विपरीतजीवाऽऽदितत्त्वाभ्युपगमात्, तत्संख्या चैवमवगन्तव्या, तद्यथा-"असियसयं किरियाणं, अकिरियवाईण होइ धुलसीइ। अगाणिय सत्तट्टी. वणइयाण च बत्तीस / / 1 / / " तेषां च स्वरूपं समवरपरपाध्ययने वभ्यत इति। साम्प्रत मार्ग भङ्गद्वारेण निरूपथितुमाह, तद्यथाएक: क्षमो मार्गस्तस्करसिंहव्याघ्राऽऽद्युपद्रवरहितत्वात् तथा क्षेमरूपश्च सम्न्यात्तथ छायापुष्पफलववृक्षोपेजलाऽऽश्रयाऽऽकुलत्याच 1, तथा परः क्षेमो निश्चौरः किं त्वक्षेमरूप उपलशकलाऽऽकुलगिरिनदीकण्टकगनशताऽऽ फुलत्वेन विषमत्वात्, तथाऽपरोऽक्षेमस्तस्कराऽऽदिभयोपेटलात्क्षे-मरूपश्चोपलशकलाऽऽद्यभावतया समत्वात्, तथाऽन्यो न क्षेमानापिक्ष्मरूपः सिंहव्याघ्रतस्काराऽऽदिदोषदुष्टत्वात्तथा गर्त्तापाषाणनिम्नान्नता:ऽदिदोषदुष्टत्वाचेति, एवं भावमार्गोऽप्यायोज्यः, तद्यथाइनाऽऽदिरामन्वितं द्रव्यलिङ्गोपेतश्च साधुः क्षेमः क्षेमरूपश्च, तथा क्षेयोऽक्षमरूपपस्तु स एव भावसाधुः कारणिकद्रव्यलिङ्गरहितः, तृतीयभड़कगता नेहवाः, परतीर्थिका गृहस्थाश्चरमभङ्ग कवर्तिनी द्रष्टव्याः। एक मनन्तरोक्तया प्रक्रियया 'चतुष्कक' भङ्गकचतुष्टयं मार्गादिष्वाटोजयन, आदिग्रहणदन्यत्रापि समाध्यादावायोज्यमिति / सम्यगमिथ्यातवमार्गयोः स्वरूपनिरूपणायाऽऽहसम्मप्पणिओ मग्गो, णाणे तह दंसणे चरित्ते य। चरगपरिव्वायादी चिण्णो मिच्छत्तमग्गो उ!|११२।। इडिरससायगुरुया, छज्जीवनिकायघायनिरया य। जे उवदिसंति मग्गं, कुमग्गमग्गस्सिता ते उ॥११३|| तवसंजमप्पहाणा, गुणधारी जे वयंति सब्भावं। सव्वजगजीवहियं, तमाहु सम्मप्पणीयमिणं / / 114 // पंथो मग्गो णाओ, विहीं धिती सुगती हियं तह सुहं च। पत्थं सेयं णिव्वुइ, णिव्वाणं सिवकरं चेव॥११५।। सम्यगज्ञानं दर्शन चारित्रं चेत्ययं त्रिविधोऽपिभावमार्गः सम्यगदृष्टिभिः' तीर्थकरगणधराऽऽदिभिः सम्यगवा-यथावस्थितवस्तुतत्त्वनिरूपणया प्रणीतरतैरेव च सम्यगाचीर्ण इति, चरकपरिव्राजकाऽऽदिभिस्तु 'आचीर्णः' आसेवितो मार्गों मिथ्यात्वमार्गोऽप्रशस्तमार्गा भवतीति / तुशब्दोऽस्य दुर्गतिफलनिबन्धनत्वेन विशेषणार्थ इति। स्वयूथ्यानामपि पाश्व स्थाऽऽदीनां षड्जीवनिकायोपमर्दकारिणां कुमार्गाऽऽश्रितत्वं दर्शयितुमाह-य केचन अपुष्टधर्माणः शीतलविहारिणः ऋद्धिरससातगारवण 'गुरुकाः' गुरुकर्माण आधाकर्माऽऽद्युपभोगाभ्युपगमेन षड्जीवनिकायध्यापादनरताश्च अपरेभ्यो 'मार्ग' मोक्षमार्गमात्मानुचीर्णमुपदिशान्ति / तथाहि-शरीरमिदमाद्यं धर्मसाधनमिति मत्वा कालसंहननाऽऽदिहानेश्चाऽऽधाकर्माऽऽद्युपभोगोऽपिन दोषायेत्येवं प्रतिपादयन्ति, ते चैवं प्रतिपादयन्तः कुत्सितमार्गास्तीथिकास्तन्मार्गाऽऽश्रिता भवन्ति : तुशब्दादतेऽपि रवयूथ्या एतदुपदिशन्तः कुमार्गाश्रिता भवन्तीति किंपुन सीर्थिका इति। प्रशस्तशास्त्रप्रणयनेन सन्मार्गाऽऽविष्करणायाऽऽहतपः रावाह्याभ्यन्तरं द्वादशप्रकारं, तथा संयमः सप्तदशभेदः पचाऽऽश्रवविरमणाऽऽदिलक्षणस्ताभ्यां प्रधानास्तपः संयमप्रधानाः, तथाऽष्टादशशीलाइ सहस्राणि गुणास्तद्वारिणो गुणधारिणो ये सत्साधवस्त एवंभूता य 'सद्धाव'परमार्थ जीवाजीवाऽऽदिलक्षणं वदन्ति' प्रतिपादयन्ति, किंमत? सर्वस्मिन् जगति ते जीवास्तेभ्यो हितपथ्यं तद्रक्षणतस्तेषा सदुपदेशदानता वा त सन्मार्ग सम्यमार्गज्ञाः 'सम्यग' अविवरीतत्वेन प्रणीतम आह:' उक्तवन्त इति / साम्प्रत सन्मार्गस्यै कार्थिकान, दर्शयितुमाह-दशाद्विवक्षितदेशान्तरप्राप्तिलक्षणः पन्थाः, स चेह भावमार्गाधिकार सम्यक्त्वावाप्तिरूपोऽऽवगन्तव्यः 1, तथा-'मार्ग' इति पूर्वस्माद्विशुद्ध्या विशिष्टतरो मार्गः, स चेह सम्यग्ज्ञानावाप्तिरूपोऽवगन्तव्यः 2: तथा 'न्याय' इति निश्चयेनाय विशिष्ट स्थानप्राप्तिलक्षणं यस्मिन् सति स न्यायः, स चेह सम्यक्चारित्रावाप्तिरूपोऽवगन्तव्यः, सत्पुरुषाणामय न्याय एव यदुत अवाप्तयोः सम्यग्दर्शनज्ञानयोस्तत्फलभूतेन सम्यक्चारित्रेण योगो भवतीत्यतो न्यायशब्देनात्र चारित्रयोगोऽभिधीयत इति ३.तथा विधिरिति विधान विधिः सम्यग्ज्ञानादर्शनयोयोगपद्येनावाप्तिः ४,तथा धृतिरितिधरणं धृतिः सम्यग्दर्शनसति चारित्रावस्थानं माषतुषाऽदाविव विशिष्टज्ञानाभावाद्विवक्षयैवमुच्यते 5, तथा सुगतिरिति शोभना गतिरस्मात् ज्ञानाच्चारित्राचेति सुगतिः 'ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः' इति न्यायात्सुगतिशब्देन ज्ञानकिये अभिधीयते, दर्शनस्य तु ज्ञानविशेषत्वादत्रैवान्तर्भावोऽवगन्तव्यः 6, तथा हितमिति परमार्थतो मुक्त्यवाप्तिस्तत्कारण वा हिततच सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राऽख्यमवगन्तव्य
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________________ मग्ग 42 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मग्ग मिति 7, अत्र च संपूर्णानां सम्यग्दर्शनाऽऽदीनां मोक्षमार्गत्वे सति मतिः लोकालोकान्तर्गतसूक्ष्मव्यवहितविप्रकृष्टातीतानागत्वर्तमानराव्यस्तसमस्तानां मोक्षमार्गत्वेनोपन्यासः स प्रधानोपसर्जनविवक्षया पदार्थाऽऽविर्भाविका केवलज्ञानाऽऽख्या यस्यास्त्यसौ मतिमंस्तेन, यं नदोषायेति। तथा सुखमिति सुखहेतुत्वात्सुखमउपशमश्रेण्यामुपशामक प्रशस्त भावमार्ग मोक्षगमनं प्रति 'ऋजु' प्रगुणं यथावस्थितपदाथप्रत्यपूर्वकरणानिवृत्तिबादरसूक्ष्मसंपरायरूपा गुणत्रयावस्था 8, तथा स्वरूपनिरूपणद्वारेणावक्र सामान्यविशेषनित्यानित्याऽऽदिस्याद्वादपथ्यमिति पथिमोक्षमार्ग हितं पथ्य, तच्च क्षपक श्रेण्या पूर्वोक्तं गुणत्रयं 6, समाश्रयणात, तदेवंभूत मार्ग ज्ञानदर्शनतपश्चारित्राऽऽत्मकं 'प्राप्य' तथा श्रेय इत्युपशम श्रेणिमस्तकावस्था, उपशान्तसर्वमाहावस्थेत्यर्थः लब्ध्वा संसारोदरविवरवर्ती प्राणी समग्रसामग्रीकः ओघमिति भवौधं 10 तथा निवृत्तिहेतुत्वानिवृतिः क्षीणमोहावस्थेत्यर्थः मोहनीयविनाशे- संसारसमुद्रं तरत्यत्यन्तदुस्तरं, तदुत्तरणसामग्रया एव दुष्णापत्वात्। ऽवश्य निर्वृतिसद्भावादिति भावः 11. तथा निर्वाणमिति घनघाति तदुक्तम्- “माणुरसखेत जाईकुलरूवा ऽऽरोगभाउयं बुद्धी। रावणोगह कर्मचतुष्टयक्षयेण केवलज्ञानावाप्तिः 12, तथा 'शिव' मोक्षपदं तत्करण सद्धा संजमा य लोयम्भि दुलहाई // 1 // " इत्यादि / स एव प्रच्छक: शील शैलश्यवस्थागमनमिति 13, एवमेतानि मोक्षमार्गत्वेन फिशिद्भेदा पुनरप्याहयोऽसो मार्गः सत्त्वहिताय सर्वज्ञेनोपदिष्टोऽशेषकान्तकौटिल्य:दभेदेन व्याख्यातान्यभिधानानि, यदि वैते पर्यायशब्दा एकार्थिका वक्रतारहितसतं मार्ग, नास्योत्तरः- प्रधानोऽस्तीत्यनुत्तरस्तं शुद्धःमोक्षमार्गस्येति। गतो नामनिष्पन्नो निक्षेपः। सूत्र०१ श्रु०११ अ०। उत्त० / अवदातो निर्दोषः पूर्वापरख्याहतिदोषापगमात्सावद्यानुष्ठामोपदेशाभावाद्वा दर्श० / भ० / इह मार्गः चेतसोऽवक्रगमनं, भुजङ्गमनलिकायामतुल्यो। तमिति, तथा सर्वाणि अशेषाणि बहुभिर्भवैरुपचितानि दुःखकारणत्वाद् विशिष्टगुणस्थानावाप्तिप्रगुणः स्वरसवाही क्षयोपशमविशेषः हेतुस्वरूप दुःखानिकर्माणि तेभ्यो विभोक्षणविमोचकं तमेवंभूतं मार्गमनुत्तरं निर्देष कलशुद्धा सुखेत्यर्थः, नास्मिन्नान्तरेऽसति यथोदितगुणस्थानावाप्ति सर्वदुःखक्षयकारणं हे भिक्षो ! यथा त्वं जानीषे 'ण' इति वाक्यालङ्कारे मर्गिविषमतया चेतः स्खलनेन प्रतिबन्धोपपत्तः सानुबन्धक्षयोपशमतो तथा तं मार्ग सर्वज्ञप्रणीतं 'नः' अस्मा कं हे महामुने ! 'ब्रूहि' कथये ते // 2 // यद्यप्यस्माकमसाधारणगुणोपलब्धेर्युष्मत्प्रत्येनैव प्रवृत्तिः स्यात् यथोदितगुणस्थानावाप्तिः, अन्यथा तदयोगात् क्लिष्टदुः खस्य तत्र तथाप्यन्येषा मार्गः किं भूतो मयाऽऽख्येय इत्यभिप्रायवानाह-यदा तत्त्वतो बाधकत्वात्, सानुबन्धं क्लिष्टमेतदिति तन्त्रगर्भः, तद्वाधितस्था कदाचित् 'नः' अन्मान् केचन' सुलभबोधयः संसारोद्विग्नाः सम्यग् मार्ग स्य तथागमनाभावात्, भूयस्तदनुभवोपपत्तेः, न चासौ तथाऽतिसं-. पृच्छेयुः, के ते? 'देवाः' चतुर्निकावाः, तथा मनुष्या:-प्रतीताः, बाहुल्येन क्लिष्टस्तत्प्राप्ताविति प्रवचनपरमगुह्यम् न खलु भिन्नग्रन्थ यस्तद्गन्ध तयोरेव प्रश्नसद्भावात्तदुपादानं, तेषां पृच्छता कतर मार्गमहम् 'आख्यइति तन्त्रयुक्त्युपपत्तेः। एवमन्यनिवृत्तिगमनेनास्य भेदः, सिद्धं चैतत्प्रवृ स्ये' कथयिष्ये, तदेतदस्माकं त्व जानानः कथयेति / / 3 / / एवं पृष्टः त्यादिशब्दवाच्यतया योगाचार्याणा, प्रवृत्तिपराक्रमजयानन्दऋतंभरभेदः सुधर्मस्वाम्याह-यदि कदाचित् 'वः' युष्मान् केचन देवा मनुष्या वा कर्मयोग इत्यादिविचित्रवचनश्रावणादिति, न चेदं यथोचितमार्गाभावे, संसारभ्रान्तिपराभग्नाः सम्यगमार्ग पृच्छेयुस्तेषां पृच्छताम् इममिते स चोक्तवद्भभवल्य इति। (सूत्र 17) ल०। यो० वि०। रा०। धाद्वा० / वक्ष्यमाणलक्षण षड्जीवनिकायप्रतिपादनगर्भ तद्रक्षाप्रवणं मार्ग पं०भा०। 'पडिसाहिजेति' प्रतिकथयेत, 'मार्गसारम्' मार्गपरमार्थ यं भवन्तोऽन्येषु तदनन्तरं सूत्रानुगमे अस्खलिताऽऽदिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारयितव्यं, प्रतिपादयिष्यन्ति तत् 'मे' मम कथयतः श्रृणुत यूयमिति, पाठान्तरं वा तवेदम् - "तेसिं तु इमं मग्गं, आइक्खेज सुणेह मे।' इति उत्तानार्थम् / / 4 / / कयरे मग्गे अक्खाए, माहणेणं मईमता?। पुनरपि मार्गाभिष्टवं कुर्वन् सुधर्मस्वाम्याह - जं मग्गं उज्जु पावित्ता, ओहं तरति दुत्तरं / / 1 / / अणुपुट्वेण महाघोरं, कासवेण पवेइयं / तं मग्गं शुत्तरं सुद्ध, सव्वदुक्खविमोक्खणं / जमादाय इओ पुव्वं, समुदं ववहारिणो / / 5 / / जाणासि णं जहा भिक्खु !, तं णो बूहि महामुणी // 2 // अतरिंसु तरंतेगे, तरिस्संति अणागया। जइ णो केइ पुच्छिज्जा, देवा अदुव माणुसा। तं सोचा पडिदक्खामि, जंतवो तं सुणेह मे // 6 / / तेसिं तु कयरं मग्गं, आइक्खेज्न कहाहि णो // 3 // पुढवीजीवा पुढो सत्ता, आउजीवा तहाऽगणी। जइ दो केइ पुच्छिला, देवा अदुव माणुसा। वाउजीवा पुढो सत्ता, तणरुक्खा सबीयगा 11711 तेसिमं पडिसाहिज्जा, मग्गसारं सुणेह मे / / 4 / / अहावरा तसा पाणा, एवं छक्काय आहिया। विचित्रत्वात् त्रिकालविषयत्वाच सूत्रस्याऽऽगामुक प्रच्छकमाश्रित्य ] एतावए जीवकाए, णावरे कोई विजई / / 8 / / सूत्रमिदं प्रवृत्तम् अतो जम्बूस्वामी सुधर्मस्वामिनमिदमाह, तद्यथा- यथाऽहम् 'अनुपूर्वेण' अनुपरिपाट्या कथयामि तथा शृणुत, 'कतरः' किंभूतो 'मार्ग:' अपवर्गावाप्तिसमर्थाऽस्यां त्रिलोक्याम् / यदि वा-यथा चानु पूच्या सामग या वा मागो ऽवाप्यने 'आख्यातः' प्रतिपादितो भगवता त्रैलोकयोद्धरणसमर्थनैकान्तहितैषिणा / / तच्छृणुत, तद्यथा-'पढ मिल्लुगाण उदए' इत्यादि लावद्यावन् माहनेत्येवमुपदेशप्रवृत्तिर्यस्याऽसौ माहनः-तीर्थकृत्तेन, तमव विशिनाट- वारसविहे कसाए, खविए उपसामिए वा जोगेहि / लब्भइ चरित्त
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________________ मग्ग 43 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मग्ग राभो / इन्यादि, तथा 'चत्तारि परमंगाणीत्यादि।' किंभूतं मार्ग ? तमेव गिशिनष्टि-कापुरुषैः संग्रामप्रवेशवत् दुरध्यवराय यात 'महाधोर' महाभयानक 'काश्यपो' महावीरवर्धमानस्वामी तेन 'प्रवदित' प्रणीत / गार्ग कर यिष्यामीति / अनेन स्वमनीषिकापरिहारमाह-यं शुद्ध भार्गम् 'उपादाय' गृहीत्वा (इत इति) सनमार्गोपादानात् 'पूर्वम्' आदावेवानुहितत्वाद् दुस्तरं संसारं महापुरुषास्तरनित, अस्मिन्नेवार्थे दृष्टानतमाहव्यवहारः -पण्यक्रयविक्रयलक्षणो विद्यते येषां ते व्यवहारिणः सांयात्रिकाः, स्था ते विशिष्टल भार्थिनः कञ्चिन्नगरं यियासवो यानपात्रेण दुस्तरमपि समुद्र तरन्त, एवं साधवोऽप्यात्यन्तिकेंकानितकाबाधसुखेषिणः सम्यग्दर्शनाऽ दिना मार्गेण मोक्ष जिगमिषवो दुस्तं भवाघ तरन्तीति / / 5 / / / गार्गविशेषणायाह-य मार्ग पूर्व महापुरुषाचीर्णमव्यभिचारिणमाश्रित्य स्मिन्ननादिके काले बहवोऽनन्ताः सत्त्वा अशेषकर्मकधवरविप्रमुक्ता भवाघ-संसारम् 'अताएः' तीर्णवन्तः, साम्प्रतमप्येके समग्रसामग्रीकाः संख्ययाः सत्त्वारतरन्ति, महा विदेहाऽऽदौ सर्वदा सिद्धिसद्भावाद्वर्तमानत्वं न विरुध्यते, तथा अनागते च काले अपर्यवसानाऽऽत्मकेऽनन्ता एव जीवास्तरेष्यन्ति / तदव कालत्रयेऽपि संसारसमुद्रोत्तारक मोक्षगणनेककारण प्रशस्तं भावमार्गमुत्पन्नदिव्यज्ञानस्तीर्थकृद्धिरुपदिष्ट, त चाह सम्यक् श्रुत्वाऽवधार्य च युष्माकं शुश्रूषूणा 'प्रतिवक्ष्यामि' प्रतिपाद"सष्यामि, सुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिनं निश्रीकृत्यान्येषामपि जन्तूनां कथयती येतद्दयतुमाह-हे जन्तवोऽभिमुखीभूय, तं चारित्रमार्ग मम कथयतः शृणुत यूयं, परमार्थकथनेऽत्यन्तमादरोत्पादनार्थमेवमुपन्यास इति // 6 ! चारित्रमार्गस्य प्राणातिपातविरमणमूलत्वात्तस्य च तत्परिज्ञानपूर्वकत्वादता जीवस्वरूपनिरूपणार्थमाह-पृथिव्येव पृथिव्याश्रिता का जीवाः पृथ्वीजीवाः, ते च प्रत्येकशरीरत्वात् 'पृथक्' प्रत्येक सत्त्वा जन्तवो वगन्तव्याः, तथा आपश्च जीवाः, एवमग्निकायाश्च, तथाऽपरे वायुजीयाः, तदेव चतुर्महाभूतसमाश्रिताः पृथक् सत्त्वाः प्रत्येकशरीरिगाऽवगन्तव्याः,प्त एव पृथिव्यप्तेजोवायुसमाश्रिताः सत्त्वाः प्रत्येकशरीरिणः, यक्ष्यमाणवनस्पतेस्तु साधारणशरीरत्वेनापृथक्त्वमप्यस्तीन्यस्वार्थर-य दर्शनाय पुनः पृथक् सत्त्वग्रहणमिति / वनस्पतिकायस्तु यः सूक्ष्मः र सर्वोऽपि निगोदरूपः साधारणो, बादरस्तु साधारणोऽसाधारजश्चेति, तत्र प्रत्येकशरीरिणोऽसाधारणस्य कतिबिनेदान्निर्दिदिक्षुराहतत्र तृणानिदर्भवरणाऽऽदीनि वृक्षाः-चूताशोकाऽऽदयः सह बीजेशालिगोधूमा दिभिवन्ति इति सबीजकाः, एते सर्वे जानातिका: सत्या अवगन्तव्याः, अनेन च वाद्धाऽऽदिमतनिरनासः कृतोऽवगतदय इति / तेषां च पृथिव्यादीनां जीवानां जीवत्वन प्रसिद्धिस्वरूपनिरुपाणभाधार प्रथमाध्ययने 'शस्त्रपरिज्ञाऽऽख्ये' न्यक्षेण प्रतिपादितमिति नेह प्रतन्यते 17 षष्ठजीवनिकायप्रतिपादनायाऽऽह-तत्र पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतय एकेन्द्रियाः सूक्ष्मबादरपर्याप्तापर्याप्तकभेदेन प्रत्येकः 'अथ' अनन्तरम् 'अपरे' अन्ये वसन्तीति त्रसाः-द्वित्रिचतुष्पश्चेन्द्रियाः कृमिपिपीलिका- 1 भ्रमरमनुष्याऽऽदयः, तव द्वित्रिचतुरिन्द्रियाः प्रत्येक पर्याप्तकाऽभ. भेदात्पडिधाः, पञ्चेन्द्रियास्तु संज्ञयसंज्ञिपर्याप्तकापपर्याप्त कभेदाचतविधाः। तदेवमनन्तरोक्तया नीत्या चतुर्दशभूताग्रामाऽऽत्मकतया षड़ीवनीकाया व्याख्यातास्तीर्थकरगणधराऽऽदिभिः, एतावान एतद्देदाऽऽमक एव संक्षेपतो 'जीवनिकायो' जीवराशिर्भवति, अण्डजोद्भिजसंस्वेदजाऽऽदेरत्रैवान्तर्भावान्नापरो जीवराशिर्विद्यते कश्चिदिति / / 8 / / तदेवं षड्जीवनिकायं प्रदर्थ्य यत्तत्र विधेयं तद्दर्शयितमाहसव्वाहिं अणुजुत्तीहिँ , मतिभं पडिलेहिया। सव्वे अक्कंतदुक्खाय, अतो सब्दे न हिंसया / / 6 / / एयं खु णाणिणो सारं,जंन हिंसति कंचण। अहिंसा समयं चेव, एतावंतं विजाणिया।।१०।। उड अहे य तिरियं, जे केइ तसथावरा। . सव्वत्थ विरतिं विज्जा,संति निव्वाणमाहियं / / 11 / / पभू दोसे निराकिचा, ण विरुज्झेज केणई। मणसा वयसा चेव, कायसा चेव अंतसो।।१२।। असा याः काश्चतानुरूपा:पृथिव्यादिजीवनिकायसाधनत्वेनानुकूला युक्तयः-साधनानि, यदि वाअसिद्धविरुद्धानकान्तिकपरिहारेण पक्षधर्मत्वसपक्षसत्त्वविपक्षव्यावृत्तिरूपतया युक्तिसंगता युक्तयः अनुयुक्तयस्ताभिरनुयुक्तिभिः मतिमान' सद्विवेकी पृथिव्यादिजीवनिकायान 'प्रत्युपेक्ष्य' पर्यालोच्य जीवत्वेन प्रसाध्य तथा सर्वेऽपि प्राणिनः 'अकान्तदुःखा' दुःखद्विषः सुखलिप्सयश्च मन्वानो मतिमान् सर्वानपि प्राणिनो न हिंस्यादिति / युक्तश्च तत्प्रसाधिकाः संक्षेपेणेमा इतिसात्मिका पृथिवी, तदात्मना विदुमलवणोपलाऽदीना समानजातीयादुरसद्भावाद अशीविकारावरवत्। तथा सचेतनमम्भः, भूमिरखननादविकृतस्वभावसंभवाद, दर्दुरवत्। तथा साऽऽत्मक तेजः, तद्योग्याहाऽऽर.. वृङ्ख्या वृद्धथुपलब्धः, बालकवत्। तथा साऽऽत्मको वायुः, अपराप्ररितनियसतिरश्चीनगतिमत्त्वात, गोवत्। तथा सचेतना वनस्पतयः, जन्मजराभरणरोगाऽदीनां समुदिताना सद्भावात्, स्त्रीवत्, तथा क्षतसरोहणाऽहारोपादानदौ हृदसद्धावस्पर्शसंकोचसायाबस्थापप्रबोधाऽऽयोपसर्पणाऽऽदिभ्यो हेतुभ्यो वनस्पतेश्चैतन्यसिद्धिः / द्वीन्द्रियाऽऽदीना तु पुनः म्यादीनां स्वागय चैतन्य, तद्वेदनाश्चापक्रमिकाः स्वाभाविकाश्च समुपलभ्य मनोदाक्कायः कृाकारितानुमतिभिश्च नवकेन भेदेन तत्पीडाकारिण उपम निवर्तितव्यापिति / / 6 / / रतदेव समर्थयन्नाह-खुशब्दो वाक्यालहार वधारणे या, 'एतदेव' अनन्तरोक्तं प्राणातिपातनिवर्तन्न 'ज्ञानिनो' जीवस्वरूप द्विवकर्मधन्धवदिनः 'सार' परमार्थतः प्रधान, पुनरप्यादरख्यापनार्थमतदेवाऽऽह-यत्कश्शन प्राणिनमनिष्टदुःखं सुखैषिणं न हिनस्ति, प्रभूतवेदिनोऽपि ज्ञानिन एतदेव सारतरं ज्ञानं यत्प्राणातिपातनिवर्तनमिति, ज्ञानमपितदेवपरमार्थतोयत्परपीडातोनिवर्तन तथा चोक्तम्-"किताएपढ्यिाए पयकोडीएपलालभूयाए। जत्थित्तियणणाय, परस्स पीडा न कायव्वा // 1 // "
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________________ मग्ग 44 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मग्ग (देवमहिंसाप्रधानः समयः-आगमः संकेतो वोपदेशरूपस्तमेवभूत महिंसासमयमेतावन्तमेव विज्ञाय किमन्येन बहुना परिज्ञानेन ? एतावतैद परिज्ञानेन मुमुक्षोर्विवक्षितकारिसमाप्तेरतो न हिस्यात्कचनति // 10 // साम्प्रतं क्षेत्रप्राणातिपातमधिकृत्याऽऽह-ऊर्ध्वमस्तिर्यक् च य केचन वसाः-तेजोवायुद्वीन्द्रियाऽऽदयः तथा स्थावरा:--पृथिव्यादयः, किंबहुना तेन ? 'सर्वत्र' प्राणिनि त्रसस्थावरसूक्ष्मबादरभेदभिन्ने 'विरति' प्राणातिपातनिवृत्ति 'विजानीयात्' कुर्यात्, परमार्थत एवमेवासा ज्ञाता भवति यदि सभ्यक क्रियत इति, एषैव च प्राणातिपातनिवृत्तिः परेषामात्मनश्च शान्तिहेतुत्वाच्छान्तिर्वर्तते, यता विरतिमतो नान्ये केचन बिभ्यति, नाप्यसो भवान्तरेऽपिडकुतश्चिद्विभति, अपिच-निर्वाणप्रधानेककारण त्वान्निर्वाणमपि प्राणातिपातनिवृत्तिरेव, यदि वा-शान्तिः उपशान्तला, निर्वृतिः - निर्वाण विरतिमाश्चाऽऽतरौद्रध्यानाभावादुपशान्तिप: निर्वृतिभूतश्च भवति॥११॥ किञ्चान्यत्- इन्द्रियाणा प्रभवतीति प्रमुर्वश्यन्द्रिय इत्यर्थः, यदि वा संयभाऽऽवारकाणि कमाण्यभिभूय नोक्षमारी पालयितव्ये प्रभुः-समर्थः, स एवंभूतः प्रभुः दूषयन्तीति दोषा मिथ्यावाविरतिप्रमादकषाययोगास्तान 'निराकृय' अपनीय केनापि प्राणिना सार्धं 'न विरुध्येत' न केनचित्सह विरोधं कुर्यात्, विविधनापि योगमति मनसा वाचा कायेन चैवान्तशोयावज्जीवं, परामकारक्रिया न विरोध कुर्यादिति / / 12 / उत्तरगुणानधिकृत्याऽऽह - संवुडे से महापन्ने, धीरे दत्तेसणं चरे। एसणासमिए णिचं, वजयंते अणेसणं / / 13 / / भूयाइं च समारंभ, तमुद्दिस्सा य जं कडं / तारिसं तु ण गिण्हेजा, अन्नपाणं सुसंजए।।१४।। पूईकम्मन सेविडा, एस धम्मे दुसीमओ। जं किंचि अभिकंखेज्जा, सव्वसो तं न कप्पए / / 15 / / हणतं णाणुजाणेजा, आयगुत्ते जिइंदिए। ठाणाइं संति सड्ढीणं, गामेसु नगरेसु वा ||16|| आश्रवद्वाराणां रोधेनेन्दियनिरोधेन च संवृतः रा भिक्षुर्महती प्रज्ञा यस्यासौ महाप्रज्ञाविपुलबुद्धिरित्यर्थः, तदनेन जीवा जीवाऽऽदिपदार्थाभिज्ञताऽऽवेदिता भवति, धीरः' अक्षोभ्यः, क्षुत्पिपासाऽदिपरीषहर्न क्षोभ्यते, तदेव दर्शयति-आहारोपधिशय्याऽऽदिके स्वस्वामिना तत्सदिष्टेन वा दत्ते सत्येषणा चरति एषणीयं गृह्णातीत्यर्थः, एषणाया एषणायां वा गवेशणग्रहणग्रासरूपायां त्रिविधायामपि सम्यगितः समितः, स साधुनित्यमेषणासमितः सन्ननेषणा वर्जयन्, परित्यजन्संयममनुपालयेत्, उपलक्षणार्थत्वादस्य शेषाभिरपीर्यासमित्यादिभिः समिता द्रष्टव्य इति / / 13 / / अनेषणीयपरिहारमधिकृत्याऽऽहअभूवन, भवन्ति, भविष्यन्ति व प्राणिनस्ततान भूतानि प्राणिनः 'समारभ्य' संरम्भसमारम्भाऽऽरम्भरुपतापयित्वा तं साधु म् उद्दिश्य' साध्यर्थं यत्कृतं तदुपकल्पितमाहारोपकरणाऽऽदिक 'तादृशम् आधाकर्मदोषदुष्ट 'सुसंयतः' सुतपस्वी तदन्नं | पानक वा न भुजीत, तुशब्दस्यैवकारार्थत्वान्नैवाभ्यवहरेद, एवं तेन मागोऽनुपालितो भवति / / 14 / / किञ्च-आधाकर्माऽऽद्यविशुद्धकोट्यवयवेनापि संपृक्तं पूतिकर्म, तदेवम्भूतमाहाराऽऽदिक 'न सेटेत' नोपभुजीत, एषः अनन्तरोक्तो धर्मः कल्पः स्वभावः 'वुसीमओ त्ति सम्यकसंयमवतोऽयभेवानुष्ठानकल्पो यदुताशुद्धमाहाराऽऽदिकं परिहरतीति, किस- यदप्यशुद्धत्वेनाभिकाशत् शुद्धमप्यशुद्धत्वेनाभिशङ्केत किशिदप्याहाराऽऽदिक तत्, 'सर्वशः' सर्वप्रकारमप्याहारोपकरणपूतिकर्मभोक्तुं न कल्पत इति / / 15 / / किञ्चान्यत्- धर्मश्रद्धावता ग्रामेषु नगरेषु वा खवटाऽऽदिषु वा 'स्थानानि' आश्रयाः 'सन्ति' विद्यन्ते, तत्र तत्स्थानाश्रितः कश्चिद्धर्मोपदेशेन किलधर्मश्रद्धालुतया प्राण्युपमर्दकारिणी धर्मबुझ्या कूपतडागखननप्रपासत्राऽऽदिका क्रियां कुर्यात् तेन च तथाभूतक्रियायाः का किमत्र धर्मोऽस्ति नास्तीत्येव पृष्टो पृष्टो वा तदुपरोधाद्यावा तं प्राणिनो धन्त नानुजानीयात्, किंभूतः . सन? 'आत्मना' मनावाचायरूपेण गुप्त आत्मगुप्तः तथा 'जितेन्द्रियों वश्येन्द्रियः सावधानुष्ठान नानुमन्येत / 13 // सावधानुष्ठानानुमतिं परिहर्तुकाम आहतहा गिरं समारभ, अत्थि पुण्णं ति णो वए। अहवा णत्थि पुण्णं ति, एवमेयं महब्भयं / / 17 / / दाणऽट्ठया य जे पाणा, हम्मंती तसथावरा। तेसिं सारक्खणट्ठाए, तम्हा अस्थि त्ति णो वए।।१८। जेसिं तं उवकप्पंति, अन्नपाणं तहाविहं। तेसिं लामंतराय ति, तम्हा णत्थि त्ति णो बए।।१६।। जे य दाणं पसंसंति, वहमिच्छंति पाणिणं। जे य णं पडिसेहंति, वित्तिच्छेयं करंति ते // 20 // केनचिद्राजाऽऽदिना कूपखननसत्रदानाऽऽदिप्रवृत्तेन पृष्टः स धुः-किमस्मदनुष्ठाने अस्ति पुण्यमाहास्विन्नास्तीति ? एवंभूता गिरं 'समारभ्य' निशम्याऽऽश्रित्य अस्ति पुण्यं नास्ति वेत्येवमुभयथाऽपि म्हाभयमिति मत्वा दोषहेतुत्वेन नानुमन्येत / / 17 / / किमर्थं नानुमन्येत? इत्याहअन्नपानदानार्थमाहारमुदकं च पचनपाचनाऽऽदिकया कियटा कूपरखननादिकया चोपकल्पयेत्, तत्र यस्माद् 'हन्यन्ते' व्यापा यन्ते बसाः स्थावराश्च जन्तवः तस्मात्तेषां 'रक्षणार्थ' रक्षानिमित्त स धुरात्मगुप्तो जितन्द्रियोऽव भवदीयानुष्ठाने पुण्यमित्येवं नो वदेदिति।।१८॥ यद्येवं नास्ति पुण्यमिति ब्रूयात, तदेतदपि ब्रूयादित्याह-'येषा जन्तूनां कृते 'तद' अन्नपानाऽऽदिक किल धर्मबुद्ध्या 'उपकल्पयन्ति' तथाविध प्राण्युपमर्ददोषदुष्ट निष्पादयन्ति, तनिषेधे च यस्मात् 'तेषाम्' आहारपानार्थिनां ततः 'लाभान्तरायो' विधो भवेत्, तदभावेन तुते पीडयेरन, तस्मात्कूपखन्नसत्राऽऽदिके कर्मणि नास्ति पुण्यमित्येतदपि नो वदेदिति।।१६ / एनमेवार्थ पुनरपि समासतः स्पष्टतरं विभणिषुराह-ये केचन प्रपासत्राऽऽदिक दान बहूना जन्तूनामुपकारीति कृत्वा प्रशंसन्ति' श्लाघन्ते 'ते' परमार्थानभिज्ञाः प्रभूततरप्राणिनां तत्प्रशंसाद्वारेण 'वधं प्राणातिपातमिच्छन्ति, तदानस्य प्राणातिपातमन्तरेणानुपपत्तेः, येऽपि च किल सूक्ष्मधियेवयमित्येवमन्यमाना
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________________ मग्ग 45 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मग्ग आगमसद्धानभिज्ञाः 'प्रतिषेधन्ति' निषेधयन्ति तेऽप्यगीतार्थाः प्राणिना 'वृनिच्छेद' वर्तनोपयविघ्नं कुर्वन्तीति / / 20 / / तदेवं राज्ञा अन्येन वेश्वरेण कूपतडागयागसत्रदानाऽऽद्यदातेन पुण्यसद्भावं पृष्टमुमुक्षुभिर्यद्विधेयं तद्दर्शयितुमाह .. दुहओ वि ते ण भासंति, अत्थि वा नत्थि वा पुणो। आयं रयस्स हेचा गं, निव्वाणं पाउणंति ते // 21 // निव्वाणं परमं बुद्धा, णक्खत्ताण व चंदिमा। तम्हा सदा जए दंते, निव्वाणं संधए मुणी।।२२।। वुज्झमाणाण पाणाणं, किच्चंताण सकम्मुणा। आधाति साहु तं दीवं, पतिठूसा पवुचई / / 23 / / आयगुत्ते सया दंते, छिन्नसोए अणासदे। जे धम्मं सुद्धमक्खाति, पडिपुन्नमणेलिसं // 24 // यद्यस्ति पुण्यमित्रवमूचुस्ततोऽनन्तानां सत्त्वानां सूक्ष्मबादराणा सर्वदा / प्राणत्याग एव स्यात. प्रीणनमात्र तुपुनः स्वल्पाना स्वल्पकालीयमतोऽस्तीति न दक्तव्यं नास्ति पुण्यमित्येवं प्रतिषेधोऽपि तदर्थनामन्तरायः स्यादित्यता 'द्विधाऽपि' अस्ति नास्ति वा पुण्यमित्येव 'ते' मुमुक्षवः साधवः पुनर्न भाषन्ते, किं तु पृष्टः सद्भिर्मानं समाश्रयणीय, निर्बन्धे त्वरमाक निचत्वारिंशद्दोषवर्जित आहारः कल्पते. एवविधविषये मुमुक्षूणामधिकार एव नास्तीति। उक्तं च - "सत्यं वप्रेषु शीतं शशिकरधवलं वारि पीत्व प्रकाम, व्युच्छिन्नाशेषतृष्णाः प्रमुदितमनसः प्राणिसार्शा भवन्ति। शाषं नीत जलौघे दिनकरकिरणैर्यान्त्यनन्ता विनाशं, तेनोदासीनभावं व्रजति मुनिगणः कूपवप्राऽऽदिकाये / / 1 / / " तदेवमुभयथाऽपि भाषितेरजसः 'कर्मण 'आयो लाभो भवतीत्यतस्तमाय रजसो मानेनान्वद्यभाषणेन वा 'हित्वा' त्यक्त्वा 'ते' अनवद्यभाषिणो 'निर्वाण' माक्षं प्राप्नुवन्तीति // 21 // अपि च-नेतिनिर्वाणं तत्परमं प्रधानं येषां परलोकार्थिना बुद्धाना ते तथा तानेव बुद्धान निर्वाणवादित्वेन प्रधानानित्येतद् दृष्टान्तेन दर्शयतियथा 'नक्षवाणाम' अश्विन्यादीना सौम्यत्वप्रमाणप्रकाशकत्वैरधिकश्चान्द्रमाः एवं परलोकार्थिनां बुद्धानां मध्ये ये स्वर्गचक्रवर्तिसंपन्निदानपरित्यागेनाशेषकर्मक्षयरूप निर्वाणमेवाभिसंधाय प्रवृत्तास्त एव प्रधाना नापर इति. यदि वा-यथा नक्षत्राणां चन्द्रमाः प्रधानभावमनुभवति एवं लोकस्य निर्वाण परमं प्रधानमित्येवं 'बुद्धा अवगततत्त्वाः प्रतिपादयन्तीति, टरमाच निर्वाण प्रधानं तस्मात्कारणोत् 'सदा' सर्वकालं 'यतः' प्रयतः प्रयत्नवान् इन्द्रियनोइन्द्रियदमनेन दान्तो 'मुनिः' साधुः 'निर्वाणमभिसंधयेत्'निर्वाणार्थ सर्वाः क्रियाः कुर्यादित्यर्थः / / 22 / / किश्चान्यत्संसारसागरस्रोतोभिर्मिथ्यात्वकषायप्रमादाऽदि कैः, 'उह्यमानाना' तदभिमुखं नीयमानानां तथा स्वकर्मोदयेन निकृत्यभानानामशरणानामसुमता परहितैकरतोऽकारणवत्सलस्तीर्थकृदन्यो वा गणधराऽऽचार्याऽऽदिकरस्तेषामाश्वासभूतं 'साधु शोभनं द्वीपमाख्याति, यथा समुद्रान्तः पतितस्य जन्तोर्जलकल्लोलाऽऽकुलितस्य मुर्मूषोरेतिश्रान्तरस्थ विश्रामहेतु द्वीपं कश्चित्साधुर्वत्सलतया समाख्याति, एवं तं तथा भूतं द्वीप' सम्यग्दर्शनाऽऽदिकं संसारभमणविश्रामहेतुं परतीर्थिकैरनाख्यातपूर्वमाख्याति, एवं च कृत्वा प्रतिष्ठानं प्रतिष्ठासंसारभ्रमणविरतिलक्षणेषा सम्यगदर्शनाऽऽद्यवाप्तिसाध्या मोक्षप्राप्तिः प्रकण तत्त्वज्ञैरुच्यते प्रोत्यत इति / / 23 / / किंभूतोऽसावाश्वासद्वीपो भवति ? कीदृग्विधेन वाऽसावाख्यायत इत्येतदाह-(आयगुत्ते इत्यादि) मनोवाक्कायेरात्मा गुप्तो ससस आत्मगुपतरतथा सदा सर्वकालमिन्द्रियनोइन्द्रियदमनेन दान्ता दोन्द्रियो धर्मध्यानध्यायी वेत्यर्थः / तथा छिन्नानि त्रोटितानि संसारसातासियन साथाएतदेव स्पष्टतरमाह-निर्गत आश्रवः प्राणातिपातापादक कर्मप्रवेशद्वारस्पो यरमात्स निराश्रवो य एवंभूतः स शुद्धसमस्तदाषाऽपेतं धर्मगाख्याति। किंभूतं धर्म ? प्रतिपूर्ण निरवयवतया सर्वविरत्याख्यं गोक्षगगनकहेतुमनीदृशमनन्यसदृशमद्वितीयमिति यावत्।।२४।। एवंभूतधर्मव्यतिरकिणां दोषाभिधित्सयाऽऽहतमेव अविजाणंता, अबुद्धा बुद्धा माणिणो। बुद्धा मो ति य मन्नता, अंत एते समाहिए / / 2 / / ते य बीओदगं चेव, तमुधिस्सा यजं कडं। भोचा झाणं झियायंति, अखेयन्नाऽसमाहिया / / 26 / / (तमेवेत्यादि) तमेवभूतं शुद्ध परिपूर्णमनीदृशं धर्ममजानाना अप्रबुद्धा अविवेकिनः पण्डितमानिनो वयमेव प्रतिबुद्धा धर्म तत्त्वमित्येव मन्यमाना / भावसमाधेः सम्यगदर्शनाख्यादन्ते पर्यन्तेऽतिदूरे वर्तन्त इति, ते च सर्वेऽपि परतीर्थिका द्रष्टव्या इति // 25 // किमिति ते तीर्थकाभावमार्गरूपात्समाधेर्दूर वर्तन्त इत्याशङ्ख्याऽऽह (ते य बीओदगमित्यादि) ते च शाक्याऽऽदयो जीवाजीवानभिज्ञतया बीजानि शालिगोधूमाऽऽदीनि, तथा शीतोदकमप्राशु (सु) कोदकं, ताश्चोद्दिश्य तद्तैर्यदाहारादिक कृतं निष्पादितं तत्सर्वमविवेकितया ते शाक्याऽऽदयो भुक्त्याऽभ्यवहृत्य पुनः सातद्धिरसगौरवाऽऽसक्तमनसः सङ्ग भक्ताऽदिक्रियया तदवाप्तिकृते आध्यानं ध्यायन्ति / नाँहिकसुखैषिणां दासीदासधनधान्याऽऽदिपरिग्रहयता धर्मध्यानं भवतीति। तथा चोक्तम् - ''ग्रामक्षत्रगृहाऽऽदीना, गवां प्रेष्यजनस्य च। यस्मिन्परिगहो दृष्टो, ध्यानं तत्र कुतः शुभम् ? / / 1 / / " इति। तथा* 'मोहस्याऽयतनं धृतेरपचयः शान्तेः प्रतीपो विधिव्यक्षिपस्य सुहृन्मदस्य भवनं पापस्य वासो निजः। दुःखस्य प्रभवः सुखस्य निधनं ध्यानस्य कष्टो रिपुः, प्राज्ञस्यापि परिग्रहो ग्रह इव क्लेशाय नाशाय च // 1 // " तदेवं पचनपाचनाऽदिक्रियाप्रवृत्तानां तदेवं चानुप्रेक्षमाणानां कुतः शुभध्यानस्य संभव इति। अपिच-तेतीर्थिकाधर्माधर्मविवेकेकर्तव्ये अखेदज्ञा अनिपुणाः। तथाहि-शाक्या मनोज्ञाऽऽहारवसतिशय्याऽदिकंरागकारणमपि शुभध्याननिमित्तत्वेनाध्यवस्यन्ति। तथा चोक्तम्- 'मणुण्ण भोयणं भुचा।' इत्यादि / तथा मांसं कक्लिकमित्युपदिश्य संज्ञान्तरसमाश्रयणान्निदोष मन्यन्ते, बुद्धसंवाऽऽदिनिमित्तं चारम्भनिर्दोषमिति कि। तदुक्तम् 'मंसनिवात्त काउं, सेवइ दतिक्ग ति धणि भेया। इय चइऊणाऽऽरंभ, परवयएसा कुणइ बालो।।१॥ नचैतावता तान्नर्दोषता। नहि लूताऽऽदिकशीतलिकाऽऽद्यभि
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________________ मग्ग 46- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मग्ग धानान्तरमात्रेणान्यथात्वं भजते, विष वा मधुरकाभिधानेनेति / एवमन्येषामपि कापिलाऽदीनामाविर्भावतिरोभावाभिधानाभ्यां विनाशोत्पादावभिधदतामनैपुण्यमाविष्करणीयम्, तदेव ते वराकाः शाक्याऽऽदयो मनोज्ञोशिष्टभोजिनः सपरि ग्रहतयाऽऽर्तध्यायिनोऽसमाहिता मोक्षमार्गाऽऽख्यात भावसमाधेरसंवृततया दूरेण वर्तन्त इत्यर्थः / / 26 / / यथा चैते रससातागोरवतयाऽऽर्तध्यायिनो भवन्ति तथा दृष्टान्तद्वारेण दर्शयितुमाह - जहा ढंका य कंका य, कुलला मग्गुका सिही। मच्छेसणं झियायंति, झाणं ते कलुसाधमं // 27|| एवं तु समणा एगे, मिच्छद्दिट्ठी अणारिया। विसएसणं झियायंति, कंका वा कलुसाहमा / / 28|| यथेत्युदाहरणोपन्यासार्थः 'यथा' येन प्रकारेण ढङ्कादयः पक्षिविशेषा जलाऽशयाऽऽश्रया आमिषजीविनो मत्स्यप्राप्ति ध्यायन्ति, एवंभूत च ध्यानमार्तरौद्रध्यानरूपतयाऽत्यन्तकलुषमधमं च भवतीति // 27 // दार्शन्तिकं दर्शयितुमाह-एवमिति यथा ढाऽऽदयो मत्स्यान्वेषणपरं ध्यानध्यायन्ति तद्ध्यायिनश्चकलुषाधमा भवन्ति एवमेव मिथ्यादृष्टयः श्रमणाः 'एके' शाक्याऽऽदयोऽनार्यकर्मकारित्वात्सारम्भपरिग्रहतया अनार्याः सन्तो विषयाणांशब्दाऽऽदीनां प्राप्तिं ध्यायन्ति तद्व्यायिनश्च कड़का इव कलुषाधमा भवन्तीति // 28 // किञ्चसुद्धं मग्गं विराहिता, इहमेगे उदुम्मती। उम्मग्गगता दुक्खं, घायमेसंति तं तहा।।२६।। जहा आसाविणिं नावं, जाइअंधो दुरूहिया। इच्छई पारमागंतुं, अंतरा य विसीयति / / 30 / / एवं तु समणा एगे, मिच्छट्ठिी अणारिया। सोयं कसिणमावन्ना, आगंतारो महब्भयं // 31 // इमं च धम्ममादाय, कासवेण पवेदितं। तरे सोयं महाघोरं, अतत्ताए परिव्वए॥३२॥ 'शुद्धम् अवदात निर्दोष मार्ग' सम्यग्दर्शनाऽऽदिकमोक्षमार्ग कुमार्गप्ररूपणया 'विराध्य' दूषयित्वा 'इह' अस्मिन्ससारे मोक्षमार्गप्ररूपणाप्रस्तावे वा 'एके शाक्याऽऽदयः स्वदर्शनानुरागेण महामोहाऽऽकुलितान्तराऽऽत्मा नो दुष्टा पापोपादानतया मतिर्येषां ते दुष्टमतयः सन्त उन्मार्गणसंसारावतरणरूपेण गताः-प्रवृत्ता उन्मार्गगता दुःख वतीति दुःखम् - अष्टप्रकार कर्माऽसातोदयरूपं वातदुःखंघातं चान्तशरतेतथासन्मार्गविराधनया उन्मार्गगमन च 'एषन्ते' अन्वेषयन्ति, दुःखमरणे शतशः प्रार्थयन्तीत्यर्थः // 26 // शाक्याऽऽदीनां चापायं दिदर्शयिषुस्तावद् दृष्टान्तमाह-प्रथा जात्यन्धः 'आस्राविणीं शतच्छिद्रां नावमारुह्य पारमागन्तुमिच्छति, न चासौ सच्छिद्रतया पारगामी भवति, किं तर्हि ? अन्तराल एव-जलमध्य एव विषीदति-निमज्जतीर्थः॥३०॥ दार्शन्ति- 1 कमाह-एवमेव श्रमणा 'एके' शाक्याऽऽदयो मिध्यादृष्टयोऽनार्याः भावस्रोतः-कर्माऽऽश्रवरूपं कृत्स्न' संपूर्णमापन्नाः सन्तस्ते महाभयं' पनि पुन्येन संसारपर्यटनया नारकाऽऽदिस्वभावं दुःखम् आगन्तार:' आगमनशीला भवन्ति, न तेषा संसारोदधेरास्त्राविणी नावं व्यवस्थितानामिवोत्तरणं भवतीति भावः // 31 // यतः शाक्याऽऽदय: श्रमणाः मिथ्यादृष्टयोऽनायीः कृत्स्नं सोतः समापन्नाः महाभयमागन्तारो भवन्ति त्त इदमुपदिश्यते इममिति प्रत्यक्षाऽऽसन्नवाचित्यादिदम्नन्तरं वक्ष्यमाणलक्षणं सर्वलोकप्रकट च दुर्गतिनिषेधेन शोभनगतिधारणत् 'धर्म' श्रुतचारित्राऽऽख्यं, चशब्दः पुनः शब्दार्थे, सच पूर्वस्माद्व्यतिरेक दर्शयति, यस्माच्छौद्धोदनिप्रणीतधर्मस्याऽऽदातारो महाभवं गन्तारो भवन्ति, इम पुनर्धर्मम् आदाय' गृहीत्या 'काश्यपेन' श्रीवर्धमानन्वामिना प्रवेदित' प्रणीतं 'तरेत्' लमयेद्धावस्रोतः संसारपर्यटनस्वभाट, तदेव विशिनष्टि'महाधोर' दुरुत्तररवान्महाभयानकं, तथाहि-तदन्तर्वर्तिी जन्तवो गर्भादर्भ जन्मतो जन्म मरणान्मरणं दुःखाद् दुःखमित्येवमरघघटीन्यायेनानुभवन्तोऽनन्तमपि कालमासते / तदेवं काश्यपप्रणीतधर्माऽऽदानेन सता आत्मनस्त्राणनरकाऽऽदिरक्षा तस्मै आत्मत्रापाय परिःसमनतात् (व्रजेत्) पविजेत्संयमानुष्ठायी भवेदित्यर्थः, क्वचित्पश्चार्धस्थान्यथा पाठ- 'कुज्जा भिक्खू गिलाणस्स, अगिलाए समाहिए।' 'भिक्षुः साधुः ग्लानस्य वैयावृत्त्यम् अग्लानः' अपरिश्रान्तः बुर्यात्सम्यवसमाधिना ग्लानस्य वा समाधिमुत्पादयन्निति // 32 // कथं संयमानुष्ठाने परिव्रजेदित्याहविरए गामधम्मेहिं, जे केई जगई जगा। तेसिं अनुवमायाए, थामं कुव्वं परिव्वए।३३।। अइमाणं च मायं च, तं परिन्नाय पंडिए। सव्वमेयं णिराकिच्चा, णिव्वाणं संधए मुणी॥३४॥ संधए साहुधम्मं च, पावधम्मं णिराकरे। उवहाणवीरिए भिक्खू, कोहं माणं ण पत्थए // 35 // जे य बुद्धा अतिकता, जे य बुद्धा अणागया। संति तेसिं पइट्ठाणं, भूयाणं जगती जहा // 36) ग्रामधर्माः-शब्दाऽदयो विषयास्तेभ्यो विरता मनोज्ञेतरेष्वरक्तद्विष्टाः सन्त्येके केचन 'जगति' पृथिव्यां संसारो दरे ‘जगा' इति जन्तवो जीवितार्थिनस्तेषां दुःखद्विषामात्मोपमया दुःखमनुत्पादयन् तद्रक्षणे सामर्थ्य कुर्यात्, तत् कुर्वश्च सयमानुष्ठाने परिव्रजेदिति // 33 // संयमविघ्नकारिणामपनयनार्थमाह-अतीव मानोऽतिमानश्चारित्रमतिक्रम्य यो वतते चकारादेतद्देश्यः क्रोधोऽपि परिगृह्यते, एवमतिमायां, घशब्दादतिलोभं च, तमेवंभूतं कषायव्रातं संयमपरिपन्थिनं पण्डितो' विवेकी परिज्ञाय सर्वमेनं संसारकारणभूतं कषायसमूह निराकृत्य निर्वाणमनुसन्धयेत्, सति च कषायकदम्बके न सम्यक संयमः सफलता प्रतिपद्यते / तदुक्तम्- “सामण्णमणुचरंतस्स कसाया जस्स उकडा होति। मण्णामि उच्छुपुप्फ, व निप्फलं तस्स सामण्णं !!1 // '
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________________ मग्ग 47 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मग्ग तन्निप्फल्त्वं च न मोक्षसंभवः, तथा चोक्तम् नयत्यानयति च, ततोऽसावनेनैव च क्रमेण प्रत्यहं प्रवर्द्धमानमपि वत्सभु'संसारादपलायनप्रतिभुवो रागाऽऽदयो मे स्थिता क्षिपन्न-यासदशाद द्विहायनं त्रिहायणमप्युत्क्षिपति, एवं साधुरप्यभ्यास्तृष्हाव धनबध्यमानमखिलं किं त्सि नेदं जगत ? सात शनैः शनैः परीषहोपसर्गजय विधत्त इति // 37 / / साम्प्रतमध्ययमृत्यो ! मुश जराकरेण परुष केशेषु मा मा ग्रही नार्थमुपसंजिहीर्षुरुक्तशेषमधिकृत्याह- स साधुः एवं संवृताऽऽश्रवद्वाररेहित्यादरमन्तरेण भवतः किं नागऽऽभिष्याम्यहम ? ||1||" तया संवररांवृतो महती प्रज्ञा यस्यासौ महाप्रज्ञः-सम्यग्दर्शनज्ञानवान्, इयादि। तदेवमेवभूतकषायपरित्यागादच्छिन्नप्रशस्तभावानुसंधनया / तथा धी:-बुद्धिस्तया राजत इति धीरः परीषहोपसर्गाक्षोभ्यो वा स निर्वाणानुसंधानमेव श्रेय इति।।३४।। किञ्च-साधूना धर्मः क्षान्त्यादिको एवंभूतः सन् परेण दत्ते सत्याहारादिके एषणां चरेत त्रिविधयाऽप्येषणया दशविधः सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राऽऽख्यो वा तम् ‘अनुसन्धयेत्' वृद्धि- युतः सन रायभमनुपालयेत, तथा निर्वृत इव निर्वृतः कषायोपशमाच्छीमापादयेत, तद्यथा- प्रतिक्षणमणूवज्ञानग्रहणेन ज्ञान तथा शङ्काऽऽदिदोष- तीभूतः काल मृत्युकालं यावदभिकाङ्केत् एतत् यत् मया प्राक् परिहारेण सम्यग्जीवाऽऽदिपदार्थाधिगभेन च सम्यग्दर्शनम् अस्खलित- | प्रतिपादित वलिनः सर्वज्ञस्य तीर्थकृतो मतम् / एतच जम्यूमूलोत्तरगुणसंपूर्णपालनेन प्रत्यहमपूर्वामिग्रहग्रहणेन (च) चारित्र (च) स्वामिनमुद्दिश्य सुधर्मस्वाम्याह / तदेतद्यत्त्वया मार्गस्वरूपं प्रश्नित वृद्धिमापादयेदिति, पाठान्तरं वा-'सद्दहे साधुधमंच' पूर्वोक्तविशेषण - तन्मया न स्वमनीषिकया कथितं, किं तर्हि ? केवलिनो मतमेतदित्येवं विशिष्ट साधुधर्म मोक्षमार्गत्वेन श्रद्दधीत निःशङ्कतया गृह्णीयात्, चशब्दा- भवता ग्राहाम् // 38 // सूत्र०१ श्रु०११ अ०। (अन्ययूथिकानां मार्ग त्सम्यगनुपालयेच, तथा पापंपापोपादानकारणं धर्म प्राण्युपमर्दन प्रवृत्त प्रवेदयतीत्युक्तम् 'अण्णउत्थिय' शब्दे प्रथमभाग 472 पृष्ट) (ऋज्यादिनिराकुयीत, तथोपधान-तपस्तत्र यथाशक्त्या वीर्य यस्य स भवत्युप.. मार्गदृष्टान्तेन पुरुषचातुर्विध्यम् 'पुरिसजाय' शब्दे पञ्चमभागे 1022 पृष्ठे धानवीर्यः, तदेवभूतो भिक्षु, क्रोध मानं च न प्रार्थनत् न वर्धयति // 35 // उक्तम्)। आकाशे, भ०७ श०२ उ०। गौणानु- ज्ञायाम, नं०। अथैवंभूतं भावमार्ग किं वर्धमानस्वाम्येवोपदिष्टवान् उतान्येऽपीत्येतदा- मग्न त्रि० बुडिते, अष्ट। शङ्ख्याऽऽह-ये बुद्धातीर्थकृतोऽतीतेऽनादिके कालेऽनन्ताः समतिक्रान्ताः तत्र नामस्थापने सुगमे, द्रव्येण धनमदिरापानाऽऽदिना मनः द्रव्यात् ते सर्वेऽष्येवंभूतं भावमार्गमुफ्त्यस्तवन्तः, तथा ये चानागता भविष्यदन- धनकाञ्चनात्मनः द्रव्ये शरीराऽऽदौ मनः। अथवा-द्रव्यरूपो मनो द्विधान्तकालभाविनोऽनन्ता एव तेऽप्येवमेवोपन्यसिष्यन्ति, चशब्दाद्वर्तमान- आगमतः मग्नपदार्थज्ञाता अनुपयुक्ताः, नोआगमतो ज्ञशरीरभव्यशरीरे कालभाविनश्च संख्येया इति / न केवलमुपन्यस्तवन्तोऽनुष्ठित- पूर्ववत, तद्व्यतिरिक्तस्तु मूढः शून्यः जडः / भावमग्नो द्विविधः-अशुद्धः, वन्तश्चेत्येतदर्शयति-शमनं शान्तिः भावमार्गस्तेषामतीतानागतवर्त- शुद्धश्चेति / तत्र अशुद्धः क्रोधाऽऽदिमग्नः विभावभाविताऽऽत्मा। शुद्धः मानकालभाविना बुद्धानां प्रतिष्ठानम्- आधारो, बुद्धत्वस्यान्यथानु- द्विविधः-साधकः, सिद्धश्च / तत्र साधकः वस्तुस्वरूपाभिमुखः पपत्तेः, यदि वा-शान्तिः-मोक्षः स तेषां प्रतिष्ठानम्- आधारः, ततस्तद- आहानयचतुष्टये तु निरनुष्टानदग्धाऽऽदिदोषवर्जितविध्युपेतपेद्रव्यसाधनवाप्तिश्च भावमार्गमन्तरेण न भवतीत्यतस्ते सर्वेऽप्येनं भावमार्गमुक्त- प्रवृत्तिपरिणतवस्तुस्वरूपसाधनरुचिवतः भवति। शब्दाऽऽदिनयमग्नस्तु वन्तोऽनुष्ठितवन्तश्च (इति) गम्यते / शान्तिप्रतिष्ठानत्वे दृष्टान्तमाह- सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राऽऽद्यात्मसमाधिमग्नः संपूर्णवस्तुस्वरूपे निरा'भूतानां' स्थावरजङ्गमानां यथा 'जगती' त्रिलोकी प्रतिष्ठानम्, एवं ते वरणे मनः निष्पन्नः / अत्र हि गुणस्थानाऽऽदिविशुद्धस्वस्वरूपाऽऽनन्दसर्वऽपि बुद्धाः शान्तिप्रतिष्ठाना इति॥३६॥ मग्नत्वमीक्ष्यते-तत्र मग्नलक्षणं गदन्नाह- . प्रतिपन्नभावमार्गेण च यद्विधेयं तद्दर्शयितुमाह प्रत्याहृत्येन्द्रियव्यूह, समाधाय मनो निजम् / अह णं वयमावन्नं, फासा उच्चावया फुसे। दधचिन्मात्रविश्रान्ति-मग्न इत्यभिधीयते // 1 // ण तेसु विणिहण्णेज्जा, वारण व महागिरी॥३७।। प्रत्याहृत्येन्द्रिय इति / इन्द्रियाणा स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुः- श्रोत्र - संवुडे से महापन्ने, धीरे दत्तेसणं चरे। रूपाणां, यो व्यूहः समूहस्तं प्रत्याहृत्य प्रत्याहारं कृत्वा, विषय - निव्वुडे कालमाकंखी, एवं (यं) केवलिणो मयं / / 3 / / संसारतो निवार्य, "प्रत्याहारस्त्वीन्द्रियाणां विषयेभ्यः समाहृतिः'' अथ भावमार्ग:तिपत्त्यनन्तरं साधुं प्रतिपन्नव्रतं सन्त स्पर्शा:-परीष- | इति वचनात् / निज स्वीयं मनः, चेतनावीर्यकत्वविकल्परूपं होपसर्गरूपाः 'उच्चावचाः गुरुलघवा नानारूपा वा 'स्पृशेयुः अभिद्रवेयुः, समाधाय समाधौ स्थापयित्वा विषयनिरोधम् आत्मद्रव्यैकाग्रतारूपं स च साधुस्तेरनिङ्कत संसारस्वभावमपेक्षमाणः कर्मनिर्जरां च न कृत्या, "समाधिस्तुतदेवार्थमात्रामासनपूर्वकम्।“ आत्मस्वरूप-भासने तेरनुकूलप्रतिकूलेर्विहन्यात्, नेव संयमानुष्ठानान्मनागपि विचलेत्, कत्वरूपसमाधिः, तत्र मनः कृत्वा, चिन्मात्रे ज्ञानमात्रे आत्मनि, मुख्यतः किमिव ? महावातेनेव महागिरी:-मेरुरिति / परीषहोपसर्गजयश्चाभ्या- दर्शनज्ञानमय एव आत्मा, ''उवउत्तो नाणदसणगुणेहिं'' इति वाक्यात्। सक्रमेण विधेयः, अभ्यासवशेन हि दुष्करमपि सुकरं भवति / अत्र च ज्ञानस्वरूपे स्वद्रव्यं विश्रान्तिं दधत् मग्न इति अभिधीयते कथ्यते, इत्यनेन दृष्टान्तः, तद्यथा-कश्चिद्गोपस्तदहर्जातं तर्णकमुत्क्षिप्य गवान्तिकं अनादितः अयं जीवः पुद्गलस्कन्धजवर्णगन्धरसस्पर्शरसाऽऽदिषु
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________________ 48 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मरग नमाज्ञपु स्वजनाऽदिषु च भ्रमन् विकल्पकोटिकोटि प्राप्त इष्टान विषयानिच्छन अनिष्टान् विषयान् अनिच्छन् वातोद्भूतशुष्कपलाशवत भ्रमति / कदाचित् स्वपरविवेकरूपं भेदज्ञान प्राप्य अनन्तज्ञानदर्शनाऽऽनन्दमयं स्वीय भावं स्वत्वतया निर्धार्य इद विषयसाऽऽदिक न मम नाहम अस्य भोक्ता उपाधिरेव एषः, न हि भम कर्तृत्वं भोक्तृत्व ग्राहकरावंच. परवस्तूनां मया हि स्वरूपभ्रष्टेनेदं विहितं, साम्प्रतं जिनाऽगमाञ्जनेन जातस्वपरविवेकेन तेष रमणाऽऽरवादनं न युक्तम् इति विचार्य स्वरूपानन्तस्वभावगुणपर्यायस्याद्वादानन्ताऽऽत्मनि विश्रान्ति प्राप्तः, आत्मानन्ताऽऽनन्दसम्पन्नमयं ज्ञात्वा, परमात्मसत्तास्वरूप मनः भवति, स मनः अभिधीयत इति // 1 // य आत्मानुभवमग्नः स कीदृग भवति? तदाहयस्य ज्ञानसुधासिन्धा, परब्रह्मणि मनता। विषयान्तरसंचार-स्तस्य हालाहलोपमः।।२।। यस्येति-यसय जीवस्य अनादिविभावविरतस्य ज्ञानसुधासिन्धी परबहाणि ज्ञानामृतसमुद्ररूपे परमात्मसमाधौ मग्नस्य तस्य जीवस्य विषयान्तरे वर्णगन्धाऽऽदौ संचारः प्रवर्तनं हालाहलोपमः-महाविषभक्षणतुल्यः। यो हि अमृतस्वादमग्नः स विषमविष भोक्तु कथं प्रवर्तते ? मालतीभोगमनः मधुकरः करीराऽऽदिषु न वसति, एवं शुद्धनिःसङ्गनिरामयनिर्द्वन्द्वस्वीयाऽऽत्मज्योतिर्मग्नः अनन्तजीवेष्टषु स्वयम् अनन्तवारभुक्तमुक्लेषु, वस्तुतः अभोग्येषु स्वगुणाऽऽवरणहेतुभूतेषु विषयेषु, तस्य मानः न संचरति न प्रवति इति तत्त्वम् / / 2 / / पुनस्तदेव द्योतयति - स्वभावसुखमनस्य, जगत्तत्वावलोकिनः। कर्तृत्वं नान्यभावानां, साक्षित्वमवशिष्यते // 3 // 'स्वभावसुख इति / ' 'स्वभावं' सहजं सुखं सहजाऽऽत्यन्तिकैकान्ताऽनन्द तत्र 'मनस्य तन्मयस्य, 'जगत् लोकः तस्य तत्त्वं तद्धर्म, यथार्थतया विलोकिनः दर्शनशीलस्य पुरुषस्य, अन्यभावानां परभावाना रागाऽऽदिविभावानां ज्ञानाऽवरणाऽऽदिकर्मणां बाह्यस्कन्धादाननिक्षेपाणां कर्तुत्वं न, किं तु ज्ञायकस्वभावत्वात, साक्षित्वमेव, तर कर्तृत्वम् एकाधिपत्ये क्रियाकारित्वं, तत, जीवे जीवगुणानामेव, चेतनवीर्यो - पकरणकारकचक्रोपकरणेन / यतो हि एकाधिपत्यक्रियाशून्यत्वेन धर्माऽऽदिद्रव्येषु न कर्तृत्वं, जीवस्यापि कर्तृत्व स्वकार्यस्य। न हि जीवः कोऽपि जगत्कर्ता, किं तु स्वकीयपरिणामिकगुणपर्यायप्रवृत्तेरेव कर्ता न, परभावाना तु कर्तृत्वे असदारोपसिध्यभावाऽऽदयो दोषाः, ज्ञाता लोकालोकस्य, अत एव नायं परभावानां कर्ता, किं तु स्वभावमूढोऽ. शुद्धपरिणतिपरिणतः! अशुद्धनिश्चयेन रागाऽऽदिविभावस्य, अशुद्धव्यवहारेण ज्ञानाऽऽवरणाऽऽदिकर्मणा कर्ता जातोऽपि स एव सहजसुखरुचिरनन्ताविनाशिस्वरूपसुखमयमात्मानं ज्ञात्वा, आल्मीयपरमाऽऽनन्दभोगी, न परभावानां कर्ता भवति, किंतु ज्ञापक एव। अत्र प्रस्तावना, अयं हि आत्मा स्वनिः सपत्नसङ्गाङ्गितया स्वीय विशेषस्वभावानां | सगुणकरणेन सत्प्रवृत्तिमतामपि स्वगुणकरणाऽवरणेन ज्ञानचेतनावीर्याऽऽदिक्षयोपशमानां च परानुयायिना तत्सहकारेण कर्तृत्वाऽऽदिपरिणामाना परकर्तृत्वाऽदिविभावपरिणमनेन परकर्तृत्व जाते ऽपि तेषामेव गुणानां स्वभावसंमुखीभवने कर्तृत्वाऽऽदीनां परावृत्तिः, तेन सम्यग् - दर्शनज्ञानचारित्रपरिणतेः स्वरूपसाधनकतृत्वाऽऽदि कुर्वन गुणकरणे पूर्णः साधनकर्तृत्वं विधाय गुणप्रवृत्तिरूपं शुद्ध कर्तृत्वाऽऽदिकं करोति, अत एव साधकानां सन्मुनीनां स्वरूप संमुखानां न परभावकर्तृत्वम् इति, किंतु ज्ञायकत्वमेव अत्र पक्षः, तर्हि मुनानां परभावाकर्तृत्वे उक्त हेतुद्वयजन्यकर्मकर्तृता कुतः ? तत्राऽऽह-स्वस्वभावमग्नाना साधकमुनीनाम अनभिसंधिजवीर्यतदनुगतचेतनता कर्मबन्धकर्तृत्वमरित, तथापि स्वाऽयत्ताभिगुणप्रवृत्तीनां स्वभावानुगतत्वात अकर्तृत्वम्, अथवा - एवंभूतसिद्धत्वाऽस्वादाऽऽनन्दमग्नानां तु न परभावकर्तृता / अथवासम्यग्दर्शनाऽऽदिगुणाप्राप्तौ वस्तुस्व रूपविवरणन स्वरूपानुगतस्वशक्तित्वेन आत्मनः परभावकर्तृत्वं नास्त्येव, ज्ञायकत्वमेवेति / अतः स्वरूपरसिकानां सर्वभावज्ञापकत्वं कर्तृत्व स्वपरिणामिकभावस्य, अतः स्वाऽऽत्मानम् एकान्ते निवेश्य, अनादिभ्रान्तिज परभावकर्तृत्वभोक्तृत्व ग्राहकत्वाऽऽदिकं निवारणीयं स्वरूपाखण्डाऽऽनन्दकर्तत्वाऽऽदिकं करणीयम् / इति गाथार्थः / / 3 / / परब्रह्मणि मनस्य, श्लथा पौद्रलिकी कथा। क्वामी चामीकरोन्मादाः, स्फारा दाराऽऽदराः क्व च / / 4 / / परब्रह्मणीति-परब्रह्मणि परमाऽऽत्मनि मनस्य तन्मयस्य स्वरूपावलोकनरमणरक्तस्य, पौगलिकी पुद्गलसंबन्धिनी कथा नाम वार्ना, 'श्लथा' शिथिला इत्यर्थः / परत्वेन अग्राह्यत्वेन अभोग्यत्वेन निर्धारात यस्य कथाऽपि श्लथा तस्य ग्रहः कुतो भवति ? अत एव अमी चामीकरोन्मादाः तस्य कशुद्धाऽऽत्मगुणसंपद्वता चामीकरग्रह एवन परत्वात्; पावस्थाहेतुत्वात कुत उन्मादः ? च पुनः स्फारा देदीप्यमानाः दारा: वनिता तस्या आदराः क्व ? इति कुतः, नैवेति / स्वभावसुखभोगिनां पौगलिकभोग एव न तर्हि मोघा कुरागपटी अशुद्धविभावनटी दाराकटी तत्राऽऽदरः कथं भवति ? नैवेति / इति गाथार्थः / / 4 / / तेजोलेश्याविवृद्धिर्या, साधोः पर्यायवृद्धितः। भाषिता भगवत्पादैः, सेत्थंभूतम्य युज्यते // 5|| तेजोलेश्या, इति-तेजोलेश्या चित्तसुखलाभलक्षणा झानाऽऽनन्दाऽऽस्वादाऽऽश्लेषरूपा तस्याः विवृद्धिः विशेषतः वर्द्धना, साधोः निर्गन्धस्य, पयोयवृद्धितः चारित्रपर्यायविवृद्धितः, भववत्पादेः भाषिता उक्ता, भगवत्यादौ पञ्चमाङ्गे सा निर्मलसुखाऽऽस्वादरूपा, इत्थंभूतस्य, आत्मज्ञानमग्नस्य रत्नत्रयैकत्वलीलामयस्य वाचंयमस्य युज्यते-घटतेनान्यस्य भन्दसवेगिनः / अत्र प्रस्तावना, तत्र प्रथम संयमस्वरूपमुच्यते-आत्मनि चारित्रनामगुणः अनन्तपर्यायोपेतानन्ताविभागरूपः अस्ति / तथा च विशेषाऽऽवश्यदानादिलब्धिपञ्चकं चारित्रं सिद्धस्याषीच्छन्ति, तदावरणस्य सत्राप्यभावात, आवरणाभावेचतदसत्वेक्षीणमोहाऽऽदिष्वपितदसत्त्वप्रसङ्गात् ततस्तन्मते चारित्राऽऽदीनां सिद्धावस्थायां सद्भावः / चारित्रं च चारित्रमो
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________________ मग्ग 46 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मग्ग हावृतं तच तत्त्य श्रद्धासम्यग्ज्ञानपूर्णाऽऽनन्देहाऽऽविर्भावपश्चात्तापाऽऽदिक्षयोपशमावस्थागतं च चारित्रमोहपुद्गलेषु उदयप्राप्तेषु भुक्तेषु अनुदितेषु विष्कम्भितेषु केषाश्चित् प्रदेशभोगिता नीतेषु | चारित्रगुणविभागानाम् आविर्भावो भवति, तत्र सर्वजघन्यसंयमस्थाने सर्वाऽऽकाशप्रदेशानन्तगुणतुल्यचारित्रप-र्यायप्राग्भावः प्रथमं संयमस्थानम्। "ते कित्तिया पएसा, सव्वाऽऽगासस्स मग्गणा होइ। तेतित्तिया पएसा, अविभागाओ अनंतगुणा।।" प्रथम संयमस्थानं सर्वोत्कृष्टदेशविरतिविशुद्धस्थानतः अनन्तगुणविशुद्ध, द्वितीयं संयमस्थानं प्रथमस्थानात अनन्ततमे भागे यावन्तः अविभागाः तावन्तः अविभागवृद्धौ भवन्ति, एवं तृतीयम्, एवं चतुर्थम्, एवमनन्तभागवृध्या अङ्गुलमात्राऽऽकाश क्षेत्रस्य अङ्गु लासंख्यभागाऽऽकाशप्रदेशप्रमाणसमानि स्थानानि भवन्ति, इदं प्रथमं कण्डकम् / ततः परम् असंख्यातभागवृद्धिरूपं द्वितीयं कण्डकम् / प्रथम संयमस्थानं प्रथम कण्डकं, धरसंयमस्थाने तावन्तो विभागाः, तेषाम् असंख्याततमे भागे यावन्तः अविभागास्तावन्तोऽधिकाः क्षयोपशमा भवन्ति, तद् द्वितीये कण्डके प्रथमं संमयस्थान, ततः असंख्येयानि स्थानानि अनन्तभागवृद्धिरूपाणि असंख्यभागप्रदेशराशिप्रमाणानि द्वितीयं कण्डकम् / ततः परम् एकम् असंख्यातभागवृद्धिरूप पुनः असंख्येयानि अनन्तभागवृद्धिरूपाणि तृतीयं कण्डक, तत एकम् असंख्यातवृद्धिरूपम्, एवम् अनन्तभागान्तरिताकुलासंख्येयभागमात्रम् असंख्यभागवृद्धिरूपम् अङ्गुलासंख्येयभागकण्डकमानस्थानरूपं द्वितीय स्थानम्। ततः संख्यातभागवृद्धिरूपं प्रथमं संयमस्थानम्। ततः पुनः अनन्तभागवृद्धिरूपाणि असंख्येयानि, त्तः पुनः एकम् असंख्यभागवृद्धिरूपं, ततः असंख्येयानि अनन्तभागवृद्धिरूपाणि, एवम्, अङ्गुलमात्रक्षेत्रासंख्यभागप्रदेशमानकण्डकेषु गतेषु एकसंख्यातभागवृद्धिरूपं स्थानम्, एवमङ्गुलासंख्येयभागतुल्यानि संख्येयभागवृद्धिस्थानानि गतानि, एवं संख्यातगुणवृद्ध्यसंख्यातगुणवृझ्यनन्तगुणवृद्धिरूपाणि असंख्येयानि संयमस्थानानि भवन्ति / ततः परं स्थानमसंख्येयगुणसंयमस्थानमानं भवति एकान्तरं तानि असंख्येयानि अनन्तभागवृद्धिरूपाणि संयमस्थानानि भवन्ति। सर्वसंयमस्थानसंख्यालोकसमानाः अलोके असंख्येयाऽलोकाऽऽकाशाः कल्प्यन्ते, तावत्प्रदेशराशितुल्यानि संयमस्थानानि भवन्ति उत्तरोत्तरनिर्मलानि / आदितः अनुक्रमसंयमस्थानाऽऽरोही नियमात् शिवपदं लभते प्रथमम् एव उत्कृष्टमध्यमसंयमस्थानाऽऽरोही नियमात् पतति / एवं प्रथमस्थानतः अनक्रमेण संयमक्षयोपशमी तस्य चारित्रपर्यायनिर्मलत्वेन चारित्रसुखस्वरूप भगवतीवाक्यम्। आलापश्च भगवत्याम्- "जे इमे अज्जताए समणा निग्गंथा विहरति एएण कस्स तेऊलेस वीतीयंति ? गोयमा ! मासपरियाए समणे निग्गथे वाणमंतराणं देवाणं तेऊलेस वीतीवयंति। दुमासपरिआए समणे णिग्गथे असुरिंदवजिआणं भवणवासीण तेऊलेस वीतीवयंति। एएल अभिलावेणं तिमासपरिआए समणे णिग्गथे असुरकुमाराणं देवाणं तेऊलेस वीतीवयंति / चउमासपरिआए गहगणणक्खत्ततारारूवाण जोइसिआणं तेऊलेसंवीतीवयंति। पंचमासपरिआए चंदिमसूरियाणं जोइसियाणं तेऊलेसं वीतीवयंति। छम्मास- | परिआए सोहम्मीसाणाणं तेऊले० / सत्तमासपरिआए सणंकुमारमाहिंदाणं तेऊले० / अट्ठमासपरिआए बंभलोगाणं लतगाणं तेऊलेसं वीतीवयंति / णवमासपरिआए महासुक्कसहस्साराणं देवाणं तेऊ०। दसमासपरिआए आणय-पाणयआरणचुयाणं देवाणं तेऊ० / इकारसमासपरिआए गेविजविमाणाणं देवाणं तेऊ०। बारसमापरिआए समणे निगंथे अणुत्तरोववाइयाणं देवाणं तेऊलेसं वीतीवयंति, तेण परं सुक्के सुक्काभिजाइए भवइ / तओ पच्छा सिज्झति० जाव अन्तं करेति, सेव भंते !" अस्य टीकायां लेश्याप्रकमादिदमाह- "जे इमे' इत्यादि। ये इमे प्रत्यक्षाः ''अज्जत्ताए त्ति, "आर्यतयापापकर्मबहिर्भूततया, अद्यतया अधुनातनतया, वर्तमानकालतया इत्यर्थः / 'तेऊलेसंति' तेजोलेश्या सुखारिसका, तेजोलेश्या हि प्रशसतलेश्योपलक्षण, सा च सुखासिकाहेतुरिति कारणे कार्योपचारात् तेजोलेश्याशब्देन सुखासिका विवक्ष्यते, 'वीतीवयंति' व्यति जन्ति व्यतिक्र गरिंदवजियाणं ति' चमरबलिवर्जिताना 'तेण पर, ततः परं, ततः संवत्सरात्परतः, 'सुक्केति' शुक्लो नामाभिन्नवृत्तोऽमत्सरी, कृतज्ञः, सदारम्भी, हितानुबन्धी, निरतिचारचरण इत्यन्ते, "सुक्काभिजाति त्ति" शुक्लाभिजात्यं परमशुक्लमित्यर्थः, अत एवोक्तम् आकिञ्चन्यं, मुख्यं ब्रह्मातिपर, सदागमं विशुद्धं सर्वशुक्लमिदं खलु नियमात्, संवत्सरादूर्ध्वम् एतच्च श्रमणविशेषमेवाऽऽश्रित्योच्यते, न पुनः सर्वएवंविधोभापति, अत्र मासपर्यायेति संयमश्रेणिगतसं यमस्था ना मासाऽऽदिपर्या प्रगतसंयमभावोल्लङ्घनेन तत्प्रमाणसंयमस्थानोल्लकी मुनिग्राह्य इति / अत्र परम्परासंप्रदायःजघन्यतः उत्कृष्ट यावत् असंख्येयलोकाऽऽकाशप्रमाणेषु संयमस्थानेषु कमाकमवर्तिनिर्ग्रन्थेषु मासतः द्वादशमाससंयमप्रमाणसंयमस्थानोल्लङ्घनोपरितने वर्तमानः साधुरीदृगदेवतातुल्यं सुखम् अतिक्रम्य वत्तते इति ज्ञेयम् / उक्त च-"मासाऽऽदिपर्याय वृद्ध्या, द्वादशभिः परं तेजः। प्राप्नोति तत्र चारित्री, सर्वदेवेभ्य उत्तमम्॥१॥''धर्मविदस्तेजश्चित्सुखलाभक्षणं वृत्तौ इत्येवम् आत्मसुखवृद्धिः आत्मज्ञानभग्नस्य भवति / / 5 / / ज्ञानमग्रस्य यच्छम, तदक्तुं नैव शक्यते। नोपमेयं प्रियाऽऽश्लेष-नापि तचन्दनद्रवैः / / 6 / / ज्ञानमग्नस्येति-ज्ञानमग्नस्य आत्मसुखोपलब्धियुक्तस्य, यत् शर्म सुखं स्पर्शज्ञानानुभवाऽऽनन्दंतत्वक्तुं नैव शक्यते, अतीन्द्रियत्वात् वागगोचरत्वात्, तद् अध्यात्मसुखं प्रिया मनोज्ञेष्टवनिता तस्या-आश्लेषैः, आलिङ्गनैः, तथा चन्दनद्रवैः चन्दविलेपनैर्नोपमीयते। यतः स्रक्चन्दनाऽऽदिजं सुखं वस्तुतः न सुखम्, आत्मसुखभ्रष्टैः सुखबुद्ध्या आरोपितं, लोके पुद्गलसंयोगजम् आरोपसुखं, जात्या दुःखमेव / उक्तं च विशेषाऽऽवश्यके - "जत्तो चिअपचक्खं, सोम्म ! सुहं नस्थि दुक्खमेवेदं। तप्पडियारविभत्त, तो पुण्णफलंति दुक्खं ति॥२००५॥ विसयसुहं दुक्खं चिय, दुक्खप्पडियारउ त्तिगिच्छि व्य। त सुंदरमुवयारओ, न उवयारो विणा तचं // 2006 / / (विशे०) सायाऽसायं दुक्खं, तव्विरहम्मि य सुह जओ तेणं। देहेदिएसु दुक्खं, सुक्खं देहिंदियाभावो / / 2011 / /
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________________ मग्ग ५०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मग्गणट्ठाण (एतासां गाथानां व्याख्या 'णिव्याण शब्दे चतुर्थभागे 2125 पृष्ठे गता) अत्र भावना-अनादिमिथ्यात्वासंयमकषाययोगचापल्यविध्वस्ताऽऽउक्तंच त्मस्वभावानाम् इष्टानिष्टपरभावग्रहणाग्रहणरसिकत्वेन तत्प्राप्तयप्राप्ती "औत्सुक्यमात्रमयसादयति प्रतिष्ठा, रत्यरत्यशुद्धाध्यवसायमग्राना जीवानां कुतः स्वरूपमग्नता? अतः शङ्कापिलश्नाति लब्धपरिपालनवृत्तिरेव / ऽऽद्यतिचारवियुक्तावाप्तदर्शनो हि जीव शुद्धाऽऽशयः, त्रिभुवनमप्युपहतनातिश्रमापनयनाय यथा श्रमाय, मोहमहेन्धनज्वलितकर्मदहनक्वथ्यमानमशरणमवलोक्य गुणाऽऽवरणाद राज्य स्वहस्तधृतदण्डमिवाऽऽतऽऽपत्रम् / / 1 / / " इति / दुःखोद्विग्न निर्धारिततत्त्वश्रद्धानः आश्रवनिवृत्तिसंबरैकत्वप्रतिज्ञामारुह्य तस्मात् संसारः सर्वदुःखरवरूप एव, स्वाभाविकाऽऽनन्द एव सुखं, दृढीकरणार्थ पञ्चविंशतिभावनाभावितान्तरात्मा द्वादशानुप्रेक्षास्थियावत् इन्द्रियसुरखे सुखबुद्धिः तावत् सम्यग्दर्शनज्ञाने न मग्नः, इति रीकृताध्यवसायः, पूर्वकर्मनिर्जराभिनवाग्रहणाऽऽविर्भावभूतस्वरूपतत्त्वार्थवृत्तौ, अतः अध्यात्मसुखं पुद्गलाऽऽश्लेषजसुखेन नोपमीयते॥६|| संपदानुभवमग्राः सुखिनः, अत एवाऽऽगमश्रवणविभावविरतित्त्वावशमशैत्यपुषो यस्य, विप्रुषोऽपि महाकथा। लोकनतत्त्वैकाग्रताऽऽद्युपायै स्वरूपानुभवमग्नत्यम् एव कार्य, संसारे किं स्तुमो ज्ञानपीयूषे, तत्र सर्वाङ्गमग्रता ? ||7|| कर्मक्ले शसतततवम्वगम्य संसारोद्विग्नेन विरागमार्गानुगप्रवर्तिना शमशैत्यपुष इति- शष उपशमः रागद्वेषाभावः, तत्त्वाऽऽस्वादकत्वम् आत्मस्वरूपाऽविर्भावहेतुषु सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रेषु वर्तितव्यमित्यर्थः आत्मनि निर्धार्य इष्टानिष्टे वस्तुनि रागाऽऽदीनां शान्तिः, न हि रागाऽदयो ||8|| अष्ट०२ अष्ट०1 वरतुपरिणामाः, किन्तु विभावजा अशुद्धा भ्रान्तिपरिणतिः, न हि मग्गओ अव्य० (मार्गतस्) पश्चादित्यर्थे, 'मम्गओपच्छा' (SE4) पाइo पुदलाऽऽदीनां शुभाशुभपरिणतिः कस्यापि जीवस्य निमित्ता, किन्तु ना०२७४ गाथा।"अतो डो विसर्गस्य" ||8/1 / 37 // इति विसर्गस्य पूर्णगलनपारिणामिकत्वेन, अथवा-वर्णाऽदिकर्मविपाकाद्वा / तत्र डो इत्यादेशः / प्रा०१ पाद पृष्ठतः इत्यर्थे, भ०६ 205 उ०। आ० चू०। रागद्वेषकृता तु भ्रान्तिरेव / उक्तं च-"कणगो लोहो न भणइ, रामो दोसो मग्गओपडिवद्ध त्रि० (मार्गतःप्रतिबद्ध) स्था०३ ठा०२ उ० (अर्थस्तु कुणंतु मज्झ तुम / नियतत्तविलुताणं, एस अणाई अपरिणामो / / 1 / / " "पव्वजा' शब्दे पश्चमभागे ७३०पृष्ठे गतः) स्वरूपस्य स्वायत्तत्वात् स्वभोग्यत्वात् परवस्तुसंयोगवियोगाभ्या-! मग्गंतराय पुं० (मार्गान्तराय) मोक्षाध्यवप्रवृत्ततद्विघ्नकरणे स्था०४ मिष्टानिष्टतोपाधिः! एवं शमस्य शैत्यं शीतलत्वम् अतप्ततवं, तस्य पुषः' / ठा०४ उ०। पोषकस्य यस्य पुरुषस्य शमशैत्यपुषः विपुषः विन्दुमात्रस्यापि महाकथा | मग्गगामि (ण) पुं० (मार्गगामिन्) कल्याणप्रापकपथयायिनि, उत्त०५ महावार्ता, शमशैत्यबिन्दुरपि दुर्लभः, यस्य ज्ञानपीयूषे तत्त्वज्ञानाभृते अ०। यो० वि० द्वा०। सर्वाङ्गमगता तत्र तस्मिन् स्थाने किं स्तुमः किं वर्णयामः ? तस्य वर्णन | मग्गज्झयण न० (मार्गाध्ययन) भावमार्गप्रतिपादके सूत्रकृताङ्गस्यैकाकर्तुम् असमर्था, वयमिति। यो हि स्वरूपज्ञानानुभवः सः अतिप्रशस्यः। / दशेऽध्ययने, सूत्र०१ श्रु०११ अ० आ०चू०। उक्तं च - मग्गण न० (मार्गण) मार्म्यतेऽनेनेति मार्गणम् / अन्वयधर्मपालोचन"लब्भइ सुरसामित्त, लब्भइ पहुअत्तणं न संदेहो। तोऽन्वेषणे, ज्ञा०१ श्रु०२ अ० आभोगनं मार्गण मोषणमिति होकार्थाः। इक्लो नवरिन लभइ, जिणिंदवरदेसिओ धम्मो / / 1 / / उक्तं च-"आभोगणं ति वा मग्गणं ति वा मोसणं ति वा एगटुं" व्य०२ धम्मो पवित्तिरूवो, लभइ कइया वि निरयदुक्खभया / उ० / औ०। आ०चू० / मार्गणमन्वयधर्माऽलोचनं, यथा-स्थाणी निश्चेजो नियवत्थुसहावो, सो धम्मो दुल्लहो लोए।।२।। तव्ये इह वल्ल्युत्सर्पणाऽदयः स्थाणुधर्मा घटन्त इति। औ०। प्रश्नः / निअवत्थुधम्मसवणं, दुलह वुत्तं जिणिंदिआण सुहं। सद्भूतर्थविशेषाभिमुखमेव तदूर्ध्वमन्वयव्यतिरेकधर्मान्वेषणे, न० "तत्थ तप्फासणभेगत्त, हुति हु केसिं च धीराणं // 3 // " वियालणं ति वा मग्गणं ति वा ईहणं ति वा एगट्ठ / आ०चू०१ अ० / भ० / अतः वस्तुस्वरूपधर्मस्पर्शनेन परमशीतीभूतानां परमपूज्यत्व- "कणओ सिलीमुहोम-गणेइसू सायओ सरो विसिहो (51)" पाइ० मेव / / 7 / / न०३६ गाथा। यस्य दृष्टिः कृपावृष्टिः, गिरः शमसुधाकिरः। मग्गणट्ठाण न० (मार्गणास्थान) जीवाऽऽदीना पदार्थाना मन्वेषणं मार्गणा, तस्मै नमः शुभज्ञान-ध्यानमग्नाय योगिने / / 8 / / तस्याः स्थानान्याश्रया मार्मणास्थाना नि। गत्यादिषु, प्रव०२२४ द्वार। 'यस्येति' तस्मै शुभज्ञानध्यानमग्राय योगिने नमः, शुभं नाम शुद्धं अत्र चेय मार्गणास्थानप्रतिपादिका बृहद्वन्धस्वामित्वगाथयथार्थपरिच्छेदनं, भेदज्ञानविभक्तस्वपरत्वेन स्वस्वरूपैकत्वानुभवः, "गइ इंदिए य काए, जोए वेएकसाएँ नाणे य। तन्मयत्यं ध्यानं तत्र मनाय, तस्मै योगिने मनोवाक्कायरोधकाय, रत्न- संजम दंसण लेसा, भव समे सन्नि आहारे॥१॥" याभ्यासशुद्ध साध्यसंसाधकाय नमः। कस्य? यस्य दृष्टिः कृपावृष्टिः तत्र गतिश्चतुर्धा-नरकगतिस्तिर्यग्गतिर्मनुष्यगतिर्देवगीतीति ! इन्द्रिय परम करुणावर्षिणी, यस्य गिरः वाचा समूहः शमसुधाकिरः क्रोधाऽ5- स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुः श्रोत्रभेदात्पञ्चधा, इन्द्रियग्रहणेण च तदुपलक्षिता दिपरित्यागः शमः, स एव सुधा अमृत, तस्याः किरः किरण सेचन (यस्य) एकेन्द्रियद्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्यिपश्शेन्द्रिया गृह्यन्ते। कायः षोढा-पृथिव्यतेतच्छीला दृष्टिः कृपामयी वाक् शमताऽमृतमयी, तस्मै योगिने नम इति। / जोवायुवनस्पतित्रसकायभेदात्ायोगः पञ्चदशधा-सत्यमनोयोगः, असत्यमनो
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________________ मग्गणट्ठाण 51 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मग्गणट्ठाण योगः सत्यासत्यमनोयोगः, असत्यामृषामनोयोगः, सत्यवाग्यो गः, असत्यवाग्योगः, सत्यासत्यवाग्योगः, असत्यामृषावाग्योगः, वैक्रियकाययोगः, आहारककाययोगः, औदारिककाययोगः, वैक्रियमिश्रकाययोगः, आहारकमिश्रकाययोगः, औदारिकमिश्रकाययोगः, कार्मणकाययोग इति / वेदस्त्रिधा-स्त्रीवेदः पुरुषवेदो, नपुंसकवेदश्च / कषायाः क्रोधमानमायालोभाः ज्ञानं पञ्चधा-मतिज्ञानं, श्रुतज्ञान-मवधिज्ञान, मनः पर्यायज्ञानं, केवलज्ञानं च। ज्ञानग्रहणेन चाज्ञानमपि तत्प्रतिपक्षभूतमुपलक्ष्यते, तच त्रिविधम्- मत्यज्ञानं श्रुताज्ञानं विभङ्गज्ञानं चेति। ज्ञानमार्गणास्थानमष्टधा। संयमश्चारित्रं तत्पञ्चधा-सामायिकं छेदोपस्थापनं परिहारविशुद्धिकं सूक्ष्मसम्परायं यथाख्यातं च संयमग्रहणेन च तत्प्रतिपक्षभूतो देशसंयमोऽसंयमश्च सूच्यत इति संयमः सप्तधा। दर्शनं चतुर्विधम् चक्षुर्दर्शनमचक्षुर्दर्शनमवधिदर्शनं केवलदर्शनं च। लेश्या षोढाकृष्णलेश्या नीललेश्या कापोतलेश्या तेजालेश्या पद्मलेश्या शुक्ललेश्या। भव्यः तथाविधानादिपारिणामिकभावात् सिद्धिगमनयोग्यो, भव्यग्रहणेन च तत्प्रतिपक्षभूतोऽभव्योऽपि गृह्यते। सम्यक्त्वं त्रिधा-क्षायोपशमिकभौपशमिकं क्षायिकं च, सम्यक्त्वग्रहणेन च तत्प्रतिपक्षभूतं मिथ्यात्वं सासादनं मिश्रंच परिगृह्यते। संज्ञी विशिष्टस्मरणाऽऽदिरूपमनोविज्ञानसहितेन्द्रियपञ्चकसमन्वितः, तत्प्रतिपक्षभूतः सर्वोऽप्येकेन्द्रियाऽऽदिरसंज्ञी, सोऽपि संज्ञिग्रहणेन सूचितो द्रष्टव्यः / आहारयति ओजोलोमप्रक्षेपाऽऽहाराणामन्यतममाहारमित्याहारकः / ननुज्ञानाऽऽदिषु किमर्थमज्ञानाऽऽदिप्रतिपक्षग्रहणं कृतम् ? उच्यते-चतुर्दशस्वपि मार्गणास्थानेषु प्रत्येकं सर्वसांसारिकसत्त्वसङ्ग्रहार्थमिति। कर्म०३ कर्म०। उत्तरभेदानाह - सुरनरतिरिनिरयगई,इगवियतियचउपणिंदिछकाया। भूजलजलणानिलवण-तसा य मणवयणतणुजोगा / / 10 / / इह गतिशब्दः प्रत्येकं संबध्यते। ततःसुरगतिः, नरगतिः, तिर्थग्गतिः, / नरकगतिः। (कर्म०) इहापीन्द्रियशब्दस्य प्रत्येकं संबन्धात् एकेन्द्रियद्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियपञ्चेन्द्रिया इति / षट्कायाः-भूः पृथ्वी, जलमापः,ज्यलनं-तेजः, अनिलो वायुः(वण त्ति) वनस्पतिः, त्रसाद्वीन्द्रियाऽऽदयः, ततः प्रत्येकं कायशब्दस्य योगात् पृथिव्येव कायः शरीरं यस्य सः पृथ्वीकायः, एवमप्कायः, तेजस्कायः, वायुकायः वनस्पतिकायः, सकाय इति। चः समुचये। योगशब्दस्य प्रत्येकं सम्बन्धात् त्रयो योगाः। तथाहि-मनोयोगः, वचनयोगः तनुयोगः / कर्म०४ कर्म०। वेयनरित्थिनपुंसा, कसाय कोहमयमायलोभ त्ति। मइसुयवहिमणकेवल-विहंगमइसुअनाणसागारा||११|| वेदशबदस्य प्रत्येकं सम्बन्धात् त्रयो वेदाः, नरवेदः, स्त्रीवेदः, नपुंसक वेदः / (कर्म०) मानकषायः, मायाकषायः, लोभकषायः, इति शब्दः कषायाणामनन्तानुबन्ध्यादिबहुभेदसूचनार्थः, सूत्रे च "मायालोभत्ति" ह्रस्वत्वं प्राकृतत्वात् "मइसुयवहीत्यादि'' इहावधीत्यत्र अकारलोपात् ज्ञानशब्दस्य च प्रत्येकंसंबन्धात् एवं प्रयोगः-मतिज्ञानं, श्रुताज्ञानम्, अवधिज्ञानं, मनः पर्यवज्ञानं, केवलज्ञानं, तथा विभङ्गमत्यज्ञान, श्रुतऽज्ञानानि एतानि पञ्च ज्ञानानि त्रीण्यज्ञानानि साकाराणि वर्तन्त इति वाक्यार्थः / कर्म०४ कर्म०। (सन्नि त्ति) विशिष्टस्मरणाऽऽदिरूपमनोविज्ञानभाक् संज्ञी, इतरोऽसंज्ञी सर्वोऽप्येकेन्द्रियाऽऽदिः // 13 // आहारेयर भेया, सुरनरयविमंगमइसुओहिदुगे। सम्मत्ततिगे पम्हा-सुक्कासन्नीसु सन्निदुर्ग ||14|| ओजो लोमप्रक्षेपाऽऽहाराणामन्यतममाहारमाहारयतीत्याहारकः, इतरोऽनाहारको विग्रहगत्यादिगतः। (भेय त्ति) चतुर्दशमौलमार्गणास्थानानामिमेवाऽन्तराश्चतुराऽऽदिसंख्या भेदा भवन्तीति शेषः, सर्वेऽपि द्विषष्टिभेदाः / तथाहि-गतिश्चतुद्धो, इन्द्रियं पञ्चधा, कायः षोढा, योगस्त्रिधा, वेदस्त्रिधा, कषायश्चतुर्द्धा, ज्ञानपञ्चकमज्ञानत्रिकमिति, ज्ञानमष्टधा, संयमपञ्चकं देशसंयमासंयमसहितं सप्तधा, दर्शनं चतुर्दा, लेश्या षोढा, भव्योऽभव्यश्चेति भव्यमार्गणास्थानं द्विधा, सम्यक्त्वत्रयमिथ्यात्वमिश्रसासादनभेदात्सम्यक्त्वमार्गणास्थानं षोढा, संज्ञिमार्गणास्थानं सप्रतिपक्ष द्वेधा, आहारकमार्गणास्थानं सप्रतिपक्ष द्वेधा, सर्वेऽप्येते एकत्र मील्यन्तेतत उत्तभेदाः द्वाषष्टिरिति। अत्र गाथा-"चउ 1 पण २छ 3 तिय 4 तिय 5 चउ 6, अड७ सग८ चउछच 10 दु ११छग 12 दो 13 दुन्नि 14 / गइयाइमग्गणाणं, इय उत्तरभेय वासट्ठी॥१॥" इत्येवमुक्ता गत्यादिमार्गणास्थानानामवान्तरभेदाः / कर्म० 4 कर्म० / पं० सं० / दर्श० / प्रव० / साम्प्रतमेतेष्वेव जीवस्थानानि चिन्तयन्नाह-''सुरनरयविभंग'' इत्यादि, सुरगतौ नरकगतौ च संज्ञिद्विकं पर्याप्तापर्याप्तलक्षणं भवति / अपर्याप्तश्चेह करणापर्याप्तो गृह्यते, न लब्ध्यपर्याप्तः, तस्य देवनरकगत्योरुत्पादाभावात् / तथा विभङ्गज्ञाने, मतौ मतिज्ञाने, श्रुते श्रुतज्ञाने, (ओहिंदुगि त्ति) अवधिद्विके-अवधिज्ञानाऽवधिदर्शनलक्षणे, सम्यक्त्वत्रिके क्षायोपशमिकक्षायिकापशमिकलक्षणे, पद्मलेश्यायां, शुक्ललेश्यायां, संज्ञिनि च, संज्ञिद्विकमपर्याप्तपर्याप्तलक्षणं भवति, न शेषाणि जीवस्थानानि तेषु मिथ्यात्वाऽऽदिकारणतो मतिज्ञानाऽऽदीनामसम्भवात्। अत एव च हेतोरिहापर्याप्तकः करणापर्याप्तको गृह्यते,न लब्ध्यपर्याप्तकः, तस्य मिथ्यादृष्टित्वादशुभलेश्याकत्वाचेति / आहक्षायिकक्षायोपशमिकौपशमिकेषु कथं संज्ञी अपर्याप्तको लभ्यते? उच्यते इह यः कश्चित्पूर्वबद्धाऽऽयुष्कः क्षपक श्रेणिमारभ्यानन्तानुबन्ध्यादिसप्तकक्षयं कृत्वा क्षायिकसम्यक्त्वमुत्पाद्य गतिचतुष्ट यस्थान्यतरस्या गतावुत्पद्यते तदा सोऽपर्याप्तः क्षायिकसम्यक्त्वे प्राप्यते, क्षायोपशमिकसम्यक्त्वयुक्तश्च देवाऽऽदिभवेभ्योऽनन्तरमिहोत्पद्यमानस्तीर्थकराऽऽदिरपर्याप्तकः सुप्रतीत एव। औपशमिकसम्यक्त्वं पुनरपर्याप्तावस्थायामनुत्तरसुरस्य द्रष्टव्यम्। इहौपशमिकसम्यक्त्वमपर्याप्तस्य केचिन्नेच्छन्ति, तथा च ते प्राऽऽहुः "न तावदस्यामेवापर्याप्तावस्थायामिदं सम्यक्त्वमुपजायते, तदानीं तस्य तथाविधविशुद्धयभावात् / अर्थततदानीं मोत्पादि, यत्तु पारभविकं तद् भवतु, केन विनिवार्यत इति मन्येथाः, तदपि न युक्तियुक्तमुत्पश्यामः, यतो यो मिथ्यादृष्टिस्तत्प्रथमतया सम्यक्त्वमौपशमिकमवाप्नोति स तावत्तद्भावमापन्नः सन् कालं न करोत्येव / यदुक्तमागमे - "अणुबंधोदयमाउगबंधं कालं च
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________________ मग्गणट्ठाण 52 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मग्गणट्ठाण सासणो कुणई। उवसमसम्मदिट्ठी, चउण्हमिक्क पि नो कुणइ // 1 // " उपशमश्रेणेम॒त्वाऽनुत्तरसुरेषूत्पन्नस्यापर्याप्तकस्यैतल्लभ्यत इति चेन्नन्चेतदपि न बहु मन्यामहे, तस्य प्रथमसमय एव सम्यक्त्वपुद्गलोदयात् क्षायोपशमिकं सम्यक्त्वं भवति न त्वौपशमिकम्। उक्तं च शतकवृहचूर्णी "जो उवसमसम्मदिट्ठी उवसमसेढीए कालं करेइ सो पढमसमए चेव सम्मत्तपुंजं उदयावलियाए छोदूण सम्मत्तपुग्गले वेएइ, तेण न उवसमसम्मट्ठिी अपज्जत्तगो लब्भइ।" इत्यादि। तस्मात्पर्याप्तसंज्ञिलक्षणमेकमेव जीवस्थानकमत्र प्राप्यते इति स्थितम्।अपरे पुनराहुः-"भवत्येवापर्याप्तावस्थायामप्यौपशमिकं सम्यक्त्वं, सप्ततिचूादिषु तथाऽभिधानात्। सप्ततिचूर्णी हि गुणस्थानकेषु नामकर्मणी बन्धोदयाऽऽदिमार्गणाऽवसरे अविरतसम्यग्दृष्टरुदयस्थानचिन्तायां पञ्चविंशत्युदयः सप्तविंशत्युदयश्च देवनरकानधिकृत्योक्तः, तत्र नारकाः क्षायिकवेदकसम्यग्दृष्टयो, देवास्तु त्रिविधसम्यग्दृष्टयोऽपि / तथा च तद्ग्रन्थःपणवीसमतवीसोदया देवनेरइए पडुच नेरइगो"खयगवेयगसम्मदिट्ठी, देवो तिविहसम्मदिट्ठी वि // 1 // " पञ्चविंशत्युदयश्च शरीरपर्याप्ति निर्वर्तयतः। तथाहि-निर्माणस्थिरास्थिरगुरुलघुशुभाशुभतैजसकार्मणवर्णगन्धरसस्पर्शकचतुष्कदेवगतिदेवानुपूर्वीपञ्चेन्द्रियजातित्रसबादरपर्याप्तकं सुभगदुर्भगयोरेकतरमादेयानादेययोरेकतरं यशः कीर्त्ययशकीोरेकतरमित्येकविंशतिः, ततः शरीरपर्याप्तया पर्याप्तस्य शेषपर्याप्तिभिरपर्याप्तस्य वैक्रियद्विकोपघातप्रत्येकसमचतुरसलक्षणप्रकृतिपञ्चकक्षेपे देवाऽनुपूर्व्यपनयने च पञ्चविंशतिर्भवति। ततः शरीरपर्याप्त्या पर्याप्तस्य शेषपर्याप्तिभिः पुनरपर्याप्तस्य पराघातप्रशस्तविहायोगतिक्षेपे सप्तविंशतिर्भवति। ततोऽपर्याप्तावस्थायामपीह देवस्यौपशमिकं सम्यक्त्वमुक्तम्।तथापञ्चसंग्रहेऽपि मार्गणास्थानकेषु जीवस्थानकचिन्तायामौपशमिकसम्यक्त्वे "उवसमसमम्मि दो सन्नी' इत्यनेन ग्रन्थेन साझातिकमुक्तम्।ततः सप्ततिचूण्यभिप्रायेण पञ्चसंग्रहाभिप्रायेण चास्माभिरपि औपशमिकसम्यक्त्वे संज्ञिद्विकमुक्तं, तत्त्वं तु केवलिनो विशिष्टबहुश्रुता वा विदन्तीति॥१४॥ तमसनिअपज्जजुयं, नरे सवायर अपज्ज तेऊए। थावर इगिदि पढमा, चउ बार असनि दुदु विगले ||1|| तत्पूर्वोक्तं संज्ञिद्विकमपर्याप्ताऽसंज्ञियुतं नरे-नरेषु लभ्यतेजातावेकवचनम्। अयमर्थः-इय द्वये मनुष्याः-गर्भव्युत्कान्तिका, सम्मूर्छिमाश्च / तत्र ये गर्भव्युत्क्रान्तिकास्तेषु यथोक्तं संज्ञिद्विकं लभ्यते ये : समुद्देसुपन्नस्ससुकम्मभूमीसुतीसाएअकम्मभूमीसुछप्पन्नाए अंतरदीवेसु गटभवक्वंतियमणुस्साणं चेव उचारेसुवापासवणेसुवा खेलेसुवा सिंघाणेसु वा यंतेसुवा पित्तेसुवासुक्केसु वा सोणिएसुवा सुक्कपुग्गलपरिसाडे सुवा विगयजीवकलेवरेसुका थीपुरिससंजोगसु वा नगरनिद्धमणेसुवा सव्वेसु चेव असुइट्ठाणेसु इत्थ णं समुच्छिममणुस्सा संमुच्छंति अंगुलस्स असंखभागमित्ताए ओगाहणाए असन्नी मिच्छट्ठिी अन्नाणी सव्वाहिं पज्जत्तीहिं अपज्जत्ता अंतोमुहत्तउया चेव कालं करंति त्ति।" तान् सम्मूछिममनुष्यानाश्रित्य तृतीयमप्यसंज्ञयपर्याप्तलक्षणं जीवस्थान प्राप्यत इति / "सवायरअपज्जत्ताउए'' इति तदेवेत्यनुवर्तते, तदेव पूर्वोक्तं संज्ञिद्विकं सह बादरापर्याप्तन वर्तत इति सबादरापर्याप्त तेजोलेश्यायां लभ्यते। एतदुक्तं भवति-तेजोलेश्ययां त्रीणि जीवस्थानकानि भवन्ति, संज्ञयपर्याप्तः, संज्ञिपर्याप्तः, यादरैकेन्द्रियपर्याप्तश्च / बादरोऽपर्याप्तः कथमवाप्यत इति चेत् ? उच्यते-इह भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कसौधर्मेशानदेवाः पृथिवीजलवनस्पतिषुमध्ये उत्पद्यन्ते। यदाह दुःषमान्धकारनिमग्रजिनप्रवचनप्रदीपो भगवान् जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणः - "पुढवीआउवणस्सइ-गब्भे पज्जत्त संखजीवेसु। सग्गचुयाण वासो, सेसा पडिसेहिया ठाणा / / 1 / / " तेच तेजोलेश्यावन्तः, यदभाणि"किण्हा नीला काऊ, तेऊ लेसा य भवणवंतरिया। जोइससोहम्मीसा-ण तेउलेसा मुणेयव्वा // 1 // " यल्लेश्यश्च म्रियते तल्लेश्य एव अग्रेऽपि समुत्पद्यते। "यल्लेसे मरइ तल्लेसे उववज्जइ'' इति वचनात्। अतो बादरापर्याप्तावस्थायां कियत्कालं तेजोलेश्याऽवाप्यत इति सिद्धं जीवस्थानकत्रयं, तेजोलेश्यायामिति कायद्वारे स्थावरेषु पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिलक्षणेषुः इन्द्रियद्वारे एकेन्द्रिये च प्रथमानि चत्वारि जीवस्थानानि सूक्ष्मैकेन्द्रियापर्याप्तसूक्ष्मैकेन्द्रिय-पर्याप्तबादरैकेन्द्रियाऽपप्तिबादरैकेन्द्रियपर्याप्तलक्षणानि भवन्ति / असंज्ञिनि संज्ञिव्यतिरिक्त कोलिकनलिकन्यायेन प्रथमशब्दस्य सम्बन्धात्प्रथमानि आदिमानि द्वादश जीवस्थानानि पर्याप्तापर्याप्तसूक्ष्मबादरैकेन्द्रियद्वित्रिचतुरसंज्ञिपञ्चेन्द्रियलक्षणानि भवन्ति। सर्वेषामपि विशिष्टमनोविकलतया संज्ञिप्रतिपक्षत्वाविशेषात्, संज्ञिप्रतिपक्षस्य चाऽसंज्ञित्वेन व्यवहारात्। 'दुदु विगल त्ति विकलेषु दीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियेषु द्वे द्वे जीवनस्थानके भवतः। तत्र द्वीन्द्रियेषु दीन्द्रियोऽपर्याप्तः इति द्वे, त्रीन्द्रियेषु त्रीन्द्रियोऽपर्याप्तः पर्याप्त इति द्वे, चतुरिन्द्रियेषु चतुरिन्द्रियोऽपर्याप्तः पर्याप्त इति द्वे // 15 // दस चरम तसे अजया-हारगतिरितणुकसायअनाणे। तथा आहारके (तिरित्ति) तिर्यगतौ, तनुयोगे काययोगे कषायचतुष्टये, द्वयोरज्ञानयोर्मत्यज्ञानश्रुताज्ञानरूपयोः प्रथमत्रिलेश्यासु कृष्णनीललेश्याकापोतलेश्यालक्षणासु, भव्ये, इतरस्मिन् अभव्ये, (अचक्खु त्ति) अचक्षुर्दर्शने (नपु त्ति) नपुंसकवेदे (मिच्छ ति) मिथ्यात्वे सर्वाण्यपि चतुर्दशापि जीवस्थनकानि भवन्ति, सर्वजीवस्थान ....... ' 55 (मच्छ त्ति) मिथ्यात्वे ....... ... . innागसुवा नगरानद्धमणेसुवा सव्वेसु | सर्वाण्यपि चतुर्दशापि जीवस्थनकानि भवन्ति, सर्वजीवस्थान
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________________ मग्गणट्ठाण 53 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मग्गणट्ठाण कव्यापकत्वादयाताऽदीनामिति / / 16 / / पजसन्नी केवलदुगे, संजमणनाणदेसमणमीसे। पण चरम पज वयणे, तिय छ व पञ्जियर चक्खुम्मि / / 17 / / (पजसन्नि त्ति) पर्याप्तसंजिलक्षणमेव जीवस्थानं भवति। क्वेत्याहकेवलद्विके केवलज्ञानकेवलदर्शनलक्षणे, संयमेषु सामायिकच्छेदोपस्थापनपरिहारविशुद्धिकसूक्ष्मसम्परायय-थाख्यातरूपपञ्चप्रकारसंयमवत्सु (मणनाण ति) मनः पर्यायज्ञाने, (देस त्ति) देशयते देशविरते, श्रावके इत्यर्थः, (मणत्ति) मनोयोगे (मीस त्ति) मिश्रे सम्यमिथ्यादृष्टौ / तत्र केवलद्विके संयमेषु मनः पर्यायज्ञाने, देशविरते च संज्ञिपर्याप्तलक्षणं जीवस्थानक बिना नान्यजीवस्थानक संभवति, तत्र सर्वविरतिदेशविरत्योरभावात् / मनोयोगेऽप्येतदन्तरेणान्यजीवस्थानकं न घटते, तत्र मनःसद्भावाश्योगात्। मिश्रे पुनः पर्याप्तसंज्ञिव्यतिरेकेण शेष जीवस्थानक तथाविधपरिणामाभावादेव न सम्भवतीति / तथा पञ्च जीवस्थानानि चरम्पाण्यन्तिमानि पर्याप्तानि पर्याप्तद्वीन्द्रियपर्यापत-श्रीन्द्रियपर्याप्तचतुरिन्द्रियपर्याप्तासंज्ञिपञ्चेन्द्रियपर्याप्तसंज्ञिपञ्चेन्द्रि-यलक्षणानि (वयणे त्ति) वचनयोगे वाग्यागे भवन्ति, न शेषाणि, तेषु वाग्योगासम्भवात्। (तिय एव पजियर चक्खुम्मि त्ति) चक्षुर्दर्शने त्रीणि जीवस्थायानि पर्याप्तचतुरिन्द्रियपर्याप्तासंज्ञिपञ्चेन्द्रियपर्याप्तसंज्ञिपञ्चेन्द्रियरूपाणि, नान्यानि, तेषु चक्षुष एवाभावात्। अत्रैव मतान्तरेण विकल्पमाह-षट्वा जीवस्थानानि चक्षुर्दर्शने भवन्ति / कथमित्याह-(पज्जियर त्ति) पूर्वप्रदर्शितपर्याप्तत्रिक सेतरमपर्याप्तसहित षड्भवन्ति / इदमुक्तं भवति-अपर्याप्तपर्याप्तचतुरिन्द्रियासंज्ञिपञ्चेन्द्रियसज्ञिपञ्चेन्द्रियरूपाणि षट् जीवस्थानानि चतुर्दर्शने भवन्ति, चतुरिन्द्रियाऽऽदीनामिन्द्रियपर्याप्त्या पर्याप्तानां शेषपर्याप्त्यपेक्षया अपर्याप्तानामपि आचार्यान्तरैश्चक्षुर्दर्शनाभ्युपगमात् / यदुक्त पश्चरांग्रहमूलटीकायाम्- "करणपर्याप्तषु चतुरिन्द्रियाऽऽदिषु इन्द्रियपयतिौ सत्यां चक्षुर्दर्शनं भवति।" इति // 17 // थीनरपणिंदि चरमा, चउ अणहारे दु सन्नि छ अपज्जा। ते सुहुम अपज विणा, सासणि इत्तो गुणे वुच्छं / / 18 / / स्त्रीयेदे नरवेदे पञ्चेन्द्रिये च चरमाण्यन्तिमानि पर्याप्ताऽपर्याप्तासंज्ञिसंझिपश्चेन्द्रियलक्षणानि चत्वारि जीवस्थानानि भवन्ति / यद्यपि च सिद्धान्ते असंज्ञिपर्याप्तोऽपर्याप्ती वा सर्वथा नपुंसक एवोक्तः। तथा चोक्त श्रीभगवत्या-''तेणं भंते ! असन्निपंचेन्दियतिरिक्खजोणिया कि इत्थिवेयगा, पुरिसवेयगा, नपुंसगवेयगा ? गोयमा ! नो इत्थिवेयगा, नोपुरिसवेगगा, नपुंसगवेयग त्ति।" तथाऽपीह स्त्रीपुंसलिङ्गाऽऽकारमात्रमङ्गीकृत्य स्त्रीवेदे नरवेदे चासंज्ञी निर्दिष्ट इत्यदोषः। उकं च पञ्चसंग्रहमूलटीकायाम- ''यद्यपि चासंज्ञिपर्याप्तापर्याप्ती नपुंसकौ तथापि स्त्रीपुंसलिङ्गाऽऽकारमात्रमङ्गीकृत्य स्त्रीपुंसावुक्ताविति।" अपर्याप्तकश्चेह करणापर्याप्तको गृह्यते, न लब्ध्यपर्याप्तकः, लब्ध्यपर्याप्त कस्य सर्वस्य नपुंसकत्वात् / अनाहारके-"दुसन्नि छ अपज्ज ति।" द्विविधः संज्ञी पर्याप्तापर्याप्तलक्षणः, षट् अपर्याप्ताश्चैत्यष्ठौ जीवस्थानानि भवन्ति / अयमर्थः-अपर्याप्तसूक्ष्मबादरैकेन्द्रियद्वित्रिचतुरसंज्ञिसंज्ञिपवेन्द्रिय - लक्षणानि सप्त जीवस्थानानि, अनाहारके विग्रहगतावक द्वीत्री-वा समयान्यावदाहारासम्भवात् संभवन्ति "विग्गहगइमावन्ना यानालगा समुहया अजोगी / सिद्धाय अणाहारा, सेसा आहारगा जीवा।।१।।'' इतिवचनात्। संज्ञिपर्याप्तलक्षणं जीवस्थानकमनाहरके केवलिसमुद्धातावस्थायां तृतीयचतुर्थपञ्चमसमयेषु लभ्यते। उक्तं च-"कार्मणशरीरयोगी, तृतीयके पञ्चमे चतुर्थे च / समयत्रये च तस्मिन्, भवत्यमाहाराको नियमात्॥१॥" (ते सुहमअपज विणासासणि त्ति) सास्वादने सम्यक्त्वे तान्येव पूर्वोक्तानि षट् अपर्याप्तपर्याप्तसंज्ञिद्विकलक्षणान्यष्टौ जीवस्था.. नानि सूक्ष्मापर्याप्तं विना सप्त भवन्ति। एतदुक्तं भवति अपर्याप्तबादरेकेन्द्रियद्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियासंज्ञिपञ्चेन्द्रियसंज्ञिपञ्चेन्द्रियपर्यातापर्याप्तलक्षणानि सप्त जीवस्थानकानि सास्वादने सम्यक्त्वे भवन्तीति। यत्तु सूक्ष्मैकेन्द्रियापर्याप्तलक्षणं जीवस्थानं तत् सास्वादने सम्यक्त्वे न घटामियति / सास्वादनसम्यक्त्वस्य मनाक् शुभपरिणामरूपत्वात् / महासक्लिष्टपरिणामस्य च सूक्ष्मैकेन्द्रियमध्ये उत्पादाभिधानात। सूत्रे च सर्वत्र लिङ्गव्यत्ययः प्राकृतत्वात्, प्राकृते हि लिङ्ग व्यभिचार्यपि। यदाह पाणिनिः स्वप्राकृतलक्षणे- "लिङ्ग व्यभिचार्यपीते।" उहानि मार्गणास्थानकेषु जीवस्थानकानि / कर्म०४ कर्म०। गुणस्थानकानि 'गुणट्ठाण' शब्दे तृतीयभागे 624 पृष्ठे गतानि।) अधुना मार्गणास्थानेष्वेव योगानभिधित्सुः प्रथम विधागानेव स्वरूपत आहसचेयर मीस अस-चमोस मण वइ विउव्वियाऽहारा। उरलं मीसा कम्मण, इय जोगा कम्भमणहारे // 24|| कर्म०४ कम० / (योगव्याख्या 'जोग' शब्दे चतुर्थभाग 16.5 पृष्ठ गता) साम्प्रतमेतामेव मार्गणास्थानेषु निरूपयन्नाह (काममाहात) व्यवच्छेदफलं हि वाक्यमतोऽवश्यमवधारयितव्यम् / तचावधारणमिहैवम् - कार्मणमेवैकमनाहारके न शेषयोगा असम्भवादिति / न पुनरेव कामणमनाहारकेष्वेवेति, आहारकेष्वपि उत्पत्तिप्रथमसमये कार्मणयोगसम्भवात् / "जोएणं कम्मएणं, आहारेई अणंतर जीवो।" इति परममुनिवचनप्रामाण्यात् / नापि कार्मणमनाहारकेषु भवत्येवेत्यवधारणमाधेयम्, अयोगिकेवल्यवस्थायामनाहारकस्याऽपि कार्मणकाययोगाभावात् "गयजोगो उ अजोगी" इति वचनात् / एवमन्यत्रापि यथासम्भवमवधारणविधिरनुसरणीय इति / / 24 / / नरगइ पणिंदि तस तणु, अचक्खु नर नपु कसाय सम्मदुगे। सन्नि छलेसाहारग, भव मइसुओहिदुगे सवे // 25 // नरगतौ मनुष्यगतौ, पञ्चेन्द्रिये, से त्रसकाये, तनुयोगे, अचक्षुर्दर्शने, नरेनरवेदे पुंवेद इत्यर्थः, (नपुत्ति) नपुंसकवेदे कषायेषु क्रोधमानमायालोभेषु, सम्यक्त्वाद्विके क्षायोपशमिकक्षायिकलक्षणे, सज्ञिनि मनोविज्ञानभाजि, षट्स्वपिलेश्यासु, आहारकेभव्ये, मतौ मतिज्ञाने, श्रुते श्रुतज्ञाने,
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________________ मग्गणट्ठाण 54 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मग्गणट्ठाण अनाधिद्विके अवधिज्ञानावधिदर्शनरूपे, सर्व पञ्चदशापि योगा भवन्ति। एतेष सवेष्वपि मार्गणास्थानेषु यथासंभवं सर्वयोगप्राप्तेः / य तु क्यापि"आगा अकामगाऽऽहारगेसु'' इति पदं दृश्यते, तन्न सम्यग्वगम्यते / यत ऋजुगतौ विग्रहगती चोत्पत्तिप्रथमसमये-"जोरण कम्मरणं, आहारई अणतरं जीवो। तेण परं मीसेणं जाव सरीररस निप्पत्ती / / 1 / / " इति सकल श्रुतधरप्रवरपरममुनिवचनप्रामाण्यादाहारकस्यापि रतः कार्मणकाययोगोऽस्त्येव। अथोच्येत- गृह्यमाणं गृहीतापति निश्चयनयवशाताथनसमये अप्योदारिकपुरला गह्यमाणा गृहीताएव. ततो दितीयाऽऽदिसमयेष्विव तदानी मप्यादारिकगिनकाययाग हात / तदेतदयुक्त, सम्यग्वस्तुतत्त्यापरिज्ञानात् / यहो यद्यपि तदानीमादारिकाऽदिपुद्गला गृह्यमाणा गृहीता एव तथाऽपि न तपा महिनामाना स्वाहानियां प्रति रणरूपता, येन तन्निबन्धनो योगः परिकल्प्यते. त कर्मरूपतव, नेम्वन्नरूपस्य सत उत्तरकालं करणभावदर्शनलात् / न हि घटः स्व यादनाक्रेया मान कमरूपता करणरूपता च प्रतिपधमानो दश्यते / द्वितीयाऽऽदिसमयः पुनस्तधामपि प्रथमसमयगृहीतानामन्यपुदलायादानं प्रति करणभावान विरुध्यत निष्पन्नत्वाद, अतस्तदानीमादारिकनिकाययोग उसकल एक अत एनम"लेण परं पीस ति।" तस्मादाहारकस्याप्युत्पत्तप्रथमरामये कार्मणकाययोग इति / अतःजागा अकम्नगा: हारगेसु" इति पदं चिन्त्यमस्तीति / / 2 / / तिरि इच्छि अजय सासण, अनाण उपसम अभव्व मिच्छेसु / तेराऽऽहारदुगुणा, ते उरलदुगूण सुरनरए।।२६।। (तिरिति तिर्थरगती, स्त्रिया स्त्रीवेद, अयते विरतिहीन सास्वादनसम्यक्त्वं जन जत्ति) अज्ञानत्रिक मत्यज्ञानश्रुताऽज्ञानविभङ्ग लक्षणे, उपसर्ग ओपनकसम्यक्त्त्वे, अभव्येषु सिद्धिगमनानुचिलेष, मिथ्यात्वे मियादृष्णि जयादश यागा भवन्ति / के इत्याह-आहारकटिकन आह.रक मेश्रलक्ष न ऊना हीना आहारकतिकोनाः / अयमाऽऽशयःमनोयोगजनुष्टयदाग्योगचताएयावारिकोदारिकमित्रक्रिराबक्रिसमिःकामजानकायोगा भवन्ति नब का जमवान्तरागतो उत्पतिप्रशमसम्मः एख. औधानिकमिकमतावरणायाम, पर्याप्तावस्थायामादारिक मनोवागयोगचतुषाय 3 तथा पिपश्चामणि केपाधि द्वैश्यिलब्धियोगतः ठक्रियभित्र वैक्रिरां च काटता एव व आदारकद्रिकमाहारकाऽहारकमिश्रलक्षण तन्न सम्भतरोन निरचा, लत्र सविरत्वसम्भवात, सविरतस्य हि चतुर्दशपूर्ववेदिन आहारकादिक संभाति "आहारं च उदरविणो " इत्यादिवधनप्राणपिरो / लश्या इह स्त्रीवदा दायरूपा द्रव्या, न तुत साध्यवरमालपाणी भावरूपः तथा विश्वक्षणात / एवमण्योग... मार्गणायामपि तव्यम / प्राकच गुणस्थानकमार्गणायां स्वो बाटो भावस्वरूपो पीला लथाविवक्षणादेव, अन्यथा तेष प्रोताग्थानकसङ्घयायोगात सयोगिकवन्यादावपि द्रव्यवेदस्य ज्यवान् / द्रव्यवेदश्च बाह्यमाकारमात्रम्। ततः स्त्रीषु त्रयोदश योगा आहारकाद्वेकानमन्ति, न पुनराहारकद्विकमपि यत आहारकद्रिक चतुर्दशपर्टविद ए भाति" आहारगदुगं जायइ चउदसपुळिण'' इति वचनात् / न च स्त्रीणां चतुर्दशपूर्वाधिगमोऽस्ति, स्त्रीणामागम दृष्टिवाद ध्ययनप्रतिषेधात्। यदाह भाष्यसुधासुधांशुः"तुच्छा गारवबहुला, चलिंदिया दुव्वला धिईए य। इय अइसेसज्झयणा, भूयावादो य नी थीणं / / 1 / / '' इति / भूतवादी दृष्टिवादः, तथा अयते सास्वदने अज्ञानविकेच त्रयोदश यागा आहारकद्विकोना भवन्ति / आहारकद्विक पुनरेतेष्वज्ञानत्वादेव दुरापास्तम् / तथा-औपशमिकसम्यक्त्वे आहारकद्विकोन्नस्त्रयोदश यागाः, आहारकं त्वत्रापि न घटानियति, यत औपशम्किसम्रक्वं प्रथमसम्यक्त्वोत्पादकाले उपशमश्रेण्यारोहे वा भवति / न च प्रथमसम्यक्त्वोत्पादकाले चतुहेशपूर्वाधिनसंभवस्तदभादाच कधमाहारकद्विकभावः प्रादुर्भावपदवीमियान ? उपशमश्रण्यारुदस्त्वाहारकद्विकं नाऽऽरभत एवं, 11 हा काजम्मकस्यतु लब्ध्युपजीवनेनौल्ला भावतः प्रमादबलचात् उक्तंच-"आहारक पमत्ता, उप्पाएइ . अपमतुति / आहारकस्थितश्योपशमशेणे रभत एव, तस्वभावत्वादिति / तथा-अभव्ये मिथ्यात्वे च चतुर्दशपूर्वाभिमायादेव आहारकतिकवस्त्रियोदश योगा: / त एव पूर्वोक्तास्त्रयादश याग ओदारिकद्रिकेनौदारिकौदारिकमिश्रलक्षणेन ऊना हीना एकादश योगाः सुर सुरगती नरक नरकगतो भवन्ति / तथाहिमनोवाग्योगचतुष्टयक्रियवैक्रियामभकामणलक्षण" एकादश योगाः सुरेषु नारकेषु च घटन्ते / तत्र कार्मणमपान्तरालगताधुत्पतिपश्चमसमय एव, वैक्रियमिश्रमपर्याप्तावर याय, प्याप्त वस्थाया तु वैक्रिय मनोवाग्योगचतुष्टयं वा यत्युनरौदारिकद्विक तद्भवप्रत्ययादेव देवनारकाणां मसंभवति. आहारक द्विकं तु सुरनारकाणां भवस्वभावतया विरत्यभावेन सर्वविरतिरः पचातुर्दश-पूर्वाधिगमासम्भवादेव दूरापास्तमिति / / 26|| कम्मुरलदुगं थावरि, ते सविउव्विदुग पंच इगि पवणे। अस्सन्निचरमवइजुय, विउव्विदुगूण चउविगले // 27 // मार्गणमान्दारिकद्रिकन औदारिकौदारिकमिश्रलक्षणमिति त्रटो योगाः / पासाह- (थावरित्ति) स्थावरकाये पृथिव्यप्तेज वस्पतिकायरूपे वयुकायिकस्य पृथग भणिष्यमानत्वात् अयम त्र भावः-स्थावरचतुष्क कार्मणौदारिकद्विकरूपास्त्रयो योगा भवन्ति / लत्र कार्मणमपान्तरालगतावुत्पनिप्रथमसमये दा / औदारिकमिश्रं स्टपर्याप्तावस्याया. पर्याप्तावस्थायां पुनरौदारिकमिति। ते पूर्वोक्तास्त्रयो योगः सानिमाविक सह वैक्रियद्विकेन वैक्रियवैक्रिय मिश्रलक्षणेन वर्तन्न इनिरगितिक: सन्तः पञ्च भवन्ति ।नेत्याह . 'दति ति) सामान्ताः- एनेकपवने. वायुकाये च / तत्र कर्मणौदारिका टिकनक्षणयोगलान / पावत वैक्रियद्विकभावना त्वेवम- इह किल चतुर्विधा लामामा यान्ति तद्यथा सुक्ष्मा अपर्याप्ताः, सूक्ष्माः पर्याप्ताः, बादरा अपर्याप्तः बादराः पर्याभाश्च / नत्र बादरपर्याप्तानां केचिद्वेक्रियलब्धिसम्भदोऽस्ति तानधिकृत्य वैक्रिय चक्रियमिश्र च लभ्यते / ननु कथमुच्यते केषाशिद्वेक्रियलब्धिसम्भवोऽस्ति? यावता सर्वेऽपिबादरपर्याप्तवायवः सवैक्रिया एव, स्वक्रिया
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________________ मग्गणट्ठाण 55 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मग्गणट्ठाण द्वा चेप्शया एवाप्रवृत्तेः / उक्तं च - "केइ भणंति सव्वे वेउब्विया वाया वायंति, अवउवियाणं विट्ठा चेव न पवत्तइति। तदयुक्तं सम्यकसिद्धान्ताऽपरिज्ञानात्, अदैक्रियाहामपि तेषां स्वभावत एव चेष्टोपप ते / / यदाह भगवान् श्रीहरिभद्रसूरिरनुयोगद्वारटीकायाम् -''वाउक्काइया चाउन्विहा सुहमा पजता अपजता वायरा पज्जता अपजत्ता, तत्थ तिन्नि रसी पत्तेयं असंखेजलोगप्पमाणप्पएसरासिपमाणं मित्ता, जे पुण यादरा राजना ते पवरा संखेज्जइभागमित्ता, तत्थ ताव तिण्हं रासीण वेउवियलद्धी चव नत्थि बायरपज्जत्ताण पि असंखिज्जइभागमित्ताणं अत्थिजेसिं पिलद्धी अत्थितओ वि पलिओवमासंखेज्जभागसमयमित्ता संपयं पुच्छा समए येउव्वियवत्तिणो, तथा-जेण सव्येसु चेव उड्डलोगाइसु चला वायवो विजति तम्हा अवेउब्विया वि वाया वायंति त्ति घितव्वं सभावेण तेसिं वाइयव्वं ति।" वाताद्वायुरिति कृत्वा (तिण्हं रासीणं ति) त्रयाणां राशीनां याप्ताऽपर्याप्तसूक्ष्माऽपर्याप्तबादरवायुकायिकानाम्। तथा त एव पूर्वोक्ताः पर कार्मणौदारिकद्विकवैक्रियद्विकलक्षणयोगाश्चरमा चतुर्थः असत्यामृषारूप' वाग् वचनयोगश्चरमवागतया युक्ताः षड् योगा भवन्ति / कल्याह-असंज्ञिनि संज्ञिव्यतिरिक्त जीवे। तत्र कार्मणमपान्तरालगतातुत्पत्तिप्रथमसमये च औदारिकमिश्रमपर्याप्तावस्थायां, पर्याप्तावस्थायानादारिकम् बादरपर्याप्तवायुकायिकाना वैक्रियद्विकं, चरमभाषा शङ्गाऽऽदिद्वीन्द्रियाऽऽदीनामिति ने एव पूर्वोक्ताः षड्योगा वैक्रियद्विकेन वैक्रियचैक्रियमिश्रलक्षणेनोना हीनाश्चत्वारो भवन्ति / क्वेत्याह-विकलेषु द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियेषु। कोऽर्थः ? तत्र कार्मणौदारिकद्विकभावना प्राग्वत् / चरमभषा च असत्यामृषारूपा शङ्खाऽऽदीनां भवात, शेषास्तु भाषा न भवन्त्येव, "विगलेसु असचमोस त्ति' वचनादिति // 27 // कम्मुरलमीस विणु मण, वइ समइय छेय चक्खुमणनाणे। उरलदुगकम्म पढम-तिम-मणवइ केवलदुगम्मि // 28 // कार्मणमौदारिकमिश्र विना शेषास्त्रयोदश योगा भवन्ति, केत्याहमनोयोगे, वाग्योगे, सामायिकसंयमे, छेदोपस्थापनसंयमे, चतुर्दर्शने, मन पर्यायज्ञाने च। भावना सुकरैव।यौ तु कार्मणौदारिकमिश्रौ तौ तेषु सर्वथा न संभवत एव, तयोरपर्याप्तावस्थायां भावात्, मनोयोगवाग्योगसामायिकच्छेदोपस्थापनचक्षुर्दर्शनमनः पर्यायज्ञानानां च तस्यामवस्थायामसम्भसवात् / तथा (उरलदुग त्ति) औदारिकद्विकमौदारिकौदारिकमिश्रकार्मणकाययोगौ सयोयवस्थायामेव समुद्धातगतस्य | वेदितव्यौ "मिश्रौदारिकयोक्ता, सप्तमषष्ठद्वितीयेषु / कार्मणशरीरयोगी, चतुर्थक पञ्चमेतृतीये च / / 1 / / " इति। प्रथमान्तिममनोयागौ तुअविकलरकलविमलकेवलज्ञानकेवलदर्शनबलाबलोकितनिखिललोकालोकस्य भगवतो, मनः पर्यायज्ञानिभिरनुत्तरसुराऽऽदिभिर्वा मनसा पृष्टस्य सतो मनसैव देशनात, ते हि भगवत्प्रयुक्तानि मनोद्रव्याणि मनः पर्यायज्ञानेनावधिज्ञानेन वा पश्यन्ति, दृष्ट्वा च ते विवक्षितवस्त्वालोचनाऽऽकारान्यथाऽनुपपत्त्या लोकस्वरूपाऽऽदिक बाह्यमर्थ पृष्टमवगच्छन्ति, प्रथमान्तिमवाग्योगौ तु देशनाऽऽदिषु व्यापृतस्य तस्यैव भगवतो द्रष्टव्याविति // 28 // मणवइउरला परिहा-री सुहुमि नव ते उ मीसि सविउव्वा। देसे सविउव्विदुगा, सकम्मुरलमिस्स अहखाए।।२६।। परिहारविशुद्धिक सूक्ष्मसम्पराये च नव योगाः / के ते इत्याहमनोयोगश्चतुर्दा वागयोगश्चतुर्द्धा औदारिक चेति / यत्त्वाहारकद्विकं वैक्रियद्विक कार्मणमौदारिकमिश्रं च तन्न सम्भवत्येव / तथाहिआहारकद्विक चतुर्दशपूर्ववदिन एव भवति, "आहार चउदसपुग्विणो' इति वचनात् / परिहारविशुद्धिकसंयमप्रतिपत्तिः पुनरुत्कर्षतोऽप्यधीतकिञ्चिन्यूनदशपूर्वस्यैव तथैव सिद्धान्ते भयानुज्ञानात् तत्कथं परिहारविशुद्धिकस्याहारकद्विकसभवः ? नाऽपि तस्य वैक्रियद्विकसम्भवः, तस्यामवस्थायां तत्करणाननुज्ञानाजिनकल्पिकस्यैव तस्याप्यत्यन्तविशुद्धाप्रमादमूलसंयमघोरानुष्ठानपरायणत्वात्, वैक्रियाऽऽरम्भे च लब्ध्युपजीवनेनौत्सुक्यभावात् प्रमादसम्भवात्, अत एव सूक्ष्मसम्परायसंयमेऽप्याहारकद्विकवैक्रियद्विकलक्षणानां चतुर्णा योगानामसंभवः / सूक्ष्मसम्परायसयमोपेतस्याप्यत्यन्तविशुद्धतया निस्तरङ्ग महोदधिकल्पत्वेन वैक्रियाऽऽदिप्रारम्भासम्भवात्, कार्मणमौदारिकमिश्रं चापर्याताऽऽद्यवस्थायामेवेति संयमद्वयेऽपि तस्याभावः / ते पुनः पूर्वोक्ता नव योगाः सवैक्रियाः सह वैक्रियेण वर्तन्त इति.सवैक्रिया वैक्रियसहिताः सन्तो दश योगा मिचे सम्यग्मिथ्यादृष्टौ भवन्ति। वैक्रियं देवनारकापेक्षया, यत्तु वैक्रियमिश्रं तन्नवाप्यते, तस्यापर्याप्तावस्थाभावित्वात्, मिश्रमावस्य च"नसम्ममिच्छो कुणइ कालं।'' इति वचनप्रामाण्यादपर्याप्तावस्थायामसम्भवात्। स्यादेतद्वैक्रियलब्धिमतां मनुष्यतिरश्चां सम्यगमिथ्यादृशां सता वैक्रियाऽऽरम्भसंभवेन कथ वैक्रियमिथ नावाप्यते ? इति, उच्यते-तेषां वैक्रियाऽऽरभासम्भवात्, अन्यतो वा कुतश्चित्कारणात्पूवाऽऽचार्यरतन्नाभ्युपगम्यत इति न सम्यगवगच्छामस्तथाविधसम्प्रदायाभावात, अतोऽस्माभिरपि तन्नेष्टमिति / देशे-देशविरते त एव नव पूर्वोक्ता सवैक्रियाद्वकाः वैक्रियतन्मिश्रसहिताः सन्त एकादश योगा भवन्ति, देशविरतानामम्बडाऽऽदीनां वैक्रियलब्धिमतां वैक्रियद्विकसम्भवात् / तथा त एव नव पूर्वोक्ताः सकार्मणौदारिकमिश्राः सह कार्मणौदारिकमिश्राभ्यां वर्तन्ते इति सकार्मणौदारिकमिश्राः सन्त एकादश योगा यथाख्यातसंयमे भवन्ति / अयमर्थः-मनोयोगचतुष्टयवाग्योगचतुष्टय - कार्मणोदारिकद्विकलक्षणा एकादश योगा यथाख्याते भवन्ति / तत्र मनेवागचतुष्कौदारिकयोगाः सुज्ञाता एवं, कार्मणमौदारिकमिश्रं तु यथाख्यातसंयमश्रीकुलगृहस्य भगवतः केवलिनः सम्भवति, तस्य हि समुद्धातगतस्य तृतीयचतुर्थपञ्चमसमयेषु कार्मणं ''कार्मणशरीरयोगी, चतुर्थे पञ्चमे तृतीये च।" इति वचनात्, द्वितीयषष्ठसप्तमसमयेष्वौदारिकमिश्रम् - "मिश्रौदारिकयोक्ता सप्तमषष्ठद्वितीयेषु'' इति वचनादवाप्यत इति यथाख्यातसंयमे द्वयोरपि सम्भवात् / कर्म०४ कर्म० / अभिहिता मार्गणास्थानेषु योगाः। साम्प्रतमेतेष्वेवोपयोगस्वरूपनिरूपणपूर्वक मुपयोगानभिधित्सुराहतिअनाण नाण पण चउ, दंसणबार जिय लक्खणुवओगा।
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________________ मग्गणट्ठाण 56 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मरगणट्ठाण विणु मणनाण दुकवेल, नव सुरतिरिनिरयअजएसु // 30 // त्रीण्यज्ञानानि मत्यज्ञानश्रुताज्ञानविभङ्गरूपाणि, ज्ञानानि मलिज्ञान श्रुतज्ञानाऽवधिज्ञानम० पर्यवज्ञानकेवलज्ञानलक्षणानि पञ्च / (कर्म०) चत्वारि दर्शनानि चक्षुर्दर्शनाऽचक्षुर्दर्शनावधिदर्शनकेवलदर्शनरूपाणि, इत्येवं द्वादश उपयोगाः / (कर्म०) (जियलक्खण त्ति) प्राकृतत्वाद्विभक्तिलोपः, जीवस्याऽऽत्मनो लक्षणं लक्ष्यते ज्ञायते तदव्यवच्छेदेनेति लक्षणमसाधारणस्वरूपम्। (कर्म०) (विणु मणनाणेत्यादि) विना मनः पर्यायज्ञानं केवलद्विक च केवलज्ञानकेवलदर्शनलक्षण शेषा नवोपयोगा भवन्ति, सुरे-सुरगतौ, (तिरित्ति) तिर्यग्गती, नरके नरकगतौ, अयते विरतिहीने / एतेषु सर्वेष्वपि हि सर्वविरत्यसंभवन मनः पर्यायज्ञानकेवलद्विकासंभवादिति // 30 // तस जोय वेय सुक्का-हार नर पणिंदि सन्नि भवि सव्वे / नयणेयर पण लेसा, कसायि दस केवलदुगुणा / / 31 / / बसेषु योगेषु मनावाकायरूपेषु, देदेषुद्रव्यवेदरूपस्त्रीनपुस्कलक्षणषु. शुक्ललेश्यायाम. आहारकेषु, नरगतो, पञ्चेन्द्रियेषु, संज्ञिषु (भवि नि) भव्येषु च सर्वे द्वादशाऽप्युपयोगाः संभवन्ति, एतेषु सर्वेष्वपि सम्यक्त्वदेशविरतिसर्यविरत्यादीनां सम्भवात, (नया ति) चक्षुर्दशने. (इयर ति) अचक्षुर्दर्शने, पञ्चसु लेश्यासु कृष्णनीलकापालतजः-पद्मलश्यास, कषायेषु क्रोधमाननायतोभेषु दशोपयोगा भवन्ति के इत्याह-केवलद्विकेनोना हीना सानचतुष्टयाज्ञानत्रिकदर्शनविकरूपाः नेतु केवलद्विक चक्षुर्दर्शनाऽऽदिसझाव अनुत्पादानस्य / / 31 / / चउरिंदियसन्नि दुअ-नाणदसणइग विति थावरि अचक्खु / ति अनाणं दसणदुर्ग, अनाणतिग अभवि मिच्छदुगे / / 32.. चतुरिन्द्रिये असजिनि चत्वार उपयोगा भवन्ति। केत इत्याह-व्यज्ञान -- दल अज्ञानमयज्ञान ताज्ञानलपे, वैदर्शन चक्षुदर्शनाः चक्षु - | लक्षणे इयर्थः / तथा-ता एवं पूर्वोकाश्चत्वार उपयोगा: ( अ ) अनापश्चक्षुपिहिताः सन्तस्त्रयो भवन्ति / केष्वित्या - (डप नि) जमानात एक ने गेषु द्धीन्द्रियेषु त्रीन्द्रियेषु स्थावरेषु पृथिव्यम्बुजा. युवन लिषु किन्द्रिय स्थावरेषु मत्यज्ञान श्रुता शा.. चक्षुदररूपारवर उपयोग भवन्तौरार्थः नशेषाः, यतः सम्यवाभावानाति श्रुतताना राना, सावित्यम वाच्च मनः पर्यायज्ञान.. केवलज्ञानकेवल निभावः / समुनरवधिद्विक विभङ्ग ज्ञानं च तद्भवप्रत्ययं गुणप्रत्ययं बेति / न नानयोरन्यतरोऽपि प्रत्ययः संभवति, धादर्शनापागाभातस्तु चक्षुरिन्द्रियाभावादेव सिद्धः / तथा-त्रयाणामज्ञानानां सम्गहारम्गहानमज्ञानत्रयं मत्यज्ञानश्रुताज्ञानविभङ्गरूप, दर्शनदिकम- चादर्शनाऽचक्षुद्देशनलक्षणमित्येते पशोपयोगा भवन्ति केत्याह-अज्ञाननिक गरज्ञानश्रुताज्ञानविमारूपे / सन्यज्ञानत्रिक अवधिदर्शनं पूर्वाऽऽचार्यैः कुतश्चित्कारणान्नेष्यते, तन्न सभ्यगदभच्छामस्तथाविधसंप्रदायाभावात् / अथ च सिद्धान्ते प्रतिपाद्यते, तथा च प्रज्ञप्तिसूत्र पूर्वदर्शितमेव, तदभिप्रायादस्माभिरपि नोक्तमिति / अभवे अभव्ये, मिथ्यात्वादके मिथ्यात्वे सास्वादने च पञ्चोपयोगा अज्ञानत्रिकदर्शनद्विकरूपान शेषाः अवदातसम्यक्त्वविरत्यभावादिति।।३२। केवलदुगे नियदुर्ग, नव तिअनाण विणू खइयअहखाए। दंसणनाणतिगंदे-सि मीसि अन्नाण मीसं तं // 33 // के वलद्विके केवलज्ञानके वलदर्शनलक्षणे निजद्विकं केवलज्ञाने केवलदर्शनरूपमुपयोगद्विकं भवति, न शेषा दश। ज्ञानदर्शनव्यवच्छेदेनैव केवलयुगलस्य सद्भावात्, "नट्ठम्मि उछाउमथिए नाणे'' इति वचनात् / तथा क्षायिके सम्यक्त्वे यथाख्याते च संयमे नवोपयोगा भवन्ति / के त इत्याह-अज्ञानत्रिकं मतिश्रुताज्ञानविभङ्गज्ञानलक्षणं विना / यतः क्षायिकयथाख्यातयोरज्ञानत्रिकं न भवत्येव, तस्य मिथ्यात्वनिबन्धत्वात, निर्मूलतो मिथ्यात्वक्षयेणोपशमेन च क्षायिकसम्यक्त्वयथाख्यातोत्पादात, अत एव तयोर्नवैवोपयोगा भवन्ति। तथा देशे देशविरते षट् उपयोगा भवन्ति / कथमित्याह-दर्शनज्ञानत्रिक, त्रिकशब्दस्य प्रत्येक सबन्धः, दर्शनत्रिक चतुर्दर्शनाचक्षुर्दर्शनावधिदर्शनरूप, ज्ञानत्रिक मतिश्रुतावधिज्ञानरूपमिति, नशेषाः, मिथ्यात्वसर्वविरत्यभावात्। मिश्रे तदेव दर्शनज्ञागरिकमज्ञानमिश्रं द्रष्टव्यं, मतिज्ञान मत्यज्ञानमिश्रं श्रुतज्ञानं श्रुताऽज्ञानमिश्रम, अवधिज्ञान विभङ्गज्ञानमिश्र, दर्शनत्रिक चेति मिश्रेऽपि षडुपयोगाः सिद्धा भवन्ति / इह चावधिदर्शनमागमाभिप्रायेणोच्यते, अन्यथा एतेष्वेव मार्गणास्थानकेषु गुणस्थानकमार्गणायाम- ''अजयाइ नव मइसुओहिद्गे।" इत्युक्तमिति / / 3 / / मणनाणचक्खुवजा, अणहारि तिन्नि दंसण चऊ नाणा। चउनाणसंजमोदस-मवेयगे ओहिदंसे य॥३४।। मन० पर्यायज्ञानरनिराः शेषा दशोपयोगा अनाहारके भवन्ति। यत्त मन्नः पर्यवज्ञानचक्षुर्दशन तथाऽनाहारके न संभगति, यताऽनाहारको विग्रहगतौ केबलसमुद्घालावस्थायां च न च तदानीं मनःपर्यायज्ञानचक्षुदर्शनराम्भव इति। तथा त्रीणि दर्शनानि चक्षुर्दर्शनाचक्षुर्दर्शनावधिदर्शनरूणणि, चत्वारि ज्ञानानि मतिश्रुतावधिमनः पर्यायलक्षणानीत्येवं सपोपयोगा भवन्ति / वेत्याह-चतुःशब्दस्य प्रत्येकं संबन्धाचतुषु ज्ञानेषु मतिज्ञानश्रुतज्ञानावधिज्ञानमनः पर्यायज्ञानेषु / तथा चत्धू संयनेषु सामायिकच्छेदोपस्थापनपरिहारविशुद्धिकसूक्ष्मसंपरायेषु, औपशमिके सम्यक्त्वे, वेदके क्षायोपशमिकापरपर्याये, अवधिविके अवधिज्ञानावधिदर्शनरूपे, 'चः' समुचयेन शेषास्तत्सद्भावे मत्यज्ञानाऽदीनामसम्भवात् / इहाप्यवधिदर्शने मत्रज्ञानाऽऽधुपयोगप्रतिषेधी बहाचार्याभिप्रायापेक्षया द्रष्टव्योऽन्यथा हि मत्यज्ञानाऽऽदिमतामपि स्त्रे साक्षादवधिदर्शनं प्रतिपादितमेव, प्रज्ञामसूत्र च प्रागेवोक्तमिति // 34 / / उक्ता मार्गणास्थानेषुपयोगाः। अथ योगेषु जीवगुणस्थान्कयोगोपयोगानधिकृत्य मतान्तरमाहदो तेर तेर बारस, मणे कमा अट्ट दु चउ चउ वयणे। चउदु पण तिन्नि काए, जियगुणजोगोवओगन्ने // 35 / /
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________________ मग्गणट्ठाण 57 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मम्गदूसग अन्ये तु आचार्याः (मणि त्ति) मनोयोगे द्वे जीवस्थानके त्रयोदश गुणस्थानकानि, त्रयोदश योगाः, द्वादशोपयोगा इति इत्थ क्रमेण यथासंख्यमित्यर्थः / अत्रायमभिप्रायः प्रागयोगान्तरसहितोऽसहितो वा स्वरूपमात्रेणैव काययोगाऽऽदिर्विवक्षितस्तेन तत्र यथोक्तगुणस्थानकाऽऽदिवक्तव्यता सर्वाऽव्युपपद्यते। इह तु काययोगाऽऽदिर्योगान्तरविरहित एव विवक्ष्यते / यथा मनोयोगवाग्योगविरहितः काययोगः, मनोयोगविरहितो वाग्योगः। ततो मनोयोग द्वे अन्तिमे जीवस्थानके, अयोगिकेवलिवर्जितानि त्रयोदश गुणस्थानानि, कार्मणौदारिकमिश्रवर्जितास्त्रयोदश योगाः, कार्मणौदारिकमिश्री हि काययोगावपर्याप्तावथाया केवलिसमुद्धातावस्थायां वा। न च तदानी मनोयोगः, अपर्याप्तावस्थाया मनस एवाभावात, केवलिसमुद्धातावस्थायां तु प्रयोजनाभावात्। उक्त च-'मनोवचसीतुतदा सर्वथा नव्यापारयति, प्रयोजनाभावात्" तथावचने मनोयोगविरहिते वाग्योगे क्रमादष्टौ जीवस्थानानि पर्याप्तापर्याप्तद्वीन्द्रिय त्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियासंज्ञिपञ्चेन्द्रियरूपाणि, द्वे गुणस्थाने मिथ्यात्वसास्वादनलक्षणे, चत्वारो योगाः कार्मणौदारिकमिश्रौदारिकासत्यामृषावाग्योगरूपाः चत्यार उपयोगा मत्यज्ञानश्रुताऽज्ञानचक्षुदर्शनाऽचक्षुर्दर्शनलक्षणः / वाग्योगो हि मनोयोगविरहितस्वभावो द्वीन्द्रियाऽऽदिष्वेयाऽसंज्ञिपञ्चेन्द्रिय-पर्यनतेषु सम्भवति नान्येषु / ततो यथोक्तान्येव जीवस्थानकाऽऽदीनि तत्र सम्भवन्ति न ऊनाधिकानि / तथा केवलकाययोगे चत्वारि पर्याप्तापर्याप्तसूक्ष्मबादरैकेन्द्रियलक्षणानि जीवस्थानकानि, द्वे आद्ये गुणस्थानके मिथ्यादृष्टिसास्वादनलक्षणे, पञ्च योगा वैक्रियद्विकौदारिकद्विककार्मणरूपाः, त्रय उपयोगा मत्यज्ञानश्रुताज्ञानाचक्षुर्दर्शनस्वरूपाः। केवलकाययोगो हि एकेन्द्रियेष्वेवावाप्यते. तत्र जीवस्थानकाऽऽदीनि यथोक्तान्येव घटन्त इति // 35|| अभिहितं योगेष्वेकीयमतम्। साम्प्रतं मार्गणास्थानेषु लेश्या अभिधित्सुराहछसु लेसासु सठाणं, एगिदि असंनिभूदगवणेसु / पढमा चउरो तिन्नि उ, नारयविगलग्गि पवणेसु // 36|| षड्लेश्यासुस्वस्थानम् स्वाः स्वाः लेश्या भवन्ति, यथा कृष्णलेश्यायां कृष्णलेश्या इत्यादि। सामान्यत एकेन्द्रियेषु असंज्ञिभूदकवनेषु पृथिव्यम्बुवनस्पतिषु प्रथमाः कृष्णनीलकापोततेजोलेश्याश्चतस्रो भवन्ति, भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कसौधर्मेशानदेवा हि स्वस्वभवच्युता एतेषु मध्ये समुत्पद्यन्ते, तेचतेजोलेश्यावन्तः, जीवश्च यल्लेश्च एव म्रियते अग्रेऽपि तल्लेश्य एवोत्पद्यते, "जल्लेसे भरइतल्लेसे उववजइ।" इति वचनात्। तत एतेषामपर्याप्तावस्थायां कियत्कालं तेजोलेश्या भवति; नारकेषु विकलेषु द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियेषु, अग्निषु तेजस्कायेषु, पवनेषु वायुकायिकेषु, प्रथमास्तिस्रः कृष्णनीलकापोतलेश्या भवन्ति नान्याः, प्रायोऽमीषामप्रशस्ताध्यवसायस्थानोपेतत्वात् // 36 // अहखायसुहुमकेवल-दुगि सुक्का छावि सेसठाणेसुं। नरनिरयदेवतिरिया, थोवा दु असंखऽणंतगुणा।।३७।। यथाख्यातसयमे, सूक्ष्मसम्परायसंयमे च, केवलद्विके-केवलज्ञानकेवलदर्शनरूपे शुक्ललेश्यैव न शेषलेश्याः, यथाख्यातसंयमाऽऽदावेकान्तविशुद्धपरिणामभावात् तस्य च शुक्ललेश्याऽविनाभूतत्वात् / शेषस्थानेषु सुरगतौ तिर्यग्गतौ पञ्चेन्द्रियत्रसकाययोगत्रयवेदत्रयकषायचतुष्ट्यमतिज्ञानश्रुतज्ञानावधिज्ञानमनः पर्यायज्ञानमत्यज्ञानश्रुताज्ञानविभङ्गज्ञानसमायिकच्छेदोपस्थापनपरिहारविशुद्धिकदेशविरताविरतचक्षुर्दर्शनाऽचक्षुर्दर्शनावधिदर्शनभव्याभव्यक्षायिकक्षायोपशभिकौपशमिकसास्वादनमिश्रमिथ्यात्वसंज्ञयाहारकाऽनाहारकलक्षणैकचत्वारिंशत्सु शेषमार्गणास्थानकेषु षडपि लेश्याः / उक्ता मार्गणास्थानेषु लेश्याः / कर्म०४ कर्म०। (अल्पबहुत्वविषयः' अप्पाबहुय' शब्दे प्रथमभागे 636 पृष्ठे गतः।) मग्गणा स्त्री० (मार्गणा) 'मृग' अन्वेषणे / अशेषसत्त्वापीडयाऽन्वेषणे, ओघ० / पिं० / निपुणवुद्ध्याऽन्वेषणे, पिं० / मार्गणं जीवाऽऽदीनां पदार्थानामन्वेषणं सैव मार्गणा / प्रव० 225 द्वार / अन्वयधर्मान्वेषणे, न०। आ०म०।"चउव्विधा मग्गणा, तीए इमो दिटुंतो ताव भण्णतिचउव्विहं पुण मग्गणं भणितं, तत्थ दिट्ठतो घडो, णो घडो, अघडो, संपुण्णो घड़ो। तस्सेव देसो णो घडो घडवतिरित्तं दव्वं, अघडोणो अघडोघडदेसो न व्यतिरिक्तं च अण्णं दव्यं, एवं णमोकारस्स वि चतुविधा मग्गणा।'' आ० चू०१ अ०। विशे०। नं०। याचने, आव०४ अ०। मग्गणास पुं०(मार्गनाश) ज्ञानाऽऽदेर्मोक्षमार्गस्य नाशे, दर्श०३ तत्त्व। मग्गणुसारि पुं० (मार्गानुसारिन्) ज्ञानाऽऽदित्रयानुसारिणि, पञ्चा०११ विव०। षो। मग्गत्थ पुं० (मार्गस्थ) सद्भिराचीर्णमार्गव्यवस्थिते. सूत्र०२ श्रु०१ अ०। मरगद (य) पुं० (मार्गद) मार्गो विशिष्टगुणस्थानावाप्तिप्रवणस्वर-सवाही क्षयोपशमविशेषस्तं ददातीति मार्गदः। रा०! इह मार्गो भुजङ्गमनलिकाऽऽयामतुल्यो विशिष्टगुणस्थानावाप्तिप्रवणः स्वरसवाही क्षयोपशमविशेषः, हेतुस्वरूपफलशुद्धासुखेत्यन्ये, अस्मिन्नसतिन यथोचितगुणस्थानावाप्तिः, मार्गविषमयता चेतः स्खलनेन प्रतिबन्धोपपत्तेः, मार्गश्च भगवद्भ्य एवेति, मार्ग ददतीति मार्गदाः / ध०२ अधि०। मार्गदय पुं० मार्ग सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राऽऽत्मकं परमपदपुरपथं दयत इति मार्गदयः / स०१ सम० भ०। औ०। जी०। मोक्षमार्गस्य दायके जिने, कल्प०१ अधि०१ क्षण। मग्गदूसग पुं० (मार्गदूषक) ज्ञानाऽऽदिमार्गविराधके, पं०व०। मार्गदूषकमाहणाणाइविविहमग्गं, दूसइ जो जे अ मग्गपडिवण्णे। अबुहो जाईए खलु, भण्णइ सो मग्गदूसो त्ति / / 1657 / / ज्ञानाऽऽदित्रिविधमार्ग पारमार्थिक दूषयति यः कश्चित् ये च मार्गप्रतिपन्नाः साधवस्ताँश्च दूषयति अबुधः-अविद्वान् जात्यैव परमार्थेन भण्यते, स चैवंभूते मार्गदूषकः पाप इति। पं० व०४ द्वार।
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________________ मग्गदूसग 58 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मघवं अथ मार्गदूषणम्माह अद्धजोयणमेराए वीइक्कमावइत्ता आहारमाहारेइ, एस णं नाणऽऽदितिविहमग्गं, दूसयए जे य मग्गपडिवन्ना। गोयमा ! मग्गाऽइक्कते पाणभोयणे / भ०७ श०१ उ०। अबुहो पंडियमाणी, समुट्टितो तस्स घायाए / मग्गाऽणुसारिणी स्त्री० (मार्गानुसारिणी) आगमनीत्या वीणाऽऽद्यनुज्ञानाऽऽदिकं त्रिविधं पारमार्थिकमार्ग स्वमनीषाकल्पितैातिदूषणै सारिण्यां क्रियायाम्, ध००। षयति, ये च तस्मिन् मार्गे प्रतिपन्नाः साध्वादयस्तानपि दूषयति मग्गो आगमनीई, अहवा संविग्गबहुजणाऽऽइन्नं / अबुधस्तु ज्ञानविकलः पण्डितमानी दुर्विदग्धः, समुत्थित उद्यतः, तस्य उभयाणुसारिणी जा, सामग्गऽगुसारिणी किरिया।।८।। पारमार्थिकमार्गस्य घाताय-निर्लोठनायोत। एषा मार्गदूषणा। वृ०१ उ०२ मृग्यतेऽन्विष्यतेऽभिमतस्थानावाप्तये पुरुषैर्यः स मार्गः: स च द्रव्यप्रक०। भावभेदाद् द्वेधा-द्रव्यमार्गो ग्रामाऽऽदेः भावमार्गो मुक्तिपुरस्य, सम्यगमग्गदूसण न० (मार्गदूषण) भावमार्गस्य तत्प्रतिपन्नसाध्वादीनां च दूषणे, ज्ञानदर्शनचारित्ररूपः क्षायोपशमिकभावरूपो वा, तेनेहाधिकारः, स पुनः ध०३ अधि०। कारणे कार्योपचारादागमनीतिः सिद्धान्तभणिताऽऽचारः। अथवामग्गदेसणा स्त्री० (मार्गदशना) ज्ञानदर्शनचारित्रलक्षणस्य मुक्तिपथस्य संविनबहुजनाऽऽचीरःर्णमिति द्विरूपोऽवगन्तव्य इति। ध० 203 अधि०१ देशने, कर्म०११ पं० चू०। लक्ष०। मग्गपडिवत्तिहेउ पुं० (मार्गप्रतिपत्तिहेतु) शिवपथाऽऽश्रयका रणे, पश्चा० | मग्गाणुसारित्त न० (मार्गानुसारित्य) आमपारतन्त्र्ये, पं०व०२ द्वार। 16 विव०। प्रति० / सर्वत्र दक्षिणवर्तितायाम, पं०व०४ द्वार / सिद्धिपथमुत्कमग्गभंग पुं० (मार्गभङ्ग) पदवीलोपे, जी० 1 प्रति० / लवृतिचारित्र, पञ्चा०११ विव० / ज्ञानाऽऽदित्रयानुसारितायाम् षो०१ मग्गवडिय पुं० (मार्गपतित)मार्गश्चेतसोऽवक्रगमनभुजङ्ग-नलिकाऽऽयाम विव०। तुल्यो विशिष्टगुणस्थानावाप्तिप्रगुणः स्वरसवाही क्षयोपशमविशेषस्तत्र मग्गाणुसारिया स्त्री० (मार्गानुसारिता) ल०। असद्ग्रहविजयेन तत्त्वानुप्रविष्टो मार्गपतितः। भव्ये, विशे० / ल०। यो०व०।ध०। द्वा० / साररितायाम्, ध०२ अधि० / मोक्षमार्गानुसरणे, पञ्चा०४ विव० / मग्गविउ पुं० (मार्गवित्) मार्गझे, सूत्र०२ श्रु०१ अ०। मग्गाणुसारियाभाव पुं० (मर्गानुसारिताभाव) सिद्धिपथानुकूलामग्गविप्पडिवत्ति स्त्री० (मार्गविप्रतिपत्ति) उन्मार्गप्रतिपत्ती, वृ०। ध्यवसाये, पञ्चा 16 विव०। मार्गविप्रतिपत्तिमाह मग्गाभिमुह पुं० (मार्गाभिमुख) मार्गश्चेतसोऽवक्रगमनं भुजङ्गनलिका ऽऽयामतुल्यो विशिष्टगुणस्थानावाप्तिप्रवणः स्वरसवाहीक्षयोपशमविजो पुण तमेव मग्गं, दूसेउमपंडिओ सतक्काए। शेषहेतुस्वरूपफलशुद्ध्यभिमुख इत्यर्थः, तदभिमुखभावाऽऽपन्नो उम्मग्गं पडिवाइ,अकोविअप्पा जमालि व्व // 526 / / मार्गाभिमुखः / ध०१ अधि०। यो० वि०। मार्गप्रवेशयोग्यभावाऽऽपन्ने, पुनस्तमेव पारमार्थिक मार्गम् असद्भिर्दूषयित्वा अपण्डितः सदबुद्धि द्वा०१४ द्वा०। रहितः सन् स्वतर्कया-स्वकीयमिथ्यात्वविकल्पेन देशत उन्मार्ग प्रति मग्गिऊण अव्य० (मार्गयित्वा) अन्विष्येत्यर्थे, नि० चू०२ उ०। पद्यते अकोविदात्मा सम्यकशास्त्रार्थपरिज्ञानविकलो, जमालिवत्, यथाऽसौ भगवद्वचनं क्रियमाणं कृतमिति दूषयित्वा कृतमेव कृतमिति मग्गु पुं० (दद्गु) "क-ग-ट-ड-त-द-प-श-ष-स क षाप्रतिपन्नवान, एषा मार्गविप्रतिपत्तिः। बृ०१ उ०२ प्रक०। प०व०। ध०! मूर्ख लुक्" |चारा७७।। इति दलुकालोपे नस्य द्वित्वम् / प्रा०२ (जमालेः शास्त्रार्थविषयः जमालि' शब्दे चतुर्थभागे 1408 पृष्ठ गतः।) पाद। जलवायसे, सूत्र०१ श्रु०७ अ०। मग्गसार पुं० (मार्गसार) भार्गपरमार्थे, सूत्र०१ श्रु०११ अ० / मग्गुग पुं० (मद्गुक ) जलवायसे, जं०२ वक्ष०। मग्गसिर पुं० (मार्गशीर्ष) मृगशिरोनक्षत्रयुक्तपौर्णमासीघटिते मासभेदे, मघ पुं० (मघ) महामेघे, प्रज्ञा०२ पद। आ० म० / स्था०३ ठा०४ उ०। आ०म० / आचा०! मघमघंत त्रि० (मघमघायमान) अतिशयेन सुरभी, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। मम्गसिरकीड पुं० (मार्गशीर्षकीट) चतुरिन्द्रियजीवभेदे, जी०१ प्रति०। चं० प्र० / आ०म०।रा० / बहलगन्धे, स०। बहुलसौरभ्ये, स०३४ प्रज्ञा०। सम०। ओ०। मग्गसिरी स्त्री० (मार्गशीर्षी) मृगशिरसि भवाऽमावास्था पूर्णिमा वा। मघवं पुं०(मघवत) मघाः-महामेघास्तेऽस्य वशे सन्त्यसी मघवान। भ०३ मार्गशीर्षमासमाविन्या पूर्णिमायाम्, अमायां च / च० प्र०१० पाहु०५ श०२ उ० / जी० / इन्द्रे, कल्प०१ अधि०१ क्षण। आ०म० : भारते पाहु० पाहु०॥ वर्तमानाऽवसर्पिणीतृतीयचक्रवर्तिनि, ति०। स० मग्गाइक्कत न० (माईतिक्रान्त) अर्द्धयोजनमतिक्रान्ते, भ०। चइत्ता भारहं वासं, चक्कवट्टीमहिड्डिए। जे णं णिग्गंथो वा णिग्गंथी वा० जाव साइमं पडिग्गाहित्ता परं / पव्वद्धमब्भुवगओ, मघवं नाम महायसो // 36||
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________________ मघवं 56 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मच्छ पुनर्मघवानामा तृतीयचक्रवर्ती प्रव्रज्यां दीक्षाम् अभ्युपगतः चारित्रं प्राप्तः, कीदृशो मधवा ? महर्द्धिकः चतुर्दशरत्ननवनिधानधारको वैक्रियर्द्धिधारी वा, पुनः कीदृशो ? महायशाः विस्तीर्णकीर्त्तिः / अत्र मघवाऽऽरयस्य चक्रिणः दृष्टान्तः-इहैव भरतक्षेत्रे श्रावस्त्यां नगर्या समुद्रविजयस्य राज्ञो भद्रादेव्याः, कुक्षौ चतुर्दशमहास्वप्नसूचितो मघवानामा समुत्पन्नः स च यौवनस्थो जनकेन वितीर्णराज्यः क्रमेण प्रसाधितभरतक्षत्रस्तृतीयश्चक्रवर्ती जातः, सुचिरं राज्यमनुभवतस्तस्य अन्यदा भवविरक्तत' जाता, स एवं भावयि तुं प्रवृत्तः-येऽत्र प्रतिबन्धहेतवो रमणीयाः पदार्थाः ते अस्थिराः। उक्तंच - "हियइच्छिया उदारा, सुआ विणीया मणोरमा भोगा। विउला लच्छी देहा, निरामओ दीहजीवित्तं / / 1 / / भवपडिबंधनिमित्तं, एगाइवत्थु नवरस व्वं पि। कइवयदिणावसाण, सुमिणो भोगुव्व न हि किंचि॥" तताऽहं धर्मकर्मणि उद्यम करोमि, धर्म एव भवान्तरानुगामी, एवमादिकं परिभाव्य पुत्रनिहितराज्यो मघवा चक्री परिव्रजन् कालक्र मेण विविधतपश्चरणेन कालं कृत्वा सनत्कुमारे कल्पे गत इति / उत्त०अ० / क्वचिदन्यत्राऽ पे नस्य मः।"भवद्भगवतोः" / / 8 / 4 / 265 / / इतिसूत्रप्राप्तमित्यर्थः 'मघवं पागसासणे।'' प्रा०४ पाद। मघा स्त्री०(मघा) पितदेवके नक्षत्रे, सू०प्र०१० पाहु०५ पाहु० पाहु०। जं० / षष्ठनरकपृथ्व्याम, स्था०७ ठा० / तमिस्रलया षष्टनरकपृथ्वीतुल्य-यात् कृष्णराजौ, भ०६ श०५ उ०। मघोण पुं० (मघवन्) मधा महामेघास्तेऽस्यवशे सन्त्यसौ मघवान। उत्त०२ अ०। गोणाऽदित्वाद् रूपसिद्धिः। इन्द्रे, प्रा०२ पाद। तृतीयचक्रवर्तिनि, प्रव०२०८ दूर। मच्च धा० (मद हर्षे,"व्रजनृतमदांचः" / / 8 / 4 / 225 / / इत्यन्त्यस्य द्विरुक्तश्चः (च)। मचइ। माद्यति। प्रा०४ पाद। मचिय पुं० (मर्त्य) मनुष्ये मरणधर्मिणि, आचा०१ श्रु०३ अ०२ उ० / गर्येषु भवे, वि०। सूत्र०१ श्रु०८ अ०। "मणुआ नरा मणुस्सा, मचा तह नाणवा पुरिसा।" (100) पाइ० ना०६० गाथा। मचु पु० (मृत्यु। व्याधिकल्पे, पं० सू०२ सूत्र / यमराक्षसे, ज्ञा०१ श्रु०६ अ०। उत्त० / मरणे, आचा०१ श्रु०३ अ० उ० / प्रश्न०। उत्त० / मचुंजय पुं० (मृत्युञ्जय) परमेष्ठिनि, शिवे च। यो० वि०! मचुग्घ पुं० (मृत्युघ्न) मृत्युञ्जयजपोपेते चित्रतपसि, यो० वि०। अथ तत्तपः प्राऽऽहतपोऽपि च यथाशक्ति, कर्त्तव्यं पापतापनम्। तच्च चान्द्रायणं कृच्छं, मृत्युघ्नं पापसूदनम् // 131 / / तपोऽपि च, किं पुनः प्रामुक्तनुष्ठानम्। यथाशक्तियस्य यावती शक्तिस्तया कर्त्तव्यं विधेयम् / कीदृशमित्याह-पापतापनं स्मृत्यादिप्रसिद्ध तथाविधापराधवशमुत्पन्न ऽशुभकर्मतापकारि, तच्च तत्पुनश्चान्द्रायण, कृच्छू, मृत्युघ्नं, पापसूदनम् इति चतुष्प्रकारम् // 131 / / यो० वि०। मासोपवासमित्याहु-र्मृत्युघं तु तपोधनाः। मृत्युञ्जयजपोपेतं, परिशुद्धं विधानतः॥१३४|| मासं यावदुपवासो यत्र तत्तथा, इत्येतदाहुः-उक्तवन्तो मृत्युनं तु मृत्युघनानकं पुनस्तपः, तपोधनास्तपः प्रधानमुनयो, मृत्युञ्जयजयोपेतं पञ्चपरमेष्ठिनमस्काराऽऽदिरूप-मृत्युञ्जयसंज्ञमन्त्रसमरणसमन्वितम, परिशुद्ध-मिहलोकाऽऽशंसाऽऽदिपरिहारेण विधानतः कषायनिरोधब्रह्मचर्यदेवपूजाऽऽदिरूपाद्विधानात् // 134|| यो०वि०। मच्चुभय न० (मृत्युभय) मरणभीतौ, औ०। मच्चुमुह न० (मृत्युमुख) मृत्युवदने, 'णाणागमो मचुमुहस्स अत्थि।" आचा०१ श्रु०४ अ०२ उ०। (अत्र व्याख्या 'धम्म' शब्दे चतुर्थभागे 2667 पृष्ठ गता।) मच्छ पुं० (मत्स्य) पृथुरोमणि, सूत्र०१ श्रु०१ अ०३ उ०। मीने, स्था०४ टा० उ०। तिविहा मच्छा पण्णत्ता। तं जहा-अंडया, पोयया, संमुच्छिमा। अंडया मच्छा तिविहा पण्णत्ता / तं जहा-इत्थी, पुरिस,णपुंसगा। पोयया मच्छा तिविहा पण्णत्ता ! तं जहा-इत्थी, पुरिसा, णपुंसगा। (सूत्र 126) अण्डाजाता अण्डजाः, पोतं वस्त्रंतद्वजरायुर्वर्जितत्वाजाताः, पोतादिव वा बोहित्थाजाताः पोतजाः, समूच्छिमा अगर्भजा इत्यर्थः, सम्मूच्छिमाना स्त्र्यादिभेदो नास्ति, नपुंसकत्वात्तेषामिति, स सूत्रे न दर्शित इति / स्था०३ ठा०१ उ०। सूत्र०ारा०। ज० उत्त०।"सउला सहरा मीणा, तिमी झसा अणिमिसा मच्छा। (60)" पाइ० ना०४० गाथा / मकरे, भ०१२श०६ उ०। चं० प्र०। से किं तं मच्छा? मच्छा अणेगविहा पण्णत्ता / तं जहासण्हमच्छा खवल्लमच्छा जुंगमच्छा विज्झडियमच्छा हलिमच्छा मगरिमच्छा रोहियमच्छा हलीसागरा गागरा वडा वडगरा गब्भया उसगारा तिमितिमिंगिला णक्का तंडुलमच्छा कणिक्कामच्छा सालिसत्थियामच्छालंभणमच्छा पडागा पडागाइपडागा, जे यावन्ने तहप्पगारा सेत्तं मच्छ। प्रथा०१ पद / जी०। महामत्स्यभूत्पन्नस्य तन्दुलमत्स्यस्य गर्भस्थितिरान्तर्मुहूर्तिक्यायुः स्थितिरप्यान्तर्मुहूर्तिकी, तत्कथं मिलतीति प्रश्ने, उत्तरम्-महामत्स्यभूत्पन्नमत्स्यस्य गर्भस्थितिरायुः-स्थितिश्चैकस्मिन्नेवान्तर्मुहूर्ते भवति, परं गर्भस्थितेरन्तर्मुहूर्तस्य लघुत्वान्न किमप्यनुपपन्नम्। कि च-नवसम -यादारभ्य घटिकाद्वयं यावदन्तर्मुहूर्त , तस्यासंख्येयभेदत्वाल्लघुत्वमिति / / 150 प्र०।। सेन०२ उल्ला० / समुद्रमध्ये मत्स्यो जातिस्मरणेन कृत्वा सम्यक्त्वं देशविरतिं च प्राप्नोति, ते प्राप्य पश्चात्तत्कालमनशनं करोति किंवा कियत्काल सम्यक्त्वदेश-विरती आराधयतीति प्रश्ने, उत्तरम् -कश्चित्तत्कालमनशनमुचरति, कश्चिच कालान्तरेणोचरतीति ज्ञायते, निश्चयादक्षराणि तु न दृष्टानीति 5 प्र०।
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________________ 60- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मज्ज मच्छ सेन०४ उल्ला०। / / 8 / 21 / / इतित्सस्य च्छः। रस्य लः। मच्छलः परगुणाऽसहने, प्रा०२ *मस्त (क) न० मस्तके, कल्प०१ अधि०१क्षण। पाद। मच्छंडग पुं० (मत्स्याऽण्डक) मीनाण्डे, आ०म०१ अ01 मच्छसंपुल पुं० (मत्स्यसंपुल) दधिवाहनस्य कथुकिनि, नि० चू०१ उ० / मच्छंडिया स्त्री० (मत्स्यण्डिका) खण्डशर्करायाम, जं०२ वक्षः। मच्छिय न० (माक्षिक) मधुनि, आव०६ अ० / विशे० / प्रश्न० / जी० / अनु० / प्रज्ञा० / मात्स्यिक पुं०। मत्स्याः पण्यमस्येति मत्स्यैश्चरति वा / कैवर्ते, सूत्र०२ मच्छंडी स्त्री०(मत्स्याण्डी) खण्डशर्करायाम् ज०२ वक्ष०जी०। | श्रु०२ अ०। मच्छंध पुं०(मत्स्यबन्ध) कैवर्ते, व्य०३ उ०। स्था०1विपा० / मच्छियमल्ल पुं० (माक्षिकमल्ल) अट्टनमल्लस्य सोपारकनगरे युद्धे पराजेतरि स्वनामख्याते मल्ले, उत्त०४ अ०। तं०। आ० चू०। ज्ञा० / मच्छखल न० (मत्स्यखल) यत्र संखडीनिमित्तं मत्स्यं छित्त्वा छित्त्वा आव० शोष्यते शुष्को वा पुजीकृत आस्ते / तादृशे स्थाने, आचा०२ श्रु०१ चू०१ अ०४ उ०। नि० चू०। मच्छिया स्त्री० (मक्षिका)"छोऽक्ष्यादौ" ||8||17|| इति क्षस्य च्छः / प्रा०२ पाद / चतुरिन्द्रियजीवभेदे, उत्त०२ अ० / नि० चू० / मच्छखाय पुं० (मत्स्यखाद) नदीहदसमुद्रेषु वसतां मत्स्यानां खादके. "मच्छियाचडगरपहकरेण / ' मक्षिकाना प्रसिद्धानां चटकरप्रधानो नि० चू०६ उ०। विस्तरवान्न प्रसरकः समूहः तथा। अथवा-यद्वा-मक्षिकाणां चटकराणां मच्छमगर पुं० (मत्स्यमकर) मकरभेदे, प्रज्ञा०१ पद। तवृन्दानां यः प्रहरकः स तथा। विपा०१ श्रु०१ अ०। मच्छर पुं० (मत्सर) असहनयुक्ताहारे, अष्ट०२२ अष्ट / परसम्पद मच्छुव्वत्त न० (मत्स्योवृत्त) वन्दनकदोषभेदे, बृ०॥ सहिष्णुतायाम्, प्रव०४१ द्वार। मत्सरः कोपः यथा साधुभिर्वाचितः कोपं अष्टमंदोषमाहकरोति, सदपि मार्गित न ददाति / अथवा-अनेन तावद्रङ्केण याचितेन उट्टित णिवेसंतो, उव्वत्तति मच्छउ व्व जलमज्झे। दत्तं, किमहं ततो न्यूनः ? इति मात्सर्यादाति अत्र परोन्नतिवैमनस्य मात्सर्य, यदुक्तमनेकार्थसंग्रहे श्रीहेमसूरिभिः-''मत्सरः परसंपत्त्य वंदिउकामो वरुण्णं, झसो ध्व परियत्तती तुरियं / / क्षमायां तद्वति क्रुधि।" इति तृतीयः 31 (58 श्लोक) घ०२ अधि०। उत्तिष्ठन्निविशमानो वा जलमध्ये मत्स्य इवोद्वर्त्तते उद्वेल्लयति यत्र स्था० / सूत्र० / कोपे, प्रव०६ द्वार। तन्मत्स्योवृत्तम् / अथवा-एकमाचार्याऽऽदिकं वन्दित्वा तत्समीप एवामच्छरसिय त्रि० (मत्स्यरसित) मत्स्यरससंसृष्टे, विपा०१ श्रु०८ अ०॥ परं वन्दनाह कञ्चन वन्दितुमिच्छं तत्समीपं जिगमिषुरुपविष्ट एव झष इव त्वरितमङ्ग परावृत्य यत्र गच्छतितद्वा मत्स्योवृत्तम्। बृ०३ उ०। आव० / मच्छरित्त न० (मत्सरित्व) परगुणानामसहने, प्रश्न०३ संव० द्वार। आ०चू०॥ परप्रशंसाऽसहिष्णुत्वे, षो०४ विव०। मच्छेसणा स्त्री० (मत्स्येषणा) मत्स्यप्राप्ती, "मच्छेरपणं झियायंति, झाण मच्छरिय न० (मात्सर्य्य) परगुणाऽसहिष्णुत्वे, आव०६ अ०। ते कलुसाधर्म।'' सूत्र०१ श्रु०११ अ०। मच्छरिया स्त्री० (मत्सरिकता) मत्सरोऽसहनं साधुभिर्याचितस्य कोपन, मजन० (मद्य)"द्य-य्य-या जः" / / 2 / 24 // इति संयुक्तस्य द्यस्य तेन रङ्केण याचितेन दत्तमहं तु किं ततोऽपि हीन इत्यादिविकल्पो वा, ज्जः / प्रा०२ पाद / गुडधातकीप्रभवे (उपा०८ अ०) मधुनि, ज्ञा०१ सोऽस्यास्तीति मत्सरिकस्तद्भावो मत्सरिकता। पञ्चा०१ विव०। आ० श्रु०१६ अ० / सुराऽऽदौ, स्था०६ ठा०। मदिरायाम्, ध०२ अधिo चू०। मत्सरः कोपः, स विद्यते यस्येति मत्सरिकस्तस्य भावो मत्स "मज पुण कट्ठपिट्ठणिप्फन्नं / ' स्था०४ ठा०१ उ० / मद्य विभेद रिकता, तया ददाति चरति व्रतम्, कोऽभिप्रायः? मार्गितः सन् कुप्यति, काष्ठपिष्ट निष्पन्नत्वेन / प्रव०४ द्वार / पं०व० / औ० / प्रश्न० / सदपि वस्तु न ददातीति / अथवा-अनेन तावद् द्रमकेण मार्गितेन दत्तं "चित्तभ्रान्तिजार्यते मद्यपाना-चित्तभ्रान्तेः पापचर्यामुपैति। पापं कृत्वा मुनिभ्यः, किमहं ततोऽपि निकृष्ट इति मात्सर्यात् परगुणासहन- दुर्गति यान्ति मूढा-स्तस्मान्मद्यं नैव पेय न देयम्॥१॥" स्थ०४ ठा०१ लक्षणावदतोऽतिचारश्चतुर्थः / तथा-कालस्य साधूनामुचितभिक्षा- उ०। द्वा०। समयस्यातीतमतिक्रमः, आदित्सयाऽनागतभोजनपश्चादोजनद्वारेणो मद्यं पुनः प्रमादाङ्ग, तथा सचित्तनाशनम्। ल्लसन कालातीतम् / अयं भावः-उचितो यो भिक्षाकालः साधूनां, तं संधानदोषवत्तत्र, न दोष इति साहसम्।।१।। लडयित्वा प्रथम वा भुञानस्य गृहीतातिथिसंविभागनियमस्यातिचारः मदयतीति मद्य सीधु, पुनःशब्दः पूर्ववाक्यार्थापेक्षयोत्तरवाक्यार्थस्य पक्षमः। एते दोषा अतिथिविभागेऽतिथिसंविभागवते इति / प्रथ०६ द्वार / विशेषद्योतनार्थः / तथाहि-मांसं जीवसंसक्तिनिमित्तं, मद्यं पुनः प्रमादाङ्ग परगुणाऽसहिष्णुतायाम्, स्था०४ ठा०४ उ०! अपरेणेदं दत्तं किमह प्रमदनं प्रमादोऽशुभजीवपरिणामविशेषस्तस्याङ्ग कारणम्। अथवा-प्रमादो तस्मादपि कृपणो हीनो वाऽतोऽहमपि ददामीत्येव दानप्रवर्तकविकल्पे, मद्याऽऽदिः यदाह-"मजं विसय कासाया, निदा विगहा य पंचमी भणिया। उपा०१ अ०॥ एएपंचपमाया, जीवंपातिसंसारे।।१।। तस्याङ्गमवयवः पञ्चावयवत्पत्वात्त - मच्छल पुं० (मत्सर)"हस्वात् ध्य-श्च-त्स-प्सामनिश्चले" | स्य, तथेति विशेषणसमुचये, सच्छुभयश्चित्तमनः, तन्नाशयति प्रध्यसयतीति
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________________ मज्ज 61 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मज्ज सच्चित्तनाशनम्, तथा सन्धाने जलमिश्रितबहुद्रव्यसंस्थापने ये दोषा जीवसंसक्त्यादयस्ते विद्यन्ते तत्र तत्संधानदोषवत्, यद्येवविध मद्यं, तत्र पद्ये (न) नास्ति दोषो दूषणं कर्मबन्धादित्येवं वदत इति गम्यते। साहसं धाष्यम् / अथवातत्र मद्ये गुडधातक्यादिसंधानरूपे न दोषोऽस्ति पापप्राप्तिलक्षणः। क इवेत्याह-सन्धानदोषवत् काञ्जिकाऽऽदिसन्धानदोषवत् / अयमभिप्रायः, यथा-आरनालाऽऽदौ सन्धानवति पीयमाने कर्मबन्धलक्षणो दोषो नास्त्येवं मद्येऽपि दोषो नास्तीति, एतद्वदतस्तस्य च साहसत्यं, चित्तभ्रमनिबन्धनानामतिबहूनां मद्यपानदोषाणां प्रत्यक्षत एवोपलभ्यमानत्वात। यथोक्तम् "वैरूप्य व्याधिपिण्डः स्वजनपरिभवः कार्यकालतिपातो, विद्वेषो ज्ञाननाशः स्मृतिमतिहरण विप्रयोगश्च सद्भिः। पारुष्यं नीचसेवा कुलबलतुलना धर्मकामार्थहानिः, कष्ट भोः षोडशैते निरुपचयकरा मद्यपानस्य दोषाः / / '' इति। अथवा क्यिन्तस्ते दर्शयिष्यन्त इत्याहकिं चेह बहुनोक्तेन, प्रत्यक्षेणैव दृश्यते। दोषोऽस्य वर्तमानेऽपि, तथा भण्डनलक्षणः॥२॥ किमिति प्रतिषेधे, ततश्च न किञ्चित्प्रयोजनमित्यर्थः स्यात्, वाशब्दोऽयथार्थः / इह मद्यपानदूषणविषये, बहुना-प्रभूतेन, उक्तेन भणितेन, 'मद्य पुनः प्रमादाङ्गम्' (1) इत्यादिना यतः प्रत्यक्षेणैव, एवशब्दस्यापिशब्दार्थत्वादध्यक्षप्रमाणेनापि, न केवलमनुमानाऽऽदिना, दृश्यते उपलभ्यते, दोषो दूषणम् अस्य मद्यपानस्य, वर्तमानेऽपि काले, न केवलमतीतकाले द्वारकावतीदाहाऽऽदि श्रूयते, तथा तत्प्रकारं सदसिमञ्जसवचनप्रसरमुपपतत्प्रभूतप्रहरणप्रहारमुपरममाणनरविसर यदण्डन संग्रामस्तदेव लक्षणं रूपं यस्य स तथेति // 2 // न केवलं प्रत्यक्षगोचरा मद्यपानस्य दोषाः, श्रुतगोचरा अप्रीत्येतद्दर्शयितुमाहश्रूयते च ऋषिर्मद्यात्, प्राप्तज्योतिर्महातपाः। स्वर्गाङ्ग नाभिराक्षिप्तो, मूर्खवन्निधनं गतः।।६।। श्रूयते च पुराणकथासु आकर्ण्यते च, न केवलं भण्डनमेव दृश्यते / कोऽसौ श्रूयते ? इत्याह-ऋषिमुनिर्विसन्धिश्चेह (?) विशेषलक्षणान्मद्यात्-सीधुनः सकाशान्निधनं गत इति संबन्धः / किंविशिष्टोऽसावित्याह-प्राप्तमवाप्तं ज्योतिस्तेजो ज्ञानरूपमष्टविधमहर्द्धिरूपं वायेन स प्राप्तज्योतिः कथमित्याह-यतो महातपाः।पुनः किम्भूतः? सन्नित्याहस्वर्गाङ्गनाभिः नाकनितम्बिनीभिराक्षिप्त आवर्जितः सन् मूर्खव बालिश इव, निधनं विनाशं गतः प्राप्त इति // 3 // एतदेव दर्शयन् श्लोकपञ्चकमाहकश्चिद् ऋषिस्तपस्तेपे, भीत इन्द्रः सुरस्त्रियः। क्षोभाय प्रेषयामास, तस्याऽऽगत्य च तास्तकम्।।४।। विनयेन समाराध्य, वरदाभिमुखं स्थितम् / जगुर्मद्यं तथा हिंसां, सेवस्वाऽब्रह्म वेच्छया / / 5 / / स एवं गदितस्ताभि-योर्नरकहेतुताम्। आलोच्य मद्यरूपं च, शुद्धकारणपूर्वकम् // 6 // मद्यं प्रपद्य तद्रोगा-नष्टधर्मस्थितिर्मदात्। विदेशार्थमजं हत्वा, सर्वमेव चकार सः / / 7 / / ततश्च भ्रष्टसामर्थ्यः, स मृत्वा दुर्गतिं गतः। इत्थं दोषाऽऽकरो मद्यं, विज्ञेयं धर्मचारिमिः ||8|| एषा गमनिका-कश्चित् कोऽप्यनिर्दिष्टनामा ऋषिर्बालतपस्वी किल महाटव्यां वसन तपः-अनशनाऽऽदिकम् अतिघोरं तपस्तेपे तप्यते स्म दिव्यं वर्षसहसं यावत्, ततो भवीतो महत्तपोऽनेन कृतं मामितो नाकिनिकायनायकपपदाद् पातयिष्यतीति भावनया भयमुपगत इन्द्रः शतमखः, ततः सुरस्त्रियः नाकिनितम्बिनीस्तिलोत्तमाप्रमुखाः क्षोभाय क्षोभणनिमित्तं तस्येत्यस्येह संबन्धात्तस्य-ऋषेः प्रेषयामास स्वर्गात्तवाटव्यां प्रेषितवान् / ताश्च तत्तेजसा तद्वनप्रवेशं कर्तुमशक्नुवन्त्यो वनादहिस्तदभिमुखहृतविकसितकुसुमप्रकारा मस्तकन्यस्तहस्तकमलसंपुटमतिप्रणम्य तद्रतगुणगानप्रधाननृत्यप्रबन्धं विदधुः / ततोऽसौ तदाक्षिप्तान्तः करणश्चित्रलिखित इव बभूव / ततस्तत्समीपमुपजग्मुः। आगत्य सच समीपीभूय च ताः सुरस्त्रियः तकम्- ऋषिम्॥४॥ विनयेन विविधचाटुवचनाञ्जलिकरणपादपतनाऽऽदिना समाराध्य प्रसन्नमानसं विधाय वरस्याभिलषितार्थस्य दानं वरदानं तस्य अभिमुखस्तं स्थितं सञ्जातं जगुर्नानाविधशपथदानपुरस्सरमुक्तवत्यो, यदुत मद्यं मधु, तथेति समुच्चये, हिंसां प्राणिवधं, सेवस्व भजस्व, अब्रह्म वा मैथुन वा वाशब्दो विकल्पार्थः, इच्छया इष्ट्या यदेते तदित्यर्थः / / 5 / / स ऋषिरेवमनेन प्रकारेण गदितोऽभिहितसताभिः सुरस्त्रीभिर्द्धयोहिंसाऽब्रह्मणोनरकहेतुता निरयबन्धनताम् आलोच्य स्वशास्त्रानुसारेण निश्चित्य, तथा मद्यरूपं मदिरास्वभावं, चशब्द आलोच्येति क्रियाऽनुकर्षणार्थः / किंविधमित्याह-शुद्धानि निर्दोषाणि कारणानि निमित्तानि गुडधातकीजलप्रभृतीनि, पूर्व मद्यावस्थायाः प्राकाले यस्य तत्तथा।।६।। ततो मद्य मदिरां प्रपद्य तत्पास्यामीत्यङ्गीकृत्य, तस्य विचित्रचित्रमणिखण्डमण्डिततपनीयभाजनन्यस्तस्य सौरभ्यातिशयसमाकृष्टषट्पदपटलावनगगनमण्डलस्य करणषट्चरणचक्रलाम्पट्यप्रकृष्टताकारकस्य ताभिः ससम्भ्रममुपनीतस्य मद्यस्य भोग आसेवनं तद्भोगसतस्मात् नष्टा धर्मस्य कुशलानुष्ठानलक्षणस्य स्थितिर्व्यवस्था यस्यसतथा; ततश्च मदाचित्तविच्युतिलक्षणाद्विदंशाथ मद्यपानोपदंशार्थमजं छागं हत्वा विनाश्य सर्वमेय निरवशेषमपि यत्ताभिरभिहितमनभिहितं च पापमजपिशितपचननिमित्तमिन्धनार्थमाराध्यदेवतादारुमयप्रतिमास्फोटनऽऽदितचकार कृतवान् स इत्यसावृषिः / 7 / ततश्च मद्याऽऽसेवनानन्तरं पुनर्भष्टसागो निहततपोवीर्यः स ऋषिर्मृत्वा प्राणान् परित्यज्य दुर्गतिं नरकरूपां गतः प्राप्त इति दृष्टान्तः / अथ प्रकृतयोजनायाऽऽहइत्थमनेनोक्तप्रकारेण दोषाऽऽकरो दूषणोत्पत्तिभूमिमा मदिरा विज्ञेय ज्ञातव्यं धर्मचारिभिः कुशलानुष्ठानसेवाशीलैरिति / / 8 / हा०१६ अष्ट०। मद्येऽपि प्रकटो दोषः, श्रीहीनाशाऽऽदिरैहिकः। सन्धानजीवमिश्रत्वा-न्महानामुष्मिकोऽपि च / / 17|| मद्येऽपीति-मद्येऽपि मन्धुन्यपि प्रकटो दोषः; श्रीलक्ष्मीः, हील जा आदिना विवे काऽऽदिग्रहः तन्नाशादैहिक इहै व विपाकप्रदर्शकः तथाऽऽमुष्मिकोऽपि परभवे विपाकप्रदर्शकोऽपि,
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________________ 62 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मजणविहि महान् दोषः, सन्धानेन जलमिश्रितबहुद्रव्यसंस्थापनेन जीवमिश्रितत्वा- निचुट्विग्गो जहा तेणो, अत्तकम्मेहिं दुम्मई। जीवससक्तिमत्त्वात्, सन्धानवत्यप्यारनालाऽऽदाविव नात्र दोष इति चेन्न, तारिसो मरणंते वि, न आराहेइ संवरं // 36 // शास्त्रेणेतदुष्टत्वबोधनात् / तदाऽऽह-" मद्य पुनः प्रमादाग, तथा स इत्थंभूतो नित्योगिनः सदाऽप्रशान्तः यथा स्तेनश्चौरः आत्मकर्मभिः सचित्तनाशनम् / संधानदोषवत्तत्र न दोष इति साहसम् // 1 // " मद्य- स्वदुश्चरितैः दुर्भतिर्दुष्टबुद्धिः तादृशः क्लिष्टसत्तयो मरणाऽन्तेऽपिस्यातिदुष्टत्वं च पुराणकथास्वपि श्रुयते। चरमकालेऽपि नाऽऽराधयति संबरंचारित्रं, सदैवाकुशलबुद्ध्या लद्बीजातथाहि भावादिति सूत्रार्थः। "कश्चिद् ऋषिस्तपस्तेपे, भीत इन्द्रः सुरस्त्रियः। तथाक्षोभाय प्रेषयामास, तस्याऽऽगत्यचतास्तकम्।।१।। आयरिए नाराहेइ, समणे याऽवि तारिसो। विनयेन समाराध्य, वरदाभिमुखं स्थितम्। गिहत्था विणं गरिहंति, जेण जाणंति तारिसं // 40|| जगुर्मद्यं तथा हिंसां, सेवस्वाब्रह्म वेच्छया॥२॥ आचार्यान्नाऽऽराधयति, अशुद्धभावत्वात्, श्रमणाश्चापि ता दृशान् स एवं गदितस्ताभि-योर्नरकहेतुताम्। नाऽऽराधयत्यशुभभावत्वादेव, गृहस्था अप्येनं दुष्टशीलं गहनते कुत्सन्ति, आलोच्य मद्यरूपंच, शुद्धकारणपूर्वकम्।।३।। किमिति? येन जानन्ति तादृश दुष्टशीलमिति गाथार्थः / मद्यं प्रपद्य तद्भोगा-नष्टधर्मस्थितिर्मदात्। एवं तु अगुणप्पेही, गुणाणं च विवजओ। विदंशार्थमज हत्या, सर्वमेव चकार सः / / 4 / / तारिसो मरणंते वि, न आराहेइ संवरं / / 41|| ततश्च भ्रष्टसामर्थ्यः, स मृत्वा दुर्गतिं गतः॥ एवम् - उक्तेन प्रकारेण, अगुणपेक्षी अगुणान् प्रमादाऽऽदीन् प्रेक्षते इत्थं दोषाकरो मद्यं, विज्ञेयं धर्मचारिभिः॥५॥" तच्छीलश्च य इत्यर्थः, तथा गुणानां चाप्रमादाऽऽदीनां स्वगतानामनाइति // 17|| द्वा०७ द्वा० / दश०। सेवनेन परगतानां च प्रद्वेषेण विवर्जकः त्यागी, तादृशः क्लिष्टचित्तो, प्रतिषेधान्तरमाह मरणान्तेऽपि नाऽऽराधयति संवरं-चारित्रमिति गाथार्थः / दश०५ अ०२ सुरं वा मेरगं वाऽ वि, अन्नं वा मञ्जगं रसं। उ०। (मद्यस्य कल्पिकाप्रतिसेवना'मूलगुणपडिसेधणा' शब्दे वक्ष्यते) (वसहि' शब्दे वसतौ सुराकर्म इति प्रस्तावे मद्यप्रतिसेवा) ससक्खं न पिबे भिक्खू, जसं सारक्खमप्पणो // 36 / / *निसद् धा। उपवेशने, "नेः सदो मजः" ||14|123 / / इति सुरां वा-पिष्टाऽऽदिनिष्पन्नां, मेरकं वापि प्रसन्नाऽऽख्या, सुराप्रायोग्य निपूर्वस्य सदर्भज्ज इत्यादेशः। निषद्यते।"अत्ता एत्थ णिमज्जइ।' प्रा०४ द्रव्यनिष्पन्नमन्यं वा माद्यं रसं सीध्वादिरूप, ससाक्षिकं सदा परित्याग पाद / "मृजेरुग्घुसलुञ्छपुछपुसफु- सपुसलुहहुलरोसाक्षि केवलिप्रतिषिद्धं, न पिवेद्भिक्षुः, अनेनाऽऽत्यन्तिक एव तत्प्रतिषेधः, साणाः"||४/१०५।। मृजेरेते नवाऽऽदेशा भवन्ति। उग्घुसइ पक्षेसदासाक्षिभावात् / किमिति न पिबेदित्याह-यशः संरक्षन्नात्मनो, मजइ। मार्टि / प्रा०४ पाद। "मज्जेराउडुणिउड्डबुडखुप्पाः " यशःशब्देन संयमोऽभिधीयते, अन्येतु-स्लानापवादविषयमेतत्सूत्रमल्प |41101 / / मञ्जतेरेते आदेशा भवन्ति / आउड्डइ। णिउड्डइ। बुड्डइ। सागारिकविधानेन व्याचक्षते इति सूत्रार्थः। खुप्पइ / पक्षे-मजइ। मज्जति। प्रा०४ पाद। अत्रैव दोषमाह मज्जइत्ता अव्य० (मज्जयित्वा) स्नपयित्वेत्यर्थ, स्था०३ ठा०१ उ०। ज्ञा० / पियए एगओ तेणो, न मे कोइ वियाणइ / मज्जगरस पुं० (माद्यरस) सीध्यादिरूपे मद्यजे रसे, दश०५ अ०२ उ०। तस्स पस्सह दोसाई, नियडिं च सुणेह मे // 37 / / मञ्जण न० (मज्जन) स्नाने 'ध०२ अधि० व्यका प्रव०। नि० चू०। मजनं पिबत्येको धर्मसहायविप्रमुक्तः अल्पसागारिकस्थितो वा, स्तेन वसन्ताऽऽदिपर्वणि / अन्यत्र वा स्त्रीणां जलक्रीडायां सामान्यतो श्चौरोऽसौ भगवददत्तग्रहणात् अन्यापदेशयाचनाद्वा, न मां कश्चिजा मलदाहापशमनार्थं स्नानं वा।बृ०१ उ०३ प्रक० / ज०। उपा० ('आणंद' नातीति भावयन्, तस्येत्थंभूतस्थ, पश्यत दोषानैहिकान्, पारलौकि शब्दे द्वितीयभागे 106 पृष्ठे सूत्रम्) काँश्च, निकृतिं च मायारूपा, शृणुतममेति सूत्रार्थः। मजणग न० (मज्जनक) स्नाने, प्रश्न०१ आश्र0 द्वार। वड्डई सुंडिया तस्स, माया मोसं च मिक्खुणो। मजणगमहोच्छव पुं० (मज्जनकमहोत्सव) कन्यानां स्नानमहोत्सवे, अयसोय अनिव्वाणं, सययं च आसहुया॥३८|| स्था०७०। वर्द्धते शौण्डिका तदत्यन्ताभिष्वङ्गरूपा तस्य माया मृषावाद चेत्येकव- | मजणगय त्रि० (मज्जनगत) स्नानं कुर्वति. बृ०४ उ०। दावः प्रत्युपलब्धापलापेन वर्द्धते तस्य भिक्षोः / इद च भयपरम्पराहेतुः, मजणधरग न० (मज्जनगृहक) स्नानगेहे, मज्जनगृहाणि स्वेच्छया यत्र मजन अनुबन्धदोषात् / तथा अयशश्च स्वपक्षपरपक्षयोः, तथा अनिर्वाण, कुर्वन्ति। जी०३ प्रति०४ अधि०। रा० दशा०। ज्ञा०। तदलाभे सतत चाऽसाधुता लोके व्यवहारतः, चरणपरिणामबाधनेन मजणधाईस्त्री० (मजनधात्री स्नापिकायाम, ज्ञा०१ श्रु०० अ०नि० परमार्थत इति सूत्रार्थः। चू०। आचा०। किंच मञ्जणविहि पु० (मजनविधि) मजन स्नानं तस्य विधि:
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________________ मज्जणविहि 63 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मज्झण्ह प्रकारस्तैलाभ्यङ्गनाऽऽदिप्रक्रियापुरस्सरं स्नानम् / बृ०१ उ०२ प्रक०। स्नानयोग्यप्रक्रियायाम, बृ०१ उ०३ प्रक० / मञ्जपमाय पुं०(मद्यप्रमाद) प्रमदनं प्रमादः / प्रमत्ते, तादृशसदुपयोगाभाव इत्यर्थः मधं सुराऽऽदिस्तदेव प्रमादकारणत्वात प्रमादः / मद्यप्रभादोंदे, स्था०६ठा०। मज्जर पुं० (मार्जार)"मार्जारस्य मज्जर-वज्जरौ" ||8 / 2 / 13 / / इति मार्जारस्य मज्जर वज्जर इत्यादेशौ वा भवतः / मज्जरो / वजरी / पक्षेमार्जारः / विडाले, प्रा०२ पाद। मज्जव पुं० (मद्यप) वासुपूज्यजिनपुत्रे, ति०। ती०। पीतमद्य, वि पा०१ श्रु० अ०1"सोड मज्जवं।" (835) पाइ० ना०२४८ गाथा। मज्जा स्त्री० (मज्जा) बहुशुक्रकरे षष्ठेधातौ, तं०। अजोरुहवोदाणो, हरिगत तह तंदुलेज्जगतणे य। मत्थुलपोरगमजारपोइवल्ली य पालक्का॥१॥" (?) तं०। मञ्जाआ स्त्री० (मर्यादा) "द्य-य्य-या जः" ||8 / 2 / 24 / / इति सयुक्तस्य जः। प्रा०२ पाद / साधूना व्यवस्थायाम. आ०म०१ अ०1 नि० चू० / प्रश्न०। "गणधरमेव वरेती, जम्हाजत्तेण होति मज्जादा।" पं० भा०५ कल्प / दशम्यां गौणानुज्ञायाम्, नं०। पं० चू०३ कल्प। मजायामूलीय पुं० (मर्यादामूलीय) मर्यादा साधूनां व्यवस्था, तस्या यन्मूलं तत्र भवो मर्यादामूलीयः / मर्यादामूलभूते इच्छकारे, आ० म० 1 अ० मज्जार पुं० (माजरि) विडाले, ज्ञा०१ श्रु०१७ अ०। विशे० / प्रश्न०। विरालिकाभिधाने वनस्पतिविशेष, प्रज्ञा०१ पद। मजारकडय न० (मार्जारकृतक) विडालनिवर्तिते, "मज्जा रकडए कुकुड़मसए। भ०१ श०६ उ० / केचिद्यथाश्रुतमर्शमाहुः, अन्वे त्याहाजरि वायुविशेषस्तदुपशमनाय कृत-संस्कृत माजरिवृतम्। अपरे त्वाहुःमार्जारो विरालिकाभिधा नो वनस्पतिविशेषः, तेन कृतंभावितम्। भ०१५ श०। प्रज्ञा०। मजारखइयमंसा स्त्री० (माजरिखादितमांसा) माजरिण खादितं भक्षित मांसं यस्यास्सा / विडालभक्षितमांसायाम, पि०। मजारपाइया स्त्री० (मारिपादिका) वलयवनस्पतिभेदे, आचा०१ श्रु०१ अ०५ उ०। मजाररडियन०(मारिरटित) विडालशब्दे, मार्जाररटितप्ररूपणायाम, यथा हि मार्जारः पूर्व महता शब्देनाऽऽरटतिपश्चादेव शनैः शनेरास्टति तथा प्ररूपणा मारिरटितकल्पा।व्य०३ उ०। मज्जारी स्त्री० (मारी) विडाल्याम, "मज्जरीओ विडालीओ।" पाइ० ना०१५० गाथा। मज्जावगपुं० (मज्जक) मजयन्ति ये ते मज्जकाः। स्नापकेषु, नि० चू०६ उ०। मजावेत्ता अव्य० (मज्जयित्वा) स्नापयित्वेत्यर्थे, स्था०३ ठा०१ उ०। मजिअ त्रि० (मार्जित) शुद्धे, 'मजिअंण्हाय।" (782) पाइ० ना०२३८ गाथा। मजिआ स्त्री० (मार्जिता) सुगन्धिवस्तुमिश्रिते दुग्धे, 'मज्जि आ रसाला उ।" (772) पाइ० ना०२३७ गाथा। मजिलय पुं०(मजिलक) परस्परसहोदरभ्रातृषु, बृ०३ उ०। मज्झ न०(मध्य)"द्वितीय-तुर्ययोरुपरिपूर्वः" / / 8 / 2 / 60 // इति चतुर्थस्योपरि तृतीयः। पूर्वान्तरयोरन्तरे, अनु० / सूत्र० / 'मध्यग्रहणे आद्यन्तयोर्ग्रहणम्" इतिन्यायात्। विशे०। मध्य द्विधा-सद्भावमध्यम्, असदावमध्य च। बृ०१ उ०३ प्रक०। नि० चू०। उदरदेश, ओ०"अंतो मज्झे।'' (662) पाइ० ना०२७४ गाथा। मध्यभागे, भ०। 'ममंतियमुहत्तंसि मूले य दूरे य दीसंति ति।।" मध्यो मध्यमोऽन्तो विभागो गगनस्य दिवसस्य वा मध्यान्तः स यस्य मुहूर्तरयास्ति स मध्यान्तिकः, स चासौ मुहूर्तश्चेति मध्यान्तिकमुहूर्तस्तत्र मूले च आसन्ने देशे द्रष्ट्रस्थानपेक्षया दूरे चव्यवहितदेशे द्रष्टप्रतीत्यपेक्षया सूर्या दृश्येते, द्रष्टा हिमध्याह्ने उदयास्तमनदर्शनापेक्षयाऽऽसन्नं रविं पश्यति योजनशताष्टकेनैव तदा तस्य व्यवहितत्वात्, मन्यते पुनरुदयास्तमयप्रतीत्यपेक्षया व्यवहितभिति। भ०८ श०८ उ०। प्रश्न०। रागद्वेषयोरन्तराले, सूत्र०१ अ०४ उ०।"मे मइ मम मह महं मज्झ मज्झं अम्ह अम्हंङसा" ||8|3.113|| अस्मदो डसा षष्ठ्येकवचनेन सहितस्य एते नवाऽऽदेशा भवन्ति / मज्झ। मम / प्रा०३ पाद।"णे णो मज्झ अम्ह अम्हं अम्हे अम्हो अम्हाण ममाण मम्हाण आमा" ||8 / 3 / 114|| अस्मदा आमा सहितस्यैते एकादशाऽदेशा भवन्ति / 'मे गइ मज्झ' इत्यादि। अस्माकम् / प्रा०३ पाद। "साध्वसध्यह्यां ज्झः" ||8426 / / साध्वसे संयुक्तरय ध्यहायोश्च ज्झो भवति / मज्झमं / प्रा०४ पाद / "ङस्ङस्योहे।" |4|350|| अपभ्रंशे स्त्रियां वर्तमानान्नाम्नः परयोर्डस्डसि इत्येतयोर्हे इत्यादेशो भवति। 'मज्झहे।' प्रा०४ पाद। मज्झगय-न०(मध्यगत) आनुगामिकावधिज्ञानभेदे, नं०। से किं तं मज्झगयं ? मज्झगयं से जहानामए केइ पुरिसे उक्कं वा चडुलियं वा अलातं वा मणिं वा पईवं वा जोई वा मत्थए काउं समुव्हमाणे समुव्हमाणे गच्छिज्जा, से तं मज्झ गयं / / 10 // (मध्यगतं चेति) इह मध्यं प्रसिद्ध दण्डाऽऽदिमध्यवत्, ततो मध्ये गतं मध्यगतम्, इदमपि त्रिधा व्याख्येयम्, आत्मप्रदेशानां मध्ये मध्यवर्तिष्वात्मप्रदेशेषु गतं स्थितं मध्यगतम् / इदं च स्पर्धकरूपमवधिज्ञानं सर्वदिगुपलग्भकारणं मध्यवर्तिनामात्मप्रदेशानामवसेयम् / अथवासर्वषाभप्यात्मप्रदेशानां क्षयोपशमभावेऽप्यौदारिकशरीरमध्यभागेनोपलब्धिस्तन्मध्ये गतं मध्यगतम् / उक्तं चूर्णा-"ओरालियसरीरमज्झे फडुगविसुद्धीओ सव्वायप्पएसविसुद्धीओ वा सव्वदिसोवलंभत्तणओ मज्झगउत्ति भन्नति।" अथवा-तेनावधिज्ञानेन यदुद्योतित क्षेत्रं सर्वासु दिक्षु तस्य मध्ये मध्यभागे गतं स्थितं मध्यगतम्, अबधिज्ञानिनः तदुद्योतितक्षेत्रमध्यवर्तित्वात्। आह च चूर्णिकृत्-"अहवा-उवलद्धिखेत्तरस अबहिपुरसो मज्झगउ त्ति अंतो वा मज्झगओ ओही भन्नई।" नं०। मज्झगार पुं० (मध्यकार) मध्य एव मध्यकारः, कारशब्दस्य स्वार्थिकत्वात्। ज्ञा०१ श्रु०१७० / स्था० / अनु०। मज्झजिब्भा स्त्री० (मध्यजिह्वा) जिह्वाया मध्यभागे, स्था०५ ठा०। मज्झण्ह पुं० (मध्याह्न)"मध्याह्न हः" ||चाश६४।। इति मध्याह्ने
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________________ मज्झण्ह 64 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मज्झमबुद्धि हस्य लुग्वा / 'मज्झण्हो / मज्झन्नो।' दिनमध्ये, प्रा०२ पाद। स्था०। सहेतुकम्॥१॥" आव०४ अ०। आसंसारमशुमता मध्येऽन्तर्भवतीति आ०म०।"रविस्स गतिपरिणअस्स मज्झे दरिसणं सो मज्झण्हकालो | मध्यस्थो लोभः। सूत्र०१ अ०१ उ०। यो०वि०। भवति।" आ० चू०१ अ०। मज्झत्थभावणा स्त्री० (माध्यस्थ्यभावना) प्रकर्षवशप्रवृत्तशुक्लध्याने, मज्झत्थपुं० (मध्यस्थ) मध्ये रागद्वेषयोरंन्तराले तिष्ठतीति मध्यस्थः। जीवा०१ अधि०। सर्वत्रारक्तद्विष्टे, व्य०१ उ० / पं० 20 / रागद्वेषत्यक्तधीके, प्रव०२३६ मज्झत्थभावभूय त्रि० (मध्यस्थभावभूत) मध्यस्थभावं प्राप्ते, स्था०८ द्वार / 0 / आव०। सर्वेषु सत्त्वेषु समचित्ते, प्रव०६५ द्वार। रागद्वेषरहिते, टा०। ध०१ अधि० / आचा० / दुःषमानुभावेन बलाऽऽद्यपगमान्मध्यभूतैव मज्झत्थवयणया स्त्री० (मध्यस्थवचनता) अनिश्चितवचनतायाम्, वर्तनी श्रेयसी नोत्सर्गावसर इति। उक्तं हि-"नात्यायतं न शिथिल, स्था०८ टा०। यथा युञ्जीत सारथिः / यथा भद्र वहत्यत्र, योगः सर्वत्र पूजितः।।१।।" मज्झत्थसोम्मदिट्टि पुं०(मध्यस्थसौम्यदृष्टि) एकादशगुणं प्राप्ते श्रावके, आचा०१ श्रु०६ अ०४ उ०। मध्यस्थः समः य आत्मानमेव परं पश्यति। ध००। आ०म०१ अ०। अत्युत्कटरागद्वेषविकलतया समचेतसो मध्यस्थाः / सम्प्रति मध्यस्थसौम्यदृष्टिलक्षणमेकादशं गुणमभिधित्सुराहदर्श०५ तत्त्व। मज्झत्थसोम्मदिट्ठि, धम्मवियारं जहाट्ठियं मुणइ। स्थीयतामनुपालम्भं,मध्यस्थेनान्तराऽऽत्मना। कुणइ गुणसंपओगं, दोसे दूरं परिचयइ / / 18| कुतर्ककर्करक्षेपै-स्त्यज्यतां बालचापलम् // 1 // मध्यस्थाक्वचिद्दर्शन पक्षपातविकला, सौम्या च प्रद्वेषाभावाद् दृष्टिदर्शन मनोवत्सो युक्तिगवी , मध्यस्थस्यानुधावति। यस्य स मध्यस्थसौम्यदृष्टिः / सर्वत्रारक्तद्विष्ट इत्यर्थः, धर्मविचारं तामाकर्षति पुच्छेन, तुच्छाऽडग्रहमनः कपिः / / 2 / / नानापाषण्डमण्डलीमण्डपोपनिहितधर्मपण्यस्वरूपं यथावस्थित नयेषु स्वार्थसत्येषु, मोघेषु परचालने। सगुणनिर्गुणाल्पबहुगुणतया व्यवस्थितं कनकपरीक्षानिपुणविशिष्टकनसमशीलं मनो यस्य, स मध्यस्थो महामुनिः / / 3 / / काधिपुरुषवत् 'मुणति' बुध्यते, अत एव करोति विदधाति गुणसंप्रयोग स्वस्वकर्मकृताऽऽवेशाः, स्वस्वकर्मभुजो नराः। गुणैानाऽऽदिभिः सह संबन्धदोषान् गुणप्रतिपक्षभूतान (दूर ति) दूरेण न रागं नापि च द्वेष, मध्यस्थस्तेषु गच्छति / / 4 / / परित्यजति, परिहरति सोमवसुब्राह्मणवत्। ध० 01 अधि०११ गुण। मनः स्याद्व्यापृतं याव-त्परदोषगुणप्रहे। मज्झदेश पुं० (मध्यदेश) दक्षिणभरतार्द्ध मध्यभागे, ति० / कार्य व्यग्रं वरं ताव-न्मध्यस्थेनाऽऽत्मभावने / / 5 / / मज्झदेसगभाग पुं० (मध्यदेशभाग) मध्यश्चासौ देशभागश्च देशावयवो विभिन्ना अपि पन्थानः, समुद्रं सरितामिव। मध्यदेशभागः। देशमध्याऽवयवे, स्था०४ ठा०२ उ०। मध्यस्थानां परं ब्रह्म, प्राप्नुवन्त्येकमक्षयम् / / 6 / / मज्झम त्रि० (मध्यम) अन्तरालवार्त्तिनि, चत्वारिंशद्वर्षेभ्यः परं यावत् स्वाऽऽगमं रागमात्रेण, द्वेषमात्रात्पराऽऽगमम्। सप्ततिरेकेन वर्षेणोना तावन्मध्यमं वयः। वय०३ उ०।द्वा०। न श्रयामस्त्यजामो वा, किं तु मध्यस्थाया दृशा / / 7 / / मज्झमबुद्धि पुं० (मध्यमबुद्धि) मध्यमविवेकसम्पने, षो०१ विव०। मध्यस्थया दृशा सर्वे-व्वपुनर्बन्धकाऽऽदिषु / ____ मध्यमबुद्धिचरितं पुनरेचम् - चारिसञ्जीवनीचार-न्यायादाशास्महे हितम् // 8|| अष्ट०१६ "अस्त्यत्र भरतक्षेत्रे, पुरंक्षितिप्रतिष्ठितम्। अष्ट तत्र कर्मविलासाऽऽख्यो, राजा वीर्यनिधानभूः / / 1 / / मौनशीले, दर्श०५ तत्त्व / मध्यस्थो मौनशीलः स्वप्रतीतानपि कस्यापि तस्य प्रणयिनीज्येष्ठा, यथार्था शुभसुन्दरी। दोषान्न गृह्णाति, तद्ग्रहणाद्धि अभूतलोकविरोधितया धर्मक्षति- अन्याऽकुशलमालाऽख्या, शालेव सकलाऽपदाम्।।२।। सम्भवात्; अथवाऽतिती वरागद्वेषमोहोपशमतया यथावस्थितवस्तु- तयोर्मनीषिबालाऽऽख्यौ, पुत्रौ प्रेमपरौ मिथः। स्वरूपपर्यालोचको मध्यस्थस्तदन्यदृशाश्च नेदृशाः सम्भवन्ति / यत स्वदेहोद्यानमन्येधु-स्तौ गतौ क्रीडितुं मुदा।।३।। उक्लम् 'रक्षो दुद्धो मूढो, पुचि कुग्गाहिओ य चत्तारि / उपएसस्स ताभ्यामदर्शि तत्रैकः, पुमानुबन्धतत्परः। अणरिहा, अरिहा पुण होइ मज्झत्थो।।१।।" दर्श०२ तत्त्व। सर्वशिष्येषु बालः पाशमपास्याऽथ, पप्रच्छोद्न्धकारणम्॥४॥ समचित्ते, ग०१ अधि० / विशे० ध०र० / सर्वत्र तुल्यचित्ते,तथाहि- अमुना प्रश्नितेनाल-मित्युक्त्वोल्लम्बयन् पुनः। "उवसम सारवियारो, वाहिज्जइ नेव रागदोसेहिं / मज्झत्थो हियकामी, निवार्थ सादरं पृष्टो, बालेनेदं स ऊचिवान् / / 5 / / असगह सव्वहा चयइ // 73 // " ध०र०२ अधि०६लक्ष०।"घटमौली- स्पर्शनाऽऽख्यस्य मे भद्र! भवजन्तुरभूत्सखा। सुवर्णार्थी, नाशोत्पत्तिस्थितिष्वयम्। शोकप्रमोदमाध्यस्थ्यं,जनो याति समं सदागमेनोचैः, स मैत्रीयन्यदाऽकरोत्॥६॥
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________________ मज्झमबुद्धि 65 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मज्झमबुद्धि ततः प्रभृति जज्ञेऽसौ, त्रुट्यत्प्रेमा ममोपरि। ललनातूलिकात्यागी, सुदुस्तपतपोरतः / / 7 / / अङ्गीकृतबहुक्लेशः, केशलुञ्चनलालसः। मूकाष्ठशय्याशयनः, प्रान्तरूक्षाशनो भृशम्।।८। युग्मम्। स्फूर्जदूर्जस्वलध्यानो, ज्ञानोत्साहितभावनः। मा मुक्त्वा मदगम्यायां, स ययौ निर्वृतौ पुरि।।६।। ततो मित्रवियुक्तेन, मयेदं भोश्चिकीर्षितम्। श्रुत्वेति तद् दृढप्रेमा, प्रीतो बालोऽभ्यधादिति।।१०।। मित्रवात्सल्ययुक्तानां, दृढसौहार्दशालिनाम्। परोपकारशीलान, युक्तमेतद्भवादृशाम्॥११॥ यतःमित्रस्य विरहे स्थातुं, क्षणमप्युचितंन हि। मनस्विनामितीवाशु, दिवसेनास्ति मीयते॥१२॥ अहो ते मित्र ! वात्सल्य-महो ते स्थिररागिता। अहो तव कृतज्ञत्व-महोते साहसं दृढम्॥१३॥ भवजन्तोःपुनरहो, क्षणरक्तविरक्तता। अहो हृदयकाठिन्य-महो मौढ्यमनुत्तरम्॥१४|| तथापि धीर! धीरत्वं, कृत्वा हित्वा तथा शुचम्। स्वास्थ्यं धेहि मुदं देहि, मम मित्रं भवाऽधुना।।१५।। स्पर्शनोऽप्याख्यदित्यस्तु, भवजन्तुरिवासि मे। ततस्तेन व्यधान्मैत्री , बालः प्रीतान्तराऽऽत्मना।।१६।। सदागमत्याजितत्वा-नून नैष शुभाऽऽशयः। मनीषिणेति विदधे, बहिर्वृत्त्या त्वसौ सखा / / 17 / / तौ तं वृत्तान्तमाख्याता, मातापित्रोर्यथास्थितम्। ततो राजाऽभवद् भूरि-हर्षद्रुमविहङ्गमः।।१८।। उवाचाऽकुशला हृष्टा, साधु साध्वसि पुत्रक!। यत्त्वया सर्वसौख्यानां, खनिरेष सखा कृतः॥१६॥ अथ युग्मम् - टुषार इव पद्मस्य, स्वर्भानुरिव शीतगोः। स्पर्शनोऽयं सखा सौख्य-कारणं मे सुतस्य न॥२०|| एवं विषादविवशाऽचिन्तयच्छुभसुन्दरी। किंतु नाचीकथत्किञ्चिद, गाम्भीर्यात्स्यसुतं प्रति॥२१।। स्पर्शनमूलशुद्ध्यर्थ, परेद्यवि मनीषिणा। आहूय रहसि प्रोक्तो, बोधो नामाङ्गरक्षकः॥२२॥ भद्रास्य मूलशुद्धिं मे, शीघ्रं ज्ञात्वा निवेदय। यदाज्ञापयति स्वामी-त्युक्त्वाऽसौ निरगात्ततः॥२३॥ तेनाऽऽत्मीयः प्रभावाऽऽख्यः, प्रैषि प्रणिधिपूरुषः। प्रस्तुतार्थाय सोऽन्येधु-र्यात्वाऽगाद्बोधसन्निधौ // 24 // ततः कृता वनामोऽसौ, बोधेनाप्रच्छिसादरम्। प्रभाव! कथयाऽऽत्मीयं, वृत्तान्तं सोऽप्यथाऽऽख्यत॥२५॥ इतस्तदा हि निर्गत्य, बाह्यदेशेषु वंभ्रमम्। भयान चाऽपि गन्धोऽपि, प्रस्तुतार्थस्य तेष्वथ।।२६।। आगामाऽन्तरदेशेषु, तत्र चापश्यमुल्ल्व णम्। पुरं राजसचित्ताऽऽख्यं, समन्तात् तमसाऽन्वितम्॥२७॥ पुरे तस्मिन्नहं यावत्, प्राप्तो राजकुलाऽन्तिकम्। तावदुल्लसितोऽकाण्ड, एव कोलाहलध्वनिः।।२।। अथ त्रिभिर्विशेषकम्ब्रह्माण्डभाण्डसंव्यापि, स्फूर्जद्घणघणारवाः। स्वौल्याऽऽदिभूपाधिष्ठाना, मिथ्यामानाऽऽदयो रथाः॥२६।। गर्जितर्जितजीमूताः, ममत्वाद्या मतङ्गजाः। हेषाऽऽपूरितदिकचक्राः, अज्ञानाऽद्यास्तुरङ्गमाः।।३०।। अन्ये करणसङ्घट्ट-प्रौढनियूंढसाहसाः। चेलहीतनानास्त्रा-श्चापलाऽऽद्याः पदातयः / / 31 / / प्रासर्पदर्पकन्दर्प-पटहोद्धोषणा क्षणात्। प्राचलीदचलस्थामा, परमप्यमितं बलम्।।३।। पृष्टो मयाऽथ विषया-ऽभिलाषस्यैव पूरुषः / विपाकाऽऽख्यः समाचख्यौ, राज्ञः प्रस्थानकारणम्॥३३॥ भो भद्राऽत्राऽस्ति वैरिभ-कुम्भनिर्भदकेसरी। मुख्यश्चरटचक्रस्य, नरेन्द्रो रागकेसरी॥३४॥ तस्याऽस्ति मन्त्री विषयाऽभिलाषो नाम विश्रुतः। चण्डमार्तण्डवत् प्रौढः, प्रतापाऽऽक्रान्तविष्टपः // 35 // रागकेसरदेवेन, समन्त्रीशोऽन्यदामुदा। जगदे जगदेतन्मे, वश्यं कुरु विशारद ! // 36 // ओमित्युक्त्वा महामन्त्री, विश्ववश्यत्वहेतवे। स्पर्शनाऽऽदीनि पञ्चस्वमानुषाणि समाऽऽदिशत्॥३७।। मन्त्रिणोचेऽन्यदा देव ! देवशासनतो मया। स्वमानुषाणि प्रेष्यन्त, जगत्साधनहेतवे॥३८|| तैः साधितं जगत्प्रायो,ग्राहितं देवशासनम्। केवलं श्रूयते कश्चित्सस्यानामीतिसवत्॥३६॥ तेषामुपद्रवकरः, स्फुटोद्भटपराक्रमः। सन्तोषनामा चरटः, कूटः कपटपाटवः।।४।। भूयो भूयः पराभूय, तानि तेन कियान जनः। देवभुक्केबहिः स्थायां, प्रक्षिप्तो निर्वृतौ पुरि।।४१।। तन्मन्त्रिवचनं श्रुत्वा, कोपाऽऽटोपारुणेक्षणः। तस्योपरि स्वयं देवः, प्रतस्थे रणकर्मणे॥४२॥ इतश्चास्मारि देवेन, तातपादाभिवन्दनम्। तरड़ेणेव पाथोधेर्ववले च क्षणात्ततः॥४३।। विपाकोऽथ मया नाथ!, सम्भ्रमोभ्रान्तचक्षुषा। पृष्टः कोऽस्य नरेन्द्रस्य, पितेति मम कथ्यताम्॥४४।। ईद्विहस्स सप्रोचे, ननु मोहो महानृपः। त्रिलोकीख्यातमहिमा, दध्यौ वृद्धोऽन्यदेति सः॥४५।। पार्श्वस्थितोऽपि वीर्येण, क्षमोऽहं रक्षितुं जगत्। तेनाधुना प्रयच्छामि, साम्राज्यं निजसूनवे॥४६|| राज्यं देवाय दत्त्वाऽथ, शेते मोहो निराकुलः। तथाऽपीदं जगत्तस्य, प्रभावेणैव वर्त्तते॥४७॥ तदेष मोहराजस्ते, कथं प्रष्टव्यतां गतः। व्याहारि हारिवचनं, ततस्तं प्रत्यदो मया॥४८|| भवता भद्र ! पापोऽहं, साधु साधु प्रबोधितः। परं निवेद्यतामग्रे, किमभूत्सोऽप्यथावदत्॥४६॥ गत्वा सारपरीवार-युक्तो देवः पितुः क्रमौ। ननामैनं च वृत्तान्तं, मूलतोऽपिव्यजिज्ञपत्॥५०॥ मोहोऽवोचत हे वत्स! यन्मदङ्गस्य बाध्यते। पामाव्याप्तमयस्येव, तत्सारं किल सम्प्रति॥५१।। तत्त्वं तिष्ठ निजं राज्यं, सुचिरं प्रतिपालय। सन्तोषशत्रुघातार्थ-महं यास्यामि सङ्गरे।।५२।। देवः श्रुती पिधायाऽऽख्यः-दाः ! शान्तं पातकं ह्यादः। अनन्तकालसंस्थायि, तानीयं भवताद्वषुः / / 53||
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________________ मज्झमबुद्धि 66 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मज्झमबुद्धि देवेन वार्यमाणोऽपि, मोहः सर्वाभिसारतः। स्वयं चचाल भद्रदं, राज्ञः प्रस्थानकारणम्॥५४॥ इत्युक्त्वा स ययौ तूर्ण, चित्ते दध्यावहं पुनः। अये ! स्पर्शनसंशुद्धिर्लब्धेयं सकला मया।।५।। किं त्विदं घटते नायं, यत्सन्तोषात्पराभवम्। स्पर्शनस्याऽऽह स पुन-स्तमाचख्यौ सदागमात्॥५६॥ तत्तस्यानानुचरः कोऽपि, सन्तोषो भवता ह्ययम्। एवं वितर्कयन्नागात, प्रणामस्वाम्यतः परम्॥५७।। बोधेनाभिदधे साधु, प्रभावानुष्ठितं त्वया। तेनैव सहितो बोधो, ययौ पार्वे मनीषिणः / / 58|| कृता नतिः कुमाराय, तं वृत्तान्तंन्यवीविदत्। प्रभावं पूजयामास, प्रीताऽऽत्मा नृपनन्दनः / / 5 / / मनीषिणाऽन्यदा प्रोचे, स्पर्शनाऽऽख्याहि किं तव। चक्रे सदागमेनैव, मित्रेण विरहो ननु॥६०|| तत्राऽऽसीत्किमुतान्योऽपि, सस्माहाऽऽसीत्परं सखे ! / कृतं तत्कथया यन्मां, स कदर्थयते भृशम्॥६१।। कर्ता हि सैव सर्वस्यो-पदेष्टव सदागमः। भूयः किं तस्य नामेति, तं पप्रच्छ नृपात्मजः।।६।। भयविह्वल ऊचेऽसौ,तस्याहं क्रूरकर्मणः। नामाऽप्युचरितं नेश-स्ततोऽवादीद् नरेन्द्रसूः।।६३।। त्वया नैवास्मदभ्यर्णे, भीतिः कार्या मनागपि। भद! नह्यग्निरित्युक्ते, मुखदाहः प्रजायते॥६४॥ अथ ज्ञात्वाऽतिनिर्बन्धं, स्पर्शनः स्माह दैन्यभान्। सन्तोष इति दुर्नाम्, तस्य पापशिरोमणेः॥६५।। नरेन्द्रनन्दनोदध्या-वियता सकलोऽप्यहो। प्रभावानीतवृत्तान्तो, घटाकोटिमटीकत॥६६॥ अन्यदा स्पर्शनः सिद्ध-योगिवत्तत्पुरेऽविशत्। बालोऽतीव वशीभूतो, मनीषी तु तथा न हि // 67|| ताभ्यां सर्वः प्रबन्धोऽयं, स्वस्वमात्रोर्निवेदितः। उवाचाऽकुशला बालं, वत्सेदंसाधु साध्वभूत्॥६॥ स्वसुत मधुरवाक्यर्वभाषे शुभसुन्दरी।। वत्सास्य पापामत्रस्य, सम्बन्धस्ते न सुन्दरः / / 66 / / सोऽभ्यदादेवमेवैत-न्मातः! किं क्रियते परम्? प्रतिपन्नमकाले हि, सता हातुंनयुज्यते।७०|| शुभसुन्दर्यथावोच-दहो ते वत्स ! सन्मतिः। अहो ते नतवात्सल्य-महोते नीतिनैपुणम्।।७१।। तथाहिनाकाण्ड एव मुञ्चन्ति, सदोषमपि सज्जनाः। प्रतिपन्नं गृहे स्थायी, तत्रोदाहरणं जिनः 1172 / / यस्तुमूढतया काले, प्राप्तेऽपि न परित्यजेत्। सदोषं लभते तस्मात्संक्षय नात्र संशयः // 73 // कर्मविलासराजोऽपि, तज्ज्ञात्वा दयितामुखात्। तुष्टोमनीषिणो गाढं, रुष्टो बालस्य चोपरि।।७४|| अभूत्यक्तान्यकर्त्तव्यो, बालः स्पर्शनदोषतः। विलसन्मृद्वपस्मारोत्सारम्परितचेतनः / / 7 / / तन्मूलशुद्धिमाख्याय, बालः प्रोक्तो मनीषिणा। स्पर्शनेऽत्र रिपौ भ्रातः! मा विश्रम्भ कथाः क्वचित् // 76 / / बालो जजल्प हे बन्धो। निःशेषसुखदायकः। अयं वरवयस्यो मे, कथं शत्रुस्त्वयोदितः ? // 77 / / दध्यौ मनीषी बालोऽयमुपदेशशतैरपि। अकार्यकरणोद्युक्तो, निषेद्धं पार्यतेन हि॥७८|| अकार्ये दुर्विनीतेषु, प्रवृत्तेषु ततः सदा। न किञ्चिदुपदेष्टव्यं, सता कार्याऽवधीरणा // 76 / / इत्यालोच्य स्वयं चित्ते, हित्वा बालस्य शिक्षणम्। स्वकार्यकरणोद्युक्तो, मनीषी मौनमाश्रितः।।८०॥ अथ सामान्यरूपाऽऽख्या, प्रिया तस्यैव भूपतेः। अस्तिमध्यमबुध्याख्य स्तस्याश्च तनयो नयी।।१।। तदा देशान्तरादागात्स दृष्ट्वा स्पर्शनं मुदा। बालं पप्रच्छ कोऽयं ना, सऊचे तस्य वल्गितम्॥८२|| ततो बालस्य वचना-त्स्पर्शनो मध्यमाङ्गके। प्राविशत्तेन जज्ञेऽसौ,बालवद्विह लाशयः / / 83 // मनीषी तत्तु विज्ञाय, मध्यमायन्यवेदयत्। मूलात्स्पर्शसंशुद्धिं, स दध्यौ संशयाऽऽकुलः / / 84|| एकतः स्पशेसत्सौख्य-मन्यतो भ्रातवारणमा न हि जानाम्यहं सम्यक्, किं विधातु ममोचितम् ? ||85 / / तत्पृच्छामि सदा सौख्य-जननी जननीमिति। ध्यात्वा निवेद्य वृत्तं स्वं, कृत्यं पप्रच्छतां ततः।।८६|| जगाद साऽपि माध्यस्थ्य-मधुना धेहि नन्दन!। कालान्तरे तु बलिनं , पक्षं निर्दोषमाश्रयेः।।८७॥ यतःसंशयाऽऽपन्नचित्तेन, भिन्ने कार्यद्वये सता। कार्यः कालबिलम्बोऽत्र, दृष्टान्तो मिथुनद्वयम्॥८८|| तथाहिपूरे कस्मिन् ऋजोः राज्ञः, प्रगुणा नाम पत्न्यभूत्। तस्याश्च तनयो मुग्धो, वधूश्चाऽकुटिलाभिधा / / 6 / / पुष्पोचयकृतेऽन्यधु-स्ते मुग्धाऽकुटिले मधौ। स्वगेहोपवनेऽयाता, गृहीत्वा हेमशूर्पिके / / 60|| कः पूर्वं पूरयेच्छूप-मित्याशयप मिथः। दूर दूरतरं जातौ, चिन्वानौ कुसुमोच्चयम्।।६१|| इतश्च व्यन्तरयुगं, तत्रागात्केलिलालसम्। देवी विचक्षणा नाम, देवः कालज्ञसंज्ञितः / / / / देवो देवानुभावेना-नुरक्तोऽकुटिला प्रति। मुग्धं प्रति पुनर्देवी, देवोऽवादीत् प्रियामथ // 63|| प्रिये ! गच्छ पुरो याव-द्भपालोपवनादितः। पुष्पाण्यादाय पूजार्थ-मेष आयामि सत्वरम्॥१४॥ संकेतं च तयोत्विा , विभङ्गेन सुरः क्षणात्। विधाय मुग्धरूपं स्वं, पुष्पैर्मृत्वा च शूर्पिकाम्।।६५|| आगादकुटिलापार्वे, जिताऽसि त्वं प्रिये ! भणन। विपन्नां तां च संभाष्य, निनाय कदलीगृहे / / 6 / / एवं विचक्षणाऽप्याश्व-कुटिलारूपधारिणी। प्रतार्य मुग्धकं निन्ये, तदैव कदलीगृहे / / 7 / / तद्वीक्ष्य मुग्धधीमुग्धो, वितर्काकुलितोऽजनि। बभूव विस्मयस्मेराऽकुटिलाऽकुटिलाशया / 68|| दध्यौ देवाङ्गना केयं, द्वितीया हुं मम प्रिया। तत्परस्त्रीकृताऽऽसङ्गं, हन्भ्येनं पुरुषाऽधमम्।।६।। स्वैरिणीं दयितां चेमां, पीडयामि दृढं तथा। असौ यथा नरेऽन्यत्र, विधत्ते न मनोऽपि हि 9000 यद्वा स्वयं सदाचार-भ्रष्टस्यममनोचितम्। कर्तुमेतादृशं कर्म, तद्वरं कालयापना॥१०१।। ध्यात्वा विचक्षणाऽप्येवं,कालक्षेपपराऽभवत्।
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________________ मज्झमबुद्धि 67- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मज्झमबुद्धि क्षणं प्रक्रीड्य तत्रागा-त्स्वगेहे तच्चतुष्टयम्॥१०२।। तं दृष्ट्वा सप्रियो राजा, प्रीत आख्यादहा सुतः। वधूश्च मे द्विगुणिता, वनदेव्या प्रसन्नया।।१०३|| सकलेऽपि पुरे हर्षान्महोत्सवमचीकरत्। तेषां चतुर्णामप्येवं, ययो कालः कियानपि॥१०४॥ अथ तत्र पुरे मोह-विलयाऽऽख्ये सुकानने। सूरिः प्रबोधको नाम, ज्ञानवान् समवासरत् / / 105|| अथलोका नरेन्द्राऽऽद्या, वन्दनायै मुनीशितुः। निर्ययुभंगवांस्तेभ्य, इति चक्रे सुदेशनाम्॥१०६।। शल्य कामाः विष कामाः, कामा आशीविषोपमाः। कामार्थनापरा जीवा, अकामा यान्तिदुर्गतिम्॥१०७|| तच्छृण्वतोगुरोर्वाक्यं, तयोर्देवीसुपर्वणोः। मोहजालं प्रविध्वस्तं, जाता सम्यक्त्ववासना।।१०८|| अत्रान्तरे, तयोर्दैहात्, कृष्णरक्ताऽणुसञ्चयैः / 'निर्गतैीषणाऽकारा, घटितैका नितम्बिनी11१०६।। सा च भागवत तेजोऽसहन्ती पर्षदो बहिः। गत्वा परामुग्रीभूयाऽवतस्थे दुःस्थिताऽऽशया॥११०॥ अथोत्थायावदद् देवः, सप्रियो भवन्नहम्। कथमस्मान्महापापा-न्मुच्ये प्रोचे मुनीश्वरः / / 111 // नायं भो भवतोर्दोषः, किं त्वस्याः पापयोषितः। काऽसावितिगुरुः पृष्टः, प्राहामृतकिरा गिरा।।११।। भद्रौ ! विषयवृ (तृ) ष्णेयं, दुर्जया त्रिदशैरपि। रजनीव तमिस्रस्य, सर्वदोषततेः पदम्॥११३॥ शुद्धस्फटिकसङ्काशौ, स्वरूपेण युवा पुनः। एषैव सर्वदोषाणां, कारणत्वेन संस्थिता / / 114 / / इह स्थातुमशक्तेति, दूरमेषा स्थिताऽधुना। भवन्तौ मत्समीपाच, निर्गच्छन्तौ प्रतीक्षते॥११५।। तौ प्रोचतुः कदा स्वामिन् !, मोक्षो नो भविताऽनया। गुरुः प्राऽऽह भवे नात्र, परं भावी भवान्तरे।।११६|| किन्तु सम्यक्त्वमाहात्म्यान्नात्यन्तं नो विवाधिका। प्रतिपन्नं ततस्ताभ्यां, सम्यक्त्वं मोक्षसौख्यदम्॥११७।। ऋजुराट् प्रगुणा देवी, समुग्धोऽकुटिला तथा। अथो विज्ञापयामासुर्गुरु स्वस्वबिडम्बनाम्॥११८|| अत्रान्तरे तदङ्गेभ्यो, निर्गतैः परमाणुभिः। घटितं वर्णतः श्वेतं, डिम्भमेकमदम्भकम्।।११६॥ रक्षितानि मया यूयं, वुवाणमिति चोच्चकैः। पश्यद्गुरोर्मुखाम्भोज, सर्वेषां पुरतः स्थितम्॥१२०॥ युग्मम्। द्वितीयं कृष्णवर्णाभं, डिम्भंतदनु निर्ययौ। ततो जातं महाकृष्णं, डिम्भरूप तृतीयकम्।।१२१।। आहत्य तच्च शुक्लेन, वर्द्धमानं निवारितम्। ततोद्वे अपि ते कृष्णे, निर्गत गुरुपर्षदः॥१२२।। गुरुः प्रोवाच भो भद्राः!,न दोषो वोऽत्र कश्चन। अज्ञानपापाभिधयोः, किं त्वसौ कृष्णडिम्भयोः॥१२३।। तथाहिपत्र चेदिदमज्ञानं, युष्मद्देहाद्विनिर्गतम्। एतदेव समस्तस्य, दोषवृन्दस्य कारणम्॥१२४|| अनेन वर्तमानेन, शरीरे जन्तवो यतः। कार्याकार्य न जानन्ति, गम्यागम्याऽदिकं तथा।।१२५।। ततः पापं निबध्नन्ति, दुःखदन्दोलिदायकम्। यत्तु पूर्व सितं डिम्भं, तदार्जवमुदाहृतम्॥१२६|| अज्ञानाद्वर्द्धमान हि, पापं वोऽवार्यताऽमुना। रक्षितानि मया यूय-मत एवेदमाख्यत॥१२७।। यतःधन्यानामार्जवं, येषामेतचेतसि वर्तते। अज्ञानादाचरन्तोऽपि, पापं ते स्वल्पपातकाः।।१२।। तदेवंविधभावानां, भद्राणां युज्यतेऽधुना। अज्ञानपापे निर्दूय, सम्यग् धर्मनिषेवणम्।।१२६।। उपादेयो हि संसारे, धर्म एव बुधैः सदा। विशुद्धोमुक्तये सक्, यतोऽन्यदुःखकारणम्॥१३०।। अनिव्यः प्रियसंयोगः, ईर्ष्याशोकाऽऽदिसडलः। अनित्यं यौवनं चापि, कुत्सिताऽऽचरणाऽऽस्पदम्।।१३१।। अनित्यं सर्वमवेह, भवेवार्द्धितरङ्ग वत्। अतो वदत किं युक्ता, क्वचिदास्था विवेकिनाम् ? ||132 / / श्रुत्वेति राज्ये संस्थाप्य,शुभाऽऽचाराभिधं सुतम्। प्राब्राजीदृजुभूपालो, जायापुत्रवधूयुतः॥१३३॥ ततस्ते कृष्णरूपे द्वे, डिम्भे तूर्ण पलायिते। शुक्लरूपं पुनर्दिम्भ, प्रविष्टं तनुषु क्षणात्।।१३४॥ कालज्ञेन ततश्चित्ते, सभार्येण विचिन्तितम्। पश्याहो धन्यताऽमीषां,यैः प्राप्तं व्रतमार्हतम्॥१३५|| वयं तु दैवभावेन, व्यर्थ केनाऽऽत्र वञ्चिताः। यद्वा सम्यक्त्वसंप्राप्त्या, सुधन्या वयमप्यहो॥१३६।। सहर्षावथतौ सूरेः, प्रणम्य चरणद्वयम्। तेनानुशिष्टौ स्वस्थानं, प्रापतां देवदम्पती॥१३७।। इदं पुत्र ! मया तुभ्यं, कथितं मिथुनद्वयम्। संदिग्धेऽर्थे हि तत्काल-विलम्बो गुणभाजनम्॥१३॥ यदादिशति मामम्बा, कर्ताऽहं तत्तथैव हि। इति जल्पन्मुदा मध्यः, प्रपेदे जननीवचः।।१३६।। बालोऽप्यथ स्वमित्रेण, मात्राऽकुशलमालया। अधिष्ठितोऽभवद्गाढ-मकृत्यकरणाऽऽदृतः।।१४०।। कुविन्दहुम्बमातङ्ग-जातीयास्वपि तद्वशः। अतिलौल्येन नारीषु, प्रावर्त्तत निरन्तरम्॥१४१॥ ततश्च गतलज्जोऽयं, पापिष्ठः कुलदूषणः। एवं स निन्द्यते लोकै-नच पापान्निवर्तते / / 142 / / अथ निन्दापरे लोके,स्नेहविज्वलमानसः। लोकापवादभीरुस्तं,मध्यबुद्धिरभाषत॥१४३|| भ्रात!युज्यते कर्तुं तवलोकविरुद्धकम्। अगम्यागमनं निन्द्यं, सपापं कुलदूषणम्॥१४४।। स प्राऽऽह विप्रलब्धोऽसि, नूनं बन्धो ! मनीषिणा। ना)ऽयमुपदेशानां, मौन्यभूदिति मध्यमः॥१४५|| अपरेधुर्मधौ बालः, समंमध्यमबुद्धिना। ययौ लीलावरोद्यान-संस्थिते कामधामनि॥१४६।। तत्र चैक्षिष्ट पार्श्वस्थ, गुप्तस्थानव्यवस्थितम्। कामस्य वासभवन,मन्दमन्दप्रकाशकम्॥१४७|| कुतूहलवशेनाथद्वारे संस्थाप्यमध्यमम्। मध्ये प्रविष्टः सहसा, सबालस्तस्य सद्मनः।।१४८|| तत्र कामस्य शयने, कोमलामलतूलिके। मित्राम्बादोषतौ बालः,शेते स्मगतपुण्यकः / / 146 / / इतश्च तत्रैव पुरे, बहिरङ्गनरेशितुः। शत्रुमर्दननाम्नाऽभूत, प्रिया मदनकन्दली।।१५०।। साऽऽगत्य तत्र कामोऽयं, शय्यास्थ इति भक्तितः। स्पृशन्ती सर्वगात्रेषु, तं बालकमपूपुजत्॥१५१।।
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________________ मज्झमबुद्धि 68 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मज्झमबुद्धि ययौ स्वरमन्दिरे राज्ञी, प्रपुज्य च रतीश्वरम्। बालस्तु तस्याः संस्पर्श-वश्योऽभून्नष्टचेतनः।।१५२।। मया कथं नुलभ्येय-मिति चिन्तापरायणः। अल्पोदके मीन इव, तत्रास्थाच सदुःस्थितः।।१५३|| बालः किं चिरयत्येष, इति मध्यमबुद्धिकः। प्राविशत् कामधामान्त-स्तदवस्थं ददर्श तम्॥१५४॥ उत्थापितस्ततोऽनेन,यावदाह न किञ्चन। बालस्तावच तत्रत्य-व्यन्तरेण न्यबध्यत॥१५५।। अपात्यत महीपीठे, सर्वाङ्गीणमपात्यत। बहिरक्षेऽपिलोकेभ्य-स्तद्वृत्तं चन्यवेद्यत / / 156|| ततो गाढतरं प्रार्थ्य, व्यन्तरान्मध्यबुद्धिना। लोकैश्च मोचितो बालो, निन्ये च निजमन्दिरे।।१५७।। मध्यबुद्धिमथो बालो-प्राक्षिद्बन्धो ! किमु त्वया। व्युदैक्षिवासभवना-निर्यान्तीकाऽपि नायिका।।१५८|| स प्राहाऽदर्शि यद्येवं, हे भ्रातस्तर्हि कस्य सा?। स स्माहाऽत्रैव भूपस्य, देवी मदनकन्दली।।१५६।। तदाकावद बालः कथं सा मादृशामिति। मध्यमेन तदाकूतं, ज्ञातमुक्तं चतं प्रति॥१६०॥ भ्रातः! केयमविधाते,यदेवं तप्यसे किमु?। त्वयाऽधुनैव व्यस्मरि, यत् कृच्छ्रेणासि मोचितः / / 161 / / तच्छुत्वा बालको जज्ञे, कजलश्यामलाऽऽननः। अयोग्योऽयमिति ज्ञात्वा, मध्यमो मौनमाश्रयत्॥१६॥ इतश्चास्तमिते सूर्य, निःसृत्य निजमन्दिरात्। गन्तुं प्रववृते बालो-ऽभिमुख नृपवेश्मनः / / 163 / / भ्रातृस्नेहविमूढाऽऽत्मा, मध्यस्तत्पृष्ठतोऽलगत्। केनाऽपि पुरुषेणाऽथ, बालोऽबध्यत निश्चलम्॥१६४॥ प्रक्षिप्त आरटन व्योम्नि, ततो मध्यस्तमन्वगात्। रेरे क्व यासि यासीति, प्राप्तः प्राप्त इति ब्रुवन्॥१६५।। गृहीतबालः स पुमान्, क्षणेनाभूददर्शनः। भ्रातृप्राप्त्याश्या मध्य-स्तथापि च बलेन हि॥१६६|| बंभ्रमन् सप्तमे चाह्नि, पुरं प्राऽऽपकुशस्थलम्। नोदन्तमात्रमप्याप, स्वानुजस्य परं क्वचित्॥१६७।। ततो भ्रातृवियोगाऽऽर्तः कण्ठबद्धशिलोवटे। पतन् नन्दनसंज्ञेन, राजपुत्रेण वारितः॥१६८।। पृष्टश्च नन्दनायाऽऽरख्यत्, तं वृत्तान्तमशेषतः। सऊचे भद्र ! यद्येवं,तहीष्ट सिद्धवत्तव।१६६॥ तथाहिहरिश्चन्द्रो नृपोत्रास्ति, स चारिभिरभिद्रुतः। खेचरं रतिकेल्याऽऽख्यं, मित्रं प्रोचे कृताञ्चलिः।।१७०।। सखे ! कुरु तथा शत्रु-विधातं स्याद्यथा मम। ततो नृपाय स ददौ, विद्यां शत्रुविघातिनीम्॥१७१।। ततः पाण्मासिकी राजा, पूर्व सेवामचीकरत्। अधुना वर्त्तते भद्र !, साधनावसरः खलु।।१७२।। ततो होनार्थमानीत, आकाशे रतिकेलिना।। इतोऽष्टमे दिने कोऽपि, पुमान् लक्षणलक्षितः।।१७३।। पोषं पोषं तदङ्गासक -पललैस्तर्पणापरः। विद्या प्रसाद्य राट् चक्रे,पश्चात्सेवा दिनाष्टकम / / 174|| राज्ञाऽधुना तुरक्षार्थ-मर्पितोऽस्तिममैव सः। मध्यमः प्राऽऽह यद्येवं, तर्हि तं दर्शयाऽऽशु मे।।१७५।। तेनाप्यदर्शि चर्मास्थि-शेषाङ्ग मुपलक्ष्य तम्। मध्योऽयाचत कारुण्यात्, सोऽपिचास्मै समार्पयत्॥१७६|| उक्तश्च मध्यमस्तेन,राजद्रोह्यमिदं ननु। इतोऽपसरशीघ्रं भो, आत्मानं रक्षिताऽस्म्यहम्।।१७७।। महप्रासाद इत्युक्त्वा, बालमादाय स्वौजसा। भीतभीतोऽपचक्राम, क्रमात प्राऽऽप स्वपत्तनम्।।१७८! कथंकथमपि प्राऽऽप,बलितांबालकस्ततः। आख्यन्नन्दनवन्मध्य-बुद्धेः स्वं वृत्तमुच्चकैः / / 176 / / मनीष्यपि तदातत्रा-ऽऽगमल्लोकानुवृत्तितः। तत्कुण्ड्यानतरितोऽऔषी-त्सर्व बालविचेष्टितम्॥१८०|| ततस्तमाह हे भ्रातः!,कथितं ते मया पुरा। यदेष स्पर्शनः पापः सर्वदोषनिकेतनम्॥१८१।। बालोऽप्यजल्पदद्यापि,यदि तामायतेक्षणाम्। प्राप्नुयां कोमलस्पर्शा ,तन्मे दुःखं न किश्चन।।१८।। दध्यौ मनीषी तच्छ्रुत्वा, ही (हि) बालोऽयं वराककः। नैवोपदेशमन्त्राणां, कालदष्ट इवोचितः॥१८३।। किंचएक हिचक्षरमत्वं सहजो विवेकस्तद्वद्भिरेव सह संवसति द्वितीयम्। एतद्वयं भुविन यस्य सतत्त्वतोऽन्धस्तस्याप्यमार्गचलने खलु कोऽपराधः? ||184 // मध्यबुद्धिरथोत्थाप्य, प्रोक्तस्तेन वचस्विना। किं त्वयाऽपि विनष्टव्यं, विलग्नेनास्य पृष्ठतः।।१८५॥ मनीषिणमसौ प्रोचे, पद्मकोशीकृताञ्जलिः। अद्यप्रभृति बालस्य; सङ्गोऽत्याजि मयाऽनघ।।१८६॥ इदानीमाश्रयिष्यामि, वृद्धमार्गानुगामिताम्। जलाञ्जलिमलंदास्ये, सकलक्लेशसंहतेः॥१८७|| वृद्धानुगोऽभविष्यं चे- त्वमिवाहं पुराऽपि हि। असहिष्ये तदा भ्रात- व क्लेशवंशादशाम्॥१८८।। तेधन्याः पुण्यभाजस्ते, ये हि वृद्धानुगाः सदा। यद्वा वृद्धानुगामित्वं, स्वयं सिद्ध व्रत सताम्॥१८६।। विपद्युचैः स्थेय पदमनुविधेयं च महता, प्रिया न्याय्या वृत्तिर्मलिनमसुभङ्गेऽप्यसुकरम्। असन्तोनाभ्याः सुहृदपिनयाच्यस्तनुधनः, सतां केनोद्दिष्ट विषममसिधाराव्रतमिदम् ? ||160 / / परं ममापि धन्यत्वं, किञ्चनाद्यापि विद्यते। यदहं त्वमिवाभूवं, वृद्धमार्गानुगामुकः।।१६१।। किंचरागाऽऽदिभिः समं याति, शान्ति स्मरहुताऽशनः। धत्ते प्रसन्नता स्वान्तं, ध्रुवं वृद्धानुगामिनाम् / / 162 / / अहो मातेव हितकृद, दीपिकेवार्थदर्शिनी। विनेत्री गुरुवाणीव, पुंसां वृद्धानुगामिता // 163 / / माताऽपि विकृति यायात, कदाचिदैवयोगतः। न पुनर्वृद्धसेवेयं, कदापि विहिता सती॥१६४।। वृद्धवाक्यामृतस्यन्द-सुन्दरे तस्य मानसे। ज्ञानराजमरालीयं, सुस्थिरां स्थितिमश्नुताम्।।१६५॥ यो वृद्धख्मण्डली मन्दोऽ-नुपास्यैव समीहते। तत्त्वं विज्ञातुमत्युच्चैः, स इच्छेद्गमनं करैः / / 166|| वृद्धोपदेशातग्मांशु, प्राप्य यस्य मनोम्बुजम्। न प्राबोधि कथं तत्र, गुणलक्ष्मीः समाश्रयेत् ? ||167 / /
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________________ मज्झमबुद्धि 66 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मज्झमबुद्धि कथं तस्य वराकस्य, पापपङ्कः प्रहीयताम्। स्वमन्दिरे शनैरागात, प्रच्छन्नस्तस्थिवान् सदा। वृद्धवागवारिभिर्येन, नाऽऽत्मा प्राक्षालि कर्हिचित्।।१६८।। गाढभीत्या नरेन्द्रस्य, न निर्याति स्म कुत्रचित्।।२२३॥ वृद्धोपजीविनां पुंसां, करस्था एव संपदः / इतश्च तत्पुरोद्याने, स्वविलासाऽऽहये वरे। किं कदापि विषीदन्ति, फलैः कल्पद्रुभाजिनः||१६| प्रबोधनरति म, मुनीन्द्रः समवासरत्॥२२४।। वृद्धोपदेशबोहित्थैः, सत्काष्ठैर्गुणयन्त्रितैः। उद्यानपालकमुखात्, श्रुत्वा गुर्वागमं मुदा। तीर्यते दुस्तरोऽप्येष, भविकै रागसागरः॥२००।। अधिष्ठितः स्वया मात्रा, मनीष्याहृास्त मध्यमम्।।२२५।। मिथ्यात्वाऽदिनभोत्तुङ्ग-शृङ्गभङ्गाय कल्पते। सोऽपि बालं हठेनाऽपि, समाहूय त्रयोऽप्यथ। देहिनां वृद्धसेवोत्थ-विवेककुलिशो ह्ययम्॥२०१।। तत्रोद्यानवरे जग्मुर्भूरिकौतुकसङ्कले // 226 / / नृणां तमिरसमश्रान्त, क्षीयते क्षणमात्रतः। प्रमोदशेखराऽभिख्ये, चैत्ये तत्र जिनेशितः। वृद्धानुसेवया नूनं, प्रभयेव प्रभापतेः॥२०२।। बिम्बं युगाऽऽदिदेवस्य, नतौ मध्यमनीषिणौ // 227 / / एकैव वृद्धसत्सेवा, स्वातिवृष्टिर्निपेतुषी। देवदक्षिणभागस्थं, तौ नत्वा तं मुनीश्वरम्। स्वान्तशुक्तिषु जन्तूनां, प्रसूते मौक्तिकं फलम्॥२०३।। शुद्ध शुश्रुवतुर्धर्म, कर्ममर्मप्रदर्शनम्॥२२८|| विश्वविद्यासु धातुर्य , विनयेष्वतिकौशलम्। अम्बा कुमित्रदोषेण, स बालः शून्यमानसः। कलयन्ति गतक्लेशं, वृद्धसेवापरा नराः।।२०४।। गुरुं ग्राम्य इवानत्वा, भ्रात्रोः पार्श्वमुपाविशत्॥२२६॥ शरीराऽऽहारसंसार-कामभोगेष्वपिस्फुटम्। इतश्च जिनसद्भक्त-सुबुद्धिसचिवेरितः। विरज्यति नरः क्षिप्रं, वृद्धस्तत्त्वे प्रबोधितः।।२०।। सम मदनकन्दल्या,चैत्ये तत्राऽऽगमन्नृपः।।२३०।। ज्ञानध्यानाऽऽदिशून्योऽपि, वृद्धान् यदि महीयते। नत्वा जिन गुरूँञ्चापि, राजाऽौषीत् सुदेशनाम्। विलय भवकान्तारं,तदा याति महोदयम्॥२०६।। सुबुद्धिस्तु जिनाधीश, स्तोतुमित्थं प्रचक्रमे।।२३१॥ कुर्वन्नपि तपस्तीवं, विदन्नप्यखिलं श्रुतम्। जय देवाधिदेवाऽऽधि-व्याधिवैधुर्यनाशन!! नाऽऽसादयति कल्याण, चेद् वृद्धानवमन्यते॥२०७|| सर्वदा सर्वदारिद्रय-मुद्राविद्रावणक्षम ! // 232 / / न तल्लोके परं धाम, नतत्सौख्यमखण्डितम। अगण्यपुण्यकारुण्य-पण्याऽऽपणवृषध्वज!। यद वृद्धवरिवस्याकृ-नाऽऽप्नोति पुरुषःक्षणात्॥२०८|| जय सन्देहसन्दोह-शैलदम्भोलिसन्निभ !||233|| यामाप्य जायते नृणां, स्वप्नेऽपि न हि दुर्गतिः। स्फुरत्कषायसन्ताप-संपातशमनामृत!। चिरं विजयतां सैषा, वृद्धपादानुगामिता।।२०६।। जय संसारकान्तार-दावपावक पावन / / 234 // एवं तस्य वचः श्रुत्वा, मनीषी मोदमेदुरः। सदा सदागमाम्भोज-विबोधनदिनप्रभुम्। स्वं धामाऽगमदेषोऽपि,धर्मकमरतोऽभवत्॥२१०।। नत्वा नत्वा भवे भावि, भविनः पतनं खलु / / 235 / / बालस्त्ववाकुमित्राभ्यां, प्रेर्यभाणो मुहर्मुहुः। ये देवदेव गंभीर-नाभे! नाभेय! भूरिभिः। शत्रुमर्दनराटसौधं, प्रदोषेऽगाद्दुराशयः // 211|| त्वद्गुणैः स्वं नियच्छन्ति, ते मुक्ताः स्युर्महाद्भुतम्।।२३६|| तदा मण्डनशालायां, देवी मदनकन्दली। देव ! त्वन्नामसन्मन्त्रो, येषां चित्ते चकास्ति न। आत्मानं मण्डयन्त्यासीद, विविधैर्वरवर्णकः।।२१२२! मोहसर्पविष तेषां, कथं यातु क्षयं क्षणात?॥२३७।। स पापो दैवयोगेना-विशद्वासगृहे द्रुतम्। परिस्पृशन्तिये नित्यं, त्वदीयं पदपङ्कजम्। अस्वाप्सीन्नृपशय्याया-महो स्पर्श इति ब्रुवन्॥२१३।। तेषां तीर्थेश्वरत्वाऽऽदि-पदवी नदवीयसी॥२३८।। इतश्च नृपमायान्तं, दृष्ट्वा बालो भयाऽऽकुलः! नमः सद्दर्शनज्ञान-वीर्याऽऽनन्दमयाय ते। शय्यातोन्यपतद्भूमा, ज्ञातश्चासौ महीभुजा // 214|| अनन्तजन्तुसन्तान-त्राणप्रवणचेतसे / / 236 / / कुद्धा राट् स्वनर प्रोचे, रे रेएष नराऽधमः। एवं युगाऽऽदितीर्थेश,ये स्तुवन्ति सदा नराः। सौधेऽत्रैव कदो हि, सर्वामपि तमस्विनीम्॥२१५।। देवेन्द्रवृन्दवन्द्यास्ते, प्राप्नुवन्ति महोदयम्॥२४०।। ततस्तेन निबद्धोऽसौ, स्तम्भे दम्भोलिकण्टके। इति तीर्थपतिं स्तुत्वा, सचिवेशः प्रमोदभाक् / उत्सितस्तप्ततेलैश्च, कशाभिरतिताडितः॥२१६।। नत्वा च सूरिपादाब्ज-मश्रौषीद्देशनामिति / / 241 / / अडल्यग्रेषु विक्षिप्तास्तस्याऽऽयस्यशलाकिकाः। यथा नरास्त्रिधा ज्ञेया, जघन्या मध्यमोत्तमाः। क्रन्दतोऽस्य वराकस्य, साययौ सकला निशा / / 217 / / तेषु च प्रथमे रक्ताः, स्पर्शने दुःखदायके॥२४२॥ प्रातः कुद्धनपाऽऽदेशात, तस्याऽऽरक्षकपुरुषाः। समतावर्त्तिनो मध्याः, सदा तद्विष उत्तमाः। आरोपयन खरेऽकर्णे, चूर्णगैरिकपुण्ड्रकम्॥२१८|| क्रमेण नरकस्वर्ग-शिवाऽऽख्यगतिगामिनः॥२४३।। शिरोधतकलिर्ज च, निम्बपत्रसजाश्चितम्। मनीषिमद्यराजाऽऽद्या-स्तत् श्रुत्वा भाविता भृशम्। कश्चित् केशेषुदधेऽथ, भल्लूकमिष लुब्धकः॥२१६।। बालस्त्वेकमनास्तस्थौ, पश्यन् मदनकन्दलाम्॥२४४।। जघानाऽन्यश्चपेटाभि-भूताऽर्तमिव मान्त्रिकः। मित्राम्बाप्रेरणादेव्याः, संमुखं संप्रधावितः। यदृष्ट्यान्योऽताडयद्रोह-प्रविष्टमिव कुक्कुरम्॥२२०।। श्रये स एव बालोऽय-मित्यूचे कुपितो नृपः॥२४५|| एवं विडम्बनापूर्व, भ्रामयित्वाऽखिले पुरे। ततो राजभयान्नष्टः, कामाऽऽवेशः सबालकः। पादपे सायमुद्वन्ध्य, पुराऽऽरक्षोऽविशत् पुरम्॥२२१।। नश्यन् भनगतिभूमौ. न्यपतगतचेतनः // 246 / / अथो दैवनियोगेन, त्रुटितस्तस्य पाशकः / अथ राज्ञा गुरुः पृष्टः किं पुमानेव ईदृशः। पतितश्च क्षितौ बालः, क्षणात् संप्राप्तवेतनः॥२२२।। प्रौढस्पर्शनदोषेणे-त्यूचे सूरिरपि स्फुटम्॥२४७।।
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________________ मज्झमबुद्धि 70- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मज्झिम धराधीशः पुनः प्रोचे, भाव्यस्य किमतः परम् ? / गुरुः प्राऽऽह क्षणादेष, कृच्छ्रात् प्राप्स्यति चेतनाम्॥२४८।। इतो नश्यन् कर्मपूर-ग्रामाऽऽसन्नसरोवरे। श्रमखिन्नशरीरश्च, स्नानायैष निमङ्ख्यति॥२४६।। तत्र स्नानकृते पूर्व-मवतीर्णा स्वपाकिकाम्। स्पृशन्नेकेन बाणेन, घण्डालेन हनिष्यते॥२५०|| नरकेषु ततो गन्ता, ततस्तिर्यक्ष्वनन्तशः। भूयोऽपि नरकेष्वेवं, भ्रमिष्यत्येष संसृतौ / / 241 / / श्रुत्वेति मन्त्रिण प्रोचे, नृपतिः क्रोधदुर्द्धरः। भो भो निर्वासय क्षिप्रं, मद्देशात् स्पर्शनं ह्यमुम्॥२५२।। व्याघुट्य यदि वा गच्छेत्, तदा लोहविनिर्मित। यन्त्रे क्षिप्त्वा तथा पिंष्या-द्यथाऽयं भरमसाद्भवेत्।।२५३।। अथ स्पृष्टमभाषिष्ट, सूरिर्भो मनुजाधिप!। नान्तरङ्गजनध्वंसे, बाह्योपायः प्रवर्तते / / 254 / / बभाषे भूपतिर्भूयो, भक्तितस्तं गुरुं प्रति। स्वामिन्नुपायः कस्तर्हि, प्रोचेऽनूचानपुङ्गवः।।२५५।। ज्ञानदर्शनचारित्र-तपः सन्तोषलक्षणम्। सुयन्त्रमप्रमादाऽऽख्य, साधवो वाहयन्तियत्।।२५६।। तदेवाऽऽन्तरवैरीभ-ध्वंसे पञ्चाननायते। अदृष्टपारसंसार-वार्द्धः प्रवहणायते॥२५७।। यतिधर्मक्रियासक्ती, तत् श्रुत्वा नृपमध्यमौ। सम्यक्त्वमूलमनघं, गृहिधर्म समाश्रितौ॥२५८|| गाढं विज्ञपयामास, मनीषी तु मुनीश्वरम्। भगवन् ! देहि मे दीक्षां, भवाम्भोनिधिमन्थिनीम् / / 256 / / वत्स!मा स्म प्रमादीस्त्व-मेवमुक्ते च सूरिणा। . ततो मनीषिणं प्रोचे,राजा विस्मितमानसः॥२६०।। प्रसीद मद्गृहं ह्येहि, मुदं देहि क्षणं च मे। येनाहं ते महाभाग!, कुर्वे निष्क्रमणोत्सवम्।।२६१।। ततो राजाऽनुवृत्त्यैष, ययौ नृपनिकेतनम्। ददानो राज्ञ आनन्दं, तत्रास्थात् सप्तवासरीम्॥२६२।। अथ पञ्चभिः कुलकम् - दिनात्तातेऽष्टमे चाह्नि, कृतस्नानविलेपनः। आमुक्तरत्नालङ्कारः, सदशांशुकशोभितः॥२६३।। प्रधानस्यन्दनाऽऽरूढः, सारथीभूतभूपतिः। जङ्गमः कल्पशाखीव, ददद्दानमनुत्तरम्।।२६४।। वीज्यमाश्चामराभ्यां, श्वेतच्छत्रेण राजितः। वैतालिकैः स्तूयमान-निविडव्रतसंस्तवः॥२६५।। अत्यद्भुतगुणग्राम-रामणीयकरञ्जितैः। तदैवोपागतैर्देवैः, स्तूयमानः सुरेन्द्रवत्।।२६६।। निषादिसादिपादाति-रथिकामात्यमध्यमैः। अन्वीयमानः स प्राप, स्थानं सूरिपवित्रितम् / / 267 / / ततो रथात् समुत्तीर्य, मनीषीपातकादिव। प्रभोदशेखराऽभिख्य-चैत्यद्वारे स्थितः क्षणम्।।२६८।। अत्रान्तरे नृपस्यापि, मनीषिचरितं मुदा। परिभावयतः सम्यक्, निर्मलेनान्तराऽऽत्मना।।२६६।। चारित्रपरिणामोऽभूत्, कर्मकल्मषवारिदः। अहो वृद्धानुगामित्वं, देहिनां सर्वकामधुक्॥२७०।। (युग्मम्) ततः सुबुद्ध्यमात्याय, देव्यै मध्यमबुद्धये। सामन्तेभ्यश्च भूनाथो, निजाभिप्रायमाख्यात / / 271 / / अचिन्त्यत्वाच महतां, संनिधेः सुनिधेरिव। सर्वेऽपिजातचारित्र-परिणामास्तमूचिरे।।२७२।। साधु साधु हितं देव ! युक्तमेतद्भवादृशाम्। संसारे ह्यत्र निःसारे, नान्यच्चारु विवेकिनाम्॥२७३।। वयमप्येतदेवेह, कर्तुमीहामहे प्रभो!। तत् श्रुत्वा मुमुदे राजा, केकीवाम्भोधरध्वनिम्।।२७४।। राजचिहार्पणाद्राज्ये, कृत्वा पुत्रं सुलोचनम्। ततो नृपानुगाः सर्वे, प्रविशन् जिनमन्दिरे।।२७५।। जिनं संपूज्य सूरिभ्यः, कथितं तैः स्वचिन्तितम्। साधु साधु महाभागाः! इति प्रोवाच तान् गुरुः॥२७६॥ ततः प्रवचनोक्तेन, विधिना सूरिणा स्वयम्। ते सर्वे दीक्षिता एवं, चान्वशिष्यत सादरम॥२७७।। तथाहिचत्वारि परमाङ्गानि, दुर्लभानीह जन्मिनाम्। मानुषत्वं श्रुतिः श्रद्धा, संयमे वीर्यमुत्तमम्॥२७८।। एनां समग्रसामग्री , संप्राप्य कथमप्यहो। भवद्भिर्न हि कर्तव्यः, प्रमादोऽत्र मनागपि।।२७६।। ततस्तैः प्रणतैः सवै-र्जजल्पे सूरिसंमुखम्। एवमेतदितीच्छामः, कुर्मः पूज्यानुशासनम् / / 280 / / प्रष्टैः स्थविरर्षिभ्य-स्ते सर्वेऽप्यथ सूरिभिः। अर्पिता आर्यिकाभ्यस्तु साध्वी मदनकन्दली।।२८१।। कालं विहत्य भूयांस-मागमोक्तेन वर्मना। पर्यन्तकाले संप्राप्ते, विधायाऽऽराधनाविधिम्॥२८२।। सर्वेऽपि विमलध्यानाः, प्रतनूभूतकर्मकाः। मध्यमाऽऽद्या गताः स्वर्ग, मनीषीतु शिवं ययौ // 283 // बालस्य तु यदादिष्टं, भदन्तै वि चेष्टितम्। तत्तथैवाखिलं जज्ञे, नान्यथा मुनिभाषितम्॥२८४।। "एवं वृद्धानुगत्वप्रगुणगुणजुषो मध्यबुद्धेर्विशुद्धं, श्लोकं कुन्देन्दुशुभ्रं त्रिदिवशिवफलं धर्मकर्माऽऽद्यवेत्य। भो भव्याः ! दुःखकक्षक्षयदवदहने पुण्यकन्दाम्बुदाभे, संपत्संपत्तिबीजे सकलगुणकरे धत्त यत्नंतदत्र // 285 // " ध००१ अधि०१७ गुण। मज्झमा स्त्री० (मध्यमा) वीरजिनेन्द्रस्य केवलोत्पत्तिस्थाने मध्यम पापायाम्, आ०म०१ अ०। मज्झलोग पुं० (मध्यलोक) लोकस्य मध्यः, अस्य सकललोक मध्यवर्तित्वात्। मेरौ, जं०४ वक्ष०। स०। मज्झसंघयणचउक्क न०(मध्यसंहननचतुष्क) मध्यानि मध्यमानि प्रथमान्तिमवर्जानि, संहननानि अस्थिनिचयाऽऽत्मकानि तेषां चतुष्कं द्वितीयतृतीयचतुर्थपञ्चमसंहननचतुष्कं, तानि चत्वारिऋषभनाराचसंहननं नाराचसंहननमर्द्धनाराचसंहननं, कीलिकासंहननमिति। कर्म०२ कर्म। मज्झागिइ स्त्री० (मध्याऽऽकृति) मध्यमसंस्थाने, कर्म०३। मज्झागिइचउक्क न० (मध्याऽऽकृतिचतुष्क) मध्या मध्यमाआद्यन्तवर्जा आकृतयः संस्थानानि मध्याऽऽकृतयस्तासांचतुष्कं द्वितीयतृतीयचतुर्थपञ्चमानां संस्थानानां चतुष्क, तानि चत्वारिन्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थान, सादिसंस्थान, वामनसंस्थानं कुब्जसंस्थानमिति। कर्म०२ कर्म०। मज्झिम त्रि० (मध्यम) मध्यभाविनि, उत्त० 5 अ० / मध्यमवयसि, सूत्र०१ श्रु०७ अ० | मध्ये कायस्य भवो
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________________ मज्झिम 71 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मडगगिह मध्यमः।"वायुः समुत्थितो नाभे-रुरो हृदि समाहतः। मट्टियाभक्खण न० (मृत्तिकाभक्षण) मृगक्षणे, मृगक्षणं श्रावकेण त्याज्यम्। नाभिं प्राप्तो महानादो, मध्यमत्वं समश्नुते॥१॥" इत्युक्तलक्षणे स्वर- तथा मृजातिः सर्वाऽपि मृत्तिका दर्दुराऽऽदिपञ्चेन्द्रियप्राण्युत्पत्तिनिमित्तभेदे, स्था०७ ठा० / अनु०। त्वाऽऽदिना मरणाऽऽद्यनर्थकारित्वात् त्याज्या, जातिग्रहण खटिकाऽऽमज्झिमउवरिमग पुं० (मध्यमोपरितन) ग्रैवेयकदेवभेदे, स्था०६ ठा०। दिसूचकं , तद्भक्षणस्याऽऽमाश्रयाऽऽदि दोषजनकत्वात् मृद्ग्रहणं मझिमग त्रि० (मध्यमक) अन्तरालभवे. 'पुरिमपच्छिमवजा मम्झिमगा चोपलक्षणं, तेन सुधाऽऽद्यपि वर्जनीयं, तद्भक्षकस्यान्त्रशाटाऽऽद्यनर्थ वावीसं अरहता भगवंता चाउज्जाम धम्मपभाविति।" स्था०३ ठा०१ उ०। सम्भवात, मृद्रक्षणे चासङ्ख्येयपृथिवीकायजीवानां विराधनाऽऽद्यपि मझिमगजिण पुं० (मध्यमजिन) अजिताऽऽदिषु जिननरेन्द्रेषु, नं०।। लवणमप्यसङ्ख्यपृथिवीकायाऽऽत्मकमिति सचित्तं त्याज्यं, प्राशुकं मज्झिमपावा स्त्री० (मध्यमपापा) वीरजिनेन्द्रस्य केवलोत्पत्तिस्थाने, ग्राह्य, प्राशुकत्वं चाग्नयादिप्रबलशस्त्रयोगेनैव, नान्यथा, तत्र पृथिवीआ०चू०१ अ०। आ०म०। कायजीवानामसङ्ख्येयत्वेनात्यन्तसूक्ष्मत्वात्। तथा च पञ्चमाणे 16 मज्झिमपुरिसपुं० (मध्यमपुरुष) वासुदेवेषु. तेषां तीर्थकरचक्रिणां प्रति- शतकतृतीयोद्देशके निर्दिष्टोऽयमर्थः-'वज्रमय्यां शिलायां स्वल्पपृथिवीवासुदेवानां च बलाऽऽद्यपेक्षया मध्यमवर्तित्वात्। स०। स्था०। (मध्यम- कायस्य वज्रलोष्टकेनैकविंशतिवारान पेषणे सत्येके केचन जीवा ये स्पृष्टा पुरुषाः' इत्थी' शब्दे द्वितीयभागे 616 पृष्ठे गताः) अपि नेति। ध०२ अधिन' मज्झिमबुद्धि पु० (मध्यमबुद्धि)(कथ मज्झमबुद्धि' शब्देऽस्मिन्नेव भागे | मट्ठ त्रि० (मृष्ट) शुद्धे, औ० / मसृणे, जी०३ प्रति०४ अधि०1 मसृणीकृते, 64 पृष्ठे गता) सू० प्र०२० पाहु० / ज्ञा० / तैलोदकाऽऽदिना येषां शरीरं केशा वा मज्झिममज्झिमगेविज्जग पुं० (मध्यममध्यमग्रैवेयक) ग्रैवयकदेवभेदे, मृष्टास्तेषु, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। अनु०।०प्र०। सूत्र०ालेपनिकाऽऽदिना स्था०६ ठा०। समीकृते, आचा०२ श्रु०१ चू०२ अ०१ उ० / मृष्ट इव मसृणीकृत इव मृष्टः मज्झिमवय पुं० (मध्यमवयर) परिपक्व बुद्धिके, आचा०१ श्रु०५ सुकुमारशाणया पाषाणप्रतिमावत् प्रभार्जनिकथा शोधिते, आ० म०१ अ०३ उ०। अ०। औ०। जी०। प्रज्ञा०रा०1 ज०। स्था० घृष्ट्वा सुकुमालीकृते, मज्झिमसंघयण न० (मध्यमसहनन) ऋषभनाराचनाराचमध्यनाराच- कल्प० 3 अधि०६ क्षण। कीलिकारूपेषु आद्यन्तरहितेषु संहनेनषु, कर्म०३ कर्म०। मट्ठकन्नेज न० (मृष्टकर्णेय) चित्रितकरणाऽऽभरणे, उपाळ१ अ० / मज्झिमहेट्ठिमगेविजयपुं० (मध्यमाधस्तनौवेयक) ग्रैवेयकदेवभेदे, आ० मट्टगंड न० (मृष्टगण्ड) मष्टौ-मृष्टीकृतौ गण्डौ यैस्तानि / उल्लिखितचू०१ अ०। कपोलेषु, औ० / जी०३ प्रति०४ अधि०।"मट्टगंडतले'' मृष्ट गण्डतले मज्झिमिय पुं० (माध्यमिक) शून्यवादप्रतिपादके बौद्धभेदे, सम्मका कर्णपीठके कर्णाऽऽभरणविशेषौ यस्य सः। भ०१५ श०। मज्झिमिल्ल पु० (मध्यम) मध्यवर्तिनि, "चउरुत्तरमज्झिमिल्लाउ | मड त्रि० (मृत) जीवविमुक्ते, कल्प०१ अधि०४ क्षण। त्ति।" आत्माऽङ्गुलेन चतुरुत्तरमङ्गुलशतं मध्यमाः पुरुषाः। अनु०। / भडअ त्रि० (मृतक)"प्रत्यादौ डः" ||8/1 / 206 / / इति तस्य डः। मज्झिमिल्ला स्त्री० (मध्यमा) सुस्थितसुप्रतिबुद्धाभ्यां निर्गतस्य कोटि- __ मडओ। जीवविमुक्ते, प्रा०१ पाद। गणस्य चतुर्थ्यां शाखायाम, कल्प०२ अधि०८ क्षण। मडंब न० (मडम्ब) अर्द्धतृतीयगव्यूतान्तामान्तररहिते आवासे, प्रज्ञा०१ मट्टिआ स्त्री० (मृत्तिका) "वृत्तप्रवृत्तमृत्तिकापत्तनकदर्थिते टः" पद। सर्वतो दूरवर्तिसन्निवेशान्तरे, भ०१ श०१ उ०जी० / दशा० / // 8 / 2 / 26 / / एषु संयुक्तस्य टोभवति। प्रा०२ पाद। मृत्स्नायाम, औ०। "जोअणमज्झतरे जस्स गोउलाऽऽदीणिणऽस्थितं मडंबं / " नि० चू०५ मृत्तिकामयपात्रभेदे, स्था०। उ०। औ० / प्रश्न / ग०। अर्द्धतृतीयगव्यूतान्तामरहितानि ग्रामपञ्चमट्टिओवलित्त न० (मृत्तिकोपलिप्त) मृत्तिकयाऽवलिप्ते आहारे, आचा०२ शत्युपजीव्यानि वा मडम्बानि। जं०२ वक्ष०। ग्रामैर्युक्तं मडम्बम्। सूत्र०२ श्रु०१ अ०७ उ०। श्रु०२ अ० / यत्र ग्रामाऽऽदि योजनाभ्यन्तरे सर्वदिक्षु नास्ति तन्मडम्बम्। मट्टिया स्त्री० (मृत्तिका) पृथिवीकार्य, प्रश्न०३ सम्ब० द्वार / विपा० / ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। स्था०। आचा०। मडम्बनामयत्सर्वतः सर्वासु दिक्षु आ०चू० / रा०। आव०। आचा० / स्था०। उत्त०। कर्दमे, दश०५ छिन्नमर्द्धतृतीयगव्यूतिमर्यादायामविद्यमानग्रामाऽऽदिकम् / बृ०१ उ०२ अ०१ उ०। प्रक० / यस्य पार्श्वत आसन्नमपरं ग्रामनगराऽऽदिकं नास्ति तत्सर्वतमट्टियापाणय न० (मृत्तिकापानक) कुम्भकारसम्बन्धिनि मृत्तिकामिश्रिते श्छिन्नजनाऽऽश्रयविशेषरूप मडम्बमुच्यते / अनु० / आचा० / जी०। पानके भ०३ श०२ उ०। स्था०। मट्टियापाय न० (मृत्तिकापात्र) शरावघटिकाऽऽदिके मृण्मये पात्रे, स्था०३ मडगगिह न० (मृतकगृह) म्लेच्छानां गृहाभ्यन्तरे मृतकपरिष्ठापनस्थाने, ठा०३ उ०। नि०चू० / आचा० (मृत्तिकापात्रविषयः पत्त' शब्दे पञ्चमभागे "मडगगिह णाम मेच्छाण घरभंतरे मडयं छोळे विजति न दुजति तं 366 पृष्ठे गतः) मडगगिह।" नि० चू०३ उ०।
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________________ मडगच्छार 72 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मडाइ मडगच्छार पुं० (मृतकक्षार) अभिनवदग्धे पुञ्जीकृते मृतके, नि० चू०३ उ०। मडगलेण न० (मृतकलयन) मृतकस्योपरि देवकुले, "मडअस्स उवरि जं देवकुलं तं लेणं भण्णति।' नि०चू०३ उ०। मडगवच न० (मृतकवर्चस्) मृतककथितभागे, नि० चू०३ उ०। मडम पुं० (मडभ) कुब्जे, व्य०३ उ०। न्यूनाधिकप्रभाणे, स्था०६ ठा०। मडभकोट्ठन (मडभकोष्ठ) वामनसंस्थाने, स्था०६ ठा०। मडयन० (मृतक) मृतकदेहे, आ०म०१ अ०।आचा०। (मृतकमरुदेव्याः / प्रथमसिद्ध इति देवैः पूजितं ततो लोकेऽपि मृतकपूजा प्रवृत्तेत्युक्तम् 'उसह शब्दे द्वितीयभागे 1127 पृष्टे) मडयचेइय न० (मृतकचैत्य) मृतकाऽऽलये, यत्र मृतकानां प्रतिमाः स्थाप्यन्ते / आचा०२ श्रु०२ चू०३ अ०। मडयथूभिया स्त्री० (मृतकस्तूपिका) दग्धमृतकोपरि कृतायां सचत्वरायां स्तूपिकायाम, आचा०२ श्रु०२ चू०३ अ०। मडयदाह पुं० (मृतकदाह) श्मशानाऽदौ, यत्र मृतको दह्यते। आवा०२ श्रु०२ चू०३ अ०। मडाइ त्रि० (मृताऽदिन्) मृतं जीववियुक्तमत्तीति / ज्ञा०१ श्रु०१२ अ०। प्रासुकभोजिनि, भ०२ श०१ उ० / मृताऽदिनि, भ०। मृताऽदिनिन्थिवक्तव्यता - मडाई गं मंते ! नियंठे नो निरुद्धभवे, नो निरुद्धभवपवंचे, णो पहीणसंसारे,णोपहीणसंसारवेयणिज्जे, णो वोच्छिन्नसंसारे, णो वोच्छिम्नसंसारवेयणिजे, नो निट्ठियऽढे, नो निट्ठियऽट्ठकरणिजे, पुणरवि इत्थतं हव्वमागच्छति ? हंता ! गोयमा ! मडाई णं नियंठे० जाव पुणरवि इत्थत्तं हव्वमागच्छद। (सूत्र 87) से णं भंते ! किं वत्तव्वं सिया? गोयमा ! पाणेति वत्तव्वं सिया, भूतेति वत्तव्वं सिया,जीवेति वत्तव्वं सिया, सत्तेति वत्तव्यं सिया, विनू ति वत्तव्वं सिया, वेदेति वत्तव्यं सिया, पाणे भूए जीवे सत्ते विन्नू वेए ति वत्तव्वं सिया।से केणऽटेणं भंते ! पाणेति वत्तव्वं सिया० जाव वेदेति वत्तट्वं सिया ? गोयमा ! जम्हा आणेति पाणेति वा ऊससंति वा नीससंति वा तम्हा पाणेति वत्तव्वं सिया, जम्हा भूते भवति भविस्सति य तम्हा भूए ति वत्तव्वं सिया। जम्हा जीवे जीवइजीवत्तं आउयं च कम्मं उवजीवइ तम्हा जीवेति वत्तव्यं सिया, जम्हा सत्ते सुहाऽसुहेहिं कम्मेहिं तम्हा सत्तेति वत्तव्वं सिया, जम्हा तित्तकड्डयकसायअंबिलमहुरे रसे जाणइ तम्हा विन्नू ति वत्तव्वं सिया, वेदेइ य सुहदुक्खं तम्हा वेदेति वत्तव्वं सिया, से तेणऽद्वेणं० जाव पाणे ति वत्तव्वं सिया० जाव वेदेति वत्तव्यं सिया। (सूत्र०८८) मडाई णं भंते ! नियंठे निरुद्धभवे निरुद्धभवपवंचे जाव निट्ठियकरणिज्जे णो | पुणरवि इत्थत्तं हव्वमागच्छति ? हंता ! गोयमा ! मडाई णं नियंठे० जाव नो पुणरवि इत्थत्तं हव्वमाच्छति, से णं भंते ! किं ति वत्तव्यं सिया ? गोयमा! सिद्धे ति वत्तवं सिया, बुद्धे ति वत्तट्वं सिया, मुत्ते ति वत्तट्वं सिया, पारगए ति वत्तव्दं सिया, सिद्धे बुद्धे मुत्ते परिनिव्वुडे अंतकडे सव्वदुक्खप्पहीणे ति वत्तव्वं सिया, सेवं भंते ! भंते ! त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीर वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरति / (सूत्र-८९) ('मडाईणं भंते ! नियंठे' इत्यादि) मृताऽदी-प्रासुकभाजी, उपलक्षणत्यादेषणीयाऽदी चेति दृश्य, निर्ग्रन्थः साधुरित्यर्थः 'हव्य' शीघ्रमागच्छतीति योगः / किंविधः सन् ? इत्याह-'नो निरुद्धभवे त्ति' अनिरुद्धाऽग्रेतनजन्मा, चरमभवाऽप्राप्त इत्यर्थः. अयं च भवद्यप्राप्तध्यमोक्षोऽपि स्यादित्याह-'नो निरुद्धभवपवचे त्ति' प्राप्तव्यभवविस्तार इत्यर्थः। अयं च देवमनुष्यभवप्रपञ्चापेक्षयाऽपि स्यादित्यत आह-'णो पहीणसंसारे त्ति' अप्रहीणचतुर्गतिगमन इत्यर्थः, यत एवमत एव 'नो पहीणसंसारवेययणिज्जे त्ति' अप्रक्षीणसंसारवेद्यकर्मा, अयं च सकृच्चदुर्गतिगमनतोऽपि स्यादित्यत आह-'नो वोच्छिन्नसंसारे त्ति' अत्रुटितचतुर्गतिगमनानुबन्ध इत्यर्थः, अत एव 'नो वोच्छिन्नसंसारवेयणिजे त्ति' 'नो' नैव व्यवच्छिन्नम्- अनुबन्धव्यवच्छेदेन चतुर्गतिगमनवेद्यं कर्म यस्य स तथा. अत एव 'नो निट्ठियढे त्ति' अनिष्ठितप्रयोजनः अत एव 'नो निट्ठियट्ठकरणिज्जे त्ति' नो नैव निष्ठितार्थानामिव करणीयानि-कृयानि यस्य स तथा, यत एवंविधोऽसावतः पुनरपीति, अनादौ पूर्व प्राप्तमिदानी पुनर्विशुद्धचरणावाप्तेः सकाशादसम्भावनीयम् 'इत्थत्थं ति' इत्यर्थम्, एनमर्थम् - अनेकशस्तिर्यड्नरनाकिनारकगतिगमनलक्षण (इन्थत्त इति) पाठान्तरम्, तत्रानेन प्रकारेणेत्थं तद्भाव इत्थत्वम्, मनुष्याऽऽदित्वमिति भावः / अनुस्वारलोपश्च प्राकृतत्वात्, (हव्वं ति) शीघ्रम् / (आगच्छइ त्ति) प्राप्नोति / अभिधीयते च-कषायोदयात्प्रतिपतितचरणानां चारित्रवता संसारसागरपरि-भ्रमणम्, यदाह-"जइ उवसंतकसाओ, लहइ अणंत पुणो वि पडिवाय" इति / स च संसारचक्रगतो मुनिजीवः प्राणाऽऽदिना नामषट्केन कालभेदेन युगपञ्च वाच्यः स्यादिति विभणिषुः प्रश्नयन्नाह-'से णं' इत्यादि, तत्र सः' निम्रन्थजीवः किशब्दः प्रश्ने, सामान्यवाचित्वाच नपुंसकलिङ्गेन निर्दिष्ट इति, एवमन्वर्थयुक्ततयेत्यर्थः वक्तव्यः स्यात्, प्राकृतत्वाच सूत्रे नपुंसकलिङ्गताऽस्येति, अन्वर्थयुक्तशब्दैरुच्यमानः किमसोवक्तव्यः स्यात् ? इति भावः / अत्रोत्तरम्'पाणेति वत्तव्वं' इत्यादि, तत्र प्राण इत्येतत्तं प्रति वक्तव्यं स्यात्यदोच्छ्यासाऽऽदिमत्त्वमात्रमाश्रित्य तस्य निर्देशः क्रियते,एवं भवनाऽऽदिधर्मविवक्षया भूताऽऽदिशब्दपश्चकवाच्यता तस्य कालभेदेन व्याख्येया, यदा तूच्छ्यासाऽऽदिधर्मयुगपदसौ विवक्ष्यते तदा प्राणो भूतो जीवः सत्त्वो विज्ञो वेदयि
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________________ मडाइ 73 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मड्डुक तेत्येतत्तं प्रति वाच्यं स्यात्, अथवा-निगमनवाक्यमे वेदमतो न युगपत्पक्षव्याख्या कार्येति / 'जम्हा जीवे' इत्यादि, यस्मात 'जीवः' आत्माऽसौ 'जीवति' प्राणान्धारयति' तथा 'जीवत्वम् उपयोगलक्षणम् आयुष्कं च कर्म 'उपजीवति' अनुभवति तस्माज्जीव इति वक्तव्य स्यादिति / 'जम्हा सत्ते सुभाऽसुभेहिं का मेहिं' सक्तः आसक्तः, शक्तो पा-समर्थः, सुन्दरासुन्दरासु चेष्टा सु, अथवा सक्तः-संबद्धः शुभाशुभैः कर्मभिरिति। अनन्तराक्तस्यैवार्थस्य विपर्ययमाह- पारगए त्ति' पारगतः संसारसागरस्य भावि ने भूतवदित्युपचारादिति 'परंपरागए त्ति' परम्परयामिथ्यादृण्यादिगुणस्था नकानां मनुष्याऽऽदिसुगतीनां वा पारम्पर्येण गतो भवाऽम्भाधिपारं प्राप्तः परम्परागतः / इहानन्तरं संयतस्य संसार वृद्धिहानी उक्त सिद्धत्वं चेति। भ०१ श०१ उ०। मडासय पुं० (मृताऽऽश्रय) मृतानामाश्रयः / श्मशाने, मृतशोकस्थाने च। नि० चू०३ उ। मड्डिअ त्रि० (मर्दित) "सम्मर्द-वितर्दि-विच्छर्द-छर्दि-कपर्द-- मर्दिते दस्य" ||8/2 / 36 / / इति दस्य डः / मड्डिओ। संघृष्टे, प्रा०२ पाद। मडक पुं० (भद्दुक राजगृहवास्तव्ये स्वनामख्याते भगवतो महावीर- | जिनस्य श्रावके, भ०। तत्थ णं रायगिहे नयरे मड्डुए णामं समणोवासए परिवसइ, अड्डे० जाय अपरिभूए अभिगय० जाव विहरइ / तए णं समणे भगवं महावीरे अण्णया कयाइ पुव्वाणुपुट्विं चरमाणे० जाव समोसढे परिसा० जाव पञ्जुवासइ। तए णं मड्डुए समणोवासए इमीसे कहाए लद्धटे समाणे हद्वतुढे० जाव हियए बहाए० जाव सरीरे सयाओ गिहाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमइत्ता पायविहारचारेणं रायगिहंणयरं जाव णिग्गच्छइ, णिग्गच्छइत्ता तेसिं अण्णउत्थियाणं अदूरसामंतेणं वीईवयति / तए णं से अण्णउत्थिया मड्ड्यं समणोवासयं अदूरसामंते वीईवयमाणं पासइ, पासइत्ता अण्णमण्णं सद्दावें ति, सद्दावेत्ता एवं वयासीएवं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं इमा कहा अविउप्पकडा इमं च णं मडुए समणोवासए अम्हं अदूरसामंतेणं वीईवयति, तं | सेयं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं मड्डुयं समणोवाससं एयमद्वं पुच्छित्तए त्ति कट्ट अण्णमण्णस्स अंतियं एयमढे पुडिसुणे ति, पडिसुणेत्ता जेणेव मड्डुए समणोवासए तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता मड्डुयं समणोवासगं एवं बयासी-एवं खलु मड्डुया ! तव धम्मायरिए धम्मोवदेसए णायपुत्ते पंचत्थिकाए पण्णवेइ-जहा सत्तमसए अण्णउत्थियउद्देसए० जाव से कहमेयं मड्ड्या ! एवं? तएणं से मड्डए समणोवासए ते अण्णउत्थिए एवं वयासी-जइ कर्ज कजइ जाणामो पासामो, अह कज्जं ण कजइ ण जाणामो ण पासामो / तए णं अण्णउत्थिया मड्डयं समणोवासयं एवं वयासी-केस णं तुमं मड्डुया ! समणोवासगा णं भवसि, जेणं तुम एयमढे ण जाणइ, ण पासइ / तए णं से मड्डुए समणोवासए ते अण्णउत्थिए एवं वयासी-अस्थि णं आउसो ! वाउयाए वाति ? हंता मड्डुया ! वाति / तुब्भे णं आउसो ! वाउयस्स वायमाणस्स एवं पासह ? णो इणऽढे समहे / अस्थिणं आउसो ! घाणसहगया पोग्गला? हंता अस्थि / तुम्भे णं आउसो ! घाणसहगयाणं पोग्गलाणं रूवं पासह ? णो इणऽढे समटे अत्थि णं आउसो ! अरणिसहगए अगणिकाए ? हंता अत्थि तुब्भे णं आउसो ! अरणिसहगयस्स अगणिकायस्स रूवं पासह ? णो इणढे समढे / अत्थि णं आउसो ! समुदस्स पारगयाई रूवाइं ? हंता अस्थि / तुब्भे णं आउसो ! समुद्दस्स पारगयाइं रूवाइं पासइ? णो इणट्टे समझे। अत्थि णं आउसो ! देवलोगगयाई रूवाई ? हंता अस्थि / तुब्भे णं आउसो ! देवलोगगयाई रूवाई पासह ? णो इणढे समढे / एवामेव आउसो ! अहं वा तुडभे वा अण्णो वा छउमत्थो ण जाणइ, ण पासइ, तं सव्वं ण भवसि, एवं भे सुबहु लोए ण भविस्सतीति कट्ट ते अण्णउत्थिए एवं पडिहणति, एवं पडिहणेत्ता जेणेव गुणसिलए चेइए जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता समणं भवं महावीरं पंचविहेणं अभिगमेणं अभि० जाव पजुवासइ / मड्डुयादि समणे भगवं महावीरे मड्डुयं समणोवासयं एवं वयासीसुटु णं मड्डुया ! तुमं ते अण्णउत्थिए एवं वयासी-साहुणं मड्डुया ! तुम्हं ते अण्णउत्थिए एवं वयासीजे णं मड्डुया! अटुं वा हेउं वा पसिणं वा वागरणं वा अण्णायं अदिटुं असुअं अमंतं अविण्णातं बहुजणमज्झे आघवेइ, पण्णवेइ० जाव उवदंसेइ, सेणं अरिहंताणं आसादणयाए वट्टइ, अरिहंतपण्णत्तस्स धम्मस्स आसादणयाए वट्टइ, केवली णं आसादणयाए वट्टइ, केवलिपण्णत्तस्स धम्मस्स आसादणयाए वट्टइ, तं सुटु णं तुमं मड्डुया! ते अण्णउत्थिए एवं क्यासीसाहु णं तुम मड्डुया ! जाव एवं वयासी / तए णं मड्डुए समणोवासए समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्ते समाणे हहतुट्टे समणे मगवं महावीरे मड्डुयस्स समणोवासगस्स तीसे य० जाव परिसा पडिगया। तए णं मड्डए समणोवासए समणस्स भगवओ महावीरस्स० जाव णिसम्म हट्ठतुटे पसिणाई
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________________ मड्डुक 74 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मण पुच्छइ, पुच्छइत्ता अट्ठाइं परियाति, परियाइत्ता उट्ठाए उद्वित्ता | मढ पुं० (मठ)"ठो ढः" ||1:166" स्वरात्परस्याऽसंयुक्तसमणं भगवं महावीर वंदइ, णमंसइ० जाव पडिगए भंते ! त्ति स्यानादेष्टस्य ढो भवति / इति ठस्य ढः / तिनामाश्रये, प्रा०१ पाद। भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ, ण मंसइ, वंदइत्ता | मृद धा० मर्दने, "मृदो मल-मढ-परिहट्ट-खड्ड-चड-मडुणमंसित्ता एवं वयासी-पभू णं भंते ! मड्डुए समणोवसाए पन्नाडाः" ||64 / 126 / / मृनातेरेते सप्ताऽऽदेशा भवति / मृद्धादेवाणुप्पियाणं अंतियं० जाव पटवइत्तए ? णो इणढे समठे। एवं तोर्मढाऽऽदेशः। मढइ। प्रा०४ पाद। जहेव संखे तहेव अरुणाभे० जाव अंतं करेहिति। मण न० (मण) सार्द्धशतगद्याणनिप्पन्ने मानभेदे, तं० / 'षट्रार्ष"एवं जहा सत्तमे सए।" इत्यादिना यत्सूचितंतस्याऽर्थलेशो दर्श्यते- / पैर्यवस्त्वेको, गुजैकावयवैस्त्रिभिः। कालोदायिसेलोदायिसेवालोदायिप्रभृतिकानामन्ययूथि-कानामेकत्र गुञ्जात्रयेण वल्लः स्याद्, गद्याणस्ते च षोडश / / 1 / / संहिताना मिथः कथासंलापः समुत्पन्नो, यदुत महावीरः पशास्तिकायान् पलं च दशगद्याणै-स्तेषां सार्द्धशतैर्मणम्।" तं०। कल्प०१ अधि०१ धम्मास्तिकायाऽऽदीन प्रज्ञापयति। तत्र च धर्माधर्माऽऽकाशपुद्रलास्ति- क्षण। कायानचेतनान जीवास्तिकायं च सचेतनं तथा धर्माधर्माऽऽकाश- *मनस् न० 'मन' ज्ञाने इत्यस्य धातोरसुचप्रत्ययान्तस्य मनः / अन्तःजीवास्तिकायानरूपिणः पुद्रलास्तिकायं च रूपिणं प्रज्ञापयतीति। "से / करणे, दश०१ अ०। आचा०। सूत्र० / आव० / औ० / स्था० / कहमेयं मण्णे एवं ति।" अथ कथमेतद्धर्मास्तिकायाऽऽदिवस्तु, मन्ये सङ्कल्पव्यापारवति, स्था०३ ठा०३ उ० / उत्त० / आव० / चित्तं मनो वितर्कार्थः, एवं सचेतनाचेतनाऽदिना रूपेणादृश्यमानत्वेनासम्भव- विज्ञानमिति पर्यायाः / अनु०॥ स्तस्येति हृदयम्।"अवि उप्पकडेत्ति।" अपिशब्दः सम्भावनार्थ उत् अत्र मनः करणव्याख्यानायाऽऽहप्रावल्येन प्रस्तुता प्रकटा वोत्प्रकृतोत्प्रकटा वा; अथवा, अविद्वद्भिर- मणणं व मन्नए वाऽ-णेण मणो तेण दव्वओ तं च / जानद्भिः प्रकृता प्रस्तुता वा अविद्वत्प्रकृता।"जइकज कजइ जाणामो, तज्जोग्गपोग्गलमयं, भावमणो भण्णए मंता॥३५२५।। पासामो त्ति / " यदि तैर्द्धमास्तिकायाऽऽदिभिः कार्य स्वकीयं क्रियते, 'मन ज्ञाने' 'मनु बोधने' वा मननम्, मन्यते वाऽनेनेति मनस्तेन मन तदा तेन कार्येण तान जानीमः पश्यामश्चावगच्छाम इत्यर्थः / धूमेना- उच्यते-तच द्रव्यतो द्रथ्यमनस्तद्योग्यपुद्गलमयं द्रष्टव्यम् / भावमनस्तु निभिव, अथ कार्य तैर्न क्रियते तदा न जानीमो न पश्यामश्च, अयम- मन्ता जीवो भण्यते। इदमुक्तं भवति-मनो द्विविधम्- द्रव्यमनः, भावमभिप्रायः कार्याऽऽदिलिङ्गद्वारेणेवार्वागदृशामतीन्द्रियपदार्थावगमो भवति, नश्च। तत्र यत् तद्योग्यैर्मननयोग्यैर्मनोवर्गणाभ्यो गृहीतैरनन्तैः पुद्गलैर्निर्वृत्तं न च धर्मास्तिकायाऽऽदीनामस्मत्प्रतीतं किञ्चित्कार्याऽऽदिलिङ्ग दृश्यत तद्रव्यमनो भण्यते। यत्तु तज्जन्य मननं चिन्तनं तद्भावमनोऽभिधीयते / इति तदभावात्तान्न जानीम एवं वयमिति / अथ मददुकं धर्मास्ति- इह तु तदव्यतिरिक्तत्वाद् मन्ता जीवो भावमनस्त्वेनाक्त इति। 3525|| कायाऽऽद्यपरिज्ञानाभ्युपगम-दन्तमुपालम्भयितुंयत्ते प्राहु स्तदाह - 'केस विशे०। आ०म०1 आ०चू० / नं० ण' इत्यादि। कएष तवं मदुक! असणोपासकानांमध्ये भवसि, यस्त्व- तिविहे मणे पण्णत्ते / तं जहा-तंमणे, तयन्नमणे, णो अमणे। मेतमर्थ श्रमणोपासकज्ञेयं धर्मास्तिकायाऽऽद्यस्तित्वलक्षणं न जानासि तिविहे अमणे पन्नत्ते। तं जहा-णो तंमणे, णो तयन्नमणे, अमणे / न पश्यसि, न कश्चिदित्यर्थः / अथैयमुपालब्धः सन्नसौ यत्तैरदृश्य- (सूत्र-१७५) स्था०३ ठा०३ उ०। ('वयण' शब्दे व्याख्या) मानत्वेन धर्मास्तिकायाऽऽद्यसम्भव इत्युक्त, तद्विघटनेन तान् प्रतिहन्तु आत्मा मनः, अन्यद्वा मनः? - मिदमाह-'अस्थि ण' इत्यादि। 'घाणसहगय त्ति।" घ्रायत इति घ्राणो आता भंते ! मणे अण्णे मणे ? गोयमा! णो आता मणे, अण्णे गन्धगुणस्लेन सहगतास्तत्सहचरितास्तद्वन्तो घ्राणसहगताः 'अरणिसह- मणे, जहा भासा तहा मणे वि० जाव णो अजीवाणं मणे / पुट्विं गए त्ति' अरणिरन्यर्थ निर्मन्थनीयकाष्ठ, तेन सहगतो यस्स तथा। 'त भंते ! मणे मणिज्जमाणे मणे ? एवं जहेव भासा पुट्विं भंते ! मणे सुटु णं मड्डुया तुम ति। ' सुष्टुत्वं हे मड्डुक ! येन त्वयाऽस्तिकायान् मिज्जइ, मणिज्जमाणे मणे मिजइ, मणसमयवीइक ते मणे जानता नजानीम इत्युक्तमन्यथाऽजानन्नपि यदि जानीम इत्यभणिष्य- | मिजइ? एवं जहेव भासा / कइविहे णं भंते ! मणे पण्णत्ते ! स्तदाऽहंदादीनामाशातनाकारकोऽभविष्यस्त्वमिति। पूर्व मड्डुकश्रम- गोयमा ! चउव्विहे मणे पण्णत्ते / तं जहा-सच्चे० जाव असचाणोपासकोऽरुणाभे विमाने देवत्वेनोत्पत्स्यत इत्युक्तम्। भ०१८ श०७ उ०। मोसे। (सूत्र-४६४) मड्ड धा० (मृद) मर्दने, 'मृदो मल-मढ-परिहट्ट-खजु-चड-मड- (आया भंते ! मणे इत्यादि) एतत्सूत्राणि च भाषासूत्रवन्ने - पन्नाडाः" ||8/4/126 / / मृनातेरेते सप्ताऽऽदेशा भवन्ति। मृदनाति। यानि / के वलमिह मनो द्रव्यसम्दयो मननोपकारी मनः प्रा०४ पाद०। पर्याप्तिनामको दयसम्पाद्यो, भेदश्च तेषां विदलनमात्रमिति /
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________________ मण 75 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मण (अनन्तरं मनो निरूपितं, तच काये सत्येव भवतीति कायनिरूपणायाऽऽह-(आया भंते ! कायेत्यादि) आत्मा कायः कायेन कृतस्यानुभवनात्, न ह्यन्येन कृतमन्योऽनुभवत्यकृताऽऽगमप्रसङ्गात्, अथान्यः आत्मनः कायः कायैकदेशच्छेदेऽपि संवेदनस्य सम्पूर्णत्वेनाभ्युपगमादिति प्रश्नः उत्तरम्- त्वात्माऽऽपि कायः कथञ्चित्तदव्यतिरेकाक्षीरनीरवत् अग्न्ययः पिण्डवत्, काञ्चनोपलवद्वा, अत एव कायस्पर्श सत्यात्मनः संवेदनं भवति, अत एव च कायेन कृतमात्मना भवान्तरे वेद्यतेऽत्यन्तभेदे च अकृताऽऽगमप्रसङ्ग इति।) भ०१३ श०७ उ०। अत्थाणंतरचारि य, नियतं चित्तं ति कालविसयं तु। अर्थे शब्दाऽऽदाविन्द्रियव्यापारादनन्तरंचरति व्याप्रियत इत्येवंशीलमर्थानन्तरचारि, इन्द्रियैः प्रथमं व्यावृत्ते पश्चाद् मनोव्याप्रियते इति भावः / नियतं नियतार्थविषयं नैककालमनेकविषयमित्यर्थः, चित्तं मनः / पुनः कथम्भूतमित्याह-त्रिकालविषयं त्रिष्वपि कालेषु यथायोग्यं विषयो यस्य तत्तथा / बृ०१ उ०१ प्रक०। मनसोऽप्राप्यकारिता - गंतुं नेएण मणो, संबज्झइ जग्गओ व सिमिणे वा। सिद्धमिदं लोयम्मि वि, अमुगत्थगओ मणो मे त्ति / / 213 / / 'गंतु' देहाद निर्गत्य ज्ञयेन मेरुशिखरस्थजिनप्रतिमाऽऽदिना सम्बयते संश्लिष्यते मनः / कस्यामवस्थायाम् ? इत्याह जाग्रतः स्वप्ने वा / अनुभवसिद्ध चैतद्, न च ममैव किन्तु सिद्धमिदं लोकेऽपि, यतस्तत्राऽप्येव वक्तारो भवन्ति-अमुत्र मे मनो गतमिति / अतः प्राप्यकारि मनः / इति प्रेरकगाथाऽर्थः // 213 // अत्रोत्तरमाहनाऽणुग्गहोवघाया-भावाओ लोयणं व सो इहरा। तोय-जलगाइचिंतण-काले जुञ्जेज दोहिं पि॥१२४|| न ज्ञेयेन सह संपृच्यते मनः' इति गम्यते।कुतः ? इत्याह-'अणुग्गहोवघायाभावाउत्ति' ज्ञेयकृतानुग्रहो-पघाताभावात्, लोचनवत्। यदि तस्य ज्ञेयेन सह संपर्कः स्यात् तदा किं स्यात् ? इत्याह-'सो इहर त्ति' तद् मन इतरथा-ज्ञेयसंपर्केऽभ्युपगम्यमाने, तोयज्वलनाऽऽदिविषयचिन्तनकालेद्वाभ्यामप्यनुग्रहोपघाताभ्यां युज्यते-तोयचन्दनाऽऽदिचिन्तनकाले शैत्याऽऽद्यनुभवनेन स्पर्शनवदनुगृह्यते, दहन-विष-शस्त्राऽऽदिचिन्तनसमये तुतद्रदेवोपहन्येतेति भावः न चैवम्। तस्माल्लोचनवदप्राप्यकार्येव मनः / इति गाथाऽर्थः // 214|| किञ्च-मनसः प्राप्यकारितावादिनः प्रष्टव्याः। किम् ? इत्याहदव्वं भावमणो वा, वएज्ज जीवो य होइ भावमणो। देहव्वावित्तणओ, न देहबाहिं तओ जुत्तो।।२१।। इह मनस्तावद द्विधा-द्रव्यमनः, भावमनश्चेति। अतः सूरिः परं पृच्छति'दव्वं ति' द्रव्यमनः, भावमनो वा, व्रजेद् गच्छेद् 'मेर्वादिविषयसन्निधौ' / इति गम्यते। किमनेन पृष्टेन ? इति चेत्। उभयथाऽपि दोषः / तथाहिभावमनसश्चिन्ताज्ञानपरिणामरूपत्वात, तस्य च जीयादव्यतिरिक्तन / त्वाजीव एव भावमनो भवति। जीवश्चेति चकारः 'तओ' इत्यस्याऽनन्तर संबन्धनीयः। ततोऽयमर्थः-सकश्च स च भावमनोरूपो जीवो देहमात्रव्यापित्वाद् देहात् न बहिनिः सरन् युक्तः, इह ये देहमात्रवृत्तयः न तेषां बहिनिःसरणमुपपद्यते, यथा तद्गतरूपाऽऽदीनाम, देहमात्रवृत्तिश्च जीवः / इति गाथाऽर्थः // 21 // देहमात्रव्यापित्वस्याऽसिद्धिं मन्यमानस्य परस्य मतमाशङ्कमानः सूरिराहसव्वगउ त्ति च बुद्धी, कत्ताभावाइदोसओ तण्ण। सव्यासव्वग्गहण-प्पसंगदोसाइओवा वि॥२१६|| अथ स्याद् बुद्धि, परस्य-सर्वगत आत्मा, नतु देहमात्रव्यापी, अमूर्तत्वात्, आकाशवदिति / अत्र गुरुराह-तदेतन्न / कुतः ? इत्याहभावप्रधानत्वान्निर्देशस्य कर्तृत्वाभावाऽऽदिदोषत इति-सर्वगतत्वे सत्यात्मनः कर्तृत्वाऽऽदयो गोपाङ्गनाऽऽदिप्रतीता अपि धर्मा नघटेरन्निति भावः। तथाहि न कर्ताऽऽत्मा, सर्वगतत्वात्, आकाशवत्। आदिशब्दादभोक्ता, असंसारी, अज्ञः, न सुखी, न दुःखी आत्मा, तत एव हेतोः, तद्वदेव, इत्याद्यपि दृष्टव्यम् / आह परः-नन्वात्मनो निष्क्रियत्वात् कर्तृत्वाऽऽद्यभावः साङ्ख्यानां न बाधायै कल्पते। तथा च तैरुक्तम्"अकर्ता निर्गुणो भोक्ताऽऽत्मा'' इत्यादि / एतदप्ययुक्तम्, तस्य निष्क्रियत्वे प्रत्यक्षाऽऽदिप्रमाणोपलब्धभोक्तृत्वाऽऽदिक्रियाविरोधप्रसङ्गात् / प्रकृतेरेव भोगाऽऽदिकरणक्रिया, न पुरुषस्य, आदर्शप्रतिबिम्बोदयन्यायेनैव तत्र क्रियाणामिष्टत्वादिति चेत् / एतदप्यसङ्गतम्, प्रकृतेरचेतनत्वात्। "चैतन्यं पुरुषस्य स्वरूपम्।" इति वचनात् अचेतनस्य च भोगाऽऽदिक्रियाऽयोगात्, अन्यथा घटाssदीनामपि तत्प्रसङ्गादिति / न केवलं कर्तृत्वाऽऽद्यभावतः सर्वगतत्वमात्मनो न युक्तम्, किन्तु सर्वाऽसर्वग्रहणप्रसङ्गतोऽपि च तदसङ्गतम्। इदमुक्तं भवति-आत्मनः समात्रिभुवनगतत्वे प्राप्यकारित्वेनाऽभ्युपगतस्य तदव्यतिरिक्तस्य भावमनसोऽपि सर्वगतत्वात् सर्वार्थप्राप्तेः सर्वग्रहणप्रसङ्गः, तथा च सर्वस्य सर्वज्ञत्वप्रसक्तिः / अथोक्तन्यायेन प्राप्तानपि सर्वार्थानभिहितदोषभयात् न गृह्णातीत्युच्यते। तर्हि सर्वार्थाग्रहणप्रसङ्ग:-ग्राह्यत्वेनेष्टानप्यर्थान् मा ग्रहीभावमनः, प्राप्तत्वाविशेषात्, अग्राह्यत्वेनेष्टार्थवदिति भावः। अथ प्राप्तत्वाविशिष्टत्वेऽपि कांश्चिदर्थानेतद् गृह्णाति, काश्चिद् नेत्युच्यते। तर्हि व्यक्तमीश्वरचेष्टितम्, न चैतद् युक्तिविचारे क्वचिदप्युपयुज्यत इति। आदिशब्दात्- सर्वगतत्त्वे आत्मनोऽन्यदपि दूषणमभ्यूह्यम्। तथाहि-यथाऽङ्गुष्ठाऽऽदौ दहनदाहाऽऽदिवेदनायां मस्तकाऽऽदिष्वप्यसावनुभूयते, तथा सर्वत्रापि तत्प्रसङ्गः, न च भवति-तथाऽनुभवाभावात्, अननुभूयमानाया अपि भावाभ्युपगमेऽतिप्रसङ्गात्। किञ्च-सर्वगतत्वे पुरुषस्य, नानादेशगतस्रक्चन्दनाङ्गनाऽऽदिसंस्पर्शऽनवरतसुखासिकाप्रसङ्गः; वहि-शस्त्र-जलाऽदिसम्बन्धेतु निरन्तरदाह-पाटनक्लेदनाऽऽदिप्रसङ्गश्च / यत्रैव शरीर तत्रैव सर्वमिदं भवति, नाऽन्यत्रेति चेत् / कुतः ? इति वक्तव्यम्। आज्ञामात्रादेवेति चेत् / न, तस्येहाविषयत्वात्। सहकारिभावेन तस्य तदपेक्षणीयमिति चेत् / न, नित्यस्य सहकार्यपेक्षाऽयोगात् / तथाहि-अपेक्ष्यमाणेन
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________________ मण 76 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मण सहकारिणा तस्य कश्चिद् विशेषः क्रियते, न वा ? यदि क्रियते, स किमर्थान्तरभूतः, अनर्थान्तरभूतो वा ? यद्याद्यः पक्षः, तर्हि तस्य न किञ्चित् कृतं स्यात्। अथापरः,तर्हि तत्करणे तदव्यतिरिक्तस्याऽऽत्मनोऽपि करणप्रसङ्गात्, कृतस्य चाऽनित्यत्वात् तस्याऽनित्यत्वप्रसङ्गः / अथ मा भू देष दोष इति 'न क्रियते' इत्यभ्युपगम्यते / हन्त ! न तर्हि स तस्य सहकारी, विशेषाकरणात्। अथ विशेषमकुर्वन्नपि सहकारीष्यते, तर्हि सकलत्रैलोक्यस्याऽपि सहकारिताप्राप्तिः, विशेषाऽकरणस्य तुल्यत्वात्, इति वृथा शरीरमात्रापेक्षा, इत्याद्यत्र बहु वक्तव्यम्, तत्तु नोध्यते, ग्रन्थगहनताप्रसङ्गात्। तस्माच्छरीरयात्रवृत्तिरेवाऽऽत्मा, न सर्वगत इति / अतस्तदव्यतिरिक्तस्य भावमनसोन शरीराबहिनिःसरणमुपपद्यत इति स्थितम् / इति गाथाऽर्थः / / 216 / / अथ द्रव्यमनोविषयदेशं व्रजतीति ब्रूयात, तत्राऽप्याहदव्वमणो विण्णाया,न होइ गंतुं च किं तओ कुणउ? | अह करणभावओ त-स्स तेण जीवो वियाणेज्जा / / 217 / / काययोगसहायजीवगृहीतचिन्ताप्रवर्तकमनोवर्गणाऽन्तः-पातिद्रव्यसमूहाऽऽत्मक द्रव्यमनः स्वयं विज्ञातृ न भवत्येव, अचेतनत्यात उपलशकलवत्, इत्यतो गत्वाऽपि मेर्वादि विषयदेशं किं तद् वराक करोतु? तत्र गतादपि तस्मादविगमाभावादिति भावः / पराभिप्रायमाशङ्कते'अह करणेत्यादि' अथ मन्यसे यद्यपि द्रव्यमनः स्वयं न किशिञानाति, तथाऽपि करणभावः, करणत्यं तस्य द्रव्यमनसः प्रदीपाऽऽदेरिक्तस्तुनि प्रकाशयितव्ये समस्ति / ततो जीवः कर्ता तेन द्रव्यमनसा करणभूतेन विजानीयादवबुध्येत मेदिक वस्त्विति / अत्र प्रयोगः-बहिर्निर्गतेन द्रव्यमनसा प्राप्य विषयं जानाति जीवः, करणत्वात्, प्रदीप-मणि-चन्द्रसूर्याऽऽदिप्रभयेव / इति गाथाऽर्थः // 217 // अनोत्तरमाहकरणत्तणओ तणुसं-ठिएण जाणिज्ज फरिसणेणं व। एत्तो चिय हेऊओ, न नीइ बाहिं फरिसणं व // 218 / / को वैन मन्यते, यदुत अर्थपरिच्छेदे कर्तव्ये आत्मनो द्रव्यमनः करणम् ? किन्तुकरणं द्विधा भवति-शरीरगतमन्तः-करणम्, तबहिर्भूतं बाह्यकरणं च। तत्रेदं द्रव्यमनोऽन्तः करणमेवाऽऽत्मनः / ततश्च करणतणउ ति' सूत्रस्य सूचामात्रत्वात्, एकदेशेन समुदायस्य गम्यमानत्वाचान्तः करणस्वादित्यर्थः, तनुसंस्थितेन शरीराद् बहिर्निर्गतेन जीवस्तेन जानीयाद मेर्वादिविषयम्, स्पर्शनेन्द्रियेणेव कमलनालाऽऽदिस्पर्शम् / प्रयोगःयदन्तः करणं तेन शरीरस्थेनैव विषयं जीवो गृह्णाति, यथा स्पर्शनन, अन्तः करणं च द्रव्यमनः / प्रदीप-मणि-चन्द्र-सूर्यप्रभाऽऽदिक तु बाह्यकरणमात्मन इति साधनविकलः परोक्तदृष्टान्तः। आह-ननु शरीरस्थापि तत् पद्मनालतन्तुन्यायेन बहिर्द्रव्यमनः किं न निःसरति ? इत्याह-'एत्तो चियेत्यादि' इत एवान्तः करणत्वलक्षणाद्धेतोर्बहिर्न निर्गच्छति द्रव्यमनः, स्पशवत। प्रयोगः यदन्तः-करणं तच्छरीराबहिर्न निर्गच्छति, यथा स्पर्शनम् / इति गाथाऽर्थः // 218 / / तदेवं भावमनसो द्रव्यमनसश्च बहिश्चारिताऽऽद्यभावादप्राप्यकार्येय मन इत्युक्तम् / सांप्रत 'नाणुग्गहोवघायाभावाओ लोयण या' इत्यादिना मनसोऽप्राप्यकारितायाम्, अनुग्रहोपघाताभावात इति यः पूर्व हेतुरुक्तः, तस्य परोऽसिद्धि समुद्भावयन्नाहनज्जइ उवघाओ से, दोव्वल्लो-रक्खयाइलिंगेहिं। जमणुग्गहो य हरिसा-इएहिँ तो सो उभयधम्मो // 216 / / इह मृतनष्टाऽऽदिक वस्तु चिन्तयतः, अत्यात-रौद्रध्यानप्रवृत्तस्य च 'से' तस्य मनस उपघातो ज्ञायतेऽनुमीयते। कैः ? इत्याह हौर्बल्योरः क्षताऽऽदिलिङ्गैः दौर्बल्य देहापचयरूपम्, उरःक्षतमुरोविधातः हृदयबाधेति यावत्। आदिशब्दाद्वातप्रकोपवैकल्याऽऽदिपरिग्रहः / अनुग्रहश्च यद्यस्मात् तस्येष्टसंगम-विभवलाभाऽऽदिकं वस्तु चिन्तयतो हर्षाऽऽदिभिरनुमीयते / तत्र वदनविकाश-रोमाञ्चोगमाऽऽदिचिह्नगम्यो मानसः प्रीतिविशेषो हर्षः, आदिशब्दाद् देहोपचयोत्सहाऽऽविग्रहः। तत् तस्मात्कारणात् तद्मनउपघाताऽनुग्रहलक्षणोभयधर्मकमेव / अयमत्र भावार्थः-यः शोकाऽऽद्यतिशया देहोपचयरूपः, आर्ताऽऽदिध्यानातिशयाद हृदरोगाऽऽदिस्वरूपश्चोपघातः, यश्च पुत्रजन्माऽऽद्यभीष्टप्राप्तिचिन्तासमुद्भूतहर्षाऽऽदिरनुग्रहः, स जीवस्य भवन्नपि चिन्त्यमानविषयाद् मनसः किल परो मन्यते, तस्य जीवात् कथञ्चिदव्यतिरिक्तत्वात् / ततश्चैवं मनसोऽनुग्रहोपघातयुक्तत्वात्तच्छूयत्वलक्षणो हेतुरसिद्धः इति गाथाऽर्थः // 216 // तदेतत् सर्व परस्याऽसंबद्धभाषितमेवेति दर्शयन्नाहजइ दव्वमणोऽतिबली, पीलिज्जा हिदिनिरुद्धवाउ व्व / तयणुग्गहेण हरिसा-दउ व्व नेयस्स किं तत्थ ? ||220 / / यदि-नाम द्रव्यमनो मनस्त्वपरिणतानिष्टपुद्गलसमूहरूपमतिशयबलिष्ठमिति कृत्वा शोकाऽऽदिसमुद्भूतपीडया जीवं कर्मताऽऽपन्न देहदौर्बल्याऽऽद्यापादनेन पीडयेत्, हृन्निरुद्धवायुवत: हृदयदेशाऽऽश्रितनिविडगरुग्रन्थिवदित्यर्थः यदि च तस्यैव द्रव्यमनसो मनस्त्वपरिणतेष्टपुद्गलसंघातस्वरूपस्याऽनुग्रहेण जीवस्य हर्षाऽऽदयो भवेयुः, तर्हि ज्ञेयस्य चिन्तनीयमेवदिर्मनसोऽनुग्रहोपघातकरणे किभायातम् ? इदमत्र हृदयम्- मनस्त्वपरिणतानिष्टपुगलनिचयरूपं द्रव्यमनोऽनिष्ट - चिन्ताप्रवर्तनेन जीवस्य देहदौर्वल्याऽऽद्यापत्त्या० हन्निरुद्धवायुवदुपघात जनयति, तदेव च शुभपुद्गलपिण्डरूपं तस्याऽनुकूलचिन्ताजनकत्वेन हर्षाऽऽद्यभिनिवृत्त्या भेषजवदनुग्रहं विधत्त इति / अतो जीवस्यैतावनुग्रहोपघातौ द्रव्यमनः करोति, न तु मन्यमानमेदिक ज्ञयं मनसः किमप्युपकल्पयति / अतो द्रव्यमनसः सकाशादात्मन एवानुग्रहोपघातसद्भावात् मनसस्तु ज्ञेयात् तद्गन्धस्याऽप्यभावाद् मस्तकाऽऽघातविह्व लाभूतेनेवाऽसंबद्धभाषिणा परेण हेतोरसिद्धिराद्धाविता / इति गाथाऽर्थः / / 220 // आह-नन्वलोकिकमिदं, यद्- द्रव्यमनसा जीवस्य देहोपचयदौर्ब ल्याऽऽदिरूपावनुग्रहोपघाती क्रियेते, तथा प्रतीतेरेवाभावात्, इत्याशङ्कयाऽऽह
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________________ मण 77 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मण इट्ठाऽणिट्ठाऽऽहारब्भव-हारे हों ति पुट्ठि-हाणीओ। जह तह मणसो ताओ, पोग्गलगुणउ त्ति को दोसो।।२२१।। ननु किमिहाऽलौकिकम् ! यतो भवतो लोकस्य च स-बालगोपालस्य तावत्प्रतीतमिदं यदुत-इष्टो मनोऽभिरुचितोय आहारस्तस्याऽभ्यवहारे जन्तूनां शरीरस्य पुष्टिर्भवति, यस्त्वनिष्टोऽनभिमत आहारस्तस्याभ्यवहारे हानिर्भवतीति। ततश्च'जह त्ति यथा इष्टाऽनिष्टाऽऽहाराभ्यवहारे तत्पुद्गलानुभावात् पुष्टिहानी भवतः, 'तह त्ति' तथा यदि द्रव्यमनोलक्षणात् मनसोऽपि सकाशात् "ताउत्ति" ते पुष्टिहानी पुद्गलगुणतः पुद्गलानुभावाद् भवतः, तर्हि को दोषः ? न कश्चिदित्यर्थः / यथाऽऽहार इष्टाऽनिष्टपुद्गलमयत्वात् तदनुभावाज्जन्तुशरीराणां पुष्टिहानी जनयति, तथा द्रव्यमनोऽपि तन्मयत्वाद् यदि तेषां ते निवर्तयति, तदा किं सूयते, येन पुगलमयत्वे समानेऽपि भवतोऽत्रैवाऽक्षमा ? इति भावः / तथा चोक्तम्-'"चिन्तया वत्स ! ते जात शरीरकमिदं कृशम्।" इति। चिन्तैव तर्हि कायाऽऽद्युपघाताऽऽदिजनिकेति चेत्। न, तस्या अपि द्रव्यमनः प्रभवत्वात्, अन्यथा चिन्ताया ज्ञानरूपत्वात्, ज्ञानस्य चाऽऽमूर्तत्वात्, अमूर्तस्य च नभस इवोपधाताऽऽदिहेतुत्वायोगात्, 'जमणुग्गहो-वघाया, जीवाण पोग्गलहितो।' इति वक्ष्यमाणात्वाच / इति गाथाऽर्थः // 221 / / अथोपसंहारगर्भ प्रस्तुतार्थविषये स्वाभिप्रायपरमार्थ दर्शयन्नाहनीउं आगसिउं वा, न नेयमालंबइ त्ति नियमोऽयं / तण्णेयकया जेऽणु-गहोवघाया य ते नऽत्थि // 222 / / इह न शरीराद्'निर्गन्तु' (निर्गत्य) द्रव्यमनो मेर्वादिकं ज्ञेयमर्थमालम्बते गृह्णाति, नापि तच्छरीरस्थमेव 'आगसिउंति आक्रष्टुम् (आकृष्य) हठात् समाकृष्याऽऽत्मनः समीपमानीय ज्ञेयमालम्बत इति, अयं नियमोऽस्माभिर्भुजमुत्क्षिप्य विधीयते-प्राप्यकारीदं न भवतीति नियम्यत इति तात्पर्यम् / 'तण्णेयकया जेऽणुग्गहोवघाय ति' यौ च तज्ज्ञेयकृतौ तच तज्ज्ञेयं च तज्ज्ञेयं तत्कृतौ, मनसोऽनुग्रहोपघातौ परैरिष्येते, तौ तस्य न स्त एवेति च नियम्यते। इति गाथाऽर्थः / / 222 / / किं पुनर्न नियम्यते ? इत्याहसो पुण सयमुवघायण-मणुग्गहं वा करेज्ज को दोसो? जमणुग्गहोवघाया, जीवाणं पोग्गलेहिंतो / / 223 / / 'से' इति प्राकृतत्वात्पुंल्लिङ्गनिर्देशः, एवं पूर्वमुत्तरत्राऽपि च यथासंभवं द्रष्टव्यम्।तद्रव्यमनः पुनः स्क्यमात्मना शुभाऽशुभकर्मवशत इष्टाऽनिष्टपुद्गलराघातघटितत्वादनुग्रहोपघातौ मन्तुः कुर्यात् को दोषः ? नवयं तत्र निषद्धारः, ज्ञेयकृतयोरेव तस्य तयोरस्माभिर्निषिध्यमानत्वादिति भावः / जीवस्याऽपि तौ द्रव्यमनः कृतौ किमितिन निषिध्येते ? इत्याह'जमणुग्गही इत्यादि' यद्यस्मात्कारणादनुग्रहोपघातौ जीवानां पुद्गलेभ्य इति युक्तमव, इष्टाऽनिष्टशब्द-रूप-रस-गन्ध-स्पर्शापभोगाऽऽदिषु तथादर्शने-नाऽस्याऽर्थस्य निषेद्यमशक्यत्वादित्यर्थः / आह-ननु शब्दाऽऽदय इष्टाऽनिष्पुद्गलाऽऽत्मका इति प्रत्यक्षाऽऽदिप्रमाणसिद्धत्वात् प्रतीमः, द्रव्यमनस्तु यदिदं किमपि भवद्भिरु ष्यते तदिष्टाऽनिष्टपुगलमयमस्तीति कथं श्रद्दध्मः ? इति / अत्रोच्यते-योगिनस्तावदिद प्रत्यक्षत एव पश्यन्ति; अग्दिार्शिनस्त्वनुमानात्। तथाहि-यदन्तरेण यद् नोपपद्यते तद्दर्शनात् तदस्तीति प्रतिपत्तव्यम्, यथा स्फोटदर्शनाद् दहनस्य दाहिका शक्तिः, नोपपद्यते चेष्टाऽनिष्टपुद्गलसंघाताऽऽत्मकद्रव्यमनोव्यतिरेकेण जन्तूनामिष्टाऽनिष्टवस्तुचिन्तने समुपलब्धौ वदनप्रसन्नता-देहदौर्बल्याऽऽद्यनुग्रहोपधातौ, ततस्तदन्यथाऽनुपपत्तेरस्ति यथोक्तरूपं द्रव्यमनः / चिन्तनीयवस्तुकृतावेतौ भविष्यत इति चेत्। न, जल-ज्वलनोदनाऽऽदिचिन्तने क्लेद-दाह-बुभुक्षोपशमाऽऽदिप्रङ्गादिति / 'चिन्तया वत्स ! ते जातं, शरीरकमिदं कृशम्' इत्यादिलोकोक्तेश्चिन्ताज्ञानकृतौ ताविति चेत्। तदप्ययुक्तम्, तस्याऽमूर्तत्वात्, अमूर्तस्य च कर्तृत्वायोगात्, आकाशवद्, इत्युक्तत्वात्, "चिन्तया वत्स !" इत्यादि-लोकोक्तेश्च कार्ये कारणशक्त्यध्यारोपेणौपचारिकत्वात् / खेदाऽऽदेस्तदुभूतिरिति चेत् / कोऽयं नाम खेदाऽऽदिः ? किं तान्येव मनोद्रव्याणि, चिन्ताऽऽदिज्ञानं वा ? आद्यपक्षे, सिद्धसाध्यता। द्वितीयपक्षस्तु विहितोत्तर एव। न च निर्हेतुकावेतौ, सर्वदा भवनाऽभवनप्रसङ्गात्, "नित्य सत्त्वमसत्त्वं वा हेतोरन्यानपेक्षणात् / अपेक्षातो हि भावना, कादाचित्कत्वसंभवः / / 1 / / " इति। नच जीवाऽऽदिक एवाऽन्यः कोऽपि तयोर्हेतुः, तस्य सदाऽवस्थितत्वेन तत एव सर्वदा भवनाऽभवनप्रसङ्गात्। एवमन्यदपि सुधिया स्वबुद्ध्या समाधानमिह वाच्यम्, इत्यलमतिविस्तरेण / तस्मादुक्तयुक्तिसिद्धं पुद्गलमयं द्रव्यमनो मन्तुः स्चयं कुर्यादनुग्रहोपघातौ, ज्ञेयकृतौ तु तौ मनसो न स्तएव, इति न तत्प्राप्यकारि। इति गाथाऽर्थः / / 223 // आह-ननु जाग्रदवस्थायां मा भूद् मनसो विषयप्राप्तिः स्वापावस्थायां तु भवत्वसौ, अनुभवसिद्धत्वात्, तथाहि- 'अमुत्र मेरुशिखरा - ऽऽदिगतजिनाऽऽयतनाऽऽदौ मदीयं मनोगतम्' इति सुप्तैः स्वप्नेऽनुभूयत एव। तथा च-'गंतु नेएण मणो, संबज्झइ जग्गओ व सिमिणे वा।' इति मया प्रागेवोक्तम्, इत्याशङ्कय स्वप्नेऽपि मनसः प्राप्यकारितामपाकर्तुमाहसिमिणो न तहारूवो, वभिचाराओ अलायचक्कं व / वभिचारो य सदसण-मुवघायाणुग्गहामावा।।२२।। इह 'मदीयं मनोऽमुत्र गतम्' इत्यादिरूपो यः सुप्तैरुपलभ्यते स्वप्नः, स यथोपलभ्यते न तथारूप एव 'स्वप्नोपलब्धमोदकस्तथाविधपरमाऽऽचार्यरिव परैर्न सत्य एवमन्तव्य इत्यर्थः / कुतः? इत्याह-व्यभिचारात्अन्यथात्वदर्शनाद्। किंवद्-यथा न सत्यम् ? इत्याह-अलातचक्रमिवअलातमुल्मुकं तवृत्ताऽऽकारतया आशु भ्रम्यमाणं भ्रान्तिवशादचक्रमपि चक्रतया प्रतिभासमानं यथा न सत्यम्, अचक्ररूपताया एव तत्राऽवितथत्वात, भ्रमणोपरमे स्वभावस्थस्य तथैव दर्शनात, एवं स्वप्नोऽपि न सत्यः, तदुपलब्धस्य मनोमेरुगमनाऽदिकस्याऽर्थस्याऽसत्यत्वात्। तदसत्यत्वं च प्रबुद्धस्य स्वप्नोपरमेतदभावात्। तदभावश्चतदवस्थायां
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________________ मण 78 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मण देहस्थस्यैव मनसोऽनुभूयमानत्वादिति / आह-ननु स्वप्नावस्थायां घातानुपलम्भात्" इत्यसिद्धो हेतुः / इति गा थाऽर्थः // 226|| मेर्वादौ गत्वा जागदवस्थायां निवृत्तं तद् भविष्यति, इति व्यभिचारात अत्रोत्तरमाहइत्यसिद्धो हेतुः इत्याशङ्याऽऽह-'वभिचारो येत्यादि' यो मया व्यभिचारो न सिमिणविण्णाणाओ, हरिसविसायादयो विरुज्झंति। हेतुत्वेनोक्तः, सचेत्थं सिद्धः। कथम् ?, इत्याह-'सदसणमिति' विभक्ति किरियाफलं तु तित्ती-मदवहबंधाऽऽदओ नत्थि।।२२७।। व्यत्ययात् स्वदर्शनादित्यर्थः, स्वस्याऽऽत्मनो मेदिस्थितजिनगृहाss- स्वप्ने सुखानुभवाऽऽदिविषयं विज्ञानं स्वप्नविज्ञान तस्मादुत्पद्यमाना दिगतस्य दर्शनं स्वदर्शन तस्मादिति, एतदुक्तं भवति-यथा कदाचि- हर्ष-विषादाऽऽदयो न विरुध्यन्ते-न तान् वयं निवारयामः जाग्दवस्थादात्मीयं मनः स्वप्ने मेदिौ गतं कश्चित् पश्यति, तथा कोऽपि शरीर- विज्ञानहर्षाऽऽदिवत्, तथाहि-दृश्यन्ते जाग्रदवस्थायां केचित् स्वमुत्प्रेमात्मानमपि नन्दनतरुकुसुमावचयाऽऽदि कुर्वन्तं तद्गतं पश्यति, न च क्षितसुखानुभवादिज्ञानाद हृष्यन्तः, द्विषन्तो वा। ततश्च दृष्टस्य निषेट्टुतत् तथैव, इहस्थितैः सुप्तस्य तस्याऽत्रैव दर्शनात् द्वयोश्चाऽऽत्मनोर- मशक्यत्वात् स्वप्नविज्ञानादपि नैतन्निषेधं बूमः / तर्हि किमुच्यते सम्भवात्, कुसुमपरिमलाऽऽद्यध्वजनितपरिश्रमाऽऽद्यनुग्रहोपघाता- भवद्भिः ? इत्याह-'किरियेत्यादि' क्रिया भोजनाऽऽदिका तस्याः कलं भावाच / इति गाथाऽर्थः // 224 // तृप्त्यादिकं तत् पुनः स्वप्नविज्ञानाद् नास्त्येव, इति ब्रूमः / तदेव एतदेव भावयन्नाह क्रियाफलं दर्शयति-'तित्तीत्यादि' तत्र तृप्तिबुभुक्षाऽऽधुपरमलक्षणा, मदः इह पासुत्तो पेच्छइ, सदेहमन्नत्थ न य तओ तत्थ / सुरापानाऽऽदिजनितविक्रियारूपः, वधः शिरश्छेदाऽऽदिसमुद्भूतपीडानय तग्गयोवधाया-णुम्गहरूवं विबुद्धस्स // 225 / / स्वरूपः, बन्धो निगडाऽऽदिनियन्त्रणस्वभावः, आदिशब्दाजलज्वलनाइह जगति प्रसुप्तः कश्चित् स्वदेहमन्यत्र नन्दनवनाऽऽदौ गतं स्वपने ___ऽऽदिप्रवेशात् क्लेददाहाऽऽदिपरिग्रहः / यदि ह्येतत् तृप्त्यादिकं भोजनापश्यति / न च तकोऽसौ देहस्तत्र नन्दनवनाऽऽदावुपपद्यते, इहस्थि- ऽऽदिक्रियाफलं स्वप्नविज्ञानाद् भवेद् तदा विषयप्राप्तिरूपा प्राप्यकारिता तैरन्यैस्तस्याऽत्रैवोपलम्भात्, इत्याद्यनन्तरोक्तयुक्तेः / न च विबुद्धस्य मनसो युज्येत. न चैतदस्ति, तथोपलम्भस्यैवाभावात् / इति गाथासतस्तद्गतयोरन्यत्र गमनगतयोरन्यत्र गमनविषयोरनुग्रहोपघातयो रूपं / ऽऽर्थः / / 227|| कुसुमपरिमलमार्गपरिश्रमाऽऽदिक स्वरूपमुपलभ्यते। तस्मात् स्वापाव अथ स्वप्नानुभूतक्रियाफलं जाग्रदवस्थायामपि स्थायामपि नाऽन्यत्र मनसो गमनम्. देहगमनदर्शनेन व्यभिचारात्। इति | परो दर्शयन्नाहगाथाऽर्थः / / 225 // सिमिणे विसुरयसंगम-किरियासंजणियवंजणविसग्गो। ___ अत्र विबुद्धस्य सतस्तद्गतानुग्रहोपघातानुपलम्भादित्यस्य पडिबुद्धस्स वि कस्सइ, दीसइ सिमिणाणुभूयफलं / / 22 / / हेतोरसिद्धतोद्भावनार्थ परः प्राऽऽह स्वप्नेऽपि सुरतार्थायाऽसौ कामिनः कामिनीजनेन, कामिन्या वा दीसंति कासइ फुडं, हरिसविसादाऽऽदयो विबुद्धस्स। कामिजनेन सह सङ्गमक्रिया तत्संजनितो व्यञ्जनस्यशुक्रपुद्गलसिमिणाणुभूयसुखदु-क्खरागदोसाइलिंगाई।।२२६।। संघातस्य विसर्गो निसर्गः स्वप्नानुभूतसुरतसङ्गमक्रियाफलरूपः प्रतिइह कस्यचित् पुरुषस्य स्वप्नोपलम्भानन्तरं विबुद्धस्य सतः स्फुट व्यक्त बुद्धस्यापि कस्यचित् प्रत्यक्ष एव दृश्यते, तद्दर्शनाच स्वप्ने योषित्सङ्गमदृश्यन्ते हर्षविषादाऽऽदयः, आदिशब्दादुन्मादमाध्यस्थ्याऽऽदिपरिग्रहः / क्रियाऽनुमीयते, तथाहि यत्र व्यञ्जनविसर्गस्तत्र योषित्सङ्गमेनापि कथंभूता ये हर्ष-विषादाऽऽदयः? इत्याह-"सिमिणेत्यादि' स्वप्ने जिन- भवितव्यम्, यथा वासभवानाऽऽदौ, तथा च स्वप्ने, ततोऽत्रापि योषिस्नात्रदर्शनाऽऽदौ यदनुभूतं सुखं, समीहिताऽर्थाऽलाभादौ यदनुभूतं त्प्राप्त्या भवितव्यम, इति कथन प्राप्तकारिता मनसः ? इति भावः इति दुःखं, तयोर्विषये यथासंख्यं यो राग-द्वेषौ तयोलिङ्गानि चिहानि हर्षः- गाथाऽर्थः // 228|| स्वप्नानुभूतसुख रागस्य लिङ्ग, विषादस्तुतदनुभूतदुःखद्वेषस्य लिङ्ग अथयोषित्सङ्गमे साध्ये व्यञ्जनविसर्गहेमिति भावः। तोरनैकान्तिकतामुपदर्शयन्नाह सो अज्झवसाणकओ, जागरओ विजह तिव्वमोहस्स। "स्वप्ने दृष्टो मयाऽद्य त्रिभुवनमहितः पार्श्वनाथः शिशुत्वे, द्वात्रिंशद्भिः तिव्वऽज्झवसाणाओ, होइ विसग्गो तहा सुमिणे // 226 / / सुरेन्द्ररहमहमिकया स्नाप्यमानः सुमेरौ। स्वप्ने योऽसौ व्यञ्जनविसर्गः स तत्प्राप्तिमन्तरेणाऽपि तांकामिनीमहं तस्माद् मत्तोऽपि धन्यं नयनयुगमिदं येन साक्षात् स दृष्टो, द्रष्टव्यो यो परिषजामि इत्यादिस्वमत्युत्प्रेक्षिततीव्राध्यवसायकृतो वेदितव्यः / महीयान् परिहरति भयं देहिनां संस्मृतोऽपि / / 1 / / " इत्यादिकः कस्येव ? इत्याह-जाग्रतोऽपि तीव्रमोहस्य प्रबलवेदोदययुक्तस्य स्वप्नानुभूतसुखरामलिङ्ग हर्षः। कामिनी स्मरतश्चिन्तयतो दृढं ध्यायतः प्रत्यक्षामिव पश्यतो बुद्ध्या तथा - परिषजतः परिभुक्तामिव मन्यमानस्य यत् तीव्राध्यवसानं तस्माद यथा "प्राकारत्रयतुङ्ग तोरणमणिप्रेवत्प्रभाव्याहता व्यञ्जनविसर्गो भवति, तथा स्पप्नेऽपि नितम्बिनीप्राप्तिमन्तरेणाऽपि नष्टाः कापि रवेः करा द्रततरं यस्यां प्रचण्डा अपि। स्वयमुत्प्रेक्षिततीव्राध्यवसानादसौ मन्तव्यः, अन्यथा तत्क्षण एवं प्रबुद्ध तां त्रैलोक्यगुरोः सुरेश्वरक्तीमास्थानिकामेदिनी, सन्निहिता प्रियतमामुपलभेत्, तत्कृतानि च स्वप्नोपलब्धानि नखहा ! यादत् प्रविशामि तावदधमा निद्रा क्षयं मे गता / / 1 / / '' दन्तपदाऽऽदीनि पश्येत्, न चैवम् तस्मादनैकान्तिकता हेतोः / इति इत्यादिकः स्वप्नानुभूतदुःखद्वेषलिङ्ग विषादः, अत्यन्तकामोद्रेका- गाथाऽर्थः // 226 // ऽऽदिलिङ्गमुन्मादः, मुनेस्तु माध्यस्थ्यम्. इति ''वियुद्धस्याऽनुग्रहोप- | किञ्च
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________________ मण 76 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मण सुरयपडिवत्तिरइसुह-गब्भाहाणाइ इंहरहा होज्जा। सुमिणसमागमजुवइए, न य जओ ताइँ तो विफला / / 230 / / इतरथा स्वप्ने सुरतक्रियथा योऽसौ व्यञ्जनविर्गः स यदि-योषित्प्राप्त्यव्यभिचारी स्यात्, तदा सुरतोपभुक्तयुवतेरपि 'सुरतक्रियाऽमुकेन सह मयाऽनुभूता' इत्येवंरूपा सुरतप्रतिपत्तिः स्यात्, तथा रतिसुखं गर्भाऽऽधानाऽऽदिकंच भवेत, आदिशब्दादुदरवृद्धि-दोहद-पुत्रजन्माऽऽदिपरिग्रहः / यतश्च नैतानि तस्याः समुपलभ्यन्ते, अतो विफलैव सा स्वप्नसुरतिक्रिया, विशिष्टस्य परिभुक्तकामिनीगर्भाऽऽधानाऽऽदि फलस्याऽभावात् / इदमुक्तं भवति-न स्वप्ने योषित्प्राप्तिपूर्विका विशिष्टा सुरतक्रिया, नापि विशिष्ट गर्भाऽऽधानाऽऽदिकं तत्फलं,या तुतीव्रवेदोदयाऽऽविर्भूताऽध्यवसायमात्रकृता निधुवनक्रिया साव्यञ्जनविसर्गमात्ररूपेणैव फलेन फलवती न विशिष्टन, इति तदपेक्षया सा 'विफला' इत्युच्यते। अतो यथोक्तविशिष्टफलाभावात् फलमात्रायोषित्प्राप्त्यसिद्धेश्च न प्राप्यकारिता मनस इतिभावः / इति गाथाऽर्थः / / 230|| पुनरप्याह परः - नणु सिमिणओ वि कोई, सचफलो फलइ जो जहा दिट्ठो। ननु सिमिणम्मि निसिद्धं, किरिया किरियाफलाइं च / / 231 / / ननु स्वप्नोऽपि कश्चित् सत्यं फलं यस्याऽसौ सत्यफलो दृश्यते। कः ? इत्याह-यो यथा येन प्रकारेण राज्यलाभाऽऽदिना दृष्टस्तेनैव फलतिराज्याऽऽदिफलदायको भवतीत्यर्थः, तत् किमिति स्वप्नोपलब्धं मनसो मेरुगमनाऽऽदिकं सत्यतया नेष्यते ? इति भावः। अत्रोत्तरमाहनन्वित्यादि, 'नन्ययुक्तोपालम्भोऽयम्, सर्वथा स्वप्नसत्यत्वस्याऽस्माभिरनिषिध्यमानत्वात् / तर्हि किं निषिध्यते? इत्याह-स्वप्ने क्रिया मेनामनाऽऽदिका, अध्वश्रमकुसुमपरिमलाऽऽदीनि क्रियाफलानिच, इत्येतद् द्वयमस्माभिः प्रागुक्तयुक्तेः सत्यतया निषिद्धम् / इति गाथाऽर्थः / / 231 // तर्हि किं तत्, यत् स्वप्ने भवद्भिर्न निषिध्यते? इत्याहजं पुण विण्णाणं तप्फलं च सिमिणे विबुद्धमेत्तस्स। . सिमिणयनिमित्तभावं, फलं च तं को निवारेइ ? // 232 / / यत्पुनः स्वप्ने जिनस्नावदर्शनाऽऽदिकं विज्ञानं, यच्च स्वप्ने विबुद्धमात्रस्य चहर्षाऽऽदिक तत्फलं, तदनुभवाऽऽदिसिद्धत्वात्को निवारयति? तथा यो भविष्यत्फलापेक्षया स्वप्नस्य निमित्तभावः स्वप्ननिमित्तभावस्तं च को वा निवारयति ? यच्च तस्मात् स्वप्ननिमित्तादवश्यंभावि भविष्यत्फलं तदपि को निवारयति? येदव हि मेरुगमन क्रियाऽऽदिक युक्त्या नोपपद्यते तदेव निषिद्यते, न त्वेतानि विज्ञानाऽऽदीनि, युक्त्युपपन्नत्वात्। न चैतैरभ्युपगतैरपि मनसः प्राप्यकारिता काचित् सिध्यतीति भावः। इति गाथाऽर्थः / / 232 // किमिति पुनः स्वप्नस्य निमित्तभावो न निवार्यते? इत्याशङ्कयाऽऽहदेहप्फुरणं सहसो-इयं च सिमिणो य काइयाईणि। सगयाइँ निमित्ताइं, सुभाऽसुभफलं निवेएंति // 233|| स्वस्मिन्नात्मनि गतानि स्थितानि स्वगतानि निमित्तानि, एतानि शास्त्रे, लोकेऽपि च प्रसिद्धानि भविष्यच्छुभाशुभफल निवेदयन्ति / कानि पुनस्तानि ? इत्याह-कायिकम्, आदिशब्दाद् वाचिकम्, मानसं च / एतान्येवक्रमेण दर्शयति-कायिकं बाहादौ देहस्फुरण भविष्यच्छुभाऽशुभफलं निवेदयति, वाचिकं तु सहसोदितं साहसाऽकस्मादेवोदितं सहसोदितं सहसैव तत् किमपि वदत आगच्छति यत्, भविष्यच्छुभाऽशुभफलमावेदयति, मानसं तु निमित्त स्वप्ने, इत्येतानि को निवारयति? लोक-शास्त्रप्रसिद्धस्य, युक्त्युपपन्नस्य च निषेद्धुमशक्यत्वात्। इति गाथाऽर्थः // 233 // आह-ननु स्त्यानद्धिनिद्रोदये वर्तमानस्य द्विरददन्तोत्पाटनाऽऽदिप्रवृत्तस्य स्वप्ने मनसः प्राप्यकारिता तत्पूर्वको व्यञ्जनावग्रहश्च सिद्ध्यति / तथाहि-स तस्यामवस्थायां 'द्विरददन्तोत्पाटनाऽऽदिकं सर्वमिदमहं स्वप्ने पश्यामि इति मन्यते, इत्ययं स्वप्न: मनोविकल्पपूर्विकां च दशनाऽऽद्युत्पाटनक्रियामसौ करोति / इति मनसः प्राप्यकारिता, तत्पूर्वकश्च मनसो व्यञ्जनावग्रहो भवत्येव, इत्याशङ्कयाऽऽहसिमिणमिव मन्नमाणस्स थीणगिद्धिस्स वंजणोग्गहया। होज वन उसा मणसो, सा खलु सोइंदियाईणं // 234 // 'होज्ज व' इत्यत्र वाशब्दः पुनरर्थे तस्य च व्यवहितः सम्बन्धः कार्यः। तद्यथा-अनन्तरोक्तयुक्तिभ्यः स्वप्नावस्थायामपि विषयप्राप्त्यभावाद् मनसो व्यञ्जनावग्रहो नास्ति, स्त्यानगृद्धेः पुनः स्त्यानगृद्धिनिद्रोदये पुनर्वर्तमानस्य जन्तोरित्यर्थः, मांसभक्षणदशनोत्पाटनाऽऽदिकुर्वतो गाढनिद्रोदयवशीभूतत्वेन स्वप्नमिव मन्यमानस्य भवेद् व्यञ्जनावग्रहतास्याद् व्यञ्जनावग्रह इत्यर्थः न वयं तत्र निषेद्धारः / सिद्धं तर्हि परस्य समीहितम्। सिध्येत्, यदि साव्यञ्जनावग्रहता मनसो भवेत्न पुनः सा तस्य। कस्य तर्हि सा? इत्याह-सा खलु प्राप्यकारिणां श्रोत्राऽऽदीन्द्रियाणां श्रवण-रसन-ध्राण-स्पर्शनानामित्यर्थः, इदमुक्तं भवतिस्त्यानर्द्धिनिद्रोदये प्रेक्षणकरङ्गभूम्यादौ गीताऽऽदिकं श्रृण्वतः श्रोत्रेन्द्रियस्य व्यञ्जनावग्रहो भवति, कर्पूराऽऽदिकं जिघ्रतो घ्राणेन्द्रियस्य, आमिष-मोदकाऽऽदिकं भक्षयतो रसनेन्द्रियस्य, कामिनीतनुलताऽऽदि स्पृशतः स्पर्शेनेन्द्रियस्य व्यञ्जनावग्रहः संपद्यते। न तु नयन-मनसोः, वह्रिक्षुरिकाऽऽदिविषयकृतदाह-पाटनाऽऽदिप्रसङ्गेन तयोर्विषयप्राप्त्यभावात्, तामन्तरेण च व्यञ्जनावग्रहासम्भवादिति भावः / इति गाथाऽर्थः / / 234 // आह-ननु स्त्यानर्द्धिनिद्रोदये स्वप्नमिव मन्यमानः किं कोऽपि चेष्टा काञ्चित् करोति, येन तत्करणे व्यञ्जनावग्रहः स्यात् ? इत्याशक्य स्त्यानर्द्धिनिद्रोदयोदाहरणान्याहपोग्गलमोयगदन्ते, फरुसगवडसालभंजणे चेव। थीणद्धियस्स एए, आहरणा हों ति नायव्वा / / 235 / / स्त्यानद्धिनिद्रोदयवर्तिन एतानि पौगलाऽऽदीन्युदाहरणानि ज्ञातव्यानि भवन्ति / तद्यथा-'पोग्गलेत्यादि।' तत्र समयपरिभाषया पौद्गलं मांसमुच्यते, तदुदाहरणं यथा-एकस्मिन् ग्रामे कुटुम्बिकः कोऽप्यासीत्, स च मांसगृद्ध आमानि, पछानि, तलितानि, केवलानि, तीमनाऽऽदिमध्यप्रक्षिप्तानि च मांसानि भक्षयति। अन्यदा
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________________ मण 80- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 মৃণা च गुणातिशायिभिः स्थविरैः कैश्चित् प्रतिबोधितो दीक्षा कक्षीकृतवान्। तेन च ग्रामाऽनुग्राम विहरता कदाचित् क्वचित् प्रदेशे मांसलुब्धः कश्चिद् विकृत्यमानो महिषः समीक्षाशके / तं च संवीक्ष्य तदाभिषभक्षणे तस्याऽप्यभिलाषः समजायत। स चाऽभिलाषोऽस्य भुजानस्य विचारभूमिं गतस्य चरमा सूत्रपौरुषी, प्रतिक्रमणक्रिया प्रादोषिकपौरुषीं च कुर्वती न निवृत्तः, कि बहुना? तदभिलाषवत्यैव प्रसुप्तोऽसौ / ततः स्त्यानर्द्धिनिद्रोदयो जातः। तदुदये चोत्थाय ग्रामा बहिर्महिषमण्डलमध्ये मत्वाऽन्यं महिषमेकं विनिहत्य तदामिषं भक्षितवान् / तदुरितशेषं च समानीयोपाश्रयोपरि क्षिप्त्वा प्रसुप्तः। समुत्थितश्च प्रत्युषसि समयेत्थंभूतः स्वप्नो दृष्ट' इत्येवं गुर्वन्तिक आलोचयामास / साधुभिश्चोपाश्रयोपरि तदामिषदृश्यत। ततः स्त्यानर्द्धिनिद्रोदयोऽस्याऽस्ति इति ज्ञातम्। तथा च सङ्केन लिङ्गमपहृत्य विसर्जितोऽसौ / / इति स्त्यानर्द्धिनिद्रोदये प्रथममुदाहरणमिति॥ 1 / / अथ द्वितीयं मोदकोदाहरणागुच्यते यथा एकः कोऽपि साधुर्भिक्षा पर्यटन क्वचिद् गृहे पटलकाऽऽदिव्यवस्थापितानतिप्रचुरान् सुर भिस्निग्धमधुरमनोज्ञान् मोदकानद्राक्षीत्। तेन चाध्यस्थितेन ते सुचिरमुद्दीक्षिताः। न च किमपि तन्मध्याल्लब्धम्। ततः सोऽप्यविच्छिन्नतदभिलाष एव सुष्वाप / स्त्यानर्द्धिनिद्रोदये च रजन्यां तद्गृह गत्वा, स्फोटयित्वा कपाटानि, मोदकान् स्वेच्छया भक्षयित्वा, उदरितास्तुपतद्ग्रहके क्षिप्त्वोपाश्रयमागत्य पतद्ग्रहकं स्थाने मुक्त्वा प्रसुप्तः / उत्थितेन च लथैवाऽऽलोचितं गुरूणाम्। ततः प्रत्युपेक्षणासमये भाजनाऽऽदिप्रत्युपेक्षमाणेन साधुना पतद्ग्रहके दृष्टास्ते मोदकाः। ततो गुर्वादिभिजातोऽस्य स्त्यानद्धिनिद्रोदयः / तथैव च सद्देन लिङ्गपाराश्चिक दत्त्वाऽयमपि विसर्जितः // 2 // दन्तोदाहरण तृतीयमुच्यते, यथा-एकः साधुर्दिवा द्विरदेन खेदितः कथमपि पलाय्योपाश्रयमागतः। तं च दन्तिनं प्रत्यविच्छिन्नकोप एव निशि प्रसुप्तः स्त्यानर्द्धिनिद्रोदयश्च जातः, तदु दये च वज्रऋषभनाराचसंहननवतः केशवार्धबलसंपन्नता समये निगद्यते। अतो नगरकपाटानि भड्क्त्वा मध्ये गत्वा तहस्तिन व्यापाद्य दन्तद्वयमुत्पाट्य स्वोपाश्रयद्वारे क्षिप्त्वा सुप्तः। प्रबुद्धेन च स्वप्नोऽयम्' इत्यालोचितम्। दन्तदर्शने च ज्ञातः स्त्यानर्द्धिनिद्रोदयः। तथैव च लिङ्गं गृहीत्या संघेन विसर्जितः।।३।। 'फरुसग' शब्देन समयप्रसिद्ध्या कुम्भकारोऽभिधीयते. तदुदाहरणं चतुर्थमुच्यते-एकः कुम्भकारो महति गच्छे प्रव्रजितः। अन्यदाच सुप्तस्याऽस्य स्त्यानद्धिनिद्रोदयो जातः। ततोऽसौ पूर्व यथा मृत्तिकापिण्डानत्रोटयत्, तथा तदभ्यासादेव साधूना शिरांसि बोटयित्वा कबन्धैः सहेवैकान्ते उज्झाञ्चकार / ततः शेषाः केचन साधवोऽपगृताः। प्रभाते च ज्ञातं सम्यगेव सर्व तच्चेष्टितम्। सद्देन तथैव विसर्जितः / / 4 / / अथ वटशालाभजनोदाहरणं पञ्चममुच्यते, यथाकोऽपि साधुमान्तराद् गोचरचर्या विधाय प्रतिनिवृत्तः। स चौधण्याऽभिहतो भृतभाजनस्तृषितो बुभुक्षितश्छायार्थी मार्गस्थो वटवृक्षस्याऽधस्तादागच्छन्नतिनीयैर्वर्तिन्या तच्छाखया मस्तके घट्टितः, गाढ च परितापितः, अव्यवच्छिन्नकोपश्च प्रसुप्तः / स्त्यानर्द्धिनिद्रोदये रात्रौ गत्वा वटशाखां भत्वोपाश्रयद्वारे क्षिप्त्वा पुनः प्रसुप्तः / 'स्वप्नो दृष्टः' / इत्यालोचिते स्त्यानयुदये च ज्ञाते लिङ्गापनयनतः संघेन विसर्जित इति / / 5 / / एतान्युदाहरणानि विशेषतो। निशीथादवसेयानि / इति गाथाऽर्थः / / 235 // तदेवं 'गंतु नेएण मणो, संबज्झइ जग्गओ व सिमिणे वा' इत्यादिपूर्वपक्षगाथायाः प्रथमार्धमपाकृतम्। साप्रत 'सिद्धमियं लोयम्मि वि, अमुगत्थगओ मणो मे त्ति / एतदुत्तरार्द्धमपाकुर्ववाहजह देहत्थं चक्खं, जं पइ चंदं गयं ति न य सचं। रूढं मणसो वितहा, न य रूढी सचिया सव्वा / / 236 / / यथा देहरथं देहादनिर्गतमपि चक्षुः चन्द्रं गतम्' इति जल्पति लोकः, न च तत् सत्यम्, चक्षुषो वयादिदर्शनन तत्कृतदाहाऽऽदिप्रसङ्गात : तथा तेनैव प्रकारेण मनसोऽपि निर्निबन्धनं रूढमिदं यदुत-'अनुत्र गत मे मनः इति / रूढिरपि सत्या भविष्यति, इत्याह न च रूढिः सर्वाऽपि सत्या, "क्टे क्टे वैश्रवणश्चत्वरे चत्वरे शिवः / पर्वते पर्वते रामः, सर्वगो गधुसूदनः / / 1 / / " इत्यादिकाया असत्याया अघि दर्शनात् / इति गाथाऽर्थः / / 236 // तदेवं विषयप्राप्तौ निविद्धायां मनसोऽसद्ग्रहममुञ्चन् परः प्रकारान्तरेणाऽपि तस्य व्यञ्जनावग्रहं प्रतिपादयन्नाहविसयमसंपत्तस्स वि, संविजइ वंजणोग्गहो मणसो। जमसंखेजसमइओ, उवओगो जं च सव्वेसु / / 237|| समएसु मणोदव्वा-इ गिण्हए वंजणं च दव्वाई। भणिथं संबंधो वा, तेण तयं जुज्जए मणसो // 238|| विषय मेरुशिखराऽऽदिक, जलाऽनलाऽऽदिकं वा, असंप्राप्त स्थापि अप्राप्य गृह्णतोऽपीत्यर्थः / किम् ? इत्याह-संविद्यतेयुज्यतेव्यञ्जनावग्रहो मनसः / कुतः ? इत्याह-'जमसंखेजसमइओ उवओगो' यद यस्मात् कारणात् "च्यवमानोनजानाति'' इत्यादिवचनात् सर्वोऽपि छपास्थोपयोगोऽसख्येयः समयनिर्दिष्टः सिद्धान्ते, न त्वेकद्वयादिभिः / 'जं च सोसुसमयेसुमणोदव्वाई गिण्हए त्ति।' यस्माच तेषूपयोगसम्बन्धिष्वसड्वयेयेषु सर्वेष्वपि प्रत्येकमनन्तानि मनोद्रव्याणि मनोवर्गणाभ्यो गृह्णाति जीवः द्रव्याणि च, तत्सम्बन्धो वा प्रागत्रैव भवद्धिः व्यञ्जनमुक्तम्, तेन कारणेन तत् तादृशं द्रव्यं, तत्सम्बन्धो वा व्यञ्जनं व्यञ्जनावग्रह इति हृदयम, युज्यते घटते मनसः। यथा हि श्रोत्राऽऽदीन्द्रियेणाऽसङ्खयेयान् समयान यावद गृह्यमाणानि शब्दाऽऽदिपरिणतद्रव्याणि, तत्सम्बन्धो वा व्यञ्जनावग्रहः, तथाऽत्राऽप्यसङ्ख्येयसमयान् यावद् गृहामाणानां मनोद्रव्याणा, तत्सम्बन्धस्य वा किमिति पक्षपात परित्यज्य मध्यस्थैभूत्वाऽसौनेष्यते ? इति किल परस्याऽभि प्रायः / इति गाथाऽर्थः // 237 // 238 // तदेवं विषयासंप्राप्तावपि भङ्गयन्तरेण मनसो व्यञ्जनावग्रहः किल परेण समर्थितः। साम्प्रतं विषयसम्प्राप्त्याऽपि तस्यतं समर्थयन्नाहदेहादणिग्गयस्स वि, सकायहिययाइयं विचिंतयओ। नेयस्स वि संबंधे, वंजणमेवं पिसे जुत्तं / / 236 / / देहाच्छरीरादनिर्गतस्थाऽपि मेवाद्यर्थमगतस्याऽपि स्वस्थान
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________________ मण 81 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मण स्थितस्यापीत्यर्थः, स्काये, स्वकायस्य, वा हृदयाऽऽदिकमतीदसन्निहतत्वाततिसंबद्ध विचिन्तयतो मनसो योऽसौ ज्ञेयेन स्वकायस्थितहृदयाऽऽदिना संबन्धस्तत्प्राप्तिलक्षणस्तस्मिन्नपि ज्ञेयसंबन्धे, न केवलं "विसयमसंपत्तस्स वि स विजइ' इत्याधनन्तरसमर्थितन्यायेन, इन्ट पिशब्दार्थः / किम् ? इत्याह व्यञ्जनं व्यञ्जनावग्रहः 'से' तस्य मनसो युक्तं घटमनाकम्, एवमप्यनयाऽपि प्राप्यकारित्वभङ्गया / इति गाऽर्थः // 23 // तदेवं प्रकारद्वयेन मनसः परेण व्यञ्जनावग्रहे समर्थिते, आवार्यः प्रथमपक्षेतावत्प्रतिविधानमाहगिज्झस्स वंजणाणं, जंगहणं वंजणोग्गहो स मओ। गहणं मणो न गिज्झं, को भागो वंजणे तस्स? |240 / / इह-'विसयमसंपत्तस्स वि संविज्जइ' इत्यादि यत्परेणोक्तम्, तद् / निजाऽसत्पक्षपरकीयसत्पक्षविषयप्रसर्पन्महारागद्वेषग्रहग्रस्तचेतोविहवलतासूचकमेवावगन्तव्यम्, असंबद्धत्वात्। तपाहि-श्रोत्र-ध्राणरसन-रपर्शनेन्द्रियचतुष्टयग्राह्यस्य शब्दगन्धाऽऽदिविषयस्य संबन्धिनां व्यञ्जनानां तद्रूपपरिणतद्रव्याणा यद्ग्रहणमुपादानं स व्यञ्जनावग्रहोऽस्माकं समत इति परोऽपि जानात्येव, प्रागसकृत्प्रतिपादितत्वादिति। मनांद्रव्याण्यपि तर्हि मनसो ग्राह्याणि भविष्यन्ति, ततस्तस्याऽपि श्रीवाऽऽदेरिव व्य जनावग्रहो भविष्यति; अतः किमसंबद्धम् ? इत्याह'गहण मणो न गिज्झं ति चिन्ताद्रव्यरूपं मनो न ग्राह्यम्, किन्तु ग्रहण गृह्यतेऽवगम्यते शब्दाऽऽदिरर्थोऽनेनेति ग्रहणम्- अर्थपरिच्छेदे करणमित्यर्थः / ग्राह्य तु मेरुशिखराऽऽदिकं मनसः सुप्रतीतमेव / अतः को भागः कोऽवसरस्तस्य करणभूतस्य मनोव्यराशेर्व्यञ्जने व्यञ्जनावग्रहेऽधिकृते? न कोऽपीत्यर्थः / ग्राह्यवस्तुग्रहणं हि व्यञ्जनावग्रहो भवति। न च मनांद्रव्याणि ग्राह्यरूपतया ग्रह्यन्ते, किन्तु करणरूपतया, इत्यसंबद्धमेव परोक्तम्। इति गाथाऽर्थः // 240 / / या च 'देहादणिग्गयस्स वि, सकायहिययाइयं' इत्यादिना मनसः प्राप्यकारिता प्रोका, साऽपिन युक्ता, स्वकायहृदयाऽऽदिको हिमनसः स्वदेश एव, यच यस्मिन् देशेऽवतिष्ठते, तत् तेन संबद्धमेव भवति, कस्तत्र विवादः ? किं हि नाम तद वस्त्वस्ति, यदात्मदेशेनाऽसंबद्धम ? एवं हि प्राप्यकारिताया मेष्यमाणाया सर्वमपि ज्ञानं प्राप्यकार्येवसर्वस्याऽपि तस्य जीवेन संबद्धत्वात्। तस्मात् पारिशेष्या बाह्यार्थापेक्षयैव प्राप्यकारित्वाऽप्राप्यकारित्वचिन्ता युक्ता स च मनसाऽप्राप्ते एव गृह्यते, इति न तत्र व्यभिचारः / भवतुवा मनसः स्वकीयहृदयाऽऽदिचिन्तायां प्राप्यकारिता, तथाऽपि न तस्य व्यञ्जनावग्रहसंभव इति दर्शयन्नाहतद्देसचिंतणे होञ्ज वंजणं जइ तओन समयम्मि। पढमे चेव तमत्थं, गेहेन्ज न वंजणं तम्हा / / 241 / / च चासौ स्वकन्यहृदयाऽऽदिदेशश्च तस्य चिन्तनं तरिमन सति स्याद् / मनसो व्यञ्जन व्यञ्जनावग्रहः / यदि किम् ? इत्याह-'जइ तओ न समयम्मि। पढमे चेवतमत्थं गेण्हेज ति। यदि तद् मनः प्रथम एव समये / तं स्वकीयहृदयाऽऽदिकमर्थे न गृह्णीयाद्-नावगच्छेदिति। एतचा नास्ति, यस्माद मनसः प्रथमसमय एवार्थाऽवग्रहः समुत्पद्यते, न तु श्रोत्राऽऽदीन्द्रियस्येव प्रथम व्यञ्जनावग्रहः तस्य हि क्षयोपशमापाठयेन प्रथम मर्थानुपलब्धिकालसंभवाद्युक्तो व्यञ्जना अग्रहः, मतसस्तुपटुक्षयोपशमत्वाचक्षुरिन्द्रियस्येवाऽर्थानुपलम्भकालस्यासंभवेन प्रथममे - वार्थावग्रह एवोपजायते। अत्र प्रयोगः-इह यस्य शेयसंबन्धे सत्यप्यनुपलब्धिकालो नास्ति न तस्य व्यञ्जनावग्रहो दृष्टः, यथा चक्षुषः नास्ति चार्थसंबन्धेसत्यनुपलब्धिकालो मनसः, तस्माद्नतस्यव्यञ्जनावग्रहः, यत्रत्वमभ्युपगम्यतेनतस्य ज्ञेयसंबन्धे सत्यनुपलब्धिकालासंभवः, तथा श्रोत्रस्येति व्यतिरेकः / तदेवं परोक्तपक्षद्वयेऽपि मनसो व्यञ्जनावग्रह निराकृत्योपसंहरति-'न वंजण तम्ह त्ति तस्मादुक्तप्रकारेण मनसो न व्यञ्जनावग्रहसंभवः / इति गाथाऽर्थः // 241|| करमाद् न मनसो व्यञ्जनावग्रह इत्याशङ्कयाऽत्रार्थे विशेषवतीमुपपत्तिमाहसमए समए गिण्हइ, दव्वाइं जेण मुणइ य तमत्थं / जं चिंदिओपओगे, वि वंजणावग्गहेऽतीते॥२४२।। होइ मणोवावारो, पढमाओ चेव तेण समयाओ। होइ तदत्थग्गहणं, तदण्णहा नप्पवत्तेजा।।२४३।। 'समए समए त्ति' प्रतिसमयमित्यर्थः, इदमुक्तं भवति-मनोद्रव्यग्रहणशक्तिसंपन्ना जीवः कस्यचिदर्थस्व चिन्तावसरे प्रतिसमयं मनोद्रव्याणि गृह्णाति, तं च चिन्तनीयमर्थ प्रतिसमय 'मुणइत्ति' जानाति येन कारणेन, तेन प्रथमसमयादेव भवति तस्य चिन्तनीयार्थस्य ग्रहणमिति द्वितीयगाथायां संबन्धः, प्रथमसमयादेवाऽर्थावबोधः प्रवर्तत इत्यर्थः, अर्थानुपलब्धिकालस्त्वेकोऽपि समया नास्ति, अतोन मनसो व्यञ्जनावग्रहसंभव इति भावः / / आह नन्वपवरकाऽऽदिव्यवस्थितो यदेन्द्रियव्यापाररहितः केवलेन मनसाऽर्थान् पर्यालोचयति तदा मा भूद मनसो व्यञ्जनावग्रहः, यस्तु श्रोत्राऽऽदीन्द्रियव्यापारे मनसोऽपि व्यापारस्तत्र प्रथममनुपलब्धिकालस्य भवद्भिरपीष्यमाणत्वात् किमिति व्यञ्जना मनसो व्यञ्जनावग्रहो नेष्यते? इत्याशड्क्याऽह-'जंचिंदिओवओगे, वि वंजणावग्गहेऽतीते। होइ मणोवावारो त्ति। यच यस्माच कारणादिन्द्रियस्य श्रोत्राऽऽदेरुपयोगेऽपिशब्दाऽऽद्यर्थग्रहणकालेऽऽपीत्यर्थः / किम् ? इत्याहव्यञ्जनावग्रहेऽतीते सति मनसो व्यापारो भवति / इदमुक्तं, भवति-न केवल मनसः केवलावस्थायां प्रथममर्थावग्रह एव व्यापारः, किन्तु श्रोत्राऽऽदीन्द्रियोपयोगकालेऽपि तथैव / तथाहि-श्रोत्राऽदीन्द्रियोपयोगकाले व्याप्रियते मनः केवलमर्थावग्रहादेवाऽऽरभ्य न तु व्यञ्जनावग्रहकाले / अर्थाऽनवबोधस्वरूपो हि व्यञ्जनावग्रहः, तदवबोधकारणमात्रत्वात्तस्य, मनस्त्वर्थावबोधरूपमेव, मनुतेऽर्थान्मन्यन्तेऽर्थाअनेनेति वा मन इति सान्वर्थाभिधानाभिधेयत्वात्। किश-यदिव्यञ्जनावग्रहकाले मनसो व्यापारः स्यात् तदा तस्यापि व्यञ्जनावग्रहसद्भावादष्टाविंशतिभेदभिन्नता मतेर्विशीर्येत। तस्मात्प्रथमसमयादेव तस्याऽर्थग्रहणमेष्टव्यम्। अन्यथा किमत्र बाधकम् ? इत्याह-'तदण्णहा न प्पक्त्तेजत्ति / ' यदि हि प्रथमसमयादेव मनसोऽर्थग्रहणं नेष्यते तदा तस्य मनस्त्वेन प्रवृत्तिरेव न स्यादनुत्पत्तिरेव स्यादित्यर्थः / यथा हि-स्वाभिधेयानर्थान् भाषमाणैव भाषा भवति, नान्यथा यथा च-स्वविषयभूतानानवबुध्यमानानेवाऽवध्यादिज्ञानान्यात्मलाभ लभन्ते, अन्यथा तेषामप्रवृत्तिरेव स्यादिति / एवं
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________________ मण 52 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मण स्वविषयभूतानां न प्रथमसमयादारभ्य मन्वानमेव मनो भवति, अन्यथाऽवध्यादिवत् तस्य प्रवृत्तिरेव न स्यात् / तस्मात् तस्याऽनुपलब्धिकालो नास्ति, तथा च न व्यञ्जनावग्रह इति-स्थितम्। न चैतत् सवमनीषिकया युक्तिमात्रमुच्यते, आगमेऽपि व्यञ्जनावग्रहेऽतीत एवेन्द्रियोपयोग मनसो व्यापाराभिधानात्। तथा चोक्तं कल्पभाष्ये-'अत्थाणतरचारी, चितं निययं तिकालविसयं ति। अत्थे उ पडुप्पण्णे, विणिओग इंदिय लहइ॥१॥' अत्र व्याख्या-अर्थ-शब्दाऽऽदी श्रोत्राऽऽदीन्द्रियव्य जनावग्रहेण गृहीतेऽनन्तरमर्थावग्रहादारभ्य चरति प्रवर्तते, इत्यर्थानन्तरचारि मनः, न तु व्यञ्जनावग्रहकाले तस्य प्रवृत्तिरिति भावः, त्रिकालविषयं चित्त, साप्रतकालविषयं त्विन्द्रियम्। इत्यलं विस्तरेण / / इति गाथाऽर्थः / / 242243 / / अमुमेव मनसोऽनुपलब्धिकालासंभवं सयुक्तिकं भावयन्नाहनेयाउ चिय जं सो, लहइ सरूवं पईव सद्द व्व। तेणाजुत्तं तस्माऽ-संकप्पियवंजणग्गहणं // 244|| प्रतिसमयं मनोद्रव्योपादानं ज्ञेयार्थावगमश्च मनसो भवत्येव, न पुनस्तस्यानुपलब्धिकालः संभवति / कुतः ? इत्याह -यद यस्मात् कारणात 'सो' इतिप्राकृतशैल्या नपुंसकमपि मनः सम्बध्यते, ज्ञायते इति ज्ञेयम, चिन्तनीयम, वस्तु तस्मादेव स्वरूपमात्मसत्तास्वभावं लभते, नाऽन्यतः / ततो यदि तदेव ज्ञेय नावगच्छेत्, तर्हि तस्मादुत्पत्तिरप्यस्य कथं स्यात् ? इदमुक्त भवति-सान्वर्थक्रियावाचकशब्दाभिधेया हि मनः प्रभृतयः, तद्यथामनुते मन्यते वा मनः प्रदीपयतीति प्रदीपः, शब्दयति भाषत इति शब्दः, दहतीति दहनः, तपतीति तपनः / एतानि च विशिष्टक्रियाकर्तृत्वप्रधानानि मनः प्रभृतिवस्तूनि यदि तामेवाऽर्थमननप्रदीपनभाषणाऽऽदिकामर्थक्रिया न कुर्युः तदा तेषां स्वरूपहानिरेव स्यात् / तस्माद् यथा प्रदीपनीयशब्दनीयवस्त्वपेक्षया प्रदीपशब्दाभिधानप्रवृत्तेः प्रदीप-शब्दयोरर्थयोरप्रदीपनमशब्दनं चायुक्तम्, तथा मनसोऽपि मननीयवस्तुमननादेव मनोऽभिधानप्रवृत्तेस्तदमननं न युक्तम्, ततः किम् ? इत्याहयेनैवम्, तेनाऽसंकल्पितान्यनालोचितानि, अनवगतानी ति यावत्, असंकल्पितानि च तानि शब्दाऽऽदिविषयभावेन परिणतद्रव्यरूपाणि व्यञ्जनानि च तेषां ग्रहणमसंकल्पितव्यञ्जनग्रहण तस्य मनसोऽयुक्तम्, किन्तु- संकल्पितानामेवाऽर्थावग्रहद्वारेणाऽवगतानामेव तेषां शब्दाऽऽदिद्रव्याणां ग्रहणं युक्तम्। तस्माद् न मनसोऽनुपलब्धिकालोऽस्ति, तथा च न व्यञ्जनावग्रहसंभव इति स्थितम / इति गाथार्थः // 244 // विशे०। उत्त०। ('इंदिय' शब्दे द्वितीयभागे 557 पृष्ठे नघनमनसोरप्यप्राप्यकारितोक्ता) (युगपद् ज्ञानानुत्पत्तिर्मनसो लिङ्गमिति 'दोकिरिय' शब्दे चतुर्थभागे२६३६ पृष्ठे व्याख्यातम्) अथ "युगपत् ज्ञानानुत्पत्तिर्मनसो लिङ्गम्" इति वचनादात्मेन्द्रियविषयसन्निधा नेऽपि यतो युगपत् ज्ञानानि नोपजायन्ते ततोऽवसीयते अस्ति तत्कारणं, यतस्तथा तदनुपत्तिरिति तत्कारणं मनः सिद्धम् / ननु तदनुत्पत्तिर्मनः प्रतिबद्धा कुतः सिद्धा, यतस्तस्यास्तदनुमीयेत / अथाऽऽत्मनः सर्वगतस्य सर्वार्थः संबन्धात् पञ्चभिश्चेन्द्रियैरात्मसंबद्धः स्वविषयसंबन्धे एकदा किमिति युगपत् ज्ञानानिनोत्पद्यन्ते। यद्यणु मनो नेन्द्रियैः संबन्धमनुभवेत् तत्सद्भावे तुयदैकेनेन्द्रियेणैकदा तत्संबध्यते न तदाऽपरेण, तस्य सूक्ष्मत्वादिति सिद्धा युगपत् ज्ञानानुत्पत्तिर्मनोनिमित्तेति: नन्वेव तस्याऽऽत्मसंयोगसमये श्रोत्रसंज्ञकन नभसाऽपि संयोगात संयुक्तसमवायाविशेषात्सुखाऽऽदिवशब्दोपलब्धिरपि तदैव स्यात्, निमित्तस्य समानत्वेऽपि युगपत् ज्ञानानुत्पत्तावपरं निमित्तान्तरमभ्युपगन्तव्यमिति नातो मनः सिद्धिः / न च कर्णशष्कुल्यवच्छिन्नाऽऽकाशदेशस्य श्रोत्रत्वात्तेन च तदैव मनसः संबन्धाभावान्नायं दोषो, निरंशस्य नभसः प्रदेशाभावात्। न च संयोगस्याव्याप्यवृत्तित्वं, तस्य प्रदेशव्यपदेशनिमित्तमुपचरितस्य व्यपदशेमात्रनिबन्धनस्यार्थक्रियायामुपयोगाभावात् / न युपचरिताग्नित्वो माणवक : पाकनिर्वर्तनसमर्थो दृष्टो, नच कर्णशष्कुल्यवच्छिन्ननभोभागस्य तथाविधस्यापि शब्दोपलब्धिहेतुत्वमुपलभ्यत एवेतिवाच्यं तदुपलब्धेरन्यनिमित्तत्वात, किं चचक्षुराद्यन्यतमेन्द्रियसंबन्धात् रूपाऽऽदिज्ञानोत्पत्तिकाले मनसः सम्बद्धसंबन्धात् मानसज्ञानं किं न भवेत् ? नच तथाविधादृष्टाभावादित्युत्तरम् अदृष्टनिमित्तयुगपज्ज्ञानानुत्पत्तिसक्तितो मनसोऽनिमित्तताभावात्। अश्वविकल्पसमये गोदर्शनानुभवात् युगपज्ज्ञानानुत्पत्तिश्चासिद्धा कथं मनोऽनुमापिका? न चाश्वविकल्पगोदर्शनयोर्युगपदनुभवेऽपि क्रमोत्पत्तिकल्पना, अध्यक्षविरोधात: न चोत्पलपत्रशतव्यतिभेदयदाशुवृत्तेः क्रमेऽपि यौगपद्यानुभवाभिमानः। अध्यक्षसिद्धस्य दृष्टान्तमात्रेणान्यथा कर्तुमशक्तेः, अन्यथा शुक्लशङ्खाऽऽदौ पीतविभ्रमदर्शनात् स्वर्णेऽपि तदभ्रान्तिर्भवेत्। मूर्तस्य शूच्यग्रस्यौत्तराधर्यव्यवस्थितमुत्पलपत्रशतं युगपद् व्याप्तुमशक्तेः क्रमभेदेऽप्याशुवृत्तेस्तत्र यौगपद्याभिमान इति युक्तम्। आत्मनस्तुक्षयोपशमसव्यपेक्षस्य युगपत् स्वपरप्रकाशनस्वभावस्य स्वयममूर्तस्याप्राप्तार्थग्राहिणो युगपत् स्वविषयग्रहणे न कश्चिद् विरोध इति किन युगपद् ज्ञानोत्पत्तिः। न च मनोऽपि शूच्यग्रवन्मूर्त्तमिन्द्रियाणि तूत्पलपत्रवत् परस्परपरिहारस्थितस्वरूपाणि न युगपद् व्याप्तुं समर्थमिति न युगपज्ज्ञानोत्पत्तिः, तथाभूतस्यैवासिद्धेः। तथाहिसिद्धे तद्विभ्रमे मनःसिद्धिः, तत्सिद्धौ च युगपज्ज्ञानोत्पत्तिविभ्रमसिद्धिरितीतरेतराऽऽश्रयत्वान्न मनः सिद्धिः। सम्म०२ काण्ड / (विशेषस्तु 'णाण' शब्दे चतुर्थभागे 1638 पृष्ठे) सर्वविषयमन्तः करणं युगपज्ज्ञानानुत्पत्तिलिङ्ग मनः, तदपि द्रव्यमनः पौगलिकमजीवग्रहणेन गृहीत, भावमनस्त्वात्मगुणत्वात् जीवग्रहणेनेति। सूत्र०१ श्रु०१२ अ०। ''एगे जीवा णं मणे'' स्था० / मननं मनः औदारिकाऽऽदिशरीरव्यापाराऽऽहतमनो द्रव्यसमूहसाचिव्याज्जीवव्यापारो मनोयोग इति भावः / मन्यते वा अनेनेति मनो मनोद्रव्यमात्रमेवेति, तच्च सत्याऽऽदिभेदादनेकमपि संज्ञिना वा असंख्यातत्वादसंख्यातभेदमप्येकं मननलक्षणत्वेन सर्वमनसामेकत्वादिति। स्था०१ ठा०।"एगे मणे देवासुरमणुआण तसि तंसि समयंसि।" तत्र मन इति मनोयोगः, तच यस्मिन् यस्मिन् समये विचार्यते तस्मिन् तस्मिन् समये कालविशेष एकमेव, वीप्सानिर्देशेन न वचनापि समयेतत्व्यादिसंख्यसम्भवतीत्याहएकत्वंचतस्यैकोपयोगात्वात् जीवानां स्यादेतत् नैकोपयोगो जीवो युगपच्छीतोष्णस्पर्शविषयसंवेदनद्वयदर्शनात्, तथाविधभिन्नविषयोपयोगपुरुषद्वयवत्। अत्रोच्यते-यदिद
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________________ मण 53 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मणगुत्ति शीतोष्णोपयोगद्वयं तत्स्वरूपेण भिन्नकालमपि समयमनसोरतिसूक्ष्मतया क्षण / अयं च गर्भगत एवाऽऽसीद्यदाऽस्य पिता शय्यम्भवः प्रवव्राज, युगपदिव प्रतीयते, न पुनस्तद्युगपदेवेति। आह च -"समयातिसुहुम- पश्चादष्टवर्षोऽयमपि तदन्तिके प्रव्रजितः, षण्मासाऽवशेषाऽऽयुषं तं ज्ञात्या याओ, मन्नरि जुगवं व भिन्नकालं पि / उप्पलदलसयवेह, व जह व तदर्थसकल श्रुतनिस्यन्दभूतं दशवैकालिकनामाध्ययनं नूनं रचयित्वा तमलायचचं ति॥११॥ यदि पुनरेकत्रोपयुक्तं मनोऽर्थान्तरमपि संवेदयति पाठयामास पिता, ततः स काले स्वर्गतः। जै० इ०। तदा किमन्यत्र गतचेतः पुरोऽवस्थितं हस्तिनमपि न विषयीकरोतीति। मणगपियर पुं० (मनकपितृ) मनकाऽऽख्यापत्यजनके, दश०१ अ० / आह च-"अन्नविणिउत्तमन्नं, विणिओगं लहइ ज मणो तेणं / हत्थिं पि श्रीशय्यंभवसूरौ, "मणगपियरं णमंसामि।" कल्प०२ अधि०८ क्षण। ठियं पुरओ, किमन्नचित्तो नलक्खेइ।।१।।" इति। इह च बहु वक्तव्यमस्ति | मणगुत्त त्रि० (मनोगुप्त) मनोनियन्त्रणया संवृते, मनोगुप्तया गुप्तः / तत्तु स्थानान्तरादवसेयमिति। अथवा-सत्यासत्योभवस्वभावानुभय- | उत्त०१२ अ०॥ रूपाणां चतुर्णा मनोयोगानामन्यतर एव भवत्वेकदाद्व्यादिनां विरोधेना- मणगुत्तया स्त्री० (मनोगुप्तता) मनसोऽशुभपदार्थाद् गोपने, उत्त० / सम्भवादिति, केषामित्याह-(देवासुरमणुयाणं ति) तत्र दीव्यन्तीति देवा मणगुत्तयाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ ? मणगुत्तयाए णं जीवे वैमानिकज्योतिष्काः / ते च न सुरा असुरा भवभपतिव्यन्तरास्ते च एगऽग्गं जणयह, एगऽग्गचित्ते णं जीवे मणगुत्ते संजमाऽऽराहए मनोजीता मनुजा मनुष्यास्ते च देवासुरमनुजास्तेषाम्। स्था०१ ठा० / भवइ॥५३॥ मनोयोगेन मनस्त्वेन परिणामितानि वस्तुप्रवर्तकानिद्रव्याणि मनांसी- हे भदन्त ! मनोगुप्ततया जीवः किं जनयति? तदा गुरुराहहे शिष्य ! त्युच्यन्ते। अनु० / कर्म० / संशयप्रतिभास्वप्नज्ञानोहास्सुखाऽऽदिक्ष- मनोगुप्ततया जीव एकाग्रं धर्मे एकान्तत्वम् उपार्जयति एकाग्रचित्तो जीवो मच्छाऽदयश्च मनसो लिङ्गानि। सम्म०२ काण्ड।'' इङ्गिताऽकारितै यैः, गुप्तमनः सन संयमस्याऽऽराधकः पालको भवति। उत्त०२६ अ० / क्रियाभिर्भाषितेन च / नेत्रवत्रविकारैश्च गृह्यतेऽन्तर्गतं मनः / / 1 / / मणगुत्ति स्त्री० (मनोगुप्ति) मनोनियन्त्रणायाम्, उत्त०। मनोगुप्तिस्त्रिधाअनु० / आ० क० / 'शुभाशुभानि सर्वाणि, निमित्तानि स्युरेकतः / / आर्तरौद्रध्यानानुबन्धिकल्पनाजालवियोगः प्रथमा 1, शास्त्रानुसारिणी एकतस्तु मनो याति, तद्विशुद्धं जयावहम् // 1 // " ज्ञा०१ श्रु०१६ अ०। परलोकसाधिका धर्मध्यानानुबन्धिनी माध्यस्थ्यपारिणतिर्द्वितीया 2, द०प० / मनःपर्यायज्ञाने, मनो जीव इति बौद्धमतनिरासः यथा-"मणं कुशलाकुशलमनोवृत्तिनिरोधेन योगनिरोधावस्थाभाविन्यात्मारामता चमण जीविया वयति त्ति / " न केवलं पञ्चैव स्कन्धान मनश्च तृतीया 3 / तदुक्तं विशेषणत्रयेण योगशास्त्रे-'"विमुक्तकल्पनाजालं समत्वे मनस्कारो रूपाऽऽदिज्ञानलक्षणानामुपादानकारणभूतो यमाश्रित्य सुप्रतिष्ठितम्, आत्माराम मनस्तज्ज्ञैर्मनोगुप्तिरुदाहृता।।१।।'' एवंविधा परलोकोऽभ्युपगम्यते बोद्धः, मन एव जीवो येषां मतेन ते मनोजीवाः, ते मनोगुप्तिरित्यर्थः / ध०३ अधि०। नि० चू०। द्वा०॥ एव मनोजीविकाः, अलीकवाहिता चैषां सर्वथाऽननुगामिनि मनोमात्ररूपे सच्चा तहेव मोसा य, सच्चामोसा तहेव य / जीव कल्पितेऽपि परलोकासिद्धेः, तदसिद्धिश्चावस्थितस्यैकस्याऽऽत्म- चउत्थी असचमोसाओ, मणगुत्ती चउविहा॥२०॥ नोऽसत्वात् मनोमात्राऽऽत्मनः क्षणान्तररस्यैवोत्पादनात् अकृताभ्याग- मनोगुप्तिश्चतुर्विधाप्रथमा सत्या मनोगुप्तिः, तथा द्वितीया असत्या माऽऽदिदोषप्रसङ्गात् कथञ्चिदनुगामिनि तु मनसि जीवत्वाभ्युमगमः मनोगुप्तिः, तथैव तृतीया सत्यामृषा मनोगुप्तिः / तथा चतुर्थी असत्यासम्यक पक्ष एवेति। प्रश्न०२ आश्र० द्वार। कल्प०। मृषामनोगुप्तिः / यत्सत्यं वस्तु मनसि चिन्त्यते जगति जीवतत्त्वं विद्यते मणइच्छिय त्रि० (मनईप्सित) मनसीष्ट, "मणइच्छियचित्तत्थो, नायव्वो इत्यादिचिन्तनस्य योगस्तद्रूपा गुप्तिः सत्यामनोगुप्तिः प्रथमा 1, यत् होइ इत्तरिओ।" (11) मनसि ईप्सित इष्टश्चित्तोऽनेकप्रकारोऽर्थः असत्यं वस्तु मनसि चिन्त्यते जीवो नास्ति इत्यादि चिन्तनस्य स्वर्गापवर्गाऽऽदिस्तेजोलेश्यादिायस्मात्तन्मनईप्सितचित्रार्थम्, इत्व- योगस्तद्रूपा गुप्तिः असत्यामनोगुप्तिः द्वितीया 2, बहूनां नानाजातीयानाम् रिकं प्रक्रमादनशनाऽऽख्यं तपो ज्ञातव्यम्। उत्त०३० अ०। आम्राऽऽदिवृक्षाणां वनं दृष्ट्वा आमाणामेव वनम् एतत् वर्तते स तत्सत्यं मनएगत्तीकरण न० (मनएकत्वीकरण) चित्तस्य नानाव्यापारविकल्पमा- पुनर्मुषायुक्तम्-एव इत्यादिचिन्तनयोगस्तद्रूपा गुप्तिः सत्यामृषामनोगुप्तिलाऽऽकुलस्यैकाग्रताऽपादने, दर्श०१ तत्त्व / स्तृतीया 3, यतोऽत्र काचित् सत्या चिन्तना काचित्मृषा चिन्तना केचित् तत्र मणंसि त्रि० (मनस्विन) "अतः समृद्ध्यादौ वा" ||8|114|| वने आम्राः सन्ति तेन सत्या, केचित् तत्र वने धवखदिरपलाशाऽऽदयो वृक्षा समृद्धिइत्येवमादिषु आदेरकारस्य दीर्घो भवति / माणसी। मणंसी / / अपि सन्ति तेन मृषाऽप्यस्ति चतुर्थी 4. असत्यामृषा या चिन्तना सत्याऽपि स्वमनोऽनुगे, प्रा०१ पाद। नास्ति यत आदेशनिर्देशाऽऽदिवचनंमनसि चिन्त्यतेहे देवदत्त ! घटम् आनय, मणग पुं० (मनक) दशवैकालिककर्तृशय्यम्भवस्य पुत्रे, कल्प०२ अधि०८ अमुकं वस्तु मह्यम् आनीय दीयताम्, इत्यादि चिन्तना व्यवहाररूपा
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________________ मणगुत्ति 54 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मणदुप्पणिहाण तद्रूपा गुप्तिः असत्यामृषामनोगुप्तिश्चतुर्थी यत एषा चिन्तना सत्याऽपि तानुसारेण किञ्चिद्विकल्पते यथाऽस्ति जीवः सदसदरूप इत्यादि, नास्ति मृषाऽपि नास्ति व्यवहारचिन्तना इत्यर्थः। उत्त०२४ अ० / तत्किल सत्यं परिभाषितमाराधकत्वात्, यत्तु विप्रतिपनौसत्यं वस्तुमनोगुप्तौ, आ० क०। प्रतिष्ठाशया सर्वज्ञमतोत्तीर्ण किश्चिद् विकल्पते यथा नास्ति जीव "श्रावको जिनदासाऽख्यः, प्रतिमां सर्वरात्रिकीम्। एकान्तनित्यो वेत्यादि तदसत्यामिति परिभाषित, विराधक त्वात, प्रपन्नो यानशालायां, दुःशीला तस्य च प्रिया।।१।। यत्पुनर्वस्तुप्रतिष्ठाशामन्तरेण स्वरूपमात्रप्रतिपादनपर व्यवहारपतित लोहकीलकयुक्पादं, गृहीत्वा तल्पमाययौ। किञ्चिद्विकल्पते-यथा हे देवदत्त ! घटमानय, गां देहि मह्यमित्यादि, अज्ञानात्तत्र पत्यही, लोहपादं निवेश्य सा 112|| तदेतत्स्वरूपमात्रप्रतिपादनं व्यावहारिकं विकल्पज्ञानं न यथोक्तलक्षणं अनाचारं प्रकुर्वाणाऽविध्यत्कीलेन तत्पदम्। सत्यं नापि मृषेत्यसत्यामृषमनोयोग इति व्याख्यातश्चतुर्द्धा मनायोगः। वेदनां सोऽधिसेहे तां, न दुनिं मनोऽप्यगात्॥३॥" कर्म०४ कर्म। आ० क०४ अ०। मणजोगि (ण) पुं० (मनोयोगिन) समनस्के जीवे, स्था०४ ठा०४ उ०। मणगुलिया स्त्री० (मनोगुटिका) पीठिकायाम्, मनोगुलिका नाम मणण न० (मनन) चिन्तने, विशे०। सर्वपदार्थपरिज्ञाने, आचा०१ श्रु०८ पीठिकति / जी०३ प्रति०४ अधि० / रा०। अ०१ उ०। सम्यक् परिच्छित्ती, सूत्र०१ श्रु०१५ अ०। मणजीविय पुं० (मनोजीविक) मन एव जीवो येषां ते मनोजीवास्त एव मणणाणि पु० (मनोज्ञानिन्) मनःपर्यायज्ञानिनि, प्रव०१ द्वार। मनोजीविकाः / मनस आत्मत्ववादिषु, प्रश्न०२ आश्रवद्वार / (ते च मणणाणिलद्धि त्रि० (मनोज्ञानिलब्धि) मनोज्ञानिनो मनः-पर्यायज्ञानिनो 'मण' शब्देऽनुपदमेव प्रतिक्षिप्ताः) / लब्धिः / मनः पर्यायज्ञानरूपे लब्धिभेदे, तच मनःपर्यायज्ञानं विमलमणजोग पुं० (मनोयोग) मनसा सहकारिकारणभूतेन योगो मनोयोगः मतिरूपमिह गृह्यते, ऋजुमतेः पृथक् लब्धिरूपत्वात्। आ० म०१ अ०। विशे० / मनोविषयो वा योगो मनोयोगः। कर्म०४ कर्म०। दर्श०। औदारि- | मणणिव्वत्ति स्त्री० (मनोनिवृत्ति) निवृत्तिभेदे, भ०। कव्यापाराद्वृत्तमनोद्रव्यसमूहसाचिव्याजीवव्यापारे, "तह तणुवावारा- कइविहाणं भंते ! मणणिव्वत्ती पण्णत्ता? गोयमा ! चउठिवहा हियमणदव्वसमूहजीववावारो / सो मणजोगो भण्णइ, मन्नइ नेयं जओ मणणिवत्ती पण्णत्ता। तं जहासच मणणिव्वत्ती० जाव असचातेण॥१॥" नं0 1 औ० / कर्म० / स्था० / 'हितं मितं प्रियं तथ्य-मनव- मोसमणणिवत्ती / एवं एगिदियवजं विगलिंदियवजं० जाव द्यविमृश्य च / यन्मुनिर्वक्ति बाग्योगः, शेषतद्वामवर्जनात्।।१।।" मनोयोगः वेमाणियाणं / भ०१६ श०८ उ०। पुनरयं, मनसः कुशलस्य यत्।' जीत० / मनःसम्बन्धे, द्वा०२४ द्वा०। मणणिव्वुतिकर त्रि० (मनोनिवृतिकर) मनसः निर्वृतिकरः सुखोत्पाकर्म० स्था०। तत्र मनोयोगश्चतुर्धा, तद्यथासत्यमनोयोगः 1, असत्य- दके, रा०। मनोयोगः 2, सत्याऽसत्यमनोयोगः 3 असत्यामृषामनोयोगः 4, तत्र | मणदव्व न० (मनोद्रव्य) मनोवर्गणागते मनस्त्वेन परिणमिते द्रव्ये, विशे० / सन्तो मुनयः पदार्था वा तेषु यथा संख्य मुक्तिप्रापकत्वेन यथावस्थित- "मणदव्याणि णामजाणि मणपाओग्गाणि दव्वणि गहिताणि ताणि मणदतत्वचिन्तनेन च हितः सत्यः यथा अस्ति जीवः सदसद्रूपः कायप्रमाण व्वाणि भण्णति।" आ० चू०१ अ०। मनश्चिन्ताप्रवर्तके द्रव्ये विशे०। इत्यादिरूपतया यथावस्थितवस्तुविकल्पनघर इत्यर्थः, सत्यश्चासौ मणतुट्ठिजणण न० (मनस्तुष्ट्रिजनन) चित्ततोषविधाने, पञ्चा०६ विव०॥ मनोयोगश्च सत्यमनोयोगः / तथा सत्यविपरीतोऽसत्योः यथा-नास्ति मणदंड पुं० (मनोदण्ड) दण्डभेदे, स्था०३ ठा०१ उ०। (व्याख्या 'दंड' जीव एकान्तसद्भुतो विश्वव्यापीत्यादिकुविकल्पचिन्तनपरः / असत्य- शब्दे चतुर्थभागे 2421 पृष्ठे) मन एव दण्डो मनोदण्डः वा दुष्प्रयुक्तेश्चासौ मनोयोगश्च असत्यमनोयोगः 2, तथा मिश्रः सत्याऽसत्यम- नाऽऽत्मदण्डो दण्डेन मनोदण्ड एव। स०३ सम०। मनसा "तल्थ मणदंडे नोयोगः / यथा इह धवखदिरपलाशाऽऽदिमिश्रेषु बहुष्वशोकवृक्षेषु उदाहरण-कोंकणए एगो खंतो सो उड्ढजाणू अहोसिरो विमतो अत्थति अशोकवनमेवेदमिति यदा विकल्पयति तदा तत्राशोकवृक्षाणां सद्भावात्स- साधुणो अहो खंतोसुभज्झाणोवगतो त्ति वंदति, चिरेण संलावंदेतुमारद्धो / त्योऽन्येषामपि धवखदिरपलाशाऽऽदीना तत्र सदावादसत्य इति सत्याऽ- साहूहिं पुच्छितो भणति / खरो वातो वायति जदि तेहेिं मम पुत्ता संपत्तं सत्यमनोयोग इति, व्यवहारनयमताऽपेक्षया चैवमुच्यते, परमार्थतः वल्लराणि पलीवेजा ताए तेसिं वरिसारत्तिं सरिसाए भूमीए सुबहुपुनरयमसत्य एव यथाविकल्पितार्थायोगात् / न विद्यते सत्य यत्र सालिसंपदा भवेज त्ति / एतं चिंतियं मे आयरिएणं वारितो ठितो, एवमादी सोऽसत्यः, न विद्यते मृषा यत्र सोऽमृषः, असत्यश्चासावमृषश्च तं जं असुभं मणो चिंतेति सो मणदंडो।" आ०चू०४ अ०। नयाऽऽदिभिन्नैरिति कर्मधारयः / असत्यामृषश्चासौ मनोयोगश्च अस- मणदुक्कड त्रि० (मनोदुष्कृत) दुष्कृतनिमित्ते, आव०३ अ०।३०। त्यामृषमनोयोगः / इह विप्रतिपत्तौ सत्यां वस्तुप्रतिष्ठाऽऽशया सर्वज्ञ- मणदुप्पणिहाण न० (मणदुष्प्रणिधान) मनसो दुष्ट प्रणिधानं प्रयोगो
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________________ मणदुप्पणिहाण 85 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मणपज्जवणाण दुष्प्रणिधानम्। कृतसामाथिकस्य गृहे कर्त्तव्यतां कथयता सकृदुष्कृतपरिचिन्तने, उपा०१ अ०। आचा० / सामाइयं तु काउं, परिचिंतं जो य चिंतए सड्ढो। अट्टवसट्टोबगओ, निरत्थयं तस्स सामइयं / / 313 / / सामायिकमित्येवं कृत्वा आत्मानं संयम्य परचिन्तां संसारे इतिकर्तव्यताविषयां यस्तु चिन्तयति श्रावक आर्त्तवशार्तश्च स उपगतश्चेति समासः आर्तध्यानसामर्थ्य नाऽऽतः, उपसामीप्येन गतो भवस्येति भावार्थः / निरर्थक तस्य सामायिकमनात्मचिन्तावतः निष्फल सामापिकमित्यर्थः / आत्मचिन्ता च सद्ध्यानरूपेति॥३१३|| आ०। पञ्चा० / मणपज्जत्ति स्त्री० (मनःपर्याप्ति) पर्याप्तिभेदे, यया पुनर्मनोयोग्यवर्गणा दलिकमादाय मनस्त्वेन परिणमय्याऽऽलम्ब्य च मुञ्चति सा मनःपर्याप्तिः / कर्म०६ कर्म० / प्रव० / प्रज्ञा० / पं०सं०। मणपज्जवणाण न० (मनःपर्यवज्ञान) मनसो मन्यमानमनो द्रव्याणां पर्यवःपरिच्छदो मनः पर्यवः, स एवज्ञानं, मनः पर्यायाणां वा तदवस्थाविशेषाणां ज्ञान् मनः पर्यवज्ञानम्। भ०८ श०२ उ०। कर्म०।०। ध०। पं० सं० / स्था। सूत्राआ०म०। मणपजवणाणे दुविहे पन्नत्ते / तं जहाउजुमई चेव, विउलमई चेव। स्था०२ ठा०१ उ०। पा०। प्रज्ञा०। ज्ञानभेदे, विशे०। अथ मनःपर्यायज्ञानविषयां व्युत्पत्तिमाहपञ्जवणं पज्जयणं, पज्जाओ वा मणम्मि मणसो वा। तस्स व पज्जायादिन्नाणं मणपज्जवं नाणं / / 83|| (पज्जवणं ति) 'अव' गत्यादिष्वितिवचनादवनं गमन वेदनमित्यवः, परिःसर्वतोभावे, पर्यवनं समन्तात् परिच्छेदनं पर्यवः / क्वायमित्याह(मणम्मिमणसो व त्ति) मनसि मनोद्रव्यसमुदाये ग्राह्ये, मनसो वा ग्राह्यस्य सबन्धी पर्यवः मनःपर्यवः, स चासौ ज्ञान च मनः पर्यवज्ञानम्। अथवा (पजयण ति) अय वय मय' इत्यादि दण्डकधातुः, अयनं गमनं वेदनमित्ययः, परिः सर्वतो भावे, पर्ययन सर्वतः परिच्छेदनं पर्ययः / क्त पुनरसौ ? इत्याह-(मणम्मि मणसो व त्ति) मनसि ग्राह्ये, मनसो वा ग्राह्यरस सम्बन्धी पर्थयो मनःपर्ययः, सचासौ ज्ञानं च मनःपर्ययज्ञानम् / (पख़ाओ व ति) अथवा-इण गतौ, अयनम् आयः, लाभः प्राप्तिरिति पर्यायाः, परिस्तथैव, समन्तादायः पर्यायः / ल ? इत्याह- (मणम्मि मणसो व त्ति) मनसि ग्राह्ये, मनसो वा ग्राह्यस्य पर्यायो मनः पर्यायः। स चासौ ज्ञानं च मनःपर्यायज्ञानम् / एवं तावज्ज्ञाशब्देन सह सामानाधिकरण्यमङ्गीकृत्योक्तम् / अथ वैयधिकरण्यमङ्गीकृत्याऽऽह (तस्स येत्यादि) वशब्दः पक्षान्तरसूचकः, तस्येति-मनसः, पर्यायाः, पर्यवाः, पर्यया धर्मा इत्यनर्थान्तरम् इति / आदिशब्दात्पर्यवपर्ययपरिग्रहः / ततश्याऽयमर्थः, अथवा-तस्य मनसो ग्राह्यस्य संबन्धिनो बाह्यवस्तुचिन्तनानुगणा ये पर्यायाः, पर्यवाः, पर्ययास्तेषां तेषु वा इदमित्थंभूतमनेन चिन्तितम् इत्येवंरूपं ज्ञानं मनः पर्ययज्ञानं, मनः पर्यवज्ञानं, मनः पर्यायज्ञानं चेति ज्ञानशब्देन सह व्यधिकरणः समासः। अत एव "पाय च नाणसद्दा, नामसमाणाहिगरणोऽयं।'' इत्यत्र प्रायोग्रहणं करिष्यतीति गाथाऽर्थः। विशे०। अथ ज्ञानपञ्चकभणनक्रमाऽऽयातस्य मनः पर्यायज्ञानस्य प्रस्तावनां कर्तुमाहओहिविभागे भणियं, पिलद्धिसामन्नओ मणोणाणं / विसयाइविभगत्थं, भणई नाणक्कमाऽऽयातं // 50 // प्रकटार्थव / / 806 // तदेवं प्रतिज्ञात मनः पर्यायज्ञानमाहमणपज्जवणाणं पुण, जणमणपरिचिंतियऽत्थपागडणं। माणुसखेत्तनिबद्धं, गुणपचइयं चरित्तवओ॥८१०।। मनःपर्यायज्ञानं प्रागनिरूपितशब्दार्थम् / पुनःशब्दोऽवधिज्ञानादस्य विशेषद्योतनार्थः / इदं हि रूपिद्रव्यनिबन्धनत्वक्षायोपशमिकत्वप्रत्यक्षत्वाऽऽदिसाम्येऽपि सत्यवधिज्ञानात्स्वाम्यादिभेदेन विशिष्टमिति / तत्र विषयमाश्रित्य स्वरूपत इदं प्रतिपादयति-जायन्त इति जनास्तेषां मनांसि जनमनांसि तैः परिचिन्तितो जनमतः परिचिन्तितः स चासावर्थश्च तं प्रकटयति-प्रकाशयति जनमनः परिचिन्तितार्थप्रकटनम्। मानुषक्षेत्रमर्द्धतृतीयद्वीपसमुद्रपरिमाणं तन्निबद्धं, न खलुतरहिर्भूतप्राणिमनास्यवगच्छतीति भावः / गुणा विशिष्टद्धिप्राप्तिक्षान्त्यादयस्त एव प्रत्ययाः कारणानि यस्य तद्वणप्रत्ययम् / चारित्रमस्यास्तीति चारित्रवाँस्तस्य चारित्रक्त एवेदं भवति, तस्याप्यप्रमत्तद्धिप्राप्तत्वाऽऽदिसमयोक्तविशेषविशिष्टस्यैव / इति नियुक्तिगाथाऽर्थः / / 810 // अथ भाष्यं तत्र पुनःशब्दां तावदाहपुणसद्दो उ विसेसे, रूविनिबंधाइँ तुल्लभावे, वि। इदमोहिन्नाणाओ, सामिविसेसाइणा भिन्नं / / 811 // गताथैव / / 811 // अथ कस्य तद्भवति? कियत्क्षेत्रविषयं चेत्याह - तं संजयस्स सव्वप्पमायरहियस्स विविहरिद्धिमओ। समयखेत्तभिंतरसन्निमणोगयपरिण्णाणं // 812 / / प्रकटाऽर्था / / ८१२शा विशे०। जाणइ य पिहुजणो वि हु, विफुडमागारेहि माणसं भावं। एमेव य तस्सुवमा, मणदव्वपगासिए अत्थे / / 36|| पृथग्जनोऽपि लोको, हु निश्चितमाकारैर्मानसं भावं जानाति, एवमेव तस्याऽपि मनः पर्यायज्ञानिनो मनोद्रव्यप्रकाशितेऽर्थे उपमा द्रष्टव्या। किमुक्तं भवति ? यथा प्राकृतो लोकः स्फुटमाकारैर्मानसं भावं जानाति, तथा मनः पर्यवज्ञान्यपि मनोद्रव्यगतानाकारानवलोक्य तंत मानसं भावं जानाति / बृ०१ उ०१ प्रक०। से कि तंमणपज्जवनाणं? मणपज्जवणाणे णं भंते! किं मणुस्साणं उप्पज्जइ, अमणुस्साणं ? गोयमा! मणुस्साणं, नोअमणुस्साणं / जइ मणुस्साणं किं समुच्छिममणुस्साणं, गब्भवक्कंतियमणुस्साणं ? गोयमा! नो समुच्छिममणुस्साणं उप्पज्जइ, गन्भवतियमणुस्साणं / जइ गब्भवक्कंति यमणुस्साणं किं कम्मभूमियगब्भवक्कंतियमणुस्साणं, अकम्मभूमियगब्भवक्कंतियणुस्साणं,
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________________ मणपज्जवणाण 86 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मणपज्जवणाण अंतरदीवगगब्भवक्कं तियमणुस्साणं? गोयमा ! कम्मभूमियगम्भवक्कं तियमणुस्साणं नो अकम्मभूमियगब्भवकं तियमणुस्साणं नो अंतरदीवगगब्भवक्कं तियमणुस्साणं / जइ कम्मभूमियगब्भवक्कं तियमणुस्साणं किं संखिज्जवासाऽऽउयकम्मभूमियगम्भवकं तियमणुस्साणं असंखिज्जवासाउयकम्मभूमियगडभवक्कं तियमणुस्साणं ? गोयमा ! संखिज्जवासाउयक भूमियगब्भवक्कं तियमणुस्साणं, नोअसंखिञ्जवाउयक - म्मभूमियगमवक्कंतियमणुस्साणं / जइ संखिज्जवासाउयकम्मभूमियगमनं तियमणुस्साणं किं पज्जत्तगसंखिज्जवासाउयकम्भूमियगब्भवक्कंतियमणुस्साणं, अपञ्जत्तगसंखिजवासाउयकम्मभूमियगम्भवक्कंतियमणुस्साणं ? गोयमा ! पजत्तगसंखिजवासाउयकम्मभूमियगम्भवक्कं तियमणुस्साणं, नो अपज्जतगसखिज्जवासाउयकम्मभूमियगब्भवकं तियमणुस्साणं / जइ पज्जत्तगसंखिज्जवासाउयकम्मभूमियगन्भवतियमणुस्साणं किं सम्मद्दिट्ठिपज्जत्तगसंखिज्जवासाउयकम्मभूमियगडभक्कं तियमणुस्साणं, मिच्छद्दिट्ठिपज्जत्तगसंखिजवासाउयकम्मभूमियगब्भ-- वक्कंतयमणुस्साणं, सम्मामिच्छदिट्ठिपज्जत्तगसंखिज्जवासाउयकम्मभूमियगम्भवक्कंति-यमणुस्साणं? गोयमा ! सम्मद्दिट्ठिपज्जत्तगसंखिज्जवासाउयकम्मभूमियगब्मवक्कंतियमणुस्साणं नो मिच्छादिहिपजत्तगसंखिज्जवासाउयकम्मभूमियगढभवक्कं तियमणुस्साणं नो सम्मामिच्छदिट्ठिपज्जत्तगसंखिज्जवासाउयकम्मभूमियगढभक्कं तियमणुस्साणं / जइ सम्मदिट्ठिपज्जत्तगसंखिज्जवासाउयकम्मभूमियगब्भवतियमणुस्साणं किं संजयसम्मद्दिछिपज्जत्तगसंखिज्जवासाउअकम्मभूमियगब्भवकं तियमणुस्साणं असंजयसम्मद्दिट्ठिपजत्तगसंखिज्जवासाउयकम्मभूमियगन्भवतियमणुस्साणं संजयाऽसंजयसम्मद्दिहिपज्जत्तगसंखिजवासाउयकम्मभूमियगम्भवक्कं तियमणुस्साणं ? गोयमा ! संजयसम्मद्दिट्ठिपज्जत्तगसंखिज्जवासाउयकम्मभूमियगब्भयकतियमणुस्साणं, नो असंजयसम्मद्दिविपज्जत्तगसंखिज्जवासाउयकम्मभूमियगडमयवतियमणुस्साणं, नो संजयाऽसंजयसम्मविहिपज्जत्तगसंखिञ्जवासाउयकम्मभूमियगभवकं तियमणुस्साणं / जइ संजयसम्मदिट्ठिपज्जत्तगसंखिज्जवासाउयकम्मभूमियगब्भवकं तियमणुस्साणं, किं पमत्तसंजयसम्मतिट्टिपज्जत्तगसंखिजवा-साउयकम्मभूमियगन्मवक्कं तियमणुस्साणं अपमत्तसंजयसम्मद्दिट्ठिपजत्तगअसंखिजवासाउयकम्मभूमियगब्भवक्कंतियमणुस्साणं ? गोयमा ! अपमत्तसंजयसम्मदिट्ठिपज्ज त्तगसंखिज्जवासाउयकम्मभूमियगम्भवकं तियमणुस्साणं, नो | पमत्तसंजयसम्मद्दिछिपज्जत्तगसंखेजवासाउयकम्मभूमियगम्भवकं तियमणुस्साणं / जइ अपमत्तसंजयसम्मविहिपज्जत्तगसंखेज्जवासाउयकम्मभूमियगब्भवक्कं तियमणुस्साणं किं इड्ढीपत्तअपमत्तसंजयसम्मतिट्ठिपज्जत्तगसंखेजवासाउयकम्मभूमियगन्भवतियमणुस्साणं अणिवीपत्तअपमत्तसंजयसम्मविहिपजत्तगसंखिजवासाउयकम्मभूमियगब्भक्कंतियमणुस्साणं ? गोयमा ! इड्डीपत्तअपमत्तसंजयसम्मद्दिट्ठिपज्जत्तयसंखेजवा साऽऽउयकम्मभूमियगब्भवक्कं तियमणुस्साणं नो अणिड्डीपत्तअपमत्तसंजयसम्मदिट्ठिपजत्तगसंखेज्जवासाउयकम्मभूमियगब्भवतियमणुस्साणं मणपज्जवनाणं समुपज्जइ। (सूत्र-१७) अथ किं तत् मनः पर्यायज्ञानम् ? एवं शिष्येण प्रश्ने कृते सति ये गौतमप्रश्नभगवन्निर्वचनरूपा मनः पर्यायज्ञानोत्पत्तिविषयस्वामिमार्गणाद्वारेण पूर्वसूत्राऽऽलापकास्तान् वितथप्ररूपणाशङ्काव्युदासाय प्रवचनबहुमानिविनयजनश्रद्धाऽभिवृद्धये च तदवस्थानेव देववाचकः पठति-'जावइयातिसमयाहारगस्स' इत्यादि नियुक्तिगाथासूत्रमिय, 'मणपज्जवनाण भंते !, इत्यादि मनः पर्यायज्ञान प्राग्निरूपितशब्दार्थम् 'ण' इति वाक्यालङ्कार, 'भंते त्ति' गुर्जामन्त्रणे, 'किमिति' परप्रश्ने, मनुष्याणामुत्पद्यते इति प्रकटार्थममनुष्याणामुत्पद्यते इति, 'अमनुष्याः' देवाऽऽदयः तेषामुत्पद्यते ? एवं भगवता गौतमेन प्रश्ने कृते सति परमार्हन्त्यमहिम्ना विराजमानस्त्रिलोकीपतिर्भगवान् वर्द्धमानस्वामी निर्वचनमभिधत्ते-'गोयमा ! मणुस्साण इत्यादि। हे गैतम ! स्त्रे दीर्घत्वं 'सेलोपः संबोधने हस्यो वेति' (डोदी? वा / / 8 / 3 / 38 / / ) इति प्राकृतलक्षणासूत्रे वाशब्दस्य लक्ष्यानुसारेण दीर्घत्वसूचनात अवसेय, यथा-'भो वयस्सा!' इत्यादौ, मनुष्याणामुत्पद्यते नाऽमनुष्याणां तेषां विशिष्टचारित्रप्रतिपत्त्यसम्भवात् / अत्राऽऽह-ननु गौतमोऽपि चतुर्दशपूर्वधरः सर्वाक्षरसन्निपाती संभिन्नश्रोताः सकलप्रज्ञापनीयभावपरिज्ञानकुशलः प्रवचनस्य प्रणेता सर्वज्ञदेशीय एव / उक्त च-"संखातीतेऽवि भये, साहइ ज वा परो उ पुच्छेजा। न य णं अणाइससी, वियाणई एस छउमत्थो।।१।।" ततः किमर्थं पृच्छति ? उच्यते-शिष्यसंप्रत्युयार्थः, तथाहि-तमर्थ स्वशिष्येभ्यः प्ररूप्यं तेषां संप्रत्ययार्थ तत्समक्षं भूयोऽपि भगवन्तं पृच्छति, अथवा-इत्थमेव सूत्ररचनाकल्पः ततो न कश्चिद्दोष इति / पुनरपि गौतम आह-यदि मनुष्याणामुत्पद्यते तर्हि किं संमूञ्छिममनुष्याणामुत्पद्यते, किं वा-गर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्याणामुत्पद्यते ? तत्र मूर्छा' मोहसमुच्छ्ययोः। संमूर्छन समूच्र्छा भावे छत्रप्रत्ययः, तेन निर्वृत्ताः संमूञ्छिमाः, ते च वान्ताऽऽदिसमुद्भवाः, तथा चोक्त प्रज्ञापनायाम्-''कहिणं भंते ! समुच्छिममणुस्सा संमुच्छति ? गोयमा ! अंतोमणुस्सखेते पणयालीसाए जोयणसयसहस्से सु अड्डाइजेसु दीवसमुद्देसु पन्नरससु कम्मभूमीसु तीसाए अकम्मभूमीसु छप्पण्णाए
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________________ मणपज्जवणाण 57- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मणपज्जवणाण अंतरदीवेसु गब्भवक्कतियमणुस्साणं चेव उच्चारेसुवा पासवणेसु वा खेलेसु वा सिंघाणेसु वा वंते सु वा पित्तेसु वा सुक्के सु वा सोणिएसु वा सुक्कपागलपरिसाडेसु वा विगयकलेवरेसु वा थीपुरिससंजोएसु वा गामनिद्धमणेसु वा नगरनिद्धमणेसु वा सव्वेसु चेव असुइहाणेसु एत्थणं समुच्छिममणुस्सा संमुच्छति अंगुलस्स असंखेजइभागमेत्ताए ओगाहणाए असण्णी मिच्छादिट्ठी अण्णाणी सव्वाहिं पजत्तीहिं अपज्जत्तगा अंतोमुत्ताउआ चेव काल करें ति।" इति / तथा गर्भे व्युत्क्रान्तिरुत्पत्तिर्येषां ते गर्भव्युत्क्रान्तिकाः, अथवा-गर्भाव्युत्क्रान्तिः-व्युत्क्रमणं निष्क्रमणं येषां ते गर्भव्युत्क्रान्तिकाः, उभयत्रापि गर्भजा इत्यर्थः / भगवानाह-न संमूछिममनुष्याणामुत्पद्यते, तेषां विशिष्टचारित्रप्रतिपत्त्यसम्भवात, कि तु-गर्भव्युत्कान्तिकमनुष्याणाम, एवं सर्वेषामपि प्रश्ननिर्वचनसूत्राणां भावार्थो भावनीयः, नवर कृषिवाणिज्यतपः संयमानुष्ठानाऽऽदिकर्मप्रधाना भूमयः कर्मभूमयो भरतपञ्चकैरवतपञ्चक महाविदेहपञ्चकलक्षणः पञ्चदश तासु जाताः कर्मभूमिजाः, कृष्यादिकमरहिताः कल्पपादपफलोपभोगप्रधानाः भूमयो हैमवतपञ्चकहरिवर्षपञ्चकदेवकुरुपञ्चकोत्तरकुरुपञ्चकरम्यकपञ्चकरण्यवतपञ्चकरूपास्त्रिंशदकर्मभूमयः त'सु जाता अकर्मभूमिजाः, तथा अन्तरेलवणसमुद्रस्य मध्ये द्वीपाः अन्तरद्वीपाः एकोरुकाऽऽदयः षट्पञ्चाशत् तेषु जाता अन्तरद्वीपजाः (न०) ( अथ लवणसमुद्रस्य मध्ये षट्पञ्चाशदनन्तरद्वीपा वर्त्तन्ते किं प्रमाणावा ते किं स्वरूपा वा इति 'अंतरदीव' शब्दे प्रथमभागे 86 पृष्ठ गतम्) 'संखेजवासाउय त्ति' सङ्ख्येयवर्षायुषः पूर्वकोट्यादिजीविनः असख्येयवर्षायुषः-पल्योपमादिजीविनः 'तथा' पजत्तग त्ति' पर्याप्ति:-आहारादिपुद्गलग्रहणपरिणमनहेतुरात्मनः शक्तिविशेषः, सच पुद्गलोपचयात,किमुक्तं भवति ? उत्पत्तिदेशमागतेन येन गृहीता आहारादिपुद्गलास्तेषां तथा अन्येषां च प्रतिसमयं गृह्यमाणानां तत्सम्पर्कतः तद्रूपतया जातानामुपाटाभेन यः शक्तिविशेषो जीवस्याऽऽहाराऽऽदिपुगलानां खलरसादिरूपतया परिणमनहेतुर्ययोदरान्तर्गतानां पुद्गलविशेषाणामवष्टाभेनाऽऽहारपुद्गलखलर-सरूपता पादनहेतुः शक्तिविशेषः सा पर्याप्तिः, पर्याप्तयो विद्यन्ते येषां ते पर्याप्ताः 'अम्रादिभ्यः' // 7 / 2 / 46|| इति मत्वर्थायोऽप्रत्ययः / ये पुनः स्वयोग्यपर्याप्तिपरिसमाप्तिविकलाः ते अपर्याप्ताः, ते च द्विविधा-लब्ध्या, करणैश्च, तत्र येऽपर्याप्तका एव सन्तो नियन्ते न पुनः स्वयोग्यपर्याप्तीः सर्वा अपि समर्थयन्ते ते लब्ध्यपर्याप्तकाः, तेऽपि नियमादाहारशरीरेन्द्रियपर्याप्तिपरिसमाप्तावेव नियन्ते, नार्वाक्, यस्मादागामिभवायर्वद्ध्या प्रियन्त सर्व एव देहिनः, तचाहारशरीरेन्द्रियपर्याप्तिपर्याप्तानामेव वध्यत इति,य पुनः करणानि शरीरेन्द्रियादीनिन तावन्निवर्तयन्ति अथ चावश्य निर्वर्तयिष्वन्ति ते करणापर्याप्तकाः, इहोभयेषामप्यपर्याप्तानां प्रतियेवः, उनयेषामपि विशिष्टचारित्रप्रतिपत्त्यसम्भवात, तथा सम्मबिट्ठि त्ति सम्यक्- अविपरीता दृष्टिः-जिनप्रणीनवस्तुप्रतिपत्तिर्येषां ते सम्यगृदृष्टयः, मिथ्या-विपरीता दृष्टिर्येषां ते मिथ्यादृष्टयः, सम्यक् च मिथ्या च दृष्टियेषां ते सम्यगमिथ्यादृष्टयः येषामेकस्मिन्नपि च वस्तुनि तत्पर्याये वा मतिदौर्बल्यादिना एकान्तेन सम्यक्परिज्ञानमिथ्याज्ञानाभावतो न सम्यक् श्रद्धानं नाप्येकान्ततो विप्रतिपत्तिः ते सम्यगमिथ्यादृष्टयः, उक्त च शतकबृहचूर्णी -'जहा नालिकेरदीववासिस्स खुहाइयस्सवि एत्थ समागयस्स ओयणाइए अणेगविहे ढोइए तस्स उवरिन रुई न य निंदा, जओ तेण सो ओयणाइओ आहारो न कयाइ दिट्ठो नावि सुओ, एवं सम्ममिच्छद्दिहिस्स वि जीवाइपयत्थाणं उवरि नय रुई नावि निंद त्ति, तथा संजय' त्ति 'यम' उपरमे, संयच्छन्ति स्म सर्वसावद्ययोगेभ्यस्सम्यगुपरमन्ते स्मेति संयताः, "गत्यर्थकर्मण्याधारे" ति कर्तरि तप्रत्ययः, संयताः-सकलचारित्रिणः असंयताः-अविरतसम्यगदृष्टयःसंयतासंयताः-देशविरतिमन्तः, तथा 'पमत्त' ति प्रमाद्यन्ति स्म मोहनीयादिकम्मोदयप्रमावतः सज्वलनकषायानद्राद्यन्यतमप्रमादयोगतः संयमयोगेषु सीदन्ति स्मेति प्रमत्ताः, पूर्ववत् कर्त्तरि तप्रत्ययः, ते च प्रायो गच्छवासिनः तेषां क्वचिदनुपयोगसम्भवात्. तद्विपरीता अप्रमत्ताः, ते च प्रायो जिनकल्पिकपरिहारविशुद्धिकयथालन्दकल्पिकप्रतिमाप्रतिपन्नाः, तेषां सततोपयोगसम्भवाद्, इह तु ये गच्छवासिनः तन्निर्गता वा प्रमादरहिताः तेऽप्रमत्ता द्रष्टव्याः, तथा 'इड्डिपत्तस्स' त्यादि, ऋद्धीः-आमर्पोषध्यादिलक्षणाः प्राप्ता ऋद्धिप्राप्ताः / (न०) तथा आमोषध्यार्दीनामन्यतमामृद्धिमवध्वृद्धिं वा प्राप्तस्य मनः पर्यायज्ञानमुत्पद्यते, नानृद्धिप्राप्तस्य, अन्ये त्ववध्यद्धिप्राप्तस्यैवेति नियममाचक्षते, तदयुक्तं, सिद्धप्राभृताऽऽदाववधिमन्तेणापि मनःपर्यायज्ञानस्यानेकशोऽभिधानात् / अत्राऽऽह-मनुष्याणामुत्पद्यते इत्युक्ते सागादमनुष्याणां नोत्पद्यते इत्यनुमीयते, ततः कथमुच्यते-'नो अमणुरगाणं उप्पन इत्यादि, निरर्थकत्वात् ? उच्यते-इह त्रिधा विनयाः / तद्यथा-उद्घटितज्ञा, मध्यबुद्धयः, प्रपञ्चितज्ञाश्च / तत्र ये उद्घटितज्ञाः, मध्यबुद्धयो वा ते यथोक्तं सामर्थ्यमवबुध्यन्ते, ये पुनरद्याप्यव्युत्पन्नत्वात्न यथोक्तसामर्थ्यावगमकुशलास्ते प्रपञ्चितमेवावगन्तुमीशते, ततस्तेषामनुग्रहाय सामर्थ्यलभ्यस्याऽपि विपक्षनिषेधस्याऽभिधानं, महीयांसो हि परमकरुणापरीत्वात् अविशेषेण सर्वेषामनुग्रहाय प्रवर्त्तन्ते,ततो न कश्चिद्दोषः। द्रव्यतः क्षेत्रतस्तदाहतं च दुविहं उप्पज्जइ,तं जहा-उज्जुमई य, विउलमई यातं समासओ, चउव्विहं पण्णत्तं / तं जहा-दध्वओ, खेत्तओ, कालओ, भावओ। तत्थ दवओ णं उज्जुमई णं अणंते अणंतपएसिए खंधे जाणइ, पासइ, तं चेव विउलमई अब्भहियतराए विउलतराए विसुद्धतराए बितिमिरतराए जाणइ, पासइ, खेत्तओ णं उजुमई अ जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जयभागं उक्कोसेणं अहे. जाव इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उवरिमहेडिल्ले खुडगपयरे उड्ड० जाव जोइसस्स उवरिमतले तिरियं० जाव अंतोमणुस्सखित्ते अड्डाइजेसु दीवसमुद्देसु पन्नरससु
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________________ मणपज्जवणाण 88 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मणपज्जवणाण कम्मभूमीसु तीसाए अकम्मभूमीसु छप्पन्नाए अंतरदीवगेसु सन्निपंचिंदियाणं अपज्जत्तयाणं मणोगए भावे जाणइ, पासइ, तं चेव विउलमई अड्डाइ जे हिमंगुलेहिं अब्भहियतरं विउतरं विसुद्धतरं वितिमिरतरागं खेत्तं जाणइ, पासइ, कालओ णं उज्जुमई जहन्नेणं पलिओवमस्स असंखिज्जइभागं उक्कोसेणंवि पलिओवास्स असंखिज्जइभागं अतीयमणागयं वा कालं जाणइ, पासइ, तं चेव विउलमई अब्भहियतरागं विउलतरांगं विसुद्धतरागं वितिमिरतरागं जाणइ, पासइ, भावओ णं उज्जुमई अणंते भावे जाणइ, पासइ, सव्वभावाणं अणंतभागं जाणइ, पासइ, तं चेव विउलमई अब्भहियतरागं विउलतरागं विसुद्धतरागं वितिमिरतरागं जाणइ, पासइ-"मणपज्जवणाणं पुण, जणमणपरिचिंतिअत्थपागडणं / माणुसखित्तनिबद्धं, गुणपञ्चइयं चरित्तवओ / / 57 / / सेत्तं मणपज्जवनाणं / (सूत्र-१८) तत्र मन:पर्यायज्ञानमृद्धिप्राप्तानाम् अप्रमत्तसंयतानाम् उत्पद्यमानं द्विधा उत्पद्यते तद्यथा-ऋजुमतिश्च, विपुलमतिश्च, तत्र मनन मतिः, संवेदनमित्यर्थः / ऋज्वीसामान्यग्राहिणी मतिः ऋजुमतिः, घटोऽनेन चिन्तित इत्यादिसामान्याऽऽकाराध्यवसायनिबन्धनभूता कतिपयपर्यायविशिष्टमनोद्रव्यपरिच्छित्तिरित्यर्थः / उक्त च भाष्यकृता-''रिजुसामन्न सम्म तगाहिणी रिजुमई मणोणाणं / पायं विसेसविमुह, घटमित्तं चिंतियं मुगइ / / 1 / / " चूर्णिकृदप्याह-"उल्नु णं विसेसविमुहं उवलहई, नाईव बहुविसेसविसिट्ठ अत्थं उवलभइ ति भणिय होई घडोऽणेण चिंतिउति जाणइ ति / " चशब्दः स्वगतानेकद्रव्यक्षेत्राऽऽदिभेदसूचकः / तथा विपुलाविशेषग्राहिणी मतिर्विपुलमतिः,घटोऽनेन चिन्तितः, स च सौवर्णः घाटलिपुत्रकः अद्यतनो महान् अपवरकस्थितः फलपिहित इत्याद्यध्यवसायहेतुभूता प्रभूतविशिष्टमनोद्रव्यपरिच्छित्तिरित्यर्थः। आह च भाष्यकृत-"विपुलं वत्थुविसेसणनाणंतग्गाहिणी मई विपुला। चिंतियभणुसरइ घड, पसंगओ पजवसएहिं / / 1 / / '' चूर्णिकृदप्याह-"विपुला मई विपुलमई बहुविसेसगाहिणीति भणिय होइ, दिद्रुतो जहाऽणेण घडो चितिओ तं च देसकालाइअणेगपज्जायविसेसविसिटुं जाणइ।" इति। चशब्दः पूर्ववत्, अस्यां च व्युत्पत्तौ स्वतन्त्रमेव ज्ञानमभिधेयं, यद्वापुनस्तद्वानभिधेयो विवक्ष्यते तदैवं व्युत्पतिः-ऋज्वीसामान्यग्राहिणी मतिरस्य स ऋजुमतिः, तथा विपुला-विशेषग्राहिणी मतिरस्य स विपुलमतिः। तन्मनः पर्यायज्ञानं द्विविधमपि समासतः' संक्षेपेण चतुर्विधं प्रज्ञप्त, तद्यथा-द्रव्यतः, क्षेत्रतः, कालतः, भावतश्च। तत्र द्रव्यतोणमिति / वाक्यालङ्कारे, ऋजुभतिरनन्तान् अनन्तप्रदेशिकान् अनन्तपरमाण्वात्मकान्कन्धान विशिष्टकपरिणामपरिणतान् अर्द्धतृतीयद्वीपसमुद्रान्तवर्त्तिपर्याप्तसज्ञिपञ्चेन्द्रियैर्मनस्त्वेन परिणामितान् पुद्गलान् पुद्गलसमूहानित्यर्थः, जानाति साक्षात्कारोगाऽगच्छति, 'पासइ त्ति' इह मनस्त्वपरिणतः स्कन्धेरालोचितं बाह्यमर्थ घटाऽऽदिलक्षणं साक्षादध्यक्षतो मनः पायज्ञानी न जानाति, किन्तुमनोद्रव्याणमेव तथारू-पपरिणामान्यथानुपपत्तितोऽनुमानतः, आह च भाष्यकृत् 'जाणइ वज्झेऽणुमाणेण।' इत्यं चैतदङ्गीकर्तव्यं यतो मूर्तद्रव्यालम्बनमेवेदं मनः पर्यायज्ञानभिष्यते / मन्तारस्वमूर्तमपि धर्मास्तिकायाऽऽदिक मन्यन्ते, ततोऽनुमानत एवं चिन्तितमर्थभवबुध्यन्ते, नान्यथेति प्रतिपत्तव्यम / ततस्तमधिकृत्य पश्यतीत्युच्यते, तत्र मनोनिमित्तस्याचक्षुर्दर्शनस्य साभवात्। आह च चूर्णिकृत्- "मुणित्थं पुण पञ्चक्खओ न पेक्खइ जेण मणो दयालब मुत्तममुत्तं वा सो य छउमत्थो तं अणुमाणंओ पेक्रवइ अतो पासणया भणिया'' इति / अथवा-सामान्यत एकरूपेऽपि ज्ञाने क्षयोपशमसः तत्तद्रव्याऽऽधपेक्षवेचित्र्यसम्भवात् अनेकविध उपयोगः सम्भवति यथः चैव ऋजुमतिविपुलमतिरूपः ततो विशिष्टतरमनोद्रव्याऽऽकारपरिच्छेदापेक्षयाजानातीत्युच्यते, सामान्यमनोरूपद्रव्याऽऽकारपरिच्छेदापेक्षया तु पश्यतीति / तथा चाऽऽह चूर्णिकृत्-"अहवा छउभत्थरस एगविहखओवसमलभे वि विविहोवओगसंभवो भवइ. जहा एत्थेव उजुमइविपुलमईणमुवओगो अओ विसेससामन्नत्थेसु उवजुजइ जाणइपासइ त्ति भणियं न दोसो" इति / अत्र 'एगविहखओवसमलंभे वित्ति' सामान्यत एकरूपेऽवि क्षयोपशमलम्भेऽपान्तराले द्रव्याऽऽद्यपेक्षया क्षयोपशमस्य विशेषसम्भवाद् विविधोपयोगसम्भवो भवतीति, तदेवं विशिष्टतरमनोद्रव्याऽऽकारपरिच्छेदापेक्षया सामान्यरूपमनोद्रव्याकारपरिच्छेदो व्यवहारतो दर्शनरूप उक्तः, परमार्थतः पुनः सोऽपिज्ञानमेव, यतः सामान्यरूपमपि मनोद्रव्याऽऽकारप्रतिनियतमेव पश्यति, प्रतिनियतविशेषग्रहणाऽऽत्मकं च ज्ञानं न दर्शनम्, अत एव सूत्रेऽपि दर्शन चतुर्विधमेवोक्तं, न पञ्चविधमपि, मनः पर्यायदर्शनस्य परमार्थतो सम्भवादिति / तथा तानेव मनस्त्वेन परिणामितान स्कन्धान विपु नमतिः अभ्यधिकतरान्- अर्द्धतृतीयाङ्गुलप्रमाणभूमिक्षेत्रवर्तिभिः स्कन्धेरधिकतरान, सा चाऽधिकतरता देशतोऽपि भवति, ततः सर्वासु दिक्षु अधिकतरताप्रतिपादनार्थमाहविपुलतरकान् प्रभूततरकान, तथा विशुद्धतरान, निर्मलतरान्, ऋजुमत्यपेक्षयाऽतीवस्फुटतरप्रकाशानित्यर्थः / स च स्फुटः प्रतिभासो भ्रान्तोऽपि सम्भवति, यथाद्विचन्द्रप्रतिभासस्ततो भ्रान्तताऽऽशङ्काव्युदासाय विशेषणान्तरमाहवितिमिरतरकान् विगतं तिमिरं तिमिरसंपाद्यो भ्रमो ये षु ते वितिमिरास्ततो द्वयोः / प्रकृष्ट तरप् / 7 / 3 / 5 / / इति तरप्प्रत्ययः / ततः प्रकृतलक्षणात्स्वार्थे कः प्रत्ययः. एवं पूर्वेष्वपि पदेषु यथायोगव्युत्पत्तिद्रष्टव्या, वितिमिरतरकान्- सर्वथा भ्रमरहितान्, अथवाअभ्यधिकतरकान् विपुलतरकानितिद्वावपिशब्दावेकार्थी, विशुद्धतरकान वितिमिरतरकानेतावप्येकार्थी, नानादेशजा हि विनेया भवन्ति, ततः कोऽपि कस्याऽपि प्रसिद्धो भवति तेषामनुग्रहार्थम् एकार्थिकपदोपन्यासः तथा क्षेत्रतो, णमिति वाक्यलङ्कारे, ऋजुमतिरधो यावदस्या रत्नप्रभायाः पृथिव्याः उपरितनाधस्तनान् क्षुल्लकप्रतरान्। अथ किमिदं क्षुल्लकप्रतर इति? उच्यते- इह लोकाऽऽकाशप्रदेशा उपरितनाधस्तनप्रदेशरहिलतया विवक्षिता मण्डकाऽऽकारतया व्यवस्थिताः प्रतरमित्युच्यन्ते, तत्र तिर्यग्लोकरय ऊद्भवधिोऽपेक्षयाऽष्टादशयोजनशतप्रमाणस्य मध्यभागे द्वौलघुक्षुल्लकप्रतरी, तयोर्मध्यभागेजम्बूद्वीपरत्नप्रभाया बहुसमे भूमिभागे मेला'ध्येऽष्टप्रादेशिको रुचकस्तत्र गोस्तनाऽऽकाराश्चत्वार उपरितन्नः प्रदेशाश्चत्वारश्चाधस्तनाः, एष एव च रुचकः सर्वासां दिशा विदिशा वा प्रवर्तकः,
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________________ मणपज्जवणाण 86 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मणपज्जवणाण एतदव च राकलतिर्यग्लाकमध्यं, तौ च द्वी सर्वलघू प्रतरावगुलाऽसस ययभारवाहल्यावलोकसंवर्तितौ रज्जुप्रमाणी। तत एतयोरुपर्यन्येऽन्ये प्रतराः तिर्यग् अद्भुलासङ्ख्येयभागवृझ्या वर्द्धमानास्तावद द्रष्टव्यायावदूर्दध्वलाकमध्यम्, तत्र पञ्चरज्जुप्रमाणः प्रतरः,तत उपर्यन्येऽन्ये प्रतरास्तिर्थगडलासङ्ख्येयभागहान्या हीयमानास्तावदवसेया यावल्लोकान्ते रनुप्रमाणः प्रतरः, इह ऊद्ध्वलोकमध्यवर्तिनं सर्वोत्कृष्ट पञ्चरजुप्रमाण प्रतरमवधीकृत्याऽन्य उपरितना अधस्तनाश्च कमेण हीयमानाः हीयमानाः सर्वेऽपि क्षुल्लकप्रतरा इति व्यवह्रियन्ते यावल्लोकान्ते तिर्यग्लोके च रजुप्रभाणप्रतर इति, तथा तिर्यग्लोकमध्यवर्तिसर्वलघुक्षुल्लकप्रतररयाधस्तिर्य गङ्गु लाऽसख्ये यभागवृद्ध्या वर्द्धमानाः वर्द्धमानाः प्रतरास्तावद्वक्तव्या यावदधोलोकाऽन्ते सर्वोत्कृष्टः सप्तरज्जुप्रमाणः प्रतरः, तं च सप्तरजुप्रमाणम् प्रतरमपेक्ष्यान्ये उपरितनाः सर्वेऽपि क्रमण हीय नानाः क्षुल्लकप्रतरा अभिधीयन्ते यावत्तिर्यग्लोकमध्यवर्ती सर्वलघुः क्षुल्लकप्र तरः एषा क्षुल्लकप्रतरप्ररूपणा। तत्र तिर्यग्लोकमध्यवर्तिनः सर्वलपुरजुप्रमाणात् क्षुल्लक प्रतरादारभ्य यावदधो नवयोजनशतानि तावदस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां ये प्रतराः ते उपरितनक्षुल्लकप्रतारा भण्यन्ते, तेषामपि चाधस्ताद् ये प्रतरा यावदधोलौकिकग्रामषु सर्वान्तिमः प्रतरः तेऽधस्तनक्षुल्लकप्रतराः, तान यावदधः क्षेत ऋमतिः पश्यति, अथवाअधोलोकस्य उपरितनभागवर्तिनः क्षुरनकपत्रा उपरितना उच्यन्ते, ते चाधोलौकिकग्रामवर्त्तिप्रतरादारभ्य ताबदवसेयाः यावनिर्यगलोकस्यान्तिमोऽधस्तनः प्रतरः, तथा तिर्यग्लोकन्य मध्यभागादारभ्याऽधोवर्तिनःक्षल्लकप्रतरा अधस्तना उच्यन्ते. तत उपरितनाश्चाधस्तनाश्च उपरितनाधस्तनाः तान् उपरितनाधस्तनान् सावत् ऋजुमतिः पश्यति / अन्ये त्वाहुः-अधोलोकस्योपरिवर्तिन. उपरितनाः, ते च रार्वतिर्यग्लोकवर्तिनो, यदिवातिर्यग्लोकस्थाओ नयोजनशतवर्तिनो द्रष्टव्याः,ततस्तेषामेवोपरितनानां क्षुल्लकप्रताराक्ष संबन्धिनो ये सर्वान्तिमाधस्तनाः क्षुल्लकप्रतराः तान् यावत्पश्यते, अरिंमश्च व्याख्याने तिर्यग्लोकं यावत् पश्यतीत्यापद्यते, तमान युक्तम, अधोलौकिकग्रामवर्तिसज्ञिपश्शेन्द्रियमनोद्रव्याऽपरिच्छेदप्रसङ्गात्। अथवाअधोलौकिकग्रामेष्वपि संज्ञिपञ्चेन्द्रियमनोद्रव्याणि परिच्छिनति। यत उक्तम् -'"इहाधोलौकिक्ग्रामान, तिथलोकविवर्तिनः / मनोगतांस्त्वसौ भावान्, वेत्ति तद्वर्त्तिनामपि / / 1 / / ' तथा 'रहूं जावेत्यादि' तथा ऊर्द्धव यावत् ज्योतिश्चक्रस्योपरितनस्तिर्यग सावदन्तोमनुष्यक्षेत्रे - मनुष्य-लोकपर्यन्त इत्यर्थः / एतदेव व्याचष्टेअर्धतृतीयषु द्वीपषु पञ्चदशसु कर्मभूमिषु त्रिशति चाऽकर्मभूमिषु घट्पञ्चश सङ्खयेषु चान्तरद्वीपेषु सज्ञिना, ते चापान्तरालगतावपि तदायुष्कर्मवेदनादभिधीयन्ते नच तेरिहाधिकारस्ततो विशेषणमाहपञ्चेन्द्रियाणां, पञ्चेन्द्रियाश्चोपपातक्षेत्रमागता इन्द्रियपर्याप्तिपरिसमाप्तौ मनः पर्या त्या अपर्याप्ता अपि भवन्ति। न च तैः प्रयोजनमतो विशेषणान्सारमाहण्यप्तिानाम् अथवासंज्ञिनो हेतुवादोपदेशेन विकलेन्द्रिया अपि भण्यन्ते, ततस्तद्व्यवच्छेदा ये पञ्चेन्द्रियग्रहणं, ते चापर्याप्तका अपि भवन्ति तस्तव्यवच्छेदार्थं पर्याप्तग्रहणं, तेषां मनोगतान् भावान् जानाति पश्यति, तदेव मनोलब्धिसमन्वितजीवाऽऽधारक्षेत्र विपुलमि- | तरी तृतीयं येषुतानि अर्द्धतृतीयानि अङ्गुला नि, तानि च ज्ञानाधिकारदुच्छ्याइलानि द्रष्टव्यानि। यत उक्तं चूर्णिकृता-''अड्डाइजऽगुलग्गहणमुस्सेहंऽगुलमाणओ नाणविसयत्तणओय न दोस त्ति।" तैरर्द्धतृतीयलैरभ्यधिकतरं तचैकदेशमपि भवति, तत आहविपुलतरं विस्तीर्णतरम्। अथवा-आयामविष्कम्भाभ्यामभ्यधिकतरं बाहल्यमाश्रित्य विपुलतरम् अधिकतरम्, अतिशुद्धतरं वितिमिरतरमिति च प्राग्वत्, जानाति पश्यति तात्थ्यात् तद्व्यपदेश इतितावत् क्षेत्रगतानि मनोद्रव्याणि जानाति पश्यतीत्यर्थः / (कालओ णमित्यादि) सुगम, यावदुक्तस्वरूपमनः पर्यायज्ञानप्रतिपादिका गाथा। तस्या व्याख्या-मनः पर्यायज्ञानं प्राग्निरूपितशब्दार्थ , पुनः शब्दो विशेषणार्थः। स च रूपिविषयत्वक्षायोपशमिकत्वप्रत्यक्षत्वाऽदिसाम्येऽप्यवधिज्ञानादिदं मनः पर्यायज्ञानं स्वाम्यादिभेदाद्भिन्नमिति विशेषयति / तथाहि-अवधिज्ञानमविरतसम्यग्दृष्टरपि भवति द्रव्यतोऽशेषरूपिद्रव्यविषयं, क्षेत्रतो लोकविषयं कतिपयलोकप्रमाणक्षेत्रापेक्षया अलोकविषयं च, कालतोऽतीतानागतासङ्ख्येयोत्सपिण्यवसर्पिणीविषयं, भावतोऽशेषेषु रूपिद्रव्येषु प्रतिद्रव्यमसंख्येयपर्यायविषयं मनः पर्यायज्ञानं पुनः संयतस्याऽप्रमत्तस्यामर्षोषध्याद्यन्यतमर्द्धिप्राप्तस्य द्रव्यतः संज्ञिमनोद्रव्यविषयं, क्षेत्रतो मनुष्यक्षेत्रगोचरम्, कालतोऽतीतानागतपल्योपमा संख्येयभागविषयं, भावतो मनोद्रव्यगतानन्तपर्यायलम्बन, ततोऽवधिज्ञानादिन्नम्, एतदेव लेशतः सूत्रकृदाह-'जनमनःपरि चिन्तितार्थप्रकटन' जायन्ते इति जनाः तेषां मनांसि जनमनांसि तैः परिचिन्तितश्चासावर्थश्च जनमनः परिचिन्तितार्थस्तं प्रकटयति प्रकाशयति जनमनः परिचिन्तितार्थप्रकटनं, तथा मनुष्यक्षेत्रनिबद्ध, नतद्वहिर्व्यवस्थितप्राणिद्रव्यमनोविषयमित्यर्थः, तथा गुणाः-क्षान्त्यादयः, ते प्रत्ययः-कारणं यस्य तद् गुणप्रत्यय, चारित्रवतोऽप्रमत्तसयतस्य। नं०। तदेवं क्षेत्रतस्तद्विषय उक्तः, अथ द्रव्यतः, कालतः, भावतश्च तद्विषयमाहमुणइ मणोदव्वाइं, नरलोए सो मणिज्जमाणाई। काले भूयभविस्से, पलियाऽसंखिज्जभागम्मि।।८१३।। दव्वमणोपज्जाए, जाणइपासइय तग्गएणते। तेणावभासिए उण, जाणइ वज्झेऽणुमाणेणं / / 814 / / रा मनः पर्यायज्ञानी मुणतिअवगच्छति। कानि? इत्याह मनश्चिन्ताप्रवर्तकानि द्रव्याणि मनोद्रव्याणि / तानि किं मनोयोग्यान्यप्याकाशस्थानि जानाति? न, इत्याहनरलोके तिर्यग्लोके मन्यमानानि रांज्ञिभिर्जीवः कायमनोयोगेनगृहीत्वा मनोयोगेन मनस्त्वेन परिणमितानीत्यर्थः / तदयं द्रव्यतो विषय उक्तः / अथ कालतो भावतश्च तमाहकाले' इत्यादि, भावतस्तावज्जानाति, पश्यति च / कान् ? इत्याह-चिन्तानुगुणन् सर्वपर्यायराश्यनन्तभागरूपानन्तान् रूपाऽऽदीन् पर्यायान्। कस्य संबन्धिनः? इत्याह-मनस्त्वपरिणतानन्तस्कन्धसमूहमयस्य द्रव्यमनसः, न तु भावमनसः, तस्य ज्ञानरूपत्वात्, ज्ञानस्य चामूर्तत्वात्, छास्थस्य चामूर्तविषयाऽयोगादिति / ताश्च तद्गतानेव मनोद्रव्यस्थितानेव जानाति, न पुनश्चिन्तनीयबाह्यघटाऽऽदिवस्तुगतानिति भावः / न च वक्तव्यमेते मनोद्रव्यसंबन्धिन एव
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________________ मणपज्जवणाण 60- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मणपज्जवणाण न भवन्ति, किमेतद् व्यवच्छेदपरेण तद्गतग्रहणेन ? इति, मनोद्रव्याणि द्रष्टा पश्चादनुमानेते ज्ञायन्ते, इत्येतावता मनोद्रव्यैरपिसह संबन्धमात्रस्य विद्यमानत्वात् / एतदेवाऽऽहतेन द्रव्यमनसाऽवभासितान् प्रकाशितान् वाह्याश्चिन्तनीयघटाऽऽदीननुमानेन जानाति, यत एव तत्परिणतान्येतानि मनोद्रव्याणि, तस्मादेवंविघेनेह चिन्तनीयवस्तुना भाव्यम् इत्येवं चिन्तनीयवस्तूनि जानाति न साज्ञादित्यर्थः / चिन्तको हि मूर्तममूर्त च वस्तु चिन्तयेत्। न च छद्मस्थोऽमूर्त साक्षात् पश्यति, ततो ज्ञायते अनुमानादेव चिन्तनीयं वस्त्ववगच्छति। कियति कस्मिँश्च काले मनोद्रव्यपर्यायानसौ जानाति ? इत्याह 'काले भूतेत्यादि' भूतेऽतीते. भविष्यति चाऽनागते पल्योपमासङ्घयेयाभागरूपे काले ये तेषां मनोद्रव्याणां भूता व्यतीताः, भविष्यन्तश्चाऽनागताश्चिन्तानुगुणाः पर्यायास्तान्जानातीति / / 813||814 // अत्र चान्तरे"तसमासओ च उव्विहं पन्नत्तं, तंजहा-दव्वओ, खेत्तओ, कालओ, भावओ। दव्वओंणं उजुमइ अणते अणंतपएसिए खंधे जाणइ पासइ।" इत्यादि नन्दिसूत्रेऽभिहितम्। तत्र मनः पर्यायज्ञानं पटुक्षयो, पशमप्रभवत्वाद् विशेषमेव गृह्णदुत्पद्यते, न सामान्यम्, अतो ज्ञानरूपमेवेदम्, न पुनरिह दर्शनमस्ति, सति च तरिमन् पश्यतीत्युतपद्यते, इति कथमिहोक्तं पासइ' इति ? इति वेतसि संप्रधार्य प्राऽऽहसो य किर अचक्खुइंसणेण पासइ जहा सुयन्नाणी। जुत्तुं सुए परोक्खे, पचक्खे न उमणोनाणे? ||15|| स च मनः पर्यायज्ञानी किलाऽचक्षुर्दर्शनेन पश्यति, यथा श्रुतज्ञानी केषाञ्चिद् मतेनाऽचक्षुर्दर्शनेन पश्यतीतिप्रागुक्तम्। तथा च पूर्वमभिहितम्'उवउत्तो सुयनाणी, सव्वं दव्वाइँ जाणइजहत्थं / पासइय केइ सो पुण, तमचक्खुद्दसणेणं ति॥१॥' इत्यादि, इदमत्र हृदयम्- परस्य घटाssदिकमर्थं चिन्तयतः साक्षादेव मनः पर्यायज्ञानी मनोद्रव्याणि तावजानाति, तान्येव च मानसेनाऽचक्षुर्दर्शनेन विकल्पयति, अतस्तदपेक्षया 'पश्यति' इतीत्युच्यते / ततश्चैकस्यैव मनः पर्यायज्ञानिनः प्रमातुर्मनः पर्यायज्ञानादनन्तरमेव मानसमचक्षुर्दर्शनमुत्पद्यते, इत्यसावेक एव प्रमाता मनः पर्यायज्ञानेन मनोद्रव्याणि जानाति, तान्येव चाऽचक्षुर्दशनेन | पश्यतीत्यभिधी यत इति / अत्र कश्चित् प्रेरकः प्राह-'जुत्तमित्यादि' "मतिश्रुते परोक्षम्" इतिवचनात् परोक्षार्थविषयं श्रुतज्ञानम्, अचक्षुर्दर्शनमपि मतिभेदत्वात् परोक्षार्थविषयमेव, इत्यतो युक्तं घटमानकं श्रुतज्ञानविषयभूते मेरु- स्वर्गाऽऽदिके परोक्षेऽर्थेऽचक्षुर्दर्शनम् तस्याऽपि तदालम्बनत्वेन समानविषयत्वात् / किं पुनस्तर्हि नयुक्तम् ? इत्याह'न उ इत्यादि' "अवधि-मनःपर्यायकेवलानि प्रत्यक्षम्।' इति वचनात पुनः प्रत्यक्षार्थविषय मनःपर्यायज्ञानम्। अतः परोक्षार्थविषयस्याचक्षुर्दशनस्य कथं तत्र प्रवृनिरभ्युपगम्यते, भिन्नविषयत्वात् ? // 815 / / अत्र सूरिराहजइ जुञ्जए परोक्खे, पच्चक्खे नणु विसेसओ घडइ। नाणं जइ पचक्खं, न दंसणं तस्स को दोसो ? ||16|| योते परोक्षेऽर्थेऽचक्षुर्दर्शनस्य प्रवृत्तिरभ्युपगम्यते, तर्हि प्रत्यक्षे सुतराम- | स्येयमङ्गीकर्तव्या, विशेषेण तस्य तदनुग्राहकत्वात्, चक्षुःप्रत्यक्षोपलब्धघटाऽऽदिवदिति। अत्राऽह-को वैनमन्यते, यत् प्रत्यक्षोऽर्थः सुतरामचक्षुदर्शनस्याऽनुग्राहक- इति ?, केवल प्रत्यक्षमनोद्रव्यार्थग्राहकत्वादित्थं मनःपर्यायज्ञानस्य प्रत्यक्षतायुज्यते, न, पुनरचतुर्दर्शनस्य, मतिभेदत्वेन तस्य परोक्षार्थग्रहकत्वात् / ततः प्रत्यक्षज्ञानित्वं मनः पर्यायज्ञानिनो विरुध्येत, इत्याशङ्कयाऽऽह- 'नाणं जइ' इत्यादि। यदि मनःपर्यायज्ञानलक्षणं ज्ञानं प्रत्यक्षार्थग्राहकत्वात् प्रत्यक्षम्, नत्वचक्षुर्दर्शनलक्षणं दर्शन प्रत्यक्षम, परोक्षार्थग्राहकत्वेन परोक्षार्थत्वात, तर्हि हन्त ! तस्य मनःपर्यायज्ञानिनः प्रत्यक्षज्ञानिताया को दोषः-को विरोधः ? न कश्चित्. भिन्नविषयत्वात्, अवधिज्ञानिनश्चक्षुर्दर्शनाऽचक्षुर्दर्शनवदिति / न ह्यवधिज्ञानिनश्चक्षुरचक्षुर्दर्शनाभ्यां परोक्षमर्थं पश्यतः प्रत्यक्षज्ञानितायाः कोऽपि विरोधः समापद्यते, तददिहाऽपि / तस्माद् मनःपर्यायज्ञानी स्वज्ञानेन मनोद्रव्यपर्यायान् जानाति, मानसेन त्वचक्षुर्दर्शनेन पश्यतीति स्थितम् // 816 // __अन्ये तु पश्यति' इत्यन्यथा समर्थयन्ति, इति दर्शयतिअन्नेऽवहिदसणओ, वयंति न य तस्स तं सुए भणियं / नय मणपज्जवदंसणमन्नं च चउप्पयाराओ।।८१७|| अन्ये त्ववधिदर्शनेनाऽसौ मनःपर्यायज्ञानी पश्यति, मनःपर्यायज्ञानेन तु जानातीति वदन्ति। एतचाऽयुक्तमेव, इत्याह-न च-नैव तस्य मनःपर्यायज्ञानिनस्तदवधिदर्शनं श्रुतेऽभिहितम्। न हि मनः पर्यायज्ञानिनाडवधिज्ञानदर्शनाभ्यामवश्यमेव भवितव्यम्, अवधिमन्तरेणाऽपि मतिश्रुत-मनःपर्यायलक्षणज्ञानत्रयस्याऽऽगमे प्रतिपादितत्वात् तथा चाह"मणपज्जवनाणलवीया ण भंते ! जीवा कि नाणी, अन्नाणी? गोयमा! नाणी, नो अन्नाणी। अत्थेगइया तिन्नाणी, अत्थेगइया चउनाणी जे तिन्नाणी ते आभिणिबोहियसुयमणपज्जवनाणी, जे चउनाणी ते आभिणिबोहियसुयओहिमणपज्जवनाणी।" तदेवं मनःपर्यायज्ञानिनोऽवधिनियमस्याऽभावात् कथमवधिदर्शनेनाऽसौ पश्यतीत्युपपद्यते ? अथैवं मन्यसेकिमेतैर्बहुभिः प्रलपितैः ! यथा-अवधेर्दर्शनम, तथा मनः पर्यायस्याऽपि तद् भविष्यति, ततस्तेनाऽसौ पश्यति, इत्युपपत्स्यत एव; इत्याशयाऽऽह'नय मणे' त्यादि, न चनैव चतुष्प्रकाराचक्षुरादिदर्शनादन्यत् पञ्चम मनःपर्यायदर्शन श्रुते भणितम्, येन पश्यतीत्युपपत्स्यते। तथा चाऽऽह-"कइविहे ण भंते ! दंसणे पण्णत्ते ? गोयमा ! चउविहे पण्णत्ते / तं जहा-चक्खुद्दसणे, अचक्खुद्दसणे ओहिदसणे केवलदसणे।" इति / तस्मात् पञ्चमस्य मनःपर्यायदर्शनस्यानुक्तत्वात् तेन पश्यति' इत्येतदपि नोपपद्यत इति // 817 / / अभिप्रायान्तरमाशङ्कमान आहअहवा मणपज्जवदसणस्समयमोहिदंसण सण्णा। विभंगदंसणस्स व, नणु भणियमिदं सुयाईयं / / 818|| अथवाकश्चिदेवं मन्ये तयथा विभङ्ग दर्शनमवधिदर्शनमेवोच्यते, तथा मनःपर्यायदर्शनस्याऽप्यवधिदर्शनमिति संज्ञाऽभिमता भविष्यति / इदमुक्तं भवतिचक्षुरादिदर्शनचतुष्टयाऽऽधिक्ये -
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________________ मणपज्जवणाण 61- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मणपदुट्ठवंदण नाऽनुक्तमपि यथाऽवधिदर्शनेऽन्तर्भूतं विभङ्ग दर्शनमिष्यते, तथा मनःपर्यायदर्शनमपि भविष्यति। ततः तेन मनःपर्यायज्ञानी पश्यति इत्युपपत्स्यत एवति / अत्र सूरिराहगन्वेतत् श्रुतांतीतमागमविरुद्धमेव त्वपा भणितम् / / 818 // कुतः? इत्याहजेण मणोनाणविओ, दो तिण्णि व दंसणाइँ भणियाइं। जइ ओहिदसणं होज होज नियमेण तो तिण्णि / / 16 / / यस्माद्भगवत्यामाशीविषोद्देशके मनःपर्यायज्ञाने-चक्षुरचक्षुर्दर्शनलक्षणे द्वे दर्शने, चक्षुरचक्षुरवधिदर्शनलक्षणानि त्रीणि वा दर्शनानि प्रोक्तानियो मतिश्रुतमनःपर्यायज्ञानत्रितयवांस्तस्य द्वे दर्शने, यस्तुमतिश्रुताऽवधिमनःपर्यायज्ञानचतुष्टयवास्तस्य त्रीणि दर्शनानीति भावः / तस्मादुत्सूत्र मनःपर्यायज्ञानवतोऽवधिदर्शनसंज्ञितदर्शनाऽभिधानम् / यदि पुनरित्थं स्यात, तदा मतिश्रुतमनःपर्यायज्ञानत्रयवतोऽपि दर्शनानि नियमात् त्रीण्येव स्युः, न तु कापि द्वे, तस्मात् श्रुतातीतमिदमिति॥८१६।। अन्ये त्वाहुः, किम् ? इत्याहअन्ने उ मणोनाणी, जाणइ पासइय जोऽवहिसमग्गो। इयरो य जाणइ च्चिय, संभवमेत्तं सुएऽभिहियं / / 820|| अन्ये तु मन्यन्तेयोऽवधिज्ञानयुक्तो मनःपर्यायज्ञानी चतुर्मानीत्यर्थः, अस्मै मनःपर्यायज्ञानेन जानाति, अवधिदर्शनेन तु पश्यति / यस्त्ववधिरहितस्त्रिज्ञानी स मनःपर्यायज्ञानेन जानात्येव, न तु पश्यति, तस्याऽवधिदर्शनाभावात् / अतो मनःपर्यायज्ञानमात्रमाश्रित्य संभवमात्रतो जानाति, पश्यति चेति नन्दिसूत्रेऽभिहितमिति // 820 / / / अन्ये तु'जानाति, पश्यति' इत्यन्यथा समर्थयन्ति, इत्याहअन्ने जं साऽऽगारं, तो तं नाणं न दंसणं तम्मि। जम्हा पुण पचक्खं, पेच्छइ तो तेण तन्नाणी / / 21 / / अन्ये त्वाहुःयद्यस्मात् पटुक्षयोपशमप्रभवत्वाद् मनःपर्यायज्ञान साकारमेवोत्पद्यते, 'तोत्ति' ततस्तज्ज्ञानमेव, तेन जानात्येवेत्यर्थः, न पुनस्तत्र मनःपर्यायज्ञानेऽवधिकेवलयोरिव दर्शनमस्ति। तर्हि पश्यति' इति कथम, इत्याह-यस्मात् पुनः, प्रत्यक्ष मनःपर्यायज्ञानं, 'तो त्ति' ततः प्रत्यक्षत्वात् तेनैव मनःपर्यायज्ञानेन पश्यत्यसौ तज्ज्ञानीस चासो ज्ञानी चतत्ज्ञानी, मनःपर्यायज्ञानीत्यर्थः / इदमुक्तं भवति-'दृशिर प्रेक्षणे' प्रकृष्ट चेक्षण प्रत्यक्षस्यैवोपपद्यते, प्रत्यक्षं च मनःपर्यायज्ञानम्, अतस्तेन पश्यतीति घटत एव / साकारत्वेन तु तस्य ज्ञानत्वात् 'तेन जानाति' इति निर्विवादमेव सिद्धम् / तस्माद् दर्शनाभावेऽपि यथोक्तन्यायात् | 'मनःपर्यायज्ञानी जानाति, पश्यति' इत्युपपद्यत एवेति / एतदपि मूलटीकाकृता दूषितमेव, तद्यथा-ननु मनःपर्यायज्ञाने साकारत्वेन ज्ञानत्वाद् दर्शन नास्ति, अथ च 'प्रत्यक्षत्वेन दृश्यतेऽनेन वस्तु इति विरुद्धवयं वाचोयुक्तिः, साकारात्वेन निषिद्धस्यापीह दर्शनस्य दृश्यतेऽ-- नेनेति दर्शनम्' इति व्युत्पत्त्या सामार्थ्यादापत्तेः / किच 'जानाति' इत्यनेनाऽत्र साकारत्वं स्थापितम्, 'पश्यति' इत्यनेन च दर्शनरूढेन शब्देनाऽनाकारत्वं व्यवस्थाप्यते, अतो विरुद्धोभयधर्मप्राप्त्याऽपि न किञ्चिदेतदिति // 21 // आह-यद्यमी सर्वेऽपि पूर्वोक्ता अन्येषामेवाऽभिप्रायाः, सदोषाश्च केऽपि कथञ्चित्, तह्याचार्यस्य कोऽभिप्रायः? इत्याशङ्कयाऽऽहभण्णइ पन्नवणाए, मणपज्जवनाणपासणा भणिया। तो एव पासए सो, संदेहो हेउणा केण ? ||22|| भण्यते स्थितः पक्षोऽत्र / कः ? इत्याहप्रज्ञापनायां त्रिंशत्तमपदे मनःपर्यायज्ञानस्य प्रकृष्टेक्षणलक्षणा साकारोपयागविशेषरूपा पश्यता प्रोक्ता, तयैवासौ मनःपर्यायज्ञानी पश्यति' इति व्यपदिश्यते। तत् केन किल हेतुनाऽभिप्रायान्तरवादिना सन्देहोऽत्र, येनाऽपराऽपरान् निजनिजाऽभिप्रायानत्र प्रकटयन्ति ? तस्यैव प्रकारस्याऽऽगमोक्तत्वेन निर्दोषत्वादिति भावः / प्रक्षेपगाथा चेयं लक्ष्यते, चिरन्तनटीकाद्वयेऽप्यगृहीत्वात्, केषुचिद् भाष्यपुस्तकेष्वदर्शनाच केवलं केषुचिद् भाष्यपुस्तकेषु दर्शनात्, किञ्चित्साऽभिप्रायत्वाचाऽस्माभिर्गृहीता। इति द्वादशगाथाऽर्थः / सत्पदप्ररूपणताऽऽदयोऽस्यापि* अवधिवद्वाच्याः, केवलमप्रमत्तसंयतोऽस्योत्पादस्वामी, तदनुसारेण सर्वत्र नानात्वं स्वयमभ्यूह्यम् // 822 / / विशे० / आ० चू० / भ० / आ० म०। प्रज्ञा० / सम्म० / रा०।* मनः पर्यायज्ञानस्यापि। मणपज्जवणाणजिण पुं० (मनःपर्यवज्ञानजिन) रागद्वेषमोहान् जयतीति जिनस्तत्र मनःपर्यवज्ञानप्रधानो जिनो मनःपर्यवज्ञानजिनः / तादृशे जिने, स्था०३ ठा०४ उ०। मणपज्जवणाणावरण न० (मनःपर्यायज्ञानाऽऽवरण) मनसःपर्याया बाह्यवस्त्वालोचनप्रकाराः धर्मा मनःपर्यायास्तेषु तेषा वा सम्बन्धि ज्ञान मनःपर्यायज्ञानम्, तस्याऽऽवरणं मनःपर्यायज्ञानाऽवरणम् / ज्ञानाऽऽवरणकर्मभेद, कर्म०६ कर्म०। मणपडिचारग पुं० (मनःपरिचारक) मनस्येवोपस्थिताना स्त्रीणामुपभोक्तरि, स्था०। दो इंदा मणपरियारगा पण्णत्ता। तं जहापाणए चेव, अचुए चेव / अनन्ताऽऽदिषु चतुषु कल्पेषु मनःपरिचारका देवा भवन्तीति। स्था०२ टा०४ उ० / प्रज्ञा०। मणपडिसंलीण पुं० (मनःप्रतिसंलीन) कुशलमनउदीरणेनाकुशलमनोनिरोधेन च मनः प्रतिसलीनं यस्य सः, मनसा वा प्रतिसंलीनो मनः प्रतिसंलीनः / प्रतिसंलीनभेदे, स्था०४ ठा०२ उ० / मणपदुट्ठवंदण न० (मनःप्रद्विष्टवन्दन) केनचिद् गुणेन हीनस्य वन्द्यस्य तथैव मनसीकृत्य साऽसूयं वन्दने, आ० चू०३ अ०। नवममाहअप्पपरपत्तिएणं, मणप्पदोसो अणेगउट्ठाणो। मनः प्रद्वेषः अनेकोत्थानोऽनेक निमित्तो भवति / स च सर्वाऽप्यात्मप्रत्ययेन, परप्रत्येन वा स्यात् / तत्राऽऽत्मप्रत्ययेन यदा शिष्य एव गुरुणा किञ्चित्सरोषमभिहितो भवति / परप्रत्ययेन तु यदा
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________________ मणपल्हायजणण 12- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मणाणुकूला तस्यैव शिष्यस्य संबन्धिनः सुहृदादेः संमुखं सूरिणा किमप्यप्रियमुक्त | मणसचविउ पुं०(मनःसत्यविद्वस्) मनसः सत्यं मनःसंयमः, स चाकुशभवतीत्येवंप्रकारेणान्यैरपि स्वपदप्रत्ययैः कारणान्तरैर्मनसः प्रदेषो लस्य मनसो निरोधः कुशलमनः प्रवर्तनलक्षणस्तं वेत्ति सम्यगासेवनतो भवतीति यत्र तन्मनसा प्रद्विष्टमुच्यते। बृ०३ उ०। आव० / अ०। प्रव०। जानातीति मनः सत्यविद्वान् / मनःसंयते , पा०। मणपल्हायजणण न० (मनःप्रहादजनन) अन्तः करणहर्षोत्पादके, / मणसमण्णाहरण्णया स्त्री० (मनःसमन्याहरणता) मनसः समिति उत्त०१६ अ०॥ सम्यक्, अनु इतिस्वावस्थानुरूपेण आडितिमर्यादया, आगमाभिहेितमणपवणजइवेग त्रि० (मनःपवनजयिवेग) मनःपवनजयी वेगो यस्य भावाभिव्याप्तया वा हरणसक्षेपणं मनः समन्वाहरणं, तदेव मनः तत्तथा। शीघ्रवेगे, औ०। उपा०। समन्वाहरणता 1 मनसः स्थिरत्वाऽऽपादने, भ०१७ श०३ उ०। मणपसिणविज्जा स्त्री० (मनःप्रश्नविद्या) मनःप्रश्नितार्थोत्तरदायिन्यां | मणसमाहारणा स्त्री० (मनःसमाधारणा) मनसः शुभस्थाने स्थिरत्वेन विद्यायाम, स०१० अङ्ग। स्थापने, उत्त०। मणप्पओगपरिणय त्रि० (मनःप्रयोगपरिणत) मनस्तया परिणते, भ०५ मणसमाहारणयाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ ? मणसमा हारणयाए णं एगऽग्गं जणयइ, एगऽग्गं जणइत्ता नाणपज्जये श०१ उ०। मणप्पओस पुं० (मनःप्रद्वेष) मनोजाते द्वेषे, ''पुट्विं च इण्डिं च अणागयं जणयइ, नाणपज्जवे जणइत्ता सम्मत्तं विसोहेइ, मिच्छत्तं च च, मणप्पओसो उण मेऽत्थि को ई। जक्खा हु वेयावड़ियं करेंति, तम्हा निजरेइ // 56 // हे भदन्त ! मनः समाधारणया जीवः किं जनयति? मनसः सम्यक्हुएए णिहया कुमारा ! / 1 / / " उत्त०११अ०। सूत्र० / मणयं अव्य० (मनाक्)"मनाको न वाडयं डियंच" ||82166 // प्रकारेण आमर्यादया। सिद्धान्तोक्तमार्गम् अभिव्याप्य वा धारणा स्थापनं मनः समाधारणा तया जीवः किंफलमुत्पादयति? तदा गुरुराह-हे मनावशब्दस्यार्थे डयम् डियम् च प्रत्ययौ वा भवतः। 'भणयं ! मणियं / शिष्य ! मनःसमाधारणया मनसो मर्यादाया रक्षणेन एकाग्रयं धर्म स्थैर्य मणा।' ईषदर्थे, मन्दे च। प्रा०२ पाद। "मणयं ईसिं" (777) पाइ० जनयति, धर्मे एकाग्र्यमुत्पाद्यज्ञानपर्यवान् जनयति विशिष्टान् मतिज्ञानना०२३८ गाथा। श्रुतज्ञानाऽदीना पायान् तत्त्वावबोधरूपान् विशेषान् जनयति पुनः मणवइकायसुसंवुड त्रि० (मनोवाक्कायसुसंवृत ) तिसृभिर्गुप्तिभिगुप्त, सम्यक्त्वविशुद्धिं जनयति, मिथ्यात्वं च निर्जरयति निवारयति / / 56 / / दश०१० अ०। उत्त०२६ अ०। मणवग्गणा स्त्री० (मनोवर्गणा) मनोरूपतया परिणमय्याऽऽलम्ब्य च मणसमिइ स्त्री० (मनःसमिति) मनसः कुशलताया समितिः मनःनिसृष्टषु मनः प्रायोग्यद्रव्येषु, पं० सं०५ द्वार / (ताश्च ' वग्गण' शब्दे समितिः / समितिभेदे, स्था०८ ठा०। वक्ष्यन्ते) मणसमिय त्रि० (मनःसमित) मनसः सम्यक् प्रवर्तक, कल्प०१ अधि०६ मणवण न० (मनोवन) चित्तोद्याने, अष्ट०१७ अष्ट। क्षण। सूत्र०। मणविणय पु० (मनोविनय) मनसो विनयाऽर्हे कुशलप्रवृत्त्यादौ, स्था०७ मणसिला स्त्री० (मनःशिला) "वक्राऽऽदावन्तः" ||81 / 26 // ठा०। ('विणय' शब्दे भेदः) प्रथमादेः स्वरस्यान्त आगमरूपोऽनुस्वारः / "मणंसिला" कृचिन्नमणविप्परियासिया स्त्री० (मनोविपर्यासिका) अप्रशस्तस्य मनसो / 'मणसिला।' प्रा०१ पाद। पृथ्वीविकारविशेषे. प्रा०१ पाद। चिन्तने,"मणोविप्परियासिया।" यदप्रशस्तमनसा चिन्तितिम् / 'केइ मणसिला स्त्री० (मनःशिला) 'मणसिला' शब्दार्थे, प्रा०१ पाद। पुण आउलमाउलाए।" आ०चू०४ अ०। मणस्सि वि० (मनस्विन) स्वमनस्तन्त्रे, "आ आमन्त्र्ये सौ वेनो मणविरिय न० (मनोवीर्य) अकुशलमनोनिरोधे, कुशलमनसश्च प्रवर्त्तने, नः" ||84263 // शौरसेन्याम् इनो नकारस्याऽऽमन्त्रये सो परे मनसो वा एकत्वीभावकरणे, सूत्र०१ श्रु०८ अ०। ('वीरिय' शब्दे इदं आकारो वा भवति। भो मणस्सिया / प्रा०४ पाद। व्याख्यास्यते) मणहर त्रि० (मनोहर) मनांसि श्रोतृणां हरत्यात्मवशं नयतीति मनोहरः, मणसंकिलेस पुं०(मनःसंक्लेश) अरतिरतिरागद्वेलक्षणे मनसि, मनसे लिहाऽऽदेराकृतिगणत्वादच्प्रत्ययः। रा०। जा"ओतोऽद्वाऽन्योऽवा संक्लेश, स्था०१० ठा०। न्यप्रकोष्ठाऽऽतोद्यशिरोवेदनामनोहरसरोरुहे तोश्च वः" मणसजंम पुं० (मनःसंयम) मनसो द्रोहेाभिमानाऽऽदिभ्यो निवृत्ती, // 8 / 1 / 156 / / इत्योतोऽत्त्व वा तत्सन्नियोगे तु यथासंभवं वकारधर्मध्यानाऽऽदिषु च प्रवृत्तौ, प्रव०६६ द्वार। तकारयोर्वाऽदेशः / मणहरं / मणोहरं। प्रा०१ पाद / मनोनिवृत्तिकरे, रा०। मणसच न० (मनःसत्य) मनसःसत्यं मनः सत्यम्। मनःसंयमे,पा०। मणा अव्य० (मनाक्) ईषदर्थे, ''एवं परं०" ||8/4/418||
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________________ मणाणुकूला 63 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मणियार इत्यादिसूत्रेण 'मनाको 1 मणाउं / ' ''विहवि पणट्टइ वकुडउ, रिद्धिहिँ स्था०६ ठा० / जं०। जणसामन्नु / किं पि मगाउं महुपिअहो, ससि अणुहरइन अन्नु / / 1 / / " | दो मणिकंचणकूडा। स्था०२ ठा०३ उ०। प्रा०४ पाद। मणिकंचणरुप्पवण्ण त्रि० (मणिकाञ्चनरूप्यवर्ण) मणिकाञ्चन रूप्यामणाणुकूला स्त्री० (मनोऽनुकूला) पतिमनोऽनुकूलवृत्तिकायाम्, ___णामिव वर्णशश्छाया येषां ते। रत्नकाञ्चनरूप्यच्छायेषु, पं०५०२ द्वार। भ०१२ श०६ उ० / 'मणाणुकूलहियइच्छियाओ।" मणिकणग न० (मणिकनक) मणिकनकमये, जी०३ प्रति०४ अधिका मनोऽनुकूलाश्च ता हृदयेनेप्सिताश्चेति कर्मधारयः / भ०६ श०३३ उ०। "मणिकणगथूमियाग। 'मणिकनकानांसम्बन्धिनी स्तूपिका शिखरं यस्य मणाम त्रि० (मनोऽम) मनसाऽम्यते गम्यते सौभाग्यतो अनुस्मर्यत इति | तन्मणिकनकस्तूपिकाकम्। चं०प्र०१६ पाहु० / जी० / सू०प्र०। स०। मनोऽमः / स्था०८ ठा० ज्ञा०। प्रज्ञा० / आव०। मनसाऽम्यते-प्राप्यते | मणिकणिया स्त्री० (मणिकर्णिका) काश्यां गङ्गातटे स्वनामख्याते पुनः पुनः संग्मरणतो यत्तन्मनोऽमम् / औ०। विपा०रा० / कल्प०। लौकिकतीर्थ, यत्र कमठतापसः पार्श्वस्वामिना परास्तीकृतः। ती०३७ दशा०। कल्प। *मनआप त्रि० निरुक्तिवशात् मन आपः सदैव भोज्यतया जन्तूना | मणिकम्म न० (मणिकर्मन) मणिषु निष्पादितस्वस्तिकाऽऽदिचित्रमनास्याप्नोति / जी०१ प्रति० / प्रव० पुनः पुनः० सुन्दरत्वाति- | कर्मसु, आचा०२ श्रु०२ चू०५ अ०। कल्प०। शयान्मनोरमे, भ०६ श०३३ उ०। स०। मनःप्रिया। स्था०२ ठा०३ उ०। / मणिकूड न० (मणिकूट) रुचकवरपर्वतपश्चिमदिक्कूटे, द्वी०। मणामतर त्रि० (मनआपतर) द्रष्टणां मनास्थाप्नुवन्त्यात्मवशता नयन्तीति मणिकोट्टिमतल न० (मणिकुट्टिमतल) मणिबद्धभूमितले, जी०३ मनआपास्ततः प्रकर्षविवक्षायां तरप्प्रत्ययः, प्राकृतत्वाच पकारस्य प्रति०४ अधि०। मकार मणाभतराः / अतिशपितमनआमेषु, आ०म०१ अ० / स्था०। मणिक्कखंडिय पु० (माणिक्यखण्डिक) रत्नपरीक्षके, महा०२ चूलिका जी० / रा०। औ० / जं०। मणिचूड पुं० (मणिचूड) गन्धारदेशीयरत्नवाहपुरराजे विद्याधरे, उत्त०६ मणामता स्त्री० (मन आपता) मन आप्नुवन्ति मनसि सदा रमन्ते इति / / अ०। ('णमि' शब्दे चतुर्थभागे 1808 पृष्ठ कथोक्ता) मनआपः, तद्भावरुतत्ता। स्पृहणीयतायाम, प्रज्ञा०३४ पद। मणिनाग पुं० (मणिनाग) राजगृहे नगरे महातपस्तीरप्रभनाम्नि प्रस्रवणे मखाल न० (मृणाल पाकन्दोपरिवर्त्तिन्यां लतायाम्, आचा०२ श्रु०१ पूज्यमाने स्वनामख्याते नागे, विशे० / आ०म० / आ०चू० / स्था० / चू०१ अ०८ उ०। आ०क०। मणि पुं०स्त्री० (मणि) रत्नवैडूर्यनीलाऽदिके, आचा०१ श्रु०२ अ०३ उ०। / मणिजाल न० (मणिजाल) मणिमये दामसमूहे, जं०१ वक्ष० / रा०। स० / चन्द्रकान्ताऽऽदिरत्नविशेष, स०। औ० / प्रव० / जी० / द्वा०) मणितोरणा स्त्री० (मणितोरणा) जम्बूद्वीपे पुष्कलावतीविजये स्वनामजात्यरत्ने, दश०६ अ०भ०नि० चू०। प्रश्न०। रा०। कर्केतनाऽऽदिके, ख्याते पुरीभेदे, उत्त०६ अ०। रा०॥ यथा मेचकमणिनरसिंहाऽऽद्याः। विशे० ज्ञा०। च०प्र० / अनु०। / मणिदत्त पुं० (मणिदत्त) भारते वर्षे रोहितकनगरे स्वनामख्याते, यक्षे, इन्द्रनीलवेयपद्मरागाऽऽदिके, सूत्र०२ श्रु०१ अ०। पृथिवीकायविकारेषु, नि०१ श्रु०५ वर्ग१ अ०। भ०१२ 208 उ० / उत्त०। (मणयः सुगन्धयुक्ता भवन्तीति 'भरह' शब्दे मणिपडिमा स्त्री० (मणिप्रतिमा) मणिमयरत्नप्रतिमायाम, व्य०६ उ०। पञ्चमभागे 1405 पृष्ठे विस्तरतः प्रतिपादितम्) मणिपेढिया स्त्री० (मणिपीठिका) मणिमयपीटिकायाम्, यत्र जिनमूर्तयः मणिअंग पुं० (मण्यङ्ग) मणीनां-मणिप्रधानानामाभरणानां कारणत्वा- स्थाप्यन्ते ता मणिपीठिकाः। रा०। जी०। जं० / स्था०। भला न्मण्यङ्गाः। प्रव०१७१ द्वार। मणयो वाऽङ्गान्यवयवा अस्येति। स्था०७ मणिप्पभ पुं० (मणिप्रभ) गन्धारनाम्नि देशे रत्नवाहनगरे स्वनामख्याते ठा० आभरणदायिनि सुषमसुषमाजाते कल्पवृक्षे, स०१० सम० / ति०। विद्याधरेन्द्रे, उत्त०६ अ० / अवन्तिराजपालकसुतराष्ट्रवर्द्धनपुत्रे स्था०।"भवणरुक्खेसु आइण्णेसु।" स्था०१० ठा०। कोशाम्बीराजे, आ० क०४ अ०। (तत्कथा अण्णायया' शब्दे प्रथमभागे मणिअड पुं० (मणीयक) मालावयणे मणौ, "प्राइव मुणिह वि मतंडी, ते 464 पृष्ठे दर्शिता) मणिप्रभो नाम राजा। आव०४ अ० / आ० चू० / मणिअडा गणति / अखइ निरामइ परमपइ, अज्ज वि लड न लहति अयोध्याराजस्य हरिश्चन्द्रस्य परीक्षके स्वनामकदेवे, जी०३७ कल्प। 1 // 1 // ' प्रा०४ पाद। मणिबंध पु० (मणिबन्ध) मणिर्बध्यते यत्र / बन्ध घ / प्रकोष्टमणिकंचणकूड न० (मणिकाञ्चनकूट) रुक्मिवर्षधरपर्वतस्याऽष्टमे कूटे, | पाण्यो मध्यस्थे करग्रन्थो, सैन्धवलवणाऽऽकरे पर्वतभेदे च /
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________________ मणिरयण 14 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मणुस्स प्रज्ञा०१ पदावाच०। अ०। मनसा ज्ञायन्ते सुन्दरतयाय तन्मनोज्ञयम्। भावतः सुन्दरे, भ०६ मणिमय त्रि० (मणिमय) मणिप्रचुरे, मणिविकारे च / रा०। श०३३ उ० / जं० / औ० / स्वरूपतः शोभने, स्था०३ ठा०१ उ० / मणिमेहला स्त्री० (मणिमेखला) रत्नकाच्याम, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०।। मनोज्ञा:मनसो मता वल्लभाः सर्वस्थाप्युपभोक्तुः सर्वदा च शोभनत्वमणियार पुं० (मणिकार) राजगृहे नगरे स्वनामख्याते श्रेष्ठिनि, आव०६ प्रकर्षादव निरुक्तविधिना / स्था०२ टा०३ उ० / ज्ञा० / मनोर्जा मनसा अ०। आ० चू०। सम्यगुपादेयतया ज्ञातव्यात्। रा०। विपाकेऽपि सुखजनकतया मनसः मणिरयण न० (मणिरत्न) "रत्नं निगद्यते तज्जाती जाती यदुत्कृष्टम्।' प्रह्लादहेतुत्वात्। जी०१ प्रति। मनसो रुचितो, नि०चू०२ उ० / बृ० / इति वचनान्मणिजात्युत्कृष्टे, स्था०७ टा। स०। आ००।''मणिरय- आ०म० / जी०। पं०व०। प्रज्ञा०। रा०॥ ज०। विशे०1 मनोरमे, ज्ञा०१ णविभत्तिचित्ता।" मणयश्चन्द्रकान्ताऽऽद्याः रत्नानि कर्केतनाऽऽदीनि श्रु०१ अ० / आव० / इष्ट, आव०४ अ० / प्रव० / आचा०।'' मणुण्ण तेषां भक्तिभिर्विच्छित्तिमिश्चित्रा नानारूपा आश्चर्यवन्तो वा / जी०३ भोयणं भोचा, मणुण्णसयणाऽऽसणं / मणुण्णं ति अगारं ति, गणुण्णं प्रति०४ असि० / रा० / प्रश्न० / वृद्धगच्छीयसोमशुभसूरिशिष्ये, ग०३ झायए मुणी / / 1 / / " सूत्र०१ श्रु०३ अ०४ उ० / अभिलषणाये, स्था०६ अधि०। ठा० / सूत्र० / शुभस्वरूपे, स्था०६ ठा० / सूत्र० / मनोविनोदकारिणि, मणिरह पुं० (मणिरथ) मालवदेशीयसुदर्शनपुरराजे मदनरेखा ज्येष्ठे, कल्प०१ अधि०३ क्षण। सभोगिके, व्य०१ उ०। उत्त०६ अ०। ('णमि शब्दे चतुर्थभागे 1807 पृष्ठे कथोक्ता) मणुण्णतर त्रि० (मनोज्ञतर) मनोज्ञशब्दात्प्रकर्षविवक्षार्या तरप्। अतिममणिलक्खण न० (मणिलक्षण) रत्नपरीक्षाग्रन्थोक्तकाकपदमक्षिकापद- नोऽनुकुले. रा० / जी०३ प्रति०४ अधि०। केशराहित्यशर्करतास्वस्ववर्णो चितफलदायित्वाऽऽदिमणिगुणदोष- मणुण्णसंपओगसंपउत्त न० (मनोज्ञसम्प्रयोगसम्प्रयुक्त) मनोज्ञस्य विज्ञाने, जं०२ वक्ष०। औ० / स० / सूत्र०।। धनाऽऽदेः सम्प्रयोगो-योगस्तेन संप्रयुक्तो यः स तथा। आर्त्तध्यानभेदे, मणिवंसग न० (मणिवंशक) मणयो मणिमया वंशा येषा तानि मणिवंश- ग०१ अधि०। कानि / मणिमयवंशयुक्तेषु, जं०१ वक्षः। जी०। मणुण्णसरया स्त्री० (मनोज्ञस्वरता) उवरतभावोऽपि स्वाऽऽलम्बनप्रीतिमणिवट्टग न० (मणिवृत्तक) मणिप्रधाने भोजनक्षणोपयोगिताऽऽदिपात्रे | जनको मनोज्ञः स्वरो यस्य स मनोज्ञस्वरस्तद्रावस्तत्ता। मनोज्ञस्वरवत्त्वे, जं०२ वक्षः। प्रज्ञा०२३ पद। मणिवया स्त्री० (मणिपदा) पुरीभेदे, "मणिवया णयरी, मित्तो राया. | मणुतिरियाणुपुथ्वी स्त्री० (मनुजतिर्यगानुपूर्वी ) मनुजानुपूाम्, संभूतिविजये अणगारे पडिलाभिए० जाव सिद्धे।" विपा०२ श्रु०६अ। तियगानुपूर्व्या च। कर्म०२ कर्म०। मणिवियया स्त्री० (मणिविजया) भारतवर्षेऽतिप्राचीनायां स्वनामिकायां मणुद्ग न० (मनुजद्विक) मनुजगतिमनुजानुपूर्वीरूपे मनुजोपलक्षिते द्वये, मगर्याम्. यत्र पूर्णभद्रस्य देवस्थ पूर्वजन्माऽऽसीत् / नि०१ श्रु०३ कर्म०५ कर्म। वर्ग०५ अ०। मणुपुच्वग पुं० (मनुपूर्वक) वैताठ्यपर्वते मनुविद्याप्रधाने विद्याधरे, आ० मणिसलागा स्त्री० (मणिशलाका) मणिशलाकेव मणिशलाका। मद्यभेदे, चू०१ अ०॥ जी०३ प्रति०४ अधिकान०। मणुय पु० (मनुज) मनोर्जातो मनुजः / मनुष्ये, स्था०१ ठा० / उत्त० / मणिहियय पुं० (मणिहृदय) शङ्खवरस्य परस्तात् स्थितस्य द्वीपभेदस्य सूत्र० / नरे, सूत्र०१ श्रु०२ अ०२ उ०। तं० / मनुष्याश्चतुर्भेदाः / तद्यथादेवेद्वी०। संमूर्छनजाः, कर्मभूमिजाः, अकर्मभूमिजाः, अन्तरभूमिजाश्चेति / मणीसा स्त्री० (मनीषा) बुद्धी, अनु० / 'मेहा मई मणीसा, विन्नाणं धी आचा०१ श्रु०१ अ०१ उ० / स्था०। भ० / औ०। मये, स्था०६ ठा० / . चिई बुद्धी / (42)" पाइ० ना०३१ गाथा। श्रीश्रेयांसस्य मनुजो यक्षो, मताऽन्तरेणेश्वरो धवलवर्णास्त्रिनेत्रो मणु पु० (मनु) मनुष्याणा परममूलपुरुष, यदपत्यानि मनुष्या उच्यन्ते। वृषभवाहनश्चतुर्भुजो मातुलिङ्गगदायुक्तदक्षिणपाणिद्वयो नकुलकाक्ष आ०म०१ अ० / मनुना प्रणीते ग्रन्थे च / विशे० / मनुष्ये. मनुरिति सूत्रयुक्तवामपाणिद्वयश्च / प्रव०२६द्वार। स०। मनुष्यस्य संज्ञा। वाचन मणुयगइ स्त्री० (मनुजगति) मनुष्याणां गतिः मनुष्यत्वसंपादिका वा मणु अ पुं० (मनुज) नरे "मुणआ नरा मणुस्सा, मच्चा तह माणवा गतिः / गतिभेदे, स्था०५ ठा०३ उ०। पुरिसा।" (100) पाइ० नाप०६० गाथा। मणुयगइसहगया स्त्री० (मनुजगतिसहगता) मनुष्यगत्या सह यासामुमणुज त्रिल (मनोज्ञ) सुन्दरे, "रुइर राह रम्भ, अहिरामं बंधुर मणुजं च। दयस्ता मनुजगतिसहगताः। तथाविधासु कर्मकृतिषु, कर्म०६ कर्म०। लट्ठ कंतं सुहयं, मणोरमं चारु रमणिज।" (14) पाइ० ना०१४ गाथा। मणुयतिग न० (मनुजत्रिक) मनुजगतिमनुजानुपूर्वीमनुजाऽयुर्लक्षणे मणुण्ण त्रि० (मनोज्ञ) मनसा ज्ञायते-उपादीयत इति मनोज्ञम् / तं०। मनुष्योपलक्षिते त्रिके, कर्म०२ कर्म०।। मनसाऽन्तःसंवेदनेन शोभनतया ज्ञायत इति मनोज्ञः, विपा०२ श्रु०१ मणुययो नि स्त्री० (मनुजयोनि) मनुष्यजातीनामुत्पत्तिस्थाने,
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________________ मणुस्स 65 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मणुस्स प्रश्न०२आश्रवद्वार। मणुस्स पु० (मनुष्य) मनुरिति मनुष्यस्य संज्ञा। मनोरपत्यानि मनुष्याः। जातिशब्दोऽयं राजन्याऽऽदिशब्दवत् / जी०१ प्रति० / नि०चू०। नरे, प्रश्न०२ सम्म० द्वार। मनुजे, जी०३ प्रति०४ अधि० / सूत्र० / उत्त०। मनुष्यभेदाःसे किं तं मणुस्सा ? मणुस्सा दुविहां पण्णत्ता / तं जहासंमुच्छिममणुस्सा य, गब्भवक्कं तियमणुस्सा य / से किं तं संमुच्छिममणुस्सा ? कहि णं भंते ! संमुच्छिममणुस्सा संमुच्छंति ? गोयमा ! अंतो मणुस्सखेत्ते पणयालीसाए जोयणसयसहस्सेसु अड्डाइज्जेसु दीवसमुद्देसु पण्णरससु कम्मभूमीसु तीसाए अकम्मभूमीसु छप्पन्नाए अंतरदीवएसु गब्भवक्कं तियमणुस्साणं चेव उच्चारेसु वा पासवणेसुवा खेलेसु वा सिंघाणएसु वा वंतेसु वा पित्तेसु वा पूएसु वा सोणिएसु वा सुक्केसु वा सुक्कपोग्गलपरिसाडेसु वा विगय जीवकलेवरेसु वा थीपुरिससंजोएसु वा नगरनिद्धमणेसु वा सव्वेसु चेव असुइट्ठाणेसु, एत्थ णं संमुच्छिममणुस्सा संमुच्छेति, अंगुलस्स असंखिज्जइभागमेत्ताए ओगाहणाए असन्नी मिचछदिट्ठी अन्नाणी सव्वहिं पज्जत्तीहिं अपज्जत्तगा अंतोमुहुत्ताउया चेव कालं करें ति / सेत्तं समुच्छिममणुस्सा। से किं तं गम्भवकंतियमणुस्सा ? गब्भवकं तियमणुस्सा तिविहा पण्णत्ता। तं जहा-कम्मभूमगा, अकम्मभूमगा, अंतरदीवगा। (से किं तमित्यादि) अत्रापि सम्मूछिममनुष्यविषये प्रवचनबहुमानतः शिष्याणामपि च साक्षाद्भगवतेदमुक्तमिति बहुमानोत्पादनार्थमङ्ग लान्तर्गतमालापर्क पठति-"कहि णं भंते !" इत्यादि सुगम, नवरं ''सव्वेसु चेव असुइट्ठाणेसु त्ति / " अन्यान्यपि यानि कानिचित् मनुष्यसंसर्गवशादशुचिभूतानि स्थानानि तेषु सर्वेष्विति। उक्ताः संमूच्छिममनुष्याः। अधुना गर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्यप्रतिपादनार्थमाह-(से किं तमित्यादि) 'कम्मभूमिगा' इति-कर्म कृषिवाणिज्याऽऽदि मोक्षानुष्ठानं वा, कर्मप्रधाना भूमिर्येषां ते कर्मभूमाः, आर्षत्वात् समासान्तोऽप्रत्ययः, कर्मभूमा एव कर्मभूमकाः, एवमकर्मा-यथोक्लकर्मविकला भूमिर्येषां ते अकर्मभूमास्ते एवाऽकर्मभूमकाः, अन्तरशब्दो मध्यवाची, अन्तरे लवणसमुद्रस्य मध्ये द्वीपा अन्तरद्वीपाः तद्गता अन्तरद्वीपपाः, अस्ति पश्चानुपूर्वी " इति न्यायख्यापनार्थम्। प्रज्ञा०१ पद। अनु० / आचा०। (कर्मभूमकमनुष्याणां व्याख्या 'कम्मभूमग' शब्दे तृतीयभागे 336 पृष्ठे गता) (अकर्मभूमकर्मनुष्याणां वक्तव्यता अकम्मभूमग' शब्दे प्रथमभागे 120 / पृष्ठे गता) (अन्तरद्वीपमनुष्यवक्तव्यता 'अंतरदीव' शब्दे प्रथमभागे 86 पृष्ठे गता) (आर्यमनुष्यव्याख्या 'आ (य) रिय' शब्दे द्वितीयभागे 336 पृष्ठे गता) (म्लेच्छमनुष्याणां व्याख्या 'मिलक्खु' शब्देऽस्मिन्नेव भागे वक्ष्यते) से किं तं मणुस्सा ? मणुस्सा दुविहा पण्णत्ता / तं जहासंमुच्छिममणुस्सा य, गब्भवक्कंतियमणुस्सा य / कहिणं भंते ! संमुच्छिममणुस्सा संमुच्छंतिं ? गोयमा ! अंतो मणुस्सखेते. जाव करें ति। तेसिंणं भंते ! जीवाणं कति सरीरगा पण्णत्ता? गोयमा ! तिनि सरीरगा पण्णत्ता / तं जहा- ओरालिए, तेयए, कम्मए / सेत्तं समुच्छिममणुस्सा / से किं तं गब्भवक्कं तियमगुस्सा ? गब्भवक्कं तियमणुस्सा तिविहा पण्णत्ता / तं जहाकम्मभूमया, अकम्मभूमया, अंतरदीवजा, एवं मणुस्सभेदा भाणियव्वो जहा पण्णवणाए तहा निरवसेसं भाणियव्वं० जाव छउमत्था य, केवलीय। ते समासतो दुविहा पण्णत्ता। तं जहापज्जत्ता य, अपज्जत्ता या तेसि णं भंते ! जीवाणं कति सरीरा पण्णत्ता ? गोयमा ! पंच सरीरया पण्णत्ता ! तं जहा-ओरालिए० जाव कम्मए / सरीरोगाहणा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजइभागा,उक्कोसेणं तिण्णि गाउयाइंछच्चेव संघयणाछस्संठाणा। ते णं भंते ! जीवा किं कोहकसायी० जाव लोभकसायी, अकसायी ? गोयमा ! सव्वे वि। ते णं भंते ! जीवा किं आहारसन्नोवउत्ता, लोभसन्नोवउत्ता, नोसन्नावउत्ता? गोयमा ! सव्वे वि / ते णं भंते ! जीवा किं कण्हलेस्सा य० जाव अलेस्सा ? गोयमा! सव्वे वि। सोइंदियोवउत्ता० जाव नोइंदिओवउत्ता वि, सव्वे समुग्घाया पण्णत्ता / तं जहा-वेयणासमुग्घाते० जाव केवलिसमुग्धाते, सन्नी वि, नोसन्नी, असन्नी वि, इत्थिवेदा वि० जाव अवेदा वि, पंच पजत्ती, तिविहा दिट्ठी, चत्तारिदंसणा, गाणी वि,अण्णाणी वि, जेणाणी ते अत्थेगतिया दुन्नाणी, अत्थेगतिया तिन्नाणी, अत्थेगतिया चउनाणी, अत्थेगतिया एगणाणी / जे दुण्णाणी ते नियमा अभिणिबोहियाणाणी, सुयणाणी य / जे तिण्णाणी ते आमिणिबोहियणाणी, सुयणाणी ओहिणाणी य / अहवा-आभिणिबोहियणाणी, सुतणाणी, मणपज्जवणाणी या जे चउणाणी तेणियमा आमिणिबोहियणाणी, सुयणाणी, ओहिणाणी, मणपज्जवणाणी य / जे एगणाणी ते नियमा केवलणाणी, एवं अण्णाणी वि, दुअण्णाणी, तिअण्णाणी, मणजोगी वि, वइकायजोगी वि, अजोगी वि, दुविहउवओगे, आहारो छद्विसिं / उववातो नेरइएहिं अधे सत्तमवजेहिं तिरिक्खजोणिएहितो, उववाओ असंखेजवासाऽऽअवजेहिं मणुएहिं अकम्मभूमगअंतरदीवगअसंखेज्जवासाउयवज्जेहिं, देवेहि सव्वेहि,
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________________ मणुस्स 16 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मप्फुस्स ठिती जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमाइं, नोसंज्ञोपयुक्ताश्च निश्चयतो वीतरागमनुष्याः, व्यवहारतः सर्व एव दुविहा वि मरंति, उव्वट्टित्ता नेरइयादिसु० जाव अणुत्तरोव- चारित्रिणो, लोकोत्तरचित्तलाभात् तस्य संज्ञादशकेनाऽपि विप्रयुक्तावाइएसु अत्थेगतिया सिज्झंति० जाव अंतं करें ति। ते णं भंते ! त्वात् / उक्त च-"निर्वाणसाधकं सर्व, ज्ञेयं लोकोत्तराऽश्रयम् / संज्ञाजीवा कति गइया, कति आगतिया पण्णत्ता ? गोयमा ! __ लोकाऽऽश्रया सर्वा, भवाङ्कुरजलं परम्।।१।।" लेश्यागारे-कृष्णलेश्या पंचगतिया, चउआगतिया, परित्ता संखेना पण्णत्ता / सेत्तं नीललेश्याः कापोतलेश्यास्तेजोलेश्याः पद्मलेश्याः शुक्ललेश्या मणुस्स। (सूत्रे-४१) अलेश्याश्च, तत्रालेश्या परमशुक्लध्यायिनोऽयोगिकेवलिनः। इन्द्रियअथ के ते मनुष्याः ? सूरिराह-मनुष्या द्विविधाः प्रज्ञाप्ताः / तद्यथा- द्वारे-श्रोत्रेन्द्रियापयुक्ताः यावत्स्पर्शनेन्द्रियोपयुक्ता नोइन्द्रियोपयुक्ताश्च, संभूछिममनुप्याश्च गर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्याश्च, चशब्दी स्वगतानेक- तत्र नाइन्द्रियोपयुक्ताः केवलिनः समुद्घातद्वारेसप्ताऽपि समुद्घाताः भदसूचकौ, तत्र संमूच्छिममनुष्यप्रतिपादनार्थमाह-'कहि ण भते !' मनुष्यं षु सर्वभावसम्भवात् / समुद्धातसंग्राहिका चेमा गाथाइत्यादि / क भदन्त ! संमूच्छिममनुष्याः संमूछन्ति? भगवानाह "वेयणकसायमरणं-तिए य वेउव्विए: य आहारे। कवलियसमग्याए, गौतम ! अंतो मणुस्सखेत्ते जाव करेंति' इति। (जी०) (तेसिणं भंते ! सत्त समुग्धा इमे भणिया।॥१॥" संज्ञिद्वारेसंज्ञिनोऽपि नोसंज्ञिनोऽपि, इत्यादि) शरीराणि त्रीणि औदारिकतैजसकार्पणानि, अवगाहना तत्र नोसंज्ञिन असंज्ञिनः केवलिनः / वेदद्वारे-स्त्रीवेदा अपि पुरुषवेदा जघन्यत उत्कर्षतश्चाङ्कलासक्येयभागप्रमाणा, संहननसंस्थानकषाय अपि नपुसकवेदा अपि अवेदाः सूक्ष्मसंपरायाऽऽदयः पर्याप्तिद्वारे-पक्ष लेण्याद्वाराणि यथा द्वीन्द्रियाणाम्। इन्द्रियद्वारे पञ्चेन्द्रियाणि, संज्ञिद्वार पर्याप्तयः पञ्च अपर्याप्तयः, भाषामनःपर्याप्त्योरेकत्वेन विवक्षणात् वेदद्वारे अपि द्वीन्द्रियवत्, पर्याप्तिद्वारे अपर्याप्तयः पञ्च दृष्टिदर्शनज्ञान दृष्टिद्वारे-त्रिविधदृष्टयोऽपि / तद्यथा-केचिन् मिथ्यादृष्टयः केचित् योगोपयोगद्वाराणि (यथा) पृथिवींकायिकानाम्. आहारो यथा द्वीन्द्रि राम्यग्दृष्टयः, केचित् सम्यगमिथ्यादृष्टयः / दर्शनद्वारेचतुर्विधदर्शनाः याणाम, उपपातो नैरयिकदेवतेजोवाय्वऽसंख्यातवर्षाऽऽयुष्कवय॑भ्यः तद्यथा-चक्षुर्दर्शना अचक्षुर्दर्शना अवधिदर्शनाः के वलिदर्शनाश्च, स्थितिर्जघन्यतः उत्कर्षतोऽप्यन्तर्मुहूर्त्तप्रमाणा, नवरं जघन्यपदादुत्कृष्ट ज्ञानद्वारे-ज्ञानिनोऽज्ञानिनश्च, तत्र मिथ्यादृष्टयोऽज्ञानिनः सम्यगदृष्टयां भधिक वेदितव्यं, मारणान्तिकसमुद्घातेन समवहता अप मियन्ते, ज्ञानिनः (नाणाणि पंच तिणिण अण्णाणाणि भयणाए इति) ज्ञानानि पञ्च मतिज्ञानाऽऽदीनि, अज्ञानानि त्रीणि मत्यज्ञानाऽदीनि, तानि नजनया असमवहताश्च, अनन्तरमुढत्य नैरयिकदेवासंख्येयवर्षायुष्कवर्जेषु शेषेसु वक्तव्यानि, सा च भजना एवं-केचित् द्विज्ञानिनः केचित् त्रिज्ञानिनः स्थानेषुपपद्यन्ते, अतएव गत्यागतिद्वारे व्यागतिका द्विगतिकास्तिर्यड् केचिचतुर्मानिनः केचिदेकज्ञानिनः, तत्र ये द्विज्ञानिनस्ते नियमादाभिमनुष्यगत्यपेक्षया, परीताः प्रत्येकशरीरिणोऽसंख्येयाः प्रज्ञप्ताः / हे निबोधिकज्ञानिनः श्रुतज्ञानिनश्च, ये त्रिज्ञानिनस्ते मतिज्ञानिनः श्रुतश्रमण ! हे आयुष्मन् ! उपसंहारमाह- (सेत्तं समुच्छिममणुस्सा) उक्ताः ज्ञानिनोऽवधिज्ञानिनश्च, अथवा-आभिनिबोधिकज्ञानिनः श्रुतज्ञानिनो संमूञ्छिममनुष्याः। अधुना गर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्याना ह-अथ के ते मनःपर्यवज्ञानिश्च, अवधिज्ञानमन्तरेणाऽपि मनःपर्यवज्ञानस्य सम्भवात्। गर्भय्युत्क्रान्तिकमनुष्याः? सूरिराह-गर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्यास्त्रिविधाः सिद्धप्राभृताऽऽदौ तथाऽनेकशोऽभिधानात्,ये चतुर्मानिनस्ते आभिनिप्रज्ञप्ताः, तद्यथा-कर्मभूमकाः, अकर्मभूमकाः, अन्तरद्वीपजाः / तत्र बोधिकज्ञानिनः श्रुतज्ञानिनोऽवधिज्ञानिनो मनःपर्यवज्ञानिनश्च, ये कर्म-कृषिवाणिज्याऽदि मोक्षानुष्ठान था, कर्मप्रधाना भूमिर्यषां ते एकज्ञानिनस्ते केवलज्ञानिनः, केवलज्ञानसद्भावे शेषज्ञानापगमात्, कर्मभूभाः, आर्षत्वात् समासान्तोऽप्रत्ययः। कर्मभूमा एव कर्मभूमकाः "नहम्मि उछाउमस्थिए नाणे'' इति वचनात्, ननु केवलज्ञानप्रादुर्भाव एवमकर्मा यथोक्तकम् विकला भूमिर्येषां ते अकर्मभूमास्त एवाकर्म कथं शेषज्ञानापगमः ? यावता यानि शेषाणि मत्यादीनि ज्ञानानि स्वस्वाभूमकाः, अन्तरशब्दो मध्यवाची, अन्तरेलवणसमुद्रस्य मध्ये द्वीपा ऽऽवरणक्षयोपशमेन जायन्ते ततो निर्मूलस्वस्वाऽऽवरणविलये तानि सुतरां अन्तरद्वीपास्तद्गता अन्तरद्वीपगाः। (एवं मणुस्सभेओ भाणियव्यो जहा भवेयश्चारित्रपरिणामवत् / उक्तं च-"आवरणदेसविगमे, जाई विजंति पण्णवणाए इति) एवम- उक्तेन प्रकारेण मनुष्यभेदो भणितव्यो यथा मइयाऽऽईणि। आवरणसव्वविगमे, कह ताईन होति जीवरस ? // 1 // " प्रज्ञापनायां, स चालिबहुग्रन्थ इति तत एव परिभावनीयः। (ते समासतो उच्यते-इह यथा जातस्य मरकताऽऽदिमणेर्मलोपदिग्धस्य यावन्नाद्याऽपि इत्यादि) पर्याप्तापर्याप्तसूत्रं पाठसिद्ध, शरीराऽऽदिद्वारकलापचिन्तायां समूलमलापगमस्तावत्यथा यथा देशतो मलविलयस्तथा तथा देशतोऽशरीरद्वारे पश्च शरीराणि / तद्यथा-औदारिकं वैक्रियमाहारकं तैजसं भिव्यक्तिरुपजायते, सा च क्वचित् कदाचित् कश्चिद्भवतीत्यनेकप्रकारा, कार्मणं च, मनुष्येषु सर्वभावसम्भवात, अवगाहनाद्वारे जघन्यतोऽव- तथाऽऽत्मनोऽपि सकलकारलकलापावलम्बिनिखिलपदार्थसार्थपरिगाहनाऽद्भुलाऽसंख्येयभागमात्रा, उत्कर्षतस्त्रीणि गव्यूतानि। संहननद्वारे / च्छेदरकरणकपारमार्थिकस्वररूपस्याऽपि आवरणमलपट लतिरोहितस्य षडपि संहननानि, संस्थानद्वारेषडपि संस्थानानि, कषायद्वारे क्रोध- यावन्नाद्यापि निखिलकर्ममलापगभस्तावद्यथा यथा देशतः कर्ममलोच्छेदकषायिणोऽपि मानकषायिणोऽपि मायाकषायिणोऽपि लोभकषायिणो- स्तथा तथा तस्य विज्ञप्तिरुवृम्भते, साच क्वचित्-कदाचित् कथशिदनकऽपि अकषायिणोऽपि, वीतरागमनुष्याणामकषायित्वात्, संज्ञाद्वारे- प्रकारा। उक्तंच-"मलविद्धनेणेव्यक्तियथाऽमेकप्रकारतः। कर्मविद्धामआहारसंज्ञोपयुक्ता भयसंज्ञोपयुक्ता मैथुनसंज्ञोपयुक्ता लोभसंज्ञोपयुक्ताः | विज्ञप्ति स्तथाऽनेकप्रकारतः // 1 // " सा चाऽनेकप्रकाराता मतिश्रुताऽऽदे
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________________ मणुस्स 67 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मणुस्सखेत्त भेदेनाऽवसेया। ततो यथा मरकतादिमणेरशेषमलापगमसंभवे समस्तास्पष्टदेशव्यक्तिव्यवच्छेदेन परिस्फुटरूपैकाभिव्याक्तिरुपजायते तद्वदात्मनोऽपिज्ञानदर्शनचारित्रप्रभावतो निःशेषाऽऽवरण-प्रहाणावशेषदेशज्ञानव्यवच्छेदेन एकरूपा अतिपरिस्फुटा सर्ववस्तुपर्यायप्रपञ्चसाक्षात्कारिणी विज्ञप्तिरुल्लसति, उक्तंच-'यथा जात्यस्य रत्नस्य निःशेषमलहानितः / स्फुटकरूपाऽभिव्यक्ति विज्ञप्तिस्तद्वदात्मनः 1' इति। येअज्ञानिमस्ते द्वय ज्ञानिनः,त्र्यज्ञानिनो वा, तत्र ये व्यज्ञानिनस्ते मत्यज्ञानिनः श्रुताज्ञानिनश्च, त्र्यज्ञानिनस्ते भत्यज्ञानिनः, श्रुताज्ञानिनो विभङ्गज्ञानिनश्च, योगद्वारे-मनोयोगिनो, वाग्योगिनः, काययोगिनोऽयोगिमश्च, तत्राऽयोनिनः शैलेशीमवस्था प्रतिपन्नाः, उपयोगद्वारमाहारद्वारं च द्वीन्द्रियवत्, उपपात एतेष्वधः सप्तमनरकाऽऽदिवर्जेभ्यः / उक्तं च-"सत्तममहिनेरइया, तेऊ वाऊ अणंतरुव्वट्टा। न वि पावे माणुस्स, तहेवऽसंखाउया सव्ये // 1 // " इति। स्थितिद्वारे-जघन्यतः स्थितिरन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतस्त्रीणि पल्योपमानि, समुद्भातमधिकृत्यमरणचिन्तायां समवहता अपि मियन्ते, असमवहता अपि। च्यनवद्वारे-अनन्तमुवृत्य सर्वेषु नैरयिकेषु सर्वेषु च तिर्यग्योनिषु सर्वेषु मनुष्येषु सर्वेषु देवेष्वनुत्तरोपपातिकपर्यवसानेषु गच्छन्ति "अत्यंगतिया सिज्झति० जाव अंतं करेति" इति। अस्तीति निपातोऽत्र बहुवचनार्थः, सन्त्येकका ये निष्ठितार्था भवन्ति। यावत्करणात- "वुज्झति, मुचंति, परिनिव्वायंति, सव्वदुक्खाणमंतं करेंति।" इति द्रष्टव्यम्। तत्र अणिमाऽऽद्यैश्वर्याऽऽप्त्या तथाविधमनुष्यकृत्यापेक्षया निष्ठि ताथा इति असर्वविदोऽपि कैश्चित् सिद्धा इष्यन्ते, ततो माभूदेतेषु संप्रत्यय इति तदपोहायाऽऽह-बुध्यन्ते निरावरणत्वा त केवलावबोधेन समस्त वस्तुजातम्, एत चासिद्धा अपि अवस्थकेवलिन एवम्भूता वर्तन्ते, तत्र मा भूदेतेष्वेव प्रतीतिरित्याह-'मुच्यन्ते' पुण्यापुण्यरूपेण कृच्छ्रण कर्मणा. एतेऽपियापि निवृत्ता एव परैरिष्यन्ते-मुक्तिपदे प्राप्ता अपितीर्यनिकारदर्शनाऽऽदिहाऽऽगच्छन्ति, इति वचनात्, ततो भूमरोचरा मन्दमतीनां धीरित्याह-'परिनिर्वान्ति' विध्यातसमस्तकमहुतवहपरमाणवो भवन्ति इति। किमुक्त भवति? सर्वदुःखानां शरीरमानसभेदानामन्तंविनाश कुर्वन्ति, अत एव गत्यागतिद्वारे-चतुरागतिकाः पञ्चगतिकाः, सिद्धिगतागपि गमनात्, ‘परीत्ताः प्रत्येकशरीरिणः सङ्ख्येयाः संख्येयकोटिप्रमाणत्वात् प्रज्ञप्ताः 'हे श्रमण ! हे आयुष्मान् ! उपसंहारमाह'सेत्त मणुरा।' जी०१ प्रति०। आचा०। स्था०। सूत्र०। पं० स०। ति० (दण्डकप्रतिबद्धा अधिकारा अन्टक्रियाऽऽदयोऽन्तक्रियाऽऽदिशब्देषु) - हरिवर्षाऽऽदिषु त्रिषष्टिरात्रिन्दिवं यौवनम्हरिवासरम्मयवासे सु णं मणुस्सा तेवट्ठिए राईदिएहिं | संपत्तजोव्वणा भवंति / (स०६३ सम०) देवकुरुउत्तर कुरासु णं मणुया एगूणपन्नं राइंदिएहिं संपत्तजोव्वणा भवंति / स०४६ सम०। सम्प्रति मनुष्यस्य सचित्ताऽऽदिभेदात् त्रिविधस्याप्युपयोगमाहसच्चित्ते पव्वावण, पंथुवएसे य भिक्खदाणाऽऽइ। सीसऽट्ठिग अचित्ते, मीसऽह्रिसरक्खपहपुच्छा॥५१॥ सचित्ते इति-षष्ठीसप्तम्योरर्थ प्रत्यभेदात् सचित्तस्य मनुष्यस्य प्रयोजन पथि पृष्ठे उपदेशः कथनं, तथा भिक्षाऽऽदानम्, आदिशब्दाद्वसत्यादिदानं चोपपोगः, (अचित्ते) अचित्तस्य शिरसोऽस्थि, तद्धि लिङ्गे व्याधिविशेषापनोदाय वर्षित्वा दीयते, यदा-कदाचित्कत्रित्परिरुष्टो राजाऽऽदिः साधूनां विनाशाय कृतोद्यमो भवेत्। ततस्ते साधवः शिरोऽस्थिकमादाय कापालिकवेषेण नंष्ट्वा देशान्तरं व्रजितुमिच्छन्तीति तेन प्रयोजनं, तथा मिश्रस्य मनुष्यस्योपयोगः, (अट्टिसरक्खि त्ति) अस्थिभिराभरणकल्पैभूषितस्य सरजस्कस्य सरक्षाकस्य वा भस्मावगुण्ठितवपुष्कस्येत्यर्थः, कापालिकस्यपाचे यत्पथि विषये प्रच्छनम्। पिं०। (अग्रेतनविषयस्तु 'वाउकाइय' शब्दे वक्ष्यते) "ननु पुनरिदमतिदुर्लभमगाधसंसारजलधिविभ्रष्टम् / मानुष्यं खद्योतकतडिल्लताविलसितप्रतिमम्॥१॥" सूत्र०१ श्रु०१५ अ०1 ''मानुष्यकात्परिभ्रष्टैर्लभ्यते न मनुष्यता।" आ०क०१ अ० / (मनुष्यत्वस्य दौर्लभ्यम्'चउरंग' शब्दे तृतीयभागे 1051 पृष्ठे उक्तम्) (मनुष्यशरीराणां जघन्योत्कृष्टपदे संख्या सरीर' शब्दे) छविहा मणुस्सगा पण्णत्ता। तं जहा-जंबूदीवगा, धायइसंडदीवपुरच्छिमद्धगा, धायइसंडदीवपञ्चच्छिमद्धगा, पुक्खरवरदीववपुरच्छिमद्धगा, पुक्खरवरदीवड्वपञ्चच्छिमद्धगा, अंतरदीवगा। अहवा-छव्विहा मणुस्सा पण्णत्ता।तं जहा-समुच्छिममणुस्सा ति०३-कम्मभूमगा 1, अकम्मभूमगा 2, अंतरदीवगा 3 / गब्भवकतिअमणुस्सा ति०३ कम्मभूमिगा 1, अकम्मभूमिगा 2, अंतरदीवगा 3 / (सूत्र-४६०) स्था०६ ठा०३ उ०। 'वारस मुहत्तगब्भे, इअरे चउवीस विरह उक्कोसो। एतद्विरहकालः संमूर्च्छजमनुष्याणां कियता कालेन भवतीति प्रश्नः, अत्रोत्तरम् - इह मनुष्या द्विविधाः-सम्मूछेजाः, गर्भजाश्च / तत्राऽऽद्याः कदाचिन्न भवन्त्येव, जघन्यतः समयस्योत्कृष्टतस्तु चतुर्विशतिमुहूत्तन्तिकालस्य प्रतिपादितत्वात्. उत्पन्नानां तु जघन्यत उत्कृष्टतश्चान्तर्मुहूर्तस्थितिकत्वेन परतः सर्वेषां निर्लेपकत्वसम्भवात्, यदा तु भवन्ति तदा जघन्यत एको द्वौत्रयो वा, उत्कृष्टतरतु असङ्ख्याताः, इतरेतु सतयेया भवन्तीत्यनुयोगदारवृत्ती 1 त्रसत्वं-सत्वेनोत्पत्तिः, सततमनवरतं, जघन्यत एकं समयमुत्कर्षत आवलिकाऽसङ्खयेयभागं कालं, परतोऽवश्यमन्तरम् / अपि च-आस्तां सामान्येन त्रसत्वम्, किन्तु-द्वीन्द्रियास्त्रीन्द्रियाश्चतुरिन्द्रियास्तिर्यक्पश्चेन्द्रियाः सम्पूर्छजमनुष्या अप्रतिष्ठाननरकावासनारकवर्जाः शेषाः प्रत्येकनारका अनुत्तरसुरवजाः शेषाः प्रत्येकं देवाच निरन्तरमुत्पद्यमाना जघन्यत एकसमयमुत्कृस्त आवलिकाया असङ्खयेयभागं कालम्,
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________________ मणुस्सखेत्त 68 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मणुस्सखेत्त इति पञ्च संग्रहवृत्तौ 45 पत्रे, एतदक्षरानुसारेणात्कृष्टतः कदाचिदावलिकाया असङ्ख्येयभागकालानन्तर सम्मूर्छजमनुष्याणां चतुर्विशतिमुहूर्तविरहकालः सम्भवतीति / 65 प्र० / सेन०३ उल्ला०। मणुस्सक्खेत्त न० (मनुष्यक्षेत्र) मानुषोत्तरपर्वतसीमाके मनुष्याणां क्षेत्रे, जी०३ प्रति०४ अधि०। (मनुष्यक्षेत्रे द्वौ समुद्रौ इति 'समुद्द' शब्दे द्रष्टव्यम्) समयखेत्ते णं भंते ! केवतियं आयामविक्खंभेणं केवतियं परिक्खेवेणं पण्णत्ते ? गोयमा ! पणयालीसं जोयणसतसहस्साई आयामविक्खंभेणं एगा जोयणकोडी० जाव अभितरपुक्खरऽद्ध परिरओ से भाणियव्वो० जाव अउणपण्णे। (समयखेत्ते णमित्यादि) मनुष्यक्षेत्र भदन्त ! कियदायामविष्कम्भेन कियत्परिक्षेपेण प्रज्ञप्तम्, भगवानाह-गौतम ! पञ्चचत्वारिंशद् योजनशतसहस्राणि आयामविष्कम्भेन, एकायोजनकोटी द्वाचत्वारिंशत्शतसहस्राणि त्रिंशत् सहस्राणि द्वे योजनशते एकोनपञ्चाशे किञ्चिद्विशेषाधिके परिक्षेपेण प्रज्ञप्तम्। सम्प्रति नामनिमित्तमभिधित्सुराह - से केणऽद्वेणं भंते ! एवं वुचति-माणुसखेत्ते, माणुसखेत्ते ? | गोयमा ! माणुसक्खित्ते णं तिविहा मणुस्सा परिवसंति। तं जहाकम्भभूमगा, अकम्मभूमगा, अंतरदीवगा / से तेणऽद्वेणं गोयमा ! एवं वुचति-माणुसखेत्ते माणुसखेत्ते। (से केणतुणमित्यादि) अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-मनुष्यक्षेत्र मनुष्यक्षेत्रमिति ? भगवानाह-गौतम ! मनुष्यक्षेत्रे त्रिविधाः मनुष्याः परिवसन्ति। तद्यथा-कर्मभूमका अकर्मभूमका अन्तरद्वीपकाश्च। अन्यच्च मनुष्याणां जन्ममरणं चात्रैव क्षेत्रे न तद्बहिः, तथाहि-मनुष्या मनुष्यक्षेत्रस्य बहिर्जन्मतो न भूता न भवन्ति न भविष्यन्ति च। तथा यदि नाम केनचित् देवेन दानवेन विद्याधरेण वा पूर्वानुबद्धवैरनिर्यातनार्थमेवरूपा बुद्धिः क्रियते यथाऽयं मनुष्योऽस्मात् स्थानादुत्पाट्य मनुष्यक्षेत्रस्य बहिः प्रक्षिप्यतां, येनोवशोष शुष्यति, म्रियते वा इति तथाऽपि लोकाऽनुभावादेव सा काचनापि बुद्धिर्भूयः परावर्त्तते, तथा संहरणमेव न भवति, संहृत्य वा भूयः समानयति, तेन सहरणतोऽपि मनुष्यक्षेत्राद् बहिर्मनुष्याणां मरणमधिकृत्य न भूता न भवन्ति न भविष्यन्ति च / येऽपि जडाचारिणो विद्याचारिणो वा नन्दीश्वराऽऽदीनपि यावद् गच्छन्ति तेऽपि तत्र गता न मरणमश्नुवन्ते, किं तु मनुष्यक्षेत्रमागता एव, तेन मानुषोत्तरपर्वतसीमाकं मनुष्याणां संबन्धि क्षेत्रं मनुष्यक्षेत्रमिति। जी०३ प्रति०४ अधि०२ उ०। सम्प्रति मनुष्यक्षेत्रगतसमस्तचन्द्राऽऽदिसङ्ख्यापरिमाणमाहमणुस्सखेत्ते णं मंते ! कइ चंदा पभासेंसु वा, पभासंति वा, पभासिस्संति वा ? कइसूरा तवइंसुवा, तवइंति वा, तवइस्संति वा? गोयमा! "बत्तीसं चंदसयं, इत्तीसं चेव सूरियाण सयं। सयलं मणुस्सलोयं, चरंति एए पभासेंता / / 1 / / एक्कारस य सहस्सा, छप्पि य सोला महग्गहाणं तु। छच्च सया छण्णउया, णक्खत्ता तिणि य सहस्सा / / 2 / / अडसीइ सतसहस्सा, चत्तालीस सहस्स मणुयलोगम्मि। सत्त य सता अणूणा, तारागणकोडिकोडीणं ||3||" सोभं सो सुवा, सोभं सोभन्ति वा, सोभं सोमिस्संति वा / / "एसो तारापिंडो, सव्वसमासेण मणुयलोगम्मि। बहिया पुण ताराओ, जिणहिँ भणिया असंखेज्जा / / 1 / / एवइयं तारगं, जं भणियं माणुसम्मि लोगम्मि। चारं कलंबुयापुप्फसंठियं जोइस चरइ / / 2 / / रविससिगहनक्खत्ता, एवइया आहिया मणुयलोए। जेसिं नागागोत्तं, न पागया पण्णवेहिति / / 3 / / छावट्ठी पिडगाई, चंदाइचा मणुयलोगम्मि। दो चंदा दो सूरा, हवंति एक्केक्कए पिडए / / 4 / / छावट्ठी पिडगाई, नक्खत्ताणं तु मणुयलोगम्मि / छप्पन्नं नक्खत्ता, य हुंति इक्किक्कए पिडए॥५|| छावट्ठी पिडगाई, महग्गहाणं तु मणुयलोगम्मि। छावत्तरं गहसयं, च होइ एक्कक्कए पिडए।।६।। चत्तारि य पंतीओ, चंदाइचाण मणुयलोगम्मि। छावट्ठिय छावट्ठिय, होई एक्के किया पंती।।७।। छप्पण्णं पंतीओ, णक्खत्ताणं तु मणुयलोगम्मि। छावट्ठी छावट्ठी, होइ य एक्के किया पंती॥८|| छावत्तरं गहाणं, पंतिसयं होइ मणुयलोगम्मि / छावट्ठी छावट्ठी, य होति एक्के किया पंती॥६।। ते मेरु पडियडता, पयाहिणाऽवत्तमंडला सव्वे / अणवट्ठियजोगेहि, चंदा सूरा गहगणा य / / 10 / / णक्खत्ततारगाणं, अवट्ठिता मंडला मुणेयव्वा। ते वि य पदाहिंणाव-त्तमेव मेरुं अणुयरंति / / 11 / / रयणियरदिणयराणं, उड्डे य अहे य संकमो नत्थि। मंडलसंकमणं पुण, अभिंतरबाहिरं तिरिए / / 12 / / रयणियरदिणयराणं, णक्खत्ताणं महग्गहाणं च / चारविसेसेण भवे, सुहदुक्खविही मणुस्साणं |13|| तेसिं पविसंताणं, तावक्खेत्तं तु ववृते णियमा। तेणेव कमेण पुणो, परिहायति निक्खमंताणं / / 14 / /
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________________ मणुस्सखेत्त 66 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मणोदुहिया तेसिं कलंबुयापुप्फसंठिता होति तावक्खेत्तपहा। सानुक्रोशतयासदयतया मत्सरिकतापरगुणासहिष्णुता तत्प्रतिषेधोऽमअंतो य संकुया बा-हि वित्थडा चंदसूराणं / / 15 / / त्सरिकता तयेति / स्था०४ ठा०४ उ०। केणं वड्डति चंदो, परिहाणी केण होति चंदस्स। मणुस्सलोय पुं० (मनुष्यलोक) मनुष्य क्षेत्रे यावदयं मानुषोत्तरः कालो या जोण्हा वा, केणऽणुभावेण चंदस्स? ||16|| पर्वतस्तावदरिंमल्लोक इति / अयं मनुष्यलोक इति / जी०३ प्रति०४ किण्हं राहुविमाणं, णिचं चंदेण होइ अविरहियं / अधि० / सू०प्र०। चउरंगुलमप्पत्तं, हेहाचंदस्स तं चरति॥१७।। तिहिं ठाणेहिं देविंदा माणुसं लोग हटवमागच्छंति / तं जहावावर्हि वावडिं, दिवसे दिवसे तु सक्कपक्खस्स। अरिहंतेहिं जायमाणेहिं, अरिहंतेहिं पव्वयमाणेहिं, अरिहंताणं जं परिवड्डइ चंदो, खवेति तं चेव कालेण ||18|| णाणुप्पायमहिमासु / एवं सामाणिया तायत्तीसगा लोगपाला देवा पण्णरसइभागेण य, पुणो वितं चेवऽतिक्कमति / / 16 / / अग्गमहिसीओ देवीओ परिसोववनगा देवा अणीयाहिवई देवा एवं वडति चंदो, परिहाणी एव होति चंदस्स। आयरक्खा देवा माणुसं लोगं हवमागच्छति। (सूत्र-१३४)। कालो वा जोण्हा वा, तेणऽणुभावेण चंदस्स // 20|| स्था०३ ठा०१ उ०। चउहिं ठाणेहिं देविंदा माणुसं लोगं हव्वअंतो मणुस्सखेते, हवंति चारोवगा य उववण्णा। मागच्छंति एवं जहा तिठाणे० जाव लोगंतिता देवा माणुसं लोगं पंचविहा जोतिसिया, चंदा सूरा गहगणा य॥२१।। हव्वमागच्छेजा। तं जहा-अरहंतेहिं जायमाणेहिं० जाव अरिहंतेण परं जे सेसा, चंदाइचगहतारणक्खत्ता। ताणं परिणिव्वणमहिमासु। (सूत्र-३२४) स्था०४ ठा०३ उ०। णत्थि गती णवि चारो, अवट्टिता ते मुणेयव्वा / / 22 / / मणुस्सवग्गुरा स्त्री० (मनुष्यवागुरा) मृगवन्धने, विपा०१ श्रु०२ अ०। दो चंदा इह दीवे, चत्तारिय सायरे लवणतोये / मणुस्ससेणिपापरिकम्म न० (मनुष्यश्रेणिकापरिकर्मन्) दृष्टिवादस्य घायइसंडे दीदे, बारस चंदा य सूरा य / / 23 / / परिकर्मसूत्रभेदे, स०१२ अङ्ग। दो दो जंबुद्दीवे, ससिसूरा दुगुणिया भवे लवणे। मणुरिंसद पु० (मनुष्यन्द्र) मनुष्येषु परमेश्वरत्वात्ाजनि, औ० / रा०। लावणिगा य तिगुणिगा, ससिसूरा धायईसंडे॥२४॥ ''सणंकुमारो मणुरिंसदो, चकवट्टी महिड्डिओ। पुत्तं रज्जे ठवेऊण, सो वि धायइसंडप्पभिई, उद्दिट्ठतिगुणिता भवे चंदा। राया तब चरे।।१।।" उत्त०१८ अ० स्था०। आइल्लचंदसहिता, अणंतराणंतरे खेत्ते / / 25 / / मणुस्सी स्त्री० (मनुषी) मनुष्यस्त्रियाम्, जी०३ प्रति०४ अधि० / स्था० रिक्खग्गहतारग्गं, दीवसमुद्दे जहिच्छसे णाउं। (उत्तरकुरुमनुजीनां वर्णकः उत्तरकुरा' शब्दे द्वितीयभागे 758 पृष्ठे गतः) तस्स ससीहिं गुणितं, रिक्खग्गहतारगाणं तु / / 26 / / मणू स्त्री० (मनू) मनुपूर्वकाणां वैतादयविद्याधराणां विद्यायाम्, आ० चू० चंदातो सूरस्स य, सूरा चंदस्स अंतरं होति / 1 अ०। पण्णाससहस्साइं, तु जोयणाणं अणूणाई / / 27 / / मणूस पुं० (मनुष्य) "कगचज०" ||8 / 1 / 177 / / इति यलोपः। सूरस्स य सूरस्स य, ससिणो ससिणो य अंतरं होति। "लुप्त-य-र-व-श-ष-सां,श-ष-सां-दीर्घः"||८1१।४३| इति माणुसनगस्स बहिया, उ जोयणाणं सयसहस्सं // 28 // यलोपे उतो दीर्घः / प्रा०१ पाद। मनुजे, उत्त०१० अ०। सूरंतरिया चंदा, चंदंतरिया य दिणयरा दित्ता। मणूसजक्ख पुं० (मनुष्ययक्ष) यक्षमेदे, प्रज्ञा०१ पद। चित्तंतरलेसागा, सुहलेसा मंदलेसा य॥२६।। मणे अव्य० (मणे)"मणे विमर्श" ||8 / 2 / 207 / / मणे' इति विमर्श अट्ठासीइं च गहा, अट्ठावीसं च हों ति णक्खत्ता। प्रयोक्तव्यम् / मणे शूरः / प्रा०२ पाद। एगसीपरिवारो, एत्तो ताराण वोच्छामि।।३०।। मणोगय त्रि० (मनोगत) मनस्येव यो गतो, न बहिर्वचनेन, अप्रकाशनात् / छावट्ठिसहस्साई, णव चेव सयाइं पंचसयराइं। भ०२ श०१ उ० / कल्प० / रा० / मनसि चेतसि गतं स्थितं मनोगतम् / एगससरीपरिवारो, तारागणकोडिकोडीणं / / 31 / / उत्त०१ अ० / मनसि स्थिते, उत्त०१ अ० / अबहिःप्रकाशिते, भ०६ माणुसनगस्स बहिया, तु चंदसूराणऽवहिता जोगा। श०३३ उ० / मनोविकारे, नि०१ श्रु०३ वर्ग 4 अ० / विपा० / ज्ञा० / चंदा अभिईजुत्ता, सूरा पुण हों ति पूसेहिं // 32 // "मणोगए संकप्पे समुप्पञ्जित्था।" विपा०१ श्रु०१ अ०।मनोगतो मनसि (सूत्र-१७७) जी०३ प्रति०। व्यवस्थितो नाद्यापि वचसा प्रकाशितस्वरूप इत्यर्थः। आ०म०१ अ०। (आसा व्याख्या 'जोइसिय' शब्दे 1562 पृष्ठे गता) विपा०। मणुस्सता स्त्री० (मनुष्यता) मनुष्यभावे, स्था०। मणोज त्रि० (मनोज्ञ)"ज्ञोः " चाश८३॥ इति ज्ञःसम्बन्धिणनो चउहिं ठाणेहिं जीवा मणुस्सताए कम्मं पगरे ति / तं जहा- ___ जरय लुग्वा भवति / मणोजम् / मणोण्णं / प्रा०२ पाद / मनोऽनुकूल पइगभद्दयाए, पगतिविणीययाए, साणुक्कोसयाए, अमच्छरियाए। सुन्दरे, प्रज्ञा०१ पद। (सूत्र-३७३) मणोऽणुकूल न० (मनोनुकूल) मनसोऽभिलषिते, बृ०३ उ०। प्रकृत्या स्वभावेन भद्रकता परानुपतापिता या सा प्रकृतिभद्रकता तया | मणोदुहिया स्त्री० (मनो दुःखिता) मनसो मनसा वा दु:
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________________ मणोदुहिया 100 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मण्डली खिता दुःखितात्वं दुःखकारित्वं मनोदुःखिता। मानसदुखे, स्था०७ ठा० / कस्य"||८४२८५"ही ही संपन्ना मे, मणोलधापियवयस्सस्स।" मणोबंधणन० (मनोबन्धन) मनस आसक्तिहेतौ, "मणोबन्धणेहिणेगेहि।" प्रा०४ पाद। मनोबन्धनानि मञ्जुलाऽऽलापस्निग्धावलोकनाङ्गप्रकटनाऽऽदीनि। | मणोसिलय पुं० (मनःशिलक) उदकसीमावासिनि वेलन्धरनागराजे, यथा-''णाह ! पिय ! कत ! सामिय! दइय ! जियाओ तुम मह पिओ ति। | जी०३ प्रति०४ अधि०। स्था०। जीए जीयामि अहं, पहवसितंमेसरीरस्स॥१॥" सूत्र०१ श्रु०४ अ०१ उ०। मणोसिला स्त्री० (मनःशिला) पृथ्वीविकारभेदे, उत्त०३६ अ०। प्रज्ञा० / मणोऽभिराम त्रि० (मनोऽभिराम) मनोऽभिविधिना बहुकालं यावद्रमयति / आचा० सूत्र० / मनःशिलस्य वेलन्धरनागराजस्याऽवासपर्वते उदकमनोऽभिरामम् / मनसश्चिररुचिरे, औ०। सीमनामके स्थिताया राजधान्याम्, जी०३ प्रति०४ अधि०। मणोमाणसिय त्रि० (मनोमानसिक) मनोमानसिकमिति मनस्येव न | मणोसिलासमुग्ग पुं० (मनःशिलासमुद्क) मनःशिलाऽऽधारविशेषे, बहिर्वचनाऽऽदिभिरप्रकाशितत्वाद् यन्मानसिकं दुःखम् / भ०१५ श० / जी०३ प्रति०४ अधि०। मनस्येव वर्तमाने वचसाऽप्रकटिते दुःखे, नि०१ श्रु०१ वर्ग 1 अ०। मणोसुहया स्त्री० (मनःशुभता) मनसः शुभता मनःशुभता, साऽपि ज्ञा०रा० साताऽनुभावकारणत्वात्सातानुभाव उच्यते इति। सातवेदनीयकर्मणोऽमणोरम त्रि० (मनोरम) मनोऽन्तःकरणं रमयतीति मनोरमः / सूत्र०१ नुभावे, स्था०७ ठा०। श्रु०६ अ० / मनो रमयनिदर्शनानन्तरमनुचिन्त्यमानमालादयति | मणोसुहिया स्त्री० (मनःसुखिता) मनसि सुखं यस्याऽसौ मनःसुखस्तस्य मनोरमम् / उत्त०१६ अ० / मनोज्ञे, उत्त० अ० / स्था० / मनांसि ___ भावो मनःसुखिता। सुखितमनसि, प्रज्ञा०२३ पद।। देवानामप्यतिसुरूपतया रमयतीति मनोरमः / मेरुपर्वत, सू०प्र०५ | मणोहर पुं० (मनोहर) मनश्चित्त हरति दृष्टमात्रमाक्षिपति मनोहरम्। पाहु०। चं०प्र० / ज० / स० / मनश्चित्तं रमते धृतिमवाप्नोति / उत्त०१६ अ० ज०नि० चू० जी०स्था०। मनो हरतीति मनोहरम् / यस्मिँ स्तन्मनोरम् / मनोरमाऽभिधाने मिथिलाचैत्ये, 'मिहिलाए चेइए "लिहाऽऽदिभ्यः" // 5 // 1 / 50 / / इत्यच्प्रत्ययः। नं०। आ०म०। रा० / वच्छे, सीयच्छाए मणोरमे।" इति मूलम्। उत्त० अ०। पुरिमतालाभि- उत्त० / मनोनिर्वृतिकरे, चित्ताऽऽहादके, कल्प०३ अधि०१ क्षण। धनगरे स्वाभिधानके आरामे, उत्त०१३ अ० / महोरगभेदे, प्रज्ञा०१ प्रज्ञा० / आम०। लोकोत्तररीत्या तृतीयदिवसे, चं०प्र०१० पाहु०१४ पद / किन्नरभेदे, प्रज्ञा०१ पदारुचकनामकद्वीपदेवे, सू० प्र०१६ पाहु० / पाहु० पाहु० / कल्प० / जं०] द्वी०। तृतीयग्रेवेयकविमाने, न०। प्रव०१६४ द्वार। अष्टमदेवलोकेन्द्रस्य मणोहरी स्त्री० (मनोहरी) अपरविदेहे सलिलावतीविजये वीतशोकापारियानिके विमाने, ज०५ वक्ष०ा औ०। पक्षस्य द्वितीयदिवसे, कल्प०१ नगरीराजजितशत्रो र्यायां तत्रत्यबलदेवमातरि, आ० चू०१ अ० / अधि०६ क्षण / स्था०।० प्र०। दक्षिणपूर्वस्य रतिकरपर्वतस्योत्तरस्यां "एएसिं चउवीसाए तित्थकराणं चउव्वीसं सीयाओ होत्था।" ताखेका दिशि शक्राऽग्रमहिष्या अञ्जकाया राजधान्याम, जी०३ प्रति०४ मनोहरी / स०। अधि० / स्था० / ऋषभदेवस्य निष्कमणशिविकायाम्, स०। "तेसिं मणोहुआस पुं० (मनोहुताश) मन एव दुःखकारणत्वाद् हुताशा मनोहुदेवाणं अदूरसामंतेट्टिचा ताई उरालाइं० जाव मणोरमाई उत्तरवेउव्वियाई ताशः / चित्ताग्नौ, आव०४ अ०। रूवाई उंवदंसेमाणे उवदंसेमाणे उचिट्ठति / " मनः स्वस्वोपभोग्य- मण्णंत त्रि० (मन्यमान) जानति, तं०। देवसम्बन्धि रमयन्ति प्रतिक्षणमुत्तरोत्तरानुरागसंपृक्तं जनयन्तीति मण्ठ (देशी) शठे, बन्ध इति केचित् / दे० ना०६ वर्ग 111 गाथा। मनोरमाणि। प्रज्ञा०३४ पद। मण्डल (देशी) शुनि, दे० ना०६ वर्ग 114 गाथा। मणोरह पुं० (मणोरथ) कथमिदं प्राप्येतेत्येवं मनोऽभिलाषे, संथा० / मण्डली स्त्री० (मण्डली) अनेकविधमण्डन्याम्, सेन०। औ० / नालन्दासमीपे स्वनामख्याते उद्याने, यत्र नालन्दीयमध्ययन "सुत्ते अत्थे भोअणे, काले आवस्सए असज्झाए। भगवता प्रज्ञप्तम्। सूत्र०२ श्रु०७ अ०। आ०म०। 'अडवी' शब्दे प्रथमभागे संथारए वि अतहा, सत्तेयाहुति मंडलिओ ||1||" 257 पृष्ठे उदाहृते गर्तासमीपब्राह्मणे, आ०चू०१ अ०। आचा०। एतादाथोक्तसप्तमण्डलीसत्यापनस्थानकानि कानि ? भवन्तीति 'मणोरहसंपत्तिजाया।' कल्प०१ अधि०५ क्षण। प्रश्ने, उत्तरम् प्रातः स्वाध्यायकरण सूत्रमण्डली 1, व्याख्यानमर्थपौरुषी मणोछइ त्रि० (मनोरुचि) मनसो रुचिनैर्मल्यं यस्य स मनोरुचिः / वाऽर्थमण्डली 2, भोजनमण्डली प्रतीता 3, कालप्रवेदनं कालमण्डली निर्मलचित्ते, "मणोरुई चिट्ठइ कम्मसंयमा।' मनसोरुचिर्नर्मल्य यस्य 4. उभयकालप्रतिक्रमणमावश्यकमण्डली 5 स्वाध्यायप्रस्थापन स मनोरुचिः निर्मलचित्तः / अथवा-मनसो गुरोश्चित्तस्य रुचिर्यस्य स स्वाध्यायमण्डली 6, संस्तारकविधिभणनं संस्तारकमण्डली ज्ञायते मनोरुचिः / उत्त०५ अ01 7 / किं च -तृतीयप्रहरप्रतिलेखनादेशमार्गणमण्डली प्रश्नोत्तरसमुच्चय-- मणोलथ पुं० (मनोरथ) मन:कामनायाम्, ही ही विदूष- | वचनादावश्यकमण्डल्यन्तभूतेति बोध्यम्। 86 प्र०ा सन०३ उल्ला०।
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________________ मण्डी 101 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मत्तग मण्डी (देशी) पिधानिकायाम्, दे० ना०६ वर्ग 111 गाथा। मण्णमाण त्रि० (मन्यमान) जानति, अध्यवस्यति, सूत्र०१ श्रु०१ अ०३ उ01 आया। मण्णा स्त्री० (मति) मनने, स्था० / सूत्र० / एगा मन्ना। प्राकृतत्वाद मननं मतिः, कथञ्चिदर्थपरिच्छित्तवपि सूक्ष्मधर्माऽऽलोचनरूपा बुद्धिरिति यावत् / आलोचनमिति केचित् / अथवा- 'मन्ना मन्नियव्यं / अभ्युपगम इत्यर्थः / सूत्रद्वये सामान्यत एकत्वम् / स्था०१ ठा०। सूक०। मण्णिय त्रि० (मानित) वितर्के, नि०१ श्रु०३ वर्ग 4 अ०। "किं मण्णे कजइ ? " मन्ये निपातो वितकार्थः / क्रियते भवतीत्यर्थः / स्था०४ ठा०३ उ०। ज्ञा० / कल्प०। मण्हा स्त्री० (मृत्स्ना) मृत्तिकायाम्, अष्ट०७ अष्ट०। मतन पुं० (मदन)"तदोस्तः " ||84|307 / / पैशाच्यांतकारदकारयोस्तो भवति / मतन इति / प्रा०४ पाद। "चूलिकापैशाचिके तृतीयतुर्ययोराद्यद्वितीयौ" ||84 / 325 / / इति दस्य सः। मदनः। मतनः / कामदेवे, प्रा०४ पाद। मतिगं पुं० (मतिनत्) मनुतेऽवगच्छति जगत्त्रयं कालत्रयोपेतं यथा सा. केणऽऽस्या मातेः, साऽस्यास्तीति मतिमान् केवलिनि, सूत्र०१ श्रु०६ अ०। मतुय (देशी) मत्वर्थीय उक्तं च--"मतुयत्थम्मि मुणेजह, आलइल्लं मणं चमतुय च।' आव०४ अ०। मत्त त्रि० मत्त) सुराऽऽदिमदवति, उपा०८ अ०। आचा० / मदकलिते. जी०३ प्रति०१ अधि०१ उ०। पीतमदिराऽऽदौ, पिं०। मदिरामद्भाविते, बृ०१ 303 प्रक० / ज्ञा० / दृप्ते, उत्त०५ अ०। औ०। अमत्र न० भाजनविशेषे, भ०८ श०६ उ०। मात्र न० कांस्यभाजनांऽऽधुपकरणमात्राया आधारविशेषे, अनु० / भाजने, आचा०२ श्रु०१ चू०१ अ०७ उ० / सूत्र० / भाजनोपकरणे, स्था०३ ठा०१ उ० / कास्यभाजने भ०५ श०७ उ० / मदने, स्था०१० ठा० / "भत्तमेहमिव गुलगुलित।" उपा०२ अ०। मत्तंगय पुं० (मत्ताङ्गक) मंत्त-मदस्तस्य कारणत्वान्मद्यमिह मत्तशब्देनोच्यते तस्याभूताः-कारणभूताः तदेव अवयवो येषां ते मत्तग काः। सुखपेयमादायिषु कल्पवृक्षेषु, स्था०७ ठा०। ज०। रा० / स०।। मत्ताङ्गद पुं० मत्त मदस्तस्या-कारणं मदिरा, मद्ददातीति मत्तागदः / प्रव०१७१ द्वार / स्था०। "मत्तंगएसु मज्ज / ' तं० / तत्र मत्ताङ्गदानां फलानि विशिष्टानि विशिष्टबलवीर्यकान्तिहेतुवित्रसापरिणतरससुगन्धिविविधपरिपाकाऽऽगतहृद्यमद्यपरिपूर्णानि स्फुटित्वा स्फुटित्वा महां मुञ्चन्तीति ते च वृक्षा विमलवाहनकुलकरकाले व्युच्छिन्नाः / आ० म०१ अ०। मसंड पुं० (मार्तण्ड) सूर्य, प्रति० दे० ना०। मत्तग पुं० (मत्तक) भागिनेये, बृ०४ उ० / 'मत्तं वा / आचा०२ श्रु०१ चू०१ अ०६ उ०। मात्रक न० उच्चाराऽऽदिसत्के क्षुल्लभाजने, व्य०८ उ०। पं०व०। परःप्रेरयति-ननुतीर्थकरैस्तावन्मात्रकं नानुज्ञात, कथमिति? चेत्, उच्यतेदव्वे गएं पायं, भणि तरुणो य एगपातो उ। अप्पोवही पसत्थो, चोएइन मत्तओ तम्हा / / 375 / / उपकरणद्रव्यावमौदरिकायामेकं पात्रमुक्तम्। तथा चाऽऽगमः-“एगे वत्थे एगे पाए वियत्तोवगरणे साइजइ।" तथा यो भिक्षुस्तरुणो युगवान् स एकपात्रो भवेत्। तथा चाऽऽचारसूत्रम्-"जे भिक्खूतरुणे जुगवं बलवं से एग पायं धारेजा।'' अल्पोपधिश्च प्रशस्तः। तथा च दशवकालिकसूत्रम्'अप्पोवही कलहविवजणा, य विहारचरिया हसिणं पसत्था।" यत एवमतो न मात्रकं गृहीतव्यं, गाथायां पुंस्त्वं प्राकृत्वादिति परः प्रेरयति। अथ सूरिराहजिणकप्पे यं सुत्तं, सपडिग्गहकस्स तस्स तं एगे। नियमा थेराणा पुणो, वितिजओ मत्तओ होइ॥३७६।। हे नोदक! यदेकपात्राऽऽदिप्रतिपादक सूत्र तजिनकल्पविषयं मन्तव्यम् / तथाहि-यः सप्रतिग्रहो जिनकल्पिकः तस्य तत्प्रतिग्रहलक्षणमेकं पात्रं भवति, स्थविराणां पुनर्नियमात् द्वितीयं मात्रकं भवति ''एक पायं जिणकप्पियाण थराण मत्तओ बीओ।" इति वचनात्। नणु दय्वोमोयरिया, तरुणाइविसेसओ दुमत्तो वि। अप्पोवही दुपत्तो, जेणं तिप्पभिति बहुसरो / / 377 / / यच्च द्रव्यावमौदरिकायामेकं पात्रमुक्तं तत्र द्वयोः पात्रयोरिण, ननु द्रव्यावमौदरिका किं न भवति ? त्रिप्रभृतीनामग्रहणात् भवत्येवेति भावः / यचाभिहितम- "जे भिक्खू तरुणे' इत्यादि। तत्र यदि सर्वेणापि साधुनैकमेव पात्रकं धारयितव्यम्, ततः किं तरुणाऽदिभिर्विशेषगरभिहितैः? अतो ज्ञायते तरुणाऽऽदिविशेषतोऽभिधानाद मात्रकमपि सामर्थ्यादनुज्ञातम् / यदपि 'अप्पोवहीं'' इत्यादि अभिहितं, तत्र च द्विपात्रः पात्रद्वयोपेतः अल्पोपधिरेव भवति, यतस्त्रिप्रभृतिष्वेव पदार्थेषु बहुशब्दो वर्तते, अतो ग्रहीतव्य मात्रकम्। अथ न गृह्णाति तत इमे दोषाःअग्गहणे वारत्तग, पमाणहीणो वि सोहि अववाए। परिभोगग्गहणविति-यपयलक्खणाई मुहं जाव / / 378 / / मात्रकस्याग्रहाणे दोषा वक्तव्याः, वारत्तगदृष्टान्तश्चात्र भवति, प्रमाणहीनाधिकप्रमाणे च दोषाः, शोधिर्मात्रकपरिभोगे प्रायश्चित्तम, अपवादो हीनाधिकधारणलक्षणः, परिभोगः कारणं मात्रकस्य यथाऽभिधीयते / ग्रहणद्वितीयपदलक्षणाऽऽदीनि मुखं यावत् यानि प्रतिग्रहदाराण्यमिहितानि तदेतत्सर्व वक्तव्यमिति द्वारगाथासङ्ग्रे पार्थः / __ अथैनामेव विवरीषुराहमेत्तें अगेण्हणे गुरुगा, मिच्छत्ते अप्पपरपरिचाओ।
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________________ मत्तग 102 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मत्तग संसत्तग्गहणम्मी, संजमदोसा सवित्थारा ||376 / / मात्रकं यदि न गृह्णति ततश्चतुर्गुरुकाः, ये अभिनवश्राद्धास्ते तेनैव प्रतिग्रहेण भोजनं पुनर्निर्लेपनं च कुर्वाणं दृष्ट्वा दुर्दृष्टधर्माणोऽमीति मिथ्यात्वं गच्छेयुः। यदि प्रतिग्रह आचार्थाऽऽदीनामर्थाय गृह्णाति, ततश्चाऽऽत्मपरित्यागः, अथाऽऽत्मनो गृह्णाति ततः परेषामाचार्याऽऽदीनां परित्यागः कृतो भवति / संसक्तं भक्त पानं वा प्रत्युपेक्षितं यदि प्रतिग्रहे गृह्णाति। ततः रंग्यमदोषाः सविस्तराः 'छक्काय चउसुलहुगा'" इत्यादि विस्तरसहिता वक्तायाः। अथवारत्तगदृष्टान्तमाहवारत्तग पध्वजा, पुत्तो तप्पडिम देव बलि साहू। परियरणेगपडिग्गह, आतमणुव्वलणा छेओ॥३८०|| करवा नगर, तत्थ अभयसेणो राया, तस्स अमच्चोवारत्तगो नाम, सो गदखा, घरसार पुत्तस्स दाउ निसिरिय पव्वइओ, तस्स पुत्तेण पिउमनीए देवकुलं कारित्ता रयहरणमुहपोत्तियपडिमा ठविया, तत्थ य सत्ताग.रोपवत्तिओ, तत्थ य एगो साहू एगपडिग्महधारी पडिग्गहए भिक्ख घेत्तु त भोत्तुं तत्थेव पडिग्गहे पुणो पाणगं घेत्तुं सन्नं वोसरिउ तेणेव अजिपरिओ दिट्ठो, तेहिं निच्छूढो, तस्स अत्रेसिंच साहूणं वोच्छेओ तत्थ जाओ।" अथ गाथाऽक्षरार्थः-वारत्रकेण प्रव्रज्यायां गृहीतायां पुत्रस्तस्य वारबकमत्य प्रतिमा देवकुलेऽचीकरत्। तत्र च बली प्रवर्तिता, साधुश्चैकन प्रतिग्रहेण भिक्षार्थमायात्, प्रतिचरणं च कुर्वाणस्तेनैव प्रतिग्रहेणाचमनं निलेपनं कुर्वाणं दृष्ट्वा तस्योद्वालनानिष्का शना कृता, तस्यान्येषां च साधूना व्यवच्छेदः कृतः। एवं मात्रकस्याऽग्रहणे उड्डाहो भवेत्। अथ प्रमाणद्वारमाहजो मागहओ पत्थो, सविसेसतरं तु मत्तगपमाणं / दोसु विदव्वग्गहणं, वासावासासु अहिगारो॥३८१॥ यो मागधदेशोद्भवः प्रस्थः "दो असईओ पसई, दो पसईओय सेइया होइ, चउसेइयाहिं पत्थो / " इति क्रमनिष्पन्नस्ततो मागधप्रस्थात् सविशषतरं मात्रकप्रमाणं भवति। तेन च मात्रेण द्वयोरपि ऋतुबद्धवर्षावासयोर्गुरुग्लानाऽऽदियोग्यभक्तपानद्रव्यस्य ग्रहणं क्रियते। पानकं गृह्यते। वर्षावासे तु विशेषतो मात्रकेणाधिकारः, यतो वर्षासु प्रथममेव यत्र धर्मलाभयति तत्र पानकं गृह्णाति / यतः कदाचित् वर्ष निपतेत्, येन गृहाद्गृहं चरितुं न शक्यते, ततः पानकेन विना प्रतिग्रहो लेपकृतो भवति। अथवा-वर्षावासे भक्त पान संसज्यत इति कृत्वा मात्रकण तस्य शोधन कार्यम्। प्रकारान्तरेण मात्रकप्रमाणमाहसुकुल्लओदणस्स, दुगाउअद्धाणमागओ साहू। भुंजति एगट्ठाणे, एवं खलु मत्तगपमाणं // 382| शुष्कोदनस्यान्यभाजनगृहीतेन तीमनेनार्द्रस्य भृतं यदेकस्थाने एकवारं द्विगव्यूतमात्रादध्वन आगतः साधुर्भुङ्क्ते. एतत् खलु मात्रकप्रमाण मन्तव्यम्। यदि वाभत्तस्स व पाणस्स व, एगतरागस्स जो भवे भरिओ। पञ्जत्तो साहस्स उ, वितियं पिय मत्तयपमाणं / / 383 / / भक्तस्य वा पानस्य वा अनयोरेकतरस्य यद् भूतं सदेकस्य साधोः पर्याप्त भवति, एतत् द्वितीयमपि मात्रकप्रमाणामवगन्तव्यम्। अथ हीनद्वारमाहडहरस्सेमे दोसा, ओभायणें खिंसणा गलंते य / छण्णं विराहणा भा-णभेदों जं वा गिलाणस्स / / 384|| डहरस्य-यथोक्तप्रमाणाल्लघुतरस्य मात्रकस्येमे दोषाः / तद्यथाअपभ्राजना तल्लघुतरं मात्रकमतीव भ्रियमाणं दृष्ट्वा लोको ब्यात्- अहो अमी बुभुक्षादुःखमग्राः प्रव्रजन्ति / अथवा-भक्तपानं परिगलद्विलोक्य अहो अमीच सन्तुष्टा एवं सिच्यमाना अपि नगणयन्तीति खिंसां कुर्यात्। अतिभृते च गलतिषट्कायानां विराधना, अथ परिलनभयात्तत्रैवोपयोग ददाति ततः स्थाप्याऽऽदौ प्रस्खलनस्य भाजनभेदो भवेत् / यद्वाग्लानस्योपलक्षणत्वाद् बालवृद्धाऽऽदीनां च तेन डहरमात्रकेणापर्याप्त भवति, तनिप्पन्नं प्राश्चित्तम्।। तथापडगं अपावते से, पुढवीतसपाणतरुगणादीणं / आणिज्जंते गाम-तराउ गलणे य छक्काया // 385 / / डहरमात्रके आकण्ठभृते लेपकृतीकारणतयाऽपावृते उद्घाटिते पृथिवीरजस्त्रसप्राणितरुगणाऽऽदीनां पतनं भवेत् / अथवा-ग्रामान्तरादतिप्रभूते तस्मिन्नानीयमनि परिगलति षट्काया विराध्यन्ते। अथाऽधिकद्वारमाहअहियस्स इमे दोसा, एगयरस्सोग्गहम्मि भरितम्मि। सहसा मत्तगभरणे, भारादिविगिचणियमादी॥३८६|| प्रमाणाधिकस्य मात्रकस्य इमे दोषाः-एकतरस्य भक्तस्य वा पानकस्य वा प्रतिग्रहे भृते सति पश्चान्मात्रके ग्रहणं कुर्यात सहसा वा तस्य मात्रस्य भरणे कृते भारेण स्थाणुकण्टकाऽऽदीनि न प्रेक्षते, तत्राऽऽत्मविराधना। ईर्याया अशोधने संयमविराधना। अन्यच्च-द्वयोरपि प्रतिग्रहमात्रकयोभृतयोर्विवेचन च परिष्ठापनं भवेत् / तत्र षट्कायविराधना। अथ न परिष्ठापयति, ततोऽतिप्रचुरेण भक्षितेन ग्लानन्वं भवेत्, यत एवमादयो दोषा अतः प्रमाणयुक्तं ग्रहीतव्यम्। अथ शोधिद्वारमाहजइ भोयणमावहती, दिवसेणं तत्तिया चउम्भासा। दिवसे दिवसे तस्स उ, वितिएणाऽऽरोवणा भणिया।॥३७॥ यति-यावतो वारान एकदिवसेन मात्रके भोजनं भक्तपानमात्मनो योग्यमावहति, आनयतीत्यर्थः / तावन्ति चतुर्लघूनि। अथ दिवसे मात्रक परिभुक्त, ततो द्वितीयप्रायश्चित्तेनाऽऽरोपणा भणिता। किमुक्तं भवति ? द्वितीये दिवसे मात्र यावतो वारान् परिभुङ्क्ते, तावन्ति चतुर्गुरुकाणि, एवं तृतीये षड्लघु, चतुर्थे षड्गुरु, छेदः, षष्ठ मूलं, सप्तमे अनवस्थाप्यम्, अष्टमे पाराश्चिकम् / गतं शोधिद्वारम्।
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________________ मत्तग 103 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मद्दवया अथाऽपवादद्वारमाह आव०४ अ० परिच्छेदे, स्था०३ ठा०१ उ०। नि०चू० / अल्पे, पाइ० अण्णाणे गारवे लुद्धे, असंपत्तीऍ जाणए। ना०१६४ गाथा। लहुगो लहुगा गुरुगा, चउत्थों सुद्धो उ जाणओ // 388|| मत्त्वा अव्य० ज्ञात्वेत्यर्थे, सूत्र०१ श्रु०२ अ०२ उ०।"एवं मत्ता अणुत्तर इयं यथा प्रतिग्रहे तथा मात्रकेऽपि वक्तव्या। धम्ममिणं / '' सूत्र०१ श्रु०२ अ०२ उ०। परिभोगद्वारमाह मत्तिया स्त्री० (मृत्तिका) पृथ्वीकाये, प्रज्ञा०१ पद / दश०। वाले वुड्ढे सेहे, आयरियगिलाणखमगपाहुणए। मत्तियावई स्त्री० ( मृत्तिकावती) दशार्णदेशराजधान्याम्. प्रज्ञा०१ पद। दुल्लभसंसत्तअसं-थरंतअद्धाणकप्पम्मि॥३८६।। मत्तुआ (देशी) लजायाम, दे० ना०६ वर्ग 116 गाथा। बालस्य वृद्धस्य शैक्षज्य आचार्यस्य ग्लानस्य क्षपकस्य प्राघूर्णकस्य च | मत्थगोवहाण न० (मस्तकोपधान) शीर्षोपवर्हणे, जी०१ प्रति०। पायोग्य मात्रके गृह्यते : यदा-बालवृद्धाऽऽदयः प्रतिग्रहं हिण्डापयितुं न मत्थय न० (मस्तक) शिरसि, नं0 1 आ०म०१अ० / शक्नुबन्ति, अतस्ते मात्रके भक्तमानयेषुः, भुञ्जीरन् वा, गच्छसाधरण मत्थयसूल न० (मस्तकशूल) मूर्द्धशूले, ज्ञा०१ श्रु०१३ अ०। वा दुर्लभद्रव्यं घृताऽऽदिक मात्रके, गृह्णीयात्। यत्र वा भक्तपानं संसज्यते मत्थुलिंग न० (मस्तुलिंग) मस्तकस्नेहे, तं० / "मत्थुलिङ्गेति।" तत्र मात्रके गृह्यते, तद्धि संसक्तं मात्रके शोधयित्वा प्रतिग्रहे प्रक्षिप्यते। ___मस्तकभेजकम्। अन्ये तवाहुः- मेदः पिप्फिसाऽऽदि मस्तुलिङ्गमिति / अवमराजद्वेषाऽऽदिषु चासंस्तरणे प्रतिग्रहे भृते अन्यस्मिन् लभ्यमाने तं०। प्रश्न० / भ० / स्था०। मात्रके: गृह्यते / अध्वनि कल्पोऽध्वकल्पः, कल्पग्रहणं कारणे विधिना मद पुं० (मद) माने, आव०४ अ० ! मनस उन्मादे, अष्ट०२६ अष्ट० / अध्वाप्रतिपन्न इति ख्यापनार्थ , तत्रासंस्तरणे प्रतिग्रहे भृते सति मात्रके- हर्षमात्रे, भ०१२ श०५ उ० / अवलेपे, नं०। मदोदयादात्मोत्कर्षपरिणाम, ऽपि गृह्यते / अथ ग्रहणद्वितीयपदद्वारद्रयेन ग्रहण नाम को मात्रकं गृह्णाति, आ००४ अ०स०। तत्र निर्वचन यथाप्रतिग्रहे द्वितीयपदं पुनरशिवाऽऽदिभिः कारणैर्यथा- मदणसलागा स्त्री० (मदनशलाका) सारिकायाम, जी०३ प्रति०४ कृतमात्रकस्य यत्र संभवस्तत्र गन्तुमशक्तः स्वस्थान एवाऽल्पपरि- अधि०। प्रज्ञा०। कर्मबहुपरिकर्मणी गृहीतव्ये, लक्षणाऽऽदीनि द्वाराणि प्रतिग्रहे इव मन्त- / मदणा स्त्री० (मदना) शक्रस्य देवेन्द्रस्य स्वनामख्यातायामग्रमहिप्याम्, व्यानि। स्था०१ ठा० / सोमागमहिष्याम्, भ०१० श०५ उ० / वलेवैरोचनेन्द्रअल्पपरिकर्मणि सपरिकर्मणि च पात्रे लेपप्रदानं संभवति, स्यागमहिष्यां च / स्था०५ ठा०१ उ०। भ०। अतस्तद्विषयं विधिमाह मदणिज्ज त्रि० (मदनीय) मदनोदयकारिणि, स्था०६ ठा०। हरिए बीए बले जुन्ने, वत्थे साणेजतहिए। मद्दण न० (मर्दन) परिमन्थने, विशे०1 औ०1 नि० चू० / स्वनामख्याते पुढवीसंपातिमासामा, महावाए महियामिते॥३६०) ग्राम, यत्र छदास्थविहारेण विहरन वीरजिनो यक्षदेवाऽऽयतने प्रतिमया पुटवण्हे लेवदाणं, लेवग्गहणं तु संवरं काउं। स्थितो गोशालकश्च कदर्थितः आ०म०१ अ०। आ०चू०। लेवस्स आणणा लिं-पणा य जतणा य कायब्वा / / 361 // मद्दल पुं० (मर्दल) मुरजे, रा० / गृदङ्ग , रा० ! आ०म०१ अ०। जी०। गाथाशमपि पीठिकायां संप्रपञ्च व्याख्यातमिति / बृ०३ उ०। औ०। मर्दल, स्था०७ ठा०। महाप्रमाणे मुरजे, आ०म०१ अ०। औ० / नं0 विशे० सूत्र० / व्य० नि० चू० आ० म० / कल्प०। आ० चू०। भत्तगय पुं० (मत्तगज) उन्मत्तमतङ्गजे, तं० / 'मत्तगयमहमुहागिइस- 1 मद्दव न० (मार्दव) मृदुरस्तब्धस्तस्य भावः कर्म वा मार्दवम् / नीचैर्वृत्तौ गाणा।'' मत्ता यो गजस्तस्य महदतिविशालं यन्मुखं तस्याऽऽकृतिरा- अनुत्सेके, प्रव०६६ द्वार / मानपरित्यागे, आव०४ अ० / स्था० / झारस्तत्समानास्तत्सदृशाः। जी०३ प्रति०४ अधिक। जात्यादिभावेऽपि मानत्यागे, दश०१० अ० / स्था० / जं० / पा० / मात्रगत त्रि० पात्रगते, भाजनस्थिते, पञ्चा०१३ विव० / मानपरिहारे, उत्त०२६ अ० / रा०। मानोदयनिरोधे, औ०। मानाभावे, मत्तजला स्त्री० (मत्तजला) जम्बूद्वीपं मन्दरस्य पूर्वे शीताया महानद्या / कल्प०१ अधि०६ क्षण। स्था०। आव०। प्रश्न। अनङ्गविजये, भ०१ दक्षिणकुले वरसावतीविजयेऽन्तर्नधाम, जं०४ वक्ष०। श०६ उ० / माननिग्रहे, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। औ० / मा० चू०। स०। दो मत्तजला / स्था०२ ठा०३ उ०। मानस्तब्धतापरित्यागे, आचा०१ श्रु०६ अ०५ उ०। स०। मत्तली (देशी) बलात्कारे, दे० ना०६ वर्ग 113 गाथा। मद्दवजुत्तया स्त्री० (मार्दवयुक्तता) मृदुस्पर्शत्वे, बृ०३ उ०। मत्ता स्त्री० (मात्रा) मर्यादायाम, उत्त०६ अ० अंश, विशे० / व्यवच्छेदे, | मद्दवया स्त्री० मार्दव न० ! भानपरिहारे, उत्त० 26 अ० /
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________________ महवया 104 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 ममत्त पाद। मार्दवफलं प्रश्नपूर्वकमाह-मार्दवं हि मानत्यागरूपं, तत्तु विनयस्य / __ वा भवन्ति / मन्तू। मन्नू। क्रोधे, प्रा०२ पाद। कारण, धर्मे हि विनयस्य प्राधान्यम् मन्थर (देशी) बहुकुसुम्भकुटिलेषु, दे० ना०६ वर्ग 145 गाथा। महवयाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ ? मद्दवयाए णं जीवे मन्धाअ आद्ये, देशी-देना०६ वर्ग 116 गाथा। अणुस्सियत्तं जणयइ, अणुस्सियत्तेणं जीवे मिउ मद्दवसंपन्ने अट्ठ | मन्नेल्ली (देशी) सारिकायाम्, दे० ना०६ वर्ग 116 गाथा। मयट्ठाणाइ निट्ठदेइ||४ मम धा० (मभ्र) गत्यर्थे, आचा०२ श्रु०१ चू०३ अ०१ उ०। हे स्वामिन् / मार्दवेन कोमलपरिणामेन जीवः किं जनयति? गुरुराह- | मन्भीसा मा (भैषीः-क्रियापदम्) मा भैषीरित्यस्य मम्भीसेति स्त्रीलिङ्गम्। हे शिष्य ! मार्दवन मानपरिहारेण जीवः अनुत्सृतत्वम् अनहारित्वम् | "सत्थावत्थह आलवणु, साहुवि लोउ करेइ। आदन्नह मन्भीसडी, जो अहद्वाराभावं जनयति, अनुत्सृतत्वेन-अहङ्काराऽभावेन जीवो मृदुः सज्जणु सो देइ / 1 // " प्रा०४ पाद। कोमलः सकलभव्यजनमनःसन्तोषहेतुत्वात्, द्रव्यतो भावतश्च मम पञ्चम्येकवचनम् (अस्मद) "मे मइ मम मह महं मज्झ मज्झं अम्ह सरलोऽवनगनशीलः मृदो वो मार्दवं, सृदुगुणमार्दवगुणाोरयं भेदः- अम्हं डसा" // 8 / 3 / 113 / / इति डसा सहितस्यास्मदो ममाऽऽदेशः / अवसरे अवनमन-मृदुगुणः, यत्सर्वदा कोमलत्वभवनं तत्मार्दवम्। यदा- प्रा०३ पाद। कार्यन मानत्यागो मृदुगुणः, मनसा मानपरिहारो मार्दवं, ताभ्यां सम्पन्नो / भमए तृतीयैकवचनम् (अस्मद) "मि मे मम ममए ममाइ मइमए मयाइणे भवति संयुक्तो भवति, तादृशः सन् अष्टौ मदस्थानानि निष्ठापयतिक्षपयति ___टा" / / 8 / 3 / 10 / / इति टासहितस्यास्मदः 'ममा' इत्यादशः। प्रा०३ ||4!! उन०२६ अ० मद्दवसंपण्ण त्रि० (मार्दवसम्पन्न) अन्तःकरणतोऽपि कोमलतायुक्ते, उत्त० / ममं द्वितीयैकवचनम् (अस्मद)"णे ण मि अम्हि अम्ह मम्ह मं मम मियं 26 101 अहं अमा" ||8 / 3 / 107 / / अस्मदः अभासहैते दश आदेशा भवन्ति / मद्दविव न० (मार्दव) मृदुभावे, सर्वत्र प्रश्रयवत्त्वे, विनम्रतायाम, सूत्र०२ भमं। माम्। प्रा०३ पाद। अहोरात्रस्य त्रिंशत् मुहूर्ताः तेषु पञ्चविंशतितमो श्रु०१ अ०। ममः / जं०७ वक्षः। मार्दविक पुं० मार्दवमस्तब्धता तद् विद्यते यस्य स मार्दविकः / बृ०१ | ममकार पुं० (ममकार) ममेत्यस्य करणं ममकारः / पक्षा०१० विव / उ०२ प्रक० / स्तब्धताविकले. बृ०४ उ०।अमानिनि, पं०भा०१ कल्प। वस्त्रपात्रोपाश्रयाऽऽदिषु ममताकरणे, ग०२ अधि० / स्वपदार्थभिन्नेषु पं० चू०। पुगलजीवाऽऽदिषु इदं ममेति परिणामे, अष्ट०४ अष्ट०। मार्दवित त्रि० संजात मार्दवमस्येति तारकादिदर्शनाऽऽदितचप्रत्ययः। ममत्त न० (ममत्व) ममैतदित्येवंरूपे भावे, नि० चू० मूछायाम, संथा० / मार्दवोपेते, व्य०१ उ०। आचा। मद्दविया स्त्री० (मादविता) सञ्जातमार्दवतायाम, व्य०५ उ०। "पुत्रा मे भ्रातामे, स्वजना मे गृहकलत्रवर्गो मे। महिअ त्रि०(मर्दित) निर्दलिते, पाइ० ना०२०१ गाथा०। इति कृतमेमेशब्द, पशुमिव मृत्युर्जनं हरति॥१॥ मद्दी स्त्री० (माद्री) वसुदेवस्यानुजायां भगिन्याम्, अन्त०१ श्रु०१ वर्ग०१ पुत्रकलत्रपरिग्रह-ममत्वदोर्षनरो व्रजति नाशम्। अ०। शिशुपालमातरि, सूत्र०१ श्रु०३ अ० उ०। कृमिक इव कोशकारः, परिग्रहाद् दुःखमाप्नोति॥२॥" मदुगपुं० (मद्गु) जलवायसे, भ०७ श०६ उ०। ग्राहभेदे, जी०१ प्रतिका आचा०१ श्रु०२ अ०१ उ०।"ममाहमिति चैष यावदभिमा नदाहज्वरः, मधु मद्ये (मधु) प्रश्न०५ संव० द्वार। प्रज्ञा० / कृतान्मुखमेव तावदिति न प्रशान्त्युन्नयः।" सूत्र०१ श्रु०१ अ०१ उ०। मधुपुर न० (मधुपुर) स्वनामख्याते पुरे, मथुरायां, चित्रकरपुत्री कथा आव०।"न सा महं नो वि अहं पितीसे, इच्चेव ताओ विणइज्ज रागं।'' कथयितुमारेभेमधुपुरे वरुणश्रेष्ठी एककरप्रमाण देवकुलमकारयत्। (नसा मह णो विअहं पितीसे त्ति) एत्थ उदाहरण - एगो वाणियदारगो, उत्त० अ०। सो जायं उज्झिता पव्वइओ, सो य उदाणुप्पेहीभूओ इमं च घोसतिमधुमई स्त्री० (मधुमती) पुरीभेदे, ती०१ कल्प। "ण सा मह णो वि अहं वि तीसे।" सो चिंतेइ-सावि ममं अहं तीसे सा मधुर त्रि० (मधुर) रसनासुखावहे, नि००१ उ०। श्रवणसुखकरे. स० ममाणुरत्ता। कहमहं तं छड्डुहामि त्ति काउं गहियायारभंडगणेवत्था चेय मधुरगतणफल न० (मधुरकतृणफल) मधुरतृणतणडुले, "चत्तारि संपडिओ। गओयतं गाम, जत्थसा, साइणिढावाणतडं संपत्तो, तत्थय मधुरगतणफलाणि।" ज्यो०२ पाहु०। सा पुव्वजाया पाणियस्स आगता, सा य साविया जाया, पव्वइउकामाय, मधुरोदग न० (मधुरोदक) मधुरपानके, नि० चू०१ उ० / ताए सोनाओ, इयरो, तंण याणति, तेण सा पुच्छियाअमुगधूया र्कि मता, मधूला स्त्री० (गधूला) पादगण्डे, बृ०३ उ०नि० चू०। जीवइ वा? सा चिंतेइ जइ सासघरातो उप्पव्वयामि, इतरहा न। ताए मन्तु पु०(मन्यु) "मन्यौन्तोवा" / / 8 / 2 / 44|| मन्युशब्दे संयुक्तस्यन्तो | णात, जहा-एस पव्वजं पयहिउकामो, तो दोषि संसार भनिस्सामि त्ति।
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________________ ममत्त 105 105 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मम्मण भणियं चतए-सा अन्नस्स दिना, तओसाचिंतिउमारद्धो, सच्चभगवतेहिं | ममायमाण त्रि० (ममायमान) ममीकरोति ममेदमित्येवं व्यवस्थापयति साहूहिं अहं पाढिओ, जहा-''ण सा महं णो वि अहं पि तीसे" ममायमानः। सूत्र०२ श्रु०६ अ०। ममेदमित्याचरिति, आचा०१ श्रु०२ परमसंवेगमावण्णो, भणियं च णेण-पडिणियत्तामि। तीए वेरगपडिओ अ०३ उ० / ममत्वेनाऽऽचरति। आचा०१ श्रु०८ अ०३ उ०। ममीकुर्वति त्ति णाऊण अणुसासिओअणिचं जीवियं, कामभोगा इत्तरिया। एवं तस्य स्वीकुर्वति, आचा०१ श्रु०६ अ०२ उ० / ममायमिति स्नेह कुर्वति, केवलिपन्नन धम्म परिकहेहि, अणुसट्टो जाणाविओ य, पडिगओ दश०२ चू०। आयरियसगासं, पव्वजाए थिरीभूओ, एवं अप्पा साहारेयध्वो जहा तेणं'' ममासन्तो (अस्मद) पञ्चमीबहुवचने, "ममाम्हौ भ्यं सि" इति सूत्रार्थः / दश०२ अ०। // 8 / 3 / 112|| इस्मदो भ्यसि एतावदेशौ स्तो, भ्यसस्तु यथाप्राप्तम्। ममत्तरहिय त्रि० (ममत्वरहित) निस्सङ्गे, पश्चा०२ विव०। "भावियजि- प्रा०३ पाद। णवयणाणं, ममत्तरहियाण नऽस्थि हु विसेसो। अप्पाणम्मि परम्म य. तो | ममाहिन्तो (अस्मद) 'ममासुन्तो' इत्यस्यार्थे, प्रा०३ पाद। पीडनुभओ वि।।१." इति। आव०६ अ०) ममेसुन्तो (अस्माद्) ममासुन्तो' इत्यस्यार्थे, प्रा०३ पाद। ममाइ अस्मद तृतीयेकवचनम्। "मि मे ममं ममए ममाइ मइ मए मम्म पुं०न० (मर्मन) नियन्तेऽनेन राजाऽऽदिविरुद्धेनोच्चारितेनेति मर्म / मयाइ णे टा" ||8 / 3 / 106 / / इत्यस्मदः टासहितस्य 'ममाई' उत्त०१ अ०।"स्नमदाम-शिरो-नभः" ||1|32| इति प्राकृते इत्यादेशः। प्रा०३ पाद। वा पुस्त्वम्। 'मम्मो / प्रा०१ पाद। मरणहेतौ," एगो गइंदो, सो एगेण ममायिन् त्रि० ममेदमहमस्य स्वामीत्येवमध्यवसायिनि, सूत्र०१ श्रु०२ | कंडेण आहदो निवरं मम्मप्पदेसे लग्गकंडप्पहारेण पडितो।" आ० अ०२उ० म०१ अ० / शलाणिकाऽऽदिके शरीरावयवे, तं०। सूत्र०१ श्रु०६ अ01 ममाइयमइ त्रि० (ममायितमति) ममायितं मामकम्, तत्र म तिर्ममायित- प्रश्न०। उत्त०। मतिः। परिग्रहाध्यवसायकलुषिते, "जे ममायितम तिं जहाति।" मम्मका (देशी) उत्कण्ठायाम्, दे० ना०६ वर्ग 143 गाथा। आचा०१ श्रु०२ अ०६ उ०। मम्मग न० (मर्मग-मर्मक) मर्म गच्छन्तीति मर्मगाः / मर्मस्पर्शि नि, सूत्र०१ ममाण (असभद)"णे णो मज्झ०" ||8/3 / 114|| इत्यादिसूत्रेणा- श्रु०६ अ०। "न लवेज पुट्ठो सावजं न तिरट्ट न मम्मयं / ' न आलपेत् 55मा सहितस्यास्मदो ममाणाऽऽदेशः / षष्ठीबहुवचने, प्रा०३ पाद। सावा, न च मर्मक मर्मरूपं साधुन ब्रूयात्, म्रियतेऽनेनेति मर्म,लोकराजममायं पु० (ममायम्-मामक ) ममायमिति ममकारं कुर्वति, नि०५०। विरुद्धाऽऽदिकम् अथवा-मर्मणि गच्छतीति मर्मगं, यस्मिन् कर्मणि जे भिक्खू वा मिक्खुणी वा ममायं वंदइ, वंदतं वा साइजइ प्रकटीभूते सेति मनुष्यस्य मरणमेव स्यात् तदपि वाक्यमात्मार्थ वा, // 55 / / जे भिक्खू वा भिक्खुणी वा ममायं पसंसइ, पसंसंतं वा अथवा-परार्थ वा, अथवा-उभयार्थम्, अथवा-अन्तरेण प्रयोजनं साइजइ॥५६॥ विनाऽपि च न वदेत् / उत्त०१ अ०। सुद्धे सूत्रे ममीकार करेंत ममाओ। मार्मक पुं० कुशीलभेदे सूत्र०१ श्रु० 4 / अ०१ उ०॥ गाहा मम्मड पुं० (मम्मट) काव्यप्रकाशकारे, प्रति०। आहार उवहि देहे, वीयार विहार वसहि कुल गामे। मम्मण त्रि० (मम्मट) अव्यक्ते, नि०१ श्रु०३ वर्ग 4 अ0 1 अव्यक्तवाचि, पडिसेहं व ममत्तं, जो कुणती मामओ सो उIBEll प्रश्न०२ आश्र० द्वार। मन्मनमिव मन्मनं चास्फुटे, प्रश्न०१ आश्र० उवकरणाऽऽदिसु जहासंभवं पडिसेहं करेंति-मा मम उवकरणं कोइ द्वार / आचा० / मन्यमनः पुनर्भाषमाणोऽन्तराऽन्तरा स्खलति, यदि गेण्हतु, एवं अण्णेसु वि वियारभूमिमादिएसुपडिसेहं समच्छपरगच्छयाणं वा-तस्य भाषमाणस्य बाक चिरेण निर्गच्छति / व्य०१० उ० / वा करेति, आहाराऽऽदिसु चेव सव्वेसु मम त्ति करेति भावपडिबंध, एवं अर्थोपार्जनप्रसिद्ध वणिजि, त०। मदन-रोषयोः दे० ना०६ वर्ग 141 करतो मामओ भवते, विविधदेसगुणेहिं पडिबद्धो मामओ इमो। गाथा। गाहा मम्मणकथा चेयम् - अह जारिसओ देसो, जे य गुणा एत्थ सस्सगोणादी। "पुरं राजगृहं नाम, श्रेणिकस्तत्र भूपतिः। सुंदरअभिजातजणो, ममाइ णिक्कारण वदंतो।।१०।। सुनन्दाचिल्लणे राइया-वभयोऽमात्यपुङ्गवः।।१।। अह ति य जारिस देसोरुक्खवाविसरतडागोवसोभितो एरिसो अण्णो मम्मणोऽभूद्वणिक् तत्र, तेन क्लेशेन भूयसा। एस्थि सुहविहारो, सुलभवसहिभत्तोवकरणादिया य बहुगुणा, सो प्रभूतमर्जितं द्रव्यं, किञ्चिन्न व्ययितं पुनः।।२।। भिक्खुमादिया य बहु सरसा णिप्फजंतिय, गोमहिसपउरत्तणतोय पउर- मेलं मेलं कोटिशस्त-निजसौधशिरोगृहे। गोरसं, सरीरेण वत्थादिएहिं सुदरो जणो अभिजायत्तणतो य कुलीणो, एकं निर्मापयामास, स्वर्णरत्नमयं वृषम्।।३।। ण साहुमुबद्दवकारी, एमादिएहि गुलेहिं भावपडिबद्धो णिक्कारणओ द्वितीयः किञ्चिदूनोऽस्ति, तत्कृते चिन्तयाऽतुरः। वादयति. प्रससतीत्यर्थः / नि०चू०१३ उ०। अत्रान्तरेऽभवद्वर्था, नयां पूरःसमागमत्॥४॥
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________________ मम्मण 106 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मयगल सकौपीनाशुक: काठा-धिरूढः काष्ठसञ्चयम्। तत्पूर्तये नदीपूरा-द्वपत्यप्याचकर्ष सः / / 5 / / तदा राजा सराज्ञीको, वातायनगतोऽभवत्। राज्ञी दृष्ट्वा तथास्थं त, सामर्षा नृपमभ्यघात् / / 6 / / रात्यं श्रूयत एवं, सरिदब्धिनिदर्शनेन राजानः। भरितानि भरन्ति दृढ, रिक्तं दृष्ट्याऽपि नेक्षन्ते॥७।। राज्ञोक्तं किमिदं वक्षि, तोक्तं देव ! वीक्ष्यताम्। रङ्कः क्लिश्यन्नयं नद्या-मुद्धमिवबुध्यते।।८।। स राज्ञालायितः प्रातः पृष्टः तेशस्य कारणम्। तेनोक्तं देव ! मेऽद्याऽपि, वृषयुग्मं न पूर्यते / / 6 / / ऊचे राज्ञा गृहाणं त्वं, भद्र ! भद्रशतं मम। स दवाच नतः कार्य , पूरयाग्रिममेव मे / / 10 / / कीदृशस्तेऽस्ति भूपं रा, गृहे नीत्वा तमैक्षयत्। राजाऽवदन्न मे भद्र ! कोशेनाप्येष पूर्यते।।११।। सोऽवग्नापूर्ययं याव- तावदेव ! न मे सुखम्। तदर्थ भिक्षुभाण्डानि, प्रेष्यन्त प्रकृता कृषिः / / 12 / / प्रारभ्यते वृषाश्वेभ-क्षस्यादेः षोषणं मया। राज्ञाऽभण्यत तझैवं, क्लिश्यसेऽल्पकृते कथम् ? ||13|| सोऽवक क्लेसह मेऽङ्ग व्यापारोऽन्योस्ति नाधुना। वर्षा स्वेधोमहार्घत्वं, तदर्थेऽहं करोम्यदः / / 14 / / नृपोऽवादीन्महाभाग ! पूर्यतां ते मनोरथः। त्वमेवास्य समर्थोऽसि, पूरणार्थमहं न तु / / 15 / / कृतमाङ्गलिकः तेन्न्. स्वसौधेऽयागमन्नृपः। कालेनाऽऽपूरि तेनासा-वर्धसिद्धोऽयमीदृशः।।१६।। आ०क०१ अ०। मम्मणमूग पुं० (मन्मनमूक) यस्यानुवदतः खच्यमानमिव वचन, स्खलति स मन्मनमूकः मूकभेद, ध०३ अधि० / ग०। आव०। मम्मह पुं० (मम्मथ) कामदेव, पाइ० ना०७ गाथा। मम्माण पुं० (मम्माण) स्वनामख्याते शेले, यत्स्वम्युत्थरर नेर्वोर्जाड: शत्रुजये संवत 108 वर्षे प्रतिमामकारयत्। तौ०१ कल्प०। मम्मी (देशी) स्त्री० मातुलान्याम्, दे० ना०६ वर्ग 112 गाथा। मम्ह (अस्मद) "णे णं मि अम्मि अम्ह मम्ह मं ममं मिमं अहं अमा" // 83107 // इत्यस्मदोऽमा सह मम्हाऽऽदेशः। तृतीयैकवचने, प्रा०३ पाद। मयं न० (मत) समान एवाऽऽनमें आचार्याणामभिप्राये, भ०१ श०३ उ०। निजेऽभिप्राये, विश०। सूत्रका अभिप्रेते, सूत्र०१२०१५ अ०। अनुमते, त्रि०ा औ०। इष्ठे दश०४ अ० अभिप्राये,"(८०१) समओ मयं" पाइ० ना०२४२ गाथा। मदपुं० अहङ्कारे, दर्श०४ तत्त्व / कुलवस्त्रैश्वर्यविद्या-रूपाऽऽभिरहङ्कारकरणे, परराधर्षनिबन्धने वा / 01 अधि० / सुरापानाऽऽदिजनितविक्रियायाम, विशे० / गर्ने, दर्श०१ तत्व। आ०म० / प्रव० स०। आतु०। मदवर्जनार्थमाहन बाहिरे परिभवे, अत्ताणं न समुक्कसे। सुअलाभे ण मजिज्जा, जचा तवस्सिबुद्धिए।॥३०॥ न बाहामात्मनोऽन्य परिभवेत, तथा आत्मानं, न समुत्कर्षथेत, सामान्येनेत्थमूतोऽहमिति, श्रुतलाभाभ्यां न मायेत, पण्डितो लब्धिमान् अहमित्येवं तथा जात्या तावस्व्येन बुद्ध्या बा. न माद्यतेति वर्तते, जातिसपन्नस्तपस्वी बुद्धिमानहमित्येवम्, उपलक्षणं चेतत्कुलबलरूपाणा, कुलसंपन्नोऽहं बलसंपन्नोऽहं, रूपसंपन्नोऽहमित्येवं न माघेल / इति सूत्रार्थः / / दश०८ अ०२ उ०॥ मृत पुं०त्यताप्राणे, जी०। अहिमडेति वा गोमडे ति वा सुणगमडेति वा मज्जारमडेति वा मणुस्समडेति वा महिसमडे ति वा मूसगमडेति वा आसमडे ति वा हत्थिभडेति वा सहिमडेति वा वग्गमडे ति वा विगमडेति वा दीवियमडे ति वा मयकुहियचिरविणट्ठकुणिमवावण्णदुब्भिगंधे। 'अहिमृत इति वा, अहिमृतो नाम मृताऽहिदेहः, एवं सर्वत्र भावनीयं, गोमृत इति वा अश्वमृत इति वा भाजीरमृत इति वा हस्तिमृत इति वा सिंहमृत इति वा व्यामृत इति वा, द्वीपः-चित्रकः, सर्वत्र अहिश्चासौ मृतश्च अहिमृत इत्येवं विशेषणसमासः, इह मृतकं सद्यः संपन्नं न विगन्धि भवति, तत आह-'मयकुहियविणहकुणिमवावण्ण दुब्भिगधे।' इत्यादि। मृतः सन् कुथितः। जी०३ प्रति०१ उ० भयंग ए० (मतद) श्रीवीरजिनस्य शासनयक्षे, मतदः यक्षः श्यामवर्णः गजवाहनो द्विभुजो, नकुलयुतदक्षिणभुजो वामकरधृतबीजपूरकश्चेति / प्रव०२६ द्वार! मयंगतीरदह पुं० (मृतगड़ातीरहूद) मृतगङ्गा यत्र गङ्गादेशे जले व्यूढमासीदिति तत्तीरे हृदः। वाराणस्या स्थिरजलहृदे, "वाणारसीए नयरीए उत्तरपुरच्छिमदिसिभाए गगाए महाणईए मयंगतीरद्दहनामं दहे होत्था" ज्ञा०१ श्रु०३ अ०! मयंतर न० (मतान्तर) एकस्याऽचार्यस्य मताद् विरुद्ध मते, 'मयंतरेहि कंखा माहणिज कम्म वेइज्जइ।" भ०। मत समान एवाऽऽगमे आचार्याणामभिप्रायः, तत्र च सिद्धसेनदिवाकरो मन्यते-केवलिनो युगपज्ज्ञानं दर्शन च, अन्यथा तदावरणक्षयस्य निरर्थकता स्यात्, जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणस्तु भिन्नसमये ज्ञानदर्शने, जीवस्वरूपत्वात, तथा तदावरणक्षयोपशमे समानेऽपि क्रमेणैव मतिश्रुतोपयोगी, न चैकतरोपयोग इतरक्षयोपशमाभावः तत्क्षयोपशमस्योत्कृष्टतः षट्षष्टिसागरोपमप्रमाणत्वादतः किं तत्त्वमिति ? इह च समाधिःयदेव मतमागमाऽनुपाति तदेव, सत्यमिति मन्तव्यमितरत्पुनरुपेक्षणीयम्, अथ चावहुश्रुतेन नैतदवसातुं शक्यते तदेव भावनीयम्-आचार्याणां सम्प्रदायाऽऽदिदोषादयं मतभेदो जिनानां तु मतमेकमेवाविरुद्धं च रागाऽऽदिविरहितत्वात् / आह च"अणुवकयपराणुग्गह-परायणाज जिणा जगप्पवरा। जियरादेसमोहा, यऽणन्नहावाइणो तेण ||1||" म०१ श०३ उ०। मयग पु० (मृतक) शवे, आ०म०२ अ०। मयगंगा स्त्री०(मृतगङ्गा)व्यूढजलेदेशावच्छिन्नायां गड़ायाम् ज्ञा०१ श्रु०३ अ० / "समुई जतो गगा पविसइ, तत्थ वरिसे वरिसे अण्णणं मगगेण वहइ, बीएण गंगा गयगंगा भन्नइ।" आ०म०१ अ० / आ० चू०। मयगल त्रि० (मदकल) मदमभिगृहाने, 'मईदे नयगलसलिलगयनिक मे।" चं० प्र० 1 पाहु० 1 पाहु० पाहु० / ह
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________________ मयगल 107 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मयणसलागा स्तिनि; "पीलूगओ मयगलो मायंगो सिंधुरो करेणू या दोघट्टो दंती वा- अत: 'इंखिणिया' परनिन्दा, तुशब्दस्यैवकारार्थत्वात् 'पापिकव' रणो कमरी कुंजरो हन्थी / / 6 / / '' पाइ ना०६ गाथा। दोषवत्येव, अथवा-स्वस्थानादधमस्थाने पातिका, तत्रेह जन्मनि सुघरो मयगुम्मिय त्रि. (मदगुल्मित) मदघूर्णितचेतने, बृ०१ उ०२ प्रक०। दृष्टान्तः, परलाकोऽपि पुरोहितस्याऽपि श्वाऽऽदिषूत्पत्तिरिति, इत्येवं मयट्ठाण न० (मदस्थान) मदभेदेषु, मदो-मानस्तस्य स्थानानि पर्यायमेदा | 'संख्याय' परनिन्दा दोषवती ज्ञात्वा मुनिर्जात्यादिभिः यथाऽहं विशिष्टनदस्थानानि। आव०४ अ०॥ कुलाद्भवः श्रुतवान् तपस्वी, भवांस्तु मत्तो हीन इति न माद्यति / / 2 / / सुत्र अट्ठ मयट्ठाणा पण्णत्ता / तं जहा-जाइमदे, कुलमदे, वलमदे 1(02 अ०२ उ०। रूवमदे, तवमदे, सुयमदे,लाभमदे, ईसरियमदे,॥ (सूत्र-६०६) मयण पु० (मदन) कामे, अभिलाषमात्रे च। स्था०५ ठा०१०। आचा० / मदस्थानानि मदभेदाः, इह चदोषो जात्यादिमदोन्मत्तः पिशाचवद्भवति "आणा जस्स विनइया, सासे सव्वेहिँ हरिहरेहिं पि। सो वि तुह झणदुःखितः, इह जात्यादिहीनतापरिभवं च निःसंशयं लभते इति। स्था०८ जलणे, भयणो मयणं पिव विलीणो // 1 // ' पञ्चा०४ विव०। 'मयणटा० / सूत्र० / आव० / आ० चू० / यतोऽनादौ संसारे पर्यटताऽसुमताऽ- सरापूरगं / ' कल्प०१ अधि०३ क्षण / मधुनो विकृतिरूपेऽवयवे, पं० दृष्टाऽऽयत्तान्यसकृदुतावचानि स्थानान्यनुभूतानि तस्मात्कथञ्चिदुद्या- व०२ द्वार / विश्वपुरे धरणेन्द्ररनाजपुत्रमित्रे श्रेष्टिपुत्रे, ग०२ अधिक। वचाऽऽदिकं पदस्थानमवाप्य पण्डितो हेयोपादेयतत्त्वज्ञो न हृष्येत्-न (सार्शनेन्द्रियविषयविपाके कथा) मीने, "(723) सित्थयं मयण" हर्ष विदध्यात्। उक्तं च पाइ० ना०२२८ गाथा / कामदेवे, पाइ० ना०७ गाथा। "सर्वसुखान्यपि बहुशः, प्राप्तान्यटता मया तु संसारे। मयणकंचणा स्त्री० (मदनकाञ्चना) पुष्कलावतीविजयपुरीभेदे, दर्श०१ उच्चैः स्थानानि तथा, तेन न मे विस्मयस्तेषु / / 1 / / तत्त्व। (सूत्रकृताङ्गे) मयणकंदली स्त्री० (मदनकन्दली) हस्तिनापुरराजस्य जितशत्रोभीर्याजइ सोऽवि णिज्जरमओ, पडिसिद्धो अट्ठमाणमहणेहि। याम, दर्श०१ तत्त्व। अवसेस मयट्ठाणा, परिहरियव्वा पयत्तेण / / 44 / / " मयणजक्ख पुं० (मदनयक्ष) स्वनामख्याते यक्षे, यमाराध्य द्विमुखराजनाप्यवगीतस्थानावाप्ती वैमनस्यं विदध्यात्। आहर च-"णो कुप्पे।" | पत्नी वनमाला मदनमञ्जरी सुषुवे। उत्त०६ अ०। अदृष्टवशात्तथाभूतलाकासमतं जातिकुलरूपबललाभाऽऽदिकमधम- मयणपरवसा स्त्री० (मदनपरवशा) मन्मथविहलायाम्, तं०। मवाप्य न कुत्र्येत्-न क्रोधं कुर्वीत कतरं नीचस्थान शब्दाऽऽदिकं वा / मयणबहूसवन०(मदनबहूत्सव) भरतवैताढ्यपर्वतस्योत्तर-विद्याधरश्रेणी दुःखं मया नानुभूतमित्येवमवगम्य नोद्वेगवशगेन भाव्यम्, उक्तं च- स्वनामख्याते, दर्श०१ तत्त्व। "अवमानात्परिभ्रंशा-द्वधबन्धधनक्षयात्। मयणमंजरी स्त्री० (मदनमञ्जरी) काम्पिल्यराजद्विमुखपत्न्या चण्डप्राप्ता रोगाश्च शोकाश्च, जात्यन्तरशतेष्वाप।।१।। प्रद्योतस्यावन्तीराजस्य भायीयाम्, उत्त०६ अ०। से ते य अधिम्हइउं,असोइउं पंडिएण य असंते। मयणरहा स्त्री० (मदनरथा) मालवमण्डलमण्डनसुदर्शनपुरराजमणिसक्का हुदुमो वसिमहि-अएण हिययं धरंतण / / 2 / / स्थरय भातुर्युगवाहुभायाम, नमिसहाराजमातरि, उत्त०६ अ०ाती। होऊण चछवट्टी, पुहइवती विमलपंडुरच्छत्तो। ('णभि' शब्दे चतुर्थभागे 1808 पृष्ठ कथोक्ता) सिंहपुरराजस्य रत्नसोचेव नान भुजो, अणाहसालालओ होइ।।३।।'' सारस्य भार्यायाम, सङ्घा०१ अधि०१ प्रस्ता०। एकस्मिन्वः जन्मनि नानाभूतावस्था उच्चावचाः कर्मवशगोऽनुभवति। | मयणवल्लह पुं०(मदनवल्लभ) स्वनामख्याते चारित्रप्रधाने सूरौ, दर्श० आचा०१ श्रु०२ अ०३ उ०।। 3 तत्त्व। साम्प्रतं परनिन्दादोषमधिकृत्याह मयणवांछा स्त्री० (मदनवाञ्छा) कामाभिलाषे, "मुण्ड शिरोवदनमेतजो परिभवइ परं जणं, संसारे परिवत्तई महं। दनिष्टगन्धि, भिक्षाऽटनेन भरणं वदनोदरस्य। गात्रं मलेन मलिनं गतसर्वअदु इंखिणिया उ पाविया, इति संखाय मुणी ण भजई / / 2 / / शाभ, चित्र तथाऽपि मनसो मदनेऽस्ति वाञ्छा / / 1 / / '' सूत्र०१ श्रु०४ नियुक्तिकृदाह - अ०१ उ०। जइ ताव निजरमओ, पडिसिद्धो अट्ठमाणमहणेहिं। मयणवाराणसी स्त्री० (मदनवाराणसी) वाराणस्याः स्वनामख्याते भागे अविसेसमयट्ठाण, परिहरियव्वा पयत्तेणं // 44|| 'मदनपुरा' इति प्रसिद्ध. ती०३७ कल्प। 'अपमान थनैः' अर्हद्भिः, अवशेषाणि तु 'मदस्थानानि' जात्यादीनि / मयणसरापूरग पुं०(मदनशराऽऽपूरक) मदनवाणतूणीरे, 'मयणसरापूरगं 'प्रयत्नेन' स्तरां परिहर्त्तव्यानीति।४४। 'जो परि' इत्यादि, यः कश्चिद- पिव चंदो।" मदनस्य कामस्य शरापूरमिव / तूणीरमिव / अयमर्थः यथा विवेकी परिभवति' अवज्ञयति ‘परं जनम् अन्य लोकम् आत्मव्य- धनुर्द्धरस्तूणीरं प्राप्य मुदितो निःशङ्कं मृगाऽऽदिकं शरैर्विध्यति, एवं तिरिक्तं, स तत्कृतेन कर्मणा 'संसारे' चतुर्गति लक्षणे भवादधावर- मदनोऽपि चन्द्रोदय प्राप्य निःशङ्कः जनान् वाणैर्व्याकुलीकरोति।कल्प०१ घट्टघटीन्याधन 'परिवत्तत' भमति, 'महद् अत्यर्थ महान्तं वा कालं, अधि०३क्षण। कचित 'चिरम्' इति पाठः। अदुत्ति' अशशब्दो निपातः निपातानामने- मयणसलागा स्त्री० (मदनशलाका) सारिकापक्षिजातौ, जं०१ वक्ष० / कार्थत्वात् अथ इत्यस्यार्थे वर्त्तते, यतः परपरिभवादात्यन्तिकः संसारः | रा०। आ०म० / जी०। दे० ना०।
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________________ मयणसाला 108 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मरण मयणसाला स्त्री० (मदनशाला) सारिकाविशेषे, प्रश्न०१ आश्र० द्वार। औ०। आ० चू०। मयणा स्त्री० (मदना) पक्षिविशेषे आव०१ अ०। मयणावली स्त्री० (मदनावली) हस्तिनागपुरराजपद्मोत्तरपुत्रमहा-पद्मस्य भार्यायाम, ती०२० कल्प। मयणाहि स्त्री० (मृगनाभि) कस्तूर्याम, "(366) मयणाही कत्थूरी" पाइ० ना०१४७ गाथा। मयणिज्ज न० (मदनीय) "कृद्धहुलम्' || इति हैमवचनात्कर्त्तर्यनीयः प्रत्ययः / मदयतीति मदनीयम् / गन्मथजनने, जी०२ प्रति०। मन्मथवर्द्धने, औ01 मयणिवास (देशी) कामे, दे० ना०६ वर्ग 126 गाथा। मयपतिआ स्त्री० (मृतपतिका) विधवायाम, औ०। मयपिंडणिवेयण न० (मृतपिण्डनिवेदन) मृतेभ्यः श्मशाने तृतीयन वमाऽऽदिषु दिनेषु पिण्डनिवेदने, जी०३ प्रति०४ अधि०। मयरंक न० (मकराङ्क) मकरचिढे, औ०। मयरद्धय पुं० (मकरध्वज) कामदेवे, पाइ० ना०७ गाथा। मयरहिय त्रि० (मदरहित) मदरहितो विशिष्टजातिलाभकुलेश्वर्यबलरूप तपः श्रुताऽऽदिसम्पत्समन्वितावपि निरहङ्कारे, कर्म०१ कर्म०। मयरासण न० (मकराऽऽसन) येषामासनानामधाभागे मकरा व्यवस्थि तास्तेषु, जी०३ प्रति०४ अधि०। मयसमाण पुं० (मृतसमान) शवकल्पे, बृ०१ उ०३ प्रक०। मयहर पुं० (महत्तर) गच्छमहति, "जे केइ आयरिएइ वा मयहरएइ वा अगीयत्थेइ वा आयरियगुणकलिएइ वा मयहरगुणकलिएइ या भविस्सायरिएइ वा भविस्समयहरएइ वा।'' महा०४ अ०। मयहरिया स्त्री० (महत्तरिका) मुख्यसाध्व्याम, ता विनाश्रमण्यो न तिष्ठन्तीति / ग०३ अधिक। मयाइ (अस्मद्)"मि मे ममं ममए ममाइ मइ मए मयाइ णे टा" // 8 / 3 / 106 / / इत्यस्मदः टासहितस्य मयाइ' इत्यादेशः / प्रा०३ पाद। मयाणुण्णा स्त्री० (मतानुज्ञा) निग्रहस्थाने, सूत्र०२ श्रु०६ अ०। मयालिकुमार पुं० (मयालिकुमार) श्रेणिकस्य धारण्यां जाते स्वनाम ख्याते सुते वीसन्तिके प्रव्रज्यषोडश वर्षाणि प्रव्रज्या पालयित्वा वैजयन्ते कल्पे उपपद्य महाविदेहे सेत्स्यति। अणु०१ वर्ग २अ०। कृष्णस्य रुक्मिणी संभवे पुत्रे, स चारिष्टने मेरन्तिके प्रव्रज्य शत्रुजये सिद्धः / अन्त०१ श्रु०४ वर्ग 2 अ०॥ भयाली (देशी) निद्राकरीलताविशेषे, दे० ना०६ वर्ग 116 गाथा। मय्य न० (मद्य)"ज-द्य-यां यः" |8 / 4 / 262 / / मागध्या जद्ययां स्थाने यो भवतीति द्यस्थाने यः। सुरायाम, प्रा०४ पाद। मरधा० (मृ) प्राणत्यागे,"ऋवर्णस्याऽरः" ||8 / 4 / 234 // धातोरन्त्यस्य स्वर्णस्याऽराऽऽदेशो भवति / मरइ / भियते / प्रा०४ पाद / "तृतीयस्य मिः" |8 / 3 / 1411! बहुलाधिकाराद् मिप्रस्थानीयस्य मेरिकारलोपश्च। 'न मर न मिये इत्यर्थः / प्रा०३ पद। मरपुं० मरणं मरः, स्वरान्ततवादप्रत्ययः। प्राणवियोगे, विशे०। आचाला मरगअ न० (मरकत) "मरकत-मदकले गः कन्दुके त्वादेः" / / 1 / 1821 // इति कस्य गः / मरगअं। प्रा०१ पाद। "उअ णिच्चलनिप्पंदा, भिसिणीपत्तम्मि रेहइ वलाआ। णिम्मलमरगअभाअणपरिट्ठिया संखसुत्ति व्व।।१।।" नीलरत्ने, ध०२ अधि०। ज्ञा० / उत्त०। रत्नविशेषे, जी०३ प्रति०४ अधि० / सूत्र० / औ०। मरट्ट (देशी) गर्वे, दे० ना०६ वर्ग 130 गाथा। मरण न० (मरण) प्रतिनियताऽयुःपृथग्भवने, द्वा०१४ द्वा० / आयुःक्षये, आचा०१ श्रु०३ अ०२ उ०। दशविधप्राणविप्रयोगरूपे (आ०म०१ अ०॥ प्रज्ञा० / आचा० / ल० / सू० प्र०1) मृत्यौ, प्रश्न०३ अश्र० द्वार / आचा० / नं०। एगे मरणे अंतिमसारीरियाणं / एक मरण मृत्युरन्तिमशारीरिकाणां चरमदेहनां, मरणैकता च सिद्धत्वे पुनर्मरणाभावादिति। स्था०१ ठा० आव० तिर्यड्मनुष्ययोरायुष्कक्षये, सूत्र०१ श्रु०१२ अ० / सर्वथा क्षये, त०॥ पञ्चत्ये, त०। पड़िवधं मरणमित यदुक्तं तत्र नामस्थापने प्रतीते एवेत्यनाढत्य शेषचतुष्टयमाह / अन्ये त्वन्न नामाऽऽदिषदविधनिक्षेपोद्देशाभिधायिनीमपि गाथामधीयते, तत्र नामस्थापने प्राग्वत्, द्रव्याऽऽदिचतुष्टयाभिव्यञ्जनार्थमाहदव्वमरणं कुसुंभाऽऽइएसु भावि आउक्खओ मुणेयव्वो। ओहे भवतब्भविए, मणुस्सभविएण अहिगारो॥२०६।। द्रव्यस्य मरणं द्रव्यमरणं, कुसुम्भाऽऽदिकेषु, आदिशब्दादन्नाऽऽदिपरिग्रहः, यद्यस्य स्वकार्यसाधनं प्रति समर्थ रूपं तत्तस्य जीवितमिति रूढ) तदभावस्तु मरणं, ततश्च कुसुम्भाऽदेरञ्जनाऽदि स्वकार्यसामर्थ्य जीवितं, तदभावस्तु मरणं, तथा च लोके मृत कुसुम्भकमरञ्जकं, मृतमन्नमव्यञ्जनमित्याधुपदिश्यते, क्षेत्रमरण तु यस्मिन् क्षेत्रे मरणम् - इङ्गिनीमरणाऽऽदि वर्ण्यत क्रियते वा यदा वा तस्य शस्याऽऽद्युत्पत्तिक्षमतवमुपहन्यते तदा तत क्षेत्रमरणं, कालमरणं यस्मिन् काले मरणमुपवर्ण्यत क्रियते वा, कालस्य वा ग्रहोपरागाऽऽदिना वृष्ट्या दिस्वकार्याकरणभ, एते च सुगमत्वात्तत्त्वतो द्रव्यमरणाभिन्नतवाच नियुक्तिकृता पृथग् नोक्ते, यत्तु निक्षेपगाथायां षड्विध इति वचनात अनयोर्भेदेनाभिधानं तद्विवक्षितवस्तुवैषिष्ट्यदर्शकं, न हि ताभ्यां विना नियतदेशत्वाऽदिक वस्तुनो वैशिष्टभाक्यातुं शक्यमिति, 'भावे भावविषये निक्षेप आयुषोजीवितस्य क्षयोध्वंसः आयुःक्षयो 'मुणितव्यो' ज्ञातव्यो, मरणभित्युपस्कारः, तदपि त्रिविधम्-'आहे त्ति' ओधमरणसामान्यतः सर्वप्राणिनां प्राणपरित्यागाऽऽत्मक भवति, भवमरणयन्नारकाऽदेनरकाऽदिभवविषयतया विवक्षितम्, 'तब्भविय त्ति तद्भविक्मरणं यस्मिन्नेव मनुष्यभवाऽदौ मृतः पु
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________________ मरण 106 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मरण बस्तस्मिन्नवोत्पद्य यन्मयते इति व्याख्यानिकाऽभिप्रायः वृद्धास्तु व्याचक्षते-'त भावमरण दुविह-ओघमरणं, तभवमरणं च।' तथा तद्भवमरणस्वरूपं च - 'जो जमिम भवग्गहणे मरइ। तत्र च 'ओहे तब्भवमरणे' इति पाठो लक्ष्यते। इह चैषां येनाधिकारस्तमाह-'मणुस्सभविएणं ति' मनुष्यभवभाविना भवमरणन्तर्वर्त्तिना मनुष्यभविकमरणेनाध्किारः प्रकृतम् / इति गाथाऽर्थः // 206 // (1) सम्प्रति विस्तरतो मरणवक्तव्यताविषयं द्वारगाथाद्वयमाहभरणविभत्तिपरूवण, अणुभावो चेव तह पएसग्गं / कइ मरइ एगसमयं ? कइखुत्तो वावि इक्किक्के ? ||210 / / मरणम्मि इक्कभिक्के, कइभागो मरइ सव्वजीवाणं? / अणुसमय संतरं वा, इकिकं किच्चिरं कालं // 211 / / तत्र मरणस्य विभक्तिः-विभागः, तस्य प्ररूपणा-प्रदर्शना मरणविभक्तिप्ररूपणा, कार्येति शेषः / अनुभागश्चरसः, स च तद्विषयस्याऽऽयुः कर्मणः, तत्रैव तत्सम्भवात्, मरणे हि तदभावाऽऽत्मनिकथं तत्सम्भव इति भावनीयम्, एवेति पूरणे, तथा प्रदेशाना-तद्विषयाऽऽयुःकर्मपुद्गलाऽऽत्मकानाम्, अग्रंपरिमाणं प्रदेशागं, वाच्यमिति गम्यते। 'कति' कियन्ति मरणानि, अङ्गीकृत्य इति शेषः। भियतेप्राणांस्त्यजति, जन्तुरिति गम्यते। 'एगसमयं ति।' सुव्यत्ययात् एकस्मिन् समये कइखुत्ता त्ति' कतिकृत्वः कियतो वारान्, 'वा' समुच्चये, अपिः पूरणे, 'एक्कानं ति' एकेकरिमन् वक्ष्यमाणभेदे, मरणे मियते इति योज्यम्, 'मरणे' वक्ष्यमाणभेद एवैकै कस्मिन 'कतिभागो त्ति कतिसङ्घयो भागो म्रियते, 'सर्वजीवानाम्' अशेषजीवानाम् 'अणुसमयं ति' प्रतिसमयं निरन्तरमिति यावत। अन्तरं-व्यवधानं सहान्तरेण वर्तत इति सान्तरं, वा विकल्पे, किमुक्त भवति ? एषु कतरन्निरन्तरं सान्तरं वा ? तथैकैकं कियचिरं' कियत्परिमाणं कालं सम्भवतीति गाथाद्वयाक्षरार्थः / / 210-211 // उत्त० पाई०५ अ०। (2) त्रिविधमरणम् - तिविहे मरणे पण्णत्ते। तं जहा-बालमरणे, पंडियमरणे, बालपंडियमरणे / बालमरणे तिविहे पण्णत्ते / तं जहा-ठिअलेस्से, संकिलिट्ठलेस्से, पज्जवजातलेसे। पंडियमरणे तिविहे पण्णत्ते। तं जहा-ठितलेस्से, असंकिलिट्ठलेसे, पनवजातलेसे / बालपंडियमरणे तिविहे पन्नते / तं जहा-ठिअलेस्से, असंकिलिट्ठलेसे, अपज्जवजातलेसे। (सूत्र-२२२) वालोऽज्ञस्तद्वयो वर्तते विरतिसाधकविवेकविकलत्वात् स बालोऽसंयतस्तस्य मरणं बालमरणम्, एवभितरे, केवल-पडिधातोर्गत्यर्थत्वेन ज्ञानार्थत्वाद्विरतिफलेन फलवद्धिज्ञानसंयुक्तत्वात् पण्डितो-बुद्धतत्त्वः संयत इत्यर्थः / तथा अविरतत्वेन बालत्वात् विरतत्वेन च पण्डितत्वाद्वालपण्डितः संयतासंयत इति ! स्थिता-अवस्थिता अविशुद्ध्यन्त्यसक्तिश्यमाना च लेश्या कृष्णाऽऽदियस्मिन् तत् स्थितलेश्यः, संक्लिष्टा-राक्लिश्यमाना संक्लेशमागच्छन्तीत्यर्थः सा लेश्या यस्मिन् तत्तथा तथा, पर्यवाः-पारिशेष्याद्विशुद्धिविशेषाः प्रतिसमयं जाता यस्यां सा तथा, विशुद्ध्या वर्तमानेत्यर्थः / सा लेश्या यस्मिस्तत्तथेति, अत्र प्रथमं कृष्णाऽऽदिलेश्यः सन् यदा कृष्णाऽऽदिलेश्येष्वेव नारकाऽदिषूत्पद्यते तदा प्रथमं भवति, यदा तुनीलाऽऽदिलेश्यः सन् कृष्णाऽऽदिलेश्येषूत्पद्यते तदा द्वितीय, यदा पुनः कृष्णलेश्याऽऽदिः सन्नीलकापोतलेश्येत्पद्यते तदा तृतीयम्। उक्तं चान्त्यद्वयसंवादिभगवत्यां यदुत-'' से गूणं भंते ! कण्हलेसे, नीललेसे० जाव सुकलेसे भवित्ता काउलेसेसु नेरइएसु उवधजइ ? हता गोयमा ! से केणतुणं भंते ! एवं वुचइ ? गोयमा ! लेसाठाणेसु संकिलिरसमाणेसु वा विसुज्झमाणेसु वा काउलेस्संपरिणमइ, परिणमित्ता काउलेसेसुनेरइएसु उववज्जइत्ति। एतदनुसारेणोत्तरसूत्रयोरपि स्थितलेश्याऽऽदिविभागो नेय इति पण्डितमरणे सक्लिश्यमानता लेश्याया नास्ति संयतत्वादेवेत्ययं बालमरणाद्विशेषः, बालपण्डितमरणे तु संक्लिश्यमानता विशुद्ध्यमानता च लेश्यायाः नास्ति, मिश्रत्वादेवेत्यय विशेष इति। एवं च पण्डितमरण वस्तुतो द्विविधमेव, सक्लिश्यमानलेश्यानिषेधेऽवस्थितवर्द्धमानलेश्यत्वात्तस्य इति, त्रिविधत्व सुव्यपदेशमात्रत्वादेव, बालपण्डितमरणं त्वेकविधमेव, संक्लिश्यमानपर्यवजातलेश्यानिषेधे अवस्थितलेश्यत्वात्तस्येति, विध्यं त्वस्येतरव्यावृत्तितो व्यपदेशत्रयप्रवृत्तेरित्ति। स्था०३ ठा०४ उ०। प्रव० / स०। (3) सप्तदशविधमरणानिआवीचि ओहि अंतिय, बलायमरणं वसट्टमरणं च / अंतोसल्लं तब्भव, बालं तह पंडियं मीसं / / 212 / / छउमत्थमरण केवलि, देहाणस गिद्धपिट्ठमरणं च / मरणं भत्तपरिण्णा, इंगिणि पाओवगमणं च / / 231 / / इह च मरणशब्दस्य प्रत्येकमभिसंबन्धात् आवीचिममरणम् 1 अवधिमरणम 2, अंतिय त्ति आर्षत्वादत्यन्तमरणम् 3, बलायमरणति तत एव वलन्मरणम्। 4, वशार्तमरणं च 5, अन्तःशल्यमरणम् 6, तद्भवमरणम् 7. बालमरणम् 8, तथा-पण्डितमरणम् 6, मिश्रमरणम् 10, छास्थमरणम् 11. केवलिमरणम् १२,'वेहाणसं ति' तत एव वैहायसमरणम् 13, गृध्रपृष्ठमरण च 15, 'मरण भत्तिपरिण्ण त्ति' भक्तपरिज्ञामरणम् 15, इगिनीमरणम् 16, पादपोपगमनमरणं च 17 / इति गाथाद्वयार्थः // 212-213 // उत्त० पाई०५ अ०॥ (4) अप्रशस्तमरणानि - दो मरणाइं समणेणं भगवथा महावीरेणं समणाणं णिरगंथाणं णो णिचं वणियाई,णो णिचं कित्तियाइंणो णिचं पूइयाई,णो णिचं पसत्थाई, णो णिचं अब्भणुम्नायाइं भवंति / तं जहाबलायमरणे चेव, वसट्टमरणे चेव 1, एवं णियाणमरणे चेव, तब्भवमरणे चेव 2, गिरिपडणे चेव,तरुपडणे चेव ३,जलप्पवेसे चेव, जलणप्पवेसे चेव, विसभक्खणे चेव, सत्थोबाडणे चेव 5 / दो मरणाइं० जाव णो णिचं अब्भणुन्नायाई भवंति, कारणेण पुण अप्पडिकुट्ठाई। तं जहा- वेहाणसे चेव, गिद्धपढे चेव 6 /
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________________ मरण 110- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मरण (दा मरणाई इत्यादि) कण्ठ्या चेयम्, नवरं द्वे मरणे श्रमणेन भगवता महावीरेण श्राम्यन्तितपस्यन्तीति श्रमणास्तेषां, ते च शाक्याऽऽदयोऽपि स्युः / यथोक्तम्-"णिगंथ 1 सक्क रतावस 3, गेरुय 4 आजीव 5 पचहा समणा।" इति। तद्व्यवच्छेदार्थमाह-निर्गता ग्रन्थाद्-बाह्याभ्यन्तरादिति निर्ग्रन्थाः-साधवस्तेषां नो नित्यं' सदा'वर्णित' तांस्तयोः प्रवर्तयितुमुपादेयफलतया नाभिहिते कीर्तिते-नामत: संशब्दिते उपादेयधिया (वुझ्याइं त्ति) व्यक्तवाचोक्ते उपादेयस्वरूपतः, पाठान्तरेण-'पूजिते वा' तत्कारिपूजनतः 'प्रशस्ते' प्रशंसिते श्लाधिते 'शंसु' स्तुतौ इतिवचनात। 'अभ्यनुज्ञाते' अनुमते यथा कुरुतेति। (बलायभरणं ति) बलतांरायमानिवर्तमानानां परीषहाऽऽदिवाधितत्वात् मरणं बलन्मरणम, (वसट्टमरणं ति) इन्द्रियाणां वशमधीनता मृतानांगतानां स्त्रिग्धदीपकलिकावलाकनाऽऽकुलितपतङ्गाऽऽदीनामिव मरणं वशार्तभरणमिति / आह च"संजमजोगविसन्ना, मरतिजे तंबलायमरणं ते। इंदियविसयवसगया, मरंति जे तं वसट्ट तु / / 1 / / " इति / (एवं नियाणेत्यादि) एवमिति 'दो मरणाई समणेणं' इत्याद्यभिलापस्योत्तरसूत्रेष्वपि सूचनार्थः, ऋद्धिभोगाऽदिप्रार्थना निदानं तत्पूर्वकं मरणं निदानमरणं, यस्मिन भवे वर्त्तते जन्तुस्तद्भवयोग्यमेवाऽऽयुर्बद्ध्वा पुनर्मियमाणस्य मरणं तद्भवमरणम। एतच सड़यातायुष्कनरतिरश्चामेव, तेषामेव हि तद्भवायुर्बन्धो भवतीति। उक्त च-"मोतुं अकम्मभूमगनरतिरिए सुरगणे यनेरइए। सेसाणं जीवाण, तब्भवमरणं तु केर्सिचि / / 1 / / " इति (सत्थोवाडणे ति) शस्त्रेणक्षुरिकाऽऽदिना अवपाटन-विदारण रवशरीरस्य यरिंस्तच्छरत्रावपाटनम् / / 5 / / (कारणे पुणेत्यादि) शीलभइरक्षणाऽऽदौ पाठान्तरे तु-कारणेन 'अप्रतिकुष्ट' अनिवारिते भगवता, वृक्षशाखाऽऽदावुद्धत्वाद् विहायसिनभसि भवं वैहायसं प्राकृतत्वेन-'तुवेहाणसं' इत्युक्तमिति, गृधैः स्पृष्टस्पर्शनं यस्मिन् तत् गृध्रस्पृष्ट, यदि वा-गृध्राणां भक्ष्य पृष्ठमुपलक्षणत्वाददराऽऽदि चतक्ष्यकरिकरभाऽदिशरीरानुप्रवेशेन महासत्त्वस्य मुमूर्यस्मिस्तत् गृध्रस्पृष्टमिति / गाथाऽत्र-"गद्धाऽऽदिभक्खणं गद्धषट्ठमुबंधणाऽऽदिवेहास। एते दोन्निऽवि मरणा, कारणजाए अणुनाया।।१।।" इति। (5) अप्रशस्तमरणानन्तरंतत् प्रशस्तं भव्यानां भवतीति। तदाहदो मरणाई समणेणं मगवया महावीरेणं समणाणं निग्गंथाणं णिचं वणियाइं० जाव अब्भणुन्नायाइं भवंति। तं जहा-पाओवगमणे चेव, भत्तपचक्खाणे चेव 7 / पाओवगमणे दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-णीहारिमे चेद, अणीहारिमे चेव, णियमं अप्पडिक्कमे 5 / मत्तपञ्चक्खाणे दुविहे पन्नत्ते / तं जहा-णीहारिमे चेव 8, अणीहारिमे चेव, णियमं सपडिक्कमे / / (सूत्र-१०२) (दो मरणाई इत्यादि) पादपो वृक्षस्तस्यैव छिन्नपतितस्योपगमनमत्यन्तनिश्चेष्टतयाऽवस्थानं यस्मिस्तत् पादपोधगमनं भक्तं -भोजनं तस्यैव न चेष्टाया अपि पादपोषगमन इव प्रत्याख्यान-वर्जनं यरिंमस्तत भक्तप्रत्याख्यानमिति। (नीहारिम ति) यद्वसतेरेकदेशे विधीयते तत्ततः शरीरस्य निर्हरणानिस्सारणानिहारिभ, यत् पुनर्गिरिकन्दराऽऽदौ तद् निर्हरणादनिर्झरिमम (णियमं ति) विभक्तिपरिणामान्नियमादप्रतिकर्मशरीरप्रतिनियादर्ज पादपोपगममनमिति / भवति चात्र गाथा-'सीहा ऽऽदिसु अभिभूओ, पायवगमणं करेइ थिरचित्तो / आउम्मि बहुप्पंते, वियाणिउ नवरि गीयत्थो / 1 // " इति / इदमस्य व्याघातवदुच्यते, नियाघातं तु यत् सूत्रार्थनिष्ठित उत्सर्गतो द्वादश समाः (मासाः) कृतपरिकर्मा सन काल एव करोतीति। तद्विधिश्चायम् - "चत्तारि विचित्ताई, विगई निहियाइँ चत्तारि। संवच्छरे य दुन्नि उ, एगंतरियं च आयामं॥१॥ नाइविगिट्ठो यतवो, छम्मासे परिमियं च आयाम। अन्नेऽविय छम्मासे, होइ विगिट्ट तवोकम्मं // 2 // वारा कोडीसहियं, आयामकाउ आणुपुव्वीए। संघयणादणुरूवं, एत्तो अद्धाइ नियमेणं॥३॥" यत:"देहम्मि असलिहिए, सहसा धाऊहि खिज्जमाणेहि। जायइ अट्टज्झाणं, सरीरिणो चरमकालम्मि॥४॥" किञ्च''भावमवि संलिहेई, जिणप्पणीएण झाणजोगेणं। भूयत्थभावणाहिय, परिवड्डइ वोहिमूलाई।।५।। भावेइ भावियप्पा, विसेसओ नवरि तम्मि कालम्मि। पयईएँ निगुणत्तं, संसारमहासमुदस्स।६।। जम्मजरामरणजलो, अणाइम वसणसावयाइन्नो। जीवारा दुक्खहेऊ, कटुं, रोद्दो भवसमुद्दो।।७।। धन्नोऽहं जेण मए, अणोरपारम्मि नवरमेयम्मि। भवसयसहस्सदुलहं,लद्धं सद्धम्मजाणं ति।।८।। एयरस पभावेणं, पालिजंतस्स सइ पयत्तेणं। जम्मऽतरे विजीवा, पावंति न दुकखदोगचं / / / / चिंतामणी अउव्वो, एस अपुवो य कप्परुक्खो ति। एयं परमो मंतो, एयं परमाऽऽमयं एत्थं।।१०।1. एत्थं वेयावडियं, गुरुमाईणं महाऽणुभावाणं। जेसिपभावेणेयं, पत्तं तह पालियं चेव।।११।। तेसिनमो तेसि नमो, भावेण पुणो वितेसि चेव नमो। अणुवकयपरहियरया, जे एवं दिति जीवाणं / / 12 / / " इत्यादि। "संलिहिऊणऽप्पाणं, एयं पञ्चप्पिणेत्तुफलगाई। गुरुमाइए य सम्म, खमाविउं भावसुद्धीए।।१३॥ उववूहिऊण सेसे, पडिबद्ध तम्मि तह विसेसेणं। धम्मे उज्जमियव्वं, संजोगाइह विओगता / / 14|| अह वंदिऊण देवे, जहाविहिं सेसए य गुरुमाई। पचक्खाइत्तुतओ, तयंतिए सव्वमाहारं / / 15 / / समभावम्मि ठियप्पा, सम्मं सिद्धतभणियमग्गेणं। गिरिकंदरम्मि गंतुं, पायवगमणं अह करेइ।।१६।। सव्वत्थापडिबद्धो, दंडाययमाइ ठाणमिह ठाउं। जावजीवं चिट्ठइ, निचेट्टो पायवसमाणो।।१७|| पढमिल्लयसंघयणे, महाणुभावा करें ति एवमिणं। पायं सुहभावच्चिय, णिचलपयकारणं परमं // 18 // भत्तपरिन्नाऽणसणं, चउब्विहाऽरचायनिष्फन्नं /
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________________ मरण 111 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मरण सपडिक्काम नियमा, जहा समाही विणिघिट्ट / / 16 / / " इति। इङ्गितमरां त्विह नोक्त, द्विस्थानकानुरोघात, तल्लक्षण चेदम- | "इंगियदेसम्म सय, चउविहाऽऽहारचायनिप्फन्न / उव्यत्तणाइजुत्तं, नण्णेण उ इंगिणीमरणं / / 1 / / '' इति / स्था०२ ठा०४ उ० / (6) पञ्चविधमरणानि - कइविहे णं भंते ! मरणे पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचविहे मरणे पण्णत्ते / तं जहा-आवीचियमरणे, ओहिमरणे, आदितियमरणे, बालमरणे, पंडियमरणे / आवीचियमरणे णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते। तं जहादव्वाऽऽवीचियमरणे, खेत्तावीचियमरणे, कालावीचियमरणे, भवावीचियमरणे, भावावीचियमरणे / दव्वावीचियमरणे णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! चउविहे पण्णत्ते / तं जहा-णेरइयदव्वावीचियमरणे, तिरिक्खजोणियदव्वावीचियमरणे, मणुस्सदव्वावीचियमरणे, देवदव्वावीचियमरणे / से केणऽटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-णेरइयदव्वावीचियमरणे णेरइयदव्वावीचियमरणे ? गोयमा ! जण्णं णेरइया णेरइए दव्वे वट्टमाणा जाई दव्वाइं णेरइयाउयत्ताए गहियाई वद्धाइं पुट्ठाई कडाई पट्टवियाई निविट्ठाइं अभिणिविट्ठाई अभिसमण्णागयाइं भवंति, ताई दव्वाइं आवीची अणुसमयं णिरंतरं मरंतीतिकट्ट,से तेणऽद्वेणं गोयमा ! एवं वुच्चइणेरइयदवावीचियमरणे, एवं जाव देवदव्वावीचियमरणे / खेत्तावीचियमरणे णं भंते ! कइ विहे पण्णत्ते? गोयमा ! चउव्विहे पण्णत्ते, तं जहा-णेरइयखेत्तावीचियमरणे जाव देवखेत्तावीचियमरणे / से केणऽटेणं भंते ! एवं वुचइणेरइयखेत्तावीचियभरणे णेरड्यखेत्तावीचियमरणे ? गोयमा ! जण्णं णेरइया णेरइयखेत्ते वट्टमाणा जाई दव्वाई णेरइयाउयत्ताए, एवं जहेव दवावीचियमरणे, तहेव खेत्तावीचियमरणेऽवि, एवं० जाव भावावीचियमरणे। ओहिमरणे णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? गोयमा! पंचविहे पण्णत्ते / तं जहा-दव्वोहिमरणे, खेत्तोहिमरणे० जाव भावोहिमरणे / दव्वोहिमरणे णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! चउविहे पण्णत्ते। तं जहा-णेरइयदव्वोहिमरणे जाव देवदव्वोहिमरणे / से केणऽद्वेणं भंते ! एवं वुच्चइणेरइयदव्वोहिमरणे णेरड्यदव्योहिमरणे ? गोयमा ! जण्णं णेरइया णेरइयदव्वे वट्टमाणा जाई दव्वाइं संपयं मरे ति जण्णं णेरझ्या ताई दव्वाई अणागए काले पुणो वि मरिस्संति, से तेणऽटेणं गोयमा ! जाव दव्योहिमरणे, एवं तिरिक्खजोणिय० मणुस्स० देवदव्वोहिमरणे वि / एवं एएणं गमएणं खेत्तोहिमरणे वि कालोहिमरणे वि भवोहिमरणे वि भावोहिमरणे वि। आदिंतियमरणे णं भंते ! पुच्छा ? गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते / तं जहा दव्याऽऽदितियमरणे / खेत्तादितियमरणे० जाव भावादितियमरणे / दव्वादिंतियमरणे णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! चउविहे पण्णत्ते / तं जहा-णेरइयदव्वाइंतियमरणे०जाव देवदव्वाइंतियमरणे / से केणऽद्वेणं भंते ! एवं वुचइणेरइयदव्वाइंतियमरणे णेरइयदव्वाइंतियमरणे ? गोयमा ! जण्णं णेरइयाणां णेरइयदव्वे वट्टमाणा जाई दव्वाई संपयं मरंति, जेणं णेरइया ताई दव्वाई अणागए काले णो पुणो विमरिस्संति,से तेणऽद्वेणं० जाव मरणे, एवं तिरिक्ख० मणुस्स० देवादिंतियमरणे, एवं खेत्ताइंतियमरणे वि। एवं० जाव भावादितियमरणे वि। बालमरणे णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! दुवालसविहे पण्णत्ते / तं जहा-बलयमरणं जहा खंदए० जाव गिद्धपिढे / पंडियमरणे णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-पाओवगमणे य, भत्तपचक्खाणे य / पाओवगमणे णं भंते ! कइविहे पण्णते ? गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-णीहारिमे य, अणीहारिमे य० जाव णियमा अपडिक्कमे / भत्तपञ्चक्खाणे णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? एवं तं चेव णवरं णियमं सपडिक्कमे / सेवं भंते / भंते ! ति। (सूत्र-४६६)भ०१३श०७ उ०। सम्प्रत्यतिबहुभेददर्शनान्मा भूतकस्यचिदश्रद्धानमिति सम्प्रदायगर्भ निगमनमाहसत्तरसविहाणाई, मरणे गुरुणो भणंति गुणकलिआ। तेसिं नामविभत्तिं, वुच्छामि आहाणुपुव्वीए॥२१४।। सप्तदश-सप्तदशसंशयानि विधीयन्ते-विशेषाभिव्यक्तये क्रियनत इति विधनानि-भेदाः, 'मरणे' मरणविषयाणि 'गुरवः' पूज्यास्तीर्थकृद्णभृदादयो 'भणन्ति' प्रतिपादयन्ति, गुणैः-सम्यग्दर्शनज्ञानाऽऽदिभिः कलितायुक्ता गुणकलिताः, न तु वयमेव इत्याकूत, वक्ष्यमाणग्रन्थसम्बन्धनार्थमाह-'तेषा' मरणानां नाम्नाम्- अभिधानानामनन्तरमुपदर्शितानां विभक्तिः-अर्थतो विभागो नामविभक्तिस्ता 'वक्ष्ये' अभिधास्ये, 'अथ' इत्यनन्तरमेव, आनुपूर्व्या-क्रमेणेति गाथाऽर्थः / / 214 / / यथाप्रतिज्ञातमाहअणुसमयनिरंतरमवी-इसन्नियं तं भणंति पंचविहं / दव्वे खित्ते काले, भवे य भावे य संसारे / / 215|| 'अणुसमय समयमाश्रित्य, इदं च व्यबहतसमयाऽऽश्रयणतोऽपीति मा भूद भ्रान्तिरत आह-निरन्तरे, न सान्तरम्, अन्तरालाऽसम्भवात्, किं तदेवंविधम् ? 'अवीइसेनियंति' प्राकृतत्वाद् - आसमन्ताद्वीचय इव वीचयः प्रतिसमयमनुभूयमानाऽऽयुषोऽपराऽऽयुर्दलिकोदयात पूर्वपूर्वाऽऽयुर्दलिक विच्युतिलक्षणाऽवस्था यस्मिस्तदाऽऽवीचि, ततश्चावीचीति संज्ञा सञ्जाता अस्मिस्तारकाऽऽदित्वात् 'तदस्थ सञ्जातम्' ''तारकाऽऽदिभ्य इतच्." (पा०५-२-४६) इत्यनेने
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________________ मरण 112 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मरण त्यावीधिसंज्ञितम्, अथवा-वीचिः-विच्छे दस्तदभावादवीचि- वस्माकभितो मुक्तिरस्थिति विचिन्तयन्तो नियन्ते यत्तद्बलतातत्संज्ञितम्, उभयत्र प्रक्रमान्मरणं, यद्वा-संज्ञितशब्दः प्रत्येकमभि- संयमान्निवर्तमानानां मरण वलन्भरणं, तुर्विशेषणे, भग्नव्रतपरिणतीनां सम्बध्यते, तरतश्च अनुसभयसंज्ञितं-निरन्तरसंज्ञितम् अवीचिसंज्ञित- वतिनामेवैतदिति विशेषयति, अन्येषां हि संयमयोगानामेवासम्भवात् कथं मिति एकाथिकान्येतानि, 'तद्' इत्यावीचि मरणं 'भणंति' प्रतिपाद- तद्विषादः ? तदभावे च तदिति / पश्चार्द्धन वशातमाह-इन्द्रियाणां - यन्ति 'पञ्चविध पञ्चप्रकार, गणधराऽऽदय इति गम्यते / अनेन च चक्षुरादीनां विषया:मनोज्ञरूपाऽऽदय इन्द्रियविषयास्तदशं गताः-प्राप्ता पारतन्त्रयं द्योतयति, तदेवाऽऽह-'दव्वे त्ति' द्रव्याऽऽवीचिमरणं 'खेत्त त्ति' इन्द्रियविषयवशगताः स्निग्धदीपकलिकाऽवलोकनाऽऽकु-लितपतङ्गक्षेत्राऽऽवीचिमरणं 'काले त्ति कालाऽऽवीचिमरणं भवेय त्ति' भवाऽवी- वत नियन्ते यत्तदशा-मरण, कथञ्चिद्रव्यपर्याययोरभेदादेवमुच्यते, एवं चिगरणं च, 'भावे यत्ति' भावाऽऽवीचिमरणं च, संसार इत्याधारनिर्देशः, पूर्वत्रापि भावनीयं, तुशब्द एषामप्यध्यवसामभेदतो वैचित्र्यख्याधनाऽर्थ तत्रैव मरणस्थ सम्भवात्, तत्र द्रव्याऽऽवीचिमरणं नाम यन्नारकतिर्यमरा- इति गाथार्थः / / 217 // मराणामुत्पत्तिसमयात् प्रभृति निजनिजाऽऽयु कर्मदलिकानामनुसमय अन्तःशल्यमरणमाहमनुभवनाद्विचटन, तचनारकाऽदिभेदाचतुर्विधम्.एवं नारकाऽऽदिगति- लज्जाइगारवेण य, बहुस्सुयमएण वाऽवि दुचरिअं। चातुर्विध्यापेक्षया तद्विषयं क्षेत्रमपि चतुर्द्धव, ततस्तत्प्राधान्यापेक्षया जे न कहंति गुरूणं, न हु ते आराहगा हुंति // 218 // क्षेत्राऽऽवीचिमरणमपि चतुर्द्धव, 'काले त्ति' यथाऽऽयुष्ककालो गृह्यते, गारवपंकनिवुड्डा, अइयारंजे परस्स न कहंति। नत्वद्धाकालः, तस्य देवाऽऽदिष्व सम्भवात्, सच देवाऽऽयुष्ककालाss- दंसणनाणचरित्ते, ससल्लमरणं हवइ तेसिं / / 21 / / दिभेदाचतुर्विधः, ततस्तत्प्राधान्यापेक्षया कालाऽऽवीचिमरणमपि चतु- तत्र'लज्जया' अनुचितानुष्ठानसंवरणाऽऽल्मिकया 'गौरवेण च' सातर्द्धिविधम, एवंनारकाऽऽदिचतुर्विधभवाऽपेक्षया भवाऽऽवीचिमरणमपि चतु- रसगौरवात्मकेन, मा भून्ममाऽऽलोचनाहमाचार्यमुपसर्पतस्तद्वन्दना ईव, तेषामेव च नारकाऽऽदीनां चतुर्विधमायुः क्षयलक्षणं भावं प्राधान्ये- ऽऽदिना तदुक्ततपोऽनुष्ठानाऽऽसेवनेन च ऋद्धिरससाताभावसम्भव इति, नाऽपेक्ष्य भावाऽऽवीचिमरणमपि चतुर्दैव वाच्यमिति गाथाऽर्थः / / 215|| बहुश्रुतमदेन वा-बहुश्रुतोऽहं तत्कथमल्पश्रुतोऽयं मम शल्यमुद्धरिष्यति ? अधुना अवधिमरणमाह - कथं चाहमस्मै वन्दनाऽऽदिक दास्यामि ? अपभ्राजना हि इयं मम एमेव ओहिमरणं, जाणि मओ ताणि चेव मरइ पुणो। इत्यभिमानेन, अपिः पूरणे, ये गुरुकम्र्माणो 'न कथयन्ति' नाऽऽलोच'एवमेव' यथऽऽवीचिमरण द्रव्यक्षेत्रकालभवभावभेदतः पञ्चविध, तथा यन्ति, केषाम् ? 'गुरूणाम् आलोचनाहाणामाचार्याऽऽदीना, किं तद् ? अवधिमरणमपीत्यर्थः। तत्स्वरूपमाहयानि मृतः, सम्प्रतीति शेषः, तानि दुश्चरित-दुरनुष्ठितम्, इति सम्बन्धः, 'नहु' नैव'ते' अनन्तरमुक्तरूपा चैव 'भरइ पुणो त्ति' आर्षत्वात्तिव्यत्ययेन मरिष्यति पुनः / किमुक्तं आराधयन्ति-अविकलतया निष्पादयन्ति सम्यग्दर्शनाऽदीनि इत्याभवति ? अवधिः-मर्यादा, ततश्च यानि नारकाऽऽदिभवनिबन्धनराया- राधका भवन्ति, ततः किमित्याह-गौरवं पङ्क इव कालुष्यहेतुतया तस्मिन् ऽऽयुः कर्मदलिकान्यनुभूय म्रियते, यदि पुनस्तान्येवानुभूय मरिष्यति 'निवुड्डा' इति प्राकृततवान्निमग्ना इव निमग्नाः तत्क्रोडीकृततया, तदा तद्रव्यावधिमरणं, सम्भवति हि गृहीतोज्झितानामपि कर्मद- लज्जामदयोरपि प्रागुपादाने यदिह गौरवस्यैवोपादानं सदस्यैवातिलिकानां पुनर्ग्रहणम्, परिणामवैचित्र्याद, एवं क्षेत्राऽऽदिष्वपि भावनीयम्। दुष्टताख्यापनार्थम्, 'अतिचारम्' अपराधं ये 'परस्य' आचार्याऽऽदेन पञ्चार्द्धनाऽऽत्यन्तिकमरणमाह - कथयन्ति, किंविषयम् ? इत्याह-'दर्शनज्ञानचारित्रेदर्शनज्ञानचारित्रएमेव आइयंतिय-मरणं न वि मरइ ताइ पुणो / / 216|| विषय, तत्र दर्शनविषय शङ्काऽऽदि, ज्ञानविषयं कालातिक्रमाऽऽदि, 'एवमेव' अवधिमरणवदात्यन्तिकमरणमपिद्रव्याऽऽदिभेदतः पश्यविध, चारित्रविषय समित्यननुपालनाऽऽदि शल्यमिव शल्य कालान्तरेऽविशेषस्त्वयम्- 'ण वि मरइ ताइ पुणो त्ति' अपिशब्दस्थैवकारार्थत्वाद प्यनिष्टफलविधानं प्रत्यबन्ध्यतया, सह तेन सशल्यं, तच तन्मरणं च नैव तानि द्रव्याऽऽदीनि पुनर्मियते, इदयुक्तं भवति-यानि नरकाऽऽद्या- सशल्यमरणम् - अन्तः शल्यमरणं भवति, 'तेषां गौरवपङ्कनिमग्नानामिति युष्कतया कर्मदलिकान्यनुभूय म्रियते, मृतो वा न पुनस्तान्यनुभूय गाथाद्वयार्थः // 218-216 / / मरिष्यति, एवं क्षेत्राऽऽदिष्वपि वाच्य, त्रीण्यपि चामून्यावीच्यवध्या अस्यैवात्यन्तपरिहार्यतां ख्यापयन्फलमाहत्यन्तिकमरणानि प्रत्येक पञ्चानां द्रव्याऽदीनां नारकाऽऽदिगतिभेदेन / एयं ससल्लमरणं, मरिऊण महत्भए दुरंतम्मि। चतुर्विधत्वाद् विंशतिभेदानीति गाथाऽऽर्थः // 216|| सुइरं भमंति जीवा, दीहे संसारकंतारे / / 220 / / साम्प्रतं वलन्मरणमाह 'एतद् उक्तस्वयंसशल्यमरणयथा भवति तथेत्युपस्कारः, सुब्ब्ययादगाएतेन संजमजोगविसन्ना, मरंति जे तं वलायमरणं तु। सशल्यमरणेन 'मृत्वा' त्यक्त्वा प्राणान्, के ? जीवा इति सम्बन्धः / किम ? इंदियविसयवसगया, मरंति जे तं वसट्टे तु // 217 / / 'सुधिर भ्रमन्ति' बहुकालं पर्यटन्ति, क? संसारः कान्तारमिवातिगहनतया संयमयोगाः-संयमव्यापारास्तैस्तेषु वा विषण्णाः संयमयोगविषण्णा संसारकान्तारः, तस्मिन्निति सण्टङ्कः / कीदृशि? महदयं यस्मिन् तन्महाभयं अतिदुश्चरं तपश्चरणमाचरितुमक्षमाः व्रतं च मोक्तुमशक्नुवक्तः कथञ्चि- | तस्मिन् तथा दुःखेनान्तः पर्यन्तो यस्य तद् दुरन्ते तस्मिन् तथा 'दीर्धे
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________________ मरण 113 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मरण अनादा केषाशिदपर्यवसिते चेति तत् सर्वथा परिहर्त्तव्यमेवेति भावः। इति गाथाऽर्थः / / 220 // तद्भवमरणमाहमोत्तुं अकम्मभूमगनरतिरिए सुरगणे अनेरइए। सेसाणं जीवाणं, तब्भवमरणं तु कसिं चि // 221 / / 'मुक्त्वा ' अपहाय, कान् ? 'अकम्मभमगनरतिरिए त्ति' सूत्रत्वात् अकर्मभूमिजाश्च ते देवकुरूत्तरकुर्वादिषूत्पन्नतया नरतियशश्च अकर्मभमिजनरतिर्यञ्चस्तान्, तेषां हि तद्भवानन्तरं देवेष्वेवोत्पादः तथा 'सुरगणांश्च सुरनिकायान्, किमुक्तं भवति ? चतुर्निकायर्तिनोऽपि देवान, निरयो-नरकः तस्मिन् भवा नैरयिकाः, इहापि चशब्दानुवृत्तेस्तांश्च मुक्तति सम्बन्धः, तेषां देवानां च तद्भवानन्तरं तिर्यग्मनुष्येष्वेवपोत्पत्तेः, 'शेषाणाम' एतदुरिताना कर्मभूमिजनरतिरश्चां 'जीवानां प्राणिनां तद्भचमरणं, तेषामेव पुनस्तत्रोत्पत्तेः, तद्धि यस्मिन् नवे वर्त्तत जन्तुस्तद्भवयोग्यमेवाऽऽयुर्बवा पुनस्तत्क्षयेण नियमाणस्य भवति, तुशब्दस्तेषामपि सङ्खयेयवर्षाऽऽयुषामेवेति विशेषख्यापकः, असङ्ग येयवर्षाऽऽयुषां हि युगलधार्मिकत्वादकर्मभूमिजानामिव देवेष्वेवोत्पादः, तेषामपि न सर्वेषां, किन्तु केषाश्चित् तद्भवोत्पादानुरूपमेवाऽऽयुःकर्मोपचिन्वतामिति गाथाऽर्थः // 221 / / अत्रान्तरे प्रत्यन्तरेषु 'मोचूणओहिमरणं' इत्यादिगाथा दृश्यते, न चारया भावार्थः सम्यगवबुध्यते, नापि चूर्णिकृताऽसो व्याख्यातेति उपेक्ष्यते। सम्प्रति बालपण्डितमिरमरणस्वरूषमाहअविरयमरणं बालं, मरणं विरयाण पंडियं विति। जाणाहि बालपंडियमरणं पुण देसविरयाणं // 222 / / विरमणं विरतं-हिंसाऽनृताऽऽदेरुपरमणं न विद्यते तद् येषां तेऽमी अविरताः तेषां-मृतिसमयेऽपि देशविरतिमप्रतिपद्यमानानां मिथ्यादृशा सम्यगदृशां वा मरणमविरतमरणंबालमरणमिति बुवत इति सम्बन्धः / तथा 'विरताना' सर्वसावधनिवृत्तिमभ्युपगतानां मरण 'पण्डित' मिति प्रक्रमात्पण्डितमरणम्. "बिति त्ति' बुवते तीर्थकरगणधराऽऽदयः, जानीहि 'बालपण्डितमरणमिति मिश्रमरणं, पुनःशब्दः पूर्वापेक्षया विशयं द्योतयति, देशात् सर्वविषयाऽपेक्षया स्थूलप्राणिव्यपरोपणाऽऽ-- देविरता देशविरतारतेषामिति गाथाऽर्थः / / 222 // एवं चरणद्वारेण बालाऽऽदिमरणत्रयमभिधाय ज्ञानदारेण छद्मस्थमरणकेवलिमरणे प्रतिपादयिदुनाहमणपज्जवोहिनाणी, सुअमइनाणी मरंति जे समणा। छउमत्थमरणमेयं, केवलिमरणं तु केवलिणो // 223 / गनःपर्यवज्ञानिनोऽवधिज्ञानिनश्च, ज्ञानिशब्दस्य प्रत्येकमभिसम्बन्धात्, श्रुतज्ञानिनो मतिज्ञानिनश्च 'मियन्ते' प्राणांस्त्यजन्ति ये 'श्रमणाः' तपस्विनः छादयन्तीति छद्मानिज्ञानाऽऽवरणाऽदीनि तेषु तिष्ठन्तीति छद्मस्थाः तेषां मरण छद्मस्थमरणमेतत्, इह च प्रथमतो मनः पर्यायनिर्देशो विशुद्धिकृतप्राधान्यमङ्गीकृत्य चारित्रिण एव तदुपजायत इति स्वामिकृतप्रधान्यापेक्षो वा, एवमवध्यादिष्वपि यथायोगं स्वधियेव हेतुरभिधेयः केवलिमरणं तु ये केवलिनः-उत्पन्नकेवलाः सकलकर्मपुदलपरिशाटतो म्रियन्ते तज्ज्ञेयमिति शेषः, उभयत्राभेदनिर्देशः प्राग्व दिति गाथाऽर्थः // 223 // साम्प्रतं वैहायसगृध्रपृष्ठ (स्पृष्ट) मरणे अभिधातुमाहगिद्धाइभक्खणं गिद्धपिट्ठ उब्बंधणाइ वेहासं। एए दुन्निवि मरणा, कारणजाए अणुण्णाया।।२२४।। 'गृद्धाः' प्रतीतास्ते आदिर्येषां शकुनिकाशिवाऽऽदीना तैर्भक्षणं गम्यमानत्वादात्मनः तदनिवारणाऽऽदिना तद्भक्ष्यकरिकरभाऽऽदिशरीरानुप्रवेशेन च गृध्राऽऽदिभक्षणं, तत् किमुच्यत इत्याह-'गिद्धपिट्ट त्ति' गृधैः स्पृटस्पर्शन यस्मिस्तद्गृध्रस्पृष्टम, यदिवा-गृध्राणां भक्ष्यं पृष्ठमुपलक्षणत्वादुदराऽऽदि च मर्तुर्यस्मिस्तद् गृध्रपृष्ठम्, सहालक्तकपूणिकापुटप्रदानेनाप्यात्मानं गृध्राऽऽदिभिः पृष्ठाऽऽदौ भक्षयतीति, पश्चान्निर्दिष्टस्यापि चास्य प्रथमतः प्रतिपादनमत्यन्तमहासत्त्वविषयतया कर्मनिर्जरा प्रति प्राधान्यख्यापनार्थम्, 'उब्बंधणाइ वेहासं ति' उत्- ऊर्द्ध वृक्षशाखाऽऽदी बन्धनमुद्वन्धनं तदादिर्यस्य तरुगिरिभृगुप्रपाताऽऽदेरात्मजनितस्य मरणस्य तदुद्वन्धनाऽऽदि 'वेहासं ति' प्राकृतत्वाद्यलोपे वैहायसम्, उद्बद्धस्य हि विहायस्येव भवनमिति तत्प्राधान्यविवक्षयेत्थमुक्तम्। आह-एवं गृध्रपृष्ठस्याप्यात्मधातरूपत्वाद्वैहायसिकेऽन्तर्भावः, सत्यमेतत, केवलमल्पसत्त्वैरध्यवसातुमशक्यताख्यापनार्थस्य भेदेनोपन्यासः ननु-"भावियजिणवयणाणं, मयत्तरहियाण णत्थि हु विसेसो। अत्ताणम्मि परम्मि य, तो वजे पीडमुभए वि / / 1 / / '' इत्यागमः, एते चानन्तरोक्ते मरणे आत्मविघातकारिणी, तथा चाऽऽत्मपीडाहेतुरिति कथं नाऽगमविरोधः ? अत एव च भक्तपरिज्ञानाऽऽदिषु पीडापरिहाराय 'चत्तारि विचित्ताई, विगई णिजू० // 982 // इत्यादिसलेखनाविधिः पानकाऽऽदिविधिश्च तत्राऽभिहितः, दर्शनमालिन्यं चोभयत्रेत्याशङ्कयाऽऽह-'एते' अनन्तरोक्ते 'द्वे अपि' गृध्रपृष्ठवैहायसाऽऽख्ये मरणे'कारणजाते कारणप्रकारे दर्शनमालिन्यपरिहाराऽऽदिके उदायिनृपानुमृततथाविधाऽऽचार्यवत् अनुज्ञाते, तीर्थकृद्गणधराऽऽदिभिरिति, अनेन च सम्प्रदायानुसारिता दर्शयन्नन्यथाकथने श्रुताऽऽशातनाया अतिदुरन्त - त्वमाह। इति गाथाऽर्थः / / 224|| उत्त० पाई०५ अ०। (7) साम्प्रतमेतदेव मरणं सपराक्रमेतरभेदाद् द्विविधमिति दर्शयितुमाहसपरिक्कमे य अपरि-क्कमए य वाघाय आणुपुवीए। सुत्तत्थजाणएणं, समाहिमरणं तु कायव्वं // 264 / / 'पराक्रमः' सामर्थ्य सह पराक्रमेण वर्तत इति सपराक्रमस्तस्मिश्च मरण स्यात, तद्विपर्यये चापराक्रमेजबाबलपरिक्षीणे तद्भक्तपरिज्ञेगितमरणपादपोपगमनभेदात् त्रिविधमपि मरणं सपराक्रमेतरभेदात् प्रत्येकं द्वैविध्यमनुभवति, तदपि व्याघातिमेतरभेदात् द्विधा भवेत्, तत्र व्याघातः सिंहव्याघ्राऽऽदिकृतोव्याघातस्तुप्रव्रज्यासूत्रार्थग्रहणाऽऽदिकयाऽनुपूर्व्या विपत्रिममायुष्कक्षयमनुभवतो यो भवति सोऽव्याघात इहाऽनुपूर्वीत्युक्त, तत्र परमार्थोपक्षेपेणोपसंहरति व्याघातेनाऽनुपूर्व्या का सपराक्रमस्याऽपराक्रमस्य वा मरणे समुपस्थिते सति सूत्रार्थज्ञन कालज्ञतया समाधिमरणमेव कर्त्तव्यं, भक्तपरिज्ञेङ्गितमरणपादपोपगमनानामन्यतरद् यथासमाधि विधेयं, न वेहानसाऽऽदिक बालमरणं कर्त्तव्यमिति गाथाऽर्थः // 264 //
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________________ मरण ११४-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मरण तत्र सपराक्रममरणं दृष्टान्तद्वारेण दर्शयितुमाहसपरकममाएसो,जह मरणं होई अजवइराणं / पायवगमणं च तहा, एयं सपरकम मरणं // 265 / / सह पराक्रमेण वर्तत इति सपराक्रम, किं तत् ? मरणम्, आदिश्यतेइत्यादेशः आचार्यपारम्पर्यश्रुत्यायातो वृद्धवादो यमैतिह्यमाचक्षते, स आदेशः 'यथा' इत्युदाहरणोपन्यासार्थः, यथैतत्तथाऽन्यदप्यनया दिशा द्रष्टव्यम्, 'आर्यवरा' वैरस्वामिनो यथा तेषां मरणमभूत् तथा पादपोपगमनं च, एतच्च सपराक्रमं मरणमन्यत्राऽप्यायोज्यमिति गाथाऽर्थः // 265|| भावार्थस्तु कथानकादवसेयः, तच प्रतिद्धमेव, यथाऽऽर्यवैरैर्विस्मृतकर्णाहितश्रृङ्गवेरैः प्रमादादवगताऽसन्नमृत्युभिः सपराक्रमैरेव रथाऽऽवर्तशिखरिणि पादपोपगमनमकारीलि। साम्प्रतमपराकमंदर्शयितुमाहअपरकममाएसो, जह मरणं होइ उदहिनामाणं / पाओवगमेऽवि तहा, एवं अपरकम मरणं / / 266 / / न विद्यते पराक्रमः-सामर्थ्यमस्मिन्नित्यपराक्रम, किं तत् ? मरणं, तच यथा जङ्काबलपरिक्षीणानामुदधिनाम्नाम्आर्यसमुद्राणां मरणमभूद, अयमादेशो-दृष्टानतो वृद्धवादाऽयात इति, पादपापगमनेऽपि तथैवाऽऽदेशं जानीयाद्यथापादपोपगमनेन तेषां मरणमभूदितित, एतद्-अपराक्रम मरणं यदार्थसमुद्राणं सञ्जातमेवमन्यत्राप्यायोज्यमिति गाथाऽक्षरार्थः। भावार्थस्तु कथानकादवसेयः, तच्चेदम्- आर्यसमुद्रा आचार्याः प्रकृतिकृशा एवाऽऽसन, पश्चाच्च तैर्जङ्घाबलपरिक्षीणैः शरीराल्लाभमनपेक्ष्य तत्तित्यक्षुभिर्गच्छस्थैरेवानशनं विधाय प्रतिश्रयैकदेशे निर्हारिमं पादपोपगमनमकारि // 266|| साम्प्रतं व्याघातिममाहवाघाइयमाएसो, अवरद्धो हुज्ज अन्नतरएणं। तोसलि महिसीइहओ, एवं वाघाइयं मरणं // 267 / / विशेषेणाऽऽघातो व्याघातः-सिंहाऽऽदिकृतः शरीरविनाशस्तेन निर्वृत्तं तत्र वा भवं व्याधातिम, कश्चित्सिहाऽऽद्यन्यतरेणापराद्धो भवेद्- तेन 'यन्मरणं तद्माघातिमं, तत्र वृद्धवादाऽऽयात आदेशो दृष्टानतः, यथातोसलिनामाऽऽचार्यो महिष्याऽऽरब्धश्चतुर्विधाऽऽहारपरित्यागेन मरणमभ्युपगतवान् एतद् व्याघातिमं मरणमिति गाथाऽक्षरार्थः / भावार्थस्तु कथानकादवसेयः, तच्चेदम्- तोसलिनामाऽऽचार्योऽरण्यमहिषीभिः प्रारब्धः, तोसलिदेशे वा बहृयो महिष्यः सम्भवन्ति, ताभि, श्च कदाचिदेकः साधुरटव्यन्तर्वारब्धः, सच ताभिः क्षुद्यमानोऽनिर्वाहमवगम्य चतुर्विधाऽऽहारं प्रत्याख्यातवानि ति। आचा०१ श्रु०८ अ०१ उ०। साम्प्रतमन्त्यमरणत्रयमाहभत्तपरिण्णा इंगिणि, पाओवगमंच तिण्णि मरणाई। कन्नसमज्झिमजेहा, घिइसंघयणेण उ विसिट्ठा।।२२।। भक्तं-भोजनं तस्य परिज्ञाज्ञपरिज्ञयाऽनेकधेदमस्माभिर्भुक्तपूर्वमेत तुकं चाऽवद्यमिति परिज्ञानं, प्रत्याख्यानपरिज्ञया च "सव्वं च असणपाणं, चउव्विहं जा य बाहिरा उवही। अभितरं च उवहिं, जावजीवं च बोसिरे // 1 // " इत्यागमवचनाच्चतुर्विधाऽऽहारस्य वा यावज्जीवमपि परित्यागाऽऽत्मकं प्रत्याख्यानं भक्तपरिज्ञोच्यते, इङ्ग्यतेप्रतिनियतप्रदेश एव चेष्ट्यते अस्यामनशनक्रियायामिति इङ्गिनी, पादैः-अधः प्रसर्पिमूलाऽऽत्मकैः पिवतिपादपो-वृक्षः, उपशब्दश्चोपमेतिवत्सादृश्ययेऽपि दृश्यते, ततश्च पादपमुपगच्छति-सादृश्येन प्राप्नोतीति पादपोपगम, किमुक्तं भवति ! यथैव पादपः क्वचित् कथञ्चिन्निपतितः सममसममिति चाविभावयन्निश्चलमेवाऽऽस्ते, तथाऽयमपि भगवान् यद् यथा समविषमदेशेष्वङ्गमुपाङ्ग वा प्रथमतः पतितंन तत्ततश्चलयति। तथा च प्रकीर्णकृत् "णिचल णिप्पडिकम्मो, णिक्खिवएजंजहिं जहा अंगं। एवं पादोवगम, णीहारिं वा अणीहारि।।१।। पाओवगमं भणियं,समें विसमे पायवो जहा पडितो। णवरं परप्पओगा, कंपेज्ज जहा चलतरु व्व।।५४४॥ चः समुचये / इह चैवंविधानशनोपलक्षितानि मरणान्यप्येवमुक्तानि, अत एवाऽह-त्रीणि मरणानि, एतत्स्वरूपंच यथेदं विधेयं यचात्र सपरिकर्म अपरिकर्मच इत्यादिकं सूत्रकार एवोत्तरत्र तपोमार्गनाम्नि त्रिंशत्तमाध्ययनेऽभिधास्यतइति नियुक्तिकृता नोक्तम् / द्वारनिर्देशाचावश्यं किश्चिद्वाच्यमिति मत्वेदमाह-'कण्णस त्ति' सूत्रत्वात् कनिष्ठ-लघु जघन्यमिति यावत्, मध्यम-लघुज्येष्ठयोर्मध्ये भावि, ज्येष्ठम्-अतिशयवृद्धमुत्कृष्टमित्यर्थः, एषां द्वन्द्वः तत एतानि, धृतिः-संयमप्रति चित्तस्वास्थ्यं संहननं-शरीरसामर्थ्यहेतुः वज्रऋषभनाराचाऽऽदिताभ्यां, प्राकृतत्याचैकवचननिर्देशः, समाहाराऽश्रयणाद्वा, तुशब्दात्सपरिकर्माऽपरिकर्मताऽऽदिभिश्च विशेषणैर्विशिष्टानिविशेषवन्ति, इदमुक्तं भवति यद्यपि त्रितयमप्येतत् "धीरेणऽविमरियव्वं, कापुरिसेण वि अवस्स मरियव्वं / तम्हा अवस्समरणे, वरं खुधीरत्तणे मरिउ।।१।। संसाररंगमज्झे, धीबलसंनद्धबद्धकच्छातो। हंतूणमोहमल, हराभि आराहणपडागं॥२॥ जह पच्छिमम्मि काले, पच्छिमतित्थयरदेसियमुयारं। पच्छा निच्छयपत्थं, उवेमि अब्भुजयं भरणं // 3 // " इति शुभाऽऽशयवानेव प्रतिपद्यते, फलमपि च विमानिकतामुक्तिलक्षणं त्रयस्याऽपिसमानं, तथा चोक्तम्-"एयंपच्चक्खाणं, अणुपालेऊणसुविहिओ सम्मं / वेमाणिओ व देवो, हवेज अहवाऽवि सिज्झिज्जा / / 1 / / " तथापि विशिष्टविशिष्टतरविशिष्टतमधृतिमतामेव तत्प्राप्तिरिति कनिष्ठत्वाऽऽदिस्तद्विशेष उच्यते, तथाहि-भक्तपरिज्ञामरणमार्यिकाऽऽदीनामप्यस्ति, यत उक्तम्- "सव्वावि य अजओ, सव्वेऽवि य पढमसंघयणवञ्जा / सव्वेऽवि देसविरया, पचक्खाणेण उमरंति॥१॥" अत्र हि प्रत्याख्यानशब्देन भक्तपरिजैवोक्ता, तत्र प्राक्पादपोपगमनाऽऽदेरन्यथाऽभिधानात्, इङ्गिनीमरणं तु विशिष्अतरधृतिसंहननवतामेव सम्भवतीत्यार्यिकाऽऽदिनिषेधत एवाऽवसीयते, पादपोपगमनं तु नाम्नैव विशिष्टतमधृतिमतामेवेत्युक्तप्रायं, ततश्च वजऋषभनाराचसंहननिनामेवैतत्, उक्तं हि-"पढमम्मि य संघसणे, वट्टते सेलकुडुसामाणे / तेसिं पि य वोच्छेओ, चोद्दसपु
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________________ मरण 115 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मरण व्वीण दोच्छेए / 550 // ' कथं चान्यथैवविधविशिष्टधृति-संहननाभावे - "पुच्चभवियवरेण, देवो साहरइ कोऽवि पायाले। मा सो चरिमसरीरे वेयणं किं पि पावेज्जा / / 1 / / " तथा"देवो नेहे" नयइ, देवारणं व इंद्रभवणं वा। जहिय इट्ठा कंता, सव्वसुहा हुंति अणुभावा।।२।। उप्पण्णे उत्सग्गे, दिव्वे माणुस्सए तिरिक्खे य। सव्ये पराजिणिता, माओवगया परिहरंति // 3 // पुवावरउत्तरेहिं, दाहिणवाएहिँ आवडतेहिं। जह न वि कंपइ मेरू, तह झाणातो न वि चलति।।४।। इति मरणविभक्तिकदुक्तं महासामर्थ्य सम्भवि, किशतीर्थकरसेवितत्वाच पादपोपगमनस्य ज्येष्ठत्वं, इतरयोश्चाविशिष्टसाधुसेविततवादन्यथात्वं, तथा चाऽवादि "सव्वे सव्वऽद्धाए, सव्वण्णू सव्वकम्मभूमीसु। सव्वगुरू सव्वहिया, सब्वे मेरूसु अहिसित्ता।।१।। सव्याहिं लद्धीहिं, सव्वेऽपि परीसहे पराजित्ता। सव्वेऽविय तित्थयरा, पातोवगया उ सिद्धिगया // 2 // अवसेसा अणगारा, तीयपडुप्पण्णऽणागया सव्वे। केतीपातोवगया, पञ्चक्खाणिगिणि केती॥३॥" इति कृतं प्रसङ्गे नेति गाथाऽर्थः / / 225 / / इत्थ प्रतिद्वारगाथाद्वयवर्णनात मूलद्वारगाथायां मरणवि भक्तिप्ररूपणाद्वारमनुवर्णितम्, अधुनाऽनुभावप्रदेशानद्वारद्वयमाहसोथक्कमो अनिरुवक्कमो अदुविहोऽणुभावमरणम्मि। आउगकम्मपएसग्गणंतणंता पएसेहिं / / 22 / / सहोपक्रमेण-अपवर्तनकरणाऽऽख्येन वर्तत इति सोपक्रमश्च, निर्गत उपक्रमान्निरुपक्रमश्च द्विविधा, द्वैविध्यं चोक्तभेदेनैव, कोऽऽसौ ? अनुभागः, क्व ? 'मरणे' इत्यर्थात मरणाविषयाऽऽयुषि, तत्र हि सप्तभिरहाभिर्वाऽऽकर्गवानिव मरुषु जलगण्डूषग्रहणरूपैर्यत्पुद्रलोपादानं तदनुभागोऽतिदृढ इत्यपवर्तयितुमशक्यतया निरुपक्रममुच्यते, यत्तु षभिः पञ्चभिश्चतुर्भिर्वा आगृहीतं-दलिकं तदपवर्तनाकरणेनोपक्रम्यते इति सोपक्रम न चैतदुभयमष्यायु,क्षयाऽऽत्मनि मरणे सम्भवति, तथा एति याति च इत्यायुस्तन्निबन्धनं कर्म आयुःकर्म तस्य विभक्तुमशक्यतया प्रकृष्टा देशाः प्रदेशास्तेषामग्रंपरिमाणमायुःकर्मप्रदेशाग्रम, अनन्तानन्ता:-अनन्तानन्तसङ्ख्यापरिमिता मरणप्रक्रमेऽप्यर्थादायुः पुद्गलास्तद्विषयत्वाच मरणस्यैवमुपन्यासः किमेतावन्तः कृत्स्नेऽप्यात्मनि ? इत आह-'परसेहिं ति' प्रक्रमात सुब्व्यत्ययाचाऽऽत्मप्रदेशेषु, आत्मप्रदेशो ह्येकैकस्तत्प्रदेशैरनन्तानन्तैरावेष्टितः संवेष्टितः, तथा च वृद्धव्याख्या-'इदाणि पदेसऽग्ग-अणंताणता आउगकम्मपोग्गला जेहिं एगमेगो जीवपएसो आवेढिय परिवेढितो।'' इति गाथाऽर्थः / / 226 / / (8) सम्प्रति कति मियन्ते एकसमयेनेति द्वारमाहदुन्नि व तिन्नि व चत्तारि पंच मरणाइ अवीइमरणम्मि। कइ मरइ एगसमयंसि विभासावित्थरं जाणे / / 227 // सव्वे भवत्थजीवा, मरंति आवीइअंसया मरणं। ओहिं च आइअंतिय, दुन्नि वि एयाइ, भयणाए॥२२८|| ओहिं च आइअंतिअ, बालं तह पंडिअंच मीसं च / छउमं केवलिमरणं, अन्नुननेणं विरुज्झंति / / 226 / / द्वे वा त्रीणि वा, वाशब्दस्योत्तरत्रानुवृत्तेः चत्वारि वा पञ्च वा मरणानि वक्ष्यमाणविवक्षातः प्रक्रमादेकस्मिन् समये सम्भवन्ति, आवीचिमरणे सतीतिशेषः, अनेन चास्य सततावस्थितत्वमेतदविवक्षया चतद्व्यादिभेदपरिकल्पनेत्याह-कति नियनत एकसमये ? इति चतुर्थद्वारस्य विशेषेण भाषणं विभाषणं विभाषाव्याख्या विविधैर्वा प्रकारैर्भाषणां विभाषाभेदाभिधानं तया विस्तरःप्रपञ्चस्तं विस्तर जानीहि जानीयाद्वा, निगमनमेतत्, प्रस्तुतमेवार्थ प्रकटयितुमाह-'सर्वे' निरवशेषाः, तत् किं मुक्तिभाजोऽपीत्याह-'भवस्थजीवाः' भवन्त्यस्मिन् कर्मयशवर्तिनो जन्तव इति भवः, तत्र तिष्ठन्ति भवस्थाः, तेच ते जीवाश्चेति विशेषणसमासः, मियन्ते आवीचिकमवीचिकं वा मरणमाश्रित्येति शेषः, यताविभक्तिव्यत्ययादावीचिकेन मरणेन नियन्ते। 'सदा' सर्वकालं, 'ओहिं चति' अवधिमरण, चशब्दो भिन्नक्रमः, ततश्च आइयंतिय त्ति' आत्यन्तिकमरणं च, द्वे अप्येते 'भजनया' विकल्पनया, किमुक्तं भवति ? यद्यप्यावीविमरणवत् अवध्यात्यन्तिकमरणे अपि चतसृष्वपि गतिषु सम्भवतः तथाऽप्यायुःखयसमय एव तयोः सम्भवान्न सदाभावः, अत आवीचिकमरणमेव सदेत्युक्तम्, अनेनावीचिमरणस्य सदाभावेन लोके मरणत्वेनाप्रसिद्धिः अविवक्षायां हेतुरुक्त इति भावनीयम्। सम्प्रति 'दोन्नि वि' इत्यादि व्यक्तीकरोति-'ओहिंच आइयंतिय त्ति, चशब्दो भिन्नक्रमः, ततोऽवधिमरणमात्यन्तिकमरणं च, 'बालं' बालमरणं च, तथेत्युत्तरभेदापेक्षया समुच्चये, 'पण्डितंच' पण्डितमरणं, मिश्रच बालपण्डितमरण च, चशब्दाद्वैहायसगृध्रपृष्ठमरणे, भक्तपरिक्षेङ्गिनी पादपोपगमनानि च, अन्योन्येन परस्परेण विरुध्यन्ते, युगपदसम्भवात, तत्र चाविरतस्यावध्यात्यन्तिकमरणयोः अन्यतरदालमरणं चेतिदे, तद्भवमरणेन सह त्रीणि, वशार्तेन चत्वारि, कथाञ्चिदात्मघाते च वैहायसगृध्रपृष्ठयोरन्यतरेण पञ्च / आहबलन्मरणान्तःशल्यमरणे अपि बालमरणभेदावेव, यत आगम:"बालमरणे दुवालसविहे पन्नत्ते / तं जहा-वलायमरणे, वसट्टमरणे, अंतोसल्लमरणे, तब्भवमरणेगिरिपडणे, तरुपडणे, जलप्पवेसे, जलणप्पवेसे, जलणप्पवैसे, विसभक्खणे, सत्थोवहणणे, वेहाणसे, गिद्धपट्टेत्ति / " एतेषु च यद्यपि गिरिपतनाऽऽदिषट्कस्य वैहायस एवान्तर्भावः तथापि बलन्मरणान्तः शल्यमरणयोः प्रक्षेपे कथं नोक्तसङ्ख्याविरोधः ! उच्यते, इहाविरतस्यैव बालमरणं विवक्षितम्। उक्तं हि - 'अविरयमरणं बालमरण' अनयोस्त्वेकत्र संयमसीनेभ्यो निवर्तनम्, अन्यत्र मालिन्यमानं विवक्षित, नतुसर्वथा विरतेरभावएवेतिकथंबालमरणेसम्भवः ? तथाछदास्थमरणमपि विरतानामेव रूढमिति नोक्तसङ्ग्याविरोधः, एवं देशविरतस्याऽपि द्वयादिभङ्गभावना कार्या, नवरं बालमरणस्थाने बालपण्डितमरणं वाच्यं, विरतस्य त्ववध्यात्यन्तिकमरणयोरन्यतरत् पण्डितमरणं चेति द्वे, छद्मस्थकेवलिमरणयोश्चान्यतरदिति त्रीणि, भक्तपरिझेङ्गिनीपाद
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________________ मरण ११६-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मरण पोपगमनानामन्यतरेण सह चत्वारि, कारणिकस्य तु वैहायसगृध्रपृष्ठयोश्चान्यतरेण सह पञ्च, दृढसंयम प्रत्येवमुक्तम्, शिलिसंयमस्य त्ववध्यात्यन्तिकमरणयोरन्यतरत्, कुतश्चित्कारणाद्वैहायसगृध्रपृष्ठयोश्चान्यतरदितिद्वेकथञ्चिच्छल्यसम्भवे चान्तः शल्यमरणेन सह त्रीणि, बलन्मरणेन सह चत्वारि, छद्मस्थमरणेन तु पञ्च, पण्डितमरणस्य यथोक्तभक्तमरिज्ञानाऽऽदीनां वा विशुद्धसंयमत्वादस्याऽभाव एवेति। आह-विरतस्यावस्थाद्वयेऽपि तद्भवमरणप्रक्षेपे कथनषष्ठमरणसम्भवः ? उच्यते-विरतस्य देवेष्वेवोत्पाद इति तत्रैवोत्पत्त्यभावान्न तद्भवमरणसम्भव इति गाथात्रयाऽर्थः / / 227228 / 226 / / गतं कति म्रियन्त एकसमय इति द्वारम्। इदानी कतिकृत्वो म्रियतेएकैकस्मिन् ? इतिद्वारमाहसंखमसंखमणंता, कमो उ इकिकगम्मि अपत्थे। सत्तट्ठग अणुबंधो, पसत्थए केवलिम्मि सई॥२३०।। 'संखमसंख ति' आर्षत्वात् सङ्ख्याः -सङ्ख्याताः असङ्ख्या-अविद्यमानसङ्ख्या अनन्ता-अपर्यवसिताः, वारा इति प्रक्रमः। 'कमो उत्ति' / क्रमः-परिपाटी, तुशब्दश्च कायस्थितेरल्पबहुत्वाऽपेक्षयाऽयं ज्ञेय इति विशेषद्योतकः। 'इलेकगम्मि त्ति' एकैकस्मिन् 'अप्रशस्ते' बालमरणाऽऽदौ निरूप्यमाणे, तत्र सामान्येन पञ्चेन्द्रियाविरतदेशविरतौ च सङ्ख्याताः, शेषाः पृथिव्युदकाग्निवायुद्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियाः असजयाताः, वनस्पतयोऽनन्ताः, एते हि कायस्थित्यपेक्षया यथाकमं बहुबहुतरबहुतमस्थितिभाज इति कृत्वा / प्रशस्ते कति वारा म्रियते? इत्याह-'सत्तऽहग त्ति' सप्त बाऽष्ट वा सप्ताष्टास्ते परिमाणमस्येति सप्ताष्टकः, कोऽसौ ? 'अनुबन्धः' सातत्येन भवनं तन्मरणानामिति, ततोऽयमर्थः सप्त वा अष्ट वा वारा, म्रियते, क्व? 'प्रशस्तके' सर्वविरतिसम्बन्धिनि पण्डितमरणे, इह च चारित्रस्य निरन्तरमवाप्तयसम्भवात् तद्वत एव च प्रशस्तमरणभावादाद् व्यवधानमपि देवभवैराश्रीयते, 'केवलिनि' यथाख्यातचारित्रवति समुत्पन्नकेवले, 'सई ति' सकृद् एकमेव मरणमिति गाथाऽर्थः // 230 / / उक्तं कतिकृत्वो मियत एकैकस्मिन्निति द्वारम्। (E) सम्प्रति कतिभाग एकैकस्मिन्मरणे म्रियत इति द्वारमाहमरणे अणंतभागो, इकिक मरइ आइमं मोत्तुं / अणुसमयाऽऽई नेयं, पढमचरिमंतरं नस्थि // 231 / / 'मरणे' प्रागुक्तरूपे अनन्तभाग एकैकस्मिन् म्रियते, किं सर्वस्मिन्नपि ? नेत्याह-'आदिमम्' आवीचिमरणं, तस्यैवाऽऽद्यत्वात्, 'मुक्त्वा ' अपहाय, इयमत्र भावनाशेषमरणस्वामिनो हि सर्वजीवापेक्षया अनन्तभाग एवेति तेष्वनन्तो भागो मियत इत्युच्यते, आवीचिमरणस्वामिनस्तु सिद्धविरहिताः सर्व एव जीवाः, ते चानन्ता इति कृत्वाऽनन्तभागहीनाः सर्वे जीवा नियन्ते इत्युच्यते / उक्तं कतिभागो मियते एकैकस्मिन्निति द्वारम् / / अधुनाऽनुसमयद्वारमाह 'अणुसमय त्ति' समय समयमनु अनुसमयं वीप्सायामव्ययीभावः, ततश्चानुसमयं-सततम्, 'आदि' प्रथममावीचिमरणं' ज्ञेयम्' अवबोद्धयम, यावदायुस्तस्य प्रतिपादनात्, शेषाणां तवायुषोऽन्त्यसमय एवैकत्र भावादनुसमयतानिभिधानं, बहुसमयविषयत्वादनुसमयतायाः। तथा च वृद्धव्याख्या-"पढमे जाव आउं धरइ सेसाणं एगसमयं जहिं मरई'' 'न च मासं पायोवगया' इत्यागमेन विरोधः, तत्र पादपोपगमनशब्देन निश्चेष्टताया एवाभिधानात, मरणस्य तु तत्राप्यायुस्त्रुटिसमय एव सद्भावात्, तुः पूरणे। गतमनुसमयद्वारम्॥ इदानीं सान्तरद्वारमाह-तत्र प्रथमचरमयोरन्तरंव्यवधानं नास्ति' न विद्यते, प्रथमस्यावीचिमरणस्य सदा सम्भवात्, चरमस्य भवापेक्षया केवलिमरणस्य पुनर्मरणाभावादिति भाव इति गाथार्थः // 231 / / शेषाणामपि किमेवमित्याह - सेसाणं मरणाणं, नेओ संतरनिरंतरो उ गमो। साई सपज्जवसिया, सेसा पढमिल्लुगमणाई॥२३॥ शेषाणां मरणानाम्- अवधिमरणाऽऽदीनां पञ्चदशानां ज्ञेयः, सहान्तरेणव्यवधानेन वर्तत इति सान्तरः, निष्क्रान्तोऽन्तरान्निरन्तरश्च, तुशब्दस्य समुचयार्थत्वात् / उक्तं हि-"तुशब्दो विशेषणपादपूरणावधारणसमुच्चयेषु," कोऽसौ ? गम्यते अनेन वस्तुस्वरूपमिति गमःप्ररूपणा, इदमुक्तं भवति-यदाऽन्यतरद्वालमरणाऽऽदिकं प्राप्य म्रियते मृत्वा च भवान्तरे मरणान्तरमनुभूय पुनस्तदेवाऽऽप्नोति तदसान्तरनमिति प्ररूपणा, यदा तुवालमरणाऽऽदिकमवाप्य पुनस्तदेवाव्यवहितमाप्नोति तदा निरन्तरं भवति, तत्प्ररूपकत्वाचेह गमोऽपि सान्तरो निरन्तरश्चेत्युक्तः / / सम्प्रति गाथापश्चार्धेन कालद्वारमाह सादीनि च सपर्यवसितानि च सादिसपर्यवसितानि 'शेषाणि' षोडश वक्ष्यमाणापेक्षया अवधिमरणाऽऽदीनि, एकसामयिकतायास्तेषामभिहितत्वात् , प्रवाहापेक्षया तु शेषभोपलक्षणमेतत, प्रवाहतोऽपि भङ्गत्रयपतितानि शेषमरणानि सम्भवन्ति / तथा च वृद्धाः-"बालमरणाणि अणाइयाणि वा अपज्जवसियाणि वा, अणादियाणि वा सपज्जवसियाणि वा, पंडियमरणाणि पुण साइयाणि सपज्जवसियाणि / " मुक्त्यवाप्तौ तदुच्छित्तिसम्भवादिति भावः / 'पढमिल्लुगं ति' प्रथमकम्- आवीचिभरणम् 'अनादि' आदिरहितं प्रवाहापेक्षयेति भावः, प्रतिनियताऽऽयुःपुद्गलाऽपेक्षया तु साद्यपि सम्भवति, उपलक्षणत्वाचास्यापर्यवसितं च अभव्यानां, भव्यानां पुनः सपर्यवसितमिति गाथाऽर्थः // 232 / / सम्प्रत्यतिगम्भीरतामागमस्यदर्शयन्नात्मौद्धत्यपरिहारायाऽह भगवान् नियुक्तिकारःसव्वे एएदारा, मरणविभत्तीइ वण्णिआ कमसो। सगलणिउणे पयत्थे, जिणचउदसपुवि भासंति॥२३३|| 'सर्वाणि' अशेषाणि'एतानि' अनन्तरमुपदर्शितानि'द्वाराणि' अर्थप्रतिपादमुखानि 'मरणविभक्तेः' मरणविभक्त्यपरनाम्नोऽस्यैवाध्ययनस्य 'वर्णितानि' प्ररूपितानि, मयेति शेषः / कमसो त्ति' प्राग्वत् क्रमतः, आह-एवं सकलाऽपि मरणवक्तव्यतोक्ता, उत नेत्याह-सक लाश्च समस्ता निपुणाश्च-अशेषविशेषकलिताः सकलनिपुणाः तान् पदार्थान् इह प्रशस्तमरणाऽऽदीन् जिनाश्च केवलिनः चतुदर्शपूर्विणश्चप्रभवाऽऽदयो जिनचर्तुदर्शपूर्विणो 'भाषन्ते'
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________________ मरण 117- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मरण ध्यतामभिदधति अहं तु मन्दमतित्वान्न तथा वर्णयितुं ज्ञम इन्य भप्रायः / स्वां चतुर्दशपूर्वित्वेऽपि यातुर्दशपर्युपादानं तलेयामपि पटर थानपतितत्वन शेपमहात्म्यक्कापनपरमदुष्टमेव / भाष्यगाथा वा द्वारगथाद्वयादारभ्य लक्ष्यन्त इति प्रेर्यऽनवकाश एवा इति गाथार्थः / / 233 / / (10) इहेव प्रशस्ताऽप्रशस्तमरणविभागमाहएगंतपसत्था तिणि इत्थ मरणा जिणेहँ पण्णत्ता। मत्तपरिण्णा इंगिणि, पाउदगमणं च कमजिटुं / / 234 / / एकान्तेन-नियमेन प्रशस्तानि-श्लाध्यानि, 'त्रीणि त्रिसङ्ख्यानि, 'अ' एतेष्वनन राभिहितेषु, मरणेषु मरणानि, 'जिनेः' केवलिभिः, 'प्रज्ञाप्तानि' प्ररूपितानि / तान्येवाऽऽह-भक्तपरिज्ञा, इङ्गिनी, 'पायवगमणं च' इति। पादपोपगमने च। इदमाये त्रयं किमकरूपम् ? इत्याहक्रमेग-परिपाट्या ज्येष्ठम् - अतिशयप्रशस्यं क्रमज्येष्ठ. यथोत्तरं प्रधानमिति भावः / शेषमरणान्यपि यानि प्रशस्तानि तेषामत्रैवान्तभावः / इतराणि कानिचित कश्चित् प्रशस्तानि, अपराशि तु सर्वथैवाऽप्रशस्तानि / इतति गाथार्थः / / 234 / / इह च येनाऽधिकारस्तदाहइत्थं पुण अहिगारो, णायव्वो होइ मणुअमरणेणं / मुतुं अकाममरणं, सकाममरणेण मरियव्वं / / 235 / / 'अत्र' एतेषु मरणेषु, पुन्नःशब्दो वाक्योपन्यासार्थः अधिकारी, ज्ञातव्यो भवति मनुजमरागन / किमुक्तं भवति? मनुष्य भवसम्भविना पण्डितभरणाऽदिना, तान्येव प्रत्युपदेशप्रवृत्तेः / सम्प्रत्युक्तार्थसंक्षेपद्वारे-- | णो प्रदेशसर्वस्वगाह-मुक्त्वा अकारमरणं बालमरणाऽऽद्यमप्रशस्तम, 'सकाममरणेन' भक्तपरिज्ञाऽदिना प्रशस्तन, गर्तव्यम, इति गाथार्थः / / 235 / / गता नामानेष्पन्ननिक्षेपः। सम्प्रति सूत्रानुगमे सूत्रमुच्चारणीय, तधेदम् - अण्णवंसि महोहंसि, एगे तरइ दुरुत्तरं / तत्थ एगे महापण्णे, इमं पण्हमुदाहरे / / 1 / / अर्णो -जलं विद्यते यासावर्णवः "अर्णसो लोपश्च" (पा०५-२- | 106 वार्निकम इति वप्रत्ययः सकारलोपश्च, स च द्ररयतः जलधिः, भावतश्च- संसारः एतस्मिन् कीदृशि? महोहरि ति महानाधः-प्रवाही द्रव्यतो - जलसम्बन्धी भावतस्तु-भवपरम्पराऽऽमकः, प्राणिनामत्यन्तमाकुलीकरणहेतुः चरकाऽऽदिमतसमूहो वा यस्मिन् स महोधः तस्मिन, महत्वं च-उभयत्रा गाधतया अदृष्टपरपारतथा च मन्तव्यम्। तत्र किम ? इन्याह-'एफ' इति / असहायो रागद्वेषाऽऽदिसहभावटिरहितो, गौप्रतिभाऽदिरित्यर्थः / 'तरति' परं परमाप्नोति, तत्कालापक्षया वर्तमाननिर्देशः। दुरुत्तरं ति विभतिथ्यत्ययाद्दुरुत्तरे दुःखेनोत्तरितु शक्ये, दुरुतरमिति क्रिया विशेषणं वा, न हि यथाऽसी तरति तथाऽपरैर्गुरुकर्मभिः सुखेनैव तीर्यते अत एव 'एक इति' सङ्ख्यावचनो वा, एक एव-जिनमतप्रतिपन्ना नतु चरकाऽऽदिमताऽकुलितचेतसोऽन्ये तथा तरितु मीशत इति।' मवेति' गौतमाऽऽदौ तरणप्रवृत्तेः, 'एक' इति तथाविध तीर्थकर नामकर्मोदयादनुत्तरावामविभूतिरद्वितीयः / किमुक्त भवति? तीथकरः स ह्येक एव भरते सम्मवतीति। 'महापण्णे त्ति' महतीनिरावरणतया अपरिमाणा प्रज्ञा केवलज्ञानाऽत्मिका संवित् अस्येति महाप्रज्ञः / स किम् ? इत्याह-'इभम' अनन्तरवक्ष्यमाणं हृदि विपरिवर्तमानतया प्रत्यक्ष प्रक्रमात्तरणोपायम्, 'पट्टति' स्पष्टम्- असन्दिग्धम् / पठ्यते च -'पण्हं ति' पृच्छयत इति-प्रश्नम्, प्रष्टव्यार्थरूपम् ‘उदाहरे त्ति' भूत लिट , तत उदाहरेद्- उदाहृतवान्। पठ्यते च-'अण्णवंसि माहेवंसि, एगे तिण्णे दुरुत्तर' इति / अत्र सुब्ब्यत्यये विशेषः, ततश्चअर्णवाद महौघाद् दुरुत्तरात् तीर्ण इव तीर्णः-तीरप्राप्त इति योगः, एको धातिक साहित्यरहितः, 'तत्रेति सदेवमनुजायां परिषदि, एकःअद्वितीयः, सच तीर्थकृदेव, शेष प्राग्वत् / इति सूत्रार्थः / / 1 / / यदुहाहृतवांस्तदेवाऽऽहसन्ति मेए दुवे ठाणा, अक्खाया मारणंतिया। अकाममरणं चेव, सकाममरणं तहा / / 2 / / सन्तीति प्राकृतत्वात् वचनव्यत्ययेन स्तः-विद्येते, 'इमे' प्रत्यक्षे, चः पूरणे, पठ्यते च- सति मए त्ति स्तएते, मकारोऽलाक्षणिकः, एवमन्यत्राऽपि यत्र नोच्यत तत्र भावनीयम्। 'द्वे' द्विसङ्खये तिष्ठन्त्यनयार्जन्तव इति स्थाने 'आख्याते' पुरातनतीर्थकृद्भिरपि कथिते. अनेन तीर्थकृत परस्पर वचनाऽच्याहतिरुपदर्शिता / ते च कीदृशे ? मारणं तिए त्ति' मरणमेव अन्तोनिजनिजाऽऽयुषः पर्यन्तो मरणान्तः तस्मिन् भवे मारणान्तिके, त एव नामत उपदर्शयति- 'अकाममरणम्' उक्तरूप, अनन्तरवक्ष्यमाणरूपं च, वक्ष्य माणापेखया चः समुच्चये, एवेति पूरणे, 'सकाममरणम्' उक्तरूप वक्ष्यमाणस्वरूपं च तथा। इति सूत्रार्थः / / 2 / / केषां पनरिदं कियत्कालंच? इत्यत आहदालाणं अकामं तु, मरणं असतिं भवे। पंडियाणं सकामं तु, उक्कोसेण सतिं भवे // 3 // बाला इथ बालाः सदसद्विवेकविकलतया तेषाम् 'अकामं तु त। तुशब्दस्यैवकारार्थत्वात् अकाममेव मरणम्, असकृद्- वारंवार भवेत, ते हि विषयाभिष्वङ्गतो मरणमनिच्छन्त एव मियन्ते, तत एव च भवाऽटवीमटन्ति / 'पण्डिमानां चारित्रवता' सह कामेन-अभिलाषेण वर्तते इति सकाम सकाममिव सकामं मरणं प्रति असंत्रस्ततया, तथात्व चोत्सवभूतत्वात तादृशां मराणस्य / तथा च वाचक:-"सञ्चिततपोधनाना, नित्य व्रतनियमसंयमरतानाम् / उत्सवभूतं मन्ये, मरणमनपराधवृतीनाम॥१॥" न तुपरमार्थनः तेषां सकाम सकामत्वं, मरणाभिलाषास्याऽपि निषिद्धत्वात् / उक्तं हि-''मा मा हु विचिंतेजा, जीवामि चिरं मरामि य लहु ति / जइ इच्छसि तरिउ जे, संसरमहोदहिमपार // 1 // " इति। तुः पूर्वीपेक्षया विशेषद्योतकः, तच्च 'उत्कर्षेण उत्कर्षोपलक्षित, केवलिसम्बन्धीत्यर्थः / अ केवलिनो हि संयमजीवितं दीर्घमिच्छेयुरपि, मुक्त्यवाप्तिरितः स्यादिति / केवलिनस्तु तदपि नेच्छन्ति, आस्ता भवजीवितमिति / तन्मरणास्योत्कर्षेण सकामता, सकृद्' एकवारमेव भवेद्, जघन्येन तु शेषचारित्रिणः सप्ताऽष्ट वा वाराम् भवेदित्याऽऽकूतम् / इति सूत्रार्थः / / 3 / /
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________________ मरण 118 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मरण यदुक्तं-स्त इमेद्वे स्थाने' तत्राऽऽयं तावदाहतत्थिमं पढमं ठाणं, महावीरेण देसियं। कामगिद्धे जहा वाले, भिसं कूराणि कुव्वति // 4 // 'तत्रेति तयोरकामगरणसकाममरणाऽऽख्ययोः स्थानयोर्मध्ये, 'इदम्' अनन्तस्मभिधास्यमानरूपं, 'प्रथमम् ' आद्य स्थानम्, 'महावीरेणति' चरमतीर्थकृता, 'तत्रैको महाप्रज्ञः' इति मुकुलितोक्तेरभिव्यक्त्यथमेतत् / 'देशित' प्ररूपितम्। किंतत् ? इत्याह-'कामेषु-' इच्छाभदनाऽऽत्मकेषु 'गृद्धः-' अभिकासावान् कामगृद्धो, 'यथा' इत्युपप्रदर्शनार्थः, 'बालः' इत्युकरूपो, 'भृशम् अत्यर्थ, 'क्रूराणि' रौद्राणि, कर्माणि इतिगम्यते। तानि च प्राध्यपरोपणाऽऽदीनि, 'कुव्वति त्ति' करोति-क्रियायाऽभि- | निर्वयिति. शतावशतावपि क्रूरतया तन्दुलमत्स्यवन्मनसा कृत्वा च | प्रक्रमादयःम एव मियते / इति सूत्राऽर्थः / 4 / / इदमेव ग्रहणकवाक्यं प्रपञ्चयितुमाहजे गिहे कामभोगेसु, एगे कूडाय गच्छइ / न मे दिट्टे परे लोए, चक्खुट्ठिा इमा रती / / 5 / / 'य' पति-अनिर्दिष्टस्वरूपो, गृद्धः, काम्यन्त इति कामाः, भुज्यनत इति भागाः, ततश्च, कामाश्च ते भोगाश्च कामभोगाः, तेषु-अभिलषजीसशब्दाऽऽदिषु, यद्वा-कामौ च शब्दरूपाऽऽख्यौ भोगाश्च स्पर्शरसग Tऽख्याः कामभोगाः तेषु / उक्तं हि-'कामा दुविहा पण्णत्ता सद्दा, रूवा या (कामानामनेकविधत्वम् 'काम' शब्दे तृतीयभागे 431 पृष्ठ गतम्) 'भोगा तिविहा पण्णत्ता / तं जहा- गंघा, रसा, फासा य।' इति (किं स्वरूपाः भोगा इति 'भोग' शब्दे पञ्चमभागे 1610 पृष्ठे उक्तम्) | (कामभोगाः कतिविधा इति 'कामभोग' शब्दे तृतीयभागे 442 पृष्ठे | विस्तरः) एकः कश्चित्क्रूरकर्मा तन्मध्यात् कूटमिव कूटं प्रभूतप्राणिना यातनाहेतुत्वान्नरक इत्यर्थः। यथैव हि कूटनिपतितो मृगो व्याधैरनेकधा हन्यते, एवं नरकपतितोऽपि जन्तुः परमाधार्मिकरिति, तस्मै कूटाय, 'गत्यर्थकर्मणि द्वितीयाचतुथ्यौ० (पा०२-३-१२) इत्यादिना चतुर्थी, 'गच्छति' याति / यद्वा-यो गृद्धः 'कामभोगेष्विति' कामेषु स्त्रीसङ्गेषु भोगेषु धूपनविलेपनाऽऽदिषुस एकः सुहृदादिसाहाय्यरहितः कूटाय गच्छति, अथवा-कूट द्रव्यतो, भावतश्च ।तत्र द्रव्यतो मृगाऽऽदिबन्धनम्, भावतस्तुमिथ्याभाषणाऽऽदि तस्मै गच्छतीत्यनेकार्थत्वात् प्रवर्तते, स हि मांसाऽऽदिलोलुपतया मृगाऽऽदिबन्धनान्यारभते, मिथ्याभाषणाऽदीनिचाऽऽसेचत इति, प्रेरितश्च कैश्चिद्वदति-'न मे' इति / न मया 'दृष्टः' अवलोकितः, कोऽसौ ? 'परलोको' भूतभाविजन्माऽऽत्मकः, कदाचिद्विषयाभिरतिरप्येवंविधैव स्यात् ? अत आह-चक्षुषा लोचनेन दृष्टाप्रतीता चक्षुर्दृष्टा इयम्' इति / तामेव प्रत्यक्षां निर्दिशतिरम्यतेऽस्यामिति रतिः, स्पर्शनाऽऽदिसम्भोगजनिता चित्तप्रवत्तिः / तस्यायमाशयःकथं दृष्टपरित्यागतोऽदृष्टपरिकल्पनयाऽऽत्मानं विप्रलभेयम् / इति सूत्रार्थः / / 5 / / पुनस्तदाशयमेवाभिव्यञ्जयितुमाहहत्थाऽऽगया इमे कामा, कालिया जे अणागया। को जाणइ परे लोए ? अस्थि वा नऽऽस्थि वा पुणो // 6 / / हसन्ति तेनाऽऽवृत्य मुखंधन्ति वा धात्यमनेनेति हस्तस्तम् आगताः- प्राप्ताः हस्ताऽगताः, उपमार्थोऽत्र गम्यते, ततो हस्ताऽगताः इव स्वाधीनतया, क एते? 'इमे' प्रत्यक्षोपलभ्यमानाः काम्यन्त इति कामाःशब्दाऽदयः, कदाचिदागामिनोऽप्येवंविधा एव स्युरित्याह-काले सम्भवन्तीति कालिकाः-अनिश्चितकालान्तरप्राप्तयो ये 'अनागताः भाविजन्मसम्बन्धिनः, कथं पुनरमी अनिश्चितप्राप्तय इत्याह-'को जाणइ त्ति' उत्तरस्य पुनःशब्दस्येह सम्बन्धनात् कः पुनर्जानाति ? नैव कश्चित्, यथा-परलोकोऽस्ति नास्ति वेति / अयं चास्याऽऽशयः-परलोकस्य सुकृताऽऽदिकर्मणा वाऽस्तित्वनिश्चयेऽपि-'को हि हस्तगतं द्रव्यं, पादगामि करिष्यति' इति न्यायतः क इव हस्ताऽऽगतान् कामान्पहाय कालिककामाऽर्थ यतेत, तत्त्वतस्तु परलोकनिश्चय एव न समस्ति, तत्र प्रत्यक्षस्याऽप्रवृत्तेः। अनुमानस्य तु प्रवृत्तावपि गोपालघटिकाऽदिधूमादग्रयनुमानवदन्यथाऽप्युपलम्भनान्निश्चायकत्वासम्भवान्न ततस्तदस्तित्वनिश्चयो, नास्तित्वनिश्चयो वा, किन्तु-सन्देह एव।नत्वयमेवं विवेचयति-यथाऽवाप्ता अपि कामा दुरन्ततया त्यतुमुचिताः, दुरन्तत्वं च तेषां शल्यविषाऽऽदिभिरुदाहरणैः प्रतीतमेव। तथा च वक्ष्यति- सल्लं कामा विसं कामा, कामा आसीविसोवडा / कामे पत्थेभाणा, अकामा जति दुग्गति॥१॥" न हि विषाऽऽदीनि मुखमधुराण्यप्यायतिविरसतया विवेकिभिर्न हीयन्ते। यदपि परलोकसन्देहाऽभिधान, तदपिन पापपरिहारोपदेशं प्रति बाधक, पापनुष्ठानस्येहैव चौर पारदारकाऽऽदिषु महाऽनर्थ हेतुतया दर्शनात् / परलोकनास्तित्वाऽनिश्चये च-तत्राः पि तथाऽनर्थहेतुतया सम्भावयमानत्वावल्मीककरप्रवेशनाऽऽदिवत् प्रेक्षावद्भिः परिहतुमुचितत्वात, न च परलोकास्तित्वं प्रति सन्देहः / तन्निश्चायकाऽनुमानस्य तदहतिबालकस्तनाभिलाषाऽऽदिलिङ्गबलोत्पन्नस्य तथाविधाध्यक्षवदव्यभिचारित्वेन तत्र तत्र समर्थितत्वादित्यल प्रसङ्गेन। इति सूत्रार्थः // 6 // अन्यस्तुकथञ्चिदुत्पादितप्रत्ययोऽपि कामान् परिहर्तुमशक्नुवन्निदमाहजणेण सद्धि होक्खामि, इति बाले पगभइ। कामभोगाऽणुरागेणं, केसं संपडिवजह // 7il जायत इति जनो-लोकः, तेन 'सार्ध ' सह भविष्यामि, केमुक्तं भवति ? बहुजनो भोगाऽऽसङ्गी तदहमपि तदतिं गमिष्यामि, यदा'होक्खामि त्ति' भोक्ष्यामिपालयिष्यामि, यथा ह्ययं जनः कलात्राऽऽदिक पालयति तथाऽहमपि, न हीयान् जनोऽज्ञ इति, बालः-अज्ञः 'प्रगल्भते' धाव॑मवलम्वते. अलीकवाचालतया च स्वयं नष्टः परग्नपि नाशयति, न विवेचयति यथा-किमुन्मार्गप्रस्थितेऽनाविवेकिजनेन बहुनाऽपि ? मम विवेकिनः प्रमाणीकृतेन ? स्वकृतकर्मफलभुजा हि जन्तवः, स चैवं कामभोगेषु-उक्तरूपेषु अनुरागः-अभिष्वङ्ग कामभागानुराग:-तेन 'क्लेशम्' इह परत्र च विविधबाधाऽऽत्मकं, सम्प्रतिपद्यते' प्राप्नोति / इति सूत्रार्थः / / 7 / / यथा च कामभोगाऽनुरागेण क्लेशं संप्रतिपद्यते तथा वक्तुमाहतओ दंडं समारभति, तसेसुं थावरेसु य। अट्ठाए य अणट्ठाए, भूयग्गामं विहिंसइ / / 8 / / 'तत' इति / कामभोगानुरनामात् (से इति) स धार्य -
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________________ मरण 116 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मरण वान् दण्डयते संयमसर्वस्वापहरणेनाऽऽत्मा अनेनेति दण्डः भनोदण्डाऽदिस्तं 'समारभते' प्रवर्तत इति, केषु ? त्रस्यःन्तितापाऽद्युपतप्तौ छायाऽऽदिकं प्रत्यभिसर्पन्तीति त्रसाःद्वीन्द्रियाऽदयस्तेषु, तथा शीताऽऽद्युपहृता अपि स्थानान्तरं प्रत्यनभिसर्पितया स्थानशीलाः स्थावरास्तेषु च, अर्थः-प्रयोजनं वित्तवाप्तयाऽऽदिः तदर्थमर्थाय, चस्यव्यवहितसम्बन्धत्वात् अनर्थाय च-यदात्मनः सुहृदादेर्वा नोपयुज्यते, ननु किमनर्थमपि कश्चिदृदण्ड समारभते, एवमेतत् तथाविधपशुपालवत्। तत्र सम्प्रदायः-यथैकः पशुपालः प्रतिदिनं मध्याह्नगते रवौ अजासु महान्यग्रोधतरुं समाश्रितासु "तत्थुत्ताणतो णिविण्णो वेणुविदलेण अजोद्रीर्णकोलास्थिभिः तस्य वटस्य पत्राणि छिद्रीकुर्वन् तिष्ठति, एवं तेन स वटमादपः प्रायसश्छिद्रपत्रीकृतः, अन्नया तत्थेगो राथपुत्तो दातियधाडितोतच्छायसमस्सितोपेच्छएयतस्य वडस्ससर्वाणि पत्राणि छिद्रितानि, तोतेण सोपसुपालतो पुच्छितो-केणेयाणि पुत्राणि छिद्दिकयाणि ? तेण भण्णइ-मया, एयाणि क्रीडापूर्वं छिद्रितानि, तेण सो बहुणा दव्वजाएण विलोभेउं भण्णंति-सक्केसि जस्साहंभणामि तस्स अच्छीणि छिद्देउं ? तेण भण्णाति-छुडु अब्भासत्थो होउं तो सक्केमि। तेण णयरं नीतो, रायमग्गसन्निविटे घरे ठवितो, तस्स रायपुत्तस्य भाया राया, सो तेण मग्गेण अस्सवाहणियाए णिज्जई, एएण भण्णति-एयस्स अच्छीणि पाडेहि त्ति, तेण यगोलियधणुएण तस्स णिग्गच्दमाणस्स दो वि अच्छीणि पाडियाणि, पच्छा सो रायपुत्तो रायाजातो, तेण यसो पसुपालो भण्णतिब्रूहि वरं, किं तं प्रयच्छामि? तेण भण्णतिमज्झ तमेव गामं देहि जत्थ अच्छामि, तेण सो दिण्णो, पच्छा तेण तम्मि पच्चंतगामे उच्छू रोविओ तुंबीतो' य, निप्फणण्णेसु तुंबाणि गुले सिद्धिउ तं गुडतुंबयं भुक्त्वा 2 गायति सः-"अट्टमट्टच सिक्खिज्जा, सिक्खियं ण णिरत्थयं / अट्टमट्टमसाएण, भुंजए गुडतुंबयं / / 1 / / " तेण ताणि वडपत्ताणि अणट्ठाए इत्युक्तं, तत्किमसावारम्भमात्र एवावतिष्ठत इतयाह-'भूयग्गाम ति' भूताःप्राणिनस्तेषां ग्रामः-समूहस्तं विविधैः प्रकारैर्हिनस्तिव्यापादयति, अनेन च दण्डत्रयव्यापार उक्तः। इति सूत्रार्थः।।८|| किमसौ कामभोगानुरागेणैतावदेव कुरुते ? उतान्यदपीत्याहहिंसे बाले मुसावाई, माइल्ले पिसुणे सढे। मुंजमाणे सुरं मंसं, सेयमेयंति मन्नइ हिंसनशीलो हिंस्त्रः अनन्तरोक्तनीत्या, तथैवंविधश्च सन्नसौ 'बालः' उक्तरूपो 'मृषावादीति' अलीकभाषणशीलः, 'माइल्ले त्ति' मायापरवञ्चनोपायचिन्ता तद्वान्, 'पिशुनः' परदोषोद्घाटकः 'शठः तत्तन्नेपथ्यादिकरणतोऽन्यथाभूतभात्मानमन्यथा दर्शयति, मण्डिकचौरवत्। (तच्छूलारोपणकथा 'मंडिय' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 21 पृष्ठेगता) अत एव च भुजानः 'सुरां' मद्यं 'मांसं पिशितं 'श्रेयः' प्रशस्यतरमेतदिति मन्यते, उपलक्षणत्वात् भाषते च-"न मांसभक्षणेदोषो, न मद्ये न च मैथुने।" इत्यादि, तदनेन मनसा वचसा कायेन चासत्यत्वमस्योक्तम्। इति सूत्राऽर्थः // 6 // (१-सुष्टु, २-याति, ३-तिष्ठामि, ४-तुम्ब्य, ५-पक्त्वा / ) पुनस्तद्वक्तव्यतामेवाऽऽहकायसा वयसा मते, वित्ते गिद्धे य इत्थिसु। दुहओ मलं संचिणइ, सिसुनागु व मट्टियं // 10 // 'कायस त्ति' सूत्रत्वात्, कायेन-शरीरेण, वचसा-वाचा उपलक्षणत्वात् मनसा च 'मत्तो' दृप्तः, तत्र कायमत्तो मदान्धगजवत् यतस्ततः प्रवृत्तिमान्, यद्वाऽहो अहं बलवान् रूपवान् वा, इतिचिन्तयन् वच सा स्वगुणान् ख्यापयन्, अहो अहं सुस्वर इत्यादि वा चिन्तयन, मनसा च मदाऽऽध्मातमानसः अहो अहमवधारणाशक्तिमानिति वा मन्वानो वित्ते' द्रविणे, 'गृद्धो' गृद्धिमान्, चशब्दो भिन्नक्रमः, ततः स्त्रीषु च गृद्धः, तत्र वित्ते गृद्ध इति अदत्ताऽऽदानपरिग्रहोपलक्षणं, तद्भावभावित्वात्तयोः, स्त्रीषु गृद्ध इत्यनेन मैथुनाऽऽसेवित्वमुक्तं, स हि स्रियः संसारसर्वस्वभूता इति मन्यते, तथा चतद्वचः-"सत्यं वच्मि हितं वच्मि, सारं वच्मि पुनः पुनः। अस्मिन्नसारे संसारे, सारं सारङ्गलोचनाः // 1 // " तदभि रतिमांश्च मैथुनाऽऽसेव्येव भवति, स एवंविधः किम् ? इत्याह-'दुहओत्ति द्विधाद्वाभ्यां रागद्वेषात्मकाभ्यां बहिरन्तः-प्रवृत्त्यात्मकाभ्यां वपा प्रकाराभ्यां, सूत्रत्वाद् द्विविधं वा इहलोकपरलोकवेदनीयतया पुण्यपापात्मकतया वा, 'मलम्' अष्टप्रकारं कर्म 'संचिनोति' बध्नाति, क इव किमित्याह'शिशुनागो' गण्डूपदोऽलस उच्यते, स इव मृत्तिका, सहि स्निग्धतनुतया बही रेणुभिरवगुण्ड्यते, तामेव चाश्नीते, इति बहिरन्तश्च द्विधाऽपि मलमुपचिनोति, तथाऽयमपि, एतद्दृष्टान्ताऽभिधाने त्वयमभिप्रायोयथाऽसौ बहिरन्तश्चोपचितमलः खरतरदिवाकरकरनिकरसंस्पर्शतः शुष्यन्निहैव क्लिश्यति विनाशं चाप्नोति, तथाऽयमप्युपवितमलः आशुकारिकर्मवशत इहैव जन्मनि क्लिश्यति विनश्यति च / इति सूत्रार्थः // 11 // अमुमेवार्थ व्यक्तीकर्तुमाहतओ पुट्ठो आयंकेण, गिलाणो परितप्पति। पभीओ परलोगस्स, कम्माणुप्पेही अप्पणो॥११॥ 'तओ त्ति' तकः, ततो वा दण्डाऽऽरम्भणाधुपार्जितमलतः, स्पृष्टः, केन ? 'आतङ्केन' आशुघातिना शूलविशूचिकाऽऽदिरोगेण तत्तदुःखोदयाऽत्मकेन वा 'ग्लान' इति मन्दोपगत हर्षो वा, परीतिसर्वप्रकारंतप्यते। किमुक्तं भवति? बहिरन्तश्च खिद्यते, 'प्रभीत' इति प्रकर्षण त्रस्तः, कुतः ? 'परलोगस्स त्ति परलोकात्, सुब्ब्यत्ययेन पञ्चम्यर्थे षष्ठी, किमिति ? क्रियत इति कर्म-क्रिया तदनुप्रेक्षत इत्येवंशीलः कर्मानुप्रेक्षी, यत इति गम्यते, कस्य ? आत्मानः, स हि हिंसाऽलीकभाषणादिकामात्मचेष्टां चिन्तयन् न किञ्चिन्मया शुभमाचरितं, किंतु-सदैवाजरामरवचेष्टितमिति चिन्तयश्चेतस्याऽतधुत्तश्च तनावपि खिद्यते, भवति हि विषयाकुलितचेतसोऽपि प्रायः प्राणोपरम- / समयेऽनुतापः / तथा चाऽऽहु:-"भवित्री भूतानां परिणतिमनालोच्य नियतां, पुरा यद्यत्किञ्चिद्विहितमशुभं यौवनमदात्। पुनः प्रत्यासन्ने महति परलोकैकगमने, तदेवैकं पुंसां व्यथयति जराजीणवपुषाम्॥१॥" इति सूत्राऽर्थः // 11||
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________________ मरण 120- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मरण अमुमेवार्थ व्यक्ती कर्तुमाहसुया मे णरए ठाणा, असीलाणं च जा गती। बालाणं कूरकम्माणं, पगाढा जत्थ वेयणा / / 12 // 'सुय त्ति' श्रुतानि-आकर्णितानि 'मे' इति / मया 'नरके' सीमन्तकादिनाम्नि, कानि? 'ठाणा' इति लिङ्गव्यत्ययेनोत्पत्तिस्थानानि घटिकाऽऽलयाऽऽदीनि येष्वतिसस्पीडिताङ्गादुःखमाकृष्यमाणाः बहिनिष्क मन्।ि जन्तवः, यद्वा-नरके-रत्नप्रभादिनरकपृथिव्यात्मक | स्थानानि सीमन्तकाप्रतिष्ठादीनि कुम्भीवैतरण्यादीनि वा, अथवा स्थानाने-सागगेपमाऽऽदिस्थित्यात्मकानि, तत्किमियताऽपि परितप्यत इत्यत आह.-'अशीलानाम्' अविद्यमानसदाचाराणां या गतिर्नरकाऽत्मिका सान्द्र श्रुतेति सम्बन्धः, कीदृशानाम् ? 'बालानाम् अज्ञानां 'क रकम हिस्त्रमृषाभाषकाऽदीनाम्, कीदृशी गतिरित्याह-प्रगाढा नाम अन्युकाटतया निरन्तरतया च प्रकर्षवत्यो, 'यत्र' यस्यां गतो, वेधन्त इति वदनाः-शीतोष्णशाल्मल्याश्लेषणादयः, तदयमस्याशयःसमें विधानुष्ठानस्रोदृश्येव गतिः। इति सूत्रार्थः / / 12 / / तथातत्थोववाइयं ठाणं, जहा मे तमणुस्सुयं / आहाकम्मेहिं गच्दन्तो, सो पच्छा परितप्पति // 13 // 'तति' नरकेषु उपपाते भवमोपपातिक स्थान स्थितिः 'यथा' येन प्रकारेण, भवतीति शेषः, 'गे' मया तदित्यनन्तरोक्तपरामर्श अनुश्रुतम अबधारित, गुरुभिरुच्यमानामिति शेषः, औपपातिकमिति च बुवतोऽयाथमाशयः-यदि गर्भजत्वं भवेत् भवेदपि तदवस्थायां छेदभेदादिनारकदुःखान्तरम्, औषपातिकत्वे त्वन्तमुहूर्तानन्तरमेव तथाविधवेद- | नादय इति कुतस्तदन्तरसम्भवः? तथा च-'आहाकम्मेहिं ति' आधानमाधाकरणम, आत्मनेति गम्यते, तदुपलक्षितानि कर्माणि, आधाकर्माणि तेः आधाकर्मभिः-स्वकृतकर्मभिः, यद्वा आर्षत्वात, 'आहे ति' आधाय कृत्या, कर्माणीति गम्यते, ततस्तैरेव कर्माभिः, 'गच्छन्' यान, प्रकमान्नरक, यद्वा-'यथा कर्मभिः गमिष्यमाणगत्यनुरूपैः तीव्रतीव्रतराद्यनुभावान्वितर्गच्छंस्तदनुरूपमेव स्थानं, 'स' इति बालः, 'पश्चाद' इत्यायुषि हीयमाने 'परितप्यते' यथा धिङ्नामसदनुष्ठायिनं, किमिदानी मन्दभाग्यः करोमि ? इत्यादि शोचते। इति सूत्रार्थः / / 13 / / अमुमेवार्थ दृष्टान्तद्वारेण दृढयन्नाहजहा सागडिओ जाणं, संमं हिचा महापहं। विसमं मग्गमोतिण्णो, अक्खभग्गम्मि सोयइ // 14 // 'यथा' इत्युदाहरणोपन्यासार्थः / शक्नोति शक्यते वा धान्यादिकमनेन वोदमिति शकटे तेन चरतिशाकटिकः गन्त्रीवाहकः 'जाणं ति' जाननवबुध्यमानः 'समम्' उपलादिरहितं हित्वा' त्यक्त्वा, कम? महाश्चासौ विस्तीर्णतया प्राधान्येन च पन्थाश्च महापथः, ''ऋक्पूरब्धूः पथामनक्षे" (पा०५-४-७४) इत्यकार: समासान्तः, तं 'विषमम्' उपलाऽऽदिसङ्कल मार्ग पन्थानम् 'ओतिण्णे त्ति' अवतीर्णः-गन्तुमुप- / क्रान्तः पठ्यते च-'ओगाढो त्ति तत्र चाऽवगाढ आरूढः प्रपन्नः इति चैकोऽर्थः, अश्नीत नवनीतादिकमित्यक्षोधूः तस्य भङ्गोविनाशः अक्षभन तस्मिन्, पाठान्तरतश्चाऽक्षे भग्ने, शोचते यथा-धिड् मम परिज्ञानं यजानन्नपीथमपायमवाप्तवान् / इति सूत्रार्थः / / 14 / / सम्प्रत्युपनयमाहएवं धम्म विउक्कम्म, अहम्मं पडिवज्जिया। बाले मच्चुमुहं पत्ते, अक्खे भग्गे व सोयइ / / 15 / / 'एव मिति' शाकटिकवत् 'धर्म' क्षान्त्यादिक यतिधर्म सदाचारात्मक वा 'विउक्कम्पत्ति' व्युत्कम्य विशेषेणोल्लङ्चय न धोऽधर्माः नविपक्षेऽपि वर्तते इतिधर्मप्रतिपाक्षः,त-हिंसाऽऽदिक 'प्रतिपद्य' अभ्युपगम्य 'बालः' अभिहितरूपः / मरण-मृत्युस्तस्य मुखमिव मुखं मृत्युमुखं - मरणगोचरं 'प्राप्ता' गतः, किमित्याह-अक्षे भग्न इव शोचति, किमुक्तं भवति? यथा-अक्षभङ्गे शाकटिकः शोचति, तथाऽयमपि स्वकृत फर्भणामिहेव मरणान्तिकवेदनात्मक फलमनुभवन्नात्मानमनुशोचति, यथा हा किमेतजनताऽपि मयैवमनुष्ठितम्। इति सूत्रार्थः / / 15 / शोचनानन्तरं च किमसौ करोतीत्याहतओ से मरणं तम्मि, बाले संतस्सई भया। अकाभमरणं भरई, धुत्ते वा कलिणा जिण ||16|| 'तत' इति आतकोत्पत्तौ यच्छोचनमुक्तं तदन्तरं 'से इति स मरणमेवान्तो मरणान्तस्तस्मिन्, उपस्थित इति शेषः, 'बलो' रागाधाsकुलितचित्तः 'संत्रस्यति' समुद्विजते विभजीति थावत्, कुतः ? 'भयात्' नरकगतिगमनसाध्वसाद, अनेनाकाम त्वमुक्त, स च किमेवविधात भरणाद्विमुच्यते? उत नेत्याह अकामस्य-अनिच्छतो मरणमकाममरण तेन, सूत्रे चार्षत्वाद् द्वितीया, 'मियते' प्राणांस्त्यजति, क इच कीदृशः सन् ? 'धूर्त इव' द्यूतकार इव, वाशष्ठदस्योपमार्थत्वात्, 'कलिना' एकेन, प्रकमात् दायेन, जितः सन्नात्मानं शोचति, यथा ह्ययमेकेन दायेन जितः सन्नात्मानं शोचति तथाऽसावपीत्वरैर्विपाककरभिः सङ्कलेशबहुलैर्मनुजमोगैर्दिव्यसुख हारितः शोचन्नेव म्रियते। इति सूत्रार्थः / / 16 / / प्रस्तुतमेवार्थ निगमयितुमाह - एयं अकाममरणं, बालाणं तु पवेइयं / इत्तो सकाममरणं, पंडियाण सुणेह मे / / 17 / / 'एतद् अनन्तरमेव दुष्कृतकर्मणां परलोकाद्विभ्यतां यन्मणामुरु (दिकाममरणं, बालानामेव, तुशब्दस्यैवार्थत्वात, 'प्रवेदितं' प्रकर्षण प्रतिपादितं, तीर्थकृदणधराऽऽदिभिरिति गम्यते। पछि मरणप्रावनार्थमाह-'इत्ता त्ति' इतः-अकाममरापदनन्तरं सकाममरण पण्डिताना सम्बन्धि ' शृणुत' आकर्णयत 'मे' मम, कथयत इत्युपस्कारः / इति सूत्रार्थः / / 17 / / यथाप्रतिज्ञातमाहमरणं पि सपुण्णाणं, जहा मे तमणुस्सुयं / विप्पसण्णभणाघायं, संजयाणं बुसीमओ।।१८।।
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________________ मरण 121 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मरण मरणमपि आस्तां जीवितमित्यपिशब्दार्थः, 'पुण' कर्मणि शुभे, इत्यस्माद्धातोः ' उणादयो बहुलम्' (पा०३-३-१) इति बहुलवचनादावे यपि पुण्यम, उक्तं हि "पुण कर्मणि निर्दिष्टः, शुभविशेषप्रकाशको धातुरयम् / भावप्रत्यययोगा-द्विभक्तिनिर्देशसिद्धमेतद्रपम् / / 1 / / " सह तन वर्त्तन्त इति सपुण्यास्तेषां न त्वन्येषामपुण्यवता, किं सर्वमपि ? नत्याह-'यथा येन प्रकारेण 'मे' मम, कथयत इति गम्यते, तदित्युपक्षेपः, तत्रोपात्तम अनुश्रुतम् अवधारितं, भवद्भिरिति शेषः, सुष्ठ-प्रसन्न मरणसमयेऽध्यकलुष कषायकालुष्यापगमात, मनः-चतो येषां ते सुप्रसन्नगनस : महागुनयरतेषां ख्यातं स्वसंवेदनतः प्रसिद्धं सुप्रसन्नमनः ख्यात्म्, यद्वा-'सुप्पसन्नहि अक्खाय' अत्रच सष्ठु प्रसन्नैः पापकङ्कापगमनेनात्यन्तनिर्मलीभूतः, शेषतीर्थकृद्भिरिति गम्यते, आख्यातम्। पठ्यते च-'विप्पसण्यमणाघायं ति' तत्र च विशेषेण विविधैर्वाभावनाऽऽदिभिः प्रकारेः प्रसन्ना-मरणेऽप्यपहतमोहरेणुतयाऽनाकुलचेतसो विप्रसन्नाः, तत्सम्बन्धिम्रणमप्युपचाराद्विप्रसन्नं, न विद्यते आघातः तथाविधयतनयाऽन्यप्राणिनामात्मनश्च विधिवत रांलिखितशरीरतया यरिंगरतदनाघात, केषां पुनरिदा? उच्यते-'संयताना' समिति-सम्यग यतानापापापरतानां चारित्रिणामित्यर्थः / 'सीमतो त्ति' आर्षत्त्वावश्यवता श्य इत्यायन: स चेहाऽऽत्मा इन्द्रियाणि वा, वश्यानि विद्यन्ते येषा ते अमी वश्यवन्नः तेषाम् अयमपरः सम्प्रदायार्थ:-'वसति वा साहुगुणेहि पुसीमतः, अमवा वुसीमा-संविग्गा तेसिं ति' एतच्चार्थात् पण्डितमरणमेव, लोऽयमर्थः- यथेतत् राबतानां वश्यवतां विप्रसन्नमनाघातं च सम्भवति, न तथाऽपुण्यप्राणिनाम।"अन्ते समाहिमरण, अभब्यजीवाणपाति ति" वचनात, विशिष्टयोग्यताभाजामेव तत्प्राप्तिसम्भवात्। इति सूत्रार्थः / / 18|| यथा चैतदेवं तथा दर्शयितुमाहन इमं सव्वेसु भिक्खूसुं, ण इमं सव्वेसु गारिसु / नानासीला य गारत्था, विसमसीला य भिक्खुणो |16 'न' इत्यवधारणफलत्वाद्वाक्यस्य नैव 'इदम्' इति पण्डितमरणं, 'सध्वसु भिवरवसुं ति’ सूत्रत्वात सर्वषां भिक्षणा परदत्तोपजीविना बतिनामिति यावर।, किन्तु-केषाञ्चिदेव परोपचितपुण्यानुभाववतां भावभिझूणा, तथा च-गृहस्थानां दुरापास्तमेव, अत एवाऽऽह-नेदं पण्डितमरणं 'सध्वसु गारिसुत्ति' सर्वेषामगारिणां गृहिणा, चारित्रिणामेव तत्सम्भवात्, तथा वे च-तामपि तत्त्वतो यतित्वाद्, उभयत्र विषयसप्तम्यन्ततया वा नयम- यथा चेतदेवं तथापत्तित आह-नाना अनेकविधशीलं तं स्वभावो था येषां ते ननाशीलाः, 'अगारस्था' गृहस्थाः , तेषां हि नेकरूपभेव शील किन्त्वनकभङ्गपावा दनेकविध, देशविरतिरूपस्य तस्यानकधाभिधानात रार्वविरतिरूपस्य च तेष्वसम्भवात्, 'विषगम्' अतिदुर्लक्षतयाऽतिगहनं विसदृशं वाशीलमेषां विषमशीलाः, के ते ? भिक्षवः, न हि सर्वेऽप्यनिदानिनोऽविकलचारित्रिणो वा तत्कालं मियन्तं जिनमतप्रतिपन्ना अपि, तीर्थान्तरीय स्तुदूरोत्सारिता एव, तेषु हि गृहिणस्तावदत्यन्तं नानाशीला एव, यतः केचिद गहाऽऽश्रमप्रतिपालनमेव महाव्रत- | मिति प्रतिपन्नाः, अनरू तु-सप्तशिक्षापदशतानि गृहिणां व्रतमित्याद्यनेकधैव वुवते, भिक्षयोऽप्यत्यन्तं विषमशीला एव, यतस्तेषु केषाश्चित्पश्चयमनियमाऽऽत्मक व्रतमिति दर्शनम्, अपरेषां तु कन्दमूलफलाशितैव इति, अन्येषामात्मतत्त्वपरिज्ञानमेवेति विसदृशशीलता, नच तेषु क्वचिदविकलचारित्रसम्भव इति सर्वत्र पण्डितमरणाभावः / इति सूत्रार्थः / / 16 / / (11) विषमशीलतामेव भिक्षूणां समर्थयितुमाहसंति एगेहिँ भिक्खूहि, गारत्था संजमुत्तरा। गारत्थेहि य सव्वेहिं, साहवो संजमुत्तरा / / 20 / / 'सन्ति' विद्यन्ते एकेभ्यः' कुप्रवचनेभ्या भिक्षुभ्यः 'गारस्थ त्ति' सूत्रत्वादगारस्थाः, संयमेनदेशविरत्यात्मकेनोत्तराः-प्रधानाः संयमोत्तराः, कुप्रवचनभिक्षवो हि जीवाद्यास्तिक्यादपि बहिष्कृताः सर्वथाऽचारित्रिणश्चेति कथं न सम्यग्दृशोदेशचारित्रिणो गृहिणस्तेभ्यः संयमोत्तराः सन्तु ? एवं सत्यगाररथेष्वेव तदस्त्वित्यत आह-'अगारस्थेभ्यश्च सर्वेभ्य' इति अनुमतिवर्ज सर्वोत्तमदेशविरतिप्राप्तेभ्योऽपि साधवः संयमोत्तराः, परिपूर्णसंयमत्वात्तेषाम् / तथा च वृद्धसम्प्रदायः-''एगो सावगो साहुं पुच्छति-सावगाणं साहूणं किमंतर ? साहुणा भण्णति-सरिसवमंदरंतर, ततो सो आउलीहूओ पुणो पुच्छति-कुलिंगीण सावगाण य किमरतं ? तेण भण्णति-तदेव सरिसवमंदर ति, ततो समासासितो, जतो भणिय'देसेक्कदेसविरया, समणाणं सावगा सुविहियाण / जेसिं परपासंडा, सईमवि कल न अग्घति / / 1 // " तदनेन तेषां चारित्राभावदर्शनन पण्डितमरणाभाव एव समर्थितः / इति सूत्रार्थः / / 20 / / (12) ननु कुप्रवचनभिक्षवोऽपि विचित्रलिङ्गधारिण एवेति कथं रोभ्योऽगारस्थाः संयमोत्तराः? अत आहचीराजिणं निगिणिणं, जडीसंघाडिमुंडिणं। एयाइं पिन तायंति, दुस्सीलं परियागतं / / 21 / / चीराणि च-धीवराणि अजिनं च-मृगादिचर्म चीराऽजिनं, 'णिगिणिणं ति' सूत्रत्वान्नाग्य जडित्ति' भावप्रधानत्वान्निर्देशस्य जटित्वं, सङ्घाटीवस्त्ररांहतिजनिता, 'मुंडिणं ति' यत्र शिखाऽपि स्वसमयतश्छिद्यते ततः प्राग्वत, मुण्डित्वम. 'एतान्यपीति' निजनिजप्रक्रियाविरचितवतिवेषरूपाणि लिङ्गान्यपि, किं पुनर्हिस्थ्यमित्यपिशब्दार्थः। किमित्याहनैव त्रायन्ते भवाद् दुष्कृतकर्मणो वेति गम्यते, कीदृशम् ? दुश्शील दुराचाराम, 'परियागयं ति' पर्यायाऽऽगतप्रव्रज्यापर्यायप्राप्तम्, आर्षस्वाद यावारस्यैकस्य लोपः, यद्वा-'दुस्सीलं परियागयं ति' मकारोऽलाक्षणिकः, ततो दुःशीलमेव दुष्टशीलाऽत्मकः पर्यायस्तमागतंदुःशीलपर्यायाऽऽगतं, न हि कषायकलुषचेतसो बहिर्बकवृत्तिरतिकष्टहेतुरपि नरकाऽऽदिकुगतिनिवारणायाऽल, ततो न लिङ्गधारणाऽऽदिविष्टहेतुः / इति सूत्रार्थः / / 21 / / (13) आह-कथं गृहाद्यभावेऽप्यमीषां दुर्गतिरिति ? उच्यतेपिंडोलए व दुस्सीलो, नरगाओ न मुच्चइ।
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________________ मरण 122 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मरण मिक्खाए वा गिहत्थे वा, सुव्यए कमति दिवं / / 22 / / शिक्षासमापन्नो, गृहवासेऽपि आस्तां प्रव्रज्यापर्याय इत्यपिशब्दार्थः, 'पिंडोलएव त्ति' वाशब्दोऽपिशब्दार्थः, ततश्च 'पिडिसनाते पिण्ड्यते 'सुव्रतः' शोभनव्रतो, मुच्यते-कुतः ? छविः-त्वक् पर्वाणि च - तत्तद्गृहेभ्य आदाय सनात्यत इति पिण्डः तमवलगति-सेवते पिण्डा- जानुकूर्पराऽऽदीनि छविपर्व तद्योगादौदारिकशरीरमपि छविपर्व ततः, वलगो, यः स्वयमाहाराभावतः परदत्तोपजीवी सोऽपि, आस्तां गृहादि- तदनन्तर च 'गच्छेद्' यायात् यक्षा:-देवाः समानो लोकोऽस्थति मानित्यर्थः / दुःशीलः प्राग्दत, 'नरकात्' स्वकम्मोपस्थापितात सीमन्त- सलोकस्तद्भावः सलाकता यक्षैः सलोकता यक्षसलाकता ताम, इयं च कादेर्न मुच्यते, अन चोदाहरणं तथाविधद्रभकः, तत्र च सम्प्रदायः - देवगतावेव भवतीत्यर्थाद्दवगतिमिति, अननेन च पण्डितमरण'वसरेऽपि "रायगिहे णयरे एगो पिंडोलओ उज्जाणियाए विणिगए जणे भिक्ख / प्रसङ्गतो बालपण्डितमरणमुक्तम् / इति सूत्रार्थः / / 24 / / हिंडइ, ण य तस्स केणइ किंचि दिण्णं, सो तेसिं वेभारपव्वयकडग- (15) साम्प्रतं प्रस्तुतमेव पण्डितमरणं फलोपदर्शनद्वारेणाहसन्निविद्वाण पव्वतोवरि चडिऊण महति महालय सिलं चालेइ, एएसिं अह जे संवुडे भिक्खू-१दुण्हमेगयरे सिया। उवरि पाडमि त्ति रोइज्झाई विच्छुट्टिऊण ततो सिलातो निवडितो सव्यदुकखप्पहीणे वा, देवं वावि महिडिए / / 2 / / सिलातले संचुण्णियसव्वकातोयमरिऊण अप्पइट्टाणे णरए समुष्पन्नो / " 'अथ' इत्युपप्रदर्शन, 'य' इत्यनुद्दिष्टनिर्देशे, 'संवृत' इति पिहितसतर्हि किमत्र तत्त्वतः / सुगतिहेतुरित्याह-'भिक्खाए व त्ति' भिक्षामति मस्ताऽऽश्रवद्वारः, 'भिक्षु' रिति भावभिक्षुः, सचद्वयोरन्यतर:-एकतरः, अकति वा भिक्षादो भिक्षाको, वा विकल्पे, अनेन यतिरुक्तः / गृहे तिष्ठति 'स्यात् भवेद, ययोर्द्वयोरन्यतरः स्यात् तावाह-सर्वाणि-अशेषाणि यानि गृहस्थः सवा, शोभनं निरतिचारतया सम्यग्भावानुगततया च व्रतं-शील दुःखानि-शुतपिपासेष्टवियोगानिष्टसंयोगादीनि तैः प्रकर्षण-पुनरनुत्पपरिपालनात्मकमस्येति सुतः, 'क्रामति' गच्छति 'दिव' देवलोक, त्यात्मकेन हीनो-रहितः सर्वदुःखपहीणः, स्यादिति सम्बन्धः / यदामुख्यतो मुक्तिहेतुत्वेऽपि व्रतपरिपालनस्य दिव कामतीत्यभिधानं सर्वदुःखानि प्रहीणान्यस्येति सर्वदुःखप्रहीणः, आहिताग्यादेराकृतिगजघन्यतोऽपि देवलोकप्राप्तिरिति ख्यापनार्थम, उक्तं हि-"अविरा हिय- णत्वात् निष्ठान्तस्य परनिपातः, स च सिद्ध एव, ततः स वा देवो वा, सामण्णस्स साहुणो सावगरराय जइण्णो / उववातो सोहम्मे, भणितो अपिः सम्भावने, सम्भवति हि संहननादिवैकल्यतो मुक्त्यनवाप्तौ देवोऽपि तेलोक्कदंसीहिं / / 1 / / " अनेन व्रतपरिपालनमेव तत्वतः सुगतिहेतुरि- स्यादिति / कीदृग् ? महती ऋद्धिः-सुखादिसम्पदस्येति महर्द्धिकः / त्युक्तम् / इति सूत्रार्थः / / 2 / / इति सूत्रार्थः / / 25 // (14) यव्रतयोगादहस्थोऽपि दिवंक्रामति तद्वक्तुमाह (16) आह गृह्णीमो देवा वा स्यादिति यत्र चासौ देवो भवति तत्र अगारिसामाइयंगाई, सडी काएण फासए। कीदृशा आवासाः? कीदृशाश्च देवा ? इत्याहपोसह दुहओ पक्खं, एगराइं न हावए / / 23 / / उत्तराई विमोहाई, जुइमंताणुपुव्यसो। अगारिणो-गृहिणः सामायिक-सम्यक्त्वश्रुतदेशविरतिरूपं तस्या- समाइण्णाइ जक्खेहिं, आवासाइ जसंसिणो॥२६॥ ङ्गानि-निःशङ्किताकालाध्ययनाणुव्रताऽऽदिरूपाणि अगारिसामायि- दीहाउया इद्धिमंता, समिद्धा कामरूविणो। काङ्गाति, 'सड्डि त्ति' सूत्रत्वात् अद्धा-रुचिरस्याऽस्तीति श्रद्धवान, अहुणोववन्नसंकासा, भुजो अचिमालिप्पभा॥२७।। मकायेनेत्युपलक्षणत्वान्मनसा वाचा च 'फासइ त्ति' स्पृशति सेवते, 'उत्तरा' उपरिवर्तिनोऽनुत्तरविमानाऽऽख्याः सर्वोपरिवर्तित्वा-तेषा, पोषणं योषः, स चेह धर्मस्य तं धत्त इति पोषधः-आहारपोषधाऽऽदिः, तं विमोहा इव अल्पवेदाऽऽदिमोहनीयोदयतया विमोहाः, अथवा-मोहो 'दुहतो पक्खं ति' तत एव द्वयोरपि सितेतररूपयोः पक्षयोश्चतुर्दशीपूर्णि- द्विधा-द्रव्यतो, भावतश्चाद्रव्यतोऽन्धकारो, भावतश्च मिथ्यादर्शनादिः, मास्यादिषु तिथिषु 'एगराई' ति अपेर्गम्यमानत्वादेकरात्रमपि, उपल- स द्विविधोऽपि सततरत्नोद्योतितत्वेन सम्यग्दर्शनस्यैव च तत्र सम्भवेन क्षणत्वाचैकदि-नमपि, 'न हावए त्ति' न हापयति-न हानि प्रापयति, विगता येषु ते विमोहाः, द्युतिः-दीमिरन्यातिशायिनी विद्यते येषु ते रात्रिग्रहणं च दिवा व्याकुलाया कर्तुमशक्नुवन्ात्रावपि पोषधं कुर्यात, द्युतिमन्तः, 'अणुपुव्वसो त्ति' प्राग्वदनुपूर्वतः क्रमेण विमाहादिविशेषणइह च सामायिकाङ्गत्वेनैव सिद्धेः, यदस्य भेदेनोपादानं तदादरख्याप- | विशिष्टाः, सौधर्मादिषु ह्यनुत्तरविमानावसानेषु पूर्वपूर्वापेक्षया प्रकर्षव-न्त्येव नाश्रमदुष्टमेव, यद्वा-यत एवं गृहस्थोऽपि सुव्रतो दिवंक्रामति अतोऽगारी विमोहत्वाऽऽदीनि, 'समाकीर्णाः' व्याप्ताः, 'यक्षैः देवैः, आ-समन्तातसामायिकाङ्गानिस्पृशेतमोपचंचन हापयेदित्युपदेशपरतया व्याख्येयम् / सन्ति तेष्वित्यावासाः, प्राकृतत्वाच सर्वत्र नपुंसकतया निर्देशः, 'देवास्तु इति सूत्रार्थः // 23 // तत्र 'यशस्विनः' श्लाघान्विताः, 'दीर्घ '-सागरोपमपरिमित-सया प्रस्तुतमेवार्थमुपसंहर्तुमाह आयुरेषामिति दीर्घायुषः, 'ऋद्धिमन्तो' रत्नादिसम्पदुपेतः:, 'समिद्धा' एवं सिक्खासमावन्नो, गिहवासेऽवि सुव्वओ। अतिदीप्ताः 'कामरूपिणः कामः-अभिलाषस्तेन रूपाणि कामरूपाणि मुञ्चति छवि-पव्वाओ, गच्छे जक्ख-सलोगयं // 24 // तद्वन्तः, 'विविधवैक्रियाशक्तयन्विता इत्यर्थः / न चैदनुत्तरेष्व-नुवपन्न 'एवम्' अमुनोतन्यायेन, शिक्षा-व्रतासेवनात्मिकया समापन्नो-युक्तः / विशेषणमिति वाच्यम् ? विकरणशक्तेस्तत्रापि सत्त्वात्। अधुनोपपन्नसङ्का
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________________ 123 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मरण 'प्रथमोत्पन्नदेवतुल्याः, अनुत्तरेषु हि वर्णद्युत्यादि यावदायुस्तुल्यमेव भवति। 'भूयोऽर्चिमालिप्रभा' इति, भूयःशब्दः प्राचुर्ये, ततः प्रभूता*दित्यदीप्तयो, न ह्येकस्यैवाऽऽदित्यय तादृशी द्युतिरस्तीति भूयोग्रहणम्। ति सूत्रार्थः // 26 // 27 // (17) उपसंहर्तुमाहताणि ठाणाईं गच्छति, सिक्खित्ता संजमं तवं। भिक्खाए वा गिहत्थे वा, जे संति परिनिव्वुडा॥२८॥ 'तानि' अभिहितरूपाणि तिष्ठन्त्येषु, सुकृतिनो जन्तव इति स्थानानिश्रावासाऽऽत्मकानि, 'गच्छन्ति' यान्ति, उपलक्षणत्वागता गमिष्यन्ति 3. उपलक्षणं चैतत् सौधर्माऽऽदिगमनस्य, तत्राऽपि तेषां केषाञ्चिद्गमनसम्भवात्। 'शिक्षित्वा' अभ्यस्य, 'संयम' सप्तदशभेद, 'तपो' द्वादशभेदं, क इत्याह-'भिक्खाए वा गिहत्थे व ति' प्राकृतत्वाद्वचनव्यत्ययेन मिक्षाको वा, गृहस्थो वा भावतो यतय एवेति यावत्, अत एवाह-'जे' विये, शान्त्या-उपशमेन परिनिर्वृताः-शीतीभूता विध्यातकषायाऽ शान्तिपरिनिर्वृताः, यद्वा-ये केचन' सन्ति' विद्यन्ते परिनिर्वृताः, अवच देवावास्यादित्येकवचनप्रक्रमेऽपि यद्बहुवचनाभिधानं तद्व्याप्तयर्थ, ततो न य एक एवेश्वराद्यनुगृहीतः स एव सम्यग्दर्शनाऽऽदिमानपि दिवंक्रामति किन्तु सर्वोऽपि इत्युक्तं भवति / इति सूत्रार्थः / / 28|| . एतचाऽऽकर्ण्य मरणेऽपि यथाभूता महात्मानो भवन्ति यथाऽऽह सिं सुचा सपुजाणं, संजयाणं वुसीमओ। संतसंति मरणंते,सीलवंता बहुस्सुआ॥२६॥ . 'तेषाम् अनन्तराभिहितस्वरूपाणां भावभिक्षूणां, 'श्रुत्वा' आकर्ण्य, उक्तरूपस्थानावाप्तिमिति शेषः / कीदृशाम् ? 'सत्पूज्याना' सतां पूजार्हाणां, सती वा पूजा येषां ते सत्पूजास्तेषां, 'संयताना' संयमवतां, 'सीमओ त्ति' प्राग्वत्,'न संत्रस्यन्ति' नोद्विजनते, कदा? मरणे मरणेन याऽन्तो मरणान्तस्तस्मिन् आवीचीमरणाऽपेक्षया वाऽन्त्यमरणे, प्राकृतत्वाच परनिपातः / समुपस्थित इति शेषः। 'शीलवन्तः' चारित्रिणो, 'बहुश्रुता' विविधागमश्रवणावदातीकृतमतयः, इदमुक्तं भवति-य एवाविदितधार्मिकगतयोऽनुपार्जितधर्माणश्च त एव मरणादुद्विजन्ते, यथाकाऽस्माभिर्मृत्वा गन्तव्यमिति, उपार्जितधर्माणस्तुधर्मफलमवगच्छन्तो नकुतोऽप्युद्विजन्ते, यथाक्वाऽस्माभिर्भूत्वा गन्तव्यम्। यदुक्तम्- "चरितो निरुपक्लिष्टो, धर्मो हि मयेति निर्वृतः स्वस्थः / मरणादपि नोद्विजते, कृतकृत्योऽस्मीति धर्माऽऽत्मा / / 1 / / " इति सूत्रार्थः / / 26 / / . इत्थं सकामाऽकाममरणस्वरूपमभिधाय शिष्योपदेशमाह तुलिया विसेसमायाय, दयाधम्मस्स खंतिए। विप्पसीइड मेधावी, तहाभूएण अप्पणा॥३०॥ 'तोलयित्वा' परीक्ष्यात्मानं, धृतिदाया॑ऽदिगुणान्वितमिति गम्यते। 'विशेष' प्रक्रमाद्भक्तपरिज्ञाऽदिकं मरणभेदं आदाय' बुद्ध्या गृहीत्वाऽ भ्यपगम्येति यावत्, दयाप्रधानो धर्मो दयाधर्मोदशविधयतिधर्मरूपः, तस्य सम्बन्धिनीया क्षान्तिस्तया, उपलक्षणत्वात्-मार्दवाऽऽदिभिश्च / 'विप्रसीदेत्' विशेषेण प्रसन्नो भवेत्, न तु मरणादुद्विजेतेति भावः / 'मेधावी' मर्यादावर्ती, 'तथाभूतेन' उपशान्तमोहोदयेन, यदिवा-यथैव मरणकालात्प्रागनाकुलचेता अभूत्, मरणकालेऽपि तथैवावस्थितेन तथाभूतेनाऽऽत्मना स्वयमयमपरकल्पोऽपि विप्रसीदेत्, कषायपङ्कापगमतः स्वच्छतां भजेत्, न तु कृतद्वादशवर्षसंलेखनतथाविधतपस्तिवन्निजाङ्गुलीभङ्गाऽऽदिना कषायतिामवलम्बेत मेधावी / किं कृत्वा ? तोलयित्वा बालमरणपण्डितमरणे, ततश्च 'विशेष' बालमरणात् पण्डितमरणस्य विशिष्टत्वलक्षणम्,'आदाय' गृहीत्वा, तथा दयाधर्मस्येति चशब्दस्य गम्यमानत्वात् दयाधर्मस्य च-यतिधर्मस्य विशेषंशेषधोतिशायित्वलक्षणमादायेति सम्बन्धः / 'कया विप्रसीदेत् ?' क्षान्त्या, तथाभूतेनेति निष्कषायेणाऽऽत्मनोपलक्षितः। इति सूत्रार्थः॥३०॥ विप्रसन्नश्च यत् कुर्यात्तदाह-' तओ काले अभिप्पेए, सड्डी तालीसमंतिए। विणएज्ज लोमहरिसं, भेयं देहस्स कंखए॥३१॥ 'तत्' इति कषायोपशमानन्तरं,'काले' मरणकाले, 'अभिप्रेते' अभिरुचिते, कदा च मरणमभिप्रेतम् ? यदायोगा नोत्सर्पन्ति / 'सड्डि त्ति' प्रागवत् ; श्रद्धावान्, तादृशमिति भयोत्थम्, 'अन्तिके' समीपे गुरूणां मरणस्य वा, विनयेद्' विनाशयेत्, कम् ? लुनाति लीयन्ते वा तेषु यूका इति लोमानि तेषां हर्षो लोमहर्षस्तं-रोमाञ्चं, हा! मममरणं भविष्यतीति भयाभिप्रायसम्प्राप्य, किं च-'भेदं' विनाशं, 'देहस्य' शरीरस्य, काङ्केदिव काङ्ग्रे त्, त्यक्ततत्परिकर्मत्वात् / अथवा-'तालिसन्ति' सुब्ब्यत्ययात् तादृशो यादृशः प्रव्रज्याप्रतिपत्तिकाले संलेखनाकाले वा अन्तकालेऽपितादृशः अद्धावान् सन्, उक्तं हि-'जाए सद्धाए णिक्खंतो, परियायट्ठाणमुत्तमं तमेव अणुपालेज त्ति।" ईदृशश्च परीषहोपसर्गजं लोमहर्ष विनयेदिति सम्बन्धः / इति सूत्रार्थः // 31 // (18) नियमयितुमाह - अह कालम्मि संपत्ते, आघायाय समुच्छयं / सकाममरणं मरति, तिण्हमन्नयरं मुणी॥३२॥ 'अथेति' मरणाभिप्रायानन्तरं, 'काले' इति मरणकाले, संप्राप्ते 'णिप्फाइया य सीसा' इत्यादिना क्रमेण समायाते, 'आधायाय त्ति' आर्षत्वात् आघातयन्, संलेखनादिभिरुपक्रमणकारणैः समन्ताद् घातयन्- विनाशयन, कं? समुच्छ्रयम्-अन्तः कार्मणशरीरं 'बहिरौदारिक' यद्वा 'समुस्सतं ति' सुब्व्यत्ययात्समुच्छ्रयस्याऽऽघातायविनाशाय, काले सम्प्राप्त इति सम्बन्धनीयम्। किमित्याह-सकामस्यउक्तनीत्या साभिलाषस्य मरणंसकाममरणं, तेन म्रियते, त्रयाणांभक्तपरिज्ञेङ्गिनीपादपोपगमनानामन्यतरेण,सूत्रत्वात् सर्वत्र विभक्तिव्यत्ययः। 'मुनिः तपस्वी। इति सूत्रार्थः // 32 / / उत्त०५ अ०।
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________________ मरण 124 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मरण (16) साम्प्रतमुपसंहरति-एवमुक्तनीत्या तेषामेकान्तवादिनां न | श्चेति, अदत्ताऽऽदानमैथुनयोः परिग्रह एवान्तर्भावात् त्रयग्रहणं। यदिवास्वाख्यातो धर्मो भवति, नापि शास्त्रप्रणयनेन सुप्रज्ञापितो भवति। यामा वयाविशेषाः, तद्यथा-अष्टवर्षादात्रिंशतः प्रथमः,ततऊर्द्धमाषष्टः किं स्वमनीषिकया भवतेदमभिधीयते? नेत्याहयदिवा किम्भूतस्तर्हि द्वितीयः, ततः ऊर्द्ध तृतीय इति अतिबालवृद्धयोर्युदासः। यदिवा-यम्यते सुप्रज्ञापितो धर्मो भवतीत्याह उपरम्यते संसारभ्रमणादेभिरिति यामाः ज्ञानदर्शनचारित्राणीति, ते से जहेयं भगवया पवेइयं, आसुपनेण जाणया, पासया, 'उदाहृता' व्याख्याताः / यदि नामैवं ततः किम् ? इत्याह- 'येषु' अदुवा-गुत्ती वओगोयरस्स ति बेमि। सव्वत्थ संमयं पावं, तमेव अवस्थाविशेषेषु ज्ञानाऽदिषु वा, 'इमे देशार्या' अपाकृतहेयधावा, उवाइकम्म एस महं विवेगे वियाहिए। गामे वा, अदुवा रण्णे, सम्बुध्यमानाः सन्तः समुत्थिताः, के? ये 'निर्वृताः क्रोधाऽऽद्यपगमेन नेवगामे, नेव रण्णे, धम्ममाऽऽयाणह। पवेइयं माहणेण मइमया। शीतीभूताः पापेषु कर्मसु 'अनिदाना' निदानरहिताः, ते व्याख्याताः जामा तिन्नि उदाहिया / जेसु इमे आयरिया संवुज्झमाणा प्रति पादिता इति। समुट्ठिया जे णिव्वुया पावेहिं कम्मेहिं अणियाणा ते वियाहिया। (20) क्व च पुनः पापकर्मस्वनिदाना इत्यत आह(सूत्र-२००) उड्डं अहं तिरियं दिसासु सव्वओ सव्वावंति च णं पाडियकं तद्यथा-'इदं' स्याद्वादरूपं वस्तुनो लक्षणं समस्तव्यवहाराऽनुयायि जीवेहि कम्मसमारंभेणं तं परिन्नाय, मेहावी नेव सयं एएहिं वचिदप्यप्रतिहतं,'भगवता' श्रीवर्द्धमानस्वामिना, प्रवेदतिम्। एतद्वा काएहिं दंडं समारंभिज्जा, नेवन्ने एएहिं काएहिं दंडं सभाअनन्तरोक्तं भगवता प्रवेदितमिति? किम्भूतेनेति दर्शयति-आशुप्रज्ञेन रंभाविजा, नेवन्ने एएहिं काएहिं दंडं समरंभंतेऽविसमणुजाणेज्जा, निरावरणत्वात् सततोपयुक्तेनेत्यर्थः / किं यौगपद्येन ? नेति दर्शयति जे वऽन्ने एएहिं काएहिं दंडं समारंभंति, तेसि पि वयं लज्जामो, 'जानता' ज्ञानोपयुक्तेन, तथा-'पश्यता' दर्शनोपयुक्तेनैतत्प्रवेदितं, तं परिनाय मेहावी, तं वा दंडं अन्नं वा नो दंडभी दंडं समायथा-नैषामैकान्तवादिनांधर्मः स्वाख्यातो भवति। अथवागुप्तिर्वाग्गो रंमिजासि त्तिवेमि। (सूत्र-२०१) विमोक्षाध्ययनोद्देशकः-१। चरस्यभाषासमितिः कार्येत्येतत्प्रवेदितं भगवता / यदिवा अस्तिना ऊर्द्धमधस्तिर्यग्दिक्षु 'सर्वतः' सर्वैः प्रकारैः, सर्वा याः काश्चन दिशः, सितधुवाऽऽदिवादिनां वादायोत्थितानां त्रयाणां त्रिषष्ट्यधिकानां चशब्दादनुदिशश्च, 'ण' इति वाक्यालङ्कारे, 'प्रत्येकंजीवेषु' एकेन्द्रियप्रावादुकशताना वादलब्धिमतां प्रतिज्ञाहेतुदृष्टान्तोपन्यासद्वारेण सूक्ष्मेतराऽऽदिकेषु, यः कर्मसमारम्भः जीवानुद्दिश्य य उपमर्दरूपः क्रियासमारम्भः,'ण' इति वाक्यालङ्कारे,तं कर्मसमारम्भं, परिज्ञया तदुपन्यस्तदूषणोपन्यासेन च तत्पराजयाऽऽपादनतस्मभ्यगुत्तरं देयम्। अथवा गुप्तिग्गिोचरस्य विधेयेत्येतदहं ब्रवीमि। वक्ष्यमाणं चेत्याह-तान् ज्ञात्वा, प्रत्याख्यानपरिज्ञया प्रत्याचक्षीत / कोऽसौ ? 'मेधावी' मर्यादा व्यवस्थित इति, कथं प्रत्याचक्षीत? इत्याह-नैव स्वयमात्मना, 'एतेषु' वादिनो वादायोत्थितानेवं ब्रूयाद्- यथा भवतां सर्वेषामपि पृथिव्यप्तेजो चतुर्दशभूतग्रामा-वस्थितेषु, 'कायेषु' पृथिवीकायाऽऽदिषु, 'दण्डम्' वायुवनस्पत्यारम्भः कृतकारितानुमतिभिरनुज्ञातोऽतः सर्वत्र सम्मतम्' उपमर्द , समारभेत, न चापरेण समारम्भयेत, नैवान्यान् समारभमाणान् अभिप्रेतमप्रतिषिद्धं, 'पाप' पापानुष्ठान, मम तुनैतत्सम्मतमित्येतद्दर्श समनुजानीयात्, ये चान्ये दण्डं समारभन्ते, सुब्ब्त्ययेन तृतीयार्थे षष्ठी। यितुमाह-'तदेव' एतत्पापानुष्ठानमुपसामीप्येनाऽतिक्रम्य-अतिलय, तैरपि वयं लज्जाम इत्येवं कृताध्यवसायः सन, तज्जीवेषु कर्मसमारम्भ यतोऽहं व्यवस्थितोऽत एष मम विवेको व्याख्यातः। तत्कथमहं सर्वाऽ महतेऽनय, परिज्ञाय, ज्ञात्वा, 'मेधावी' मर्यादावान्, तथा पूर्वोक्तं प्रतिषिद्धाऽऽस्त्रवद्वारैः संभाणमपि करिष्ये ? आस्तां तावद्वाद दण्डम्, अन्यद्वा-मृषावादाऽदिकं दण्डाद्विभेतीति दण्डभीः सन्, नो दण्डं इत्येवमसमनोज्ञविवेकं करोतीति / अत्राह चोदकः-कथं तीर्थकाः प्राण्युपमर्दाऽऽदिक, समारभेथाः, करणत्रिकयोगत्रिकेण परिहरेदिति। सम्मतपापा अज्ञानिनो मिथ्यादृष्टयोऽचरित्रिणोऽतपस्विनो वेति ? तथा इतिरधिकारपरिसमाप्तौ ब्रवीमि / इति पूर्ववत्। विमोक्षाध्ययने प्राीमोहि-तेऽप्यकृष्टभूमिवनवासिनो मूलकन्दाऽऽहारा वृक्षाऽऽदिनिवासि द्देशक इति। नश्चेति / अत्राऽहाऽऽचार्यः- नारण्यवासाऽदिना धर्मः, अपि तु (21) साम्प्रतं द्वितीय आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धःजीवाजीवपरिज्ञानात् तत्पूर्वकानुष्ठानाच, तच तेषां नास्तीत्यतोऽसमनो इहानन्तरोद्देशकेऽनघसंयमप्रतिपालनाय कुशीलपरित्यागोऽभिहितः ज्ञास्ते इति! किंच सदसद्विवेकिनो हि धर्मः, सच-ग्रामेवास्यात् अथवा- स चैतावताऽकल्पनीयपरित्यागमृतेन सम्पूर्णतामियाद् अतोऽकल्पअरण्ये, नैवाधारो ग्रामो, नैवारण्यं धर्मनिमित्तं, यतो भगवता न नीय परित्यागार्थमिदमुपक्रम्यत इत्यनेन सम्बन्धेनाऽऽयातस्यैतस्योवासमितरद्वाऽऽश्रित्य धर्मः प्रवेदितः, अपि तु जीवादितत्त्वपरिज्ञानात् देशकस्याऽऽदिसूत्रम् - सम्यगनुष्ठानाच, अतस्तं धर्ममाजानीत। 'प्रवेदितं कथितं, 'माहणेण से भिक्खू परिक मिज वा, चिट्ठिज वा, निसीइज्ज वा, त्ति' भगवता, किम्भूतेन? मतिमता मननं सर्वपदापिरिज्ञानं मतिस्तद्वता तुयट्टिज वा, सुसाणं सि वा, सुन्नागारंसि वा, गिरिमतिमता, केवलिनेत्यर्थः / किंभूतो धर्मः प्रवेदित इतयाह-'यामा' गुहं सि वा, रुक्खमूलं सि वा, कुंभाराययणं सि वा, व्रतविशेषाः, त्रय उदाहृताः। तद्यथा-प्राणातिपातो मृषावादः परिग्रह- | हुरत्था वा कहिंचि विहरमाणं, तं भिक्खु उवसंक मित्तु,
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________________ मरण 125 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मरण गाहावई बूया-आउसंतो! समणा ! अहं खलु तव अट्ठाए असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुच्छणं वा पावाइं भूवीइंजीवाइं सत्ताई समारब्भ समुहिस्स कीयं दामिचं अच्छिज्जं अणिसिटुं अभिहडं आहट्ट चेएमि, आवसह वा समुस्सिणोमि, से भुंजह वसह, आउसंतो ! समणा ! भिक्खू ! तं गाहावई समणसं सवयसंपडियाइक्खे। आउसंतो गाहावई ! नो खलु ते वयणं आढामि, नो खलु ते वयणं / परिजाणमि, जो तुम मम अट्ठाए असणं वा, पा०४ वत्थं वा, पं०४ पाणाई भू०४ वा समारब्भ समुद्दिस्स कीयं पामिचं | अच्छिजं अणिसिट्ठ अभिहडं आहट्ट चेएसि, आवसहं वा समुस्सिणासि, से विरओ आउसो ! गाहावई ! एयस्स अकरणयाए। (सूत्र-२०२) स-कृतसमायिकः सर्वसावद्याकरणतया प्रतिज्ञामन्दरमारूढो, भिक्षणशील भिक्षुः, भिक्षार्थमन्यकार्याय वा, 'पराक्रमेत' विहरेत. तिष्ठद्वा ध्यानव्यग्रो, निपीदेदा अध्ययनाध्यापनश्रवणश्रावणाऽऽदृतः तथा-श्रान्तः कृचिदध्यनाऽऽदौत्वग्वर्त्तनं वा विदध्यात् / कैतानि विध्यादि'ते दर्शयति-'श्मशाने वा' शवानां शयन भशानं पितृवनं तस्मिन् वा तत्र च स्वरवर्तन न सम्भवत्यतो यथासम्भवं पराक्रमणाद्यायोज्यमातथाहि-गच्छवासिनस्तत्र स्थानाऽदिक न कल्पते, प्रमाद- | स्खलिताऽऽदौ व्यन्तराद्युपद्रवात् / तथा जिनकल्पार्थ सत्त्वभावना भावयतोऽपि न पितृवनमध्ये निवासोऽनुज्ञातः, प्रतिमाप्रतिपन्नस्य तु यत्रैव सूर्यो ऽस्तमुपयाति तत्रैव स्थानम्। जिनकल्पिकस्य वा तदपेक्षया श्मशानसूम , एवमन्यदषि यथा सम्भवमायोज्यम् / शून्यागारे वा, गिरिगुहाय वा, 'हुरस्थाव' ति अन्यत्र वा ग्रामादेवहिः, तंभिक्षुकवचिद्विहरन्तं, गृहपतिरुपसंक्रम्य विनेयदेशं गत्वा, 'याद' यदेदिति / यच ब्रूयात्तद्दर्शयितुमाह-सार्धं श्मशानाऽऽदिषु परिक्रमणाऽदिका क्रियां कुर्वाणमुपसङ्क्रम्य-उपेत्य, पूर्वस्थितो वा गृहरशः प्रकृतिभद्रकोऽभ्युपेतसम्यवत्वो वा साध्वाचाराऽकोविदः साधुमुद्दिश्यैतद् ब्रूयात्- यथते लब्धापल धमोजिनः त्वक्तारम्भाः सानुक्रोशाः सत्यशूचय एतेषु निक्षिप्त- | मक्षयमियतोऽहमेतभ्या दास्यामीत्यभिसंधाय साधुमुपतिष्ठते, वति / चआयुष्मन् ! भोः श्रमण ! अहं संसारार्णव समुत्तितीर्घः, 'खलुः' वाक्यालङ्कारे, 'तवार्थाय' युष्मन्निमित्तं, अशनं वा पानं वा खादिम वा स्यादिमा तथा वस्त्रंबा पतद्ग्रह वा कम्बलंवा पादपुञ्छनं वा समुद्दिश्यआश्रित्य किं कुर्यादिति दर्शयति - ('पाणाई' इति चतुष्पदीव्याख्या रव स्वशब्दे) तान प्राणाऽदीन रागरभ्य उपमद्ये, तथाहि-अशनाऽद्यारम्भ प्राण्युपमर्दोऽवश्यंभावी, एतच समस्तं व्यस्तं वा कश्चित्प्रतिपर्वत, इयं धाविशुद्धिकोटिगृहीता, सा चना-"अहाक मुद्दसियमीसओ बायरा य | पाहुडिया / पूइअ-अज्झोयगो, उग्गमको-डी अ भेआ |1" विशुद्धिकोटिमर्शयति-'कीत भूल्येन गृहीतं, 'पामिछति' अपरस्मादुछित्रमुग्धतकं गृहीत, बलात्कारितया वा न्यस्थादाच्छिप राजोपसृष्टो | वा अन्येभ्यो गृहिभ्यः साधोदस्यिामीत्याचिदन्यात्। तथा-'अनिसृष्ट' परकीयं यत्तदन्तिके तिष्ठति न च परेण तस्य निसृष्टंदत्तं तदनिसृष्ट, तदेवंभूतमपि साधोर्दानाय प्रतिपद्यते। तथा-स्वगृहादाहृत्य 'चेएमि' त्ति, ददामि तुभ्यं वितरामि, एवमशनाऽऽदिकमुद्दिश्य ब्रूयात्। तथा-'आवसथं वा' युप्मदाश्रयं, समुच्छणोमिआदेरारभ्याऽपूर्व करोमि, संस्कारं वा करागि, इत्येवं प्राञ्जलिरवनतोत्तमाङ्गः सन् अशनाऽदिना निमन्त्रयेत् यथा-भुङ्गाशनाऽदिक, मत्संस्कृताऽवसथेवस इत्यादि। द्विवचनबहुवचने अप्यायोज्ये। साधुना तु-सूत्रार्थविशारदेनादीनमनस्केन प्रतिषेधितव्यमित्याह-आयुष्मन् ! अमण ! भिक्षो ! तं गृहपति समनसं-सवयसमन्यथाभूतं वा प्रत्याचक्षीत / कथमिति चेद्दर्शयति-यथा आयुष्न् ! भो गृहपते! न खलु तवैवम्भूतं वचनमहमाद्रिये, खलुशब्दोऽपिशब्दार्थे, सच समुचये, नापि तवैतद्वचनं परिजानामि' आसेवनपरिज्ञानेन परिविदधेऽहमित्यर्थः / यस्त्वं मम कृतेऽशनाऽऽदिप्राण्युपमर्दैन विदधासि,यावदावसथसमुच्छ्यं विदधासि, भो आयुष्मन् ! गृहपते: विरतः-अहमेवम्भूतादनुष्ठानात्। कथम् ? एतस्य-भवदुपन्यस्तस्याकरणतयेत्यतो भवदीयमन्युपगम न जानेऽहमिति। (22) तदेवं प्रसह्याऽशनाऽऽदिसंस्कारप्रतिषेधः प्रतिपादितो यदि पुनः कश्चिद्विदितसाध्वभिप्रायः प्रच्छन्नमेव विदध्यात्तदपि कुतश्चिदुपलभ्य प्रतिषेधयेदित्याह से मिक्खं परिक्कमिज वा जाव हुरत्था वा कहिंची विहरमाणं तं भिक्खुं उवसंकमित्तु गाहावई आयगयाए पेहाए, असणं वा पा०४, वत्थं प०वा०४ जाव आहट्ट चेएइ / आवसहं वा समुस्सिणाइ, भिक्खू परिघासेउ, तं च भिक्खू जाणिज्जा सहसम्म्इयाए परवागरणेण अन्नेसिं वा सुच्चा अयं खलु गाहावई मम अट्ठाए असणं वा पा०४, वत्थं वा प०४ जाव आवसहं वा समुस्सिणाई, तं च भिक्खू पडिलेहाए आगमित्ता आणविजा अणासेवणाए त्ति वैमि। (सूत्र-२०३) तं भिक्षु वचित् श्मशानाऽऽदौ विहरन्तमुपसक्रम्य प्राञ्जलिर्वन्दित्वा गृहपतिः प्रकृतिभद्रकाऽदिकः कश्चित, आत्मगतया प्रेक्षयाऽनाविष्कृताभिप्रायः, केनचिदलक्ष्यमाणो यथाअहमस्य दास्यामीत्यशनाऽऽदिक प्राण्युपमर्देनाऽऽरभेत / किमर्थमिति चेद्दर्शयति-तदशनाऽदिकं भिक्ष 'परिधासयितु' भोजयितु, साधुभोजनार्थमित्यर्थः। आवसथं च साधुभिरधिवासयितुमिति, तदशनाऽऽदिक साध्वर्थ निष्पादितं भिक्षुः' जानीयात् परिच्छिन्द्यात्। कथमित्याह-स्वसन्मत्या परव्याकरणेन वा तीर्थकरोपदिष्टोपायेन वा, अन्येभ्यो वा तत्परिजनाऽऽदिभ्यः श्रुत्वा, जानीयादिति वर्तत, यथा अयं खलु गृहपतिर्मदर्थमशनाऽऽदिक प्राण्युपमर्दन विधायमा ददात्यावसथ च समुच्छणोति, तद्भिक्षुः सम्यक् 'प्रत्युपेक्ष्य' पर्यालोच्य, अवगम्य च ज्ञात्वा, 'ज्ञापयेत्' तंगृहपतिम्, अनासेवनाया यथा-अनेन विधाननोपकल्पितमाहाराऽऽदिकं नाह-भुजे, एवं तस्य ज्ञापनं कुर्यात, यद्यसो श्रावकस्ततो लेशतः पिण्डनियुक्ति कथयेद् अन्यस्य च प्र
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________________ मरण 126 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मरण कृतिभद्रकस्योदमाऽदिदोषानाविर्भावयेत्, प्रासुकदानफलं च प्ररूप-येत, यथाशक्तितो धर्मकथां च कुर्यात / तद्यथा-(काले देशे क०, दान सत्पुरुषे०, दुःखसमुद्रं प्रा०, अवत्यैषा श्लोकत्रयी दाण' शब्दे 4 भाग 2460 पृष्ठेऽस्ति) इत्यादि, इतिरधिकारपरिममाप्ती, अवीमीत्येतत्पूर्वोक्तम्। वक्ष्यमाणं चेत्याहभिक्खुं च खलु पुट्ठा वा, अपुट्ठा वा, जे इमे आहच गंथा वा फुसंति।से हंता, हणह, खणह, छिंदह, दहह, पयह, आलुपह, विलुपह, सहसाकारेह, विप्परामुसह, ते फासे धीरो पुट्ठो अहियासए। अदुवा-आयारगोयरमाइक्खे तकियाणमणेलिसं। अदुबा-वइगुत्तीए गोयरस्स अणुपुटवेण सम्म पडिलेहए, आयतगुत्ते बुद्धेहिं एयं पवेइयं / (सूत्र-२०४) 'चः' समुच्चये, 'खलुः वाक्यालङ्कारे, भिक्षणशीलो भिक्षुस्त भिक्षु, पृष्टवा कश्चित्, यथा भो भिक्षो ! भवदर्थभशनाऽऽदिकमावसथं वा संस्करिष्येऽननुज्ञातोऽपि तेनाऽसौ तत्करोत्यवश्यमयं चाटुभिर्बलात्कारेण वा ग्राहयिष्यते। अपरस्त्वीषत्साध्वाचारविधिज्ञोऽतोपृष्टवब छाना ग्राहयिष्यामीत्यभिसन्धायाऽशनाऽदिकं विदध्यात् / स च तदपरिभोगे श्रद्धाभङ्गात् चाटुशताग्रहणाच रोषाऽऽवेशान्निः सुखदुःखतया लोकशा इत्यनुशयाच राजानुसृष्टतया च न्यामारभावनातः प्रद्वेषमुपगतो हननाऽऽदिकमपि कुर्यादिति दर्शयति-एकाधिकारे बहतिदेशाहो इमे प्रश्नपूर्वकमप्रश्नपूर्वक वा आहाराऽऽदिक ग्रन्थात्' महतो द्रव्यव्ययाद, आहृत्य ढौकिल्वा, आहतग्रत्था वा, व्ययीकृतद्रवरूा वा, तदपरिभोगे 'सपृशन्ति' उपतापयन्ति, कथमिति चेदर्शयति-'स' ईश्वराऽऽदिः प्रद्विष्टः सन, हन्ता स्वतोऽपरांश्च हननाऽऽदौ चोदयति। तद्यथा-हतैनं साधुंदण्डाऽऽदिभिः 'क्षणुत' व्यापादयत छिन्नहस्तपादाऽऽदिकं, दहत अग्नयादिना, पचत उरुमांसाऽदिक, आलुम्पत वस्त्राऽऽदिक, विलुम्पत सर्वस्वापहारेण, सहसा कारयत-आशु पञ्चत्वं नयत, तथा-विविधं परामृशत नानापीडाकरणैर्वाधयत् 'तान्' चैवम्भूतान् 'स्पर्शान्' दुःखविशेषान् 'धीरः' अक्षोभ्यः, तैः स्पर्श : 'स्पृष्टः' सन, अधिसहेता तथा अपरैः क्षुत्पिपासापरीषहैः; स्पृष्टः सन्नधिसहेत / न तु पुनरुपसर्गः परीषहैर्वा तर्जितो विक्लेतामापनस्तदुद्देशिकाऽऽदिकमभ्युपेयात् / अनुकूला सान्त्वचादाऽदिभिरुपसर्गितो नाऽदद्यात्। अपितु-सति सामर्थ्य जिनकल्पिकादन्य आचारगोचरमाचक्षीतेत्याह-नानाविधोपसर्गजनितान स्पर्शानधिसहेत। अथवा' साधूनामाचारगोचरम्- आचारानुष्ठानविषय, मूलोत्तरगुणभेदभिन्नमाचक्षीत।नपुनर्नयैर्द्रव्यविचारम् / तत्रापि मूलगुणस्थैर्यार्थमुत्तरगुणान् तत्रापि पिण्डैषणाविशुद्धिमाचक्षीत। अत्र च पिण्डैषणासूत्राणि पठितव्यानि। अपि च-"यत्स्वयमदुःखितं स्यान्न च परदुःखे निमित्तभतमपि / केवलमुपग्रहकर, धर्मकृते तद्भवेद्देयम ! // 1 // ' किं सर्वस्य सर्व कथयेत् ? नेति दर्शयति-तर्कयित्वा' पर्या लोच्य पुरुष, तद्यथा-कोऽयं पुरुषः कञ्चनतोऽभिगृहीतोऽनभिगृहीतांमध्यस्थः प्रकृति भद्रकोवेत्येवमुपयुज्य यथार्ह -यथाशक्ति चाऽऽवेदयेत्। सत्यां च शको पञ्चावयवनान्यथा वा वाक्येन 'अनीदृशम् अनन्यसदृशं, स्वपरपक्षस्थापनाव्युदासद्वारेणाऽऽवेदयेदिति / अथ सामथ्यंविकः नः स्यात् कुप्यति वा कथ्यमानेऽसावनुकूलप्रत्यनी-कस्ततो वागुप्तिर्विधयेत्याहसति सामर्थ्य शृण्वति वा दातरि आचारगोचरमाचक्षीत / 'अथवा' इतयन्यथाभावे तु-'वाग्गुप्तया' वयवस्थितः सन्नात्महितमाचरन् 'गोचरस्य ' पिण्डविशुद्ध्यादेराचारगोचरस्य 'आनुपूर्या' उद्रमप्रश्नाऽऽदिरूपया, सम्यग शुद्धिं, प्रत्युपेक्षेत / किम्भूतः ? आत्मगुप्तः सन्, सततोपयुक्त इत्यर्थः / नैतन्मयोच्यत इत्याह-'बुद्धेः कल्प्याकल्प्यविधिः , 'एतत्' पूर्वोक्तं प्रवेदितम्। (अग्रेतनं सव्याख्यं सूत्रद्वयन- 'दाग' शब्दे 4 भागे 2462 पृष्ठे, 'मज्झिमेणं ति' सूत्रं च-'धम्म' शब्दे 4 भागे 2675-2676 पृष्ठे गतम्) (23) केचित्तु मध्यमवयसि समुत्थिता अपि परीषहेन्द्रिप्रेलर्लानता नीयन्त इति दर्शयितुमाह आहारोवचया देहा, परीसहपभंगुरा पासह एगे सव्विंदिएहिं परिगिलायमाणेहिं / (सूत्र-२०८) आहारेणोपचयो येषा ते आहरोपचयाः, के ते ? दिह्यन्त इति देहा:, सदभावे तु म्लायन्ते नियनते वा, तथा- 'परीषहप्रभञ्जिनः' परीषहै: सद्धिर्भगुरा देहा भवन्ति, ततश्चाऽऽहारोपचितदेहा अपि प्राप्तपरीषहा वाताऽऽदिक्षोभेण वा पश्यत यूयम्, 'एके क्लीबाः, सर्वरिन्द्रियैलायमानः क्लीवतामीयुः / तथाहि क्षुत्पीडितो न पश्यति, न शृणोति, न जिघ्रतीत्यादि।तत्र केवलिनोऽप्याहारमन्तरेण शरीरं गलानभावं यायाद, आस्तां तावदपरः प्रकृतिभङ्गुरशरीर इति। स्यान्गतम्- अकेवल्यकृतार्थत्वात् क्षुद्वेदनीयसद्भावाचाऽऽहारयति , दयाऽऽदीनि व्रतान्यनुपालया। केवली तु नियमात् सेत्स्यतीत्यतः किमर्थ शरीर धारयति ? सद्धरणार्थ चोऽऽहारयतीति ? अत्रोच्यते-तसयाऽपि चतुष्कर्मसद्भावान्नैकान्तेन कृतार्थता, तत्कृते शरीर बिभृयात्, तद्धरणं च नाऽऽहारमन्तरेण क्षुद्वेदनीयसद्भावाचेति / तथाहि-वेदनीयसद्भावात्तत्कृता एकादशाऽपि परीषहाः केवलिनो व्यस्तसमस्ताः प्रादुष्ष्यन्ति, इत्यत आदारयत्येव केवलीति स्थितम। अत आहारमृते ग्लानतेन्द्रियाणामिति प्रतिदिीतम। (24) विदितवेद्यश्च परीषहपीडितोऽपि किं कुर्यादित्याह - ओए दयं दयइ, जे संनिहाणसत्थस्स खेयन्ने से भिक्खू कालन्ने बलन्ने मायन्ने खणन्ने विणयन्ने समयन्ने परिग्गहं अममायमाणे कालेणुट्ठाइ अपडिन्ने दुहओ छित्ता नियाई। (सूत्र-२०६) 'ओजः, एको रागाऽऽदिरहितः सन्, सत्यपि क्षुत्पिपासाऽदिपरीषहे 'दयामेव दयते' कृपां पालयति, नपरीषहैस्तर्जितो दयां खण्डयतीत्यर्थः / क: पुनर्दया पालयतीत्याह-यो हिलघुकर्मा सम्यनिधीयने नारकाऽदिगतिषु येन तत्सन्निधानं कर्म, तस्य स्वरूपनिरूपकं शास्त्र तस्य, खेदज्ञो-निपुणो, यदि वा-सन्निधानस्य-कर्मणः शप-संयमः सन्निधानशस्त्रं तस्य, खेदज्ञः-सम्यक्संयमभ्यवेत्ता, यश्च संयमविधि:
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________________ मरण 127 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मरण स भिक्षुः, कालज्ञः उचिताऽनुचिताऽवसरज्ञः, एतानि च सूत्राणि लोक विजयपशमाद्देशकल्या,यानुसारेण नेतव्यानीति / तथा बलज्ञो मात्रज्ञः क्षणज्ञो विनयज्ञः सगयज्ञः परिग्रहममत्वेन अचरन् कालेनोत्थायी अप्रतिज्ञः उभयतः छेत्ता, रा चैवम्भूतः रायमानुष्ठाने निश्चयेन याति निर्यातीति (अग्रेतनं सन्यारव्यं सूत्रम्- 'सीयफासपरीसह' शब्दे - चतुर्थीद्देशलान्य चत्वारि सव्याख्यानि सूत्राणि च 'वत्थ' शब्द क्ष्यन्ते) (25) यः पुनरल्पसत्त्वतया भगवदुपदिष्टं नैव सम्यग् जानीयात्स एतदध्यवसायी स्यादित्याह जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ-पुट्ठो खलु अहमंसिनालमहमंसि सीयफासं अहियासित्तए, से वसुमं सव्वसमन्नागयपन्नाणेणं अप्पाणेणं केइ अकरणयाए आउट्टे तवस्सिणो हु तं सेयं जमेगे विहमाइए तत्थाऽवि तस्स कालपरियाए, सेऽवि तत्थ विअंतिकारए, इचेयं विमोहाऽऽयतणं हियं सुहं खमं निस्सेसं आणुगामियं ति वेमि / (सूत्र-२१५) 'णम्' इति वाक्यालङ्कारे,यस्य भिक्षोर्मन्दसंहननतया एवम्भूतोऽध्यवसायो भवति। तद्यथा-स्पृष्टः खल्वहमस्मि रोगाऽऽतकैः शीतस्पर्शाऽऽ देभिर्वा स्त्र्याधुपसगा, ततो ममारिमन्नवसरे शरीरविमोक्षं कर्तुं श्रेयो, 'नाल' न समर्थोऽइमस्मि, 'शीतस्पर्श' शीताऽऽपादित दुःखाविशेष, भावशीत र पर्श वा रत्र्याधुपसर्गम् 'अध्यासपितुम्' अधिसोढुम, इस्यतो भाकपरिक्षेङ्गितमरणपादपोपगमनमुत्सर्गतः कर्तुं युक्तम्, न च तस्य ममाऽस्मिन्नवसरेऽवसरो यतो मे कालक्षेपाऽसहिष्णुरुपसर्गः समुस्थितो रोगवेदनां वा चिराय सोदु नालमतो वेहानसं गार्द्धपृष्ठं वा आपवादिक मरणमत्र साम्प्रतम्। न पुनरुपसर्गितस्तदेवाभ्युपे-यादित्याह-'स' साधुः, वमुद्रव्यं न चात्र संयमः स विद्यतं यस्याऽसौ वसुमार, 'सर्वसमन्वागाप्रज्ञानेनात्मना कश्चित् अर्धकटाक्षनिरीक्षणादुपसर्गसम्भते सत्यपि तदकरणाया आ-समन्ताद्वत्तो-व्यवस्थित आवृत्तः, यदिवा-शीतस्पर्शवाताऽऽदिजनित दुःखविशेषमसहिष्णुस्तचिकित्साया अकरणतया वसुमान, सर्वसमन्वागतप्रज्ञानेनात्मना आवृत्तो-व्यवस्थित इति / सचोपसर्गितो वाताऽऽदिवेदना चाऽसहिष्णुः किं कुर्यादित्याहहुहेती, यस्भाचिराय वाताऽऽदिवेदनां सोढुमसहिष्णुः, यदिवा-यस्मात् सीमन्तिनो उपसर्गयितुमुपस्थिता विषभज्ञक्षणोद्वन्धनाडुपन्यासेनाऽपि नमुक्षति, ततः 'तपस्विनः प्रभूततरकालनानाविधोपायोपार्जिततोध्नस्य, तदैव श्रेयो यदा ‘एकः कश्चित्, निजैः सपत्नीकोऽपवरके प्रदेशितः, आरूढप्रणयप्रेयसीप्रार्थितस्तन्निर्गमोपायमलभमान आत्मोद्वन्धनाय विहायोगमनं तदाऽऽदद्यात, विषं वा भक्षयेत्, पतनं वा कुर्याद्, दोर्घकाल वा शीतस्पर्शाऽऽदिकमसहिष्णुः सुदर्शनवत् प्राणान् जह्यात्। (सुदर्शन्कथाम् सुदंसण' शब्दे वक्ष्यामि) ननु च वेहानसाऽदिकं बालमरणमुक्त, तथाऽमर्थाय. तत्कथं तस्याऽभ्युपगमः ? तथा चाऽऽगमः"इचेए बालमरणेणं मरमाणे जीवे अणतेहि नेरइयभवग्गहणेहि अप्पाणं संजोएइ० जाव अणाइयं च णं अणवयग्गं चाउरंतं संसारकतारं भुजो भुलो परियट्टइति।'' अत्रोच्यते-नैष दोषोऽत्रास्माकमार्हताना, नैकान्ततः किशित्प्रतिषिद्धमभ्युपगतं वा मैथुनमेकं विहाय / अपि तुद्रव्यक्षेत्रकालभावानाश्रित्य तदेव प्रतिषिध्यते, तदेव चाभ्युपगम्यते, उत्सर्गोऽप्यगुणायाऽपवादोऽपि गुणाय कालज्ञस्य साधोरिति। एतद्दर्शयितुमाहदीर्घकालं संयमप्रतिपालन विधाय, संलेखनाविधिना कालपर्यायण भक्तपरिज्ञाऽऽदिमरणं गुणायेति / एवंविधे त्ववसरे 'तत्राऽपि' वेहानसगाईपृष्ठाऽऽदिमरणेऽपि कालपर्याय एव, यद्वत्कालपर्यायमरणं गुणाय, एवं वेहानसाऽऽदिकमपीत्यर्थः / बहुनाऽपि कालपर्यायेण यावन्मात्र कर्माऽसौ क्षपयति, तदसावल्पेनाऽपि कालेन कर्मक्षयमवाप्नोतीति दर्शयति'सोऽपि' वेहानसाऽऽदेर्विधाता, न केवलमानुपूर्व्या भक्तपरिज्ञाऽऽदेः कर्तेत्यपिशब्दार्थः तत्र' तस्मिन् वेहानसाऽऽदिमरणे 'विअंतिकारए त्ति' विशेषेणान्तिय॑न्तिः- अन्तक्रिया तस्याः कारको व्यन्तिकारकः, तस्य हि तस्मिन्नवरारे तदेहानसाऽऽदिकमौत्सर्गिकमेव मरणं, यतोऽनेनाप्यापवादिकेन मरणेनानन्ताः सिद्धाः, सेत्स्यन्ति च, उपसञ्जिहीर्षुराह'इत्येतत्' पूर्वोक्तं वहानसादिभरणं, विगतमोहाना-'आयतनम्' आश्रयः कर्तव्यतया, तथा-'हितम्' अपायपरिहारतया, तथा-'सुखं' जन्मान्तरेऽपि सुखहेतुत्वात्, तथा-'क्षम' युक्तंप्राप्तकालत्वात् / तथानिःश्रेयसं कर्मक्षयहेतुत्वात्, तथा-'आनुगामिक' तदर्जितपुण्याऽनुगमनात, इति-ब्रवीमिशब्दौ पूर्वबद् / विमोक्षाध्ययनस्य चतुर्थोद्देशकः समाप्तः। आधा०१ श्रु०८ अ०४ उ०। (भक्तपरिज्ञा भत्तपच्चक्खाण' शब्दे पञ्चमभागे 1358 पृष्ठे गता) (26) तस्य च भिक्षोरभिग्रहविशेषात् सपात्रमेकं वस्त्रं धारयतः, परिकर्मितमतेलधुकर्मतया एकत्वभावनाऽध्यवसायः स्यादिति दर्शयितुमाह जस्स णं मिक्खुस्स एवं भवइ / एगे अहमंसि, न मे अस्थि कोइ, न याऽहमवि कस्स वि, एवं से एगागिणमेव अप्पाणं समभिजाणिज्जा / लाघवियं आगममाणे तवे से अभिसमण्णगए भवइ० जाव समाभिजाणिया। (सूत्र-२१६) ‘णम्' इति वाक्यालङ्कार, यस्य भिक्षोः, एवं' इति वक्ष्यमाणं भवति, तद्यथा-एकोऽहमस्मि संसारे पर्यटतो न मे पारमार्थिक उपकारकर्तृत्वेन द्वितीयोऽस्ति, न चाहमन्यस्य दुःखापनयनतः कस्यचिद् द्वितीय इति, स्वकृतकर्मफलेश्वरत्वात्प्राणिनाम् / एवमसौ साधुरेकाकिनमेवाऽऽत्मानमन्तरात्मानं सम्यगभिजानीयात्। नास्याऽऽत्मनो नरकाऽऽदिदुःखत्राणतया शरण्यो द्वितीयोऽस्तीत्येवं सन्दधानो यद्यद्रोगाऽऽदिकमुपतापकारणमापद्यते, तत्तदपरशरणनिरपेक्षो मयैवैतत्कृतं, मयैव सोढव्यमित्येतदध्यवसायी सम्यगधिसहते। कुत एतदधिसहते? इत्यत आह-'लाघवियं' इत्यादि चतुर्थोद्देशकवगतार्थम् / यावत् 'सम्मत्तमेव समभिजा-णिय ति। इह द्वितीयोद्देशके उद्गमोत्पादनैषणाप्रतिपादिता। तद्यथा-"आउसंतो! समणा! अहं खलु तव अट्ठाए असणं वा पाणं वा खाइम वा साइमं वा वत्थं
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________________ मरण 128 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मरण वा पडिग्गह वा कम्बल वा पायपुंछण वा पाणाइं भूयाई जीवाई सत्ताई समारब्भ समुद्दिरस कीयं पामिचं अच्छेनं अणिसिट्ट आहटु चेएमि।' इत्यादिना गन्थेनेति। तथा-अनन्तरोद्देशके ग्रहणैषणा प्रतिपादिता।" सिया य से एवं वयंतस्स वि परो अभिहडं असणं वा पाणं वा खाइम वा साइमं वा आहटु ढलएजा।" इत्यादिना ग्रन्थेन / (ततो ग्रासेषण वशिष्यते, अतस्ततप्रतिपादक रात्रग 'भोयण' शब्दे पक्षमभागे 1627 पृष्ठे सव्याख्यमुक्तम) (27) तस्य चान्तप्रान्ताशितयाऽपचितमांसशोणितस्यजरदस्थिसन्ततेः क्रियाऽवसीदत्कायचेष्टस्य शरीरपरित्यागबुद्धिः स्यादित्याहजस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ, से गिलामि च खलु अहं, इमंसि समए इमं सरीरगं अणुपुट्वेण परिवहित्तए से अणुपुट्वेण आहारं संवट्टिना / अणु पुव्वेणं आहारं संवट्टिताकसाए पयणुए किचासमाहियचे फलगावयट्ठी उट्ठाय मिक्खू अभिनिवुडच्चे / (सूत्र-२२१) ‘णम्' इति वाक्यालङ्कारे, यरयैकत्वभावनामावितस्य भिक्षोराहारोपकरणलाघवं गतस्य, 'एवं' इति वक्ष्यमाणोऽभिप्रायो, भवति। 'स' इति तच्छब्दार्थे, तच्छब्दोऽपिवाक्योपन्याराार्थे, 'चः शब्दः समुच्चये, खलुः अवधारणे, अह चाऽस्मिन् समये अबसरे संयमावसरे, लायामि' ग्लानिमेव गतो रूक्षाऽऽहारराया तत्समुत्थेन वा रोगेण पीडितोऽतो न शक्नोमि रूक्षतपोभिरभिनिष्टतं, 'शरीरकमानुपा' यथेष्टकालाऽऽयश्यकक्रियारूपया, 'परिवोद' नलालमह क्रियासुव्यापारयितुम, अस्मिनवसरे इदं प्रतिक्षणं शीर्यमाणत्वाच्छरीस्वमिति मत्था, 'स' भिक्षुः, आनुपूर्व्या चतुर्थषष्ठाऽऽचाम्लाऽऽदिकया आहारं 'संवर्तयेत्' संक्षिपेत्, न पुनीदशरांवत्सरसंलेखनाऽऽनुपूर्वीह गृह्यते, ग्लानस्य तावन्मात्रकालरिथतेरभावाद / अतस्तत्कालयोग्ययाऽऽनुपूर्या द्रव्यसंलेखनार्थमाहारं निरुध्यादिति। द्रव्यसलेखनया सलिख्य च यदपरं कुर्यात्तदाहषष्ठाष्टमदशमद्वादशाऽऽदिकयाऽऽनुपूयाऽऽहार, संवय॑कषायान् प्रतनून कृत्वासर्वकाल हि कषायसानवं विधेयं, विशेषतस्तु संलेखनावरारे इत्यतस्तान प्रतनून् कृत्या सम्यगाहिताव्यवस्थापिता अर्चा शरीरं येन स समाहितार्चः नियमितकायव्यापार इत्यर्थः / यदिवा-अचलिश्या सम्यगाहिता-जनितालेश्या येन स समाहितार्चः, अतिविशुद्धाध्यवसाय | इत्यर्थः। यदिवा-अर्चा क्रोधाध्यवसायाऽऽभिका ज्वाला समाहिताउपसमिता अर्चा येन स तथा, पलं कर्मक्षयरूपं, तदेव फलनं तेनाऽऽपदिसंसारभमणरूपायामर्थ:-प्रयोजनलकापदर्थः स विद्यते यरयाऽसौ फलकाऽऽपदर्थी, यदिवा-फलकवद्वारयादिभिरुभयतो बाहालोऽभ्यन्तरतश्चावकृष्टः फलकावकृष्ट इत्येवं विगृह्माऽऽपत्वात ‘फलगावयडी' इत्युक्त, यदिवा-तक्ष्यमाणोऽपि दुर्ववनवास्यादिभिः कषायाभावाया फलकवदवतिष्ठते तच्छीलश्चेति फलकावस्थायी. वासी चन्दनलप इत्यर्थः / स एवम्भूतः प्रतिदिनं साकारभक्तप्रत्याख्याथी बलवति रोगावेगे उत्थाय अभ्युद्यतमरणोद्यगं विधायाऽभिनिवृत्तार्चः शरीरसनतापरहितो धृतिसहननाऽऽद्युपेतो महापुरुषाऽऽचीर्णमार्गानुविधायीडितं मरण कुर्यात्। कथं कुर्यादित्याहअणुपविसित्ता गामं वा णगरं वा खेडं वा कब्बडं वा मडंबं वा पट्टणं वा दोणमुहं वा आगरं वा सन्निवेसं वा नेगम वा रायहाणिं वा तणाई जाइजा, तणाईजाइत्ता से तमायाए एगंतमवक्कमिज्जा, एगतमवकमित्ता-अप्पंडे अप्पपाणे अप्पबीए अप्पहरिए अप्पोसे अप्पोदए अप्पुत्तिंगपणगदगमट्टियमकडासंताणए पडिलेहिय प०(२) पमज्जिय प० (2) तणाई संथरिजा, तणाई संथरित्ता इत्थवि समए इत्तरियं कुज्जा, तं सच्चं सच्चवाई ओए तिन्ने छिन्नकहंकहे आईयटे अणाईए चिचाण भेउरं कायं संविहूय विरूवरूवे परीसहोवसग्गे अस्सिं विस्संभणयाए भेरवमणुचिन्ने तत्थावि तस्स कालपरियाए० जाव अणुगामियं ति बेमि / (सूत्र-२२२) विमोक्षाध्ययने षष्ठ उद्देशकः। ('गाम' यावत 'रायहाणिं' इत्यादिशब्दार्थाः स्वस्चशब्दे) एतष्वेतानि वा प्रविश्य तृणानि याचेत, ततः किमित्याह-रांरतारकाय प्रासुकानि दर्भवीरणाऽऽदिकानि क्वचिद्- गामाऽऽदौ, तृणस्वामिनमशुषिराणि तृणानि याचित्वा स तान्यादाय 'एकान्ते' गिरिगुहादौ, अपक्रमेद्गच्छेत्, एकान्त रहोऽपक्रम्य च प्रासुकं महास्थण्डिल प्रत्युपेक्षते किम्भूत तदर्शयति-अल्पान्यण्डानि कीटिकाऽऽदीनां यत्र तदल्याण्ड तस्मिन्, अल्पशब्दोऽत्राभावे वर्त्तते, अण्डकरहित इत्यर्थः तथा- अल्पा: प्राणिनोद्वीन्द्रियाऽऽदयो यस्मिन तत्तथा, तथा-अल्पानि बीजानि नीवारश्यामाकाऽऽदीनां यत्र तत्तथा तथा-अल्पानि हरित निदूर्वाप्रबाला55दीनि यत्र तत्तथा, तथा-'अल्पावश्याये' अधस्तनपरितनावश्यायविप्रड़-वर्जित, तथा-'अल्पोदके' भौमान्तरिक्षोदकरहिते. तथा'उत्तिङ्गपनकोदकमृत्तिकामर्कटसन्तानरहिते' तत्रोत्तिग:-पिपीलिकासन्तानकः, पनको-भूम्यादावुल्लिविशेषः, उदकमृत्तिकाआचराप्कायाऽद्रीकृता मृत्तिका, मर्कटसन्तानकोलूतातन्तुज लं, तदवम्भूते महास्थण्डिले तृणानि संस्तरेत् / किं कृत्वा ? तत् र थण्डिलं चक्षुषा 'प्रत्युपेक्ष्य' (2) वीप्सया भृशभावमाह। एवं रजोहरणाऽऽदिना प्रमृज्य' (2) अत्रापि वीप्सया भृशार्थता सूचिता सस्तीर्य च तृणा-युचारप्रस्रवणभूमि च प्रत्युपेक्ष्य पूर्वाभिमुखसंस्तारकगतः करतलललाटस्पर्शिघृतरजोहरणः कृतसिद्धनमस्कार आवर्त्तितपञ्चनमस्कारोऽत्रापि समये, अपिशब्दादन्यत्र वा समये, 'इत्वरम्' इति, पादपो गमनाऽपेक्षया नियतदेशप्रचाराभ्युपगमादिङ्गितमरणमुच्यते, न तु पुरित्वरं साकार प्रत्याख्यानम / साकारप्रत्याख्यानस्यान्यस्मिन्नपि काने जिनकल्पिकाऽऽदेरसम्भवात। किं पुनर्यावत्कथिकभक्तप्रत्याख्य नावसर इति / इत्यरं हि रोगाऽऽतुरः श्रावको विधत्ते / तद्यथा-यद्यहमस्माद्रोगात् पञ्चभैरहोभिर्मुकः स्यां ततो भोक्ष्ये, नान्यथेत्यादि। तदेवभित्वरम् इङ्गितमरणं, धृतिसंहननाऽऽदिवलोपेतः स्वकृतत्वग्वर्तनाऽऽदिकियो यावजीवं चतुर्विधाऽऽहारनियमं कुर्यादिति।
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________________ मरण 126 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मरण उक्तं च अन्नतरे विरूवरूवे फासे अहियासित्तए, हिरिपडिच्छायणं चऽहं 'पञ्चक्खइ आहार, चउव्विहं णियमओ गुरुसमीवे। नो संचाएमि अहियासित्तए, एवं से कप्पेइ कडिबंधणं धारित्तए। इंगियदेसम्मितहा, चिट्ट पि हु नियमओ कुणइ।।१।। (सूत्र 223) उव्वत्त्इ परिवत्तइ, काइकम्माईऽवि अप्पणा कुणइ। यो भिक्षुः प्रतिमाप्रतिपन्नोऽभिग्रहविशेषादचेलो-दिग्वासाः पर्युषितःसव्वामिह आपणचिअ,ण अनजोगेण धितिबलिओ।।२।। संयमे व्यवस्थितो 'णम्' इति वाक्यालङ्कारे 'तस्य' भिक्षोः एव' मितितचेगितमरणं किम्भूतं किम्भूतश्च प्रतिपद्यत इत्याह-तइङ्गितमरण वक्ष्यमाणोऽभिप्रायो भवति, तद्यथा-शक्तोः म्यहं तृणस्पर्शमपि सोद् सद्यो हितं स यं, सुगतिगमनाविसंवादनात् सर्वज्ञोपदेशाच्च सत्य धृतिसहननाद्युपेतस्य वैराग्यभावनाभावितान्तः करणस्याऽऽगमेन प्रत्यतथ्यम्, तथा रवतोऽपि सत्यं वदितुं शीलमस्येति सत्यवादी, यावजीवं क्षीकृतनारकतिर्यग्वेदनाऽनुभवस्य न मे तृणस्पर्शो महति फलविशेषेऽभ्युयथोक्तानुष्ठानाद्- यथाऽऽरोपित्तप्रतिगाभारनिर्वहणादित्यर्थः, तथा द्यतस्य किञ्चित् प्रतिभासते, तथा-शीतोष्णदंशमशकस्पर्शमधिसोदु'ओजः रागद्वेयरहितः, तथा 'तीर्णः संसारसागरं, भाविनि भूतवदुप मिति, तथा एकतरान् अन्यतरांश्चानुकूलप्रत्यनीकान् विरूपरूपान् चारात्तीर्णवत्ती" इत्यर्थः, तथा 'छिन्ना' अपनीता 'कथ' कथमपि या 'स्पर्शान्' दुःखविशेषानध्यासयितुं-सोढुमिति, किंत्वहं ह्रीः-लज्जा तया 'कथा' रागकथादिका विकथारूपा येन स छिन्नकथंकथः, यदिवा गुप्तप्रदेशस्य प्रच्छादनं हीप्रच्छादनम्, तद्याहं त्यक्तुं न शक्नोमि. एतच 'कथमहमिङ्गितमरणप्रतिमा निर्वहिष्ये' इतयेवंरूपा या कथा सा छिन्ना प्रकृतिलज्जालुकतया साधनविकृतरूपतया वा स्यात्, एवमेभिः कराणैः येन स छिन्नकथकथः, दुष्करानुष्ठानविधायी हि कथंकथी भवति, स तु 'से' तस्य कल्पते-युज्यते'कटिबन्धन' चोलपट्टकं कर्तुम, सच विस्तरेण पुनर्महापुरुषतवान व्याकुलतामियादिति तथा-आसमन्तादतीव इता चतुरङ्गुलाधिको हस्तो दैर्येण कटिप्रमाण इति गणनाप्रमाणेनैकः / ज्ञाता परिच्छिन्ना जीवादयोऽर्था येन सोऽयमातीतार्थः आदत्तार्थो वा, पुनरेतानि कारणानि न स्युः ततोऽचेल एव पराक्रमेत। एतत्प्रतिपादयितुमाहयदिवाअतीताः-सामस्त्येनातिक्रान्ताः अर्थाः प्रयोजनानि यस्य स तथा, अदुवा तत्थ परक्कमंतं भुजो अचेलं तणफासा फुसन्ति उपरतव्यापार इत्यर्थः, तथा-आसमन्तादतीव इतोगतोऽनाद्यनन्ते संसार सीयफासा फुसन्ति तेउफासा फुसन्तिदंसमसगफासा फुसन्ति आतीतः न अतीतः अनातीतः; अनादत्तो वा संसारो येन स तथा, एगयरे अन्नयरे विरूवरूवे फासे अहियासेइ, अचेले लाघवियं संसारार्णवपारगामीत्यर्थः / स एवम्भूत इङ्गितमरणं प्रतिपद्यते, विधिना आगममाणे० जाव सममिजाणिया। (सूत्र-२२४) 'त्यक्त्वा' प्रोज्झय स्वयमेव भिद्यते इति भिदुरं प्रतिक्षणविशरारु 'काय' स एवं कारणसद्भावे सति वस्त्रं विभृयाद् / अथवा नैवासी जिहेति कर्मवशाद गृहीतमौदारिकं शरीरं त्यक्त्पवा, तथा 'संविधूय परीष ततोऽचेल एव पराक्रमेत, तं च तत्र संयमेऽचेलं पराक्रममाणं भूयः-पुनहोपसर्गान प्रमथ्य 'विरुपरूपान्' नानाप्रकारान् सोहा 'कस्मिन् स्तृणस्पर्शाः स्पृशन्ति-उपतापयन्ति, तथा-शीतोष्णदंशमश-कस्पर्शाः सर्वज्ञप्रणीत अगमे 'विसम्भणतया' विश्वासास्पदेतदुक्तार्थाविसंवादा स्पृशन्तीति, तथैकतरानन्यतरांश्च विरूपरूपान् स्पर्शानुदीनधिसहते ध्यवसायेन भैरव-भयानकमनुष्ठानं क्लीवैर्दुरध्यवसमिङ्गितमरणाख्य असावचेलोऽचेललाघवमागमयन्नित्यादि गतार्थ यावत् 'सम्मत्तमेव मनुचीर्णवान् अनुष्ठितवानिति, तच्च तेन यद्यपि रोगातुरतया व्यधायि समभिजाणिय त्ति। तथापि तक्तालपर्यायागततुल्यफलमिति दर्शयितुमाह-तत्राऽपि रोग (26) किंच-प्रतिमाप्रतिपन्न एव विशिष्टमभिग्रहं गृह्णीयात्, तद्यथापीडाहितेङ्गितभरणाभ्युपगमेऽपि, न केवलं कालपर्यायेणेत्यपिशब्दार्थः, अहमन्येषां प्रतिमाप्रतिपन्नानामेव किश्चिद्दास्यामि, तेभ्यो वा ग्रहीष्या'तस्य कालजस्य भिक्षीरसावेव कालपर्यायः, कर्मक्षयस्योभयत्र मीत्येवमाकारं चतुर्भङ्गिकयाभिग्रहविशेषमाहसमानन्वादिति, आह च-'सेवितस्थ वियंतिकारए' इत्यादि पूर्ववद्ग जस्सणं भिक्खुस्स एवं भवइ-अहं च खलु अन्नेसिं भिक्खूणं तार्थम्, इति-बवीमिशवदावधि क्षुण्णार्थाविति विमोक्षाध्ययनस्य षष्ठो असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा आहट्ट दलइस्सामि देशकः समाप्तः। आहडं च साइजिस्सामि ||1|| जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ (28) साम्प्रतं सप्तमव्याख्या प्रतन्यते-अस्य चायमभिसम्बन्धः अहं च खलु अन्नेसिं भिक्खूणं असणं वा पा०४ आहट्ट दलइइहानन्तरोद्देशके एकत्वभावनाभावितस्य धृतिसंहननताद्युपेतस्येगि- स्सामि आहडं च नो साइजिस्सामि॥२।जस्स णं भिक्खुस्स तमरणमभिहितम्, इह तु सैवैकत्वभावना प्रतिमाभिर्निष्पाद्यते इति एवं भवइ-अहं च खलु असणं वा पा०४ आहट्ट नो दलइस्सामि कृत्वाऽतस्ताः प्रतिपाद्यनते, तथा विशिष्टतरसंहननोपेतश्च पादपोप- आहडं च साइजिस्सामि // 3 // जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइगमनमपि विध्यादित्येतकोत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योद्देश- अहं च खलु अन्ने सिं भिक्खूणं असणं वा पा०४ आहट्ट नो कस्यादिसूत्र दलइस्सामि आहडं च नो साइञ्जिस्सामि / / 4 / / अहं च खलु जे मिक्खू अचेले परिवुसिए तस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ- तेण अहाइरित्तेण अहेसाणिजेण अहापरिग्गहिएणं असणेण चाएमि अहं तणफासं अहियासित्तए सीयफासं अहियासित्तए / वा पा०४ अमिका साहम्मियस्स कुजा वेयावडियं करणाए, तेउफासं अहियासित्तए दंसमसगफासं अहियासित्तए एगयरे / अहं वाऽवि तेण अहाइरित्तेण अहेसणिण अहापरिग्गहिएणं
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________________ मरण 130- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मरण असणेण वा पाणेण वा०४ अभिकंख साहम्मिएहिं कीरमाणं वेयावडियं साइञ्जिस्सामि लाघवियं आगममाणे० जाव सम्मत्तमेव समभिजाणिया (सूत्र-२२५) एतच पूर्व व्याख्यातमेव, केवलमिह संस्कृतेनोच्यते / पररा भिक्षोरेवं भवति-वक्ष्यमाणम, तद्यथा-अहं च खल्वन्येभ्यो भिक्षयोऽनादिकमाहृत्य दास्याम्यपराहृतं च स्वादयिष्यामीत्येको भङ्गकः 1, तथायस्य भिक्षोरेवं भवति तद्यथा-अहं च खल्वन्येभ्योऽशनादिकमाहृत्य दास्याम्यपराहृतं च नो स्वादयिष्यामीति द्वितीयः२; यरय भिक्षोरेवं भवति तद्यथा-अह च खल्वन्येभ्योऽशनादिकमाहृत्य नो दास्याम्यपराहृतं च स्वादयिष्यामीति तृतीयः 3; तथा-यस्य भिक्षोरेवं भवति-तद्यथाअहं च खल्वन्येभ्यो भिक्षुभ्योऽशनादिकमाहृत्य नो दास्याम्यपराहृतं च नो स्वादयिष्यामीति चतुर्थः 4 / इत्येवं चतुर्णामभिग्रहाणामन्यारमभिग्रह गृह्णीयात् , अथवा-एतेषामेवाद्यानां त्रयाणां भङ्गानामेकपदेनैव कश्चिदभिग्रहं गृह्णीयादिति दर्शयितुमाह-यस्य भिक्षोरेवभूतोऽभिग्रहविशेषो भवति, तद्यथा-अहं च खलु तेन यथाऽतिरिक्तन-आत्मपरिभोगाधिकेन, यथेषणीयेन यत्तेषां प्रतिमाप्रतिपन्नानामेषणीयमुक्तमतद्यथा-पञ्चसु प्राभृतिकासु अग्रहः द्वयोरभिग्रहः, तथा यथापरिगृहीतेनआत्मार्थ स्वीकृतेनाशनादिना निर्जरामभिकाश साधर्मिकस्य वैयावृत्त्य कुर्याद; यद्यपि ते प्रतिमाप्रतिपन्नत्वादेकत्र न भुञ्जते तथाऽप्येकाभिग्रहापादितानुष्ठानत्वात सांभोगिका भण्यन्ते, अतस्तस्य समनोज्ञस्य करणाय उपकरणार्थ वैयावृत्त्यं कुर्यामित्येवंभूतमभिग्रहं कश्चिद् गृह्णाति / तथाऽपरं दर्शयितुमाह-वाशब्दः पूर्वस्मात पक्षान्तरमाह-अपिशब्दः पुनःशब्दार्थे, अहं वा पुनस्तेन यथातिरिक्तन यथैषणीयेन यथापरिगृहीतेनाशनेन पानेन खादिगेन स्वादिभेन निर्जरामभिकाजय साधर्मिकः क्रियमाण वैयावृत्त्यं स्वादयिष्यामि-अभिलपिष्यामि या वाऽन्यः साधर्मिकोऽन्यस्य करोति तं चानुमोदयिष्यामि-यथा सुष्टु भवता कृतमेवं भूतया वाचा, तथा कायेन च प्रसन्नदृष्टिमुखेन, तथा मनसा चेति; किमित्येव करोति ? 'लाघविकम्' इत्यादि गतार्थम्। (30) तदेवमन्यतराभिग्रहवान् भिक्षुरचेलः सचेलो वा शरीरपीडायां सत्यामसत्यां वा आयुःशेषतागवगम्योद्यतरमरणं विदध्यादिति दर्शयितुमाह जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ-से गिलामि खलु अहं इमम्मि समए इमं सरीरंग अणुपुव्वेणं परिवहित्तए, से अणुपुदेणं आहार संवट्टिजा संवट्टिजा कसाए पयणुए किचा समाहियचे फलगावयट्ठी उट्ठाय भिक्खू अभिनिव्वुडच्चे अणुपविसित्ता गामं वा नगरं वा० जाव रायहाणिं वा तणाईजाइजा० जाव संथरिजा इत्थऽवि समए कायं च जोगं च ईरियं च पच्चक्खाइजा, तं सचं सच्चावाई ओए तिन्ने छिन्नकहकहं आइयढे अणाईए चिचाणं भेउरं कायं संविहुणिय विरूवरूवे परीसहोवसग्गे अस्सि विस्संभणाए भेरवमणुचिन्ने तत्थऽवितस्स कालपरियाए, सेऽवि तत्थ विअन्तिकारए इचेयं विमोहाऽऽययणं हियं सुहं खमं निस्सेसं आणुगामियं ति बेमि / (सूत्र-२२६) णमिति वाक्यालङ्कारे, यस्य भिक्षोरेवम्भूतो वक्ष्यमाणोऽभिप्रायो भवति, तद्यथा-गलायामि खल्वहमित्यादि यावत्तृणानि सस्तरेत, संस्तीर्य च तृणानि यदपरं कुर्यात्तदाह -अत्रापि रामये अबसरे न केवलमन्यत्रानुज्ञाप्य संस्तारकमारुह्य सिद्धसमक्षं स्वत एव महाव्रतारोपणं करोति, तत्रचतुर्विधमप्याहारं प्रत्याचष्टे, ततः पादपोपगमनाय काय च-शरीरं प्रत्याचक्षीत, तद्योगं च-आकुञ्चनप्रसारणोन्मेषनिमेषादिकम्, तथेरणमीर्या तां च सूक्ष्मां कायवाणता मनोगता वाऽप्रशस्तां प्रत्याचक्षीत, तच्च सत्य सत्यवादीत्याद्यनन्तरोद्देशकवन्नेयम् / इतिब्रवीमिशब्दावपि क्षुण्णार्थाविति विमोक्षाध्ययनस्य सप्तमोद्देशकः समाप्तः // 7 // उक्तः सप्तमोद्देशकः। (31) साम्प्रतमष्टम आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरोद्देशकेषु रोगाऽऽदिसम्भवे कालपर्यायागतं परिज्ञङ्गितमरणपादपोपगमनविधानमुक्तम्, इह तु तदेवानुपूर्वीविहारिणां कालपर्यायागतमुच्यते इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्यादिसूत्रमुच्यते अनुष्टुप्अणुपुव्वेण विमोहाई, जाई धीरा समासज्ज। वसुमन्तो मइमन्तो, सव्वं नचा अणेलिसं / / 1 / / दुविहं पि विइत्ताणं, वुद्धा धम्मस्स पारगा। अणुपुव्वीइ संखाए, आरम्भाय तिउट्टई / / 2 / / कसाए पयणू किच्चा, अप्पाहारे तितिक्खए। अह भिक्खू गिलाइजा, आहारस्सेव अंतियं / / 3 / / जीवियं नामिकंखिज्जा, मरणं नाऽवि पत्थए। दुहओऽविन सजिजा, जीविए मरणे तहा।।४।। आनुपूर्वी-क्रमः, तद्यथा-प्रव्रज्या-शिक्षा-सूत्राऽर्थग्रहणपरिनिष्ठितस्यैकाकिविहारित्वमित्यादि, यदिवा-आनुपूर्वीसंलेखनाक्रमश्चत्वारि विकृष्टानीत्यादि, तया-आनुपूर्व्यायान्यभिहितानि, कानि पुनस्तानि ? 'विमाहानि' विगतो मोहो येषु येषां वा येभ्यो वा तानि, तथा-भक्तपरिशेगितमरण पादपोपगमनानि यान्येवंभूतानि यथाक्रममायातानि धीराःअक्षोभ्याः समासाद्य-प्राप्य वसु-द्रव्यं संयमस्तद्वन्तो वसुमन्तः, तथा मननं मतिः हेयोपादेयहानोपादानाध्यवसायस्तद्वन्तो गतिमन्तः, तथा सर्व कृत्यमकृत्य च ज्ञात्वा यद्यस्य वा भक्तपरिज्ञानादिकं मरणविधानमुचितं धृतिसहननाद्यपेक्षयाऽनन्य-सदृशम् अद्वितीयम्, सर्व ज्ञात्वा समाधिमनुपालये दिति॥१॥ किं च-द्वे विधे प्रकारावस्येति द्विविधं तपो बाह्यमभ्यन्तर च, तद्विदित्वा-आसेव्य; यदिवा-मोक्षाधिकारे विमोक्तव्य द्विविधं, तदपि बाहां शरीरोपकरणादि आन्तर रागादि, तद् हेयतया विदितवा त्यक्त्वेत्यर्थः, हेयपरित्यागफलत्वात् ज्ञानस्य, '' मिति वाक्यालङ्कार, के विदित्वा ? 'बुद्धा' अवगततत्त्वाः धर्मस्य श्रुतचारित्राख्यस्य पारगाः सम्यग्वेत्तारः, ते बुद्धा धर्मस्वरूपवेदिनः, 'आनुपूर्व्या' प्रव्रज्यादिक्रमेण संयममनुपाल्य मम जीवतः कश्चिद् गुणो नास्तीत्यतः
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________________ मरण 131 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मरण शरीरमोक्षाऽवसरः प्राप्तः, तथा-कस्मै मरणायालमहमित्येवं 'ज्ञात्वा' आरम्भणमारम्भः शरीरधारणायाऽन्नपानाद्यन्वेषणाऽऽत्मकस्तस्मात चुट्यति-अपगच्छतीत्यर्थः, सुब्ब्यत्ययेन पञ्चम्यर्थ चतुर्थी, पाठान्तर वा 'कम्मुणाओ तिअट्टई कर्माष्टभेदं तस्मात् त्रुटयिष्यतीति त्रुट्यति'वर्तमानसामीप्ये वर्तमानवता' (पा०३-३-१३१) इत्यनेन भविष्यत्कालस्य वर्तमानता / / 2 / / स चाभ्युद्यतमरणाय संलेखना कुर्वन् प्रधानभूतां भावसंलेखनां कुयादित्येतद्दर्शयितुमाह-कषः-संसारस्तस्याऽऽयाः-कषाऽऽयाः क्रोधादयश्चत्वपारस्तान प्रतनून कृत्वा ततो यत्किञ्चनाश्नीयात् तदपि न प्रकाममिति दर्शयति-'अल्पाहारः' स्तोकाशी, षष्ठाटमादिसंलेखनाक्रमायात तपः कुर्वन् यत्रापि पारयेत् तत्राप्यल्पमित्यर्थः / अल्पाहारतय च क्रोधोद्भवः स्यादतस्तदुपशमो विधेय इति दर्शयतितितिक्षते-असदृशजनादपि दुर्भाषितादि क्षमते. रोगातङ्कं वा सम्यक् सहत इति; तथा च संलेखना कुर्वन्नाहारस्याल्पतया अथे' त्यानन्तर्य 'भिक्षुः' 'मुमुक्षुः ग्लायेत्' आहारेण विना ग्लानतां व्रजेत्, क्षणे मूर्छनाहारस्यैवान्तिक पर्यवसानं व्रजेदिति, चत्वारि विकृष्टानीत्यादिसंलेखनाक्रमं विहायाशनं विदध्यादित्यर्थः, यदिवा-ग्लानतामुपगतः सन्नाहारस्यान्तिक-समीपं नव्रजेत्, तथाहि-आहारयामितावत्कतिचिद्दिनानि पुनः संलेखनाशेषं विधास्तेऽहमित्येवं नाहारान्तिकमियादिति॥३॥ किं च-तत्र संलेखनायां व्यवस्थितः सर्वदा वा साधुर्जीवितं-प्राणधाररणलक्षणं नाभिकाङ्केत, नापि क्षुद्वेदनापरीषह सहमानो मरणं प्रार्थयेद् / 'उभयतोऽपि' जीविते मरण वा, न सङ्गं विदध्यात्।।४।। (32) जीगिते भरणे च तथा किं भूतस्तर्हिस्यादित्याहमज्झत्थो निजराऽपेही, समाहिमणुपालए। अन्तो बहिं विउस्सिज्ज, अज्झत्थं सुद्धभेसए।।५।। जं किंचू-वक्कम जाणे, आऊखेमस्समप्पणो। तस्सेव अन्तरद्धाए, खिप्पं सिक्खिज्ज पण्डिए।।६।। गामे वा अदुवा रणे, थंडिलं पडिलेहिया। अप्पपाणं तु विन्नाय, तणाई संथरे मुणी॥७॥ अणाहारो तुयट्टिज्जा, पुट्ठो तत्थऽहियासए। नाइवेलं उवचरे, नाणुस्सेहि वि पुट्ठवं // 8|| रागद्वेषयोर्मध्ये तिष्ठतीति मध्यस्थः, यदिवा-जीवितमरणयोर्निराकालतया मध्यस्थो निर्जरामपेक्षितुं शलमस्येति निर्जरापेखी, स एवंभूतः समाधिमरणस्माधिमनुपालयेत-जीविततमरणाऽऽसंशारहितः कालपर्यायण यद्मरणमापद्यते तत् समाधिस्थाऽनुपालयेदिति भावः / अन्तः कषायान बहिरपि शरीरोपकरणादिकं व्युत्सृज्य आत्मनि-अधिअध्यात्मम्- अन्तःकरणं तच्छुद्धंसक द्वन्द्वोपरमा विस्रोतसिकारहितमन्वे-षयेत्-प्रार्थयेदिति / / 5 / / किं च-उपक्रमणमुपक्रमः उपायस्तं यं कञ्चन जानीत, कस्योपक्रमः ? 'आयु:-क्षेमस्य' आयुषः क्षेमं सम्यक् पालनं तस्य, कस्य सम्बन्धि तदायुः? आत्मनः, एतदुक्तं भवतिआत्मायुषो य क्षेमप्रतपालनोपायं जानीत तं क्षिप्रमेव शिक्षेत्- व्यापारयेत् पण्डितो- बुद्धिमान, तस्यैव संलेखनाकालस्य अन्तरद्धाए' त्ति अन्तरकालेऽर्द्धसंलिखित एव देहे देही यदि कश्चित् वातादिक्षोभात् आतङ्कः आशुजीवितापहारी स्यात्, ततः समाधिमरणमभिकासन् तदुपशमोपायमेषणीयविधिनाऽभ्यङ्गादिकं विदध्यात्, पुनरपि संलिखेत्, यदिवाआत्मनः आयुःक्षेमस्य जीवितस्य यत्किमप्युपक्रमणम्- आयुःपुगलानां संवर्तनं समुपस्थितं तज्जानीत, ततस्तस्यैव संलेखनाकालस्य मध्येऽव्याकुलितमतिः क्षिप्रमेव भक्तपरिज्ञानादिकं शिक्षेत-आसेवेत पण्डितोबुद्धिमानिति॥६॥ संलेखनाशु कायश्च मरणकालं समुपस्थित ज्ञात्वा किं कुर्यादित्याह-ग्रामः प्रतीतो ग्रामशब्देन चात्र प्रतिश्रय उपलक्षितः, प्रतिश्रय एव स्थण्डिलं संस्तारकभुवंप्रत्युपेक्ष्य, तथाऽरण्ये वेत्यनेन चोपाश्रयाद् बहिरित्येतदुपलक्षितम्, उद्याने गिरिगुहायामरण्ये वा स्थण्डिलं प्रत्युपेक्ष्य-विज्ञाय चाल्पप्राण-प्राणिरहित ग्रामादियाचितानि प्रासुकानि दर्भादिमयानि तृणानि संस्तरेत् 'मुनिः' यथोचितकालस्य वेत्तेति // 7 // संस्तीर्य च तृणानि यत्कुत्तिदाह-नि विद्यते आहारोऽस्येत्यनाहारः, तत्र यथाशक्ति-यथासमाधानं च त्रिविधं चतुविर्थ वाऽऽहारं प्रत्याख्यायारोपितपञ्चमहाव्रतःक्षान्तः-क्षामितसमस्तप्राणिगणः समसुखदुःख आवर्जितपुण्यप्राग्भारतया मरणादबिभ्यत् संस्तारके त्वगवर्तनं कुर्यात्, तत्र च स्पृष्टः परीषहोपसर्गस्त्यक्तदेहतया सम्यक् तानध्यासयेद् - अधिसहेत, 'तत्र' मानुष्यैरनुकूलप्रतिकूलैः परीषहोपसर्गः, 'स्पृष्टो-' व्याप्तो, नातिवेलमुपचरेत्-न मर्यादोल्लसनं कुर्यात, पुत्रकलत्रादिसम्बन्धाद् नार्तध्यानवशगो भूयात्, प्रतिकूलै परीषहोपसर्गर्न क्रोधनिनः स्यादिति // 8 // एतदेवदर्शयितुमाहसंसप्पगा य जे पाणा, जे य उड्डमहाचरा / भुञ्जन्ति मंससोणियं, न छणे न पमज्जए ||6|| पाणा देहं विहिंसन्ति, ठाणाओ न वि उन्भमे। आसवेहिं विवित्तेहिं, तिप्पमाणोऽहियासए||१०|| गन्थेहिं विवित्तेहिं,आउकालस्स पारए। पग्गहियतरगं चेयं, दवियस्य वियाणओ॥११॥ अयं से अवरे धम्मे, नायपुत्तेण साहिए। आयवशं पडीयारं, विजहिज्जा तिहा तिहा।।१२।। संसर्पन्तीति संसप्र्पका:-पिपीलिकाक्रोष्ट्रादयो ये प्राणाः-प्राणिनः, ये चोर्ध्वचरा-गृध्रादयः, ये चाधश्चराः बिलवा सित्वात्सादयस्त एवंभूता नानाप्रकाराः 'भुञ्चन्ते' अभ्यवहरन्ति मांसं सिंहव्याघ्रादयः, तथा शोणित मशकादयः, ताश्च प्राणिनः आहारार्थिनः समागतानवन्तिसुकुमारवद्धस्थाऽऽदिभिर्न क्षणुयात्-न हन्यात्, नच भक्ष्यमाणं शरीरावयवं रजोहरणादिना प्रमार्जयेदिति।।६।। किंच-प्राणाः-प्राणिनो देहं मम हिंसन्ति, नतु पुननिदर्शनचारित्राणीत्यतस्त्यक्तदेहाशिनस्तानन्तरायभयाद्न निषेधयेत्, तस्माच्च स्थानान्नाप्युझमेत्नान्यत्र यायात, किंभूतः सन्? आश्रयैःप्राणातिपातादिभिर्विषयकषायादिभिर्वा 'विविक्तैः' पृथग्भूतैरविद्यमानैः
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________________ मरण 132 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मरण शुभाऽध्यवसायी तैर्भक्ष्यमाणोऽप्यमृतादिना तृप्यमाण इव सभ्य सचरेद्वा, तथाऽप्यसौ स्वकृतचेष्टत्वादगा एव / किंभूत इति दर्शयतितत्कृतां वेदना तैरतप्यमानो वाऽध्यासयेद्- अधिसहेत / / 10 // कि च- अचलो यः समाहितः, यद्यप्यसाविङ्गितप्रदेशे स्वतः शरीरमात्रेण चलति ग्रन्थैः सबाह्याभ्यन्तरैः शरीररागादिभिः विविक्तः त्यक्तः सद्धिन्थैिर्वा तथाऽप्यभ्युद्यतमरणाद्न चलजतीत्यचलः, सम्यगाहिन-व्यवस्थापित अङ्गाऽनङ्गप्रविष्टैरात्मानं भावयन् धर्मशुक्लध्यानान्यतरोपेतः 'आयुः धर्मध्याने शुक्लध्याने वा मनो येन स समाहितः , भावचलितेश्चेगितकालस्य' मृत्युकालस्य 'पारगः पारगामी स्यात्, यावदन्त्या उच्छवा- प्रदेशे चक्र मणादिकमपि कुर्यादिति / / 14 / / एतद दर्शयितुमाहसनिःश्वासास्तावत्तद्वि-दध्याद, एतन्मरणविधानकारी सिद्धि; त्रिविष्टपं प्रज्ञापकापेक्षयाऽभिमुखं क्रमणमभिक्रमणम् - संस्तारकाद गमनवा प्राप्नुयादिति, मत भक्तपरिझामरणम् / / साम्प्रतमिङ्गितमरण मित्यर्थः, तथा-प्रतीपं-पश्चादभिमुखं क्रमणं प्रतिक्रमणमागमनिश्लोकार्धादिनोच्यते तद्यथा- 'प्रगृहीततरकं चेदम् प्रकर्षण गृहीततरं मित्यर्थः, नियतदेशे गमनागमने कुर्यादिति यावत्, तथा-निष्पन्नो प्रगृहीततरं तदेव प्रगृहीततरकम्, 'इदमिति' वक्ष्यमाणमिङ्गितमरणग, निषण्णो वा यथासमाधानं भुजादिक सङ्कोचयेत् प्रसारयेद्वा, किमर्थएतद्धि भक्तप्रत्याख्यानात सकाशानियमेन चतुर्विधाहारप्रत्याख्या- मेतदिति चेदर्शयति-कायस्य शरीरस्य प्रकृतिपेलवस्य साधारणार्थ, नादिगितप्रदेशसंस्तारकामात्रविहाराभ्युपगमाच विशिष्टतरधृतिसंहननना- कायसाधारणाच तत्पीडाकृतायुष्कोपक्रमपरिहारेण स्वायुः स्थितिधुपेतेन प्रकर्षण गृह्यत इति, कस्यैतद्भवति? द्रव्यसंयमः स विद्यते क्षयामरण यथा स्यात्, नपुनस्तेषां महासत्त्वतया शरीपीडोत्थापितयस्यासौ द्रविकस्तस्य 'विजानतो' गीतार्थस्य जघन्यतोऽपि नवपूर्व- चित्तस्यान्यथाभावः स्यादिति भावः। ननु च निरुद्धसमस्तकायचेष्टस्य विशारदस्य भवात, नाऽन्यस्येति. अत्रापीङ्गितमरणे यत्संलेखनातृण- शुष्ककाष्ठवदचेतनतया पतितस्य प्रचुरतरपुण्यप्राग्भार ऽभिहित इति, संस्तारादिकमभिहितं तत्सर्वं वाच्यम् / / 11 / / अयमपरो विधिरित्याह- नायं नियमः, संविशुद्धाध्यवसायतया यथाशक्त्याऽऽरोपितभार'अयं स ' इति सोऽयम् 'अपरः' अन्यो भक्तप्रत्याख्यानाद्भिन्न इगित- निर्वाहिणः तत्तुल्य एव कर्मक्षयः अत्राप्यसौ, वाशब्दात् तत्र वा मरणस्य धर्मो' विशेषो 'ज्ञातपुत्रेण वीरवर्द्धमानस्वामिना सुष्टवाहितः- पादपोपगमनेऽचेतनवत्सक्रियोऽपि निष्क्रिय एव, यदि वा-अत्रापि उपलब्धः स्वाहितः, अस्य चानन्तरं वक्ष्यमाणत्वात् प्रत्यक्षासन्नवाचिने- इङ्गितमरणेऽचेतनवच्छुष्ककाष्ठ-वत्सर्वक्रियारहितो यथ पादपोपगमने दमभिधानम्, अनापीङ्गितमरणे प्रव्रज्यादिको विधि सलेखनाच पूर्ववद् तथा सति सामर्थ्य तिष्ठद् / / 15 / / एतत्सामर्थ्याभावे चैतत्कुर्यादित्याहद्रश्या / तथोपकरणादिक हित्वा स्थण्डिल प्रत्यूपेक्ष्यालोचितप्रति- यदि निषण्णम्याऽनिषण्णस्य वा गात्रभङ्गः स्यात् ततः परिक्रामेत् क्रान्तः पञ्चमहाव्रतारूढश्चतुर्विधमाहारंपल्याख्याय संस्तारके तिष्ठति, चक्रम्याद्- यथा नियमिते देशेऽकुटिलया गत्या गताऽऽगतानि कुर्यात्. अयमत्र विशेषः-आत्मवर्ज प्रतिचारम- अगव्यापार विशेषेण जह्यात्- तेनापि श्रान्तः सन् अथवोपविष्टस्तिष्ठत्, 'यथा यतो यथाप्रणिहितगात्र त्यजेत् 'त्रिविधत्रिविधेगे' ति-मनोवाकायः कृतकारितानुमतिभिः इति, यदा पुनः स्थानेनापि परिक्लममियात् तद् यथा-निषण्णो वा स्वव्यापारव्यतिरेकेण परित्यजेत. स्वयमेव चोद्वर्तनपरिवर्तन कायिक- पर्यड्रेण वा अर्द्धपर्यण वोत्कुटुकासनो वा परिताम्यति तदा निषण्णः योगादिकं विधत्ते // 12 // स्यात्, तत्राप्युत्तानको वा पार्श्वशायी वा दण्डायतो वालगण्डशायी वा (33) सर्वथा प्राणिसंरक्षणं पौनःपुन्येन विधेयमिति दर्शयितुमाह- यथासमाधानमवतिष्ठेत् // 16 // हरिएसुन निवञ्जिज्जा, थण्डिलं मुणिया सए। किंचविओसिज्ज अणाहारो, पुट्ठो तत्थऽहियासए।।१३। आसीणोऽणेलिसं मरणं,इंदियाणि समीरए। इंदिएहिं गिलायन्तो, समियं आहरे मुणी। कोलावासं समासज्ज, वितहं पाउरे सए।।१७।। तहा विसे अगरिहे, अचले जे समाहिए।१४|| जओ वजं समुप्पज्जे, न तत्थ अवलम्बए। अभिक्कमे पडिक्कमे, सङ्कचए पसारए। तउ उक्कसें अप्पाणं, फासे तत्थऽहियासए॥१८॥ कायसाहारणऽट्ठाए, इत्थं वाऽवि अचेयणो।।१५।। अयं चा-(मयतरे) त्ततरे सिया, जो एवमणुपालए। परिक्कमे परिकिलन्ते, अदुवा चिट्टे अहायए। सव्वगायानरोहेऽवि, ठाणाओ न वि उन्मभे / / 16 / / ठाणेण परिकिलन्ते, निसीइजा य अंतसो॥१६॥ अयं से उत्तमे धम्मे, पुव्वट्ठाणस्स पग्गहे। हरितानि-दूर्वामुरादीनि तेषु न शयीत, स्थण्डिलं मत्वा शयीत. तथा- अचिरं पडिलेहित्ता, विहरे चिट्ठ माहणे // 20 // स बाह्याभ्यन्तरमुपधि व्युत्सृज्य त्यक्त्वाऽनाहारः सन् स्पृष्टः परीष - 'आसीनः' -आश्रितः, किं तत् ? मरणम्, किं भूतम्, 'अनीहोपसर्गः 'तत्र' तस्मिन् संरतारके व्यवस्थितः सन् सर्वमध्यासयेद् दृशम्' अनन्यसदृशमितरजनदुरध्यवर यम्, तथा तश्च कि अधेिसहेत।।१३।। किंच-सानाहारतया मुनिग्लायमान इन्द्रियः शमिनो कुर्यादिति दर्शयति-इन्द्रियाणीष्टानिष्टस्वविषयेभ्यः सकाशादाभावः शमिता-समता तां साम्यं वा आत्मन्याहारयेद्- व्यवस्थापर्यत - गद्वेपाकरणतया सम्यगीरयेत् - प्रेरयेदिति, कोलाघुण कीटकानाऽऽध्यानोपगतो भूयादिति यथासमाधानमास्ते, तद्यथासङ्कोचन- स्तेणमा-वास: कोलावासस्तमन्तर्पणक्षतमुद्देहिकानिचितं 'या' समानिर्विण्यो हरतादिक.प्रसारयो त निमिण याविशेषादिकामात्य-आगन्तुकत्तदुत्थजन्तराहतमा काभ
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________________ मरण 133 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मरण नाय प्रादुरेषयेत्-प्रकट प्रत्युपेक्षणयोग्यमशुषिरमन्वेषयेत्॥१७॥ इंगिग- | तमरणे चोदानामभिधाय यन्निषेध्यं तद्दर्शथितुमाह 'जओ गाहा 'यता' यस्मादनुष्टान्नदवष्टम्भनादेवज़वद्वजं गुरुत्वात्कर्म, अवयं वा पापं वा तत्सनुत्पद्येत प्रादुःप्यात्, न तत्र घुणक्षतकाष्ठादाववलम्बेत। नावष्टम्भनादिकां क्रिया कुर्यात, तथा ततः तस्मादुत्क्षेपणापक्षेपणादेः काययोगाद् दुष्प्रणिहितवाग्योगादार्तध्यानादि मनोयोगाचावद्यसमुत्पत्रिहेतोरात्मानमुत्कषेद- उत्क्रामयेत्। पापोपादानादात्मानं निवर्तयेदिति यावत्। तत्र चधतिसंहननाद्युपेतोऽप्रतिकर्मशरीरः प्रवर्द्धमानशुभाध्यवसाय-कण्इकोऽपूर्वापूर्वपरिणामारोही सर्वज्ञप्रणीतागभानुसारेण पदार्थस्वरूपनिरूपणाहितमतिः अन्यदिदं शरीर त्याज्यमित्येवं कृताध्यवसायः सर्वान स्पर्शन् दुःखविशेषाननुकूलप्रतिकूलोपसर्गपरीषहापादिलान्, तथा वातपित्तश्लेष्मद्वन्द्वेतरप्रोद्भूतान् कर्मक्षयायोअतो मयैवत विधं कृतं सोढव्यं चेत्येदध्यवसायी अध्यासचेद् अधिसहेत, यतो यन्मया त्यक्तं शरीरकमेतदेवोपद्रवन्तिन पुनर्जिक्षितधर्माचरणमित्याकलस्य सर्वपीडासहिष्णुर्भवदिति ||18|| गत इङ्गितगरणाधिकारः / / साम्प्रतं पादपोपगमनमाश्रित्याह-(अयंगाहा) अनन्तरमभिधारयमानत्वारोऽव प्रत्यक्षा मरणविधिः स चाऽऽयततरो न केवलं भक्तपरिमायाः, इङ्गितमरणविधिरायततरः, अयं च तस्मादायततरः इति चशब्दार्थः / आय तिर इत्याडभिविधौ सामस्त्येन यत आयतः / अयमनयोर तेशयेनायत आयततरः / यदिवा-अयमनयोरतिशयेनात्तोगृहीत आत्त तरः, यत्नेनाध्यवसित इत्यर्थः / तदेवमयं पादपोपगमनमरणविधिर ततरो दृढतरः स्याद् भवेत्। अत्रापि यदिङ्गितमरणे प्रव्रज्या - संलेखनाटिकमुक्त तत्सर्वे द्रष्टव्यमिति। यहासावायततरः ततः किमिति दर्शयति-यः भिक्षुः एवम् यक्तविधिनैव पादपोपगमनविधिमनुपालयेत् सर्वगात्रनिराधेऽपि, उत्तप्यमानकायोऽपि मूच्र्छन्नपि भरणसमुद्धातगतो वा भक्ष्यमाणमांसशोणितोऽपि क्रोष्टगघपिपललि कादिभिर्महासत्त्वतया शंसितमहाफलविशेषः संस्तस्मात्स्थानात् प्रदेशात द्रव्यता भावतोऽपि शुभाध्ययवसायस्यानान्न व्युझमेत् - न स्थानान्तरं यायात्॥१६॥ किं च- अयमित्यन्तःकरणनिष्पन्नत्वात्प्रत्यक्षः 'उत्तमः' प्रधानो मरणविधिः सत्तिरत्वाद्धार्मोविशेषः पादपोपगमनरूपो मरणविशेष इति / उत्तमत्व कारण दर्शयति-'पूर्वस्थानस्य प्रग्रह' इति पञ्चम्य” षष्ठी। पूर्वस्थानाद्भक्तपरिज्ञङ्गितमरणरूपात्प्रकर्षण ग्रहोऽत्र पादपोपगमने प्रगृहीततरमेतदित्यर्थः / तथाहि-अत्र यदिगितमरणानुमत कायपरिस्पन्दनं तदपि निषध्यते अच्छिन्नमूलपादपवन्निश्चेष्टो निष्क्रियो दह्यमानछिद्यमानी वा विषमपतितो वा तथैवास्ते न तस्मात्स्थानाच लति. चिलातपुत्रवत् / एतदेव दर्शयति-अचिरं स्थानं, तच स्थण्डिलं तत्पूर्वविधिना प्रत्युपेक्ष्य तस्मिन् प्रत्युपेक्षिते स्थण्डिले विहरेदिति। अत्र पादपोपगमनाध्किाराद् विहरण तद्धिधिपालमुक्तम्। तच्च स्थानात् स्थानान्तरसंक्रमणम्। एतदेव च दर्शयति-तिष्ठेत् सर्वगात्रनिरोधेऽपि स्थानान्तररासक्रमणं कुर्यादित्यर्थः / काऽसौ ? 'माहाणे' त्ति साधुः। स हि निषण्णो निषण्ण ऊर्ध्व स्थितो वा निष्प्रतिक ियद्यथा भिक्षिपमडमचेतन इव न चालयेदिति यावत // 20 // एतदेव प्रकारान्तरेण दर्शयितुमाहअचित्तं तु समासञ्ज,ठावए तत्थ अप्पगं। वोसिरे सव्वसो कायं, न मे देहे परीसहा॥२१॥ न विद्यते चित्तमस्मिन्नित्यचित्तम्- अचेतनं जीवरहितमित्यर्थः / तच्च स्थण्डिल फलकादि वा 'समासाद्य लब्ध्वा फलके ऽपि समर्थः कश्चित्काष्ठ वाऽवष्टभ्य तत्राऽऽत्मान स्थापयेत् / व्यवस्थाप्य च त्यक्तचतुर्विधाहारो गेरुरिव निष्प्रकम्पः कृतालोचनादिपरिकर्मा गुरुभिरनुज्ञातो व्युत्सृजेत्। 'सर्वशः' सर्वात्मना 'काय' देहम्। व्युत्सृष्टदेहस्य च यदि केचन परीषहोपसर्गाः स्युस्ततो भावयेत्-'न मे देहे परीषहाः मत्सम्बन्धी देह एव न भवति, परित्यक्तत्वात्, तदभावे कुतः परीषहाः ? यदिवा-नमम देहे परीषहाः / सम्यक्करणेन सहमानस्य तत्कृतपीडयोद्वेगाभावात, अतः परीषहान् कर्मशत्रुजयसहायानितिकृत्वाऽपरीषहान एव मन्येत // 21 // ते पुनः कियन्त काल सोढव्या इतयाशङ्कायुदासार्थमाहजावजीवं परिसहा, उवसग्गा इत्ति संखाय। संवुडे देहभेयाए, इय पन्नेऽहियासए / / 22 / / 'यावज्जीव' यावत प्राणधारण तावत् परीषहा उपसर्गाश्च सोढव्या इत्येतत् 'सङ्ख याय' ज्ञात्वा तानध्यासयेदिति। यदिवा-न मे यावजीव परीषहोपसर्गा इत्येतत् सङ्ख्याय-ज्ञात्वाऽधिसहेत। यदिवा-'यावज्जीव' मिति / यावदेव जीवितं तावत् परीषहोपसर्गजनिता पीडति, तत्पुनः कतिपयनिमेषाऽवस्थायि / एतदवस्थस्य ममान्तमल्पमेवेत्यत एतत्सड्वयायज्ञात्या संवृतो यथानिक्षिप्तत्त्यक्तगात्रो देहभेदाय शरीरत्यागायोत्थित इति कृत्वा 'प्राज्ञः' उचितविधानवेदी, यद्यत्कायपीडाकार्युपतिष्ठत तत्तत्सम्यगधिसहेत // 22 // एवम्भूतं च साधुमुपलभ्य कश्चिद्राजादि गैरुपनिमन्त्रयेत् तत्प्रतिपादनार्थमाहभेउरेसु न रजिज्जा, कामेसु बहुतरेसु वि। इच्छालोभन सेविजा, धुववन्नं संपेहिय / / 23 // भेदनशीला भिदुराः शब्दादयः कामगुणास्तेषु प्रभूततरेष्वपि 'मरज्यत् न राग यायात् / पाठान्तर वा- 'कामेसु बहुलेसु वि' इच्छामदनरूपेषु कामेषु बहुलेषु-अनल्पेष्वपीत्यर्थः / यद्यपि राजा राज्यकन्यादानादिनोपप्रलोभयेत् तथापि तत्र न गाय॑मियात् / तथा इच्छारूपो लोभ इच्छालोभः चक्रवर्तीन्द्रत्वाद्यभिलाषादिको निदानविशेषस्तमसौ निर्जरापेक्षी न सेवेत, सुरर्द्धिदर्शनमोहिता ब्रह्मदत्तवन्निदानं न कुर्यादित्यर्थः / (बहादत्तकथा'ट्ठभदत्त' शब्दे पञ्चमभागे 1271 पृष्ठे गता) तथा चागमः-'इह लोगाऽऽसंसप्पओगे 1 परलोगासंसप्पओगे 2 जीवियासंसप्पओगे 3 मरणासंसप्पओगे 4 कामभोगासंसप्पओगे 5" इत्यादि, 'वर्णः संयमो मोक्षो वा स च सूक्ष्मो दुज्ञेयत्वात्, पाठान्तरं वा 'धुववन्न' मित्यादि। ध्रुवः-अव्यभिचारी स चासौ वर्णश्च ध्रुववर्णस्तं संप्रेक्ष्य धुवा या शाश्वती यशःकीर्ति पालोच्य कामेच्छालाभविक्षेपं कुर्यादिति // 23 //
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________________ मरण 134 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मरण किंचसासएहिं निमन्तिजा, दिव्वं मायं न सद्दहे। तं पडिवुज्झ माहणे, सव्वं नूमं विहूणिय // 24 // शाश्वता यावज्जीवम् अपरिक्षयात् प्रतिदिनदानाद वाऽस्तैिस्तथाभूतर्विभवैः कश्चिन्निमन्त्रयेत् तत्प्रतिबुध्यस्व-था शरीराऽर्थ धनं मृग्यते तदेव शरीरमशाश्वतमिति / तथा दिव्यां मायां न श्रवधीत / तद्यथायदिकश्चिद्देवो मीमांसया प्रत्यनीकत्तया वा भक्त्या वाऽन्यथा वा कोतुकाादना नानार्द्धिदानतो निमन्त्रयेत्, तांच तत्कृता मायां न श्रद्दधीत। तथा बुध्यम्ब-यथा देवमायैषा, अन्यथा कुतोऽयमाकस्मिकः पुरुषो दुर्लभम् तद् द्रव्यं प्रभूततरमेवभूते क्षेत्रे काले भावे च दद्यात् ? एवं द्रव्यादिनिररूपणया देवमाया बुध्यस्व इति / तथा देवाऽङ्गना वा यदि दिव्यं रूपं विधाय प्रार्थयत्तामपि बुध्यस्वेति। 'माहणे त्ति साधुः 'सर्वम्' अशेष 'नूम' विकर्म मायां वा तत् ता वा 'विधूय' अपनीय देवादिमायां बुध्यराति क्रिया // 24 // किञ्चसव्वद्वेहिँ अमुच्छिए, आउकालस्स पारए। तितिक्खं परमं नचा, विमोहन्नयरं हियं // 25 / / ति बेमि। / सर्व च तेऽर्थाश्च सर्वार्थाः, पञ्चप्रकाराः कामगुणास्तत्सम्पादका वा द्रव्यानिचयास्तैस्तेषु वा अमूञ्छितः-अनध्युपपन्नः / आयुःकालस्य यावन्मानं कालमायुः सतिष्ठते असौ आयु:-कालस्तस्य पारम्आयुष्कपुद्गलानां क्षयोमरणं तद्गच्छतीति पारगः / यथोक्तविधिना पादपोपगमनव्यवस्थितः प्रवर्द्धमानशुभाध्यवसायः स्वायुः कालान्तगः स्यादिति / तदेवं पादपोपगमनविधिं परिसमापय्योपसंहारद्वारेण त्रयाणामपि मरणानां कालक्षेत्रपुरुषावस्थाश्रयणात् तुल्यकक्षता पश्चार्धेन दशर्यति-तितिक्षा-परीथहोपसर्गापादितदुःखविशेषसहनं तत् त्रयाणमपि परमप्रधानमस्तीति ज्ञात्वा-अवधार्य 'विमोहान्यतरं हित' मिति। विगतो माहो येषु तानि विमोहानि / भक्तपरिक्षेङ्गितमरणपादपोपगमनानि तेषामन्यतरत् कालक्षेत्रादिकमाश्रित्य तुल्यफलत्वाद्धितम् अभिनेतार्थसाधनादतो यथाशक्ति त्रयाणामन्यतरत् तुल्यबलत्वाद् यथावसरं विधेयम् / इतिः अधिकारपरिसमाप्तौ, ब्रवीमीति पूर्ववत्।। नयविचारादिकमनुगतं वक्ष्यमाणं च द्रष्टव्यामिति। आचा०१ श्रु०८ अ०८ उ०। (मारणान्तिकसमुद्धातवक्तव्यता 'मारणंतियसमुग्धाय' शब्दे) ('संथार' शब्दे 'संलेहणा' शब्देऽपि च किंचिद् वक्ष्यामि) ('अब्भुज्जयमरण' शब्दे प्रथमभागे 663 पृष्ठे अब्भुद्यतमरणवक्तव्यता) यत एवं ततः किं कर्त्तव्यम् ? इति गुरुरुपदेशमाहतम्हा चंदगविज्झं, सकारणं उजुएण पुरिसेणं। जीवो अविरहियगुणो, कायव्वो मुक्खमग्गम्मि // 68|| 'तम्हा' तस्मात्कारणत् चन्द्रकवेध्यं-वामदक्षिणावर्तभ्रमदष्टवक्राऽऽकमध्यनिर्गच्छदूर्द्धमुखशरप्रयोगतो भूस्थकुण्डिकागततैलान्तः प्रतिबिम्बितगगनस्थाधोमुखपुत्तलिकावा मलोचनरूपश्चन्द्रकस्तद्रपं वेध्यं राधावेध इत्यर्थः। साध्यमित्यध्याहारः। केन पुरुषेण। किंभूतेन उद्युक्तेन उद्यमवता सावधानेनेतयर्थः / कथं? सकारणं स्वर्गापवर्गादिश्रीलाभहेतोरि-त्यर्थः / यथा राधावेधः सकारण राज्यादिलाभकृते केनापि साध्यते एवं चन्द्रकवेध्यमिवानशनं सकारणं मोक्षादिलाभकृले सावधानेन साधयितव्यमिति भावः / तत्साधनोपायश्चायमित्याह-'जीव आत्मा अविरहितगुणोऽमुक्तज्ञानदर्शनचारित्रगुणः कर्त्तव्यः / क्व ? मोक्षमार्गज्ञानदर्शनचा रित्रतपोरुपे। तद्व्यवस्थितो हि चन्द्रकवेध्यसमा प्रान्ताराधनां साधयतीत्यर्थः // 68 / आतु०। (अत्र विशेषः अणसण' शब्दे प्रमिभागे 302 पृष्ठे गतः)। (34) अत्र मरणविधिर्जिनपतिप्रकीर्णकान्तर्गते दशमे मरणविधिप्रकीर्णक उक्तस्तद्यथा - तिहुयणसरीरिवंदं, सप्पवयणरयणमंगलं नमिउं / समणस्स उत्तमऽढे, मरणविहीसंगहं वुच्छं / / 1 / / सुणह सुयसारनिहसं,ख ससमयपरसमयवायनिम्मायं। सीसो समणगुणाऽळ, परिपुच्छइ वायगं कंचि।।२।। अमिजाइसत्तविक्कम-सुयसीलविमुत्तिखंतिगुणकलियं / आयारविणयमद्दव-विजाचरणागरमुदारं / / 3 / / कित्तीगुणगब्भहरं, जसखाणिं तवनिहिं सुयसमिद्धं / सीलगुणनाणदंसण-चरित्तरयणाऽऽगर धीरंग॥४॥ तिविहं तिकरणसुद्धं, मयरहियं दुविहठाणपुणरत्तं / विण्येण कमविसुद्धं, चउस्सिरंवारसावत्तं // 5 // दुओणयं अहाजायं, एयं काउण तस्स किइकम्मं / भत्तीइभरियहियओ, हरिसवसुभिन्नरोमंचो।।६।। उवदेसहेउकुसलं, तं पवयणरयणसिरिघर भणइ / इच्छामि जाणिजे, मरणसमाहिं समासेणं / / 7 / / अब्भुजुयं विहारं, इच्छं जिणदेसियंविउपसत्थं / नाउं महापुरिसदे-सियं तु अब्भुजुयं मरणं / / 8|| तुज्झित्थ सामि सुअजल-हिपारगा समणसंघनिज्जवया। तुझं खु पायमूले, सामन्नं उज्जमिस्सामि / / 6 / / सो मरियमुहुरजलहर-गंभीरसरो निसन्नओ भणइ / सुण दाणि धम्मवच्छल-मरणसमाहिं समासेणं / / 10 / / सुण जह पच्छिमकाले, पच्छिमतित्थयरदेसियमुयारं / पच्छा निच्छिय पच्छं, उविंति अब्भुजुयं मरणं / / 11 / / पव्वजाई सव्वं, काऊणाऽऽलोअणं च सुविसुद्धं / दंसणनाणचरित्ते, निस्सल्लो विहर चिरकालं / / 12 / / आउव्वेयसमत्ती, तिगिच्छए जह विसारओ विज्जो। रोगाऽऽयंकाऽऽगहिओ, सो निरुयं आउरं कुणइ // 13 // एवं पवयणसुयसा-रपारगो सो चरित्तसुद्धीए। पायच्छित्त विहिन, तं अणगारं विसोहेइ।।१४।। (सम्यक्त्वाऽऽराधविषयिका अत्रत्याश्चतस्रो गाथाः 'आराहणा' शब्दे द्वितीयभागे 385 पृष्ठे उक्ताः।) अरहंतसिद्धचेइय-गुरुसु सुयधम्मसाहुवग्गे य।
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________________ मरण 135 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मरण व्यापरिवउवज्झाए, पव्वयणे सव्वसंघे य।।१६।। एएसु भत्तिजुत्ता, पूयंता अहरहं अणण्णमणा। सन्मतमणुसरंता, परित्तसंसारिया हुति।।२०।। मुविहिव इमं पइण्णं, असहंतेहिं उणेगजीवहिं। बालमरणाणि तीए, मयाइँ काले अणंताई // 21 // एवं पंडियमरणं, मरिऊण पुणो बहूणि मरणाणि। न मरंति अप्पमत्ता, चरित्तमाराहियं जेहिं / / 22 / / दुविहम्मि अहक्खाए, सुसंबुडा पुव्यसंगओ मुक्का। चे उ चयंति सरीरं, पंडियमरणं मयं तेहिं / / 23 / / तस्स उवाए उ इमा, परिकम्म विहीउ जुंजीया / / 24 / / से कुम्म (केस) संखताडण-मारुअजिअगगणपंकयतरूणं / सरिकप्पासुयकप्पिय-आहारविहारचिट्ठागा।|२५|| निच्चं तिदंडविरया, तिगुत्तिगुत्ता तिसल्लनिस्सल्ल। तिविहेण अप्पमत्ता, जगजीवदयावरा समणा // 26 / / (अत्रत्या वक्तव्यता 'आराहग' शब्दे द्वितीयभागे 377 पृष्ठे उक्ता तत एवावस्या !) फासेहिं ति चरित्तं, सव्वं सुहसीलयं पजहिऊणं / घोरं परीसहचमु, अहियासिंतो धिइबलेणं / / 15 / / सद्दे रूवे गंधे, रसे य फासे य निग्घिणधिईए। सव्वेसु कसाएसु य, निहंतु परमोसाया होहि।।४६|| चइऊण कसाए इं-दिए य सव्वे य गारवे हंतुं। तो मलियरागदोसो, करेह आराहणासुद्धिं / / 47 / / दंसणनाणचरित्ते, पव्वजाईसु जो अईयारो। तं सव्वं आलोयहि, निरससेसं पणिहियप्पा / / 48|| जह कंटएण विद्धो, सव्वंगे वेयणदिओ होइ। तह चेव उद्धियम्मि उ, नीसल्लो निव्वओ होइ॥४६॥ एवमणुद्धियदोसो, माइल्लो तेण दुक्खिओ होइ। सो चेव चत्तदोसो, सुविसुद्धो निव्वओ होइ॥५०।। रागद्दोसाऽभिहया, ससल्लमरणं मरंति जे मूढा। ते दुक्खसल्लबहुला, भमंति संसारकंतारे // 51 / / जे पुण तिगारवजढा, नीसल्ला दंसणे चरित्ते य / विहरंति मुक्कसंगा, खवंति ते सव्वदुक्खाइं॥५२॥ सुचरमवि संकिलिहूं, विहरितं झाणसंवरविहीणं / नाणी संवर जुत्तो, जिणइ अहोरत्तमित्तेणं / / 53 / / जं निजरेइ कम्मं, असंवुडो सुबहुणा वि कालेणं / ते संवुडो तिगुत्तो, खवेइ ऊसासमित्तेणं // 54 // सुबहुस्सुयाऽवि संता, जे मूढा सीलसंजमगुणेहिं। न करंति भावसुद्धिं, ते दुक्खनिभेलणा हुंति // 55 / / जे पुण सुयसंपन्ना, चरित्तदोसहिँ नोवलिप्पंति। ते सुविसुद्धचरित्ता, करंतिदुक्खक्खयं साहू / / 56 / / पुव्वमकारियजोगो, समाहिकामोऽवि मरणकालम्मि। न भवइ परीसहसहो, विसयसुहपराइओ जीवो // 57 / / तं एवं जाणंतो, महंतरं लाहगं सुविहिएसु। दंसणचरित्तसुद्धी, निस्सल्लो विहर तं धीर ! // 58|| इत्थ पुण भावणाओ, पंच इमा हुंति संकिलिट्ठाओ। आराहिंत सुविहिया,जा निजं वञ्जिणिज्जाओ / / 5 / / कंदप्पा देवकिदिवस-अमिओगा आसुरी य संमोहा। एयाओं संकिलिहा, असंकिलिट्ठा हवइ छट्ठा / / 60 // कंदप्पा कोकुइया, दवसीलो निच हासणकहाओ। विम्हावितो उ परं, कंदप्पं भावणं कुणइ॥६१।। नाणस्स केवलीणं, धम्मायरियस्स संघसाहूणं / माई अवण्णवाई, किदिवसियं भावणं कुणइ // 62 // मंताऽमिओगं कोउग, भूईकम्मं च जो जणे कुणइ। सायरसइड्विहेउं, अभिओगं भावणं कुणइ॥६३।। अणुवद्धरोसवुग्गह-संपत्त तहा निमित्तपडिसेवी। एएहि कारणेहि, आसुरियं भावणं कुणइ // 64 // उम्मग्गदेसणा णा-ण-दूसणा मग्गविप्पणासो अ। मोहेण मोहयंतं-सि भावणं जाण संमोहं // 65 / / एयाउ पंच वजिय, इणमो छट्ठीइँ विहर तं धीर ! / पंचसमिओ तिगुत्तो, निस्संगो सव्वसंगेहिं / / 66 / / एयाएँ भावणाए, विहरविशुद्धाइ दीहकालम्मि। काऊण अंतसुद्धिं, दंसणनाणे चरित्ते य / / 67 / / पंचविहं जे सुद्धिं, पंदविहविवेगसंजुयमकाउं। इह उवणमंति मरणं, ते उ समाहिं न पाविति // 68 / / पंचविहं जे सुद्धिं, पत्ता निखिलेण निच्छियमईया। पंचविहं च विवेगं, ते हु समाहिं परं पत्ता // 66|| लहिऊणं संसारे, सुदुल्लहं कहं वि माणुसं जम्म। न लहंति मरणदुलहं, जीवा धम्मं जिणक्खायं / / 70 / / किच्छाहि पावियम्मि वि, सामण्णे कम्मसत्तिओसन्ना ! सीयंति सायदुलहा, पंकासन्नो जहा नागो॥७१।। जह कागणीइ हेउं, मणिरयणाणं तु हारए कोडिं। तह सिद्धसुहपरुक्खा , अबुहा र(स) जंति कामेसुं॥७२।। चोरो रक्खसपहओ, अत्थऽत्थी हणइ पंथियं मूढो। इय लिंगी सुहरक्खस-पहओ विसयाउरो धर्म // 73 // तेसु वि अलद्धपसरा, अवियण्हा दुक्खिया गयमईया। समुविंति मरणकाले, मगामभयभेरवं णरगं / / 74 / / धम्मो न कओ साहू, न जेमिओ न नियंसियं सह / इहि परंपरासु-त्ति य नेवय पत्ताई सुक्खाई।७५|| साहूणं नोक्कयं, परलोअच्छेयसंजमो न कओ।
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________________ मरण 136 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मरण दुहओ वितओ विहलो, अह जम्मो धम्मरुक्खाणं / / 76 / / / दिक्खं मइलेमाणा, मोहमहावत्तसागराऽभिहया। तस्स अपडिक्कमंता, मरंति ते बालमरणाइं॥७७।। इय अवि मोहपउत्ता, मोहं मुत्तूण गुरुसगासम्मि। आलोइय निस्सल्ला, मरिठं आराहगा तेऽवि॥७८|| इत्थ विसेसो भण्णइ, छलणा अविनाम हुज्ज जिणकप्पो। किं पुण इयरमुणीणं, तेण विही देसिओ इणमो / / 7 / / अप्पविहीणा जाहे, धीरा सुयसारझरियपरमत्था। ते आयरियविदिन्नं, उविंति अब्भुजयं मरणं / / 8 / / आलोषणाइ संले-हणाइ खमणाइ काल उस्सग्गे। उग्गासे संथारे, निसग्ग वेरग्ग मुक्खाए / / 81 / / झाणविसेसो लेसा, सम्मत्तं पायगमणयं चेव / चउदसओ एस विही, पढमो मरणम्मि नायव्वो।।२।। विणओवयारमाण-स्स भंजणा पूयणा गुरुजणस्स। तित्थयराण य आणा सुयधम्माराहणाऽकिरिया // 83|| छत्तीसा ठाणेसु य, जे पवयणसारझरियपरमत्था। तेसि पासे सोही, पन्नत्ता धीरपुरिसे हिं||४|| दयछक्ककायछक्कं, वारसगं तह अकप्प गिहिभाणं। पलियंक गिहिनिसिञ्जा, ससोभ पलिमज्जण सिणाणं / / 5 / / आयारवं च उवधा-रवं च ववहारविहिविहिन्नू य / उन्धीलगाय धीरा, परूवणाए विहिएणू य॥८६।। तह य अवायविहिएणू, निजवगा जिणमयम्मि गहियत्था। अपरिस्साई यतहा, विस्सासरहस्सनिच्छिड्डा / / 7 / / पढमं अट्ठारसगं, अट्ट य ठाणाणि एव भणियाणि / इत्तो दस ठाणाणि य, जेसु उट्ठावणा भणिया / / 8 / / अणवट्ठतिगं पारं-चिगं च तिगमेय छहि गिहीभूया। जाणंति जे उ एए-सुअरयणकरंडगा सूरी।।६।। सम्महसणचत्तं, जे य वियाणंति आगमविहिन्नू। जाणंति चरित्ताओ, अनिग्गयं अपरिसेसाओ||६|| जो आरंभे वट्टइ, चिअत्तकिच्चो अणणुतावी य। सोगो य भवेदसमो, जेसूवट्ठावणा भणिया / / 11 / / एएसु विहिविहण्णू, छत्तीसा ठाणएसु जे सूरी। ते पवयणसुहकेऊ, छत्तीसगुण त्ति नायव्वो |2|| तेसिं मेरुमहोयहि-मेयाणि-ससि-सूर-सरिसकप्पाणं। पायमूले य विसोही, करणिज्जा सुविहियजणेणं / / 63|| काइयवाइयमाणसि-यसेवण दुप्पओगसंभूयं / जो अइयारो कोई, तं आलोए अगूहिंतो // 64|| अमुगम्मि इउ काले, अमुगत्थे अमुगगामभावेणं / जं जह निसेवियं खलु, जेण य सवं तहाऽऽलोए।।१५|| मिच्छादसणसल्लं,मायासल्लं नियाणसल्लं च / तं संखेवा दुविहं, दव्वे भावे य वोद्धव्वं / / 66|| वि (ति) विहं तु भावसल्लं, दंसणनाणे चरित्तजोगे य। सचित्ताऽचित्तेऽविय, मीसए याऽविदव्वम्मि||७|| मुहुमं पि भावसल्लं, अणुद्धरित्ता उ जो कुणइ कालं / लज्जाए गारवेण य, न हु सो आराहओ भणिओ||८|| तिविहं पि भावसल्लं, समुद्धरित्ता उ जो कुणइ कालं / पव्वञ्जाई सम्म, स होई आराहओ मरणे ||6|| तम्हा सुत्तरमूलं, अविकूलमविदुयं अणुव्विग्गो। निम्मोहियमणिगूढ, सम्मं आलोअए सव्वं // 100 / / जह बालो जपतो, कञ्जमकजं च उज्जुयं भणइ / तं तह आलोइज्जा, मायामयविप्पमुक्को उ॥१०१।। कयपावोऽवि मणूसो, आलोइय निदिउं गुरुसगासे। होइ अइरेगलहुओ, ओहरियभरु व्व भारवहो // 102 / / लजाए गारवेण य, जे नाऽलोयंति गुरुसगासम्मि। धम्मं तं पि सुयसमिद्धा, न हु ते आराहगा हुंति // 103 / / जह सुकुसलो वि वेजो, अन्नस्स कहेइ अत्तणो वाहिं। तं तह आलोयव्वं, सुटुऽवि ववहारकुसलेणं // 104 / / जं पुव्वं तं पुव्वं, जहाणुपुट्विं जहक्कम सव्वं / आलोइज सुविहिओ, कमकालविहिं अभिदंतो॥१०५।। अत्तंरपरजोगेहि य, एवं समुवट्ठिए पओगेहिं। अमुगेहि य अमुगेहि य, अमुयगसंठाणकरणेहिं / / 106 / / वण्णेहि य गंधेहि य, सद्दफरिसरसरूवगंधेहिं। पडिसेवणा कया पञ्ज-वेहि कया जेहि य जहिं च / / 107 / / जो जोगओ अपरिणा-मओ-अदंसणचरित्तअइयारो। छट्ठाणबाहिरो वा, छट्ठाणऽउँभतरो वाऽवि / / 108|| तं उज्जुभावपरिणउ, राग दोसं च पयश्णु काऊणं / तिविहेण उद्धरिजा, गुरुपामूले अगूहिंतो।।१०।। न वितं सत्थं च विसं, च दुप्पउत्तु व्व कुणइ वेयालो। जंतं व दुप्पउत्तं, सप्पु व्व पमाइणो कुद्धो॥११०|| जं कुणइ भावसल्लं, अणुद्धियं उत्तमट्ठकालम्मि। दुल्लहवोहीयत्तं, अणंतसंसारियत्तं च / / 111 / / तो उद्धरंति गारव-रहिया मूलं पुणब्भवलयाणं / मिच्छादसणसल्लं, मायासल्लं नियाणं च / / 11 / / . रागेण व दोसेण व, भएण हासेण तह पमाएणं। रोगेणाऽऽयंकेण व, वत्तीइ परामिओगेणं // 113|| गिहिविजापडिएणव, सपक्खपरधम्मिओवसग्गेणं। तिरियंजोणिगएण व, दिव्व मणूसोवसग्गेणं / / 114 / / उवहीइ व नियडीइव, तह सावयपिल्लिएण व परेणं ! अप्पाण भएण कयं, परस्स छंदाणुवत्तीए / / 115 // सहसवकारमणाभो-गओ अयं पवयणाऽहिगारेणं /
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________________ मरण 137 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मरण सन्निकरणे विमोही, पुण्णागारो य पन्नत्ता।।११६।। उन्नुअमालोइत्ता, इत्तो अकरणपरिणामजोगपरिसुद्धो। सो पवणुइपइकम्म, सुग्गइमग्गं अभिमुहेइ / / 117 / / उदहीनियडिपइट्ठो, सोहिं जो कुणइ सोगईकामो। माई पलिकुंचंतो, करेइ बुंदुछियं मूढो / / 118|| आलोयणाऽऽइदोसे, दस दोग्गइ बंधणे परिहरंतो। तम्हा आलोइज्जा, मायं मुत्तूण निस्सेसं / / 116 / / जे मे जाणंति जिणा, अवराहा जेसु जेसु ठाणेसु। ते तह आलोएमी, उवट्ठिओ सव्यभावेणं / / 120 // एवं उवट्ठियस्स वि, आलोएउं विसुद्धभावस्स। जं किंचिऽवि विस्सरियं, सहसाकारेण वा चुक्कं / / 121|| आराहओ तह वि सो, गारवपरिकुंचणामयविहूणो। जिणदेसियस्स धीरो, सद्दहगो मुत्तिमग्गस्स / / 12 / / आकंपण अणुमाणण, जं दिह्र बायरं च सुहुमं च / छन्नं सद्दाउलगं, बहुजणअव्वत्ततस्सेवी॥१२३।। आलोयणाएँ दोसे, दस दुग्गइवड्डणा पमुत्तूणं / आलोइज्ज सुविहिओ, गारवमायामयविहूणो॥१२४।। तो परियागं च बलं, आगमकालं च कालकरणं च / पुरिसं जीयं च तहा, खित्तं पडिसेवणविहिं च / / 125 / / जोग्गं पायच्छित्तं, तस्स य दाऊण बिंति आयरिया। दंसणनाणचरित्ते, तवे य कुणमप्पमायति / / 126 / / अणसणमूणोयरिया, वित्तिच्छेओ रसस्स परिचाओ। कायस्स परिकिलेसो, छट्ठो संलीणय चेव / / 127 / / विणए वेयावच्चे, पायच्छित्ते विवेगसज्झाए। अम्भितरं तवविहिं, छठे झाणं वियाणाहि॥१२८|| बारस विहम्मि तवे, अडिभतरबाहिरे कुसलदिट्टे। नवि अत्थि नविय होहि, सज्झायसमं तवोकम्म॥१२६।। जे पयणुभत्तपाणा-सुयहेऊ ते तवस्सिणो समए। जो अतवो सुयहीणो, बाहिरयो सो छुहाहारो।।१३०।। छट्टऽट्ठमदसमदुवा-लसेहिं अवहुस्सुयस्सजा सोही। तत्तो बहुतरगुणिया, हविज जिमियस्स नाणिस्स।।१३१। कल्लं कल्लंऽपि वरं, आहारो परमिओ अ पंतो अ। न य खमणो पारणए, बहु बहुतरों बहुविहो होइ।।१३२।। एगाऽहेण तवस्सी, हविज नत्थित्थ संसओ कोऽई। एगाऽहेण सुयहरो, न होइ धन्तं पितुरमाणो // 133 / / सो नाम अणसणतवो, जेण मणोऽमंगलं न चिंतेइ। जेण न इंदियहाणी, जेण य जोगा न हायंति।।१३४|| जं अन्नाणी कम्म, खवेइ बहुयाहिँ वासकोडीहिं। तं नाणी तिहिं गुत्तो, खवेइ ऊसासमित्तेणं / / 135|| नाणे आउत्ताणं, नाणीणं नाणजोगजुत्ताणं / को? निजरं तुलिजा, चरणे य परक्कमंताणं / / 136 / / नाणेण वाणिजं, वज्जिज्जइ किजई य करणिजं / नाणी जाणइ करणं, कञ्जमकजं च वजेउं // 137 / / नाणसहियं चरित्तं, नाणं संपायगं गुणसयाणं / एसा जिणाण आणा, नऽत्थि चरित्तं विणा णाणं // 138|| नाणं सुसिक्खियव्वं, नरेण लद्धण दुल्लहं बोहिं। जो इच्छइ नाउंजे,जीवस्स विसाहणामग्गं / / 136 / / नाणेण सव्वभावा, णज्जती सव्वजीवलोअम्मि। तम्हा नाणं कुसले-ण सिक्खियव्वं पयत्तेणं / / 140 / / न हुसक्का नासेठ, नाणं अरहंतभासियं लोए। ते धन्ना ते पुरिसा, नाणी य चरित्तजुत्ता य॥१४१।। बंधं मुक्खं गइरा-गयं च जीवाण जीवलोयम्मि / जाणंति सुयसमिद्धा, जिणसासणचेइयविहिण्णू / / 142 / / भदं सुबहुसुयाणं, सव्वपयत्थेसु पुच्छणिजाणं / नाणेण जोवयारे, सिद्धिं पि गएसु सिद्धेसु / / 143 / / किं ? इत्तो लट्ठयरं, अच्छेरयरं व सुंदरतरं वा। चंदमिव सव्वलोगा, बहुस्सुयमुहं पलोएंति / / 144|| चंदाउ नीइ जुण्हा, बहुसुयमुहाउनीइ जिणवयणं / जं सोऊण मुविहिया, तरंति संसारकंतारं / / 145 / / चउदसपुव्वधराणं, ओहीनाणीण केवलीणं च। लोगुत्तमपुरिसाणं, तेसिं नाणं अविनाणं // 146|| नाणेण विणा करणं, न होइ नाणंऽपि करणहीणं तु / नाणेण य करणेण य, दोहि वि दुक्खक्खयं होइ / / 147 / / दढमूलमहाणंमि वि, दरमेगोऽवि सुयसीलसंपण्णो। माहु सुयसीलविगला, काहिसि माणं पवयणम्मि।।१४८|| तम्हा सुयंमि जोगो, कायव्वो होइ अप्पमत्तेणं / जेणऽऽप्पाण परंऽपि य, दुक्खसमुद्दाउ तारेइ।।१४६।। परमत्थंति सुदिटे, अविणढेसु तवसंजमगुणेसु / लब्भइ गई विसुद्धा, सरीरसारे विणटुंमि / / 150 / / अविरहिया जस्स मई, पंचहिँ समिईहिं तिहिं वि गुत्तीहिं। न य कुणइ रागदोसे, तस्स चरित्तं हवइ सुद्धं // 151 // उक्कोसचरित्तोऽविय, परिवडई मिच्छभावगं कुणइ। किं ? पुण सम्मदिट्ठी, सरागधम्ममि वट्टतो // 152 / / तम्हा घत्तह दोसु वि, काउं जे उजमं पयत्तेणं। सम्मत्तंमि चरित्ते, करणंमिय मा पमाएह ||153 / / जाव य सुई न नासइ, जाव य जोगा न ते पराहीणा। सद्धााजव न हाई, इंदियजोगा अपरिहीणा / / 154 / / जाव य खेमसुभिक्खं, आयरिया जाव अस्थि निजवगा। इड्डी गारवरहिया, नाणचरणदंसणंमि रया॥१५५।।
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________________ मरण 138 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मरण ताव खमं काउं जे, सरीरनिक्खेवणं विउपसत्थं / समयपडागाहरणं, सुविहियइटुं नियमजुत्तं / / 156|| हंदि अणिचा सद्धा, सुई य जोगा य इंदियाई च। तम्हा एयं नाउं, विहरह तव संजमुजुत्ता / / 157 / / ता एवं नाऊणं, ओवायं नाणदसणचरिते। धीरपुरिसाऽणुचिण्णं, करिति सोहिं सुयसमिद्धा ||15|| अभितरबाहिरयं, अह ते काऊण अप्पणो सोहिं। तिविहेण तिविहकरणं, तिविहे काले वियडभावा / / 156 / / परिणामजोगसुद्धा, उवहिविवेगं च गणविसग्गे य। अज्जाइ य उवस्सय-वजणं च विगईविवेगं च / / 160 / / उग्गम-उप्पायण ए-सणा विसुद्धिं च परिहरणसुद्धिं / सन्निहि सन्निचयंभिय, तववेयावच्चकरणे य॥१६१।। एवं करंतु सोहिं, नवसारयसलिलनहतलसभावा। कमकालदव्यपज्जव-अत्तंपरजोगकरणे य॥१६२।। तो ते कयसोहीया, पच्छित्ते फासिए जहाथाम्म / पुप्फाऽवकिन्नगम्मिय, तवंभि जुत्ता महासत्ता।।१६३।। तो इंदियपरिकम्म, करिति विसयसुहनिग्गहसमत्था। जयणाइ अप्पमत्ता, रागद्दोसे पयणुयंता / / 16 / / पुव्वमकारियजोगा, समाहिकामा वि मरणकालम्मि। न भवंति परीसहसहा, विसयसुहपमोझ्या अप्पा।।१६५।। इंदियसुहसाउलओ, घोरपरीसहपराइयपरज्झो। अकयपरिकम्मकीवो, मुज्झइ, आराहणाकाले / / 166 / / वाहंति इंदियाई, पुट्विं दुन्नि य भियप्पयाराई। अकयपरिकम्मकीवं, मरणेसु असंपउत्तं पि॥१६७।। आगममयप्पभाविय-इंदियसुहलोलुया पइहस्स। जइ वि मरणे समाही, हुजन सा होइ बहुयाणं // 168|| असमत्तसुओ वि मुणी, पुट्विं सुकयपरिकम्मपरिहत्थो। संजमनियमपइन्नं, सुहमत्तहिओ समण्णेइ॥१६६।। न चयंति किंचि काउं, पुट्विं सुकयपरिकम्मजोगस्स। खोहं परीसहचमू-धिइबलपराइया मरणे / / 170 // तो ते वि पुव्वचरणा, जयणाए जोगसंगहविहीहिं। तो ते करें ति दसण-चरित्तसइ भावणाहेउं // 171 / / जा पुव्वभाविय किर, होइ सुई चरणदसणे बहुहा। सा होइ बीयभूया, कयपरिकम्मस्स मरणम्मि / / 172 / / तं फासेहिं चरितं, तुम पि सुहसीलयं पमुत्तूणं / सव्वं परीसहचमुं, अहियासन्तो घिइबलेणं / / 173 / / सद्धे रूवे गंधे, रसे य फासे य सुविहियजणेहिं। सव्वेसु कसाएसु अ, निग्गह परमो सया होहि // 174 / / सव्वे रसे पणीए, णिज्जू हेऊण पंतलुक्खेहिं / अण्णयरेणुवहाणे-ण संलिहे अप्पगं कमसो।।१७।। संलेहणा य दुविहा, अभितरिया य बाहिरा चेव। अबिभतरियकसाए, बाहिरिया होइ य सरीरे / / 176 / / उग्गमउप्पायण ए-सणाविसुद्धेण अण्णपाणेणं / मियविरसलुक्खलूहेण, दुब्ब्लं कुणसु अप्पागं / / 177 / / उल्लीणोल्लीणेहि य, अहव न एगंतवद्धमाणेहिं / संलिह सरीरमेयं, आहारविहिं पयणुयंतो / / 178|| तत्तो अणुपुटवेणाऽऽ-हारं उवहिं सुओवएसेणं / विविहतवोकम्मेहि य, इंदियविक्कीलियाईहिं / / 176 / / तिविहाहिँ एसणाहिय, विविहेहि अभिग्गहेहिं उग्गेहिं। संजममविराहिंतो, जहाबलं संलिहसरीरं॥१८०|| विविहाहि व पडिमाहि य, बलवीरियजई य संपहोइ सुहं। ताओ विन वाहिति, जहक्कम संलिहंतम्मि // 181 / / छम्मासिया जहन्ना, उक्कोसा वारिसेव वरिसाइं। आयंबिलं महेसी, तत्थ य उक्कोसयं बिंति॥१८२।। छट्ठऽहमद समदुवा-लसेहि, भत्तेहिं चित्तकठेहिं / मियलहुकं आहारं, करहिं आयंबिलं विहिणा // 18 // परिवडिओवहाणो, आहारुविरावियवियडपासुलिकडीओ। संलिहियतणुसरीरो, अज्झप्परओ मुणी निचं / / 18 / / एवं सरीरसंले-हणाविहिं बहुविहं पि फासिंतो। अज्झवसाणविसुद्धिं,खणं पि तो मा पमाइत्था॥१८५।। अज्झवसाणविसुद्धी, विवज्जिया जे तवं विगिट्ठमवि। कुव्वंति बाललेसा, न होइ सा केवला सुद्धी॥१८६|| एयं सरागसंले-हणाविहिं जइ जई समायरई। अज्झप्पसंजुयमई, सो पावइ केवलं सुद्धिं // 187 / / निखिला फासेयव्वा, सरीरसंलेहणाविही एसा। इत्तो कसायजोगा, अज्झप्पविहिं परम वुच्छं॥१५८|| कोहं खमाइ नाणं, मद्दवया अज्जवेण मायं च / संतोसेण व लोह, निजिण चत्तारि वि कसाए॥१८६।। कोहस्स व माणस्स व, मायालोभेसु वा न एएसिं। वचइ वसं खणं पिहु, दुग्गइगइवड्वणकराणं / / 10 / / एवं तु कसायऽग्गिं, संतोसेणं तु विज्झवयेव्यो। राग्गद्दोसपवत्तिं, व माणस्स विज्झाइ।।१६१।। जावंति केइ ठाणा, उदरगा हुंति हु कसायाणं / ते उसया वजंतो, विमुत्तसंगो मुणी विहरे / / 162 / / संतोवसंतधिइमं, परीसहविहिं च समहियासंतो। निस्संगयाइ सुविहिय ! संलिहमोहे कसाए य / / 163 / / इट्ठाणिद्वेसु सया, सद्दफरिसरूवरसगंधेहिं / सुहदुक्खनिव्विसेसो, जियसंगपरीसहो विहरे॥१६|| समिईसु पंचसमिओ, जिणाहितं पंच इंदिए सुट्ट।
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________________ मरण 136 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मरण तिहिँ गारवेहिँ रहिओ, होह तिगुत्तो य दंडेहिं / / 16 / / सन्नासु आसवेसु अ, अट्टे रुद्दे अतं विसुद्धप्पा। रागद्दोसपवंचे, निजिणिउं सव्वणोजुत्तो।।१६६।। को दुक्खं पाविजा ? कस्य य दुक्खेहिं विम्हओ हुआ ? / / को वन लभिज्ज मुक्खं ? रागद्दोसा जइ न हुजा ||197|| न वितं कुणइ अमित्तो, सुट्ट विय विराहिओ समत्थो वि। जं दो वि अनिग्गहिया, करंति रागो य दोसो य / / 198|| तं मुयह रागदोसे, सेयं चिंतेह अप्पणो निचं। जं तेहिं इच्छइ गुणं, तं वुक्कह बहुतरं पच्छा / / 166! इह लोए आयासं, अयसं च करेंति गुणविणासं च / पसवंति य परलोए, सारीरमणोगए दुक्खे // 20 // धिद्धी अहो अकजं, जं जाणंतो वि रागदोसेहिं / फलमउलं कडुयरसं, तं चेव निसेवए जीवो // 201 / / तं जइ इच्छसि गंतुं, तीरं भवसायरस्स घोरस्स। तो तव संजमभंडं, सुविहियगिण्हाहि तूरंतो // 202 / / बहुभयकरदोसाणं, सम्मत्तचरित्तगुणविणासाणं / न हुवसमागंतव्वं, रागद्दोसाण पावाणं / / 203 / / जंन लहइ सम्मत्तं, लखूण वि जंन एइ वेरग्गं / विसयसुहेसु य रज्जइ, सो दोसो रागदोसाणां / / 204 / / भवसयसहस्सदुलहे, जाइजरामरणसागरुत्तारे। जिणवयणमि गुणागर ! खणमवि मा काहिसि पमायं / / 205 / / दव्वेहिँ पज्जवेहि य, ममत्तसंगहिँ सुट्ट वि जियप्पा। निप्पणयपेमरागो, जइ सम्म नेइ मुक्खत्थं / / 206 / / एवं कयसलेह, अभितरबाहिरंमि संलेहे। संसारमुक्खबुद्धी, अनियाणोदाणि विहराहि / / 207 / / एवं कहियसमाहिय, तहविह संवेगकरणगंभीरो। आउरपञ्चक्खाणं, पुणरवि सीहाऽवलोएणं / / 208|| नहु सा पुणरुत्तविही, जा संवेगं करेइ मण्णंती। आउरपचक्खाणे, तेण कहा जोइया भुजो // 206 / / एस करेमि पाणमं, तित्थयराणं अणुत्तरगईणं / सव्वेसिंच जिणाणं, सिद्धाणं संजयाणं च / / 210|| जं किचि वि दुचरियं, तमहं निंदामि सव्वभावेणं। सामाइयं च तिविह, तिविहेणकरेमऽणागारं // 211 / / अभितरं च तह बा-हिरं च उवहिं सरीरसाहारं / मणवययकायऽतिकरण-सुद्धोहं मित्ति पकरेमि / / 212 / / बंधपओसं हरिसं, रइमरइं दीणयं भयं सोगं / रागद्दोसविसायं, उस्सुगभावं च पयहामि / / 213 / / रागेण व दोसेण व, अहवा अकयण्णुया पडिनिवेणं / जो मे किंचिवि भणिओ, तमहं तिविहेण खामेमि।।२१४।। सव्वेसुय दव्वेसु य, उवढिओ एस निम्ममत्ताए। आलंबणं च आया, दसणनाणे चरित्ते य॥२१५|| आया पच्चक्खाणे, आया मे संजमे तवे जोगो। जिणवयणविहिविलग्गो, अवसेसविहिं तु दंसेहि।।२१६।। मूलगुण उत्तरगुणा जे मे नाऽऽराहिया पमाएणं / ते सव्वे निंदामि, पडिक्कमे आगमिस्साणं / / 217|| एगो सयं कडाई, आया मे नाणदंसणवलक्खो। संजोगलक्खणा खलु, सेसा मे बाहिरा भावा // 218|| पत्ताणि दुहसयाई, संजोगस्साणुएण जीवेणं / तम्हा अणंतदुक्खं, चयामि संजोगसंबंधं // 219 / / अस्संजममण्णणं, मिच्छत्तं सव्वओ ममत्तं च। जीवेसु अजीवेसु य, तं निंदे तं च गरिहामि / / 220 // परिजाणे मिच्छत्तं, सव्वं अस्सजमं अकिरियं च / सव्वं चेव ममत्तं, चयामि सव्वं च खामेमि / / 221 / / जे मे जाणंति जिणा, अवराहा जेसु जेसु ठाणेसु / ते तह आलोएमि, उपट्ठिओ सव्वभावेणं / / 22 / / उप्पन्ना उप्पणुन्ना, माया अणुमग्गओ निहंतव्वा। आलोयणनिंदणगरि-हणाहिं न पुणो त्ति या बिइयं // 223 / / जह बालो जंपंतो, कञ्जमकजं च उज्जुयं भणइ। तं तह आलोयव्यं, मायं मुत्तूण निस्सेसं // 224 / / सुबहु पि भावसल्लं, आलेएऊण गुरुसगासम्मि। निस्सल्लो संथारं, उवेइ आराहओ होइ॥२२५।। अप्पं पि भावसल्लं, जेणालोयंति गुरुसगासम्मि। धंतं पि सुयसमिद्धा, न हु ते आराहगा हुंति ! / 226 / / न वि तं विसं च सत्थं, दुप्पउत्तो व कुणइ वेयालो। जंतं व दुप्पउत्तं, सप्पु व्व पमायओ कुविओ॥२२७।। जं कुणइ भावसल्लं, अणुद्धियं उत्तमट्ठकालंमि। दुल्लहवोहीयत्तं, अणंतसंसारियत्तं च / / 228 // तो उद्धरंति गारव-रहिया मूलं पुणब्भवलयाणं / मिच्छादसणसल्लं,मायासल्लं नियाणं च // 226 / / कयपावोऽवि मणूसो, आलोइय निंदिय गुरुसगासे। होइ अइरेगलहुओ, ओहरियभरु व्व भारवहो // 230 / / तस्स य पायच्छित्तं-जं मग्गविऊ गुरू उवइस्संति। तं तह अणुचरियव्वं, अणवत्थपसंगभीएणं / / 231 / / दसदोसविप्पमुक्कं , तम्हा सव्वं अमग्गमाणेणं / जं किचि कयमकजं, आलोए तं जहावत्तं / / 232 / / सव्व पाणारंभ, पचक्खामि त्ति अलियवयणं च। सव्वं अदिन्नदाणं, अब्बभपरिग्गहं चेव / / 233 / / सव्वं च असणपाणं, चउव्विहं जा य बाहिरा उवही। अमितरं च उवहिं,जावजीवं वोसिरामि / / 234 / / कंतारे दुडिभक्खे, आयके वा महया समुप्पन्ने /
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________________ मरण 140 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मरण जं पालिये न भग्गं, तं जाणसु पालणासुद्धं / / 235 / / रागेण व दोसेण व, परिणामे वा न दूसियं जं तु। तं खलु पचक्खाणं भावविसुद्ध मुणेयव्वं / / 236 / / पीयं थणयच्छीरं, सागरसलिलाउ बहुयरं हुज्जा। संसार संसरंतो, माऊणं अन्नमन्नाणं / / 237 / / तऽत्थि किर सो पएसो, लोए वालऽग्गकोडिभित्तोऽवि। संसारे संसरंतो,जत्थन जाओ मओ वाऽवि॥२३८|| चुलसीई किर लोए, जोणीणं पमुहसयसहस्साई। इकिकम्मिय इत्तो, अणंतखुत्तो समुप्पन्नो // 236 / / उड्डमहे तिरियम्मि य, मयाणि बालमरणाणिऽणताणि। तो ताणि संभरंतो; पंडियमरणं मरीहामि // 240 // माया मित्ति पिया मे, भाया भज त्ति पुत्तधूया य। एयाणिऽचिंतयंतो, पंडियमरणं मरीहामि / / 241 / / मायापिइवंधूहि, संसारत्थेहिँ पूरिओ लोगो। बहुजोझिनिवासीहिं, न य ते ताणं च सरणं च / / 2 / 2 / / इको जायइ मरइ, इक्को अणुहवइ दुक्कयविवागं / इक्को अणुसरइ जीओ, जरमरणचउग्गईगुविलं // 243 / / उठेवणयं जम्मण-मरणं नरएसु वेयणाओ य / एयाणि संभरंतो, पंडियमरणं मरीहामि // 244 / / इक्कं पंडियमरणं, छिंदइ जाईसयाणि बहुयाणि / तं मरणं मरियव्वं, जेण मओ मुक्कओ होइ॥२४५।। कइयाणु तं सुमरणं, पंडियमरणं जिणेहिं पन्नत्तं / सुद्धो उद्धियसल्लो, पाओवगमं मरीहामि // 246 / / संसारचक्कवाले, सव्वे वि य पुग्गला मए बहुसो। आहारिया य परिणा-मिया य न य तेसु तित्तो हं॥२४७।। आहारनिमित्तेणं, मच्छावचंतिऽणुत्तरं नरयं / सञ्चित्ताहारबिहि, तेण उमणसाऽवि निच्छामि / / 248|| तणकटेण व अग्गी, लवणसमुद्दो नईसहस्सेहिं। न इमो जीवो सक्को, तिप्पेउं कामभोगेहिं / / 246 / / लवणयमुहसामाणो, दुप्पूरो धणरओ अपरिमिजो। नहु सक्को तिप्पेठ, जीवो संसारियसुहेहिं / / 250 / / कप्पतरुसंभवेसु य, देवुत्तरकुरुवंसपसूएसुं। परिभोगेण न नित्तो, ण य नरविज्जाहरसुरेसु // 251 / / देविंदचक्कवट्टि-तणाई रज्जाइं उत्तमा भोगा। पत्ता अणंतखुत्तो, नयहं तित्तिं गओ तेहिं / / 252 / / पयखीरुच्छुरसेसु य, साऊसु महोदहीसु बहुसोऽवी। उववन्नो न य तण्हा, छिन्ना ते सीयलजलेहिं / / 253 / / तिविहेण वि सुहमउलं, जम्हा कामरइविसयसुक्खाणं / बहुसो वि समणुभूयं, न य तुह तण्हा परिच्छिन्ना // 254|| जा काइ पत्थणाओ, कया मए रागदोसवसएणं / पडिबंधेण बहुविहा, तं निंदे तं च गरिहामि / / 255 / / हंतूण मोहजालं, छित्तूण य अट्ठकम्मसंकलियं / जम्मणमरणऽरहट्ट, मित्तूण भवाण मुश्चिहिसि / / 256 / / पंच य महव्वयाई, तिविहं तिविहेण आरूहेऊणं। मणक्यणकायगुत्तो, सञ्जो मरणं पडिच्छिज्जा / / 257 / / कोहं माणं मायं, लोहं पिजं तहेव दोसं च। चइऊण अप्पमत्तो, रक्खामि महव्वए पंच॥२५८|| कलह अब्भक्खाणं, पेसुन्नं पियपरस्स परिवायं / परिवज्जंतो गुत्तो, रक्खामि महव्वए पंच // 256 / / किण्हं नीलं काउं, लेसं झाणाणि अप्पसत्थाणि। परिवजंतो गुत्तो, रक्खामि महव्वए पंच / / 260 / / तेऊ पम्हं सुक्कं, लेसा झाणाणि सुप्पसत्थाणि। उवसंपन्नो जुत्तो, रक्खामि महव्वए पंच।।२६१।। पंचिंदियसंवरणं, पंचव निलंभिऊण कामगुणे। अच्चासायणविरओ, रक्खामि महव्वए पंच॥२६२।। सत्तभयविप्पमुक्को, चत्तारि निरुम्भिऊण य कसाए। अट्ठमयट्ठाणजडो, रक्खामि महव्वए पंच।।२६३।। मणसा मणसचविऊ, वायासचेण करणसचेण / तिविहेण अप्पमत्तो, रक्खामि महव्वएपंच / / 264 / / एवं तिदंडविरओ, तिकरणसुद्धो तिसल्लनिस्सल्लो। तिविहेण अप्पमत्तो, रक्खामि महव्वए पंच / / 265 / / सम्मत्तं समिईओ, गुत्तीओ भावणाओं नाणं च। उवसंपन्नो जुत्तो, रक्खामि महव्वए पंच।।२६६।। संगं परिजाणामि, सल्लं पि य उद्धरामि तिविहेणं / गुत्तीओ समिईओ, मज्झं ताणं च सरणं च // 267 / / जह खुहियचक्कवाले, पोयं रयणभरियं समुद्घमि / निजामया धरिती, कयरयणा बुद्धिसंपन्ना // 268|| तवपो गुणभरियं, परीसहुम्मीहिँ धणियभाइद्धं / तह आराहिंति तिऊ, उपएसवलंबगा धीरा।।२६६।। जइ ताव ते सुपुरिसा, आयारो वि य भरा निरवयक्खा। गिरिकुहरकंदरगया, साहति य अप्पणो अटुं / / 270 / / जइ ताव सावयाकुल-गिरिकंदरविसमदुग्गेसु। धणियं धिइवद्धकच्छा , साहति उ उत्तमं अहूँ // 271 / / किं पुण अणगारसहा-यगेण वेरग्गसंगहबलेणं / परलोएण ण सक्का, संसारमहोदहिं तरि / / 272 / / जिणवयणमप्पमेयं, महुरं कन्नाऽमयं सुणताणं / सक्का हु साहुमज्झा, साहेउं अप्पणो अटुं / / 273 / / धीरपुरिसपण्णत्तं, सप्पुरिसनिसेवियं परमघोरं। धन्ना सिलातलगया, साहें ति अप्पणो अहूं // 274|| बाहेइ इन्दियाइं, पुव्वमकारिय पइट्ठधारिस्स।
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________________ मरण 141 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मरण अकयपरिकम्मकीवं, मरणेसु अ संपउत्तम्मि॥२७५।। पुवमकारियजोगो, समाहिकामो वि मरणकालम्मि / न भवइ परीसहसहो, विसयसुहपराइओ जीवो।।२७६|| पुट्विं कारियजोगो, समाहिकामो य मरणकालम्मि। होइ उपरीसहसहो, विसयसुहनिवारिओ जीवो // 277 / / पुट्विं कारियजोगो, अनियाणो ईहिऊण सुहभावो / ताहे मलियकसाओ, सज्जो मरणं पडिच्छिज्जा // 278|| पावाणं पावाणं,कम्माणं अप्पणो सकम्माणं। सक्का पलाइउंजे, तवेण सम्मं पउत्तेणं / / 276 / / इक्वं पंडियमरणं, पडिवजइ सुपुरिसो असंभंतो। खिप्पं सो मरणाणं, काहिइ अंतं अणंताणं // 280 / / कि तं पंडियमरणं, काणि व आलंबणाणि भणियाणि। एयाइं नाऊणं, किं आयरिया पसंसंति? // 281 // अणसणपाउवगमणं, आलंबणझणभावणाओ अ। एयाहं नाऊणं, पंडियमरणं पसंसति / / 22 / / इंदियसुहसाउलओ, घोरपरीसहपराइयपरज्झो। अकयपरिकम्मकीवो, मुज्झइ आराहणाकाले / / 283 // लज्जाऐं गारेवणं, बहुसुयमएण वाऽवि दुचरियं / जे न कहंति गुरूणं, न हु ते आराहगा हुति // 24 // सुज्झइ दुक्करकारी, जाणइ मग्गं ति पावए कित्तिं / विणिगूहित्तो निंद, तम्हा आलोयणा सेया।।२८५।। अग्गिम्मि य उदयम्मिय, पाणेसु य पाणबीयहरिएसुं। होइ मओ संथारो, पडिवज्जइ जो असंभंतो // 286 // नऽदि कारणं तणमओ, संथारो नऽवि य फासुया भूमी। अप्पा खलु संथारो, होइ विसुद्धो मरंतस्स।।२८७।। जिणवयणमणुगया मे, होउ मई झणजोगमल्लीणा। जह तम्मि देसकाले, अमूढसन्नो चए देहं / / 288|| जाहे होइ पमत्तो, जिणवयणरहिओ अणायत्तो। ताहे इंदियचोरा, करेंति तवसंजमविलोमं // 286 / / जिणवयणमणुगयमई, जं बेलं होइ संवरपविट्ठो अग्गी व वायसहिओ, समूलडालं डहइ कम्मं / / 260 / / जह डहइ वायसहिओ, अग्गी हरिएऽवि रुक्खसंघाए। तह पुरिसकारसहिओ, नाणी कम्मं खयं नेइ / / 261 / / जह अग्गिम्मि व पबले,खडपूलिय खिप्पमेव झामेइ। तह नाणीऽवि सकम्म, खवेइ ऊसासमित्तेणं // 262 / / न हु मरणम्मि उवग्गे, सक्को वारसविहो सुयक्खंधो। सव्वो अणुचिंतेउं, धंतं पि समत्थचित्तेणं / / 263|| इक्कम्मिऽवि जम्मि पए, संवेगं कुणइ बीयरागमए। वनइ नरो अविग्छ, तं मरणं तेण मरितव्वं // 26 // इक्कम्मिऽवि जम्मि पए, संवेगं कुणइ वीयरागमए। सो तेण मोहजालं, छिंदइ अज्झप्पजोगेणं // 265|| जेण विरागो जायइ, तं तं सव्वाऽऽयरेण करणिज्ज। तसबायरभूयहियं, पंथं निव्वाण मग्गस्स // 266|| समणोऽहं ति य पढम, बीयं सव्वत्थ संजओऽम्हि त्ति। सव्वं च वोसिरामी, जिणेहिं जं जं पडिक्कुटुं / / 267 / / मणसाऽविऽचिंतणिज्जं, सव्वं भासऍऽभासणिज्जं च। कारण यऽकरणिजं, वोसिरि तिविहेण सावजं // 268|| अस्संजमवोसिरणं, उवहिविवेगो तहा उवसमो अ। पडिरूवजोगविहिओ,खंतो मुत्तो विवेगो या२६६।। एयं पञ्चक्खाणं, आउरजणआवईसु भावेणं / अण्णतरं पडिवन्नो, जंपतो पावइ समाहिं // 30 // मम मंगलमरिहंता, सिद्धा साहू सुयं च धम्मो य। तेसिं सरणोवगओ, सावजं वोसिरामि त्ति / / 301 / / सिद्ध उवसंपन्नो, अरिहंते केवली य भावेणं / इत्तो एगत्तरेणऽवि, पएण आराहओ होइ॥३०२।। समुइन्नवेयणो पुण, समणो हिययम्मि किं निवेसिज्जा ? आलंबणं च काउं, काऊण मुणी दुहं सहइ / / 303 / / नरएसुऽणुत्तरेसु अ, अणुत्तरा वेयणाओं पत्ताओ। वट्टतेण पमाए, ताओ वि अणंतसो पत्ता / / 304 / / एयं सयं कयं मे, रिणं व कम्मं पुरा असायं तु। तमहं एस धुणामि, मणम्मि सत्तं निवेसिज्जा / / 305|| नाणाविहदुकखेहि य, समुइन्नेहि उ सम्म सहणिजं / न य जीवो उ अजीवो, कयपुव्वो वेयणाईहिं // 306 / / अब्भुजय विहारं, इत्थं जिणदेसियं विउपसत्थं / नाउं महापुरिससे-वियं जं अन्मुज्जयं मरणं // 307 / / जह पच्छिमम्मि काले, पच्छिमतित्थयरदेसियमुयारं। पच्छा निच्छयपत्थं, उदेइ अब्भुजयं मरणं / / 308|| छत्तीसमट्टियाहि य, कडजोगी संगहबलेणं। उज्जमिऊणं वारस-विहे य तवनियमठाणेणं // 306 / / संसाररंगमज्झे, धिइबलसंनद्धबद्धकच्छाओ। हंतूण मोहमल्लं, हराहि आराहणपडागं // 310 / / पोराणयं च कम्म, खवेइ अन्नन्नबंधणायाई। कम्मकलंकलवल्लिं, छिंदइ संथारमारूढो / / 311 / / धीरपुरिसेहिँ कहियं, सप्पुरिसनिसेवियं परमघोरं / उत्तिण्णोऽम्हि हु रंग, हरामि आराहणपडागं // 312 / / धीर ! पडागाहरणं, करेहि जह तंसि देसकालम्मि। सुत्तत्थमणुगुणितो, धिइनिचलबद्धकच्छाओ॥३१३|| चत्तारि कसाए ति-णि गारवे पंच इंदियग्गामे / जिणिउं परीसहसहे, हराहि आराहणपडाग / / 314 //
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________________ मरण 142 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मरण नय मणसा चिंतिजा, जीवामि चिरं मरामि व लहुँ ति। जइ इच्छसि तरिउं जे, संसारमहोअहिमपारं / / 315 / / जइ इच्छसि नीसरिउं, सव्वेसिं चेव पावकम्माणं। जिणवयणनाणदंसण-चरित्तभावुजुओ जग्ग।।३१६।। दसणनाणचरित्ते, तवे य आराहणा चउक्खंधा। सा चेव होइ तिविहा, उक्कोसा मज्झिम जहण्णा // 317 / / आराहेऊण विऊ, उक्कोसाराहणं चउक्खंधं / कम्मरयविप्पमुको तेणेव भवेण सिज्झिज्जा / / 318|| आराहेऊण विऊ, मज्झिमआराहणं चउक्खंधं / उक्कोसेण य चउरो, भवे उगंतूण सिज्झिज्जा / / 316 / / आराहेऊण विऊ, जहण्णमाराहणं चउक्खधं / सत्तऽट्ठभवग्गहणे, परिणामेऊण सिज्झिज्जा // 320 / / धीरेण विमरियव्वं, काउरिसेणऽवि अवस्स मरियव्वं / तम्हा अवस्समरणे, वरं खुधीरत्तणे मरिठं // 321 / / एयं पचक्खाणं, अगुपालेऊण सुविहिओ सम्मं / वेमाणिओ व देवो, हवेज अहवाऽवि सिज्झिज्जा॥३२२।। एसो सवियारकओ, उवक्कमो उत्तमऽढकालम्मि। इत्तो उपुणो धुच्छं, जो उ कमो होइ अवियारे // 323 / / साहू कयलेहो, विजियपरीसहकसायसंताणो। निजवए मग्गिजा, सुयरयणसहस्सनिम्माए।।३२४।। पंचसमिए तिगुत्ते, अणिस्सिए रागदोसमयरहिए। कडजोगी कमालण्णू, नाणचरणदंसणसमिद्धे // 325 / / मरणसमाहीकुसले, इंगियपत्थियसभाववेत्तारे। ववहारविहिविहण्णू, अब्भुज्जयमरणसारहिणो // 326|| उवएसहेउकारण-गुणनिसढाणायकारणविहण्णू। विण्णाणणाणकरणो-वयारसुययधारणसमत्थे।।३२७॥ एगंतगुणे रहिया, बुद्धीइ चउव्विहाई उववेया ! छंदण्णू पव्वइया, पचक्खाणंमि य विहण्णू // 328|| दुण्हं आयरियाणं,दो वेयावच्चकरणणिज्जुत्ता। पाणगवेयावचे, तवस्सिणो वत्ति दो पत्ता!|३२६।। उव्वत्तण परिवत्तण, उच्चारुस्सासकरणजोगेसुं। दो वायग त्ति णज्जा, असुत्त करणे जहन्नेणं / / 330 / / असद्दहवेयणाए, पायच्छित्ते पडिक्कमणए य। जोगाऽऽयकहाजोगे, पचक्खाणे य आयरिओ // 331 // कप्पाऽकप्पविहिण्णू, दुबालसंगसुयसारही सव्वं / छत्तीसगुणोदेया, पच्छित्तवियारया धीरा ||332 / / एए ते निजवया, परिकहिया अट्ठ उत्तमटुंमि। जेसिं गुणसंखाणं, न समत्था पायया वुत्तुं / / 333 / / एरिसयाण सगासे, सूरीणं पवयणप्प्वाईणं / पडिवजिञ्ज महत्थं, समणो अब्भुजयं मरणं // 334 // आयरियउवज्झाए सीसे साहम्मिए कुलगणे य। जे मे किया सकाया, सव्वे तिविहेण खामेमि॥३३५।। सव्वस्स समणसंघ-स्स भावओ अंजलिं करे सीसे। सव्वं खभावयित्ता,खमामि सव्वस्स अहयंपि॥३३६।। गरहित्ता अप्पाणं, अपुणकारं पडिक्कमित्ताणं / नाणम्मि दंसणम्मि अ, चरित्तजोगाऽइयारे य॥३३७।। तो सीलगुणसमग्गो, अणुवहयक्खो बलं च थामं च / विहरिज तवसमग्गो, अनियाणो आगमसहाओ॥३३॥ तवसोसियंगभंगो,संधिसिराजालपागडसरीरो। किच्छाहियपरिहत्थो, परिहरइ कलेवरं जाहे // 336 / / पञ्चक्खाइ य ताहे, अन्नन्नसमाहिपत्तियंमित्ति। तिविहेणाहारविहि, दियसुग्गइकायपगईए।।३४०।। इहलोए परलोए, निरासओ जीविए अमरणे या सायाऽणुभवे भोगे, जस्स य अवहट्टणाईए।।३४१।। निम्ममों निरहंकारो, निरासयोऽकिंचणो अपडिकम्मो। वोसट्टविसटुंगो, चत्तचियत्तेण देहेणं॥३४२।। तिविहेणऽवि सहमाणो, परिसहे दूसहे अऊसग्गे। विहरिज विसयतण्हा-रयमलमसुभं विहुणमाणो / / 343 / / णेहक्खए व दीवो, जह खयमुवणेइ दववट्टिम्मि। खीणाहारसिणेहो, सरीरवटि तह खवेइ // 344 / / एव परज्झा असई, परक्कमे पुव्वभणियसूरीणं / पासम्मि उत्तमऽढे, कुजा तो एस परिकम्मं // 345 / / आगरसमुट्ठियं तह, अज्झुसिरवागत्तणपत्तकडएय। कट्ठसिलाफलगमि व, अणामिजयं निप्पकप्पंमि / / 346|| निस्संधिणातणमि व, सुहपडिलेहेण जतिपसत्थेणं / संथारो कायव्यो, उत्तर-पुव्वस्सिरो वाऽवि॥३४७॥ दोसुत्थ अप्पमाणे, अंधकारे समंमि अणिसिटे। निरुवहयंमि गुणमणे, वणंमि गुत्ते य संथारो // 348|| जुत्ते पमाणरइओ, उभउकालपडिलेहणासुद्धो। विहिविहिओ संथारो, आरुहियव्वो तिगुत्तेणं / / 346 / / आरुहियचरित्तभरो, अन्नेसु उपरमगुरुसगासम्मि। दव्वेसु पन्जवेसु य, खित्ते काले य सव्वम्मि॥३५०।। एएसु चेव ठाणेसु, चउसु सव्वो उचविहाऽऽहारो। तवसंजमु त्ति किचा, वोसिरियव्वो तिगुत्तेणं / / 351 / / अहवा समाहिहेऊ, कायव्वो पाणगस्स आहारो। तो पाणगं पि पच्छा, वासिरियट्वं जहाकाले // 352 / / निसिरित्ता अप्पाणं, सव्वगुणसमनियम्मि निजवए। संथारसन्निविट्ठो, अनियाणो चेव विहरिजा॥३५३।। अहलोए परलोए, अनियाणो जीविए य मरणे य। वासीचंदणकप्पो, समो य माणाऽवमाणेसु // 354 / /
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________________ मरण 143 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मरण आह महुरं फुडवियर्ड, तहप्प्सायकरणिज्जविसयकयं / इज्ज कहं निजवओ, सुईसमन्नहरणहेउं / / 355 / / इहलोए परलोए, नाणचरणदसणम्मि य अवायं / दंसेइ नियाणंमि य, मायामिच्छत्तसल्लेणं // 356 / / बालमरणे अवाय, तह य उवायं अबालमरणम्मि। उस्सासरज्जुवेहा-णसे य तह गिद्धपढे य / / 357 / / जह य अणुद्धियसल्लो, ससल्लमरणेण केइ मरिऊण / दसणनाणविहूणो, मरंति असमाहिमरणेणं // 358|| जह सायरसे गिद्धा, इत्थि अहंकारपावसुयमत्ता। ओसन्नबालमरणा, भमंति ससारकंतारं / / 356 / / अह मिच्छत्तससल्ला, मायासल्लेण जह ससल्ला य / जह य नियाणसलल्ला, मरंति असमाहिमरणेणं // 360|| जह वेयणावसट्टा, मरंति जह केइ इंदियवसट्टा। जह य कसायवसट्टा, मरंति असमाहिमरणेणं / / 361 / / जह सिद्धिमग्ग दुग्गइ-सग्गग्गलमोडणाणि मरणाणि। मरिऊण केइ सिद्धिं, उविंति सुसमाहिमरणेणं / / 362 / / एवं बहुप्पयारं, तु अवार्य उत्तमऽढकालम्मि। दंसंति आवयण्णू, सल्लुद्धरणे सुविहियाणं / / 363 / / दिति य सिं उवएस, गुरुणो नाणाविहे हिं हेऊहिं। जेण सुगई भयंतो, संसारभयद्दओ होइ॥३६४।। न हु तेसु वेयणं खलु, अहो चिरम्मित्ति दारुणं दुक्खं / सहणिज्जं देहेणं, मणसा एवं विचिंतिजा / / 365 / / सागरतरणत्थ मई, इयस्स पोयस्स जए धूवे। जो रञ्जमुकखकालो, न सो विलंब त्ति कायव्वो // 366 / / तिल्लविहूणो दीवो, न चिरं दिप्पइ जगंमि पच्चक्खं / न य जलरहिओ मच्छो, जिअए चिरं नेव पउमाई // 367 / / अन्नं इमं सरीरं, अन्नोऽहं इय मणमि ठाविञ्जा। जं सुचिरेणऽवि मोचं, देहे को ? तत्थ पडिबंधो / / 368 / / दूरत्थं पि विणासं, अवस्सभावं उवट्ठियं जाण। जो अह वट्टइ कालो, अणागओ इत्थ आसिण्हा // 366 / / जं सुचिरेण वि होहिइ, अणावसंतम्भि को ? ममीकारो। देहे निस्संदेहे, पिएऽवि सुयणत्तणं नऽत्थि॥३७०।। उवलद्धो सिद्धिपहो, न य अणुचिण्णो पमायदोसेणं / हा जीव ! अप्पवेरिय ! न हु ते एयं न तिप्पिहिइ॥३४१।। नऽत्थिय ते संघयणं, घोरा य परीसहा अहे निरया। संसारो य असारो, अइप्पमाओ अतं जीव!॥३७२।। कोहाऽऽइकसाया खलु, बीयं संसारभेरवदुहाणं / तेसु पमत्तेसु सया, कत्तो सुक्खो य मुक्खो वा ? // 373 / / जाओ परसेणं, संसारे वेयणाओं घोराओ। पत्ताओ नारगत्ते, अहुणा ताओ विचिंतिजा // 374 / / इम्हि सयं वसिस्स उ, निरुवमसुक्खावसणमुहकडुयं / कल्लाणमोसह पिव, परिणामसुहं न तं दुक्खं / / 375 / / संबंधिबंधवेसु अ, न य अणुराओ खणं पि कायव्यो। ते चिय हुति अमित्ता, जह जणणी बंभदत्तस्स // 376|| वसिऊण व सुहिमज्झे, वचइ एगाणिओ इमो जीवो। मुत्तूण सरीरघरं, जह कण्हो मरणकालम्मि // 377 / / इम्हि व मुहुत्तेणं, गोसे व सुए व अद्धरत्ते वा। जस्स न णज्जइ वेला, कदिवसं? गच्छई जीवो // 378 / / एवमणुचिंतयंतो, भावणुभावाणुरत्तसियलेसो। तदिवसमरिउकामो, व होइ झाणम्मि उज्जुत्तो // 376 / / नरग-तिरिक्खगईसु य, माणुसदेवत्तणे वसंतेणं / जं सुहदुक्खं पत्तं,तं अणुचिंतिज संथारे // 380 / / नरएसु वेयणाओ, अणोवमा सीयउण्हवेराओ। कायनिमित्तं पत्ता, अणंतखुत्तो बहुविहाओ।।३८१।। देवत्ते माणुस्से, पराहिओगत्तणं उवगएणं / दुकखपरिकिलेसविही, अणंतखुत्तो समणुभूया // 382 / / भिन्निंदिय पंचिदिय-तिरिक्खकायंमिऽणेगसंठाणे। जम्मणमरणरहढे, अणंतखुत्तो गओ जीवो॥३८३।। सुविहिय ! अईयकाले, अणंतकाएसु तेण जीवेणं / जम्मणमरणमणंतं, बहुभवगहणं समणुभूयं // 384 // घोरम्मि गब्मवासे, कलमलजंबालअसुइवीभच्छे / वओि अणंतखुत्तो, जीवो कम्माणुभावेणं // 385 / / जोणीमुहनिग्गच्छं-तेण संसारे इमेण जीवेणं / रसियं अइवीभच्छं, कडीकडाहंऽतरगएणं // 386 / / जं असियं वीभच्छं, असुई घोरम्मि गब्भवासम्मि। तं चिंतिऊण य सयं, मुक्खंमि मई निवेसिज्जा / / 387 / / वसिऊण विमाणेसु य, जीवो पसरतमणिमऊहेसु। वसिओ पुणो वि सुचिय, जोणिसहस्संऽधयारेसु // 388 / / वसिऊण देवलोए, निबुज्जोए सयंपमे जीवो। वसई जलवेगकलमल-विउलवलयामुहे घोरे // 386 / / वसिऊण सुरनरीसर-चामीयर रिद्धिमणहरघरेसु / वसिओ नरगनिरंदर-भयभेरवपंजरे जीवो // 390 / / वसिऊण विचित्तेसु अ, विमाणगणभवणसोभसिहरेसुं। वसइ तिरिएसु गिरिगुह-विवरमहाकंदरदरीसु॥३६१।। मुत्तूण वि भोगसुह, सुरनखयरेसु पुण पमाएणं / पियइ नरएसु भेरव-कलंततउतंबपाणाई॥३६२।। सोऊण मुइयणवइभवे, अ जयसद्दमगंलरवोघं / सुणइ णरएसु दुहपर-मकंदुद्दामसद्दाई // 363 / / निहण हण गिण्ह दह पय-उब्बंध पबंध वंध रुधाद्धाहिं। फाले लोले घोले, थूरे खारेहिँ से गत्तं / / 364 //
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________________ मरण 144 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मरण बेयरणिखारकलिमल-वेसल्लंकुसलकरकयकुलेसुं। वसिओ नरएसु जीओं, हण हण घणघोरसद्देसुं॥३६५।। तिरिएसु व भेरवसह-पक्खणपरवक्खणच्छणसएसु। वसिओ उब्वियमाणो, जीवो कुडिलम्मि संसारे॥३६६|| मणुयत्तणेऽवि बहुविह-विणिवायसहस्सभेसणघणंमि। भोगपिवासाणुगओ, वसिओ भयपंजरे जीवो।।३६७।। वसियं दरीसु वसियं, गिरीसु वसियं समुद्दमज्झेसु / रुक्खऽग्गेसु य वसियं, संसारे संसरंतेण।।३६८।। पीयं थणअच्छीरं, सागरसलिलाओं बहुयर हुन्जा। संसारंमि अणंते, माईणं अण्णमण्णाणं ||366 नयणोदगं पितासिं, सागरसलिलाओं बहुयरं हुञ्जा। गलियं रुयमाणीणं, माईणं अण्णमण्णाणं / / 400 / / नऽत्थि भयं मरणसम,जम्मणसरिसं न विजए दुक्खं / तम्हा जरमरणकरं, छिंद ममत्तं सरीराओ॥४०१।। अन्नं इमं सरीरं, अण्णो जीवु त्ति निच्छियमईओ! दुक्खपरिकिलेसकर, छिंद ममत्तं सरीराओ॥४०२१॥ जावइयं किंचि दुहं, सारीरं माणसं व संसारे। पत्तो अणंतखुत्तो, कायस्स ममत्तदोसेणं / / 403 / / तम्हा सरीरमाई, अभितर बाहिरं निरवसेसं / छिंद ममत्तं सुविहिय ! जइ इच्छसि मुचिउ दुहाणं / / 404 / / सव्वे उवसग्गपरी-सहे य तिविहेण निजिणाहि लहु। एएसु निजिएसुं, होहिसि आराहओ मरणे / / 405 / / मा हुय सरीरसंता -विओ अतं झाहि अट्टरुद्दाइं। सुटुऽवि रूवियलिंगे, वियट्टरुद्दाणि रूवंति।।४०६।। मित्तसुयबंधवाइसु, इट्ठाणिढेसु इंदियऽत्थेसुं। रागो वा दोसो या, ईसि मणेणं न कायव्यो // 407|| रोगाऽऽयंकेसु पुणो, विउलासु य वेयणासूइन्नासु / सम्म अहियासंतो, इणमो हियएण चिंतिजा // 408 / / बहु पलियसागराइं, सड्ढाणि मे नरयतिरियजाईसुं / किं ? पुण सुहावसाणं, इणमो सारं नरदुहंति / / 406 / / सोलस रोगाऽऽयंका, सहिया जह चक्किणा चउत्थेणं। वाससहस्सा सत्त उ, सामण्णधरं उवगएणं / / 410 / / तह उत्तमऽट्ठकाले, देहे, निरवक्खयं उवगएणं / तिलछितलावगा इव, आयंका विसहियवाओ॥४११।। पारियवायगभत्तो, राया पट्ठीइ सेट्ठिणो मूढो। अचुएहं परमन्नं, दासीय सुकोवियमणूसा / / 412|| सा य सलिलुल्ललोहिय -- मंसवसांपेसिथिग्गलं चित्तुं / उप्पइया पट्ठीओ, पाई जह रक्खसवहु व्व / / 413 // तेण य निव्वेएणं, निग्गंतूणं तु सुविहियसगासे। आरुहियचरित्तभरो, सीहो रसियं समारूढो // 414|| तंमि य महिहरसिहरे, सिलायले णिम्मले महाभागो। वोसिरह थिरपइन्नो, सव्वाहारं महतणू य / / 415 // तिविहोवसग्गसहिउं, पडिमं सो अद्धमासियं धीरो। ठाइय पुव्वाऽभिमुहो, उत्तमधिइसत्तसंजुत्तो॥४१६|| साय पगतंतलोहिथ-मेयवसामंसल परीपट्ठी। खज्जइ खगेहिँ दूसह, निसट्ठचंचुप्पहारेहिं / / 417 / / मसएहिं मच्छियाहि य, कीडीहि वि मंससंपलग्गाहिं। खजंतो वि न कंपइ, कम्मविवागं गणेमाणो // 418|| रत्तिं च पयइ विहसिय, सियालियाहिं गिरणुकंपाहिं। उवसम्गिज्जइ धीरो, नाणाविहरूवधाराहिं।।४१६|| चिंतेइ य खरकरवय-असिपंजरखग्गमुग्गरपहाओ। इणमो न हु कट्ठथरं, दुक्खं निरयऽग्गिदुक्खाओ / / 420|| एवं च गओ पक्खो, वीओ पक्खो य दाहिणदिसाए। अवरेणऽवि पक्खो वि य समइक्कंतो महेसिस्स / / 421 / / तह उत्तरेण पक्खं, भगवं अविकंपमाणसो सहइ / पडिओ य दुमासंते, नमो त्ति वुत्तुं जिणिंदाणं // 422 // कंचणपुरंभि सिट्ठी, जिणधम्मो नाम सावधो आसी। तस्स इमं चरियपयं, तउ एयं कित्तिममुणिस्स // 423 / / जह तेण वितथ मुणिणा, उवसग्गा परमदूसहा सहिथा। तह उपसग्गा सुविहिय ! सहियव्वा उत्तमटुंमि / / 424 / / निप्फेडियाणि दुण्णि वि, सीसाऽऽवेढेण जस्स अच्छीणि। न य संजमाउ चलिओ, मेअञ्जो मंदरगिरि व्व।।४२५।। जो कुंचगाऽवराहे, पाणिदया कुंचगं पि नाऽऽइक्खे। जीवियमणुपेहंतं, मेयझरिसिं नमंसिामि / / 426 / / जो तिहिं पएहिं धम्म,समइगओ संजमं समारूढो। उवसमविवेगसंवर, चिलाइपुत्तं नमसामि।।४२७।। सोएहि अइगयाओ, लोहियगंधेण जस्स कीडीओ। खायंति उत्तमंगं, तं दुक्करकारयं वंदे / / 428|| देहो पिपीलियाई, चिंलाइपुत्तस्स चालणि व्व कओ। तणुओऽवि मणपओसो, न य जाओ तस्स ताणुवरि / / 426 / / धीरो चिलाइपुत्तो, मूइंगलियाहि चालणि व्व कओ। न य धम्माओ चलिओ, ते दुक्करकारयं वंदे / / 430 / / गयसुकुमा लमहेसी, जह दड्डो पिइवणंसि ससुरेणं / न य धम्माओ चलिओ, तं दुक्करकारयं वंदे / / 431 // जह तेण सो हुयाऽसो, सम्म अइरेगदूसओ सहिओ। तह सहियव्दो सुविहिय ! उवसग्गो देहदुक्खं च / / 432 / / कमलामेलाऽहरणे, सागरचंदोसूईहिँ, नभसेणं / आगंतूण सुरत्ता, संपइ संपाइणो वारे // 433 / / जायस्स खमा तइया, जो भावो जा य दुक्करा पडिमा।
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________________ मरण 145 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मरण तं अणगारगुणागर ! तुम पि हियएण चिंतेहि / / 434|| सोऊण निसासमए, नलिणिविमाणस्स वण्णणं धीरो। संभरियदेवलोओ, उज्जेणि अवंतिसुकुमालो॥४३५।। धित्तूण समणदिक्खं, नियमुज्झिय सव्वदिव्वआहारो। बाहिं वंसकुडंगे, पायवगमणं निवन्नो उ॥४३६।। वोसट्ठनिसटुंगो, तहिं सो भुल्लुं कियाइखइओ उ / मंदरगिरिनिक्कंपं, तं दुक्ककारयं वंदे // 437 / / मरणंमि जस्स मुक्क, सुकुसुमगंधोदयं च देवेहिं / अज्ज वि गंधवई सा, तं च कुडंगी सरहाणं / / 438|| जह तेण तत्थ मुणिणा, सम्म समणेण इंगिणी तिहा। तह तूरह उत्तमऽटुं, तं च मणे संनिवेसेह॥४३६।। जो निच्छएण गिण्हइ, देहयाएविन अट्ठियं कुणई। सो साहेइ सकजं, जह चंदवडिंसओ राया / / 440 / / दीवाभिग्गहधारी, दूसह घणविणयनिचलनगिंदो। जह सो तिन्नपइण्णो, तह तूरह पइन्नम्मि // 441 / / जह दमदंतमहेसी, पंडयकोरवमुणी थुयगरहिओ। आसि समो दुण्हं पि हु, एव समा होह सव्वत्थ / / 442 / / जह खंदगसीसेहिं, सुक्कमहाझाणसंसियमणेहिं। न कओ मणप्पओसो, पीलिज्जतेसु जंतम्मि।।४४३।। तह घवसालिभद्दा, अणगारा दो वि तवमहिड्डीया। वेभारगिरिसमीचे, नालंदाए समीवंमि॥४४४|| जुअलसिलासंथारे, पायवगमणं उवगया जुगवं / मासं अणूणगं ते, वोसट्टनिसट्ठसव्वंऽगा // 445 / / सीयायवऽऽझडियंऽगा, लग्गुद्धियमंसण्हारूणि विणट्ठा। दीऽवि अणुत्तरवासी, महेसिणो रिद्धिसंपण्णा।।४४६|| अच्छेरयं-च लोए, ताण तहिं देवयाऽणुभावेणं / अञ्जऽवि अट्ठिनिवेसं, पंकिव्व सनामगा हत्थी॥४४७|| जह ते समं सचम्भे, दुबलविलग्गेऽवि णो सयं चलिया। तह अहियासेयव्वं, गमणे थेवंपिमं दुक्खं // 448|| अयलग्गाम कुटुंबिय, सुरइयसयदेवसमणयसुभद्दा। सव्वे उ गया खमगं, गिरिगुहनिलयनियच्छीय ||446|| ते तं तवोकिलंतं, वीसामेऊण विणयपुव्वागं / उवलद्धपुण्णपावा, फासुयसुमहं करेसीह / / 450 / / सुगहियसावयधम्मा, जिणमहिमाणेसु जणियसोहग्गा। जसहरमुणिणो पासे, निक्खंता तिव्वसंवेगा।।४५१।। सुगिहियजिणवयणाऽमय-परिपुट्ठा सीलसुरहिगंधऽड्डा / विहरिय गुरुस्सगासे, जिणवरवसुपुञ्जतित्थम्मि।।४५२|| कणगाऽवलिमुत्तवलि-रयणावलिसहिकीलियकलंता। काहीय ससंवेगा,आयंबिल वड्डमाणं च / / 453|| आसारया य मनोहर-सिहरंतरसंचरंतपुक्खस्य। आइकरचलणपकंय-सिरसेवियमालहिमवंतं // 454|| रमणिजहरयतरुवर-परहुअसिहिभमर महुयरिविलोले। अमरांगेरिविसयभणहर, जिणवयणसुकाणणुद्देसे / / 455 / / तम्मि सिलायलपुहवी, पंच वि देहट्ठिईसु मुणियत्था। कालगया उववण्णा, पंच वि अपराजियविमाणे / / 456 / / ताओ चइऊण इहं, मारहवासे असेसरिउदमणा। पंडुनराहिवतणया, जाया जयलच्छिभत्तारा // 457|| ते कण्हमरणदूसह-दुक्खसमुप्पन्नतिव्वसंवेगा। सुट्ठियथेरसगासे, निक्खंताखायकित्तीया।।४५८|| जिट्ठो चउदसपुव्वी, चउरो इक्कारसंगवी आसी। विहरिय गुरुस्सगासे, जसपडहभरंतजियलोया // 456 / / ते विहरिऊण विहिणा, नवरि सुरटुं कमेण संपत्ता। सोउं जिणनिव्वाणं भत्तपरिन्नं करेसी य / / 460|| घोराऽभिग्गहधारी, भीमो कुतऽग्गगहियमिक्खाओ। सत्तुंजयसेलसिहरे, पाओवगओ गयभयोघो / / 461 / / पुव्वविरनाहियवंतर-उवसग्गसहस्समारुयनगिंदो। अविकंपो आसि मुणी, भाईणं इकपासम्मि॥४६२२॥ दो मासे संपुण्णे, सम्म धिइधणियवद्धकच्छाओ। आव उवसग्गिओ सो, जाव उपरिनिवुओ भगवं / / 463 / / सेसा वि पंडुपुत्ता, पाओवगया उ निव्वुया सव्वे। एवं धिइसंपण्णा, अण्णे वि दुहाओं मुचंति / / 464|| दंडो विय अणगारो, आयावणभूमिसंठिओ वीरो। सहिऊण बाणघायं, सम्मं परिनिव्वुओ भगवं / / 465 / / सेलम्मि चित्तकूडे, सुकोसलो सुट्ठिओ उपडिमाए। नियजणणीएखइओ, वग्धीभावं उवगयाए।।४६६।। पडिमायगओ अ मुणी, लंबेसु ठिओ बहुसु ठाणेसुं। तह विय अकलुसभावो, साहु खमा सव्वसाहूणं / / 467! पंच सया परिवुडया, वइररिसी पय्वए रहावत्ते। मुत्तूण खुड्डगं किर, अन्नं गिरिमस्सिओ सुजसो // 468 / / तत्थ य सो उवलतले, एगागी धीरनिच्छयमईओ। वोसिरिऊण सरीरं, उण्हम्मि ठिओ वियप्पाणो॥४६६।। ता सो अइसुकुमालो, दिणयरकिरणऽग्गितावियसरीरो। हविपिंडु व्व विलीणो, उववण्णो देवलोयम्मि / / 470 / / तस्स य सरीरपूयं, कासीय रहेहि लोगपालाओ। तेण रहावत्तगिरी, अज वि सो विस्सुओ लोए॥४७१।। भगवं पि वइरसामी, विइयगिरिदेवयाइकयपूओ। संपूइओत्थ मरणे, कुंजरभरिएण सक्केणं // 472 // पूइयसुविहियदेहो, पयाहिणं कुंजरेण तं सेलं। कासीय सुरवरिंदो, तम्हा सो कुंजरावत्तो // 473 / /
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________________ मरण 146 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मरण तात्तोय जोगसंगह-उवहाणक्खाणयम्मि कोसंबी। रोहगमवंतिसेणो, रुज्झेइ मणिप्पभो भासो // 474 / / धम्मगसुसीलजुयलं, धम्मजसे तत्थऽरण्णदेसम्मि। पत्तं पञ्चक्खाइय, सेलम्मि उवच्छगातीरे / / 475 / / निम्मम निरहंकारो, एगागी सेलकंदरसिलाए। कासीय उत्तमऽ8, सो भावो सव्वसाहूणं / / 476 / / उण्हम्मि सिलावट्टे, जह तं अरहण्णएण सुकुमालं / विग्धारियं सरीरं, अणुचिंतिजा तमुच्छाहं / / 477 / / गुब्बर पाओवगओ, सुबुद्धिणा णिग्विणेण चाणको। दड्डो न य संचलिओ, साहू धिइचिंतणिज्जाओ।।४७८|| जह सोऽविसप्पएसी, वोसट्टनिसिट्ठचत्तदेहो उ। वंसीपत्तेहिं विनि-ग्गएहिँ आगासमुक्खित्तो / / 476 / / जह सा बत्तीसघडा. वोसट्ठनिसट्ठचत्तदेहागा। धीरा वाएण उ दीवएण विगलिम्मि ओलइया // 480 / / जंतेण करकएण व, सत्थेहिं व सावएहि विविहेहिं। देहे विद्धस्संते, ईसिं पि अकप्पणरुमणा // 481 / / पड़णीययाइ केसिं, चम्मंसे खीलएहि निहणित्ता। महुधयमक्खियदेह, पिवीलियाणं तु दिजाहिं॥४८२।। जेण विरागो जायइ, तं तं सव्वायरेण करणिजं / सुव्वइ हु ससंवगो, इत्थ इलापुत्तदिह्रतो / / 483|| समुइण्णेसु य सुविहिय ! घोरेसु परीसहेसु सहणेणं / सो अत्थो सरणिज्जो, जोऽधीओ उत्तरऽज्झयणे / / 484|| उज्जेणि हस्थिमित्तो, सत्थसमग्गो वणम्मि कटेणं / पायहरो संवरण-चिल्लगभिक्खावणसुरेसु // 485 / / तत्थेव य धणमित्तो, चेल्लगमरणं नईइ तण्हाए। निच्छिण्णेसुऽणज्जंत-विंटियव्विस्सारणं कासि॥४८६|| मुणि-चंदेण विदिण्णस्स, रायगिहिपरिसहो महाघोरो। जत्तो हरिवंसविहू, सणस्सवूच्छं जिणिंदस्स।।४८७|| रायगिहनिग्गया खलु, पडिमापडिवन्नगा मुणी चउरो। सीय विहूय कमेणं, पहरे पहरे गया सिद्धिं / / 488|| उसिणे तगररहन्नग-चंपामसएसु सुमणभद्दरिसी। खमसमण अज्ञरक्खिय, अचेल्लय यत्ते य उजेणी।।४८६|| अरई य जाइसूकरो, भव्वो अदुलहबोहीओ। कोसंबीए कहिओ, इत्थीए थूलभद्दरिसी।।४६01 कुल्लइरंमि य दत्तो, चरियाइपरीसहे समक्खाओ। सिद्विसुयमिगिच्छणणं, अंगुलदीयो य वासम्भि।।४६१।। गयपुरकुरुदत्तसुओ, निसीहिया अडविदेसपडिमाए। गाविकुविएण दड्डो, गयसुकुमालो जहा भगवं / / 462|| तो अणगारा धिज्जा-इयाइ कोसंबिसोमदत्ताइ। पाओवभयाणदिणे, सिजाए सागरे छूढा / / 463|| महुराइमहुरखमओ, अक्कोसपरीसहे उ सविसेसो। वीओ रायगिहम्मि उ, अज्जुणमालारदिह्रतो / / 464|| कुम्मारकडे नगरे, खंदगसीसाण जंतपीलणया। एवंविहे कहिज्जइ, जह सहियं तस्स सीसेहिं / / 465|| तह झाणणाणवुत्तं, गीए संपठियस्स समुयाणं / तत्तो अलाभगम्मि उ, जह कोहं निजिणे कण्हो 466|| किसिपारासरढंढो, बीयं तु अलाभगे उदाहरणं / कण्हबलभद्दमन्नं, चइऊण खमनिओ सिद्धो // 467|| महुरा जियसत्तुसुओ, अणगारो कालवेसिओ रोगे। मोग्गल्लसेलसिहरे, खइओ किलसरसियालेणं // 4981 सावत्थी जियसत्तू, तणवो निक्खमणपडिमतणफासे। वीरिय पविय विकंचण, कुसलेसणकढणसहणं NEE!! चंपासु णंदगं चिय, साहुदुगुंछाइजल्लखउरंगे। कोसंबी जम्मनिक्खमण-वेयणं साहुपडिमाए।।५००।। महुराइ इंददत्तो, सक्कारा पायछेयणे सङ्घो। पन्नाइ, अज्जकालग, सागरखमणो य दिलुतो 1501 / / नाणे असगडताओ, खंभगनिधि अपहियासणे भद्दो। दसणपरीसहम्मिउ, आसाढभूई उ आयरिया।।५०२|| चरियाए मरणंमि उ, समुइण्णपरीसहो मुणीएवं / भाविज निउणजिणमय-उवएससुईइअप्पाणं / / 503 / / उम्मग्गसंपयायं, मणहत्थिं विसयसुमरियमणंतं / नाणंकुसेण धीरो, धरेइ दित्तंपि व गइंदं // 504 / / एए उ अहासूरा, महिडिएको व भाणिउं सत्तो ? | किं वातिमूवमाए, जिणगणधरथेरचरिएसुं // 505 / / किं चित्तं जइ नाणी, सम्मट्ठिी करंति उच्छाहं। तिरिएहिवि दुरणुचरो, केहिवि अणुपालिओ धम्मो / / 506 / / अरुणसिहं दट्टणं, मच्छोसण्णी महासमुइंमि। हाण गहिउ त्ति काले, झसत्ति संवेगमावण्णो // 507 / / अप्पाणं निंदंतो, उत्तरिऊणं-महन्नवजलाओ। सावजजोगविरओ भत्तपारिण्णं करेसीय॥५०॥ खगतुंडभिन्नदेहो, दूसहसूरग्गितावियसरीरो। कालं काऊण सुरो, उववन्नो एव सहणिज्जं // 506 / / सो वानरंजूहवई, कंतारे सुविहियाऽणुकंपाए। मासुरवरबुंदिघरो, देवो वेमाणिओ जाओ / / 510 / / तं सीहसेणगयवर-चरियं सोऊण दुक्करंऽरण्णे। को हुणु तवे पमायं, करेज जाओ मणुस्सेसुं? 11511 / / भुयगपुरोहियडक्को, राया मरिऊण सल्लइवणंमि। सुपसत्थगंधहत्थी, बहुभयगयभेलणो जाओ / / 512| सो सीहचंदमुणिवर-पडिमापडिबोहिओ सुसंवेगो। पाणवहालियचोरिय-अब्बभपरिग्गहनियत्तो।।५१३॥
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________________ मरण 147 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरण -- रागद्दोसनियत्तो, छट्टक्खमणस्स पारणे ताहे। आससिऊणं पंड, आयवतत्तं जलं पासी॥५१४॥ खमगत्तण निम्मंसो, धवणिसिरो जालसंतयसरीरो। विहरिय अप्पप्पाणो, मुणिउवएसं विचिंतंतो।।५१५|| सो अन्नयाणिदाहे, पंकोसन्नो वणं निरुत्थारो। चिरवेरिएण दिट्ठो, कुक्कुडसप्पेण घोरेणं / / 516 / / जिणवयणमणुगुणितो, ताहे सव्वं चउविहाऽऽहारं। वोसिरिऊण गइंदो, भावेण जिणे नमसीय / / 517 / / तत्थ य वणयरसुरवर, विम्हियकीरंतपूयसक्कारो। मज्झत्थो आसी किर, कलहेसु य जजरिजंतो / / 518|| सम्मं सहिऊण तओ, कालगओ सत्तमंभि कप्पंभि। सिरितिलयंमि विमाणे, उक्कोसठिई सुरो जाओ / / 516 / / सुयदिट्ठिवायकहियं, एवं अक्खाणयं निसामित्ता। पंडियभरणंमि मई, ददं निवेसिञ्जभावेणं / / 520 / / जिणवयणमणुस्सट्ठा, दोऽवि भुयंगा महाविसा पोरा। कासीय कोसियासय, तणूसु भत्तं मुइंगाणं / / 521 / / एगो विमाणवासी, जाओवरविजपंजरसरीरो। वीओ उनंदणकुले, बलु त्ति जक्खो महिड्डीओ / / 522 / 1 / हिमचूलसुरुप्पती, भद्दगमहिसी य थूलभद्दोय। वेरोसवसमे कहणा, सुरभाये दंसणे खमगो।।५२३॥ बावीसमाणुपुट्विं, तिरिक्खमणुयावि भेसणवाए। विसयाऽणुकंपरक्खण, करेज देवा उ उवसग्गं // 524 / / संघयणधिईजुत्तो, नव दस पुयी सुएण अंगावा। इंगिणि पाओवगम, पडिवजइ एरिसो साहू / / 525 / / निचल निप्पडिकम्मो, निक्खिवए जु जहिं जहा अंगं / एयं पाओवगर्म, सनिहारिं वा अनीहारिं / / 526 / / (अत्रत्याः पादोपगमनविषयिका अष्ट गाथाः 'पाओवगमण' शब्दे बृहत्कल्पोक्ताः सव्याख्या गतास्तत एवावगन्तव्याः) देवोनेहेण णए, देवागमणं च इंदगमणं वा। जहियं इब्जी कंता, सव्वसुहा हंति सुहभावा / / 535 / / उवसग्गे तिविहेऽवि य , अणुकूले चेव तह य पडिकूले। सम्म अहियासंतो, कम्मक्खयकारओ होइ।।५३६।। एयं पाओवगर्म, इंगिणि पडिकम्मवण्णियं सुत्ते। तित्थयरगणहरेहि य, साहूहि य सेवियमुयारं / / 537 / / सवे सव्वऽद्धाए, सव्वन्नू सव्वकम्मभूमीसु / सव्वगुरू सव्वहिया, सव्वे मेरूसु अहिसित्ता / / 538|| सव्वाहिऽवि लद्धीहिं, सव्वेऽवि परीसहे पराइत्ता। सव्वेऽविय तित्थयरा, पाओवगया उ सिद्धिगया // 539 / / अवसेसा अणगारा, तीयपड़प्पन्नणागया सव्वे। केई पाओवगया, पचक्खणिंगिणिं केई ||540 / / सव्वाऽवि अ अजाआ, सव्वेऽविय पढभसंधया / सव्ये य देसविरया, पञ्चक्खाणेण य मरंति / / 541 / / सव्वसुहप्पमवाओं, जीवियसाराओ सव्वजणिगाओ। आहाराओ रयणं, न विजए उत्तमं लोए।।५४२।। विग्गहगए य सिद्धे, मुत्तुं लोगंभि जम्मिया जीवा। सव्वे सव्वाऽवत्थं, आहारे हंति आउत्ता॥५४३।। तं तारिसगं यरणं, सारंजं सवलोयरयणाणं / सव्वं परिचइत्ता, पाओवगया पविहरंति // 554|| एयं पाओवगम, निप्पडिकम्मं जिणेहिं पन्नत्तं ! तं सोऊणं खमओ, ववसायपरक्कम कुणई 15451 धीरपुरिसपन्नत्ते, सप्पुरिसनिसेविए परमरम्मे। धण्णा सिलायलगया, निरावयक्खा णिवजंति / 546. सुव्वंति य अणगारा, घोरासु भयाणियासु सड़वीर गिरिकुहरकंदरासु य, विजणेसु य सम्खडेटेस: 5..' धीधणियबद्धकच्छा, भीया जरमरणजम्माणसया: सेलसिलासयणत्था, साहति उ उत्पहाइ / / 548|| दीवोदहिऽरण्णेसु य, खयरा वहियानुगुणारतिय तासु . कमलसिरीमहिलादिसु, भत्तपरिक्षा कयाधीसु॥५४६।। जइ ताव सावयाकुल-गिरिकंदरविसमकडगदुग्गासुं। साहिति उत्तमटुं, धिइधणियसहायगा धीरा // 550|| किं पुण अणगारसहा-यगेण अण्णुनसंगहबलेणं / परलोए य न सका, साहेउं अप्पणो अटुं ? ||551 / / समुइन्नेसु अ सुविहिय ! उवसग्गमहब्भयेसु विविहेसुं। हियएण चिंतणिजं, रयणनिही एस उवसग्गो / 1552 / / किं जाय जइ मरणं, अहं च एमागिओ इहं पाणी। वसिओ हं तिरियत्ते, बहुसो एगागिओऽरणे // 553 / / वसिऊण विजणमज्झे, वचइ एगागिओ हमो जीवो। मुत्तूण सरीरधरं, मच्चुमुहाऽऽकड्डिओ संतो।।५५५.! जह वीहंति अजीवा, विविहाण विहासियाण एगागी। तह संसारगएहिं, जीवेहिं विहेसिया अन्ने / / 555 / / सावयभयाऽभिभूओ, बहुसु अडवीसु निरमिरामासु / सुरहिहरिणमहिससूयर-करवोडियरुक्खछायासु // 556 / / गयगवयखग्गगंडय-वग्घतरच्छच्छभल्लचरियासु। भल्लुंकिकंकदीविय, संचरसब्भावकिण्णासुं।॥५५७।। मत्तगइदनिवाडिय-भिल्लपुलिंदावकुंडियवणासुं। वसिओऽहं तिरियत्ते, र्भीसणसंसारचारम्मि।।५५८।। कत्थ य मुद्धमिगत्ते, बहुसो अडवीसु पथइविसमासु। वग्धमुहावडिएणं,रसियं अइभीयहिथएणं ||556 / / कत्थइ अइदुप्पिक्खो, भीसणविगरालधोरवयगोऽहं / आसिमहं वि य विग्यो, रुरुमहिसवराहविद्दवओ // 560 / /
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________________ मरण 45 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मरण कत्थइ दुविहिएहि, रक्खसवेयालभूयरूवेहि। मिलिओ वहिओ य अहं, मणुस्सजम्मंमि निस्सारो॥५६१।। पयड़ कुडिलम्मि कत्थइ, संसारे पाविऊण भूयत्तं / बहुसो उब्वियमाणो, मए विवीहाविया सत्ता / / 16 / / तिरसं आरसगाणो, कत्थई रण्णे सुधाइओसह यं / सावयगहणंमिवणे, भयभीरूखुमियचित्तोऽहं / / 3|| पत्तं विचित्तविरसं, दुक्खं संसारसागरगएणं। रसियं च असरणेणं, कयं तदंतंतरगएणं / / 564|| तइया कीस न हायइ, जीवो जइया सुसाणपारिशिदं / भल्लुंकिकंकवायस-सएसु ढोकिजए देहं / / 565 / / ता तं णिजिणिऊण, देहं मुत्तूण वचए जीनो। सो जीवो अविणासी, भणिओ तेलुक्कदंसीहिं / / 566 / / तं जइ ताव न मुचइ, जीवो मरणस्स उब्वियंतोऽवि। तम्हा मज्झन जुज्जइ, दाउण भयरस अप्पाणं / / 567 / / एवमणुचिंतयंता, सुविहिय ! जरमरणभावियमईया। पावंति कयपयत्ता, मरणरागाहिं महाभागा / / 568|| एवं भावियचित्तो, संथारतरंभि सुविहिरा ! सयाऽवि। भावेहि भावणाओ, बारराजिणंवराणदिवाओ॥५६६|| इह इत्तो चउरंगे, चउत्शमग सुसाहुधग्मंमि। बन्ने भावणाओ, वारशिमो वारसंगविऊ // 570 / / समणेण सावएण य, जाओ निचं पि भावणिजाओ। दढसंवेगकरीओ, विसेसओ उत्तमदगि / / 571 / / पढम अणिचभावं, असरण यं एगयं च अन्नत्तं / संसारमसुभयाऽविय, विविहं लोगस्सहावं च / / 572 / / कम्मरस आसवं संवरं च निजरणमुत्तमे य गुणे / जिणसासणामि यो हि, च दुल्लह चिंतए मइगं॥५७३।। राव्वट्ठाणाइ असा सयाइं इह चेव देवलोगे य। सुरअसुरनराईणं, रिद्धिविरोसा सुहाइ वा 1574|| मायापिईहिं सहतडिएहि मित्तेहिं पुत्तदारेहिं। एगयओ सहवासो, पीई पणओऽवि अ अणिचो // 575 / / भवणेहिं व वणेहि य, सयणाऽऽसणजाणवाहणाईहिं। संजोगो वि अणिचो, तह परलोगेहिं सह तेहिं / / 576 / / बलवीरियरूवजोव्वण, सामग्गिसुभगया वपूसोभा। देहस्स य आरुग्गं, असासयं जीवियं चेव / / 577 / / जम्मजरामरणभये, अभिवए विविहवाहिसंतत्ते / लोगम्मि नऽत्थि सरणं, जिणिंदवरसासणं मुत्तुं / / 578|| आसेहि य हत्थीहि य, पव्वयमित्तेहिँ निचमित्तेहिं / सावरणपहरणेहि य, बलवयमत्तेहिं जोहेहिं / / 576 / / महया भडचडगरपह-करेण अवि चक्कवट्टिणा मच्चू / न य जियपुव्वो केणऽइ, नीइबलेणाऽवि लोगंभि // 580 / / विविहेहि मंगलेहि य, विज्जामंतोसहीपओगेहिं। न वि सक्का तारेउं, मरणाणऽविरुण्णसोएहिं / / 581 // पुत्ता मित्ताय पिया, सयणो बंधवजणो अ अत्थो य! न समत्था ताएउं, मरणा सिंदाऽवि देवगणा / / 5821 // सयणस्स य मज्झगओ, रोगामिहओ किलिस्सइ इहेगी। सयणोऽवि य से रोगं, न विरिंचइ नेव नासेइ!।५८३।। मज्झमि बंधवाणं, इक्को मरइ कलुणरुयंताणं / न यणं अनेति तओ, बंधुजणो नेव दाराइं॥५८४|| इको करेड़ कम्म, फलमवि तस्सेक्कओ समणुहवई। इक्को जायइ मरइ य, परलोयं इक्कओ जाइ / / 585|| पत्तेयं पत्तेयं, नियगं कम्मफलमणुहवंताणं / कोकस्स जए सयणो? को कस्सव परजणो भणिओ? 586 / को केण समं जायइ, को केण समं च परभवं जाइ। को वा करेइ किंची, कस्स व को कं नियत्तेइ ? ||17|| अणुसोअइ अण्णजणं, अन्नभवं तरगयं तु बालजणो। न वि सोयइ अप्पाणं, किलिस्समाणं भवसमुद्दे / / 588|| अन्नं इमं सरीरं, अन्नोऽहं बंधवाऽविमे अन्ने। एवं नाऊण खमं, कुसलस्स न तं खमं काउं? // 586 // हा! जह मोहियमइणा, सुग्गइमग्गं अजाणमाणेणं / भीमे भवकंतारे, सुचिरं भमियं भयकरम्मि // 560 / / जोणिसयसहस्सेसु य, असयं जायं मयं वऽणेगासु / संजोगविप्पओगा, पत्ता दुक्खाणि य बहूणि // 561|| सग्गेसु य नरगेसु य, माणुस्से तह तिरिक्खजोणीसुं। जायं मयं च बहुसो, संसारे संसरंतेणं // 562 / / निन्भत्थणाऽवमाणण, वहबंधणरुंधणा घणविणासे। ऽणेगा य रोगसोगा, पत्ता जाईसहस्सेसुं // 563 / / सो नऽत्थि इहोगा सो,लोए वालऽग्गकोडिमित्तो वि। जम्मणमरणाऽबाहा, अणेगसो जत्थ न य पत्ता ||564|| सव्वाणि सव्वलोए, रूवीदव्वाणि पत्तपुव्वाणि / देहोवक्खरपरिभो-गयाइ दुक्खेसु य बहूसुं / / 565|| संबंधिबंधवत्ते, सव्वे जीवा अणेगसो मज्झं। विविहवहवेरजणया, दासासामी य मे आसी।।५६६|| लोगसहावो धी धी, जत्थ व मायामया हवइ घूया। पुत्तोऽविय होइ पिया, पियाऽवि पुत्तत्तणमुवेइ // 567|| जत्थ पियपुत्तगस्सऽवि, माया छाया भवंतरगयस्स। तुट्ठा खायइ मंसं, इत्तो किं कट्ठयरमन्नं ? ||568|| धी संसारोजहियं, जुवाणओ परमरूवगव्वियओ। मरिऊण जायइ किमी, तत्थेव कलेवरे नियए / / 566| बहुसो अणुभूयाई, अईयकालम्मि सव्वदुक्खाई। /
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________________ मरण 146 - अभिधानराजेन्द्रः .. भाग, - पाविहिइ पुणो दुक्खं, न करेहिइ जो जणो धम्मं // 600 / / धम्मेण विणा जिणदे-सिएण नन्नत्थ अस्थि किंचि सुह। ठाणं वा कजं वा, सदेवमणुयाऽसुरे लोए / / 601 / / धम्म अत्थं कामं, जाणिय कज्जाणि तिन्नि मिच्छति / जं तत्थ धम्मकजं, तं सुभमियराणि असुभाणि // 602 / / आयासकिलेसाणं, वेराणं आगरो भयकरो य। बहुदुक्खदुग्गइकरो, अत्थो मूलं अणत्थाण // 603|| किच्छाहिँ पाविउं जे, पत्ता बहुभयकिलेसदोसकरा। तक्खणसुहा बहुदुहा, संसारविवड्डणा कणा // 604 / / नऽस्थि य इह संसारे, ठाणं किं चिऽवि निरुवद्दयं नाम / ससुराऽसुरेसु मणुए, नरएसु तिरिक्खजोणीसुं // 605 / / बहुदुक्खपीलियाणं, मइमूढाणं अणप्पवसगाणं / तिरियाणं नऽत्थि सुह, नेरइयाणं कओ? चेव // 606 / / हयगब्भवासजम्मण-वाहिजरामरणरोगसोगेहिं / अभिभूए माणुस्से, बहुदोसेहिं न सुहमत्थि / / 307 / / मंसऽट्टियसंघाए, मुत्तपुरिसभरिये नवच्छिद्दे। असुई परिस्सवंते, सुहं सरीरम्मि किं ? अत्थि // 605|| इट्ठजणविप्पओगो, चवणभयं चेव देवलोगाओ। एयारिसाणि सग्गे, देवाऽवि दुहाणि पाविति // 606 / / ईसाविसायमको-हलोहदोसहिँ एवमाईहिं। देवाऽवि समामिभूया, तेसु वि य कहं? सुहं अस्थि // 650|| एरिसयदोसपुण्णे, खुत्तो संसारसायरे जीवो। जं अइचिरं किलिस्सइ, तं आसवहेउअंसव्वं / / 651 / / रागद्दोसपमत्तो, इंदियवसओ करेइ कम्माई। आसवदारेहिँ अवि-गुहेहिँ तिविहेण करणेणं // 612 // धिद्धी मोहो जेणिह, हियकामो खलु सपावमायरइ / नहु पावं हवइ हियं, विसं जहा जीवियऽत्थिस्स // 613 / / रागस्स य दोसस्स य, घिरत्थु जं नाम सद्दहंतो वि। पावेसु कुणइ भावं, आउरविज्ज व्व अहिएसुं // 614|| लोभेण अहव घत्थो, कजं न गणइ आयअहियं पि / अइलोहेण विणस्सइ, मच्छु व्व जहा गलंगिलिओ // 615 / / धम्मं अत्थं कामं, तिपिणऽवि वुद्धो जणो परिचयइ। ताई करेइ जेहि उ, किलस्सई इह परभवे य / / 616 / / हुति अजुत्तस्स विणा-सगाणि पंचिंदियाणि पुरिसस्स। उरगा इव उग्गविसा, रहिया मंतोसहिं विणा / / 617 / / आसवदारेहिँ सया, हिंसाईएहिं कम्ममासवइ / जह नावाइविणासे, छिद्देहिं जलं उयहिमज्झे / / 618 // कम्माऽऽसवदाराई, निरुभियव्वाइँ इंदियाइं च / हंतव्वा य कसाया, तिविहं तिविहेण मुक्खत्थं / / 616 / / निग्गहियकसाएहिं, आसवा मूलओ हया हुंति। अहियाऽऽहारे मुके, रोगा इव आउरजस्स !!6 ! नाणेण य झाण य, तवोबलेण य बलानिमंति इंदियविसयकसाया, धरिया तुरगाव रहिं / / 621 // हुति गुणकारगाई, सुयरतहिं धणियं नियमियाई / निथगाणि इंदियाई, जइणो तुरगा इव सुदंता // 62 / / भणवयणकायजोगा,जे मणिया करणसण्णिया तिण्णि। ते जुत्तस्स गुणकरा. हुंति अजुत्तस्स दोसकरा // 6231 जो सम्म भूयाई, पास भूए य अध्यभूए य। कम्ममलेण न लिप्पड़, सो संवरियासवदुवारी / / 624. धण्णा सत्तहियाई, सुणति धण्णा करंति सुणियाई। धण्णा सुग्गइमग्गं, मरंति घण्णा गया सिद्धि / / 625 / / धण्णा कलत्तनियले-हिँ विप्पमुक्का सुसत्तसंजुत्ता। वारीओव गयवरा, घरवारीओऽवि निम्फिडिया।।६२६।। धण्णा उ करेंति तवं, संजमजेगेहि कम्ममढविहं। तवसलिलेणं मुणिणो, धुणंति पोराणयं कम्मं // 627 / / नाणमयवायसहिओ, सीलुञ्जलिओ तवोमओ अग्गी। संसारकरणबीयं, दहइ दवग्गी व तणरासिं॥६२८।। इणमो सुगइगइपहो, सुदेसिउं उक्खओ जिणवरेहि। ते धन्ना जे एयं पह भगवखं पवजंति ||629 / / जाहे य पावियव्वं, इह परलोए य होइ कल्ला ता एवं जिणकहियं, पडिवाइ भावओ धम्म // 13 // जह जह दोसोवरओ, जह जह विसएसु होइ वेरमा / तह तह वियाणयाहि, आसन्नं से पयं परमं / 631 // दुग्गो भवकतारे, भममाणेहिं सुचिरं पण?हिं / दिट्ठो जिणोवइट्ठो, सुगइमग्गो कह वि लद्धो // 6321 माणुस्सदेसकुलका-लजाइइंदियबलोवयाणं च / विन्नाणं सद्धादसणं च दुलहं सुसाहूण // 633 / / पत्तेसु वि एएसुं, मोहस्सुदरण दुल्लहों सुपहो। कुपहबहुयत्तेण य, विसयसुहेणं च लोभेणं / / 634 / / सो य पहो उवलद्धो, जस्स जए बाहिरे जणो बहुओ। संपत्तिचिय न चिरं, तम्हा न खमी पभाओ भे६३ जह जह दढप्पइण्णो, समणो वेरगभावणं कुण। तह तह असुभं आयव-हयं व सीय ख्यमुवेइ 1636 एगअहोरत्तेणऽविदढपरिणामा अणुत्तरं जति। कंडरिओ पुंडरिओ, अहगईउड्डगभणेसुं॥६३७।। बारसऽविभावणाओ, एवं संखेवओ सभत्ताओ। भावेमाणो जीवो, जाओ सभुवेइ वे रग्गं / 638|| भाविज भावणाओ, पालिज्ज वयाई रयणसरिसाई। पडिपुण्णपावखमणे, अइरा सिद्धिं पि पावहिसि / / 636 / / कत्थइ सुहं सुरसम, कत्थई निरओवमं हवइ दुक्खं /
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________________ मरण 150 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मरण. कत्थइ तिरियसरिच्छं,माणुसजाई बहुविचित्ता॥६४०॥ एयं मरणविभत्तिं, मरणविसोहिं च नाम गुणरयणं / दणऽवि अप्पसुहं, माणुस्संगदोससंजुत्तं / मरणसमाहीतइयं, संलेहणसुयं चउत्थं च // 661 / / सुदऽवि हियमुवइडं, कजं न मुणेइ मूढजणो॥६४१|| पंचम भत्तपरिणा, छटुं आउरपञ्चक्खाणं च / जह नाम पट्टणगओ, संते मुल्लंमि मूढभावेणं / सत्तम महपचक्खाणं, अट्ठम आराहणपइण्णो // 662 / / न लहंति नरा लाहं, माणुसभावं तहा पत्ता / / 642 / / इमाओ अट्ट सुयाओ, भावा उ गहियंमि लेस अत्थाओ। संपत्ते बलविरिए, सब्भावपरिक्खणं अजाणता। मरणविभत्तीरइयं, बियनाम मरणसमाहिं च / / 663 / / न लहंति बोहिलाभ, दुग्गइमग्गं च पावंति // 643|| इति सिरिमरणविभत्तीपइण्णयं संमत्तं // 8 // अम्मापियरो भाया, भजा पुत्ता सरीर अत्थो य। द०प०१० प्रक०। (केन प्रकारेण म्रियमाणो जीवो वर्धते हापयति भवसागरंम्मि घोरे, म हुँति ताणं च सरणं च // 644 // चेति 'खंदग' शब्दे तृतीयभागे गतम्)। (न केचिदकाले नियन्ते, इति नऽवि माया नऽविय पिया, न पुत्तदारा न चेव बंधुजणो। हिंसा न दोषावहेति 'हिंसा' शब्दे निराकरिष्यते) न वि य धणं न वि धनं, दुक्खमुइन्नं उवसर्मेति // 645|| चोद्दसरजूलोए, गोयम ! बालऽग्गकोडिमित्तं पि। जइयासयणिजगओ, दुक्खत्तो सयणबंधुपरिहीणो। तं नऽत्थिपएसं जत्थ, अणंतमरणे न संपत्ते // 1 // उव्वत्तइ परियत्तइ, उरगो जह अग्गिमज्झम्मि॥६४६|| महा०५ अ०॥ असुइ सरीरं रोगा, जम्मणसयसाहणं छुहा तण्हा। ण य संसारंमि सुहं, जाइजरामरणदुक्खगहियस्स। उण्हं सीयं वाओ-पहाभिघाया यऽणेगविहा॥६४७।। जीवस्स अत्थि जम्हा, तम्हा मोक्खो उवाएउ ||1|| सोगजरामरणाइं, परिस्समोदीणयाय दारिहं। महा०६ अ०। (मरणभेदाः "भरणविभत्ति" शब्दे) तह य पियविप्पओगा, अप्पियजणसंपओगाय॥६७६|| मरणंत पुं० (मरणान्त) मरणरूपोऽन्तो मरणात्नः / स०३२ सम० / एयाणि य अण्णाणि य, माणुस्से बहुविहाणि दुक्खाणि। यावच्चरमोच्छवासः / ध०२ अधि० / चरमकाले, दश०५ अ०२ उ०। पचक्खं पिक्खंतो, को न मरइ तं विचिंतंतो? // 646 / / "मरणते वीति" (36 गाथायाः व्याख्या 'मन' शब्दे गता) लभ्रूण वि माणुस्सं, सुदुल्लहं केइ कम्मदोसेणं / मरणकाल पुं० (मरणकाल) मरणेन विशिष्टः कालो मरणकालः / सायासुहमणुरत्ता, मरणसमुद्देऽवगाहिंति // 650 / / अद्धकालज एव, मरणमेव वा कालो, मरणस्य कालपर्यायत्वान्मतेण उ इहलोगसुहं, मुत्तूणं माणसंसियमईओ। रणकालः। तृतीये कालभेदे, भ०। विरतिक्खमणभीरू, लोगसुइकरण दोगुंछी // 651 / / से किं तं मरणकाल ? मरणकाले दुविहे पण्णत्ते / तं दारिहदुक्खवेयण, बहुविहसीउण्हखुप्पिवासाणं। जहा-जीवो वा सरीराउ / सरीरं वा जीवाउ / सेत्तं अरइभयसोगसामिय-तक्करदुभिक्खमरणाइं॥६५२|| मरणकाले (सूत्र-२४४) एएसिं तु दुहाणं जं पडिवक्खं सुहंति तं लोए। (जीवो वा सरीरेत्यादि)जीवो वा शरीरात्, शरीरं वा जीवात् वियुज्यत जं पुण अचंतसुहं, तस्स परुक्खा सया लोया / / 653 / / इति शेषः / श्रीशब्दौ शरीरजीवयोरवधिभावस्येच्छानु-सारिता जस्स न छुहान तण्हा, न य सीउएहं न दुक्खमुक्टुिं / प्रतिपादनार्थाविति। भ०११ श०११ उ०। नय असुइयं सरीरं, तस्सऽसणाईसु किं कजं? // 65 // | मरणंजयज्झवसियन०(मरणजयाध्यवसित) सुभटभावतुल्ये, मर्त्तव्यं जह निंबदुमुप्पन्नो, कीडो कडुयंऽपि मन्नए महुरं। वा जयो वा प्राप्तव्य इति प्रवृत्तसवुभटाध्यवसायसदृशे, (गाथा-५२०) तह मुक्खसुहपरुक्खा , संसारदुहं सुहं बिंति॥६५५।। पं०व०२ द्वार। जे कडुयदुमुप्पन्ना कीडा, वरकप्पपायवपरुक्खा। मरणदुक्खपडिकूल पुं० (मरणदुःखप्रतिकूल) मरणलक्षणस्य दुःखस्य, तेसिं विसालवल्ली, विसं व सग्गो य मुक्खो य / / 656|| मरणदुःखयोर्वा प्रतिकूलाः प्रतिपन्थिनः / मरणक्लेशपरिपन्थिषु, तह परतित्थियकीडा, विसयविसंकुरविमूढदिट्ठीया। प्रश्न०१आश्र० द्वार। जिणसासणकप्पतरु-वरपारुक्खरसा किलिस्संति / / 657 / / मरणदेसकाल पुं० (मरणदेशकाल) मरणप्रस्तावे, (गाथा-११) तं०। तम्हा सुक्खमहातरु,सासयसिवफलयसुक्खसत्तेणं। (व्याख्या 'धम्म' शब्दे चतुर्थभागे गता) मुत्तूण लोगसण्णं, पंडियमरणेण परियध्वं // 658 / / मरणमय न० (मरणभय) मरणमायुष्कक्षयलक्षणं तदेव भयं मरणभयम्। जिणमयभाविअचित्तो, लोगसुई मलविरेयणं काउं। भयस्थानभेदे, (सूत्र-७) स०६ सम० स्था०। धम॑मि तओझाणे, सुक्के य मई निवेसह // 656 / / मरणविभत्ति स्त्री० (मरणविभक्ति) मरणानि-प्राणत्यागलक्षणानि / तानि च सुणह-जह जिणवयणाम-य भावियहियएण झाणवावारो। द्विधा-प्रशस्तानि अप्रशस्तानि च / तेषां विभजनपार्थक्येन स्वरूपप्रकटनं करणिओ समणेणं,जं झाणं जेसु झायव्वं // 660 // यस्यांग्रन्थपद्धतौसामरणविभक्तिः।नं० आगमबाह्योत्कालिकद्वार्विशेश्रुतभेदे,
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________________ मरणविभक्ति 151 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मरी 'मरणविभत्ति त्ति'' मरणानि-प्राणत्यागलक्षणानि अनुसमयादीनि | (अत्र विशेषः ''आसंसप्पओग'' शब्द) वर्त्तन्ते यत्र- यथोक्तम् मरणास स्त्री० (भरणाशा) कस्यांचिदवस्थायां मरणप्राप्तिसंभावनयाम, "आवीइ 1 ओहि 2 अंतिय 3 वलयमरणं 5 वसट्टमरणं च 5 / (सूत्र-४४६) भ०१२ श०५ उ०। अन्तोसल्ल 6 तब्भव 7 बालं 8 तह पंडियं मीसं 10 / / 1 / / छउमत्थ- मरमाण त्रि० (मियमाण) प्राणास्त्यजति, भ०१८ श०३ 30 / मरण 11 केवलि १२-वेहाणस 13 गिद्धिपट्ठमरणं च 14 / मरणं मरहट्ठ पुं० (महराष्ट्र)"महाराष्ट्र" |||1 / 66 / / इति सूत्रान्महाराष्ट्रभत्तपरिण्णा १५-इजिणि 16 पाओवगमणं च 17 / 2 / " तत्राऽवीचि- शब्दे आदेराकरास्याद्वा भवति / मरहट्टा मरहट्ठा। प्रा०१ पाद: गरणम् आसमन्ताद्वीचय इव वीचयः प्रतिसमय मनुभूयमानायुषोऽपराऽ- "महाराष्ट्र हरोः" ||8/2 / 116 // महाराष्ट्रशब्दे हरोय॑र्त्ययो भवति / परायुर्दलिकोदयात् पूर्वपूर्वायुर्दलिकविच्युतिलक्षणवस्था यस्मिन् मरहट्ठ / प्रा०२ पाद / नर्मदायाः दक्षिणे कावेयाश्चोत्तरे देशभेदे, स तदावीचिमरणम् / अथवा-श्रीधिविच्छेदस्तदभावादवीचिस्तल्लक्षणं चानार्यदेशत्वेन परिगणितः (सूत्र-४) प्रश्न०१ आश्र० द्वार। मरणमवीचिमरणम्। ओहि त्ति' अवधिमरणम्, अवधिर्मर्यादा, ततश्च | मराल पुं० (मराल) हसे, "ज्ञानी निमज्जति ज्ञाने, मराल इव मानस हानि नारकादिभवनिबन्धनतयाऽऽयुः कर्मदलिकान्यनुभूय मियते, श्लोक-(१) अष्ट 5 अष्ट। आव०। जडे, "मसिणं सणिअंम8, मद यदि पुनः तान्येवानुभूय मरिष्यति तदा तदवधिमरणम्। सं भवति हि- अलसं जड मरालंचाखेलनिहुअंसइरं, वीसत्थं मंथर थिमि॥१३॥" गृहीतोज्झितानामपि का दलिकानां पुनर्ग्रहणं परिणामवैचित्र्यादिति। पाइ० ना०१५ गाथा। हंसे, "धयरद्धा कायम्बहंसा धवलसउणा मराला "अतिय ति" आत्यान्तिकमरणम्यानि नारकाद्यायुष्कतया कर्मदलि- य" पाइ० ना०५६ गाथा। कान्यनुभूय मियते. मृतो वा न पुनस्तान्यनुभूय मरिष्यतीति।। मरालि पुं० (मरालि) मियत इव शकटाऽऽदौ योजितो राति च ददाति बलवन्मरण-वशार्त्तमरणस्वरूपं यथा लतादि लीयते च भुवि पराननेति मरालिः। गाथा (सूत्र 4) दुष्टपशी 'संजमजोगविसन्ना, मरन्ति जे तं वलायमरणं तु 4 / गवि, अश्वेचा उत्त०१ अ०। इंदियविसयवसगया, मरन्ति जे तं वसट्टतु 5 // 5 // " मराली (देशी) सारसी-दूती-सखीषु दे० ना०६ वर्ग०१४२ गाथा अन्तःशल्यमरणस्वरूपं यथा मरिउं अव्व० (मृत्वा) मृति आसेव्य इत्यर्थे, (गाथा-४२) पञ्चा.१५ 'लजाए गारवेण य, बहुसुयमएण वावि दुचरियं। विव०। ज न कहान्त गुरूण, न हु ते आराहगा होन्ति // 1 // मर्तुम् अव्य० मारणं कर्तुमित्यर्थ, तं० / गारवपङ्कनिबुड्डा, अइयारं जे परस्स न कहिन्ति। मरिएव्व न० (मर्तव्य)"तव्यस्य इएव्व उएवा' / / 6 / 4 / 438|| अपभ दराणनाणचरित्ते, ससल्लमरण हवइ तेसिं / / 2 / / तव्यप्रत्ययस्यैते आदेशाः स्युः / इति तव्यत इएव्वाऽऽदेशः। कर्तव्य एवं ससल्लमरणं, मरिऊणं महाभए दुरंतमि। प्राणत्यागे, 'एउ गृण्हेप्पिणु मई, जइ प्रिउ उव्वारिजइ। महु करिएव्वउं सुचिरं भमति जीवा, दीहे संसारकंतारे / / 3 / / -6 / / " किंपिणवि, मरिएव्वउं परं देवइ / प्रा०४ पाद। तद्भवरणस्वरूपमिदम् - मरिस धा० (मृष) मर्षण, "वृषादीनामरिः" ||8141235|| वृषाऽऽ"मोत्तुं अकम्मभूभग-नरतिरिए सुरगणे य णेरइए। दीना धातूनामृवर्णस्यारिरित्यादेशो भवति / भरिसइ / मृष्यता प्रा० पेसाण जीवाणं, तभवमरणं तु केसिंचि // 7 // पाद। तस्मिन्नेव भवे उत्पद्यमानानामिति भावना। मरीइपुं० (मरीचि) किरणे, आ०म०१ अ०रा०। औ० स्था। स01 अथ बालादिमरणसप्तकस्वरूपं यथा आ०चू०। सू०प्र०ा जं०। जातमात्रो मरीचिमु.क्तवानित्यतो मरीचिमान "अविरयमरणं बालं 8, मरणं विरयाण पण्डियं वेति / / मरीचिः। अभेदोपचारान्गतुपोलोपाद्वेति।आ०म०१०। मरीचिनाभके जाणाहि बालपण्डिय, मरण पुण देसविरयाणं 10||1|| भरतचक्रवर्तिपुत्रे, कल्प०१ अधि०२ क्षण। ऋषभपौत्रे, आ०म०१०। मणपज्जवोहिनाणी, सुयमइणाणी मरन्ति जे समणा। अह भणइ नरवरिंदो, तायइ मीसि त्ति आइपरिसाए। छउमस्थमरणमेयं 11, केवलिमरणं तु केवलिणो 12 / 2 / अन्नोऽवि कोऽवि होही, भरहे वासम्मि तित्थयरो।।४२२॥ गिद्धादिभक्खणं गिद्धपट 13 उब्बन्धणाइवेहासं 14 / अथ भणति नरवरेन्द्रो भरतः / तात! अस्या एतावत्या पर्षदो मध्यात् एए दुन्नि वि मरणा, कारणजाए अणुन्नाया।३।। अन्योऽपि-एकतरोऽपि कश्चिद्भविष्यति भारते वर्षे तीर्थकरः। पा०:(विशेषः स्वस्वस्थानादवगन्तव्यः) स्वाम्युक्तमाहमरणवसाण न० (मरणाऽवसान) प्राणवियोगसमये, विपा०१ श्रु०१०। तत्थ मरीई नाम, आइपरिव्वायगो उसभनत्ता। मरणाऽऽसंसप्पओग पुं० (मरणाशंसाप्रयोग) अपश्चिममारणान्ति- सज्झायझाणजुत्तो, एगते झायइमहप्पा / / 422 / / कसलेखनाया अतिचारभेदे, उपा०१ अ०। श्रा०ा आव० / कश्चित्क- तं दाएइ जिणिंदा, एव नरिंदेण पुच्छिओ संतो। कशक्षत्रे कृतानशनः प्रागुक्तपूजाद्यभावे क्षुधार्तो वा चिन्तयति, किमिति धम्मवरचक्कवट्टी, अपच्छिमो वीरनामु त्ति / / 423 / / शीघ्रं न मियेऽहमिति मरणाऽऽशंसाप्रयोगः / ध०२ अधि० / आव०। / तत्र समवसरण कदेशे मरीचिर्नाम आदिः प्रथमः परिवा
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________________ मरीइ 152 - अमिधानराजेन्द्रः- भाग 6 मरी जकः ऋषभस्य नप्ता-पौत्रः स्वाध्यायध्यानयुक्तः एकान्ते ध्यायति महात्मा तं दर्शयति जिनेन्द्रः / एवं नरेन्द्रेण पृष्टः सन् एष धर्मवरचक्रवर्ती अपश्चिमो वीरनामा भविष्यतीति शेषः / आ०म०१अ०। इदानीं प्रकृतां मरीचिवक्तव्यतां पृच्छतां कथयतीत्यादिना प्रतिपादयतिपुच्छंताण कहेई, उवट्ठिए देइ साहुणो सीसे। गेलनि अपडिअरणं, कविला इत्थं पि इहयं पि॥ 37 // गमनिका-पृच्छतां कथयति। उपस्थितान् ददाति साधुभ्यः शिष्यान् ग्लानत्वेऽप्रतिजागरणं कपिलः अत्राऽपि इहाऽपि / भावार्थः, स हि प्रागव्यावर्णितस्वरूपो मरीचिर्भगवति निर्वृते साधुभिः सह विहरन् पृच्छता लोकानां कथयति-धर्म जिनप्रणीतमेव धर्माक्षिप्तांश्च प्राणिन उपस्थितान् ददाति साधुभ्यः शिष्यानिति अन्यदा सगलानः संवृत्तः। साधवोऽप्यसंयतत्वान्न प्रतिजाग्रति। सचिन्तयति-निष्ठितार्थाः खल्वेते। नाऽसंयतस्य कुर्वन्ति, नापि ममैतत् कारयितुं युज्यते / तस्यात्कञ्चन पतिजागरकं दीक्षयामीति (आ०म०) (अनान्यद्वक्तव्यं 'कविल' शब्दे तृतीयभागे 387 पृष्ठे गतम्) मरीचिनाप्यनेन संसारोऽभिनिर्वर्तितः। त्रिपदीकाले चनीचैर्गोत्रकर्मबद्धमिति। अमुमेवार्थं प्रतिपादयन्नाहदुब्भासिएण इक्केण, मरीई दुक्खसायरं पत्तो। भमिओ कोडाकोडिं,सागरसरिनामधेनाणं // 435|| दुर्भाषितेन एकेनोक्तलक्षणेन मरीचिर्दुःखसागरं प्राप्तः। भ्रान्तः कोटीनां कोटी कोटिकोटी ताम् / केषामित्याह-(सागरसरिनामधेजाणं ति) सागरसदृशनामधेयानां सागरोपमानामिति गाथाऽर्थः / तम्मूलं संसारो, नीआगोत्तं च कासि तिवइंमि। अपडिशंतो बंभे, कविलो अंतद्धिओ कहए // 39 // तन्मूलं-दुर्भाषितमूलंसंसारः सञ्जातः तथा स एव नीचैर्गोत्रंच कृतवान् निष्पादितवान्, त्रिपद्यां प्राग्वर्णितस्वरूपायामिति / (अपडिकंतो बंभे त्ति) समरीचिश्चतुरशीतिपूर्यशतसहस्त्राणि सर्वायुष्कमनुपाल्य तस्मात् दुर्भाषिताद्- दुर्वाचा अप्रतिक्रान्तोऽनिवृत्तः ब्रह्मलोके दशसागरोपमस्थितिवः सञ्जात इति। आ०म०१०। (अत्र कपिलविषयकं वक्तव्यं 'कविलं' शब्दे तृतीयभागे 387 पृष्ठे गतम्) इक्खागेसु मरीई, चउरासीई अबंभलोगंमि। कोसिउ कुल्लागंमि, (गेसुं) असीइमाउंच संसारे // 44oll गमनिका-इक्ष्वाकुषुमरीचिरासीत्। चतुरशीतिंच पूर्वशतसहस्त्राण्यायुष्कं पालयित्वा' बंभलोयम्मि' ब्रह्मलोके कल्पे देवः संवृत्तः। ततश्चायुकक्षयाच्च्युत्त्वा (कोसिउकोल्लागेसुंति) कोल्लाकसन्निवेसे कौशिको नाम ब्राह्मणो बभूव / (असीतिमाउं च संसारे त्ति) स च तत्राशीति पूर्वशतसहस्त्राण्यायुष्कमनुपाल्य (संसारे त्ति) तिर्यग्ररनारकामरभवानुभूतिलक्षणे पर्यटित इति गाथार्थः। संसारे कियन्तमपि कालमटित्वा स्थूणायां नगर्या जात इति। अमुमेवार्थ'थूणा' इत्यादिना प्रतिपादयतिथूणाइ पूसमित्तो, आउं वावत्तरिं च सोहम्मे। चेइइ अग्गिोओ, चोवट्ठीसाणकप्पंमि॥४१॥ स्थूणाया नगर्यां पुष्पमित्रो नाम ब्राह्मणः संजातः (आउंबावत्तरिच सोहमे त्ति) तस्यायुष्कं द्विसप्ततिः पूर्वशतसहस्राण्यासीत्। परिव्राजकदर्शने च प्रव्रज्यां गृहीत्वा तां पाल यित्वा कियन्तमपि कालं स्थित्वा सौधर्मे कल्पेऽजघन्योत्कृष्टस्थितिः समुत्पन्न इति। ('चेइयअग्गिजोओ चोवट्ठी साणकप्पम्मि' त्ति) सौधर्मच्युतः चैत्यसन्निवेशे अग्निद्योतो ब्राह्मणः सञ्जातः तत्र चतुःषष्टिपूर्वशतसहस्त्राण्यायुष्कमासीत् / परिव्राट् च सञ्जातो मृत्वा च ईशाने देवोऽजघन्योत्कृष्टस्थितिः संवृत्त इति गाथाऽर्थः। मंदिरे अग्गिभूह, छप्पणा उसणंकुमारंमि। सेअवि भारद्वाओ, चोआलीसंच माहिंदे।।४४२|| गमनिका-ईशानात् च्युतो (मंदिरे इति) मन्दिरसन्निवेशे अग्निभूतिनामा ब्राह्मणो बभूव। तत्र षट्पञ्चाशत्पूर्वशतसहस्त्राणि जीवितमासीत्। परिव्राजकश्च बभूव / मृत्वा (सणंकुमारम्मि त्ति) सनत्कुमारे कल्पे विमध्यमस्थितिर्देवः समुत्पन्न इति (सेअविभारद्वाए चोथालीसंचमाहिंदे त्ति) सनत्कुमारा च्च्युतः श्वेताम्ब्यां नगर्यां भारद्वाजो नामब्राह्मण उत्पन्न इति / तत्र च चतुश्चत्वारिंशत् पूर्वशतसहस्त्राणि जीवितमासीत् / परिव्राजकश्चाभवत्, मृत्वा च माहेन्द्रे कल्पेऽजघन्योत्कृष्टस्थितिर्देवो बभूवेति गाथार्थः। संसरिअथावरो रामगिहे चउतीस बंभलोगंमि। छस्सु वि पारिट्वझं, भमिओ तत्तो असंसारे / / 43|| गमनिका-माहेन्द्राच्च्युत्त्वा, संसृत्य कियन्तमपि कालं संसारे, ततः स्थावरो नाम ब्राह्मणो राजगृहे समुत्पन्न इति / तत्र च चतुस्त्रिंशत् पूर्वशतसहस्त्राण्यायुष्कंपरिव्राजक आसीत्। मृत्वाच ब्रह्मलोकेऽजघन्योस्कृष्टस्थितिर्देवः संजातः / एवं षट्स्वपि वारासुपरिव्राजकत्वमधिकृत्य दिवमवाप्तवान् (भमिओ तत्तो असंसारे) ततः बृह्मलोकाच्च्युत्त्वा भ्रान्तः संसारे प्रभूतं कालमिति गाथार्थः / रायगिह विस्सनंदी, विसाहभूई अतस्स जुवराया। जुवरण्णो विस्सभूई, विसाहनंदी अ इअरस्स // 444|| रायगिह विस्सभूई, विसाहभूइसुओ खत्तिए कोडी। वाससहस्सं दिक्खा, संभूअजइस्स पासंमि।।४४५|| भावार्थः खल्वस्य गाथाद्वयस्य कथानकादवसेयः। तच्चेदम् - "रायगिहे नगरे विस्सनंदीराया। तस्स भाया विसाहभूती। सोय जुवराया। तस्स जुवरण्णो धारिणीए देवीए विस्सभूतीनाम पुत्तो जाओ। रणोऽवि पुत्तो विसाहनंदित्ति। तस्स विस्सभूतिस्स वासकोडी आऊ। तत्थ पुप्फकरंडकं नाम उजाणं / तत्थ सो विस्सभूती अंतेउरवरगतो सच्छंदसुहं पवियरइ / ततो जा सा विसाहनंदिस्स माया तीसे दासचेडीओ
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________________ मरीइ 153 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मरी पुप्फकरडा उजाण पत्ताणि पुप्फाणि य आणे ति। पेचति य तिर सभूति कीडत। तासि अम्गरसो जाओ। ताहे साहति जहा-एवं कुभारो ललइ। कि अम्हरजेण वा वलेण वा जइ विसानंदी न भुजइ एवं विहे भोए। अम्ह नाम चेव। रज पुण जुवरन्नो पुत्तरस जस्सेरिस ललिय ! सा तासिं अंतिए / सोउं देवी ईसाए कोवघर पविट्ठा। जइ ताव रायाणाए जीवत। एसा अवत्था जाहे राया मतो भविस्सइ ताहे इत्थ अम्हे को गणेहि नि ? राया गइ। सा पसायं न गिण्हइ किं मे रजेण तुमे वत्ति / पच्छा तेण अमञ्चर-स रिपई। त हे अमचो वितं गमेति तह विन ठाइ। ताहे अमचो भणइ -रारामा देवीए वरणातिकमो कीरउ / मा मारेहिइ अप्पाणं / राया भणति को उनाओ हाजा।णय अम्हं वसे अन्नम्मि अभिगते उखाणे अपणो अतीति / मन्थ वसतमा लिओ। मासं जेसु अच्छइ। अमञ्चो भणइ. उवाआ कनइ जहा अमुगो पच्चतराया उक्कट्ठी अणजंता पुरिसा कूडलेहे उवणेतुश्वमताण कयगेण क्डलेहा रना उवट्ठाविया / ताहे राया जत्त गिण्हइ सं विस्सभतिणा नुय / ताहे भणति। मए जीवमाणे तुडभे किं निम्मच्छह ? ताहे सो "ओ। तहे चेव इमो अइयओ! सो गओ। तं पञ्चतंजाव न किं चिपेच्छइ अहुमरं / ताहे आहिंडित्ता जाहे नस्थि कोई अतिकमई। ताहे पुणरवि पुप्फकर इयं उजाणमागओ। तत्थ दारवालादंडगहि अग्गहत्या भमतिमा अईहा सामी : सो भणति / किं निमित्त / एत्थ विसाहनदी कुमारो रमइ / ततो एय सोऊण कुविओ विस्सभूई। तेण नायं कण अहं निग्गच्छाविओ ति / तत्थ कविठ्ठलता अणेगफलभरसमोणया सा मुट्ठिप्पहारेण आहया। ताहे तेहिं कवि?हिं भूमी अत्थुया। तो भणति-एवं अहं तुभ सीसाणि पाडितो। जइ अहं महल्लपिउणो गोरवं न करेंतो। अहं मे उम्मेण नीणिओ। तम्हा अलाहि भोगेहिं / तओ निगआ भोगा अवमाणमूलं ति। अजसंभूयाणं थेराण अंतिए पव्यइओ। तपाइयं साउ ताहे रावा संतेउरपरियणो जुवराया य निग्गओ। ते तं खमाति। ण य तेसिं सा आणात गेण्हइ / ततो बहुहिं छट्टऽट्ठमा दिएहिं अप्पाणं भावमाणो दिहरति / एवं सो विहरमाणो महुरं नगरि गओ। इओ य विसाहनंदी कुमारो तत्थ महुराए पिउच्छाए रन्नो अग्गमहिसीए धूया लद्धेल्लिया। तत्थ स रायमग्गेआवासो दिनो। सो य विस्सभूती अणगारो मासखमणपाणगे हिंडतो त पएसमागते जत्थ ठाणे विसाहनदी कुमारो अत्यइताहे तस्स पुरिसेहिं कुमारो भण्णइ / सामि ! तुभे एयं न याणह? सोभणति / न याणामि / तेहि भणइ। एस सो विस्सभूती कुमारो / सतो तस्स दिसण रोसो जाओ। एत्थंतरे सूइयाए गावीए पेल्लिओपडिओ। लाहे तहिं उकुटिकलयलो कओ। इमं च तेहिं भणिय / तं बलं तुम्भ कविट्टपाडणं च कहिं गयं ? ताहे तेण ततो पलोइयं दिहो य णेण सो / पावो / ताहे अमरिसेणं तं गाविं अग्गसिंगेहिं गहाय उड्ड स वहति / सुदुव्बलस्स वि सिंघरस किं सियालेहिं लंधिज्जइ ? ताहे चेव नियत्नो इमो दुरप्पण अज्ज वि मम रोसं वहइ / ताहे सो नियाण करेइ / जइ इमस्स तवनियमस्स बंभचेरस्स फलमत्थि तो आगमेसाणं अपरिमियबलो भवामि। तत्थ सो अणालोइयपडिक्कतो महासुक्के उववण्णो / तत्थुक्कोसटि तीओ देवो हातो। ततो चइऊण पोपणपुरे णगरे पुत्तो पयावइस्स | मिगावईए देवीए कुच्छिसि उपवण्णो / तस्स कहं पयावती नाम ? तस्स पुव्विं रिउसत्तु ति नाम होत्था। तस्स भद्दाए देवीए अन्नए अयले नाम कुमारे होत्था। तस्य य अयलस्स भगिणी मियावती नाम दारिया अतीय रूवलती। सा य उम्मुक्कबालभावा सव्वालंकारविभूसिया पिउपायबंदिर गरा लेगा सा उच्छंगे निवेसिया, सो तीसे रूवे जोव्वणे य अगफासे य भूचि भी। तं विसज्जेत्ता पउरजणवयं वाहरइ। ताहे भणई। जं एत्थ रयण उपजइ त कस्रा? ते भणति-तुब्भं एवं तिन्नि वारा साहिते सा चेडी उवद्राविया / ताहे लज्जिया निग्गया तेसि सब्वेसि कुल्माणाणं गधव्वेण विवाहण सयमेव विवाहिया / उप्पाइयाणणं भारिया / सा भद्दापुत्तेण अयलेण सभ दक्खिणापहे माहेस्सिरि पुरि निवेसेइ, महंतीए इस्सरीए कारिअनि माहेर सरी, अयले मायं ठवेऊण पिउमूलमागओ। ताहे लोएण फ्यावतीनाम कयं / पयाअणेण पडिवण्णा पयावति त्ति' / वेदेऽप्युक्तम् ''प्रजापतिः स्वां दुहितरमकामयत्' / ताहे महामुक्काओ डइऊणं तीए मियावतीए कुच्छिसि उववण्णो / सत्त सुविणा दिट्ठा। सुमिणपाटगेहिं पढमवासुदेवो आइट्ठोकालेण जातो तिणि य से पिट्ठकरंडा ति तिविद्ध नाम कयं / मायाए परिमक्खिओ उण्हतेल्लेणति जोव्वमगमणुप्पत्तो / इतो य महामंडलिओ आसग्गी राया। सो निमित्तियं पुच्छइ / कतो म्भ भयं ति? तण भणिय जो चंडमेहं दूय आधरिसहि ति। अवरते य महावलग मारेसीह ति। ततो ते भयं ति। तेण सुयं जहा पयावतिपुत्ता महाबलगा। ताहे तत्थ दूयं पेसेइ,तत्थ अतेउरपेच्छणय वट्टइ, तत्थ य दूतो पविट्ठो राया उढिओ। पेच्छयण भग कुमारा पेच्छगेण अक्खित्ता भणंति। को एस ? तेहिं भणियं जहा आसग्गीवरण्णो दूओ। ते भणति / जाह एस वचेला ताहे कहेलाह। सो राइणा पूएऊण विसजिआ। पधाविओ अधणो विसयरा कहिय कुमाराण / तेहिं गतूण अद्धपहे हओ। तस्स जे सहाया ते सव्ये दिगो दिसि पलाया। रण्णा सुयं जहा आधरिसिओ दूर, संभलेगा निपत्तिओ। ताहं रण्णा विउमा तिउणं दाऊण मा हु रणो साहिनसुज कुमारेहि कयं / तेण भणिय न साहेमि / ताहे जे ते पुरओ गया तहिं सिट्ट जहा आधरिसिओ दूओ। ताहे सो राया कुविओ। तेण दूरण नायं / जहा-रन्नो पुत्वं कहिएल्लय। जहावत्तं सिट्ट। तता आसग्गीवेण अन्नो दूओ पेसिओ / पचपयावई गतूण भणाहि-मम सालिं रक्खहि भविखज्जमाण / गतो दूओ। रन्ना कुमारा उवलद्धा / किह अकालमचू खवलिओ' / तेण आम्हे आवारए चेव जत्ता आणत्ता। राया पहाविओ। ते भणति-अम्हे वच्चामो। ते रुभता मड्डाए गता। गंतूण खेत्तिए भणंति। किह अन्ने रायाणो रक्खियाइया। ते भणति-आसहत्थिरहपुरिसपागारं काऊण केचिरं जाव करिसणं पविट्ठ। ति वियू भणति-कोएयचिरमच्छइ ? ममतं पएस दरिसेहातहि कहियं-एयाए गुहाए ताहे कुमारो रहेण तंगुहं पविट्टो लोगण दोहिं विपासेहिं कलयलो कओ। सीहो वियंभंतो निग्गओ। कुमारो चितेइएस पादेहि अह रहेण। विसरिसं जुद्ध असिखेड़गहत्थो रहाओ ओइन्नो। लाहे पुणो विचितेइ-एस दाढाणखायुद्धो अहमसिखेडगेण / एवमवि अ बलात् - 2 आमन्त्रितः-३ तिष्ठति।
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________________ मरण 154 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मरण समजस। तप अणण असिखडग छड्डियं। सीहरस समरिरगे जाओ एण ताह रहेण गुहमतिगतो एगानी, वितियं भूमि ओ इण्णो, ललिय आयहाण विमुक्काणि अद्रण विणिवाएभि वयणेण त्ति-महया अवदालिएणं उत्कंद काऊण संपत्तो / महया ताहे कुमारेण एगेण हत्थेण उवरिल्लो ओट्टा एगेण हडिल्ला गहिओ। तओ तेण हुण्णपडगा विव दुहा काऊण भुको। साहे लोगेण उछिट्टकलयलो कओ। अहासन्निहियाए देवयाए आभरणवत्थकुसुमवरिसंवरिसिय। ताहे सीहो तेण अमरिसेण फुरफुरेतो अच्छर / एवं नान अहं कुमारएण जुद्धेण मारिओ ति। न च किर कालं मवा गौयमसानी रहसारही आसी। तेण भाणति-गा तुम अमरिसं वहाहि: स नरसीहा तुमं नियाधिवो / सा जति सीहो सीहेमा मारिओ को एत्य विमाणो / नाणि यो वयमणि मधुमित पियति / सो परिता नरपतु उवदणाणो सो कभार तं चम्म गहाय नगरस्स महादिओ हो ! गलाः भणइ-मसाइभा: तस्स धोडवगीवरसाकडेड - असुयी। शो! हिंगनूप सिद्ध। सट्टो दूरां जिसनेन / एएए पुत्ते तुम गम नहि। लम महल्लो / जाहे पेच्छामि, सकारेमि, रज्जाणि य देमि / तण भणिय अच्छतु कुमारा, सर्व चेव पण ओलग्गामि ति। ताई सो भणनि- किं न | पसेसि ? अओ जुद्धसजो निग्गच्छति। सो दूओ तेहि गंतणं सिट्ट, रुट्टा दुयं सिलेड। तेहिं आधरिसिता धाडिओ! ताहे सो आसग्गीवो सध्यबलेण वहिओ / इयरे वि देसं ते लिया। सुबहु कालं जज्झिरूण हयगयरहनरादिक्खयं च पिच्छिऊण कुमारण दूओ पेसिओ ! जहा- अहं चतुमच दोन्नि जुद्धं सपलागामो। किं वा बहुएण अकारिजणेण मारिएणं? एवं होउ ति: विइयदिवसे रहेहिं संपलग्गा / जाहे आउहाणि खीणाणि ताहे चक्कं मुयइ तंतिविगुस्स तुंबेण उरे पडिय। तेणेव सीसं छिन्नं, देवेहि च धुट्ट, जहेस तिविढू पढमो वासुदेवो उप्पन्नो ति / तो सव्वे रायाणो पणिवायमुवगया उयइयं अट्टभरह,डियसिला दंडवाहाहिं धारिया। ए रहावत्तपव्ययरमवि जुद्धमासी / एवं परिहायमाणे वले कण्हण किर जाणुगाणि जाव किह दि पाविया। तिविट्चुलसीति वाससयसहस्साई सव्वाउयं पालइत्ता कालं काऊण सत्तमाए पुढवीए अप्पतिट्टाणे नरए तेत्तीस सागरोवमट्ठितिओ नेरइओ उववन्नो।" अयमासां भावार्थः। / अक्षरार्थस्त्यभिधीयते-राजगृहे नगरे विश्वनन्दिनामा राजा अभूत्। विशाखभूतिश्च तस्य युवराजेति। तस्य युवराजस्य धारिणीदेव्या विश्वभूतिनामा पुत्र आसीत् : विशाखनन्दिश्चेतरस्य राज्ञ इत्यर्थः। तत्थमधिकृतो मरीचिजीयः (रारागिह विस्स्भूइ त्ति) राजगृहे नगरे विश्वभूतिनामा विशाखभूतिसुतः क्षत्रियोऽभवत् / तत्र च वर्षकोट्यायुष्कमासीत् / तस्मिंश्च भवे व सहस्त्रं दीक्षा प्रव्रज्या कृता सम्भूतयतेः पाश्वा तत्रैवगोत्तासिउ महुराए, सनिआणो मासिएण भत्तेणं / महसुक्के उववण्णो, तओ चुओ पोअणपुरंमि / / 146 / / गमनिका पारणके प्रविष्टो गोत्रासितो मथुरायां निदानं चकारा मत्या च सनिदानोऽनालोचिताप्रतिकान्तो मासिकेन भक्तन महाशुक्रे कल्पे उपपन्नः उत्कृष्टस्थिलिव इति। ततो महाशुक्राच्च्युतः पोतनपुरे नगरे।।। पुत्तो पयावइस्स, मिआवईदेविकुच्छिसमूओ। नामेण तिवित्ति, आई आसी दसाराणं / / 447 / / गमनिक' एषः प्रजाले राज्ञः मृगावतीदेवीकृतिका तो नारा पिछः "आदिः" प्रथम आसीत् दसाराण, तत्र वासुदेवत्वं च चतरशातिवर्ष शतसहस्त्राणि पालयित्वाऽध, सप्तमनरकपृथिवयानप्रतिष्ठाने नरके त्रयस्त्रिशत्सागरापस्थितिरिकः सजात इति। अमुमेवार्थ प्रतिपादयन्नाहचुलसीईमप्पइटे, सीहो नरएसु तिरियमणुए। पिअमित्तचक्कवट्टी, मूआइ विदेहि चुलसीइ / / 448 / / ममनिका-तुरशीतिवर्षशतसहस्त्रापि वासुदेवभवे खायुक. मासीत तदनुभूय अप्रतिष्ठाने नरके समुत्पन्नः तस्मादायुवृत्य सिंहोय. भूद। मृत्वा च पुनरपि नरक एवोत्पन्न इति। तिरियमणुए रे) पुन कतिचिद्भवग्रहणानितियग्मनुष्येषत्पद्य (पियभित्तचक्क- वहीमूअ.इविदेहि चुलसीद नि) परविदेहे भूकाया राजधान्यां धनञ्जयनृपते पादेव्या प्रिय मित्राभिधानश्चक्रवर्ती समुत्पन्नः / तत्र चतुरशीतिपूर्ण तसह . स्राण्यायुष्कमासीदिति गाथाऽर्थः / पुत्तो धणंलयस्स, पुट्टिल परिआउकोडि सव्वेट्टे / णंदण छतगाए, पणवीसाउंसयसइस्सा / / 446 // गमनिका-तत्राऽसी प्रियमित्रपुत्रो धनंजयस्य धारणीदेव्याश्च भूत्वः चक्रवर्तिनो भोगान भुक्त्वा कथंचित सजातसवेग: सन् (पुहिलो इति प्रोष्ठिलाचार्यसमीपे प्रवजितः (परियाउकोडिसबट्ट त्ति) प्रव्रज्यापर्याय वर्षकोटिर्वभूव। मृत्वा महाशुक्रे कल्पे सर्वार्थविभाने सप्तदशसारोपमस्थितिर्देवोऽभवत। (णंदण छत्तग्गाए पणवीसाउं सयरसहस्से नि) तत. सर्वार्थसिद्धाच्च्युक्त्वा छत्राणायां नगर्या जिशत्रुनृपतेर्भद्रादेव्या नन्दनो नाम कुमार उत्पन्न इति / पञ्चविशतिवर्षशतसहस्त्राण्यायुष्कमा पीदिति गाथार्थः। तत्रच बालाएव राज्य चकार। चतुर्विशतिवर्षसहस्त्राणिज्य कृत्वा ततःपव्वज पुट्टिले सय-सहस्स सव्वत्थ मासभत्तेणं / पुप्फुत्तरि उववण्णो, तओ चुओ माहणकुलंमि // 450 / / गमनिका-राज्यं विहाय प्रव्रज्यां कृतवान् (पोट्टिले ति) प्रोष्ठिलाचार्यान्तिके (सयसहस्सं ति) वर्षशतसहस्त्रं यावदिति / कथम् ? सर्वत्र मासभक्तेन अनवरतमासोपवासेनेति भावार्थः / अस्मिन् भवे विंशतिभिः कारणेस्तीर्थकरनामगोत्रं कर्म निकाययित्वा मापिकया संलेखनयाऽऽत्मानं क्षपयित्वा षष्टिभक्तानि विहाय आलोचितप्रति हान्तो मृत्वा (पुप्फुत्तरि उववन्नो त्ति) प्राणते कल्पे पुष्पोत्तरावर्तसके विमाने विंशतिसागरोपमस्थितिदेव उत्पन्न इति (तत्तो चुओ माहणकुलेमि त्ति) ततः पुष्पोत्तरात् च्युतो ब्राहाणकुण्डग्रामे नगरे ऋषभदत्तस्य ब्राहाणस्य देवानन्दायाः पत्न्याः कुक्षौ समुत्पन्न इति गाथाऽर्थः / कानि पुनर्विशतिकारणानि ? यैस्तीर्थकरनामगोत्र कम्म तेनोपनिवद्धमित्यत आहअरिहंत सिद्ध पवयण, गुरु थेरबहुस्सुए तवस्सीसुं / वच्छलया एएसिं, अभिक्खनाणोवओगे य॥१७६।।
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________________ मरण 155 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मरण दसणविणए आवस्सएय सीलव्वए निरइआरो। खणलवतवचियाए, वेयावचे समाही य॥१८०।। अपुष्वनाणग्गहणे, सुयमत्ती पवयणे पभावणया। एएहि कारणेहिं, तित्थयरत्तं लहइ जीवो // 181|| पुरिमेण पच्छिमेण य, एए सवेऽवि फासिया ठाणा। मज्झिमएहिं जिणेहिं, एक दो तिण्णि सव्वे वा // 12 // (आव०) टीका सुगमत्वान्न गृहीता। ग्रन्थादेवावसेया। माहणकुंडग्गामे, कोडालसगुत्तमाहणो अस्थि / तस्स घरे उववण्णो, देवाणंदाएँ कुञ्छिसि // 457|| अस्या व्याख्या / पुष्पोत्तराच्च्युतो ब्राह्मणकुण्डग्रामे नगरे कोडालसगोत्रब्राह्मणः ऋषभदत्ताभिधानोऽस्ति / तस्य गृहे उत्पन्नः देवानन्दायाः कुक्षाविति गाथाऽर्थः। आव०१ अ०। आ०म०। / मरीकवय न० (मरीचिकवच) किरणजाले, रा०। "मरीइकवयंविणि म्मुयमाणे" मरीचिकवचं किरणजालपरिक्षेपं विनिर्मुञ्चन् / रा०) मरीइया स्त्री० (मरीचिका) मरीचिः किरणजालः सैव मरीचिका। औ०। मृगतृष्णायाम्, जलवदवभासमाने किरणे, झा०१श्रु०१अ०रा०| मरीय पुं०(मरीच) स्वनामयाते कटुफलवृक्षे,तत्फले च। न०। कल्प०१ अधि०७ क्षण / प्रज्ञा० / आ० म०। मरु पुं० (मरु) निर्जलदेशे, ज्ञा०१ श्रु०१६ अ०1 औ०। आ०म०। यत्रा रूढेरधस्तलं नदृश्यते तावदुच्चैः पर्वते, नि० चू०११ उ01 मरुगपुं० (मरुक) ब्राह्मणे, बृ०१ उ०२ प्रक०। धिग्वर्णे, दश०६ अ०४ उ०। मरुगाहरणा न० (मरुकाहरण) ब्राहाणोदाहरणे समयप्रसिद्धौ, (गाथा 46) पञ्चा०१५ विव०। (तद्वृत्तम् द्वितीयभागे 426 पृष्ठे) मरुता स्त्री०(मरुता) स्वनामख्यातायां श्रेणिकमहाराजागमहिष्याम्सा चवीरान्तिके प्रव्रज्य विंशतिवर्षाणि श्रामण्यं परिपाल्य सिद्धेति। अन्त०७ वर्ग५ अ०॥ मरुत्थल न० (मरुस्थल) देशविशेषे, (सूत्र०-२११) कल्प०१ अधि०७ क्षण। मरुदेव पुं०(मरुदेव) अस्याभवसर्पिण्यां भरतेजातानांपञ्चदशकुलकराणां मध्ये त्रयोदशे कुलकरे, (सूत्र-२८)जं०२ वक्ष०ा अवसर्पिण्यां भरतजेषु सप्तकुलकरेषु षष्ठे कुलकरे, (सूत्र-१५१) सं०१५७ सम० / कल्प० / स्था०। आ० चू०। ति०। ऐरवते वर्षे आगमिष्यन्त्यामुत्सर्पिण्यां भविष्यति एकोनविंशेतीर्थकरे, (56 सूत्र) स०१५६ सम०। प्रव० / शत्रुजयाख्येतीर्थे, शत्रुञ्जयः सिद्धक्षेत्रे तीर्थराजो मरुदेवो भज्ञगीरथ इति पर्यायोक्तेः / ती०१ कल्प। मल्लिजिनसमकालिके ऐरवते तीर्थकरे ति०। सरुदेवज्झयण न० (मरुदेवाध्ययन) कल्पकिरणावल्यां मरुदेवयध्ययन विभावयन् वीरः सिद्धिंगतः। तत्र मरुदेव्यध्ययनं कया रीत्या विभावित तत्सम्यक् प्रसाद्यमिति प्रश्ने, उत्तरम्कल्प-सूत्रावचूर्णी मरुदेव्यध्ययनं विभावयन्- प्ररूपयन्नित्येव व्याख्यातमस्ति न तु विभावनरीतिः। 20 प्र०। सेन०१ उल्ला०1 मरुदेवा स्त्री० (मरुदेवा) नाभिकुलकरपल्याम्, आ०म०१ अ०। आoचू0 1 औ०। ऋषभदेवमातरि, ति० ! आ०क० स्था० / कल्प० / प्रव० स०। आव०॥ मरुदेवी स्त्री० (मरुदेवी) प्रथमतीर्थकरमातरि, (गाथा 624) पं०व०३ द्वार। मरुपकंदण न० (मरुप्रस्कन्दन) मरोर्धावित्वा मरणार्थमधः कूर्दने नि०चू०११ उ०। मरुपडण न० (मरुपतन) मरोः (यत्र पर्वते आरूढेरधस्तलं न दृश्यते) मरणबुद्ध्याऽधः पतने, नि०चू०११ उ०! मरुप्पवाय पुं०(मरुप्रपात) निर्जलदेशप्रपाते, ज्ञा०१ श्रु० अ०। औ०। मरुय पुं० (मरुक) विप्रे, जीत० / आ०चू०। आ०म० / णि० चू०।पा०। गन्धद्रव्ये गान्धिकप्रसिद्धे, ज्ञा०१ श्रु०१७ अ०रा०ा आग्नेयापरनामेषु लोकान्तिकदेवेषु, स्था०। मरूया देवा दुविहा पण्णत्ता तं जहा-एगसरीरे चेव बिसरीरे चेव। मरुतो देवा लोकान्तिकदेवविशेषः (स्था०) ते चैकशरीरिणो विग्रहे कार्मणशरीरत्वात् तदनन्तरं वैक्रियभावात्। द्विशरीरिणः / द्वयोः शरीरयोः समाहारो द्विशरीरं तदस्ति येषां ते तथा। (सूत्र-२) उ०) मरुयगपुं०(मरुवक) विशेषे, ज्ञा०१ श्रु०५ अ०॥ मरुयवसभकप्प पुं० (मरुकवृषभकल्प) देवनाथभूते, प्रश्न०४ आश्र० द्वार। मरुजवृषभकल्पपुं० देशोत्पन्नगन्धभूते अङ्गीकृतकार्यनिर्वाहके, प्रश्न०४ आश्र० द्वार। मरल (देशी) भूते. प्रेते, दे० ना०६ वर्ग 114 गाथा। मरो (देशी) मशके, उलूके च। दे०ना०६ वर्ग१४० गाथा। मलधा० (मृद्) मर्दने,"मृदोमल-मढ-परिहदृ-खड्डु-चडु-मड्डपन्नाडाः" 8 / 4 / 126 इति मृद्नातेर्मलाऽऽदेशः। मलइ / मढइ। मृनाति / प्रा०४ पाद। मल अस्त्री० पापविकिट्टेषु, इह मलाः प्रक्रमाचित्तस्यैव सम्बन्धिनः परिगृह्यन्ते, ते च रागादयो रागद्वेषमोहाः जातिसंग्रहीताः / व्यक्तिभेदेन भूयांसः / षो०३ विव०। स्वेदे, दे०ना०६ वर्ग 111 गाथा। द्रव्यमलः शरीरसंभवः, भावमलः कर्मजनितः। कल्प०१ अधि०६ क्षण। जीवस्य ज्ञानावरणदिकर्मश्लेषनिमित्तभावे, यो०वि०। पापे, आ०म०१ अ०। 'कम्मति वा खहंति वा वोणंति वा कलुसंति वा वोच्छंति वा वेरंति वा पंको त्ति वा मलो त्ति वा एते एगट्ठिया' नि०चू०२० उ० / पूर्वबद्धं कर्ममलम् / अथवा-निकाचितं मलम्, अथवा-सांपरायिकं मलम् / ल०। आव०। ध०।
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________________ मल 156 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मलयगिरी मलस्तु योग्यता योग-कषायारख्यात्मनो मता। मलयगा (ग्गा)म पुं० (मलयग्राम) स्वनामख्याते ग्राम, यत्र छदाशअन्यथाऽतिप्रसङ्ग : स्या-ज्जीवत्वस्याविशेषतः / / 27 / / विहारेण विहरन वीरस्वामी पिशाचादिरूपेणोपसर्गितः / आo०१ अ०। मलस्तु यागकषायाख्यात्मनो योग्यता / तस्या एव बहु बाल्पचारयां मलयगिरि पुं० (मलयगिरी) सप्ततिकाख्य-षष्ठकर्मग्रन्थकर्मप्रकृतिदोषोत्कर्षापकर्षोपपत्तेः अन्यथा-जीवत्वस्याविशेषतः सर्वत्र साधारण- पासंग्रहज्योतिष्करण्डप्रज्ञापनाजीवाभिगमाद्यनेक गुन्थपत्तिक्षेत्रस्यादतिप्रसङ्गः, मुक्तेष्वपि बन्धापपात्तिलक्षणः स्यात् / / 27 / / द्वा०१२ समाधनेकप्रकरणकारके स्वनामख्याते सूरौ, कर्म०१ कर्म०। द्वा०। रयो भलोपकमप्यायोगो रयोबद्धा मला पुव्यावधिता मला आग। षष्टकर्मग्रन्थस्थादिमवृत्तानिअहवा धो रयो वनभाणो मलो पुवोवचित सेलो अवावडा रयो निकाईमा अशेषकर्माशतमस्समूह-क्षमाय भास्वानिव दीप्ततेजाः। मलो / अहवा-इरियावहितं रयो संपराइयं भलो" अ०पू०२ अ.।। प्रकाशिताशेषजगत्स्वरूपः, प्रभुः स जीयाग्जिनवर्द्धमानः / / 1 / / अतिचारे, अभ्यन्तरमललिप्सोऽपि देवानामधन लोके कराति। बाहामः जीयाजिनेशसिद्धान्तो, मुक्तिकामप्रदीपनः // लिप्तः पुनर्न करोति। व्य०७उ०। ('असज्झाइय' शब्द प्रथमभाग 824 कुश्रुत्यातपतताना, सान्द्रो मलयमारुतः / / 2 / / पृष्ठे प्रसङ्गतः किंचिदुतम् ) बाह्या समुत्थ स्वदहवारिम्पत्तिका चूर्णयो नावगम्यन्त, सप्ततेर्मन्दबुद्धिभिः / नीभूते रजसि, आव०४ अ० / आ०म०। ज्ञाo ततः स्पष्टावबोधार्थ, तस्याष्टीका करोम्यहम्॥३॥ मलअ(देशी०) गिर्येदेशे, पवनेचा दे० ना०६ वर्ग 144 गाथ:।"मली क्षहर्निश चूणिविचारयोगान्मन्दोऽपि शक्ती विवृति विधातुम् / उज्जाण आरामो पाइ० ना०१३८ गाथा। निरन्तर कुम्भनिकर्षयोगाहामोऽपि कूपे समुपैति घ(म् / / 4 / मलंपिअ (देशी) गर्विष्ट, द० ना०६ वर्ग 122 गाथा। कर्म०६ कम०। मलन न० (मर्दन) विनाशे, यो०वि० / अस्थिषु सुखत्यादिना शरीरस्य / तथान्तिमवृत्तम्संवाधने, स्था०४ ठा०२ उ। बृ० / फालने, स०११ अङ्ग / प्रकरणमतद्विषम, सप्ततिकाख्यं विवृण्वता कुशलम्। मलमंकपुय्वय न० (मलपङ्कपूर्वक) शुक्ररेतोजनिते. उत्त०१ अ०। / यदवापि गलयगिरिणा, सिद्धिं तेनाश्नुता लोकः / / 1 / / ''मलपंकपुव्वयंति'' जीवशुद्ध्यपहारितया मलवन्मलः सचासौ''पावे कर्भ०६ कर्म०। वखे येरे पंके पणए यत्ति'" वचनात्पङ्कश्च कर्मभलपङ्कः / स पूर्व कार्यात "बहर्थमल्पशब्द, प्रकरणमेतद्विवृण्वतामखिलम्। प्रामिभावितया कारणभस्थति मलपतपूर्वकम् / यदा-''माओ य पिऊ यदवापि मलयगिरिणा, सिद्धिं तेनाश्नुता लोकः / / 3 / / सुक्क ति" वचनात रक्तशुक्रे एव मलपड़े, उत्त०१ अ०॥ पं० सं०५ द्वार 5 प्रक मलपरिसह पुं० (मलपरीषह) मलः प्रस्वेदजलसम्पर्कतः कठिनीभूत रजः "दुर्वाधातपकर -व्यपगमलेष्वेव विमलकीर्तिभरः। स एव परिषहो मलपरीषहः (661 गाथा) प्रव०८६ द्वार / जल- टीकागिमामकाषीं मलयगिरिः पेसलवचोभिः / / 1 / / परीषहापरनामके परीषहभेदे, भ०८ श०८ उ०। 'मलनिस्द ध्य०१० उ०! वारिसंपत्किठिनीभूत रजः मलोऽभिधीयते / स वपुषि स्थिरतामिला "ज्योतिःकरण्डकमिद, गम्भीरार्थ विवृण्वता कुशलम। ग्रीष्मे संतापजनितधर्मजलार्द्रतां गतो दुर्गन्धिमहान्तमुद्वेगमायादयति / यदवापि मलयगिरिणा, सिद्धि तेनाश्नुतां लोकः / / 2 / / तदपनयनाय कदाचिदभिषेकाभिलाषं कुर्यात् / आव०४ अ० / मलो हि ज्यो०२१ पाहु०। "ग्रीष्माऽऽतापपरिक्लिन्नान. सर्वाङ्गीणान्महामुनिः / नो द्विजेत न जीवाजीवाभिगम, विवृण्वताऽवापि मलयगिरिणेह। सिस्नासन्नोद्वर्तयेत् सहेत तु।" 03 अधि० कुशलं तेन लभन्ता, मुनराः सिद्धान्तसदोधम् // 3 // मलपरिसहविजय पुं० (मलपरीषहविजय) अप्कायिकादिजन्तुपी- जी०१० प्रति०। डापरिहारायामरणादस्नानव्रतधारिणः पटुरविकिरणप्रपातजनित- एनामतिगम्भीरा, कर्मप्रकृति विवृण्वता कुशलम्। प्रस्वेदवारिसम्पर्कलग्नपवनानीतपाशुनिघयस्य मलापनयनासङ्कल्पित- यदवापि मलयगिरिणा, सिद्धिं तेनाश्नुता लोकः / / 6 / / मनसः सजज्ञानदर्शनचारित्रविमलसलिलप्रक्षालनेन कर्ममलनिराकर- क०प्र०। णाय नित्यमुद्यतमतेर्मलपीडासहने, पं०सं०४ द्वार। नत्वा गुरुपदकमल, प्रभावतस्तस्य मन्दशक्तिरपि। मलय पुं० (मलय) चन्दनद्रुमात्पत्तिप्रसिद्ध गिरी, ज०३ वक्ष० / ज्ञान आवश्यकनियुक्ति, विवृणोमि यथागर्म स्पष्टम् // 3 // आ० म०१ अ०/ रा० ! जी०। औ० / नि० / मलयोद्भवत्वान्मलयम् / श्रीखण्डे, जी०३ / श्रीभलयगिरिकृतः श्रीआवश्यकबृहदृत्तिप्रथमखण्डः समाप्तः। आ०म०१ प्रति०४ अधि० / आ०म० / प्रज्ञा० / भहिलपुरे मलया (आर्यक्षेत्रम) अ०१ खण्ड। प्रव०७५ द्वार / सूत्र० / नवके आस्तरणविशेषे, मलयदेशोत्पन्नव- नन्यध्ययनं पूर्व प्रकाशितं येन विषमभावार्थम्। स्त्रविशेषे, मलपोत्पन्नपट्टसूत्रे, अनु० / आचा०। तस्मै श्रीचूर्णिकृते, नमोऽस्तु विदुषे परोपकृते।।१।। मलयकेउ पुं० (मलयकेतु) स्वनामख्याते सार्थवाहसुते. दर्श०३ तथा मध्ये समस्तभूपीट, यशो यस्याऽभिवर्द्धते। मलयकेदु पु०(मलयकेतु) स्वनामख्याते राक्षसकुमारे, "अय्य एश तस्मै श्रीहरिभद्राय नमष्टीकाविधायिने / / 2 / / क्यु कुमाले मलपके' प्रा०४ पाद। बुत्तिर्वा चूर्णिा, रम्यापि न मन्दमेधसा योग्या।
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________________ मलयगिरी 157 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मल्लदाम अभवदिह तेन तेषा-मुपकृतये यत्न एष कृतः।।३।। बर्थमल्पशब्द, नन्द्यध्ययनं विवृण्वता कुशलम। यदवापि मलयगिरिणा, सिद्धिं तेनाश्नुता लोकः / / 4 / / नं०। कृत्वा प्रडापनाटीका, पुण्यं यदवापि मलयगिरिरनवम्। तेन समस्तोऽपि जनो, लभतां जिनवचनसरोधम् / / 1 / / जयति हरिभद्रसूरिष्टीकाकृद्विवृतविषमभावाऽर्थः / यद्वचनवशादहमपि, जातो लेशेन विवृतिकरः / / 2 / / प्रज्ञा०३६ पद। सूर्यप्रज्ञहिमिमा- मतिगम्भीरां विवृण्वता कुशलग। यदवापि नलयरिणा, साधुजनस्तेन भवतु कृती।।३।। सू०प्र०२० पाहु। चन्द्रप्रज्ञप्तिमिमा-मतिगम्भीरां विवृण्वता कुललग। यदवापि मलयगिरिणा, साधुजनस्तेन भवतु कृती।।३३।। मलयगिरेः समयो गुरुपरंपरादिकचन ज्ञायते तथाऽपिहरिभद्र-सूरेराक्तन इति ज्ञायते / च०प्र०२० पाहु। मलयप्पभसूरि पुं० (मलयप्रभसूरि) चन्द्रगच्छीय-मानतुङ्गसूरिशिष्ये अयं विक्रम-संवत्-१२६० विद्यमान आसीत् अनेन स्वगुरुकृते सिद्धजयत्युपरि टीका कृता। जै० इ०। मलयय पुं० (मलयज) मलयो नाम देशरतत्रांभवो मलयजः / मलरा देशोद्भवे चन्दने, स्था०५ ठा०३ उ०। बृ०। मलयरुह न० (मलयरुह) चन्दने, "(377) मलयरुहं चंदनं च इक्कग" पाइ० ना०१४७ गाथा। मलयवई रत्री० (मलयवती) काम्पिल्यदुहिरि बहादत्तचक्रवर्तिभा यायाम, उत्त०१३ अ०। मलयवुत्ती (देशी) रजस्वलायाम्, दे० ना०६ वर्ग 125 गाथा। मलवट्टी (देशी) युवत्याम, दे० ना०६ वर्ग 124 गाथा। मलहर (देशी) तुमुले. दे०ना०६ वर्ग 120 गाथा। मलार पुं० (मलार) मलमिवारा प्राजनकविभागो यस्यासौ मलारः / गलिगवे, सम्म०३ काण्ड। मलावधंसि त्रि० (मलापऽध्वंसिन्) मलवदत्यन्तमात्मनि लीनतया मलोऽप्रकारं कर्म तदपध्वंसते इत्येवंशीलो मलाऽपध्वंसी। मलविनाशवृत्त जीवित बृहयित्वा लाभान्तरे लाभविच्छेदेऽन्तर्बहिश्च मालाश्रयत्वान्मल औदारिकशरीरम्, तदपध्वंसी / अष्टकर्मलक्षणमलस्यापध्वंरस्कोनिवारको मलापदंसी। उन०४ अ01 औदारिकशरीरमोचके, उत्त०४ 310 / मलिअ (देशी) लघुक्षेत्रकुण्योः , दे० ना०६ वर्ग 144 गाथा। मलिण त्रि० (मलिन) कलुषे, प्रश्न०२ आश्र०२ आश्व० द्वार।'' मलिण वत्थे'' भलिनानि वस्त्राणि यस्याऽसौ मलिनवरत्रः / दर्श०३ तत्त्व। मलिम्मुय पुं० (मलिम्लुच) तस्करे, अष्ट०१४ अष्ट। मलिय त्रि० (मलित) अधःकृते, संथा० / कृतमानभड़े, औ० / पुरुषाभिलषणीययोषिदङ्गमर्दने, न०!ज्ञा०1 श्रु०६ अ०। मलियकण्टय न० (मलितकण्टक) मलिता मानभजनादित्यर्थः कण्ट जादयो यत्र राज्ये तन्मलितकण्टकम् / स्था०६ ठा० / मलिता उपद्रवं कुण मानम्लानिमापादिताः कण्टका यत्र तामलितकण्टकम् मलितदायादे, रा०। सूत्र। मलियशत्तु न० (मलितशत्रु) मलितास्तद्गतसैन्यत्रासापाद नतो मानम्लानिमादिताः शत्रवो यत्र तन्मलितशत्रु / मलिताः कृतमानभङ्गाः शत्रवोऽगोवजा यत्र राज्ये तत्। अगोत्रजशत्रुरहित. सूत्र०२ श्रु०१ अ० ! औ०। मलीमस त्रि० (मलीमस) मलिने, '(602) मइलं मलीमसं' पाइ० ना०२५६ गाथा। मलुस्सग्ग पुं० (मलोत्सर्ग) पुरीषोत्सर्गे, "मूत्रोत्सर्ग, मलोत्सर्ग-मैथुनं स्नानभोजनम् / सन्ध्यादिकर्मपूजां च कुर्याज्जापं च मौनवान्' / / 1 / / 802 अधि०। (अत्र विशेषतो वक्तव्य 'थंडिल' शब्दे चतुर्थभागे गतम्) मल्ल पुं० (मल्ल) भुजयुद्धकारिणि, जं०२ वक्ष० / विपा० / मौष्टिकयुद्धकारिणि, औ०। नि०चू०। बलयुक्ते, आ०म०। कुड्या वष्टम्भस्थाणी, बलहरणाश्रिते छित्त्वराधारभूते ऊर्ध्वाऽऽयते वा काष्ठे, भ०५ श०६ उ०। कठिनीभूते रजसि, औ० / संथा० / एकविंशतितमे भविष्यत्तीर्थकरे नारदजीवे, ती०२० कल्प। माल्य"अधो-म-न-याम् // 82178 // इति यकारलोपः / तदनन्तरम्, अवशिष्टस्य-'अनादौ शेषादेशयोह्नित्यम्' / / 8 / 2 / 86 / / इति लकारस्य द्वित्वम् / माल्यम्। मल्लं / प्रा०। जात्यादिकुसुमे, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०1 उत्त० / ग्रथितपुष्ये, ज्ञा०१ श्रु०१६ अ०। चउटिवहे मल्ले पण्णत्ते / तं जहा-गंथिमे बेढिमे पूरिमे संघाइमे। (सूत्र-३७४) मालाया साधु, माल्यं पुष्पम् / तद्रचनापि माल्यम् ग्रन्थः संदर्भः सूत्रेण गन्थन तन निर्वृत्तं ग्रन्थिमं मालादि। वेष्टनं वेष्टस्तेन निर्वृत्तं वेष्टिम मुकुटादि, पूरणेन-निवृत्त पूरिमं मृन्मयमनेकच्छिद्रं वंशशलाकादिपञ्जरं वा यत् पुष्पैः पूर्यत इति। संघातेन निर्वृत्तं सङ्घातिमम्। यत्परस्परतः पुष्पनालादिसंघातेनोपजन्यत इति। स्था०४ ठा०४ उ०। सूत्र० / पुष्पध्वजि, ध०२ अधि० / प्रश्न० 1 पुष्पददामनि, आ०म०१ अ० / ग्रथितपुष्पमालायाम्, जी०३ प्रति०४ / पञ्चा०। औ०। मालायाम्, (३५०)"मल्लं माला दामं'' पाइ० ना०१४० गाथा / मल्लइ पुं० (मल्लकिन) राजविशेषे, औ० / भ०। रा०। मल्लकिट्ट न० (मल्लकिट्ट) एकादशे देवलोकविमानभेदे, स०२१ सम०। मल्लखेडु स्वी० (मल्लक्ष्वेडा) मल्लक्रीडायाम्, दर्श०१ तत्त्व। .मल्लगपुं० (मत्लक) शरावे, नं०। ज्ञा०नि००। विशे०। खण्डशरावे, भिक्षाभाजने, ज्ञा०१ श्रु०१६ अ०। मल्लजुज्झ न० (मल्युद्ध) मल्लयोर्हस्ताहस्तियुद्धे, औ०। ज्ञा०। मल्लजोय पुं०(माल्ययोग) नवमालिकावकुलचम्पकपुन्नागाऽशोकमाल तीविचकिलादिषु ग्रथनार्हकुसुमेषु. आचा०१ श्रु०१ अ०५ उ०। मल्लदाम न० (माल्यदामन्) मालायै हितानि माल्यानि पुष्पा
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________________ मल्लदाः 158 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मल्लि तष माला इति। ज्ञा०१ श्रु०। कुसुममालासु, प्रश्न०३ आश्र० ! द्वारा पुष्पराज औ० / आ०म० भ०। मल्लदामकलावपं0 माल्यदामकलाप) पुष्पमालासमूहे. "मल्लदायकलाव त्ति'' पुष्पमालासमूहा इति। जी०३ प्रति०४ अधि०। औ० / रा०। मल्लदिण्ण ए० (मल्लदत्त) मल्लीतीर्थकृदनुजे विदेहवरराजपुत्रे, स्था०७ / ठा०! ज्ञा० मल्लपेहा मल्लानां (मल्लप्रेक्षा) प्रेक्षणके, जी०३ प्रति०४ अधि०।। मल्लय (देशी) अपूएभेद-शराव-कुसुम्भरक्त-चषकेषु, दे० ना०६ वर्ग 145 गाथा। मल्लराम पुं० (मल्लराम) कस्मिंश्चित् परिवर्ते गोशालकजीवशरीर, "विप्पजहामित्ता मल्लरामस्स सरीरगं अणुप्पविस्सामि'' भ०१५ श०। मल्लवाइपुं० (मल्लवादिन) मल्लनामके जिनानन्दसूरिशिष्ये, वल्लभी पुरराजशिलादित्यसमक्षं स्वगुरुविजेतुबौद्धाचार्यस्य विजयेन वादिविरुदमासे स्वनामख्याते आचार्य, पद्मचरित्रनामक रामायणभनेनैः रचितम् / विक्रमसंवत 314 वर्षेऽयमासीत् / जै० इ०। मल्लाणि (देशी) स्त्री०"मातुलान्याम (870) मल्लाणी मामी'' पाइ ना०२५३ गाथा। मल्लाणी (देशी) स्त्री० मातुलान्याम, दे० ना०६ वर्ग 112 गाथा। मल्लि स्त्री० (मल्लि) परीषहादिमल्लजयात्रिरुक्तामल्लिः। तथा गर्भस्थे मातुः सुरभिकुसुममाल्यशयनीयदोहदो देवतया पूरित ति मल्लिः / ध०२ अधि०। 'इयाणि मल्लि त्ति' इह परिषहादिगल्लजयान प्रावतशैल्या छान्दसत्वाच मल्लिः। तत्थ सव्येहिं पि परीराहमल्ला रागदास य 'निहय त्ति' सामन्नं / आ०चू० / विशेषस्त्वेवम् - वरसुरहिमल्लसयणमि, डोहलो तेण होइ मल्लिजिणो (1086) गब्भगए माऊए, सव्वोउगवरसुरभिकुसुममल्लसयणिज्जे दोहलो जातो। सो य देवताए पडिसमाणिओ दोहलो तेण स ''मल्लि'' ति णामं कतं। आव०२ अ० / अस्यामवसर्पिण्यां जाते भारतवर्ष कोनविंशतितमे तीर्थकरे, अनु० / स्था०। मल्लिपूर्वभवः - जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे वासे मंदरस्स पव्वयस्स पचच्छिमेणं निसढस्सवासहरपव्वयस्स उत्तरेणं सीयोयाए महाणदीए दाणिणेणं सुहावहस्स वक्खारपव्वतस्स पचच्छिमेणं पञ्चच्छिमलवणसमुदस्स पुरच्छिमेणं / एत्थ णं सलिलावतीविजए वीयसोया नाम सवहारियण्णता, नवजायणवित्थिना जाव पचक्खंदवलाग- भूया। तीसे णं वीयसोगाए रायहाणीए उत्तरपुरच्छिमे दिसिभाए इंदकुंभे नाम उज्जाणे तत्थ णं वीयसोगाए रायहासीए बले नाम राया। तस्सेव धारिणी पामोक्खं देविसहस्सं उवरोधे होत्था। तते णं सा धारिणी देवी अन्नया कदाइ सीहं सुमिणे पासित्ता णं पडिबुद्धा० जाव महब्बले नामदारए जाए उम्मुक्क० जाव भोगसमत्थे। तते णं तं महब्बलं अम्मापियरो सरिसियाणं कमलसिरिपामोक्खाणं पंचण्हं रायवरकन्नासयाणं एगदिवसेणं पाणिं गेण्हार्वेति / पंच पासायसया पंचसतो दातो० जाव विहरति / थेरागमणं इंदकुंभे उज्जाणे समोसढे परिसा निग्गया। बलो वि निग्गओ धम्म सोचा णिसम्म जं नवरं महब्बलं कुमारं रज्जे ठावेति० जाव एक्कारसंगवी बहूणि वासाणि सामण्णपरियायं पाउणित्ता जेणेव चारुपवए मासिएणं सिद्धे, तते णं सा कमलसिरी अन्नदा सीहं सुमिणे० जाव बलभद्दो कुमारो जाओ। जुवराया याऽवि होत्था। तस्स णं महब्बलस्स रन्नो इमे छप्पियवालवंयसमा रायाणो होत्था। तं जहा-अयले 1, धरणे२, पूरणे 3, वसु 4, वेसमणे 5, अमिचंदे 6, सहजा यया० जाव संहिया ते णित्थरियव्वे त्ति कट्ट अन्नमन्नस्सेयमढे पडिसुणे ति / तेणं कालेणं तेणं समएणं इंदकुंभे उजाणे थेरा समोसढा, परिसा णिग्गया महब्बले णं धम्मं सोचा जं नवरं छप्पियबालवयंसए आपुच्छामि बलभदं च कुमारं रज्जे ठावेमि० जाव छप्पि यबालवयंसए आपुच्छति / तते णं ते छप्पिय बालवयंसए महब्बलं रायं एवं वदासी-जति णं देवाणुप्पिया ! तुब्भे पव्वयह, अम्हं के अन्ने आहारे वा० जाव पव्वयामो / तते णं से महब्बले राया ते छप्पियबालवयंसए एवं वदासीजतिणं तुम्भे मए सद्धि० जाव पव्वयह तो णं गच्छह जेट्टे पुत्ते सएहिं सएहिं रज्जेहिं ठावेह पुरिससहस्सवाहिणीओ सीयाओ दुरूढा० जाव पाउब्भवंति। तते णं से महब्बले राया छप्पियबालवयंसए पाउन्भूते पासति पासित्ता हट्ट तुट्टे कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ सद्दावेइत्ता बलभद्दस्स अभिसेओ, आपुच्छति। तते णं से महब्बले० जाव महया इवीए पव्वतिए एक्कारस अंगाई बहू हिं चउत्थ० जाव भावेमाणे विहरति / तते णं तेसिं महब्बलामोक्खाणं संत्तण्हं अणगाराणं अन्नया कयाइ एगयओ सहियाणं इमेयारूदे मिहो कहासमुल्लावे समुप्पञ्जित्था जण्णं अम्हं देवाणु प्पिया ! एगे तवो कम्म उवसंपज्जित्ता णं विहरति। तर णं अम्हे हिं सव्वे हिं तवोकम्म उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए त्ति कट्ट अण्णमण्णस्स एयम४ पडिसुणेति पडिसुणित्ता बहूहिं चउत्थ० जाव विहरति। ततणस महब्बल अणगार इमण कारणण इत्थिणामगाय
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________________ मल्लि 956 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग मल्लि कम्मं निव्दत्तेसु जति ण ते महब्बलवजा छ अणगारा 5 उत्थं उवसंपज्जित्ता णं विहरति / ततो से महबले आगगारे छट्ट उवसंपञ्जित्ताणं विहरह। जति णं ते महब्बलवजा अणगारा छट्ट उवसंपज्जित्ता णं विहरंति ततो से महब्बले अणगारे अहमं उवसंपज्जित्ता णं विहरति / एवं अट्ठर्म तो दसम अह दसत दुवालसं / इमेहि य णं वीसाएहिँ य कारणेहिं आसेवियबहुली- / कएहिं तित्थयरनामगोयं कम्मं निव्वत्तिंसु / तं जहा अरहंत' सिद्ध' पवराण', गुरु' थेर बहुस्सुए उस्सी / ज्ञछल्लया य टेसिं , अभिवखणाणोवओगे य|१|| दसण विणए आवस्सए१ य सीलव्वए' निरइधारं खणलव तव चियाएर, यावचे समाही या!! अपुव्यणाणगहणे", सुयभत्ती पक्यणे पभावणया / तए नहबलपामोक्खा सत्त अणगारा मासिय मिल्खु / पडिमं उवसंपञ्जित्ता णं विहरति० जाव एगराइयं उवसंपत्तिा णं विहरंति। तते णं ते महब्बलपामोक्खा सत्त अणमारा खुडाग सीहनिक्कीलियं तवोकम्मं उसपज्जित्ता णं विहरंति (क्षुद्रकसिंहनिष्क्रीडिततपस्स्वरूपम् 'सीहणिकीलिय' शब्दे वक्ष्यामि) | तए णं ते महब्बल पामो क्खा सत्त अणगास खुडागं सीहनिकीलियं तवोकम्मं दोहिं संवच्छरेहिं अट्ठावीसाए अहोरत्तेहिं अहासुतं० जाव आणा ए आराहेत्ता जेणेव थेरे भगवंते तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता थेरे भगवंते वंदंति नमसंति वंदित्ता नमंसिता एवं वयासी-इच्छामो णं भंते ! महालयं सीहनिकीलियं तहेव जहा खुड्डागं / नवरं चोत्तीस इमाओ नियत्तए एगाए परिवाडीए कालो एगेणं संवच्छरेणं छहिं मासेहिं अट्ठारसाहि य अहोरत्तेहिं समप्पेति (विस्तरतः महासिंहनिष्क्रीडितस्वरूप 'महासीहणिक्कीलिय' शब्दे वक्ष्यामि ) सव्व पि सीहनिक्कीलियं छहिं वासेहिं दोहिय मासेहिं वारसहिं य अहोरत्तेहिं समप्पेति। तएणं ते महब्बलपामोक्खा सत्त अणगारा महालयं सीहनिक्कीलियं अहासुतं० जाव आराहेत्ता जेणेव थेरे भगवंते तेणेव उवागछंति उवागच्छित्ता थेरे भगवंते वंदंति नमसंति वंदित्ता णमं सित्ता बहूणि चउत्थ० जाव आराहेत्ता जेणेव थेरे भगवंते तेणेव उवागछंति उवागच्छित्ता थेरे भगवंते वंदंति नमसंति वंदित्ता णमंपिका बहणि चउत्थ० जाब विहरंति / तते णं ते महब्बलपामोक्खा सत्त अणगारा महालयं सीहनिक्कीलियं अहासुत्तं० जाव आराहेत्ता जेणेव थेरे भगवंते तेणेव उवागछंति उवागच्छित्ता थेरे भगवंते वदंति नमसंति वंदित्ता णमंसित्ता बहूणि चउत्थ० जाव विहरति / तते णं ते महब्बलपामोक्खा सत्त अणगारा तेणं ओरालेणं सुक्का भुक्खा जहा खंदओ नवरं थेरे आपुच्छित्ता चारुपव्वयं दुरूहति दुरूहतित्ताजाव दोमासियाए / संलेहणाए सवीसं भत्तसयं चतुरासीति दाससयसहस्सार सामण्णपरियाग पाउणति पाउणतित्ता चुलसीरातें पुप्पसयसहस्सातिं सव्वाउयं पालइत्ता जयंते विमाणे देवत्ताए उववन्ना। (सूत्र०६४) तत्थ णं अत्थेगतियाणं देवाणं बत्तीस सामरोवमाई ठिती। तत्थ णं महब्बलवजाणं छण्हं देवाणं देसूणाई बत्तीससागरोवमाई ठिती। महब्बलस्स देवस्स पडिपुन्नाई बत्तीसं सागरोवमाई ठिती। तते णं ते महब्बलवजा छप्पियदेवा ताओ देवलोगाओ आउखएणं तिइक्खएणं भवक्खएणं अणंतरं चयं चइता इहेव जंबुद्दीवे दीवे मारहे वासे विसुद्धपितिमातिवंसेसु रायकुलेसु पत्तेयं पत्तेयं कुमारत्ताए पचायासी, तं जहा-पमिबुद्धी इक्खागुराया चंदच्छाए अंगराया संखे कासिराया रुप्पी कुणालाहिवती अदीणसत्तू कुरुराया जितसत्तू पंचालाहिवई, तते णं ते महब्बले देवे तिहिं णाणे हिं उचट्ठाणट्ठिएसु गहेसु सोमासु दिसासु वितिमिरासु विसुद्धासु जइ तेसु सउणेसु पयाहिणाणुकूलंसि भूमिसप्पिंसि मारुतंसि पवायंसि निप्फन्नसस्समेइणीयंसि कालंसि पमुइयपक्कीलिएसु जणवएसु अद्धरत्तकालसमयंसि अस्सिणीणक्खत्तेणं जोगमुवागएणं जे से हेमंताणं चउत्थे मासे अट्ठमे पक्खे फग्गुणसुद्धे तस्स णं फग्गुणसुद्धस्सा चउत्थिप खेणं जयंताओ विमाणा ओ बत्तीसं सागरोवमद्वितीयाओ अणंतरं चयं चइत्ता इहेव जंबूदीवे दीवे भारहे वासे मिहिलाए रायहाणीए कुंभगस्स रन्नो पभावतीए देवीए कुच्छिंसि आहारवक्रतीए सीरवकंतीए भववकंतीए गब्भत्ताए वकंते, तं रयणिं च ण चोइसमहासुमिणा वन्नाओ। भत्तारकहणं सुमिणपाढगपुच्छा० जाव विहरति / तते णं तीसे पभावतीए देवीए तिण्हं मासाणं बहुपडिपुन्नाणं इमेयारूवे डोहले पाउन्भूते धन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ जाओ णं जलथलयभासुरप्पभूएणं दसद्धवन्नेणं मल्लेणं अत्थुयपचत्थुयंसि सयणिज्जंसि सन्निसन्नाओ सण्णिवनाओ य विहरंति, एगं च महं सिरिदामगंड पाडलमल्लियचंपयअसोगपुन्नागनागमरुयगदमणगअणोजकोजयपउरं परमसुहफासदरिसणिज्नं महया गंधद्धणिं मुयंतं अग्घायमाणीओ डोहलं विणे ति। तते णं तीसे पभावतीए देवीए इमेयारूवं डोहलं पाउन्भूतं पासित्ता अहासन्निहिया वाणमंतरा देवा खिप्पामेव जलथलय० जाव दसद्धवन्नमल्लं कुंभग्गसोय भारग्गसो यकुंभगस्स रनो भवणंसि वा० साहरंति / एगं च ण महं सिरिदागंडं० जाव मुयंतं उवणे ति। तएणं सा पभावती देवी जलथलय०जाव मल्लेणं डोहलं विणेति। तए णं सा पभावती देवी पसत्थडोहला० जाव विहरइ / तए णं सा पभावती देवी नवण्हं मासाणं अट्ठमाण य रतिंदियाणं जे से हेमंताणं पढमे मासे दोचे पक्खे मग्गसिरसुद्धे तस्सणं० एक्कारसीए पुव्वरत्तावरत्तकालसमयं सि अस्सिणीनक्खत्तेणं उचट्ठा
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________________ मोल्ल १६०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मल्लि 10 जा मुइयपक्कीलिएसु जणवएस आरोयाऽऽरोयं णागघरए होत्था। दिव्वे सच्चे सचोवाए संनिहिअपाडिहेरे। तत्थ स्कूणवासतिमं तित्थयरं पयाया। (सूत्र-६५) णं नगरे पडिबुद्धिनाम इक्खागुराया परिवसति, पउमावती देवी, तेण कालेणं तेण समएणं आहोलोगवत्थव्वाओ अट्ट दिसा- सुबुद्धी अमचे सामदंड०, तते णं पउमावतीए अन्नया कयाइ कुमारीओ मयहरीयाओ जहाजंबुद्दीवपन्नत्तीए जम्मणं सव्वं नवरं नागजन्नए याऽवि होत्था। तते णं सा पउमावती नागजनमुवट्ठियं मिहिलाए कुंभयस्स पमावतीए अभिलाओ संजोएयव्वो० जाव जाणित्ता जेणेव पडिबुद्धि० करयल० एवं वयासी-एवं खलु सामी! नंदीसरवरे दीवे महिमा। तया ण कुंभए राया बहूहिं भवणवति०४ मम कल्लं नागजन्नए याऽवि भविस्सति तं इच्छामि णं सामी ! तित्थयर० जाव कम्मं० जाव नामकरणं, जम्हा णं अम्हे इमीए तुम्मेहिं अब्भणुन्नाया समाणी नाग जन्नयं गमित्तए / तुडभेऽविणं दारियाए माउए मल्लसयणिज्जंसि डोहलेऽवि णीते तं होउ णं सामी! मम नागजन्नयंसि समोसरह / तते णं पडिबुद्धी पउमाणामेणं मल्ली। जहा महाबले नाम० जाव परिवड्डिया। वतीए देवीए एयमद्वं पडिसुणेति, तते णं पउमावती पडिबुद्धिणा "सा वद्धती भगवती, दियलोयचुता अण्णोवमसिरीया। रना अब्भणुनाया हट्ठ० कोडुवियपुरिसे सहावेति कोडंवियदासीदासपरिवुडा, परिकिन्ना पीढमद्देहिं / / 1 / / पुरिसं सद्दावित्ता एवं वदासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! मम कल्लं असियसिरया सुनयणा, बिंबोट्ठी धवलदंतपंतीया। नागजण्णए भविस्सति तं तुब्भे मालागारे सद्दावेह सद्दावेहित्ता वरकमलकोमलंऽगी, फुल्लुप्पगंधनीसासा / / 2 / / " एवं वदह-एवं खलु पउमावईए देवीए कल्लं नागजन्नए भविस्सइ, (सूत्र-६६)।तएणं सा मल्ली विदेहवररायकन्ना उम्मुक्कवाल- तं तुन्भे णं देवाणुप्पिया ! जलथलय०दसद्धवन्नं मल्लं णगघरभावा० जाव रूवेण जोव्वणेण य लावनेण य अतीव अतीव यंसि साहरह एगं च णं महं सिरिदामगंडं उवणेह / तते णं उक्किट्ठा उक्किट्ठसरीरा जाया याऽवि होत्था / तते णं सा मल्ली जलथलय० दसऽद्धवन्नेणं मल्लेणं णाणाविहमत्तिसुविरइयं देसूणवाससयजाया ते छप्पि रायाणो विपुलेण ओहिणा आभोए- हंसमियमउरकों चसारसचक्कवायमयणसालकोइलकुलोववेयं माणी आभोएमाणी विहरति, तं जहा-पडिबुद्धिं० जाव जियसत्तुं / ईहामिय० जाव भत्तिचित्तं महग्धं महरिहं विपुलं पुप्फमंडवं पंचालाहिवई। तते णं सामल्ली कोडु वियपुरिसे सद्दावेइ सद्दा- | विरएह / तस्स णं बहुमज्झदेसभाए एगं महं सिरिदामगंडं० जाव वेइत्ता तुम्भे णं देवाणुप्पिया ! असोगवणियाए एगं महं मोहणधरं गंधद्धणिं मुयंतं उल्लोयंसि ओलंबेह ओलंबेहित्ता पउमावति करेह अणेगखंभसयसन्निविटुं, तस्स णं मोहणघरस्स बहुमज्झ- देविं पडिवालेमाणा पडिवालेमाणा चिट्ठह। तते णं ते कोडुविया० देसभाए छ गब्भघरए करेह / तेसि णं गब्भघरगाणं बहुमज्झ- जाव चिट्ठति / तते णं सा पउमावती देवी कल्लं कोडं विए एवं देसभाए जालघरय करेह / तस्स णंजालघरयस्स बहुमज्झदेस- वदासी-खिप्पामेव मो देवाणुप्पिया ! सागेयं नगरं सम्भितरभाए मणिपेढियं करेह० जाव पञ्चप्पिणंति / तते णं मल्ली वाहिरियं आसितसम्मज्जितोवलित्तं० जाव पचप्पिणंति। तते णं मणिपेढियाए उवरिं अप्पणो सरिसियं सरित्तयं सरिव्वयं सा पउमावती दोचं पि कोडुंबिय० खिप्पामेव लहुकरणजुत्तं० सरिसलावन्नजोव्वणगुणोववेयं क णगमई मत्थयच्छिद्यु जाव जुत्तामेव उवट्ठवेह / तते णं तेऽवि तहेव उवट्ठाति / तते पउमुप्पलपिहाणं पडिमं करेति करेत्ता जं विपुलं असणं पाणं णं सा पउमावती अंतो अंतेउरंसि पहाया० जाव धम्मिये जाणं खाइम साइमं आहारेति ततो मणुन्नाओ असणपाणखाइमसाइ- दुरूढा, तएणं सा पउमावई नियगपरिवालसंपरिबुडा सागेयं नगरं माओ कल्लाकल्लिं एगमेगं पिंडं गहाय तीसे कणगामतीए मज्झं मज्झेणं णिज्जाति णिज्जित्ता जेणेव पुक्खरणी तेणेव मत्थयछिड्डाए० जाव पडिमाए मत्थयंसि पक्खिवमाणी पक्खि- उवागच्छति उवागच्छित्ता पुक्खरणिं ओगाहइ ओगाहित्ता जलम वभाणी विहरति / तते णं तीसे कणगमतीए० जाव मत्थयछिड्डाए जणं० जाव परमसुइभूया उल्लपडसाडया जाति तत्थ उप्पलाति० पडिमाए एगमेगंसि पिंडे पक्खिप्पमाणे पक्खिप्पमाणे ततो गंधे जाव गेण्हति गेमिहत्ता जेणेव नागघरए तेणेव पहारेत्थ गमणाए। पाउन्भवति। से जहा नामए अडिमडे तिवा० जाव एत्तो अणिट्ठ- ततेणं पउमावतीए दासचेडीओ बहूओ पुप्फपडलगहत्थगयाओ तराए अमणामतराए। (सूत्र-६७) धूवकडुच्छुत्थगयाओ पिट्ठतो समणुगच्छंति, तते णं पउमावती तेणं कालेणं तेणं समएणं कोसलानाम जणवए, तत्थ णं सागेए सव्वडिएजेणेव नागधरे तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता नागघरयं नाम नयरे तस्स णं उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए, एत्थ णं महं एगे | अणुपविसति अगुपविसित्ता लोमहत्थग उवागच्छति० जाव
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________________ मल्लि 161 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मल्लि धूवं डहति धूवं डहित्ता पडिबुद्धिं, पडिवालेमाणी पडिवालेमाणी चिट्ठति / तते णं पडिबुद्धी पहाए हत्थिखंधवरगते सकोरंट० जाव सेयवरचामराहिं हयगयरहोहमहया भडगचडकरपहकरेहि साकेयनगरं मझं० णिग्गच्छति णिग्गच्छित्ता जेणेव नागघरे तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता हत्थिखंधाओ णिग्गच्छति णिग्गच्छित्ता पचोरुहति पचोरुहिता आलोए पणामं करेइ करेत्ता पुप्फमंडवं अणुपविसति अणुपविसित्ता पासति तं एगं महं सिरिदामगंडं / तए ण पडिबुद्धी तं सिरिदामगंडं सुइरं कालं निरिक्खइ निरिक्खित्तातंसि सिरिदामगंडसिजायविम्हए सुबुद्धिं अमचं एवं वयासी-तुमन्नं देवाणुप्पिया ! मम दोचेणं बस्तर गामागर० जाव सन्निवेसाई आहिंडसि रायईसर० जाव गिहाति अणुपविसससि तं अत्थिणं तुमे कहिं चि एरिसए सिरिदामगंडे दिट्ठपुव्वे जारिसरणं इमे पउमावतीए देवीए सिरिदामगंडे ?, तते णं सुबुद्धी पडिबुद्धिं रायं एवं वदासी-एवं खलु सामी ! अहं अन्नया कयाई तुन्भं दोनेणं मिहिलं रायहाणिं गते / तत्थ णं मए कुंभगस्स रन्नो धूयाए पउमावईए देवीए अत्तयाए मल्लीए संवच्छरपडिलेहणगंसि दिवे सिरिदामगंडे दिट्ठपुटवे / तत्सणं सिरिदामगंडस्स इमे पउमावतीए सिरिदामगंडे सयसहस्सलिम कलं ण अग्घति, तते णं पडिबुद्धी सुबुद्धिं अमचं एवं वदासीकेरिसिया णं देवाणुप्पिया ! मल्ली विदेहरायवरकन्ना जस्स णं संवच्छरपडिलेहणयंसि सिरिदामगंडस्स पउमावतीए देवीए सिरिदामगंडे सयसहस्सतिमं पिकलंन अग्घति? तते णं सुबुद्धी पडिबुद्धिं इक्खागुराय एव वदासी-विदेहरायवरकन्नगा सुपइद्वियकुम्मुन्नयचारुचरणा वन्नओ, तते णं पडिबुद्धी सुबुद्धिस्स अमच्चस्स अंतिए एयमढे सोचा णिसम्म सिरिदामगंडजणितहासे दूयं सद्दावेइ सदावित्ता एवं वयासी-गच्छाहि णं तुम देवाणुप्पिया ! भिहिलं रायहाणिं तत्थ णं कुं भगस्स रन्नो धूयं पभावतीए देवीए अत्तियं मल्लिं विदेहवररायकण्णगं मम मारियत्ताए वरेहि जति वि य णं सा सयं रज्जुस्सुका, तते णं से दूर पडिबुद्धिणा रन्ना एवं वुत्ते समाणे हट्ठ० पडिसुणित्ता जेणेव सए गिहे जेणेव चाउग्घंटे आसरहे तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता चाउग्घंटं आसरहं पडिकप्पावेति पडिकप्पवेत्ता दुरूढे जाव हयगयमहया भडचडगरेणं साएयाओ णिग्गच्छति णिग्गच्छित्ता जेणेव विदेहजणवए जेणेव मिहिला रायहाणी तेणेव पहारेत्थ गमणाए। (सूत्रं 68) ज्ञा०१ श्रु०८ अ०। (अत्र अरहन्नकवक्तव्यता 'अरहण्णय' शब्दे 1 भागे व्याख्याता तत एवावसेया) तेण कालेणं तेणं समएणं कुणाला नाम जणवए होत्था। तत्थ णं सावत्थी नाम नगरी होत्था / तत्थ णं रुप्पी कुणालादितई नाम राया होत्या तस्स णं रुप्पिस्स धूया धारिणीए देवीए का सुबाहुनामं दारिया होत्था / सुकुमालाणिपाया का ": जोव्वर्णणं लावण्णेण य उक्किट्ठा उक्किट्ठसरीरा जाया काय होत्था। तीसे णं सुबाहुए दारियाए अन्नदा चाउम्मानियम जाए याऽवि होत्था / तते णं से रुप्पी कुणालाऽहिवई सुना हुए दारियाए चाउम्मासियमजयणं उवट्टियं जाणति, जाणिता कोडुं बियपुरिसे सद्दावेति सद्दावेत्ता एवं वयासी-एवं सलु देवाऽणुप्पिया ! सुबाहुए दारियाए कल्लं चाउम्मासियमजगए भविस्सति, तं कल्लं तुब्मे णं रायमग्गमोगाढंसि चउक्कंपिका थलयदसऽद्धवन्नमल्लं साहरेह० जाव सिरिदामगंडे ओलइति: तते णं से रुप्पी कुणालाहिवती सुवनगारसेणिं सहावेति सद्दावेत्ता, एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! रायामोगाढं सि पुप्फमंडवंसि णाणाविहपंचवन्नेहिं तंदुलेहिं णगरं आलिहह, तस्स बहुमज्झदेसभाए पट्टयं रएह रएहइत्ता० जाव पञ्चप्पिणंति। तते णं से रुप्पी से कुणालाहिवई हत्थिखंधवरगए चाउरंगिणीए सेणाए महया भड० अंतेउपरपरियालसंपरिबुडे सुबाहुं दारियं पुरतो कट्ट जेणेव रायमग्गे जेणेव पुप्फमण्डवे तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता हत्थिखधातो पचोरुहति पोरुहित्ता पुप्फमंडवं अणुपविसति अणुपविसित्ता सीहासणवरगए परथामिमहे सन्निसम्ने / ततेणं ताओ अंतेउरियाओ सबाह दारियं पट्टयंसि दुरूहेंति दु०त्ता सेयपीतएहिं कलसेहि पहाणेति २त्ता सव्वालंकारविभूसियं करेंति २त्ता पिउणो पायं वंदिउं उवणेति। ततेणं सुबाहुदारिया जेणेव रुप्पी राया तेणेव उवाच्छति उवागच्छित्ता पायग्गहणं करेति / तते णं से रुप्पी राया सुबाहुं दारिय अंके निवेसेति निवेसित्ता सुबाहुए दारियाए रूवेण य जोव्वणे० जाव विम्हिए वरिसघरं सद्दावेति सद्दावित्ता एवं वयासीतुमं णं देवाणुप्पिया ! मम दोघेणं बहूणि गामागरनगरगिहाणि अणुपविससि, तं अस्थि याइं ते कस्सइ रन्नो वा ईसरस्स वा कहिं चि एयारिसए मज्जणए दिट्ठपुटवे जारिसए णं इमीसे सुबाहुदारियाए मजणए ? तते णं से वरिसधरे रुप्पिं करयल० एवं वयासी-एवं खलु सामी ! अहं अन्नया तुम्भेणं दोघेणं मिहिलं गए, तत्थ णं मए कुंभगस्स रनो धूयाए पभावतीए देवीए अत्तयाए मल्लीए विदेहरायकनगाए मज्जणए दिठे। तस्स णं मजणगस्स इसे सुबाहुए दारियाए मज्जणए सयसहस्सइमं पि कलं न अग्धेति /
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________________ मल्लि 162 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मल्लि तए णं से रुप्पी राया वरिसधरस्स अंतिए एयमढे सोचा णिसम्म सेसं तहेव मज्जणगजणितहासे दूयं सद्दावेति सदावेत्ता एवं वयासीलेणेव मिहिला नयरी तेणेव पहारित्थगमणाए 3 / (सूत्र 67) तेण कालेणं तेणं समएणं कासी नाम जणवए होत्था, तत्थ णं | बाणारसी नाम नगरी होत्था / तत्थ णं संखे नामं कासीराया होत्था। तते णं तीसे मल्लीए विदेहराय वरकन्नाए अन्नया कयाई तस्स दिव्वस्स कुंडलजुयलस्स संधी विसंघडिएयाऽवि होत्था। तते णं से कुंभए राया सुवन्नगारसेणिं सद्दावेति सद्दावेत्ता एवं वदासी-तुम्भे णं देवाऽणुप्पिया ! इमस्स दिव्वस्स कुंडलजुयलस्स संधि संघाडेह, तए णं सा सुवन्नगारसेणी एतमद्वं तह त्ति पडिसुणे ति पडि० त्ता तं दिव्वं कुंडलजुयलं गेण्हति गेण्हित्ता जेणेव सुवन्नगारभिसियाओ तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता सुवन्नागारभिसियासु णिवे सित्ता बहूहिं आएहि य० जाव परिणामेमाणा इच्छंति, तस्स दिव्वस्स कुंडलजुयलस्स संधि घडित्तए णो चेवणं संचाएंति संघडित्तए, तते णं सा सुवन्नमारसेण जेणेव कुंभए तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता करयल० वद्धावेत्ता एव वदासी-एवं खलु सामी ! अज्ज तुन्भे अम्हे सहावेह सद्दावेत्ता० जाव संधि संघाडेत्ता एतमाणं पचप्पिणह। तते णं अम्हे तं दिव्वं कुंडलजुयलं गेण्हामो जेणेव सुवन्नगारभिसियाओ० जाव नो संचारमो संघाडित्तए। तते णं अम्हे सामी ! एयस्स दिव्वस्स कुंडलस्स अन्नं सरिसयं कुंडलजुयलं घडेमो / तते णं से कुंभए राया तीसे सुवन्नगारसेणीए अंतिए एयमढे सोचा निसम्म आसुरुत्ते तिवलियं मिउडी निडाले साहट्ट एवं वदासी-से केणं तुल्भे कलायाणं भवह ? जे णं तुडभे इमस्स कुंडलजुयलस्स नो संचाएह संधि संघाडेत्तए? ते सुवन्नगारे निधिसए आणवेत्ति, तते णं ते सुवनगारा कुंभेणं रण्णा निदिवसया आणत्ता समाणा जेणेन साति सातिं गिहातिं तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता समनत्तोवगरण पायाओ मिहिलाए रायहाणीए मज्झं मज्झेणं निक्खामंति निक्खमित्ता विदेहस्स जणवयस्स मज्झं मज्झेणं जेणेव कासीजणवए जेणेव बाणरसीनयरी तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता अगुजाणं सि साडीसागर्ड मोएन्ति मोएइत्ता महत्थं० जाव गेण्हंति गेण्हित्ता बाणारसीनयरी मज्झं मज्झेणं जेणेव संखे कसीराया तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता करयल० 10व एवं अम्हे मिलातो नयरीओ कुंभएणं रन्ना) निव्यिसया आणत्ता समाणा इह हव्वमागतातं इच्छामो णं सामी! तुब्भं बाहुच्छायापरिग्गहिया निब्भया निरुव्विगा सुहं सुहेणं परिवसिउं। तते णं संखे कासीराया ते सुवन्नगारे एवं वदासीकिन्नं तुन्भे देवाणुप्पिया! कुंभएणं रन्ना निव्विसया आणता? तते णं ते सुवन्नगारा संखं एवं वदासी-एवं खलु सामी ! कुंभगस्स रन्नो घूयाए पभावतीए देवीए अत्तयाए मल्लीए कुंडलजुयलस्स संधी विसंघडिए, तते णं से कुंभए सुवन्नगारसेणिं सद्दावेति सद्दावित्ता० जाव निव्विसया आणत्ता,तं एए ण कारणेणं सामी! अम्हे कुंभएणं निदिवसया आणत्ता, तते णं से संखे सुवन्नगारे एवं वदासी-केरिसिया णं देवाणुप्पिया! कुंभगस्सधूया पभावती देवी अत्तया मल्ली वि० तते णं ते सुवन्नगारा संखरायं एवं वदासी-णो खलु सामी ! अन्ना काई तारिसिया देवकन्ना वा गंधव्वकन्नगा वा० जाव जारिसिया णं मल्ली विदेहवररायकन्ना / तते णं से संखे कुंडलजुअलजणितहासे दूतं सद्दावेति जाव तहेव पहारेत्थ गमणाए। (सूत्र-७२) तेणं कालेणं तेणं समएणं कुरुजणवए होत्था / हत्थिणाउरे नगरे अदीणसत्तू नाम राया होत्था० जाव विहरति / तत्थ णं मिहिलाए कुंभगस्स पुत्ते पभावतीए अत्तए मल्लीए अणुजायए मल्लदिन्नए नाम कुमारे० जाव जुवराया याऽवि होत्था। तते णं मल्लदिन्ने कुमारे अन्नया कोडुबियपुरिसे सद्दावेति सद्दावित्ता० गच्छहणं तुन्भे मम पमोदवणंसि एगं महं चित्तसभं करेह अणेग० जाव पञ्चप्पिणंति / तते णं से मल्लदिन्ने चित्तगरसेणिं सद्दावेति सदावित्ता एवं वयासी-तुब्भे णं देवाणुप्पिया ! चित्तसभं हावभावविलासविथ्वोयकलिएहिं रूवेहि चित्तेह चित्तेहिता० जाव पंचप्पिणह। तते णं सा चित्तगरसेणी तह त्तिपडिसुणे ति पडिसुणित्ता जेणेव सयाइं गिहाइं तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता तूलियाओ वन्नए य गेण्हिति गेण्हित्ता जेणेव चित्तसभा तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता अणुपविसंति अणुपविसित्ता भूमिभागे विरंचंति विरंचित्ता भूमिं सजेंति सज्जित्ता चित्तसभं हावभाव० जाव चित्तेउं पयत्ता याऽवि होत्था / तते णं एस्स चित्तगरस्स इमेयारूवा चित्तगरलद्धी लद्धा पत्ता अभिसमाण्णागया, जस्सणं दुपयस्सवाचउपयस्स वा अपयस्स वा एगदेसमविपासति तस्सणं देसाणसारेण तयाणुरूवं निव्वत्तेति, तएणं से चित्तगरटारए मल्लीए जवणियंतरियाए जालंऽतरेण पायंऽगुटुं पासति / तते णं तस्स पं चित्तगरस्सइमेयावे० जाव सेयं खल ममं मल्लीए वि प्रायंऽगुद्राण
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________________ मल्लि 163 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 पतिक सारेण सरिसगं० जाव गुणोववेयं रूवं निव्वत्तित्तए, एवं संपेहेति संपेहित्ता भूमिभागं सजेति सज्जित्ता मल्लीएऽवि पायंऽगुट्ठाऽणुसारेण जाव निव्वत्तेति / तते णं सा चित्तगरसेणी चित्तसभं० जाव हावभावे चित्तेति चित्तित्ता जेणेव मल्लदिन्ने कुमारे तेणेव उवागच्छ० जाव एतमाणत्तियं पञ्चप्पिणंति / तए णं मल्लदिन्ने चित्तगरसेणिं सक्कारेइ सकारिता विपुलं जीवियाऽरिहं पीइदाणं दलेइ दलयित्ता पडिविसजेइ / तए णं मल्लदिन्ने अन्नया ण्हाइ / अंतेउरपरियालसंपरिवुडे अम्मधाईए सद्धिं जेणेव चित्तसभा तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता चित्तसभ अणुपविसइ अणुपविसित्ता हावभावविलासविव्वोयकलियाई रूवाइं पासमाणे पासमाणे जेणेव मल्लीए विदेहवररायकन्नाए तयाणुरूवे णिव्वत्तिए तेणेव पहारेत्थ गमणाए। तएणं से मल्लदिन्ने कुमारे मल्लीए विदेहवररायकन्नाए तयाणुरूवं निव्वत्तियं पासति पासित्ता इमेयारूवे अब्मथिए० जाव समुप्पञ्जित्था-एस णं मल्ली विदेहवररायकन्न त्ति कट्ट लजिए वीडिए विअडे सणियं सणियं पचोसक्कई / तए णं मल्लदिन्नं अम्मधाई पच्चोसक्तं पासित्ता एवं वदासी-किन्नं तुमं पुत्ता ! लज्जिए वीडिए विअडे सणियं सणियं पोसक्का? तते णं से मल्लदिने अम्मधातिं एवं वदासी-जुत्तं णं अम्मो ! मम जेठाए भगिणीए गुरुदेवयभूयाए लज्जणिज्जाए मम चित्तगरणिव्वत्तियं सभं अणुपविसित्तए ? तएणं अम्मधाई मल्लदिन्नं कुमारं व०- नो खलु पुत्ता ! एस मल्ली, एस णं मल्लीविदेह० चित्तगरएणं तयाणुरूवे णिव्वत्तिए। तते णं मल्लदिन्ने अम्मधाईए एयम8 सोचा असुरुत्ते एवं वयासी-केस णं भो चित्तयरए अपत्थियपत्थिए० जाव परिवज्जिए जे णं मम जेट्ठाए भगिणीए गुरुदेवयभूयाए० जाव निव्वत्तिए त्ति कट्ट तं चित्तगरं वज्झं आणवेइ / तए णं सा चित्तगरसेगी इमीसे कहाए लट्ठा समाणा जेणेव मल्लदिन्ने कु मारे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियं० जाव वद्धवेइ वद्धावेत्ता एवं वयासी-एवं खलु सामी ! तस्स चित्तगरस्स इमेयारूवा चित्तकरलद्धी लद्धा पत्ता अभिसमन्नागया, जस्स णं दुपयस्स वा० जाव णिवत्तेति तं मा णं सामी ! तुब्भे तं चित्तगरं वज्झं आणवेह। तं तुटभे णं सामी! तस्स चित्तगरस्स अनं तयाऽणुरूवं दंडं निव्वत्तेह / तए से मल्लदिन्ने तस्स चित्तगरस्स संडासगं छिंदावेइ छिंदावेइत्ता निव्विसयं आणवेइ / तए णं से चित्तगरए मल्लदिन्ने णं णिव्विसए आणत्ते समाणे सभंडमत्तोवगरणमायाए मिहिलाओ णयरीओ णिक्खमइ णिक्खमित्ता विदेहं जणवयं मज्झं मज्झेणं जेणेव हत्थिणाउरे नयरे जेणेव कुरुजणवए जेणेव अदीणसत्तू राया तेणेव उवागच्छइ उवागतिस्ता ची क्खेवं करेइ करित्ता चित्तफलग सज्जेइ सजित्ता मल्ली गित पायंऽगुट्ठाऽणुसारेण रूवं णिव्वत्तेइ णिवनिता : छु भइ छुमित्ता महत्थं 3, जाव पाहुडं गेम्हइ नेता णापुरं नयरं मज्झं मज्झेणं जेणेव अदीगस्तू सका। उवागच्छति उवागच्छित्ता तं करयल० जाद वद्धालेद वदाय पाहुडं उवणेति उवणित्ता एवं खलु अहं सामी ! माइलाः:. रायहाणीओ कुंभगस्स रन्नो पुत्तेणं पभावतोए देवाए अतए मल्लदिन्नेणं कुमारेणं निव्विसए आपत्ते समाणे इइ हवा" तं इच्छामि णं सामी ! तुभं बाहुच्छायापरिम्प इo in परिवसित्तए। तते णं से अदीणसत्तू राया तं जिनमरदारय वदासी-किन्नं तुमं देवाणुप्पिया ! मल्लदिण्णणं मा आणत्ते ? तए णं से चित्तयरदारए अदीणसत्तूरायं वदास एवं खलु सामी ! मल्लदिन्ने कुमारे अण्णया कयाई [ .. सद्दावेइ सद्दा (वे) वित्ता एवं वयासी-तुब्भे णं देवाणुपिया। मम चित्तसभं तं चेव सव्वं भाणियव्वं० जाव मा संडास छिंदावेइ छिंदावित्ता निट्विसयं आणवेइ, ते एवं खलु सामी मल्लदिन्नेणं कुमारेणं निव्विसए आणत्ते / तते णं अदो सद राया तं चित्तगरं एवं वदासी-से केरिसए णं देवाणुरियका तु मल्लीए तदाणुरूवे रूवे निव्वत्तिए ? तते णं से ni कक्खंतराओ चित्तफलयं णीणेति णीणित्ता अदीब सारा उवणे इ० त्ता एवं वयासी-एस णं सामी ! पल्लीका तयाणुरूवस्स रूवस्स केइ आगारभावपडोयारे नियलिए खलु सक्का केणइ देवेण वा० जावमल्लीए विदेहरायवरकाणगा तयाणुरूवे रूवे निव्वत्तित्तए / तते णं अदीणसत्तू पडितजगिराहासे दूयं सदावेति सहावित्ता एवं वदासी-तहेव० जानकार गमणयाए। (सूत्र-४३) तेणं कालेणं तेणं समएणं पंचाले जणवए कंपिल्लपुरे जयरे जियसत्तू नाम राथा पंचालाऽहिवई, तस्स णं जितसत्तुरस धारिणीपामोक्खं देविसहस्सं आरोहे होत्था। तत्थ गं मिहिलाए चोक्खा नाम परिवाइया रिउव्वेद० जाव की गिट्रिया याऽवि होत्था / तते णं सा चोक्खा परिवाइयामि ! राईसर० जाव सत्थवाहपमितीणं पुरतो दायर तित्थामिसेयं च सोयघम्मं च आमचे गाणी पण्णवे गाण परू वेमाणी उवदंसेमाणी विहरति / तते ण साकोला परिवाइया अन्नया कयाइ तिदंडं च कंदिर का धाउरत्ताओ यगेण्हइ मेण्हित्ता परिदाइगाऽऽinfi
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________________ 164 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मल्लि निक्खमइ पडिनिक्खमित्ता पविरलपरिव्वाइया सद्धिं संपरिवुडा मिहिलं रायहाणिं मज्झं मज्झेणं जेणेव कुंभगस्स रन्नो भवणे नेणेव कण्णंतेउरे जेणेव मल्लीविदेह० तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता उदयपरिफासियाए दब्भोवरि पच्चत्थुयाए भिसियाए निसीयति निसौयतित्ता मल्लीए विदेह० पुरतो दाणधम्म च० जाव विहरति / तते ण मल्ली विदेहा चोक्खं परिव्वाइय एवं वयासी-तुम्भे णं चोक्खे ! किं मूलए धम्मे पन्नत्ते ? तते णं सा चोक्खा परिटवाइया मल्लिं विदेहं एवं वयासी-अम्हं णं देवाणुप्पिए ! सोयमूलए धम्मे पण्णवेमि, जण्णं अम्हं किंचि असुई भवइ तण्णं उदएण य मट्टियाए० जाव अविग्घेणं सग्गं गच्छामो। तए णं मल्ली विदेह० चोक्खं परिव्वाइयं एवं वदासीचोक्खा ! से जहानामए केई पुरिसे रुहिरकयं बत्थं रुहिरेण चेव धोवेजा अत्थि णं चोक्खा ! तस्स रुहिरकयस्स वत्थस्स रुहिरेणं धोव्वमाणस्स काई सोही? नो इणढे समठे एवामेव चोक्खा ! तुम्मे णं पाणाइवाएणं, जाव मिच्छादसणसल्लेणं नऽत्थि काई सोही,जहा व तस्सरुहिरकयस्स वत्थस्स रुहिरेणं चेव धोळ्माणस्स।तएणं साचोक्खा परिवाइया मलीए विदेह० एवं वुत्ता समाणा संकिया कखिया विइ (ति) गिच्छिया / भेयसमावण्णा जाया याऽवि होत्था। मल्लीए णो संचाएति किंचि वि पामोक्खमाइक्खित्तए तुसिणीया संचिट्ठति। तते णं तं चोक्खं मल्लीए बहुओ दासचेडीओ हीलेंति निंदति खिसंति गरहंति अप्पेगतिया हेरुयालं ति अप्पे गइया मुहमकडिया करेंति अप्पे गइया बग्घाडीओ करेंति अप्पेगइया तज्जमाणीओ निच्छुभंति। तएणं सा चोक्खा मल्लीए विदेह० दासचेडियाहिं० जाव गरहिज्जमाणी हीलिजमाणी आसुरुत्ता०जाव मिसिमिसेमाणी मल्लीए विदेहरायवरकण्णाए पओसमावज्जति, मिसियं गेण्हति गेण्हित्ता कण्णंतेउराओ पडिनिक्खमति पडि निक्खमित्ता मिहिलाओ निग्गच्छति निग्गच्छित्ता परिव्वाइया संपरिवुडा जेणेव पंचालजणवए जेणेव कंपिल्लपुरे बहूणं राईसर० जाव परूवेमाणी विहरति / तएणं से जियसत्तू अन्नदा कदाई अंतेउरपरियालसद्धिं संपरिवुडे एवं० जाव विहरति। तते णं सा चोक्खा परिव्वाइया संपरिवुडा जेणेव जितसत्तुस्स रण्णो भवणे जेणेव जितसत्तू तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता अणुपविसति अणुपविसित्ता जियसत्तुं जएणं विजएणं वद्धावेति / तते णं से | जितसत्तू चोक्खं परि० एजमाणं पासति पासित्ता सीहासणाओ अन्भुट्टेति अब्मुट्ठित्ता चोक्खं सक्कारेति सक्कारेति सक्कारित्ता आसणेणं उवणिमंतेति। तते णं साचोक्खा उदगपरिफासियएक जाव मिसियाए निविसइ, जियसत्तुं रायं रज्जे य० जाव अंतेउरे य कुसलोदंतं पुच्छह / तते णं सा चोक्खा जियसत्तुरस रन्नो दासणधर्म च० जाव विहरति / तते णं से जियसत्तू अप्पणो ओरोहंसिक जाव विम्हिए चोक्खं एवं वदासी-तुम णं देवाणुप्पिया ! बहूणि गामाऽऽगर० जाव अडह, बहूण य रातीसरगिहाति अणुपविससि, तं अत्थि याइं ते कस्स वि रन्नो वा० जाव एरिसए ओरोहे दिहपुटवे जारिसए णं इमे मह उवरोहे ? तए णं सा चोक्खा परिव्वाइया जियसत्तुं (एवं वदासी) ईसिं अवहसिये करेइ करित्ता एव वयासी-एव च सरिसर णं तुम देवाणुप्पिया ! तस्स अगडददुरस्स? के णं देवाणुप्पिए ! से अगडददुरे ? जियसत्तू से जहानामए अगडददुरे सिया। से णं तत्थ जाए तत्थेव बुड्ढे अण्णं अगडं वा तलागं वा दहं वा सरं वा सागर वा अपासमाणे चेवं मण्णइ-अयं चेव अगडे वा० जाव सागरे वा, तए णं तं कूवं अण्णे सामुद्दए दद्दुरे हव्वमागए / तर णं से कूवदद्दुरे तं सामुद्ददददुरं एवं वदासी-से केस णं तुम देवाणुप्पिया ! कत्तो वा इह हव्वमागए ? तए ण से सामुद्दए दद्दुरे, तए णं से कूवदद्दुरे तं सामुद्दयं ददुरं एवं वयासीके महालए णं देवाणुप्पिया ! से समुद्दे ? तए णं से सामुद्दए ददुरे तं कूवददुर एवं वयासी-महालए णं देवाणुप्पिया ! समुहे। तएणं से ददुरे पारणं लीहं कड्ढेइ कड्डित्ता एवं वयासीए महालए णं देवाणुप्पिया ! से समुद्दे ? णो इणढे, समढे, महालए णं मे समुद्दे / तए णं से कूवदद्दुरे पुरच्छिमिल्लाओ तीराओ उप्पिडित्ता णं गच्छइ गच्छित्ता एवं वयासी-ए महालए णं देवाणुप्पिया ! से समुद्दे ? णो इणढे समढे / तहेव एवामेव तुम पि जियसत्तू अन्नेसिं बहूर्ण राईसर० जाव सत्थवाहपमिईण मजं वा भगिणी वा धूयं वासुण्हं वा अपासमाणे जाणेसि जारिसए मम चेवणं ओरोहे तारिसए णो अण्णस्सतं एवं खलु जियसत्तू ! मिहिलाए नयरीए कुंभगस्स धूता पभावतीए अत्तिया मल्ली नाम ति रूवेण य जुव्वणेण० जाव नो खलु अण्णा काई देवकन्ना वा जारिसिया मल्ली। विदेइवररायकण्णाए छिण्णस्स वि पायंड-- गुट्ठस्स इमे तवोरेहि सयसहस्सतिमंऽपि कलंन अग्घइत्ति कट्ट जामेव दिसंपाउन्मूया तामेव दिसंपडिगया। ततेणं से जितसत्तू परिव्वाइयाजणितहासे दूयं सहावेति सद्दावित्ता० जाव पहारेत्थ गमणाए 6 / (सूत्र-७४) तते णं ते सिं जियसत्तुपामोक्खाण छण्हं राईणं डूया
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________________ मल्लि 165 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मल्लि जेणेव मिहिला तेणेव पहारेत्थ गमणाए / तते णं छप्पि य दूतका जेणेव मिहिला तेणेव उवागच्छति उवागच्छिता मिहिलाए अग्गुजाणंसि पत्तेयं पत्तेयं खंधावाारनिवेसं करें ति करित्ता मिहिलं रायहाणी अणुपविसंति अणुपविसित्ता जेणेव कुंभए तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता पत्तेयं करयल० साणं साणं राईणं वयणातिं निवेदंति-तते णं से कुंभए तेसिं दूयाणं अंतिए एयमहूँ | सोचा आसुरुत्ते० जाव तिवलियं भिउडिं एवं वयासी-नदेमिणं अहं तुभं मल्लिं विदेहवरकण्णं ति कट्ट ते छप्पि दूते असक्कारिय असम्माणिय अवधारेणं णिच्छुभावेति / तते णं | जितसत्तुपामोक्खाणं छण्हं राईणं दूया कुंभएणं रन्ना असक्कारिया असम्माणिया अवदारेणं णिच्छुभाविया समाणा जेणेव सगा सगा जाणवया जेणेव सयातिं सयातिं गगराइं जेणेव सगा सगा रायाणो तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता करयलपरि० एवं वयासी-एवं खलु सामी ! अम्हे जितसत्तुपामोक्खाणं छण्हं राईणं दूया जमगसमगं चेव जेणेव मिहिला० जाव अवद्दारेणं निच्छुभावेति / तं ण देइ णं सामी! कुंभए मल्ली वि, साणं साणं राईणं एयमढे निवेदें ति / तते णं से जियसत्तुपामोक्खा छप्पि रायाणो तेसिं दूयाणं अंतिए एयमटुं सोचा निसम्म आसुरुत्ता अण्णमण्णस्य संपेसणं करें तिकरित्ता एवं वदासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं छहं राईणं या जमगसमगं चेद० जाव निच्छूढा, तं सेयं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं कुंभगस्स जत्तं गेण्हित्तए त्ति कट्ट अण्णमण्णस्स एतमढे पडिसुणे ति पडिसुणित्ता हाया सण्णद्धा हत्थिखंधवरगया सकोरंटमल्लदामा० जाव सेयवरचामराहिं० महया हयगयरहपवरजोहकलियाए चाउरं- | गिणीए सेणाए सद्धिं संपरिवुडा सव्विड्डीए० जाव रवेणं सएहि सरहिं नगरेहिंतो० जाव निग्गच्छंति निग्गच्छित्ता एगयओ मिलायंति 2 ताजेणेव मिहिला तेणेव पहारे त्थ गमणाए। तते णं कुंभए राया इमीसे कहाएलद्धऽ समाणे बलवाउयं सद्दावेति सद्दावित्ता एवं वदासी-खिप्पा मेव भो देवाणुप्पिया! हय० जाव सेणं सन्नाहेह० जाव पचप्पिणंति। ततेणं कुंभए ण्हाते सण्णद्धे हत्थिखंघवरगए सकोरंटवरदाममल्लए सेयवरचामरए महया० मिहिलं मझं मज्झणं णिज्जाति 2 त्ता विदेहं जणवयं मज्झं मज्झेणं जेणेव देसअंते तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता खंघावारनिवेसं करेति करित्ता जियसत्तुप्पामोक्खा छप्पि य रायाणो पडिवालेमाणे जुज्झसज्जे पडिचिट्ठति / तते णं ते जियसत्तुपामोक्खा छप्पि य रायाणो जेणेव कुंभए तेणेव उवागच्छन्ति उवागच्छित्ता कुभएणं रन्ना सद्धिं संपलग्गा याऽथि होत्था / तते णं ते जियसत्तुपामोक्खा छप्पि रायाणो कुंमय रायं हयमहियपवरवीरघाइयनिवडियचिंधद्धयप्पडागं किच्छप्पाणोवगयं दिसो दिसिं पडिसेहिति। तते णं से कुंभए जितसत्तु पाभोक्खेहिं छहिं राईहिं हयमहित० जाव पडिसेहिए समा अथामे अचवले अवीरिए० जाव अधरिसणिञ्जमित्ति कट्ट सिग्ध तुरियं० जाव वेइयं जेणे व मिहिला तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता मिहिलं अणुपविसति अणुपविसित्ता मिहिला दुबारातिं पिहेइ पिहेत्तारोहसजे चिट्ठति, तते णं ते जितसत्तु पामोक्खा छप्पि रायाणो जेणेव मिहिला तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता मिहिल रायहाणिं णिस्संचारं णिरुचारं सस्वत: समंताओ रुभित्ता णं चिट्ठति / तते से कुभए मिहिल रायहाणि रुद्धं जाणित्ता अब्भतरियाए उवट्ठाणसालाएसीहासणवरगए तेसि जितसत्तुपामोक्खाणं छहं रातीणं छिद्दाणि य विवराणि र मम्माणि य अलभमाणे बहूहिं आएहिय उवाएहि य उप्पत्तियाहि य०४ बुद्धीहिं परिणमेमाणे परिणामेमाणे किंचि आयं वा उवाय वा अलभमाणे ओहतमणसंकप्पे जाव झियायति / इमं च " मल्ली विदेहरायवरकण्णगा बहाया० जाव बहूहिं खुजाहिं परिवुडा जेणेव कुंभए तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता कुभगस्त पायग्गहणं करेति / तते णं कुंभए मल्लिं विदेहरायणों आढाति नो परियाणाइ तुसिणीए संचिट्ठति / तते णं मल्ली वि० कुंभग एवं वयासी-तुब्भे णं ताओ ! अण्णदा पमं एजमाण जाव निवेसेह। किण्णं तुब्मं अज ओहतमणसंकप्पा झियायह। तते णं कुंभए मल्लिं विदेह० एवं वयासी-एवं खलु पुत्ता !त. कले जितसत्तुपामुक्खेहिं छहिं रातीहिं दूया संपेसिया तेणं मर असक्कारिया० जाव निच्छूढा, तते णं ते जितसत्तुपामुक्खा तेसि दूयाणं अंतिए एयमढे सोचा परिकु विया समाणा मिहिलं रायाहाणिं निस्संचारं जाव चिट्ठति / तते णं अहं पुत्ता तेसिं जितसत्तामोक्खाणं छण्हं राईणं अंतराणि अलभमाणे० जाव झियायामि। तते णं सा मल्ली विदेहरायवरकण्णगा कुंभयं राय वयासी-माणं तुम्मे ताओ! ओहयमणसंकप्पा० जाव झियायह। तुम्भे णं ताओ ! तेसिं जियसत्तुपामोक्खाणं छण्हं राईज्ञं पत्तेयं पत्तेयं रहसियं दूयसंपेसे करेह / एगमेगं एवं वहह-तव देमि मल्लिं विदेहरायवरक ण्णं ति कट्ट संझाकालसमयं सि पविरलमणूसंसि निसंतसि पडिनिसंतंसि पत्तेयं मिहिलं रायहाणिं अणुप्पघेसेह 2 गब्मधरएसु अणुप्पवेसेह मिहिलाए राय
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________________ मल्लि 166 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मल्लि हाणीए दुवाराई पिधेह पिधेत्ता रोहसजे चिट्ठह, तते णं कुंभए एवं वयासी-तं चेव० जाव पवेसेतिरोहसजे चिट्ठति। तते णं ते जितसत्तुपामोक्खा छप्पि य रायाणो कल्लं पाउन्भूया० जाव जालंऽतरेहि कण्गमयं मतीयच्छिडं पउमुप्पलपिहाणं पडिमं पसति / एस णं मल्ली विदेहरायवरकण्ण त्ति कह मल्लीए विदेह० रूवे य जोवणे य लावण्णे य मुच्छिया गिद्धा० जाव अज्झोववण्णा अणिमिसाए दिट्ठीए पेहमाणा पेहमाणा चिट्ठति। ततेणंसा मल्ली विदेह० ण्हाया० जाव पायच्छित्ता सव्वालकार० बहूहिं खुजाहिं० जाव परिक्खित्ता जेणेव जालघरए जेणेव कणयपडिमा तेणेव उवागच्छद उवागच्छित्ता तीसे कणगपडिमाए मत्थयाओ तं पउमं अवणेति। तते णं गंधे णिद्धावति से जहा-नामए अहिमडेति वा०जाव असुभतराए चेव / तते णं ते जियसत्तुपामोक्खा तेणं असुभेणं गंधेणं अभिभूया समाणा सरहिं सएहिं उत्तरिजएहिं आसातिं पिहेंति पिहित्ता परम्मुहा चिट्ठति / तते णं सा मल्ली विदेह० ते जितसत्तुपामोक्खे एवं वयासी-किण्णं तुम्मे देवाणुप्पिया! सएहिंसएहिं उत्तरि हिं० जाव परम्मुहा चिट्ठह ? तते णं ते जितसत्तुपामोक्खा मल्लिं विदेह० एवं वयंति एवं खलु देवाणुप्पिए! अम्हे इमेणं असुभेणं गंधेणं अभिभूया समाणा सएहिं सरहिं० जाव चिट्ठामो। तते णं मल्ली विदेह० ते जितसत्तुपामुक्खे० ज ता देवाणुप्पिया ! अमीसे कणग० जाव पडिमाए कल्लाकल्लिं ताओ मणुण्णाओ असण पा०४ एगमेगे पिंडे पक्खिप्पमाणे पक्खिप्पमाणे इमेयारूवे असुभे पोग्गलपरिणाम इमस्स पुण ओरालियसरीरस खेलाऽऽसवस्स वंताऽऽसवस्स पित्ताऽऽसवस्स सुक्कसोणियपूयाऽऽसवस्स दुरूवऊसासनीसासस्स दुरूवमुत्तपूतियपुरीसपुण्णस्स सडण० जाव धम्मस्य के रिसए परिणामे भविस्सति ? तं माणं तुम्भे देवाणुप्पिया! माणुस्सएसु कामभोगेसु सज्जह रजह गिज्झह मुज्झइ अज्झोववजह / एवं खलुदेवाणुप्पिया ! तुम्हे अम्मे इमाओ तचे भवग्गहणे अवरविदेहवासे सलिलावतिसि विजए वीयसोगाए रायहाणीए महब्बलपामोक्खा सत्त वि य बालवयंसया रायाणो होत्था, सह जाया० जाव पव्यतिता / तए णं अहं देवाणुप्पियाया ! इमेणं कारणेणं इत्थीनामगोयं कम्मं निव्वत्तेमि जति णं तुब्भं चोत्थं उवसंपजित्ता णं विहरह / तते णं अहं छ8 उवसंप जित्ता णं विहरामि, सेसं तहेव सव्वं ततेणं तुम्मे देवाणुप्पिया! कालमासे कालं किया जयंते विमाणे उववणा तत्थ णं तुम्मे देसूणातिं वत्तीसातिं सागरोवमाइं ठिती, तते णं तुब्भे ताओ देवलोयाओ अणंतरं चयं चइत्ताइहेवजंबुद्दीवे दीवे०जाव साइं साइं रजाति उवसंपग्नित्ता णं विहरह / तते णं अहं देवाणुप्पिया ! ताओ देवलोयाओ आउक्खएणं० जाव दारियत्ताए पचायाया। "किं थ तयं पम्हुई, जंथ तया भोजयंतपवरंमि। बुत्था समयनिबद्धं, देवा ! तं संभरह जातिं // 1 // " तते णं तेसिं जियसत्तुपामोक्खाणं छहं रायाणं मल्लीए विदेह० अंतिए एतमढे सोचा णिसम्म सुभेणं परिणामेणं पसत्येणं अज्झवसाणेणं लेसाहिं विसुज्झमाणीहिं तयावरणिज्जाणं० ईहावूह० जाव सण्णि जाइस्समरणे समुप्पन्ने / एयमटुं सम्म अभिसमागच्छंति। तएणं मल्लीअरहा जितसत्तुपामोक्खे छप्पि रायाणो समुप्पण्णजाइस्समरणे जाणित्ता गब्भघराणं दाराई विहाडावेति। तते णं ते जितसत्तुपामोक्खा जेणेव मल्लीअरहा तेणेव उवागच्छंति उवगच्छित्ता तते णं महब्बलपामोक्खे सत्त विय वालवयंसा एगयओ अभिसमन्नागया याऽवि होत्था तते णं मल्लीए अरहा ते जितसत्तुपामोक्खे छप्पि य रायाणो एवं वयासी-एवं खलु अहं देवाणुप्पिया! संसारभयउविम्गा० जाव पव्दयामितं तुम्मेणं किं करेह किं ववसह० जाव किं भे हियसामत्थे ? जियसत्तु० मल्लिं अरहं एवं वयासी-जति णं तुन्भे देवाणुप्पिया! संसार० जाव पव्वयह अम्हे णं देवाणुप्पिया ! के अण्णे आलंवणे वा आहारे वा पडिबंधे वा जह चेव देवाणुप्पिया ! तुब्मे अम्हे इओतचे भवग्गहणे बहुसु कम्जेसु य मेढीपमाणं० जाव धम्मधुरा होत्था तहा चेव णं देवाणुप्पिया ! इम्हि पि० जाव भविस्सह, अम्हे वि य णं देवाणुप्पिया ! संसारमउद्विगा० जीव भीया जम्मणमरणाणं, देवाणुप्पियाणं सद्धिं० मुंडा भवित्ता० जाव पव्वयामो। तते णं मल्ली अरहा ते जितसत्तुपामोक्खे एवं वयासी-जेणं तुम्भे संसार०जावमएसद्धिं पव्वयह तं गच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया ! सएहिं सरहिं रोहिं जेटे पुत्ते रखे ठावेह ठावेत्ता पुरिससहस्सवाहिणीओ सीयाओ दुरूहह, दुरूढा समाणा मम अंतियं पाउन्मवह / तते णं ते जितसत्तुपामोक्खा मल्लिस्स अरहतो एतमह पडिसुणे ति। तते णं मल्ली अरहा ते जितसत्तु० गहाय जेणेव कुंभए तेणेव उवागच्छद उवागच्छित्ता कुंभगस्स पाएसु पाडे ति / तते णं कुंभए ते जितसत्तु० विपुलेणं असण पा०४ पुप्फवत्थगंधमल्लालंकारेण सकारेति० जाव पडिविसजेति, तते णं ते जितसत्तुपामोक्खा कुंभएणं रण्णा विसजिया समाणा जेणेव साइं साइं रजाति जेणेव नगरातिं तेणेव उवागच्छद उवागच्छित्ता सगाई रातिं
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________________ मल्लि 167 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मल्लि देसे बहूओ महाणससालाओ करेति, तत्थ णं बहवे मणुया दिण्णभइभत्तवेयणा विपुलं असण०४ उवक्खडेंति उवक्खडेत्ता जे जहा आगच्छंति तं० पंथिया वा पहिया वा करोडिया वा कप्पडिया वा पासंडत्था वा गिहत्था वा तस्स य तहा उवसंपज्जित्ता विहरंति। तते णं मल्ली अरहा संवच्छराऽवसाणे निक्खमिस्सामि त्ति मणं पहारेति। (सूत्र-७५) तेणं कालेणं तेणं समएणं सक्कस्याऽऽसणं चलति, तते णं सक्के देविंदे देवराया आसणं चलियं पासति पासित्ता ओहिं पउंजति पउजित्ता मल्लिं अरहं ओहिणा आभोएति आभोइत्ता इमेयारूवे अज्झथिए० जाव समुप्पज्जित्था-एवं खलु जंबुद्दीवे दीवे वासे मिहिलाए कुंभगस्त० मल्ली अरहा निक्खमिस्सामि त्ति मणं पहारे, तं नीयमे यंऽतीयवचुप्पन्नमणागवाणं सकाणं०३ अरहताण भगवंताणं निक्खममाणाण इमेयारूवं अत्थसंपयाणं दलिएर, तं जहा"सणेव य कोडिसया, अट्ठासीदिं च हो ति कोडीओ। असीतिं च सयसहस्सा, इंदा दलयंति अरहाणं / / 1 / / " एवं संपेहेति संपत्तिा वेसमणं देवं सद्दावेति सदावित्ता० एवं खलु देवाणुप्पिया! जंबुद्दीहे दीवे भारहे वासे० जाव असीति च सयसहस्साई दलइत्तए, तं गच्छह णं देवाणुप्पिया ! जंबुद्दीवे दीवे मारहे वासे कुंभगभवणं सि इमेयारूवं अत्थसंपदाणं साहराहि साहरित्ता खिप्पामेव मम एयमाणत्तियं पञ्चप्पिणाहि / तले णं से वेसमणे देवे सकेणं देविंदेणं एवं हटे करयल० जाव पडिसुणेइ पडिसुणित्ता भए देवे सद्दावेइसहाविता एवं वयासीगच्छह णं तुम्भे णं देवाणुप्पिया ! जम्बुद्दीवं दीवं भारहं वासं मिहिलं रायहाणिं कुंभगस्स रन्नो भवणंसि तिन्नेव य कोडिसया अदासीयं च कोडीओ असीयंभ मगसहस्साई अयमेयारूवं अत्थसंपयाणं साहरह साहरित्ता मम एयमाणत्तियं पचप्पिणह। तते णं ते जंभगा देवा वेसमणेणं० जाव सुणेत्ता उत्तरपुरच्छिम दिसीभागं अवक्कमंति अवक्कमित्ता० जाव उत्तरवेउव्वियाई रूवाई विउव्वति विउवित्ता ताए उक्किट्ठाए जाव वीईवयमाणा जेणेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे जेणेव मिहिला रायहाणी जेणेव कुंभगस्स रण्णो भवणे तेणेव उवागच्छंति 2 त्ता कुंभगस्स रन्नो मवणंसि तिन्नि कोडिसया० जाव साहरंति साहरित्ता जेणेव वेसमणे देवे तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता करयल० जाव पचप्पिणंति, तते णं से वेसमणे देवे जेणेव सक्के देविंदे देवराया तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता करयल० जाव पचप्पिणति / तते णं मल्ली अरहा कल्लाकल्लिं० जाव मागहओ पायरासो त्ति बहूर्ण सणाहाण य अणाहाण य पंथियाण य पहियाण य करोडियाण य कप्पडियाण य एगमेगं हिरण्णकोडिं अट्ठ य अणूणाति सयसहस्सातिं इमेयारूवं अत्थसंपदाणं दलयति, तए णं से कुंभए मिहिलाए रायहाणीए तत्थ तत्थ तहिं तहिं देसे / पा०४ परिभाएमाणा परिवेसेमाणा विहरंति, तते णं पिडितला सिंघाडग० जाव बहुजको स्स एवमातिक्खति एवं खलु देवाणुप्पिया ! कुंभगस्स रण्णो भवणंसि सव्वकामगुणिय किमिच्छियं विपुलं असणं पाणं०४ बहूणं गाण य० जार परिवेसिजति, "वरवरिया घासिञ्जति, किमिच्छियं दिजए बहुविहीयं / सुरअसुरदेवदाणव-नरिंदमहियाण निक्खमणे / / 1 / / " तते णं मल्ली अरहा संवच्छरेणं तिन्नि कोडिसया अट्ठासीति च हों ति कोडीओ असीतिं च सयसहस्साई इमेयारूवं अत्थसंपदाणं दलइत्ता निक्खमामि त्ति मणं पहारेति। (सूत्र-७६) तेणं कालेणं तेणं समएणं लोगंतिया देवा बंमलोए कप्पे रिष्ठे विमाणपत्थडे सएहिं सएहिं विमाणेहिं सरहिं सएहिं पासायवडिसएहिं पत्तेयं पत्तेयं चउहिं सामाणियसाहस्सीहिं तिहिं परिसाहिं सत्तहिं अणिएहिं सत्तहिं अणियाहिवईहिं सोलसहिं आयरक्खदेवसाहस्सीहिं अन्नेहि य बहूहिं लोगंतिएहिं देवेहि सद्धिं संपरिवुडामहया हयनट्टगीयवाइय० जाव रवेणं भुंजमाणा विहरइ, तं जहा "सारस्स य माइया, वण्ही वरुणा य गहतोयाय। तुसिया अव्वावाहा, अगिया चेव रिट्ठा य॥१॥" तते णं तेसिं लोयंतियाणं देवाणं पत्तेणं पत्तेय आसणाति चलति तहेव० जाव अरहताणं निक्खममाणार्थ संवाहणं करेत्तरत्ति तं गच्छाभो णं अम्हे वि मल्ल्स्सि अरहतो सब करेमि त्ति कट्ट एवं संपेहेंति संपे हित्ता उत्तरपुरच्छिमं दिसीभायं० वेउटिवयसमुग्घाएणं समोहणंति समोहणित्ता संखिज्जाई जोयणाई एवं जहा जंभगा० जाव जेणेव मिहिला रायहाणी जेणेव कुं भगस्स रनो भवणे जेणेव मल्ली अरहा तेणेव उवागच्छं ति उवागच्छित्ता अंतलिक्खपडि वन्ना सखिंखिणियाइं० जाव वत्थातिं पवरपरिहिया करयल० ताहिं इट्ठा० एवं वयासी-बुज्झाहि भगवं ! लोगनाहा पवत्तेहि धम्मतित्थं जीवाणं हियसुहनिस्सेयसकर भविस्सति त्ति कट्ट दोचं पितचं पि एवं वयंति वइत्ता मल्लिं अरहं वंदंति नमसंति वंदित्ता नमंसित्ता जामेव दिसिं पाउन्भूआ तामेव दिसिं पडिगया।तते णं मल्ली अरहा तेहिं लोगंतिएहिं देवेहिं संबोहिए स
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________________ मल्लि 168 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मल्लि माणे जेणेव अम्मापिअरो तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता करयल० इच्छामि णं अम्मयाओ, तुब्भेहिं अब्भणुण्णते मुंडे भवित्ता जाव पव्वतित्तए, अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं करेह / तते ण कुंभए कोडुबियपुरिसे सद्दावेति सद्दावित्ता एवं वदासी-खिप्पामेव अट्ठसहस्सं सोवणियाणं० जाव भोमेजाणं ति, अण्णं च महत्थं० जाव तित्थयराऽमिसेयं उवट्ठवेह० जाव उवट्ठति / तेणं कालेणं तेणं समएणं चमरे असुरिंदे० जाव अच्चुयपज्जवसाणा आगया, तते णं सक्के देविंदे देवराया आमिओ गिए देवे सद्दावे ति सद्दावित्ता एवं वदासी-खिप्पामेद अवसहस्सं सोवणियाण जाव अण्णं च तं विउलं उवट्ठवेह० नाव उवट्ठवें ति, ते वि कलसा ते चेव कलसे अणुपविट्ठा। तते गं से सक्के देविंदे देवराया कुंमराया मल्लिं अरहं सीहासणंसि पुरत्यामिमुहं निवेसेइ अट्ठसहस्सेणं सोवणियाणं० जाव अनिसिंचति / तते णं मल्लिस्स भगवओ अमिसेए वट्टमाणे अप्पमतिया देवा मिहिलंच सभितरं बाहिं जाव० सव्वतो समंता परिधावति, तए णं कुंभए राया दोच्चं पि उत्तरावक्कमणं० सव्वाऽलंकारविभूसियं करेति करित्ता कोडं वियपुरिसे सद्दावेइ सद्दावित्ता एव वयासी-खिप्पामेव मणोरमं सीयं उवट्ठवेह ते उवहर्वे ति, तते णं सक्के देविंदे देवराया आमिओगिए० खिप्पामेव अणगखभ० जाव मणोरमं सीयं उवट्ठवेह० जाव साऽवि सीया तं व सीयं अणुपविट्टा / तते णं मल्ली अरहा सीहासणाओ अउभुट्टेति अन्मुट्ठित्ता जेणेव मणोरमा सीया तेणेव उवागच्छा उवागच्छित्ता मणारमं सीयं अणुपयाहिणीकरेमाणा मणोरमं सीयं दुरूहति दुरूहित्ता सीहासणवरगए पुरत्थाभिमुहे सन्निसन्ने, तते गं कुंभए अट्टारससेणिप्पसेणीओ सद्दावेति सद्दावित्ता एवं वतासी-तुहमे गं देवाणुप्पिया ! पहाया० जाव सव्वालंकारविभूतिया मल्लिस्स सीयं परिवहह० जाव परिवहति / तते णं सक्के देविंदे देवराया मणोरमाए दक्खिणिल्लं उवरिल्लं वाहं गण्हति, चमरे दाहिणिल्लं हेट्ठिल्लं, वली उत्तरिल्लं हेडिल्लं अवसेसा देवा जहारिहं मणोरमं सीयं परिवहति। "पुट्विं उक्खित्ता माणु-स्सेहिंतो हट्ठरोमकूवेहिं। पच्छा हवंति सीयं, असुरिंदसुरिंदनागिंदा।।१।। जलचवलकुंडलघरा, सच्छंदविउव्वियाऽऽभरणधारी। देविंददाणविंदा, वहंति सीयं जिणिंदस्स // 2 // " तते णं मल्लिस्स अरहओ मणोरमं सीयं दुरूढस्स इमे अट्ठऽद्वमंगलगा पुरतो अहाणु० एवं निग्गमो जहा जमालिस्स / तते णं मल्लिस्स अरहतो निक्खयमाणस्स अप्पेगइया देना मिहिलं आसिय० अभितरवासविहिगाहा०जावपधावंति, तते णं मल्ली अरहा जेणेव सहस्संववणे उज्जाणे जेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता सीयाओ पचोरुहति पचोरुहित्ता आभारणाऽलकारं पभावती पडिच्छति / तते णं मल्ली अरहा सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेति, तते गं सक्के देविंदे देवराया मल्लिस्स केसे पडिच्छति, खीरोदगसमुद्दे पक्खिवइ / तते णं मल्ली अरहा णमोऽत्थु णं सिद्धाणं ति कट्ट सामाइयचरित्तं पडिवज्जति, जं समयं च णं मल्ली अरहा चरित्तं पडिवज्जति, तं समयं च ण देवाणं माणुसाण य णिग्घोसे तुरियनिणायगीयवातियनिग्घोसे य सक्कस्स वयणसंदेसेण तिलुक्के याऽवि होत्था। जं समयं च ण मल्ली अरहा सामातियं चरित्तं पडिवन्ने तं समयं च णं मल्लिस्स , हतो माणुसधम्माओ उत्तरिए मणपज्जवनाणे समुप्पन्ने / मल्ली णं अरहा जे से हेमंताणं दोचे मासे चउत्थे पक्खे पोससुद्धे तस्स णं पोससुद्धस्स एक्कारसीपक्खेणं पुवऽग्रहकालसमयंसि अट्ठमेणं भत्तेणं अपाणएणं अस्सिणीहिं नक्खत्तेणं जोगमुवागएण तिहिं इत्थीसएहिं अभितरियाए परिसाए तिहिं पुरसिसएहिं बाहिरियाए परिसाए सद्धिं मुंडे भवित्ता पव्व्इए, मल्लिं अरहं इमे अट्ट रायकुमारा अणुपव्वइंसुः तं जहा"णंदे य णंदिमित्ते, सुमित्तें बलमित्ते भाणुमित्ते य! अमरवति अमारसेणे, महसेणे चेव अट्ठमए ||1||" तएणं से भवणवइ-बाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिया मल्लिस्स अरहतो निक्खमणमहिमं करें ति करित्ता जेणेव नंदीसरवरे० अट्ठाहियं करेंति करित्ता० जाव पडिगया। तते णं मल्ली अरहा जं चेव दिवसं पय्वतिए तस्सेव दिवस्स पुव्वाऽ(पच) वरण्हकालसमयंसि असोगवरपायवस्स अहे पुढविसिलावट्टयंसि सुहासणवरगयस्स सुहेणं परिणामेणं पसत्थेहिं अज्झवसाणेहि पसत्थाहिं लेसाहिं विसुज्झमाणीहिं तया वरणकम्मरयविकरणकर अपुव्वकरणं अणुपविट्ठस्स अणंते० जाव केवलनाणदसणे समुप्पन्ने / (सूत्र-७७) तेण कालेणं तेणं समएणं सव्वदेवाणं आसणातिं चलंति समोसढा सुणेति अट्ठाहियमहाम० नंदीसरं जामेव दिसं पाउ० कुंभए वि निगच्छति / तते णं ते जितसत्तुपामुक्खा छप्पि य० जेट्टपुत्ते रजे ठावेत्ता पुरिससहस्सवाहिणीयाओ दुरूढा सव्विड्डीएजेणेव मल्ली अर० जाव पज्जुवासंति, तते णं मल्ली अर० तीसे महालियाए कुंभगस्स तेसिंच जियसत्तुपामुक्खाणं धम्मं कहेतिपरिसा जामेव
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________________ मल्लि 166 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मसाण दिसिं पाउन्भूया तामेव दिसिं पडिगया / कुंभए समणोवासए कासीराया अदीणसत्तू कुरुराया जियसत्तू पंचालराया। स्था०७ जाते, पडिगए पभावती य / तते णं जितसत्तू छप्पि रायाणो ठा०। धम्म सोचा आलित्तएणं भंते ! जाव पव्वइया, चारेहसपुट्विणो श्रीमल्लिजिनस्य द्वादशपर्षदामवस्थितिर्देशनादौ सर्वजिनवत्किया अणते केवले सिद्धा / तते णं मल्ली अरहा सहसंववणाओ भिन्नत्वमिति प्रश्ने, उत्तरम् - देशनाकाले द्वादशपर्षदामवस्थितिनिक्खमति निक्खमित्ता वहियाजणवयविहारं विहरइ, मल्लिस्स स्सजिनसभाना वैयावृत्त्यं तु साध्वयः कुर्वन्तीति। 146 प्र०। सेन०३ णं भिसगपामोक्खा अट्ठावीसं गणा, अट्ठावीसंगणहरा होत्था। उल्ला०। मल्लिस्स णं अरहओ चत्तालीसं समणसाहस्सीओ उक्को० मल्लिक पारसीकः (मल्लिक) शब्दः / स्वामिनि, ती०३६ कल्प। बंधुमतिपामोक्खाओ पणपण्णं अज्जियासाहस्सीओ उक्को० मल्लिजिण पुं० (मल्लिजिन) एकोनविंशे अवसर्पिणीतीर्थकरे, प्रव०२७ सावयाणं एगासतसाहस्सी चुलसीतिं सहस्सा० सावियाणं तिन्नि द्वार। आ० चू०। सयसाहसीओ पण्णद्धिं च सहस्सा छस्सया चोद्दसपुव्वीणं वीसं / मल्लिज्झयण न० (मल्लयध्ययन) श्रीज्ञातासूत्रेऽष्टमाध्ययने अदीनशत्रुसया ओहिनाणीणं वत्तीसं सया केवलणाणीणं पणतीसं सया राजस्य मल्लीस्वरूपाऽवगमाधिकारे, "तए णं से मल्लदिन्ने कुमारे तस्स वेउव्वियाणं अट्ठ सया मणपञ्जवनाणीणं चोइस सया वाईणं वीसं चित्तगरस्स संडासगं छिंदावेति," इत्यत्र संदंशकशब्देन किमुच्यते ? सया अणुत्तरोववातियाणं / मल्लिस्स अरहओ दुविहा तस्य किं छेदितम् ? वृत्तौ व्याख्यातं न दृश्यते / आवश्यकवृत्त्युपअंतगडभूमी होत्था, तं जहा-जुयंतकरभूमी परियायतकरभूमी देशमालादौ घट्टीवृत्तिश्राद्धविधिप्रमुख-ग्रन्थेषु मृगावतीसंबन्धे सदशक य० जाव वीसतिमाओ पुरिसजुगाओ जयंतकरभूमी, दुवालस- एव लिखितोऽस्ति, परं संदंशकस्यैवार्थः कः ? तेन तस्यार्थः साक्षर परियाए अंतमकासी / मल्ली णं अरहा पणुवीसं धणूतिमुहूं प्रसाद्य इति प्रश्ने, उत्तरम्- संदंशकशब्देनात्राड्डष्ठप्रदेशिन्योरग्रमुच्यते उचतेणं वण्णेणं वियंगुसमे समचउरंससंठाणे वञ्जरिसभनाराय- यतो विशेषावश्यकवृत्तौ चित्रकरसम्बन्धाधिकारे निरपाराधस्यैकचित्रसंधयणे मज्झदेसे सुहं सुहेणं विहरित्ता जेणेव सम्मेयपव्वए करस्याङ्गुष्ठप्रदेशिन्योरगं छेदितं शतानीकनरपतिनेत्युक्तमस्तीति। 171 तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता संमेयसेलसिहरे पाओवगमणुव- प्र०। सेन०३ उल्ला०। वण्णे मल्लीण य एगं वाससतं आगारवासं वाससहस्सातिं | मल्लियच्छ त्रि० (मल्लिकाक्ष) मल्लिका-विचकिलस्तद्वदक्षिणी यस्य वाससयऊणाति केवलिपरियागं पाउणित्ता पणपण्णं वाससह- समल्लिकाक्षः / शुक्लाक्षे,"हरिमेलामउलमल्लियच्छाणं''। औ०। स्साइंसव्वाउयं पालइत्ताजे से गिम्हाणं पढमे मासे दोचे पक्खे मल्लिया स्त्री० (मल्लिका) विचकिलपुष्पे, यल्लोके वेलीति प्रसिद्धम्। चित्तसुद्धे तस्स णं चेतसुद्धस्स चउत्थीए भरणीए णक्खत्तेणं जं०३ वक्ष०। ज्ञा० / औ०। उत्त०1 स्नानमल्लिकाविशेषे, आ०म०१ अद्धरत्तकालसमयंसि पंचहिं अञ्जियासएहिं अभितरियाए अ०। कल्प० / प्रज्ञा०। परिसाए पंचहिं अणगारसएहिं बाहिरियाए परिसाए मासिएणं मल्लियामंडव पुं० (मल्लिकामण्डप) मल्लिकामये मण्डपे, जी०३ भत्तेणं अपाणएणं वग्घारियपाणी खीणे वेयणिजे आउए नामे गोए / प्रति०४ अधि०। सिद्ध एवं परिनिव्वाणमहिमा भाणियव्वा जहा जंबुद्दीवण्णत्तीए, / मल्लिणाय न० (मल्लिज्ञान) मल्ली एकोनविंशतितमजिनस्थानोत्पन्ना नंदीसरे अट्ठाहियाओ पडिगयाओ। एवं खलु जंबू ! समणेणं | तीर्थकरी सैवज्ञानम्।ज्ञाताधर्मकथाया अष्टमेऽध्ययने, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। भगवया महावीरेणं अट्ठमस्स नायज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते | मल्लिसेण पुं० (मल्लिषेण) नागेन्द्रगच्छीये उदयप्रभसूरिशिष्ये, स च त्ति वेमि। (सूत्र 78) ज्ञा०१० अ०। 1214 शके वर्तमान आसीत्। स्याद्वादमञ्जरीम्- अन्ययोगव्यवच्छेदिका मल्ली णं अरहा पणवीसं धणू उर्ल्ड उच्चत्तेणं होत्था। (स०२५ | टीकां च ध्यरीरचत्। जै०इ०1 यम०।) मल्लिस्स णं अरहओ पणपन्नवाससहस्साई परमाउं | मल्हणं (देशी) लीलायाम्, दे० ना०६ वर्ग०११६ गाथा। पालइत्ता सिद्धे बुद्धे० जाव सव्वदुक्खप्पहीणे / स०५४ सम०। मस पुं० (मष) चणकाकृतौ शरीरोत्थे कृष्णवर्णे गोलमांसे, अनु०। मल्लिवक्तव्यता प्रतिबद्धे अष्टमे ज्ञाताध्ययने, स०१८ सम०। आचूना मसग पुं० (मशक) चतुरिन्द्रियजन्तौ, उत्त०३६ अ०। आचा० / विशे०1 भरतवर्षे भविष्यत्येकोनविंशे तीर्थकरे, (समवायाने त्वयं विवादशब्दे- आ० क० / जं०। प्रश्न० 1 औ०। ज्ञा०। नोक्तः / प्रव०७ द्वार) प्रश्न०। आव०॥ मसगघर न० (मशकगृह) स्वनामख्याते मशकनिवारणे पर्यङ्कच्छादनमल्ली णं अरहा अप्पसत्तमे मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं वस्त्रे, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०1 पध्वइए, तं जहा-मल्लिविदेहरायवरकण्णगा पडि बुद्धी मसाण न० (श्मशान)"आदेः श्मश्रुश्मशाने" ||16| इक्खागराया नंदच्छाए अंगराया रुप्पी कुणालाऽहिवई संखे इत्यादे लुक् / मसाण / प्रा०२ पाद / पितृवने , दश०१०
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________________ मसाण 170- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 महई अाशवस्थाने, स्था०१० ठा०। आ०म०। प्रेतवने, "पेअवणं पिउवणं / चर्मधृते कूपादिपूर्ण वल्वलगदिकादिके, बृ०३ उ०। मसाणं च" पाइ० ना०१५८ गाथा। मह धा० (काङ्गा) गृद्धौ, "का राहाहि लक्षाहि लक वच्चवफ-मह मसाणपाल पुं० (श्मशानपाल) शवदाहस्थानरक्षके, "उज्झति स्म सिह विलुम्पाः "|४/१९शा इति काझतेर्महादेशः। महइ। कंखइ। स्मशाने सा, रक्तकम्बलयेष्टितम् / श्मशानालो मातङ्गः, प्रेक्ष्य पत्न्यै प्रा०४ वाद। "मे मइ मम मह महंमज्झमज्झं अम्ह अम्हं ङसा" तमर्पयत्' / / 1 / / आ०क०४ अ० / आव०। 18 / 3 / 113 / / अस्मदो डसा षष्ठ्येकवचने महादेशः महाममा प्रा०३ मसाणपिउ पुं० (श्मशानपितृ) स्वनामख्याते यक्षे, "मसाणमज्झे / पाद। मसापांपेउना- जक्खो अइप्पसिद्धो अधि दर्श०१ तत्त्व। मह महपुजायामिति धातोः विपि महः गा० आम०१ अ / मसाणससामंत पु० (श्मशानसामन्त) श्मशानसमीपे, स्था०१० ठा०। प्रतिनिरातदिवसभाविन्युत्सेव, 02 वक्षः। मसार पु० (मसार) मसृणीकारक पाषाणविशषे, डा०५ (010 / / महत् त्रि० विस्तीर्णे, चं०प्र०१७ पाहु / सूत्र० 1 विशाले, 10 / प्रवले, मसारगल्ल पुं० (मज़ारगल्ल) रत्नविशेषे, ज्ञा०१ श्रु०१ अ० / उत्त०। आचा०१ ध्रु०५ अ याने, आव०४ अ| उत्सवे, न०।"छण सूत्र० / रा०। प्रज्ञा०। जं०। आ०म०। स्था०। महं (838)" पाइ० ना०२४८ गाथा। मसारगल्लकांड न० (मसारगल्लकाण्ड) मसारगल्लप्रभे रत्नपभाया। महअर (देशी) गहरपतौ, दे० ना०६वर्ग०१२३ गाथा। नरकपृथ्व्याः काण्डे, स्था०१०ठा०। महइमहालय त्रि० (महातिमहाल (ता-स्त्री०)) महती चासावतिमहती मसिस्त्री० (मषि (श्री)) कज्जले, भ०१५ श० ज०मषीप्रधाने भाजने, चेति महातिमहती तस्यै। आलप्रत्ययश्चेह प्राकृतप्रभवः / महान्तश्च ज्ञा०१ श्रु० अ० / मनुष्योपलक्षिते लेखनजीविनि, पुं०।त०1 तेऽतिमहालयाश्चेति महातिमहालयाः / अथवा-लय इत्येतसय मसिगुलिया स्त्री० (मषीगुलिका) घोलितकज्जलगुटिकायाम्, जी०३ स्वार्थिकत्वान्महातिमहान्त इत्यर्थः / स्था०३ ठा०४ उ०। रूढिवशादप्रति०४ अधि०। तिमहति, ध०३ अधि०।"तए ण तेथेरा भगवंतो तेसिं समणोवासयाण मसिण मसृण "मसृण मृगाङ्क मृत्यु शृङ्गघृष्टे वा" ||1 / 130 / / तीसे य महइमहालियाए परिसाए चाउज्जामं धम्म परिकहेंति" भ०२ इति ऋत इदा / मसिणं / मसणं / प्रा०१ पाद / कोमलत्वचि, रा०। श०५ उ०। रा० / स्था०।महामहान्त इति वक्तव्ये समयभाषया 'महइसुकुमारस्पर्श, बृ०३ उ० / औ० / अपरुषे, औ० / नि००६ उ० / महालया'' इम्युक्तम् / स्था४ ठा०२ उ०। विपा० (''महामहालया' श्लक्ष्णे, स्था०४ ठा०२ उ० / विशे०। रम्ये, दे० ना०६ वर्ग 118 गाथा / इति पदं 'कुरा' शब्दे तृतीयभागे 586 पृष्ठे विस्तरतः व्याख्यातम्) मन्दे, "मसिणं मणि मट्ठ, मंदं अलसं जड़ मरालं च। खेल निहअं दो कुराओ पण्णत्ताओ। देवकुरा चेव, उत्तरकुरा चेव / तत्थ सइर वीसत्थं मशरं थिमि॥१५।।' पाइ० ना०१५ गाथा। कोमले, दो महतिमहालता महदुभा पण्णत्ता त जड़ा-सालम.ली पाइ० ना०६१ गाथा। चेव, पउमरुक्खे चेव। (63*) स्था०२ ठा०३ उ०। मसिणिअ त्रि० (मसृणित) चिक्कणे, "रोसाणीअं मसिणिों" (664) महतिमहालियं महती चासौ अतिमहालिका च गुर्वी महातिमहालिका पाइ० ना०२२४ गाथा। अत्यन्तगुरुका इत्यर्थः। विपा०१ श्रु०३ अ०। मसीद अयं (मसीति) पारसीकः शब्दः / अल्लोपासनस्थाने यवनानां अतिमहत आहदेवालये, श्रीवस्तुपालेन चतुःषष्टिर्मसीतयः कारिताः, दक्षिणस्यां श्रीपर्वत तओ महइमहालया पण्णत्ता। तं जहा-जंबुद्दीवे मंदरे, मंदरेसु / यावत् पश्चिमायां प्रभासं वावत् उत्तरस्यां केदारं यावत् पूर्वस्यां वाराणसी सयंभुरमणे समुद्दे, समुद्देसु / बंभलोए कप्पे, कप्पेसु। (205) यावत्। ती०४१ कल्प। द्विरुचारणं च महच्छब्दस्य मन्दरादीनां सर्वगुरुत्वख्यापनार्थम् / मसीमूसा स्त्री० (मषीमूषा) मषीप्रधाना मूषा। मषीप्रधाने ताम्रादिधातु- अव्युत्पन्नो वा अयमतिमहदर्थेवर्तत इति (मंदरेसुति) मेरुणं मध्ये जम्बूप्रतापनभाजने, मषी च भूषकश्चेति द्वन्द्वे। कज्जलोन्दुरुविशेषयोः पुं०। द्वीपकस्य सातिररेकलक्षयोजनप्रमाणत्वाच्छेषाणां चतुर्णा सातिरेकज्ञा०१ श्रु०८ अ०। पञ्चाशीतियोजनसहस्रप्रमाणत्वादिति / स्वयंभूरमणो महान् सुमेरोरामसूर पुं० (मसूर) स्वनामख्याते धान्यभेदे, आचा०१ श्रु०१ अ०५ उ०। रभ्य तस्य शेषसर्वद्वीपसमुद्रेभ्यः समधिकप्रमाणत्वात् तेषांतस्य चक्रमेण प्रक० / प्रज्ञा० / भिलिङ्गे, चणकिकायाम्, इत्यन्ये / (सूत्र 246) भ०६ किंचिन्न्यूनाधिकरज्जुपादप्रमाणत्वादिति / ब्रहालोकस्तु महान् तत्प्रदेशे श०७ उ० / मसूरो मालवादिदेशप्रसिद्धा धान्यविशेषाः / जं०२ वक्ष०। पञ्चरजुप्रमाणत्वाल्लोकविस्तरस्य तत्प्राणतया च विवक्षितत्वात् ब्रह्मविशे० / प्रज्ञा०। मसूरः चणकः / दशा०६ अ०।"मसूरा चणझ्याओ।" लोकस्येति। स्था०३ ठा०४ उ०। स्था०५ ठा०३ उ० / लोमयुक्ते पक्षिभेदे, प्रज्ञा०१ पद / मसुरग पुं० महई स्त्री० (महती) वाद्य विशेषे, रा० / प्रौढायाम् , सूत्र०१ (मसूरक) आसनविशेषे, धान्यविशेषे च दर्श०५ तत्त्व / ज्ञा० / कल्प०। | श्रु०४ अ०२ उ० / महाविषयायाम्, प्रश्न०४ आश्र० द्वार।
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________________ मंहई 171 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 महंत प्रशस्तायाम्, विपा०१ श्रु०३ अ०भ० / सर्वधर्मानुष्ठानानां बृहत्त्याम, प्रश्न० "पहंति त्ति" सर्वधर्मानुष्ठानानां बृहती, आह च-''एक चिअ / एत्थ वयं, निद्दिढ जिणवरेहिं सव्वेहिं / पाणाऽतिवायविरमणमवसेसा / तस्स रक्खा य" ||1|| प्रश्न०१ संव० द्वार। महंगो (देशी) उष्ट्र, दे० ना०६ वर्ग 117 गाथा। महंत त्रि० (महत्) शीघ्रादित्वात्तथारूपम् / प्रा०२ पाद: बृहत्तरे, सूत्र०२ 302 अनविस्तीणे, सूब०१ श्रु०५ अ०२ उ०। महाविस्तीर्णे, निशाल.. गुरम, परन०४ सव०० द्वारा प्रस्त, 14401 श्रु०३ अ०। सूत्र० / तत्रमहच्छब्दनिक्षेपार्थं नियुक्तिकृदाहणामं ठवणा दविए, खेत्ते काले तहेव भावे य। एसो खलु महंतम्मि, निक्खेवो छव्विहो होति / / 142 / / (णाम उदाणेत्यादि) नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालभावाऽऽत्मको महति डिवधो निक्षेपो भवति-तत्र नामस्थापने, सुज्ञाने। द्रव्यं महदागमतो, नो आगमतश्च / आगमतो ज्ञाता तत्र चानुपयुक्तः, नोआगमतस्तुज्ञशरीरभव्यक्षरीरव्यतिरिक्त सचित्ताऽचित्तमित-श्रभेदात्विधा / तत्रापि सचित्तद्रव्यं महत् औदारिकादिकं शरीरम्, तत्रौदारिक योजनसहस्त्रपरिमाणं मत्स्यशरीरम्, वैक्रिय तु योजनशतसहस्त्रपरिमाणम्, तैजसकार्मणे तु लोकाऽऽकाशप्रमाणे, तदेतदोदारिकवैक्रियतैजसकार्मणरूप चतुर्विध द्रव्यं सचित्तमहद् / अचित्तमहत् -समस्तलोकव्याप्यचित्तमहास्कन्धः, मिश्रं तु तदेव मत्स्यादिशरीररम्, क्षेत्रमहत् लोकाकाशं, कालमहत् सर्वाऽद्धा, भावमहदोदयिकादिभावरूपतया षोढा / तत्रौदयिको भावः सर्वसंसारिषु विद्यत इति कृत्वा बहवाश्रयत्वान्महान् भवति। कालतोऽप्यसौ त्रिविधः / तद्यथा-अनाद्यपर्यवसितोऽभव्यानाम्, अनादिनपर्यवती भव्यान, सादिसपर्यवासतो नारकादीनागिति क्षायिकस्तु केवलज्ञानदर्शनात्मकः साद्यपर्यवसितत्वात्, कालतो महान् आयौपशमिकोऽप्याश्रयबहुत्वादनाद्यपर्यवसितत्वा च महानिति / औपशमिकोऽपि दर्शनचारित्रमोहनीयानुदयतया शुभभावत्वेन च महान् भवति। पारिणामिकस्तु समस्तजीवाजीवाश्रयत्वादाश्रये महत्वान्महानिति / सान्निपातिकोऽप्याश्रयबहुत्वादेय महानिति। सूत्र०२ श्रु०२ अ०। महदभिधित्सुराहणाम ठवणा दविए, खेत्ते काले पहाणे पइभावे। एएसि महंताणं, पडिवक्खे खुड्डया होति / / 178|| नाममहत्- महदिति नाम, स्थापनामहत-महदिति स्थापना, द्रव्यमहान्- अचित्तमहास्कन्धः / दश०३ अ०। तत्रागमतो ज्ञातानुपयुक्तो | द्रव्यमहत्, नोआगमतो ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तम् द्रव्यमहत्, अचित्तमहास्कन्धः दण्डादिकरणेन यश्चतुर्भिः समयैः सकललोकमापूरयति / (उत्त० पाई 6 अ०) क्षेत्रमहल्लोकालोकाकाशम्, कालमहान- अतीतादिभेदः सम्पूर्णः कालः। प्रधानमहत्- सचित्ताचित्तमिश्रभेदात्, सचित्तं त्रिविधम्, द्विपदचतुष्पदापदभेदात्। तत्र द्विपदाना तीर्थकरः प्रधानः, चतुष्पदानां हस्ती, अपदानां पनसः, अचित्तानां वैद्धर्य रत्नम, मिश्राणां तीर्थकर एव वैडूर्यादिविभूषितः प्रधानः इत्यत एव चैतेषा महत्त्वमिति प्रतीत्य महद् आपेक्षिकम, तद्यथा-आमलकं प्रतीत्य महरा विल्वम्, विल्वं प्रतीत्य कपित्थामित्यादि / भावमहत्त्रिविधम्, प्राधान्यतः कालतः आश्रयतश्चेति। प्राधान्यतः क्षायिको महान् मुक्तिहेतुत्वेन तस्यैव प्रधानत्वान, कालतः परिणामिकः जीवत्वाजीवत्वपरिणामस्यानाद्यपर्यवसितत्वान्न कदाचिजीवा अजीवतया परिणमन्ते अजीवाश्च जीवतयति, आश्रयतस्यौदयिक प्रभूत (संसारि) सत्त्वाश्रयत्वात, सर्वसंसा रिणामेवासौ विद्यत इति।दश०३ अ०भुत्वे, यौ मायाम, औ०। महच्छब्दस्य बहवोऽर्थाः। तथाहिमहच्छब्दो बहुत्वे, यथा महाजन इति। अस्ति बृहत्त्वे, यथा महाघोषः / अस्तीत्यर्थे, यथ महाभयमिति। अस्ति प्राधान्ये यथा महापुरुष इति तवेह प्राधान्ये वर्तमानो गृहीत इति। एतन्नियुक्तिकारोदर्शयितुमाहपाहन्ने महसद्दो, दव्वे खेत्ते य कालभावे य: तत्र महावीरस्तव इत्यत्र यो महच्छब्दः स प्राधान्ये वर्तमानो गृहीतः, तच नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालभावभेदात् षोढा / प्राधान्ये नामस्थापने क्षुण्णे, द्रव्यप्राधान्यं ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्त सत्तिाचित्तमिश्रभेदात् त्रिधा। सचित्तमपि द्विपदचतुष्पदापदभेदात् त्रिधैव। तत्र द्विपदेषु तीर्थकरचक्रवादिकम्, चतुष्पदेषु हस्त्यश्वादिकम्, अपदेषु प्रधान कल्पवृक्षादिकम्, यदिवा-इहैव ये प्रत्यक्षा रूपरसगन्धस्पर्शरुत्कृष्टाः पौण्डरीकादयः पदार्थाः, अचित्तेषुवैडूर्यादयो नानाप्रभावा मणयो, मिश्रेषु तीर्थकरो विभूषित इति / क्षेत्रतः प्रधाना-सिद्धिः धर्मचरणाश्रयणान्महाविदेहं च, उपभोगाङ्गीकरणेन तु देवकुर्वादिक क्षेत्रम्, कालतः प्रधान त्वेकान्तसुषमादि, यो वा कालविशेषो धर्मचरणप्रतिपत्तियोग्य इति / भावप्रधानं त क्षायिको भावः तीर्थकरशरीरापेक्षयौदयिको वा, तत्रेह द्वयनाप्यधिकार इति ! सूत्र०१ श्रु०६ अ० / आ०म० / दीर्घ, ज्ञा०१ श्रु०८ अ०। महत्तत्वे, सत्त्वरजस्तमोरूपात्प्रधानान्महान्-बुद्धिरित्यर्थः / सूत्र०१ श्रु०१ अ०१ उ०। महत्त्वं मेरोरपि महत्तरशरीरकरणसामर्थयम्, तथा प्राप्तिभूमि ठस्याडल्यग्रेण मेरुपर्वताग्रप्रभाकरादिस्पर्शनसामर्थ्य - मिति योगशास्त्रवृत्तौ-"कफविपुण्मलामर्शसौषधिमहर्द्धयः' इत्यस्य व्याख्याने प्रोक्तमस्ति परमत्रोत्कर्षतोऽप्युत्सेधाङ्गुलमानेन लक्षयोजनप्रमाणस्य वैक्रियशरीरस्य संभवान्मेरोरपि महत्तरशरीरकरणं, भूमिष्ठस्थाडल्यग्रेण मेग्रादिस्पर्शनं कथं घटते? इति प्रश्ने, उत्तरम्- यद्यपि "सरीरमुस्सेहंऽगुलेण तह त्ति" उत्सेधाङ्गुलेन शरीरमानमुक्तमस्ति, तथापि तत्प्रायिकं संभाव्यते तेन न काप्यनुपपत्तिः / अन्यथा भूमिष्ठस्याङ्गुल्यग्रेण मेरुपर्वताग्रादिस्पर्शासंभवात् / किं च-यद्येकान्ततः शरीरमुत्सेधाजुलेनैव स्यात्, तदा प्रज्ञापनोपागादावुक्तो द्वादशयोजनप्रमाणशरीरोऽसालिकाजीवो महाविदेहादिवक्रिणां प्रमाणाङ्गुलेन द्वरादशयोजनप्रमाणस्य स्कन्धावारस्य विनाशहेतुः कथं संभवति / कथं वा कृतलक्षयोजनवैक्रियरूपेण सौधर्मदेवलोकं गतेन चमरेन्द्रेण एकः पादः पद्मवरवेदिकायां मुक्तोऽपरश्च सुधर्मासभायामित्यादिकं भगवत्याधुक्तं संभवतीति। प्र०। सेन०२ उल्ला०।
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________________ महंततर 172 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 महग्गह महंततर त्रि० (महत्तर) आयामतो महति, भ०१३ श०३ उ०। महंतमलय पुं० (महामलय) महाँश्चासौ मलयश्च महामलयः / विन्ध्ये, स्था०६ टा०। महंतर न० (महदन्तर) विवरे, "एवं सघामहत्तरं'' महदन्तरं धर्मविशेषकर्मणो वा विवरं ज्ञात्वा, यदि वा-मनुष्यार्यक्षेत्रादिकमवसर सदनुष्ठानस्य ज्ञात्वा। सूत्र०१ श्रु०२ अ०२ उ०। महाविक्कम त्रि० (महाविक्रम) महान् विक्रमो विहारक्रमेण प्रभूतक्षेत्र व्याप्तिरूपो येषां ते तेथा। प्रभूतं क्षेत्रं विहतवत्सु, न०। महंऽधकार पुं० (महान्धकार) तमस्काये, स्था०४ ठा०२ उ० / महात मोरूपत्वात्तस्य / भ०६ श०५ उ०। महक्ख धवग्ग स्त्री० (महास्कन्धवर्गणा) पुदलस्कन्धादिविससा परिणामेन टङ्ककूटपर्वतादिसमाश्रितेषु पुद्गलेषु, पं० सं०५ द्वार। महक्खया स्त्री० (महाख्या) एकत्र पट्टे सप्तसप्ततिप्रतिमाप्रतिष्ठायाम, ध०२ अधि। महगोव पुं० (महागोप) अर्हति, विशे०। अडवीए देसयत्तं, तहेव णिज्जमया समुद्दम्मि। छक्कायरक्खणऽट्ठा, महगोवा तेण वुच्चंति" ||2656 / / विशे०1 (व्याख्यातैषा अरिहंत' शब्दे प्रमिभागे 768 पृष्ठे) महग्गहपुं० (महाग्रह) अङ्गारकादिषुभावकेतुपर्यवसानेषु चन्द्रपरिवारभूतेषु ग्रहषु, स०। एगमेगस्स णं चंदिमसूरियस्स अट्ठासीइ अट्ठासीइ महग्गहा परिवारो पण्णत्ता। एकैकस्यासंख्यातानामपि प्रत्येकमित्यर्थः / चन्द्रमाश्च सूर्यश्च चन्द्रमःसूर्य तस्य, चन्द्रसूर्ययुगलस्य इत्यर्थः / अष्टाशीति महाग्रहाः, एते च यद्यपि चन्द्रसयैव परिवारोऽन्यत्र श्रूयते तथापि सूर्यस्यापीन्द्रत्वादेत एव परिवारतया अवसेया इति। स०५८ सम०। संख्यातोमहाग्रहानाहदो इंगालगा, दो वियालगा, दो लोहितक्खा, दो सणिचरा, दो आहुणिया, दो पाहुणिया, दो कणा, दो कणगा, दो कणकणगा, दो कणगविताणगा, दो कणगसंताणगा, दो सोमा, दो सहिया, दो आसासणा, दो कजोपगा, दो कव्वडगा, दो अयकरगा, दो दुंदुभगा, दो संखा, दो संखवन्ना, दो संखवन्नाभा, दो कंसा, दो कंसावन्ना, दो कंसन्नाभा, दोरुप्पी, दो रुप्पाभासा, दोणीला, दो णीलोभासा, दो भासा, दो भासरासी, दो तिला, दो तिलपुप्फवण्णा, दो दगा, दो दगपंचवन्ना, दो काका, दो कक्कंधा, दो इंदग्गीवा, दो धूमकेऊ, दो हरी, दो पिंगला, दोबुद्धा, दो सुक्का, दो बहस्सती, दो राहू, दो अगत्थी, दो माणवगा, दो कासा, दो फासा, दो धुरा, दो पमुहा, दो-वियडा, दो विसंधी, दो नियल्ला, दो पइल्ला, दो जडियाइलगा, दो अरुणा, दो / अग्गिल्ला, दो काला, दो महाकालगा, दो सोत्थिया, दो सोवत्थिया, दो वद्धमाणगा, दो पूसमाणगा, दो अंकुसा, पलम्बा, दो निचालोगा, दो णिचुजोता, दो सयंपभा, दो ओभासा, दो सेयंकरा, दो खेमंकरा, दो आभंकरा, दो पभंकरा, दो अपराजिता, दो अरया, दो असोगा, दो विगतसोना, दो विमला, दो वितत्ता, दो वितत्था, दो विसाला, दो साला, दो सुव्यता, दो अणियट्टा, दो एगजडी, दो दुजडी, दो करकरिगा, दो रायग्गला, दो पुप्फकेतू, दो भावकेऊ / (सूत्र६०) अङ्गारकादयोऽष्टाशीतिम्रहाः सूत्रसिद्धाः, केवलमस्मदृष्ट पुस्त केषुचिदेव यथोक्तसंख्या संवदतीति सूर्यप्रज्ञप्तयनुसारेणासाविह संवादनीया। तथाहि, तत्सूत्रम्- "तत्थ खलु इमे अट्ठासीई महगह; पन्नत्ता, तं जहा-इंगालए 1 वियालए 2 लोहियक्खे 3 सणि-०रे ! आहुणिए 5 पाहुणिए 6 कणे 7 कणए 8 कणकणए 6 कणवियागए 28. कणसंताणए 11 सोमे 12 सहिए 13 अस्सासणे 15 कोमा 56 कम्बडए 16 अयकरए 17 दुदुभए 18 संखे 16 संखवणे 20 सरनामे 21 कंसे 22 कसवण्णे 23 कंसवन्नाभे 24 णीले 25 णीलाम से 25 रुप्पी 27 रुप्योभासे 28 भासे 26 भासरासी ३०तिले 31 तिलपुकवर 32 दगे 33 दगपंचवण्णे 34 काए 35 काकंधे 36 इंदगी 37 धूमकता 38 हरी 36 पिंगले 40 बुहे 41 सुक्के 42 बहस्सई 43 राहू 44 अगत्थी 45 माणवगे 46 कासे 47 फासे 48 धुरे 46 पमुहे 50 वियडे 51 विसंधी 52 नियल्ले 53 पयले 54 जडियाइल्लए 55 अरुणे 56 अग्गिल्लए 57 काले 58 सोस्थिए 60 सोवस्थिए 61 वद्धमाणगे 62 पलंबे 63 णिचालोए 64 निचुज्जोए 65 सयंपभे 66 ओभास 67 संयंकरे 68 खेमकरे 66 आभकरे 70 पभकरे 71 अपराजिए 72 अ५७३ असोगे 74 वीयसोगे 75 विमले 76 वियत्ते 77 वितत्थे७८ विसाले 76 साले 80 सुव्वए ८१अनियट्टी 82 एगजडी 83 दुजडी 84 करकारए 83 रायग्गले 86 पुप्फकेऊ८७ भावकेऊ८८" स्था०२ ठा०३३०। अङ्गारको विकालकोरलोहिताक्ष:३शनैश्चरः४ आधुनिक प्राधुनिक:६कणः७कणक:८कणकणक:कणवितानकः१० कण सन्तानक: 11 सोम:१२सहितः१३ आश्वासनः 14 काया पग: १५कर्बुरकः१६अयस्कारकः१७दुन्दुभकः१५शङ्ख: 16 शङ्खनाभः 20 शङ्ख वर्णाभः२१कं सः२२कं सनाभः२३कं सवभिः२४ नीलः२५ नीलावभासः 26 रूपी 27 रूपावभासः२८भस्मः२६ भस्मराशिः 30 तिलः३१ तिलपुप्पवर्णः 32 दकः 33 दकवर्णः 34 कायः 35 काकन्ध्यः 36 इन्द्राग्निः 37 धूमकेतुः 38 हरिः 36 पिङ्गलः 40 बुधः 41 शुक्र: 42 बृहस्पतिः 43 राहुः 44 अगस्तिः४५ माणवकः 46 कामस्पर्शः 47 धुरः 45 प्रमुखः 46 विकटः 50 विसन्धिकल्पः 51 प्रकल्पः 52 जटालः 53 अरुणाः 54 अग्निः 55 कालः 56 महाकालः 57 स्वस्तिकः 58 सौवस्तिकः 56 वर्धमानः 60 प्रलम्बः६१ नित्यालोकः 62 नित्योद्योतः 63 स्वयम्प्रभः 64 अवभासः 65 श्रेयस्करः 66 क्षेमङ्करः 67 आभङ्करः 68 प्रभङ्ककरः 66
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________________ महम्गह 173 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 महण्णवा रत्नाः 60 विरजाः।७१ अशोकः 72 वीतशोकः 73 विततः 74 विवस्त्रः येषामिति महाधुतयः / प्रज्ञा०२ पद / महती द्युतिस्तपोदीतिजा लेश्या 5 विशालः 76 शालः 77 सुवतः 78 अनिवृत्तिः 76 एकजटी 80 वा अस्येति महाद्युतिः। उत्त०१ अ०। स्था० जी०ओ०आ०म०॥ रेनटी 81 कर: प२ करकः 83 राजा 84 अर्गलः 8.5 पुष्पः 86, भावः रा० / सू०प्र० 1 जं०। चं०प्र० / स्था० / ज्ञा० / उत्त० / शरीराभर-केत 18 / कला०१ अधि०६क्षण। णाद्यपेक्षया अतिद्युतौ, तपोदीप्तिसमुत्पन्नलेश्यायुक्ते च / भ०१ श०७ इदं संग्रहणीगाथाभिर्नियन्त्रितम्, तथाहि उ० / स्था० / महऽज्झयण न० (महाऽध्ययन) महान्ति च "इंगालए विरगलए, लोहियक्खे सणिच्छरे चेव। तान्यध्ययनानि च पूर्वश्रुतस्कन्धाध्ययनेभ्यो महत्त्वादेतेषामिति। सूत्र०२ आहुणिपाहुणिए. कणगसनामाउ पचेव (11)||1|| श्रु०१ अ०। आ० चू०। पुण्डरीकादिप्रभृतिषु सूत्रकृतो द्वितीयस्कन्धस्य मोमे स हे आसा-सणे य करोवए य कवडए। सप्तस्वध्ययनेषु, बृ०६ उ०। स्था०। अएकरए ददुहार, संखसनामाउ तिन्नेव (21)2 / / महड्डि स्त्री० (महर्द्धि) यावच्छक्तितुलितायां परिवारादिकायामृद्धौ, रा०। शेव कसनामा, णीला रुप्पी य होति चत्तारि। महड्डिय त्रि० (महर्द्धिक) महती ऋद्धिर्विमानपरिवारादिका यस्य स भास जिलपुप्फवले. (दगे य) टगपण (क) का ग कायका कंध / महर्द्धिकः / जी०३ प्रति 2 उ० 1 अनुत्तरवैमानिकादौ, दश०६ अ०४ उ० / विमानपरिवारादिकाया ऋद्धेरत्यद्भुतत्वात् / आ०म०१अ० / इंदगि धूमकेऊ, हरि पिंगलए बुहे य सुक्के य। भ० / औ० / ऋद्धिविकुर्वणतया सहिते, उत्त०१ अ० / औ० / वहस्सइ राहु अगत्थी, माणवए कास फासे य (48) ||4|| विमानपरिवारादिसम्पदुपेते, ज्ञा०१ श्रु०१ अ० सू०प्र०। ज०। महती धूरे पमुहे वियडे, विसंधि णियले तहा पयल्ले य। महाप्रमाणा प्रशस्या वा ऋद्धिश्चक्रवर्तिनमपि योधयेदित्यादिका जडियाइलए अरुणे, अग्गिलकाले महाकाले (56) / / 5 / / विकरणशक्तिस्तृणाग्रादपि हिरण्यकोटिरित्यादिरूपावा समृद्धिरस्येति / सास्थिय सोवस्थिय बद्धमाणगे तहा पलंबे य। उत्त०१ अ०॥ संप्राप्तषट्खण्डराज्ये, उत्त०१ अ० / महती ऋद्धिश्छत्रानिघालीए णिचु-जोए, सयपभे चेव ओभासे (67) // 6 // दिराजचिह्नरूपा यस्य सः / कल्प०१ अधि०१ क्षण महती ऋद्धिरावारोक देसंकर, आभंकर पभंकर य बोद्धव्ये। सरत्नादिका यस्यस महर्द्धिकः / स्था०२ ठा०३ उ०। महती ऋद्धिः अरए विरए य तहा, असोग तह वीयसोगे य (75) // 7 // सुखादिसम्पदस्य महर्द्धिकः / उत्त०५ अ० / बृहविभूतिके, उत्त०१३ विमल वितत्त वितत्थे, विसाल तह साल सुव्वए चेव ! अ० / ग्रामस्य नगरस्य वा रक्षाकारिणि, बृ०६ उ० / व्य० / महेश्वरे, अगियट्टी एगजडी, यहोइ विजडी य बोद्धव्वे (84)|8! पञ्चा०८ विव०। (लेश्यादिक्रमेण यथोत्तरं महर्द्धिकत्वं यथा अगिल्पकरका रायग्गल, बोद्धध्वे पुप्फ भावकेऊय (88) / चिकत्वामिति'लेस्सा' शब्दे वक्ष्यते) अट्ठासीइ गहा खलु. णेयव्वा आणुपुब्बीए।।' महण पुं० (मथन) मथने, विनाशके, पितृगेहे, दे० ना०६ वर्ग 114 गाथा / स्था०२ ठा०३ उ01 महणदेवीस्त्री० (महणदेवी) स्वनामख्यातायां कान्यकुब्जेश्वरसुतायाम्, महग्घ त्रि० (महाघ) महामूल्ये, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। आव० / उत्त०।। "सा च जनका कुञ्चलिकापदे गुर्जरधरित्रीमवाप्य तदाधिपत्यं मुक्त्वा "महग्धवरपट्टणुग्गय" महार्या बहुमूल्या वरे प्रधाने पत्तने वरन- | मृता सती तत्रैव देशाधिष्ठात्री समजनि।" ती०४१ कल्प। स्नोत्पत्तिस्थाने उद्ता निष्पन्ना ततः कर्मधारयस्तम्। कल्प०। प्रश्न०। / महणसिंह पुं० (महणसिंह) (विक्रमसंवत् -1243) अर्बुदतीर्थोसंथात / दर्श०। बहुमूल्ये, विपा०१ श्रु०३ उ० / सू०प० / कल्प० / द्धर्तुर्लल्लस्य पितरि, ती०७ कल्प / (अत्र विस्तरः 'अव्वुय' शब्दे आलम: / भ० / महता योग्ये, भ०१५ श०। आ०म०। प्रथमभागे 686 पृष्ठे गतः 'तत्राऽऽद्यतीर्थस्योद्धर्ता' इत्यादि 46 श्लोकेन) महाघय लि० (महार्घक) महती अर्घा यस्य स महार्घः महार्घ एव महणिगा (या) स्त्री० (महणिका) कान्यकुब्जेश्वरसुतायाम्, गुर्जरमहावः बहुमूल्ये, उत्त०२० अ० / देशाधिष्ठात्र्यां देव्याम्, ती०२५ कल्प (अत्रत्यवर्णनम् 'अरिडणेमि' शब्दे पहचंद पु० (गडाचन्द्र) स्नामख्याते शोभाञ्चनीपुरीराजे, विपा०१ श्रु०४ / प्रथमभागे 767 पृष्ठे कृतम्।) अ। जिनदासपितरि, सौगन्धिकानगरीराजे, विपा०२ श्रु०६ अ०। | महणिज त्रि० (महनीय) पूज्ये, अवन्तिषु प्रसिद्धस्याभिनन्दनदेवस्य महब पुं० (महार्च-महाज़-माहत्य) महा! महार्यो वा माहत्यं महत्त्वं स्वनामख्याते सेवके, "महनीयाभिख्यो मे दुःस्वाङ्गुलीयं भगवदुद्देशेन तद्योगात्माहत्यः गुणनुणिनोरभेदोपचरात् / ईश्चरे, रथा०३ ठा०१ / कृतवान्।' ती०३१ कल्प। उ० भ०। महण्णव पुं० (महार्णव) महासमुद्रे,बृ०४ उ०। महचपरिसा स्त्री० (महाय॑परिषद्) महार्चाना-सततपूज्यानां महार्चा | महण्णवा स्त्री० (महर्णवा) महार्णवा इव यावरहूदकत्वान्महार्णवगामिन्यो वा परिषद् महार्चपरिषद् ! प्रधानपर्षदि, पूजनीयानां पर्षदि च / भ०१ वायास्ता महार्णवाः।"इमा पंच महण्णवागंगा जमुणा सरऊ एरावईवा 201301 कोसी मही। प्रति० ग०३ अधि० / स्था० / नि०चू०। (पञ्च महार्णवाः पहजुइय त्रि० (महाद्युतिक) महती द्युतिः शरीरगताऽऽभरणगता च | 'णईसंतार' शब्दे व्याख्याताश्चतुर्थभागे 1736 पृष्ठे।)
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________________ महत्तर 174 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 महप्प महत्तर त्रि० (महत्तर) अयं महान अयं महानयमनयोरतिशयेन महान्म- महार्थलक्षणायाम्, उत्त०१३ अ०। हत्तरः "अतिशायने तरप्तमपावितितरप्' प्रव०४ द्वार। पूज्ये, स्था०४ महत्थरूवा वयणप्पभूया, ठा०१ उ०। कञ्चकिभिन्ने अन्तः पुररक्षके, औ० / ग्रामकूटे ग्राममहत्तरे, गहाणुगीया नरसंघमज्झे। नि० चू०२ उ०। जं भिक्खुणो सीलगुणोववेया, महत्तरकप्प पुं० (महत्तरकल्प) पूज्यस्थानीये, औ०। इह जयंते समणोऽम्हि जाओ।।१२।। महत्तरग पुं० (महत्तरक) अन्तः पुरकार्यचिन्तके, भ०११ 2011 उ० / उत्त०१३ अ०। "जे रण्णो समीवं अतेपुरिया णयंति आणेति वा रिउण्हायं वा कहेंति महत्थार (देशी) भाण्डे, भोजने, इति सातवाहनः / देना०६ वर्ग 125 कुवियं वा पसादेति कहेंति य रणो विदिते कारणे अण्णतोऽविय अग्गितो गाथा। काउं वयंति ते महत्तरगा' अन्तः पुररक्षके, औ० / ग्रामप्रधाने, व्य०७, महद्दह पुं० (महाहद) वर्षधरपर्वतोपरितनेषु हदेषु, स्था०२ ठा०३ उ० उ०। तदाश्रितजनापेक्षया उत्तमे, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। विपा० / जं०। (अत्रत्या सर्वा वक्तव्यता'दह' शब्दे चतुर्थभागे 24866 पृष्ठे गता) गुरुतरत्वे, आ०म०१ अ०। राज्यकार्यकारके, व्य०। महऽदि स्त्री० (महार्दि) अगतौ, याचने च इति वचनादर्दिाश्चा। महती महत्तरकलक्षणमाह ज्ञानोपष्टम्भादिकारणविकलत्वादपरिमाणा अर्दिमहाऽर्दिः / परिग्रहे, गंभीरो मद्दवितो, कुसलो जाइविणयसंपन्नो। प्रश्न०५ आश्र० द्वार। जुवरण्णाए सहितो, पेच्छइ कजई महत्तरओ॥ महद्दुम पुं०(महाद्रुम) बलेर्वैरोचनेन्द्रस्य पदात्यनीकाधिपतौ, स्था०७ यो गम्भीरो लब्धबुद्धिमध्यभागो, भादवितो मार्दवोपेतः / संजातं ठा०। मार्दवमस्येति तारकादिदर्शनादितच्प्रत्ययः / कुशलः सकलनीति- महद्धण त्रि० (महाधन) महामूल्ये, बृ०३ उ०। औ०। आचा०। शारत्रदक्षो जातिविनयसंपन्नो युवराजेन सहितः सन् प्रेक्षते कार्याणि महन्दमहान्तः जसि विभक्तौ रूपम्। अधः क्वचित्॥८।४।२६१।। इति राज्यकार्याणि स महत्तरक इति / व्य०१ उ०। शौरसेन्या तस्य दः / महन्दो / विशाले, प्रा०४ पाद। महत्तरा स्त्री० (महत्तरा) प्रवर्तिन्याम, आव०६ अ०। महपंचभूय न० (महापञ्चभूत) महान्ति च तानि सर्वलोकव्यापित्वाद महत्तरागार पुं० (महत्तराकार) प्रत्याख्यानापवादभेदे, पंचा०५ विव०।। भूतानिमहाभूतानि। पृथिव्यप्तेजोवाय्वाकाशाख्येषु भूतेषु, सूत्र०१ श्रु०१ प्रव०। आव०। पं०व०। (विशेषार्थः 'पुरिमड्ड' शब्दे पञ्चमभागे 1010 अ०१ उ०। पृष्ठे गतः) महपाण न० (महापान) अतिदीर्घकालिके ध्याने, तं०। महत्तरिया स्त्री० (महतरिका) प्रधानतमायाम्, स्था०६ ठा० / महत्तरिका महापानशब्दस्य व्युत्पत्तिमाहनाम दिशाकुमारिका / तुल्यविभवादिकुमारिकाणाभनतिक्रमणीय- पियइ त्ति व अत्थपए, मिणइ त्ति व दो वि अविरुद्धा / / 257 / / वचनायां दिक्कुमारिकायाम्, आ०म०१ अ०। पिवतीति वा मिनोतीति वेति द्वावपि शब्दावेतावविरुद्धौ तत्त्वत महत्तो अस्मद् पञ्चम्येकवचनम् डसि"मइ मम मह मज्झा ङसौ" एकार्थावित्यर्थः / ततएवं व्युत्पत्तिः। पिवति अर्थपदानि यत्र स्थितस्तत् / / 3 / 111 / / इति अस्मदः पञ्चम्येकवचने महादेशः / डसेस्तु तो पानं, महच तत्पानं च महापानमिति / व्य०६ उ01 आदेशः / प्रा०३ पाद। अथ महाप्राणध्याने कः कियन्तं कालमुत्कर्षतस्तिष्ठतीति महऽत्थ त्रि० (महार्थ) महान् परिमितो द्रव्यपर्यायात्मकतयाऽर्थोऽ-भिधेय प्रतिपादनार्थमाहयस्य तन्महार्थम् / उत्त०१३ अ०। महान्प्रभूतोऽर्थः-फलं स्वरूपाद्य- वारस वासा भरहा-ऽहिवस्स छच्चेव वासुदेवाणं। भिधेयं यस्य तन्महार्थम् / महागोचरे, पा०। महान् प्रधानो हेयोपादेय- तिणि य मंडलियस्स, छम्मासा पागयजणस्स / / 256 / / प्रतिपादकत्वेनार्थो यस्मिरतन्महार्थम् / दश०२ अ० / महाप्रयोजने, महाप्राणध्यानमुत्कर्षतो भरताधिपस्य चक्तवर्तिनो द्वादश वर्षाणि ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। बृहदभिधेये, पञ्चा०७ विव० भ०। विपा० / पं०सं०। यावत्, वासुदेवाना बलदेवानां च षडेवेत्यर्थः / त्रीणि वर्षाणि माण्डकर्म० / न० / पञ्चा० / च०प्र० / सामायिके द्वादशाङ्गपिण्डार्थत्वात्। लिकस्य, षण्मासान् यावतप्राकृतजनस्य / व्य०६ उ०। स्वनामख्याते आ०म०१ अ०। अल्पाक्षरलेपिद्वादशाङ्ग-संग्राहित्वात्। आ०म०१ अ०। ब्रह्मलोकविमाने, उत्त०१८ अ०। महानर्थो-ज्ञानवैराग्यादिको यस्मात्स महार्थः / मोक्ष्ज्ञपथे, तं०। विशे०। | महपूआ स्त्री० (महापूजा) प्रभावनादिना बृहद्वन्दने, सर्वाङ्गाभरण'महत्थ त्ति' महानर्थो यस्य स महार्थः / आ०म०१ अ० ('सिद्धपएहि विशिष्टाङ्गपत्रभङ्गीरचनपुष्पग्रहकदलीगृहपुत्रिकाजलयन्त्रादिरच-नानामहर्थ महत्थं 1 इत्यादिगाथाः 'कम्म' शब्दे तृतीयभागे 261 पृष्ठे नागीतनृत्याद्युत्सवैर्महापूजा। ध०२ अधि०। व्याख्याताः) महऽऽप्प पु० (महात्मन्) महान्निर्मलो निष्कषाय आत्मा यस्य स महात्मा। महऽत्थत्त न० (महार्थत्व) बृहदभिधेयतायाम्, औ०। स०३५ सम०) अकषायिणि, उत्त०१२ अ०। सम्यगात्मभावपरिणते, अष्ट०३२ अट। महऽत्थरूवा स्त्री० (महार्थरूपा) महान द्रव्यपर्यायभेदसहितो निश्चय- आचा०। दश० / महानात्मा। यस्य स महात्मा / अनुग्रहपरायणतया व्यवहारसहितश्चार्थो यस्य तन्महार्थ तादृशं रूपं यस्याः सा महार्थरूपा। महोदारे, ध०१ अधि०।स्था०। महानुभावतायाम्, ज्ञा०१ श्रु०१६ अ०।
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________________ महप्प 175 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 महब्बल महानचिन्त्यशक्तयुपेत आत्मा-स्वभावो यस्य स महात्मा। तीर्थकरे, नं० / आ०म०१० / महान्प्रशस्यो विशिष्टवीर्योल्लसित आत्मा अररोति महात्मा। उत्त०१२ अ०। आ०म०। महप्पगडम पुं० (महाप्रगल्भ) स्फारे, प्रश्न०१ आश्र० द्वार। पहप्पवास पुं० (महाप्रवास) दीर्घनिद्रायाम्, आचा०१श्रु०२अ०४उ०। महप्पभ पुं० (महाप्रभ) इक्षुवरद्वीपदेवे, सू०१६ पाहु० / द्वी०। महप्पिय त्रि० (महाप्रिय) अतिवल्लभे, दश०१ अ०। महब्ब्ल पुं०(महाबल) पर्वतादुत्पाट नसामोपते, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। स्था० / विशिष्टशारीरप्राणे, औ०। कल्प०१ अधि०१क्षण। भ०। औ० / प्रज्ञा / हस्तिनापुरराजस्य बलस्य पुत्रे, भ०। तत्कथा चैवम् - तेणं कालेणं तेणं समएणं हत्थिण (ग) पुरे णामंणायरे होत्था, वण्णओ, सहसंववणे णाम उजाणे, वण्णओ, तत्थ णं हत्थिणा(ग) पुरे णामं णयरे बले णामं राया होत्था, वण्णओ, तस्स णं बलस्स रपणो पभावईणामं देवी होत्था, सुकुमाल वण्णओ, जाव विहरइ ! तए णं सा पभावई देवी अण्णया कयाइ तंसि तारिसगंसि वासघरंसि अभिंतरओ सचित्तकम्मे बाहिरओ दूमियघट्ठमढे विचित्तउल्लोगचिल्लिलतले मणिरयणपणासियंधकारे बहुसमसुविभत्तदेसभाएपंचवण्णसरससुरमिमुक्कपुप्फपुंजोवयारकलिए काला(गु) गरुपवरकुंदरुक्कतुरुक्कधूमवघमघंतगंधुद्धयामिरामे सुगंधवरगंधिए गंधवट्टिभूए तंसि तारिसगंसि सयणिजंसि सालिंगणवट्टिए उभओ विव्वोयणे दुहओ उन्नए मज्झेण य गंभीरे गंगापुलिण वालुयउद्दालसालिसए ओयविय खोमिय दुगुल्लपट्टपडिच्छयणे सुविरइयरयत्ताणे रत्तंसुयसंवुडे सुरम्मे आईणगरूयबूरणवणीयतुल्लफासे सुगंधवरकुसुमचुण्णसयणोव-यारकलिए अद्धरत्तकालसमयंसि सुत्तजागरा ओहीरमाणी ओहीरमाणी अयमेयारूवं उरालं कल्लाणं सिवं धण्णं मंगलं सस्सिरीयं महासुविणं पासिता णं पमिबुद्धा, तं जहा-हाररयखीरसागरससंककिरणदगरययमहासेलपंडुरतरोरुरम-णिजपिच्छणिज्जं थिरलट्ठपउडवट्टपीवरसुसिलिट्ठविसिट्रतिक्ख-दाढाविडं वियमुहं परिकम्मियजनकमलकोमलमाइयसोभंतलट्ठउटुं रत्तुप्पल पत्त मउयसुकुमालतालुजीहं मूसागयपवरकणगतावियआवत्तायंतवट्टतडियविमलसरिसनयणं विसालपीवरोरुपडिपुण्णविउलखंधं भिउविसयसुहमलक्खणपत्थवित्थिण्णकेसराडोवसोभियं ऊसियसुनिम्मियसुजाय अप्फोडियलांगूलं सोमं सोमाकारं लीलायंतं जंभायंतं नहयलाओ उवयमाणं निययवयणपतिकतं तं सीहं सुविणे पासित्ता णं पडिबुद्धा / तए णं सा पभावई देवी अयमेयारूवं ओरालं० जाव सस्सिरीयं महासुविणं सुविणे पासित्ता णं पडिबुद्धा समाणी हट्ट तु० जाव हियया धाराहयकलंबपुप्फगं पिव समूससियरोमकूवा तं सुविणं ओगिण्हइ ओगिण्हित्ता सयणिजाओ अब्भुट्टेइ अब्भुद्वित्ता अतुरियमचवलमसंभंताए अविलंबियाए रायहंससरिसीए गईए जेणेव बलस्स रण्णो सयणिजे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता बलं रायं ताहिं इद्वाहिं कंताहिं पियाहिं मणुण्णाहिं मणामाहिं उरालाहिं कल्लाणाहिं सिवाहिं धण्णाहिं मंगल्लाहिं सस्सिरीयाहिं मिउमहुर मंजुलाहिं गिराहिं संलवमाणी संल०२ पडिबोहेइ पडिबोहेत्ता बलेणं रण्णा अब्मणुण्णाया समाणी णाणामणिरयणभत्तिचित्तंसि सिंहासणंसि णिसीयइ णिसीयित्ता आसत्था वीसत्था सुहासणवरगया बलं रायं ताहिं इट्ठाहिं कंताहिं० जाव संलवमाणी सं०२ एवं वयासीएवं खलु अहं देवाणुप्पिया! अज्ज तंसि तारिसगंसि सयणिजंसि सालिंगणं तं चेव० जाव णियगवयणमतिवयंतं सीहं सुविणे पासित्ता णं पडिबुद्धा, तंणं देवाणुप्पिया ! एयस्स ओरालस्स० जाव महासुमिणस्स के मण्णे कल्लाणे फलवित्तिविससेसे भविस्सइ ? तएणं से बले राया पभावईए देवीए अंतिए एयमटुं सोचा णिसम्म हट्टतुट्ठा० जाव हियए धाराहयणीवसुरभिकुसुमचंचुमालइयतणुयऊससियरोमकूवे तं सुमिणं ओगिण्हइ ओगिण्हित्ता ईहं पविसइ पविसित्ता अप्पणो साभाविएणं मइपुव्वएणं बुद्धिविण्णाणेणं तस्स सुमिणस्स अत्थोग्गहणं करेइ करेत्ता पभावतिं देविं ताहिं इट्ठाहिं० जाव० मंगलाहिं मिउमहुरसस्सिरीयाहि संलवमाणे संलवमाणे एवं क्यासी-ओरालेणं तुम्मे देवी ! सुविणे दिट्टे कल्लाणेणं तुम्मे देवी सुविणे दिखे० जाव सस्सिरीएणं तुम्हे देवी ! सुविणे दिटे आरोग्गतुहिदीहाउकल्लाणमंगलकारएणं तुम्हे देवी ! सुविणे दिडे / अत्थलामो देवाणुप्पिए ! भोगलाभो देवाणुप्पिए ! पुत्तलाभो देवाणुप्पिए ! रज्जलाभो देवाणुप्पिए ! एवं खलु तुम्हे देवाणुप्पिए ! णवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं अद्धऽट्टराइंदियाणं विइक ताणं अम्हं कुलके उं कुलदीवं कुलपय्वयं कुलवडिंसयं कुलतिलयं कुलकित्तिकरं कुलनंदिकरं कुलजसकर कुलाधारं कुलपायवं कुलविवड्डणकरं सुकूमालपाणिपायं अहीणपडिपुण्णपंचिंदियसरीरंजावससिसोमाकारं कंतं पियदंसणं सुरूवं देवकुमारसमप्पभं दारगं पयाहिसि / सेऽविय
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________________ महब्बल 176 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 महब्बल णं दारए उम्मुक्कबालभावे विण्णायपरिणयमित्ते जोवणगमणुप्पत्ते सूरे वीरे विक्कं ते वित्थिण्णविपुलबलबाहणे रजवई राया भविस्सई / तं उराले णं तुम्हे देवी ! सुविणे दिढे० जाव आरोग्गतुट्ठि० जाव मंगलकारएणं तुम्हे देवी ! सुविणे दिटे त्ति / कट्ट पभावती देवीं ताहिं इट्ठाहिं० जाव वग्गूहिं० जाव दोचं पि तचं पि अणुबूहइ। तएणं सा पभावई देवी बलस्स रण्णो अंतिए एयमटुं सोचा णिसम्म हहतुट्ठ करयल० जाव एवं वयासी-एवमेयं देवाणुप्पिया ! तहमेयं देवाणुप्पिया ! अवितहमेयं देवाणुप्पिया! / असंदिद्धमेयं देवाणुप्पिया ! इच्छियमेयं देवाणुप्पिया ! पडिच्छियमेयं देवाणुप्पिया ! इच्छियपडिच्छियमेयं देवाणुप्पिया! से जहेयं तुम्हे वदह त्ति कट्ट तं सुमिणं सम्म पडिच्छइ पडिच्छित्ता बलेणं रण्णा अब्भणुण्णाया समाणी पाणामणिरयणभत्तिचित्ताओ भद्दाऽऽसणाओ अब्भुट्टेइ अब्भुढेत्ता अतुरियमचवल० जाव गईए जेणेव सए सयणिज्जे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता सयणिजंसि णिसीयति णिसीयित्ता एवं वयासी-मा मे से उत्तमे पहाणे मंगल्ले सुमिणे अण्णेहिं पावसुमिणेहिं पडिहम्मिस्सइ त्ति कट्ट देवगुरुजणसंबद्धाहिं पसत्थाहिं मंगल्लाहिं धम्मियाहिं कहाहिं सुविणजागरियं पडिजागरमाणी पडि०२ विहरइ / तए णं से बले राया कोडंबियपुरिसे सद्दावेइ सद्दावेत्ता एवं वयासीखिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! अज्ज सविसेसं बाहिरियं उवट्ठाणसालं गंधोदयसित्तसुइयसंमजिओवलित्तं सुगंधपवरपंचवण्णपुप्फोवयारकलियं कालागरुपवरकुंदरुक्क० जाव गंधवट्टिभूयं करेह कारावेह करित्ता कारवित्ता यसीहासणं रयावेह सीहासणं रयावेईत्ता तमेतं० जाव पचप्पिणह। तएणं ते कोडं वियपुरिसा० जाव पडिसुणेत्ता खिप्पामेव सविसेसं.बाहिरियं उवट्ठाणसालं० जाव पञ्चप्पिणंति / तए णं से बले राया पचूसकालसमयंसि सयणिज्जाओ अब्भुढेइ सयाणिज्जाओ अब्भुढेत्ता पायपीढाओ पचोरुहइ पायपीढाओ पच्चोरुहित्ता जेणेव अट्टणसाला तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता अट्टणसालं अणुप्पविसइजहा उववाइए तहेव अट्टणसाला तहेव मज्झणघरे० जाव ससि व्व पियदसणे नरवई मञ्जणघराओ पडिणिक्खमइ पडिनिक्खमित्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छइत्ता उवागच्छित्ता सीहासणवरंसि पुरत्थाभिमुहे णिसीयइ णिसीयित्ता अप्पणो उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए अट्ठ भद्दासणाई सेयवत्थपञ्चुत्थयाई सिद्धत्थगकायमंगलोवयाराई रयायेइ रयावेत्ता अप्पणो अदूरसामंते णाणामणिरयणमंडियं अहियपेच्छाणिजं सहग्घ वरपट्टणुग्गयं सहपट्ट भत्तिसयचित्तत्ताणं ईहामियउसभ० जाव भत्तिचित्तं अभितरियं जवणियं अंछावेइ अंछावेत्ता णाणाम णिरयणभत्तिचित्तं अत्थरयमिउमसूरगोच्छग सेयवत्थपञ्चुत्थं अंगसुहफासुयं सुमउयं पभावईए देवीए भद्दासणं रयावेइरयावेत्ता कोडुवियपुरिसे सद्दावेइ सरावेत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! अटुंऽगमहानिमित्तसुत्तत्त्थधारए विविहसत्थकुसले सुविणलक्खणपाढए सद्दावेह। तए णं ते कोडुवियपुरिसा० जाव पडिसुणेत्ता बलस्स रणो अंतियाओ पडिणिक्खमंति पडिमिक्खमित्ता सिग्घं तुरियं चवलं चंड वेइयं हत्थिणापुरं णयरं मज्झं मज्झेणं णिग्गच्छंति णिग्गच्छित्ता जेणे व ते सिं सुविणालक्खणपाढगाणं गिहाइं तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता ते सुविणलक्खणपाढए सद्दार्वेति / तए णं ते सुविणलक्खणपाढगा बलस्स रण्णो कोडुवियपुरिसेहिं सदाविया समाणा हद्वतुट्ठा ण्हाया कयवलिकम्मा० जाव सरीरा सिद्धऽत्थगहरियालिया कयमंगलमुद्धाणा सरहिं सएहिं गिहेहिंतो णिग्गच्छंति णिग्गच्छित्ता हत्थिणापुरं णयरं मज्झं मज्झेणं जेणेव बलस्स रण्णो भवणवरवडिंसए तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता भवणवरवडिंसए पडिदुवारंसि एगओ मिलंति एगओ मिलित्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला जेणेव बले राया तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता करयल०बलं रायं जएणं विजएणं वद्धार्वेति / तए णं ते सुविणलक्खणापाढगाबलेणं रण्णा वंदियपूइयसकारियसम्मणिया समाणा पत्तेयं पत्तेयं पुव्वण्णत्थेसु भद्दासणेसु णिसीयंति / तए णं से बले राया पभावइं देविं जवणियंतरियं ठावेइ ठावेत्ता पुप्फफलपडिपुण्णहत्थे परेणं विणएणं ते सुविणलक्खणपाढए एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! पभावई देवी अज्ज तंसि तारिसगंसि कासघरंसि० जाव सीहं सुविणे पासित्ता णं पडिबुद्धा / तं णं देवाणुप्पिया ! एयस्स उरालस्स० जाव के मण्णे कल्लाणे फलवित्तिविसेसे भविस्सइ? तएणं ते सुविणलक्खणपाढगा बलस्स रण्णो अंतिए एयमटुं सोचा णिसम्म हद्वतुट्ठा तं सुविणं ओगिण्हंति तं इहं अणुपविसंति अणुपविसित्ता तस्स सुविणस्स अत्थोग्गहणं करेंति करेत्ता ते अण्णमण्णेणं सद्धिं संचालेंति तस्स सुविणस्सलद्धऽट्ठा गहियट्ठा पुच्छियट्ठा विणिच्छियट्ठा अभिगयट्ठा बलस्स रण्णो पुरओ सुविणसत्थाइंउच्चारेमाणे उ०२एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! अम्हंसुविणसत्थंसि वायालीसं सुविणा, तीसं महासुविणा, वावत्तरि सव्वसुविणा दिट्ठा, तत्थ णं देवाणुप्पिया ! तित्थगरमायरो
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________________ महब्बल 177 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 महब्बल वा चक्कवट्टिमायरो वा तित्थगरंसि वा चक्कवर्टिसि वा गभं वक्कममाणंसि एतेसिं तीसाए महासुविणाणं इमे चउद्दस महासुविणे पासित्ता णं पडिवुज्झंति / तं जहा"गय उसभ सीहअभिसेय-दामससी दिणयरं झयं कुंभ। पउमसरसागरविमा-णभवणरयणच्चुयसिहिं च / / 1 / / " वासुदेवमायरो वा वासुदेवंसि गब्भं वक्कममाणंसि एएसिं चउद्दसण्हं महासुविणाणं अण्णयरे सत्त महासुविणे पासित्ता णं पडिवुझंति। बलदेवमायरो वा बलदेवंसि गडमं वक्कममाणंसि एएसिं चउद्दसण्हं महासुविणाणं अण्णयरे चत्तारि महासुविणे पासित्ता णं पडिबुज्झंति। मंडलियमायरो वा मंडलियंसि गभं वक्कममाणंसि एएसिं चउद्दसण्हं महासुविणाणं अण्णयरं एगं | महासुविणं पासित्ता णं पडिवुज्झंति / इमं च णं देवाणुप्पिया! | पभावईए देवीए एगे महासुविणे दिटेतं ओराले णं देवाणुप्पिया ! पभावईए देवीए सुविणे दिढे० जाव आरोग्गतुट्ठिदीहाउकल्लाणमंगलकारएणं देवाणुप्पिया ! पभावईए देवीए सुविणे दिटे, अत्थलाभो देवाणुप्पिया ! भोगलाभो देवाणुप्पिया ! पुत्तलाभो रजलाभो देवाणुप्पिया ! एवं खलु देवाणुप्पिया ! पभावई देवी णवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं० जाव वीइक्कं ताणं तुम कुलकेउं० जाव दारगं पयाहिंसि। से विय णं दारए उम्मुक्कवालभावे० जाव रज्जवई राया भविस्सइ, अणगारे वा भाविय- | ऽऽप्या / तं उराले णं देवाणुप्पिया ! पभावईए देवीए सुविणे दिढे० जाव आरोग्गतुहिदीहाउकल्लाण० जाव दिढे / तए णं से बले | राया सुविणलक्खणपाढगाणं अंतिए एयमढं सोचा णिसम्म हट्ठ करयल० जाव कट्ट ते सुविणलक्खणपाढगे एवं वयासी-एवमेयं देवाणुप्पिया ! जाव से जहेयं तुन्भे वदह त्ति कट्ट तं सुविणं सम्म पडिच्छइ पडिच्छित्ता सुविणलक्खणपाढए विउलेणं असणपाणखाइमसाइमपुप्फवत्थगंधमल्लाऽलंकारेणं सक्कारेइ सम्माणेइ सक्कारेत्ता सम्माणेत्ता विपुलं जीवियारिहं पीइदाणं दलयइ दलयइत्ता पडिविसजेइ पडिविसज्जेत्ता सीहासणाओ अब्भुढेइ अन्मुट्ठित्ता जेणेव पभावई देवी तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता पभावतिं देविंताहिं इट्ठाहिं० जाव संलवमाणे सं०२ एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिये ! सुविणसत्थंसि वायालीसं सुविणा तीसं महासुविणा वावत्तरिं सव्वसुविणा / तत्थ णं देवाणुप्पिए ! तित्थयरमायरो वा चक्कवट्टिमायरो वा तं चेव० जाव अण्णयरं एगं महासुविणं पासित्ता णं पडिबुझंति / इमे णं | तुम्हे देवाणुप्पिए ! एगे महासुविणे दिट्टे० जाव रज्जवई राया भविस्सइ अणगारे वा भांवियऽप्पा, तं ओराले णं तुम्हे देवी! सुविणे दिढे० त्ति कट्ठ पभावतिं देविं ताहिं इट्ठाहिं० जाय दोच्चं पि तचं पि अणुबूहइ / तए णं सा पभावई देवी बलस्स रण्णो अंतियं एयमढे सोचा णिसम्म हट्ठतुट्ठकरयल० जाव एवं वयासीएवमेयं देवाणुप्पिया ! जावतं सुविणं सम्म पडिच्छइपमिच्छित्ता बलेणं रण्णा अब्मणुण्णाया समाणी णाणामणिरयणभत्ति० जाव अब्भुढेइ अतुरियमचवल० जाव गईए, जेणेव सए भवणे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता सयं भवणं अणुप्पविट्ठा / तए णं सा पभावई देवी बहाया कयवलिकम्मा० जाव सव्वाऽलंकारविभूसिया तं गब्भं णाऽइसीतेहिं णाऽइउण्हेहिं नाऽइतित्तेहिं. णाऽइकडुएहिं णाऽइकसाएहिं णाऽइअंविलेहिं णाऽइमहुरेहिं उउन्भयमाणसुहे हिं भोअणच्छादणगंधमल्ले हिं जं तस्स गब्भस्स हितं मितं पत्थं गब्भपोसणं तं देसे य काले य आहारमाहारेमाणी विचित्तमउएहिं सयणासणे हिं पतिरिकसुहाए मणाणुकूलाए विहारभूमीए पसत्थदोहला संपुण्णदोहला सम्माणियदोहला अवमाणियदोहला वोच्छिण्णदो हला विणीयदोहला ववगयरोगसोगमोहभयपरित्तासा तं गब्भं सुहं सुहेणं परिवब्वइ / तए णं सा पभावई देवी णवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं अट्ठमाणराइंदियाणं वीइक्कतपणं सुकूमालपाणिपायं अहीणपडिपुण्णपंचिंदियसरीरं लक्खणवंजणगुणोववेयं० जाव ससिसोमाकारं कंतं पियदेसणं सुरूवं दारगं पयाता। तए णं तीसे पभावईए देवीए अंगपडियारियाओ पभावतिं देविं पसूयं जाणित्ता जेणेव बले राया तेणेव उवागच्या उवागच्छित्ता करयल० जाव बलं रायं जएणं विजएणं वद्धावेंति जएणं विजएणं एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! पभावई देवी णवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं० जाव दारगं पयाता, तं रायण्णं देवाणुप्पिया ! णं पियट्ठयाए पियं णिवेदेमो पियं भे भवउ / तएणं से बले राया अंगपडियारियाणं अंतिए एयमटुं सोचा णिसम्म हद्वतुट्ठ० जाव धाराहयणीव० जाव रोमकूवे तासिं अंगपडियारियाणं मउडवजं जहामालियओमोयं दलयइ दलइत्ता से तं रययमयं विमलसलिलपुण्णमिंगारं पडिगिण्हइ पडिगिण्हित्ता मत्थए धोवइ मत्थए धोवित्ता विउलं जीवियारिहं पीइदाणंदलयइ पीइदाणं दलइत्ता सक्कारेइ सम्माणेइ सम्माणइत्ता पडिविसज्जेइ। (सूत्र-४२८) तए णं से बले राया कोडुवियपुरिसे सद्दावेइ सहावेत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! हत्थिणाउरे णयरे चारगसोहणं करेह चारग० करेत्ता माणुम्माणप्पमाणवणे
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________________ महब्बल 178 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 महब्ब्ल करेह माणु० वरेत्ता हत्थिणउरं णयरं सम्भितरं बाहिरियं आसियसम्मजिओवलितं० जाव करेहि य कारवेहि य करेत्ता य कारवेत्ता य जूवसहस्सं वा चक्कसहस्सं वा पूयामहामहिमसक्कारं वा ऊसवेह ऊसवेत्ता ममेयमाणत्तियं पञ्चप्पिणह। तएणं से कोडं वियपुरिसा बलेणं रण्णा एवं वुत्ता समाणा० जाव पचप्पिणंति / तए णं से बले राया जेणेव उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता तं चेव० जाव मज्जणधराओ पडिणिक्खमइ पडिणिक्खमित्ता उम्मुक्कं उक्करं उक्किट्ठ अदिज अमेजं अमडप्पवेसं अदंडकोदंडिमं अधरिमं गणियावरनाडइज्जकलियं अणेगतालाचराणुचरियं अणुद्धयमुयंगं अमिलायमल्लदामं पमुदियपक्कीलियं सपुरजणजाणवयं दसदिवसे ठिइवडियं करें ति। तए णं से बले राया दसादियाए ठिइवडियाए वट्टमाणीए सतिए य साहस्सिए य सयसाहस्सिए य जाए य दाए य भाए य दलमाणे य दवावेमाणे य सतिए य साहस्सिए य सयसाहस्सिए य लंभे पडिच्छमाणे य पडिच्छावेमाणे य एवं विहरइ / तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो पढमे दिवसे ठिइवडियं करेंति, तइए दिवसे चंदसूरदंसावणियं करेंति, छठे दिवसे जागरियं करेंति, एकारसमे दिवसे वीइक्कं ते णिव्वत्ते असुइ जाइकम्मकरणे संपत्ते वारसाऽहदिवसे विउलं असणं पाणं खाइमं साइभं उवक्खडावेति उवक्खडावेत्ता जहा सिवो० जाव खत्तिए य आमंतेइ अमंतेत्ता तओ पच्छा पहाया कयबलिक० तं चेव० जाव सकारेंति सम्माणेतिरत्ता तस्सव मित्तणाइ० जाव (राईण य) खत्तियाण य पुरओ अजयपज्जयपिउपज्जयागयं बहुपुरिसपरंपरप्परूढं कुला ऽणुरूवं कुलसरिसं कुलसंताणतंतुविवद्धणकरं अयमेयारूवं गोणं-गुणनिप्पण्णं नामधेनं करेंति / जम्हा णं अम्हं इमे दारए बलस्स रण्णो पुत्ते पभावईए देवीए अत्तए ते होउ णं अम्हे इमस्स दारगस्स नामधेचं महब्बले तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो नामधेचं करेंति महब्बल इति / तए णं से महब्बले दारए पंचधाईपरिग्गहिए / तं जहा-खीरधाई एवं जहा दढप्पइण्णे० जाव णि व्वायणिव्वाघायं ति सुहं सुहेणं परिवति / तए णं तस्स महब्बलस्स दारगस्स अम्मापियरो आणुपुव्वेणं ठिइवडियं च चंदसूरदसणावणियं वा जागरियं वा नामकरणं वा परगामणं वा पयचंकामणं वा जेमावणं वा पिंडवद्धणं वा पजंपावणं वा कण्णवेहणं वा संचच्छरपडिलेहणं वा चोलोयणगं वा उवणयणं च अण्णाणि य बहूणि गब्भाऽऽधाण जम्मणमादियाइं कोउयाइं करेंति। तए णं तं महब्बलं कुमार अम्मापिअरो साइरेगट्ठवासगं जाणित्ता सोभणंसि तिहिकरणमुहुत्तंसि एवं जहा दढप्पइण्णे० जाव अलं भोगसमत्थे जाए याऽवि होत्था। तए णं तं महब्बलं कुमारं उम्मुक्कबालभावं अलं भागसमत्थं विजाणित्ता अम्मापिअरो अट्ठ पासायवडेंसए कारेंति। अब्भुग्गयमूसियपहसिए इव वण्णओ, जहा रायप्पसेणइजे० जाव पडिरूवे, तेसि णं पासायवडिंसगाणं बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महेगे भवणं कारेंति / अणेगखंभसयसण्णिविटुं वण्णओ। जहा रायप्पसेणइज्जे, पेच्छाघरमंडवंसि० जावपडिरूवे। (सूत्र४२६) तए णं तं महब्बलं कुमारं अम्मापियरो अण्णया कयाई सोभणंसि तिहिकरणदिवसणक्खत्तमुहुत्तंसिण्हायं कयवलिकम्म कयकोउयमंगलपायच्छित्तं सव्वालंकारविभूसियं पमक्खणं व्हाणं गीयवाइयपसोहणटुंगतिलगकंकणअविहयबहूवणीयं मंगलं सुजंपिएहि य वरकोउयमंगलोवयारकयसंतिकम्म सरिसयाणं सरित्तयाणं सरिव्व्याणं सरिसलावण्णरूवजोव्वणगुणोववेयाणं विणीयाणं कयकोउयमंगलपायच्छित्ताणं सरिसएहिं रायकुलेहिं आणिल्लियाणं अट्ठऽट्ठरायवरकण्णाणं एगदिवसेणं पाणिं गिण्हाविंसु / तए णं तस्स महब्बलस्स कुमारस्स अम्मापियरो अयमेयारूवं पीतिदाणं दलयंति, तं जहाअट्ठ हिरण्णकोडीओ अट्ठ सुवण्णकोडीओ अट्ठमउडे मउडप्पवरे अट्ठ कुंडलजोए कुंडलजुयप्पवरे अट्टहारे हारप्पवरे अट्ठ अद्धहारे अद्धहारप्पवरे अट्ठएगावलीओएगावलिप्पवराओ एवं मुत्तावलीओ एवं कणगावलीओ एवं रयणावलीओ अट्ठ कडगजोए कडगजोयप्पवरे एवं तुडियजोए अट्ठखोमजुवलाइंखोमजुवलप्पवराई एवं वडगजुवलाइं एवं पट्टजुवलाइं एवं दुगुल्लजुवलाई अट्ठ सिरीओ अट्ट हिरीओ एवं धिईओ कित्तीओ बुद्धीओ लच्छीओ अट्ठ नंदाइं अट्ठ भद्दाइं अट्ठ तले तलप्पवरे सव्वरयणामए णियगवरभवणकेउ अट्ठ झए झयप्पवरे अट्ट वए वयप्पवरे (दस गोसाहस्सिएणं वए णं) अट्ठ नाडगाई नाडगप्पवराई बत्तीसवर्तणं नाडएणं अट्ठ आसे आसप्पवरे सव्वरयणामए सिरिघरपडिरूवए अट्ठजाणाई जाणप्पवराइं अट्ठजुग्गाई जुग्गप्पवराई एवं सिवियाओ एवं संदमाणीओ एवं गिल्लीओ थिल्लीओ अट्ठ वियडजाणाई वियडजाणप्पवराई अट्ठ रहे पारिजाणीए अट्ठ रहे संगामिए अट्ठ आसे आसप्पवरे अट्ठहत्थी हत्थिप्पवरे अट्ठ गामे गामप्पवरे (दंसकुलसाहस्सीएणं गामे णं) अदु दासे दासप्पवरे, एवं दासी
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________________ महब्बल 176 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 महब्बल ओ एवं किंकरे एवं कंचुइज्जे एवं वरिसहरे एवंमहत्तरए अट्ठ सोवण्णिए ओवलंबणदीवे अट्ठ रुप्पमए ओवलंबणदीवे अट्ठ सुवण्णरुप्पमए ओवलंबणदीवे अट्ठ सोवण्णिए उकंचणदीवे एवं चेव तिणि वि अट्ठ सोवण्णिए पंजरदीवे एवं चेव तिण्णि वि, अट्ठ सोवण्णिए थाले अट्ठ रुप्पमए थाले अट्ठ सोवण्णरुप्पमए थाले अट्ठ सोवण्णियाओ पत्तीओ 3 अट्ठ सोवणियाई थासि (घोसियाई 3 अट्ठ सोवणियाइं मंगल्लाई अट्ठ सोवणियाओ तलियाओ 3 अट्ट सोवणियाओ कवचियाओ 3 अट्ठसोवण्णमए अपवडए अट्ठ सोवणियाओ अववकाओ 3 अट्ट सोवण्णिए पायपीढए 3 अट्ठ सोवणियाओ मिसियाओ 3 अट्ठ सोवण्णियाओ करोडियाओ 3 अट्ठ सोवण्णिए पल्लंके 3 अट्ठ सोवपिणयाओ पडिसेज्जाओ 3 अट्ट हंसाऽऽसणाइं अट्ठकों चासणाई एवं गरुडासणाई उण्णतासणाइं पणयासणाई दीहासणाई भद्दासणाई पक्खासणाई मकरासणाइं अट्ठ पउमासणाई अट्ठ दिसासोवत्थियासणाई अट्टतेल्लसमुग्गे जहा रायप्पसेणइजे० जाव अट्ठ सरिसवसमुग्गे अट्ठ खुज्जाओ जहा उववाइए० जाय अट्ठ पारिसीओ अट्टछत्ते अट्ठछत्तधारीओ चेडीओ अट्ठ चामराओ अट्ठ चामरधारीओ चेडीओ अट्ठ तालियंटे अट्ट तालियंटधारीओ चेडीओ अट्ठ करोडियधारीओ चेडीओ अटुं खीरधाईओ० जाव अट्ठ अंकधाईओ अट्ठ अंगमदियाओ अट्ठ उम्मबियाओ अट्ठ पहावियाओ अट्ठ पसाहियाओ अट्ठ चंदणपेसीओ अट्ठ चुण्णगपेसीओ अट्ट कीडाकारीओ अट्ट दवकारीओ अट्ठ उवत्थाणियाओ अट्ठा नाडइजाओ अट्ठ कोडु विणीओ अट्टहा महाणसिणीओ अट्ठभंडागारिणीओ अट्ठ अब्भाधारिणीओ अट्ठ पुष्फधारिणीओ अट्ठ पाणधारिणीओ अट्ठ बलिकारियाओ अट्ठ सेजाकारियाओ अट्ठ अभिंतरियाओ पडिहारीओ अट्ठ बाहिरियाओपडिहारीओ अट्ठमालाकारीओ अट्ठ पेसणकारीओ अण्णं वा सुबहुं हिरण्णं वा सुवणं वा कं सं वा दूसं वा विउलधणकणग० जावसंतसावदेचं अलाहि० जाव आसत्तमाओ कुलवंसाओ पकामं दाउं पकामं परिभोत्तुं पकामं परिभाएउ / तए णं से महब्बले कुमारे एगमेगाए भजाए एगमेगं हिरण्णकोडिं दलयइ। एगमेगं सुवण्णकोडिं दलयइ / एगभेगं मउडं मउडप्प्वरं दलयइ / एवं तं चेव सव्वं० जाव एगमेगं पेसणकारिं दलयइ। अण्णं च सुबहु हिरण्णं वा सुवण्णं वा० जाव परिभाएउ / तएणं से महब्बले कुमारे उप्पिं पासायवरगए जहा जमाली विहरइ। (सूत्र-५३०) तेणं कालेणं तेणं समएणं विमलस्स अरहओ पओप्पए धम्मघोसे अणगारे जाइसंपण्णे दण्णओ, जहा केसिसामिस्स, जाव पंचहि अणगारसएहिं सद्धिं संपारिवुडे पुव्वाऽणुपुटिवं चरमाणे गामाऽणुगामे दूइज्जमाणे जेणे व हत्थिणाउरे णयरे जेणेव सहसंववणे उज्जाणे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता अहापडिरूवं उग्गहं उगिण्हइ उगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे० जाव विहरइ / तए णं हत्थिणापुरे णयरे सिंघाडगतिय० जाव परिसा पञ्जुवासइ / तए णं तस्स महब्बलस्स कुमारस्स तं महया जणसद वा जणवूहं वा एवं जहेव जमाली तहेव वि (इ) त्तार तहेव कंचुइज्जपुरिसे सद्दावेइ। कंचूइज्ज पुरिसो तहेव अक्खाइ, णवरं धम्मघोसस्स अणगारस्स आगमणगहियविणिच्छए करयल० जाव णिग्गच्छइ / एवं खलु देवाणुप्पिया ! विमलस्स अरहओ पउप्पए धम्मघोसे णाम अणगारे सेसं तं चेव० जाव सोऽवितहेव, रहवरेण णिग्गच्छद। धम्मक हा जहा के सिसामिस्स, सोऽवि तहेव अम्मापियरं आपुच्छइ / णवरं धम्मघोसस्स अणगारस्स अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए, तहेव वुत्तपडिवुत्तयाओ णवरं इमाओ य ते जाया ! विपुलराजकुलवालियाओ कला० सेसं तं चेव० जाव ताहे, अकामाई चेव महब्बलं कुमारं एवं वयासी-तं इच्छामो ते जाया! एगदिवसमविरजसिरिं पासेमि, तर णं से महब्बले कुमारे अम्मापिउवयणमणुवत्तमाणे तुसिणीए संचिट्ठइ। तर णं से बले राया कोडु वियपुरिसे सद्दावेइ / एवं जहा सिवभहस्स तहेव रायाभिसे ओ भाणिअव्वो० जाव अभिसिंचइ, अमिसिंचइत्ता करयलपरि० महब्बलं कुमार जएणं विजएणं वद्धाति जएणं विजएणं वद्धावेत्ता एवं वयासीभण जाया ! किं देमो किं पयच्छामो ? सेसं जहा जमालिस्स तहेव० जाव / तए णं से महब्बले अणगारे धम्मघोसस्स अणगारस्स अंतिए सामाइयमाइयाई चउहसपुव्वाइं अहिज्जइ, अहिन्जित्ता बहूहिं चउत्थ० जाव विचित्तेहिं तवोकम्मे हिं अप्पाणं भावेमाणे बहुपडिपुण्णाई दुवालसवासाइं सामण्णपरियागं पाउणइ, पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए सर्हि भत्ताई अणसणाए आलोइयपडिकं ते समाहिपत्ते कालामासे कालं किच्चा उबुं चंदिमसूरिय० जाव अम्मडो० जाव बंभलोए कप्पे देवत्ताए उववण्णे, तत्थ णं अत्थेगइयाणं देवाणं दस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता, तत्थ णं महब्बलस्स वि देवस्स दस सागरोधमाइं ठिई पण्णत्ता, से णं तुम्म सुदंरण्णा ! बंभलोए कप्पे दस सागरोवमाइं दिव्वाइं भोगभोगाइं मुंजमाणे वि
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________________ महब्बल ..150- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 महल्लउह हरित्तए। तओ चेव देवलोगाओ आउक्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता महाभयं परिग्रहस्य यद्भवति प्रकृतिरियं परिग्रहस्य - इहेव वाणियगामे णायरे सेट्ठिकुलंसि पुत्तत्ताए पचायाए। (सूत्र- से अप्पं वा बहुं वा अणुं वा थूलं वा चित्तमंतं वा अचित्तमंतं था 431) तए णं तुम्मं सुंदसण ! उम्मुक्कबालभावेणं विण्णाय- | एतेषु चेव परिग्गहावंति। एतदेव एगेसिं महब्भयं भवति (सूत्रपरिणयमेत्तेणं जोव्यणगमणुप्पत्तेणं तहारूवाणं थेराणं अंतियं 146) आचा०१ श्रु०५ अ०३ उ०॥ केवलिपण्णत्ते घम्मे निसंते, सेऽवि य धम्मे इच्छिए पडिच्छिए | महन्भूय न० (म(हद)हाभूत ) अमहतो महतो भवनं महदभूतम्। महत्त्वेन अमिरुइए / तं सुट्ठ णं तुमं सुदंसणा! इदाणिं पि करेसि / से भवने, स्था०४ ठा०१ उ० / सूत्र० / महाभूतानि सर्वलोकव्यापितेणऽढेणं सुदंसणा ! एवं वुच्चइ अत्थि णं एतेसिं पलिओव- त्वान्महत्त्वविशेषणम्। पृथिव्यादिषु भूतेषु, आ०म०१ अ०। सूत्र०। मसागरोवमाईखएइ वा अवचएइ वा, तएणं तस्स सुदंसणस्स महभद्दपडिमा स्त्री (महाभद्रप्रतिमा) प्रतिमाभेदे, "पुव्वाए दिसाए सेट्ठिस्स समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए एयम8 सोचा अहोरतं, एवं चउसु वि दिसासु चत्तारि अहोरत्ता' 485 गा०टी० ''पडिमा णिसम्म सुभेणं अज्झवसाणेणं परिणामेणं लेस्साविसुज्झ- भद्द महाभद्दा" (466 गा०) आ०म०१ अ०। माणीहिं तया (णापा) वरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमेणं महम्मदसाह पुं० (महम्मदशाह) पारसीकः शब्दः / स्वनामख्याते ईहापोसमग्गणगवेसणं करेमाणस्स सण्णीपुरवे जाईसरणे यवनराजे, ती०४८ कल्प। समुप्पण्णे / एयम४ सम्म अभिसमेति। तए णं ते सुदंमणे सेट्ठी महया स्त्री० (महती) अतिशयेन महत्याम, रा०। औ० / महता बृहता समणेणं भगवया महावीरेणं संभारियपुढभवे दुगुणाणि य तृतीयान्तमेतत् / औ० / सूत्र०१ श्रु०२ अ०२ उ० / महाप्रमाणायाम, सङ्घसंवेगे आणंदसंपुण्णणयणे समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो रा०ा "महया भडचडगविंदपरिक्खित्त" महाभटाना विस्तारवत्संघेन आयाहिणं पयाहिणं वंदति णमंसति वंदित्ता णमंसित्ता एवं परिक्षिप्त इत्यर्थः / भ०७ श०६ उ०। जं०।"महया महिंदकुंभसमाणा' वयासी-एवमेतं भंते ! जाव से जहेयं तुज्झे त्तिकट्ट उत्तर- अतिशयेन महान्तो महेन्द्रकुम्भसमानाः / कुम्भानाभिन्द्रः इन्द्रकुम्भः पुरच्छिमं दिसिभागं अवक्कमइ / सेसं जहा उसमदत्तस्स जाव राजदन्तादिदर्शनादिन्द्रशब्दस्य पूर्वनिपातः। महाँश्चासाविन्द्रकुम्भश्च सव्वदुक्खप्पहीणं, णवरं चउद्दसपुव्वाइं अहिज्जइ बहुपडिपुण्णाई तस्य समानाः, महेन्द्रकुम्भसमानाः। जी०३ प्रति०४ अधि०। 'महया दुवालसवासाइं सामण्णपरियागं पाउणइ, सेसं तं चेव सेवं मंते। वासिमच्छत्तसमाणा" महान्ति महाप्रमाणानि वार्षिकाणि-वर्षाकाले भंते ! त्ति ! (सूत्र-४३२) भ०११ श०११ उ०। यानि पानीयरक्षणाऽर्थ कृतानि तानि वार्षिकाणि, तानि च तानिछत्राणि (एतह्याख्या पादमात्रव्याख्यानपरेत्यनुपयोगित्वादुपेक्षिता) / चतत्समानानि। जी०३ प्रति०४ अधिकारा०नि०चू०!"महयाऽऽहयसत्तमस्स उक्खेवओ महापुरणयरं रत्तासोगं उजाणं रत्तपाल- णहगीयवाइयततीतलतालतुडियघणमुइंगपडुप्पवाइयरवेण" (सूत्र जक्खो बले राया सुभद्दा देवी महब्बले कुमारे रत्तवईपामो- 567+) स्था०८ ठा०। क्खाओ पंच सया कण्णा पाणिग्गहणं तित्थगराऽऽगमणं० जाव | महर (देशी) असमर्थे, दे० ना०६ वर्ग 112 गाथा। पुटवभवो मणिपुरं णयरं णागदत्ते गाहावई इंदपुरे अणगारे महरिसी पुं० (महर्षि) महामुनी, पञ्चा०१२ विव० / साधी, सूत्र०१ श्रु०३ पडिलाभिते० जाव सिद्धे / विपा०२ श्रु०७अ०। अ०२ उ०। कषय एवान्यतरलब्ध्युपेता महर्षयः। "आमोसहिविप्पोसहि' वीरगतपितरि रोहीडकनगरराजे, नि०१ श्रु०५ वर्ग१ अ०।' सम्मईसण' | इत्याद्यष्टाविंशतिविधलब्ध्युपेता महर्षयः। लब्ध्युपेतेषु साधुषु, पा०। शब्द उदाहरिष्यमाणे साकेतराजे, आ०चू०४ अ०। भरतक्षेत्रे भविष्यति महरिह त्रि० (महार्ह) महच्च तदर्हच महार्हम्। स्था०८ ठा० / महतां वा षष्ठे वासुदेवे, ति० / मल्लिजिनस्य पूर्वभवजीवे सलिलावतीविजये योग्यम्। भ०६ श०३३ उ०। विपा० / महान्तमुपभोक्तारमर्हति, यदिवावीतशोकानगरीराजबलस्य पुत्रे, ज्ञा०१ श्रु०८ अ०। स्था०। अपरविदह महम- उत्सव क्षणमर्हतीति महार्हम्। उत्सवयोग्ये, रा० / महता योग्ये, गन्धिलावतीविजये गन्धमादनवक्षस्कारपर्वते गन्धारजनपदे महं वापूजामर्हति / महान् वा अर्हः पूजाऽस्येति / प्रशस्ततया पूज्ये, गन्धसमृद्धनगरस्य राज्ञः शतबलस्य नप्तरि अतिबलस्य पुत्रे, आव०१ विपा०१ श्रु०३ अ०। स०। अ०1 आ०म०1 महल्ल त्रि० (महत्) अतिशयमहति, आव०१ अ०।ज्ञा०। बृहति, बृ०३ महन्भय न० (महाभय) अतिभीतौ, प्रश्न०१ आश्र० द्वार / महद्भय उ० / दीर्घे, औ० ! आ०म० / महतो वृक्षान् प्रेक्ष्य नैव वदेद्- यथा यस्मादसौ महाभयः / महाभयहेतौ, त्रि० / प्रश्न०१ आश्र० द्वार / प्रासादयोग्या अमी वृक्षा इति। यत्तु वदेत्तदाह-"महल्लपेहाए रुक्खा' भयहेतुत्वाद्दुःखमेव महाभयम। तच्च मरणकारणमिति महदित्युच्यते। एवं वदेत्। आचा०२ श्रु०१चू०४ अ०२ उ०। वृद्ध निवह-पृथुल-मुखरआचा०१ : श्रु०२ अ०४ उ० / महच तद्भयं च महाभयम् नातः परमन्य- जल-धिषु, दे० ना०६ वर्ग०१४३ गाथा। दस्तीति महाभयम्। आचा०१ श्रु०१ अ०६ उ० / उत्त० / पोन्ः पुन्येन | महल्लउह न० (महोह) ऊहशतसहस्त्ररूयायां संख्यायाम, ज्यो०२ संसारपर्यटनतया नरकाऽऽदिस्वभावदुःखे, प्रश्न०५ संव० द्वार। पाहु०। (स्पष्टतया काल' शब्दे तृतीयभागे 476 पृष्ठ प्रोक्तम्)
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________________ महल्लउहंग 181 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 महव्वय महल्लउहंग न० (महोहाङ्ग) महाऽटटशतसहस्त्ररूपायां संख्यायाम. ज्यो०२ पाहु०। ('काल' शब्दे 3 भागे स्फुटीभूतम्) महल्लग त्रि० (महत) ज्येष्ठ, ''महल्लग वा वृद्ध वा'' दश०५ अ०३ उ० / आ०म० / आचा०। महल्लियदुवारिया स्त्री० (महाद्वारिका) बृहद्वारायां वसती, आचा०२ श्रु०१ च०१ अ०२ उ०। महल्लियाविमाणपविभत्ति स्त्री० (महाविमानप्रविभक्ति) महा ग्रन्थार्थे विमानप्रविभक्तयाख्ये ग्रन्थे, स्था०१० ठा० / पा०। महव्वय न० (महाव्रत) महान्ति-बृहन्ति च तानि व्रतानि च नियमतो महाव्रतानि। महत्त्वं चैषां सर्वजीवादिविषयत्वेन महाविषयत्वात्। पा०। सूत्र० / नं०11०ा आव०। आचा० / महच तव्रतं च महाव्रतम्, महत्त्वं चास्य श्रावकसम्बन्ध्यणुव्रतापेक्षयेति / सर्वथा हिंसात्यागेषु, ध०३ अधि० आचा०॥प्राणातिपातादिनिवृत्तिलक्षणेषु, आव०४ अ०। प्रव०। स्था० पंच महब्वया पण्णत्ता / तं जहा-सव्वाओ पाणाऽइवायाओ वेरमणं, सव्वाओ मुसावायाओ वेरमणं० जाव सव्वाओ परिग्गहाओ वेरमणं / (सूत्र-३८६) (मंच महव्वयेत्यादि)"पञ्चेति" संख्यान्तरव्यवच्छेदस्तेन न चत्वारि प्रथमाश्चिमतीर्थयाः पञ्चानाभेव भावात्, महान्ति बृहन्ति तानि च तानि व्रतानि च-नियमा महाव्रतानि। महत्त्व चैषां सर्वजीवादिविषयत्वेन महाविषय वात्। उक्तं च-"पढमम्मि सव्वजीवा, बीए चरिमे य सव्वदच्वाइं। सेसा महव्वया खलु, तदेकदेसेण दवाणं" / / 1 / / इति / तेषां द्रव्याणमेकदेशनेत्यर्थः। तथा-यावजीवं त्रिविध त्रिविधेनेति प्रत्याख्यानरूपत्वाच तेषानिति / देशविरतापेक्षया महतो वा गुणिनो व्रतानि महवतानीति, पुंलिङ्गनिर्देशस्तु प्राकृतत्वादिति / प्रज्ञप्तानितथाविधशिष्यापेक्षया प्ररूपितानि महावीरेण आद्यतीर्थकरेण च न शेषरित्येतत् किल सुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिनं प्रतिपादयामास / तद्यथा-सर्वस्मात्- निरवशेषात्त्रसस्थावरसूक्ष्मबादरभेदभिन्नात्: कृतकारितानुमतिभेदाचेत्यर्थः / अथवा-द्रव्यतः षड्जीवनिकायविषयात्, क्षेत्रतस्त्रिलोकसम्भवात. काललोऽतीतादे राज्यादिप्रभवाद्वा, भावतो रागद्वेषसमुत्थाचन तु परिस्थूरादेवेति भावः / प्राणानामिन्द्रियोच्छवासायुरादीनामतिपातः प्राणिनः सकाशाद्विभ्रंशः प्राणातिपातः, प्राणिप्राणवियोजनमित्यर्थः / तस्माद्विरमणम् सम्यग्ज्ञानश्रद्धानपूर्वक निवर्त्तनमिति। तथा सर्वस्मात् सद्भावप्रतिषेधा 1 ऽसद्भावोद्भावना 2 ऽर्थान्तरोक्ति 3 गाभेदात् 4 कृतादिभेदाच्च / अथवा-द्रव्यतः सर्वधर्मास्तिकायादिद्रव्यविषयात्. क्षेत्रतः सर्वलोकालोकगोचरात्, कालतोऽतीतादे रात्र्या दिवर्तिनो वा, भावतः कषायनोकषायादिप्रभवापत् / मृषा अलीकं वदनं मृषावादस्तस्माद्विरमणं विरतिरिति, तथा सर्वस्मात् कृतादिभेदात्। अथवा-द्रव्यतः सचंतनाचेतनद्रव्यविषयात्, क्षेत्रतो ग्रामनगरारण्यादिसम्भवात्, कालनोऽती तादे रात्र्यादिप्रभवाद्वा, भावतो रागद्वेषमोहसमुत्थात् / अदत्तं | स्वामिना अवितीर्ण तस्याऽऽदानं ग्रहणमदत्ताऽऽदनं तस्माद्विरमणमिति, तथा सर्वस्मात् कृतकारितानुमतिभेदाद, अथवा-द्रव्यतो दिव्यमानुषतैरश्चभेदात रूप-रूपसहगतभेदाद्वा / तत्र रूपाणि निर्जीवानि प्रतिमारूपाण्युच्यन्ते, रूपसहगतानितु सजीवानि। भूषणविकलानि वा रूपाणि, भूषणसहितानि रूपसहगतानीति। क्षेत्रतस्त्रिलोकसम्भवात्, कालतोऽतीतादे रात्र्यादिसमुत्थाद्वा, भावतो रागद्वेषप्रभवात्। मिथुनं स्त्रीपुंसद्वन्द्र तस्य कर्म मैथुनं तस्माद्विरमणमिति, तथा सर्वस्मात् कृतादेः। अथवाद्रव्यतः सर्वद्रव्यविषयात्, क्षेत्रतः लोकसम्भवात्, कालतोऽतीतादे, रात्र्यादिप्रभवादा, भावतो रागद्वेषविषयात्, परिगृह्यते आदीयते परिग्रहणं वा परिग्रहस्तरमाद्विरमणामिति। स्था०५ ठा०१ उ०। "पंच महव्वयाई राइभोहणच्छट्ठाई। प्रव०७२ द्वार। (एतानि सभावनानि 'पाणइवाया' ऽऽदिशबदेषूक्तानि) आ०चू० / प्रव०॥ अङ्गाआव०। पञ्चा०। (अन्तर्गृहे महाव्रतानि नाख्यातव्यानीत्युक्तम् 'अंतरगिह' शब्द प्रथमभागे 88 पृष्ठे) (पाक्षिकप्रतिक्रमणविधिगताति सूत्राणि 'पडिक्कमण' शब्दे पञ्चमभागे 264 पृष्ठे उक्तानि) 1 केषां तीर्थ पञ्च वा चत्वारि महाद्रतानीति 'वय' शब्दे वक्ष्यते) (सौगतानां दश महाव्रतानि इति पलंब' शब्दे 5 भागे 715 पृष्ठे उक्तम्) महाव्रतानां फलानिवैरत्यागोऽन्तिके तस्य, फलं चाऽकृतकर्मणः। रत्नोपस्थानसदीर्य-लाभो जनुरनुस्मृतिः।।६।। तस्याऽहिसाभ्यासवतोऽन्तिके संनिधौ वैरत्यागः सहजविरोधिनामप्यहिनकुलादीना हिंसात्वपरिहारः, तदुक्तम्- (अहिंसाप्रतिष्ठायाम्''तत्संनिधौ वैरत्यागः" पाद 2 सू०३५) सत्याभ्यासवतश्चाकृतकर्मणोऽविहितानुष्ठानस्यापि फलं तदर्थोपनतिलक्षणक्रियमाणा हि क्रिया यागादिकाः फलं स्वर्गादिकं प्रयच्छन्ति / अस्य तु सत्य तथा प्रकृष्यते, यथाऽकृतायामपि क्रियायां योगी फलमाश्रयते तद्वचनाच यस्य कस्यचित क्रियामकुर्वतोऽपि फलं भवतीति। तदाह-(सत्यप्रतिष्ठायाम्"क्रियाकलाश्रयत्वम्' पाद 2 सू०३६) अस्तेयाभ्यासवतश्चरत्नोपस्थान तत्प्रकर्षान्निरभिलाषस्यापि सर्वतो दिक्कानि रत्नान्युपतिष्ठन्त इत्यर्थः / ब्रहाचर्याभ्यासवतश्च सतो निरतिशयस्य वीर्यस्य लाभः, वीर्य निरोधो हि ब्रहाचर्य, तस्य प्रकर्षाच्च वीर्य शरीरेन्द्रियमनस्सु प्रकर्षमागच्छतीति (अपरिग्रहविषयिका व्याख्या परिगह' शब्दे 5 भागे 556 पृष्ठ)। द्वा०२१ द्वा०। चू० / दश०। (प्रथमं महाव्रतम् प्राणातिपातविरमणम् तच्च पडिक्कमण' शब्दे पञ्चमभागे 285 पृष्ठे दर्शितम्) (द्वितीयं महाव्रतं मृषावादविरमण तच 'मुसावायवेरमण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे दीत) (तृतीय महाव्रतम् अदत्तादानविरमणं तच्च अदत्तादानविरमण' शब्दे प्रथमभागे 540 पृष्ठे गतम्) (चतुर्थ मैथुनविरमण तच 'वंभचेर' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 1256 पृष्ठे उक्तम् ) (पञ्चमं महाव्रत परिग्रहविरमणं तच परिगवेरमण' शब्दे पञ्चमभागे 557 पृष्ठे गतम्)। इचेयाइं पंच महव्वयाइं राइभोयणवेरमणछट्ठाई अत्तहियऽट्ठाए उवसंपज्जित्ता णं विहरामि। (सूत्र-६)। (इचे याई इत्यादि) इन्येतान्यनन्तरोदितानि पहा महा
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________________ महव्वय 152 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 महव्वय व्रतानि रात्रिभोजनविरमणषष्ठानि। किमित्याह-आत्महिताय आत्महितो मोक्षस्तदर्थम्, अनेनान्यार्थं तत्त्वतो व्रताभावमाह, तदभिलाषानुमत्या हिंसादावनुमत्यादिभावात्, 'उपसंपद्य' सामीप्येनांङ्गीकृत्य व्रतानि विहरमि साधुविहारेण तद भावे चाङ्गीकृतानामपि व्रतानामभावात् / दोषाश्च हिंसादिकर्तृणाम् अल्पायुर्जिहाच्छेददारिद्र्यपण्डकदुःखितत्वादयो वाच्या इति। दश०४ अ01 अत्रान्तरे सप्तचत्वारिंशदधिकप्रत्यानभङ्गकशताऽधिकारः / तत्रेय गाथा - "सीयालं भंगसयं, पचक्खाणमि जस्स उवलद्धं / सो पच्चक्खाणकुसलो, सेसा सव्वे अकुसला उ॥१॥" दश०४ अ०॥ सप्तचत्वारिंशदधिकभङ्गशतं वक्ष्यमाणलक्षणं, प्रत्याख्यानेप्रत्याख्यानविषयं, यस्योपलब्धं भवति स इत्थंभूतः प्रत्याख्याने कुशलोनिपुणः, शेषाः सर्वे अकुशलाः-तदनभिज्ञा इति गाथासमासार्थः / अवयवार्थस्तु भङ्गकयोजनाप्रधानः सचैवं द्रष्टव्यः - "तिन्नि तिया दुया, तिन्नि क्केका य होंति जोएसु। ति दु एक्कं ति दु एकं, ति दु एक्कं चेव करणाइं॥१॥" त्रयस्त्रिकाः (333) त्रयो द्विकाः (222) त्रयश्चैककाः (111) भवन्ति / योगेषु-कायवाड्मनोव्यापारलक्षणेषु त्रीणि द्वयमेकं त्रीणि द्वयमेकं त्रीणिद्वयमेकं चैव करणानि मनोवाक्कयलक्षणानि इतिपदघटना। भावार्थस्तु स्थापनया निर्दिश्यते। सा चेयम् - 333-222-111 काऽत्र भावना?"नकरेमि न कारवेमिक ३२१३२१-३२१रंतं पिअन्नंन समणुजाणामि मणेणं वा 133-366-366 / याएकाएणं'' एक्को भेदो। इयाणिं वितिओ-ण करेइन कारवेइ करतं पि अन्नं न समणुजाणाइ मणेणं वायाए इक्को भंगो। तहा मणेणं कारणं विइओ भंगो / तहा वायाए काएण य तइओ भंगो। विइओ मूलभेओ गओ। इयाणिं तइओ-ण करेइ ण कारवेइ करतं पि अन्नं न समणुजाणइ मणेणं एक्को, वायाए विइओ, कारणं तइओ, गओ ततिओ मूलभेओ। इयाणिं चउत्थो-ण करेइ ण कारवेइ मणेणं घायाए कारणं इक्को, ण करेइ करतं णाणुजाणइ विइओ, ण कारवेइ करतं णाणुजाणइ विइओ, ण कारवेइ करतं णाणुजाणइ तइओ, गओ चउत्थो मूलभेओ / इयाणिं पंचमो-ण करेइण कारवेइ मणेणं वायाए एक्को, ण करेइ करतंणाणुजाणइ विइओ, ण कारवेइ करतणाणुजाणइतइओ, एए तिन्नि भंगा मणेणं यायाए लद्धा, अन्ने वि तिन्नि मणेण काएण य लब्भति, तहा अवरे वि वायाए कारण य लब्भंति तिन्नि, एवमेव सव्वे एए णव, पंचमोऽप्युक्तो मूलभेदः / इयाणिं छट्ठोण करेइ ण कारवेइ मणेणं एक्को, तहाणं करेइ करतं णाणुजाणइ मणेणं विइओ, ण कारवेइ करतं गाणुजाइण मनसैव तृतीयः, एवं वायाए कारण वि तिन्नि तिन्नि भंगा लभंति / एते वि सव्वें णव / उक्तः षष्ठो मूलभेदः। सप्तमोऽभिधीयते-ण करेइ मणेणं वायाएकाएणं एक्को, एवं ण कारवेइ मणादीहिं वितिओ, करतंणाणुजाणइ, ततिओ। सप्तमोऽप्युक्तो / मूलभेदः / इदानीमष्टमः-ण करेइ मणेणं वायाए एक्को, मणेणं कारण य वितिओ, तहा वायाए कारण य तइओ, एवं न कारवेइ एत्थं पि तिन्नि भंगा, एवमेव करतं णाणुऽजाणइ एत्थं पि तिन्नि भंगा, एए सव्ये णव / उक्ताऽष्टमः / इदानीं नवमः-ण करेइ मणेणं इक्को, ण कारवेइ वितिओ, करतं णाणुजाणइ तइओ, एवं वायाए वितियं, कारण वि होइ ततियं, एवमेते सव्वे वि मिलिया नव, नवमोऽप्युक्तः। आगतगुणनमिदानी क्रियते - "लद्धफलमाणमेयं, भंगा उहवंति (अ) ऊणपन्नासं। तीयाणागयसंपति, गुणियं कालेण होइ इमं / / 1 / / सीयालं भंगसयं, कह कालतिएण होति गुणणा उ। तीतस्स पडिक्कमणं, पञ्चुप्पन्नस्स संवरणं / / 2 / / पच्चक्खाणं च तहा, होइ य एसस्स एस गुणणा उ। कालतिएणं भणियं, जिणगणधरवायएहिं च // 3 // " इतिगाथार्थः / दश०४ अ०। साम्प्रतंयतनाया अवसरस्तथा चाऽऽहसे भिक्खू वा भिक्खुणी वा संजयविरयपडिहयपञ्चक्खायपावकम्मे दिया वा राओ वा एगओ वा परिसागओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा से पुढविं वा भित्तिं वा सिलं वा लेलुं ससरक्खं वा कायं ससरक्खं वा वत्थं हत्थेण वा पाएण वा कट्टेण वा किलिंचेण वा अंगुलियाए वा सिलागाए वा सिलागहत्थेण वा न आलिहेजा न विलिहजेजा न घट्टेजा न भिंदेजा अनं न आलिहावेज्जा न विलिहावेजा न घट्टावेज्जा न मिंदावेज्जा अन्नं आलिहतं वा विलिहंतं घट्टतं वा भिदंतं वान समणुजाणेज्जा जावनीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि करंतं पि अन्नं न समणुजाणामि तस्स भंते ! पडिकमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसि रामि। (सूत्र-१०) 'से' इति निर्देश सयोऽसौ महाव्रतयुक्तो, भिक्षुर्वा भिक्षुकी वा आरम्भपरित्यागाद्धर्मकायपालनाय, भिक्षणशीलो भिक्षुः एवं भिक्षुक्यपि पुरुषोत्तमो धर्म इति भिक्षुर्विशेष्यते, तद्विशेषणानि च भिक्षुक्या अपि द्रष्टव्यानीति, आह-संयतविरतप्रतिहतप्रत्याख्यात-पापकर्मा-तत्र सामस्त्येन यतः संयतः सप्तदशप्रकारसंयमोपेतः। विविधम्- अनेकधा द्वादशविधे तपसि रतो विरतः। प्रतिहतप्रत्याख्यातपापकर्मेति-प्रतिहतं स्थितिहासतो ग्रन्थिभेदेन प्रत्याख्यातं हेत्वभावतः पुनर्वृद्ध्यभावेनपापं कर्मज्ञानावरणीयादियेनस तथाविधः। दिवा वा रात्रौवाएकोवा परिषद्गतो वा सुप्तो वा गाग्रद्धा, रात्रौ सुप्तो दवि जाग्रत्, कारणिक एकः, शेषकालं परिषद्गतः, इदं च वक्ष्यमाणं न कुर्यात् / (से पुढविं वा इत्यादि) तद्यथापृथिवीं वा, भित्तिं वा, शिलां वा, लोष्ठं वा, तत्र पृथिवी लोष्ठादिरहिता, भित्तिः-नदीतटी, शिला-विशालः पाषाणः, लोष्ठः-प्रसिद्ध / तथा सह रजसा-आरण्यपांशुलक्षणेन वर्तते इति सरकस्कस्तं सरजस्कं वा कार्य 'कायमिति देहं तथा सरजस्कंवा वस्त्रंचोलपट्टकादि "एकग्रहणेतजातीयग्रहणम्" इति पात्रादिपरिग्रहः, एतत्किमित्याह-हस्तेन वा पादेन वा
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________________ महव्वय 183 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 महव्वय काष्ठेन वा कलिञ्चेन वा-क्षुद्रकाष्ठरूपेण अङ्गुल्या वा शलाकया वा / अयःशलाकादिरूपया शलाकाहस्तेन वाशलाकासंघातरूपेण (णालि- | हिज्जत्ति) नालिखेत् न विलिखेत्। नघट्टयेत् न भिन्द्यात् तत्र ईषत्सकृद्रा लेखन, नितरामनेकशो वा विलेखन, घट्टनं चालनं, भेदो विदारणम्, एतत्स्वयं न कुर्यात्, तथा अन्यमन्येन वा नालेखयेन विलेखयेत्नघट्टयेत् नभेदयेत्। तथा अन्य स्वत एव आलिखन्तं वा विलिखन्तं वा घट्टयन्तं वा भिन्दन्तं वा नसमनुजानीयादित्यादि पूर्ववत्। दश०४ अ०। (अग्रेतनं सूत्रम् 'आउक्काय' शब्दे द्वितीयभागे 27 पृष्ठे गतं तद्व्याख्याऽपि किंचित्तत्र) एतत् किमित्याह-(नामुसेज त्ति) नामृषेत् न संस्पृशेत् नाऽऽपीडयेत् न प्रपीडयेत् नाऽऽस्फोटयेत्न प्रस्फोटयेत् नाऽऽतापयेत् न प्रतापयेत्। तत्र सकृदीषद्वा स्पर्शनमामर्षणम्, अतोऽन्यत् संस्पर्शनम्। एवं सकृदीषदा पीडनमापीडनमतोऽन्यत् प्रपीडनम्एवं सकृदीषदा स्फोटनमास्फोटनम्, अतोऽन्यत्प्रस्फोटनम्, एवं सदीषदा तापनमातापनम् विपरीतं प्रतापनम्, एतत्स्वयं न कुर्यात्, तथा अन्यमन्येनवा नामर्षयेत् न संस्पर्शयेत् नापीडयेत् न प्रपीडयेत् नास्फोटयेत् न प्रस्फोटयेत् नातापयेत् न प्रतापयेत्, तथा अन्य स्वत एव आमृषन्तं वा संस्पृशन्तं वा आपीडयन्तं वा प्रपीडयन्तं वा आस्फोटयन्तं वा प्रस्फोटयन्तं वा आतापयन्तं वा प्रतापयन्तं वान समनुजानीयादित्यादि पूर्ववत्। से भिक्खू वा भिक्खुणी वा संजयविरयपडिहयपचक्खायपावकम्मे दिया वा राओ वा एगओ वा परिसागओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा से अगणिं वा इंगालं वा मुम्मुरं वा अधिं वा जालं वा अलायं वा सुद्धोगणिं वा उचं वा न उंजिला न घट्टेजा न उज्जालेजा न पञ्जालेजा न निव्वावेज्जा अन्नं न उंजावेजा न घट्टावेज्जा न उज्जालावेजा न पखालावेजा न निव्वावेज्जा अनं उंजंतं वा घट्टतं वा उज्जालंतं वा निव्वावंतं वान समणुजाणेज्जा जावजीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए काएणं न करेमिन कारवे मि करतं पि अन्नं न समणुजाणामि तस्स भंते ! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि। सूत्र-१२। (जाव जागरमाण व त्ति) पूर्ववदेव (से अगणिं वेत्यादि) तद्यथा-अग्निं वा अङ्गारं वा मुर्मुरं वा अर्चिा ज्वालांवा अलातं वा शुद्धाग्निं वा उल्का वा इहाऽयः पिण्डानुगतोऽग्निः, ज्वालारहितोऽङ्गारः, विरलाग्निकरणं भस्स मुर्मुरः, मूलाग्निविच्छिन्ना ज्वाला अर्चिः, प्रतिबद्धा ज्वाला, अलातमुल्मुकम्, निरिन्धनः शुद्धोऽग्निः, उल्का गगनाऽग्निः, एतत्किमित्याह-(न उंजेज्जा) नोत्सिञ्चेत् (नघट्टेजा) नघट्टयेत्न उज्ज्वालेयत् न निर्वापयेत् / तत्रोञ्चनमुत्सेचनं, घट्टनं सजातीयादिना चालनम्, उज्ज्वालनं व्यजनादिभिर्वृद्ध्यापादनं, निर्वापणपं विध्यापनम्। एतत्स्वयं नं कुर्याम, तथा अनरूमन्येन वा नोत्सेचयेत् नघट्टयेत नोज्ज्वालयेत्न निर्वापयेत्, तथा अन्यं स्वत एव उत्सिञ्चयन्तं वाघट्टयन्तं वा उज्ज्वालयन्तं वा निर्वापयन्तं वा न समनुजानीयादित्यादि पूर्ववत्। जे मिक्खू वा भिक्खुणी वा संजयविरयपडिहयपचक्खायपावकम्मे दिया वा राओ वा एगओ वा परिसागओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा से सिएण वा विहणेणवा तालिअंटेण वा पत्तेण वा पत्तभंगेण वा साहाए वा साहाभंगणे वा पिहुणेण वा पिहुणहत्थेण वा चेलेण वा चेलकण्णेण वा हत्थेण वा मुहेण वा अप्पणो वा कायं बाहिरंवाऽवि पुग्गलं न फूमेजा न वीएज्जा अन्नं न फूमावेजा नवीयावेजा अनंफूमंतं वा वीयंतं वानसमणुजाणेजा। जावजीवाए तिविहं तिविहेणं,मणेणं वायाएकाएणंनकरेमिन कारवेमि करतं पिं अन्नंन समणुजाणामितस्सभंते ! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि॥१३॥ (सेभिक्खूवेत्यादि-यावत्-जागरमाणे वा) इति पूर्ववदेव (से सिएण वेत्यादि) तद्यथा सितेनवा विधवनेन वा तालवृन्तेन वा पत्रेण वा शाखया वा शाखाभङ्गेन वा पेहुणेन वा पेहुणहस्तेन वा चेलेन वा चेलकर्णेन वा हस्तेन वा मुखे नवा। इह सितंचामरं, विधवन-व्यजनं, तालवृत्तं तदेव मध्यग्रहणाच्छिद्रं द्विपुट, पत्रं पद्मिनीपत्रादि, शाखा वृक्षडालं शाखाभङ्गं तदेकदेशः पेहुणं मयूरादिपिच्छं. पेहुणहस्तकस्तत्समूहः, चेल-वस्त्र, चेलकर्णस्तदेकदेशः, हस्तमुखे प्रतीते, एभिः किमित्याह-आत्मनो वा कायं स्वदेहमित्यर्थः, बाह्य वा पुद्गलम् उष्णौदनादि, एतत्किमित्याह(न फूमिज्जा इत्यादि) न फूत्कुर्यात् न व्यजेत् / तत्र फूत्करणं मुखेन धमनं, व्यजनंचमरादिना वायुकरणम्, एतत्स्वयं न कुर्यात्, तथा अन्यमन्येन वा न फूत्कारयेत्न व्याजयेत्। तथा अन्य स्वतएव फूत्कुर्वन्तंवा व्यजन्तं वा न समनुजानीयादित्यादि पूर्ववदेव। जे भिक्खू वा मिक्खुणी वा संजयविरयपडिहयपचक्खायपावकम्मे दिया वा एगओवा परिसागओ वासुत्ते वा जागरमाणे वा से बीएसुवा बीयपइसुवा रूठेसुवा रूठपइद्वेसु वा जाएसु वा जायपइटेसुवा हरिएसुवा हरियपइहेसुवा छिन्नेसुवा छिन्नपइसुवा सचित्तेसुवासचित्तकोलपडिनिस्सिएसुवानगच्छेशा न चिडेजा न निसीइजा न तुयट्टेखा अन्नं न गच्छावेजा न चिट्ठावेछान निसीयावेजान तुयट्टावेजा अनं गच्छंतं वा चिटुंतं वा निसीयंतंवातुयदृतं वान समणुजाणेशाजा वजीवाए तिविह तिविहेणं मणेणं वायाए काएणं न करेमि न कारवेमि करतं पि अन्नं न समणुजाणामितस्सभंते ! पडिकमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि।१४ (से भिक्खूवेत्यादि-यावत्-जागरमाणे वेति) पूर्ववदेव। (से वीएसु वेत्यादि) तद्यथा-बीजेषु वा बीजप्रतिष्ठितेषु वा रूढेषु वा रूढप्रतिष्ठितेषु वा जातेषु वा जातप्रतिष्ठितेषु वा हरितेषु वा हरितप्रतिष्ठितेषु वा छिन्नेषु वा छिन्नप्रतिष्ठितेषु वा सचित्तेषु सचित्तकोलप्रतिनिश्रितेषु वा, इह बीजंशाल्यादितत्प्रतिष्ठितम् आहारशयनादिगृह्यते। एवं सर्वत्र वेदितव्यम्। रूढानि स्फुटितबीजानि, जातानि स्तम्बीभूतानि,
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________________ महव्वय 184 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 महाकण्हा हरितानि दूर्चादीनि, छिन्नानि परश्वादिभिर्वृक्षात् पृथक् स्थापितानि / ति० / बलभिलराजात् पूर्वानन्तरे अवन्तीराजे, "बलमित्तभाणुमित्ता, आर्द्राणि अपरिणतानि तदङ्गानि गृह्यन्ते, सचित्तान्यण्डकादीनि, कोलो सट्ठीचत्ता यहाँति महसेणा। गद्दभसयमेन पुण, पडिवण्णो तासगो राया' घुणः तत्प्रतिनिश्रितानि तदुपरिवर्तीनि दार्वादीनि गृह्यनते / एतेषु // 615 // ति०। किमित्याह-"न गच्छेला' न गच्छेत् न तिष्ठत्न निषीदेत नत्वावर्तेत। महसेणवण न० (महासेनवन) स्वनामके उद्याने, यत्र उत्पन्नकेवलो तगमनमन्यतोऽन्यत्र, स्थानमेकत्रैव, निषीदनम उपवेशन, त्वग्वर्तन वीरप्रभुः संप्रस्थितः। आ०म०१ अ०। "उप्पत्तम्मि अणंत, नट्ठम्मिय रचपनरएतत्स्वयं न कुर्यात्। तथाऽन्यमेतेषु न गमयेत न स्थापयेत्, न छाउमत्थिए णाणे / रातीए संपत्तो, महसेणवणं तु उजाण / / 1 / / " दियेत, न स्वापयेत् / तथाऽन्य स्वत एव गच्छन्तं वा तिष्ठन्तं वा आ००१ अ० / महसेनवनोद्यानलक्षणं क्षेत्रम् / विशे० / ति०। निपीदत या स्वान्तं वा न समनुजानीयादित्यादि पूर्ववत। महा स्त्री० (मघा) पितृदेवत्ये नक्षत्रभेदे, "दो महाऊ दो फागुणीऊ।" से भिक्खू वा भिक्खुणी वा संजयविरयपडिहयपचक्खाय अनु० / स्था० / "महानक्खत्ते सत्त तारे पणत्ते'' स०७ सम० / स्था० / पावकम्मे दिया वा राओ वा एगओ वा परिसागओ वा सुत्ते वा महाइमाइ त्रि० (महातिशायिन्) अचिन्त्यशक्ती, जी०१ प्रति०। जागरमाणे वा से कीडं वा पयंगं वा कुंथु वा पिपीलियं वा हत्थंसि महाकं दिय पुं०(महाक्रन्दित) व्यन्तरदेवभेदे, प्रज्ञा०२ पद। औ०। वा पयंसि वा बाहुंसि वा ऊरंसि वा उदरंसि वा सीसंसि वा महाकच्छ पुं० (महाकच्छ) ऋषभदेवसहप्रव्रजिते भिक्षाऽलाभात्तापसत्वं वत्थंसि वा पडिग्गहंसि वा कंबलंसि वा पायपुंछणंसि वा गते विनमिपितरि कच्छभ्रातरि, आ०चू०१ अ०। दर्श० / आ०क० / रयहरसि वा गोच्छगंसि वा उंडगंसि वा दंडगंसि वा पीढगंसि आग० / कल्प० / जम्बूद्वीपमन्दरस्य पूर्वे शीतोदाया उत्तरे चक्रवर्त्ति विजये, स्था०८ ठा०। वा फलगंसिवा सिजगंसिवा संथारगंसि वा अन्नयरंसि वा तहप्पगारे उपगरणजाये तओ संजयामेव पडिलेहिय पडिलेहिय पमजिय दो महाकच्छा। स्था०२ ठा० पमन्जिय एगतमवणेजा नो णं संधायमावजेज्जा / / सूत्र-१५॥ कहिणं भंते ! महाविदेहे वासे महाकच्छे णामं विजये पण्णत्ते ? गोअमा ! णीलवंतस्स वासहरपव्वयस्स दाहिणेणं सीआए से भिक्खूवा इत्यादि-यावत्- जागरमाणे व त्ति) पूर्ववदेव (से कीड महाणईए उत्तरेणं पम्हकूडस्स वक्खारपव्वयस्स पञ्चत्थिमेणं या इत्यादि) तद्यथा-कीट वा पतङ्ग वा कुन्थु वा पिपीलिका वा, गाहावईए महाणईए पुरत्थिमेणं एत्थ णं महाविदेहे वासे महाकिमित्याह-हस्ते वा पादे वा बाहो वा ऊरुणि वा उदरे वा वस्त्र या कच्छे णाम विजए पण्णत्ते / सेसं जहा कच्छविजयस्स णवरं रमाहरणे वा गोच्छके वा उण्डके वा दण्डके वापीठे वा फलके वा शय्याया अरिहा रायहाणी जाव महाकच्छे इत्थ देवे महिड्डिए अट्ठो अ का सस्तारके वा अन्यतरस्मिन् वा तथाप्रकारे साधुक्रियोपयागिनि भाणिअव्वो। उपकरणजाते कीटादिरूपं त्रसं कथंचिदापतितं सन्तं संयत एव अथ तृतीयं विजय प्रश्नयन्नाह-कहिणमित्यादि, स्पष्ट नवरं यावत्मन्प्रयत्नेन वा प्रत्युपेक्ष्य-पौनःपुन्येन सम्यक् प्रमृज्य पौनः-पुन्येनैव पदात्- 'तत्थ ण अरिठ्ठाए रायहाणीए महाकच्छे णाम राया समुप्पजइ, सम्यक- किमित्याह-एकान्ते तस्याऽनुपघातके स्थाने अपनयेत् परित्य महया हिमवत जाव सव्वंभरहो अवणं भाणिअव्वं / णिक्खमणवजं सेस जेत् नैनं त्रसं राघातमापादयेत् नैनं सं संघात परस्परगात्रसंस्पर्श भाणिअव्व० जावभुंजइमाणुस्सए सुहे. महाकचछणामधेजे' इति ग्राह्यम् पीडारुपमापादयेत प्रापयेत् / अनेन परितापनादिप्रतिषेध उक्तो वेदितव्यः। ईदृशेनाभिलापेनार्थो महाकच्छशब्दस्य भणितव्यः / ज०४ वक्ष०। ''एकगृहणे तजातीयग्रहणाद" अन्यकारणानुमतिप्रतिषेधश्च, शेषमत्र महाकच्छा स्त्री० (महाकच्छा) अतिकायस्य महोरगेन्द्रस्याऽग्रमहिध्याम, प्रकटार्थमेव / नवरम् - उण्डक-स्थण्डिलं, शय्या-संस्तारिका व सति स्था०४ ठा०१ उ०। भ०। वेत्युक्ता यतना। दश०४ अ० / (महाव्रतानां विषयः 'सामाइय' शब्दे / महाकट्ठ त्रि० (महाकष्ट) दुरनुचरे, षो०१ विव० वक्ष्यते) महाकडिल न० (महाकडिल्ल) गहने, पं०व०४ द्वार। महसउणिपूअणारिपु पुं० (महाशकुनिपूतनारिषु) कृष्णवासुदेवे, कृष्ण- महाकण्ह पुं० (महाकृष्णे) स्वनामख्याते महाकृष्णायाः कुमारे, नि०१ पितृवैरिण्या महाशकुनिपूतनाभिधानाया विद्याधरयोपितो विकुर्वित श्रु०१ वर्ग 1 अ०॥ स च श्रेणिकान्महाकृष्णायामुत्पद्य वर्षत्रयपर्यायात्षष्ठे गन्त्रीरूपाया गन्त्रीसमारोपितवालावस्थकृष्णया कृष्णपक्षपातिदेवतया लान्तककल्पे उत्पद्य चतुर्दशसागरोपमाण्युत्कृष्टस्थितिकमायु-रनुपाल्य विनिपातितत्वात्। प्रश्न०४ आश्र० द्वार। ततश्च्युतो महाविदेहे सेत्स्थतीति। नि०१ श्रु०१ वर्ग 6 अ०। महसिव पु०(महाशिव) षष्ठवलदेववासुदेवयोः पितरो, आव०१ अ०स०। महाकण्हा स्त्री०(महाकृष्णा) स्वनामख्यातायां श्रेणिकमहाराजभार्यामहसेण पुं० (महासेन) ऋषभपुत्राणां सप्तचत्वारिंशत्तमे पुत्रे, कल्प०१ / याम्, नि०१ श्रु०१ वर्ग 1 अ० / अन्त० / सा च वीरान्तिके प्रव्रज्य क्षुद्रं अधि०७ क्षण। चन्द्रप्रभस्वाभिजिनस्य पितरि, आव०१ अ० / प्रक०।। सर्वतो भद्रमुपसंपद्य सिद्धेति। अन्त०१ श्रु०३ वर्ग 1 अ०।
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________________ महाकप्प 185 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 महागइ महाकप्प पुं० (महाकल्प) गोशालककल्पिते कालपरिमाणभेदे, अ० / उज्जयिनीयश्मशाने, अन्त०१ श्रु०३ वर्ग 8 अ० / तत्रस्थे भ०१५ श०। महादेवलिङ्गे, संथा। आ० म०। (तदुत्पत्तिः अणिस्सिओवहाण' शब्दे महाकप्पसुय न० (महाकल्पश्रुत) स्थविरादिकल्पप्रतिपादके कल्प- प्रथमभागे, 336 पृष्ठे) अष्टमदेवलोके स्वनामख्याते विमाने, स०१८ अतभेदे, नं०। पा०। आ०म०। सम० / प्रभञ्जनस्य वायुकुमारेन्द्रस्य वेलम्बस्य द्वीपकुमारेन्द्रस्य च महाक मल न० (महाकमल) चतुरशीतिक मलाङ्गशतसहस्त्ररूपे दक्षिणलोकपाले, स्था०४ ठा०१ उ० / महाकाल्या अयं महाकालः / संख्याभेदे, ज्यो०२ पाहु०। ('काल' शब्दे 3 भागे स्फुटितम् ) श्रेणिकस्य राज्ञो महाकाल्यामग्रमहिप्यां जाते पुत्रे, स च संग्रामे मृत्वा महाकम्म पुं० (महाकर्मन) महान्ति गुरुणि स्थित्यादिभिस्तथाविध- चतुर्थनरकपृथिव्यामुत्पद्य महाविदेहे सेत्स्यतीति।नि०१ श्रु०१ वर्ग 1 अ०। प्रमाणााभिव्यङ्ग्यानि कर्माणि यस्य सः महाकर्मा / स्था०४ ठा०३ महाकालंऽतर न० (महाकालान्तर) स्वनामख्याते स्थाने, यत्र पातालउ० / स्थित्याद्यपेक्षयाऽलघुकर्मणि, भ०६ श०३ उ०। चक्रवर्ती पार्श्वनाथः। ती०४३ कल्प। महाकम्मतर त्रि० (महाकर्मतर) अतिशयेन महत्कर्म ज्ञानावरणादिकं महाकाली स्त्री० (महाकाली) श्रेणिकभार्यायां महाकालमातरि, सुमतियस्य स तथा। भ०७ श०१० उ० / अतिशयेन महान्ति कर्माणि ज्ञाना तीर्थकरस्य शासनदेव्याम्, नि०१ श्रु०१ वर्ग 1 अ०। (तद्वर्णनम् 'तित्थचरणादीनि बन्धमाश्रित्य यस्य सः। प्रभूतकर्मबन्धके, भ०५ श०६ उ०। यर' शब्दे चतुर्थभागे 2268 पृष्ठे गतम) महाकल्लाण न० (महाकल्याण) परमश्रेयसि, पञ्चा०६ विव०। महाकिण्हा स्त्री० (महाकृष्णा) रक्ताख्यमहानदीसङ्गते नदीभेद, स्था०५ महाकहा स्त्री० (महाकथा) प्रवन्धेन महाजनस्य तत्त्वदेशनायाम, भ०७ ठा०३ उ०। महाकिरिय त्रि० (महाक्रिय) महती क्रिया कायिक्यादिका कर्मबन्धहेतुर्यस्य श०१० उ०। स महाक्रियः / प्रभूतकायिक्यादिक्रियाकृति, स्था०४ ठा०३ उ०। महाकाय त्रि० (महाकाय) महान्- प्रशस्तः कायो यस्य स महाकायः / महाकिलेस त्रि० (महाक्लेश) महान् क्लेशो यस्मिन् स महाक्लेशः। भ०१४ 202 उ० / महाशरीरे, उपा०२ अ० / बृहद्देहे, औ० / महान अतिक्लेशसाध्ये, उत्त०२३ अ०। कायो येषा ते महाकायाः, योजनलक्षप्रमाणशरीरविकुर्वणात्। सूत्र०२ महाकुट्ठ न० (महाकुष्ट) धात्वन्तः प्रवेशादसाध्यत्वाच महत्कुष्ठमिति। श्रु०७ अ०। औतराहाणं महोरगाणामिन्द्रे, प्रज्ञा०२ पाद / महोरगभेदे, तथाविधकुष्ठरोगे, सप्त महाकुष्ठानि, तद्यथाअरुणोदुम्बरनिश्यजिप्रज्ञा०१ पद। भ०। स० स्था०। हकापालकाकनादपौण्डरीकदद्रुकुष्ठानि। आचा०१ श्रु०६ अ०१ उ०। महाकाल पुं०(महाकाल) अतिश्यामवर्णे परमाधार्मिके देवे, यो नारकाणां महाकुमुद न० (महाकुमुद) सप्तमदेवलोकविमानभेदे, स०१७ सम०। श्लक्ष्णमांसानि खण्डयित्वा खादयति वर्णतश्च महाकालो भवति स महाकुमुय न० (महाकुमुद) संख्याभेदे, सा चैवम्- चतुरशीति महामहाकालः / भ०३ श०७ उ० / प्रश्न० / प्रव० / आव० स०। आधू० / कुमुदाइशतसहस्त्राण्येक महाकुमुदम्। ज्यो०२ पाहु०। कप्पंति कागिणीम-सगाणि छिदंति सीहपुच्छाणि। महाकुमुयंग न० (महाकुमुदाङ्ग) संख्याभेदे, सा चैवम्- चतुरशीतिकुमुखावंति य नेरइए, महाकाला पावकम्मरए / / 77 / / दशतसहस्त्राण्येकं महाकुमुदाङ्गम्। (विशेषतः 'काल' शब्दे तृतीयभागे महाकालख्या नरकपालाः पापकर्मनिरतान् नारकान्नानाविधैरुपायैः 478 पृष्टे वर्णितम् ) ज्यो०२ पाहु०। कदर्थयन्ति, तद्यथा-काकिणीमांसकानि श्लक्ष्णमासखण्डानि कल्प महाकुल पु० (महाकुल) महत्कुलमिक्ष्वाक्वादिकमस्येति। इक्ष्वाक्वादिसन्ति नारकान कुर्वन्ति / तथा (सीहपुच्छाणि त्ति) पृष्ठीवधीस्ता कुलोत्पन्ने, सूत्र०१ श्रु०८ अ०। महच तत्कुलमिति। इभ्यकुलादौ, न० / जिन्दन्ति, तथा ये प्राक् मांसाशिनो नारका आसन् तान् स्वमांसानि नि०चू०८ उ०। खादयन्तीति / सूत्र०१ श्रु०५ अ०१ उ०। निधिभेदे, जं०। आ०चू०। / महाखंदग पु० (महाखन्दक) षष्ठे भूतनिकाये, प्रज्ञा०१ पद। दर्श० / ति० / प्रव० / स्था०। (निधयस्तु णिहि' शब्दे 4 भागे 2151 | महागंगा स्त्री० (महागङ्गा) गोशालकपरिभाषिते सप्तगङ्गात्मके मानभेदे, पृष्ठे दर्शिताः) एकोनषष्टितमे महागृहे, स्था। "सत्त गंगाआ एगा महागगा।' श०१५ श०। दो महाकाला / स्था०२ ठा०३ उ० / कल्प० / चं० प्र०।। महागर पु० (महाकर) बृहत्खनौ, महाकरा ज्ञानादिभावरत्नापेक्षया। सू०प्र०। दश०६ अ०१ उ०। केतुकस्य महापातालस्याधिपतौ देवे, स्था०४ ठा०२ उ० / प्रव०।। महागह पु० (महाग्रह) ग्रहभेदे, महाग्रहाश्च मनुष्यतिरश्चामुपघाताऔतराहाणां पिशाचानामिन्द्रे, प्रज्ञा०२ पद। स्था०। षष्ठे पिशाचनिकाये, नुग्रहकारित्वात् / स्था०। प्रज्ञा०१ पद / सप्तमनरकपृथिव्यां स्वनामख्याते महानरके, प्रज्ञा०२ अट्ठ महागहा पण्णत्ता। तं जहा-चंदे 1, सूरे 2, सुक्के 3, बुहे पद। सूत्र० / स्था० / जी० / स० महारुद्रभेदे लौकिकदेवे, आव०६ 4, बुहस्सई 5, अंगारए 6, सणिंचरे 7, केऊ /
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________________ महागह 186 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 महाजुम्म स्था०८ ठा०। (अत्र' महग्गह' शब्देऽस्मिन्नेव भागे विशेषतो वर्णितम्) | समाहिं पडिदिसंतु मे।'' ति०। महागिरि पुं० (महागिरी) गौतमगोत्रस्य स्थूलभद्रस्य शिष्ये ऐलापत्यगोत्रे महाचीण पुo (महाची (न)") चीनदेशमुख्यभागे, कल्प०१ स्थविरे, "थेरस्स णं अज्जथूलभहस्सगोयमसगुत्तस्स इमे दो थेरा अधि०७क्षण। अंतेवासी अहावचा अभिन्नाया होत्था / तं जहा-थेरे अजमहागिरी | महाजंत न०(महायन्त्र) इक्ष्वादिषीडनयन्त्रे, उत्त०१६ अ०। एलावच्चसगोत्ते, थेरे अजसुहत्थी वासिट्टसगुत्ते / " महागिरिर्दशपूर्वी महाजंब, स्त्री० (महाजम्बू) जम्ब्वाः सुदर्शानायाः शेषलघुजम्ब्यपेक्षया साधुः / कल्प०२ अधि०८ क्षण / आव० / शिष्यौ द्वौ स्थूलभद्रस्य प्रधानजम्ब्वाम्. जी०३ प्रति०४ अधि०।। महागिरीसुहस्तिनौ'' आ०क०४०। आ०चू० / अश्वमित्रे, यो हि महाजक्ख पुं० (महायक्ष) अजितनाथस्य शासनयक्षे, प्रव०२६ द्वार। महागिरिशिष्यस्य कौडिन्याभिधानस्य शिष्यो मिथिलायां नगा (तत्स्वरूपवर्णनम् 'जिणजक्ख' शब्दे चतुर्थभागे) लक्ष्मीगृहे चैत्ये निहवो जातः / स्था०७ ठा० / विशे० / आ०म० महाजण पुं० (महाजन) विशिष्टपरिषदि, दश०१ अ०। सूत्र० / आ०चू० / उत्त० / ध००। उल्लुकातीरस्थे धनगुप्तगुरौ, विशे० / मेरी, महाजय त्रि० (महाजय) महाजयः कर्मशत्रुपराभवनलक्षणो यस्मिन्नसौ सूत्र०१ श्रु०११ अ०। (अत्रत्यो विशेषः 'अज्जमहागिरि शब्दे प्रथमभागे महाजयः / महता कर्माऽरीणां विनाशके, उत्त०१२ अ०। गतः।) महाजस पुं० (महायशस्) महद् विस्तीर्ण सर्वस्मिन्नपि जगति विस्तृतमहागिह न० (महागृह) इभ्यगृहे, महाकुले च। गि०चू०८ उ०। तवाद्यशः श्लाघाऽस्येति महायशाः। च०प्र०१७ पाहु० / सू०प्र०ाउन० / महागुण पुं० (महागुण) महाश्चासौ गुणश्च महागुणः / सकलगुणाऽऽ- अपरिमितकीर्ती, उत्त०१२ अ०। ज्ञा० / जं० / जी० / भुवनत्रयगतधारत्वात्। महाव्रते, पा०। ख्यातित्वात्। आ०म०१अ०1 आ०चू०।बृहत्प्रख्यातिके, भ०१श०७ महागुरु त्रि० (महागुरु) कापुरुषैर्दुर्घहे, आचा०२ श्रु०४ चू०। उ० / विख्यातसद्गुणे, दश०६ अ०२ उ० / स्था० / दश० / स्था०। महागोवपुं० (महागोप) गोपो गोरक्षकः, सचेतरगोरक्षकेभ्यो ऽतिविशिष्ट- भरतपौत्रे आदित्ययशसः पुत्रे, स्था०८ ठा० / आ०चू० / आ०म० त्वान्महानिति महागोपः / उपा०७ अ० / अतीव गोरक्षणे कुशले, व्य०३ ऐरवतवर्षे भविष्यचतुर्थे तीर्थकरे, स०॥ उ०। आ०म० / आ०चू० / क० / (विशेषतो वर्णन 'णमोरिह' शब्दे महाजाइ स्त्री० (महाजाति) गुल्मभेदे, प्रज्ञा०१ पद / ज०। चतुर्थभागे 1852 पृष्ठे गतम्) महाजाण न० (महायान) यान्त्यनेन मोक्षमिति यानं चारित्रम्, तचानकमहाघोर त्रि० (महाघोर) अतीवरौद्र, जी०१ प्रति०। महा भयानके, सूत्र०१ / भवकोटिदुर्लभं, लब्धमपि प्रमाद्यतस्तथाविधकर्मोदयात्स्वप्नावाप्तश्रु०११ अ०। स्था०। निधिसमतामवाप्नोत्यतो महच्छब्देन विशेष्यते, महच तद् यानं च महाघोस पुं० (महाघोष) औदीच्यांना स्तनितकुमाराणामिन्द्रे, स्था०४ | महायानम्। मोक्षसाधके चारित्रे, यदिवा महद्यान सम्यगदर्शनचारित्रादिठा०१ उ० / भ० / स०। यस्तु भीतान् पलायमानान् नारकान् पशूनिव वयं यस्य स महायानः मोक्षः / मोक्षे, पुं०। आचा०१ श्रु०३ अ०४ उ० / वाटकेषु महाघोषं कुर्वनिरुणद्धि स महाघोषः / पञ्चदशे परमा- महाजुद्ध न० (महायुद्ध) परस्परं मार्यमाणमारकतया युद्धे, जी०३ प्रति०४ धार्मिकनिकाये, भ०३ श०७ उ० / प्रश्न०। स्था० / प्रव०। आव०॥ अधि०२ उ०। स०। आ०चू०। महाजुम्म न० (महायुग्म) महान्ति च तानि युग्मानि महायुग्मानि। महाराभीए य पलायंते, समंततो तत्थ ते णिरुंभंति! शिषु, भ०। पसुणो जहा पसुबहे, महघोसा तत्थ णेरइए||४|| कइणं भंते ! महाजुम्मा पण्णत्ता ? गोयमा ! सोलस महाजुम्मा (भीए इत्यादि) महाघोषाभिधाना भवनपत्यसुराधमविशेषाः परमा- पण्णता तं जहा-कडजुम्मकडजुम्मे 1, कडजुम्मतेओगे 2, धार्मिका व्याधा इव परपीडोत्पादनेनैवाऽतुलं हर्षमुद्वहन्तः क्रीडया कडजुम्मदावरजुम्मे 3, कडजुम्मकलिओगे,तेओगकड-जुम्मे नानाविधरुपायैरिकान कदर्थयन्ति, तांश्च भीतान् प्रपलायमानान् 5, तेओगतेओगे 6, तेओगदावरजुम्मे 7, तेओगकलि-ओगे 8, मृगानिव समन्ततः-सामस्त्येन तत्रैव-पीडोत्पादनस्थाने निरुम्भन्ति- दावरजुम्मकडजुम्मे,दावरजुम्मतेओगे १०,दावरजुम्मदावप्रतिबध्नन्ति, पशूनबस्तादिकान्यथा पशुबधे समुपस्थिते नश्यतस्त- रजुम्मे 11, दावरजुम्मकलिओगे 12, कलिओगकडजुम्मे 13, द्वधकाः प्रतिबध्नन्त्येव तत्र नरकावासे नारकानिति। सूत्र०१ श्रु०५ अ०१ कलिओगतेओगे 14, कलिओगदावरजुम्मे 15, कलिओग301 भारतवर्षेऽतीतायामुत्सर्पिण्यां जाते सप्तमकुलकरे, स०। ऐरवतवर्षे कलिओगे 16, से केणऽटेणं भंते ! एवं वुधइ-सोलस महाजुम्मा भविष्यति द्वाविंशे तीर्थकरे, सः। तृतीयदेवलोकविमानभेदे, न०। स०६ पण्णत्ता।तंजहा-कडजुम्मकडजुम्मे० जावकलि-ओगकलिओगे? सम०। गोयमा ! जेणं तस्स रासिस्स अवहारसमया तेऽवि कडजुम्मा से तं महाचंद पुं० (महाचन्द्र) ऐरवते वर्षे भविष्यत्यष्टमे तीर्थकरे, स०१५६ कडजुम्मकडजुम्मे, 1 जेणं रासीचउक्कएणं अवहारेणं अवहीरमाणे सम० / "सिरिचंदे दढकेतू, महाचंदे य केवली / दीहे पासे य अरहा. / तिपज्जवसिए, जे णं तस्स रासिस्स अवहारसमया कडजुम्मा
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________________ मल्लि 187 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मल्लि से तं कडजुम्मतेओगे 2, जे णं रासीचउक्कएणं अवहारेणं एवाऽसौ राशिः कृतयुग्मा इत्यभिधीयते / अपहियमाणद्रव्यापेक्षया अवहीरमाणे दुपज्जवसिए, जे णं तस्स रासिस्स अवहारसमया तत्समयापेक्षया चेति द्विधा कृतयुग्मत्वादेवमन्यत्रापि शब्दार्थो कडजुम्मा से तं कडजुम्मदावरजुम्मे 3, जे णं रासीचउक्कएणं योजनीयः / स च किल जघन्यतः षोडशात्मकः, एषां हि चतुष्कापहारतअवहारेणं अवहीरमाणे एगपज्जवसिए, जे णं तस्स रासिस्स श्चतुरगत्वात्समयानां च चतुःसंख्यत्वादिति 1, (कडजुम्मतेओए त्ति) अवहारसमया कडजुम्मा से तं कडजुम्मकलिओगे 4, जे णं यो राशिः प्रतिसमयं चतुष्कापहारेणापहियमाणस्त्रिपर्यवसानो भवति रासीचउक्कएणं अवहारेणं अवहीरमाणे चउपज्जवसिए , जे णं तत्समयाश्चतुः पर्यवसिता एवासावपहियमाणापेक्षया त्र्योजः, अपहारतस्स रासिस्स अवहारसमया तेओगे से तं तेओगकडजुम्मे 5, समयापक्षिया तु कृतयुग्म एवेति कृतयुग्मत्र्योज इत्युच्यते। तच जघन्यत जे णं रासीचउक्कएणं अवहारेणं अवहीरमाणे तिपज्जवसिए, जे एकोनविंशतिस्तत्र हि चतुष्कापहारेण त्रयोऽवशिष्यन्ते, तत्समयाश्चत्वार णं तस्स रासिस्स अवहारसमया तेओया से तं तेओगतेओगे 6 एवेति 2, एवं राशिभेदसूत्राणि तद्विवरणसूत्रेभ्यो-ऽवसेयानि / इह च जे णं रासीचउक्करणं अवहारेणं अवहीरमाणे दुपञ्जवसिए, जे णं सर्वत्राप्यपहारसमयापेक्षमाद्य पदम् अपहियमाणद्रव्यापेक्षं तु द्वितीयमिति, तस्स रासिस्स अवहारसमया तेओया से तं तेओगदावरजुम्मे इह च तृतीयादारभ्योदाहरणानि कृतयुग्मद्वापरे राशावष्टादशादयः / 7, जे णं रासीचउकएणं अवहारेणं अवहीरमाणे एगपञ्जवसिए, कृतयुग्मकल्योजे सप्तदशादय,-स्त्र्योजकृतयुग्मे द्वादशादयः, एषा जेणं तस्स रासिस्स अवहारसमया तेओया से तं तेओग- चतुष्कापहारे चतुरग्रत्वात्तत्समयानां च त्रित्वादिति / त्र्योजत्र्योजराशी कलिओगे 8, जेणं रासीचउक्कएणं अवहारेणं अवहीरमाणे तु पञ्चदशादयः त्र्योजद्वापरे तु चतुर्दशादयः, त्र्योजकल्योजे त्रयोदचउपज्जवसिए, जेणं तस्स रासिस्स अवहारसमया दावरजुम्मा शादयः, द्वापरकृतयुग्मेऽष्टादयः, द्वापरयोज राशावेकादशादयो, द्वापरसे तं दावरजुम्मकडजुम्मे 6, जे णं रासीचउक्कएणं अवहारेणं द्वापरे दशादयो, द्वापरकल्योजे नवादयः, कल्योजकृतयुग्मे चतुरादयः, अवहीरमाणे तिपज्जवसिए, जे णं तस्स रासिस्स अवहारसमया कल्योजत्र्योजराशी सप्तादयः, कल्योजद्वापरे षडादयः कल्योजकल्योजे दावरजुम्मा से तं दावरजुम्मतेओगे 10, जे णं रासीचउक्कएणं तु पञ्चदय इति / भ०३५ श०) अवहारेणं अवहीरमाणे दुपज्जवसिए, जे णं तस्स रासिस्स | महाठवणिया स्त्री० (महास्थापनिका) शवपरिष्ठापनिकायाम, ध०३ अवहारसमया दावरजुम्मा से तं दावरजुम्मदावरजुम्मे ११,जे | अधि०। णं रासीचउक्करणं अवहारेणं अवहीरमाणे एगपज्जवसिए, जेणं | महाडड न० (महाडड) चतुरशीतिलक्षगुणितेषु त्रुटितेषु, ज्यो०२ पाहु०। तस्स रासिस्स अवहारसमया दावरजुम्मा से तं दावरजुम्म- ('काल' शब्दे तृतीयभागे 478 पत्रे स्फुटितम्) कलिओगे 12, जे णं रासीचउक्कएणं अवहारेणं अवहीरमाणे महाढक्का रत्री० (महाढक्का) भेरीवाद्ये, भ०५ श०४ उ०। जी०। चउपञ्जवसिए, जेणं तस्स रासिस्स अवहारसमया कलिओगा महाण त्रि० (अस्माकम्)"णे णो मज्झ अम्ह अम्हं अम्हे अम्हो से तं कलिओगकडजुम्मे 13, जे णं रासीचउक्कणं अवहारेणं अम्हाण ममाण महाण मज्झाण आमा" ||8 / 3 / 114 / / इत्यस्मदः अवहीरमाणे तिपञ्जवसिए, जेणं तस्स रासिस्स अवहारसमया आमासहितस्स महाणाऽऽदेशः / प्रा०३ पाद। कलिओगा से तं कलिओगतेओगे 14, जे णं रासीचउक्कएणं महाणई स्त्री० (महानदी) गुरुनिम्नगायाम, स्था०५ ठा०२ उ०।आ०म०) अवहारेणं अवहीरमाणे दुपज्जवसिए, जे णं तस्स रासिस्स | विस्तीर्णनद्याम, नि०चू०१२ उ०। महा० / ज० (कुत्र कति महानद्य इति अवहारसमया कलिओगा से तं कलिओगदावरजुम्मे 15, जे 'जबूदीव' शब्दे चतुर्थभागे 1376 पृष्ठे गतम्) णं रासीचउक्कएणं अवहारेणं अवहीरमाणे एगपज्जवसिए, जे णं मन्दरदक्षिणतः षट्, उत्तरतः षट् महानद्यः - तस्स रासिस्स अवहारसमया कलिओगा से तं कलिओग-- जंबूमंदरदाहिणेणं छमहाणईओ पण्णत्ताओ, तं जहा-गंगा कलिओगे 16, से तेणऽद्वेणं० जाव कलिओगकलिओगे / | सिंधू रोहिया रोहियंसा हरी हरिकंता / जुबूमंदरउत्तरेणं छ (सूत्र-८५५) महाणईओ पण्णत्ताओ, तं जहा-णरकं ता णारिकं ता (कइ ण भंते ! इत्यादि) इह युग्मशब्देन राशिविशेषा उच्यन्ते, ते च सुवण्णकूला रुप्पकूला रत्ता रत्तवई। स्था०६ ठा०३ उ०। क्षुल्लाका अपि भवन्ति, यथा प्राक् प्ररूपिता अतस्तद्व्यवच्छेदाय जंबूमंदरदाहिणेणं चुल्लहिमवंताओ वासहरपव्वयाओ विशेषणमुच्यते। महान्ति च तानि युग्मानि च महायुग्मानि, (कडजुम्म- पउमदहाओ महादहाओ तओ महाणदीओ पवहति। तं जहाकडजुम्मे त्ति) यो राशिः सामयिकेन चतुष्कापहारेणापहियमाणश्चतुः गंगा सिंधू रोहियंसा / जंबूमंदरस्स उत्तरेणं सिहरीओ वासपर्यवसितो भवत्यपहारसमया अपि चतुष्कापहारेण चतुःपर्यवसिता | हरपव्वयाओ पों डरीयदहाओ महादहाओ तओ महाणदी
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________________ महाणई 188 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 महाणिज्जर ओ पवहति / तं जहा-युचप्पकू ला रत्ता रत्तावती / स्था०३ श्रीमदादिनाथः / ती०४३ कल्प। ठा०४उ०। महाणडो (देशी) रुद्रे, दे० ना०६ वर्ग 121 गाथा। (सिन्धुमहानद्या विस्तारपूर्वकवक्तव्यता 'गंगा' शब्दे तृतीयभागे 785 ] महाणय पुं० (महानद) ब्रह्मपुत्रादी प्रभूतलवाहिनि नदे, "महानयपृष्ठे गता) सोयपडिय समुद्दमतिगंय तच मच्छमगरेहिं छिन्नं।' आ०म०१ अ० / रत्तारत्तवतीओ णं महाणदीओ पवाहे सातिरेगे चउवीसं कोसे महाणरग पुं० (महानरक) बृहदायामविष्कम्भे निरये, जी०। वित्थारेणं पण्णत्ताओ। स०२४ सम०। सत्तमाए णं पुढवीए पंच अणुत्तरा महतिमहालयामहाणरगा जंबूमंदरदाहिणेणं गंगासिंधूओ महाणईओ दस महाणईओ पण्णत्ता, तं जहा-काले महाकाले रोरुए महारोरुए अपइट्ठाणे। समप्पति / तं जहा-जउणा 1 सरऊ 2 आवी 3 कोसी 4 मही | जी०३ प्रति०१ अधि०२ उ०। 5 सिंधू 6 वितत्था 7 विभासा 8 एरावई : चंदभागा 10 / / | महाणरगसरिस त्रि० (महानरकसदृश) रौरवादितुल्ये, दश०१ चू०। जबूमंदरउत्तरेणं रत्तारत्तवईओ महाणईओ दस महाणईओ महाणलिण न० (महानलिन) चतुरशीतिनलिनाङ्गशतसहस्त्र- रूपायां समप्पें ति, तं जहा-किण्हा महाकिण्हा नीला महानीला तारा संख्यायाम, ज्यो०२ पाहु० / ('काल' शब्दे 3 भागे 478 पत्रे महातारा इंदा० जाव महाभागा। स्था०१० ठा०३ उ०। स्फुटीभूतम्) सप्तमदेलोकविमानभेदे, स०१८ सम०। (गङ्गामहानदीवक्तव्यता 'गंगा' शब्दे तृतीयभागे 785 पृष्ठे गता) महाणस पुं० (महानस) रसवत्याम्, आ०चू०१ अ०। जंबूमंदरस्स दाहिणे णं सिंधुमहानदी पंच महाणईओ महाणसिणी स्त्री० (महानसिनी) रसवतीकारिकायाम्, भ०११ समप्पेंति / तं जहा-सतर्दू विभासा वितत्था एरावई चंदभागा श०११ उ०। राजंबूमंदरउत्तरेणं रत्तां महाणई पंच महाणईओ समप्पें ति। | महाणसिय त्रि० (महानसिक) महानसे नियुक्ता महानसिकाः सृपकारेषु, तं जहा-किण्हा महाकिण्हा नीला महानीला महातीरा। ज्ञा०१ श्रु०७ अ०। आव०। जंबूमंदरस्स उत्तरेणं रत्तावई महाणई पंच महाणईओ समप्पेंति | महाणाग पुं० (महानाग) प्रधानसर्प, आव०४ अ०। उत्त० / स्था० इंदा इंदसेणा सुसेणा वासिसेणा महाभागा 4 ।(सूत्र-४७०) कश्चित्क्षपकः प्रस्तुतपारणकः सक्षुल्लकः समारब्धभिक्षार्थभ्रमणकः स्था०५ ठा०३ उ०। कथंचिन्मारितमण्डूकिकः क्षुल्लकप्रेरितोऽप्रतिपन्नतद्वचनः पुनरावश्यजंबुद्दीवे दीये सत्त महाणदीओ पुरत्थाभिमुहीओ लवणसमुदं ककाले स्मारिततदथः समुत्पन्नकोपः क्षुल्लकोपघाताया-ज्युत्थितो समप्पेंति। तं जहा-गंगा रोहिया हरी सीता णरकंता सुवन्नकूला वेगादागच्छन् स्तम्भे आपतितो मृतो ज्योतिष्केषुत्पन्नोऽनन्तरं च्युत रत्ता / जंबूद्दीवे दीवे सत्त महानदीओ पञ्चत्थाभिमुहीओ जातिस्मरदृष्टिविषसप्तयोत्पन्नः। सर्पदृष्टमृतपुत्रेण च सर्पेषु कुपितेन लवणसमुई समप्पेंति। तंजहा-सिंधू रोहियंसा हरिकंता सीतोदा राज्ञाऽऽदिष्टजनमार्यमाणेषु नागेषु नागविनाशकनरेण केनाऽप्यौषधिणारिकता रुप्पकूला रत्तवई। स्था०७ ठा०३ उ०। बलादाकृष्यमाणो दृष्टकोपविपाकतया च मदृष्टिविषेण माघातकपुरुषजंबूद्दीने णं दीवे चउद्दस महानईओ पुव्वावरेणं लवणसमुई विधातो भवत्विति भावनया पुच्छतो निर्गच्छन्यथा निर्गमं च खण्ङ्यमानः समप्पेति। तं जहा-गंगा सिंधू रोहिआ रोहिअंसा हरी हरिकंता कोपलक्षणभावापायं परिहतवानिति / तथा स एवानन्तरं नागदत्तासीया सीओदा नरकंता नारिकंता सुवण्णकूला रुप्पकूला रत्ता भिधानराजसुततयोत्पन्नो बालत्व एव प्रतिपन्नप्रव्रज्योऽत्यन्त-संविग्नरत्तवई। स०१४ सम०। स्तिर्यग्भवाभ्यासाचात्यन्तक्षुधालुरादित्योदयादस्तसमयं यावद्भोजनसीआसीओयाण महाणईओ मुहम्ले दस दस जोअणाई / शीलोऽसाधारणगुणावर्जितदेवताभिवन्दितोऽतएव तद्रच्छगतमासादिउव्वेहेणं पण्णत्ताओ / स्था०१० ठा०३ उ०। क्षपकचतुष्टयस्याविषयीभूतो विनयार्थं तेषामुपदर्शितस्वार्थानीतमहाणंदियावत्त पुं० (महानन्द्यावर्त्त) घोषस्य स्तनितकुमारस्योत्तरदि- भोजनः तैश्च मत्सरादोजनमध्यनिष्ट्यूतनिष्टीवनोऽत्यन्तोपशान्त क्पाले, स्था०४ ठा०१ उ०। भ० / विमानभेदे, न० / स०१७ सम०। चित्तवृत्तितया संजातकेवलः पुनर्देवतावन्तिदस्तेषामपि क्षपकाणा संवेगमहाणगर पुं० (महानगर) प्रभूतलोकावासे नगरे, प्रश्न०१ आश्र० द्वार। हेतुत्वेन केवलज्ञानदर्शनसमृद्धिसंपादकः कोपरूपं भावापायं परि(महानगरपागारकवाडफलिह भूयं ति) महानगरमिव महानगरं विविध- जहारेति / अथवा-कोपादिलक्षणो भावापायो भवति क्षपकस्येवेति / सुखेहतुत्वसाधाद्धर्मः तस्य प्राकार इव कपाटमिव परिघमिव स्था०४ ठा०३ उ०। यत्तन्महानगरप्राकारकपाटपरिघभूतमिति। प्रश्न०४ संव० द्वार। | महाणिज्जर त्रि० (महानिर्जर) महती निर्जरा कर्मक्षयलक्षणा यस्य / महाणगरी स्त्री० (महानगरी) तीर्थभूते पुरीभेदे, महानगर्यामुद्दण्डविहारे | बृहत्कर्मक्षयकारिणि, स्था०३ ठा०४ उ०।
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________________ महाणिज्जर 186 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 महाणिसीह पंचहिं ठाणेहिं समणे निग्गंथे महानिज्जरे महापज्जवसाणे भवइ, तं जहा-अगिलाए आयरियवेयावचं करेमाणे 1, एव उवज्झायवेयावचं करेमाणे 2, थेरवेयावचं करेमा०३, तवस्सिवेयावचं करे०४, गिलाणवेयावचं करेमाणे ||5|| पंचहिं ठाणेहिं समणे निग्गंथे महानिजरे महापद्धवसाणे भवइ / तं जहा-अगिलाए सेहवेयावचं करेमाणे 1, अगिलाए कुलवेयावचं करेमाणे 2, अगिलाए गणवेयावचं करेमाणे 3, अगिलाए संघवेयावचं करेमाण 4, अगिलाए साहम्मियवेयावचं करेमाणे / / 5 / / (सूत्र-३६७) महानिजरो बृहत्कर्मक्षयकारी महानिर्जरत्वाच महदात्यन्तिक पुनरुद्धवाभावात पर्यवसानमन्तो यस्य स तथा / (अगिलाए त्ति) अग्लान्या अखिन्नतया बहुमाने नेत्यर्थः, आचार्यः पाप्रकारः / तद्यथाप्रव्राजनाचार्यो, दिगाचार्यः, सूत्रस्योद्देशनाचार्यः, सूत्रस्य समुद्देशनाचार्यो, याचनाचार्यश्चेति। तस्य वैयावृत्य व्यावृतस्य शुभव्यापारवतो भावः कर्म या वैयावृ यं, भक्तादिभिः धर्मोग्रहकारिवस्तुभिरुपग्रहकरणमाचार्यदयावत्यम, तत् कुर्वाणो विदधदिति, एवमुत्तरपदेष्वपि, नवरमुपाध्यायःसूत्रदाता / स्थविरः स्थिरीकरणात् / अथवा-जात्या षष्टिवार्षिकः, ज्ययिण विंशतिवर्षपर्यायः / श्रुतेन समवायधारी, तपस्वीमाराक्षपकादिः / ग्लान:-अशक्तो व्याध्यादिभिरिति / तथा (सेह ति) शैक्षकोऽभिनव जितः / साधर्मिकः समानधर्मा लिङ्गतः प्रवचनतश्चेति / कुलम्चान्द्रादिक साधुसमुदायविशेषरूपं प्रतीतम्, गणः-कुलसमुदायः। संघो गाणसनुदाय इत्येव सूत्रद्वयेन दशविधं वैयावृत्त्यामाभ्यन्तरतपोभेदभूतं प्रतिपादितमिति। उक्तंच-"आयरिय उवज्झाए. थेर तवस्सी गिलाणसेहाणं / साहम्मिय कुल गण संघ-संगय तमिह कायव्व / / 1 // " इति / स्था०५ ला०१ उ०। तिहिं ठाणेहिं समणे निग्गंथे महानिजरे महापज्जवसाणे भवइ, तं जहा-कया णं अहं अप्पं वा बहुयं वा सुयं अहिजिस्सामि, कया णमहमेकल्लविहारपडिमं उवसंपज्जित्ता णं विहरिस्सामि, कया णमहमपच्छिममारणंतियसंलेहणाझूसणाझूसिए भत्तपाणपडियाइक्खए पाओवगए कालमण वकंखमाणे विहरिस्सामि, एवं समणसा सवयसा सकायसापागडेमाणे (पहारेमाणे) णिग्गंथे महाणिज्जरे महापज्जवसाणे भवइ / तिहिं ठाणेहिं समणोवासते महाणिज्जरे महापज्जवसाणे भवति, तं जहा-कया णं अहमप्पं वा बहुअं वा परिग्गहं परिचइस्सामि 1, कया णं अहं मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पव्वयिस्सामि 2, कयाणं अहं अपच्छिममारणं तियसले हणाझूसणाझू सिए भत्तपाणपडियाइक्खए पाओवगए कालमणवकंखमाणे विहरिस्सामि 3, एवं समणसा सवयसा सकायसा पागडेमाणे (जागरमाणे) समणोवासाए महापिज्जरे महापजवसाणे भवइ / (सूत्र-२१०) (तिहीत्यादि) सुगमम् / नवरम् - महती निर्जरा कर्मक्षपणा यस्य स तथा। महत्- प्रशस्तमात्यन्तिकं वा, पर्यवसानम्- पर्यन्तं, समाधिमरणतोऽपुनर्मरणतो वा जीवितस्य, यस्य स तथा। अत्यन्तं शुभाशयत्वादिति, (एवं स मणस त्ति) एवमुक्तलक्षणत्रयं, स इति-साधुः (मणस ति) मनसा, हरवत्वं प्राकृतत्वात्. एवं (सवयस त्ति) वचसा (सकायस त्ति) कायेनेत्यर्थः, सकारागमः प्राकृतत्वादेव, त्रिभिरपि करणैरित्यर्थः। अथवा-स्वमनसेत्यादि, प्रधारयन्- पर्यालोचयन् क्वचित्तु"पागडेमाणे ति' पाठस्तत्र प्रकटयन् व्यक्तीकुर्वन्नित्यर्थः / यथा श्रमणस्य तथा श्रमणोपासकस्यापि त्रीणि निर्जरादिकारणानीति दर्शयन्नाह-"तिही" त्यादि, कण्ठ्यम्। स्था०३ ठा०४ उ०। महाणिज्जामग पुं० (महानिर्यामक) अर्हति, भवसमुद्रपारगामित्वात् तेषाम् / आ०५०१ अ०॥ महाणिद्दा स्त्री०(महानिद्रा) मिथ्यात्वाज्ञानमय्यां निद्रायाम, आचा०१ श्रु०३ अ०१ उ०। महाणिमित्त न० (महानिमित्त) शास्त्रविशेषे, ज्ञा०१ श्रु०१ अ० / 'महाणिमित्तं जहा भोमुप्पातं सुविणं अंतलिक्खं अंगसर लक्खणं वंजणं!" आ० चू०१ अ०। महाणिरय पुं० (महानिरय) बृहत्प्रमाणे नरके, स्था० / अहोलोगे णं पंच अणुत्तरा महइमहालया महाणिरया पण्णत्ता, तं जहा-काले महाकाले रोरुए महारोरुए अप्पइट्ठाणे। (अहोलोगे त्ति) सप्तमपृथिव्यामनुत्तराः-सर्वोत्कृष्टवेदनादित्वा-ततः परं नरकाभावाद्वा, महत्त्वं च चतुर्णां क्षेत्रतोऽप्यसंख्यातयोजनत्वात् / स्था०५ ठा०३ उ०। महाणिल पु० (महानिल) महावाते, अष्ट०२२ अट। महाणिसीह न० (महानिशीथ) निशीथग्रन्थाद्ग्रन्थार्थाभ्यां महत्तरे ग्रन्थे, पा० / न०1 सुयं मे आउसंतेणं भगवया एवमक्खायं-इहं खलु छउमत्थसंजमकिरियाए वट्टमाणे जे णं केइ साहू वा साहुणी वा से णं इमेणं परमत्थतत्तसारसब्भूयत्थपसाहगसुमहत्थातिसयपवरमहानिसीहसुयक्खंधसुयाऽणुसारेणं तिविहं तिविहेणं सव्वभावंतरंतरेहि णं णीसल्ले भवित्ताणं आयहियऽटाए अचंतघोरवीरुग्गा कट्ठतवसंजमाऽणुट्ठाणेसु सव्वपमायालंबणविप्पमुक्के / अणुसमयमहणिसमणालसत्ताए सययं अणुचिण्णे अणुण्णपरमसद्धासंवेगवेरग्गमग्गगए णिणियाणे अणिगूहियबलवीरियपुरिसकारपरक्कमे अगिलाणीए वोसट्ठचत्तदेहे सुणिच्छिए एगग्गचित्तो अभिक्खणं अभिरमिन्जमाणो णं रागदोसमोहविसयकसायनाणालंबणा अणेगप्पमायं इड्डिरससायागारवरोद्दऽट्टज्झाणविगहामिच्छत्तविरइदुट्ठयोगाअणायधणसेवणाकुसीलादिसंसग्गी पेसुणाज्झक्खाणं कलहजात्यादिमयमच्छरामरिसममीकार अहंका
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________________ महाणिसीह 190 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 महादाण रादिअणेगभेयमिण्णमसभावकलुसिएणं हियएणं हिंसाऽलि- | महातमप्पभा स्त्री० (महातमाप्रभा) महातमसः प्रभा यस्यां सा महातमः यचो रिक्कमेहुणपरिग्गहाऽऽरंभसंकप्पादिगोयरे अज्झवसिए प्रभा। अतिशयकृष्णकृष्णद्रव्योपलक्षितेत्यर्थः / अनु०। महातमसोऽतिघोरपयंडमहारोद्दघणविकण्णपावकम्ममललेवखवलिए असंवु- शायितमसः प्रभा बाहुल्यं यत्र सा महातमः प्रभा। सप्तमनरकपृथिव्याम्, डाऽऽसवदारे एक खणलबमुहुत्तणिमिसणिमिसद्धब्भंतरंतर प्रव०१७२ द्वार। मविसल्ले विरत्तेजा। महा०१ अ०। महातव त्रि० (महातपस्) महत् प्रशस्तमाशंसादिदोषरहितत्वात्तधो यस्य महानिसीहस्स चउत्थऽज्झयण। अत्र चतुर्थाध्ययने बहवः सैद्धान्तिकाः स तथा। जं०१ वक्ष०। सू० प्र० प्रशस्ततपसि, विपा०। रा० औ०। कोविदालापका न सम्यक् श्रद्दधत्येवं तैरश्रद्दधानेरस्माकमपिन सम्यक चं०प्र० / ज्ञा०। श्रद्धानम्, इत्याह हरिभद्रसूरिः-न पुनः सर्वमेवेदं चतुर्थाध्ययनम्, महातवस्सि पुं० (महातपस्विन्) विशिष्टतपोधने, हा०। अन्यानि वा अध्ययनानि अस्यैव कतिपयैः परिमितैरालापकैर महातवोवतीरप्पभव न० (महातपस्तीरप्रभव) राजगृहस्य बहिर्वेभारश्रद्दधानमित्यर्थः, यतः स्थानसमवायजीवाभिगमप्रज्ञापनादिषु न पर्वतस्यादूरे उष्णजले प्रस्त्रवणे, भ०२ श०५ उ० / स्था०। आ०म० / कथंचिदिदमाचक्ष्ये यथा प्रतिसन्तापस्थलमस्ति, तद्गुहावासिनस्तु आ००। विशे०। "महातवोवतीरप्पभवे त्ति' (व्याख्याऽस्य ' अण्णमनुजास्तेषुच परमाधार्मिकाणां पुनः पुनः सप्ताष्टवारान् यावदुपपातः, उत्थिय' शब्दे प्रथमभागे 456 पृष्ठे गता) तेषां च तैरुणैर्वजशिलाघरट्टसंपुटैर्गिर्गिलितानां परिपीड्यमानानामपि महातीरा स्त्री० (महातीरा) रक्तााख्यमहानदीसंगते नदभेदे, स्था०३ संवत्सरं यावत्प्राणव्यापत्तिर्न भवतीति। वृद्धवादस्तुपुनर्यथा तावदिदमार्ष टा०२उ०॥ध०। सूत्र, विकृतिर्न तावदत्र, प्रतिष्ठाप्रभूताश्चात्र श्रुतस्कन्धा, अर्थाः सुष्टति महाथंडिल न० (महास्थण्डिल) शवपरिष्ठापनभूमी, बृ०१ उ० / शयेन सातिशयाः गणधरोक्तानि चेह वचनानि / तदेवं स्थिते न किंचि (क्षेत्रप्रत्युपेक्षणायां महास्थण्डिलप्ररूपणा 'विहार' शब्द) दाशङ्कनीयम् / महा०५ अ०। महाथल न० (महास्थल) मथुराया लौकिकतीर्थभूते स्वनामके "चत्तारि सहस्साइं,पंच सयाओ तहेव पन्नासं। स्थले, ती०। चत्तारि सिलोगा वी, महानिसीहमि पाएण' प्रति०। महादाण न० (महादान) उत्तमविश्राणने, पञ्चा०८ विव०। दीनतपस्यादौ ('चेइय' शब्दे तृतीयभागे 1226 पृष्ठे एतत्प्रामाण्यमुक्तम्) गुर्वनुज्ञया दाने, पञ्चा०२ विव० / हा०। प्रकर्षवतः पुण्यानुबन्धिपुण्यस्य महाणिहाण न० (महानिधान) गर्तेषु कृपणनिहिते धने, कल्प०१ तीर्थकरत्वं फलमुक्तं, तीर्थकरस्य च पुण्यानुबन्धिपुण्यस्य तीर्थकरत्वं अधि०४ क्षण। फलमुक्त, तीर्थकरस्य च पुण्यप्रकर्षरूपत्वेन जगद्गुरुत्वादानेन महता महाणिहि पुं० (महानिधि) चक्रवर्तिना नैसर्गिकादिषु निधिषु, स्था०८ ठा०। (नव महानिधयः 'णिहि' शब्दे चतुर्थभागे, 2151 पत्रे उक्ताः) भाव्यं, संख्यावच तत्तस्य श्रूयत इति कथं तदानस्य महत्त्वमित्य धुनोपदर्शयन्नाहस्था०६ ठा०। ज०। ति०। महाणील पुं० (महानील) रत्नविशेषे, जी०३ प्रति०४ अधि०। जगद्गुरोर्महादानं, संख्यावचेत्यसंगतम्। महाणीलसरिस त्रि० (महानीलसदृश) महानीलं यत्किमपि वस्तुजातं शतानि त्रीणि कोटीना, सूत्रामित्यादिचोदितम् / / 1 / / लोकप्रसिद्धं तेन सदृशे, जी०३ प्रति०४ अधि०। जगद्गुरोर्भुवनभर्तुर्जिनस्य, महादानम्- अतिशायिवितरणम् वरवरिमहाणीला स्त्री० (महानीला) रक्तानदीसङ्गते महानदीभेदे, स्था०५ कारूपम्, संख्यावच परिगणितम, चशब्दः समुच्चये। इति एतदसंगतम्ठा०३ उ०। विरुद्धम् / तथाहि-महादानं चेत् संख्यावत् कथं ? संख्यावत् महादानं महाणुभाग पुं० (महानुभाग) महाननुभागो विशिष्टवैक्रियादिकरणविष कथमिति ? संख्यावत्त्वं तस्य कथं सिद्धमित्यारेक यामाह-यतः याऽचिन्त्या शक्तिर्यस्य / चं० प्र०२० पाहु०। महामाहात्म्यसहिते, 'शतेत्यादि' इह च शतानि त्रीणि कोटीनामित्यतः परमित्यादीति पदं उत्त०१२ अ० / व्य० अचिन्त्यसामर्थ्य, ज्ञा०१ श्रु०१ अ० / व्य०। द्रष्टव्यम्, ततश्च शतानि त्रीणि कोटीनामित्याद्येव प्रभृति आदिशब्दानअद्भुतशापानुग्रहविषयसामर्थ्यसद्भावात्। आ० म०१ अ०। महाप्रतापे, "अट्ठासीइ च होति कोडीओ' इत्यादेः परिग्रहः। सूत्रमर्थसूचनपर वचनं प्रज्ञा०२पद। भ०। नि०1 महाप्रधाने, ग०१ अधि०। अचिन्त्यशक्तियुक्ते, चोदितम्। 'संवच्छरे दिन्न' पाटान्तरेण शास्त्रे इत्यादि चोदित्यमिति। औ०. आव०। आ०म० / स्था० / ज्ञा० / च० प्र०। अचिन्त्यातिशये, तत्र शास्त्रे-आगमे, शेषं तथैवेति परखच इति।।१।। उत्त०१२ अ०। स्था०। एवं जिनस्य महादानविरुद्धतामभिधाय बुद्धस्य महादानसाङ्गत्यममहाणुभाव पुं० (महानुभा (न)व) महानतिशायी अनुभागः स्वर्गाप- भिधातुं पर एवाऽऽहवर्गप्रदानादिलक्षणं यस्य सः। पा०। महाननुभावो महिमा यस्य स तथा। अन्यस्त्वसंख्यमन्येषां, स्वतन्त्रेषूपवर्ण्यते / कल्प०१ अघि०१ क्षण / सूत्र० / महाप्रभाववति, सूत्र०१ श्रु०६ अ० / तत्तदेवेह तद्युक्तं, महच्छब्दोपपत्तितः।।२।। अचिन्त्यशक्तिके, षो०१ विव०। प्रज्ञा० / विशिष्टवैक्रियादिकरणाऽचिन- अन्यस्त्वपरैः, पुनर्जिनापेक्षया बौद्धैः, असंख्यम् अविद्यमानत्यसामर्थे, भ०१ श०७ उ०॥ सू०प्र०ा दर्श० हा०। परिमाणम्, अन्येषां जिनादपरेषां बोधिसत्त्वाना, स्वत त्रेषु स्व सपनाह
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________________ महादाण 161 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 महादाण कीयशास्त्रेषु, उपवीत-प्रतिपाद्यते / तद्यथा-''एते हाटकराशयः प्रवितताः शैलप्रतिस्पर्द्धिनो, रत्नानां निचयाः स्फुरन्ति किरणैराक्रम्य भानोः प्रभाम्। हाराः पीवरमौक्तिकौघरचितास्तारावलीभासुरा, यानादौ ग्जिहाय वस्त्रगृहतः स्वैरं जनो गच्छति।" 'तदिति तस्मात्तदेव बुद्धदानमसंख्यातमेव / इह दानविचारे तदिति 'महादान' युक्त-संगतम्, कुत इत्याह-'महच्छब्दोपपत्तितः' महाधनस्य तत्रैव बुद्धदान उपपद्यमानत्वात, संख्यातदानापेक्षया असंख्यातदानस्यानुपचरितमहत्त्वसिद्धेरिति // ततः किमत आहततो महानुभावत्वा-तेषामेवेह युक्तिमत् / जगद्गुरुत्वमखिलं, सर्वं हि महतां महत् / / 3 / / यतो बोधिसत्त्वानां महच्छब्दोपपात्तितः महादानं युक्तं ततस्तस्मान् महादानयोगात्. महानुभावत्वात्- अचिन्त्यशक्तियुक्तत्वात्. तेषामेवबाधिसत्त्वानामेव न जिनस्य, इहास्मिन् लोके युक्तिमत्- सोपपत्तिकम्, किं तदित्याह-जगद्गुरुत्वं भुवनभर्तृत्वम्, किंभूतमित्याह-अविद्यमान खिलं गुरुत्वाविषयो यत्र जगद्गुरुत्वे तदखिलम्, सर्वव्यापकं संपूर्णमिति यावत्कुत एतदेवमित्याह-सर्व-निरवशेष दानादिक्रियाजालम्, हि परमात् महताम्- महासत्त्वानाम्, महत् सातिशयं भवति। अतो महादानयोगात्त एव महानुभावा जगद्गुरवश्च भवन्ति नान्य इति / इह च तेषामिति धर्मी, जगद्गुरुत्वं साध्य, महानुभाववत्वं हेतुः, महतां महदिति च हेत्वसिद्धितापरिहार इति॥३॥ पूर्वपक्षमुपसंहरन्नाहएवमाहेह सूत्रार्थ,न्यायतोऽनवधारयन्। कश्चिन्मोहात्ततस्तस्य, न्यायलेशोऽत्र दर्श्यते / / 4 / / एवम्-अनन्तकोक्तप्रकारम्, आह-वूते पूर्वपक्षवादी, इह-प्रक्रमे सूत्रस्य (तिन्नेव य काडिसया) इत्यादेरागमस्यार्थोऽभिधेयः सूत्रार्थस्तमनवधारयन्निति योगः / किं सर्वथाऽनवधारयन्नेत्याह-न्यायतोन्यायमाश्रित्यार्थापत्तिगम्यमर्थमित्यर्थः / अनवधारयन् अनवबुध्यमानः, कश्चिदित्यसंबद्धभाषित्वात् अनिर्दिश्यमानः सौगत इति भावः / मोहाद्अज्ञानात् / यत एवं ततस्तस्मात्कारणात्तस्य-मूढवादिनो, न्यायलेशो युक्तिमात्रा, अत्र-दानव्यतिकरे, दीत-अभिधीयते इति। तत् प्रतिपादनौवाऽऽहमहादानं हि संख्याय-दर्थ्यभावाज्जगद्गुरोः। सिद्धं वरवरिकात-स्तस्याः सूत्रे विधानतः।।५।। महादानम्- अतिशायिविश्राणनम्, हिशब्दो दानमहत्तवभावनार्थः / यत संख्यावद्-विद्यगानपरिमाणं, तद् अर्थ्यभावात्- प्रयोजनिनामविद्यमानत्वान्न पुनरौदार्याभावाद् द्रव्याभावादा, जगद्गुरोः-भुवनायकस्य जिनस्य, कुत एतदवगतमित्याह-सिद्ध-निर्णीतम्, 'वरं वृणुत' 2 इत्येवमाख्यान वरवरिका, तस्या वरवरिकातो हेतोः / न च तस्या अप्यसिद्धिरित्याह-तस्या वरवरिकायाः सूत्रे नियुक्तिरूपे आगमे विधानतो विहितत्वात्, तथाहि 'सिंघाडगतियत्रउक्क, चचरवउमुहमहापहपहेसु। दारेसु पुरवराणं, रत्थामुहमज्झयारेसु। वरवरिया घोसिजइ, किमिच्छियं दिजए बहुविहीए। सुरअसुरदेवदाणव-नरिंदमहियाण निक्खमणे / / 5 / / " इति। अथ वरवरिकया दीयमानमर्थ्यभावात्तत्संख्यावदिति कुतः विद्धमित्यत्राऽऽहतया सह कथं संख्या, युज्यते व्यभिचारतः। तस्माद्यथोदितार्थ तु, संख्याग्रहणमिष्यताम् // 6 // तया-वरवरिकया, सह-सार्द्ध, कथं-केन प्रकारेण नकथंचिदित्यर्थः / संख्यापरिमाण, युज्यते-संगच्छते कुत इत्याह-व्यभिचारतोविसंवादात् अर्थिद्भावे सतीति गम्यम्, तथा हि-अर्थिनः प्रभूता महेच्छाश्चदानं वरवरिकथा दीयत इति कथं तन्नियतसंख्यं भवितुमर्हति यस्मादेवं तस्माद्यथोदितार्थं तुअनन्तराऽस्मदुक्तप्रयोजनमेव, तथाविधार्थ्यभावप्र तिपादनार्थपरमेव संख्यासंग्रहण 'तिन्नेव य कोडिसए' इत्यादिदानसंख्याविधानमिष्यतामभ्युपगम्यता न पुनरौदार्याभावद्रव्याभावाभ्यामिति / ननु यदि तीर्थकरानुभावादशेषदेहिनां सन्तोषभावादर्थ्यभावः स्यातदा संख्याकरणमप्ययुक्तम् ? अल्पस्यापि दानस्यासंभवादित्यत्रोच्यतेदेवताशेषाय इव संवत्सरमात्रेणाप्रभूतप्राणिग्राह्यत्वाद्युक्तमेव संख्यावत्त्वमिति, अनेन महादान संख्यावचेत्यसङ्गतमित्येतत्प-रवचो निरस्तमिति // 6 // अथ यदुक्तं ततो महानुभावत्वादित्यादि तदुपदर्शयन्नाहमहानुभावताऽप्येषा, तद्भावे न यदर्थिनः। विशिष्टसुखयुक्तत्वात, सन्ति प्रायेण देहिनः / / 7 / / महानुभावताऽपि-अतिशायिप्रभावताऽपि न केवल देहिनां सन्तोपसंपत्संपादनेन संख्योपेतमेव दान महादानमित्यपिशब्दार्थः एषा-एषैव वक्ष्यमाणस्वरूपा न पुनर्देहिनामसंख्यातवित्तवितरणरूपा। तामेवाहतद्भावे-जगद्गुरुसद्भावे(न) नैव'यदिति' यदेतदर्थिनस्तुच्छतया परमार्थनशीलाः सन्तीति संबन्धः। कुत इत्याह-विशिष्टसुखयुक्तत्वादपेक्षया सातिशयानन्दसंपदुपेतत्वात्, सुखं च सन्तोषो, यदाह-"सज्ज्ञानं परम मित्र-मज्ञानं परमो रिपुः। सन्तोषः परमं सौख्यमाकानादुःखमुत्ततम् / / 1 / / " सन्ति-भवन्ति, प्रायेण-बाहुल्येन, अनेनच निरुपक्रमकर्मजनितधना-दानवाञ्छातद्भावेऽप्यर्थिनः केचित संभवन्तीत्यावेदयति। भवति चैवम्, यतः-"जगप्रिये सुरूपेच, शशिनो रश्मिमण्डले। सत्यप्यम्भोजिनीखण्डं, न विकाशं प्रपद्यते" // 1 // अत एव संख्यातदानसंभवोsन्यथा तदसंभव एव स्यादिति / देहिनः-प्राणिनः, दृश्यन्ते च द्रव्याणां प्रभावविशेषाः, यतः "समुद्गच्छत्यसौ कोऽपि, हेतुर्गगनमण्डले।यस्यात्प्रमुदितप्राणि, जायते जगतीतलम् / / 1 / / ' त देवमसंख्येयदानस्य महादानत्वाभावदसंख्येयदानदायिनां महानुभावत्वासिद्धे हेतुरित्यभिहितमिति / / 7 / / तथाधर्मोद्यताश्च तद्योगा-त्ते तदा तत्त्वदर्शिनः। महन्महत्त्वमस्यैव-मयमेव जगदुरुः।।८।। धर्मोद्यताश्च-कुशलानुष्ठाननिरताश्च भवन्ति, न के वलमनर्थिन इति चशब्दार्थः / तद्योगाजगद्गुरुसंबन्धात्, ते-देहिनः,
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________________ महादाण 162 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 महादेव तदा तरिमन जगदगुरुकाले, तथा तत्त्वदर्शिनो भवन्ति / अथवा कुतस्ते धिगमो भवति। यदाह-"आग्रही वत निनीषति युक्ति, तत्र यत्र मतिरस्य धर्मोद्यता इत्याह-यतस्तत्त्वदर्शिनः, तत्त्वं च "क्लेशायासपराः प्रायः, निविष्टा / पक्षद्वापातरहितस्य तु युक्तिर्यत्र तत्र मतिरेति निवेशम्।।१।।" प्राणिना बाह्यसंपदः / एकान्तेन परायत्तं, सुखसन्तोष इण्यते / / 1 / / " रागस्याव्यभिचरितस्वरूपप्रतिपादनायाऽऽह-समिति-सामस्त्येन इत्यादिकम् / ततश्च किमित्याहमहद्- अतिशायि, महत्त्व-माहात्म्य क्लेशनं विवाधनं 'विलशू' विवाधन इति वचनात्। संक्लेश:- आत्मनः महानुभावत्वम्, अथवा महढ्यो महतां वा महत्त्वं महन्महत्वम्, अस्य स्वाभाविकस्वास्थ्यवाधनं, तं जनयति उत्पादयतीति संक्लेशजननः / जिनस्यैव, व्यवच्छेदफलत्वाद्वचन-स्येति नान्येषां बोधिसत्त्वादीनाम्। अथ व्यभिचार एव विशेषमर्थवद्भवति, नचासंक्लेशजनोऽपि रागोऽस्ति एवमनन्तरोदितया नीत्या संख्यावधानतो महादानदायित्वेन महानुभाव- येनाऽसौ व्यवच्छिद्यते न चाधिकृतमहादेवस्य प्रकारान्तरेणापि रागी तेत्येवंरूपया अयमेव जिनपतिरेव न तु बोधिसत्चो जगद्गुरु वनभर्तेति / विवक्ष्यते इति विशेषणमनर्थकम् ? नैवमविदितस्वभावस्य स्वभावाअनेन च बोधिसत्त्वलक्षणे धर्मिणि महानुभावत्वलक्षणस्य हेतोरसिद्ध- विर्भावनाय विशेषणस्याभिगतत्वात्। यथा परमाणुरप्रदेश इति, कोऽसातोक्ता, महानुभावत्वनिबन्धनमहादानस्यामहत्त्वख्यापनात् / जिन- वित्याह-जीवरवरूपोपरञ्जनाद्रागोऽभिष्वङ्गलक्षणः, नास्त्येवन विद्यत लक्षणे च धर्मिणि महादानताख्यापनतो महानुभावत्वहेतोः सिद्धता- एव, इदं चावधारण रागांशस्याप्यभावप्रतिपादनार्थम् , स चोपशान्तमोभिधानेन जिनस्य जगद्गुरुतोक्ता, अतो निरस्तं ततो महानुभावेत्यादि हावसीयामुदयापेक्षया, कदाचिद् रागभेदापेक्षया वास्यादतः सत्ताद्यदूषणमिति॥८॥ हा०२६ अष्ट० / न्यायात्तत्स्वल्पमपि हिभृत्यानुपरोधतो पेक्षयाऽपि तद्यवच्छेदार्थमाह-सर्वथा सर्वः प्रकारैर्बन्धोदयरात्तालक्षणमहादानं दीनतपस्यादौ गुर्वनुज्ञया दानम्. (अन्यत्तु'दाण' शब्दे चतुर्थ- विषयरागस्नेहरागदृष्टिरागरूपैर्द्रव्यक्षेत्रकालभावाभिष्वङ्गस्वभावैर्वेति / भागे 2486 पत्रे व्याख्यातम्) तथा न च नैव द्वेषोऽप्यप्रीतिलक्षणो न केवलं रागो नास्त्येव द्वेषोऽपि महादामट्टि पुं०(महादामाथिन्) ईशानेन्द्रस्य देवस्यवृषभानीकाधिपती, नास्त्येव सर्वथत्यपिशब्दार्थः / केष्वित्याह-सत्त्वेषु प्राणिषु सत्त्वग्रहणं च स्था०५ ठा०१ उ०। प्रायः संव्यवहाराहप्राणिनां प्राणविषयस्यैव क्रोधमानात्मक द्वेषस्य महादिसा स्त्री० (महादिशा) पूर्वदक्षिणपश्चिमोत्तरदिक्षु, ताश्च मेरुपर्वत दर्शनात्, अप्राणिषु पुनरसौ महामोहविजृम्भितमेव। उक्तं च "किं एत्तो रुचकस्थाने गोस्तनाकाराश्चतस्रो द्विप्रदेशादयो व्युत्तराः शकटार्द्ध- कट्टयर, मूढो ज थाणुगमि अप्फुडिओ।थाणुस्स तस्स रूसइ, न अप्पणी संस्थाना महादिशः पूर्वाद्याश्चतसः / आचा०१ श्रु०१ अ०१ 30 / दुप्पउत्तस्स / / 1 / / " अत एव रागस्य विषयविशेषानभिधानेनोपादान आ०म० भ०। कृतं, तस्य संव्यवहाराहप्राणिनामपि जीवाजीवविषयतयोपलम्भात् / महादुम पुं० (महाद्रुम) जम्वादिषु, जम्बूद्वीपादिनामनिबन्धनेषु जीवाजीवविषयत्वादेव महाविषयतया प्राधान्याद्रागस्यादावुपादानम्। शाश्वतवृक्षेषु, स्था०। (अस्य वक्तव्यता तृतीयभागे 'कुरा' शब्दे 586 नन्वप्रीतिमावलक्षणस्यद्वेषस्यानिष्ट स्पशादिविषय ष्वप्राणिष्वपि पृष्ठे गता।) अष्टमदेवलोकविमानभेदे, स०१८ सम०। दर्शनाद, देवताविशेषस्य च सर्वविषयस्य द्वेषाभावस्य विवक्षितत्वान्न युक्त महादुमसेण पुं० (महाद्रुमसेन) श्रेणिकस्य धारण्यां जाते पुत्रे. स च | सत्त्वग्रहणभिति? नैवम्, अनेन हि प्रतिपन्थिरूपप्राणिविषयद्वेषाभाववीरान्तिके प्रव्रज्य सर्वार्थसिद्ध उपपद्य महाविदेहे सेत्स्यति / अणु०२ प्रतिपादनेन निखिलजनविदितसपत्रनिपातनादिफलद्वेषवतीना पराभिवर्ग 6 अ०। मतदेवतानां पराभिमतदेवतानां महत्त्वाभावस्य वक्तुमिष्टत्वाद् / यस्य च महादेव पुं० (महादेव) लोकप्रसिद्ध्या शिवे, वीतरागदेवे, हा० / महादेवस्य प्रतिपन्थ्यप्रतिपन्थिष्वपि प्राणिष्वपि द्वेषो नाऽस्ति तस्याप्राणिषु चतात्विक महत्त्वमखिलजनासुलभस्वभावेभ्योऽतिशयेभ्यः, ते चापाया- सुतरामसो न संभवतीति / किंस्वरूपो द्वेष इत्याह-शम उपशमः पगमज्ञानवचनसुखप्रवृत्तयः / तत्र चापायाफ्यमातिशयपूर्वकत्वाच्छे- क्षान्त्यादिभावः स एवेन्धनं दाह्यं दादि तस्य दहने दवानल इव, षाणाम, तमेव तावत्तस्य श्लोकदयेनाऽऽह 'दवानलो-वनाग्निः' शमेन्धनदवानलः / इदमपि स्वरूपविशेषणं न तु यस्य संक्लेशजननो, रागो नास्त्येव सर्वथा। व्यवच्छेदकं सर्वस्यापि द्वेषयैवंरूपन्वादिति / तथा न च नैव मोहोऽपि नच द्वेषोऽपि सत्त्वेषु, शमेन्धनदवाऽनलः / / 1 / / मूढताऽपि. न केवल द्वेषश्च नास्ति सर्वथा मोहोऽपि नास्त्येव सर्वथा यस्य न च मोहोऽपि सज्ज्ञान-च्छादनोऽशुद्धवृत्तकृत्। महादेवः, इति। प्रकृतं मोहमेव स्वरूपतो विशेषयन्नाह-सत् शोभन यथावत् त्रिलोकख्यातमहिमा, महादेवः स उच्यते / / 2 / / पदार्थपरिच्छेदितया तच तत् ज्ञानं च बोधः सज्ज्ञानम्। सतां वा सदभूतायस्य देवताविशेषस्य रागो नास्त्येव महादेवः स उच्यते इति संबन्धः / नामर्थानां ज्ञान सज्ञान, तच्छादयितुमावरीतशीलं धर्मोवा यस्य सतथा। तत्र यस्य कस्याप्यनिर्धारिताभिधानस्य पारगतसुगतहरिहरहिरण्य- सज्ज्ञानच्छादकत्वादेव अशुद्ध कल्मपकलङ्काङ्कित वृत्तवर्तनं चेष्टितं करोति गर्भादिदेवस्येति सामान्यनिर्देशः, एतेन च माध्यस्थ्यमात्मनो दर्शितम्, शरीरिणां विदधाति यः सोऽशुद्धवृत्तकृत्। किम्भूतोऽसौ महादेव इत्याहत्रयो आह च- "पक्षपातो न मे वीरे, न द्वेषः कपिलादिषु / युक्तिमद्वचनं यस्य, लोकाः समाहृतास्त्रिलोक त्रिभुवनं, तत्र ख्यातः प्रसिद्धो महिमा महत्त्व यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः / / 1 / / '' माध्यस्थ्यदर्शनेन चाऽऽत्मीयवचसि स त्रिलोकख्यातमहिमा / त्रिलोकख्यातमहिमा च भवत्येव निखिलश्रोतृणामुपादेयताबुद्धिरुपहिता यस्मादनाग्रहादेव वाः सकाशात्तत्त्वा- | नरनिकरनाकिनिकायनायकलोक्कदर्थनसमर्थरीगादिरिपुनिकरनिराकरण
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________________ महादेव 163 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 महादेव मर्थसकलपुरुषचक्रचूडामणेः पूरुषविशेषस्य।यदाह-"रागद्वेषमहामोहः, कदर्थितजगज्जनैः / नाभिभूतं मनो यस्य, महिम्ना तस्य कः समः" दिवक्रीडाविजिगीषाव्यवहारद्युतिस्तुति-मोदमदकान्तिस्वप्नगतिष्विति वचनाद्दीव्यते स्तूयते इति देवः स्तवनीयः। स च प्रेक्षावतामसाधारणगुणगणमाणिक्यमकरनिकेतनायमानत्वेन महानेव स्तवनीय इति / महाश्चासौ देवश्चेति महादेवः। स-इति असावेवोच्यते अभिधीयते, नहादेवस्वरूपवेदिभिर्न पुना रागादिरिपुपराकृतपराकम इति / अथ सर्वप्राणिना रागादिमत्त्वोपलब्धेन सर्वथा तदभावः कस्यापि सम्भवतीति ? नैवं सर्वप्राणिनामनुपलब्धेः प्रतिनियतप्राण्युपलब्धेश्च व्यभिचारित्वात् / किं च स्वात्मन्यपि क्वचिद्विषयविशेषे रागाद्यभावदर्शनात, कस्यापि सार्वदिकः सार्वत्रिकः सर्वथा च रागाद्यभावो भवन्न विरुध्यते। आह च-"दृष्टो रागाद्यसद्भावः, कृचिदर्थे यथाऽऽत्मनः / तथा सर्वत्र कस्यापि, तद्भावे नास्ति वाधकम् ||1||" तथा रागादयो भावाः सम्भाव्यमानसर्वथाक्षयाः देशतः क्षयोपलब्धेः, ये पौद्गलिकभावा अल्पबहुबहुतरादिक्षयेण देशतः क्षयवन्तस्ते सर्वतः क्षयवन्तोऽपि दृष्टाः, यथा रविकरावारिका घनपतयः देशतः क्षयवन्तश्च रागादयोऽतः संभाव्यमानसर्वथाक्षया इति / आह च-"देशतो नाशिनो भावा, दृष्टा निखिलनश्वराः / मेघपक्तयादयो यद-देवं रागादयो मताः" / / 1 / / अथ संभवत्यप्यात्यन्तिकरागाद्यभावे तस्य चित्तवृत्तिरूपत्वेन दुर्विज्ञेयत्वाकथतद्वान् पुरुषविशेषोऽवगन्तव्य ? इति, अत्रोच्च्यते-तस्य स्वरूपाचरिताच / तथाहि-यस्य रूपमत्कामिनीकामनायुधमनक्षमाल चरितं च शुद्रारादिरसापरिकरितमेकान्तशान्तरसानुरजितजेयान्तरारिजयवनासमञ्जसं च स एवासाविति प्रतिपत्तव्यम्। यदाह"रागोऽगनासङ्गमनानुमेयो, द्वेषां द्विषद्दारणहेतिगम्यः। मोह : कुवृत्तागमदोषसाध्यो, नो यस्य देवः स स चैवमर्हन् / / 1 / / शृङ्गरादिरसाङ्गार-र्न दूनं देहिनां हितम्। एकान्तसान्ततोपेत-मार्हतं वृत्तमद्भुतम्।।२।।" देवतान्तराणां तु रागाद्यभावानुचितरूपचरितत्वं सुप्रसिद्धमेव / तथाहि हा लूनशिरा हरिदृशि सरुक् व्यालुप्तशिश्नो हरः, सूर्याऽप्युल्लिखितोऽनलोऽप्यखिलभुक् सोमः कलङ्काङ्कितः / सव थोऽपि विसंस्थुलः खलु संस्थैरुपस्थैः कृतः, भन्मार्गस्खलनाद्भवन्ति विपदः प्रायः प्रभूणामपि / / 1 / / तथा"यद् ब्रह्मा चतुराननः समभवद्देवो हरिमिनः, शको गुहासहस्रसंकुलतनुर्यच्च क्षयी चन्द्रमाः। यजिह्वादलनामवापुरहयो राहुः शिरोमात्रता, तृष्णे ! देवि ! विडम्बनेयमखिला लोकस्य युष्मत्कृता // 2 // " तथा 'ब्रह्मा लूनशिरा'' इत्येतत्कथमत्रोच्यते-किलैकदा त्रयस्त्रिंशदेवकोट्यो मिलिताः, तत्र चते परस्परं मातापितृवर्णनं कुर्वन्ति स्म। तत्र च तैरुक्तनहो महेश्वरस्य न ज्ञायते मातापितराविति, न तावस्य बभूव तुरिदं च देववचनमुपश्रुत्य ब्रह्मणः पञ्चममुखेन गर्दभमुखाकारेण समत्सरमभिहितम्, यदुत मय्यपि सर्वपदार्थज्ञातरि जीवति सति क एवं युवते, तथा महेश्वरस्य पितरौ न ज्ञायते, यतोऽहं जानामि / ततः स तस्य तौ वक्तुमारेभे। ततो महेश्वरेणप्रकाश्यप्रकाशनारम्भकुपितेन कनिष्ठिकानखशुक्तिकरवालव्यापारणेन निखिलसुरसमूहसमक्षं झटिति निकृत्तं तद् ब्रहाणो गईभशिर इत्येवं ब्रह्मा लूनशिराः। अन्ये त्वाः। किल-ब्रह्मवासुदेवयोरात्ममहत्त्वविषयो विवादः समजनि। विवदन्दौ च तौ महादेवमुपस्थितौ। महादेवेन चाभिहितावलं भवतो विवादेन, य एव मदीयलिङ्गस्यान्तं लभते स एव युवयोर्महांस्तदन्यस्त्वितर इति। ततो वासुदेवो लिङ्गस्यान्तोपलम्भनार्थमधस्ताद्गतवान्, स च प्रभूतं यावन्महावेगेन गत्वाऽपि अप्राप्ततदन्तः पातालवज्राग्निना च गन्तुमशक्तस्तत्सन्तापादेव च कृष्णीभूतशरीरः प्रतिनिवृत्य महादेवान्तिकमाजगाम, निवेदितवाश्च यथा नास्ति भवल्लिङ्गस्यान्त इति / ब्रह्मा तूपरिष्टात्तथैव गतोऽप्राप्ततदन्तश्च निर्विण्णो लिङ्गमस्तकान्निपतन्तीं मालामासादितवान् / तां चासौ पप्रच्छ, कुतो भवतीति। तयोक्तं महेश्वरलिङ्गमस्तकात्। कियांश्च ते कालः / ततः समागच्छन्त्या तयोक्तं षण्मासाः / ततो ब्रह्मणोक्तमहं लिङ्गतोपलम्भाय प्रस्थितः किं तु भवत्या यो मार्गः षडभिर्मासरैतिक्रान्तस्तस्यातिबहुत्वान्निर्विण्णोऽहं निवर्तिष्ये। ततो महादेवपृष्टया त्वया साक्ष्य दातव्यम्। तयाऽपि प्रतिपन्नं ततस्तां गृहीत्वा शम्भुसमीपमाजगाम। समापगत्य चोक्तवान्, लब्धो मया लिङ्गान्तः / एषा च संप्रत्ययार्थ ततो माला मयाऽऽनीता / ततः पृष्टाऽसौ, तयाऽप्युक्तमेवमेतत्ततोऽनन्तमपि मल्लिङ्ग सान्तं व्ववस्थापयत एतावित्यसद्धतभाषणकुपितेन शम्भुना कनिष्ठिकानखकुठारेण ब्रह्मणो गहभशिरो लूनम्, माला त्वस्पृश्यतया शापितेति / "हरिदृशि सरुक," इत्येतदेवं श्रूयते / किल-दुर्वासा महर्षिरुर्वशी कामितवान, तया चासावुक्तः / यद्यपूर्वेण यानेन त्वं स्वर्गे समागच्छसि ततोऽहं भवन्तमिच्छामि, तेन च प्रतिपन्नमेतत् / गत वांश्चासी वासुदेवसमीप, कृता च तेन तस्य प्रतिपत्तिः / पृष्टश्च तेनाऽऽगमनकारणम्, उक्तं च तेन स्वर्गेऽहं गन्तुमिच्छामि। ततो भवता स भार्येण गोरूपधारिणा रथारूढोऽह स्वर्गे नेतव्यो, न च गच्छता पश्चाद्भागो निरूपणीयः / प्रतिपन्नच तथा तद्भक्तिभयाभ्यां वासुदेवेन, नेतुं च प्रवृत्तः / ततः स्त्रीत्वात्तथाविधगमनशक्तिविकला लक्ष्मी प्राजनकदण्डेन मुनिः पुनः पुनः प्रणुणोद, तच्च स्नेहादसहमानेन वासुदेवेन तदभिमुख निभालित, तेन च प्रतिपन्नवैतथ्यकारित्वात् कुपितेन वासुदेवो लोचने प्राजनकदण्डेन प्रणोदित इत्येव हरिर्लोचने सरोगः संवृत्त इति / अन्ये त्चाहुः-किलैकदा वासुदेवः सरितटे तपस्यति स्म।तत्र चतापसी काचित् स्नाति स्म। तेन च तस्या निरावरणाया अङ्गेषु सकामा दृष्टिर्निवेशिता। तयाऽपि च लक्षितोऽसौ, ततः शापेन सरोगलोचनः कृत इति। 'व्यालुप्तशिश्नो हर' इत्येतत्पुनरेवं, किलदारुवनाभिधाने तपोवने तापसाः परिवसन्ति स्म। तदुटजेषु च भिक्षार्थं महेश्वरो गृहीतसमस्तस्वकीयालङ्कारोघण्टाटवारतुम्बुरुझङ्काररवमुखरितदिक्चक्रवालः समागच्छति।तापसीश्च स्वदर्शनजनिकामविकाराः परिभुङ्क्ते स्म, ततोऽन्यदा ऋषिभिविज्ञातम्, तथाविधव्यतिकरैः कोपातिरेकाच्छापेन तल्लिङ्गस्यच्छेदः कृतः / तत्र च निखिलजनानां तच्छेदोऽभवत् प्रजानुत्पत्तिश्च। ततो देवैरकाल एवं संहारोमा भूदिति तापसाःप्रसादितास्तेच लिङ्गं तथैव चक्रुः / उक्त
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________________ महादेव 164 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 महादेव वन्तश्चेदम्, 'पूर्वकाले सदा स्तब्धमासीदितस्तु भोगार्थित्वे एव स्तब्धीभविष्यतीति' ततो जना अपि लिङ्गवन्तो जाताः प्रजोत्पत्तिश्चेति / "सूर्योऽप्युल्लिखित इति'' एतदेवं, किल सूर्यस्य रत्नादेवीनामा भार्याऽऽसीत्तस्याश्च यमाभिधानः पुत्रोऽभूत् / सा च आदित्यतापमसहमाना स्वकीयस्थाने स्वप्रतिच्छायां व्यवस्थाप्य समुद्रतटे गत्वा वडवारूपेण तिष्ठति स्म। प्रतिच्छाया च शनैश्चरभद्राभिधाने अपत्ये जनितवती। अन्यदा यमेन बहिस्तादागतेन भोजन याचिता प्रतिच्छाया, सा तु तन्नदत्तवती।ततः कोपात्तेन पाणिप्रहारेण प्रहता, तया च तत्पादः शापेन क्षयीकृतः / तेन च पितुस्तन्निवेदितम्, सोऽप्यचिन्तयत् / कथ स्वमातैवं करोति। ततो नूनं नेयमस्य मातेत्यालोचयता दृष्टा तन्माता वडवारूपा। ततः सूर्यस्तत्र गत्वा तामनिच्छन्तीमपि बलादेव बुभुजे। तत्र च रोषारुणनयनावलोकने नाऽसौ कुष्ठीकृतः / ततश्च सूर्यो निरुजार्थ धन्वन्तरिमुपतस्थौ। स चोवाच / न शरीरोल्लेखनं विना तव प्रगुणताऽस्ति, ततः सूर्येण तनूल्लेखनार्थ देवर्द्धकिरभ्यर्थितः / स उवाच, सहिष्णुना भवितव्यं, नो चेत्त्यक्ष्यामि त्वाम्, तेनोक्तमेवमस्तु / ततो मस्तकादारभ्य जानुनी यावदुल्लेखने कृते गाढ़ पीडितेन सूर्येण सीत्कारः कृतः। तत उल्लेखनादसौ विररामेति। एवमनिच्छद्योषिद्मोगलक्षणात् पुरुषमार्गस्खलनादसौ विपदं प्राप्तवानिति / अन्ये पुनरित्थमाहुः / वडवारूपां स्वभार्यामुपभुज्य तत्पितुरुपालम्भं दत्तवान् यथेयं त्वद्दुहिता मां विहायाऽन्यत्र तिष्ठति / स उवाच / त्वच्छरीरतापमसहमाना किं करोत्वियं वराकी। ततो यद्यनया ते प्रयोजनं ततः शरीरमुल्लेखय, ततः सूर्यो देववर्द्धकिमुपतस्थौ। शेषं तथैव। 'अनलोऽप्यखिलभुक् एवमुच्यते, किल-कश्चिदृषिः स्वकीयोटजावस्थितं वैश्वानरं भक्तिभरणाहुतिभिः पूजयति स्म / स चान्यदा मदीयभार्या भवता रक्षणीयेत्यभिधाय प्रयोजनेन बहिर्गतः / ततः केनचिदृषिणाऽऽगत्य वैश्वानगरसमक्षमेव सोपभुक्ता, क्षणान्तरे समागतोऽसौ, तेन चेगिताकारनिपुणतया परपुरुषसेवितेति लक्षिताऽसौ / पृष्टश्च तेन वैश्वानरः, सा च, यथेह कः समागत आसीत्ततस्तौ न किंचिदूचतुः। ज्ञानोपयोगेन च ज्ञातोऽसावुपपतिस्तेन, ततो रक्षणीयस्यारक्षणात् पृच्छतश्चानिवेदनात् कुपितोऽसौ वैश्वानरं प्रति सर्वभक्षको भवत्वेवंशापंच दत्तवान्। ततश्चाशुच्यादेरप्यसौ भखणस्वभावो जातो, यच किल वैश्वानरो भुङ्क्ते तत् सर्व देवानामुपतिष्ठति, मुख ह्यसौ देवानाम्, ततश्च देवैरशुच्यादिरसास्वादनादुद्विगनैज्ञनिनोपलब्धशापव्यतिकरैरागत्य स मुनिः प्रसादयितुमारेभे / न चासौ प्रससाद, तथापि देवानुवृत्या वैश्वानरस्य सप्त जिहाः कृताः। ततोऽसी सप्ताZिरुच्यते। तत्र द्वाभ्यामाहुतीरेवासौ भुङ्क्ते ताश्च देवानाममृतत्वेनोपतिष्ठन्ति / पञ्चभिस्तु सर्वभक्षक एवावस्थापित इति!'सोमः कलाडित इति तत् पुनरेवं, किल-चन्द्रे बृहस्पतिसमीपेऽध्येतुंगतो देवाचार्यत्वात्तस्य तेन च तद्गृहेऽधीयमानेन तद्भार्योपभुक्ता, ज्ञातं च तद् बृहस्पतिना, शापितश्चासौ तेन, यथा-रे गुरुतल्पग ! कलङ्गिना कालं भवितव्यमिति। स्वर्नाथी भगसहस्त्र संकुलतनुः पुनरेव संवृत्तः। किलगौतममुनेरहिल्यानामा भार्या बभूव, तद्रपाक्षिप्तचेताः सुरपतिस्तदुटजे प्रविश्य तां रेमे, बहिश्च समागतो मुनिः / सोऽपि तद्यान्मार्जाररूपं कृत्वा तदगृहान्निर्गत्य स्वर्ग गतवान् / मुनिस्तु नायं प्राकृतो विडालः, ततः कोव्यमिति पर्यालोचयन्निन्द्र ज्ञातवान्। ततः कोपादसाविन्द्रदेहे भगसहस्त्रं शापेन विहितवान्, स्वच्छान्नांश्च तदुपभोगाय प्रेषितवान् / मुनिस्तु न ययौ, देवस्त्वसावृषिः प्रसादितस्तेन च भगा लोचनीकृता इति। 'ब्रह्मा चतुर्मुख' एवं जातः, किल-ब्रह्मा महोद्याने तपस्यति, ततक्षोभणार्थं च रूपस्य तिल तिलमादाय कृता तिलोत्तमा, अतस्ता प्रेषयामास / अन्याश्च तस्य समाधिध्वंसनाय पूर्वाभिमुखस्थितस्याये गीतनृत्याधुपचारं चक्रुः / तत्राक्षिप्तलोचनमानसं वीक्ष्य दक्षिणतो गत्वा तथैव ताः चक्रुः / स च ध्वस्तसमाधिरपि लज्जामानाभ्यां तदभिमुखो भवितुमशक्नुवंस्ताः प्रति द्वितीयं मुखं कृतवान्, एवमपरस्यां दिशि गतासु तृतीयमुत्तरतो गतासु चतुर्थमुपरिच गतासुपञ्चमं गईभमुखम, एवं पञ्चमुखः संजातः / शम्भुना च गर्दभशिरसि च्छिन्ने चतुर्मुखं इति / हरिस्तु वामन एवं, किल-बलेनिवस्य बन्धनार्थ विष्णुमिनो भूत्वा मठिकानिमित्त पदयमात्रां भुवं तमेव याचितवान्। बलिना च प्रतिपन्ने तहाने पदत्रयेण त्रिलोकमाक्रम्य स्थानवर्जितं तं पाताले तिहितवानिति। क्षयी चन्द्रमाः केथमत्रोच्यते, किलदक्षस्य सप्तविंशतिर्दुहितरस्ताश्चचन्द्रेण परिणीताः, तासु च मध्ये रोहिण्यामसाक्तोऽसौ शेषाभिस्त्वपमानिताभिः पितुर्निवेदितम्, तेन कुपितेन शापात्क्षयी कृतोऽसौ पुनर्देवैः प्रसादितेन चानुग्रहादेकत्र पक्षे वृद्धिमानिति। नागाः पुनरेवं द्विजिह्वाः किल देवः क्षीरसमुद्रमथनादमृतमुत्पादित, तस्य च कुण्डानि भृतानि दर्भश्चाच्छादितानि सप्पास्तद्रक्षणे नियुक्ताः, तत एकान्तमाकलय्य तैस्त पातुभारब्ध, दर्भश्च तजिह्वा द्विधाकृताः। अन्ये त्याहुः अमृतपानभृताना तेषामिन्द्रेण वज्रक्षेपात् जिह्वाभेदो विहित इति। 'राहोः शिरोमात्रता' पुनरेवम्, देवैः किलामृतस्य कुण्डानि भृतानि, विष्णुश्च तद्रक्षायां नियुक्तः / ततश्च कार्यान्तरव्याक्षिप्तस्य तदाहुणा पातुमारब्धं, विष्णुना चनं तथा वीक्ष्य चक्रक्षेपेण तच्छिरच्छेदः कृतः, पीतामृतत्वात्तच्छिरोऽजरामरं संवृत्तमिति / व्याख्यातं ब्रह्मा लूनाशिरा' इत्यादि वृत्तद्वयमिति / तथास एष भुवनत्रयप्रथितसंयमः शङ्करो, विभर्ति वपुषाऽधुना विरहकातरः कामिनीम्। अनेन किल निर्जिता वयमिति प्रियायाः कर, करेण परिताडयन् जयति जातहासः स्मरः / / 1 / / तथादिग्वासा यदि तत्किमस्य धनुषा शस्त्रस्य किं भस्मना। भस्माऽथाऽस्य किमङ्गना यदि च सा कामं परिद्वष्टि किम्।। इत्यन्योन्यविरुद्धचेष्टिमिद पश्यन्निजस्वामिनो, भृङ्गी सान्दशिरावनद्धपरुषं धत्तेऽस्थिशेषं वपुः / / 1 / / एवमपायापगमातिशयद्वारेण महादेवत्वमुक्तमथगुणातिश्यादि प्रतिपादनतस्तदेवाऽऽहयो वीतरागः सर्वज्ञो, यः शाश्वतसुखेश्वरः / क्लिष्टकर्मकलातीतः, सर्वथा निष्कलस्तथा / / 3 / / यः पूज्यः सर्वदेवानां, यो ध्येयः सर्वयोगिनाम् / यः स्रष्टा सर्वनीतीनां, महादेवः स उच्यते / / 4 / /
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________________ महादेव 165 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 महादेव यो वीतरागः स महादेव, उच्यते क्रिया सर्वत्र योज्या। तत्र 'य' इति अनिर्दिष्टनामा, 'वि' इति विशेषेण इतो गतो नष्टो रागःप्रेम यस्य स टीतरागः द्वेषक्षय एव च सति रागक्षयो भवतीति वीतद्वेष इत्यपि दृष्टव्यम्। तथा सर्व समस्त द्रव्यप्रदेशपर्यायरूपं वस्तु जानाति विशेषग्रहणतः समरतावरणक्षयाविर्भूतकेवलसंवेदनावबुध्यत इति सर्वज्ञः। सर्वज्ञत्वायभिचरितत्वात्सर्वदर्शितवस्येति सर्वदर्शीत्यपि दृश्यम्। ननु रागद्वेष- | मोहाभावः प्राक् प्रतिपादित एव, तत्प्रतिपादने च वीतरागत्वरार्वज्ञत्वे अवगते एव तत्स्वरूपत्वादेतयोरिति, किमिह धीतरागसर्वज्ञत्योपादानेनति ? अत्रोच्यते-यत एव रागादयो न सन्त्यत एव वीतरागः सर्वज्ञश्च, यत इत्येवं हेतुफलभावेन मलक्षयात्पीतवर्णप्रकर्षवत्कनकमित्यादिन्यायेन गुणातिशयविवक्षणाददोषः, एवंविधन्यायस्य वाक्येषु सद्भिस्तत्र तत्राऽऽश्रितस्य दर्शनाचेति / अथवा-कैश्चिद्वैराग्यज्ञानादयः प्राकृता इष्यन्ते, तेच कैवल्यावस्थायां प्रकृतेर्वियुक्तत्वाद्विनिवर्तन्ते इति, तन्मतव्यपोहार्थत्वाददोषः। तथाहि-ज्ञानवैराग्यादयश्चैतन्य-स्वभावाः, चतन्य चत्मनो रूपम्- "चैतन्य पुरुषस्वरूपम्" इति वचनादिति कथं तन्निवृत्तिः अन्ये पुनराचार्याः-"यस्य संक्लेशजनन'' इत्यादि श्लोकद्वयमर्हच्छास्थावस्थामश्रित्य व्याख्यान्ति / यतः संक्लेशजननानि नागादिविशेषणानि तस्यामेवावस्थायां व्यवच्छेद फलानि भवन्ति / तथाहि रास्य संक्लेशजनन एव रागो नास्ति, शमेन्धनदवानल एव च द्वषः, सज्ज्ञानाच्छादनाशुद्धवृत्तकारक एव च मोहो नास्ति, न पुनः सत्तगततत्कर्भदलिकरूपोऽपि स महादेव इति। "यो वीतराग'' इत्यादि तु भवस्थकेयलिनमाश्रित्येति। ननु महत्त्वं छमस्थावस्थायामनुचितं ततो महत्तरावस्थान्तरस्य सद्भावात् ? नैवम्- एवं हि सिद्धत्वलक्षणस्य महलमावस्थान्तरस्य सद्भावात् केवलिनोऽप्यमहत्त्वप्रसङ्ग इति। अन्यथा वा कथंचिदपौनरुक्तयं भावनीयम् / इह च वीतरागग्रहणेन सरागादीनां नहादेवत्वप्रतिषेध उक्तः। तत्र चभावना प्रागुपदर्शिता। सर्वज्ञ इत्यनेन च कपिलस्य महादेवत्वमपाकृतं, तस्य च तन्मतेनैव सर्वज्ञत्वासंभवात। तथाहि-''बूद्ध्यध्यवसितमर्थं पुरुषश्चेतयते'' इति तन्मतम्। बुद्धश्च प्रकृतिविकारतया कैवल्यावस्थायां प्रकृतिनिवृत्तौ, निवृत्तित्वात्पदार्थमात्रदेतनाऽपि तस्य न स्यात, किं पुनः सर्वज्ञत्वम्। न चैष पक्षो ज्यायान्, पंतनात्मकपुरुषाभ्युमगमे हि चेतनाव्याघातकारिप्रकृतिवियोगे पुरुषस्य सर्वज्ञत्वेनैवाभ्युपगन्तुं युक्ततवादिति / तथा अनेनैव च बुद्धस्थापि महादेवत्वं किंचिज्ज्ञानतवातन्निवारितम् / यदाहुस्तच्छिष्यकाः-सर्व घश्यतु वा मावा, इष्टमर्थ तुपश्यतु। कीटसंज्ञापरिज्ञानं, तस्य नःक्कोपयुज्यते।।१।।" इति। किं च किंचिज्ज्ञत्वमपि तस्य न घटते, एकास्याप्यर्थभ्य सकलस्वपरपर्यायविशेषितस्यासर्वज्ञत्वेन ज्ञातुमशक्यत्वात्। यत आह-''एको भावः सर्वथा येन दृष्टः, सर्वे भावाः सर्वथा तेन दृष्टाः / सर्व भावाः सर्वथा येन दृष्टाः, एको भावः सर्वथा तेन दृष्टः / / 1 / / " अथ सर्वज्ञान संभवत्येव सत्तासाधकप्रमाणाग्राह्यत्वात, तस्य शशविषाणवत। यदाह-"सर्वज्ञोऽसाविति ह्येतत्तत्कालैरपि बोद्धभिः / तज्ज्ञानाय- | विज्ञान-शून्यज्ञातुं न शक्यते॥१॥” इति ? नैवं सत्तासाधकप्रमाणाग्रा- | ह्यत्वस्यासिद्धत्वादाह च-तथाहि-ये अपचयधर्माणस्ते अत्यन्तक्षयिणोऽपि संभवन्ति यथा सामग्रीविशेषाद्वस्त्ररत्नमालादयः, अपचयधर्मकाश्च ज्ञानावरणादयोऽतः सर्वथा क्षायिणोऽपि संभवन्तीति, तेषां चात्यन्तापचये सर्वज्ञत्वादयो भवन्त्येव। न च ज्ञानावरणादीनामपचयधर्मत्वमसिद्ध स्वसन्तानेऽपि ज्ञानादेरुपचयविशेषानुभूत्या तदावरणापचयविशेषस्य सिद्धिरिति / उक्तं च-"दोषावरणयोहानि-निःशेषास्त्यतिशायनात् / कृचिद्यथा स्वहेतुभ्यो, बहिरन्तर्मलादयः।।१।।" तथा-यएते बन्धमोक्षपरलोकादयोऽतीन्द्रियभावास्ते कस्यापि प्रत्यक्षाः अनुमानगोचरत्वाद्, यथाऽनयादय इति। उक्तं च-"सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः, प्रत्यक्षाः कयचिद्यथा। अनुमेयत्वतोऽग्नयादिरिति सर्वज्ञसं स्थितिः॥१॥" इति। एवं च तज्ज्ञानज्ञेयविज्ञानशून्यैरप्यनुमानेनाऽवगम्यते असावचतुर्वेदिना चतुर्वेदीवेति। तथा' यः शाश्वतसुखेश्वरः' क्रिया पूर्ववत्, पुनर्यच्छब्दोपादानमवथाविशेषोपदर्शकम् / अयमभिप्रायो, वीतरागत्वं सर्वज्ञत्वं च रागादिक्षयादाविर्भूतं भवस्थकेवलाद्यवस्थायां महत्त्वकारणं, शाश्वतसुखेश्वरत्वादि तु विशेषणत्रयं भवातीतावस्थायां महत्त्वकारणमिति / तत्र शश्वन्नित्यं भवतीति शाश्वतम्, तच तत्सुखं च निर्वाणजनितानन्दरूपम्, अपरस्यशाश्वतत्वानुपपत्तेरिति शाश्वतसुखम्। तस्येश्वरः स्वामी, स्वयं तत्प्राप्तत्वाच्छाश्वतसुखेश्वरः। ननु सर्वस्यापि वस्तुनः क्षाणिकत्वात्कथं सुखस्य शाश्वतत्वम् ? अत्रोच्यते-न हि सर्वथावस्तुनः क्षणिकत्वमुत्पादविनाशधौव्यरूपत्वात्। इह च बहु वक्तव्यं तत्तु पञ्चदशाष्टकादवसेयमिति / न च तथाभूतसुखस्यासंभव एव, सुखावरणस्यापचयदर्शनेनात्यन्तिकस्यापि तदपचयस्य संभाव्यमानत्वादिति च पूर्वमुक्तप्रायमिति, अनेन च विशेषणेन प्रतिक्षणक्षयाघ्रातवतुवादिपरिकल्पितदेवस्य न महत्त्वम्, तन्मतेन एवंविधसुखाद्यभावात्, तदभावेच महत्त्वव्युदासः। तस्य कल्पनामात्रत्वादिति / तथा क्लिष्टाः क्लेशस्वरूपभवहेतुत्वेन क्लेशिकाः, याः कर्मकलाः-ज्ञानावरणाद्यष्टप्रकारकर्माशास्तेभ्योऽतीतोऽपेतो यः स क्लिष्टकर्मकलातीतः / अनेन च ये मन्यन्ते-"ज्ञानिनो धर्मतीर्थस्य, करिः परमं पदम्। गत्वा गच्छन्ति भूयोऽमि, भवं तीर्थनिकारतः।।१।।" इति। तत्समतदेवस्य महत्त्वव्युदासः / क्लिष्टकर्मकलाभावे हि भवावतारासंभावाद्। आह च-"अज्ञानपाशुपिहितं, पुरातनं कर्मबीजमविनाशि। तृष्णाजलाभिषिक्त, मुञ्चति जन्मान्तर जन्तोः" ||1|| अशुभस्वरूपभवावतारिणश्च स्वकीयतीर्थनिकारासहिष्णोः प्राकृतस्येव कीदृशं महत्त्वमिति।तथा सर्वथा सर्वैः प्रकारैः निष्कलंः सर्वशरीरावयवविरहितस्तदभावे हि सुखसंभवो, यदाह-शरीरमनसोरभावेदुःखाभावः, शरीरत्वेन च दुःखसंभवे कीदृशं महत्त्वम्। अनेन च यच्छरीरतोऽस्य महत्त्वं प्रतिपन्नाः "विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतो मुखो विश्वतो बाहुरुत विश्वतः'' इत्येतस्य वाक्यस्य श्रूयमाणार्थाभ्युपगमात्तन्मतं व्युदस्तम्, एवंविधस्यासंभवात्, तदसंभवश्च विश्वस्य सर्वतश्चक्षुषैव व्याप्तत्वात्तदन्येषामवयवानामनाधारत्वेनाभावप्रसङ्गात, तैरेव वाक्यान्तरेणान्यथाविधस्य महत्तवाभिधानेन स्वमतविरोधाच आह च-"अपाणिपादोजवनो गृहीता, पश्यत्यचक्षुः स शृणोत्यकर्णः / स वेत्ति विश्वं न च तस्य वेत्ता, तमाहुरग्रयं पुरुष महान्तम्" ॥१॥अन्येतुव्याख्यान्ति-'क्लिष्टकर्मकलातीतो' वातितवाति
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________________ महादेव 196 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 महादेव कर्मा भवस्थकेवली, सर्वथा निष्कलः क्षीणभवोपग्राहिकर्मा सिद्ध- विरोधनास्तीति / किं वक्तत्वव्याघातकारिणा कुड्यादिनिर्गतदेशनाकेवलीति / तथेति विशेषणसमुच्चये / तथा यः पूज्योऽभ्यर्चनीयः कल्पोन्नति उदाहृतं शिववर्मे त्यनेन पुरुषानुदाहृतस्याप्रामाण्यसर्वदेवानां निःशेषभवनपत्यादीनाम्, वीतरागत्वादिगुणयुक्तो हि पूज्यत माविष्करोति तस्यासंभवादेव, तदसंभवश्चैवम्- या या वचनरचना सा एव देवादिभिः। तत्पूज्यत्वेनैव च तत्प्रतिमानामपि पूजनीयत्वम्। अथवा सा पौरुषेयी दृष्टा यथाकुमारसंभवादिः, वचनरचना च वेद इति / सर्वे अखिला हरिहरादयो, देवाः-स्तुत्या, येषा-तद्दर्शनप्रतिपन्नाना तस्मात्पौरुषेयोऽसाविति। विरुद्धं च विवक्षाताल्वादिव्यापारपुरुषधर्मसमुहापेक्षा ते सर्वदेवा बौद्धादयस्तेषां यः पूज्यः / यतः ते निज निज जन्यवचनस्वरूपस्य वेदस्यापौरुषेयत्वम्।यदाह-"ताल्वादिजन्मा ननु शारतार पूजयन्तोऽप्युक्तलक्षणं महादेवमेव पूजयन्ति / तथाहि- वर्णवर्गों, वर्णात्मको वेद इति स्फुट च। पुसश्च ताल्वादिरतः कथं स्यादतदुपदेशात् स्वर्गापवर्गसंसर्गो भविष्यतीति मन्यमानास्तमर्चयन्ति / पौरुषेयोऽयमिति प्रतीतिः / / 1 / / " शास्त्रं शिववर्मेत्यनेन तु ये शास्त्रउपदेशश्चोपेयाविसंवादी, तत्परिज्ञाने वीतरागद्वेषत्वे च सत्येव भवति स्याप्रामाण्यमाश्रितास्तन्मतमपास्तम् / ये हि मन्यन्ते प्रत्यक्षगोचरेऽर्थे नान्यथा। ततश्च सर्वज्ञत्वादिगुणमध्यारोप्य स्वशास्तार पूजयन्तीत्यतः वचनस्य व्यभिचारदर्शनान्न तत्प्रमाणाम्, न चैतद्युक्त सुनिश्चिताप्तपरमार्थतः स एव पूजितो भवतीति / ततः सुष्टूक्तम् 'यः पूज्यः सर्व- प्रणीतस्यैव वचनस्य प्रमाणात्वाभ्युपगमात्, न चेतरवचनस्य व्यभिचारदेवानाम्" इति। तथा यो ध्येयोध्यातव्यः, सर्वयोगिना-निःशेषाध्यात्म- मुपलभ्य सर्ववचनानामप्रामाण्यं व्यवस्थापयितुं युक्तम्, इतरथामरीचिन्तकानाम् / योगिनोऽपि हि वीतरागत्वादिगुणगौरवोपगतमेव ध्या- चिकानिचयचुम्बजलावभासिप्रत्यक्षमसत्यमवलोकितमिति सकलाध्ययन्ति, तथाविधश्चोक्तप्रकारेणर्हन्नेवेति / तथा यः स्रष्टा-उत्पादकः क्षाणामप्रामाण्यप्रसङ्गः / तदप्रामाण्ये चानुमानमपि न प्रमाणं स्यात्, प्रकाशनद्वारेण, सर्वनीतीना-समस्तनैगमादिनयानां सामादिनीतीनां प्रत्यक्षपूर्वकत्वादनुमानस्य। तथा च द्वे एव प्रमाणे-प्रत्यक्षम, अनुमानं वा / न च ऋषभेणेव सामादयो लोकव्यवहारार्थ नीतयः सष्टा इति स एवं चेति वचनं व्याहतिमापद्यतेति / / उक्त चागमप्रामाण्यवादिभिः - महादेवो नत्वजितादय इति वाच्यम् ? सर्वस्य वाग्विषयस्य पूर्वगतश्रुतः स्वर्गाधतीन्द्रियगतौ वच एव मानं, तैरप्युपदर्शितत्वात्तेऽपि नीतिस्त्रष्टार एवेति''महादेवः स उच्यते' इति येनान्यमानविषया न भवन्ति ते हि / व्याख्यातमेव / अथैतत्पूर्वमुक्तमपि पुनः कस्मादभिहितम् ? अत्रोच्यते किं चागमाभिहितमेव समर्थयन्ति, सर्वभावानां द्विविध रूप, व्यावहारिक पारमार्थिक चेति, तत्र पारमा नापूर्वमर्थमनुशासति साधनज्ञाः॥१॥ र्थिकमहादेवत्वख्यापनार्थमिदमुक्तमिति / / 4 / / त्रिकोटीदोषवर्जितमनेन तु यत् परीक्षाक्षम न भवति न तचिदवअधिकृतमहादेवलक्षणान्तरेण लक्षयितुमाह वर्मेत्युक्तं भवति, अपरीक्षाक्षममपि धर्मशास्त्रं कैश्चिदभ्युपगतम्, एवं सद्धृत्तयुक्तेन, येन शास्त्रमुदाहृतम्। यदाहुःशिववर्त्म परं ज्योति-स्त्रिकोटीदोषवर्जितम् / / 5 / / पुराण मानवो धर्मः, साङ्गो वेदश्चिकित्सितम्। एवमित्यनन्तरोक्तप्रकार, यत्सद्धृत्तमनिन्दितवर्त्तनं रागद्वेषक्षयकरणा- आज्ञासिद्धानि चत्वारि, न हन्तव्यानि हेतुभिः / / 1 / / इति / दिक भवावस्थोचितं न पुनः शाश्वतसुखेश्वरत्वादिसिद्धावस्थोचित इहार्थेऽन्ये वदन्तिसिद्धावस्थायां शास्त्रोदाहरणाभावात्, तेन युक्तः संगतो योऽसावेवं अस्ति वक्तव्यता काचि-तेनेदं न विचार्यते। सद्धत्तयुक्तः, तेन देवताविशेषण। येन-अनिर्दिष्टनाम्ना, शिक्ष्यन्तेपदार्था निर्दोष काञ्चनं चेत्स्या-त्परीक्षाया विभेति किम् / / 1 / / अनेनेति शास्त्रमागमः, उदाहृतं प्रणीतम्, किंभूतमित्याह-शिवस्य आप्तशास्त्रिकैः पुनराप्तवचनमेवमनूद्यतेमोक्षस्य वर्मेव वर्मपन्थाः शिववर्त्म / तथा परम् - अनन्यसाधारणं, निकषच्छेदतापाभ्यां, सुवर्णमिव पण्डितैः। ज्योतिरिव ज्योतिः-प्रदीपो महामोहतमः पटलप्रतिहतिपक्ष्मलत्वात, परीक्ष्य भिक्षवो ! ग्राह्य, मद्वचो न तु गौरवात्।।१।। तथा तिसृषु कोटीषु आदिमध्यान्तलक्षणशास्त्र विभागेषु ये दोषाः पूर्वा- शास्त्रगतकषादिपरीक्षात्रयस्य च स्वरूपमिदम, विधिप्रतिषेधः परविरोधादयः अथवा-तिसृषु कोटीषु शास्त्रहम्नः कषच्छेदतापरूप- कषः / आह च - परीक्षालक्षणासु ये दोषास्तदशुद्धयः तैर्वर्जितं विरहितं यत्तत्तथा, स पाणवहायाईण, पावट्ठाणाण जो उ पडिसेहो। महादेवउच्यते इति प्रक्रमः / इह च एवं सद्धृत्तयुक्तेनेत्यनेन कामुकाधु- झाणज्झयणईण, जो य विही एस धम्मकसो।।१।। चितासमञ्जसचेष्टावतामपि महत्त्वकल्पने सर्वस्यापि तत्प्रसङ्गात्। आह विधिप्रतिषेधयोरवाधकस्य सम्यक् तत्पालनोपायभूतस्यानुष्डानच "कामानुषक्तस्य रिपुप्रहारिणः, प्रपचिनोऽनुग्रहशापकारिणः / स्योक्तिश्छेदः / यदाहसामान्य पुंवर्गसमानधर्मिणो, महत्त्वकलुप्तौ सकलस्य तद्भवेत / / 1 / / " वज्झाऽणुट्याणणं, जेण न वाहिज्जए तयं नियमा। शास्त्रमुदाहृतमनेनत्वनुदाहृतमपि ये शास्त्रमभ्युपगच्छन्ति तन्मतभपा- संभवइ य परिसुद्ध, सो पुण धम्ममि छेओत्ति / / 1 / / रतन, वदन्ति व तद्वादिनः-तथा "तस्मिन् ध्यानसमापन्ने, चिन्तारत्न- बन्धमोक्षादिसद्भावनिबन्धनात्मादिभववादस्तापः / उक्तं चवदास्थिते / निस्सरन्ति यथा काम, कुड्यादिभ्योऽपि देशनाः / / 1 / / " जीवाइभाववाओ, बन्धाइपसाहगो इह तावो। तन्निरासश्चैवम् - "कुड्यादिनिः सृतानां तु. न स्यादाप्तोपदिष्टता। एएहिं सुपरिसुद्धो, धम्मो धम्मत्तणमुवेइ / / 1 / / विश्वासश्च न तासु स्यात्केनेमाः कीर्तिता इति ॥१॥किं च यद्यपि कषादिशुद्धयस्त्वेवम् - मनोवाकायकरणकारणानुमतितस्य भगवतोऽचिन्त्यपुण्यसंभारतया अतिशयाः सन्ति तथापि वक्तत्व- | भिरर्थानाश्रयेणाजन्मसूक्ष्मबादगणां प्राणातिपातादीनां प्र
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________________ महादेव 197 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 महादेव तिषेधो रागादिनिग्रहप्रतिग्रहहेतुभूतयोश्च ध्यानतपसोर्विधिर्यत्र शास्त्र तत्कषशुद्धम्। आह चसुहमो असेसविसओ, सावजे जत्थ अत्थि पडिसेहो। रागाइविउडणसह, झणाइ य एस कससुद्धो // 1 // " यत्र पुनरेवंविधौ प्रतिषेधविधाने भवतो, न तत् कषशुद्धम, यथाप्राणी प्राणिज्ञान, घातकचित्तं च तद्गता चेष्टा / प्राणैश्च विप्रयोगः, पञ्चभिरापद्यते हिसा / / 1 / / तथा अनस्थां जन्तूनां सकटभरवधे एका हिंसा। यत्रैव विसंवादस्तदव चासत्यमित्यादि, अयं हि पापप्रतिषेधो नात्यन्तिकः, यथा अष्टवर्गान्तिकं बीज, कवर्गस्य च पूर्वकम्। यह्निनोपरिसंयुक्त, गगनेन विभूषितम् / / 1 / / अर्हमित्यर्थः। एतदेव परं तत्त्वं, योऽभिजानाति तत्त्वतः। संसारबन्धनं छित्त्वा, स गच्छेत् परमा गतिम्॥१॥ इत्यादिस्वरूपश्च विधिर्न रागादिविकुट्टनसहः यतः-सुचिरमप्ये- 1 तक्यानध्यायिनस्तदुत्तरकालं रागादयः स्वरूपस्था एव, रागादीनां पुनरहिकामुष्मिकापायजनकत्वचिन्तयितुस्तदुत्तरकालमपि ते प्रतनवो भवन्तः सर्वथा न भवन्त्यपीति रागाद्यपायध्यान श्रेष्टो विधिः। अत एवं ध्यानान्तरत्यागेन ध्यान विधिरेवं सद्भिरभिधीयतेरागबोसकसाया-सवाइकिरियासु वट्टमाणाणं / इहपरलोगावाए, झाए झावज्ज परिवजी / / 1 / / तथा छेदशुद्धं शास्त्रं यत्र समितिगुप्तयादिकमुक्तविधिप्रतिषेधापायभूतं तदनुष्ठानमुपदर्श्यते। आह चएएण न वाहिजइ, संभवइयतं दुर्ग पि नियमेण। एयवयणेण सुद्धो. जो सो छेएण सुद्धो ति॥१॥ तदशुद्धं, प्राणिसंरक्षण-शुभध्यानकरण-विशुद्धपिण्डग्रहणेषूपायभूतवस्त्रपात्राद्युपकरणप्रतिषेधप्रवणं बोटिकशास्त्रमिवेति। अथवा देवताराधनाय साधूनां संगीतकरणाद्युपदेशप्रवणम्। आह चजह देवाणं संगीअ-याइकजम्मि उज्जमो जइणो। कंदप्पाईकरणं, असज्जवयणामिहाणं च / / 1 / / तापशुद्ध पुनः। आत्माऽस्ति सपरिणामी, बद्धः स तु कर्मणा विचित्रेण / मुक्तश्च तद्वियोगात्, हिंसाऽहिसादितद्धेतुः। इत्यादिभाववादः प्रधानम्, एवंविधे ह्यात्मादिवस्तुनि सति विधिप्रतिषेधादिकं सर्वमुक्तरूपमुपपद्यते, न पुनरन्यथाविध इति। तदन्यथाविधवस्तु प्रणयनप्रवणं तु शास्त्रं तापाशुद्धमिति / तदेव येनैवंविध शास्त्रमुदाहृतं महादेवः स उचते इति / एतमर्थ मुखवृत्त्या वदताऽनेन श्लोकेन गौणवृत्त्या नानाविधोऽर्थ उक्त इति // 5 // ननु यो वीतरागः स कथमाराध्यते ? नतावत् स्तुत्यादिभि सरागत्वप्रसङ्गार, नापि निन्दादिभिः स्तवादीनां वैयर्थ्यप्रसङ्गात्, उपेक्षयाऽप्याराधने स एव दोष इत्याशङ्कयाऽऽहयस्य चाराधनोपायः, सदाज्ञाभ्यास एव हि। यथाशक्तिविधानेन, नियमात्स फलप्रदः / / 6 / / न केवलम् येन शास्त्रमुदाहृतं स महादेव उच्यते यस्य च देवविशेषस्याऽऽराधनोपाय आज्ञाभ्यास एव स महादेव उच्यते, इति वशब्दार्थः, क्रियासंबन्धश्चेति / आराधनं-प्रसादनम्, आराधनमिवाऽऽराधन तत्फलप्रसाधकत्वात्, न पुनराराधनमेव सत्तगत्वप्रसङ्गात् / प्रसादाभावेऽपि च प्रसादफलसिद्धिर्वस्तुस्व-भावत्वाद्। आह च"वत्थुसभावो एसो, अचिंतचिंतामणी महाभागे। थोऊणं तित्थयरे, पाविजइ वंछिओ अत्थो // 1 // तथाउवगाराभावमि वि. पुजाण पूयगस्स उवयारो। मंताइसरणजलणाइ. सेवणे जह तहेहं पि।।२।। तत्रोपायो हेतुराराधनोपायः, सदा-सर्वस्मिन्नपि दुष्षमादिका-लेऽपि, अनेन किल विशिष्टकाल एवाज्ञायाः कर्तुं शक्यत्वात्तदैव तदभ्यास आराधनोपायः / दुःषमायां त्वनागमिक प्रवृत्तिरप्युपायस्तत्राऽऽज्ञाया अभ्यसितुमशक्यत्वादितियस्य मतिः स्यात्तन्मतं प्रत्यस्तम्।यत आह"समयपवित्ती सव्वा, आणावज्झत्ति भवफला चेव / तित्थयरुडेसेण वि, न तत्तओ सा तदुद्देसा // 1 // " आज्ञायन्ते अधिगम्यनते मर्यादया अभिविधना वा अर्था यया सा आज्ञा-आगमः, तस्या अभ्यासो ग्रहणभावना-पारतन्त्र्यलक्षण आज्ञाभ्यासः / स एव न पुनस्तद्भक्तितोऽपि तदाज्ञापेता प्रवृत्तिः, पूजादिकं तु तदाज्ञाभ्यास एव तस्य द्रव्यस्तवरूपत्वात् / हिशब्दो वाक्यालङ्कारार्थः / ननु यथोक्तस्याऽऽज्ञाभ्यासस्यातिदुष्करत्वात्, कालसंहननादिदोषवतामनारधनप्रसङ्ग इत्याशङ्कायामाहयथा-शक्ति, शक्ते:-शरीरसामर्थ्यस्यानतिक्रमो यथाशक्ति, तेन शक्तेरनुल्लङ्घनेनाऽगो-पायनेन चेत्यर्थः / एवं हि वीर्याचारः कृतो भवति / आह च-"अणिगूहियबलविरिओ, परक्कमइ जो जहुत्तमाउंतो। जुंजइय जहाशाम, नायव्यो वीरियायारो॥४३।।" (नि००१3०) आज्ञाभ्यासस्येव विशेषणार्थमाह-विधानेन विधिना द्रव्यक्षेत्रकालभावानुवर्त्तनलक्षणेनाऽऽयव्ययतुलनारूपेणाऽऽगमिकन्यायेनेति भावः / आह च"तम्हा सव्वाणुना, सब्बनिसेहो य पवयणे नत्थि। आयं वयं तुलेज्जा, लाहाकखि व्व वाणियओ।" नत्वाऽऽज्ञाभ्यासेनाऽऽराधितो यद्यसौ फलप्रदो, ऽनाराधितस्तर्हि न तथा स्यादित्येवं विषमवृत्तिरसौ स्यादित्यत आह-नियमाद्-अवश्यंभावेन, 'स' इति स एव च आज्ञाभ्यासोयस्य संबन्धी, फलप्रदोऽभिप्रेतार्थसाधको महादेवः स उच्यते इति प्रकृतम् / इतस्तस्यफलाप्रदायित्वात्तदाज्ञाभ्यासस्यैव च फलप्रसाधकत्वात् कुतो विषयवृत्तित्वदोष इति॥६|| एतदेव दृष्टान्तेन समर्थयन्नाहसुवैद्यवचनाद्यद-व्याधेर्भवति संक्षयः। तद्रदेव हि तद्वाक्याद्, धूवः संसारसंक्षयः॥७।। सुवैद्यवचनात्- भिषग्वरोपदेशात्, यद्यद्येन प्रकारेण व्याधेः-कुष्ठादिरोगस्य, भवति-जायते, संक्षयः-सामस्त्येनापूनर्भावितया विनाशः, तद्वदेव-तेनैव प्रकारेण तथैवेत्यर्थः। तस्य देव विशेषस्य वाक्यमुपदेशस्तद्वाक्यं तस्माद, ध्रुवोऽवश्यंभावी संसरणं संसारस्तस्य संक्षयोऽत्यन्तविनाशः संसारसंक्षयो भवति। इह संसारशब्देन भवाद्भवान्तरसंचरणमुच्यते,
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________________ महादेव 198 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 महापउम तेन च परलोकसत्तवेदिता। तत्र चेदं प्रमाणम्- 'कार्य कार्यान्तराज्जातं, | महापइट्टास्त्री० (महाप्रतिष्ठा) जिनबिम्बप्रतिष्ठाभेदे, षो०७ विवः / कार्यत्वादन्यकार्यवत्। जन्मेदमपि कार्यत्वं, न व्यतिक्रम्य वर्तते।' जन्म महापइण्ण त्रि० (महाप्रतिज्ञ) दृढव्रताभ्युपगतवति, उत्त०२० अ० / च ज्ञानसन्तानविशेषरूपमतस्तद्रूपमेव तदुपादानकरणभूतं जन्मान्तर- महापइरिक्कतर त्रि० (महाप्रतिरिक्ततर) महत्प्रतिरिक्त विजनमतिशयेन मनुमीयते न पित्रादिरूपम्, तस्योपादानकारणत्वे हि तद्धर्मानुगमप्रसङ्ग येषु ते तथा। अत्यन्तजनरहितेषु, भ०१३ श०४ उ० इति // 7 // महापउम पुं० (महापा) जम्बूद्वीपे आगामिन्यामुत्सर्पिण्या भविष्यति प्रकरणार्थमपसंहरम् विवेचितगुणमहादेवनमस्करणायाह प्रथमतीर्थकरे, स०। एवं भूताय शान्ताय, कृतकृत्याय धीमते। महापद्मतीर्थकृत्कथा चैवम् - महादेवाय सतत, सम्यग्भक्त्या नमो नमः॥८॥ एस णं अज्जो ! सेणिए राया भिंभिसारे कालमासे कालं किचा एवम्भूताया-अनन्तरोक्तरूपा गुणसंपदं प्राप्ताय न परपरिकल्पितायं, इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए सीमंतए नरए चउरासीइवाससहस्सशान्तय पापशमवते, अनुवादरूपं चेदं विशेषणमिति न पुनरुक्त द्विइयंसि नरगंसि नेरइयत्ताए उववजहिति, से णं तत्थ नेरइए ताsनीया। तथा कृतानि-विहितानि, न तु विधेयानि समाप्तप्रयो भविस्सति ! काले कालोमासे० जाव परमकिण्हे वन्नेणं, से णं जनत्मा क-यानिकार्याणि, येन सस कृतकृत्यस्तस्मै। तथा धी:- केवल तत्थ वेयणं वेदिहिति उज्जलं जाव दुरहियासं, से णं तओ ज्ञानलाणा बुद्धिर्यस्य स्तिस धीमान् तस्मै धीमते. एतदप्यनुवादपरमेवा नरगाओ उव्यट्टित्ता आगमिस्साए उस्सप्पिणीए इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे वेयवगिरिपायमूले पुंडेसु जणयतेसु सयदुवारे अन्येस्तु-धीमते सत्त्ववते इति व्याख्यातम्। महादेवायअनन्तरनिर्णीत१८ मा व सततमनवरतं, सम्यगिति प्रशंसार्थो निपातः। सम्यक चासौ नयरे संमुइ यस्स कुलगरस्स भद्दाए भारियाए कुच्छिंसि प्रमत्ताए भारत प्रीतिविशेषः सम्यग्भक्तिस्तया सम्यग्भक्त्या, 'नमो नम इति' पचायाहिति / तए णं सा भद्दा भारिया नवण्हं मासाणं बहुपडि पुन्नाणं अद्धट्ठमाणं य राइंदियाणं विइक्ताणं सुकुमालपाणिपायं नमस्कारोऽस्तु / द्विवचनेन तु भक्तिकृतं संभ्रममुपदर्शितवानिति / / 8 / / अहीणपडिपुन्नपंचिंदियसरीरं लक्खणवंजण जाव सुरूवं दारगं हा०१ अष्ट०। पयाहिति, जं रयणिं च णं से दारए पयाहिति तं रयणिं च णं महादेवी स्त्री० (महादेवी) काकतीयराजविशेषपुत्र्याम्, ती०४६ कल्प। सयदुवारे नगरे सम्भिंतरबाहिरए भारग्गसो य कुंभग्गसो य महादोस पुं० (महादोष) महान्तश्च ते दोषाश्च महादोषाः / दारुण पउमवासे य रयणवासे य वासे वासिहिति। तएणं तस्स दारयस्स दुःखहेतुत्वात्प्रकृष्टदूषणेषु, पा०। अम्मापियरो इक्कारसमे दिवसे विइक्वंतेजाव वारिसाहे दिवसे महाधणु पुं०(महाधनुष) बलदेवस्स देवक्यां जाते स्वनामख्यात पुत्र.स अयमेयारूवं गोणं गुणनिप्फन्नं नामधिज्ज़ काहिंति / जम्हा णं धारिष्टनेमेरन्तिके प्रव्रज्य देवलोके उपपद्य महाविदेहे सेत्स्यतीति। नि०५ अम्हं इमंसि दारगंसि जातंसि समाणंसि सयदुवारे नगरे सभिंतवर्ग०६ अ०। रबाहिरिए भारग्गसो य कुंभग्गसो य पउमवासे य रयणवासे य महाधम्मकहि(ण) पु० (महाधर्मकथिन) तीर्थकृति, उपा०। वासे वुढे तं होउ णं अम्हं इमस्स दारगस्स नामधिज्जं महापउमे। आगएणं देवाणुप्पिया! इहं महाधम्मकही? से केणं देवाणु तएणं तस्स दारगस्स अम्मापियरो नामधिज काहिंति महापउप्पिया ! महाधम्मकही? समणे भवं महावीरे महाधम्मकही। मेत्ति / तए णं महापउमं दारगं अम्मापियरो साइरेगं अट्ठवाससे केण?णं समणे भगवं महावीरे महाधम्मकही ? एवं खलु जायगंजाणित्ता महता रायाभिसेएणं अभिसिंचिहिंति, सेणं तत्थ देवाणुप्पिया समणे भगवं महावीरे महइमहालयंसि संसारंसि राया भविस्सा महया हिमवंतमहंतमलयमंदररायवन्नओ० जाव बहवे जीवे नस्समाणे खज्जमाणे छिज्जमाणे भिजमाणे लुप्पमाणे रज पसाहेमाणे विहरिस्सइ / तए णं तस्स महापउमस्स रनो विलुप्पमाणे उम्मग्गपडिवन्ने सप्पहविप्पणढे मिच्छत्तबलाभिभूए अन्नया कयाइ दो देवा महिड्डिया० जाव महेसक्खा सेणाकम्म अट्ठविहकम्मतमपडलपडोच्छन्ने बहूहिं अटेहि य जाव वागरणेहि कार्हिति / तं जहा-पुन्नभद्दे य माणिभद्दे य / तए णं सयदुवारे नगरे य चाउरंताओ संसारकन्ताराओ साहत्थिं वित्थारेइ, से तेणटेणं बहवे राईसरतलवरमाडंबियकोडुंबियइब्भसेट्ठिसेणावइसत्थदेवाणुप्पिया ! एवं वुचइ-समणे भगवं महावीरे महाधम्मकही। वाहप्पमिईओ अन्नमन्नं सद्दावेहिंति / एवं वइस्संति / जम्हा णं उपा०७ अ०॥ देवाणुप्पिया ! अम्हं महापउमस्स रन्नो दो देवा महिड्डिया० जाव महाधायईरुक्ख पुं० (महाधातकीवृक्ष) घातकीखण्डनामनिबन्धने महेसक्खा सेणाकम कारिति,तंजहा-पुन्नभद्दे यमाणिभद्दे य,तं होउ शाश्वासवृक्षे, स्था०१० ठा० णं अम्हं देवाणुप्पिया ! महापउमस्स रन्नो दुचे वि नामधिज्जे देवसेणे)
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________________ महापउम 196 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 महापउम तए णं तस्स महापउमस्स रन्नो दुच्चे वि नामधिजे भविस्सइ देवसेणे त्ति देवसेणे त्ति। 'एस ण' मित्यादि जस्सीलसमायारो' इत्यादिगाथापर्यन्तं सूत्रं सुगम चैतन्नवरम्, एषोऽनन्तरोक्तः 'आर्या' इति श्रमणामन्त्रणम्। (भिभित्ति) ढक्का सा सारा यस्यसतथा। किलतेन कुलभारत्वे प्रदीपनके जयढक्का गेहान्निष्काशिता, ततः पित्रा भिम्भिसार उक्त इति। सीमन्तके नरकेन्द्रके प्रथनप्रस्तट वर्तिनि चतुरशीतिवर्णसहस्त्रस्थितिषु नारकेषु मध्ये | नारकत्वेनोत्पत्स्यते, कालः स्वरूपेण, कालावभासः काल एवावभासते पश्यना यावत्करणात् (गंभीरलोमहरिसे) गम्भीरो महान् लोमहर्षो / भयविकारो यस्य स तथा / भीमो विकरालः / (उत्तासणओ) उद्वेगजनकः / (परमकिण्हे वन्नेणं ति) प्रतीतम्, स च तत्र नरके वेदना वेदयिष्यति, उज्ज्वलां विपक्षस्य लेशेनाप्यकलङ्किता, यावत्करणात् श्रीणि मनोवाक्वायलक्षणानि उपरिमध्यमाधस्तनकायविभागत्वात्. तुलपति-जयतीति, त्रितुला तां, कृचिद्विपुलामिति पाठः, तत्र विपुलाशरीरव्यापिनी ताम्, तथा प्रगाढां प्रकर्षवतीं , कटुकाकटुकरसोत्पादिकाम, कर्कशा-कर्कशस्पर्शसंपादिकाम्। अथवा कटुकद्रव्यमिव कटुकामनिष्टाम, एवं कर्कशामपि, चण्डां-वेगवतीं झटित्येव मूर्चीत्वपादिकाम्, वेदना हि द्विधा, सुखा दुःखा चेति। सुखव्यवच्छेदार्थ दुःखामित्याह। दुर्गा-पर्वतादिदुर्गमिव कथमपिलवयितुमशक्यां, दिव्या-देवनिर्मिताम्, किंबहुना दुरधिसहा-सोढुमशक्यामिति। इहैव जम्बूद्वीपेनासंख्येयतमे। पुमत्ताए त्ति) पुस्तया / (पचायाहिइत्ति) प्रत्याजनिष्यते. (बहूपडिपुन्ना ति) अतिपरिपूर्णानाम्, अर्द्धमष्टमं येषु तान्यष्टिमानि तेषु / रात्रिन्दिवेषु-अहोरात्रेषु व्यतिक्रान्तेषु, इह षष्ठी सप्तम्यर्थ, सुकुमारीकोनलो पाणी च पादौ च यस्य स सुकुमारपाणिपादस्तम्, प्रतिपूर्णानि स्वकीयस्वकीयप्रमाणतः, प्रतिपुण्यानि वा पवित्राणि पञ्च इन्द्रियाणिकरणानि यस्मिस्तत्तथा / अहीनम् - अङ्गोपाङ्गप्रमाणतः प्रतिपूर्णपश्शेन्द्रिय प्रतिपुण्यपश्चेन्द्रिय वा शरीरं यस्य सः अहीनप्रतिपूर्णपक्षेन्द्रियशरीरः, अहीनप्रतिपुण्यपञ्चेन्द्रियशरीरो वा तम्, तथा-लक्षण-पुरुषलक्षण शास्त्राभिहितम्, 'अस्थिष्वर्थाः सुखं मांस' इत्यादि, मानोन्मागादिक, व्यञ्जन मषतिलकादि, गुणाः सौभाग्यादयः, अथवा लक्षणव्यजनयोर्ये गुणास्तैरुपेतो लक्षणव्यञ्जनगुणोपेतः, 'उववेओ त्ति।' तु प्राकृतत्वावणागमतः, अथवा-उप-अपेत इति स्थिते शकन्ध्वादिदर्शनादकारलोष इत्युपपेत इति, लक्षणव्यञ्जनगुणोपपेतस्तम्। (दशवैकालिके चतुर्थाऽध्ययने) लक्षणव्यञ्जनस्वरूपमिदमुक्तम् - भाणुम्माणयमाणा-दिलक्खण वजणं तु मसगाई। सहजच लक्खण व-जण तु पच्छा समुप्पन्नं // 36 // इति। लक्षणमेवाधिकृत्य विशेषणान्तरमाह-'माणुम्माणे त्यादि, तत्र-मानजलद्रोणप्रमाणता, सा ह्येवं-जलभृतेकुण्डे प्रमातव्यपुरुष उपवेश्यते, ततो यजल कुण्डान्निर्गच्छति तद्यदि द्रोणप्रमाणं भवति तदा स पुरुषः मानोपपन्न इत्युच्यते, उन्मानं-तुलारोपितस्यार्द्धभारप्रमाणता, प्रमाणम्- आत्माङलेनाष्टोत्तरशताङ्गुलोच्छ्रयता। उक्तं च जलदोण 1 मद्धभार 2, समुहाई समुस्सिओ वजो नवउ 31 माणुम्मणपमाण, तिविहं खलु लक्खणं एवं / / 37 / / इति / ततश्च मानोन्मानप्रमाणेः प्रतिपूर्णानिसुष्टु जातानि सर्वाण्यङ्गानिशिरः प्रभृतीनि यस्मिस्तत्, तथाविध सुन्दरमङ्ग शरीरं यस्य स तथा तं मानोन्मानप्रमाणप्रतिपूर्णसुजातसर्वाङ्गसुन्दराड्रम्, तथा शशिवत्सौम्याकारं, कान्तंकमनीयं, प्रियं-प्रेमावह दर्शनं यस्य स शशिसौम्याकारकान्तप्रियदर्शनस्तम। अत एव सुरूपमितिदारक प्रजनिष्यति भद्रेति सम्बन्धः। ('ज रयणिं च' त्ति) यस्यां च रजन्या (तं रयणिं च त्ति) तस्यां रजन्यां, पुनरिति, अर्द्धरात्र एव तीर्थकरोत्पत्तिरिति रजनीग्रहणम्, (से दारए पयाहिइ ति) दारकः प्रजनिष्यते उत्पत्स्यत इति, (सभितरबाहिरए त्ति) सहाभ्यन्तरेण बाह्यकेन च नगरभागेन यन्नगरं तत्र, सर्वत्र नगर इत्यर्थः / विंशत्या पलशतैर्भारो भवति। अथवा-पुरुषोत्क्षेपणीयो भारो भारक इति, यः-प्रसिद्धः, अग्र-परिमाणं, ततो भार एवाग्रं भाराग्रं तेन भाराग्रेण, भाराग्रशोभारपरिमाणतः, एवं कुम्भाग्रशो, नवरम्- कुम्भ - आढकषष्ट्यादिप्रमाणतः, पद्मवर्षश्च रत्नवर्षश्च वर्षिष्यति भविष्यतीत्यर्थः, 'जाव' त्ति, करणात् 'निव्वत्ते असुइजाइकम्मकरणे संपन्ने' त्ति, दृश्यं तत्र 'निर्वृत्ते' निर्वर्तित इत्यर्थः / पाठान्तरतः 'निवत्ते' वा निवृत्तेउपरते, अशुचीनाममेध्याना, जातकर्मणां-प्रसवव्यापाराणा, करणेविधाने, सम्प्राप्ते-आगते, (वारसाहदिवसे ति) द्वादशानां पूरणो द्वादशः, स एवाख्या यस्य स द्वादशारख्यः, स चासौ दिवसश्चेति विग्रहः / अथवा-द्वादश चतदहश्च द्वादशाहस्तन्नामको दिवसो द्वादशाहदिवस इति, (अयं ति) इद वक्ष्यमाणतया प्रत्यक्षसन्नं (एयारूवं ति) एत देव रूपस्वभावो यस्य न मात्रयाऽपि प्रकारान्तरापन्नमित्यर्थः किं तन्नामधेयंप्रशस्त नाम, किंविध गौण न पारिभाषिकम्, गौणमित्यमुख्यमपि स्थादित्याह-(गुणनिष्फण्णं ति) गुणानिश्रित्य पद्मवर्षादिनिष्पन्न गुणनिष्पन्नमित्यक्षरघटना (महापउमे त्ति) तत्पित्रोः पर्यालोचनाभिलापानुकरणम्, (लए ण ति) पर्यालोचनानन्तरम, (महापउम इति) महापद्म इत्येवं रूपम् / (साइरेगट्ठवासजायगं ति) सातिरेकाणि साधिकान्यष्टी वर्षाणि जातानि यस्य स तथा तम्, (रायवण्णओ त्ति) राजवर्णको वक्तव्यः / सचायम्- (महता हिमवंतमहंतमलयमंदरमहिंदसारे) महता गुणसमूहेनान्तर्भूतभावप्रत्ययत्वाद्वा महत्तया हिमवांश्च वर्ष धरपर्वतविशेषो महाश्चासौ मलयश्च विन्ध्य इति चूर्णिकारः, महामलयः स च मन्दरश्च मेरुमहेन्द्रश्च शक्रादिस्ते इव सारः प्रधानो यः स तथा / (अचंतविसुद्धदीहरायकुलवंसप्पसूए) अत्यन्तविशुद्धः सर्वथा निर्दोषः दीर्घश्च पुरुषपरम्परापेक्षया यो राज्ञा भूपालाना कुललक्षणो वंशः सन्तानस्तत्र प्रसूतोजातो यः सतथा। (निरन्तरायलक्खणविराइयंगुवगो) नैरन्तर्येण राजलक्षणैश्चक्रस्वस्तिकादिभिर्विराजितान्यङ्गानि शिरःप्रभृतीन्युपाङ्गानि च अडल्यादीनि यस्य स तथा। (बहुजणबहुमाणपूइए सव्वगुणसमि-द्धे खत्तिए समुदिए त्ति) प्रतीतम्। (मुद्धाभिसित्ते) पितृपितामहादिभिर्मूर्धन्यभिषिक्तो यः स तथा। (माउपिउसुजाए) सुपुत्रो विनीतत्वादेनेत्यर्थः / (दयप्पत्ते) दयाप्राप्तो, दयाकारीत्यर्थः। (सीमंकरे) मर्यादाकारी। (सी)
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________________ महापउम 200 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 महापउम मंधरे) मर्यादा पूर्वपुरुषकृतां धारयति नाऽऽत्मनाऽपि लोपयति यः स तथा (खेमकरे) नोपद्रवकारी। (खेमंधरे) क्षेमं धारयत्यन्यकृतमिति यः स तथा। (माणुस्सिदे जणवयपिया) लोकपिता वत्सत्वात्। (जणवयपुरोहिए) जनपदस्य पुरोधाः-पुरोहितः शान्तिकारीत्यर्थः / (सेउकरे) सेतुं मार्गमापद्तानां निस्तरणोपायं करोति यः स तथा / (केउकरे) चिह्नकरः अद्भतकारित्वादिति / (नरपवरे) नरैः प्रवरो नरा वा प्रवरा यस्य स तथा / (पुरिसवरे त्ति) पुरुषप्रधानः / (पुरिससीहे) शौर्याद्यधिकतया / (पुरिआसीविसे) शापसमर्थत्वात् / (पुरिसपुरिपुंडरिए) पूज्यत्वात्सेव्यत्वाच (पुरिसवरगंधहत्थी) शेषराजगजविजयित्वात् (अड्डे) धनेश्वरत्वात्, (दित्ते) दर्पत्वात्, (वित्ते) प्रसिद्धत्वात्. (वस्थिण्णविधुलभपवणसयणासणजाणवाहणाइण्णे) पूर्ववत् / (बहुधणबहुजायसवरयए) (आओगपओगसंपउत्ते) आयोगप्रयोगा द्रव्योपार्जनोपायविशेषाः संप्रयुक्ताः प्रवर्त्तिता येन स तथा। (विच्छड्डियपउरभत्तपाणे) (बहुदासीदासगोमहिसगवेलगप्पभूए पडिपुण्णजंतकोसकोट्ठागारायुहागारे यन्त्राणि-जलयन्त्रादीनि, कोशःश्रीगृह, कोष्ठागारंधान्यागारम्, आयुधागार-प्रहरणकोशः (बलवं) हस्त्यादिसैन्ययुक्तः (दुब्बलयचाभिन) अबलप्रातिवेशिकराजः। (ओहयकंटयं निहयकंटयं मलियकंटयं उद्धियकटयं अकंटय एवं ओहयसत्तुं) उपहता राज्यापहारात्, निहतामारणात, मलिता-मानभञ्जनाद, उद्धता देशनिष्काशनात्कण्टका दायादा यत्र राज्ये तत्तथा, अतएव अकण्टकम, एवं शत्रवोऽपि, न्वरं शत्रवस्तेभ्योऽन्ये (पराइयसत्तुं) विजयवत्त्वादिति (ववगयदुभिक्खमारिभयविप्पमुक्कं खेम सिवं सुभिवखं पसंतडिंबडमर) डिम्बानिविध्ना, डमराणि-कुमाराद्युत्थानादीनि। (रखं पसासेमाणे ति) पालयन्, (विहरिस्सइ ति) 'दो देव महिड्डिया' इत्यत्र यावत्करणात् ''महज्जुझ्या महानुभागामहायसा महाबला'' इति दृश्यम् (सेणाकम्मति)। सेनायाःसैन्यस्य कर्मव्यापारः शत्रुसाधनलक्षणः, सेनाविषयं वा कर्म इतिकर्तव्यतालक्षणं सेनाकर्म / पूर्णभद्रश्च दक्षिणयक्षनिकायेन्द्रो, माणिभद्रश्चोत्तरयक्षनिकायेन्द्रः, (बहवे राईसरेत्यादि) राजामहामाण्डलिकः, ईश्वरो युवराजो माण्डलिकोऽमात्यो वा। अन्ये तु व्याचक्षते-अणिमाद्यष्टविधैश्वर्ययुक्त ईश्वर इति, तलवरः-परितुष्टनरपतिप्रदत्त पट्टबन्धभूषितो, माडम्बिकश्छिन्नमडम्बाधिपः, कोटुम्बिकः कतिपयकुटुम्बप्रभुः, इभ्योऽर्थवान्, स च किल यदीयपुजीकृतद्रव्यराश्यन्तरितो हस्त्यपि नोपलभ्यत इत्येलावताऽर्थेनति भावः / श्रेष्ठी-श्रीदेवताध्यासितसौवर्णपट्टभू-षितोत्तमाइः, पुरज्येष्ठा वणिक् सेनापतिः नुपतिनिरूपितो हस्त्यश्वरथपदातिसमुदायलक्षणायाः सेनायाः प्रभुरित्यर्थः, सार्थवाहः-सार्थनायकः, एतेषां द्वन्द्वः, ततश्च राजादयः प्रभृतिरादिर्येषां ते तथा, (देवसेणे त्ति) देवावेव सेना यरय, देवाधिष्ठिता वा रोना यस्य देवसेन इति / (देवसेणातीति) देवसेन इत्येवं रूपम्। तएणं तस्स देवसेणस्स रन्नो अन्नया कयाइ-सेयसंखतलविमलसन्निकासे चउदंते हत्थिरयणे समुप्पजिहिति / तए णं से | देवसेणे राया तं सेयं संखतलविमलसन्निकासं चउदंतहत्यिरयणं दुरूढे समाणे सयदुवारं नगरं मज्झं मज्झेणं अभिक्खणं 2 अतिजाहि पणिजहि य, तए णं सयदुवारे नगरे बहवे राईसरतलवर जाव अन्नमन्नं सद्दाविहिति सद्दाविहित्ता एवं वइस्संति-जम्हा णं देवाणुप्पिया ! अम्हं देवसेणस्स रण्णो सेतसंखतलविमलसन्निकासे चउदंते हत्थिरयणे समुप्पन्ने य, तं होउ णं अम्हं देवाणुप्पिया ! देवसेणस्स रण्णो तचे वि नामधिज्जे विमलवाहणे, तए णं तस्स देवसेणस्स रण्णो तचे वि नामधिजे भविस्सइ विमलवाहणे / तए णं से विमलवाहणे राया तीसं वासाई अगारवासमज्झे वसित्ता अम्मपीईहिं देवत्तगएहिं गुरुमहत्तरेहिं अब्मणुन्नाए समाणे उदुमि सरए संबुद्धे अणुत्तरे मोक्खमगे, पुणरवि लोगंतिएहिं जीयकप्पिएहिं देवेहिं ताहिं इट्ठाहिं कं ताहिं पियाहिं मणुनाहिं मणामाहिं ओरालाहिं कल्लाणाहिं धन्नाहिं सिवाहिं मंगल्लाहिं सस्सिरीआहिं वग्गूहिं अभिणंदिज्जमाणे अमिथुवमाणे य बहिया सुभूमिमागे उज्जाण एणं देवदूसमादाय मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वयाहिति, तस्स गं भगवंतस्स साइरेगाई दुवालसवासाइं निचं वोसट्ठकाए वियत्तदेहे जे केइ उवसग्गा उप्पजति (तं जहा-दिव्वा वा माणुस्सा वा तिरिक्खजोणिया वा) ते उप्पन्ने संमं सहिस्सइ खमिस्सह तितिक्खिस्सइ अहियासिस्सइ, तए णं से भगवं इरियासमिए भासासमिए० जाव गुत्तबंभयारी अममे अकिंचणे छिन्नग्गंथे निरुवलेवे कंसपाईव मुक्कतोए जहा भावणाए० जाव सुहुयहुयासणेत्ति वा तेयसा जलंते। कंसे संखे जीवे, गगणे वाते य सारए सलिले। पुक्खरपत्ते कुंभे, विहगे खग्गे य भारं (5)डे ||1|| कुंजरवसहे सीहे, नगराया चेव सागरमखोभे। चंदे सूरे कणगे, वसुंधराचेव सुहुयहु(य)ए।॥२॥ नत्थि णं तस्स भगवंतस्स कत्थइ पडिबंधे भवइ, से य पडिबंधे चउविहे पण्णत्ते / तं जहा-अंडएइ वा पोयएइ वा उग्गहेइ वा पम्गहिएइवा,जंणं जंणं दिसंइच्छइ तंणंतंणं दि, सं अपडिबद्धे सुचिभूए लहुभूए अणुप्पगंथे संजमेणं अप्पाणं भावेमाणे विहरिस्सइ / तस्स णं भगवंतस्स अणुत्तरेणं नाणेणं अणुत्तरेणं दंसणेणं अणुवचरिएणं, एवं-आलएणं विहारेणं अजवे मद्दवे लाघवे खंती मुत्ती गुत्ती सव्वसंजमतवगुणसुचरियसोवचियफलपरिनिव्वाणमग्गेणं अप्पाणं भावेमाणस्स झाणंतरियाए वट्टमाणस्स अणंते अणुत्तरे निव्वाघाए० जाव के वलवरनाण-दंसणे समुप्पजिहिंति। तए णं से भगवं अरहा जिणे भविस्सइ, केवली सव्वण्णू सव्वदरिसी सदेवमणुयासुरस्सलोगस्स परियागं जाणइ, पासइसव्वलोए सव्वजीवाणं आगइंगतिं ठियं चयणं उववायं तक १-पुस्तकान्तरे नास्त्यऽयं पाठः।
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________________ महापउम 201 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 महापउम मणोमाणसियं भुत्तं कडं परिसेवियं आवीकम्मं, रहोकम्मं अरहा अरहस्स भागी तं तं कालं मणसवयसकाइए जोगे वट्टमाणाणं सव्वलोए सव्वजीवाणं सध्वभावे जाणमाणे पासमाणे विहरइ।। तए णं से भगवं तेणं अणुत्तरेणं केवलवरनाणदंसणेणं सदेवमणुयासुरलोगसभिसमिच्चा, समणाणं निगंथाणं (जे केइ उवसग्ग्गा उप्पजंति, तं जहा-दिव्वा वा माणुया वा तिरिक्खजेणिया वा ते उप्पन्ने संमं सहिस्सइ, खमिस्सइ, तितिक्खिस्सइ, अहियासिस्सइ / तते णं से भगवं अणगारे भविस्सति, इरियासमिते भासा० एवं जहा-वद्धमाणसामी तं चेव निरवसेसं० जाव अव्वावारविउसजोगजुत्ते, तस्स णं भगवंतस्स एतेणं विहारेणं विहरमाणस्स दुवासहिं संवच्छरेहिं वीतिकंतेहिं तेरसहि य पक्खेहि तेरसमस्स णं संवच्छरस्स अंतरा वट्टमाणस्स अणुत्तरेणं णाणेणं जहा भावणाते केवलवरनाणदंसणे समुप्पञ्जिहिंति, जिणे भविस्सति, केवली सव्वन्नू सव्वदरिसी स णेरइए० जाव) पंच महव्वयाई सभावणाई छच जीवनिकाए धम्म देसमाणे विहरिस्सइ। (सेतेत्यादि) श्रेयान् अतिप्रशस्यः श्वेतो वा, कीदृगित्याह-शङ्खतलेन कम्बुरूपेण, विमलेन-पङ्कादिरहितेन, सन्निकाशः सङ्काशः सदृशो यः स शङ्खातलविमलसनिकाशः / (दुरूढे त्ति) आरूढः (समाणे त्ति) सन् अतियास्यति-प्रवेक्ष्यति, निर्यास्यति-निर्गमिष्यतीति क्वचिद्वर्तमाननिर्देशो दृश्यते, स च तत्कालापेक्ष इति। एवं सर्वत्र, (गुरुमहत्तरएहि ति) गुर्वोमातापित्रोमहत्तराः पूज्याः / अथवा-गौरवाहत्येन गुरवो महत्तराश्च वयसा वृद्धतवाद्ये ते गुरुमहत्तराः / (पुणरवि त्ति) महत्तराभ्यनुज्ञातानन्तरं लोकान्ते लोकाग्रलक्षणे सिद्धस्थाने भवा लौकान्तिकाः, भाविनि भूतवदुपचारन्यायेन चैवं व्यपदेशः, अन्यथा-ते कृष्णाराजीमध्यवासिनो लोकान्तभावित्वं च तेषामनन्तरभव एव सिद्धिगमनादिति। जीतकल्पःआचरिवकल्पो जिनप्रतिबोधनलक्षणो विद्यते येषां ते जीतकल्पिकाः / आचरितमेव तेषामिदं न तु तैस्तीर्थकरः प्रतिबोध्यते स्वयं बुद्धत्वाद्भगवत इति / (ताहिं ति) ताभिर्विवक्षिताभिः, (वगूहिं ति) वाग्भिर्यकांभिरानन्द उत्पाद्यत इति भावः / इष्टाभिरिष्यन्ते स्म याः, कान्ताभिः कमनीयाभिः, प्रियाभिः प्रेमोत्पादिकाभिः, विरूपा अपि कारणवशात्प्रिया भवन्तीत्यत उच्यते-मनोज्ञाभिः शुभस्वरूपाभिः मनोज्ञा अपि शब्दतोऽर्थतो न हृदयगमा भवन्तीत्यत आह (मणामाहिं ति) मनः अमन्ति गच्छन्ति वास्तास्तथा, ताभिरुदारेणोदात्तेन स्वरेण प्रयुक्तत्वादर्थेन वा युक्तत्वादुदाराभिः, कल्यमारोग्यम्, अणन्तिशब्दयन्तीति कल्याणास्ताभिः, शिवस्योपद्रवाभावस्य सूचकत्वात् शिवाभिः, धनं लभन्ते धने वा साध्वयो धन्यास्ताभिः, मङ्गल्यास्ताभिः, सह श्रिया वचनार्थशोभया यास्ताः सश्रीकास्ताभिर्वारिभरिति संबन्धनीयम्, अभिनन्द्यमानः समुल्लास्यमानः, (बहिय त्ति) नगरादहिस्तादिति, इतो वाचनान्तरमनुश्रित्य लिख्यते। (साइरेगाइं ति)। अर्द्धसप्तमैर्मासैादश वर्षाणि यावत् व्युत्सृष्टे काये परिकर्मवर्जनतस्त्यक्ते देहे परीषहादिसहनतः, तथा सहिष्यति उत्पत्स्यमानेषूपसर्गेषु, तथा भावतः क्षमिष्यत्युत्पन्नेषु क्रोधाभावतः, तितिक्षिष्यति दैनयाभावतः, अध्यासिष्यते अविचलतयेति, "जाव गुत्ते त्ति'' करणादिदं दृश्यम्-"एसणासमिए आयाणभंडमत्त-निक्खेवणासमिए / भाण्डमात्राया आदाने निक्षेपे च समित इत्यर्थः। (उच्चारपासवणखेलसिंघाणजल्लपारिट्ठावणासमिए) खेलोनिष्ठीवन, सिङ्घाणो नासिकाश्लेष्मा, जल्लो-मलः, (मणगुत्ते वयगुत्ते कायगुत्ते गुत्ते) त्रिगुप्तत्वात्, गुप्तात्मेत्यर्थः / (गुति दिए) स्वविषयेषु रागादिनेन्द्रियाणामप्रवृत्तेः, (गुत्तबंभचारी) गुप्त नवभिर्ब्रहाचर्यगुप्तिभिः रक्षितं ब्रहा मैथुनविरमणं चरतीति विग्रहस्तथा-(अममे) अविद्यमानममेत्यभिलापो निरभिष्वङ्गत्वात्। (अकिंचणे)। नास्ति किंचन द्रव्यं यस्य सतथा। (छिन्नग्गथे) छिन्नो ग्रन्थो धनधान्यादिस्तत्प्रतिबन्धो वा येन स तथा। कचित् 'किन्नग्गथे' इति पाठः। तत्र-कीर्णः क्षिप्तः। (निरुवलेवे) द्रव्यतो निर्मलदेहत्वाद्भावतो बन्धहेत्वभावान्निर्गत उपलेपो यस्मादिति निरुपलेपः, एतदेवोपमानैरभिधीयते। (कंसपातीवमुक्कतोए)। कांस्यपात्रीव कांस्यभाजनविशेष इव मुक्तं त्यक्तं न लग्नमित्यर्थः तोयमिव बन्धहेतुत्वात्तोयं स्नेहो येन स मुक्त तोयः, यथा भावनायामाचाराङ्गद्वितीयश्रुतस्कन्धपञ्चदशाध्ययने तथाऽयं वर्णको वाच्य इति भावः / कियद् दूरं यावदित्याह-(जाव सुहुए इत्यादि) सुष्टु हुतं क्षिप्त घृतादीति गम्यते, यस्मिन् स सुहुतः स चासौ हुताशनश्च वहिरिति सुहुतहुताशनस्तद्वत्तेजसा ज्ञानरूपेण तपोरूपेण वा ज्वलन्दीप्यमानः। अतिदिष्टपदानां संग्रह गाथाभ्यामाह-''कंसे'' गाहा। 'कुंजर' गाहा / (कसे त्ति) कसपा इव (मुक्कतोये) (सखे ति) (शेखे इव निरंगणं) रङ्गणं रागाद्युपरञ्जन तरमान्निर्गत इत्यर्थः / (जीवे त्ति) जीव इव / (अप्पडिहयगई) संयमे इतिः प्रवृत्तिर्न हन्यतेऽस्य कथंचिदिति भावः / (गगणे त्ति) गगनमिव निरालम्बनो न कुलग्रामाद्यालम्बन इति भावः / (वाये यत्ति) वायु रिव (अप्पडिबद्धो) ग्रामादिष्वेकरात्रादिवासात् / (सायरसालले व त्ति) (सायरसलिलं व सुद्धहियये) अकलुषमनस्त्वात् / (पुक्खरपत्ते त्ति) (पुक्खरपत्तं पि व निरुवलेवे) प्रतीतम्। (कुम्मो इव गुत्तिदिए) कच्छपो हि कदाचिदवयवपञ्चकेन गुप्तो भक्त्येवमसावपीन्द्रियपञ्चकेनेति। (विहगे त्ति) विहग इव। (विप्पमुक्के) मुक्तपरिच्छदत्वादनियतवासाचेति। (खग्गे यत्ति) (खग्गिविसाणं वएगजाए) खड्ग आटव्यो जीवविशेषस्तस्य विषाणं शृङ्गं तदेकमेव भवति, तद्वदेकजात एकभूतो रागादिसहायवैकल्यादिति। (भारुडेत्ति) भारुण्डपक्षीव। (अप्पमत्ते) भारुण्डपक्षिणोः किल एकं शरीरं पृथग्ग्रीवं त्रिपादं च भवति, तौ चात्यन्तमप्रमत्ततयैव लभेते इति। तेनापति ||1|| (कुंजरे त्ति) कुञ्जर इव सोण्डीरे हस्तीव शूरः कषायादिरिपून् प्रति। (वहहे त्ति) (वसभे इव जायथामे) गौरियोत्पन्नबलः प्रतिज्ञातवस्तु
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________________ महापउम 202 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 महापउम भरनिर्वाहक इत्यर्थः / (सीहे त्ति) (सीहो इव दुद्धरिसे) परीषहादि- तृतीयमप्राप्तस्येत्यर्थः। अनन्तमनन्तविषयत्वाद, अनुत्तरं सर्वोत्तमत्वात, भिरनभिभवनीय इत्यर्थः / (नगराया चेव त्ति मंदरो इव अप्पकपे) नियाघातं धरणीधरादिभिरप्रतिहतत्वात्, निरावरण सर्वावरणापगमात, मेरुरिवानुकूलाद्युपसगैरविचलितसत्त्वः। (सागरमखोहि त्ति) मकारोऽ- कृत्स्न सर्वार्थविषयत्वात्, प्रतिपूर्ण स्वरूपतः पौर्णमासीचन्द्रवत्, लाक्षणिकः / सागरवदक्षोभः सागराक्षोभ इति, सूत्रसूचा सूत्रं च-सागरो केवलमसहायम्, अत एव वरं, ज्ञानदर्शनं प्रतीतम्, केवलवरज्ञानइव गम्भीरे हर्षशोकादिभिरक्षोभितत्वादिति / (चंदे त्ति) (चंदे इव दर्शनमिति / (अरह त्ति) अर्हन् अष्टविधमहाप्रातिहार्यरूपपूजायोगात्, सोमलेसे) अनुपतापकारिपरिणामः / (सूरे त्ति) (सूरे इवदित्ततेए) जिनो रागादिजेतृत्वात्, केवली परिपूर्णज्ञानादित्रययोगात्, सर्वज्ञः दीप्ततेजा द्रव्यतः शरीरदीप्तया, भावतो ज्ञानेन। (कणगे ति) (जच्चकणगं सर्वविशेषार्थबोधात्, सर्वदर्शी सकलसामान्यार्थावबोधात्ततश्च सह पिव जायसवे) जातं लब्धं रूपं स्वरूप रागादिकुद्रव्यविरहाद्येन स तथा / देवश्च वैमानिकज्योतिष्कलक्षणैर्मय॑श्च मनुजैरसुरैश्च भपवनपतिथ्य(वसुंधराचेवत्ति)। वसुन्धरा इव। (सव्वफासविसहे) स्पर्शाः शीतोष्णा- न्तरलक्षणैर्यः स, सदेवमासुरस्तस्य लोकः पञ्चास्तिकायात्मकस्तस्य। दयोऽनुकूलेतराः। (सुहयहुय त्ति)। व्याख्यातमेवेति। (नत्थीत्यादि) (परियाग ति) जातावेकवचनमिति, पर्यायान् विचित्रपरिणामान् / नास्ति तस्य भगवतो महापद्मस्यायं पक्षो यदुत कुत्रापि प्रतिबन्धः स्नेहो (जाणइ पासइ त्ति) ज्ञास्यति द्रक्ष्यति चेत्यर्थः / एतच्च देवादिग्रहणं भविष्यतीति। (अंडए इव त्ति)। अण्डजो हंसादिर्ममायमित्युल्लेखेन वा प्रधानापेक्ष्यमन्यथा सर्वजीवानां सर्वपर्यायान् ज्ञास्यति, अत एवाहप्रतिबन्धो भवति / अथवा-अण्डक मयूर्यादीनामिदं रमणकं मयूरादेः (सव्वलोए इत्यादि) (चयणं ति) वैमानिकज्योतिष्कमरणम् / उपपातं कारणमिति प्रतिबन्धः स्यादिति / अथवा-अण्डज पटूत्रजमिति वा, नारकदेवाना जन्म, तर्क विमर्श, मनश्चित्त, मनसि भवं मानसिकं, पोतजो-हस्त्यादिरयमिति वा प्रतिबन्धः स्यात्। अथवा-पोतको बालक चिन्तितं वस्तु, भुक्तमोदनादि, कृतं घटादि, प्रतिषेवितम्- आसेवितं इति वा। अथवा-पोतकं वस्त्रमिति वा प्रतिबन्धः स्यात्। आहारेऽपि च प्राणिवधादि, आविष्कर्मप्रकटक्रियां, रहःकर्मविजनव्यापार, ज्ञास्यविशुद्धे सरागसंयमवतः प्रतिबन्धः स्यादिति दर्शयति-(उग्गहिए वत्ति) तीत्यनुवर्तते। तथा-अरहा, न विद्यते रहो विजयं यस्य सर्वज्ञत्वादसाअवगृहीतं परिवेषणार्थमुत्पाटितं, प्रगृहीतं भोजनार्थमुत्पाटितमिति / वरहा, अत एव रहस्यस्य प्रच्छन्नस्याभावोऽरहस्यं तद्भजते, इत्वरहस्य - अथवाअवग्रहिकमित्यवग्रहोऽस्यास्तीति। वसतिः पीटफलादिः, औप- भागी,ततकालमाश्रित्येति शेषः / सप्तमी वेयमतस्तरिंमस्तस्मिन् काले ग्रहिक वा दण्डकादिकमुपधिजातम्, तथा-प्रकर्षेण ग्रहोऽस्येति प्रग्रहि- इत्यर्थः, (मनसवयसकाइए त्ति) मानसश्च वाचसश्च कायिश्च कम, औधिकमुपकरणं पात्रादीति / अथवाअण्डजे वा पोतजे वेत्यादि मानसवाचसकायिक तत्र, योगे-व्यापारे, हस्वत्वं च प्राकृतत्वादिति, व्याख्येयम्- इकारस्त्वागमिक इति / (जज ति) यां यां दिशं, णमिति वर्तमानानाम्- व्यवस्थितानां, सर्वभावान् - सर्वपरिणामान् जानन् वाक्यालङ्कारे, तुशब्दो वाऽयं तदर्थ एव इच्छति तदा विहर्तुमिति शेषः, पश्यन्विहरिष्यति। (अभिसमेच त्ति) अभिसमेत्य अवगम्य। (सभावणाइ ता तां दिश बिहरिष्यतीति सम्बन्धः, सप्तम्यर्थ चेयं द्वितीया, तस्यां ति) सह भावनाभिः प्रतिव्रतं पञ्चभिरियासमित्यादिभिर्यानि तानि तस्यामित्यर्थः / शुचिभूतो भावशुद्धितो लघुभूतोऽनुपधित्वेन गौरव- सभावनानि तासां च स्वरूपमावश्यकान् मन्तव्यं षट् च जीवनिकायान् त्यागेन च, (अणुप्पगंथेत्ति) अनुरूपतया औचित्येन विरतेन त्वपुण्यो- रक्षणीयतया, (धम्मं ति) एवंरूपं चारित्रात्मकं, सुगतौ जीवस्य, दयादणुरपि वा सूक्ष्मोऽप्यल्पोऽपि प्रगतो ग्रन्थो धनादिर्यस्य यस्माद्वाऽ- धरणाद्धम॑ श्रुतधर्म च देशयन् प्ररूपयन्निति / अथ महापद्मस्यात्मनश्च सावनुप्रग्रन्थोऽपेर्वृत्त्यन्तर्भूततवादणुप्रग्रन्थो वा / अथवा-(अणुप्पत्ति) / सर्वज्ञत्वात्सर्वज्ञयोश्च मताभेदात्, भेदे चैकस्याऽयथावस्तुदर्शननाअनोऽनर्पणीयोऽढौकनीयः परेषामाध्यात्मिकत्वात्, ग्रन्थवद्, द्रव्यवत् ऽसर्वज्ञताप्रसङ्गादित्युभयोर्भगवान् समा वस्तुप्ररूपणां दर्शयन्नाहग्रन्थो ज्ञानादिर्यस्य सोऽनर्यग्रन्थ इति। (भावेमाणे त्ति) वासयन्नित्यर्थः / से जहानामए अज्जो ! मए समणाणं निग्गंथाणं एगे आरम्भट्ठाणे (अणुत्तरेणं ति) नास्त्युत्तर प्रधानमस्यादिति अनुत्तरस्तेन। (एवमिति) पण्णत्ते / एवामेव महापउमे वि अरहा समणाणं निग्गंथाणं एग (अणुत्तरेण ति) विशेषणमुत्तरत्रापि संबन्धनीयमित्यर्थः / आलयेन वसत्या आरम्भट्ठाणं पन्नदेहिंति से जहाना मए अजओ ! मते समणाणं विहारेणैकरात्रादिना, आर्जवादयः क्रमेण मायामानगौरवक्रोधलोभ- निग्गंथाणं दुविहे बंधणे पण्णत्ते! तं जहा-पेजबंधणे दोसबंधणे। निग्रहाः, गुप्तिर्मनः प्रभृतीनां, तथा सत्यं च द्वितीय महाव्रत, संयमश्च एवामेव महापउमे वि अरहा समणाणं निग्गंथाणं दुविहं बंधणं प्रथमं तपोगुणाश्चानशनादयः सुचरितं सुष्टवासेवितम्। (सोयवियं ति) पन्नवेहिति। तं जहा-पेजबंधणं च दोसबंधणंच, से जहानामते प्राकृतत्वात्, शौचं च तृतीय महाव्रतम्, अथवा-(विय त्ति) विच विज्ञान- अञ्जो ! मते समणाणं णिग्गंथाणं तओ दंडा पण्णत्ता, तं जहामिति द्वन्द्वः, ततश्चैतन्येवेता एव वा। (फल ति) फलप्रधानः परिनि- मणदंडे वयदंडे कायदंडे, एवामेव महापउमे वि समणाणं वीणमार्गो नितिनगरीपथः सत्यादिपरिनिर्वाणमार्गस्तेन, ध्यानयोः निग्गंथाणं तओ दंडे पण्णवेहिंति, तं जहा-मणोदंडं कायदंड शुक्लध्यानद्वितीयतृतीयभेदलक्षणयोरन्तर मध्यं ध्यानान्तरं तदेव वयदंडं, से जहानामए एएणं अमिलावेणं चत्तारि कसाया ध्यानान्तरिका, तस्या वर्तमानस्य शुक्लस्य द्वितीयतेदादुत्तीर्णस्य | पण्णत्ता, तं जहा-कोहकसाए माणकसाए मायाकसाए लो
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________________ महापउम 203 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 महापउम हकसाए / पंच कामगुणे पण्णत्ते, तं जहा-सद्दे गंधे रूवे रसे फासे / छ जीवनिकाया पण्णत्ता,तं जहा-पुढवीकाइया० जाव तसकाइया, एवामेव० जाव तसकाइया / सेजहाणामएए एएणं अभिलावेणं सत्त भयट्ठाणा पणत्ता, एवामेव महापउमे वि अरहा समणाणं निग्गंथाणं सत्त भयट्ठाणे पन्नवेहिति / एवमट्ठ मयट्ठाणे, णव बंभचेरगुत्तीओ, दसविहे समणधम्मे, एवं० जाव तेत्तीसमासातणाओ त्ति, से जहानामए अज्जो ! मए समणाणं णिग्गंथाणं नग्गभावे मुंडभावे अण्हाणए अदंतवणे अच्छत्तए अणुवाहणए भूमिसेजा फलगसेज्जा कट्ठसेजा के सलोए बंभचे रवासे परघरप्पवेसे० जाव लद्धावलद्धवित्तीओ० जाव पण्णत्ताओ। एवामेव महापउमे वि अरहा समणाणं णिग्गंथाणं णग्गभावे०जाव लद्धावलद्धवित्तीओ० जाय पन्नवेहिति। (नेजहेत्यादि) (अत्रत्या किञ्चिव्याख्या' आरंभट्टाण' शब्दे द्वितीयभाग 372 पृष्ठे गता इतः शेषमावश्यके प्रायः प्रसिद्धमिति न लिखितम्, तथा फलकम प्रतलम, आयतंकाष्ठम्, स्थूलमायतमेव, लब्धानि च न्मानादिना, अपलब्धानि च न्यक्कारपूर्वकतया, यानि भक्तादीनि / त्वृत्तयो निर्वाहा लब्धापलब्धवृत्तयः। से जहाणामए अजो ! मए समणाणं निग्गंथाणं आहाकम्मिएइ वा उद्देसिएइ वा मीसजाएइ वा अज्झोयरएइ वा पूइए कीए पामिचे अच्छिज्जे अणिसट्टे अमिहडे इ वा कंतारभत्तेइ वा दुभिक्खभत्तेइ वा गिलापणभत्तेइ वा वद्दरियभत्तेइ वा पाहुणगभत्तेइ वा मूलभोयणेइ वा कंदभोयणेइ या फलभोयणेइ वा वीयभोयणेइ वा पडिसिद्धे एवामेव महापउमे वि अरहा समणाणं आहाकम्मियं वा० जाव हरियभोयणं वा पडिसेहिस्सइ, से जहानामए अज्जो ! भए समणाणं पंचमहव्वइए सपडिक्कमणे अचेलए धम्मे पण्णत्ते, एवामेव महापउमे वि अरहा समणाणं निगंथाणं पंचमहव्वइयं० जाव अचेलगं धम्म पन्नवेहिंति, से जहानामए अञ्जो ! मएपंचाणुव्वइए सत्त सिक्खावइएदुवालसविहे सावगधम्मे पण्णत्ते, एवामेव महापउमे वि अरहा पंचाणुव्वइयं जाव सावगधम्म पन्नविस्संति, से जहानामए अज्जो ! मए समणाणं सिज्जायरपिंडेइ वा रायपिंडेइ वा पडिसिद्धे, एवामेव महापउमे वि अरहा समणाणं सिजायरपिंडेइ वा रायपिंडेइ वा पडिसेहिंति / से जहानामए अज्जो ! मए नव गणा इक्कारस गणहरा एवामेव महापउमस्स वि अरहओ नव गणा इक्कारस गणहरा | भविस्संति। से जहानामए अज्जो! अहं तीसं वासाइं अगारवासमज्झे वसित्ता मुंडे भवित्ता जाव पव्वइए दुवालस संवच्छराई तेरस पक्खा छउमत्थपरियागं पाउणित्ता, तेरसहिं पक्खेहिं | ऊणगाई तीसं यासाइं केवलिपरियागं पाउणित्ता, वायालीसं / संवच्छराइं सामनपरियागं पाउणित्ता, वावत्तरिवासाई सच्याउयं पालइत्ता सिज्झिस्सं० जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेस्सं ! एवामेव महापउमे वि अरहा तीसं वासाई अगारवासमज्झे वसित्ता० जाव पव्वहिति, दुवालससंवच्छराइं० जाव वावत्तरि वासाइं सव्वाउयं पालइत्ता सिज्झिहिंति० जाव सव्वदुक्खाणमंतं काहिंति। "जस्सीलसमायारो, अरहा तित्थंकरो महावीरो। तस्सलिसमायारो, होइ उ अरहा महापउमे / / 1 / / " (सूत्र-६६३) (आहाकम्मिएइ त्ति) आधाय आश्रित्य साधून, कर्म सचेतनस्याचेतनीकरणलक्षणा अचेतनस्य वा पाकलक्षणा क्रिया यत्र भक्तादौ तदाधाकर्म, तदेवाधाकर्मिकम् / उक्तं च"सञ्चित्तं जमचित्तं, साहूणहाए कीरए जंच। अचित्तमेव पचइ, आहाकम्मतयं भणियं // 1 // " इति। इह व इकारः सर्वत्रागमिकः, इतिशब्दो वाऽयमुपप्रदर्शनार्थपरो, वा विकल्पार्थः / (उद्देसियं ति) अर्थिनः पाखण्डिनः श्रमणान्निग्रन्थान् वोद्दिश्य दुर्भिक्षात्ययादौ यद्भक्तं वितीर्यते तदौद्देशिकमिति, उद्देशे भवमौद्देशिकम्, इति शब्दार्थः / यद्वा तथैव यदुद्धरितं सद्दध्यादिभिर्विमिश्य दीयते, तापयित्वा वा तदापि तथैवेति / इहाभिहितम् - "उद्दिसिय साहुमाई, ओमच्यभिक्खवियरणं जं च। उद्धरिअंमीसेउ, ततियं उद्देसियं तंतु।।१।।" इति। (मीराजाए व त्ति) गृही संयतार्थमुपस्कृततया मिश्रं जातमुत्पन्नं मिश्रजातम्. यदाह-"पढम वि य गिहिसंजय-मीसं उवक्खडइ मीसगं तंतु" इति / (अज्झोयरए त्ति) स्वार्थमूला ग्रहणे साध्वाद्यर्थ कणप्रक्षेपणमध्यवपूरकः, आह च-"सट्टामूलद्दहणे, अज्झोयर होइ पक्खेवो'' इति / (पइए शि) शुद्धमपि कर्माद्यवयवैरपवित्रीकृत पूतिकम् / उक्त च"कम्मावयवसमेयं, संभाविजइ जयंतु तं पूई।" इति / (कीय ति) द्रव्येण भावेन वा क्रीतं स्वीकृतं यत्तत् क्रीतमिति / यतोऽभ्यधायि "दव्याइएहि किणण, साहूणट्ठाइ कीयं तु'' इति। (पामिच) प्रामित्यक साध्वर्थमुद्धारगृहीतं. यतोऽभिहितम्- "पामि साहूणं, अट्ठाओ च्छिदिउ विया वेइ'' इति। आच्छेद्यंबलात् भृत्यादिसत्कभाच्छिद्य यत् स्वामी साधये ददाति / भणितं च-"अच्छिन वा छिदिय, जं सामी भिचमाईणं" इति / अनिसुष्टं साधारण बहूनामेकादिना अननुज्ञातं दीयमानम् / आह च-"अणिसिह सामन्नं, गोट्ठियमाईण दयउ एगस्स' इति। अभ्याहृत सग्रामादिभ्यः आहृत्य यद्ददाति। यतोऽवाधि-"सग्गामपरग्गामा, जमाणिय अभिहडं तय होइ" इति। एषां शबदार्थः प्रायः प्रकट एवेति, कान्तारभक्तादय आधाकर्मादिभेदा एव। तत्र कान्तारमटवी तत्र भक्त भोजनं यत साध्वाद्यर्थ तत्तथा, एवं शेषाण्यपि, नवरं ग्लानो रोगोपशा
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________________ महापउम 204 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 महापउम न्तये यद्ददाति ग्लानेभ्यो वा यद्दीयते, तथा वईलिका-मेघाडम्बर, तत्र हि वृष्ट्या भिक्षा भ्रमणाक्षमो भिक्षुकलोको भवतीति गृहीतमर्थ विशेषतो भक्तं दानाय निरूपयतीति, प्राघूर्णका आगन्तुकभिक्षुका एव, तदर्थ यद्वक्तं तत्तथा, प्राघूर्णको वा गृही स यद्दापयति तदर्थ संस्कृत्य तत्तथा, मूल पुनर्नवादीनां तस्य भोजनं तदेव वा भोजनं, भुज्यत इति भोजनमिति कृत्वा, कन्दः-सूरणादिः, फलं-वुष्यादि, बीजं-दाडिमादीना, हरितमधुरतृणादिविशेषः, जीववधनिमित्तत्वाच्चैषां प्रतिषेध इति। (पंचमहव्वइए इत्यादि) प्रथमपश्चिमतीर्थकराणां हि पञ्च महाव्रतानि शेषाणां महाविदेहजानां च चत्वारीति पञ्चमहाव्रतिकः / एवं सह प्रतिक्रमणेन उभयसंध्यमावश्यकेन यः स तथा, अन्येषा तु कारणजात एव प्रतिक्रमणमिति, उक्तंच सपडिक्कमणो धम्मो, पुरिमस्सयपच्छिमस्सय जिणस्स। मज्झिमयाण जिणाणं, कारणजाए पडिक्कमणं / / 1 / / इति / तथा अविद्यमानानि जिनकल्पिकविशेषाप्रेक्षया असत्वादेव, स्थाविरकल्पिकापेक्षया तु जीर्णमलिनखण्डितश्वेताल्पत्वादिना, चेलानि-वरन्त्राणि, यस्मिन् स तथा / धर्मश्चारित्रं, न च सति चेले अचेलता न लोके प्रतीता / यत उक्तम्जह जलमवगाहंतो, बहुचेलो वि सिरवेढियकडिल्लो। भन्नइ नरो अचेलो,तह मुणओ संतचेला वि॥१॥ अतः परिसुद्धजुन्नकुच्छिय, थोवाऽनिययण्ण-भोगभोगेहिं। मुणओ मुच्छारहिया, संतेहिँ अचेलया होति।।२।। अनियतैरन्यभोगे च सति भोग्यरित्यर्थः / न च वस्त्रं संसक्तिरागादिनिमित्ततया चारित्रविधातायाऽऽध्यात्मशुद्धः शरीराहारादिवदिति / न हि शरीरात् यूकादिसंसक्तिन भवति रागो वा नोत्पद्यते। उक्तं च - अह कुणसि थुल्लवत्था-इएसु मुच्छंधुवं सरीरे वि। अकेज दुल्लभतरे, काहिसि मुच्छ विसेसेणं / / 1 / / इति। अक्रयणीय इत्यर्थः। अध्यात्मशुद्ध्यभावे अचेलकत्वमपि न चारित्राय, यथोक्तम्अपरिगहाविपरसं-तिएसुमुच्छाकसायदोसेहि। अविणिग्गहियप्पाणो, कम्ममलमणंत मजंति।।१।। इति। अथ जिनोदाहरणादचेलकत्वमेव श्रेय इति न वक्तव्यमेतत्, यतोऽभ्यधायिन परोयएसविसया, न य छउमत्था परोवएसं पि। देंतिन य सीसवर्ग, दिक्खंति जिणा जहा सब्वे // 1 // तह सेसेहिं य सव्वं, कजं जइ तेहि सव्वसाहम्म। एवं च कओ तित्थं,न चेदचेल त्ति को गाहो // 2 / / इति। अपिच उचितचेलसद्भावे चारित्रधर्मो भवत्येव तदुपकारित्वाच्छरीराहारादिवदिति, अथ कथं चेलस्य चारित्रोपकारितेति चेत् ? उच्यतेशीतादित्राणतो जीवसंसक्तिनिमित्ततृणपरिहारादिहेतुत्वाद् उक्तं च "तणगहणानलसेवा निवारणा धम्मसुक्कझाणहा। दिटुं कप्पग्गहणं, गिलाणमरणट्ठया चेव / / 1 // " इति। तथा (सेजायरे त्ति) शेरते यस्यां साधवः सा शय्या, तया तरति भवसागरमिति शय्यातरोवसतिदाता, तस्य पण्डिो भक्तादिः शय्यातरपिण्डः, स च असनादिः 4 वस्त्रादिः 4 सूच्यादि 4 श्चेति। तदृग्रहणे दोषास्त्वमीतित्थंकरपडिकुट्ठो, अन्नायं उग्गमो वियन सुज्झे। अविमुत्ति अलाघवया, दुल्लहसेज्जविउच्छेओ।।१।। इति। राज्ञश्चवर्त्तिवासुदेवादेः पण्डिो राजपिण्डः, इदानीमुभयोरपि जिनयोः समानतानिगमनार्थमाह-'"जस्सीलगाहा''-यौशीलसमाचारौ स्वभावानुष्ठाने यस्य स यच्छीलसमाचारस्तावेव शीलसमाचारौ यस्य स तथेति। महापद्मजिनो हि महावीरवदुत्तरफाल्गुनीनक्षत्रजन्मादिव्यतिकर इति। स्था०६ ठा०३ उ०। ति। अरहा णं महापउमे अट्ठ रायाणो मुंडा भवित्ता आगाराओ अणगारियं पव्वावेइस्सति / तं जहा-पउमं पउपगुम्म नलिलं नलिनगुम्म पउमद्धयं धणुद्धयं कण गरहं भरहं (सूत्र-६२५) (अरहा णमित्यादि) सुगम, नवरम् / (महापउमे त्ति) महापद्मो भविष्यदुत्सर्पिण्या प्रथमतीर्थकरः श्रेणिकराजजीव इति / इहैव नवस्थानके वक्ष्यमाणव्यतिकर इति (मुंडा भवित्त त्ति) मुण्डान् भावयित्चेति / रथा०८ ठा०३ उ०। वीरमहापद्मयोरन्तरम् 84007 वर्षाणि 5 भासाः। आव०१ अ० | नं० / पुष्कलावतीविजये पुण्डरीकिणीनगरीराजे पण्डरीककण्डरीकयोः पितरि, आ०म०१अ दर्श०। ('ततलिपुत्त' शब्दे चतुर्थभागे 2352 पृष्ठे कथा) निधिभेदे, दर्श०। आ०चू०। "वत्थाण य उप्पत्ती, णिप्फत्ती चेव सव्वभत्ताणं। रंगाण य धोव्वाण य, सव्वा एसा महापउमे॥५॥" आ०चू०१ अ० ज०। प्रव० स्था०। ति०। महापद्मादयो निधयः / आ०म०१अ० / भारते वर्षे आगाभिन्यामुत्सर्पिण्यां भविष्यति नवमचक्रवर्तिनि, स० / श्रवसर्पिण्यां जाते हस्तिनापुरराजे नवमचक्रवर्तिनि, स०७७ सम० / आव०। प्रव० स्था०। (अयगष्टमचक्रवर्तीति लक्ष्मीवल्लभः) उत्ता चइत्ता भारहं वासं, चक्कवट्टी महिड्डिओ। चइत्ता उत्तमे भोए, महापउमो तवं चरे॥४१॥ हे मुने ! महापद्मोऽपि अष्टमचक्री महर्द्धिकः तपोऽचरत्। किं कृत्वाभारत वासं त्यक्त्वा, पुनरुत्तमान् प्रधानान् भोगान् त्यक्त्वा, पुनरुत्तमान् प्रधानान् भोगान् त्यक्त्वा // 41 // अत्र महापद्मचक्रवर्तिदृष्टान्तः-इहैव जम्बूद्वीपे भारते वर्षे कुरुक्षेत्रे हस्तिनागपुरं नाम नगरम्, तत्र श्रीऋषभवंशप्रसूतः पद्मोत्तरो नाम राजा, तस्य ज्वाला नाम महादेवी, तस्याः सिंहस्वप्नसूचितो विष्णुकुमारनामा प्रथमः पुत्रो, द्वितीयश्चतुर्दशस्वप्नसूचितो महापद्मनामा, द्वावपि वृद्धिं गतो, महापद्मो युवराजः कृतः / इतश्च उज्जयिन्यां नगर्या श्रीधर्मनामा राजा, तस्य नमुचिनामा मन्त्री, अन्यदा तत्र श्रीमुनिसुव्रतस्वामिशिष्यः सुव्रतो नाम सूरिः सवसृतः। तद्वन्दनार्थ लोकः स्वविभूत्या निर्गतः, प्रासादोपरिस्थितेन राज्ञा दृष्टः, पृष्टाश्च सेवकाः। अकालयात्रयाक्वाय लोको गच्छति ? ततो नमुचिमन्त्रिणा भणितम् / देव ! अत्र उद्यामे श्रमणाः समागताः तेषां यो भक्तो लोकः स तद्वन्दनार्थं गच्छति, राज्ञा भणितं वयमपि यास्यामः, नमुचिना उक्तम्- तर्हि त्वया तत्र मध्यस्थेन भाव्यम्, यथाऽहं वादं कृत्वा तान्निरुत्तरीकरोमि / राजा नमुचिसहि
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________________ महापउम 205 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 महापउम तस्तत्र गतः नमुचिना भणितम्। भो श्रमणा ! यदि यूयं धर्मतत्त्व जानीथ तर्हि वदथ ? सर्वेऽपि मुनयः क्षुद्रोऽयमिति कृत्वा मौनन स्थिताः, ततो नमुचिर्भृशं रुष्टः सूरि प्रति भणति-एष वयल्लः किं जानाति ? ततः सूरिभिर्भणित, भणामः किमपि-'यदि ते मुखं खर्जति' इदं वचः श्रुत्वा अनेकशास्त्रविचक्षणेन क्षुल्लकशिष्येण भणितम्, भगवन् ! अहमेवैन निराकरिष्यामि इत्युक्त्वा क्षुल्लकेन सवादे निरुत्तरीकृतः। साधूनामुपरि द्वेष गतः, रात्रौ च चरवृत्त्या एकाक्येव मुनिवधार्थमागतो, देवतया स्तम्भितः, प्रभाते तदाश्चर्य दृष्ट्वा राज्ञा लोकेन च स भृशं तिरस्कृतो विलक्षीभूतो गतो हस्तिनागपुरम, महापद्मयुवराजस्य मन्त्री जातः / / इतश्च पर्वतवासी सिंहबलोनाम राजा, सच कोट्टाधिपतिरिति महापड़ादेश विनाश्य कोट्टे प्रविशति. ततो रुष्टेन महापद्येन नमुचिमन्त्री पृष्टः, सिंहवलराजग्रहणे किंचिदुपायं जानासि ? नमुचिनोक्तं सुष्ठ जानामि। ततो महापद्मप्रेरितोऽसौ सैन्यवृतो गतो निपुणोपायेन दुर्ग भङ्कत्वा सिंहबलो बद्ध आनीतश्च महापद्मान्तिके, महापद्मनोक्तम्, नमुचे! यत्तवेष्ट तन्मार्गय 1 नमुचिनोक्तम्, साम्प्रतं वरः कोशेऽस्तु, अवसरे मार्गयिष्यामि, एवं यौवराज्यं पालयतो महापद्मस्य कियान् कालो गतः। अन्यदा महापदामात्रा ज्वालादेव्या जिनरथः कारितः, अपरमात्रा च मिथ्यात्ववासितया जिनधर्मप्रत्यनीकया लक्ष्मीनाम्न्या ब्रह्मरथः कारितो, भणितश्च पद्मोत्तरो नाम राजा, यथा एष ब्रहारथः प्रथम नगरमध्ये परिभ्रमतु, जिनरथः पश्चात्परिभ्रमतु, इदं च श्रुत्वा ज्वालादेव्या प्रतिज्ञा कृता। यदि जिनरथः प्रथम न भ्रमिष्यति तदा परजन्मनि ममाहारः। ततो राज्ञा द्वावपि रथौ निरुद्धौ, महापद्मन स्वजनन्याः परमामधृतिं दृष्ट्वा नगरानिर्गतः कनापि न ज्ञातः, परदेशे गच्छन् महाटव्यां प्रविष्टः / तत्र च परिभ्रमन तापसाऽऽलये गतः, तापसैर्दत्तसन्मानस्तत्र तिष्ठति। इतश्चम्पायां नगा जनमेजयो राजा परिवसति / स च कालनरेन्द्रेण प्रतिरद्धः, रातो महान् संग्रामो बभूव जनमेजयो नष्टः। तस्यान्तः पुरमपीतस्ततो नष्टम्, जनमेजयस्य राज्ञो नागवतीनाम भार्या, सा मदनावलीपुत्र्या समं नष्टा आगता तं तापसाश्रमम् / समाश्वासिता कुलपतिना तत्रैव स्थिता, कुमारमदनावल्योः परस्परमनुरागो जातः, कुलपतिना तन्मात्रा च तयोः परस्परमनुरागो ज्ञातः / कुलपतिना नागवत्या मात्रा च भणिता मदनावली, यथा पुत्रि ! त्वं किं न स्मरसि नैमित्तिकवचनम् ? यथा चक्रवर्त्तिनस्त्वं प्रमिपत्नी भविष्यसि, ततः कथं यत्र तत्रानुरागं करोषि, कुलपतिनाऽपि कुमारस्य विसर्जनार्थमुक्तम्, कुमार ! त्वमितो गच्छ, सदानीं त्वरितमेव ततो निर्गतः कुमारः, एवं मनोरथं चकार। यथाऽहमेलस्याः सङ्गमेन भरताधिषो भूत्वा ग्रामाकरनगररादिषु सर्वत्र जिनभवनानि कारयिष्यामीति भ्रमन कुमारोऽथ प्राप्तः सिन्धुनन्दनं नामनगरम्। तत्रोद्यानिकामहोत्सवे नगरान्निर्गता नरा नार्यश्चविविधक्रीडाभिः क्रीडन्ति। अस्मिन्नवसरे राज्ञः पट्टहस्ती आलानस्तम्भमुन्मूल्य गृहहट्टभित्तिभङ्गं कुर्वन नगरादहियुवतीजनमध्ये समायातः। ताश्च तं तथाविध दृष्टवा दूरतः प्रधावितुमसमर्थाः तत्रैव स्थिताः। यावदसौ तासामुपरिशुण्डापातं | करोति तावता दूरदेशस्थितेन महापद्येन कराझापूर्णहृदयेन हक्कितोऽसौ करी, सोऽपि वेगेन चलितः कुमाराभिमुखम्, तदानीं ताः सर्वा अपि भणन्ति / हाहाऽस्मद्रक्षणार्थ प्रवृत्तोऽयं करिणा हिंस्यते, एवं तासु प्रलपन्तीषु पश्यन्तीषु च तयोः करिकुमा रयो_रः संग्रामो बभूव। सर्वेऽपि नागरजनास्तत्राऽऽयाताः। सामन्तभृत्यसहितो महसेनराजोऽपितत्राssयातः। भणितं च नरेन्द्रेण, कुमार! अनेन समं संग्राम मा कुरु, कृतान्त इव रुष्टोऽसौ तव विनाशं करिष्यतीति। महापद्म उवाच। राजन् ! विश्वस्तो भव, पश्य मम कलामित्युक्त्वा क्षणेन तंमत्तकरिणं स्वकलया वशीकृतवान् आरूढश्चतं मत्तगज महापद्मः, स्वस्थाने नीतवान्, साधुकारेण तं लोको पूजित्वान्। यथा एष कोऽपि महापुरुषः प्रधानकुलसमुद्भवोऽस्ति, अन्यथा कथमीदृशं रूपविज्ञानं चास्य भवति। ततो राज्ञा स्वगृहे नीत्वा कुमारस्य विविधोपचारकरणपूर्वक कन्याशतं दत्तम्, तेन सम विषयसुखमनुभवतस्तस्य महापद्मकुमारस्य दिवसास्तत्र सुखेन यान्ति / तथाऽपि स ता मदनावलिं हृदयान्न विस्मारयति / अन्यदा रजन्या शय्यातोऽसौ वेगवत्या विद्याधा पहुतः, निद्राक्षये सा तेन दृष्टा, मुष्टि दर्शयित्वा सा कुमारेण भणिता, किं त्वमेवं मामपहरसि? तया भणितं कुमार! शृणु वैतान्ये सूरोदयनाम नगरमस्ति।तत्रेन्द्रधनुमि विद्याधराधिपतिरस्ति, तस्य भार्या श्रीकान्ता वर्त्तते, तस्याः पुत्री जयचन्द्रानाम्नी वर्त्तते। सा च पुरुषद्वेषिणी नेच्छति कथमपि वरम् / ततो नरपत्याज्ञया मया सर्वत्र वरनरेन्द्रा विलोक्य 2 पट्टिकायां लिखिताः, सर्वेऽपि तस्या दर्शिता न कोऽपि रुचितः / अन्यदा मया तस्यास्तव रूपं दर्शितम्, तद्दर्शिनानन्तरमेव सा कामावस्थया गृहीता, भणितं च तया, यद्येष भर्ती न भविष्यति तदाऽवश्यं मया मर्त्तव्यम् / अनयपुरुषस्य मम यावज्जीवं निवृत्तिरेव, एष तस्या व्यतिकरो मया तन्मातृपित्रोापितः / ताभ्यां त्वदानयानाय अहं प्रयुक्ता, अविश्वसन्त्यास्तस्या विश्वासार्थ मया इयं प्रतिज्ञा कृता, यद्यहं तं त्वरितं नाऽऽनयामि तदा ज्वालाकुले ज्वलने प्रविशामि। ततः कुमार! यदि तव प्रसादेन मम मरणं न सम्पद्यते, यथा च मे प्रतिज्ञानिर्वाही भवति तथा प्रसादं कुरु / ततस्तदाज्ञया तया महापद्मः सूर्योदये तत्र नीतः ख्चराधिपतिमिलितः। तेन च सुमुहूर्ते तस्याः पाणिग्रहणं कारितः, पूजिता च वेगवति / इतश्च जयचन्द्राया मातुलभ्रातरौ गगाधरमहीधरनामानौ विद्याधरावतिप्रचण्डौ इमं व्यतिकरं ज्ञात्वा अनेकभटसहितौ महापद्मन समं संग्रामार्थमागतौ। महापद्मोऽपि तयोरागमनं श्रुत्वा सूरोदयपुरादहिर्विद्याधरभटपरिवृतो निर्गतः, सलग्नस्तयोः संग्रामः, तदानीं महापद्मन त्यन्दनाः कुञ्जरा अश्वाः सुभटाः परबलसत्काः सर्वेऽपि बाणैर्विद्धाः / भग्नं स्वं बलं दृष्ट्वा गङ्गाधरमहीधरौ स्वयमुत्थितौ, महापद्मन उभावपि हतौ। ततो लब्धजयः स महापद्मः उत्पन्नस्त्रीरत्नवर्जसर्वरत्नः प्राप्तनवनिधिभत्रिंशत्सहस्त्रमण्डलेश्वरसेवितपादपद्मः परिणीतकोनचतुःषष्टिसहस्त्रन्तः पुरो हयगजरथपदातिकोशसंपनोऽष्टमश्चक्रवर्ती जातस्तथापि षट्खण्डभरतराज्यं स मदनावल्या रहित नीरसंमन्यते। अन्यदातस्मिन्नाश्रमपदेगतस्यतस्य महापद्यचक्रिणः तापसैमान् सत्कारः वृत्तः, जनमेजयेनापिराज्ञामदनावलीतस्मैदत्ता, तेनपरिणीता
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________________ महापउम 206 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 महापउम सीरत्रं बभूव / ततो महापद्मश्चक्रवर्तिऋद्धिसमेतो हस्तिनागपुरं प्राप्तः, प्रणनाम च जननीजनकपादान्, ताभ्यामप्यधिकरनेहेन प्रेक्षितः। अत्रान्तरे तत्रैव समवसृतो मुनिसुव्रतस्वामिशिष्यो नागसूरिः, ततो निर्गतः सपरिवारः पद्योत्तरराजः, तं वन्दित्वा पुरो निषण्णः, गुरुणा च तत्पुरो भवनिर्वेदजननी देशना कृता, तां श्रुत्वा वैराग्यमापन्नो राजा गुरुं प्रत्येवमुवाच। भगवन्नह राज्यं स्वस्थं कृत्वा भवदन्तिके प्रव्रजिष्यामि। गुरुणा भणितम्, मा विलम्ब कुर्विति। गुरुं प्रणम्य नगरे प्रविष्टो राजा, आकारिता मन्त्रिण: प्रधानपरिजना विष्णुकुमारश्च / सर्वेषामपि राज्ञा एवमुक्तम्। भो भो ! श्रुता भवद्भिः संसारासारता अहमेतावत्कालं वञ्चितः, यच्छ्रामण्यं नानुष्ठितवान् / ततःसाम्प्रतं विष्णुकुमारं निजराज्येऽभिषिच्य प्रव्रज्या गृह्णामि। ततो विष्णुकुमारेण विज्ञप्तम्, तात् ! ममापि किंधाकोपमैोंगेः, सृतम्, तव मार्गमवानुसरिष्यामि। ततो विष्णुकुमारस्य दीक्षानिश्चय ज्ञात्वा पद्मोत्तरराजेन महापद्म आकारितो भणितश्च, पुत्र ! ममेद राज्य प्रतिपद्यस्व, विष्णुकुमारोऽहं च प्रव्रज्या प्रतिपद्यावः / अथ विनीतेन महापद्येन च भणितम्, तात! निजराज्याभिषेकं विष्णुकुमारस्यैव कुरु, अहं पुनरेतस्यैवाज्ञाप्रतीच्छुको भविष्यामि / राज्ञा भणितम्, वत्स ! मयोक्तोऽप्ययं राज्य न प्रतिपद्यते। अवश्यमयं मया समं प्रव्रजिष्यति / ततः शोभनदिवसे महापद्मस्य कृतो राज्याभिषेकः। विष्णुकुमारसहितः पद्मोत्तरराजः सुव्रतसूरिसमीपे प्रव्रजितः। ततो महापद्मो विख्यातशासनश्चक्रवर्ती जातः। स्वमातृपरमातृकारितौ तौ द्वावपि रथौ तथैव स्तः। महापद्मचक्रिणा तु जननीसत्को जिनरथो नगरीमध्ये भ्रामितः, जिनप्रवचनस्य कृता उन्नतिः। तत्प्रभृति बहुलोको धर्मोद्यममतिर्जिनशासनं प्रतिपन्नः, तेन महापद्मचक्रिणा सर्वस्मिन्नपि भरतक्षेत्रे ग्रामाकरनगरोद्यानादिषु कारितानि जिनायतनान्येककोटिलक्षप्रमाणानि / पद्मोत्तरमुनिरपि पालितनिष्कलङ्कश्रामण्यः शुद्धाध्यवसायेन कर्मजालं क्षपयित्वा समुत्पन्नकेवलज्ञानः संप्राप्तः सिद्धिमिति। विष्णुकुमारमुनेरपि उग्रतपोविहारनिरतस्य वर्द्धमानज्ञानदर्शनचारित्रपरिणामस्य आकाशगमनादिवैक्रियलब्धय उत्पन्नाः / स कदाचिन्मेरुवत्तुङ्गदेहो गमने व्रजति, कदाचिन्मदनवद् रूपवान् भवति। एवं नानाविधलब्धिपात्रः स संजातः / इतश्च ते सुव्रताचार्याः बहुशिष्यपरिवृता वर्षारात्रस्थित्यर्थ हस्तिनागपुरोद्याने समायाताः, ज्ञाताश्च तेन विरुद्धेन नमुचिना, अवरारं ज्ञात्वा तेन राज्ञे विज्ञप्तम्, यथा पूर्वप्रतिपन्नं मम वरं देहि। चक्रिणा उक्तम्, यथेष्ट भार्गय / नमुचिना भणितम्, राजन् ! अहं वेदभणितेन विधिना यज्ञ कर्तुमिच्छामि, अतो राज्य मे देहि। चक्रिणा नमुचिः स्वराज्येऽभिषिक्तः, स्वयमन्तः पुरे प्रविश्य स्थितः। नमुचिर्यज्ञपा(वा)टकमागम्य यागनिमित्त दीक्षितो बभूव / राज्येऽभिषिक्तस्य तस्य वर्धापनार्थ जैनयतीन वर्जयित्वा सर्वेऽपि लिनिनो लोकाश्च समायाताः / नमुचिना सर्वलोकसमक्षमुक्तम्, सर्वेऽपि लोका मम वपिनार्थ समा याताः, जनयतयः केऽपि नाऽऽयाताः, एवं छलं प्रकाश्य सुव्रताचायो आकारिताः, आगताः, नमुचिना भणिताः / भोजैनाचार्याः ! यो यदा ब्राह्मणो वा. 'पा राज्यं प्राप्नोति स तदा पषण्डकैरागत्य दृष्टव्यः, इयं लोकस्थितिः, यतो राजरक्षितानि तपोधनानि भवन्ति। यूयं पुनःस्तब्धाः सर्वे पाखण्डदूषकाः निर्मर्यादा मा निन्दथ। अतो मदीयं राज्यं मुक्त्वाऽन्यत्र यथासुख व्रजत / यो युष्माकं मध्ये कोऽपि नगरे भ्रमन् द्रक्ष्यते स मे वध्यो भविष्यति / सुव्रताचार्यरुक्तम, राजन्नस्माकं राजवर्धापनाचारो नास्ति, तेन वयं त्वद्वपिनकृते नाऽऽयाताः। न च वयं किंचिनिन्दामः, किंतु समभावास्तिष्ठाम्। ततः स रुष्टः प्रतिभणति, यदि श्रमण सप्तदिनोपरि अह द्रक्ष्ये तमहभवश्य मारयिष्यामि, नात्र सन्देहः। एतन्नमुचिवाक्यं श्रुत्वा आचार्याः स्वस्थानमायाताः सर्वेऽपि साधवः पृष्टाः, किमत्र कर्त्तव्यम्। ततः एकेन साधुना भणित, यथा सदा सेविततपोविशेषो विष्णुकुमारनामा महामुनिः साम्प्रतं मेरुपर्वतचूलास्थो वर्तते, स च महापद्मचक्रिणो माताऽस्ति, ततस्तद्वचनादयमुपशमिष्यति, आचार्यरुक्तं तदाकारणार्थ यो विद्यालब्धिसम्पन्नः स तत्र व्रजतु / तत एकेन साधुना उक्तम्. अहं मेरुचूलां यावद्गगने गन्तुं शक्तोऽस्मि, पुनः प्रत्यागन्तुं न शक्तोऽस्मि / गुरुणा भणितम् - विष्णुकुमार एव त्वामिहानेष्यति, तथेति प्रतिपद्य स मुनिराकाशे उत्पतितः / क्षणमात्रेण मेरुचूलायां प्राप्तः, तमायान्तं दृष्ट्वा विष्णुकुमारेण चिन्तितम्, किञ्चिद् गुरुकं सङ्घकार्य समुत्पन्नम्, यदयं मुनिवर्षाकालमध्येऽत्रायातः। ततः स मुनिर्विष्णुकुमारं प्रणम्य आगमनप्रयोजनं कथितवान्, विष्णुकुमारस्तं मुनिं गृहीत्वा स्तोकवलया आकाशमार्गेण गजपुरे प्राप्तः / वन्दितास्तेन गुरवः, गुर्वाज्ञया साधुसहितो विष्णुकुमारमुनिर्नमुचिपर्षदि गतः, सर्वैः सामन्तादिभिर्वन्दितः, नसुचिस्तु तथैव सिंहासने तस्थिवान, नमनाक् विनयं चकार विष्णुना धर्मकथनपूर्व नमुचेरेवं भणितम्, वर्षाकालं यावन्मुनयोऽत्र तिष्ठन्ति / नमुचिना भणितम, किमत्र पुनः पुनर्वचनप्रयासेन, पञ्च दिवसान् यावन्मुनयोऽत्र तिष्ठन्तु। विष्णुना भणितं तव उद्याने मुनयस्तिष्ठन्तु। ततः संजातामर्षण नमुचिना एवं भणितम्, सर्वेः पाषण्डाधमैर्भवद्भिर्न मद्राज्ये स्थयम्, मद्राज्य त्वरितं त्यजत, यदिजीवितेन कार्यम् / ततः समुत्पन्नकोपानलेन विष्णुना भणितम्, तथापि त्रयाणां पादानां स्थानं देहि / ततोक भणितं नमुचिना, दत्तं त्रिपदीस्थानं परं यं त्रिपद्या बहिर्द्रक्ष्यामि तस्य शिरश्छेद करिष्यामि / ततः स विष्णुकुमारः कृतनानाविधरूपो वृद्धि गच्छन् क्रमेण योजनलक्षप्रमाणरूपो जातः / क्रमाभ्यां दर्दर कुर्वन् ग्रामाकरनगरसागराकी भूमिमाकम्पयन् शिखरिणां शिखराणि पातयति स्म। त्रिभुवन्ने क्षोभ कुर्वन् स मुनिः शकेण ज्ञातः / तस्य कोपोपशान्तये शक्रेण गायनदेव्यः प्रेषिताः। ताश्चैवं गायन्ति रम-"सपरसंतावओ, धम्मवणदावओ, दुग्गइगमणहेऊ। कोवो ताओवसमं, करेसु भयवं ति'' एवमादीनि गीतानिता वारंवार श्रावयन्ति स्म। स मुनिमुचिं सिंहासनात्पातितवान्, दत्तपूर्वापरसमुद्रपादः स सर्वजन भापयति स्म। ज्ञातवृत्तान्तो महापद्मश्च - की तत्राऽऽयातः, तेन समस्तसङ्केन सुरासुरैश्च शान्तिनिमित्त विविधोपधारः स उपशामितः / तत्प्रभृति विष्णुकुमारस्त्रिविक्रम इति ख्यातः / उपशान्तकोपः स मुनिरालोचितः प्रतिक्रान्तः शुद्धश्च / यत उक्तम् - "आयरिए गच्छमि, कुलगणसंपे अचेइअविणासे।
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________________ महापउम 207- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 महापालि आल्यपडिक्वन्तो, सुद्धोज निजरा विउला / / 1 / / " महापण्ण त्रि० (महाप्रज्ञ) महती प्रज्ञाऽस्येति महाप्रज्ञः / उत्त०३ अ०) निष्कलङ्घ श्रामण्यमनुपाल्य समुत्पराकेवलः स विष्णुकुमारः सिद्धि सम्यग्दर्शनज्ञानवति, सूत्र०१ श्रु०४ अ०२ उ० / विपुलबुद्धौ, सूत्र०१ गतः / महापद्मचक्रवर्त्यपि क्रमेण दीक्षां गृहीत्वा सुगतिभागभूद् इति श्रु०११ अ०। महापादृष्टान्तः। उत्त०१८ अ० / ती०। ति०। श्रेणिकपुत्रसुकालस्या- महापण्णवणा स्त्री० (महाप्रज्ञापना) महत्तरे प्रज्ञापनाग्रन्थे, नं० / पा० / त्मजे, 'ने० / एव सुकालसत्कमहापद्मदेव्याः पुत्रस्य महापद्मस्यापीयमेव | | महापत्थाण न० (महाप्रस्थान) मरणकालभाविनि, नि०१ श्रु०३ वर्ग वक्तव्यता / भगवत्समीपे गृहीतव्रतः पञ्चवर्षव्रतपर्यायपालनपरः एका- ३अ०॥ दशाङ्गधारी चतुर्थषष्ठाष्टमादि बहु तपःकर्मकृत्वा ईशानकल्पे देवःसमु.. महापम्ह पुं० (महापक्ष्म) जम्बूद्वीपमन्दरस्य पश्चिमे शीतोदाया महानद्या त्पन्नो द्विसागरोपमस्थितिकः। सोऽपि ततश्च्युतो महाविदेहे सेत्स्यति।। दक्षिणे महापुरीराजधानीभूषितविजये क्षेत्रे, स्था०८ ठा० / नि०१ श्रु०१ वर्ग 2 अ० / विन्ध्यगिरिपादमूले पुण्ड्रेषु जनपदेषु शतद्वारे दो महापम्हा / स्था०२ ठा०। नगरे सुमते राज्ञो भद्रायां भार्यायामुत्पत्स्यमाने गोशालकजीवे, भ०१४ / महापरिग्गह पुं०(महापरिग्रह) धनधान्यद्विपदचतुष्पदवस्तुक्षेत्रादिश०६ उ०। ('गोसालग' शब्दे तृतीयभागे 1031 पृष्ठादारभ्य कथा परिग्रहवति, सूत्र०२ श्रु०१५ अ०। गता) सप्तमदेवलोकविमानभेदे, नपु०।स०१६ सम01 महाहिमवदुपरि | महापरिग्गहया स्त्री० (महापरिग्रहता) अपरिमाणपरिग्रहतायाम्, भ०८ हदे, स०। श०६ उ०1 महापउममहापुंडरीयदहाणं दो दो जोयणसहस्साई आयामेणं | महापरिण्णा स्त्री०(महापरिज्ञा) महती परिज्ञा अन्तक्रियालक्षणा सम्यपण्णत्ता। (सूत्र-११५) विधेयेति महापरिज्ञा / स्था०६ ठा० / आचाराङ्गप्रथमश्रुतस्कन्धस्य महापद्ममहापुण्डरीकहदौ महाहिमवद्रुक्मिवर्षधरयोरुपरिवर्तिनौ सप्तमेऽध्ययने, तच्चेदानी व्यवच्छिन्नम्। आचा०१ श्रु०८ अ०१ उ० / हीबुद्धिदेव्योर्निवासभूताविति। स०११५ सम०। स्था०। पाटलिपुत्र- प्रश्न० 1 आव०॥ नगरराजे नवमनन्दे, आ०चू०४ अ० / शिखरितलकूटविशाधिपतौ देवे, "जेणुद्धरिआ विजा, आगासगमा महापरिन्नाओ। द्वी० / शक्रत्रयस्त्रिंशोत्पातपर्वत-राजधान्याम्, द्वी०। चतुरशीतिलक्षण- वंदामि अजवइरं, अपच्छिमो जो सुअहराणं / / 1 / / " गुणितेषु महापद्माङ्गेषु, ज्यो०२ पाहु०। ('काल' शब्दे स्फुटितमेतत्) आ०क०१ अ०। आ०म०। स०। महापउमद्दहपुं० (महापद्महद) स्वनामख्याते हदे, स्था०। महापवेसणतर पुं० (महाप्रवेशनतर) महत्प्रवेशनं गत्यन्तरान्नरकगती दो महापउमद्दहा। (स्था०२ ठा०३ उ०१) दो महापउमद्दह- जीवाना प्रवेशो येषु ते तथा। यत्र बहवो नैरयिका आगत्य प्रविशन्ति तेषु वासिणीओ हिरीओ देवीओ। स्था०२ ठा०३ उ०। नरकेषु, भ०१३ श०४ उ०। महापउमरुक्ख पुं० (महापद्मवृक्ष) धातकीखण्डोत्तरकुरुमध्यगे धातकी- महापव्यय पुं० (महापर्वत) हिमवदादिषु वर्षधरपर्वतेषु, ओघ०। खण्डनामनिबन्धने शाश्वतवृक्षे, स्था०१०टा०। पुष्करवरद्वीपात्पश्चिमे महापस पुं० (महापशु) महापशुपुरुष प्रज्ञा०२ पद। व्य०। मेरुपर्वतादुत्तरदक्षिणयोरपान्तरालवृक्षविशेषे। स्था०२ ठा०३ उ०।। महापह पुं० (महापथ) विस्तीर्णतया प्राधान्येन महाश्चासौ पन्थाश्च महापउमा स्त्री० (महापद्मा) श्रेणिकपुत्रसुकालस्य भार्याथाम्, नि०१ महापथः / राजमार्ग, उत्त०५ अ०। अनु० / ज्ञा०। जी० / आ०म०। शु०१ वर्ग 1 अ०॥ दशा०। भ०। कल्प०। औ०। रा०। प्रश्न०॥ महापचक्खाण न० (महाप्रत्याख्यान) महच तत्प्रत्याख्यानं चेति समासः। | महापाडिहारिय न० (महाप्रातिहार्य) जिनानामशोकवृक्षादिषु प्रातिचरमप्रत्याख्याने, तद्वर्णनपरे उत्कालिकश्रुतविशेषे च / पा०।''एसत्थ हार्येषु, नं०। भावत्थो थेरकप्पेण जिणकप्पेण वा विहरित्ता अंते थेरकप्पिया वारसवासे | महाऽपाय त्रि० (महाऽपाय) महानपायो यस्याः सकाशात्सा तथा / संलेहणं करेत्ता, जिणकप्पिया पुण विहारेणेव सलीढा, तहा वि जहाजुत्तं महतोऽपायस्य हेतौ, षो०१४ विव०। संलेहणं करेता, निव्वाघायं सचेट्टा चेव भवचरिम पचक्खति, एय सवित्थरं | महापायाल पुं० (महापाताल) महान्तदन्यक्षुल्लकव्यवच्छेदेन पातालजत्थऽज्झयणे वन्निजइ तमज्झयणं महाप्रत्याख्यानमिति' / पा० / नं० / मिवागाधात्वाद गम्भीरत्वात्पातालाः पातालव्यवस्थितत्वाद् वा महापजवसाण न० (महापर्यवसान) महत्प्रशस्तमात्यन्तिकं वा पर्यवसानं पातालाः, महान्तश्च ते पातालाश्चेति महापातालाः। लवणसमुद्रमध्यपर्यवसमाधिमरणान्तः, अपुनर्मरणान्तो वा जीवितस्य यस्य स तथा। स्थितेषु वडवामुखादिषु जलवाय्वाधारेषु, स्था०४ ठा०२ उ० / तद्भवसिद्धिगामिनि, स्था०३ ठा०४ उ०। ('लवणसमुद्द' शब्दे चैते व्याख्यास्यन्ते) महापडिण्णा स्त्री० (महाप्रतिज्ञा) गुरुप्रतिज्ञायाम्। पञ्चा०१६, विव०। | महापालि स्त्री० (महापालि) पालिरिव पालिर्जीवितजलधा
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________________ महापालि 208 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 महामणिपेढ पाहु०॥ रणाद् भवस्थितिः, महती चासौ पालिश्चेति / सागरोपमलक्षणायां कल्प। भवस्थितौ, तस्या एव महत्त्वाद् / उत्त०१८ अ०। महाबाह पुं० (महाबाहु) भारतवर्षे भविष्यति द्वितीयबलदेवे, स०। ती०। महापिंगायतणपु० (महापिङ्गायतन) महापिङ्गाऽऽख्यय॑पत्ये, चं०प्र०१० श्रोत्रेन्द्रियलम्पटस्य ब्रह्मस्थलपुरस्थरामस्य राज्ञो लघुभ्रातरि, ग०२ अधि०। 'महाबाहू नामवासुदेवो पुच्छइ" अपरविदेहवासुदेवे, आव०४ महापिउ पुं० (महापितृ) पितुज्येष्ठभ्रातरि, विपा०१ श्रु०३ अ०। अ01 आ०चू०। कल्प०। महापीढ पुं० (महापीठ) पूर्वविदेहपुष्कलावतीविजय-पुण्डरीकिणी- महाभद्दा स्त्री० (महाभद्रा)अहोरात्रकायोत्सर्गरूपायामहोरात्रचतुष्टयमानगरीजा ते ऋषभदेवपूर्वभवजीववज्रनाभस्य भ्रातरि, आ००१अ० / नायां प्रतिमायाम्, स्था०२ ठा०३ उ० / कल्प० / औ०। आ०म० / आ०म० / पञ्चा / आ०क० / ऋषभपुत्रे, "सुबाहू य महापीढो य स्था०। (अस्या व्याख्या 'पडिमा' शब्दे पञ्चमभागे 332 पृष्ठे गता) पचायाता।" आ०चू०१ अ०। भूतद्वीपदेवे, पु० / सू०प्र०१६ पाहु० / स० / महापुंडरीय पुं० (महापुण्डरीक) रुक्मिवर्षधरपर्वतोपरिस्थे बुद्धिदेव्या- | महाभवोघ पु० (महाभवौध) चतुर्गतिके संसारसागरे, सूत्र०१ श्रु०६ अ०। वासहदे, स्था०२ ठा०३ उ० / स०। औ० जी०। कालोदसमुद्रदेवे, महाभाग पुं० (महाभाग) महाश्चासौ भागश्च महाभागः / भागशब्दः पूजास्था०१० ठा० / विशाले श्वेताम्बुजे, न पुं० / रा०। ज० / सप्तम- वचनम्। महापूज्ये, सूत्र०१ श्रु०८ अ०। उत्त०। पञ्चा०। आ०म० ग01 देवलोकविमानभेदे, स०१७ सम०। भागोऽचिन्त्या शक्तिराह च भाष्यकृद- ''भागोऽचिन्त्या शक्तिरिति" महापुर न० (महापुर) स्वनामख्याते नगरे, विपा०२ श्रु०७ अ०। महान भागोऽस्य महाभागः / अचिन्त्यशक्तियुक्ते, त्रि० / आ०म० / महान्तं महापुरा स्त्री० (महापुरा) महापद्माविजयक्षेत्रराजधान्याम, महापद्यो | भजतीति महाभागः / जिनाराधके, आ०चू०१अ०। विजयो महापूरी राजपूर्यक्ष्मावतीवक्षस्कारः, "महापुरं णयरं रत्तासोगं | महाभागा स्त्री० (महाभागा) रक्तावतीनदीसङ्गते नदीभेदे, स्था०१० ठा०। उजाण रत्तपालो जक्खो बले राया सुभद्दा देवी महाबले कुमारे रत्तवती / महामिताव पुं० (महाभिताप) महाभितापिते सन्तापोपेते, सूत्र०१ श्रु०५ पामोक्खा णं पंच सया" विपा०२ श्रु०७ अ०। धातकीखण्डान्तर्गत अ०१ उ०। महादुःखैककार्य, सूत्र०१ श्रु०५ अ०२ उ०। विजयक्षेत्रे जातायां नगर्याम्, स्था०। महाभिसेय पु० (महाभिषेक) ईश्वरतलवरादीनामभिषेकाणी महत्तरोऽदो महापुरा। स्था०२ ठा०३ उ०। भिषेको महाभिषेकः / राजत्वेनाभिषिक्ते, नि००६ उ०। महापुरिस पुं० (महापुरुष) प्रधानपुरुषे, आसितद्वैपायनपाराशरादि- | महाभीस त्रि० (महाभीम) अतिभयानके, दर्श०४ तत्त्व / आव० / महर्षिषु, वल्कलचीरतारागणर्षिप्रभृतौ / (एषां महापुरुषत्वेन वर्णनं औत्तराहाणां देवानामिन्द्रे, स्था०२ ठा०३ उ० / प्रज्ञा० भ० / अष्टमभारतादिषु) सूत्र०१ श्रु०३ अ०४ उ० / जात्याद्युत्तमे, प्रश्न०४ संव० प्रतिवासुदेवे, स०। ति०। द्वार / महापुरुषा वलदेवतीर्थकरादयः / पं०व०३ द्वार / औत्तराहाणां | महाभीमसेण पुं० (महाभीमसेन) जम्बूद्वीपभरतखण्डेऽतीतायामुत्सफिपुरुषाणामिन्द्रे, स्था०२ टा०३ उ०। प्रज्ञा०। भ०॥ पिण्यां जाते सप्तमे कुलकरे, स्था०१० ठा० / महापुरिसचरित्त न० (महापुरुषचरित्र) स्वनामख्याते तीर्थकरचरित- महाभुज पुं० (महाभुज) शिखरतलकूटविशेषाधिपतौ पल्योपमस्थितिके निबद्ध ग्रन्थे, संघा०१ अधि० / प्रश्न० / देवविशेषे, द्वी०। महापुरिससेविय त्रि० (महापुरुषसेवित) तीर्थकरादिसेविते, पं०सू०२ महाभूयवर पुं० (महाभूतवर) भूतवरसमुद्रदेवे, सू० प्र०१६ पाहु० / सूत्र। महाभेरव न० (महाभैरव)र मध्यमपापासमीपे उद्याने, आ०म०१ अ०। महापुरिसाणुचिण्ण त्रि० (महापुरुषानुचीर्ण) महापुरुषैस्तीर्थकरग- | महाभेरी स्त्री० (महाभेरी) बृहत्प्रमाणायां भेर्याम्, अनु०॥ जधरादिभिरुत्तमनरैरनुचीर्णमकदाऽसेवनात्पश्चादप्यासेवित महापुरु- महामइगढिय त्रि० (महामतिग्रथित) महाबुद्धिपुरुषचितसन्दर्भ, षो०६ षानुचीर्णम् / तीर्थकरादिभिराचरिते, पा० / सूत्र० / विव०। महापोय पु० (महापोत) महाबोहित्थे, आव०४ अ० / महामंडलिय पुं० (महामाण्डलिक) अनेकदेशाधिपतौ देवे, अनु० जी०। महाफलिह न० (महास्फटिक) शिखरिपर्वतस्थ उत्तरकूटानामुत्तरदिशि प्रज्ञा०। कूटे, द्वी०। महामंति पु० (महामन्त्रिन) मन्त्रिमण्डलप्रधाने, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। भ० / महाबल पु० (महाबल) महागलं शरीरप्राणो यस्य स महाबलः। जी०३ | औ० / विशेषाधिकारवति, कल्प०१ अधि०३ क्षण। रा०। प्रति०१ अधि०२ उ० / सू० प्र० / प्राणवति, स्था०८ ठा० / आव०। / महामगर पुं०(महामकर) जलचरजीवभेदे, कल्प०१ अधि०३ क्षण। चं०प्र० / प्रशस्तबले, स०॥ ऐरवते भविष्यति त्रयोदशे तीर्थकरे, ति०।। महामणिपेढ पुं० (महामणिपीठ) ब्रहति वल्यर्थे पीठे, जी०३ प्रति०४ जं० / स० / आव० / ती० / भारतवर्षे भविष्यति तृतीय बलदेवे, स० ) अधि० /
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________________ महामरुता 206 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 महालक्खो महामरुता स्त्री० महामरता) श्रेणिकस्य स्वनामख्याताया भायायाम, . नकुरम्बभूतः / महामधवृन्दोपमे, जी०३ प्रति०१ उ०॥ अ-त०५ श्रु०७ वर्ग। (सा च वीरान्तिके प्रव्रज्य विशतिवर्षपर्याया सिद्धा महामोह पुं० (महामोह) महाश्चासौ मोहश्च महामोहः / मिथ्यात्य, दश०१ इत्यन्तकृद्दशानां सप्तमवर्ग सप्तमाध्ययने सूचितम्) त्व / भवशो दुःखवेदनीये कर्मणि, दशा०६ अ01 आया सर. महामह (महामह) इन्दमहादिषु, आव०। बिहागोहकारणानि 'मोहणिजहाण' शब्दे वक्ष्यामि) योगिपरिभाध्या के य ते पुण महामह ? उच्यन्ते ग, स्था०२ ठा०१ उ०। आसाढी इंदमहो, कत्तिअ सुगिम्हए अबोद्धव्वे / महायत्तो (देश) आहो. दे० ना०६ वर्ग 116 गाथा! एए महामहा खलु, एएसिं चेव पाडिवया // 1338|| महायारकहा स्त्री० (महाचारकथा) महत्या आचारकथासा: प्रतिपादके आसण्डो-आरगढपुन्निभा इह लाडाणं स्मरणपत्रिमाए भवति रमलो शवैकालिकस्याध्ययने दश०। असोयपुन्निमाए भवति, 'कत्तिय त्ति' कत्तियपुन्निमाए चेव सुगिम्हओ | जो पुत्विं दबिट्ठो, आयारो सो अहीणमइरित्तो। बेनपुन्निमा। आव०४ अ / नि०चू०। आचा० / सच्चेव य होइ कहा, आयारकहाए महईए // 245 / / महामहद्वारमाह यः पूर्व क्षुल्लकाचारकथायां निर्दिष्टः उक्तः, आचारः-ज्ञानाचारः सक्कमहादीएसुव, पमत्तमाणं सुराछले ठवणा। असावहीनातिरिक्तो वक्तव्यः। सैव च भवति कथा, आक्षेपण्यादिलाया पोणिज्जंतु व अदढा, इतरे उ वहंति न पढ़ति 412 वक्तव्या / चशब्दातदेव क्षुल्लकप्रतिपक्षोक्तं महद् वक्तव्यम्, अधारमहान:-शवामहोदयः, आदेशवदात्सुग्रीष्मकमहादिवरिग्रहः लषु कथायां महत्या प्रस्तुतायामिति गाथार्थः / दश०५ अ०२ उ० 441 in nोमप्रतिषचारलेषां योगो निमिप्यते, किंवारणागति / महारंभ त्रिक (महारम्भ) महानारम्भो वहनोष्ट्रमण्डलिकागन्त्रीप्रवाहमय आआह .मा तं ग्रसमा सन्तं कायित् मिथ्यादृष्टिदेवता छलया। षण्ढपोषणादिको यस्य स महारम्भः / सूत्र०२ श्रु०२ अ० ! महासात तेषु दिवसेसु विकृतयो लभ्यन्ते, ततो ये अदृढा दुर्बलाः सन्ति निच्छापरिमाणेनाकृतमर्यादया बृहदारम्भः पृथिव्याद्युपमर्दन-लक्षणों तर्विकृतिपरिभोगत आप्यायन्तामिति योगनिक्षेपणम् / ये पुनरिसरे. यस्य स महारम्भः / चक्रवादिके, स्था०४ ठा०४ उ०। पञ्चेन्द्रियाआगाढयोगवाहिनः तेषां योगो न निक्षिप्यते केवलमन्यत् नो दिशान्ति दिव्यपरोपणप्रधानकर्मकारिणि, स्था०३ ठा०१ उ०। सूत्र० / दशा ! नापि पठन्ति / दा०४ उ०। महारंभया स्त्री० (महारम्भता) चक्रवर्तित्वादौ, स्था०४ ठा०४ उ० महामाउ स्त्री० (गहामातृ पितृज्येष्टमातृजायायाम मातृज्येष्टायां राप- महारण न० (महारण) महासंग्रामे, स०। ज्याम् विपा० शु०३ अ०! महारम्भ त्रि० (महारम्य) अतिरमणीये, पञ्चो०८ विव० / महामाठर 0 (म्हामाठर ईशानेन्द्रस्य देवराजस्थ रथाऽनीकाधिपती, महारयण न० (महारन्त) महारत्नं वज़' स० / आव०। स्था०४ ठा०२० महारह पुं० (महारथ)प्रकरणादत्र नारायणः-तस्मिन, सूत्र०१ श्रु०३ महामाहण पु० : महामाहन) महाँश्चासौ माहनश्चेति / मनःप्रभृति- अ०१ उग करणादिभिराज नन्मसक्ष्मादिभेदभिन्नजीवहनननिवृत्ते, उत्त०३ अ०। | महाराय पुं० (महाराज) लोकपाले, नि०१ श्रु०१ वर्ग 7 अ० / आ०म०। महामुणि पुं० (महामुनि मनुते मन्यते वा जगतस्त्रिकालावस्थामिति रथा| भ०1 भनिः, सर्वज्ञत्वात् / महाश्वासौ मुनिश्च महामुनिः / अथवा-मुनयः महारायत्त न० (महाराजत्व) लोकपालत्वे, स०७५ राम०। नाथदरतेषां महान प्रधानो महामुनिः। विशे० / महातपस्विनि, उत्त०२ महारिट्ठ पुं० (महारिष्ट) बलेवैरोचनेन्द्रस्य नाट्यानीकाधिपतौ, 40 रात्र० जिनकल्पिकादौ, सूत्र०१ श्रु०२ अ०२ उ० प्रशस्तयती, स्था०७ठा०। उत्तर अ०। यथावस्थितत्रिकालवेदिनि, सूत्र०१ श्रु०१६ अ०। आचा०। महारिसि पु० (महर्षि) संयतात्मनि, आ०म०१ अ०। सूत्र०। आ०म० / ज्ञानसम्पन्ने, षो०१ विव०। आ०चू० / दर्श०। परमनिर्गन्थे, | महारिह त्रि० (महाई) महार्ह, तं०। ज्ञा० / महमुत्सवमर्हतीति महार्हः। अष्ट०३१अष्ट०। परमोत्सवाहे, जी०३ प्रति०४ अधि०२ उ०। विपा० / बहुमूल्ये, प्रश्न०५ महामुणिचरित न० (महामुनिचरित) महान्तश्च ते मुनयश्च महामुनयः संव० द्वार। स्थूलभद्रवजस्वाम्यादयः पूर्वर्षयस्तेषां चरितानि-चेष्टितानि। महामुनि- | महारोरुय पुं० (महारौरुक) सप्तमनरकपृथ्वीस्वरूपे महानरके. स्था०५ चेष्टितेषु, ध०३ अधि०। ठा०३ उ० जी०।ज्यो०। सूत्र०। प्रज्ञा० स०। महामेह पुं०(महामेघ) प्रभूतजलक्षरके बृहन्मेघे, अनु०। (एते 'उस्स- | महारोहिणी स्त्री०(महारोहिणी) स्वनामख्यातायां महाविद्यायाम, आ० प्पिणी' शब्दे द्वितीयभागे 1166 पृष्ठे दर्शिताः) चू०४ अ०। महामेहणिउरंबभूय पु० (महामेघनिकुरम्बभूत) महान् जलभारावनतः महालक्खो (देशी) तरुणे, दे०ना०६ वर्ग 121 गाथा। भाद्रपदीयश्राद्धपक्ष, पावृट्कालभावी मेधनिकुरम्बो मेघसमूहस्तथा भूतो गुणैः प्राप्तो महामेघ- | दे० ना०६ वर्ग 127 गाथा।
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________________ महालच्छी 210 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 महालयसव्व० महालच्छी ची (महालक्ष्मी) महाविष्णोर्याया पालगोपालरया परभाररि तक। महालय पुंc (महालय) महान महतां वा आलय आश्रितः / राजमार्ग, भावतस्तु महद्विस्तीर्थकरादिभिरप्याश्रिते सम्यग्दर्शनादिमुक्तिमार्ग, उत्त०१० 10 // सूत्र० / रथा०। आचा०क्षत्रस्थितिभ्या महः सु. प्रश्न०१ / आश द्वार / स० / “माकासि कम्मा महालयाई उत्त०१३ ॐ। सूत्र० / उत्सवाश्रयभूते. स०५३ सम०। महालयसव्वतोभद्दा स्त्री० (महालयसर्वतोभद्रा) सर्वतोभद्रप्रतिमाभेदे, अन्तः / महालयं सव्वतोभदं तवोकम्म उवसंपज्जित्ता णं विहरति / तं जहा-चउत्थं करेति, चउत्थं करित्ता सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारित्ता छ8 करेति, छटुं करित्ता सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारित्ता अट्ठमं करेति, अट्ठमं करित्ता सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारित्ता दसमं / करेति, दसमं करित्ता सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारेत्ता दुवालसं करेति, दुवालसं करेत्ता सव्वकामगुणिय पारेति, सव्वकामगुणियं पारेत्ता चोद्दसं करेति, चउद्दसं करित्ता सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारेत्ता सालेसमं करेति, सोलसमं करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारेत्ता दसमं करेति, दसमं करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति, | सव्वकामगुणियं पारेत्ता दुवालसं करेति, दुवालसं करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारेत्ता चउद्दसं करेति, चउद्दसं करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारेतिं, सव्वकामगुणियं पारेत्ता चउत्थं करेति, चउत्थं करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारेत्ता छटुं करेति, छटुं करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारेत्ता अट्ठमं करेति, अट्ठमं करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारेत्ता सोलसं करेति, सोलसं करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकाम गुणियं पारेत्ता चउत्थं करेति, चउत्थं करेत्ता सव्वकासगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारेत्ता छटुं करेति, छ8 करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारेत्ता अट्ठमं करेति, अट्ठमं करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकाम- | गुणियं पारेत्ता दसमं करेति, दसमं करेत्ता सव्वकामगणिर पारेति, सव्वकामगुणियं पारेत्ता दुवालसं करेति, दुवालसं करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारेत्ता चोदसं करेति, चोदसं करेत्ता सकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारेत्ता अट्ठमं करेति, अट्ठमं करेत्ता सव्वकाम गुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारेत्ता दसमं करेति, दसमं करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारेत्ता दुवालसं करेति, दुवालसं करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारेत्ता चोद्दसमं करेति, चोदसं करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारेत्ता सोलसं करेति, सोलसं करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारेत्ता चउत्थं करेति, चउत्थं करेत्ता सध्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारेत्ता छटुं करेति, छटुं करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारेत्ता चोद्दसं करेति, चोद्दसमं करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारेत्ता सोलसमं करेति, सोलसमं करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारेत्ता चउत्थं करेति, चउत्थं करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारेत्ता छटुं करेति, छटुं करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारेत्ता अट्ठमं करेति, अट्ठमं करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारेत्ता दसमं करेति, दसमं करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारेत्ता दुवालसं करेति, दुवालसं करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारेत्ता छ8 करेति, छटुं करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारेत्ता अट्ठमं करेति, अट्ठमं करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारेत्ता दसमं करेति, दसमं करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारेत्ता दुवालसं करेति, दुवालसं करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारेत्ता चोदसमं करेति, चोदसमं करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारेत्ता सोलसमं करेति, सोलसमं करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारेत्ता चउत्थं करेति, चउत्थ करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारेत्त: दुवालसं करेति, दुवालसं करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकाम-गुणियं पारेत्ता चोदसमं करेति, चोहसमं करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारेत्ता सोलसमं करेति, सोलसमं करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारेत्ता चउत्थं करेति, चउत्थं करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारेत्ता छटुं करेति, छ8 करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारेत्ता अट्ठमं करेति, अट्ठमं करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणिय पारेत्ता दसमं करेति, दत्तमं करेत्ता, एकेकाए, लयाए अट्ठ मासा पंच य दिवसा
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________________ महालयसव्व० 211 - अभिधानराजन्द्रः - भाग 6 महाविदेह चउण्हं दो वासा अट्ठ मासा वीस दिवसासेसं तहेव० जाव सिद्धा।। वतकमलानव अतिश्रेष्ठामित्यर्थः / तस्मात् (महायनामाउ / (सूत्र-२३) महाविमानात्। कल्प०१ अधि०१ क्षण। जी०। आ००। अन्त०८ वर्ग 0 अ0 ! महालया आलयप्रत्ययस्य स्वार्थिकत्वाद; / महाविज्ज पुं० (महावैद्य) केवलिचतुर्दशपूर्ववित्प्रभृतौ भदरोगनिदानवदार, अतिशयातिशयगुरुके, भ०१२०१ उ०। विपा० अनु०। HIROY A. ! अष्टाहायुर्वेदरूपस्य धन्वन्तरिप्रणीतस्य पैटाकशास्त्र महालो (देशी) जारे, देना०६ वर्ग 116 गाथा। TH THअभी तवति, बृ०१ उ०। महालसत्रिक (महालस) अत्यन्तमलसे, महा०३ अ०॥ महाविजा बी० (महाविद्या) महापुरुषप्रदत्तविद्यायाम महालोहिअक्ख पुं० (महालोहिताक्ष) बलेराचनेन्द्रस्य महिला महाविदेह महाविदेड) जम्बूद्वीपमध्यगले वर्षे, जंग काधिपत', स्था०५ ठा०१ उ०। त पतामाह - महावक्कऽत्थ पुं० (महावाक्यार्थ) प्रक्षिक्षेतरसर्वधर्मात्मकत्ववस्तुप्रति- कहिणं भंते ! जंबूद्दीवे दीवे महाविदेहे णार्म वासे प पदकाने कान्तवादविषया, षो०११ विव० / गोअमा! णीलवंतस्स वासहरपव्वयस्स दक्खिणेणं णिराहस्स महावकत्थय त्रि० (महावाक्यार्थज) अनेकान्तविषयार्थजन्ये, यो०११ वासहरपव्वयस्स उत्तरेणं पुर (च्छि) स्थिमलवणसमुद्दस्त पचत्थिमेणं पचत्थिमलवणसमुहस्स पुरत्थिमेणं, एत्थ महावच्छ 90 (महावर रा) जम्बूद्वीपे मन्दरस्य पूर्वे शीताया महानहः / जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे णामं वासे पण्णत्ते / पाईणपडीणायए क्षिणेऽपराजिता राजधानीयुक्त विजयक्षेत्रयुगले, स्था०८ दा० / महा- उदीणदाहिणवित्थिपणे पलिअंकसंठाणसंठिए दुहा लवणसमुह सत्सा विजयोऽपराजिता राजधानी वैश्रमणकूटो नाम वक्षस्काराद्रिः / पुढे पुरत्थिम० जाव पुढे, पञ्चत्थिमिल्लाए कोडीए पञ्चस्थिi०४ वक्षः। मिल्लं० जाव पुढे, तित्तीसं जोअणसहस्साई छच्च चुलसीए जो महावज्जा स्त्री० (महावा) लोकपीडया सावद्यायां बरातो, पं०३० असणसए चत्तारि अएगूणवीसइभाएजोअणस्स विक्खंभेणं ति। द्वार। ('वसहि' शब्दे दर्शयिष्यते) तस्स बाहा पुरस्थिमपचत्थिमे णं तेत्तीसं जोअणसहस्साई सत्त महावण न० (महावन) मथुराया स्वनामख्यातेदने, ती०८ कल्प। उत्त० / य सत्तसट्टे जोअणसए सत्त य एगूणवीसइमाए जोअणस्स महावप्प पुं० (महावअ) जम्बूमन्दरस्य पश्चिमे शीतोदाया महानद्या उत्तर आयामेणं ति, तस्स जीवा बहुमज्झदेसभाए पाईणपडीणायया जयन्तिकापुरीप्रतिबद्धे विजयक्षेत्रयुगःने, स्थान: दा0। आ०० दुहा लवणसमुदं पुट्ठा पुरथिमिल्लाए कोडीए पुरथिमिल्लं० दो महावप्या। स्था०२ ठा०३ उ०। जाव पुट्ठा, एवं पचत्थिमिल्लाए०जाव पुट्ठा, एग जोयणसयमहावराह पु० (महावराह) महाकायसूकरे, सूत्र०१ श्रु०७ अ०। सहस्सं आयामेणं ति, तस्स धणुं उभओ पासिं उत्तरदाहिणेणं महाबल्ली (देशी) नलिन्याम, दे० ना०६ वर्ग 122 गाथा एग जोअणसयसहस्सं अट्ठावणं जोअणसहस्साई एगं च तेरसुत्तरं महावाय पुं० (महावात) उद्दण्डवाते, ज्ञा०१ श्रु०१० अ० / अनल्पवाते, जोअणसयं सोलस य एगणवीसइभागे जोयणस्स किंचि भ०५ श०२ उ आचा०। विसेसाहिए परिक्खेवेणं ति। महावाउ पुं० (गहावायु) ईशानेन्द्रस्य पीठानीकाधिपतौ अश्वराजे, "कहिणमित्यादिचत्तारिक भदन्त! इत्यादि सूत्रं स्वयं योज्यम्, नवरं स्था०५ ठा०१ उ०। महाविदेह नाम वर्ष-चतुर्थ क्षेत्र प्रज्ञप्तम् ? गौतम ! नीलवतो वर्षधरमहाविगइ स्त्री० (महाविकृति) महाररो, महाविकारकारित्वात् / महा- पर्वतस्य चतुर्थस्य क्षेत्रविभागकारिणो दक्षिणेनेत्यर्थः (णिसहस्स विकृतयो महारसत्वेन महाविकारकारिवान्महतः सत्त्वोपघातस्य इत्यादि) व्यक्तम्, नवरं पल्यङ्कसंस्थानसंस्थितमायतचतुरस्रत्वात्, कारणत्वात् / स्था०। विस्तारेण त्रयस्त्रिंशोजनसहस्त्राणि षट् च योजनशतानि चतुरचत्तारि महाविगईओ पण्णत्ताओ। तं जहा-महुं मंसं मजं | शीत्यधिकानि चतुरश्चै कोनविंशतिभागान् योजनस्य विष्कम्भेन, णवणीयं / (सूत्र-२७४) निषधविष्कम्भाद् द्विगुणविष्कम्भकत्वात् / अथ बाहादिसूत्रत्रयमाहमद्यभेदे च। स्था०४ ठा०१ उ०। (तस्स बाहा इत्यदि) तस्य महाविदेहस्य वर्षस्य पूर्वोपरभागेन बाहा महाविजय न० (महाविजय) महान् विजयो यत्रतत् महाविजयम्। पुष्पो- प्रत्येक त्रयस्त्रिंशद्योजनसहस्त्राणि सप्त च योजनशतानि सप्तषष्ट्य तरनामके विजयिनि विमानभेदे, कल्प० / (पुप्फुत्तर त्ति) पुष्पोत्तर- धिकानि सप्त च एकोनविंशतिभागान् योजनस्य आयामेनेति / ननु नामकम् (पवरपुण्डरीयाओ त्ति) प्रवरेषु अन्यश्रेष्ठविमानेषु पुण्डरीकमिव ''महया धणुपट्टाओ, डहराग सोहिआ हि धणुपट्टा जं तत्थ हबइ सेरा
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________________ महाविदेह 212 212 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 महाविदेह तस्सद्धे मिहिसे बाहं ||1||" इति वचनात् / महतो धनुःपृष्ठाद्धिदेहाना दक्षिणार्द्धस्योत्तरार्द्धस्य च संबन्धिनो लक्षमेकमष्टपञ्चाशत् सहस्त्राणि शतमेकं त्रयोदशाधिक योजनानां षोडश च कलाः सार्दा योजन 158113 कलाः 16 कलार्द्ध चेत्येवं परिमाणल्लघुधनुःपृष्ठ निषधादिसंबन्धिलक्षमेकं चतुर्विशतिसहस्त्राणि त्रीणि शतानि षट्चत्वारिंशदधिकानि योजनानां नव च कला योजन 124346 कलाः इत्येवं परिमाण शोधय / ततश्च शेषमिदं त्रयस्त्रिंशत् सहस्त्राणि सप्तशतानि सप्तषष्ट्यधिकानि योजनानां सप्त च कलाः सार्धाः योजनानां 33767 कलाः 7 कलार्द्ध 1/2 च, एषामर्द्ध षोडश योजनसहस्त्राणि अष्टौ शतानि त्र्यशीत्यणिकानियोजनानां त्रयोदश च कलाः सपादा इत्येवं रूपा बाहा विदेहाना सम्भवन्ति, अत्र तु त्रयस्त्रिंशत् सहस्त्रादिरूपा उक्रा तत्किभिति ? उच्यते-सर्वत्र वैताढ्यादिषु पूर्वबाहा अपरबाहा च यावती दक्षिणतस्तावती उत्तरतोऽपि परं व्यवहितत्वेन सा संमील्य नोक्ता, इयं तु संमिलितत्वात्संमील्यैवोक्ता, सूत्रे दक्षिणबाहाप्रमाणैवोत्तरबाहेत्येनमर्थ बोधयितुमिति। अथास्य जीवामाह-(तस्स जीवा इत्यादि) तस्य विदेहस्स जीवा बहुमध्यदेशभागे विदेहमध्ये इत्यर्थः / अन्येषां तु वर्षवर्षधराणं चरमप्रदेशपङ्क्तिीवा, अस्यतुमध्यप्रदेशपक्तिरित्यर्थः, इयमेव चजम्बूद्वीपमध्यम्, अत एव चायामेन लक्षयोजनमाना, मध्यमात्परतस्तु जम्बूद्वीपस्य सर्वत्र दक्षिणत उत्तरतो वा लक्षान्न्यूनन्यूनमानत्वात, अथास्य धनुःपृष्ठमाह-(तस्स धणुं इत्यादि) तस्य विदेहस्योभ्योः पार्श्वयोः एतदेव विवृणोति-(उत्तरदाहिणेणं ति) उत्तरपार्श्वे दक्षिणपायें वा एक योजनलक्षम् अष्टपञ्चाशच योजनसहस्त्राणि एकं च योजनशत त्रयोदशोत्तर षोडश चैकोनविंशतिभागान् योजनस्य किञ्चिद्विशेषाधिकान् परिक्षेपेण, यचान्यत्र सार्द्धाः षोडश कला उक्तास्तदत्र किचिद्विशेषाधिकपदेन संगृहीतम्, उद्धरितकलाशास्तु विवक्षिता इति। अत्राधिकार्थसूचनार्थ करणान्तरं दर्श्यते-जम्बूद्वीपपरिधिस्तिस्त्रो लक्षाः षोडश सहस्त्राणि द्वेशते सप्तविंशत्यधिके योजनानां कोशत्रयमष्टाविंशं धनुःशतं त्रयोदशाङ्गुलान्येकमद्धीमुलम्, योजन 316227 क्रोश ३धनूंषि 128 अड्डलानि 13 अडिलम् तत्र योजनराशिरीक्रियते, लब्धमेक लक्षमष्टापञ्चाशत् सहस्त्राणि शतमेकं त्रयोदशाधिक योजनानि 158113, यत्त्वेक योजन शेष तत्कलाः क्रियन्ते लब्धाः एकोनविंशतिः कोशत्रये चलब्धाः सपादाश्चतुर्दश कलाः, उभयमीलने जाताः सपादास्त्रयस्त्रिंशत् कलाः, तासामढे लब्धाः सार्धाः षोडश कलाः / यश्च कलाया अष्टमी भागोऽधिक उद्धरति यानि च धनुषामद्धे लब्धानि चतुःषष्टिर्धषि यानि च सार्द्धत्रयोदशामुलानामढे पादोनानि सप्ताङ्गुलानि तदेतत्सर्वमल्पत्वान्न विवक्षितमिति। अधुना विदेहवर्षस्य भेदान्निरूपयन्नाहमहाविदेहे णं वासे चउविहे चउप्पडोआरे पण्णत्ते / तं जहापुव्वविदेहे 1, अवरविदेहे 2, देवकुरा 3, उत्तरकुरा / महाविदे हस्सणं मंते! वासस्स के रिसए आगारभावषडोआरे पण्णत्ते ? गोयमा / बहुस मरमणिजे भूमिभागे पण्णत्ते० जाव कित्तिमेहि चेव अकित्तिमेहिं चेव / महाविदेहे णं भंते ! वासे मणुआणं के रिसए आयारमावपडोआरे पण्णत्ते ? गोयमा ! तेसि णं मणुआणं छव्विहे संघयणे छविहे संठाणे पंच धणुसयाई उर्ल्ड उच्चत्तेणं जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं पुवकोडी आउअं पालेंति पालेत्ता अप्पे गइया णिरयगामी० जाव अप्पेगइया सिज्झंति० जाव अंतं करेंति / से केणऽद्वेणं भंते ! एवं वुइमहाविदेहे वासे म०२ गोअमा ! महाविदेहे णं वासे भारहेरवयमेहवयहेरण्णवयहरिवासरम्मगवासेहिंतो आयामविक्खम्भसंठाणपरिणाहेणं वित्थिण्णतराए चेव विपुलतरए चेव महंततराए चेव सुप्पमाणतराए चेव महाविदेहा य इत्थ मणूसा परिवसंति, महाविदेहे य इत्थ देवे महिड्डिए० जाव पलिओवट्ठिईए परिवसइ, से तेणटेणं गोअमा! एवं वुचइ-महाविदेहे वासे म०२, अदुत्तरं चणं गोअमा ! महाविदेहस्स वासस्स सासए णामधेज्जे पण्णत्ते, जंण कयाइ णाऽसि ण कयाइ नऽस्थि ण कयाइ ण भविस्सइ सूत्र-८५|| (महाविदेहे णं इत्यादि) महाविदेहं वर्ष चतुर्विधचतुष्प्रकार पूर्वविदेहाद्यन्यतरस्य महाविदेहत्वेन व्यपदिश्यमानत्वात्, अत एव चतुर्षुपूर्वापरविदेहदेवकुरुत्तरकुरुरूपेषु क्षेत्रविशेषेषु प्रत्यवतारः-समवतारो विचारणीयत्वेन यस्य तत्तथा, चतुर्विधस्य पर्यायो वाऽयम्, तत्र पूर्वविदेहो यो मेरोर्जम्बूद्वीपगतःप्राग्विदेहः एवं पश्चिमतः सोऽपरविदेहः, दक्षिणतो देवकुरुनामा विदेहः, उत्तरतस्तु उत्तरकुरुनामा विदेहः / ननु पूर्वापर - विदेहयोः समानक्षेत्रानुभावकत्वेन महाविदेहव्यपदेश्यताऽस्तु. देवकुरूतरकुरूणांत्वकर्मभूमिकत्वेन कथं महाविदेहत्वेन व्यपदेशः? उच्यतेप्रस्तुतक्षेत्रयोर्भरताद्यपेक्षया महाभोगत्वात् महाकायमनुष्ययोगित्वा - न्महाविदेहदेवाधिष्ठयत्वाच महाविदेहवाच्यता समुचितैवेति सर्वं सुस्थम्। अथास्य स्वरूप वर्णयितुमाह-(महाविदेह इत्यादि) प्राग्वत, अत्र यावत्करणात्"आलिंगपुक्खरेइ वा जावणाणाविह पंचवण्णेहिं मणीहिं तणोह अउपसोभिए'' इति। संप्रत्यत्र मनुजस्वरूपमाह-'महाविदेहे णं' इत्यादि प्राग्वत्, आभ्यां सूत्राभ्यामस्य कर्मभूमित्वमभाणि, अन्यथा कर्षकादिप्रवृत्तानां तृणादीना कृत्रिमत्वं तद्वर्पतजातानां च मनुष्याणा पञ्चमगतिगामित्व न स्यात् / अथास्य नामार्थ प्रश्नयन्नाह-"सेकेण तु णमित्यादि'' प्राग्वत्, प्रश्नसूत्रं सुगमम् / उत्तरसूत्रे - गौतम ! महाविदेह-वर्ष भारतैरवतहैमवतहैरण्यहरिवर्षरम्यकवर्षेभ्यः आयामविष्कम्भसंस्थानपरिणाहेन, समाहारादेकवद्भावः। तत्राऽयामादित्रिक प्रतीतम्, परिणाहः-परिधिः, अत्र च व्यस्ततया विशेषणनिर्देशेऽपि योजना यथासम्भवं भवतीत्यायामेव महत्तरक एव लक्षप्रमाणजीवाकत्वात्, तथा विष्कम्भेन विस्तीर्णतरक एसाधिकचतुरशीतिषट्शताधि
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________________ महाविदेह 213 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 महावीर कत्रयन्निशद्योजनसहस्त्रपमाणत्वात्, तथा संस्थानेन पल्यङ्करूपेण विपुलतरक एव पार्श्वद्वयेऽपीषययोस्तुल्यप्रमाणात्वात् / हैमवतादीना पल्यङ्कसं स्थितत्वेऽपि पूर्वजगतीकोणाना संवृतत्वेन पूवीपरेषयोवैषम्यादिति / तथा परिणहेन सुप्रमाणतरक एव, एतद्धनुः पृष्ठस्य जम्बूद्वीपपरिध्यद्धमानत्यादिति, अत एव महान्- अतिशयेन, विशिष्टोगरीयान्, देहः-शरीमाभोग इति यावत् येषां ते महाविदेहाः / अथवामहान् अतिशयेन, विशिष्टो गरीयान, देहः-शरीरं कलेवरं येषा ते तथा, ईदृशास्तत्रत्या मनुष्याः, तथाहि-तत्र विजयेषु सर्वदा पञ्चधनुःशतोच्छ्या देवकुरूत्तरकुरुषु त्रिगव्यूतोच्छ्रयाः ततो महाविदेहभनुष्ययोगादिदमपि क्षेत्र महाविदेहाः। महाविदेहश्चशब्दः स्वभावाद्बहुवचनान्त एव, एतच्च प्रागेयोक्तम् / ततो बहुवचनेन व्यवहियते, दृश्यते च कचिदेकवचनान्तोऽपि, तदपि प्रमाणम्, पूर्वमहर्षिभिस्तथाप्रयोगकरणात् / अथवामहाविदहनाम देवीऽत्राधिपत्यं परिपालयति, तेन तद्योगादपि महाविदेह इति, शेष प्राग्वत् / जं०४ वक्ष०। स्था० / प्रव०। प्रज्ञान विपा० स० आ० चू०। (उत्तरकुरुवक्तव्यता 'उत्तरकुरा' शब्दे द्वितीयभागे 757 पृष्ठे गता) (कच्छादिविजयानां वर्णकः कच्छाऽऽदिशब्देषु) पिशाचविशेष, प्रज्ञा०१ पद। जम्बुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे चउबिहे पण्णत्ते / तं जहापुव्वविदेहे, अवरविदेहे, देवकुरा, उत्तरकुरा। स्था०४ ठा० / (महाविदेहे कल्याणचिन्ता'कल्लाण' शब्द तृतीयभागे 384 पृष्ठ कृता।) महाविदेहा स्त्री० (महाविदेहा) शरीराबहिर्नरपेक्ष्येण मनोवृत्ती, द्वा०) शरीरादहियां शरीरनैरपेक्ष्येण मनोवृत्तिः सा महाविदेहेत्युच्यते, शरीराऽहंकारविगमात् / अत एवाकल्पितत्वेन महत्त्वात् शरीराऽहंकारे सति हि बहिवृत्तिर्मनसः कल्पितोच्यते। तस्याः कृतसयमायाः सकाशात प्रकाशस्य शुद्धसत्त्वलक्षणस्य यदावरणं क्लेशकर्मादि तत्क्षयो भवति, सर्वे चितमलाः क्षीयन्त इति यावत्। तदुक्तम्- "बहिरकल्पितावृत्तिर्महाविदेहा ततः प्रकाशावरणक्षय इति। द्वा०२६ द्वा०। महाविमाण न० (महाविमान) अनुत्तरविमानेषु, स्था०। उडलोगे पंच अणत्तरा महइमहाविमाणा पण्णत्ता / तं जहाविजए, वेजयंते, जयंते, अपराजिए, सव्वट्ठसिद्धे / स्था०५ ठा०२ उ० / सूत्र०। महाबिल (देशी व्योम्नि, देवना०६ वर्ग 121 गाथा! महाविस पुं० (महाविष) महजम्बूद्वीपप्रमाणशरीरस्यादिविषतया भवनात् विष यस्य सः / ज्ञा०१ श्रु०६ अ०। प्रधानविषयुक्ते, आव०४ अ०। जम्बूद्वीपप्रमाणस्यापि शरीरस्य व्यापनसमर्थे विषे, भ०१५ श०। महाविसय त्रि० (महाविषय) बृहद्गोचरे, पञ्चा०८ विव० / आव०। दर्श०। महाविहिपुं० (महाविधि) बृहद्विधौ, सूत्र०१ श्रु०२ अ०१ उ०। महावीर पुं० (महावीर) महाश्चासौ वीरश्च कर्मविदारणसहिष्णुर्महावीरः।। तक। 'शूर' 'वीर' विक्रान्तौ / कषायादिशत्रुजयान्महाविक्रानतो महावीरः / आ०म०१ अ० / दश०। स्था०। एगे समणे भयवं महावीरे इमीसे ओसप्पिणीए चउव्वीसाए तित्थगराणं चरमतित्थयरे सिद्धे बुद्धे मुत्ते० जाव सव्वदुक्खप्पहीणे / (सूत्र-५३) (एगे समणे इत्यादि) एकः-असहायः, अस्य च सिद्ध इत्यादिना संबन्धः, आम्यति-तपस्यतीति श्रमणः, भज्यत इति भगः-समग्रेश्वर्यादिलक्षणः उक्तं च"ऐश्वर्यस्य समग्रस्य, रूपस्य यशसः श्रियः। धर्मस्याथ प्रयत्नस्य,पण्णां भग इतीङ्गना।।१।।" इति। स विद्यते यस्येति भगवान, तथा विशेषेणेरयति-मोक्षं प्रति गच्छति गमयति वा प्राणिनः, प्रेरयति वा-कर्माणि निराकरोति, वीरयति वारागादिशबून प्रति पराक्रमयति इति वीरः, निरुक्तितो वा वीरो, यदाह"विदारयति यत्कर्म,तपसाच विराजते। तपोवीर्येण युक्तश्च, तस्माद्द्वीर इति स्मृतः॥१॥" इतरवीराऽपेक्षया महांश्चासौ वीरश्चेति महावीरः, भाष्योक्तं च"तिहुयणविक्खायजसो, महाजसो नामओ महावीरो। विकतो य कसायाऽऽइ सत्तुसेन्नप्पराजयओ // 1 // ईरेइ विसेसेण व, खिवइ कम्माइ गमयइ सिवं वा। गच्छइ अतेण वीरो, स मह वीरो महावीरो // 2 // " इति। अस्यामवसर्पिण्यां चतुर्विशतेस्तीर्थकराणां मध्ये चरमतीर्थकरः सिद्धःकृतार्थो जातः / बुद्धः केवलज्ञानेन बुद्धवान बोध्यम्, मुक्तः कर्मभिः, यावत्करणात् 'अंतकड़े' अन्तो भवस्य कृतो येन सोऽन्तकृतः परिनिव्वुडे' परिनिर्वृतः कर्मकृतविकारविरहात् स्वस्थीभूतः, किमुक्त भवति ?-"सव्वदुकखपहीणे'' सर्वाणि शारीराऽऽदीनि दुःखानि प्रक्षीणानि वा यस्य स, सर्वदुःखप्रक्षीणः सर्वदृःखप्रहीणे वा। सर्वत्र बहुव्रीही तान्तस्य यः परनिपातः स आहितापयादिदर्शनादिति / इह च तीर्थकरेष्वेतस्यैवैकत्वं मोक्षगमने, न तु ऋषभादीना, दशसहस्त्रादिपरिवृतत्वेन तेषां सिद्धत्वात्, उक्तं च"एगो भगवं वीरो, तेत्तीसाए सह निव्वुओ पासो। छत्तीसएहिं पंचहिँ,सएहिँ नेमी उ सिद्धिगओ॥१॥" इति। स्था०१ ठा० / सूत्र० / कर्मदारणसहिष्णौ, सूत्र०१ श्रु०१५ अ० / श्रीमद्वर्द्धमानस्वामिनि, सूत्र०१ श्रु०६ अ० / सर्वलोकचमत्कृतिकारिणि, आचा०१ श्रु०६ अ०३ उ०। आव० / आ०चू० / रा०। अने० / प्रज्ञा०ा पा० / विशे० / स्था० / सूत्र० / अनु० / प्रव०ाल०। (संपूर्णोऽधिकारः 'वीर' शब्दे वक्ष्यते) समणेणं भगवया महावीरेणं अट्ठ रायाणो मुंडे मवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वाविया। णं जहा-"वीरंगय वीरजसे, संजयए णिज्जए य रायरिसी। सेयसिवे उदायणे, तह संखे कासि वद्धणे / / 1 / / " (सूत्र-६२१) स्था०५ ठा०३ उ०।
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________________ महावीर 214 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 महास्यय वंदामि महाभाग, महामुणिं महायसं महावीरं। महावेज पुं०(महावैटा अष्टाहार्वेदोत्ती वेदो 2170 / अमरनररायमहियं, तित्थयरमिमस्स तित्थस्स / / महावेयण न० (महावेदन) महापी मायाप्प भ०६, 103 30 / म अ या पचा। भ० ज०। आचा० / स ! | महावेयणतर त्रि० (गहावेदनतर: पीना जीवानां यस्मात्स तथा। भाई सपिथकृतो द्रिसप्ततिवर्षाण्यामानात ता दिन भो नव नीवाना महत्या वेदनाया उत्पादके / भ०७ श०१० उ०। मियाय मिथापिघटते तत्किामा प्रश्न उत्तम- नहावोंदि स्त्री० (महावान्द्रि) महा भावतनौ, भ०३ श० उ०। जन्'परमार्थतस्तु गोतित पापना) या ! महास पुं० (महाऽश्य) बृहत्तुर ओ०। सत्यादिवर्षमानप्रतिपादनंन्यूनाधिय मानिपक्ष महासंगाम पु० (महासंग्राम) चक्रादिव्यूहरचनोपेततया संव्यवस्थे महारणे, संवादतीत 64 प्रः / सनः 2 35.6::: दाशिम राजा, ज०२ वक्षः। प्रयोविशगव चक्रा, चम्णिा देवनारका: नयनान्या वति प्रश्न / महासंजत्तिय पु० (महासायात्रिक) ती किरे, आ०चू०१०। उत्तर- आ धारचारिकाधना ! हमवारत्तर नारकभवाद- महासड्डि त्रि० (महालदिन) गहतो चार हा च महाश्रद्धा, सा विद्यते न्यातयेम यादव भान्त्या नाकी जातो, राजभवस्तु स्तात्रेष्षव भोगेष तदुपायेषु वा यस्य रस्त भाग . "अमरायड महासड़ी" सान्य, तनादिशवदग्रहणासुरादिभवा पिसभाव्यत इति।११३ आचा०१ श्रु०२ अ०५६०। 101502 उल्ला निर्वाणावरारे श्रीवीरेण षोडश प्रहसन यावद्धश- महासढ पुं० (महा.) इतिशत, जातिवणंतहा पिया माइल्ल सामानावरन्य कस्मिन दिन पूर्णा जाति प्रश्न उत्तरम् - महाराढ्य / 20501 श्रु०७ / तुदशीमावास्यायाः पाश्चाटिकाद्वयरात्री दशना पूर्णा / महासण्णाह, महारान्नाह) वृहरपुरुषाणामपि बहूनां सन्नाहे. जी०३ नाता रामपला मावास्याय: कानशिन्मुहूर्ते निवण कथित- | प्रति०४ आप परित महरास्त ततोऽर्वाग जाता युज्यन्त इति / 450 प्र०। महासत्त पुं० (महाराव) अवक्लव्याध्यासायवति, पक्षा०१२ विव 2 उ मापीरोण कर्णशलाकाकर्षणे कथमाक्रन्दः कृतः, महासत्ता स्त्री० (महासत्ता) सर्वत्र सदिचवमनुगलाकारावबोध-हे भूते अजन्तालल्लादिलिपाने, उत्तरम् - अनन्तबलत्वं भगनता क्षायिकवीर- सामान्ये, स्था०७ ठा० / यद्वशादविणा सर्वत्र सदिति प्रत्यय सति। आश्नि-गोकर "अपरिमिरावना जिणवरिंदा' इत्यत्र तथा व्याख्या- आ०म०१०। नात न प्रवलपीडावशा दगात आक्रन्दराभवेऽपिन किमायनपपन्न- महासत्थन महाशा' , नागवाणादि-दि-या, नागवाणादयो हि धाणा मिति। 465 / रोन०३ उल्ला०। का तापमान का जी०३ प्रति०५ अधिः / महावीरथुइ स्त्री० (महावीरस्तुति) दीरस्तवनात्मक सत्रास नहासत्याणिवय रनिपतन) नागवाणाऽऽदीना दियामध्ययन स०१५ सम०। anti 21, " माऽऽदयां हि याजा महाशस्त्राणि तेषाम इतमहावीरभासिय न० (महावीरभाषित) प्रश्नव्याकरणानांतृतीयऽध्ययन शोजि३प्रति०४ अधि०। 2040:10 महासत्थदाह पु० महासार्थवाह) महावणिज़ि, आ०५० अ० महावीहिरी महावीथि) महती चासी वीथिश्चा सम्यगदर्शनादिरूप महासद्द पुं०(महाशब्द) शृगाले, "भुल्लुकिआ भसुआ महासा" गाइक माक्षमागे, आचा०२ श्रु०१ अ०३ उ०। नास गाथा नहाबुद्रिकाय महावृष्टिकाय) प्रभूतवृष्टी, स्था०। महासदा (देशी) शृगाले, दे० ना०६ वर्ग 120 गाथा। तिहिं ठाणेहिं महावुट्टिकाए सिया। तं जहा-तंसि च णं देसंसि महासमण पुं०(महाश्रमण) महातपस्विनि, द्वादशादितपश्चा-रेणि, पंत्यः वा पएसंसि वा बहवे उदगजोणिया जीवा य पोग्गला य उदगत्ताए द्वार। "भारद्वायसगोते, सूयगडगे महासमणनामे ! अगुरीसस हिं. वक्कमति विमति चयंति उववचंति, देवा जक्खा नागा भूया जाहिं वरिसाण वोच्छिति। 11'' ति०। सम्भगाराहिया भवंति अन्नत्थ समुट्टियं उदगपोग्गलं परिणयं महासमुद्दपु० (महासमुद्र) र भरागादि-सह गागारे Try ठि.10 वासिउकामंत देसंसाहरंति, अभवद्दलगं च णं समुट्ठियं परिणयं / महासयय पुं० (महाशतक) फोनवर राजमहतो रचनामारमाहो वासिउका बाउकातो विहुणति, इच्छएहिं तिहिं ठाणेहिं गदपती, उपा०! महाबुद्रिकाए पिया (सूत्र-१७६) स्था०३ ठा०३ उ० / जंबू ! तेणं कालेणं ते णं समएणं राजगिहे णयरे महादेग jo (हा महोरगविशेषे, प्रज्ञा 1 पद भूननिकायदेभे / गुणसिले चे इए से णिए राया, तत्थ णं रायगिहे महासयए णाम गाहावई परिवसइ, अङ्ग्रे जहा आणंदो, णवरं अट्ठ
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________________ महासयय 215 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 महासयय हिरण्णकोडिओ सकं साओ णिहाणपउत्ताओ अट्ठ हिरण्णकोडिओ सक साओ वुट्ठिउत्ताओ अट्ट हिरण्णको डिओ सकंसाओ पवित्थरपउत्ताओ। अट्ठ वया दसगोसाहस्सिएणं, वएणं, तस्स णं महासयगस्स रेवईपामोक्खाओ तेरस भारियाओ होत्था, अहीणा० जाव सुरूवाओ। तस्स णं महासयगस्स रेवईए भारियाए कोलघरियाओ अट्ठ हिरण्णकोडिओ अट्ठ वया दसगोसाहस्सिएणं वएणं होत्था / अवसेसाणं दुवाससण्हं भारियाणं कोलघरिया एगमेगा हिरण्णकोडी एगमेगे य वए दसगोसाहस्सिएणं वए णं होत्था। (सूत्र-४६) ते णं काले णं ते णं समए णं सामी समोसढे, परिसा णिग्गया, जहा आणंदो तहा णिग्गच्छइ तहेव सावयधम्म पडिवजइ, णवरं अट्ठ हिरण्णकोडिओ सकं साओउचारेइ, अट्ठ वया रेवईपामोक्खाहिं तेरसहि भारियाहिं अवसेस मेहुणविहिं पचक्खाइ, सेसं सव्वं तहेव, इमं च णं एयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हइ कल्लाकल्लिं चणं कप्पइ मे वे दोणियाए कंसपाईए हिरण्णभरियाए संववहरित्तए, तए णं से महासयए समणोवासए जाए अभिगयजीवाजीवे० जाव विहरइ / तए णं समणे भगवं महावीरे बहिया जणवयविहारं विहरइ। (सूत्र-४७) तएणं तीसे रेवईए गाहावइजीए अण्णया कयाई पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि कुडुंव० जाव इमेयारूवे अज्झथिए०४ एवं खलु अहं इमस्सि दुवालसण्हं सवत्तीणं विघाएणं णो संचाएमि महासयएणं समणोवासएणं सद्धिं उरालाई माणुस्सयाई भोगभोगाइं भंजमाणी विहरित्तए, तं सेयं खलु ममं गयाओ दुवालस वि सवत्तियाओ अग्गिप्पओएणं वा सत्थप्प० वा विसप्प० वा जीवियाओ ववरोवित्ता, एयासिं एगमेगं हिरण्णकोडिं, एगमेगं वयं सयमेव उवसंपज्जित्ता णं महासयएणं समणोवासएणं सद्धिं उरालाइं० जाव विहरित्तए, एवं संपेहेइ एवं संपेहित्ता तासिं दुबालसण्हं सवत्तीणं अंतराणि च छिदाणि य विवराणि य पडिजागरमाणी विहरइ, तएणं सा रेवई गाहावइणी अण्णया कयाइतासिंदुवालसण्हं सवत्तीणं अंतरंजाणित्ता छ सवत्तीओ सत्थप्पओएणं उद्दवेइ उद्दवेइत्ता छ सवत्तीओ विसप्पओगेणं उद्देवेइ उद्दवेइत्ता तासिं दुवालसण्हं सवत्तीणं कोलधरिअं एगमेगं हिरण्णकोडिं एगमेगं वय सयमेव पडिवजह २त्ता महासयएणं समणोवासएणं सद्धिं उरालाई भोगभोगाई भुजमाणी विहरइ / तए णं सा रेवई गाहावइणी मंसलोलुया मंसेसु मुच्छिया० जाव अज्झोववण्णा बहुविहेहिं मंसे हि य लोल्लेहि य तलिएहि य भज्जिएहि य सुरं च महं च मरेगं च मज्ज च सीधुं च प सन्नं च आसाएमाणी०४ विहरइ। (सूत्र-४८) तए णं रायगिहे णयरे अण्णया कयाइ अमाघाए घुटे याऽवि होत्था, तए णं सा रेवई गाहावइणी मंसलोलुया मंसेसु मुच्छिया कोलघरए पुरिसे सद्दावेइ 2 त्ता एवं वयासी-तुब्भे देवाणुप्पिया ! मम कोलघरिएहिंतो वएहिंतो कल्लाकल्लिं दुवे दुवे गोणपोयए उद्दवेह उद्दवेइत्ता ममं उवणेह, तए णं ते कोलघरिया पुरिसा रेवईए गाहावइणीए तह त्ति एयमट्ट विणएणं पडिसुणंति पडिसुणित्ता रेवईए गाहावइणीए कोलघरिएहिंतो वएहिंतो कल्लाकल्लिं दुवे दुवे गोणपोयए वहें ति 2 त्ता रेवईए गाहावइणीए उवणेति, तए णं सा रेवई गाहावइणी तेहिं गोणमंसेहिं सोल्लेहि य०४ सुरं च०६ आसाएमाणी०४ विहरइ। (सूत्र-४६) तए णं तस्स महासयगस्स समणोवासगस्स बहू हिं सील० जाय भावेमाणस्स चोद्दस संवच्छरा वइक्वंता , एवं तहेव जेट्टपुत्तं ठवेइ० जाव पोसहसालाए धम्मपण्णत्तिं उवसंपज्जित्ता णं विहरइ / तए णं सा रेवई गाहावइणी मत्ता लुलिया विइण्णकेसी उत्तरिजयं विकढमाणी वि०२ जेणेव पोसहसाला जेणेव महासयए समणोवासए तेणेव उवागच्छइ २त्ता मोहुम्मायजणगाइं सिंगारियाइं इत्थिभावाइं उवदंसे माणी महासययं समणोवासयं एवं वयासी-हं भो महासयया ! समणोवासया ! धम्मकामया पुण्णकामया सग्गकामया मोक्खकामया धम्मकंखिया०४ धम्मपिवासिया०५ किण्णं तुब्भे देवाणुप्पिया ! धम्मेण वा पुण्णेण वा सग्गेण वा मोक्खेण वा ? जण्णं तुम मए सद्धिं उरालाइं०जाव भुजमाणे णो विहरसि। तएणं से महासयए समणोवासए रेवईए गाहावइणीए एयमहूँ जो आढाइ णो परियाणइ अणाढाइज्जमाणे अपरियाणमाणे तुसिणीए धम्मज्झाणोवगए विहरइ, तए णं सा रेवई गाहावइणी महासययं समणोवासयं दोच्चं पि तचं पि एवं वयासीह भो तं चेव भणइ, सोऽवि तहेव० जाव अणाढाइज्जमाणे अपरियाणमाणे विहरइ, तएणं सा रेवई गाहावइणी महासयएणं समणोवासएणं अणाढाइजमाणी अपरियाणिज्जमाणी जामेव दिसंपाउडभूया तामेव दिसं पडिगया। (सूत्र-५०) तए णं से महासयए स मणोवासए पढमं उवासगपडिभं उवसम्पज्जित्ता णं विहरइ, पढमं अहासुत्तं० जाव एक्कारस वि तए णं से महासयए तेणं उरालेणं० जाव किसे धमणिसंतए जाए। तए णं तस्स महासययस्स समणोवासयस्स अण्णया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकाले धम्मजागरियं जागर
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________________ महासम्म 216 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 महासयय माणस्स अयं अज्झथिए०४ / एवं खलु अहं इमेणं उरालेणं जहा आणंदो तहेव अपच्छिममारणंतियसंलेहणाझूसियसरीरे मक्तपाणपडियाइक्खिए कालं अणवकंखमाणे विहरइ, तए गं तस्स महासयगस्स समणोवासगस्स सुभेणं अज्झवरूपणेfc जाव खओनसमेणं ओहिणाणे समुप्पण्णे पुरथिमेण लवणममुद्दे जोयणसाहस्सियं खेत्तं जाणइपासइ.एवं लदिखाणं परिधमेणं, उत्तरेणं० जाव चुल्लहिमवंतं वासहरपव्वयं जागाइ पास, अहे इमीसे रयणप्पंभाए पुढीए लोलुयचुयं णरयं चउरासीइ-सिसहसटिइय जाणइ पासह / (सूत्र-५१) तएणं सा रेई गाहावइमा अग्णया कयाइ भत्ता० जाब उत्तरिजयं विकड्डेमाणी विकड्वेमाणी जेणेव महासयए समणोवासए जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ 2 त्ता महासययं तहेव भणइ० जाव दोचं पि तचं पि एवं वयासी-हं भो तहेव, तए णं से भहासयए समणोवासए रेदईए गाहावश्गीए दोचं पितचं पि एवं वुत्ते समाणे आसुरुत्ते०४ ओहिं पउंजाइ 2 ना ओहिणा आभोएइ 2 त्ता रेवई गाहावइणि एवं वयासी-ह भो रेवई ! अपत्थियपत्थिए०४ एवं खलु तुम अंतो सत्तरत्तस्स अलसएणं वाहिणा अभिभूया समाणी अट्टदुह. दृवसट्टा असमाहिपत्ता कालमासे कालं किच्चा अहे इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए लोलुयच्चुए णरए चउरासीइवाससहस्सटिइएम णेरइएसु णेरइयत्ताए उववजिहिसि, तएणं सा रेवई गाहाद - इणी महासयएणं समणोवासएणं एवं वुत्ता समाणी एवं वयासीरहे ममं महासयए समणोवासए हीणे णं ममं महाए समागोवामा भवज्ह्याण अहं महासयएणं समागोवार | रणं अहंकेणऽवि कुमारणं मारिजिस्सामिति कही। तत्था तसिया उव्विग्गा संजायभया सणियं सणियं पञ्चोसक्कइ २ता जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ 2 त्ता ओहय० जाव झियायइ, तए सा रेवई गाहावइणी अंतो सत्तरत्तस्स अलसएणं वाहिणा अभिभूया अट्टदुहट्टवसट्टा कालमासे कालं किच्चा इमीसे रयणप्पभाए पुढवीएलोलुयचुए णरए चउरासीइवाससहस्सट्टिइएतु जेरइएसु नेरइयत्ताए उववण्णा / (सूत्र-५२) / तेणं काले णं ते णं समए ण समणे भगवं महावीरे समोसरणं० जाव परिसा पडिगया गोयमाऽऽसमणे भगवं महावीरं एवं वयासीएवं खलु गोयमा ! इहेव रायगिहे णयरे ममं अंतेवासी महासयए णामं समणोवासए पोसहसालाए अपच्छिममारणं तियसले हणाए झूसियसरीरे भत्तपाणपलियाइदिखर कालं अणवकं खमाणे विहरइ, तएणं तस्स महासधरास्माताई गाहावधी भत्ता० जाव विकमाणी 2 जेणे व पोतराला जेणेव महासयए तेणेव उवागच्छइ 2 त्ता मोहुम्मायक जाव एवं वयासी-तहेव० जाव दोचं पितचं पि एवं क्यासी-तए णं से महासयए समणोवासए रेवईए गावावइणीए दोच पि तचं पि एवं वुत्ते समाणे आसुरुत्ते०४ ओहिं पउंजइ ओहिं पउंजइत्ता ओहिणा आभोएइ 2 ता गाहा वइणिं एवं वयासी-जाव उववाजिहिसि, णो खलु कप्पइ गोयमा! समणोवासगस्स अपच्छिम० जाव झूसियसरीरस्स भत्तपाणपडियाइक्खियस्स परो संतेहि तो हिं तहिएहि सब्भूतेहिं अणिट्रेडिं अकतेहिं प्यिाहिं अमणुण्णेहिं अमणामेहिं वागरणेहिं वाभिलए तं गच्छहा देवाणुप्पिया! तुम महासययं समणोवासर्ग एवं वयाहि-णो खलु देवाणुप्पिया ! कप्पइ समणोतासगस्ट अपक्तिलम जाब नपाणपडियाइक्खियस्स परो संतेहिं जाव वागरित्तए, तुमे र णं देवाणुप्पिया ! रेदई गाहावइणी संतेहिं०४ अणिद्वेहिं०६ वागरणेहिं वागरिया तं गं तुम एयस्स ठाणस्स आलोएहि० जाव नहारिहं च पायच्छित्तं च पहिवनाहि, तएणं से भगवं गोगपगपणास्स भगवओ महावीरस्स तह त्ति एयमद्वं विणएणं पडिसुणेइ 2 त्तओ पडिणिक्खभइ २त्ता रायगिहं गयर मज्झ मज्झणं अणुप्पविसइ अणुपविसित्ता जेणेव महासयगस्स समणोवासयस्स गिहे जेणेव महासयए समणोवासए तेणेव उवागच्छइ, तएणं से महासयएसमणोवासए भगवं गोयम एजमाणं पासइ 2 त्ता जाय हियए भगवं गोयमं वंदइ णमंसइ, तए णं से भगवं गोयमे महासययं समणोवासयं एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! समणे भगवं महावीरे एवमाइक्खइ एवं भासइ एवं पण्णवेइ एवं परूवेइ-णो खलु कप्पइ देवाणुप्पिया ! समणोवासगस्स अपच्छिन० जाय वागरित्तए, तुमे णं देवाणुप्पिया ! रेवई गाहावइणी संतेहिं० जाय वागरिया तं गं तुमं देवलप्पिया ! एयरस ठाणस्स आलोएहि० जाव पडिवजाहि / तए पप महासयए सोपासए भगवओ गोयमस्स तह त्ति एयभट्ट विणरण पडिसुइ 2 ता तस्स ठाणस्स आलोएइ० जाव अहारिहं च पायच्छित्त पाडेवजइ / तए णं से भगवं गोयमे ! महासयगस्स समणोवासयस्स अंतियाओ पडिणिक्खमइ 2 ता रायगिह णगरं मज्झं मज्झेणं णिग्गच्छइ 2 त्ता
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________________ महापउम 217 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 महासव जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ स्वागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ णमंसइणमंसित्ता संजमेणं तवसा अप्पाण्णं भावेमाणे विहरइ / तए णं भगवं समणे महावीरे अण्णया कयाइ रायगिहाओ णयराओ पडिणिक्खमइ २त्ता बहिया जणवयविहारं विहरइ (सूत्र-५३) तए णं से महासयए समापोवासए बहूहिं सील० जाव भावेत्ता वीसं वासाइंसमणोवासगपरियायं पाउणित्ता एकारस उवासगपडिमाओ सम्म काएण फासिता मासियाए संलेहणाए अप्पाणं झूसित्ता सटैि भत्ताई अणसणाए छेदेत्ता आलोइयपडिकंते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे अरुणवडिं सए विमाणे देवत्ताए उववण्णे / चत्तारि पलिओवमाइं ठिई महाविदेहे वासे सिज्झिहिति बुज्झिहिति णिक्खेवो / (सूत्र-५४) अष्टम (नध्ययन) भपि सुगम तथापि किमपि तत्र लिख्यते-(सकसाआ नि) सह कांस्येन द्रव्यमानविशेषण यास्ता: सकास्याः (कोलघारया या ति) कुलगृहात्पित्गृहादागताः कौलगृहिकाः / (सू०४७) (अंतराणिय नि) अवसरान छिद्राणिविरलपरिवारत्वानि विरहान् एकान्तानिति, (मंसलो त्यादि) मांसलोला:-मांसलम्पटाः, एतदेव विशिष्यत. मांसमूच्छितास्तदोषानभिज्ञत्वेन मूढा इत्यर्थः, मांसग्रथितामांसानुरागतन्तुभिः संदर्भिताः, मांसगृद्धाः-तद्भोरोऽप्यजातकांक्षाविच्छेदाः, मांसाध्यपपन्नाः-मांसैकाग्रचित्ताः, ततश्च बहुविधैर्मासै: सामान्यैस्तद्विशार्पश्च, तथाचाह (सोल्लिएहि य त्ति) शूल्यकैश्च-शूलसंस्कृतके:, ललितेश्वघृतादिनाऽनो संस्कृतैः, भर्जितैश्च-अग्निमात्रपक्त : सहेति गम्यत, सुरा च-काष्टपिष्टनिष्पन्ना, मधु च-क्षौद्रं, मेरक च-मद्यविशेष, मय च-गुडधातकीप्रभवं, सीधु च-तद्विशेष, प्रसन्नां च-सुराविशेषन, आस्वादयन्तीईषत्स्वादयन्ती, कदाचित विस्वादयन्ती-विविधप्रकारविशष वा स्वादयन्तीति, कदाचिदेव परिभाजयन्ती स्वपरिवारस्य हरिभुजाना सामस्त्येन विवक्षिततद्विशेषान (सूत्र-४८) अमाधातो' रूढिश दत्वात् अमारिरित्यर्थः (कोलघरिए त्ति) कुलगृहसंबन्धिनः / गोणपो नको-गोपुत्रकौ, उद्दवेह त्ति) विनाशयत (सूत्र-४६) (मत्त त्ति) सुरादिमदवती (लुलिता) मदवशेन चूर्णिता, स्खलत्पदेत्यर्थः, विकीर्णाः- विक्षिप्ताः केशा यस्याः सा तथा, उत्तरीयकम्- उपरितनवसनं विकर्षयन्ती मोहोन्मादजनकान् कामोद्दीपकान्, शृङ्गारिकान- शृङ्गाररसवतः, स्त्रीभवान् कटाक्षसन्दर्शनादीन् उपसंदर्शयन्ती (हं भा त्ति) आनन्त्रणम्। महाशयया ! इतयादर्विरहसीतिपर्यवसानस्य रेवतीवाक्यस्यायमभिप्रायः / अयमेवास्य स्वर्गो मोक्षावा यन्मया सह विषयसुरक्षानुभवनम् धर्मानुष्ठान हि विधीयते स्वर्गाद्यर्थम्, स्वर्गादिश्चेष्यते सुखार्थम, सुख चैतावदेव तावद दृष्टं यत्कामासेवनमिति / भणन्ति च - "जइनस्थि तत्थरसीम-तिणीउमणहरपियंगवण्णाओ। तारे सिद्धतिय ! बंधण खुमोक्खो न सो मोक्खो।।१!! तथासत्यं वच्मि हितं वच्मि, सारं वच्मि पुनः पुनः। अरिमन्नसारे संसारे, सारं सारङ्गलोचना।।२।। दिसम याति-पाविशतिकः पुमान्। अनयोर्निर-तरा प्रीतिः, स्वर्ग इत्यभिधीयते।।३।।" इति। (सूत्र-५०/ अलसएति) विचिकाविशेषलक्षणेन। तल्लक्षणं चेदम - ''नाध्य व्रजति नाधस्ता-दाहारोनच पच्यते। आमाशये लसीभूत-स्तेन सोऽलसकः स्मृतः।।१।।" इति। (हीणे ति), प्रीत्या हीनः-त्यक्तः (अवज्झाय त्ति) अपध्याता दुध्यानविषधीकृत (कुमारेण ति) दुःखमृत्युना (सूत्र -52) (नो खलकप्पड गोयमे यदि) (संतेहिं ति) सद्भिर्विद्यमानार्थः (लोहिं नि) तथ्यः / तन्वरूपेर्वाऽनुपचारिकः (तहिएहिं ति) तमेवोक्त प्रकारमापन्न मात्रयाऽपि न्यानाधिकः / किमुक्त भवति ? सद्भूतैरिति, अनिष्टः-अवाञ्छितः, आकन्तैः-स्वरूपेणाकमनीयः, अप्रियः-अप्रीतिकारकैः, अमनाइ मनसा न ज्ञायन्ते नाभिलष्यन्तै वक्तुमपि यानि तैः / अमन आपैः - मनसा आप्यन्ते-प्राप्यन्ते चिन्तयाऽपि यानि तैः, वचने चिन्तने च राष मनो नात्सहत इत्यर्थः, व्याकरणै: वचनविशेषः / उपा०८ अ० / स्था। ध० ध०र०॥ महासरीर पुं० (महाशरीर) बृहत्तनौ, भ०१४ श०२ उ०। महासलिल त्रि० (महासलिल) बहूदके, बृ०४ उ० ग० महासलिलजाल न० (महासलिलजल) महासलिला नाम गङ्गाऽऽदयो महानद्यस्तारा जल महासलिलाजलम / महानदीजले, बृ०२३०१ महापापुर (महाश्रव महान्ति कर्मणामाश्रवद्वाराणि वर्तन्तेऽस्येति।सूत्र 1 श्रु०३६६ अ०२ 0 / वृहन्मिथ्यात्वादिकर्मबन्धहतुक, 26 श०३ उ० / नरयिकाणां महाऽऽश्रवादिकत्वमाह - सिय भंते ! नेरइया महाऽऽसवा महाकिरिया महावेयणा महाणिज्जरा ? गोयमा ! णो इणटे समढे 1, सिय भंते ! नेरइया महाऽऽसवा महाकिरिया महावेयणा अप्पनिजरा? हंता सिया 2, सिय मंते ! नेरइया महाऽऽसवा महाकिरिया अप्पवेयणा सहाणिजरा ? गोयमा ! णोइणढे समढे 3, सिय भंते ! नेरइया महाऽऽसवा महाकिरिया अप्पवेदणा अप्पनिजरा? गोयमा ! णो इणढे समढे 4, सिय भंते ! नेरइया महासवा अप्पकिरिया महावेदणा महानिज्जरा ? गोयमा ! णो इणढे समढे 5, सिय भंते ! नेरइया महाऽऽसवा अप्पकिरिया महावेयणा अप्पनिजरा ? गोयमा ! णो इणढे समढे 6, सिय भं! नेरतिया महासवा अप्पकिरिया अप्पवेदणा महानिजरा ? णो तिणटे समढे 7, सिय मंते ! नेरतिया महासवा अप्पकिरिया अप्पवेदणा अप्पनिजरा ? णो तिणटेसमटेक,
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________________ महाऽऽसव 218 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 महासावग सिय भंते ! नेरइया अप्पाऽऽसवा महाकिरिया महावेदणा तु प्रतिषणः / असुरादिदेवेषु च चतुर्थभङ्गोऽनुज्ञातः, ते हि महाश्रया महानिजरा ? णो तिणढे समढे 6, सिय भंते ! नेरझ्या अप्पासवा महाक्रियाश्च विशिष्टाविरतियुक्तत्वात्, अल्प, वेदनाश्च प्रायणासातामहाकिरिया महावेदणा अप्पनिजरा ? णो तिणढे समढे 10, थाभावात, अल्पनिजराश्च प्रायोऽशुभपरिणामत्वात, शेषास्तुनिषेधसिय भंते ! नेरइया अप्पासवा महाकि रिया अप्पवे यणा नीया: / पृथिव्यादीनां तु चत्वार्यपि पदानि तत्परिणतेर्विचित्रत्वात महानिजरा ? णो तिणढे समढे 11, सिय भंते ! नेरइया सध्यभिचाराणीति पांडशापि पङ्गका भवन्तीति / उक्तं च-''पीएण तु अप्पसवा महाकिरिया अप्पवेदणा अप्पनिजरा? णो तिणडे नरझ्या, हालि चायण सुरगणा सब्वे / ओरालसरीरा पुण, सचेहि समढे 12, सिय भंते ! नेरइया अप्पासवा अप्पकिरिया महा- पाएहि भणियप्वा"।१। इति / भ०१६।०४ उ०। वेयणा महानिज्जरा? पणो तिण8 समढे 13, सिय मंते ! नेरतिया महासवतर त्रि० (महाश्रवतर) महाश्रवतरा एव महान्त आश्रयाः पापाअप्पासवा अप्पकिरिया महावेदणा अप्पनिजरा ? णो तिणढे पादानहेतवः आरम्भादयो येषामासीरन्ते महाश्रवाः अतिशयेन महाश्रया समढे 14, सिय भंते ! नेरइया अप्पासवा अप्पकिरिया अप्प- महाश्रवत्तराः / अतिबृहत्कर्भसु. जी०३ प्रति०१ अधि०२०। वेयणा महानिज्जरा ? णो तिणढे समढे 15, सिय भंते ! नेरया महासव्वओभद्दपडिमा स्त्री० (महासर्वतोभद्रप्रतिमा) सर्वती भद्रप्रतिअप्पासवा अप्पकिरिया अप्पवेयणा अप्पनिज्जरा ? णो तिणद्वे माभेदे, आ० / सर्वतो गद्रा पुनर्यस्यां दशसु दिक्षु प्रस्वेकमहोरत्र समढे 16, एते सोलस भंगा। सिय भंते ! असुरकुमारा महासवा कायोत्सर्ग करोति, यस्यां च दशाहोरात्राणि मानमिति। अथवा-द्विविधा महाकिरिया महावेदणा महानिजरा ? णो तिणढे समठे, एवं सर्वतोभद्रा-क्षुद्रा, महती च। तत्र क्षुद्रायाः स्थापना-स्थापनोपायगाथा चउत्थो भंगो भाणियध्वो, सेसा पत्ररस भंगा खोडेयध्वा, एवं० चयमत्रजाव थणियकुमारा। सिय भंते ! पुढविकाइया महासदा महा- "एगाई पंचडते, ठविलं, मज्झंतु आइमणुपंति। किरिया महादेयणा महानिजरा? हंता सिया। एवं० जाव सिय सरो कमेडविडं. जाणेज्ञा सव्वओभहं।।१।।" भंते ! पुढविकाइया अप्पसवा अप्पकिरिया अप्पवेयणा अप्प- तपादिनानीह पक्षसप्ततिः, पारणकदिनानि तु पञ्चविंशतिः, सर्वाण निजरा ? हंता सिया, एवं० जावमणुस्सा, वाणमंतर-जोइसिंय दिनानि शतनेकरयां परिपाट्या चतुसृषु त्वेतदेव चतुर्गुणम्। एवं महत्यपि, वेमाणिया जहा असुरकुमारा सेवं भंते ! भंते त्ति। (सूत्र-६५४) नवरम्, एकादयः सप्तान्तारतस्याभुपवासा भवन्ति। इयं स्थापना - स्थापनोपाथगाथा त्वियम् - "एगाई सत्तऽता, ठविउं मम्झंतु आइमणुपंति। आ० क्रि० वे०नि० सेराक्षमण ठावेउ,जाण महासव्वओभदं / / 1 / / म अना) शाशन प्र०पक्तिः द्वितीयापक 31.12 पाशा तृतीयापं० |567 चतुर्थीपं० |7|1|2|3|4 पञ्चमीपं० 45123 |3|45671 षष्ठीपं० 673 सप्तमीपं० इह च पण्णवत्थधिकं शतं तपोदिनानां स्यादेकोनपश्चापस पारण:कदिनानि, एवं चाशैमासाःमासाः पञ्च दिनानि, चतसृणु परिपाटीष्येतदेय चतुगुणमिति। औ०। महासामण्ण-महासामान्य सर्वपदार्थानुयायिन्या सनायाम, सूत्र०२ श्रु०७ अ०! आ०म०। विश०।। महासामत्थ न० (महासामर्थ्य) महासामर्थ्यम्, आधसंहननत्रय-युक्ततया यजकुड्यस मानधृतितया च कायमनसोः शक्तौ, ध०४ अधि०। महासामाण न० (महासामान) सप्तमदेवलोकविमानभेदे, स०१७ सम०। ना०२ असरादेः 4 पृथ्व्यादः १६व्यन्तरादेः४ महासाल पु० (महाशाल) पृष्टचम्पाराजस्य शालस्य भातरि पृष्ठचम्पा'सियत' इत्यादि, 'सिय ति' स्यु:.. भवेयु रयिका:- महाश्रवाः सुधराजे, आo०१ अ०! आ०म०। ती०। उत्त०। प्रचुरकर्मबन्धनाद, महा क्रियाः काथिक्यादिक्रियाणां महत्त्वात, महासावग पुं० (महाश्रावक) दयादानप्रधाने श्रावके , ''एवं महावंदना वेदनायास्तीतत्वात्, महानिर्जराः कर्मक्षपणबहुत्यात, एषा च व्रतस्थितो भक्त्या, सप्तक्षेच्या धनं वपन् / दयया चातिदीनेषु वर्णा पदानाषोडश भड़ा भवन्ति, एतेषु चनारकाणां द्वितीयभङ्गकोऽनु- | महाआवक उच्यते' / / 1 / / महत्पदविशेषणं च अन्येभ्यो - ज्ञातस्तेषामाश्रवादित्रयस्थ महन्चात कर्मनिर्जरयास्त्वल्पत्वात, शेषाणां ऽतिशायित्वात्, यतः आवकत्वमविरतानामेकाद्यणु वलधारि.. अ अ.
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________________ महासावग 216 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 महासिलाकं० मां च शृणोतीति गुत्पत्त्योच्यते, यदाह जइत्था के पराजइत्था ? गोयमा ! वज्जी विदेहपुत्ते जरित्था, "संपत्तदंर णाई.इदिअहं जइजणा सुणेई अ: नव मल्लई नव लेच्छई कासीकोसलगा अट्ठारस विगणरायागो रगमायारिं परम, जो खलु त सावगं विति।।१।। पराजयित्था / तए णं से कोणिए राया महासिलाकंटक संगाभ श्रद्धालुता आति पदार्थचिन्तना. उवट्ठियं जाणित्ता कोडं वियपुरिसे सहावेइ सद्दावेइत्ता एवं द्धन नि पात्रेषु वपत्यनारतम्। वयासी-खियामेव भो देवाणुप्पिया ! उदाई हत्थिरायं पडिककिरत्यपुण्यानि सुसाधुसेवना - प्पेह हयगयरहजोहकलियं चाउरंगिणिं सेणं सण्णाहेह २त्ता० दद्यापितं श्रावकमाहुरञ्जसा॥२॥" जाव मम एयमाणत्तियं खिप्पामेव पञ्चप्पिणह। तए णं से कोईइणि निरुताय श्रावकत्व सामान्यरयापि प्रसिद्धम, विवक्षितरतु निर- 1 वियपुरिसा कोणिएणं रण्णा एवं वुत्ता समाणा हट्ठतुट्ठा० जाव विचारसकल्वतधार सप्तक्षेत्र्या धनवपनादृर्शनप्रभावकतां परमां दधान्तो अंजलिं कट्ट एवं सामी ! तह त्ति आणाए विणएणं वयणं दी-षु चात्यन्तकृपापरो महाश्रावक उच्यते इत्यलं प्रसना पडिसुणंतिपडिसुणेत्ता खिप्पामेव छेयायरिओवएसमइकप्पणाइदानी महाश्रावकरय दिनचर्यारूपग- उत्तशेष विशेषता विकप्पेहिं सुनिउणेहिं एवं जहा उदवाइए० जाव भीमं संगामियं गृहस्थधर्भमाह अओज्झं उदाई हत्थिरायं पडिकप्पें ति, हयगयरह० जाव नमस्कारेणावबोधः, स्वद्रव्याधुपयोजनम्। सण्णहेंति सण्णाहेत्ता जेणेव कूणिए राया तेणेव उवागच्छंति 2 सामायिकादिकरणं, विथिना चैत्यपूजनम्।।६०॥ सा करयलपरिग्गहियं० जाव कूणियस्स रण्णो तमाणत्तिय पचप्पियति / तए णं से कूणिए राया जेणेव मज्जणघरे तेणेव नमस्कारेण-सकलकल्याणपुरपरमाष्ठभिरधिश्ठितेन "नमा अरिहरण' मत्यादि प्रतीतरूपेण, अवबोधो निद्रापरिहारः, तत्पाट उवागच्छइ उवागच्छित्ता मजणधरं अणुपविसइ मजणधर अणुपविसित्ता, पहाए कयवलिकम्मे कयकोउयमंगलपायच्छित्त पठान्द्रां जह्यादित्यर्थः / अयं विशेषतो गृहिधर्मो भवतीत्येवमग्रेऽप्यन्वयः / सव्वालंकारविभूसिए संनद्धबद्धवम्मियकवये उप्पीलियसण१२। स्वस्मिद्- आत्मनि, द्रव्यादेः-द्रव्यक्षेत्रत्रकोलभावानाम्, उपयोज पट्टीए विणिद्धगेविजे विमलवरवद्धचिंधपट्टे गहियाउहप्पहरणे न. उपरोगकरणम्, (ध०) (सामायिकादीत्यादि) सामायिकम् - मुहूर्त सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिजमाणे चउचामरवालवीइयंगे यावसभावरूपनवमव्रताराधनम्, ग्रामिावश्यक वा, आदिशब्दात्षडिव मंगल 'जय जय' सद्दकयालोए एवं जहा उववाइए० जाव धावश्यकप्रतिबद्धगत्रिकप्रतिक्रमणग्रहणम्। (30) (विधिनेति) विधिना उवागच्छित्ता उदाइं हत्थिरायं दुरूढे, तए णं से कूणिए राया अनुपदर्भ वक्ष्यमाणपुष्पादिसंपादनमुद्रान्यसनादिना प्रसिद्धेन, चैत्य (हारोत्थयसुकयरइयवच्छे जहा उववाइए०) जाव सेयवरचामपूजनम् - द्रव्यभावभेदाद् अर्हत्प्रतिमार्थनम्। ध०२ अधि०। (महाश्राव राहिं उद्धव्वमाणीहिं उद्धृ०२ हयगयरहपवरजोहक लियाए कस्य गृहिधर्मविध्यन्तर्गतसामायिकविधिः 'सामाइय' शब्दादवगन्त चाउरंगिणीए सेणाए सद्धिं संपरिबुडे महया भडचडविंदपरियः (त्यपूजनविधिः 'बेइय' शब्दे तृतीयभागे 1244 पृष्ठे गतः) क्खित्ते जेणेव महासिलाकं टए संगामे तेणेव उवागच्छइ महासावजा स्त्री० (महासावद्या) श्रमणसाधुनिश्राभेदेनागन्या-दिमत्यां -उवागच्छित्ता महासिलाकंटग संगामं उयाए पुरओ य से सक्के देविंदे दस्ती, आचा०। (अस्या वक्तव्यता वराहि' शब्द वक्ष्यते) देवराया एगं महं अभेज कवयं वइरपडिरूपगं विउव्वित्ता णं महासाहसिय पु० (महासाहसिक) सहसाऽविमर्शात्मकेन बलेन वर्तते, चिट्ठइ। एवं खलु दो इंदा संगामं संगामेति, तं जहा-देविंदे य, भाविनमर्थमविभाव्य यः प्रवर्तते स साहसिकः / अविमृश्यकारिणि, स्या०। मणुस्सिदे य। एगहत्थिणा विणं पभू कूणिए राया पराज-यित्तए, महासियाल पुं० (महाशृगाल) महादेहप्रमाणे शृगाले, "अणासिया णाम तए णं से कूणिए राया महासिलाकंटगं संगामं संगामे-माणे नव महासियाला' (सूत्र०) महादेहप्रमाणा महान्तः शृगाला नरकपालवि- मल्लई नव लेच्छई कासीकोसलगा अट्ठारस वि गणरायाणो कुर्विता अनशिता बुभुक्षिताः, सूत्र०१ श्रु०३ अ०२ उ०। हयमहियपवरवीरवाइया विपडियाचिंधद्धयपडागे किच्छप्पाणगए महासिलाकंटय यु० (महाशिलाकण्टक) जीवितभेदकन्वात महाशिला- दिसोदिसिं पडिसेहित्था। से केणऽटेणं भंते ! एवं वुचइ महासिकण्टकः / कूणिकचेटकसंग्रामे, नि०१ श्रु०१ वर्ग 1 अ०भ०। लाकंटए संगामे ? गोयमा ! महासिलकंटए णं संगामे वट्टमाणे जे तद्वर्णनमाह - तत्थ आसे वा हत्थी वा जोहे वा सारही वा तणेण वा पत्तेण कट्टेण वा णायमेयं अरहया सुयमेयं अरहया विण्णामेयं अरहया महासि- | सक्कराएवाअभिहम्मंतिसव्वेसेजाणइमहासिलाए अहंअभिहएमहालाकंटए संगामे, महासिलाकंटए णं मंते ! संगामे वट्टमाणे के / सिलाए अहं अभिहए से तेणऽद्वेणं गोयमा ! महासिलाकंटए संगामे।
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________________ महासिलाक २२०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 महासिलाकं महासिलाकंटए णं भंते ! संगामे वट्टमाणे कइ जणसयसाहस्सीओ वहियाओ? गोयमा ! चउरासीइ जणसयसाहस्सीओ वहियाओ। ते णं भंते! मणुया निस्सीला० जाद निप्पचक्खाणपोसहोववासा, संरुट्ठा परिकु विया समरवहिया अणुवसंता कालमासे कालं किचा कहिं गया कहिं उववण्णा ? गोयमा ! उस्सण्णं णरगतिरिक्खजोगिएसु उववण्णा। (महासिलाकंटए संगामे त्ति) महाशिलैद कण्टको जीवितभेदकत्वान्महाशिलाकण्टकस्ततश्च यत्र तृणशलाकादिनाऽप्यभिहतस्याश्वस्त्यादेमहाशिलाकण्टकेनेवाभ्याहतस्य वेदना जायते स सङ्गातमा महाशिलाकण्टक एवोच्यते, द्विर्वचनं चोल्लेखस्थानुकरणे, एवं व किलाऽयं संग्राम: संजातः, चम्पायां कूणिको राजा बभूव तस्य चानजी हल्लविहल्लाभिधानौ भ्रातरौ सेचनकाभिधानगन्धहस्तिनि समारूढी दिव्यकुण्डलदिव्यवसनदिव्यहारविभूषितौ विलसन्तो दृष्ट्वा पद्मावत्यभिधाना कृणिकराजस्य भार्या मत्सराद्दन्तिनोऽपहराय तं प्रेरितवती, तेन तो त याचिती, सौ च तद्भयाद्वैशाल्या नगा स्वकीयगातामहस्य चटकाभिधानस्य राज्ञोऽन्तिक सहस्तिकौ सान्तःपुरपरिवारौ गतवन्तो, कणिकेन च दूतप्रेषणतां मार्गितो, न च तेन प्रेषिता, ततः कूणिकेन भाणितम्- यदि न प्रेषयसि तौ तदा युद्धसज्जो भव, तेनाऽपि भाणितम्एष सज्जोऽस्मि, ततः कूणिकेन कालादयो दश स्वकीयाऽभिन्नमातृका भातरौ राजानश्चेटकेन सह संग्रामायाहृताः, तत्रैकैकस्य त्रीणि त्रीणि हस्तिनां सहस्त्राणि, एवं रथानामश्वानांच, मनुष्याणां तु प्रत्येकं तिस्त्रः तिस्त्रः कोटयः / कूणिकस्याप्येवमेव, एवं च व्यतिकरं ज्ञात्वा चेटकेनापि अष्टादश गणराजाः मिलिताः तेषां चेटकस्य च प्रत्येकमेवमेव हरन्यादिपरिमाणम, ततो युद्ध स-प्रलग्न, चेटकराजश्च प्रतिपन्नव्रतस्येन दिनमध्ये एकमध शरं मुञ्चति, अमोधवाणश्च सः। तत्र च कूणिकसैन्यैर्गरुडव्यूहश्चेटकसैन्यकश्च सागरव्यूहो विचरितः। ततश्च कूणिकस्य कालो दण्डनायको युध्यमानस्तावद्गतो यावश्चेटकः, ततस्तेनैकशरनिपातेनासौ निपातितो भग्नं च कूणिकबलम्, गते च द्वे अपि बले निजं निजमावासस्थानम् / एवं च दशसु दिवसेषु चेटकेन विनाशिता दशापि कालादयः, एकादशे तु दिवसे चेटकजयार्थ देवताराधनाय कूणिकोऽष्टमभक्तं प्रजग्राह। ततः शक्रचमरावागतौ, ततः शक्रो बभाण, चेटकः श्रावक इत्यहं न तं प्रति प्रहरामि, नवरं भवन्तं संरक्षामि। ततोऽसौ तद्रक्षार्थ वज्रप्रतिरूपकमभेद्यकवचं कृतवान्, चमरस्तु द्वौ संग्रामौ विकुर्वितवान्, महाशिलाकण्टकं रथमुशलं चेति (जइत्थ त्ति) जितवान (पराजयित्थ त्ति) पराजितवान- हारितवानित्यर्थः। (वजित्ति) वजी-इन्द्रः (विदेहपुत्ते त्ति) कूणिक एतावेव तत्र जेतारौ नान्यः कश्चिदिति (नव मल्लइ त्ति) मल्लकिनामानो राजविशेषाः। (नव लेच्छ इत्ति) लेच्छकिनामानो राजविशेषा एव। (कासी कोसलग ति) काशी-वाराणसी, तज्जनपदोऽपि | काशी, तत्सम्बन्धिन आधा नव, कोशला अयोध्या तज्जनपदोऽपि / कोशला, तत्सम्बन्धिनो नव द्वितीयाः / (गणरायाणो ति) समुत्पन्ने प्रयोजने ये गण कुर्वन्ति ते गणप्रधाना राजानो गणराजाः सामन्टा इत्यर्थः / ते च तदानी चेटकराजस्य वैशालीनगरीनायकस्य साहाय्याय गणं कृतवन्त इति। अथ महाशिलाकण्टके संग्रामे चमरेण विकुर्विले सति कुणि कोयदकरोत्तदर्शनार्थमिदंमाह-(तए णमित्यादि) तता महाशिलाकण्टकसंग्रामविकुर्वणानन्तरम्। (उदायि ति। उदायिनामानम्। (हत्थिरायं ति) हस्तिप्रधानम्। (पडिकप्पेह त्ति) संनद्धं कुरुत। (पचप्पिणह त्ति) प्रत्यर्पयत-निवेदयतेत्यर्थः / (हहतुट्ट हि) इह यावत्करणदेवं दृश्यम् - ''हद्वतुद्दचित्तमाणंदिया नंदिया पीइमणा' इत्यादि। तत्र हृष्टतुष्टम्-अत्यर्थ तुष्ट, हृष्ट वा विस्मित तुष्ट च तोषवचित्तंमनो यत्र तत्तथा,तत् हष्टतुष्टचित्त यथा भवति इत्येवमानन्दिता ईष-मुखसौम्यतादिभावैः समृद्धिमुपगताः, ततश्च नन्दिताः समृद्धितरतरमुपगताः, प्रीतिः प्रीणनम- आप्यायनं मनसि येषां प्रीतिमनसः / (अजलिं कटु त्ति ) इदं त्वयं दृश्यम् - "करयलपरिग्गहियं दसणहं सिरसाऽवत्तं मत्थए अंजलिं कट्ट" तत्र शिरसा अप्राप्तम्- असंस्पृष्ट मस्तकेऽञ्जलि कृत्वेत्यर्थः / (एवं सामी ! तह त्ति आणए विणण्ण वयण पडिसुणेति त्ति) एवं स्वामिन् ! तथेति आज्ञया इत्येवंविधशब्दभणनरूपी यो विनयः स तथा तेन, वचनं राज्ञः सम्बन्धि प्रतिशृणवन्ति-अभ्युपगच्छन्ति / (छयायरिओवएसमइकप्पणा विगप्पेहिं ति) छेको निपुणो य आचार्यःशिल्पोपदेशदाता तस्योपदेशात् या मतिः बुद्धिस्तस्या ये कल्पनाविकल्पाः क्लृप्तिमेदास्ते तथा तैः प्रकल्पयन्तीति योगः। (सुनि उणेहि ति) कल्पनाविकल्पाना विशेषणम्। नरैर्वा सुनिपुणैः (एवं जहा उववाइए त्ति) तत्र चेद सूत्रमेवम्- (उज्जलनेवत्थहव्वपरिवच्छियं) उज्ज्वलनेपथ्येननिर्मलवेषेण (हव्वं ति) शीघ्र परिक्षिप्तः परिगृहीतः परिवृतो यः स तथा तम्। (सुसज्ज वम्मियसंनद्धबद्धकवइयं उप्पीलियवत्थकच्छगेवेजमव-द्धगलगवरभूसणविराइयं) वर्मणि नियुक्ता वार्मिकास्तैः संनद्धः कृतसन्नाहो वार्मिकसन्नद्धः, बद्धः कवचिकः सन्नाहविशेषो यस्य स बद्धकवचिकः, उत्पीडिता गाढीकृता वक्षसि कक्षा हृदयरजर्यस्य स तथा, वेयक बद्धं गलके यस्य स तथा, बरभूषणैर्विराजिंता यः स तथा ततः कर्मधारयोऽतस्तम्। (अहियतेयजुत्तं विरझ्यवरकण्णपूरसललिय्पलंवावचूलधामरोयरकयंऽधयारं ति) विरचित वरकर्णपूरे प्रधानकर्णssभरणविशेषौ यस्य सतथा, सललितानि प्रलम्बानि अवचूलानि यग्यस तथा, चामरोत्करेण कृतमन्धकारं यत्रस तथा, ततः कर्मधारयोऽतस्तम्। (वित्तपरिच्छोयपच्छय) चित्रपरिच्छोको लघुः प्रच्छदो वस्त्रविशेषो यस्य स तथा, अतस्तम्। (कणगघडियसुत्तगसुबद्धकच्छ) कनकघटितसूत्रकेण सुष्ठ बद्धा कक्षा उरोबन्धनं यस्य स तथा, तम्। (बहुपहरणावरणभरियजुज्दासज) बहूनां प्रहरणानामवरणानां च स्फुरकङ्कटादीनां भृतो युद्धसअश्य यः तथा, अतस्तम्। (सच्छत्तंस,ज्झय सघंट) (पंचामेलियपरिमंडियाभिराम) पञ्चभिरापीडिकाभिश्चूडाभिः परिमण्डितोऽभिरामश्चरम्यो यः
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________________ महासिलाक० 221 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 महासीहणि तथा, अतस्तम्, ( ओसारियजमलजुयलघंट) अवसारितम् - ग्वलम्बितं, यालसम, युगलम्-द्वयं, घण्टयोर्यत्र स तथा, अतस्तम्. 'पेपिणझं व कालमह) भास्वरप्रहरणाभरणादीनां विद्युत् कल्पना कालत्याच गजस्य मेधसमतेति (उप्पाइयपदय व सबख) औत्पातिकपर्यलमिव साक्षादित्यर्थः (मत्रा मेहमिव गुलगुलत) (मणपवन:मावगं) मनःपवनजयी वेगो यस्य स तथाऽतस्तम / शेष तु लिखितमवास्ति। वाचनान्तरे त्विदं साक्षाल्लिखितमेव दृश्यत इति। (कयवनिकम्मे त्ति) देवतानां कृतवलिका। (कयकोउयमंगलपायच्छित्ते ति) कतानि कौतुक मङ्गलान्येव प्रायश्चित्तानीव दुःस्वप्नादित्यपाहायावश्यकर्त्तव्यत्वात्, प्रायश्चित्तानि येन स तथा, तत्र कौतुकानि मषीपुण्ट्रादीनि, नगलानि सिद्धार्थकादीनि / (सन्नद्धवद्धवम्मियकवए शि) सन्नद्धः सन्नहानेकया, तथा बद्धः कशाबन्धनतो, वर्मिती वर्मतया, कृतोऽड़े 'नवेशनात्कवचः कङ्कटो यन स तथा, ततः कर्मधारराः / (उप्पीलिया. सरासणपट्टिएत्ति) उत्पीडिता गुणसारणेन कृताऽवपीडा शरासनपट्टिका / धनुर्दण्डो येन स तथा, उत्पीडिता वा बाह्यौ बद्धा शरासनपट्टिका बाहुपट्टिका येन स तथा, (पिणद्धगेवेजविमलवरबद्धबिंधपट्ट त्ति) पिनद्धपरिहित, ग्रेवयकंग्रीलाभरणं, येन स तथा, विमलवरो बद्धश्विपट्टो योधचिहपट्टो येन स तथा, ततः कर्मधारयः / (गहियाउहपहरणे ति) गृहीतानि अयुधानि, शस्त्राणि-प्रहरणाय परेषां प्रहारकरणाय येन स तथा, अथवा-आयुधान्यक्षेप्यशस्त्राणि खनादीनि, प्रहरणानि, तु शपयशस्त्राणि नारावादीनि, ततो गृहीतान्यायुधानि प्रहरणानि येन स तथा, (सकोरंटमल्ल्दामेणं ति) सह कोरण्टप्रधानैः कोरण्टकाभिधानकुसुमगुच्छर्माल्यदामभिः-पुष्पमालाभिर्यत्तत्तथा तेन, (चउचामरवालदीइयंगे त्ति) चतुर्णां चामराणां बालैर्वीजितमङ्गं यस्य स तथा। (मंगलजयसद्दकयालोए ति) मङ्गलो माङ्गल्यो जयशब्दः कृताजनैर्विहित आलोके दर्शने स तथा, "एवं जहा उववाइए जाव" इत्यनेनेदं सूचितम"अगोगगण नायगदंडनायगराईसरतलवरमाडवियको वियमंतिमहागतिगणगदोवारियअमचचेडपीढमद्दणणगरणिगमसेटि सेणावइसत्थवाहदूरसंधिपालसद्धिं संपरिवुडे धवलमहामेहणिग्गए विव गहगणदिप्पंतरिखतारगणाण मज्झे ससिव्व पियदाणे नरवई मजणघराओ पडिनि खमइ माणघराओं पडिनिक्ख मित्ता जेणेव बाहिरिथा उवट्ठाणसाला जेगामेव उदाई हस्थिराया लेणमेव उवागच्छइ'' ति। तत्रानेके ये गणनायकाः-प्रकतिमहत्तराः, दण्डनायकाः-तन्त्रपाला, राजानो-माण्डलिका, ईश्वरा-युवराजाः, तलवराः-परितुष्टनपतिप्रदत्तपट्ट-बन्धविभूषिता राजस्थानीयाः, माडम्बिकाः-छिन्नमडम्बाधिपाः, कौटुम्बिाकाःकतिपयकुट्रम्बस्य प्रभवोऽक्लगकाः, मन्त्रिणः-प्रतीताः, महामन्त्रिणोमन्त्रिमण्डलप्रधानाः, गणकाः-ज्योतिषिकाः, भाण्डागारिका इत्यन्ये / दौवारिकाः प्रतीहाराः, अमात्या-राज्याधिष्ठायकाः, चेटा:-पादमूलिकाः, पीठमः-आस्थाने आसनासीनसेवकाः वयस्था इत्यर्थः, नगरभिह सैन्यनिवासिप्रकृतयः, निगमाः-कारणिकाः वणिजो वा, श्रेष्ठिनः श्रीदेवताध्यासितसौवर्णपट्टविभूषितोत्तमाङ्गाः, सेनापतयो नृपतिनिरूपितचतुरङ्गसैन्यनायकाः, सार्थवाहाः प्रतीताः, दूता-अन्येषां राजादशनिवेदकाः, सन्धिपालाः-राज्यसन्धिरक्षकाः, एतषां द्वन्दुस्तलस्तैः / इह तृतीयाबहुवचनलोपां द्रष्टव्यः / (रादिति) सार्द्ध सहेन्यर्थः, नकवल तत्सहितत्यमेवापि तुतैः समिति रामन्तात् परिवृतः परिकारत हात (हारोत्थयसुकयरइयवच्छे) हारावस्तृतेन हाराकच्छादनेन सुपर रशिकं वक्षः उरो यस्य स तथा. (जहा उववाइए ति) तत्र चैवमिदं सूत्रम - "पालवपलम्बमाणपडस्कयउत्तरिले इत्यादि'' तत्र प्रलम्बेन दीर्घण प्रलम्बमानेन दुम्बमानेन पटेन सुछ कृतम्, उत्तरीयम्- उत्तरासङ्गोयेन स तथा, (महया भडचडगविंदपरिक्खित्तेत्ति) महाभटानां विस्तारवत्सडेन परिकरित इत्यर्थः, (ओयाए त्ति) उपथातः उपगतः (अभेजकवय ति) परप्रहरणाभद्यावरणम् (वइरपडिरूवं ति) वजसदृशम्। (एगहत्थिणा वि ति) 1 एकेनाऽपि गजनेत्यर्थः / (पराजिणित्तए त्ति) परानभिभवितुमित्यर्थः / (यमहियपवरनवीरघाइयविवडियचिंघद्धयपडागे त्ति) हताःप्रहारदानतो, मथितामाननिर्मथनतः, प्रवरवीराः-प्रधानमटावातिताश्च येषां ते तथा, विपतिताश्चिह्नध्वजाः- चक्रदिचिहप्रधानध्वजाः पताकाश्च तदन्या येषां ते तथा, ततः कर्मधारयोऽतस्तान्। (किच्छप्पाणगए त्ति) कृच्छ्रगतप्राणान् कष्ट पतितप्राणानित्यर्थः (दिसो दिसिं ति) दिशः सकाशादन्यस्यां दिशि अभिमतदिक्त्यागाद्दिगन्तराभिमुखेनेत्यर्थः, अथवा-दिगेवाऽपदिक्, नशनाभिप्रायेण यत्र प्रतिषेधने तदिगपदिक तद्यथा-भवत्येवम्, (पडिसेहित्थ त्ति) प्रतिषेधितवान् युद्धान्निवर्तितवानित्यर्थः / (सारुट्टत्ति) संरुष्टा मनसा (परिकुविय त्ति) शरीरे समन्ताद्दर्शितकोपविकाराः। (समरवहियत्ति) संग्रामे हताः / भ०७ श०६ उ०॥ महासीह पुं० (महासिंह) जम्बूद्वीपे भरतक्षेत्रे अस्यामुत्सर्पिण्या जाते षष्ठ बलदेववासुदेवस्य पितरि, स्था०६ ठा। महासीहणिकीलिय न० (महासिंहनिष्क्रीडित ) बृहत्प्रमाणे तपसि, ज्ञा०१ श्रु० अ०। प्रव०। औपपातिके चैवं व्याख्यातम्। इयं च स्थापनाएकादयः षोडशान्ताः पुनः षोडशादय एकान्ताः स्थाप्यन्ते, तत्र ह्यादीनां षोडशान्तानामगे प्रत्येकमेकादयः पञ्चदशान्ताः स्थाप्यन्ते, तथा ये षोडाशादय एकान्ताः स्थापितास्तेषु पञ्चदशादीनां हन्तानामादौ चतुर्दशादयः स्थापनीयाः चतुर्दशादिना चाभिलोपन ते समुत्कीर्तनीयाः / दिनमान चैकस्यां परिपाट्यामिदमत्र-द्वेषोडशाना सङ्कलने 136.136 एका पञ्चदशानां 120 चतुर्दशानामप्येवमेव 105 एकषष्टिश्च 61 पारणकानीति, सर्वसंकलने च 558, एवं च वर्षमेकं षट् च मासा दिनान्यष्टा दशेति, परिपाटीचतुष्टये चतुर्गुणमेतदेव-६ 1 वर्षाणि, 2 मासौ, 12 दिनानि / औ०। 2m 16 MK & am - 2
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________________ महासाहणि० 222 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 महासुमि(वि)ण ___ महासिंहनिष्क्रीडियं तप आह तेणेव पहारेत्थ गमणाए, तएणं ते देवा भगवं गोयमं पञ्जवासमाणं इग दुग इग तिगदुग चउ, तिग पण चउ छक्क पंच सत्त छगं। पासंति पासित्ता हट्टतुट्ठा० जाव हयहियया खिप्पामेव अब्भुट्टेति अड सत्त नव ड दस नव, एकारस दस य वारसगं / / 1533 / / अब्भुढेत्ता खिप्पामेव पचुवागच्छंति पचुपागच्छित्ता जेणेव भगवं एक्कार तेर वारस, चडदस तेरस य पनर चउदसगं। गोयमे तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता० जाव णमंसित्ता एवं सोलस पनरस सोलाइ, होइ विवरीयमेकतं / / 1534|| वयासी-एवं खलु भंते ! अम्हे महासुक्कातो कप्पातो महासग्गतो अथोक्तशेष दिनसर्वसंख्या चाह महाविमाणाओ दो देवा महिड्डिया० जाव पाउन्भूता, तएणं अम्हे एए उ अभत्तट्ठा, इगसट्ठी पारणाणमिह होइ। समणं भगवं महावीरं वंदामो णमंसामो वंदित्ता णमंसित्ता मणसा एसा एगा लइया, चउग्गुणाए पुण इमाए।।१५३५|| चेव इमाई एयारूवाई वागरणाई पुच्छामोकति णं भंते ! वरिसछगं मासदुर्ग, दिवसाइँ तहेव वारस हवंति। देवाणुप्पिया णं अंतेवाससियाई सिज्झिहिंति० जाव अंतं एत्थ महासीहनिकी-लियंमि तिव्वे तवचरणे // 1536 / / करेहिति? तए णं समणे भगवं महावीरे अम्हेहिं मणसा पुढे (व्याख्या स्थापनास्वरूपं चौपपातिकवत्) प्रव०२७१ द्वार। अम्हं मणसा चेव इमं एयारूवं वागरणं वागरेति-एवं खलु देवामहासीहसेणपुं० (महासिंहसेन) राजगृहे श्रेणिकराजस्य धारणिकुक्षिसंभवे णुप्पिया! मम सत्त अंतेवासीसयाइं० जाव अंतं करेहिंति, तए पुत्रे, "सेसा महादुमसेणमाती पंच सव्वट्टसिद्धे" अणु०२ वर्ग 12 अ०। णं अम्हे समणेणं भगवया महावीरेणं मणसा चेव पुढेणं मणसा (स ब धीरान्तिके प्रव्रज्य षोडशवर्षपर्यायः संलेखनया मृत्वा सर्वार्थसिद्धे चेव इमं एयारूवं वागरणं वागरिया समाणा समणं भगवं महावीर उपपद्य महाविदहे सेत्स्यति) वंदामो नमसामो 2 जाव पञ्जुवासा मो त्ति कट्ट भगवं गोयमं महासुक्क पुं०(महाशुक्र) सप्तमदेवलोके तदिन्द्रे च। स्था०२ ठा०३ उ०। वंदंति नमसंति 2 ता जामेव दिसिं पाउन्भूए तामेव दिसिं अनु०। प्रज्ञा०। (अत्रत्यं पूर्वोक्तं प्रश्नसूत्रम् 'अंतेवासि' शब्द प्रथमभागे पडिगए। (सूत्र-१८६) मतम) (ते णमित्यादि) 'महाशुक्रात् सप्तमदेवलोकात् (झाणंतरियाए त्ति) अथ तत्स्वरूपप्रतिपादनायाह अन्तरस्य विच्छेदस्य करणमन्तरिका ध्यानस्यान्तरिका ध्यानान्तते णं काले णं ते णं समए णं समणस्स भगवओ महावीरस्स / रिका-आरब्धध्यानस्य समाप्तिरपूर्व स्यानारम्भणमित्यर्थः / अतस्तस्यां जेटे अंतेवासी इंदभूती णामं अणगारे० जाव अदूरसामंते उडूं वर्तमानस्य (कप्पाओ त्ति) देवलोकात् (सग्गाओ ति) सर्गाद्, जाणू० जाव विहरति, तए णं तस्स भगवओ गोयमस्स झाणंत- देवलोकदेशात्प्रस्तटादित्यर्थः, (विमाणाओ ति) प्रस्तटैकदेशादिति, रियार वट्टमाएणस्स इमेयारूवे अज्झथिए० जाव समुप्पज्जित्था, (वागरणाई ति) व्याक्रियन्ते इति व्याकरणाः प्रश्नार्थाः, अधिकृता एव एवं खलु दो देवा महिड्डिया० जाव महाणुभागा समणस्स भगवओ | कल्पविमानादिलक्षणाः / भ०५ श०४ उ०। महावीरस्स अंतियं पाउन्भूया, तं नो खलु अहं ते देवे जाणामि महासुनि(वि)ण पुं० (महास्वप्न) महत्तमफलसूचके स्वप्रे, ज्ञा० / भ०। कयराओ कप्पओ वा सग्गाओ वा विमाणाओ वा कस्स वा महासुविणा वावत्तरि 72 सव्वसुविणा दिट्ठा, तत्थ णं देवाणुअत्थस्स अट्ठाए इह हव्वमागया? तं गच्छामि णं भगवं महावीरं | प्पिया! तित्थगरमायरो वा चक्कवट्टिमायरो वा तित्थगरंसि वा वंदामि णमंसामि० जाव पज्जुवासामि, इमाइं च णं एयारूवाई चक्कवर्टिसि वा गन्भं वक्कममाणंसि एएसितीसाए महासुविणाणं बागरणाइं पुच्छिस्सामि त्ति कट्ट एवं संपेहति सम्पेहित्ता उठाए इमे चोद्दस महासुविणे पासित्ता णं पडिबुज्झंति, तं जहाउद्वेति 2 त्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे० जाव पञ्जुवासति, गय 1 वसह 2 सीह 3 अमिसेय : - गोयमादि / समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं एवं वयासीसे दाम 5 ससि 6 दिणयरं 7 झयं 8 कुंभ। णूणं तव गोयमा ! झाणंतरियाए वट्टमाणस्स इमेयारूवे अज्झ- | पउमसर 10 सागर 11 विमाण - थिए० जाव जेणेव मम अंतिए तेणेव हव्वमागए से गुणं गोयमा ! | मवण 12 रयणुचय 13 सिहिं च 14 // 1 // अत्थे सम?? हंता अत्थि, तं गच्छाहि णं गोयमा ! एए चेव (महासुविण त्ति) महाफलत्वात् (वावत्तरि ति) त्रिंशतो द्विचत्वादेवा इमाई एयारूवाई वागरणाइं वागरेहिंति, तए णं भगवं | रिंशतश्च मीलनादिति। (गल्भं वकममाणंसि ति) गर्भ व्युत्क्रामतिगोयमे ! समणेणं भगवया महावीरेणं अब्भणुनाए समाणे समणं | प्रविशतीत्यर्थः, (गयवसहेत्यादि) इह च-(अभिसेय त्ति) लक्ष्म्या भगवं महावीरं वंदइ णमंसति वंदित्ता णमंसित्ता जेणेव ते देवा | अभिषेकः (दामत्ति) पुष्पमाला, (विम्यणभवण त्ति) एकमेव, तत्र वि
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________________ महासुमि(वि)ण 223 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 महासुमि(वि)ण भानाक र भवन विमानभवनम्, अथवा-देवलोकाधाऽवतरति तन्माता विमान पश्यति। यस्तु नरकात तन्माता भवनमिति / भ०११ श०११ उ० / कतिविधाः स्वनाः - कतिविहे णं भंते ! सुविणदसणे पण्णते? गोयमा ! पंचविहे सुविणदंसणे पण्णत्ते / तं जहा-अहातचे पयाणे चिंतासुविणे तविवरीए अव्वत्तदंसणे, सुत्ते णं भंते ! सुविणं पासति, जागरे सुविणं पासति, सुत्तजागरे सुविणं पासति ? गोयमा ! नो सुत्ते सुविणं पासइ, नो जागरे सुविणं पासइ, सुत्तजागरे सुविणं पासइ, (भ०) संवुडे णं भंते ! सुविणं पासइ, असंवुडे सुविणं पासइ, संवुडाऽसंवुडे सुविणं पासइ ? गोयमा ! संवुडेऽवि सुविणं पासइ, असंवुडेऽवि सुविणं पासइ, सुवुडासंवुडेऽवि सुविणं पासइ / संवुडे सुविणं पासइ अहातचं पासइ असंवुडे सुविणं पासइ तहाऽवि तं होजा अण्णहा वा तं होजा, संवुडाऽसंवुडे / सुविणं पासइ एवं चेव, जीवा णं भंते ! किं संयुडा असंबुडा संवुडासंवुडा? गोयमा! जीवा संवुडाऽवि असंवुडाऽवि संवुडासंवुडा वि, एवं जहेव सुत्ताणं दंडओ तहेव भाणियव्वो, कइ णं भंते ! सुविणा पण्णत्ता ? गोयमा! वायालीसं सुविणा पण्णत्ता। / कइणं भंते ! महासुविणा पण्णत्ता / गोयमा ! तीसं महासुविणा पपणत्ता / कइणं भंते ! सव्वसुविणा घण्णत्ता? गोयमा ! वावत्तरि सव्वसुविणा पण्णत्ता / तित्थगरमायरो णं भंते ! तित्थगरंसि गब्भं वक्कममाणसिं कइ महासुविणे पासित्ता णं पडिबुज्झंति? गोयमा ! तित्थगरमायरो णं तित्थगरंसि गन्मं वक्कममाणंसि एएसिं तीसाए महासुविणाणं इमे चउद्दस महासुविणे पासित्ता णं पडिबुज्झंति, तं जहा-गयउसभसीह० जाव पिहिं च / चक्कवट्टिमायरो णं भंते ! चक्क वहिसि गब्भं वक्कममाणंसि कइ महासुविणे पासित्ता णं पडिबुज्झंति ? गोयमा ! चक्कवट्टिमायरो चक्रवट्टिसि० जाव वक्कममाणंसि एएसिंतीसाए महासुविणाणं एवं जहा तित्थगरमायरो० जाव सिहं च / वासुदेवमायरो णं पुच्छा, गोयमा ! वासुदेवमायरो० जाव वक्कममाणंसि एएसिं चउद्दसण्हं महासुविणाणं अण्णयरे सत्त महासुविणे पासित्ता णं पडिबु झंति / बलदेवमायरो वा णं पुच्छा, गोयमा ! बलदेवमायरो० जाव एएसिंचउद्दसण्हं महासुविणाणं अण्णयरे चत्तारि महासुविणे पासित्ता णं पडिबुज्झंति, मंडलियमायरो णं मंते ! पुच्छा, गोयमा ! मंडलियमायरो० जाव एएसिं चउद्दसण्हं महासुविणाणं अण्णयरं एग महासुविणं० जाव पडिबुज्झति (सूत्र-५७८) समो भगवं महावीरे छउमत्थकालियाए अंतिमराइयंसि इमेदस महासुविणे पासित्ताणं पडिबुद्धे, तं जहा-एगे च णं मह धोररूवदित्तधरं तालपिसाय सुविणो पराजियं पासित्ता ण पडिबुद्धे 5 / एगं च णं महं सुकिल्लपक्खगं पुंसकोइलं सुविणे पासित्ता णं पडिबुद्धे 21 एगं च णं महं चित्तविचित्तपक्खगं पुंसकोइलगं सुविणे पासित्ता णं पडिबुद्धे 31 एगं च णं महं दामदुगं सव्वरयणामयं सुविणे पासित्ता णं पडिबुद्धे 3 / एगं च णं महं दामदुगं सव्वरयणाामयं सुविणे पासित्ता णं पडिबुद्धे 4 / एगं च णं महं सेयगोवग्गं सुविणे पासित्ता णं पडिबुद्धे 5 / एगं च णं महं पउमसरं सव्वओ कुसुमियं सुविणे पासित्ताणं पडिबुद्धे 6 / एगं च णं महं सागरं उम्मीवीयीसहस्सकलियं भुयाहिं तिण्णं सुविणे पासित्ता णं पडिबुद्धे 7 / एगं च णं महं दिणयरं तेयसा जलंतं सुविणे पासित्ता णं पडिबुद्धे 8 1 एगं च णं महं हरिवेरुलियवण्णभेणं णियगेणं अंतेणं माणुसुत्तरं पव्वयं सव्वओ समंता आवेढियं परिवेढियं सुविणे पासित्ता णं पडिबुद्धे / एगं च णं महं मंदरे पव्वए मंदरचूलियाए उवरि सीहासणवरगयं अप्पाणं सुविणे पासित्ता णं पडिबुद्धे 10 / जं णं समणे भगवं महावीरे एगं महं घोररूवदित्तधरं तालपिसायं सुविणे पराजियं पासित्ता णं० जाव पडिबुद्धे, तणं समणेणं भगवया महावीरेणं मोहणिजे कम्मे मूलाओ अग्घातिए 1 / जंणं समणे भगवं महावीरे एगं महं सुकिल्लं० जाव पडिबुद्धे, तंणं समणे भगवं महावीरे सुझज्झाणोवगए विहरइ 2 / जं गं समणे भगवं महावीरे एगं महं चित्तविचित्त० जाव पडिबुद्धे,तं णं समणे भगवं महावीरे विचित्तं ससमयपरसमयं दुवालसंगं गणिपिडगं आघवेति पण्णवेति परूवेइ दंसेइ निदंसेइ उवदंसेइ. तं जहा-आयारं सूयगडं० जाव दिविवायं 3 / जंणं समणे गवं महावीरे एगं महं दामदुगं सव्वरयणामयं सुविणे पासित्ता णं पडिवुद्धे, तं णं समणे भगवं महावीरे दुविहं धम्म पण्णवेइ, तं जहा-अगारधम्मं वा, अणगारधम्म वा 4 / ज णं समणे भगवं महावीर एग मह सेयगोवग्गं०जाव पडिबुद्धे तं णं समणस्स भगवओ महावीरस्स चाउव्वण्णाइण्णे समणसंघे पण्णत्ते / तं जहा-समणाओ, समणीओ, सावयाओ, सावियाओ 5 जणं समणे भगवं महावीरे एग महं पउमसरं० जाव पडिबुद्धे, तं णं समणो० जाव महावीरे चउविहे देवे पण्णवेइ / तं जहा-भवणवासी, बाणमंतरे, वेमाणिए 6 / जंणं समणे भगवं महावीरे एगं महं सागरं० जाव पडिबुद्धे, तंणं समणेणं भगवया महावीरेणं अणादिए अणवदग्गे० जाव संसारकंतारे तिण्णे 7 / जं णं समणे भगवं महावी
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________________ महासामा वि)ण 224 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 महासुमि(वि)ण मई विशयरं० जाव पडिबुद्धे, तं गं समणस्स भगवओ | वा सुविणंते एगं महं खीरकुंभ वा दधिकुंभं वा धयकुंभं वा नहावारस्स अणते अणते अणुत्तरे० जाव केवलवरणाणदंसणे मधुकुं भं वा पासमाणे पासइ, उप्पाडे माणे उप्पाडे इ, समुप्पण्णे 8 / जंणं समजेणं० जाव वीरेणं एगं महं हरियवे- उप्पाडितमिति अप्पाणं मण्णइ, तक्खणामेव वुज्झइ, तेणेव० रुलिय० जाव पडिबुद्धे, तं णं समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव अंतं करेइ / इत्थी वा पुरिसे वा सुविणंते एगं महं ओराला कित्तिवण्णसदसिलो या सदेवमणुयासुरे लोगे सुरावियडकुंभं पा सोवीरवियडकुंभं वा तेल्लकुंभं वा वसाकुंभं परिभवंति-इति खलु समणे भगवं महावीरे पव्वए मंदरचूलि- वा पासमाणे पासइ, मिंदमाणे मिंदइ, भिन्नमिति अप्पाणं याए० जाव पडिबुद्धे, तंणं समणे भगवं महावीरे सदेवणुयासुराए मण्णइ, तक्खणामेव बुज्झइ, दोचेणं भवग्गहणेणं० जाव अंतं परिसाए मज्झगए केवली धम्मं आघवेइ० जाय उपदंसेइ / करेइ। इत्थी वा पुरिसे वा सुविणंते एगं महं पउमसरं कुसुमितं (सूत्र-५७६) पासमाणे पासइ, ओगाहेमाणे ओगाहइ, ओगाढमिति अप्पाणं इत्थी वा पुरिसे वा सुविणंऽते एगं महं मयपंतिं वा गयपंतिं मण्णइ, तक्खणामेव तेणेव० जाव अंत करेइ / इत्थी वा० जाव वा० जाव वसभपति वा पासमाणे पासइ, दुरूहमाणे दुरूहइ, सुविणंते एग महं सागरं उम्भी वीयी० जाव कलियं पासमाणे दुरूढमिति अप्पाणं मण्णइ, तक्खणामेव बुज्झइ, तेणे य पासइ, तरमाणे तरइ, तिण्णमिति अप्पाणं मण्णइ, तक्खणामेव भवग्गहणेणं सिज्झइ, जाव अंत करेइ / इत्थी वा पुरिसे वा तेणेव० जाव अंतं करेइ / इत्थी वा पुरि० जाव सुविणंते एर्ग सुविणंते एगं महं दामिणिं पाईणपडीणायतं दुहओ समुद्दे पुढे महं भवणं सव्वरयणामयं पासमाणे पासति, दुरूहमाणे दुरूहति, पासमाणे पासइ, संवेल्लेमाणे संवेल्लेइ, संवेल्लियमिति दुरूढमिति अप्पाणं भण्णइ, अणुपविसमाणे अणुपविसति, अप्पागं भाषणइ, तक्खणामेव अप्पाणं बुज्झइ, तेणेव भवग्गह- अणुपविट्ठमिति अप्पाणं मण्णति, तक्खणामेव बुज्झति, तेणेव णेणं० जाव अंतं करेइ / इत्थी वा पुरिसे वा सुविणंते एगं महं जाव अंतं करेति, इत्थी वा पुरिसे वा सुविणंते एगं महं विमाणं किण्हसुत्तगं वा० जाव सुकिल्लसुत्तगं वा पासभाणे पासइ, सव्वरयणामयं पासमाणे पासइ, दुरूहमाणे दुरूहइ, दुरूदमिति उग्गोवेमाणे ठग्गोवेइ, अप्पाणं मण्णइ, तक्खणामेव० जाव अंतं अप्पाणं मण्णइ, तक्खणामेव बुज्झइ, तेणेक० जाव अंतं करेइ / करेइ / इत्थी वा पुरिसे वा सुविणंऽते एगं महं अयरासिं या (सूत्र-५८०) तंवरासिं वा तउयरासिं वा सीसयरासिं वा पासमाणे पासइ, (कइविहे) इत्यादि, (सुविणदंसणे त्ति) स्वप्नस्य-स्वापक्रियानुदुरूहमाणे दुरूहइ, दुरूढमिति अप्पाणं मण्णइ, तक्खणामेव पतार्थविकल्पस्य, दर्शनम्- अनुभवनं, तच स्वप्नभेदात्पञ्चविधमिति, बुज्झइ, दोचे भवग्गहणे सिज्झइ, जाव अंतं करेइ / इत्थी (अहातचे त्ति) यथा तेन प्रकारेण तथ्यं-सत्यं, तत्त्वं वा तेन यो वर्त्ततेऽसौ वा पुरिसे वा सुविणते एगं महं हिरण्णरासिं वा सुवण्णरासिं वा यथातथ्यो यथातत्त्वो वा, स च दृष्टार्थाविसंवादी फलाविसंवादी वा। तत्र पासमाणे पासइ, दुरूहमाणे दुरूहइ, दुरूढमिति अप्पाणं दृष्टार्थाविसवादी-स्वप्नः किल कोऽपि स्वप्नं पश्यति, यथा-'मा फलं भण्णाइ, तक्खणामेव बुज्झइ, दोच्चे भवग्गहणे सिज्झइ० जाव दत्त' जागरितस्तथैव पश्यतीति, फलाविसंवादी तु किल कोऽपि अंतं करेइ / इत्थी वा पुरिसे वा सुविणंते एगं महं हिरण्णरासिं गोवृषकुञ्जराद्यारूढमात्मानं पश्यति बुद्धश्च कालान्तर सम्पदं लभते वासुवण्णरासिं वा रयणरासिंवावइररासिंवा पासमाणे पासइ, / इति, (पयाणे त्ति) प्रतननं-प्रतानो विस्तारस्तद्रूपस्स्वप्नो यथातथ्यः दुरूहमाणे दुरूहइ, दुरूढमिति अप्पाणं मण्णइ, तक्खणामेव तदन्यो वा प्रतान इत्युच्यते, विशेषणकृत एव चानयोर्भेदः, एवमुत्तखापि बुज्झइ, तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झइ० जाव अंतं करेइ। इत्थी / (चिंतासुमिणे त्ति) जाग्रदवस्थस्य या चिन्ता अर्थचिन्तनं तत्संदर्शनावा पुरिसे वा सुविणंते एग महं तणरासिं वा जहा तेयणिसग्गे० त्मकः स्वप्रः चिन्तास्वप्रः, (तव्विवरीय त्ति) यादृशं वस्तु स्वप्ने दृष्ट तद्विजाव अवकररासिंवा पासमाणे पासइ, विक्खिरमणे विक्खिरइ, रीतस्यार्थस्य जागरणे यत्र प्राप्तिः सतद्विपरीतस्वानो, यथा-कश्चिदात्मानं विक्खिण्णमिति अप्पाणं मण्णइ, तक्खणामेव वुज्झइ, तेणेव० मेध्यविलिप्तं स्वप्ने पश्यति जागरितस्तु मेध्यमर्थ कंचन प्रापोतीति, अन्ये जाव अंतं करेति, इत्थी वा पुरिसे वा सुविणंते एगं महं सरथं भं तु-वद्विपरीतभेवमाहुः-कश्चित् स्वरूपेण मृत्तिकास्थलमारूढः स्वप्रे व वा वीरथंभं वा वंसीमूलथंभं वा वल्लीमूलथंभं वा पासमाणे पश्यत्यात्मानमश्वारूढभिति, (अव्वत्तदंसणे ति) अव्यक्तम्- अस्या, पासइ, उम्मूलेमाणे उम्मूलेइ, उम्मूलितमिति अप्पाणं मण्णइ, दर्शनम- अनुभवः स्वप्नार्थस्य यत्रासावव्यक्तदर्शनः / स्वप्राधिकारादेवेदतक्खणामेव बुज्झइ, तेणेव० जाव अंतं करेइ। इत्थी वा पुरिसे मभिधातुमाह-'सुतेण' मित्यादि. (सुतजागरेत्ति) नातिसुप्तोनातिजापदित्यर्थ:
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________________ महासु(मि)ण 225 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 महासेणकण्हा इह सुप्तो जागरश्चद्रव्यभावाभ्यां स्यात्तत्र द्रव्यतो-निद्रापेक्षया, भावतश्च दिदं दृश्यम्-'नरपंति वा एवं किन्नरकिंपुरिसमहोरगंधव नि (पासमागो विरत्यपेक्षया, तत्रच स्वप्रव्यतिकरो निद्रापेक्षया उक्तः / अथ विरत्यपेक्षया पासइत्ति) पश्यन् पश्यत्तागुणयुक्तः सन् पश्यति-अवलोकयति, (दामिणिं जीवादीनां पञ्चविंशतेः पदानां सुप्तत्वजागरत्वे प्ररूपयन्नाह-'जीवाण' / ति) गवादीनां बन्धनविशेषभूतां रज्जुम्। (दुहओ त्ति) द्वयोरपि पार्श्वयोमित्यादि, तत्र (सुत्त त्ति) सर्वविरतिरूपनैश्चयिकप्रबोधभावात. (जागर कित्यर्थः / (संवेल्लेमाणे त्ति) संवेल्लयन्- संवर्तयन (संवेल्लियमिति नि) सर्वविरतिरूपप्रवरजागरणसद्भावात् / (सुत्तजागर त्ति) अविरति- अपाणं मन्नइ त्ति) संवेल्लितान्तामित्यात्मना मन्यते विभक्तिविपरिरूपसुप्तप्रबुद्धतासद्भावादिति / पूर्व स्वप्रदृष्टार उक्ताः / अथ स्यप्रस्येव सामादिति / (उग्गोवेमाणे त्ति) उद्गोपयन् विमोहयन्नित्यर्थः / (जहा राथ्यातथ्यविभागदर्शनार्थ तानेवाह-'संवुडे ण' मित्यादि, संवृतः सयनिसाग ति) यथा गोशालके, अनेन चेदं सूचितम्-(पत्तरासीति वा निरुद्धाश्रवद्वारः सर्वविरत इत्यर्थः, अस्य च जागरस्च शब्दकृत एव सयारासीति वा गुसरासीति वा तुसरासीति वा गोमयरासीति यत्ति) विशेषः-द्वयोरपि सर्वविरताभिधायकत्वात्, किंतु-जागरः सर्वविरति- (सुरावियडकुंभ ति) सुरारूपं यद् विकटम्-जलं तस्य कुम्भो यः स युक्ता बोधापेक्षयोच्यते। संवतस्तु तथाविधवोधोपेतसर्वविरत्यपेक्षयेति, तथा / (सोवीरगवियङकुंभं व त्ति) इह सौवपीरकं-काञ्जिकमिति (संवुडे णं सुविणं पासइ अहातचंपासइत्ति) सत्यमित्यर्थः, संवृतश्चेह भ०१६ श०६ उ०। रिशिष्टतरसंवृतत्वयुक्तो ग्राह्यः: स च प्रायः क्षीणमलत्वात् देवतानुग्रह- महासुमिणभावणा स्त्री० (महास्वप्नभावना) महास्वप्रानि गजवृषयुक्तत्वाच सत्यं स्वप्रं पश्यतीति। अनन्तर संवृतादिः स्वप्रपश्यतीत्युक्तम्। भादीनि भाव्यन्ते यासु ताः महास्वप्नभावनाः / अङ्गबाह्यश्रुतविशेष, अथ संवृतत्वाद्येव जीवादिषु दर्शयन्नाह-'जीवाण' मित्यादि। स्वप्ना- पा०। पं०व०॥ धिकारादेवेदमाह'कइण' मित्यादि, (वायालीसं सुविण त्ति) विशिष्ट- महासुव्वया स्त्री० (महासुव्रता) भगवतोऽरिष्टनेमेः प्रथमश्राविकायाम, फलसूचकस्वप्नापेक्षया द्विचत्वारिंशदन्यथाऽसंख्येयास्ते संभवन्तीति, आ०म०१ अ०॥ (महासुविण त्ति) महत्तमफलसूचकाः (वावत्तरित्ति) एतेषामेव मीलनात।। महासेण पुं० (महासेन) मल्लितीर्थकरस्याष्टमे गणधरे, ज्ञा०१ श्रु०८ अ०। (अंतिमराइयसि त्ति) रात्रेरन्तिमे भागे (घोररूवदित्तधर ति) घोर यद्रूप राजगृहे श्रेणिकराजस्य धारणीकुक्षिसम्भवे पुत्रे, अणु०१ वर्ग 2 अ०। दीप्तं च दृप्त वा तद्धारयति यः स तथा, तम्। (तालपिसायं ति) तालो- ('महासीहसेण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे २२१ऽस्य वक्तव्यतोक्ता) जम्बूद्वीपे वृक्षविशेषः, स च स्वभावाद्दी? भवति, ततश्च ताल इव पिशाचस्ताल- भरतक्षेत्रे सुप्रतिष्ठितनगरे स्वनामख्याते राजनि, विपा०१ श्रु०६ अ०। पिशाचस्तम्, एषां च पिशाचाद्यर्थानां मोहनीयादिभिः रवप्रफलविषयभूतैः कृष्णस्य वासुदेवस्यावस्यावल्गकपुरुषे, आ०म०१०। जम्बूद्वीपे सह साधर्म्य स्वयमभ्यूह्यम्, (पुसकोइलगंति) पुस्कोकिलं-कोकिल- भरतक्षेत्रेऽतीतायामुत्सर्पिण्यां सप्तमकुलकरे, स०ा ऐरवते वर्षे भविष्यति पुरुषमित्यर्थः, (दामदुर्ग ति) मालाद्वयम्। (उम्मीवीइसहस्सकलियं ति) पञ्चदशे तीर्थकरे, स०। आ०चू० / ईशानेन्द्रस्य देवस्य नाट्यानीइहोर्मयो महाकल्लोलाः वीचयस्तु ह्रस्वाः, अथवा-ऊर्मीणां वीचयो काधिपती. स्था०७ ठा०। विविक्तव्यानि तत्सहस्त्रकलित, (हरिवेरुलियवण्णाभेणं ति) हरिच- महासेणकण्ह पुं०(महासेनकृष्ण श्रेणिकभार्याया महासेनकृष्णायाः पुत्रे, सन्नील वैडूर्यवर्णाभ चेति समासस्तेव-(चावेढियं ति) अभिविधिना वेष्टितं नि०१ वर्ग 6 अ० / (स च संग्रामे मृत्वा चतुर्थनरकपृथिव्यामुपपद्य सर्वत इत्यर्थः / (परिवढियं ति) पुनःपुनरित्यर्थः / (उवरि त्ति) उपरि महाविदेहे सेत्स्यतीति निरयावलिकायाः प्रथमवर्ग षष्ठेऽध्ययने सूचितम्) गणिपिङग तिगणीनाम्- अर्थपरिच्छेदानां पिटकमिव पिटकम्-आश्रयो / महासेणकण्हा स्त्री० (महासेनकृष्णा) स्वनामख्यातायां श्रेणिकगणिपिटकम, गणिनो वा आचार्यस्य पिटकमिव 'सर्वस्वभाजनमिव गणि- भार्यायाम, नि० / अन्त०। (सा च वीरान्तिके प्रव्रज्य आचामाम्लं तपः पिटकम्। (आघवेइ त्ति) आख्यापयति सामान्यविशेषरूपतः, (पन्नवेति कर्मोपसंपाद्य सिद्धा) वक्तव्यता यथाति) सामान्यतः (परूवेइ त्ति) प्रतिसूत्रमर्थकथनेन, (दसेइ त्ति) तदभि- एवं महासेणकण्हा वि, नवरं आयंबिलवजमाणं तवोकम्म धेयप्रत्युपेक्षणादिक्रियादर्शनेन, (निदसेइ ति) कश्चिदगृह्णतोऽनुकम्पया उवसंपज्जित्ता णं विहरति,तं जहा-आयंबिलं करेति, आयंबिलं निश्चयेन पुनः पुनदर्शयति (उवदंसेइ त्ति) सकलनययुक्तिभिरिति, करेत्ता चउत्थं करेति चउत्थं करेत्ता बे आयंबिलाइं करेति बे (चाउटवण्णाइन्ने त्ति) चातुर्वर्णश्चासावाकीर्णश्च ज्ञानादिगुणैरिति आयंबिलाई करेत्ता चउत्थं करेत्ता बे आयंबिलाइं करेति बे चातुर्वर्णाकीर्णः / (चउब्विहे देवे पन्नवेइ ति) प्रज्ञापयति-प्रतिबोधयति आयंबिलाइं करेत्ता चउत्थं करेति चउत्थं करेत्ता तिन्नि शिष्यीकरोतीत्यर्थः, (अणते त्ति) विषयानन्तत्यात् (अणुत्तरे त्ति) सर्व- आयंबिलाइं करेति तिन्नि आयंबिलाइं करेत्ता चउत्थं करेति प्रधानत्वात् 'यावत्करणादिदं दृश्यम्- 'निव्वाघाए' कटकुड्यादिनाऽ- चउत्थं करेत्ता चत्तारि आयंबिलाई करेति चत्तारि आयंबिलाई प्रतिहतत्वात्, 'निरावरणे क्षायिकत्वात्, 'कसिणे' सकलार्थग्राहक- करेत्ता चउत्थं करेति चउत्थं करेत्ता पंच आयंबिलाई करेति त्वात्, 'पडिपुन्ने अंशेनापि वकीयनान्यूत्वादिति। (सूत्र-५७६)(सुविणते पंच आयंबिलाई करेत्ता चउत्थं करेत्ता छ आयंबिलाइं करेति ति) स्वप्रान्त-स्वप्रस्य विभागे अवसानेवा'गयपंतिवा' इहयावत्करणा- छ आयंबिलाइं करेत्ता चउत्थं करेति चउत्थं करेत्ता,
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________________ महासेणकण्हा 226 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 महाहिमर्व० एवं एकोत्तरियाए बड्डीए आयंबिलाई बदति चउत्थंऽतरियाई० जाव आयंबिलसयं करेति आयंबिलसयं करेत्ता चउत्थं करेति, तते णं सा महासेणकण्हा अज्जा आयंबिलवङ्घमाणं तवोकर्म चोदसहिं वासेहिं तिहिय मासेहि वीसहि य अहोरत्तेहिं अहासुत्तं० जाव सम्मं कारणं फासेति० जाव आराहेत्ता जेणेव अज्जचंदण्णा अआ तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता वंदइ नमसइ वंदिता नमंसित्ता बहूहिं चउत्थेहिं० जाव भावेमाणी विहरति, तते णं सा महासेणकण्हा अज्जा तेणं ओरालेणं० जाव उवसोभेमाणी चिट्ठइ, तए णं तीसे महासेणकण्हाए अजाए अन्नया कयाऽवि पुव्वरत्तावरत्तकाले चिंता जहा खंदयस्स० जाव अजचंदण पुच्छइ० जाव संलेहणा, कालं अणवकंखमाणी विहरति। तते णं सा महासे णकण्हा अज्जा अज्जचंदणाए अज्जाए अंतियं सामाइयाति एक्कारस अंगाई अहिन्जित्ता बहुपडि पुन्नाति सत्तरसवासातिपरियायं पालइत्ता मासियाए संलेहणाए अप्पाणं झूसेत्ता सर्टि भत्ताई अणसणाए छेदेत्ता जस्सऽट्ठाए कीरइ० जाव तम8 आराहेति चरिमउस्सासणीसासेहिं सिद्धा बुद्धा। अन्त०५ वर्ग 10 अ०। महासेय पुं० (महासेक) औत्तराहाणामिन्द्रे, स्था। दो कुंभडिंदा पण्णत्ता, तं जहा-सेए चेव, महासेए चेव / स्था०२ ठा०२ उ०। महासेल पुं० (महाशैल) महाहिमवति, ज्ञा०१ श्रु०१ 30 / वैतान्ये, कल्प०१ अधि०२ क्षण। महासोक्ख त्रि०(महासौख्य)महत्सौख्यं प्रभूतसद्वदनीयोदयवसाद्यस्य स महासौख्यः / अत्यन्तसुखयुक्ते, सू०प्र०२० पाहु० / जं०। औ०। आ०म० / जी०। प्रज्ञा०। महानदे, स्था०२ ठा०३ उ० / विशिष्टसुखयोगादिति, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। स्था० 1 चं०प्र०। महासोदाम पु० (महासौदाम) बलेवैरोचनेन्द्रस्यपीठानीकाधिपती अश्य सजे, स्था०५ ठा०१ उ०। महाहरि पुं० (महाहरि) दशमचक्रवर्तिनः पितरि, रा०। महाहिताव त्रि० (महाभिताप) महादुःखोत्पादके, सूत्र०१ श्रु०५ अ०१ उ०। महाहिमवंत पुं० (महाहिमवत्) हमवत्क्षत्रस्यात्तरतः सीमाकारिणि वर्षधरपर्वते, जी०३ प्रति०४ अधि०। स्था०। रा०। दो महाहिमवंता। स्था०२ ठा०३ उ०। महाहिमवंतकूड न० (महाहिमवत्कूट) महाहिमवतो वर्षधरपर्वतस्य स्वनामकदेवभवनाधिष्ठित कूटे स्था०१०टा० / कहिणं भंते ! जम्बुद्दीवे दीवे महाहिमवंते णामं वासहरपव्वए पण्णत्ते ? गोयमा ! हरिवासस्स दाहिणेणं हेमवयस्स वासस्स उत्तरेणं पुरत्थिमलयणसमुदस्स पचत्थिमेणं पचत्थिमलवणसमुहस्स पुरस्थिमेणं, एत्थ णं जम्बुदीवे दीवे महाहिमवंते णामं दासहरपव्वए पण्णत्ते, पाईणपडीणायए उदीणदाहिणवित्थिपणो पलियंकसंठाणसंठिए दुहा लवणसमुदं पुढे पुरथिमिल्लाए कोडीए० जाव पुढे पचत्थिभिल्लाए कोडीए पचत्थिमिल्लं लवणसमुदं पुढे दो जोयणसयाई उठं उच्चत्तेणं पण्णतं जोअणाई उव्वेहणं चत्तारि जोअणसहस्साइंदोण्णि अदसुत्तरे जोअगसए दस य एगूणवीसइभाए जोअणस्स विक्खंभेणं, तस्स बाहा पुरथिमचत्थिमेणं णव जोअणसहस्साइं दोणि अ छावत्तरे जोअणसए णव य एगूणवीसइभाए जोअणस्स अद्धभागं च आयामेणं, तस्स जीवा उत्तरेणं पाईसपडीणायया दुहा लवणसमुदं पुट्ठा पुरथिमिल्लाए कोडीए पुरथिमिल्लं लवणसमुई पुट्ठा पचत्थिमिल्लाए० जाव पुट्ठा तेवण्णं जोअणसहस्साई नव य एगतीसे जोअणसए छच्च एगूणवीसइभाए जोअणस्स किंचि विसेसाहिए आयामेणं, तस्स धणु दाहिणेणं सत्तावण्णं जोअणसहस्साइं दोण्णि अ तेणउए जोअणसए दस य एगूणवीसइभाए जोअणस्स परिक्खेवेणं, रुअगसंठाणसंठिए सव्वरयणामए अच्छे उभयो पासिं दोहिं पउमवरवेइयाहिं दोहि अवणसंडे हिं संपरिक्खित्ते महाहिमवंतस्स णं वासहरपव्वयस्स उप्पिं बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते, जाव णाणाविहपञ्चवण्णेहि मणीहि अ तणेहि अ उवसोमिएन्जाव आसयंति सयंति य / (सूत्र-७६) (कहि ण भंते ! इत्यादि) सर्व प्राग्वत्, नवरं द्वेयोजनशते उपत्येन क्षुद्रहिमवद्वर्षधरतो द्विगुणोचत्वात् पञ्चाशद्योजनान्युद्वधेन-भूप्रविएवेन, मेरुवर्जसमयक्षेत्रगिरीणां स्वोचत्वचतुर्थांशेनोद्वेधत्वात् चत्वारि योजनसहस्त्राणि द्वे च योजनशते दशोत्तरे दश च योजनैकोनविंशतिभागान् विष्कम्भेन हैमवतक्षेत्रतो द्विगुणत्चात्, अथास्य बाहादिसूत्रमाह-(तस्स त्ति) सूत्रत्रयमपि व्यक्तम्, प्रायः प्राग्व्याख्यातसूत्रदृशगमकत्यात्, नवर मत्रास्य सर्वरत्नमयत्वमुक्तम्, बृहत्क्षेत्रविचारादौ तु पीतरवर्णमयन्यमिति तेन मतान्तरमवयम्, अनेनैव मतान्तराभिप्रायेण जम्बूद्वीपपट्टादावस्य पीतवर्णत्वं दृश्यते, अथारय स्वरूपाविर्भावनायाह-(महाहिमवंतस्त णमित्यादि) सर्वजगतीपद्मवरवेदिकावनखण्डकवद् ग्राह्यम्। सम्प्रति अत्र हदस्वरूपमाहमहाविमवंतस्स णं बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं एगे महापउमद्दहे णामं दहे पण्णत्ते, दो जोअणसहस्साई आयामेणं एगं जोअणसहस्सं विक्खंभेणं दस जोअणाई उव्वेहेणं अच्छे रययामयकूले, एवं आयामविक्खंभविहूणा जा चेव पउमद्दहस्स वत्तव्वया सा
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________________ महाहिमवं० 227 अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 नहाहिमवं० चेव णेअव्वा, पउमप्पणाणं दो जोअणाई अट्ठो० जाव महाप- महया घडमुहपवित्तिएणं मुत्ताऽऽवलिहारसंठिएणं साइरेगदुजोउमद्दहवण्णाभाई हिरी अ इत्थ देवी० जाव पलिओवमट्ठिइया अणसइएणं पवारणं पवडइ, हरिकंता महाणई जओ प्रवडइ परिवसइ, से एएणऽहेणं गोअमा ! एवं बुचड़, अदुत्तरं च गं / शश मह एगा जिडिभआ पण्णत्ता, दोजोराई आयाम गोअमा! महापउमद्दहस्स सासए णामपिज्जे पण्णले / जंण कराइ एणवीसं गोअणाई विक्खंभेणं अद्धं जोअणं वाहल्लेणं मगरणाऽसि, जंण कयाइनऽत्थि, जंण कयाइण भविस्सइ, तस्स मुहविउट्ठसंठाणसंठिआ सव्वरयणामई अच्छा, हरिकता णं ण महापउमद्दहस्स दक्खिणिल्लेणं रोहिआ महाणई पव्वूढा महाणई जहिं पवडइ एत्थ णं महं एगे हरिकतप्पवायकुंडे णाम समाणी सोलस पंचुत्तरे जोणसए पंच य एगूणवीसइभाए। कुंडे पण्णत्ते, दोणिण अ चत्ताले जोअणसए आयामविक्खंभेण जो अगस्स दाहिणाभिमुही पव्वएणं गंता महया धडमुहप- सत्तअउगटे जोयणसए परिक्खवेणं अच्छे, एवं कुंडवतव्वया विनिएणं मुत्तावलिहारसंठिएणं साइरेगदोजोअणसइएणं पचाएण सव्वा नेयव्वा० जाव तोरणा! तस्स णं हरिकंतप्पवायकुस्स पक्डइ, रोहिआ णं महाणई जओ पवडइ एत्थ णं महं एगा बहुमज्झदेसमाए एत्थ णं महं एगे हरिकंतदीवे णामं दीवे पण्णत्ते, जिब्भिया पण्णता, साणं जिडिमआ जोअणं आयामेणं अद्धतेर- ! बत्तीसं जो अणाई आयामविक्खं भेणं एगुत्तरं जो अणसयं सजोअगाइं विक्खंभेणं कोसं बाहल्लेण मगरमुहविउठसंगण- परिक्खेवेणं दो कोसे ऊसिए जलंताओ सव्वरयणामए अच्छे, सठिआ सव्ववइरामई अच्छा, रोहिआ णं महाणई जहिं पवडइ से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगेण य पणसंडेणं० जाव संपरिएत्थ णं महं एगे रोहिअप्पवायकुंडे णामं कुंडे पण्णत्ते, सबीसं / क्खित्ते वण्णओ भाणिअव्वो त्ति, पमाणं च सयणिजंच अट्ठो अ जोअणसयं आयामविक्खभेणं पण्णत्तं, तिणि असीए जोअणसए भाणिअव्यो / तस्स णं हरिकंतप्पवायकुंडस्स उत्तरिल्लेणं किंचि विसेसूणे परिक्खेवेणं दस जोअणाई उद्वेहेणं अच्छे सम्ह तोरणेणं० जाव पव्वूढा समाणी हरिवस्सं वासं एज्जेमाणी सो चेव वण्णओ, वइरतले वट्टे समतीरे०जाव तोरणा, तस्स ण एन्जेमाणी विअडावई वट्टवेअढ जोअणेणं असंपत्ता पचत्थारोहिअप्पवायकुंडस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगे भिमुही आवत्ता समाणी हरिवासं दुहा विभयमाणी विभयमाणी रोहिअदीवे णामं दीवे पप्णत्ते, सोलसजोअणाइं आयामवि- छप्पण्णाए सलिलासहस्से हिं समग्गा अहे जगई दलइत्ता क्खंभेणं साइरेगाइं पण्णासं जोअणाई परिक्खेवेणं दो कोसे पञ्चत्थिमेणं लवणसमुदं समप्पेइ, हरिकंता णं महाणई पवहे ऊसिए जलंताओ सव्ववइरामए अच्छे, से णं ए गाएपउमवरवेइ- पणवीसं जोअणाइं विक्खम्मेणं अद्धजोअणं उव्येहेणं तयणंतरं आए एगेण य वण्णसंडे ण सव्वओ समता संपरिक्खित्ते, च णं मायाए मा०२ परिवद्धमाणी परिवद्धमाणी मुहमूले अद्धारोहिअदीवस्स णं दीवस्स उप्पिं बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे इज्जाइं जोयणसयाई विक्खम्भेणं पंच जोअणाई उब्वेहेणं, पण्णत्ते, तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेस- उभओ पासिं दोहिं पउमवरवेइआहिं, दोहि अ वण संडे हिं भाए एत्थ णं महं एगे मवणे पण्णत्ते, कोसं आयामेणं सेसं त संपरिक्खित्ता। (सूत्र-१०) चेव पमाणं च अट्ठो अभाणिअव्वो / तस्स णं रोहिअप्पवाय- 'महाहि इत्यादि, प्रायः पद्मदहसूत्रानुसारेण व्याख्ययम् / अथैतकुंडस्स दक्खिणिल्लेणं रोहिआमहाणई पव्वूढा समाणी हेमवयं इक्षिाणद्वारनिर्गता नदीं निर्दिशन्नाह-(तस्स णमित्यादि)तस्य महापद्मवासं एज्जेमाणी ए०२ सद्दावई वट्टवेअपव्वयं अद्धजोअणेणं द्रहस्थ दाक्षिणात्यन तोरणेन रोहिता महानदी प्रव्यूढानिर्गता सती असंपत्ता पुरत्थामिमुही आवत्ता समाणी हेमवयं वासं दुहा षोडशपशोत्तराणि योजनशतानि पञ्च चैकोनविंशतिभागान योजनस्य विभजमाणी विभजमाणी अट्ठावीसाए सलिलासहस्सेहिं समग्गा दक्षिणाभिज्ञमुखी पर्वतेन गत्वा महाता घटमुखप्रवृत्तिकेन मुक्ताअहे जगई दालइत्ता पुरत्थिमेणं लवणसमुदं समप्पेइ, रोहिआ वलिहारसंस्थितेन सातिरेकद्वियोजनशतिके न, सातिरे कत्वं च णं जहा रोहिअंसा तहा पवाहे अमुहे अभाणिअव्वा इति ०जाव रोहिताप्रपातकुण्डोद्वेधापेक्षया बोध्यम्, प्रपातेन प्रपतति, षोडशेसंपरिक्खित्ता। तस्स णं महापउमद्दहस्स उत्तरिल्लेणं तोरणेणं त्यादिरख्यानयन तु चतुःसहस्त्रद्विशतदशयोजनतदेकोनविंशतिहरिकंता महाणई पव्यूढा समाणी सोलस पंचुत्तरे जोअणसए भागात्मकभागदशकागिरिव्यासात् सहस्त्रयोजनात्मके द्रहव्यासेऽपनीते पंच य एगूणवीसइभाए जोअणस्स उत्तराभिमुही पव्वएणं गंता सत्यीकृताद्भवति, अन्यत् सर्व रोहितांशगमेन वाच्यम्। अथ सा यत.
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________________ महाहिमवंत० 228 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 महिंदज्झय प्रपतति तदास्पदं दर्शयति-'रोहिआ णमित्यादि' प्राग्वत् / अथ यत्र / से केणऽद्वेणं मंते ! एवं वुच्चइ महाहिमवंते वासहरपब्वए प्रपतति तदाह-'रोहिआ णमित्यादि' प्राग्व्याख्यातप्रायम्, नवरं वासहरपव्वए ? गोअमा! महाहिमवंते णं वासहरपव्वए चुल्लसविंशतिकं योजनशतं गङ्गाप्रपातकुण्डतो द्विगुणायामविष्कम्भत्वात्, हिमवंतं वासहरपव्वयं पणिहाय आयामुच्चत्तुव्वेहविक्खम्भत्रीणि योजनशतानि अशीत्यधिकानि किञ्चिद्विदेशेषोनानि, ऊनत्वकर परिक्खेवेणं महंततराए चेव दीहतराए चेव, महाहिमवंते अ इत्थ णेन योजनानि 376 क्रोशः१ कियद्धनुरधिकस्तेन किञ्चिदूनाशीतिरक्ता देवेमहि (वि) द्धिए० जावपलिओवमट्ठिइएपरिसवइ। (सू०-८१) इत्यर्थः, परिक्षेपेणेति। अधुनाऽस्य द्वीपवक्तव्यमाह-'तस्सण' मित्यादि साम्प्रत महाहिमवतो नामार्थ निरूपयन्नाह-'से केणद्वेण' सित्यादि, व्यक्तम्, नवरं गङ्गाद्वीपतो द्विगुणायामविष्कम्भत्वात्. षोडश योजनानि व्यक्तम्। नवरमुत्तरसूत्रे महाहिमवान् वर्षधरपर्वतः क्षुद्रहिमवन्तं वर्षधररोहिताद्वीपप्रमाणमित्यर्थः, 'से णमित्यादि' सुगमम्, 'रोहिअदीव पर्वत प्रणिधाय प्रतीत्य क्षुद्रहिमवदपेक्षयेत्यर्थः, योजनाया विचित्रत्वात् इत्यादि' सुगमम्, नवरं शेष विष्कम्भादिकं प्रमाण तदेव, कोऽर्थः ? आयामापेक्षया दीर्घतरक एव उच्चत्वाद्यपेक्षया महत्तरक एवेति, अथवाअर्द्धक्रोशं विष्कम्भेन देशोनक्रोशमुच्चत्वेनेति, चशब्दाद्रोहितादेवीशयना- महाहिमवन्नामाऽत्र देवः पल्योपमस्थितिकः परिवसति, सूत्रे आयामोचदिवर्णकोऽपि, अर्थच 'सेकेणऽट्टणं भंते! रोहिअदीवे' इत्यादि, सूत्राय- त्वेत्सादावेकवद्भावः समाहाराट् बोध्यः) जं०४ वक्षO) Fo) गम्यः / सम्प्रति यथेयं लवणगामिनी तथाऽऽह-'तस्सेत्यादि तस्य ___ जीवाभिगमे चैवं व्याख्यातम् - रोहिताप्रपातकुण्डस्य दाक्षिणात्येन तोरणेन द्वारेणेत्यर्थः, रोहिता (महाहिमवंतमलयमंदरगिरिगुहासमन्नागयाणमिति) महाहिमवान्महानदी प्रव्यूढानिर्गता सती हैमवतं वर्षम् आगच्छन्ती र हेमवतक्षेत्राभि- हैमवतक्षेत्रस्योत्तरतः सीमाकारी पर्षधरपर्वतः उपलक्षणं शेषवर्षधरमुखमायान्तीत्यर्थः, शब्दापातिनामानं वृत्तवैताढ्यपर्वतमर्द्धयोजनेन पर्वतानाम, मलयपर्वतस्य मन्दरगिरेश्चमेरुपर्वतस्य च गुहासमन्वागताक्रोशद्वयेनासम्प्राप्ता-असंस्पृष्टा दूरस्थितेत्यर्थः, पूर्वाभिमुखी आवृत्ता नाम, वाशब्दा विकल्पार्थाः, एतेषु हि स्थानेषु प्रायः किन्नरादयः प्रमुदिता सती हैमवतं वर्ष द्विधा विभजन्ती २-द्विभागं कुर्वती 2 अष्टाविंशत्या भवन्ति तत एतेषामुपादानम्, (एगतो सहियाणं ति) एकस्मिन् स्थाने सलिलासहस्त्रैः समग्रा-पूर्णा, भरतनदीतो द्विगुणनदीपरिवारत्वात, सहिताना समुदितानाम्, (समुहागयाण ति) परस्परसंमुखागतानांसंमुखं अधोभागे जगतीं जम्बूद्वीपकोट्टे दारयित्वा पूर्वभागेन लवणसमुद्र -स्थितानाम्, नैकोऽपि कस्याऽपि पृष्ठ दत्त्वा स्थित इत्यर्थः, पृष्ठदाने समुपसर्पति, प्रविशतीत्यर्थः / अथलाघवार्थ रोहितांशातिदेशेन रोहिता- हर्षविघातोत्पत्तेः / जी०३ प्रति०। जं०। वक्तव्यमाह-'रोहिआणं ति’ अतिदेशसूत्रत्वादेव प्राग्वत् / अथास्म महाहिलोगबल पुं० (महाहिलोकबल) भरतक्षेत्रजाऽरजिनसमका-लिके दुत्तरगामिनीयं नदी कावतरतीत्याशङ्कयाह-'तस्स णामति' व्यक्तम् ऐरवतजेऽष्टादशे तीर्थकरे, ति०। 'हरिकता' इत्यादि कण्ठ्यम्, अत्र 'सव्वरयणामई' ति पाठो बह्वदर्शदृष्टो- | महिअ त्रि० (मथित) विलोडिते, विरोलिअं मंथिअं महि अं" पाइ० ऽपि लिपिप्रमादापतित एव सम्भाव्यते, बृहत्क्षेत्रविचारादिषु सर्वासां ना०१६१ गाथा। जिहिकानां वज़मयत्वेनैव भणनात्, जलाशयानां प्रायो वज्रमयत्वे- | महिआस्त्री०(महिका) "सिण्हा नीहारो धूमिआयमाहआ यधूममहिसी नैवोपपत्तेश्च, 'हरिकता ण' मित्यादि, यक्तम्, नवरं हरिकान्ताप्रपात- य" पाइ० ना०३८ गाथा। मेघसमूहे, 'घणनिवहो कालिआ महिआ'। कुण्ड द्वे योजनशते चत्वारिंशदधिके आयामविष्कम्भाभ्यां सप्तयोजन- पाइ० ना०१५७ गाथा। शतानि एकोनषष्ठानि एकोनषध्यधिकानि परिधिना इति, 'तस्स ण' महिंद पुं० (महेन्द्र) शक्रादिदेवे, ज्ञा०१ श्रु०१ अ० / स्था० / सूत्र० ! मित्यादि, सूत्रत्रयं प्राक्सूत्रानुसारेण बोद्धव्यम्, नवरं विकटापातिनं चतुर्थदेवलोके, तदिन्द्रे च। औ०। सप्तमतीर्थकरस्य प्रथमभिक्षादायके, वृत्तवैतादयं योजनेनासम्प्राप्ता पश्चिमेनावृत्ता सती हरिवर्षं नाम क्षेत्र स० / नि० ('ठाण' शब्दे चतुर्थभागे 1706 पृष्ठेऽयं लोक उक्तः) वक्ष्यमाणस्वरूपं द्विधा विभजमाना 2 षट्पञ्चाशता नदीसहस्त्रः समगा- पर्वतविशेषे, औ०। आ०म०। परिपूर्णा, हैमवतक्षेत्रनदीतो द्विगुणनदीपरिवारत्वात् पश्चिमेन भागेन / महिंदकुंभसमान त्रि० (महेन्द्रकुम्भसमान) महान्तो महेन्द्रकुम्भसमानाः, लवणोदधिमुपैति / सम्प्रत्यस्याः प्रवाहादि कियन्मानमित्याह-'हरि- कुम्भानामिन्द्रः इन्द्रकुम्भः, राजदन्तादिदर्शनादिन्द्रशब्दस्य पूर्वनिपातःकता' इत्यादि, हरिकान्ता महानदी प्रवहेद्रहनिर्गमे, पञ्चविंशतियोजना- महाश्चासाबिन्द्रकुम्भश्च तस्य समानाः महेन्द्रकुम्भसमानाः / निविष्कम्भेन अर्द्धयोजनमुद्धेधेन तदनन्तरं च मात्रया मात्रयाक्रमेण 2 . महाकलशप्रमाणे, जं०१ वक्ष०। प्रतियोजनं समुदितयोरुभयोः पार्श्वयोः चत्वारिंशद्धनुर्वृद्ध्या, प्रतिपार्श्व महिंदज्झय पु० (महेन्द्रध्वज) महेन्द्रा इत्यतिमहान्तः समयपरिभाषया धनुर्विशतिवृद्धयेत्यर्थः, परिवर्द्धमाना 2 मुखमूलेसमुद्रप्रवेशेऽर्द्धतृती- ते च ते ध्वजाश्चेति, अथवा-महेन्द्रस्येव शक्रादेवंजा महेन्द्रध्वजा, यानि योजनशतानि विष्कम्भेन पञ्च योजनान्युद्धेधेन, उभयोः पार्श्वयो- अत्युच्छ्तेिष्वित्द्रध्वजेषु, स्था०॥ भ्यिां पद्मवरवेदिकाभ्यां द्वाभ्यां च वनखण्डाभ्यां सम्परिक्षिप्ता। तासिणं मणिपेढियाणं उवरि चत्तारि महिंदज्झया पण्णत्ता। अर्थतस्य कूवक्तव्यमाह स्था० 4 ठा० 2 उ० / राय० / विश्वपुरे धरणेन्द्रस्य राज्ञः
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________________ महिंदज्झय 226 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 महिसी पुत्रे. ग०३ अधि० / मणिपीठिकामध्यगता महेन्द्रध्वजाः सिद्धायत- | सायं प्राता धूमिकापातो महिकेत्युच्यते। आचा०१ श्रु०१ अ०३ उ०। नवर्णकादववोद्धव्याः। जं०४ वक्ष०॥ आ०म० / जी०। आ०चू० / कल्प० / अनु०। प्रव० जी०। गर्भमोसषु महिंदप्पसूरि पु० (महेन्द्रप्रभसूरि) अञ्चलगच्छीये सिंहतिलकसूरिशिष्ये, सूक्ष्मवर्षे, प्रज्ञा०१ पद। दश। भ०। नि०चूला विशे० स्था०। आव०। अयनाचार्यः विक्रमसंवत् 1362 वर्षजातः विक्रमसंवत् 1444 वर्षे स्वर्ग आचा। गतः! जै० इ०। महिरुह पुं० (महीरुह) वृक्षे, दश०१ अ०। महिंदफल न० (महेन्द्रफल) इन्द्रयवे, उत्त०२ अ०। महिला स्त्री० (मिथिला) विदेहजनपदे स्वनामख्यातायां नगर्याम्, 'तेण महिंदसीह पुं० (महेन्द्रसिंह) सनत्कुमारस्य चक्रवर्तिनी मित्रे सृरिका- समएणं महिला णाम णयरी होत्था' चं०प्र०१ पाहु०। आव०। विशे। लिन्दीत्नये, उत्त०१८ अ०। स्था०। निहवानामुत्पत्तिस्थाने, उत्त० अ० आ०कo! आ०चू०। माहेंदसूरिपुं० (महेन्द्रसूरि) धर्मघोषसूरिशिष्ये आतुरप्रत्याख्यानवृत्ति- | महिला स्त्री० स्त्रियाम्, बृ०२ उ०। आ०चू०। को०। प्रव०। कृति, आतु। अयमाचार्यः विक्रमसंवत् 1228 वर्षे जातः 1306 ग्रन्थो नागाविहेहिं कम्मेहिं सिप्पयाईहिं पुरिसे मोहंति त्ति महिलाओ। रचितः महेन्द्रसिंहसूरिरित्यपरमस्य नाम / द्वितीयोऽपि महेन्द्रसूरि- (नाण०) नानाविधैः कर्मभिः ऋषिवाणिज्यादिभिः शिल्पकादिभिश्च ईमचन्द्राचार्थशिष्यः, तद्रचिताऽनेकार्थसङ्ग्रहग्रन्थे अनेकार्थकैटवाकर- कुम्भकार-लोहकार-चित्रकार-तन्तुवायनापित विज्ञानैः पुरुषान कौमुदीनाम टीकाऽस्ति। जै० इ०। (मोहन्तीति) मोह प्रापयन्तिधातूनामनेकार्थत्वात्, विडम्बयन्तीत्यर्थः, महिच्छ त्रि० (महेच्छ) महती राज्यविभवपरिवारादिका सर्वातिशायिनी इति महिलाः। यद्वा-नानाविधैः कर्मभिः मैथुनसेवादिभिः शिल्पादिभिश्च स्यान्तः करणप्रवृत्तिर्यस्य सः। सूत्र०२ श्रु०२ अादशा० / अधिकोप- मस्तकादौ कवर्यादिविज्ञानैः पुरुषान् बालनरान् मोहयन्तीति आत्मधियुक्ते. स्था०६ ठा०। प्रश्न०। सात्कुर्वन्तीति स्वस्वार्थपूरणायेति महिलाः, (पुरि त्ति) पुरुषान् मत्तान्महिट्ठ न० (महिष्ठ) तक्रसंसृष्ट, विपा०१ श्रु०१ अ०। उन्मत्तान मुक्तगुरुजनकजननीबान्धवगिनीमित्रा-विलज्जान् कुर्वन्ति महिड्डिय त्रि० (महर्द्धिक) महती ऋद्धिर्यस्य सः। दिव्यानुका रिलक्ष्मीके, प्रमदाः, महान्तं राटिं कलिं जनयन्ति उत्पादयन्तीति महिलाः / त० / उत्त०११ अ०। प्रज्ञा०। चं०प्र०। 'रामा रमणी सीमं-तिणी बहू वामलोअणा विलया। महिला जुवई महिमकिरिया स्त्री० (महिमक्रिया) शवदाहस्थाने मृतमाहारम्यकरणे, अबला, निअंबिणी अंगणा नारी" // 12 // पाइ० ना०१२ गाथा। "भरहो वि भगवतो यूपं काऊण चक्करयणस्स अड्डाहिया महिभकिरिया" महिलासभाव पुं०(महिलास्वभाव) स्त्रीस्वभावे, ध०३ अधिक। आ०म०१ अ०। महिलिया स्त्री० (महिलिका) महान्तं रार्टि कलिं जनयन्ति उत्पादमहिमा पु० (महिमन) महोत्सवे, प्रा०१ पाद। यन्तीति महिलिकाः। तं० / स्त्रियात्, अनु० / महिमा सी०।"वेमाञ्जल्याद्याः स्त्रियाम्" ||135|| महिमा- महिल्ल त्रि० (महत्) सर्वेभ्योऽपि बृद्धतरे,बृ०३ उ०। शब्दश्च स्त्रीलिङ्गोऽपि दृश्यते। महोत्सवे, प्रा०ा पञ्चा०१ विव०ा विशिष्ट | महिउद्वियाकमलसरिसोवम त्रि० (महोष्ट्रिकाकमलसदृशोपम) काले पूजायाम, आचा०२ शु०१ अ०२ उ० / आ०म० / महत्त्वप्राप्ती महाभाजनखण्डतुल्ये, उपा०२ अ०। अङ्गुल्यग्रेण चन्द्रादिस्पर्शनयोग्यतायाम्, द्वा०२६ द्वा० / सूत्र० / महिवट्ठ न० (महीपृष्ठ) भूतले, उत्तरपदत्वात्। 'पृष्ठे वानुत्तरपदे" महिय त्रि० (महित) पूजिते, आ०चू०५१०। उत्त०। विशे०। न०। ज्ञा०। ||61 / 126 / / इति ऋत इत्त्व न। प्रा०। foHo! औ० / प्रज्ञा० / पुष्पादिभिः पूजिते, ध०२ अधि०। आव०॥ महिवाल पुं० (महीपाल)"पो वः" ||1 / 231 / / इति पकारस्य नि आ०म०। आ०चू०। स०। औ० / नमस्कृते, आ०चू०५ अ० / दन्योष्ठ्यो वः / महिवालो। राजनि, प्रा०१ पाद। सेव्यतया वाञ्छिते, उत्त०३ अ०।अभिष्टुत, अनु०। पूजने, न०। ज्ञा०१ महिस पु० (महिष) मह्या शेते इति महिषः / द्धिखुरजीवविशेषे, अनु०॥ श्रु०१ 0 प्रव० / आ०म० / प्रज्ञा०। मथित त्रि० / विलोड़िते, प्रश्न०३ आश्र० द्वार / स्त्रियाममथिता मान- महिसंदो (देशी) शिगुतरौ, देवना०६ वर्ग 120 गाथा। मन्थनार पिलोडितेत्यर्थः / ज्ञा०१श्रु०१६ अ०। भ० स०। आ०म०। महिसकरण न० (महिषकरण) महिषानुद्दिश्य किंचित्करणे तादृशे स्थाने, रा०प्रश्नः। दध्नि, प्रव०४ द्वार। आचा०२ श्रु०२ चू०३ अ०। महियडेय न० (महिकाद्रुक) घृतसम्बन्धिकिट्टे, बृ०१ उ०। महिसगाम पुं० (महिषग्राम) भरतक्षेत्रे वैताढ्यपर्वते उत्तरश्रेण्यां स्वनाममहियल न० (महितल) भूतले, प्रश्न०१आश्र० द्वार। ख्याते ग्रामे, ती०६ कल्प। नहियलपइट्ठिय त्रि० (महीतलप्रतिष्ठित) महीतलस्थिते, कल्प०१ | महिसाणिय न० (महिषानीक) महिषसैन्ये, स्था०७ ठा०। अधि०३ क्षण। महिसिक्कं (देशी) महिषीसमूहे, देना०६ वर्ग 125 गाथा। महिया स्त्री० (महिका) धूमिकारूपे अप्काये, ओघ० / गर्भमासादिषु / महिसी स्त्री० (महिषी) राजभायायाम, स्था० 4 ठा० 1
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________________ महिसी २३०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 महुर उ०।"सेरिही महिसी' पाइ० ना०२१६ गाथा। तथाविधलब्धिवशान्मधुतुल्यं वचनं वदन्ति।आ०चू०१ अ०। आ०म०। महिहर पुं० (महीधर) पर्वते, "(76) सेलो असलो भद्दी सिलोचयो | महुकरसम त्रि० (मधुकरसम) भ्रमरतुल्ये, दश०१ अ०। महिहरो धरो सिहरी" पाइ० ना०५० गाथा। महुकरी स्त्री० (मधुकरी) भ्रमर्याम्, औ०। मही स्त्री० (मही) पृथिव्याम्, उत्त०२७ अ० / बृ० / आ०म० / मनः- | महुकुंभ पुं०(मधुकुम्भ) मधुनः क्षौद्रस्य कुम्भो मधुकुम्भः, मधुभृतं मध्वेव शिलायाम, जै०गा०। भुवि, दश०५ अ०१ उ०। सूत्र०।महावातोत्क्षि- | कुम्भः मधुकुम्भः / मधुपूरिते घटे, स्था०४ ठा०४ उ०। ससचित्तपृथिव्याम्, विशे०। रत्नप्रभादिपृथिवीषु, आव०४ अ० / महुकेटभ पुं० (मधुकैटभ) चतुर्थे प्रतिवासुदेवे, प्रव०२११ द्वार / समुद्रगते महानदीभेदे, स्था०४ ठा०२ उ०। जै० गा०॥"वसुहा वसुन्धरा आव० / ति०! वसुमई मही मेइणी धरा धरिणी' पाइ० ना०२६ गाथा। महुगुलिया स्त्री० (मधुगुटिका) क्षौद्रवर्तिकायाम्, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। महीरह पुं० (महीरुह) वृक्षे, "साही विडवी वच्छो महीरुहो पायवो दुमोय महुघाय पुं० (मधुधात) मधुग्राहकेषु, प्रश्न०१ आश्र० द्वार। तरू" पाइ० ना०५४ गाथा। महुतण न० (मधुतृण) तृणविशेषे, प्रज्ञा०१ पद। महीवलय न० (महीवलय) समस्तधरणीतले. दर्श०३ तत्त्व। महुप्पल न० (महोत्पल) शतपत्रे कमले, "अंबुरुहं सयवत्तं, सरोरुह महीहर पुं० (महीधर) चम्पायां नगयां कालीनामपर्वतस्थाधोभागे- पुंडरीअ-मरविदं।राईवं तामरसं, महुप्पलं पंकयं नलिणं॥१०॥" पाइ० . ण्डनामसरोवरे हस्तियूथाधिपतौ हस्तिनि, ती०१४ कल्प। प्रसन्नचन्द्र- ना०१० गाथा। भूपालपुत्रे, द्वी०। आ०क०। महुप्पिय पुं० (मधुप्रिय) सिद्धार्थपुरे विमलश्रेष्ठिनः तिक्रकटुकषायादिषु महु न० (मधु) अतिशायिशर्करादिमधुरद्रव्ये, विशे० / आ०म०। क्षौद्रे, लम्पटे पुत्रे, ग०२ अधि०। स्था०४ ठा०४ उ०। प्रव०। ज्ञा०। उपा०नि०चू०। पुष्पोद्भवे मद्ये, | महुप्पिहाण त्रि०(मधुपिधान) मधुभृतंमध्वेव वा पिधानं स्थगनं यस्यासौ उत्त०१६ अ०। पञ्चा०। कुसुमसम्भवे काले, स्था०७ ठा०।"मधूणि- मधुपिधानः / मधुना पिहिते, स्था०४ ठा०४ उ०। तिन्निमच्छियं पोत्तियं भामरं च" आ०चू०६अ। माक्षिकपोत्तिकभ्रमरभेदं महुमहपुं०(मधुमथ) उपेन्द्रे,"सउरी दसारनाहो, वइकुंठो महुमहोउविंदो त्रिधा मधु / पं० व०२ द्वार विपा० / दश० / ध०। आ०चू० / स्था०। य" पाइ० ना०२१ गाथा। मद्यविशेषे, जी०३ प्रति०४ अधि०। पञ्चा० जी०नि० चू० / औ०। महुमहण पुं० (मधुमथन) मधुदैत्यनाशके विष्णौ, विशे० / स्था० / निका "इदुतोः दीर्घः" |83|16|| महहिं / प्रा०। "मइरेअं महुवारो __ आ०म०। " सीहू सरओ महुं अवक्करसो" / पाइ० ना०६४ गाथा। मधुनि, न०। महुमुह (देशी) पिशुने, देना०६ वर्ग०१२२ गाथा। "सारहं महुं" पाइ० ना०२२४ गाथा। वसन्ततॊ, पुं०। "सुरही महू | महुमेह पुं० (मधुमेह) वस्तिरोगे, आचा०१ श्रु०६ अ०१ उ०। वसंतो'' पाइ०ना०१५६ गाथा। "मजे महुम्मि मंसंमि, नवणीयंमि महुमेहिय त्रि० (मधुमेहिक) मधुमेहो विद्यते यस्यासौ मधुमेही / चउत्थए / उप्पजंति असंसाया, तव्वणा तत्थ संतुवो // 1 // " इत्यत्र मधुतुल्यप्रस्त्राववति, आचा०१ श्रु०६ अ०१ उ० / मधुवर्णभूत्रामद्यादिचतुष्के ये जीवा उत्पद्यन्ते ते कियदिन्द्रिया इतिप्रश्ने, उत्तरम्- नवरतप्रस्त्राविणि, आचा०१ श्रु०६ अ०१ उ० प्रश्न०। विपा०। रा०। मद्ये मधुनि नममीसे च द्वीन्द्रियाः, मांसे एकेन्द्रिया बादरभिगोदरूपा आ०क०। द्विखुरजीवविशेषे, औ०। द्वीन्द्रियाश्च, मनुष्यमांसे तु एकेन्द्रिया बारभिगोदरूपा द्वीन्द्रियाः महुयर पुं० (मधुकर) भ्रमरे, ज्ञा०१ श्रु०१६ अ०। आ०म०। मधुकरैर्मदसम्बच्छिनमनुष्यपधेन्द्रियरूपाश्च / सम्मूर्च्छन्तीति ज्ञासादुसारेण ___जलगन्धाकृष्टः-कृतमन्धकारं यस्य स तथा। औ०। संभाव्यत इति 67 प्र० / सेन०२ उल्ला०। महुर त्रि० (मधुर) श्रुतिपेशले, सूत्र०१ श्रु०१६ अ०। ज्ञा०। मत्तकोकिमड्ढच्च न० (मचूक) मचूके वा !॥८।१।१२सा इति ऊत उद्या / महुआ लारुतवन्मधुरस्वरे, अनु० स्था०। भाषयाकोमले, ज्ञा०१ श्रु० अ०1 महू। 'महुआ' नामकवृक्षभेदे, प्रा० / श्रीदामख्यपक्षिभागधयोः, दे० शर्कराद्याश्रिते, अनु०ाक्षीरदध्यादिषु, ताखण्डशर्कराद्याश्रितेरसभेदे, ना०६ वर्ग 144 गाथा। कर्म०१ कर्म० / कोमले, औ०। विशे० आह्वादनबृंहणकृति, स्था०। महुअर पुं० (मधुकर) भ्रमरे, कल्प०१अधि०२ क्षण। फल्लंधुआ रसाऊ, एगे महुरे (सूत्र) स्था०१ ठा०। भिंगा भसलाय महुअरा अलिणो। इंदिदिरा दुरेहा, धुअगाया छप्पया मध्वादिके, दश०५ अ०५ अ०१ उ० / "पित्तं वातं कर्फ हन्ति, भमरा // 11 // पाइ० ना०११ गाथा। धातुवृद्धिकरो गुडः / जीवनक्लेशकृद्वालवृद्वक्षीणौजसां हितः।।१।।" महुआसव पुं० (मध्वासव) मधु किमप्यतिशायिशर्करादिमधुरद्रव्यं, जं०२ वक्ष० / ज्ञा० / अनु०। ओत्रप्रिये, रा०। अकठोरे, भ०६ मध्विव वचनमाश्रवन्तीति मध्वाश्रवाः / लब्धि विशेषकलितेषु, ये हि श०३३ उ०। कोकिलारुतवन्मधुरस्वरे, जं०१ वक्ष०। रा०। मधुरं
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________________ महुर 231 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 महुरा प्रधा. 1 दार्थाभिधानतः। रथा०७ टा० / मनोज्ञे, सूत्र०१ श्रु०३ अ०२ 10 / सूत्राथीभरो: अव्य, दश०२ अ०! आ०म० / 0 / आ०। मधुरा:कोमल'ब्दा, गम्भीरनहाध्वनयो, दुरखधार्यमप्यर श्रोतृन ग्राहयन्ति यस्ता राहिकाः, पदचतुष्टयस्य कर्मधारयः / "गधुरगंभीरगाहियाहि 'मगराधुगा भीरसरिसरीया' चिद दृश्यते / तत्र धमिताऽक्षरतो, मथुरा शटतो. गभीरा अर्थतो ध्वनितश्च सश्रीरात्मसम्पद यासा तास्तथा। H06 श०३१ उ० सुन्दरे, "ललिअवगं मंजु मंजुलयं कलं महुरं'' चाइ० न०८८ माथा। महुरणाम न० (मधुरनामन) रसनामभेदे, यदुदधाजन्तुशरीरभिष्टत्वादितन्मधुरं भवति त्द्म धरनाम। कर्म०१ कर्म० महुररसा स्त्री० (मधुररसा) अनन्तजीववनस्पतिविशेष, प्रज्ञा०१पदा महुरवयण पु० (मपुरवचन) मधुरं वचनं यस्यासी मधुरवचनः। रसवद्वचने, 010 उ०। दशा०। महुरवयणया स्त्री (मधुरवचनता) मधुर यथावदर्थतो विशिष्टार्थवत्तया दिर गोपेतल्तान श्रीतुराहाद जनयति तदवंविधं वचनं यस्य स तथा, रद्धावा मधुरवचनता: यचनसम्पदभेद, उन०१०।३या। महुरस्सर (मधुर र कला वनो, "मररररतीयसुम्ससई मधुर चरणी सुस्वरणि / प्रश्न०४ संव० द्वार। महु(धु)रा स्त्री (मथुरा) शूरसेनदेशराजधान्याम, "को महुरः आ दविखरा, उत्तराय" आव०४ अ० ! सूत्र० / आ०म०। प्रज्ञा० / 'वेशल: मथुरा गरी शूरसेना- यो देश: प्रथ०२७५ द्वार / आक०। विणा आमद० अ०० ! कृष्णजन्मस्थाने आव०१०। स्था० मथुराकल्पःसनसातवीसइम, नमिऊण जिणेसर जयसरण्णे। मपि जणमलकर, मधुराकप्य पवक्खामि।।१।। तित्यसु पारसनहस, वट्टमार्णमि दुन्नि मुणिसौहा: धम्मरुइधम्मघोसा, नामेण आराि निस्संगा // 2 // ते य मदसमदुवालसमवकरयोदयासमासियदोमासिअसिमा - लिअ भाषाई कुणता भव्ये पडियोहिंता कयावि महराउरि विहरिआ। दीहा नवा जो अगाई विरिया पाराहि अजउणाजलपक्खालिअपरपय विभूरिआ धवलहरदेउलवावीकूवावखरणीजिणभवणहट्टावसाहिला पर्वतावेविहयाउत्यिजवि मत्था हुत्या / तत्थ i मुणियरा अणेग नरुकुसुललयाइण भूअरमणानिहाण उववणं उग्गह अणुण्णविअ बीआवासारत्तं चउमार कओवज्ञासा / तसिं सज्झायतववरण राम इगुणेहिं आवजिया वाणसाभिगो कुवरदेवया / तआ सा रत्ति चयर्ड हाऊण भणइ-भराव ! तुम्ह गुणहिं अईवा हिट्टा, तो कि पि वर परेह से भणति- अम्हे निस्संगा, न कि पि मग्गामा। तओ धम्म सुणावित्ता आवेन्यसाविआ सा तहि कया। अन्नया कति अधवलमिरयणीए सिजायरि त्ति आउच्छिआ कुवेरा मुणिवरेहि, जहा-साविए ! दढसंमत्ताए जिणवंदणपूयणोवउत्ताए य होअव्वं, वट्टमाणजोगेण चउमासय काऊ अन्नगामे पारणत्थ विहरिस्सामो / तीए ससोगाए वृत्तं-भयवं ! इत्थव उपवण कीस न सव्वकाल विट्ठह। साधू भणति''सममाण सउगाणं, भमरकुलाणं च गोउलाणं च। अणियाओबसहीओ, सारइयाणं व मेहाणं' इति तीए विण्णते-जइ एवं ता साहेह धम्मकथं जहादस संपाडेमि अमोह देवदसणं ति। साधूहि वुत्त-जइ ते अनिबंधी ता संघसहिए अम्हे मेरुमि नऊ। चइयाइ वंदावेहि। तीए भणिय-तुम्हे दो जण अहं देवेतल्थ बदायाम ति। महुरासघे चालिए मिच्छादिट्टी देवा कयाऽवि विग्घं कुणंति / साधू भति-अम्हहिं आगमबलणं चेव सत्ती, महुरासघ नउंन तुह सत्ती तो अलाहि, अहे दुण्ह तत्थ गमणेणा तओ विलक्खीभूआए देवीए भाणेअ जइ एवं ता पडिमाहिं सोहिअ मेरुआगार काउंदावेमि, तन्थ संघसहिआ तुम्हे देव वदह। साधुहि पडिवन्नए कंचणघडिओ रयणाऽऽविचइओ अणेगसुरपरिचरिओ तोरणज्झयमालालछिओ सिहरोवरि छत्तित्तयसालिं रति थभा विम्हाविओ मेहलातिगमंडिओ, इक्किकाए मेहलाए चाउद्विसि 1वणारयणगयाई विदाई / तत्थ मूलपडिमा सिरिसुपाससामिणो महाविया महापाला आ विबुद्धा, तंथू पिच्छति, परुप्परं कलहति / अकई भागति-वासुइल छणो एस सयंभूदेवा, अन्ने भणंति-सेसजि-- 'आठिा नारायणा एस, एवं बभ-धरणिंद-सूर-खंदाइसु विभासा, बुद्धा भणति-नएसथूभो कि तु बुद्धिंडलत्ति, तओ मज्झत्थपुरिसेहिं भणिअंमा कलहेह / एस ताव देवनिम्मिओ ता सो देवो संसर्थ भजिस्सइ ति / अयणादेव पड़ सुलिहिता निअमुट्ठीसमेआ अस्थह, जस्स देवो भविस्सइ नरव पड़ी घडिस्सइ, अन्नेसिं पड़ा देवा नासहिइ / संघेणाडावे सुबारसाभिषला लिहिओ ! तत्थ लेहिअ२ देवपडा समुवट्ठाविआ पूअ कार नवभारतीए दरिसणिणो गायताविआ अद्धरत उदडपवणो ताणसमारपत्थरजुती वसरिओ, तेण सव्वेऽवि पड़ा तोडिता नीया पालिया गलिअरवेण नट्टा दिसा दिसिं जणा. इक्को चेव सुपासपडाविओ विम्हिआ लोआ, एस अरिहंतो देवा ति, सो पडो सयलपुरे भामिओ। यमजत्ता पनिआ, तणहवण पारद्धं, पढमण्हवणकए कलहतासावया। महल्लरिसेहि गोलएर नामगदभेसु जस्स नाम कुमारीहत्थ एइ सो दरिहो ईसरावा पदभावणं करेउ। एवं दसमरयणीएववत्था कया। तओएगारसीए दुपहियधयबुकुमचंदणाईहिं कलससहस्सेहिंसड्ढा पहावेसु पिच्छन्नडिआ सुरा महाविति / अन्ज वि तदेव जताए आविति। कमण सव्वेहिं ण्हवणे कए पुण्फववाथमहाधयआहारणार्हि आराविति / साधूण वत्थेघयगुलाईहिं तिवारसीए तीए मालावडाविआ, एवं ते मुणिवरा देवं वंदिय सयलसंघमाणादिला चउमास काउं अण्णत्थ धारणं काऊण तित्थं पयासिअ शुकमायण रिद्धि पत्ता तती सिद्धखिस जाय। तओ मुणिविउअदुरिआ देवी नियंजिणवयणरया अद्धपलिओवम आउअ जित्ता चविऊण माणुसत्त पाविऊण उत्तमपयं पत्ता / तीए टाणे जा जा उप्पज्जइ सा सा कुवेर
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________________ महुरा 232 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 महुरालिअ तिभाइ ! तोए परिविखज्जतो थूभो बहु कालं उग्घाडविओ जाव हट्टारिणा अट्ठसयछीसे-८२५ विकासंबच्छरेसिरिवीरबिंब मधुराए पारसभामी उप्पण्णा / इत्थंतरे मधुराए रण्णा लोभपरवसेण जणो ठावि। इत्थ सिरिवद्धमाणजावण विरसभूइणा अपरिमिअवलतणकए हकारिऊण भणिओ। एयं कणयमणिनिम्मिअंथूभं कहिअ मह भंडारे निदाणं कय, इत्थ जउणावंकजउणराएण हयस्स दंडअणगारस्स केवले खिवइ। तआ सारघडिअकुहाडेहिं जाव लाओ कट्टणत्थं घाए पदिण्णे उम्पन्ने महिमत्थं इंदो आगओ।इत्यजिअसत्तुनरिंदपुत्तो कालवेसिअमुणी ताव से कुहाडा नलग्गति। तेसिं चेव घायदायमाणं अंगसुधाया लगाता अरिसरोगद्दिओ भुग्गिलगिरिभि सदेहेचि निष्पहो उवसग्गे अहिआसिंसु / तओ राइणा अपतिअ, तेण रायं वि अधा दिगोकुहारण उछाल इत्थ संखरायरिसी तवप्पहावं दट्ट सोमदेवदिओ गयउरे। दिक्खं वेतूण णासीसं चितओदेवयाए कुद्धएपयडीहाऊण भणिआ-जाणयथा, सयं गतूण कासिए हरिए सवलरिसी देवपुज्जो जाओ / इत्थ उप्पन्ना पावा ! किमेय भाढत्त जहा राया तहा तुम्हें वि नरिस्सह / ते उदाहिं रायकन्ना निव्वुइनाम राहावेहिणो सुरिंदस्स सयंवरा जाया / इत्थ भीएहि धूवकडुन्छयहत्थेहि देक्या खामिया, देवीए मणि अं-जइ जिणहर कुबेरदिन्नाए कुबेरसेणाजणणी कुबेरदत्तो अ भाया ओहिनाणेण नाउ अचेह ता उपसगाओ मुचह / जो जिणपडिम सिद्धालयं वा पूइस्सइ अट्ठारसनत्तुएहि पडिबाहिया। इत्थ अजमंगू सुअसागरपारगोअलिइस घर थिही, अचहा पडिरसइअओ वेव मंगलचेझ्यपरूवमाए रससायगारवेहिं जक्खत्तमदागम्म जीहा य मारणेण साधूण अप्पमायकप्पो छयगंथ नहुराभवणाई निदसणीकयाई एइ. वरिसं जिणपडो पुरे करणत्थं पडिबोहमकासी। इत्थ कंबलसदलनामाणे वसहपोआ जिण - नावेथव्योति कुहाडयछट्ठी य कायव्वा / जो इथ राया भवइ तेण जिणप- दाससंसग्गीए पडिबुदा नागकमार हाऊण वीरवरस्स भगवओ नावाडिमा पइनाविनविस्सति अन्नहा नजीविहिति। तं सव्वं देवयादवर्ण रूढरस उवसगं निवारिंसु / इत्थ अनिआपुत्तो पुप्फघूल पव्वदि अ तहेर काउमा लोएहि, अन्नया पाससामी के वलिविहारेण विहरतो संसारसायरामा उतारित्था / इत्थ इददत्तो पुरोहिओ गवक्खडिआ मधुरं यती समोसरणे साहइ, दूसमाणुभावं च भाविणं पयासंइ मिच्छदिछी दचंतस्स साधुस्स भन्थयउपरि पाय कुणतो सडेण ओ भगः म बिहारए संघ हक्कारिअ भणियं-जाव राए, जहा गुरुभत्तीए पाराहीणोओ। इत्थ भूअधरे ठिआ निग्योहवत्तव्यं निया आसन्ना दूसरा परूविओ सामिणा लोओ राया य लोभघत्था होहि त्ति परिमाण च पुच्छिअ तुट्टचिनेण सकेण अज्जरक्खिअसूरी वंदिआ अहं च पमना / जयवि राओ सा उग्घाडए एयं थूभं राव्यकाल सकामि उदेस्सयस अन्नओ जुत्त दारं कय / इत्थ वत्थपूसमित्तो घयपूसमित्ता रक्खिता सचारसंण इट्टाहि ढकेमि, तुज्झेहि वि बाहरे पार सामी दुव्वलिआपूसमित्तो अलद्धिसंपन्ना विअरिआ / इत्थ दूसहदुभिक्ख गलमईओ पुद्धिजन्यो। जइ य अम्ह वइसमणए अन्ना वि देवी होही सा दुवालसवारिसिए नियत्ते सयलसंघमेलिअआगमाणुगो पवत्तिा अभिलारे यूअंकरिसराइ'तो बहुगुणं ति अणुमन्निसंधणदेवीए तहेव खंदिलायरिण। इत्थ देवनिम्मिअथूमे पक्खक्खमणेण देवयं आराहिता ज्यं / तमो वीरनाम सिद्धिं गए साहिएहिं तेरससएहिं वरिसाणं वाणही जिणभखभासमणेहि उद्देहिआ भविखयपुत्थयपत्तत्तणेण तुटूं भाग परी उप्पाणो, तेण वि एहि तित्थं उद्धरिअ / पासजिणो आविओ। महानिसीह राशि / इन्थ खवगरस तवेण तुट्ठा साररणदेवया रामय अकरणाथ काण्णकूवकुट्टा काराविआ। चउरासीइए तिण दो दि तव्यण्णिअपरिगहिअ इमं तित्थं संघवयणाओ आरहतया पत्त आउसघेण इट्टाओ खसंतीओ मुणिता पत्थरेहि वेढाविओ उक्खिल्ला- अछासीवीए अइलोभपरचसंजणं काउं सोवणिओ थूभं पच्छत्तं काउं विउमाढत्तो थूमो देवयाए सुमिणतरे वारिआ, न उग्घाडेयव्यो एसु त्ति, इटमय तओयपहट्टिवयणाओ अउमराएण उपरि सिलाकलावत्तिअं तो देवयावयण न उग्घाडिओ। सुघडिअपत्थरेहिं परिवढिओ अ। कारिअंथ संखराओ कलावई अपंचमजम्मे देवसीहकणयसुदरीअज व देवेहि रक्खिाइ। बहुपडिमसहस्सेहिं देउलेहिं आवाणि- भागाण सभणोवासया रजसिरि भुजित्था / एवं विहाणं अणेगेरि अपएसहिं मणहसा गंधउडीए चिल्लणिआ अंबाइअखित्तपालाईहि अ संविहाणाभेसा नयरी उप्पत्तिभूमी / इत्थ कुबेरा नरवाहणा, अंबिया य संजुत्त एवं जिणाभवण विरायति। इत्थ नयरीए कण्हवासुदेवस्स भविति- सीहवाहणा, खित्तवालो असारमेअवाहणो तित्थस्स रक्खं कुणंति। त्थंकरस्सजम्मा, अजमगू आधरिअस्स जक्खभूअस्रा हुडिअजक्खस्स "इय एस महरकप्पो, जिणपहसूरीहिं पण्णिओ के पि। य चोरजीवरस इत्थ दडलं चिढ़इ। इत्थ पंच थलाई। तं जहा-अमथल भविएहिं सइ पढिअइ, इहपरलोइयसुहत्थीहिं।।१।। धीरथल पउमथलं कुरुथलं महाथल दुवालस वणाई, तं जहा-लोहवर्ण भविआण पुण्णरिद्धी, जा जायइ महुरतित्थजत्ताए। भवण मधुवण छिल्लपणं तालवणं कुमुअवणं भडीरवणं खइरवणं अस्सि कप्पेति सुए, सा जाप अवहिअमणाणं / / 2 / / कामिअवणं कोलवण बहुलावणं महावणं / इत्थ पंच लाइअतित्थाई,तं इति श्रीमथुराकल्पः समाप्तः / ती०८ कल्प। जहा-विरसात अतित्थं अतिकुंडतित्थं वेकुंठतित्थं कालिंजरतित्थं महुरामिहाणा स्त्री० (मथुराभिधाना) मधुरं श्रुतिपेशलमभिधानमुचारण चक्कतित्थ / सत्तुज रिसह गिरिनारे नेमि भरुअच्छे भुणिसुब्वयं माढरए यस्याः सा / मथुराभिधानगाथायुक्तायाम, सूत्र०१ श्रु०१६ अ01 वीर मधुराए सुपास घडिअदुगब्भतरे नमित्ता सोरडे हुंढणं विहारेत्ता आ०म०। गोवालगिरिमिजा भुजेजइ तेण अमरसयसेविअकरकमलेण सिरियप्प- | महुरालिअ (देशी) परिचित, देना०६ वर्ग 125 गाथा।
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________________ महुलट्ठि 233 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 महो रग महुलट्ठि स्त्री (मधुयष्टि) यष्ट्यां लः / / 8 / 1 / 247 / / इति यस्य लः। महेसि पुं० (महर्षि) महाश्चासावृषिश्च महर्षिरत्यन्तांग्रतपश्चरणामुहलेठीतिख्याते औषधिभेदे, प्रा०१ पाद। नुष्ठायित्वादतुलपरीषहोपसर्गसहनाचेति / यती, सूत्र०१ श्रु०६ अ० : महुला स्त्री० (मधुला) पादगण्डे, ''पादे गड महुला भण्णति'' नि००२ तपोविशेषशोषितकल्मषे, सूत्र०१ श्रु०१३ अ०। सुसाधौ, दश०१ चू० उ० / उत्त। मोक्षैषिणि, दश०६ अ०१ उ०। महान्तश्च ते सर्वज्ञत्वात्तीर्थप्रवर्तनादमहुल्ल त्रि० (मम) मे मइ मम महं मज्झ मज्झं अम्ह अम्हं ङसा तिशय वाद्या ऋषयश्च मुनयो महर्षस्तैस्तीर्थकररित्यर्थः। तीर्थकृत्यु, // 8 / 3 / 113 / / इति ममस्थाने महादेशः / ततः / स्वार्थ कश्च वा प्रश्न०१ आश्र० द्वार / सूत्र० / अनुकूलप्रतिकूलोपसर्गसहिष्णुत्वा॥८।२।१६।। इति उल्लप्रत्ययः। स च डित्। मह पिउल्लओ। महुल्लं / न्महर्षिषु, महान् बृहत्स्वर्गादिफलापेक्षया मोक्षस्तमिच्छति अभिलप्रा०। षतीति महेषी महर्षिर्वा। सूत्र०२ अ०१ अ०। उत्त० / एकान्तोत्सवरूपमहुवण न० (मधुवन) मथुरायां स्वनामप्रसिद्ध वने, ती०८ कल्प। त्यान्मोक्षरतमिच्छत्येवं शीलो महेषी। उत्त०४ अ०। महामुनौ, आचा०१ महुवार पुं० (मधुवार) दारुणि, 'मइरे महुवारी सीहु सरओ महं श्रु०५ अ०५ उ०। सूत्र० / उत्त०। महागणधरादिषु, आतु०। अवारसा' पाइ० ना०६४ गाथा। महोक्ख पुं० (महोक्ष) युवगवे, जी०३ प्रति०१ अधि०२ उ०। महुसिंगीस्त्री० (मधुशृङ्गी) औषधिवनस्पतिभेदे, प्रज्ञा०१ पद। महोघ पुं० (महौघ) अपारसंसारसागरे, सूत्र०१ श्रु०२ अ०२ उ०। महुसित्थ न० (मधुसिक्थ) मधुयुक्तं सिक्यं मधुसिक्थम् / मधूपिछटे, महोदग पुं० (महोदक) महाजले, षो०८ विव० / नि० / 01 मदने, भ०८ श०६ उ० / स० / आ०म० / अलक्तकपथो येन / महोदय पु० (महोदय) पुण्यानुबन्धिपुण्यविभूतिलाभे, षो०८ विव० पदेनालक्तकः कामिन्या पात्यते तावन्मात्रया लिम्पति कर्दमः स / महोदर पुं० (महोदर) बहुमोजिनि, "महोदरो जो बहु भुजइ" / निक मधुसिक्थकोऽभिधीयते। ओघ० / चू०१ उ०। महुसित्थजलन० (मधुसिक्थजल) अलक्तकमार्गावगाहिकर्द-सस्योपरि | महोदहि पु० (महोदधि) स्वयंभूरमणसमुद्रे, सूत्र०१ श्रु०६ अ०। वहति जले, ओध०। महोरग पुं० (महोरग) व्यन्तराविशेषे, जं०१ वक्ष० / अनु० / स्था० / महुस्सव पुं० (महोत्सव) बहुजनजानपदादिमेलनपूर्वकमुत्स-वस्थाने, भ० / ''महोरगाणं अइकाया महाकाया'' प्रज्ञा०२ पद। उरःपरिसर्पभेदे, आचा०२ श्रु०२ चू०४ अ०। जी०१ प्रति०। महोरगास्तु मनुष्यक्षेत्रबहि विनो यच्छरीर योजनसहमहें द पुं० (महेन्द्र) ऐरावतवर्षे भविष्यति पञ्चदशे तीर्थकरे, प्रव०७ द्वार। स्त्रप्रमाणमुत्कर्षतः आख्यायत इति / प्रश्न०१ आश्रद्वार। महेड (देशी) पङ्के, देवना०६ वर्ग 116 गाथा। सम्प्रति महोरगानभिधित्सुराहमहेय(क्ख) पुं० (महेक्ष) ऊर्णाविशेषे, प्रज्ञा०१ पद! से किं तं महोरगा ? महोरगा अणेगविहा पण्णत्ता / तं जहामहेलापहाण पुं० (महिलाप्रधान) स्त्रीवशवर्तिषु पुरुषेषु, पि०। (ते च अत्थे गइया अंगुलं पि अंगुलपुहत्तिया वि वियत्थिं पि 'माणपिंड' शब्दे दर्शयिष्यन्ते) वियत्थिपुहत्तिया वि रयणिं पि रयणीपुहत्तिया वि कुञ्छि पि महेस पुं० (महेश) ईश्वरे, "महेशानुग्रहात्केचिद, योगसिद्धि प्रचक्षते / कुच्छिपुहत्तिया वि धणुं पि धणुपुहत्तिया वि गाउयं पि क्लेशाद्यैरपरामृष्टः, पुंविशेषः स चेष्यते॥१॥" द्वा०१६द्वा०ा यो०वि०। गाउयपुहत्तिया वि जोयणं पि जोयणपुहत्तिया वि जोयणसयं पि स्था। जोयणसयपुहत्तिया वि जोयणसहस्सं पि, ते णं थले जाता जले महेसक्ख पुं० (महेशाख्य) महेश्वर इत्याख्या यस्य सः / महेश्वरत्वेन वि चरंति, थले वि चरंति, ते णऽत्थि इहं बाहिरएसु दीवेसु ख्याते, स्था०८ ठा० / सू०प्र० / ज०। समुद्देसु हवंति, जे यावन्ने तहप्पगारा। सेत्तं महोरगा। महेसर पुं० (महेश्वर) औत्तराहाणां भूतवादिनामिन्द्रे, स्था०२ ठा०३ (से किंतं इत्यादि) सुगमम्, नवरं वितस्तिदिशाङ्गुलप्रमाणा, रत्निउ० / दर्श० / आव० / शिवे, आव०६ अ०। हस्तः, कुक्षिर्द्विहस्तमानः, धनुश्चतुर्हस्तम, गव्यूतं द्विधनुःसहस्त्रप्रमहेसरदत्त पुं० (महेश्वरदत्त) कौशाम्ब्यां बृहस्पतिदत्तनाम्नो ब्राह्मणस्य माणम्, चत्वारि गव्यूतानियोजनम्, इदं च वितस्त्यादि-उच्छ्याङ्गुलापूर्वभवजीवे, स्था०१० ठा०1 ('बहप्फइदत्त' शब्दे पञ्चमभागे 1265 पेक्षया द्रष्टव्यम्, शरीरप्रमाणस्य परिचिन्त्यमानत्वात्, तथा-अस्तीति पृष्ठे कथा गता) निपातोऽत्र बहुत्वाभिधायी प्रतिपदं च संबध्यते, ततोऽयमर्थः-सन्त्येक महेसरसूरि पु० (महेश्वरसूरि) कालिकाचार्यकथासयममञ्जर्याख्य- केचन मरोरगा अङ्गुलमपिशरीरावगाहनया भवन्ति, तथा सन्त्येके केचन योग्रन्थयोः कर्तरि आचार्य मुनिचन्द्रसूरिकृताऽऽवश्यकसप्तत्युपरिकारके येऽङ्गुलपृथक्त्विका अपि, अङ्गुलपृथक्त्वं विद्यते येषां ते अङ्गलदेवसूरिशिष्ये, जै०३०॥ पृथक्त्विकाः "अतोऽनेकस्वरात्॥७।२।६।। इति इकप्रत्ययः, तेऽपि
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________________ महोरग 234 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 माउच्छंद शरीरावगाहनया भवन्ति, अङ्गुलपृथक्त्वमानशरीरावगाहना अपि | माइं अव्य० माइं माऽर्थे ।पा।१९१|| माइमिति माऽर्थे प्रयोक्तव्यम्। भवन्तीति भावः, एवं शेषसूत्राण्यपि भावनीयानि। (तेणं, इत्यादि) ते- __'माई काहिअरोसं' मा कार्षी रोषम्। प्रा०। अनन्तरोदितस्वरूपा महोरगाः स्थलचरविशेषत्वात् स्थले जायन्ते, | माइंदा (देशी) आमलक्याम्, दे०ना०६ वर्ग 126 गा स्थलेच जाताः सन्तोजलेऽपिस्थल इवचरन्ति स्थलेऽपि चरन्ति तथा माइगण पुं० (मातृगण) मातुरिद् वा / / 8 / 1 / 135 / / इति ऋत इत्त्वम्। भवस्वाभाव्यात्, यद्येवं ते कस्मादिह न दृश्यन्ते, इत्याशङ्कायामाह-(ते माइगणो। मातृसमूह, प्रा०। नऽथिइहं, इत्यादि) ते-यथोक्तस्वरूपा महोरगा इह-मानुषे क्षेत्रे (नत्थि मइहाण न० (मातृस्थान) मायायाम, मातरः स्त्रियोऽभिधीयन्ते, तासां त्ति) न सन्ति, किं तु बाह्येषु द्वीपसमुद्रेषु भवन्ति, समुद्रेष्वपि च स्थानमाश्रयो मातृस्थानं माया। स्त्रियो हि प्रायो मायाश्रिता भवन्ति। पर्वतदेवनगर्यादिषु स्थलेषूत्पद्यन्तेन जलेषु, स्थूलतरतवात्। तत इह न स्त्रीत्वमपि प्रायो मायानिबन्धनम् / अथवा-मातृश्ब्देन माया उच्यते, दृश्न्ते। (जे यावन्ने तहप्पगारा इति) येऽपि चान्ये अङ्गुलदशकादिशरीरा ततश्च तस्याः स्थानं विषयो मातृस्थानम् / मायिनां वा स्थानमिति ऽवगाहनमानास्तथाप्रकाराः सन्तितेऽपिमहोरगा ज्ञातव्याः। उपसंहार मायिस्थानं भायैव प्रायो बाहुल्येन केषांचित्तन्न संभवत्येवेति। पञ्चा०१७ माह (सेत्तं, इत्यादि) ते समासओ, इत्यादि प्राग्वद् भावनीयम्। प्रज्ञा०१ विव० / आचा० / आव० दशा०॥ माइदेव पुं० (मातृदेव) मातुरिद्वा // 1135 / / इति ऋत इत्त्वम्। पद। महोरगकंठ न० (महोरगकण्ठ) रत्नविशेषे, जी०३ प्रति०४ अधि०। माइदेवो / मातरं देवत्वेन मन्यमाने, प्रा० आ०क०। माइय त्रि० (मात्रित) मात्रावति परिमिते, ज्ञा०१ श्रु०१ अ० : ऋक्षादिरा०। औ०। महोवगरण न० (महोपकरण) द्रव्यनिचये, आचा०१ श्रु०२ अ०३ उ०। बालयुक्तत्वात्। ज्ञा०१ श्रु०१८ अ० / मयूरिते, औ०। माइली (देशी) मृदुनि, दे० ना०६ वर्ग 126 गाथा। महोसहि स्त्री० (महौषधि) दूर्वायम्, लजालुक्षुपे, "सहदेवी तथा व्याघ्री, भाइल्ल पुं० (मायाविन्) परवञ्चनोपायविदि, उत्त०५ अ० / महाशठे, बला चातिबला तथा। शङ्खपुष्पी तथा सिंही, अष्टमीच सुवर्चला" ||1 // सूत्र०१ श्रु०४ अ०१ उ०। उत्त०। स्था०। . महौषध्यष्टकं प्रोक्तम्। वाचा औषधिविशेषे, ती०६ कल्प। माइल्लया स्त्री० (मायाविता) परवञ्चनबुद्धिमत्तायाम्, भ०८ श०६ उ०। महोसिण त्रि० (महोष्ण) अत्युष्णे, प्रश्न०१ आश्र० द्वार। मायिता स्त्री०१ परवञ्चनबुद्धिमत्तायाम, भ०८ श०६ उ०। मा अव्य० (मा) निषेधे, जी०१ प्रति०। उत्त०। ज्ञा०1 नि०च० / तं०। माइवाहय पुं० (मातृवाहक) विकलेन्द्वियजीवविशेषे, अनु०॥ औ०। दर्श०। प्रतिषेधे, आचा०१ श्रु०२ अ०५ उ० / व्य० / नि०चू०। माई (देशी) रोमशे, दे० ना०६ वर्ग 128 गाथा। पञ्चा० / सूत्र०। अनागतप्रत्युत्पन्नकालविषये प्रतिषेधे, बृ०१ उ०।''मा माउआ स्त्री० (मातृका) उदृत्वादौ / / 8 / 1 / 131 / / इति ऋत उत्त्वम्। यघडं भिंद मा य भिदिहिसि" माकारो वर्तमानाऽनागतकालप्रतिषेधको, प्रा० / सख्यान, "आली तह माउआ सही अत्ता' पाइ० ना०१०८ यथा-मा घटं भेत्स्यति, चकारौ समुच्चयार्थो / शरीरे, तं० / माः गाथा। सखी-दुईयोः, दे० ना०६ वर्ग 147 गाथा। चन्द्रमासयोः, पुं०। है। माउओय न० (मात्रोजस्) जनन्या आर्तवे शोणिते, तं०। साअलिआ(देशी) मातृष्वसरि, देवना०६ वर्ग 131 गाथा। माउछ न० (मृदुत्व) आत् कृशा-मृदुक-मृदुत्वे वा // 8 / 1 / 127 / / माइस्त्री० (मातृ) मातुरिद्वा।।८।१।१३।। इति ऋत इद्वा। माइहरं / इति आदेः ऋत आदा। माउकं / मउअं। प्रा०1शक्त-मुक्त-दष्टमाउहरम् / प्रा० / जनन्याम्, पञ्चा०१७ विव० / आचा०। रुग्ण-मृदुत्वे को वा बा२।। इति संयुक्तस्य विकल्पेन ककारः। मायिन् त्रि०। मायाप्रतिसेवनशीले, व्य०३ उ०। मायाविनि, व्य०१ उ०। माउदकं / माउत्तणं / मर्दने, कोमले, प्रा०। सूत्र०। उत्त० स्था०। परवञ्चनादिबुद्धौ, सूत्र०१ श्रु०१६ अ० / स्वशक्ति- माउगंत न० (मातृकान्त) इह वस्त्रं यतो व्ययते तदादिभूतत्वान्मातृकेव गृहनादिना मायावान् / बृ०१ उ०। मातृका / अन्तश्चेह दशान्त उच्यते / मातृका चान्तश्च मातृकान्तं माइअंग न० (मात्रङ्ग) मात्रङ्गे, भ०। (भाइअंग ति) आर्तवविकार- द्वन्द्वैकवद्भावः। मातृकायामन्ते च। बृ०३ उ०। बहुलानीत्यर्थः (मत्थुलुंग त्ति) मस्तकभेजकम्, अन्ये त्वाः-भेदः | माउग्गाम पुं० (मातृग्राम) समयपरिभाषया स्त्रीवर्गे, बृ०१ उ०। पं०व० फिप्फिसादि मस्तुलुङ्गमिति / भ०१ श०७ उ० / हे गणधर ! गौतम ! | "माउग्गामो मरहट्ठविसयभासाए वा इत्थ माउग्गामो भण्णति'' नि० त्रीणि मातुरङ्गानि प्रज्ञप्तानि मया अन्यैश्च जगदीश्वरैः मांसम्- पललम, चू०६उ०। ('मेहुण' शब्दे व्याख्यास्यते) शोणितम्-रुधिरम, (मत्थुलुंगे त्ति) मस्तकभेजकम्, अन्येत्वाहुर्भेदः - माउच्छ (देशी) मृदुनि, दे०ना०६ वर्ग 126 गाथा। फिप्फिसादि मस्तुलिङ्गमिति। तं०। माउच्छंदपुं०(मातृच्छन्द) मात्रभिप्राये, व्य०४ उ०।
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________________ माउच्छा 235 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मागंदिय माउच्छा स्त्री० (मातृष्वसृ) मातृपितुः स्वसुः सिआ-छौ / / 8 / 2 / 142 // सकलेहलोकपरलोकालम्बनानुष्ठानानामभावतोऽसमञ्जसमेव, ततो इति स्वसृस्थाने छादेशः / प्रा० दुं०३ पाद! मातुर्भगिन्याम्, "माउच्छा द्रव्यतयाऽस्य धोव्यमिति / उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तमात्मद्रव्यमित्यादिमाउसिया' पाहु० ना०२५३ गाथा। त्तृिकापदानुयोगः / स्था०१० ठा०। माउजीवरसहरणी स्त्री० (मातृजीवरसहरणी) मातृजीवस्य रसहरणी माउयापय न० (मातृकापद) अआइत्यादिकेषु, सकलशब्दार्थव्यापारमातृजीवरसहरणी। नाभिजाले, तं० / व्यापक्तवात्तेषाम्। स्था०४ ठा०२ उ०। माउपिउसुजाय त्रि० (मातापितृसुजात) मातापितृभ्यां सुजातो माता-- दिष्टिवायस्स णं छायालीसं माउयापया पण्णत्ता। पितृसुजातः। समस्तगर्भाधानप्रभृति-संभविशेषविकले, रा०। सूत्र०। (दिहिवायस्स ति) द्वादशाङ्गस्य (माउयापय ति) सकलवाह्ययस्य माउमंडल न० (मातृमण्डल) मातुरिद्वा / / 8 / 1 / 135 / / इति मातृशब्दस्य अकारादिमातृकाः पदानीव दृष्टिवादार्थप्रसवनिबन्धनत्वेन मातृकाऋत इत्त्वम्, पक्षे उत्त्वम्। मातृसमूहे, प्रा० / पदानि उत्पादविगमध्रौव्यलक्षणानि, तानि च सिद्धश्रेणिमनुष्यश्रेण्यामाउय त्रि० (मातृक) मातृसम्बन्धिनि, भ०१ श०७ उ०। स्था०। दिना विषयभेदेन कथमपि भिद्यमानानि षट्चत्वारिंशद्भवन्तीति माउयएक्कय पुं० (मात्रेकक) एककभेदे, स्था० / (माउयएक्कए त्ति) समभाव्यते / स०४६ सम०। दृष्टिवादान्तर्गतसिद्धश्रेणिकादिपरिकर्ममातृकापदैककम्- एकं मातृकापदम्। तद्यथा-"उप्पन्नेइ वेत्यादि" इह मूलभेदे, स०आ०चू०। प्रवचने दृष्टिवादे समस्तनयवादबीजभूतानि मातृकापदानि भवन्ति। | | माउल पुं० (मातुल) मातुभ्रीतरि, आ०म०१०। आव० / तद्यथा-"उप्पन्नेइ वा विगमेइ वा धुवेइव त्ति।" अमूनि वा मातृकाप- | माउलिंग मातुलिङ्ग बीजपूरे, अणु० / बृ० / आ०म० / आचा० / प्रा०। दानीव अ-आ-इत्येवमादीनि, सकलशब्दशास्त्रार्थ-व्यापारव्यापक- ल०प्र०। प्रव०। प्रज्ञा० / गुच्छवनस्पतिविशेषे प्रज्ञा०१ पद / अनु०। त्वान्मातृकापदानीति। स्था०४ ठा०२ उ०। माउलिंगपेसिया स्त्री० (मातुलिङ्गपेशिका) बीजपूरखण्डे, दशा०१० माउयंग न० (मात्रङ्ग) आर्त्तवपरिणतिप्राये, स्था०३ ठा०४ उ०। अ० आ०म०। माउयकाय पुं० (मातृकाकाय) मातृकेति मातृकापदानि 'उप्पण्णेइ वा' माउवग्ग पुं० (मातृवर्ग) स्त्रीजने, बृ०४ उ०। इत्येवमादीनि तत्समूहो मातृकाकायः / कायभेदे, (आव०) 'उप्पणेइ माउवाह पुं० (मातृवाह) कोद्रव इव प्रतीते द्वीन्द्रियजीवभेदे, जी०१ प्रति०। वा धुवेइ वा' इत्यादीनि। तत्पदसमूहे, आव०५ अ०। जं०। ('काय' माउसिय पुं० (मातृस्वसृक) गौणान्त्यस्य॥८।१।१३४॥ इति अन्त्यस्य तृतीयभागे 447 पृष्ठे दर्शितम्) ऋतः उत्। मातृभगिनीपुत्रे, प्रा०१ पाद। माउयक्खर न० (मातृकाक्षर) अकाराद्यक्षरेषु, स०। माउसिया स्त्री० (मातृष्वसृ) मातृपितुः स्वसुः सिआ-छौ / / 8 / 2 / 142 // बंभीए णं लिवीए छायालीसं माउयक्खरा पण्णत्ता। इतिमातृशब्दातपरस्य स्वसृशब्दस्य सियाऽऽदेशः / प्रा० / लेख्यविधौ, षट्चत्वारिंशन्मातृकाक्षराणि / तानि च-ककारादीनि मातृभगिन्याम्, दश०७ अ० / विपा० / 'माउच्छा माउसिआ' पाइ० हकारान्तानि सक्षकाराणि ऋऋलुलुल्ल इत्येवं तदक्षरपश्चकवर्जितानि ना०२५३ गाथा संभाव्यन्ते। स०४६ सम०। माउसियावइ पुं० (मातृस्वसृपति) जननीभगिनीभर्तरि, विपा०१ माउयण न० (मृदुत्व) मर्दने, प्रा०। श्रु०३ अ०। माउयास्त्री०(मातृका) अकाराद्यक्षरेषु, स०४५ सम० माउहर न० (मातृगृह) गौणान्त्यस्य // 8 / 1 / 134 // इति ऋत उत् / जनन्याम्, पाइ० ना० / उत्तरौष्ठरोमणि, ज्ञा०१ श्रु०६ अ० / मातृकेव / ___मातृभवने, प्रा०१ पाद। मातृका / प्रवचनपुरुषस्योत्पादव्ययध्रौव्यलक्षणायां पदत्रय्याम्, स्था० / मागंदिय पुं० (माकंदिक) मकन्दीपुत्राभिधाने अनगारे, भ०१७ श०१७ 10 ठा०। विपा० | आव०। उ०। (वीरेण माकन्दिकपुत्रस्य संवादः 'मायंदि' शब्दे दशयिष्यते) माउयाणुओगपुं० (मातृकानुयोग) द्रव्यानुयोगभेदे, स्था०। (माउयाणु- तेणं काले णं ते णं समए णं रायगिहे नगरे होत्था, वन्नओ, ओगे त्ति) इह मातृकेव मातृका प्रवचनपुरुषस्योत्पादव्ययध्रौव्यलक्षण गुणसिलए चेइए वनओ० जाव परिसा पडिगया। ते णं काले पदत्रयी, तस्या अनुयोगो, यथाउत्पादवज्जीवद्रव्यं बाल्यादिपर्यायाणाम- णं ते णं समए णं समणस्स भवगओ महावीरस्य० जाव नुक्षणमुत्पत्तिदर्शनादनुत्पादे च वृद्धाद्यवस्थानामप्राप्तिप्रसङ्गादसम- अंतेवासी मागंदियपुत्ते नामं अणगारे पगइभद्दए जहा मंडिय जसापत्तेः, तथा-व्ययवज्जीवद्रव्यं प्रतिक्षणं बाल्याद्यवस्थानां व्यय- पुत्ते० जाव पञ्जवासमाणे, एवं वयासी-से नूर्ण भंते ! काउदर्शनादव्ययवत्वे च सर्वदा बाल्यादिप्राप्तेरसमञ्जसमेव / तथा यदि लेस्से पुढविकाइए काउलेस्सेहिंतो पुठविकाइएहिंतो अणंतरं सर्वथाऽप्युत्पादव्ययवदेव तन्न केनापि प्रकारेण ध्रुवं अकृताभ्यागमकृत- उव्वट्टित्ता माणुसं विग्गहं लभतिं लभित्ता केवलं बोहिं बुज्झति, विप्रणाशप्राप्तया पूर्व दृष्टानुस्मरणाभिलापादिभाषानामभावप्रसङ्गेन च केवलं बोहिं बुज्झित्ता तओ पच्छा सिज्झति० जाव अंतं
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________________ मागं दिय 236 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मागंदिय करेति ? हंता ! मागंदियपुत्ता ! काउलेस्से पुढविकाइए० जाव तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता मागंदियपुत्तं अणगारं वदंति अंतं करेति / से नूणं भंते ! काउलेस्से आउक्काइए काउले- नमसंति वंदित्ता नमंसित्ता एयमटुं सम्मं विणएणं भुजो भुजो स्से हिंतो आउकाइएहिंतो अणंतरं डव्वट्टित्ता माणुसं विग्गह खामें ति। (सूत्र-६१८) लभति, लभित्ता केवलं बोहिं बुज्झति० जाव अंतं करेति ? (ते णं काले णमित्यादि) (जहा मंडिलयपुत्ते त्ति) अनेनंद सूचितम् हंता ! मागंदियपुत्ता ! जाव अंतं करेति / से नूर्ण भंते ? (पगइउवसते पगइपयणुकोहमाणमायालोभे इत्यादि) इह च पृथिव्य - काउलेस्से वणस्सइकाइए एवं चेव० जाव अंतं करेति / सेवं ब्वनस्पतीनामनन्तरभवे मानुषत्व प्राप्तवाऽन्तक्रिया सम्भवति न भंते ! त्ति, मागंदियपुत्ते ! अणगारे समणं भगवं महावीरं जाव तेजोवायूनाम्, तेषामानन्तर्येण मानुषतवाप्राप्तेरतः पृथिव्यादित्रयस्यैवानमंसित्ता जेणेव समणे निग्गंथे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता न्तकियामाश्रित्य ' से नूणं' इत्यादिना प्रश्नः कृतो न तेजावायूनामिति। समणे निग्गंथे एवं वयासी-एवं खलु अजओ ! काउलेस्से अनन्तरमन्तक्रियोक्ता। पुढविकाइए तहेव० जाव अंतं करेति, एवं खलु अज्जो ! काउ अथान्तक्रियाया ये निर्जरापुद्गलास्तद्वक्तव्यतामभिधातुमाहलेस्से आउक्काइए० जाव अंतं करेति / एवं खलु अञ्जो ! तए णं से मागंदियपुत्ते अणगारे उट्ठाय उद्धेति जेणेव समणे काउलेस्से वणस्सइकाइए० जाव अंतं करेति। तए णं ते समणा भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छति तेणेव उवागच्छित्ता समणां निग्गंथा मागंदियपुत्तस्स अणगारस्स एवमाइक्खमाणस्स० जाव भगवं महावीरं वंदइ नमसइ वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासीएवं परूवेमाणस्स एयम8 नो सद्दहति नो पत्तियंति नो परति अणगारस्सणं भंते ! भावियप्पणो सव्वं कम्मं देदेमाणस्य सव्वं कम्मं निजरेमाणस्स सव्वं मारं भरमाणस्स सव्वं सरीरं विप्पजएयमढे असद्दहमाणा अप्पच्चयमाणा अप्पञ्चयमाणा अपरूवेमाणा हमाणस्स, चरिमं कम्मं वेदेमाणस्स चरिमं कम्मं निजरेमाणस्स जेणेवसमणे भगवं महावीरे तेणेव अवागच्छंति उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं वंदंति नमसंति वंदित्ता नमंसित्ता एवं चरिमं मारं मरमाणस्स चरिमं सरीरं विप्पजहमाणस्स, मारणं तियकम्मं वेदेमाणस्स मारणंतियकम्मं निजरेमाणस्समारणंतिवयासी-एवं खलु भंते ! मागंदियपुत्ते अणगारे अम्हं एवमाइ यमारं मरमाणस्स मरणंतियसरीरं विप्पजहमाणस्स जे चरिमा खति० जाव परूवेति / एवं खलु अजो ! काउलेस्से पुढ निजरा पोग्गला सुहुमा णं ते पोग्गला पण्णत्ता समणाउसो ! विकाइए० जाव अंतं करेति, एवं खलु अज्जो ! काउलेस्से आउ सव्वं लोग पिणं ते पोग्गला पण्णत्ता समणाउसा! सव्वं लोगं पि क्काइएक जाव अंतं करेति, एवं वणस्सइकाइए वि० जाव अंतं णं ते उग्गाहित्ताणं चिट्ठति ? हंता, मागंदियपुत्ता ! अणगारस्स करेति / से कहमेयं भंते ! एवं? अञ्जो त्ति समणे भगवं महावीरे णं भंते ! भावियप्पणो० जाव ओगाहित्ता णं चिट्ठति / छउमत्थे ते समणे निग्गंथे आमंतित्ता एवं वयासी-जं णं अज्जो ! णं भंते ! मणुस्से तिसिं निजरापोग्गलाणं किंचि आणत्तं वा मागंदियपुत्ते अणगारे तुज्झे एवं आइक्खति० जाव परूवेति णाणत्तं वा एवं जहा इंदियउद्देसए पढमे० जाव वेमाणिया० जाव एवं खलु अञ्जो ! काउलेस्से पुढविकाइए० जाव अंतं करेति, तत्थ णं जे ते उवउत्ता ते जाणंति पासंति आहारेंति, से तेणऽढेणं एवं खलु अज्जो ! काउलेस्से आउकाइए० जाव अंतं करेति, निक्खेवो भाणियव्वो त्ति-न पासंति आहारंति।नेरइया णं भंते ! एवं खलु अज्जो ! काउलेस्से वणस्सइकाइए वि०जाव अंतं निजरा पुग्गला न जाणंति न पासंति आहरंति, एवं० जाव करेति, सचेणं एसमढे, अहं पि णं अज्जो ! एवमाइक्खामि एवं पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं / मणुस्सा णं भंते ! निजरा सदहामि एवं पच्चयामि एवं सद्दहामि एवं पचयामि एवं परूवयामि पोग्गले किं जाणंति पासंति आहारंति, उदाहु न जाणंति न एवं खलु अञ्जो ! कण्हलेस्से पुढविकाइए कण्हलेस्सेहितो पासंति आहारंति, अत्थेगइया न जाणंति न पासंति आहारंति, पुढविकाइएहितो० जाव अंतं करेति, एवं खलु अज्जो ! से केणऽढेणं भंते ! एवं वुच्चइ अत्थेगइया जाणंति पासंति नीललेस्से पुढविकाइए० जाव अंतं करेति, एवं काउलेस्से वि आहारंति, अत्थेगइया न जाणंति न पासंति आहारंति ? जहा पुढविकाइए० जाव अंतं करेइ, एवं आउकाइए वि, एवं गोयमा ! मणुस्सा दुविहा पण्णत्ता / तं जहा सन्नीभूया य, वणस्सइकाइए वि, सचे णं एसमढे सेवं भंते ! भंते ! त्ति ! असन्नीभूया य / तत्थ णं जे ते असन्नीभूया ते न जाणंति, न समणा निग्गंथा समर्ण भगवं महावीरं वंदंति नमसंति समणं पासंति, आहारंति। तत्थ णं जे ते सन्नीभूया ते दुविहा पण्णत्ता। भगवं महावीरं वंदित्ता नमंसित्ता जेणेव मागदियपुत्ते अणगारे / तं जहा-उवउत्ता, अणुवउत्ता य / तत्थ णं जे ते अणुवउत्ता ते
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________________ मागंदिय 237 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मागं दिय न जाणंति न पासंति, आहारंति / तत्थ णं जे ते उवउत्ता ते जाणंति पासंति आहारंति / से तेणऽटेणं गोयमा ! एवं वुचइ अत्थेगइया न जाणंति, न पासंति, आहारे ति, अत्थेगइया जाणंति पासंति आहारंति, बाणमंतरजोइसिया जहा नेरइया। वेमाणिया णं भंते ! ते निज्जरापोग्गले किं जाणंति, पासंति, आहारेंति, / उदाहुन जाणंति न पासति न आहारंति ? गोयमा ! जहा मणुस्सा नवरं वेमाणिया दुविहा पण्णत्ता, उ जहामाइमिच्छदिट्ठीउववन्नगाय, अमाइसम्मदिट्ठीउववन्नगा य। तत्थ हजे ते माथिमिचददिट्ठीउववन्नगा ते णं न जाणंति, न पासंति, आहारंति / तत्थ णं जे ते अमायिसम्मदिट्ठीउवन्नगा ते दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-अणंतरोववन्नगा य, परंपरोववन्नगा य / तत्थ णजे ते अणंतरोववन्नगातेणं न जाणंति, न पासंति, आहारंति, तत्थ णं जे ते परंपरोववन्नगा ते दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-पजत्तगा य, अपज्जत्तगा य / तत्थ णं जे ते अपञ्जत्तगा ते णं न जाणंति,न पासंति, आहारंति। तत्थ णं जे ते पञ्जत्तगा ते दुविहा पण्णत्ता। तं जहा-उवउत्ताय, अणुवउत्ताया तत्थ णं जे ते अणुवउत्ता ते ण जाणंति न पासंति, आहारंति। (सूत्र-६१६) (अणागारस्रोत्यादि) भावितात्मा-ज्ञानादिभिर्वासितात्मा, केवली चेह संग्राह्यः, तस्य सर्वं कर्मभवोपग्राहित्रयरूपमायुषो भेदेनाभिधास्यमानत्वात्, वेदयतः-अनुभवतः प्रदेशविपाकानुभवाभ्याम्, अत एव सर्व कर्म भवोपग्राहिरूपमेव, निर्जरयतः-आत्मप्रदेशेभ्यः शालयतः, तथा सर्वम्सर्वायुः पुद्गलापेक्षं, मार-मरणम् अन्तिममित्यर्थः भियमाणस्यगच्छतः, तथा सर्व-समस्त शरीरम- औदारिकादि विप्रजहतः, एतदेव विशेषिततरमाह-(चरमकम्ममित्यादि) चरमं कर्म आयुषश्चरमसमयवेद्यम्, वेदयतः एवं निर्जरयतः, तथा चरमं चरमायुःपुद्गलक्षयापेक्षम् मारंमरणम् भ्रियमाणस्य गच्छतः, तथाचरमं शरीरं यचरमावस्थायामस्ति तत्त्यजतः, एतदेव स्फुटतर माह-'मारणतिय कम्म' इत्यादि मरणस्य सर्वायुष्कक्षयलक्षणस्यान्तः-समीपं मरणान्तः आयुष्कचरमसमयसतत्र भयं मारणान्तिकम्, कर्मभवोपग्राहित्रयरूपं वेदयतः एवं निर्जस्यतः। तथा मारणान्तिकंमारणान्तिकायुर्दलिकापेक्षम् मारं-मरणं कुर्वतः, एवं शरीरं त्यजतः, ये चरमाः-सर्वान्तिमाः निर्जरापुद्गलाः-निर्जीर्णकर्मदलिकानि सूक्ष्मास्ते पुद्गलाः प्रज्ञप्ताः भगवद्भि हे श्रमण आयुष्मन् ! इति भगवत आमन्त्रणम्, सर्वलोकमपि तेऽवनाह्यतत्खभावत्वेनाभिव्याप्य तिष्ठन्तीति प्रश्नः, अत्रोत्तरम् - 'हंता मागंदियपुते' त्यादि(छउमत्थे णं ति) केवली हि जानात्येव तानिति न तद्गतं किञ्चित्प्रष्टव्यमस्तीति कृत्वा 'छउमत्थे' त्युत्कम् / छद्मस्थश्चेह निरतिशयो ग्राह्यः (आणत्तं व त्ति) अन्यत्वम्।अनगारद्वयसम्यन्धिनो ये पुद्गलास्तेषां भेदः (णाणत्तं वत्ति) | वर्णादिकृतं नानात्वम् (एवं जहा इंदियउद्देसए पढमे त्ति) एवं यथा प्रज्ञापनायाः पञ्चदशपदरय प्रथमोद्देशके तथा शेषं वाच्यम, अतिशिश्वारा तेन यत्रेह 'गोयमे' ति पदं तत्र 'मागंदियपुत्ते त्ति' द्रष्टव्यम्, स्येव प्रच्छकत्वात्, तबेदम्-"औमत्तं वा तुच्छत्तं वा गरुपत्तं वा लहुयत्त वा जाणति पासति? गोयमा ! नो इणढे सम8, से केणऽणं भंते ! एवं बुचइ छउमत्येण मणूसे तेसि निजरापुग्गलाणां णो किंचि आणत्तं वा०६ जाणलि पासति ? गोयमा ! देवेऽवि य णं अत्थेगइए जे णं तेसिं निचरा पोग्गलाण (नो) किंचि आणत्तं वा०६ न जाणति नपासति ? से तेणऽटेणं गोयगा / एवं बुबइ, छउमत्थे णं मणूसे तेसिं निजरापोग्गलाणं (नो) किंचि आणत्तं० वा 6 न जाणइ न पासइ, सुहुमा णं ते पुग्गला पन्नत्ता समणाउसो ! सव्वलोग पियणं ते ओगाहित्ता णं चिट्ठति एतच व्यक्तम्, (ओमत्त त्ति) अवमत्वम्-ऊनता (तुच्छतं ति) तुच्छत्वम्-निःसारता, निर्वचनसूत्रेतु (देवेऽवियण अत्थेगइए ति) मनुष्येभ्यः प्रायेण देवः पटुप्रझो भवतीति देवग्रहणम्, ततश्च देवोऽपि चास्त्ये ककः कश्चिद्विशिष्टावधिज्ञानविकलो यस्तेषां निर्जरापुद्गलानां न किञ्चिदन्यत्वादि जानाति किं पुनर्मनुष्यः / एकग्रहणाच विशिष्टावधिज्ञानयुक्तो देवो जानातीत्यवसीयते इति, "जाव वेमाणिए ति" अनेनेन्द्रियपदप्रथमोद्देशकाभिहित एव प्राग्व्याख्यातसूत्रानन्तरवर्ती चतुर्विशतिदण्डकः सूचितः, स च कियद् दूर वाच्यः ? इत्याह-"oजाव तत्थ णं जे ते उवउत्ता इत्यादि एवं चासौ दण्डक:-'नेरझ्या णं भंते ! निजरा पुम्गले, किं जाणंति पासंति आहारति, उदाहु-न जाणंति०" शेषं तु लिखितमेवास्ति इति, गतार्थ चैतत्, नवरमाहारयन्तीत्यत्र सर्वत्र ओज आहारो गृह्यते, तस्य शरीरविशेषग्राह्यत्वात् तस्य चाहारकत्वे सर्वत्र भावात, लोमाहारप्रक्षेपाहारयोस्तु त्वग्मुखयोर्भाव एव भावात, यदाह सरि(री)रेणोयाहारो, तया य फासेण लोमआहारो। पक्खेवाहारो पुण, कावलिओ होइ नायव्वो।।१।। मनुष्यसूत्रे तु सज्ञिभूता विशिष्टावधिज्ञान्यादयो गृह्यन्ते, येषां ते निर्जरापुद्गलाः ज्ञानयिषयाः / वैमानिकसूत्रे तु वैमानिका-अमायिसम्यगदृष्टय उपयुक्तास्तान जानन्ति ये विशिष्टावधयो, मायिमिथ्यादृष्टयस्तु न जानन्ति मिथ्यादृष्टित्वादेवेति / भ०१८ श०३ उ०। कर्माधिकारादिदमाहजीवा णं भंते ! पावे कम्मे जे य कडे० जाव जे य कजिस्सइ अत्थि याइ तस्स केइणाणत्ते? हंता अत्थि, से केणऽटेणं भंते ! एवं वुच्चइ जीवा णं पावे कम्मे जे य कडे० जाव जे य कजिस्सति अत्थि याइ तस्स णाणत्ते ? मागंदियपुत्ता ! से जहानामएके इ पुरिसे धj परामुसइ 2 त्ता उसुं परामुसइ 2 ता ठाणं ठाइ २त्ता आययकन्नाययं उसुं करेंति आययकन्नाययं० त्ता उड्ढ वेहासं उदिवहइ, से नूणं मागंदियपुत्ता ! तस्स उसुस्स उड्डं
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________________ गाग दिय 238 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 माण बेहाल उव्वीढस्स समाणस्स एयति विणाणत्तं० जाव तं तं भावं सेतिया हाइ ! चरसेइओ उकुडओ चउकुडओ पत्थओनओ" ||१॥त्ति परिणमति विणाणत्तं ? हंता भगवं ! एयति वि णाणत्तं० जाव मगधदेशव्यवहृते प्ररथे, ज्ञा०१ श्रु०७ अ०1०। आ०। (मारधपरिणमति विणाणत्तं, से तेणऽटेणं मागदियपुत्ता ! एवं वुच्चइ० अस्थमानम पत्थग' शब्द पक्षमभागे 426 पृष्ठ गतम्) जाव तं तं भावं परिणमति विणाणत्तं, नेरइयाणं पावे कम्मे जे मागहभासा स्त्री० (मागधभाषा) मगधदेशप्रचलितभाषायाम् आ० चू० य कडे एवं चेव नवरं जाव वेमाणियाणं / (सूत्र-६२१) 10 // ('जीवाण' मित्यादि) (एयइ दि नाणत्तं ति) एजते कम्पते यदसाविषु- 1 मागहिया स्त्री० (मागधिका) मगधदेशीयगाथायाम, आ० / ज० ! स्तदपि नानात्वम् - भेदोऽनेजनावस्थापेक्षया, यावत्करणात 'वेयइ वि स०। कूलवालुकसहतगणिकायाम, आव०४ अ० ! जा० णाणत' इत्यादि द्रष्टव्यम्, अयमभिप्रायः- यथा वाणस्योवक्षिप्त - माघवई स्त्री० (माघवती) सप्तमनरकाथिव्याम स्था०७ ठा० / प्रगका स्यैजनादिकं नानात्वमस्तिएवं कार्गणः कृतत्वक्रियमाणत्वकरिष्यमाण न। जी०। त्वरूपं तीव्रमन्दपरिणामभेदात्तदनुरूपकार्यकारित्वरूप च नानात्वमव माडं विय पुं० (माण्डविक) छिन्नजाश्रयविशेषरूपं मण्डवमुच्यते / तर : धिपतिर्माण्डविकः / छिन्नजना श्ययदेशरवामिनि, अनुज्ञाo: No सेयमिति। अनन्तरं कर्म निरूपित तच पुद्गलरूपमिति पुगलानधिकृत्याह - स्था० / 0 / जी। कल्प० / माडिअं(देशी) गृहे. देवना०६ वर्ग 128 गाथा। नेरइया णं भंते ! जे पोग्गले आहारत्ताए गेहंति तेसिणं भंते ! पोग्गलाणं से य कालंसि कति भागं आहारेंति कति भाग माढर पुल (माटर) माठरर्षिगोत्रापत्ये, अनु०। 'थेरे सभूयविजए मा हर सोन (1) गशयां नगर्या कस्यचिदाचार्यस्याष्टसु शिष्यष्वन्रतमे निजरेंति? मागंदियपुत्ता ! असंखेज्जइभागं आहारेंति अणंतभाग शिष्ये, ग०१२०। शकस्य देवेन्द्रस्य स्थानीकाधिपती, स्था०४ टा०। निजरेंति / चक्किया णं भंते ! केइ तेसु निजरापोग्गलेसु आसइ माढरी स्त्री (माठरी) अनेकजीवनस्थतिविशेष, प्रज्ञा०१ पद: त्तए वा० जाव तुयट्टित्तए वा ? णो तिणटे समटे अणाहरण-मेयं माठी स्त्री० (माठी) कवचे, "माढी कवयं उरत्थयं" पाइ० ना००२१ बुइयं समणाउसो ! एवं० जाव वेमाणियाणं / सेवं भंते ! भंते गाथा। त्ति / (सूत्र-६२२) माण न० (मान) गीयते परिच्छिद्यतेऽनेनेति मानम् / "नो णः" (नेरइए इत्यादि) (से पकालसि त्ति यति काले गहणानन्तरमित्यर्शः / / 8 / 1 / 228 / / इति नस्य णः। प्रा० / स्वलक्षणे मानोन्मान, आच०१ (असंखजइभागं आहारिति त्ति) गृहीतपुद्गलानामसंख्येयभागमाहारी 103 या उ० : "माणं ति वा परिच्छेद ति वा गहणप्पगारे ति वा कुर्वन्ति गृहीतानामेवानन्तभागं निर्जरयन्ति-मूत्रादिवत्त्यजन्ति, (यपि एगवा' आ०चु०१ अ० / यथार्थज्ञाने, "मानं ज्ञानं यथार्थ स्यात् / ' से) शयनुयात् (अणाहरणमेयं वुइयं ति) अध्रियतेऽनेनेल्याधरणम द्वा०११ द्वा० / प्रमाणे, आव०४ अ० / मीयतेऽनेनेति मानम्। कुडवपलआधारस्तन्निषेधोऽनाधरणम्- आधर्तुमक्षमम्, एतन्निर्जरापुद्गलजातमुक्तं हस्तादिके मापनप्रकारे, प्रव०६ द्वार / दुरभिनिवेशारोहे, युक्तोक्तग्रहणे जिनरिति / भ०१८ श०३ उ०। च। ध०१ अधि०। मागह त्रि० (मागध) मगधेषु भवं मागधम् / मगधदेशव्यवहृते, स्था०८ धान्यप्रमाणं रसप्रमाण चेति द्विविधं मानम् - ठा० / मगधदेशोद्भवे, व्य०१० उ० भ० / भट्टे, ज्ञा०१ श्रु०१ अ० / से किं तं माणे ? माणे दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-धन्नमाणप्पमाणे भगलपाठके अनु०। दन्दीभूते, जी०३ प्रति०४ अधि०। सूत्रे, आचा०१ अ, रसमाणप्पमाणे अ / से किं तं धन्नमाणप्पमाणे ? धन्नमाणश्रु०१ अ०१ उ० / ('जोयण' शब्दे चतुर्थभागे 1657 पृष्ठे व्याख्या गता) प्पमाणे-दो असईओ पसई, दो पसईओ सेतिया, चत्तारि सेइचारणे, "मंगलपाढयमागह-चारणवेआलिआ वंदी' पाइ० ना०३२ गाथा। आओ कुडओ, चत्तारिकुडया पत्थो, चत्तारिपत्थया आढगं, चत्तारि मागहजोयण न० (मागधयोजन) मगधेषु भवं भागधं भगध देवव्यवहृतम. आढगाइ दोणो, सहि आढयाइं जहन्नए कुंभे, असीइ आढयाई तस्य योजनमध्वमानविशेषः-अष्टधनुःसहस्त्राणि / मगधदेशव्यवहते मज्झिमए कुंभे, आढयसयं उक्कोए कुंभे, अट्ठय आढयसइए वाहे, अध्वमानविशेषे, स्था०८ ठा०। ('मागहस्स०' 634 इत्यादिसूत्र राव्या- एएणं धण्णमाणपमाणेणं किंपओअणं? एएणं धण्णमाणपभाणेणंख्यानम्'जायण' शब्दे चतुर्थभागे 1657 पृष्ठे गतम्) मुत्तोली-मुह-इदुर-अलिंद-ओचारि-संसियणंधण्णाणं धण्णमामागहतित्थकुमार पुं० (मागधतीर्थकुमार) मगधदेशीयतीर्थङ्करपुत्रे, णप्पमाणनिव्यित्तिलक्खणं भवइ, से तं धण्णमाणप्पमाणे / से कि आ०भ०१० तंरसमाणप्पमाणे? रसमाणप्पमाणेधण्णमाणप्पमाणाओचउभागमागहपत्थय पुं०(मागधप्रस्थक) "दो असईओ पसई, दो पसईओ उ | विवड्डिए अभितरसिहाजुत्ते रसमाणप्पमाणे विहिज्जइ, तं जहा
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________________ माण 236 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 माण चउसहिआ 5 (चउपलपमाणा) वत्तीसिआ 8 सोलसिआ 16 / अट्ठमाइआ 32 चउभाइया 64 अद्धमाणी 128 माणी 256 दो चउसहिआओ वत्तीसिआ, दो वत्तीसिआओ सोलसिया, दो सोलसिआओ अट्ठभाइआ, दो अट्ठभाइआओ चउभाइया, हो चउभाइयाओ अद्धमाणी, दो अद्धमाणीओ माणी, एक रसमाणपमाणेणं किं पओअणं ? एएणं रसमाणेणं-वारकधडक-करक-कलसिअ-गागरि-दइअ-करोडिअ-कुंडिअसंसियाणं रसाणं रसमाणप्पमाणनिवित्तिलक्खणं भवइ / से तं रसमाणप्पमाणे / से तं माणे / / सुन पे नानप्रमाण द्विधा-धान्यमानप्रना च, समाज , निमेय प्रमाण मानाप्रमाणं धान्यविषय भानप्रमा गद्य-'दा असईओ' इतयादि) अश्नुते तत्प्रभवोट सामरता . नानानि याप्नोतीत्यसतिः-अपाडमुखहरततलरूपा, परिजित वन्यमपि तथाच्यते, तद्वयेन निष्पन्ना नावाकारता यबरयापिनमानकरतलरूपा प्रसृतिः, देव प्रसूती रोमियर, सावनह प्रसिद्ध नहाते, भागधदेशवारेस इस्यैवात्र मानस्य प्रतिपिणमणिचाआइयं तत्प्रसिद्धा क चिंदगन्तव्या, चतस्रः सेतिकाः कुडयः, ते चत्वारः प्रर.५:, अमी चत्वारः आटक इत्यादि सूत्रसिद्धर्भव, यावदभिरादास कृता पाहः / अत्राह शिष्यः - एतेनाऽसत्यादिना धान्यमानत्रमाणे न प्रयोजना- किमनेन विधीयते इत्यर्थः, अत्रोत्तरम्- एतेन धान्यमानमाणेन 'मुक्तोली मुखेदुरालिन्दापचारिसंश्रीताना' मुक्तोल्याद्याधारगतानां धान्यानां धान्यस्य यन्मानम- इयत्नालक्ष चन्देश प्रमाण, लग्य निर्वृत्तिः सिद्धिस्तस्या लक्षण परिज्ञान भवति / विधायगर परिज्ञानं भवतीत्यर्थः / तत्र मुक्कोली-मोट्टा (वा) उपरिस मध्ये त्वीषद्विशाला काष्ठिका, मुखंगन्या उपरि यद्दीयते सुम्बादिव्यूत उशनकादि तत- इदुरं, आलिन्दकंकुण्डुल्कम, अपचारिदीधंतरधान्यकोठाकारविशेषः / रसमानप्रमाणमाह-(से किं तमिल्यादि) रसो मद्यादिस्तद्विषय मानमेव प्रमाणं रसमानप्रमाणम, किमित्याहधान्यनानप्रमाणात / सेतिकादेश्चतुर्भागविवर्द्धितम्- चतुर्भामाधिकम् अन्न पशिखायुक्तं यद रसमान विधीयते क्रियते तद्रसमानप्रमाणमुध्यते. धान्रास्ताऽद्रवरूपत्वात्किल शिखा भवति, रसस्य तु द्रवरूपवान शिखासम्भवोऽता बहिः शिखाभावात् / धान्यमानाश्चतुर्भागवृद्धिलक्षणय अभ्यन्तरशिखया युक्तत्वाचाभ्यन्तरशिखायुक्तमित्युक्तम, तद्यथा- चतुःषष्टिक यादि, इदमुक्तं भवति- पट् पशाशदधिकश - तद्रयपलमाना माणिकानाम वक्ष्यमाणं ररागानम, तस्य चतुःषष्टिमभागनिष्पन्ना अदिव चतुष्पलप्रमाणा चतुःषष्टिका, एवं माणिकाया एवं द्वात्रिंशतमभागवर्तित्वादष्टपलप्रमाणा द्वात्रिंशिका, तथा स णिकाया एव षोडाभागवर्तित्वात् षोडशपलप्रमाणा षोडशिका, तस्या एवाष्टभागचर्तित्वात् द्वात्रिंशत्पलप्रमाणा अष्टभागिका, तस्या एव चतुर्भागवर्तित्वात चतुःषष्ठिपलमाना चतुर्भागिका, तस्या एवार्द्धभागवर्तिनी अष्टाविंश गांधः पलाशतमानार्द्धमाणिका, इदं च बहळू वाचनाविशष न दृश्य। माप पहाधिकशतद्वयपलप्रमाणा माणिका द्वाभ्यां चतःपष्टिका - यापकाद्वात्रिशिका भवतीत्यादि गलार्थमेत यावदेलेन रसमानाप्रमाणन 1. पयाजन? नाचरम् एतन रसमानणयानमारकाटकरकामाग रालिका कुपनकाश्रितानच्यानारस सन्मानं तदेव पाण यनिति- द.तर-या लक्षण - परिज्ञान भवति, तत्रातीय शालखा माण्डिकव करोडिका उच्यते, शेष प्रतीतम, कशि *5 ललिए श्यत, तत्र लधुतरः कलश एव कलशिकत्यभिधीयत. मापिसाचनान्तरम्यागः सतमित्यादि निगगनद्वयम। अन्न० / 10 / 0 / रक्षा०1 301 आ०म०। पक्षा। सूत्र० / व्य०। नि०चू०। वारस अट्ठ य छक्कग-माणं भणियं जिणे हि सोहिकरं। तेण परं जे मासा, साहण्णंता परिसडंति // 216|| मीयते -परिस्तिद्यत वस्त्वनेनेति मानम् / व्य०१ उ० / नि०५० ! अडुलासरवेयभागादिके, विशे०। स्था०। भ० / कर्म०। आचा०। अनु० उदक्ट्रोणपरिमाणशरीरतायाम्, स०। जलद्रोणप्रमाणतायाम, कथ? जन्नस्यातिभृते कुण्ड पूरुपे निवेशिते यजलं निस्सरति यद्यदि द्रोणमान्न जादा मानप्रानो भवति। ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। प्रव०। स्था०1 मा लक्षणमानोर नानादि, तत्र मान जलद्रोणमानता जलभृतकुण्डिकाया हि मातव्यः पूरुषः प्रवेश्यते / तत्प्रवेशे च यजलं ततो निस्सरति तद् यदि द्रोणमानं भवति तदाऽसौ मानापेत उच्यते, भ०२ श०१ उ०) तं०। नि०चू० / विपा०रा० गुणानुरागे, ज्ञा०१ श्रु०१ 301 औ० कल्प० / निका आदरे, उत्त०१६ अ० / मननमवगमनं मन्यतऽनेनति मानः / था .50 | सुबत्तगुर्वादीनामप्यतिमतिकारिणि, दर्श०१ तस्य / 1 श्रु०१६ अ० / स्तब्धतायाम, ध०३ अधि० / बलादिसमुत्थ. आधा०१ श्रु०३ अ०४ उ० / गर्वे, पुं०। सूत्र०२ श्रु०५ अ०॥ अभिमाने, सूत्र०१ श्रु०१ अ० / अहमितिप्रत्ययहेतौ, उत्त०६ अ०। अहङ्कारे. सूत्र०१ श्रु०८ अ०। प्रव०i आव० / स्था०। (अस्य चातुर्विध्यम् कसाय' शब्द तृतीय भागे 366-368 पृष्ठे उक्तम्) मानाऽपि नामादिभदाचतुष्प्रकार:-कर्मद्रव्यमानः, तथैव नोकर्मद्रव्यमानः, स्तब्धद्रव्यलक्षणः / भावमानस्तु तद्विपाकः / स च चतुर्की यथाह- "लिणि सयला कट्ठिय सेलत्थंभोवमो गाणो'' अत्रोदाहरणम् ''सो सुभूमो तत्थ संवट्टइ। विजाहरपरिणहितो जातो, सो किर चमवट्टी भविर मई तिमघनादिविजाहरो इत्थीरयणनियधूया पउमसिरिदाणनिमिन तस्स समीवे सया इच्छइ / अन्नया तेण विसाइहिं परिविखाई। इतो य राभो नेमित्तियं पुच्छइकतो य मम विणासो ति? पणियं-जाण्यं सीहासणे निविसिहिइ एयातो दाढतो पयडीभूयातो खाहिति। ततो ते भय। ततो तेण अवारियभत्तं कय। तत्थ सीहासणं धुरे ठविया दाढातो स अग्गता कया तो एवं वचइ कालो, इतो य सुभूमो माय पुच्छइ-किं एत्तिओ लोगो अन्नोऽवि अस्थि ? तीए सव्वं कहिय / सो त सोऊणमभिमाणेण हस्थिणाउरं गतो। तसभं पविट्ठो, देवया रडिऊण नट्टा।
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________________ गण 240 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 माणपिंड लो सातो परमत्तं जीयता माहणा तं परिहारं ओलग्गा मेघनादेण | माणदंसि(न) त्रि० (भानदर्शिन) मानस्य स्वरूपतो वेत्तरि, परिहतरि विजाहारण ताणि पहरणाणि तेसिं चेव उवरि पाडिजति / सो वासत्थो च / आचा०१ श्रु०३ अ०४ उ०। भुजइ। रामस्स परिकहियं संनद्धो आगतो परसुंमुयइ विजातो, इयरोय | माणदेवसूरि पुं० (मानदेवसूरि) चोलदेशे कल्याणकपुरे 1233 विक्रमत चेव थालं गहाय उट्टितो चक्करयणं जायं, तेण से रामस्स सीसं छिन्न। संवत्सरे वीरप्रतिमाप्रतिष्ठापके जिनपतिसूरिक्षुद्रपितरि, ती०२१ कल्प। पच्छा तेण सभूमेण माणेण एकवीस वारा निब्बंभणा पुढवी कया गडभा वि प्रद्युम्नसूरिशिष्यो मानदेवसूरिः / ग०३ अधि०। फालिया। आ०म०१ अ०। आ०चू०1 आ०क०। (माने-यमदग्निपर- | माणपडिसलीण त्रि० (मानप्रतिसलीन) निरुद्धमाने, स्था०४ ठा०२ उ०। शुरामकथा 'जमदग्गि' शब्दे चतुर्थभागे 1400 पृष्ठे उक्ता) मानफले, माणपत्त त्रि० (मानप्राप्त) मानमिते पुरुष, तत्र मानं जलद्रोणताप्रमाणम्, (अचङ्कारितभट्टोदाहरणम् 'अचंकारियभट्टा' शब्दे प्रथमभागे 181 पृष्ठे जलस्यातिभृते कुण्डे पुरुषे निवेशिते यज्जलं निस्सरति तद्यदि द्रोणमानं उक्तम्)"न चासौ मानः क्रियमाणो गुणाय' सूत्र०१ श्रु०१३ अ०। भवति तदा पुरुषो मानप्राप्त उच्यते / ज्ञा०१ श्रु०१ अ०नि०। मानपरिणामजनके कर्मणि चाभ०१५ श०। भानपिण्डे, स्था०३ ठा०४ माणपव्वय पु० (मानपर्वत) पर्वतभेदे, यत्र बाहुबलिना तपः कृतम्। उ०। ऋषभदेवस्यैकसप्ततितमे पुत्रे, कल्प०१ अधि०७ क्षण। आ०म०१ अ०॥ माणइत्त त्रि० (मानवत्) आल्विल्लोल्लाल-वन्त-मन्तेत्तेरमणा मतोः | माणपिंड पुं० (मानपिण्ड) मानो-गर्वस्त तुकः पिण्डो मानपिण्डः, // 8/22156 / / माणइत्तो / मानवति, प्रा०1 प्रव०६७ द्वार / अष्टमे उत्पादनादोषे, यथासाधूनां समक्षं पणं कृत्वा माणंझाण न० (मानध्यान) बाहुबलिविश्वभूतिसुभूमपशुरामाग्निवेशा तदाऽहं लब्धिमान यदा भवतां सरसमाहारममुकगृहादानीय ददामीगतसङ्गमकादीनामिव दुर्ध्याने, श्रातु०। त्युक्त्वा गृहस्थं विडम्ब्या गृह्णाति तदाऽष्टमो मानपिण्डाऽऽख्यो दोषः / माणंसी (देशी) मायावि चन्द्रवध्वोः, दे० ना०६ वर्ग 147 गाथा। उत्त०२४ अ०। आचा०। पञ्चा०1 माणकर पुं० (मानकर) कथमहमभ्यर्थितः कथयिष्यामीत्यवलेप-सर्जित, जे भिक्खू माणपिंडं भुंजइ भुजंतं वा साइजइ / / 67 / / स्था०४ टा०३ उ०। अभिमाणतो पिंडग्गहणं करेति त्ति माणपिंडो आणादिया य (दोषाः) माणकसाइ पु० (मानकषायिन) मानेन कषायिताऽऽत्मनि, प्रज्ञा०१४ पद। पच्छित्तं च चउलहुँ। माणकसाय पुं० (मानकषाय) मानरूपे कषाये, प्रज्ञा०१४ पद / गाहा('पडिक्कमण' शब्दे पञ्चमभागे 266 पृष्ठे / 'कसाय' शब्दे तृतीयभागे जे भिक्खू माणपिंडं, मुंजेज सयं तु अहव सातिजे / 367 पृष्ठे विस्तरोऽस्य गतः) सो आणाअणवत्थं, मिच्छत्तविराहणं पावे ।।१८।कंम्यम्। माणकिरिया स्त्री० (मानक्रिया) जात्यादिमदमत्तस्य परेषां हेलनादि इमं माणपिंडेलक्खणं - करणे, स्था०५ ठा०२ उ०। अभ्युत्थानविनयासनदानाञ्जलिप्रग्रहैर्मा उच्छाहितो परेण व, लद्धपसंसाहि वा समुत्तइओ। नकारापणे, आचा०१ श्रु०१ अ०१ उ०। सूत्र०। अवमाणिओ परेण व, जो एसति माणपिंडो सो॥१८३॥ माणण न० (मानन) पूजने, आचा०१ श्रु०३ अ०३ उ०। तव्वतिरित्तो परो, तेण महाकुलं पसूता तिएहि वयणेहिं उच्छाहितो, माणणऽट्ठ पुं० (माननार्थ) माननं पूजनं सत्कारः तेनार्थः-प्रयोजनम् ततो माणद्वितो जए सति सो माणपिंडो। तहा परेण चेव तुम लद्धीए माननार्थः। अभ्युत्थानविनयासनदानाञ्जलिप्रग्रहैनि निमित्ते, आचा० अणण्णसरिसो एवं पसंसितो समुत्तइओ ति माणाभिभूतो / अहवा१ श्रु०३ अ०३ उ०। विविधोपायं पक्खंद हुँ भणाति-देहि मे इतो भत्तं / भत्तसामिणा वुत्तंमाणणिस्सिय न० (माननिश्रित) माननिमित्ते मृषाभेदे, प्रज्ञा०१८ पद। देभि त्ति / पडिभणति साहू-अवस्सं दायव्वं ति। अतिमाणतो तल्लंभो मूच्छभिदे, स्था०२ ठा०४ उ०। उज्जम करेंतस्स माणपिंडो भवति। माणतुंगसूरि पुं० (मानतुङ्गसूरि) भक्तामरस्य कर्तरि, "श्रीमानतुङ्गसूरिः, एत्थ इमं उदाहरणं / गाहा। कर्ता भक्तमरस्य गणभर्ता।" ग०३ अधि०। एतदुत्पत्तिस्त्वेवम्- वाराणस्यां धनदेवपुत्रः मानतुङ्गनामा दिगम्बरजैनदीक्षां गृहीत्वा महाकीर्ति इट्टगछणमि परिपंडिताण उल्ला उ को णु हु पएति / नामाऽजनि। भगिन्युपदेशाद्दिगम्बरेष्वेषणाशुद्धिमदृष्ट्वा अजितसिंहसूरि आणज्ज इट्टगातो, खुड्डो पव्वाहऽहं आणे // 184 / / पायें श्वेताम्बरजैनत्वेन दीक्षित एतन्नामाऽभिदधे / तत्रत्येन हर्षदेवेन अस्थि गिरिफुलिगा णगरी, तत्थ य आयरिया बहुसिस्सराज्ञा मयूरभट्टादिषु ब्राह्मणेषु सूर्यस्तोत्रादि भाणत्वी इष्टमाप्तेषु जैनेष्व- परिवारी परिवसंति / अणणदा इट्टगच्छणे त्ति इट्टगा, सुत्ता। प्यस्ति चमत्कृतिर्नवेति जिज्ञास्यमानेन निगडबद्धोऽयं सूरिभक्तामर- उत्सवो तम्मि वटुंते साहू परोपरि पिंडिता उलाव करेंति / स्तोत्रं भणित्वा ततस्तुष्टया शासनदेव्या छिन्नेषु निगडेषु तेनैव राज्ञा को अम्हं अज्ज इट्टगछणे वट्टमाणे इट्टगा उप्पज्जत्तिया) परितोषित इति / जै० इ०। आणेज्जति / खुड्डगो भणति-अहं आणोमि त्ति / साधू भणंति
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________________ माणपिंड 241 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 माणपिंड जति वि य ता पज्जत्ता, अगुलघताहिं ण ताहि में कज्जं / जारिसियाओ इच्छह, ता आणेऽहं ति निक्खंतो / / 18 / / जइ वि तुम ता पजत्ताओ आणेहिसि तहाऽवि अम्हं ताहिं गुलघयदलियाहिं / कजं, एवमण्णो कोइ खुडो भणति-जारिशाओ भणः जारिसाओ आसेमि त्ति वोत्तुं भायाणे घेत्तुं उवओग काउंणिगता, परियट्टतण दिट्ठा एगम्मि घरे पभूता उपसेवइया तत्थ आगारी। गाहा - ओभासिय पडिसिद्धो, भणति अगारिं अवस्सिमा मज्झं। जति भणसि तो मे णा-साए कुणसु मोयं तु // 186 // टीए पडिसिद्धो, ताहे खुड्डो भणति-इमा इट्टगता अवरसं मा भविस्संति, आहत्ति य। अगारी पडिभणाति-जति एया लभस तो तुम लासाए-मयंकतं, भूत्रित इत्यर्थः / सो खुडो ततो घराओ णिग्गतो। इम गाहाकस्स घरं पुच्छिऊण, परिसाए कतरोऽमुगो य पुच्छंते। किं तो अम्हं जायसु, सो किविणो ण दाहिता तुज्झं / / 187|| मुच्छिए कहियं इंददत्तस्स, कत्थ सो? इमो परिसाए अच्छति / ताहे परिस गंतु पुच्छति-कयरो तुझं इंददत्तो ति। तत्थ अण्णे भणंति-कि तेण, सो किविणो इत्थिवसो यण तुज्झंदाहिति। जति तो अम्हे जाय दाहामा जाहेच्छिय। ताहे इंददत्तेणदाहंति णेण भणितं, जति ण भवसि छणिहमेसि पुरिसाणं। अण्णतरो तो तेहिं, परिसा मज्झमि जायामि // 188|| ताहे खुझो भणइ-जइ इमेसिं छह पुरिसाणं अण्णतरोण भवसि तो ते है इमाए परिसाए मज्झे किंचि पणएमि, ततो तेण अण्णतेहि य भणिय कथमेते छ पुरिसा इमे सुणसु। नि०५०१३ उ०। सम्प्रति मानपिण्डस्य संभवमाह - उच्छाहिओ परेण व, लद्धिपसंसाहिँ वा समुत्तइओ। अवमाणिओ परेण य, जो एसइ माणपिंडो सो॥४६५।। उत्साहितः-त्वभवास्य करणे समर्थ इत्येवमुत्कर्षितः, परेण-अपरेण माध्यादिना, (वा) विकल्पे, तथा लब्धिप्रशंसाभ्याम् (समुत्तइओ) गर्वितो, यथाऽहं यत्र कापि व्रजामि तत्र सर्वत्रापि लभे, तथैव च जनो मा प्रशंसतीत्येवमभिमानवान्, यद्वा-न किमपि त्वया सिद्ध्यतीत्येवमपमानितोऽपरेणाहकारवशाद्य एषयति पिण्ड स तस्य मानपिण्डः / अत्र च क्षुल्लकोदाहरणम् - गिरिपुष्पिते नगरे सिंहाभिधानाः सूरयः सपरिवाराः समाययुः, अन्यदा च तत्र सेवकिकाक्षणः समजनि, तस्मि श्च दिवसे सूत्रपौरुष्यनन्तरमेकत्र तरुणश्रमणानां समवायोऽभवत्, बभूव च परस्पर समुल्लापः, तत्र कोऽप्यवादीत-को नामैतेषां मध्ये यः प्रातरेव सेवकिका आनेष्यति ? तत्रगुणचन्द्राभिधः क्षुल्लकः प्रत्यवादीद्-अहमानेष्यामि। रातः सोऽभाणीत्- यदि ताः सर्वसाधूनां न परिपूर्णा घृतगुडरहिता वा ततो न ताभिः प्रयोजनम्, तस्माद्यद्यवश्यमानेतव्यास्तर्हि परिपूर्णाः घृतगुडसम्मिश्राश्चानेतव्याः, क्षुल्लक आह-यादृशी स्त्वमिच्छरि तादृशीरानेष्यामि, एवं च कृत्वा प्रतिज्ञा, नान्दीपात्रमादाय भिक्षार्थ निर्नाम। प्रविष्टश्च क्वापि कौटुम्बिकगृहे, दृष्टाश्च तत्र प्रचाः सेवाककाः घृतमुडादीनि च प्रभूतानि प्रगुणीकृतानि, ततोऽनेका वचनभडीभिः सुलोचनाभिधाना कोटुम्बिकगृहिणी याचिता, तया च गया प्रतिषिन्दोन किमपि तददामीति, ततः संजातामर्षण बभणे क्षुल्लम-नियमादिम सेवकिकाः सतगडा मया गृहीतव्याः, सुलोचनाऽपि सामर्थ शुलनामवरः श्रुत्वा संजातप्रकोपा प्रत्युवाच-यदि त्वमेतासां रोवक्किानां किमणि लभसे तलो मे नासापुटे त्वया प्रस्रवणं कृतमिति। ततः क्षुल्लकोऽचिन्त - यद्- अवश्यमेतन्मया विधातव्यम्, एवं च विचिन्त्य गृहानिर्ययौ : प्रचा च कस्यापि पार्श्वे कस्येदं गृहम् ? इति / सोऽवाटीत्- विष्णुभिवत्रा ततः पुनरपि क्षुल्लकः पृच्छति-स इदानीं व वर्तते ? लेनोक्तम- वर्षदि ततः पर्षदि गत्वा सहर्ष इव पर्षज्जनान् पृष्टवान -भो ! युष्माकं मध्ये जा विष्णुमित्रः? जना अवादिषु:-किं साधो ! तव तेन प्रयोजएम् ? साधुर. वोचत्-तं किमपि याचिष्ये, स च तेषां सर्वेषामपि प्रायो भगिनीपतिरिति सहासं तैरवाचि-कृपणोऽसौ न ते किमपि दास्यतीत्यस्मानेव याचस्व, ततो विष्णुमित्रो मा मेऽपभ्राजनाऽभूदिति तेषामग्रतः कृत्वा बभाण-भो ! भो ! विष्णुमित्रोऽहं याचस्व मां किमपि, मा केलिवचनममीषा कर्णेऽ . कार्षीः, ततोऽवादीत क्षुल्लकः-याचेऽहं यदि त्वं महेलाप्रधानानां षण्णा पुरुषाणामन्यतमो न भवति। ततः पर्षजना अवादिषुः-के ते षट् पुरुषा महे लाप्रधानाः ? येषामन्यतमोऽयमाशयते। ततः क्षुल्लक आहश्वेताङ्गुलिः, वकोड्डायकः, किङ्करः, स्नायकः, गृध्र इव रिती, हदज्ञ इति, एतेषां च षण्णामपि कथानकान्यमूनिवचिद्राने कोऽपि पुरुषो निजभार्याच्छन्दानुवर्ती , स च प्रातरेव जातबुभुक्षो निजभार्या भोजन याचते, सा च वदति-नाहमालस्येनोत्थातुमुत्सहे, ततस्त्वमेव समाकर्ष चुल्ल्या भस्म प्रक्षिप, तत्र प्रातिश्मिकगृहादानीय वह्नि प्रज्वालय तभिन्धनप्रक्षेपेण, समारोपय चुल्ल्याः शिरसि स्थालोम्, एवं यावत्पक्त्वा कथय, ततोऽहं परिवेषयामीति, स च तथैव प्रतिदिवसं कुरुते , ततो लोकेन प्रातरेवास्य चुल्ल्या भरमसमाकर्षणेन श्वेतीभूताऽङ्गुलिदर्शनात्सहासं श्वेताऽङ्गुलिरिति नाम कृतम्, एष श्वेताऽडलिः / तथाक्वचिद्रामे कोऽपि पुरुषो निजभार्यामुखदर्शनसुखलम्पटस्तदादेशवर्ती, अन्यथा तया भार्यया बभणे-यथाऽहमालस्येन युक्ता, ततस्त्वमेवोदक तडागादानय, स च देवताऽऽदेशमिव भार्याऽऽदेशमभिमन्यमानः प्रतिवदतियदादिशसि प्रिये ! तदह करोमि। ततो दिवसे मा लोको मां द्राक्षीदिति रात्री पश्चिमयामेसमुत्थाय प्रतिदिवसंतडागादुदकमानयति / तस्य चतत्र गमनागमने कुर्चत्रः पदसञ्चारशब्दश्रवणतो घटभरणबुबुदशब्दश्रवणतश्च तडागपालीवृक्षेषु प्रसुप्ता वका उत्थायोडीयन्ते / एष च वृतान्तो लोकेन विदितः, ततोऽरयार्थरय सूचदार्थ हास्येनवकोडायकइति नामकृतम्। एषवकोडायकः / तथा-कृचिद् ग्रामे कोऽपि पुरुषो भार्यास्तनजघनादिस्पर्शलम्पटा भार्याच्छन्दानुवर्ती सचप्रातरेवोत्थाय कृताञ्चलिप्रग्रहो वदति-दयित: किंकरो -
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________________ माणपिंड 242 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 माणवग मि? सा च वदति-तडागादुदकगानय, ततो यत्प्रिया समादिशतीत्यु- निजवसताविति। दित्वा तडागादुदकमानयति, पुनरपि भणति-किं करोमि प्राणेश्वरि? एतदेव रूपकाष्टकेन दर्शयतिसा वदति-कुसूलादाकृष्य तण्डुलान् कण्डय एवं यावदोजनादूर्ध्वं मम इट्टछणमि परिपिं-डियाण उल्लावको हु हु पगेव। पादान प्रक्षाल्य घृतेन फाणयेति, सच सर्वतथैव करोति। तत एवं लोकेन आणिज्ज इट्टगाओ? खुड्डो पच्चाह आणेमि / / 466|| ज्ञात्वा तस्य किङ्कर इति नाम निवेशितम्, एष किङ्करः। तथा-क्वचिद् जइ वि य ता पज्जत्ता, अगुलघयाहिं न ताहि णो कजं / ग्रामे कोऽपि पुरुषो भार्याऽऽदेशवर्ती, स चान्यदा निजभार्यामवादीत्- जारिसियाओ इच्छह, ता आणे मि त्ति निक्खंतो।।४६७|| प्राणेश्वरि : स्नातुमहमिच्छामि, तयोक्तम्- यद्येवं तमिलकान् शिलायां ओहासिय पडिसिद्धो, भणइ अगारिं अवस्सिमा मज्झं। वर्त्तय, परिधेहि स्नानपोतिकाम्, अभ्यङ्गय तैलेनात्मानं, गृहाण च घट, जइ लहसि त्तो तं मे, नासाए कुणसु मोयं ति // 468|| ततस्तडागे स्नात्वा घटं च जलेन भृत्वा समागच्छेति / स च देवताऽऽ- कस्स घरं पुच्छिऊणं, परिसाएऽमुगो कयरो पुच्छित्तु / देशमिव भार्याऽऽदेशं शिरसि निधाय तथैव करोति, एवं च सर्वदैव ततो किं तेणऽम्हे जायसु, सो किविणो दाहिइ न तुज्झ // 466 // लोकेनास्यार्थस्य प्रकटनार्थ हासेनास्य स्नायक इति नाम कृतम्। एष दाहित्ति तेण भणिए, जइ न भवसि छण्हमेसि पुरिसाणं / स्नायकः। पिं०। (मानपिण्डे इव रिसीति दृष्टान्तः 'गिद्धइवरिखि' शब्दे अन्नयरो तो तेऽहं, परिसामज्झंमि पणयामि / / 470|| तृतीयभागे 875 पृष्ट गतः) तथा क्वचिद ग्रामे भार्यामुखप्रलोकनसुख- सेयंगुलि वगुड्डावे, किंकरे ण्हायए तहा। लम्पटरतदादेशकारी कोऽपि पुरुषः, तस्यान्यदा स्वभार्यया सह विषय- गिद्धा व रिंखि हदन्नए, एए पुरिसाहमा छओ।।४७१।। सुखमनुभवतः पुत्रो बभूव / स च पालनक एवं स्थितोऽतिबालत्वात जायसु न एरिसोऽहं, इट्टगा देहि पुव्वमइगंतुं / पुरीषमुत्सृजति, तेन च पुरीषण पालनक बालवस्त्राणि च खरण्ट्यन्ते, माला उत्तारि गुलं, भोएमि दिए त्ति आरूढा // 472 / / ततः सा भणति-बालस्य पुते प्रक्षालय; पालनकं बालवस्त्राणि च। ततो / सिइअवणण पडिलाभण, दिस्सियरी वोलमंगुली नासं। यत्प्रिया समादिशति तत्करोमीतिवदस्तथैव करोति, एवं सर्वदैव। ततो दुण्हेगयरपओसो, आयविवत्तीय उड्डाहो॥४७३।। लोकेनैतद् ज्ञात्वा हदनं प्रक्षालयितु बालस्य जानातीति कृत्वा हदज्ञ सुगमम् / नवरम् (इट्टगछणंति) सेवकिकाक्षणे (पगवेति) प्रभाते एव इति नाम तस्य कृतम् / एष हदज्ञः / तत एव मुक्त क्षुल्लकेन सर्वैरपि (मोयं ति) सूत्रणं, प्रणयामि इति याचे, (सिइअवणण ति) निःश्रेण्यपर्षजनैरेककालमट्टाहासेन हसद्भिरभाणि-क्षुल्लक ! ष षण्णामपि पनयनम्, इत्थम्भूतश्च मानपिण्डो न ग्राह्यः, यतो द्वयारपि दम्पत्योः पुरुषाणां गुणानाददाति तन्मैनं महेलाप्रधान याचिष्ट / विष्णुमित्रोऽ- प्रद्वेषो भवति, ततस्तद्रव्यान्यद्रव्यव्यवच्छेदः, कदाचिदेकतरस्य दीतनाहं षण्णां पुरुषाणां समानस्तरमाद्याचस्व मामिति, ततः क्षुल्ल- ततस्तत्रापि स एव दोषः / अपिच-सैवमपमानिता कदाचिदभिमानवशाकनोक्तम्- देहि में घृतगुडसंयुक्ताः पात्रभरणप्रमाणाः सेवकिकाः, दात्मविपत्तिं कुर्यात, तत उड्डाहः प्रवचनमालिन्यम्। उक्तो मान पिण्डविष्णुमित्रेणोक्तम्- ददामि / ततः क्षुल्लकं गृहीत्वा निजगृहाभिमुखं दृष्टान्तः। पि० / जीता नि०चू०। आचा०। चलितवान, समागतो निजगृहद्वारे, ततः क्षुल्लकेनामाणि-प्रथममपि माणमय पुं० (मानमंद) मानगर्वे, दश०६ अ०४ उ०। तव गृहे समागतोऽहमासं परं तव भार्यया प्रतिज्ञा व्यधायि यथा न किमपि माणमाण त्रि० (मानयत) तदनुभावमनुभवति, भ०१ श०४ उ०। ते दास्यामि, तत इदानीं यदुक्तं तत्समाचार, तत एवमुक्ते विष्णुमित्रोऽ- माणमुंड त्रि० (मानमुण्ड) मुण्डयत्यपनयतीति मुण्डः, मानेन मुण्डः वादीत्- यद्येवं तर्हि क्षणमात्रमेव गृहद्वारेऽवतिष्ठस्वपञ्चादाकारयिष्यामि, मानमुण्डः / मुण्डभेदे, स्था०१० ठा०। ततः प्रविष्टो गृहमध्ये मित्रः, पृष्टा च तेन निजभार्या-यथा राद्धाः सेवकिकाः / माणमूरण त्रि० (मानमूरण) मानमर्दने, आ०म०१ अ० / सर्वगोद्दलने, प्रगुणीकृतानि धृतगुडादीनि ? तयोक्तम्- कृतं सर्व परिपूर्णम्, ततो गुडं पा०॥ ध०। प्रलोक्य स्तोक एष गुडो नैतावता सरिष्यतीति मालादानय प्रभूतं गुड माणव पु०(मानव) मा निषेधे, नवः प्रत्यग्रो मानवः / भ०२० श०३ उ०। येन द्विजान भोजयामीति, ततः सा तद्वचनादारूढा मालम् अपनीता पुरुष, सूत्र०१ श्रु०१ अ०१ उ० / दश०। आचा०। मनुजे, आचा०१ तेन निःश्रेणिः / तत आकार्य क्षुल्लकं पात्रभरणप्रमाणा ददौ तस्मै श्रु०५ अ०४ उ० / मनुष्ये, आचा०१ श्रु०२ अ०१ उ०। दश० / आचा० / सेवकिकाः घृतगुडादीनि च दातुमारब्धानि, अत्रान्तरे गुडमादाय मनुजे, आचा०१ श्रु०५ अ०४ उ० / मनुष्ये, आचा०१ श्रु०२ अ०१७०। सुलोचना मालादुत्तरितु प्रवृत्तान पश्यति निःश्रेणिम, ततो विस्मितदृष्ट्या ''मणुआ नरा मणुस्सा, मचा तह माणवा पुरिसा' पाइ० ना०६० गाथा / प्रसरं यावदालोकते तावत्पश्यति क्षुल्लकाय घृतगुडसंयुक्ताः सेवकिका मनुप्रोक्ते, "पुराण मा नवो धर्मः, साङ्गो वेदश्चिकित्सितम् / आज्ञादीयमाना, ततोऽहमनेन क्षुल्लकेनाभिभूतेत्यभिमानपूरितहृदया माऽस्मै सिद्धानि चत्वारि, न हन्तव्यानि हेतुभिः / / 1 / / " सूत्र०५ श्रु०३ अ०३ देहि मा स्मै देहीति महता शब्देन पूत्कुरुते, क्षुल्लकोऽपि तस्याः उ०। मनुष्ये, सूत्र०१ श्रु०६ अ०। आचा० सम्मुखभवलोक्य मया तव नासिकापुटे मूत्रितमिति निजनासापुटेऽगु- | माणवग पुं०(माणवक) षट्चत्वारिंशत्तमे महाग्रहे, स्था०। ज्यभिनयेन दर्शयति, दर्शयित्वा च भृतघृतगुडसेवकिकापात्रो जगाम | दो माणवगा। स्था० 2 टा० 3 उ०। कल्प० / चं० प्र० सू० प्र०।
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________________ माणवग 243 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 माणविजय सुधर्मसभा मध्यावस्थितस्वाभिधाने स्तम्भे, ज्ञा०१ श्रु०८ अ०। सू०प्र०। रूपादिभिदूरमपभ्रष्टः सर्वजनावगीतोऽयमीति / अहं पुनर्विशिष्टजातिTo 1 जी / निधिभेदे, दर्श०१ तत्त्व / आ० चू० / नि। कुलबलादिगुणोपेतः, एवमात्मानं समुत्कर्षयेदिति। साम्प्रतं मानात्कजोहाण य उप्पत्ती, आभरणाणं च पहरणाणं च / विपाकमाह-(देहधुए इत्यादि) तदेवं जात्यादिमदोन्मत्तः सन्निव सव्वा य जुद्धनीई, माणवगे दंडनीई य|८|| लोके गर्हितो भवति, अत्रच जात्यादिपदद्वयादिसयोगा द्रष्टव्याः, ते चैवं (सूत्र-६६)। ज०३ वक्ष०। (अस्याः व्याख्या 'भरह' शब्दे 5 भागे भवन्ति-जातिमदः कस्यचित्र कुलमदः, अपरस्य कुलमदो न जातिपदः, 2461 पृष्ठ गता) अष्टने निधों, प्रव०२१३ द्वार। द्वी०। जी० / कल्प। पररयोभयम, अपरस्यानुभयम् इत्येवं पदत्रयेणाष्टौ चतुर्भिः षोडशेत्यादि आ०म० / स्था० ज०। आव०। यावदष्टभिः पदैः षट्पञ्चाशदधिकशतद्वयमिति, सर्वत्र मदाभावरूपश्चरमाणवगण पुं०(मानवगण) वसिष्ठगोत्रस्य ऋषिगुप्तान्त्रिर्गत गणे, कल्प०२ मभङ्गः शुद्ध इति। परलोकेऽपि च मानीदुःखभाग् भवतीत्यनेन प्रदश्यतेअभिक्षण। स्वायुषः क्षय देहात च्युतो भवान्तरं गच्छन् शुभाशुभकर्मद्वितीयः कर्ममागवचेइयखंभ पुं० (मानवचैत्यस्तम्भ) सौधर्मकल्पे स्वनामख्याते परायत्तत्वादवशः-परतन्त्रः प्रयाति, तद्यथा-गर्भाद्र्भ पञ्चेन्द्रियापेक्षग्य, चन्यस्तम्भ, सुधर्ममध्यभागे मणिपीटिकोपरि षष्टियोजमानो माणवको तथा-गभादगर्भ विकलेन्द्रियेषूत्पद्यमानः, पुनरगर्भाद्गर्भमेवमगर्भादगनाम चैत्यस्तम्भोऽस्ति / स०।। भम्, एतच्च नरककल्पगर्भदुः खापेक्षायामभिहितम्, उत्पद्यमानदुःखासोहकम्मे कप्पे सुहम्माए सभाए माणवए चेइयक्खंभे हेट्ठा पेक्षया त्विद मभिधीयते जन्मन एकस्मादपर जन्मान्तरं द्रजति, तथा उवरिं च अद्धतेरस अद्धतेरस जोयणाणि वजेत्ता मज्झे पणतीसं मरण मारस्तस्मान्मारान्तर व्रजति, तथा नरकदेश्यात्-श्वपाकादिवाजोयणेसु वइरामएसु गोलवट्टसमुग्गएसु जिणसकहाओ पण्ण- साद्रत्प्रभादिकं नरकान्तरं व्रजति। यदिवा-नाकात्सीमन्तकादिकादुद्ताओ। धृत्य सिंहमत्स्यादावुत्पद्य पुनरपि तीव्रतरं नरकान्तर व्रजति / तदेवं सौधर्मकल्पे सौधर्मावतंसकादिषु विमानेषु सर्वेषु पञ्चपञ्च सभा भवन्ति- नटवद्रगभूमी संसारचक्रवाले स्त्रीपुनपुंसकादीनि बहून्यवस्थान्तराणसुधर्मसभः 1 उपपातसभा २अभिषेकसभा 3 अलंकारसभा 4 व्यवसा- यनुभवति। तदेवं मानी परपरिभवे सति चण्डोरोद्रो भवति परस्यापसभा 5, तत्र सुधर्मसभामध्यमागे मणिपीठिकोपरि षष्टियोजनमाना करोति, तदभावे ह्यात्मानं व्यापादयति। तथा-स्तब्धश्चफ्लो यत्किञ्चमाणवको नाम चैत्यस्तम्भोऽस्ति।तत्र (वइरामएसुत्ति) वज्जमयेषु, तथा- नकारी मानी सन् सर्वोऽप्येतदवस्थो भवतीति। तदेवं तत्प्रत्ययिकम्गोल बद वृत्ता वर्तुला ये समुद्रका-भाजनविशेषास्तेषु (जिणसकहाओ माननिमित्तं सावद्यं कर्म आधीयते संबध्यते। सूत्र०२ श्रु०२ अ०। प्रव० / शि) जिनसक्थीनि तीर्थकराणां मनुजलोकनिर्वृतानां सक्थीनि आव० / आ० चू०। अस्थीनि-प्रज्ञप्तानीति / स०३६ सम०। माणवाइ(न्) त्रि० (मानवादिन) उचैर्गोत्रनिमित्तमानवादशीले, ''एणे माणवत्तियदंड पुं० (मानप्रत्ययिकदण्ड) जात्याद्यष्टमदस्था नोपहत- गीयावादी माणवादी कंसि वा एगे गिज्झे तम्हा पंडिए'' आचा०१ श्रु०२ मनसः पराभवदर्शिनी दण्डे, सूत्र०२ श्रु०२ अ०। अ०३ उ०। नवमं क्रियास्थान मानप्रत्ययिकमाख्यायते - माणविजय पुं० (मानविजय) श्रीविजयानन्दसूरिशिष्यपण्डितश्रीअहावरे णवमे किरियट्ठाणे माणवत्तिएत्ति आहिजइ, से जहाणा- | कान्तिविजयगणिचरणसे विनि धर्मसंग्रहवृत्तिकारके स्वनामख्याते मए केइ पुरिसे जातिमएण वा कुलमएण वा बलमएण वा रूव- महोपाध्याये, ध०२ अधि। भएण वा तवमएण वा सुयमएण वा लाभमएण वा इस्सरियमएण श्रीमद्वीरजिनेन्द्रपट्टपदवीसीमन्तिनीमण्डनं, वा पन्नामएण वा अन्नतरेण वा मयट्ठाणेणं मत्ते समाणे परं हीलेति प्रख्यावानजनिष्ट हीरविजयः सूरिः सतामग्रणीः। निंदेति खिंसति गरहति परिभवइ अवमण्णेति इत्तरिए अयं येनाऽकव्वरराट् प्रबोध्य विहितो दुष्कर्मकर्ताऽप्यहो, अहमंसि पुण विसिट्ठजाइकुलवलाइगुणोववेए एवं अप्पाणं धर्मोक्त्या त्रिदिवस्य केशिगणिनेवार्हः प्रदेशी नृपः।।१।। समुक्कस्से, देहधुए कम्मवित्तिए अवसे पयाइ, तं जहा-गम्भाओ अमलमलमकार्षीत्सद्गुरोस्तस्य पट्ट, गब्भ जम्माओ जम्म, माराओ मारं, णरगाओ णरगं, चंडे थद्धे विजयिविजयसेनः सूरिरुग्रप्रतापः। चवले माणियावि भवइ, एवं खलुं तस्स तप्पत्तियं सावज ति महति सदसि शाहेर्वादिनो निष्प्रतापान्, आहिजइ, णवमे किरियाठाणे माणवत्तिए त्ति आहिए। (सूत्र०२५) रविरिव निजगोभिस्तारकान यश्चकार / / 2 / / तद्यथानाम कश्चित्पुरुषो जात्यादिगुणोपेतः सन् जातिकुलबलरूपतपः विजयतिलकसूरिभूरिसूरिप्रकृष्टो, श्रुतलाभैश्वर्यप्रज्ञामदाख्यैरष्टभिर्मदस्थानैरन्य तरेण वा मत्तः परमवम- दिनमणिरुदयाद्रौ तस्य पट्टे बभूव। बुद्ध्या हीलयति, तथा-निन्दति जुगुप्सते, गर्हति परिभवति, एतानि कुमततिमिरमुग्रं प्रास्य शुद्धोपदेशचैकार्थकानि कथशिद्धेदं वोत्प्रेक्ष्य व्याख्येयानीति / यथा परिभवति प्रसृमरकिरणैर्यो भव्यपद्मांश्चकार / / 3 / / तथा दर्शयति-इतरोऽयं जघन्यो हीनजातिकः, तथा-मत्तः कुलबल- तदीये पट्टेऽभूद्विजयिविजयानन्दसुगुरु
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________________ माणविजय 244 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 माणि यशस्वी तेजस्वी मधुरवचनः सौभ्यवदनः। कषायैर्निर्मुक्तः प्रशमगुणयुक्तः सुविहितस्तपागच्छाधीशः सकलवसुधाधीशमहितः।।४।। जयति विजयराजः सूरिरेतस्य पट्टे, सकलगुणगरिष्ठः शिष्टलोकैः प्रशस्यः। प्रथितपृथुजयश्रीरुग्रपुण्यप्रभावः, कलितसकलशास्त्रःप्रास्तमिथ्यात्वजालः / / 5 / / तदनुपट्टपतिर्विहितोऽधुना, विजयराजतपागणभूभुजा। विजयमान इति प्रथिताहयो. विजयतेऽतुलभाग्यनिधिः सुधीः / / 6 / / इतश्चविजयानन्दसूरीणा, विनेया विनयान्विताः।। श्रीशान्तिविजयाहानाः, शोभन्ते पण्डितोत्तमाः॥७॥ आजन्मादपि शीलसत्यमृदुताक्षान्त्यर्यवाद्या गुणाः, भूयासो गुरुभक्तता च विपुला येषु प्रकृष्टा अपि। प्रोत्साहाय गुणार्थिनां स्वगुरुभिर्व्यक्तीकृता भूतले, सर्वाखिलगच्दकार्यविनियोगेन प्रसन्नात्मभिः।।८।। तेषां विनेय उदितादरतो विवने, ग्रन्थं च मानविजयाभिधवाचकोऽमुम्। क्षुण्णं यदत्र मतिमन्दतया भवेत्तन्मेधाविभिर्मयि कृपा प्रणिधाय शोध्यम्॥६॥ सत्तर्ककर्कशधियाऽखिलदर्शनेषु, मूर्धन्यतामधिमतास्तपगच्छधुर्याः। काश्यां विजित्य परयूथिकपर्षदोऽग्रया, विस्तारितप्रवरजैनमतप्रभावाः 12011 तर्कप्रमाणनयमुख्यविवेचनेन, प्रोद्बोधितादिममुनिश्रुतकेवलित्वाः। चक्रुर्यशोविजयवाचकाराजिमुख्याः, ग्रन्थेऽत्र मय्युपकृति परिशोधनाद्यैः // 11 // बाल इव मन्दगतिः, सामाचारीविचारदुर्गम्य। अत्राभूवं गतिमां-स्तेषां हस्ताबलम्बेन।।१२|| सिद्धान्तव्याकरण-चछन्दः काव्यादिशास्त्रनिष्णातैः। लावण्यविजयवाचक-शक्रैः समशोधि शास्त्रमिदम्।।१३।। वर्षे पृथ्वीणमुनि-चन्द्र (1731) प्रमिते च माधवे मासे। शुद्धतृतीयादिवसे, यत्नः सफलोऽयमजनिष्ट ||14|| किंचसमग्रदेशोत्तमगुर्जरषु, अहम्मदाबादपुरे प्रधाने, श्रीवंशजन्मा मतिआभिधानो, वणिग्वरोऽभूच्छुभकर्मकर्ता // 15 // नित्यं गेहे दानशाला विशाला, तीर्थोन्नत्या तीर्थराजादियात्रा। सप्तक्षेत्र्यां वित्तवापश्च यस्य, स्तोतुं प्रायो ह्यस्मदारिशक्यः॥१६॥ साधुः श्रीशान्तिदासः प्रवरगुणनिधिस्तत्सुतोऽभूदुदारो, धात्र्यां विख्यातनामा जघडुसमाधिकाऽनेकसत्कृत्यकृत्यः। रङ्कानामन्नवस्त्रौषधिसुवितरणाद्येन दुष्कालनाम, प्रध्वस्त शस्तमूता बहुविधिमहिता जातिसाधर्मिकाश्च / / 17 / / पुत्रन्यस्तसमरतगेहकरणी यस्य स्फुटं वार्द्धके, सिद्धान्तश्रवणादिधर्मकरणे बद्धस्पृहस्यानिशम्। सद्धर्भद्वयसंविधानरचनाशुश्रूषणोत्कण्ठिनस्तस्य प्रार्थनयाऽस्य गुम्फनविधौ जातः प्रयत्नो मम॥१८॥ ज्ञानाराधनमतिना, विनयादिगुणान्वितेन वृत्तिरियम्। प्रथमादर्श लिखिता, गणिना कान्त्यादिविजयेन।।१६।। धात्री संपद्विधात्री भुजगपतिधृता सार्णवा यावदास्ते, प्रोचैः सौवर्णशृङ्गोल्लिखितसुरपथो मन्दराद्रिश्च यावत्। विश्व विद्योतयन्तौ तमनुशशिरवी भ्राम्यतश्चेह यावत्, ग्रन्थो व्याख्यायमानो विबुधजनवरैर्नन्दतादेष तावत्॥२०॥ ये ग्रन्थार्थविभावनातिनिपुणाः सम्यग्गुणग्राहिणः, सन्तः सन्तु मयि प्रसन्नहृदयास्ते किंखलैस्तैरिह। येषां शुद्धसुभाषितामृतरसैः सिक्तोऽपि चित्ते भृशं, ग्रीष्मौ मरुभूमिकास्विव पयोलेशो न संलक्ष्यते॥२१।। विलोक्यानेकशास्त्राणि, विहिताद् ग्रन्थतस्त्विह। प्रेत्यापि बोधिलाभोऽस्तु, परमानन्दकारणम् / / 22 / / ध०३ अधि०। मानोदयनिरोधे, उत्त०२६ अ०। औ०। माणविप्पव पु० (मानविप्लव) मीयतेऽनेनेति मानम्- कुडवादिपलादि हस्तादि वा, तस्य विप्लवो विपर्यासः अन्यथा करणम् / मानस्य हीनाधिकत्वे, ध०२ अधि०।। माणवी स्त्री० (मानवी) श्रेयांसस्य श्रीवत्सापरनाम्न्यां शासनदेय्याम, वैताढ्यपर्वते स्वनामख्यातायां विद्याधरश्रेणी, आ००१ अ01 प्रय०। माणस त्रि०(मानस) मनःपर्यायज्ञानयुक्ते, विशे०। मनःसम्बन्धिनि, नं०। आव० स्था०। प्रव०। अन्तःकरणे, स०३४ सम० जी०। मनोभात्रवृत्तिनिवृत्ते, ध०२ अधि० / चित्ते, "चित्त माणसं' पाइ० ना०२४१ गाथा। माणसण्णा स्त्री० (मानसंज्ञा) मानोदयादहङ्कारात्मिकोत्सेकादिपरिणतिरेव संज्ञायतेऽनयेति मानसंज्ञा। स्था०१०टा०। संज्ञाविशेषे, प्रज्ञा०५ पद। भ०। माणसपजाय पुं० (मानसपर्याय) मानसा मनःसम्बधिनः पर्याया विष्या यस्य तन्मनःपर्यायम् / मनःपर्यायज्ञाने, नं०। माणसपव्वय पुं० (मानसपर्वत) स्वनामख्याते पर्वते, यत्र बाहुबल्निा मानाध्यातेन केवलोत्पत्तये प्रतिमाऽभिगृहीता। आ०म०१ अ०! माणसिय त्रि० (मानसिक) मनसि जातं मानसिकं मनस्येव यद्वर्तत तन्मानसिकम् / ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। मनसा चिन्तिते, स्था०६ ठा० / निका मनःप्रयोजनमस्य मानसिकः / ध०२ अधि० / मनसा निर्वृत्तः मानस एव वा मानसिकः / मनःकृते, आव०४ अ० / उत्त०। कल्प। आ०चू०। माणसियजोग पुं० (मानसिकयोग) मनोद्रव्याणां चिन्तायां व्यापारणे, विशे०। माणा स्त्री० (माना) मानानुगतायां क्रियायाम्, आव०३ अ०। माणि पु० (मानिन् ) मानेन युक्तो मानी / अनु० / गर्विते. सूत्र०१ श्रु०२ अ०२ उ० / नापि मानी भवेत् - न गर्द विदध्यात् / सूत्र०१ श्रु०१६ अ०। अहङ्कारिणि, जी० प्रति०।
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________________ महापउम 245 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 महापउम जान्यादिमदोपेते, चं०प्र०१० पाहु० / कच्छस्य यावत्पुष्कलावतीविजयस्य दीर्घवताठ्यपर्वतस्य स्वनामख्यातेषु कूटेषु, स्था०६ ठा० / पक्ष्मविजयस्य यावद् गन्धिलावतीविजयस्य स्वनामख्यालेषु पर्वतैषु, स्था०६ ठा। माणिअ वि० (मानित) अनुभूते, "अणुहूअं भाणिों'' पाइ० ना०२१३ गाथा / दे० ना०। माणिकी स्त्री० (माणिकी) रूतपूरितपट्टरूपायामाकुञ्चिकायाम्, जीत० / माणिक्क पुं० (माणिक्य) माणिभेदे, आचा०२ श्रु०३ चू०। कोलपाकपत्तने मन्दोदरीदेवताऽवसरे श्रीऋषभदेवे, ती०४३ कल्प / भगवतीवृत्तिकारप्रेरके दायिकसुते वणिजि, "अरयाः (भगवत्याः) करणव्याख्याश्रुतिलेखनपूजनादिषु यथार्हम् / दायिकसुतमाणिक्यः, प्रेरितवानस्मदादिजनान्" / भ०४१ श०। माणिकचंदसूरि पु० (माणिक्यचन्द्रसूरि) राजगच्छीये सागरचन्द्र सरिशिष्टये, अयमाचार्यः विक्रमसंवत् 1276 विद्यमान आसीत् / पार्श्वनाथचरितनानग्रन्थं व्यरीरचत्। जै०इ० / माणिक्कदंडगपुं० (माणिक्यदण्डक) मुनिसुव्रतस्वामितीर्थ, प्रतिष्ठानपुरे अयोध्यायां विन्ध्याचले माणिक्यदण्डके मुनिसुव्रतः। ती०४३ कल्प। माणिकदेव पुं० (माणिक्यदेव) कोलपाकपत्तने मन्दोदरीदेवतावसरे श्रीऋषभदेवे, ती०४२ कल्प। ''श्रीकोलपाकप्रासाद-भरणं शरणं सताम्। माणिक्यदेवनामान-मानमामि जिनर्षभम्।।१।।" श्रीमाणिक्यदेवनमस्कार:"श्रीकोलपाकपुरलक्ष्मिशिरोवतंसप्रासादमध्यमनिषेध्यमधिष्ठितस्य। माणिक्यदेव इति यः पृथितः पृथिव्यां, ... तस्याङ्घ्रियुग्ममभिनौमि जिनर्षभस्य।।१।। तीर्थशिनां समुदयो मुदितेन्द्रचन्द्रः, को टीरकाटितटघृष्टपदासनानाम्। मददुःखदारुणदुरुत्खनशालिलेखा, पषाय मत्तकरिणः करणं दधातु / / 2 / / हप्पपत्तिसुनिरूपितवस्तुतत्त्वं, स्याबादपद्धतिनिवेशितदुर्नयोधम्। रसिद्धवल्लिविपिनं भुवनैकपूजा. पात्रं जिनेन्द्रवचनं शरणं प्रपद्ये / / 3 / / आरुह्य खे चरति खेचरचक्रिणं या, नाभेयशासनरसालवनान्यपुष्टा। चक्रेश्वरी रुचिरचक्रविरोचिहस्ता, शस्ताय साऽस्तु नवविद्रुमकायकान्तिः // 4 // ' ती०४६ कल्प। सिरिकोल्लपाकपुरवर-मंडणमाणिक्कदेवरिसहस्स। लिहिमा जहासुअं किं-चि कप्पमप्पेण गव्वेण ||1|| पुयिं किर अट्ठावयनगवरे सिरिभरहेसरेण णिअ-णिअवण्णप्पमाणसंठाणजुत्ताओ सीढो चेव लोआणुग्गहणत्थं तेण वेकारिआ सच्छमर- | गयमणिमई। जहा-जुअलखंधेसु चिवुगे दिवायरो, भालयले चंदो, नाहीए सिवलिंग, अओ चेव माणिक्कदेवु त्ति विक्खाया। सायाकलंऽतरे जत्तागएहि खेअरे हि दिवा अपुब्वरूचि त्ति विम्हिअमणेहिं विमाणे ठाविऊण वेयड्डगिरि नीया दक्खिणसेढीए, तिहिं भत्तिभरभरिअ चित्तेहिं पूइजइ। अन्नया भमतेण नारयरिसिणा वेयवगएणं तं पडिम दलूण पुच्छिआ विजाहरा, कुओ एअ पत्तं / तओ तेहिं वुत्त-अट्ठावयाओ आणिअत्ति। जप्पभिइ एसा अम्हहिं पूइउ पकंता तप्पभिइ दिने दिने वड्डिया इड्डीए, तं सोऊण नारआ सग्गे इंदस्स तप्पडिभमाहप्पं कहेइ / इदेणाऽवि सग्गे आणाविता भत्तीए पूइउमादत्ता जाव मुणिसुव्वयनमिनाहाणं अंतराल / इत्थंऽतरे लंकाए तेलुक्ककंटओ रावणो उप्पण्णो, तस्स भन्जा मंदादरी, परमसम्मदिट्ठी। तीए तं रयणबिंबमाहप्प नारयाओ सोऊण तप्पआणगाढाभिग्गहो गहिओ. त बुत्तंतं मुणित्ता महारायरावणेण इंदो आराहिओ। तेणऽवि तुलण समप्पिआ सा पडिमा, महादेवीए तीए तुहाए तिकालं पूइज्जइ / अन्नया दसगीवेण सीआ देवी अवहरिया, मंदोदरीए अणुसिट्ठो चित्तंन मुंचति। तओ सुमिणे पडिमाअहिट्ठायगेण रावणविणासो लंकाभंगो अ अक्खिओ मंदोअरीए। तओतीए बिंब सायरे खिविअंतत्थ सुरेहि पूइज्जइ / इओ अ कन्नाणदेसे कल्लाणनयरे संकरो नाम राया जिणभत्तो हुत्था। तत्थ केणऽवि मिच्छादिट्टिणा वंतरेण कुविएण मारी विउव्विया। अद्दणो राया, तं दुक्खिअनाउं देवी पउमावई रत्तिं सुविणे भणइजइ महाराओ रयणायराओ माणिक्कदेव निअपुरे आणित्ता पूएसि तो हिय होइ। तओ राया सागरपासे गंतूण उववासं करेइ, लवणाहिबो संतुट्टो होऊण पयडो ड्याण भणइ-गिण्हह जहिच्छाए रयणाई, रन्ना विनत्त-न मे रयणाइएहिं कजं, मंदादरीठविअंबिंब देहि ति। तओ सुरेण बिंब कड्डिऊण अप्पिअं, रन्नो भणियं च-तुह देसे सुही लोओ होही पर पंथ गच्छतस्स जत्थ संसआ होही तत्थेव बिंब ठाहितिापच्छिवो पच्छियो ससिन्नो देवयापभावेण अन्नइ य, जुअलखंधट्टिअसगडारोविअं बिंब मग्गओं आगच्छइ।दुग्गं मग लधित्ता राया संसय मणे धरइ, किं आगच्छद न वित्ति / तओ सासणदेवीए तिलंगदेसे कोल्लपाकनयरे दक्खिण - वाणारसि त्ति पंडिएहिं वणिजमाणे पडिमा ठाविआ। पुट्विं अइणिम्मलमरगयमणिमयं आसि बिंब चिरकाल खारोआहिनीरसंगेण कठिणग जायं। एकारसलक्खा असीइसहस्सा नवसयाई पंचुत्तराई वरिसाई सग्गाओ आणी अरस भगवओ माणिकदेवस्स संबुद्धाई, तत्थ राया पवरंपासायं कारावेइ। किं च-दुवालस गामे देवपूअणटुं देइ, तम्मि भयवं अंतरिक्खे टिओ छ सयाई असीयाई 680 विकमवरिसाई, तओ मिच्छत्तप्पवेस नाउंसीहासणं ठिओ नियकतीए भविआणं लोअणेसु अमयरसं वरिसेइ। किमेसा पडिमा टंकेहि उक्किन्ना, खाणीओवा आणिआ, किं सक्कसिप्पिणा घडिआ, वजमई वा, नीलमणिमई वेति न निच्दिज्जइ, रंभाखभनिभेव दीसइ। अज वि किर भगवओण्हावणोदगे दीवो पजलइ, तित्थाणुभावओ चेइअमंडवाओझरता जलसीआ राजति अजणाणं वत्थाई अल्लि त्ति। एवं अणेगविहपभावा सुरस्स महातित्थस्स माणिक्कदेवस्स जत्ता महूसवं पूअच जे करेंति कारविंति, अणुमोअति अते इह लोए परलोए असुहसिरि पाविति। "माणिक्कदेवकप्पो, इअ एसो वन्निओ समासेणं!
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________________ माणिक्कदेव 246 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 माणुसत्त सिरिजिणपहसूरीहिं, भमिआण कुणउकल्लाणं / / 1 / / " माणुस पुं० (मानुष) मनुष्याणामय मानुषः / स्था०३ ठा०३ उ० / इतिश्रीमाणिक्यदेवतीर्थकल्पः। ती०५० कल्प। मनुष्यभवसम्बन्धिनि, सू०प्र०२० पाहु० / प्रव० / आचा० 1 ग्था०1 माणिकपुत्त पुं० (माणिक्यपुत्र) नासिकपुरे ब्रहागिरिस्थिनिनना | सूत्र० / 'संसारजलधिविभ्रष्ट / मानुष्य खद्यातकतडिल्लताविलसितसादोद्धारके पल्लोपालवंशोद्भवे ईश्वरपुत्रे. ती०२० कल्प। प्रतिमम् / " आचा०१ श्रु०२ अ०१30। मनुष्यभवे, विश०। माणिक्कसुंदरसूरि पुं० (माणिक्यसुन्दरसूरि) अलगावनामा | माणुसत्त न० (मानुषत्व) मनसि शतं मानुषः / अथवा मनोरपन्यमिति आचार्ये, अनेन मलयसुन्दरीचरित्रं यशोधरचरित्रं पृथ्वीचन् चरित्र चा: / वाक्ये मनोर्जातावश्चतो पुक चेत्यजि प्रत्यये षुगागमे च मानुषत्वम् / ग्रन्था रचिताः। अयमाचार्यः विक्रमसंवत- 1461 सासीत्। जेल . ! भनुजभवे, उत्त०३ अ०। सूत्र! माणिभद्द पुं० (माणिभद्र) उत्तरयक्षनिकायन्द्रे, रमा : प्रका::! ये सत्त्वा मानुषत्वं न लभन्ते तानाहदक्षिणभरते दीयवेतादयस्य माणिभद्राभिधानदेवर यावास चतुर्थ कूट, सत्तममहिनेरइया, तेऊ वाऊ अणंतसंघट्टो। स्था० डा० / ऐरवत वर्षे दीर्घवताब्यस्य चतुर्थ कूट, स्था०६ ठा०1 न लहंति माणुसत्तं, तहा असंखाउआ सव्वे / / 1366 / / संधर्भ कल्पनामख्या विमाने, तवास्तव्य दवे या नि० / स्था०। सप्तमपृथिवीनैरयिकाः, तेजर कयिकाः वायुकायिकाः, तथा - मकापिं०। जा०५०। आ००। शत्रुजरातीयोद्धारकारके स्वनामख्याते असंख्यातवर्षायुषः सर्वे सिड-मनुध्याश्चानन्तरमुवृत्ता मनुष्यं न लभन्तिमृत्वाऽनन्तरमन मधुनः पान्। इत्यर्थः / शेषास्तु सुरनरदिसूरिरथाश्चर्य-श्रीप्रभो माणिभद्रकः। तिर्यनारका: .... ।महा। धनमिचो यशामित्र-स्तथा विकटधर्मिकः / / 1 / / गोयम ! अनज भणसिप तुब्भ कहेमहं / रसुगडल: रसेन, इत्यस्योद्धारकारकाः। एत्थं जम्मेनल कोई, कसिणुग संजमे तवं / / बी० : प्रा० / स्था० / मिथिलायां नगा स्वनामख्याते जइ णो सकई काउं, जे तहा वि सुगइपिवासिओ नियमं / बत्ये, 01 या ति०। पक्खिक्खीरस्स एगवाल उप्पडग रयहरणस्स गिहं दंसियं माणिम त्रि० (भानित सम्मानिते, अनु० ज्ञा०। पत्तियं तुपरि धारियं से कुणो पि एयं पिन जावजीवं पालेउं ता माणी ग्त्री० (भा) ऊर्द्धलोकवास्तव्यायां दिकुमार्याम्, ति०। इमस्स वि। माणीपुरन (मापार) नागदत्तगृहपत्यावासनगरे, विपा०२ 207 अ०। "गोयमा ! तुज्झ बुद्धीए, सिद्धिखित्तस्स उप्परं। माणुम्माणप्पमाणसुजायसव्वंगसुंदरंग त्रि० (मानोन्मानप्रमाण- | मंडवियाए भवेयव्वं, दुक्करकारि तवे तु (ए) णं ||1||" सुजातसर्वाङ्गसुन्दराङ्ग, मानोन्गनप्रमाणैःसुन्दराण्यङ्गानि शिरः | णवरं एयारिसं भवियं किमटुं,गोयमा! एयं पुणो तं पुच्छामि। प्रमुखाणि यत्र एवविध सुन्दरमहं यस्य स तथा / मानोन्मानन प्रमागेन महा०६ अ०। परिपूर्णसुन्दराङ्ग कल्प०१ अधि०१क्षण। स्था। स० विणाका प्रश्न मनामिकामगुर्लभताख्यापनायाऽह नियुक्तिकारःस। (माणुम्माणपमाणपडिपुन्नसुजातसव्वंग-सुंदरंगी इति) तर मा. माणुस्सखेत्तजाई, कुलरूवाऽऽरोग्गमाउयं बुद्धी। जागणापमाता : कथमिति चेत् ? उच्यते-जलस्वातिभृत कुण्डे पुरुष समणोग्गहसद्धासं-जमो य लोगम्मि दुलहाई॥६३१।। वायशिरायां गाल निरन्तरति तद्यदि द्रोणप्रमाणं भवति तथा पुरु. इंदियलद्धी निव्व-तणा य पजत्ति निरुवहयखेयं / गनप्रास उच्यते। तथा उन्मानम्-अर्द्धभारप्रमाणता, सावा. धायारोग्गं सद्धा, गाहगउवओगअट्ठो य। (अन्यदीया) तुलायामारोपितः पुरुषः स्त्री वा यद्यर्द्धभारं तुलति तदा स उन्मान- चोल्लग पासग धणे, जूए रयणे य सुमिण चक्के य। प्राप्तो भिधीयते / प्रमाणस्वादुलेनाटो नरशतोच्छूयिता, ततो मानान्मा - चम्म जुगे परमाणू, दस दिटुंता मणुयलंभे // 832 / / नप्रमाण प्रतिमान्यनूनानि सुजातानि जन्मदोषरहिता नि सर्वाणि मानुष्यम्- मनुजत्वम. क्षेत्रम्- आर्यम्. जातिः-मातृसमुत्था. कुलम्अड़ानि शिरः प्रतीनि यानि तैः सुन्दराड़ी। रा०। पितृसमुत्थम्, रूपम् - अन्यूनाङ्गता, आरोग्यमरोगाभावः, अयुष्कममाणुम्माणियट्ठाण न० (मानोन्मानितस्थान) मान- प्रस्थकादि, जीवितम्, बुद्धिः- परलोक प्रवणा, श्रवणधर्मसम्बदम दगडःउन्मान-नाराचादि : यदिवा-मानोन्मानमित्यश्वादीनां वेगादिपरीक्षा तदवधारणम। अथवा श्रवणावग्रहोयत्यवग्रहः, श्रद्धा-कचः, स्यभश्चतत्स्यनानि / मानोन्गनवर्णनस्थाने, आचा०२ श्रु०२ चू०४ अ० / अनवद्यानुष्ठानलक्षणः, एला नि थाना ने लोके त भनि एतस्याप्ती एगस्स बलमा सन्ने अणुमीयत इति माणुम्माणियं, जहा- धन्न विशिष्टसामायिकलाभ इति गाथार्थः / 839 लानि दुभानि कंवलसयल। अगल-माणपेते यो माणुम्माणियं विज्जादिएहिं रुबखादीण इन्द्रियलब्धिः-एजेन्ट्रियलब्धिरित्यर्थ. निवर्त्तना च इन्द्रियाणामेव, मिजतीति णेमं / अथवा-णेभ वट्ट सिक्खावज तस्स अंगाणि मिजंती पर्याप्ति:- स्वविषयग्रहणसामर्थ्यलक्षणाः (निरुवहत ति) निरुपहगहिता कटवा / अथवा-वत्थपुप्फचमादी वा कप्पं रुक्खादिभंगा। तेन्द्रियता-क्षेममविषयस्य, ध्रातम्-सुभिक्षम, आरोग्यम्- नीरोगता, नि०चू०१२ उ०। श्रद्धा-भक्तिः, ग्राहकः-गुरुः, उपयोग:-श्रोतुस्तदभिमुखता, ( अट्ठोय
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________________ माणुसत्त 247 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 माणुसत्त ति) अर्थित्वं च धर्म इति गाथार्थः / भिन्नकर्तृकी किलेयम्। जीवो मानुष्यं लब्ध्वा पुनस्तदेव दुःखेन लप्स्यते, बहुन्तरायान्तरितत्वात, बहादत्तचक्रवर्तिमित्रधाह्मणचोल्लकभोजनवत् / अत्र कथानकम्- बंभदत्तस्स एगो कप्पडिआओलग्गओ, बहुसु आवत्तिसुअवस्थासुय सब्वत्थ सहायो आसि, सो य रजपत्तो, बारससवच्छरिओ अभिसेओ कओ, कप्पडिओ तत्थ अल्लिगाव पिण लहति, ततोऽणेण उवाओ चिंतितो, उवाहणाओं धए बंधिऊण धयवाहएहि सम पधावितो, रण्णा दिट्ठो, उत्तिण्णेणं अवगृहितो, अण्णे भणति -तेण दारवाले से वमाणेण वारसमे संवच्छरे राया दिहो. लहि राया तं दट्टण संभतो, इमो सो वराओ मम सुहदुक्खसहायगो, एताह करेमि वित्तिं, ताहे भणति किं देमि ति ? सो भणति देह करचोल्ल्ए घरे घरे जाव सव्वमि भरहे, जाधे (हे) णिहित होजा ताहे पुणो वि तुभ घरे आढर्वऊण भुंजामि, राया भणति-कि ते एतेण ? देस ते देमि, तो सुहं दत्तछायाए हत्थिखंधवरगतो हिंडिहिसि, सो भणतिकिं मम एदहण आहहण? ताहे सो दिण्णो चोल्लगो, ततो पढमादिवसे राइणो घरे जिमितो, तेण से जुवलयं दीणारो य दिण्णो, एवं सो परिवाडीए सव्येसुरायउलेसु बत्नीसाए रायवरसहस्सेसु तेसिं च जे भोइया, तत्थय लगर अणेगाओ कुलकोडीओ, णगरस्स चेव सो कता अंतं कहिति, ताधे गामेसु ताहे पुणा भरहवासस्स, अवि सो वच्चेज्ने अंतंण य माणुसत्तणाती भट्ठा पुणा माणुसत्तण लहइ 1 / (पासग ति) चाणकरस सुवण्ण नऽस्थि, ताध केण उवारण विढविज्ज सुवणं ? ताधे केण उवाएण विढविज्ज सुटण्ण? जाधे जंतपासया कता, केइ भणति-वरदिण्णगा, ततो एगो दक्खो पुरिसो सिक्खावितो, दीणारथाल भरिय, सो भणति-जति मम कोइ जिणनि सोथालं गेण्हतु, अह अहं जिणामितो एगदीणारं जिणामि, तस्स इच्छाए जंतं पडति अतोणतीरइ जिणितु.जहा सोण जिप्पइ एवं माणुसलंभाऽवि, अवि णाम सो जिप्पेज ण य माणुसातो भट्टो पुण माणुस्सताणं / (धणे ति) जत्तियाणि भरहे धण्णाणि ताणि सव्वाणि पिण्डिताणि, तन्थ पत्थ सरिसवाणं छूढो, ताणि सव्वाणि आहुआलित्ताणि, तत्थेगा जुण्णफेरी सुप्पं गयाय ते विणिज्ज पुणोऽवि य पत्थं पूरेज्ज, अवि सा देवप्पसादण पूरेज ण य माणुसत्तणं 3 / (जुए) जधा एगा सया, तस्स सभा अट्टखंभसतसंनिविट्टा, जत्थ अत्थाणियं देति, एकेमो य खंभो अट्ठसयंसिओ, तरस रण्णो पुत्तो रजकंखी चितेति-थेरो राया, मारिऊण रज गिण्हामि, तं च अमचेण णार्य, तेण रण्णो सिटुं, ततो राया तं पुत्तं भणति-अम्ह जो ण सहइ अणुकामं सो जूतं खेल्लति, जति जिणति, रजं से दिज्जति, कह पुण जिणियव्य ? तुज्झ एगो आओ, अवसेसा अम्हं आया, जति तुम एगेण आण्ण अट्ठसतस्स खभाण एकेक अंसियं अट्टसते वारा जिणासि तो तुज्झ रखें, अवि य देवताविभासा 4 / ('रतण' त्ति) जहा एगो वाणियओ वुड्डो, रयणाणि से अत्थि, तत्थ य गहे महे अण्णे वाणियया कोडिपडागाओ उब्भे ति, सो ण उन्भवेति, तस्स पुत्ते हि थेरे पउत्थे ताणि रयणाणि देसी वाणिययाण हत्थे विक्कीताणि, वर अम्हेऽवि कोडिपडागाओ उब्भवेंता, ते य वाणियगा समतता पडिगया पारसकूलादीणि',थेरो आगतो, सुतंजधा विक्कीताणि, ते अंबाडति, लह रयणाणि आणेह, ताहे ते सव्यतो हिंडितुमारद्धा, किं ते राव्वरयणाणि पिडिज्ज ? अविय देवप्पभावेण विभासा 5 / ('सुविणए' ति) एगेण कप्पडिएण सुमिणए चंदो गिलितो, कप्पडियाणं कथितं, ते भणति-सपुण्णचंदमंडलसरिसं पोवलिय लभिहिसि, लद्धा घरच्छादणियाए, अण्णण वि दिट्ठो, सो व्हाइऊण पुप्फफलाणि गहाय सुविणपाढगस्स कथेति, तेण भणितंराया भविस्ससि / इत्तो य सत्तमे दिवसे तत्थ राया मतो अपुत्तो, सो य णिविण्णो अच्छति, जाव आसो अधियासितो आगतो, तेण तं दद्दूण हेसित पदक्खिणीकतो य, ततो विलइओ पुट्ट, एवं सो राया जातो, ताहे सो कप्पतिओ त सुणेति, जधा तेण वि दिट्टो एरिसो सुविएओ, सो विआदेसफलेण किर राया जातो, सो य चितेति-वचामि जत्थ गोरसो त पिवेत्ता सुवामि, जाव पुणो तं चेव सुमिण पेच्छामि, अस्थि पुण सो पेच्छेज्जा ? अविय सोण माणुसातो 6 / (चक्क ति दार) इंदपुर नगर, इंददत्तो राया, तस्स इट्ठाणं वराणं देवीणं बावीसं पुत्ता, अण्णे भणति-एक्काए चेव देवीए पुत्ता, राइणो पाणसमा, अण्णा एका अमचधूया सा परं परिणितेण दिदुल्लिया, सा अण्णत्ता कताइ रिउण्हाता समाणी अच्छति, रायणाय दिट्ठा, का एस त्ति ? तेहिं भणित-तुडभे देवी एरा, ताहे सो ताए समं रत्तिं एक वसितो, सा य रितुण्हाता तीसे गब्भो लग्गो, सा य अमचेण भणिएल्लिता-जया तुम ग:भा आहता भवति तदा मम साहिजसु, ताए तस्स कथित-दिवसो मुहत्तो जं च रायाएण उल्लवितं सातियकारो, तेण तं पत्तए लिहित, सो सारखेति, णवरह मासाण दारओ संजातो, तस्सदासचेडाणि तदिवस जाताणि, त जहा-अग्गियओ पव्वतओ बहुलियो सागरो य, ताणि य सहजातगाणि, तेण कलायरियस्स उवणीतो, तेण लेहाइताओ गणियप्पहाणाओ कलाओ गाहितो, जाहे ताओ गाहिति आयरिया ताधे साणितं कति वाउल्लेतिय, पुच्वपरिचएणं ताणि रोडति, तेण ताणिण चेव गणिताणि, गहिताओ कलाओ, ते य अण्णे बावीसं कुमारा गाहिजता आयरिय पिट्टति अवयणाणि य भणति, जति सो आयरिओ पिट्टति साहे गंतूण मातूण साहति, ताहे ताओ तं आयरियं खिसंति-कीस आहणसि ? कि सुलभाणि पुत्तजम्माणि ? अतो तेण सिक्खिता। इओय महुराए पव्वयओ राया, तस्स सुता णिव्वुती णाम दारिया, सा रण्णो अलंकिया उवणीता, राया भणतिजो तव रोयति भत्तारो, तो ताए भणितंजो सूरो वीरो विक्कतो सो मम भत्ता होउ, से पुण रज्ज दिला, ताधे सा तं बलवाहण गहाय गता इंदपुरं नगरं, तरस इंद दत्तस्स बहवे पुत्ता, इंददत्तोतुह्रो चिंतेइ-गुणं अहं अण्णेहितो राईहितो लट्ठो तो आगता, ततो तेण उस्सि१पारसकूलादिस्थानानि। १प्रवेशम्। 2 करभोजनम् / 3 आढम्बरेण।
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________________ माणुसत्त 248 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 माणुसय पडाग नगर कारित, तत्थ एक्कम्भि अक्खे अट्ट चक्काणि, तेसि पुरता यथा समिला प्रभ्रष्टा, 'सागरसलिल' समुद्रपानीय, (अणेरपारमिति) वाइल्लिया ठाविया, सा अच्छिम्मि विधितव्वा, ततो इंददता राया देशीवचनं प्रचुरार्थे, उपचारत आराक्षागपरभागरहित इत्यर्थः, प्रविशेष संबद्धो णिग्गतो सहपुत्तहिं / सा वि कण्णा सव्वालंकारभूसिया एगमि सुगच्छिद्र कथमपि भ्रमन्ती भ्रमति युग इत्येव दुर्लभ मानुष्यमिति गाथार्थः / पासे अच्छति, सो रंगो ते य रायाणो ते यदंडभडभोइया आरिसा दावतीए, सा चंडवायवीची, पणुल्लिया अवि लभेज जुगछिदं / थ राणो जेलो पुत्तो सिरिमाली णाम कुमारा, सो मणिनो पुत्त ! स ग य माणुसाउ भट्ठो, जीवो पडिमाणुसं लहइ॥३५॥ दारिया रज चघेत्तव्य, अतो बिंध एतं पुत्तलिय ति, ताध सोऽकलकरणा सा समिला चण्डवातवीचीप्रेरिता सत्यपि लभेत् युगच्छिद्र, न त इस समूहस्स मज्न धणु चेव रोहिणूण तरीन, कहsfasो गहित मानुष्याद् भ्रष्टो जीवः प्रतिमानुषं लभत इति गाथार्थः / / 6 / / ?ण जतो वचतु ततो बच्चतुति मुक्को सरो, साना भडिमा भात इदानी परमाणू 10 जहा एगो खंभो महापमाणो, सो दवेण चुग्णेऊण एवं कस्सइ एक अरगंतर वोलीणा, कस्सइ दोषिण, करसह तिष्णि, अविभागिमाणि खंडाणि काऊण णालियाए पक्वित्तो. पचछा मंदरपणसि बाहिरेण चेवणीति, ताधे राया अधितिगता- अहोऽह एतहि चूलियाए ठितेण फुमितो, ताणि णद्वाणि अस्थिपुण कोऽवि? तेहिं चव पोग्गलहिं तमेव खंभं णिव्वत्तेज? रासता ति, ततो अनचेण भकिलो-कीस अधिति करत ? राया तएस अभावो एवं भट्ठी माणसाती जागति-एताह 'अह अप्पधाणो कतो, अमची भगति-अस्थि अण्णो तुम ण पुणो / अहवा-सभा अणेरुखभरतहरससनिविट्ठा, सा कालऽतरेण '. मम धूताए नणइओ सुरिंददत्तो णाम, सा समत्थो विधितु, झाभिता पडिला, थकाचवपासलाह करजाति, एवं माणुस्सा नास काहवाणि, कहिं सां? दरिसितो, तता सा राइणः का हिस्सा गित स्व-तव, एए अट्ठ रहचक्के भत्तूग पुनलिय अच्छिम्मि इय दुल्ललं . .- गुसत्ता पाणिजो जीवो। ण कुणइ पारायं, सो सोयइ संकमणकाले / 833 / / विधिता र युतिदारियं संपावित्तए, राता कुमारा जधाऽऽणवह व्य-एवं दुबला गनुषस्य प्राप्य यो जीवो न करोति परस्त्र हेतने भणिजय साटाड़, तूणधणुं गेण्हति, लक्खाभिमुह सर सजेति. धर्म दीर्वत्वमलाक्षणिक, सशोचति संक्रमणकाले-मरणकाले इति गणिय दास कदाणि चाउदिसं ठिताणि रोडिति, अण्णे य उभयतो पासिं गाथार्थः। हेतखम्गा, जानकाह विलक्खस्स चुक्कति ततो सीसं छिदितव्वं ति, जह वारिमज्झछूढो, व्व गयवरो मच्छउ व्व गलगहियो। तास उवज्झाआ पासे ठितो मय देति--मारिशसि जति चुक्तसि, ते वग्गुरपडिउ ध्व मओ, संवट्टइओ जह व पक्खी।।८३७।। समावि कुमासमा उस विन्धिस्सति ति विसेसउल्लठाणि विग्धाणि राथा वारिगध्यक्षिप इव गजवरो, मत्स्दो दा गलगृहीतः, वागुराणतितो मार राति यदा पुरिसे बावीस च कुमारे अगणनाण वा मृगः, संवर्त्त जालम् इतः प्राप्तो यथा वा पक्षी, इति गाथार्थः / आसारा सरंजामि तमि लम्खे तिरुवा पिडीए सो सोयइ मघुजरा, समोच्छुओ तुरियणिवपक्खित्तो। में अण, साधिइल्लिया वार्म अतिमि मिया, तो तायारमविंदंतो, कम्मभरपणोल्लिओ जीवो।।८३८|| हो उकिटिसीलपादकलकलुम्निस्सो साधुकारो कता. जमातक मोरायः गोचति, मृत्युजरासभास्तृलो-व्याप्तः, त्वरितनिद्रया दारवं मेन एवं मातार-ताशं पि।। शिलः, परपनियाभिभूत इत्यर्थः, त्रातारम् अविन्दन्- अलभन्नि(चमोति) जब एगो दही जोयणमयसहस्सविलिथण्णो चमणद्धो, शर्शः, वर्मभररितो जीत इति गाथार्थः / एगा करो जिथ जत्थ कच्छभरसगीवा मायति, तल्थ कच्छभा सचेत्थ मृतः सन् - वारसले भाससत गर्ने गीवं पसारे ति, तेण कह विगीवा पसारिता. जाव काऊणमणेगाई, जम्ममरणपरियट्टणसयाई। तण छिड्रेण निगता, तेण जातिसं दिट्ट कोमुदीए पुप्फफलाणि य. सो दुक्खेण माणुसत्तं, जइ लहइ जहिच्छया जीवो // 836 // आगतः, सयणियाणं दाए, आता सव्वतो पलोयति, ण पेच्छति, कृत्वाऽनेकानि जन्ममरणपरावर्त्तनशतानि दुःखेन मानुषत्व लभते जीगे वि सो, जय मरए उसातो 8 // यदि यदृच्छया, कुशलपक्षकारी पुनः सुखेन मृत्वा सुखेनैव लभत इते युगदृष्टान्तप्रतिपादनायाऽऽह गाथार्थः। पुव्वं ते होज जुगं, अवरते तस्स होज्ज समिला उ। तं तह दुल्लहलंभ, विजुलयाचंचलं माणुसत्तं / जुगछिम्भि पर्वसो, इय संसइओ मणुयलंभो // 833 / / लखूण जो पमायइ, सो कापुरिसो न सप्पुरिसो५४०॥ जलनिधेः पूर्वान्ले भवेद युगम्, अपरान्ते तस्य भवेत् समिला तु, एवं तत्तथा दुर्लभलाभं विद्युल्लाताचञ्चल मानुषन्न या प्रमातिव्यवस्थिते सति पथा युगच्छिद्रे प्रवेशः सशयितः, 'इद' एवं संशयितो | प्रमाद कराति स कापुरुषो न सत्पुरुष इति गाथार्थः / आठ०१ अ०१ मनुष्यलाभो दुर्लभ इति गाथार्थः।। माणुसत्तण न० (मानुषत्व) मनुजत्वे. "माणुरात्तभागया" प्रश्न०१ जह समिला पब्मट्ठा, सागरसलिले अणोरपारंमि। आश्र० द्वार। पविसेज जुग्गदिडु, कह वि भमती ममंतंमि / / 834 // | माणुसय न० (मानुष्यक) मानुष्यके लोके आर्यक्षेत्रे, सूत्र०१ श्रु०१६ अ०१
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________________ माणुरंघण 246 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 माणुसुत्तर माणुसरंधण न० (मानुषरन्धन) चुल्लयादिषु, आचा०। माणुसीगब्भ पुं० (मानुषीगर्भ) जठरसंभवे गर्भ, स्था० / चत्तारि मणुसीगब्भा पण्णत्ता / तं जहा-इत्थित्ताए पुरिसत्ताए णपुंसगत्ताए बिंबत्ताए। सिलोगो"अप्पं सुक्कं बहुं ओयं, इत्थी तत्थ पजायइ। अप्पं ओयं बहुं सुकं, पुरिसो तत्थ जायइ / / 1 / / दोण्हं पि रत्तसुकाणं, तुल्लभावे नपुंसओ। इत्थीओज समाओगे, बिंबं तत्थ पजायइ // 2 // " (सूत्र-६७७) (इत्थित्ता ति) स्त्रीतया, बिम्बमिति गर्भप्रतिबिम्ब गर्भाकृतिरार्त्तवपरिणमो न तु गर्भ एवति। उक्तं च''अवस्थितं लोहितमङ्गनायाः, वार्तन गर्भ बुवतेऽनभिज्ञाः। गर्भा-कृतित्वात्कटुकोष्णतीक्ष्णः, श्रुते पुनः केवल एव रक्त।१॥ / गर्भ जडा भूतहृतं वदन्ति," इत्यादि। वैचित्र्यं गर्भस्य कारणभेदादिति लकाभ्यां तदाह- अप्पमित्यादि) शुक्र-रेतः पुरुषसम्बन्धिा, ओजआर्नवं रक्तं स्त्रीसम्बन्धि, यत्र गर्भाशय इति गम्यत इति। तथा स्त्रिया योजसा समायोगोवातवशेन तत् स्थिरीभवनलक्षणस्योजः समायोगस्तस्मिन्सति बिम्बं तत्र गर्भाशये प्रजायते। अन्यैरप्यत्रोक्तम्अत एव च शुक्रस्य, बाहुल्याजायते पुमान्। रक्तस्य र त्री तयोः साम्ये, क्लीबः शुक्रात॑वे पुनः / / 1 / / कायुना बहुशो भिन्ने, यथास्वं बहपत्यता। उियोनिविकृताकारा, जायन्ते विकृतैर्मलैः।।२।। इति स्था०४ ठा०४ उ०। माणुसुत्तर 0 (मानुषोत्तर) मनुष्यक्षेत्रादुत्तरतः परतो वक्त इति मानुधोत्तरः / स्था०३ ठा०४ उ०। पुष्करवरस्य द्वीपस्व बहुमध्यदेशभागे मनुष्यक्षेत्रसीमाकारिणि पर्वते, चं० प्र०१६ पाहु०। मानुषनगस्योचत्वादिमाणुसुत्तरे णं भंते ! पव्वते केवतियं उड्ढे उच्चत्तेणं? केवतियं उध्वेहेणं? केवतियं मूले विक्खंभेणं? केवतियं मज्झे विक्खंभेणं ? केवतियं सिहरे विक्खंभेणं ? केवतियं अंतो गिरिपरिरयेणं ? केवतियं बाहिं गिरिपरिरयेणं ? केवतियं मज्झे गिरिपरिरयेणं ? केवतिय उवरि गिरिपरिरयेणं ? गोयमा ! माणुसुत्तरेणं पचते सत्तरस एगवीसाइंजोयणसयातिं उड्ढे उच्चत्तेणं चत्तारि तीसे जोयणसये कोसंच उव्वेहेणं मूले दस बावीसे जोयणसते विक्खंभेणं मज्झे सत्तावीसे जोयणसते विक्खंभेणं उवरि चत्तारि चउवीसे जोयणसते विक्खंभेणं अंतो गिरिपरिरयेणं एगा जोयणकोडी बायालीसं च सयसहस्साइं, तीसं च सहस्साइंदोण्णि य अउणापण्णे जोयणसते किंचि विसेसाहिए परिक्खवेणं, बाहिरगिरिपरिरयेणं एगा जोयणकोडी वायालीसं च सतसहस्साइंछत्तीसं च सहस्साइं सत्त चोदसोत्तरेजोयणसते परिक्खे वेणं,मज्झे गिरिपरिरयेणं एगा जोयणकोडीबायालीसं च सयसहस्साई चोत्तीसं च सहस्सा अट्ट तेवीसे जोयणसते परिक्खेवेणं, उवरि गिरिपरिरएणं एगा जोयणकोडी वायालीसं च सयसहस्साइं वत्तीसं च सहस्साई णव य बत्तीसे जोयणसते परिक्खेवेणं, मूले वित्थिपणे मज्झे संखित्ते उप्पिं तणुये अंतो सण्हे मज्झे उदग्गे बाहिं दरिसणिज्जे ईसिं सण्णिसण्णे सीहसिसाई अबद्धजवरासिसंठाणसंठिए सव्वजंबूणयामए अच्छे सण्हे० जाव पडिरूवे, उभओ पासिं दोहिं पउमवरवेदियाहिं दोहि य वण संडे हिं सव्वतो समंता संपरिक्खित्ते वण्णओ दोण्हऽवि।। (माणुसुत्तरे णमित्यादि) मानुषोत्तरो णमिति वाक्यालङ्कारे पर्वतः 'वियत किंप्रमाणमूर्ध्वमुच्चैस्त्वेन ? कियदुद्वेधन ? कियन्मूलविष्कम्भेन ? कियदुपरि विष्कम्भन ? कियद् अन्तर्गिरिपरिरयेण, गिरेरन्तः परिक्षेपेण ? कियद बहिर्गिरिपरिरयेण गिरेबहिः परिम्छेदेन ? कियन्नलगिरिपरिरयेण ? गिरेर्मूले परिरयेण, एवं कियन्मध्यगिरिपरिरयेण ? एवं कियदुपरि गिरिपरिरयेण प्रज्ञप्तः ? भगवानाह-गौतम ! सप्तदशयोजनशतानि एकविंशानि ऊर्ध्वमुच्चैस्त्वेन 1721 चत्वारि त्रिंशानि योजनशतानि कोशमेकं च 'उद्वेधेन' उण्डत्वेन 430, मूले दश द्वाविंशत्युत्तराणि योजनशतानि विष्कम्भेन 1022 मध्ये सप्त त्रयोविंशत्युराणि योजनशतानि विष्कम्भतः 723, उपरि चत्वारि चतुर्विशत्युत्तराणि योजनशतानि विष्कम्भेन 424 एका योजनकोटी द्वाचत्वारिशच्छतसहस्त्राणि त्रिंशत्सहस्त्राणि द्वे एकोनपञ्चाशदधिक योजनशत किञ्चिद्विशेषाधिक अन्तगिरिपरिरयेण १४२३०२४६,एका योजनकोटीद्वाचत्वारिंशच्छतसहस्त्राणि षट् त्रिशत्सहस्त्राणि सप्त चतुर्दशोत्तराणि योजनशतानि बहिनिरिपरिरयेण 14236714, एका योजनकोटी द्वाचत्वारिंशच्छतसहस्त्राणि चतुरित्रशत्सहस्त्राणि अष्टौ त्रयोविंशत्युत्तराणि योजनशतानि मध्यगिरिपरियेण 14234823, एका योजनकोटी द्वाचत्वारिंशच्छतसहस्त्राणि द्वात्रिंशत्सहस्त्राणि नव च द्वात्रिंशदुत्तराणि योजनशतानि उपार गिरिपरिरयेण 14232632, इदं च मध्ये उपरि च गिरिपरिरयपरिमाण बहिर्भागापेक्षमवसातव्यम, अभ्यन्तरं छिनटतया मूलेमध्ये उपरिच सर्वत्र तुल्यपरिरयपरिमाणत्वाद, मूले विस्तीर्णोऽतिपृथुत्वात्, मध्ये संक्षिप्तो मध्यविस्तारत्वात्, उपरि तनुकः स्तोकबाहल्यभावात, अन्तः श्लक्ष्णा मृष्ट इत्यर्थः / मध्ये उदाः प्रधानः, बहिःदर्शनीयः, नयन-मनोहारी, ईषत मनाक सन्निषागणः सिंहनिषीदनेन निषीदनात् तथा चाह-सिंहनिषादी सिंहवन्निषीदतीत्येव शीलः सिंहनिषादी, यथा सिंहोऽतनपादयुगलमुत्तम्य पश्चाननतुपादयुग्म सङ्कोच्य पुताभ्यां मनाग्लनो निषीदति तथा निषण्णश्च शिरःप्रदेशे उन्नतः पश्चाद्भागे तु निम्नो निम्नतरः, एवं मानुषोत्तरोऽपि जम्बूद्वीपदिशि दिन्नटङ्कः, स चोन्नतः पाश्चात्यभागे तूपरितनभागादारभ्य पृथुत्वप्रदेशकृट्या निम्नो निम्नतर इति, एतदेवातिव्यक्तमाह (अव०जवरासिसंठाणसलिए इति) अपगतमई यस्य सोऽपार्द्धः स चासौयवश्च राशिश्च अपार्द्धयवराशी, तयोरिव यत्संस्थानं यस्य तेन सस्थितः, यथा यवो
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________________ माणुसुत्तर 250 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मामग राशिश्च धान्यानामपान्तराले ऊर्ध्वाधोभागेन छिन्नो मध्यभागे छिन्नटड चं०प्र० / मृक्षेत्र बहिर्वर्तिनः सिंहादयः श्वापदाः पलभोजिनो वा भोगभुमिइव भवति, बहिर्भागे तु शनैः शनैः पृथुत्ववृद्ध्या निम्नो निम्नतरस्राद्ध- जतिर्यश्च इव पृथ्वीफलाद्याहारिणो वा भवन्तीति प्रश्ने, उत्तरम्- मनुष्यदेषोऽपि, यवग्रहणं पृथग्व्याख्यातमन्यत्र केवलापार्द्धयवसंस्थानतयाऽपि क्षेत्राबहिर्वर्त्तिनां व्याघ्रादिहिंसकजीवानां प्रायः पलभोजित्वं सम्भाव्यत, प्रतिपादनात्, उक्तञ्च समुदादिमत्स्यानामिव, न तु भोगसूमिजव्याघ्रादीनामिव केवलपृथ्वी'जंबूणयामओ सो, रम्मो अद्धजवसंठिओ भणिओ। वृक्षफलादिभोजित्वम्। किं च यथा भोगभूमिजव्याघ्रादीनामल्पकषायित्वं सीहनिसादीएणं, दुहा कओ पुक्खरद्दीवो।।१।।'' भोगभूमिजपृथ्य्यादीनां च यथा विशिष्टरसपरिणामो न तथेतरेषामिति (सव्वजंबूणयामए इति) सर्वात्मना जम्बूनदमयः अच्छे जावपडिहवे' सम्भावनादिनाम, एतद्विषये विशेषाक्षराणि न स्मरन्तीति / / 47 प्र० / / इति प्राग्वत्। (उभओ पासिभित्यादि) उभयोः पार्श्वयोरन्तर्भाग मध्य- सेन०२ उल्ला० / (मानुष्यक्षेत्रे ज्योतिष्का उक्ताः 'जोइसिय' शब्दे भगगे वेत्यर्थः प्रत्येकमेकेकभागेन द्वाभ्यां पद्मवरवेदिकाभ्यां धनखण्डाभ्या चतुर्थभागे 1562 पृष्ठे) च, सर्वतः-सर्वासु दिक्षु, समन्ततः-सामस्त्येन संपरिक्षिप्तः, द्वयोरपि माणुस्सग त्रि० (मानुष्यक) मनुष्यभवयोम्ये, सूत्र०२ श्रु०२ अ०। मनुष्यपद्मवरवेदिकावनखण्डयोः प्रमाण वर्णकश्च प्राग्वत्। भवसम्बन्धिनि, 1 ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। च०प्र० / मनुष्योचिते. कल्प०१ साम्प्रत नामनिमित्तमभिधित्सुराह अधि०५ क्षण। स्था० / मनुष्यजत्वे, उत्त०३ अ० / भ०। से केणऽटेणं भंते ! एवं वुचति-माणुसुत्तरे पय्वते माणुसुत्तरे | माणुस्सभव पुं० (मानुष्यभव) मनुजत्वे, ध००१ अधिक। पव्यते ? गोयमा ! माणुसुत्तरस्स णं पव्वतस्स अंतो मणुया | माणोववण्ण त्रि० (मानोपपन्न) जलद्रोणप्रमाणशरीरे, मान, जलद्रोणउप्पिं सुवण्णा बाहिं देवा अदुत्तरं च णं गोयमा ! माणुसुत्तरपव्यतं, प्रमाणता सा ह्येवम- जलभृते कुण्डे प्रमातध्यपुरुष उपवेश्यते, ततो यजलं मणुया ण कयाइ वीतिवइंसु वा वीतिवयंति वा वीतिवइस्संति कुण्डान्निर्गच्छति तद यदि द्रोणप्रमाण भवति तदा स पुरुषो मान्ोपपन्न वा, णण्णत्थ चारणेहिं वा विजाहरेहिं वा देवकम्मुणा वाऽवि, से इत्युच्यते / स्था०६ ठा०३ उ०। तेणऽट्टेणं गोयमा ! अदुत्तरं च णंत्र जाब णिचेत्ति। मातंग पुं० (मातङ्ग) सुपार्श्वस्य तीर्थकृतः शासनरक्षके यक्षे, सचनीलवर्णो (से केण?णमित्यादि) अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यतेमानुषोत्तरः / गजवाहनश्चतुर्भुजो विल्वपाशयुक्तदक्षिणपाणिद्वयो नकुलाशयुत्कपर्वतः मानुषोत्तरः पर्वतः ? इति; भगवानाहगौतम ! मानुषोत्तरपर्वतस्य वामपाणिद्वयश्च / प्रव०२६ द्वार / चण्डाले, प्रति०।"वाटधानक्रमातङ्गा अन्तः- मध्ये मनुष्याः उपरि सुवर्णाः - सुवर्णकुमारा देवाः, बहिः ब्राहाणास्तेन चक्रिरे / " आक०४ अ० हस्तिनि, जी०३ प्रति०१ सामान्यतो देवाः, ततो मनुष्याणामुत्तर:- पर इति मानुषोत्तरः / अधि०२ उ० / श्वशानपाले, आ००४अ०। स्था०। अथाऽन्यद गौतम ! मानुषोत्तरं पर्वत मनुष्याः न कदाचिदपि व्यति- | मातंगमुणि पुं० (मातङ्गमुनि) वाराणस्या बलनामके मातङ्गजातीये साधौ, वजितवन्तः व्यतिव्रजन्ति व्यतिव्रजिष्यन्ति वा, किं सर्वथा न ? इत्याह- ती०३७ कल्प। ('वाणरसी' शब्दे कथा वक्ष्यते) सान्यत्र धारणेन, पञ्चम्यर्थे तृतीया प्राकृतत्वात्, चारणात् जसाचारण- मातंजण पु० (मातञ्जन) देवकुरुषु शीतादक्षिणकूलवर्तिनि गजदन्तलब्धिसंपन्नात् विद्याधराद् देवकर्मण एव क्रियया देवोत्पादनादित्यर्थः, कपर्वते स्था०। चारणादयो व्यतिव्रजन्त्यपि मानुषोत्तरं पर्वतमिति तद्वर्जनम, ततो दो मातंजणा / (सूत्र-*) स्था०२ ठा०३ उ०। मानुषाणामुत्तरः उच्चस्तरोऽलङ्घनीयत्वान्मानुषोत्तरः, तथा चाह- से मातिका स्त्री० (मातृका) उत्पत्तिभूमौ, प्रश्न०१ आश्र० द्वार। (एएणऽट्टेण' इत्याद्युपसंहारवाक्यं गतार्थम् / जी०३ प्रति०२ उ०। स्था०। / मातिट्ठाण न० (मातृस्थान) मायाप्रधाने वचसि, सूत्र०१ श्रु० अ०। महामानस, 'गोसालग' शब्दोक्तमहाकल्पप्रतिमायुष्कवति, भ०१५ मातुलिंग न० (मातुलिङ्ग) बीजपुरे, आचा०२ श्रु०१ चू०१ अ०८ उ०! श०। सू०प्र०।०प्र०। बी० / स०। प्रज्ञा०। माणुसुल्लाय पुं० (माणुसोल्लास) चित्तोत्साहे, जी०१ प्रति०। मादलिया (देशी) मातरि, दे० ना०६ वर्ग 131 गाथा। माणुस्सन० (मानुष्य) मनुष्यभावे, उत्त०३ अ०। मनुष्य जत्वे, उत्त०३ माधव पु० (माधव) श्रीपुरराजश्रीधरस्य पुरोहिते, आ००१अ०। अ। ननु-''पुनरिदमतिदुर्लभ-मगाधसंसारजलधिविभ्रष्टम / मानुष्य | माभाई (देशी) अभयप्रदाने, देवना०६ वर्ग०१२६ गाथा। खोतक-सडिल्लताविलसितप्रतिमम्॥१॥" आचा०१ श्रु०५ अ०३ | माभीसिअ (देशी) अभयप्रदाने, दे० ना०६ वर्ग 126 गाथा। उ० / सूत्र० / मानुष्यं जलबुद्धदसमानम् / पं० चू०२ कल्प। चं०प्र०। | मामग त्रि० (मामक) ममेदमहमस्येत्येवं परिग्रहाग्रहिणि, सूत्र०१ श्रु०२ माणुस्सक्खेन न० (मानुष्यक्षेत्र) कर्मभूमिकान्तीपगानां मनुष्याणामा- अ०२ उ०। दर्श०।आत्मीये, आचा०१ श्रु०२ अ०५ उ०मा मदीयं गृह वासरूपे अर्द्धतृतीयद्वीपलक्षणे मनुष्यलोके, जी०३ प्रति०४ अधि०।। श्रमणाः प्रविशन्त्विति प्रतिषेधकारिणि, ध०३ अधि० / बृ०।
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________________ मामण 251 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 माया मामण (देशः) मभीकारार्थे, आ०म०१ अ० / आ०चू०। मामी (दशः) मातुलान्याम्, 'मम्मी मल्लाणी भाभी'' त्रयोऽष्यभी मातुलानीवाचकाः / दे० ना०६ वर्ग 112 गाथा। मामि अव्यः सख्यामन्त्रणे, मामि हलाहले सख्या वा।।८।२।१६५|| एल सख्यमन्त्रणे वा प्रयोक्तव्याः। माभि सरिसक्खराण वि। प्रा०२ पाद। मामी (देशी) मातुलस्त्रियाम्, 'मल्लाणी मामी'' पाई० ना०२५२ गाथा। मायंग पु० (मातङ्ग) पाणे, आव०४ अ० / आ०म० / डोम्बे, मातङ्गीविद्याप्रधान वैताढ्यपर्वतवासिनि विद्याधरनिकाये, आ०चू०१ अ०। डाले, 'मायंगा तह जणंगमा पाणा'' पाइ० ना०१०५ गाथा / / हस्तिनि, 'पीलू मओ मयगलो मायगो सिंधुरो करेणू या दोघटा देती 1-रणा करी कुंजरो हत्थी" || पाइ० ना०६ गाथा। माकन्दपुं० आमे, "अबा मायंद-चूअ सहयारा'' पाइ० ना०१४५ गाथा। मायंगविज्जा स्त्री० (मातङ्गविद्या) विद्याभेदे, यदुपदेशादतीतादि कथयति / स्था०१० ठा०। मायंगी स्त्री० (मातङ्गी) मातडाख्यानां विद्याधरमनुष्याण विद्यायाम, आ०५०१ अ० मातङ्गाख्यान्त्यजजातिस्त्रियाम, नि०५०१ 30 / मायंजण पुं० (मातञ्जन) जम्बूद्वीप मेरोरुत्तर सीताया महानद्या दक्षिणकूले स्वनामख्याते पर्वते, स्था०४ ठा०२ उ० / मायंझाण न० (भायाध्यान) परप्रतारणरूपा या माया तस्या ध्यान न्यायाध्यानम्। परप्रतारणचिन्तने, भ्रातृद्वयचित्तपरीक्षा कुर्वत्या धननिया इद। अतु०। मायंद (देशी) आमे, दे० ना०६ वर्ग 128 गाथा। मायंदी(ण) पुं० (माकन्दिन) रवनामख्यातेवणिजि, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। (तस्य तत्पुत्रस्य च वक्तव्यता 'जिणपालिय' शब्द चतुर्थभाग 1464 पृष्ठारभ्च गता) मायंदी (देशी) श्वेतवस्त्रायां प्रव्रजितायाम्, दे०ना०६ वर्ग 126 गाथा। मायण्ण 'वे० (मात्रज्ञ) मात्रामन्नपानेन स्वस्योदरपूर्तिप्रमाणं जानातीति मात्रज्ञः / उत्त०२ अ०। आचा० / सूत्र० / लोल्यतोऽपि मात्रोपयोगिनि, उत्त०२ अ01 मायण्णिय त्रि० (मायन्वित) मायाविनि, सूत्र०१ श्रु०१३ अ०। मायण्हिआस्त्री० (मृगतृष्णा) मृगतृष्णायाम, "मायण्हिआ झला" पाई० ना०२३२ गाथा। मायदंसि(न) त्रि० (मायादर्शिन) मायायाः स्वरूपतो वेत्तरि, परिहर्तरि च। आचा०१ श्रु०३ अ०४ उ०। माया स्त्री० (माता) जनन्याम्, सूत्र०१ श्रु०६ अ० / नि०५०। प्रसूता, ज०२ वक्ष० / जनकान्मातुः पूज्यत्वम् - "उपाध्यायादृशाचार्य, आचार्याणां शतं पिता। सहस्त्रं तु पितुर्माता, गौरवेणातिरिच्यते / / 1 / / " 502 अधि०। नि०। स०। मात्रास्त्री० समयमात्रार्थमेव परिमिताहारगृहणे, नं०। सूत्र०।भाभीयते | वाऽनयेति माया / माया हिंसनं पञ्चनमित्यर्थः, स्था०४ ठा०१ उ० / शालो, स्था०२ ठा०१ उ० / शठतया मनोवाक्कायप्रवर्त्तने, स्था०५ ठा०२ उ01 स्वपरव्यामोहोत्पादके वचसि, उत्त०६ अ०। सर्वत्र स्ववीर्यनिगृहने, आचा०१ श्रु०१ अ०३ उ० / परवञ्चनबुद्धो, ज्ञा०१ श्रु०२ अ० सूत्र० / परवचनाभिप्राय, व्य०४ उ० / आचा० / आव० / प्रश्न० / आ०म०: उत्त० निकृती, आव०४ अ०। जी० अपाच्छादने, आतु०ा परवचनाभिप्रायेण शरीरावारनेपथ्यमनोवाक्कायकौटिल्य-करणे, दर्श०१ तत्त्व। ज्ञा० / माया, चतुर्विधा नामादिभेदतः-कर्मद्रवयमाया योग्यादिभेदाः पुद्गलाः, नाकर्मद्रव्यमाया निधानप्रयुक्तानि द्रव्याणि, भावमाया नोआगगतसात्कर्मद्रव्यविपाकलक्षणा तस्याश्चत्वारो भेदाः। "मायाबले हि गोमि ति मिदसिंगधणवंसमूलसया" / आ०म०१ अ०। / " उगतवसंजमवओ-पगिट्टफलसाहगस्स विजियस्स। धम्मविसए वि सुहुमा, वि होइ माया अणन्थाय / / 1 / / जह मल्लिस्स महाबलभ-वंभि तित्थयरनामबंधेऽवि। तवविसयथोवमाया, जाया जुवइत्तेहेउ त्ति // 2 // " ज्ञा०१ श्रु०८ अ०। (मायायामशठ उदाहशाम- 'पच्छित' शब्द पंचमभाग 166 पृष्ठे गतम्।) स्त्रीत्वनिवन्धनें कारणमाहसे भयवं ! ता कयरेणं कम्मविवागेणं तेणं गच्छाहिवइण। होऊण पुणो इत्थित्तं समन्जियति? गोयमा ! मायापचएणं / से भयवं ! कयरेणं से मायापचए जेण पयणीकयं संसारे वीसयलपावा य पणाविय विबुहजणे शिंदे सुरहिबहुदव्यघयखंडचुन्नसुसक्क-रियसभावपमाणपागनिप्फण्णमोयगमल्लगे इव तस्स भक्खे सयलदुक्खके साणदुक्खके साणमानए सयलसुहासणस्स परमपवित्ततमस्स णं अहिंसालक्खणसमणधम्मस्स विग्धे सम्भग्गलानिरयदारभूए सयलअकित्तिकलंककलहवेराइणवनिहाणनिम्मलकुलस्स णं दुद्धरिसअकञ्जकज्जलकण्हमसीखंपपते तेण गच्छाहिवइणा इत्थी भावे णिव्वित्तिए त्ति / गोयमा ! णो तेणं गच्छाहिवई तेहिएणं अणुमवि माया कया से णं तहा पुहवइचक्कहरे भवित्ता ण परलोगाभिभूए णिविण्णकामभोगे तणमिव परिचिचाणं तं तारिसं चोद्दसरयणनवनिहीतो चोसट्ठीसहस्से वरजुवईणं वत्तीसं साहस्सीओ उ अणादिवरनरिंदछन्नउइगामकोडीओ० जाव णं छखंडभरहवासस्स णं देविंदोवमं महारायलच्छितीयं बहुपुन्नवाईए णीसंमे पव्वइए य थोवकालेणं सयलगुणोहधारी महातवस्सी सुयहरे जाए, जोगे णाऊणं सुगुरूहिं गच्छाहिवई समणुनाए तहेव गोयमा ! तेणं सुदिवसुग्गइपहेणं जहोवइट्ठसमणट्टेणं माणेणं उग्गाभिग्गहविहारत्ताए घोरपरीसहोवसग्गहियासणेणं रागबोसक सायविव. जणेणं आगमाणुसारेणं सुविहियगणपरिवालणेणं आजम्मसमणाकप्परिभोगवज्जणेणं छक्कायसमारंभविवज्जणेणं ईसं पि
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________________ माया 252 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 माया दिव्वोरालियमेहुणपरिणामविप्पमुक्केणं इहपरलोगासंसाइणियाणमायाइसल्लविप्पमुक्केणं णीसल्लालोयणणिंदणगरिहणेणं जहोवइट्ठपायच्छित्तकरणेणं सव्यथा पडिवद्धत्तेणं सव्वपमायालंबणविप्पमुक्केणं इयइणिहिट्ठअवसे सिकए अणेगभवसंचिए कम्मरासी अण्णगभवे तेण माया कया तप्पच ईणं गोयमा ! सविवागे, से भयवं ! कयरा उण अन्नभवे तेणं महाणुभागेणं माया कया जीएणं एरिसो दारुणविवागो गोयमा ! से णं महाणुभागस्स गच्छाहिवइणो जीवेण णू णहिए फललक्ख इमेव भवग्गहणा। महा०२ चू०। उपधा, "माय त्ति वा उवहि त्ति वा एगटुं" / नि०चू०१५ उ० / भ० ! स०। मायाफले पाण्डुरार्योदाहरणं यथाएगा पासस्था सरीरोवगरणवाउसा निचं सुकिल्लवास परिहिता वि चितॄत्ति, लोगेण से णाम कयं-"पंडुरजत्ति। सा य विजाम तवसीकराचाडणकोउएसु य कुसला जणेसुपउंजति, जणो असे पणयसिरो कयंजलिआ विट्ठति, अवट्टवयातिकता वेरगमुवगया गुरुं विन्नवेइ-आलोयण क्यच्छामित्ति, आलोइए पुणो विष्णवेतिण दीह काल अहं पत्वज़ काउं समत्था ताहे गुरूहि अप्पं कालं परिकमावेत्ता विजामताइयं सव्व छड्डावत्ता अणसणगं पचक्खाविध आयरिएहिं, समणा समणीओ अ उभवग्गो वि औरऊण, समणा समडीओ अउभवग्मो-विवारिऊण लोगरस कहेयव्य सा भो पाक्खाएण जहा पुवं बहुजणपरिवुडा अस्थि तइया तहा अच्छति, अप्पासाहुसाहुणीपरिवारा चिटइ, हे सा अरतिं करति, तओ सीए लागवसीकरणविजा मासा आवादिया, ताहे जणो पुप्पधूचगंधहाथो अलकियविभूसिओ वदवदहि एतुभाढतो। ताहे उभयवग्गो पुच्छिओ गुरुणा कि ते जणस्स अक्खाय, ते भणति-णेव त्ति, सा पुच्छिया भणतिभए विजाए अभिओइओ एति-गुरूहि भणियाए वट्टति, ताहे पडिकंता सम्मंतितो लोगो आगतु एवं तओ वाराए सम्म पडिक्ता चउत्थवारा युच्छियाणं सम्ममाउट्टा भणति अ-पुव्वब्भासा अहुणा आगच्छति आपालोए उकालगया, सोहम्मे एरावणस्स अग्गमहिसी जाया। लाहे सा भगवओ बदमाणस्स समोसरणे आगया। धम्मकहाऽवसाणे हत्थिणीरूवं काउं भगवतो पुरओ ठिचा महता सहेण वातकम्मं करेति, ताहे भगवं गोयमा जाण गच्छ पुच्छेति-भगवया पुत्वभवे से वागरिउमो अण्णो वि कोइ साहू साहुणी वा मायं काहिति तेण एआए वायकम्म क्य, भगवया वागरियं तम्हा एरिसी माया दुरंतान कायव्य त्ति ।।ग०२ अधि०। दर्श०। आ०का अथ मायोदाहरणम् -- ''वसन्तपुरमित्यस्ति, पुरं सर्वश्रियां निधिः। किमेकं नगरेऽमुष्मिन, वर्ण्यते वर्णनाधिके / / 1 / / स्वः पुरेण समंधात्रा, जानेऽदस्तोलितं पुरा / महर्द्धित्वारिक्षतौ लग्न-मल्पद्धर्याऽन्यत्त्वगाद्दिवम्।२।। जितशत्रुटपस्तत्र, प्रताप इव मूर्त्तिमान्। यस्य तेजस्तमा रीणां, वृद्धि निन्ये कुतूहलम्॥३॥ तत्र द्वौ भ्रातराबारता-माद्यो धनपतिर्वणिक् / धनावहां द्वितीयस्तु, धनश्रीभगिनी तयोः / / 4 / / सा चाभूद्वालविधवा, भोगकर्मान्तरायतः। ययुस्तत्रान्यदाऽऽचार्याः, श्रीधर्मधोषसूरयः / / 5 / / तत्पाघे धर्ममाकर्ण्य, कुटुम्बं प्रत्यबोधितत्। सा व्रतं गृह्णती स्नेहा-दातृभ्यां नान्वमन्यत।।६।। साऽथ धर्मार्थिनी धर्म-व्ययं प्राज्यं व्यधान्मुहुः। भ्रातृजाये मुहुइँत, किमुवैहासिनो गृहम् / / 7 / / साऽथ दध्यौ किमाभ्यां मे, भ्रात्रोश्चित्तं परीक्षये। उपवासगृह भ्रातृ-जायां सा माययान्यदा // 8 // उवाच मलिनं किं ते, मस्तकं चीवराणि च। साटिकाऽपि न चोक्षा ते, का ते शिक्षा प्रदीयते॥६॥ श्रुत्वोत्तरार्द्ध तदर्ता, दध्यौ स्वैरिण्यसौ ध्रुवम्। नो चेदेवमुपालम्भं, दत्तेऽस्याः किं मम स्वसा।।१०।। साऽथान्तरा गता तल्पे, वारितोपविशत्यपि। मा मा भूस्तव ममासन्ना, दृशोरगं त्यजाधमे // 11 // साऽवदत्किं मया कान्त ! दुष्कृतं कृतमादिश। नेनानुक्ता लुठन्त्यस्था-भूमिं रात्रिरुदत्यसौ॥१२॥ खिन्नाङ्गी निरगात्प्रात-ननान्दोचे किमीदृशी। मा रुदेत्याह नौ जाने, मन्तुं निःसारिता गृहात्।।१३।। तयोक्त तिष्ठ वि(श्व)स्वस्वा, मा भैमीतिरं जगौ। भ्रातः किमेततेऽवादी-त्कार्य दुःशीलया न मे॥१४|| तयाऽभाणि कुतो ज्ञातं, त्वदुपालम्भतः स्वसुः!। ऊचे सा भ्रातरेतत्ते, पाण्डित्यं वाग्विचारणे / / 15 / / अस्नानान्मलिनं शीर्ष , वस्त्राण्यक्षालनात्तथा। शाटिकाऽपि न ते चोक्षे-त्युपालम्भो न दोषतः।।१६।। लज्जितोऽथ स्वयं तरयाः, स मिथ्यादुष्कूतं ददौ। दङ्ख्यौ चैष मम भ्राता, श्वेतकृष्णाप्रतीतिमान्॥१७॥ हस्तं रक्षेरिति प्रोक्ता, भ्रातृजाया द्वितीयका। पत्थाऽचोरीति साऽपास्ता, बोधितः सोऽपि बान्धवः / / 18 / / धान्यानि खण्डयन्तीत्वं हस्तं रक्षेरितीरिता। निर्वृतः सोऽपि साऽज्ञासी-तथेत्यस्यापि मद्वचः 1116 / / मायाभ्याख्यानतः किंतु, सा तत्कर्मण्यकाचयत्। साऽथान्यादा प्रवव्राज, सजायौ भ्रातरावपि // 20 // परिपाल्य व्रतं सर्वे, गच्छन्ति स्म दिवं ततः। भ्रातरौ प्रथमं च्युत्त्वा पुरे साकेतनामनि।।२१।। इभ्यस्याशोकदत्तस्य, पुत्रत्वेनोदपद्यताम्। आद्यः समुद्रदत्तोऽन्यः, ख्यातः सागरदत्तकः / / 22 / / च्युत्त्वा स्वसा गजपुरे, शङ्खश्राद्धसुताऽभवत्। सर्वाङ्गसुन्दरी नाम्ना, सर्वेष्वङ्गेषु सुन्दरा // 23 // यातरावपितेच्युत्त्वा, नगरे कोशलापुरे। नन्दनस्य सुते जाते, श्रीमती कान्तिमत्यथ।।२४।। अन्यदाऽशोकदत्ताख्यः श्रेष्ठी गजपुरं गतः। शङ्ख श्रेष्ठिसुतामीक्षां-चक्रे सर्वाङ्गसुन्दरीम्॥२५॥ कृते समुद्रदत्तस्य, प्रार्थिता सा ददौ सताम्। पुत्रमानीय तत्राऽथ, चक्रे वीवाहमद्भुतम्॥२६॥ कृतश्वशुरवासाऽगा-दन्यदा सा पितुह। तामानेतु जगामाथ, समुद्रः श्वाशुरान्तिके // 27 / / उपचारोऽभवद्भूयां-स्तत्र स्नानाऽशनादिकः /
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________________ माया 253 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मायामिच्छ० दिव्यंयासमहं याव-निशायां स प्रवेक्ष्यति।।२।। दभिधायान्यदाचर्यत यया सा क्रिया। कियाभेदे, ध०३ अधि० / आ०चू० / तावत् सर्वाङ्गसुन्दर्या-स्तत्प्राक्कर्मोदयं गतम्। मायागारवसहिय त्रि० (माया(तृ)गौरवसहित) मातृस्थानयुक्रे ऋद्धयाततोऽपश्य-स निर्गच्छ-त्पुंछायामथ दध्यिवान / / 26 // दिगोरवयुक्ते, दश०८ अ० अनिद्रस्तत्र तल्पस्थो, दुःशीलाऽसौ प्रिया स्फुटम्। मायाणियडिजुत्त त्रि० (मायानिकृतियुक्त) माया परयश्चनबुद्धिर्निकृतिअथायाता प्रियोपान्ते, न तेनोल्लापिताऽपि सा॥३०॥ बैंकवृत्या गलकर्तकानामिवावस्थानाम् / परप्रतारणपरे, रा०। यश्चनाततः साऽत्यन्तमुद्विग्ना-ऽगमयतां निशां प्रगे। भिप्रायेण तदनरूपबहिराकाराच्छादनेन च युक्ते, व्य०४ उ०! एकस्याख्याय विप्रस्य, तदर्ता स्वंपुरं ययौ // 31 // मायाणिस्सिय न० (मायानिश्रित) मृषाभेदे, यथ मालाकारप्रभृतय अथातो कोशलपुरे, गत्वा नन्दपुत्रिके। आहुः-नष्टो मोलक इति। स्था०१० ठा०। मरिष्ठः श्रीमती कान्ति-मती लघुरुपायत / / 3 / / मायातणव पुं० (मायातनय) निर्विशेषाद्वैतवादिनि, स्या०! तदाकाबृतिर्जज्ञ, गतागतमपि स्थितम्। मायापडिसंलीणया स्त्री० (मायाप्रतिसंलीनता) मायोदयनिरोधे, सर्वाङ्गसन्दरी साऽथ, प्रवव्राज क्रमेण च // 33 // उदयप्राप्ताया मायाया विफलीकरणे, स्था०४ ठा०२ उ०। विहरन्ती प्रवर्तिन्या, साकं साकेतमागमत्। मायापिंड पुं०(मायापिण्ड) मायया वेषपरावर्तनादिना प्रतारणेन दापयप्राग्भवभ्रातृजायेते, तां प्रति प्रेमतत्परे॥३४॥ तयात्मने भक्तादिदानाय च परं प्रयोजयति यः / तस्मिन्, पञ्चा०१३ गच्छतो वन्दनाद्यर्थ,तत्पतीतुन वत्सलौ। विव०। उत्पादनादोषभेदे, उत्त०२४ अ०। आचा० नवमे उत्पादनादोष, अत्रान्तरेऽस्या द्वितीय, मायाकर्मोदयं मतम्॥३५॥ जीत०पझा०। प्रव०॥ध०। आया। मिक्षार्थ साऽन्यदाऽऽयाता, श्रीमती वासवेश्मगा। सम्प्रति मायापिण्डदृष्टान्तभाहगुम्फन्ती हारमुज्झित्वा, तस्यै दातुं लघूस्थिता॥३६॥ रायगिहे धम्मरुई, आसाढभूई य खुडओ तस्स। भित्तेरुत्तीर्थतं हारं, चित्रकेकी तदाऽगिलत्। रायनडगेहपविसण, संभोइय मोयए लंभो // 474|| स्वस्थानस्था च साध्वी तद, दृष्वाऽऽश्चर्येण विस्मिता // 37 / / आयरियउवज्झाए, संघाडगकाणखुज तद्दोसी। साऽऽत्तभिक्षा ययौ हार, श्रीमती तत्र नक्षत। नडपासणपज्जत्तं, निकायण दिणे दिणे दाणं / / 475|| पृष्टाः सर्वे तयाऽवोच-मात्रागात्कोऽप्यमुं विना // 38 // धूयदुए संदेसो, दाणसिणेहकरणं रहे गहणं / ततः साध्वयाः प्रवादोऽभू-तयाऽज्ञापि प्रवर्तिनी। लिंग मुयत्ति गुरुसि-ट्ठ विवाहे उत्तमा पगई॥४६६।। सोचे भद्रे ! विचित्रोऽयं, परिणामोऽत्र कर्मणाम् // 36 / / रायघरे य कयाई, निम्महिलं नाडगं तडागत्था। श्रीमती-कान्तिमत्यौ च, हसतस्तत्प्रियौ ततः। ता य विहरंति मत्ता, उवरि गिहे दोऽवि पासुत्ता / / 477 / / साध्वी साध्वीति वादिन्यो, भाक्तिक्यौ स्तो युवामिति|४|| वाघाएण नियत्तो, दिस्स विचेला विरागसंबोही। तयोर्विपरिणामस्तु, न जातो जातु तां प्रति। इंगिनाए पुच्छा, पजीवणं रहवालम्मि४७८।। साध्व्यप्युप्रैस्तपोभिस्त-दुष्कर्म निरमूलयत्॥४१।। इक्खागवंसभरहो, आयंसघरे य केवलालोओ। अन्यदा श्रीमतीवास-वेश्मन्यस्ति सभर्तृका। हाराइखिवणगहणं, उवसग्ग न सो नियत्तो त्ति।।४७६|| सहारस्तावदुद्वान्त-श्चित्रादुत्तीर्य ककिना।।४२१॥ तेण समं पव्वइया, पंचनरसय त्ति नाडए डहणं। ततस्तौ दम्पती दृष्ट्वा, हारं संवेगमागतो। गेलन्नखमगपाहुण, थेरा दिट्ठा य बीयं तु // 480|| सैव साध्वी ध्रुवं साध्वी, न वाख्यद्दृष्टमप्यदः // 43 // (विशेषत आसां कथानकानि व्याख्यानं च आसाढभूई' शब्दे द्वितीयअथ तानि क्षमथितुं, प्रवृत्तान्यखिलान्यपि। भागे 476 पृष्ठे गतम् ) सूत्रं सुगमम् / नवरं (रायनडगेहपविसणं ति) अत्रान्तरे बभूवास्याः, केवलज्ञानमुज्ज्वलम्॥४४॥ राजविदितो यो नटो विश्वकर्मा तस्य गृहे प्रवेशः, त्वग्दोषी कुछी। उपसर्गःदेवश्च महिमा चक्रे, पृष्टास्ते प्राग्भवं जगौ। प्रव्रज्याग्रहणे निवारणम् / दहनं नाटकपुस्तकस्य। अत्रैवापवादमाहतत् श्रुत्वा प्राव्रजस्तानि, मायाचेष्टितमीदृशम्!!४५|| (गेलन्नेत्यादि) ग्लानोमन्दः, क्षपक:-मासक्षपकादिः, प्राघूर्णकः स्थानाआ०क०१ अ०।आचा०। (सज्वलनी माया कसाय' शब्दे तृतीयभागे न्तरादायातः / स्थविरः-वृद्धः / आदिशब्दाद्- सङ्घकार्यादिपरिग्रहः / 368 पृष्ठे व्याख्याता) मायाप्रधानोऽतिवारो मायैवेति। स्था०८ ठा०। तेषामर्थाय द्वितीयमपवादपदमिति भावः, सेव्यते ग्लानाद्यनिर्वाह मयाविषये, स्था०३ ठा०३ उ०। अपराधे, "माई मायं कटु आलोएजा।" मायापिण्डोऽपि ग्राह्य इत्यर्थः। पिं०। स्था०८ ठा० / अविद्याप्रपञ्चहेतो, वेदान्तप्रपञ्चसिद्धे जगदुपादाने, मायामत्त त्रि० (मातृभक्त) बहुमानबुद्ध्या भक्ते, विपा०१ श्रु० अ०। स्था० / कपटे, ''माया कवड कइअवं" पाइ० ना०१५७ गाथा / मायामिच्छत्तसल्ल न० (मायामिथ्यात्वशल्य) मायामिथ्यात्वरूपे जनन्याम्, "माया जणणी' पाइ० ना०२५२ गाथा। शल्ये,द०प०। मायाकारग त्रि० (मायाकारक) परवञ्चकमृगादिबन्धके, तं० / इन्द्र- इहलोए परलोए, नाणचरणदंसणम्मि य अवार्य। जालिके, स्या। दंसेइ नियाणम्मि य, मायामिच्छत्तसल्लेणं // 356 / / मायाकिरिया स्त्री० (मायाक्रिया) कौटिल्येनान्यद्विचिन्त्य वाचाऽन्य- | द०प०१५५१ गाथा।
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________________ मायामुंड 254 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मायावत्तिया मायामंडलिक (माणमुण्ड) मायामुण्डिते, स्था०१० ठा०। कालातिपातार्थ शरत्कालव्यावर्णयति, तथाऽन्यरिंमश्चार्ये कथयितव्ये मायामोस अव्य (मायामृषा) माया च निकृतिम॒षा च मिथ्यावादी मायया / ऽन्यमेवार्थमाचक्षते / तेषां च सर्वार्थविसंवादिनां कपटप्रपञ्चचतुराणः पा सह गृपा मायामृषा, प्राकृतत्वान्मायामोसम / दोषद्वययोगे, विपाकोद्भवनाय दृष्टान्तं दर्शयितुमाह-(से जहेत्यादि) तत् यथानाम प्रव०२३७ द्वारा कश्चित्पुरुषः संग्रामादपक्रान्तोऽतः-मध्ये, शल्यम् - तोमरादिकं यस्य एगे मायामोसे (सूत्र) स्था०१ ठा०। सोऽन्तःशल्यः, स च शल्यघट्टनवेदनाभीरुतया तच्छल्य न स्वतो मायामृषाद्वये, दशा०६ अ०। 'निर्हरति' अपनयति-उद्धरति, नाप्यन्येनोद्धारयति, नापि तच्छल्य एयं च दोसं दटूण, नायपुत्तेण भासियं / वैद्योपदेशेनौषधोपयोगादिभिरुपायैः 'प्रतिध्वंसयति'-विनाशयति, अणु मायं पि मेहावी, मायामोसं विवजए॥४६।। अन्येन केनचित्पृष्टो वाऽपृष्टो वा तच्छल्यं निष्प्रयोजनमेव निहनुतेदश०५ अ०२ उ०। अपलपति, तेन च शल्येनासावन्तर्वर्जिना (अविउट्टमाणे त्ति) पीड्यमानः, मायावत्तिया स्त्री० (मायाप्रत्यया) माया-अनार्जधमुपलक्षण वात् / (अंतो अंतो त्ति) मध्ये मध्ये पीड्यमानोऽपि रीयते वजति, तत्कृतां क्रोधादिरपि सा प्रत्ययः कारण यस्याः सा मायाप्रत्यया / भ०१०२ वेदनामधिसहमानः क्रियासु प्रवर्तत इत्यर्थः / साम्प्रतं दार्शन्तिकमाहउ०। प्रव० / मायानिबन्धने क्रियाभेदे, स०१३ सम०। (एवमेवेत्यादि) यथाऽसौ सशल्यो दुःखभाग भवति-एवमेवासौ मायीअहावरे एक्कारसमे किरियट्ठाणे मायावत्तिए त्ति आहिज्जइ, जे मायाशल्यवान् यत्कृतमकार्य तन्मायया निगृहयन् मायां कृत्वा न तो इमे भवंति गूढाऽऽयारा तमोकसिया उलूगपत्तलहुआ पव्वय- मायामन्यस्मै आलोचयति-कथयति, नापि तस्मात् स्थानात प्रतिगुरुया ते आरियाऽविसंता अणारियाओ भासाओ विपउंजंति, क्रामति-न ततो निवर्तते, नाप्यात्मसाक्षिक तन्मायाशल्यं निन्दति, अन्नहा संतं अप्पाणं अन्नहा मन्नंति, अन्नं पुट्ठा अन्नं वागरंति, तद्यथा-धिड़ मां यदहमेवंभूतमकार्य कर्मोदयात्तत्त् कृतवान्, तथा नापि अन्नं आइक्खियव्वं अन्नं आइक्खंति। से जहाणामए केइ पुरिसे परसाक्षिकं गर्हति आलोचनार्हसमीपे गतो. नापि च जुगुप्सते, तथा 'नो अंतोसल्ले, तं सल्लंणो सयं णिहरति, णो अन्नेण णिहरादेति, विउट्टति' नापि तन्मायाख्य शल्यमकार्यकरणात्मक विविधमअनेकणो पडिविद्धंसेइ, एवमेव निण्हवेइ, अवउट्टमाणे अंतो अंतो प्रकारं त्रोटयति-अपनयति, यदस्याऽपराधस्य प्रायश्चित्तं तत्तेन रियइ, एवमेव माई मायं कट्ट णो आलोएइ णो पडिक्कमेइ णो पुनस्तदकरणतया (न) निर्वर्तयतीत्यर्थः, नापि तन्मद्यादिकमकार्य जिंदइ णो गरहइ णो विउट्टइणो विसोहेइणो अकरणए अब्भुढेइ सेवित्वाऽऽलोचनाहयात्मानं निवेद्य तदकार्याकरणतयाऽभ्युतिष्ठते, णो अहारिहं तवोकम्मं पायच्छित्तं पडिवज्जइ, माई अस्सिं प्रायश्चित प्रतिषद्यापि नोद्युक्तविहारी भवतीत्यर्थः, तथा नापि लोए पञ्चायाइ माई परंसि लोए (पुणो पुणो) पञ्चायाइ निंदइ गुर्वादिभिरभिधीयमानोऽपि यथार्हम् अकार्यनिर्वहणयोग्य प्रायः चित्तं गरहइ पसंसइ णिचरइण नियट्टइणिसिरिय दंडं छाएति, माई शोधयतीतिप्रायश्चित-तपः कर्मविशिष्ठ चान्द्रायणाद्यात्मकं प्रतिपद्यतेअसमा-हडसुहलेस्से याऽवि भवइ, एवं खलु तस्स तप्पत्तियं अभ्युपगच्छति / तदेवं मायया सत्कार्यप्रच्छादकोऽस्मि-नेव लोक सावजं ति आहिज्जइ, एक्कारसमे किरियट्ठाणे मायावत्तिए त्ति मायावीत्येवं सर्वकार्येष्वेवाविश्राभणत्वेन प्रत्यायाति-प्रख्याति याति, आहिए। सूत्र-२७॥ तथाभूतश्च सर्वस्यापि अविश्वास्यो भवति। तथा चोक्तम् - ये केचनामी भवन्ति पुरुषाः, किंविशिष्टाः ? गूढ आचारो येषां ते गूढा- ''मायाशीलः पुरुषः, यद्यपि न करोति किञ्चिदपराधम्। ऽऽचाराः-गलकर्तकग्रन्थिच्छेदादयः, ते च नानाविधैरुपायैर्विश्रम्भमु- सर्वस्याविश्वास्यो, भवति तथाऽप्यात्मदोषहतः।।१।।" त्पाद्य पश्यादपकुर्वन्ति, प्रद्योतादेरभयकुमारादिवत्।तेच मायाशीलत- इत्यादि, तथापि मायावित्वादसौ परस्मिन लोके जन्मान्तरावाप्ती वेनाऽप्रकाशचारिणः, तमसि कषितुं शील येषां ते तमः काषिणस्त एव च सर्वाधमेषु यातनास्थानेषु नरकतिर्यगादिषु पौनःपुन्ये न प्रत्यायाति, तमः काषिकाः पराविज्ञाताः क्रियाः कुर्वन्तीत्यर्थः। ते च स्वचेष्टयैवो- भूयो भूयस्तेष्वेवारघट्टघटीयन्त्रन्यायेन प्रत्यागच्छतीति। तथा नानालूकपत्रवल्लघवः, कौशिकपिच्छवल्लवीयांसोऽपि पर्वतवद गुरुमात्मानं विधैः प्रपौर्वशयित्वा परं निन्दतिजुगुप्सते, तद्यथा-अयमज्ञः मन्यन्ते। यदिवा-कार्यप्रवृत्तेः पर्वतवन्नोत्तम्भयितु शक्यन्ते, ते चाऽर्य- पशुकल्पो नानेन किमपि प्रयोजनमिति, एवं परं निन्दयित्वाऽऽत्मानं देशोत्पन्ना अपि सन्तः शाठ्यादात्मप्रच्छादनार्थमपरभयोत्पादनार्थ प्रशंसयति, तद्यथाअसावपि मया वञ्चित इत्येवमात्मप्रशंसया तुष्यति, चानार्यभाषाः प्रयुञ्जते, परव्यामोहार्थ वमतिपरिकल्पितभाषाभिरप- तथा चोक्तम्- 'येनाऽपत्रपते साधु-रसाधुस्तेन तुष्यति' इति, एवं चासौ राविदिताभिर्भाषन्तं, तथाऽन्यथा व्यवस्थितमात्मानम अन्यथा- लब्धप्रसरोऽधिकं निश्चयेन वा चरति-तथाविधानुष्ठायी भवतीति साध्याकारेण मन्यन्ते व्यवस्थापयन्ति च, तथा अन्यत्पृष्टा मातृस्थान- निश्चरति / तत्र च गृद्धः सन् तस्मात् मातृस्थानान्न निवर्तते, तोऽन्यदाचक्षते, यथाऽऽमान् पृष्टाः केदारकानाचक्षते, वादकाले वा तथाऽसौ मायावले पेन दण्ड प्राण्युपमर्दकारिणं निसृज्यपातयिन्दा कश्चिन्नाथ-(न्याय) वादितया व्याकरणे प्रवीणस्तर्कमार्गमवतारयति, पश्चात छादयति-अपलपति, अन्यस्य वोगरि प्रक्षिपति, स च माथायी यथा वा शरदि वाजपेयेन यजेते' त्यस्य वाक्यस्यार्थ पृष्टस्तदर्थानभिज्ञः / सर्वदा वञ्चनपरायणः संस्तन्मनाः सर्वानुष्ठानेष्वप्येवंभूतो भवति /
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________________ मायावत्तिया 255 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मारणंतिय० असमाहृता-अनङ्गीकृता शोभनालेश्या येन स तथा आर्तध्यानोपहततया मारणान्तिकोपरार्गसहने, भ०१७ श०३ उ०। असावशोभनलेश्य इत्यर्थः / तदेवमप गतधर्मध्यानोऽसमाहितोशद्ध- मारणं तियसमुग्घाय पुं० (मारणान्तिकसमुद्धात) उत्प्रावल्येन हननं लेश्यश्चापि भवति। तदेव खलु तस्य तत्प्रत्ययिकम् - मायाशल्यप्रत्य- चंदनीयादिकप्रदेशानां निर्जरणंघातः सम्- एकीभावेन प्राबल्येन धातः यिक सावा फर्माऽऽधीयत! सूत्र०२ श्रु०२ अ०। स्था०। आव०। भल समझातः / मरणमेव प्राणिनामन्तकारित्वादन्तो मरणान्तः, तत्र भयो मायावत्तिया दुहा-आयवंचणकिरिया, परवंचणकिरिया च / आ००४ मारणन्तिकः स चाऽसौ समुद्धा तश्च / अन्तर्मुहूर्तशषायुष्ककर्माश्रये, अ०। ('किरिया' शब्दे तृतीयभागे 533 पृष्ठे विशेषः) प्रव०२३१ धार / स्था० / स० / मुमूर्षारसुमत आदित्सितोत्पत्तिप्रदेशे मायावि(न) त्रि० (मायाविन्) माया-निकृतिः साऽस्यास्तीति मायावी। आलोकान्तादात्मप्रदेशानां भूयो भूयः प्रक्षेपसंहारात्मके समुद्भाते, मायिनी, आय०४ अ० / द्वा० / आचा० / आचा०१ श्रु०२ अ०१ उ०1 मायाविजय पुं० (मायाविजय) मायाया विजयकरणे, उत० सारस्वरूपम- एवं मरणसमुद्धातगत आयुष्कर्मपुगलान परिशातयति, मायाविजएणं भंते ! किं जणयइ ? मायाविजएणं उज्जुभावं नवर मरणसमुद्भातगतो विक्षिप्तस्वप्रदेशो वदनादरादिरन्ध्राणि स्कन्धाजणयइ, मायावेयणिज्जं कम्मनबंधइ, पुव्वबद्धं च निजरेइ।।६।। धपान्तरालानि चापूर्य विष्कम्भबाहल्याभ्यां स्वशरीरप्रमाणमायामतः हेभगवन् ! मायाविजयेन जीवः किं फलं जनयति ? गुरुराह-हेशिष्य ! स्वशरीरातिरेकलो जघन्यतोऽखलासख्ययभागम्, उत्कर्षतोऽसंख्ये-यानि मायाविजयेन जीवः ऋजुभावं शरलत्वम् उत्पादयति निर्जरयतिक्षपयति योजनान्येकदिशि क्षेत्रमभिव्याप्य वर्तत इति वक्तव्यम्। प्रज्ञा०३६ पद। मारणान्तिकसमुद्धातसमवहतस्योपधातः॥६६॥ उत्त०२६ अ०। जीवे णं भंते ! भारणंतियसमुग्घाएणं समोहए समोहणित्ता जे मायासण्णा स्त्री० (मायासंज्ञा) माया-मायोदयेनाशुभसंक्तशाद नृत भविए इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहसंभाषणादिक्रियैव संज्ञायतेऽनयेति मायासंज्ञा / मायारूप संज्ञाभंदे, स्सेसु अन्नयरंसि निरयावासंसि नेरइयत्ताए उववजित्तए, से णं स्था०१०ठा० आचा०। प्रज्ञा० भ०॥ भंते ! तत्थ गते चेव आहारेज वा परिणामेज वा सरीरं वा मायासल्ल न० (मायाशल्य) माया-निकृतितः सैव शल्यम्। मायारूपे बंधेज्जा? गोयमा ! अत्थेगतिए तत्थ गए चेव आहारेज वा शल्ये, स०१ सम० / भावशल्ये, दश०५ अ० / मायाशल्ये पण्डुरा परिणामेज वा सरीरबंधेज वा, अत्थेगतिए तओ पडिनियत्तति, रुद्रश्चोदाहरणम्। आव०४ अ०। ततो पडिनियत्तित्ता इह समागच्छति समागच्छित्ता दोच्च पि मायि(ण) त्रि० (मायिन्) मायाऽस्यास्तीतिमायी। वाके, ज्ञा०१०१४ मारणंतियसमुग्घाएणं समोहणइ दोचं पि मारणंतियसमुग्धाएणं अ० / स्था। समोहणित्ता इमी से रयणप्पमाए पुढवीए तीसाए निरयावामायोदम त्रि० (मायोपम) स्वप्रेन्द्रजालसदृशे, विशे०। ससयसहस्सेसु अन्नयरंसि निरयावासंसि नेरइयत्ताए उववज्जित्तए, मार पुं० (मार) मारयतीति मारः / यमे, सूत्र०१ श्रु०१ अ०३ उ० / बहुशो ततो पच्छा आहारेज्ज वा परिणामेज वा सरीरं वा बंधेजा, एवं० मियन्ते स्वजा यशाः प्राणिनो यस्मिन् स भारः। संसारे, सूत्र०१ श्रु०१४ जाव अहे सत्तसमा पुढवी। जीवे णं भंते ! मारणंतियसमुग्घाएणं अ०१ मरणे, सूत्र०२ श्रु०२ अ०। आचा० / भ० / ज्ञा० / मृङ् प्राणक्षये समोहए 2 जे भविए चउसट्ठीए असुरकुमारावाससयसहस्सेसु धातुः / अदेल्लुक्यादरत आः / / 8 / 3 / 153 / / णेरदेल्लोपेषु कृतेष्वा अन्नयरंसि असुरकुमारावा संसि असुरकुमारत्ताए उववञ्जित्तए जहा देरकारस्य आः। मारइ। प्रा०। नेरइया तहा भाणियव्वा० जाव थणियकुमारा / जीवे णं भंते ! मारग त्रि० (मारक) प्राणवियोजयितरि, ज्ञा०१ श्रु०२ अ० / आचा० / मारणंतियसमुग्घाएणं समोहए 2 जे भविए असंखेजेसु पुढविआचा०। काइयावाससयसहस्सेसु अण्णयरंसि पुढविकाइयावासंसि मारण न० (मारण) प्राणवियोजने, आव०४ अ०। आ०म० / प्रश्न० / नि०। / पुढविकाइयत्ताए उववज्जित्तए से णं भंते ! मंदरस्स पव्वयस्स मारणअ त्रि० (मर्तृ) तृनः अणअः / / 8 / 4 / 443 / / इति सूत्रात् अपभ्रंश पुरच्छिमेणं केवतियं गच्छेज्ज केवतियं पाउणेज ? गोयमा! लोयंतं जूनप्रत्ययस्य अणअ आदेशः / प्राणवियोजयितरि, प्रा०। गच्छेज्जा लोयंतं पाउणेज, सेणं भंते! तत्थ गए चेव आहारेज वा मारणंतिय न० (मारणन्तिक) मरणस्य सर्वायुष्कक्षयलक्षणस्य अन्तः- परिणामेज वा सरीरं वा बंधेजा? गोयमा! अत्थेगइए चेव तत्थ गए सगीपं मरणान्तः-आयुष्कचरमसमयः, तत्रभव मारणान्तिकम्। मरणा- चेव आहारेज वा परिणामेज वा सरीरं वा बंधेज अत्थेगतिए तओ न्तसमयोद्भवे, स०। आ००। पडिनियत्तति तओ पडिनियत्तित्ता इह हव्वमागच्छइ इह हव्वमामारणंतियअहियासण न० (मारणन्तिकाध्यासन) कल्याणमिति बुद्ध्या | गच्छित्ता दोचं पि मारणंतियसमुग्घाएणं सवोहणति २त्ता मंदरस्स
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________________ मारणतिय० 256 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मालकम्म पवयस्स पुरच्छिमेणं अंगुलस्स असंखेजभागमेत्तं वा संखेज्ज- | मारा स्त्री० (मारा) मार्यन्ते प्राणिनां यस्यांशालाया सा मारा। शूनायान्, तिभागमेत्तं वा बालयं वा बालऽग्गपुहत्तं वा एवं लिक्खं जूयं ज्ञा०१ श्रु०१६ अ० / मणिलक्षणविशेषे, रा०। अंगुलं० जाव जोणकोडिं वा जोयणकोडाकोडिं वा संखेजेसु | माराभिसंकि (न्) त्रि० (माराभिशङ्किन) मरणं मारस्तदभिशङ्की। वा असंखेजेसु वा जोयणसहस्सेसु लोगंडते वा एगपदेसियं सेटिं भरणादुद्धिजे, आचा०। मोत्तूण असंखेजेसु पुढविकाइयावाससयसहस्सेसु अन्नयरंसि मारामुक्त त्रि० (मारामुक्त) मार्यन्ते प्राणिनो यस्यां शालायां सा मारापुढविकाइयावासंसि पुढविकाइयत्ताए उववजेत्ता, तओ पच्छा शूना, तस्या मुक्तो यः स मारामुक्तः / मारणान्मारकपुरुषाद्वा मुक्तोआहारेज वा परिणामेज वा सरीरं बंधेजा, जहा पुरच्छिमेणं विच्छुटितः / माराद्विच्छुटिते, ज्ञा०१ श्रु०१६ अ०। मंदरस्स पव्वयस्स आलावओ भणिओ, एवं दाहिणेणं पञ्चच्छि मारि अव्य० (मारयित्वा) क्त्व इ-इउ-इवि-अवयः / / 8 / 4 / 4436 / / मेणं उत्तरेणं उड्डे अहे, जहा पुढविकाइया तहा एगिदियाणं इति क्त्व इः। प्राणेभ्यो मोचयित्वेत्यर्थे , "हिअड़ा जइ वेरियघणा, त? सव्वेसिं, एकेक्कस्स छ अलावगा भाणियव्वा / जीव णं भंते ! किं अभिचडाहुँ / अम्हाहिँ बेहत्थडा, जइ पुण भारि मराहुँ।' प्रा० / मारणंतियसमुग्घाएणं समोहए 2 त्ता जे भविए असंखेज्जसु मारि स्त्री० अत्यन्तजनमारके रोगे, स०३४ सम०।नं०। जं०। आ०० वेइंदियावाससयसहस्सेसु अणयरंसि बेइंदियावासंति बेइंदि तं चेव चित्तगरं मरेइ अह न चिंतिज्ज इतो य भूयजणमारि करेइ। आ०म०१ यत्ताए उववज्जित्ताए से णं भंते ! तत्थ गए चेव जहा नेरइया, / अ०। व्य०। स्था। एवं० जाव अणुत्तरोववाझ्या। जीवे णं भंते ! मारणंतियसुग्घाएणं मारिअवि० (मारित) प्राणैर्विहीनीकृते, उत्त०१६ अ० / अपभ्रंशेऽप्रत्ययः / समोहए समोहणित्ता जे भविए एवं पञ्चसु अणुत्तरेसु महति ''जइ भग्गा पारकडा, तो सहि मज्झु पिएण। अह भग्गा अम्हह तणा, तो ते मारिअडेण।" प्रा०४ पाद। महालएसु महाविमाणेसु अण्णयरंसि अणुत्तरविमाणंसि अणुत्त मारिलग्गा (देशी) कुत्सितायाम्, दे० ना०६ वर्ग 131 गाथा। रोववाइयदेवत्ताए उववजित्तए, से णं भंते ! तत्थ गए चेव० जाव आहारेज वा परिणामेज वा सरीरं वा बंधेज / सेवं भंते ! भंते ? मारी स्त्री० (मारी) मरके, "तेसिं मारी विउव्विया लोगो, मरउमाइयो' / आ०म०१ अ०। त्ति। (सूत्र-२४५) मारुअपुं० (मारुत) "अणिलो गंधवहो मारुओ। समीरो पहजणोपवणो" (तत्थ गए चेव त्ति) तरकावासप्राप्त एव (आहारेज वा) पुद्गलानादद्यात्, पाइ० ना०२५ गाथा। (परिणामेज व ति) तेषामेव खलरसविभाग कुर्यात्. (सरीरं वा बंधेज मारुय पुं०(मारुत) वायौ, उत्त०२ अ०। ज्ञा०। कल्प०। प्रश्न०। दर्शा त्ति) तैरेव सरीर निष्पादयेत्। (अत्थेगइए ति) यस्तस्मिन्नेव भियते (ततो आव०॥ पडिनियत्त त्ति) ततो-नरकावासात्समुद्धाताद्वा, (इह सभागच्छइ त्ति) मारुयपक्क त्रि० (मारुतपक्व) वायुपके, विपा०१ श्रु०८ अ०। स्वशरीरे (केवइयं गच्छेज्ज त्ति) कियद् दूरं गच्छेत् ? गमनमाश्रित्य, माल पुं० (माल) उपरितनभागे, प्रव०५ द्वार। आव०। पञ्चा० / मञ्चादिके, (केवइयं पाउणेज त्ति) कियद् दूरं प्राप्नुयात् ? अवस्थानमाश्रित्य, पिं० / आचा० / श्वापदादिरक्षार्थेषु, तद्विशेषेष्वेव गन्धमालकाकारेषु (अंगुलस्स असंखेजइभागमेत्तं वेत्यादि) इह द्वितीया सप्तम्यर्थे द्रष्टव्या, पर्वतदेशेषु, इत्यन्ये / ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। भ०। आराममजुमश्चेषु, दे० अङ्गुलम् इह यावत्करणादिद दृश्यम्- "विहत्थिं वा रयणि वा कुच्छि वा ना०६ वर्ग 146 गाथा। धणुं वा कोसं वा जोयणं वा जोयणसय वा जोयणसहस्सं वा जोयण- | मालई स्त्री० (मालती) स्वनामख्यातायां विजयसेनराजमहिष्या सयसहस्स वा इति'' 'लोगते वा' इत्यत्र गत्वेति शेषः, ततश्चायमर्थ:- पुरन्दरयशसो भातरि, ध०र०१ अधि०१२ गुण। लताविशेषे, 'मलई उत्पादस्थानानुसारेणाकुलासंख्येयभागमात्रादिके क्षेत्रे समुद्धाततो नाई' पाइ० ना०२७३ गाथा ! गत्वा, कथम ? इत्याह-'एगपएसियं सेढिं मोत्तूण त्ति' यद्यप्यसंख्येय | मालंकार पुं० (मालंकार) बलेरोचनेन्द्रस्य हस्त्यनीकाधिपती, प्रदेशावगाहस्वभावो जीवस्तथापि नैकप्रदेशश्रेणिवर्त्यसंख्यप्रदेशा- "मालंकारे हत्थिराया कुंजराणीयाहिवइ।' स्था०५ ठा०१ उ०। वगाहनेन गच्छति, तथा स्वभावत्वादित्यतस्ता मुक्त्वेत्युक्तमिति। भ०६ मालकच्छ पु० (मालकच्छ) स्वनामख्याते गोशालकतेजोपहतवीश०६ उ०। (मारणान्तिकसमुद्धातेन समवहतस्य किंप्रमाणा महत्त्वाव- ररुजादर्शनजखेदखिन्नस्य सिंहमुनेः रोदनस्थाने, स्था०१० ठा०। गाहनेति ओगाहणा' शब्द तृतीयभागे 81 पृष्ठे गतम्) मालकड त्रि० (कृतमाल) कृता माला येन सः कृममालः। प्राकृतत्वात मारणंऽतिया स्त्री० (मारणान्तिकी) मरणमेवान्तो मरणाऽन्तः तत्र भवा | मालकडेति। माला परिहिते, त०। मारणान्तिकी। आव०६ अ० स्था० / आ०५०। स०। मरणान्ते भवाया मालकम्मन० (मालकर्मन) मालनिष्पादनरूपे कर्मणि, आचा०१ श्रु०२ सलेखनायाम्, स्था०२ टा०१ उ01 चू०४ अ०।
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________________ मालघर 257 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मालोहड मालघर न० (मालगृह) मालाख्यवनस्पतिविशेषगृहे, जं०१ वक्षः। आवली पंती" पाइ० ना०६३ गाथा आचा०। प्रज्ञा०। कुसुमदामनि, मालणीय त्रि०(मालनीय) परिचारणीये, ज०१ वक्षः / औ०। समूहे, ज्ञा०१ श्रु८ अ०। स्था०। ज्योत्स्नायाम, दे० ना०६ वर्ग मालतीकुसुमदाम न० (मालतीकुसुमदाम) जातिपुष्पमालायाम् | 128 गाथा। उत्त०२ अ०। मालाउत्त त्रि० (मालागुप्त) गृहस्योपरितनभागरक्षिते, मालको गृहस्योमालय पु० (मालक) गृहस्योपरितनभागे. बृ०२ उ० / स्वार्थ कः "अक्कुड्डो / परितनो भागः, अभिहितञ्च-"अकुड्डो होइ मंचो मालो यघरोवरि होइ।" होइ मचो मालो य घरोवरि होइ" स्था०३ ठा०१ उ०। ज्ञा०। स्था०३ टा०१ उ०। मालवपुं० (मालव) भारतवर्षीय अवन्तीजनपदे, कल्प०१ अधि०६ क्षण। मालाकुंकुम (देशी) प्रधानकुङ्कमे, दे० ना०६ वर्ग 132 गाथा। प्रव० म्लेच्छविशेषे, व्य०४ उ० / प्रज्ञा०। सूत्र० / मालागार पुं० (मालाकार) मालाग्रन्थनोपजीविनि जातिबि शेषे, आव०४ मालवंत पु० (माल्यवान् ) जम्बूद्वीपे उत्तरकु रुषु कच्छविजये अ० ज०। वक्षस्कारपर्वत, ज०४ वक्ष० / स्था० / स० / मेरोः पूर्वोत्तरस्मिन् राज- मालागारी स्त्री० (मालाकारी) हारि(त)गोत्रस्य श्रीगुप्तस्थविरा निर्गतस्य दन्तपर्वत, स्था०६ ठा०। चारणमणस्य शाखायाम्, कल्प०२ अधि०८ क्षण। दो मालवंता। (सूत्र-+) स्था०२ ठा०३ उ०। मालाण त्रि० (मालान) विस्तीर्णे, औ०। कहिणं भंते ! महाविदेहे वासे मालवंते णामं वक्खा रपव्वए मालामउल पुं० (मालामुकुट) मालाप्रधाने मुकुटे. सूत्र०२ श्रु०२ अ०। पण्णत्ते? गोयमा ! मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरपुरच्छिमेणं णीलवं- | मालारोवण न० (मालारोपण) मालानामुपर्युपरि स्थापने जी०१ प्रतिका तस्स वासहरपव्वयस्स दाहिणेणं उत्तरकुराए पुरच्छिमेणं मालि पुं० (मालिन) वनस्पतिविशेषे, स०७४ सम० / रा०जी० / कच्छस्स चक्कवट्टिविजयस्स पञ्चच्छिमेणं एत्थ णं महाविदेहे दशग्रीवनिजके, ती०५१ कल्प। वासे मालवंते णामं वक्खारपव्वए पण्णत्ते, उत्तरदाहिणायए मालिअय त्रि० (मालितक) मालाकारके, "ओरालिअयं च मालिअयं" पाईणपडीणवित्थिपणे जंचेव गंधमायणस्स पमाणं विक्खंभे। पाइ०१६६ गाथा। अणवरमिमं णाणत्तं सव्ववेरुलियामए अवसिटुं तं घेव० जाव | मालीघरगन० (मालिगृहक) मालिवनस्पतिविशेषः तन्मया नि गृहकाणि गोयमा ! नवकूडा पण्णत्ता। मालिगृहकाणि / माल्याख्यवनस्पतिगृहे, जी०३ प्रति०४ अधिः / (कहि णमित्यादि) प्रश्नसूत्र सुगमम्, उत्तरसूत्रे-गौतम ! मन्दरस्य रा०। जं०। पर्वतस्य उत्तरपौरस्त्ये ईशानकोणे नीलवतो वर्षधरपर्वतस्य दक्षिणस्या- 1 मालिज न० (मालीय) श्रीगुप्तस्थविरान्निर्गतस्य चारणगणस्य पञ्चमकुल, मुत्तरकुरूणां पूर्वस्यां कच्छनाम्नश्चक्रवर्तिविजयस्य पश्चिमायामत्रान्तरे ___ कल्प०२ अधि०८ क्षण। महाविदेहेषु भाल्यवन्नाम्ना वक्षस्कारपर्वतः प्रज्ञप्त इति शेषः, पूर्वदक्षिण- | मालिया स्त्री० (मालिका) मालायाम, स्त्रजि, ज्ञा०१ श्रु०८ अ०। योरायतः पूर्वपश्चिमयोर्विस्तीर्णः, किंबहुना विस्तरेण ? यदेव गन्धमाद- मालुगा स्त्री० (मालुका) त्रीन्द्रियजीवविशेषे, उत्त०३६ अ० / जी० / नस्य पूर्वोक्तवक्षस्कारगिरेः प्रमाणं विष्कम्भश्च तदेव ज्ञातव्यामिति शेषः / एकास्थिकफलीवृक्षविशेष, जी०३ प्रति०४ अधि० / प्रज्ञा० / ज० / जं०४ वक्ष०। (माल्यवत्कूटाना व्याख्या कूड' शब्दे तृतीयभागे 623 आचा०। रा०। वल्ल्याम, सूत्र०१ श्रु०३ अ०२ उ०। प्रज्ञा०। देशविशेषपृष्ठ गता) प्रतीते वनस्पती, प्रज्ञा०१ पद। उज्जयिन्यामम्बर्षाह्मणस्य भार्यायाम, मालवंतदह पुं० (माल्यवद्द ) उत्तरकुरुषु स्वनामख्याते हदे, स्था०५ आव०४ अ०। आ०क०। आ० चू०। हा०२ उ० / जी०। मालुयाकच्छ पु० (मालुकाकक्ष) एकास्थिकफला वृक्षविशेषा मालुकाः मालवंतपरियाय पुं० (माल्यवत्पर्याय) जम्बूद्वीपमन्दरस्योत्तरे रम्यकहै- प्रज्ञापनायामभिहितास्तेषां कक्षो-गहनं मालुकाकक्षः / चिर्भटिकाकक्ष रण्यवतवर्षे स्वनामख्याते वृत्तवैताढ्यपर्वते, स्था०। इति तु जीवाऽभिगमचूर्णकाकारः / मालुकाख्यवनस्पनिगहने, ज्ञा०१ दो मालवंतपरियागा। (सूत्र-+) स्था०२ ठा०३ उ०। श्रु०१ अ० / भ०। मालवतेण पुं० (मालवस्तेन) माल्यवत्पर्वतोपरि विषमप्रदेशवासिनि | मालुयामंडवग पुं० (मालुकामण्डपक) एकास्थिकफला वृक्षविशेषा स्तने, 'मालवगो पव्वगो तस्सुवरि सव्वं विसमं तत्थ तेणया वसंति ते ___ मालुकास्तदुक्ता मण्डपाः। मालुकायुक्तेषु मण्डपेषु, रा० / जी० / मालवतेणा। तेसु पडिएसुणासते जणेण समं इतरे वित्तिकइतवेणं कोई मालूर न० (मालूर) विल्वे, "मालूरं सिरिहलं विल्लं' पाइ० ना०१४८ भणेति मालवतेण पडिया। नि०चू०२ उ०। गाथा। कपित्थे, दे० ना०६ वर्ग 130 गाथा। माला स्त्री० (माला) कण्ठसूत्रगलावलम्बिशृङ्खलाविशेषे औ०। आभर- मालोहड न०(मालाऽपहृत) मालाद् - मचादरपहृतं - साध्वर्थ - णविशेषै, औ० / कुसुमस्त्रजि, औ० / 'ओर्ल माला राई, रिछोली मानीत यद् भक्तादि तन्मालापहृतम्। पिं०। मालात - सिक्ककादे
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________________ मालोहड 258 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मालोहड रपहृत-साध्वर्थमानीतम् मालापहृतम् / प्रव०६७ द्वार / उचस्थानादुत्तार्याऽऽनीयाऽऽहारादि ददत उद्गमनदोषे, उत्त०२४ अ०। आचा० / पिं० / मालाऽपहतद्वारमाहमालोहडं पि दुविहं, जहन्नमुक्कोसगं च बोद्धव्वं / अग्गतलेहिं जहन्नं, तव्विवरीयं तु उक्कोसं // 357 / / मालाऽपहलं द्विविधं, तद्यथा-जघन्यम्, उत्कृष्ट च। तत्र यद्न्यस्ताभ्यां पादयोरग्रभागाभ्यां फलकसंज्ञाभ्यां पाणिभ्यां चोत्पाटिताभ्यामूर्ध्वविगलितोचसिक्ककादिस्थित दात्र्या दृष्टरगोचर यद्दीयते तज्जघन्यं मालापहृतम्। तद्विपरीतं-जघन्यविपरीतं बृहन्निः श्रेण्यादिकमारुह्य प्रासादोपरितलादानीय दीयते तदुत्कृष्टं मालापहृतम्। संप्रत्यनयोरेव दृष्टान्तौ सदोषौ वक्तुकाम आहभिक्खू जहन्नगम्मी, गेरुय उकोसयम्मि दिद्वंतो। अहिडसणमालपडणे, य एवमाई भवे दोसा!|३५८|| जघन्ये मालापहृते भिक्षुर्वन्दको दृष्टान्तः, उत्कृष्ट गैरुकः कापिलः, तत्र / जघन्ये मालापहृते अहिदशनम्- सर्यदशनम्, उत्कृष्ट मालात्पतनमित्येवमादयो दोषा अभूवन्। तत्र भिक्षुदृष्टान्तं गाथाद्वयेनाऽऽह - मालाऽभिमुहं दद्दूण, आगारिं निग्गओ तओ साहू। तच(व्व)न्निय आगमणं, पुच्छा य आदिण्णदाणं ति // 356 / / मालम्मि कुडे मोयग, सुगंधअहिपविस करे डक्का। अन्नदिणसाहुआगम, निद्दयकहणा य संबोही॥३६०।। जयन्तपुरं नाम नगरम्, यत्र यक्षदिन्नो नाम गृहपतिः, तस्य भार्या वसुमती, अन्यदा च तद्गृहे धर्मरुचिर्नाम संयतो भिक्षार्थ, प्रविवेश, तं च नियमितेन्द्रियमरक्तद्विष्टमेषणासमितमवलोक्य समुत्पन्नविशिष्टदनपरिणामेन यक्षदिन्नेन वसुमती सादरं बभणे, यथा-देहि साधवेऽस्मै अमुकान मोदकानिति, ते च मोदका ऊर्ध्व विलगितोचसिक्ककमध्ये व्यवस्थिते घटेऽवतिष्ठन्ते, ततः सा तद्ग्रहणार्थमुत्थिता, साधुश्च तां मालापहृतां भिक्षामवबुध्यमानस्तद्गृहान्निर्जगाम। ततस्तत्कालं तस्मिवेव गृहे भिक्षायै भिक्षुरागमत् / पप्रच्छ च तं यक्षदिन्नो यथा कि भोः(सम)तेन सिक्ककादानीय दीयमाना भिक्षा न जगृहे ? ततः स प्रवचनमात्सर्यादेवमुवाच अदत्तदाना अमी खलु वराकास्ततो नलभन्ते पूर्वकर्मविनियोगतो पुष्मादृशामीश्वराणां गृहेषु स्निग्धमधुरादिकं भोजनं भोतुम्, किंतु-तैर्दुर्गतगृहेष्वन्तप्रान्तादिकं लब्ध्वा भोक्तव्यमिति, ततो यक्षदिन्नेन तस्मायपितानेव मोदकान वसुमती दापिता, सातस्मिन्नेव सिक्ककविलगिते घटे मोदकानादातुमचालीत, घटे च महोत्तमद्रव्यनिष्पन्नमोदकगन्धाघाणवशतः कथमपि भुजङ्गमः समागतोऽवतिष्ठते, वसुमती चोत्पाटा पाणिपादाग्रतलभरेण यावन्मोदकघटे कङ्केल्लिपल्लवोपमं कर प्रक्षिपति तावद भुजङ्गमः कामुक इव सादर तं प्रत्यगृहात, ततो हा ! दष्टा दष्ट्रति पूत्कारं कुर्वती भूमौ निपपात, ददृशं च यक्षदिन्नेन फूत्कार कुर्वन् दन्दशूकः, ततस्तत्क्षणादेव समाहूताः परममन्त्रवादिनः, समानीतानि च नानाविधानि भेषजानि, ततोऽद्याप्यायुरत्रुटितमिति मन्त्रौषधप्रभावतः सा नीरुग् बभूव, समाजगाम च भूयोऽप्यपरस्मिन् दिने स एव धर्मरुचिः संयतो भिक्षायै, (धर्मरुचेर्विशेषतो वृत्तम् 'धम्मरइ' शब्द चतुर्थभागे 2730 पृष्ठे गतम्) उपालेभे च यक्षदिन्नेन। यथा-दयाप्रधानो धर्मः तत् किं भोः साधो ! सुविहित! तव तदानीं सप्र्प पश्यतोऽप्युपेक्षा प्रावर्तिष्ट ? स प्राह-नाहमद्राक्षं तदानीं दन्दशूकम्, केवल मयमस्माक सार्वज्ञ उपदेशो, यथा-मर ग्राहिषुः साधवो ! मालादपहृतां भिक्षामिति, ततोऽह प्रतिनिवृत्तः, एवं चोक्ते यक्षदिन्नः स्वचेतसि चिन्तयामास-अहो निरपायो भगवया विरुपादेशि भूर्णां धर्मः, य एव चेत्थं निरपाय धर्ममुपदिशति स्म स एव सर्वज्ञो न खलु सुधाभ्यवहारमन्तरेण सुधोद्वार उज्जृम्भते, एवं न यावत् ज्ञेयव्यापिज्ञानमन्तरेणेत्थं सकलकालमनपायिनो धर्मस्योपदेशप्रवृत्तिः, बुद्धिप्रागल्भ्यते हि वचसि प्रागल्भ्यमुपालम्भि, तस्मात् स एव सर्वज्ञ इति, इत्थं च विचिन्त्य भक्तिवशोच्छलितपुलकजालोपशोज्ञिततनुः सादरं धर्मरुचिअमणमवन्दत, वन्दित्वा च जिनप्रणीतं धर्म पप्रच्छ, स च कथयामास संक्षेपतः, ततो जिनप्रणीतवाक्यामृतरसास्वादतः तेषामवजगाम सकलमपि 'मायासूनवीयादि' संपादितकुवासनामय गरलम, पश्यति च यथाऽवस्थितानि हेयोपादेयानि वस्तूनि, प्रमोदते च जात्यन्ध इव चक्षुलभि स विशेषतरम्, ततो मध्याह्न विशेषतो गुरुसमीपे समागत्य धर्म श्रुत्वा जातसंवेगौ दम्पती अपि प्रव्रज्यां प्रपेदाते। सूत्रं सुगमम्। संप्रत्यस्मिन्नेव जघन्ये मालापहृतेऽन्यानपि दोषानभिधित्सुराहआसंदिपीढमंचक-जंतोडूखलपडंत उभयवहे। वोच्छेयपओसाई, उड्डाहमनाणिवाओ य॥३६१।। आसन्दी-मचिका, पीठम्-गोमयादिमयमासनम, मञ्चकः-प्रतीतः, यन्त्रम्-बीहादिदलनोपकरणम्, उदूखलः प्रतीतः, एतेष्वारुह्य, उपलक्षणमेतत्, पाणी चोत्पाट्य ऊर्ध्वविगलितसिक्ककादिस्थितमोदकादिग्रहणे कथमपि यदि मञ्चकादिहसनतो दात्री निपतति तर्हि उभयवधः, दात्र्या पृथिव्यादिकायादीनांमपि, विनाशः / यथैतस्मै भिक्षामहं ददती प्रागपि महत्यनर्थे पतितेति न कोऽप्यस्मै दास्यतीति तदगृहे तद्रव्यान्यद्रव्यव्यवच्छेदः, तथा मुण्डेनानेन परमार्थतः पातितेति कस्यापि गृहस्वामिनः साधुविषयः प्रद्वेषोऽपि भवति। आदिशब्दात्ताडनादिपरिग्रहः / प्रद्वेषदग्धोऽहि कोऽपि कोपान्धतया ताडनमपि कुर्यात्। कोऽपि निर्भर्त्सनम्, कोऽपि वधमपि, तथा च-प्रवचनस्योड्डाहः खिंसा यथासाध्वर्थमषा भिक्षामाहरन्ती परासुरभूत्, तस्मान्नामी साधवः कल्याणकारिणः लोके चाज्ञानवादः-एवंविधमपि दात्या अनर्थमेते न जानन्तीत्येव मूर्खताप्रवादः; तस्माजघन्यमपि मालापहृतमवश्यं परिहर्तव्य
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________________ मालोहड 256 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मालोहड म्। तदेवमुक्तो जघन्यस्य मालापहतस्य सदोषो दृष्टान्तोऽन्येऽपि च दोषाः। संप्रत्युत्कृष्टस्य तानाहएमेव य उक्कोसे, वारण-निस्सेणि गुठ्विणीपडणं / गभित्थिकुच्छिफोडण, पुरओ मरणं कहणवोही // 362 // जयन्ती नाम पुरी, तत्र सुरदत्तो नाम गृहपतिः, तस्य भार्या वसुन्धरा, अन्यदा च तदगृहे गुणचन्द्राऽभिधः साधुर्भिधार्थ प्राविशत्, तं च प्रशान्तमनसमिहपरलोकनिः-स्पुहं मूर्त धर्ममिव समागच्छन्तमवेक्ष्य सुरदत्तो वसुन्धरामभिहितवान- यथा देहि साधवे मालादानीध मोदकानिति, ता च तदानीमन्तर्वत्नी, परं पत्युरादेश देवताऽऽदेशमिव प्रतीच्छन्ती | मोदकानयनाय मालाभिमुखां निःश्रेणिमारोदूमय तिष्ट, साधुश्च न कल्पते मालापहता भिज्ञा संयतानामिति ता विनियार्य तद्गृहानिःससार, जतस्तत्क्षण एव कोऽपि कापिलो भिक्षार्थ तस्मिन्नेव गृहे प्राविशत्, सुरदत्तेन च स पृष्टी-यथा-भोः किं सं यतेन मालादानीयमाना भिक्षा न प्रतिजगृहे ? ततः स मात्सर्यवशादसंबद्धं किमप्यभाषिष्ट ततस्तस्मायपि सुरदत्तो वसुन्धरया मोदकान् दापितवान् वसुन्धरा च मोदकानयनार्थ निःश्रेणिमारोहन्ती कथमपि पादहसनतो विसंस्थुलाड़ी न्यपतत्, अधश्च व्रीहिदलनयन्त्रकमासीत, ततस्तत्कीलकस्तस्या निपतन्त्याः कुक्षि द्विधा पाटयामास, निर्गतश्च परिस्फुरस्ततो गर्भः, कीलकविदारिततया महापीडातिशयभावतः पश्यतामेव सकललोकानां सदुःखं स्पन्दमानः पञ्चत्वमगमत्, तथा बसुन्धरा च। तत उच्छलितः पापीयसः कापिलस्थावर्णवादः। अन्यदा च भूयोऽपि तस्मिन्नेव गृहे स एव साधुभिक्षार्थमाजगाम / सुरदत्तश्च तमप्राक्षीत्- भगवन् ! यथा यूयं ज्ञानचक्षुषा दाच्या विनाशमवेक्षमाणा भिक्षां परिहतवन्तः तथाऽस्माकमपि किं नाचीकथत ? येन तदानीं सा मालं नारोहयेत्। ततः साधुरवोचत्-नाह किमपि जाने, केवलमयमस्माकं सार्वज्ञ उपदेशः-यथा न कल्पते साधूनां मालापहता भिक्षेति, ततः सपूर्ववदचिन्तयद्धर्ममश्रीषीत्, प्रवज्या गग्रहीदिति। सूत्रं सुगमम्।न वरम्, एवमेव जघन्यमालापहृते इवोत्कृष्टेऽपि मालापहृते पडतउभयवहो' इत्यादयो दोषा वक्तव्याः / तत्र दाया बधे उदाहरणम् 'वारणनिस्सेणि' इत्यादि। संप्रति मालापहृतमेव भङ्गयन्तरेणाऽऽहउड्डमहे तिरियं पि य, अहवा मालोहडं भवे तिविहं। उऐ य महोयरणं, भणियं कुंमाइसू उभयं / / 363 / / अथवा-मालापहृतं त्रिविधम्, तद्यथा-ऊर्ध्वम्, अधः तिर्यक्च / तत्र उर्वमतदनन्तरोक्तमूर्ध्वविलगितसिक्ककादि गतम्, अधो भूमिगृहादादततरणम्- प्रवेशः, तत्राधोऽवतरणेन यद्दीयते तदप्युपचारादधोऽवतरणम्, तथा-कुम्भादिषु कुम्भोष्ट्रिकाप्रभृतिषु यदर्तते देयं तदुभयम्ऊयधिोमालापहतस्वभावं भणितं तीर्थकरादिभिः। तथाहि-बृहत्तरोचैस्तरकुम्भादिमध्यव्यवस्थितस्य देयस्य ग्रहणामय येन दात्री पाष्र्युत्पाटनादि करोति तेनोर्ध्वमालापहृतम्, येन त्वधो मुखं बाहुमतिप्रभूत व्यापारयति तेनाधो मालापहृतम्, दोषा अत्रापि पूर्ववद्भावनीयाः।। अत्रैवापवादमाहदद्दर सिल सोवाणे, पुव्वाऽऽरूढे अणुचमुक्खित्ते। मालोहडं न होई, सेसं मालोहडं होई॥३६४।। दर्दरः निरन्तरकाष्ठफलकमयो निश्श्रेणिविशेषः, शिला प्रतीता, सोपानानि-इष्टकामयान्वतरणानि, एतान्यारुहा यद्ददातितन्मालापहृतं न भवति / केवल साधुरप्येवणाशुद्धिनिमित्तं प्रासादस्योपरि दर्दरादिना चटति, अपवादेन भूस्थोऽप्यानीतं गृह्णाति / तथा पूर्वारूढः साध्वागमनादग्रतः स्वयोगेन निःश्रेण्यादिना प्रासादोपरि चटितो दाता यद्ददाति साधुपात्रके, कथंभूते ? इत्याह-अनुच्चोत्क्षिप्ते, किमुक्तं भवति? भूमिस्थः संयतो दृष्टरधः पात्रं धारयन यावत्प्रमाणे उच्चैःस्थाने स्थितो पात्रे हस्तं प्रक्षिप्य ददाति तावत्प्रमाणे पूर्वोरूढो यद्ददाति तन्मालापहृतं न भवति। शेषं तु सर्वमप्यनन्तरोक्त मालापहृतमवसेयम्। इहानुनोतिक्षप्तोचोरिक्षप्तयोः स्वरूपमाहतिरियायय-उज्जुगएण, गिण्हई जं करेण पासंतो। एयमणुचुक्खित्तं, उचुक्खित्तं भवे सेसं // 365 / / तिर्यगायतेन-दीर्पण, ऋजुकेन-सरलेन, करण-हस्तेन पात्रं दृष्ट्या निभालयन् यद् गृह्णाति तदित्थंभूतं पात्रमनुच्चोरिक्षप्तमुच्यते, शेष पुनरुचोत्क्षिप्तम, इयमत्र भावनायद् दृष्टरुपरि बाहुं प्रसार्य देयवस्तुग्रहणाय पात्रं ध्रियते तत्तथा ध्रियमाणमुच्चोत्क्षिप्तमिति, एतेन चोवधिोमालापहतव्याख्यानेन तिर्यगपि मालापहृतं व्याख्यातं द्रष्टव्यम्, तत्राप्ययं कल्प्याकल्पविधिः-यत्पादस्याधो मञ्चिकादि दत्त्वा गवाक्षादौ स्थितं दानाय बाहुं प्रसार्य महता कष्टन समाकर्षति तन्न कल्पते। यच्च भूमौ स्वभावस्था गवाक्षादौ स्थितमयत्नेन किशिद्वाहुं प्रसार्य साधोर्दानाय गृह्णाति तन्मालापहृत न भवति, अतस्तत्कल्पते। पिं०। निस्सेणिं फलगं पीढं, उस्सवित्ता समारहे। मंचं कीलं च पासायं, समणऽट्ठाए व दावए।।६७|| निःश्रेणिम्, फलकम् - पीठम्, (उस्सवित्ता) उत्सृत्य-ऊर्ध्व कृत्वा इत्यर्थः, आरोहेन्मञ्चम्, कीलकं च उत्सृत्य, कमारोहेदित्याह-प्रासादम्, श्रमणार्थम्- साधुनिमित्तम्, दायकोदाता आरोहेत्, एतदप्यग्राह्यम्। इति सूत्रार्थः॥ अत्रैव दोषमाह - दुरूहमाणी पवडिज, हत्थं पायं व लूसए। पुढवीजीवे विहिंसिज्जा,जे अतन्निस्सिया जगे // 6 // (दुरूहमाणि त्ति) आरोहन्ती प्रपतेत्, प्रपतन्ती चहस्तं पादं वा लूपयेत्, स्वकं स्वत एव खण्डयेत, तथा-पृथ्वी-जीवान् विहिस्यात्, कथंचित्तत्रस्थान, तथायानि च तन्निःश्रितानि (जगन्ति) प्राणिनस्तोंश्च हिंस्याद। इति सूत्रार्थः।। एआरिसे महादोसे, जाणिऊण महेसिणो। तम्हा मालोहडं भिक्खं, न पडिगिण्हंति संजया / / 6 / / (एआरिसे ति) ईदृशान् अनन्तरोदितरूपान् - महादोषान् ज्ञात्वा, महर्षयः साधवः / यस्माद्दोषकारिणीयं तस्मात्
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________________ मालोहड 260 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मालोहड गाहा मालापहृताम्-मालादानीतां भिक्षा न प्रतिगृह्णन्ति संयताः, पाठान्तरं लोहडं-मंचादिसु-मञ्चश्रेणिस्थितः / अहवा-कुडिमादिसु भूमिठितो वा-"हदि मालोहडति," हन्दीत्युपप्रदर्शने / इति सूत्रार्थः / / दश०५ अधोसिराजं अग्गतले हिटाउंजं उवारेइतंजहण्णं, पीठगादिसुजं आरोढ़ अ०१ उ०। पञ्चा० / जीत०। ओआरेइतं सव्वं उनोस। से भिक्खू वा भिक्खुणी वा० जाव समाणे से जं पुण जाणेज्जा असणं पाणं साइमं खंधंसि वा थंभंसि वा मंचंसि वा मालंसि वा भिक्खू जहण्णय गेरुत, उक्कोसयंमि नायव्यो। पासायंसि वा हम्मियतलंसि वा अण्णयरंसि वा तहप्पगारंसिवा अहिदसणमालपडणे, एवमादी भवे दोसा // 42 // अंतलिक्खजायंसि वा उवणिक्खित्ते सिया तहप्पगारं मालोहडं सिक्कतो ओआरिउकामा साहुणा पडिसिद्धा तव्वन्नियट्ठा / गिण्हइ असणं वा० जाव अफासुयं णो पडिग्गहेजा, केवली बूया- अहिणा डक्का मया, मालाओ ओआरिउकामा साहुणो पडिसिद्धा, आयाणमेयं असंजए भिक्खुपडियाए पीढं वा फलगंवा णिस्सेणिं परिवाओ य वा ओतारेंति पडिया जंतखीले पोट्ट फाडियं मया / इमे वा उदूहलं वा आहट्ट, उस्सविय दुरूहेजा, से तत्थ दुरूहमाणे उक्कोसे उदाहरणा / नि०चू०१७ उ० / पं०चू01 पं०भा०1 धाग०। पयलिज वा पवडिज्ज वा ले तत्थ पयलमाणे वा पवडमाणे वा से भिक्खू वा भिक्खुणी वा० जाव समाणे से जं पुण जाणेज्जा हत्थं वा पायं वा उरं वा उदरं वा सीसं वा अण्णतरं वा कायंसि असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा कोठियातो वा कोलोइंदियजालं लूसेज वा पाणाणि वा भूयाणि वा जीवाणि वा सत्ताणि जातो वा असंजए भिक्खुपडियाए उक्कोज्जिय अवउज्जिय ओहरिय वा अमिहणेज्ज वा वित्तासेज वालेसिज वा संघसेज वा संघट्टेज आहट्ट दलएजा, तहप्पगारं असणं वा पाणं वा खाइमं साइमं वा वा परियावेज वा किलामिज वा ठाणाओ ठाणं संकामेज वा तं लाभे संते णो पडिगाहेज्जा। (सूत्र-३७) तहप्पगारं मालोहउं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा भिक्षुर्यदि पुनरेवंभूतमाहार जानीयात्, तद्यथा-कोष्टिकातः मृन्मयलाभे संते णो पडिग्गहिज्जा। कुशूलसंस्थानायाः, तथा-(कोलेजाओ त्ति) अधोवृत्तखाताकारात स भिक्षुर्भिक्षार्थ प्रविष्टः सन् यदि पुनरेवं चतुर्विधमप्याहार जानीयात, असंयतः भिक्षुप्रतिज्ञया-साधुमुद्दिश्य कोष्टिकातः (उछु जिय त्ति) ऊर्ध्वकायमुन्नस्य-ततः कुलजी भूय, तथा (कोलेज्जाआ अवउजिय त्ति) तद्यथा-स्कन्धे अर्द्धप्राकारे, स्तम्भे वा शैलदारमयादी, तथामञ्चके वा अधोऽवनम्य, तथा-(ओहरिय त्ति) तिरश्चीनो भूत्वा आहारमाहत्य मालेवा प्रासादे वा हम्यतले वा अन्यतरस्मिन् वा तथाप्रकारेऽन्तरिक्षजाते दद्यात, तच भिक्षुस्तथाप्रकारमधोमालाहृतमितिकृत्वा लाभे सति न स आहारः, उपनिक्षिप्तः-व्यवस्थापितो भवेत्, तं च तथाप्रकारमाहार प्रतिगृह्णीयात् इति। मालाहृतमिति मत्वा लाभे सति न प्रतिगृह्णीयात्, केवली ब्रूयात्-यत अधुना पृथिवीकायमधिकृतवाऽऽहआदानमेतदिति। तथाहि-असंयतो भिक्षुप्रतिज्ञया साधुदानार्थं पीठकं जे भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जंपुण जाणेज्जा असणं वा पाणं वा फलक वा निःश्रेसिवा उदुखलं वाऽऽहृत्य-ऊर्ध्वं व्यवस्थाप्याऽऽरोहेत्। वा खाइमं वा साइमं वा मट्टियाउलितं तहप्पगारं असणं वा पाणं स तत्राऽऽरोहन् प्रचलेवा प्रपतेद्वा, स तत्र प्रचलन् प्रपतन्वा हस्तादि वा खाइमं वा साइमं वा लाभे संते नो पडिगाहेजा, केवली कमन्यतरदा काये इन्द्रियजाल (लूसेज त्ति) विराधयेत्, तथा-प्राणिनो बूया-आयाणमेयं असंजए भिक्खुपडियाए मट्टिओवलित्तं असणं भूतानि जीवान् सत्त्वानभिहन्याद् वित्रासयेद्धा, लेशयेद्वा-संश्लेषं वा वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा उब्मिदमाणं पुढविकायं समारंकुर्यात्. तथा संघर्षे वा कुर्यात, तथा सङ्घट्टवा कुर्यात्, एतच कुर्वस्तान् भिजा तह तेउवा उवणस्सइतसकायं समारंभिज्जा उल्लिपमाणे परितापयेद्वा, वलामयेद्वा, स्थानात्स्थानं संक्रामयेद्वा, तदेतज्ज्ञात्वा पच्छाकम्म करिज्जा, अह भिक्खू णं पुव्वोवइट्ठा एस पइन्ना एस यदाहारजातं तथाप्रकारं गालाहृतं तल्लाभे सति नो प्रतिगृह्णीयादिति। हेऊ एस कारणे जं तहप्पगारं मट्टिओवलित्तं असणं वा पाणं वा आचा०२ श्रु०१ चू०१ अ०७ उ०। खाइमं वा साइमं वा लाभे संते नो पडिगाहिज्जा। सुत्तं - (से भिक्खू वेत्यादि) स भिक्षुः गृहपतिकुलं प्रविष्टः सन् यदि पुनरेव जे मिक्खू वा भिक्खुणी वा मालोहडं वा० जाव असणं वा जानीयात्, तद्यथा-पिठरकादौ मृत्तिकयाऽवलिप्तमाहारं तथाप्रकारमिपाणं वा खाइमं वा साइमं वा दिज्जमाणं पडिगाहेज वा पडिगाहंत त्यवलिप्तं केनचित्परिज्ञाय पश्चात्कर्मभयाचतुर्विध-मप्याहार लाभे वा साइजइ // 24 // सति न प्रतिगृह्णीयात्, किमिति ? यतः केवली ब्रूयात्- कदिानमेतगाहा दिति, तदेव दर्शयति-असंयतो-गृहस्थः, भिक्षुप्रतिज्ञया मृत्तिकोपलिप्तमालोहडं पि तिविहं, उड्डमहो उभयओ व णायव्वं / मशनादिकम- अशनादिभाजनं तचोद्विन्दन् पृथिवीकार्य समारभेट स एक्के पि य दुविहं, जहण्णमुक्कोसयं चेव // 41 / / एष केवल्याह, तथा-तेजोवायुवनस्यतित्रसकायं समारभेत् दत्ते सत्युनरउर्दू मालोहडं-विभूमादिसु, अहो मालोहडं-भूमिपराविसु, उभयमा- | कालंपुनरपिशेषरक्षार्थ तद्धाजनमवलिम्पन, पश्चात्वमकुर्यात्, अथभिक्षू
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________________ मालोहड 261 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मास णां पूर्वोपदिष्टा एषा प्रतिज्ञा एष हेतुरेतत्कारणमयमुपदेशः। यत्तथाप्रकार मृत्तिकोपलिममशनादिजातं लाभे सति नो प्रतिगृह्णीयादिति। आचा०२ शु०१ चू०१ अ०७ उ० / स्था०। मास पुं०(माष) धान्यभेदे, आचा०१ श्रु०१ अ०५ उ०। आ०म० ज०॥ पञ्चभिर्गुञ्जभिः परिमिते मानविशेषे, त०। प्रज्ञा०॥ माषा: मासा ते मंते ! किं भक्खेया, अभक्खेया ? सोमिला! मासा मे भक्खेया वि, अभक्खेया वि? सेकेणऽद्वेणं० जाव अभक्खेया वि। से नूणं ते सोमिला ! बंभन्नएसु नएसुदुविहा मासा पण्णत्ता, तं जहा-दव्वमासाय, कालमासा या तत्थ णं जे ते कालमासा। ते णं सावणाऽऽदीया आसाढपज्जवसाणा दुवालस / तं जहासावणे भद्दवए आसोएकत्तिए मग्गसिरे पोसे माहे फागुणे चित्ते वइसाहे जेट्ठामूले आसाढे / ते णं समणाणं निग्गंथाणं अभक्खेया / तत्थ णं जे दव्वमासा ते दुविहा पण्णत्ता, तं जहाअत्थमासा य, घण्णमासा य ! तत्थ णं जे ते अत्थमासा ते / दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-सुवन्नमासा य, रुप्पमासा य / ते णं समणाणं निग्गंथाणं अभक्खेया। तत्थ णं जे ते धन्नमासा ते दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-सत्थपरिणया य, असत्थपरिणयाय। एवं जहा धन्नसरिसवा० जाव से तेणऽटेणं० जाव अभक्खेया वि। भ०१८ श०१० उ०। मास पुं० पक्षद्वयात्मक कालविशेषे, विशे० / आ०म० / भ० / अनु०।। कल्प० / प्रव० / जं० / कर्म० / स्था०। इदानीं (भाष्यकारः) मासनिक्षेपप्ररूपणार्थमाहनामं ठवणा दविए, खेत्ते काले तहेव भावे य। मासस्स परूवणया, पगयं पुण कालमासेणं ||13|| (नाम ति) मासशब्दसंबन्धात् नाममासः,एवं स्थापनामासः। (दविए ति) द्रव्यमासः, एवम् क्षेत्रमासकालमासौ, भावमासश्च. एषा षड़िवधा मासस्य प्ररूपणता-प्ररूपणस्य-प्ररूपणशब्दस्य भावः-प्रवृत्तिनिमित्तं प्ररूपणता प्ररूपणेत्यर्थः / प्रकृतमधिकारः पुनरत्रकालमासेन एष गाथासंक्षेपार्थः सांप्रतमेनामेव गाथां विवरीषुर्नामस्थापने सुप्रतीतत्वादनादृत्य (भाष्यकार:) द्रव्यमासादिव्याख्यानार्थमाहदव्वे भव्वे निव्व-त्तिओ य खेत्तम्मि जम्मि वण्णणया। काले जहिं वणिजइ, नक्खत्तादीव पंचविहो।।१४|| द्रव्यमासो द्विधा-आगमतो, नोआगमतश्च। तत्राऽऽगमतो मासशब्दा- | र्थज्ञाता तत्र चानुपयुक्तः, नोआगमतस्त्रिविधः, तद्यथा-ज्ञशरीरभव्यसरीरतद्व्यतिरिक्तश्च। तत्र ज्ञशरीरभव्यशरीरे प्राग्वत्। तद्व्यतिरिक्तमाह(दत्वे निव्वत्तिओ त्ति) द्रव्ये मासो, भव्य इति भावी एकभविकादि। इह मास इति रूपं प्राकृते माषशब्दस्यापि भवति / तत एकभविकादिरत्र भाषो दष्टव्यः / तत्र एकभविको नाम यो देवो मनुष्यस्तिर्यड् वा अनन्तरमुदत्य माषो भविष्यति बद्धायुष्को येन माषभवायुद्धम् अभिमुखनाम गोत्रो यो माषभवं समुत्पत्तुकामः समवहतः स्वदेशान तत्र विक्षिपन् वर्तते / अथवा तद्व्यतिरिक्तो द्रव्यमाषो द्विधा-(निव्वत्तिओ यत्ति) मूलगुणनिर्वर्तनानिर्वत्तितः, उत्तरगुणनिर्वर्तनानिवर्तितश्च। तत्र मूलगुणनिर्वर्तनानिवर्तितो नाम-येन जीवेन तत्प्रथमतया माषभवानुगतनामगोत्रकर्मोदयतो माषद्रव्यप्रायोग्यानिद्रव्याणि गृहीतानि, उत्तरगुणनिर्वर्तनानिर्वर्जनानिर्वर्तितो माषस्तम्बश्चित्रकर्मणि लिखितः / (खेत्तम्मि इत्यादि) यस्मिन् क्षेत्रे माषस्य वर्णना स माषक्षेत्रप्राधान्यविवक्षायां तत्क्षेत्रमाषः / उपलक्षणमेतत् / तेन यस्मिन् क्षेत्रे मासकल्पः क्रियते स मासः क्षेत्रप्राधान्यविवक्षणात्तत्र क्षेत्र मास इत्यपि द्रष्टव्यम् / तथा-यत्र काले यो मासो वर्ण्यत स कालप्रधानताविवक्षणात्तत्कालमासः, अथवाश्रावणभाद्रपदादिकः / यदि वा-स्वलक्षणनिष्पन्नो नाक्षत्रादिकः पञ्चविधः-पञ्चभेदः कालमासः। (भाष्यकारः) तानेव भेदानुपदर्शयति - नक्खत्ते चंदेया, उउ आइचे य होइ बोधव्यो। अभिवड्डिए य तत्तो, पंचविधो कालमासो उ।।१५।। नक्षत्रेषु भवो नाक्षत्रः / किमुक्तं भवति-चन्द्रश्चारं चरन यावता कालेनाभिजित आरभ्योत्तराषाढानक्षत्रपर्यन्तं गच्छति तत्कालप्रमाणो नाक्षत्रमासः / यदि वा-चन्द्रस्य नक्षत्रमण्डले परिवर्तनतो निष्पन्न इत्युपचारतो मासीऽपि नक्षत्रम् / तथा-(चंदेया इति) चन्द्र भवश्चान्द्रः युगादौ श्रावणे मासे बहुलपक्षप्रतिपद आरभ्य यावत्पौर्णमासीपरिसमाप्तिस्तावत्कालप्रमाणञ्चान्द्रो मासः। एकपौर्णमासीपरावर्त्तश्चान्द्रो मास इति यावत् / अथवा-चन्द्रचारनिष्पन्नत्वादुपचारतो मासोऽपि चन्द्रः / चः समुच्चये। दीर्घत्वर्षित्वात्, (उउ इति) ऋतुः स च किल लोकरूढ्या षष्ट्यहोरात्रप्रमाणो द्विमासात्मकस्तस्यार्द्धमपि मासः, अवयवे समुदायोपचारात्। ऋतुरेव अर्थात्परिपूर्णत्रिंशदहोरात्रप्रमाणः। एष एव ऋतुमासः कर्ममास इति वा, सावनमास इपि वा, व्यवहियते। उक्तं च-"एस चेव उउमासो कम्ममाओ सावणमासो भण्णइ" इति। तथा-(आदिचे इति) आदित्यस्यायमादित्यः / प्रत्युत्तरपदयमादित्यदितेोऽणपवादो वेति ण्यप्रत्ययः / व्यञ्जनात्यम्यन्तस्य सरूपे वा। इति पाक्षिकस्य एकस्य यकारस्य लोपः। स चैकस्य दक्षिणायनस्योत्तरायणस्य वात्र्यशीत्यधिकदिनशतप्रमा-णस्य षष्ठभागमानः, यदिया-आदित्यचारनिष्पन्नत्वादुपचारतो मासोऽप्यादित्यः। (अभिवड्डिए यतत्तो इति) ततश्चतुर्थादादित्यान्मासादनन्तरः पश्च मो मासोऽभिवर्द्धितः, अभिवर्द्धितो नाम मुख्यतस्त्रयोदशचन्द्रमासप्रमाणः, संवत्सरे द्वादशचन्द्रमासप्रमाणात्संवत्सरादेकेन मासेनाभिवर्द्धितत्वात् परं तद् द्वादशभागप्रमाणो मासोऽप्यवयवे समुदायोपचारादभिवर्द्धितः, एष पञ्चविधः कालमासः। तुः पूरणार्थः / तदेवमुक्ता नामतो नाक्षत्रादयः पञ्चापि मासाः। सांप्रतमेतेषामेव मासाना दिनपरिमाणमभिधित्सुस्त दानयनाय (भाष्यकारः) करणमाहरिक्खाई मासाणं, करणमिणमं तु आणणोवाओ। जुगदिणरासिं ठाविय, अट्ठारसयाई तीसाइं॥१६||
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________________ मास 262 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मास ऋक्षेषु चन्द्रस्य परिवर्तनतो मासोऽप्याधेये आधारोपचारात् ऋक्षः, ऋक्ष आदिर्येषां ते ऋक्षादयः, आदिशब्दात्चन्द्रमासादिपरिग्रहः / तेषामृक्षादीना मासानामानयनोपायकरणमिदंकयमाणम् / तदेवाह(जुगदिणेत्यादि) युगे चन्द्र-चन्द्राऽभिवर्द्धितचन्द्राऽभिवर्द्धितसंवत्सरप्रमाणे दिनराशिरहोरात्रराशियुगदिनराशिस्तं रथापयित्वा, कियत्प्रमाणमित्याह-अष्टादश शतानि त्रिंशानि त्रिंशदधिकानि एतावान् दिनराशिसुगे भवतीति, कामिवसीयते इति चेत् ? उच्यते-इह सूर्यस्य दक्षिणम् उत्तरं का अवनंत्र्यशीत्यधिकदिनशतात्मकम्, युगे च पञ्च दक्षिणायनानि पोतरायणानि सर्वसंख्यया दशायनानि, ततस्त्र्यशीत्यधिकं दिनशत दशकेन गायले इत्यागतो यथोक्तो दिनराशिरेवं प्रमाण दिनराशि स्थायि . (भाष्यकार:) किमित्याहताहे हराहि भाग, रिक्खाईयाण दिनकरंऽताणं। सत्तट्टी-बावट्ठी-एगट्ठी-सट्ठिभागेहिं॥१७॥ तलो-दिनराशिस्थापनानन्तरमृक्षादीनामृक्षमासप्रभृतीना, दिनकरान्ताना सूर्यभासपर्यन्तानां नक्षत्रचन्द्रादित्यमासानामित्यर्थः / दिनमा - नानयनाय यथाक्रम सप्तषष्टिद्वाषष्ट्येकषष्टिषष्टिभागैः सप्तषष्ट्यादिभिर्भागहास्त्यिर्थः भाग (हराहि त्ति) हर। ततो यथोक्त नक्षत्रादिमासगतदिनपरिमाणभागच्छति / तच्चोत्तरत्र दर्शयिष्यते। सांप्रतमभिवर्द्धितमासगतदिनपरिमाणानयनाय नेदं करणमिति (भाष्यकार:) करणान्तरमाहअभिवञ्जियकरणं पुण, ठाविय रासिं इमं तु कायव्वं / ऊणालीससयाई, पण्णट्ठाई अणूणाई॥१८॥ अभिवर्द्धितकरणमभिवर्द्धितमासगतदिनपरिमाणानयनाय करणं पुनरिदं वक्ष्यमाण कर्त्तव्य-प्रयोक्तव्यमिति प्रयोगः। तदेवाह-स्थापयित्वा राशिं किं प्रमाणमित्यत आह-एकोनचत्वारिंशतानि पञ्चषष्टीनि पञ्चषष्ट्य - धिकान्यनूनानिपरिपूर्णानि। केषां राशिरयमिति चेत् ? उच्यते-अभिबर्द्धितमासगतदिनचतुर्विशत्युत्तरशतभागानाम्। तथाहि-अभिवर्द्धितमासस्य दिनपरिमाणमेक-त्रिंशदहोरात्रा एकविंशत्युत्तरं शतं भागानाम्, अहोरात्राश्च शतं भागानाम, अहोरात्राश्च प्रत्येकम् एकत्रिंशत् चतुर्विशत्युत्तरशतेन गुण्यन्तेजातान्यष्टात्रिंशत् शतानि चतुश्चत्वारिंशदधिकानि३८४४ उपरितनं च एकविंशत्युत्तर शतं तत्र प्रक्षिप्यते जातो यथोक्तप्रमाणो राशिः 3665 / (भाष्यकार:) तं स्थापयित्वा किमित्याहएयस्स भागहरणं, चउवीसेणं सएण कायव्वं / जे लद्धा ते दिवसा, सेसा भागा मुणेयव्वा / / 16 / / एटस्य अनन्तरोदितस्य पञ्चषष्ट्यधिकैकोनचत्वारिंशच्छ तप्रमाणस्य राशेश्चतुर्विशेन-चतुर्विशत्यधिकेन शतेन भागहरणं, भागे च हृते ये अङ्का लब्धास्ते दिवसा ज्ञातव्याः / शेषास्त्वका उद(द्ध) मिताः अहोरात्रस्य चतुर्विशत्युत्तरशत भागाः। भाष्यमअहवा वि तीसइ गुणे, सेसे तेणेव भागहारेणं / भइयम्मि जं तु लब्भइ, ते उ मुहूत्ता मुणेयव्वा / / 20 / / अथवेति प्रकारान्तरद्योतने। तच प्रकारान्तरमिदम्-लब्धदिवसानामुपरि भागास्तावत्तदवस्था एव ध्रियन्ते, तथैव शास्त्रे व्यवहारदर्शनात। अथवा -अपिः समुच्चये / समुच्चयप्रकारान्तरस्ये-वान्यस्य श्रूयमाणत्वात्, शेषे उद्ध(द) रिते राशौ मुहूर्तानयनाय त्रिंशद्गुणे कृते ततस्तेनैव चतुर्विशत्युत्तरशतप्रमाणेन भागहारेण भक्ते यत् लभ्यते ते मुहूर्ता ज्ञातव्याः / तस्स विजं अवसेसं, बावट्ठीए उ तस्स गुणकारो। गुणकारभागहारे, बावट्ठीए य उववट्टो।।२१।। (भा०) तस्यापि मुहूर्तस्य संबन्धि यदवशेषमुद्ध(द)रितं तस्य मुहूर्तगतद्वाषष्टिभागानयनाय द्वाषष्ट्या गुणकारः-गुणकरणम् / किमुक्तं भवतियदवशेष तिष्ठति तत्तु द्वाषष्ट्या गुण्यते, ततो 'गुणकारभागहारे इति' यस्योपरितनस्य राशेर्गुणकरमभवत्स गुणकारयोगात गुणकारः। अधस्तनस्तु गुणकारश्च भागहारश्च गुणकारभागहारम् / समाहारी द्वन्द्वस्तस्मिन षष्ठीसप्तम्योरथ प्रत्यभेदः तत एतदुक्तं भवति-गुणकारभागरयोषिष्ट्या अपवर्तः-अपवर्त्तना क्रियते। दोहिं तु हिए भागे, जे लद्धा तेऽवि सट्ठिभागा उ। एएसिमागयफलं, रिक्खाईणं कमेण इमं / / 22 / / (भा०) भागहारराशेश्चतुर्वित्यधिकशतप्रमाणस्य द्वाषष्ट्याऽपवर्त्तनाया जाती द्वौ, ताभ्यां तु द्वाभ्यां हृते भागे येऽङ्कालब्धास्ते द्विषष्टिभागा एव। तुरेवकारार्थः / मुहूर्तस्य ज्ञातव्याः / सांप्रतमागतप्रतिपादनार्थ-मिदमाह(एएसिमित्या दि) एतेषां भागहाराणामृक्षादीनां नक्षत्रादिमासानां दिनपरिमाणनयनाय भाग हरतां यत् आगतमेव फलमागतफलं तत् क्रमेण ऋक्षादिमासपरिपाट्या इदं वक्ष्यमाणम्। (भाष्यकारः) तदेवाहअहोरत्तं सत्तवीस, तिसत्त सत्तट्ठिभागनक्खत्तो। चंदो उ उगुणतीसं, विसट्ठिभागा य बत्तीसं / / 23 / / नाक्षत्रो नक्षत्रसबन्धी मासः सप्तविंशतिरहोरात्राः सप्तषष्टिभागाः, त्रिःसप्तत्रयो वाराः सप्त एकविंशततिरित्यर्थः२७।२१/६७। तथाहियुगदिनराशिस्त्रिंशदधिकाष्टादशशतप्रमाणो ध्रियते तस्य सप्तषष्टियुगे नक्षत्रमासा इति सप्तषष्ट्या भागो हियते, लब्धाः सप्तविंशतिरहोरात्रा एकविंशतिरहोरात्रस्य सप्तषष्टिभागाः। तथा चान्द्रः चन्द्रमास एकोनत्रिंशदहोरात्रा द्वाषष्टिभागा अहोरात्रस्य द्वात्रिंशत् 26 / 32/62 तथाहितस्यैव युगदिनराशिस्त्रिंशदधि-काऽष्टादशशतमानस्य युगे चन्दमासा द्वाषष्टिरिति, द्वाषष्ट्या भागे हृते एतावदेव लभ्यते इति। भाष्यम् - उदुमासो तीस दिणा, आइचो तीस होइ अद्धं वा। अभिवड्डि एक्कतीसा, इगवीससयं च भागाणं / / 24 / / ऋतुमासः परिपूर्णानि त्रिंशदिनानि एकाषष्टियुगे ऋतुर्मासा इत्येक षष्ट्यानन्तरोदितस्य धुवराशेर्भागहरणे, एतावतो लभ्यमानत्वात्, आदित्यः-आदित्यमासो भवति। त्रिंशदहोरात्रा अहोरात्रस्यार्द्ध यतः सूर्यस्य युगे मासाः / षष्टिस्ततः षष्ट्या ध्रुवराशेर्भागहरणे एतावल्लभ्यते इति अभिवड़ितोऽभिवर्द्धितमासः एकत्रिंशदहोरात्रा एकस्य चाहोरात्रस्य चतुर्विशत्युत्तरशतभागानामेकविंशं शतमेकविंशत्यधिक शत
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________________ मास 263 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मास म् 31 / 132/124 / तथाहि-एकोनचत्वारिंशच्छताना पञ्चषष्ट्यधिकानां 3965 चतुर्विशत्युत्तरेण शतेन भागे न्हियमाणे यथोक्तं लभ्यते स्वेति। अथवा (भाष्यकारः) न भागैः संख्या किंतु मुहूर्तादिभिरत आहएकत्तीसंच दिणा, इगुतीसमुहुत्तसत्तरसभागा। एत्थं पुण अहिगारो, नायव्वो कम्ममासेणं / / 25 / / एकत्रिंशदिनानि एकोनत्रिंशन्मुहूर्ताः सप्तदश द्वाषष्टिभागाः 31-2617-62 एकत्रिंशदिनानितावत्पूर्ववत, ततो यदेकविंशत्युत्तरं शतमवशेष जात तत् अहोरात्रस्य त्रिंशन मुहूर्ता इति मुहूर्तानयनाय त्रिंशता गुण्यते, जातानि त्रिंशदधिकानि षट्त्रिंशत् शतानि 3630 एतेषां चतुर्विशत्यधिकेन शतेन य भागहरणम्, लब्धा एकोनत्रिंशन्मुहूर्ताः 26, शेषमवतिष्ठते चतुस्त्रिंशत् 34. सार्द्धषष्टिभागानयनाय द्वाषष्ट्या गुण्यते जातान्येकविंशतिशतान्यष्टोत्तरणि 2108 | तेषां चतुर्विशत्युत्तरशतेन भागो हियते लब्धाः परिपूर्णाः सप्तदश 17 द्वाषष्टिभागाः। अत्रपुनः प्रायश्चित्तविधावधिकारः प्रकृतं ज्ञातव्यो नक्षत्रादीनां मासानां मध्ये कर्ममासेन। संप्रति (भाष्कारः) भावमासप्रतिपादनार्थमाहमूलादिवेदगो खलु, भावे जो वा वि जाणतो तस्स। न हि अग्गिनाणतोऽग्गी, णाणं भावो ततोऽणण्णो // 26 // भावे-भावमासो द्विधा-आगमतो, नोआगमतश्च / तत्र नोआग-मतः खलु मूलादिवदकः / मूलकन्दकाण्डपत्रपुष्पफलवेदकः। किमुक्तं भवतियो धान्यमाषजीवा धान्यमाषभवे वर्तमानो मूलरूपतया कन्दरूपतया काण्डरूपतया पत्ररूपतया पुष्परूपतया फलरूपतया वा धान्यमाषभवायुर्वेदयते स नोआगमतो भावमाषः, प्राकृत भाषशब्दस्यापि भास इतिरूपसंभवादागमत आह-(जो वाऽपि जाणतो तस्स) तस्यमाषस्य मासस्य वा यो ज्ञायकोज्ञाता अपि शब्दादुपयुक्तश्च स आगमतो भावमासः / "उपयोगो भावनिक्षेपः" इति वचनात् / अत्र-पर आह (नहीत्यादि) ननु यदि मासस्य ज्ञाता तत्र चोपयुक्तस्तथापि कथमसौ भावमासः? तग्रिज्ञानोपयुक्तो माणवकोऽग्निः दाहपाकाद्यर्थक्रियाकारित्वाभावात् / अत्र सूरिराह-(नाणमित्यादि) यदेतदुक्तम्- तदसत् सम्यग्वस्तुतत्त्वापरिज्ञानात्, इहाद्यर्थाभिधानप्रत्ययास्तुल्य-नामधेयाः, तथाहि-घटोऽपि घट इत्यभिधीयते, घटशब्दोऽपि, घटज्ञानमपि घट इति / एतच सर्ववादिनामविसंवादस्थानम् / ततो मासज्ञानमपि मासशम्दवाच्यं तच्च भावो जीवगुणत्वात्। स च ज्ञानलक्षणो भावस्तस्मादात्मनोऽनन्य इति मासज्ञानोपयुक्तो भाव मासः अत्र षड्विधमासनिक्षेपमध्ये कालमासेनाधिकारस्तत्रापि कर्ममासेनेत्यनन्तरमेवोक्तम्, शेषास्त्वपाकरणबुद्ध्योपन्यस्ताः / एतदेव निक्षेपप्ररूपणायाः फल यत्प्रस्तुतस्य व्याकरणम्, अप्रस्तुतस्य निराकरणमिति / यदुक्तम्"अप्रस्तुतार्थपाकरणात् प्रस्तुतार्थव्याकरणाच निक्षेपः फलवानिति।" तदेवं मासनिक्षेपप्ररूपणा कृता / व्य०१ उ०१ प्रक० / ज्यो० / वृ०। निञ्चूला दर्शन नक्षत्रेषु भवो नाक्षत्रः किमुक्तं भवति? चन्द्रश्चारं चरन्यावता कालेनाभिजित आरभ्योत्तराषाढानक्षत्रपर्यन्तं गच्छति तत्प्रमाणो नाक्षत्रो मासः, यदिवा-चन्द्रस्य नक्षत्रमण्डले परिवर्तनतानिष्पन्न इत्युपचारतो भासोऽपि नक्षत्रम् (ज०) युगादौ श्रावणमासे बहुलपक्षप्रतिपद आरभ्य यावत् पौर्णमासीपरिसमाप्तिस्तावत्काल-प्रमाणश्चान्द्रो मासः, एकपूर्णिमापरावर्तश्चान्द्रो मास इति यावत्, अथवा-चन्द्रनिष्पन्नत्वादुपचारतो चन्द्रः, सच द्वादशगुणश्चन्द्र-संवत्सरः, चन्द्रमासनिष्पन्नत्वादिति, द्वितीयतुर्यावप्येवं व्युत्पत्तियोऽवगन्तव्यौ, तृतीयस्तु युगसंवत्सरोऽभिवड़ितो नाम मुख्यतस्त्रयोदशचन्द्रमासप्रमाणः संवत्सरो द्वादशचन्द्रमासप्रमाणः संवत्सर उपजायते, कियता कालेन सम्भवतीत्युच्यते-इह युमं चन्द्रचन्द्राभिवर्द्धितचन्द्राभिवर्द्धितरूपपञ्चसंवत्सरात्मकं सूर्यसंवत्सरापेक्षया परिभाव्यमानमन्यूनातिरिक्तानि पञ्च वर्षाणि भवन्ति, सूर्यमासश्च सार्द्धत्रिंशदहोरात्रप्रमाणश्चन्द्रमासश्चैकोनत्रिशहिनानि द्वात्रिंशच द्वाषष्टिांगा दिनस्य, ततो गणितसम्भावनया सूर्यसंवत्सरसत्कत्रिंशन्मासातिक्रमे एकश्चान्द्रमासोऽधिको लभ्यते, स च यथा लभ्यते तथा पूर्वाचार्यप्रदर्शियं करणंगाथा "चंदस्य जो विसेसो, आइच्चस्सय हविज्ञ मासस्स। तीसइगुणिओ संतो, हवइहु अहिमासगो इक्को॥१॥" अस्या अक्षरगमनिका-आदित्यसम्बन्धिनो मासस्य मध्यात् चन्द्रस्यचन्द्रमासस्य यो भवति विश्लेषः, इह विश्लेष कृते सति यदवशिष्यते तदव्युपचाराद्विश्लेषः, स त्रिंशता गुणितः सन् भवत्येकोऽधिकमासः, तत्र सूर्यमासपरिमाणात् सार्द्धत्रिंशदहोरात्ररूपाचन्द्रमासपरिमाणमेकोनत्रिंशद्दिनानि द्वात्रिंशच द्वाषष्टिभागा दिनस्येत्येवंरूपं शोध्यते, ततः स्थितं पश्चादिनमेकमेकेन द्वाषष्टिभागेन न्यूनम, तच दिनं त्रिंशता गुण्यते जातानि त्रिंशदिनानि एकश्च द्वाषष्टिभागस्त्रिंशता मुणितो जाताः त्रिंशद् द्वाषष्टिभागास्ते त्रिशहिनेभ्यः शोध्यन्ते ततः स्थितानि शेषाणि एकोनत्रिंशद्दिनानि द्वात्रिंशच्च द्वाषष्टिभागा दिनस्य एतावत्परिमाणश्चन्द्रमास इति। भवति सूर्यसंवत्सरसत्कत्रिंशन्मासातिक्रमे एकोऽधिकमासो, युगे च सूर्यमासाः षष्टिः ततो भूयोऽपि सूर्यसंवत्सरसत्कत्रिंशन्मासातिक्रमे द्वितीयोऽधिकमासो भवति, उक्तं च"सट्ठीए अइआए, हवइ हु अहिमासगो जुगद्धम्मि। बावीसे पव्वसए, हवइ अबीओ जुगंऽतंमि॥१॥" अस्याप्यक्षरगमनिका-एकस्मिन् युगे-अनन्तरोदितस्वरूपे पर्वणापक्षाणां षष्टौ अतीतायां-पष्टिसंख्येषु पक्षष्वतिक्रान्तेषु इत्यर्थः एतस्मिन् अवसरे युगाढ़ें-युगा प्रमाणे एकोऽधिकमासो भवति। द्वितीयस्त्वधिकमासो द्वाविंशे द्वाविंशत्यधिके पर्वशते-पक्षशतेऽतिक्रान्तेयुगस्यान्तेयुगस्य पर्यवसाने भवति, तेन युगमध्ये तृतीये संवत्सरेऽधिकमासः, पञ्चमे वेति द्वौ युगेऽभिवर्द्धितसंवतत्सरौ। यद्यपि सूर्यवर्षपञ्चकात्मके युगे चन्द्रमासद्वयवनक्षत्रामासाधिक्य-सम्भवस्तथापि नक्षत्रमासस्य लोके व्यवहाराविषयत्वात्, कोऽर्थः? यथा चन्द्रमासो लोके विशेषतो यवनादिभिश्च व्यवहियते तथा न नक्षतमिास इति / एतेषां च नक्षत्रादिसंवत्सराणां मासदिनमाना-नयनादिप्रमाण संवत्सराधिकार वक्ष्यते। एते च चन्द्रादयः पञ्च
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________________ मास 264 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मास कृतया द्वाषष्ट्या चतुर्विशत्यधिकशतरूपया एकादश गुण्यन्ते जातम्१३६४ चतुश्चत्वारिंशद द्वाषष्टिभागा अपि सवर्णनार्थ द्विगुणीक्रियन्त कृत्वा च मूलराशौ प्रक्षिप्यन्ते, जातम्-१४५२ एषां द्वादशभिगि हते लब्धमेकविंशत्युत्तरं शतं चतुर्विशत्युत्तरशतभागानाम् / एतावदभिवर्द्धितमासप्रमाणम्, एतेषां कमेणाङ्कस्थापना, यथा इदं च नाक्षत्रादिमासमानं वर्षे द्वादशमासा इति द्वादशगुणं स्वस्ववर्षमान जनयन्ति, स्थापना यथा नक्षत्रः चन्द्रः | ऋतुः | सूर्यः अमिवद्धितः 27 | 26 / / 30 30 / 31 भाग 21 0 30 / 121 124 दिन 62 नक्षत्रः चन्द्रः ऋतुः सूर्यः अभिवर्द्धितः 327 (354 360 | 366 भाग 51 | 12 | 0 o 62 युगसंवत्सराः पर्वभिः पूर्यन्ते इति तानि कति प्रतिवर्ष भवन्तीति पृच्छन्नाह- 'पढ़ मस्स ण' मित्यादि, प्रथमस्ययुगाऽऽदौ प्रवृत्तस्य, भगवन् ! चन्द्रसंवत्सरस्य कति पर्वाणि पक्षरूपाणि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! चतुर्विशतिः पर्वाणि, द्वादशमासात्मकत्वेनास्य प्रतिमासं पर्वद्वयसंभवात्, द्वितीयस्य चतुर्थस्य च प्रश्नसूत्रे एवमेव, अभिवर्द्धितसंवत्सरसूत्रे षड्विंशतिः तस्य त्रयोदशचन्द्रमासात्मकत्वेन प्रतिमासं पर्वद्वयसम्भवात, एवमन्योऽभिवर्द्धितोऽपि, सर्वाग्रमाह-एवमेव पूर्वापरमीलनेन चतुर्विशं पर्वत भवतीत्याख्यातम् / अथ तृतीयः-'प्रमाणसंवत्सरे' इत्यादि, प्रमाणसंवत्सरः कतिविधः प्रज्ञप्तः ? गौतम ! पञ्चविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथानाक्षत्र चान्द्रः ऋतुसंवत्सरः आदित्यः अभिवर्द्धितश्च / अत्र नक्षत्रचन्द्राभिवहिताख्याः स्वरूपतः प्रागभिहिताः, ऋतवो लोकप्रसिद्धा वसन्तादयः व्यवहारहेतुः संवत्सरः ऋतुसंवत्सरः, ग्रन्थान्तरे चास्य नाम रावनसंवत्सरः कर्मसंवत्सर इति / आदित्यचारेण दक्षिणोत्तरायणाभ्यां निष्पन्नः आदित्यसंवत्सरः / प्रमाणप्रधानत्वादस्य संवत्सरस्य प्रमाणमेवाभिधीयते, तस्य च मासप्रमाणाधीनत्वादादौ मासप्रमाणम्, तथाहि इह किल चन्द्रचन्द्राभिवर्द्धितचन्द्राभिवर्द्धितनामकसंवत्सरपञ्चकप्रमाणे युगे अहोरात्रराशिस्त्रिंशदधिकाष्टादशशतप्रमाणो भवति, कथमेतदव-सीयते इति चेत्, उच्यते इह सूर्यस्य दक्षिणमुत्तरं वाऽयन यशीत्यधिकदिनशतात्मकम्, युगे च पञ्चदक्षिणायनानि पञ्च चोत्तरायजानि इति / सर्वसंख्यया दशायनानि, ततस्त्र्यशीत्यधिक दिनशत दशकन गुण्यते इत्यागच्छति यथोक्तो दिनराशिः। एवंप्रमाण दिनराशि स्थापयित्वा नक्षत्रचन्द्रऋत्वादिमासानां दिनानयनार्थ यथाक्रम सप्तषष्ट्येकषष्टिद्वाषष्टिलक्षणैर्भागहारैर्भाग हरेत्, ततो यथोक्तं नक्षत्रादिमासचतुष्कगतदिनपरिमाणमागच्छति, तथाहि-युगदिनराशेः 1830 रूपः, अस्य सप्तषष्टियुगे भासा इति सप्ताष्ट्या भागो हियते, यल्लब्ध तन्नक्षत्रमासमानम्, तथाऽस्यैव युगदिनराशेः 1830 रूपस्य एकषष्टियुगे ऋतु मासा इति एकषष्ट्या भागहरणे लब्धम् ऋतुमासमानम्। तथा युगे सूर्यमासाः षष्टिरिति ध्रवराशे: 1830 रूपस्य षष्ट्या भागहारे यल्लब्ध तत्सूर्यमासमानम्, तथाऽभिवर्द्धिते वर्षे तृतीये पञ्चमे वा त्रयोदश चन्द्रमासा भवन्ति, तद्धर्ष द्वादशभागीक्रियते ततएकैको भागोऽभिवर्द्धितमास इत्युच्यत, इह किलाभिवर्द्धितसंवत्सरस्य त्रयोदशचन्द्रमासमानस्य दिनप्रमाणं त्र्यशीत्यधिकानि त्रीणि शतानि चतुश्चत्वारिंशच्च द्वाषष्टिभागाः, कथमिति चेत, उच्यते-चन्द्रमासमानं दिनानि 26/.. एतद्रूपं त्रयोदशभिर्गुण्यते जातानि सप्तसप्तत्युत्तराणि त्रीणि शतानि दिनाना, षोडशोत्तराणि चत्वारि शतानि चांशानां ते च दिनस्य द्वाषष्टिभागास्ततो दिनानयानार्थं द्वाषष्ट्या भागो हियते, लब्धानिषड् दिनानि, तानि च पूक्तिदिनेषु मील्यन्ते जातानि त्रीणि शतानि त्र्यशीत्यधिकानि दिनानां चतुश्चत्वारिंशच द्वाषष्टिभागाः, ततो वर्षे द्वादश मासाः इति।। मासाऽऽनयनाय द्वादशभिर्भागो हियते लब्धा एकत्रिंशदहोरात्राः, शेषास्तिऽन्त्यहोरात्रा एकादश, ते च द्वादशानां भाग न प्रयच्छन्ति तेन यदि एकादश चतुश्चत्वारिंशद्वाषष्टिभागमीलनार्थ द्वाषट्या गुण्यन्ते तदा पूर्णे सशिन त्रुट्यति शेषस्य विद्यमानत्वपात्, तेन सूक्ष्मेक्षिकार्थ द्विगुणी- नाक्षत्रादिसंवत्सरमानम्, स एष प्रमाणसंवत्सर इति निगमनवाक्यम्, एषां च मध्ये ऋतुमासऋतुंसवत्सरावेव लोकैः पुत्रवृद्धिकलान्तरवृद्ध्यदिषु व्यवहियेते, निरंशकत्वेन सुबोधत्वात, यदाह-- "कम्मो निरंसयाए, मासो क्वहारकारगो लोए। सेसा उ संसयाए, ववहारे दुक्करा घेत्तु / / 1 / / अत्र व्याख्या-आदित्यादिसंवत्सरमासाना मध्ये कर्मसंवत्सर-सम्बन्धी मासो निरंशतया-पूर्णत्रिंशदहोरात्रप्रमाणतया लोकव्यवहारकारक: स्यात्, शेषास्तु सूर्यादयो व्यवहारे ग्रहीतुंदुष्कराः सांशतया नव्यवहारपथमवतरन्तीति, निरंशता चैवम्- षष्टिः पलानि घटिका, ते च द्वे मुहूर्तः, ते च त्रिशदहोरात्रः, तेच पञ्चदश पक्षः, तौ द्वौमासः, तेचद्वादश संवत्सर इति / शास्त्रर्वदिभिस्तु सर्वेऽपि मासाः स्वस्वकार्येषु नियोजिताः / तथाहि-अत्र नक्षत्रमासप्रयोजनं संपदायगम्यम्। "वैशाखे श्रावणे मार्गे, पौषे फाल्गुन एव हि। कुर्वीत वास्तुप्रारम्भं न तु शेषेषु सप्तसु॥१॥" इत्यादौ चन्द्रमासस्य प्रयोजनम्, ऋतुमासस्य तु पूर्वमुक्तम्, 'जीव सिंहस्थे धन्धिमीनस्थितेऽके, विष्णौ निद्राणे चाधिमासे न लगम्' इत्यादी तु सूर्यमासाभिवर्द्धितमासयोरिति. पूर्व नक्षत्रसंवत्सरादयः स्वरूपतो निरूपिताः, अत्र तु दिनमानानयनादिप्रमाणकरणेन विशेषेण निर पिता इति न पौनरुक्तयं विभाव्यम् / निशीथभाष्यकाराशयेन नक्षत्रचन्द्रर्तुसूर्याभिवर्द्धितरूपक मासपञ्चकम् / जं०७ वक्षः। वासाणं पढमं मासं कति णक्खत्ता गति? गोयमा ! चत्तारि णक्खत्ता ऐति, तं जहा-उत्तरासाढा अभिई सवणो वणिट्ठा / उत्तरासाढा चउद्दस अहोरते णेइ, अभिई सत्त अहोरते णेइ, सवणो अट्ठ अहोरते णेइ, घणिट्ठा एग अहोरत्तं णेइ। तंसि च णं मासंसि चउरंऽगुलपोरिसीए छायाए सरिए अणुपरिअट्टइ, तस्स णं मासस्स चरिमदिवसे दो पदा चत्तारिअ अगुला पोरिसी भवइ।
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________________ मास 265 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मास वासाणं भंते ! दोचं मासं कइणक्खत्ताणेति? गोयमा ! चत्तारिघनिट्ठा सयभिसया पुव्वाभद्दवया उत्तराभद्दवया / धणिट्ठा णं चउदस अहोरत्ते णेइ, सयभिसया सत्त अहोरत्ते णेइ, पुव्वाभदवया अट्ठ अहोरत्ते णेइ, उत्तराभहवया एग 1 तंसि च णं मासंसि अटुंगुलपोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरियट्टइ। तस्स मासस्स चरिमे दिवसे दो पया अट्ठ य अंगुला पोरिसी भवई / वासाणं भंते ! तइयं मासं कइ णक्खत्ता णें ति ? गोयमा ! तिण्णि णक्खत्ता ऐति, तं जहा-उत्तरभद्दवया रेवई अस्सिणी। उत्तरभदवया चउद्दस राइदिए णेइ, रेवई पण्णरस, अस्सिणी एगं / तंसि चणं मासंसिदुबालसंगुलपोरिसीएछयाए सूरिए अणुपरियट्टइ। तस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे लेहट्ठाई तिण्णि पोरिसी भवइ / वासाणं भंते ! चउत्थं मासं कति णक्खत्ता णे ति ? गोयमा ! तिण्णिअस्सिणी भरणी कत्तिआ / अस्सिणी चउद्दस, भरणी पन्नरस, कत्तिआ एगं। तंसि च णं मासंसि सोलसंगुलपोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरिअट्टइ। तस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे तिण्णि पयाई चत्तारि अंगुलाई पोरिसी भवइ / हेमन्ताणं भंते ! पढम मासं कति णक्खत्ता णे ति? गोयमा ! तिण्णि-कत्तिआ रोहिणी मिगसिरं / कत्तिआ चउद्दस, रोहिणी पण्णरस, मिगसिरं एग अहोरत्तं णेइ। तंसि च णं मासंसि वीसंगुलपोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरिअट्टइ / तस्स णं मासस्स जे से चरिमे दिवसे तंसि च णं दिवसंसि तिपिण पयाई अट्ठ य अंगुलाई पोरिसी भवइ / हेमतानां भन्ते ! दोच्चं मासं कति णक्खत्ता णें ति ? गोयमा ! चत्तारिणक्खत्ताणेंति, तंजहा-मिअसिरं अद्दा पुणव्वसू पुस्सो / मिअसिरं चउद्दत राइंदिआई णेइ, अद्दा अट्ठ णेइ, पुणव्वसू सत्त राइंदिआइंणेइ पुस्सो एगं राइंदिअंणेइ। तया णं चउव्वीसंऽगुलपोरीसीए छायाए सूरिए अणुपरियट्टइ। तस्स णं मासस्स जे से चरिमे दिवसे तंसि च णं दिवसंसि लेहट्ठाइं चत्तारि पयाई पोरिसी भवइ। हेमन्ताणं भंते ! तचं मासं कति णक्खत्ता णें ति ? गोयमा ! तिण्णि पुस्सो असिलेसा महा। पुस्सो चोद्दस राइंदिआई णेइ, असिलेसा पण्णरस, महा एक्कं / तया णं वीसंऽगुलपोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरिअट्टइ / तस्स णं मासस्स जे से चरिमे दिवसे तंसि च णं दिवसंसि तिण्णि पयाई अट्ठऽगुलाई पोरिसी भवइ। हेमंताणं भन्ते ! चउत्थं मासं कति णक्खत्ता णें ति ? गोयमा ! तिण्णि णक्खत्ता ऐति, तं जहा- | महा पुव्वाफग्गुणी उत्तराफग्गुणी। महा चउद्दस राइंदिआई णेइ, | पुव्वाफग्गुणी पण्णरस राइंदिआई णेइ, उत्तराफग्गुणी एग राइंदिअंणेइ / तया णं सोलसंगुलपोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरिअट्टइ / तस्स णं मासस्स जे से चरिमे दिवसे तंसि च णं दिवसंसि तिण्णि पयाई चत्तारि अंगुलाइंपोरिसी भवइ। गिम्हाणं भन्ते ! पढमं मासं कति णक्खत्ता ऐति ? गोअमा ! तिण्णि णक्खत्ता णेति, उत्तराफग्गुणी हत्थो चित्ता। उत्तराफग्गुणी चउद्दस राइंदिआइंणेइ हत्थो पण्णरस राइंदिआई णेइ, चित्ता एग राइंदिअंणेइ। तयाणं दुवालसंगुलपोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरिअट्टइ। तस्स मासस्स जे से चरिमे दिवसे तंसि च णं दिवसंसि लेहट्ठाइं तिण्णि पयाइं पोरिसी भवइ। गिम्हाणं भन्ते ! दोचं मासं कति णक्खत्ता णेंति ? गोयमा ! तिण्णि णक्खत्ता णेति, तं जहा-चित्ता साई विसाहा। चित्ता चउद्दस राइंदिआई णेइ, साई पण्णरस राइंदिआइंणेइ, विसाहा एग राइंदिअंणेइ। तया णं अटुंगुलपोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरिअट्टइ। तस्स णं मासस्स जे से चरिमे दिवसे तंसि च णं दिवसंसि दो पयाई अट्ठऽगुलाई पोरिसी भवइ / गिम्हाणं भन्ते ! तचं मासं कति णक्खत्ता णें ति? गोयमा ! चत्तारि खक्खत्ता ऐति, तं जहाविसाहा अणुराहा जेट्ठा मूलो विसाहा चउद्दस राइंदिआई णेइ, अणुराहा अट्ट राइंदिआई णेइ, जेट्ठा सत्त राइंदिआइंणेइ, मूलो एक राइंदि। तया णं चउरंऽगुलपोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरिअट्टइ। तस्स णं मासस्स जे से चरिमे दिवसे तंसि च णं दिवसंसि दो पयाइं चत्तारि अ अंगुलाई पोरिसी भवइ / गिम्होणं भन्ते ! चउत्थं मासं कति णक्खत्ता में ति, गोयमा ! तिपिण णक्खत्ता ऐति तं जहा-मूलो पुव्यासाढा उत्तरासाढा / मूलो चउद्दस राइंदिआइंणेइ, पुव्वासाढा पण्णरस राइंदिआई णेइ, उत्तरासाढा एग राइंदिअंणेइ / तया णं वट्टाए समचउरंससंठाणसंठिआए णग्गोहपरिमण्डलाए सकायमणुरंगिआए छायाए सूरिए अणुपरिअट्टइ। तस्स णं मासस्स जे से चरिमे दिवसे तंसि च णं दिवसंसि लेहट्ठाइं दो पयाइं पोरिसी भवइ / एतेसि णं पुव्ववण्णिआणं पयाणं इमा संगहणी / तं जहा "जोगो देवयतारग्ग-गोत्तसंठाणचन्दरविजोगो। कुलपुण्णिमअवमंसा, णेआ छाया य बोद्धव्वा / / 1 / / " (सूत्र-१६२) वषाणाम वर्षा कालस्य चतुर्मास प्रमाणस्य प्रथममासं आवणलक्षणं कति नक्षत्राणि स्वयमस्तगमनेनाहोरात्रपरिसमापकतया क्रमेण नयन्ति ? द्विकर्मकत्वादस्य समाप्तिमिति ग
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________________ मास 266 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मास म्यते, कोऽर्थः ? वक्ष्यमाणसंख्याङ्कस्वस्वदिनेषु इमानि नक्षत्राणि यदा अस्तमयन्ति तदा श्रावणसेऽहोरात्रसमाप्तिरित्यर्थः, तेनैतानि रात्रिपरिसमापकस्वादाविनक्षत्राण्युच्यन्ते, भगवानाह-गौतम ! चत्वारि नक्षत्राणि नयन्ति, तद्यथा-उत्तराषाढा अभिजिच्छ्वणो धनिष्ठा च। तत्रोत्तराषाढा प्रथमान् चतुर्दश अहोरात्रान् नयति, तदनन्तरमभिजिन्नक्षत्रं सप्ताहोरात्रानयति, ततः श्रवणनक्षत्रमष्टौ अहोरात्रान्नयति, एवं च सर्वसङ्कलनया श्रावणमासस्थैकानत्रिंशद-होरात्रा, गतास्ततः परं श्रावणमासस्य सम्बन्धिनं चरममेकमहोरात्र धनिष्टा नक्षत्रं नयति / एवं श्रावणमासं चत्वारि नक्षत्राणि नयन्ति। अस्य च नेतृद्वारस्य प्रयोजनं रात्रिज्ञानादौ। "ज नेइ जया रति, णक्खत्तं तंमिणहचउभागे। संपत्ते विरमेजा, सज्झायपओसकालंमि॥१॥" इत्यादौ, तदनुरोधेन च दिनमानज्ञानायाह-तस्मिश्च श्रावणमासे प्रथमादहोरात्रादारभ्य प्रतिदिनमन्यान्यमण्डलसंक्रान्त्या तथा कथञ्चनापि परावर्त्तते यथा तस्य श्रावणमासस्यपर्यन्तेषु चतुरड्डुलाधिका द्विपदा पौरुषी भवति / अत्र चायं विशेषः-बस्या संक्रान्तौ यावदिनरात्रिमान तचतुर्थाऽशः पौरुषीयामः प्रहर इति यावत्, आषाढपूर्णिमायां च द्विपदप्रमाणा-पौरुषी, तस्यां च श्रावणसत्कचतुरड्डुलप्रक्षेपं चतुरङ्गुलाधिका पौरुषी भवति। माने मेयोपचारादभेदनिर्देशः, तेन चतुरडलाधिकपौरुष्या छाययेति विशेषणाविशेष्यभावः। एतदेवाह-तस्य श्रावणमासस्य चरमे दिवसे द्वे पदे चत्वारि चाडलानि पौरुधी भवति। अथ द्वितीय मासं पृच्छति'वासाण' मित्यादि, वर्षाणां वर्षाकालस्य भदन्त ! द्वितीय भाद्रपदलक्षण मासं कति नक्षत्राणि नयन्ति ? अस्य वाक्यस्य भावार्थः प्राग्वद् भावनीयः / गौतम ! चत्वारि नक्षत्राणि नयन्ति, तद्यथा-धनिष्ठा शतभिषक् पूर्वभद्रपदा ऊत्तरभद्रपदा च। तत्र धनिष्ठा आधान् चतुर्दश अहोरात्रान् नयति, तदनन्तरं शतभिषक् सप्ताहोरात्रान् नयति, ततः परमष्टावहोरात्रान् पूर्वभद्रापदा नयति, तदनन्तरमेकमहोरात्रमुत्तरभद्रपदा नयति।। एवमेनं भाद्रपदमासं चत्वारि नक्षत्राणि नयन्ति, तस्मिश्च मासेऽष्टाङ्गुलपौरुष्या-अष्टाङ्गुलाधिकपौरुप्या छायया सूर्योऽनुपरावर्तते। अत्र भावार्थः प्राग्वद भावनीयः। एतदेवाह-तस्य भाद्रपदमासस्य चरमे दिवसे द्वेपदे अष्ट चामुलानिपौरुषी भवति। अथ तृतीय पृच्छति-(वासाणं भंते ! त्ति, इत्यादि) वर्षाणां भदन्त! तृतीयं मासं कति नक्षत्राणि नयन्ति ? गौतम ! त्रीणि नक्षत्राणि-उत्तरभद्रापदारेवती अश्विनी च। तत्रोत्तरभद्रपदा चतुर्दश रात्रिन्दिवान नयति, रेवती पञ्चदश रात्रिन्दिवान नयति, अश्विनी एक सत्रिन्दिवं नयति / एवं तृतीय मासं त्रीणि नक्षत्राणि नयन्ति, तस्मिश्च मासे द्वादशाङ्गुलपौरुष्या-द्वादशाङ्गुलाधिकपौरुष्या छायया सूर्योऽनुपरावर्तते / भावार्थः पूर्ववत् / एतदेवाह-तस्य मासस्य चरमे दिवसे रखापादपर्यन्तव-र्तिनी सीमा तत्स्थानि त्रीणि पदानि पौरुषी भवति। किमुक्त भवति ? परिपूर्णानि त्रीणि पदानि पौरुषी भवति। अथ चतुर्थे पृञ्छति-(वासाणमित्यादि) वर्षाणां वर्षाकालस्य भदन्त ! चतुर्थ कार्त्तिकलक्षणं मासं कति नक्षत्राणि नयन्ति ? गौतम ! त्रीणि अश्विनी भरणी कृत्तिका च / तत्राश्विनी चतुर्दशाहोरात्रान्, भरणी पञ्चदशाहोरात्रान, कृत्तिका एकमहोरात्र नयति। तस्मिश्च मासे षोडशागुलपौरुष्याषोडशामुलाधिकपौरुष्या छायया सूर्योऽनुपरावर्त्तते / भावार्थ पूर्ववत् / एतदेवाह-तस्य मासस्य चरमे दिवसे त्रीपिा पदानि चत्वारि चाङ्गुलानि पौरुषी भवति। गतो वर्षाकालः। अथ हेमन्तकालं पृच्छति(हेमन्ताण मित्यादि) हेमन्ताना-हेमन्तकालस्य भदन्त ! प्रथम मार्गशीर्षलक्षणं मासं कति नक्षत्राणि नयन्ति ? गौतम! त्रीणि नक्षत्राणिकृत्तिका रोहिणी मृगशिरश्च / तत्र कृत्तिका चतुर्दशाहोरात्रान्, रोहिणी पञ्चदशाहोरात्रान्, मृगशिर एकमहोरात्रं नयति। तस्मिश्च मासे विंशत्यकुलपौरुष्या-विंशत्यकुलाधिकपौरुष्या छायया सूर्योऽनुपरावर्त्तते / भावार्थः पूर्ववत्। एतदेवाह-तस्य मासस्य यश्चरतो दिवसस्तस्मिन् ! दिवसे त्रीणि पदानि अष्ट चाडलानि पोरुषी भवतीति / अथ द्वितीयं पृच्छति-(हेमन्ताण भन्ते! इत्यादि) हेमन्तकालस्य भदन्त ! द्वितीय पौषनामक मास कति नक्षत्राणि नयन्ति ? गौतम ! चत्वारि नक्षत्राणि नयन्ति। तद्यथा-मृगशिरः आर्द्रा पुनर्वसुः पुष्यश्च। तत्र मृगश्रिश्चतुर्दश रात्रिन्दिवान्नयति, आर्द्रा अष्टौ रात्रिंदिवान, पुनर्वसुः सप्त रात्रिन्टिवान्, पुष्यः एक रात्रिन्दिवं नयति। तदा चतुर्विशत्यङ्गुलपौरुष्याचतुर्विशत्यगुलाधिकपौरुष्या छायया सूर्योऽनुपरावर्त्तते / भावार्थः पूर्ववत् / तस्य मासस्य चरमे दिवसे रेखा-पादपर्यन्तवर्तिनी सीमा, तत्स्थानि चत्वारि पदानि पौरुषी भवति / किमुक्त भवति ? परिपूर्णानि चत्वारि पदानि पौरुषी भवति। अथ तृतीय पृच्छति-(हेमन्ताणमित्यादि) एतत् सुगमम् / अथ चतुर्थं पृच्छति-''हेमन्ताणं भन्ते ! चउत्थं इत्यादि" सुगमम्। अतीतो हेमन्तः। अथ ग्रीष्मं पृच्छति-'गिम्हाणं भन्ते ! पढम' इत्यादि, तथा 'गिम्हाणं भन्ते ! दोचं इत्यादि, तथा 'गिम्हाणं भन्ते ! तचं मास' इत्यादि, तथा 'गिम्हाणं भन्ते चउत्थं' इत्यादि, चत्वार्यपि इमानि ग्रीष्मकालसूत्राणि सुबोधानि. प्रायः प्राक्तनसूत्रानुसारित्वात् / नवर तस्मिश्चाषाढ मासे प्रकाश्यवस्तुनो वृत्तस्य वृत्तया समचतुरस्त्रसंस्थानसंस्थितस्य समचतुरस्रसंस्थानसंस्थितया न्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थानस्य न्यग्रोधपरिमण्डलया उपलक्षणमेतत् शेषसंस्थानसंस्थितस्य प्रकाश्यस्य वस्तुनः शेषसंस्थानसंस्थितया। आषाढे हि मासे प्रायः सर्वस्यापि प्रकाश्यस्य वस्तुनो दिवसस्य चतुगिऽतिक्रान्ते शेषे वा स्वप्रमाणा छाया भवति, निश्चयतः पुनराषाढमासस्य चरमदिवसे तत्रापि सर्वाभ्यन्तरे मण्डले वर्तमाने सूर्ये, ततो यत् प्रकाश्यं वस्तु यत्संस्थानं भवति तस्य छायाऽपि तथासंस्थानोपजायते। तत उक्तम्वृत्तस्य वृत्तया इत्यादि। एतदेवाह-स्वकायमनुरङ्गिन्या, स्वस्य-स्यकीयस्य छायानिबन्धनस्य वस्तुनः कायः शरीरं स्वकायस्तमनुरज्यते-अनुकारं विदधातीत्येवंशीला अनुरङ्गिनी, द्विषड्ग्रहेत्यादिना, श्रीसिद्ध० 'युजरञ्जद्विष० / 5-2-40 / इति धिनञ्प्रत्ययस्तया स्वकायमनुरङ्गिन्या छायया सूर्योऽनुप्रतिदिवस परावर्तते / एतदुक्तं
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________________ मास 267 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मासल भवाते-आमाढस्य प्रथमादहोरात्रादारभ्य प्रतिदिवसमन्यान्य-मण्डल- मासकप्प पुं० (मासकल्प) एकत्र मासावस्थितिरूपे समाचारे, पञ्चा०१७ संक्रान्त्या तथा कथंचनापि सूर्यः परावर्तते यथा सर्वस्यापि प्रकाश्यस्य | विव० / जीत० / ध० / दर्श० / पं०भा० / पं०चू० / ध० / औ० / बृ० / वस्तुनो दिवस्य चतुर्भागऽतिक्रान्ते शेषे वा स्वानुकारा स्वप्रमाणा च छाया ओघ०। (विहारशब्देऽयं व्याख्यास्यते) भवतीति। शर्ष सुगमम्। इदं पौरुषीप्रमाण व्यवहारत उक्तम्। निश्चयतः मासकल्पद्वारमाहसास्त्रिंशताऽहोरात्रेश्चतुरड्डला वृद्धिनिर्वा वेदितव्या। ज०७ वक्षः। दुविहो य मासकप्पो, जिणकप्पो चेव थेरकप्पो य। पारुषीप्रमाणप्रतिपादकाः पूर्वाचार्यप्रसिद्धाः करणगाथाः ‘पोरिसी' शब्दे एकेको वि य दुविहो, अट्ठियकप्पो य ठियकप्पो / / पचमभागे 1128 पृष्ठ सव्याख्या गताः) द्विविधो मासकल्पः, तद्यथा-जिनकल्पः स्थविरकल्पश्च / पुनरेकैको अथ मासानां संख्यामाह द्विविधः-अस्थितकल्पः, स्थितकल्पश्च। तत्र मध्यमसाधूना मासकल्पः एगमेगस्स णं भंते ! संवच्छरस्स कइ मासा पण्णत्ता ? अस्थितः, पूर्वपश्चिमानां तु स्थितः। ततः पूर्वपश्चिमाः साधवो नियमात गोअमा ! दुवालस मासा पण्णत्ता, तेसि णं दुविहा णामधेजा ऋतुबद्धे मासे मासेन विहरन्ति / मध्यमानां पूरयित्वाऽपि निर्गच्छन्ति। पण्णत्ता, तं जहा-लोइआ, लोउत्तरिया य। तत्थलोइआ णामा कदाचित्तु देशोनपूर्वकोटीमप्येकत्र आसते। बृ०६ उ०। इमे,तं जहा-सावणे भद्दवए०जाव आसादे,लोउत्तरिआ णामा से गामंसि वा० जाव कप्पइणिग्गंथाणं हेमंतगिम्हासु एगं मासं इमे, तं जहा वत्थए।।६।। "अभिणदिए पट्टे अ, विजए पीइवद्धणे। (इति सूत्रम् वसहि शब्दे) त्रिंशदहोरात्रमानमेकमृतुमासं कल्पते वस्तुसेअंसे य सिवे चेव, सिसिरे असहेमवं / / 1 / / मिति तदनुभावार्थः / अथ येषां मासकल्पेन विहारो भवति तन्नामग्राह णवमे वसंतमारो, दसमे कुसुमसंमवे / गृहीत्वा तद्विविमभिधित्सुराहएक्कारंसे निदाहे अ, वणविरोहे अ बारसमे / / 2 / / " जिणसुद्धअहालंदे, गच्छे मासो तहेव अजाणं / एकैकस्य भदन्त ! संवत्सरस्य कति मासाः प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! द्वादश एएसिं नाणत्तं,वोच्छामि अहाणुपुटवीए॥३३१।। मासाः प्रज्ञताः, तेषा द्विविधानि नामधेयानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-लौकि- जिनकल्पिकानां शुद्धपरिहारिकाणां यथालन्दकल्पिकानां गच्छकान्ति, लोकोत्तराणि च / तत्र लोकः प्रवचनबाह्यो जमस्तेषु प्रसिद्धत्वेन वासिना स्थविरकल्पिकानामित्यर्थः / तथैवार्याणां साध्वीना यथा येषा तत्सम्बन्धीनि लौकिकानि / लोकः प्रागुक्त एव तस्मात्सम्यग्ज्ञानादि-' मासकल्पो भवति तथैतेषां सर्वेषामपि नानात्वं वक्ष्यामि यथानुपूर्व्या गुणयुक्तत्वेन उत्तराः- प्रधानाः लोकोत्तराः जैनास्तेषु प्रसिद्धत्वेन यथोद्दिष्टपरिपाट्या / बृ०१ उ० / साधूनां मासकल्पादिविधिना बिहार त-सम्बन्धीनि लोकोत्तराणि / अत्र वृद्धिविधानस्य वैकल्पिकत्त्वेन एकान्तिकोऽन्यथा वा इति? प्रश्ने, उत्तरम्-साधूना मासकल्पादिविहारो यथाश्रुतरूपसिद्धिः / तत्र लौकिकानि नामान्यमूनि, तद्यथा आवणो नैकान्तिको, यतः कारणाभावे ते मासकल्पादिविधिनैव विहरन्ति, कारणे भाद्रपदः यावत्करणात् आश्वयुजः कार्तिको मार्गशीर्षः पौषो माघः तु"पंचसमिआ तिगुत्ता, उज्जुत्ता संजमे तवे चरणे / वाससयं पि यसंता, फाल्गुनश्चैत्रो वैशाखो ज्येष्ठ आषाढ इति। लोकोत्तराणि नामान्यमूनि, मुणिणो आराहगा भणिआ।।१।।" इत्यादिवचनाद्बहुतरमपि कालमेकत्र तद्यथा-प्रथमः श्रावणः, अभिनन्दिनो द्वितीयः, प्रतिष्ठितस्तृतीयो, तिष्ठन्तीति। सेन०१ उल्ला०१५ प्र०। विजयश्चतुर्थः, प्रीतिवर्द्धनः पञ्चमः, श्रेयान् षष्ठः शिवः सप्तमः, शिशिरः | मासखमण न० (मासक्षपण) पक्षद्वयात्मकमासपर्यन्ते निराहारे, बृ०३ उ०। अष्टम: हिमवान्, सूत्रे च पदपूरणाय सहशब्देन समासः तेन हिमक्ता सह मासणिव्वाहि त्रि० (मासनिर्वाहिन्) मासनिर्वहसमर्पक, पं०व०५ द्वार। शिशिर इत्यागतं शिशिरः हिमवाश्चेति, नवमो वसन्तमासः, दशमः मासपण्णी स्त्री० (माषपर्णी) औषधिभेदे, प्रज्ञा०१ पद। कुसुमसम्भवः, एकादशो निदाघः, द्वादशो वनविरोह इति। अत्र सूर्य- मास(प)पुरिवट्टा स्त्री० (मासपरिवर्ता) भङ्गदेशराजधान्याम्, प्रज्ञा०१ प्रज्ञाप्तवृत्तः अभिनन्दितस्थाने अभिनन्दः वनविरोहस्थाने तु वनविरोधी पद / प्रश्न० / प्रव० / सूत्र०। इति / ज०७ वक्ष० / अवसरे, ''कालमासे कालं किच्चा'' मरणावसरे मासपूरिया स्त्री० (मासपूरिका) स्थविरान्निर्गतस्यार्थरोहणस्योहेमरणं विधायेत्यर्थः / औ०। ज०। स०। हगणस्य शाखायाम्, कल्प०२ अधि०८ क्षण। आसाढे णं मासे एगुणतीसइराइदियाइं राइंदियग्गेणं पण्णत्ता, / मासपेया स्त्री० (माषपेया) माषपिष्टमय्यां पेयायाम, आ०क०६ अ०॥ (एवं चेद) भद्दवए णं मासे कत्तिए णं मासे पोसे णं मासे फग्गुणे मासपोलिया स्त्री०(माषपोलिका) माषपिष्टभृतायां पोलिकायाम्, स०१ णं मासे वइसाहे णं मासे, चंददिणेणं एगणतीसं मुहत्ते सातिरेगे सम०। मुहुत्तग्गेणं पण्णत्ता / स०२६ सम०। मासफल न० (माषफल) श्वेतसर्षपषोडशके, ज्यो०१ पाहु०। मासउस पुं० (माषतुष) आगमप्रसिद्ध जडसाधौ, पञ्चा०११ विव०। / मासल त्रि० (मांसल) मांसादेवी ||811 / 26 / / इत्यनुस्वार
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________________ २६८-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लोपः। प्रा०। उपचितरसे, प्रज्ञा०१७ पद०४ उ०। जी०। वहले जी०३ माहणकुल न० (ब्राह्मणकुल) ब्राह्मणसन्ताने, कल्प०१ अधि०२ क्षण। प्रति 4 अधि०। माहणग्गाम पुं० (ब्राहाणग्राम) ब्राह्मणकुण्डग्रामे, कल्प०१ अधि०६ क्षण। मासलोल त्रि० (मांसलोल) मांसलम्पटे, उपा०८ अ०। माहणऽज्झयण पुं० (ब्राह्मणाध्ययन) कौशाम्ब्या बृहस्पतिदत्तनामके पुत्रे, माससगलिया स्त्री० (मांससगलिका) उडदफलीपाणके, भ०१५ श०। स्था०१० ठा० / (कौशाम्ब्या बृहस्पतिदत्त नामा ब्राह्मणः, तद्वृत्तम्मासिअ (देशी) पिशुने, दे० ना०६ वर्ग 122 गाथा। 'कामविवागदसा' शब्दे तृतीयभागे 344 पृष्ठे गतम्) मासिय त्रि० (मासिक) मासेन निर्वृत्त मासिकम् / मास निष्पन्ने, व्य०१ | माहणपुत्त पुं० (ब्राह्मणपुत्र) ब्राह्मणसन्ताने, स्था०६ ठा०। उ० / स्था० / आचा० / निचू० / मासोऽस्य परिमाणं मासमर्हति वा माहणवसिष्ठण्णाय पुं० (ब्राह्मणवशिष्ठन्याय) ब्राह्मण आयातो वशिष्ठोऽमासनिष्पन्न वा मासिकम्। निचू०२० उ० / कल्प० / 0 / / प्यायात इति सामान्यग्रहणेन विशेषज्ञस्यापि ग्रहणे सत्यपि पृथगुपन्यामासियभिक्खुपडिमा स्त्री० (मासिकभिक्षुप्रमिमा) मासपरिमाणे सार्थक लोकन्याये, आ०म०१ अ०। भिक्षुप्रतिमाविशेषे, तत्र हि मास यावदेका दत्तिभक्तस्यैकैव च पानक माहणसत्थ न० (ब्राह्मणशास्त्र) ब्राह्मणसम्बन्धिनि शास्त्रे, ज्ञा०१ स्येति / औ०। श्रु०५ अ०। मासिया स्त्री० (मासिकी) मासप्रमाणायां भिक्षुप्रतिमायाम् पञ्चा०१८ माहणी स्त्री० (ब्राह्मणी) ब्राह्मणस्त्रियाम्, उत्त०४ अ० / आ०म० / विव० / ज्ञा० / स०। आ०चू०। ('भिक्खुपडिमा' शब्दे पञ्चमभागे 1573 माहप्प पुं०न० (माहत्म्य-न०) वाक्ष्यर्थ-वचनाद्याः / / 8 / 1 / 33 / / इति पृष्ट व्याख्यातैषा) पुस्त्वं वा / माहप्पं / माहप्पो / प्रा० / अद्भुतायां शक्ती, व्य०१ उ० / मांसु पुं० (श्मश्रु) आदेः श्मश्रु-श्मशाने / / 8 / 2 / 86|| इत्यादेवर्णस्य महानुभावतायाम, उत्त०२ अ०। द्वा०ा दर्श०।। माहमाला स्त्री० (माघमाला) माघमासे मालापूजायाम्, जीवा० / लुक् / मासू। मंसू / कूर्चक, ओष्ठरोमणि, च / प्रा०। मासुरी (देशी) श्मश्रुणि, देना०६ वर्ग 130 / गाथा। ''मंसू खड्डे च कुग्गाहुच्छाइयसुह-विवेयपसरा रसंति एवंऽन्ने। णो माहमाल जुत्ता, सिद्धंडते जेण पडिसिद्धा // 43|| . मासुरी कुचं" पाइ० ना०११२ गाथा। कुग्राहेण-दुष्टाभिप्रायेण, उच्छादितः-अपनीतः, शुभः- प्रशस्तो, माह पुं० (माघ) खघथघभाम् / / 1 / 187|| स्वरात्परेषामसंयुक्ता विवेकप्रसरः-कृत्यानुष्ठानविभागो येषां ते रसन्तिजल्यन्ति / एवम्नामानादिभूतानामेषां प्रायो हो भवति। माहो। प्रा० / मावीपूर्णिमायुक्ते, वक्ष्यमाणप्रकारेण, अन्ये-अपरे। तदेवाह-(नो)-नैव, माघमाला प्रतीता, आ०म०१० / प्रश्न० / कुन्दकुसुमे, देख्ना०६ वर्ग 128 गाथा। युक्तासंगता / किमितीत्याहसिद्धान्ते-आगमे यस्मात्प्रतिषिद्धा-निवामाघमासे, "सिसिरो फगुण-माहो'' पाइ० ना०२०७ गाथा। रितेति गाथार्थः। माहण पुं० (माहन-ब्राह्मण) मा हनेत्येवं-योऽन्य प्रति वक्ति स्वयं तमेव निषेध दर्शयितुं पराभिप्रायेण किंचिदूनं गाथामाहहनननिवृत्तः सन्नसौ माहनः / ब्रह्म वा ब्रह्मचर्य-कुशलानुष्ठानं वाऽस्या लोइयतित्थेसुं पहाणदाणइनाइवय" स्तीति ब्राह्मणः / भ०१ श०७ उ० / मा वधीरित्येवं प्रवृत्तिर्यस्यासो लौकिकतीर्थेषु-पराभिमतपुण्यक्षेत्रेषु, अनुस्वारोऽत्र पूर्ववत्, स्नानमाहनः / सूत्र०२ श्रु०२ अ०। उत्तरगुणमूलगुणवति संयते, स्था०५ ठा०२ दानमित्यादिवचः, आदिशब्दात् संक्रान्तिग्रहः / तत्र सानतत्तीर्थेषु उ०।मा हन इतिपरं प्रत्याचक्षाणे स्वयं हनननिवृत्ते मूलगुणधरे, स्था०३ जलादिना, दानं तु तत्सम्मतक्षेत्रे द्रव्यादिवितरणं न कार्यमिति प्रक्रमाद ठा०१ उ० / साधौ, आचा०१ श्रु०८ अ०८ उ० / आतु०। जीवहिंसा दृश्यम् श्रावकाणाम्, अयमभिप्रायः-यत् किमपि लौकिकैर्धार्थ निषेधकारिणि दर्श०५ तत्त्व / सूत्र० / द्विजाती, सूत्र०१ श्रु०१ अ०३ विधीयते पूर्वोक्तं तच्छ्रावकैः कर्तुं न युज्यते। माघमालामपि ते आदिउ० / मुनौ, सूत्र०१ श्रु०२ अ०२ उ०। भ०। सूत्र० / तीर्थकृति ''माहणेणं शब्दाद गृह्णन्ति इति भावः। मईमया'' (1 गाथा) सूत्र०१ श्रु०११ अ० दशाभानि०चूला औ०। अत्रोत्तरार्द्धसार्द्धा किंचिदधिकां गाथा स्वयं हनननिवृत्तत्वात्परं प्रति माहनेति वादिनमुपलक्षणत्वादेव मूलगु पराभिमतयुक्तिसहितामाहणाक इति भावः / आवके, माहनः श्रावकः। भ०२ श०५ उ० / आ०चू० / तंनो। आचा० आ०म०नि०। औ०। (किं ब्राह्मण्यम्, के शिष्टाः इति 'आगम' जंजं लोए कीरइ, तं तं जइ सव्वक्कजं // 44 // शब्दे द्वितीयभागे 56 पृष्ठे गतम्) ब्राह्यस्त्रियाम, स्त्री०।"धिग्ब्राह्मणीर्ध- तो जत्ता रहभमणं, उववासो देवभवणपूयाऽऽइ। वाऽभावे, या जीवति मृता इव / धन्या मन्ये जनैश्शूद्री, पतिलक्षेऽप्य- मा कुण्ह सया तुम्हा, लोए किजंति जुत्तीतो // 55 / / निन्दित / / 1 // " स्था०४ ठा०१ उ०। तत - परोक्तं , नेति निषेधे / यद्यल्लो के - परदर्शने माहणकुंडग्गाम पुं० (बाह्मणकुण्डग्राम) मगधदेशे स्वनामख्याते ग्राम, / क्रियते तत् तत् यदि सर्वम् - समस्तम्, अकार्य ततस्तआचू०५ अ०। कल्प०। आचा०। स्मात्, यात्राऽपि - विशिष्ट महिमा, रथभ्रमण - जैनस्यन्दन
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________________ माइमाला 266 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 माहुरक मगम, आदिशब्दात्प्रतिमाप्रेक्षणकादिग्रहः / मेति निषेधे, कुरुत-विधत्त, भणियं विस्सट्ठवणे, विहिमागमलोगनीईए / / 5 / / कर्मपदं तु सर्वत्र स्वयं संबन्धनीयम्, सदासर्वदा (तुम्हे त्ति) यूयम् / कस्मात् "किं वा' अभ्युच्चये, अनुमतम्-सम्मतम्, हरिभद्रसूरेरावश्यकादिलोक-परभते क्रियन्तेविधीयन्ते युक्तितः कारणादिति गाथार्थः। वृत्तिकर्तुः, किमाप-तत्सर्वतीर्थस्नानादिकं. लौकिकम्लोकाचीपर्ण, परोत्सादनपूर्व स्वपक्षस्य पुष्टिमाह यस्माद्भणितं-प्रतिपादितं विश्वस्थापने-विश्वस्थापन-पञ्चाशके / कि एयं पि जुज्जइ चिय, जइ सक्का, बारियं भवेज्ज इमं। भणितं तदाह-(विहिमागमलोगनीईए त्ति) विधानं वक्ष्ये-अभिधास्ये, समईए वारिताणं, अंतरायं जतो भणियं // 46 / / आगमनीत्या-लोकनीत्या वा / इति गाथार्थः / एतदपि-भवदुक्तमपि न केवल मदुक्तम्, युज्यत एव-घटत एव, यदि यद्यत्र लोकग्रहणं ततः किमित्याहसाक्षात्प्रकटम, वारितम्-निषिद्धम, भवेत् इदम्-मालारोपणं, "माघ- लोयग्गहणाउ सिरिअमय-सूरिहिं जं तत्थ वक्खायं / माला न क्रियत" इति, स्वमत्या-निजाभिप्रायेण, वारयताम्-प्रतिषेधं अविरुद्धं लोइयमवि, कीरइ पासायकरणाई / / 51 / / कुर्वताम्, अन्तरायोऽष्टमप्रकृतिविशेषलक्षणो भवतीति गम्यते, यरमा- लोकग्रहणात्-लोकशब्दप्रतिपादनात्, श्रीअभयदेवसूरिभिः-भगवदणितं शतककर्मग्रन्थ इति शेष इति गाथार्थः / त्यादिशास्त्रवृत्तिकारिभिः, तत्र-बिम्बस्थापनपञ्चाशकवृत्ती, व्याख्यातदेवाह तम-विवृतम् / किं तदित्याह अविरुद्धम्-अदूष्यम्, लौकिकमपिपाणिवहाईनिरओ, जिणपूयामोक्खमग्गविग्घयरो। इतरदर्शनसत्कमपि सकलमेवेत्यपिशब्दार्थः। क्रियते-विधीयते, प्रासाअज्जेइ अंतरायं,ण लहइ जेणिच्छियं लाभं // 47 // दकरणादिश्रीवत्सादिप्रासादविधानादि, आदिशब्दात्-शेषाविरुद्धपरि, प्राणिवधादिग्रहः, जिनपूजा सर्वज्ञाभ्यर्चनम्, मोक्षमार्गो यथावस्थित- ग्रहः / इदमत्र हृदयम्-सकललौकिकैर्निजदेवकुले वास्तुविद्योक्तप्रासाशुद्धप्ररूपणादिलक्षणः, तयोर्विघकरो-भजकः, अर्जयति-स्वीकरोति दादिः कार्यते सोऽस्माकमपि देवसदने विधीयते न तत्र मिथ्यात्वम्, अन्तरायकर्म विशेषितस्यैव फलमाह-नो निषेधे, लभते-प्राप्नोति, येन मालापीयमस्माभिररिमन आदिशब्दे क्षिप्यते, अतोऽनवद्या / इति कर्मणोपार्जितेन इच्छितम्-अभिलषितं, लाभम्-धनधान्यादिकम् / गाथार्थः / समाप्तोऽय माघमालाप्रतिपादकः सप्तमोऽधिकारः / जीवा०७ अयमभिप्रायः-इयं माधमाला-जिनपूजा न भवति, भवति वा ? यदिन अधि०। भवति ततोऽनिर्दोषा, वारयतापियूयम्, भवति चेत्ततो निश्चितंमद्वर्णित माहविआ स्त्री० (माधविका) माधवलतायाम्, "अइमुत्तो माहविआ" फलं भवतां हठादागच्छति / इति गाथार्थः / पाइ० ना०२५६ गाथा। अत्रापि जीवोपदेशमाह माहसिणाण न० (माघस्नान) माघमासे स्नाननियमे, यद्दिनत प्रारभ्य मा मा तुमं णिवारसु, पूर्य रे जीव ! जिणवरिंदाणं / शैवा माघस्नानं कुर्वत तद्दिनत एवारभ्य केचन श्राद्धा अपि स्वगृहे जइ रायलसोक्खवल्लीणमप्पणो महसि उल्लासं / / 4 / / उप्णोदकादिना स्नात्वा जिनधाम्नि गत्वा जिनपूजां कुर्वन्ति, मासप्रान्ते मा मेति-अत्यादरकरणार्थ, वीप्सानिर्देशो निषेधार्थः, त्वम्भवान् | जिनभक्त्यर्थ रात्रिजागरणं मोदकादिलम्भनिकामपि कुर्वते, माघस्नानिवारय-निषेधय, पूजाम्-सपर्या, रेजीवेत्यामन्त्रणे, जिनवरेन्द्राणाम्- नमिदमुच्यते, तत्करणे च मिथ्यात्वं स्यादित्युक्त्वा केचन एतत्कृत्यं सर्वज्ञप्रतिकृतीनाम्, यदीति स्वाभिप्रायसूचकार्थः, सकलसौख्यव- निषेधयन्तः सन्ति, तत्प्रमाणमप्रमाणं वेति ? प्रश्ने, उत्तरम्-माघमास ल्लीना-समस्तसातलतानामात्मनोजीवस्य-महसि-वाञ्छसि, यावदुष्णोदकादिना स्नानकरणं पूजाकरणं तत्प्रानते रात्रिजा गरण उल्लासम-वृद्धिम् / इति गाथार्थः तथा कोऽयं तवाभिनिवेशो यद्त लम्भनिकादिकरणं च न युक्तिमत्प्रतिभाति प्रसङ्गदोषादिभयादनालौकिकं न क्रियते अविरुद्धं तदपि विधीयते इति दर्शयत् विशेषाव- चीर्णत्वादिति। 304 प्र० / सेन०३ उल्ला०। श्यकोक्तां गाथामाह माहरयण (देशी) वस्त्रे, दे० ना०६ वर्ग 132 गाथा। जं अत्थओ अभिण्णं, अण्णुत्था सहओ वि तह चेव। माहिंदपुं० (माहेन्द्र) चतुर्थदेवलोके, तदिन्द्रेच। स०७० सम० / आ०चू० / तंमि पओसो मोहो, विसेसतो जिणमयठियाणं // 46 // प्रव० / स्था० / जं० / प्रश्न० / अहोरात्रस्य त्रिंशत्तमे मुहूर्ते, स०३० यल-किमपि अनवधारितरूपम्, अर्थतः सिद्धं येन अभिन्नम सम० / जं०। ज्यो० / विशे०। चं० प्र० / अनु० / उत्तराहाणं माहेन्द्रध्यतिरिक्तीचितम्, अन्वर्थात्-युक्ताभिधेयात्, शब्दतोऽपि वचनोऽपि, कल्पस्येन्द्र, स्था०२ ठा०३ उ०। अनु०। तथा चैवाभिन्नमेव च तस्मिन शब्दार्थाभिन्ने जिनवचनमाश्रित्य प्रद्वेषो- माहिल (देशी) महिषीपाले, दे० ना०६ वर्ग 130 गाथा। मत्सरो, मोहो मूढतेयं विशेषतः आदरेण जिनमतस्थितानाम्-सर्वज्ञा- माहिवाअ (देशी) शिशिरवाते, दे० ना०६ वर्ग 131 गाथा। गमस्थितानाम्, यथा ''पञ्चैतानि पवित्राणि, सर्वेषां धर्मचारिणम्।। माही स्त्री० (माघी) मघानक्षत्रे भवा पूर्णिमा माघी / मघानक्षत्रभाविअहिसा सत्यमस्तेयं, त्यागो मैथुनवर्जनम् ||1|| इत्यादिषु / इति ___ न्याममायाम्, पूर्णिमाया च / सू०प्र०१० पाहु० ज०। गाथार्थः। माहु अव्य०(माहु) यस्मादर्थ, नि००१ उ०। सूत्रेणैव ससंबद्धा गाथामाह माहुर (देशी) शाके, दे० ना०६ वर्ग 130 गाथा। किं वाऽणुमयं हरिभ-द्दसूरिणो किं वि लोइयं जेण। माहुरक पुं०(माधुरक) अनम्लरसे, आ०म०१ अ०।
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________________ माहुरयविहि 270- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मिढियमुह माहुरयविहि पु०(माधुरकविधि) अनम्लरसे, उपा०। ('माहुरयविहि- मिउत्रि० (मृदु) प्रतनुपरिणामे, बृ०१ उ० / बहिर्वृत्त्या विनयवति, उत्त०२७ परिमाणं करेइ' इत्यादिना'आणंद' शब्दे द्वितीय भागे 110 पृष्ठे सूत्रितम्) अ०। कोमले, ने०। स्था०। विशदे, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। रा०। मनोज्ञ, (माहुरय ति) अनम्लरसानि शालनकानि / उपा०१ अ०। रा०। जं० / अस्तब्धे, ध०३ अधि० / सुकुमारे, औ० / अकर्कशे, तं० / माहुरवायणा स्त्री० (माथुरवाचना) मथुराजातायां वाचनायाम् . जी० / उत्त० / स्पृश्ये, तिनिसलतादिगतो मृदुः। कर्म०१ कर्म० / ज्योतिष्करण्डकातिरिक्तसूत्राणां माथुरी वाचना। ज्यो०२ पाहु०। / मिउकम्म न० (मृदुकर्मन्) मृदुसंज्ञकनक्षत्रेषु करणीये कार्ये, 'अणुराहः माहुराहार पुं० (माथुराहार) मथुरायाः परिभोग्ये तत्समासन्ने देश, सूत्र०२ | रेवई चेव, चित्ता मिअसिरं तहा। मिउनेयाणि चत्तारि, मिउकम्म तेसु श्रु०३ अ०। कारये // 1 // " दश०१ अ०। माहुरी स्त्री० (माथुरी) मथुरापुरीसङ्घटितत्वात् इयं वाचना माथुरीत्य- | मिउकालुणिया स्त्री० (मृदुकारुणिका) श्रोतुहृदयमार्दवजनजान्मृद्वी भिधीयते / मथुरापुरीजातायां वाचनायाम, नं० / सा च तत्कालयुग- चासौ कारुणिकी च कारुण्यवती मृदुकारुणिकी / पुत्रादिवियोगदुःखप्रधानानां स्कन्दिलाचार्याणामभिमता तैरेव चार्थतः शिष्यबुद्धि इति दुःखितमात्रादिकृतकारुण्यरसगर्भप्रलापप्रधानायां विकथायाम्, स्था० तदनुयोगात्तेषामाचार्याणां संबन्धीति व्यपदिश्यते। न०। ('खंदिल' शब्दे ७ठा० / ग०। तृतीयभागे 668 पृष्ठे अत्र मतान्तरं निरूपितम्) मिउकुंडलकुंचियकेस त्रि० (मृदुकण्डलकुञ्चितकेश) मृदवः कुण्डलमिद माहुलिंग न० (मातुलिङ्ग) वितस्ति वसति-भरत-कातर-मातुलिड़े ह० / दर्भादिकुण्डलकमिव कुञ्चिताश्च केशा यस्य स तथा। आभुग्नकेशवति. // 8/1214 / / इति तकारस्य हकारः। बीजपूरे, प्रा०१ पाद। भ०१५ श०। माहें (हिं)दज्झय पुं० (माहेन्द्रध्वज) माहेन्द्रा इत्यतिमहान्तः समय- | मिउणाम न० (मृदुनामन्) स्पर्शनामभेदे, यदुदयाजन्तुशरीरं हंसरुतादिभाषया, तेच ते ध्वजाश्चेति। अथवा-माहेन्द्रस्य शक्रादेर्ध्वजा माहेन्द्र- वन्मृदु भवति तन्मृदुनाम। कर्म कर्म०। ध्वजाः। महत्सु ध्वजेषु, इन्द्रध्वजादिषु, प्रव०२६६ द्वार। मिउपिंड पुं० (मृत्पिण्ड) मृत्तिकापिण्डे, पञ्चा०१ विव० / माहेसरजाया स्त्री० (माहेश्वरजाया) मायायाम, अने०। मिउमद्दवसंपण्ण पु० (मृदुमार्दवसम्पन्ना) मृदु-मनोज्ञ-परिणामसुखावमाहेसरी स्त्री० (माहेश्वरी) महत्या ईश्वर्या कृतेति माहेश्वरी / हमिति भावः यन्मार्दवं तेन सम्पन्नाः / कषटमार्दवानुपेतेषु, तं० / त्रिपृष्टपाचलाख्यबलदेववासुदेबनिवेशिताया स्वनामख्यातायां पुराम, कल्प० / रा०। यत्र वज्रवामिना बौद्धानां जयोऽकारि। आ०म०१ अ०।आ०चूा पश्चा० / मिउमसूरग पुं० (मृदुमसूरक) आस्तरणविशेषे, कल्प०१ अधि०३ क्षण। आ०क० / प्रज्ञा०। ब्राह्मयादिलिपिभेदे, स०१८ सम०। मिउविसय त्रि० (मृदुविशद) कोमलविशदगुणयुक्तषु, "भिउविसयपसत्थमि अव्य० (मि) मार्दवे, आ०म०१अ०। मीति वाक्यालंकारे, आ०म०१ | लक्खणसंवेल्लियग्गसिरयाउ'' मृदवः-कोमलाः, विशदा-निर्मलाः, अ०। णे णं मि अम्मि अम्ह मम्ह मं मम मिमं अमा।।८।३।१७०।। इत्यमा / प्रशस्तानि-शोभनानि अस्फुटितत्व-प्रभृतीनि लक्षणानि येषां ते सह अस्मदो मि-आदेशः / माम्-इत्यर्थे, प्रा०३ पाद। नि०चूत। प्रशस्तलक्षणाः, संवेल्लितं संवृत मग्नं येषां शेखरककरणात् ते संवेल्लिमिअ न० (मित्) परावर्तनं कुर्वतः परेण वा क्वचित् पृष्टस्याक्षरसंख्यया | ताग्राः, शिरोजाः केशा यासा ताः / जी०३ प्रति०१ उ०। पदसंख्यया वा परिछिन्ने, आ०म०१ अ० / तुच्छे, 'मिअंतुच्छ' पाइ० मिंजा स्त्री० (मिजा) अस्थिमध्यवर्तिनि धातौ, ज्ञा०१ श्रु०५ अ०' ना०२४५ गाथा। औ० / रा०। बीजे, स्था०१० ठा०। मृगपुं० हरिणे, 'मृग इव' तनुत्वभीरुत्वादितद्धर्मयुक्ते, स्था०४ ठा०२ उ०। | मिजिया स्त्री० (मिञ्जिका) त्रीन्द्रियजीवभेदे, जी०१ प्रति०। मिअंक पुं० (मृगाङ्क) मसृण-मृगाङ्क-मृत्यु-शृङ्ग-धृष्ट वा / / 8 / 1 / 130|| मिंठ पुं० (मिण्ड) अकामनिर्जराशब्दे उक्ते स्वनामख्याते पुरुधे, आ० इति ऋत इत्त्वम्। मिअको। प्रा० / चन्द्रे, पं०व०१ द्वार। म०१ अ०। मिअंग पुं० (मृदङ्ग) इदुतौ वृष्ट-वृष्टि-पृथड्-मृदङ्ग-नसके / / 8 / 1 / 137 // | मिंढन० (मेद्र) लिङ्गे,ध०३ अधि० / मेषे, स्था०४ ठा०१ उ० / हस्तिपले इति ऋत इकारोकारौ / मिअंगो / पक्षेमुइंगो / वाद्यभेदे, प्रा०।। इति संभाव्यते। आ०क०४अ०। ('मुइंग' शब्दे व्याख्यास्यते) मिंढमुह न० (मेण्डमुख) यमदग्निश्वशुरपुरे, दर्श०४ तत्त्व। मिअगंध पुं० (मृगगन्ध) सुषमसुषमाकालभाविनि, जं०४ वक्ष०। मिंदिआ (देशी०) गडरिकायाम्, 'मिढिआओ अविलाओ" पाइo मिअसिर न० (मृगाशिरम्) नक्षत्रभेदे, अभिजितमादिं कृत्वा द्वादशं नक्षत्रं ना०२१६ गाथा। मगशिरः जं०७ वक्ष०। मिढियमुह पुं० (मे ढिकमुख) स्वनामख्याते अनार्यदेशे, पव० मिआवई स्त्री (मृगादती) प्रथमबलदेववासुदेवमातरि, आव०१ अ०। / 274 द्वार / भ० / स्वनामख्याते सन्निवेशे, यत्र वीरस्वामि
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________________ मिढियमुह 271 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मिगावई नो रोगातङ्काः प्रादुर्भूताः / यत्र च रेवती आविका अवात्सीत् / आ०म०१ अ०। मिग(य) पुं०(मृग) बालशिक्षके, व्य०३ उ०। आरण्यपशी, सूत्र०१ श्रु०१ अ०२ उ० / अज्ञानिनि, सूत्र०१ श्रु०१ अ०२ उ० / दर्श० / दश० / दिपा० / ओ०। मिगकोट्ठग न० (मृगकोष्ठक) यमदग्निऋषिश्वशुरपुरे, आ०म०१ अ०। मिगचरिया स्त्री० (मृगचर्या) मृगभोजनपानविधौ, उत्त०१६ अ० / मिगज्झय पु० (मृगध्वज) मृगालेख्यरूपोपेते ध्वजे, रा०। मिगतण्हा स्त्री० (मृगतृष्णा) जलभ्रान्ती, अष्ट०७ अष्ट० / मिगमण त्रि० (मृगमनस्) भीरौ, स्था०४ टा०२ उ०। मिगलुद्धय त्रि० (मृगलुब्धक) मृगानेव मारयित्वा भुञ्जानेषु वानप्रस्थेषु, औ० / नि०। मिगरहिय त्रि० (मृगरहित) मृगत्वेन रहितो मृगरहितः / गीतार्थावस्थे, दर्श०४ तत्त्व। मिगलोयणा स्त्री० (मृगलोचना) राजीमत्याः स्वनामख्यातायां सख्याम्, कल्प०१ अधि०७ क्षण। मिगवण न० (मृगवन) वीतभयनगरस्य बहिरुद्याने, भ०१३ श०६ उकाराला मिगवालुंकी स्त्री० (मृगवालुङ्की) लोकप्रसिद्ध वालुङ्गीतिप्रतीते वनस्पती, कटुकरसत्वात्कृष्णलेश्याया एतत्सदृश आस्वादः। प्रज्ञा०१७ पद 4 उ०। मिगसमान त्रि० (मृगसमान) मृगसदृशे, व्य०२ उ०। मिगसिर न० (मृगशिरस्) सोमदैवत्ये त्रितारे नक्षत्रभेदे, चं०प्र०१ पाहु०। सू०प्र०। ज्यो० / अनु०। स०। मिगसीसाऽवली स्त्री० (मृगशीर्षावली) मृगपशोः शीर्षपुद्गलानां दीर्घरूपायां श्रेणौ, जं०७ वक्ष०। मिगावई स्त्री० (मृगावती) कौशाम्ब्यां नगर्या सहस्त्रानीकस्य राजपुत्रशतानीकभार्यायां चेटकराजदुहितरि उदयनराजमातरि, भ०२ श०५ उ० / आव०। आ० चू०। आ०म०/ जम्बूद्वीप इह द्वीपः, पोतवल्लवणोदधौ। कूपस्तम्भो यत्र मेरु-र्भङ्गा सितपटःपुनः।।१।। तत्रास्ति भरतक्षेत्रं, बहुधाऽन्यमनोरमम्। आश्चर्य खात्रपातोऽस्मिन्निदानं च न कुत्रचित्॥२॥ श्रीसंकेतनिकेताभ,तत्र साकेतपत्तनम्। सदाचारपरो यत्र,ज्योतिश्चकायते जनः।।३।। तत्र चेशानकोणेऽस्ति, मेदिनीमुकुटोपमम्। * सुरप्रियस्य यक्षस्यायतनं शिखराद्भतम्॥४॥ सच सप्रातिहार्योऽस्ति, यक्षस्तत्तद्भवद्भयैः। वर्षे वर्षे चित्रयित्वा, क्रियते सुमहान्महः ||5|| चित्रितश्च सदा तं स, हन्ति चित्रकर नरम्। चित्र्यते चेन्न तल्लोक-मारिमारभतेतराम्॥६॥ ततश्चित्रकराः सर्वे, प्राक्रमन्त पलायितुम्। न कान्दिशीकः को वा स्यात्कृतान्तेन कटाक्षितः / / 7 / / राज्ञा ज्ञातं पलाय्यैते, यदि यास्यन्ति चित्रकाः। यक्षो रक्षोवदीर्ष्यालु-र्भाव्ययं तद्वधाय नः / / 8 / / प्रतिभूः संकलाबद्धा, श्रेणिश्चित्रकृतां कृता। कवलालीवयक्षस्य, क्रमग्राह्या महीभृता / / 6 / / लेखयित्वाऽथ तन्नाम, पत्राण्यक्षेपयघटे। प्रत्यब्द नाम नियति, यस्य वित्र्योऽथ तेन सः।।१०।। एवं च सति कौशाम्ब्याश्चित्रं शिक्षितुमागमत्। चित्रकृद्दारकश्चित्रकृता पुण्यैरिवरितः।।११।। वसंस्तत्र स चित्राणि, चित्रकर्माणि शिक्षितः। तस्यासीन्मित्रमेकश्च, रथविरीपुत्रचित्रकः / / 12 / / स्थविरीसुतनामा, वर्षे तस्मिश्च पत्रकम्। कुम्भतो निरगादागा-ल्लेखः पितृपतेरिव / / 13 / / स्थविरी सा तदाकर्ण्य, तत्कर्णकटुकं वचः। सरोद रोदयन्ती च, रोदसी अपि दैन्यतः।।१४।। किं ममाशालता देव ! कुठारेणैव कृन्तसि। सूनुर्ममैक एवायं, मृतेऽस्मिन् का गतिर्मम॥१५|| रुदन्ती विलपन्ती च, श्रुत्वा तां मित्रवत्सलः। कौशाम्बीचित्रकः स्माह, मातर्माऽरुन्तुदं रुदः / / 16 / / माऽतः कातरतां कार्षी-झुरतां धारयाऽधुना। चित्रयिष्याम्यहं यक्ष, रक्षिस्यामि सुतं तव // 17 / / बभाषे स्थविरी भद्र! न त्वं पुत्रोऽसि किं मम। उद्घाट्यं वा पिधेयं वा, नेत्रयोः पुत्र ! किं द्वयोः / / 18 / / स ऊचे सत्यमेवैतन्मातः किंतु निशम्यताम्। निजप्राणैः परप्राणांस्त्रायन्ते पौरुषं हि तत्।१६।। परिधायांऽशुके धौते, कृतषष्ठतपाः शुचिः। पटप्रान्तनाष्टपुटे-नावेष्ट्य मुखकोटरम्।।२०।। सुगन्धिपयसा स्नात्र, विधाय कलशैर्नवैः। वर्णकान वर्णकस्थानान्यकार्षीत्कृर्चिका नवाः / / 21 / / सोऽथ यक्ष प्रयत्नेन, चित्रयामास चित्रकृत्। भक्त्या कुर्वन जिनस्येव, मण्डनं चन्दनादिभिः।।२२।। चित्र निर्माय निःशेष,यक्षमक्षमयत्ततः। तुतोष सोऽपि तद्भक्त्या , भक्तिग्राह्या हि देवताः।।२३।। यक्षस्तं स्माह तुष्टोऽहं, तद्वरं वृणु सोऽवदत्। वरोऽयमेव मे देव ! मा वधीः कश्चनाप्यतः॥२४॥ यक्षस्तं पुनरप्याख्यत्सिद्धमेतद्भवगिरा। परोपकारसारत्वं, स्वस्मै याचस्व किञ्चन।।२५।। सोऽवदद्देव ! यस्यांशमपि पश्यामि देहिनः / तस्यानुरूपरूपस्य, चित्रे स्यान्निर्मितिर्मम।।२६।। एवमस्त्विति यक्षोक्ते, ज्ञाते राज्ञा स सत्कृतः। ततो लब्धवरो हृष्टः, कोशाम्बीनगरीमगात्॥२७।। शतानीको नृपस्तत्र, चित्रमत्र जगत्त्रये। विस्तृतं यद्यशश्छत्रं, बद्धं गुणगुणैरपि।।२।। आसीन्मृगावती तस्य, राज्ञो राज्ञी शिरोमणिः / लावण्यकूपे यद्रूपे, क्रीडति स्मरदर्दुरः / / 26 / / अथान्यदा सभासीनः, पृच्छति स्म नरेश्वरः। किं मे नास्त्यस्ति चान्येषामेतद्द्त ! निवेदय।।३०।। दूतेन भणितं देव ! नास्ति चित्रसभा तव। तदैव पर्षचित्रायाऽऽदिशचित्रकरान्नुपः / / 31 / / चित्रकृद्भिः सभा बाह्या, सर्वर्भागेन चित्रिता।
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________________ मिगावई 272- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मिच्छत्त देवानां मनसा कार्य-सिद्धिर्वाचा महीभुजाम्।।३२।। तस्य चित्रकृतो यक्ष-पार्श्वप्राप्तवरस्य तु। नृपस्यान्तःपुरक्रीडास्थानं चित्रार्थमर्पितम्।।३३।। तेन चित्रकृता तत्र, कदाचिजालिकान्तरे। मृगावत्याः पदाङ्गुष्टः, कथंचिन्निरवर्ण्यत॥३४।। ततस्तदनुसारेण, देव्या रूपे विनिर्मिते। मषीबिन्दुः पपातोरौ, तस्योन्मीलयतो दृशौ / / 35 / / उत्सारितोऽपि तेनाऽसौ, पौनःपुन्यात्पपात सः। पश्चात्तेनाप्यनेनैवं, भाव्यमत्रेति निश्चितम्॥३६॥ अथ चित्रसभां पश्यन्नृपस्तद्देशमागतः। ददर्श विन्दुमूरुस्थं, देव्या रूपेऽकुपत्ततः।।३७।। नूनमेतेन मद्राज्ञी, घर्षितेति राषा नृपः। तं वघ्यमादिशचित्रकर क्रोधो हि दुर्द्धरः॥३८|| अथोचुश्चित्रकाःक्ष्मापं, देवाऽयं वरलब्धिकः। दोषासङ्गोऽपि नास्त्यस्य, ततो दिनपतेरिव // 36 / / अथास्यादर्शि कुब्जास्य, राज्ञातं सोऽलिखत्ततः। तथापि तर्जन्यङ्गुष्टौ, छेदयामास तस्य राट् / / 4 / / सोऽपि तस्यैव यक्षस्य, गत्वाऽग्रेऽनशनोऽपतत्। यक्षेणोचे चित्रयेस्त्वमिदानी वामपाणिना॥४१॥ सोऽथ द्वेषी शतानीके, तद्देवीरूपमालिखत्। तत्प्रद्योतनरेन्द्रस्य, गत्वाऽवन्तीमदर्शयत्॥४२।। तांतेन विदिता ज्ञात्वा, तदर्थी तस्य भूपतिः। प्रेषीतं स्मरार्ता हि, कृत्याकृत्यं विदन्ति किम् ? // 43 / / सोऽपि निर्भय॑तं दूत, निरसार्षीन्मषीमुखम्। प्रियापरिभव सोद्धं, रङ्कोऽपि क्षमते न हि॥४४|| प्रद्योतोऽप्यागत वीक्ष्य, दूतं नूतनमण्डनम्। अमर्षणस्तत्क्षणात, सर्वाधणाभ्यषेणयत्॥४५॥ शतानीकोऽपितंज्ञात्वा, मृतो भीत्याऽतिसारतः। कातरोऽपि हि शूरः स्या-जातु शूरोऽपि कातरः॥४६॥ मृगावत्या महात्या, रक्षितुं शीलमात्मनः। बुद्धिं कृत्वा ततो दूते-नोच्यताऽवन्ति भूपतिः।।४७।। एष्याम्यहं तवोपान्ते,परं बालो ममारिभिः। वाधिष्यते सऊचेता, दृष्ट्वा मां कोऽस्य बाधिता॥४८॥ सा स्माहोच्छीर्षक सर्पो, योजनानां शतेऽभिषक् / ततो निर्मापयाऽत्र त्वं,वप्रवर्मेव मे पुरः // 46 / / कारयामीति राज्ञोक्ते, देव्यूचे पुनरप्यदः। अवन्त्याभिष्टिकाः साध्यय-स्तत्ताभिः क्रियतामयम् / / 50 / / चतुर्दशनृपास्तस्य, स्वाधीनाः सबलास्ततः। उपकौशाम्च्यन्तीतस्ते परंपरया धृताः।।५१।। इष्टिकारसौः समानाय्य, प्रकारस्तत्र कारितः। तृणः कणैः पूरयित्वा, रोधसज्जीकृता पुरी।।५२।। सिद्धसाध्या प्रद्योतस्य, सा विसंवदिता ततः। दध्यौ चाति चेद्वीरः स्वामीतत्प्रव्रजाम्यहम्॥५३॥ प्रद्योतश्च विलक्षोऽस्थाद्यावत्तावजिनाधिपः / श्रीवीरः समवासार्षी-द्वैरं शान्तं जलेऽग्निवत्॥५४|| श्रीवीरो धर्ममाचख्यौ, प्रतिबृद्धो बहुर्जनः। मृगावती च प्रद्योत, पृच्छति स्म व्रतार्थिनी।।५५|| सोऽपि तस्यां सभायान्ता, लज्जमानोऽन्बमन्यत। साऽथ पुत्रमुदयनं, तस्य न्यासमिवार्पयत्।।५६।। श्रीवीरपद्महस्तेन, प्रवव्राज मृगावती। अष्टावङ्गारवत्याद्याः, प्रद्योतस्य च वल्लभाः / / 57 / / आक०१ अ०। ति०। (उपालम्भेऽप्यस्याः कथा-) स्वपुत्रीकामुकस्य प्रजापतेर्भार्याभूतायां पुत्र्यां प्रथमवासुदेवमातरि, कल्प०१ अधि०२ क्षण। आ०चू० / आ०म० / ति०। मिगिंदपुं० (मृगेन्द्र) सिहे, स्वनामख्यातेदार्शनिके विदुषि च। स्था०१ ठा०। मिगी स्त्री० (मृगी) मृगीरूपेणोपघातकारिण्यां विद्यायाम, विशे० / आ०म०। कल्प०। मिगीपद न० (मृगीपद) समयभाषया स्त्रीगुहो भगे, नि०चू०४ उ०। मिच्चु पुं० (मृत्यु) मसृण-मृगाङ्क-मृत्यु-शृङ्ग-धृष्टे वा / / 8 / 11130 / / इतिऋत इदा। मिचू। मचू / मरणे, प्रा०। मिच्छ न० (मिथ्यात्व) मिथ्याभावे, विनयभ्रंशे, स्था०७ ठा०1 मिथ्या दृष्टित्वे, पञ्चा०१० विव० / भ०। म्लेच्छ पुं०पारसीकादौ, 'मिच्छं पडिवण्णे' बृ०१ उ०३ प्रक०। मिच्छकार पुं० (मिथ्याकार) मिथ्याकरणं मिथ्याकारः / मिथ्याक्रियायाम, ध०३ अधि० / कस्याश्चित्स्खलितस्य मिथ्या मदीय दुष्कृतमिति भणने, बृ०१ उ०२ प्रक० / ध०। पञ्चा०। उपा० / आ०म० / मिथ्या वितथमनृतमिति पर्यायाः / आ०म०१ अ०। ('मिच्छादुक्ड शब्दे एतद्विपयान् प्रादुष्करिष्यामि) मिच्छज्झाण न० (मिथ्याध्यान) मिथ्या विपर्यस्तदृष्टित्वंतद्ध्यनं मिथ्याध्यानम् / जमालिगोविन्दप्रभृतीनामिव दुयाने, आतु०। मिच्छतिग न० (मिथ्या(त्व)त्रिक) मिथ्यादृष्टिसास्वादनमिश्रलक्षणे मिथ्यात्वत्रये, कर्म०४ कर्म०। मिच्छत्त न० (मिथ्यात्व) प्हस्वात् थ्य-श्च-त्स-प्सामनिश्चले // 8 / 2 / 21 // इति थ्यस्थाने छः / प्रा० / उत्त० / विपर्यासे, ज्ञा०१ श्रु०१२ अ० / तत्त्वार्थाश्रद्धाने, आव०५ अ०। अक्त्वाध्यवसायरूपे विपर्यस्तावबोधे, सूत्र०१ श्रु०३ अ०३ उ० / कर्म० / आ०चूठ ! भगवद्ववचनाश्रद्धाने, द्वा०१० द्वा० / अतत्वरुचौ, ध०३ अधि०। विपर्यस्तश्रद्धाने, स्था०३ टा०३ उ० / संप्रति मिथ्यात्वमाह-(मित्रलं जिणधम्मविवरीय ति) (मिच्छं ति) मिथ्यात्वं जिनधर्माद्विपरीत विपर्यस्तं ज्ञेयमिति शेषः / अत्रायमाशयः-रागद्वेषमोहादिकलङ्काडिते अदेवेऽपि देवबुद्धिः। "धर्मज्ञोधर्मकर्ता च, सदा धर्मपरायणः। सत्वानां धर्मशास्त्रार्थ-देशको गुरुरुच्यते" ||1|| इत्यादिप्रतिपादितगुरुलक्षणविलक्षणेऽगुरावपि गुरुबुद्धिः / कर्म०१ कर्म०। (त्रिविधं मिथ्यात्वम्) तिविहे मिच्छत्ते पण्णत्ते / तं जहा-अकिरिया अविणए अण्णाणे। मिथ्यात्वं विपर्यस्तश्रद्धानमिह न विवक्षितम्, प्रयोगक्रियादीनां वक्ष्यमाणतद्वेदानामसंबध्यमानत्वात्, ततोऽत्र मिथ्यात्वं क्रियादीनामसम्यग्रुषता मिथ्यादर्शनानाभोगादिजनितोविपर्याप्तीदुष्टत्वमशगनत्वमिति भावः।स्था०३टा०३
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________________ मिच्छत्त 273 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मिच्छत उ० 1 (अकिरियाऽऽदीना व्याख्या स्वस्वस्थाने) षट् मिथ्यात्वस्थानानि। सूत्र०१ श्रु०१६ अ०। उत्त०। संथा०। णऽत्थि ण णिच्चो ण कुणइ, कयं ण वेएइ णस्थि णिव्वाणं। णऽत्थि य मोक्खोवा छ मिच्छत्तस्स ठाणाई।।५।। सम्म०३ काण्ड। (व्याख्यातानि षडपि स्थानानि 'अणेगंतवाय' शब्द / प्रथमभाग 432 पृष्ट) मिथ्यात्वप्रतिक्रमणम् - मिच्छत्त-दव्वओ, भावओ य / तत्थ दव्यओ-आगम-णोआगमादि य अणेगविह। भावतो पुण मिच्छत्तमोहणीयकम्मोदयसमुत्थेतच भावासदहणाऽसग्गादिलिंगे असुभे आयपरिणामे पण्णते। तंतिविह-संसयियं, अभिग्गहितं, अणभिग्गहितं / णिमित्तं पुण एतस्स अबोधो, असदभिनिवेसो, ससओ वा। आ०चू०६ अ०१६५८ गाथाकी टीका। मिथ्यात्वं च लौकिकलोकोत्तरभेदाद् द्विधा / एकैकमपि देवविषयगुरुविषयभेदाद द्विविधम्, तत्र लौकिकदेवगत-लौकिक देवानां-हरिहरब्रह्मादीनां प्रणामपूजादिना तद्भवनगमनादिना च तत्तद्देशप्रसिद्धमनेकविध ज्ञेयम् 1 / लौकिकगुरुगतमपि लौकिकगुरूणां ब्राह्मणतापसादीना नमस्कृतिकरणं, तदने, पतनं, तदने नमः शिवायेत्यादिभणनं, तत्कथाश्रवणं, तदुक्तक्रियाकरणतः काश्रवणबहुमानकरणादिना च विविधम् 2 / लोकोत्तरदेवगतं तु परतीर्थिकसंगृहीतजिनबिम्बार्चनादिना इहलोकार्थ जैनयात्रागम-नमाननादिना च स्यात् ३/लोकोत्तरगुरुगत च पार्श्वस्थादिषु गुरुत्वबुद्ध्या वन्दनादिना गुरुस्तूपादावैहिकफलार्थं पात्रोपयाचितादिना चेति भेदचतुष्टयी। तदुक्तं दर्शनशुद्धिप्रकरणेदुविहं लोइअमिच्द, देवगयं गुरुगयं गुणेयव्यं। लोउत्तरं पि दुविह, देवगयं गुरुगयं चेव / / 35 / / चउभे मिच्छत्तं, तिविहं तिविहेण जो विवजेइ। अकलंकं सम्मत्तं, होइ फुड तस्स जीवस्स // 36 / / त्रिविधं त्रिविधेनेत्यत्र भावनामेवमाहुःएअ अणतरुत्तं, मिच्छं मणसान चिंतइकरेमि। सयमेव सो कारउ, अन्नेण कए व सुद्ध कयं / / 1 / / एवं वाया न भणइ, करेइ अण्णं च न भणइ करेहि। अन्नकयं न पसंसइ, न कुणइ सयमेव कारणं / / 2 / / फरसन्नभमुहखेवा-इएहिँ नयकारवेइ अन्नेणं। अन्नकयं न पससंइ, अण्णेण कयं न सुट्ट कयं // 3 // ननु त्रिविध त्रिविधेन प्रत्याख्यातमिथ्यात्वस्य मित्यादृष्टिसंसर्गे कथं नानुमतिरूपमिथ्यातवप्रसङ्ग इति चेन्न, तस्याऽप्यतिचाररूपस्य वर्जनीयत्वस्यैवोक्तत्वात् / स्वकुटुम्बादिसम्बन्धिनो मिथ्यादृशो वर्जनाशक्ती संवासानुमतिः स्यादिति चेन्न, आरम्भिणा आरम्भक्रियाया बलात्प्रसवात् सवासानुमतिसंभवेऽपि मिथ्यात्वस्य भावरूपत्वेन तदसंभवात्। अन्यथा संयतरस मिथ्यादृष्टिनिश्राया अपि संभवेन तत्सवासानुमतेर्दुरित्वादिति दिक् / यद्यपि तत्त्ववृत्त्या अदेवादेर्देवत्वादिषुद्ध्याऽऽराधने एव मिथ्यात्वं तथाऽप्यहिकाद्यर्थमपि यक्षाद्याराधनमुत्सर्गतरत्याज्यमेव, परम्परया मिथ्यात्ववृद्धिस्थिरीकरणादिप्रसङ्गेन प्रेत्य दुर्लभबोधित्वापत्तेः / यतः अन्नेसिं सत्ताणं, मिच्छत्तं जो जणेइ मूढप्पा। सो तेण निमित्तेणं, नलहइ बोहिं जिणाभिहि।।१।। रावणकृष्णाद्यालम्बनमपि नोचितमेव कालभेदात्, यतस्तत्समयेऽहद्धर्मस्येतरधर्मेभ्योऽतिशायित्वेन न मिथ्यात्ववृद्धिस्तादृशी, सम्प्रति च स्वभावतोऽपि मिथ्यात्वप्रवृत्तिर्दुर्निवारैवेति / अथ मिथ्यात्वं पञ्चविधम्, यदाहआभिग्गहिअमणाभिग्गहं च तह अभिनिवेसिअंचेव। संसइअमणाभोग, मिच्छत्तं पंचहाए।।१॥ ध०२ अधि०(आभिग्रहिकमिथ्यात्वम् आभिग्गहियमिच्छत्त' शब्दे द्वितीयभागे 252 पृष्ठे गतम्) अनाभिग्रहिकं प्राकृतजनानां, सर्वे देवा वन्द्या न निन्दनीया एवं सर्वे गुरवः सर्वे धर्माइतीत्याधनेकविधम्।। आभिनिवेशिकम् जानतोऽपि यथास्थित दुरभिनिवेशविप्लावितधियो गोष्ठामाहिलादेरिव / 3 / अभिनिवेशोऽनाभोगात्प्रज्ञापकदोषागा वितथश्रद्धानवति सम्यगदृष्टावपि स्याद्, अनाभोगाद् गुरुनियोगाद्वा सम्यगदृष्टरपि स्याद् अनाभोगाद् गुरुनियोगाद्वा सम्यग्दृष्टरपि वितथश्रद्धानभणनात्, तथा चोक्तमुत्तराध्ययननिर्युक्तौ- . ''सम्मदिट्ठी जीवो, उवइट्ठ पवयणं तु सद्दहइ। सदहइ असब्भाव, अणभोगा गुरुणिओगा वा।।१।" इति। तद्वारणाय दुरिति विशेषणं, सम्यग्वत्तृवचनानिवर्त्तनीयत्वं तदर्थः / अनाभोगादिजनितो मुग्धश्रद्धादीनांदितथश्रद्धानरूपोऽभिनिवेशस्तु सम्यग्वक्तुर्वचननिवर्तनीय इति न दोष, तथापि जिनभद्रसिद्धसेनादिप्रावचनिकप्रधानविप्रतिपत्तिविषयपक्षद्वयेऽप्यन्यतरस्य वस्तुनः शास्त्रबाधितत्वात्तदन्यतरश्रद्धानवतोऽभिनिवेशित्वप्रसङ्ग इति तद्वारणार्थ 'जानतोऽपीति शास्त्रतात्पर्यबाध-प्रतिसंघानवतः, सिद्धसेनादयश्च स्वाभ्युपगतमर्थ शास्त्रतात्पर्यबाधं प्रतिसंधाया पि पक्षपातेन न न प्रतिपन्नवन्तः, किन्त्वविच्छिन्नप्रावनिकपरम्परया शास्त्रतात्पर्यमेय स्वाभ्युपगतार्थानुकूलत्वेन प्रतिसंधायेति न तेऽभिनिवेशिनः / गोष्ठामाहिलादयस्तु शास्त्रतात्पर्यबाधं प्रतिसंधायैवान्यथा श्रद्दधत इति न दोषः, इदमपि मतिभेदाभिनिवेशादिमूलभेदादनेकविधम् - जमालिगोष्ठामाहिलादीनाम्। उक्तं च (चतुर्थोद्देशे) व्यवहारभाष्ये"मइभेएण जमाली, पुट्विं बुग्गाहिएण गोविंदा। संसगीए भिक्खू, गोट्ठामाहिलअहिणिवेसे।।२६६।।" त्ति सांशयिक देवगुरुधर्मेष्वयमन्यो वेति संशयानस्य भवति / सूक्ष्मार्थादिविषयस्तुसंशयः साधूनामपि भवति, सच'तमेव सचणीसंके, जंजिणेहिं पवेइअं' इत्याद्यागमोदितभगवद्ववचनप्रामाण्य-पुरस्कारेण निवर्त्तते, स्वरसवाहितया अनिवर्तमानश्च सः सांशयिकमिथ्यात्वरूपः सन्ननाचारापादक एव, अतएवाकाङ्क्षामोहोदयादाकर्षप्रसिद्धिः / इदमपि सर्वदर्शननदर्शनतदेकदेशपदवाक्यादिसंशयभेदेन बहुविधम् / अनाभोगिकं विचारशून्यस्यैकेन्द्रियादेर्वा विशेषाानविकलस्य भवति। इदमपि सर्वाशविशयाव्यक्तबोधस्वरूप विवक्षितकिश्चिदशाव्यक्तबोधस्वरूपं चेत्यनेकविधम् / एतेषु मध्ये आभिग्राहिकाऽऽभिनिवेशिके गुरुके विपर्यासरूपत्वेन सा
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________________ मिच्छत्त 274 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मिच्छत्त नुबन्धक्लेशमूलतवात् / शेषाणि च त्रीणि विपरीतावधारणरूपविपर्यासव्यावृत्तत्वेन तेषां कुरानुबन्धफलकत्वाभावात्, तदुक्त चोपदेशपदे - एसो अएत्थ गुरुओ, णाणज्झवसातसंसया एवं। जम्हा असप्पविसी, एत्तो सव्वत्थऽणत्थफला।।१।। दुष्प्रतिकाराऽसत्प्रवृत्तिहेतुत्वेन एष विपर्यासोज गरीयान् नत्षनध्यवसायसशयावेवंभूतातत्त्वाभिनिवेशाभावात्, तयोः सुप्रतीकारत्वेनात्यन्तानर्थसंपादकत्वाभावादित्येत्तात्पर्यार्थः / ध०२ अधि०। बृ०। दर्श०। सूत्र०1 प०सं०1 कर्म०। आतु। मतिभेदादिना मिष्यात्वं भवतीति - मतिभेया, 1 पुव्वुग्गह 2, संसग्गीए य 3 अभिनिवेसेणं / / गोविंदे य 5 जमाली 1, सावग 2 तव्वन्निए 3 गोटे 4 // 268|| कस्यापि मतिभेदान्मिथ्यात्वं स्यात्, कस्यापि पूर्वव्युद्ग्रहात्, कस्यापि संसर्गात, कस्यचिदभिनिवेशेन,अत्रार्थे निदर्शनान्याह-(गोविदे य इत्यादि) अत्र गोविन्दजमालिशब्दयोर्व्यत्ययेनोपन्यासो गाथानुलोम्यात. परमार्थतः पुनरेवं पाठः-जमालिगोविन्दश्रावकः तबनियः श्रावकभिक्षुः गोष्ठे गोष्ठामाहिल, एतानि यथाक्रम, निदर्शनानि / तथा चाऽऽहमतिभेएण जमाली, पुव्वुग्गहिएण होइ गोविंदो। संसग्गिसावगभिक्खू, गोट्ठामाहिल अभिनिवेसे / / 266 / / मतिभेदेन मिथ्यादृष्टिर्जायते यथा-जमालिः, पूर्वयुद्गृहीतेन भवति मिथ्यादृष्टियथा-गोविन्दः, संसर्गात् यथा-श्रावकभिक्षुः, अभिनिवेशेन यथा-गोष्ठामाहिलः, एतानि च दर्शितानि सुप्रतीतानीति न कथ्यन्ते इति / व्य०६ उ०। मिथ्यात्वानिदसविधे मिच्छत्ते पण्णत्ते, तं जहा-अधम्मे धम्मसण्णा 1 धम्मे | अधम्मसण्णा 2 अमग्गे मग्गसण्णा 3 मग्गे उम्मग्गसन्ना 4 अजीवेसु जीवसन्ना 5 जीवेसु अजीवसन्ना 6 असाहुसु साहुसन्ना 7 साहुसु आसाहुसण्णा 8 अमुत्तेसु मुत्तसन्ना 6 मुत्तेसु अमुत्तसण्णा 10 / सूत्र 734 // तत्र अधम् -श्रुतलक्षणविहीनत्वादनागमे अपौरुषेयादौ धर्मसंज्ञाआगमबुद्धिर्मिथ्यात्वम्, विपर्यस्तत्वादिति 1. धर्मे कपच्छेदादिशुद्ध सम्यक् श्रुते आप्तवचनलक्षणेऽधर्मसंज्ञा, सर्व एव पुरुषा रागादिमन्तोऽसर्वज्ञाश्च पुरुषत्वादहभिवेत्यादिप्रमाणतोऽनाप्तास्तदभावान्न तदुपदिष्ट शास्त्रं धर्म इत्यादिकुविकल्पव-शादनागमबुद्धिरिति 2, तथा- उन्मार्गो निर्वृतिपुरी प्रति अपन्थाः वस्तुतत्त्वापेक्षया विपरीतश्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूपरतत्र मार्गसंज्ञा-कुवासनातो मार्गबुद्धिः ३,तथामार्गेऽमासिझेति प्रतीतम् 4, तथा -अजीवेषु आकाशपरमाणवादिषु जीवसंज्ञा..'पुरुष एवेदम्' इत्याद्यभ्युपगमादिति। तथा क्षितिजलपवनहुताशन-यजमानाकाशचन्द्रसूर्याख्याः। इति मूर्तयो महेश्वर-सम्बन्धिन्यो भवन्त्यष्टौ / / 1 / / इति 5: तथा जीवषु पृथिव्यादिष्वजीवसंज्ञा, यथा न भवन्ति पृथिव्यादयो जीवाः उपवासादीनां प्राणिधर्माणामनुपलम्भाद घटवदिति 6, तथा असा. धुषु-षड्जीवनिकायवधानिवृत्तेऽप्यौद्देशिकादिभोजिष्वब्रह्मचारिषुसाधुसंज्ञा, यथा-साधव एते सर्वपापप्रवृत्ता अपि ब्रह्ममुद्राधारित्वादित्यादिविकल्परूपेति 7. तथा-साधुषु-ब्रह्मचर्यादिगुणान्वितेषु असाधुसंज्ञा, एते हि कुमारप्रव्रजिता नास्त्येषां गतिरपुत्रत्वात् नादिविरहितत्वाद्वेत्यादिविकल्पात्मिकेति 8, तथा-अमुक्तेषु सकर्मसु लोकव्यापारप्रवृत्तेषु मुक्तसंज्ञा, यथा अणिमाद्यष्टविधं प्रा-प्यैश्वर्यं कृतिनः सदा। मोदन्ते निर्वृतात्मान-स्तीर्णाः परमदुस्तरम्॥१॥ इत्यादिविकल्पात्मिकेति 6, तथा मुक्तेषु-सकलकर्मकृतविकारविरहितेष्वनन्तज्ञानदर्शनसुखवीर्ययुक्तेषु अमुक्तसंज्ञा, न सन्त्येवदृशा मुक्ताः, अनादिकर्मयोगस्य निवर्तयितुम शक्यत्वादनादित्वादेव आकाशात्मयोगस्येवेति।न सन्ति वा मुक्ताः मुक्तस्य विध्यातदीपकल्पत्वादामन एव वा नास्तित्वादित्यादिवि-कल्परूपेति 10 / स्था०१० ठा०३ उ०। अदेवे देवबुद्धिर्या, गुरुधीरगुरौच या। अधर्मे धर्मबुद्धिश्च, मिथ्यात्वं तद्विपर्ययात्।।१।। स्था०। कर्म०। अकार्ये कृते मिथ्यातवदोषःमिच्छत्तं लोअस्स, न वयणमेयमिह तत्तओ एवं। वितहासेवणसंका-कारणओ अहिगमेअस्स / / 563 / / मिथ्यात्वं लोकस्य भवति / कथमित्याह-न वचनम एतज्जैनम् इह' अधिकारे, 'तत्त्वतः' -मरमार्थतः एवम अन्यथाऽयमेवं न कुर्यादित शङ्कया, वितथासेवनया-हेतुभूतया, शङ्ककारणतवाल्लोकस्य अधिक मिथ्यात्वमेतस्यवितथकर्तुरिति गाथार्थः / / 563 / / पं०व०२ द्वार। नि००० / बृ० / मिथ्यामोहनीये कर्मणि, ''मिच्छत्तं वेयंतो, ज अन्नणी कहं परिकहेइ। लिंगत्थो व गिही वा, अकहा देसिया समए / 215 // दश०३ अ०। यदुदयाजिनप्रणीततत्त्वाऽश्रद्धानं तन्मिथ्यात्वम। पं०सं०३ द्वार / कर्म० / मिथ्यात्वमोहनीयकर्मपुद्गलसाचिव्यविशेषादात्मपरिणामे, आव०४ अ०।"मिश्रं तु दरविशुद्धं, भवत्यशुद्धं तु मिथ्यात्वम्' कर्म०१ कर्म० / 'न मिथ्यात्वसमः शत्रुर्न मिथ्यात्वसमं विषम् ! न मिथ्यात्वसमो रोगो, न मिथ्यात्वसमं तमः" ||1|| ध०१ अधि० / ('असदायार' शब्द प्रथमभागे 840 पृष्ठे एतदाद्याः श्लोका दर्शिताः) मिथ्याक्रियाद्यभिलाष, आतु०। इहलोकार्थम् एकाक्षनालिकेरादिपूजन मिथ्यात्वं भवति न वा ? इति प्रश्ने, उत्तरम् ऐहिकफलार्थ दक्षिणवर्तशङ्खादेरिव एकाक्षनालिकेरादेरपि पूजने मिथ्यात्वं ज्ञातं नास्तीति / / 16 / / सेन०१ उल्ला० / श्राद्धाना गोत्रदेवीपूजने मिथ्यात्वं लगति न वा ? इति प्रश्ने, उत्तरम्-यस्य तथाविध धैर्य भवति तेन गोत्रदेवी न पूजनीया एव कुमारपाले नेव, तदभावे तु कदाचित्तत्पूजनेऽप्युचारितसम्यक्त्वभड़ो न भवति यतो देवताभियोगेनेति सम्यक्त्यो
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________________ मिच्छत्त 275 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मिच्छदिदि सारे छिण्डिकाऽप्यस्तीति // 367 / / सेन०३ उल्ला० / चतुर्विधमिथ्यात्वमध्ये लोकोत्तरमिथ्यात्वं गुरु किंवा लौकिकम्, प्राग लोकोत- / राल्लौकेकगुरुतरमिति श्रुतमभूद, अधुना तुलौकिकाल्लोकोत्तरं श्रूयते, नव्यक्तया प्रसाद्यमिति ? प्रश्ने, उत्तरम्- प्रतिक्रमणूत्रवृत्तिप्रभृतिग्रन्थेषु 'मेथ्यात्व लौकिक देवगत 1 गुरुगतं च 2, तथा-लोकोत्तरं देवगत 1 गुरुगत चेति चतुर्विधमिथ्यात्वमध्ये इदं महदिदं लध्वित्यक्षराणि तथा'वैधग्रन्थे न दृष्टानीति द्रव्यक्षेत्रका-लभावानुसारेण कथ्यतं इति।।३६।। सेन०४ उल्ला०। मिच्छत्तकिरिया स्त्री० (मिथ्यात्वक्रिया) मिथ्यात्वमतत्त्वश्रद्धानं तदेव जीवव्यापारत्वात् क्रिया / अथवा-मिथ्यात्वे मिथ्यादर्शने क्रिया। क्रियाभेदे,, मिथ्यत्यक्रिया तु सर्वाः प्रकृती विंशत्युत्तरसंख्यास्तीर्थकराऽऽहारकशरीरतदङ्गोपाङ्गत्रिकरहिता यया बध्नाति सा मिथ्यात्यक्रियेत्यभिधीयते। सूत्र०२ श्रु०२ अ०भ०। मिच्छत्तख(ओ)उवसम पुं० (मिथ्यात्वक्षयोपशम) मिथ्यात्वस्य मिथ्यात्वमोहनीयकर्मदलिकस्य क्षयेणोदीर्णस्य विनाशेन सहोपशमो विपाकोदयापेक्षया विष्कम्भितोदयत्वं मिथ्यात्वक्षयोपशमः। मिथ्यात्वमोहनीयक्षयोपशमे, पञ्चा०१ विव०। मिच्छत्तपडिक्कमणन० (मिथ्यात्वप्रतिक्रमण) आभोगानाभोगस-हसा कारैमिथ्यात्वगमनान्निवृत्तौ, स्था०५ ठा०३ उ०। मिच्छत्तपरिहाणि स्त्री० (मिथ्यात्वपरिहाणि) मिथ्यात्वं जिनप्रणीततत्वविपरीत श्रद्धान लक्षणं तस्य परिहाणिः सर्वथा त्यागः / त्रिविधत्रिविधन विथ्यात्व प्रत्याख्याने, ध०२ अधि०। मिच्छत्तमहण्णवतारणतरिया स्त्री० (मिथ्यात्वमहार्णवतारणतरिका) | कुदासनोदधिपरमयाने, दर्श०५ तत्त्व। मिच्छत्तमहामोहंधयारमूढ त्रि० (मिथ्यात्वमहामोहान्धकारमूढ) महाँश्चासौ मोहश्च महामोहः, मिथ्यात्वमेव महामोहस्तस्य तस्मात्तेन वाऽन्धकार सम्यक्त्वस्यावरणं तस्मिस्तेन वा मूढो मिथ्यात्वमहामोहाऽन्धकारमूढः / मिथ्यादृष्टी, दर्श०१ तत्त्व। मिच्छतहिणिवेस पुं० (मिथ्यातवाभिनिवेश) मिथ्यातवाद् मिथ्यादर्शनोदयाद योऽभिनिवेश आग्रहः स तथा। भ०६ 2033 उ० / विपर्यास, स्था०४ ठा०४ उ०। मिच्छदिट्ठि पुं० (मिथ्यादृष्टि) मिथ्या विपर्यासवती जिनाभिहितार्थसार्थाश्रद्धानवती दृष्टिदर्शनं यस्य सः / मिथ्यात्वमोहनीयकर्मोदयादरुचितलिनवचने, स०६ सम० / मिथ्या विपरीता दृष्टिर्यस्य स मिथ्यादृष्टिः / नं० / उदितमिथ्यात्वमोहनीयविशेष, स०१४ सम० / विपर्यस्तरुची, पञ्चा०१२ विव० / शाक्यादिशासनस्थे, बृ०१ उ० / दर्श०। अज्ञाननियतक्रियावादिके. सूत्र०१ श्रु०१ अ०२ उ०। प्रज्ञा०। विपरीतबाधे, औ०। सूत्र० / स्था० / उत्त। . मिथ्यादृष्टः स्वरूपमाहमिच्छविट्ठी नियमा, उवइटुं पवयणं न सहहइ। सदहइ असम्भावं, उवइ8 य अणुवइ8 // 25 // मिथ्यादृष्टिः जीवो गुरुभिरुपदिष्ट प्रवचनं नियमात् न श्रद्धत्ते-न सम्यग्भावेनात्मनि परिणमयति, श्रद्धत्ते चेत् उपदिष्टमनुपदिष्ट वा प्रवचन तर्हि, असद्भूतं मिथ्यारूपमित्यर्थः। श्रद्धत्ते, न सम्यग् यथावदिति॥२५॥ क०प्र०। आ००। पयमक्खरं वि जो एगं, सव्वन्नूहिँ पवेदियं / नाएज्ज अन्नहा भासे, मिच्छट्ठिीस निच्छियं / / महा०२ अ० / "सूत्रोक्तस्यैकस्याप्यरोचनादक्षरस्य भवति नरः / मिथ्यादृधिः सूत्रं, हि नः प्रमाणं जिनाभिहितम्।।१।।" आ०म०१०। स०। स्था०। आव० / “एकस्मिन्नप्यर्थे, संदिग्धे प्रत्ययोऽर्हति विनष्टः। मिथ्यात्वदर्शन तत्स चादिहेतुर्भवगतीनाम्॥११॥ तस्मान्मुमुक्षुणा व्यपगतशङ्कन सता जिनवचनं सत्यमेव सामान्यतः प्रतिपत्तव्य संशयास्पदमपि सत्यमेव सर्वज्ञाभिहितत्वात्, तदन्यपदार्थवत्, मतिदौर्बल्यादिदोषात्तु कारर्नेन सकलपदार्थस्वभावावधार-णमशक्यम्। आव०६ अ०11०। आ०म० / (मिथ्यादृष्टिराचार्योऽपि भवति। मिथ्यादृष्टः किं लिङ्गम् इति 'पवयण' शब्दे पञ्चमभागे 784 पृष्ठे प्रतिपादितम्) सम्यग्दृष्टान, मिथ्यादृष्टर्भवेद विपर्यासः / आव०१ अ०। जइ एवं तेण तुहं, अन्नाणी कोऽवि नऽत्थि संसारी। मिच्छट्ठिीणं ते, अन्नाणं नाणमियरेसिं॥३१८|| यद्येवमुक्तप्रकारेण संशयादयोऽपि ज्ञानम्, तेन तव अज्ञानी नास्ति कोऽपि संसारी जीव' इति प्राप्तम्, मोक्षे सर्वस्याऽपि ज्ञानं परेणाऽभ्युपगम्यत इति संसारिणामेवाऽयमतिप्रसङ्गलक्षणो दोषः, इत्यभिप्रायवता संसारी इति विशेषणमकारि। एतदुक्तं भवति-'संशयादयोऽज्ञानम्, निर्णयरत्ववाधितो ज्ञानम्' इति तावल्लोकव्यवहारस्थितिः / यदि चभवता संशयादीनामपि ज्ञानरूपता व्यवस्थाप्यते तर्हि समुच्छिन्नोऽयमज्ञानव्यवहारः, ततः कथं नाऽतिप्रसङ्गः? दृश्यते च लोकेऽज्ञानव्यवहारः, स कथ नीयते ? इति। अत्रोत्तरमाह-(मिच्छट्ठिीणमित्यादि) मिथ्यादृष्टीना सम्बन्धिनस्ते संशयविपर्ययाऽनध्यवसायाः, निर्णयश्चाज्ञानम्, इतरषातु सम्यग्दृष्टीनां सम्बधिनस्तेज्ञानम्, इति नाऽज्ञानव्यवहारोच्छेदः / अयमभिप्रायः-लोकव्यवहाररूढो ज्ञानाऽज्ञानव्यवहारोऽत्रन विवक्षितः, किन्तु-आगमाभिप्रायरूढो नैश्चयिकः / आगमे च संशयादिरूपं. निश्चयरूपं वा मिथ्यादृष्टः सर्वमप्यज्ञानम्, सम्यग्दृष्टस्तु तदेव सर्व ज्ञानम्, इत्येवं ज्ञानाऽज्ञानव्यवहारो रूढः। ततश्च यदादौ संयशदित्वेनाऽवग्रहादीनामज्ञानत्वं प्रेरितम्, तदयुक्तम्, न हि संशयादित्वमज्ञानभावस्य निमित्तमागमविचारे, किन्तु-मिथ्यादृष्टिसम्बन्धित्वम्, तचेह नास्ति, सम्यगदृष्टिसम्बन्धिनामेवाऽवग्रहादीनामिह विचारयितुमुपकान्तत्वात्, इति भावः, इति गाथार्थः। विशे०। 'सम्मदिद्विपरिगहियं सम्मसुय, मिच्छदिविपरिग्गहियं मिच्छसुय' बृ०१ उ०। तद् यथेह प्रदीपस्य, स्वच्छाऽभ्रपटलैहम्। न करोत्यावृति काञ्चि-देवमेतद्रवेरपि।।१।।
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________________ मिच्छदिट्टि 276 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मिच्छदिट्टि एकपुञ्जी द्विपुजी च, त्रिपुञ्जी वाऽननुक्रमात्। दर्शन्युभयवाश्चैव, मिथ्यादृष्टिः प्रकीर्तितः।।२।। कर्म 1 कर्म / सम्यग्दृष्टिव्यतिरिक्तानां सर्वथा गिर्जरा नास्त्येव ? काचिदस्ति-वा इति? प्रश्ने, उत्तरम्-सम्यगदृष्टिव्यतिरिक्तानां जीवानां सर्वथा निर्जरा नास्त्येव इति वक्तुं न शक्यते! "अणुकंपऽकामनिज्जर, बालतवे दाणविणयविभंगे। संजोगविप्पओगे, वसणूसवइड्ढिसक्कारे।।१।।" इति आवश्यकनियुक्तौ मिथ्यादृशां सम्यक्तप्राप्तिहेतुष्वकामनिर्जराया / उक्तत्वात् केषाश्चिचएकपरिव्राजकादीनां स्वाभिलाषपूर्वकं ब्रह्मचर्यपालनाऽदत्तादानपरिहारादिभिर्बह्मलोकं यावद्रच्छतां सकामनिर्जराया अपि सम्भवाचेति // 17|| सेन०१ उल्ला०।"चरगपरिव्वायबंभलोगो जा' इति वचनानुसारेण द्वादशे स्वर्गे ग्रैवेयके च मिथ्यात्विनः केऽवतरन्तीति ? प्रश्ने, उत्तरम्-द्वादशे स्वर्ग गोसालकमतानुसारिण आजीविका मिथ्यादृशो,व्रजन्ति, ग्रैवेयके तु यतिलिङ्गधारिनिह्नवादयो मिथ्यादृष्टयो व्रजन्तीत्यौपपा-तिकादौ प्रोक्तमस्तीति / 131 / सेन०३ उल्ला० / उत्सूत्रभाषिणां सम्यग्दृष्टित्वमुत मिथ्यादृष्टित्वमिति प्रश्ने उत्तरम् - उत्सूत्रभाषिणा मिथ्यादृष्टित्वमाश्रित्य विप्रतिपत्तिः कापि नास्ति, "सूत्रोक्तस्यैकस्याप्परोचनादक्षरस्य भवति नरः / मिथ्यादृष्टिः", इत्यादिवचनादिति॥३७०॥ सेन०३ उल्ला०।"तहेव काणं काण त्ति' वचनमुद्भाव्यन मिथ्यादृष्टर्मिथ्यादृष्टित्ववचनध्यवहारः कठिनवचनत्वादिति केचनापि प्रतिपादयन्तीति ? प्रश्ने, उत्तरम्-मिथ्यादृष्टेमिथ्यादृष्टिरिति कथनं तदकथनं च यथासमयं विधेयमिति // 373 / / सेन०३ उल्ला० / "दक्खिन्नदयालुत्तं, पियभासित्ताइवि-विहगुणनिवहं / / सिवमगकारण ज, तमहं अणुमोअए सव्वं // 1 // " "सेसाणं जीवाणं० / | "एमाई अण्ण पि अ०॥३॥"एतदाराध-नापताकागाथात्रयानुसारेण मिथ्यादृष्टीना दाक्षिण्यदयालुत्वादिकं प्रशस्यते न वेति ? प्रश्ने, उत्तरम्-एतदाराधनापताकाप्रकीर्णकसंबन्धिगाथात्रयमस्ति तन्मध्ये यति॥१॥ देशविरतिश्रावका / / 2 / / ऽविरतसम्यग्दृष्टि / / 3 / / जिनशासनसंबन्धिभिर्विनाऽन्येषां दाक्षिण्यदयालुत्वादिकं प्रशस्यतयोक्त, ततो युक्त ज्ञातं नास्ति, यत एते गुणाः श्रीजिनैरानेतव्याः एव कथितास्सन्तीति ||445|| सेन०३ उल्ला०। हीरविजयसूरीश्वरप्रसादीकृतद्वादशजल्पमध्येऽनुनोदनाजल्पोऽस्ति, तत्र दानरुचिपणु स्वाभावि विनीतपणुं अल्पकवाईपणु परोपकारीपणु भव्यपणुं इत्यादिका ये ये मार्गानुसारिसाधरणगुणा मिथ्यात्विसम्बन्धिनस्तथा परपक्षिसम्बन्धिनश्चानुमोदनारे लिखितास्सन्ति, सदाश्रित्य केचन नवीन विपरीतार्थ कुर्वन्तः श्रूयन्ते, तद्यथायेषामसद्ग्रहो नास्ति तेषामेवैते गुणा अनुमोदनयोग्याः, परं यस्य कस्यापि जल्पस्याद्ग्रहों भवति तस्यैते गुणा नानुमोदनार्हा इत्येतदाश्रित्य सम्यग् निर्णयः प्रसाद्य इति ? प्रश्ने, उत्तरम्-असद्गृहमन्तरेणान्येषां ये मार्गानुसारि - साधारणगुणस्तंऽनुमोदनार्हा नाऽन्ये इति वदन्ति तदसत्य मेव, यतो येषां मिथ्यात्वं भवति तेषां कश्चिदरादग्रहोऽवश्य भवत्येदान्यथा सम्य- | क्त्वमेव प्रतिपाद्यते, शास्त्रमध्ये तु मिथ्यात्वरूपासद्ग्रहे सत्यप्यते मार्गानुसारिगुणा अनुमोदनार्हाः कथतास्सन्ति, यदुक्तमाराधनापताकायाम् - जिणजम्मईऊसव-करणं तह महरिसीण पारणए। जिणसासणंमि भत्ती, पमुहं देवाण अणुमन्ने // 308|| तिरिआण देसविरई, पज्जताऽऽराहणं च अणुमोए। सम्मदसणलंभं,अणुमन्ने नारयाणं पि॥३०६।। सेसाण जीवाणं, दाणरुइत्तं सहावविणियत्तं। तह पयणु कसायत्तं, परोवगारित्तभव्वत्तं // 310 / / दक्खिन्नदयालुतं, पिअभासित्ताइविविहगुणनिवह। सिवमग्गकारणं जं,तं सव्वं अणुमयं मज्झ॥३११।। इअपरकयसुकयाणं, बहूणमणुमोअणा कया एवं। अह नियसुचरियनियरं, सरेमि संवेगरंगेणं॥३१२।इतिः अहवा सव्वं चिअवीअरायवयणानुसारि जं सुकडं। कालत्तए वि तिविहं, अणुमोएमो तयं सव्वं // 58 // इति। चतुश्शरणेऽपि, अथच मिथ्यात्विना परपक्षिणां च दयामुखः कश्चिदपि गुणो मानुमोदनीय इति ये वदन्ति तेषां समा मतिः कथं कथ्यत इति // 103 / / सेन०४ उल्ला० / चरकपब्रिाजकतामल्यादि-मिथ्यादृष्टिना तपश्चरणाद्यज्ञानकष्ट कुर्वतां सकामनिर्जरा भवत्यकामनिर्जरावा इति, केचन वदन्ति तेषामकामनिर्जरैवेति साक्षरं प्रसाद्यमिति प्रश्ने, उत्तरम्ये चरकपरिव्राजकादिमिथ्यादृषयोऽस्माकं कर्मक्षयो भवत्विति धिया तपश्चरणाद्यज्ञानकष्ट कुर्वन्ति तेषां तत्त्वार्थमाष्यवृत्तिसमयसारसूत्रवृत्तियोगशास्त्रवृत्त्यादिग्रन्थानुसारेण सकामनिर्जरा भवतीति सम्भाव्यते, यतो योगशास्त्रचतुर्थप्रकाशवृत्तौ सकामनिर्बराया हेतुर्बाह्याभ्यन्तरभेदेन द्विविधं तपः प्रोक्तम्, तत्र षट्प्रकार बाह्य तपो, बाह्यत्वं च बाह्यद्रव्यापेक्षत्वात्पर-प्रत्यक्षत्वात्कुतीर्थिकैहस्थैश्च कार्यत्वाचेति, तथा-लोकप्रतीतत्वात्कुतीर्थिकैश्च स्वाभिप्रायेणासेव्यत्वादाह्यत्वमिति / त्रिंशत्तमोत्तराध्ययनचतुर्दशसहस्त्रीवृत्तौ एतदनुसारेण षड्विधबाह्यतपसः कुतीर्थिकासेव्यत्वमुक्तं, परं सम्यग्दृष्टिसकामनिर्जरापेक्षया तेषां स्तोला भवति, यदुक्तं भगवत्यष्टमशतकदशमोद्देशके (देसाराहए त्ति) बालतपस्वी स्तोकमशं मोक्षमार्गस्याराधयतीत्यर्थः, सम्यग्योधरहितत्वात्क्रियायापरत्वाचेति, तया च मोक्षप्राप्तिर्नि भवति स्तोककाशनिर्जर-गात, भवत्यपि च भावविशेषाद्वल्कलचीर्यादिवद्, यदुक्तम् - आसंवरो असेयं-बरो अबुद्धोय अहव अन्नोवा। समभावाभाविअप्पा, लहेइ मुक्ख न संदेहो॥१ इति। यदि तेषामकामनिर्जरैवाङ्गीक्रियतेतर्हि-"जीवेणंभते! असंजए अविर अपडिहयपचक्खायपावकम्मे इतो चुए पेचा देवे सिया ? गोयमा ! अत्थेगतिए देवे सिआ, अत्थेगतिए नो देवे सिआ, सेकेणऽढे जाव इतो चुए पेचा अत्थेगतिए देवे सिआ अत्थेगतिए नो देवे सिआ ? गोयमा ! जे इसे जीवा अकामतण्हाए अकामछुहाए अकामबंभचेरवासेणं अकामसीयाऽऽयवदसमसगअन्हाणगसेयजल्लमलपंकपरिदाहेणं अप्पतरवा भुजतरंवा कालं
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________________ मिच्छदिद्वि 277 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मिच्छाकिरिया अप्पाणं परिकिलेस्संति, परिकिले सित्ता कालमासे कालं किच्चा | मिच्ददिद्विगुणट्ठाण न० (मिथ्यादृष्टिगुणस्थान) प्रथमगुणस्थाने, पं० सं० अण्णयरेसु वाणमंतरेसु देवताए उववत्तारो भवन्ति" श्रीभगवतीसूत्र- 1 द्वार / मिथ्या-विपर्यस्ता दृष्टिरहत्प्रणीतजीवाजीवादिवस्तुप्रतिप्रथमशतकप्रथमोद्देशकौपपातिकसूत्रादौ अकामनिर्जरया व्यन्तरेषूत्पादः / पत्तिर्यस्य भक्षितहत्पूरपुरुषस्य सिते पीतप्रतिपत्तिवत्, स मिथ्याकथितोऽस्ति, तत्कथं सङ्गच्छते, यतः संग्रहण्यादौ-"चरगपरिव्वा- दृष्टिस्तस्य गुणस्थानं ज्ञानादिगुणानामविशुद्धिप्रकर्षविशुद्धयपकर्षकृतः यबंभलोगो जा' इति वचनात् पञ्चमदेवलोके तेषामुतपादस्य भणित- स्वरूपविशेषो मिथ्यादृष्टिगुणस्थानम्। ननु यदि मिथ्यादृष्टिस्ततः कथ त्वादिति विरोधापत्तेः, हारिभव्योमपि - तस्य गुणस्थानसंभवः, गुणा हिज्ञानादिरूपास्तत्कथं तेदृष्टौ विपर्यस्तायां अणुकंपऽकामनिज्जर-बालतवे दाणविणयविभंमे। भवेयुरिनि ? उच्यते-इह यद्यपि सर्वथाऽतिप्रबलमिथ्यात्वमोहसंजोगविप्पओगे, वसणूसवइड्डिसक्कारे।।१।। नीयोदयादर्हत्प्रणीतजीवादिवस्तुप्रतिपत्तिरूपा दृष्टिरसुमतो विपर्यस्ता इत्यत्राकामनिर्जराबालतपसोर्भेदद्वयभणनं व्यर्थमेव, एकेनाकामनिर्ज- | भवति, तथाऽपि काचिन्मनुष्यपश्वादिप्रतिपत्तिरविपर्यस्ता, ततो रालक्षणेन चरितार्थत्वात्। तथा-"चउहिं ठाणेहिं जीवा देवत्ताए कम निगोदावस्थाया-मपि तथाभूताव्यक्तस्पर्शमात्रप्रतिपत्तिरविपर्यस्ता पकरेंति / तं जहा-सरागसंजमेणं 1 सजमासजमेण 2 बालतवोकम्मेण भवतिअन्यथा जीवत्वप्रसङ्गात्। यदाह आगमः-"सव्वजीवाणं पि अणं 3 अकामनिज्जराए' 4 "तदद्वत्तिलेशः-सकषायसंयमेन-सकषाय अक्खरस्स अणतभागो निच्चुग्घाडिओ चिट्ठइ, जइ पुण सोऽवि चारित्रेण वीतरागसंयमिनामायुषो बन्धाभावात् 1 संयमास यमस्य आवरिजिजा, तो ण जीवो अजीवत्तणं पाविज त्ति / " तथाहि-समुन्नद्विस्वभावत्वाद्देशसंयमः 2, बाला-मिथ्यादृशस्तेषां तपःकर्म-तपःक्रिया तातिबहलजीमूतपटलेन दिनकररजनिकरकरनिकरतिर-स्कारेऽपि बालतपःकर्म तेन 3, अकामेन-निर्जरां प्रत्यनभिलाषेण निर्जरा नैकान्तेन तत्प्रभा नाशः सपद्यते, प्रतिप्राणिप्रसिद्धदिनरजनिविभागाअकामनिर्जरणाहेतुर्बुभुक्षादिसहनं यत्सा अकामनिर्जरा तया इति / वप्रसङ्गात्। उक्तं च-"सुटु वि मेहसमुदये, होइ पहा चंदसूराणं" इति। स्थानागसूत्रचतुर्थस्थानके तथा एवमिहाऽपि प्रबलमिथ्यादयेऽपि काचिदविपर्यस्ताऽपि दृष्टिर्भवतीति अकामनिर्जरारूपात्पुण्याजन्तोः प्रजायते। तदपेक्षया मिथ्यादृष्टरपि गुणस्थानसंभवः / यद्येवं ततः कथमसौ स्थावरत्वं त्रसत्वं वा, तिर्यक्त्वं वा कथंचन।।१०।। मिथ्यादृष्टिरेव मनुष्यपश्वादिप्रतिपत्त्यपेक्षयाऽन्ततो निगोदावस्थायामपि तथाभूताव्यक्तस्पर्शमात्रप्रतिपत्त्यपेक्षया वा सम्यग्दृष्टित्वादपि, नैष दोषः, इत्यत्र-पुण्यादिति-पुण्यं न पुण्यप्रकृतिरूपं, किन्तु-लाघवरूपम्, यतो-भगवदर्हत्प्रणीतं सकलमपि द्वादशाङ्गार्थमभिरोचयमानोऽपि यदि तस्मात् स्थावरत्वादिकं प्राप्यते, तामलितापसादीनां तु शास्त्रेष्विन्द्रत्यादिप्राप्तिः कथिताऽस्ति, सा च सकामनिर्जरया भवति, यदुक्तं तद्रदितमेकप्यक्षरं न रोचयति तदानीमप्येष मिथ्यादृष्टिरेवोच्यते, तस्य भगवति सर्वज्ञ प्रत्ययनाशत्। तदुक्तम् - तत्त्वार्थभाष्यनवमाध्ययनवृत्तौ-'अमरेषु तावदिन्द्रसामानिकादि पयमक्खरं पि एक, पिजो न रोएइ सुत्तनिधिटुं। स्थानानि प्राप्नोतीति' / ननु ज्ञेया सकामा यमिना' मित्यत्र यदि सेरा रोयतो वि हु, मिच्छद्दिट्ठी जमालि व्य॥१॥ इति। यमिनाम्-यतीनामेव, सकामनिर्जरा प्रोच्यते श्रावकाणामविरतसम्यग् कि पुनर्भगवदर्हदभिहितसकलजीवाऽजीवादिवस्तुतत्त्वप्रतिपत्तिदृष्ट्यादीनां च का गतिरिति चेत् उच्यते-यमिनामिति सामान्यतयोक्तः विफल इति / कर्म०२ कर्म०। श्रावकादीनामपि तारयम्येन द्वादशवलोकादिदायका सकामा भवतीति मिच्छदुगन० (मिथ्याद्विक) मिथ्यादृष्टिसास्वादनलक्षणे मिथ्यादृष्टिद्विके, ज्ञायते, श्राद्धादीनामित्यत्रादिशब्दाद्वालतपस्विनामपि कथमिति चेत, कर्म०४ कर्मः। शृण, बालमसमर्थ सन्मार्गप्रदाने सकलकर्मक्षये वा, बालं च तत्तपश्च मिच्छराय पुं० (म्लेच्छराज) अनार्यनृपे, आव०४ अ०। बालतपः, तचाग्निप्रवेशभृगुगिरिप्रपतनादिकायक्लेशरूपम्, कायक्ले मिच्छा अव्य० (मिथ्या) विपरीते, आव०४ अ० / विशे० / सूत्र० / सश्च, 'का यकिलेसो संलीणया ये' त्वागमववचनाद्वाह्य-तपः तच असमीचीने, स्था०३ ठा०३ उ० / उत्त० / सूत्र० / अनु० / असत्ये, समामनिर्जरोहेतुरिति / / 105 / / सम्यग्दृशां मिथ्यात्वदृशां परपक्षिणां च उत्त०४ अ०। "मिच्छा मोह वितहं अलिअं असचं असब्भू" पाइ० तपागच्छाचार्यप्रभृतिभिः प्रत्याख्यान कार्यते तन्मार्गानुसारि भवति न ना०५३ गाथा। मिथ्या वितथम नृतमिति पर्यायाः / स्था०१० ठा०। वा इति प्रश्ने, उत्तरम्-तत्सर्वमपि प्रत्याख्यानं मार्गानुसारीति ज्ञात प्रश्न०। ध०। विपर्यस्तदृष्टित्वे, आतु० / आ०म० / मिच्छ त्ति वा वितह मस्ति, परं प्रत्याख्यानकर्ता यदि प्रत्याख्यानविधि न जानाति तदा ति वा असच ति वा असव्वयं ति वा अकरणिज ति वा एगट्ठा / तस्य तद्विधि प्रज्ञाप्य कार्यते इति विशेषो ज्ञेयः // 106 / / सेन०४ उल्ला०। आ०चू०१अ०। मिच्छदिट्ठिय त्रि० (मिथ्यादृष्टिक) सम्यक्त्वगुणरहिते, स्था० / मिच्छाकार पुं० (मिथ्याकार) कृतपातकस्य परितापरूपे प्रायश्चित्ते, दुविहा णेरइया पण्णत्ता। तं जहा-सम्मद्दिट्ठिया चेव, मिच्छदि आव०४ अ०। ट्ठिया चेव, एगिदियवज्जा सव्वे। मिच्छाकिरिया स्त्री० (मिथ्याक्रिया) जिनोक्तरीतिविपर्ययेणेत्यादिएकेन्द्रियाणां सम्यक्त्वं नास्ति। स्था०२ ठा०२ उ० पदार्थाभ्युपगमे, आ०चू०४ अ०। आव० /
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________________ मिच्छाचार 278 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मिच्छादुक्कड मिच्छाचार पुं० (मिथ्याचार) मिथ्याऽलीको विशिष्टभावशून्य आचारो यस्य स मिथ्याचारः / बाह्यक्लिष्टलिङ्गे. "बाह्येन्द्रियाणि संयम्य, य आस्ते मनसा स्मरन् / इन्द्रियाश्र्धान् विमूढात्मा, मिथ्याचारः स उच्यते ||1||" षो०१ विव०। मिच्छाणाण न० (मिथ्याज्ञान) विपर्यस्तप्रतिपत्ती, प्रव०१०७ द्वार। मिच्छादंड पुं० (मिथ्यादण्ड) मिथ्यैवानपराधिष्वेव दोषमारोष्य दण्डो मित्रादण्डः / अनपराधदण्डे, सूत्र०२ श्रु०२ अ० / दशा० / मिथ्यात्य पूर्वाय हिंसायाम्, स्था०७ ठा०। मिच्छादसण : मिथ्यादर्शन) मिथ्या-विपरीत दर्शनं मिथ्यादर्शनम्। रा०३ 8.03 / मोहकर्मोदयजे, आ०चू०४अ० आव०। विपर्यस्तदर्शने, तत्त्वार्थश्रद्धाने, स०३ सम० / प्रज्ञा०। औ०। स्था० / अताभिनिवेशे, तत्त्वे चातत्त्वाभिनिवेशे, सूत्र०१ श्रु०१६ अ०। मियादर्शन च पञ्चधा-अभिग्रहिकानभिग्राहि-काभिनिवेशिकाना - भाणिक साशनिकभेदादुपाधिभेदतो बहुतरभेदं चेति। स्था०१८००। मिच्छादसणे दुविहे पन्नत्ते, तं जहा-अभिग्गहियमिच्छादसणो चेव, अणभिग्गहियमिच्छादसणे चेव / स्था०२ ठा० 1 उ० / (स्वस्वस्थाने व्याख्यते) मिच्छादसणकिरिया स्त्री० (मिथ्यादर्शनक्रिया) मिथ्यादर्शनायत्ययि ज्या क्रियायाम, भ०३ श०२ उ०। मिच्छादंणकिरिया दुविहा पण्णत्ता। तं जहा-आयरियमिच्छादसणवत्तिया, तव्वइरित्तमिच्छादसणकिरिया चेति। स्था०२ ठा०। मिच्छादसणलद्धिपु० (मिथ्यादर्शनलब्धि) मिथ्यादृष्टी, भ०८ श०२ उ०। मिच्छादसणवत्तिया स्त्री० (मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी) मिथ्यादर्शनं प्रत्ययो हेतुर्यस्याः सा मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी / मोहोदयजे क्रियाभेदे, प्रति०। स्था०। आव०। मिच्छादसणसल्लन० (मिथ्यादर्शनशल्य) तोमरादिशल्यतुल्ये मिथ्या वे, कल्प०१ अधि०६ क्षण। 'मिच्छदंसणसल्ले 'मिथ्यात्वदर्शनमविपर्यस्तदृष्टिस्तदेव तोमरादिशल्यमिव शल्य दुःखहेतुत्वात् मिथ्यादर्शनशल्यमिति / स्था०१ टा० / प्रव०। मिच्छादुक्कड न० (मिथ्यादुष्कृत) प्रतिक्रामामीत्यत्र प्रतिक्रमणे, आ० H01 अ० प्रतिक्रामामीत्यत्र प्रतिक्रमणं मिथ्यादुष्कृतमभिधीयतं. तच द्विधा। द्रव्यतो, भावतश्च / तथा चाह नियुक्तिकारःदव्वम्मि निण्हगाई, कुलालमिच्छ ति तत्थुदाहरणं / भावम्मि तदुवउत्तो, मिगावई तत्थुदाहरणं / / द्रव्य-दव्यप्रतिक्रमणे, प्रतिक्रमणप्रतिकमणवतोरभेदोपचारात्, निहवादि-आदिशब्दादनुपयुक्तादिपरिग्रहः। तत्रोदाह रणम्-कुलालमिथ्यादुष्कृतः, तोदम - एगस्स कुभकारस्स कुडीए साहुणो ठिया, तत्थ्यो / चेल्लगो तस्स कुंभगारस्स भंडाणि अंगुलिधणुहएणं कक्करहिं विधई, कुंभगारेण पडिगयं, तेण दिट्ठो, भणिओ यकीस भंडाणि विंधेसि ? खुड्डगो भणइ-'मिच्छा दुमड ति ' एवं सो पुणो वि बिंधिऊण मिच्छा दुकडं देइ। पच्छा कुंभगारेण तस्स खुड्डगस्स कण्णामोडओ दिन्नो। सो भणइ-दुक्खायिजामि अहं, कुंभगारो भणइ-मिच्छा मि दुक्कड़ / एवं सो पुणो 2 कण्णामोडयं दाऊण मिच्छा मि दुक्कड़ ति करेइ। पच्छ चेल्लगा भणइ-अहाँ सुंदर मिच्छादुक्कडं ति। कुंभकारो भणति-तुज्झ वि एरिर चेव मिच्छादुक्कड ति। पच्छा ठितो विधियवस्स।"ज दुक्कडं ति मिच्छा, तं चेव निसेवई पुणो पावं / पचक्खमुसाबाई, मायानियडिप्पसंगो य // 685 / / " एवं दव्वपडिक्कमण। भावप्रतिक्रमणं प्रतिपादयति(भवंभि इत्यादि) भावप्रतिक्रमणम् / तुदुपयुक्त एव तस्मिन्नधिकृते शुभव्यापारे उययुक्तो यत्करोति प्रतिक्रमणं तद्भावप्रतिक्रमणम् / तत्रोदाहरणे मृगापतिस्तचेदम्-भयवं वद्धमाणसामी कोसंबीए समोसरिता, तत्थ चंदसूरा भयवत बंदिउं सविमाणा ओइण्णा। तत्थ मिगावती अञ्जा उदयणमाया दिवसो चिकाउ चिरं ठिया। सेसाओ साहुणीओ सिस्थयर वंदिऊण पडिगयाओ। चदसूरा वितित्थयर वदिऊण पडिगया, सिग्यमेव वियालीभूयं / मिगावती संभंता गया अज्जचंदणासगास / एयाटो ताद पडिताउं भिगावती आलोएउंपवत्ता। अजचंदणाए भन्नति-कीस अजे ! चिर ठियाऽसि ? न जुत्तं नाम तुमं कुलप्पसूयाए एगागिणीए चिरं अच्छित्यं ति, सा सब्भावेण ‘मिच्छा मि दुक्कड ति, भणमाणी अज्जचंदणाए पाएसु पडिया। अज्जचंदणाऽवि ताए वेलाए संथारगं गया, ताहे निद्या आगया पसुत्ता, मिगावतीए वि मा खुजिहि त्ति सो हत्थो संथारग वडावितो। साऽवि बुद्धा भणइ-किमय ति अज्ज चतुम अच्छसि त्ति दुक्कड निद्दापमाएण न उहवियाऽसि मियावती तीए भणति-एस सप्पोमा ते खाहि त्ति, हत्थो वडावितो। सा भणइ, कहिं से दरिसेइ, अजचंदणा अपेच्छमाणी भगइ। अ ! किं ते अतिसओ। सा भणइ-आम, तो किं छाउमत्थो केवलिगो वा। सा भणइ केवलिगो। पच्छा अज्नचंदणा पाएसु पडिऊण भणइ'मिच्छा मि दुक्कड' केवली आसाइतो, एवं भाववपडिक्कमणो एन्थ गाहा। जइ य पडिक्कमियव्वं, अवस्सकाऊण पाक्यं कम्म। तं चेव न कायव्वं, तो होइपए पडिक्कतो॥६८३॥ आ०म०१ अ०। संप्रति मिथ्याकारविषयप्रतिपादमार्थमाहसंजमजोगे अब्भुट्टियस्स जं किंचि वितहमायरियं / मिच्छा एवं ति वियाणिऊण मिच्छ त्ति कायव्वं // 683 // संयमयोगः - समितिगुप्तिरूपः, तस्मिन् विषये अभ्युत्थितस्य - सतो , यत् किं चिद्वितथम् - अन्यथा, आचरितम - आसेवितम्, संभूतमिति वाक्येशेषः / मिथ्या-विपरीतम, एतदिति
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________________ मिच्छादुक्कड 276 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मिच्छासुय विज्ञाय किम् ? 'मिच्छत्ति कायच्वं' इति। मिथ्येति कर्त्तव्यम्, तद्विषये अभ्रादिभ्यः / / 7 / 2 / 46 / / इति मत्वर्थीयोऽप्रत्ययः। तद्भावस्तत्त्वं तस्मिन्। मिथ्यादुष्कृत दातव्यमित्यर्थः / तथा 'छ' इत्ययं वर्णो दो वाणामसंयमयोगलक्षणा-नामाच्छादने -स्थगने संयमयोगविषयायः च प्रवृत्ती वितथासेवनमिथ्यादुष्कृतं दोषापनय - भवति। 'मि' इत्ययं वर्णो मर्यादाया चारित्ररूपायां स्थितोऽहमित्यस्यार्थनायालं. न तृपेत्य करणाविषयाया नाप्यसकृत करणगोचरायाम. तथा- स्यऽभिधायकः / 'दु' इत्ययं वर्णो जुगुप्से-निन्दामि दुष्कृतकारिणमाचाऽमुमेवोत्सर्ग प्रतिपादयन्नाह त्मानमित्यस्मिन्नर्थे वर्त्तते / 'क' इत्ययं वर्णः कृतं मया पापमित्येवमजइ य पडिक्कमियव्वं, अवस्स काऊण पावयं कम्म। भ्युपगमाऽर्थ वर्तत, 'ड' इत्यय, वर्णो डेविभिलङ्मयामि अतिक्रमानि, तं चेव न कायव्वं, तो होइ पए पडिक्कतो॥६८३।। तत्-कृतं पापम्, केनेत्याह-उपशमेनेत्यस्मिन्नर्थ, एषोऽनन्तरोक्तः यदि च प्रतिक्रन्तव्यम्-निवर्तितव्यम्मिथ्यादुष्कृतं दातच्यमित्यर्थः। प्राकृतशैल्या मिथ्यादुष्कृतपदस्याक्षरार्थः / समासेन-संक्षेपेण / आहअवश्य नियमेन कृत्वा पापकं कर्म, ततश्च तदेव पापकं कर्म न कर्त्तव्यम्, कथं प्रत्येकमक्षराणामुक्तार्थता पदवाक्ययोरेवार्थदर्शनात्। उच्यते-इह ततो भवति पदे-उत्सर्गपदविषये प्रतिक्रान्तः / अथवा-पदे प्रतिक्रान्त यथा वाक्यैकदशत्वात्पदस्यार्थोऽस्ति तथा पदैकदेशत्वाद्वर्णस्याइति। किमुक्तं भवति? सुतरां प्रतिक्रान्त इति / पीत्यदोषः, अन्यथा पदस्याप्यर्थशून्यतवप्रसङ्गः प्रत्येकमक्षरेष्वर्थासंप्रति यथाभूतस्पदं मिथ्यादुष्कृतं सुदत्तं भवति तथा भूतमभि- भावात्, प्रयोगश्च-यत् यत्र प्रत्येक न विद्यते तत्समुदायेऽपि न भवति, धित्सुराह यथा-सिकतासु तैलम, इष्यते च वर्णसमुदयात्मकस्य पदस्यार्थस्तजं दुक्कडं ति मिच्छा, तं भुजो कारणं अपूरंतो। स्मादन्यथाऽनुपपत्तेर्वानामप्यर्थः प्रतिपत्तव्य इत्यल प्रसङ्गेन / आ० तिविहेण पडिक्कतो, तस्स खलु दुक्कडं मिच्छा // 684 / / म०१ अ०। (मिथ्यादुष्कृतभेदाश्च-अष्टादशलक्षाः चतुर्विशतिसहस्त्राः यदिति-अनिर्दिष्टर य निर्देश: कारणमिति योगः, ततश्च यत् कारणं एक शतं विशतिश्च 1824120 भवन्ति / ते च युक्तितः 'पडिक्कमण' यद्वस्तु दुष्ट कृतं दुष्कृतमित्येवं विज्ञाय, 'मिच्छे' ति सूचनात सूत्रमिति शब्दे पञ्चमभागे 272 पृष्ठे दर्शिताः) कृत्वा मिथ्यादुष्कृतं दातव्यमिति शेषः / भूयः पुनरपि तत्कारणगपूरयन्- मिच्छादुकडप्पओग पुं० (मिथ्यादुष्कृतप्रयोग) मिथ्यादुष्कृतअकुर्वन् अनाचरन्निति भावः / यो वर्तत इति वाक्यशेषः / तत्र स्वयं शब्दप्रयोगे, "ज कहमवि पावकम्मे आसेविते अकरणितमेयं ति तदकायेनाप्यकुर्वन् अपूरयन्नभिधीयते। तत आह-(तिविहेण पडिकतोतस्स भिप्यारण अपुणकरणतोय अभुट्टियं मिच्छादुकडं ति" आ०चू०१ अ०। खलु दुक्कड मिच्छा) त्रिविधेन-मनोवाक्कायलक्षणेन योगेन कृत- मिच्छापडिवण्ण त्रि० (मिथ्याप्रतिपन्न) असम्यक् पिण्डेषणाद्यभिकारितानुमतिभेदयुक्तन प्रतिक्रान्तो-निवृत्तस्तस्माद्-दुष्कृतकारणात | ग्रहवति, आचा०२ श्रु०१ चू०१ अ०११ उ०। तत्येव खलुशब्दोऽवधारणे दुष्कृत-प्रागुक्त दुष्कृतं फलदातृत्वमधिकृत्य मिच्छापवयण न० (मिथ्याप्रवचन) शाक्यादितीर्थिकशासने, स्था०६ मिथ्या भवतीति क्रियाध्याहारः। अथवा-तस्यैव मिथ्यादुष्कृतं भवति, ठा। नान्यस्येति मिच्छाभिणिवेस पुं० (मिथ्याभिनिवेश) असदभिनिवेशे, षो०११ विव० / सांप्रतं यस्य यस्य मिथ्यादुष्कृतं दत्तमपि न सम्यग भवति स्था०। तत्प्रतिपादनार्थमाह मिच्छायार पुं० (मिथ्याचार) मिथ्यात्वाविरतिकषायदुष्टयोगजमोक्षजं दुक्कडं ति मिच्छा, तं चेव निसेवए पुणो पावं / ___ मार्गविपरीतसमाचारे, पञ्चा०२ विव०। पञ्चक्खमुसावई, मायानियडिप्पसंगो य॥६८५।। मिच्छावाय पुं० (मिथ्यावाद) जिनप्रणीततत्त्वविरुद्धत्वाद-सम्यग्वादे, यत्पापरूपं किंचिदनुष्ठान दुष्कृतमिति विज्ञाय 'मिच्छा' मिथ्या दुष्कृत- स्था०४ ठा०२ उ०। दनविषयीकृतम्, यस्तदेव निषेवते पुनः पापं स प्रत्यक्षमृषावादी, मिच्छासंठियभावण त्रि० (मिथ्यासंस्थितभावन) मिथ्या विपरीता कथम् ? दुष्कृतमेतदित्यभिधाय पुनरासेवनात्, तथा तस्य मायानि- स्वानुगहारूढा भावना-अन्तःकरणवृत्तिर्येषां ते मिथ्यासस्थितभावनाः कृतिप्रसङ्गश्च, स हि दुष्टान्तरात्मा निश्चयतश्चेतसा अनिवृत्त एव गुर्वादि- / मिथ्यात्वोपहृतदृष्टिषु, सूत्र०१ श्रु०३ अ०१ उ०। रञ्जनार्थ मिथ्यादुष्कृतं प्रयच्छति, कुतः ? पुनरासेवनात्, तत्र मायेव मिच्छासुय न० (मिथ्याश्रुत) मिथ्यादृष्टर्मिथ्यादृष्टिप्रणीते विपरीतानिकृतिः तस्याः प्रसङ्गो मायानिकृतिप्रसङ्गः। ऽर्थतया परिणते श्रुतज्ञाने, कर्म०१ कर्म०। विशे० न०। कः पुनरस्य मिथ्यादुष्कृतपदस्यार्थ इत्याह से कितं मिच्छासुअं? मिच्छासुअंजं इमं अण्णाणिएहिं 'मि' त्ति मिउमद्दवत्ते, 'छ' त्ति य दोसाण छायणे होइ। मिच्छादिविएहिं सच्छंदबुद्धिमइविगप्पिअंतंजहा-भारह रामायणं 'मि' त्ति य मेराएँ ठिओ, 'दु' त्ति दुगुंछामि अप्पाणं / / 686|| भीमासुरुक्खं कोडिल्लयं सगडमद्दिआओ खोड (घोडग) मुहं 'क'त्ति कडं मे पावं, 'ड' त्ति य डेवेमि तं उवसमेणं। कप्पासि नागसुहम कणसत्तरी वइसेसिअंबुद्धवयणं तेरासिअं एसो मिच्छादुक्कड, पयक्खरत्थो समासेण॥६८७।।। काविलिअं लोगाययं सद्वितंतं माढरं वागरणं भागवं भीत्यय वर्णो मृदुमार्दवे वर्तते, तत्र मृदुत्वं कार्यनम्रता, मार्दव-भाव- | पायंजली पुस्सदेवयं लेहं गणिअं सउणरुअंनाडयाई, अहवानम्रता, मृदु च मार्दवं च मृदुमार्दवे / ते अस्य स्त इति मृदुमार्दवः / वावत्तरिकलाओ चत्तारि अ वेआ संगोवंगा, एआई मिच्छदि
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________________ मिच्छासुय 280- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मित्तणंदि हिस्स मिच्छत्तपरिग्गहिआई मिच्छासु अं, एयाइं चेव किशन तथापि सहसाकारानाभोगाभ्यामतिक्रमादिभिर्वा मृषावादे सम्मदिहिस्स सम्मत्तपरिग्गहियाई सम्मसुअं, अहवामिच्छदि- परप्रवर्त्तनं व्रतस्यातिचारः / अथवा-व्रतसंरक्षणवबुद्ध्या परवृत्तान्त द्विस्स वि एयाइ चेव समएहिं चोइआ समाणा केइ सपक्ख- कथनद्वारेण मृषोपदेशं यच्छतोऽतिचारोऽयं व्रतसापेक्षत्वान्मृषाणदे दिट्ठीओ चयंति। से तं मिच्छासुअंग (सूत्र-४१) परप्रवर्तनाच भनाभग्नरूपत्वाद् व्रतस्येति द्वितीयोऽतिचारः। ध०२ अधिक। ('से किं त' मित्यादि) अथ किं तन्मिथ्याश्रुतम् ? आचार्य आह- | मिच्छोवजीवि त्रि० (मिथ्योपजीविन्) मिथ्याचारप्रवृत्ते मायाविनि, सूत्र० मिथ्याश्रुतं यदिदमज्ञानिकः, तत्र यथाऽल्पध ना लोकेऽधना उच्यन्ते, / 2 श्रु०५ अ०॥ एवं सम्यग्दृष्टयोऽप्यल्पज्ञानभावादज्ञानिका उच्यन्ते, तत आह- | मिच्छोक्यारपुं० (मिथ्योपचार) मातृस्थानगर्भे क्रियाविशेषे, अव०१ अ०। मिथ्यावृषिभिः, किं स्वछन्दबुद्धिमतिविकल्पितम्। तत्रावग्रहे हेतुर्बुद्धिः, मिजमाण त्रि०(मीयमान) तोल्यमाने, आचा० / सूत्र० अपायधारणे मतिः, स्वच्छन्देन स्वाभिप्रायेण तत्त्वतः सर्वज्ञप्रणीतानु- मार्यमाण त्रि० हिंसायां बहुक्रूरकर्मा-चौरोऽयं पारदारिक इति वा इत्येवं सारभन्तरणेत्यर्थः बुद्धिमतिभ्यां विकल्पितं, स्वच्छन्दबुद्धिमतिविक- कर्मणा परिच्छिद्यमाने हिंस्यमाने, सूत्र०१ श्रु०७ अ०। ल्पितम् / स्वबुद्धिकल्पनाशिल्पनिर्मित-मित्यर्थः, तद्यथा-'भारत- मिज्झ त्रि० (मध्य) शुचिद्रव्ये, स्था०१० ठा। मित्यादि, यावत् चत्तारि वेया संवोवंगा' भारतादयश्च ग्रन्था लोके मिट्ट त्रि० (मिष्ट) इत्कृपादौ / / 8 / 1:128|| इति आदेत इन्वम्। प्रा०१ प्रसिद्धास्तता लोकत एव तेषां स्वरूपमवगन्तव्यम्, ते च स्वरूपतो / पाद। यथावस्तितवस्त्वभिधानविकलतया मिथ्याश्रुतमवसेयाः, एतेऽपि च | मिणगोणस् पुं० (मिणगोनस) सर्पजातिविशेषे, व्य०१ उ०। स्वामिसम्बन्धचिन्तायां भाज्याः, तथा-चाह-'एयाई' इत्यादि, एतानि मिणाय (देशी) बलात्कारे, दे० ना०६ वर्ग 126 गाथा। भारतादीनि शास्त्राणि मिथ्यादृष्टमित्यात्वपरिगृहीतानि भवन्ति ततो | मिणाल न० (मृणाल) कमलनाले, आचा०१ श्रु०१ अ०५ 70 / लिपरीताभिनिवेशवृद्धिहेतुत्वान्मिथ्याश्रुतम्, एतान्येव च भारतादीनि मित्त न० (मित्र) सुहृदि, विपा०१ श्रु०३ अ० / कल्प० / नि० भ० / जी०। शास्त्राणि सम्यग्दृष्टेः सम्यक्त्वपरिगृहीतानि भवन्ति सम्यक्त्वेन | औ० / पश्चात् स्नेहवति, स्था०४ ठा०३ उ०। विपा०। सकलकालमव्ययथावस्थिताऽसारतापरिभावनरूपेण परिगृहीतानि तस्य सम्यक्श्रुतं, भिचारिहितोपदेशदायिनि, जं०२ वक्ष० / विज्ञातश्लोकपदवर्णासदलासारतादर्शनेन स्थिरतरसम्यक्त्वपरिणामहेतुत्वात्, ('अहवे' दिसंख्ये, अनु० / स्था०। ज्ञा०। उत्त० / सू०प्र०। आचा०। अहोरात्रस्य त्यादि) अथवा-मिथ्यादृष्टेरपि सतः कस्यचिदेतानि भारतादीनि चतुर्थे मुहूर्ते, चं० प्र०१० पाहु०। सूत्र० / ज्यो० स०। जं०। कल्प० / शारत्राणि सम्यक् श्रुतम् / शिष्य आह-कस्मात् ? आचार्य आह- अतुराधानक्षत्रस्य देवतायाम्, स्था०२ ठा०३ उ०। सम्यक्त्वहेतुत्वमेव भावयति-यस्मात्ते मिथ्यादृष्टयः तैरव समग्रे: छच्चवे य आरभडो, सोमित्तो पंचअंगुलो होई। सिद्धान्तैर्वेदादिभिः पूर्वोपरविरोधेन यथा रागादिपरीतः पुरुषस्तावत्रा- चत्तारि य वइरिजो, दुचेव य सावसू होइ।।४।। तीन्द्रियमर्थमवबुध्यते रागादिपरी-तत्वाद् अस्मादृशवद् वेदेषु द०प०।८६५ गाथा / जं० / मित्रनाम्नि देवे, जं०७ वक्ष० / उज्झिचातीन्द्रियाः प्रायोऽर्था व्यावण्यन्ते अतीन्द्रियार्थदर्शी चवीतरागः सर्वज्ञो तकदारजन्मभूमिवाणिकग्रामराजे, विपा०१ श्रु०२ अ०। ('उज्झिज्ञयय' नाभ्युपगम्यते, ततः कथं वेदार्थप्रतीतिरित्येवमादिलक्षणेन नोदिताः शब्दे द्वितीयभागे 746 पृष्ट कथा गता) "जगन्मित्र यत्र मित्रसन्तः केचन विवेकिनः सत्या (शाक्या) दय स्वपक्षदृष्टीः स्वदर्शनानि सुमित्रान्वयपङ्कजे / अश्वावबोधनिढवतोऽभूत्सुव्रतो जिनः / / 1 / / " त्यजन्ति, भगवच्छासनं प्रतिपद्यन्ते इत्यर्थः, तत एवं सम्यक्त्वहेतुत्वा- ती०१० कल्प / मार्तण्डे, पुं०।"अक्को तरणी मित्तो, मत्तंडो दिणमणी द्वेदादीन्यपि शास्त्राणि केषाश्चिन्मिथ्यादृष्टीनामपि सम्यकश्रुतम्। ('से | पयंगो य। अहिमयरो पचूहो, दिअसयरो असुमाली अ।'' पाइ० ना०४ त' मित्यादि) तदेतन्मिथ्याश्रुतम्। न० / बृ० / गाथा / वयस्ये, ''मित्तो सही वयंसो'' पाइ० ना०१०० गाथा / मिच्छुक्कड न० (मिथ्यादुष्कृत्त) प्रतिक्रमणे, महा०१ चू०।। मणिपदायाः शास्तरि स्वनामख्याते राजनि, विपा०२ श्रु०६ अ०1 मिच्छोवएस पुं० (मिथ्योपदेश) असदुपदेशरूपे, द्वितीयेऽपि चारे, ध०। / मित्तकेसी स्त्री० (मित्रकेशी) जम्बूद्वीप रुचकपर्वतस्य रत्नो चयकूटमिथ्योपदेशः-असदुपदेशः प्रतिपन्नसत्यव्रतस्य हिपरपीडाकर वचन- / वास्तव्यायां दिशाकुमारीमहत्तरिकायाम्, स्था०८ ठा० / मसत्यमेव, ततः प्रसादात् परपीडाकरणे उपदेशेऽतिचारो यथा-वाह्यन्ता मित्तगा स्त्री० (मित्रका) बलिलोकपालसोमस्याग्रमहिष्याम, स्थाo! खरोष्ट्रादयो, हन्यन्तां दस्यव इति / यद्वा-यथास्थितोऽर्थस्तथोपदेशः / ठा०१ उ०। साधीयान, विपरीतस्तु अयथार्थोपदेशः, यथा-परेण संदेहापन्नेन पृष्ट न | मित्तजण पु० (मित्रजन) सहवर्द्धितादिसुहल्लोके, स०। उत्त० / प्रश्ना तथोपदेशः, यदा-विवाहे स्वयं परेण वा अन्यतराभिसंधानोपायोपदेशः। मित्तणंदिपु० (मित्रनन्दित्) व्वरदत्तकुमारपितरि स्वनामख्याते राजाने, अयं च यद्यपि नृषावादयामीत्यत्र वते भङ्ग एव, न वदामीति व्रतान्तरे न | विपा०२ श्रु०१० अ०।
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________________ मित्तदाम 281 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मित्तसेण मित्तदाम पुं० (मित्रदामन्) जम्बूद्वीपे भरतक्षेत्रे अतीतायामुत्सर्पिण्यां जाते दुर्मनसस्तदनिष्टाशङ्कया भवन्ति। तस्मिश्च प्रवसति देशान्तरे गच्छति प्रथमकुलतीर्थकरे, स० / स्था०। गते वा तत्सहवासिनः सुमनतो भवन्ति / तथाप्रकारश्च पुरुषजातोमित्तदेव पुं० (मित्रदेव) आरण्यकल्पोत्पन्ने धनदेवे, तद्देव्याम्, स्त्री। ऽपेऽप्यपराधे महान्तं दण्डं कल्पयतीति। एतदेव दर्शयितुमाह-दण्डस्य उता०२२ अ०। पार्श्वदण्डपाच, तद्विद्यते यस्यासा दण्डपावी, स्वल्पतया स्तोकापमित्तदेवा स्त्री० (मित्रदेवा) मित्रनामा देवो यस्याः सा / अनुराधायाम, राधेऽपि कुप्यति दण्ड च पातयति / तमप्यतिगुरुमिति दर्शयितुमाहसु०प्र०१०पाहु०। दण्डन गुरुको दण्डगुरुः / यस्य च दण्डो महान् भवति असौ दण्डेन मित्तदोसदंड पुं० (मित्रद्वेषदण्ड) मात्रादीनामल्पेऽप्यपराधे महादण्ड- गुरुर्भवति। तथा दण्डः पुरस्कृतः सदा पुरस्कृतदण्ड इत्यर्थः। स चैवंभूतः निर्वर्त्तने, प्रश्न०५ संव० द्वार। स्वस्य परेषां चास्मिन लोकेऽस्मिन्नेव जन्मनि अहितः प्राणिनामहिमित्तदोसवत्तिय पु० (मित्रद्वेषप्रत्ययिक) अमित्रक्रियायाम, मातापितृ- तदण्डपातनात, तथा परस्मिन्नपि जन्मन्यसावहितस्तच्छीलतया चासौ स्वजनार्दनामल्पेऽप्यपराधे तावद् यद्दण्डं कुरुते दहनाङ्कनताडनव- यस्य कस्यचिदेव येन केनचिदेव निमित्तेन क्षणे क्षणे संज्वलयतीति धबन्धनादिकंतभित्रद्वेषप्रत्ययिकक्रियास्थानम्। प्रव०१२१ द्वार। स०। संज्वलनः स चात्यन्तक्रोधनोवधबन्धच्छविच्छेदादिषु शीघ्रमेव क्रियासु आ०चू० आव० प्रवर्त्तते तदभावेऽप्युत्कटद्वेषतया मर्मोद्धाटनतः पृष्ठिमांसमपि खादेत्तमित्रदोषप्रत्यधिक क्रियास्थानमाह सदसौ ब्रूयात येनासावपि परः संज्वलयेत् ज्वलितश्चान्येषामपकुर्यात्, अहावरे दसमे किरियाठाणे मित्तदोसवत्तिए त्ति आहिज्जइ, से तदेवं खलु तस्य महादण्डप्रवर्त्तयितुस्तदण्ड प्रत्ययिक सावा जहाणामए केइ पुरिसे माईहिं वा पितीहिं वा भाईहिं वा भइणीहिं कर्माऽऽधीयते / तदेवशम क्रियास्थानं मित्रद्रोहप्रत्ययिकमाख्यातमिति। वा भजाहिं वा धूयाहिं वा पुत्तेहिं वा सुण्हाहिं वा सद्धिं संवसमाणे सूत्र०२ श्रु०२ अ०। तेसिं अन्नयरंसि अहालहुगंसि अवराहसि सयमेव गरुयं दंडं मित्तप्पभ पु० (मित्रप्रभ) स्वनामख्याते चम्पापुरीश्वरे, आ००४ अ०। निव्वत्तेति / तं जहा-सीओदगवियर्डसि वा कायं उच्छोलिता आव०। आ०चू०। (संवेगशब्दे कथा) भवति, उसिणोदगवियडेण वा कायं ओसिंचित्ता भवति, अगणि- मित्तबल पु० (मित्रबल) सुहृत्यक्षाबले. तन्मित्रबलं मे भविष्यति कारणं कायं उवडहित्ता भवति, जोत्तेण वा वेत्तेण वा णेत्तेण वा येनाहमापदं सुखेनैव निस्तरिष्यामीति। आचा०१ श्रु०२ अ०२ उ०। तयाइ वा क्रण्णेण वा छियाए वा लयाए वा अण्णयरेण वा दवरएण मित्तरूपपुं० (मित्ररूप) मित्रस्येव रूपमाकारोबाह्योपचारकारण-त्वाद्यस्य पासाइं उद्दालित्ता भवति, दंडेण वा अट्ठीणं वा मुट्ठीण वा लेलूण स मित्ररूपः / मित्राभासे, स्था०४ ठा०४ उ०। वा कवालेण वा कायं आउट्टित्ता भवति, तहप्पगारे पुरिसजाए | मित्तल (देशी) कन्दर्प, ना०६ वर्ग 126 गाथा। संवसमाणे दुम्मणा भवति, पवसमाणे सुमणा भवति, तहप्पगारे मित्तव त्रि० (मित्रवत्) मित्राणि विद्यन्ते यस्य स मित्रवान्। उत्त०३ अ०। पुरिसजाए दंडपासी दंडगुरुए दंडपुरकडे अहिए इमंसि लोगंसि | सहपाशुक्रीडितादिके, उत्त०३ अ०। अहिए परंसि लोगंसि संजलणे कोहणे पिट्ठिमंसियाऽवि भवति, | मित्तवई स्त्री० (मित्रवती) सुदर्शन श्रेष्ठिस्त्रियाम्, आ० चू०६ अ०! एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावजंति आहिजंति दसमे किरियट्ठाणे मित्तवायग पुं० (मित्रवाचक) स्वनामख्याते सुप्रसिद्ध श्रुतस्थविरे, मित्तदोसवत्तिए त्ति आहिए।। सूत्र-२६॥ व्य०१ उ०॥ तद्यथानाम कश्चित्पुरुषः प्रभुकल्पो मातापितृसुहृत्स्वजनादिभिः सार्द्ध मित्तवाहण पुं० (मित्रवाहन) जम्बूद्वीपे भरतक्षेत्र आगामिन्यामुत्स-पिण्या परिवसँस्तेषां च मातापित्रादीनामन्यतमेनानाभोगतया यथाकथं- द्वितीये तीर्थकरे, स्था०७ ठा०। चिल्लधुतमेऽप्यपराधे वाचिकेदुर्वचनादिके, तथा कायिकेहस्तपा- मितविरिय पुं० (मित्रवीर्य) सम्भवजिनशिष्ये, ति०। दादिके संघटनरूपे कृते सति स्वयमेव आत्मना क्रोधाध्मातो गुरुतरं मित्तसिरि पुं० (मित्रश्री) आमलकल्पावास्तव्ये स्वनामख्याते श्रावके, दण्डं दुःखोल्पा दकं निवर्तयति-करोति / तद्यथा-शीतोदके विकटे- / येन जीवप्रादेशिकनिवाचार्यस्तिष्यगुप्तः कूरसिक्थादिना प्रतिचालितः। प्रभूते, शीते वा शिशिरादौ तस्य अपराधकर्तुः कायमधो बोलयिता विशे०। आ० / चू०। आ०म०। स्था०। भवति, तथोष्णोदकविकटेन कायं शरीरमपसिञ्चयिता / तत्र विकट- मेत्तसेण पुं० (मित्रसेन) स्वनामख्याते अयोध्यानगरीराजजयचन्द्रमित्रे, ग्रहणादुष्णतेलेन काञ्जिकादिना वा कायमुपतापयिता भवति / ध००। तथाऽनिकायेनाल्मुकेन तप्तायसा वा कायमुपदाहयिता भवति / तथा- आसीत् पुर्यामयोध्यायामयोध्यायामरातिभिः। जोत्रेण वा वेत्रेण वा नेत्रेण वा त्वचा वा सनादिकया लतया वाऽन्यतभेन धर्मकर्मणि निस्तन्द्रो, जयचन्द्रो महीपतिः।१।। वा दवरकेण ताडनतस्तस्यापराधकर्तुः शरीरपााणि (उद्दालयितुं ति) तस्य प्रियतमा चारु-दर्शना चारुदर्शना। चर्माणि लुम्पयितु भवति, तथा-दण्डादिना कायमुपताडयिता सूनुश्चानूनपुण्यश्री-श्चन्द्रश्चन्द्रसदृक् दृशाः / / 2 / / भवतीति / तदेवमल्पापराधिन्यपि महाक्रोधदण्डवति तथाप्रकारे शृङ्गारबहुलः श्येन-पुरोहिततनूद्भवः। पुरुष जाते एकत्र वसति सति तत्सहवासिनो मातापित्रादयो तान्मवं मित्रसेनाऽभूत्-केलिकातू प्रियः।।३।।
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________________ मित्तसेण 282 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मित्ता एकदा तत्पुरोद्याने, दुर्व्याने धनपावकः। आगादागाम्यतीतादि-वेदिसूरियुगन्धरः / / 4 / / तं नन्तुं दन्तुरानन्दोदिन्नरोमाञ्चकञ्चकः। जगाम जगतीनाथः, सुमित्रसुतसंयुतः।।५।। राजा निष्प्रतिमं रूप, दृष्ट्वा तस्य मुनीशितुः। पप्रच्छ स्वच्छधीरेवं, विस्मयस्मेरलोचनः।।६।। सत्यप्यसदृशे रूपे, साम्राज्यविभवोचिते। कुतो वैराग्यतः पूज्य-र्जगृहे दुष्करं व्रतम्॥७॥ गुरुराह मया दृष्टः, सोऽरघट्टो नराधिप!। सदा युक्तो वहन्नित्यं, संपूर्णो भवनामकः ||8|| चत्वारो रागविद्वेष-मिथ्यात्वस्मरसंज्ञिताः। दृढा सारथयस्तत्र, मोहः सीरपतिः पुनः।।६।। विनाऽपि चारिवारिभ्यां, सबला वेगशालिनः। महाकायाः कषायाख्या, वृषभारतत्र षोडश।।१०।। हास्यशोकभयाद्यास्तु,कर्कशा कर्मकारकाः। जुगुप्सारत्यरत्यरत्याद्या-स्तेषां च परिचारिकाः।।११।। दुष्टयोगप्रमादाख्य, तत्र तुम्बद्वयं महत्। विलासोल्लासविव्वोके-हावभावादिकाः स्वराः / / 12 / / तत्रासंयतजीवाख्यः, कूपोऽदृष्टतलः सदा। पापाविरतिपानीय-संभारपरिपूरितः / / 13 / / पापाविरतिनीरौघ-मग्रपूरितरेचितम्। सुदीर्घ जीवलोकाख्यं, घटीयन्त्रमभङ्गरम्॥१४॥ षट्कार उच्चकैर्मृत्यु-रज्ञानं तु प्रतीच्छकः। दृढं मिथ्याभिमानाख्यं, तस्य दार्वटिकं सदा।।१५।। अतिसंक्लिष्टचित्ताख्या, तत्र निर्वहणी पृथुः / अतिद्राधीयसी कुल्या, भोगलोलुपताऽभिधा // 16 // क्षेत्र विवक्षितं जन्म, माला दुःखस्य संहतिः। अपरापरजन्माख्याः , केदारा गणनातिगाः।।१७।। पानान्तिकस्त्वसदबोधो, बीजं कर्मकदम्बकम्। दुष्टो जीवपरीणामो, वापकस्तत्र सोद्यमः॥१८॥ ततश्च - उत तेनारघट्टेन, सिक्तं निष्पत्तिमागतम। प्रभूतसुखदुःखादि, सस्यं नानाविध नृप! ||19|| एवं भवारघट्टाति-भ्रमणोदीतचेतसा। दीक्षा तद्भयधाताय, मयाऽऽदायि नरेश्वर ! // 20 // श्रुत्वेति नृपतिर्भीम-भवाद्रीतमना भृशम्। न्यस्य चन्द्रसुते राज्यं शमसामाज्यमाददे // 21 // समित्रश्चन्द्रराजोऽपि, राजन् ! राज्यश्रिया तया। सम्यग्दर्शनसशुद्ध, गृहिधर्ममशिश्रियत्।।२२।। नत्वा गुरुपदद्वन्द्वं, निजं धाम जगाम राट्। अन्यत्र मुनिराजोऽपि-विजहे सपरिच्छदः // 23 // अन्यदा मित्रसेनेन, राजाऽभाणि रहस्यदः। किमप्यपूर्व विज्ञानं, दर्शयामि सखे ! तव // 24 // स माह दर्शय क्षिप्रं, ततोऽसौ जम्बुकस्वरम्। तथाऽरसद् यथा रेसुः. पूर्व हि जम्बुका अपि / / 25 / / चुकू : पुकुटा उच्चैः कृते कुकुटकूजिते। निशीथेऽपि निशानान्त-मुन्निद्रा मेनिरे जनाः // 26 // तथा शृङ्गारसाराणि,वाक्यान्हाह यथा जनः। दृढशीलोऽपि जायेत, मन्मथोन्माथितो भूशम् // 27 // ततो राजाऽऽह मित्रैव, माऽतिचारीनिज व्रतम्। सविकारवचो वक्तुं, नयुक्तं शीलशालिनाम्।।२८।। शृङ्गारसारभाषित्व-मेव मुक्तोऽपिनोज्झति। यदा केलिप्रियत्वेन, तदा राज्ञाऽप्युपेक्षितः।।२६।। प्रोषितभर्तृस्त्रियोऽग्रे, सविकारगिरोऽन्यदा। स तथाऽऽख्यद्यथा सद्यः, सा भून्मदनविह्वला।।३०।। तां तथा सविकारार्की, दृष्ट्वा तद्देवरः क्रुधा। तं बबन्ध दृढ़र्बन्धै, रे विटोऽसीत्युदीरयन्॥३१।। तदाकण्ये नृपो भङ्गु, मोचयित्वा तमाख्यत। व्रतातीचारवृक्षस्य, पुष्प प्राप्तमिदं त्वया / / 3 / / फलं तु नरके घोरे, लप्स्यसे तीव्रवेदनाः। यत्तदा वारितोऽपि त्वं, नातिचारादुपारमः / / 3 / / जिनं देवं गुरून साधू-स्तदद्यापि सखे ! स्मर। गर्हस्व दुष्कृतं सर्वं, क्षमय प्राणिसंहति // 34 / / सोऽपि प्राह सखे गाढं, बन्धनैः पीडितोऽस्म्यहम्। नरमरामि ततः किंचित, प्रतीकारं कुरुष्व मे / / 35 / / इति जल्पन्नसो मृत्वा, गजोऽभूद्विन्ध्यभूधरे। ततो बहुभवं भ्रान्त्वा, क्रमान्मोक्षमवाप्रयति॥३६।। सविकारवचो वार्द्धि-कुम्भभूश्चनद्रभूपतिः। राज्यं न्यस्य सुते दीक्षा, गृहीत्वा च ययौ शिवम्॥३७।। इत्यवेत्य कृतिनः स्वचेतसा, मित्रसेनचरितं गताहसः / चञ्चदुचरदुःखलक्षित, संत्यजन्तु सविकारजल्पितम्।।३८।। ध०र०२ अधि०२ लक्षत्र। मित्ता स्त्री० (मात्रा) तुल्ये, मात्राशब्दात्तात्पर्यार्थविश्रान्ते-स्तुल्यवाची। यदाह निशीथचूर्णिकृत्-मात्राशब्दस्तुल्यवाचीति / व्य०१ उ०। मित्रा स्त्री० योगदृष्टिभेदे, मित्रादृष्टिस्तुणाग्निकणोपमा न तत्वतोऽभीष्टकार्यक्षमा सम्यकप्रयोगकालं यावदनवस्थानात् अल्पवीर्यतया, ततः पटुबीजसंस्काराधानानुपपत्तेः विकलप्रयोगभावाद् भावतो वन्दनादिकार्यायोगात्। ध०१ अधिक। मित्रां दृष्टिमत्र सप्रपञ्च निरूपयन्नाहमित्रायां दर्शनं मन्दं, योगानं च यमो भवेत् / अखेदो देवकार्यादा-वन्यत्राद्वेष एव च / / 1 / / (मित्रायामिति) मित्रायां दृष्टौ / दर्शनं मन्दम्-स्वल्पो बोधः। तृणाग्निकणोद्योतेन सदृशः / योगाङ्ग च यमो भवेदिच्छादिभेदः / अखेदोऽव्याकुलतालक्षणः / देवकार्यादावादिशब्दाद्-गुरुकार्यादिपरिग्रहः / तथा तथोपनतेऽस्मिस्तथापरितोषान्न खेदः, अपितु प्रवृत्तिरेव, शिरोगुरुत्वादिदोषभाक्त्वेऽपि भवाभिनन्दिनो भोगकार्यवत्। अद्वेषश्चामत्सरश्चापरस्त्र त्वदेवकार्यादौ तथा तत्त्वावेदितया मात्सर्यवीर्यबीजसद्भावेऽपि तद्धावासरानुदयात्, तथाविधानुष्ठानमधिकृत्यात्र स्थितस्य हि करुणाशबीजस्यैवषत्स्फुरणमिति।१। द्वा०२१ द्वा० (यमस्वरूपं सभेदम् 'जम' शब्दे चतुर्थभागे 1361 पृष्ठे गतम्) मित्रदेवताके नक्षत्रभेदे, स्था०। दो मित्ता। सूत्र / स्था०२ ठा०३ उ०। बाधनेन विताणां, प्रतिपक्षस्य भावनात्। योगसौकर्यतोऽमीषां, योगाङ्गत्वमुदाहृतम्॥३॥ (बाधने ने ति) वितणां योगपरिपन्थिना हिंसादीनां प्रतिपक्षस्य भावनात्, बाधनेनानुत्थानोपहतिलक्षणेन योग
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________________ मित्ता 283 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मित्ता रय साकरतः सामग्रीसंपत्तिलक्षणादमीषामहिंसादीनां यमानां योगाङ्गत्वमुदाहृतम. न तु धारणादौनामिव समाधेः साक्षादुपकारकत्येन, न वासनादिवदुत्तरोत्तरोपकारकत्वेनैव, किं तु-प्रतिबन्धकहिंसाद्यपना पकतयैवत्यर्थः / तदुक्तम्-"वितर्कवाधने प्रतिपक्षभावनामिति / / (2-33) ||3|| क्रोधाल्लोभाच मोहाच, कृतानुमितकारिताः। मृदुमध्याधिमात्राश्च, वितर्काः सप्तविंशतिः॥४|| (कोधादिति) क्रोधः-कृत्याकृत्यविवेकोन्मूलकः प्रज्वलनात्मक- / श्चितधर्मस्परमात्।लोभः-तृष्णालक्षणस्ततश्च। मोहश्चसर्वक्लेशानां मूलमनात्म यात्माभिमानलक्षणः / इत्थं च कारणभेदेन त्रैविध्यं दर्शितं भवाते। तदु कम्-'"लोभकोधमोहमूल'" इति। (2-34 पूर्वकाः) व्यत्ययाभिधानेऽप्यत्र मोहस्य प्राधान्यम्, स्वपरविभागपूर्वकयोर्लोभक्रोधयोस्तुन्मूलत्वादिति वदन्ति / ततः कारणत्रयात् कृतानुमितकारिता एतेऽहिंसादयो नवधा भिद्यन्ते / तेऽपि मृदवो मन्दाः, मध्याश्चातीव्रभन्दाः, अधिमात्रा तीव्रा इति प्रत्येक त्रिधा भिद्यन्ते। तदुक्तम्-''मृदुमध्याधिमात्राः" (इति 2-14 / वितर्का हिंसादयः कृतकारितानुमोदिता लोभक्राधमाह का मृदुमध्यधिमात्रा दुःखाज्ञानान्तफला इति प्रतिपक्षभावनम्) इत्थं च सप्तविंशतिर्वितर्का भवन्ति। अत्र मृद्वादीनामपि प्रत्येक मृदुमध्याधिमात्राभेदा भावनीय इति वदन्ति // 4 // दुःखाज्ञानानन्तफला, अमी इति विभावनात्। प्रकर्ष गच्छतामेत-द्यमानां फलमुच्यते // 5 // (दुःखेति) दुःखं प्रतिकूलतयाऽवभासमानो राजसश्चित्तधर्मः, अजानम्-मिथ्याज्ञानम्, संशयविपर्ययादिरूपम्।तेअनन्ते-अपरिच्छिन्ने | फल येषा / तथोक्ताः / अमी वितर्का इति विभावनान्निरन्तरं ध्यानात् | प्रकर्ष गच्छता यमानामेतद्वक्ष्यमाणं फलमुच्यते // 5 // द्वा०२१ द्वा०। (तत्कलम् 'महब्धय' शब्देऽस्मिन्नेव भागे गतम्) (परिग्रहविषयः 'परिम' शब्दे पक्षमभागे 556 पृष्ठे गतः) इत्थं यमप्रधानत्व-मवगम्य स्वतन्त्रतः। योगबीजमुपादत्ते, श्रुतमत्र श्रुतादपि।।७।। (इाथमिति) इत्यम्-उक्तप्रकारेण, स्वतन्त्रतः-स्वाभिमतपातनलादिशास्त्रतो, यमप्रधानत्वमवगम्य / अत्र मित्राया दृष्टी निवृत्तासद्महतया सद्गुरुयोगे श्रुताजिनप्रवचनात् श्रुतमपि योगबीजमुपादो तथास्वाभाव्यात् // 7 // उक्तयोगबीजमेवाहजिनेषु कशलं चित्तं, तन्नमस्कार एव च / प्रामादि च संशुद्ध, योगबीजमनुत्तमम् / / 8 / / (जिनष्विति) जिनेषु-अर्हत्सु, कुशलम्-द्वेषाद्यभावेन प्रीत्यादिभचतम् | अनेन मनोयोगवृत्तिमाह / तन्नमस्कार एव जिननमस्कार एव च, तथा मनोयोगपरितः, इत्यनेन वाग्योगवृत्ति-माह / प्रणामादि च पञ्चाङ्गादिलक्षणम्, आदिशब्दान्मण्डलादिग्रहः / संशुद्धमशुद्धव्यवच्छेदार्थमतत् तस्य सामान्वेन यथाप्रवृत्तकरणभेदत्वात्तस्य च योगवीजत्वानुप- | पत्तेरेतत्सर्व सामस्त्यप्रत्येकभावाभ्यां योगबीजं मोक्षयोजकानुष्ठानकारणमनुत्तमं सर्वप्रधानं विषयप्राधान्यात् / / 8 / / चरमे पुद्गलावर्ते, तथा भव्यत्वपाकतः। प्रतिबन्धोज्झितं शुद्ध-मुपादेयधिया ह्यदः // 9 (चरम इति) अदो हि एतच्च चरमेऽन्त्ये पुद्गलावर्ते भवति / तथाभव्यत्वरय पाकतो मिथ्यात्वकटुकत्यनिवृत्त्या मनाग्माधुर्यसिद्धे / प्रतिबन्धेनासङ्गेनोज्झितम्-आहारादिसंज्ञोदयाभावात्, फलाभिसन्धिरहितत्वाच / तदुपात्तस्य तु स्वतः प्रतिबन्धसारत्वात् / अत एगोपादेयधियाऽन्यापोहेनादरणीयतवबुद्ध्या शुद्धम् / तदुक्तम्"उपादेयधियात्यन्त, संज्ञाविष्कम्भणाम्बितम्। फलाभिसन्धिरहितं, संशुद्ध होतदीदृशम्॥१॥" || प्रतिबन्धैकनिष्ठं तु, स्वतः सुन्दरमप्यदः। तत्स्थानस्थितिकार्येव, वीरे गौतमरागवत्॥१०॥ (प्रतिबन्धेति) प्रतिबन्धे-स्वासङ्गे एका-केवला निष्ठा यस्य तत्तथा। अदोजिनविषयकुशलचित्तादि, तत्स्थान-स्थितिकार्येव तथास्वभावस्वात, वीरे-वर्धमानस्वामिनि गौतमरागवत् गौतमीयबहुमानवत् / असङ्गशक्तयैव हानुष्ठानमुत्तरोत्तरपरिणामप्रवाहजननेन मोक्षफलपर्यवसानं भवति, इति विवेचितं प्राक् // 10 // सरागस्याप्रमत्तस्य, वीतरागदशानिभम् / अभिन्दतोऽप्यदो ग्रन्थि, योगाचार्यर्यथोदितम्॥११।। (सरागस्येति) अदः शुद्धयोगबीजोपादानं ग्रन्थिमभिन्दतोऽपि जीवस्य चरमयथाप्रवृत्तकरणसामर्थ्यन,तथाविधक्षयोपशमादतिशयितानन्दानुभवात् / सरागस्याप्रमत्तरयसतो यतेर्वीतरागदशानिभ सरागस्य वीतरागत्वप्राप्ताविव योगबीजोपादानवेलायामपूर्वः कोऽपि स्वानुभवसिद्धोइतिशयलाभ इति भावः। यथोदित योगाचार्यः / / 11 / / ईषदुन्मज्जनाभागो, योगचित्तं भवोदधौ / तच्छक्त्यतिशयोच्छेदि, दम्भोलिग्रन्थिपर्वते / / 12 / / (ईषदिति) योगाचित्तम्-योगबीजोपादानप्रणिधानचित्तम्, भवोदधौसंसारसमुद्र, ईषन्मनागुन्मजनस्याभोगः / तच्छक्तर्भवशक्तेरतिशयश्योद्रेकस्योच्छदिनाशक, ग्रन्थिरूपे पर्वत दम्भोलिर्वजम् नियमात्त - दकारित्वात्। इत्थ चैतत्फलपाकारम्भसदृशत्वादस्येति समयविदः / / 12 / / आचार्यादिष्वपि ह्येत-द्विशुद्ध भावयोगिषु / / न चान्येष्वप्यसारत्वात्कूटेऽकूटधियोऽपि हि॥१३|| (आचार्यादिष्वपीति) आचार्यादिष्वपि-आचार्योपाध्यायतपस्व्यादिध्वपि, एतत्-कुशलचित्तादि, विशुद्धम-संशुद्धमेव, भावयोगिषुतात्तिवकगुणशालिपु, योगबीजम्, न चान्येष्वपिद्रव्यादिष्वाप कूटेऽकूटधियोऽपि हि असारत्वादसुन्दरत्वात्। तस्याः सद्योगबीजत्वानुपपत्तेः॥१३॥ श्लाघनाद्यसदाशंसा-परिहारपुरःसरम्। वैय। वृत्त्यं च विधिना, तेष्वाशयविशेषतः॥१४॥ (श्लाघनेति) श्लाघनादे:- स्वकीत्यदिः, याऽसत्यसुन्दराऽऽश-साप्रार्थना, तत्परिहारपुरस्सरम् वैयावृत्त्यं च - व्यापृत -
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________________ मित्ता 284 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मित्ता भावलक्षणमाहारादिदानेन विधिना-सूत्रोक्तन्यायेन, तेषुभावयोगिष्वाचार्येषु, आशयाविशेषतश्चित्तोत्साहातिशयात् योगबीजम् // 14 // भवादुद्रिप्रता शुद्धो-षधदानाद्यमिग्रहः / तथा सिद्धान्तमाश्रित्य, विधिनालेखनादि च / / 15 / / (भवादिति) भवात-संसारात्, उद्विग्नता इष्टवियोगाद्यनिमित्तकसहजत्यागेच्छालक्षणा / शुद्धः-निर्दोष औषधदानादेरभिग्रहो भावाभिग्रहस्य विशिष्टक्षयोपशमलक्षणस्य भिन्नग्रन्थेरेव भावेऽपि द्रव्याभिग्रहस्य स्वाश्रयशुद्धस्यान्यस्यापि संभवात्। तथा सिद्धान्तम्-आर्ष वचनमाश्रित्य, न तु कामादिशास्त्राणि / विधिना-न्यायात्तधनसत्प्रयोगादिलक्षणेन लेखनादिक च योगबीजम् / / 15 / / लेखनादिकमेवाहलेखना पूजना दान, श्रवणं वाचनोद्ग्रहः। प्रकाशनाऽथ स्वाध्याय-श्चिन्तना भावनेति च / / 16 / / (लेखनेति) लेखना-सत्पुस्तकेषु। पूजना-पुष्पवस्त्रादिभिः / दानम्पुस्तकादेः / श्रवणम्-व्याख्यानस्य / वाचना-स्वयमेवास्य, उदग्रहोविधिग्रहणमस्यैव / प्रकाशना गृहीतसय भव्येषु / अथ स्वाध्यायों वाचनादिरस्यैव। चिन्तना ग्रन्थार्थताऽस्यैव भावनेति चैतगोचरैव। योगबीजम् // 16 // बीजश्रुतौ पर श्रद्धाऽन्तर्विश्रोतसिकाव्ययात्। तदुपादेयभावश्च, फलौत्सुक्यं विनाऽधिकः / / 17 / / बीजश्रुतौ योगवीजश्रवणे / परा-उत्कृष्टा, श्रद्धा-इदमित्थमेव इति प्रतिपत्तिरूपा / अन्तर्विश्रोतसिकायाश्चित्ताशङ्काया व्यायात्। तस्याः वीजश्रुतेरुपादेयभावश्चादरपरिणामश्च / फलौत्सुक्यम्-अभ्युदयाशंसात्वरालक्षणम्, विनाऽधिकोऽतिशयितो योगबीजम् / / 17 / / निमित्तं सत्यप्रणामादेर्भद्रमूर्तेरमुष्य च / शुभो निमित्तसंयोगोऽवञ्चकोदयतो मतः॥१८|| (निमित्तमिति) अमुष्य चानन्तरोदितलक्षणयोगिनो जीवस्य / भद्रमूत्तें:-प्रियदर्शनस्य, सत्प्रणामादेयोगबीजस्य-निमित्तम् / शुभःप्रशस्तः। निमित्तसंयोगः-सद्योगादिसम्बन्धः सद्योगादीनामेव निःश्रेयससाधननिमित्तत्वाजायते / अवञ्चकोदयाद्वक्ष्यमाणसमाधिविशेषोदयात् // 18 // योगक्रियाफलाख्यं च, साधुभ्योऽवञ्चकत्रयम्। श्रुतः समाधिरव्यक्त, इषुलक्ष्यक्रियोपमः॥१६॥ (योगेति) साधुभ्यः-साधूनाश्रित्य। योगक्रियाफलाख्यम्, अवञ्चकत्यम्-योगावञ्चकक्रियावञ्चकफलावञ्चकलक्षणम् / अव्यक्तः समाधिः श्रुतः, तदधिकारे पाठात् / इषुलक्ष्यक्रियोपमः-शरशरव्यक्रियासदृशः। यथा शरस्य शरव्यक्रिया तदविसंवादिन्येत, अन्यथा तत्क्रियात्वायोगात्. तथा सद्योगावञ्चकादिकमपि सद्योगाद्यविसंवाद्येवेति भावः / / 16 / / हेतुरत्रान्तरङ्गश्च, तथा भावमलाऽल्पता। ज्योत्स्नादाविव रत्नादि-मलापगम उच्यते // 20 // (हेतुरिति) अत्र सत्प्रणामादौ / अन्तरङ्गश्च हेतुः / तथा-भावमलस्य कर्मसम्बन्धयोग्यतालक्षणस्याल्पता / ज्योत्स्नादाविव रत्नकान्त्यादाविव रत्नादिमलापगम उच्यते। तत्रमृत्पुटपाकादीनामिवात्र सद्योगादीनां निमित्तत्वेनैवोपयोगादिति भावः // 20 // सत्सु सत्त्वधियं हन्त, मले तीव्र लभेत कः। अगुल्या न स्पृशेत् पडः, शाखां सुमहतस्तरोः // 21 // (सत्स्विति) साधुषु, सत्त्वधियम्-साधुत्वबुद्धि, हन्त तीव्र-प्रबले, मले-कर्मबन्धयोग्यतालक्षणे-सति को लभेत ? ततो लाभशक्तेरयोगान्न कोऽपीत्यर्थः, अडल्या पड्डः सुमहतस्तरोः शाखा न स्पृशेत्, तत्प्राप्तिनिमित्तस्योचत्वस्यारोहशक्तेर्वा अभावात्। तद्वत्प्रकृतेऽपि भावनीयम्।।२१।। वीक्ष्यते स्वल्परोगस्य, चेष्टा चेष्टार्थसिद्धये। स्वल्पकर्ममलस्यापि, तथा प्रकृतकर्मणि / / 22 / / (वीक्ष्यत इति) स्वल्परोगस्य मन्दव्याधेश्चेष्टा राजसेवादिप्रवृत्तिलक्षणा, चेष्टार्थस्य-कुटुम्बपालनादिलक्षणस्य, सिद्धये -निष्पत्तये, वीक्ष्यते न तु तीव्ररोगस्येव प्रत्यपायाय / स्वल्पकर्ममलस्यापि पुंसः, तथा प्रकृतकर्मणि-योगबीजो पादानलक्षणे / ईदृशस्यैव ज्वप्रतिपन्ननिर्वाहक्षमत्वात् / / 22 / / यथाप्रवृत्तकरणे, चरमे चेदृशी स्थितिः। तत्त्वतोऽपूर्वमेवेद-मपूर्वासत्तितो विदुः // 23 // (यथेति) यथाप्रवृत्तकरणे चरमे पर्यन्तवर्तिनि च। ईदृशी-योगबीजोपादाननिमित्ताऽल्पकर्मत्वनियामिका / स्थितिः- स्वभावव्यवस्था, अपूर्वस्य-अपूर्वकरणस्यासत्तितः-सन्निधानात् फलव्यभिचारायोगात्। इदं चरम यथाप्रवृत्तिकरणम्। तत्त्वतः-परमार्थतः अपूर्वमेव, विदु-र्जानते. योगविदः / यत उक्तम्-"अपूर्वासन्नभावेन, ध्यभिचारवियोगतः। तत्त्वतोऽपूर्वमवेद-मिति योगविदो विदुः / / 1 / / " // 23 // प्रवर्तते गुणस्थान-पदं मिथ्याशीह यत्। अन्वर्थयोजना नून-मस्यां तस्योपपद्यते // 24 // (प्रवर्तत इति) यदिह-जिनप्रवचने, गुणस्थानपदं मिथ्यादृशिमिथ्यादृष्टौ पुंसि प्रवर्तते अस्खलवृत्तियोगविषयीभवति / तस्यगुणस्थानपदस्य, नूनम्-निश्चितम्। अस्याम् मित्रायां दृष्टौ / अन्तर्थयोजना-योगार्थघटना / उपपद्यते / सत्प्रणामादियोगबीजोपादानगुणभाजनत्वस्यास्यामेवोपपत्तेः / तदुक्त हरिभद्रसूरिभिः-प्रथम यट गुणस्थानं, सामान्येनोपवर्णितम् / अस्यां तु तदवस्थायां मुख्यामन वर्थयोगतः / / 1 // इति // 24 // व्यक्तमिथ्यात्वधीप्राप्तिरप्यन्यत्रेयमुच्यते। घने मले विशेषस्तु, व्यक्ताव्यक्तधियोर्नु कः।।२५।। (व्यक्तेति) अन्यत्र-ग्रन्थान्तरे, व्यक्तमिथ्यात्वधीप्राप्तिः-मिथ्यात्वगुणस्थानपदप्रवृत्तिनिमित्तत्वेन / इयं मित्रा दृष्टिरेवोच्येते। व्यक्तत्वेन तत्रास्या एवग्रहणात्। घने-तीव्र, मले तुसति। नु इति वितर्का व्यक्ताव्यक्तयोधियोः को विशेषः ? दुष्टाया धियो व्यक्ताया अव्यक्तापेक्षया प्रत्युतातिदुष्टत्वान्न कथंचिद् गुणस्थानत्वनिबन्धत्वमिति भावः। विचित्रतया नि
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________________ मित्ता 285 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मियभासिया गमस्य बहुभेदत्वात् / तद्भेदविषषाश्रयणेन वाऽन्यत्र तथा-भिधानमिति भावम् / सुखेन विद्यां परुषेण नारी, वाञ्छन्ति ये व्यक्तमपपिण्डतास्ते परिभावनीय सूरिभिः / / 25 / / ||1|| इति / ध० 202 अधिक यमः सद्योगमूलस्तु, रुचिवृद्धिनिबन्धनम्। मित्तीवंदण न० (मैत्रीवन्दन) मैत्रीनिमित्ते प्रीतिमिच्छतो वन्दने, आव०३ शुक्लपक्षद्वितीयाया, योगश्चन्द्रमसो यथा।।२६।। अ० "एमेव य मित्तीए'' आव०३ अ० / एवमेवेति कोऽर्थो-यथा उत्कर्षादपकर्षाच्च, शुद्ध्यशुयोरयं गुणः / निरोहकदोषदुष्टं वन्दते, तथा मैत्र्याऽपि हेतुभूतया कश्चिद्वन्दते आचार्येण मित्रायामपुनर्बन्धात्, कर्मणां स प्रवर्तते // 27 / / सम मैत्री मम भविष्यति इत्यर्थस्तदिदं मैत्रीवन्दनकम् / बृ०३ उ०। गुणाभासस्त्वकल्याण-मित्रयोगे न कश्चन / मिदुपम्ह न० (मृदुपक्ष्म) मृदूनि कोमलानि पक्ष्माणि दशिकारोमाअनिवृत्ताग्रहत्वेना-भ्यन्तरज्वरसन्निभः॥२८|| ग्रभागरूपाणि यस्य तन्मृदुपक्ष्म। कोमलदशाग्ररजोहरणे, बृ०३ उ०। मुग्धः सद्योगतो धत्ते, गुणं दोषं विपर्ययात् / मिप्पिंड पुं० (मृत्पिण्ड) अर्द्धमृद्गोले, मिप्पिंडो घडस्स कारणं, न घडो स्फटिकोऽनुविधते हि, शोभास्यामसमत्विषम् // 26 / / मिप्पिडकारणं / अनु०। यथौषधीषु पीयूषं, दुमेषु स्पर्द्वमो यथा। मिम्मय त्रि० (मृण्मय) मृत्तिकानिष्पन्ने, बृ०१ उ०। गुणेष्वपि सतां योग-स्तथा मुख्य इहेष्यते // 30 // मिय पु०(मृग) आटव्ये पशौ, स०३४ सम०। सूत्र०। उत्त० सामान्यहरिणे, विनैनं मतिमूढाना, येषां योगोत्तमस्पृहा / प्रश्न०१ आश्र० द्वार। भ०। प्रज्ञा०। सूत्र०। मृगसदृशे भीरौ, स्था०४ तेषां हन्त विना नाव-मुत्तितीर्षा महोदधेः॥३१।। ठा०२ उ01 तन्मित्रायां स्थितो दृष्टौ, सद्योगेन गरीयसा। मित त्रि० परिमिताक्षरे, प्रश्न०२ संव० द्वार / मितं णाम जं अक्खरेहि समारुह्य गुणस्थानं, परमाऽऽनन्दमश्नुते // 32 // पदेहि सिलोरोहिं मितं / आ०चू०१ अ०। आव०। मितं-परिमितम् / शिष्टा सप्तश्लोकी सुगमा / द्वा०२१ द्वा०। जी०३ प्रति०२ उ० / नियतवर्णादिपरिणामे, आ०म०१ अ०। परिमिते, मित्तिय पुं० (मैत्रय) वत्सगोत्रावान्तरगोत्रप्रवर्तक ऋषौ, तद्गोत्रीयेषु च। भ०११ श०११ उ० / विशे० / वर्णपदवाक्यापेक्षया परिमिते, ज्ञा०१ स्था०२ ठा०० उ०। श्रु०१ अ०। सक्षिप्ताक्षरे, अनु०। स्था०। ज्ञा० / आव०ाता परिच्छिन्ने, मित्तियावई स्त्री० (मृत्तिकावती) दशादिशप्रधाननगर्याम, सूत्र०१ 205 विशे०। उत्त० / स्तोके, उत्त०१ अ०। परिमाणवति गर्भजमनुष्यजीवअ०१ उ० / प्रव०॥ द्रव्यादौ, भ०५ श०४ उ०। मित्तिवअ(देशी) ज्येष्ठ, दे० ना०६ वर्ग 132 गाथा। मियंक पुं० (मृगाङ्क) चन्द्रमसि, बृ०१ उ० / मृगचिह्ने विमाने, सू०प्र०२० मित्ती स्त्री० (मंत्री) स्नेहपरिणामे, ध०१ अधि०। द्वा०। पाहु०। सुखचिन्ता मता मैत्री, सा क्रमेण चतुर्विधा। मियगंध पुं० (मृगगन्ध) युगलिकमनुष्यजातिभेदे, जी०३ प्रति०४ उपकारी स्वकीयस्व-प्रतिपन्नाऽखिलाश्रया।।३।। अधि० ज०। मृगमदगन्धौ, भ०६ श०७ उ०। (सुखेति) सुखचिन्ता-सुखेच्छा, मैत्री मता। सा क्रमेणविषयभेदेन, ! मियगमण न० (मितगमन) प्रयोजनवशतो गमने, व्य०४ उ०। चतुर्विधा / उपकारी स्वोपकर्ता, स्वकीयोऽनुपकर्ताऽपि नालप्रति- मियचक्क न० (मृगचक्र) मृगा हरिणशृगालादयः आरण्यास्तेषां ध्वनिःबदादिः, स्वप्रतिपन्नश्चस्वपूर्वपुरुषाश्रितः स्वाश्रितो या, अखिलाश्च ___ रुत ग्रामनगरप्रवेशादौ सति शुभाशुभं यत्र चिन्त्यते तन्मृगचक्रम् / प्रतिपन्नत्वसंबन्धनिरपेक्षाः सर्व एव तदाश्रया तद्विषया / तदुक्तम्- निमित्तशास्त्रभेदे, सूत्र०२ श्रु०२ अ०। "उपकारिस्वजनेतरसामान्यगता चतुर्विधा मैत्रीति।" द्वा०१७ द्वा०। / मियजस पु० (मितयशस्) स्वनामख्याते पुष्कलावतीविजयेमणिषो० / अष्ट० / उत्त० / स्था०।। तोरणपुरीराजे चक्रवर्तिनि, उत्त० अ०। "जो जारिसेण मित्ति, करेइ अधिरेण (सो ) तारिसो होइ / कुसुमेहि मियतण्हा स्त्री० (मृगतृष्णा) मरीचिकायाम, ज्ञा०१ श्रु०१ अ० / सह वसंता, तिलावि तगंधिया हुंति / / 1 / / " आव०३ अ०।११२४ / मियपणिहाण त्रि० (मृगप्रणिधान) मृगेषु प्रणिधानमन्तः करणवृत्तिर्यगाथाकोटीका / आ०चू०। स्यासौ मृगप्रणिधानः / क्व मृगान् द्रक्ष्यामीत्येतदध्यवसायिनि, सूत्र०२ मित्तीभाव पुं० (मैत्रीभाव) मित्रस्य भावः कर्म वा मैत्री। तस्या भावो भवन / श्रु०२ अ०। सत्ता। निष्कपटतया सुमित्रवन्मैत्रीकरणे, ध०र० / संप्रति सद्भावतो मियप्पवाद पुं० (मितात्मवाद) संख्यातीतानामात्मनामभ्युपगमे, स्था० / मैत्रीभाव इति चतुर्थे भेदमाह (मित्तीभावो य सम्भाव त्ति) मित्रस्य भावः मियभासि(ण) पुं० (मियभाषिन) परिमिताक्षरं तद्भाषणशीलो कर्म वा मैत्री, तस्या भावो भवनं सत्ता, सद्भावान्निष्कपटतया सुमित्र- __ मितभाषी / प्रस्ताव स्तोकहितजल्पनशीले, व्य०१ उ०। वन्निष्कपटमैत्री करोतीत्यर्थः, मैत्रीकपटभावयोश्छायाऽऽतपयोरिव / मियभासिया स्त्री० (मितभाषिता) प्रस्ताव स्तोकहितजल्पनशीलताविरोधात्। उक्तं च -शाढ्येन मित्रं कलुषेण धर्म, परोपतापेन समृद्धि- | याम्, द्वा०१२ द्वा० / व्य० /
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________________ मियभासिया 256 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मियापुत्त संप्रति (भाष्यकारः) मितभाषित्वव्याख्यानार्थमाह नानामेकोनविंशेऽध्ययने, स०३६ सम०। तं पुण अणुचसह, वोच्छिन्नं मिय पभासए मउयं / मियाधिव पुं० (मृगाधिप) सिंहे, आ०म०१ अ०। मम्मेसु अदूयंतो, सिया व परिपागवयणेणं / / 72 / / मियापुत्त पुं० (मृगापुत्र) मृगाग्रामाभिधाननगरराजस्य विजयनाम्नो तत इह लोकहितं, परलोकहितं वा पुनर्भाषते, अनुच्चशब्दम्, न विद्यते / भार्यायाः पुत्रे, स्था०१० ठा०। उच्चः शब्दः स्वरो यस्य तत्तथा / तद् व्यवच्छिन्न विविक्तममिलिताक्षर- जइणं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं आइगरेणं तित्थयमित्यर्थः / मितं-परिमितं प्रभूतार्थसंग्राहकस्तोकाक्षरमित्यर्थः / तथा रेणं० जाव संपत्तेणं दुहविवागाणं दस अज्झयणा पन्नत्ता, तं मृदुकम्-कोमलं, श्रोतृमनसां प्रह्लादकारि इत्थंभूतमपि मर्मानुवेधितया जहा-मियापुत्ते य १,०जाव अंजू य 10 / पढमस्स णं भंते ! विपाकदारुणं स्यात्। अत आह-मर्मसु अदूयन्मण्यविध्यन् इत्यर्थः। अज्झयणस्स दुहविवागाणं समणेणं० जाव संपत्तेण० जाव स्याद्वा तथाविधं कञ्चनमशिक्षणीयमधिकृत्य परुषस्य मर्मानुवेधकस्य संपत्तेणं के अटे पन्नत्ते ? तते णं से सुहम्मे अणगारे जंबू अणगारं च वक्ता परिपाकवचनेन-अन्यापदेशेन यथा दोषः। स्त्रीसेवादय इह परत्र एवं वयासी-एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं मियग्गामे वा अकल्याणकारिणो यथा अमुकस्य, तस्मात्कुलोत्पन्नेन शीलप्रमुखेषु नामे णगरे होत्था-वण्णओ, तस्स णं मियग्गामस्स णयरस्स गुणेष्वादरः कर्त्तव्यः / एष मितभाषी व्य०१ उ०। बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए चंदणपायवे नाम उज्जाणे मियभोगि त्रि० (मितभोगिन्) स्तोकभोजिनि, आव०५ अ०। होत्था, सय्वोउयवण्णओ, तत्थ णं सुहम्मस्स जक्खस्स मियमहुरमजुला स्त्री० (मितमधुरमञ्जुला) मिताअल्पशब्दाबहाश्च, जक्खाययणे होत्था, चिरातीएजहापुग्नभहे, तत्थ णं मियग्गामे मधुराः श्रोत्रसुखकारिणः, मञ्जुलाः सुललितवर्णमनोहराः / ततः णगरे विजए नाम खत्तिए राया परिवसइ-वनओ / तस्स णं पदत्रयस्य कर्मधारयः / मितमधुरमञ्जुलादिभिर्युक्तायां भाषायाम्, विजयस्स खत्तियस्स मिया नाम देवी होत्था अहीणवण्णओ, कल्प०१ अधि०३ क्षण। तस्सणं विजयस्सखत्तियस्स पुत्ते मियाए देवीए अत्तए मियापुत्ते मियलंछणन० (मृगलाञ्छल) मृगरूपे चिढ़े, नं०।। नामं दारए होत्था, जातिअंधे जाइए जातिब हिरे जातिपंगुले मियलोमिय न० (मृगलोमिक) मृगेभ्यो हस्वका मृगाकृतयो बृहत्पुच्छा य हुंडे य वायव्वे य, नऽत्थि णं तस्स दारगस्स हत्था वा पाया आटविकजीवविशेषास्तल्लोमनिष्पन्नं मृगलोमिकम् / मृगलोमजे सूत्रे, वा कन्ना वा अच्छी वा नासा वा, केवलं से तेसिं अंगावंगाणं अनु० / आ० म०। स्था०। आगई आगतिमित्ते, तते णं सा मियादेवी तं मियापुत्तं दारगं मियवादि पुं० (मितवादिन) मितं परिमिताक्षरं वदितुं शीलमस्येति रहस्सियंसि भूमिघरंसिरहस्सिएणं भत्तपाणेणं पडिजागरमाणी मितवादी। मितभाषिणि, बृ०३ उ०१ पा० / पडिजागरमाणी विहरइ। (सूत्र-२) मियवाहण पुं० (मितवाहन) जम्बूद्वीपे भरतक्षेत्रे आगामिन्यामुत्सर्पिण्यां (एवं खलुत्ति) एवम्-वक्ष्यमाणप्रकारेण, खलुः वाक्यालंकारे, (सव्वोभविष्यति प्रथमकुलकरे, स०। उयवण्णओ नि) सर्वर्तुककुसुमसंछन्ने (नंदणवणप्यगासे इत्यादि) मियवित्तिय पुं० (मृगवृत्तिक) मृगैर्हरिणैराटव्यपशुभिर्वृत्तिर्वर्त्तनं यस्य स उद्यानवर्णनको वाच्य इति, (चिराइए त्ति) चिरादिकं चिरकालीनमृगवृत्तिकः / मृगमांसैराजीवके. सूत्र०२ श्रु०२ अ०। भ०। प्रारम्भमित्यादिवर्णकोपेतं वाच्यम्, यथा-पूर्णभद्रचैत्यमोपपातिके / मियवीहि स्त्री० (मृगवीथि) ग्रहचारयोग्ये गगनभागे, मृगवीथी चेन्द्रदेवतादि (अहीणवन्नओ ति) 'अहीणपुन्नपंचि-दियसरीरे' इत्यादि वर्णको वाच्यः, स्यात्। स्था०६ ठा०। (अत्तए त्ति) आत्मजः-सुतः, (जाइअंधे त्ति) जात्यन्धो जन्मकालामियमंकप्प पुं० (मृगसंकल्प) मृगेषु संकल्पो यस्यासौ मृगसङ्कल्पः / दारभ्यान्ध एव, (हुंडे य ति) हुण्डकश्च-सर्वावयवप्रमाणविकलः, मृगवधाध्यवसिते, सूत्र०२ श्रु०२ अ०। (वायव्वे त्ति) वायुरस्यास्तीति वायवो-वातिक इत्यर्थः, (आगई मियसिंगन० (मृगशृङ्ग) मृगविषाणे, आचा०१ श्रु०१ अ०२ उ०। आगइमेत्ते त्ति) अङ्गावयवानाम् आकृतिः-आकारः, किंविधा ? इत्याहमियसिरान० (मृगशिरम्) चन्द्रदेवताके नक्षत्रभेदे, स्था०। आकृतिमात्रम् / आकारमानं-नोचितस्वरूपेत्यर्थः, (रहस्सि य त्ति) दो मियसिराओ (सूत्र) स्था०२ ठा०६ उ०। विशे०। राहसिकेजनेनाविदिते। मियास्त्री० (मृगा) सुग्रीवनगरे बलभद्रभूपस्याग्रमहिष्याम, उत्त०१८ अ० / तत्थ णं मियग्गामे णगरे एगे जातिअंधे पुरिसे परिवसइ, मृगग्रामाभिधाननगरराजस्य विजयनामो भार्यायाम्, स्था०१० ठा०। से णं एगेणं सक्खुत्तेणं पुरिसेणं पुरओ दंडएणं पगढिज्जमाणे मियागाम पुं० (मृगाग्राम) मृगापुत्रजन्मस्थाने ग्रामविशेषे, विपा०१ पगबिजमाणे फुट्टहडाहडसीसे मच्छिाचडगरपहक रेणं श्रु०१ अ०। अण्णिज्जमाणमने मियग्गामे नयरे गेहे गेहे कालुण्णवडियाए मियाचारिया स्त्री० (मृगाचारिता) मृगापुत्रवक्तव्यताप्रतिबद्धे उत्तराध्यय- वित्तिं कप्पेमाणे विहरइ / तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे
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________________ मियापुत्त 287 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मियापुत्त भगवं महावीरे० जाव समोसरिए० जाव परिसा निग्गया। तएणं से विजए खत्तिए इमीसे कहाए लद्धऽढे समाणे जहा कोणिए तहा निग्गते० जाव पखुवासइ / तते णं से जातिअंधे पुरिसे तं महया जणसदं० जाव सुणेत्ता तं पुरिसे एवं वयासी-किन्नं देवाणुप्पिया ! अज्ज मियग्गामे णगरे इंदमहेइ वा० जाव निग्गच्छइ ? तते णं से पुरिसे तं जातिअंधपुरिसं एवं वयासीनो खलुदेवाणुप्पिया ! इंदमहेइ वा० जाव णिग्गच्छति, एवं खलु देवाणुप्पिया ! समणे० जाव विहरति, तते णं एते० जाव निग्गच्छंति, त्तते णं से अंधपुरिसे तं पुरिसं एवं वयासी-गच्छामो णं देवाणुप्पिया ! अम्हे वि समणं भगवं० जाव पज्जुवासामो, तते णं से जातिअंधे पुरिसे दंडएणं पगढिज्जमाणे पगढिजमाणे जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागए 2 त्ता तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ करेत्ता वंदति नमंसति वंदित्ता नमंसित्ता० जाव पज्जुवासति, तते णं समणे भगवं महावीरे विजयस्स रन्नो तीसे य महइमहालियाते परिसाए विवित्तं धम्ममाइक्खति जहा जीवा वि वज्झंति परिसा० जाव पडिगया, विजए वि गते। (सूत्र-३) (फुट्टहडाहडसीसे त्ति) फुट्टन्ति-स्फुटितकेशसंचयत्वेन विकीणकेशम्, (हडाहर्ड ति) अत्यर्थ शीर्ष शिरो यस्य स तथा, (मच्छियाचडगरपहयरेण ति) मक्षिकाणां प्रसिद्धानां चटकरप्रधानो-विस्तरवान् यः प्रहकर:समूहः स तथा। अथवा-मक्षिकाचटकराणां तवृन्दानां यः प्रहकरः स तथा तेन (अण्णिजमाणमग्गे त्ति) अन्वीयमानमार्गः, अनुगम्यमानमार्गः, मलाविलं हि वस्तु प्रायो मक्षिकाभिरनुगम्यत एवेति, (कालुण्णवडियाए ति) कारुण्यवृत्तया (वित्तिं कप्पेमाणे त्ति) जीविकां कुर्वाणः / (जाव समोसरिए त्ति) इह यावत्करणात् "पुव्वाणुपुव्वि चरमाणे गामाणुगाम कूइजमाण'' इत्यादिवर्णको दृश्यः, 'तं महया जणसदं च' त्ति, सूत्रत्वान्महाजनशब्दं च, इह यावत्करणात् "जणवूह च जणबोल च" इत्यादि दृश्यम्। तत्र जनव्यूहः चक्राद्याकारः-समूहस्तस्य शब्दस्तदभेदाज्जनव्यूह एवोच्यते अतस्तम्, बोलः अव्यक्तवर्णो ध्वनिरिति, (इंदमहेइ वत्ति) इन्द्रोत्सवो वा, इह यावत्करणात-"खंदमहे वा रुद्दमहे वा० जाव-उज्जाणजत्ताइ वा जन्नं बहवे उग्गा भोगा, जाव एगदिसिं एगाभिमुहा'' इति दृश्यम् इतो यद्वाक्यं तदेवयनुसतव्यं, सूत्रपुस्तके सूत्राक्षराण्येव सतीति, 'तए णं से पुरिसे त जाइअंधपुरिसं एवं वयासीनो खलु देवाणुप्पिया ! अज्जमियग्गामे नयरे इंदमहे वा० जाव जत्ताइ वा जन्न एए उग्गा० जाव एगदिसिं एगाभिमुहा णिग्गच्छति, एवं खलु देवाणुप्पिया ! समणे भगवं महावीरे० जाव इह समागते इह संपत्ते इहेव भियग्गामे णगरे मिगवणुजाणे अहापडिरूवं उग्गहं उग्गिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणे विहरति, तए णं से अधपुरिसे त पुरिसे एवं वयासी' इति, 'विजयस्स तीसे य धम्म' त्ति इदमेवं दृश्यम्-'विजयस्स रनो तीस यमइमहालियाते परिसाए विवित्तं धम्ममाइक्खइ जहा जीवा वल्झंती त्यादि परिषद्-यावत् परिगता। तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेट्टे अंतेवासी इंदभूतिनामं अणगारे जाव विहरइ। तते णं से भगवं 2 गोयमे तं जातिअंधपुरिसं पासइ 2 त्ता जायसले० जाव एवं वयासी-अत्थिणं भंते ! केई पुरिसे जातिअंधे जातिअंधारूवे ? हंता अत्थि, कहणं भंते ! से पुरिसे जातिअंधे जातिअंधारूवे ? एवं खलु गोयमा ! इहेव मियग्गामे नगरे मियग्गामे नगरे विजयस्स खत्तियस्स पुत्ते मियादेवीए अत्तए मियापुत्ते नामदारए जातिअंधे जातिअंधारूवे, नऽत्थि णं तस्स दारगस्स० जाव आगतिमित्ते, तते णं सा मियादेवी० जाव पडिजागरमाणी 2 विहरति / तते णं से भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसति 2 ता एवं वयासी-इच्छामि णं भंते ! अहं तुब्भेहिं अब्भणुनाए समाणे मियापुत्तं दारमं पासित्तए, अहासुह देवाणुप्पिया! तते णं से भगवं गोयमे समणेणं भगवया महावीरेणं अब्भणुन्नाए समाणे हटे तुढे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियाओ पडिनिक्खमइ 2 त्ता अतुरियं० जाव सोहेमाणे 2 जेणेव मियग्गामे णगरे तेणेव उवागच्छति २त्ता मियग्गामं नगरं मज्झमज्झेण जेणेव मियादेवीए गेहे तेणेव उवागए, तते णं सा मियादेवी भगवं गोयम एज्जमाणं पासइ 2 त्ता हट्ठ-तुट्ठ जाव एवं वयासी-संदिसंतु णं देवाणुप्पिया ! किमागमणपयोयणं? तते णं भगवं गोयमे मियादेवि एवं वयासी-अहण्णं देवाणुप्पिए ! तव पुत्तं पासितुं हव्वमागए, तते णं सा मियादेवी मियापुत्तस्स दारगस्स अणुमग्गजायते चत्तारि पुत्ते सव्वालंकारविभूसिए करेति 2 त्ता भगवतो गोयमस्स पादेसु पाडे ति 2 त्ता एवं वयासीएए णं भंते ! मम पुत्ते पासह, तते णं से भगवं गोयमे मियादेवि एवं वयासी-नो खलु देवीणुप्पिया ! अहं एए तव पुत्ते पासिउं हव्वमागते, तत्थ णं जे से तव जेट्टे मियापुत्ते दारए जाइअंधे जातिअंधारूवे जं णं तुम रहस्सियंसि भूमिघरंसि रहस्सिएणं भत्तपाणेणं पडिजागरमाणी 2 विहरसि / तंणं अहं पासिउं हव्वमागए, तते णं सा मियादेवी भगवं गोयमं एवं क्यासी-से के णं गोयमा ! से तहारूवे णाणी वा तवस्सी वा जेणं तव एसमढे मम ताव रहस्सिकए तुब्भ हव्वम-क्खाए जओ णं तुन्भे जाणह ? तते णं भगवं गोयमे मियादेवि एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! मम धम्माऽऽयरिए समणे भगवं महावीरे जतो ण अहं जाणामि, जाव च णं मि
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________________ मियापुत्त 288 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मियापुत्त यादेवी भगवया गोयमेणं सद्धिं एयम8 संलवति तावं च णं मियापुत्तस्स दारगस्स भत्तवेला जाया याऽवि होत्था, तते णं सा मियादेवी भगवं गोयम एवं-वयासी-तुब्भे णं भंते ! इहं चिट्ठह जा णं अहं तुब्भं मियापुत्तं दारगं उवदंसेमि त्ति कट्ट जेणेव भत्तपाणघरे तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता वत्थपरियट्टयं करेति वत्थपरियट्टयं करित्ता कट्ठसगडियं गिण्हति कट्ठसगडियं गिण्हित्ता विपुलस्स असणपाणखाइमसाइमस्स भरेति विपुलस्स असणपाणखाइमसाइमस्स भरित्तातं कट्ठसगडियं अणुकढमाणी 2 जेणामेव भगवं गोयमे तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता भगवं गोयमं एवं वयासीएह णं तुब्भे भंते ! मम अणुगच्छह जा णं अहं तुब्भं मियापुत्तं दारगं उवदंसेमि, तते णं से भगवं गोयमे मियं देविं पिट्ठओ समणुगच्छति, तते णंसा मियादेवीतं कट्ठसगडियं अणुकब्डमाणी 2 जेणव भूमिधरे तेणेव उवागच्छइ 2 त्ता, चउप्पुडेणं बत्थेणं मुहं बंधेति मुहं बंधमाणी भगवं गोयमं एवं वयासी-तुब्भेऽविणं भंते ! मुहपोत्तियाए मुहं बंधह, तते, णं से भगवं गोयमे मियादेवीए एवं वुत्ते समाणे मुहपोत्तियाए मुहं बंधेति, तते णं सा मियादेवी परम्मुही भूमिघरस्स दुवारं विहाडेति, तते गंधे निग्गच्छति से जहा नामए अहिमडेति वा सप्पकडेवरेइ वा० जाव ततोऽविणं अणिट्टतराए चेव० जाव गंधे पन्नत्ते, तते णं से मियापुत्ते दारए तस्स विपुलस्स असणपाणखाइमसाइमस्स | गंधेणं अभिभूते समाणे तंसि विपुलंसि असणपाण० मुच्छित्ते तं विपुलं असणं पा०४ आसएणं आहारेति आहारित्ता खिप्पामेव विद्धंसेति विद्धंसेत्ता ततो पच्छा पूयत्ताए य सोणियत्ताए य परिणामेति / तं पि य णं पूयं च सोणियं च आहारेति, तते णं भगवओ गोयमस्स तं मियापुत्तं दारयं पासित्ता अयमेयारूवे अज्झत्थिए समुप्पज्जित्था अहो णं इमे दारए पुरा पोराणाणं दुचिण्णाणं दुप्पडिक्कंताणं असुभाणं पावाणं कडाणं कम्माणं पावगं फलवित्तिविसेसं पचणुब्भवमाणे विहरति / ण मे दिट्ठा णरगावा गेरइया वा पच्चक्खं खलु अयं पुरिसे नरयपडिरूवियं वेयणं वेयति त्ति कट्ट मियं देविं आपुच्छति 2 त्ता देवीए गिहाओ पडिनिक्खमति गिहा०२ ता मियग्गाम णगर मज्झं मज्झेणं निग्गच्छति त्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छति २त्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ 2 त्ता वंदति नमंसति 2 त्ता एवं वयासी-एवं खलु अहं तुन्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे मियग्गामं नगरं मज्झं मज्झेणं अणुप्पविसामि जेणेव मियाए देवीए गेहे तेणेव उवागते, तते णं सा मियादेवी मम एजमाणं पा सइ पासित्ता हट्ठा तं चेव सव्वं० जाव | पूयं च सोणियं च आहारेति, तते णं मम इमे अज्झथिए समुप्पञ्जित्था-अहोणं इमे दारए पुरा० जाव विहरइ। (सूत्र-४) (जाइअंधे त्ति) जातेरारभ्यान्धो जात्यन्धः, स च चक्षुरुपघातादपि भवतीत्यत आह-(जायअंधारूवे त्ति) जातम-उत्पन्नमन्धक नयनयोरादित एवानिष्पत्तः कुत्सिताङ्गं रूपं स्वरूपयस्याऽसौ जातान्धकरूपः, (अतुरिय ति) अत्वरितं मनःस्थैर्यात्, यावत्करणादिदं दृश्यम-"अचवलमसंभते जुगंतरपलोयणाए दिट्ठीए पुरओ रियति'' तत्र अचपलकायचापल्याभावात् क्रियाविशेषणे चैते. तथा-असंभ्रान्तः-भ्रमरहितः, युगम-यूपस्तत्प्रमाणो भूभागोऽपियुगं तस्यान्तरे मध्ये प्रलोकनं यस्याः सा तथा तया दृष्ट्याचक्षुषा, (रियं ति) ईया-गमनं तद्विषयो मागोंsपीर्याऽतस्ताम्, (जेणेव ति) यस्मिन देशे २,'हट्ठ० जाव त्ति' इह 'हट्टतुट्टमाणदिए' इत्यादि दृश्यम्, एकार्थाश्चैते शब्दाः 3 (हव्यं ति) शीघ्रम् (जओ गं ति) यस्मात् (जाया यावि होत्था) जाता चाप्यभवदित्यर्थः / (वत्थपरियट्ट ति) वस्त्रपरिवर्तनम्। (सेजहा नामए ति तद्यथा नामेति वाक्यालडारे।'अहिमडेइ वा सप्पकडेवरेइ वा इह यावत्करणात् 'गोमडेइ वा सुणहमडेइ वा इत्यादि द्रष्टव्यम्, (ततो वि णं ति) ततोऽपिअहिकडेवरादिगन्धादपि (अणि?तराए चेव त्ति) अनिष्टतर एवं गन्ध इति गम्यते, इह यावत्करणात् 'अकंततराए चेव अप्पियतराए चेव अमणुनतराए चेव अमणामतराए चेव' त्ति दृश्यम्, एकार्थाश्चैते 'मुछिए' इत्यत्र 'गढिते गिद्धे अज्झोववन्ने' इति पदत्रयमन्यद् दृश्यम्. एकार्थान्येतानि चत्वार्यपीति / 'अज्झथिए' इत्यत्र 'चिंतिए कप्पिए पत्थिए मणोगए संकप्पे' इति दृश्यम्, एतान्यप्येकार्थानि 'पुरा पोराणाणं दुचिन्नाण' इहाक्षरघटना-पुराणानाम्-जरठाना, कयखडीभूतानामित्यर्थः, (पुरा) पूर्वकाले दुश्चीर्णाना-प्राणातिपातादिदुश्चरितहेतुकानाम् (दुप्पडिक्कताणं ति) दुःशब्दोऽभावार्थस्तेन प्रायश्चित्तप्रतिपत्त्यादिना अप्रतिक्रान्तानाम्-अनिवर्तितविपाकानामित्यर्थः, (असुभाणं ति) असुखहेतूनाम्, (पावाणं ति) पापानां-दुष्ट स्वभावानाम. (कम्माणं ति) ज्ञानावरणादीनाम्। से णं भंते ! पुरिसे पुव्वभवे के आसि (किं नामए वा किं गोए वा) कयरंसि गामंसि वा नयरंसि वा किं वा दचा किं वा भोचा किं वा समायरित्ता के सिं वा पुरा० जाव विहरति ? गोयमाऽऽइसमणे भगवं महावीरे भगवं गोयम एवं क्यासी-एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे सयदुवारे नामं नगरे होत्था, रिद्धत्थिमिए वन्नओ, तत्थ णं सयदुवारे नगरे धणवई नामं राया हुत्थ वण्णओ, तस्स णं सयदुवा रस्स नगरस्स अदूरसामंते दाहिणपुरच्छिमे दिसीभाए विजयवद्धमाणे णाम खेडे होत्था रिद्धत्थिर्मियसमिद्धे,
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________________ मियापुत्त 286 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मियापुत्त तस्स णं विजयवद्धमाणस्स खेडस्स पंच गामसयाई आभोए याऽवि हुत्था, तत्थ णं विजयवद्धमाणे खेडे इकाई णाम रट्ठकूडे होत्था, अहम्मिए० जाव दुप्पाडियाणंदे, सेणं इक्काई रट्ठकूडे विजयवद्धमा-णस्सखेडस्सपंचण्हंगामसयाणं आहेवचं० जाव पालेमाणे विहरइ, तए णं से इक्काई विजयवद्धमाणस्स खेडस्स पंच गामसयाई बहूहिं करेहि य भरेहि य विद्धीहि य उक्कोडाहि य पराभवेति य दिजेहि य भेजेहि य कुंतेहि य लंक्षपोसेहि य आलीवणेहि य पंथकोट्टेहि य उवीलेमाणे 2 विहम्मेमाणे 2 तजेमाणे 2 तालेमाणे 2 निद्धणे करेमाणे 2 विहरति / तते णं से इक्काई रहकूडे विजयवद्धमाणस्स खेडस्स बहूणं राईसरतलवरमाड बियकोडुंबियसेट्ठिसत्थवाहाणं अन्नेसिं च बहूणं गामेल्लगपुरिसाणं बहुसु कन्जेसु य कारणेसु य संतिसु य गुज्झेसुय निच्छएसु य ववहारेसु य सुणमाणे भणतिन सुणेमि, असुणमाणे भणति-सुणेमि, एवं पस्समाणे भासमाणे गिण्हमाणे जाणमाणे, तते णं से इक्काई रट्ठकूडे एयकम्मे एयप्पहाणे एयविजे एयसमायारे सुबहुं पावकम्मे कलिकलुसं समजिणमाणे विहरति / (सूत्र-५) 'पुन्वभवे के आसि' इत्यत एवमवध्येयम् (किं नामए वा किंगोत्तए वा) तत्र नाम-यादृच्छिकमभिधानम्, गोत्रं तु-यथार्थ कुलं वा "कयरंसि गामसि वा नगरसि वा किं वा दचा किं वा भोचा किं वा समायरेत्ता केसि वा पुरा पोराणाण दुचिन्नाण दुप्पडिकताण असुहाणं पावाणं कम्माण पावगं फलवित्तिविसेस पचणुभवमाणे विहरइ' त्ति / (गोयमा इ त्ति) गौतम इत्येवमामन्त्र्य इति गम्यते (ऋद्धिस्थिमिए त्ति) ऋद्धिप्रधान स्तिमितं च-निर्भयं यत्तत्तथा, (वण्णओ त्ति) नगरवर्णकः, स चौपपातिकवद् द्रष्टव्यः, (अदूरसामंते त्ति) नातिदूरे नच समीपे इत्यर्थः, (खेडे त्ति) धूलीप्राकारम्, (रिद्ध त्ति) 'रिद्धत्थमियस मिद्धे' इति द्रष्टव्यम्, (आभोए त्ति) विस्तारः, (रहकूडे त्ति) राष्ट्रकूटो मण्डलोपजीवी राजनियोगिकः 4 (अहम्मिए त्ति) अधार्मिको, यावत्करणादिदं दृश्यम्'अधम्माणुए अधम्मिट्ठ अधम्मपलोई अधम्मपलंजणे अधम्मसमुदाचारे अधम्मेण चेव वित्ति कप्पेमाणे दुस्सीले दुव्यए' ति, तत्र अधार्मिकत्वप्रपशनायोच्यते-'अधम्माणुए' अधर्म-श्रुतचारित्राभावम् अनुगच्छतीत्यधर्मानुगः, कुत एतदेवमित्याहअधर्म एव इष्टो वल्लभः पूजितो वा यस्य सोऽधर्मिष्ठः अतिशयेना वाऽधर्मी धर्मवर्जित इत्यधर्मिष्ठः, अत राधर्माख्यायी-अधर्मप्रतिपादकः, अधर्मख्याति अविद्यमानधर्मोऽयमित्येव प्रसिद्धिकः, तथाऽधर्मा प्रलोकयति उपादेयतया प्रेक्षते यः सतथा, अत एवाधर्मप्ररञ्जनः अधर्मरागी, अत एवाधर्मेण -हिंसादिना वृत्ति-जीविका कल्पयन् सन् दुःशीलः-शुभस्वभावहीनः, दुव्रतश्चव्रतवर्जितः, दुष्प्रतयानन्दः-साधुदर्शनादिनानानन्द्यत इति।१।(आहे. वचं ति) अधिपतिकर्म, यावत्करणादिदं दृश्यम्-''पोरेवचं समित्तं भट्टि त्त महत्तरगत्त आणाईसरसेणावचं कारेमाणे' त्ति, तत्र पुरोवर्तित्वम् अग्रेणरत्वम्, स्वामित्वम्-नायकत्वं, भर्तृत्वं पोषकत्वम, महत्तरकत्वम्उत्तमत्वम्, आज्ञेश्वरस्य-आज्ञाप्रधान स्य: यत्सेनापतित्व तदाज्ञेश्वरसेनापत्यं कारयन्-नियोगिकैर्विधापयन्पालयन् स्वयमेवेति।। (करेहि यत्ति) करैः क्षेत्रा द्याश्रितराजदेयद्रव्यैः (भरेहि यत्ति) तेषामेव प्राचुर्यः (विद्धीहिय त्ति) वृद्धिभिः कुटुम्बिना वितीर्णस्य धान्यस्य द्विगुणादेहणैः, वृत्तिभिरिति क्वचित, तत्र वृत्तयो राजादेशारिणां जीविकाः (उक्कोडाहि यत्ति) लशाभिः (पराभएहिय त्ति) पराभवैः (देजेहि यत्ति) अनाभवहातव्यैः (भेजेहि यत्ति) यानि पुरुषमारणाद्यपराधमाश्रित्य ग्रामादिषु दण्डद्रय्याणि निपतन्ति कौटुम्बिकान् प्रति च भेदेनोद्गृह्यन्तेतानि भेद्यानि अतस्तैः (कुतेहि य त्ति) कुन्तकम्एतावद्रव्यं तवया देयमित्येवं नियन्त्रणया नियोगिकस्य देशादेर्यत् समर्पणमिति, (लछपोसेहि यत्ति) लञ्छाः-चौरविशेषाः संभाव्यन्ते तेषां पोषाः पोषणानि तैः (आलीवणेहि यत्ति) व्याकुललोकानां मोषणार्थ ग्रामादिप्रदीपनकैः (पथकोहि य त्ति) सार्थघातैः (उवीलेमाणे त्ति) अवपीलयन् बाधयन् / (विहम्मेमाणे त्ति) विधर्मयन् स्वाचारभ्रष्टान् कुर्वन् (तज्जमाणे त्ति) कृतावष्टम्भान् तर्जयन-ज्ञास्यथरे यन्मभ इदं च इदच नदत्से इत्येवं भेषयन् (तालेमाणे त्ति) कशचपेटादिभिस्ताडयन् (णिद्धणे करेमाणे त्ति) निर्द्धनान् कुर्धन् विहरति। (तएणं से इमाई रट्टकूटे विजयवद्धमाणस्स खेडस्स) सत्काना (बहूणं राईसरतलवरमाडंपियकोडुवियसेट्ठिसत्थवाहाणं) इह तलवराःराजप्रसादवन्तो राजोत्थासनिकाः, माडम्बिकाः-मडम्बाधिपतयो मडम्ब च-योजनद्वयाभ्यन्तरेऽविद्यमानग्रामादिनिवेशः सन्निवेशविशेषः शेषाः प्रसिद्धाः / (कजेसु ति) कार्येषु प्रयोजनेषु अनिष्पन्नेषु (कारणेसु त्ति) सिसाधयिषितप्रयोजनोपायेषु विषयभूतेषु ये मन्त्रादयो व्यवहारान्तास्तेषु, तत्र मन्त्राः-पर्यालोचनानि गुह्यानि-रहस्यानि, निश्चयावस्तुनिर्णयाः, व्यवहारा-विवादास्तेषु विषये 5 / (एयकम्मे ) एतद्यापारः एतदेव वा काम्यम् कमनीयं यस्य स तथा, (एयप्प्हाणे त्ति) एतत्प्रधानः एतनिष्ट इत्यर्थः, (एयसामायारेत्ति) एतज्जीतकल्प इत्यर्थः. (पावकम्म ति) अशुभं ज्ञानावरणादि (कलिकलुसं ति) कलहहेतुकलुपं मलीमसमित्यर्थः। तते णं तस्स इकाईयस्स रट्टकूडस्स अन्नया कयाइं सरीरगंसि जमगसमगमेव सोलस रोगाऽऽयंका पाउब्भूया, तं जहा-सासे 1 कासे 2 जरे ३दाहे 4, कुच्छिसूले 5 भगंदरे 6 / अरिसा 7 अजीरए 8 दिट्ठी 6, मुद्धसूले 10 अकारए 11 / / 1 / / अच्छिवेयणा 12 कन्नवेयणा 13 कंडू 14 उदरे 15 कोढे 16 / तते णं से इकाई रहकूडे सोलसहिं रोगाऽऽयंकेहिं अमिभूए समाणे कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ 2 त्ता एवं वयासी-गच्छह णं तुम्भे देवाणुप्पिया ! विजयवद्धमाणे खेडे संघाडगतिगचउक्कचचरमहापहपहेसु
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________________ मियापुत्त 290 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मियापुत्त अहवा 2 सद्दे णं उग्घोसे माणा 2 एवं वदह-इहं खलु चणं मियापुत्ते दारए मियाए देवीए कुच्छिंसि गब्भत्ताए उववन्ने देवाणुप्पिया ! इक्काई रहकूडस्स सरीरगंसि सोलस रोगाऽऽयंका तप्पमिइं च णं मियादेवी विजयस्स अणिट्ठा अकंता अप्पिया पाउन्भूया, तं जहा-सासे 1 कासे 2 जरे 3,0 जाव कोढे 16, अमणुन्ना अमणामा जाया याऽवि होत्था। तते णं तीसे देवीए तं जोणं इच्छति देवाणुप्पिया! विजो वा विजपुत्तो वा जाणुओ अन्नया कयाई पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि कुडुंबजागरियाए वा जाणुयपुत्तो वा तेगिच्छी वा तेगिच्छीपुत्तो वा इक्काई जागरमाणीए इमे एयारूवे अज्झथिए० जाव समुप्पग्जित्था एवं रट्ठकूडस्स तेसिं सोलसण्हं रोगार्थकाणं एगमवि रोगायंक खलु अहं विजयस्स खत्तियस्स पुट्विं इट्टा कं०६ धेज्जा वेसासिया उवसामित्तए तस्स णं इक्काई रट्ठकूडे विपुलं अत्थसंपयाणं अणुमया आसी, जप्पमिइं च गं मम इमे गब्भे कुच्छिंसि दलयति, दोचं पि तचं पि उग्धोसेह उग्घोसइत्ता एयमाणत्तियं गन्भत्ताए उववन्ने तप्पभिई च णं अहं विजयस्स खत्तियस्स पञ्चप्पिणह, तते णं ते कोडुंबियपुरिसा० जाव पञ्चप्पिणंति, तते अणिट्ठा० जाव अमणामा जाया यावि होत्था। निच्छति णं विजए णं से विजयबद्धमाणे खेडे इमं एयारूवं उग्घोसणं सोचा मिसम्म खत्तिए मम नामं वा गोयं वा गिण्हित्तए वा किमंग ! पुण दंसणं वा बहवे विजा य०६ सत्थकोसहत्थगया सएहिं सएहिं गिहेहिंतो परिभोग वा 1, 2 सेयं खलु मम एयं गन्मं बहूहिं गब्भसाडणाहि पडिनिक्खमंति २त्ता विजयबद्धमाणस्स खेडस्स मज्झं मज्झेणं य पाडणाहि य गालणाहि य मारणाहि य साडित्ताए वा पा०४, जेणेव इक्काई रट्ठकूडस्स गिहे तेणेव उवागच्छइ 2 त्ता इक्काई एवं संपेहेइ संपेहित्ता बहूणि खाराणि य कडुयाणि य तूवराणि य गम्भसाडणाणि य खायमाणीय पीयमाणी य इच्छति तं गन्भं रहकूडस्स सरीरगं परामुसंति 2 ता तेसिं रोगाणं निदाणं पुच्छंति २त्ता इक्काई रट्ठकूडस्स बहूहिं अब्भंगेहि य उव्वट्टणाहि साडित्तए वा०४ नो चेव णं से गब्मे सडइ वा०४ तते णं सा मियादेवी जाहे नो संचाएति तं गब्भं सडित्तए वा०४ ताहे संता य सिणोहपाणेहि य यमणेहि य विरेयणेहि य अववदहणाहि य तंता परितंता अकामिया असवसा तं गम्भं दुहं दुहेणं परिवहइ, अवण्हाणेहि य अणुवासणाहि य वत्थिकम्मेहि य निरुहेहि य तस्स दारगस्स गन्भगयस्स चेव अट्ठ नालीओ अभिंतरप्पसिरावेहेहि य तच्छणेहि य पच्छणेहि य सिरोवत्थीहि य तप्प वहाओ अट्ठ नालीओ बाहिरप्पवहाओ अट्ठ पूयप्पवहाओ अट्ठ णाहि य पुडपागेहि य छल्लीहि य मूलेहि य कंदेहि य पत्तेहि य सोणियप्पवहाओ दुवे दुवे कण्णंतरेसु दुवे दुवे अच्छिंतरेसु दुवे पुप्फेहि य फलेहि य बीएहि य सिलियाहि य गुलियाहि य दुवे नकंतरेसु दुवे दुवे धमणिअंतरेसु अभिक्खणं अभिक्खणं ओसहेहि य मेसजेहि य इच्छंति तेसिं सोलसण्हं रोगायंकाणं पूयं च सोणियं च परिस्सवमाणीओ 2 चेव चिट्ठति / तस्स णं एगमवि रोगायकं उवसमावित्तए नो चेव णं संचाएंति उवसा दारगस्स गन्भगयस्स चेव अग्गिए नामं वाही पाउन्भूए जे णं से मित्तए। तते णं बहवे विजा य विजपुत्ता य जाहे नो संचाएंति दारए आहारेति से णं खिप्पामेव विद्धंसमागच्छति पूयत्ताए तेसिं सोलसण्हं रोगायंकाणं एगमवि रोगायकं उवसामित्तए ताहे सोणियत्ताए य परिणमति, तं पि य से पूर्व सोणियं च आहारेति। संता तंता परितंता जामेव दिसिं पाउन्भूया तामेव दिसिं तते णं सा मियादेवी अन्नया कयाईनवण्हं मासाणं बहुपडिपुन्नाणं पडिगया। तते णं इकाई रट्ठकूडे विजेहि य 6 पडियाइक्खिए दारगं पयाया जातिअंधे० जाव आगइमित्ते। तते णं सा मियादेवी परियारगपरिचत्ते निविण्णोसहभेसज्जे सोलसरोगायं के हिं तं दारगं हुंडं अंधारूवं पासति २त्ता मीया०४ अम्मधाइं सद्दावेति अभिभूए समाणे रज्जे य रहे य० जाव अंतेउरे य मुच्छिए रज्जं च 2 ता एवं वयासी-गच्छह णं देवाणुप्पिया ! तुम एयं दारगं एगते रटुंच आसाएमाणे पत्थेमाणे पीहेमाणे अभिलसमाणे अट्टदुहट्ट उकुरुडियाए उज्झाहि। तते णं सा अम्मधाई मियादेवीए तह त्ति वसट्टे अड्डाइजाई वाससयाई परमाउयं पालइत्ता कालमासे एयम8 पडिसुणेति 2 ता जेणेव विजए खत्तिए तेणेव उवागच्छइ कालं किचाइमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उक्कोसेणं सागरोवम- तेणेव उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियं एवं वयासी-एवं खलु सामी! द्वित्तीएसु नेरइएसु नेरइयत्ताए उववन्ने, से णं ततो अणंतरं मियादेवी नवण्हं मासाणं० जाव आगतिमित्ते, तते णं सा मियादेवी उध्वट्टित्ता इहेव मियग्गामे णगरे विजयस्स खत्तियस्स मियाए तं हुंड अंधारूवं पासति 2 ता तत्था उव्विग्गा संजायभया सद्दावेइ देवीए कुञ्छिसि पुत्तत्ताए उववन्न ! तते णं तीसे मियाए देवीए 2 ता एवं वयासी गच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया ! एयं दारगं एगंते सरीरे वेयणा घेयणा पाउन्भूया उञ्जला० जाव जलंता, जप्पभिज्ञ | उकु रुडियाए उज्झाहि, तं संदिसह णं सामी ! तं दारगं अहं
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________________ मियापुत्त 291 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मियापुत्त एगते उज्झामि उदाहु मा ? तते णं से विजए खत्तिए तीसे मनसा दुःखितो, दुःखातो देहेन, वशार्तस्तु-इन्द्रियवशेन पीडितः ततः अम्मधाईए अंतिए एयमढे सोचा तहेव संभंते उठाए उद्वेति कर्मधारयः, (उजला) इह यावत्करणादिदं दृश्यम्-"विउला कक्कसा उट्ठाइत्ता जेणेव मियादेवी तेणेव उवागच्छति 2 त्ता मियादेवीं | पगाढा चंडा दुहा तिव्वा दुरहियास"त्ति। एकार्था एव।"अणिट्ठा अकंता एवं वयासी-देवाणुप्पिया ! तुब्भं पढमं गब्भे तं जइ णं तुन्भे अप्पिया अमणुन्ना अमणामा" एतेऽपि तथैव, (पुव्वरत्तावरत्तकालएयं एगते उकुरुडियाए उज्झासि ततो णं तुब्भे पया नो थिरा समयसि त्ति) पूर्वरात्रो-रात्रेः पूर्वभागः, अपररात्रो-रात्रेः पश्चिमो भागस्तभविस्सति / तो णं तुमं एयं दारगं रहस्सिगंसि भूमिधरंसि लक्षणो यः कालसमयः-कालरूपः समयः स तथा तत्र (कुटुंबजागरियाए रहस्सिएणं भत्तपाणेणं पडिजागरमाणी 2 विहराहि, तो णं तुभं त्ति) कुटुम्बचिन्त-येत्यर्थः (अज्झस्थिए ति) अध्यात्मिकः आत्मविषयः, पया थिरा भविस्सति, तते णं सा मियादेवी विजयस्स खत्तियस्स इह चान्यान्यपि पदानि दृश्यानि, तद्यथा-(चिंतिए त्ति) स्मृतिरूपः तह त्ति एयम8 विणएणं पडिसुणे ति पडिसुणित्ता तं दारगं (कप्पिए त्ति) बुद्ध्या व्सवस्थापितः (पत्थिए त्ति) प्रार्थितः प्रार्थनारूपः रहस्सियंसि भूमिधरंसि रहस्सियभत्तपाणेणं पडिजागरमाणी (मणोगएत्ति) मनस्येव वृत्तो बहिरप्रकाशितः, संकल्पः-पर्यालोचः, 'इटे' विहरति, एवं खलु गोयमा ! मियापुत्ते दारए पुरा पुराणाणं० त्यादीनि पकार्थिकानि प्राग्वत् (धि त्ति) ध्येया (वेसासिय त्ति) जाव पचणुब्भवमाणे विहरति / (सूत्र-६)। विश्वसनीया (अणुमय त्ति) विप्रियदर्शनस्य पश्चादपि मता अनुमतेति, (जमगसमगं ति) युगपत् ('रोगायक ति) रोगाः-व्याधयरत एवातङ्कः- (नाम ति) पारिभाषिकी संज्ञा (गोयं ति) गोत्रम् अन्वर्थिकी सौवेति कष्ट जीवितकारिणः / ‘सासे' इत्यादि श्लोकः, 'जोणिसूले' ति (किमंग पुण त्ति) किं पुनः अंग' इत्यामन्त्रणे. (गडभसाडणाहि य त्ति) अपपाठः / 'कुच्छिसूले' इत्यास्यान्यत्र दर्शनात्, (भगंदले त्ति) भगन्दरः शातनाः-गर्भस्य खण्डशो भवनेन पतनहेतवः (पाडणाहिय ति) पातनाः (अकारए क्ति) अरोचकः, 'अच्छिवेयणा' इत्यादि श्लोकातिरिक्तम्, थैरुपायैरखण्ड एव गर्भः पतति (गालणाहिय त्ति) यैर्गर्भो द्रवीभूय क्षरति (उदरे ति) जलोदरं शृङ्गाटकादयः स्थानविशेषाः / (विज्जो व त्ति) (मारणाहि यत्ति) मरणहेतवः। (अकामियत्ति) निरभिलाषाः (असयवस वैद्यशास्त्र चिकित्सायां च कुशलः (विजपुत्तो व त्ति) तत्पुत्रः (जाणुओव त्ति) अस्वयंवशा (अट्ठनालीओ त्ति) अष्टौ नाड्यः-शिराः (अभिंतरति) ज्ञायकः केवलशास्त्रकुशलः (तेगिच्छओ व ति) चिकित्सामात्र- प्पवहाउत्ति) शरीरस्याभ्यन्तर एव रुधिरादिस्त्रवन्तियास्तास्तथोच्यन्ते कुशलः, (अत्थसंपयाण दलयइत्ति) अर्थदानं करोतीत्यर्थः। (सत्थको- (बाहिरप्पवहाउत्ति) शरीराद्वहिः पूयादि क्षरन्ति यास्तास्तथोक्ताः, एता सहत्थगय त्ति) शस्त्रकोशो-नखरदनादिभाजनं हस्ते गतो व्यवस्थितो एव षोडश विभज्यन्ते 'अट्टे' त्यादि कथमित्याह-(दुवे दुवे त्ति) द्वे येषान्ते तथा, (अवद्दहणाहि यत्ति) दम्भनैः (अवण्हाणेहि य ति) पूयप्रवाहे द्वे च शोणितप्रवाहे, ते च केत्याह (कन्नंतरेसु) श्रोत्ररन्ध्रयोः तशाविधद्रव्यसंस्कृतजलेन स्नानः (अणुवासणाहि यत्ति) अपानेन जठरे एवमेताश्चतस्त्रः, एवमन्या अपि व्याख्येयाः, नवरं धमन्यः कोष्ठकहतैलप्रवेशनैः (वत्थिकम्मेहि य त्ति) चर्मवेष्टनप्रयोगेण शिरःप्रभृतीना ड्डान्तराणि (अग्गियए त्ति) अग्निको भस्मकाभिधानो वायुविकारः 'जाइस्नेहपूणैः गुदे वा वादिक्षेपणैः (निरुहेहि यत्ति) निरुहः अनुवास एव अंधे' इत्यत्र यावत्करणात् 'जाइमूए' इत्यादि दृश्यम्, (हुडंति) अव्यवकेवलं द्रव्यकृतो विशेषः (सिरावेहेहिय त्ति) नाडीवेधैः (तच्छणेहि य स्थितागावयवम् (अंधारूवं ति) अन्धाकति भीया' इत्यत्रेतद् दृश्यम् ति) क्षुरादिना त्वचस्तनूकरणैः (पच्छणेहि य त्ति) हस्वैस्त्वचो विदारणैः 'तत्था उदिवग्गा सजायभ्या भयाप्रकर्षाभिधानायैकार्थाः शब्दाः, (सिरोवत्थीहि य त्ति) शिरोवस्तिभिः शिरसि बद्धस्य चर्मकोशकस्य 'करयले त्यत्र 'करयलपरिग्गहियं दसणहं मत्थए अंजलि कट्ट' इति द्रव्यसंस्कृततैलाद्यापूरणलक्षणाभिः, प्रागृक्तवस्तिकाणि सामान्यानि दृश्यम्, 'न वण्ह' मित्यत्र 'मासाणं बहुपडिपुन्नाण' मित्यादि दृश्यम्, अनुवासनानि रुहशिरोवस्तयस्तु तद्भेदाः (तप्पणाहि य त्ति) तप्पणैः तथा-'जाइअंध' मित्यादिच. (संभंते त्ति) उत्सुकः (उठाते उट्टेइ त्ति) स्नेहादिभिः शरीरबृंहणैः (पुडपागेहि य त्ति) पुटपाकाः पाकविशेष- उत्थानेनोत्तिष्ठति, (पय त्ति) प्रजाः-अपत्यानि, (रहस्सिगयंसि त्ति) निष्पन्नाः औषधिविशेषाः (छल्लीहि यत्ति) छल्लयो-रोहिणीप्रभृतयः / राहरियके विजने इत्यर्थः / (पुरा पोराणाणं ति) पुरा-पूर्वकाले कृतानासिलियाहि य त्ति) शिलिकाः-किराततिक्तकप्रभृतिकाः (गुलियाहि मिति गम्यम्, अत एव पुराणानम्-चिरन्तनानाम्, इह च यावत्करणात यत्ति) द्रव्यवटिकाः (ओसहेहि य त्ति) औषधानि एकद्रव्यरूपाणि 'दुचिन्नाणं दुप्पडिकंताणं' इत्यादि 'पावगं फलवित्तिविसेस' मित्यन्तं (मेसजेहि य त्ति) भैषज्यानि-अनेकद्रव्ययोगरूपाणि पथ्यानि चेति। द्रष्टव्यम्। (संत त्ति) श्रान्ता देहखेदेन (तत त्ति) तान्ताः मनःखेदेन (परितंत त्ति) / मियापुत्ते णं भंते ! दारए इओ कालमासे कालं किच्चा उभयखेदेनेति 'रज्जे यरटेय' इत्यत्र यावत्करणादिदं दृश्यम्-''कोसे य कहिं गमहिति ? कहिं उववजिहिति ? गोयमा ! मियापुत्ते कोट्टागारे य बाहणे य" त्ति / 'मुच्छिए गढिए गिद्धे अज्झोववणे त्ति' दारए छटवीसं वासाई परमाउयं पालइत्ता कालमासे एकार्थाः 'आसाएमाणे' इत्यादय एकार्थाः (अदृदुहवसट्टे त्ति) आर्ता | कालं किया इहे व जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे वेयवगिरि
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________________ मियापुत्त 262 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मियापुत्त पायमूले सीहकुलंसि पञ्चायाहिति, से णं तत्थ सीहे भविस्सति अहम्मिए जाव साहसिए सुबहु पावं०जाव समज्णिति० जाव समञ्जिणित्ता कालमासे कार्ल किच्चा इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उक्कोससागरोवमट्टितीएसु० जाव उववजिहिति, से णं ततो अणंतर उव्वट्टित्ता सरीसवेसु उववजिहिति, तत्थ णं कालं किच्चा दोचाए पुढवीए उक्कोसेण तिन्नि सागरोवमाइं, से णं ततो अणंतरं उव्वट्टित्ता पक्खीसु उववजिहिति, तत्थ वि कालं किच्चा तद्याए पुढवीए सत्तसागरोवमाई, से णं ततो सीहेसु य, तयाऽणंतरं चोत्थीए उरगो पंचमीए इत्थीओ छट्ठीए मणुआ० अहेसत्तमाए, ततोऽणंतरं उव्वट्टित्ता से जाई इमाइंजलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं मच्छकच्छभगाहमगरसुसुमा राऽऽदीणं अद्धतेरसजातिकुलकोडि-जोणिपमुहसयसहस्साई तत्थ णं एगमेगंसि जोणीविहाणंसि अणेगसतसहस्सखुत्तो उद्दाइत्ता 2 तत्थेव भुजो 2 पचाथाइस्सति, से णं ततो उटवट्टित्ता एवं चउपएसु उरपरिसप्पेसु भुपपरिसप्पेसु खहयरेसु चउरिदिएसु तेइंदिएसु वेइंदिएसु वणप्फइएसु कडुयरुक्खेसु कडुयदुद्धिएसु वाउ० तेऊ० आऊ० पुढवी० अणेगसयसहस्सखुत्तो, से णं ततो अणंतरं उव्वट्टित्ता सुपइट्ठपुरे नगरे गोणत्ताए पचायाहिति / से णं तत्थ उम्मुक० जाव बालभावे अन्नया कयाइं पढमपाउसंसि गंगाए महानईए खलीयमट्टियं खणमाणे तडीए पेल्लिए समाणे कालगए तत्थेणसुपइट्टे पुरे नगरे से ट्ठिकुलंसि पुमत्ताए पचायाइस्सति। से णं तत्थ उम्मुक्कबालभावे०जाव जोव्वणगमणुपत्ते तहारूवाणं थेराणं अंतिए धम्म सोचा निसम्म मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्यइस्सति, से णं तत्थ अणगारे भविस्सति ईरियासगिए० जाव बंभयारी / से णं तत्थ बहुई वासाइं सामन्नपरियागं पाउणित्ता आलोइयपडिक्वंते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे देवत्ताए उववजिहिति। से णं ततो अणंतरं चयं चइत्ता महाविदेहे वासे जाइंकुलाइं भवंति अड्डाइं जहा दढपइन्ने सा चेव वत्तव्वया कलाओ० जाव सिज्झिहिति / एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं० जाव संपत्तेणं दुहविवागाणं पढमस्स अज्झयणस्स अयमढे पन्नत्ते त्ति बेमि। (सूत्र-७)||१|| 'अहम्मिए' इत्यत्र यावत्करणादिदं दृश्यम 'बहुनगरनिग्गयजसे सूर दृढप्पहारी ति' व्यक्तं च / (कालमासे त्ति) मरणावसरे, 'सागरोवम० जाव'त्ति 'सागरोपभट्टिईएसु नेरइयत्ताए' द्रष्टव्यम्, (जाइकुलकोडीजोणिप्पमुहसयसहस्साई ति)जातौ पञ्चेन्द्रियजातौ कुलकोटीनां योनिपनवानि-योनिद्वारकाणि, योनिशतसहस्त्राणि तानि तथा। (जोणीविहास नि) योनिभेदे। (खलीमट्टिय त्ति) खलीनाम्-आकाशस्थाम, छिनतटापरिवर्तिनी मृत्तिकामित्ति (उम्मुक० जाव त्ति) उम्मुक्कबाल भावे विन्नयपरिणयमेत्ते जोव्वणगमणुपत्ते त्ति' दृश्यम्। तत्र विज्ञ एव विज्ञक स चासो परिणतमात्रश्च बुद्ध्यादिपरिणामापन्न एव विज्ञकपरिणतमात्रः। (अणंतरं चयं चइत्त त्ति) अनन्तरं शरीरं त्यक्त्वा ध्यवनं वा कृत्वा (जहा दढपइन्ने त्ति) औपपातिके यथा दृढप्रतिज्ञाभिधा नो भव्यो वर्णितस्तथा अयमपि वाच्यः, कस्मादेवमित्याह-(सा चेव त्ति) सैव दृढप्रतिज्ञसम्बधिनी, अस्या अपि वक्तव्यतेति, तामेव स्मरयन्नाह-(कलाओ ति) कलास्तेन गृहीष्यन्ते दृढप्रतिज्ञेनेव, यावत्करणाच्च प्रव्रज्याग्रहणादिः तस्येवास्थवाच्यम, यावत्सेत्स्यतीत्यादिपदपञ्चकमिति ततः सेत्स्यति कृतकृत्यो भविष्यति भोत्स्यते केवलज्ञानेन सकलं ज्ञेयं ज्ञास्यति, मोक्षयति, सकलकर्मविमुक्तो भविष्यति, परिनिर्वास्यति सकलकर्मकृतसन्तापरहितो भविष्यति, किमुक्त भवति ? सर्वदुःखानामन्त करिष्यतीति / विपा०१ श्रु०१ अ० / सुग्रीवनगरराजस्य बलभद्रस्य बलश्रीः नामके पुत्रे। उत्त०। नामनिष्पन्ननिक्षेपे मृगापुत्रीयमिति नामतो मृगायाः पुत्रस्य च निक्षेपमाह नियुक्तिकृत् - निक्खेको उ मिआए, चउकओ दुट्विहो उ दव्वम्मि। आगम नोआगमतो, नोआगमतो य सो तिविहो / 1405 / / जाणग सरीरभविए, तव्वइरित्ते य सो पुणो तिविहो। एगभवियबद्धाउय, अभिमुहओ नाम गोए य / / 406 / / मिअआउनामगोयं, वेयंतो भावओ मिओ होइ। एमेव य पुत्तस्स वि, चउक्कओ होइ निक्खेवो // 407 / / गाथात्रयं प्राग्वत्। नवर मृगाभिलापेन नेयम्। नामनिरुक्तिमाहमिगदेवीपुत्ताओ, बलसिरिनामा समुट्ठियं जम्हा। तम्हा मिगपुत्तिज्जं, अज्झयणं होइ नायव्वं / / 408 / / मृगा-नाम्ना, देवी-अग्रमहिषी, तरयाः पुत्रः-सुतो, मृगादेवीपुवरतरमाद्वलश्रीनाम्नः समुत्थितम्-समुत्पन्नम्, यस्मात्तस्मान्मृगापुत्रीयम मृगापुत्रीयनामकं, मृगाशब्देन मृगादेव्युक्तेरध्ययनमिदमिति शेषः, भवति-ज्ञातव्यम्, अवबोद्धव्यम, इति गाथार्थः / गतो नामनिष्पन्ननिक्षेपः। सम्प्रति सूत्रालापकनिष्पन्ननिक्षेपस्यावसरः, स च सूत्रे सति भवति. अतः सूत्रानुगमे सूत्रमुचारणीयम्, तचेदम्सुग्गीवे नयरे रम्मे, काणणुजाणसोहिए। राया बलभद्दु त्ति, मिया तस्सऽग्गगमाहिसी॥१।। तेसिं पुत्ते बलसिरि, मियापुत्त त्ति विस्सुए। अम्मापिऊहिं दइए, जुवराय दमीसरे / / 2 / / नंदणे सो उपासाए, कीलए सह इस्थिहिं। देवो दोगुंदगो चेव, निच्चं मुइयमाणसो / 3 / / मणिरयणकुट्टिमतले, पासायालोअणे ठिओ। आलोएइ नगरस्स, चउक्कतियचचरे / / 4 / /
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________________ मियापुत्त 263 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मियापुत्त सुग्रीवे-सुग्रीवनाम्निनगरे, रम्ये-रमणीये, काननैः-बृहदृक्षाश्रयै-र्वनः, - उद्यानैः-आरामः क्रीडावनैर्वा, शोभितेराजिते, काननोद्यानशोभिते. राजा-नृप', बलभद्र इति नाम्नेति शेषः। मृगा-मृगानाम्नी, 'तस्य' इतिबलभद्रस्र राज्ञः, (अग्गमहिसि त्ति) अग्रमहिषी-प्रधानपत्नी। तयोः - तज्ञाः, पुत्र:-बलश्री:-बलश्रीनामा, मातापितृविहितनाम्ना लोके च मृगापुत्र इनि, विश्रुतः-विख्यातः, ('अम्मापिऊणं' ति) अम्बा-पित्राः, दयेत:-वल्लभः, युवराजः-कृतयौवराज्याभिषेको, दमिनः-उद्धतदमनशीलास्ते च राजा नः तेषाम ईश्वरः-प्रभुर्दमीश्वरः / यद्वा-दमिनःउपशमिनः, तेषां सहजोपशमभावत ईश्वरो दमीश्वरः, भाविकालापेक्ष तत / नन्दन-लक्षणोपेततया समृद्धिजनके, सः-मृगापुत्रः, 'तुःबक्यान्तरोपन्यासार्थः, प्रासादे कीडति-विलसति, सह-समम, स्त्राभिः-प्रमदाभिः। क इव ? देवः-सुरः (दोगुंदगो चेव त्ति) चः-पूराणे, दोगुन्दग इव, दोगुन्दगाश्च त्रायास्त्रिंशाः / तथा च वृद्धाः-'त्रयास्त्रिंशा देवा नित्यं भोगपरायणा दोगुन्दगा' इति भणन्ति / नित्यम् -सदा मुदितमानसः- हृष्टचित्तः / सचैव क्रीडन कदाचिन्मणयश्चविशिष्टमहात्म्याश्चन्द्रकान्तादयो, रत्नानि च-गोमेयकादीनि, मणिरत्नानि, रुपलक्षितं कुहिमतलं यस्मिन्नसौ मणिरत्नकुट्टिमतलः, गमकत्याद्वहुव्रीहिः, तस्मिन् / आलोक्यन्ते दिशोऽस्मिन् स्थितेरित्यालोकन प्रासादे प्रसादस्य वाऽऽलोकनं प्रासादालोकनम् तस्मिन, सर्वोपरिवर्त्तिचतुरिकारूपे गवाक्षे वा, स्थितः-उपविष्टः, आलोकते कुतूहलतः पश्यति, कानि ? नगरस्य तस्यैव-सुग्रीवनाम्नः, सम्बन्धीनि चतुष्कत्रिचत्वराणि प्रतीतान्येव। इति सूत्रचतुष्टयार्थः। ततः किमित्याह - अह तत्थ अइच्छंतं, पासई समणसंजयं। तवनियमसंजमधरं, सीलडं गुणआगरं / / 5 / / तं पेहई मियापुत्ते, दिट्टीए अणिमिसाइ उ। कहिं मन्नेरिसं रूवं, दिट्ठपुव्वं भए पुरा ? ||6|| साहुस्स दरिसणे तस्स, अज्झवसाणंमि सोहणे। मोहं गयस्स संतस्स, जाईसरणं समुप्पन्नं / / 7 / / देवलोगचुओ संतो, माणुसं भवमागओ। सन्निनाणसमुप्पन्ने, जाइं सरइ पुराणयं / / (प्र०)।। जाईसरणे समुप्पण्णे, मियापुत्ते महिड्डिए। सरइ पोराणिअं जाई, सामण्णं च पुराकयं / / 8 / / अथ-अनन्तरम. तत्र इति-तेषु ! चतुष्कत्रिकचत्वरेषु, (अतिच्छतं ति) अलिकामन्तं पश्यति, श्रमणसंयतमिति श्रमणस्य शाक्यादेरपि सम्भवातद्यवच्छेदार्थं संयतग्रहणाम्, तपश्च-अनशनादि, नियमश्च-द्रव्याद्यभिग्रहात्मकः, संयमश्च-उक्तस्वरूपस्तान धारयति तपोनिसंयमधरस्तम् अत एव शीलम्-अष्टद्गशशीलाङ्ग-सहस्त्ररूपम् तेनाढ्यमपरिपूर्ण शीलाढ्यम्, तत एव च गुणानाम्-ज्ञानादीनामाकर इव गुणाकरस्तम् / तमिति श्रमणसंयतम्, (पहइ त्ति) पश्यति, मृगापुत्रः-युवराजः, दृष्ट्या दृशा, (अणिमिसाइउ त्ति) तुशब्दस्यैवकारार्थत्वादविद्यमाननिमयैव, क मन्येजाने, ईदृशम्-एवविधम्, रूपम्-आकारः, दृष्टपूर्वम् अवलोकित गया, (पुरा इति) पूर्वजन्मनि ? शेष प्रतीतमेव, नवरम्, अध्यवसाने इत्यन्तःकरणपरिणामे, शोभने प्रधाने, क्षायोपशमिकभाववर्तिनीति यायत, मोह केदं मया दृष्टम् वेदमित्यतिचिन्तातश्चित्तसचट्टजगच्छत्मिकम, गतसय-प्राप्तस्य, सतः। तथा (सरति ति) स्मरति, पौराणिकीम्, जातिम- जन्म, श्रामण्यं च- श्रमणभावम्, पुराकृतम्- जन्मान्तरानुष्ठितम। इति सूत्रचतुष्टयार्थः / एतदेवातिस्पष्टताहेतोरनुगदितुमाह नियुक्तिकृत - सुग्गीवे नयरंमि अ,राया नामेण आसि बलभद्दो। तस्सासि अग्गमहिसी, देवी उ मिगावई नाम / / 407 / / तेसिं दुण्ह वि पुत्तो, आसी नामेण बलासिरी धीमं / वयरोसभसंघयणो, जुवराया चरमभवधारी॥४०८|| उन्नंदमाणहिअओ, पासाए नंदणंमि सो रम्मे। कीलइ पमदासहिओ, देवो दोगुंदगो चेव // 406 / / अह अन्नया कयाई, पासायतलंमि सो ठिओ संतो। आलोएइ पुरवरे, रुंदे मग्गे गुणसमग्गे / / 410 / / अह पिच्छइ रायपहे, बोलतं समणसंजयं तत्थ / तवनियमसंजमधरं, सुअसागरपारगं धीरं // 411 / / अह देहइ रायसुओ, तं समणं अणिमिसाइदिट्ठीए। कहि एरिसयं रूवं, दिटुं मन्ने मए पुव्वं ? ||412 / / एवमणुचिंतयंतस्स, सन्नीणाणं तहिं समुप्पन्नं / पुव्वभवे सामन्नं, मए वि एवं कयं आसि // 413 / / गाथासप्तकं स्पष्टमेव, नवरम् धृतिमान् धृतिमान्-चित्तस्वास्थ्य-वान् (वजयभमिति) अर्थाद्वऋषभनाराचं संहननं यस्य स तथा, चरमभवधारीपर्यन्सजन्मवर्ती, तथा (उण्णंदमाणहिया ति) उत्-प्राबल्येन, नन्दद् -आनन्दं गच्छत्, हृदयम्-मनो, यस्य स तथा, प्राकृतत्यात् शतृविषये शानच। तथा-रुन्दान्-विस्तीर्णान्, मार्गान्-विपणिमार्गादीन, गुणः- ऋजुत्वसमत्वादिभिः, समग्राः-परिपूर्णाः गुणसमग्रास्तान्। तथा श्रुतसागरपारगं धीरमिति तपोनियमसंयमधरमित्यस्य सूत्रपदस्य हेतुदर्शनद्वारतस्तात्पर्यव्याख्यानम्, अनेनैव च भावभिक्षुत्वमुपदर्शितम्, अत एवान्यास्यवं विशेषणायोगाच्छ्रमणसंयतमित्याह, संज्ञिज्ञानं चेह सम्यगदृशः स्मृतिरूपमतिभेदात्मकम्। इति गाथासप्तकाऽवयवार्थः / सम्प्रति यदसावुत्पन्नजातिस्मरणः कृतवाँस्तदाहविसएहिँ अरजंतो, रजंतो संजमंमि य। अम्मापियरं उवागम्म, इमं वयणमव्ववी ||6|| (विसएहिं ति) सुब्ब्यत्ययाद् विषयेषु-मनोज्ञशब्दादिषु, अरञ्जन अभिष्वङ्गमकुर्वन्, क्व ? संयमे, उक्तरूप, वः-पुनरर्थः, (अम्मापियर ति) अम्मा (म्बा) पितरी, उपागम्य-उपसृत्य, इदम्- अनन्तरवक्ष्यमाणं, वचनम। अब्रवीत्, इत्याह / इति सूत्रार्थः।
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________________ मियापुत्त 294 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मियापुत्त पीति / किञ्च-अमी कामाः स्पर्शप्रधानाः, स्पर्शश्च शरीराश्रयः, तच्चेदं शरीरम्, अनित्यम्-अशास्वतम्, अशुचिरुपशुक्रशोणितोत्पन्नम्, अशाश्वतः-कथञ्चिदवस्थितत्वेऽप्यनित्यः आवासः-प्रक्रमाजीवस्यावस्थानम् यस्मिन्नित्यशाश्वतावासम्, पुनः 'इदमि' त्यभिधानमतीवासारत्वावेशसूचकम्, दुःखम् असातं तद्धेतवः क्लेशाः-ज्वरादयो रोगाः, दुःखक्लेशाः, शाकपार्थिवादिवत्समासस्तेषाम् भाजनम्, यतश्चै वमतोऽशाश्वते शरीरे, रतिम्-चित्तस्वास्थ्यम्, नोपलभेन प्राप्नोऽम्यहम् भोगेषु सत्स्वपीति गम्यते, शरीराश्रयत्वात्तेषामिति भावः / शरीराशाश्वतमेवाह-पश्चात् पुरावा त्यक्तव्ये शरीरे इति प्रक्रमः। तद्धिपश्चादितिभुक्ताभोगावस्थायां, वार्द्धक्यादौ, पुरा-अभुक्तभोगितायां वा वाल्यादी, किं तदब्रवीदित्याहसुआणि मे पंच महत्वयाणि, नरएसु दुक्खं च तिरिक्खजोणिसु / निविण्णकामो मि महण्णवाओ, अणुजाणह पव्वइस्सामि अम्मो ! / / 10 / / श्रुतानि-आकर्णितानि, अन्यजन्मनीत्यभिप्रायः, (मे) मया, (पंच इति) पञ्चसंख्यानि, महाव्रतानि-हिंसाविरमणादीनि, तथा नरकेसुदुःखं च- असातम्, इहैव वक्ष्यमाणं (तिरिक्खजोणिसुत्ति) चशब्दस्याप्रयुज्यमानस्यापि "अहरहर्नयमानो गामश्वं पुरुषं पशुम्'' इत्यादाविव गम्यमानत्वात् तिर्यग्योनिषु च, सर्वत्र चायं न्यायो द्रष्टव्यः, उपलक्षणं चैतद् देवमनुष्यभवयोः, ततः किमित्याह-(णिव्विण्णकामो मिति) निर्विण्णकामः-प्रतिनिवृत्ताभिलाषोऽस्म्य-हम्, कुतः ? महार्णव इव महार्णवः-संसारस्तस्माद्, यतश्चैवमतः-अनुजानीत-अनुमन्यध्वम्, मामिति शेषः, (पव्वइस्सामि त्ति) प्रव्रजिष्यामि (अम्मो त्ति) पूज्यतरत्याद्विशिष्टप्रतिबन्धास्पदत्वाच मातुरामन्त्रणम्, यो हि भविष्रुदुःखं नावति, तत्प्रतीकारहेतुं वा, स कदाचिदित्थमेवासीत् अहं तूभयत्रापि विज्ञ इति कथं न दुःखप्रतीकारोपायभूतां महाव्रतात्मिका प्रव्रज्या प्रतिपत्स्ये। इति सूत्रगर्भार्थः। अमुमेवार्थमनुवादतः स्पष्टयितुमाह नियुक्तिकृत् - सो लद्धबोहिलामो, चलणे जणगाण बंदिउं भणइ। वीसजिउमिच्छामो, काहं समणत्तणं ताया ! // 414 // सः इति-मृगापुत्रो, लब्धः-प्राप्तो बोधिलाभो-जिनधर्मप्राप्तिरूपो येन स तथा, चरणान-पादान्, जनकयोः-मातापित्रोः, वन्दित्वा भणति, यथा विसर्जयितुम्-मुत्कलयितुम, वयमात्मानमिति गम्यते, इच्छामःअभिलषामः, किमिति? यतः-(काहं ति) वचनव्यत्ययात्-करिष्यामः, श्रमणत्वम्-प्रव्रज्याम्, तात इति-पितः ! उपलक्षणत्वात्-मातश्च। इति गाथार्थः। इदानीं तौ कदाचिद्भोगैरुपनिमन्त्रयेयातामित्यभिप्रायतः यत्तेनोक्त तत्सूत्रकृदाहअम्म ! ताय ! मए भोगा, मुत्ता बिसफलोवमा। पच्छा कडुयविवागा, अणुबंधदुहावहा / / 11 / / इमं सरीरं अणिचं, असुई असुइसंभवं / असासयावासमिणं, दुक्खकेसाण भायणां / / 12 / / असासए सरीरंमि, रई नोवलभामइं! पच्छा पुर राव चइयव्वे, फेणबुब्बुयसंनिमे // 13 // सूत्रत्रयं प्रतीतार्थमेव, नवरम्, विषमिति-विषवृक्षस्तस्य फलं विषफल तदुपमाः। तदुपमत्वमेव भावयितुमाह-पश्चात्कटुक इव कटुकोऽनिष्टत्वेन विपाको येषां ले तथा, आपाततएव मधुरा इति भावः / अनुबन्धदुःखावहाः अनवच्छिन्नदुःखदायिनः / यथा हिविषफलमास्वाद्यमानमादौ मधुरम् उत्तरकालं च कटुकविपाकं, सातत्येन च दुःखोपनेतृ, एवमेतेऽ- | वेत्युपक्रमहेतोवर्षशताद्या-संकलितजीवितप्रमाणात्प्रागपि, त्यक्तव्येअवश्यत्याज्ये, फेनबुबुदसंनिभेक्षणदृष्टनष्टतया, अनेनाशाश्वतत्वमेव भावितमिति न पौनरुक्तयम् / इति सूत्रत्रयार्थः / एवं भोगनिमन्त्रणपरिहारमभिधाय प्रस्तुतस्यैव संसारनिर्वेदस्य हेतुमाह - माणुसत्ते असारंभि, वाहीरोगाण आलए। जरामरणपत्थम्मि, खणं पि न रमामहं / / 14 / / जम्मदुक्खं जरादुक्खं, रोगा य मरणाणि य। अहो दुक्खो हु संसारो, जत्थ कीसंति जंतुणो।।१५।। खित्तं वत्धुं हिरण्णं च, पुत्तं दारं च बंधवा / चइत्ताण इमं देहं, गंतव्वमवसस्स मे / / 16 / / जह किंपागफलाणं, परिणामो न सुंदरो। एवं भुत्ताण भोगाण, परिणामो न सुंदरो // 17 // सूत्रचतुष्टय स्पष्टम्, नवरम् व्याधयः-अतीव बाधाहेतवः कुष्ठादयो, रोगाः-ज्वरादयस्तेषाम् आलये-आश्रये, जरामरणग्रस्तेवार्द्धक्यमृत्युक्रोडीकृते, अनेन मानुषत्वासारत्वमेव भावितम्. क्षणमपि-न रमे नाभिरति लभेऽहमिति। इत्थं मनुष्यभवस्यानुभूयमानत्वेन निर्वेदहेतुत्वमभिधाय सम्प्रति चतुर्गतिकस्याऽपि संसारस्य तदाह 'जम्म' इत्यादिना, अत्रच'अहो' इति सम्बोधने (दुक्खोहुत्ति) दुःखहेतुरेव संसारो जन्मादिनिबन्धनत्वात्तस्य, यत्र-यस्मिन्, गतिचतुष्टयात्मके संसारे, क्लिश्यन्तिबाधामनुभवन्ति, जन्मादिदुःखैरेवेति गम्यते, जन्तवः-प्राणिनः, इह चदुःखानुभवाधारत्वेन संसारस्य दुःख हेतुत्वमिति भावः। तथा- 'खेत्त' इत्यादिनेष्टवियोगोऽशरणत्वं च संसारान्निर्वेदहेतुरुक्तः, तथा-किम्पाकःवृक्षविशेषः, तस्य फलान्यतीव सुस्वादानि। अनेन चोपसंहारसूत्रेणोदाहरणान्तरद्वारेण भोगदुरन्ततैव निर्वेदहेतुरुक्ता। इति सूत्रचतुष्यावयवार्थः / इत्थं निर्वेदहेतुमभिधाय दृष्टान्तद्वयोपन्यासतः स्वाभिप्रायमेव प्रकटयितुमाह अद्धाणं जो महंतं तु, अपाहेजो पवजई। गच्छंतो से दुही होइ,छुहातण्हाइपीडिओ // 18 //
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________________ मियापुत्त 265 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मियापुत्त एवं धम्म अकाऊणं, जो गच्छइ परं भवं / गच्छंतो से दुही होई, वाहिरोगेहिँ पीडिओ।।१६।। अद्धाणं जो महंतं तु, सपाहेज्जो पवजई। गच्छंतो से सुही होइ,छुहातण्हाविवजिओ / / 20 / / एवं धम्म पि काऊणं, जो गच्छइ परं भवं / गच्छंते से सुही होई, अप्पकम्मे अवेयणं / / 21 / / जहा गेहे पलित्तंमि, तसस गेहेस्स जो पहू। सारभंडाणि नीणेह, असारं अवउज्झइ।।२२।। एवं लोए पलित्तंमि, जराए मरणेण य। अप्पाणं तारइस्सामि, तुब्भेहिं अणुमनिओ / / 23 / / सूत्रषट्कं प्रकटार्थमेव, केवलमत्र प्रथमसूत्रेण दृष्टानत उक्तः, अत्र च अध्वानम्-मार्गम्, पथि साधु पायेयम् सम्बलक तद्यस्वाविद्यमान सोऽपाथेयः, प्रपद्यते-अङ्गीकुरुते। क्षुत्तृष्णापीडितत्वं चेह दुःखित्वभवने हेतुः। द्वितीयसूत्रेण दान्तिकोपदर्शने, व्याधिरोगपीडितत्व चात्र दुःखित्वभवने निमित्तं, दारिद्र्यादिपीडोपलक्षणं चैतत् / उत्तरसूत्रद्वयेन | चैतत्सूत्रद्वयोक्तस्यैवाऽर्थस्य व्यतिरेक उक्तः, तत्र सुखित्वे हेतु:-क्षुत तृष्णाविवर्जितत्वमुक्तम् / धर्मपापविरतिरूपम्, अपिः-पूरणे, कृत्वाविधाय, गच्छन्नुपलक्षणत्वागतश्च, सः इति-धर्मकर्ता, प्रक्रमात्पाथयोमधर्मसहितः सुखी भवति। सुखित्त्वे चाल्पकर्मत्वं हेतुरवेदनत्वं च / अत्र च प्रस्तावात्कर्म पाप वेदना चासातरूपा गृह्यते, अनेन धर्मकर्मकरणाकरणयोर्गणदोषदर्शनाद्धर्मकरणाभिप्रायः प्रकटितः / 'जहा' इत्यादिना च सूत्रद्वयेन तमेव दृढयति / अत्र च यथा सारभाण्डानिमहामूल्यवस्त्रादीनि, (णीणेइ त्ति) निष्कायति। असारम् -जरद्वस्त्रादि, (अवउज्झइ त्ति) अपाहतित्यजति / एचम् लोके-जगति, (पलित्तमि त्ति) प्रदीप्ते अत्याकुलीकृते, आत्मानम्-सारभाण्डतुल्यम्, तारयिष्यामिजरामरणप्रदीप्तलोकपार नेष्यामि, धर्मकरणेनेति प्रक्रमः, असारं तु कामभोगादित्यक्ष्यामि इति भावः / अनेन धर्मकरणे विलम्बासहिष्णुत्वमुक्तम्। युष्माभिरिति द्वित्वेऽपि पूज्यत्वाद् बहुवचनम्, (अणुमन्निओ त्ति) अनुमतः अभ्यनुज्ञातः। इति सूत्रषट्कावयवार्थः / एवं च तेनोक्तेतं बिंतऽम्मापियरो, सामत्रं पुत्त ! दुचरं / गुणाणं तु सहस्साणि, धारेयव्वाइँ मिक्खुणा / / 24 / / समया सव्वभूएसु, सत्तुमित्तेसु वा जगे। पाणाइवायविरई, जावजीवा य दुक्करं / / 25|| निचकालप्पमत्तेणं, मुसावायविवज्जणं / भासियव्वं हियं सच्चं, निच्चाउत्तेण दुक्करं / / 26 / / दंतसोहणमाइस्स, अदत्तस्स विवजणं। अणवजेसणिज्जस्स, गिण्हणा अवि दुक्करं / / 27 / / विरई अबंभचेरस्स, कामभोगरसन्नुणा। उग्गं महव्वयं बंभ, धारेयव्वं सुदुक्करं // 28 // धणधन्नपेसवग्गेसु, परिग्गहविवज्जणं / सव्वारंभपरिचागो, निम्ममत्तं सुदुक्करं / / 26 / / चउविहेऽवि आहारे, राईभोयणवञ्जणा। संनिहीसंचओ चेव, वजेयव्वो सुदुक्करं ||30|| छुहा तण्हा य सीउण्हं,दंसा मसगा य वेयणा। अक्कोसा दुक्खसिजा य, तणफासा जल्लमेव य / / 31 / / तालणा तज्जणा चेव, वहबंधपरीसहा। दुक्खं भिक्खायरिया, जायणा य अलाभ्या॥३२॥ कावोया जा इमा वित्ती, केसलोओ अदारुणो। दुक्खं बंभव्वयं घोर, धारे अमहप्पणो // 33 // सुहोइओ तुमं पुत्ता, सुकुमालो सुमजिओ। न हुऽसी पभू तुमं पुत्ता ! सामन्नमणुपालिया // 3 // जावज्जीवमविस्सामो, गुणाणं तु महन्मरो। गरुओ लोहभारु व्य, जो पुत्ता! होइ दुव्वहो // 35 / / आगासे गंगसोउ व्व, पडिसोउ व्व दुत्तरे। बाहाहिं सागरो चेव, तरियव्वौ (य) गुणोयही / / 36 / / वालुयाकवले चेव, निरस्साए उ संजमे। असिधारागमणं चेव, दुक्करं चरिऊं तवो // 37 // अहीवेगंतदिट्ठीए, चरित्ते पुत्त ! दुचरे। जवा लोहमया चेव, चावेयव्वा सुदुक्करं / / 38 / / जहा अग्गिसिहा दित्ता, पाउं होइ सुदुक्करं / तह दुक्करं करेउं जे, तारुण्णे समणत्तणं ||36 / / जहा दुक्खं करेउं जे, होइ वायस्स कुत्थलो। तहा दुक्खं करेउं जे, कीवेणं समणत्तणं / / 4 / / जहा तुलाए तोलउं, दुक्करं मंदरो गिरी। तहा णिहुअ-णीसंकं, दुक्करं समणत्तणं // 41 / / जहा भुयाहिं तरिउं, दुक्करं रयणाऽऽयरो। तहा अगुवसंतेणं, दुक्करं दमसायरो।।१२।। मुंज माणुस्सए भोए, पंचलक्खणए तुमं / मुत्तभोगी तओ जाया ! पच्छा धम्म चरिस्ससि // 43 // सूत्रविंशतिः सुगमैव / नवरम् (तमिति) बलश्रियम् मृगापुत्रापरनामक युवराजम, (विति त्ति) ब्रूतः-अभिधत्तः, (अम्मापियरो त्ति) अम्बापितरौ आमण्यं पुत्र! दुश्चर, यतस्तत्र गुणानाम् श्रामण्योपकारकाणं शीलाङ्गरूपाणां सहस्त्राणि, धारयितव्यानि-आत्मनि स्थापयितव्यानि, प्राक्तुशब्दस्यैवकारार्थस्येह सम्बन्धाद्धारयितव्यान्येव व्रतग्रहण इति गम्यते। भिक्षुणा-भिक्षणशीलेन सता, पठ्यते च-(भिक्खुणो त्ति) भिक्षोः सम्बनिधनां गुणानामिति योगः / तथा समता-रागद्वेषाविधानतस्तुल्यता, सर्वभूतेषुसमस्तजन्तुषु, उदासीनेष्वितिगम्यते,शत्रुमित्रेषुवा-अपकार्युपकारिषु, जगति-लोके अनेन सामायिकमुक्तम्, तथा-प्राणातिपातविरतिः पथमव्रतरूपा, (जावजीवत्ति) यावद्धीवम्-दुष्करम् दुरनचरमेत
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________________ मियापुत्त 266 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मियापुत्त दिति शेषः / नित्यकालप्रमत्तेनेत्यप्रमत्तग्रहणं निद्रादिप्रमादवशगो हि गृपाऽपि भापतति नित्याऽऽयुक्तेन-सततोपयुक्तेन, अनुपयुक्तस्याराथाऽपि भाषणसंभवाद्। एतच दुष्कर, यच्चान्वयव्यतिरेकाभ्यामकस्या- | प्यर्थस्याभिधानं तत्स्पष्टतार्थमदुष्टमेवेत्येवं सर्वत्र भावनीयम् / अनेन द्वितीयव्रतदुष्करत्वमभिहितम्। (दंतसोहणमादिरस त्ति) मकारोऽलाअधिकः, अपिशब्दस्य गम्यमानत्वात दन्तशोधनादेरपि अतितुच्छस्थरममन्यस्य, तथा अनवद्यैषणीयस्य दत्तस्यापीति गम्यते। (गिण्हण विगहा मिति तृतीयव्रतदुष्करत्वोक्तिः / (कामभोगरराण्णुण त्ति) कामभामा:- उक्तपास्तेषां रसः आस्वादः कामभोगरसः / यद्वा-रसाः | सहारादयः, ततः-कामभोगाश्च रसाश्च कामभोगरसास्तज्ज्ञेन, तदज्ञमहिलालनकामासद्विषयोऽभिलाष एव न भवेत्।तथा च-सुकरत्वमपि स्पादियाशयेनेवभिधानम्, अनेन चतुर्थव्रतदुष्करत्वमुक्तम्। परिग्रहः - सत्सु स्वीकाररतद्विवर्जनम्, तथा सर्वेनिरवशेषा, ये आरम्भाः-द्रव्योत्पादनव्यापाराः तत्परित्यागः, अनेन निराकाङ्गत्वमुक्तम : निर्ममत्वं च, गन्यमानत्याचस्य, सर्वत्र मभेलि बुद्धिपरिहारः, अनेन पक्षमहाव्रत- / दुरुरिताका : संनिधीयते नरकादिष्वनेनात्मेति संनिधिः, घृतादेरुचितकालातिक्रमेण स्थापनं स चाऽसौ सशयश्च संनिधिसञ्चयः स चैव कर्जयितव्यः इत्येतत् सुदुष्करम् / अनेन षष्ठव्रतदुष्करत्वमुक्तम. / दिवागृहीतदिवोभुक्तादिभङ्गचतुष्टयरूपत्वात्तस्य / 'छुहे' त्यादिना / परीपहाभिधानम, अत्र च दंशमशकदवेदना तद्भक्षणोत्थदुःखानुभव मा. दुःखशय्या चविषभोन्नतत्वादिना दुःखहेतुर्वसतिः, ताडना करादि- | धराहननम्, तर्जना-अङ्गुलिभ्रमणभूत्क्षेपादिरूपा, वधश्चलकुटादिप्रहारा, बन्धश्चमयूरबन्धादिः, तावेव परीषही वधनबन्धपरीषही, पाश्चा-प्रार्थना, चकारोऽनुक्ताशेषपरीषहसमुच्चयार्थः / दुःखशब्दश्चेह क्षुददुःखमित्यादिप्रत्येकं योजनीयः, इह च बन्धताडने बधपरीपहेऽन्तर्भवतः। तर्जना-आक्रोशे, भिक्षाचर्या च भेदोपादानं च व्युत्पत्त्यर्थमिति भावनीयम, कपोताः-पक्षिविशेषास्तेषामियम् कापोती, येयमवृत्तिः-निर्वहणोपायः, यथा हि-ते नित्यशङ्किताः कणकीटकादिग्रहणे प्रवर्तन्ते, एवं भिक्षुरप्येषणादोषशङ्ख्येव भिक्षादी प्रवर्तते, सा च दुरनुचरत्वेन दारयति कातरमनासीति दारुणेत्युत्तरेणु योगः, अभिधेयवशाच लिङ्गविपरिणामः, उपलक्षणं चैतत्समस्तोत्तरगुणानामिति / यह ब्रहाव्रतस्य पुनर्धरत्वाभिधानं तदस्यातिदुष्करत्वख्यापनार्थम् / उपसंहारमाह-सुखम् -सातम्, तस्योचितः-योग्यः, सुखो चितः, सुकुमारः-अकठिनदेहः, सुमजितः-सुष्ठस्त्रपितः, सकलनेपथ्योपलक्षण वेतत्, इह च सुमजितत्वं सुकुमारत्वे हेतुः, उभयं चैतत्सुखोचितत्वे / अतश्च ('न हु सित्ति) नैत, असि-भवसि, प्रभुः-समर्थः, श्रामाण्यमअनन्तरादितगुणरूपम्, (अणुपालेउ ति) अनुपालयितुम, इह च सुखोचितत्वाभिधानमनीदृशो हीदृशं दुःखमपि न दुःखमिति मन्यते। पुनरप्रभुत्वमेवोदाहरणैः समर्थयितुमाह - अविश्रामः-यत्रोद्धतेन न विश्वम्यते गुणानाम्-यतिगुणानाम्, तुः-पूरणे, महाभरः-महासभूहो, गुरुको लोहभार इव यो दुर्वहः स वोढव्य इति शेषः / त्वं तु सुखोचित इत्यतो न प्रभुरसीत्युत्तरत्रापि योजनीयम् ! आकाशे गङ्गाश्रोतावद दुन्तर इति योज्यते, लोकरूढ्या चैतदुक्तम्, तथा प्रतिश्रोतोवत् यथा प्रतीप जलप्रवाहो दुरतरः-दुःखेन तीर्यत इति, बाहुभ्याम् - (साम्रो चेव त्ति) सागरवच दुस्तरो यः सः, तरितव्यः-पारगमनायावगाहयितव्यः, कोऽसौ ? गुणाः-ज्ञानादयस्ते उदधिरिव गुणोदधिः, कायवाभनोनियन्त्रणा चात्र दुष्करत्वे हेतुः, निरास्वादः-नीरसो विषयगृद्धानां वैरस्यहेतुत्वात (अहीत्यादि) अहिरिव एकोऽन्तो-निश्चयो यस्याः सा तथा, सा चासौ दृष्टिश्चैकान्तदृष्टिस्तया-अनन्याक्षिप्तया, अहिपक्षेदृशा, अन्यत्र तु बुद्ध्योपलक्षितम्. एकान्तदृष्टिकं वा चारित्रं दुश्चरम, विषयेभ्यो मनसो दुर्निवारतवादिति भावः, (जवा लोहमया चेव, त्ति) एवकारस्योपमार्थत्वाद्यवा लोहमया इव चर्वयितव्याः, किमुक्तं भवति ? लोहमययवचर्वणवत्सुदुष्करं चारित्रम् / 'अग्निशिखा' -अग्निज्वालादीप्ता इत्युजवला ज्वाला कराला वा, द्वितीयार्थे वाल प्रथमा, ततो यथाऽग्निशिखा दीप्तां पातु सुदुष्कर, नृभिरिति गम्यते। यदिवालिङ्गव्यत्ययात् सर्वधात्वर्थत्वाच करोतः सुदुष्करा-सुदुःशका, यथाऽग्निशिख दीप्ता पातु भवतीति योगः। एवमुत्तरत्रापि भावना। 'जे' इति निपातः सर्वत्र पूरणे, 'कोत्थल' इह वस्त्रकम्बलादिमयो गृह्यते चर्मभयो हि सुखेनैव भियतेति, 'क्लीवेन' निःसत्त्वेन निभृतं निःशङ्कम् इत्यत्र निभृतम्-निश्चलं विष्याभिलाषादिभिरक्षोभ्यम् 'निःशडम्' - शरीरादिनिरपेक्ष शङ्कारख्यसम्यक्त-वातिचारविरहितं वा। अनुपशान्तेन-उत्कटकषायेण, इह च दमसागर इत्यनेन प्राधान्यख्यापनार्थ केवलस्यैवोपशमस्य समुद्रोपमाभिधानम् पूर्वत्र तु गुणोदधिरित्यनेन निःशेषगुणानामिति न पौनरुक्तयम् / यतश्चैवम्तारुण्ये दुष्करा प्रव्रज्या अतो भुसवेत्यादिना पितरौ कृत्योपदेश बूतः, भुज्यन्त इति भोगास्तान्, पञ्चलक्षणकान, शब्दादिपञ्चकस्वारूपान्. ततः इति-भोगभुक्तेरनन्तरम्, (जाय त्ति) जात ! पुत्र ! पश्चादितिवार्द्धक्य, (चरिस्ससित्ति) चरेः / इति विशतिसूत्रावयवार्थः // 24(0)43 // सम्प्रति तद्वचनानन्तरं यन्मृगापुत्र उक्तवास्तदाहतं बिंतऽम्मापियरो, एवमेयं जहा फुडं। इह लोगे निप्पिवासस्स, नऽत्थि किं चि वि दुक्करं / / 44|| सारीरमाणसाचेव, वेयणाउ अणंतसो। मए सोढाइँ भीमाई, असई दुक्खभयाणि य // 45 // जरामरणकंतारो चाउरते भयागरे / मया सोढाणि भीयाई, जम्माई मरणाणि य॥४६|| जहेहं अगणी उण्हो, इत्तोऽणंतगुणो तहिं। नरएसु वेयणा उण्हा, अस्साया वेइया मए / / 47 / / जहा इहं इमं सीयं, इत्तोऽणंतगुणं तहिं। नरएसु वेयणा सीया, अस्साया वेइया मए।।४८|| कंदंतो कंदुकुभीसु, उद्धपाओ अहोसिरो। हुयासणो जलंतंभि पक्कपुव्वो अणंतसो।।४६।।
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________________ मियापुत्त 267 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मियापुत्त महादवऽग्गिसंकासे, मरुभि बइरबालुए। कालंबवालुणाए उ, दड्डपुव्वो अणंतसो / / 5 / / रसंतो कंदुकुंभीसु, उर्दू बद्धो अबंधवो। करवत्तकरकयाईहिं, छिन्नपुच्वो अणंतसो ! // 51 / / अइतिक्खकंटगाइण्णे, तुंगे सिंबलिपायवे / खेवियं पासबद्धणं, कड्डोकड्ढाहिँ दुक्करं / / 52 / / महाजंतेसु उच्छू वा, आरसंतो सुभेरवं / पीलिओ मि सकम्भेहि,पावकम्मो अणंतसो।।५३|| कूवंतो कोलसुणएहिं, सामेहिं सबलेहि य! पाडिओ फालिओ छिन्नो, विप्फूरंतो अणेगसो॥५४॥ असीहिँ अयसिवण्णेहिं, भल्लीहिं पट्टिसेहिय। छिन्नो भिन्नो विभिन्नो य, उववन्नो पावकम्मुणा // 55 / / अवसो लोहरहे जुत्ता, जलंते समिलाजुए। चोइओ तुत्तजुत्तेहिं, रुज्झो वा जह पाडिओ।५६|| हुआसणे जलंतंमि, चिआसु महिसो विव। दद्धो एक्को अ अवसो, पावकम्मे हिँ पाविओ॥५७|| बला संडासतुंडे हिं, लोहतुडेहिं पक्खिहिं। बिलुत्तो बिलवतोऽहं, ढंकगिद्धेहिँऽणंतसो // 58|| तण्हाकिल्लंतो धावंतो, पत्तो वेयरणिं नई। जलं पाहंति चिंतंतो, खुरधाराहिं विवाइओ / / 5 / / उण्हाभितत्तो संपत्तो, असिपत्तं महावणं / असिपत्तेहिं पडते हिं, छिन्नपुवो अणेगसो // 60 / / मुग्गरेहिं भुसुंढीहिं, सूले हिं मुसलेहि य। गया संभग्गगत्तेहिं, पत्तं दुक्खं अणंतसो // 61 / / खुरेहिं तिक्खधाराहिं, छुरियाहिं कप्पणीहिय। कप्पिओ फालिओ छिन्नो, उकित्तो अ अणेगसो // 6 // पासेहिं कूडजालेहिं, मिओ वा अवसो अहं / वाहिओ बद्धरुद्धो अ, विवसो चेव विवाइओ।।६३|| गलेहिं मगरजालेहिं, वच्छो वा अवसो अहं। उल्लिओ फालिओ गहिओ,मारिओ अ अणंतसो॥६॥ विदंसएहिं जालेहिं, लिप्पाहिं सउणो विव। गहिओ लग्गो अ बद्धो अ, मारिओ अ अणंतसो॥६५॥ कुहाडपरसुमाईहिं, वड्डईहिं दुमो विव। कुट्टिओ फालिओ छिन्नो, तच्छिओ अ अणंतसो॥६६।। चवेडमुट्ठिमाईहिं, कुमारेहि अयं पिव / ताडिओ कुट्टिओ भिन्नो, चुण्णिओ अ अणंतसो॥६७।। तत्ताई तंबलोहाइं, तउआई सीसगाणि य। पाइओ कलकलंताई, आरसंतो सुभरेवं // 68 / / तुहप्पियाई मंसाई, खंडाइं सुल्लगाणि य। पाइओ कलकलंताई, आरसंतो सुभरेवं / / 68 / / तुहप्पियाई, मंसाई, खंडाइं सुल्लगाणि य। खाविओ मि समंसाइं, अग्गिवण्णाइँऽणेगसो।।६।। तुहं पिया सुरा सीहु, मेरओ अ महूणि य। पजिओ मिजलंतीओ, वसाओ रुहिराणि य॥७०॥ निचं भीएण तत्थेणं, दुहिएणं बहिएण य / परमा दुहसंबद्धा, वेयणा वेइया मए / / 71 / / तिव्वचंडप्पगाढाओ, घोराओ अइदुस्सहा। महब्भयाओ भीमाओ, नरएसुं वेइया मए॥७२।। जारिसा माणुसे लोए, ताया दीसंति वेयणा। इत्तो अणंतगुणिया, नरएसुं दुक्खवेयणा / / 73 // सव्वभवेसु अस्साया, वेइया मए। निमिसंतरमित्तं पि, साया नऽस्थि वेयणा / / 74|| सूत्राण्येकत्रिंशत् प्रतीतान्येव / नवरम्, तद्-अनन्तरो क्रम. (बिंति) ब्रुवन्तौ-अभिदधती, अम्बापितरौ, प्रक्रमान्मृगापुत्र आह, यथा-एवमित्यादि, पठ्यतेच- 'सो वेअम्मापियरो ! ति स्पष्टमेव। नवरमिव अम्बापितरावित्यामन्त्रणपद, पठन्ति च-(तो वेंतऽम्मापियरो त्ति) (विति त्ति) वचनव्यत्ययात ततो ब्रूते अम्बापितरौ मृगापुत्र इति प्रक्रमः, (एवमिति) यथोक्त भवद्भ्याम, तथा-'एतत्' प्रव्रज्यादुष्करत्वं यथा स्फुटम् सत्यतामनतिक्रान्त-मवितथमिति यावत्, तथाऽपि इहलोके निष्पिपा. सस्य-निःस्पृहस्य, इहलोकशब्देन च 'तात्स्थ्यात्तापदेश' इति कृत्या ऐहलौकिकाः स्वजनधनसम्बन्धादयो गृह्यन्ते, नास्ति-न विद्यते, किञ्चित् अतिकष्टमपि शुभानुष्ठानभिति गम्यते / अपिः-संभावने, दुष्करम्-दुरनुष्ठेयम, भोगादिस्पृहायावेवास्य दुष्करत्वादिति भावः / निःस्पृहताहेतुमाह-शारीरेत्यादिना, तत्राप्याद्यसूत्रद्वयेन सामान्येन संसारस्य दुःखरूपत्वमुक्तम्, इह च शरीरमानसयोर्भवाः शारीरमानस्यो वेदनाः प्रस्तावादसातरूपाः, (दुक्खभयाणि य ति) दुःखोत्पादकानि राजविड्वरादिजनितानि, (भयानि) दुःखभयानि, जरामरणाभ्यामतिगहनतया कान्तारंजरामरणकान्तरं तस्मिश्चत्वारो-देवादिभवा अन्ताअवयवा यस्यासौ चतुरन्तः-संसारः, तत्र सोढानितदुत्थवेदनासहनेनानुभूतानि. भीमानि-अतिदुःखजनकत्वेन रौद्राणि शारीरमानस्यो वेदना यत्रोत्कृष्टाः सोढा यथेत्यादिभिः सूत्रः, तदाह-यथा-इह मनुष्यलोकेऽग्निरुष्णोऽनुभूयते अतः-इत्येवमनुभूयमानादनन्तगुणः, (तहिं ति) तेषु, येष्वहमुत्पन्न इति भावः, तत्र च बादरोग्रभावात्पृथिव्या एव तथाविधः स्पर्श इति गम्यते, ततश्चोष्णानुभवात्मकत्वेन, असातःदुःखरूपा, वदिता मया। पठन्ति च-(इत्तोऽणतगुणा तर्हि ति) अत्र च अतःइहत्याग्नेरनन्तगुणा नरकेषूष्णा वेदना वेदिता मयेति योज्यम्॥ तथा इदम्यदनुभूयते. इह-मनुष्यलोके शीतम्-तच माधादिसंभव हिमकणानुषक्तमात्यन्तिकं परिगृह्यते, इहापि पठन्ति- 'एत्तोऽणतगुणा तहिं ति' प्राग्वत्। (कंदुकुम्भीसु) पाकभाजनविशेषासु लोहादिमयीषु, हुताशने अग्नौ देवमायाकृते, महादवग्निना संकाश:-सदृशः, अतिदाहकतया महादवानिसङ्काशस्तस्मिन्, इह चान्य स्य दाहकरस्यासंभवादित्यमुपमाभिधानम्, अन्यथेहत्याग्नेरनन्तगुण एव तत्रोष्णपृथिव्यनुभाव उक्तः। मरौ इति
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________________ मियापुत्त 268 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मियापुत्त मरुवालुकानिवह इव, तात्स्थ्यात्तद्मपदेशसंभवादन्तभूत वार्थत्वाचात एव वज्रवालुकानदीलसम्बन्धिपुलिनमपि वज्रवालुकाः तत्र, यद्वावज्रवद्वालुका यस्मिन् स तथा तस्मिन्नरकप्रदेश इति गम्यते, कदम्बवालुकायां च तथैव कदम्बवालुकानदीपुलिने च महादवाग्रिसङ्काश इति योज्यते / ऊर्द्धम्-उपरि वृक्षशाखादी बद्धः-नियन्त्रितो. माऽयमितो नङ्गीदित्यबान्धव इति च तत्राशरणतामाह, करपत्रम् प्रतीतम्। क्रकचमपि तद्विशेष एव, (खेदियं ति) खिन्नम् खेदः, क्लेशोऽनुभूतः, क्षिपितं वा पापमिति गम्यते. (कड्डोकड्ढाहिं ति) कर्षणापकर्षणैः परमाधार्मिककृतैः, दुष्करम् इति-दुस्सहम्। (उच्छूवत्ति) वाशब्दः उपमार्थे, तत इक्षुरिव, आरसन्-आक्रन्दन, स्वकर्मभिः-हिंसाधुपार्जितैः ज्ञानावरणादिभिः, पापकर्मा-पापानुष्ठानः / (कूवंतो त्ति) कूजन. (कोलसुणएहिं ति) सूकरस्वरूपधारिभिः श्यामैः शबलैश्च परमाधार्मिकविशेषैः, पातितो भुवि, फाटितो जीर्णवस्त्रवत्, छिन्नो वृक्षवदुभयदंष्ट्रादिभिरितिगम्यते / विस्फुरन्-इतस्ततश्चलन् (अरसाहिं ति) प्रहरणविशेषः, पठ्यते च(असीहिं ति) असिभिः-खड्नेः, अत एव-(अतसीति) अतसीपुष्पम्, तद्वर्णाभिःकृष्णाभिः, पट्टिशैश्च-प्रहरणविशेषः, छिन्न-द्विधाकृतः, भिन्नः-विदारितः, विभिन्नः-सूक्ष्मखण्डीकृतः / यद्वा-छिन्नः-ऊर्ध्वम्, भिन्नः-तिर्यग, विभिन्नः - विविधप्रकारैर्ध्वम्, तिर्यक् च / अवतीर्णोनरक इति गम्यते / पापकर्मणेति हेतुदर्शन पापानुष्ठानपरिहार्यताख्यापनार्थम् / लोहरथे-लोहमयशकटे, (जुत्तो त्ति) युजेरन्त वितण्यर्थत्वाद्योजितः परमाधार्मिकैरिति सर्वत्र गम्यते। ज्वलतिदीप्यमाने कदाचिहाहभीत्या ततो नश्येदपीत्याह-समिलोपलक्षित युग यस्मिन् स तथा, तत्र समिलायुते वा, पाठान्तर-तश्च-ज्वलत्समिलायुगे. (चोइओ त्ति) प्रेरितः तोत्रयोक्त्रैः-प्राजनकबन्धनविशेषैर्मर्माघट्टनाहननाभ्यामिति गम्यते, 'रोज्झः-पशुविशेषः, वा समुच्चये भिन्नक्रमः, यथा-औपम्ये, ततो रोज्झवत्पातितो वा लकुटादिपिट्टनेनेति गम्यते, हुताशने ज्वलतिक्केत्याह-चितासुपरमाधार्मिकनिर्मितेन्धसञ्चयरूपासु, (महिसो विव त्ति) "पिव मिव विव वा इवार्थे'' इति वचनात्, महिष इव, दग्धः-भस्मसात्कृतः, पक्वः-भटित्रीकृतः, (पावितो त्ति) पापमस्यास्तीति भूम्नि मत्वर्थीयष्ठक, पापिकः / बलात्-हठात्, सदशः-प्रतीतः, तदाकृतीनि तुण्डानि मुखानि येषां ते संदंशतुण्डास्तैः, तथा-लोहवनिष्ठरतया तुण्डानि येषां ते तैलॊहतुण्डैः (पक्खिहिं ति) पक्षिभिर्डङ्कगृद्धैरिति योगः, एते च वैक्रिया एव, तत्र तिरश्चामभावात्, विलुप्तः-विविध छिन्नः, तस्य चैवं कदीमानस्य तृडुत्पत्तौ का वार्त्तत्याह-तृष्णया क्लान्तो ग्लानिमुपगतस्तृष्णाक्लान्तः, (पाहंतीति) पास्यातीति चिन्तयन, (खुरधाराहिं ति) क्षुरधाराभिरतिच्छेदकतया वैतरणीजलोर्मिभिरिति शेषः, विपाटितः, पाठान्तरतश्च 'विपादितः' व्यापादित इत्यर्थः, उष्णेन-वज्रवालुकादिसम्बन्धिना तापेन, आभि-आभिमुख्येन तप्त उष्णाभितप्तः, संप्राप्तः, असयः-खगाः, तद्भेदकतया पत्राणि पर्णानि यरिंमस्तदसिपत्रम् / मुद्ररादिभिः-आयुधविशेषैः, गता-नष्टा, आशा-परित्राणगोचरमनारथात्मिका यत्र तदताशं यथा भवत्येवम्, (भग्गगत्तेहिं ति) भग्गनात्रेण सता प्राप्तं दुःखमिति योगः, कल्पितः वस्त्रवत् खण्डितः कल्पनीभिः, पाटितः-द्विधाकृतः, ऊर्ध्व छुरिकाभिः, छिन्नः-खण्डितः क्षुरैरिति / पश्चानुपूर्व्या सम्बन्धः, इत्थं च-(उक्कतो य त्ति) उत्क्रान्तश्चायुःक्षये मृतश्चेत्यर्थः, पाठान्तरतो वोत्कृतः त्वगपनयनेन प्रत्येक या क्षुरादिभिः कल्पितादीनां सम्बन्धः / पाशैः-कूटजालैः प्रतीतैरेव बन्धनविशेषैः, अवश:-परपशः, वाहितः-विप्रलब्धः, पठ्यते च-(गहितो त्ति) गृहीतो बद्धो बन्धनेन रुद्धो बहिःप्रचारनिषेधनेन, अनयोर्विशेषणसमासः (विवाइतो ति) विवादितो विनाशित इत्यर्थः, तथा-गलैः-बडिशैः. मकरैः-मकराकारानुकारिभिः, परमाधार्मिकैः, जालैश्च तद्विरचितौर्विक्रियैः, अनयोर्द्वन्द्वः-समूहवाची वा जालशब्दः, तत्पुरुषश्च समासः। तथा-(उल्लिउत्ति) आर्षत्वाद् उल्लिखितो गलैः, पाटितो मकरैहीतश्च जालैः / यद्वा-गृहीतोऽपि मकरजालैरेव, मारितश्च सर्वैरपि, विशेषेण दशन्ती विदंशकाः श्येनादयस्तैर्जालैः-तथाविधबन्धनैः (लेप्पाहिं ति) लेपैर्वज्रलेपादिभिः श्लेषद्रव्यैः (सउणो विवत्ति) शकुन इव पक्षीव गृहीतो विदेशकैलिश्च लनश्च, श्लिष्टो-लेपद्रव्यै बद्धः तैर्जालैश्च, मारितश्च सर्वरपि, कुट्टितः सूक्ष्मखण्डीकृतः पाटितश्छिन्नश्च प्राग्वत, तक्षितश्च त्वगपनयनतो द्रुम इवेति सर्वत्रयोज्यम्। (चवेडमुट्ठिमाईहिं ति) चपेटामुष्ट्यादिभिः, प्रतीतैरेव, कुमारैः अयस्कारैः (अयं पि व ति) अय इव घनादिभिरिति गम्यते / ताडितः आहतः, कुट्टितः इह छिन्नः, भिन्नः खण्डीकृतः, चूर्णितः श्लक्ष्णीकृतः प्रकमात्परमाधार्मिकैः, तप्तताम्रादीनि वैक्रियाणि पृथिव्यनुभाव-भूतानि वा (कलकलंत त्ति) अतिकायतः कलकलशब्दं कुर्वन्ति। तव प्रयाणि मांसानि खण्डरूपाणि (सोल्लगाणि त्ति) भडित्रीकृतानि स्मारयित्वेति शेषः / स्वमांसानिमच्छरीरादेवोत्कृत्योत्कृत्य ढौकितानि, अग्निवर्णानि-अतितप्ततयाऽग्निच्छायानि, सुरादीनि-मद्यविशेषरूपाणि, इहापि स्मारयित्वेति शेषः (पजितो मि त्ति) पायितोऽस्सि (जलतीओ त्ति) ज्वलन्तीरिव ज्वलन्तीरत्युष्णतया वशा रुधिराणि च, ज्वलन्तीति लिङ्गविपरिणामेन सम्बन्धनीयम् / (णिचमित्यादि) नरकवक्तव्यतोपसंहर्तृसूत्रत्रयम्, अच च भीतेन उत्पन्नसाध्वसेन, तथा त्रसी उद्वेगे, त्रस्तेन उद्विग्रेनात एव दुःखितेन, संजातविविधदुःखेन, व्यथितेन च कम्पमानसकलाङ्गो-पाङ्गतया चलितेन, दुःखसंबद्धेति वेदना विशेषणं सुखसम्बन्धिन्या अपि वेदनायाः सम्भवाद, वेदिते ति चानुभूता, तीव्रा अनुभागतोऽत एव चण्डाः-उत्कटः प्रगाढा:-गुरुस्थितिकास्तत एव घोराः-रौद्राः अतिदुस्सहाः अत्यन्तदुरध्यासास्तत एव च महद् भयं यकाभ्यस्ता महाभयाः / पठ्यते च. महालयाः महत्यः, भीमाः-श्रूयमाणा अपि भयप्रदाः, एकार्थिकानि वैतान्यत्यन्तभयोत्पादनायोक्तानि, इह च वेदना इति प्रकमः / / कथं पुनस्तस्यास्तीवादिरूषत्वमित्याशय 'जारिसे त्यादिना इहत्यवेदनापेक्षया नरकदुःखवेदनाया अनन्तगुणत्वमाह, (वेयण त्ति) प्रक्रमाद् दुःखवेदना। न केवल नरक एव दुःखवेदना मयाऽनुभूता किन्तु-सर्वास्वपि गतिष्विति पुनर्निगमनद्वारेणाह-'सव्वे' त्यादिना, इह च असाताःदुःखरूपा, निमेषः-अक्षिनिमीलनम् तस्यान्तरं व्यवधान कालेनासी भूत्वा पुनर्भवति तन्मात्रमपि-तत्परिणमपि कालमिति शेषः(यद् इति)
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________________ मियापुत्त 266 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मियापुत्त यस्मात्, साता सुखरूपा नास्ति वेदना, तत्त्वतो वैषायिकसुणमसुखमेव, ईर्ष्याानेकदुःखानुविद्धत्वाद्विपाकदारुणत्वाच। सर्वस्य चास्य प्रकरणस्यायमाशयः-य एवमहं निमेषान्तरमात्रमपि काल न सुखं लब्धवान् सक्थं तत्त्वतः सुखोचितःसुकुमारो वेति शक्यते वक्तुम् ? येन च नरकष्वत्युष्णशीतादयो महावेदना अनेकशः सोढास्तस्य महाव्रतपालनं क्षुदादिसहनं वा कथमिव वाधाविधायि ? तत्त्वतरन्तस्य परमानन्दहेतुत्वात्, तत्प्रव्रज्यैव मया प्रतिपत्तव्येत्येकत्रिंशत्सूत्रावयवार्थः / तत्रैवमुक्त्वोपरते - तं वितऽम्मापियरो, छंदेणं पुत्त ! पव्वया। नवरं पुण सामण्णे, दुक्खं निप्पडिकम्मया // 75|| तम-मृगापुत्र बूतोऽम्बायितरौ, छन्दः-अभिप्रायस्तेन स्वकीयेनेति गम्यते, किमुक्तं भवति? यथाऽभिरुचितं पुत्र ! प्रव्रज-प्रव्रजितो भव, 'नवरम्' इति-केवलम, पुनः विशेषणे, श्रामण्ये- श्रमणभावे, दुःखम् - दुःखहेतुः, निष्प्रतिकर्मता कथञ्चिद्रोगोत्पत्तौ चिकित्साऽकरणारूपा इति सूत्रार्थः। इत्थं जनकाभ्यामुक्ते - सो बिंतऽम्मापियरो, एवमेयं जहा फुडं। परिकम्मं को कुणई, अरण्णे मिगपक्खिणं? ||76 / / एगभूओ अरण्णे या, जहा ऊ चरई मिगो / एवं धम्म चरिस्सामि, संजमेण तवेण य // 77 / / जया मिगस्स आयंको, महारणमि जायई। अच्छंतं रुक्खपूलंमि, को णं ताहे चिगिच्छई ? ||78|| को वा से ओसहं देइ, को वा से पुच्छई सुहं। को से भत्तं व पाणं वा, आहरित्तु पणामई ? // 76 / / जया य से सुही होइ, तया गच्छइ गोअरं / भत्तपाणस्स अट्ठाए, बल्लराणि सराणि य।।८।। खाइत्ता पाणियं पाउं, वल्लरेहिं सरेहिय। मिगचारियं चरित्ता णं, गच्छई मिगचारियं // 81|| एवं समुट्ठिए भिक्खू, एवमेव अणेगए। मिगचारियं चरित्ता णं, उड्डे पक्कमई दिसं ||2|| जहा मिए एग अणेगचारी, अणेगबासे धुवगोअरे अ। एवं मुणी गोयरियं पविट्ठे, नो हीलए नो वि य खिंसइज्जा / / 83|| स इति-युवराजः, (विति त्ति) आर्षत्वाद ब्रूते अम्बापितरौ, यथैतनिष्प्रतिकर्मतया दुःखरूपत्वं युवाभ्यामुक्त यथा स्फुटमिति प्राग्वत्, परं परिभाव्यतामिदम-परिकर्म-रोगोत्पत्तौ चिकित्सारूपं, कः करोति ? न कश्चिदित्यर्थः, क्व ? अरण्ये, केषा ? मृगपक्षिणाम्, अथ चैतऽपि जीवन्ति विचरन्ति च, ततः किमस्या दुःखरूपत्वमिति भावः, यतश्चैवमतः- | 'एगेत्यादि' सर्व स्पष्टमेव। नवरम्, एकभूतः-एकत्वं प्राप्तोऽरण्ये (वेति) वा पूरणे, (जहा उत्ति) यथैव, एवमिति-एकभूतः, संयमेन तपसा चेति, धर्मचरणहेतुः / यदा-आतङ्कः-आशुधाती रोगो, महारण्य इतिमहाप्रहणममहति शरण्येऽपि कश्चित्कदाचित्पश्येत्, दृष्ट्वा च कृपातश्चिकित्सेदपि, श्रूयते हि-केनचिदिषजा व्यावस्य चक्षुरुद्धाटितमटव्यामिति, वृक्षमूल इति-तथाविधावासाभावदर्शनम्, (कोणं ति) 'अवा सन्धिलोपो बहुलम्' इति वचनाद् अजलोपे, क एनम् तदा-आतङ्कोत्पत्तिकाले, चिकित्सति-औषधाधुपदेशेन नीरोगं कुरुते ? न कश्चिदित्यर्थः, चिकित्सके चासति को वेति-वाशब्दः समुच्चये, औषधं ददातीत्ये-वमुत्तरोत्तराप्राप्तिरुपदर्शनीया॥ (आहरित्तु त्ति) आहृत्य, पणामयेत-अर्पयेत् "अर्पःपणामः' इति वचनात्।। कथं तर्हि तस्य निर्वहणम् ? इत्याहयदा स सुखी भवति, स्वत एव रोगाभाव इति गम्यते, गच्छति-याति गौरिव परिचितेतरभूभगपरिभावनारहितत्वेन, चरणम्-भ्रमणमस्मिन्निति गोचरस्तं भक्तमिवभक्तं तद्भक्ष्यम् तृणादि, तच पानं च भक्तपानं, तस्य अर्थाय प्रयोजनाय, गोचरमेव विशेषत आह-वल्लराणिगहनानि, उक्त च-"गहणमवाणियदेस रणे छत्तं च वल्लरं जाण" सरांसि च-जलस्थानानि, स्वादित्वा निजभक्ष्यमिति गम्यते, वल्लरेषु सरःसुवेति सुव्ययत्ययेन नेयम् तथा मृगाणां चर्या-इतश्चोतलवनात्मकम् चरणं भृगचर्या ताम, मितचारिता वा परिमित क्षणात्मिकाम, चरित्या-आसेय्य, परिमिताहारा एव हि स्वरूपेणैव मृगा भवन्ति, विशेषाभिधायित्वाच्च न पौनरुक्तयम्, ततश्च गच्छति-याति, मृगाणां चर्या-चेष्टा, स्वातन्त्र्योपवेशनादिका यस्या सा मृगचर्या-मृगाश्रयभूस्ताम् / अनेन च सूत्रपञ्चकेन दृष्टान्त उक्तः, उत्तरेण सूत्रद्वयेनात्मन्येतदुपसंहारः, इह च-'एव' मिति मृगवत्समुत्थितः-संयमानुष्ठानम् प्रत्युद्यतस्तथाविधाऽऽतकोत्पत्तावपि न कश्चित् चिकित्साऽभिमुख इति भावः / एवमेव मृगवदेव, (अणेगय त्ति) अनेकगो यथा ह्यसौ वृक्षमूले नैकस्मिन्नेवास्ते-किंतु कदाचिक्तवचिदेवमेषोऽप्यनियतस्थानस्थतया, पठ्यते च-(अणिायणे ति) अनिकेतनः, अगृहः, स चैव मृगचर्या चरित्वा मृगवदाताभावे भक्तपानार्थ गोचरं गत्वा तल्लब्धक्तपानोपष्टम्भ-तश्च विशिष्टसम्यग्ज्ञानादिभावतः, शुक्लध्यानारोहणादपगता-शेषकर्माश ऊर्ध्व दिशमिति सम्बन्धः / प्रकर्षण क्रामति-गच्छति प्रक्रामति, किमुक्तं भवति? सर्वोपरिस्थानस्थितो भवति, निवृत इति यावत्, एवं च निवृतिरेवेह मृगचर्योपमार्थत उक्ता, तत्र हि मृर्गापमा मुनय इत इतश्चाप्रतिबद्धविहारितया विहृत्य गच्छन्तीति / / मृगचर्यामेव स्पष्टयितुमाह-यथा मृगः (एग त्ति) एकःअद्वितीयः, अनेकचारी-नैकवभक्तपानार्थचरतीत्येवंशीलः, अनेकवासःनैकत्रवासः-अवस्थानमस्यास्तीति, ध्रुवगोचरश्चसर्वदागोचरलब्धमेवाहारमाहारथतीति, एवम् मृगवदेकत्वादिविशेषणविशिष्टो मुनिः, गोचर्याभिक्षाटनम्, प्रविष्टो न हीलयेद्-अवजानीयात्, कदशनादीति गम्यते, नापि च (खिंसएन त्ति) निन्देत्तथाविधाहाप्राप्तौ स्वं परं वा इह च मृगपक्षिणामुभये
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________________ मियापुत्त 300 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मियापुत्त षामुपक्षेपे यन्मृगस्यैव पुनः पुनर्दृष्टान्तत्वेन समर्थनं तत्तस्य प्रायः प्रशमप्रधानत्वादिति सम्प्रदाय इति सूत्राष्टकार्थः / एवं मृगचर्यास्वरूपमुक्तवा यत्तेनोक्तं य च पितृभ्यां पितृवचनानन्तरं च यदसौ कृतवास्तदाहमिगचारियं चरिस्सामि, एवं पुत्ता ! जहासुहं। अम्मापिऊहिँऽगुण्णाओ, जहाइ उवहिं तओ।।४।। मिगचारियं चरिस्सामो, सव्वदुक्खविमुक्खणिं / तुन्भेहिं अम्ब ! ऽणुण्णाओ, गच्छ पुत्त ! जहासुहं / / 85 / / एवं सोऽम्मापियरं, अणुमाणित्ताण बहुविहं / ममत्तं छिंदई ताहे, महानागु व्व कंचुयं / / 86|| इड्डी वित्तं च मित्ते य, पुत्तदारं च नायओ। रेणुअंव पडे लग्गं, निद्भुणित्ताण निग्गओ / / 7 / / गाथाचतुष्टयं स्पष्टमेव / नवरम्, मृगस्येव थर्या-चेप्टा, मृगवर्या ता निष्प्रतिकर्मतादिरूपां चरिष्यामीति, बलश्रिया युवराजेनोक्त पितृभ्यामभाणि-एवं यथा भवतोऽभिरुचितं तथा यथासुख तेऽस्त्विति शेषः एवं चानुज्ञातः सन् जहाति-त्यजति, उपधिम्-उपकरणमाभरणादि, द्रव्यता, भावतस्तुछयादि येनात्मा नरक उपधीयते, ततश्च प्रव्रजतीत्युक्तं भवति / उक्तमेवार्थ सविस्तरमाह-(सव्वदुक्खविमोक्खणिं) सकलासातविमुक्तिहेतुम (तुल्भेहिं ति) युवाभ्यामम्य ! उपलक्षणत्वात पितश्च, अनुज्ञातः अनुमतः सन्, तावाहतुः-गच्छ मृगचर्ययेति प्रक्रमः, पुत्र ! यथासुखम् -सुखानतिक्रमेण, अनुमन्य-अनुज्ञाप्य, ममत्वमप्रतिबन्धम, छिनत्ति-अपनयति, महानाग इव कशुकम्, यथाऽसावतिजरटतया चिरप्ररूढमपि कभुकमपनयति, एवमसावपि ममत्वमनादिभवाभ्य-स्तमुपलक्षणत्वात् मायादींश्च / / अनेनान्तरोपधित्याग उक्तः, बहिरुपधित्यागमाह-ऋद्धिम-करितुरगादिसम्पदम, वित्तम-द्रव्यम्, (णायओ त्ति) ज्ञातीन-सोदरादीन्. (णिद्धणित्त त्ति) नि येव निर्दूय, त्यक्तवेति यावत, निर्गतः-निष्क्रान्तो गृहादिति गम्यते, प्रव्रजित इति योऽर्थः / इति सूत्रचतुष्टयार्थः। एनमेवार्थ स्पष्टयितुमाह नियुक्तिकृत - नाऊण निच्छयमई, एव करेहि त्ति तेहिं सो भणिओ। धन्नोऽसि तुमं पुत्ता ! जंसि विरत्तो सुहसएसु // 415 / / सीहत्ता निक्खमिउं, सीहत्ता चेव विहरसु पुत्ता ! / जह नवरि धम्मकामा, विरत्तकामा उ विहरंति // 416 / / नाणेणं दसणे य, चरित्ततवनियमसंजमगणेहिं। खंतीए मुत्तीए, होहि तुम वड्डमाणो उ।।४१७।। संवगजणिअहासो, मुक्खगमणवद्धचिंधसन्नाहो। अम्मापिऊण वयणं, सो पंजलिओ पडिच्छी य॥४९॥ गाथाचतुष्टयं पाठसिद्धमेव, नवरमाद्यगाथात्रयेण एवं पुत्र / यथासुखम् इत्यतत्सूचितार्थाभिधानतो व्याख्यातम, चतुर्थगाथया त्ववशिष्टसूत्र भावार्थभिधानमः, सुखशतेभ्य इति बहुत्वोपलक्षणं शतग्रहणम, (सांहत्ता इति) सिंहतया निष्कम्य-प्रव्रज्य, सिंहतथैव विहर पुत्र ! इति जात ! किमुक्त भवति ? यथा सिंहः स्वस्थानादिनिरपेक्ष एव निष्क्रामति, निष्क्रम्य च तथैव निरपेक्षवृत्या विहरति, एवं त्वमपि विहरेलि. 'नवर' ति परं धर्म एव कामः-अभिलाषो येषा ते धर्मकामाः, 'विरत्तकामे' ति प्राग्वत् कामविरक्ताः-विषयपराङ्मुखाः, 'चरित्रतपोनियमस्यमगुण' रित्यत्र चारित्रान्तर्गतत्वेऽपि तपःप्रभृतीनामुपदेशात्सामान्यविशेषयोश्य कथञ्चिद्भिन्नत्वाचन पोनरुतत्यम्, तथा संवेगोमोक्षाभिलाषस्तेन जनिता हासो-मुखविकाशत्मकोऽस्येति संवेगजनितहासः-मुक्तयुपायोऽयं दीक्षेल्युत्सवमिव ता मन्यमानः प्रहसितमुख इत्यर्थः, पठन्ति च-(संवेगजणियसद्धो त्ति) स्पष्टमेव, तथा मोक्षो-मुक्तिस्तद्गमनाय बद्धमितिधृतं चिह्न धर्मध्वजादि, तदेव सन्नाहो-दुर्वचनशरप्रसर-निवारकः क्षान्त्यादि येन स तथा, (पडिच्छीय त्ति) प्रत्येषीत्, प्रतिपन्नवानिति गाथाचतुष्टयार्थः / / ततोऽसौ कीदृक् सञ्जात इत्याहपंचमहव्वयजुत्तो,पंचसमिओ तिगुत्तिगुत्तो / सर्दिभतरबाहिरिए, तवोकम्ममि उज्जुओ।।८८|| निम्ममो निरहंकारो, निस्संगो चत्तगारवो। समो अ सव्वभूएसु, तसेसु धारवरेसु ||6|| लाभालाभे सुहे दुक्खे, जीविए मरणे तहा। समो निंदापसंसासु, तहा माणावमाणओ ||6|| गारवेसु कसाएसु, दंडसल्लभएसु अ। नियत्तो हाससोगाओ, अनियाणो अबंधणो ||1|| अणिस्सिओ इह लोए, परलोए अणिस्सिओ। वासी चंदणकप्पो अ, असणेऽणसणे तहा।।२।। अप्पसत्थेहिँ दारेहिँ, सव्वओ पिहियासवो। अज्झप्पझणजोगहिं, पसत्थदमसासणो // 63|| सूत्रषटक निगदसिद्धमेव / नवरम् (सभितरबाहिरिए ति) सहाभ्यन्तरःप्रायश्चित्तादिभिहिौश्च-अनशनादिभिर्भदैर्वर्तत इति सवाह्याभ्यन्तरं तस्मिन प्रधानत्वाच्च प्रथममभ्यन्तरोपादानम्। 'निर्ममाः' -ममत्वबुद्धिपरिहारतः निस्सङ्ग:-सङ्ग हेतुधनादित्यागतः, समश्च-नरागद्वेषवारिममत्वादेरेव। लाभेत्यादिना समत्वमेव प्रकारान्तरेणाह, अत्र च-'समः' नलाभादौ चित्तोत्कर्षभाग नाप्यलाभादौ देन्यवान, जीविते मरणे समो, नैकत्राप्याकाडावान्, (माणवमाणओ त्ति) मानापमानयाः, गौरवादीनि सूत्रेसुब्व्यत्ययेन सप्तम्यन्ततया निर्दिष्टानि पञ्चमयन्ततया व्याख्येयानि, निवृत्त इति च सर्वत्र सम्बन्धनीयम् - अबन्धनः-रागद्वेषबन्धनरहितः / अत एव अनिश्रित:-इहलोके परलोके वाऽनिश्रितो नेह लोकार्थ परलोकार्थवाऽनुष्ठानवान्, ‘णो इह लोगट्टयाएतवमहि?ला नोपरलोग?याए तवमहिट्ठजा 'इत्याद्यागमात् / पुनरभिश्रितभिधानं च मन्दमतिविनेयानुग्रहार्थमदुष्टमेव वासीचन्दनकल्प इत्यनेन समत्वमेव विशेषत आह. वासी चन्दनशब्दाभ्यां च तद्व्यापारकपुरुषावुपलक्षितौ, ततश्च
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________________ मियापुत्त 301 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मिला यदि किलैको वास्या तक्ष्णोति, अन्यश्च गोशीर्षादिना चन्नेनालिम्पति, तवप्पहाणं चरियं च उत्तम, तथाऽपि रागद्वेषाभावतो द्वयोरपि तुल्यः, कल्पशब्दस्येह सदृशपर्याय - गइप्पहाणं च तिलोअविस्सुतं / / 7 / / त्वात्, 'अनशने' इति च नमाऽभो कुत्साया वा, ततश्चाशनस्य- वियाणिया दुक्खविवड्ढणं धणं, भाजनस्य भावे कुत्सिताशनभावे वा कल्पः, इह चेष्टितोऽधिकाराणां ममत्तबंधं च महाभयावहं। प्रवृत्तिरिति पूर्वत्र समस्तमपि कल्प इत्यनुवर्तत, अप्रशस्तेभ्यः __सुहावहं धम्मधुरं अणुत्तरं, प्रशंसाऽनास्पदेभ्यः, द्वारेभ्यः-कर्मोपार्जनोपायेभ्यो हिंसादिभ्यः, धारेह निव्वाणगुणावहं महं ||68!! ति बेमि / / स्वतः-सर्वेभ्यो य आश्रवः कर्मसंलगनात्मकः स पिहितः-तद् सूत्रद्वयं निगदसिद्धमेव, नवरम्, मृगापुत्रस्य भाषितं-संसारदुःखद्वारस्थगनतो निरुद्धो येनासौ पिहिताश्रवः,सापेक्षस्यापि गमकत्वात् रूपतावेदकं यत्तेन पित्रोः पुरत उक्तम्, प्रधानं तपोयत्र चरितेतत्प्रधानसमासः, यद्वा-प्रशस्तेभ्यो द्वारेभ्यः सर्वेभ्यो निर्वृत्त इति गम्यते, अत एव तपो, व्यत्ययनिर्देशश्च प्राग्वत्,चरितं च चेष्टितम् (गतिप्पहाणं च इति) पिहिताश्रवः, कैः पुनरय-मेवंविधः?-अध्यात्मेत्यात्मनिध्यानयोगा: प्रधानगतिं च मुक्तिमिति योऽर्थः, त्रिलोकविश्रुताम् जगत्रितयप्रतीतम्, शुभध्यानध्यापारा अध्यात्मध्यानयोगास्तैः, अध्यात्मग्रहण तुपरस्थाना अनेन च फल लिप्सवो हि प्रेक्षावन्तः प्रवर्तन्त इति काक्वा फलमाह। तथामकि-चित्करत्वाद्, अन्यथाऽतिप्रसङ्गात्, प्रशस्तः-प्रशंसा स्पदो, एतन्निशमनाच ममत्वं बन्ध इव सत्प्रवृत्तिविघातितया ममत्वबन्धस्तंच, दमश्च-उपशमः शासनंच-सर्वज्ञागमात्मकं यस्य स प्रशस्तदमशा-सन महाभयावहं तत एव चौरादिभ्यो महाभयावाप्तेः धर्मो धूरिव महासत्त्वैरुह्यइति सूत्रषटकार्थः मानतया धर्मधुराभहाव्रतपञ्चकात्मिका तां, तथा निर्वाणगुणा-अनन्तसम्प्रति तत्फलोपदर्शनायाह ज्ञानदर्शनवीर्यसुखादयस्तदावहां-तत्प्रापिका धर्मधुराम् धारयतेति एवं नाणेण चरणेण, दंसणेण तवेण य। सम्बन्धः / इह च निर्वाणगुणावहत्वंसुखावहत्वे हेतुः (मह ति) अपरिमितभावणाहिं विसुद्धाहिं, सम्मं भावित्तु अप्पयं / / 64|| माहात्म्यतया महतीं, सूत्रत्वाचैवं निर्देश इति सूत्रद्वयार्थः। इतिः परिसबहुयाणि उ वासाणि, सामन्नमणुपालिया। माप्तौ ब्रवीमीति पूर्ववत्, उक्तोऽनुगमः / सम्प्रति नयास्तेऽपि प्राग्वदेव / मासिएण उ भत्तेणं, सिद्धिं पत्तो अणुत्तरं / / 65|| उत्त०१६अ। सूत्रद्वयनुत्तानार्थमेव, नवरम, भावनाभिः-महाव्रतसम्बन्धिनी- | मियासण-न०(मृगासन) आसनभेदे, येषामधो मृगा व्यवस्थिता भवन्ति। भिर्वक्ष्यमाणाभिरनित्यत्वादिविषयाभिर्वा, विशुद्धाभिः-निदाना- ज० १वक्ष०। दिदोषरहिताभिर्भावयित्वा-तन्मयता नीत्वा (अप्पय ति) आत्मानम्, *मिताशन-त्रि० मितभोक्तरि, दश० 8 अ०। (मसीएण उ भत्तेणं ति) मासे भवं मासिकं तेन, तुः पूरणे, भक्तेन मिरिआ-(देशी) कुट्याम्,दे० ना०६ वर्ग 132 गाथा। भोजनेन मासोपवासोपलक्षकरवादस्य मासोपवासेनेति यावत्, सिद्धिम्- | मिरिय-पं०(मरिच डःस्वप्नादौ॥१॥४६॥ इत्यादेरस्येत्त्वम्,प्रा० / 'नेष्ठितार्थताम, सकलकर्मक्षयेणेति गम्यते, अनुत्तराम्-सकलसिद्धि स्वनामख्याते वृक्षे, वाच०। आचा०२ श्रु०१चू०१ अ०८ उ०। प्रधानाम्, अनेनाञ्जनसिद्ध्यादि व्यवच्छेदमाहेति सूत्रद्वयार्थः। मिलक्खु-पु०(म्लेच्छ) अव्यक्तभाषासमाचारेषु, 'म्लेच्छ' अव्यक्ताया "इड्डी" त्यादिसूत्रकदम्बकस्य तात्पर्यार्थमाह नियुक्तिकृत् वाचि इति वचनात् / भाषाग्रहणं चोपलक्षणम्, तेन शिष्टासंमतसकलइवीए निक्खंतो, काउं समणत्तणं परमधोरं। व्यवहाराम्लेचछा इति प्रतिपत्तव्यम्।प्रज्ञा०१पदा सूत्र०ा आर्यदेशोत्पतत्थ गओ सो धीरो, जत्थ गया खीणसंसारा।।४१६।। नोक्तरयानुवादकोऽपरिज्ञातशब्दार्थो मल्च्छः / उक्तं चसुगमैव नवरम्, ऋद्ध्या-दीनानाथदानदिकया विभूत्या निष्क्रान्तः "मिलक्खु अमिलक्खुस्स, जहा वुत्ताणुभासए। सन परमधोरम्-कातरजनातिशयदुरनुचरं, यत्र गता।क्षीणसंसारा इति ण हेउ से वियाणाइ, भासियं वाणुभासए|१|| मोक्ष इत्यभिप्राय इति गाथाऽवयवार्थः / एवमन्नाणिया नाण, वयता भासिय सयं। साम्प्रतं सकलाध्ययनार्थोपसंहारद्वारेणोपदिशन्नाह सूत्रकृत् - निच्छयत्थं न जाणति, मिलक्खुव्व अबोहिए।" एवं करंति संबुद्धा, पंडिया पवियक्खणा। नं०। (वर्वरशवरपुलिन्दादिकाः 'अणारिय' शब्दे प्रथमभागे 316 पृष्ठे विणियटृति भोगेसु, मियापुत्ते जहामिसि // 66 / / उक्ताः ) व्याख्यातप्रायमेव, संगता प्रज्ञा येषा ते संप्रज्ञाः, संपन्ना वा ज्ञानादिभिः | मिलक्खुभासाविसारय-पुं०(म्लेच्छभाषाविशारद) अनार्य-भाषा(जहामिसि त्ति) मकारोऽलाक्षणिको यथेत्यौपम्याभिधायी, ऋषिः निपुणे, आ० चू०१ अ० मुनिः इति सूत्रावयवार्थः। मिला-धा०(ग्लै) हर्षक्षये, स्वरादनतो वा।।८।४।२४०।। अकारान्तइत्थमन्योक्त्योपदिश्य पुनर्भङ्गचन्तरेणोपदिशन्नाह-- वर्जितात्स्वरान्ताद्धातोरन्तेऽकारागमो वा भवति / मिलाइ। मिलाअइ। महप्पभावस्स महाजसस्स, म्लायति। प्रा०ाम्लेर्वा-पव्वा यौ।।४।१८||म्लायतेः वा-पव्वाय मियाइपुत्तस्स निसम्म भासियं / इत्यादेशौ वा भवतः। पक्षे-वाइ। पव्वायइ। प्रा०॥
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________________ मिलाण 302 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मिहिला मिलाण-त्रि०(म्लान) म्लानियुक्ते, वाच० / लात् / / 8 / 2 / 106|| उपदिश्यते-कथ्यते, यत्र सूत्रकाव्येषु--सूत्रेषु काव्येषुच-तल्लक्षण-वत्सु, संयुक्तस्यान्त्यव्यञ्जनालात्पूर्व इद्भवति मिलाइ। मिलाणं / प्रा०। / क्वेत्याह-लोके-रामायणादिषु, वेदेयज्ञक्रियादिषु, समयेतरङ्गवत्या "पव्वायं वसुआयं, सुसिवायं मिलाणत्थे" पाइ० ना०८३ गाथा। दिषु, सा पुनः कथा मिश्रा-मिश्रानाम, संकीर्णपुरुषार्थाभिधानाद्। इति मिलायमाण-त्रि०(म्लायमान) म्लानिं गच्छति, स्था०३ ठा०३ उ०। / गाथार्थः। दश० 3 अ० मिलिच्छ-पुं०(म्लेच्छ) हस्वः संयोगे॥८/१८४ा दीर्घस्य यथा-दर्शन | मिस्सकेसी-स्त्री०(मिश्रकेशी) औत्तराहरुचकपर्वतवास्तव्या यां दिकुमासंयोगे पर हस्वो भवति। मिलिच्छे। अनार्य, प्रा०१पाद। याम्, आ० चू० 1 अ० द्वी० ज०। मिलिय-त्रि०(मिलिय) सहिते, स्था० 10 ठा० / व्य०। समुदिते, विशे० | मिस्सवल्ली-स्त्री०(मिश्रवल्ली) जनकसंबन्ध्यादिषु, व्य०। विभक्ते, व्य०६ उ०ा अनेकशास्त्रसंबन्धीनि सूत्राण्येकत्र मीलयित्वा यत्र ___ संप्रति मिश्रवल्लीप्रतिपादनार्थमाहपठति तन्मिलितमसदृशधान्यमेलकवद् / अथवा-परावर्तमानस्य यत्र माउम्माया पिया भाया, भगिणी एवं पिऊण वि। पदादिविच्छेदो न प्रतीयते तन्मिलितम्। अनु०। आ० म०) पुत्तो धूया य तहा, भाउयमादी चउण्हं पि॥१३६।। *मिव-अव्य० इवशब्दार्थे, मिव पिव विव व्व व विअ इवार्थे वा अट्ठेव पञ्जयाणं, चउवीसंभाउभगिणिसहियाणि। // 82 / 182 / / एते इवार्थे अव्ययसंज्ञकाः प्राकृते वा प्रत्युज्यन्ते। कुमुअं एवं इचिय माउल-सुयादओ परयरा वल्ली / / 137 / / मिव / प्रा०१ पाद। मातुर्धाता१पिता२भ्राताभगिनी४च,एवं पितुरपि चत्वारि वक्तव्यानि। मिस-न०(मिष) छले, "छलं अवएसो निह च मिस" पाइ० ना०१४२ तद्यथा-माता पिता भ्राता भगिनी च / भ्रात्रादीनां चतुर्णा प्रत्येकं द्वौ द्वी गाथा। द्रष्टव्यौ तद्यथा-पुत्रो, दुहिता च। भ्रातुः पुत्रो दुहिता, भगिन्या अपि पुत्रो मिसमिसतं-त्रि०(मिसमिसत) चिकचिकायमाने, औ०। देदीप्यमाने, दुहिता च, अष्टौ च प्रार्यकाणि भातृ-भगिनीसहितानि / तद्यथाकल्प०१ अधि०१क्षण / रा०ा औ० त०। औ० मा ज्ञा०ा मिसमिसीति मातामह्या अपि--माता पिता भ्राता भगिनी। पितामहस्यापि माता पिता मिलन्तः शब्दं कुर्वन्तः कृमयो यत्र तन्मिसमि-सत्कृमिकम् / तंव। भ्राता भगिनी / सर्वसंख्यया मिश्रकाणां चतुर्विशतिः अष्टावार्यकाणि, मिसमिसीमाण-त्रि० देदीप्यमाने, ज्ञा० १श्रु०१ अ० क्रोधाग्निना अष्टौ प्रार्यकाणि, अष्टौ च मात्रादिचतुष्टयस्य प्रत्येकं द्विधाभवनाद्। तथा दीप्पमाने, भ०७श०६ उ०। क्रोधज्वालया ज्वलिते, नि०१ श्रु०१ वर्ग च-एतावत्येव मिश्रवल्ली। मातुलसुतादयः परतरा वल्ली। ते च मातुल१ अ०। विपाo सुतादयो यदि तमपि धारयन्ति तदास लभते, अथाचार्यमभिधारयन्ति मिस्स-धा०(मिश्र) संयोजने, मिश्रेर्वीसाल-मेलवौ // 14 // 28 // तदा आचार्यस्य। ये पुनः परतरे स्वजना ये चान्ये ते सर्वेऽनभिधारयतो मिश्रयतेय॑न्तस्य वीसाल-मेलवी आदेशौ वा भवतः / वीसालइ। वा आचार्यस्य वा भवन्ति व्य०१० उ०। मेलवइ / मिस्सइ। प्रा० 4 पाद। मिस्सीभाव-पुं०(मिश्रीभाव) गृहस्थपरिव्राजकादीनां सहवसतो, *मिश्र-न० संभोगोत्पन्ने पक्षकर्दमादिके गन्धकस्तूर्यादिके, तं०। आचा०२ श्रु०१ चू०१अ०३ उ०। द्रव्यतो लिङ्ग मात्रसद्भावाद, भावतो सम्यमिथदृष्टिगुणस्थाने, प्रव० 224 द्वार / संयुक्ते, उत्त०१ अ०। गृहस्थसमकल्पत्वात्। सूत्र०१ श्रु०४ अ०१उ०) मिस्सकहा-स्त्री०(मिश्रकथा) संकीर्णपुरुषार्थाऽभिधायके विकथा- | मिहिआ-(देशी) मेघसमूहे. देवना०६ वर्ग 132 गाथा। भेदे, द्वारा मिहिया-स्त्री०(मिहिका) प्रालेये, स्था० 10 ठा०। शिशिरादौ वातेरिते धर्मार्थकामाः कथ्यन्ते, सूत्रे काव्ये च यत्र सा। हिमकणे, सूत्र०२ श्रु०३ अ० मिश्राख्या विकथा तु स्याद्, भक्तस्त्रीदेशराङ् गता // 20 // मिहिला-स्त्री०(मिथिला) विदेहजनपदप्रतिबद्ध पुरीभेदे, सू०प्र०१ (धर्मे ति) यत्र सूत्रे काव्ये च धर्मार्थकामा मिलिताः कथ्यन्ते, सा पाहु० ज०। भाआ० म०। सूत्र०ा उत्त०। प्रव०। प्रज्ञा०। स्था०। मिश्राख्या कथा, संकीर्णपुरुषार्थाभिधानात् / विकथा कथाल श्रीमल्लिनमिजिणाण, पयपउमं पणमिऊण सुरपणय। क्षणविरहिता तु स्याद् / भक्तस्त्रीदेशराङ्गता भक्तादिविषया। यदाह मिहिलामहापुरीए, कप्पं जंपामि लेसेणं / / 1 / / 'इत्थिकहा भत्तकहा, रायकहा चोरजणववकल य॥ नडनट्टजल्लमुट्ठिय, इहेव भारहे वासे पुव्वदेसे विदेहा णाम जणवओ, संपइ काले कहा उ एसा भवे विकहा।।१।।" द्वा०६ द्वा० "तीरहु'' ति देसो ति भण्णइ। जत्थ उ पइगेहं महुरमंजुलफलसाप्रतं मिश्रकथामाह भारोणयाणि कयलीवणाणि दीसंति। पहिया य वियड्डियाणि दुद्धधमो अत्थो कामो, उवइस्सइ जत्थ सुत्तकव्वेसुं। सिद्धाणि पायसं च भुंजंति / पए पए वावीकूवतलायवईओ अइमलोगे वेए समए, सा उ कहा मीसियाणाम // 206 / / हुरोदगं,पागयजणाऽवि सक्कयभासाविसारया अणेगसत्थपसत्थधर्मः-प्रवृत्त्यादिरूपः, अर्थी-विद्यादिः,कामः-इच्छा मदनादिः, | अब्भस्थिणिउणा य जणा, तत्थ रिद्धित्थमियसमिद्धा मिहिला णाम
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________________ मिहिला 303 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मीसजाय णगरी हुत्था। संपइ जगइ पसिद्धा। एयाइ नाइदूरेण जणयमहारा-जस्स | मीण-पुं०(मीन) मत्स्ये, बृ०१ उ०। 'सउला सहरा मीणा, तिमी झसा भाउणो कणयस्स निवासद्वाणं कणइपुरं वट्टइ। तत्थ मिहिलाए णयरीए | अणिमिसा मच्छा'' पाइ० ना०४० गाथा। कुमरायपभावईसंभवस्स भगवओ मल्लिणाहस्स इत्थीतित्थयरस्स | मीमांसग-पुं०(मीमांसक) वेदार्थतात्पर्यनिर्धारणात्मकमीमांसाशास्त्राणेमिजिणस्स य विजयनिनवप्पा देवी नंदणस्स चवणजम्भणदि- / ध्येतरि,सूत्र०१ श्रु०१ अ०१ उ०। सम्म क्खाकेवलनाणकल्लाणयाइं जायाई। इत्थ अट्टमस्स सिरिवीरगणहरस्स - मीमांसा-स्त्री०(मीमांसा) विचारणायाम, मीमांसकाः-चोदनालक्षणो अंकपियस्स जम्मो / इत्थ जुगबाहुमयणरेहाणं पुत्तो नमी नाममहाराया धर्मः। न च सर्वज्ञःकश्चिद् विद्यते। मुक्त्यभावश्चेति, एवमाश्रिताः। विशे० बलयमवइयरेण पत्तेयबुद्धो सोहम्मिदपरिक्खियवेरनिच्छओ संवुत्तो। सद्विचारे, षो०१६ विवश द्वा०। इत्येव लच्छीघरे चेइए अज्जमहागिरिसीसों कोडिन्नगुत्तो आसमित्तो मीरा-स्त्री०(मीरा) मर्यादायाम्, नरकपातनास्थाने, सूत्र०१ श्रु०५ सिरिवीरनिव्वाणाओ वीसुत्तरे वाससयदुगेऽवालीणे अणुप्पवायपुवे __ अ०१ उ० निउणियं णाम वत्थु पढतो विप्पडिवन्नो, सामुच्छेइयदिट्टि पवत्तिऊण मीराकरण-न०(मीराकरण) करारादेराच्छादने, बृ०१ उ०। नि०चू० पावयणियथेरहिं अणेगंतवायजुत्तीहिं निवारिज्जमाणो वि चउत्थो निहवो | मीलण-न०(मीलन) संप्रसारे समवाये, आ०म०१अ०। संधाने, आचा०१ जाओ। सिरिमहावीरसामिपयपंक्यपवित्तियजलाओ वाणगंगागंडईन- | श्रु०३ अ०३ उ०। घटनायाम्, संयोजने, आ०म०१०। ईओ मिलित्ता एवं नयर पवित्तियंति / इत्थ चरमतित्थयरो छव्वासारत्ते मीलय-पुं०(मीलक) समये एकवाक्यताकारके, सूत्र०१ श्रु०१अ० 130 / अवडिओ इत्थ जणयसुया (सीआ) महासईए जम्मभूमिट्ठाणे महल्लो मीस-त्रि०(मिश्र) लुप्त-य-र-व-श-ष-सां श-ष-सां दीर्घः वडविडवीपसिद्धो। इत्थ सिरिरामसीयाणं विवाहट्ठाणं साकुलकुड ति ||8/1143 / / इत्यादिमस्वरस्य दीर्घः / रलोपे मिश्रम् / मीसं / प्रा०। लागे रूढ़ पायाललिंगाई णियलोइयतित्थाणि अणेगाणि चिट्ठति / मिलिते, विशे०। सान्निपातिकनामनि, विशे०। आलोचनाप्रतिक्रमणतित्थयरमल्लिनाहचेइए वइरुट्टा देवी कुबेरजक्खो अ। नेमिजि--णचेइए लक्षणोभयार्हत्वान्मिश्रम् / व्य० 1 उ०। पञ्चा० / ग०। प्रायश्चित्तभेदे, गधारी देवी भिउडिजक्खो अ आराहयजणाणं विग्घे अवहरंति त्ति। स्था०४ ठा०१ उका व्य०। उपमाईशब्दे उक्तमेतत् सत्यं च मृषा चेति इय मिलिलाकप्पमिणं, सुणति वायंति जिणपहविआणा। वचने, यथा-धवखदिरपलाशादिमिश्रेषु बहुष्वशोकवृक्षेषु अशोकवनतेसि खवेइ कंठे, वरमालं मुत्तिसिरमहिला // 1 // मेवेदमिति विकल्पनपरम् / अत्र हि कतिपयाशोकवृक्षाणां सद्भावात् डति मिथिलातीर्थकल्पः / ती०१८ कल्प। उत्त०। आ० म०। आव०। सत्यता,अन्येषामपि धवादीनां सद्भावादसत्यता, व्यवहारनयमतापेक्षया मिहुण-न०(मिथुन) ख-घ-थ-ध-भाम् / / 8 / 1 / 187 / / इति थस्य चैवमुच्यते, परमार्थतः पुनरिदमसत्यमेव, यथा विकल्पितार्थायोगात्। हः। मिहुणं / प्रा०। स्त्रीपुंसयुग्मे, रा०। जंग। जी०। स्था०ा दाम्पत्ये, प्रव०२३७द्वाराव्या आचा०२ श्रु०१ चू०१ अ०३ उ०] मीसखंध-पुं०(मिश्रस्कन्ध) सचेतनाचेतनसंकीर्णो मिश्रः। स चाऽसौ मिहुणइत्थिया-स्त्री०(मिथुनस्त्री) युगलिकस्त्रियाम्,आ। म०१ अ०॥ द्रव्यस्कन्धश्चेति मिश्रस्कन्धः / हस्त्यश्वरथखङ्गादिसेनाङ्गे, अनु०॥ प्रव०॥ (आसा वर्णकः 'उसह' शब्दे द्वितीयभागे 1333 पृष्ठेऽकारि) मीसग-न०(मिश्रक) साध्वर्थ गृहस्यार्थवादित उपस्कृते , प्रश्न०५ संव० मिहुणग-न०(मिथुनक) सहोत्पन्ने स्त्रीपुरुषयुग्मे, स्था० 10 ठा। द्वार। मिहुणगक्खेत-न०(मिथुनकक्षेत्र) सदा युगलिकोत्पत्तिभूमिरूपा मीसजाय-पुं०(मिश्रजात) मिश्रेण गृहसाध्वादिप्रणिधानलक्षणभावेन यामकर्मभूमौ, स्था० 10 ठा०। जातमुत्पन्नं पाकादिभावमुपगतं मिश्रजातमन्नाद्येव / पञ्चा० 13 विव०। मिहुणपुरिस-पुं०(मिथुनपुरुष) युगलिकपुरुष, आ० म०१०। / गृहिसंयतमिश्रोपस्कृते तत्र संभक्त्युत्पादनादोषे,दश० 5 अ०। पञ्चा०। मिहुणय-न०(मिथुनक) युगले, "मिहुणय जुअले'' पाइ० ना० 222 जीता गाध०। पं० चू०। स्था०। प्रव०। माथा। संप्रति मिश्रजातद्वारमाहमिहो-अव्य०(मिथस्) परस्परं शब्दार्थ अष्ट०१४ अष्ट। षो०) मीसज्जायं जावं-तियं च पासंडिसाहुमीसं च / मिहोकहा-स्त्री०(मिथःकथा) परस्परं भक्तादिविकथाकरणे, व्य०३ उ०। सहसंतरं न कप्पइ, कप्पइ कप्पे कए तिगुणे // 271 / / अन्योन्य कथायाम्, आचा०१ श्रु०६ अ०१ उ०| मिश्रजातं त्रिधा, तद्यथा-यावदर्थिकम्, पाखण्डिमिश्रम, साधुमिश्र मिहोसाहम्मियखामण-न०(मिथःसाधर्मिकक्षामण) परस्परं साधर्मिकः च / तत्र यावन्तः केचन गृहस्थाः , अगृहस्था वा भिक्षाचराः समागक्षमाकारणायाम्। (सा चपर्युषणायामवश्यं कर्तव्येति सम्प्रदायः) कल्प० मिष्यन्ति तेषामपि भविष्यति कुटुम्बे चेति बुद्ध्या सामान्येन भिक्षाच१अधि० १क्षण। रयोग्यं कुटुम्बयोग्यं चैकत्र मिलितं यत्पच्यते तद्यावदर्थिक मिश्रमिअ-(देशी) समकाले, देवना०६ वर्ग 133 गाथा। जातम् / यत्तु केवलपाखण्डियोग्यमात्मयोग्यं चैकत्र पच्यते तत्पाखमीढल-न०(मीढल) वर्णकद्रव्यभेदे, ल०प्र० ण्डिमिश्रम्। यत्पुनः केवलसाधुयोग्यमात्मयोग्यं चैकत्र पच्यते तत्सा
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________________ मीसजाय 304 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मीसजाय धुमिश्रम् / श्रमणाना पाखण्डिष्वन्तर्भावविवक्षणात् श्रमणमिश्र पृथग नोक्तम्। एतच मिश्रजात सहस्रान्तरमपि--सहस्रान्तरे गतमपियेन तत्कृतं तेनान्यस्मै दत्तं तेनाप्यन्यस्मै यावत्सहस्रतमाय दत्त, ततोऽपि पर यदि साध्वे ददाति तथापि न कल्पते। भाजनशुद्धौ विधिमाह-येन भाजनेन तन्मिश्रं गृहीत तस्मिन् भाजने मिश्रपरित्यागानन्तरं कल्पे प्रक्षालने विगुणे कृते अन्यत्-शुद्ध गृहीतुं कल्पते नान्यथा। एनामेव गाथां भाष्यकृद् व्याचिख्यासुः प्रथमतो मिश्रजा तस्य संभवमाहदुग्गासे तं समइ-च्छिउं व अद्धाणसीसए जत्ता। सड्डी बहुभिक्खयरे, मीसज्जायं करे कोई॥३३।। दुःखेन ग्रासो यत्र तद् दुर्गासम्-दुर्भिक्षम, तस्मिन् भिक्षाचररात्वानुकम्पया,यद्वा-तद् दुर्भिक्ष समतिक्रान्तः कश्चित् बुभुक्षाकष्टं महत्परिज्ञाय / यदिवा-अध्वशीर्षककान्तारादिनिर्गमरूपे प्रवेशरूपे खिन्नभिक्षाचरानुकम्पया / यद्वा-यात्रायाम्-तीर्थ-यात्रादिरूप उत्सवविशेषे, दानश्रद्धया काऽपि श्रद्धी-श्रद्धावान्, बहून भिक्षाचरानुपलभ्य, मिश्र संप्रति यावदर्थिकस्य मिश्रजातस्य परिज्ञानोपायमाहजावंतहा सिद्धं, नेयं तं देह कामियं जइ णं / बहुसु व अपहुप्पंते, भणाइ अन्नं पि रंधेह // 272 / / काचित किमपि साधवे ददती कयाचित् प्रतिषिध्यते नेदं दीयमानं यावदर्थ सिद्धम् यावन्तः केचनापि भिक्षाचराः समागमिष्यन्ति तेषामर्थाय सिद्धम् -किंतु विवक्षितम्, तस्मात्तद्देहि यतिभ्यः, कामित यावद गृह्णन्ति, तावत्प्रमाणम्, यद्वा-प्रचुरेषु भिक्षाचरेषु समागच्छत्सु अग्रेतनप्रमाणे राध्यमाने, अप्रभवति-अपूर्यमाणे, गृहनायको भणति, नैतावता रावेन सरिष्यति, ततोऽन्यदप्यधिक प्रक्षिप्य राध्नुहि, एवं श्रुते यावदर्थिक मिश्र परिज्ञायते,ज्ञात्वा च परिहर्तव्यमिति। संप्रति पाखण्डिमिश्रसाधुमिश्रे प्रतिपादयतिअत्तऽट्ठा रंधंते, पासंडीणं पि बिइयओ भणइ। निग्गंथऽट्ठा तइओ, अत्तऽट्ठाएऽविरंधते // 273 / / आत्मार्थकुटुम्बार्थ गृहिण्या, राध्यमाने--पच्यमाने, गृहनायको यावदर्थिकमिश्रप्रवर्तकगृहनायकापेक्षया द्वितीयो भणति, यथा-पाखण्डिनाभप्यायाधिक प्रक्षिप, तथा आत्मार्थमेव राध्यमाने तृतीयो गृहनायको बूते, यथा-निर्ग्रन्थानामर्थायाधिक प्रक्षिपेति। तत एवं श्रुते पाखण्डिमिश्रसाधुमिश्रयोरपि परिज्ञानं भवति / संप्रति यदुक्तमेतत् मिश्रजात पुरुषसहस्रान्तरमपि न कल्पते इति। तद् दृष्टान्तेन भावयति - विसघाइयपंसियासी, मरइ तमन्नोऽवि खाइउं मरइ। इय पारंपरमरणे, अणुमरइ सहस्सओ जाव।।२७४।। इह कोऽपि वेधकेन-विषेण घातितः, तस्य पिशितं योऽश्नाति तोऽपि मियत, तरयाऽपि मासं यो भक्षयति सोऽपि म्रियते, एवं परंपरया मरणे तावद् अनु-पाश्चात्यः, पाश्चात्यो म्रियते, यावत्ते नियमाणाः संख्यया / सहस्रशो भवन्ति / इत्थं सहस्रवेधकस्य विषस्य प्रभावः यत्सहस्रान्तरगतममि मारयतीति भावः। एवं मीसजायं, चरणप्पं हणइ साहुसुविसुद्ध / तम्हा तं नो कप्पइ, पुरिससहस्संतरगयं पि॥३७५।। एवम् सहरयवेधकविषमिव, यावदर्थिकपाखण्डिसाधुविषयम्, मिश्रजातमप्येकेनान्यस्मै दत्त तेनाप्यन्यस्मायित्येवं परम्परया पुरुषसहस्रान्तरगतमपि साधोः सुविशुद्धं वरणात्मानं हन्ति, तस्मान्न कल्पते साधूनां सहस्रान्तरगतमपि मिश्रम्। संप्रति साधुविषयं विधिमाहनिच्छोडिए करीसेण, वाऽवि उवट्ठिए तओ कप्पा। सुक्कावित्ता गिण्हइ, अन्नचउत्थे असुक्के वि / / 276 / / मिश्रे कथमपि गृहीते पश्चात्तरिमस्त्युक्ते सति भाजने निच्छोटिते अडल्यादिना निरवयवे कृते। यदा-करीषेण शुष्कगोमयरूपेण उद्घर्तिते, पश्चात् त्रयः कल्पा दीयन्ते, तत आतपे तद्भाजनं शोषयित्वा पश्चात्तस्मिनट्यते-शुद्ध गृह्णाति नान्यथा, पूतिदोषसंभवात्। अन्ये तु सूरयः प्राहुः चतुर्थे कल्पे दत्ते सति अशुष्केऽपि गृहन्ति, नास्ति कश्चिद्दोषः / अयं च प्रक्षालनविधिः सर्वत्राप्यशोधिकोटिग्रहणे वेदितव्यः / पिं० आचा० मिश्रजातग्रहणे प्रायश्चित्तमाहजे भिक्खू वा अणंतकायसंमिस्सं जुत्तं आहारं आहारेइ आहारंतं वा साइजइ / / 5 / / जे भिक्खू वा अणंतकातो मूलकंदो अल्लगपुडादि वा एवमादिस-म्मिस्स जो भुंजति तस्स चउगुरु। गाहासूत्रम्जो भिक्खू असणादी, मुंजेज्ज अणंतकायसंजुत्तं / सो आणाअणवत्थं, मिच्छत्तविराधनं पावे।।५३।। आणादिया दोसा भवंति। इमे दोसा। गाहातं कायपरिचययी, तेण य वत्तेण समं वयती। अतिखट्टअणुचितेण य, विसूतिगादीणि आयाए।।५४।। इमा आयविराधणा। तेण रसालेण अतिखट्टेण-अणुचितेण य विसूतितादी भवे, मरेज वा. अजीरंतो वा अण्णतरो रोगातको भवेज, एवं आयविराहणा। जम्हा एते दोसा तम्हा ण भोत्तव्वं। कारणे भुजेज्जा / गाहाअसिवे ओमोयरिए, रायबुट्टे भए व गेलण्णे। अद्धाणरोहए वा, जयण इमा तत्थ कायव्वा // 55 // पूर्ववत्। इमा वक्खमाणजयणा / गाहाओमं तिभागमद्धे, तिभाग आयंबिले चउत्थादी। निम्मिस्से मिस्सेया, परित्तणं ते य जतणा य / / 56 / / जहा एव सुत्ते वक्खमाणो जहा वा पेढे भणिया, तहा वत्तव्वा, इमो से अक्खरत्थो / तुम एस णिज्ज भुजति. तिभा--
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________________ मीसजाय 305 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मुंड गण वा ऊणं एलणिज्ज अँजति, अद्ध या एसणिज, तिभाग वा एसणिज्ज | मुइंगलि(आ)पा-(देशी) पिपीलिकादौ, पं०व०१ द्वार। सङ्घा०। आयंबिलण वा अच्छति, चउत्थं वा करेति, ण य अणंतकायसम्मिस्सं / मुइंगाकार-पुं०(मृदङ्गाकार) मर्दलाकृती, "मुइंगाकारोउम से खंधे" भुजति जाहे गिम्भिसंग लभति ताहे परित्तकायमिस्स गेण्हति। जाहे / मृदङ्गाकारेण मर्दलाकृत्योपमा यस्य स मृदङ्गोपमः (से) तस्य स्कन्धोंऽतं पि न लब्भति ताह अणंतकायं गेण्हति / जाहे तं पि न लब्भति ताहे शदेशः। उपा०२ अ०। अणंतकायमिरस गेण्हति। जाय पणगादिजयणा सा दट्ठव्या / नि० चू० मुइय-त्रि०(मुदित) हर्षवति, रा० / ज्ञा०। उत्ता प्रमोदवति, औ०। 10 उ० मुइया-स्त्री०(मुदिता) परसुखेऽप्रीतिपरिहारे, सन्तुष्टौ, षो०४ विव० पढम चिय गिहिसंजय-मीसो वक्खडाइ मीसं तु / / 6 / / आपातरम्ये सद्धेता-वनुबन्धयुते परे।। प्रथमत एवादित एवारभ्य गृहिसंयतयोर्मिसाधारणमुपसंस्कृतं साधितं सन्तुष्टिर्मुदितानाम, सर्वेषां प्राणिनां सुखे // 5 // यनत्तथा, तदादिर्यस्य तद्गृहिसंयतमिश्रोपस्कृतादि। आदिशब्दाद्- (आपातेति) मुदिता नाम सन्तुष्टिः सा चाद्याऽऽपातरम्ये-अपथ्यागृहियावदर्थिकमिश्रगृहिपाखण्डिमिश्रग्रहः / मिश्रं तु मिश्रजातं पुनः। इति हारतृप्तिजनितपरिणामासुन्दरसुखकल्पे, तत्कालमात्र-रमणीये नाथार्थः / पञ्चा०१३ विवा स्वपरागते वैषयिके सुखे, द्वितीया तु सद्धेतौ-शोभनकारणे ऐहिकसुखमीसदवियकप्प-पुं०(मिश्रद्रव्यकल्प) सचित्ताचित्तोभयद्रव्यकल्पे, पं० | विशेष एव परिदृष्टहितमिताहारपरिभोगजनितस्यादुर-सास्वादसुखभा०२ कल्पः / पं० चू०। कल्पे, तृतीया चानुबन्धयुत-अव्यवच्छिन्नसुखपरंपरया देवमनुजजन्ममीसनाम-ना मिश्रनामन्) उपसर्गनामसमुदायनिष्पन्ने नामभेदे, यथा सुकल्याणप्राप्तिलक्षणे इहपरभवानुगते,चतुर्थी तु परे प्रकृष्ट मोहक्षयादिसंयतः।आ० म० 10 // संभवे अव्याबाधे च सर्वेषां प्राणिना सुखे इत्येवं चतुर्विधा / तदुक्तम्मीसपरिणय-३०(मिश्रपरिणत) त्रिविधपुद्गलभेदे, प्रयोगविससाभ्यां "सुखमात्रे सद्धेतावनुबन्धयुते परे च मुदिता तु।''द्वा० 18 द्वा०। परिणता यथा पटपुद्गला एव प्रयोगेण पटतया परिणतवस्तूनि। स्था०३ मुइयमाणस-त्रि०(मुदितमानस) निरन्तरहृष्टचित्ते, उत्त०१६ अ० ठा० 3 उ०। (विशेषार्थस्तु 'पोग्गल' शब्दे पञ्चमभागे 1104 पृष्ठे गतः) मुउल-न०(मुकुल) कुड्मले, विशे० / आम्रफलकोरके, स्था० 4 ठा०१ मीसपुढवी-रत्री०(मिश्रपृथिवी) सचित्ताचित्तोभयरूघपृथिव्याम्, नि० / उ०। कोरकावस्थायां कलिकायाम्, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। संकुचिते, चु० 130 आ०म० १अ० जी० मीसय-पुं०(मिश्रक) "सिद्ध णो असण्णी णो सण्णी णो भव्वोणोअभब्बो' मुंज-पुं०(मुञ्ज) शरपाम्, स्था०५ ठा०३ उ०ा शरपत्रत्वचि, नि० त्ति वचनात्। सिद्धे, विशेष चू० 1 उ० तृणविशेषे, बृ०२ उ०। सूत्र०ा आचा० मीसालिअ-त्रि०(मिश्र) मिश्राद् डालियः / / 8 / 21170 / / इति मुंजकार-पुं०(मुञ्जकार) मुञ्जमयोपस्करकरणोपजीविनि, अनु० डालियप्रत्ययः। मीसालिअं। पक्षे--मीसं। संयुक्ते, प्रा०। मुंजतिण-पुं०(मुजतृण) काश्यपमूलगोत्रावान्तरमूलगोत्रविशेष-प्रवर्तक मीसोहि-पुं०(मिश्रावधि) आनुगामिकाननुगामिकोभयस्वरूपेऽव- ऋषौ, तदपत्येषु च / स्था०७ ठा० धिज्ञाने, यस्य ह्युत्पन्नस्यावधेर्देशो व्रजति स्वामिना सहान्यत्र देशस्तु / मुंजपाउयायार-पुं०(मुजपादुकाकार) मुञ्जमयपादुकाकरणोपजीप्रदेशान्तरचलितपुरुषस्योपहतैकलोचनवदन्यत्र न व्रजति असौ मिश्र विनि शिल्पिनि, प्रज्ञा०१ पद।। उच्यते। विशे० मुंजमेहला-स्त्री०(मुञ्जमेखला) मुञ्जमये कटीदवरके, ज्ञा०१ श्रु० मुअंगी-(देशी) कीटिकायाम, देना०६ वर्ग 134 गाथा। 16 अग मुआइणी-(देशी) डुम्ब्याभ, देवना० 6 वर्ग 135 गाथा। मुंजापिचिय-न०(मुजापिचित) कुट्टितशरपर्णीत्वडमये रजो-हरणे, मुइंग-पुं०(मृदङ्ग) इ. स्वप्नादौ / / 8 / 1 / 46 / / इत्त्व प्राप्तौ आर्षे | रथा०५ ठा० ३उत्। उकारोऽपि / प्रा० / मर्दल, स्था०७ टा० / ज्ञा०। औ०। अनु०। चं०प्र०) | मुंजायन-पुं०(मौजायन) मुञ्जनामकर्षिगोत्रापत्ये / उत्सौन्दर्यादौ स्था०। प्रज्ञा०। कल्प०। भ०। लघुमर्दले, जी०३ प्रति०४ अधि०। 8 / 1 / 160 / / इत्यौत उत्। मुंजायणो / प्रा० 1 पाद। आ०म० स०। नि०चू०! आचा०ा जंगा नंगा पिपीलिकायाम्, आव०५ मुंड-पुं०(मुण्ड) लुश्चितशिरसि, सूत्र०१ श्रु०३ अ० 130 / मुण्डित-- अ०। "मुइंगो मुरओ'' पाइ० ना०२६६ गाथा। शिरसि, कल्प०३ अधि०६ क्षण। प्रवजिते, औदशाशनि 0. मुइंगमत्थय-न०(मृदङ्ग मस्तक) मृदङ्गाना-मर्दलाना मस्तकानीव क्षुरण मुण्डे, व्य०४ 30 / वृ०। कल्प०। मस्तकानि / मृदङ्गानामुपरिभागेषु मृदङ्ग मुखपुटेषु, भ०६ श० 33 उ० | पंच मुंडा पण्णत्ता, तं जहा-सोतिंदियमुंडे०जाय-फासिंदिविपाक यमुंडे 2, अहवा-पंच मुंडा-पण्णत्ता, तं जहा-कोहमुंडे मुइंगमालिया-(देशी) कीटकाविशेष, संथा। माणमुंडे मायामुंडे लोभमुंडे सिरमुंडे / (सूत्र-४४३)
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________________ मुंड 306 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मुंडावणा मुण्डनम मुण्डः, अपनयनम.सच द्वेधा-द्रव्यतो, भावतश्चातत्र द्रव्यतःशिरसः केशापनयनन्, भावतस्तु चेतसः इन्द्रियार्थगत-प्रेमाप्रेम्णोः कषायाणा वाऽपनयनमिति मुण्डलक्षणधर्मयोगात् पुरुषो मुण्ड उच्यते। तत्र श्रोत्रेन्द्रिये श्रोत्रेन्द्रियेण वा मुण्डः, पादेन खञ्ज इत्यादिवत् श्रोत्रेन्द्रियमुण्डः शब्दे रागादिखण्डनात् श्रोत्रेन्द्रियार्थमुण्ड इति भावः, इत्येवं सर्वत्र / क्रोधे मुण्ड:-क्रोधमुण्डस्तच्छेदनादेवमन्यत्रापि, तथा शिरसि शिरसा वा मुण्डः शिरोमुण्ड इति। स्था०५ ठा०३ उ०। आव०। कल्प०। अणु प्रज्ञा मुंडके वलि(ण)-पुं०(मुण्डकेवलिन) द्रव्यभावमुण्डनप्रधाने तथाविधवाह्यातिशयशून्ये केवलिनि, यो०वि०। संविग्नो भवनिर्वेदा-दात्मनिःसरणं तु यः। आत्मार्थ संप्रवृत्तोऽसौ, सदा स्यान्मुण्डकेवली।।१६०|| तथ्ये धर्मे ध्वस्तहिंसाप्रबन्धे. देवे रागद्रेषमोहदिमुक्ते। साधौ सर्वग्रन्थसन्दर्भहीने, संवेगोऽसौ निश्चलो योऽनुरागः / / 1 / / एवं लक्षणसंवेगभाक् भवनिर्वेदात् संसारनैर्गुण्याद्, आत्मनिस्सरणंतु-- जरामरणादिदारुणदहनदह्यमानभवभवनोदराहरमात्मनो निष्का'न,पुनर्यश्चिन्तयतीति गम्यते। आत्मार्थ संप्रवृत्तः-स्वप्रयोजनमात्रप्रतिबद्धचित्तः, असौ पूर्वोक्तरूपः सदा-सततमेव,स्याद्भवेत् द्रव्यभावमुण्डनप्रधानो, मुण्डश्च केवली च केवलज्ञानदर्शनवान् मुण्डकेवली। केवल्येव तथाविधबाह्यातिश-यशून्यःः, अत्र दृष्टान्तः-पीठ-महापीठसाधुयुगलकमिति। यो० बिं०। (पीठ महापीठयोवृत्त द्वितीयभागे 1117 पृष्ठे तम) द्वा०। स्था०। आव०। मुण्डकेवली किंलक्षणो भवतीति प्रश्ने, उत्तरम्-'संविग्नो भवनिर्वेदादात्मनिःसरणं तु यः। आत्मार्थ संप्रवृत्तोऽसी, सदा स्यान्मुण्डकेवली'' ||1 // इति पञ्चराग्रहवृत्तौ, तदनुसारेण यःपुनः सम्यक्त्वावाप्तौ भवनैर्गुण्यदर्शनतस्तन्निर्वेदादात्मनिस्सरणमेव केवलमभिवाञ्छति, तथैव चेष्टते, स मुण्डकेवली भवतीति / / 12 / / सेन०३ उल्ला मुंडग-न०(मुण्डक) स्थण्डिले, दश०४ अ०| मुंडण-न०(मुण्डन) द्रव्यतः केशापनयने, भावतस्तु-क्रोधाद्यपनयने, पञ्चा० 2 विव०। स्था०। शिरोलोचने, स्था०२ ठा०१उ०। आव०। ("अजेण खुरसुंडणं चा लुक्कसिरएण वा होयव्वं सिया'' इति पन्जु राणाकप्प' शब्दे पञ्चमभागे 247 पृष्ठे उक्तम्) कल्प०३ अधि०६ क्षण। मुंडत्थल-न०(मुण्डस्थल) विंशतितीर्थकृत्स्थाने, ती०४४ कल्प। मुंडभाव-पुं०(मुण्डभाव) दीक्षितत्वे, भ०१ श०६ उ०ा शिरोलोचे, महावीरस्वामिना महापद्मन चानुज्ञातः। स्था०६ ठा० मुंडरुइ-पु०(मुण्डरुचि) दीक्षा ग्रहणाभिरुचौ, उत्त० 20 अ०। मुंडा-(देशी) मृग्याम. दे०ना०६ वर्ग 133 गाथा / मुंडावणा-स्त्री०{ मुण्डापना) शिरोलोचनेन लोचे,बृ०४ उ०। प्रज्ञा०। 10) उन कम्पइ० (5) इत्यादिसूत्र सभाष्यम् पव्वज्जा' शब्दे पञ्चमभागे 772 पृष्ठे उक्तम्) मुण्डापनाविधिमाहइयाणिं मुंडावणा-सोहागे दिवसे चेतियाण पुरओ पव्वावणिज, अप्पणो वा सगासे ठवित्ता चेइए वंदित्ता परिहियचोलपट्टस्स रयहरणं देति। "ताहे अति' अस्य व्याख्या-जो थिरहत्थो आयरितो तिन्नि अट्ठातो गेण्हति समत्थी या सवं लोयं करेति असति आयरियस्स थिरहत्थस्स अंतो पव्वावेति थिरहत्थो तस्स लोयकरणं सामाइयं च इगेरिसे ठाणे कजति। गाथादव्वादी अपसत्थे, मोत्तु पसत्थेसु फासुगाहारं। लग्गाति वा तुरंते, गुरुअणुकूले व होज्जा य / / 457 / / अडिमादि अप्पसत्थदव्या, ऊसरमादी अप्पसत्थखेत्ता रित्तातिहिमादी अप्पसत्थकालो, दिविमादी अप्पसत्थो भावो. एते अप्पसत्थे मोतुं पसत्थेसुदव्वादिएसु पव्वाविज्जति। तस्स गुरुणो य अणुकूलेसुताराबलचंद्रबलेसु जाव यदव्वादिया पसत्था ण लब्भंति, ताव फासुगाहार धरति, रान्नातगभया वा तुरंतो पसत्थ-लग्गबलेणं पव्वाविज्जति, उभयसाहारगे अलब्भमाणे गुरुअणुकूले पव्याविज्जति / अहाजातेणं ति सणिसेज रयोहरण मुहपोत्तिया चोलपट्टी एवं अहाजातं दातुं वामपासद्विरस्स आयरितो भणाति-इमस्स साधुस्स सामाइयस्स आरुहावणं-करेमि काउस्सग्गं, अन्ने भणति-उच्चारोवणं करेति, उभयधाऽवि अविरुद्ध, अन्नत्थूससि एणंजाव वोसिरामि त्ति "लोगस्सुज्जोअगरं चिंतितो 'नमो अरिहंताणं ति'' पारंति, "लोगस्स्जोयगर' कड्डिता पच्छा पव्वावणिज्जेण सह सामाइयसुत्तं भिक्खुत्तो कड्डति / पच्छा सेहो"इच्छामि खमासमणो'' ति वदति, वंदिय पभुट्टितो भणाति--संदिसह किं भणामो गुरुवयणं वंदितुं पवेदेहि, ताहे वंदिय पन्भुद्वितो भणाति-- तुल्भेहि में साभाइयं आरुहितं 'इच्छामि अणुसट्टि' गुरुवयण-नित्थारगपारगो गुरुगुणेहिं वट्टाहि ति। गाहातिगुणपयाहिणपादे, नित्थारो गुरुगुणेहि वट्टाहि। अणहिंडते सिक्खं, समताणीएहिँ गाहंति / / 458|| ताहे वंदित्ता णमोकारमुचरंतो पयाहिणं करेति, पादेसु निवडति, एवं वितियं ततियं च वारा। ताहे साधूण णिवेदादिज्जति, एक्केकस्सतरंतो वा समुदिताणं वंदितुं सो भणाति, गुरूहि आरुहियं मे सामाइय 'इच्छामि अणुसष्ट्रि' भणति-नित्थारगपारगो आयरियगुणेसु वसु, एमा मुंडावणा। नि० चू०११ उ०।। पव्वाविओ सिअत्ति अ, मुंडावेउं अणायरणजोगो। अहवा मुंडाविते, दोसा अणिवारिया पुरिमा / / 575 / / तथा प्रव्राजितः स्यात्' कथंचिदनाभोगादिना मुण्डयितुमनाचा.. रागयोग्यः अनासेवनीयः, यस्तं मुण्डयति तस्य मुण्डयतः अमुण्डनीयदोषाः अनिवारिता भवन्त्येवेत्यर्थः / पूर्व येऽप्रव्राजनीया-स्तान प्रवाजयत एवं सर्वत्र भावनीयम् / इति गाथार्थः / पं०व० 2 द्वार। पं० भा०। ('पव्वजा' शब्दे पञ्चगभागे 746 पृष्ठे विस्तर उक्तः)
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________________ मुंडावली ३०७-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मुग्ग मुंडावली-स्त्री०(मुण्डावली) मुण्डाः स्थाणुविशेषा येषु महिषो वाटादौ | पाइ० ना० 180 गाथा। परिधाः परिछिद्यन्ते तेषामावालिः। निरन्तरव्यवस्था-पितानां पड़ क्तौ | मुक्कय-(देशी) याऽसौ वोढ़ प्रकृता तद्वर्जितानामन्यासां निमन्त्रितानां अणु०॥ वधूनां विवाहे. देवना०६ वर्ग 135 गाथा। मुंडावित्तए-अव्य०। मुण्डयितुम्) शिरोलोचेन लुचितं कुर्वाणे, बृ०४ उ०। | | मुक्कल-त्रि०(मुत्कल) छुटिते, अग्रथिते, विशे० / आ० म०। उपाश्रये स्या समागच्छन् मुत्कलः श्राद्धः / 'निसिहीति'। तस्मान्निर्गच्छश्च 'आवमुडाविय-त्रि०(मुण्डित) मुण्डितस्य तस्य शिष्यत्वेनानुमानात्लुशित- | स्सहीति' वक्ति न वेति प्रश्ने, उत्तरम्-मुत्कलः श्राद्धः 'निसिहीति' वक्ति शिरसि भ० 15 श० न त्यावश्यकीति // 274|| सेन० 3 उल्ला० / मुंडि(ण)-पु०(मुण्डिन्) मुण्डिते, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। औ०। मुक्कलांचल-न०(मुक्तलाञ्चल) छुटितवस्त्रकोणे, ज्ञा०१ श्रु०१६ अ०। मुंडिय-वि०(मुण्डित) शिरोलुचनेन मुण्डीकृते, भ०२ 10 130 / / मुक्कला-स्वी०(मुत्कला) स्वतन्त्रस्त्रियाम्, "सच्छंश उद्दाभा, निरग्गला मुंडिवग-jo(भुण्डिवक) स्वनामख्याते सयवर्द्धननगरराजे. आ० चू० मुक्कला विसंखलया। निरवग्गहा व सइरा, निरंकुसा हुंति अप्पवसा' 4 अग('झाणसंवरजोग' शब्दे चतुर्थभागे १६७३पृष्ठे कथा गता।) पाइ० ना० 13 गाथा। मुंडी-(देश) नारङ्गयाम,दे०ना०६वर्ग 133 गाथा। मुक्कलिय-त्रि०(मुत्कलित) अनुज्ञाते, दर्श०३ तत्त्व। मुंबन-पुं०(मुर्द्धन्) श्रद्धर्द्धि-मूद्धार्द्धऽन्ते वा / / 8 / 2 / 41 / / इति संयु- | मुक्कवास-त्रि०(सुक्तपास) पाशान्मुक्ते, उत्त०२३ अ०॥ स्य ढो वा / मुंढा / मुद्धा / प्रा०। वक्रादावन्तः / / 8 / 1 / 26 / / इत्यु- मुक्किट्ठा-(देशी) हिकायाम, दे०ना०६ वर्ग 134 गाथा। नुस्वारः। मस्तके, प्रा०१ पाद। मुकुरुड-(देशी) राशी, दे०ना०६ वर्ग 136 गाथा! मुंमुर-पुं०(भुर्मुर) फुम्फुकादौ, भस्ममिश्रिताग्निकणे, प्रज्ञा०१ पद। नि० | मुक्के लय-त्रि०(मुक्त) प्राकृतत्वात्स्वार्थे इल्लकप्रत्ययः / अन्यजन्मनि 0 / आc म01 जीवेनोज्झिते शरीरे, अनु० ('सरीर' शब्दे वद्धानि मुक्तानि च मुकुद-पुं०(मुकुन्द) बलदेवे, अनु० / मुरजविशेषे, जं०२ वक्ष 0 / / शरीराणीति वक्ष्यते) आताद्यविशेषे, आचा०१ श्रु०१ अ०५ उ० जी० / नं०। भ०। मुक्ख-त्रि०(मुख्य) अनादौ शेषादेशयोर्द्धित्वम्॥पारा| मुक्खो। मुक्क-त्रि०(मुक्त) मुल्कले, विशे०। नि० चूक मुत्कलीकृते, ज्ञा०१ श्रु०१ प्रा०। प्रधाने, स्था० 1 ठा०। विशे० आ० म०/ 'गौण-मुख्ययोर्मुख्ये अ०1 क्षिप्ते, औकात्यक्ते, स्था०६ ठा०ा विशे। उच्छृङ्गले, दश०८ अ०॥ कार्यसंप्रत्ययः" / स्था०१ ठा०। परित्यक्ते, आव०३ अ०। अन्यजन्मनि जीवेनोज्झिते शरीरे, उत्त०१ | *मूर्ख-पुं०। अज्ञे, "मूर्खत्वं हि सखे! ममापि रुचिरं तस्मिन् यदष्टौ गुणा, अ०। कल्पका निर्लोभ, द्वा० 27 द्वा०। निर्वृत्तिप्राप्ते, स्या०। अनु०। निश्चिन्तो बहुभोजनोऽत्रपमनाः नक्तंदिवा शायकः / कार्याकार्यविचारआव०। मुक्तः परमब्रह्मवादिना परात्मा / यो०वि०। केषाश्चिन्मते मुक्तोऽपि णान्धवधिरो मानापमाने समः, प्रायेणामयवर्जितो दृढ़वपुर्मूर्खः सुखं पुनः संसरति, "दग्धेन्धनः पुनरुपैति भवं प्रमथ्य, निर्वाणमप्यनव- जीवति // 1 // " उत्त० अ० 'बाला मूढा मंदा, अयाण्या वालिसा धारितभीरुनिष्ठम्, / मुक्तः स्वयं कृतभवश्च परार्थशूरस्त्वच्छासन- जडा मुक्खा' पाइ० ना०७१ गाथा। प्रतिहतेष्विह मोहराज्यम्॥१॥" सूत्र०१ श्रु०१ अ०३ उ०। आचा०। *मोक्ष-पु०परमनिःश्रेयसि, पा०। सर्वतः कर्मक्षयो मोक्षः ।स्था०। 1 मोक्षप्रस्तावे, विशेष ठा०। (मोक्षनिर्जरयोर्भेदः 'णिज्जरा' शब्दे चतुर्थभागे 2056 पृष्ठे गतः) *मूक-पुं०। सेवादी वा / / 8 / 2 / 66 / / इति द्वित्वम् / मुक्को मूओ। वाक्-- मुक्खपउम-न०(मोक्षपद्म) कमलवदभिलषणीये पङ्कजे, "एउं सोउ शक्तिविकले, प्रा०२पाद। सरीरस्स, वासाणं गणियपागडमहत्थं / मुक्खपउमस्स ईहह, सम्मत्तमुक्कजोगि(न)-पुं०(मुक्तजोगिन्) त्यक्तज्ञानादियोगे, मुक्काजोगी णामजेण सहस्सपत्तस्स॥१॥" तं० भुक्को जोगी णाणदंसणचरित्ततवणियमसंजमादिसु सो य मुक्कजोगी। मुखपिसाय-पुं०(मुखपिशाच) पिशाचभेदे, प्रज्ञा०१ पद। नि०यू० 20 उ०। मुखभंडक-न०(मुखभाण्डक) मुखाभरणे, औ०। मुक्कट्टहास-पुं०(मुक्ताट्टहास) कृतमहाहासध्वनौ, प्रभ०३ आश्र० द्वार।। मुगुंदमाह-पुं०(मुकुन्दमह) षष्ठीतत्पुरुषः / बलदेवोत्सवे, आचा०२ श्रु०१ मुक्कधुर-पुं०(मुक्तधुर) धूः-संयमधुरा, सा मुक्ता-परित्यक्ता येन स ___ चू०१ अ०२ उ०ा वासुदेवोत्सवे च। भ०६ श० 33 उ०। मुक्तधुरः। संयमभ्रष्ट, बृ०३ उ०। मुगुस-पुं०(मुगुस) खाडहिलाकृतौ जन्तुभेदे, प्रश्न० 1 आश्र० द्वार / मुक्कमउड-पु०(मुक्तमुकुट) यथोक्तप्रमाणे, मुकुटोपरिवर्तिनि, बृ०४ उ०। | _ 'मुगुंसपुच्छ व तस्स मुमगो' उपा० 2 अ०। मुक्कमजाय-त्रि०(मुक्तमर्याद) मर्यादारहिते, "उचिडिम मुक्कमञ्जाय' | मुग्ग-पुं०(मुद्र) मूंग धान्यभेदे, ज०२ वक्ष०ा आच०। अणु० स्थान
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________________ मुग्गडा 308 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मुट्ठिय मुग्गडा-अव्य०(मुधा) वृथाशब्दार्थे, ते मुग्गडा हराविआ जे परिगिट्टा ताह। गन्धारस्वरान्तर्गतया सप्तम्या मूर्च्छनया मूच्छिता, तस्याः अयमाशयः / प्रा०४ पाद! गन्धारस्वरस्य सप्त मूछना भवन्ति, तथाहिमुग्गपण्णी-स्त्री०(मुद्रपर्णी) साधारणबादरवनस्पतिभेदे, प्रज्ञा० १पद। "नंदी य खुड्डिया पू-रिमा य चोत्थीय सुद्धगंधारा। मुग्गफली-स्त्री०(मुद्गफली) मूंगफलीतिख्याते भक्ष्यफले, आव०६ अ०। उत्तरगंधारा वि अ, हवई सा पंचमी मुच्छा / / 1 / / मुग्गर-पुं०(मुद्गर) काष्ठलोहादिमये सग्रन्थिमुष्टिकोपरिसङ्कीर्णवृत्ता- सुट्टत्तरमायामा, छट्टी सा नियमसो उ बोद्धव्वा। धोविस्तीर्णे मल्लोपकरणे, उत्त०१६ अ०। सूत्र०। मोगरेति ख्याते पुष्प- उत्तरमंदा य तहा, हवई सा सत्तमी मुच्छा / / 2 / / " जातिभेदे, कल्प०१ अधि०३ क्षण। अथ किस्वरूपा मूर्च्छना? उच्यते-गन्धारादिस्वरस्वरूपा मोचनेन मुग्गल-पु०(मोगल) पारसीकशब्दः / यवनजातिभेदे, ती०१६ कल्प। गायतोऽतिमधुरा अन्यान्यस्वरविशेषा यान् कुर्वन् आस्तां श्रोतृन मुग्गलि-पु०(मोद्गलि) गौद्गलापत्ये, ननु वा यथा मौद्गलिस्वातिपु- मूर्छितान करोति, किंतु-स्वयमपि भूञ्छित इव तान् करोति, यदिवात्राभ्यां शौद्धोदनिध्वजीकृत्य प्रकाशितः स्वरुचिविरचितो मार्गः / स्वयमपि साक्षान्मूच्छा करोति। आचा०१ श्रु०२ अ० 5 उ०। यदुक्तम्मुग्गस-(देशी) नकुले,देवना०६वर्ग 118 गाथा। "अन्नन्नसरविसेसे, उप्पायंतस्स मुच्छणा भणिया। मुग्गसू-(देशी) नकुले, देना० ६वर्ग 118 गाथा। कत्ता विमुच्छिओ इव, कुणए मुच्छ व सो व त्ति // 1 // " मुग्गसेल-पुं०(मुद्शल) मुद्गप्रमाणे पाषाणविशेषे, मुग्गसले नाम पच्छा गन्धारस्वरान्तर्गतानां च मूर्छनाना मध्ये सप्तमी उत्तरमन्दामूर्छना मेहस्स भूले भणति। आ० म० 1 अ०i आ० चू०। नं०। मुगवद् वृत्तत्व- किलातिप्रकर्षप्राप्ता ततस्तदुपादानम्, तया च मुख्यवृत्त्या वाद-यिता लक्षणत्वादिधर्मयुक्तः किश्चिद् भूतले निमनः किश्चित्प्रकाशश्चिकचि मूर्छितो भवति परमभेदोपचारद्वीणाऽपि मूर्छितेत्युक्ता, साऽपि यद्यङ्के कायमानो बादरादिप्रमाणो लघूपलस्वरूपो मुद्गशैलः। विशे०। सुप्रतिष्ठिता न भवति ततो न मूर्छना प्रकर्ष विदधाति / जं०१ वक्ष०ा मुग्घुरुड-(देशी) राशी, देवना०६ वर्ग० 136 गाथा। प्रश्र०। अंतो बहिं वा अंडयं भिण्णं वा मुच्छियं ति वा एगटुं / नि० चू० 17 मुच्छंझाण-न०(मूर्छाध्यान) मूर्छा अत्यर्थं पूर्वप्राप्तस्य राज्यादेर- उ०। गृद्धे, अध्युपपन्ने, ममत्वबहुले, सूत्र०१ श्रु०१ अ०१ उ०। उत्तका भिष्वङ्गः। कनकध्वजस्येव दुनिभेदे, आतु०। आव०। आचा०। मूढे, गतविवेकचैतन्ये, ज्ञा०१ श्रु०२ अ०। सूत्रका स्था०। मुच्छणा-स्त्री०(मूछना) स्वरविशेषे, अनु०। स्था०। जला (वक्तव्यं 'सर' एकीभावतामापन्ने,सूत्र०२ श्रु०१ अ०। कामोत्कटतृष्णे, सूत्र०१ श्रु०२ शब्दे वक्ष्यते) अ०३ उ०। अत्यन्तासक्ते, सूत्र०१ श्रु०३ अ०२ उ०। उत्त० / स्था०। मुच्छा-स्त्री०(मूर्छा) द्वितीय-तुर्य्ययोरुपरि पूर्वः / / 8 / 2 / 60|| इति | मुज्झत-त्रि०(मुह्यत्) मुहेर्गुम्म-गुम्मडौ / / 8 / 4 / 207 / / इति मुहेर्गुद्वित्वप्रसङ्गे छकारोपरि चकारः / प्रा० सदसद्विवेकनाशे, स्थान म्मगुम्मडादेशाभावे हास्य ज्झादेशः / मोहं गच्छति, प्रा०४ पाद! दुविहा मुच्छा पण्णत्ता, जहा-पिज्जवत्तिया चेव, दोसवत्तिया | मुट्ठि-स्त्री०(मुष्टि) ष्टस्याऽनुष्ट्रासंदष्टे / / 8 / 2 / 3 / / इति ष्टस्य ठः। चेव / स्था०२ठा०४ उ०! बद्धपञ्चाङ्गुलीके हस्ते, प्रा० / आ० का नि० चू०। भ०। उत्त०। स्था०। (व्याख्या स्वस्वशब्दे) मोहे, स्था० 2 टा० 4 उ०। हतनष्टपदार्थ- ___ "बुक्का मुट्ठी' पाइ० ना० 226 गाथा। शोचनायाम, ध०३ अधि० मोहनेनाचेतनीभवने, संरक्षणानुबन्धे च।। मुट्ठिजुद्ध-न०(मुष्टियुद्ध) योद्धयोः परस्परं मुष्ट्या हनने, जं० २वक्षा 10 51 समापरिग्रहे, स्था० १ठा०। गृद्धौ, विशे० आतु०। रात्रका रा०! शा०। औ० आचाका *मु -धा०। मोहसमुच्छ्राययोः, प्रज्ञा०१ पद। मुट्ठियोत्थय-न०(मुष्टिपुस्तक) चउरंगुलदीहो वा, "बद्धा गिइ हिमुच्छावसणट्ठचेयगरुई-स्त्री०(मूच्छविशनष्टचेतोगुवी ) मूच्र्छावशास- पुत्थगी अहवा / चउरंगुलदीहोचिय चउरसो होइ विडेओ 1 // " एचेतसि गुर्वी अलघुशरीरा। मूर्जितलेन गुव्यांम. भ०६ 2033 उ०। इत्युक्तलक्षणे पुस्तकभेदे, बृ० ३उ०! (चउरंगुल त्ति, अङ्गुलचतुमुच्छिऊण-अत्रा०(मूञ्छित्वा) अचेतनां प्राप्येत्यर्थे, महा०२ चू०।। ट्यप्रमाणो दीर्घो वा आकृतावुक्ताकृतिर्वर्तुलाकारो मुष्टिपुस्तकः / अथवामुच्छिज्जंत-त्रि०(मच्छर्धमान) मूच्छना रूपेण बाध्यमाने, आ० चू०१ अ० | अगुलचतुष्कायामः चतुष्कोणो मुष्टिपुस्तकः। स्था०४ ठा०१ उ०। दश मुच्छिय-त्रि० नच्छित) गृहे, आचा०१ श्रु० 102 उ०। गाढमर्म-- जीतका नि०चू०आवा प्रहारादिना (आचा० 1703 अ०१ उ०) अध्युपपन्ने, आचा०२ श्रु०१ मुट्ठिय-10(मौशिक)मुष्टिप्रहारिणि मलविशेषे, अनु० ज्ञा० जी०स्थाला चु०१ अ०८ उन मुच्छिए गढिए गिद्ध अज्झोववण्णे त्ति एगट्टा / विपा०१ जा राधा म्लेच्छजातीये, प्रश्र०१ आश्र० द्वार / लघुतरे घने, भ० 16 901 अगव्याकुलीभूते, अष्ट०३२ अष्ट०। (मुच्चिए इति) मूर्छन मूर्छा श०१ उ० सा राजाला अस्या इति मूञ्छित।। उत्तरमन्दया उत्तरमन्दाभिधया | मुष्टिकृत-त्रिका सङ्कुचिताओं, विशे०
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________________ मुट्ठिय 306 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मुणि मुष्टिक-स्त्री०। लधुमुष्टी, रा०। मुट्ठिवागरण-न०(मुष्टिव्याकरण) व्याकरणभेदे, कल्प०१ अधि०१ क्षण। | मुट्ठिवाय-पुं०(मुष्टिवात) अतिवेगनायुद्धादिग्रहणाय मुष्टिबन्धनेनोत्पन्ने दाते, भ०३ श०२ उ० मुण-धा० ज्ञा) अवबोधने, जो जाण-मुणी / / 8 / 4 / 7 / / जानातेर्जाणमुण इत्यादेशा भवतः / जाणइ / मुणइ / प्रा०४ पाद। विशे०। मुणाल-न०(मृणाल) पद्मनाले, उदृत्वादौ / / 8 / 11131 / / इति उत्। प्रा० / जी० / ज्ञा०ा आव०। प्रश्न०। औ०। प्रज्ञा जा पद्मतन्तौ, ज०१ यक्षा प्रश्न०। “विसं मुणाल' पाइ० ना० 256 गाथा। मुणालिया-स्वी०(मृणालिका) पद्मतन्तौ, जी०३ प्रति०४ अधि०। आ० मारा। पद्मिन्याम्, नं०। जा मुणि-पुं० मुनि) मुणति-प्रतिजानीते, सर्वविरतिमिति मुनिः। विरतिमति, उत्त०१: अ०। मनुते, मन्यते वा, जगतस्त्रिकालावस्थामिति मुनिः / अतीन्द्रियज्ञानवति परोक्षज्ञ, आ० म०१०। सूत्र०। आव०ा आचाला द्वा० अएगदर्शन मुनिस्वरूपं निर्दिशति-सन्ति च लोके अनिर्गन्था निर्ग्रन्थाऽऽरोपभत्ता आत्मनः अशुद्धा अभिमानतः तत्वविवेकविकलाः तेषामेवोपदेशाय विशुद्धगुरुतत्त्वावधोधार्थ चाह। तत्र-मन्यते त्रिकालविषयत्वेन आत्मानमिति मुनिः / तत्र नाममुनिः, स्थापनामुनिः, सुगमः। द्रव्यमुनिः ज्ञशरीरभव्य शरीरतद्व्यतिरिक्तभेदात् अनुपयुक्तो लिङ्गमात्रद्रव्यक्रियावृत्तिसाध्योपयोगशून्यस्य प्रवर्तनविकल्पादिषु कषायनिवृत्तस्य परिणतिचक्रे असंयमपरिणतस्य द्रव्यनिर्गन्थत्वम्। भावमुनिः चारित्रमोहनीयक्षयोपशमक्षायिकोत्पन्नस्वरूपरमणपरभावनिवृत्तः परिणतिविकल्पप्रवृत्तिषु द्वादशकषायोद्रेकमुक्तः नैगमसंग्रहथ्यवहारनयः द्रव्यक्रियाप्रवृत्तद्रव्यासवविरक्तस्य मुनित्वम्, ऋजुसूत्रनयेन भावाभिलाषसंकल्पापगतस्य शब्दसमभिरूढवंभूतनयः प्रमत्तात् क्षीणमोहं यावत् परिणता साम्गन्यविशेषचक्रे स्वतत्त्वैकत्वपरमशमतामृतरतस्य मुनित्वम्, अत्र सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्रप्राग्भावयुक्तस्य द्रव्यभावाश्रवविरतस्वरूपरतस्यावसरः। मन्यते यो जगत्सर्वस मुनिः परिकीर्तितः। सम्यक्त्वमेव तन्मौनं, मौनं सम्यक्त्वमेव च / / 1 / / मन्यत इति यः शमसंवेगनिर्वेदानुकम्पास्तिक्यलक्षणलक्षितो, जगद्-. लोक, जीवाजीवलक्षण मन्यते, जानाति यथार्थोपयोगेन द्रव्यास्तिकपर्यायास्तिकस्वभावगुणपर्यायः निमित्तोपादानकारणकार्यभावोत्स पिवादपद्धत्या जानाति स मुनिः-अवगत-तत्त्वः, परिकीर्तितः-- कथितः, श्रीतीर्थकरगणधरैः मुनेर्निर्ग्रन्थस्य इद मौनम्, एवेति निर्धारणे। तत् सम्यक्त्वं, यत् यथा ज्ञातं तथा कृतमिति तत्सम्यक्त्वम् एव मुनित्वं, सम्यक् वं वा / पुनः सम्यक्त्वम्, एव मौन निर्ग्रन्थत्वम् / अत्र यत् शुद्धश्रद्धाननिर्धारितात्मस्वभावः तव अवस्थानं चरणम, यच्च सम्यगदर्शनेन निर्धारित सम्यग्ज्ञानेन विभक्तं स्वरूपोपादेयत्वं तच तथैव भवति, रमणं चरणं मुनित्वम्, अतः सम्यक्श्रद्धागृहीतकरणं तदेवभूतनयेन | सम्यक्त्वम्, एवंभूतनयेन सम्यगमुनित्वम् सम्यक्स्वरूपम् इति ज्ञपरिज्ञाप्रत्यख्यानपरिज्ञाप्राप्तमेव कार्यसाधक तेन सम्यक्त्वमुनित्व अभेदः / सम्यग्दृष्टिभिः यच्चतुर्थगुणस्थानकसाध्यत्वेन धारित तथाकरणे यत्र मुनिभावे निष्पादितसिद्धावस्थायाम् इत्यनेन शुद्धसिद्धत्वस्य धम.. निर्धारः सम्यक्त्वम्। आचाराङ्गे-"ज सम्मत्त पासह, तमोण पासह जं मोणं पासह, त सम्मत्तं पासह, ण इमं सक कामायरेहि पन्नत्ते हिं गारवावसठोह। 'मुणी मोण समाधाय, धुणे कम्मसरीरगं। पंतं लूहं सेविति, वीरा सम्मत्तदसिणो।।१।।" तथाच पशास्तिकायेपु.-"जीवः चेतनालक्षणः / तत्र स्वीयात्मपद्धोऽपिविभावग्रस्तोऽपि,सत्तया निर्मलाऽऽनन्दी निर्धार्यतदावरणविगमाय माहहेतुतद्रव्यासवान हेयतयोपलक्षितान हेयतया करोति इति सम्यकत्वं मुनिस्वरूपम्॥१॥ आत्माऽऽत्मन्येव यच्छुद्धं , जानात्यात्मानमात्मना। सेयं रत्नत्रये ज्ञप्ति-रुच्याऽऽचारैकता मुनेः / / 2 / / (आत्मा इति) अत्र ज्ञानादिगुणानामभेदकरणभूतानां ज्ञायकत्वकार्यकर्ता आत्मा एव, अत्रोपादानस्वरूपे षट् कारकचक्रमय एवं आत्मा : स्वयमेव कर्तृकार्यरूपोऽपि कारणरूपसंप्रदानापादानाधिकरणः स्वय - मेवेति व्याख्यात भाष्ये श्रीजिनभद्रक्षमाश्रमणैः, अत एव आत्मा जीवः कर्तृ रूपः, आत्मना-आत्मीयज्ञानवीर्येण करणभूतेन आत्मानं अनन्तास्तित्ववस्तुद्रव्यत्व-सत्त्व-प्रमेय-त्व-सिद्धत्वधर्मकदम्बकोपेत कार्यत्वापन्नम् आत्मनि आधारभूते अस्तित्वाद्यनन्तधर्मपर्यायपात्रभूते जानाति, सा इयं-जानातिरूपा प्रवृत्तिः, सा एव रत्नत्रये सभ्यगदर्शनज्ञानचारित्रलक्षणे ज्ञप्तिः- रुचिः, आचारः भासननिस्चिाररूपः, एतेषाम एकताअभेद-परिणतिः, मुनेः अस्ति, इत्यनेन आत्मना-- आत्मानं ज्ञात्वा, तचिः तदाचरणं-मुनः स्वरूपम्। भावना च मिश्यात्वाज्ञानासंयमैकत्वेन पौद्गलिकसुखं, सुखत्वन निर्धार्यज्ञात्वा , तदाचरणप्रवृत्तस्यनन्तकालं तत्त्वानवबोधेन दाधज्वरपरिगतामत्तिकालेप इवावगुण्ठितः कर्मपुद्गलेन चोपलब्धः तत्व श्रद्धानज्ञानरमणानुभवलवोऽपि तेनैव निसर्गाद्विगमादिकारणेन अनादिनिधनोऽयं जीवोऽन-- न्तज्ञानादिपर्यायालिप्तामूर्तस्वभावोऽवगतः,निर्धारितश्च, साध्योऽह, साधकोऽहं, सिद्धोऽह, ज्ञानदर्शनाद्यनन्तगुणमयोऽहम् इति ज्ञप्तिरुच्या आचरणरूप मुनिस्वरूपम्। उक्तं च - ''आत्मानमात्मना वेत्ति, मोहत्यागाद यदात्मनि। तदेव तस्य चारित्रं, तज ज्ञानं तच्च मनम् / / 1 / / " पुनः हरिभद्रपूज्यः षोडशके'बालः पश्यति लिङ्ग, मध्यमवृत्तिर्विचारयति वृत्तम्। आगमतत्वं तु बुधः परीक्षते सर्वयत्नेन // 1 // " अतः तत्त्वैकत्वं चारित्रम् / / 2 / / पुनस्तदेव द्रढयति-- चारित्रमात्मचरणाद्, ज्ञानं वा दर्शनं मुनेः।
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________________ मुणि 310 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 शुद्धज्ञाननये साध्यः, क्रियालाभात क्रियानये / / 3 / / (चारित्रमिति) आत्मचरणात्-आत्मस्वरूपरमणात परभावप्रवृत्तित्यागात, चारित्रम्-आत्मस्वरूपावबोधः, ज्ञानस्वीयासंख्ययप्रदेशव्यापकत्वेन सहजलक्षणज्ञानाद्यनन्तपर्यायः अहं नान्य इति निर्धारः। दर्शनम्-इत्यनेन आत्मा ज्ञानदर्शनोपयोगगुणद्वयलक्षणः / एवम उक्तंच भाष्ये-"आत्मनो गुणद्वयमेव व्याख्यानयन्ति" इति तन्मते- ज्ञाने स्थिरत्वं चारित्रं तेन ज्ञानचारित्रयोरभेद एव, ज्ञानमेवात्मपरिगामायोवृत्तिः / सम्यक्त्वम्- आस्रवरोधः, तत्त्वज्ञानकता चारित्रम, एवं व्यापारम्वेदात् ज्ञानस्यैवावस्थात्रयम्। उक्तं च एवं जिपण्णते, सहमाणस्स भावओ भावे। पुरेसास-णि बाए, दंसणसद्दो हवइ जुत्तो।।१।।" तभावकियानये क्रियालाभात् साध्यनिष्पादनाय इति प्रथम च क्रिसमयमाश तत्वप्राभावेच सर्व ज्ञाननयसाध्यमस्ति, वस्तुतः ज्ञान घर" ज्ञानमयमेवात्मधर्मत्वात्, अतः ज्ञानस्वरूप एवात्मा // 3 // यतः प्रवृत्तिन मणौ, लभ्यते वा न तत्फलम्। अताविकी मणिज्ञप्ति--मणिश्रद्धा च सा यथा।।४।। अनः प्रवृत्तिरिति) अशुद्धज्ञाने निष्कलत्वं द्रढयति, यथा-- अतात्त्विकी भागनप्तिः- अमणौ मण्यारोपे, अमणौ मणिश्रद्धा, तस्मिन् तत्फल न लमले न प्राप्यते, यतः मणेः सकाशात् मणिप्रवतिः विषापहारादिका भवदीत्यर्थः / उक्तंच गुल्लेव मुट्ठी जह से असारे, आयंतए कूडकहावणे वा। हामणी वेरुतवप्पगासे, अम्हग्घउ होइ य जाणएसु॥४॥" तथा यतो न शुद्धात्म-स्वभावाचरणं भवेत्। फलं दोषनिवृत्तिा, न तज्ज्ञानं न दर्शनम् / / 5 / / (तथा इति) तथा-तेन प्रकारेण, यतः-एकान्तद्रव्याचरणचारित्रात्, शुद्धात्मस्वभावाचरण--शुद्धःपरभावरहितः योऽसी आत्मस्वभाव स्वरूपलक्षण: तस्याऽऽचरणं तदैकत्यं तन्मयत्वं न भवेत, तेन प्रवर्तनन फलं शुद्धात्मस्वभावलाभरूपं न परमात्मपदनिष्पत्तिः, न दोषाणांरागादीनां निवृत्तिः अभावः / न / वा--अथवा, तत्-सर्वमपि, प्रवर्तन चाललीलाकल्पं, शुद्धात्मस्वरूपालम्बन-मन्तरेण अवेद्यसवेद्यरूपं ज्ञान-तज्ज्ञानं, तथासकलपरभावसङ्गोपाधिकाशुद्धात्माध्यवसायमुक्ततात्विकामूर्तचिन्मयानन्दात्मीय-सहजभाव एवाहमिति निरिविका तदर्शन,न-नैवेत्यर्थः, अतएव श्रुतेन केवलात्मज्ञानं तदभेदज्ञानम् उत्सर्गज्ञानं च श्रुताक्षरावलम्बि सर्वद्रव्योपयोग भेदज्ञानं सर्वाक्षरसंपन्नश्च यावद् द्रव्यशुभाऽवलम्बी तावद् भेदज्ञानी। उक्तं च समयप्राभृते"जो सुएणाभिगच्छइ, अप्पाणमिणं तु केवलं सुद्ध। त सुअकेवलमिसिणो, भणति लोगप्पदीवयरा / / 1 / / जा सुअनाण सव्वं, जाणइ सुअकेवली तमाहु जिणा। नाण आयासव्य, जम्हा सुअकेवली तम्हा / / " आत्मस्वरूपज्ञानं च प्राभृते"अहमिको खलु सुद्धो, निम्मओ नाणदसणसमग्यो। सम्मि ठिओ तचिनो, सव्वे एए खयं नेमि॥१॥" निर्मलनिष्कलङ्कज्ञानदर्शनोपयोगलक्षण आत्मा, तज्ज्ञानं ज्ञानम ! उक्तं च"देहादेवलजो वसई, देय अणाइअणत। सो परजाणहु जोइया, अत्तत तंत नमंत॥१॥" आत्मज्ञानेनैव सिद्धिः, साध्यमपि पूर्णात्मज्ञानं, तदर्थमेव वदन्ति दर्शनान्तरीयाः,प्राणायामयन्तिरेचकादिपवनम्, अवलम्बयन्ति मौन, भ्रमन्ति गिरिवननिकुञ्जेषु, तथाऽप्यर्हत्प्रणीतागमश्रवणात् स्याद्वादस्वपरपरीक्षपरीक्षितस्वस्वभावावबोधमन्तरेण न कार्यसिद्धिः, अतः प्राप्तावसरे तदेवानन्तगुणपर्यायात्मकमात्मज्ञानमात्मनाऽऽत्मनि करणीयम्। उक्तंच"आत्माऽज्ञानभव दुःख–मात्मज्ञानेन हन्यते। अभ्यस्यं तत्तथा तेन, येन(आत्मा) ज्ञानमयो भवेत्॥१॥" यथा शोफस्य पुष्टत्वं, यथा वा वध्यमण्डनम् / तथा जानन् भवोन्माद-मात्मतृप्तो मुनिर्भवेत् / / 6 / / यथा इति-यथा येन प्रकारेण, शोफस्य-पुष्टत्वं शरीरस्थौल्यं न पुष्टत्वे . इष्ट, वा--अथवा, यथा वध्यस्य-मारणार्थ स्थापितस्य, मण्डनकणबीरमालाधारोपणात्मकम्, एवंरूपं भवोन्मादं जानन-भवस्वरूपम् एवंविध जानन्, मुनिः--समस्तपरभावत्यागी, आत्मतृप्तः आत्मस्वरूपेअनन्तगुणात्मके, तृप्तः-तुष्टो भवेत्, संसार--स्वरूपं विरूपमसारं निष्फलम् अभोग्यं तुच्छतं ज्ञात्वा, मुनिः स्वरूपे मनो भवति // 6 // सुलभं वागनुच्चारं, मौनमेकेन्द्रियेष्वपि / पुद्रलेष्वप्रवृत्तिस्तु, योगानां मौनमुत्तमम् // 7 // (सुलभमिति) वागनुचारम्-वचनाप्रलापरूपं, मौनम् सुलभं सुप्राप्य, तत् एकेन्द्रियेष्वपि अस्ति। तन्मौनं मोक्षसाधकं नास्ति : पुद्गलेषुपगलस्कन्धजवर्णगन्धरसस्पर्शसंस्थानादिषु, योगानांद्रव्यभावमनोदचनकाययोगाना, या अप्रवृत्तिः रम्या, रम्यतया अव्यापकत्व तदभिमुख वीर्यापसरणपरिसर्पणरहितं, मौनम् उत्त--मम्-प्रशस्यम्, भावना चपरभावानुगतचेतनावीर्यप्रवर्त्तनं चापल्य तदोधः मौनम् उत्तमम्-उत्कृष्ट, आयत्यात्मनीनं योगचापल्यं च नात्मकार्य तेन तद्रोधः श्रेयान् योगस्वरूपम् कर्मप्रकृती-आत्मनो वीर्यगुणस्य क्षायोपशमप्राप्तस्यासंख्येयानिस्थानानि सर्वजघन्यं प्रथम योगस्थानं सूक्ष्मनिगोदिनः। एवं सूक्ष्मनिगादेषु उत्पद्यमानस्य जन्तोः भवति / इह जीवस्य वीर्य केवलिप्रज्ञाच्छेदनके न छिद्यमानं छिद्यमान यदा विभाग न प्रयच्छति, तदा स एवाशा विभागः, ते च वीर्यस्याविभागाः, एकैकस्मिन् जीवप्रदेशे चिन्त्यमाना जघन्येनाप्यसंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणाः, उत्कर्षतोऽप्येतत्संख्याः, किंतु-जघन्यपदभाविवीर्याविभागापेक्षया असंख्येयगुणा द्रष्टव्याः,येषां जीवप्रदेशानां समाः तुल्यसंख्यया वीर्याविभागा भवन्ति सर्वेभ्योऽपि चान्यभ्योऽपि जीवप्रदेशगतवीर्याविभागेभ्यः स्तोकतमाः ते जीवप्रदेशा घनीकृतलोकासंख्येयभागासंख्येयप्रतरगतप्रदेशराशिप्रमाणाःसमुदिता एका वर्गणा। सा च जघन्या स्तोकाविभागयुक्तत्वाद्,जघन्यवर्गणातः परे ये जीवप्रदेशाः एकेन वीर्याविभागेनाभ्यधिका घनीकृतलोकासंख्येयभागवर्यसंख्येयप्रतरगतप्रदेशराशिप्रमाणा वर्तन्ते। तेषां समुदायो द्वितीय वर्गणा!
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________________ मुणि 311 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मुणि ततः परं द्वाभ्यां वीर्या विभागाभ्यामधिकानामुक्तसंख्याकानामेव अपजलपढमदुगुरु, पञ्जस्सियरो असंखगुणो।११! जीवप्रदेशानामेव समुदायस्तृतीया वर्गणा, एवमेककबीर्याविभागवृझ्या असभत्ततसुक्कोसो,पजहन्नियर एव ठिइठाणा।" वर्द्धमानानां तावन्तो जीवप्रदेशानां समुदायरूपा वर्गणा असंख्यया इत्यष्टाविंशतिभेदाल्पबहुत्वमवगन्तव्यम् / योगबाहुल्ये बहुकर्मग्राही, वक्तव्याः, ताश्च कियत्य इति इद घनीकृतलोकस्य या एकैकप्रदेश मन्दत्वे अल्पपुद्गलग्राही इत्येवं या योगाना पुद्गलग्रहणारूपा प्रवृत्तिः तस्या पक्तरूपा श्रेणिः तस्याः श्रेणेरसंख्येयतमे भागे यावन्तः आकाशप्रदेशाः रोधः मौनम् उत्तमं किं सतृष्णस्य बाह्ययोगरोधेन? तस्मात सकलताब मात्रा वर्गणा समुदिता एक स्पर्द्धकम्, स्पर्धत इवोत्तरोत्तरवृद्ध्या विमलज्ञानाद्यनन्तगुणगणमहामाहात्म्यपरमात्मभावरसिकैः आत्मनो दाणा अत्र इति स्पर्धकम, पूर्वोक्तस्पर्द्धकगतचरमवर्गणायाः परतो योग प्रवृत्तिपुद्गलानुगतयो रोधनीया इत्युपदेशः // 7 जीवप्रदेशा नैकेन दोर्याविभागेनाधिकाः प्राप्यन्ते नाऽपि द्वाभ्या नाऽपि ज्योतिर्मयीव दीपस्य, क्रिया सर्वाऽपि चिन्मयी। त्रिभिः नाः पि संख्येयः, कि त्वसंख्येयलोकाकाशप्रमाणैरभ्यधिकाः प्रायन्ते, ततस्तेषां समुदायो द्वितीयस्य स्पर्द्धकस्य प्रथमा वर्गणा, ततः यस्यानन्यस्वभावस्य, तस्य मौनमनुत्तरम् / / 8 / / जीवप्रदेशनामकेन दीर्याविभागेनाधिकाना समुदायो द्वितीया वर्गणा. (ज्योतिर्मयीवेति) तस्य तत्त्वैकत्वपरिणतस्य, मौनम्-योगनिग्रहरूप, द्वाभ्यां वीर्याविभागान्यामधिकानां समुदायः तृतीया वर्गणा, एवं तावद्वाच्य स्वधर्मप्राग्भावकर्तृत्वभोक्तृत्वे व्यापारिताशेषवी र्यस्य कर्मविकरणापूर्वयावत् श्रेण्यसंख्येयभागगतप्रदेशराशिप्रमाणा वर्गणा भवन्ति, तासां च करणकिट्टीकरणादिषु स्थापितवीर्यकरणस्य परभावाप्रवृत्तत्वेनमौनम्स्मुदायः द्वितीय स्पर्द्धक, ततः पुनरप्यसंख्येयलोकाकाशाः प्रदेश योगचापल्यतावारणरूपम्, अनुत्तरम-सर्वोत्कृष्ट, यस्य क्रियागुणप्रः। प्रमाणः वीर्याविभागैरभ्यधिकाः प्राप्यन्ते. ततस्तेषां समुदायः तृतीयस्य पप्रवर्त्तनावीर्यप्रवृत्तस्यापि, चिन्मयी-स्वरूपज्ञानमयी, आत्मानुभवैस्पर्द्धकस्य प्रथमा वर्गणा, ततः एक कवीर्याविभागवृद्ध्या द्वितीयादयो कत्वरूपा, तथा-दीपस्यया क्रिया-उत्क्षेपणनिक्षेपणादिका सा सर्वापि वर्गणास्तवद्राच्या यावत् श्रेण्यसंख्ये यभागगतप्रदेशराशिप्रमाणा ज्योतिर्मयी ज्ञान-प्रकाशयुक्ता, तथा यस्य वन्दननमनादिगुणस्थाना भवन्ति, लासां च समुदायः तृतीयं स्पर्द्धकम्,एवम-संख्येयानि स्पर्द्ध राहरूपा क्रिया तत्त्वज्ञानप्रकाशिका तस्य अनन्यस्वभावस्य-न विद्यतेकानि वाध्यानि, एवं पूर्वोक्तानि स्पर्द्धकानि श्रेण्यसंख्ययभागमत- अन्यः परः स्वभावो यस्य सः, तस्य परभावव्यापकचेतनाभिसंधिवीर्यप्रदेशराशिनमाणानि जघन्य योगस्थानम्, एतच सूक्ष्मनिगोदस्य सल्पि- रहित-स्य साधोः मौनम् अनुत्तरम्, वियत्सुस्वभावानुरोधादेव तत्कारवीर्यम्य भवप्रथमसमये वर्तमानस्य प्राप्यते, ततः अस्य जीवस्याधिक- कात वियत्संपूर्णता, तदुत्पत्तौ, 'कुम्भस्येव दशाऽऽत्मनः' इति न्यायात त्रवीर्यस्य येऽल्पतरवीर्या जीवप्रदेशाः तेषां समुदायः प्रथमा वर्गणा, ज्ञानिनः क्रियाज्ञान्युपकारका ज्ञातव्या ज्ञाननयस्यात्मनः तत्त्वैकत्वाततः एकेन वीर्याविभागेन वृद्धानां समुदायो द्वितीया वर्गणा / द्वाभ्या ध्यासितस्वरूपारोहका या क्रिया सा ज्ञानस्वरूपप्रकाशनहेतुः माधिकान समुदाय-स्तृतीया वर्गणा / एवमेकैकवीर्याविभागवर्द्धमानानां आवरणनिमित्तमसक्रिया आवरणापगमाय सत्क्रियानिमित्तं भवति, यावत् श्रेण्यसंख्येयभागगतप्रदेशराशिप्रमाणा भवन्ति, तासा समुदायः माग्नरयन कारणीभवति, अतः तत्त्वज्ञानस्वरूपकत्वध्यानलीनाना प्रथम-स्पर्द्धकम् / ततः प्राक्तनयोगस्थानप्रदर्शितप्रकारण द्वितीयादीनि गुनीन तमाम एव नमश्चरणया: ।।८अष्ट० 13 अष्ट प्रतिज्ञाल. पर्दकानि वाच्यानि, जानि च यावत् श्रेण्यसंख्येभागगतप्रदशशि- सावधविरतो, उत्त०२७ अ०। साधी, आव०४ अविशा सूत्रा प्रमाणानि भवन्ति, ततस्तेषां समुदायो द्वितीय योगस्थानम्। ततोऽन्यस्य नि० चू०। सूत्र० दश०। ध०। अद्रोहाध्यवसायवति, आचा०१ श्रु० जोवस्याधिकतरवीर्यस्योपदर्शितप्रकारण तृतीय योगस्थान धाव्यम्। ३अ०३ उ०। यथावस्थितसंसारस्वभाववेत्तरि, सूत्र०१ श्रु०२ अ०२ उ०। एवमन्योऽन्यजीवापेक्षया तावत् योगस्थानानिवाच्यानि यावत्सर्वोत्कृष्ट आधा०ा तीर्थकृति, आचा०१ श्रु०५ अ०३ उ०। यती, सूत्र०१श्रु० योमन्थान भवति / तानि च योगरथानानि सर्वाण्यपि श्रेण्यसंख्येय- २अ०२उ० भ०। आव०। सर्वज्ञ, सूत्र०१ श्रु०२४०१ उ०। महर्षी ,सूत्र०१ भागगतप्राशराशिप्रमाणानि भवन्ति / क्षयोपशमवैचित्र्यात्सर्वमवसेयम् / शु०२ अ०१ उ०। मननशील, उत्त०६ अ० वाचयमे उपा०२ अ० संयते, ननु जीवानामनन्तत्वात् प्रति-जीवं च योगस्थानस्य प्राप्यमाणत्वात दश०५ अ०। मोक्षमात्रनिष्ठे, दश०५ अग तपस्विनि, दश०१० अ०॥ अनन्तानि योगस्थानानि प्राप्नुवन्ति, कथमुच्यते असंख्येयानि? मानिनि, औ०। तत्त्वज्ञानिनि, अष्ट० 22 अष्ट०। आ०म० रागउच्यते-रतः एकैकस्मिन् योगस्थाने सदृशे सदृशे वर्तमानाः रथावरजीवा द्वेषवर्जिते, आ०म०१अ०। त्रिविधपरीषहसहनशीले, आ०म०१ अ०। अनन्ताः प्राप्यन्ते, ततः सर्वजीवापेक्षयाऽपि सर्वाणि योगस्थानानि "जइणो तवरिसणो तावता रिसी भिक्खुणो मुणी समणा'' पाइ० ना० कैथलपरिज्ञया परिभाव्यमानानि असंख्येयान्येव प्राप्यन्ते नाधिकानि, 32 गाथा। एकस्मिन् योगस्थाने एको जीवः जघन्यत एक समयम् उत्कृष्टताऽष्टौ / मुणिअ-त्रि०(ज्ञात) विदिते, 'कलिअविइयं विण्णाय अहिगयं बुज्झिज समयान यावत्तिष्ठति / एवं योगस्थानतारतम्ये सर्वजीवेषु योगबाहुल्यं | मुणिों ' पाइ० ना०६१ गाथा। गाथाक्रमेण वक्तव्यम मुणिअतत्त-पुं०(ज्ञाततत्त्व) ज्ञातपरमार्थ , 'मुणि अतत्तस्स' (851 "सहमनिगोआइ क्खण-प्पजोगवायरविगलअमणमणा। गाथा) पं०व०३द्वार। जी।
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________________ मुणिंद 312 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मुत्त मुणिंद-पुं०(मुनीन्द्र) हस्वस्संयोगे // 1 // 84|| इति संयुक्तपरत्वाद् | यन्तीवोपरिव्यवस्थित इति मुनिप्रवेर श्रीवीरजिने, सूत्र०१ श्रु०६ अ०। ह्रस्वः / प्रा०१ पाद। परमज्ञानिनि समयज्ञे, षो०१ विव०। मुणिसुंदर-पुं०(मुनिसुन्दर) सोमसुन्दरगणीन्द्रशिष्ये, श्रीदेव सुन्दरगुरोः मुणिगण-पुं०(मुनिगण) व्रतादौ, आव०३ अ० पट्टे श्रीसोमसुन्दरगणीन्द्राः / अभवन् युगप्रधानाः शिष्यास्तेषां च पञ्चैते मुणिचंद-पुं०(मुनिचन्द्र) सागरचन्द्रस्य मुनेः समीपे प्रव्रज्यब्रह्य- श्रीमुनिसुन्दरसूरिः येन स्तोत्ररत्नकोशो नाम ग्रन्थो व्यरचि / ग०३ दत्तपूर्वभवजीवस्य पुत्रस्य चित्रस्यापि च पूर्वभवजीवस्य गोपाल- अधिo। अस्य जन्मविक्रमसंवत् 1436 दीक्षा विक्रमसंवत् 1443 दारकस्य प्रव्राजके, उत्त०१३ अ० (तत्कथा बंभदत्त' शब्दे पञ्चमभागे अस्ति / अयं च वाचकपदम् 1466 सूरिपदम् 1478 स्वर्गगमनम् 1503 1272 पृष्ठे उक्ता) मण्डलप्रकरणकारके सूरौ, मण्ड० स्था०। आ०चू०। प्राप्तवान्पाण्डित्यप्रभावादयं काली-सरस्वतीवादिगोकुलषण्डसहस्रा('मेअज्ज' शब्दे कथा) कुमारसन्निवेशे भगवद्-वीरेण सह मिलिते धिधानीत्यादिविरुदानि लेभे। जै०इ०। 'वीरात् त्रिनन्दाङ्कशरद्यचीकरपावपित्तीये साधौ, आ०म०१ अाआ०चून अनेकान्तजयपताकाकृति त्सचैत्यपूते ध्रुवसेनभूपतिः। यस्मिन्महैः संसदि कल्पवाचनामाद्यात्तसूरौ, अने। तपागच्छप्रथमसूरौ, गा . दानन्दपुरं न कः स्तुते॥१॥" कल्प०१ अधि०७ क्षण। "श्रीसर्वदेवसूरि-र्जज्ञे पुनरेव गुरुचन्द्रः // 22 // मुनिसुव्वय-पुं०(मुनिसुब्रत) मनुते जगतस्तिकालावस्थामिति मुनिः। जातौ तस्य विनेयौ, सूरियशोभद्रनेमिचन्द्रावौ। मुनेरुदेतौ चास्य वेति इप्रत्यये उपान्त्यस्योत्वम् / शोभनानि व्रतानि ताभ्यां मुनीन्द्रश्रीमुनि-चन्द्रौ गुरू समभूताम्॥२३॥" यस्येति सुव्रतः मुनिश्चासौ सुव्रतः, तथा-गर्भस्थे जननी मुनिवत्सुव्रता ग०३ अधि०। अनेन गाथाकोशः तीर्थमालास्तवः रत्नत्रयकुलकं जातेति मुनिसुव्रतः / ध०२ अधि०। 'जाया जणणी जं सुव्वइ त्ति हरिभद्रसूरिकृतधर्मविन्दुटीका चेति ग्रन्था रचिताः। द्वितीयोऽप्येतन्नामा मुणिसुव्वओ तम्हा" ध०२ अधि० आव०। अस्या-मवसर्पिण्यां चन्द्रप्रभसूरिशिष्यः देवप्रभसूरिगुरुः धौलुक्कवंशीयस्य आनलराजस्य भरतक्षेत्रे जाते विंशतितमे तीर्थकरे, कल्प०१अधि०७ क्षण / स्था०। प्रव्राजयिता, तृतीयश्च वडगच्छे देवसूरिगुरुः आवश्यकसप्ततिग्रन्थकर्ता। अनु०॥ प्रवof "एक्कारसमो देवईजीवो मुणि-सुव्वओ" ती०२० कल्प०| जै० इ०॥ देवक्या जीवे भाविन्यामुत्सर्पिण्यां जनिष्यमाणे एकादशे तीर्थकरे, प्रव० मुणिजण-पुं०(मुनिजन) साधुजने, जी०१ प्रतिका 46 द्वार / ति०। आ०का मुणिसेण-पुं०(मुनिसेन) पुष्पकलावतीविजये पुण्डरीकिण्यां नगर्या जाते मुणित्ता-स्त्री०(मुनिता) प्रद्रजिततायाम्, आ०म०१०॥ सागरसेनभ्रातरि, आ०चू०१०। ('उसभ' शब्दे द्वितीय-भागे 1133 मुणिदेवसूरि-पुं०(मुनिदेवसूरि) शान्तिनाथचरित्रग्रन्थकृति, द्वितीयोऽपि पृष्ठे श्रेयांसेन स्वपूर्वभवकथने ललिताङ्गदेवप्रस्तावे कथोक्ता) मुनिनेआचार्य इति प्रसिद्धःसुभाषितरत्नकोषनाम-ग्रन्थकर्ता। जै०३०। मुणी-(देशी) अगस्तिद्रुमे,देखना०६ वर्ग 133 गाथा। मुणिपरिसा-स्त्री०(मुनिपर्षद) मौनवत्साधुषु, औ०। मुणिऊण-अव्य०(ज्ञात्वा) ज्ञात्वेत्यर्थे, पञ्चा०६ विव०। मुणिपुङ्गव-पुं०(मुनिपुङ्गव) तीर्थकरगणधरादिषु, दर्श०४ तत्त्व। मुणियव्व-त्रि०(ज्ञातव्य) ज्ञातव्ये, उत्त०२ अ० मन्तव्ये,प्रव० 204 द्वार / मुणिय-त्रि०(ज्ञात) विदिते, आ०चू०१अ० नं०। स्वनामख्याते पिशाचे, वेदितव्ये,5१ वक्ष०ा आव०। पञ्चा०। आ०चू०१० मुत्त-त्रि०(मुक्त) त्यक्ते, पा०। सूत्र०। चतुर्गतिविपाकचित्रकर्मबन्धमुक्तमुणियपरमऽत्थ-पुं०(ज्ञातपरमार्थ) अभ्युद्यतविहारेण विहर्तुमव-सरः त्वान्मुक्तः। ल०। मुक्तस्त्यक्तः सङ्गोः द्रव्यतः पुनर्मुक्तो भावतोऽभिष्वसाम्प्रतमस्माकमित्येवमवगतार्थे , बृ०६ उ०। ज्ञात-सिद्धान्तार्थे, पञ्चा० ङ्गाभावात् / स्था० / 'चत्तारि पुरिसाजाया०' (366 इत्यादि सूत्रम् 15 विवश 'पुरिसजाय' शब्दे पञ्चमभागे 1033 पृष्ठे गतम् ) निर्लोभतायुक्ते, ग०२ मुणिरयणसूरि-पुं०(मुनिरत्नसूरि) चन्द्रगच्छीये समुद्रघोषसूरि-शिष्ये अधि०। बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहरहिते, आचा०१श्रु०२अ०६उ०) बाह्याजिनसिंहसूरिगुरौ, अनेन अममस्वामिचरित्रनामग्रन्थो रचितः अयं 1160 भ्यन्तरग्रन्थिबन्धनान्मोचके, स०१ सम०। दश० भ० भवोपग्राहिविक्रमसवत्सरे आसीत्। जै०इ०। कर्मणि, कल्प०१ अधि०६क्षण। चतुर्गतिविपाकचित्रकर्मबन्धमुक्ते, ध०२ मुणिवंस-पुं०(मुनिवंश) यतिमुनिशब्दयोः पर्यायत्वात्। मुनिकुले, स० अधिसकलकर्मकृत-विकारविरहिते, स्था०१० ठा०। क्षिप्ते, जी०३ मुनिवर-पुं०(मुनिवर) श्रमणश्रेष्ठे, ग०१ अधि०। प्रति४ अधि०ा ज्ञा०। सूत्र० न०। प्रश्रवणे, अष्ट० 16 अष्ट०। आव०॥ मुणिवसभ-पुं०(मुनिवृषभ) सातिशयादिमुनिमुङ्गवे, पञ्चा०२ विव०। स्थाका प्रश्न०। दर्श०रा०ा आ०का मुणिविजय-पुं०(मुनिविजय) अन्निकाचार्यपुष्पचूलकथानामग्रन्थस्य | मुर्त-त्रिवार्तस्याऽधूर्तादौ ॥चा।३०।। इति धूर्त्तादित्वात्तस्य टो न। कारके अमरविजयशिष्ये, जै०इ०। मुत्तो। प्रा० / प्रव० वर्णादिमति, स्था०५ ठा० ३उ०। रूपिणि, आव०४ मुणिवेजयंत-पुं०(मुनिवैजयन्त) मनुते जगतस्त्रिकालावस्थामिति अ०। करप्रेरिते, ज्ञा०१ श्रु०१ अ० कर्मपञ्जरान्मुक्तः। कल्प०१ मुनिर्भगवान् वैजयन्तः प्रधानः समस्तलोकस्य महातपसा वैज- अधि०२क्षण।
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________________ मुत्तग 313 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मुत्तावली मुत्तग-नर (मुक्तक स्वनामख्याते, पुष्पे, कल्प०१ अधि० ३क्षणः मुक्तावलीतपः प्राह-- मुत्तत्त-न- (मूर्तत्व) मूतों रूपरसगन्धस्पर्शादिसन्निवेशता तस्या धरण- एगो दुगाइ एकग-अंतरिआ जाव सोलस हवंति। स्वभावो मूर्तत्वम / मूर्नस्वभावे, "मूर्ति दधाति मूर्तत्वममूर्त्तत्व विपर्य- पुण सोलस एगंता, एकंतरिया अभत्तहा।।१५३७।। यात्।" द्रव्या० 12 अध्या०। लोकदृष्टव्यवहारेण मूर्तस्वभाव एवात्मा पारणयाणं सट्ठी, परिवाडी चउक्कगंमि चत्तारि। इत्येके। द्रव्या०११ अध्या। वरिसाणि हुंति मुत्ता-वलीतवे दिवससंखाए।।१५३८॥ मुत्तपुरीसुस्सग्ग-पुं०(मूत्रपुरीषोत्सर्ग) मूत्रपुरीषत्यागे, "मूत्रोत्सर्ग मलो मुक्तावली-मौक्तिकहारः, तदाकारस्थापनया यत्तपः तन्मुक्तावलीसर्ग, मैथुन रनानभोजनम्। सन्ध्यादिकर्मपूजांच, कुर्याजापं च मौनवत त्युच्यते / तत्रादौ तावदेककः स्थाप्यते, ततो दिकत्रिकादय एक१६३०२ अधि०। नि० चून कान्तरिता भवन्ति / यावत्षोडश / ततः पुनः प्रत्यागत्या षोडशादय मुत्तमल-jo(मुक्तमल) मलरहिते, दर्श० 4 तत्त्व। एककपर्यन्ता एककान्तरिता स्थाप्यन्ते। स्थापना चेयम्मुत्तरूव-०(मुक्तरूप) वैराग्यपिशुनाकारे, स्था०४ ठा०४ उ०। वा अयमर्थः-पूर्व तावदेक उपवासः, ततो द्वौ, ततः पुनरेकः, नुत्तसक्करा-स्त्री०(मूत्रशर्करा) पाषाणके मूत्ररोगे, नि० चू० 130 / ततस्रयः, तत एकः, ततश्चत्वारः, तत एकः, ततः पञ्च, तत मुत्ता-स्त्री (मुक्ता) मुक्ताफले, आ०म० १अ०। स्था०ा राण एकः, ततः षट्, तत एकः, ततः सप्त, तत एकः, ततोऽष्टौ, तत मुत्ताकलाव-न०( मुक्ताकलाप) मौक्तिकाहारे कल्प०१अधि० २क्षण। एकः, ततो नव, तत एकः, ततो दश. तत एकः, तत एकादश, तत एकः, ततो द्वादश, तत एकः, ततस्त्रयोदश, तत एकः, मुत्ताजाल-न०(मुक्काजाल) मुक्ताफलसमूह, ज्ञा० १श्रु०१ अ०। मुक्ता ततश्चतुर्दश, तत एकः, ततः पञ्चदश, ततएकः, ततः फलमये दामसमूहे. रा०ा मुक्ताजालानामन्तरेषु यान्युत्सृतानि लम्बमा षोडशोपवासाः, एवमर्द्धमुक्तावल्या निष्पन्नं द्वितीयमप्यमेव नानि हेमजालानि-सुवर्णसमूहाः / रा०ा जी०। द्रष्टव्यम्. केवलमत्र प्रतिलोमगत्या उपवासान् करोति, मुत्तादाम-न०(मुक्तादामन्) मुक्ताफलमालायाम, रा०ा औ०। तत्रथा-षोडशोप-वासान् कृत्वा एकमुपवासं करोति / ततः मुत्ताफल-न०(मुक्ताफल) मौक्तिके, मुक्ताफलानि सचित्तानि अचित्तानि पञ्चदश, तत एकमित्येवमेकोप-वासान्तरितमेकोत्तरहान्या वा पृथिवीकायदलान्यपकायदलानि वेति प्रश्ने, उत्तरम्-मुक्ताफलान्य तावनेयं यावत्पर्यन्ते द्वावुपवासौ कृत्या एकमुपवासं करोति चित्तानि पृथ्वीकायरूपाणि च भवन्तीति / / 215 / / सेन०३ उल्ला० इति, एते अभक्तार्था उपवासाः, सर्वाग्रेण च त्रीणि शतानि, मुत्तामणिमय-त्रि०(मुक्ताभणिमय) मुक्ता-मुक्ताफलानि, मणयश्चन्द्र तथाहि-द्वे पोदशसंकलने 150-150 अष्टाविंशतिश्च कान्ताद्या रत्नाविशेषाः, मुक्तारूपा वा मणयो रत्नानि मुक्ता-मणयस्त चतुर्थानि / तथा-षष्टिः पारणकानि, ततो जातमेकं वर्षम, द्विकार मुक्तामणिमयः / मुक्तामणिविकारे, स०६४ समन एतदपि तपः प्रागवच्चतसृभिः परिपाटीभिः समाप्यते, ततो मुचाऽऽलय-पुं०( मुक्ताऽऽलय) मुक्तानामाश्रयत्वादालयः मुक्तालयः। ईषत भवन्ति मुक्तावलीत-पसि दिवससंख्यया चत्वारि वर्षाणीति। प्राग्भाशयां पृथिव्याम्. जं०३ वक्ष०। स० अन्तकृद्दशासु पुनर्य एव प्रथम-पक्तिपर्यन्तवर्तिनः षोडश, मुत्तावली-स्त्री० मुक्तावली) मुक्ताफलमये आभरणविशेषे, ज्ञा० 1 श्रु० द्वितीयपक्तिप्रारम्भेऽपि त एव.एक एव षोडश क इति अ० जी० आचा०ा जला मुत्ताफलशरीरे हारे,स०७४ सम०। राण [1, 165J तात्पर्यम् / प्रव०२७१ द्वार। औ०। 101 "मुतावलीय हारों" पाइ० ना०११५ गाथा। स्वनामख्याते पितुसेणकण्हाऽवि नवरं मुत्तावलीतवोकम्म उवसंपजित्ता णं द्वीपे, समुद्रे च। मुक्तावलिद्वीपे मुक्तावलिभद्रमुक्लावलिमहाभद्रौ, मुक्ता- विहरति / तं जहा-चउत्थं करेति, चउत्थं करित्तासव्वकाम-गुणियं वली समुद्र मुक्तावलिवर-मुक्तावलि–महावरी, मुक्तावलिवर द्वीपमुक्ता- पारेति, सव्वकामगुणियं पारेत्ताछटुं करेति, छटुं करेत्तावलिवरभद्र-मुक्तावलिवरमहा-भद्रौ, मुक्तावलिवरे समुद्रे-मुक्तावलि- सव्वकामगुणियंपारेति, सव्वकामगुणियंपारेत्ताचउत्थं करेति, चउत्थं यर-मुक्तावलिमहावरी, मुक्तावलिवरावभासे द्वीपेमुक्तावलिवराव-भास- करेत्ता सव्वकामगुणियंपारेति, सव्वकामगुणियं पारेत्ता-अट्ठमं करेति, भद्र-मुक्तावलिव-राभासमहाभद्रौ, मुक्तावलिवराभवासे समुद्रे-मुक्ता- अट्ठमंकरेत्तासव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकाम-गुणियं पारेत्ता-चउत्थं बलिरावभा-सवर--मुक्तावलिवरावभासमहावरौ / जी०३ प्रति०२ उ० | करेति, चउत्थं करेत्ता-सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं मुक्तावलिः-मौक्तिकहारः, तदाकारस्थापनया यत्तपस्तन्मुक्तावली- | पारेत्तादसमं करेति, दसमं करेत्तासव्वकामगुणियं पारेति, सव्वत्युच्यते। तपोभेदे, प्रव० कामगुणियंपारेत्ताचउत्थंकरेति, चउत्थंकरेत्तासव्वकामगुणियंपारेति, .DR.0000000000000020 DAN..
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________________ मुत्तावली 314 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मुत्ति सव्वकामगुणियं पारेत्ता-दुवालसं करेति, दुवालसं करेत्त स-- | देवौ। जी०१प्रतिका व्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारेत्ता-चउत्थं करेति, | मुक्तावलीवरभद्द-पुं०(मुक्तावलीवरभद्र) मुक्तावलीयरद्वीपस्य समुद्रस्य चउत्थं करेत्ता-सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं, च पूर्वार्धाधिपती देवे, जी० 3 प्रति०५ अधिका पारेत्ता-चोद्दसमं करेति, चोहसमं करेत्ता-सव्वकामगुणियं मुत्तावलीवरमहावर-पुं०(मुक्तावलिवरमहावर) मुक्तावलीवरद्वीपस्य पारेति, सव्वकामगुणियं पारेत्ता-चउत्थं करेति, चउत्थं करेत्ता समुद्रस्य च परार्द्धाधिपतौ देवे, जी०३ प्रति०४ अधि सव्वकामगुणियं पारेति, सध्वकामगुणियं पारेत्ता-सोलसमं मुत्तासुत्ति-स्त्री०(मुक्ताशुक्ति) मुक्ताफलयोन्याकाराया हस्तविन्याकरेति, सोलसमं करेत्ता-सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकाम समुद्रायाम,पञ्चा० 3 विव०। प्रव०। सङ्घा०। मुक्ता मौक्तिकानि तासा गुणियं पारेत्ता--अट्ठारसं करेति, अट्ठारसं करेत्ता-सव्वकाम शुक्तिरुत्पत्तिस्थानम् / मुक्तोत्पत्तिस्थाने, दर्श०१ तत्त्व० गुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारेत्ता-वीसतिमं करेति, मुत्ताहल-न०(मुक्ताफल) फो भ-हौ / / 8 / 1 / 226 / / कचित्तु हः। वीसतिमं करेत्ता-सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकाम-गुणियं मुत्ताहल / शुक्तिजे रत्ने, (मोती) प्रा०१ पाद। पारेत्ता-चउत्थं करेति, चउत्थं करेत्ता-सव्वकामगुणियं पारेति, मुत्ति-स्त्री०(मुक्ति) मोचनं मुक्तिः / लोभपरित्यागभावनायाम, आव०४ सव्वकामगुणिचं पारेत्ता-बावीसइमं करेति, बावीसइमं करेत्ता अ०) बाह्याभ्यन्तरवस्तुषु तृष्णाविच्छेदे, ध०३ अधि०। राधा ज्ञान सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारेत्ता-चउत्थं करेति, निर्लोभतायाम्, उत्त० 26 अ० आव०। स्था०ा लोभोदयनिरोधे, औ०। चउत्थं करेत्ता-सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं घ०। पा०। पञ्चा०। धर्मोपकरणेऽप्यमूर्छायाम, द्वा० 27 द्वा०। स्था०। पारेत्ता-चोव्वीसइमं करेति, चोव्वीसइमं करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारेत्ता-चउत्थं करेति, चउत्थं करेत्ता-- प्रश्रवा निरन्तर बहवो जीवा मुक्तो यान्ति परं मुक्तौ संकीर्ण न जायते, सव्वकामगुणियं पारेति, सव्यकामगु-णियं पारेत्ता-छव्वीसइम संसारश्व रिक्तो न भवति, तस्य को दृष्टान्त इति प्रश्ने, उत्तरम् यथा करेति, छव्वीसइमं करेत्ता-सव्वका-मगुणियं पारेति, सव्व भूमिकमृत्तिका मेघजलप्रेरिता समुद्रमध्ये निरन्तरं याति, तथापि समुद्रः कामगुणियं पारेत्ता चउत्थं करेति, चउत्थं करेत्ता-सव्वकाम पूर्णो न भवति, भूमिकायां च गर्ता न भवन्ति, तथा मुक्तावप्ययमेव गुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारेत्ता-अट्ठावीसं करेति दृष्टान्तो ज्ञेय इति।।४५७।। सेन०३ उल्ला०। अट्ठावीसं करेत्ता-सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं कवलभोजित्वेऽपि कृतार्थत्य केवलिनो व्यवस्थापितम् / सर्वथा पारेत्ता-चउत्थं करेति, चगत्थं करेत्ता-सव्व-कामगुणियं कृतार्थत्वं चास्य मुक्तौ व्यवतिष्ठते इति बहुविप्रतिपत्तिनिरासेन मुक्तिस्त्र पारेति, सव्वकामगुणियं पारेत्ता-चउत्थं करेति, चउत्थं करेत्ता व्यवस्थाप्यते। सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारेत्तातीसइमं करेति, दुःखध्वंसः परो मुक्ति-मनिं दुःखत्वगत्र च / तीसइमं करेत्ता-सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं आत्मकालान्यगध्वंस--प्रतियोगिन्यवृत्तिमत्॥११॥ पारेत्ता-चउत्थं करेति चउत्थं करेत्तासव्व-कामगुणियं पारेति, दुःखध्वंस इति–परो दुःखध्वंसो मुक्तिः / परत्वं च समानकालीनसव्वकामगुणियं पारेत्ता-वत्तीसइमं, वत्तीसइमं करेत्ता-सव्व- समानाधिकरणदुःखप्रागभावासमानदेशत्वं वर्धमानग्रन्थे श्रूयते। तत्र च कामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं पारेत्ता-चउत्थं करेति, यद्यत्स्वसमानकालीनस्वसमानाधिकरणदुःखप्रागभावसमानदेशचउत्थं करेत्ता-सव्वकामगुणियं पारेति, सव्वकामगुणियं मिदानीतनदुःखध्वंसादि तत्तद्भेदो निवेश्यः / अन्यथा--चरमदुःखध्वंसपारेत्ता-चोत्तीसइमं करेति, एवं तहेव ओसारेति०जाव चउत्थं समानकालीनसमानाधिकरणदुःखप्रागभावाप्रसिद्धः। वस्तुतः करेति, चउत्थं करेत्ता-सव्वकाम-गुणियं पारेति, एक्काए समानाधिकरणदुःखप्रागभावासमानकालीनदुःखध्वंसो मुक्तिः / इत्येक कालो-एक्कारस मासा पनरस य दिवसा चउण्हं तिण्णि वरिसा लक्षणम् / अपरं च-"समानकालीनदुः खप्रागभावसमानाधिकरणी दस य मासा सेसं ०जाव सिद्धा। (सूत्र०-२५) अन्त०८ वर्ग दुःखध्वंस' इति। लक्षणद्वये तात्पर्यम्। तेन नासमानदेशत्वविवेचने न्यअ० तरविशेषणवैयर्थ्यम् / मानप्रमाणं, चात्र मुक्ती, दुःखत्वमिति पक्षः / मुत्तावलीभद्द-पुं०(मुक्तावलीभद्र) मुक्तावलीद्वीपस्य पूर्वार्धाधिपती देव, आत्मकालान्यग आत्मकालान्याकाशादिवृत्तियों ध्वंसः शब्दादेस्तजी०३ प्रति०४ अधिक त्प्रतियोगिनि शब्दादाववृत्तिमदवर्तमानम्। शब्दादिवृत्तित्वेनार्थान्तरवामुत्तावलीमहाभद्द-पुं०(मुक्तावलीमहाभद्र) मुक्तावलीद्वीपपरार्द्ध-धिपे रणार्थमेतत् पक्षविशेषण, बाधास्फूर्तिदशायां तत्सिद्धिप्रसङ्गात्, नियत. देवे, जी०३ प्रति०४ अधिक। बाधस्फोरणेनैतत्साफल्याद्। अवृत्तिदुःखत्वमित्युक्तावसिद्धिः। दुःखत्यमुत्तावलीवर-पु०(मुक्तावलीवर) मुक्तावलीसमुद्रस्य पूर्वाऽ ऽधिपदेव, रय दुःखवृत्तित्वाध्वंसेत्याधुक्तावपिध्वंसप्रतियोगिनि कालान्यवृत्तीत्यास्वनामख्याले दीपभेदे च / तत्र मुक्तावलीवरभद्रमुक्तावलीवरमहाभद्री द्युक्तावपि कालान्यात्मवृत्तिदुःखध्वंसप्रतियोगिनि कालान्यन्यत्यागे चा
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________________ 315 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मुत्ति मान्यकालवृत्ति-दुःखध्वंसप्रतियोगिनि दुःखे विद्यमानत्वात् सैवेति संपूर्णम्। आत्मकालपदेन तदुपाध्योरपि ग्रहाच्च नतस्यास्तादवस्थ्यम्॥१॥ सत्कार्यमात्रवृत्तित्वात्, प्रागभावोऽसुखस्य यः। तदनाधारगध्वंस-प्रतियोगिनि वृत्तिमत्।।२।। सदिति-असुखस्य-दुःखस्य, यः प्रागभावस्तदनाधारो महाप्रलयस्तत्र गर ति यो ध्वंसो दुःखी यस्तत्प्रतियोगिनि दुःखे वृत्तिमदिति / साध्यम् वृतिमदित्युक्तौ सिद्धसाधनं, दुःखत्वस्य दुःखे विद्यमानत्वात / प्रतियोगिवृत्तित्वोक्तावपि दुःखात्यन्ताभावप्रतियोगिवृत्तित्वेन, तद्धंसेन्यायुक्त वपि दुःखध्वंसाङ्गीकारात्तदेव / प्रागभावानाधारवृत्तित्वस्य सविशेषणत्वे दृष्टान्तासिद्धिः। प्रदीपावयवानां प्रदीपप्रागभावाधारत्यात्तदर्थ दुःखेत्यादि। प्रदीपावयवास्तु दुःखप्रागभावा (ना) धारभूता इति दृष्टान्तसंगतिः / दुःखानधिकरणेत्यादिकरणे खण्डप्रलयेनार्थान्तरता स्यादिति दुःखप्रागभावनिवेशः / सत्कार्यमात्रवृत्तित्वादिति हेतुः / बुनिस्वमात्मत्वे व्यभिचारिकार्यवृत्तित्वमनन्तत्वध्वंसाप्रतियोगित्वरूप-- स्य तस्वकार्ये आत्मादौ कार्ये ध्वसे च सत्त्वात्। कार्यमात्रवृत्ति-त्वमपि "वंसाचे न्यभिचारवृत्तित्वे (व्यभिचारि तदर्थ भाववृत्ते) सतीति विशेषणे दीयमानेऽपि न तदुद्धारः / प्राग्भावध्वंसस्य प्रतियोगितद्ध्वंसस्वरूपत्वेन ध्वसत्वस्यापि भाववृत्तित्वात्। ततः सदिति कार्यविशेषणम् / / 2 / / दीपत्ववदिति प्राहु-स्तार्किकास्तदसंगतम्। बाधा वृत्तिविशेषेष्टा-वन्यथार्थान्तराव्ययात्॥३।। दोपत्ववदिति, दृष्टान्तः, इति-तार्किकाः-नैयायिकाः / इत्थं सर्वमुक्तिसिद्धी पत्रदुःखत्वादिकं पक्षीकृत्य तत्तन्मुक्तित्वसाधनोपपत्तेः / तत्तार्किकमतमसंगतम न्यायापतम। वृत्तिविशेषस्याभावीयविशेषणतया दुःखप्रारभावानाधारवृत्तित्वस्येष्टी साध्यकोटिनिवेशोपगमे बाधात / दुःखध्वसस्य दुःखसमवायिन्येव तया वृत्तित्वस्य त्वयांपगमात्। अन्यथा सम्बन्धमात्रेण तदिष्टौ अर्थान्तराव्ययादर्थान्तरानुद्धारात आकाशादावपि दुःखध्वसस्य व्यभिचारितादिसम्बन्धेन वृत्तित्वात्प्रकृतान्यसिद्धः / कालिकदेशिकविशेषणतान्यतरसम्बन्धेन वृत्तित्वोक्तावपि कालोपाधिवृत्तित्वेन तदनपायात् / कालिकेन दुःखप्रागभावानाधारत्वनिवेशे च दृष्टान्तासङ्गते। मुख्यकालवृत्तित्वविशिष्टकालिकसम्बन्धेन तन्निवेशेऽपि आत्मनस्तथात्वात्। उक्तान्यतरसबन्धन तन्निवेशेऽपि तथा-सम्बन्धगभंव्याप्त्यग्रहादिति भावः / / 3 / / विपक्षबाधकामावा-दनभिप्रेतसिद्धितः / अन्तरैतदयोग्यत्वा च्छता योगापहेति चेत्।।४।। विपक्षेति--विपक्षे हेतुसत्त्वेऽपि साध्यासत्त्चे, बाधकस्यानुकूलतर्कस्याम तात् / तथा चानभिप्रेतसिद्धितोऽनिष्ट सिद्धिप्रसद्भात / कालान्यत्वगर्भसाध्य प्रत्यपि उक्तहेतारविशेषात्। एतदुक्तसाध्यमन्तरा सर्वमुक्त्यसिद्धौ अयोग्यत्वाशङ्का। य एव न कदापि मोक्ष्यते तद्वदह यदि स्थां तदा मम विफलं परिव्राजकत्वमित्याकारा, योगापहा-योगप्रतिबन्धिकेत्यद एव विपक्षबाधकमिति चेत् // 4 // नैवं शमादिसंपत्त्या,स्वयोग्यत्वविनिश्चयात् / न चान्योऽन्याश्रयस्तस्याः , संभवात् पूर्वसेवया / / 5 / / नैवमिति-एवं न यथोक्तं विपक्षबाधकं भवता, शमादीनां शमदमभोगाभिष्वङ्गादीना मुमुक्षुचिहाना संपत्या। स्वयोग्यत्वस्य विनिश्चयात-- तेषां तदव्याप्यत्वात् / न चान्योन्याश्रयो योगप्रवृत्ती सत्यां शमादिसम्पत्तिस्ततश्चाधिकारविनिश्चयात्सेति संभावनीयम, तस्याः-शमादिसंपत्तेः पूर्वसवथा योगप्रवृत्तेः प्रागपि,सम्भवात्-योगप्रवृत्तेरतिशयितशमादिसम्पादकत्वेनेव फलवत्त्वात्। सामान्यतस्तुतत्र कर्मविशेषक्षयोपशम एव हेतुरिति न किञ्चिदनुपपन्नम्।।५।। शमाद्युपहिता हन्त, योग्यतैव विभिद्यते। तदवच्छेदकत्वेन, संकोचस्तेन तस्य न ||6|| शमादीति- शमादिभिर्मुमुक्षुलिनै रुपहिता हन्त योग्यतैव विभिद्यते / सामा सयोग्यतातः समुचितयोग्यतायाः प्राग भेदसमर्थनात्। तेन कारणेन तदेव छदकत्वेन योग्यतावच्छेदकत्वेन तस्य शमादेः संकोचोन योग्यतावच्छेदकत्वलक्षणः, योग्यताविशेषस्यैव अतिशयितशमादौ तद्द्वारा च मोक्षे हेतुत्वात्।॥६॥ ननु शमादावपि संसारित्वेनैव हेतुतेति सर्वमुक्त्याक्षेप ___ इत्यत आहसंसारित्वेन गुरुणा, शमाऽऽदौ च न हेतुता। भव्यत्वेनैव किं त्वेषे-त्येतदन्यत्र दर्शितम् / / 7 / / संसारित्वेनेति-संसारित्वेन नित्यज्ञानादिमद्भिन्नत्वरूपेण गुरुणा नानापदार्थघटितेन शमादौ च हेतुता न तव कल्पयितुमुचितेति शेषः / कि तु-भव्यत्वेनैवैषा हेतुता, शमाद्यनुगतकार्यजनकतावच्छेदकतया - इत्मत्वव्याप्यजातिविशेषस्य कल्पयितुमुचितत्वाद् / द्रव्यत्वादावप्यनुगतकार्यस्यैव मानत्वात्। आत्मत्वेनैव शमादिहेतुत्वे विशेषसामग्यभावेनेश्वरेऽतिप्रसङ्गाभावे समर्थनीयेऽन्यत्रापि तेन तस्य सुवचत्वाद्भव्यत्वामध्ययशव भव्यत्वनिश्चयेन प्रवृत्त्यप्रतिबन्धादिति / एतदन्यत्र न्यायालाकादा दर्शितम् // 7 // परमात्मनि जीवात्म-लयःसेति त्रिदण्डिनः। लयो लिङ्गव्ययोऽत्रेष्टो, जीवनाशश्च नेष्यते // 8|| परमात्मनीति-परमात्मनि, जीवात्मलयः-सा-मुक्तिरिति, त्रिदण्डिनो वदन्ति। अत्रैतन्मते लयो लिङ्गव्यय इष्टोऽस्माकमप्यभिमतः / एकादशन्द्रियाणि पञ्च महाभूतानि च सूक्ष्ममात्रया संभूयावस्थितानि जीवात्मनि सुखदुःखावच्छेदकानि लिङ्गशब्दे-नोच्यन्ते, तद्व्ययश्च परमार्थतो नामकर्मक्षय एवेति। जीवनाशस्तु नेष्यते, उपाधिशरीरनाशे औपाधिकजीवनाशस्याप्यकामम्यत्वात् / / 8 / / बौद्धास्त्वालयविज्ञान-सन्ततिःसेत्यकीर्तयन्। विनाऽन्वयिनमाधारं, तेषामेषा कदर्थना ||6| बोद्धास्त्विति- बौद्धास्तु, आलयविज्ञानसन्ततिः-प्रवृत्तिविज्ञानोपप्लवरहिता संहतज्ञयाकारा ज्ञानक्षणपरंपरा, सामुक्तिरित्यकीर्तयन् यथोक्तम"चित्तमेव हि संसारो, रागादिक्लेशवासितम्। तदेव तैर्विनिर्मुक्तं, भवान्त इति कथ्यते / / 1 / / "
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________________ मुत्ति 316 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मुत्ति न च शरीरादिनिमित्ताभावे तदनुपपत्तिः, पूर्वपूर्वविशिष्टक्षणानामेव तद्धेतुत्वाद्विशिष्टभावनातएव तेषां विसभागपरिक्षये प्रवृत्तेः। तेषामन्वयिन त्रिकालानुगतात्मलक्षणमाधारं विना एषा मुक्तिः कदर्थना / सन्तानस्यावास्तवत्वेन बद्धमुक्तव्यवस्थानुपत्तेः। सर्वथाऽभावीभूतस्य क्षणस्योतरसदृशक्षणजननासामर्थ्यादिति / / 6 / / विवर्त्तमानज्ञेयार्था--पेक्षायां सति चाश्रये। अस्यां विजयतेऽस्माकं, पर्यायनयदेशना / / 10 / / विवर्तमानेति-विवर्त्तमानाः--प्रतिक्षणमन्यान्यपर्यायभाजो ये ज्ञेयार्थास्तदपेक्षायामाश्रये चान्वयिद्रव्यलक्षणे सति / अस्याम-उक्तमुक्ती अस्माकं पर्यायनयदेशना विजयते प्रतिक्षितद्रव्यस्य बौद्धसिद्धान्तस्य परमार्थतः पर्यायार्थिकनयान्तः पातित्वात्। तदुक्तं संमती (3 काण्डे)"सुद्धोअणतणयस्स उपरिसुद्धो पज्जवविअप्पो'" (48) / / 10 / / स्वातन्त्र्यं मुक्तिरित्यन्ये, प्रभुता तन्मदः क्षयी। अथ कर्मनिवृत्तिश्चेत्, सिद्धान्तोऽस्माकमेव सः||११|| स्वातन्त्र्यमिति-स्वातन्त्र्य मुक्तिरित्यन्ये वदन्ति / तत् स्वातन्त्र्यं यदि प्रभुता तदा मदः, स च क्षयी। अथ चेत् कर्मनिवृत्तिस्तदाऽस्माकमेव रा सिद्धान्तः // 11 // पुंसः स्वरूपावस्थानं, सेति सांख्याः प्रचक्षते। तेषामेतदसाध्यत्वं, वज्रलेपोऽस्ति दूषणम् // 12 // पुंस इति-पुंसः पुरुषस्य, स्वरूपावस्थानम्-प्रकृतितद्विकारो पधानविलये चिन्मात्रप्रतिष्ठानं सा मुक्तिरिति सांख्याः प्रचक्षते / तेषामेतस्य मुक्तेरसाध्यत्व दूषण वज्रलेपोऽस्ति एकान्तनित्यात्मरूपायास्तस्या नित्यत्वादुपचरितसाध्यत्वस्याप्रयोजकत्वात् / / 12 / / पूर्वचित्तनिवृत्तिःसा-ग्रिमानुत्पादसंगता। इत्यन्ये श्रयते तेषा-मनुत्पादो न साध्यताम् // 13 / / पूर्वेति-अग्रिमानुत्पादसंगताऽग्रिमचित्तानुत्पादविशिष्टा पूर्वचित्तनिवृत्तिः सा मुक्तिरित्यन्ये, तेषामनुत्पादः साध्यता न श्रयत इति मुक्तेरपुरुषार्थत्वापत्तिरेव दोषः / / 13 / / सात्महानमिति प्राह, चार्वाकस्तत्तु पाप्मने। तस्य हातुमशक्यत्वा-तदनुद्देशतस्तथा।।१४।।। सेति--आत्महानं सा-मुक्तिरिति चार्वाकः प्राह / तत्तु वचनं श्रयमाणमपि पाप्मन भवति / तस्यात्मनो हातुमशक्यत्वादसतो नित्यनिवृत्तवात्, सतश्च वीतरागजन्मादर्शनन्यायेन नित्यत्वात्, सर्वथा हानासिद्धेः। तथापर्यायार्थ तया तद्धानावपि तदुद्देशत आत्मनानभिलाषात / मुक्तिपदार्थस्य च निरुपधीच्छाविषयत्वात्।।१४।। नित्योत्कृष्टसुखव्यक्ति-रिति तौतातिता जगुः / नित्थत्वं चेत्तन्तत्व-मत्र तत्संमतं हि नः॥१५|| नित्येति-न्त्यिम, उत्कृष्ट च-निरतिशयं, यत्सुखं तद्व्यक्तिमुक्तिरिति तोतातिता गुः / अत्र मते नित्यत्वमनन्तत्वं चेत्तत्तदा नःअस्माक, हिनिश्चित, संमतम् / सिद्धसुखस्य साद्यपर्यवसितत्वाभिधानात् / तस्य च / मुक्ताबभिव्यक्तेः / / 15 / / अधानादित्वमेतचे-तथाप्येष नयोऽस्तु नः। सर्वथोपगमे च स्या-त्सर्वदा तदुपस्थितिः।।१६।। अथति-अर्थतन्मुक्तिसुखे, नित्यत्वमनादित्वं चेत्तथापि न एष नयोऽस्तु संसारदशायां कर्माच्छन्नस्यापि सुखस्य द्रव्यार्थतया शाश्वतात्मस्वभावत्वात / सर्वथोपगमे च-एकान्ततोऽनादित्वा-श्रयणे च, सर्वदा-- संसारदशायामपि, तदुपस्थितिमुक्तिसुखाभिव्यक्तिः, स्यात् ! अभिव्यजकाभावेन तदा तदभिव्यक्त्यभाव-समर्थने च घटादेरपि दण्डाभिव्यङ्ग्यत्वस्य सुवचत्वे साङ्ख्यमतप्रवेशापातात्।।१६।। वेदान्तिनस्त्वविद्यायां, निवृत्तायां विविक्तता। सेत्याह साऽपि नो तेषा-मसाध्यत्वादवस्थितेः॥१७॥ वेदान्तिनस्त्विति-वेदान्तिनस्तु, अविद्यायां निवृत्तायां विविक्तताकेवलात्मावस्थानं, सा-मुक्तिरित्याहुः / साऽपि भो तेषां युक्तेति शेषः / अवस्थितेर्विज्ञानसुखात्मकस्य ब्रह्मणः प्रागप्यवस्थानाटसाध्यत्वात्, कण्ठगतचामीकरन्यायेन भ्रमादेव नात्र प्रवृत्तिरिति तु भ्रान्तपर्षदि वक्तुं शोभत इति भावः / / 17 / / कृत्स्नकर्मक्षयो मुक्ति-रित्येष तु विपश्चिताम् / स्याद्वादामृतपानस्योद्गारः स्फारनयाश्रयः ||18|| कृत्स्नेति- कृरस्नानां कर्मणां ज्ञानावरणादीन क्षयो मुक्तिः, एष तु विपश्चिताम्-एकान्तपण्डितानां स्याद्वादामृतपानस्योद्वार: स्फारा ये नयास्तत्तत्तन्त्रप्रसिद्धार्थस्तदाश्रयः षड्दर्शनसमूहमयतवस्य जैनदर्शन संमतत्वात्॥१८॥ नयानेवात्राभिव्यनक्तिऋजुसूत्रादिभिर्ज्ञान-सुखादिकपरम्परा। व्यङ्ग्यमावरणोच्छित्त्या, संग्रहेणेष्यते सुखम् / / 16 / / जुसूत्रादिभिरिति-ऋजुसूत्रादिभिनयानसुखादिकपरम्परा मुक्तिरिष्यते शुद्धनयस्तैरुत्तरोत्तरविशुद्धपर्यायमात्राभ्युपगमा न ज्ञानादीना क्षणरूपतायाः क्षणसत्तयाऽपि सिद्धः, तस्याः क्षणतादात नियतत्वात, क्षणस्वरूपे तथादर्शनात् संग्रहेण संग्रहनयेनावरणोच्छित्या व्यङ्गय सुख मुक्तिरिष्यते। तद्धिजीवस्य स्वभावः सेन्द्रियदेहाद्यपेक्षाकारणस्वरूपावरणेनाच्छाद्यते, प्रदीपस्यापवारकावस्थितपदार्थप्रकाशकत्वस्वभाव इव तदावारकशरावादिना तदपगमे तु प्रदीपस्येव जीवस्यापि विशिष्टप्रकाशस्वभावोऽयत्न-सिद्ध एवेति। शरीराभावे ज्ञानसुखाद्यभादोऽप्रेय एव। अन्यथा शरावाद्यभावे प्रदीपादेरभावप्रसङ्गात्। शरावादेः प्रदीपाद्यजनकत्वान्नोक्तप्रसङ्ग इति चेन्न, तथाभूतप्रदीपपरिणत्यजनकत्वे शरावादेस्तदनावारकत्वप्रसङ्गादिति / / 16 / / क्षयः प्रयत्नसाध्यस्तु, व्यवहारेण कर्मणाम्। न चैवमपुमर्थत्वं, द्वेषयोनिप्रवृत्तितः॥२०॥ क्षय इति-व्यवहारेण तु प्रयत्नसाध्यः कर्मणां क्षयो मुक्तिरिष्यते अन्वयव्यतिरेकानुविधानेन तत्प्रवृत्तेः ज्ञानादीनां कर्मक्षय तदनुविधानात् / न चैव कर्मक्षयस्य मुक्तित्वाभ्युपगमेऽपुमर्थत्वं, मुक्तेद्वेषयोनिप्रवृत्तितः साक्षाद् दुःखहेतुनाशोपायच्छाविषयत्वन परमपुरुषार्थत्वाविरोधात् // 20 //
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________________ मुत्ति 317 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मुत्ति -- दुःखद्वेषे हि तद्धेतून, द्वेष्टि प्राणी नियोगतः। जायतेऽस्य प्रवृत्तिश्च, ततस्तन्नाशहेतुषु / / 21 / / दुःखद्वेप हीति-दुःखद्वेष हि सति प्राणी तद्धेतून दुःखहेतून, नियोगतोनिश्चयतो, द्वेष्टि अस्य दुःखहेतुद्विषश्च ततस्तन्नाशहेतुषुदुःखोपायनाशहेतुषु ज्ञानादिषु प्रवृत्तिर्जायते, दुःखद्वेष्यस्य दुःख-हेतुनाशोपायेच्छा दुःखहेतुपयोस्तयोश्च दुःखहेतुनाशहेतुप्रवृत्ती स्वभावतो हेतुत्वात् / अनुस्यूतकोपयोगरूपत्वेऽपि क्रमानुवेधेन हेतुहेतुमद्रावाविरोधात्, क्रमिकाक्रमिकोभयस्वभावोपयोगस्य तत्र तत्र व्यवस्थापितत्वात्।।२१।। इत्थं चात्र दुःखं मा भूदित्युद्देशे दुःखहेतुनाशविषयकत्व फलितमित्येतदन्यत्राप्यतिदिशन्नाहअन्यत्राप्यसुखं मा भू-माङोऽर्थेऽत्रान्वयः स्थितः। दुःखस्यैवं समाश्रित्य, स्वहेतुप्रतियोगिताम्।।२२।। अन्यत्रापीति-अन्यत्रापि प्रायश्चित्तादिस्थलेऽपि, असुखं मा भूत, अत्र माडोऽर्थे ध्वसे एवम्-उक्तरीत्या दुःखस्य स्वहेतुप्रति योगितामा'श्रत्यान्वयः स्थितः। तत्पापजन्यदुःखाप्रसिद्ध्या तद्ध्वंसस्यासाध्यवात्। अस्तु वा दुःखद्वेषस्यैवायमुल्लेखः मुख्यप्रयोजनाविषयकेच्छाविषयत्वेन च मुख्यप्रयोजनत्वमविरुद्धमिति भावः।।२२।। स्वतोऽपुमर्थताऽप्येव--मिति चेत् कर्मणामपि / शक्त्या चेन्मुख्यदुःखत्वं, स्याद्वादे किं नु बाध्यताम् / / 23 / / स्वत इति-एवमपि, स्वतोऽपुमर्थता निरुपाधिकेच्छाविषयत्वेन सुरखदुःखहान्यन्यतरस्यैव स्वतः पूमर्थत्वादिति चेत् कर्मणामपि शक्त्या चन्मुख्यदुःखत्वं तदा स्याद्वादे किं नु बाध्यताम्? दुःख हेतोरपि कथंचिद् दुःखत्वात्, दुःखक्षयत्वेन रूपेण कर्मक्षयस्य त्वन्नीत्याऽपि मुख्यप्रयोजनत्वानपायाद् रुपान्तरेण तत्त्वस्य चाप्रयोजकत्वात् / / 23 / / स्वतः प्रवृत्तिसाम्राज्यं, किं चाखण्डसुखेच्छया। निराबाधं च वैराग्य-मसङ्गे तदुपक्षयात्।।२४।। स्वत इति किं च स्वतो निरुपाधिकतया प्रवृत्तिसाम्राज्यम-खण्डसुखेच्छयाऽखण्डसुखसंवलितत्वात् कर्मक्षयस्य, नन्वेवं सुखेच्छया वैराग्यलाहलिरित्यत आह-असङ्गेऽसङ्गानुष्ठाने तदुपक्षयात सुखेच्छाया अपि विरमान्निराबाधं च वैराग्यम, भोक्षे भवे च सर्वत्र निस्पृहो मुनिसत्तमः' इतिवचनात / न चेदेव सुखेच्छया वैराग्यस्येव दुःखद्वेषात प्रशान्त वस्यापि व्याहतिरेवेति भावः // 24 // समानायव्ययत्वे च, वृथा मुक्तौ परिश्रमः / गुणहानेरनिष्टत्वा-त्ततः सुष्ठूच्यते ह्यदः / / 25 / / समानेति-समानाऽऽयव्ययत्वे च सुखदुःखाभावाभ्यामभ्युपगम्यमाने मुक्तौ वृथा परिश्रमः / गुणहानेरनिष्टत्वात्तदनुविद्वदुः खनाशोपायेऽनिष्टानुबन्धित्वज्ञानेन प्रेक्षावत्प्रवृत्तेरयोगात्ततो हादः सुष्ठूच्यते॥२५॥ | दुःखाभावोऽपि नावेद्यः पुरुषार्थतयेष्यते। न हि मूर्छाद्यवस्थार्थ, प्रवृत्तौ दृश्यते सुधीः / / 26 / / दुःखाभावोऽपीति-दुःखाभावोऽपि, न अवेद्यः-स्वसमानाधिकरणसमानकालीनसाक्षात्काराविषयः, पुरुषार्थतयेष्यते न हि मूर्छाद्यवस्थार्थ सुधीः प्रवृत्तो दृश्यते। अन्यथा तदर्थमपि प्रवृत्तिः स्यात्। अतो गुणहानेरनिष्टत्वेन दुःखाभावरूपायां मुक्तौ तदर्थ--प्रवृत्तिव्याघात एव दूषणमिति भावः // 26|| एतेनैतदपास्तं हि, पुमर्थत्वेऽप्रयोजकम् / तज्ज्ञानं दुःखनाशश्च, वर्तमानोऽनुभूयते॥२७|| एतेनेति-एतेन, गुणहानेरनिष्टत्वेन, हि-निश्चितम्, एतदपास्तम् / यदुक्तं महानयायिकेन पुमर्थत्वे तज्ज्ञानं पुमर्थज्ञानमप्रयोजक, दुःखनाशश्व वर्तमानोऽनुभूयते, विनश्यदवस्थेन योगिसाक्षात्कारेणेति॥२७॥ गुणहानेरष्टित्वं, वैराग्यान्नाऽथ वेद्यते। इच्छाद्वेषौ विना नैवं, प्रवृत्तिः सुखदुःखयोः।।२८|| गुणहानेरिति-अथ गुणहानेरनिष्टत्वं वैराग्यान्न वेद्यते कामान्धत्वादिव पारदार्ये बलवद् दुःखानुबन्धित्व, ततः प्रवृत्त्यव्याघात इति भावः / एवं सति इच्छाद्वेषौ विना सुखदुःखयोः प्राप्यनाश्ययोरिति शेषः / प्रवृत्तिर्न स्यात। परवैराग्ये प्रवृत्तिकरणयोस्तयोर्निवृत्तेरपरवैराग्ये च गुणवैतृष्ण्यस्यैवाभावाद् गुणहानेरनिष्टत्वाप्रतिसन्धानानुपपत्तेर्गुणहानेरनिष्टत्वे प्रतिसहिते प्राक्तनप्रवृत्त्यनुपपत्तौ तत्संस्कारतोऽप्यसङ्ग प्रवृत्तेर्दुर्वचत्वमिति न किञ्चिदेतत् // 28 // ननु श्रुतिबाधान्न मुक्तौ सुखसिद्धिरित्यत आहअशरीरं वा वसन्त-मित्यादिश्रुतितः पुनः। सिद्धो हन्त्युभयाभावो, नैव सत्तां यतः स्मृतम् // 26|| अशरीरमिति-अशरीरं वा वसन्तमित्यादिश्रुतितः "अशरीरं वसन्ते प्रियाप्रिये न स्पृशत" इति श्रुतेः, पुनरुभयाभावःसुखदुःखोभयाभवःसिद्धः एकसत्तां सुखरात्ता न हन्ति। एकवत्यपि द्वित्वावच्छिन्नाभावप्रत्ययात्। अस्तुवा तत्राप्रियपदसन्निधानात् प्रियपदस्य वैषयिकसुखपरत्वमेवेत्यपि द्रष्टव्यम् / यतः स्मृतम्।।२६।। सुखमात्यन्तिकं यत्रः बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम् / तं वै मोक्षं विजानीयात, दुष्प्रापमकृतात्मभिः ||30 / / सुखमिति-स्पष्टः / / 30 / / उपचारोऽत्र नाबाधात्, साक्षिणी चात्र दृश्यते। नित्यं विज्ञानमानन्दं, ब्रह्मेत्यप्यपरा श्रुतिः।।३१।। उपचार इति-अत्र मुक्तिसुखप्रतिपादिकायाम्-उक्तस्मृतौ, उपचारो न दुःखाभावे सुखपदस्य लाक्षणिकत्वम् / अबाधाबाधाभावात्, जन्यस्याप्यभावस्येव भावस्यापि कस्यचिदनन्तत्वसभवात् / अत्र मुक्तिसुखे-'नित्यं विज्ञानमानन्दं ब्रह्म' इति अपराऽपि श्रुतिः साक्षिणी वर्त्तते, तया नित्यज्ञानानन्दब्रह्माभेदबोधनादिति // 31 / / परमानं दलयतां, परमानं दयावताम् / परमान्दपीनाः स्मः, परमानन्दचर्चया / / 32|| परमानमिति - परेषामे कान्ताभिनिविष्टानां मानं कु हेतु
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________________ मुत्ति 318 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मुत्तिपह द्धलयता स्याद्वादमुद्रण, किं भूतं? परः प्रकृष्टो मानो दो यस्मात्तत्तथा / यथाश्रुति सूत्रार्थः-गुणविशेषाणामाश्रयो द्रव्यमेव व्यक्तिर्मूर्तिश्चति दयावतामनेकान्तप्रणयितया जगदुद्धिीर्षावतां सिताम्वरसाधूनां परमा- तस्येष्टम् / यथोक्तम्-''गुणविशेषाणां रूप-रस-गन्ध-स्पर्शानाम् नन्दचर्चयामहोदयमीमांसया वयं परमेणोत्कृष्ट नानन्देन, पीनाः- | गुरुत्व-द्रवत्व-घनत्य-संस्काराणाम् अव्यापिनश्व परिमाणविशेषपुष्टाःस्मः // 32 / / द्वा० 31 द्वा० स्याश्रयो यथासम्भवं तद् द्रव्यं मूर्ति (मूर्तिः) मूञ्छितावयवत्वात" मुक्तिफलम् (न्यायद० वात्स्या०भा०पृ०२२४) इति। सम्म० १काण्ड १गाथा। मुत्तीए णं भंते ! जीवे किं जणयइ ? मुत्तीए णं अकिंचणत्तं | मुत्तिअद्विन्-पुं०(मुक्त्यर्थिन्) मुक्तेःपरमपदस्यार्थी अभिलाषी / कैवल्यजणयइ, अकिंचणे य जीवे अत्थलोभाणं पुरिस्राणं अपत्थ- | सुखार्थिनि, ध०३ अधिo णिज्जे भवइ / 47|| मुत्तिअदोस-पुं०(मुक्त्यद्वेष) मनाङ् मुक्त्यनुरागे, द्वा०) हे भगवन् ! मुक्त्या -निर्लोभत्वेन, जीवः किं जनयति? गुरुराह- उक्तेषु पूर्वसेवाभेदेषु मुक्त्यद्वेषं प्राधान्येन पुरस्कुर्वन्नाहहेशिष्य ! मुक्त्या अकिञ्चनत्वम्-निष्परिग्रहत्वम्, उत्पादयति। अकिञ्च- उक्तभेदेषु योगीन्द्र-मुक्त्यद्वेषः प्रशस्यते। नत्वेन जीवः अर्थलोभानाम् अप्रार्थनीयो भवति, कोऽर्थः-योऽकिशनो- मुक्त्युपायेषु नो चेष्टा, मलनायैव यत्ततः।।१।। निष्परिग्रहो भवति-स पुरुषोऽर्थे लोभो येषां तेऽर्थलोभाः द्रव्यार्थिन (उक्तभेदेष्विति) मलनायैव-विनाशनिभित्तमेव, तद्धिभवापायोत्कश्वौरादयः / पुरुषास्तेषाम् अप्रार्थनीयः-तैरवञ्चनीयः, चौरादया हि टेच्छया स्यात्। सा च न मुक्त्यद्वेष इति मुक्त्युपायमलनाभावप्रयोजनिष्परिग्रह किं कुर्वन्ति, परिग्रहवता चौरेभ्यो भीतिः स्यात् / उत्त० 26 कोऽयम्। अ०। अशेषकर्मप्रच्युती,सूत्र०२ श्रु०२ अ०। भवोपग्राहिकर्मभ्यः प्रच्युतो, विषान्नतृप्तिसदृशं, तद्यतो व्रतदुर्ग्रहः। पं० स०२ द्वार / कर्म०। ध०। मोक्षगतो, आतुoा निःसङ्ग तायाम्, आ० उक्तः शास्त्रेषु शस्वाग्नि-व्यालदुर्ग्रहसन्निभः।।२।। चू० 4 अ० मुच्यन्ते सकलकर्मभिर्यस्यामिति मुक्तिः / ईषत्प्रारभारायां (विषेति) तन्मुक्त्युपायमलनं विषाऽन्नतृप्तिसदृशम् आपाततः सुखापृथिव्याम्, स्था०८ ठा०३ उ०। परमपदे, "लोअग्ग परमपयं मुत्ती सिद्धी भासहेतुत्वेऽपि बहुतरदुःखानुबन्धित्वात्। यद्-यस्माद् व्रताना दुर्गहोsसिवं च निव्वाण'' पाइ० ना०२० गाथा। सम्यगङ्गीकारः उक्तः / शारवेषु योगस्वरूपनिरूपकग्रन्थेषु, शस्वाग्निव्या* मूर्ति-स्त्री० / शरीरे, विशे०। 'मुत्ती गत्तं बुंदी संघयणं निग्गहा तणू लानां यो दुर्गहो-दुर्गृहीतत्व, तेन सन्निभः-सदृशः, असुन्दरपरिणामत्वात् काओ'' पाइ० ना०५६ गाथा। आ० मा स्था० वर्णादिमत्त्व, यद्योगा / / 2 / / द्वा० 13 द्वा० न्मूर्त भवति। स्था०४ टा०१उ०। गुणविशेषाश्रये, राम्म०। 'व्यक्तिर्गुण संमोहादननुष्ठानं, सदनुष्ठानरागतः। विशेषाश्रयो मूर्तिः" (न्यायद०अ०२ आ०२ सू०६६) इति। अस्यार्थी तद्धेतुरमृतं तु स्या-च्छ्रद्धया जैनवर्त्मनः / / 13 / / वार्त्तिककारमतेन-"विशिष्यत इति विशेषः गुणेभ्यो विशेषो गुणविशेषः कम्माभिधीयते. द्वितीयश्चात्र गुणविशेषशब्द एकशेष कृत्वा निर्दिष्टः तेन (समोहादिति) समोहात् संनिपातोपहतस्येव सर्वतोऽनध्यवसायादनगुणपदार्थो गृह्यते-गुणाश्च ते विशेषाश्च गुणविशेषाः- विशेषग्रहणमाकृति नुष्ठानमुच्यते, अनुष्ठानमेव न भवतीतिकृत्वा / सदनुष्ठानरागतस्तात्विनिरासार्थम्। तथाहि-आकृतिःसंयोगविशेषस्वभावा, संयोगश्च गुणपदा कदेवपूजाद्याचारभावबहुमानादिधार्मिककालभाविदेवपूजाद्यनुष्ठान र्थान्तर्गतः ततश्चासति विशेषग्रहणे आकृतेरपि ग्रहणं स्यात्, न च तस्या तद्धतुरुच्रुते। मुक्त्यद्वेषेण मनाग मुक्त्यनुरागेण वा शुभभावलेशसंगव्यक्तावन्तर्भाव इष्यते पृथक् स्वशब्देन तस्या उपादानात्। आश्रयशब्देन मादस्य सदनुष्ठानहेतुत्वात्, जैनवर्त्मनो जिनोदितमार्गस्य, श्रद्धयाद्रव्यमभिधीयते-तेषां गुणविशेषाणामाश्रयस्तदाश्रयो द्रव्यमित्यर्थः सूत्रे इदमेव तत्त्वमित्यध्यवसायलक्षणया त्वनुष्ठानममृतं स्याद, अमरणहेतु'तत्' शब्दलोपं कृत्वा निर्देशः कृतः ,एवं च विग्रहः कर्त्तव्यः गुणविशेषाश्च त्वात् / तदुक्तम्-"जिनोदित-मिति त्वाहुर्भावसारमदः पुनः / गुणविशेषाश्चति गुणविशेषाः तदाश्रयश्चेति गुणविशेषाश्रयः, समाहार संवेगगर्भमत्यन्त-ममृतं मुनिपुङ्गवाः! / / 1 / / " / / 13 / द्वा० 13 द्वा०। द्वन्द्वश्वायम् "लोकाश्रयत्वात् लिङ्गस्य" (अ०२ पा०२ सू० 26 महा मुत्तिणिलय-पुं०(मुक्तिनिलय) शत्रुञ्जये, ती०१ कल्पना भाष्ये पृ० 471 पं०८) इति नपुंसकलिङ्गाऽनिर्देशः। तेनायमर्थो भवति मुत्तित्थि-स्त्री०(मुक्तिस्त्री) मुक्तिरूपयोषिति, "मुञ्चाग्रहमिमं मातयोऽयं गुणविशेषाश्रयः सा व्यक्तिश्वोच्यते मूर्तिश्चति / तत्र यदा द्रव्ये मानुषीषु न मे मनः / मुक्तिस्त्रीसङ्ग मोत्कण्ठ–मकुण्ठमवतिष्ठते / / 1 / / '' मूर्तिशब्दस्तदाऽधिकरणसाधनो द्रष्टव्यः मूर्छन्त्यस्मिन्नवयवा इति मूर्तिः, कल्प०१ अधि० 7 क्षण। यदा तु रूपादिषु तदा कर्तृसाधनः-मूर्च्छन्ति द्रव्ये समवयन्तीति रूपादयो / मुत्तिधारापुडग-न०(मुक्तिधारापुटक) मुक्तिसम्पुटे, प्रश्र०५ संव० द्वार। मूर्ति / व्यक्तिशब्दस्तु द्रव्ये कर्मसाधनः रूपादिषु करणसाधनः'' (अ0 मुत्तिपह-पुं०(मुक्तिपथ) मोक्षमार्गे , 'ज्ञानदर्शनचारित्राणि सम्यग्दर्शन२आ० 22068 न्यायवा०पृ० 332503-24) भाष्यकारमतेन च ज्ञानचरित्राणि मोक्षमार्ग' इति / नं०
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________________ मुत्तिमग्ग 316 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मुय मुत्तिमग्ग-पुं०(मुत्तिमार्ग) मुक्तिनिष्परिग्रहत्वम्- अलोभतेत्यर्थः सैव | मुद्दियासार-पुं०(मृद्वीकासार) मृद्वीका द्राक्षा तत्सारनिष्पन्नासव-विशेषां निर्वृत्तिपुरस्य मार्ग इव मार्गः / बृ०६ उ०। मुक्तिरहितार्थकर्मप्रच्यु- __मृद्वीकासारः / आसवभेदे,जी०३प्रति०४ अधि०। प्रज्ञा०। तिस्तस्या मागों मुक्तिमार्गः / ध०३ अधि०। मुक्तेरशेषकर्मप्रच्युति- | मुद्दी-(देशी) चुम्बने, देना०६ वर्ग 133 गाथा। लक्षणायाः मार्गः / सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मको यस्मिस्तन्मुक्तिमार्गम्। मुद्ध-पुं०(मुग्ध) क-गट-ड-त-द-प--श--ष--स-क-पामूल सत्र० १श्रु०७अ०ज्ञानलक्षणचारित्रात्मके, आचा०१ श्रु०६ अ०१3०। लुक / / 8 / 277 / / इति ग्लुक् / प्रा०। अव्युत्पन्नमतौ, जी०१ प्रतिका ज्ञानदर्शनचारित्रात्मके, दश०६ अ०। अहितवि-च्युतेरुपाये, भ०६० | पशा 33 उ०। सकलधर्मवियोगहेतो, प्राप्तनिर्लोभताके च औ०। *मूर्धन्-पुंग ललाटे, प्रव०२ द्वार। शिरसि, सूत्र०१ श्रु०४ अ०२उ०! नुत्तिसुह-न०(मुक्तिसुख) मोक्षसुखे, सूत्र०१ श्रु०३ अ०४ उ०। तथा मुद्धजणहियय-न०(मुग्धजनहृदय) मुग्धः स्वल्पमतियों जनो लोक"तणसंशारनिसण्णो वि, मुणिवरो भट्टरागमयमोले। जं पावइ मुत्तिसुहं. स्तस्य हृदयं मानसम्। अल्पज्ञाभिप्राये, जी०१ प्रति०। कत्तो तं चक्कवटी वि // 1 // " सूत्र०२ श्रु० ५अ०आचा०। सिद्धिसुखे, मुद्धमइ-पु०(मुग्धमति) अव्युत्पन्नामती, मूढमतौ, षो० 6 विव०। स्था। मुक्तिः सर्वसुखाना संसारिकाणां मध्ये साद्यपर्यवसितत्वादुत्तमम्। संथा। मुद्धय-पुं०(मूर्द्धज) केशे, जी०३ प्रति०४ अघिका प्रति०। प्रश्न०। मुत्तुं -अव्य०(मुक्त्वा) छोडयित्वेत्यर्थे , व्य०८ उ०। परित्यज्येत्यर्थे, मुद्धसूल-न०(मूर्द्धशूल) मस्तकपीडायाम, विपा०१ श्रु०१ अ०। झा० २०२अधिका मुद्धाभिसित्त-पुं०(मु भिषिक्त) सर्वैरपि प्रत्यन्तराजैः प्रतापमसहमुत्तोली-स्त्री०(मुक्तोली) अधः उपरि च सङ्कीर्णायां मध्ये त्वीषद्विशालाया कोष्ठिकायाम्, ज०३ वक्ष०ा अनुवा मानैर्नान्यथारमाकं गतिरिति परिभाव्य मूर्द्धभिर्मस्तकैरभिषिक्तः पूजितो मूर्धाभिषिक्तः / रा०ा नि०चूला सूत्रका राजनि, सूत्र०२ श्रु० अ०। मुदागर-पुं०(मुदाकर) हर्षजनके, सूत्र०१ श्रु० ६अ। अष्टमदिवसतिथौ,कल्प०१ अधि०६ क्षण। मुदितादिगुण-पुं०(मुदितादिगुण) सदशसमुत्पन्ने मूर्द्धाभिषिक्तादिगुणवति राजनि, 'मुदितादिगुणो राया, " मुदितादिगुणः-सद्वंशजादि मुटम-(देशी) गृहान्तस्तिर्यग्दारुणि, देना०६ वर्ग १२३गाथा। गुणः आदिशब्दान्मूर्खाभिषिक्तादिग्रहः / पञ्चा० 17 विव०। मुमुक्खु-पुं०(मुमुक्ष) संसारोद्विग्नमनसि, संसारोद्विग्रमना मुमुक्षुः संयममुद्दप्पाया-स्त्री०(मुद्रापाया) मुद्राकल्पायाम, पञ्चा०४ विव०। तपसी पीडाकरत्वेन न वेत्ति। आचा०१ श्रु०३ अ०१ उ०। मोक्षपुरगन्तरि, विशे० आ०म० मुहय-पुं०(मुद्रक) ग्राहभेदे, प्रज्ञा०१ पद। मुद्दा-स्त्री०(मुद्रा) अङ्गुल्याभरण विशेषे, अनु०॥ शैल्याम्, द्रव्या०७ मुम्मुय-पुं०(भूकमूक) प्राकृतशैल्या छान्दसत्वाच तथा रूपम्, मूकादपि अध्या०। प्रव०। हस्ताद्यङ्गविन्यासविशेषे, योगमुद्राजिनमुद्रामुक्ताशुक्ति मूके, गद्गदभाषित्वेनाव्यक्तभाषिणि, सूत्र०१ श्रु०१२ अ०। मुद्रात्मकं सूत्रपाठसमकभावितया मूलमुद्रात्रयम् / सघा०१ अधि०१ | मुम्मुर-पुं०(मुर्मुर)अङ्गारे, पिं० फुम्फुकाग्नौ, भस्ममिश्रिताग्निकणे, जी०१ प्रस्ता०। दर्श०। प्रति प्रतिका भला स्था० उत्त०। सूत्र० प्रविरलाग्निकणानुविखे भस्मनि, मुद्दापुरुष-पुं०(मुद्रापुरुष) मुद्रापदविभूषिते राजपुरुषे, बृ०१ उ०३ प्रका आचा०१ श्रु०१ अ०४ उ० करीषेऽग्नौ, पिं०। करीष-करीषाग्न्योः , द०ना०६ वर्ग 147 गाथा। मुद्दिया-स्त्री०(मुद्रिता) मृत्तिकादिमुद्रायुक्ते, वृ०२उ०। ज्ञा०ा लाञ्छिते, झा०१ श्रु०२ अ०। बृ० / भा मुम्मुही-स्त्री०(मुड्मुखी) मोचन मुक् जराराक्षसीसमाक्रान्तशरीर-गृहस्य *मुद्रिका-स्त्री० हस्ताङ्गुलीसम्बन्धिनि आभरणे, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। जीवस्य भुचं प्रति मुखम्-आभिमुख्यं यस्यां सा मुड्मुखीति वर्षशतायुषों icaa कल्पका औ नवम्या दशायाम्। स्था० 10 ठा०३ उ० तक *मृढीका-स्त्री०। द्राक्षायाम, नं०। बृ०॥ ध० म०। ५०व०। प्रज्ञा०। नवमी मुम्मुही नाम, जं नरो दसमस्सिओ। आचाल। स्था०। जीन जराघरे विणस्संते, जीवो वसइऽकामओ / / 6 / / मुद्दियापिंगलंगुलि-त्रि०(मुद्रिकापिङ्ग लाडलि) मुद्रिकाभिः पिङ्गलाः नवमी मुन्मुखी नाम वर्त्तते, यां मुन्मुखी दशा नर आश्रितो जराघरेपीतवर्णा अङ्गुलयो यस्य। कल्प०१अधि०३ क्षण। शरीरे, विनश्यति सति जीवोऽकामको विषयादि-वाञ्छारहितो वसति। मुद्दियामहुर-न०(मृबीकामधुर) मृदीका द्राक्षा तद्वत्सेव वा मधुरम् / तं० दशा द्राक्षामिष्टे, स्था०४ ठा०३ उ० | मुय-त्रि०(मृत) विनष्ट, आचा०१ श्रु०४ अ०३ उ०। सूत्रा
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________________ मुय ३२०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मुसादंड *मुद-स्त्री०। मोदनं मुद्। हर्षे, सूत्र० 17013 अ०। मुरुमुंड-(देशी) जूटे,दे०ना०६ वर्ग 117 गाथा। मुयंग-पुं०(मृदङ्ग) मर्दले, सू०प्र०१८ पाहु०। लघुमर्दले, जं०३ वक्ष०ा / मुरुमुरिअ-न० कामचिन्तायाम, "मुरुमुरिअंरूराइअं' पाइ० ना०१८२ रा०ा विपा० गाथा। मुयंगपुक्खर-न०(मृदङ्गपुष्कर) मृदङ्गोलोकप्रतीतो मर्दलस्तस्यपुष्करं मुलासिअ-(देशी) स्फुलिङ्गे, दे०ना०६ वर्ग 135 गाथा। मृदङ्गपुष्करम्। मर्दलस्य चर्मपुटके, रा० ज० जी०। मुल्ल-न०(मूल्य) अर्घे, नि०चू०२० उ०। आव० 'मुल्लाइं वेअणाई' मुयग्ग-पुं०(मुदग्र) जीवे विभङ्गज्ञाने, बाह्याभ्यन्तरपुद्गलरचितशरीरोजीव पाइ०ना० 162 गाथा। इत्यवष्टम्भवद्, भवनपत्यादिदेवानां बाह्याभ्यन्तरपुद्गलपर्यादानतो मुविसयंगारखुट्टामा-त्रि०(मुद्विषयाङ्गारवृष्ट्याभां) मुदो हर्षस्य विषयो वैक्रियकरणदर्शनादिति / स्था०७ ठा०। यस्तस्मिन्नङ्गारवृष्ट्याभा अङ्गारवृष्टिसदृशा / प्रमोदविषयार्थोपधातमुयच-पुं०(मृतार्च मुदर्च ) मृतेन स्नानविलेपनसंस्काराभावादर्चातनुः; कारिण्याम्, पो०१४ विव०। शरीरं,यस्य स मृतार्चः / यद्वा-मोचनं मुद् तद्भूता शोभना अर्चापद्मा- मुस-धा०(मुष)स्तेये, व्यञ्जनाददन्ते॥१२३६॥ इति व्यञ्जदिका लेश्या,यस्य स भवति मुदर्चः। प्रशस्तदर्शलेश्ये, सूत्र०१ श्रु०१३ नान्तधातोरन्तेऽकारः / मुसइ / मुष्णाति / प्रा०॥ अ० अकषायिणि, आचा०१ श्रु०४ अ०३उ०। मुसंठि-पुं०(मुषण्डि) प्रहरणविशेषे,लपेटाभिधाने शस्त्रभेदे, जी०३ प्रति० मुया-स्त्री०(मुत) प्रीतौ, द्वा० 18 द्वा०। 1 अधि० २उ०। प्रश्नका रा०ा प्रज्ञा० स०। साधारणवनस्पतिकायभेदे, मुर-धा०(स्फुट) हास्येनस्फोटे, हासेन स्फुटेर्मुरः॥८॥११४|| जी०१ प्रति०। उत्त०। प्रज्ञा०।। हास्येन करणेनयः स्फुटिस्तस्य मुरादेशो भवति। मुरइ। हासेनस्फुटति। मुसल-न०(मुसल) मुहुर्मुहुर्लसतीति मुसलम् / धान्यकण्डनोपप्रा०४पाद। करणे,अनु०॥ चतुर्हस्तप्रमाणेऽवमानविशेषे, ज्यो०२ पाहु० अनु०॥ मूरई-(देशी) असत्याम्, दे०ना०६वर्ग 135 गाथा। उत्तका सूत्र०। भ०। प्रश्न। ति० ०"छण्णउअंगुलिमाणेणं धणूनामुरंडी-स्त्री०(मुरण्डी) मुरण्डदेशोद्भवायाम्, रा०। सूत्र०। लियाजुगे अक्खे मुसले वि" स०६६ सम०) मुरय-पुं०(मुरज) महाप्रमाणे मर्दले, राणा जंगलघण्टिकायाम, औ० - मुसलाउह-पुं०(मुसलायुध) बलदेवे, "रामोसीरी मुसलाउहो बलो कामजी० आ०म०। कल्पका ज्ञा०ा महामर्दले, भ०६ श०३३ उ० औ०। / पालो य" पाइ० ना०२३ गाथा। मानविशेषे, ज्ञा०१ श्रु०७अ० वाद्यभेदे, "मुइंगो मुरओ' पाइ० ना० मुसह-(देशी) मनआकुलत्वे, दे०ना०६ वर्ग 134 गाथा। 266 गाथा। मुसा-अव्य०(मृषा) मृषाशब्दस्त्वव्ययो ऽलिङ्गश्चेति / स्था० 10 ठा०। मुररि-पुं०(मुररि) आभरणविशेषे, औ०। भ०। अचौरे चौरोऽयमित्याख्यानवचने,दश०६ अ०। अन्यथा-स्थिततत्त्व-- मुरिअ-(देशी) त्रुटिते, देवना०६ वर्ग 135 गाथा। स्यान्यथाप्रतिपादने सूत्र०१श्रु० 110370 / मिथ्याऽनृतं मृषेति पर्यायाः। मुरियवंस-पुं०(मौर्यवंश) चन्द्रगुप्तवंशे, नि० चू०१६ उ०। विशेला पञ्चा०ा "असन्तोऽपि स्वका दोषाः, पापशुद्ध्यर्थमीरिताः। न मुरुड-पुं०(मुरुण्ड) अनार्यदेशभेदे, सूत्र०१ श्रु०५ अ०१ उ०। प्रव०। मृषायै(अत्र मृषाशब्दः स्त्रियाम् / ) विसंवाद-विरहात्तस्य कस्यचित् प्रज्ञा०। नि० चू०। प्रश्नास्वनामख्याते पाटलिपुत्रनगरराजे, स्वनाम- ॥१॥"पं०व०४ द्वार। नि०चूल अलीके, प्रव०६ द्वार। आतु०। स्था०| ख्याते प्रतिष्ठानपुरराजे च / नं०। 'पाटलीपुत्रनगरे, मुरुण्डोऽभून्म- नि० चूला उत्त०। मृषेत्यसत्यंभूतनिहवादि। उत्त०१ अस्था०। सूत्र०। हीपतिः / आचार्यः पादलिप्ताख्यस्तत्र विद्याजलार्णवः / / 1 / / ' आ० क० मुसाणुबंधि(ण)-न०(मृषानुबन्धिन) पिशुनासभ्यासद्भूतघातादिवचन३ अ०। व्य० आO1म०बृ०। नि०चू०। ('विज्जा' शब्दे कथा) प्रणिधाने, ध०३अधिo मुरुण्डदेशोद्भवे, त्रि०भ०६श०३३ उ०। ज्ञान मुसादण्ड-पुं०(मृषादण्ड) अलीकजन्ये वधे, "आयट्ठ नायगाईण, वावि मुरुडजड-पुं०(मुरुण्डजड) मुरुण्डस्य राज्ञो हस्तिति, बृ० ३उ०। अट्ठाइ जो मुसं वयइ / सो मोसपच्चईओ, दंडो छट्ठो हवइ एसो मुरुडदुत्त-पुं०(मुरुण्डदूत) मुरुण्डस्य राज्ञो दूते, बृ०१३०३ प्रक०। व्या // 1 // " आव०४अ) मुरुक्ख-पुं०(मूर्ख) पद्म-छद्म-मूर्ख-द्वारे वा ।।८।२।११२शा इत्यनेन अहावरे छ8 किरियट्ठाणे मोसावत्तिए त्ति आहिजइ, संयुक्तस्यान्त्यव्यञ्जनात्पूर्व उद्वेति खात्पूर्वमुत् / मुकलो / मुरुक्खो। से जहाणामए के इ पुरिसे आयहे वा णाइहे उं वा मूढे, प्रा०२ पाद। अगारहे वा परिवारहेउं वा सयमेव मुसं वयति, अण्णेण मुरुगा-स्त्री०(मुरुका) त्रीन्द्रियजीवभेदे, जी०१प्रतिका विमुसंवाएइ मुसं वयं पि अण्णं समणुजाणइ, एवं खलु
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________________ मुसाद्दण्ड 321 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मुसावाय तस्स तप्पत्तियं सावज्जं ति आहिजइ, छटे किरियट्ठाणे मोसावत्तिए त्ति आहिए।।२२।। अथापरं षष्ठं क्रियास्थानं मृषावादप्रत्ययिकमाख्यायते-तत्र च पूर्योतानां पञ्चानां क्रियास्थानानां सत्यपि क्रियास्थानत्वे प्रायशः परोपधातो भवतीति कृत्वा दण्डसमादानसंज्ञा कृता, षष्ठादिषु च बाहुल्येन न परव्यापादनं भवतीत्यतः क्रियास्थानमित्येषा संज्ञाच्यते। तद्यथानाम कश्चित्पुरुषः स्वपक्षावेशाद्-आग्रहादात्मनि-मित्तं यावत् परिवारनिमित्तं / वा सद्भूतार्थनिहवरूपमसद्भूतोद्भावनस्वभावं वा स्वयमेव मृषावादं वदति। तद्यथा-नाहंमदीयो वा कश्चिच्चौरः, सचचौरमपि सद्भूतमप्यर्थमफ्लपति। तथा-परम्-अचौरं चौरमिति वदति। तथाऽन्येन मृषावादं भाणयति, तथाऽ-न्यांश्च मृषावादं वदतः समनुजानीते। तदेवं खलुतस्य योगत्रिककरणत्रिकेण मृषावादं वदतस्तत्प्रत्ययिकं सावद्यं कर्म, आधीयतेसंबध्यते / तदेतत्षष्ठं क्रियास्थानं मृषावादप्रत्ययिकामाख्यातमिति / सूत्र०२श्रु०२ अ०॥ मुसावाइ-पुं०(मृषावादिन्) असत्यवक्तरि, आचा०२ श्रु०१ चू०४ अ०१उ०। अलीकभाषणशीले, उत्त०५ अ०। प्रश्न मुसावाय-पुं०(मृषाकाद) मृषा-मिथ्या,वंदनं वादः। उडूदोन्मृषि // 8 / 1 / 136 / / इति ऋत उत् / प्रा०। अलीकभाषणे, स्था०१ ठा०। अनृताभिधाने, ध०२ अधि०। सूत्र०ा पा० असद्भूतार्थभाषणे, सूत्र०१ श्रु०३ अ०४ उ०पा०। आव०। दर्श०। असदभिधानं मृषेति वचनात्। स चद्रव्यभावभेदाद्विधा। स्था०१ ठा०नि०चूला अभूतोद्भावनादिभेदाच्चतुर्दा / स्था०१ ठा०। पा०ा मृषावादश्चतुर्विधः। तद्यथा-सद्भावप्रतिषेधः, असद्भवोद्भावनम्, अर्थान्तरम्, गर्हा च / तत्र सद्भावप्रतिषेधो यथानास्त्यात्मा, नास्ति पुण्यं,पापं च इत्यादि। असद्भावोद्भावनं यथाअस्त्यात्मा सर्वगतः, स्यामाकतन्दुलमात्रो वा इत्यादि। अर्थान्तरम्गामश्वम् अभिदधत इत्यादि / गर्हा-काणं काणमभिदधत इत्यादिः / पुनरयं क्रोधादिभावोपलक्षितश्चतुर्विधः / तद्यथा-द्रव्यतः, क्षेत्रतः, कालतो, भावतश्च। द्रव्यतः-सर्वद्रव्येष्वन्यथाप्ररूपणात्। क्षेत्रतो-लोकालोकयोः / कालतः-रात्र्यादौ / भावतः-क्रोधादिभिरिति / द्रव्यादिचतुर्भङ्गीपुनरियम्-"दव्वओ णामेगे मुसावाए, णो भावओ। भावओ णामेगे, णो दव्वओ। एगे दव्वओ वि, भावओ वि। एगे णो दव्वओ णो भावओ। तत्थ कोइ कहिं चि हिंसुजओभणइ-इओ तए पसुमिणाइणो, दिट्ठत्ति, सो दयाए दिट्ठा वि भणइ, ण दिट्ठ त्ति, एस दव्वओ मुसावाओ, . णो भावओ। अवरो मुसं भणीहामि त्ति परिणओ सहसा सचं भणइ. एस भावओ, नदव्वओ। अवरो मुसंभणामि त्ति परिणओ, मुसं चेव भणति, एस दव्वओ वि, भावओ वि। चरिमभंगो पुण सुण्णो" / दश० ४अol जीत० 31 गाथाकी-चूर्णि: मुसावायं-सुहुमं, बायरं च / तत्थ सुहुमं-पवलाउल्ला मरुए एवमादि, बादरो-कन्नालीगादि। महा०३ अ० आ० चू० दशा इयाणिं मुसावात (द) पडिसेवणा दप्पकप्पेहि भण्णति तत्थ वि पुव्वं दप्पिया पडिसेवणा भणतिदुविधो य मुसावातो, लोइअलोउत्तरो समासेणं / दवे खेत्ते काले, 'मामि य होइ कोधादी // 260 / / दुविहो-दुभेदो,मुसा-अनृतं, वदनं-वादः, अलिअवयण-भासणेत्यर्थः / लोइय त्ति-असंजयमिच्छादिट्ठिलोगो घेप्पति / उत्तरग्गहणात्संजतसम्मदिद्विग्गहणं कज्जति / समासो-संखेवो, पिंडार्थेत्यर्थः / यसद्दो मूलभेदावधारणे, पुणो एक्कको चउभेदो-दव्ये,खेत्ते, काले,भावमि य। यसद्दो समुच्चये। कोहाति। आदि-सद्दातो-माणमायालोभा। एत्थ लोइतो ताव चउव्विहो भण्णति। तत्थ विदव्वे पुव्वंविवरीयदव्वकहणे, दध्वम्भूओ य दवहेऊ वा। खेत्तणिमित्तं जंमिव, खित्ते काले वि एमेव / / 291|| दव्वस्स अणाहारणी जा भासा सा दव्वमुसावाओ भण्णति। कहं पुण दव्वअणाहारणीए भण्णति? विवरीयदव्वकहणे / विवरीयं--विपर्यस्तं, कहणं-आख्यानं, यथा गाम् अश्वं कथयति जीवम-जीवं भवीति, दव्वभूतो णाम-अणुवउत्तो भावस्तथेत्यर्थः, सो जं अलियं भासति तो दव्वमुसावाओ, वा-विकप्पसमुचये दव्यं हिरण्णादि हेऊ-कारणं, दव्वकारणत्थी मुसं वदति ति वुत्तं भवति। जहा–कोइ दव्वं लभीहामि ति अलियं संखेज्जं वदति। वाकारो विकप्पसमुचये गतो दव्वमुसावातो। इदाणिं खेत्ते भण्णति-खेत्तं लभीहामि त्ति मुसावात भणति, जंमि वा खेत्ते मुसावायं भासति सो खेत्तमुसावातो, वाकारो विफप्पदरिसणे।इमो विकप्यो-विवरीयं वा खेत्तं कहेति, अणुवउत्तो वा खेत्तं परूवेति, एसो खेत्तमुसावातो। इदाणिं काले भण्णति-काले वि एमेव त्ति-जहा खेत्ते, तहाकाले विणवरं कालणिमित्तं तिण्णि घडइ। इदाणिं भावभुसावातो भण्णति--भावमुसावातस्स भद्दबाहु-सामिकता वक्खाणमाहाकोधम्मि पिता पुत्ता, माणे धण्णं व माय उवधीय। लोभमि कूडसक्खी-णिक्खेवगमादिणो लोगे // 29|| कोहंमि-पिताःपुत्ता; उदाहरणं, माणे-धण्णं; उदाहरणं, मायाए उवहि उदाहरणं, लोभंमि, कूडसक्खित्तं-उदाहरणं, जे लोभाभि-भूता दव्वं घेत्तूण कूडसक्खित्तं करेंति एस लोभओ भावमुसावाओ। चोदगाह-णणु दव्वनिमित्तं एसदव्वे भणितो। आचार्याह-सत्यं, तत्र तुमहती द्रव्यमात्रा द्रष्टव्या। इह तु लोभाभिभूतत्वात्स्व ल्पमात्रा एव मृषं ब्रवति। किंच-जे वणियादयो लोगे णिक्खेवगं णिक्खित्तं लोभाभिभूता अवल वंति एस वि लोभतो भावमुसावातो दट्ठव्वो। आदिसद्दाओ वि वीसंभमप्पियमप्पगासं अवलवंति जे। पश्चार्द्ध व्याख्यातमेव। पुव्वबद्धस्स पुण सिद्धसेणायरिओ वक्खाणं करेति। कोहेण ण एस पिया, भण्णत्ति पुत्तो ण एस वा मज्झं। हत्थो कस्सव हुस्सति, पूएसु घरा छुभति घण्णं / / 263||
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________________ मुसावाय 322 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मुसावाय पुत्तो पिउणो रुडोभणाति-नएस पिया ममंति, अहं पिया वा / पुत्तस्स पयलामि त्तिय लहुओ, दोच्च णिण्हवे पुणो गुराओ। पिया रुट्ठो भणति-ण एस वा मज्झं पुत्तो त्ति। कोहंधि विता पुत्त त्तिगतं / अण्णदा इति णिण्हवणे, लहुया गुरुगा वहुतराणं / / 300 / / 'धण्णं माणं पि' अस्य व्याख्या-हत्थो पच्छद्धं दुअग्गकुडुवीणं विवातो। कोइ साहू पयलाइ दिवा, अण्णेण साहुणा भण्णति, पयलासि किं दिवा, हत्थो कस्स बहुस्सइ त्ति, हत्थो हसत्यनेन मुखमावृत्य इति हस्तः। तेण पडिभणियं-णपयलामि, एवमवलवंतस्स पढ़वाराएमासलहु। पुणो कस्स त्ति क्षेपे, द्रष्टव्यं, ममं मोत्तुं कस्सऽण्णस्स, बहुस्सति हत्थो भवेज, विसे उंघेउंपवत्तो, पुणो वि तेण साहुणा-मा पयलाहि त्ति! सो भणतिइतरो वि एमेव पचाह। अहवा कस्स तित्ति संसतवाती तुज्झं मझंवा ण ण पयलामि त्ति। एवं बितियवाराए दोच णिण्हवे गुरुगो त्ति। वितियवाराए जति। बहुस इति बहुधन्नकारी, एवं तेसिं विवादे कुटुंवीणं मज्झत्थ- णिण्हवेंतस्स मासगुरु भवतीत्यर्थः / अण्णदा इति णिण्हवे लहुग त्ति। पुरिसधण्णमवणं सरिस वा वणजातेसु लूतेसु मलितेसु पूतेसु परिपूता ततो पुणरविण पयलामि। ति। चउलहुगं भवति। गुरुगा बहुतरगाणं तिपरिसोहिता सर्वमलापनीतानीत्यर्थः। "घरा छुभति धण्ण त्ति" तत्थेगो तेण साहुणा दुतिअग्गाणं दंसिओ, पुणरवि णिण्हवेति तेण से चउगुरुगा मानावष्टब्धो श्रा हं जिचे, गृहात् धान्यमानीय खलधान्ये प्रक्षिपति, भवति। मीयमानेषु तस्यातिरेकत्वं संवृत्तं मम बहुस्स त्ति हत्थो ति, एस माणतो णिण्हवणे पच्छित्तं, वड्डेत्ति तू हि जा सपदं। भावमुसावातो। धण्णं माणे त्ति दारं गतं / इयाणिं मायउ-वहिम्मि ति लहु गुरु मासे सुहुमो,लहुगाती बादरे होति // 301 / / मायउवहि त्ति उवहिरिति उवकरणं, ताणि य वत्थाणि तेहिं उवल पुव्वऽद्धं कंठं। णवरं समुदायत्थो भण्णति--पंचमवारा णिण्हवेंतस्स छ क्खियं-उदाहरणं भण्णति, अण्णे पुण आयरिया एवं भणंति-जहा माय लहुआ छट्ठीए छ गुरुसत्तमवाराएछेदो। अट्ठमवाराए मूलं। णवमवाराए त्ति वा उवहि त्ति वा एगट्ठ त्ति, एत्थ उदाहरणं भण्णति। अणवट्ठो / दसमवाराए पारंची : चोदकाह-एस सव्यो सुहुममुसावातो। ससगेलासागढग मूल-देव खंडाय जिण्णउज्जाणे / आयरियाह-लहुगुरुमासे सुहुमो त्ति-जत्थजत्थ माससहुं, मासगुरु वा सामत्थणे को भत्तं, अक्खातं जे ण सद्दहति // 26 // तत्थ तत्थ सुहुमो मुसावातो भण्णति, चउलहुगादी बायरो मुसावातो नि० चू०१ उ०। (अत्रार्थे धूर्ताख्यानम् 'धुत्तक्खाण' शब्दे चतुर्थभागे / भवतीत्यर्थः / पयले त्ति दारं गयं। 2756 पृष्ठे गतम्) गतो लोइओ मुसावातो। इदाणिं 'उल्ले त्ति उल्लमिति वासं। गाहाइयाणिं लाउत्तरिओ दव्वदिचउव्विहो मुसावातो भण्णति-दव्वे ताव किं वचसि वासंते ण, गच्छे णणु वासविंदतो एते। सचित्तं, अचित्तं, म ति। धम्मदध्वं अधम्मदव्वत्तेण परूवयति / मुंजंतिणीह मरुगा, कहिं ति णणु सव्वगेहेहिं / / 302 / / अधम्मदव्वं वा धम्मरूवेण / एवं सेसाणि वि दव्वाणि / खेत्तलोगागासं कोइ साहुवासे पडिमाणे अण्णतरपओयणेण पट्टिओ, अण्णेण साहुणा अलोगागासपज्जवेहिं परुवयति। अलोग वा लोगपज्जवहिं। भरहखेत्तं वा भण्णति--अञ्जो ! किं वचसि, वासंते, किम् इति परिप्रश्ने' व्रजसीत्यर्थः, हेमवयखेत्तपज्जवेहिं परूवयति। हेम–ववं वा भरहपजवेहिं परूवइ / एसं वासंते वर्ष , तेण पद्वितसाहुणा भण्णति, वासंतेऽहंण गच्छे' एवं भणिऊण सेसाणि खेत्ताणि / काले-उस्स-प्पिणी ओसप्पिणीपज्जदेहिं परूवइ / वासंते चेव पट्ठिओ, तेण साहुणा भण्णति-गणु अलियं, इतरो पञ्चाह, ओसप्पिणिं वा उस्सप्पिणि-पज्जवेहिं परूवयइ / एवं सुसमसुसमाहिं ण, कह, उच्यते-णणु वासं बिंदवो एते णणु-आसंकितावहारेण, वासं कालविवच्चासं करेति। समयादिविश्वास वा करेइ / भाव-जं कोहेण वा, पाणीयं तस्स एए बिंदवो बिंदुमिति थिवुकं / सीसो पुच्छइ-एत्थ कतरो माणेण वा; मायाए वा, लोभेण वा, अभिभूतो वयणं भणति / एरिसो मुसावाओ. गुरुराह-जो भणति-णाहं वासंते गच्छे, एस मुसावातो भावमुसावातो / अह वा-लोउत्तरिओ भावमुसावातो दुविहो / जओ छलवादोपजीवित्वाच। जो पुण भणति-किं वचसि वासंते, एस मुसावातो भण्णति। ण भवति। कहं उच्यते-"करेज वा से वासंते' इति वचनात्। उल्लेत्ति दारं गयं / इदाणिं 'मरुए' ति व्याख्या-मुंजंति पच्छद्धं-कोइ साहू कारणे सुहुमो य बादरो वा,दुविधो लोउत्तरो समासेणं / विणिग्गतो उयस्सयमागंतूण साहू भणति-णीह-णिगच्छह, भुंजंति सुहुमो लोउत्तरिओ, णायव्वो इमेहि ठाणेहिं / / 297|| मरुआ। अम्हे वितत्थ गच्छामो। ते साहू उग्गहियभायणा भणंति। कहि सुहुमबायरसरूवं वक्खमाणं, समासो-संखेवो, इमेहि त्ति ते मरुया भुंजंति? तेण भणियंणणु सव्वगेहेहि। मरुए त्ति गयो 'पच्चक्खाणे य' अस्य व्याख्या। वितियदारगाहा-ते चरिमो पादोपडिया दिक्खित्तये वक्खमाणेहिं, पयलादीहि, ठाणेहिं ति-पदेहि, दारेहिं ति वुत्तं भवति। भुंजणयंति, ते पडिया तिक्खित्ताणु-मुंजामि त्ति निषिद्धेत्यर्थः / पुनरपि ____ताणि य इमाणि ठाणाणि-दारगाहा भोगे मृषावादः। पयला उल्ले भरुए, पच्चक्खाणे य गमण परियाए। अस्यैवार्थस्य स्पष्टतरं व्याख्यानं सिद्धसेनाचार्यः करोतिसमुद्देस संखडी खु-डुए य परिहारिय मुहीओ // 268|| मुंजसु पचक्खातं, ममं ति तक्खण पभुंजती पुट्ठो। अवस्सगमणं दिसासु, एगगुले चेव एगदव्वे य। किं च इमे पंचविधा, पञ्चक्खाता अविरती उ॥३०३।। पडियाइक्खित्ता य, मुंजण पयलासि किं दिवा ण // 26 // कोइ साहू के ण य साहुणा उवग्गहभोयणमंडलिवेलाकाले एतातो दोण्णि दारगाहातो। भणितो-एहि भुंजसु, तेण भणियं-भुजह तुज्झे, पञ्चक्खायं ममं पयल ति दारं / गाहा ति, एवं भणिऊण मंडलिवेलाए तक्खणादेव भुजंतो तेण सा गाहा
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________________ मुसावाय 323 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मुसावाय हुणा पुट्ठो। अञ्जो ! तुम भणासि-मम पञ्चक्खायं? सो भणति किं च' | भण्णति, तस्स खंडणा-विनाशः साननु सर्वगृहेषु भवतीत्यर्थः। सखंडि पच्छद्धं, पाणातिपातादिपंचविहा अविरती, सा मम पचक्खाया इति।। ति गतं। पचक्खाण त्ति दारं गयं / इयाणिं गमणे त्ति अस्य व्याख्या-वितिय इदागी खुडुए त्तिदारगाहाए ततियपादो पडिअक्खियगमणंति-पडियाइक्खित्ता ण खुड्डग ! जणणी ते मता य, रुण्णे जियइत्ति एव भणितंमि / गच्छामि त्ति वुत्तं भवति। एवमभिधाय पुणरवि णिग्गमणं। माइत्ता सव्वजिया, भविंसुतेणेसा मताते॥३०७।। 'मुसावायो' ऽस्यैवार्थस्य सिद्धसेनाचार्यः व्याख्यानं करोति कोई साहू उवस्सयसमीवे दठूण मयं सुणीइं खुड्यं भणाति-खुड्डग ! वचसि णाहं वचे, तक्खण-वचंत-पुच्छिओ मणति। जणणी ते मता, खुड्डो वालो, जणणी माता मया-जीव-परिचत्ता। ताहे सिद्धतं ण विजाणसि, णणु गंमति गम्ममाणं तु // 304 // सो खुड्डो यरुण्णो, तरुवंतं दट्टूण सो साहू भणति-मारुय जियइत्ति, कोति य साहुणा चेतियवंदणादिपयोयणे वचमाणेण अण्णो साहू एवं भणियम्मिखुड्डो अण्णे य साहू भणंति। किं खुडुं तुम भणसि जहा भणितो-वचसि? सो भणति णाहं वच्चे / वच्च तुमं / सो साधू पयातो। मया, सो मुसावायसाहू भणति-एसाजा साणी मता एसाय तुज्झ माया इतरो वि तस्स मग्गतो तक्खणादेव पयातो, तेण पुण पुव्वपयाय- भवति, खुड्डो य भणति-कहं एसा मज्झ माता भवति, सो भणतिसामिणेण अण्णो साधू भण्णति-पुणो पुच्छितो कहं ण वचामि त्ति मादित्ता पच्छद्धं भविंसु, अतीत-काले आसीदित्यर्थः, भणियं च भणिऊण वचसि? सो भणति-सिद्धतं ण विजाणह? हम्? उच्यते- भगवता-"एगमेगस्सणं भंते ! जीवस्स सव्वजीवा मातित्ताए पियत्ताए णणु गंमति गम्ममाणंतु-गम्ममाणं गमणं णागम्ममाणं, जंमिय समए तुमे भातित्ताए भञ्जत्ताए पुत्तत्ताए धूयत्ताए भूयपुव्वा। हंता गोयमा ! एगमेगस्स अहं पुट्ठो तंमि य समए ण चेवाहं गच्छेत्यर्थः / गमणे त्ति दारं गयं। जीवस्स एगमेगे जीवे मादित्ताए जाव भूयपुव्वत्ति' तेण ते एसा साणी इयाणिं परिताए त्ति माता भवतीत्यर्थः। खुढे त्ति दारं गयं। दस एतस्स य मज्झय,पुच्छितो परिचाग वेंति तु छलेण। इदाणिं परिहारिय त्तिमज्झ णव त्तिय वंदित,भणाति ते पंचगा दसओ // 30 // ओसण्णे दठूणं, दिट्ठा परिहारिय त्ति लहुकरणे। कोइ साहुणा वंदिउकामेण पुच्छिओ-कति वरिसाणि ते परिताओ? कत्थुज्जाणे गुरुओ, अदिदिहेसु लहु गुरुगा / / 308|| सो एवं पुच्छितो भणति--एयस्स साहुस्स मज्झ य दस वरिसाणि कोइ साहू उजाणादिसु ओसण्णो दठूण आगंतूणं भणति-मए दिट्ठापरियाओ। एवं छलवायमंगीकृत्य ब्रवीति। सो पुच्छंत-साहू भणति- परिहारिग त्ति, सो छलेण कहयति / इतरे पुण साहू जाणंति, जहामम णव वरिसाणि परियाओ / एवं भणिऊण य वंदिओ, ताहे सो परिहरितवावण्णा अणेण दिट्ठा इति तस्स एवं छलाभिप्पा-यतो पुच्छियसाहू भणति-णिवसह भंते! तुज्झे वंदणिज्जा, सो साहू भणति- कहतस्सेव मासलहुं पायछित्तं भवति। पुणो ते साहुणो परि-हरियसाहू कहं मम तव वरिसाणि? तुज्झं दस वरिसाणि-सो छलवाईसाहू भणति दरिसणोसुगा पुच्छंति, कत्थ ते दिट्ठा, सो कहयति-उजाणे त्ति, एवं णणु वे पंचगा दस उ।मम पंच वरिसाणि। परितातो / एयस्स य साहुणो कहितस्स मासगुरुं, अदिट्ठदिह्रसुत्तिपरिहारिय-दसणोसुगालिया जाव पंच वरिसाणि चेव परिआओ। एवं वे पंचगा दसओ। परियाए त्ति गतं। ण पासंतिताव तस्स कहेंतस्सचउलहुगा, दिह्रसुओसण्णेसु कहंतस्स इदाणी समुद्देस त्ति चउगुरुगा। वट्टति तु समुद्देसो, किं अत्थह कत्थ एस गमणम्मि। छलहुगा य णियत्ते, आलोए तंमि छग्गुरू हॉति। वट्टतिय संखडी उ, घरेसु णणु आउखंडणता // 306|| परिहरमाणा वि कह, अप्परिहारी भवे छेदो // 30 // कोति साहू कातिअभोमादिविणिमगतं आदिच्चं परिवेसपरिवियं दद्रूण तेसुसाहुसुणियत्तेसुकहयंतस्स छलहुगा भवंति, ते साहवो इरियावहियं तेसाहवो सत्थे अत्थमाणा तुरियं भणंति वट्टति उसमुद्देसो किं अत्थह पडिक्कमिउंगुरुणो गमणागमणं आलोएंति भणंतिय-ओप्पासिया अणेण उद्देह गच्छामो / ते साहू अलियं भासति ति गहियभास-णा उहिता साहुणा,एवं तेसु आलोयंतेसु कहयंतस्स छग्गुरुगा भवंति / सो उत्तरं उहिता पुच्छंति-कत्थ सोमो।छलवादी भण्णति-णणुएस गमणमग्गम्मि दाउमारद्धो पच्छऽद्धं परिहरंतीति परिहारगते परिहारमाणा वि कहं आदिच्चपरिवेसं दर्शयतीत्यर्थः / समुद्देसे त्तिगयं। अपरिहारगा एवं उत्तरप्पयाणे छेदो भवति / ते साहवो भणंति-किं ते संखडि त्ति पच्छद्धं कोइ साहू पढमालियपाणगादिणिग्गतो, पचागओ | परिहरति?जेण परिहारगा भण्णति। भणति-इहऽज णिवेसे पउराओ संखडीओ, ते य साहवो गंतुकामा उच्यतेपुच्छंति, कत्थ ताओ संखडीओ वट्टति? सो छलवाई साहू भणति- खाणुगमादी मूलं, सव्वे तुब्भेगऽहं तु अणवट्ठो। वर्द्धति संखडीओघरेसु अप्पणप्पणएसुत्ति वुत्तं भवति। ते साहवो भणंति- सवे वि बाहिरा वा, पवयण तुम्भे तु पारंची॥३१०।। कथं ता अपसिद्धा संखडीओ भण्णंति-सो छलवायसाहू भणतिणणु उहाय य ठियं कहूं खाणुयं भण्णति / आदिसद्दातो कंटगआखंडणया / णणु--आसंकिता, वाऽवधारणे जं एति जाइ य तमाउं गड्डादि परिहरंति। तेण ते परिहारगा भण्णंति / एवं उत्तरपयाणे भण्णति-जंमि वा ठियस्स सव्वकम्माणि उवभोगमागच्छंति तमाउं | मूलं भवति / ततो तेहिं संवेगवयणे हिं साहू हिं भण्णति-ध
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________________ मुसावाय 324 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मुसावाय ट्ठोऽसि,जो एवं मए विउत्तरं पयच्छसि।ततोसोपडिभणति-सव्वे तुज्झे गमिस्ससि? सो एवं पुच्छितो भणति-पुव्वं। सो पुच्छंतग-साहू उम्गाहेऊ सहिता एगवयणा, एगोऽहं तु असहाओ जिचामि। ण पुण परिफग्गुवयणं ण य गतो, अवरं दिसं इयरो वि पुव्वदिसि गमणमादी, अवरं गओ। मे जंपियं, एवं भणंतो अणवट्ठो भवति / ज्ञानमदावलिप्तो वा स्यादेवं अज्जो ! तुमे भणियं अहं पुव्वं गमिस्सामि? कीस अवरं दिसिमागतो? ब्रवीति / सव्वे वि-पच्छद्धं, सव्वे असेसा, बाहिरा--आज्ञापवयणं- पुढे भणइ-पुट्ठो पुच्छिउ त्ति-युत्तं भवति, 'किं वा'-पच्छद्ध-अण्णस्स दुवालसंगं गणिपिडगं, तुडभे त्ति णिद्देसे, तुसद्दो तावन्मात्रावधारणे, एवं अवरगामस्स इमा पुवा दिसा किंण भवति? भवति चेव। दिस त्ति गतं। सव्वाहिं खेवाओ पारंची भवति। परिहारिए त्ति गयं / ‘एगकुले त्ति' अस्य व्याख्याइदाणिं मुहीओ त्ति--- अहमेगकुलं गच्छं, वचह बहुकुलपवेसणे पुट्ठो। भणइय दिहणियत्ते, आलोयाऽऽमंतिघोडगमुहीओ। भणति कहं दोण्णि कुले, एगसरीरेण पविसिस्स // 315| किं मणुसा सव्वेतो, सव्वे बाहिं पवयणस्स॥३११॥ दारंएगो साहू वियारभूमिंगओ, उजाणुढेसे वलवाओ चरमाणीओ पासति। वचह एगं दव्वं, वेच्छंडणेगम्गह पुच्छितो भणति। सोय पच्चागओ,साहूण विम्हयमुहो कहयति-सुणेह अजो। जारिसयं में गहणं तु लक्खणं पु-गलाणणे णेसिते गहणे // 316|| वोज्जं दिटुं तेहिं भण्णति-किमपुव्वं तुमे दिट्ट? सो भणति-घोडगमुहीओ अणिकाइते लहुसओ, णिकाइए बायरो य वत्थादी। मे इत्थियाओ दिट्ठाओ, ते उज्जुसभावा अणलियवाइणोति साहू, साहुणो ववहारदिसाखेत्ते, कोहातो सेवती जंवा॥३१७।। पत्तिया, जहा परिहारे तहा इहावि असेसं दट्ठव्वं / णवरं अक्खरत्थो भण्णति-'भणति घोडगमुहीओ दिट्ठा इति' साहूहिं पुच्छिओ कत्थ? भिक्खणिमित्तुट्टितेण साहुणा, साहू भण्णति-अज्जो ! एहि, वयामो उज्जाणसमीवे त्ति, वितियवयणं / साहवो दह्रव्याभिप्पायी वयंति, त्ति भिक्खाए, सो भणति-वचह तुज्झे अहं एगंदव्वं वेच्छंतेगतागते, इतरो ततियवयणं दिट्ठ त्ति बलवाओ, चउत्थं पडिणियत्ता इति, पंचमं गुरू ण वि अडतो ओदणदोचंगादी बहुदव्वे गेण्हतो तेहिंसाहूहिं दिट्ठो, पुच्छितो आलोएति, एवं वियमो, छटुं सहोढपञ्चुत्तरपयाणं, आमंतिघोड-गमुहीओ य-अजो! तुमे भणितं एणं दव्वं घेच्छं, एवंगऽणेगग्गह-पुच्छितो भणति जेणदीहंमुहं, अहो मुहंच; अश्वुतल्याएवेत्यर्थः। सत्तमंपदंसाहूर्हि भण्णति त्ति, अणेगाणि दव्वाणि गेण्हतो पुच्छितो इमं भणति-गहणं तु पच्छद्धं, कहं ता इत्थियाओ? सो पडिभणाति-किं खाइंति मणुस्सा अट्ठमं पदं, गतिलक्खणो धम्मत्थिकाओ, ठिति-लक्खणो अधम्मस्थिकाओ, सव्ये तुब्भे अहमेगो णवमं पदं, सव्वे बाहिरा पवयणस्स दसमं पदं। अवगाहलक्खणो आगासत्थिकाओ, उवओगलक्खणो जीवस्थिकाओ, एतेसुदससुजहासंखेणिमंपायच्छित्तं / गहणलक्खणो पुग्गलत्थिकाओ, एएसिं पंचण्हं दव्वाणं पुग्गलत्थिकाय मासो लहुओ गुरुओ, चउरो मासा हवंति लहु गुरुगा। एव गहण-लक्खणो एगोणण्णेसिं तिधम्मादियाण एवं गहणलक्खणंण विद्यतेत्यर्थः / तेणेगं ति, तम्हा अहमेगं दव्वं गेण्हामि त्ति वुत्तं भवति।स छम्मासा लहु गुरुगा, छेदो मूलं तह दुर्ग वा // 312|| तेणु पयलातिसु भणतस्सेवमासलहु पायच्छित्तुं, एतेसु चेव पय-लादिसु दुर्ग-अणवठ्ठपारंचियं / सेसं कंठं। घोडगमुहीओ त्तिगतं! अभिणिवेसेण एक्केवपदातो पसंगपायच्छितं दट्ठव्वं०जावपारंचियं एत्थं इदाणिं अवस्सगमणं ति अस्य व्याख्या सुहुमबायरमुसावातलक्खणं भण्णति अणिकाचिते लहुसओ मुसावातो गच्छसि ण ताव गच्छसि, किं खुण जासित्ति पुच्छितो भणति भवति, णिकातिते बादरो मुसावातो भवति। वत्था इति-अणिकायणिवेला ण ताव जायति, परलोगं वावि मोक्खं वा // 313|| कायणाणं भेदो दरिसिज्जति-जहा केणति साहुणा कस्सति साहुस्स गच्छसिण तावत्ति-कोइसाहू, केणइ साहुणा पुच्छिओ-अज्जो! गच्छसि कंदप्पा वत्थं णूमियं, जस्स यतं वत्थं मियं सो सामण्णेणं पुच्छतिभिक्खायरियाए, ण ताव गच्छिसित्ति। एसा पुच्छा, गच्छंति सो भणति अज्जो ! केण विमे वत्थंणूमितं? कहयह, सव्वे भणंति-णेव त्ति एवं तस्स अवस्संगच्छामि। तेण साहुणा गिहीयभायणोवकरणेण भण्णति, अज्जो ! वत्थहारिणो अवलवंतस्स अणिकातियं वयणं भवति। जदा पुण तस्स एहि वचामो / सो भणइ-अवस्सगंतव्वेण ताव गच्छामि / तेण साहुणा तस्स साहुस्स केण य कड्डितं-जहाऽमुगेण साहुणा गहियं, तेण य सो पुणो भण्णति, तुमे भणियं अवस्संगच्छामि। तो किं खुण जासि त्ति। एवं पुट्ठो भणति-णेव त्ति,एवं णिकायणा भवति / अहवा-जेण तं गहियं सो पुच्छितो भणति / वेला ण ताव पच्छद्धं-पर लोगगमणवेला ण ताव चेव पढम पुट्ठो-अज्जो ! तुमे मे वत्थं ठवितं? सो भणति-णेव त्ति, एवं जायति, तोण ताव गच्छामि, मोक्खगमणवेला वा, अपि पदार्थसंभावने। अणि-काइयवयणं, अतो परं जो पुच्छिज्जतोण साहेति सा णि कायणा किं पुण संभावयति-अवस्सं परलोग, मोक्खं वा, गमिष्यामीत्यर्थः / वा भवति / आदिशब्दाद्- एवमेव पात्रादिष्वप्यायोजनीयम्। अहवा-इमे विकप्पे / गमणे त्ति गतं। बादरभेया ववहारं अण्णहा णिति दिसावहारं करेति, खेत्ते वा आहचंण इयाणिं 'विस त्ति' अस्य व्याख्या देति, ममाभव्वं ति काउं, एवं ववहारादी, कोहाईहिं सेवति, जता तया कतरं दिसं गमिस्ससि,पुव्वं अवरं गतो भणति पुट्ठो। बादरोमुसावातो भवतीत्यर्थः,अहवा-एतेववहारादियाण विणा कोहणं किं वाण होइपुव्वा, इमा दिसा अवरगामस्स // 315|| ति बादरो एव मुसावादो दट्ठव्वो, कोहाति सेवतीजवत्ति-अण्णत्थ विद्धं एगो साधू एगेण साहुणा पुच्छितो अजो ! कत्तरं दिसंभिक्खाय-रियाए | कोहादिआविट्ठो मुसं भासति-सो सव्वो बादरो मुसावादो दट्ठव्वो इति।
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________________ मुसावाय 325 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मुसावाय _ 'वत्था' इति अस्य व्याव्या-- कंदप्पा परवत्थं, णूमेऊणं ण साहती पुट्ठो। जं वा णिग्गह पुट्ठो, भणिज्ज दुटुंऽतरप्पा वा।।३१८|| पुव्वद्धं गतार्थ / ववहारदिसाखेत्तपदाणं सामन्नत्थव्याख्या पच्छद्धं-जं वा-वयण संवज्झति, निग्गहो-निश्चयः, पुट्ठो-पुच्छितो, भणेज-भासेज, दुटुं-कलुसियं, अंतरप्पा-चित्तं, इति एगहुँ / वा विकप्पा, एव बादरो मुसावातो भवति, निश्चयकालेऽपि पृष्टो दुष्टान्तरात्मा भूत्वा यद्वचनमभिधत्ते स बादरो मृषावादो भवतीत्यर्थः। 'कोहादी सेवती जंव' त्ति, अस्य व्याख्याकोहेण व माणेण व, मायालोभेण सेवियं जं तु / सुहुमं व बादरं वा, सव्वं तं बादरं जाण // 316 / / सेवितंजंतु-मुसावाए वयणं संवज्झति तंदुविह-सुहुमं वा, बादरं वा।। तं कोहादीहिं भासियं सव्वं बादरं भवतीत्यर्थः। 'अणिकाइए' त्ति, जा गाहा एत्तिए गाहाए जे अवाह पदातेसु पच्छित्तं भण्णति-- लहुगो लहुगा गुरुगा, अणवट्ठप्पो व होइ आएसो। तिण्हं एगतराए,पत्थारपसज्जणं कुजा / / 320 / / लहुओत्ति-सुहममुसावातेपच्छितं लहुग ति। बायरमुसावातेपच्छितंलहुग त्ति / दिसावहारे-चउगुरुगा पायच्छित्तं, साह-म्मियतेणे वि चउगुरुगा चेव / अहवा-साहम्मियतेणे-अणवठ्ठो / आदेसो नामसुत्ताएसो, तेण अणवठ्ठो भवति / तं चिमं सुत्तं-"तओ अणवट्ठप्पा पण्णत्ता / तं जहा-साहम्मियाणं तेण्णं करेमाणे, अण्णहम्मियाणं तेण्णं करेमाणे हत्थदालं दलेमाणे"(अस्य सूत्रस्य व्याख्या अणवठ्ठप्प' शब्दे प्रथमभागे 262 पृष्ठे गता।)तिण्हं ति-तिविहो मुसावातो-जहन्नो, मज्झिमो, उक्कोसो। जत्थमासहलुं भवति से जहण्णो मुसावातो। जत्थ मासगुरुं स मज्झिमो, जत्थ पारंचिय स उक्कोसो / एगतराए त्तिजहण्णमुसावातं पढमतो भण्णति-भासति ततो पत्थारपसङ्गणं कुज्जा। अहवा मज्झिमं पढम भासति ततो पत्थारपसज्जणं कुजा। अह उक्कोसं पढमतो भासति ततो पत्थारपसज्जणं कुज्जा / प्रस्तारो-विस्तारः, प्रसञ्जन-प्रसङ्गः, तदैककस्मिन्नारोपयेदित्यर्थः / अहवा-तिण्हं ति-- दिसावहारं, खेत्तं, कोहाती, सेसं पूर्ववत् / अहवा-तिह-मासलहु, चउलहु, चउगुरुगं, एतेसिं एगतरातो पत्थारपसञ्जणं कुज्जा / केति पढमं ति चउण्ह एगतराए त्ति-चउण्हं कोहादीणं एमतरेणावि मुसं वयमाणस्स पत्थारदोसो भवतीत्यर्थः / एसा मुसावायदप्पिया पडिसेवणा गता। इयाणिं कप्पिया भण्णति। दारगाहाउड्डाहरक्खणऽट्ठा, संजमहेउंव वोहिके तेणे। खेत्तमिव पडिणीए, सेहे वा सेहलोए वा // 321 / / उड्डाहरक्खणऽवा मुसावातंभासति। संजमहेउं वा मुसावात भासति। वोहियतेणेहिं वा गहितो मुसावातंभासति। पडिणीयखेत्ते वा मुसावातो भासियव्यो। सेहणिमित्तं वा मुसावातो भासियव्वो। सेहस्स वालोयणिमित्तं मुसावातो भासिज्जति। उड्डाहसंजम-बोहियतेणए पचक्खाणे त्ति। दारगाहामुंजामो कमढगादिसु, मिगादिण विपास अहव तुसिणीए। बोहिगगहणे दियाती, तेणेसु व एस सत्थो त्ति॥३२२॥ जति धिज्जातियादयो पुच्छंति-तुज्झे कत्थभुजह, ताहे वत्तव्यं भुंजामो कमढगादिसु। कमढगंणाम-करोडगागारं, अट्ठगेण कज्जति। आदिसद्दातो करोडगंचेवघेप्पति। एवं उड्डाहरक्खणट्टा मुसावातो वत्तव्यो। संजमहेउं ति-जइ केइ लुद्धगादी पुच्छंति-कतो एत्थ भगवं! दिट्ठा मिधादी, आदिसरातो सूअराति, ताहे दिढेसु वि वत्तव्वं न विपासे त्ति-न दिट्ट त्ति बुत्तं भवति। अहवा-तुसिणीओ अच्छति-भणति वा-नसुणेमि त्ति। एवं संजमहेउं मुसावातो / वोहियपच्छद्धंबोहिएसु वा गहितो भणातिदियादित्ति अब्राह्मणोऽपि ब्राह्मणोऽहमिति ब्रवीति / तेणेसु वा गहितो भणाति / एस सत्थो त्ति चोरे भणति-णासह णासह त्ति, घेप्पह त्ति खेत्तंमि, पडिणीते प्रत्यनीकभाविते क्षेत्रे इत्यर्थः / तं च खेत्तं / दारगाहाभिक्खुगमादि उवासग, पुट्ठो दाणस्स णत्थि णासो त्ति। एस समत्तो लोओ, सको अभिधारती छत्तं // 323|| भिक्खुगमाइ त्ति-पडा, आदिसद्दातो परिव्वायग्गादि, तेहिं भावियं जं खेत्तं तत्थ उवासगा पुच्छंति / सठा ते परमत्थेण वा भगवं ! जम्हे भिक्खुगादीआणं दाणं दलयामो तस्स फलं कि अस्थि ति? सो एवं पुट्ठो भणति-दाणस्स नऽत्थि णासो त्ति, जति वि य तेसिं दाणं दिण्णं अफलं तहा चेवं भणाति, मा ते उट्टरुट्ट धाडेहंतीत्यर्थः / सेहो त्ति-सेहो पवज्जाभिमुहो आगतो, पव्वतितो वा तं च सयणसगासे पुच्छति-तत्थ जाणता विभणंतिण जाणामो,ण वा दिह्रोत्ति, सेहस्सवाअणहियासस्स लोए कन्जमाणे बहु एव अत्थमाणे एवं वत्तव्वं एस समत्थो लोओ थोवं अच्छति / अण्णं च साहुस्स लोए कज्जमाणे तत्र स्थित एव शक्रो देवराजा,छत्रमभिधारयतीत्यर्थः / गता मुसावायस्स कप्पिया पडिसेवणा। गतो मुसावातो। नि० चू०१ उ०। चतुर्विधेष्वपि मृषावादेषु जघन्यतोऽतिचारे सत्येकाशनकम, मध्यमेऽतिचारे आचामाम्लम्, उत्कृष्ट क्षपणम्। जीता पाणे य णाइवायेजा, अदिनं पिय णादए। सादियं ण मुसं वूया, एस धम्मे उसीमओ॥१॥ सूत्र०१श्रु०८ अ० मुसावायं वहिढेच, उग्गयं च अजाइय। सत्था दाणाई लोगंसि, तं विजं परिजाणिआ॥१।। मृषा-असद्भूतो वादो मृषावादस्तं विद्वान् प्रत्याख्यानपरिज्ञया परिहरेत् / सूत्र०१ श्रु०६ अ01. तीर्थकृवचनानुसारेण वदतो मृषावादो न भवति-- णवरंण मोक्खए पाणं, मुसावायं व आवई। अन्नंचरागं दोसं च मोहं व, भयछंदाणुवत्तियं / तित्थंकराण णो भूया, णो भवेज्जा उगोयमा ! मुसावायं न भासंतो, गोयमा ! तित्थंकरे उ। जेणं तुकेवलनाणेणं तेसिं, सव्वं पचक्खं जगं / भूयं भव्वं भविस्संच, पुन्न पावं तहेव य। जं किंचि तिसु लोएसु, तं सव्वं तेसि पायडं।
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________________ मुसावाय ३२६-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मुसावायवे० पायालं अवि उद्धमुहं, सग्गं पजा अहोमुहं णूणं / तित्थयरमुहमणियं, वयणं होजन अन्नहा। नाणदसणचारितं, तवं घोरं सुदुक्करं। सुग्गइमग्गो फुडो एस, परूवंती जहडिओ। अन्नहा न य तित्थयरा, वाया मणसा य कम्मुणा। भणंति जाव भुवणस्स, पलयं हवइ तक्खणा / / जं हियं सव्वजगजीव-पाणभूयाण केवलं। तमणुकंपाए तित्थयरा, धम्म भासंति अवितहं / / जेणं तु समउविनेणंदोहग्गदुक्खदारिद-रोगसोगकुगइभयं / ण भविजा उ विइएणं, संतो वुबेव तं तहा॥ महा०६अ। मृषावादपरिहारे कथा-- "कोकणः श्रावकः कोऽपि, पुंसा केनाप्यभण्यत। नश्यन्तं प्रहरान्ति-मेतं तेनाहतो मृतः / / 1 / / घातकं करणे नीत्वा-कथयत्तुरगाधिपः। पृष्टःकारणिकैः सोऽथ, साक्षी कस्तेऽत्र सोऽवदत्॥२॥ पुत्रोऽस्यैव स पृष्टोऽवक्, सत्यमेतत्ततः स तैः। सत्कृत्याऽभ्यकर्य निर्दोषो, मुक्तो निर्धाटितः परः // 3 // " आ०क०६ अ०॥ अत्रोदाहरणम्--('अलियवयण' शब्दे प्रथमभागे 773 पृष्ठे) (कारणे सति मृषावादं वदेदिति 'मुसोवएस' शब्दे वक्ष्यते) मुसावायवत्तिय-पुं०(मृषावादप्रत्ययिक) मृषावाद आत्मपरोभयार्थमलीकवचनंतदेव प्रत्ययः कारण यस्यदण्डस्यस तथा। स०१३समा आत्मार्थं परेषां वा नायकादीनामर्थाय यो मृषा वदति तस्मिन् क्रियास्थाने, नपुं०। प्रव० 121 द्वार। आतुला ('मुसा-दण्ड' शब्दे सूत्रं दर्शितम्) मुसावायवाय-पुं०(मृषावादवाद) मृषावादसत्के विकत्थने, "मुसावाय स्स वायं वयमाणे कप्पस्स पत्थारे भवई" मृषायादस्य सत्कं, वादंविकथनं, वार्ता वा वदति साधौ प्रायश्चित्तप्रस्तारो भवतीति / स्था०६ ठा०॥ मुसावायविरइ-स्त्री०(मृषावादविरति) सर्वस्मान्मृषावादाद् विरतो, महाका "अलियवयणस्स विरई सावजं सव्वमविन भासिज्जा'' महा० १चू०। मुसावायवेरमण-न०(मृषावादविरमण) अलीकवचनान्निवृत्ती, अहावरे दोचे भंते ! महव्वए मुसावायाओ वेरमणं, सव्वं भंते ! मुसावायं पचक्खामि, से कोहा वा लोहा वा भया वा हासा वा नेव सयं मुसं वएज्जा नेवन्नेहिं मुसं वायावेजा, मुसं वायंते वि अन्ने न समणुजाणामिजावजीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि करतं पि अन्नं न समणुजाणामि, तस्स भंते ! पडिकमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि। दुचे भंते ! महव्वए उवडिओ मि सव्वाओ मुसावायाओ वेरमणं २।(सूत्र-४) अथापरस्मिन् द्वितीये भदन्त ! महाव्रते मृषावादाद्विरमणं, सर्व भदन्त! मृषावादं प्रत्याख्यामीति पूर्ववत्, तद्यथा-क्रोधाद्वा लोभाद्रेत्यनेनाद्यन्तग्रहणान्मानमायापरिग्रहः भयाद्वाय हास्याद्वेत्य-नेन तुप्रेमद्वेषकलाहाभ्याख्यानादिपरिग्रहः। (णेव सयं मुसं वदेज्ज त्ति) नैव स्वयं मृषा वदामि, नैवान्यैर्मृषा वादयामि, मृषा वदतोऽप्यन्यान्न समनुजानामीत्येतत्यावजीवमित्यादिच भावार्थमधिकृत्य पूर्ववत्। दश०४ अ०। (मुसावायशब्दे चतुर्विधोऽयं व्याख्यातः) (स्थूलान् मृषावादाविरमणं द्वितीयमणुव्रतम् 'अलियवयण' शब्दे प्रथमभागे 773 पृष्ठे गतम्) एतद्ग्रतफलं विश्वासयशःस्वार्थसिद्धिप्रियाऽऽदेयाऽमोघवचनतादि, यथा "सव्वा उ मंतजोगा, सिझंती धम्मअत्थकामा य। सचेण परिग्गहिया, रोगा सोगा य नस्संति॥१॥ सचं जसस्स मूलं, सच्चं विस्सासकारण परम। सचं सग्गद्दारं सच्चं सिद्धीइ सोपाणं // 2 // " एतदग्रहणेऽतिचरणे च वैपरीत्येन फलम्"जं जं वचइ जाई, अप्पिअवाई तहिं तहिं होइ। नसुणइ सुहे सुसद्दे, सुणइ असोअव्वए सद्दे।।१।। दुग्गंधो पूइमुहो, अणि?वयणो अफरुसवयणो अ। जडएडमूअमम्मण-अलिअवयणजपणे दोसा।॥२॥" इहलोए चिअ जीवा, जीहाछेअं वहं च बंधं वा। अयसंधणनासं वा, पावंती अलियवयणाओ॥३॥" इत्यादि / // 26 // ध०२ अधि०। पञ्चा०। श्रा०) अथ द्वितीयव्रतस्य तान् (अतिचारान् आहअसौ द्विधाऽणुस्थूलाभ्यां, तत्राद्यः प्रचलादितः। द्वितीयः क्रोधलौभादे-मिथ्याभाषा द्वितीयके ||4|| द्वितीयके-मृषावादविरतिरूपेऽसावतिचारः, अणुस्थूलाभ्याम्सूक्ष्मबादराभ्यां, प्रकाराभ्यां, द्विधा-द्विप्रकारो, भवतीति शेषः। तत्रआद्यःसूक्ष्मः, प्रचलादितो निद्राविशेषादेर्भिय्याभाषा-असत्यभाषणं भवति, यथा-प्रचलसि किं दिवा? इत्यादिचोदितः प्राह-नाहं प्रचलामि इत्यादि / क्रोधादेः-क्रोधलोभहास्यभयैर्मिथ्याभाषा द्वितीयो बादरः परिणामभेदाद्भवतीति, यतः पञ्चवस्तुके-"बिइअंमि मुसावाए, सो सुहुमो बायरो अणायव्यो / पयलाइ होइ पढमो, कोहादभिभासणं बिइओ // 656 / / " ध०३ अधिo द्वितीयं व्रतमुच्यतेथूलगमुसावायं समणोवासओ पचक्खाइ, से य मुसावाए पंचविहे पन्नत्ते, तं जहा-कन्नालीए गवालीए भोमालीए नासावहारे कुडसक्खि(त्ते)ज्जे / थूलगमुसावायवेरमणस्स समणोवासएणं इमे पंच अइयारा जाणियय्वाण भासियव्वा। तं जहासहसब्भक्खाणे रहस्सब्भक्खाणे सदारमंतभेए मोसुवएसे कूडलेहकरणे // 2 // मृषावादो हि द्विविधः-स्थूलः, सूक्ष्मश्च / तत्र परिस्थूलवस्तु विष-योऽतिदुष्ट विवक्षासमुद्भवः स्थूलो, विपरीतस्त्वितरः / तत्र-स्थूल एव स्थूलकः स चासौ मृषावादश्चेति
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________________ मुसावायवे० 327- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मुसावायवे० समासः, तं श्रमणोपासकः प्रत्याख्यातीति पूर्ववत्, स च मृषावादः पञ्चविधः प्रज्ञातः-पञ्चप्रकारः प्ररूपितः, तीर्थकरगणधरैः, तद्यथेत्युदाहरणोपन्यासार्थः, कस्याविषयमनृतम्-अभिन्नकन्यकामेव भिन्नकन्यकां वक्ति, विपर्ययो वा, एवं गवानृतम्-अल्पक्षीरामेव गां बहुक्षीरां वक्ति, विपर्ययोवा, एवं भूम्यनृतम्-परसत्कामेवात्मसत्कां वक्ति, व्यवहारे वा नियुक्तोऽनाभवद्व्यवहारस्यैव कस्यचिद्भागाद्यभिभूतो वक्तिअस्येयमाभवतीति।न्यस्यते-निक्षिप्यत इति न्यासः-रूप्यकाद्यर्पणं, तस्यापहरणं न्यासापहारः। अदत्तादा-नरूपत्वादस्य कथं मृषावादत्वमिति? उच्यते-अपलपतो मृषा-वाद इति / कूटसाक्षित्वम् उत्कोचमात्सर्याधभिभूतः प्रमाणीकृतः, सन् कूट वक्ति, अविधवाद्यनृतस्वात्रैवान्तवो वेदितव्यः / मुसावादे के दोसा? अकजंते वा के गुणा? तत्थ दोसा, कण्णगं चेव अकण्णगं भण्णते भोगतरागदोसा, पदुट्ठा वा आतघातं करेज, कारवेज वा, एवं सेसेसु वि भाणियव्वा / पौसावहारे य पुरोहितोदाहरणम्--सो जधा णमोकारे गुणे उदाहरणं-कोंकणगसावगो मणुस्सेण भणितो, घोडए णासंते आहणादि त्ति,तेण आहतो मतो य, करणं णीतो पुच्छितो-को ते सक्खी? घोडगसामिएण भणियं, एतस्स पुत्तो मे सक्खी, तेण दारएण भणितं-सच्चमेत ति, तुट्ठा पूजितो सो, लोगेण य पसंसितो, एवमादिया गुणा मुसावादवेरमणे। इदं चातिचाररहितमनुपालनीयम् / तथा चाह-(थूलगमुसावादवेरमणस्स) व्याख्यास्थूलक मृषावादविरमणस्य श्रमणोपासकेनामी पञ्चाति-चाराः / ज्ञातव्याःज्ञपरिज्ञया न समाचरितव्याः। तद्यथेति पूर्ववत्, सहसाअनालोच्य, अभ्याख्यानं सहसाऽभ्याख्यानम्, अभिशंसनम्-असदध्यारोपणं, तद्यथा-चौरस्त्वं पारदारिको वेत्यादि। रह:-एकान्तः, तत्र भवं रहस्यं, तेन तस्मिन् वा अभ्याख्यानं रहस्याभ्याख्यानम्,एतदुक्तं भवति-एकान्ते मन्त्रयमाणान् वक्ति-एते हीदं चेदं च राजापकारित्वादि मन्त्रयन्ति / स्वदारे मन्त्रभेदः स्वदार-मन्त्रभेदः-स्वदारमन्त्र (भेद) प्रकाशनं-स्वकलत्रविश्रब्धविशि-श्रावस्थामन्त्रितान्यकथनमित्यर्थः, कूटम्-असद्भूतं, लिख्यत इति लेखः, तस्य कारणं-क्रिया कूटलेखक्रिया-कूटलेखकरणम्, अन्यमुद्राक्षरबिम्बस्वरूपलेखकरणमित्यर्थः / एतानि समाचरन्न-तिचरति द्वितीयाणुव्रतमिति / तत्रापायाः प्रदर्श्यन्ते सहसभक्खाणं खलपुरिसो सुणेज्जा सो वा इतरो वा मारिजेज वा, एवं गुणो, वेसि त्ति भएणं अप्पाणं तं वा विरोधेजा, एवं रहस्सब्भक्खाणेऽवि। सदारमंतभेदे जो अपणो भञ्जाए सद्धिं जाणि रहस्से वोल्लिताणि ताणि अण्णेसिं पगासेति। पच्छा सा लज्जिता अप्पाणं परं वा मारेज्जा / तत्थ उदाहरणम्--मथुरावाणिगो दिसीयत्ताए गतो, भज्जा सो जाधे ण एति ताधे बारसमे वरिसे अण्णेण समंघडिता। सो आगतो, रत्ति अन्नायवेसेण कप्पडियत्तणेण पविसति, ताणं तद्दिवसं पगतं, कप्पडिओ य मग्गति, तीए य बहितव्वगं खजगादि, ताधे णिवगपतिं वाहेति, अण्णातचजाए ताधे पुणरवि गंतुं महता रिद्धिए आगतो सयणाण समं मिलितो, परोवदेसेण वयस्साण सव्वं कधेति, ताए अप्पा मारितो / आव०६ अ०। (अत्रत्यमन्यद् 'मोसोवएस' शब्दे वक्ष्यते) अथ द्वितीयं संवरद्वारं मृषावादविरत्यात्मकम्जंबू! बितियं च सचवयणं सुद्धं सुचियं सिवं सुजायं सुभासियं सुव्वयं सुकहियं सुदिहं सुपतिट्टियं सुपतिट्ठियजसं सुसंजमियवयणबुइयं सुरवरनरवसभपवरबलवगसुविहियजणबहुमयं परमसाहुधम्मचरणं तवनिय मपरिगहियं सुगति पहदेसियं च लोगुत्तमं वयमिदं विजाहरगगणगमणविजाण साहणं सग्गमम्गसिद्धिपहदेसियं अवितहं तं सचं उज्जुयं अकुडिलं भूयत्थं अत्थतो विसुद्धं उज्जोयकरं पभासकं भवति, सव्व-भावाण जीवलोके अविसंवादि, जहत्थमधुरं पञ्चक्खं देवयं व जंतं अच्छेरकारकं अवत्थंतरेसु बहुएसुमाणुसाणं सच्चेण महासमुद्दमज्झे वि मूढाणिया विपोया सचेण य उदगसंभ-मंमि विन दुज्झति न य मरंति थाहं ते लभंति / सचेण य अगणिसंभमंमि विन डज्झं ति, उल्लुगा मणूसा सचेण यतत्ततेल्लउलोहसीसकाई छिवंति धरति न य डज्मंति, मणूसा पव्वयकडकाहिं मुचंति नय मरंति। सच्चेण य परिग्गहिया असिपंजरगया समराओ वि णिइंति। अण्णहाय सबवादी वहबंधमिओगवेरघोरेहिं पमुच्चंति य अमित्तमज्झाहिं निइंति अण्णहा य सच्चवादी सादिव्वाणि य देवयाओ करेंति सचवयणे रताणं / तं सचं भगवं तित्थगरसुभासियं दसविहं चोइसपुटवीहिं पाहुडत्थविदितं महरिसीण यसमयप्पदिण्णं देविंदनरिंदभासियत्थं वेमाणियसाहियं महत्थं मंतोसहिविजासाहणत्थं चारणगणसमणसिद्धविजमणुयगणाणं वंदणिज्जं अमरगणाणं च अचणिजं असुरगणाणं च पूयणिजं अणेगपासंडिपरिग्गहियं जंतं लोकम्मि सारभूयं गंभीरतरं महासमुदाओ थिरतरगं मेरुपव्वयाओ सोमतरगं चंदमंडलाओ दित्ततरं सूरमंडलाओ विमलतरं सरयनहत-लाओ सुरभितरं गंधमायणाओ जे वि य लोगंमि अपरिसेसा मंता जोगा जवा य विजाय जंभकाय अत्थाणिय सत्थाऽणि य सिक्खाओय आगमा य सव्वाई वि ताई सच्चे पइट्ठियाई। सच्चं पि य संजमस्स उवरोहकारकं किंचिन वत्तव्वं, हिंसा-सावनसंपउत्तं भेयविकहकारकं अणत्थवायकलहकारकं अणजं अववायविवायसंपउत्तं वेलंबं ओजधेजबहुलं निल्लजं लोयगरहणिज्जं दुट्टि दुस्सुयं अमुणियं अप्पणो थवणा परेसु निंदा, न तं सि मेहावी, ण तं सि धण्णो, न तं सि पियधम्मो, न तं कुलीणो, न तं सि दाणपती, न तं सि सूरो न तं सि पडिरूवो न तं सि लट्ठो, न पंडिओ,नबहस्सुओ,न वियतं तवस्सी,ण याऽवि परलोगनिच्छियमती सि, सव्वकालं जातिकुलरूववाहिरोगेण वाऽवि जं होइ वञ्जणिज्जं दुहओ उवचारमतिकंतं एवंविहं सचं पिन वत्तव्यं /
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________________ मुसावायवे० 328 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मुसावायवे० अथ कीदृशम् तत्अह केरिसकं पुणाई सचंतु भासियट्वं? जंतं दय्वेहिं पज्जवेहि य गुणेहिं कम्मेहिं कम्मेहिं बहुविहेहिं सिप्पेहिं आगमेहि य नामक्खायनिवाओवसग्गतद्धियसमाससंधिपदहेउजोगियउणादिकिरियाविहाणधातुसरविमत्तिवन्नजुत्तं तिकल्लं दस-विहं पि सच जह भणियं तह य कम्मुणा होइ दुवालसविहा होइ भासा, वयणं पि य होइ सोलसवियं, एवं अरहंतमणुम्नायं समिक्खियं संजएण कालंमि य वत्तव्वं / (सूत्र-२४) 'जंबू' इत्यादि-तत्र जम्बूरिति शिष्यामन्त्रणम्, (बिइयं च त्ति) द्वितीय पुनः संवरद्वारम्, सत्यवचनम् सद्भयोमुनिभ्यो, गुणेभ्यः, पदार्थेभ्यो वा, हितं सत्यम्। आह च-"सच्चं हियं सयामिह, संतो मुणओ गुणा पयत्था वा" तच्च तद्वचनं सत्यवचनम्, एतदेवस्तुवन्नाह-शुद्धम्-निर्दोषम, अत एव शुचिक-पवित्रम्, शिवं-शिवहेतुः, सुजातं-शुभविवक्षोत्पन्नम्, अत एव-सुभाषितं-शोभ-नव्यक्तवाग्- रूपं, शुभाश्रितम्, सुखाश्रितं; सुधासितं वा,सुव्रतम्-शोभननियमरूपं, शोभनो नाम मध्यस्थःकथः(कथितं) प्रतिपादको (प्रतिपादयितव्यं) यस्य तत्सुकथितं, सुदृष्टम् अतीन्द्रियार्थदर्शिभिः, दृढमपवर्गादिहेतुतयोपलब्धं, सुप्रतिष्ठितंसमस्तप्रमाणैरुपपादितं, सुप्रतिष्ठि तयशः-अव्याहतख्यातिकं, (सुसंजमियवयणबुइयं ति) सुसंयमितवचनैः-सुनियन्त्रितवचनैरुक्तं यत्तत्तथा, सुरवराणांनरवृषभाणां (पवरबलवग त्ति) प्रवरबलवतां सुविहितजनस्य च बहुमत-सम्मतं यत्तत्तथा, परमसाधूनानैष्ठिकमुनीनाम्, धर्मचरणम्-धर्मानुष्ठानं यत्तत्तथा, तपोनियमाभ्यां परिगृहीतम्अङ्गीकृतं यत्तत्तथा, तपोनियमौ सत्यवादिन एव स्याता नापरस्येति भावः, सुगतिपथदेशकं च, लोकोत्तमं वृतमिदमिति व्यक्तम्। विद्याधरगगनगमनविद्यानां साधनं नासत्यवादिनस्ताः सिध्यन्तीति भावः / स्वर्गमार्गस्यसिद्धिपथस्य च, देशकं-प्रवर्त-कम् यत्तत्तथा, अवितथम्वितथरहितम्, (तं सचं उज्जुगं ति) सत्याभिधानं यद् द्वितीयं संवरद्वारमभिहितं, तदृजुकम, ऋजुभा-वप्रवर्तितत्वात्, तथा-अकुटिलम्अकुटिलस्वरूपत्वात, भूतः-सद्भूतोऽर्थः- अभिधेयो यस्य तद् भूतार्थम्, अर्थतः-प्रयोजनतो, विशुद्धं-निर्दोषं, प्रयोजनापन्नमिति भावः, उद्योतकर-प्रकाशकारि, कथम्?-यतः प्रभाषकंप्रतिपादक भवति, केषां कस्मिन्नित्याह-सर्वभावानां जीवलोके-जीवाधारे क्षेत्र, प्रभाषकमिति विशिनष्टि, अविसंवादि-अव्यभिचारि, यथार्थमिति कृत्वा, मधुरं-कोमलं यथार्थमधुरं, प्रत्यक्षं दैवतमिव देवतेव यत्तद्, आश्चर्यकारकं-चित्तविस्मयकरकार्यकारकं, तदीदृशं, केषु केषामिति? आह-- अवस्थान्तरेषु-अवस्थाविशेषेषु, बहुषु मनुष्याणां यदाह"सत्येनाग्निर्भवेच्छीतो, गाधं धत्तेऽम्बु सत्यतः। नासिश्छिनत्ति सत्येन, सत्याद्रजूयते फणी / / 1 // " एतदेवाह-सत्येन हेतुना महासमुद्रमध्ये तिष्ठन्ति न निमज्जन्ति, (मूढाणिया वित्ति) मूढं नियत दिग्गमनाप्रत्ययम् (अणियं ति) अग्रम् - तुण्डम्, अनीकं वा-तत्प्रवर्तकं जनसैन्यं येषां ते तथा, तेऽपि, पोताबोधिस्थाः, तथा सत्येन च उदकसम्भ्रमेऽपिसम्भ्रमकारणत्वादुदकप्लवः उदकसम्भ्रमस्तत्रापि (न बुज्झइ त्ति) वचनपरिणामानोह्यन्तेनप्लाव्यनते, न च म्रियन्ते, स्ताघं च-गाधं च ते लभन्ते, सत्येन चाग्निसम्भ्रमेऽपि-प्रदीपनकेऽपि; न दह्यन्ते, ऋजुका-आर्जवोपेतः, मनुष्या नराः सत्येनच तप्ततै-लत्रपुलोहसीसकानि प्रतीतानि (छिवंति त्ति) छुपन्ति धारयन्ति, हस्ताञ्जलिभिरिति गम्यते, न च दह्यन्ते मनुष्याः, पर्वतकटकात्-पर्वतैकदेशाद् विमुच्यन्तेन च मियन्ते, सत्येन च परिग्रहीता युक्ता इत्यर्थः, असिपञ्जरेशक्तिपञ्जरे गताः, खड्गशक्तिव्यग्रकररिपुपुरुषवेष्टिता इत्यर्थः, समरादपि-रणादपि, (निति त्ति) निर्यान्तिनिर्गच्छन्ति, अनघाश्च-अक्षतशरीरा इत्यर्थः, के इत्याह-सत्यवादिनः- सत्यप्रतिज्ञाः, वधबन्धाभियोगवैरघोरेभ्यः-ताडनसंयमनबलात्कारपोरशात्रवेभ्यः प्रमुच्यन्ते, अमित्रमध्यात् शत्रुमध्या--- नियन्ति, अनधाश्च निर्दोषाः सत्यवादिनः, सादेव्यानि घसांनिध्यानि च, देवताः कुर्वन्ति; सत्यवचनरतानाम्। आह च"प्रियं सत्यं वाक्यं हरति हृदयं कस्य न जने? गिरं सत्यां लोकः प्रतिपदमिमामर्थयति च / सुराः सत्याद्वाक्याद्ददति मुदिताः कामिकफलमतः सत्याद्वाक्याद् व्रतमभिमतं नास्ति भुवने // 1 // " (तमिति) यस्मादेवं तस्मात्सत्यं द्वितीयं महाव्रतं भगवद्-भट्टा-रकं, तीर्थकरसुभाषितम् जिनैः सुष्४क्तं दशविधं-दशप्रकारं; जनपदसम्मतसत्यादिभेदेन दशवैकालिकादिप्रसिद्ध, चतुर्दशपूर्विभिः प्राभृतार्थवेदितंपूर्वगतांशविशेषाभिधेयतया ज्ञातं महर्षीणांच, समयेनसिद्धान्तेन, (पइन्नं ति) प्रदत्तं समयप्रतिज्ञा वा-समाचाराभ्युपगमः। पाठान्तरे-(महरिसिसमयपइन्नचिन्नं ति) महर्षिभिः, समयप्रतिज्ञासिद्धान्ताभ्युपगमः, समाचारभ्युपगमो वेति चरितं यत्तत्तथा, देवेन्द्रनरेन्द्रर्भाषितःजनानामुकोऽर्थः-पुरुषार्थस्तत्साध्यो धर्मादिर्यस्य तत्तथा / अथवादेवेन्द्रनरेन्द्राणां भासितः-प्रतिभासितोऽर्थः-प्रयोजनं यस्य तत्तथा। अथवा-देवेन्द्रादीनां भाषिताः, अर्थाजीवादयो जिनवचनरूपेण येन तत्तथा, तथा वैमानिकानां साधितं प्रतिपादितमुपादेयतया जिना-- दिभिर्यत्तत्तथा, वैमानिकैर्वा साधितंकृतमासेवितं, समर्थितं वा यत्तत्तथा, महार्थं ---महाप्रयोजनम्, एतदेवाह-मन्त्रौषधिविद्यानां साधनमर्थःप्रयोजनं यस्य तद्विना तस्याभावात्तत्तथा, तथा चारणगणानां-विद्याचारणादिवृन्दानां, श्रमणानां च सिद्धाः विद्या आकाशगमनवैक्रियकरणादिप्रयोजनायस्मात्तत्तथा, मनुजगणानांचवन्दनीयंस्तुत्यम्, अमर-गणानां चार्चनीयं-पूज्यम्,असुरगणानां च पूजनीयम्, अनेकपाखण्डि-परिगृहीतं नानाविधव्रतिभिरङ्गीकृतं यत्तत्, लोके सारभूतं, गम्भीरतरंमहासमुद्रादतिशयेनाक्षोभ्यत्वात् 'स्थिरतरकमेरुपर्वतात् अचलितत्वेन, सौम्यतरं चन्द्रमण्डलात्, अतिशयेन सन्तापोपशमहेतुत्वात्, दीप्ततरं सूरमण्डलात्, यथावद्वस्तुप्रकाशनात्; तेजस्विनांचात्यन्तानभिभवनीयत्वात्, विमलतरं शरन्नभस्तलादतिनिर्दोषत्वात्, सुरभितरमिव सुरभितरं, गन्धमाद
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________________ मुसावायवे० 326 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मुसावायवे० नाद्- गजदन्तकगिरिविशेषात्, सहृदयानामतीव हृदयावर्जकत्वात्, द्योतनार्थः, (आईति) वाक्यालंकारार्थः, (सच्चं तुत्ति) सत्यमपि भाषियेऽपि च लोकेऽपरिशेषा-निःशेषा, मन्त्राः-हरिणेगमेषिमन्त्रादयः, तव्यं, वक्तव्यं, यत्तद्रव्यैः-त्रिकालानुगतिलक्षणैः पुगलादिभिर्वस्तुभिः, योगा:-वशीकरणादिप्रयोजनाः, द्रव्यसंयोगाः, जपाश्चमन्त्रविद्याजप- पर्यायैश्चनवपुराणादिभिः, क्रमवर्तिभिर्धम्म :, गुणैः-वर्णादिभिः सह नानि , विद्याश्च-प्रज्ञप्त्यादिकाः, जृम्भकाश्चतिर्यग्लोकवासिनो देव- भाविभिर्द्धम्मरेव, कर्मभिः-कृप्यादिव्यापारैः, बहुविधैः, शिल्पैःविशेषाः, अस्त्राणि च-नाराचादीनि क्षेप्यायुधानि, सामान्यानि वा, साचार्यकश्चित्रकर्मादिभिः क्रियाविशेषैः, आगमैश्च सिद्धान्तार्थर्युक्तमिति शास्वाणि च-अर्थशास्त्रादीनि, शस्त्राणि वा-खगादीनि, अक्षेप्यायु- सम्बन्धः कार्यः,युक्तशब्दस्योत्तरत्र समस्तनिर्देशेऽपि प्राकृतशैलीवशाद् धानि, शिक्षाश्चकलाग्रहणानि, आगमाश्व-सिद्धान्ताः सर्वाण्यपि तानि द्रव्यादियुक्तत्वं वचनस्य तदभिधायकत्वाद्, अथवा--द्रव्यादिषु विषये सत्ये प्रतिष्ठितानि, असत्यवादिनां न केऽपि मन्त्रादयोऽर्थाः स्वसाध्य- द्रव्यादिगोचरमित्यर्थः / तथा 'नामाख्यातनिपातोपसर्गतद्धितसमाससाधकाः प्रायो भवन्तीति भावः, तथा-सत्यमपि सद्भतार्थमात्रतया सन्धिपदहेतुयोगिकोणादिक्रियाविधानधातुस्वरविभक्तिवर्णयुक्तम्-' संयमस्योपरोधकारकं बाधकं किञ्चिद् अल्पमपि न वक्तव्यं, किंरूपं इति-(अस्य व्यख्या) तत्र नामेति पदशब्दसम्बन्धानामपदमेवमुत्तरतदित्याह-हिंसया-जीववधेन, सावद्येन च पापेन, आलापादिना त्रापि, तच्चाव्युत्पन्नेतरभेदाद् द्विधा / तत्र व्युत्पन्नम्-देवदत्तादि, अव्युसम्प्रयुक्तं यत्तत्तथा, आह च त्पन्नम् डित्थेत्यादि, आख्यातपदं-साध्यक्रियापदं, यथा-अकरोत्, तहेव काणं काणि त्ति, पंडगं पंडग ति य। करोति, करिष्यति,तत्तवर्थद्योतनाय तेषु तेषु स्थानेषु निपतन्तीति बाहियं वा वि रोगि त्ति, तेणं चोरि त्ति नो वए॥१॥ निपाताः तत्पदं निपातपदं, यथा-च वा खल्वित्यादि, उपसृज्यन्तेभेदः-चारित्रभेदस्तत्कारिका, विकथाः-सत्रादिकथाः, तत्कारकं | धातुसमीपे नियुज्यन्त इत्युपसर्गास्तद्रूपं पदमुपसर्गपदम्-प्रपराअप यत्ततथा, तथा अनर्थवादो-निष्प्रयोजनो जल्पः, कलहश्वकलिः, इत्यादिवत्, तस्मै हितं तद्धितमित्याद्यर्थाभिधायका ये प्रत्ययास्ते तत्कारकं यत्तत्तथा, अनार्यम्-- अनार्यप्रयुक्तम्, अन्याय्यं च अन्यायो तद्धिताः, तदन्तं पदंतद्धितपदं, यथा-गोभ्यो हितोगव्यो देशः, नाभेरपत्यं पेतम्, अपवादः-परदूषणाभिधानं, विवादोश्वप्रति-पत्तिस्तत्सम्प्रयुक्त नाभेय इत्यादि, समसनं-समासः, पदानामेकीकरणरूपः, तत्पुरुषादिः, यत्तत्तथा, वेलम्ब-परेषां विडम्बनकारि, ओजोबलं, धैर्य च-धृष्टता, तत्पदं-समासपदं, यथा-राजपुरुषः इत्यादि, सन्धिः-सन्निकर्षः, तब ताभ्यां, बहुलं,प्रचुरमोजोधैर्यबहुलं, निर्लज्जम्- अपेतलज्ज, लोकगह तत्पदं, यथा-दधीदं, तद्यथेत्यादि, तथा हेतुः-साध्याविना-भूतत्वणीयं-लोकनिन्धं,दुर्दृष्टम्--असम्यगीक्षितं, दुःश्रुतम्-असम्यगाक लक्षणो, यथा-अनित्यः शब्दः कृतकत्वादिति, यौगिकं-यदेतेषामेव र्णितं,दुर्मुणितम्-असम्यग्ज्ञातम्, आत्मनः स्तावनास्तुतिः,परेषां व्यादिसंयोगवत्, यथा-उपकरोति सेनयाऽभियाति अभिषेणयतीत्यादि, निन्दागर्दा, निन्दामेयाह-(नसित्ति) नासि-न भवसि, त्वमिति गम्यते, तथा-उणादि-उणप्रभृतिप्रत्ययान्तं पदं, यथा-आशु, स्वादु, तथामेधावी-अपूर्वश्रुत-दृष्टग्रहणशक्तियुतः,तथा न त्वमसि, धन्यो-धनं क्रियाविधानं-सिद्धक्रियाविधिः, काऽन्तप्रत्ययान्त (कृत्प्रत्ययान्त) लब्धा, तथा नासि-न भवसि, प्रियधर्मा-धर्मप्रियः, तथा न त्वं पदविधिरित्यर्थः, यथा-पाचकः पाक इत्यादि, तथा-धातवोभ्वादयः कुलीनः कुलजातः, तथान असि-नभवसि दानपतिः दानदातेत्यर्थः, क्रियाप्रतिपादकाः, स्वरा-अकारादयः, षड्जादयो वा सप्त, क्वचिद्रसा तथा न त्वमसि सू(शू)र:-चारभटः,तथा न त्वमसि-न भवसि प्रति इति पाठः, तत्र रसा:--शृङ्गारादयो नव, यथारूपो-रूपवान्, न त्वमसि लष्टः-सौभाग्यवान्, न पण्डितो-बुद्धिमान्, '' शृङ्गारहास्यकरुणा, रौद्रवीरभयानकाः / न बहुश्रुतः-आकर्णिताधीतबहुशास्त्रः, बहुसुतोवा-बहुपुत्रो बहुशिष्यो बीभत्साद्भुतशान्ताश्च, नव नाट्ये रसाः स्मृताः॥१॥" वा,नापि च त्वं तपस्वी-क्षपकः, न चापि परलोकविषये निश्चिता- विभक्तयः-प्रथमाद्याः सप्त, वर्णाः-ककारादिव्यञ्जनानि, एभिर्युक्तं निःसंशया मतिरस्येति परलोकनिश्चित-मतिः,असि-भवसि, सर्वका- यत्तत्तथा, अथ सत्यं भेदत आह-त्रैकाल्यं-त्रिकालविषयं दशविधमपि लम्-आजन्मापीति, किंबहुनोक्तेन? वर्जनीयवचनविषयमुपदेशसर्वस्व- सत्यं भवतीतियोगः, दशविधत्वं च सत्यस्यजनपद सम्मतसत्यादिमुच्यते, जातिकुलरूपव्याधिरोगेण चापीति, इह जात्यादीनां समाहार- भेदात्, आह चद्वन्द्वः, ततो जात्यादिना निन्दितेन परचित्तपीडाकारित्वाद्यद्भवेद, वर्ज- "जणवय 1 संयम 2 ठवणा 3, नामे 4 रूवे 5 पडुच सचे य 6 / नीयंपरिहर्त्तव्यं, तदेवंविधं सत्यमपि न वक्तव्यमिति वाक्यार्थः / तत्र / ववहार 7 भाव 8 जोगे 6, दसमे ओवम्मसच्चे य 10 // 1 // " त्ति / जातिः-मातृकः पक्षः, कुलं-पैतृकः पक्षः, रूपम्-आकृतिः, व्याधिः- जनपदसत्यं यथा-उदकार्थे कोकणादिदेशरुढ्या पय इति वचनं, चिरस्थाता कुष्ठादिः, रोगः-शीघ्रतरघाती ज्वरादिः, वा-विकल्पे, संमतसत्यं यथा-समानेऽपि पङ्कसम्भवे गोपालादीनामपि सम्मतअपिः-समुच्चये, (दुहिलं ति) द्रोहवत् पाठान्तरेण-"दुहओ त्ति'' द्रव्यतो त्वेनार-विन्दमेव पङ्कजमुच्यते, न कुवलयादीति स्थापनासत्यंजिनप्रतिभावतश्च / उपचार-पूजाम, उपकारं वा अतिक्रान्तम्,एवंविधं तु- मादिषु जिनादिव्यपदेशः, नामसत्यं यथा-कुलमवर्द्धयन्नपि कुलवर्धन एवंप्रकारं, पुनः सत्यमपि-सद्भूततामात्रेण आस्तामसत्यं, न वक्तव्यं-न इत्युच्यते, रूपसत्यं यथा- भावतोऽश्रमणोऽपि तद्रूपधारी श्रमणवाच्यम्,(अथ केरिसगं ति) अथशब्दः परिप्रश्ने, कीदृशकं-किंविधम्- इत्युच्यते, प्रतीतसत्यं यथा-अनामिका कनिष्ठिका प्रतीत्य दीर्घत्यु(पुणाई ति) इह पुनरपि पूर्ववाक्यार्थापेक्षयोत्तरवाक्यार्थस्य विशेष- | च्यते, सैव मध्यमा प्रतीत्य ह्रस्वेति, व्यवहारसत्यं यथा-गिरिग--
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________________ मुसावायवे० 330 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मुसावायवे० ततृणादिषु दह्यमानेषु व्यवहारात् गिरिदह्यत इति, भावसत्यं यथा सत्यपि फरुसं न साहसं न य परस्स पीलाक सावजं सच्चं च हियं च पञ्चवर्णत्वे शुक्लत्वलक्षणभावोत्कटत्वात्-शुक्ला बलाकेति, योगसत्यं मियं च गाहगं च सुद्धं संग्गमकाहलं च समिक्खितं संजतेण यथा-दण्डयोगाद्दण्ड इत्यादि, औपम्यसत्यं यथा-समुद्रवत्तडाग कालंमि य वत्तव्वं एवं अणुवीतिसमितिजोगेण भाविओ भवति इत्यादि, तथा-(जह भणियं तह य कम्मुणा होइ त्ति) यथा येन प्रकारेण, अंतरप्पा संजयकरचरणनयणवयणो सूरो सबवज्जवसंपन्नो। भणितं-भणनक्रिया, दशविधसत्यं सद्भतार्थतया भवति, तथा-तेनैव 'इमंचे' त्यादि-इमं च प्रत्यक्ष प्रवचनमिति योगः, अलीकम्-असद्भूप्रकारेण, कर्मणा वा, अक्षर-लेखनादिक्रियया सद्भतार्थज्ञापनेन सत्यं | तार्थ, पिशुनपरोक्षस्य परस्य दूषणाविष्करणरूपम्, परुषम्-अश्राव्यदशविधमेव भवतीति, अनेन चेदमुक्तं भवति-न केवलं सत्यार्थं वचनं / भापं, कटुकम्-अनिष्टार्थम्, चपलम्-उत्सु-कतयाऽसमीक्षितम्, वाच्यम्, हस्तादिकाप्यव्यभिचार्यर्थसूचकमेव कर्तव्यम्, उभयत्रा- यद्वचनम्-वाक्यं, तस्य परिरक्षणलक्षणो योऽर्थस्तस्य भावस्तत्ता तस्यै प्यव्यभिचारितया पराध्यसनस्याकुटिलाध्यवसायस्य चतुल्यत्वादिति, च अलीकपिशुनपरुषकटुकचपलवचनपरिरक्षणार्थतायै, प्रावचनम्तथा-(दुबालसविहा य होइ भास ति) द्वादशविधा च भवति भाषा, प्रवचनं, शासनमित्यर्थः, भगवता श्रीमन्महावीरेण सुष्ठुकथितं सुकथिततथाच मित्यादि, 'पररक्षणट्टयाए ति यावत् पूर्ववत्। नवरं द्वितीयस्य व्रतस्य"प्राकृतसंस्कृतभाषा, मागधपैशाचसौरसेनी च। अलीकवचनस्येति विशेषः, (पमं ति) प्रथमं भावनावस्तु अनुविचिन्त्य षष्ठोऽत्र भूरिभेदो, देशविशेषादपभ्रंशः॥१॥" समितियोगलक्षणम्, तचैवम् श्रुत्वा-आकर्ण्य सद्गुरुसमीपे (संवरटुंति) संवरस्य-प्रस्तावेन मृषावादविरतिलक्षणस्य, अर्थः-प्रयोजनं, मोक्षइयमेव षविधा भाषा गद्यपद्यभेदेन भिद्यमाना द्वादशधा भवतीति, लक्षणं प्रस्तुतसंवराध्ययनस्य या अर्थः-अभिधेयः, संवरार्थस्तम्, तथा वचनमपि षोडशविधं भवति, तथाहि श्रवणाच (परमट्ठ सुठु जाणिऊणं ति) परमार्थ-हेयोपादेयवचनैदम्पर्य ''वयणतियं३लिङ्गतियं६,कालतियांतह परोक्खपचक्खं 11 / सुष्ठ-सम्यक् ज्ञात्वा, ननैव, वेगितम् वेगवत्, विकल्पव्याकुलमयेत्यर्थः, उवणीयाइचउक्१५, अज्झत्थं 16 चेव सोलसमं / / 1 / / " वक्तव्यमिति योगः। न त्वरितम्, वचनचापल्यतः, न कटुकम् अर्थतः, न तत्र वचनत्रयम्-एकवचन द्विवचनबहुवचनरूपं, यथा वृक्षः, वृक्षौ, वृक्षाः।। परुषं, वर्णतः, न साहसं साहसप्रधानमतर्कितं वा, न च परस्य जन्तोः लिङ्गत्रिकम्-स्त्रीपुंनपुंसकरूपम्, यथा-कुमारी, वृक्षः, कुण्डम् / पीडाकर, सावद्यम्-सपापं यत्, वचनविधिं निषेधतोऽभिधाय। साम्प्रतं कालत्रिकम् अतीतानागतवर्तमानकालरूपम्,यथा-अकरोत्, करि- विधित आह-सत्यं च-सद्भूतार्थं , हितंच-पथ्यं, मितम्-परिमि साक्षरं, ष्यति, करोति / प्रत्यक्षं यथा-अयम, एषः / परोक्षं यथा-सा। तथा- ग्राहकंच-प्रतिपाद्यस्य विवक्षितार्थप्रतीतिजनकं, शुद्धम् पूर्वोक्तवचनउपनीतवचनम् गुणोपनयनरूपं, यथा-रूपया-नयम्। अपनीतवचनं- दोषरहितं सङ्गतम्-उपपत्तिभिरवाधितम्, अकाहलं च-अमन्मनाक्षरं, गुणापनयनरूपं, यथा-दुःशीलोऽयम् / उपनीतापनीतवचनम्- यत्रैक समीक्षितम्-पूर्व बुद्ध्या पर्यालोचितं, संयतेन-संयमवता, काले चगुणमुपनीय गुणान्तरमपनीयते, यथा- रूपवानयं किं तु-दुःशीलः / अवसरे, वक्तव्यं, नान्यथा,एवम्--उक्तेन भाषणप्रकारेण, (अणुवीइयविपर्ययेणतु अपनीतोपनीतवचनं, तद्यथा-दुःशीलोऽयं किंतु रूपवान्। समितिजोगेणं ति) अनुविचिन्त्यपर्यालोच्य, भाषणरूपा या समितिः-- अध्यात्मवचनम् अभिप्रेत-मर्थं गोपयितुकामस्य सहसा तस्यैव भणन सम्यक्प्रवृत्तिः, सा अनुविचिन्त्यसमितिः तया योगः सम्बन्धः तद्रूपोवा मिति, (एवमिति) उक्तसत्यादिस्वरूपावधारणप्रकारेण अर्हदनुज्ञातं व्यापारोऽनुविचिन्त्य-समितियोगस्तेन भावितो भवति, अन्तरात्मा-- समीक्षित, बुद्ध्या पर्यालोचितं, संयतेन संयमयता, काले च अवसरे, जीवः, किंविध इत्याह-संयतकरचरणनयनवदनःशूनः सत्यार्जवसंपन्न वक्तव्यम् , न तु जिनाननुज्ञातमपर्यालोचितमसंयतेनाकाले चेति इति प्रतीतमिति / / 1 / / प्रश्न०२ संव० द्वार। अहावरं दोचं महव्वयं पञ्चखामि सव्वं मुसावायं वतिदोसं भावना। आह च से कोहावालोहा वा भया वा हासा वाणेव सयं मुसं भासिज्जा, "बुद्धिए निएऊण, भासेज्जा उभयलोगपरिसुद्धं / णेवण्णेणं मुसं भासावेजा, अण्णं पिमुसं भासंतं ण सपरोभयाण जं खलु, न सव्वहा पीडजणगंतु॥१॥" समणुजा-णेज्जा तिविहं तिविहेणं मणसा वयसा कायसा, एतदर्थमेव जिनशासनमित्येतदाह पञ्च भावनाः तस्स भंते ! पडिकमामि० जाव वोसिरामि, तस्सिमाओ पंच इमं च अलियपिसुणफरुसकडुयचवलवयणपरिरक्खणऽट्ठ भावणाओ भवंति, तत्थिमा पढमा भावणा-अणुवीयिभासी याए पावयणं भगवया सुकहियं अत्तहियं पेचा भावियं आगमेसि से णिग्गंथे णो अणणुवीयिभासी, के वली बूया०-अणणुभई सुद्धं नेयाउयं अकु डिलं अणुत्तरं सव्वदुक्खपावाणं वीयिभासी से निग्गंथे समावजिज्जा मोसं वयणाए, अणुवीयिविउसमणं, तस्स इमा पंच भावणाओ बितियस्स वयस्स भासी से णिग्गंथे णो अणणुवीयिभासि ति पढमा मावणा / अलियवयणस्स वेरमणपरिरक्खणट्ठयाए पढमं सोऊण संवट्ठ अहावरा दुचा भावणा-कोहं परियाणइ से निग्गंथे नो कोहणे परम सुख जाणिऊण न वेगियं न तुरियं न चवलं न कडुयं न सिया, केवली बूया-कोहप्पत्ते कोहत्तं समावइज्जा मोसं वगणाए,
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________________ मुसावायवे० 331 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मुसावायवे० कोहं परियाणइ से निग्गंथे न य कोहणे सिय त्ति दुचा भावणा। सौख्यस्यशीतलच्छायादिसुखहेतोः कृते, तथा शय्याया वसतेः यत्र वा आचा०२श्रु०३चूo प्रसारितपादैः सुप्यते सा शय्या तस्यै, संस्तारकस्य वा-अर्द्धतृतीयबितियं कोहो ण सेवियव्वो, कुरो चंडिक्किओ मणूसो अलियं हस्तस्य कम्बलखण्डादेः कृते पाद-प्रोञ्छनस्यरजोहरणस्य कृते भणेज्ज, पिसुणं भणेज, फरुसं भणेज, अलियं पिसुणं फरुसं उपसंहरन्नाह--अन्येषु च एवमादिषु बहुषु कारणशतेष्वित्यादि व्यक्तमेव३ / भणेज, कलह करेजा, वेरं करेजा, विकहं करेजा, कलह वेरं / प्रश्न० २संव०द्वार / (अन्यद् ‘भीय' शब्दे) विकह करेजा / सचं हणेज्ज, सीलं हणेज्ज, विणयं हणेज,सचं अहावरा तच्चा भावणा-लोभं परिजाणइ से णिग्गंथे णो य सीलं विणयं हणेज / वेसो हवेज, वत्थु भवेज, गम्मो भवेज, लोभणए सिया, केवली बूया-लोभपत्ते लोभी समावइजा मोसं वेसो वत्थु गम्मो भवेज। एयं अन्नं च एवमादियं भणेज्ज / कोह- वयणाए, लोभं परिजाणइ से णिग्गंथे णो य लोभणए सिय त्ति ऽग्गिसंपलित्तो तम्हा कोहो न सेवियव्वो, एवं खंतीइ भाविओ तथा भावणा। भवति अंतरप्पा संजयकरचरणनयणवयणो सूरो सच्चऽऽज्ज- तृतीयभावनायां तु लोभजयः कर्त्तव्यस्तस्यापि मृषावादे हेतुत्वादिति वसंपन्नो / ततिय लोभो न सेवियध्वो, लुद्धो लोलो भणेज्ज हृदयम्। आचा०२ श्रु०३चूला अलियं खेत्तस्स व वत्थुस्स व कतेण 1, लुद्धो लोलो भणेज्ज अहावरा चउत्था भावणा-भयं परिजाणइ से णिग्गंथे णो अलियं फित्तीए लोभस्स व कएण२,लुद्धोलोलो भणेज्ज अलियं भयभीरुए सिया, केवली बूया-भयप्पत्ते भीरु समावदेज्जा मोसं रिद्धीए वं.सोक्खस्स व कएण३,लुद्धो लोलो भणेज्ज अलियं वयणाए भयं परिजाणइसे णिग्गंथेनो भयभीरुए सिया, चउत्था भत्तस्स व पाणस्स व कएण, लुद्धो लोलो भणेज्ज अलियं भावणा / अहावरा पंचमा भावणा-हासं परिजाणइ से णिग्गंथे पीढस्स व फलगस्स व कएण 5, लुद्धो लोलो भणेज्ज अलियं णो य हासणए सिया, केवली बूया-हासप्पत्ते हासी समावदेजा सेज्जाए व संथारगस्स व कएण 6, लुद्धो लोलो भणेज्ज अलियं मोसं वयणाए, हासे परिजाणइसे णिग्गंथे णो हासणए सिय त्ति, वत्थस्स व पत्तस्स व कएण७, लुद्धो लोलो भणेज्ज अलियं पंचमी भावणा-एतावता दोचे महव्वए सम्म कारण फासिएक कंबलस्स व पायपुंछणस्स व कएणक,लुद्धो लोलो भणेज्ज जाव आणाए आराहिते याऽवि भवति दोच्चे भंते ! महव्वए। अलियं सीसस्स व सिस्सीणीएव करण,लुद्धो लोलो भणेज आचा०२श्रु०३चू० अलियं अन्नेसु य एवमादिसु बहुसु कारणसतेसु, लुद्धो लोलो पंचमगं हासन सेवियव्वं अलियाई असंतगाइंजपंति हासइत्ता भणेन अलियं तम्हा लोभो न सेवियव्वो, एवं मुत्तीए भाविओ परपरिभवकारणं च हासं परपरिवायप्पियं च हासं परपीलाभवति अंतरप्पा संजयकरचरणनयणवयणो सूरो सचजवसपंन्नो। कारगं च हासं भेदविमुत्तिकारकं च हासं अण्णोण्णजणियं च (विइयं ति) द्वितीय भावनावस्तु यत्क्रोधनिग्रहणम्, एतदेवाह-क्रोधो होज हासं अण्णोण्णगमणंच होजमम्मं अण्णोण्णगमणं च होज्ज न सेवितव्यः, कस्मात्कारणादित्याह-क्रुद्धः-कुपितः, चाण्डिक्यं कम्मं कंदप्पाभिओगगमणं च होज हा आसुरियं किट्विसत्तं रौद्ररूपत्वं, सञ्जातमस्येति चाण्डिक्यितो मनुष्योऽलीकं भणेदित्यादि वाजणेज हासं, तम्हा हासन सेवियव्वं / एवं मोणेण य भविओ सुगम, नवरं, वैरम्-अनुशयानुबन्धं,विकथांपरिवादरूपा,शीलं- भवति अंतरप्पा संजयकरचरणणयणवयणोसूरो सचजवसंसमाधिं-(वेसो त्ति) द्वेष्य:-अप्रियो भवेत् एष वस्तुदोषावासगभ्यः- पण्णो 5 एवंमिणं संवरम्स दारं समं संवरियं होइ सुप्पणिहियं परिभवस्थानं, निगमनमाह-(एयं ति) अलीकादिकं गृह्यते, तदन्यस्य इमेहिं पंचहिं वि कारणेहिं मणवयणकायपरिरक्खिएहिं णिचं भणनक्रियाया अविषयत्वात्, अन्यच्च-उक्तव्यतिरिक्तमेवमादिकम्- आमरणंतं च एस जोगो णेयव्वो धितिमया मतिमया अणासवो एवंजातीय भणेत् क्रोधाग्नि-संप्रदीप्तः सन् 'तम्हेत्यादि-संपन्नो' अकलुसो अच्छिद्दो अपरिस्सावी असंकिलिट्ठो सव्वजिणमणुइत्येतदन्तं व्यक्तम् 2 (ततियं ति) तृतीयं भावनावस्तु, किं तदित्याह-- नाओ, एवं वितियं संवरदारं फासियं पालियं सोहियं तीरियं लोभो न सेवितव्यः, कस्मादित्यत आह-लुब्धो-लोभवान् लोलो व्रते किट्टियं अणुपालियं आणाए आराहियं भवति, एवं नायमुणिणा चञ्चलो भणेद-लीकम्, एतदेव विषयभेदेनाह-क्षेत्रस्य वा-ग्रामादे, कृ भगवया पन्नवियं परूवियं पसिद्धं सिद्धवरसासणमिणं आघवितं षिभूमेर्वा, वास्तुनो-गृहस्य,(कएण ति) कृते-हेतोः, लुब्धो लोलो भणेद- सुदेसियं पसत्थं वितियं संवरदार समत्तं ति बेमि // 25 / / लीकम्,एवमन्यान्यप्यष्ट सूत्राणि नेतव्यानि, नवरं,कीर्तिः-ख्यातिः, | (पंचमगं ति) पशमकं -भावनावस्त्विति गम्यते , यदुत लोभस्य-औषधादिप्राप्तेः कृते, तथा ऋद्धेः-परिवारादिकायाः | हास्यं न से वितध्य-परिहासो न विधे यः यतः अलीकानि
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________________ मुसावायवे० 332- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मुहणंतय सद्भूतार्थनिहवरूपाणि, (असंतगाई ति) असन्ति असद्भूतार्थानि; वचनानीति गम्यते। अशोभनानि वा; अशान्तानि वा-अनुपशमप्रधानानि; जल्पन्ति-ब्रुवते (हासइत्त त्ति) हासवन्तः-परिहासकारिणः, परिभवकारणं चहास्यम्-अपमाननाहेतुरित्यर्थः परपरिवादः-अन्यदूषणाभिधानम् प्रियः-इष्टो यत्र तत्तथा तद्विधं च हास्यं परपीडाकारकं च हास्यमिति व्यक्तम्(भेयविमुक्तिकारक च ति) भेदः चारित्रभेदो; विमूर्तिश्च-विकृतनयनवदनादित्वेन विकृतशरीराकृतिः तयोःकारक यत्तत्तथा तच हास्यम्। अथवा-राजदन्तादिदर्शनाद्विमुक्तेः-मोक्षमार्गस्य भेदकारकमिति वाच्ये भेदविमुक्तिकारकमित्युक्तम्, अन्योऽन्यजनितंच परस्परकृतं च, भवेद्धास्य, यतस्ततोऽन्योऽन्यगमनं च-परस्परस्याभिगमनीयं च भवेत्-मर्मप्रच्छन्नपारदार्यादिदुश्चेष्टितं, तथाऽन्योन्यगमनंचपरस्पराधिगम्यं च भवेत्कर्मलोकनिन्द्य-जीवनवृत्तिरूप, (कंदप्पाभियोगगमणं च त्ति) कन्दश्चिकान्दर्पिका देवविशेषा हास्यकारिणो भाण्डप्राया, आभियोग्याश्च-अभियोगार्हा आदेशकारिणो देवाः, एतेषु गमनं गमनहेतुर्यत्तत्तथा तच भवेद्धास्यम्, अयमभिप्रायोहास्यरतिसाधुश्वारित्रलेशप्रभावाद्देवेषूत्पद्यमानः कान्दर्पिकेषु आभियोमिकेषु चोत्पद्यते न महर्द्धिकष्विति हास्यमनथायेति, आह च"जो संजओ वि.एयासु, अप्पवत्थासु वट्टइ कहिं च। तो तव्विहेसु गच्छइ, नियमा भइओ चरणहीणो॥१॥" (एयासु त्ति) कन्दप्पादिभावनास्विति तथा-(आसुरियं किव्यि-सत्तं च जणेज हास ति) (आसुरिय ति) असुरभावम्, (किट्वि-सत्तं ति) चाण्डालप्रायदेवविशेषत्वं, वा विकल्पे, जनयेत्-प्रापयेत्, जन्मान्तरहास्यकारि चारित्रजीवम्, हास्य-हासः, यस्मादेवं तस्माद्धासं न सेवितव्यमिति। अथेतन्निगमनमाह-एवमुक्तेन हासवर्जनप्रकारेण मौनेनवचनसंयमेन, भावितो भवत्यन्तरात्मा संयतादिविशेषणः 'एवमणि' मित्याद्यध्ययननिगमनं पूर्वाध्ययनवद् व्याख्येयमिति / प्रश्न०२ संव० द्वार। मुसुमूर-धा०(भञ्ज) भने , भजे र्वमय-मुसुमूर-मूर-सूर सूडविर-पविरञ्ज-करञ्ज-नीरजाः // 114/106 / / भजेरेतेन वादेशा भवन्ति। मुसुमूरइ। प्रा०४ पाद। मुसुमूरिअय-त्रि० चूर्णिते, "मुसुमूरिअयं चुण्णिअं' पाइ० ना० 182 गाथा। मुसोवएस-पुं०(मृषोपदेश) मृषा-अलीकं तस्योपदेशो मृषोपदेशः। इदमेवं च ब्रूहि त्वमेवं चाभिदध्याः कुलगृहेष्वित्यादिके असत्याभिधानशिक्षणे, प्रव०ा मृषा-अलीक तस्योपदेशो मृषोपदेशः, इदम् एवं एवं च ब्रूहि त्वम्एवं च एवं च अभिदध्याः, कुलगृहेष्वित्यादिकमसत्याभिधानशिक्षाप्रदानमित्यर्थः / इह व्रतसंरक्षणबुद्ध्या परवृत्तान्तकथनद्वारेण मृषोपदेश यच्छतः पञ्चमोऽतिचारः। प्रव०६द्वारा कारणे ओभासेजाऽपि / गाहाबितियपदं उड्डाहे, संजमहेउं व बोहिए तेणे। खेत्ते वा पडिणीए, सेहे वा वादिमादीसु॥७०|| उड्डाहरक्खपुव्वं जहा केणति पुट्ठो-तुझं लाओ एसुसमुद्देसोण व त्ति, वत्तव्वं संजमहेउं अस्थि, ते केति मिया दिट्ठा, दिह्रसुविन दिट्ठत्ति वत्तव्यं बोधि तामिच्छतेसिं भीओ भणिज्ज-एसो खंधावारो एति ति तेणेसु एस समत्थो एति त्ति अवसरह / खेत्ते धायारभाविए बंभणो अहमिति भासए जत्थ वा साहू न नजति तत्थ पुच्छितो भणति-से य परिव्वायगामे कोइ य कस्सइ साहुस्स पदुट्ठो सो व तं न जाणति ताहे भणेजा। नाहं सो, ण वा जाणे, परदेसं वा गओ-त्ति भणेजा, सेहं वा संणायगा पुच्छति तत्थ भणिज्ज / नत्थे रिसो, ण जाणे, तो वा परदेस। वादे असंतेणावि परवादि निगिन्हिज्जा / नि०चू०२ उ०। मोसुक्तेसे परिव्वायगो मणुस्सं भणतिकिं किलि-स्सति? अहं ते जदि रुचति णिसण्णो चेव दव्वं विढवावेमि, जहि किराडयं उच्छिण्णं मग्गाहि, पच्छा कालुद्देसेहिं मग्गेज्जासि, जाधेय वाउलो जणदाणगहणेण ताधे भणिज्जासि, सो तधेव भणति, जाधे विसंवदति ताधे ममं सक्खि उद्दिसेज ति, करणे ओहारितो जितो (न) दवावितो य / आव०६अ। मोसोवदेसो नाम मोसं उवदिसंति, जहा-पवंचमोसभासणे पगारं दंसेति त्ति-मोसोवदेसे उदाहरणं-एएगेणं चोरेण खत्तं खणिय,णिदियावत्तेहिं, बितियदिवसे तत्थ लोगो मिलितो चोरकम्म पसंसति, चोरो वि तत्थे व अच्छइ, तत्थ एगो परिव्यायगो भणति-किं चोरस्स मुक्खत्तणं पसंसह? ताहे चोरेण विरहे सो परिव्वायओ पुच्छिओ-कहं मुक्खो, ताहे भणति एवं करेंतो वज्झेज वा मारेज वा, उवाएणं तं कजति जेण जीवेज इति, को उवाओ ति, भण्णति अहं कहेमि, केराड दाण-मणाणवाउलं अच्छिन्नं मग्गेनाहि, ताहे सो वाउलत्तणेण पडिवयणं तव ण देहिति,ताहे कालुद्देसे दाणग्गहणं वाउलं चेव प्रतिदिवसं भणेज्जासि-देहितं ममं देहितं ममंति। बहुजणेणं बहुस्सुयं जाहे भणति-ण किंचि विधरेमि ताहे मए सक्खि उव दिसिज्जाहि, एवं करणे ओसारिओ दवावितोय। आ० चू० 6 अ०। मुह-न०(मुख) वदने, ज्ञा०१ श्रु०१६ अ०। वक्त्रे, तं०। प्रति०। आस्ये, स्था०६ ठा०। प्रश्नानि० चूातुण्डे, तं०। अग्रभागे, सू०प्र० 4 पाहु०। चं०प्र०। द्वारे, कल्प०१ अधि०२ क्षण। उपरितने भागे, तं०। स्था०। "वयणं मुहं च आणणं" पाइ० ना०१११ गाथा। मुहच्छाया-स्त्री०(मुखच्छाया) मुखकान्तौ, प्रा०१पाद। मुहणंतय-न०(मुखानन्तक) मुखस्यानन्तकं वस्त्रं मुखानन्तकम्। मुखवस्त्रिकायाम, प्रव०२ द्वार। (मुखानन्तकस्य प्रमाणं 'मुह-पोत्तिया' शब्दे करिष्यते) गाहामुहणंतगस्स गहणे, एमेव य गंतुनिसिलगहणं / संमूढेणितरेण वि, गलते गहितो मया दो वि // 395|| एगेण साहुणा अतीव लट्ठ मुहणंतगं आणियं तग्गुरुणा गहियं, एत्थ वि सव्वं पुव्वक्खाणगसरिसं, नवरं तं मुहणंतगंच पचप्पिणंतस्स ण गहियं, जीवंते य गतो राया साधुविरह लभित्ता मुहणंतगं गिण्हसि त्ति, भणंतो गाढ गले गेण्हेति, स मूढेण गुरुणा वि सो गहितो,दोऽवि मता। नि०यू० 11 उ० जीता आवा
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________________ मुहत्थढी 333 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मुहवण्ण मुहत्थढी-(देशी) मुखेन पतने, देना०६ वर्ग 136 गाथा। मुहपोत्तिया-स्त्री०(मुखपोत्तिका) मुखपोत्तिका मुखपिधानाय पोतं वस्त्रं मुखपोतं, तदेव ह्रस्वं चतुरडलाधिकवितस्तिमात्रप्रमाणत्वान्मुखपोतिका / मुखवस्त्रिकायाम्, पिं०1 प्रव०। व्य०। पं०वा ही। मुखवस्त्रिकाप्रमाणमाहचतुरंगुलं विहत्थी, एवं मुहणंतगस्स उपमाणं / वितियं पि य प्पमाणं, मुहप्पमाणेण कायव्वं / / चतुरडलं चत्वार्यमुलानि वितस्तिः चैका एतन्मुखानन्तकस्यमुखवस्विकायाः प्रमाणम्, द्वितीयमपि प्रमाणं भवति-किमित्याहमुखप्रमाणेन मुखानन्तकं वक्तव्यम्, किमुक्तं भवति-वसतिं प्रमार्जयन् रजःप्रवेशरक्षणार्था, कोणद्वये गृहीता नासिकां मुखं च प्रच्छाद्य कृकाटिकायां यावत् वा ग्रन्थिं शक्नोति तावत्प्रमाणा मुखवस्विका कर्तव्या। बृ०३ उ०। 'सन्ति सम्पातिमाः सत्त्वाः, सूक्ष्माश्च व्यापिनोऽपरे / तेषां रक्षानिमित्तं च, विज्ञेया मुखवस्त्रिका / / 1 / / " उत्त०३ अ०॥ मुहमंगल-न०(मुखमङ्गल) चाटुवचने, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०) मुहमंगलिय-पुं०(मुखमाङ्गलिक) मुखे मङ्गलं येषां ते मुखमाइलिकाः / चाटुकारिषु, औ०। जं० भ०। कल्प०। ज्ञा०। मुखे मङ्गलानिप्रशंसावाक्यानीदृशस्त्वं त्वादृशस्त्वमित्येवं दैन्यभावमुपगतो वक्ति। सूत्र० १श्रु० ७अा मुहमंडव-पुं०(मुखमण्डप) मुखद्वारे आयतनस्य मण्डपामुखमण्डपाः। पट्टशालासु, स्था०४ ठा०२ उ०जी०। मुहमडिया-स्त्री०(मुखमर्कटिका) मुखतिर्यक्त्वकरणे, ज्ञा० 1 ध्रु०८ अ01 मुहमहुर-पुं०(मुखमधुर) मुखे आदौ मधुरा महाकामरसोत्पादकाः। परिणामासुन्दरेषु, तंग मुहर-त्रि०(मुखर) मुखमतिभाषणमतिशयेन वदतीति मुखरः / स्था०६ ठा०३ उ०। मुखमस्यास्तीति मुखरः / अनालोचितभाषिणि, वाचाटे, प्रव०६ द्वार। उत्ता मुह(हा)रि-पुं०(मुखारि) मुखमेवाऽरिः शत्रुरनर्थकारित्वाद् येषां ते मुखारयः। असमीक्षितप्रलापिषु, अपर्यालोचितानर्थकवादिषु, प्रश्न०२ आश्र० द्वार। मुहरोग-पुं०(मुखरोग) मुखगते रोगे, पञ्चषष्टिर्मुखरोगाः सप्तस्वायतनेषु जायन्ते, तत्रायतनानि-ओष्ठौ दन्तमूलानि दन्ता जिला तालु कण्ठः सर्वाणि चेति। तत्राष्टावोष्ठयोः, पञ्चदश दन्तमूलेष्वष्टौ दन्तेषु पञ्च जिह्वायां, नव तालुनि, सप्तदश कण्ठे, त्रयः सर्वेष्वायतनेष्विति। आचा०१ श्रु०६ अ०१ उ०। मुहरोमराई-(देशी) भुवि, देना०६ वर्ग 136 गाथा। मुहल-पुं०(मुखर) हरिद्रादौ लः॥११२५४॥ इत्यसंयुक्तस्य लः। मुहलः। वाचाटे, प्रा०१ पाद। देना। मुहलरव-पुं०(मुखररव) वाचालशब्दे, "तुमुलं मुहलरवो'' पाइ०ना० 240 गाथा। मुहवण्ण-पुं०(मुखवर्ण) परतीर्थिकप्रशंसायाम, नि०चू०। जे भिक्खू मुहवण्णं करेइ करतं वा साइजइ / / 176 / / मुहं ति पवेसो तस्स चउविहो नामातीओ णिक्खेवो। णामट्ठवणातो गतातो, दव्वमुह-गिहादिवत्थुपवेसो, तिन्नि सट्टापावा दुयसया, भावमुहस्स वन्नं आदत्ते गृह्णातीत्यर्थः / कथं पुण सो मुहवन्नं करोति? गाहाकुतित्थेसु कुसत्थेसु, कुधम्मकुय्वयकुदाणम्प्रदीसु / जे मुहवण्णं कुजा, उम्मग्गे आणमादीणि // 72 // वितियगाहाए जहासंखं उदाहरणं गाहागंगाती-सक्क-मल्ल-गणधम्मादीय गोव्वयादीया। भोमादीदाणा खलु, तिणि तिसट्टा उ उम्मग्गा // 73 // गंगा आदिग्रहणातो पहास प्रयाग अवरखंडसिरिमायकेवायारादिया एते सव्वे कुतित्था। शाक्यमतं कपिलमतं ईसरमतादिया सव्वे कुसत्था। मल्लगणधम्मो सारस्स य गणधम्मो कूपसभादिया सव्वे कुधम्मा। गोव्वयादिसापेक्खिया पंचग्गितावया पंचगव्वासणिया एवमादिया सव्वे कुव्वया / भूमिदाणं गोदाणं आसहत्थिसुवन्नादिया य सव्वे कुदाणा / कुत्सितार्थाभिधारणे खलुशब्दः / तिन्नि तिसट्ठा पावा दुयसया जतिण वजा सेसा सव्वे उम्मग्गा / जो जत्थ भवन्तो तदणुकूलं भासंतस्स आणादिया दोसा, चउगुरुगं पच्छित्तं, मिच्छत्ते य पवत्तीकरणं, पवयणे ओभावणया, एते अदिन्नदाणपाणाइवाए ते चाटुकारिणो एतद्दोसपरिहरणऽत्थं तम्हा णो कुतित्थियाण मुहवन्नं करेज। गाथाअसिवे ओमोयरिए, रायहढे भए व गेलण्णे। एएहि कारणेहिं, जयणाए कप्पती काउं॥७४|| सपक्खपंतासिवे परलिंगपडिवन्नो पसंसति / अहवा-असिवो में सुअसंधरंते तद्भावियखेत्तेसु वल्लीसु वा पसंसेज, परलिंगी वाजो रायदुटुं पसंसेज्जा तवणुवत्तिते पसंसेजा, रायभया वोहिभंगभएण वासरणोवगतो पसंसेज्ज , अन्नतो गिलाणपाउम्गे अलभंते तेसु चेव लब्भति पसंसेज्जा। गाहापण्णवणे च उवेहं, पुट्ठा वा माति बाहरं नेत। आगाढे व अपुठ्ठो, भणेज लठ्ठो तहा धम्मो // 75 / / कारणे चरगादिभावितेसु खेत्तेसु ठियस्स जति ते चरगादिया बहुजणमझे ससिद्धतं पन्नवेति तत्थ उवेहं कुजा, मा पडितहकरणे खेत्तातो णीणिज्जेज, उवासगादिपुट्ठो अत्थिणं एतेसिं भिक्खुयाणं वये वा णियमे वा ताहे तेसिं दाणसद्दयाणं अणुयुत्तीए भणिज्ज, एते वि बंभव्वयं धरेंति, आदिसद्दातो जीवेसु दयालुया / अन्नतरे वा आगाढे गिलाणादिकारणे भणेज, इमा पसंसणे जयणा। गाहाजे जे सरिसा धम्मा, सव्वाऽहिंसादि तेहिं उपसंसे। एएसिं पि हु आता, अस्थिय णिचो कुणति व त्ति // 76||
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________________ मुहवण्ण 335- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मुहुत्त सरिसधम्मेहिं पसंसति-अम्ह वि तुम्हा वि सव्वे वया, अम्हे वि तुम्हे वि गाहाअहिंसा, अम्ह वितुम्ह वि अदिन्नादाणं वजं, अम्ह वि तुम्ह विअस्थियया, वितियपदमणप्पज्झे, करिज अवि कोविओ व अप्पज्झे / दव्वत्तेण वा जहा तुम्हं नियो, तहा अम्ह वि निचो, जहा अम्ह वि आता जाणंते वावि पुणो,सण्णा सागारमादीसु॥११७।। सुहासुहं कम्मं करेति, तहा तुम्ह वि। अणप्पज्झो करतेति अविकोवितो वा सेहो करेति, दिया गतो वा अदाणे गाहा गिलाणऽट्ठा सण्णासदं करेति, भावसागरियपडिवद्धाए वा वसहीए सद एवं ता सव्वाऽऽदी, भणेज्ज वेतूलिके सिमं बूया। करेति जहा तं सुणेति। अम्ह विण सवभावा, इतरेतरभावतो सव्वे 77 / / जे भिक्खू दंतवीणियं करेइ करंतं वा साइज्जइ // 36 // सत्-शोभनो, वादी-सद्वादी, आत्मास्तित्ववादीत्यर्थः / जे पुण जे भिक्खू उट्ठवीणियं करेइ करतं वा साइजइ / / 40|| वेतुलियातीसुइमं ब्रूताविगयं तुल्लभावे वेतुलिया नास्तित्ववादिन इत्यर्थः, जे भिक्खू णासावीणियं करेइ करतं वा साइजइ // 41 // सव्वभावा इतरतेरभावतो। णत्थि त्ति नित्यत्वं अनित्यत्वे नास्ति, एवं जे भिक्खू कक्खवीणियं करेइ करतं वा साइजइ॥४२॥ आत्मा, अनात्मां कर्तृत्वमकर्तृत्वं, मूर्त्तत्वममूर्तत्वं, सर्वगतत्वमसर्वगत जे भिक्खू हत्थवीणियं करेइ करतं वा साइजइ // 43|| त्वम्, घटत्वं पटत्वं, परमाणुत्वं द्विप्रदेसिकत्वं, कृष्णत्वं नीलत्वं, गोत्वम जे भिक्खू नक्खवीणियं करेइ करतं वा साइजइ // 4 // श्वत्वं च एवमादि। नि०चू०११ उ०। जे मिक्खू पत्तवीणियं करेइ करतं वा साइजइ॥४५॥ मुहवास-पुं०(मुखवास) कर्पूरादिभिर्मुखस्य सौरभ्यापादने, बृ०१ उ०३ जे भिक्खू पुप्फवीणियं करेइ करतं वा साइजइ / / 46|| प्रका "तयाणंतरं च णं मुहवासविहिपरिमाणं करेइ, णण्णत्थ पंच सोगंधिएणं / तंवोलेणं अवसेसं मुहवासविहिं पञ्चक्खामि'' एलालव जे मिक्खू फलवीणियं करेइ करतं वा साइजह // 47|| गकर्पूरकक्कोलजातीफललक्षणैः सुगन्धिभिर्द्रव्यैः अभिसंस्कृतं पञ्चसौग जे भिक्खू वीयवीणियं करेइ करतं वा साइज्जइ॥४८|| न्धिकम्। उपा०१० जे भिक्खू हरियवीणियं करेइ करतं वा साइजइ // 46 // मुहवीणिया-स्त्री०(मुखवीणिका) मुखशब्दकरणे, नि० चूल। जे भिक्खू मुहवीणियं वाएइ वायंतं वा साइज्जइ / / 10 / / जे मिक्खू मुहवीणियं करेइ करतं वा साहज्जइ // 36 // जे भिक्खू दंतवीणियं वाएइ वायंतं वा साइज्जइ / / 51 / / मुहवीणियातिहिं वादित्रशब्दकरणं, वितियसुत्ते मुहवीणियं करेंतो मोहा जे भिक्खू उट्ठवीणियं वाएइ वायंतं वा साइजइ।।५।। दिक्खे सद्दे करेति, अन्नतरग्रहणात् संयोगमवेक्खति, तंपगारमावण्णाणि जे भिक्खू णासावीणियं वाएइ वायंतं वा साइजइ / / 13 / / तहप्पगाराणि ततविततप्रकारमित्यर्थः / जे भिक्खू कक्खवीणियं वाएइ वायंतं वा साइज्जइ॥४॥ गाहा जे भिक्खू हत्थवीणियं वाएइ वायंतं वा साइजइ / / 5 / / मुहगादिवीणिया खलु, जत्तियमेत्ता य आहिया सुत्ते। जे भिक्खू णहवीणियं वाएइ वायंतं वा साइजइ / / 56|| सद्दे अणुदिपणे वा उदीरए तम्मि आणादी॥११४|| जे भिक्खू पत्तवीणियं वाएइ वायंतं वा साइजह // 57 / / अणुदिण्णे जो मोहं जणति उवसंतं वा उदीरति। जे भिक्खू पुप्फवीणियं वाएइ वायंतं वा साइजइ // 58|| गाहा जे मिक्खू फलवीणियं वाएइ वायंतं वा साइज।।५।। सविकारअसामत्थ-मोहस्स उदीरणा य उभयो वि। जे मिक्खू वीयवीणियं वाएइ वायंतं वा साइज्जइ।।५९l पुणरावत्ती दोसा, य वीणिगाओ य सद्देसु॥११५।। जे भिक्खू हरियवीणियं वाएइ वायंतं वा साइज्जइ॥६०॥ सविगारता भवति, लोगो य भणति अहो इमो सविकारो पचतितो, जे भिक्खू एवं अण्णयराणि तहप्पगाराणि वा अणुदिपणेइ मज्झत्थो रागदोसविजुत्तो सो पुण अमज्झत्थो अप्पणो परस्स य सद्दाइं उदीरेइ उदीरंतं वा साइज्जइ॥६१।। नि० चू०५उ०। मोहमुईरति पुणरावत्तीणाम-कोई भुत्तभोगी पवतितो, सो चिंतेति अम्ह मुहा-अव्य०(मुधा) व्यर्थे, "एमेय मुहा मुहिआ" पाइ० ना० 166 गाथा। वि महिलाओ एवं करेति, तस्स पुणरावत्ती भवति, अण्णेसिं वा साहूणं मुहिअ-(देशी) एवमेव करणे,देना०६ वर्ग 134 गाथा। सुणेत्ता पडिगमणादयो दोसा भवंति, वीणियासु वीणियासद्देसु य एते मुहिआ-अव्य०(मुधिका) व्यर्थे, “एमेय मुहा मुहिआ' पाइ० ना० 166 दोसा भवंति। गाथा। गाहा मुहिया-स्त्री०(मुधिका) अवज्ञायाम्, जी०३ प्रति०१ अधि०२ उ०। इत्थि परियारसद्दे, रागे दोसे तहेव कंदप्पे। मुहु-अव्य०(मुहुर) वारंवारमित्यर्थे, प्रति०। अष्ट०। उत्त०। गुरुगा गुरुगा गुरुगा, लहुगा लहुगो कमेण भवे / / 116|| मुहुत्त-पुं०(मुहूर्त) तस्याघृत्तदिौ // 8 / 2 / 30 / / इति इत्थिसद्दे चउगुरु, परियारसद्दे चउगुरु, अन्नतरसदंरागेण करेति चउगुरु, / धू दिपर्युदासात्तस्य टोन। प्रा०। मीयत इति मुहूर्तः। मुहुरिएतेसुतिसुचउगुरुगा, दोसेण करेति चउलहुगा, कंदप्पेण करेतिमासलहुँ। / यतीति वा मुहूर्तः। पृषोदरादित्वादिष्टरूपसिद्धिः। कर्म०५ कर्मo!
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________________ मुहुत्त 335 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मूढ घटिकाद्वयप्रमाणे कालविशेषे,नंग आवा आ०म०अहोरात्रस्य त्रिंशत्तमे मूअल्ल-(देशी) मूके, दे०ना०६ वर्ग 137 गाथा। भागे द्विघटिकारूपे, दर्श०५ तत्त्वा पञ्चा०। सूत्र०। आ० म०। वे नालिया | मूअवंदण-न०(मूकवन्दन) आलापाननुचारयतो वन्दने,ध०२ अधिका मुहुत्तो' ज्यो०२ पाहु०। आ०म०। विशे० उत्त० सूत्र०ा स्था०ा अनु०। / "मुउव्य सद्दरहिओ, जं वंदइ मूअगं तं तु।" आलापका-ननुच्चारयन् तं०। मुहूर्तास्सप्ततिलवप्रमाणाः। उक्तंच-"लवाणं सत्तहत्तरि एस मुहुत्ते यद् वन्दते तन्मूकमिति। आव०३ अ०। मूयं नाम-मूयो वंदति न किंचि वियाहिए।" स्था०२ ठा०४ उ०) "लवाणं सत्तहत्तरि एस मुहुत्ते वि उच्चारयति / आ०चू०३अ०। बृ० प्रव०। नि०चू०। मूक इव हुं वियाहिए। भ०१श०१ उ०ा "तिन्नि सहस्सा सत्त य, सयाइं तेवत्तरि च हुमित्यव्यक्त शब्दं कुर्वस्तिष्ठत्युत्सर्गे इति मूकदोषः। कायोत्सर्गदोषभेदे, उच्छासा। एस मुहूत्तो भणिओ, सव्वेहिँ अनंतनाणीहिं / / 1 / / " जी०३ प्रव०५ द्वार। प्रति०४ अधि०। त्रिभिः सहस्रैः सप्तभिश्शतैस्त्रिसप्तत्या उच्छासैरेको मुइय-त्रि०(मूकित) मूकीकृते ,निःशब्दीकृते, ज्ञा०१ श्रु०१८ अ०। मुहूर्तः / तं०। अनु०। ज्ञा०। भ०। सू०प्र० मूगमुह-पुं०(मूकमुख) स्वनामख्याते अन्तरद्वीपे, नं०। एगमेगस्सणं भंते ! अहोरत्तस्स कइ मुहुत्ता पण्णत्ता। गोयमा ! भूगापुरी-स्त्री०(मूकापुरी) स्वनामख्यातायामपरविदेहपुर्याम्, "ततोऽतीसं मुहुत्ता पण्णत्ता / तंजहा परविदेहेषु, मूकापुर्या महीपतिः। धनञ्जयस्य धारिण्याः, पत्न्याः कुक्षौ "रुद्दे सेए मित्ते, वाऊ सुविए तहेव अभिचंदे। समीयिवान् // 1 // " आ०क०१अ०। आ०म०। कल्पका आ००। माहिंद बलव बंभे, बहुसचे चेव ईसाणे / / 1 / / मूठ-त्रि०(मूढ) मुह्यत्यस्मिन्निति मूढः / निन्चू०१3०। अज्ञानाविष्ट, द्वा०२ तढे अभाविअप्पा, वेसमणे वारुणे अ आणंदे। द्वा०। महामोहं गते, तं०। यथावस्थितवस्त्वधिगमशून्य-मानसे, ध०३ विजए अवीससेणे, पायावचे उवसमे // 2 // अधि०। स्नेहाज्ञानादिपरतन्त्रतयाऽवस्थितवस्त्वधिगमशून्यमानसे, गंधव्व अग्गिवेसे, सयवसहे आयवे य अममे अ। ग०५अधिवा यथार्थोपयोगरहिते, अष्ट०१४ अष्टाव्यामोहवति, प्रश्न० 2 आश्र द्वारा अपगतविवेके, आचा०१ श्रु०२ अ०३ उ०।"रागद्वेषाअणवं भोमे वसहे, सव्वढे रक्खसे चेव // 3 // " (सूत्र-१५२) भिभूतत्वात्कार्याकार्यपराङ्मुखः। एष मूढ इति ज्ञेयो, विपरीतविधायकः एकैकस्य भदन्त ! अहोरात्रस्य कति मुहूर्ताः प्रज्ञप्ताः? गौतम ! // 1 // " आचा०१ श्रु०२ अ०३उ०। मोहनीयोदयादज्ञानाद्वा (आचा० त्रिंशन्मुहूर्ताः प्रज्ञाप्ताः, तद्यथा-प्रथमो-रुद्रः, द्वितीयश्श्रेयान्, तृतीयो १श्रु०५ अ०१ उ०) किंकर्तव्यतयाऽऽकुले केन कृतेन ममैतद्दुःखमुपशमं मित्रः, चतुर्थी -वायुः, पञ्चमः-सुपीतः,षष्ठः-अभिचन्द्रः, सप्तमो यायादिति मोहिते, आचा०१ श्रु०५ अ०१ उ०। प्रज्ञा०। मूढाः तत्त्वश्रद्दधानं माहेन्द्रः,अष्टमो--बलवान्, नवमो-ब्रह्मा,दशमो-बहुसत्यः, एकादश-- प्रति। भ०७श०७उ०। मूर्खे, पञ्चा०८ विव०। मोहाकुलितमानसे, उत्त०५ ऐशानः, द्वादशस्त्वष्टा,त्रयोदशो-भावितात्मा, चतुर्दशो वैश्रमणः, अ०सदसन्मार्गानभिज्ञे, सूत्र०१श्रु०१४ अ०। महामोह-मोहितमतौ, पञ्चदशो वारुणः षोडश-आनन्दः, सप्तदशो-विजयः, अष्टादशो आचा०१ श्रु० ३अ०१उ० अविनिश्चिते, ज्ञा०१ श्रु० 17 अ०। विश्वसेनः, एकोनविंशतितमः-प्राजापत्यः, विंशतितमः-उपशमः, अज्ञानाच्छादितमतौ, सूत्र०१श्रु०७अ० गुणदोषानभिज्ञे, स्था०३ एकविंशतितमो-गन्धर्वः, द्वाविंशतितमः-अग्निवेश्यः,त्रयोविंशतितमः ठा०४उ01 शतवृषभः, चतुर्विंश--तितमः-आतपवान्, पञ्चविंशतितमः-- अथ मूढस्याष्टधा निक्षेपमाहअममः,षइविंशतितमः- ऋणवान्, सप्तविंशतितभो-भौमः, अष्टा दध्व दिसि-खेत्त-काले, गणणा-सारिक्ख-अभिणवे वेदे। विंशतितमो-वृषभः, एकोनत्रिंशत्तमः-- सर्वार्थः, त्रिंशत्तमो-राक्षसः। बुग्गाहणमण्णाणे, कसाय-मत्ते य मूढपदा॥३३०|| जं०७वक्ष० / रा०ा आ०म० कर्म०। सू०प्र० स०। ज्यो०। चं०प्र०॥ (मुहूर्तलग्नदिवा-दिबलावलविचारः 'करण' शब्देतृतीयभागे 367 पृष्ठगतः) द्रव्यमूढो,दिग्मूढश्च, क्षेत्रमूढः, कालमूढो, गणनामूढः, सादृश्यमूढः, अभिनवमूढो, वेदमूढश्चेति। अष्टधामूढः। तथा-(दुग्गाहेण त्ति) व्युद्ग्राहेण मुहुत्तहियया-स्त्री०(मुहूर्त्तहृदया) क्षणिकरागरक्तायाम्, मुहूर्त्तानन्तरं मूढो व्युद्ग्राहित इति च एकोऽर्थः / स च वक्ष्यमाणद्वीपजातवणिक्प्रायोऽन्यत्र रागधारकत्वात्, कपिलाब्राह्मणीसक्त-वासीवत् / तं०। सुतादिवत्। (अण्णाणि त्ति) तत्र कुसाधनं मिथ्याज्ञानंतच भारतरामायमुहुमुरिअ-(देशी) रणरणके, दे०ना०६ वर्ग 136 गाथा। णादिषु शास्त्रेष्वतिसमुत्थं तेन यो मूढः सोऽपि व्युद्ग्राहितो भण्यते / मुहुमुह-त्रि०(मधुमुख) खले, 'पोरच्छो पिसुणो मच्छरी खलो मुहुमुहो कषायमूढस्तीव्रकषायवान्, स च कषायदुष्ट सर्षपनालादिदृष्टान्तसिद्धे य उप्फालो" पाइ० ना०७२ गाथा। अन्तर्भवति / मत्तो नाम यक्षावेशेन मोहोदयेन वा उत्पन्नीभूतः स च मुहुल-त्रि०(मुखर) वाचाले, "वाउल्लो जंबुल्लो, मुहुलो बहुजंपिरो य अभिनवमूढादौ अवतरतीति / एतानि मूढपदानि भवन्तीति द्वारगाथावायालो" पाइ० ना०६६ गाथा। संक्षेपार्थः। मुअ-पुं०(मूक) अव्यक्तभाषिणि, ध०२ अधि०। आचा० आव०। ('जड्ड' साम्प्रतमेनामेव विवृणोतिशब्दे चतुर्थभागे जडमूकैडमूकयोव्याख्या दर्शिता) धूमादी बाहिस्तो, अन्तो धुत्तूरगादिणा दवे। मूअल-(देशी) मूके, दे०ना०६वर्ग 137 गाथा। जो दव्वं व ण जाणति, घडिमावोदोव्व दिह्र वि॥३३१।।
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________________ मूढ 336 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मूढ इह यो बाह्येनाभ्यन्तरेण वा द्रव्येण मोहमुपगतः स द्रव्यमूढ उच्यते। तत्र बाह्यतो-धूमादिनाऽऽकुलितोयोमुह्यति, अन्तरे-अभ्यन्तरे च धत्तूरकेण मदनकोद्रवौदनेन वा भक्तेन यो मुह्यति। अथवा यः पूर्वदृष्टद्रव्यं कालान्तरे दृष्टमपिन जानाति स द्रव्यमूढो घटिका-वोद्रवत्। "एगस्स वाणियस्स पादेसियस्स भज्जा पंङरंगेण सम संपलग्गा। पंडरंगेणं भन्नति–अणझुयए हियए केरिसी रती- "विविक्तविषं न रसो हि कामः " तो नस्सामो मा पयासो होहिति त्ति। अणाहमड्यं छोढुं पलीवित्ता नवाणि, गंगातडं गयाइं / सो वणितो अन्नया आगओ, घरं द8 पासित्ता ताणि य अद्वियाणि संचिउमाढत्तो, भजासिणेहाणुरागेणं एयाणि अट्ठीणि से गंगं नेसि त्ति, ताणं अणाहमडयडियाणि घडियाए छोढुं, गंगं गतो। तीए भजाए य दिट्ठो नय संजाणति। तीए पुच्छितो, को तुमं? तेण अक्खायं-पावेसियरस घरं द8, भजाय मे दड्ढा, ततो मए भज्जाणुरागेणं ताणिं अट्ठियाणि गहियाणि, गंग नेमि त्ति आगतो, गंगाए छड्डहिं सुगतिं जाहिति / एयं पिता से सेयं करेमि / तीसे अणुकंपा जाया, तीए भणियं, अहं सा तय भज्जा / न पत्तियत्ति, एयाणि अट्ठियाणि किं अलिक्कयाणि / बहुविहं भत्तपणो काहेइ न पत्तियति। ताहे तीए जं पुट्विं कीलियं जंपि य भुत्तं एवमादि सव्यं साऽभिन्नाणं संवादियं ताहे पत्तिजिओ। एस दव्वमूढो / अथ दिग्मूढक्षेत्रमूढकालमूढानाहदिसि मूढो पुव्वावर-मण्णति खेत्ते तु खेत्तवनासं। दिवरातिविवचासो, काले पिंडार दिहतो॥३३२।। दिग्मूढो नाम-विपरीतां दिशं मन्यते, यथा पूर्वामपराम्। क्षेत्रमूढः-क्षेत्रं नजानाति। क्षेत्रस्य वा विपर्यासं करोति-विपरीत-मवबुध्यत इत्यर्थः / रात्रौ वा परसंस्तारकमात्मीयं मन्यते एष क्षेत्रमूढः / कालमूढो-दिवसं रात्रि मन्यते / अत्र पिण्डारदृष्टान्तः एगो पिंडारगो उज्झामिगा सुत्तो, अनुवहले माहिमहधे पुढंति मढ़ पाउं दिवसतो सुत्तो, तओ उढिओ, निद्दावसद्वितो जोण्हं मण्ण-माणो दिवा चेव महिसीउ घरे सुच्छोढूण उज्झामिगा घरं पट्टितो किमेयं ति जणकिलकिलो जातो। तओ विल.. क्खीभूओ ति / एवं दिवा राइ विवच्चासं कुणंतो कालमूढो भण्णइ। गणनामूढं सादृश्यमूढं चाहऊणाऽहियमण्णंतो, उट्टारूढो व गणणतो मूढो। सारिक्खथाणुपुरिसो, कुटुंबिसंगामदिटुंतो॥३३३।। यो गणयन् न्यूनमधिकं वा मन्यते स उष्ट्रारूढ इव गणनामूढो भण्यते। एगो उट्टपालो उट्टाउ एगवीसं रक्खइ / अन्नया उड्डीए अरूढो भणितो जत्थ आरूढो तन्न गणेइ। सैसा वीसंगणेइ, पुणो विगणेइ वीसं। नऽस्थि मे एगो उद्देत्ति अण्णे पुच्छइ, तेहि गणितोजत्थारूढो एसतेइगवीसइमेण / सादृश्यमूडो यथा-स्थाणु, पुरुषं मन्यते। अत्र च कुटुम्बिनो महत्तरसेनापती तयोः संग्रामेण दृष्टान्तः एगो गामचोर सेणावइणा चोरेहिं लज्ज आगंतूण रसीए हतो, तत्थ यगामे जो महत्तरो सो तत्थ चोरो सेणावइस्स सरिसो। तओ संगामे उवट्ठिए चोरसेणावई पारितो गामिल्लएहि महियगत्ति मन्नमाणेहिं दट्ठो चोरेहि य गामसहयरो सेणावइ त्ति काउं पल्लि नीओ, सो | भणति-नाहं सेणाहिदो। चोरा भणति पसरणपसाइउत्तिपलवइ। अन्नया सो नासिउं सगामं गतो। ते भणंति-कोसि तुम एणं पिसाओ वा तेण पडिरूवेण आगमो उभओ साभिन्नाणा कहिए पच्छा सो गहिं उभओ वि सयणा सारिक्खमूढा। अथाभिनवमूढमाहअभिभूतो संमुज्झति, सत्थग्गीवादिसावयादीहिं। अब्भुदयअणंगरती, वेदंमि पुरा य दिटुंतो // 334 / / खङ्गादिना शस्त्रेण,प्रदीपनके वा अग्निना, वादकाले वादिना, अरण्ये श्वापदस्तेनादिभिश्चाभिभूतो यः संमुह्यति सोऽभिनवमूढः। वेदमूढस्तु स उच्यते / योऽभ्युदयेन-अतीव वेदोदयेन, अनङ्गरतिम्-अनङ्गक्रीडां, करोति। राजदृष्टान्तश्चात्र भवति। जहा-आणंदपुर नगर, जितारी राया, दीसत्थी भारिया। तस्स पुत्तो अणंगो नाम बालत्ते अच्छिरोगेणं गहितमिव रूयंतो अत्थति, अन्नया जणणी ते णिगिण्हिपाए अह भावेण जाण उरू अंतरो छो, उवग्गहीतो दो वि तेसिं गुज्झा परोप्परं समुप्फिडिता तहेव तुहि को ठितो लद्धो वेयो रुवंतं पुणो 2 तहेव करेति, ठायति, रुयंतो पवट्टमाणो तत्थेव गिद्धो, मातुए वि अणुप्पियं,पिता से मतो, सो रजठितो तहावितं मायरंपरि जति। स विवादीहिं वचमाणो विणो ठितोधूवे त्ति'। वक्ष्यमाणं चार्थं संगृहीतुमिमां गाथामाहराया य खंतियाए, वणि महिलाए कुला कुडुंबिम्मि / दीवे य पंच सीले, अंधलग-सुदण्णकारे य॥३३५।। राजा-अनन्तरोक्तः, खन्तिकायामनुरक्तो वेदमूढः, वणिक् घटिकावोद्राख्यःस्वमहेलानुरक्तः-स्वमहेलामनुपलक्षयन,द्रव्यमूढः, कुटुम्बिनः सेनापतेः महत्तरस्य च कुलानि सादृश्यमूढे उदाहरणं, (दीवे त्ति) द्वीपाज्जातः पुरुषः, (एवं सीले त्ति) पञ्च शैलवास्तव्या निर्झरोभिः व्युद्ग्राहितः, सुवर्णकारः,(अंधलग त्ति) धूर्त्तव्युद्ग्राहिता अन्धाः, (सुवण्णगारेत्ति) सुवर्णकारव्युद्ग्राहितः पुरुषः। एते चत्वारो व्युद्ग्राहणामूढा मन्तव्याः / एष संग्रहगाथासमासार्थः। साम्प्रतमेनामेव विवृणोतिबालस्स अच्छिरोगे, सागारियदेविसंफुसे तुसिणी। उभयवियत्तभिसेगे,णऽवादिवुत्तो विमन्तीहिं॥३३६|| छोढुं अणाहमरयं, झामित्तुधरं पतिम्मि उपउत्थो। धुत्तहरणुज्झपति, अद्विगंगकहिते च सहहणा // 337 / / सेणावतिस्स सरिसो, वणितो गामेल्लतो णियो पल्लिं। णाहंति रणपिसायई घरे वि दिड्डो त्तिणेच्छंति // 338|| इदं गाथात्रयं गताथम् / नवरम् (उभयवियत्तभिसेग त्ति) उभयोरपिदेवी कुमारयोः, प्रीतिकरं तद्विषयासेवनं राज्याभिषेकेऽपि संजाते तामसौ न मुञ्चति। द्वितीयगाथायां (धुय हरणुज्झए ति) धूर्तेन तस्या वणिक्भार्याया हरणं, तस्या अपि पतिम् उज्झित्वा गङ्गातटे गमनं, तृतीयगाथायां (णाहति इत्यादि) महत्तरेण नाहं सेनापतिरित्युक्तः चौरश्चिन्तयति / एष रणपिशाचकी तेनैवं वक्ति गृहेऽपि गतं तं--
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________________ 337 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मूल महत्तरं ते ग्रामेयका दग्ध इति कृत्वा नेच्छन्ति संगृहीतुम् / व्याख्यातो मूढः। बृ०४ उ०ा नि००। दुविहा मूढा पण्णत्ता, तंजहा-णाणमूढाचेव, दंसण मूढाचेव। स्था०२ ठा०४ उ०। (व्याख्या स्वस्वशब्दे) तिविहा मूढा पण्णत्ता, तंजहा-नाणमूढा दंसणमूढा चरित्तमूढा। स्था०३ ठा०३ उ०। मूढदिहि-त्रि०(मूढदृष्टि) व्यामोहे,परतीर्थिनां राजादिकृतां पूजा मन्त्राद्यतिशयान् वा दृष्ट्वा तदागमान् वा श्रुत्वा देशतः स्तोको मतिव्यामोहः / जीत मूढ(ल)नइय-न०[ मूढ(ल)नयिक ]मूढा अविभागस्था नया यस्मैिंस्तन्मूढनयं, तदेव मूढनयिकम्। प्राकृतत्वात् स्वार्थे इकप्रत्ययः। अथवामूलाश्च ते नयाश्च मूलनयास्तेऽस्मिन् विद्यन्ते इति मूलनयिकम् / अतोऽनेकस्वरात्॥७२।६|| इतीकप्रत्ययः। अविभक्तनये कालिकश्रुते, आ०म०१ अ०आ००। नि००। मुढदिसाभाग-पुं०(मूढदिग्भाग) मूढोऽनिश्चितो दिशां भागो यस्य सः / विस्मृतदिग्भागे, ज्ञा०१ श्रु०१७ अ०॥ मुठभाव-पुं०(मूढभाव) मूढतायाम, कर्तव्याकर्त्तव्याज्ञतायाम, आचा०१ श्रु०२ अ०१उ०। मूढत्वे किंकर्त्तव्यताऽभावे, आचा०१ श्रु०१ अ०१ उ० मूढमइय-पुं०(मूढमतिक) कुबोधाच्छादितधिषणे, जी०१ प्रति०। मूढलक्ख-पुं०(मूढलक्ष) समस्तज्ञेयविपरीतवेदने, आ०म० 10 मुठसण्ण-पुं०(मूढसंज्ञ) विगतचेतने, असावधानमनसि, आतुला मूढामूर्छिता, संज्ञा-ज्ञानं, यस्य स मूढसंज्ञः। अस्यष्टज्ञाने, अपूर्णज्ञाने, आतु०॥ मूणभाव-पुं०(मौनभाव) तूष्णींभावे, "सो य मूणभावेण अत्थइ / " आ०म०१अ०॥ मुत्तूण-अव्य०(मुक्त्वा) स्फेटयित्वेत्यर्थे, व्य०६उन मूया-स्त्री०(मूका) महाविदेहे स्वनामख्यातायां राजधान्याम, यत्र पूर्वभवे वीरजिनः प्रियमित्रनामा चक्रवर्त्यभूत् / कल्प०१ अधि० 2 क्षण / आ०चूना मूर-धा०(भज) मर्दने, भजेःवेमय-मुसुमूर-मूर-सूर-सूडविरपविरज-करञ्ज-नीरजाः // 844106|| इति भजेद्रादेशः। मूरइ / भजइ / भनक्ति / प्रा०४ पाद। मूरण-न०(भजन) मर्दने, आ०म०१अ०। मूल-न०(मूल) निबन्धने, प्रश्र०३ आश्र० द्वार। आद्यकारणे, आचा०१ श्रु० 2101 उ०। मूलमादिरित्यनान्तरम्। आ०चू०१अ० "मरणस्य मूलं दुक्खं" उत्त०३२ अ०। "मूले वित्थिण्णो मज्झे संखित्तो" सू०प्र०१० पाहु०। मूले छक्कं दवे, ओदइ उवएस आइमूलं च / खित्ते काले मूलं,भावे मूलं भवे तिविहं // 173|| मूलस्य षोढा निक्षेपः-नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालभावभेदात् / नामस्थापने गतार्थे / द्रव्यमूलम्-ज्ञशरीर-भव्यशरीर-व्यतिरिक्तं त्रिधा औदयिकमूलम,उपदेशमूलम्, आदिमूलं चेति। तत्रौदयिक द्रव्यमूलम्वृक्षादीनां मूलत्वेन परिणतानि यानि द्रव्याणि / उपदेशमूलम्-यचिकित्सको रोगप्रतिघातसमर्थं मूलमुपदिशत्या-तुरायेति, तच पिप्लीमूलादिकम् ! आदिमूलं नाम-यद् वृक्षादि-मूलोत्पत्तावाद्यं कारणम् / तद्यत् स्थावरनामगोत्रप्रकृतिप्रत्ययात्-मूलनिवर्त्तनोत्तरप्रकृतिप्रत्ययाचमूलमुत्पद्यते, एतदुक्तं भवति-तेषामौदारिकशरीरत्वेन मूलनिर्वर्तकानां पुद्गलानामुदयिष्यतां कार्मणं शरीरमाद्यं कारणं, क्षेत्रमूलं यस्मिन् क्षेत्रमूलमुत्पद्यते, व्याख्यायते वा / एवं कालमूलमपि, यावन्तं वा कालं मूलमास्ते, भावमूलं तु त्रिधा। इति गाथार्थः / तथा हिओदइयं उवदिट्ठा, आइतिगं मूलभावओदइ। आयरिओ उवदिहा, विणयकसायादिओ आइ॥१७४।। भावमूलं त्रिविधम्-औदयिकभावमूलम्, उपदेष्टमूलम्, आदिमूलं चेति / तत्रौदयिकभावमूलं वनस्पतिकायमूलत्वमनुभवन्नामगोत्रकर्मोदयात्मूलजीव एव, उपदेष्टभावमूलत्वाचार्य उपदेष्टा,यैः कर्मभिः प्राणिनो मूलत्वेनोत्पद्यन्ते, तेषामपि मोक्षसंसारयोर्वा यदादिभावमूलं तस्य चोपदेष्टत्ये तदेव दर्शयति-(विणयकसा-आइओ आई) तत्र मोक्षयादिमूलं ज्ञानदर्शनचारित्रतपऔपचारिकरूपः पञ्चधा विनयः, तन्मूलत्वान्मोक्षावाप्तेः। तथा चाह-- "विणया णाणं णाणाउ,दसणं दंसणाहिँ चरणं तु। चरणाहिंतो मोक्खो, मुक्खे सुक्खं अणावाहं / / 1 / / " "विनयफलं शुश्रुषा, गुरुशुश्रूषा फलं श्रुतज्ञानम्। ज्ञानस्य फलं विरति-विरतिफलं चाश्रवनिरोधः / / 2 / / संवरफलं तपोबल-मथ तपसो निर्जरा फलं दृष्टम्। तस्माक्रियानिवृत्तिः, क्रियानिवृत्तेरयोगित्वम् / / 3 / / योगनिरोधाद् भवस-न्ततिक्षयः सन्ततिक्षयान्मोक्षः। तस्मात्कल्याणानां, सर्वेषां भाजनं विनयः // 4 // " इत्यादि, संसारस्य त्वादिमूलं विषयकषाया इति / आचा० 1 श्रु० २अ०१उ०ा घातिकर्मचतुष्टये मोहनीयकर्मणि, मिथ्यात्वे च। "अगं च मूलं च विगिं च धीरे, पलिच्छिदियाणं णिक्कम्मदंसी" आचा०१ श्रु०३ अ०२ उ०। ('अग्ग' शब्दे प्रथमभागे 164 पृष्ठे व्याख्यातमिदं सूत्रम्) सहदेवीमूलिकाकल्पादितत्तच्छास्त्रविहिते मूलकमणि, उत्त०१५ अ०॥ मूलिकाराजहंसीशङ् खपुष्पाशरपुङ् खादिगुणसूचके शास्त्र, उत्त० १५अ० वृक्षजटायाम्, स्था०१० ठा० ३उ०। मूलानि सुप्रसिद्धानि यानि स्कन्धस्याधः प्रसरन्ति / रा०ा उशीरपुनर्नवाविदारिकादिरूपे, दश०५ अ०१उ०वनस्पति-भंदे, स्था०८ ठा०३उ०। विपा० आचा० पृथिवीकायादिजीवे, बृ०१ उ० स० नक्षत्रभेदे, स्था०२ ठा०३उ०। मूलस्य निर्ऋति-देवता। ज्यो०६पाहु०। चं०प्र०ा सू०प्र०ा जंग। मूले नक्खत्ते एक्कारसतारे / स०११ सम० प्रायश्चित्तभेदे, स्था० 4 ठा० 1 उ० / महाव्रतारोपणे, भ०
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________________ मूल 338 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मूलकम्म 25 श०७ उ०) महाव्रतानां मूलत आरोपणे, पञ्चा० 16 विव० / ग०। जंग। धा(मूलाहप्रायश्चित्तं 'मूलारिह' शब्दे व्याख्यास्यामि) समीपे, आ०म०१अ०॥"निसन्नंतरुमूलम्मि, सुकुमालंसुहोचिय।" उत्त०२० अ० मूलकम्म-न०(मूलकमन्) मूलं दशप्रायश्चित्तानां मध्येऽष्टमं तत्प्राप्तिनिबन्धनं कर्म गर्भधातनाद्यपि मूलकर्म। मूलानां वा वनस्पत्यवयवानां कर्मोषध्याद्यर्थं छेदनादिक्रिया मूलकर्म / षोडश उत्पादनादोषे, ग०१ अधिवाधा प्रश्ना पं०चूना प्रव०॥पञ्चा०। यदा पुत्रादिजन्मदूषणनिवारणार्थं मधाज्येष्ठाश्लेषामूलादिनक्षत्रशान्त्यर्थं मूलैः स्नानमुपदिश्याहारादिकं गृह्णाति तदा षोडशो मूलकर्मदोषः। उत्त० 24 अ०॥ सम्प्रति मूल' ति व्याचिख्यासुराहअधिई पुच्छा आस-न विवाहे भिन्नकन्नसाहणया। आयमणपियणओसह-अक्खयजजीवअहिगरणं // 506|| जंघापरिजियसडी, अद्धिइआणिजए मम सवत्ती। जोगो जोणुग्घाडण-पडिसेहपओसउड्डाहो / / 507 // क्वचित्पुरे धननाम्नः श्रेष्ठिनो भार्या धनप्रिया, तस्य दुहिता सुन्दरी, सा च भिन्नयोनिका, परमेनमर्थं माता जानाति, न पिता। सा च पित्रा तत्रैव पुरे कस्यापीश्वरपुत्रस्य परिणयनाय दत्ता, समागतः प्रत्यासन्नो विवाहो, मातुश्चिन्ता बभूव / एषा परिणीता सती यदि भर्ना भिन्नयोनिका ज्ञास्यते, ततस्तेनोज्झिता वराकी दुःखमनु-भविष्यति / अत्रान्तरे च समागतः कोऽपि संयतो भिक्षार्थ, तेन सा पृष्टा, तया कथितः सर्वोऽपि वृत्तान्तः। ततः साधुनोक्तम्-- मा भैषाः, अहमभिन्नयोनिकां करिष्यामि / तत आचमनौषधं पानौषधं च तस्यै प्रदत्तं, जाता अभिन्नयोनिका / तथाचन्द्राननायां पुरिधनदत्तः सार्थवाहस्तस्य भार्या चन्द्रमुखा, तयोश्चान्यदा परस्परं कलहः प्रवृत्तः। ततोऽमिनिवेशेन तन्नगरवास्तव्यस्यैव कस्यापीश्वरस्य दुहिता धनदत्तेन परिणयनार्थं वृता, ज्ञातश्चायं वृत्तान्तश्चन्द्रमुखया, ततो वभूव महती तस्या अधृतिः, अत्रान्तरे च जडापरिजितनामा साधुरागतो भिक्षार्थं, दृष्टा तेनाधृतिं कुर्वती चन्द्रमुखा, ततः पृष्टाकिं भद्रे ! त्वमधृतिमती दृश्यसे? ततः कश्चितस्तया सपत्नीव्यतिकरः, ततः साधुना समर्षितं तस्या औषधं, भणिता च सा कथमपि तस्या भक्तस्य पानस्य मध्ये देयं येन सा भिन्नयोनिका भवति, ततः स्वभर्वे निवेदयेः, येन सा न परिणीयते, तथैव कृतं ,न परिणीता सा भरेति। सूत्रं सुगमम् / नवरम्- 'जजीवम्' इति यावज्जीवमधिकरणंमैथुनप्रवृत्तिः, पडिसेहि' इति साऽभिनवा परिणेतुमारब्धा भिन्नयोनिकेति ज्ञात्वा प्रतिषिद्धा / अयं चेदर्थस्तया ज्ञातो भवेत्, तर्हि तस्याः साधुं प्रति महान् प्रद्वेषो भवेत्, प्रवचनस्योड्डाहः। सम्प्रति 'विवाह' इति पदं व्याख्यानयन्नाहमा ते फंसेज कुलं, अदिलमाणा सुया वयं पत्ता। धम्मो य लोहियस्स, जइ बिंदू तत्तिया नरया // 505|| किं न ठविज्जइ पुत्तो,पत्तो कुलगोत्तकित्तिसंताणो। पच्छा वि यतं कजं, असंगहो मा य नासिज्जा // 10 // क्वचिद् ग्रामे कोऽपि गृहपतिः, तस्य पुत्रिका क्यःप्राप्ता, ततः कोऽपि साधुर्भिक्षार्थं प्रविष्टः सन् दृष्ट्वा तन्मातरमेवमभिदधाति, तव दुहिता वयःप्राप्ता-यौवनं प्राप्ता, तद्यदि सम्प्रति न परिणी (णाय्यते) यते,तर्हि केनापि तरुणेन सहाकार्य समाचर्य कुलमा-लिन्यमुत्पादयिष्यति / तथा-(धम्मो त्ति) लोके एवं श्रुतिः-यदि कुमारी ऋतुमती भवेत् तर्हि यावन्तस्तस्या रुधिरविन्दवो निपतन्ति तावतो वारान् तन्माता नरकं याति। तथा क्वचिद्ग्रामे कस्यापि कुटुम्बिनः पुत्रं यौवनिकामधिगतमवलोक्य साधुस्तन्मातरमेवं ब्रूते। यथा-कुलस्य गोत्रस्य कीर्तेश्च सन्तानो निबन्धनमेष तव पुत्रो यौवनं च प्राप्तः, ततः किंन सम्प्रतिपरिणाय्यते? अपिच परिणीतःसन् कलत्रस्नेहेन स्थिरो भवति, अपरिणीतश्च कयाऽपि स्वच्छन्दचारिया सहोत्थाय गच्छेत्, पश्चादपि चैष परिणाययितव्यः तत्सम्प्रत्यपि कस्मान्न परिणाय्यते? इति। सम्प्रति "दो दंडिणीओ आयाणपरिसाडे'' इत्यवयवं व्याचिख्यासुराहकिं अद्धि इत्ति पुच्छा, सवित्तिणी गन्भिणि त्ति मे देवी। गब्भाहाणं तुज्झ वि, करोमि मा अद्धिइं कुणसु / / 110 / / जइ वि सुओ मे होही, तह वि कणिट्ठो ति(इ)यरो जुवराया। देह परिसाडणं से, नाए य पओसपत्थारो॥१११|| संयुगं नाम नगर, तत्र सिन्धुराजो नामराजा, तस्य सकलान्तः पुरप्रधाने द्वेपल्यौ, तद्यथा-शृङ्गारमतिः, जयसुन्दरी च। तत्रान्यदा बभूव शृङ्गारमतेर्गर्भाधानम्, इतरा च जयसुन्दरी नूनमस्याः पुत्रो भविष्यतीति विचिन्त्य मात्सर्यवशादधृतिं कुर्वत्यवतिष्ठते, अत्रान्तरे च समागतः कोऽपि साधुः, तेन सा पपृच्छे-किं भद्रे ! त्वमधृतिमती दृश्यसे? ततः सा तस्मै सपत्न्या व्यतिकरम-चकथत, साधुरप्यब्रवीत्-मा कार्षीरधृति, तवापि गर्भाधानमहं करिष्ये, ततस्तयोक्तं भगवन् ! यद्यपियुष्मत्प्रसादेन मे पुत्रो भावी, तथापि स कनिष्ठत्वेन यौवराज्यं न प्राप्स्यति, किंतु सपल्या एव सुतः, तस्य ज्येष्ठत्वात् / ततः साधुना तस्या भेषजमेंक गर्भाधानाय दत्तम्, अपरं तु दापितं सपल्या गर्भशातनायेति / सूत्रं सुगमम् / नवरमेतन्न कर्तव्यं,यतो गर्भशातने साधुकृते ज्ञाते सति प्रद्वेषो भवति, ततः शरीरस्यापि प्रस्तारः-विनाशः। सम्प्रति सर्वस्मिन्नपि मूलकमणि दोषान् प्रदर्शयतिसंखडिकरणे काया, कामपवित्तं च कुणइ एगत्थ / एगत्थुड्डाहाई,जजियभोगंतरायं च // 512 / / संखडिकरणे-मा तेफ(भ)सेज कुलं, तथा-'किं न ठविज्जइ' इत्यादि गाथाद्वयोक्ते वीवाहकरणे 'कायाः पृथिव्यादयो विराध्यन्ते, एकत्र पुनरक्षतयोनिकत्वकरणे गर्भाधाने च कामप्रवृत्तिं करोति, गर्भाधानाद्धि पुत्रोत्पत्तौ प्राय इष्टा भवति, ततः काम्या जायते, इति मैथुनसंततिः / एकत्र पुनः गर्भपातने उड्डाहादि-प्रवचनमालिन्याऽऽत्मविनाशादि, एकत्र पुनः-क्षतयोनिकत्वकरणे यावज्जीवं भोगान्तरायः, चशब्दादुड्डाहादिच, तदेवमभिहितं मूलकर्म / पिं० जी० आचा०।
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________________ मूलकरण 336 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मूलगुण मूलकरण-न०(मूलकरण) मूलगुणेषु सप्तप्रकारायां शोधौ, बृ०१ उ०। पञ्चानां शरीराणां पर्याप्तौ, सूत्र०१ श्रु०१ अ०१उ०। मूलकरणं घटादिक येनोपस्करण-दण्डचक्रादिना अभिव्यज्यते-स्वरूपतः प्रकाश्यते तदुतरकरणं, कर्तुरुपकारकः सर्वोऽप्युपस्कारार्थ इत्यर्थः / / 5 / / पुनरपि प्रपञ्चतो मूलोत्तरकरणे प्रतिपादयितुमाहमूलकरणं सरीराणि, पंच तिसु कण्णखंधमादीयं / दग्विंदियाणि परिणा-मियाणि विसओसहादीहिं / / 6 / / मूलकरणम्-औदारिकादीनि शरीराणि पञ्च तत्र चौदारिक वैक्रियाहारकेषु त्रिषूत्तरकरणं कर्णस्कन्धादिकं विद्यते, तथाहि-''सीसमुरोयरपिट्ठी दो बाहू ऊरुया य अटुंग" ति। त्रयाणामप्येतन्निष्पत्तिर्मूलकरणं, करणस्कन्धाधङ्गोपाङ्ग निष्पत्तिस्तूत्तरकरणम्, कार्मणतैजसयोस्तु स्वरूपनिष्पत्तिरेव मूलकरणम्, अङ्गोपाङ्गाभावान्नोत्तरकरणम्, यदिवाऔदारिकस्य कर्णवेधादिकमुत्तरकरणं, वैक्रियस्य तूत्तरकरणम्उत्तरवैक्रियं, दन्तकेशादिनिष्पादनरूपं वा, आहारकस्य तुगमनाद्युत्तरकरणं यदिवा-औदारिकस्य मूलोत्तरकरणे गाथापश्चार्द्धन प्रकारान्तरेण दर्शयति-द्रव्येन्द्रियाणि,-कलम्बुकापुष्पाधाकृतीनि मूलकरणं, तेषामेव परिणामिनां विषौषधादिभिः पाटवाद्यापादनमुत्तरकरणमिति॥६॥ सूत्र० १श्रु०१ अ०१० मूलग-पुं०(मूलक) मूली इति ख्याते कन्दविशेषे, स्था०७ ठा०। प्रव०॥ प्रज्ञा०। स०। ध०। आचा०। जी० भ० मुलगपत्त-न०(मूलकपत्र) आधे परिपक्वप्राये पर्णे, कन्दविशेषस्य निस्सारपत्रे, बृ०१ उ०। मूलगवच-न०(मूलकवर्चस्) यत्र मूलकं शटितं पतितं तस्मिन्, आचा०२ श्रु०२ चू०३० मूलगुण-पुं०(मूलगूण) मूलानीव चारित्रकल्पद्रुमस्य मूलान्युत्तरे च तस्य शाखाद्यवयववद् ये गुणास्ते मूलगुणाः / पञ्चा०५ विव०। प्राणातिपातादिविरमणेषु, आव०५ अ०। पञ्चाणुव्रतानि मुलगुणा उच्यन्ते। श्रावकं धर्मतरोर्मूलकल्पत्वात् ।ध० 20 2 अधि०। आव०। महाव्रताणुव्रतेषु, सूत्र०२ श्रु०६ अ०। विशे०। आव०अनु०। पं०व०। ग०। स०। औ०। आतु०। पञ्चा०। पाणातिपातविरमण-मादी णिसिभत्तविरइपज्जंता। समणाणं मूलगुणा, तिविहं तिविहेण णायव्वा // 30 // प्राणातिपातविरमणादयो वधविरत्याद्याः, निशाभक्तविरति-पर्यन्ताःरात्रिभोजननिवृत्त्यन्ताः,श्रमणानां यतीनां मूलगुणा धर्मलक्षणकल्पवृक्षमूलकल्या नियमाः, त्रिविधं करणकारणानुमतिरूप वधादिकं, त्रिविधेनमनोवाकायलक्षणकरणेन, प्रत्याख्यामीति प्रतिज्ञया, ज्ञातव्याज्ञेया, इति // 30 // पञ्चा० 15 विव०। नं० मूलगुणा-पंच महव्ववाणि राईभोयणछट्ठाई / महा०३ अ० उत्तरगुणाणं पि भंग नेटुं, किं पुण मूलगुणाणं / महा०४अ मूलगुणातिचारे प्रायश्चित्तम् एगिदियाण घट्टण-मगाढ-गाठ-परियावणुइवणे। निव्वीयं पुरिभऽद्धे-गासणमायामगं कमसो॥३१॥ एकेन्द्रियाणां-पृथिव्यप्तेजोवायुप्रत्येकवनस्पतीनां, मनाक्स्पर्शनंसंघट्टनम, अत्राह-ननुपृथिव्यादीनां चतुर्णा घटते संघट्टनम्, अप्कायस्य तु कथं संघट्टनं सम्भवति? तस्य द्रव्यरूपत्वेन स्पर्शमात्रेऽपि विना सम्भवात् / उच्यते-घटादिस्थस्याप्कायस्यापि मनाकरचरणादिना चालने संघट्टः सम्भवति / परितापनं द्विविधा-आगाढं, गाढं वा / तत्र संमर्दनं चजनाद्यैर्बहुतरपीडोत्पादनंगादं,बहुतमपीडोत्पादनंचाऽऽगाढम्। उपद्रवर्ण-सर्वथा जीवविनाशनं, तच्च-पृथिव्यग्न्योरत्यन्तसंमर्दनाद्यैः अप्कायस्य तु वह्नितापनदण्डाद्यभिधातनं पानपादादिक्षालना, वनस्पतेः पत्रपुष्पाकुरादित्रोटनादिः, ततश्चैषां पञ्चानामपि प्रत्येक संघट्टने-निर्विकृतिकम्, आगाढे परितापने--पुरिमार्द्धः, गाढपरितापनेएकाशनम्,उपद्रवणे-चाचामाम्ल इति। पुरिमाईखमणंतं, अणंतविगलिंदियाण पत्तेयं / पंचिंदियंमि एगा-सणाई कलाणगमहेगं // 32 // अथानन्तवनस्पतिद्वित्रिचतुरिन्द्रियाणां प्रत्येकं संधट्टनागादपरितापोपद्रवणेषु यथासंख्यं पुरिमार्दादिक्षपणान्तं तपः पञ्चेन्द्रियसंघट्टस्तदहर्जातमूषकगृहकोलिक़ादिविषयो द्रष्टव्यः। तत्रैकाशनम्। आगाढपरितापे-आचामाम्लम्, गाढपरितापेचतुर्थ, प्रमादवशा-चोपद्रवेएककल्याणं, तच्चेदम्-निपुणएआओ" अधिकपदमधिकमक्षरं चाधिकार्थसंसूचकं भवतीत्यत्रार्थशब्दादधिकादनेकद्वीन्द्रियाद्युपघातप्रायश्चित्तमनुक्तमप्येतद्विज्ञेयम्,यथा-"एगाइदसतेसु. एगाइदसतयं सपच्छित्तं / तेण परं दसमं चिय, बहुएसु विसगलविगलेसु॥१॥" क्वाऽप्यागमोधनदृष्टासामाचारीषु दृश्यते बहुषु युक्तेव विभाति पुनर्लिखिता गाथा, ततोऽत्रैषा एकादिषु दशान्तेषु, द्वीन्द्रियादिषूपहतेषु एकादिदशान्ते स्वप्रायश्चित्तं भवति, यद्यस्य द्वीन्द्रियादेरुपघाते अत्र जीतकल्पप्रायश्चित्तं भणितमस्ति तत्तस्य स्वप्रायश्चित्तमुच्यते, तदेकस्य द्वीन्द्रियादेरुपघाते,एकं स्वप्रायश्चित्तं भणितमस्ति। द्वयोर्दै , त्रयाणां त्रीणि, यावद् दशानामुपघाते दश। तेनेति पञ्चम्यर्थे कृता तृतीया। ततः परमेकादशादिषु बहुष्वपि यावदसंख्येयेष्वपि सकलविकलेषु पञ्चेन्द्रियविकलेखूपहतेषु दशकमेव, दशैव स्वप्रायश्चित्तानि दातव्यानि भवन्तीत्यर्थः। इदानीं द्वितीयतृतीयपञ्चमव्रतातिचारप्रायश्चित्तमाहमोसाइसु मिहुणव-जिएसु दवाइवत्थुमिन्नेसु / हीणे मज्झुकोसे, आसणमायामखमणाई // 33 // मृषावादाऽदत्तादानपरिग्रहाश्चतुर्विधा द्रव्यतः, क्षेत्रतः, कालतो भावतश्च। तत्र द्रव्यतो मृषावादो-धर्मास्तिकायादिसर्चद्रव्यविषयः, अदत्तादानं ग्रामनगराश्रयः, कालतस्त्रयो-दिवा वा, रात्रौ वा। भावतस्त्रयोऽपि-रागेण वा द्वेषेण वा। ततश्चतुर्विधेष्वपि मृषावा-दादत्तादानपरिग्रहेषु विषयेषुहीनेजघन्येऽतिचारे--सत्येकाशनं, मध्ये--मध्यमेऽतिचारे आचामाम्लम्, उत्कृष्ट क्षपणं, मैथुनाभिचार–प्रायश्चित्तं च मूलव्याख्यायां भणिष्यते। जीता
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________________ मूलगुणट्ठाण ३४०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मूलगुणपडि० मूलगुणट्ठाण-न०(मूलगुणस्थान) प्राणातिपातादिनिवृत्तिरूपे संयतैरा रूढे स्थाने, आचा०१ श्रु०२ अ०१उ०। मूलगुणपचक्खाण-न०(मूलगुणप्रत्याख्यान) प्रत्याख्यानगुणभेदे, आo क०४अ०। ('पच्चक्खाण' शब्दे पञ्चमभागे 88 पृष्ठे उदाहरणम्) मुलगुणपडिवाय-पुं०(मूलगुणप्रतिपात) मूलच्छेद्ये, "मूलच्छेज्जं ति वा मूलगुणपडिवाउत्ति वा एगट्ठा" आ०चू० 10 // मूलगुणपडिसेवना-स्त्री०(मूलगुणप्रतिसेवना) प्राणातिपाता दिप्रति सेवनायाम,मूलगुणाः-आद्यगुणाः, प्रधानगुणा इत्यर्थः, तेसुपडिसेवणा जा सा छट्ठाणा भवति, छसु ठाणेसु भवति त्ति भणियं होति, ताणि य | इमाणि-पाणादिवाओ 1, मुसावाओर, अदत्तादाणं 3, मेहुणं 4, परिग्गहो 5, रातिभोयणं च 6 नि० चू०।। तत्थ जा सा मूलगुणपडिसेवणा सा इमामूलगुणे छट्ठाणा, पढमे ठाणम्मि णवविधो भेदो। सेसेमुक्कोसमज्झिम-जहण्णदय्वादिया चउहा // 86 // व्याख्या-मूलगुणा-आद्यगुणाः,प्रधानगुणा इत्यर्थः / तेसु पडिसेवणा जा, सा छट्ठाणा भवति, छसु ठाणेसु भवति त्ति भणियं होति। ताणि य इमाणि-पाणादिवाओ, मुसावाओ, अदत्तादाणं, मेहुणं, परिगहो, रातीभोयणं च / एत्थ पढमंठाणं-पाणातिवातो तत्थणवविहो भेओ, सो य इमो-पुढविकाओ,आउक्काओ,तेऊ-वाऊ-वणस्सइ-वेइंदियतेइंदिय-चउरिंदिय-पंचिंदिया। 'सेसेसु त्ति'-मुसावाओ०जाव रातीभोयणं / एएसिं एक्कक्कं तिविहं ति य इमे तिभेदा-उक्कोसो, मज्झिमो, जहण्णो। 'दव्वादिया चउह त्ति'-उक्कोसमुसावाओ चउव्यिहो-दव्वओ, खेत्तओ, कालओ, भावओ। मज्झिमो वि चउव्विहो-दव्वादि। एवं जहण्णो वि चउव्विहो-दव्वाति / एवं अदत्तादाणमवि दुवालसभेदं / मेहुणं पि। परिग्गहो वि। राती-भोजणं पिदुवालसभेदं। उक्कोसंपुण दव्वं एवं भवतिबहुत्ततो, सारतो वा, मुल्लतो वा / एवं मज्झिमे वि तिणि भेदा। जहणणे वि तिण्णि भेदा / उक्कोसदव्वावलावे-उक्कोसो मुसावातो, मज्झिमेमज्झिमो, जहण्णे-जहण्णो / एवं अदत्तादाणादिसु वि जोयणिज्ज। खेत्तओ-जंजत्थ खेत्ते अचियं-मज्झिम,जहण्णं वा। कालतो-जंजत्थ काले अचितं-मज्झिमं, जहण्णं वा भावओ विवण्णादि-गुणेहि-उक्कोसं मज्झिमं जहण्णं वा / एवं बुद्धीए आलोएउं जोयणा कायव्वा / अहवा'सेसेसुक्कोसमज्झिमजहण्ण त्ति' जेण मुसावाएण अभिहिएण पारंचियं भवति एस उक्कोसो मुसावाओ।जेण दस राइंदियाति०जाव अणय8 एस मज्झिमो। जेण पंच राई-दियाणि एस जहण्णो। एवं अदत्तादाणे वि०जाव रातीभोयणे वि। अहवा-दव्वादिया चउह त्ति। (नि०चू०) अहवा-एयं पदं एवं पढि-जति–दप्पादिया चउहा जेते मूलगुणे छट्ठाणा एए दप्पादि चउहा पडिसेवणाएपडिसेवेति। ___ सा य इमा दप्पे कप्पे दारगाहादप्पे कप्प पमाद-ऽपमत्तऽणाभोग-हव्वती चरिमा। पडिलोमपरूवणता, अत्थेणं होति अणुलोमा ||6|| दप्पपडिसेवा, कप्पपडिसेवा, पमायपडिसेवा, अप्पमाय-पडिसेवा। जा सा पमत्तपडिसेवा, सा दुविहा-अणाभोगा, य हव्वआ(हव्वओसहसाकारण।)य। चरिमाणाम अप्पमत्तपडिसेवा, एतासि कमो वण्णत्थाणं अप्पमत्तादिपडिलोमपरूवणा कायव्वा, अत्थेणं पुण एसा चेव अनुलोमपरूवणया / एस अक्खरत्थो / इदाणिं वित्थरो भण्णतिचोदकाह-जति पाणातिवायादिछट्ठाणस्सदव्यादिचउहा पडिसेवा कता, तो जा पुव्वं भणिया 'दप्पे सकारणमि य दुविहा,' सा इयाणिं ण घडए। जइ दुहा चउहाणघडए, अह चउहातो दुहाणघडए। एवं पुव्वावरविरोहो। पन्नवगाह-नो-नघडए? घटत एव, कथम्? उच्यते-- एसेव चतुह पडिसे-वणा तु संखेवतो भवे दुविधा। दप्पातु जोपमादो, एगत्त पुहत्त-अप्पमत्तस्स ||1|| एसेव त्ति-जा पुव्वभणिता चउहा-चउरो भेया, दप्पादिया, तु पूरणे। संखेवो-समासो, न वित्थारो त्ति भणियं / भवेज दुहा-दुभेया, कह? दप्पाओ को? जोपमाओ-सो दप्पोतम्हाएगत्ता-एगा, दप्या पडिसेवणा। कप्पा पुण अप्पमत्तस्स अप्पमातो कप्पो भण्णति, तम्हा एगत्ता एगा कप्पिया पडिसेवणा / एवं दो भण्णंति / अहवा-कारणकजमवेक्खतो एगत्तं पुहत्तं वा भवति / पमाया दप्या भवति, अप्पमाया कप्पा भवति। जहा-तंतुओ पडो / तंतू कारणं, पडो कज्जे, जम्हा कारणंतरमावण्णा तंतव एव पड़ो, तम्हा तंतुपडाणं एगत्तं / जम्हा पुण तंतूहिं पडो कजति तम्हा अण्णत्तं, एवं पमादद-प्पाणं एगत्तं, पुहत्तं वा। अप्पमायकप्पाण वि एगत्तं पुहत्तं वा / जतो एवं तम्हा दुविहा पडिसेवणा चउव्विहा वाण एत्थ दोसो। इयाणिं सीसो पुच्छति-कहं पमाओ दप्पो, अप्पमाओ वा कप्पो? गुरू भण्णति सुणसु जहा भवतिणय सव्वो विपमत्तो, आवमति तध विसो भवे वंधओ। जह अप्पमादसहिओ, आवण्णो वी अवहओ उ||२|| अतिवातलक्खणो दप्पो, अनुपयोगलक्खणो प्रमादः, णाणाति-- कारणावेक्ख अकप्पसेवणाकप्पो, उवओगपुव्वकरणक्रियालक्खणो अप्रमादः, एवं सरूवहितेसु गाहत्थो अपयारिजति / ण इति पडिसेधे, सव्व इति अपरिसेसे, पमत्तो-पमायभावे वट्ठतो आवजति। पाणातिवायं जति वि य सो पमादभावे वट्टमाणो पाणा-तिवायं णातिवज्जति तहा वि सो णियमा भवे वहओ। सीसो पुच्छति-पाणाइवायं अणावण्णो कह वहओ? गुरुराह-एत्थ वि अण्णो दिट्टतो कज्जति,जह अप्पमायपच्छद्धं, जहा जेण प्पगारेण 'अप्पमायसहिओ' अप्पमाययुक्तेत्यर्थः। आवण्णो वि' पाणाति वायं 'अवहगो' भवति, भणियं च-"उच्चालियंमि पादे० "गाहा। ण य तस्स तण्णिमित्तो०" गाहा। जहा एस सति पाणातिवाए अप्पमत्तो अवहगो भवति, एवं असति पाणातिवाए पमत्तो वहगो भवति, जओ एवं तम्हा चउहा पडिसेवणा दुविहा भवति।दप्पिया, कप्पिया य। दप्पकप्पाणं कमोवण्णत्थाणं। पुव्वं कप्पियवक्खाणं भणामि। चोदगाह
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________________ मुलगुणपडि० 341 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मुलगुणपडि० ततियपाएण पडिलोमपरूवणता, कहं दप्पिकायाः पूर्व निपातनं कृत्वा, कल्पिकाया व्याख्या कहं पूर्वम् उच्यते? अत्रोच्यते-अत्थेणं होइ अणुलोमा अर्थ प्रतीत्य कल्पिका एव पूर्व भवतीत्यर्थः / कह-मत्थेणं | होति अणुलोमा-भण्णति अप्पसरमच्चियतरं, एगेसिं पुटवजतणपडिसेवा। तं दोण्ह चेव जुज्जति, बहूण पुण अचितं अंते ||3|| अप्पसर त्ति-अत्रैके आचार्या आहुः-"यदल्पस्वरं तत्सर्वं द्विपूर्व निपतति" यथा-प्लक्षन्यग्रोधौ / 'अचिंततरं ति' अण्णे पुणराहुः"यदर्चितं तत्पूर्व निपतति" यथा मातापितरौ, वासुदेवार्जुनौ इत्यादि। एतानि कारणाणि इच्छमाणा आयरिया पुव्वं जयणपडि-सेवणं भणंतिवयं पुण ब्रूमः-तंदोण्ह चेव जुज्जति, तदिति अल्प-स्वरत्वम्, अर्चितत्वं वा द्वाभ्यां चेति पदाभ्यां युज्यते घटतेत्यर्थः। ननु बहूनां चोदकाहबहुआण कह? उच्यते-'बहूण पुण अर्चितं अंते' बहूनां पदानां पुण सद्दो अवधारणे अच्चिय, पदं अंते भवति / यथा-भीमार्जुनवासुदेवा, उक्कमकारणाणि अभिहितानि। इदाणिं समवतारोदोण्हं वचं पुथ्व-ऽचितं तु बहुयाण अचितं अप्पं / वचं तेण व पुष्वं, जतणा तेणं पडीलोमं // 64|| जदा दो पयाणि कप्पिचंति-दप्पिया, कप्पिया य / तदा 'दोण्ह वचं पुष्वचियं तु' कप्पियं अच्चियं पदं तं पुव्वं वत्तव्वमिति / यदा बहुपया कप्पिज्जति, दप्पो, कप्पो, पमाओ अप्पमातो तदा 'बहुआणं अचियं अंते', अंतपदं अप्पमातो सो पुव्वं वत्तव्यो। अहवा-अप्पं च एत्थं वचंतेण वा पुव्वं भणामो। जयणा इति-जयणपडिसेवणा। तेण इति–कारणेण, पडिलोम इति-पच्छाणुपुव्वीत्यर्थः / निश्चयतः इदं कारणं वयमिच्छमाणा कप्पियायाः पूर्वे निपातनं कृतवन्तः / ण पमादो कातय्वो, जतणापडिसेवणा अतो पढमं / साउ अणाभोगेणं, सहसकारेण वा होजा ||5|| जम्हा पव्वयंतस्सेव पढमं अयमुवदेसो दिजति-अप्रमादः करणीयःसदा प्रमादवर्जितेन भवितव्यम्, अतो एतेण च कारणणं जयणापडिसेवणाए पुव्वणिवायं इच्छामो। ण तु अप्पसरमचियं काउं, बंधणलोमताए वा अंते अप्पमत्तपडिसेवणा भणिता, अत्थतो पुण वक्खाणं तेहिं पढम वक्खाणिज्जति तेण अणुलोमा चेव एसा अत्थओ, ण पडिलोमा। सिद्ध अणुलोमवक्खाणं स अप्पमायप-डिसेवणा दुविहा-अणाभोगा हव्यतो अचरिमा तु एयं चेव पयं विप्पट्टतरं णिक्खिवति, 'सा उ अणाभोगेणं' पच्छद्धं कंठं / अणाभोगे, सहसक्कारे य दो दारा / अणाभोगो णाम अत्यन्तविस्मृतिः। अणाभोगा-पडिसेवणा-सरूवं इमंअण्णतरपमादेणं, असंपउत्तस्स णोवउत्तस्स। रीयादिसु भूतत्थे-मु वट्टतो होतऽणाभोगो ||6|| पंचविहस्स पमायस्स इंदियकसायवियडणिद्दावियहा / एएसिं एगतरेणावि असंपउत्तस्स अयुक्तस्येत्यर्थः / ‘णोवउत्तस्स रीयातिसु भूयत्थेसु नो इति पडिसेहे, उवउत्तो मनसा दृष्ट्या वा युगांतरप-लोगी। 'रीय त्ति' रीयासमितिगहितो, आदिसद्दातो अण्णसमितीतो य। एतासु समितिसुकता तिविस्सरिएणं अक्उत्तणं ण कयं होज्जा, अप्पकालं सरिते य मिच्छादुक्काड देति, भूयत्थो णाम विआरविहा-रसंथारभिक्खालिसंजमसाहिका किरिया भूतत्थो, धावणवग्गणादिको अभूतत्थो अ, वट्टओ-पाणातिवाते, एवंगुणविसिट्ठो होय णाभोगो। अहवा एवं वक्खाणेजा-असंपउत्तस्स पाणा तिवातेण इरियादिसमितीणं जो भूयत्थो तंमि अवट्टतो ताहे तेणाभोगो त्ति, सेसं पूर्ववत् / इह अणाभोगेण जति पाणाति वायं णावण्णो तो कापडिसेवणा? उच्यते-जंतं अणुवउत्तभावं पडिसेवति सा एव पडिसेवणा इह नायव्वा / एत्तो अअणाभोगो। इयाणिं सहसक्कारो तस्सिमं सरूवंपुवं अपासिऊणं,छूठे पादमिजं पुणो पासे। ण(य)तरति णियत्तेउं, पादं सहसाकरणमेतं ||7|| पुव्वमिति–पढम, धक्खुणाथंडिले पाणी पडिलेहेयव्वा, जति दिट्ठा तो वजणं। 'अपासिऊणं ति'-जतिण दिहा तंमिथंडिले पाणी। छूढे पायम्मि त्ति'-पुव्वं ण सिय थंडिलाओ उक्खित्ते पादे चक्खू पडिलेहिय थंडिलं असंपत्ते अंतरा वट्टमाणे पादे 'जं पुणो पासे त्ति' जमिति पुव्वमदि8 पाणिणं पुणो पच्छा पस्सेज चक्खुणा, ‘ण तरति' ण सक्केति, पासणकिरियवावारपवित्तं पायं णियत्तेउं / पच्छा दिट्ठपाणिणो उवरि णिसितो पाओ, तस्सय संघट्टणपरिता–वणकिलावणोद्दवणादीया अप्पमत्तकिरियोवउत्तेण पीडा कता, एसा जा सहसक्कारेपडिसेवा-'सहसाकरणमेयं ति'-- सहसाकरणं जाणमाणस्स परायत्तस्सेत्यर्थः / एतमिति एवं सरूवं सहसकारस्य / इयाणि सहसक्कारसरूवोवलद्धं पंचसु वि समितीसु णियोतिञ्जति। तत्थ पढमा इरियासमिती भण्णतिदिढे सहसकारे, कुलिंगादी जह असिम्मि विसमे वा। आउत्तो इरियाति, तडिसंकम उवहिसंथारे ||8|| जतणा असणातिकिरियापवत्तेण अप्पमत्तइरिओवउत्तेण दिह्रो पाणी कायजोगो य पुव्वपयत्तो ण सक्कितो णिग्घेतुं, एवं सहसक्कारेण वावादितो,कुलिंगी आदिसद्दातो पंचिंदी वि जहा जेण पगारेण, असीखग्गं, विसम-णिण्णोणतं, आउत्तो-अप्रमत्तः, तडिसंकमणं वा आउत्तो करेति, तडी नाम-छिण्णटका, उवहिसंथारगं वा उप्पादेंतो सव्वत्थ आउत्तो जति विकुलिंगवावादेति तह वि अवधको सो भणिओ। चोदगाहकिं बुत्तं कुलिंगी? काणि वा लिंगाणि? को वा लिंगी? पण्णवग आहकुत्थितलिंगकुलिंगी, जस्स व पंचेदिया असंपुण्णा। लिंगिंदियाइँ अंतो, सलिंगतो धिप्पते तेहिं / / 96|| कुसद्दो अणिट्ठवायी, कुत्सितेंद्रियेत्यर्थः / सेसं कं ठं / जस्स त्ति'-जस्स पाणिणो, पंचेंदिया असं पुण्ण त्ति अत्थि पंचिं
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________________ मूलगुणपडि० 342 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मूलगुणपडि० दिया, किं तर्हि-असंपुण्णा, जहा असंणिणो परिफुडत्थपरिच्छेइणो ण भवंति त्ति भणियं भवति। एरिसे अत्थे एवं वयणं ण भवति, इमं तु पंच ण पुजंति त्ति भणियं भवति, द्वींद्रियादारभ्य यावत् चउरिदियेत्यर्थः / सो कुलिंगी। लिंगमिति जीवस्य लक्षणं, यथा-अप्रत्योऽप्यग्नि मेन लिङ्ग्यते ज्ञायतेत्यर्थः, एवं लिगाणिदियाणि अतो आत्मा लिङ्गमस्यास्तीति लिंगी। आत्मा लिंगी कहं घेप्पते? तेहिं इन्द्रियैरित्यर्थः। चोदगाहकहं पुण सो अप्पमत्तो विराहेति। पण्णवगाह-'असिंमि विसमे वा एयस्स वक्खाणंअसिकंटकविसमादिसु, गच्छंतो सिक्खिओ विजत्तेणं। चुक्कइ एमेव मुणी, छलिज्जती अप्पमत्तो वि।।१०।। असी-खगं, जहा तस्स धाराए गच्छंतो सुसिक्खियो वि आउत्तो वि लंछिल्लति, कंटगागिण्णोवा जो पहोतेण गच्छंतस्स आउत्तस्स वि कंटओ लग्गति, विसम-णिण्णो णतं, आदिसद्दाओ णदीतरणा-इसु जत्तेणंप्रयत्नेन, चुक्कति छलिज्जति, एस दिलुतो, इण मत्थो वणओ, एवमवधारणे मुणी-साहू, इरियासमिती गता। इदाणी भासासमितीकोति साहू सहसा स्थवज भासं भासेज, ण य सक्किओ णिग्घेतुं वाउगो एवं भासासमितीए सहसकारो सो भत्थ-विसोहीए सुद्धो चेव। एत्थभासासमितीसहसक्कारो भण्णति। अस्संजयमतरते, वट्टइ तं पुच्छ होज भासाए। वट्टति असंजमो से, मा अणुमति केरिसं तम्हा / / 101 / / असंजतो--गिहत्थो, अतरंतो-गिलाणो, तं साहू पुच्छेज सहसकारणे वट्टति त्ति लद्धति / तं च किं असंजमो असंजमजीवियं वा एत्थ साहुणो सुहमवायजोगेहिं अणुमती लब्भति, एवं होज्ज-भासाए त्ति- भासासमितीए, से सहसक्कारो वट्टति। असंजमो से गयत्थं मा अणुमती भविस्सति तम्हा एवं वत्तव्वं-केरिसं इह वयणे अत्थावत्तिपओगेण विहुमो वि अणुमतीदोसेण लब्भति। गता भासासमिती। इदाणी तिणि समितीओ जुगवं भण्णंतिदिट्ठमणेसियगहणे, गहणणिखेवे तहा णिसग्गे वा। पुव्वाइट्ठो जोगो, तिण्णो सहसा ण णिग्घेत्तुं / / 102 / / दिट्ठमणेसियगहणे त्ति-एसा एसणासमिती / गहणणिक्खेवे त्तिआदाणणिक्खेवणासमिती / तहा णिसग्गे ति–एसापरिट्ठावणियासमिती / पच्छद्रेण तिण्ह वि सरूवं कंठं। एसणासमितीए उवउत्तो ण दिट्ठमणेसणिजं, पच्छा दिलु, ण सक्किओ गहणजोगो णियत्तेउं, एवं सहसक्कारोएसणासमितीएभवति। एवं गहणणिक्खेवेसु वि, पुव्वाइट्ठोण सक्कितो जोगो णिग्घेत्तुं तहा णिस्सग्गे वि भणिओ सहसक्कारो / एवं अणाभोगेण वा सहसक्कारेण वा पडिसेविए वि बंधो ण भवति। जतो भण्णइपंचसमितस्स मुणिणो, आसज्ज विराधणा जदिहवेज्जा। रीयंतस्स गुणवतो, सुव्वत्तमबंधओ सो उ॥१०३।। पंचहिं समितीहिं समियस्स, जयंतस्सेत्यर्थः / मुणिणो-साधोः, आसञ्जति परिसमवत्थं पप्पपाणिविराहणा भवति।रीयंतस्स-कायछोने / पवत्तस्स, गुणवतः-गुणात्मनः, सुव्वत्तं परिस्फुटं, 'अबंधओसोउ' तुसद्दो अवधारणे। गया अप्पमायपडिसेवणा। इयाणिं अवसेसाओ तिण्णि। एतासिं कतरा पुव्वं भासियव्वा? उच्यतेअल्पतरत्वात्तृतीया वक्तव्या। पच्छा पढमा, बितिया य। एगट्ठा भण्णिहिं ति। साय पमायपडिसेवणा पंचविहा। दारगाहकसायविकहवियडे, इंदियणिहप्पमाय पंचविहे। कलुसस्स य णिक्खेवो, चउव्विधो कोहादि एकारे / / 104|| कसायपमादो, विगहापमादो, विगडपमादो, इंदियपमादो, णिद्दापमादो। 'कलुसस्स यत्ति' कसायपडिसेवणागहिता, चसघाउ कसाया चउव्विहाकोहो, माणो, माया, लोभो। एतेसिंएक्केकस्स णिक्खेवो चउव्विहो दव्वादी कायव्यो / सो य जहा आवस्सते तहा दट्ठव्यो, तत्थ कोहं तवे भणामि। कोहादि एक्कारे त्ति-कोहुप्पत्ती जा तं आदि काउं एक्कारस भेओ भवति। तेय एक्कारस भेयाअप्पत्तिए असंखडि, णिच्छुभणे उवधिमेव पंतावे। उहावण कालुस्से, असंपती वेव संपत्ती।।१०।। अप्पत्तियं-पचामरिसकरणं, असंखडं वावि गो कलहो तसुवायं करेति जेण सगच्छातो णिच्छुभति, उवकरणं वा वोहिं घेत्तु त्ति हारावेति वा। पंतावणे-लगुडादिभिः, उद्दवणं-मारणं,कालुस्से-कासओप्पत्ती घेप्पति / अप्पत्तियाति जाव पंतावणा असंपत्ति संपत्तीहिं गुणिया दस। आदिकसाउप्पत्तीए सहिता एते एकारस। इमं पच्छित्तंलहुओ य दोसु दोसु अ, गुरुगो लहुगा य दोसु ठाणेसु / दो चउ गुरु दो छल्लहु, अणवढे कारस पदा तु // 106 // गाहाअहवा लहुगो गुरुगो, गुरुगा गुरुगाय दोसु चउगुरुगा। दो छलहु अणवट्ठो, चरिमं तह एकारस पयाणि // 107 / / लहुओ य दोसु गुरुओ, लहुगा गुरुगा य दोसु ठाणेसु। दो चउ गुरु दो छल्लहु, छग्गुरु अछेद मूल दुगं / / 108|| आदिकसाउप्पत्तीए-लहुओ, असंप्पत्तीए-लहुगो, संप्पत्तीए मासगुरु, असंप्पत्तीए असंखड़े मासगुरुं, संप्पत्तीए-व्ह, णिच्छुभणे असंप्पत्तीएव्ह, संप्पत्तीए-व्ह, उवकरणस्स हारवणे असंप्पत्तीए-व्ह, संप्पत्तीएव्ह, पंतावणस्स असंप्पत्तीए-व्ह, संपत्तीए-अण--वठ्ठप्पो। एवं उद्दवणवजा एकारसपदा। अहवा-एकारसपदा आदि-कसायउप्पत्तीकारणं वजेऊण उद्दावणसहिया एकारस इमा जयणा अप्पत्तीए-असंप्पत्तीए मासलहुं, संपत्तीए-मासगुरुं, असंखडे असंपत्तीए-मासगुरुं, संप्पत्तीए-टह, णिच्छु भणे असंप्पत्तीए-टह, संपत्तीए--टह, उवकरणहारवणस्स असंपत्तीए-व्ह, संत्तीए व्ह, पंतावणस्स असंपत्तीए-व्ह, संपत्तीएअणवठ्ठप्पो, उद्दवणे पारंची। अह वण्णो-आदेसो भण्णति-लहुओ य दोसु०' गाहा–एए पण्णरस पायच्छिता एतेसिंठाणणिओयणा भण्णति।चो १-व्ह इति पूर्ववदित्यर्थे संकेतितमिव प्रतिभाति!
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________________ मूलगुणपडि० 343- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मूलगुणपडि० दगाहअत्थतो ताव ठाणणिओयणं इदं ताव णाउमिच्छामि कहम- तिव्वो अणुबद्धो गृहीतेत्यर्थः, तिव्वेण वा रोसेण अणुबद्धो अप्पा जस्स प्पत्तियमुप्पण्णं। सो तिव्वाणुबद्धरोसो अवमंतो असकतो धरेतुमिति, खेमिओ, भावपण्णवगाह कुशलतित्थकरा पडिसिद्धोणिवारितो कोह इति वयणं दट्ठव्वं, एवं सो सहसा व पमादेणं, अप्पडिवंदे कसाइए लहुओ। तेण तिट्वेण रोसेणाणुवद्धो जेण सेसहअहि-करणसमुप्पण्णं तं अहमवि यण वंदिस्सं, असंप०संपत्ति लहुगुरुओ।।१०।। पासितुमसक्कतो गणातो वचितुमारद्धो। 'तिण्हं एतराए त्ति'-वक्खमाणं एगेण साहुणा साहू अभिमुहो दिट्ठो, सो य तेण वंदिओ, तेण य अण्ण- अंतरा इति मूलगुणातो णिग्गयस्स अण्णं गणं अपार्वतस्स अंतरं भवति किरियावावारेवयुत्तेण, अण्णतरपमायसहितेण वा, अप्पडिवंदे त्ति, तस्स दोस इति विराहणा। साहुस्सवंदमाणस्स पडिवंदणजंतं पडिवंदणं-न पडिवंदणं अपडिवंदणं "तिण्हमेगतराए' त्ति पदस्स वक्खाणं 'संयमआतविअप्पणेणं वण वंदिओ एवं तमप्पत्तियमुप्पण्णं, इयाणि णियोजणा तस्सेवं राहण' गाहाकसातियमेत्तस्स चेव लहुओ, तदुत्तरं कसातितो एवं चिंतेति-जया एसो संजम आतविराधण, उभयं तत्तियं व गंधपच्छित्तं / वंदिस्सति तदा अहमपि चेयं, नपडिवंदिस्संतस्स असंपत्तीए-मासलहुं, णाणादितिगंवावि, अणवत्थाईतिगं वावि||११|| संपत्तीए-मासगुरुं, अक्खरत्थो कंठो। संजमो सत्तरसविहो, तस्स वा जाव सत्तरसभेयस्स वा विराहणं करेइ, एमेवऽसंखडे वा, असंप०गुरुओ लहुग संपत्ते। आत इति--अप्पा तस्विराहणं वा, वालुक्खाणुकंटादीहिं वा, उभयं णामनिच्छुभणमसंपत्ते, लहुय चिय णीणिते गुरुगा / / 110|| संजमो, आयविराहणा, विराहणासघोपत्तेयं / अहवा तिग संजमविराहणा असंखडे असंपत्तीए मासगुरुं,संपत्तीए-व्ह,णिच्छुभणे असंपत्तीए व्ह, तत्तिगं से पच्छित्तं भवति ! अहवा-तिगं णाण-विराहणा सुत्तत्थे संपत्तीएणीणितो णाम-णिच्छूडो धाडितेत्यर्थः-टह। अगेण्हंतस्स विस्सरियं वा अपुच्छंतस्स, दंसण-विराहणा अपरिणतो उवधीहरणे गुरुगा, असंप० संपत्तिओ य छल्लहुया। चरगादीहिं बुग्गाहिज्जति, चारित्तविराहणा एगागी इत्थिगम्मो भवति / पंतावणसंकप्पे, छल्लहुया अचलमाणस्स॥१११।। अहवा-तिगं अणवत्थादितिगंवा वि, एवं सो गणाओ णिग्गओ, अण्णो उवहिं हरामि वा,हारे (हरावे) मि वा असंपत्तीए-व्ह, संपत्तीए-व्ह, / वि साहू चिंतेति-अहं पि णिग्गच्छामि। अणवत्थीभूतो गच्छधम्मो, न पंतावणसंकप्पे णाम-जट्ठिमुट्ठिकोप्परप्पहारेहिं हणामि त्ति चिंतयति, जहावाइणो तहाकारिणो, मिच्छत्तंजणेति। अहिणवधम्माणं विराहणा। अवलमाणस्स ति-तदवत्थस्सेव कार्याकार्यमयु-जंतस्स-वह। आयसंजमे आयविराहणा। खाणुकंटगादीसु संजमविराहणा इमा। गाहा अथवा वायो तिविहो, एगिदियमादि०जाव पंचिंदी। पहरण मग्गण छम्गुरु, छेदो दिटुंमि अट्ठमं गहिते। पंचण्ह चउत्थाई, अहवा एकादिकल्लाणं // 116|| ओग्गिणदिण्णअममए, णवमं उहावणे चरिमं / / 112 // अहव त्ति-विकप्पदरिसणे अ, वातो-दोसो, तिविहो त्ति एगिंदिया इतो प्रहरणं लउडादि मग्गिउमारद्धो तत्थ से-व्ह, तेण यमगतेण दिट्ठ वातो, विगलिंदिया वातो, पंचेदिया वातो। अहवा-वातो तिविही त्तिचक्खुणिवाये कयमेत्ते चेव छेदो, गंतूण हत्थेण गहियं पच्छा से अट्ठमं, पच्छित्ता वातो, सो य एगिदियादिजाव पंचेंदिएसुवा वातिएसु भवति, मासलहुआतो गणिजंतमूलं अट्ठमं भवति। जस्सरुसिओ तस्स उदिण्णं सो इमो पंचण्ह त्ति एगेंदिया०जाव पंचेंदिया। 'चउत्थादि त्ति' चउत्थं पहरणं णवमं भवति, दिण्णपहारे जति ण मतो तहा वि णवमं चेव आदि काउं०जाव वारसमा एगेंदिए चउत्थं, वेइंदिए छटुं, तेइंदिए अट्ठमं, 'अणवठ्ठप्पं ति' भणियं होति, पहारे दिन्ने मतो सिया चरिमं, णाम चउरिदिए दसमं, पंचेंदिए वारसम, एक्को आएसो / अहवा एगिदिए पारंची, चरिमावस्थितत्वात्, पढमवितियततिय-आदेसाणं "सामण्ण एगकल्लाणयंजाव पंचेंदिये पंच कल्लाणयं / बितिओ आदेसो-एतेसु जे लक्खणा" गाहा। एगिदिएसु पच्छित्ता वाओ सो जहण्णो, विगलिं-दिएसु मज्झिमो, विसेसओ पढमा एसस्सिमा गाहा पंचेंदिएसु उक्कोसो, एस तिविहो पच्छित्ता वाओ। एए दो आदेसा दाणअप्पत्तियादि एवं, असंपसंपत्ति संगुणं दसउ। पच्छितं भणितं / अहवा-एए दो वि इमो ततिओ। आवत्तिपच्छित्तेण कोधुप्पादणमेव तु, पढम एक्कारस पदाणि॥११३|| भण्णति। अप्पत्तियपदं आदि काउंजाव पंतावण ताव पंच पदा। एते असंपत्ति- छक्काय चउसु लहुगा, परित्तलहुगा य गुरुगसाहारे। संपत्तिपदेहिं गुणिता दस भवंति। एवं तिण्हं विआदेसाणं सामण्णं / इम संघट्टणपरितावण, लहु गुरु अतिवायणे मूलं // 117 / / पढमादेसे वइसेसयं। कोहउप्पायणमेव उपढम। एतेण सहिता एक्कारस छक्काय त्ति-पुढवादी०जाव तसकाइया / चउसु त्ति-एएसिं छण्हं पदा भवंति। सेसं कंठ। जीवणिकायाणं चउसु पुढवादिवाउक्काइयंतेसुसंघट्टणे लहुगो, परितावणे एवं कोवि अहिकरणं काउं गुरुगो, उद्दवणे चउलहुगा, परित्तवणस्सइकाइए, वि, एवं चेव / तिष्वाणुबद्धरोसे, अवमंतो धरेतु कुसलपडिसिद्धं / साहारणवणस्सति काइए संघट्टणे मासगुरु, परितावणे-व्ह,उद्दवणेतिण्हं एगतराए, वचंते अंतरा दोसा॥११४|| व्ह, संघट्टणपरितावणे त्ति वयणा, सुत्तत्थे लहुगुरुगाई ति-चउलहुँ
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________________ मूलगुणपडि० 344 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मूलगुणपडि० चउगुरुं च गहितं / सेसा पच्छित्ता अत्थतो दट्ठव्या / पंचिंदियसंघट्टणे छागुरुगा, परितावेत्ति छेओ, उद्दवे त्ति मूलं, दोसु अणवट्ठो, तिसुपारंची। एस अक्खरत्थो / इमो, वित्थरओ अत्थो-पुढवि-आउ-तेउ-वाउपरित्तवणस्सतिकाए य एतेसु संघट्टणे मासलहुं, परितावणे मासगुरूं, उद्दवणे-व्ह / अणंतवणस्सतिकाये संघट्टणे मासगुरुं, परितावणे-व्ह। उद्दववणे---व्ह / एवं बेइंदिएसुचउलहु, आढत्तं छल्लहुए ठाति। तेइंदिएसु चउगुरु,आढत्तं छग्गुरु ठाति, चउरिंदियाण छल्लहु आढत्तं छेए ठाति, पंचेंदिया छग्गुरुगा, आढत्तं मूले ठाति / एस पढमाऽऽसेवणा। अतो परं अभिक्खासेवणा-अभिक्खासेवणाए हेट्ठाणं मुचति, उवरि एक वट्टिजति पुदवाति जाव परित्तवणस्सकाइयाण / वितियबाराए मासगुरुगाति चउगुरुगे ठाति, एवं जावअट्ठमवाराए चरिमं (पारंची) पावति। णवमवाराए परितावणे चेव चरिमं, दसमवाराए संघट्टणे चेव चरिमं / एवं सेसाण वि सट्ठाणातो चरिमं पावेयव्यं, एस कोहो भणिओ। सेसकसाएसु वि यथासंभवं भाणियव्वं / कसाए त्ति दारंगयं। नि० चू० १उ०। (अत्र स्त्रीकथाद्वारम् 'इत्थिकहा' शब्दे द्वितीयभागे 585 पृष्ठे गतम्) (अत्र भक्तकथाद्वारम् 'भत्तकहा' शब्दे पञ्चमभागे 1342 पृष्ठे गतम्) (देशकथाद्वारम् 'देसकहा' शब्दे चतुर्थभागे 2628 पृष्ठे गतम्) (अत्र राजकथाद्वारम् 'रायकहा' शब्दे वक्ष्यामि) इदाणिं वियडे ति दारंवियडं गिण्हइ वियरति,परियामाए तहेव परिभुंजे। लहुगा चतु जमलपदा, मददोसअगुत्ति गेही य॥१३१॥ वियडं मजं, तंसङ्घघराओआवणाओवा गेण्हइ, केवलं एवं बितियपदं / वितरइ त्ति-केणइ साहुणा आयरियाती कोइ पुच्छितो-अहमासवं गेण्हामि, सो भणइ एवं करेहि, एवं वितरणं, एतं पढमपयं / वितियपयं बंधाणुलोमा गेण्हणे पदपदातो पच्छा कयं परियाभाए त्ति-देति परिवेसयतीत्यर्थः, एतं ततियं पयं। परि जति-अभ्यवहरतीत्यर्थः चउत्थं पदं। कमसो दुहृतराणि, पच्छित्तं भण्णति-लहुगा इति चउलहुगा, ते चउरो भवंति। कहं वितरमाणस्सचउलहुँगेण्हमाणस्स विचउलहुं, परियाभाएमाणस्स वि चउलहुं, परिभुंजमाणस्स वि चउलहुं / जमलपदं णाम तवकालो तेहिं विसेसाहिया कन्जंति-पढमपए दोहिं विलहुं, विति-यपदे कालगुरुं ततियपदे तवगुरुं,चउत्थे दोहिं पि गुरु / दोसदरिस-णत्थं भण्णइ-"मददोस अगुत्तिगेही य"-मददोसो नाम। "मद्यं नाम प्रचुरकलह निर्गुणं नष्टधर्म, . निर्मर्यादं विनयरहितं नित्यदोषं तथैव। निःसाराणां हृदयदहनं निर्मित केन पुंसा, शीघ्रं पीत्वा ज्वलितकुलिशो याति शकोऽपि नाशम् // 1 // वैरूप्यं व्याधिपिण्डः स्वजनपरिभवः कार्यकालातिपातो, विद्वेषो ज्ञाननाशः स्मृतिमतिहरणं विप्रयोगश्च सद्भिः। पारुष्यं नीचसेवा कुलबलतुलनाधर्मकामार्थहानिः, कष्ट भो षोडशैते निरुपचयकरा-मद्यपानस्य दोषाः / / 2 / " अगुत्ती णाम अणेगाणि विप्पलवति वायाए, कारण णचति, मणसा बहुचिंतागुलो भवति, गेही-नाम अत्यर्थमासक्तिः मद्येन विना स्धातुंन शक्नोति 'विडये त्ति' दारं गयं। इदाणिं इंदिए ति दारंरागेतरगुरु लहुगा, सहे रूवे रसे य फासे य। गुरुगो लहुगो गंधे, जंवा आवजती जत्तो॥१३२॥ मायालोभेहिंतो रागो भवति, कोहो माणेहिंतो दोसो भवति,सद्दे रूवे रसे फासे यएतेसुचउसुइंदियत्थेसुरागं करेंतस्सचउगुरुगा पत्तेयं। अह तेसु दोसं करेति तो चउलहुयं पत्तेयं, गंधे रागं करेति मासगुरुं, दोसं करेंति मासलहुँ / अह सचित्तपइट्टिते गंधं जिग्घति मासगुरुं, अचित्तपइद्विते मासगुरुं,लहुं जंवा आवञ्जति त्ति जिग्घमाणो जं संघट्टणपरितावणं करेति तपिणप्फण्णं दिजति। अहवा-जंवत्तिअनिर्दिष्टस्वरूपं आवञ्जति-- पावति / किं च-तं संघट्टणादीयं जत्तो ति एगिदियाणं०जाव पंचेंदिया एत्थ पच्छित्तं दायव्वं / "छक्काये चउसु लहुगा०" गाहा। इंदिए त्ति दारं गयं / इदाणिं णिद्द त्ति दारं, सा पंचविहा-णिद्दा, निद्दानिद्दा, पयला, पयलापयला, थीणद्धी, / नि०चू०१उ०॥ (अत्र निद्राद्वारम् ‘णिद्दा' शब्दे चतुर्थभागे 2072 पृष्ठे गतम्) (निद्रान्तर्गतस्त्यानद्धयुदाहरणम् 'थीणद्धि' शब्दे चतुर्थभागे 2412 पृष्ठे उक्तम् / तत्रैवोक्ता सव्याख्या गाथाइहापि किञ्चिद्व्याख्यायते) केसवो वासुदेवोजतस्सबलं तब्बलाउ अद्धयबलं थीणद्धिणो भवति। तं च पढम-संघणिणो य इदाणी, पुणसामण्णबला दुगुणं तिगुणं चउगुणं वा भवति। से अएवं बलजुत्तोमा गच्छ रुसिओ विणासेज,, तम्हा सो लिंगपारंची कायव्वो / सो य साणुणयं भण्णति-मुय लिंग णत्थि ओहचरणं, जति एवं गुरुणा भणितो मुक्कतो सोहणं, अहण मुयतितो समुदितो संघो भवति, हरतिण एगो, मा एगस्स पओसं गमिस्सति। पदुट्ठोय वावादयिस्सति। लिंगावहारणियमणत्थं भण्णातेअवि केवलमुप्पाडे,णय लिंगं देति अणति से सीसे। देसवत दंसणं वा, गिण्ह अणित्थे पलातंति / / 14 / / अवि संभावणे, किं संभवयति-इमं जति वि तेणेव भवगहणेण केवलमुप्पाडेति तह वि से लिंग ण दिजति / तस्स वा, अण्णस्स वा / एस णियमो अणसइणो, जो पुण अवहिणाणादी सति सो जाणति, ण पुण एयस्सथीणद्धिणिद्दोदयो भवति। देति से लिंग इतरहाण देति। लिंगावहारे पुण कज्जमाणे अयमुवदेसो- देसवउ त्ति सावगो होहि। थूलगपाणातिदायाइणियत्तो पंच अणुव्वयधारी, ताणि वा ण तरसि दसणं गेण्ह, दसणसावगो भवाहि त्ति भणियं भवति / अह एवं पि अणुणिज्जमाणो णेच्छति लिंग मोत्तुं ता हरो उ मोत्तुं पलायति देसांतरं गच्छतीत्यर्थः / पमायपडिसवेणे त्ति दारं गयं। इदाणी पुव्वाणुपुस्विकमेण कप्पिया पडिसेवणा पत्ता, सापुण पत्ता वि ण भवति, कम्हा? उच्यते सा सिस्सस्सेक्मवहट्ठाहिति, पुव्व-मणुण्णा पच्छा पडिसेहो-अतो पुव्वं पढिसेहो भण्णतिपच्छा अणुण्णा भणिहिति। दप्पादी परिसेवण, पच्छाउ होति आणुपुष्वीए। सहाणे सहाणे, दुविधा दुविधा य तिणि दुगा / / 13 / /
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________________ मूलगुणपडि० 345 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मूलगुणपडि० दप्पिया पडिसेवणा भण्णति-आदिसद्दातो कप्पिया वि। आणु पुव्वीगहणातोपुचि दप्पियं भणामि, पच्छा कप्पियं, केसु पुण ठाणेसु-दप्पिया, कप्पिया वा, संभवति। भण्णति-जं तं हेट्ठा भणियं मूलगुणउत्तरगुणेसु मूलगुणे-पाणातिवाताइसु,उत्तरगुणे-पिंडविसोहादिसु, तत्थ मूलगुणेसु पढमे पाणातिवाते णवसु ठाणेसु पुढवातिसुसट्ठाणे सट्ठाणे वीप्सा "दुविहा दुविहा य तिण्णि दुगा।' एएसिं तिण्ह वि दुगाणं इमा वक्खाणगाहा-- दुविधा दप्पे कप्पे, दप्पे मूलुत्तरे पुणो दुविधा। कप्पंमि वि दुविकप्पा, जतणा जतणा य पडिसेवा / / 144|| पढमदुगे-दप्पिया, कप्पिया य / वितियदुगे-एकेका मूलुत्तरे पुणो दुविहा / ततियदुगे-जा सा कप्पिया, मूलुत्तरे सा पुणो दुविहा जयणा जयणासु, जयणाजयणा णामतिपरियट्ट काऊण अप्पदुप्पण्णे पच्छा पणगादिपडिसेवणाए पडिसेवति, एसा जयणा। अहवा-पुढवाइसु सट्ठाणे सट्ठाणे दुविहा-दप्पे, कप्पे यदुतियदुगं वीप्सा-प्रदर्शनार्थम्। ततियदुर्ग मुलुत्तरे पुणो दुविहा पडिसेवणा। अहवा-आणुपुट्विग्गहणा पुढवाईकाया गहिता, तेसुय दुविहा पडिसेवणा-मूलगुणेवा, उत्तरगुणे वा। पढमसट्ठाजग्गहणेण मूलगुणा गहिता, दुतियसट्ठाणगहणेण उत्तरगुणा / मूलगुणे दुविहा–दप्पिया, कप्पिया य। उत्तरगुणे वि-दप्पिया, कप्पिया य / मूलगुणे जा कप्पिया उत्तरगुणे य जा कप्पिया, एताओ दो वि दुविहा-- जयणाए य, अजयणाए या एवेयं ततियगं, जे सट्ठाणा पुढवादी अत्थतो अभिहिता ते दप्पओ पडिसेवमाणस्स उव्यरियं पायच्छित्तं दिजइ। पुढवीआउक्काए, तेऊ वाऊ वणस्सती चेव। विय तिय चउरो पंचिं-दिएसु सट्ठाणपच्छित्तं / / 145|| एतेसु सट्ठाणेसु पायच्छित्तं इमं "छक्काए चउसु लहुगा०'' गाहा। एसा गाहा जहा पुव्वं वन्निया तहा दट्ठव्वा / पुढवाइसु संखेवओ पायच्छित्तमभिहियं // इयाणिं पुढवाईसु एक्कक्के विसेसं पायच्छित्तं भण्णति / तत्थ पढम पुढविकाओ सो इमेसु दारेसु अणुगंतव्यो। सक्खाइ हत्थपंथे, णिक्खित्ते सचित्तमीसपुढवीए। गमणाइपप्पडंगुल, पमाणगहणे य करणे य / / 146 / / दस दारा। एतेसिंदाराणं संखेवओ पायच्छित्तदाणं इमपंचादिहत्थपंथे, णिक्खेत्ते लहुयमासियं मीसे। कट्ठोल्लकट्ठोलकरणे, लहुगा पप्पडए चेव तसपाणा ||147|| पंचादिति-ससरक्खादि सोरहावसाणा वारस पुढविक्काईयहत्था। एतेसु जो आदिससरक्खहत्थो तंमि पणग, सेसपुढविक्कायहत्थेसु पंथे य मासलहू, सचित्ते पुढविकाए अणन्तरणक्खित्ते लहुगा। जत्थ जत्थ मीसो पुढविकाओ तत्थ तत्थ मासलहुं, मीसपुढविक्काय-दरिसणं इम कट्ठोल्लकट्ठणमेहलादिणा बाहियं, उल्लं णाम-आउ-कारण सो मीसो भवति, आउल्लगमादिकरणे-चउलहुगा, पप्पडए व चउलहुगा, वसदाओ गमणं अंगुलप्पमाणगहणे य-चउलहुगा, पप्पडए रातीवितरेसु तसा पविसंति विराहिजंति, तक्कायणिप्फण्णं तत्थ पायच्छित्तं / इयाणी ससरक्खादि दस दारा पत्तेयं पत्तेयं सपायच्छित्ता विवरिखंति, तत्थ पढम दारं-ससरक्खादिहत्थ त्ति, ससरक्खणं आदिर्यस्य गणस्य सोऽयं ससरक्खादी गणो, कः पुनरसौ गणः? उच्यते-पुरेकम्मे, उदलल्ले, ससिणिद्धे ससरक्खे, मट्टिआऊसे, हरियाले, हिंगुलए, मणोसिला, अंजणे, लोणे, गेरुय, वणिय, सेढिय,सोरट्ठिय, पिट्ठ, कुकुस, उक्कडे, चेव, एते अट्ठारस कायणिप्फण्णा पिंडेसणाए भणिया। हत्थो तत्थ जे पुढविकायह-त्था तेहिं इह पओयणं, ण जे आउवणस्सतीकायहत्था, अतो पुढवीकायहत्था ण सेसकायहत्था, ण य विभागप्पदरिसणत्थं भण्णति। ससणिद्ध दुहाकम्मे, रोद्धो कुटे य कुंडए एते। मोत्तूणं संजोगे, सेसा सवे तु पच्छिय्वा॥१४८|| हत्थुदयबिंदू ण संविज्झति तं ससिणिद्धं / दुहाकम्मं ति पुरेकम्म; पच्छाकम्मं च / उदउल्लं, एत्थेव दट्ठव्वं / एते आउक्कायहत्था / रोद्धो नाम-लोद्धो, रलयोरेकत्वाल्लोद्धो भवति / भण्णति-उकुट्टो णामसचित्तवणस्सतिपत्तं कुरुफलाणि वा उक्केलं तुझंति, तेहिं हत्थो लित्तो एस उक्कुट्ठहत्थो भण्णति, कुंडगं णाम-सण्हतंदुलकणि-याओ, कुक्कुसाय कुंडगाभणंति, एतेवणस्सतिकायहत्था। एते मोत्तूणं संजोगे' एते आउवणस्सतिहत्थे मोत्तूण, संजोगो णाम-जेहिं सह हत्थो जुज्जति स संजोगो भण्णति / अतो, एते-हत्थसं-जोगे मोत्तूण, सेसा सव्वे उ पच्छिव्वा--पुढविकायहत्थति भणियं भवति, ते इमे ससरक्खादिहत्था आदिगहणातो मट्टियादि०जाव सोरट्ठिय त्ति एक्क रस हत्था। एतेहिं इहाधिकारो अतो भण्णतिकरमत्ते संजोगो, सरक्खपणगं तु मासिलोणादि। अत्थंडिलसंकमणे, कण्हा य पमजणे लहुगा / / 146 // करोत्ति-हत्थो, मत्तो य-भाषणं, संजोगो णाम चउक्कभंगो कायव्यो, सो य इमो ससरक्खे हत्थे, ससरक्खे मत्ते, णो हत्थे, णो मत्ते। आदिभंगे संजोगे पायच्छित्तं दोपणगा, वितियततियेसु एक्ककं पणगं, चउत्थो भंगो सुद्धो। मासलोणादित्ति-सीसो पुच्छति-कहं सरक्खहत्थाणतरंमट्टियाहत्थं मोत्तूण लोणादिग्गहणं कजति? आयरिय आह-एयं सेसहत्थाण मज्झग्गहणं कयं,अहवा-बंधाणु-लोमा कयं इतरहा मट्टियाइहत्था भाणियव्वा, तेसु य एकेक करमत्तेहिं चउभंगो कायव्यो / पढमभंगे-दो मासलहुं, वितियतिएसु-एक्ककं मासलहुं, चरिमोसुद्धो। सरक्खादिहत्थे त्ति दारं गयं / इदाणिं पंथे त्ति-दारं-पंथे वचंतो थंडिलाओ अथंडिलं संकमति–अञ्चित्तभूमीतो सचित्तभूमी संकमति त्ति भणियं भवति। कण्हभूमीओ वाणीलभूमी संकमति एत्थ अविहि-विहिए, दरिसणत्थं भंगा। ते इमे अपमज्जणे त्ति / ण पडिलेहेतिण पमज्जति१,ण पडिलेहेइ पमज्जइ 2, पडिलेहेति,ण पमज्झति 3, चउत्थभंगे-दो वि करेति, णवरं दुप्पडिलेहियं, दुप्पमज्जियं, 4, दुप्पडिलेहियं सुप्पमज्जियं५, सुप्पडिलेहियं दुप्पमज्जियं 6, सुप्पडिलेहियं सुप्प-मज्जियं 7, आदिल्लेसु तिसु भंगेसुमासलहू, पढमे तवगुरुं, काललहुं, वितिए-तवलहुं, कालगुरुओ,
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________________ मूलगुणपडि० 346 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मूलगुणपडि० ततिए-दोहिं लहुओ, चउत्थपंचमछ8सु पंच राइंदिया, एवं चेव तवकालविसेसिता, चरिमो सुद्धो। पंथे त्ति दारं गतं। इयाणिं णिक्खित्ते त्ति दारं-णिक्खित्तं दुविहं-सचित्तपुविणिक्खित्तं, मीसपुढविक्खित्तं च / जं तं सचित्तपुढविणिक्खित्तं तं दुविहं-अणं-तरणिक्खित्तं, परंपरणिक्खित्तं च। मीसे वि दुविहं-अणंतरे, परंपरे य। एतेसु सचित्तमीसअणंतरपरंपरणिक्खित्तेसुपच्छित्तं भण्णतिसचित्तणंतरपर-परलहुगा य हॉति लहुगा य / मीसाणंतरलहुओ, पणगं तु परंपरपतिहे॥१५०।। सचित्तपुढविकाए अणंतरणिक्खित्ते-चउलहुयं, परंपरणिक्खित्तेमासलहुं, मीसे पुढविकाए अणंतरणिक्खित्ते–मासलहुं, परंपरणिक्खित्ते-पंचरातिदिया। णिक्खित्ते त्ति दारं गयं / __सा पुण मीसा पुढवी कहिं हवेज्जा भण्णतिखीरदुमहेहपंथे, अभिणवकट्ठोलइंधणं मीसं। पोरिसि एग दुग तिगे, थोविघणमज्झबहुए य // 151 // खीरदुमा वडउदुंबरपिप्पला, एतेसिं महुररुक्खाण हेट्ठा मीसो, पंथे य अहिणबहलवाहिया य, पुढवीउल्लावासे य पडियमित्तं मीसं भवति / अहवा-कुंभकारादीमट्टिया। इंधणसहिया मीसा भवति, साय कालतो एव चिरं थोविंधणसहिया एगपोरिसी मीसा सचित्ता, परतो-मझिधणसहिया दो पोरिसीओ मीसा, परतो सचित्ता, बहुइंधणसहिता तिण्णि पोरुसीओ मीसा, परतो सचित्ता।एगे आयरिया एवं भणंति। अण्णे पुण भणन्ति-जहा एगदुगतिण्णिपोरि-सीओ मीसा होउं, परओ अचित्ता होति, एत्थ पुण इंधणविसेसादोऽविआदेसाघडावेयव्या, साहारणिधणेण एगदुतिपोरिसीणं मीसा, परतो सचित्ता भवति। असाधारणेण पुण अचित्ता भवति। मीसकट्ठउल्लगे त्ति दारं गतं। इदाणिं गमणे त्ति दारं आदिग्रहणे णिसीयणं तुयट्टणं य घेप्पति अट्ठावीसुत्तरं सतं चरिमपदं दस ठाणा भवंति; एत्थ पच्छित्तं पढमे मासलहुं०जाव अट्ठावीसुत्तरसतपदे पारंचियं भवति / एतेसिं चेव अभिक्खसेवा भण्णति-अभिक्खसेवा णाम-पुणो पुणो गमणं, तत्थ पायच्छित्तं वितियवाराए सचित्तपुढवीए गच्छमाणस्स गाउदादि चउगुरुगा आढतंजाव सोलस, जोयणपदे पारंचियं, ततियवारा छलहू आढत्तं, अट्ठजोयणपदे पारंचियं,एवं जाव अट्ठम-वाराएगाउयं चेव गच्छमाणस्स पारंचियं, एवं मीसपुढविक्काए वि अभिक्खगमणं,णवरं दसमवाराएगाउयते पारंचियं पावति। गमणेति त्ति दारंगतं / इदाणिं पप्पडए त्ति दारंपप्पडते य सचित्ते, लहुयादी अहहिं भवे सपदं। मासलहुगादिमीसे, दसहि पदेहिं भवे सपदं // 154|| पप्पडगो णाम-सरियाए उभयतडेसु पाणिएण जारेलिया भूमी सातमि पाणिएण उहट्टमाणे तरिय बद्धा होउं उण्हेण छित्ता पप्पडी भवति। तेण सचित्तेण जो गच्छति गाउयं तस्सचउलहुयं, दोसुगाउएसुचउगुरुयं, एवं दुगुणादुगुणेण जाव वत्तीसंजोयणे पारंचियं, अभिक्खसेवा य तहेव जहा पुढविक्काए मीसे पप्पडए गाउयदुगुणा-दुगुणेण मासलहुगादि०जाव अट्ठावीसुत्तरसते जोयणसते पारंचियं। अभिक्खसेवा जहेव पुढविक्काए। पप्पडिए त्ति दारं गतं। इदाणिं आदिसद्दो वक्खाणिज्जति-'अंति लदार व समुद्दो य एत्थ' गाहाठाण णिसीय तुयट्टण, पाउल्लगमादि करणभेदे य। होति अभिक्खासेवा, अट्ठहिँ दसहिं व सपदं तु |15|| सच्चित्ते पुढविक्काते पप्पडए यसचित्ते ठाणं निसीयणं तुयट्टणं वा करेंति; करेंतस्स पत्तेयं चउलहुयं, वाउल्लगमाति त्तिवाउल्लगं णाम-पुरिसपुत्तलगो, तं सचित्तपुढवीए करेति,चउलहुयं, काउण वा भंजति, तत्थ वि-व्ह, आदिसघातो गयवसभातिरूवं करेति, भंजेतिवा, तत्थ विपत्तेयं चउलहुयं / एतेसि चेव ठाणनिसीयणतु-यट्टणकरणभेदणे य पत्तेये पत्तेयं अभिक्खसेवाए अट्ठमवाराए पारंचियं पावति / मीसपुढविक्काएवि ठाणादीणि करेमाणस्स पत्तेयं मासलधु, ठाणादिसुपत्तेयं अभिक्खसेवाए दसमवाराए सपदं पावइ। सपयंणाम-पारंचियं, आदिसबंतरालदारंगतं। इदाणिं अंगुले त्ति दारंचउरंगुलप्पमाणा,चउरो दो चेव जाव चतुवीसा। तं जुगमादीवुड्डी, पमाणकरणे य अहे वा / / 156|| अंगुलरयणा ताव भण्णति-चउरंगुलप्पमाणा / चउरो त्तिअंगुलादारभ जाव चउरो अंगुला अहो खणति, एस पढमोचउक्कगो, चउरंगुला परतो पंचंगुलादारभ जाव अटुंगुला एस बितिओ चउक्कगो, एवं णवम अंगुलादारभ जाव बारस एस ततितो चउक्कगो, तेरसंगुलादारब्भ जाव सोलसमं एसचउत्थो चउक्कगो, दो चेव जाव चउवीसा, सोलस अंगुला परतो दो अंगुलवुड्डी कजति, अट्ठारस वीसा बावीसा चउव्वीसा अंगुलमादी वुड्डीति अंगुलादारभ चउर-गुलिया दुअंगुलिया चत्तारि छच लहु गुरु, छेदो मूलं तह दुगं च / / 152 / / सचित्तपुढविकायमज्झेण गाउयं गच्छति, गाउयं दुगुणं, अद्धजोयणं,अद्धजोयणदुगुणं-जोयणं, जोयणं-दुगुण-दो जोयणाई, दो जोयणा दुगुणा-चउरो जोयणा, चउरो दुगुणा अट्ठ जोयणा, अट्ठ दुगुणा-सोलस जोयणा, सोलस जोयणा-दुगुणा-बत्तीसं जोयणा, चरिमपदग्गहणातो पारंचियं णेयं / दुगुणेण गाउआदि बत्तीसजोयणावसाणेसु अट्ठसु ठाणेसु पायच्छित्तं भण्णति-चत्तारि छच लहु गुरु, विसेसिया चउरो पायच्छित्ता भवंति। चउलहुअं, चउगुरुगं, छलहुयं, छग्गुरुयं ति, भणियं भवति। छेदो, मूलं दुगं, अणवठ्ठप्पं.पारंचियं, एते गाउयादिसुजहासंखं दायव्वा पायच्छित्ता। एवं ता सचित्ते, मीसं पुण तेण अट्ठवीसे य। अहवा अभिक्खगमणे, अट्ठहिँ दसहिं च चरमपदं // 15 //
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________________ मूलगुणपडि० 347 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मूलगुणपडि० य एसा वुड्डी भणिया। आदिसंडाओमीसे वि एवं, णवरं तत्थ आदीए छ चउक्कगा कजंति, परतो चउरोदुगा। एवं बत्तीसं अंगुला भवंति, दस ठाणा। एसा अंगुलरयणा / एतेसिम पच्छित्तं भण्णति-सच्चित्ते अंगुलादारभ जाव चउरो अंगुला खणति एत्थ चउलहुयं, पंचमातोजाव अट्ठमं एत्थ चउगुरुयं, अवमाओ जाव वारसमं एत्थ छल्लहुयं, तेरसमातो जाय सोलसमं एत्थ छग्गुरुयं, सत्तरस अट्ठारसमेसु-छे यो, अउणवीसवीसेसु मूलं, एकवीसवावीसेसु-अणवठ्ठप्पो, तेवीसचउवीसेसुपारंची। अभिक्खसेवा भण्णति-पमायकरणे य अद्वेव, अभिक्खणं करेति, तत्थ पमाणं अट्ठमवाराए पारंचियं। अहवा-पमाणकरणे य अट्टेव त्ति-पमाणगहणेण पमाणदारं गहितं, करणग्गहणेण करणदारं गहियं / चसद्दाओ गहणदारं गहियं / अंगु-लदारं पुण अहिगतं चेव। एतेसु चउसु वि अभिक्खसेव करेंतस्स अट्ठमवाराए पारंचियं भवति / इदाणिं मीसगपुढविकायं खणंतस्स पायच्छित्तं भण्णति-मीसे पुढविक्काए-पढमं चउक्कं खणंतस्स मासलहु, बितियचउक्के मासगुरु, ततियचउक्के चउलहु, चउत्थ-चउक्के-चउगुरु, पंचमे चउक्के छलहु, छटे चउक्के-छग्गुरु, पणछवी-संगुलेसु-छेओ, सत्तट्ठवीसेसु-मूलं, अउणतीसतीसेसु-अणवट्ठो, अतो परं पारंचियं / मीसाभिक्खसेवाए दसमवाराए, पारंचियं पावति। अण्णे पुण आयरिया सचित्तपुढवीकायस्य खणणा-भिक्खासेवं एवं गणयंति-अभिक्खणेणं अंगुल एकसिं खणतिव्ह, वितियवाराए-व्ह, ततियवाराए-दह, चउत्थवाराए-व्ह, एवं जाव चउवीसति वाराए-पारंचियं पावति / एवं मीसे वि वत्तीसवाराए--पारंचियं पावति। सीसो पुच्छति-कीस उवरि-चउरंगुलिया वुड्डी कता? अहेदुयंगुलिया? आयरिओ भण्णतिउदरिं तु अप्पजीवा, पुढवीसीतातवाणिलाभिहिता। चतुरंगुलपरिवुड्डी, तेणुवरि अहे दुअंगुलिया // 157 / / गाहा कंठा। अंगुलि त्ति दारं गतं। इयाणिं पमाणे त्ति दारं, तत्थ गाहाकलमत्तादद्दामल, चतु लहु दुगुणेण अहहिं सपदं / मीसंमि दसहिँ सपदं,होति पमाणं स पत्थारो॥१५८|| कलो-चणगो, तप्पमाणं सचित्तपुदविक्कायं गेण्हति चउलहुयं, उवरि कलमत्तातो जाव अद्दामलगप्पमाण एत्थ वि-चउलहुयं चेव / दुगुणेणं ति-अओ परं दुगुणा वुड्डी पयदृति, दो अद्दामलगप्पमाणं सचित्तपुढविकायं / गेण्हति चउगुरुयं, चउअदामलगप्पमाणं पुढवि-कायं गेहति-छल्लहुअं, अट्टऽद्दामलगप्पमाणं गेण्हति-छगुरुं, सोलस अद्दामलगप्पमाणं गेहतितस्सच्छेदो, वत्तीसद्दामलगप्पमाणं गेण्हति मूलं, चउसट्ठिअद्दामलगप्यमाणं गेण्हति अणवठ्ठो, अट्ठावीसुत्तरसयअद्दामलगप्पमाण गेण्हतिपारंचियं, एव अट्ठहिं वाराहिं सपयं पत्तो मीसंमि, दसहिं स-एयं होति, पमाणमिति-पमाणदारे, पत्थारो त्ति, अद्दामलगादिद्गुणाद्गुणेणंजाव - पंच-सयवारासुत्तरा एतेसुमासलहुगादिपारंचियावसाणा पच्छित्ता। एवं . दसहिंसपदं / एसेव अत्थो पुणो भण्णति। अन्याचार्यरचिता गाहा कलमत्तादद्दामल-लहुगादीसपदमट्ठवीसेणं। पंचेव वारसुत्तर, ऽभिक्खऽहहिं दसहि सपदं तु // 156 / / गाहा कंठा / णवरं अभिक्खऽद्यहि दसहिं सपदं तु एसा अभिक्ख सेवा गहिता, सचित्तपुढविकाते अभिक्खसेवाए अट्ठहिंसपदं, मीसे अभिक्खासेवाए दसहिं सपदं। पमाणे ति दारं गयं। इदाणिं गहणे त्ति दारं तं चिमंगहणे पक्खेवंमि य, एगमणेगेहिं होति चतुभंगो। जदि गहणा ततिमासा, एमेव य होति पक्खेव॥१६०॥ गहणं हत्थेण, पक्खेवो पुण मुहे भायणे वा,एतेसु य गहणपक्खे-वेसु चउभंगो, सो इमो-एगं गहणं, एगो पक्खेवो / एगं गहणं, अणेगे पक्खेवा, अणेगाणि गहणाणि,एगो पक्खेवो, अणेगाणि गहणाणि अणेगे पक्खेवा। एवं चउभंगेसुपूर्ववत् स्थितेषु पढमभंगे-दोमासलहू, सेसेहिं तिहिं भंगेहिं जत्तियंगहणा पक्खेवा ततिया मासलहू / एवं भायणपक्खेवे मासलहुं, मुहपक्वेवे पुण णियमा चउलहुं / गहणे त्ति दारं गये। इदाणिं करणे त्ति दारंपाउल्लादीकरणे, लहुगा लहुगो य होति अच्चित्ते। परितावणादि णेयं, अधिवविणासे यजं वण्णं / / 161 / / पाउल्लगो वा पुरिसपुत्तलगो, आदिसद्दाओ गोणादिरूवं करेति,एग करेति चउलहुअं, दो करेति-चउगुरुगं, तिहि छल्लहुअं, चउहि-छागुरुयं, पंचहिंछेदो, छहिं-मूलं, सत्तहि-अणवट्ठो अट्ठर्हि-चरिमं, (पारंची) मीसे वि एवं णवरं-मासलहुगादि, दसहि-चरिमं पावति / अचित्ते पुढविकाते पुत्तलगादि करेंति एत्थ वि असमाया-रिणिप्फण्णमासलहु, भवति / 'पारितावणातिणेयंति' वाउल्लयं करेंतस्स जा हत्थादिपरितावणा अणागाढादि भवति एत्थ पच्छित्तं अणागाढं परियावज्जति-दह, गाढं परियावज्जति–व्ह, परितावि-यस्स महादुक्खं भवति 6, महादुक्खातो मुच्छा उप्पजति, फातीए मुच्छाए किच्छपाणे जातो छेदो, किच्छेण ऊससिउमारद्धो मूलं, मारणंतियसमुग्धातेण समोहतो अणवट्ठो, कालगतो चरिमं / अहवा-पुत्तलगं परविणासाय दप्पेण करेति, तं मंतेण अभिमतेऊणं मम्मदेसे विंधेति, तस्स य परस्स परितावणादिदुक्खं भवति, पायच्छित्तं तहेव। 'अहिवविणासे य जं वण्णं ति अहिवो-राया, तस्स विणासो य करेति, तमि य विणासिते जुवरायमचादीहि णाए जंते रुसिया तस्स अण्णस्स वा संघस्स वा वहबंधमारणं भत्तपाणउवहिणि-- क्खमणं वा णिवारिस्संति। एवमण्णं ति भणितं भवति। गया पुढविकायस्स दप्पिया पडिसेवणा। इदाणिं पुढविकायस्स चेव कप्पिया भण्णति। तत्थिमा दारगाहाअद्धाण कन्जसंभम-सागरिय पडिपहे य फिडिएय। दीहादीय गिलाणे, ओमे जतणा य जा तत्थ // 162|| नव दारा,एते नवसु दारेसु जा तत्थ जयणा घडति सा तत्थ वत्तव्वा। तत्थ-अद्धाणे त्ति पढ़मंदारं। तमि य अद्धाणदारेससरक्खादि-हत्थदारा दस अववदिज्जति।
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________________ मूलगुणपडि० 348 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मूलगुणपडि० तत्थ पढमं ससरक्खादिहत्थे त्ति दारंजति तु मलामे गहणं, ससरक्खं कएहिं हत्थमत्तेहिं। तति वितिय पढमभंगे, एमेव य मट्टियालित्ते // 163 / / तत्थ पढमं ततियभंगेण,पच्छा वितिएण, ततो पढमभंगेण एसेवऽत्थो अतिदिट्ठो, 'एमेव य मट्टियालित्ते' त्ति हत्थे त्ति दारं अववदिया इदाणिं पंथे त्ति दारं अववतिजतिसागारतुरियमणभोगतो य अपमजणे तहिं सुद्धो। मीसपरंपरमादी,णिक्खित्तं जाव गेहंति॥१६५|| थंडिलाओ अण्णथंडिलं संकमंते सागारिय त्ति काउंपादेण पमज्जेज्जा, तुरंतो वा तेहिं गिलाणादिएहि कारणेहिं ण पमजेज्जा, अणाभोगओ वा ण पमज्जेज्जा, पमजतो सुद्धो, अप्पायच्छित्ती तहिंति अथंडिले असमायारीए वा पंथे त्ति दारंगतं। इदाणी णिक्खित्तं ति दारं अववदति-मीसपरंपर-- पश्चार्ट्स एत्थ जयणा, पढमं मीसपुढ-विक्कायपरंपरणिक्खित्तं गेण्हति आदिसघातो असति मीसएणं अणंतरेणं गेण्हति, असति सचित्तपरंपरेणं गेहति असति सचित्त-पुडविक्काये अणंतरणिक्खित्तं पि गेण्हइ / णिक्खित्तं ति दारं गतं। इदाणिं गमणे त्ति दारं अववतिञ्जति, पुव्वमचित्तेणगंतव्वं,तस्सासतिमीसे तेणं गम्मति तस्थिमा जयणागच्छंता तु दिवसतो, तलिया अवहेतुमग्गओ अभए। थंडिल्लासति खुणे, ठाणाति करेंति कत्तिं वा // 16 // गमणं दुहा-सत्थेण एगागिणो गच्छंति, दिवसतो तलिया उवहणेउ तो अवणेत्ता अणवाहणा गच्छंति,तस्स य सत्थस्स मग्गतो पिट्ठओ जति अभयं तो तलियाउ अवणेतु पिट्ठओ वचंति, सभए मज्झे वा पुरतो वाऽणुवाहणागच्छंति, जत्थ अथंडिले सत्थसण्णिवेसो तत्थिमा जतणाथंडिलस्स असति जं थामं सथिल्लजणेण खुण्णं मद्वियं,चउप्पएहिं वा मद्दियं तत्थ हाणं करेंति। आदिसद्दाओ निसीयणं तुयट्टणं भुंजणं वा, कत्ति त्ति छवडिया जति सव्वहा थंडिलं णत्थि तो तं कत्तियं पत्थरेउं ठाणाइ करेंति, कत्तिअभावे वा वास-कप्पादि पत्थरेउंट्ठाणाइ करेति, सच्चित्ते वि पुढविक्काए गच्छंत्ताणं एसेव जयणा भाणियव्या / गमणे त्ति दारं गतं। इदाणिं पप्पडंगुलदारा दो वि एगगाहाए अववइज्जंतिएमेव य पप्पडए, सभयागासेव चिलिमिणिनिमित्तं। खणणं अंगुलमादी, आहारट्ठाव ऽहे वलिया // 166|| जहा पुढविक्काए गमणादीया जयणा तहा पप्पडए वी अविसिट्ठा जयणा णायव्वा / पप्पडए त्ति दारं गतं। इदाणिं खणणदारं अववजति-अरण्णादिसु जत्थ भयमत्थि तत्थ वाडीए कज्जमाणीए खणेज्जा वि। अहवा-आगासे उण्हेण परिताविज्जमाणा मंडलिनिमित्तं दिवसओ चिलिमिणीणिमित्तं खणणं संभवति,तं च अंगुलमादी जावचउव्वीसं वत्तीसं वा बहुतरगाणि वा अहवा- | मूलपलंन्नणिमित्तं खणेजा। अहवा-आहारऽढावा खणणं संभवति, उक्तं च-"अपि कईमपिण्डानां, कुर्यात्कुक्षिं निरन्तरम्' सीसो भणति-उवरि अखणया चेव संभवति, किं अहेखणति। आयरियाह-वातातवमादिर्हि सोसियासरसा य अहे वलिया तेण अहे खणति। अंगुले त्ति दारं गयं। इदाणी पमाणग्गहणकरणदारा एगगाहाए अववइज्जंतिजावतिया उवउज्जति, पमाणगहणे व जाव पजत्तं / मंतेऊण य विंधति, पुत्तलमंमादि पडणीए // 167 / / जावतिया उवउज्जति तावतियं गेण्हति, पमाणमिति पमाणदारं गहितं। पमाणे त्ति दारं गयं। इदाणिं गहणदारं अववदिज्जति-अस्य विभाषागहणे य जाव पज्जत्तं ताव गिण्हति अणेगग्हणं अणेगपक्खेवं पि कुंजा अपज्जत्ते। गहणे त्ति दारं गये। इदाणी गहणवाउल्लकरणं अववतिजति--मंतेऊण गाहापश्चार्द्ध-जो साहू संघवेति तप्पडिणीतो तस्स पडिमा निम्माता णामंकिता कजति, सा मंतेणाभिमंतिऊणं ममदेसे विज्झति, ततो तस्स वेयणा भवति, मरति वा, एतेण कारणेणं पुत्तलगं पि पडिणीयमद्दणणि-मित्तं कजंति / डंडियवशीकरणमित्तं वा कज्जति। करणे त्ति दारं गयं। एवं ठाण-अद्धाणदारे-ससरक्खादिया सव्वे दारा अववादित्ता। अद्धाणे त्ति दारं गयं। इयाणिं कज्जसंभमा दो विदारा जुगवं वक्खाणिज्जंति असिवादियं कज भण्णति, अग्गिउदगचोरवोधिगादियं संभम भण्णति। एतेसुगाहाजह चेव य अद्धाणे, अलाभगहणं सरक्खमादीहिं। वधकजसंभमंमि वि, बितियपदे जतणजा करणं // 168|| जह अद्धाणदारे अलाभे सुद्धभत्तपाणस्स असथरंताण ससरक्खमादी दारा अववतिता,तहा कज्जसंभमद्दारेसु वि वितिय-पदं अववायपयं तं पत्तेय ससरक्खादिदारहिं जयणा कायव्या। जाव करणं करणंति-उल्लगकरणं / कजसंभवे ति दारं गयं। इदाणिं सागारि-पडिपह-फिडिय-दारा तिण्णि विएगगाहाए वक्खाणिज्जंतिपडिवत्तीय अकुसलो सागारिय घेत्तु तं परिहावे / दंडियमादिपडिपहे, उव्वत्तणमग्गफिडिता वा।।१६।। कोइ साहू भिक्खाए अवइण्णोतस्सयससरक्खमट्टिया लित्तेहिं हत्थेहि भिक्खा णिप्फेडिया, तओ स साहू चिंतयति एस एत्थ विजातितो विहू चिट्ठति / एस इमं पुच्छिस्सतिकीस ण गेण्हसि? अहं च पडिवत्तीए अकुसलो / पडिवत्ती प्रतिवचनं, जहा एतेण कारणेण वद्दति तहा अकुसलोउत्तरदानासमर्थेत्यर्थः / ततो एव सागारिय तमकप्पियं भिक्खं घेत्तुं पच्छा परिट्ठावेति, एवं करेंतो सुद्धो चेव। सेसा पदापायसो ण संभवंति। सागारिए त्ति दारं गयं। इदाणी पडिपहे त्ति दारं--पडिपहेण उंडितो एति, आसरहहत्थिमादिएहिं पडिणीओ वा पडिपहेण एति; ताहे उव्वत्तति पहाओ न पमजइ वा पादे एवं सचित्तपुढवीए वज्जेज्जा / पडिपहे त्ति दारं गयं। इदाणिं पिडिए ति दारं-मग्गतो वि पणट्ठो सचित्तमी
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________________ मूलगुणपडि० 346 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मूलगुणपडि० साए वा पुढवीए गच्छेला पप्पडएण वा गच्छेज्जा फिडिए त्ति दारं गतं। इदाणिं दीहाहि त्ति दारं तत्थ गाहा-- रक्खाभूसणहेळं, भक्खणहेउं व मट्टियागहणं / दीहाहि व खइमाए, जतणा एसा उणायव्वा / / 170 / / दीहाहिणा खइए मंतेणाभिमंतिऊण कडगबंधेण रक्खा कजति, मट्टियं वा मुहेबोजं डंको आऊ सिञ्चति। आलिप्पति वा विसाकरिसणणिमित्तं मट्टियं वा भक्खयति / सप्पडक्को मारित्त-कोट्टो विसेण भाविस्सति। दीहाहिणा खइए एसा जयणा। जया पुण सा मट्टिया घेप्पइ तइया इमाए जयणाएदले मुत्ते छगणे, रुक्खे सुसुणाय वंमिए पंथे। हलखणणकुडमादी, अंगुलखित्तादिलोणे य / / 171 / / पढमं ताव जो पदेसो अग्गिणा दड्डो तओ घेप्पति, तस्सासति गोमुत्तातिभाविया, ताव ततोमि पदेसे छगणछिप्पोल्लोवरिसो-वठ्ठाविया ततो घेप्पति, पिचुमंदकरीरवव्वूलादितुवररुक्खहेट्ठातो वा घेप्पति, "अलसो त्ति वा गंडूलगो त्ति वा सुसुणागो त्ति वा एगटुं।" ते णाहारेउ णीहारीया जा सा वा घेप्पति, तस्सासति वंमीए वम्मितो सप्पोतीतो वा घेप्पति, तस्सासतिपंथे जत्थवा जनपद-णिग्धातविद्धत्था ततोघेप्पति, तओ हलस्स चउयादिसुजालग्गा सावा घेप्पति,खणणं अलित्तं तस्स वाजा अग्गे लग्गा सा वा घेप्पति, णवेसुवा गामागारादिणिवेसेसु घराण कुड्डेसु घेप्पति, अंगुलमादी अहो खणति खित्तादिणिमित्तं गिलाणणिमित्तेण लोणं घेप्पति, एते दो गिलाणदारा, एतेसिं सत्थहताण असती वा कतो घेत्तव्वा अतो भण्णतिसत्थहयासति उवरिं,ओगेण्हति भूमितसयदट्ठाए। उवयारणिमित्तं वा, अह तं दूरं व खणितूणं / / 172 / / वट्टादि सत्थहताणं असतिते सचित्तपुढवीए उवरिल्ल गेहति, अखणित्ता खम्ममाणाए पुण भूमीए जे तसा मंडुक्कादि ते विराहि-जंति / अहवाभूमिट्ठियाणं तसाणं च दयाणिमित्तं अहो न खणति उवरिल्लं गेण्हति उवयारणिमित्तं, वा-अहवा, अणुवहता सती पुडवी तीए कर्ज परिमंतेऊण किंचि कर्ज कायव्यं, अओ एतेण कारणेण अंगुलं वा दो वा तिण्णि वा खणिऊण गेण्हेजा। अंगुले त्ति गत। खित्तादिति कोइ गच्छे खित्तचित्तो दित्तचित्तो जक्खाइट्ठो ओमायपत्ते वा होज्ज सो रक्खियव्वो इमेण विहिणा। पुव्वखतो वर असती, खित्ता दट्ठा खणिज वा अगडं। अतरंतपरियरऽट्ठा, हत्था दिजंति जा करणं / / 173 / / पुव्वखओजो भूयरो वरो तंमि सा ठविज्जति, असति पुव्वखयस्स भूवरो धरस्स खित्तादीण अट्ठाणिमित्ते ण खणेज्जा वा, अगडं, अगडो-कूवो, - एस आदिसद्दो वक्खाओ। दीहाहि त्ति गयं / अतरतपरियरट्ठा वा, अतरंतोगिलाणो,तंपरिचरंता तस्सट्टा अप्पणट्टा वा ससरक्खहत्थादिदारहिं जयंति सव्वेहिं दारेहिं जाव रणदारं। इदाणिं गिलाणे त्ति दारं। लोणं च गिलाणट्ठा, धिप्पति मंदग्गिणं अणिट्ठाए। दुल्लहलोणे देसे, जहिं व तं होति सचित्तं // 17 // गिलाणणिमित्तं वा लोणं घेप्पति, अगिलाणो वि जो मंदगी तस्सऽट्ठा वाघेप्पति तंपुण दुल्लभलोणे देसे घेप्पति, तत्थदुल्लभलोणे देसे उवखडिजमाणे लोणं ण छुभति उवरि लोणं दिज्जति, तेण तत्थमंदग्गी गेण्हति, तं पुण गेण्हमाणो जत्थ सञ्चित्तं भवति तत्थ ण गेण्हति, तं सचित्तवाणं परिहरति। इमा जयणा घेत्तब्वेसीतं पउरिंधणता, अचेलकणिरोधभत्तघरवासे। सुत्तत्थजाणएणं, अप्पाबहुयं तु णायट्वे / / 17 / / जमि देसे सीयं पउरंजहा उत्तरावहे, तत्थजे मंदपाउरणा तेपउरिधणेहि अग्गिं करंति, तमि उव्वरगेजलोणं तंतावधूमादीहिं फासुतीभूतंगेण्हति। गाहापुव्वद्धत्थो सव्वो एत्थभावेयव्यो। अहवा-सीतेण जंघत्थंतंघेप्पति, धुममाइणा वा पउरिंधणेण जं मीसं तं घेप्पति, अचेलगणिरोहे पुव्ववक्खाणं भत्तघरए वा जं ठियं तं घेप्पति, एतेसिं असति अणिव्यण्णं पि घेप्पति, सच्चित्तं तं पुण सुत्तत्थ-जाणएण अप्पाबहुयं णाऊण घेत्तव्यं, किं पुण अप्पाबहुयं?-इमं जइ तं लोणं ण गेण्हति तो गेलण्णं भवति, गेलण्णे य बहुतरा संजम--विराहणा इतरहा न भवति। गेलण्णे त्ति दारं गयं। इदाणिं ओमे त्ति दारंओमे विगम्ममाणे, अद्धाणे जतण होति सम्वेव। अत्थंता व अलाभे, पुत्तुलभिचारकाउंटे // 176|| ओमोदरियाए अण्णविसयंतं सव्वं जा तत्थ जयणा अद्धाणदारे भणिया, सव्वेव ओमोदरियाए गम्ममाणे जयणा असेसा दट्ठव्वा / अत्यंतागिलाणादिपडिबंधेण अण्णविसयं अगच्छमाणा, अलाभे-भत्तपाणस्स, पुत्तुल्लगा-वाउलगा आउंटेति वाउल्लगाणं विजं साहित्ता किंथि इडिमंतं आउंटावेंति सो भत्तपाणं दवाविञ्जति / गया पुढविकायस्स कप्पिया पडिसेवणा इदाणिं आउकायस्स दप्पिया भण्णति। तत्थिमा दारगाहाससिणिद्धमादिसिण्हो, दुपयगमणे य धोव्वणे णावा। पमणे य गहणकरणे, णिक्खित्ते सेवती जं वा॥१७७।। एते दस दारा, सिहोदए सुगमणसद्दो पत्तेयं सेवती जं वत्ति-एते सेअंतभावि दस दारं, तत्थ ससिणिद्धे त्ति दारं-आदिसद्दाओ उदउल्लपुरपच्छकम्मा गहिया। सभेयससिणिद्धदारस्स णिक्खित्तदारस्स य सेवती जवत्ति। एतेसिं तिण्ह विजुगवं परिछत्तं भण्णतिपंचादीससणिद्धे, उदउल्ले लहुय मासियं मीसे। पुरकम्म पच्छकंमे, लहुगा आवजती जं वा / / 178|| पंच त्ति-पणगं तं ससणिः भवति, इमेण भंगविकप्पेण ससिणिद्धे हत्थे, ससिणि मत्ते, चउभंगो / पढमे-दो पणंगा, एक्केवं दोसु चरिमो सुद्धो, आदिशब्दो सस्निग्धे एव योज्यः उदउल्लादीनामाद्यत्वात्, णिक्खित्तं चउविह-सचित्ते अणतरपरंपरे,मीसे-अणंतरपरंपरे। एतेचउरोएत्थ मीसेपरं
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________________ मूलगुणपडि० 350 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मूलगुणपडि० परे णिक्खित्ते पणगं, मीसाणंतरे मासियं, मीसे त्ति गतं / सञ्चित्त परंपरे ___णावातरिमे उदगे चउरो णावप्पगारा भवंति, तत्थ एगो समुद्दे भवति, मासियं चेव, सच्चित्ताणंतरे चउलहुअं,उदउल्ले चउभंगो, पढमे भंगे दो जहा-तेयालगपट्टणाओवारवई गम्मइ। तिण्णिय समुद्दा-तिरित्ते जले, मासलहु, दोसु एकेक, चरिमो सुद्धो। पुरकम्मपच्छकम्मे लहुगा कंठं। / ता य इमा 'ओयाणे' ति अनुश्रोतोगामिनी, पानीयानुगामिनीत्यर्थः / 'आवज्जती जंव' त्ति-एक्केके दारे योञ्जमिदं वाक्यं। आवजति-पावति, 'उज्जाणे' ति-प्रतिलोमगामिनीत्यर्थः। तिरिच्छसंतारिमी नाम-कूलाजं संघट्टणादिकं सेसकाते तदायव्वं / कूले ऋजु गच्छतीत्यर्थः। इदाणिं 'सिण्ह' ति दार, 'दप्पं दये' ति दारं / तत्थ ___ एवमवि चउव्विहे गावातारिमे इमं पायच्छित्तंगाउयदुगुणं बत्ती-सं जोयणाई चरमपदं। तिरियोयाणुज्जाणे, समुद्दजाणे य चेवणावाए। चत्तारि छच लहुगुरु, छेदो मुलं तह दुगं च // 176 / चतुलहुगा अंतगुरू, जोयणअद्धद्ध जा सपदं // 15 // सचित्तेण उदगेण गाउय गच्छति, दो गाउया जोयणं, दो जोयणा चउरो | तिरिओयाणुजाणे समुद्दे णावा य चउसु वि चउलहुगा। अंतगुरु त्तिअट्ट सोलस बत्तीसं जोयणा पच्छवेण जहा-सख चउलहु-गादी समुद्दगामिणीए दोहिं वि तवकालेहिं गुरुगा, उज्जाणीए तवेण ओयाणीए पच्छित्ता / दए ति दार गये। कालेण तिरियाणीए दोहिं विलहुं / जोयणअद्धद्ध जा सपदं ति एतेसिं इदाणिं 'सिण्ह' ति दार भण्णति चउण्हंणावप्पगाराण एगतमेणावि अद्धजोयणं गच्छतिचउलहुयं। अतो सिण्हा मीसग हेहो-वरिं च कोसाति अट्ट वीससतं। परं अद्धजोयणवड्डीए जोयणे-चउगुरुयं, दोवड्डे-व्ह, दोसु-व्ह, - मुम्मुदयमंतलिक्खे, चतुलहुगादीउ बत्तीसा॥१८०।। अड्डाइजेसुछेदो, तिसु-मूलं, तिसु-सद्धेसु अणवठ्ठप्पो, चउसु-पारंची, सिह त्ति वाउस त्ति वा एगट्ठ,सा हेह्रतोउवरिच।ताए दुविहाएमीसोदएण अभिक्खसेवाए अट्ठाहं सपदं पारंचियं ति बुत्तं भवइ। य गाउयं गच्छमाणस्स मासलहुं ; दोसु गाउएसु-मासगुरुयं, जोयणे णावोदगतारिमे पगते अण्णे वि उदगतरणप्पगारा भण्णंतिचउलहु; दोसु-व्ह, चउसु-व्ह, अट्ठसु-व्ह, सोलससु छेदो, बत्तीसाए- संघट्टे मासादी, लहुगाओ जे य लेवणे उवरिं। मूलं, चउसट्ठीए-अणवट्ठो, वीससते- पारंची / सिण्ह त्ति दारं गयं / कुंभे दतिए तुंवे, उडुवे पण्णी य एमेव / / 18 / / अविसिट्ठमुदगदार भणिय, तट्विसे-सप्पदरिसणत्थं पच्छद्धं / भण्णति णिक्कारणे संघट्टण गच्छतिमासलहुयं, आदिसद्दातो अभिक्ख-सेवाए -भूमीए उदगं भूम्युदग नद्यादिषु, अंतलिक्खे उदगं अंतलिक्खोदग दसहि सपद।अह लेवेणगच्छति तोचउलहुयं। अभिक्ख-सेवातो अट्ठर्हि वासोदयेत्यर्थः, तेण गच्छ-माणस्स चउलहुगादीओ बत्तीसा, गतार्थम्। वाराहिं सपदं / अह लेवोवरि गच्छति-व्ह, अट्ठहिं सपयं। कुंभे त्ति-कुभ इदाणिं सचित्तोदग-सिण्ह-मीसोदगाणं एव, अहवा-चउकट्टि काउंकोणे कोणे घडओ वज्झति, तत्थ अबलंबिअं अभिक्खसेवा भण्णति। दारगाहा आरुभियं वा संतरणं कज्जति / दतिए त वायपुण्णो दतितो, तेण वा सचित्ते लहुगादी,अभिक्खगमणम्मि अट्ठहिं सपदं / संतरणं कजति तुंबे त्ति-मच्छ्यि -जालसरिसंजाल काऊण अलाबुगाण सिण्हामीसे वुदए, मासादी दसहि चरिमं तु // 181 / / भरिजति, तं मि आरुहेहिं संतरणं कजति। उडुवे त्ति-कोट्टि वा तेण वा सचित्तोदगेण सह गमणे चउलहुयं, वितियवाराए चउगुरुग; एव जाव संतरणं कज्जइ / पण्णि त्ति-पण्णिमया महंता भारगा वज्जति ते जमला अट्टमवाराए-पारंचियं; सिण्हामीसुदगे य पढमवाराए-मासलहु, बंधेऊण तेण अवलबियं संतरणं कजति। एमेव त्ति-जहा दगलेवादीसु बितियवाराए-मासगुरु, एवं जाव दसमवाराए-पारंचियं / सिण्हुदग त्ति चउल-हुयं, अभिक्खसेवाए य अट्ठहिं सपदं, एमेव कुंभादिसु दट्ठव्वं / दारं गयं। णाव त्ति दारं गतं। इदाणिं 'धुवणे' त्ति दारं ___ इयाणिं पमाणे त्ति दारंसचित्तेण उ धुवणे, मुहणंतगमादि एव चतुलहुया। कलमामहामलगा, करगादी सपदमट्ठवीसेणं / अचित्ते धुवणंमि वि, अकारणे उवधिणिप्फण्णं // 182 / / एमेव य दवउदए, बिंदुमातंजली वड्डी॥१८६।। सचित्तेण उदगेण जइ वि मुहणंतगं धुवति तहावि चउलहुयं, अह कलमो-चणगो भण्णति, तप्पमाणादि जाव अद्दामलगप्पमाणं गेण्हति, अचित्तेण उदगेण अकारणे धुवतितओ उवहिणिप्फण्णं भवति। जहण्णे एत्थ चउलहुयं। कह पुण कठिणोदगसंभवो भवति? भण्णइ-करगादीअकारणे-पणगं, मज्झिमे मासलहु, उक्कोसे चउलहुं / सचित्तेणाभिक्खं उदगपासाणा वासे पडति-ते करगा भण्णंति, आदिसदाओ हिम वा धोवणे अहिंसपदं, मीसेण दसहिंसपद, अचित्तेण विणिक्कारणे अभिक्खं कढिणं / 'सपदमट्ठवीसेणं ति' अद्दामलगादारम्भ दुगुणा दुगुणेण जाव धोवणे उवहिणिप्फण्णं, सहाणाओ चरिमंणेयव्यं / धोवणे त्ति दारं गयं। अट्ठावीसं सतं अद्दामलगप्पमाणाणं एत्थ चउलहुगादी सपयं पावति। इदाणं 'णाव' त्ति दारं एमेव य दवउदगे दवोदकेत्यर्थः। कलमस्थाने विंदुईष्टव्यः, आमिलणावातरिमे चतुरो, एग समुहंहि तिण्णि य जलंमि। कस्थाने अञ्जलिर्द्रष्टव्यः। वड्डि त्ति-दुगुणा दुगुणा वड्डी जाव अट्ठओयाणे उज्जाणे, तिरिच्छसंतारिमे चेव // 183|| वीससतं अंजलीणं चउलहुगादि पच्छित्तं, तहेव जहा कढिणोदके मी
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________________ मूलगुणपडि० 351 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मूलगुणपडि० सोदकमेवमेव आमलकांजलीप्रमाणं, णवरं दुगुणा दुगुणेण तावणेयध्वं जावपंच सता वारसुत्तरा पच्छित्तं मासलहुगादि। अभिक्खसेवाए दसहिं सपदं / पमाणे ति दारं गये। इदाणिं गहणे ति दारंजति गहणे तति मासा, पक्खेवे चेव होति चतुमंगो। कुटुंभगादिकरणा उ, लहुगा तसरायगहणाती॥१८७|| गहणपक्खेवेसु चउभंगो कायव्वो, एक्के गहणपक्खेवे-व्ह / जत्तिया गहणपक्खेवा पत्तेयं तत्तिया मासलहुगा भवंति; गहणे ति दारं गतं / / इदाणिं करणे ति दारं / कुटुंभगादिकरणे य त्ति कुटुंभगो-जलमंडुओ भण्णति, आदिसदाओ मुखण्णतरं वा सदं करेति। कुटुंभगादि सचित्तोदके करेंतस्स-चउलहुयं, अभिक्खसेवाएअट्ठहिं-सपदं, मीसाउछाए कुन्दुभगादि करेंतस्स मासलहु, अभिक्खसेवाए दसहिं सपदं / कुदुंभगादिवा करेंतो पूयरगादि तस विराहेजा, तत्थ तसकायणिप्फण्णं / रायगहणादि ति सुंदरं कुंभग करेसि त्ति मंपि सिक्खावेहि त्ति गेण्हेजा। आदिग्गहणातो उन्निक्खमावेउं पासे धरेजा। करणे त्ति दारं गयं / गता आउकायस्स दप्पिया पडिसेवणा। इदाणिं आउकायस्स कप्पिया पडिसेवणा भण्णतिअद्धाणकजसंभम-सागारिय-पडिपहे य फिडिते य। दीहादी य गिलाणे, ओमे जतणा य जाजत्थ॥१५८|| एते अद्धाणादी नवाऽववायदारा / एतेसु ससणिद्धादी दस वि दारा जहासंभवं अववदियव्या। एत्थ पुण अद्धाणदारे इमे द्वारा पुढविसरिसा-- ससिणिद्धे उदउल्ले, पुरपच्छामाणगहणणिक्खित्ते। गमणे य सहिय जाव, तहेव आउंमि बितियपदं॥१८६ कंठां। गमणदारस्स जइ वि पुढवीए अतिदेसो कतो तहावि शेषप्रतिपादनार्थमुच्यतेउवरिमसिण्हाकप्पे, हेहिलीए उतलियमवणेत्ता। एमेव दुविधमुदए, धुवणमगीएसु गुलियादि।।१६।। उवरिभसिण्हाए पडतीए वासाकप्पे सुपाउयं काउंगंतव्यं, अहो सिण्हाए पुण तलियाओ अवणे ता गंतव्वं / एसा कारणे जयणा। जहा-सिण्हाए विहि वुत्तो एमेव यदुविहमुदए वि-भोमे अंतलिक्खे य। गमणे ति दारंगतं // इदाणिं धोवणे त्ति दारं अववतिजति-धुवणमगीएसु गुलियादीगिलाणादिकारणे जत्थ सचित्तोदगेण धुवणं कायव्वं तत्थिमा जयणाअगीयत्थ त्ति अपरिणाममा, अतिपरिणामगा य। तेसिं पच्चयणिमित्तं अतिप्पसंगणिवारणत्थं च गुलियाउ धुविउमाणिज्जंति / दगंगुलिया पुण यको भण्णति। उदगम्मि भावियपोत्ता वा आदिसद्दाओ छगणादिघेत्तव्यं / धुवणे ति दारं गयं / नि० चू०१ उ०। (नदीसंतरणविषयः ‘णईसंतार' शब्दे चतुर्थ-भागे 1738 पृष्ठेगतः) इमं जयणमतिक्कतोअसति तप्परिरयस्स, दुविधा तेणा य सावए दुविधे। संघट्टणलेवुवरि, दुजोयणा हाणि जाणावा ||19|| जत्थ णावातारिमं ततोपदेसाओ दोहिंजोयणेहिंगओथावपहेण गम्मइ, तंपुण थलपहं इमंणातिकतो परा वा चरगो वा संडेवगो वा तेण दुजोयणिएण परिरएण गच्छतु। एवमाइणा चोदएणगच्छइ। अह असइपरिरयस्स जतोसइवा इमेहिं दोसेहिं जुत्तोपरिरओ-दुविहा तेण त्ति-सरीरोवकरणतेणा, सावते दुविह त्ति-सारण, सीहा वा लेवो तेण वा थलपहेण भिक्खं ण लब्भति वसही वा,तो दिवड्डजोयणसंघट्टेण गच्छउ मा य णावाए। अह तत्थ वि एते चेव दोसा तो जोयणे लेवेण गच्छतु मा य णावाए / अह णऽस्थि लेवो सति वा दोसजुत्तो तो अद्धजोयणे लेवोवरिएण गच्छउ माय णावाए। अह तं पिणऽत्थि दोसलं वा तदा णावाए गच्छतु। एवं दुजोयणहाणीए णावं पत्तो। संघट्टलेवउवरीण य वक्खाणं कजतिसंघट्टासंघट्टो, णामीलेवोपरेण लेवुवरि। एगो जले थलेगो,णिप्पगलणतीरमुस्सग्गो।।१६५|| पुव्वद्ध कंठ। संघट्टेगमणजतणा भण्णति-एणं पायंजले काउंएगंथले, थलमिहागासं भण्णति सामाइगसण्णाए , एतेण विहाणेण वक्खमाणेण यजयणामुत्तिपणोजया भवति तदा णिप्पगलिते उदगे तीरे इरियावहियाए उस्सग्गं करेति। संघट्टजयणा भणिया। इयाणि लेवलेवोवरि च भण्णति जयणाणिज्मय गारत्थीणं, तु मग्गतो चोलपट्टमुस्सारे। सभए अद्धद्धे वा, उत्तिण्णेसुंघणं पढें // 196|| णिभयं-जत्थ, चोरभयंणऽस्थितत्थ गारत्थीणं तु-मग्गतो गारत्थीगिहत्था, तेषु जलमवतिण्णेसु मग्गतो पच्छतो जलं उयरइ त्ति भणियं होइ / पच्छितो य ठिता जहा जहा जलमवतरंति तहा तहा उवरुवरि चोलपट्टमुस्सारैति, मा बहु उदगघातो भविस्सति / जत्थ पुण सभयं चोराकुलेत्यर्थः / अद्धद्धे जत्थघणे तितत्था उत्तिण्णेसुं तिजलं अद्धेसु गिहत्थेसु अवतिण्णेसु घणं भायणं पट्टे चोलपट्टे बंधिउं मध्ये अवतर-- तीत्यर्थः। जत्थसंतरणे चोलपट्टो उदउल्लेज्ज तत्थ इमा जतणादगतीरे ता चिट्टे, णिप्पगलो जाव चोलपट्टो तु / सभए पलंबमाणं, गच्छति कारण अफुसंतो॥१९७|| दगं-पानीयं, तीरं-पर्यंतं, तत्थ ताव चिट्ठजाव णिप्पगलो चोलपट्टो। तुसद्दो निर्भयाऽवधारणे। अह पुण सभयं तो हत्थेण गेहेउं पलंबमाणं चोपलपट्टयं गच्छति। डंडगेवा काउंगच्छति। ण यतंपलंबमाणं दंडाऽग्रे वावस्थितं कायेन स्पृशतीत्यर्थः / एसा गिहिसहियम्मि दगुत्तरणे जयणा भणिया। गिहिअसती पुण इमा जयणाअसति गिहिणालियाए, आणक्खेउं पुणो विपरियरणं। एगा भोगपडिग्गह, केई सव्वाणि ण य पुरतो॥१९८|| असति सथिल्ले-य निहत्थाणं जतो पाडिवहिया उत्तरमाणा दीसंति तओ उत्तरियव्वा असतिवातेसिंणालियाते, आणक्खेउपुणोपुणोपडियरणंआयप्पमाणातो चउगुलाहिगो दंडोणालिया भण्णति, तीए आणक्खेउं उवधेतूण
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________________ मूलगुणपडि० 352- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मूलगुणपडि० परतीरं गंतु आरपारमागमणं पडिउत्तरणं / णालियाए वा असति तरणं प्रति कयकरणे जो सोतं आणक्खेउं जया अग्गतो भवति तदा गंतव्वं / / एवं जंघातारिमे विही भणिओ।इमा पुण अथाहे जयणा तं पढम णावाए भण्णति। एगा भोगपडिग्गहे ति- एगोभोगो एगोययोगो भण्णति एगट्टबंधणे त्ति भणियं भवति, होति तं च मत्तगोवकरणाणं एगह्र / पडिग्गहो त्तिपडिग्गहो सिक्कगे अहोमुहं काउंपुढो कजति तो भेदात्मरक्षणार्थम्। केय त्ति-केचिदाचार्या एवं वक्खाणयंति-सव्वाणि त्ति-माउगोपकरणं पडिग्गहो य पादोप-करणमसेसं पडिलेहिय, एताभ्यामादेशद्वयाभ्यामन्यतमेनोपकरणं कृत्वा सीवरियं काउंपादे य पमजिऊण णावारुहणं कायव्वं / तं च ण य पुरउ त्ति-पुरस्तादग्रतः प्रवर्तनदोषभयात् नो, अनवस्थान-दोषभयान्न पिट्ठओ विण डुहेज मा ताव विमुच्चेज अतिविकृष्टजलाध्यानभयाद्रा, तम्हा मज्झे रहेजा। तं चिमे ठाणे मुत्तुंठाणतियं मोत्तूणं, उवउत्तो ठाति तत्थऽणावाहे। दतिउडुव तुंबेसु वि, एस विही होति संतरणे ||16|| देवयवाणं कूपट्ठाणं निजामगट्ठाणं। अहवा-पुरतोमज्झे पिट्ठओ, पुरतोदेवयट्ठाणं, मज्झे-सिंचणट्ठाणं, पच्छा-तोरणट्ठाणं एते वज्जिया / तत्थरुणावाए-अणावाहे ठाणे ठायति ! उवउत्तो त्ति-णमोक्कारपरायणो सागारपञ्चक्खाणं पचक्खाउ य ठायति / जया पुण पत्तो तीरं तदा णो पुरतो उत्तेरजा, मासो महोदगे णिव्वुड्डेजा। णय पिट्ठतोमा सो अवसारेज्जा णावा / एतद्दोसपरिहरणत्थं मज्झे उयरियव्वं / तत्थ य उत्तिण्णेण इरियावहियाए उस्सग्गो कायव्वो जति विण संघट्टति दगं। दत्तियउडुवतुं बेसु वि एस विही होति संतरणे / णवरं ठाणतियं ति मोत्तुं, णावत्ति दारं गयं। अधुना पमाणदारं-एत्थ पुण इमं जतणमतिकतो सचित्तोदगाहणं करेति-- किंजियआयामासति, संसद्धसिणोदएसुवा असती। फासुगमुदगं सजढं, तस्सासति तसेहिजं रहियं // 200 / / पुव्वं ताव कंजियं गेण्हति, कंजियं-देसीभासाए आरनालं भण्णति / आयाम-अवसामण्णं, एतेसिं असतीए संसद्बुसिणोदगं गेण्हति, गवंगरसभायणं णिक्केयणं जं तं संसद्धसुणोदगं भण्णति / अहवा-- कोसलविसयादिसु सल्लोयणाविणसेण भया सीतोदगे छुडभति, तंमि य ओदणे भुणे तं अंबीभूतंजइअतसागतो घेप्पति एतंवा ससद्धसिणोदगं। एतेसिं असतीएजं वप्पादिसु फासुगमुदगंतं सजढंघेप्पति। तस्सासति त्ति-फासुयमुदगस्स असति फासुगं धम्मकरकादिपरिपूयं घेप्पति / सव्वहा फासुगासति सचित्तं। जं तसेहि रहियं ति। फासुयमुदगं तिजं वुत्तं एयस्स इमा वक्खातुवरे फले य पत्ते, रुक्खसिलातुप्पमहणादीसु। पासंबणे पवाए, आतवतत्तेऽवहे अवहे // 201 / / तुवरसद्दो रुक्खसद्दे सवज्झति,तुवरवृक्ष इत्यर्थः, सो य तुवररुक्खो समूलपत्तपुप्फफलो, जंमि उदगे पडित्तंमितेण परिणामियं तं घेप्पति, / अहवा-तुवरफला-हरीतक्यादयः, तुवरपत्ता-पलासपत्तादयः। रुक्खा त्ति-रुक्खे कोटेरे कटुफलपत्तातिपरिणामियं घेप्पति। सिल ति कचिच्छिलायांअण्णतररुक्खछल्ली कुट्टितातंमिजं संघट्टियमुदगंतं परिणयं घेप्पति। जत्थ वा सिलाए तुप्पपरिणामियं उदगं तं घेप्पति। तुप्पो पुण मयकले-ववरसा भण्णति। मद्दणादीसुत्ति-हस्त्यादिमर्दितं आदिशब्दो हस्त्यादिक्रमप्रदर्शने। एएसिं तुवरादिफासुगोदगाणं असति, तोपच्छद्धंआयवतत्ते अवहे वहे पासंवणे पवाते।एष क्रमः। उक्तमस्तुबंधानुलोम्यात्पुव्वं आयवतत्ते अप्पोदगं अवहंघेप्पति असइ आयवतत्तं वहं धिप्पति, दोण्ह वि असती कुंडतडागादिपस्सवणोदगं घेप्पति, अण्णोण्णपुढविसंकमपरिणयत्तासव्वावपातस्सासतिधारोदगंधारापातविपन्नत्वात्। अत्र सत्त्वाच ततःशेषोदगं। __ मद्दणादिसु त्ति जं पयं अस्य व्याख्याजड्डे खग्गे महिसे, गोणे गवए य सूयरमिगे य। ओप्परवाडीगहणे, चाउम्मासा भवे लहुया॥२०२।। जड्डो-हस्ती, खगो-एगसिंगी अरण्णे भवति, महिसे-गोणे प्रसिद्धौ, गवये, प्रसिद्धः, सूयरमृगौ प्रसिद्धौ। जड्डादियाण उक्कम-गहणे चउमासा भवं लहुया, अहवा--मद्दणाइयाणं वा उक्कमगहणे भवे लहुया, एसा पमाणदारे जयणा भणिया / एत्थ पुण मीसे सचित्तोदगाणं गहणे पत्ते जावतियं उववजति तत्तियमेत्तस्स पढम-भंगे गहणं, असंथरणे जाव अणेगग्गहणं अणेगपखेवं पि करेजा। अद्धाणे त्ति दारं गतं। __ इदाणिं सेसा कज्जादी दारा अववदिज्जतिजह चेव य पुढवीए, कज्जे संभमसगारफिडिए य / ओमम्मि वितह चेव तु, पडिणीया उट्टणं काउं॥२०३|| जहा पुढवीए तहा इमे वि दारा कज्जे संममे सागारिते फिडिते याचसद्दा पडिप्पहे य। ओमंमि वि तह चेव तु तुसद्दो अवसेसावधारणार्थे / इमं पुण, 'पडिणीया उट्टणं काउं' ति अद्धाणाति जहासंभवं जोएज्जा / पडिणीया उट्टणं काउं कामोपकरणं पि करेजा। सत्त दारगाहा। ___ इदाणिं दीहादिगिलाणे त्ति दाराविसकुंभे से मंते, अगदोसधघंसणादिदीहादी। फासुगदगस्सअसती, गिलाणकजह इतरं पि।।२०४|| विसकुंभो त्ति-लता भण्णति, तत्थ से किं णिमित्तं उदगं घेतव्वं / मंते त्ति-आयमिउंमतहति, अगओसहाणं वा पीसणणिमित्तं, विसघायमूलियाणं वाघेसणहेउं,आदिसद्दातो विषोपयुक्तेतर भुक्ते वा एवमेव। दीहादि त्ति दारं गतं ! इदाणिं गिलाणे ति–फासुगोदगस्स असति, गिलाणकार्ये इतरं पि सचित्तेत्यर्थः / आउक्कायस्स कप्पिया पडिसेवणा गता। इयाणिं तेउक्कायस्स दप्पिया पडिसेवणा भण्णासागणियक्खेत्ते य, संघट्टण तावणा य णिध्वावं / तत्तो य इंधणे सं-कामयकरणं व जणणं व / / 20 / / सागणिए त्ति दारं अस्य सिद्धसेनाचार्यो व्याख्यां करोतिसव्वसप्तव्द रतणिओ, जोती दीवो य होति एक्केको।
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________________ मूलगुणपडि० 353 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मूलगुणपडि० दीवमसव्वरतणिए, लहुगो सेसेसु चउलहुगा / / 206|| एकेको त्ति--जोती-उद्दित्तं, दीवो-प्रदीपः, ज्योतिःसर्वरात्रं झियायमाणो सार्वरात्रिक, इतरस्त्वसार्वरात्रिकः। प्रदीपोऽप्येवमेव द्रष्टव्यः / एतेहिं चउण्ह विकप्पाण अण्णतरेणाविजा जुत्ता वसही तीए ठायमाणाणिमं पच्छित्त-दीवे असव्वरयणिए लहुगो / सेसेसु ति सव्वरातीए पदीवे दुविह-जोइंमि य-चउलहुगा। इमा पुण सागणियणिक्खित्तदाराणं दोण्ह वि भद्दवा हुसामिकता प्रायश्चित्तव्याख्यानगाथापंचादी णिक्खित्ते, असव्वराति लहुमासियं मीसे। लहुगा य सवरातिय, जंवा आवज्जती जत्थ।।२०७।। पंच त्ति-पणगं तं आदि काउं जत्थ जं संभवति प्रायच्छित्तं तं तत्थ दायव्यं / णिक्खित्ते त्ति-सचित्तपरंपरणिक्खित्तेअसव्वराईए य पदीवेमासलहुगं / अहवा-पंचादीणिक्खित्ते त्ति-आदिणिक्खित्ते-पणगं, मिस्सागणिपरंपरणिक्खित्तेत्यर्थः, कथं पुनराधं द्वितीयपदे प्राप्ते पूर्वं तेन ग्रहणमिति करेजा-कृत्वा मासियं / मीसि त्ति मीसाणंतरगणिणिक्खित्ते मासलहुयं, लहुगा य सव्व-राइए त्ति-सव्वरातीए पदीवे दुविहजोयंमिचउलहुगा। चशब्दात्स-चित्ताणतरणिक्खित्ते या जंवा आवज्जती जत्थ त्ति-एयं सव्वदा-राणं सामण्णपयं, जं संघट्टणादिक आयविराहणं वा आयविराह-णाणिप्फण्णं वा, तसकायणिप्फण्णं वा, आवज्जतिप्राप्नोति, जत्थत्ति सागणियादिसु दारेसुजहासंभवंयोज्जमिति वाक्यशेषः। सागणियणिक्खिक्ते ति दारा गता। इयाणिं संघट्टणे त्ति दारं, एयस्स इमा भद्दबाहुसामिकता वक्खाणगाहाउवकरणे पहिलेहा, पमजणाऽऽवासपोरिसिमणे य। णिक्खमणे य पवेसे, आवडणे चेव पडणे य॥२०८|| उवकरणे पडिलेह त्ति पदं, एवं–'पमजणा' आवासगपोरिसिमणे य निक्खमणे य पवेसे आवडणे चेव पडणे य एतावंति पदाणि, एतेषां सिद्धसेनाचार्यः व्याख्यां करोतिपेह पमञ्जण वासय, अग्गी ताणिऽकुव्वतो जा हाणी। पोरिसिभंगमभंजण-जोई होति मण्णेतु रतिमरती / / 20 / / पेह त्ति-उवकरणे, पडिलेहा गहिता, पमज्जणे त्ति-वसहिपमन्त्रणा गहिता, वासय ति आवासगदारं गहितं, अग्गि त्ति-'एताणि पेहादीणि करेंतस्स अग्गी विराहिज्जति' त्तिवक्कसेसं।जोतियाएउवकरणपडिलेहेति मासलहुअं। अह अगणीए छेदणगाणि वडति तो चउलहुयं। अह अगणिविराहणाभया पेहादीणि ण करेंति, ताणि अकुव्वतो जा परिहाणि त्तितमावजंते / उवकरणपडिलेहणपरिहाणीए असमायारिणिप्फण्णंमासलहुं, उवहिणिप्फण्णं वा वसहिं ण पमजंति, अइगणिता वा ण पमजंति-मासलहुं। अह पमजंति तहावि-मासलहुँ। अपमजिते छगणगेहि अगणिकाओ विराहिजति तो-चउलहुयं / पोरिसि त्ति दारं-'पोरिसि- | भंगमभंजणजोती, व्याख्या पदं-सुत्तपोरिसि भजति-मासलहुं, अत्थपोरिसिंण करेति-मासलहुगुरुं, सुत्तं णासेति व्ह, अत्थं णासेति-व्ह, अभंगे पुण जोती विराहिज्जति / इदाणिं मण्णेतु त्ति दारं-'होइ मण्णेतु रतिमरती वा, व्याख्यानपदं सजोतिवसहीए जति रती होज सुहं अत्थिज्जति त्ति रागेणेत्यर्थः तो-चउगुरुयं। अह अरति मण्णति-उज्जोते तो चउलहुये। आवस्सगपरिहाणी पुण इमाजइ उस्सग्गे ण कुणति, तति मासा सव्वकरण लहुगा य। वंदणथुती अकरणे, मासा संडासगादिथुईसु य // 210 / / 'जति उस्सग्गे ण करेति तइ मासा' कंठं, सव्वावस्सगस्स अकरणेचउलहुयं, अह करेइ तो जत्तिया उस्सग्गा करेइ तत्तिया चउलहुया, सव्वम्मि चउलहुयं चेव / जत्तिया ण देति वंदणए थुतीओ व्ह तत्तिया मासलहुया भवंति, अह करेंति तं चेव य-मासलहूं, संडासगपमज्जणेअपमज्जणे वि-मासो। णिक्खमणे पर्वसिते त्ति दो दारा इमा व्याख्याआवस्सिया णिसीहिय-पमजआसज अकरणे इमंतु। पणगं लहु आवडणे, पडणे चउलहुग जं वण्णं // 211 / / सचित्तमीसअगणी,णिक्खित्ते संतणंतरे चेव। सोधी जह पुढवीता, वणदारस्सिमा वक्खा // 212|| णिक्खमंतो आवस्सियं ण करेति, पविसंतो णिसीहियं ण करेति, ता शिंतो वा ण पमज्जति, आसज्जं वा ण करेति एतेसिमं पायच्छित्तं-- आवसिगातिसुजहासंखेण पणगं,मासलहू, अहावस्सिणिसीहिया करेति तो पणगं चेव, असमायारीणिप्फण्णं वा पमज्जासज्जाणं पुण करणे अगणिणिप्फण्णं / णिक्खमत्तपवेसि त्ति दारा गया। आवडण-पडणे त्ति दारा--आवडणं-पक्खलणं तं पुण भूमिअसंपत्तो संपत्तो वा / जाणुक्कोप्परेहिं पडिओ पुण सव्वगते भूमिए एत्थ आवडणे चउलहुग त्ति भणितं भवति।जं वण्णंति आवडितो, पडिओ वा छण्हजीवनिकायाण विराहणं करिस्सति, तण्णिप्फण्णेति भणियं होति। अहवा-आत्मविराधनाणिप्फण्णं, अगणिणिप्फण्णं। आवडणपडण ति दारा गतागतंच संघट्टणदारं। इयाणिं भावणे त्ति दारंसेहस्स वि सीदणता, ओसक्कतिसक्कणण्णइंधणयं / विज्झविऊण तुयट्टण, अधवा वि भवे पलीवणता / / 213 / / अगणिसहितोवस्सए ठिऊणं सीयतो सेहो अप्पाणं पितावेज्जा हत्थपादे वा। तावण त्ति दारं गयं / उक्कमेणं इंधणे त्ति दारं वक्खाणे त्ति-इंधणंदारुयं, तमेवं करेंति उसक्कति सक्कण तिलहुं विज्ज्ञाउति, जलमाणिंधणाणं उकट्टणा-ओसक्कणा भण्णति / जलउ त्ति-तेसिं चेव समीरणा अतिसकणा भण्णति, अण्णं वा इंधणं वापक्खिवइ। इंधणे त्ति दारं गयं / इदाणिं संकमणे त्ति दारं-अण्णेहिं णयणं ति स्थानान्तरसंक्रमेत्यर्थः, तत्पुनः शयनीयस्थानभावात्करोति, प्रदीपनकभयाद्वा / संकमणे त्ति दारं गये।
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________________ मूलगुणपडि० 354 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मूलगुणपडि० इदाणिं णिव्वावण त्ति दारं-विज्झविऊण तुयट्टणे त्ति-पलीवण-गभया णिव्वावेतुं छारधूलीहिं स्वपितीत्यर्थः / इह वक्खाणुक्कमकरणं ग्रन्थलाघवार्थ / णिव्वावणे त्ति दारं गतं / इदाणिं करणं व त्ति दारंअलातचक्रादिकरणेनेत्यर्थः / तत्रात्मविराधना अग्निविराधना वा। अहवा विभवे पलीवणय त्ति-तेनालातेन भ्राम्यमाणेन प्रलीपणं स्यात्। तत्थ इमं पायच्छित्तंगाउयदुगुणादुगुणं, बत्तीसं जोयणाई चरिमपदं। दठूर्ण व वचंते, तुसिणीय पओस उड्डाहो // 21 // पुव्वद्धं कंठं। णवरं चउलहुगादी पच्छित्तं दळूण वचंते। तुसिणीए त्तिदेवउलादिमि पलिते आत्मोपकरणं गृहीत्वा आत्मापराधभयात्साधवः प्रयाताः। ते य वचंते तुसिणीए दठूणं गिहत्था पदोस गच्छेजा। उड्डाहं व करेजा / ते य पदुष्ठा भत्तोवकरणं वसहिं वा ण देजा। पंतावणाई वा करेजा। से य वडेहिंति दडमुड्डाहं करेजा। चसद्दो समुचये करणे त्ति दारं गये। इदाणिं संघट्टणादियाणं करणं ताण पच्छित्तं भण्णतिसंघट्टणादिएसुं, जणणावज्जेसु चउलहू हुंति। छप्पइकादिविराधण, इंधणे तसपाणमादी य॥२१५|| पुव्वद्ध कंठ। तावणद्वारे इमं विसेसं, पच्छित्त-छप्पति-आइविराहण त्ति--तावेंतस्स छप्पतिगा विराहिजंति, तण्णि-प्फण्ण पायच्छित्तं भवतीति वाक्यशेषः / आदिसद्दातो जइ वारे हत्थादी परावत्तेउं तावेति तइ चउलहुगा। इंधणे त्ति इंधणदारे इमं विसेसं पायच्छित्तं दायव्वमिति। इदाणिं जणणं ति दारंअहिणवजणणे मूलं, संठाणणिसेवणे य चउलहुगा। संघट्टणपरितावण, लहु गुरु अतिवायणे मूलं // 216|| उत्तराधरअरणिमहणप्पयोगे अहिणवमगिंजणयति तत्थसे मूलं भवति। इदाणिं चशब्दो व्याख्यायते-सट्ठाणणिसेवणे य त्ति-जत्थ गिहत्थेहि पञ्जलिया अगणी तत्थ ठियं चेव आयफ्रप्पओगेण असंघट्टतो सेवति तत्थ चउलहुगं। सय पज्जालिए पुण अगणिकाए पुढवादीयाण तसकायपजंताण सघट्टणपरितावणलहुगुरुगा, अतिवायणे मूलं / एवं कायणिप्फण्णं। चोदक आहजदि ते जणणे मूलं, हते वि णियमुप्पतीय ते चेव। इंधण पक्खेवंमि वि, तं चेव य लक्खणं जुत्तं // 217 // यदीत्यभ्युपगमे। ते भवतः उत्तराधरारणिप्पओगेण जणिए उत्पादितेत्यर्थः मूलं भवति। एवं ते हते विघातितेत्यर्थः। णियमा अवस्सं अण्णो अग्गी उप्पाइजिस्सति, तम्हा हते वितं चेव मूलं भवतु / किंचान्यत्इंधणपक्खेवंमि वि अन्योऽग्निरुत्पाद्यतेअपिः पदार्थसंभावने। उस्सकणे वि अन्योऽग्निरुत्पाद्यतेतं चेवयलक्खणं ति-तदेवान्यान्युत्पत्तिलक्षण। चशब्दो लक्षणाविशेषाभिधायी। जुत्त योग्यं घटमानेत्यर्थः। तम्हा एतेसु वि मूल भवतु। पुनरपि चोदक एवात्रोपपत्तिमाहअविय हु जुत्तो दंडो, उवधाते ण तु अणुग्गहे जुजो। अणुकंपा पावतरी, णिक्किवता सुंदरी कहं णु // 218 / / अपि च-ममाभिप्रायात, हुशब्दो-दंडावधारणे, जुत्तो-योग्यः, दंडणं दंडः / उवघाते त्ति-विनाशेत्यर्थः, न-प्रतिषेधे, तुशब्दः-प्रतिषेधावधारणे, स्तोकप्रायश्चित्तप्रदानविशेषणे या। अणुग्गहे त्ति-अणुवधाते, उजालनेत्यर्थः, जुजे-युक्तं, अणुकंपणं-अणुकंपा, दयेति-भणिय होइ। सा पावतरी कह? भवति-स्यात्, कथं बहुप्पच्छित्तप्पदाणातो णिक्किविता णिग्धिणिया सा सुंदरा-पहाणा, कह? भवति-स्यात्, कथं अप्पपच्छित्तप्पदाणातो। कह ति प्रश्नः, नु-वितर्के। आचार्याहउज्जालझंपगाणं,उज्जालो वण्णिओ तु बहुकम्मो। कम्मार इव पओत्ता, बहुदोसयरो ण भंजंतो // 21 // उज्जालः प्रज्वालकः, झंपको-णिव्वावको, णंशब्दो वाक्यालंकारार्थे / एतेसिं दोण्हं पुरिसाणं उज्जालो वण्णिओ भगवतीए बहुकम्मो। तुशब्दो निश्चितार्थावधारणे / अस्यार्थस्य प्रसाधनाथ आचार्यो दृष्टान्तमाहकम्मारे त्ति-कम्मकरो-लोहकारो, इव ओवम्मे, पओत्ता आयुधाणि णिव्वतित्ता सो बहुदोसतरो भवति, ण य ताणि आयुधाणि जो भंजतेत्यर्थः / तरशब्दो-महादोषप्रदर्शने, यथा-कृष्णः, कृष्णतरः, एवं बहुदोसो, बहुदोसतरो भवति / एष दृष्टान्तः। तस्योपसंहारः-एवं अपि नशस्त्र पज्जालयतो पुरिसो बहु-दोसतरोन निर्वापयंतेत्यर्थः / तेउक्कायस्स दप्पिया पडिसेवणा गता। इयाणिं तेउकायस्स कप्पिया पडिसेवणा भण्णतिबितियपद असति दीहे, गिलाण अद्धाण सावते ओमे। सुत्तत्थजाणतेणं, अप्पाबहुयं तु नायव्वं // 220 / / बितियं अववायपदं, उस्सग्गपदमंगीकृत्य, द्वितीयं अववायपदं। तत्थिमे दारा--असति, दीहे, गिलाणे, अद्धाणे, सावते ओमे। एएपंतीए ठावेऊण तेसिं हेट्ठातो सागणियादी जणतपज्जवसाणा णव दारा ठाविजंति। तत्थ सागणियदारस्स हेट्ठातोपेहाती पडणपज्ज-वसाणा णव दारा ठाविजंति। सेसा एक्कसरा! एते सागणियादी सभेया असति दारे अववदिजंति। तत्थ सागणिय त्ति दारंअद्धाण णिग्गमादी, असती ते जोतिरहियवसधाए। दीवमसव्वे सवे, असव्व सव्वे यजोतिमि / / 221 / / अद्धाणं महंता अडवीओ ताओ णिग्गता, वसतिमप्राप्ता इत्यर्थः / आदिसघातो इमेसु ठाणेसु वट्टमाणा-"असिवे, ओमोदरिए, रायभए, खुहिय, उत्तमढे या फिडिय गिलाणविसेसे, देवया चेव, आयरिए॥१॥" तेय वियाले चेवं, पत्ता गामं असत्तीए।जोतिर-हियवसहीए, ठायंताणिमा जयणा / / पढमं असव्वरातीए दीवे, असति सव्वराईए दीवे तस्सासति असव्वराईए जोइए, असति सव्वरातीए जोइए, मि इत्ययं निपातः / सागणिय त्ति दारं गयं। णिक्खित्तदाराववातोण संभवति तोणाववइज्जति। संघट्टणं ति दारं भण्णति। संघट्टणभया पेहादिसुइमा जयणा कज्जतिकिडओ व चिलिमिणी वा, असती समए व बाहि जं अंत।
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________________ मूलगुणपडि० 355 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मूलगुणपडि० ठागासति सभयंमिव, विज्झायऽगणिम्मि पेहंति // 222 / / पदीवजोतीणं अंतरे वंसकिडगादी दिस्सासति, तस्सासति पोत्तादि | चिलिमिणी दिजति, एवं काऊण पेहादी सव्वदारा करेंति / असति किडगचिलिमिणीणं बहि उवकरणं पेहेतु। बहिं सभए ‘जं अंत' अंतमिति जूण अचोरहरणीयमित्यर्थः, तंबाहिं पडिलेहिति सारोवकरणं अच्छति तं विज्झाय अगणिमि पेहति / ठागासति त्ति-अह अहिं जंतुवकरणस्स चिट्ठाउ नऽस्थि सति वा राए अंतुव-करणस्स वि भयं तो सव्वंचिय अंतसारोवहिं विज्झायऽगणिमि पेहंति। पेहत्ति दारं गयं। पमजणावासपोरिसिमणदारा चउरो वि एकगाहाए वक्खाणेतिजिंता ण मपजंति, मूगावासं तु वंदणगहीणं / पोरिसि बाहि मणेण व, सेहाण य देंति अणुसहूिँ / / 223 / / जिंता णिग्गच्छंता, पविसंता वा वसहिं न पमजंति त्ति वुत्तं होइ। मूगावासं ति-वायाए अणुचरणं, वंदणगहीणं-वंदनं न ददतीत्यर्थः। सुत्तत्थपोरिसीओ बाहिं करेंति / मणेण व त्ति-सजोतिवसहीए रागदोसं न गच्छंति, जेयसेहा होजा ताण यसेहाण देंति अणुसद्धि, सेहो-अगीतार्थः, क्सद्दा गीतत्थाण य-अणुसट्ठिउवदेसो। ___ 'मूगावासं तु वंदणगहीणं' अस्य व्याख्याआवास बाहिं असती, ठितवंदणविगडणाथुतिहीणं / सुत्तत्थ बाहि अंतो, चिलिमिलि काऊण व भणंति / / 224|| अणूणमतिरित्तं बाहिभावस्सगं करेंति,बहिट्ठाणासति ठियत्ति, जो जत्थ ठितो सो तत्थ ठितो पडिक्कमति। वंदणगथुती हिं हीणं, हीणसद्दो पत्तेयं, वियडणा-आलोयणा, तंजयणाए करेंति, वासकप्पपाउयाणिविट्ठा चेव ठिता भणंति / संदिसह त्ति-पोरिसिवाहि त्ति अस्य व्याख्या-सुत्तत्थपोरिसीओ सचिट्ठाए बाहिं करेंति, असतिबहिट्ठाणस्स अंतो चिंलिमिलिं काऊण भणति / वा विकल्पे / चिलिमिणिमादीण असति अणुपेहादी करेतीत्यर्थः। अणुसहित्ति अस्य व्याख्याणाणुजोया साधू, दव्वजोतिम्मि मा हु सज्जित्था। जस्स विण एति णिद्दा, स पाउओ णिमिल्लिओ गिम्हे // 22 // अग्न्युद्योतो-द्रव्योद्योतः भावे-ज्ञानोद्योतः, सञ्जित्थाशक्तिः, गेहीत्यर्थः / उद्योते जस्स विण एति णिहा स पाउओ सुवति, अह गिम्हे पाउयस्स धम्मो भवेजा, तो णिमिल्लियलोयणो सुवति, मउलावियलोयणे त्ति वुत्तं भवति / चउरो वि दारा गता। इदाणिं णिक्खमपवेस त्ति दारातुसिणीआ निति णिन्ति, चउमुगमादीकओइ अस्थिवंता। सेहाय जोतिदूरे, जग्गंति य जा धरति जोति // 226|| तुसिणीया मोणेण, अनिंति पविसिन्ति, णिति वा णिग्गच्छंति वा आवगस्सगणिसीयाओ णो कुवंति त्ति वुत्तं भवइ / णिक्खमपवेसा गता। इयाणिं आवडणपडणाओ मूग अलापं, आदिशब्दादग्निशकटिका गृह्यते। आवडणपडणभयात्वचित् अस्पृश्यमाना इत्यर्थः गता दोदारा। तावण त्ति दार गय। इदाणिं इंधणे त्ति दारंअद्धाणादी अतिणि-दपेलिओ गीतों सकियं सुयति। सावयतयउस्सिकण, तेण भए होति थाणाओ॥२२७।। अद्धाणादिपरिस्संतो अतिनिद्दापेल्लिओ-अतिनिद्राग्रस्तः गीयत्थग्गहणं जहा अगीयत्था ण पस्संतितहातं जयणाए उसक्किउं सुवति, स एव गीयत्थो सीहसावयादिभए जयणाए उम्मुगाणि ओसक्कति। चोरभए उसकोवसक्कणाणं भयणा / कथं जति अति-वंतिया तेणा तो उसक्कणंन कज्जतिमा अग्गिं दठुमागमिस्संति। अह थिरा चोरा तो उस्सक्किद्धति तं जलमाणिं अनि दलु जागरंति त्ति णामिद्दवंति। एसा भयणा अपुव्यिंधणपक्खेवं पि करेजा। अद्धाणविवित्ता वा, पक्खड असती सयं तु जालेंति। सूलादि व तावेउं, कजे छारेणमक्कमणा // 228|| अद्धाणं पहो, विवित्ता-मुसिया, अद्धाणविवित्ता पक्खडापरेण उज्जालिया, तस्स असती तत्स्वयमात्मनैवज्वालयंति। एतदुक्तं भवतिशीतार्ता इंधनं प्रक्षिपंति। इंधणे त्ति दारं गये। इदाणिं णिव्वावणे ति दारं भण्णति-पक्खएण वा सयमुजालिएण वा सूलाति तावेउं, आदिसद्दातो विसूतिका कते कज्जे निष्ठितेत्यर्थः / पलीवण-भया छारेणाकामति / णिव्यावणे त्ति दारं गयं। __ इदाणिं संकमणे त्ति दारं-- सावयभय आणेतिव, तो उवमणा वाहिणीथिति। बाहिं पलीवणभया, छारे तस्सऽसति णिव्यावे // 22 // सावयभए अण्णत्थतो आणयंति / तत्थ णातो वा तो उवमणा बाहिं णीणयंति, अह बाहिं पलीवणभया ण णीणयंति ताहे तत्थ ठियं छारेण छादयंति। तस्सासति तिछारस्स असत्यभावात् णिव्यावेंति उज्झाति त्ति एगटुं। असति त्ति दारं गयं। दीहादिदारेसु सागणियादी दारा उवजुऑति तं जोएयव्यं इमं तं दीहादिदारसरूवं तत्थ दीहे त्ति दारंदाहच्छेयणडक्को, केण जग्गइकिरियहता दीहे // दारं। आहारतवणहेऊ, गिलाणकरणे इमा जतणा // 230 / / दाहत्ति यं डक्क कयाति डंभेयव्वं तण्णिमित्तं अगणी घेप्पति / छेदो वा कायव्वो तस्स देसस्स तो अंधकारे पदीवो जोती वा धरिजति। डको-- दष्टः, केण त्ति-सप्पेणऽण्णतरेण वा वातपित्तसिंम्हस्स साध्येन असाध्येन वा तत्परिज्ञाननिमित्तं जोती घेप्पति जग्गति दट्ठो, जग्गाविञ्जतिमा विसं सण णिजिहिति। उल्ललिय ण वा एवं दीहदट्ठस्स किरियणिमित्तं जोई घेप्पति। दीहि त्ति दारंगयं। इयाणिं गिलाणे ति दार। पच्छद्धसमुदायत्थो। आहारो गिलाणस्स तावेयव्यो, तत्थ पुण तावणकारणे इमे दव्वा तावेयव्याखीरुण्होदगलेवी, उत्तर णिक्खित्तें पच्छकरणं तु। कायय्वगिलाणट्ठा, अकरणें गुरुगाय आणादी॥२३१।। खीरं वा कड्डेयव्वं, उण्होदग वा वि, लेवी वा उक्खडेयव्वा इमाए जयणाए / उत्तरे त्ति उवचुल्लगो भण्णति-णिक्खित्तं
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________________ मूलगुणपडि० 356 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मूलगुणपडि० तत्थ ठवियं, सो पुण उवचुल्लो एवं तप्पति, जंचुल्लीए इंधणं पक्खिपति अद्धाणे-विवित्ता, मुषिता इत्यर्थः / सीतमिति-कंपाणे सति सीते पडते तस्स जलियस्स जाला अवचुल्लगं गच्छति एवं अहाकडगं तप्पइ, परकडअगणीए हत्थपायसरीराणं तावणं करेंति। पलंबपा-गहेउवत्तिउवचुल्लगस्सासति पुव्वपक्खित्तिं धणजलियचुल्लीए ताविज्जइ, असति पलंगा-फला, पागो-पचनं, हेतु:-कारणं, वा-विकप्पो,एष एव मंगालगेसु वि पुव्वकतेसु पच्छकरणं एवं सव्वासतीए चुल्लिमंगालगा वा पलम्बपचनविकल्पः / एव पलंबपागा परकडाए चेव अगणीए कायव्यो। काउं अगणिमाणिय इंधणं पक्खिविय कायव्यमिति / तुः सर्वप्रकार- परकए असतीए, सयं जालेति-स्वयम्-आत्मनैव, वा उपप्रदर्शने। किं करणविशेषणे / चोदक आह-नन अधिकरणं, आचार्यह-यद्यपि पुनस्तत्प्रदर्शयति-इदं ओमद्वारे-ऽप्येष एव प्रलंबार्थः / सावयासीहाई, अधिकरणं तह वि कायव्वं, गिलाणस्स अकरणे गुरुगा य आणादी। तस्समुत्थे भए अग्गिं पज्जालयंति।गया तेउक्कायस्स कप्पिया पडिसेवणा। .. अह साहुणो सूलं विसूइया वा होज्ज तो तावणे गतो तेउक्कातो। इमा जोयणा इदाणिं वाउक्कायस्स दप्पिया पडिसेवणा भण्णतिगमणादिणंतमुंमुर, इंगाले इंधणे य णिव्वावे / णिग्गच्छति वाहरती, छिडे पडिसेवणकरण फूमेइ। आगाढे उंछणादी, जयणा करणं व संविग्गे // 222|| दारुग्घाडकवाडे, संधावत्थेय छीयादी॥२३५।। आइत्ति-आदावेव जत्थ अगणी अहाकडो झियाति तत्थ गंतुं सूलादि घम्माभिभूतो णिलयभंतराओ बाहिं णिग्गच्छति, अणिलाभितावेयव्वं। धारणनिमित्तं / बाहरति त्ति-शब्दयति बहिडिओ भणति एहि एहि इतो अह जत्थ अगणी अहाकडो झियाति तत्थिमे कारणे होजा- सीयलो वाऊ। छिड्डे पडिसेवति, छिड्डे छिड्डे ते पुणो लोए चोप्पालया ठागसति अचियत्ते, गुज्झंगाणं पयावणे चेव। भण्णंति। तेसुपुव्वकतेसुवाउपडिसेवणं करेति। करणं ति अपुव्वाणि वा आतपरिसा दोसा, आणणणिव्वावणेऽणंतं // 23 // छिड्डाणि वायुअभिधारणनिमित्तं करेति / फूमेति त्ति-घम्महितो ठागो तत्थणत्थि, अचियत्तं-अचित्तं वा गिहपइणो, अहवा-गुज्झंगाणि अण्णतरमंग फूमति, भत्तपाणमुण्डं वा / दारु त्ति दुवारं भण्णति, तंपुव्वपतावेयव्वाणि ताणि य गिहत्थपुरतोण सक्कति तावेउंतोण गम्मति। अह कयमिट्टादीहिं ठाइयमुग्घाडेति, अपुव्व वा दारमुग्घाडेति त्ति युत्तं भवति। तरुणीओ तत्थ थीओ सो य साहू इंदियणिगहं काउमसमत्थो तो उग्धाडसद्दो उभयवाई। दारे कवाडे य। उग्घाडेति वा कवाडं घम्मओ, आयसमुत्थदोसभया न गच्छति, परा गिहत्थीओताव तत्थुवसगंति एवं अहवादारमुग्घाडेति, उग्घाडं वा उग्धाडेति, उग्धाडेति त्ति वुत्तं भवति, एवं तिण्णि पदा कजंति / संधि त्ति-संधी दोण्हं घराणं अंतरा छिड्डी, पि तत्थ ण गम्मइस्सति। इस्सालुगा गिहत्था ण खमंति। दोस त्ति-एवं बहुआ तत्थ दोसा णाऊण अगणीए. तत्थ आणणा कायव्वा / कते कैजे तत्थ वात सातिजति / वत्थं चउरस्सगं काउं पडवायं करेति। छीतादि त्ति-छीत-छिक्कियो आदिसदातो कासियं, ऊससियं, नीससिएते निव्वावणं कायव्वं, उज्झवणं तिवुत्तं हवइ। नतहिं तो दोसले गंतव्वं। जं पुण आणणं तं इमाए जयणाए, णंत ति खुड्डगा थेरा वा हयसंका णंगतं छीयादी अविहीए करेति त्ति। तावेउं आणयंति तेण तं तावयंति / अह णंतगं अंतरा आणिजमाणं सुप्पे य तालटे, हत्थे मत्ते य चेलकण्णे य। विज्झाति तो मुम्मुर--माणयंति / मुम्मुरो-अगणिकणियासहितो अच्छिं फूमेइ पव्व-ए णालिय चेव पत्ते य॥२३६|| सुम्हच्छारो / मुंमुरे असति तेण वा अप्पण्णप्पमाणे इंगाले आणयंति। सुप्पे य दालकारं भण्णति, सव्वजणवयप्पसिद्धं, तेण वायं करेति, अणिंधणा णिज्जाला इंगाला भण्णति। ते पाडिहारिए आणयति / कते जहा धण्णं पुणंतीओ / तालो-रुक्खो, तस्स वेंट ताल वेंट तालपत्रकज्जे तत्थेव ठाक्यंति / इंधणे त्तिइंगालासति तेहिं वा अप्पण्णप्यमाणे शाखेत्यर्थः / सा य परिसा छिज्जति, हत्थो-सरीरेगदेसो। तेण वीययति, जया वा खद्धग्गिणा पओयणं तया इंधणमवि पक्खिवंति / एवं कारणे मत्तगो-मात्रक एव, तेण वा वातं करेति / चेलं-वस्त्रं, तस्य कण्णो गहणं कडे य कने णिव्वावेयव्वो अगणी छारमादीहिं, मा पलीवणं भवे। चेलकण्णोतेण वा वीयति। अच्छिंफूमेइ त्ति-अच्छी-अक्खी,तं कंदप्पा आगाढग्गहणा इदं ज्ञापयति-जहा एस किरिया आगाढे णो अणागाढे परस्स फूमति / फूमणसद्यो उभयवायी। पब्बए त्ति-वंसो भण्णति, तस्स अंछणं ति उसक्कणं, आदिशब्दादन्यत्र नयनं, जलन जालणं ओसक्कणं मज्झे पव्वं भवति / णालिय त्ति-अपव्वा भण्णति, सा पुण लोगे तुरली तिएकट्ठ। करणं तिपडिणीयाउट्टणनिमित्तं करणमपि कुर्यात् / चशब्दात् भण्णति। एए वीयंति। पत्ते यत्ति-पत्त-पद्मिनीपत्रादि तैरात्मानं भक्तं वा ग्लानादिकार्यमवेक्ष्य जतनमपि कार्यं / संविगे त्ति-जो एताणि करेंतो वि वीयति। संविग्गो सो एव करेति। गीतार्थ-परिणामकेत्यर्थः। एसपुण पच्छद्धत्थो। संखे सिंगे करतल-वत्थी दतिए अभिक्खपडिसेवी। सव्वेसु गिलाणादिदारेसुजहासंभवं घडावेयव्वो। गिलाणे ति दारं गयं। पंचेव य छीतादी, लहुया लहुया य अद्वैव / / 237 / / इदाणिं अद्धाण सावए ओमे दारा, तिण्णि वि एगगाहाए संखो-जलचरप्राणिविशेषः, सिंग-महिसीसिंगं, शंखं शृङ्गं वा धमेइ / _वक्खाणेति करो-हस्तस्तस्य तलं करतलं-हस्तसंखं पूरेति त्ति वुत्तं मेवति / अद्धाणंमि विवित्ता,सीतमि पलंबपागहेउंवा / दारं। अण्णतरं वा करतलेन वाद्यं करोति! वत्थी-चम्ममयो, सो य वेजसापरकडअसतीऍ सयं,जाले तिवसावयमए वा / / 234 / / लाइसु भवति, तं च वायपुण्णं करेति। दतिओ-दृतिकः, जेण णदीमा१-(स्ताघ-अवकाशः) दिसुसंतरणं कजति, तंच वायपुण्णं करोति। अभिक्खपडिसेवीति एते
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________________ मूलगुणपडि० 357 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मूलगुणपडि० निग्गच्छवाहिराती ठाणा अभिक्खं पडिसेवंतो अप्पप्पणो ठाणातो चरिमं एवमेव अवधारणे, दितोपसंहारपदंसणत्थे वा / देहवाओ त्तिपावति। पंचेव य छीयादिसु-पणगं भवति। एत्थ वीसहिं वाराहि सपयं सरीरवातः,सो य छीयादिसु संखसिंगपूरणे या, दतियादिपूरणेसु वा पावति / लहुय त्ति-जेसु लहुमासं, तेसु दसहिं वाराहिं सपयं पावति। भवति / सो य बाहिरवायस्स होइ। सत्थं तु एवं-वियणादिसमुत्थो, वि लहुगा य अद्वेव यत्ति-जेसुचउलहुअं, तेसु अट्ठहिं वाराहिं सपदं भवति। यति आदिशब्दः वियणगविहाणतालयंटा-इप्पदरिसणत्थो।स इतिविणेओ पुच्छति-भगवं ! तुडभे भणत-जहा णिग्गच्छदारादिआण स्वेनस्वेन विधानेनोत्पन्नः, अन्योन्य--शस्त्रं विज्ञेयमिति। अनेन कारणेन अप्पप्पणोपच्छित्तं सहाणातो सपय पावति, तमहं सट्ठाणमेव ण याणामि प्रायश्चित्तं दीयत इति। कहेह। तं गुरू भणति . इमे य आयसंजमविराहणा दोसा भवंतिसाहच्छि फूम हत्थे, मत्ते पत्ते य चेलकण्णे य। संपातिमादिघातो, आउवगाओ य फूम वीयंतो। करतलसाहा य लहू, सेसेसु य होति चउलहुगा / / 238|| वायंतस्स य बाहा, दंडियमादी बहिकरणं / / 243 / / जति छिड्डा तति मासा, जा तिण्णि चतुलहु तेण परं। वीयणादिणा वीयंतस्स मच्छियादिसंपादिमादिधातो भवति, एसा एवं ता करणंमि, पुवकया सेवणे चेव / / 236 / संजमविराहणा। आउवघातो य फूम वीयंतो त्तिफूमंतस्स मुहं सूखति, साहा साहूली-वृक्षसाखेत्यर्थः। अच्छिफुमणे विएतेसु सव्वेसुमासलहू वीयंतस्स य बाहा दुक्खति, एसो उवघातो। सिंगं, संखं वा, वंसं वा भवति, सेसेसुत्ति-जे ण भणिया तेसु चउलहु साहाव-यवेण चसद्दा वायेति दंडिओ गिण्हेजा, उप्पव्वायति ति वुत्तं भवति / आदिसद्दातो साहाभंगेण वा पेहुणेण वा पेहुणहत्थेण वा वीयइ त्ति वुत्तं भवति। सेसेसु रायवल्लभो वा खित्तादि ति सहसा संखपूरणे कोई साहू गिहत्थो वा हॉति लहुआ उ, एतं अतिप्पसत्तं लक्खणं आयरिओ पचुद्धारं करेति। खित्तचित्तो भवेज। आदिसद्दातो हरिसिओ दित्तचित्तो भवति। पमत्तो वा जइछिड्डा गाहा-जइ छिड्डाणि करेति तति मासलहुजाव तिपिण, तिण्णं जक्खाइट्ठो हवेज / उम्माओ वा से समुप्पजिज्ज / बहिकरणं ति-पुणो परेणं चउलहु भवति। एवं ता अपुव्वछिड्डुकरणे पच्छित्तं / पुव्वकयासेवणे पुणो संखं पूरयंतस्स बहिरत्तं भवति / चः समुच्चये। गता वाउक्कायस्स चेव त्ति-पुव्वकते एकमि वातपडिसेवणं करेइ-मासलहु / दोहिं दो दप्पिया पडिसेवणा। भासलहु-तीहि तिष्णि-मासलहू, तेण परं-चउलहू, भवति। इदाणिं वाउक्कायस्स कप्पिया पडिसेवणा भण्णतिकमढगमादी लहुगो, कासे य वियंभिएण पणगं तु / वितियपदे सेहादी,ऽद्धाण गिलाणाइकमे। एकेशपयादो पुण, पसज्जणा होतिऽभिक्खणतो // 240 / / सण्णा य उत्तिमढे अ-णधियासे य देस य॥२४४|| कमढ़-साहुजणपसिद्धं, आदिशब्दातो कंसभायणादी। एतेसुमासलहु, सेहाति त्ति दारंकासि खासियं वियंभियं जंभाइतं-चसद्दाओ छित्तऊ-ससिअनीससिएसु अविहीए पणगं / एक्कक्कपयादि त्ति-आत्मात्मी-यपदात् सय्वे विपदे सेहो, करिजऽणाभोगतो असेहो वि। अभीक्ष्णत उवरुवरि पदं पसज्जति, भवतीत्युक्तं भवति / सिस्साभि सत्थो वचति तुरियं, अत्थं व उवेति आदिबो॥२५५।। प्यायतो किमत्थं पच्छित्तं दिजति। णिग्गमणादी सव्वे पदासेहो अयाणमाणो करेज, आदिसद्दातो आभोगतो एत्थ भण्णति अणाभोगतो असेहो वि णिगच्छणादी पदा करेज सेहादि त्ति दारं गतं / वाससिसिरेसु वातो-बहिता सीतो गिहेसु य स उण्हो। अद्धाण त्ति-अद्धाणं पडिवण्णा साहू सत्थेण समाणं, सो यसत्थो तुरियं विवरीओ पुण गिम्हे, दियराती सत्थमण्णाण्णं / / 241 / / वच्चिउकामो अत्थं वा उवेति आइचो, उसिणं च भत्तं तं निव्वावेउ वास तिवरिसाकालो, सिसिरो-शीतकालो, एतेसु,वाओ बहिया वीयणादीहिं तुरियं भोयव्वमिति / अद्धाणे त्ति गयं / गिलााणादिकमे-- गिहाण सीतलो भवति। गिहेसु तु गृहाभ्यन्तरेषु सोम्हो-सोष्मः / एवं "पढमालियकरण' गाहा-गिलाणवेयाव-चकरो पढमालियं करेति / तावत्कालद्वये। तस्विवरीतो पुण गिम्हे त्ति-पुव्वा-भिहितकालदुगाओ। तं च से उसिणं भत्तपाणं लद्धं जाव य तं सयमेव सीतीभवति ताव विवरीतो गिम्हेउष्णकाले, गृहाभ्यन्तरे सीतो वायुः, बहिया उष्ण इति। गिलाणस्स वेयावच्चवेलातिक्कमो भवति, अतो तं विधुवणादीहिं तुरियं दियराइ त्ति-वाससिसिरगिम्हेसु एयं वाउलक्खणं दिवसओ वि, रातीए णिव्वावेऊण भोत्तूण य गिलाणस्स य भत्तमाणयति ओसहं वा। गिलाणे वि।अहवा-दिवसओ--वाऊ उण्हो भवति, रातीएसयलो भवति।तत्थ त्ति दारं गयं। ओमे त्ति दारंपढ-मालियाकरणवेला फिट्टइ। एस पढमपादो शस्त्र, जंजस्स विणासकारणं तंतस्स सत्थं भण्णति। अन्योऽन्यं शस्त्रं ओमे विघडावेयव्वो। परस्परं शस्त्रमित्यर्थः, वाससिसिरगिहभंतरवाओ बहिवातस्स सत्थं, दारगाहाबहिवातो वि गिहवायस्स सत्थं, एवं गिम्हे वि। एवं दिवा वातो सव्वरी- सूरत्थमेति वाऊ, ओमे विधुणाति फूमणेणं वा। वायस्स, सव्वरीवाओ वि दियवायस्स। जहे तेसिं वायाणं अण्णोण्ण- एतेहि कारणेहिं, सीतावण होति उभए वि॥२४६|| सत्थकारणत्तं दिटुं। सूरत्थमेति-ओ मे ति-दुभिक्खं , तमि य दुभिक्खे एमेव देहवातो,वाहिरवातस्स होति सत्थं तु / अत्थवणवे-लाए उसिणं भत्तपाणं लद्धं, जति तं सयं वियणादिसमुत्थो विय, स उप्पती सत्थमण्णस्स॥२४२।। सीती होयमाणं पडिच्छंति जाव ताव य सूरत्थमेति, ण य सं
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________________ मूलगुणपडि० ३५८-अभिधानराजेन्द्रः -- भाग 6 मूलगुणपडि० थरंति ताहे विधुवणादीहिं, विधुवणाति त्ति-विविधं धुणाति विधुवणाति लहुगुरुमासो / तेसु चेव परंपरे जहासंखेणं लहुगुरुपणगं / गमणदारे वीयति त्ति वुत्तं भवति / अहवा-विधुवणाति त्ति-विहुअणो-वियणओ, ___ गाउया० जाव तीस-तिगाउयातो आरभ दुगणादुगुणेण०जाव वत्तीसं तेन वीयति / फूमणेण व त्ति-सुहेण फूमति, एतेहिं सीयावणं करेति- जोयणाणि गच्छइ। एत्थ अट्ठसुठाणेसुचउलहुगादी। चरिमपदंति-गाउए सीतलीकरणमित्यर्थः / उभए वित्ति-भत्तं, पानकं च / अहवा-सरीर- चउलहुगं,एवं०जाव वत्तीसाए पारंचियं / एवं परित्ते, अणंते, गाउयामाहारो य। अहवा-ओदनं व्यंजनं च। ओमे त्तिगतं। दिदुगुणेणजाव सोलस चउगुरुगादी चरिमं पावति।चसट्टो अवधारणे। सण्ण त्ति दारं-- पणगंतुवीयगाहा-पंचादी लहुगुरुय त्ति-एयस्स विरा-हणगाहापायस्स सण्णा य सिंगमादी, मिलणट्टविहे महलसत्थे वा। सिद्धसेनाचार्यः स्पष्टनाभिधानेनार्थमभिधत्ते–पणगं ति-वीयघट्टगतार्थ सेसेसु तु अभिधारण, कवाडमादीणि वुग्घाडे // 257|| सचेयणवणस्सती उदूहले धन्नो पीसणीएवा पिट्ठो सरिसोउकुट्टो भन्नइ, सणं त्ति-सण्णासंगारेत्यर्थः / सिंगगमादी धर्मति, संगारणिमित्तं तस्स सो पुणपरित्तोवा तस्संसद्रुण हत्थमत्तेण भिक्खं गेण्हइ। परित्ते-माससहुँ, यएवं संभवो भवति। मिलणट्ठविहे त्तिदीहमदाणं तंमि परोष्परं फिडिया अणंते-मासगुरुं,सुहुमा फुल्ला ते परित्ताऽणता वा ते जीवंता घट्टेइ। मिलणट्ठा सिंगगमादीधमंति। महल्लसत्थेवा-महंतो सत्थोखंधवारादी मासे त्ति परित्तेसु-मासलहुं,अणंतेसु-मासगुरुं, सेस त्ति करणछेदणदुतंमि ण णज्जति, को कत्थ ठितो ताहे सिंगगमादी पूरेजति / गुरुसमीवे रूहणप्पमाणगहणद्दारा। एतेसु पुढविसरिसं मोत्तूणं छेदणदुरूहे कज्जा ततो सव्वे आगच्छंति। एतेण कारणेणं सिंगगमादीपूरणं करेज्जा / सण्ण छेदणदुरुहणवक्खाणं--- ति दारं गयं / सेसेसु त्ति-उत्तमट्ठअणहियासदेसी दारा / तत्थ उत्तम- छेदण पत्तच्छेज्जे, दुरहण सेवा तु जत्तिया कुणति। हृद्वियस्स धम्मो परिडाहो वा से कजति, अणहियासो घम्म ण सहति, पच्छित्ता तु अणंते, गुरुगा लहुगा परित्तेसु॥३५१|| देसे वा जहा उत्तरा-वहे-अचत्थं धर्मो भवति / एतेसु तिसु वि दारेसु छेदणं ति–छेदणदारं, तत्थपत्तच्छेज़ करेति, नंदावत्तपुण्णकला-सादी अभिधारण करेति, कवाडमादीणि वा उग्घाडेति, आदिसद्दातो अपुव्वदार दुरुहणं, तत्थरुहंतो जत्तिया हत्थपादेहिं सेवा करेतितत्तिया पायच्छित्ता उग्घाडेति छिड्डाणि वा करेति। गता तिणि वि दारा। गता वाउकायस्स इति वक्कसेसं। तेय छयण दुरूहणेसुपच्छित्ताओ, अणंते-गुरुगा,लहुगा कप्पिया पडिसेवणा / गतो वाउक्काओ। या परित्तेसु कंठा। छेयणदुरुहणा दो दारा गता। इदाणिं वणस्सतिकायस्स दप्पिया पडिसेवणा भण्णति-- इयाणिं वियद्दाराणा अभिक्खसेवा भण्णतिवीयादिसुहुमवट्टण-णिक्खित्तपरत्तणंतकाएय। अट्ठग सत्तग दस णव, वीसा तह अउणवीस जा सपदं। गमणादिकरणछेयण, दुरूहणप्पमाण गहणे य // 258|| सचित्तमीसहरिय-तणंऽतऽणते य वीयादी।।२५२।। बीया--परित्ता अणंता य / आदिसद्दाओ दसविहो वणस्सती। सुहुमं पुव्वद्धपच्छद्धाणं अत्थो जुगवं वचति, सचित्त त्ति-सचित्तपरित्तति-पुप्फाघट्टणसद्दो सव्वेसुपओयं, णिक्खित्तंन्यस्तं, तंपुण परित्तवण- वणस्सतिकाए,चउलहुगादि, अट्ठहिं वाराहिं सपदं पावति, सचिस्सतिकाए अणंतवणस्सतिकाएवा, गमणादिति-परित्तेणाणतेण वागमणं त्ताणंतवणस्सतिकाए चउगुरुगादि। सत्तहिं वाराहिं सपदं पावति / करेति। आदिसदाओठाणणिसीयण-तुयट्टणकरणं प्रतिमारूपं करेति। मीसहरियत्ति-हरितगहणं बीजावस्थातिक्रान्तप्रतिपादनार्थ , मीसपछेदणं-पण्णछेदं करेति, दुरूहणं-आरुहणं, आर्द्रामलकादिप्रमाणग्गहणं रित्तवणस्सतिकाए मासलहुगादि,दसहिंसपदं, अणंतमीसे मासरुगादि, हत्थेण चसद्दा पक्खेवो या एस संखित्तो दारगहणत्थो विवरितो। णवहिं सपदं। परित्ताणते यत्ति-उभयत्र योज्यं / हरिए बीएसुय परित्तइदाणिं पच्छित्तं भण्णति बीएसुपणागरद्धं, वीसतिवाराएसपदंपावति, अणंतवीएसुतह अउणवीस पंचादीगुरु लहुगा,लहुगा गुरुगा परित्तणंताणं। जा सपदं / यथाद्यपदेषु तथापि एकैक वृद्ध्या जाव एकोणवीसइमं पदं गाउय जा वत्तीसा, चतुलहुगादी य चरिमपदं // 26 // भवतीत्यर्थः, आदिसद्दाओ एत्थ वि एयं चेव / वणस्सति कायदप्पिया पणगं तु बीयघट्टे, ओकुठे सुहुमघट्टणे मासे। पडिसेवणा गता। सेसेसु पुढविसरिसं, मोत्तूणं छेदणदुरूहे // 250 / / इयाणिं कप्पिया पडिसेवणा भण्णतिपंच त्ति--पणगं, आदित्तिबीयदारे, लहुगुरुग ति–जति परित्त-वीय अद्धाणकज्जसंभम, सागारियपडिपहे य फिडिएय। संघट्टणेण भत्तं गेण्हति तो लहुपणगं, अह अणंतबीयसंघट्टण तो गुरु। दीहादी य गिलाणे, ओमे जतणा यजा तत्थ / / 253|| लहुगा गुरुगा परित्तणताणं ति-पणगा संवज्झंति परित्तसुहुमे पादादिणा एतेसु अद्धाणादिदारेसु ओमपज्जवसाणेसुवीयातिदारा अववति-यव्वा, संघति लहुपणगं, पणते गुरुपणगं। अहवा-लहुगा गुरुगा परित्तणंताणं तेय जहा पुढविकाए तथाऽत्रापि द्रष्टव्याः। तिणि खित्तदारं गहियं परित्तवणस्सतिकाए अणंतरणिक्खित्ते लहुगा, णवरं पंथे वचंताणं इमा जयणा-- अणंते अणंतरणिक्खित्ते छुकम्ह, परित्ताणंतवणस्सतिकाए परंपरणि- पत्तेगे साहाण, थिराथिरक्कंत तह अणक्कते। प्खिते-लहुगुरुमासो। परित्ताणंतवणस्सतिकाए मीसे अणंतरणिक्खित्ते | तलिया विभासकत्ता, मग्गउ खुत्ते य ठाणादी॥२५४||
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________________ मूलगुणपडि० 356 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मूलगुणपडि० पत्तेगो-पत्तेगवणस्सती, सो दुविहो-मीसो, सचित्तो य / साधारणो अणंतवणस्सई-सो दुविहो-मीसो सचित्तो य / मीसो णाम-थिरो-- दढसंघयणे, अथिरो-अदढसंघयणे, अक्कतो णाम-जनेनागच्छ-मानेन मलिनेत्यर्थः / इतरो पुण अणक्कतो, एतेसु गमणे इमा जयणा-पुथ्वं पत्तेगमीसत्थिरकतेण णिप्पचवारण गंतव्वं / असति एसगस्स पत्तेगमीसथिरअणकतेण णिप्पचवारण गंतव्वं / असतीते तस्स पत्तेगमीसअथिरअकतेण णिप्पचवाएण गंतव्वं, असति पत्तेगमीस-अथिरअणकंतेण णिप्पयवाएण गंतव्वं / एते चउरो विगप्पा पत्तेग-मीसे। एतेसिं असतीए एतेण चेव कमेण चउरो अणंतवणस्सतिकाए मीसे विकप्पा। एतेसिं पि असतीए परित्तवणस्सतिकाए सचित्ते एतेणेव कमेण चउरो विकप्पा / एतेसिं असतीते अणंतवणस्सति-काए सचित्ते एतेणेव कमेण चउरो विगप्पा। एते सोलस निप्पचवाए विगप्पा। सपञ्चवाए वि सोलस। ते पुण सव्वहा य वाणिज्जा / जया पुण परित्ताणतमीससच्चित्ताणतण्णतरेणावि सोलसण्हं विगप्पाणं गच्छंति, तदा तलिया विभासति। तलिया गमणातो भण्णति, विभासा-जह कंटकादीहिं पाओवघाओ अस्थि तो ताओ ण मु-चंति, अह णत्थि तो ताओ अवणेति / मग्गउत्ति-पच्छितो णिब्भए गमणं करेंति, परित्तीकृतेत्यर्थः / कत्त ति–चम्मक, जत्थ पुण अरण्णादिसु सण्णिविटे थंडिलंणभवे तत्थ गोणादिखुण्णे ठाणे ठाणादीणि करेति, ठाणं-उस्सग्गो, आदिसद्दातो-णिसीयणतुय-दृणाणि धेयंति, असति कत्तिए कप्पं काउं गोणातिखुण्णे ठाणा-दीणि करेंति, असति कप्पस्स गोणातिखुण्णे ठाणादी ण करेंति, असति खुण्णस्स पदेसेसु वि करेंति / पंथजयणाऽभिहिता। इमा दुहणद्वारस्स अववायविहीसावय-तेण-भवे वा, पंथं फिडिया वलबंकले य। रोहे अछेदकरणं, पडिणीया अट्ठगीतेसु // 255 / / सावता-सीहाती, तेहिं अभिभूतो रुक्खं रुहेज, सरीरोच-करणतेणा / तब्भया या रुक्खं रुहेजा, पंथाओ वा फिडितो गाम-पलोयणनिमित्तं रुक्खरुहेत, पलंबाण वा कजे रुक्खं रुहेजा। इमोपुण छेयणदाराववातोछेदो त्ति-विदारणं, करणं-क्रिया, तामपि कुर्यात्, पडिणीयाउट्टणणिमित्तं पडिणीयस्साभिभयं तस्स पुरतो कयलिक्खंभादि वट्टिजति, भिगुडीविडंबियमुहो होऊण भणति-जइ ण ठासि एवं सीसं खंडयामि जहेस कयलीखंभो, एवं कयकरन्नो करेति। अगीतेसु वि करणे णिकारणं काऊण माणिज्जंति, एवं वा छेयसंभवो। ताणि य पुण पलंबाणि घेत्तव्वा इमाए जयणाएफासुयजोणिपरित्ते, एगट्ठियऽवद्धभिन्न भिन्ने य। बद्धट्ठिए वि एवं, एमेव य होंति वहुबीए // 256 / / फासुअंति-विद्धत्थं, जीवउप्पत्तिट्ठाणं जोणी भवति, परित्ता जोणी जस्स पलंबस्स तं भण्णति,परित्तजोणिं परित्तं अणंतं न भवति, एगट्ठिय ति--एगबीयं जहा अवगो आबद्धो अहिल्लगो तस्स तं अबद्धद्धिं अनिष्पन्नमित्यर्थः, भिन्नमिति द्रव्यतो भावतो नियमात्तद्भिन्नं, कह उच्यते-फासुगग्रहणात् एस पढमभंगो व्याख्यातः / अभिण्णे य त्ति द्वितीयभंगग्रहणमेतत् / अबद्धट्ठियपडिवक्खो घेप्पड़, बद्धट्ठिइए वि एवं बद्धट्ठियग्रहणात् / ततियचउत्था भंगा गहिया एवंशब्दग्रहणात् / जहा पढमबितियाण अंते भिण्णाभिण्णं एवं तृति-यचउत्थाण वि अंते भिण्णाभिण्णं कर्त्तव्यमिति / एगट्ठियपडिपक्खो घेप्पति / एमेव य होइ बहुवीए त्ति-एवं बहुवीए वि चउरो भंगा, अबद्धबद्धट्ठियभिण्णाभिण्णेहिं कायव्वा। एते अट्ठ। अण्णे पत्तेय-वणस्सतिपडिपक्खसाहारणेण अट्ठ, एते सोलस। अण्णे फासुग-पडिपक्खे, अफासुगरगहणेण सोलस। एते सव्वे क्त्तीसंभंगा हेट्ठतो णायव्वा। एमेव हॉति उवरिं, एगट्ठिय तह य हाँति वहुबीए। साधारणस्स भावा, आदीए बहुगुणं जं वा // 257|| उवरि रुक्खस्स एमेव बत्तीसं भंगा कायव्वा, एगफासुगजोणि-परित्तो एगट्ठिगअबद्धभिण्णस्स पडिवक्खा एवं बत्तीसं भंगा कायव्वा / एगट्ठिग तह य होति बहुबीय त्ति-इमं पुणव,यणं सेसाण फासुगजोणिपरिताझ्याण वयणाणं सपडिवक्खाण सुयणत्थं गहितं / ताणि य इमाणि-फासुगजोणिपरित्तो एगडिगअबद्धभिण्णसपडि-वक्खा, एवं भंगा बत्तीसं उवरि साहारणस्स भवंति, अनेन अधोवरि बत्तीसभंगक्रमेण फासुगस्स असति साहारणसरीरस्स अभावा अलाभेत्यर्थः, सचित्तं गृह्णाति। तत्रेदं वाक्यं'आदीए बहुगुणं' जं च आदीए बहु गृह्णाति सेसाण बहुगुणं जनयति करोतीत्यर्थः / जं व त्ति-यद् द्रव्यं सचित्ते जं दव्वं बहुगुणं करेति, तं घेण्हति। परित्तं, अनंतं वा नतत्र क्रमं निरीक्षतेत्यर्थः / अहवा-साहारणस्वभावात् यद् द्रव्यं बहुगुणतरं तमादीयते गृह्णातीत्यर्थः / वणस्सतिकायस्स कप्पिया पडिसेवणा गता। गओ य वणस्सतिकायो। इदाणिं बेइंदियादि तसकाए दप्पिया पडिसेवणा भण्णतिसंसत्तपंथभत्ते, सेज्जा उवहीय फलगसंथारे। संघट्टणपरितावण, लहु गुरु अतिवातणे मूलं // 258|| बेइंदियादीहिं तसेहिं संसज्जइ पंथो, संसज्जति भत्तं, संसजति सेजा, संसज्जति उवही, संसजति फलहयं, संसञ्जति संथारो। जंमि य विसए बेइंदियादीहिं पंथमत्ताती संसज्जति, तत्थ जइ दप्पेणं परिगमण करेति तस्थिमेण विकप्पेणिमं पायच्छित्तंसंकप्पे पदभिंदण, पंथे पत्ते तहेव आवण्णे। चत्तारि छच लहु गुरु, संठाणं चेव आवण्णे // 256 / / संकप्प इति-गमणाभिप्यायं करेति, पदभिंदणमिति-गृहीतोप-करणो प्रयातः। पंथेत्ति-संसत्तविसयस्सजोपंथोतंपत्तो, पत्ते त्ति-संसत्तविसयं प्राप्तः / तहेव आवण्णे त्ति-तहशब्दो-पादपूरणे / एवशब्दःप्रायश्चित्तावधारत्ते। आवण्णो प्राप्त उच्यते। दियादिसु संघट्टणपरितावणउद्दवणमिति / चत्तारि छय लहुगुरु त्ति-लहुगुरु-शब्दः प्रत्येकं चत्तारि लहुगुरुए छच लहुगुरुए ते चउरो पच्छित्ता संकप्पादिसु जहासंखेण जोएयव्वा। संकप्पे-चउलहु, पदभेदे-चउगुरु,पंथे-छल्लहु,पत्ते छग्गुरु, सठाण चेव आवण्णे त्ति-बेइदि-याईण संघट्टणविकप्पं आवण्णस्स संठाणपच्छित्तं / चः-पूरणे। एव अवधारणे। इदं पश्चार्ट्स व्याख्यातम्।
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________________ मूलगुणपडि० ३६०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मूलगुणपडि० संघट्टणपरितावणे त्ति-वेइंदियाणं संघट्टणं करेइ, परितावणं करेति, उद्दवणं करेति। लहुगुरु त्ति-वेइंदिया संघट्टेति-चउलहुअं, परितावेतिचउगुरुअं, उद्दवेति-छल्लहु। तेइंदियाण संघट्टणा-दिसुपदेसु चउगुरुगादि छगुरुगे ठाति। चउरिदियाण-छल्लहु, आदिछेदे ठाति। पंचेंदियाण संघट्टणे छगुरुअंपरितावणे-छेदो, उद्दवणे अतिवातणे, मूलं ति-पंचेंद्रियं व्यापादयमानस्य मूलेत्यर्थः। एसो चेवगाहापच्छद्धत्थो। अनेन गाथासूत्रेण स्पष्टतरो अभिहितः। जओविय तिय चउरो पंचिं-दिएहि घट्ट परिताव उद्दवणे। चतुलहुगादी मूलं, एगदुगतिएसु चरिमं तु // 260 / / गतार्था / नवरं एगदुगतिएसु-चरिमं, ति, एग पंचेंदियं वावाएति मूलं, दोसु-अणवट्ठो, तिण्णि पंचेंदिया वावातेतिपारंचियं / तुशब्दो अभिक्खासेवनप्रदर्शनार्थः / एस दारगाथार्थः-समासार्थेनाभिहितः। इदाणिं पंथे त्ति दारं व्याख्यायतेमूइंगउवइयमको-डगा य संबुकजलुगसंखणगा। एते उ उभयकालं, वासासणे य णेगविधा / / 261 // पंथेत्ति-गता, पंथो इमेहिं संसत्तो-मूइंगा-पिपीलिया, उवइग–समुद्देहि काओ मक्कोडगा-कृष्णवर्णा प्रसिद्धा, संबुक्का-अणट्ठिया मंसपेसी दीर्वा पृष्टिप्रदेशे आवर्तकडाहं भवति, क्वचिद्विषये पतित-मात्रमेव भूमौ जलं जलूकाभिः संसज्जति, संखणगा-श्लक्ष्णा संखागारा भवंति, एते मूइंगादी पाणा बहुजले विसए उभयकालं भवंति, उड्डवासासु त्ति भणियं भवति। वासासण्णे य त्ति-वासा-वर्षाकालः आसन्नमिति-प्राप्तः, वर्षाकाल एवेत्यर्थः / अहवा-वर्षाकाले भद्दवद्यासोयमासा, तस्सासण्णे पाउसकालो, तंमि य पाउसकाले अहिणववुट्ठभूमीए अणेगविहा प्राणिनो भवंति-इत्यर्थः। चः-पूरणे, अकालवर्षबहुप्राणिसंमूर्च्छने वा / पंथे त्ति दारं गर्य। इदाणिं भत्ते त्ति दारं-- दधितकबिलमादी, संसत्ता सत्तुगा तु जहियं तु। मूइंगमच्छियासु य, आमहउहादि संसत्ते॥२६२।। दहि-पसिद्धं, तकं ,उदसी छासि त्ति एगटुं / अंबिलं-पसिद्धं / आदिसघाओ-ओदणमादी, एते जत्थ संसत्ता आगंतुगेहिं तदुत्थेहिं वा संसत्ता सत्तूगा, तुसद्दो आगंतुगतदुत्थितप्राणिभेदप्रदर्शने, जहियं तु त्तिजहिं विसए, तुशब्दोऽवधारणे, किं अवहारयति? उच्यते-नियमा तत्र संजमविराधनेत्यर्थः / मूइंगा-पिपीलिया, मच्छिया-मक्षिका एव / मूइंगसंसत्ते अमेहा भवति, मेहाऽवघातो भवतीत्यर्थः / मच्छियासु संसत्ते उड्डे भवति, वमनमित्यर्थः / एसा आयविराहणा। चशब्दः संयमविराधनाप्रदर्शने / भत्ते त्ति दारं गयं। इदाणिं सेज त्ति दारं / जत्थ सेज्जा संसज्जति तत्थिमाहिं चेट्ठाहिं ते पाणिणोऽवहेंति ठाण णिसीय तुअट्टण, णिक्खमण पवेस हत्थणिक्खेवे। उय्वत्तणणुल्लंघण-चिट्ठासेमासु वेच्छंति // 263 / / ठाणं काउस्सग्गं, णिसीयणंउवविसणं, तुयट्टणं-संवट्टणं, णिक्खमणंबहिया, पविसणं-अंतो, हत्थो-सरीरेगदेसो, तस्स णिक्खिवो भूमीए। अहवा-हत्थगो-रयहरणं भण्णति / तं वा णिक्खिवइ मूमीए न आत्मावग्रहादित्यर्थः / उव्वत्तणं नाम-परावर्तनं, एगसेज्जाए उवचिट्ठस्स तुयट्ठस्स वा चिरं आसमाणस्स जदा सरीरं दुक्खिउमारद्धं तदा परिवत्तउमण्णहा ठाति त्ति वुत्तं होइ। उल्लंघणं-एलुगस्स, आदिसद्दाओसंथारगस्स, सितिफल-गाण वा एवमादिसु चेट्ठासु ते संसत्तवसहीए पाणिणोऽवहंति / किं-च जा एया ठाणनिसीयणादियाओ चिट्ठाओ भणिताओ ताजाओ संजमकरी ताओ इच्छंति इच्छिजंतिण इयरातो। तओ भण्णतिजा चिट्ठा सा सव्वा, संजमहेउंति होति समणाणं / संसत्तुवस्सए पुण, पचक्खमसंजमकरीतु // 26 // जा इति-अणिदिवसरूवा चेट्ठा घेप्पति। अहवा-जा इति कारणिककायक्रियाप्रदर्शनेत्यर्थः, कायक्रिया-चेष्टा भण्णति / सव्वा असेसापावविणिवत्ती संजमो भण्णति। हेऊ-कारणं, तुसद्दोऽवधारणे, होइभवति / समणाणं-- साहूणं ति वुत्तं भवति / इह पुण संसत्तुवस्सए पञ्चक्खमसंजमकरी किरिया साहूणं भवतीत्यर्थः। तुसद्दो-अवधारणे। वसहि त्ति दारं गये। इदाणिं उवहि त्ति दारंछप्पति दोसा जग्गण, अजीर गेलण्ण तासि परितावे। ओदणपडिते भुत्ते, उदडओरातिया दोसा / / 265|| छप्पति त्ति-जूआ भण्णति, ताहिं जत्थ विसए उवही संसञ्जति तत्थ बहु दोसा भवंति, ते इमे-ताहिं खज्जमाणो जग्गति, जागरमा-णस्स भत्तं ण जीरति, अजीरमाणे य गेलण्णं भवति / एत्थ गिलाणा-रोवणा भाणियव्वा / अहवा-ताहिं खज्जमाणो कंडूयइ,कंडूय-माणस्स खयं भवति / एवं वा गिलाणारोवणा। तासिं परितावो त्ति-तासिं छप्पयाणं कंडूयमाणे परितावणं करेति, संघटेति वा, उद्दवेइ वा, एत्थ तण्णिप्फण्णं पायच्छित्तं दहव्वं / इह पुव्वद्धे आयसंजमविराहणा दोऽवि दरिसियाइमा पुण आयविराहणा / ओअणवडिए भुत्ते त्ति-ओदणोकूरो, तत्थ पडिया छप्पतिता,सोय ओदणो भुत्तो, तंमिय भुत्ते उड्डे भवति, दओयरं वा भवति। दओदर--जलोयरं भण्णति। उवहि त्ति दारं गयं / _इयाणिं फलगसंथारे त्ति दारंसंसत्तेऽपरिभोगो, परिभोगामंतरेण अधिकरणं। भत्तोवधिसंथारे, पीढगमादीसु दोसा उ॥२६६|| संसत्ते ति-फलहसंथारेसु संसत्तेसु, अपरिभोगो त्ति-अभुज-माणेसु, परिभोगमंतरेणं ति-परिभोगस्स अंतरं परिभोगमंतरं परिभोगाभावेत्यर्थः / अधिकरणं ति-अपरिभुजमानं अधिकरणं भवति। कह? यतो अभिधीयते जंजुञ्जति।उवकारोउवकरणं, तंसेहाइउवकरणं अतिरेग अहिकरणंअज--
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________________ मूलगुणपडि० 361 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मूलगुणपडि० ओ अजयं परिहरंतो, भतोर्वाहसंथारे पीढगमादीसु दोसा उ--एते जे अधिकरणं ते भणिया। तुशब्दः-दोसावधारणे। अहवा इमे दोसासंसत्तेसु तु भत्ता-दिएसु सम्वेसिमे भवे दोसा। संघट्टादि पमज्जण, अपमज्जण सज्जघातो य॥२६७॥ पुव्वद्धं कंठं / संघट्टादि त्ति-संघट्टणं-फरिसणं, आदिसद्दातोपरितावणोद्दवणं एते भत्तादिसु सव्वेसु संभवंति। पमजण त्ति-संसत्तो सेज्जादी जति पमजति तो ते चेव संघट्टत्तादिदोसा भवंति। अपमजण त्ति जइ ते सेजातिसंसत्तेणं पमञ्जति तो 'सजधातो य त्ति'-सद्योवर्तमान एव, प्राणिनां घातो भवतीत्यर्थः / चसद्दो-समुच्चये / फलहसंथारय त्ति दारं गतं। इदाणि सव्वदारावसेस भण्णति। एयं पुण जत्थ जत्थ दारे जुञ्जइ तत्थ तत्थ घडावेयव्यंवेंटियगहणिक्खेवे, णिच्छुभने आतछायं वा। संथारए णिसेज्जा, ठाणे य णिसीयण तुयट्टे॥२६८।। वेंटिय त्ति-उव्वट्टियं पमज्जियं, दुप्पडिलेहियं दुप्पमज्जियं, दुप्पडिलेहियं सुप्पमज्जियं। उवकरणलोली भन्नइ, तीए उवरण-लोलीए गहणं करेति, णिक्खेवं वा / तत्थिमे सत्त भंगा-ण पडिलेहेति ण पमज्जति १,ण पडिलेहेति पमज्जेति 2, पडिलेहेति ण पमज्जति 3, पडिलेहेति पमजति 4, जंत-पडिलेहितं पमज्जितं, तं दुप्प-डिलेहियं दुप्पमजियं५, सुप्पमज्जियंदुप्पडिलेहियं 6, सुप्पडि-लेहियं, दुप्पमज्जियं एतेसुपच्छितं पूर्ववत् / सुप्पडिलेहियं करेमाणस्स वि संघट्टणादिणिप्फण्णं पूर्ववत्। खेलणिच्छुभणे वि एवं चेव, आयवो-उण्ह, आयववज्जाछाया ततोआयवो उवकरणं छायं संकामेति, एत्थ वि अपज्जमाणस्स प्राणिविराहणा। कह? उण्हजोणिया सत्ता छायाए विराहिजंति, छायाजोणिया वि उण्हे विराहिजंति, अतो अपमज्जमाणस्स पाणिविराहणा। एव संथारगेऽविपमजंतस्स संघट्टणादिणिप्फण्णं अकरेमाणस्स य सत्त भंगा, णिसेज्ज त्ति सुत्तत्थाणं निमित्तं जत्थ भूपदेसे णिसिज्जा कजति तत्थ पमज्जंतस्स संघट्टणादिक अकरेमाणस्स सत्तभंगा। ठाणमिति काउस्सग्गट्ठाण तत्थ विएवं चेव, णिसीयणं-उवविसणट्ठाणं, तुयट्टणं-सुवणट्ठाणं,एतेसु वि एवं चेव पुढविसमस्सिएसुजीयेसु एस पायच्छित्तविही भणितो। इमो पुण उवकरणसमस्सिय छप्पदिगादिसु विधी भण्णतिपरिठावण संकामण, पप्फोडण धोव्व तावणे अविधी। तसपाणंमि चउव्विहें, णायव्वं जं जहिं कमति // 266 / / छप्पदिगाओ परिहवेति, वत्थाओ वा वत्थे संकमेति, जहारेणु-गुंडियं. वत्थं पपफोडिजति, एवं पप्फोडेति छप्पया संडतु त्ति, साडणनिमित्तं वा धोवणं करेति! उण्हे अगणीए वा तावेति। सव्वेसु तेसु पत्तेयं चउलहुयं। एवं ताव णिक्कारणगताणं कारणे वि 'अविहि त्ति'-कारणगताणं पुण अविहीए संकामेंतस्स-चउलहुयं / संघट्ट–णपरितावणोद्दवणणिप्फण्णं चट्ठव्वं। तसपाणम्मित्ति-तसकाय-गहणं, सोयतसकाओ चउव्विहोइमो-बेइदिया तेइंदिया चउरि-दिया पंचिंदिया, णायव्वं-बोधव्यं / ज पायच्छित्तं 'जहिं ति'-बेइंदियातिकाए कमति घडति-युजतेत्यर्थः, तं पुण परिठ्ठावणादि-दारेसु जहासंभवं जोएयव्यं / उदाहरणं मत्कुणपिसुकादयः। विंटियग्गहणणिक्खेवद्दाराणं इमा पच्छित्तगाहाअप्पडिलेहऽपमजण-सुद्धं सुद्धेण वेंटियाद्रीसुं। तिगमासय तिगपणए, लहुकालतवोभए जंवा // 270 / / गतार्था / इमो अक्खरत्थो-अप्पडिलेहअप्पमज्जण त्ति-सत्त भंगा गहिया, सुद्धं सुद्धणं ति-जति वि पाणे ण विराहेति तहावि पायच्छित्तं, णिक्कारणमसंजमविसयग्गमणातो ते पुण सत्त भंगा, 'वेंटियादिसुं ति'आइल्लेसु तिसु भंगेसु मासलहुं ततो णंतरेसु तिसु पणगं, चरिमो सुद्धो कायणिप्फण्णं वा 'लहुत्ति'-लहुमासपणगवि-सेसणं / अहवा-लहुँ कालेण तवेण य उभएण विससेयव्वा, मासपणगा य, 'जं वत्ति-जच तसकायणिप्फण्ण तं च दट्ठव्वं। संकप्पादिपदेसुपरिट्ठावणादिपदेसुइमो विही दट्ठव्वोणिक्कारणेऽविहि विधा-य वा विकज्जे य अविधिएण। णिक्कारणे अविहि त्ति-पढमभंगो, विधीय त्ति, बितियभंगो गहितो, णिक्कारणे विधीय ति वुत्तं भवति / कजे अविहीए ण कप्पेति ततियभंगो गहितो, उवयुञ्ज यत्र युज्यते तत्र भंगो योज्यो। गतादप्पिया पडिसेवणा। इयाणिं कप्पिया भण्णतिसंकप्पादी तु पदा, कजंमि विधाय कप्पंति॥२७१।। (इदं) पच्छद्धं कठं / णवरं चउत्थभंगो गृहीतेत्यर्थः / किं कजं का वा विही जेण णिद्दोसो भवति? भण्णतिपाणादिरहितदेसे, असिवोमादी तुकारणा होजा। अस्थि तु वेले तु मणा, व कुञ्ज संसत्तसंकप्पं // 272 / / पाणा दियादी, तेहिं रहिओ-वर्जितेत्यर्थः। को सो देसो जंमि देशे असिवं होज्जा, ओमोयरिया वा होज्जा / आदिसद्दातो आगाढ-रायदुटुं वा होजा / तुसद्दो अवधारणे / एवमादी कारणा जाणिऊण संजमविसयं मोत्तूणं असंजमविसयं गंतुकामे, तेयतत्थ असंजम-विसए अत्थिउकामा वा मज्झेण वा वेलेउमणा कुर्यात् / बेंदियादियाण ठाणसंसत्तविसए गमणादिसंकप्पं, तत्थजेते बेले उमणा तेसिंपंथे गच्छंताणिमा जयणाजं वेलं संसञ्जति, तं वेलं मोत्तु णिब्भए जं ति। सत्थें तु तलिय पिटुं ते, अकंतथिरातिसंजोगा // 273 / / जं वेलं ति-यस्मिन् कालेत्युक्तं भवति, पचूसमज्झण्हअवरोहा-दीसु जं वेलं पंथो संसजति तं वेलंमोत्तुं असंसत्तवेलाए गच्छतित्ति वुत्त भवति। णिब्भए एवं गच्छति। सत्थे उत्ति-सभए सत्थेण गंतव्वा तलिय त्तिउवाहणातो अवणयंति, सत्थस्सय पिट्ठतो वयति। अकंतथिरादिसंजोग त्ति अकंतजणवएण थिरा-दढसंघ-यणा, संजोग त्ति-सो य सत्थो अकंतपहेण गच्छेज्जा, अणकतेण वा / तत्थ जो अक्कतपहेण गच्छति तेण गंतव्वं, सो वि थिरसंघयणेसुवा अथिरसंघयणेसुवागच्छेजा जो थिरसंघयणो तेण गंतव्वं / सो सभएण वा गच्छेज्जा,णिब्भएण वा। जो णिब्भओ तेण गंतव्वं / सो पुण दिया गच्छेज्जा, राओवा, जो दिवा तेण गंतव्वं एसो चेव अत्थो सोलसभंगविगप्पेण वा वत्तव्यो। य इमे सोलसभंगा-अकंतथिर
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________________ मूलगुणपडि० ३६२-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मूलगुणपडि० णिब्भया दिवसतो एस पढमो भंगो, अकंतथिरणिब्भया रातो, एस बितियभंगो, एवं सोलस भंगा कायव्वा / एत्थ पढमभंगे अणुण्णा सेसेसु पडिसेहो। एवं ताव गच्छंताण जयणा भणिया। इमा पुण जत्थ सत्थो भत्तहँ ठाति, रंधणनिमित्तं ठाति, वसति वा तत्थ जयणा भण्णतिठाण णिसीय तुयट्टण, गहितेतरजग्गसुवणं वा। उन्मासथंडिले वा,उवकरणे सो व अण्णत्थ / / 274|| ठाणं-उस्सग्गो भण्णति, निसीयणं-उवविसणं,तुयट्टणंणिव-ज्जणं, गहितेणं ति-उवकरणेणं, तसकायसंसत्तपुढवीए गहितो उवकरणा, सव्वराई उस्सग्गेण अजति / अह ण तरंति तो गहितोव-करणा चेव निसण्णा सव्वराई अजंति / अह तह वि न सक्वेति ताहे जयणाए गहितोवकरणा णिवनंति / इयर त्ति-उवकरणणिक्खेवो / जग्गं तिगहिते मिक्खित्ते वा सव्वरातिं जागरणा कायव्वा। अह ण तरंति जागरितुं तो जयणा सुवणं वा / इमा जयणापडिलेहियपम-जणउव्वत्तणपरावत्तणावगुंठणपसारणा कायव्वा, सुवणं पुण निद्दावसगमनेत्यर्थः / अह सोवकरणस्सएगथंडिलंण होज्ज तो उठभासथंडिले वा उब्भासं पच्चासण्णं तत्थोवकरणं ठवयति। सो वा अण्णत्थसोवति साहूसंवसति, अण्णत्थ त्ति थंडिलं संबज्झति / चोदगाह- सो य एवं पढियव्वो, सो वि किमर्थं पठ्यते? आचार्याह-वा-विकल्पप्रदर्शने, जति पचासण्णे थंडिलं नस्थि ता दूरे वि णिडभए करेंति, उवकरणं एसेवऽत्थो। जम्हा पुव्वं पुढविक्काए गतो तम्हा अतिदेसेण भण्णतिजह चेव पुढविमादिसु, वण्णे जतणा तहेव तु तसेसु / णवरि पमजितु उवहिं, मोत्तूणं करेंति ठाणादि||२७| जहा पुढविमादीसु सुवणे जयणा भसिया, तहा तसेसु वि वत्तव्वा, णवरं विसेसो पुढवीए पमजणा णत्थि, सच्चित्ता पुढवी तो इह पुण अचित्ता पुढवी, णवरं तस संसत्ता तो तसे पमजिऊण तत्थ उवकरणं मोत्तूण करेंति ठाणादी। तं पुण उवगरणं केरिसे ठाणे मोत्तव्वं भण्णतिजत्थ तु ण विलग्गंती, उदहगमादी तहिं तु ठवयंति। संसप्पएसु भूमि, पमजिउंछारठाणं वा / / 276|| जत्थ त्ति-भूपदेसे,तुसद्दो थंडिलावधारणे / ण प्रतिषेधावधारणे / लग्गंती-कंबल्यादिषु, उदइग त्ति-उद्देहिया, आदिसघातो य धण्णकारिमर्कोटकादयः, तहिं तु तत्र भूप्रदेशे उपकरणं स्थापयं-तीत्यर्थः / अह पुण अन्नट्ठाणातो विलाणो वा आगंतूण, संसप्पएसुत्ति संसप्पंतीति संसप्पगा उस्सरंति त्ति वुत्तं भवति। तेसु'संसप्पगेसु भूमिं पमजिउंति'जे तत्थ थंडिले पुव्वागता ते पमजिउं भूमिं पमजिऊण भूतिं ददंतीति वक्क सेसं / छारहाण व त्ति--अह समंततो उदयिगमादी संभवो होज्जा ताहे छारहाणं पाडलेहेउ तत्थ ठाक्यंतीत्यर्थः। अकंतथिरातिसंजोग त्ति' इह वयण सामण्णेण अकंतथिरातिसंजोगा कता। तद्विशेषव्याख्याप्रतिपत्तिनिमित्तमुच्यतेबिय तिय चउरो पंचिं-दिएसु अर्कत तह मणक्कते। थिरणिन्मतेतरेसुय, संजोगा दिवसरत्तिं वा / / 277|| बेइंदिया संखणगमादी, तेइंदिया-पिपीलियादि, चउरिंदियाइंदगोवादी, पंचेंदिया-मंडुक्कलियादी, एते जणपदेण अक्तावा, अणवंता वा, थिरा वा, णिन्भतो वा पहो होज्जा इयरगहणा अथिर-सभयग्गहणं, संजोगा दिवसरन्तिं वा, पूर्ववत्, णवरं पुव्वं बेइंदिएसु अकंतथिरणिडभ-- यदिवसतो, ततो पच्छा अकंत अथिरणिब्भय-दिवसओ, तओ पच्छा अणकंतथिरणिडभयदिवसतो, तओ पच्छा अणवंत अथिरनिब्भयदिवसओ, एते चउरो भंगा। अण्णे एतेसु चेव ठाणेसु रत्तिए चउरो भंगा। एते अट्ठ। तओपच्छा तेइंदिएसु एवं चेव अट्ठाततो पच्छा चउरिदिएसु एवं चेव अट्ठ। तओ पच्छा पंचिंदिएसु वि एवं चेव अट्ट। एते चउरो अट्ठगा बत्तीसं भंगा णिभएण भणिया। ततो पच्छा बेइंदियादिसु सभएण पुव्वकमेण वा अण्णे बत्तीसं भंगा णेयव्वा / एते सव्वे चउसईि। एस ताव कमो भणितो इयरहा जत्थ जत्थ अप्पतरो दोसो तेण उक्कमेणावि गंतव्वं / एसा पंथे सट्ठाणे य जयणा भणिता। पंथे त्ति दारं गये। इदाणिं भत्तदारजयणा भण्णतिपत्ताणमसंसत्तं, उसिणं पउरंतु उसिण असतीए। सीतं मत्तगपेहिय, इतरत्थ छुभंति सागरिए॥२७॥ पत्ताणं जत्थ देसे भत्तपाणं संसज्जति, तं देसं पत्ताणं इमा जयणा / असंसत्तंति-असंसज्जितदव्यं ओदणादिजति पत्तमुण्हं तो गेहंति। पउरप्रभूतं, तु शब्दो-पादपूरणे, वक्खमाणविहिप्रदर्शने वा। उसिणं-उण्हं, तस्स असति अभावादित्यर्थः। अओ उसिणाभावा असंथरमाणी य सीतं गेण्हति / जतो भण्णति-सीतं मत्तगपेहियं, सीयं-सीतलं, मत्तगोतुच्छभायणं, तत्थ सीयलं गेण्हिय, पेहियं-प्रत्युपेक्ष्य, इतरत्थ त्ति-- पडिग्गहे, छुभंति-प्रक्षिपंति।तंपुण वुज्झति असागारिए गृहस्थेनादृश्यमानेत्यर्थः / सागारियग्रहणाच इदं ज्ञापयति, कदाचित्कमढगेऽपि गृह्यते। तत्र च गृहीतं, पडिग्गहे प्रक्षिप्यमानं सागारिकं भवति, अओ असागारिके प्रक्षेप्तव्यमिति / अह मत्तगमादीहिं जंगहियं तं संसत्तं होज्जा। तस्सिमा परिट्ठावणविहीतिणवइझुसिरहाणे, जीवजढे चक्खुपेहिए णिसिरे। मातस्संस्सियघातो, ओदणभक्खीतसासिसुवा॥२७६।। तिणा दडभमाती, वती-बाडी, झुसिरसद्दो एते चेव, प्रत्येकं, अहवातिणकट्ठसंकरो जत्थतझुसिरहाणं भण्णति, एतेय तिणाति जति जीवजढा जीववर्जिता इत्यर्थः, तेसुतिणाइसुचक्खुपेहिएसु, णिसिरे परित्यजेत्यर्थः / सा पुण णिसिरणा दुविहा-पुंजकणा, प्रकिरणा वा। बीजवत् आगंतुयेसु पिपीलियादिसु पकिरणा संभवति, तदुत्थेसु किमिगादिसु पुंजकणा संभवति। चोदकाह-किमर्थं तिणवतिमादिसुपरिट्ठाविञ्जति? उच्यतेमा तस्संसितधातोत्ति-मा इत्ययं प्रकृतार्थावधारणे, अविधिपरित्यागप्रतिषेधप्रदर्शने च / तदित्यनेन भक्त संबध्यते / संसिता-आश्रिता,
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________________ मूलगुणपडि० 363 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मूलगुणपडि० धातो-मारणं, तम्मि संसिता-तस्संसिता, ताण घातोतस्संसि-तघातो केण पुण तस्संसिताण घातो भवेज? उच्यते-ओदणभक्खी तसासिसु वत्ति-ओयणं जे भक्खयंति ते ओयणभक्खी, सुणगादी ते य ओदणं भक्खयंति / जे तस्संसिया पिपीलिकादी ते विभक्ख-यंति, ति वुत्तं भवति / पिपीलिकादितसकायं असंति भक्खयंति जे ते तसासिणा, ओदणभक्खि त्ति वुत्तं भवति। अतो मा तेसु ओदणभक्खिसु तसासिसु वा धातिज्जिसंसि त्ति काउं व त्ति घातिसु परिहविज्जति भत्तं, एस जतणा भणिता। जत्थ सत्तुका पुण संसजंति तत्थिमा जयणातदिवसकताण तु स-तुगाण गहिताण चक्खुपडिलेहा। तेण परं णव वारेऽ सुद्धे णिसिरे तरे मुंजे // 280 / / तुसद्दो-अवधारणे, तदिवसकताणं चेव, जवा भुग्गा पासाणजंतेण दलिया साहिया सत्तुगा भण्णंति, तेसिंगहिताणं आत्मीकृतानां चक्खुपडिलेहा भवतीत्यर्थः / चोदगाहणणुण सव्वच्चियचक्खु-पडिलेहणा को अभिघातो वा जेण चक्खुपडिलेहणं करेति इति? उच्यते-पिंडविसोही पडुछ ण चक्खूवतिरित्ता पडिलेहा, इमो पुण से अभिप्पाओ भायणत्थस्सेव वत्थुणो अवलोयणा चक्खुपडिलेहा णरयत्ताणविगप्पणावस्थाप्येत्यर्थः / तेण परं ति-तद्दिवसकताण परओ दुदिवसातिकयाणं ति वुत्तं हवति। णव वारे त्ति-उक्कोसं णव वारा पडिलेहा कायव्या / अशुद्ध त्तिजतिणवहिं वाराहिं पडिले-हिज्जमाणा ण सुद्धा तो णिसिरे-परित्यजेत्। इयरे भुज त्ति, इयरे जे सुद्धा णवमवाराए अरत्तो वा ते भोक्तव्या इति। कह पुण सत्तुगाणं पडिलेहा भण्णति। दारंरयहरण पत्तवंधे, पइरित्तुच्छल्लियं पुणो पेहिति। ऊरणिय आगराऽसति,कप्परथेवेसु छायाए॥२८१॥ पत्तगबंधे मलिनीकरणभया रयत्ताणं पत्थरेऊण तस्सुवरि पत्तग-बंधं, तंमि पत्तगबंधे सत्तुगा पइरित्तु-प्रकीर्य वाप्येत्यर्थः / उच्छल्लियं तिएकपा नयित्या जा तत्थ पत्तगबंधे उयरिणिया लग्गा ता उद्धरेत्तु कप्परे कजंति / पुणो पेहिति-पुणो पतिरित्तु छल्लित्तु पुणो पेहिजंति त्ति वुत्तं भवति / एवं णव वाराए सा सत्तुगपडिलेहणविही भणिया / ऊरणिया आगर त्ति- जा ऊरणिया पडिलेहमाणेण कप्परादिसु कता ताओ आगरातिसुपरिद्वावेयव्वा / को पुण आगरोभण्णति-जत्थघरट्टादिसमीवेसु बहुं जवभुसुट्टे सो आगरो भण्णति, असति त्ति-तस्सागरस्सासति- | कप्परथेवेसुति-कप्परथेवा सत्तुगा छोणतंकप्परं सीयले भूपदेसे छायाए | परिट्ठ-विधति, जत्थपाणगं संसज्जति तत्थ आयाम उसिणोदगं गेण्हति / पूतरगादिसंसत्तं च धम्मं करगादिणा गालिज्जति, जत्थ जत्थ गो रससोवीररसगादीहि संसज्जति तत्थ तत्थ तेसिं अग्गहणं सीयग्गहणं सीयग्गहियाणं वा परिठ्ठवणविही। जा परिहावणाणिज्जु तीए भणिया सा दहव्वा इति। भत्तपाणदारजयणा गता। इदाणि वसहिदारजयणा भण्णतिदोण्णि उपमजणाओ, उड्ढे वासासु ततिय मज्झण्हे। वसहिँ बहुसो पमज्ज व, अतिसंघट्टणेहिं गच्छे // 28 // जत्थ वि वसही ण संसजति तत्थ वि दो वाराओ दुवद्धिएसु मोससु वसही पमजिजति, पचूसे, अवरण्हे य / एताओ चेव दो पमजणाओ, ततिया मज्झण्हे भवति / संसत्ताए पुण वसहीए बहुसो, पमज्जयं-कंठ, नवरं वकारो विकप्पदरिसणे। को पुण विकप्यो? इमो--जइ उड्ढवासासु संसता विवसही पुव्वाभिहियप्पमाणेणेव असंसत्ता भवति, तोणाइरित्ता पमज्जणा नोचेवबहुसोपमज्जण त्ति।अह बहुवारा पमजिज्जमाणे अतिसंघट्टो पाणिणं भवति तो अण्णवसहिं गच्छतीत्यर्थः / अहेगदेसेसु मुइंगादि ण गरहवेजा। ___ अन्नयपाणिसंताणगो वा तत्थिमा विहीमूइंगमादिणगरग, कुडमुहछारेण वा विलक्खेंति / चोर्देति य अण्णोण्णं, विसेसओ सेह अइगोले // 283|| मुइंगा-पिपीलिया,आदिसद्दातो-मकोडादि, नगरं परघरं विसेसाओ आश्रयतीत्यर्थः / कुडमुहो-कुडकंतोतंतत्थठवयंति, छारेण या परिहरंतो विलक्खितं करेइ / अणुवउत्ते य गच्छन्तो चोदंति य अन्नोन्नो, सेहो अहिणवदिक्खितो, अइगोलो पुण वालो णिद्धम्मो वा, 'एते विसेसओ चोदयंतीत्यर्थः / वसहि त्ति दारजयणा गता। इयाणिं उवहिदारजयणा भण्णतिअइरेगो विधिगहणं, सत्तुवभोगेण मा हु संसजे। महुरोदगेण धुवणं, अभिक्ख मा छप्पदा मुच्छे / / 284 // जत्थ विसए उवही संसजति, तत्थ चोलपट्टगादि उवहिअति-रित्ता घेप्पति। अह किमित्थं अतिरित्तोबहिग्गहणं स्यात्? उच्यते सत्तुवभोगेण साहू संसज्जइ, एगपड़ोवयारस्स सततुवभोगाओसत-तोवभोगादित्यर्थः / मा, हुरित्ययं यस्मादर्थे द्रष्टव्यः / संसज्जे त्ति-संसज्जति तस्मात् अइरित्तोयहिग्गहणं क्रियत इति, किंचित् मधुरोदगेण मधुरपाणएण उण्होदगादिणा धुवणं अभिक्खणं पुणो पुणो कञ्जति त्ति वुत्तं भवति / स्यात्, किमर्थम् उच्यते मा छप्पया मुच्छे संमूर्च्छत्यर्थः / जं वत्थं सोहेयध्वं तम्मि जति छप्पया होज्जा ता इमेण विहिणा अण्णवत्थे संकामेयव्वाकायल्लीणं कातुं, तहिं सकामेतरं तु तस्सुवरिं। अहवा कोणाकोणं, मेलेतुं, ईसि घटेति // 285 / / जं वत्थं न धुवियव्यं तं कायलीणं काउं वि, कायो सरीरं लीणं काउं अणंतरियं पावरिउंतहिं संकामेति, किं हत्थेनोद्धृत्य संक्रमेन्नेत्युच्यते, इतरंतु तस्सुवरि इयरंजंधुवियव्वं, तुः-पूरणे, तस्स त्ति-पुष्वपाउणस्स उवरि पाउणे / अहवा- अण्णोण्णसंकामणविही भण्णति-कोणमिति कण्णं धोव्वमाणस्स अधोव्वमाणस्स यवत्थस्स कण्णाकण्णे मेलेऊणं ईसिं सणयं छप्पदा घट्टेउं संकामेति। उवहिजयण त्ति दारं गये। इयाणिं फलजयणा भण्णतिफलगादीणि अभिक्खं, पमञ्जणा हेट्ठि उपरि कातव्वा। मा य हु संसजेजा, तेण अभिक्खं पतावेज्जा // 256|| फ लगा-चंगपट्ठादी, आदिसहातो-संथारगमीसगपीढगादी, एएसिं अभिक्खणं पुणो पुण्णो, पमजणा रयहरणे
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________________ मूलगुणपडि० 364 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मूलगुणपडि० ण हेतुवरि कायव्दा। मा-प्रतिषेधे। चपूरणे, हुशब्दो यस्मादर्थे, जम्हा छप्पदा विजमाणा फलगादीणं गमणादीहिं संसजंति, तेणं ति-तम्हा, अभिक्खणं-पुणो पुणो, तुम्हे, पदावेज्जा / फलहसंथा-राण जयणा गया। इदाणिं उवहिमादीणं सामण्णा जयणा भण्णतिवेंटियमाईएसुं, जतणाकारी तु सध्वहिं सुज्झे / अजयस्स सत्त भंगा, सट्ठाणं, सहाणं चेव आवण्णे // 27 // वेंटिगादि-उवगरणजाए गहणणिक्खेवादिकिरियासु जयणाकारी तु सव्वहिं सुद्धो अप्रायश्चित्तीत्यर्थः। अजयणाकारिस्स पुव्वाभिहिता सत्त भंगा भवंति, पायच्छित्तं पूर्ववत् / अजयणाए य वट्ठमाणो बेइंदियाईणं संघट्टणपरितावणउद्दवणादी आवण्णे सट्ठाणपायच्छित्तं दट्ठव्यमिति। अह कस्सऽवि वणभगंदलादी किमिया हवेज, ते सिमा णीहरणपरिट्ठावणाविही भण्णतिपोग्गलमाई असती, समितं भगंदले छोढु णीसरति। अणुण्हे किमिकुहादि, किमिया पिउडादिणीणेतुं // 258|| कस्सइ साहुस्स भगंदलं होज, तस्स ततो भंगदलाओ किमिया उद्धरियव्वा / पोग्गलं-मंसं, तंगहेऊण भगंदले पवेसिञ्जति, ते किमिया तत्थ लग्गति / असती पोग्गलस्स समिया घेप्पड़, समिता कणिक्का, महुघएहिं तुप्पेउमदिउंच भगंदले छुभति। ते किमिया तत्थ लग्गति। जे यते पोग्गल समियादीसु लग्गा किमिया तेणीहरंति-परित्यजंति। अणुण्हे छायाए त्ति वुत्तं भवति। तत्थ वि अद्दकडेवरादिसु, किमिकुट्ठादि किमिया' आदिसद्दाओ वणकिमियादी अद्दकलेवरादिसु परिहवेति / आर्द्रकलेवरस्या भावात् पिउडादिसुछुभंति, पिउड पुण-ओज्झं भण्णति, णीणे भगंदलादिस्थानात्। संसत्ता पोग्गलादी, पिउडे पोगे तहेव धम्मे य। आयरिये गच्छंमिय, बोहियतेणे य कोंकणए / / 286|| साहुणा वा भिक्खं हिडतेण संसत्तं पोग्गलं लद्धं, आदिसद्दातो मच्छभत्तं वालद्ध, तंतं पि तहेव पुव्वाभिहियकडेपरादिसु परिहवेंति। पिउडे वा पोमेवा 'पोम' ति कुसुंभयं, अण्णे पुण आयरिया पोम पोममेव भण्णंति। आर्द्रचम्मे वा महुघयतोप्पिते, परित्यजेत्यर्थः। एवं तसकायजयणा भणिया / भवे कारणं जेण तसकायविराहणं पि कुजा। किं पुणतं कारणं जेण तसकायविराहणं करेति? भण्णति-'आयरिएत्ति'-आयरियं कोइ पडिणीओ विणासिउमिच्छति, सो जइ अण्णहा ण ठाइ तो से ववरोयण पि कुजा, एवं गच्छट्ठाए वि। बोहिंगतेणे यति-जे मेच्छा माणुसाणि हरंति ते बोहिगतेणा भण्णंति / अहवा-बोहिगा-मेच्छा, तेणा पुण इयरे चेव, एते आयरिस्स वा गच्छस्स वा वहाए उवद्विता। चसहातो--कोति संजतिं बला घेत्तु-मिच्छति, चेतियाण वा-चेतियदव्वस्स विणासं करेइ, एवं ते सव्ये अणुसट्ठीए अट्ठायमाणा ववरोवेयव्वा / आयरियमादीणं नित्थारणं कायव्वं, एवं करेंतोऽवि सुद्धो। जहा सो कोंकणे एगो आयरिओबहुसिस्सपरिवारो संझकालसमए बहुसावयं अडविं पवण्णो / तंमि य गच्छे एगो दृढसंघयणी कोंकणगसाहू अस्थि / गुरुणा य भणियं अज्जो ! जं एत्थदु-1 द्वसावयं किंचि गच्छे अभिभवति तं णिवारेयव्वंण उवेहा कायव्वा। ततो तेण कों कणगसाहुणा भणियं-कहं विराहि-तेहिं अविराहितेहिं णिवारेयव्वं? गुरुणा भणियं-जइ सक्कइ तो अविराहितेहिं पच्छा विराहितेहिं विण दोसो। ततो तेण कोंकणगेण तवियं, सुवह वीसत्था अहं भे रक्खिस्सामि। तो साहवो सव्वे सुत्ता, सो एगागी जागरमाणो पासति सीहं आगच्छमाणं, तेण हडिति जंपियं, ण गतो, ततो पच्छा उहइऊण सणियं लहुडेण आहओ / गतो परिताविओ / पुणो आगतं पेच्छति। तेण चिंतियं न सुद्धपरिहारो ताविओ तेण पुणो आगओ, पुणो गाढयरं आहतो, मतो। पुणोऽदिततियवारा एवं चेव,णवरं सव्वायामेण आहतो। गता राती। खेमेण पचूसे गर्छता पेच्छति। सीहं अणुपंथे मतं। पुणो अदूरे पेच्छंति बितितं,पुणो अदूरंते ततिय। जो सो दूरे सो पढम सणियं आहओ, जो वि मज्झे सो बितिओ, जो णियडे सो चरिमो गाढं आहतो मओ / तेण कोंकणएण आलोइयमायरियाणं सुद्धो / एवं आयरियादी कारणेसु यावाएंतो सुद्धो / गता पाणातिवायरस दप्पिया कप्पिया पडिसेवणा। गतो पाणातिवातो। (नि०चू० 130 / मृषावादस्य दपिकाकल्पिकामूलगुणप्रतिसेवना 'मुसावाय' शब्देऽस्मिन्नेवभागे गता) इयाणिं अदिण्णादाणं भण्णति, तस्स पडिसेवणा दप्पिया, कप्पिया या तत्थ दप्पिया ताव भण्णतिदुविधं च होइ तेण्णं, लोइय लोउत्तरं समासेणं। दव्वे खेत्ते काले, भावम्मिय होइ कोहादी॥३२४॥ दुविधं-दुभेयं, चः-पायपूरणे, होति-भवति, तेणं-चौर्य, कतमं-- दुभेयम्? उच्यते-लोइयं, लोउत्तरं च। समासेन। व्याख्या पूर्ववत्। तत्थलोइयं चउव्विह-दव्वेत्ति पच्छद्धं / एसा चिरंतणगाहा / एआए चिरंतणगाहाए-इमा भद्दबाहुसा मिकया चेव वक्खाणगाहा-- महिसादिछत्तजाते, जहियं वा जधिरं विवचासं। मच्छरभिमाण धण्णो, दगमाया लोभओ सव्वं // 325|| दव्वअदिण्णादाणे महिसादि उदाहरणं, खेत्तअदिन्नादाणस्स छेत्तजाय ति-छेत्तं-खेत्तं,जाय त्ति विकप्पा / कालअदिण्णादाणस्स वक्खाणं / जहियं वा जचिरं विवचासं ति–जम्मि काले-अवहरति, जावतियं वा कालं विवचासितं वत्थं भुजतितं कालं तेण्णं भावम्मिय होति कोहादी' अस्य व्याख्या-मच्छरपच्छद्धं-मच्छरे त्ति-कोहो, अहिमाणोतत्थ धण्णोदाहणं, दर्ग-पानीयं, तं मायाए उदाहरणं, लोभओ सव्वं ति–जमेयं दव्वादिभणियं एयमि सर्वत्र लोभो भवति इत्यर्थः।जंतं लोइयंदव्यतेणं तं तिविधं-सचितं अचित्तं मीसं। जतो भण्णतिदुपयचउप्पयमादी, सचित्ताचित्त होति वत्थादी। मीसे सचामरादी, वत्थगमादीतु खेत्तम्मि॥३२६|| जाइयवत्थ दएसुं, काले दाहंण देइ पुणे वि।
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________________ मूलगुणपडि० 365 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मूलगुणपडि० एसो उ विवजासो, जंच परकप्पणो कुणति॥३२७|| दुपयं-माणुस्सं, चउप्पदं-महिसमादि, आदिसद्दातो-अपदं, तं च- | अंबवडगादि, एयं जो अवहरति एयं सचित्तदव्वतेण्णं भवति। अचित्त होइ वत्थादी, आदिसहातो-हिरण्णादी, मीसयदव्यतेपणं-सचामरादिअस्सहरणं, आदिसद्दातो जं वा अण्णं सभंडं दुपदादि अवहरिज्जति तं सव्वं मीसदव्वतेण्णं / 'छेत्तजाए त्ति' अस्य व्याख्या-वत्थुमादीओ खेत्तम्मि, वत्थु तिविहं-खातं, ऊसितं, खाओसियं / खात-भूमिगिह, ऊसियंपासादादि, खातोसियं-हेट्ठा भूमिगिह उवारं पासाओ कओ। आदिसछाओ सेतुं, केउघेप्पति। एवमादियाण खेत्ताण जो अवहारं करेति, तं खेत्तम्मि तेण्णं भवति। 'जहियं वाजचिर विवञ्चासंति' अस्य व्याख्या। जाइय गाहा-जाइतो-पाडिहारिता वत्था गहिया ते य गहणकाले एव भासिया-अमुए काले 'दाहं ति' अमुगकालं वसते परिभुंजऊणं गिम्हे पच-प्पिणिस्सामि। 'ण देति पुण्णे वित्ति' पुण्णे वि अवहिं काउंण देति ताणि वस्त्राणीत्यर्थः / एसो उ विवजासो, 'एसो उत्ति'-जो भणिओ। तुसद्दो अवधारणे, 'विवज्जासो त्ति'-ण जहा भासितं तहा करेति त्ति वुत्तं भवति / एवं अवहिकालाओ जावतियं / कालं उवरि अदत्तं भुंजति त कालओ अदत्तादाण भवति। जं च त्ति-वत्थादिवतिरित्तस्स अणिविट्ठसरुवस्स गहणं, 'पर'-आत्मव्यतिरिक्तं न स्वकीयं परकीयमित्यर्थः / तंपुष्वाभिहिएण कालविवचासेण अप्पणा कुणति, आत्मीकरोतित्यर्थः / 'अहवा--जंच परकप्पणो कुणति त्ति' सामण्णे ण दिव्वादियाण वक्खाणं, जं च त्ति दव्वखेत्तकाला संवज्झंति तेसिं परसंतगाण जमप्पीकरणं त तेण्णं भवति त्ति वुत्तं भवति। काले ति गयं / 'मच्छरे त्ति' अस्य व्याख्याकोहा गोणादीणं, अवहारं कुणति बद्धवेरो तु / माणे कस्स बहुस्सति, परधण्णसवत्थुपक्खेवो // 328| पुव्वद्ध-कोहा-कोवेण जंगोणादीणं अवहरणं करेति। आदिसघातोमहिषाश्वादीनां, बद्धवैरत्वात्, तुसद्दो-कोहतेण्णा-वधारणे / अहवासीसोपुच्छति-भगवं! कहं क्रोधात् स्तैन्यं भवति? आचार्याऽऽहगोणादीणं अवहरणं करेति, बद्धवैरो तु निर्णयः एवं कोहातो भावतेण्णं भवति / 'अहिमाणधण्ण' त्ति अस्य व्याख्या-माणे पच्छद्धं-जहा मुसावाए तहेहाविणवरं परधण्ण हरिऊण 'सवत्थुपक्खेवो त्ति'–स इति स्वात्मीयो, वत्थुरिति-धण्णरा, सी, पक्खेवो पुण छुमणं भन्नति, मोहजीविस्सामि, ति पराययंधण्णं अवहरिऊण सवत्थुए पक्खिवेत्ता भन्नति। पुव्वं मए भणितं-मम बहुस्सती हत्थो इदाणिं पच्चक्खं, एवं माणतो भावतेण्णं भवति। 'दगमायं ति' अस्य व्याख्यावारग सारणि अण्णा-वएसपारण णिक्क भेत्तूणं / लोहेण वणिगमादी, सव्वेसु वि वत्तती लाहो // 326 / वारगपुव्वद्ध बहवे करिसगा वारगेण सारणीए खेत्ताणि एजति वारगोपरिवाडी, सारणी-णिक्का, तत्थेगो करिसगो अण्णत्थ वारए अण्णावदेसा पाएण णिकं भेत्तूण, अण्णावदेसा अदंसियभावो ठितो चेव, सोऽहं णिउडमाणो दिस्सिस्सामि त्ति पाएण णिक्कं भेत्तूण फोडेऊण अप्पणो खेत्ते पाणियं छभति एवं भावओ मायातेण्णं भवति।'लोभतो सव्यं ति' अस्य व्याख्या-'लोभेणं' पच्छद्ध लोभेण तेण्णं च णियमा तिण्णि-जं वाणियगा परस्स चक्खं वंचेऊणमप्पं करेंति, कूडुल्लकूडक्काडमप्पेहिं वा अवहरंतितं सव्वं लोभतेषणं / अहवा-सव्वेसु कोहातिसु णिवडति लोभो त्ति सव्वेसु कोहातिसु लोभान्तर्भूत एवेत्यर्थः / एवं भावतो लोभतेण्णं भवति। लोइयं तेण्णं गतं। इयाणि लोउत्तरिय तेण्णं भण्णतिसुहुमं व बादरं वा, दुविधं लोउत्तरं समासेणं / तण डगल छार मल्लग-लेवित्ति रिए य अविदिपणे // 330 // सुहुमं-स्वल्पं, बादरं--णाम-बहुगं, पायच्छित्तविहागेण वा सुहुमबादरविकप्पो भवति / जत्थ पणगं-तं सुहुमं, सेसं बादरं / चशब्दोभेदसमुच्चये-दुविहं-दुभेदं लोगो-जणवतो, तस्स उत्तरं-पहाणं तम्मि ठिता जे ताण तेण्णं लोउत्तरं तेण्णं भवति, तं समासेण-संखेवण दुविहं ति वुत्तं भवति / तस्सिमे भेदा-तणाणि-कुमुगादीणि, डगलगाउवलमादी, अगणिपरिणामिगमिंधणं छारो भण्णति / मल्लगं-सरावं, लेवोभायणरंगणो, इत्तिरिये य त्ति-पंथं वचंतो जत्थ विस्समितुकामो तत्थोग्गहं णाणुण्णवेइ / चसदाओ कुडमुहा-दयो घेप्पंति। अविदिण्णे त्ति वयणं सव्वेसुतणादिसु संबज्झति। किंचान्यत्अविदिण्ण पाडिहारिय, सागारियपढम गहणखेत्ते य। साधम्मियऽऽण्णधम्मिय-कुलगण संघेय तिविधं तु // 331|| अविदिण्णमिति-गुरूहिं पाडिहारियं ण पचप्पिणति, सागारिय-संतियं अदिण्णं भुजति, पढमसमोसरणे वा उवहिं गेण्हति, परखेत्ते वा उवहिं गेण्हति, साहम्मियाण वा किंचि अवहरति, अण्णधम्मि-याण वा अवहरति, कुलस्स वा अवहरति, एवं गणस्स वा संघस्स वा, चसद्दो समुन्धये / तिविहं सचित्तादि दव्वं भण्णति। एतेसिं तणाइयाण सामण्णतो ताव पच्छित्तं भणामितणडगलगछारमल्लग-पणगं लेवित्तिरीसु लहुगो तु। दव्वादि विदिण्णे पुण, जिणेहिं उवधी उ णिप्फण्णं / / 332 / / तणेसुङगलगेसुछारेसुमहल्लगेय अदिण्णे गहिएपणगंपच्छित्तं भवति / लेवे अदिण्णे गहिते पणगं पच्छित्तं भवइ / इत्तिरिए य रुक्खहेट्ठादिसु अणणुण्णविएसु लहुओ उ मासो भवति / तुशब्दात्-कुडमुहादिसु य। दव्यादिविदिण्णे पुण त्ति-दव्वे पतिविसिट्टे अदिण्णे गृहीते, पुण विसेसणे, पुव्वाभिहिया पच्छित्ताओ, जिणा-तित्थ-गरा, तेहिं उवकरणणिप्फण्णं भणियं, जहण्णोवहिम्मि-पणगं, मज्झिमे–मासो, उक्कोसे चउमासो। एवं उवकरणणिप्फण्णं। अविदिण्णे त्ति अस्य व्याख्यालळू ण णिवेदेंती, परि जति वा णिवेदितमदिण्णं / तत्थोवहिणिप्फणं, अणवठ्ठप्पो व आदेसा॥३३३।।
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________________ मूलगुणपडि० 366 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मूलगुणपडि० कोइ साहू भिक्खादिविणिम्गतो उवकरणादिजातं लद्धं न निवेदेति, लद्धं लभित्ता ण णिवेदेति / ण इति-पडिसेहे, णिवेदनम्-आख्यानम्, आयरियउवज्झायाणं ण कथयतीत्यर्थः / अहवा-परि जति वा, अणिवेदित चेव परिभुजति / अहवा-णिवेदितं अदिण्णं भुंजति, एवं अदत्तादाणं भवति। एत्थोवहिणिप्फण्णं दट्ठव्वं / सुत्तादेसेण वा अणवट्ठो भवति। 'पडिहारिय त्ति' अस्य व्याख्या। दारगाहापडिहारियं अदंते, गिहीण उवधीकतं तु पच्छित्तं / सागारिसंतियं वा, जं मुंजति असमणुण्णातं // 334 // गिहिसंतियं उवकरणं पडिहरणीयं पडिहारितं अदंते अणप्पिणते तेसिं गिहीण उवहीकयं उवहिणिप्फण्णं भवतीत्यर्थः / सागारिए त्ति-अस्य व्याख्या पच्छद्धं, सागारिओ सेज्जायरो तस्स संतिय स्वकीयं, धाविकल्पे, जमिति उवगरणं, भुंजति परिभोगं करेति / असमणुण्णायंतस्स-अदितस्सेत्यर्थः / एत्थं पितहेव उवहिणिप्फण्णं। 'पढमगहणे त्ति' अस्य व्याख्या। दारगाहागुरुगा उ समोसरणे, परखेत्ते ऽचित्त उवधिणिप्फण्णं / सचित्ते चउगुरुगा, मीसे संजोगपच्छित्तं // 33 // पढमसमोसरण-वरिसाकालो भण्णति, तत्थ भगवया णाणुण्णायं उवहिग्गहणं, तम्मि अणुण्णाते गहणं करेंतस्स अदत्तं भवति / एत्थ चउगुरुगा पायच्छित्तं भवति। 'खेत्ते त्ति' अस्य व्याख्या-तिण्णि पदा, परा-अण्णगच्छिल्लगा तेसिं जं खेत्तं तं परखेत्तं, तमि य परखेत्ते जति अचित्तं दव्वं गेण्हति तत्थ से उवहिणिप्फण्णं पायच्छित्तं भवति। सचित्ते चउगुरुग त्ति-अह परखेत्ते सचित्तं गेण्हति तत्थ से चउगुरुयं पच्छित्तं भवति।मीसे त्ति मीसो सोवहितो सीसो वा तंच संजोगपच्छित भवति / तत्थ जं अचित्तं तत्थोवहिणिप्फण्णं, ज सचित्तं तत्थ चउगुरुयं / एयं संजोग पच्छित्त भण्णति। ___ 'साहम्मिय त्ति' अस्य व्याख्यासाधम्मिया य तिविधा, तेसिं तेण्णं तु सचित्तमचित्तं / खुड्डादी सचित्ते, गुरुगोवधिणिफण्णमचित्ते // 336|| समाणधम्मिया-साहम्मिया, स्वप्रवचनं प्रतिपन्नेत्यर्थः / चशब्दोपादपूरणे / ते तिविहा-लिंगसाहम्मिया, पवयणसाहम्मिया, ठवणासाहम्मिया य, चउभगो आदिल्ला तिण्णि भंगा तिविहा साहम्मियं त्ति वुत्तं भवति। चउत्थो भगो असाहम्मिओ त्ति पडिसिद्धो। अहवा-तिविहा साहम्मियासाहू, पासत्थादि, सावगा या अहवा-समणा, समणी,सावगा या'तेसिं ति' साहम्मिया संवज्झति। तेण्ण अवहारो, तुशब्दो- यच्छब्दे च द्रष्टव्यः / सचित्त-सचेयणं, अचित्तं-अचेयणं तेसिं तेण्ण ज त सचित्तमचित्तेत्यर्थः। किं पुण सचित्त भवति? खुड्डादी सचित्ते खुड्डो-- सिसू वालो त्ति वुत्त भवति / आदिसद्दातो अखुड्डो वि तंमि य सचित्ते अपहृते गुरुगा पच्छित्तं भवति। अचित्ते पुण-उवहिणिप्फण्णं भवति। इदाणिं कुलगणसंघा जुगवं भण्णतिएते चिय पच्छिता, कुलम्मि दोहिं गुरू मुणेयव्वा / तवगुरुया तु गणम्मि, कालगुरू हॉति संघम्मि॥३३७।। एते चिय-जे साहम्मियतेण्णे पच्छित्ता भणिता, ते चिय कुलतेण्णे वि दहव्वा / नवरं दोहिंगुरू मुणेयव्या, दोहिं तिकालतवेहि, कुल-पच्छित्ता गुरुगा कायव्वा इत्यर्थः। ते चिय पायच्छित्ता गणतेण्णे तवगुरुगा दट्ठव्या काललहुगा, संघतेण्णे कालगुरू दट्ठव्वा तवलहुगा। इदाणिं गिहिसाहम्मिएसु पच्छित्तं भण्णतिएते चेव गिहीणं, तवकालविसेसवजिया हों ति। डगलादिखेत्तऽवज्ज, पुवुत्तं तं पिय गिहीसुं // 338|| एते चिय पच्छित्ता-जे कुलादिसु दत्ता, ते चिय गिहिसाहम्म्मीणं, णवरं तवकालविसेसेण तवकाल एव विसेसो तेण तवकालविसेसेण वजिया होति / तवकालेहिं ण विसेसिज्जंति त्ति तुत्तं भवति / अहवा-'एते चेव' पुव्वद्धं-एयं अण्णधम्मिएसु वक्खाणिज्जति / एते चिय पच्छित्ता जे साहम्मिएसु भणितातेचेव अण्णधम्मिएसुय गिहत्थेसु, णवरंतवकालविसेसवजिया होति। इमं खेत्तदारे अभव्वविचारे भण्णति। 'डगलादि' पच्छद्धं-डगला-पसिद्धा,आसिद्दातो तणछारमल्लगपीढफलगसंथारमा य घेप्पंति। खेत्तवज्जं ति-परगच्छिल्लयाण खेत्तम्मि वजं खेत्तवज्जं, एत्थ अगारो लुत्तो दट्ठव्वो। सो जदा आविर्भूतो भवति तदा एवं भवतिडगलादिखेत्ते अवजं, परखेत्ते डगलगादि गेण्हंतो वि अपच्छित्ति त्ति वुत्तं भवति। 'पुव्युत्तं ति' चोदगाह-णणु पुव्वुत्तं 'तणडगलछारमल्लगपणगं" पुव्वं पणगच्छितं दाऊण इदाणिं अपच्छित्ती भणसि? आयरियाह-सव्यं 'पुटवुत्तं तं पिय गिहीसु तपच्छितं जो गिही साहम्मिताओ अदत्तं गेण्हइ, तस्स तं भवति / चसद्दो-पादपूरणे। अहवा-आयरिएणा-भिहियं जहा परखेत्ते तणडगलाती गेण्हतो वि पच्छित्ती। सीसो भणति"डगलादिखेत्तवज्ज' पुव्युत्तं डगलगादयो वि परखेत्ते वज्जेयव्या, एवं पुव्व वक्खायं। आयरिओ भणइ-सव्वं तं पिय गिहीसुतंपुण गिहीसुत्ति वुत्तं भवति ण खेत्तिएसु। 'तिविहं दारं' अस्य व्याख्यासचित्तादी विविधं,अहवा उक्कोसमज्झिमजहण्णं / आहारोवधिसेजा, तिविहं चेवं दुपक्खो वि॥३३९।। सचित्त-सेहो सेही वा, आदिसद्दातो-अचित्तं मीसं च / तिविहं, अवहरति / अहवा तिविधं उक्कोसं वासकप्पादी, मज्झिमंचोलपट्टगादी, जहण्णं मुहपोत्तियादी। अहवा-आहारो असणादि, उवहि वत्थवडिग्गहादि, सेज्जा वसही, एतं वा तिविधं अवहरति। दुपक्खो विदुपक्खो साधुपक्खो साहुणीपक्खोय। एवं जंभणियं तेण्णं एयं सव्वं पिदुहासुहमवायरभेदेण भिण्णंदट्ठव्वं। इमेण पुण विहिणासुहमं पिबादरं दट्ठव्वं कह? भण्णतिकोहेण व माणेण व, मायालोभेण सेवियं जंतु। सुहुमं च बादरं वा, सव्वं तं बादरं होति // 340 / / क्रोधेनासेवित, क्रोधेनापहृतमित्यर्थः / एव माणसेवितं, मायासेवितं, लोभसेवितं / यदिति द्रव्यजातं संबज्झति, तं पुण कोहादीहिं सुहुभं वा बायरं वा सेवितं, जति वि सुहुमंतहावि तं सव्वं बायरं होति।
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________________ मूलगुणपडि० 367 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मूलगुणपडि० कोहादीहिं जं सेवितं तस्स पच्छित्तं भण्णतिपंचादी लहु लहुया, गुरु अणवट्ठो व होति आएसा। चउण्हं एगतराए, पत्थारपसज्जणं कुब्जा॥३४१।। पंचादि त्ति-आद्य-पंच,इदमुक्तं भवति, जहण्णेण पणगं भवति त्ति वुत्तं भवति / लहु त्ति-मज्झिमे मासलहुं भवति / लहुगा इति-उक्कोसे चउलहुगा भवंति। गुरुग तिसचित्ते चउगुरुगा भवति। अहवा-जहण्णमज्झिमे मासगुरु लहुं भवति। लहुगा इति- उक्कोसे चउलहुगा भवति। गुरुग ति-सचित्ते चउगुरुगा भवति / अहवा-जहण्णमज्झिमउक्कोसे सचित्ते वा एतेसु सव्वेसुअणवठ्ठप्पो यहोति आदेसा' ण उवट्ठाविज्जतीति अणवट्ठो, होति भवति, आदेशात् सूत्रादेशादित्यथः। त पुण इमंसुत्त"तओ अणवठ्ठप्पा पण्णत्ता / तं जहा-साहम्मियाणं तेण्णं करेमाणे, हत्थादालं दलेमाणे, मेहुणं सेवमाणे"। किंचान्यत्-'चउण्ह' पच्छद्धं, चउण्हं कोहादीणं एगत-रेणावि पडिसेविते पत्थारो, पत्थारो णामकुलगणसंघविणासो भण्णति, तमि पसज्जणं पत्थारपसज्जणं कुजा / के? राजादयः। तम्हाणो कोहादीहिं अण्णहा वा तेणियं कुजा इति। अदत्तादाणे दप्पिया पडिसेवणा गता। इदाणिं कप्पिया पडिसेवणा भण्णतिअसिवे ओमोरिए, रायदुट्टे भए व गेलण्णे। दव्वासति वोच्छेदेऽ-संविग्गे वावि आगाढे // 342 / / असिवं-मारि अभिहितं, ओमोदरिता-दुभिक्खं, रायदुढे त्ति-राया दुवो रायदुट्ठ भण्णति / सत्तभेदो भयं भण्णति / सो पुण सत्तभेदो बोहिगतेणातिसु संभवति। गिलायतीति गिलाणो, दवयतीति दव्वं, तस्स असती दव्वासईवोच्छेदो व्यवच्छेदो नासेत्यर्थः / स च सूत्रा-र्थयोः, संवेगमावण्णो संविग्गो, ण संविग्गो असंविग्गो, तंमि असं-विग्गेवावि तेणियं कुजा / एवमादिसु आगाढेसु पओयणेसु बितिय--पदेण तेणियं कुन्जा। "असिवे ति" अस्य व्याख्याअसिवग्गहिततणादी, असंथरंते सयं पिगेण्हेजा। एमेव च उ अदिण्णे, पडिहारिय पढमखेत्ते य॥३४३।। असिवं-मारी भण्णति, तीए गहिता असिवगहिता, ते असिवगहिता होतूण तणाईणि जाइयाणि अलभंता / आदिसघातो-डगलगछारमल्लगादी घेप्पंति। एरिसे कारणे अदिण्णाणि वि गेण्हंति, तहा विशुद्धा भवंति। असथरत त्ति असिवग्गहिते विसए असंथरमाणा असणादी सयं पि गेण्हेजा, अदत्तेत्यर्थः / अहवा-असंथरं-दुभिक्खं, तत्थ अलहंता भत्तपाणं सयं पि गेण्हिज्जा / एतं 'अदिण्णे त्ति' दारं असिये अववदित। 'एमेव चउ अदिण्णे त्ति'-एवं जहा असिवे अदिण्णं अववदितं तहा-चउ त्ति-पाडिहारियं, चसद्दातो-सागारियसंतियं पढमगहणे य खेत्ते य एते चउरो असिवग्गहिता होऊण अदिण्णे विगेण्हेजा। अहवा-चउरो-दव्वं, खेतं, कालो, भावो य। एते वा असिवग्गहिता होऊण अदत्ते गेण्हेजा।। अहवा-चउरो-जहण्णमज्झिमुक्कोसोवही सेहो य / अहवा-चउरो साहम्मियसंतियं, सिद्धपुत्तसंतियं, सावगसंतियं, अण्णतित्थीण य / एयाणि वा असिवग्गहिता होऊण अदत्ताणि गेण्हेजा। अहवा-धउरोअसणं, पाणं, खातिमं, सातिमं एयाणि वा अदिण्णाणि गेण्हेजा। एयं सामण्णं पाडिहारियस्स। इमा पत्तेयं विभासा भण्णत्तिअसिवगहित त्ति काउं, ण देंति दुक्खं ठिता य णिच्छोढुं / अवियममत्तं छिज्जति,छेययगहितोवभुत्तेसुं॥३४॥ पुव्वंसि चेव वट्टमाणेहिं तणातिउवकरणं च पाडिहारियं तंगहितं, तम्मि य काले अपुण्णे अंतरा असिवं जायं, तेण य असिवेण ते साहवो गहिता, अतो असिवगहित त्ति काउंणदेंति। तंपारिहारियं गहितं मा एते गिहत्था असिवेण घेप्पेजा, इति ते विय गिहत्था तेसु पाडिहारिएसु ममत्तं छिअंति, ममेदं जो य ममीकारस्तं ममत्तं, तेसु तणादि सु छिज्जंति। फिट्टइ ति वुत्तं भवति। कम्हा ममत्तं छिज्जति? भण्णति-छेवगगहितोवभुक्तत्वात्, असिवं छेवगं भण्णति; तेण गहिता छेवगगहिता तेहिं जाणि उवभुत्तादीणि तणफलगादीणि तेसु ताण गिहत्थाण ममत्तं छिज्जति, स्वल्पश्चादत्तादानदोषेत्यर्थः / अहवा-एसा गाहा एवं वक्खाणिज्जति साहू असिवग्गहिता इति कृत्वा ते निहत्था तेसिं साहूण तणफलगसेजा ण देंति असिवकार--- णत्वात् अतो अदत्ता विघेप्पंति। तेसु अदत्तेसु गाहेतेसु ठितेसुवा, दुक्ख ठिताय णिच्छुहण त्ति-ण णिच्छभंतितेसुचेव अदत्तगहितेसु। 'अविय' पच्छद्ध पूर्ववत्। 'असंथरे त्ति' अस्य व्याख्यासाधम्मियत्थलीसु,जायमदेते भणावणगिहीसुं। असती पगासगहणं, पलवति दुढेसु छण्णं पि॥३४५।। असिवगहिते विसये असिवगहिया वा साहू असंथरंता असिवगहितविसयउत्तिण्णा वा दुल्लहभत्ते देसे पत्ता असंथरता, साहम्मिय त्ति-समाणधम्मा-साहम्मिया, थली-देवद्रोणी,जायं ति-जाचयंतः आरहंतपासत्थपरिग्गहियदेवद्रोणीसुपुव्वं याचयन्तीत्यर्थः। अदेंते त्तिजया ते पासत्था णेच्छंति दाउं तदा निहत्थेहिं भणाविजंति, सव्वसामण्णाए-देवद्रोणीए किन्न देह। असति त्ति-तहा वि अताणं पगासगहणं, पगासं-प्रकट स्वयमेव गहणं क्रियते / अह ते पासत्था बलवगाराजकुलपुरवाउरविद्याश्रिता इत्यर्थः / दुह्रसुत्ति-स्वयमेव वा दुष्टा आसुकारिणः तदा ता-सुचेव साहम्मियथलीसुछण्णमप्रकाशं गृह्यतेत्यर्थः / साधम्मियत्थलीणं, सिद्धगए सावगऽण्णतित्थीसु / उकोसमज्झिमजह-एणगम्मि जं अप्पदोसं तु // 346 / / अह साहम्मियत्थलीणं अभावो होज्जा, ताहे गिहत्थेसुघेत्तव्यं, तेसुवि पुट्वं सिद्धपुत्तेसु. सभार्यको अभार्यको वासोणियमासुक्कवरधयरोखुरमुंडोससिही असिही वा णियमा अडंडगो अपत्तगो विय सिद्धपुत्तो भवति। सिद्धपुत्ताऽसति, सावगेसुत्तिसाक्गा तेगिहीयाणुव्वता, अगिहीयाणुव्वतावापच्छा तेसुघेप्पति। असतिसावगाणंअण्णतित्थीसुति-अण्णतित्थियास्तपादीताणथलीसुघे
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________________ मूलगुणपडि० 368 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मूलगुणपडि० प्पइ सव्वत्थ पुण गेण्हतो पुव्वं जहण्णं गिण्हइ, पच्छा मज्झिम, पच्छा उक्कोसं। अहवा-उक्कोसे मज्झिमे जहण्णे वा जत्थेव अप्पतरो दोसोतं चेव गेण्हति। एमेव गिहत्थेसु वि, भद्दगमादीसु पढमतो गिण्हे। अभियोगासति तालो-सोवणिविजाएँ अन्तधाणादी॥३४७॥ एमेव त्ति-जहा सिद्धपुत्तसावगेसु अविदिन्न गहियं, एमेव मिच्छादिद्विगिहत्थेसु विभद्दगमादीसु पढमतो गिण्हति, अण्णति-त्थियसमीवतो पुव्वं अह भद्दगेसु अदिन्न घेत्तव्यं, पच्छा अण्णति-त्थिएसु वि एतेसु पुण सव्वेसु पगासं पच्छन्न वा गेण्हंतस्स इमा जयणा / अभियोग त्तिअभियोगोवसीकरणं भन्नति, तंपुण विजाचुण्ण-मतादीहि तेण वसीकरेत्ता गेण्हण / असति त्ति-वसीकरणस्स, ताहे तालुग्घाडणीए विज्जाए तालगाणि विहाडेऊण, ओसोवाणविजाए, य ओसोवेउं गेहति, जेण अजणविज्ञादिणा अदिस्सो भवति त अंतद्धाण भण्णति आदिसद्दातोअणपायं जाणिऊण पगासं तेण्णमवि कजति। 'असिवे त्ति' दार गय। एमेव य ओमम्मि वि, रायदुट्टे भए व गेलण्णे। अगतोसहादिदव्वं, कल्लाणगहंसतेल्लादी॥३४८|| जहा असिवद्दारे अदिण्णपाडिहारियादिदारा भणिया एवं ओमरायदुट्ठभयगेलण्णदारेसु वि अदिण्णे पाडिहारगादिदारा जहासंभव उवउज्ज वक्तव्या। 'दव्वासति त्ति' दारं-अस्य व्याख्या-अगतो पच्छद्धं-कस्स वि गिलाणस्स, जेण दव्वेण तं गेलण्णं पगुणति तस्स य दव्वस्स असती अभावेत्यर्थः, त पुण अगतो-सहादिदव्वं, अगत नकुलाद्यादि औषधं, एलादिचूर्णगादि वा, कल्लागण घृतं, हंसतेल्लं, हंसो-पक्खी भण्णति, सो फाडेऊण मुत्तपुरीसाणि णीहारेजंति, ताहे सोहंसो दव्वाण भरिजति, ताहे पुणरवि सो सीविज्जति, तेण तदवत्थेण तेल्लं पचति, तं हंसतेल्लं भण्णति। आदिसद्दातोसतपागसहस्सपागायतेल्लाघेप्पति। एवमादियाण दव्वाण अभिओगादी पूर्वक्रमेण ग्रहणं कर्तव्यमिति। 'वोच्छेये त्ति' अस्य व्याख्यापत्तं वा उच्छेदे, गिहिखुड्डगमादिगं तु दुग्गाहे। णिद्धम्मखुडमं वा, जतउ घडउ जमउ त्ति एमेव // 346 / / पत्तं णाम-सुत्तत्थतदुभयस्स ग्रहणधारणाशक्तेत्यर्थः / उच्छेए त्तिउच्छेओ सुत्तत्थाणं; ववच्छेदो त्ति वुत्तं भवति। गिहासमे ठिता-गिहत्था, खुड्डगो-सिसू, वालो त्ति वुत्तं भवति / आदिसघातो-अवालोऽवि। अहया साहम्मियण्णधम्मियाण वा, तुसरोकारणावधारणे / विवरीयं गाहते-बुग्गाहते, या गिहवासे रमइ त्ति वुत्त भवति। सिसुमितरं वा सूत्रार्थोभयच्छेदो योग्यमिच्छमानमप-हरन्तीत्यर्थः। 'वोच्छेय त्ति' गयं / 'असंविग्गे त्ति' दारं-अस्य व्याख्या-'णिद्धम्म' पच्छुद्ध-णिग्गतं धम्मा णिद्धम्मा, पासत्था इति, तेसिं संतियं खुड्डयं अखुड्डयं वा,एमेव जहा गिहत्थखुडुगं तहा बुग्गहिके णाबलंवणेण दुग्गाहे ति भण्णति / जयउ त्ति-संजमजोगे सुजयउ,घक्कउ उज्जमउत्ति वुत्तं भवति। तेसिंपासत्थाणमुपरितो जहा विपरिणमति तहा कुर्यात् अवहरति वाग्गीत्यर्थः। चोदगाहजुत्तं सुत्तत्थोभयवोच्छेदे गिहिसाहम्मिएतरखुड्डुगादिअवहरणं, किं पुण णिरम्मखुडुगादिअवहरणं जं पुण णिद्धम्म खुड्डोतर वा तत्थ णणु फुडं तेणं भवति। आचार्याहतेसुं तमणुण्णातं, अणणुण्णातग्गहण वि सुद्धो तु / कं तेण्णं असंजम-पंके खुत्तं तु कईते / / 350|| तेसुं ति-पासत्थेसु तमिति खुड्डुगो, सेहोवा,संबज्झति, अणुण्णायंदत्तं, गेण्हति। पुव्वं पासत्थाणुण्णायं खुड्डगमितरं वा गेण्हतीत्यर्थः / जति वितेहिं पासत्थेहिं अणणुण्णायंअदत्तेत्यर्थः। ग्रहणमुपादानं तिविहं सुद्धो सर्वप्रकारेणेत्यर्थः, तुसद्दो-पूरणे / अहवा-चोदक आह-तेसु तु तमणुण्णातग्गहण जुत्त अणगुण्णाय-गहणे विसुद्धोतुकह? आचाहिअदत्ते वि 'कं तेण्णं पच्छद्धं-ककारो खेवे दट्ठव्यो, जहा को राया? जो ण रक्खति, तेण्ण अवहारो-असंजमो अणुचरति,पंको-दव्वभावतो, दव्वओ चलणी, भावओ असंजमंएव पंको भण्णति। असंजम एव पंको तमि खुत्तोणिसण्णोतुसद्दो तस्मादर्थे द्रष्टव्यः। कढणं आगरिसणं, उद्धरणमित्यर्थः। तस्माद् असंजमपंकादागतस्स कं तेण्णं भवतीत्यर्थः। अपिचसुहसीलतेण्णगहितो, भवपल्लिं तेण जगडितमणाहे। जो कुणति कूविगत्तं, सो वण्णं कुणति तित्थस्स // 351 / / सुह–अणावाह, सीलं-रूवो, तेणगो अवहारी, गहितः आत्मीकृतो, भवः--संसारः,बहुप्राण्युपमर्दो यत्र सा-पल्ली, तेण तन्मुखः, जगाडतोप्रेरितो, लोगे पुण भण्णति उवहितो, अणाहो-असरणेत्यर्थः। सुहे सीलं सुहसीलं, सुहसील एव तेण्णो सुहसील-तेण्णो, तेण गहितो सुहसीलतेण्णगहितो। भव एव पल्ली-भवपल्ली, तेण जगडियमणाहे णिज्जमाणे जीवे, “जो कुणति कूवियत्त' ज इति अणिद्दिट्ठो, कुणति-करोति, कूविया-कुढिया भण्णति। जो एवं करेति सो वण्ण करेति। सो--इति, स इति निर्देशे, प्रभावणा वण्णो भण्णति, तं करेति तित्थस्स, तित्थंचउवण्णो समणसंघो दुवालसंग वा गणिपिडगं वा / अदिण्णादाणस्स कप्पिया पडिसेवणा गता। गत अदिण्णादाणं। इयाणि मेहुणं भण्णति-तस्स दुविहा पडिसेवणा-दप्पिया, कप्पिया य, तत्थ दप्पियं ताव भणामि / दारंमेहुण्णं पि य तिविधं, दिव्वं माणुस्सयं तिरिच्छं वा। दव्वे खेत्ते काले, भावमि य होंति कोहादी॥३५२।। मेहुणं-जभन,तस्स भावो-मेहुण्णं / इह वा रहस्सं, तंमि उप्पण्णं मेहुण्णे, अविसद्दो-एवकारार्थे / चसद्दो पायपूरणे / मेहुणमवि त्रिविधेत्यर्थः / तिविह त्ति-तिविधं भेदं भण्णति / तिणि त्ति सखा, तिण्णि भेदा तिविहं, के ते तिणि य भेया? भण्णति-दिव्य, माणुस्सं, तेरिच्छंच। एक्कक्क पुणो चउभेदं-'दव्ये' पच्छद्ध-चसद्दो समुच्चये,होतिभवति। आदिसद्दातो माणमायालोभा घेप्पति। 'दव्वे त्ति' अस्य व्याख्यारूवे रूवसहगते, दव्वे खेत्ते य जंमि खेतंमि।
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________________ मूलगुणपडि० 366 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मूलगुणपडि० दुविधं छिण्णमछिपणं, जहियं वा जचिरं कालं // 353 / / अणाभणा इत्थी-रूवं भण्णति। रूवसहियं पुण-तदेवाभरण-सहियं। अहवा-अचेयणं इत्थीसरीरं रूवं भण्णति / तदेव सचेयणं रूवसहितं / भण्णति / दव्वे त्ति-दव्यमेहुणे एवं वक्खाणं भण्णइ। खेत्ते य त्ति दारं गहित। 'जमि खेत्तम्मि' अस्य व्याख्या-जम्मिय खेत्तम्मि मेहुणं सेविज्जति वणिजति वा, तं खेत्तओ मेहुणं / 'काले ति' अस्य व्याख्या 'दुविहं' पच्छद्धं कालओ जं मेहुणं तं दुविहं-छिण्णं अछिण्णं च / छिण्णं दिवसवेलादि याराहि वा, अछिण्णं अपरिमितं / जंमि वा काले मेहुणं सेविजति जावतियं वा कालं मेहुणं तिजावतियं वा वणिज्जति तं कालमेहुणं भण्णति। ___ "रूवे रूवसहगए' त्ति। अस्य व्याख्याजीवरहिओ उ देहो, पडिमाओ भूसणेहि वा वि जुतं। रूवमिह सह गतं पुण, जीवजुयं भूसणेहिं वा // 35 // गतार्था। 'भावम्मि य होइ कोहाइ त्ति' अस्य व्याख्याकोहादी मच्छरता, अभिमाणपदोसऽकिचपडिणीए। तव्वण्णिगि अमणुस्से, रुय घण उवसग्ग कप्पट्ठी॥३५५।। कोहादिग्गणाउ भावदार सेतितं / मच्छर त्ति-कोहेण मेहुणं सेवति। अभिमाणो-माणो, भण्णति। पदोसो त्ति-माणे गढितं तेण पदोसेमऽकिच्चं ति-अकिचपडिसेवणं करेति, मायालोभा दट्ठव्वा। अहवा-किचं करणीयं, रागकिमिति यावत्, एसा माया घेप्पति / पडिणीयग्गहणातो लोभो घेप्पति, सच मोक्षप्रत्यनीकत्वात् प्रत्यनीकः / सेज्जायरधूअपच्चणीगोवसक्खणाओ वा, पाणीगो लोभो भण्णति, तव्वणिगी रत्तपडिणीया कोवे उदाहरणं भविस्सति / अमणुस्स त्ति णपुंसगं एवं माणे उदाहरणं भविस्सइ / रुय त्ति-रोगे, एतं मायाए उदाहरणं भविस्सति / घणे त्ति घणविगती, उवसग्गे त्ति-उवसग्ग एव, कप्पट्ठी-सेज्जायरधूआ, कविलचेल्लगो लोभा सेज्जायरकप्पट्ठीए उवसग्गं करोतीत्यर्थः। एसेवऽत्थो किंचि विसेसिओ भण्णतिकोहातिसमभिभूओ, जो तु अबंभ णिसेवति मणुस्सो। चउ अण्णतरा मूलु-प्पती तु सव्वत्थ पुण लोभो // 356 / / / आदिसहाओ-माणमायालोभतः,समभिभूतो-आर्त इत्यर्थः। जो अणिविहो, अबभं-मेहुणं,णिसेवति-आसेवति आचरतीत्यर्थः / मनोरपत्यं मनुष्यः, तस्स तत् तदाख्यं भवतीत्यर्थः। चउत्ति-कोहादयो, तेसिं अण्णतराओ मूलुप्पत्तीओ आद्युत्पत्तिरित्यर्थः / तुशब्दो-अवधारणे। सव्वत्थ पुण लोभो कोहुप्पण्णे मेहुणाभावे लोभो भवति। एवं माणमायासु विलोभो पुण सट्ठाणे भवति चेव। "चेव तव्वण्णिगि त्ति' अस्य व्याख्यासेहुन्मागभिक्खुणि, अंतरवयभंग वियडणा कोऽवि। अद्विओमासणिच्छे, सएज्झि अपुम त्ति माणम्मि॥३५७।। एगो सेहो उन्भामगंगतो, भिक्खायरियाए तिवुत्तं भवति। सोयगामंतरा अडवीए भिक्खुणीं पासति / तस्स तं पासिऊण रोसो जाओ, एसा अरहंतपडिणीया इति किच्चा (तं) वयं से भंजामि त्ति मेहुणं सेवति / पच्छा गंतु गुरुसमीवं आलोएति, भगवं ! रोसेण मे वयभंगणिमित्तं महुणं सेवितमिति। अमणुस्स ति' अस्य व्याख्या-'अडिओ' पच्छद्धं अद्वियं पुणो पुणो ओभासति, यावतियं अणिच्छे अणभिलसंते, सएज्झिया समोसितिया। अपुमं ति-नपुसंक इति कहिते साहू।पडियस्सय समीवे इत्थी सुरूवं भिक्खुं दठूण अज्झोववण्णा, सा तं पुणो पुणो भणतिभगवं ! मम पडिसेवसु, सो णेच्छति। जाहे बहु वारा भणितो णेच्छंति, ताहेतीए सोसाहू भण्णति-तुमणपुंसगोधुवं जेण मे रूवजोव्वणे वट्टमाणी ण पडिसेवसि तस्सेवं भणितस्स माणो जातो अहमेतीए अपुमं भणितो पडिसेवामि, तेण पडिसेविया। एवं माणे मेहुणमिति। 'रुय णि' अस्य व्याख्याविरहालंभे सूल पतावणा एव सेवती मायी। सेखातरकप्पट्ठी-गोउलदधि अंतरा खुड्डो // 358|| विरहो-विजणं,तस्स अलंभे,सूलं-रोगविकारो, पयावणा अग्गीए। एव त्ति-एवं-अनेन प्रकारेण, सेवती-विसओवभोगं करेइ / कोइ साहू समासियाए इत्थीए साहिजति, साहुस्स बहुसाहुसमुदायतो विरहो णत्थि। ततो तेण साहुणा अलियमेवं भण्णति-मम सूलं काति, अहमेत गेहं गंतुंतावयामि। आयरिएण भणियं गच्छ। सो गतो, तेण पडिसेविता / एवं मायाए मेहुणं भवति / 'घणउवसग कप्पट्टि त्ति अस्य व्याख्यासेजातरपच्छद्धं, कम्मि य णिओए आयरिया बहुसिस्सपरिवारा वसंति, तम्मि य गच्छे कविलो नाम खुडगो अत्थि। सो सेजायरधूयाए अज्झोववण्णो सोतं पत्थयति, साणेच्छति, अण्णया सा कप्पट्टी दहिणिमित्तेण गोउलं गता। सो विकविलगोतंचेव गोउलं भिक्खायरियाए पद्वितो। सा तेण खुड्डगेण गामगोउलाणं अंतरा दिट्ठा। उप्पातऽणिच्छपितु पर-सुच्छेए जुण्णगणियगहे। ततिओ दिण्णो पुमम्मि, इत्थीवेए सछिडम्मि॥३५६।। सा तेणंतरा भारियाभावेणुप्पादिता अणिच्छमाणीओ उप्पातितं रुहिरं, अणिच्छमाणीए योनिभेदेनेत्यर्थः / तीएरेणुगुंडियगताए गंतूण पिउणो अक्खायं, सो परसु-(कुहाड) गहाय निग्गतो, ट्ठिो यऽणेण, से पसवणं छिन्नं, ततो उणिक्खंतो, सो उएगाए जुण्ण-गणियाए संगहिओ। तस्स य तत्थ ततिओ णपुंसगवेदो उदिण्णो / तओ इत्थिवेदो, तम्मि य पसवणपदेसे अहोट्टो भगो जातो तीए गणियाए इत्थी वेसेण सो ठविओ, संववहरितुमाढत्तो इति अस्यैक-स्मिन् जन्मनि त्रयो वेदाः प्रतिपद्यन्ते। अनेन चक्रमेण आदौ पुमं, ततो अपुमे, छिड्डे जाते इत्थिवेदे समुदिण्णे तइयवेदेत्यर्थः / एवं तस्स कविलखुड्डगस्स सेजायरकप्पट्ठीए लोभा मेहुणमिति / एमं माणुस्सगं भणितं, एवं कोहातीहिं दिव्वतिरिएसु वि दहव्वं / एवमुक्तमिति त्रिधा भिद्यते। किं कारणं? उच्यते-पुटवभणियं तु कारण पाहा। इह दुहविसेसोवलंभणिमित्तं भण्णतिमेहुण्णं पिय तिविहं, दिव्वं माणुस्सयं तिरिच्छं च। पडिसेवण आरोवण, जयणा तिविहे यजा भणिता॥३६०।।
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________________ मूलगुणपडि० ३७०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मूलगुणपडि० पुव्वद्धं कंटं। एयं दव्वादियं जं भणियं तं एक्कक्कं तिविहं उक्कोसं मज्झिमं जहन्नं च / एते णव विकप्पा, दुविहे य ति-पुणो एक्कक्को भेदो दुगभेदेण भिजति त्ति वुत्तं भवति। पडिमाजुयदेहजुएणं ति वुत्तं भवति। एते अट्ठारस विकप्पाजे भणिय त्ति एतेसिं अट्ठारस-हं विकप्पाणं एक्कक्के विकप्पे जा भणिता आरोवणा सा दट्ठव्वा / काय सा, इमा पडिसेवणाआरोवण त्तिपडिसेवणे आरोवणा पडिसेवणाऽऽरोवणा, पडिसेवणापच्छित्तं ति वुत्तं भवति। ठाणपायच्छित्तं च इणमेवत्थे किंचि विसेसं भण्णतिदिव्वाइतिगं उक्को-सगाई एक्ककगं तु तं तिविधं / तिपरिग्गहमेतकं, समत्तममत्ततो दुविधं // 361 / / दिव्वं, माणुस्सयं, तिरियं च। एक्कक्कयं पुणो तिविहं-उक्कोस, मज्झिम, जहन्नयं च। पुणो एकवं तिपरिगह-डंडियकोडुबियपा-यावचंच! पुणो एक्केक, दुविकप्पं-सममत्ताममत्तभेदेण / एते य चेयणे अचेयणे भेया। इमे पुण पायसो अचेयणे भवंतिपडिमाजुतदेहजुयं, पडिमासण्णिहित एतरा दुविधं / देहा तु दिव्ववजा, सचेतणमचेतणा हॉति॥३६२।। पडिमाण जुयं पडिमाजुअ-सह प्रतिमया सेवनमित्यर्थः। जंपडिमाजुयं तं दुविहं सण्णिहियपडिमा वा, असंनिहियपडिमा वा / दिव्ववजं तिमणुयतिरियाण सचेयणा अचेयणा वि भवति। दिव्वा पुण सचेयणा एव, अचेयणा ण भवति, जम्हा पदीवजाला इव सहसा विद्धंसति। एय सप्पभेयं इहेवज्झयणे बहुदसे भणिहिति! गया दप्पियामेहुणपडिसेवणा। इदाणिं कप्पिया भण्णति, एवं सूरिणा भणिते चोदगाह-चिट्ठउ ताव कप्पिया पडिसेवणा दप्पियाणं ताव विसेसं भणाहि, कहं वा दप्पकप्पडिसेवा भवति? गुरुराहरागहोसाणुगता, सुदप्पिया कप्पिया तु सदभाव। आराधण कप्पेणं, विराहओ होति दप्पेणं // 363 // पीतिलक्खणो रागा, अपीतिलक्खणो दोसो, अणुगतासहिया, णिक्कारणलक्खणो दर्पः, रागदोसाणुगया दप्पिया भवतीत्यर्थः / कारणपुव्वगो. कप्पो, तदभावादागदोसाभावात्सकारणे दोसाच कप्पिया भवतीत्यर्थः / शिष्यः पुनरपि पृच्छेत्-दर्पकल्पाभ्यां सेवणे किं भवति? उच्यते-'आराहण' पच्छद्ध-कप्पेण ज्ञानादीनामा-राधको भवति, तेषां चैव दात् विराधको भवति / विराधको-विनाशकः / पुनरप्याह चोदकः-'जति रागदोसपच्चया तो दप्पिया पडिसेवणा भवति, मेहुणकप्पियाए अभावो पावति, अहवा-संबंध? आचार्य एवाह, मेहुणे कप्पियाए अभावो / चोदगाह-णणु सव्वपदाण अववादधम्मया जुत्ता। आचार्याहकामं सव्वपदेसु वि, उस्सग्गववातधम्मता जुत्ता। मोत्तुं मेहुणधम्म, ण विणा सो रागदोसेहिं // 365 / / कामशब्दः इच्छार्थे अनुमतार्थे च, इह तुअनुमतार्थे द्रष्टव्यः। सव्वपयाणि मूलु तरपदाणि, अविसद्दो-अवधारणे, तेसु य उस्स-गववातधमाया जुत्ता / उस्सग्गो-पडिसेहो, अववातो अणुण्णा, धम्मता-लक्खणता, जुत्ता-जुलते घटतेत्यर्थः / सव्वं सव्येसुमूलगुणउत्तरपदेसुउस्सग्गववायलक्खणं जुज्जति, तहा वि मोत्तुं परित्यज्य,मेहुणं-जुगं, तस्स भावो मेहुणभावो, अबभभावेत्यर्थः / किमर्थं? उच्यते-ण विणा रागद्वेषाभ्यां सो मेहुणभावो भवतीत्यर्थः। रागद्वेषादिसंभवे सत्यपि संयमजीवितादिनिमित्तं आसे वमाने स्वल्पप्रायश्चित्तमित्याहसंजमजीवियहेउं, कुसलेणालंबणेण व ऽण्णेणं / भयमाणे उ अकिचं, हाणी वुड्डी व पच्छित्ता // 365 / / जीवितं दुविह-संजमजीवितं, असंयमजीवितं च / असंजमजीवियवुदासो संजमजीवियकारणाए त्ति वुत्तं भवति / चिरं कालं संयमजीविएणं जीविस्सामीत्यर्थः / कुसलं-पहाणं, विसोहिकारणमिति वुत्तं भवति / आलंबिजति जं तं तमालंबणं, तं दुविह-दव्ये वल्लिवियाणाइ, भावे य-णाणादि। अण्णमिति पुव्वभणितातो अण्णं एवमादीहिं कारणेहिं 'भयमाणे उ अकिच्चं' भयसेवातो, तुसद्दोअवधारणे, अकिच्चं-मेहुणं,तं कारणे सेवयंतो हाणी वा पच्छित्ते वुड्डी वा पच्छित्ते भवतीति। पुनरप्याह चोदकः-जति कुसलालंबणसेवणे पच्छित्तं वुत्तं भवति कम्हा मेहुणे कप्पिया इति भणियं? उच्यतेगीयत्थो जतणाए, कडजोगी कारणम्मि णि सो। एगेसिंगीतकडो, अरत्तदुट्टो उजतणाए।।३६६।। गीतो अत्थो जेण सगीतत्थो, गृहीतार्थ इत्यर्थः, जयणाजं जं अप्पतरं अवराहट्ठाणं तं तं पडिसेवयंतोजयणा भण्णति कडजोगी-जोगो किरिया सा कया जेण सो कडजोगी भण्णति। सा य तवे विसुद्धठाणणेसणे वा, कारणं पुण णाणादी एस पढमो भंगो / एत्थ य णिद्दोसो भवति गीयत्थो जयणाए कडजोगी, णिकारणे सेऽणिद्दोसो बितिय एस भंगो, एवं सोलस भगा कायव्वा / एत्थ पढमभंगे णो पडिसेवियं तो कप्पिया भवतीत्यर्थः, एगेसिं पुनराचार्यादीनाम् इह द्वात्रिंशद्भङ्गा भवन्ति / गीयत्थो कडजोगी अरत्तो अदुट्ठो जयणाए एस पढमो भंगो। गीयत्थो कडजोगी अरत्तो अदुट्ठो अजयणाए एसो बितियभगो / एवं बत्तीसं भंगा कायव्वा / एवं एत्थ वा पढमभंगे पडिसेवयतोकप्पिया भवति। चोदगाह-जइ पढमभंगे कप्पिया णणु णिद्दोस एव? आचार्याहजदि सव्वसो अभावो,रागादीणं हवेज णिहोसो। जतणाजुतेसु तेसु तु, अप्पतरं होति पच्छित्ते // 367 / / यदीत्ययमभ्युपगमे सव्वसो-सर्वप्रकारेण, अभावो-सर्वप्रकारानुपलब्धिः, से किं अभावो रागादीणं, आदिसद्दातो दोसो, मोहो य, घेप्पति, यद्येवंतो मेहुणे हवेज, णिदोसोअप्रायश्चितीत्यर्थः,ण पुणसव्वसो रागादीण मेहुणे अभावो अप्पायच्छित्ती वा, णवरं 'जयणाजुतेसु' जयणा-यत्नः, ताए-जुता-उपेता इत्यर्थः / तेसु त्ति-जयणाकारिसु पुरिसेसु, तुसद्दो अवधारणे यस्मादर्थे वा। अप्पतर होइपच्छितं तम्हा जयणाए वट्टियव्वं ति उवदेसो। 'भयमाणे उ अकिच्च' अस्य व्याख्यासामत्थणिव अपुत्ते, सचिव मुणीधम्मलक्खवेसणता।
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________________ मूलगुणपडि० 371 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मूलगुणपडि० अणहविया तरुणुरोधो, एगेसिं पडिमदायणता // 368 / / एगो राया अपुत्तो, सचिवो-भती, तेण समाणं। सामत्थण-संप्रसारणं, अपुत्तस्स मे रज्जंदाइएहिं परिभेज किं कायव्वं? सचिवाह-जहा परखेत्ते अण्णेण बीयं बावियं खेत्तिणो आहव्वं भवति, एवं तुह अतेउरखेत्ते अण्णेण विवी यं णिसट्ठ तुह चेव पुत्तो भवति, पडिसुत रण्णा। को पविसिजतु। सचिवाह-पासडियो णिरुद्धंदिया भवंति / ते पविसिञ्जतु, एत्थ राया अणुमए कोइ मुणी धम्मलक्खेण पवेसेज / मुणी-साहू भगवं ! अंतेउरे धम्मकहक्खाणं कायव्वं लक्खं छद्म, तेण धम्मकहाख्यानच्छद्येन प्रवेशयन्ति। ते यजे तरुणा अणट्ठबीया ते पवेसिता अविणट्ठवीया इति वुत्तं भव-ति। अहवा-अणघा-णिरोगा-अणुवहयपचेदियसरीरा, बीया इति सबीया, ते तरुणित्थियाहिं समाणं, ओरोहो अतेपुर, तत्थ बला भोगे भुजाविज्जति। एत्थ कोइ साहूणेच्छइ भोत्तुं / उक्तं च"वर प्रवेष्टुं ज्वलितं हुताशनं, नचापि भग्नं चिरसंचितं व्रतम्। वर हि मृत्युः सविशुद्ध कर्मणो, न चापि शीलस्खलितस्य जीवितम् // 1 // " तस्स य एवं अणिच्छमाणस्स रायपुरिसेहिं सीसं कट्टियं / 'एगेसिं पडिमदायणत त्ति' अण्णे पुण आयरिया भणति-जहा ण सुठ्ठ पगासे लेप्पयपडिम काउंलक्खारसभरियाए सीसं छिण्णं, ततो पच्छा साहूणं भणति-जहा एयस्स अणिच्छमाणस्स सीसं छिण्ण, एवं जति णेच्छसि तुमं पि छिंदामो, एव साभाविते कतके वा सिरच्छेदणे कए अभोगत्वेन व्यवसितानामिदमुच्यतेसुदल्लुसिते भीते, पथक्खाणे पडिच्छ(गच्छ) थेरविहू।। मूलं छेदो छग्गुरु, चउगुरुलहु मासगुरुलहुओ // 36 // जस्स तावासर छिपण सो सद्धो / उल्लसिओ-एतेण वि ताव मिसेण इत्थी पावामो हरिसितो। अवरोजतिण सेवामितो मे सिरं छिज्जति अतो भीतो सेवति / अवरो किमेव अणालोइयपडिक्कतो मरामि सेवामि ताव पच्छा आलोइयपडिक्कंतो कतपञ्चक्खाणो मरिहामि त्ति आलबण काउं सेवति, अवरो इमं आलंबणं काउं सेवति, जीवतो पडिच्छयाण वायण दाहामि त्ति सेवति / अवरो गच्छं रक्खिस्सामीति सेवति / अवरो चिंतयति-मया विणा थेराण ण कोवि कितिकम्मं काहिति अहं जीवतो थेराणं वेयावच काहिंति सेवति। अवरो विहू-आयरिया, तेसिं वेयावचं जीवतो करिस्सामित्ति सेवति। एतेसिं उल्लसियादीण पच्छद्रेणं जहासंखं पच्छिता-उल्लसिए मूलं, भीये-छेदो, पञ्चक्खाणे-छ्यगुरुअं, पडिच्छेचउगुरुगा, गच्छे-चउलहुगा, थेरे-मासगुरू,विहुए-मासलहुगो त्ति। उल्लसितभीतपचक्खाणस्स य इमा वक्खाणगाहानिरुवहतजोणित्थीणं, विउव्वणं हरिसमुल्लसण मूलं / भयरोमंचे छेदो, परिण काहंति छग्गुरुगा // 370 / / पंचपंचासहण्णं वरिसाणं उवरि उवहयजोणी इत्थिया भवति, आरतो अणुवहयजोणी गर्भ गृहातीत्यर्थः / विउव्विया मंडियसा-हिया ता दटुं हरिसुल्लसितरोमस्स-मूलं भवति, भये पुण रोमंचे छेदो, परिणा •पच्चक्खाण। सेसं कंठं। __ पडिच्छमादी एगगाहाए वक्खाणेति-- मा सीदिज परेच्छा, गच्छा फुटेज थेरसंपेच्छं। गुरुणं वेयावचं, काहंति य सेवओ लहुओ // 371 / / भयमाणे उ अकिच्चे जहा वुड्डीए पच्छित्तं तहा भण्णति-- लहुओ य होति मासो, दुब्मिखविसज्जणा य साहूणं / णेहाणुरायरत्तो, खुड्डो वि य णेच्छते गंतुं // 372 / / असिवाइकारणेसु उप्पण्णेसु वा उप्पजिस्सति वा णाउं जइ य सयं गंतुमसमत्थो आयरिओ जंघाबलपरिक्खीणो साहू ण विसजेइ,तो आयरियस्स असमायारिणिप्फण्णं मासलहुं पच्छित्तं, अविसज्जेतस्सय आणादी दोसा, तत्थ य असंथरंता एसणं पेल्लेज्जा, मरणं वा हवेज भत्ताभावओ, जम्हा एते दोसातम्हा गुरुणा विस-जिअव्यो। गुरुणा सव्वो गच्छो विसजितो तत्थेगो खुड्डगो गुरूणंणेहानुरागरत्तोणेच्छतिगंतुंअसती गच्छ विसज्जण, देसखंधाउ खुडओ सरणं। णीसा मिक्खविमाउ, पविसितपतिदाण सेवाय॥३७३|| असती भत्तपाणादी सव्वो गच्छो गओ, खुड्डोऽवि अणिच्छो पेसिओ। ज़या गच्छो देसखंधे गतो,देसंतेत्यर्थः, तदा सोखुड्डो णासिओ णियत्तो, गुरुणा भणियं-दुटु ते कयं, जं निउत्तो, जा तस्स आय-रियस्स णीसाहरेसु भिक्खा लब्भति तीए विभागं अहियतरं खुड्डु-गस्स देति, सो य खुड्डो चिंतयति-एसो वि आयरिओ किलेसितो। ततो गुरुमापुच्छिउं वीसुपहिंडओ गतो, सो एक्कीए पविसितपति-इत्थियाए भण्णति-अहंते भत्तंदलयामि जति मे पडिसेवसि। तेण पडिसुयं पविसियपतिदाणसेवा य' अस्य व्याख्याभिक्खं पिय परिहायति, भोगेहि णिमंतणा य साधुस्स। गिण्हति एगंतरियं, लहुगा गुरुगाय चउमासा // 374|| पडिसेवितस्स य तहिं, छमास छेदो उ होति मूलं च / अणवठ्ठप्पो पारं-चिओ अपुच्छाय तिविधम्मि॥३७५।। सो खुड्डगो चिंतयति-जइ एयं पडिसेवियं णेच्छामि भरीहामि, अह सेवामि तो जीवंतो पच्छित्तं, सुत्तात्थाणि य घेप्पत्थं, दीह कालं संजम करिस्सामि, एवं चिंतिऊण जयणं करेति, एगंतरियं भत्तं गेण्हति, पडिसेवतिया पढमदिवसे गेण्हतस्सेवं-तस्स चउ-लहुगं, वितियदिवसे अब्भत्तटुं करेति, ततियदिवसे गेहंतस्सेवं तस्स-चउगुरुगं,एवं चोद्दसमे दिवसे-पारंचियं भवति, अह णिरंतरं पडिसेवति, ततो बितियदिणे चेव मूलं भवति।एसा वुड्डी भणिता, 'पुच्छा यतिविहम्मित्ति' सीसोपुच्छतिदिव्वमाणुसतिरिच्छेसुकहं मेहुणाभिलासो उप्पजति? आचार्याहवसधीए दोसेणं, दळु सरिउं व पुष्वभुत्ताई। तेगिच्छि सद्दमाती, असंजणातीसुथीजतणा।।३७६|| वसही-से जा, तीए हो से ण मेहुणाभिलासो उप्पजति, स्या-दिसंसक्ते त्यर्थः / अहवा-इत्थिं दट्टुं पुटयं-गिहत्थकाले जाणि इत्थियाहिं समं भुत्ताणि वा हसियाणि वा ललियाणि
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________________ मूलगुणपडि० 372 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मूलगुणपडि० वा ताणि य समरिऊण मेहुणभावो भवति। एवं उप्पण्णे किं कायव्वं?भण्णति-तिगिच्छा कायध्या। सा तिगिच्छा णिव्वी, याति,तं अइक्वंतस्स सद्दमाईहिं जस्थित्थिसई सुणेति, रहस्स–सदं वा,आदिग्गहणाओभण्णति-आलिङ्गनोवगृहनचुंबनादयः, तत्रासौ स्थविरसहितोस्थाप्यते, यद्येवं स्यादुपशमः 'असंजण त्ति' असंगो-अगेहीत्यर्थः / ण ताए अचिय जयणाए गेही कायव्वा इति। एवं तिसु वि दिव्वाइसु जयणा दहव्वा / गता मेहुणस्स कप्पिया पडिसेवणा। गयं मेहुणं। इदाणिं परिगहो भण्णति-तस्स दुविहापडिसेवणा-दप्पिया, कप्पिया या तत्थ दप्पियं ताव भणामिदुविधो परिग्गहो पुण, लोइय लोउत्तरो समासेणं / दवे खेत्ते काले, भावम्मि य होति कोधादी // 377 / / पुणसद्दो-अवधारणेवा, एकेको पुण दव्वादिदट्ठव्वो। सेसं कंठं। दव्वखेत्तकालाणं इमा वक्खासच्चित्तादी दवे,खेत्तम्मि गिहादिजचिरं कालं। भावे तु कोधमादी, कोहे सव्वस्स हरणादी // 378 // सचित्तं दव्वं-दुपयं, चउप्पयं, अपयं वा। आदिग्गहणातो अचित्त-मीसे, अचित्तं-हिरण्यादि, मीसं-सण्णिजोगसहियं आसादिए ताणि जो परिगेण्हति मुच्छितो सो दव्वपरिग्गहो भवति। गिहाणि खाओसितोभयकेउगादियाणि, खेत्ताणि परिगण्हंतस्स खेत्त-परिग्गहो भवति, जम्मि वा खेत्ते वण्णिाति स खेत्तपरिग्गहो भवति। एते चेव दव्वखेत्तपरिगहा जचिरं कालं परिगेण्हंति जम्मि वा वणिज्जंति काले परिग्गहो स कालपरिगहो भवति। 'भावम्मि य होति कोहादि त्ति' अस्य व्याख्याभावे उपच्छद्धं-भावे तुभाव-परिग्गहे तुसद्दो परिग्रहवाचकः, कोहाती, अदिसद्दातो माणमायालोभाघेप्पंति। तत्थ कोहपरिग्गहस्सव्याख्या'कोहे सव्वस्स हरणादी' कोहेण य रायादी रुट्ठो सव्वस्सं हरिउं अप्पणो पडिग्गहे करेति, एस कोहेण भावपरिग्गहो। आदिसहातो दंडेति अवकारिणो वा अवहरंति, कोहेण। इदाणिं माणेदोगचवइतों माणे, धणिमं पूइज्जति त्ति अजिणति। मायाणिधाणमाती, सुवण्ण दुव्वण्णकरणं वा / / 376 / / दोगचं-दारिद्धं, विसयातो गतो-वइतो भण्णति। माणे ति–एवं माणेण उवजिणइ भणियं, तत्थ दोगयेण वइतो माणेण व णिग्गतो सदेसाते जइ वि ण णंदति पुरिसो मुक्को परिभूय यासाओ। अहवा-धणिमंतो लोगे पूइज्जति त्ति अहं पि पूइन्जिसामीति दरिदं न कश्चित्पूजयति इत्येवं माणओ परिणहं उवक्षिणति। 'मायाणिहा-णमादी' मायाए णिहाणयं णिहणति, आदिग्गहणाओ छोन व्य-वहरति / अहवा-कण्णे, हत्थे वा, किंचि माहरणं मा मे कोति हरिस्सइ ति सुवण्णं दुव्वण्णं करेति / एवं मायाए भावपरिंगहो भवति / सव्वाणुपादिता लोभस्स, अलोभणाभिहतो जो विएस कोहादिपरिगहो भपितो एसो विलोभमंतरेण ण भवतीति उक्त एव लोभः। जम्हा अतीव मुच्छितो उवजिणति सो वा लोभे भावपरिगहो दट्ठव्वो त्ति,भणितो लोइयपरिग्गहो। इदाणिं लोउत्तारिओ भण्णति-सो समासओ दुविहो दारगाहाओसुहुमो य बादरो वा, दुविहो लोउत्तरो समासेणं / कागादि साण गोणे, कप्पट्ठगरक्खणममत्ते // 380|| सेहादीए कुद्धे, सचित्ते अणेसणादि अश्चित्ते। ओरालिए हिरण्णे, छक्कायपरिग्गहे जं च // 381 / / ईसिं ममत्तभावो सुहुमो परिगहो भण्णति, तिव्यो य ममत्तभावो बायरो परिगहो भण्णति, एसो दुविहो विपुणो चउहा वित्थारिज्जति, दव्वखेत्तकालभावे / तत्थ दव्वे-कागादि पच्छद्धं, अप्पणो पाणगादिसु काकं अवरज्झंतं णिवारेति, आदिग्गहणातो-साणसिगालादि साणं वा डसमाणं, गोणं वा वसहिमादिसु, अवरज्झंतं, सेजायरादियाण वा कप्पट्ठगं अण्णावदेसेण रक्खइ। सयणादुि वा ममत्तं करेइ, सेहो वा पडिकुद्धो पव्वातस्स परिग्गहो भवति, अणाभयं वा पव्वावणिज्ज सचित्तं पव्वावेंतस्स परिग्गहो भवति / आदिसद्दो भेदवाचकः, अणेसणीयं वा अचित्तं भत्तादि गेण्हतस्ससपरिग्गहो भवति। आदिसद्दातो वा वत्थपादसेज्जा घेप्पंति, अचित्तग्गहणातो वा अतिरित्तोवहिगहणं करेति, स चानुपकारित्वात् परिग्गहो भवतीत्यर्थः, घडियरूवं द्रविणं ओरालियं भण्णति, अघडियरूवं पुण हिरणं भण्णति, एताणि गेण्हतस्स परिगहो भवति, छकायसचित्ते जीवनिकाए गेण्हंतस्स परिगहो भवति / जं च त्ति-जं च एतेसु कागादिसु पायच्छित्तं तं च दट्ठव्यमिति। एतेसिं कागाइयाण इमा चिरंतणा पायच्छित्तगाहापंचादी लहुगुरुगा, एसणमादीसु जेसु ठाणेसु / गुरुगा हिरण्णमादी, छक्कायविराधणे जं च // 352 / / पंचग त्ति-पणगं तं आइ काउं एसणादिसु जत्थ जत्थ जं संभवति पायच्छित्तं तं दायव्वमिति। लहुगा गुरुगा यत्ति-पणगा एवं संबज्झंति, अहवा-पणगं आदिकाउं जाव चउलहुया, चउगुरुगा, जं जेसु ठाणेसु पायच्छित्तं संभवति तं दायव्वमिति / आदिसद्दातो ओप्पादणउग्गमा घेप्पति, हिरण्णं गेहंतस्स चउगुरुगा। आदिसद्दातो-ओरालिए विचउगुरुगा। छक्कायविराहणे जंपायच्छित्तं दायध्वंतं चिम-'छक्कायचउसु लहुगा, कारणगाहा। इणमेवार्थ भाष्यकारो व्याख्यानयतिगिहिणोऽवरज्झमाणे, सुणमज्जारादि अप्पणो वावि। बारेऊणन कप्पति, जिणाण थेराण उ गिहीणं // 383 // गिहिणो-गिहत्थस्स, अवरज्झति-अवराह करेंति, साणो मजारो वा, आदिसद्दातो-गोणकागादओ वि घेप्पंति / अप्पणो वा एते भत्तादिसु अवरझंतिते अवरज्झमाणे विवारेऊणण कप्पंति, जिणाण-जिणकप्पियाण, थेरा-गच्छवासिणो, तेसिं निहत्था मणत्था मणअवरज्झमाणा वारेऊण ण कप्पति। अप्पणो य वारेऊण ण कप्पंतीत्यर्थः।
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________________ मूलगुणपडि० 373 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मूलगुणपडि० एतेसु चेव कागादिसु पच्छित्तं भण्णति वा ममतं करेति। एवं कुले-कुलं-कुटुंबं गामणगरा-पसिद्धा, देसो पुण काकणिवारणि लहुओ, जावममत्तं तु लहुअ सेसेसु / जहा-कच्छदेसो, सिंधुदेसो, सुरट्ठाऽऽदि, रायण भोती रज्जं भण्णति, मज्झसवासादि तिव, तेण लहू रागिणो गुरुगा // 38 // सो पुण भोती एगविसओ वा होज। एतेसुगामादिसुपच्छित्तं जहासंखेण काग णिवारेति-मासलहु, सेसेसु त्ति-साणगोण-चउलहुगा, सेज्जातर 'चत्तारि छच' पच्छद्धं कंठ। खेत्तपरिणहो गतो। ममत्तेण कप्पट्ठगं रक्खति-चउलहुगंचेव, मज्झसवासा--एगग्रामनिवा इदाणिं काले भण्णतिसिनः, स्वजना वा तेण सण्णातगादिसु ममत्तेण रक्खति तहावि- कालातीते काले, कालविवचासकालतोऽकाले / चउलहुगं, अह कप्पट्टगं रागेण रक्खति तो-चउगुरुगं। लहुओ लहुया गुरुगा, सुद्धपदे सेवते जंच // 387 / / 'सेहातिपडिकुट्टे त्ति' अस्य व्याख्या कालातीए त्ति-कालतो-अतीतं कालातीतं, उडुबद्धे-मासाति-रित्तं भेताऽडतालसेहे, दुरूवहीणा तु ते भवे पिंडे / वसंतस्स, वासासु य अतिरित्तं वसंतस्स / काले त्ति-काले परिग्रहो घडितेतर मोरालं, वत्थादि गतं ण उगेण्हंति // 385 / / भवति, णितियवासदोसा य भवंति / कालविवचासो त्ति-कालस्स अडयालीसं भेदा, सेहाण अपव्वावणिज्जा य / ते य इमे-अट्ठारस विवचासो कालविवचासो तं करेति, कहं भण्णति-'कालओ अकाले पुरिसेसुं, वीसुं इत्थीसु, दस-णपुंसगेसु, पद्यावणा अणरिहा भणिया। त्ति,' उडुबद्धे कालेण विहरति। अकाले त्ति वासाकाले विहरति, अहवामाणे ण एतेसिं तु सरूवं पच्छित्तं च जहा अणलसुत्ते तहा दट्ठव्व-मिति। दिवाण विहरति, राओ विहरति, एस विपर्यासः / इदं प्रायश्चित्तम्-उडुबद्धे इह पुण सामण्णओ-चउगुरुगं पच्छित्तं, अणाभव्वं सच्चित्तं गेण्हतस्स अतिरित्ते-मासलहुगो, वासातिरित्ते-चउलहुगा, कालविवद्यासे-- चउगुरुगा चेव, 'अणेसणे' इति अस्य व्याख्या-'दुरूबहीणा उ ते भवे चउगुरुगा, एते पच्छित्ता सुद्धपदे भवंति। सुद्धपदं णाम-जइ वि अवराह पिंडे' पडिकुट्ठपिंडा येऽधिकृता ते दुरूवहीणा भेदा पिंडे भवन्तीत्यर्थः / ण पत्तो तहावि पच्छित्तं भवतीत्यर्थः। 'सेवते जंच त्ति' जं संजमपवअडयालीसभेदमज्झतो दो रूवा सोहिता, जाता छायालीसं / कह पुण यणआय-विराहणं सेवति तण्णिप्फण्णं च पायचिछत्तं दट्ठव्यमिति / छायालीसं भण्णति कालपरिग्रहो गतो। "सोलसमुग्गमदोसा, सोसमुप्पायणाय दोसा उ। इदाणिं भावपरिगहो भण्णतिदस एसणाएँ दोसा, संजोयणमादि पंचेव॥१॥" भावम्मि रागदोसा, ओवधिमादी ममत्तणिक्खित्ते। संजोयणे-अइप्पमाणं, इंगालघूमणिक्कारणा एते सव्वे समुदिता पासत्थममत्तपरिग्गहे, लहुगा गुरुगा य जे जत्थ // 388 // सत्तचत्तालीसं संभवंति। एत्थ मीसज्जायं अज्झो यरसरिस काऊण ण भावम्मि-भावपरिग्गहो रागेण दोसेण य भवति / उवहीउवहिओ, फेडिजति अतो छायालीस। अण्णे पुण आयरिया--सव्वाणु प्पाती संका आदिसद्दातो-उवग्गहितोघेप्पति। तमिदुविहे विममत्तं करेति, णिक्खित्तं इति काउं संकं अवणयंति। अण्णे पुण-संजोयणा-दिनिकारणवजिया णाम गरलिगावद्धं स्थापयति चोरभएण वा णिक्खि-वति, गोपयतीछायालीसं करेंति, एतेसिं सरूवं जहा पिंड-णिज्जुत्तीए पच्छित्तं, जहा त्यर्थः / पासत्थादिसुवा ममत्तं करेति, ममीकारमात्रं रागेण वा परिगण्हति कप्पपीढे, तहा इहं पि दट्ठव्वमिति / अचित्ते जहन्नमज्झिमुक्कोसेसु आत्मपरिग्रहे स्थापयतीत्यर्थःचसद्दातो-अहाछंदेसु, इत्थीसुय, ममत्तं तन्निप्फण्णं दट्टव्वमिति। 'ओरालिए हिरण्णे' अस्य व्याख्या-'घडितेत परिग्गरं वा करेति। 'लहुगा गुरुगाय जे जत्थ त्ति'-रागादयो संबज्झंति रमोरालियं'धडियं आभरणादी ओरालं भण्णति, इतरं पुण अघडियं तं ते तत्र दातव्याः। पासत्थादिसु ममत्ते--चउलहुगा, अह रागं करेति तोहिरणं भवति। एत्थ जहा-कमणिद्देसे हिरण्णसद्दो लुत्तो दट्ठव्यो। अहवा-- चउगुरुगा, दोसेण पास-त्थादीसु-चउलहुगा चेव, उवहिणिक्खित्तेसुचघडियं, इतरंअघ-डियं-सव्वसामण्णेण ओरालियं, भण्णति / वत्थं उलहुगा सच्छंदित्थीसु-चउगुरुगा। वासकप्पादि, आदिसद्दातो-पात्रादिधम्मोवकरणं सव्वं घेप्पति / पासत्यादिअहाछंदित्थीसु अइमा ममत्तव्याख्यागतशब्दो-धर्मो-पकरणभेदावधारणे द्रष्टव्यः। अहवा-गगारो आदिसद्दे मम सीस कुलि व्व गणि व, उवमम माति भाइणजोती। पविट्ठो, वत्थादिगं तं गोरेण वत्थादियाण णिद्देसो, णकारो-प्रतिषेधे, एमेव ममत्त करेंते, पच्छित्ते मग्गणा होति॥३८॥ तुशब्दो-परिग्रहावधारणे, गेण्हतीति वुत्तं भवति। वत्थादिगंधर्मोपकरणं तेसु पासत्थादिसु एवं ममत्तं करेति, सेसं कंठं। ण परिग्रहं मन्यन्तेत्यर्थः / तान्येव महद्धनानि मुच्छाए परिभुजंतस्स इमा भाष्यकर्तुः प्रायश्चित्तगाहापरिग्रहो भवति-चउगुरुगं च से पच्छित्तं भवति। दव्वपरिगहो गतो। उवधिममत्ते लहुगा, तेणभया णिक्खिवंति ते चेव। इदाणिं खेत्तपरिगहो भण्णति ओसण्णगिही लहुगा, सच्छंदित्थीसु चउगुरुगा॥३६०|| ओगासे संथारो, उवस्सयकुलगामणगरदेसे य। ते चेव त्ति-चउलहुगा, ओसण्णगणेण य ममत्ते चउलहुगा चेव / सेसं चत्तारि छच लहुगुरु, छेदो मूलं तह दुगं च // 386|| गतार्थं / रातो भावपरिग्गहो। गता परिग्गहस्स दप्पिया पडिसेवणा। ओगासो-पडिस्सगस्सेगदेसो, तम्मि पवातादिके, रमणीये ममत्तं इदाणिं कप्पिया भण्णतिकरेति, संथारगो-संथारगभूमी तीए ममत्तं करेइ, उवस्सओ-वसही,तीए अणॉभोगे गेलण्ण, अद्धाणे दुल्लमत्तजाते य।
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________________ मूलगुणपडि० 374 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मूलगुणपडि० सेहे गिलाणमादी, मजाया वावऽणुडाहे // 361 / / अणॉभोगे गेलण्णे, अद्धाणे दुल्लभऽहजाते य। सेहे गिलाणमादी, पडिक्कमे विजदुट्टे य॥३९२|| एयाओ दोण्णि दारनाहाओ। एत्थ पढमदारगाहापुव्वद्धेण दव्वाववातो गहितो, पच्छद्धेण खेत्ताववाओ गहिओ / वितिय-दारगाहापुव्वद्धेण कालाववातो गहितो। पच्छद्धेण भावववाओ गहितो। 'अणाभोगे त्ति' अस्य व्याख्यासव्वपदाऽणाभोगा, गेलण्णोसधिपदावणे वारे। काकादिअहिपडते, दव्वममत्तं च बालादी॥३६३|| सव्वे पदा-सव्वपदा, के ते सव्वपदा? कागादिसाणगोणछक्कायपरिग्गहवसाणा, एते सव्वपदा। एते जहा पडिसिद्धातहा अणा-भोगेण कुर्यादित्यर्थः / अणाभोगे त्ति गतं / 'गिलाणे त्ति'अस्य व्याख्या'गेलण्णोसहि त्ति' गिलाणस्स ओसहाणि उण्हे कताणि, तत्थ कागे अहिपडं ते णिवारेति,आदिसद्दातो सोणगोणा णिवारेति, एवं गिलाणकारणेण णिवारेंतो सुद्धो / गिलाणकारणेण वा कप्पट्टगरक्खणममत्तं वा कुजा, जओ भण्णति-'दव्वममत्तं च बालादि त्ति' दव्वमिति दव्वदारज्ञापनार्थं, दव्वं वा लभिस्सामि त्ति ममत्त-रक्खणं करेति, ममत्तं अण्णतरदव्वणिमित्तं बाले सुहं मायापिरौ से गिलाणस्स पडितप्पंति, बाले त्ति-बालस्स रक्खणं कुज्जा, गिला-णपडितप्पणत्थं ,आदिसद्दातो-अबाले ताव रक्खणं कुजा, गिलाणट्टायमिति-गेलण्णट्ठा वा अडयालसेहा पडिकुज्जा पव्वावेजा। जतो भण्णतिअतरंत परियराण व, पडिकुटा तप्प अहव विजस्स। तेसिट्ठायमणेसिं, विहिरण्णं विसे कणगं // 394|| अवरंतो-गिलाणो, पडियरगा-गिलाणट्ठगा वा, वकारो समुच्चये, पडिकुट्ठा-णिवारितो अपव्वावणिज्जति त्ति वुत्तं भवति / तप्पे त्तिवाबारवहणत्थे वट्टिस्सतीत्यर्थः। गिलाणस्स वापडियरगाण वा वेयावचं करिष्यतीत्यतः प्रव्राजयति / अहवा-वेजस्स करिष्यति, ततो वा प्रव्राजयति / तेसिं गिलाणपडियरगविजाण अट्ठाय अणेसणं पि करेजा, गिलाणमंगीकृत्य वेजट्टताय हिरण्णं पिगेण्हेजा। ओरालस्याववादो 'विसे कणगंति'-विषग्रस्तस्य सुवर्ण-कनकं, तंघेत्तुं घसिऊण विसणिग्घायणट्ठा तस्स पाणं दिजति। अतो गिलाणट्ठा, ओरालियग्रहणं भवेज। गिलाणट्ठा छक्कायपरिग्गहे त्ति अस्यापवादःकायाण वि उवओगा, गिलाणक व विजकले वा। एमेव य अद्धाणा, सेजातरभत्तदाइसु वा / / 365 / / काया-पुढवादी छ, तेसिं पि उवओगो उवभोगो-भवेज्ज / गिलाणकज्जे वा मिलाणस्सेव अप्पणो उवभोगाय लवणादि, वेजस्स वा उवभोगाय तदपि न दोसनिमित्तं, एवं गिलाणकारणेण कागादओ दब्वे अववदिता / गिलाणे त्ति गतं। इदाणिं अद्धाणे त्ति अस्य व्याख्या- 'एमेव य' पच्छद्धं-एमेवाऽवधारणे, जहा गिलाणट्ठा कागादिया दारा वुत्ता तहेव अद्धाणेऽवीत्यर्थः / अद्धाणपडिवण्णो जो सेजातरो जो या दाणाइ सडो भत्तं देति, वाकारो समुच्चये, एतेसिं किंचि वि सारियं आतवे होज्जा, तत्थ कागगोणसाणा अहिवडता णिवारिज्जा पि जं से उप्पजउ सुटुतरं परितप्पिस्संतीति काउं कप्पट्ठगं पि रक्खेज्जा, ममत्तं वा करेज्जा / ओरालिए हिरण्णे सेहाति त्ति परिकुट्ठा। एसणं छक्कायाण एगगाहाए वक्खाणेतिदुक्खं कप्पो वोढुं, तेण हिरण्णं कताकतं गेहं। पडिकुट्ठा विय तप्पे, एसणकप्पे असंथरणे // 366 / / दाहद्धाणपडिवण्णेहिं दुक्खं-अद्धाणकप्पो बुज्झति, तेण कारणेण, हिरणं-द्रविणं, कताकतं-घडियरूवं अघडियरूवं वा अद्धाणेघेप्पति। अद्धाणपडिवण्णाण चेव, पडिकुट्ठा-सेहा भत्त-पाणविस्सामणोवकरणवहणादीहिं तप्पिस्संतीति काउंदिक्खेज्जा, अद्धाणे वा असंथरंता एसणं पिपेल्लेज्जा, अणेसणीयं गेण्हतीत्यर्थः। अद्धाणे वा असंथरणे कायाणं वि उवओगं करेजा / प्रलंबादेरित्यर्थः। अद्धाणे त्ति गये। इदाणिं 'दुल्लभे त्ति'दारंदुल्लभदव्वं दाहिति, तेण णिवारे ममत्तमादिं च। पडिकुतुसणधातुं, ओरालकओ व काया वा // 367|| दुक्खं लब्भतिजं तं दुल्लभं, तंच सयपागसहस्सपागादियं दव्यं, तं'दाहिति त्ति 'तेण कारणेण कागसुणगादि णिवारेति, ममत्तं वा करेति, आदिसद्दातो कप्पटगादिरक्खति, पडिकुतुवा सेहे पचावेति। एवं दुल्लभं दव्वंलभित्तु समत्था भवंति। अहवा-कोइ गिही तेरासियपुत्तेण लज्जमाणो भणाति-जइ मम पत्तं तेरासियं पञ्चावेसि तो इमं जं दुल्लभं दव्वं तुम अणेसणीयं एयं चेवपयच्छामि। एवं दुल्लभदव्यठ्ठता पडिकुटुंति पचावेजा, एसणं पि पेल्लेज्जा / एवं उग्गमउप्पायणेसणादोसेहिं जुत्तं दुल्लभं दव्वं गेण्हतीत्यर्थः। दुल्लभदव्वद्वतां च ओरालहिरणं गेण्हेजा। ताणि ओरालहिरण्णाणि घेत्तूण तं दुल्लभदव्वं किणेज्जा, कायाव त्ति दुल्लभदव्वट्ठता वा सचित्तकाया गेण्हेजा। कहं पवालादिणा सञ्चित्तपुढविक्काएण तं दुल्लभदव्वं किणेजा। दुल्लभदव्वं तिगतं / इदाणिं अट्ठजाति ति दारं भण्णतिएमेव अट्ठजातं, तेण णिवारे ममत्तमादिं च / पडिकुटेण व धातुं, ओरालकओ व काया वा // 398|| एमेवावहारणे, जहा दुल्लभदव्वे एवमेव अट्ठजाए विदट्ठव्वं / जातशब्दो भेदवाचकः अर्थभेदेत्यर्थः , एते सेज्जातराति अट्ठजायं दाहिंतीति तेण तेसिं कागगोणसाणे अवरज्झंते णिवारेज्जा, कप्पट्टगंवा रक्खेजा, ममत्त वा करेज्जा, चकारो-समुच्चये, पडिकुटुं वा सेहं पच्चाविज्जति, तदडाय दव्वट्ठाए त्ति वुत्तं भवति / सो पडिकुट्ठसेहो पचावितो दव्वजायं उत्पादयिष्यतीत्यर्थः / अट्ठजायं पि उप्पादेंतो एसणं पि पेल्लेज्जा, अहाभद्दगकुलेसुवा अणेसणीयं पि भिक्खं गेण्हेजा, माउ दुरुट्ठोण दाहिति अट्ठजायं अट्ठणिमित्तेण वा काए गेण्हेज्जा, कह? उच्यते-'धातु त्ति पासाणमट्टियादि गहेऊण जायरूवं सुवण्णं तं उप्पाएज्जा धातुवायप्रयोगात्, पुणस
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________________ मूलगुणपडि० 375 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मूलगुणपडि० हो-विसेसणे दट्ठव्यो, आदिसद्दातो-रुप्पंतं च सीसगतउगादी धाउवा- मजाया अमज्जाया, तो तीए जो वट्टति सो अमज्जादिल्लो, तं जो ताओ यप्पओगा उप्पाययतीत्यर्थः। अहवा-जायरूवं जंच प्रबालवत् जातं तं अमज्जातातोपिवारितो तत्थ किं ममत्तं तु, तत्थ-किमिति-अमज्जायजायरूवं भण्णति। दव्वपरिग्गहाववातो गतो। पवत्तीणिवारणे, किमिति-क्षेपे, ममत्तं-ममीकारो, तुसदोअममत्ताव___इदाणिं खेत्ताववातो भण्णति धारणे, होज-भवेज, सिया-आसंकाए, अवधारणे वा, ममीकारः एमेव अट्ठजाए, खेत्ताएँ ऽववाततो वोच्छं। यदीत्यभ्युपगमे, तमिति अमज्जायट्ठाणं संबज्झति, स्वयमिति आत्मना सेहे गिलाणमादी, मज्जाता वावऽणुड्डाहे // 369ll संप्रत्यासेवतीत्यर्थः। खेत्ताववातो गतो। 'सेहेत्ति' अस्य व्याख्या, गाहा इदाणिं कालाववातो भण्णति 'अणाभोगे त्ति' अस्य व्याख्या, गाहाउवासादीसु सेहो, ममत्तपडिसेवणं च कुजाहि। अणोंभोगा अतिरित्तं, वसेज अतरंतों तप्पडियरा वा। एमेव गिलाणे वी, णेह ममं तत्थ पउणिस्सं // 400 / / अद्धाणम्मि विचरिमे, वाघाए दूरमग्गे वा / / 404|| उवासो आदी जेसिं ताणि उवासादीणि, ताणि संथारउवस्सय अणाभोगो-अत्यंत विस्मृतिः, किं उदुमासकप्पो वा, वासाकप्पो वा, कुलगामणगरदेसरजं च, एतेसु सेहो अयाणमाणो ममत्तं वा करेजा / पुण्णो न पुण्णो वा। एवं अणुवओगाओ अतिरितं पि वासिज्जा, अणाभोगे अहवा-गिलाणो भणेजा, मम एत्थ देसे मा कोति अल्लियओ। एस त्तिगयं। 'गेलण्णे त्ति' अस्य व्याख्या अतरंतोतप्पडियरा वा। अतरंतोपडिसेहो ति गओ / इदाणिं गिलाणे त्ति-'एमेव' पच्छद्धं-एवमवधारणे, गिलाणो, सो विहरिउमसमत्थो उदुबद्धं वासियं वा अइरित्तं वसेज्जा, जहा सेहो उवासादिसु ममत्त करेज्जा, एवं गिलाणो वि उवासादिसु ममत्तं गिलाणपडियरगा वा ग्लानप्रतिबद्धत्वात्, अतिरित्तं वसेज्जा / गिलाणे करेजा / अहवा-सो गिलाणो एवं भणेजा-णेह मम तंगामणगर देसं रज्जं त्ति गतं / 'अद्धाणे त्ति' अस्य व्याख्या-'अद्धाण'-पच्छद्धं-अद्धाणं वा,तत्थाह णीओ पउणिस्सामीत्यर्थः। आदि सद्दातो अगिलाणो वि पहपडिवत्ती तं पडिवन्ना अंतरायं वा संपडेजा,ततो कालविवचासो वि सन्नायगोवसग्गपत्तो भणेजा, णेह ममतंगाम, तत्थाऽहं णोवसग्गिज्जामि हवेजा। 'वाघातो त्ति' वाघातो णाम-विग्धं,तं वसहिभत्तादियाण होज्जा त्ति / गिलाणे ति गयं। अतो तम्मि उप्पण्णे वासासु वि गच्छेज्जा, अहवा-अदुबद्धियखेत्ताओ वासावासे खेत्तं गच्छंता अंतरा वाघातेण ठिता वासिउमारद्धो वाघातो इदाणिं मजाय' त्ति अस्य व्याख्या चरमे अप्पयाया एवं वा कालविवच्चासं कुज्जा / दूरे वा तं वासकप्पखेत्तं सागारिअदिण्णेसुव, वासादिसु णिवारए सेहो। अंतरा य बहू अवाया अतो ण गता, तत्थेव उदुवासिए खेत्ते वास-कप्पं ठवणाकुलेसु ठविए-सुवारए अलसणिद्धम्मे // 401 / / करेंति, एवं वा अतिरित्तं वसति। अद्धाणे त्ति गतं / सागारिओ-सेज्जातरो, तेण जे उवासाण दिन्ना, तेसु उवासेसु सेहे 'दुल्लभे' त्ति अस्य व्याख्या--- अमज्जादिल्ले आयरमाणे णिवारेज्जा, आदिसद्दातोउवस्सओ घेप्पति। धुवलंभे वा दव्वे, कइचणदिवसेहि वसति अतिरित्तं / मजाय त्ति गत / इदाणिं 'ठवणे त्ति' अस्य व्याख्या। 'ठवणा' पच्छद्धं-- उदुअतिरेको वासो, वासविहारे विवचासो।।४०५।। ठवणकुला अतिशयकुला भण्णंति,येष्वाचार्यादीनां भक्तमानीयते तेसु दुल्लभदव्वट्ठता अतिरित्तं पि कालं वसेजा, कह? उच्यते- पुण्णे ठविएसु अलसणिद्धम्मे पविसंतेणिवारितेत्यर्थः / ठवणे त्ति गत। मासकप्पे, वासाकप्पे वा, दुल्लभदव्वस्स धुवो-अवस्सं, लाभो गामणगरदेसरजाण अबवातो भण्णति-'उड्डाहे' त्ति अस्य व्याख्या भविस्सति, तेण कति त्ति' थोवदिवसे अतिरित्तं पि वसेज्जा / उदुबद्धकाले उड्डाहं च कुसीला, करेंति जहियं ततो णिवारेंति। अतिरेगो वासो एवं संभवति दुल्लभदव्वट्ठतो वासासु विहरंति, एवं अत्यंतेसु वितहियं,पवयणहीला य उच्छे ओ // 402 / / कालविवच्चासं करेंति। दुल्लभे त्ति गतं। जहियं ति-गामणगरदेसरज्जे, कुसीला-पासत्था, अकिरिय, इदाणिं 'उत्तमढे ति अस्य व्याख्यापडिसेवणा, उड्डाहं करेजा'ततो त्ति'-गामणगरादियाओ णिवारे-यव्वा सप्पडियरो परिणी, वास तदट्ठा व गम्मते वासे। णिवारणा कायव्वा,इह गामे अकिरियपडिसेवणा ण कायव्वा अत्यंतेसु संथरमसंथरे वा, ओमे विभवे विवचासो // 406|| वा तेसुपासत्थेसुतहियं गामेपवयणं-संघो तस्स हीला--णिंदा, भवति। परिणी-अणसणोवविट्ठो, तस्स जे वेयावच्चकारिणो ते पडियरगा, भत्तपाणवसहिसेहादियाण वा विउच्छेदो, तेसु तम्हा ततो पारंचिये वि सो परिण्णी सह पडियरएहिं अतिरित्तं पि कालं वसेज्जा, तदह त्ति करेजा। उड्डाहे त्ति गयं। परिणी पडिरयणट्ठा वा गम्मते वासासु वि एस विवयासो। परिण्णि ति चोदग आह-णणु वारेंतस्स गामादिसु ममत्तं भवति / आचार्याहण गतं / इदाणिं 'ओमे' इति अस्य व्याख्या सथरपच्छद्धं-जत्थ--संथरं 'भवति, कह? उच्यते तत्थ मासकप्पो अतिरित्तो वि कज्जति, जत्थासंथरं तत्थ ण गम्मति, जो तु अमज्जाइल्लो, णिवारए तत्थ किं ममत्तं तु। जत्थ पुण वासकप्पद्विताण ओम हवेजा,ततो वासासु वि गम्मति, एस होज सिया ममकारो, जतियं ठाणं सयं सेवे / / 403|| विवचासो। अहवा-वासक-प्पट्ठिताण उ णज्जति, जहा कत्तियमग्ग'जे' य इत्यनुद्दिष्टस्य ग्रहणं, तुसद्दो-णिद्देसे, मज्जायासीमा ववत्था,न | सिराइसु मासेसु असंथरं भविस्सति, भग्गा य दुप्पगम्मा भविस्संति,
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________________ मूलगुणपडि० 376 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मूलट्ठाण अतो वासासु चेव संथरे विवचासो कजति। असंथरे पुण कातिका / ओमे | संबज्झति, संबद्धो अब्भुटेहिति। पडिक्कमे त्ति गतं / इदाणिं 'विज त्ति' त्ति गतं / गओ कालो। अस्य व्याख्या-'विजट्ठा उभयं सेवित्ति'-उभयं णाम-पासत्थगिहत्था, इदाणिं भावाववातो भण्णति। तत्थ 'सेह त्ति' दारं / अस्य व्याख्या- ते विजाम-तजोगादिणिमित्तं सेवतेत्यर्थः / केती पुण एवं पढंति-'वेजट्ठा सिजादिए स उभयं, करेज सेधोवधिम्मि व ममत्तं / उभयं सेवेति'-वेजो-गिहत्थो, पासत्थो वा हवेज, तं ओलग्गेज्जा सुहं, अवि कोऽवि ममत्तणा तु, इयरगिहत्थेस वि ममत्तं // 407|| एवं सो गिलाणे उप्पण्णे गिलाणकिरियं करिष्यतीत्यर्थः / अहवा-उभयं सेहो-अगीयत्थो, अभिणवदिक्खिओवा, सो सेज्जादिए उभयं करेज, वेज्जणियल्लगा य / वेज्जस्स गिलाणकिरियं करेंतस्स सेवं करेजा, वेजणियल्लाण वासेव करेज्जा, ताणितं वेज किरियं कारयिष्यतीत्यर्थः। उभयंणाम-रागदोसा, आदिसद्दातो-वा सकुलगाम-नगरदेसरज्जादयो 'विजे त्ति' गतं घेप्पंति। उवहिम्मि वा वासकप्पाइए ममत्तं कुजा। अवि कोऽवि ममत्तणा उ चेव इतरगिहत्थेसु वि ममत्तं कुजा, तुसद्दोविकप्पदरिसणे / गीयत्थो इदाणिं 'दुढे त्ति' दारं अस्य व्याख्यावि कुजा, इतरे-पासत्थादयो / चोदगाह-अगीतो अगीयत्थ तणातो परिसं व राय दुई सयं व उवचरति तं तु रायाणं / पासत्थगादिसुममत्तंकरेजा,गीतोपुण जाणमाणो, कहंकुला? आचार्याह अण्णो वा जो दुट्ठो, सलद्धिणीए व तं एवं / / 11 / / जो पुण तहाणाओ, णिवत्तती तस्स कीरति ममत्तं / दुटुं णाम-राया पदुड्डो होजा, तम्मि पदुढे जा तस्स परिसा सा संविग्गपक्खिओ वा, कञ्जम्मि व जातु पडितप्पे / / 408|| उमयरियव्वा, ओलग्गं कायव्वा इति वुत्तं भवति / जो वा तं रायाणं एगपुरिसो उवसामेहितिसो वासेवियव्यो, उवसमणलद्धिसंपण्णो वासाहू जो इति-पासत्थो पुणसद्दो-अवधारणे, तहाणं पासत्थट्ठाणं तओ जो सयमेव रायाणं उवचरति, तं तु प्रद्विष्टराजानमित्यर्थः / अण्णो या जो पासत्थो निवत्तति तओ णिवत्तमाणस्स कीरइ, ममत्तं न दोषेत्यर्थः / राजवतिरित्तो भडभोइआदि जइ पउट्ठो तं पि सलद्धिओ जो साहू तो अणुज्जमतो वि संविग्गपक्खितो जो तस्स वा कीरइ वा ममत्तं, कर्ज पदुद्वणीए या से सेवेज एव पदुटुं णिउत्तं निहत्थेसु विप्रमत्त कुजा। पदुढे त्ति णाणादिगतं गेण्हतस्स जो पडितप्पति पासत्थो तस्स वा ममत्तं कजति, दारं गतं / गओ भावपरिग्गहो / गता परिम्गहस्स कप्पिया पडिसेवणा। कुलगणादिगं वा कजं तं जो साहयिस्सति पासत्थो तस्स वा ममत्तं (रात्रिभोजनस्य मूलगुण-प्रतिसेवनां 'राइभोयण' शब्दे वक्ष्यामि)। कजति, एवं गीयत्थो पासत्थादिसु ममत्तं कुजा। सेहे त्ति' गतं। मूलगुणपडिसेवय-पुं०(मूलगुणप्रतिसेवक) मूलगुणाः प्राणाति-पातविइदाणिं 'गिलाणमादि त्ति'दारं अस्य व्याख्या रमणादयस्तेषां प्रातिकूल्येन सेवको मूलगुणप्रतिसेवकः। मूलगुणप्रतिपासत्थादिममत्तं, अतरंतो भेसतट्ठता कुन्जा। सेवनाकारके, भ०२५ श०६उ०। अतरंताण करिस्सति, माणसिविट्ठता वितरो॥४०६|| मूलगुणरहिय-पुं०(मूलगुणरहित) पञ्चमहाव्रतान्यतरखण्डनशीले, दर्श० अतरंतो--गिलाणो, सो पासत्थादिसु ममत्तं कुज्जा / कहं? उच्यते-किं 4 तत्त्व। कारणं? उच्यते-भेसयट्ठता-भेसहं-ओसहं, तं दाहिति मे तेण कुज्जा। मूलगुणविजुत्त-त्रि०(मूलगुणवियुक्त) महाव्रतरहिते, सम्यगज्ञानकियाअतरंताण वा एस करिस्सति त्ति तेण से ममत्तं कुजा, अतरंतपडियरगा रहिते च / पञ्चा० 11 विव०॥ ध०| वा जे ताण असंथरंताण वट्टिस्सति, तेण वा ममत्तं कुज्जा / मम वा मूलगोत्त-न०(मूलगोत्र) उत्तरगोत्रापेक्षया मूलभूतान्यादिभूतानि गोत्राणि गिलाणीभूयस्स वहिस्सति तेण वा कुजा / माण-सिविट्ठता वा ममत्त मूलगोत्राणि। कश्यपादिपुरुषप्रभवे मनुष्यसन्ताने, स्था०७ ठा०३ उ०। कुजा, माणसिविञ्जा णाम-मणसा चिंतिऊण जं जावं करेति, तं लभति, (मूलगोत्राणि सप्त तानि 'गोत्त' शब्दे तृतीयभागे 654 पृष्ठे गतानि) तं मे सदाहिते त्ति ममत्तं कुज्जा, आदि-सद्दाओ-इतरो वि कुज्जा, इतरो मूलच्छेज्ज-न०(मूलच्छेद्य) मूलेनाष्टमस्थानवर्तिना प्रायश्चित्तेन छिद्यन्ते णाम- अगिलाणो सो वि एवं कुब्जा। गिलाणे त्ति गतं। अपनीयते यद्दोषजातंतन्मूलच्छेद्यम्। अशेषचारित्रोच्छेदकारिणि, विशे० इदाणिं 'पडिक्कमे त्ति अस्य व्याख्या-- मूलं संमत्तं पुणसद्दो अन्नेसिं विगुणाणं जेसिं उदये मूलच्छेज्जं भवतितं वि पगतीए समते सा-धुजोणिओ तंसि अम्ह आसण्णो। भासियव्वं / मूलच्छेज्ज तिवा मूलगुण-पडिवाउ त्ति या एगट्ठा।' आ० सद्दावणामवितरे, विजट्ठातूभयं सेवे // 410 / / चू०१अ०। कोइ पासत्थोपासत्थत्तणातो पडिक्कमिउकामो सो एवं सद्दावि-जति, | मूलजाय-न०(मूलजात) जात्यादिवनस्पती, तेषां हि मूलत एवात्पत्तिः। पगती-सभावो सभावतो तुम मम प्रियेत्यर्थः / पगतीओ वा वणिय- | आचा०२ श्रु०१ चू०१ अ०८उ०। लोहकुंभकारादओ तेसिंजो सम्मओ तस्स ममत्तं कीरति। साहुजोणीओ मूलट्ठाण-न०(मूलस्थान) तिष्ठत्यस्मिन्निति स्थानम्, मूलस्य स्थान णाम-साधुपाक्षिकः, आत्मनिन्दकः उद्यतप्रसंसाकारी सो भण्णति, तुम ___मूलस्थानम् / कषायाश्रये, 'जे गुणे से मूलठ्ठाणे, जे मूलट्ठाणे से गुणे' सदाकालमेव साहुजोणिओ इदाणिं उज्जम अन्न च। सो भण्णति तुम अम्ह इति / आचा०१ श्रु०२ अ०१ उ०। (इदं सूत्रं 'गुण' शब्देतृतीयभागे६०८ सजेंति ओकुलिव्वोयतेसुलभणामो, इतरोपासत्थोसेएव अन्न सयणेहिं | पृष्ठे व्याख्यातम् / उपपादयिष्यतेच 'लोगसार' शब्दे संक्षेपेण)
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________________ मूलणय 377 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मूलवत्थु मूलणय-पुं०(मूलनय) सकलनयमूलभूतेऽनन्तधर्माध्यासिते वस्तुन्येक- भत्ताइं छेअइत्ता अंतगडा मुणिवरुत्तमा तमरओघविप्पमुक्का धर्मसमर्थनप्रवणे बोधिविशेषे, सर्वज्ञशासने सकलनयमूलभूती द्वावेव सिद्धिपहमणुत्तरं च पत्ता, एए अन्ने य एवमाइया भावा मूलपढनयौ / तद्यथा-द्रव्यास्तिकनयः, पर्यायास्तिकनयश्च / आ०म०१०॥ माणुओगे कहिआ आघविजंति पण्णविजंति परूविज॑ति / सेत्तं (द्वावप्येतो 'णय' शब्दे चतुर्थभागे स्वस्वस्थाने दर्शितौ) मूसपढमाणुओगे। स०१४७ समानं सत्त मूलणया पण्णत्ता, तं जहा-नेगमे, संगहे, ववहारे, | मूलपत्ती-स्त्री०(मूलपत्नी) प्रधानभार्यायाम, आ०म०१०) उज्जुसुए, सद्दे, समभिरूढे, एवंभूते। (सूत्र-५५२) मूलपयत्थ-पुं०(मूलपदार्थ) कणादपरिकल्पितद्रव्यादिपदार्थेषु, द्रव्यगुणस्था०७ ठा० 3 उ०। अनु०। (व्याख्या स्वस्वस्थाने) कर्मसामान्यविशेषसमवायलक्षणाः षट्मूलपदार्थाः। विशे०) "दव्वगुणमूलणिमेव-न०(मूलनिमेण) मूलाधारे, 'मूलनिमेणं पञ्जवणयस्स उज्जुसु कम्मसामन्नविसेसा छट्टओ य समवाओ। एए मूलपयत्था, छलुगेण अवयणविच्छेदो'। सम्म०१काण्ड५ गाथा। (व्याख्या 'दव्वष्ट्रिय' शब्दे पकप्पिया पढम / / 1 / / '' आ०म०१अ०। चतुर्थभागे 2468 पृष्ठे गता) मूलपायच्छित्त-न०(मूलप्रायश्चित्त) प्राणातिपातादौ पुनर्वतारोपणे, आव०५ अग मूलत्ताण-न०(मूलत्राण) 'मुलतान' इतिख्याते सिन्धुसमीपनगरे, "तेषा शिशुना वृत्तिः, स्वोपज्ञा व्यरचि विनयकुशलेन। मूलत्राणासपुरे, करवा मूलपिंड-पुं०(मूलपिण्ड) यदनुष्ठानाद् गर्भसातनादेर्मूलमवाप्यते गरसेन्दुमितवर्षे / / 1 / / " मण्डा तद्विधानादवाप्तो मूलपिण्डः / षोडशे उत्पादनादोषे, आचा०२ श्रु०१ चू०१ अ०६उ० मूलदत्ता-स्त्री०(मूलदत्ता) जाम्बवतीपुत्रस्य शाम्बस्य भार्यायाम, अन्त० मूलफल-न०(मूलफल) कन्दफलस्वरूपे व्यञ्जनभेदे, स्था०३ ठा०१ १श्रु०५ वर्ग 2 अ० (साचारिष्टनेमेरन्तिके प्रव्रज्य सिद्धेतिअन्तकृदशानां पञ्चमे वर्गे दशमेऽध्ययने प्रत्यपादि) उ० चं०प्र०। सू०प्र०) मूलदल-न०(मूलदल) आदिभूतद्रव्ये, प्रश्न०४ संव०द्वार। मूलबीय-पुं०(मूलबीज) मूलमेव बीजं येषां ते मूलबीजाः। उत्पल कन्दादिषु, स्था०४ ठा०१उ०दश०। जात्यदिषु, आचा०२ श्रु०१ मूलदलियणेम-त्रि०(मूलदलिकनेम) मूलदलमादिभूतद्रव्यं तस्य 'नेम चू०१अ०८उ०। स्था०। विशे०। आ०म०। मूलकारणे, दश०६ अ०। ति' निभं सदृशम्। मूलद्रव्यसदृशे, प्रश्र०४ संव०द्वार। मूलभरण-न०(मूलभरण) प्रासुकरसवत्यां सचित्तक्षेपे, मूलभरणं नाम मूलदेव-पुं०(मूलदेव) स्वनामख्याते उज्जयिनीराजे, उत्त०४ अ०॥ प्रासुकायां रसवत्यां राजिकादीनि बीजानि संयतार्थ यत्प्रक्षिप्यन्ते / ('मंडिय' शब्देऽस्मिन्नेय भागे कथोक्ता)स्वनामख्यातेधूर्तवादिनि, नि० बृ०१ उ०। चू० १उ०। व्य०। दशसङ्क्षा०। ग०। ('धुत्तक्खाण' शब्दे चतुर्थभागे मूलभोयण-न०(मूलभोजन) मूलं पुनर्नवादीनां तस्य तदेव वा भोजनं, 2756 पृष्ठे वक्तव्यतोक्ता) अहिच्छत्रायां पार्श्वस्वामिप्रतिमावैयावृत्त्यकरे भुज्यत इति भोजनम् / स्था०६ ठा०३ उ०। मूलानि प्रतीतानि तेषां व्यन्तरदेवे, ती०६ कल्प०। 'उप्पत्तिया' शब्दोक्ते स्त्रीवञ्चके पुरुष, नं०। भोजनं भक्षणं परिभोगः / मूलाहारे, दशा०२ अ०॥ आ०म०। आoनका मूलमंत-त्रि०(मूलवत्) मूलानि प्रभूतानि दूरावगाढानि सन्त्येषामिति मूलधुरा-स्त्री०(मूलधुरा) सर्वासां धुरां प्रशस्तधुरि, आ०म०१अ०॥ मूलमन्तः / विशिष्टमूलशालिषु, रा०। ज्ञा०ा औ०। मूलपगडि-स्त्री०(मूलप्रकृति) ज्ञानादिकर्मणां मूलभेदे, आचा०१ श्रु०२ मूलय-न०(मूलक) मूली मूलवनस्पती, प्रज्ञा०१ पद / भ० स०आचा०। अ०१उ०। मूलयवच-न०(मूलकवर्चस्) यत्र मूलकं सटित्वा विष्ठा भवति तादृशे मूलपढमाणुओग-पुं०(मूलप्रथमानुयोग) पूर्वभवादिगोचरोऽनुयोगो मूल स्थाने, नि०चू०३उ०। प्रथमानुयोगः / अर्हद्वक्तव्यताप्रतिबद्धे अनुयोगभेदे, सका मूलराय-पुं०(मूलराज) चौलुक्यवंशीये स्वनामख्याते अणहिलमूलपढमाणुओगे य, गंडियाणुओगे यासे किं तं मूलपढमाणु पत्तनराजे,"आसीद्विशांपतिरमुद्रचतुःसमुद्र-मुद्राङ्कितक्षितिभरक्षमओगे? एत्थ णं अरहंताणं भगवंताणं पुस्वभवा देवलोगगम बाहुदण्डः। श्रीमूलराज इति दुर्धरवैरिकुम्भि-कण्ठीरवः शुचि-चुलुणाणि आउंचवणाणि जम्मणाणि अ अभिसेया रायवरसिरीओ क्यकुलावतंसः॥१॥" प्रा०४ पाद। ती०।। सीयाओ पव्वजाओ तवा य भत्ता केवलणाणुप्पाया अतित्थ मूलवत्थु-न०(मूलवस्तु) पूर्वगतश्रुतस्याध्ययनविशेष, स्था० 10 ठा० पवत्तणाणि अ संघयणं संठाणं उच्चत्तं आउं वनविभागो सीसा ३उ०। मूलकारणे, यथा-श्रावकस्य सम्यक्त्वम्, वसन्त्यस्मिन्नणुव्रतागणा गणहरा य अज्जा पवत्तणीओ संघस्स चउट्विहस्स जं वावि दयो गुणास्तद्भावभावित्वेनेति वस्तु, मूलभूतं द्वारभूतं च तद्वस्तु च परिमाणं जिणमणपज्जवओहिनाणसम्मत्तसुयनाणिणो य वाई मूलवस्तु / तथा चोक्तम्-"द्वारं मूलप्रतिष्ठान-माधारो भाजनं अणुत्तरगई य जत्तिया सिद्धा पाओवगआ य जे जहिं जतियाई निधिः।" आव०६अ।
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________________ मूलवागरणि 378 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मूलारिह मूलवागरणि(ण)-पुं०(मूलव्याकरणिन्) आद्यवक्तरि, ज्ञातरि, सम्म० १काण्ड। मूलविराहणा-स्वी०(मूलविराधना) प्राणातिपातादिविराधनायाम्, इयं मूलशब्देनोच्यते। जीतका अन्ये त्वाषाढाद्याः संवत्सरा इति तदाधदिने ज्येष्ठपूर्णिमानन्तरप्रतिपदिसंवत्सरस्तद्-दिवसे मूलनक्षत्रं भवति, ततः प्राधान्यादन्यत्र नक्षत्रशब्देन मूलं भणन्ति, तेन मूलविराधना-प्राणातिपातादतिचाररूपा ज्ञाप्येति। जीता मूलवीरिय-पुं०(मूलवीरिक) वैताळ्यपर्वते विद्याधरनिकायभेदे, आ० चू० 10 / मूलवेणी-स्त्री०(मूलवेणी) गृहच्छदनस्य मूलाधारे, "पट्टीयंसो, दोधार णाओ, चत्तारि मूलवेणीओ।" आचा०२ श्रु०१ चू०२अ०१ उ०। मूलसंघ-पुं०(मूलसङ्घ) ज्ञानदर्शनचारित्रादिधरे कुलादिस्थविरसमुदाये, पं०भा०। दंसणणाणचरित्ते, जो पुष्वपरूवणे य रयणाय। एसोय मूलसंघो,तिविहाथेरा करणजुत्ता। पं०भा०५ कल्प। कुलथेरो गुणेहिं उववेओ, एवं गुणसंघथेरो वि, संघथेरो नियमा जुगप्पहाणो, इयरे भइया, सो पुण एक्कको सीयघरसमाणो एसमूलसंधो। पं०चू०५ कल्प। मूलसिप्प-न०(मूलशिल्प) कुम्भकारादिशिल्पे, "पंच मूल-सिप्पाणि कुंभकारा चित्तगारा णतिका कम्मागारा कासवगा," आ०यू०१अ०। मूलसिरी-स्त्री०(मूलश्री) कृष्णवासुदेवपुत्रस्य साम्वस्याग्रमहिष्याम्, अन्ता तेणं कालेणं तेणं समएणं बारवतीनगरीए रेवतके नंदणवणे कण्हे वासुदेवे, तत्थणं बारवतीए नयरीए कण्हस्स वासुदेवस्स पुत्ते जंबवतीए देवीए अत्तत्ते संवे नाम कुमारे होत्था, अहीण०, तस्स णं संवस्स कुमारस्स मूलसिरि नामं मारिया होत्था। वन्नओ-अरहा समोसले कण्हे णिग्गते मूलसिरी विणिग्गयाजहा पउमा० नवरं देवाणुप्पिया ! कण्हं वासुदेवं आपुच्छामि० जाव सिद्धा। एवं मूलदत्ता वि। (सूत्र०११)। अन्त०१ श्रु० 5 वर्ग२ अ01 मूलहर-पुं०(मूलहर) यः पिर्तृपैतामहोपार्जितमर्थमन्यायेन भक्षयति। तस्मिन्, ध०१ अधिका मूला-स्वी०(मूला) कौशाम्ब्यां नगर्यां धनवाहश्रेष्ठिभार्यायाम् आ०म०१ अ०। आ०चू०। ('वीर' शब्दे विहारप्रस्तावे तत्कथा) मूलाबीय-न०(मूलाबीज) शाकविशेषबीजेषु, भ०६श०७ उ०। मूलारिह-न०(मूलाह) यस्य चासेवनायां सर्वपर्यायमपनीय पुनर्महाव्रतारोपणं क्रियते तन्मूलाईम्। प्रायश्चित्तभेदे, जीता अधुना मूलार्ह गाथाचतुष्टयेनाह / कलापकम्१-णंतिका-वस्त्रकर्तारः। आउट्टियाइपंचि-दियघाए मेहुणे य दप्पेणं। सेसेसुकोसाभि-क्खसेवणाईसुतीसुं पि॥८३| तवगटिवयाइएसु व, मूलुत्तरदोसवइयरगएसुं। दंसणचरित्तवंतो, चियत्तकिये य सेहे य॥४॥ अचंतोसनेसु य, परलिंगदुगे य मूलकम्मे य / मिक्खुम्मिय विहियतवो-ऽणवठ्ठपारंचियं पत्ते // 85|| छएण उ परियाए, ऽणवट्ठपारंचियासु साणे य। मूलं मूलावत्तिसु, बहुसोय पसज्जओ भणियं // 16 // (आकुट्टिकया) पञ्चेन्द्रियघाते मैथुनं दर्पणासेवते सतीत्वमस्या नाशयामीति बुद्ध्या स्त्रीसेवनायां, शेषेषु मृषावादादत्तादानपरिग्रहेषु त्रिष्वप्याकुट्टिकया उत्कर्षतोऽभीक्ष्णं वापुनः पुनरासेवनादिषु आदिशब्दादनाकुट्टिकया पश्चानामप्येषां कारणानुमत्योश्च मूलम् / तथा तपोगर्वितादिषु च तपोगर्विततपोऽसमर्थतपोऽश्रद्दधानतपो-भिरदम्यमानेषु चतुर्वप्येतेषु मूलोत्तरदोषव्यतिकरगतेषु मूलगुणा उत्तरगुणाश्च बहुप्रकारास्तेषां दोषो दूषणं भङ्ग करणं तस्य व्यतिकरः संपर्कस्तं गतेषु बहुशो मूलोत्तरगुणभङ्गकारिरिष्वित्यर्थः वान्त-दर्शनचारित्रे इह दर्शने वान्ते नियमाचारित्रं वान्तमेव, चारित्रे पुनन्तेि दर्शन भजना-वान्तचारित्रोऽपि दर्शनं वमति, कोऽपि न वमति / ततो वान्तदर्शने वान्तचारित्रे च, त्यक्तानि कृत्यानि दश-विधचक्रवालसामाचारीरूपाणि सर्वाणि येन स त्यक्तकृत्यस्तस्मिन्, शैक्षे च नवदीक्षितेऽनुपस्थापिते एतेषु च सर्वेषु मूलम् / / तथाऽत्यन्तावसन्नेषु च आसन्ना एव प्रव्राजिताः संयिनर्वा प्रव्राजितमात्रा एवावसन्नतया विहृतास्तेऽत्यन्तावसन्नास्तेषुपर-लिङ्गद्विके-परलिङ्गं गृहस्थलिङ्ग कच्छाबन्धनादिगृहस्थवेषरूपम्, अन्यतीर्थिकलिङ्ग वा तापसादिवेषरूपं तयोराकुट्टिकया दर्पण वा स्वयं करणे, मूलकर्माणि च औषधादीनां स्त्रीणां गर्भाधानशाटनकरणरूपे, भिक्षौ च विहिततपसिविहितं दत्तं गुरुभिस्तपोरूप प्रायश्चित्तं यस्य तस्मिन् एवमङ्गीकृततपः प्रायश्चित्ते पुनरपिछेदमूलेऽतिक्रम्य तथा-विधातिचारसेवनयाऽनवस्थाप्यं पाराञ्चिकं चापि प्राप्ते मूलम्।कोऽर्थः-भिक्षोर्नवमदशमप्रायश्चित्ता-पत्तावपि मूलमेव प्रायश्चित्तं भवति, आचार्योपाध्याययोस्तु पाराञ्चिकापत्तावप्यनवस्थाप्यमेव / यदुक्तं भाष्ये "इत्थ य जह नवदशमे, आवन्नस्सावि भिक्खुणो मूलं / दिजइ तहाभिसेगे, परं पयं होइ नवमं तु॥१॥" अभिषेकशब्देनाचार्योपाध्यायावुच्येते / परमत्राचार्यास्याकृत करणस्य उपाध्यायस्य च कृतकरणस्यैतत् ज्ञेयं कृतकरणाचार्यस्यान्त्यप्रायश्चित्तप्रतिभणनात्।तथा छेदेन पुनः पुनरतीचारमाश्रित्य क्रियमाणेन व्रतपर्याय निरवशेषेऽपि छिन्ने इति शेषः, मूलम् / / अनवस्थाप्यपाराशिकावसाने च अनवस्थाप्यपाराश्चिकयोरनुष्ठितयोरनन्तरं पुनस्तथाविधातिचारसेवनया तदापत्तावपि मूलमेव दीयते। मूलापत्तिषुउपचारान्मूलापत्तिकारणेष्यतीचारेषु बहुशवप्रसजतःपुनपुनःप्रसक्तिकु_णस्य मूलम्, एतेषुयथोक्तस्थानेषु सर्वेषु
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________________ मूलारिह 376 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मे अज्ज मूलं-मूलार्हप्रायश्चित्तं भणितम् / / 83184 / 8186 // जीत०। स्था० | मेअज्ज-पुं०(मेतार्य) श्रीवीरजिनस्य दशमगणधरे, विशे० आव०॥ औ०। व्य०। आ०म०ासका विशे० कल्प०। अस्य कथानकम्--साएते णगरे मूलाहार-पुं०(मूलाहार) मूलमात्राहारे वनस्पती, ति० औ० चंडवंडसओ राया तस्स, दुवे पत्तोओ-सुदंसणा पियदंसणा य / तत्थ मूलिय-न०(मौलिक) मूले भवं मौलिकम् / मूलद्रव्ये, उत्त०७ अ० सुदंसणाए दुवे पुत्ता-सागरचंदो, मुणिचंदो य। पियदंसणाए वि दो पुत्तामूलधने,उत्त०७ अ० गुणचंदो, बालचंदो या सागरचंदो जुवराया, मुणिचंदस्स उज्जेणी दिण्णा कुमारमुत्तीए। इओ च चंडवडंसओ राया माहमासे पडिमं ठिओवासघरे मूलुत्तरगुणब्मट्ठ-त्रि०(मूलोत्तरगुणभ्रष्ट) मूलगुणाः-प्राणातिपात जाव दीवगो जलइ त्ति, तस्स सेज्जावाली चिंतेइ दुक्खं सामी अंधतमसे विरमणादयः,उत्तरगुणाः-पिण्डविशुद्धयादयस्तेभ्यो भ्रष्टः। मूलोतरगुणाभ्यां पतिते, ग०१ अधि०। अच्छिहिति ताए बितिए जामे विज्झायते दीवगे तेल्लं छूढं, सो ताव जलिओ जाव अद्धरत्तो, ताहे पुणो वि तेल्लं छूढं ताव जलिओ जाव मूलुप्पत्ति-स्त्री०(मूलोत्पत्ति) आद्योत्पत्तौ, नि०यू०१उ०। पच्छिमपहरो, तत्थ वि छूट, ततो राया सुकुमारो विहायंतीए रयणीए मूसअ-पुं०(मूषिक) पथि-पृथिवी-प्रतिश्रुन्मूषिक-हरिद्राविभीत वेयणाभिभूओ कालगओ। पच्छा सागरचंदो राया जाओ। अण्णया सो केष्वत् // 81/88|| इत्यनादेरिकारस्याकारः। मूसओ। प्रा०। आ० माइसवत्तिं भणइ-गेण्ह रज पुत्ताण ते भवउ त्ति, अहं पव्वयामि, सा म०। आ००। उन्दुरौ, उत्त०३२ अ० स्था०। कल्पा उन्दुरुविशेषे, णेच्छइएएण रज्जं आयत्तं ति। तेओ सो अतिजाणनिजाणेसुरायलच्छीए ज्ञा०१ श्रु०८अ०। प्रज्ञा दिप्पंतं पासिऊण चिंतेइ-मए पुत्ताण रजं दिजंतं ण इच्छियं, ते वि एवं मूसगविजा-स्त्री०(मूषिकविद्या) मूषिकप्रधाना विद्या मूषिक-विद्या / सोभन्ता, इयाणिं विणं मारेमि / छिद्दाणि मग्गइ। सो य छुहालू, तेण परिव्राजकविकुर्वितमूषिकसहस्रकारिणि विद्याभेदे, आ०म०१अ०। सूतस्स संदेसओ दिण्णो / एत्तो चेव पुव्वण्हियं पट्टवि-जासि, जइ विशे०। कल्पका आका विरामि / सूएण सीहकेसरओ मोदओ चेडीए हत्थेण विसज्जिओ। मूसरी-(देशी) भग्ने, दे०ना०६ वर्ग 137 गाथा। पियदंसणाए दिट्ठो, भणइ-पेच्छामि णं ति, तीए अप्पितो, पुव्वं णाए मूसल-(देशी) पीने,दे०ना०६ वर्ग 137 गाथा। विसमक्खिया हत्था कया। तेहिं सो विसेण मक्खिओ। पच्छा भणइमूसा-स्त्री०(मूषा) स्वर्णादितापनभाजनविशेषे, ज्ञा०१ श्रु०६अ। मृण्य अहो सुरभी मोयगो त्ति पडिअप्पिओ। चेडीएताए गंतूण रण्णो समप्पिओ। मयभाजने, यत्र सुवर्णकारेण सुवर्ण प्रक्षिप्य गाल्यते। कल्प०१ अधि०२ ते य दो वि कुमारा रायसगासे अच्छंति, तेण चिंतियं-किह अहं एतेहिं क्षण। ज्ञा० भ०ा लघुद्वारे, दे०ना०६ वर्ग 137 गाथा। छुहाइएहिं खाइस्सं? तेण दुहा काऊण तेसिं दोण्हं वि सो दिण्णो। ते मूसाअ-(देशी) लघुद्वारे, देवना०६ वर्ग 137 गाथा। खाइउमारद्धा,जाव विसवेगा आगंतुं पवत्ता, राइणा संभंतेण वेज्जा सहाविता, सुवण्णं पाइया, सज्जा जाया। पच्छा दासी सद्दाविया, पुच्छ्यिा मूसागय-त्रि०(मूसागत) मृण्मयभाजनविशेषगते, ज्ञा०१ श्रु०१ अ० भणइ-ण केण वि दिट्ठो, णवरं एयाणं मायाए परामुट्ठो। सा सद्दाविया "मूसागयपवरकणगतावियं" मूसा-स्वर्णादितापनभाजनं तद्गतं भणिया-पावे! तदाणेच्छसिरजं दिजतं, इयाणिमिमणाऽहं ते अकयपरयत्प्रवरकनकं तापितं कृताग्नितापम् यत्तत्तथा / भ०११ श०११ उ०। लोयसंबलो संसारे छूढो होतो त्ति, तेसिंरचंदाऊण पव्वइओ। अण्णया कल्प संघाडओ साहूण उज्जेणीओ आगओ। सो पुच्छिओ-तत्थ णिरुवसग्गं? मूसिया-स्त्री०(मूषिका) मूषिकजातिस्त्रियाम्, जी०२प्रतिका ते भणंति-णवरं रायपुत्तो पुरोहियपुत्तो य बाहिन्ति पासंडत्थे साहुणोय मूसियार-पुं०(मूषिकार) पोट्टिलापत्युः कलादस्य पितरि, ज्ञा०१ श्रु० | सो गओ अमरिसेणं तत्थ, विस्सामिओ साहूहि, ते य संभोइया साहू, 13 अग भिक्खावेलाए भणिओ--आणिज्जउ, भणइ अत्तलाभिओ अहं, णवरं मूसियारि-पुं०(मूषिकारी) माजरि, आचा० ठवणकुलाणि साहह / तेहिं से चेल्लओ दिण्णो, सो तं पुरोहियघरं मे-अव्य०(अस्मद्) ङस् मे मइ मम मह महं मज्झ मज्झं अम्ह दंसित्ता पडिगओ। इमो वि तत्थेव पइट्ठो वड्डवड्डण सद्देणं धम्म लाभेइ, अम्हंङसा ।।८।३११३॥अस्मदो डसा सह एते नवाऽऽदेशा भवन्ति। अंतउरिआओ निग्ग-याओ हाहाकां करेंतीओ, सोवड्वड्डेणं सद्देणं इति मते आदेशः। ममेत्यर्थे,प्रा०ा मि मे ममं ममए ममाइ मइ मए भणइ-किं एवं साविए त्ति ते णिग्गया बाहिं बारं बंधंति,पच्छा भणंतिमयाइणे टा।।८।३।१०६। अस्मदः टा सह एते नवाऽऽदेशा भवन्ति। भगवं! पणचसु, सो पडिग्गहं ठवेऊण पणचिओ। तेण याणंति वाएउ, मयेत्यर्थे, प्रा०ा प्रश्न०। ननुमे इत्यस्य मम मह्यं चेति व्याख्यान-मुचितं भणंति--जुज्झामो, दोवि एकसरा ते आगया। मम्मेहिं आहया, जहा षष्ठीचतुर्योरेवैकवचनान्तस्यास्मत्पदस्य मे इत्यादेशादिति? जंताणि तहा खलखलाविआ / तओ णिसिटुं हणिऊण वाराणि अत्रोच्यते-मे इत्ययं विभक्तिप्रतिरूपकोऽव्यय-शब्दस्तृतीयैकवचना- उग्घाडित्ता गओ। उज्जाणे अच्छति, राइणो कहियं। तेण मग्गाविओ। साहू न्तोऽस्मच्छब्दार्थे वर्तते इति न दोषः / स्था० १ठा०। भणति-पाहुणओ आगओ, ण याणामो, गवसंतेहिं उजाणे दिट्ठो। राया मेअ-पुं०(मेद) अनार्यदेशभेदे, प्रज्ञा०१ पद। १-स्थास्थति।
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________________ मेअज्ज 380 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मेघंकरा गओ खामिओय, णेच्छइमोत्तुं, जइ पव्वयंति तो मुयामि।ताहे पुच्छिया, गहिया। तहा आचेदिओ जहा अच्छीणि भूमीए पडियाणि / कोंचओ य पडिसुयं / एगत्थ गहाय चालिया जहासट्ठाणे ठिया संधिणो लोयंकाऊण दारुं फोडेतेण सिलिंकाए आहओ गलए। तेण वन्ता, लोगो भणइ पाव! पव्वाविया / रायपुत्तो सम्मं करेति मम पित्तियत्तो त्ति, पुरोहियसुयो एए ते जवा, सो वि भगवं कालगओ सिद्धो य। लोगो आगओ, दिट्ठो दुगंछइ-अम्हे एएण कवडेण पव्वाविया। दो विमरिऊण देवलोगं गया, मेतज्जो, रण्णो कहियं वज्झाणि आणत्ताणि, दारं ठइत्ता पव्वइयाणि संगरं करेंति-जो पढमं चयइ तेण सो संबोहेयव्वो, पुरोहियसुओ चइऊण ' भणति-सावग ! धम्मेण वड्ढाहि, मुक्काणि। भणइ-जइ उप्पव्ययह तो भे तीए दुगंछाए रायगिहे मेईए पोट्टे आगओ। तीसे सिट्टिणी क्यंसिया, सा कविल्लीए (कटाहे।) कड्डेमि, एवं समइमं अप्पए य परे य कायव्यं / किह जाया? सा मंसं विक्किणइ,ताए भण्णइ-मा अण्णत्थ हिंडाहि, अहं तथा च कथानकापैकदेशप्रतिपादनायाहसव्यं किणामि, दिवसे 2 आणेइ / एवं तासिं पीई घणा जाया, तेसिं चेव जो काँचगावराहे, पाणिदया काँचगं तु णाइक्खे। घरस्स समोसीयाणि ठियाणि। साय सेविणी शिंदू, लाहे मेईए रहस्सिय जीवियमणपेहंतं, मेयनरिसिंणमंसामि // 869 / / चेव तीसे पुत्तो दिण्णो, सेहिणीए धूया मइया जाया / सा मेईए गहिया, यः क्रौञ्चकापराधे सति प्राणिदयया 'क्रोञ्चकं तु' क्रोधकमेव न आचष्टे, पच्छा सा सेट्ठिणी तंदारगं मेईए पाएसुपाडेति, तुभ पभावेण जीवउत्ति, अपि तु स्वप्राणत्यागं व्यवसितः, तमनुकम्पया जीवित-मनपेक्षमाणं तेण से नाम कयं मेयजो त्ति / संवडिओ, कलाओ गाहिओ, संबोहिओ मेतार्यऋषिं नमस्य इति गाथार्थः // 866 // देवेण, ण संबुज्झइ, ताहे अट्ठण्हं इडभकण्णगाणं एगदिवसेण पाणी णिप्फेडियाणि दोण्णि वि, सीसावेढेण जस्स अच्छीणि। गेहाविओ। सिवियाए णगरि हिंडइ, देवोवि मेयं अणुपविट्ठो रोइउमारद्धो, णय संजमाउ चलिओ, मेयजो मंदरगिरि व्य / / 7 / / जइ मम वि धूया जीवंतिया तीसे वि अञ्ज विवाहो कओ होतो, भत्तं च मेताण कयं होतं। ताहे ताए मेईए जहावत्तं सिटुं, तओ रुट्ठो देवाणुभावेण निष्कासिते भूमौ पातिते द्वे अपि शिरोबन्धनेन यस्याक्षिणी एवमपि कदर्थ्यमानोऽनुकम्पया 'न च'-नैव संयमाचलितो यस्तं मेतार्यऋषिं यताओ सिबियाओ पाडिओ तुमं असरिसीओ परिणेसि त्ति खड्डाए छूढो / ताहे देवो भणइ-किह? सो भणइ-अवण्णो। भणइ-एत्तो मोएहि किंचि नमस्य इति गाथाभिप्रायः ॥८७०|आव०१ अ०। स्था०। ('परलोग' कालं अच्छामि बारस वरिसाणि, तो भणइ-किं करेमि? भणइ-रण्णो शब्दे परभव' शब्दे च पञ्चमभागे एतद्वक्त-व्यतोक्ता) गोत्रविशेषप्रवर्तके धूयं दवावेहि, तो सव्वाओ अकिरियाओ ओहाडियाओ भविस्संति / ऋषौ, यदन्वये पेढालपुत्रश्चासीत्। सूत्र०२श्रु०७अ०॥धान्ये, देवना०६ वर्ग 138 गाथा। ताहे से छगलओ दिण्णो, सो रयणाणि चोसिरइ, तेण रयणाण थालं भरियं / तेण पिया भणिओ रण्णोधूयं वरेहि, रयणाणं थालं भरेत्ता राओ। मेअर-(देशी) असहने, दे०ना० 6 वर्ग 138 गाथा। किं मग्गसि? धूयं, णिच्छूढो, एवं थालं दिवसे 2 गेण्हइ, ण य देइ / मेअलकन्ना-स्त्री०(मेकलकन्या) नर्मदायाम्, "मेकलकन्नाय नम्मया अभओ भणइ-कओ रयणाणि? सो भणइ-छगलओ हगइ / अम्ह वि रेवा" पाइ०ना० 130 गाथा। दिजउ, आणीओ। मडगगंधाणि वोसिरइ। अभओ भणइ-देवाणुभावो। मेइणी-स्त्री०(मेदिनी) क्षितौ, पृथिव्याम्, अनु०। प्रशाआव०। "वसुहा किं पुण? परिविक्खजउ, किह? भणइ-राया दुक्खं वेभारपव्वतं सामि वसुंधरा वसुमई मही मेइणी धरा धरिणी " पाइ० ना० 26 गाथा। वंदिउ जाति, रहमसां करेहि / सो कओ, अज्ज वि दीसइ / भणिओ मेंठ-(देशी) हस्तिपके, देगा०६ वर्ग 138 गाथा। पागारं सोवण्णं करेहि, कओ। पुणो वि भणिओ-जइ समुई आणेसि मेंठी-(देशी) मेण्ढ्याम्, दे०ना०६ वर्ग 138 गाथा। तत्थ पहाओ सुद्धो होहिसि तो ते दाहामो। आणीसो, वेलाए ण्हाविओ, मेंढ-न०(मेद्र) पुरुषचिह्न, ग०१अधि०। अङ्गादाने, बृ०४ उ०। मेषे, विवाहो कओ सिवियाए हिंडतेण, ताओ वि से अण्णाओ आणियाओ। __ स्था०४ ठा०२ उ०। आ०म०) एवं भोगे भुंजति बारस वरिसाणि, पच्छा बोहितो / महिलाहि वि बारस मेंढयमुह-पुं०(मेण्द्रकमुख) स्वनामख्याते अन्तरद्वीपे,सूत्र०२ श्रु०१ अ० वरिसाणि मग्गियाणि, दिण्णाणि य, चउव्वीसाए वासेहिं सव्वाणि वि / नं० प्रज्ञा०। उत्त०। ('अंतरदीव' शब्दे प्रथमभागे 86 पृष्ठे वक्तव्यतोक्ता) पव्वइयाणि, णवपुव्वी जाओ। एकल्लविहारपडिमं पद्धियण्णो। तत्थेव | मेख-पुं०(मेघ) चूलिका-पैशाचिके तृतीय-तुर्ययोर रायगिहे हिंडइ, सुवण्णकारगिहमागओ। सो य सेणियस्स सोवणियाणं // 4 // 32 // यथासंख्यं भवतः। इतिघस्य खः। मेघः। मेखो। जलदे, जवाणमट्ठसतं करेइ, चेइयचणियाए परिवाडीए सेणिओ कारेइ तिसंझं। प्रा०४ पाद। तस्स गिहं साहू अगओ। तस्स एगाए वायाए भिक्खा ण णीणिया, सोय | मेखला-स्त्री०(मेखला) खस्यमाला मेखलेति निरुक्तम्। अनु०। कटिसूत्रे, अइगओ। ते य जवा कोंचएण खाइया, सो आगओ ण पेच्छइ। रण्णो य कट्याभरणे च / वाचा चेतियच्चणिय-वेला दुकाइ, अज्ज अट्टिखंडाणि कीरामि त्ति, साधुसंकइ। मेघंकरा-स्त्री०(मेघङ्करा) नन्दनवने नन्दनकूटवास्तव्यायां विदिपुच्छइ, तुहिक्को अच्छइ।ताहे सीसावेदेण बंधति, भणिओ य-साहजेण | क्कुमार्याम्, स्था०६ठा०३३०। आचा०ा आ०म० तिन
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________________ मेघघणसण्णि ३८१-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मेत्ती मेघघणसण्णिगास-त्रि०(घनमेघसन्निकाश) घनमेघसदृशे, सान्द्रजलद- मेढ-(देशी) वणिक्सहाये, देना०६ वर्ग 138 गाथा। समाने कालके, भ०२ श०१ उ० जंग। मेढगमुह-पुं०(मेषकमुख) स्वनामख्याते अन्तरद्वीपे, अनार्यक्षेत्रभेदे च। मेघमाला-स्त्री०(मेघमाला) स्वनामख्यातायां वासुपूज्यसमयजाता- स्था०४ ठा०२ उ०। सूत्र०। ( मेषविषाणो अंतरदीव' शब्दे प्रथमभागे यामार्यिकायाम्, महा० 86 पृष्ठ वक्तव्यतोक्ता) थोवाणं पि निवित्तिं जो, मणसा वि विराहए। मेढविसाण-न०(मेषविषाण) मेषशृङ्गे, स्था०४ ठा०२ उ०। सो मओ दुग्गइं गच्छे, मेघमाला.जहऽऽज्जिया। मेढविसाणा-स्त्री०(मेषशृङ्ग समानफलायां वनस्पतिजाती, स्था०४ मेघमालिजिया नाह ! जाणिमो भुव (ण) बंधव!। ठा०१० मणसा वि निवित्तिं जा,खंडिउं दुग्गइं गया। मेढि-स्त्री०(मेथि) मेथि-शिशिर-शिथिल-प्रथमे थस्य ढः वासुपुज्जस्स तित्थम्मि, भोलाणं कालगच्छवी। / / 1 / 215 // इतिथस्य ढो भवति। हापवादः। मेढी। (मेथी)। शाकभेदे, मेघमालिजिया आसि, गोयमा! मणदुब्बला। प्रा०ा खलकमध्यवर्तिन्यां स्थूणायाम, यस्यां नियमिता गोपङ्क्तीर्धान्यं सा नियमागासपक्खं, दाउंभिक्खाय निग्गया। ग्राहयति, स० व्या मला ज्ञा०। अन्नओ णत्थि नीसारं, मंदिरोवरिसंठिया। मेढीभूय-पुं०(मेढीभूत) मेढ्युपमे, मेढीसदृशे, सर्वेषामर्थानां चिन्तके, आसन्नमंदिरं अन्नं, लंघित्ता गंतुमिच्छुगा। ज्ञा०१ श्रु०१० मणसा चिंतते जाव, ताव पजलिया दुवे / मेणाग-पुं०(मेनाक) समुद्रमध्यपर्वते, "वज्रात्रातः समुद्रेण, मैनाकोऽ-- नियमस्स भंगदोसेणं,डज्झित्ता पढमियं गया। स्यानुजो गिरेः।" ती०७कल्प० / एयं नायं सुहुमं पि, नियम मा विराहिह। मत्ता-स्त्री०(मात्रा) लक्षणे, प्रव्रज्यालक्षणं द्रव्यलिङ्गमात्रमिति। नि० चू० जं छिज्जा अक्खयं सोक्खं, अणंतंच अणोवमं / 13 उ० तुल्यत्वे, मात्राशब्दस्तुल्यवाची। निचू०२० उ०। (अत्रार्थेतवसंजमे वएसुंच, नियमो दंडनायगो। विशेषः 'माया' शब्देऽस्मिन्नेव भागे गतः) तमेव खंडमाणस्स, ण वए णो व संजमे / महा०६अ। मेत्ताइभावसम्मिस्स-त्रि०(मैत्र्यादिभावसंमिश्र) मैत्र्यादिभावैः संमिश्रे, मेघमालि(ण)-पुं०(मेघमालिन्) पार्श्वस्वामिद्रहि कमठासुरे जीवे, ध०१ अधि०। ('धम्म' शब्दे चतुर्थभागे 2666 पृष्ठे विस्तरोऽत्र गतः) मेघकुमारजीवे, कल्प०१ अधि०७ क्षण। (स्वामी प्रव्रज्यैकदा विहरन् मेत्ताइसंगय-त्रि०(मैत्र्यादिसङ्गत) मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षासङ्गते, षो०८ तापसाश्रमे कूपसमीपे स्थितः इहैव मेघमाली सुराधमः श्रीपार्श्वदेव- | विव० मुपद्रोतुमागतः। 'पास' शब्दे पञ्चमभागे 601 पृष्ठे आख्यानकमुक्तम्) / मेत्ती-स्त्री०(मैत्री) प्रीतौ, षो०। मेघमालिनी-स्त्री०(मेघमालिनी) ऊर्ध्वलोकवास्तव्यायां दिक्कुमार्याम्, एताश्चतुर्विधा इत्युक्तं तदेव चातुर्विध्यं प्रत्येकमभिधा--- स्था०८ ठा०३उ०/ जंग तुमाह-- मेघवई-स्त्री०(मेघवती) जम्बूद्वीपे मन्दरस्य पर्वतनन्दनवनस्य पूर्वसिद्धा- उपकारिस्वजनेतर-सामान्यगता चतुर्विधा मैत्री। यतनादेव दक्षिणतो दक्षिणपूर्वप्रासादात् उत्तरतो मन्दरकूटवासिन्यां मोहासुखसंवेगा-न्यहितयुता चैव करुणेति // 6 // दिक्कुमार्याम्, स्था०९ठा०। जंगा। उपकारी च स्वजनश्चेतरश्च सामान्यं च / एतद्गता एतद्विषया मेघविजय-पुं०(मेघविजय) हैमशब्दानुशासनोपरि चन्द्रप्रभानामटीका चतुविधाचतुर्भेदा मैत्री भवति। उपकर्तु शीलमस्येत्युपकारी, उपकारं कृति स्वनामख्याते उपाध्याये,जै०इ०) विवक्षितपुरुषसम्बधिनमाश्रित्यया मैत्री लोके प्रसिद्धा सा प्रथमा / मेघाघास-पुं०(मेघाघास) कल्किनृपपुत्रदत्तस्य पौत्रे, कल्किनृपस्यपुत्रो स्वकीयो जनो नालप्रतिबद्धादिस्तस्मिन्नुपकारमन्तरेणापि स्वजन दत्तस्तस्य जितशत्रुस्तस्य च मेघाघास इति क्रमा तिला ती०। इत्येव या मैत्री तदुद्धरणादिरूपा प्रवर्त्तते सा द्वितीया। इतरः प्रतिपन्नः मेच्छ-पुं०(म्लेच्छ) अनार्यमनुष्ये, आ०म०१० पूर्वपुरुषप्रतिपन्नेषु वा स्वजनसम्बन्धनिरपेक्षा या मैत्री सा तृतीया / मेच्छिय-पुं०(म्लेच्छित) चतुरिन्द्रियजीवभेदे, प्रज्ञा०१पद। सामान्ये सामान्यजने सर्वस्मिन्नेवाऽपरिचितेऽपि हितचिन्तनरूपा मेज-त्रि०(मेय) कुडवादिप्रमेये, ज्यो०२ पाहु०। मीयतेऽनेनेति मेयम्। प्रतिपन्नत्वसम्बन्धनिरपेक्षा चतुर्थी मैत्री : मोहश्चासुखं च संवेश्चान्यहितं माने,हस्ते, अनु०॥ ज्यो०। मेजं जंमाणेणं पत्थगमातिणा मितिज्जति तं च तैर्युता चैव समन्विता चैव करुणेति करुणा भवति। मोहोऽज्ञानं तेन च तंडुलतेल्लघयमादि। नि०चू० 120 मेचं लक्खधततेल्लादि। युता ग्लानापथ्यवस्तुमार्गणप्रदानाभिलाषरूपा प्रथमा / असुखं आ०चू०६अ० मेयं यत् सेतिकापलादिना मीयते। ज्ञा० १श्रु०८ अ०। सुखाभावो यस्मिन् प्राणिनि दुःखिते सुखं नास्ति तस्मिन्याऽनुकम्पा मेज्झ-त्रि०(मध्य) मेधोपकारिणि, आव०३ अ० लोकप्रसिद्धा आहारवस्त्रशयनासनादिप्रदानलक्षणा सा द्वितीया। संवेगो मेडमं-(देशी) मृगतन्तौ, देना०६ वर्ग 138 गाथा। मोक्षाभिलाषस्तेन सुखितेष्वपि सव्वेषु प्रीतिमत्तया सांसारिकदुःखय
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________________ मेती 382- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मेरुतुंगसूरि - रित्राणेच्छा छद्मस्थानां या स्वभावतः प्रवर्तते सा तृतीया / अन्य- कुशाग्रपुरसंज्ञं च, क्रमाद्राजगृहाऽऽहयम्।।१४।। हितयुता सामान्येनैव प्रीतिमत्तासम्बन्धविकलेष्वपि सर्वेष्वेवान्येषु सत्त्वेषु अत्र चासीद् गुणशिलं, चैत्यं शैत्यकसंनिभम्। केवलिनामिव भगवतां महामुनीनां सानुग्रहपरायणा हित-बुद्ध्या श्रीवीरो यत्र समवा-सरच गणनायकः / / 15 / / चतुर्थी करुणा / / / / षो० 13 विव०। कायोपशमे, आ०चू० 4 अ०॥ प्राकारं यत्र मेतार्यः, शातकौम्भमचीकरत्। मेत्तीवंदन-न०(मैत्रीवन्दन) वन्दनकदोषभेदे, मेत्तीए समन्वितोत्ति। अहवा सुरेण प्राप्य सुहृदा, मणिं स्वाजहियत्स्वकम्॥१६॥" मेत्ती तेण समं कातुं मग्गति। आ० चू० ३अ०। मैत्रीमाश्रित्य कश्चिद्वन्दते, ती०१० कल्प। वीरजिनस्य दशमगणधरे, कल्प०१ अधि०६ क्षण। आचार्येण सह मैत्री प्रीतिमिच्छन्वन्दते इत्यर्थः। तदिद मैत्रीवन्दनक आ०म०। ('मेअज्ज'शब्देऽस्मिन्नेव भागे कथा गता) मुच्यते। प्रव०२ द्वार। मेरग-पुं०(मेरक) वनस्पतिविशेषे, आचा०२ श्रु०१ चू०१ अ०८ उ०। मेत्तुंडक-न०(मेत्तुण्डक) स्वनामख्याते तीर्थकरे स्थाने, यत्र वीरतीर्थ मद्यविशेषे, प्रज्ञा०१७ पद: उ० जी०। दश०। मेरको लोकाकरप्रतिमा पूज्यते। ती० 43 कल्प। दवसातव्यः। जी०३ प्रति०४अधि०। सरकाभिधानमद्ये, उत्त०३४ अ०। मेद-न०(मेदस्) वशायाम, स० प्रज्ञा०। तृतीयवासुदेवप्रतिशत्रौ, आव०१अ० प्रव०। मेद-त्रिका वन्यमनुष्यजातिभेदे, ती० 31 कल्प० / मेरा-स्त्री०(मर्यादा) मर्यादायाम, नं0 "सीमा मेरा" पाइन्ना० 227 मेदपल्ली-स्त्री० (मेदपल्ली) मेदानां पल्ली मेदपल्ली / मेदानामा- गाथा। दे०ना०। मजायं ति वा ओह ति वा मेरं ति वा एगट्ठा। आ००१ वासमूतायां मालवदेशान्तर्वतिमङ्गलपुरप्रत्यासन्नायां महाटव्याम्, ती० अ०। सीमा मेरा मर्यादा इत्येकार्थाः। पं०चू०२ कल्प०। मेरा--मर्यादा, 31 कल्प०। (तत्रत्याभिनन्दनदेवस्य प्रतिमाभङ्गोऽदर्शि 'अहिनंदण' समाचारीत्यर्थः। बृ०३ उ०ाव्या मर्यादा-विधि-रित्यर्थः / व्य०३उ०। शब्दे प्रथमभागे 886 पृष्ठे) स्था०। स्थितिमर्यादा व्यवस्थेत्यनर्थान्तरम्। व्य० 40 दशमचक्रिणो मेधुणिया-स्त्री०(मैधुनिकी) मातुलदुहितरि, तत्थ मेधुणिया माउल मातरि,आव०१अ०। मयदिति देशीशब्दः| ग०२अधि० मुञ्जसिरिदुहिया। नि०यू० १उ०। कायाम्,प्रश्न०१ आश्र०द्वारा मेय-न०(मेदस्) अस्थिकृति शरीरस्य चतुर्थधातौ, उत्त०७ अ०॥ तं०। / मेराकहण-न०(मर्यादाकथन) सामाचारीप्रतिपादने मर्यादायाःप्रश्न०। ज्ञा०ाम्लेच्छभेदे, प्रश्न०१आश्र द्वारा स्था०। समाचार्याः कथनं, यथा साधनामावश्यके आलोचनायां प्रायश्चित्तं दीयते नमस्कारपौरुष्यादिकं च प्रत्याख्यानं यद्यस्मै दातव्यमित्येवमादि सर्वं मेयप्पमाण-न०(मेयप्रमाण) कुडवादिमाने, ज्यो। कथ्यत इति भावः / व्य०१उ०। संप्रति मेयप्रमाणमाह मेराकारि-त्रि०(मर्यादाकारिन्) मर्यादाकारिणि, स्था० 10 ठा०३उ०। तिन्नि उपलाणि कुलवो, करिसऽद्धं चेव होइ बोधव्वो। मेरु-पुं०(मेरु) सकलतिर्यग्लोकमध्यभागस्य मर्यादाकारित्वान् मेरुः। चत्तारि चेव कुलवा, पत्थो पुण मागहो होइ॥२५॥ मेरुदेवयोगाद्वा मेरुः। जम्बूद्वीपमध्यगेमन्दरपर्वते, सू०प्र०५ पाहु०। जं०। चउपत्थमाढगं पुण, चत्तारि य आढगाणि दोणो उ। जे मंदरस्स पुवेण, मणुस्सा दाहिणेण अवरेणं / सोलसदोणा खारी, खारीओ वीसई बाहो // 26 // जे याऽवि उत्तरेणं, सव्वेसिं उत्तरो मेरू ||4|| इह कुलवो मागधदेशप्रसिद्धो या धरिमप्रमाणेन मातुमिष्यते तदा स आचा०१ श्रु०१ अ० उ०। (अस्या गाथाया व्याख्या 'दिसा' शब्दे 4 त्रीणि पलानिएकस्य चकर्षस्य पलचतुर्भागरूपस्यार्द्ध बोद्धव्यः। चत्वारश्च भागे गता। (अस्य षोडश नामानि 'गिरि- राय' कुडवा एकत्र पिण्डिता एकः प्रस्थो मागधो भवति। सोऽपि च धरिमप्र शब्दे तृतीयभागे 876 पृष्ठे गतानि) (अस्य सर्वावमाणचिन्तायां साद्धीनि द्वादश पलान्यवगन्तव्यः।।२५।। (चउपत्थमि वक्तव्यता' मन्दर' शब्दे अस्मिन्नेव भागे उक्ता) त्यादि) चत्वारः प्रस्थाः समाहृताश्चतुःप्रस्थसमुदाय-मेकमाढकंगणितज्ञा मेरो- र्मेखलास्वरूपं केनाकारेण विद्यत इति प्रश्ने, उत्तरम्-अनेन वदन्ति / तत्रापि तोल्यत्वचिन्तायां पञ्चाशत्पलान्यवसेयानि चत्वारः स्थापिताकारेण मेरोर्मव्ये, न तु वहिस्तान्मेखला वर्तते इति / / 141 // पुनराढकाः समुदिता एको द्रोणः तत्रा-पिच द्रोणे पलपरिमाणचिन्तायां सेन०३ उल्ला० द्वे पलशते वेदितव्ये षोडश च द्रोणा एकत्र समुदिता एका खारी, तस्यांच मेरुकंत-पुं०(मेरुकान्त) महोरगभेदे, प्रज्ञा०१पद। खार्या पलानिद्वात्रिंशत् शतानि भवन्ति। विंशतिश्च खार्य एकत्र पिण्डिता | मेरुगिरि-पुं०(मेरुगिरि) मन्दरपर्वते, आव०४अ०स०॥ एको वाह-स्तस्मिश्च वाहे धरिमप्रमाणचिन्तायां चतुःषष्टिः पलानां मेरुतुंगसूरि-पुं०(मेरुतुङ्गसूरि) स्वनामख्याते चन्द्रप्रभसूरिशिष्ये, तेन सहस्राणां संख्या // 26|| ज्यो०२पाहुन च महापुरुषचरित्रं स्थविरावली षड्दर्शनविचारः प्रबन्धचिन्तामणिश्चेति मेयारिय-पुं०(मेतार्य) राजृहे गुणशिलकचैत्यप्राकारकारके, ती०। ग्रन्था विरचिताः / अथमाचार्यः विक्रमसंवत् 1363 वर्षे विद्यमान "क्षितिप्रतिष्ठचणक-परर्षभपुराभिधम्। आसीत्, अञ्चलगच्छे श्रीमहेन्द्रसूरिशिष्योऽप्येतन्नामा आसीत्। ते
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________________ मेरुतुंगसूरि 383 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मेहकुमार न सूरिमन्त्रोद्धारः शतपदीसारोद्धारः मेघदूतकाव्यटीका चेति ग्रन्था आव०१ अ० आ०चू० विरचिताः। विक्रमसंवत्सरे 1403 अयंजातः संवत्सरे 1415 दीक्षितः, | मेहकुमार-पुं०(मेघकुमार) पाश्चात्यभवे हस्तिरूपे श्रेणिकपुत्रे, ही०३ संवत्सरे 1426 आचार्यः, संवत्सरे १४४६गच्छनायकः,संवत्सरे 1471 प्रका। स्वर्गतः। जै०० ___ मेघकुमारवक्तव्यतामेरुदेव-पुं०(मेरुदेव) मन्दरस्वामिनि देवे, दर्श०१ तत्त्व। सेणियस्स रन्नो धारणी नामं देवी होत्था, जाव सेणियस्स मेरुपवडण-न०(मेरुप्रपतन) मेरोःपर्वतविशेषान् मुमूर्षुणामनशनेनाधः रन्नो इट्टा०जाव विहरइ / (सूत्र-८) तए णं सा धारिणी देवी पतने, आचा०२ श्रु०२ चू०३ अण अन्नया कयाइ तंसि तारिसगंसि छक्कट्ठकलट्ठमट्ठसंठियखंभुमेरुप्पमुह-न०(मेरुप्रमुख) मेरुजम्बूद्वीपलवणोदधिप्रभृतिषु, पञ्चा० 5 ग्गयपवरवरसालभंजियउज्जलमणिकणगरतणथूवियविडंकविव० जालद्धचंदणिजूहकंतरकणयालिचंदसालियाविभत्तिकलिते मेरेई-स्वी०(मैरेयी) पिष्टोद्भवायां शाटितोत्पन्नान्नरसायां सुरायाम, उत्त० सरसच्छधाऊवलवण्णरइए बाहिरओ दूमियघट्टमटे अमित१६अ रओ पत्तसुविलिहियचित्तकम्मे जाणाविहपंचवण्णमणिरयणमेरेयग-पुं०(मैरेयक) मद्यविशेषे, जं०२ वक्ष। कुटिलतले पउमलयाफुल्लवल्लिवरपुप्फजाति-उल्लोयचित्तिमेल-पुं०(मेल) सङ्गमे, व्य०५ उ०। "संगमो मेलो" पाइ० ना० 241 यतले वंदणवरकणगकलससुविणिम्मियपडिपुंजियसरसपउगाथा। मसोहंतदारमाए पयरगालंवंतमणिमुत्तदामसुविरइयदारसोहे मेलणा-स्त्री०(मेलना) संबन्धे, व्य० 1030 / सुगंधवरकुसुममउयपम्हलसयणोवयारे मणहिययनिव्वुइयरे मेलय-पुं०(मेलक) सन्निपाते, स्था०६ ठा०३ उ०। (मेलकाः 'करण' कप्पूरलवंगमलयचंदनकालागुरुपवरकुंदुरुक्कतुरुक्कधूवडज्झंत सुरभिमघमघंतगंधुद्धयाभिरामे सुगंधवरगंधिए गंधवट्टिभूते शब्दे तृतीयभागे 366 पृष्ठे गताः) मणिकिरणपणासियंधकारे किं बहुणा? जुइगुणेहिं सुरवरविमेलव-धा०(मिश्र) सम्मेलने, मिश्रेर्वीसाल-मेलवौ // 14 // 28 // माणवेलंबियवरघरए तंसि तारिसगंसि सयणिशंसि सालिंगणमिश्रयतेय॑न्तस्य वीसाल-मेलव इत्यादेशौ वा भवतः / वीसालवइ / वट्टिए उमओ बिव्वोयणे दुहओ उन्नए मज्झेण य गंभीरे गंगामेलवइ। मिस्सइ। प्रा०४ पाद। पुलिणवालुयाउद्दालसालिसए उयचियखोमदुगुल्लपट्टपडिमेलिय-त्रि०(मेलित) प्रापिते, मेलियं सो तं न खाइन पिवति। आ०म० च्छयणे अत्थरयमलयनवयकुसत्तलिंवसीहके सरपञ्चुत्थए १अ० सुविरइयरयत्ताणे रत्तंसुयसंबुए सुरम्मे आइणगरूयबूरणवणीयमेली-(देशी) संहतो, देवना०६ वर्ग 138 गाथा। तुल्लफासे पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि सुत्तजागरा ओहीरमाणी मेल्ल-धा०(मुच) सोचने, मुचेश्छड्डावहेड-मेल्लोसिक-रेअवणि 2 एगं महं सत्तुस्से हं रययकूडसन्निहं नहयलंसि सोम्म ल्लुञ्छ-धंसाडाः ||RVIE1|| मुञ्चतेरेते सप्तादेशां वा भवन्ति / सोम्मागारं लीलायंतं जंभायमाणं मुहमतिगयं गयं पासित्ता छड्डइ / मेल्लइ। मुञ्चति / प्रा०४ पाद। णं पडिबुद्धा। तते णं सा धारिणी देवी अयमेया-रूवं उरालं मेस-पुं०(मेष) उरणके, विशे०। आ०म० दशला "गोःपदेऽपि पिवेन्मेषः, कल्लाणं सिवं धनं मंगल्लं सस्सिरीयं महासुभिणं पासित्ता पयः सूक्ष्ममुखो यथा / कलुषीकुरुते नैव, सुशिष्योऽपि श्रुतं तथा णं पडिबुद्धा समाणी हट्ठतुट्ठा चित्तमाणंदिया पीइमणा परम||१||" आ०क० 10 // यथा मेषोऽल्पेऽप्यम्भसि अनाघोलयन्नेवा- सोम्मणस्सिया हरिसवसविसप्पमाणहिययाधाराहयकऽम्भः पिवत्येवं साधुनाऽपि भिक्षाप्रविष्टेन वीजाक्रमणादिषु अनाकुलेन लंबपुप्फगं पिव समूससियरोमकूवा तं सुमिणं ओगिण्हइ २त्ता भिक्षा ग्राह्येत्येवंविधार्थसूचकत्वाद् द्रमपुष्पिकाऽध्ययनमपि मेषः। सयणिज्जाओ उद्वेति 2 त्ता पायपीढातो पचोरुहइ पचोरुहइत्ता दशवैकालिकस्य प्रथमेऽध्ययने, दश०१ अ० अतुरियमचवलमसंभंताए अविलंबियाए रायहंससरिसीए गतीए मेसर-पुं०(मेसर) पक्षिविशेषे, प्रश्न०१ आश्र० द्वार। जी०। जेणामेव सेणिए राया तेणामेव उवागच्छइ उवागच्छइत्तासेणियं मेह-पुं०(मेघ) पयोदे, स्था०४ ठा०४उ०ज्ञाता पिं० आ० म० ज०। रायं ताहिं इट्ठाहिं कंताहिं पियाहिं मणुनाहिं उरालाहिं ओघ०। ति० दश० प्रश्न०। सेचने, सूत्र०१ श्रु०४ अ०२उ०। कल्लाणाहिं सिवाहिं धन्नाहिं मंगल्लाहिं सस्सिरियाहिं हिययचतुःसप्ततितमे ऋषभपुत्रे, कल्प०१ अधि०७क्षण। सुरभेदे, आ०क० गमणिज्जाहिं हिययपल्हायणिज्जाहिं मियमहुररिभियगंभीरस१अ०। राजगृहे नगरे स्वनामख्याते गृहपतौ, 'मेहो रायगिहे णयरे बहूई स्सिरीयाहिं गिराहिं संलवमाणी 2 पडिबोहेइ, पडिबोहेत्ता वासाई पयातो सिद्धो' मेघो राजगृहे वीरान्तिके प्रव्रज्य सिद्ध इति / सेणिएणं रन्ना अब्भणुनाया समाणी णाणामणिकणगरयणअन्त०४ वर्ग 5 अ० कलम्बुंकायां सन्निवेशे द्वौ भ्रातरौ मेघः', कालहस्ती भत्तिचित्तंसि भद्दासणंसि निसीयति २त्ता आसत्था वीसत्था च, आ०म०१ अ०। (वीरशब्दे विहारावसरे कथां वक्ष्यामि) सुमतिपितरि, | सुहासणवरगया करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं
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________________ मेहकुमार 384 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मेहकुमार कट्ट सेणियं रायं एवं वयासी-एवं खलु अहं देवाणुप्पिया! अज्ज तंसि तारिसगंसिसयणिशंसि सालिंगणवट्टिए०जाव नियगवयणमइवयंतं गयं सुमिणे पासित्ता णं पडिबुद्धा, तं एयस्सणं देवाणुप्पिया ! उरालस्स०जाव सुमिणस्स के मन्ने कल्लाणे फलवित्तिविसेसे भविस्सति? (सूत्र-९) 'धारणी नामं देवी होत्था०जाव सेणियस्स रन्नो इट्ठा० जाव विहरई' इत्यत्र द्विवच्छब्दकरणादेवं द्रष्टव्यम्-'सुकुमालपाणिपाया अहीणपंचेंदियसरीरा लक्खणवंजणगुणोववेया माणुम्माणपमाणसुजायसव्वंगसुन्दरंगी ससि सोमाकारा कंता पियदसणा सुरूवा करतलपरिमिततिवलियबलियमज्झा' करतलपरिमितो-मुष्टिग्राह्यस्त्रिवलीकोरेखात्रयोपेतो बलितो-बलवान् मध्यो-मध्यभागो यस्याः सा तथा, 'कोमुईरयणिकर-विमलपडिपुन्नसोमवयणा' कौमुदीरजनीकरवत्कार्तिकीचन्द्र इव विमलं-प्रतिपूर्ण सौम्यं च वदनं यस्याः सा तथा 'कुंडलुल्लिहिय गंडलेहा कुण्डलाभ्यामुल्लिखिता-घृष्टा गण्डलेखाःकपोलवि-रचितमृगमदादिरेखा यस्याःस तथा 'सिंगारागारचारुवेसा' शृङ्गा-रस्य-रसविशेषस्यागारमिवागारम् / अथवा-शृङ्गारो-मण्डनभूषणाटोपःतत्प्रधानः आकारः आकृतिर्यस्याः सा तथा, चारुर्वेषोनेपथ्यं यस्याः सा तथा ततः कर्मधारयः। तथा 'संगयगयहसियभणियविहियविलाससललियसंलावणिउणजुत्तो-वयारकुसला' संगता उचिता गतहसितभणितविहितविलासा यस्याः सा तथा, तत्र विहितं चेष्टितं, विलासो-नेत्रचेष्टा, तथा सह ललितेन-प्रसन्नतया ये संलापाः परस्परभाषणलक्षणास्तेषु निपुणा या सा तथा, युक्ता-संगता ये उपचारालोकव्यवहारास्तेषु-कुशला या सा तथा, ततः पदत्रयस्य कर्मधारयः, 'पसाझ्या' चित्तप्रसादजनिका 'दरिसणिज्जा' यां पश्यञ्चक्षुर्न श्राम्यति, 'अभिरुवा' मनोज्ञरूपा 'पडिरूवा' द्रष्टारं द्रष्टारं प्रति रूपं यस्याः सा तथा 'सेणियस्स रन्नो इट्ठा' वल्लभा कान्ता काम्यत्वात्, प्रिया प्रेमविषयत्वात्, 'मणुन्ना' सुन्दरत्वात्, 'नामधेज्जा' नामधेयवती प्रशस्तनामधेयवतीत्यर्थः,नाम वा धार्य--हृदि धरणीयं यस्याः सा तथा, 'वेसासिया' विश्वसनीयत्वात् 'सम्मया' तत्कृतकार्यस्य सम्मतत्वाद्धहुमता-बहुशो बहुभ्यो वाऽन्येभ्यः? सकाशान्मता बहुमता,बहुमानपात्रं वा अणुमया' विप्रियकरणस्यापि पश्चान्मता अनुमता 'भंडकरंडगसमाणा' आभरणकरण्डकसमानोपादेयत्वात् 'तेल्लकेला-इव सुसंगोविया' तैलकेला-सौराष्ट्रप्रसिद्धो मृन्मयस्तैलस्य भाजनविशेषः स च भङ्गभयाल्लोच (ठिन) नभयाच सुष्टु संगोप्यते एवं साऽपि तथोच्यते। 'चेलपेडा' इव 'सुसंपरिगिहीया' वस्त्रमञ्जूषेवेत्यर्थः, 'रयणकरंडगोवियसुसार-विया' सुसंरक्षितेत्यर्थः,कुत इत्याह-माण सीयं माणं उण्हं मा णं दंसा मा णं मसगा मा णं बाला मा णं चोरा मा णं वाइयपित्तियसिंभियसन्निवाइयविविहरोगायंका फुसंतु त्ति कटु सेणिएणं रन्ना सद्धिं विउलाई भोगभोगाई भुंजमाणा विहरतिमा शब्दा निषेधार्याः, 'ण' कारा वाक्यालङ्कारार्थाः, अथवा-'माणं' ति मैनामिति प्राकृतत्वात्,ध्याला:- | श्वापदभुजगाः, रोगः, कालसहाः, आतङ्काः-सद्योघातिनः, इति कटु | इति कृत्वा इति हेतो ग-भोगान्- अतिशयवद्भोगानिति 'तएण' ति ततोऽनन्तर 'तंसि तारिसयास' त्ति यदिदं वक्ष्यमाणगुणं तस्मिस्तादृशके यादृशमुप-चितपुण्यस्कन्धानामङ्गिनामुचितं 'वरघरए' त्ति संबन्धः, वासभवने इत्यर्थः, कथंभूते- 'षट्काष्ठकं' गृहस्य बाह्यालन्दकं षड्दारुकमिति यदागमप्रसिद्धं, द्वारमित्यन्ये स्तम्भविशेषणमिदमित्यन्ये, तथा लष्टा-मनोज्ञा मृष्टा-मसृणाः संस्थिता-विशिष्टसंस्थानवन्तो येस्तम्भास्तथा उद्गता-ऊर्ध्वं गतास्तम्भेषुवा उद्गता व्यवस्थिताः स्तम्भोगताः प्रवराणां वराः-प्रवरवराः अतिप्रधानायाः शालभञ्जिकाः पुत्रिकाः, तथा उज्ज्वलानां मणीनां-चन्द्रकान्तादीनां कनकस्य रत्नानांक:तनादीनां यास्तूपिका-शिखरं, तथा विटङ्क:-कपोतपाली वरण्डिकाऽधोवती अस्तरविशेषः, जालं-सच्छिद्रो गयाक्षविशेषः, अर्द्धचन्द्रः अर्द्धचन्द्राकारं सोपानं नि!हकंद्वारपार्श्वविनिर्गतदारु, अन्तरम्-अस्तरविशेष एव पानीयान्तरमिति सूत्रधारैर्य व्यपदिश्यते निर्वृहकद्वयस्य यान्यन्तराणि तानि वा निर्मूहकान्तराणि 'कणकाली' अस्तरविशेषश्चन्द्रसालिका च-गृहोपरिशाला एतेषां गृहांशानां या विभक्तिः-विभजनं विविक्तता तया कलितं युक्तं युत्तत्तथा तस्मिन्, 'सरसच्छवाडवडवसरइए' ति स्थाप्यम्, कैश्चित् पुनरेवं संभावितमिदं 'सरसच्छधाऊवलवन्नरइए' त्ति तत्र सरसेन अच्छेन धातूपलेनपाषाणधातुना गैरिक-विशेषेणेत्यर्थः वर्णो रचितो यत्र तत्तथा 'बाहिरओ दूमियघट्टमटे' त्ति दूमितं-धवलितंघृष्टकोमलपाषाणादिना अतएव मृष्ट 'मसृणं यत्तत्तथा तस्मिन् तथा अभ्यन्तरतः प्रशस्तं-स्वकीय 2 कर्मव्यापृतं शुचि-पवित्रं लिखितं चित्रकर्म यत्र तत्तथा तस्मिन्, तथा नानाविधानां जातिभेदेन पञ्चवर्णानां मणिरत्नानां सत्कं कुट्टिम-तलं मणिभूमिका यस्मिस्तत्तथा तत्र, तथा पझैः-पद्माकारैरेवं लताभिरशोकलताभिः पद्मलताभिर्वा मृणालिकाभिः पुष्पवल्लीभिः-पुष्पप्रधानाभिः पत्रवल्लिभिः तथा वराभिः पुष्प--जातिभिः-मालतीप्रभृतिभिश्चित्रितमुल्लोकतलम्-उपरितन-भागो यस्मिन् तत्तथा तत्र, इह च प्राकृतत्वेन 'उल्लोयचित्तियतले' इत्येवं विपर्ययनिर्देशो द्रष्टव्य इति, अथवा-- पद्मादिभिरुल्लोकस्य चित्रितं तलम्-अधोभागो यस्मिन्निति, तथा वन्द्यन्त इति वन्दना-मङ्गल्याः ये वरकनकस्य कलशाः सुष्ठ-'निम्मिय' त्ति न्यस्ताः प्रतिपूजिताः-चन्दनादिचर्चिताः सरसपद्माः-सरसमुखस्थगनकमलाः शोभमाना द्वारभागेषु यस्य पाठान्तरापेक्षा चन्दनवरकनक-कलशैः सुन्यस्तैस्तथा प्रतिपुञ्जितैः-पुजीकृतैः सरसपौः शोभमाना द्वारभागा यस्य तत्तथा तस्मिन्, तथा प्रतरकाणि-स्वर्णादिभया आभरणविशेषास्तत्प्रधानमणिमुक्तानां दामभिः-स्रग्भिः सुष्ठ विरचिता द्वारशोभा यस्य तत्तथा तस्मिन्, तथा सुगन्धिवर--- कुसुमैमूंदकस्य-मृदोः पक्ष्मलस्य च-पक्ष्मवतः शयनस्य-तूल्यादिशयनीयस्य यः उपचारः पूजा उपचारो वा स विद्यते यस्मिन्, मण इत्यस्य मत्वर्थीयत्वात् तत् सुगन्धिवरकुसुममृदुपक्ष्मलशय-- नीयोपचारवत्तच्च यद् हृदयनिर्वृतिकर च-मनःस्वास्थ्यकरं तत्तथा तस्मिन्, तथा कूर्परश्व लवङ्गानि च फलविशेषाः-मलयचन्दनं च-पर्व
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________________ मेहकुमार 385 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मेहकुमार तविशेषप्रभवं श्रीखण्ड कालागुरुश्च-कृष्णागुरुःप्रवरकुन्दुरुक्कं च- स्येव विमलफेनस्येव रजनीकरस्येव प्रकाशः-पभा यस्य स तथा तम्, चीडाभिधानो गन्धद्रव्यविशेषः तुरुष्कं च-सिङ्घकं धूपश्चगन्धद्रव्य- अथवा-'हाररजतखीरसागरदगरयमहासेलपंडुरतरोरुरमणिजदरिसंयोगज इति द्वन्द्वः, एतेषां वा संबन्धी योधूपः तस्य दह्यमानस्य सणिज्ज' हारादिभ्यः पाण्डुरतरो यः स तथा, इह च महाशैलोमहासुरभिर्यो मघमघायमानः-अतिशयवान् गन्ध उद्भूतः--उद्भूतः तेनाभि- हिमवान् तथा ऊरु:-विस्तीर्णः रमणीयो-रम्योऽत एव दर्शणीय इति रामम्- अभिरमणीयं यत्तत्तथा तस्मिन्, तथा सुष्ठ गन्धवराणां- पदचतुष्टयस्य कर्मधारयोऽतस्तम्, तथा 'थिरलट्ठपउट्ठपीवरसुसिलिप्रधानचूर्णानां गन्धो यस्मिन् अस्ति तत् सुगन्धवरगन्धिकं तस्मिन्, यथा द्वविसिट्ठतिक्खदाढाविडवियमुहं' स्थितौ-अप्रकम्पौ लष्टौ-मनोज्ञौ गन्धवर्तिः गन्धद्रव्यगुटिका कस्तूरिका वा गन्धस्तद्गुटिका गन्धवर्ति- प्रकोष्ठौ कूर्पराग्रेतनभागौ यस्य स तथा, पीवराः-स्थूलाः सुश्लिष्टाःस्तद्भूते सौरभ्यातिशयात्तत्कल्पे, तथा मणिकिरणप्रणाशितान्धकारे, किं अविसर्वरा विशिष्टामनोहरास्तीक्ष्णा या दंष्ट्रास्ताभिः कृत्वा-'विडंबियं बहुना वर्णकन? वर्णकसर्वस्वमिदंद्युत्या गुणैश्च सुरवरविमानं विडम्बयति- ति' विलुतं मुखं यस्य स तथा ततः कर्मधारयस्तम्, तथा परिकम्मियजयति, यद्वरगृहकं तत्तथा तत्र तथा तस्मिन्तादृशे शयनीये सहालिङ्ग- जचकमलकोमलमाईयसोहंतलठ्ठजुलु' परिकर्मितं-कृत-परिकर्मा नवा-शरीरप्रमाणोपधानेन यत्तत्सालिङ्गनवर्तिकं तत्र, 'उभओ 'माझ्य' त्ति मात्रावान् परिमित इत्यर्थः, शेषं प्रतीतम्, तथा 'रत्तुप्पलपत्तविव्योयणे त्ति' उभयतः उभौ शिरोऽन्तपादान्तावाश्रित्य 'विव्वोयणे' त्ति मउयसुकुमालतालुनिल्लालियग्गजीह' रक्तोत्पलपत्रमिव मृदृकेभ्यः उपधाने यत्र तत्तथा तस्मिन्, 'दुहओ' त्ति उभयतः उन्नते मध्ये नतं च सुकुमारमतिकोमलं तालु च निलालिताग्राप्रसारिताग्रा जिला च यस्य तन्निम्नत्वाद्गभीरं च महत्त्वान्नतगम्भीरम्, अथवा-मध्येन च भागेन तु सतम्, तथा 'महुगुलियभिसंतपिंगलच्छं' मधुगुटिकेव-क्षौद्रवतिरिव गम्भीरे-अवनते गङ्गापुलिनवालुकायाः अवदातः-अवदलनं पादादि- 'भिसंत' त्ति दीप्यमाने पिङ्गले कपिले अक्षिणी यस्य स तथा तम्, तथा न्यासेऽधोगमनमित्यर्थः तेन 'सालिसए' तिसदृशकमतिनम्रत्वाद्यत्तत्तथा 'मूसागयपवरकणयतावि-यआवत्तायंतवट्टतडियविमलसरिसनयणं' तत्र, दृश्यते च हंसतूल्यादिष्वयं न्याय इति / तथा 'उयचिय' त्ति मूषागतं-मृन्मयभाजनविशेषस्थं यत्प्रवरकनकं तापितमग्निधमनात् परिकर्मितं यत् क्षौमंदुकूल-कासिकमतसीमयं वा वस्त्रं तस्य 'आवत्तायंत' त्ति आवर्तं कुर्वत् तद्वत्तथा वृत्ते च तर्हिते-विवृत्ते विमले युगलापेक्षया यः पट्टः-एकः शाटकः स प्रतिच्छादनम्-आच्छादनं यस्य चसदृशे च-समाने नयने यस्य स तथा तम्, अत्रच वट्टतट्ट' इत्येतावदेव तत्तथा तत्र, तथा आस्तरको मलको नवतः कुशक्तो लिम्बः सिंहकेसरश्चैते पुस्तके दृष्ट संभावनया तु वृत्ततदित इति व्याख्यातमिति, पाठन्तरेण आस्तरणविशेषास्तैः प्रत्यवस्तृतम्-आच्छादितं यत्तत्तथा, इह तु-'वट्टपडिपुण्णपसत्थनिद्धमहुगुलियपिंगलच्छं' स्फुटश्वायं पाठः, तथा चास्तरको लोकप्रतीत एव मलककुशक्तौ तु रूढि-गम्यौ नवतस्तु 'विसालपीवरभमरोरुपडिपुण्णविमलखं,' विशालोविस्तीर्णः पीवरो-- ऊर्णाविशेषमयो जीनमिति लोके यदुच्यते, लिम्बो-बालोरभ्रस्योर्णा- मांसलः 'भ्रमरोरुः' भ्रमरा-रोमावर्ता उरवो--विस्तीर्णा यत्र स तथा युक्ता कृतिः सिंहकेसरो-जटिलकम्बलः, तथा सुष्टु विरचितं सुचि वा परिपूर्णो विमलश्च स्कन्धो यस्य स तथा तम्, अथवा-'पडिपुण्णरचितं रजस्त्राणम्-आच्छादनविशेषो-परिभोगावस्थायां यस्मिँस्तत्तथा सुजायखंध' तथा 'मिदुविसदसुहुमलक्खणसत्थविच्छिन्नकेसरसडं' तत्र, रक्तांशुकसंवृते-मशकगृहाभिधानवस्त्रावृते सुरम्ये तथा आजिनकं- मृठ्यो विशदा अविमूढाः सूक्ष्मा लक्षणप्रशस्ताः-प्रशस्तलक्षणा चर्ममयो वस्त्रविशेषः रा च स्वभावादतिकोमलो भवति, तथा रूतं- विस्तीर्णाः केसरसटाः-स्कन्ध केसरजटा यस्य स तथा तम्, अथवाकर्पासपक्ष्म, बूरो-वनस्पतिविशेषः नवनीतं-भक्षणम् एभिस्तुल्यः स्पर्शी 'निम्मलवरकेसरधरं' तथा ऊसियसुनिम्मियसुजायअप्फोडियलंगूलं' यस्य, तूलं वा-अर्कतूलं तत्र पक्षे एतेषामिव स्पर्शो यस्य तत्तथा तत्र, उच्छ्रितम्-ऊर्दू, नीतं सुनिर्मितं सुष्टु भङ्गुरतया न्यस्तं सुजातं पूर्वरात्रश्वासावपररात्रश्च पूर्वरात्रापरपात्रः स एव काललक्षणः समवः नतु सद्गुणोपपेततया आस्फोटितं भुवि लागृलं-पुच्छं येन स तथा तं सामाचारादिलक्षणः पूर्वरात्रापररात्रकालसमयस्तत्र, मध्य-रात्रे इत्यर्थः, सौम्यम् उपशान्तं सौम्याकारं-शान्ताकृति, 'लीलायंतं' ति लीलां इह चार्षत्वादेकरेफलोपेन 'पुव्वरत्तावरत्ते' त्युक्तम्, अपररात्रशब्दो कुर्वन्तं 'जभायंत' विजृम्भभाणं शरीरचेष्टाविशेषं विदधानं 'गगणतलाओ वाऽयमिति सुप्तजागरा-नातिसुप्ता नातिजाग्रती,अत एवाह 'ओहीरमाणी ओवयमाणं सीहं अभिमुहं मुहे पविसमाणं पासित्ता पडिबुद्ध' त्ति 'अयमे२' तिवारंवारमीषन्निद्रांगच्छन्तीत्यर्थः, एकंमहान्तंसप्तोत्सेधमित्यादि- यारूवं' ति इममहास्वप्नमिति संबन्धः, एतदेव-वर्णितस्वरूपं रूपं यस्य विशेषणं मुखमति-पतंगजं दृष्ट्वा प्रतिबुद्धेतियोगः, तत्र सप्तोत्सेधं सप्तसु- स्वतस्य न कविकृतभूनमधिकं वा स तथा तम्,'उरालं ति उदारं प्रधानं कुम्भादिषु स्थानेषून्नतं सप्तहस्तोच्छ्रितं वा 'रययं ति' रूप्यं नहयलंसि' कल्याणं-कल्याणानां शुभसमृद्धिविशेषाणां कारणत्वात् कल्ये वात्ति नभस्तलान्मुखमतिगतमिति योगः, वाचनान्तरे त्वेवं दृश्यते-'जाव नीरोगत्वमणति-गमयति कल्याणं तद्धेतुत्वात्, शिवम्-उपद्रवोपशमसीहं सुविणे पासित्ताणं पडिबुद्धा' तत्र यावत्करणादिदं द्रष्टव्यम्-'एक्कं च हेतुत्वात् धन्यं धनावहत्वात् 'मंगल्यं' मङ्गले दुरितोपशमे साधुत्वात्सणं महंत पंडुरं धवलयं सेयं' एकार्थशब्दत्रयोपादानं चात्यन्तशुक्लता- श्रीकं-सशोभनमिति 'समाणि' त्तिसती हृष्टतुष्टा-अस्यर्थं तुष्टा, अथवाख्यापनार्थम्, एतदेवोपमानेनाह-- 'संखउलविमलदहिघणगोखीर हृष्टा विस्मिता तुष्टा-तोषवती, 'चित्तमाणंदिय' ति चित्तेनानन्दिता आनन्दितं (विमल) फेणरयणिकरपगासं' शङ्खकुलस्येव विमलदघ्न इयघनगोक्षीर- | __वा चित्तं यस्याः सा चित्तानन्दिता, मकारः प्राकृतत्वात्, प्रीतिर्मनसि य
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________________ मेहकुमार 386 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मेहकुमार स्याः सा प्रीतिमनाः, 'परमसोमणस्सिया' परमं सौमनस्य संजातंयस्याः सा परमसौमनस्यिता, हर्षवशेन विसर्षद्-- विस्तारयायि हृदयं यस्याः सा तथा, सर्वाणि प्रायः एकाथिकान्येतानि पदानि प्रमोदप्रकर्षप्रतिपादनार्थत्वात् स्तुतिरूपत्वाच न दुष्टानि, आह च–''वक्ता हर्षभयादिभि-राक्षिप्तमनास्तथा स्तुवन्निन्दन्। यत्पदमसकृद् ब्रूयात्, तत्पुनरुक्त न दोषाय ||1||" इति पञ्चोरुहइ' त्ति प्रत्यवरोहति, अत्वरितं मानसौत्सुक्याभावेनाचपलं कायतः असंभ्रान्त्याऽस्खलन्त्या अविलम्बितया-अविच्छिन्नतया 'राजहंससरिसीए' त्ति राजहंसगमनसदृश्या गत्या 'ताहिं' ति या विशिष्टगुणोपेतास्ताभिर्गीर्भिरिति सम्बन्धः इष्टाभिः तस्य वल्लभाभिः कान्ताभिः-अभिलषिताभिः सदैव तेन प्रियाभिः अद्वेष्याभिः सर्वेषामपि मनोज्ञाभिः-मनोरमाभिः मनःप्रियाभिश्चि-- न्तयाऽपि उदाराभिः-उदारनादवर्णोच्चारादियुक्ताभिः कल्याणाभिः समृद्धिकारिकाभिः शिवाभिः-गीर्दोषानुपद्रताभिः धान्याभिः–धनलम्भिकाभिर्मङ्गल्याभिः-मङ्गलसाध्वीभिः सश्रीकाभिःअलङ्कारादिशोभावद्भिः हृदयगमनीयाभिः हृदये या गच्छन्ति कोमलत्वात् सुबोधत्याच तास्तथा ताभिः, हृदयप्रह्लादिकाभिः-हृदय-प्रह्लादनीयाभिःआह्लादजनकाभिः 'मितमधुररिभितगम्भीरसश्रीकाभिः' मिताः-वर्णपदवाक्यापेक्षया परिमिताः मधुराः-स्वरतः रिभिताः स्वरघोलनाप्रकारवत्यः गम्भीराः-अर्थतः शब्दतश्च सह श्रिया-उक्तगुणलक्ष्म्या यास्तास्तथा, ततः पदपञ्चकस्य कर्मधार--यस्ततस्ताभिः गीर्भिः-वाग्भिः संलपन्तीपुनः पुनर्जल्पन्तीत्यर्थः, नानामणिकनकरत्नानां भक्तिभिः-विच्छित्तिभिश्चित्रं-विचित्रं यत्तत्तथा तत्र भद्रासने-सिंहासने आश्वस्ता गतिजनितश्रमापगमात्, विश्वस्ता संक्षोभाभावात्, अनुत्सुका या 'सुहासणवरगय' त्ति सुखेन शुभे वा आसनगरे गतास्थिता वा सा तथा, करतलाभ्यां परिगृहीतः-आत्तःकरतलपरिगृहीतस्तं शिरस्थावत आवर्तनं-परिभ्रमणं यस्य स तथा शिरसावत इत्येके, शिरसा अप्राप्त इत्यन्ये, तमञ्जलिं मस्तके कृत्वा एवमवादीत्-‘किं मन्ने' इत्यादि, को मन्ये कः कल्याणफलवृत्तिविशेषो भविष्यति, इह मन्ये वितर्कार्थो निपातः, 'सोच' त्ति श्रुत्वा श्रवणतः निशम्य-अवधार्य हृष्टतुष्टो यावद्विसर्पढ्दयः / तथा वाचनान्तरे पुनरिह राज्ञीवर्णके चेदनु-पलभ्यते तते णं सेणिए राया धारिणीए देवीए अंतिए एयमटुं सोचा निसम्म हट्ठ० जाव हियये धाराहयनीवसुरमिकुसुमधुचुमालइयतणुऊससियरोमकूवे तं सुमिणं उगिण्हइ उग्गिण्हइत्ता ईहं पविसति 2 त्ता अप्पणो साभाविएणं मइपुव्वएणं बुद्धिविन्नाणेणं तस्स सुमिणस्स अत्थोग्गहं करेति २त्ता धारणिं देवीं ताहिं ०जाव हिययपल्हायणिज्जाहिं मिउमहुररिभियगंभीरसस्सिरियाहिं वग्गूहिं अणुवूहेमाणे एवं वयासी-उराले णं तुमे देवाणुप्पिए ! सुमिणे दिडे, कल्लाणा णं तुमे देवाणुप्पिए ! सुमिणे | दिद्वे, सिवे धन्ने मंगल्ले सस्सिरीए णं तुमे देवाणुप्पिए ! सुमिणे दिटे, आरोग्गतुहिदीहाउयकल्लाणमंगलकारए णं तुमे देवी सुमिणे दिटे, अत्थलाभो ते देवाणुप्पिए ! पुत्तलाभो ते देवाणुप्पिए ! रजलाभो भोगसोक्खलाभो ते देवाणुप्पिए ! एवं खलु तुम देवाणुप्पिए नवण्हं मासाणं बहुपडिपुन्नाण्णं अट्ठमाण य राइंदियाणं विइकंताणं अम्हं कुलकेउं कुलदीवं कुलपय्वयं कुलवडिसयं कुलतिलकं कुलकित्तिकरं कुलवित्तिकरं कुलणंदिकरं कुलजसकरं कुलाधारं कुलपायवं कुलविवद्धणकरं सुकुमालपाणिपायं०जाव दारयं पयाहिसि, से वि य णं दारए उम्मुक्कवालभावे विनयपरिणयमेत्ते जोव्वणगमणुपत्ते सूरे वीरे विकते विच्छिन्नविपुलबलवाहणे रजवती राया भविस्सइ, तं उराले णं तुमे देवीए सुमिणे दिडेजाव आरोग्गतुहिदीहाउकल्लाणकारए णं तुमे देवी! सुमिणे दिटे त्ति कट्ट भुजो 2 अणुवुहेह। (सूत्र-१०) तते णं सा धारणी देवी सेणिएणं रना एवं दुत्ता समाणी हद्वतुट्ठा०जाव हियया करतलपरिग्गहियं०जाव अंजलिं कट्ट एवं वयासी-एवमेयं देवाणुप्पिया! तहमेयं अवितहमेयं असंदिद्धमेयं इच्छियमेयं देवाणुप्पिए ! पडिच्छियमेयं इच्छियपडिच्छियमेयं सच्चे णं एसमटे जंणं तुज्झे वदह त्ति कट्ट तं सुमिणं सम्म पडिच्छइ पडिच्छइत्ता सेणिएणं रना अब्मणु-ण्णाया समाणी णाणामणिकणगरयणभत्तिचित्ताओ भद्दासणा-ओ अन्भुट्टेइ अन्मुढेत्ता जेणेव सए सयाणिज्जे तेणेव उवागच्छइर त्ता सयंसि सयणिजंसि निसीयइ निसीयइत्ता एवं वदासी-मा मे से उत्तमे पहाणे मंगल्ले सुमिणे अन्नेहिं पावसुमिणेहिं पउिहमिहि त्ति कट्ट देवयगुरुजणसंबद्धाहिं पसत्थाहिं धम्मियाहिं कहाहिं सुमिणजागरियं पडिजागरमाणी विहरइ। (सूत्र-११) 'धाराहयनीयसुरभिकुसुमचुचुमालइयतणुऊससियरोमकूवे' त्ति तत्र नीपः- कदम्बः, धाराहतनीपसूरभिकुसुममिव 'चंचुमालइय' त्ति पुलकिता तनुर्यस्य स तथा, किमुक्तं भवति? 'उससिय' त्ति उच्छसिता रोमकूपा-रोमरन्ध्राणि यस्य स तथा, तंस्वप्नमव-गृह्णाति अर्थावग्रहतः ईहामनुप्रविशति-सदर्थपर्यालोचनलक्षणां ततः 'अप्पणो' त्ति आत्मसंबन्धिना स्वाभाविकेन सहजेन मति-पूर्वेणआभिनिबोधिकप्रभवेन बुद्धिज्ञानेन–मतिविशेषभूतौत्पत्तिक्यादिबुद्धिरूपपरिच्छेदेन अर्थावग्रहंस्वप्नफलनिश्चयं करोति, ततोऽवादीत्-'उरालेण' मित्यादि, अर्थलाभ-इत्यादिषु भविष्यतीति शेषो दृश्यः, एवमुपबृहयन्–अनुमोदयन् 'एवं खलु' त्ति एवंरूपादुक्तफलसाधनसमर्थात् स्वप्नात् दारकं प्रजनिष्यसीति संबन्धः, 'बहुपडिपुण्णाणं' ति अतिपूर्णेषु षष्ठ्याः सप्तम्यर्थत्वात् अर्द्धमष्टमं येषु तान्यष्टिमानि तेषु रात्रिन्दिवेषु अहोरात्रेषु व्यतिक्रान्तेषु,कुलकेत्वादीन्येकादश पदानि, तत्र केतुः-चिह्नध्वज इत्यर्थः
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________________ मेहकुमार 387- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मेहकुमार केतुरिव केतुरद्रुतत्वात् कुलस्य केतुः कुलकेतुः, पाठान्तरेर 'कुलहे' कुलकारणम्, एवं दीप इव दीपः प्रकाशकत्वात् पर्वतोऽनभिभवनीयस्थिराश्रयसाधात् अवतंसः शेखरःउत्तमत्वात्ति-लेको-विशेषकः भूषकत्वात् कीर्तिकरः-ख्यातिकरः,क्वचिद्-वृत्तिकरमित्यपि दृश्यते, वृत्तिश्च-निर्वाह: नन्दिकरो-वृद्धिकरः यशः-सर्वदिग्गामिप्रसिद्धिविशेषस्तत्करः पादपो वृक्षः आश्रयणीयच्छायत्वात् बिवर्द्धनं विविधैः प्रकारैवृद्धिरेव तत्करं 'विण्णय-परिणयमेत्ते' त्ति विज्ञकः परिणतमात्रश्च कलादिष्विति गम्यते, तथा शूरो दानतोऽभ्युपेतनिर्वाहणतो वा वीरः संग्रामतः विक्रान्तो भूमण्डलाक्रमणतः विस्तीर्णे विपुले अतिविस्तीर्णे बलवाहने सैन्यगवादिके यस्य स तथा, राज्यपती राजा स्वतन्त्र इत्यर्थः / 'त' मिति यस्मादेवं तस्मादुदारादिविशेषणः स्वप्नः 'तुमे त्ति त्वया दृष्ट इति निगमनम्। एवमेत दिति राजवचने प्रत्ययाविष्करणम्, एतदेव स्फुटयति-'तहमे यं' ति तथैव तद्यथा भवन्तः प्रतिपादयन्ति, अनेनान्वयतस्तद्वचनसत्यतोक्ता अवितहमेयं तिअनेनव्यतिरेकभावतः 'असंदिमेय' मित्यनेन संदेहाभावतः 'इच्छियं' ति इष्टम-ईप्सितं वा 'पडिच्छिय' ति प्रतीष्टं प्रतीप्सितं वा अभ्युपगतमित्यर्थः, इष्टप्रतीष्टम् ईप्सितप्रतीप्सितं वा धर्मद्वययोगात्, अत्यन्तादरख्यापनाय चवंनिर्देशः. 'इति कटु' त्ति इति भणित्वा 'उत्तमे' त्ति स्वरूपतः 'पहाणे' त्ति फलतः एतदेवाह-'मंगल्ले' त्ति मङ्गले साधुः स्वप्न इति 'सुमिणजागरिय' ति स्वप्न संरक्षणार्थ जागरिका तां प्रतिजाग्रति प्रतिविदधती। तएणं सेणिए राया पचूसकालसमयंसिकोडंबियपुरिसे सद्दावेइ सद्दावेइत्ता एवं वदासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! बाहिरियं उवट्ठाणसालं अज्ज सविसेसं परमरम्मं गंधोदगसित्तसुइयसंमजिओवलित्तं पंचवन्नसरससुरभिमुक्कपुप्फपुंजोवयारकलियं कालागुरुपवरकुंदुरुक्कतुरुक्कधूवडज्झंतमघमघंतगंधुद्ध्याभिरामं सुगंधवरगंधियं गंधवट्टिभूतं करेह य कारवेह य एवमाणत्तियं पञ्चप्पिणह, तते णं ते कोडुबियपुरिसा सेणिएणं रन्ना एवं वुत्ता समाणा हद्वतुट्ठा० जाव पचप्पिणंति, तते णं सेणिए राया कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए फुल्लुप्पलकमल-कोमलुम्मीलियम्मि अहापंडुरे पभाए रत्तासोगपगासकिंसुयसुयमुहगुंजद्धरागवंधुजीवगपारावयचलणनयणपरहुयसुरत्तलोयणजासुयणकुसुमजलियज्जलणतवणिज्जकलसहिंगुलयनिगररूवाइरंगरेहंतसस्सिरीए दिवागरे अह कमेण उदिए तस्स दिण (कर) | करपरपरावयारपारद्धम्मि अंधयारे बालातवकुंकुमेण खइयव्व जीवलोए लोयणविसआणुआसविगसंतविसददंसियम्मि लोए कमलागरसंडबोहए उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलंते सयणिजाओ उद्वेति रत्ताजेणेव अट्टणसाला तेणेव उवागच्छइ 2 ता अट्टणसालं अणुपविसति २त्ता अणेगवायामजोगवग्गणवामद्दणमल्लजुद्धकरणेहिं संते परिस्संते सयपागेहिं सहस्सपागेहिं सुगंधवरतेल्लमादिएहिं पीण णिज्जेहिं दीवणिजेहिं दप्पणिज्जेहिं मदणिज्जेहिं विम्हणिज्जेहिं सव्विदियगायपल्हायणिजेहिं अन्भंगएहिं अब्भगए समाणे तेल्लचम्मंसि पडिपुण्णपाणिपायसुकुमालकोमलतले हिं पुरिसेहिं छेएहिं दक्खेहिं पढ़ेहिं कुसलेहिं मेहावीहिं निउणेहिं निउणसिप्पोवगतेहिं जियपरिस्समेहिं अभंगणपरिमहणुव्वलणकरणगुणनिम्माएहिं अद्विसुहाए मंससुहाए तयासुहाएरोमसुहाए चउव्विहाए संबाहणाए संबाहिए समाणे अवगयपरिस्समे नरिंदे अट्टणसालाओ पडिनिक्खमइ पडिनिक्खमइत्ताजेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छइत्ता मजणघरं अणुपविसति अणुपविसित्ता समंत (मुत्त) जालाभिरामे विचित्तमणिरयणकोट्टिमतले रमणिज्जे ण्हाणमंडवंसि णा-णामणिरयणभत्तिचित्तंसि पहाणपीढंसि सुहनिसन्ने सुहोदगेहिं पुप्फोदएहिं गंधोदएहिं सुद्धोदएहि य पुणो पुणो कल्लाणगपवरमज्जणविहीए मजिए तत्थ कोउयसएहिं बहुविहेहिं कल्लाणगपवरमजणावसाणे पम्हलसुकुमालगंधकासाइयलूहियंगे अहतसुमहग्घदूसरयणसुसंबुए सरससुरभिगोसीसचंदणाणुलित्तगत्ते सुइमालावन्नगविलेवणे आविद्धमणिसुवन्ने कप्पियहारद्धहारतिसरयपालंबपलंबमाणकडिसुत्तसुकयसोहे पिणद्धगेविजे अंगुलेजगललियंगललियकयाभरणे णाणामणिकडगतुडियथंभियभुए अहियरूवसस्सिरीए कुंडलुजोइयाणणे मउडदित्तसिरए हारोत्थयसुकतरइयवच्छे पालंबपलंबमाणसुकयपडउत्तरिजे मुद्दियापिंगलंगुलीए णाणामणिकणगरयणविमलमहरिहनिउणोवियमिसिमिसंतविरइयसुसिलिट्ठविसिट्ठलट्ठसंठियपसत्थआविद्धवी रखलए किं बहुणा? कप्परुक्खए चेव सुअलंकियविभूसिए नरिंदे सकोरिंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिजमाणेणं उभओ चउचामरवालवीइयंगे मंगलजयसद्दकयालोए अणेगगणनायगदंडणायगराईसरतलवरमाडंबियकोडुंबियमंतिमहामंतिगणगदोवारियअमचचेडपीढमदनगरणिगमसेविसेणावइ सत्थवाहदूयसंधिवालसद्धिं संपरिबुडे धवलमहामेहनिग्गए विवगेहगणदिप्पंतरिक्खतारागणाण मज्झे ससि व्व पियदंसणे नरवई मज्जणघराओ पडिनिक्खमतिपडिनिक्खमित्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छइ उवागच्छइत्ता सीहासणवरगते पुरत्थाभिमुहे सन्निसन्ने। तते णं से सेणिए राया अप्पणो अदूरसामंते उत्तरपुरच्छिमे दिसिभागे अट्ठभहासणाइंसेयवत्थपचुत्थुयाति सिद्धत्थमंगलोवयारकतसंतिकम्माइं रयावेइरया
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________________ मेहकुमार 388 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मेहकुमार वित्ता णाणामणिरयणमंडियं अहियपेच्छणिज्जरूवं महग्घवरपट्टणुग्गयं सहबहुभत्तिसयचित्तद्वाणं ईहामियउसमतुरयणरमगरविहगवालगकिंनररुरुसरभचमरकुंजरवणलयपउमलयभत्तिचित्तं सुखचियवरकणगपवरपेरंतदेसभागं अभिंतरियं / जवणियं अंछावेइ अंछावइत्ता अच्छरगमउअमसूरगउच्छइयं धवलवत्थपञ्चत्थुयं विसिटुं अंगसुहफासयं सुमउयं धारिणीए देवीए भद्दासणं रयावेइ रयावेइत्ता कोडु बियपुरिसे सद्दावेइ सहावेत्ता एवं वदासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! अटुंगमहानिमित्तसुत्तत्थपाढए विविहसत्थकुसले सुमिणपाढए सद्दावेइ सद्दावेइत्ता एयमाणत्तियं खिप्पामेव पचप्पिणह, तते णं ते कोडुंबियपुरिसा सेणिएणं रन्ना एवं वुत्ता समाणा हट्ठ०जाव हियया करयलपरिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्ट एवं देवो तह त्ति आणाए विणएणं वयणं पडिसुणेति २त्ता सेणियस्स रनो अंतियाओ पडिनिक्खमंति पडिणिक्खमित्ता रायगिहस्स नगरस्स मज्झं मज्झेणं जेणेव सुमिणपाढग-गिहाणि तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता सुमिणपाढए सद्दावेति / तते णं ते सुमिणपाढगा सेणियस्स रनो कोडुबिय-पुरिसेहिं सद्दाविया समाणा हद्वतुट्ठा०जाव हियया बहाया कयवलिकम्मा०जाव पायच्छित्ता अप्पमहग्याभरणालंकियसरीरा हरियालियसिद्धत्थयकयमुद्धाणा सरहिं सरहिं गिहेहिंतो पडिनिक्खमंति २त्ता रायगिहस्स मज्झं मज्झेणं जेणेब सेणियस्स रनो भवणवडेंसगदुवारे तेणेव उवागच्छंति 2 ता एगतओ मिलयंति 2 त्ता सेणियस्स रनो भवणवडेंसगदुवारेणं अणुपवि-संति अणुपविसित्ताजेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला जेणेव सेणिए राया तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्तासेणियं रायंजएणं विजएणं वद्धा ति, सेणिएणं रना अघियवंदियपूतियमाणि-यसकारिया सम्माणिया समाणा पत्तेयंर पुटवन्नत्थेसु भद्दासणेसु निसीयंति, ततेणं सेणिए राया जवणियंतरियं धारणीं देवीं ठवेइ ठवेइत्ता पुप्फफलपडिपुण्णहत्थे परेणं विणएणं ते सुमिणपाढए एवं वदासी-एवं खलु देवाणुप्पिया!धारिणी देवी अजतंसितारिसयंसिसयणिज्जंसि० / जाव महासुमिणं पासित्ता णं पडिबुद्धा,तं एयस्सणं देवाणुप्पिया! उरालस्स०जाव सस्सिरीयस्स महासुमिणस्स के मन्ने कल्लाणे फलवित्तिविसेसे भविस्सति। तते णं ते सुमिणपाढगा सेणियस्स रनो अंतिए एयमढे सोचा णिसम्म हट्ठ०जाव हियया तं सुमिणं सम्म ओगिण्हंति २त्ता इहं अणुपविसंति रत्ता अन्नमन्नेणं सद्धिं संचालेंति संचालित्ता तस्स सुमिणस्स लद्धऽट्ठा गहियऽट्ठा पुच्छियऽट्ठा विणिच्छियऽट्ठा अभिगयऽट्ठा सेणियस्स रन्नो पुरओ सुमिण-सत्थाई उच्चारेमाणा 2 एवं वदासी-एवं खलु अम्हं सामी ! सुमिणसत्थंसि वायालीसं सुमिणा तीसं महासुमिणा वावत्तरि सव्वसुमिणा दिट्ठा, तत्थणं सामी! अरिहंतमायरो वा चकव-ट्टिमातरो वा अरहंतंसि वा चक्कवट्टिसिं वा गब्भं वकममाणंसि एएसिंतीसाए महासुमिणाणं इमे चोदस महासुमिणे पासित्ता णं पडिबुज्झंति, तं जहा- "गयउसभसीहअभिसेयदामससिदिणयरं झयं कुंभं / पउमसरसागरविमाणभवणरयणुचयसिहिं च / / 1 / / " वासुदेवमातरो वा वासुदेवंसि गब्मं वकममाणंसि एएसिंचोहसण्हं महासुमिणाणं अन्नतरे चत्तारि महासुमिणे पासित्ताणपडिबुज्झंति, बलदेवमातरो वा बलदेवंसि गन्मं वक्कममाणंसि एएसिं चोइसण्हं महासुमिणाणं अण्णतरे चत्तारि महासुविणे पासित्ता णं पडिबुज्झंति, मंडलियमायरो वा मंडलियंसि गब्भं वक्कममाणंसि एएसिंचोहसण्हं महासुमिणाणं अम्नतरं एग महासुमिणं पासित्ता णं पडिबुज्झंति, इमे य णं सामी? घारणीए देवीए एगे महासुमिणे दिढे तं उराले णं सामी ! धारणीए देवीए सुमिणे दिवे,०जाव आरोग्गतुट्टिदीहाउकल्ला–णमंगल्लकारए णं सामी ! धारिणीए देवीए सुमिणे दिहे, अत्थ-लाभो सामी ! सोक्खलाभो सामी ! भोगलाभो सामी ! पुत्तलाभो रज्जलाभो एवं खलु सामी! धारिणीदेवी णवण्हं मासाणं बहु-पडिपुन्नाणं०जाव दारगं पयाहिसि, से वि य णं दारए उम्मुक-बालभावे विन्नायपरिणयमित्ते जोव्वणगमणुपत्ते सूरे वीरे विक्कं-ते विच्छिन्नविउलबलवाहणे रजवती राया भविस्सइ अणगारे वा भावियप्पा तं उराले णं सामी ! धारणीए देवीए सुमिणे दिढे, जाव आरोग्गतुहि०जाव दि8 त्तिक भुञ्जोर अणुबूहेति। ततेणंसेणिए राया तेसिं सुमिणपाढगाणं अंतिए एयमढे सोचा णिसम्म हट्ठजाव हियएकरयल०जाव एवं वदासीएवमेयं देवाणुप्पिया ! ०जाव जन्नं तुम्भे वदह त्तिकट्ट तं सुमिणं सम्म पडिच्छति २त्ता ते सुमिणपाढए विपुलेणं असणपाणखाइमसाइमेणं वत्थगंधमल्लालंकारेण य सकारेति सम्माणेति २त्ता विपुलं जीवियारिहं पीतिदाणं दलयति 2 ता पडिविसेजइ। ततेणं से सेणिए राया सीहासणाओ अन्भुट्टेति २त्ता जेणेव धारिणी देवी तेणेव उवागच्छद उवागच्छइत्ता धारिणीदेवीं एवं वदासी एवं खलु देवाणुप्पिए ! सुमिणसत्थंसि वायालीसं सुमिणाजाव ए
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________________ मेहकुमार 386 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मेहकुमार गं महासुमिणं०जाव भुजो भुञ्जो अणुवूहति, तते णं धारिणी देवी सेणियस्स रन्नो अंतिए एयमटुं सोचा णिसम्म हट्ठ०जाव हियया तं सुमिणं सम्म पडिच्छति २त्ता जेणेव सए वासघरे तेणेव उवागच्छति २त्ता ण्हाया कयवलिकम्मा०जाव विपुलाहिं जाव विहरति। (सूत्र-१२) 'पचूसे' त्यादि प्रत्यूषकाललक्षणो यः समयः-अवसरः स तथा तत्र कौटुम्बिकपुरुषान्-आदेशकारिणः 'सद्दावेइ' त्ति शब्दं करोति शब्दयति 'उपस्थानशालाम्, आस्थानमण्डपं' गन्धोदकेने' त्यादि गन्धोदकेन सिक्ता शुचिका-पवित्रा संमार्जिता कचरापनयनेन उपलिप्ता छगणादिना या सा तथा ताम्, इदं च विशेषणं गन्धोदकसिक्तसंमार्जितोपलिप्तशुचिकामित्येवं दृश्यम, सिक्ताद्यनन्तरभावित्वाच्छुचिकत्वस्य, तथा पञ्चवर्णः सरसः सुरभिश्च मुक्तः क्षिप्तः पुष्पपुञ्जलक्षणो यः उपचारः पूजा तेन कलिता या सा तथा ता 'काले' त्यादि पूर्ववत्, 'आणत्तियं पञ्चप्पिणह' त्ति आज्ञप्तिम्-आदेशं प्रत्यर्पयत-कृतां सती निवेदयत,'कल्ल' मित्यादि 'कल्ल' मिति श्वः प्रादुः-प्राकाश्ये ततः प्रकाशप्रभातायां रजन्यां 'फुल्लोत्पलकमलकोमलोन्मीलितं' फुल्लंविकसितं तच तदुत्पलं च पद्मं फुल्लोत्पलं तच्च कमलश्च-हरिणविशेषः फुल्लोत्प-लकमलौ तयोः कोमलम्-अकठोरमुन्मीलितंदलानां नयनयोश्चोन्मीलनं यस्मिस्तत्तथा तस्मिन्, अथ रजनीविभातानन्तरं पाण्डुरे शुक्ले प्रभाते-उषसि 'रत्तासोगे त्यादि रक्ताशोकस्य प्रकाशः प्रभा स च किंशुकं च पलाशपुष्पं शुक मुखं च गुजाफलविशेषो रक्तकृष्णस्तदर्द्ध बन्धुजीवकं च-बन्धूकं पारापतः-पक्षिविशेषः तचलननयने च परभृतः कोकिलः तस्य सुरक्तं लोचनं च 'जासुमिण' इति जपा-वनस्पतिविशेषाः तस्याः कुसुमं च ज्वलितज्वलनश्च तपनीयकलशश्च हिड्डुलको वर्णकविशेषस्तन्नि करश्वराशिरितिद्वन्द्वः, तत एतेषां यद्रूपं ततोऽतिरेकेण-आधिक्येन 'रेहत' त्ति शोभमाना स्वास्वकीया श्रीः-वर्णलक्ष्मीर्यस्य स तथा तस्मिन्, 'दिवाकरे' आदित्ये अथ अनन्तरं क्रमेण-रजनीक्षय-पाण्डुरप्रभातकरणलक्षणेन 'उदिते' उद्गते 'तस्स दिण (कर)करपरंपरावयारपारद्धम्मि अंधकारे' त्ति तस्य दिवाकरस्य दिने दिवसे अधिकरणभूते दिनाय वा यः करपरम्परायाः-- किरण-प्रवाहस्यावतारः अवतरणं तेन प्रारब्धम्-आरब्धमभिभवितुमिति गम्यते, अपराद्धंवा विनाशितं दिनकरपरम्परावतारप्रारब्धं तस्मिन् सति इह च तक्येति सापेक्षत्वेऽपि समासः, तथा दर्शना-दन्धकारेतमसि तथा बालातप एव कुडकुमंतेन खचिते इव जीवलोके सति, तथा लोचनविषयस्य–दृष्टिगोचरस्य यः 'अणुयासो त्ति' अनुकाशो विकाश प्रसर इत्यर्थस्तेन विकसंश्चासौ वर्द्धमानो विशदश्च स्पष्टः स चासौ दर्शितश्चेतिलोचनविषयानुकाशविशददर्शितस्तस्मिन्, कस्मिन्नित्याहलोके अयमभिप्रायः अन्धकारस्य क्रमेण हानौ लोचनविषयविकाशः क्रमेणैव भवति स च विकसन्तं लोकं दर्शयत्येव, अन्धकारसद्भावे दृष्टरप्रस्थरणे लोकस्य संकीर्णस्येव प्रतिभासनादिति, तथा कमलाकरा हृदादयस्तेषु खण्डानि-नलिनीखण्डानि तेषां बोधको यः तस्मिन् उत्थिते उदयानन्तरावस्थावाप्ते 'सूरे आदित्ये किंभूते? सहस्ररश्मौ / तथा 'दिनकरे' दिनकरणशीले तेजसा ज्वलति सतीति। 'अट्टणसाल' ति अट्टनशाला व्यायामशालेत्यर्थः, अनेकानि यानिव्यायामानि योग्या च-गुणनिका वल्गनंच-उल्ललनव्यामर्दनं च परस्परेण बाहाद्यङ्गमोटनं मल्लयुद्धं च प्रतीतं करणानि च बाहुभङ्ग विशेषा मल्लशास्त्रप्रसिद्धानि तैः श्रान्तः सामान्येन परिश्रान्तोऽङ्गप्रत्यङ्गापेक्षया सर्वतः शतकृत्वो यत्पक्वं शतेन वा कार्षापणानां यत्पक्वं तच्छतपक्कमेवमितरदपि सुगन्धिवरतैलादिभिरभ्यङ्गैरिति योगः आदिशब्दात्-धृतकर्पूरपानीयादिग्रहः किम्भूतैः? 'प्रीणनीयैः रसरुधिरादिधातुसमताकारिभिर्दी - पनीयैः--अग्निजननैः दर्पणीयैः बलकरैः मदनीयैः-मन्मथव्हणीयैर्मासोपचयकारिभिः सर्वेन्द्रियगात्रप्रह्लादनीयैः अभ्यङ्गैस्नेहनैः अभ्यङ्गः क्रियते यस्य सोऽभ्यङ्गितः सन्, ततस्तैलचर्मणितैलाभ्यक्तस्य संबाधनाकरणाय यचर्म तत्तैलचर्म तस्मिन् संबाहिते 'समाणे' त्ति योगः कैरित्याह? पुरुषैः, कथम्भूतैः? प्रतिपूर्णानां पाणिपादानां सुकुमालकोमलानि अतिकोमलानि तलानि-अधोभागा येषां ते तथा तैः छेकैः अवसरहर्द्विसप्ततिकलापण्डितैरिति च वृद्धाः, दक्षैः-कार्याणामविलम्बितकारिभिः प्रष्टै:-वाग्मिभिरिति वृद्धव्याख्या, अथवा-प्रष्टैः अग्रगामिभिःकुशलैः- साधुभिः संबाधनाकर्मणि मेधाविभिः-अपूर्वविज्ञानग्रहणशक्तिनिष्ठैःनिपुणैः-क्रीडाकुशलैर्निपुणशिल्पोपगतैः-निपुणानिसूक्षमाणि यानि शिल्पानि-अङ्गमर्दनादीनि तान्युपगतानि-अधिगतानि यैस्ते तथा तैर्जितपरिश्रमैः, व्याख्यान्तरं तु छेकैः-प्रयोगर्दक्षैःशीघ्रकारिभिः 'पत्त हिं' ति प्रामार्थरधिकृतकर्मणि निष्ठां गतैः कुशलैःआलोचितकारिभिः मेधाविभिः सकृच्छुतदृष्टकर्मज्ञैः निपुणः-उपायारभिभिः निपुणशिल्पोपगतैः-सूक्ष्मशिल्पसमन्वितैरिति, अभ्यङ्गनपरिमर्दनोबलनानां करणे ये गुणास्तेषु निर्मातः, अस्थ्नां सुखहेतुत्वादस्थिसुखा तथा 'संवाहनये' ति विश्रामणया अपगतपरिश्रमः 'समंतजालाभिरामे' ति समन्तात्-सर्वतो जालकैर्विच्छित्तिभिः छिद्रवद् गृहावयवविशेषैरभिरामो-रम्यो यः स्नानमण्डपः स तथा, पाठान्तरे'समत्तजालाभिरामे' ति तत्र समस्तैर्जालकैरभिरामो यः स तथा, पाठान्तरेण-'समुत्तजालाभिरामे' सह मुक्ताजालैयों वर्ततेऽभिरामश्च स तथा तत्र, शुभोदकैः-पवित्रस्थानाहृतैः गन्धो-दकैः-श्रीखण्डादिमित्रैः पुष्पोदकैः-पुष्परसमित्रैः शुद्धोदकैश्च स्वाभाविकैः कथं मजित इत्याह'तत्र' स्नानावसरे यानि कौतुकशतानि रक्षादीनि तैः पक्ष्मले' त्यादि पक्ष्मला-पक्ष्मवी अत एव सुकुमाला गन्धप्रधाना काषायिकाकषायरक्ता शाटिका तया लूषितमङ्गं यस्य स तथा, अहतंमलमूषिकादिभिरनुपद्रुतं प्रत्य-ग्रमित्यर्थः, सुमहाघु दूष्यरत्नं-प्रधानवस्त्रं तेन सुसंवृतः परिगत-- स्तद्वा सुष्ठु संवृत-परिहितं येन स तथा, शुचिनी-पवित्रे माला चपुष्पमाला वर्णकविलेपनं च-मण्डनकारि कुङ्कुमादि विलेपनं यस्य स तथा, आविद्धानि--परिहितानि मणिसुवर्णानि येन स तथा, कल्पितोविन्यस्तो हारः-अष्टादशसरिकः अर्द्धहारो-नवसरिकः त्रिसरिकं च प्रतीतमेव यस्य स तथा, प्रालम्बोझुम्बनकं प्रलम्बमानो यस्य स तथा, कटिसूत्रेण-कट्याभरणविशेषेण सुष्ठुकृताशोभायस्यसतथा, ततः पदत्रयस्य
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________________ मेहकुमार 390- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मेहकुमार कर्मधारयः अथवा-कल्पितहारादिभिः सुकृता शोभा यस्य स तथा, तथा पिनद्धानि-परिहितानि ग्रैवेयकाङ्गुलीयकानि येन स तथा, तथा ललिताङ्गके अन्यान्यपिललितानि कृतानिन्यस्तानि आभरणाणि यस्य स तथा, ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः, तथा नानामणीनां कटकत्रुटिकैःहस्तबाडाभरणविशेषैर्बहुत्वात् स्तम्भिताविव स्तम्भितौ भुजौ यस्य स तथा, अधिकरूपेण सश्रीकः-सशोभो यः स तथा, कुण्डलोद्योतिताननः मुकुटदीप्तशिरस्कः हारेणावस्तृतम्-आच्छादितं तेनैव सुष्ठ कृतरतिकं वक्षः-उरो यस्यासौ हारावस्तृतसुकृतरतिकवक्षाः, मुद्रिकापिङ्गलाङ्गुलीकः-मुद्रिकाः- अङ्गुल्याभरणानि ताभिः पिङ्गलाः-कपिलाः अङ्गुलयो यस्य स तथा, प्रलम्बेन-दीर्घेण प्रलम्बमानेन च सुष्ठ कृत्तं पटेनो-तरीयम्-उत्तरासगो येनस तथा, नानामणिकनकरत्नैर्विमलानि महार्हाणि-महा_णि निपुणेन शिल्पिना 'उविय' त्ति परिकर्मितानि 'मिसिमिसंत' त्ति दीप्यमानानि यानि विरचितानि निर्मितानि सुश्लिटानि सुगन्धीनि विशिष्टानि विशेषवन्त्यन्येभ्यो लष्टानिमनोहराणि संस्थितानि प्रशस्तानि च आविद्धानि-परिहितानि वीरवलयानि येन स तथा, सुभटो हि यदि कश्चिदन्योऽप्यस्ति वीर-व्रतधारी तदाऽसौ मां विजिल्य मोचयत्वेतानि वलयानीति स्पर्द्धयन् यानि परिदधाति तानि वीरवलयानीत्युच्यन्ते, कि बहुना? वर्णितेनेति शेषः, कल्पवृक्ष इव सुष्टु अलङ्कतो विभूषितश्च फलपुष्पादिभिः कल्पवृक्षो राजा तु मुकुटादिभिरलङ्घतो विभूषितस्तु वस्त्रादिभिरिति, सह कोरण्टकप्रधानैर्माल्यदामभिर्यच्छत्रं तेन ध्रियमाणेन, कोरण्टकः-पुष्पजातिः, तत्पुष्पाणि मालान्तेषु शोभार्थं दीयन्ते, मालायै हितानि माल्यानि-पुष्पाणि दामानिमाला इति, चतुर्णां चामराणां प्रकीर्णकानां बालैवींजितमङ्गं यस्येति वाक्यम्, मङ्गलभूतो जयशब्दः कृत आलोके-दर्शने लोकेन यस्य स तथा, तथा अनेके ये गणनायकाः-प्रकृतिमहत्तरा दण्डनायकाः तन्त्रपाला राजानो-माण्डलिकाः ईश्वराः-युवराजानो मतान्तरेणाणिमाद्यैश्वर्ययुक्ताः तलवराः परितुष्टनरपतिप्रदत्तपट्टबन्धविभूषिताः राजस्थानीयाः माडम्बिका:-छिन्नमडम्बाधिपाः कौटुम्बिकाःकतिपयकुटुम्बप्रभवोऽवलगकाः मन्त्रिणः-प्रतीताः महामन्त्रिणोमन्त्रिमण्डलप्रधानाः हस्तिसाधनोपरिका इति वृद्धाः, गणकागणितज्ञाः भाण्डागारिका इति वृद्धाः दौवारिका:-प्रतीहाराः राजद्वारिका वा अमात्या-राज्याधिष्ठायकाःचेटाः-पादमूलिकाः पीठम आस्थाने आसनासीनसेवका वयस्या इत्यर्थः 'नगरं' नगरवासिप्रकृतयो निगमा:कारणिकाः श्रेष्ठिनः-श्रीदेवताध्यासितसौवर्णपट्टविभूषितोत्तमाङ्गाः सेनापतयः-नृपतिनिरूपिताश्चतुरङ्ग सैन्यनायकाः सार्थवाहाःसार्थनायकाः दूताः अन्येषां गत्वा राजादेशनिवेदकाः सन्धिपालाः राज्यसन्धिरक्षकाः एषां द्वन्द्वः ततस्तैः, इह तृतीयाबहुवचनलोपो द्रष्टव्यः, सार्द्ध-सह, न केवलं तत्सहितत्वमेवापि तु तैः समिति-समन्तात् परिवृतः-परिकरित इति, नरपतिर्मज्जनगृहात्प्रतिनिष्क्रामतीति सम्बन्धः किंभूतः? प्रियदर्शनः, क इव? धवलमहामेघनिर्गत इव शशी तथा 'ससि व्व' त्ति वत्करणस्यान्यत्र संबन्धस्ततो ग्रहगणदीप्यमानऋक्षतारागणानां मध्ये इव वर्तमान इति। सिद्धार्थकप्रधानो यो मङ्गलोपचारस्तेन कृतं शान्तिकर्म विघ्नोपशमकर्म येषु तानि तथा / 'णाणामणी' त्यादि यवनिकामाच्छादयतीति संबन्धः, अधिकं प्रेक्षणीयं रूपं यस्यां रूपाणि वायस्यांसा तथा ताम, महा_चासौ वरपत्तनेवरवस्त्रोत्पत्तिस्थाने उद्गता च-व्यूता तां श्लक्ष्णानि बहुभक्तिशतानि यानि चित्राणि तेषां स्थानं, तदेवाह-ईहामृगाः-वृकाः ऋषभाः-वृषभाः तुरगनरमकरविहगाः प्रतीताः व्यालाः-श्वापदभुजगाः किन्नराव्यन्तरविशेषाः रुरवोमृगविशेषाः सरभा-आटव्याः महाकायपशवः पराशरेति पर्यायाः चमराआटव्या गावः कुञ्जरा-दन्तिनः वनलता-अशोकादिलताः पद्मलता:पद्मिन्यः एतासां यका भक्तयो विच्छित्तयस्ताभिश्चित्रा या सा तथा ता, सुष्टु खचिता मण्डिता वरकनकेन प्रवरपर्यन्तानाम्- अञ्चलकरणवर्तिलक्षणानां देशभागा अवयवा यस्यां सा तथा ताम्, आभ्यन्तरिकीम्आस्थानशालाया अभ्यन्तरभागवर्तिनी यवनिकांकाण्डपटम् 'अंछावेइ' त्ति आयतां काल्यति आस्तर–केण प्रतीतेन मृदुकमसूरकेण च प्रतीतेनावस्तृतं यत्तत्तथा, धवल-वस्त्रेण, प्रत्यवस्तृतम्-आच्छादितं विशिष्ट-शोभन मङ्गस्य सुखः स्पर्शो यस्यतत्तथा, अष्टाङ्गम्- अष्टभेदं दिव्योत्पातान्तरिक्षादिभेदं यन्महानिमित्तं-शास्त्रविशेषः तस्य सूत्रार्थपाठाका ये ते तथा तान् "विणयेण वयणं पडिसुणेति' त्ति प्रतिशृण्वन्ति-अभ्युपगच्छन्ति वचनं, विनयेन किम्भूतेनेत्याह-'एव' मिति यथैव यूयं भणथ तथैव "देवो' त्ति हेदेव! 'तहत्ति' त्ति-नान्यथा आज्ञया भवदादेशेन करिष्याम इत्येवमभ्युपगमसूचकपदचतुष्टयभणनरूपेणेति 'जाव हियय त्ति' हरिसक्सविसप्पमाणहियया, स्नानानन्तरं कृतं बलिकर्म यैः स्वगृहदेवतानां ते तथा 'जाव पायच्छित्त' त्ति 'कयकोउयमंगलपायच्छित्ता' तत्र कृतानि कौतु-कमङ्गलान्येवेति प्रायश्चित्तानि दुःस्वप्नादिविघातार्थमवश्यकरणीयत्वायैस्ते तथा, तत्र कौतुकानिमषीतिलकादीनि मङ्गलानितु-सिद्धार्थकदध्यक्षतर्वाङ्कुरादीनि हरितालिका-दूर्वा सिद्धार्थका अक्षताश्च कृता मूर्द्धनि यैस्ते तथा, वचित् 'सिद्धत्थयहरियालिया-कयमंगलमुद्धाणा' एवं पाठः, स्वकेभ्य आत्मीयेभ्य इत्यर्थः / 'जएणं' विजएणं वद्धाति' जयेन विजयेन च वर्द्धस्व त्वमित्या- चक्षत इत्यर्थः, तत्र जयः-परैरनभिभूयमानता प्रतापवृद्धिश्च विजयस्तु-परेषामभिभव इति अर्चिताः-चर्चिताश्चन्दनादिना वन्दिताः-सद्गुणोत्कीर्तनन पूजिताः-पुष्पैर्मानितादृष्टिप्रणामतः सत्कारिताः-फलवस्त्रादिदानतः सम्मानितास्तथाविधया प्रति-पत्त्या 'समाण' त्ति सन्तः, 'अण्णमण्णेण सद्धिं ति अन्योऽन्येन सह इत्येवं 'संचालेंति' त्ति संचालयन्ति संचारयन्तीति पर्यालोचयन्तीत्यर्थः, लब्धार्थाः स्वतः पृष्टार्थाः परस्परतः गृहीतार्थाः पराभिप्रायग्रहणतः ततएव विनिश्चितार्थाः अतएव अभिगतार्था अवधारितार्था इत्यर्थः, 'गम्भं वक्कममाणंसि' त्ति गर्ने व्युत्क्रामति' उत्पद्यमाने, अभिषेक इति-श्रियाः संबन्धी, विमानं यो देवलोकादवतरति तन्माता पश्यति, यस्तु नरकादुद्दृत्योत्पद्यते तन्माता भवनमिति चतुर्दशैव स्वप्नाः, वि
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________________ मेहकुमार 361 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मेहकुमार मानभवनयोरेकतरदर्शनादिति। 'विण्णायपरिणयमेत्ते' विज्ञातं-विज्ञानं परिणतमात्रं यस्य स तथा क्वचिद् ‘विण्णय' त्ति पाठः स च व्याख्यात एव, जीवियारिहं, ति आजन्म निर्वाहयोग्यम् / तते णं तीसे धारिणीए देवीए दोसु मासेसु वीतिकंतेसु ततिए मासे वट्टमाणे तस्स गन्मस्स दोहलकालसमयंसि अयमेयारूवे अकालमेहेसु दोहले पाउन्भवित्थाधन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ सपुन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ कयत्थओणं ताओ कयपुन्नाओ कयलक्खणाओ कयविहवाओ सुलद्धे णं तासि माणुस्सए जम्मजीवियफले जाओ णं मेहेसु अब्भुग्गतेसु अब्भुजुएसु अब्मुन्नतेसु अब्मुट्ठिएसु सगजिएसु सविजुएसु सफुसिएसु सथणिएसु धंतधोतरुप्पपट्टअंकसंखचंदकुंदसालिपिट्ठरासिसमप्पभेसु चिउरहरियालमेयचंपगसणकोरंटसारिसयपउमरयसमप्पभेसुलक्खारससरसरत्तर्किसुयजासुमणरत्तबंधुजीवगजातिहिंगुलयसरसकुंकुमउरब्भससरुहिरइंदगोवगसमप्पभेसु बरहिणनीलगुलियसुगचासपिच्छमिंगपत्तसासगनीलुप्पलनियरनवसिरीसकुसुमणवसहलसमप्पभेसु जच्चंजणमिंगभेयरिट्ठगभमरावलिगवलगुलियकञ्जलसमप्पभेसु फुरंतविजुतसगजिएसु वायवसविपुलगगणचवलपरिसकिरेसु निम्मलवरवारिधारापगलियपयंडमारुयसमाहयसमोत्थरंत-उवरिउवरितुरियवासं पवासिएसु धारापहकरणिवायनिव्वावियमेइणितले हरियगणकं चुए पल्लवियपायवगणेसु वल्लि-वियाणेसु पसरिएसु उन्नएसु सोभग्गमुवागएसु नगेसु नएसु वा वेभारगिरिप्पवायतडकडगविमुक्केसु उज्झरेसु तुरियपहावियपलोट्टफेणाउलं सकलुसंजलं वहंतीसु गिरिनदीसु सज्जजुणनीवकुडयकंदलसिलिंधकलिएसु | उववणेसु मेहरसियहद्वतुट्ठचिट्ठियहरिसवसपमुक्तकंठकेकारवं मुयंतेसु वरहिणेसु उउवसमयजणियतरुणसहयरिपणचितेसु नवसुरभिसिलिंधकुडयकंदलकलंबगंधद्धणिं मुयंतेसु उववणेसु परहुयरुयरिमितसंकुलेसु उद्दायंतरत्तइंदगोवयथोवयकारुनविलवितेसु ओणयतणमंडिएसु दद्दुरपयंपिएसु संपिडियदरियभमरमहुकरिपहकरपरिलिंतमत्तछप्पयकुसुमासवलोलमधुर- | गुंजंतदेसभाएसु उववणेसु परिसामियचंदसूरगहगणपणद्वनक्खत्ततारगपहे इंदा-उहबद्धचिंधपट्टसि अंबरतले उड्डीणबलागपंतिसोभंतमेहविंदे कारंडगचक्कवाय कलहंसउस्सुयकरे संपत्ते पाउसम्मि काले ण्हाया कयवलिकम्मा कयकोउयमंगलपायच्छित्ताओ किं ते वरपायपत्तणे उरमणिमेहलहाररइयकडगखुडुयविचित्तवरवलयथंभियभुयाओ कुंडलउज्जोवियाणणाओ रयणभूसियंगाओ नासानीसासवायबोज्झं चक्खुहरं वण्णफरिससंजुत्तं हथलालापेलवाइरेयं धवलकणयखचियंतकम्मं / आगासफलिहसरिसप्पभं अंसुयं पवरपरिहियाओ दुगुल्लसुकुमालउत्तरिजाओ सव्वोउयसुरभिकुसुमपवरमल्लसोमितसिराओ कालाग(गु) रुधूवधूवियाओ सिरिसमाणवेसाओ सेयणयगंधहत्थिरयणं दुरूढाओ समाणीओ सकोरिंटमल्लदारेणं छत्तेणं धरिजमाणेणं चंदप्पभवइरवेरुलियविमलदंडसंखकुंददगरयअमयमहियफेणपुंजसन्निगासचउचामरब लवीजितंगीओ सेणिएणं रन्ना सद्धिं हत्थिखंधवरगएणं पिट्टओ समणुगच्छमाणीओ चाउरंगिणीए सेणाए महता हयाणीएणं गयाणीएणं रहाणीएणं पायत्ताणीएणं सव्वड्डीए सय्वजुइए०जाव निग्घोसणादियरवेणं रायगिहं नगरं सिंघाडगतियचउक्कचबरचउम्मुहमहापहपहेसु आसित्तसित्त-सुचियसंमजिओवलित्तंजाव सुगंधवरगंधियं गंधबट्टीभूयं अवलोएमाणीओ नागरजणेणं अमिणंदिजमाणीओ गुच्छलयारुक्खगुम्मबल्लिगुच्छओच्छाइयं सुरम्मं वेभारगिरिकडगपायमूलं सवओ समंता आहिंडेमाणीओ 2 दोहलं विणियंति, तंजइणं अहमवि महेसु अब्भुवगएसुजाव दोहलं विणिज्जामि। (सूत्र-१३) 'दोहलो पाउब्भवित्थ' त्ति दोहदो-मनोरथः प्रादुर्भूतवान्, तथाहिधनलब्धारो धन्यास्ता या अकालमेघदोहदं विनयन्तीति योगः 'अम्मयाओ' त्ति अम्बाः-पुत्रमातरः, स्त्रिय इत्यर्थः, संपूर्णाः परिपूर्णाः आदेयवस्तुभिः (सपुण्याः) कृतार्थाः-कृतप्रयोजनाः कृतपुण्याःजन्मान्तरोपातसुकृताः कृतलक्षणाः-कृतफलवच्छरीरलक्षणाः कृतविभवाः-कृतसफलसंपदः सुलब्धं तासांमानुष्यक-मनुष्यसबन्धि जन्मनिभवेजीवितफलंजीवितव्यप्रयोजनं जन्मजीवितफलं, सापेक्षत्वेऽपि च समासः छान्दसत्वात्, या मेघेषु अभ्युद्गतेषु-अकुरवदुत्पन्नेषु सत्सु, एव सर्वत्र सप्तमी योज्या, अभ्युद्यतेषुवर्द्धितु, प्रवृत्तेषु अभ्युन्नतेषुगग-नमण्डलव्यापनेनोन्नतिमत्सु अभ्युत्थितेषु-प्रवर्षणाय कृतोद्योगेषु सगर्जितेषुमुक्तमहाध्वनिषु सविद्युत्केषु प्रतीतं 'सफुसिएसु' त्ति प्रवृत्तप्रवर्षणविन्दुषु सस्तनितेषु-कृतमन्दमन्दध्वनिषु ध्मातेन-अग्नियोगेन यो धौत:-शोधितो रूप्यपट्ठो-रजतपत्रकं स तथा अङ्को-रलविशेषः शङ्खचन्दौ-प्रतीतौ कुन्दः-पुष्पविशेषः शालिपिष्टराशिःब्रीहिविशेषचूर्णपुञ्ज एतात्समा प्रभा येषां ते तथा तेषु, शुक्लेष्वित्यर्थः, तथा चिकुरो रागद्रव्यविशेष एव हरितालो-वर्ण-कद्रव्यं भेदस्तद्गुटिकाखण्ड चम्पकसनकारण्टकसर्षपग्रहणात्तत्पुष्पाणि गृह्यन्ते, पद्मराजः:प्रतीतं तत्समप्रभेषु, वाचनान्तरे-सनस्थाने काञ्चनं सर्षपस्थाने 'सरिसगो त्ति' पठ्यते, तत्र चिकुरादिभिः सदृशाश्च ते पद्मरजः समप्रभाश्चेति विग्रहोऽतस्तेषु पीतेष्वित्यर्थः, तथा लाक्षारसेन सरसेन सरसरक्तर्किशुकेन जपासुमनोभिः रक्तबन्धुजीवकेन, रक्तबन्धुजीवकंहिपञ्चवर्ण भवतीतिरक्तत्वेन विशिष्यते जातिहिङ्गुलकेनवर्णकद्रव्येण, स कृत्रिमोऽपि भवतीति जात्या
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________________ मेहकुमार 392 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मेहकुमार विशेषितः, सरसकुङ कुमेन, नीरसं हि विवक्षितवर्णोपेतं न भवतीति सरसमुक्तं, तथा उरभ्रः ऊरणः शशः-शशकस्तयो रुधिरेण-रक्तेन इन्द्रगोपको-वर्षासु कीटकविशेषस्तेन च समा प्रभा येषां ते तथा तेषु रक्तेष्वित्यर्थः, तथा बर्हिणो-मयूराः नीलं-रत्नविशेषः गुलिकावर्णकद्रव्यं शुकचाषयोः पक्षिविशेषयोः पिच्छं-पत्रं भृङ्ग:-कीटविशेषस्तस्य पत्रं-पक्षः सासको-बीयकनामा वृक्षविशेषः, अथवा--'साम त्ति' पाठः तत्र श्यामा-प्रियङ्गुःनीलोत्पलनिकर:- प्रतीतः नवशिरीषकुसुमानि च नवशाढलं-प्रत्यग्रहरितम् एतत्समप्रभेषु नीलप्रभेषु नीलवर्णेष्वित्यर्थः, तथा जात्यं-प्रधानं यदजन-सौवीरकं भृङ्गभेदःभृङ्गाभिधानः कीटविशेषः विदलिताङ्गारो वारिष्टकं-रत्नविशेषः, भ्रमरावली-प्रतीता / गवलगुलिका-महिषशृङ्गगोलिका कज्जलं-मषी तत्समप्रभेषु कृष्णेष्वित्यर्थः स्फुरद्विद्युत्काश्च सगर्जिताश्च ये तेषु, तथा वातवशेन विपुले गगने चपलं यथा भवत्येवं परिसक्किरसुत्ति परिष्वष्कितुं शीलं येषां ते तथा तेषु, तथा निर्मलवरवारिधाराभिः प्रगलित:-क्षरितः प्रचण्ड-मारुतसमाहतः सन् 'समोत्थरंत' त्ति समवस्तृणंश्चमहीपीठमा-क्रामन् उपर्युपरिचसातत्येन त्वरितश्चशीघ्रो यो वर्षो-जलसमूहः स तथा तं प्रवृष्टषु-वर्षितुमारब्धेषु मेघेष्विति प्रक्रमः, धाराणां पहकरो' त्ति निकरस्तस्य निपातः-पतनं तेन निर्वापितं-शीतलीकृतं यत्तत्तथा तस्मिन्, निर्वापितशब्दाच सप्तम्येकवचनलोपो दृश्यः, कस्मिन्नित्याहमेदिनीतले भूतले, तथा हरितकानां-हस्वतृणानां यो गणः स एव कञ्चुको यत्राच्छादकत्वात् तत्तथा तत्र, 'पल्लविय' त्ति इह सप्तमीबहुवचनलोपो दृश्यः, ततः पल्ल-वितेषु पादपगणेषु तथा वल्लीवितानेषु प्रसृतेषु-- जातप्रसरेष्वित्यर्थः, तथोन्नतेषु भूप्रदेशेष्विति गम्यते सौभाग्यमुपगतेषु अनवस्थितजलत्वेनाकर्दमत्वात् पाठान्तरे नगेषु पर्वतेषु नदेषुवा-हदेषु तथा वैभाराभिधानस्य निरेःवे प्रपाततटा:-भृगुतटाः कटकाचपर्वतैकदेशास्तेभ्यो ये विमुक्ताः-प्रवृत्तास्ते तथा तेषु, केषु? 'उज्झरेसु' त्ति निर्झरेषु त्वरितप्रधावितेन यः ‘पल्लोट्ट' त्ति प्रवृत्तः-उत्पन्नः फेनस्तेन आकुलं व्याप्तम्। 'सकलुसं' ति सकालुष्यं जलं वहन्तीषु गिरिनदीषु सर्जार्जुननीपकुटजानां वृक्ष-विशेषाणां यानि कन्दलानिप्ररोहाः शिलन्ध्राश्वछत्रकाणि तैः कलितानि यानि तानि तथा तेषु उपवनेषु, तथा मेघरसितेन हृष्ट-तुष्टा-अतिहृष्टाश्चेष्टिताश्च कृतचेष्टा येते तथा तेषु, इदं च सप्तमीलोपात्, हर्षवशात् प्रमुक्तो मुत्कलीकृतः कण्ठोगलो यस्मिन् स तथा स चाऽसौ केकारवश्च तं मुञ्च सु वर्हिणेषु मयूरेषु, तथा ऋतुवशेन कालनिशेषबलेन यो मदस्तेन जनितं तरुणसहचरीभिःयुवति-मयूरीभिः सह प्रवृत्तं प्रनतनं येषां ते तथा तेषु, बर्हिष्वित्यन्वयः, नवः सुरभिश्च यः शिलीन्ध्रकुटजकन्दलकदम्बलक्षणानां पुष्पाणां गन्धस्तेन या घ्राणिः-तृप्तिस्तां मुञ्चत्सुगन्धोत्कर्षतां विदधानेष्वित्यर्थः उपवनेषु-भवनासन्नवनेषु, तथा परभृतानां कोकिलानां यद्रुतं-रवो रिभितं स्वरघोलनावत्तेन संकुलानि यान्युपवनानि तानि तथा तेषु 'उद्दाइंत' तिशोभमाना रक्ता इन्द्रगोपकाः-कीटविशेषाः स्तोककानां- | चातकानां कारुण्यप्रधानं विलपितं च येषु तानि तथा तेषूपवनेष्वित्यन्ययः, तथा अनदततृणैर्मण्डितानि यानि तानि तथा तेषु, दर्दुराणां प्रकृष्ट जल्पितं येषुतानि तथा तेषु, संपिण्डिता-मिलिताः दृप्ता-दर्पिताः भ्रमराणां मधुकरीणां च 'पहकर त्ति निकरा येषु तानितथा, परिलिन्त' त्ति परिलीयमानाः संश्लिष्यन्तो मत्ताः षट्पदाः कुसुमासवलोलाःमकरन्दलम्पटाः मधुरं-कलं गुञ्जन्तः-शब्दायमानाः देशभागेषु येषां तानि तथा ततः कर्मधारयः ततस्तेषु उपवनेषु, तथा परिश्यामिताःकृष्णी-कृताः सान्द्रमेघाच्छादनात्, पाठान्तरेण-परिभ्रामिताः कृतप्रभा-भ्रंशा चन्द्रसूरग्रहाणां यस्मिन्प्रनष्टा च नक्षत्रतारकप्रभा यस्मिंस्ततथा तस्मिन्नम्बरतले इति योगः, इन्द्रायुधलक्षणो बद्ध इव बद्धः चिह्नपट्टीध्वजपटो यस्मिस्तत्तथा तत्राम्बरतले-गगने उड्डीनब-लाकापड क्तिशोभमानमेघवृन्देऽम्बरतले इति योगः, तथा कारण्ड-कादीनां पक्षिणां मानससरोगमनादि प्रत्यौत्सुक्यकरे संप्राप्ते-उक्तलक्षणयोगेन समागते प्रावृषि काले, किंभृता? 'अम्मयाओ?' इत्याह-'हायाओ' इत्यादि, किं ते इति किमपरमित्यर्थः, वरौ पादप्राप्तनूपुरौ मणिमेखला रत्नकाची हारश्च यासांतास्तथा रचितानिन्यस्तानि उचितानि-योग्यानि कटकानि प्रतीतानिखुडकानिच-अङ्गुलीयकानियासांतास्तथा विचित्रैर्वरवलयैः स्तम्भिताविव स्तम्भितौ भुजौ यासां तास्तथा ततः पदत्रयस्य कर्मधारयः / तथा "कुंडलोजोतितानना वरपायपत्तनेउरमणि-मेहलाहाररइयउचियकडगखुड्डयएगावलिकंठमुरयतिसरयवरवलयहेमसुत्तकुंडलुजोतियाणणाओ" ति पाठान्तरं तत्र वरपादप्राप्त-नू पुरमणिमेखलाहारास्तथा रचितान्युचितानि कटकानि च खुड्डकानिच एकावली च-विचित्रमणिकृता एकसरिका कण्ठमुरजश्व-आभरणविशेषः त्रिसरक च वरवलयानिच हेमसूत्रकंचसंकलकंयासांतास्तथा, तथा कुण्डलोद्योतिताननास्ततो वरपादप्राप्तनू पुरादीनां कर्मधारयः रत्नविभूषिताङ्ग्यः नासानिःश्वासवातेनोह्यते यल्लघुत्वात्तत्तथा चक्षुर्हरं दृष्ट्याक्षेपकत्वात्, अथवा-प्रच्छादनी-याङ्गदर्शनाचक्षुहरति धरति वा निवर्तयति यावत्वात्तत्तथा, वर्ण स्पर्शसंयुक्तं वर्णस्पर्शातिशायीत्यर्थः हयलालायाअश्वलालायाः सकाशात् पेलव' त्ति पेलवत्त्वेन मृदुत्वलघुत्वलक्षणेनातिरेकः अतिरिक्तत्वं यस्य तत् तथा, धवलं च तत् कनकेन खचितंमण्डितमन्तयोः अञ्चलयोः कर्मवानलक्षणं यस्यतत्तथा लच्चेति वाक्यम, आकाशस्फटिकस्य सदृशी प्रभा यस्य धवलत्वात्तत्तथा, अंशुकवस्त्रविशेषः प्रवरमिहानुस्वारलोपो दृश्यः परिहिताः-निवासिताः दुकूलं च वस्त्रम् अथवा-दुकूलो वृक्षविशेषः तल्कलाज्जातंदुकूलं वस्त्रविशेष एव तत् सुकुमालमुत्तरीयम्-उपरिकायाच्छादनम्यासांतास्तथा, सर्वर्तुकसुरभिकुसुमैःप्रवरैर्माल्यैश्चग्रथितकुसुमैः शोभितं शिरो यासां तास्तथा, पाठान्तरे-'सर्वर्तुकसुरभिकुसुमैः सुरचिता प्रलम्बमाना शोभमाना कान्ता विकसन्तीचित्रामालायासांतास्तथा, एवमन्यान्यपि पदानि बहुवचनान्तानि संरकरणीयानि-इह वर्णके बृहत्तरो वाचानाभेदः, तथा चन्द्रप्रभवरवैडूर्यविमलदण्डाः शङ्खकुन्ददकरजोऽमृतमथितफेनपुञ्जसन्निकाशाश्चयेचत्वारश्वामराः चामराणि तद्वालैर्वीजितमङ्गंयासांतास्तथा, अयमेवार्थोवाचनान्तरे
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________________ मेहकुमार 393 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मेहकुमार इत्थमधीतः- 'सेयवरचामराहिं उखुव्यमाणीहिं 2 सव्विड्डीए' त्ति छत्रादिराजचिह्नरूपया, इह यावत्करणादेवं द्रष्टव्यम्-'सव्वज्जुइए' सर्वद्युत्याआभरणादिसंबन्धिन्या सर्वयुक्त्या वा उचितेष्टवस्तु-घटनालक्षणया 'सर्वबलेन' सर्वसैन्येन 'सर्वसमुदायेन' पौरादिमी-लनेन 'सर्वादरेण' सर्वोचितकृत्यकरणरूपेण सर्वविभूत्या सर्वसंपदा सर्वविभूषयासमस्तशोभया सर्वसंभ्रमेण-प्रमोदकृतौत्सुक्येन सर्वपुष्पगन्धमाल्यालङ्कारेण 'सर्वतूर्यशब्दसंनिनादेन' तूर्यशब्दानां मीलनेन यः संगतो नितरांनादोमहान् घोषस्तेनेत्यर्थः, अल्वेष्वपि ऋद्ध्यादिषु सर्वशब्दप्रवृत्तिर्दृष्टा अत आह-'महया इड्डीए महया जुईए जुत्तीए वा महया बलेणं महया स मुदएणं महया वरतुडियजमगसमगप्पवाइएणं' 'यमकसमक' युगपत्, एतदेव विशेषणेनाह- 'संखपणवपडहभेरिझल्लरिखरमुहिहुडुक्कमुर-वमुईगढुंदुहिनिग्घोसनाइयरवेणं, तत्र शङ् खादीनां नितरां घोषो निर्घोषोमहाप्रयत्नोत्पादितः शब्दो नादितं--ध्वनिमात्रमेतद्-द्वयलक्षणो यो रवः स तथा तेन, 'सिंघाडे' त्याति, सिङ्घाटकादीनामयं विशेषः, सिङ्घाटकंजलजबीजं (शृगाटक इति वाचस्पत्यभिधान / ) फलविशेषः तदाकृतिपथयुक्तं स्थानं सिङ्घाटकं, त्रिपथयुक्तं स्थानं त्रिकं चतुष्पथयुक्तं चतुष्कं त्रिपर्थभेदि चत्वरं चतुर्मुखंदेवकुलादि महापथो-राजमार्गः पन्थाःपथिमात्रम्, तथा आसक्तिंगन्धोदकेनेषत्सितं सकृदा सिक्तं,सिक्तं त्वन्यथा शुचिकंपवित्रं संमार्जितम्-अपहृतकचवरम् / उपलिप्तं च गोमयादिना यत्तत्तथा यावत्करणादुपस्थानशालावर्णकः पूर्वोक्त एव वाच्यः, एवंभूतं नगरमवलोकयन्त्यो गुच्छा वृन्ताकीप्रभृतीनां लताः सहकारादिलता वृक्षाः सहकारादयः गुल्सा वंशीप्रभृतयः वल्ल्य: त्रपुष्यादिकाः एतासां ये गुच्छाः पल्लवसमूहास्तैर्यत् 'ओच्छवियं' ति अवच्छादितं वैभारगिरेर्ये कटकाः-देशास्तेषां ये पादाः अधोभागास्तेषां यन्मूलं-समीपंतत्तथा तत्सर्वतः समन्तात् 'आहिंडन्ति' त्ति आहिण्डन्ते, अनेन चैवमुक्तव्यतिकरभाजां सामान्येन स्त्रीणां प्रशंसाद्वारेणात्मविषयोऽका-लमेघदोहदो धारियाः प्रादुरभूदित्युक्तं, याचनान्तरे तु--ओलाए माणीओ 2 आहिँडेमाणीओ 2 दोहलं विणिंति' विनयन्त्यपनयन्तीत्यर्थः, तंजति णं अहमवि मेहेसु अब्भुग्गएसुजाव दोहलं विणेजामि' विनयेयमित्यर्थः, संगतश्चायं पाठ इति। उक्तदोहदाप्राप्तौ यत्तस्याः संपन्नं तदाहतए णं सा धारणो देवी तंसि दोहलंसि अविणिज्जमाणंसि असंपन्नदोहला असंपुन्नदोहला असंमाणियदोहला सुक्का भुक्खा णिम्मंसा ओलग्गा ओलुग्गसरीरा पमइलदुव्वला किलंता ओमंथियवयणनयणकमला पंडुइयमुही करयलमलिय व्व चंपगमालाणित्तेया दीणविवण्णवयणा जहोचियपुप्फगंधमल्लालंकारहारं अणामिलसमाणी कीडारमणकिरियं च परिहा- | वेमाणी दीणा दुम्मणा निराणंदा भूमिगयदिट्ठीया ओहयमणसंकप्पा०जाव झियायइ, तते णं तीसे धारिणीए देवीए अंगपडियारियाओ अभिंतरियाओ दासचेडियाओ धारिणी देवी ओलुग्गं०जाव झियायमाणीपासंति पासित्ता एवं वदासी-किण्णं तुमे देवाणुप्पिए !ओलुग्गा ओलुग्गसरीराजाव झियायसि? तते णं सा धारिणी देवी ताहिं अंगपडियारियाहिं अभिंतारियाहिं दासचेडियाहिं एवं वुत्ता समाणीनो आढाति णो य परियाणाति अढायमाणी अपरियाणमाणी तुसिणीया संचिट्ठति, ततेणं ताओ अंगपडियारियाओ अभिंतरियाओदासचेडियाओधारिणी देवी दोचं पितचं पि एवं वयासी-किं णं तुमे देवाणुप्पिए ! ओलुग्गा ओलुग्गसरीराजाव झियायसि? तते णं साधारिणी देवी ताहिं अंगपडियारियाहिं अन्भितरियाहिं दासचेडियाहिं दोचं पितचं पिएवं वुत्ता समाणी णो आढातिणो परियाणाति अणाढायमाणा अपरियाणमाणा तुसिणीया संचिट्ठति, तते णं ताओ अंगपडियारियाओ दास-चेडियाओ धारिणीए देवीए अणाढातिज्जमाणीओ अपरिजाणिजमाणिओ तहेव संभंताओ समाणीओ धारिणीए देवीए अंतियाओपडिनिक्खमंतिरत्ताजेणेव सेणिए राया तेणेव उवागच्छंति 2 त्ता करतलपरिग्गहियं०जाव कट्ट जएणं विजएणं वद्धातिवद्धावइत्ता एवं वयासी-एवं खलु सामी ! किं पि अन्ज धारिणी देवी ओलुग्गा ओलुग्गसरीरा० जाव अट्टज्झाणोवगया झियायति, तते णं से सेणिए राया तासिं अंगपाडियारियाणं अंतिए एयमढे सोचा णिसम्म तहेव संभंते समाणे सिग्धं तुरियं चवलं वेइयं जेणेव धारिणी देवी तेणेव उवागच्छद उवागच्छइत्ता धारिणी देवी ओलुग्गं ओलुग्गसरीरं० जाव अट्टज्झाणोवगयं झियायमाणी पासइ पासित्ता एवं वदासीकिन्नं तुमे देवाणुप्पिए! ओलुग्गा ओलुग्गसरीरा जाव अट्टज्झाणोवगया झियायसि? तते णं सा धारिणी देवी सेणिएणं रना एवं वुत्ता समाणी नो आढाइ०जाव तुसिणीया संचिट्ठति, तते णं से सेणिए राया धारिणीं देवीं दोच्चं पितचं पि एवं वदासीकिन्नं तुमे देवाणुप्पिए ! ओलुग्गा० जाव झियायसि? तते णं साधारिणी देवी सेणिएणं रण्णा दोच्चं पितचं पि एवं वुत्ता समाणी णो आढाति णो परिजाणाति तुसिणीया संचिट्ठइ, तते णं से सेणिए राया धारिणीं देवीं सवहसावियं करेइ २त्ता एवं वयासीकिण्णं तुमं देवाणुप्पिए ! अहमेयस्स अट्ठस्स अणरिहे सवणयाए? ताणं तुमं ममं अयमेयारूवं मणोमाणसियं दुक्खं रहस्सीकरेसि, तते णं सा धारिणी देवी सेणिएणं रना सवहसाविया समाणी सेणियं रायं एवं वदासी-एवं खलु सामी ! मम
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________________ मेहकुमार 394 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मेहकुमार तस्स उरालस्स०जाव महासुमिणस्स तिण्हं मासाणं बहुपडिपुन्नाणं अयमेयारूवे अकालमेहेसु दोहले पाउब्भूए धन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ कयत्थाओ णं ताओ अम्मयाओ जाव बेभारगिरिपायमूलं आहिंडमाणीओ दोहणं विणिंति, तं जइणं अहमवि०जाव डोहलं विणिज्जामि, तते णं हं सामी ! अयमेयारूवंसि अकालदोहलंसि अविणिजमाणंसि ओलुग्गा०जाव अट्टज्झाणोवगया झियायामि, एएणं अहं कारणेणं सामी ! ओलुग्गाजाव अट्टज्झाणोवगया झियायामि, तते णं से सेणिए राया (पुस्तकान्तरे धारणी इत्यपि पाठः।) धारिणीए देवीए अंतिए एयमढे सोचाणिसम्म धारिणीं देवि एवं वदासी-मा णं तुम देवाणुप्पिए ! ओलुग्गा० जाव झियायाहि, अहं णं तहा करिस्सामि जहा णं तुम्भं अय-मेयारूवस्स अकालदोहलस्स मणोरहसंपत्ती भविस्सइ त्ति कट्ट धारिणी देवी इट्ठाहिं कंताहिं पियाहिं मणुन्नाहिं मणामाहिं वग्गूहिं समासासेइ 2 त्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणामेव उवागच्छइ उवागच्छइत्ता सीहासणवरगते पुरत्थाभिमुहे सन्नि-सन्ने धारिणीए देवी एवं अकालदोहलं बहूहिं आएहि य उवाएहि य उप्पत्तियाहि य वेणइयाहि य कम्मियाहि य परिणामियाहि च चउविहाहिं बुद्धीहि अणुचिंतेमाणे 2 तस्स दोहलस्स आयं वा उवायं वा ठिई वा उत्पत्तिं वा अविदमाणे ओहयमणसंकप्पे० जाव झियायति / (सूत्र०-१४) तदाणंतरं अभए कुमारे पहाते कयवलिकम्मे० जाव सव्वालंकारविभूसिए पाए वंदते पहारेत्थ-गमणाए, तते णं से अभयकुमारे जेणेव सेणिए राया तेणेव उवागच्छइ उवागच्छइत्ता सेणियं रायं ओहयमणसंकप्पं०जाव पासइ 2 त्ता अयमेयारूवे अब्भत्थिए चिंतिए मणोगते संकप्पे समुप्पज्जित्थाअन्नया य ममं सेणिए राया एज्जमाणं पासति पासइत्ता आढाति परिजाणति सक्कारेइ सम्माणेइ आलवति संलवति अद्धासणेणं उवणिमंतेति मत्थयंसि अग्घाति, इयाणिं ममं सेणिए राया णो आढाति णो परियाणइ णो सक्कारेइ णो सम्माणेइ णो इट्ठाहिं कंताहिं पियाहिं मणुन्नाहिं ओरालाहिं वग्गूहिं आलवति संलवति नो अद्धासणेणं उवणिमंतेति णो मत्थयंसि अग्घाति य किं पि ओहयमणसंकप्पे झियायति, तं भवियध्वं णं एत्थ कारणेणं, तं सेयं खलु मे सेणियं रायं एयमट्ठ पुच्छित्तए,एवं संपेहेइ 2 त्ता जेणामेव सेणिए राया तेणामेव उवागच्छइ २त्ता करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टजएणं विजएणं वद्धावेइ वद्धावइत्ता एवं वयासी-तुब्भे णं ताओ ! अन्नया ममं एजमाणं पासित्ता आढाह परिजाणह० जाव मत्थयंसि अग्धायह आसणेणं उवणिमंतेह, इयाणिं ताओ! तुब्भे ममं णो आढाह, जाव नो आसणेणं उवणिमंतेह किं पिओहयमणसंकप्पाजाव झियायह तं भवियव्वं ताओ ! एत्थ कारणेणं,तओ तुब्भे ममताओ ! एयं कारणं अगूहेमाणा असंकेमाणा अनिण्हवेमाणा अप्पच्छाएमाणा जहाभूतमवित-हमसंदिद्धं एयमट्ठमाइक्खह, तते णं हं तस्स कारणस्स अंतगमणं गमिस्सामि, ततेणं से सेणिए राया अभएणं कुमारेणं एवं वुत्ते समाणे अभयकुमार एवं वदासी-एवं खलु पुत्ता! तव चुल्ल-माउयाए धारिणीए देवीए तस्स गब्भस्स दोसु मासेसु अइक तेसु तइयमाणे वट्टमाणे दोहलकालसमयंसि अयमेयारूवेदोहले पाउन्भवित्था-धन्नाओणं ताओ अम्मयाओ तहेव निरवसेसं भाणियव्वंजाव विणिंति, तते णं अहं पुत्ता! धारिणीए देवीए तस्स अकालदोहलस्स बहूहिं आएहि य उवाएहिं०जाव उप्पत्तिं अविंदमाणे ओहयमणसंकप्पे०जाव झियायामि, तुमं आगयं पि न याणामि, तं एतेणं कारणेणं अहं पुत्ता ! ओहय०जाव झियायामि, तते णं से अभयकुमारे सेणियस्स रनो अंतिए एयमढे सोचा णिसम्म हट्ठ०जाव हियए सेणियं रायं एवं वदासीमाणं तुम्भे ताओ! ओहयमणसंकप्पा० जाव झियायह, अहण्णं तहा करिस्सामि जहा णं मम चुल्लमाउयाए धारिणीए देवीए अयमेयारूवस्स अकालडोहलस्स मणोरहसं-पत्ती भविस्सइ त्ति कट्ट सेणियं रायं ताहिं इट्ठाहिं कंताहिंजाव समासासेइ, तते णं सेणिए राया अभयेणं कुमारेणं एवं वुत्ते समाणे हद्वतुट्टे०जाव अभयकुमारं सक्कारेति संमाणेति रत्ता पडिविसजेति। (सूत्र-१५) तते णं से अभयकुमारे सक्कारियसम्माणिए पडिविसजिए समाणे सेणियस्स रन्नो अंतियाओ पडिनिक्खमइ २त्ता जेणामेव सए भवणे तेणामेव उवागच्छति रत्तासीहासणे निसन्ने, तते णं तस्स अभयकुमारस्स अयमे-यारूवे अब्मथिएन्जाव समुप्पञ्जित्था, णो खलु सक्का माणुस्सएणं उवाएणं मम चुल्लमाउयाए धारिणीए देवीए अकालडोहलमणोरहसंपत्तिं करेत्तए णन्नत्थ दिवेणं उवाएणं, अत्थि णं मज्झ सोहम्मकप्पवासी पुष्वसंगतिए देवे महिड्डीएक जाव महासोक्खे, तं सेयं खलु मम पोसहसालाए पोसहियस्स बंभचारियस्स उम्मुक्कमणिसुवनस्स ववगयमालावन्नगविलेवणस्स निक्खित्तसत्थमुसलस्स एगस्स अबीयस्स दब्भसंथारोवगयस्स अट्ठमभत्तं परिगिण्हित्ता पुव्वसंगतियं देवं मणसि करेमाणस्स विहरित्तए, तते णं पुटवसंगतिए देवे मम चुल्लमा
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________________ मेहकुमार 365 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मेहकुमार उयाए धारिणीए देवीए अयमेयारूवे अकालमेहेसु डोहलं दसद्धवन्नाईसखिंखिणियाईपवरवत्थाइंपरिहिए एक्को ताव एसो विणेहिति, एवं संपेहेतिर त्ता जेणेव पोसहसाला तेणामेव गमो, अण्णोऽवि गमो-ताए उक्किट्ठाए तुरियाए चवलाए चंडाए उवागच्छति २त्ता पोसहसालं पमञ्जति २त्ता उच्चारपासवण- सीहाए उद्धयाए जतिणाए छेयाए दिवाए देवगतीए जेणमेव भूमि पडिलेहेइ २त्ता डब्मसंथारगं पडिलेहेइ २त्ता डब्भसंथा- जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे जेणामेव दाहिणद्धभरहे रायगिहे नगरे रगं दुरूहइ 2 त्ता अट्ठमभत्तं परिगिण्हइ 2 त्ता पोसहसालाए पोसहसालाए अभए कु मारे ते णामेव उवागच्छ इ२ त्ता पोसहिए बंभयारी०जाव पुव्वसंगतियं देवं मणसि करेमाणे 2 अंतरिक्खपडिवन्ने दसद्धवनाई सखिंखिणियाइं पवरवत्थाई चिट्ठइ, तते णं तस्स अभयकुमारस्स अट्ठमभत्ते परिणममाणे परिहिए अभयं कुमारं एवं वयासी-अहण्णं देवाणुप्पिया ! पुव्वसंगतिअस्स देवस्स आसणं चलति, तते णं पुव्वसंगतिए पुत्वसंगतिए सोहम्मकप्पवासी देवे महड्डिए जण्णं तुम सोहम्मकप्पवासी देवे आसणं चलियं पासति 2 त्ता ओहिं पोसहसालाए अट्ठमभत्तं परिगिण्हित्ता णं ममं मणसि करेमाणे पउजति, तते णं तस्स पुव्वसंगतियस्स देवस्स अयमेयारूवे चिट्ठसितं एसणं देवाणुप्पिया! अहं इह हव्वमागए,संदिसाहि अब्भत्थिए ०जाव समुप्पज्जित्था-एवं खलु मम पुव्वसंगतिए णं देवाणुप्पिया ! किं करेमि किं दलामि किं पयच्छामि किंवा जंबूदीवे दीवे मारहे वासे दाहिणड्डभरहे वासे रायगिहे नयरे ते हियइच्छितं? तते णं से अभए कुमारे तं पुव्वसंगतियं देवं पोसहसालाए पोसहिए अभए नाम कुमारे अट्ठमभत्तं परिगिण्हित्ता अंतलिक्खपडिवन्नं पासइ पासित्ता हट्टतुट्टे पोसहं पारेइ 2 त्ता णं मम मणसि करेमाणे 2 चिट्ठति, तं सेयं खलु मम अभयस्स करयल०अंजलि कट्ट एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! मम कुमारस्स अंतिएपाउन्भवित्तए, एवं संपेहेइ 2 ता उत्तरपुरच्छिमं चुट्ठमाउयाए धारिणीए देवीए अयमेयारूवे अकालडोहले दिसीमागं अवक्कमति 2 त्ता वेउव्दियसमुग्धाएणं समोहणति 2 पाउन्भूतेधन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ तहेव पुव्वगमेणंजाव विणिज्जामि, तण्णं तुमं देवाणुप्पिया ! मम चुल्लमाउयाए त्ता संखेज्जाई जोयणाई दंडं णिसिरति, तं जहा-रयणाणं 1 धारिणीए देवीए अयमेयारूवं अकालडोहलं विणेहि, तते णं से वइराणं 2 वेरुलियाणं 3 लोहियक्खाणं 5 मसारगल्लाणं 5 देवे अभएणं कुमारेणं एवं वुत्ते समाणे हद्वतुढे अभयकुमारं एवं हंसगम्भाणं 6 पुलगाणं 7 सोगंधियाणं जोइसाणं अंकाणं वदासी-तुमण्णं देहाणुप्पिया ! सुणिव्वुयविसत्थे अच्छाहि, 10 अंजणाणं 11 रयणाणं 12 जायसवाणं 13 अंजणपुलगाणं अहण्णं तव चुल्लामाउयाए धारिणीए देवीए अयमेयारूवं डोहलं 14 फलिहाणं 15 रिट्ठाणं 16, अहाबायरे पोग्गले परिसाडेइ विणेमीति कटु अभयस्स कुमारस्स अंतियाओ पडिणिक्खमति २त्ता अहासुहमे पोग्गले परिगिण्हइरत्ता अभयकुमारम २त्ता उत्तरपुरच्छिमे णं वेभारपव्वए वेउव्वियसमुग्घाएणं समोणुकंपमाणे देवे पुव्वभवजणियनेहपीइबहुमाणजायसोगे तओ हणति 2 त्ता संखेज्जाई जोयणाई दण्डं निस्सरति०जाव दोचं विमाणवरपुंडरियाओ रयणुत्तमाओ धरणियलगमणतुरित पि वेउव्वियसमुग्धाएणं समोहणति 2 ता खिप्पामेव सगजियं संजणितगमणप्पयारो वाघुण्णितविमलकणगपयरगवडिंस सविजुयं सफुसियं तं पंचवन्नमेहणिणाओवसीहियं दिव्व पाउगमउडुक्कडाडोवदंसणिज्जो अणेगमणिकणगरतणपहकरपरि ससिरिं विउव्वेइ २त्ता जेणेव अभए कुमारे तेणामेव उवागच्छह मंडितभत्तिचित्तविणिउत्तगमणगजणियहरिसे पंखोलमाणवर २त्ता अभयं कुमारं एवं वदासी-एवं खलु देवाणुप्पिया !मए ललितकुंडलुजलियवयणगुणजनितसोमरूवे उदितो विव तव पियट्ठयाए सगजिया सफुसिया सविजुया दिव्वा पाउससिरी कोमुदीनिसाए सणिच्छरंगारउज्जलियमज्झमागत्थे णयणाणंदो विउव्विया,तं विणेउणं देवाणुप्पिया! तव चुल्लमाउया धारिणी सरयचंदो दिव्वोसहिपज्जलुजलियदंसणाभिरामो उउलच्छि देवी अयमेयारूवं अकालडोहलं, तते णं से अभयकुमारे समत्तजायसोहे पइट्ठगंधुद्धयाभिरामो मेरुरिव नगवरो विगुट्वि तस्स पुथ्वसंगतियस्स देवस्स सोहम्मकप्पवासिस्स अंतिए यविचित्तवेसे दीवसमुद्दाणं असंखप-रिमाणनामधेज्जाणं मज्झं एयमढे सोचा णिसम्म हट्टतुटे सयातो भवणाओ पडिणिकारेणं वीइवयमाणो उज्जोयंतो पभाए विमलाते जीवलोगं क्खमति २त्ता जेणामेव सेणिए राया तेणामेव उवागच्छति रायगिहं पुरवरं च अभयस्स य तस्स पासं उवयाति दिव्वरूव- २त्ता करयल०अंजलिं कट्ट एवं वदासी-एवं खलु ताओ ! धारी। (सूत्र-१६) तते णं से देवे अंतलिक्खपडिवन्ने | मम पुथ्वसंगतिएणं सोहम्मकप्पवासिणा देवेणं खिप्पामेव स
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________________ मेहकुमार 366 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मेहकुमार गजिता सविज्जुता पंचपन्नमेहनिनाओवसोभिता दिव्वा पाउससिरी विउव्विया, तं विणेउणं मम चुल्लमाउया धारिणी देवी अकालदोहलं / तते णं से सेणिए राया अभयस्स कुमारस्स अंतिए एतमटुं सोचा णिसम्म हट्ठतुट्ठ० कोडुंबियपुरिसे सद्धावेति सद्दावेइत्ता एवं वदासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! रायगिहं नयरं सिंगाडगतियचउक्कचच्चर०आसित्तसित्त०जाव सुगंधवरगंधियं गंधवट्टिभूयं करेह य कारावेह य मम एतमाणित्तियं पञ्चप्पिणह, तते णं से कोडुबियपुरिसा०जाव पञ्चप्पिणंति, तते णं से सेणिए राया दोचं पि कोडु बियपुरिसे एवं वदासीखिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! हयगयरहजोहपवरकलितं चाउरंगिणी सेन्नं सन्नाह सेयणयं च गंधहत्थिं परिकप्पेह, ते वि तहेव०जाव पचप्पिणंति, तते णं से सेणिए राया जेणेव धारिणी देवी तेणामेव उवागच्छतिरत्ता धारिणीं देवीं एवं वदासी-एवं खलु देवाणुप्पिए! सगजिया०जाव पाउससिरी पाउन्भूता तण्णं तुमं देवाणुप्पिए! एवं अकालदोहलं विणेहि। तते णं सा धारणी देवी सेणिएणं रन्ना एवं वुत्ता समाणी हट्ठत ट्ठा जेणामेव मजणघरे तेणेव उवागच्छति 2 त्ता मजणघरं अणुपविसति 2 त्ता अंतो अंतेउरंसि पहाता कतबलिकम्मा कत-कोउयमंगलपायच्छित्ता किं ते वरपायपत्तणेउर०जाव आगा-सफालियसमप्पभं अंसुयं नियत्था सेयणयं गंधहत्थि दुरूढा समाणी अमयमहियफेणपुंजसण्णिगासाहिं सेयचामरबाल-वीयणीहिं वीइज्जमाणी 2 संपत्थिता, तते णं से सेणिए राया ण्हाए कयबलिकम्मे०जाव सस्सिरीए हत्थिखंधवरगए सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिजमाणेणं चउचामराहिं वीइजमाणेणं धारिणी देवी पिट्ठतो अणुगच्छति, तते णं सा धारिणी देवी सेणिएणं रम्ना हत्थिखंधवरगएणं पिट्ठतो पिट्ठतो समणुगम्म-माणमग्गा हयगयरहजोहकलियाए चाउरंगिणीए सेणाए सद्धिं संपरिवुडे महता भडचडगखंदपरिक्खित्ता सव्विड्डीए सव्वजुइए जावदुंदुमिनिग्घोसनादितरवेणं रायगिहे नगरे सिंगाडगति-गचउक्क चचर०जाव महापहेसु नागरजणेणं अभिनंदिज्जमाणारजेणामेव वेभारगिरिपव्वए तेणामेव उवागच्छति 2 त्तावे-भारगिरिकडगतडपायमूले आरामेसु य उजाणेसु य काणणेसु य वणेसु य वणसंडेसु य रुक्खेसु य गुच्छेसु य गुम्मेसु य लयासु य वल्लीसु य कंदरासु यदरीसुय चुण्डीसुय दहेसु य कच्छेसु य नदीसु य संगमेसु य विवरतेसु य अच्छमाणी य पेच्छमाणी य मजमाणी य पत्ताणि य पुप्फाणि य फलाणि य पल्लवाणिय गिण्हमाणी य माणेमाणीय अग्घायमाणीय परिभुंजमाणीय परिभाएमाणीय वेभारगिरिपाय- | मूले दोहलं विणेमाणी सव्वतो समंता आहिंडति, तते णं धारिणी देवी विणीतदोहला संपुग्नदोहला संपन्नदोहला जाया याऽवि होत्था, तते णं से धारिणी देवी सेयणयगंधहत्थिं दुरूढा समाणी सेणिएणं हत्थिखंधवरगएणं पिट्ठओ 2 सम्मणुगम्ममाणमग्गा हयगय जाव रहेणं जेणेव रायगिहे नगरे तेणेव उवागच्छति 2 त्ता रायगिहं नगरं मज्झं मज्झेणं जेणामेव सए भवणे तेणामेव उवागच्छति 2 त्ता विउलाई माणुस्साई भोगभोगाईन्जाव विहरति / (सूत्र-१७) तते णं से अभए कुमारे जेणामेव पोसहसाला तेणामेव उवागच्छइ 2 त्ता पुथ्वसंगतियं देवं सक्कारेइ सम्माणेइ २त्ता पडिविसज्जेति २त्ता तते णं से देवे सगजिय पंचवन्नं मेहोवसोहियं दिव्वं पाउससिरिं पडिसाहरति 2 त्ता जामेव दिसिं पाउन्भूए तामेव दिसिंपडिगते। (सूत्र-१८) तते णं सा धारिणी देवी तंसि अकालदोहलंसि विणीयंसि सम्माणियडोहला तस्स गब्भस्स अणुकंपणट्ठाए जयं चिट्ठति जयं आसयति जयं सुवति आहारं पि य णं आहारेमाणी णाइतित्तं णातिकडुयं णातिअंबिलंणातिमहुरंजं तस्स गन्भस्स हियं मियं पत्थयं देसे य काले य आहारं आहारेमाणी णाइचिंतं णाइसोगं णाइदेण्णं णाइमोहंणाइमयंणाइपरित्तासं भोयणच्छायणगंधमल्लालंकारेहिं गडभं तं सुहं सुहेणं परिवहति / (सूत्र-१९) 'तए ण' मित्यादि, अविणिजमाणंसि' त्ति दोहदे अविनीयमानेअनपनीयमाने सति असंप्राप्तदोहदा मेघादीनामजातत्वात्-असंपूर्णदोहदा तेषामजातत्वेनैवासंपूर्णत्वात् अत एव असन्मानितदोहदा तेषामननुभवनादिति,ततः शुष्का मनस्तापेन शोणितशोषात्, 'भुक्ख' त्ति बुभुक्षाक्रान्तेव अत एव निर्मासा 'ओलुग्ग' ति अवरुग्णाजीणेव, कथमित्याह- 'ओलुग्गं' ति अवरुग्णमिव-जीर्णमिव शरीरं यस्याः सा तथा, अथवा अवरुग्णा चेतसा अवरुग्णशरीरा तथैव प्रमलितदुर्यलास्नानभोजनत्यागात् क्लान्ताग्लानीभूता ओमंथिय' त्ति अधोमुखीकृतं वदनं च नयनकमले च यया सा तथा, पाण्डुकितमुखीदीनान्येय विवर्ण वदनं यस्याः सा तथा, क्रीडाजलक्रीडादिका रमणमक्षादिभिः तक्रियां च परिहापयन्ती दीना दुःस्था दुःस्थं मनो यस्याः सा तथा,यतो निरानन्दा उपहतो मनसः संकल्पः-युक्तायुक्तविवेचनं यस्याः सा तथा, यावत्करणात्, 'करतलपल्हत्थमुही अट्टज्झा-गोवगया झियायइ' त्ति आर्त्तध्यानं ध्यायतीति, नो आढाइ'त्ति नाद्रियते-नादरं करोति नो परिजानाति-न प्रत्यभिजानाति विचित्तत्वात्, 'संभताउ' ति आकुलीभूताः शीघ्रमित्यादीनि चत्वार्यकार्थिकानि अतिसंभ्रमोपदर्शनार्थं जेणेवे' त्यादि, यत्र धारिणी देवी तत्रोपागच्छति समागत्य चावरुग्णादिविशेषणां धारणी देवी पश्यति, वाचनान्तरेतु-'जेणेवधारणी देवी तेणेव' इत्यतः पहारे
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________________ मेहकुमार 397 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मेहकुमार - त्थगमणाए' इत्येतद्-दृश्यते, तत्र ‘पहारेत्थ' संप्रधारितवान्- शरीरबाहल्यो जीवप्रदेशकर्मपुद्गलसमूहः, तत्रच विविधपुद्गलानादरो इति विकल्पितवानित्यर्थः गमनाय-गमनार्थ-तथा 'तए णं से सेणिए राया दर्शयन्नाह-तद्यथा-रत्नानां कर्केतनादीनां संबन्धिनः 1 तथा वैराणां 2 जेणेव धारणी देवी तेणेव उवागच्छति र त्तापासइ त्ति' पश्यति सामान्येन वैडूर्याणां 3 लोहिताक्षाणां 4 मसारगल्लाणां 5 हंसगर्भाणां 6 पुलकानां ततोऽवरुग्णादिविशेषणां पश्यतीति, 'दोचं पि'त्ति द्वितीयामपि वारामिति 7 सौगन्धिकानां 8 ज्योतीरसानाम् 6 अङ्कानाम् 10 अञ्जनानां 11 गम्यते, 'सवहसाविय' त्ति शपथान्-देवगुरुद्रोहिका भविष्यसि त्वं यदि रजताना 12 जातरूपाणाम् 13 अञ्जनपुलकानां 14 स्फटिकानां 15 विकल्पं नाख्यासीत्यादिकान् वाक्यविशेषान् श्राविता श्रोत्रेणोपलम्भिता रिष्टानां 16, किमत आह-यथा बादरान् असारान्यथा सूक्ष्मान्-सारान् शपथैर्वा श्राविता शपथ-श्राविता शपथशापिता वा तां करोति, 'किण्ह' ततो वैक्रियं करोति, 'अभयकुमारमणुकंपमाणे' त्ति अनुकम्पयन् हा 'किण्ण' मिति वा पाठो देवानुप्रिये ! एतस्यार्थस्यानर्हः श्रावणतायां तस्याष्टमोपवासरूपं कष्टं वर्तते इति विकल्पयन्नित्यर्थः, पूर्वभवे'मणोमाणसिय' ति मनसि जातं मानसिक मनस्येव वद्वर्तते मानसिकं पूर्वजन्मनि जनिता-जाता या स्नेहात्प्रीतिः-प्रियत्वं न कार्यवशादिदुःखं वचने-नाप्रकाशितत्वान्मनोमानसिक रहस्यीकरोषि गोपयसी- त्यर्थः बहुमानश्वगुणानुरागस्ताभ्यां सकाशात् जातः शोकः-चित्तखेदो त्यर्थः 'तिण्ह' मित्यादि त्रिषु मासेषु 'बहुपडिपुन्ना णं' ति ईषदूनेषु विरहसद्भावेन यस्य स पूर्वजनितस्नेहप्रीतिबहुमानजातशोकः, वाचना'जत्तिहामि' त्ति यतिष्ये क्वचित्करिष्यामि-इति पाठः, 'अयमेया न्तरे-- 'पूर्वभवजनितस्नेहप्रीतिबहुमानजनितशोभस्तत्र शोभा-पुलरूवस्स' त्ति अस्यैवरूपस्य'मणोरहसंपत्ति' ति मनोरथप्रधाना प्राप्तिर्यथा कादिरूपा, तस्मात्स्वकीयात् विमानवरपुण्डरीकात् पुण्डरीकता च विमानानां मध्ये उत्तमत्वात् 'रयणुत्तमाउ' ति रत्नोत्तमाद् रचनोत्तमाना विचिन्तितेत्यर्थः, आयैः-लाभैरीप्सितार्थहेतुनामुपायैः-अप्रतिहतलाभकारणैः आयं वा उवायं वा ठियं वा'-स्थितं वा क्रमं वा स्थिरहेतु 'धरणीतलगमनाय' भूतलप्राप्तये त्वरितः शीघ्रं संजनितः उत्पादितो गमनप्रचारो-- गतिक्रियावृत्तिर्येन सतथा वाचनान्तरे- 'धरणीतलगमनदोहदानां वेप्सितार्थस्य पाठान्तरे उत्पत्तिं वा तस्यैवेत्यर्थः, अविंदमाणे' त्ति अलभमानः 'अयमेयारूवे' त्ति अयमेतद्रूपः आध्यात्मिकः आत्माश्रयः संजनितमनःप्रचारः' इति प्रतीतमेव, व्याघूर्णितानिदोलायमानानि यानि विमलानि कनकस्य प्रतरकाणि च -प्रतरवृत्तरूपाणि आभरणानि च चिन्तितः-स्मरणरूपः प्रार्थितो-लब्धुमाशंसितः मनोगतः-अबहिः कर्णपूरे मुकुटं च मौलिः तेषामुत्कटो य आटोपः-स्फारता तेन दर्शनीयःप्रकाशितः संकल्पो-विकल्पः 'संपेहेति' त्ति संप्रेक्षते पर्यालोचयति आदेयदर्शनो यः स तथा, तथा अनेकेषां मणिकनकरत्नानां पहकर' 'ताओ' त्ति हे तातेत्यामन्त्रणम् 'एयं कारणं' ति अपध्यानहेतुं दोहदा त्ति निकरस्तेन परिमण्डितो-भक्तिभिश्चित्रो विनियुक्तकः-कट्यां पूर्तिलक्षणमितिभावः, कारणमिति क्वचिन्नाधीयत इति, एवं 'अगृहमाणे' निवेशितो 'मणु' त्ति मकारस्य प्राकृतशैली-प्रभवत्वात् योऽनुरूपो गुणःत्ति अगोपायन्तः आकारसंवरेण अशङ्कमागाः-विवक्षितप्राप्तौ संदेहम कटिसूत्रं तेन जनितो हर्षो यस्य स तथा प्रेजोलमानाभ्यांदोलायमाविदधतः अनिढुवाना अनपलपन्तः, किमुक्तं भवति? अप्रच्छा-दयन्तः नाभ्यां वरललितकुण्डलाभ्यां यदुज्ज्वलितम् उज्ज्वलीकृतं वदनं-मुखं यथाभूतं-यथावृत्तम् अवितथं नत्वन्यथाभूतम् असंदिग्धम्-असंदेहम् तस्य यो गुण:-कान्ति-लक्षणः तेन जनितं सौम्यं रूपं यस्य स तथा, 'एयभट्ठ' ति प्रयोजनं दोहदपूरणलक्षणमिति भावः 'अंतगमणं गाम वाचनान्तरे पुनरेवं विशेषणत्रयं दृश्यते-"वाघुन्नियविमलकणगपयरस्सामि' त्ति पारगमनं गमिष्यामीति, 'चुल्लमाउयाए' ति लघुमातुः गवडेंसगपकंपमाणचललोलललियपरिलंबमाणनरमगरतुरगमुहसय'पुव्वसंगइय' त्ति पूर्व-पूर्वकाले संगतिः-मित्रत्वं येन सह सपूर्वसंगतिकः विणिग्गउग्गिन्नपवरमोत्तियविरायमाणमउडुक्कडाडोवदरिसणिज्जे' तत्र महर्द्धिको विमानपरिवारादिसंपदुपेतत्वाद्यावत्करणादिदं दृश्यम् व्याघूर्णितानिचञ्चलानि विमलकनकप्रतरकाणि च अवतंसके च प्रकम्पमहाद्युतिकः-शरीराभरणादिदीप्तियोगान्महानुभागोवैक्रियादिकरण माने चललोलानि अतिचपलानि ललितानि-शोभावन्ति परिलम्बमाशक्तियुक्तत्वात् महायशाः सत्कीर्त्तियोगान्महाबलः-पर्वताद्युत्पाटनसा नानि प्रलम्बमानानि नरमकरतुरगमुखशतेभ्यो-मुकुटाग्रविनिर्मिततन्मुमोपेतत्वात, महासौख्यो विशिष्टसुखयोगादिति 'पोसहसालाए' त्ति खाकृतिशतेभ्यो विनिर्गतानि-निःसृतानि उदीर्णानीव-वान्तानीवोद्गीपौषधं पर्वदिनानुष्ठानमुपवासादि तस्य शाला-गृहविशेषः पौषध-शाला नियानिप्रवरमौक्तिकानिवरमुक्ताफलानितैर्विराजमानंशोभमानंयन्मुकुट तस्यां पौषधिकस्य-कृतोपवासादेः व्यपगतमालावर्णक-विलेपनस्य, तचेति द्वन्द्वः तेषां य उत्कट आटोपस्तेन दर्शनीयो यः स तथा, तथा वर्णकं-चन्दनं, तथा निक्षिप्तं-विमुक्तं शस्त्रं-क्षुरिकादि मुशलं च येन स 'अनेगमणिकणगरयणपहकरपरिमंडियभागभत्तिचित्तविणिउत्तगमणगुणतथा तस्य एकस्य आन्तरव्यक्तरागादि-सहायवियोगात्, अद्वितीयस्य जणियखोलमाणवरललितकुंडलुजलियअहियआभरणजणियसोभे' तथाविधपदात्यादिसहायविरहात्, अट्ठमभत्त' ति समयभाषयोपवास- अनेकमणिकनकरत्ननिकरपरिमण्डितभागे भक्तिचित्रेविच्छित्तिविचित्रे त्रयमुच्यते 'अहमभत्ते परिण-ममाणे' त्ति पूर्यमाणे परिपूर्णप्राय इत्यर्थः विनियुक्तेकर्णयोर्निवेशिते गमनगुणेनगतिसामर्थ्येन जनितेकृते प्रेड्खोल'वेउव्वियसमुग्धाएण' मित्यादि, वैक्रियसमुद्घातो वैक्रियकरणार्थो मानेचञ्चले ये बरललितकुण्डले ताभ्यामुज्ज्वलितेन उद्दीपनेनाधिकाभ्याजीवव्यापारविशेषः, तेन समुपहन्यते-समुपहतो भवति समुपहन्ति वा माभरणाभ्यामुज्ज्वलिताधिकैर्वाऽऽभरणैश्चकुण्डलव्यतिरिक्तैर्जनिता शोभा क्षिपति प्रदेशा-निति गम्यते, व्यापारविशेषपरिणतो भवतीति भावः, यस्य स तथा, तथा "गयजलमलविमलदसणविरायमाणरूवे' गतज ह-'संखेजाई' इत्यादि,दण्ड इव दण्डः-ऊोध आयतः | लमलंविगतमालिन्यं विमलंदर्शनम् आकारोयस्य स तथा, अतएव विराज
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________________ मेहकुमार ३९८-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मेहकुमार मानं रूपं यस्य स तथा ततः कर्मधारयः, अयमेवोपमीयतेउदित इव कौमुदीनिशायां-कार्तिकपौर्णिमास्यां शनैश्चराङ्गारकयोःप्रतीतयोरुज्ज्वलितः-दीप्यमानः सन् यो मध्यभागे तिष्ठति स तथा नयनानन्दोलोचनाहादकः शरश्चन्द्र इति, शनैश्चराङ्गारकवत्कुण्डले चन्द्रवच तस्य रूपमिति, तथाऽयमेव मेरुणोपमीयते-दिव्यौषधीनां प्रज्वलनेनेव मुकुटादितेजसा उज्ज्वलितं यद्दर्शनरूपं तेनाभिरामोरम्यो यः स तथा, ऋतुलक्ष्म्येव-सर्वर्तुककुसुमसंपदा समस्ता-सर्वा समस्तस्य वा जाता शोभा यस्य स तथा, प्रकृष्टेन गन्धेनोद्भूतेन उद्गतेनाभिरामो यः स तथा मेरुरिव नगवर इव विकुर्वितविचित्रवेषः सन्नसौ वर्तते इति,'दीवसमुद्दाणं' ति द्वीपसमुद्राणाम् 'असंखपरिमाणनामधेज्जाणं' ति असंख्यं परिमाणं नामधेयानिच येषां तेतथा तेषां मध्यकारेण-मध्यभागेन वीइवयमाणे' त्तिव्यतिव्रजन् गच्छन् उद्योतयन् विमलया प्रभया जीवलोकम् 'ओपयइ' त्ति अवपतति, अवतरति,अन्तरिक्षप्रतिपन्नः-आकाशस्थः दशार्द्धव नि सकिङ्किणिकानि-क्षुद्रघण्टिकोपेतानि एकस्तावदेष गमः पाठः, अन्योऽपि-द्वितीयो गमो-वाचनाविशेषः पुस्तकान्तरेषु दृश्यते, 'ताए' तया उत्कृष्टया गत्या त्वरितया-आकुलया न स्वाभाविक्या आन्तराकूततोऽप्येषा भवत्यत आह-चपलयाकायतोऽपि चण्डया-रौद्रयाऽत्युत्कर्षयोगेन सिंहया-तघायस्थैर्येण उद्धतया-दतिशयेन जयिन्याविपक्षजेतृत्वेन छेकया-निपुणया दिव्यया-देवगत्या, अयं च द्वितीयो गमो जीवा-भिगमसूत्रवृत्त्यनुसारेण लिखितः, किं करेमि' त्ति किमहं करोमि भवदभिप्रेतं कार्य किं वा 'दलयामि' त्ति तुभ्यं ददामि, किंवा प्रयच्छामि भवत्संगतायान्यस्मै, किंवा ते हृदयेप्सितं-मनोवाञ्छितं वर्तत इति प्रश्नः, 'सुनिव्व्यवीसत्थे' ति सुष्टु निर्वृतः स्वस्थात्मा विश्वस्तोविश्वासवान् निरुत्सुको वायः सतथा, 'तातो' ति हे तात! 'परिकप्पेह' त्ति सन्नाहवन्तं कुरुत अंतो अंतेउरंसि' त्ति अन्तरन्तः पुरस्य "महया भडचडगरवंदपरिक्खित्त'' ति महाभटानां यचटकरप्रधानंविच्छईप्रधानं वृन्दं तेन संपरिक्षिप्ता, वैभारगिरेः कटतटानितदेकदेशतटानि | पादाश्च-तदासन्नलघुपर्वतास्तेषां यन्मूलं तत्र, तथा आरामेषु च आरमन्ति येषु माधवीलतागृहादिषु दम्पत्यादीनि ते आरामास्तेषु पुष्पादिमवृक्षसंकुलानि उत्सवादौ बहुजनभोग्यानि उद्यानानि तेषु च तथा सामान्यवृक्षवृन्दयुक्तानि नगरासन्नानि काननानि तेषु च नगरविप्रकृष्टानि वनानि तेषु चतथा वनखण्डेषु च–एकजातीयवृक्षसमूहेषु वृक्षेषु चैकैकेषु गुच्छेषुच वृन्ताकीप्रभृतिषु गुल्मेषु च-वंशजालीप्रभृतिषुलतासु च सहकारलतादिषु वल्लीषु च नागवल्ल्यादिषु च कन्दरासु-च गुहासु दरीषु-च शृगालाद्युत्कीर्णभूमिविशेषेषु 'चुंढीसुय' नि अखाताल्पोदकाविदरिकासु यूथेषु च वानरादिसम्बन्धिषु, पाठान्तरेण-हृदेषु च कक्षेषु च गहनेषु च | सरित्सु संगमेषु च-नदीमीलकेषु च विदरेषु च जलस्थानविशेषेषु 'अच्छमाणी य' त्ति तिष्ठन्ती प्रेक्षमाणा च पश्यन्ती दृश्यवस्तूनि मज्जन्ती च स्नान्ती 'पल्लवाणि य' ति पल्लवान् किशलयानि 'माणेमाणी य' त्ति मानयन्ती स्पर्श-नद्वारेण 'विणेमाण' त्ति दोहलं विनयन्ती 'तंसि अकालदोहलंसि विणीयंसि' त्ति अकालमेघदोहदे विनीते सति सम्मानितदोहदा पूर्णदोहदेत्यर्थः 'जय चिट्ठइ' त्ति यतनया यथा गर्भबाधा न भवति तथा तिष्ठति ऊर्द्धस्थानेन 'आसयइति आस्ते आश्रयति वा आसनं स्वपिति चेति हितंमेधायुरादिवृद्धिकारणत्वान्मितमिन्द्रियानुकूलत्वात् पथ्यमरोगकारणत्वात् 'नाइचिंतं' ति अतीव चिन्ता यस्मिंस्तदतिचिन्तं तथा यथा न भवतीत्येवं गर्भ परिवहतीति सम्बन्धः, नातिशोकं नातिदैन्यं नातिमोहं-नातिकामासक्तिं नातिभयमेतदेवं संग्रहवचनेनाह-'व्यपगते' त्यादि, तत्र भयम्-भीतिमात्रं परित्रासोऽकस्मात्, ऋतुषु यथायथं भज्यमानाः सुखा येते ऋतुभज्यमानसुखाः तैः। तते णं सा धारिणी देवी नवण्हं मासाणं बहुपडिपुन्नाणं अद्धट्ठमाणरातिंदियाणं वीतिकंताणं अद्धरत्तकालसमयंसि सुकुमालपाणिपादं०जाव सव्वंगसुंदरंगं दारगं पयाया।तएणं ताओ अंगपडियारिआओ धारिणीं देवीं नवण्हं मासाणं०जाव दारगं पयायं पासन्ति २त्ता सिग्धं तुरियं चवलं वेतियं जेणेव सेणि-ए राया तेणेव उवागच्छंति 2 त्ता सेणियं रायं जएणं विजएणं वद्धावेंति 2 त्ता करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्ठ एवं वदासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! धारिणी देवी णवण्हं मासाणं०जाव दारगं पयाया, तण्णं अम्हे देवाणुप्पियाणं पियं णिवेदेमो पियं भेभवउ, तते णं से सेणिए राया तासिं अंगपडियारियाणं अंतिए एयमढे सोचा णिसम्म हट्ठतुट्ठ०ताओ अंगपडियारियाओ महुरेहिं वयणेहिं विपुलेण य पुप्फगंधमल्लालंकारेण सक्कारेति सम्माणेति 2 त्ता मत्थयधो-याओ करेतिपुत्ताणुपुत्तियं वित्तिं कप्पेति २त्ता पडिविसज्जेति। ततेणं से सेणिए राया कोडुं वियपुरिसे सहावेति 2 त्ता एवं वदासीखिप्पामेव मो देवाणुप्पिया ! रायगिहं नगरं आसि य जाव परिगयं करेह २त्ता चारगपरिसोहणं करेह 2 त्ता माणुम्माणबद्धणं करेह 2 त्ता एतमाणत्तियं पचप्पिणह०जाव पचप्पिणंति। ततेणंसे सेणिएराया अट्ठारससेणिप्पसेणीओ सद्दावेति 2 त्ता एवं वदासी-गच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया ! रायगिहे नगरे अभिंतरवाहिरिए उस्सुक्कं उक्करं अभडप्पवेसं अदंडिमकुदंडिमं अधरिमं अधारणिशं अणुद्धयमुइंगं अमिला-यमल्लदामं गणियावरणाडइजकलियं अणेगतालायराणुचरितं पमुइयपक्कीलियाभिरामं जहारिहं ठिइवडियं दसदिवसियं करेह 2 त्ता एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह ते वि करेंति 2 त्ता तहेव पञ्चप्पिणंति, तए णंसेसेणिएराया बाहिरियाएउवट्ठाणसालाएसीहासणवरगए पुरत्थाभिमुहे सन्निसन्ने सइएहि य साहस्सिएहि य सयसाहस्सिएहि य
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________________ मेहकुमार 396 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मेहकुमार जाएहिं दाएहिं भागेहिं दलयमाणे 2 पडिच्छेमाणे 2 एवं च णं विहरति, तते णं तस्स अस्मापियरो पढमे दिवसे जातकम्म करेंति 2 त्ता बितिए दिवसे जागरियं करेति २त्ता ततिए दिवसे चंदसूरदसणियं करेंति 2 त्ता एवामेव निव्वत्ते सुइजातकम्मकरणे संपत्ते बारसाहदिवसे विपुलं असणं पाणं खातिमं सातिमं उवक्खडावेंति २त्ता मित्तणातिणियगसयणसंबंधिपरिजणं बलं च बहवे गणणायगदंडणायग ०जाव आमन्तेति, ततो पच्छा हाता कयबलिकम्मा कयकोउय०जाव सव्वालंकारविभूसिया महति महालयंसि भोयणमंडवंसि तं विपुलं असणं पाणं खाइम सातिमं मित्तनातिगणणायग जाव सद्धिं आसाएमाणा विसाएमाणा परिभाएमाणा परिभुजेमाणा एवं च णं विहरति, जिमितभुत्तुत्तरागताऽविय णं समाणा आयंता चोक्खा परम-सुइभूया तं मित्तनातिनियगसयणसंबंधिपरिजणगणणायग० जाव विपुलेणं पुप्फवत्थगंधमल्लालंकारेणं सक्कारेति सम्भाणेति 2 त्ता एवं वदासी-जम्हा णं अम्हं इमस्स दारगस्स गब्भत्थस्स चेव समाणस्स अकालमेहेसु डोहले पाउन्भूते तं होउणं अम्हं दारए मेहे नामेणं मेहकुमारे तस्सदारगस्स अम्मापियरो अयमेयारूवं गोण्णं गुणनिप्फन्नं नामधेज करेंति, तएणं से मेहकुमारे पंचधातीपरिग्गहिए, तं जहा-खीरधातीए मंडणधातीए मजणधातीए कीलावणधातीए अंकधातीए अन्नाहि य बहूहिं खुजाहिं चिलाइयाहिं वामणिवडभिबब्बरिवउसिजोणियपल्हवियइसिणियधोरुगिणिलासियललउसियद्दविलिसिंहलिआरविपुलिंदिपकणिबहलिमुरुंडिसबरिपारसीहिं णाणादेसीहिं विदेसपरिमंडियाहिं इंगितचिंतियपत्थियवियाणियाहिं सदेसणेवत्थगहितवेसाहिं निउणकुसलाहिं विणीयाहिं चेडियाचकवालवरिसधरकंचुइअमहयरगवंदपरिक्खित्ते हत्थाओ हत्थं संहरिजमाणे अंकाओ अंकं परिभुञ्जमाणे परिगिञ्जमाणे चालिज्जमाणे उवलालिजमाणे रम्मंसि मणिकोट्टिमतलंसि परिमिजमाणे 2 णिव्वायणिव्वाधायंसि गिरिकंदरमल्लीणेव चंपगपायवे सुहं सुहेणं वड्डइ, तते णं तस्स मेहस्स कुमारस्स अम्मापियरो आणुपुव्वेणं नामकरणं च पजेमणं च एवं चंकम्मणगं च चोलोवणयं च महया महया इड्डीसक्कारसमुदएणं करिंसु। तते णं तं मेहकुमारं अम्मापियरो सातिरेगट्ठवासजातगं चेव गब्मट्ठमे वासे सोहणंसि तिहिकरणमुहुत्तंसि कलायरियस्स उवणे ति, तते णं से कलायरिए मेहं कुमारं लेहाइयाओ गणितप्पहाणाओ सउणरुत पज्जवसाणाओ बावत्तरि कलाओ सुत्तओ य अत्थओ य करणओ य सेहावेति सिक्खावेति, तं जहा-लेहं गणियं रूवं नटुं गीयं वाइयं सरगयं पोक्खरगयं समतालं जूयं 10 जणवायं पासयं अट्ठावयं पोरकचं दगमट्टियं अन्नविहिं पाणविहिं वत्थविहिं विलेबणविहिं सयणविहिं 20 अजं पहेलियं मागहियं गाहंगीइयं सिलोयं हिरण्णजुत्तिं चुन्नजुत्तिं सुवण्णजुत्तिं आभरणविहिं 30 तरुणीपडिकम्मं इत्थिलक्खणं पुरिसलक्खणं हयलक्खणं गयलक्खणं गोणलक्खणं कुक्कुलक्खणं छत्तलक्खणं डंडलक्खणं असिलक्खणं 40 मणिलक्खणं कागणिलक्खणं वत्थुविजं खंधारमाणं णगरमाणं वूह परिहं चारं परिचारं चक्कवूह 50 गरुलवूहं सगडवूहं जुद्धं निजुद्धं जुद्धातिजुद्धं अच्छिजुद्धं मुट्ठिजुद्धं वाहुजुद्धं गयाजुद्धं ईसत्थं 60 छरुप्पवायं धणुव्वेयं हिरन्नपागं सुवन्नपागं सुत्तसेडं वट्टनालियाखेडं पत्तच्छेज्जं कडच्छेजं सज्जीवं 70 निजीवं 71 सउणरुयमिति७२। (सूत्र२०) तते णं से कलायरिए मेहं कुमारं लेहादियाओ गणियप्पहाणाओ सउणरुयपज्जव-साणाओबाघत्तरि कलाओ सुत्तओय अत्थओ य करणओ य सिहावेति सिक्खावेइ सिहावेत्ता सिक्खावेत्ता अम्मापिऊणं उवणेति, तते णं मेहस्स कुमारस्स अम्मापितरो तं कलायरियं मधुरेहिं वयणे हिं विपुलेणं वत्थगंधमल्लालंकारेणं सक्कारेंति सम्माणेति 2 ता विपुलं जीवियारिहं पीइदाणं दलयंति 2 ता पडिविसर्जेति / (सूत्र२१) तते णं से मेहे कुमारे वावत्तरिकलापंडिए णवंगसुत्तपडिबोहिए अट्ठारसविहिप्पगारदेसीभासाविसारए गीइरइगंधव्वनट्टकुसले हयजोही गयजोही रहजोही बाहुजोही बाहुप्पमद्दी अलं भोगसमत्थे साहस्सिए वियालचारी जाते यावि होत्था, तते णं से तस्स मेहकुमारस्स अम्मापियरो मेहं कुमारं वावत्तरिकलापण्डितंजाव वियालचारीजायं पासंति २त्ता अट्ठपासायवडिंसए करेंति अब्भुग्गयमूसियपहसिए विव, मणिकणगरयणभत्तिचित्ते वाउद्भूतविजयवेजयंतीपडागाछत्ताइच्छत्तकलिए तुंगे गगणतलमभिलंघमाणसिहरे जालंतररयणपंजरुम्मिलिय व्व मणिकणगथूमियाए वियसितसयपत्तपुंडरीए तिलयरयणद्धयचंदच्चिए नानामणिमयदामालंकिते अंतो बहिं च सण्हे तवणिज्जरुइलवालुयापत्थरे सुहफासे सस्सिरीयरूवे पासादीए०जाव पडिरूवे एणंच णं महं भवणं करेंति, अणेगखंभसयसन्निविट्ठ लीलट्ठियसालभंजियागं अब्भुग्गयसुकयवइरवेतियातोरणवररइयसालभंजियासुसिलिट्ठविसिट्ठलट्ठसंठितपसत्थवेरुलिय
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________________ मेहकुमार 400- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मेहकुमार खंभनाणामणिकणगरयणखचितउज्जलं बहुसमसुविभत्तनिचियरभणिज्जभूमिभागं ईहामिय०जाव भत्तिचित्तं खमुग्गयवइरवेइयापरिगयाभिरामं, विजाहरजमलजुयलजुत्तं पिव अचीसहस्समालणीयं रूवगसहस्सकलियं मिसमाणं मिब्भिसमाणं चक्खुल्लोयणलेसं सुहफासं सस्सिरीयरूवं कंचणमणिरयणथूमियागं नाणाविहपंचवन्नघंटापडागपरिमंडियग्गसिरं धवलमरीचिकवयं विणिम्मुयंतं लाउल्लोइयमहियं०जाव गंधवट्टिभूयं पासादीयं दरिसणिज्ज अभिरूवं पडिरूवं / (सूत्र-२२) तते णं तस्स मेहकुमारस्स अम्मापियरो मेहं कुमार सोहणंसि तिहिकरणनक्खत्तमुहुत्तंसि सरिसियाणं सरिसवयाणं (सरिसव्वयाणं) सरिसलावन्नरूवजोव्वणगुणोववेयाणं सरिसरहिंतो रायकुलेहिंतो आणिअल्लियाणं पसाहणटुंगअ-विहवबहुओवयणमंगलसुजंपियाहिं अट्ठहिं रायवरकण्णाहिं सद्धिं एगदिवसेणं पाणिं गिण्हाविंसु / तते णं तस्स मेहस्स अम्मापितरो इम एतारूवं पीतिदाणं दलयइ अह हिरण्णकोडीओ अट्ठ सुवण्णकोडीओ गाहाणुसारेण भावियव्वं०जावपेसणकारियाओ, अनं च विपुलं धणकणगरयणमणिमोत्तियसंखसिलप्पवालरत्तरयणसंतसारसावतेज्जं अलाहि जाव आसत्तमाओ कुलवंसाओ पकामं दाउं पकामं भोत्तुं पकामं परिभाएउं, तते णं से मेहे कुमारे एगमेगाए भारियाए एगमेगं हिरण्णकोडिं दलयति, एगमेगं सुवन्नकोडिं दलयतिजाव एगमेगं पेसणकारिं दलयति, अन्नं च विपुलं घणकणग०जाव परिभाएउं दलयति , तते णं से मेहकुमारे उप्पिं पासा (य) तवरगते फुट्टमाणेहिं मुइंगमत्थएहिं वरतरुणिसंपउत्तेहिं वत्ती-सइबद्धएहिं नाडएहिं उवगिज्जमाणे२ उवलालिज्जमाणे 2 सद्दफरिसरसरूवगंधविउले माणुस्सए कामभोगे पचणुब्भवमाणे विहरति / (सूत्र-२३) तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे पुटवाणुपुट्विं चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे सुहं सुहेणं विहरमाणे जेणामेव रायगिहे नगरे गुणसिलए चेतिए०जाव विहरति, तते णं से रायगिहे नगरे सिंघाडग०महया बहुजण-सद्देति, वा जाव०बहवे उग्गाभोगा० जाव रायगिहस्स नगरस्स मज्झं मज्झेणं एणदिसिं एगाभिमुहा निग्गच्छंति, इमं च णं मेहे कुमारे उप्पिं पासा (य) तवरगते फुट्टभाणेहिं मुयंगमत्थरहिं० जाव माणुस्सए कामभोगे भुंजमाणे रायमग्गं च ओलोयमाणे 2 एवं च णं विहरति / तए णं से मेहे कुमारे ते बहवे उग्गे भोगे०जाव एगदिसाभिमुहे निग्गच्छमाणे पासति पासित्ता कंचुइज्जपुरिसं सहावेति २त्ता एवं वदासी-किं णं भो देवाणुप्पिया! अज्ज रायगिहे नगरे इंदमहेति वा खंदमहेति वा एवं रुद्दसिववेसमणनागजक्खभूयनईतलायरुक्खचेतियप- व्वयउजाणगिरिजत्ताइ वा जओ णं बहवे उग्गा भोगाजाव एगदिसिं एगाभिमुहा णिग्गच्छंति, तते णं से कंचुइज्जपुरिसे समणस्स भगवओ महावीरस्स गहिया गमणपवत्तीए मेहं कुमारं एवं वदासी-नोखलु देवाणुप्पिया! अजरायगिहे नयरे इंदमहेति वाजाव गिरि-जत्ताओ वा, जंणं एए उग्गा जाव एगदिसिं एगाभिमुहा निग्गच्छन्ति एवं खलु देवाणुप्पिया ! समणे भगवं महावीरे आइकरे तित्थकरे इहमागते इह संपत्ते इह समोसढे इह चेव रायगिहे नगरे गुणसिलए चेइए अहापडिजाव विहरति। (सूत्र-२४) 'मत्थयधोयाओ त्ति-धौतमस्तकाः करोति अपनीतदासत्था इत्यर्थः पौत्रानुपुत्रिका पुत्रपौत्रादियोग्यामित्यर्थः, वृत्तिजीविकां कल्पयतीति / 'रायगिह नगरं आसिय' इह यावत्करणादेवं दृश्यम्-'आसियसंमजिओवलित्तं' आसिक्तमुदकच्छण्टेन संमार्जितं कचवरशोधनेन उपलिप्त गोमयादिना, केषु? 'सिंघाडगतिगचउक्कच-चरचउम्मुहमहापहपहेसु' तथा-सित्तसुइयसंमट्ठरत्यंतरावणवीहियं सिक्तानिजलेनातएव शुचीनिपवित्राणि संमृष्टानि कचवरापनय-नेन रथ्यान्तराणि आपणवीथयश्च हट्टमार्गा यस्मिन् तत्तथा 'मंचा-तिमंचकलितं' मचा-मालकाः प्रेक्षणकद्रष्टजनोपवेशननि-मित्तम् / अतिमञ्चा:- तेषामप्युपरि ये तैः कलितं 'णाणाविहराग-भूसियज्झयपडागमेडियं' नानाविधरागैः कुसुम्भादिभिर्भूषिता ये ध्वजाः सिंहगरुडादिरूपकोपलाक्षितबृहत्पटरूपाः पताकाश्च तदितरास्ताभिर्मण्डितं 'लाइयउल्लोइयमहियं' 'लाइयं'-छगणादिना भूमौ लेपनम्, 'उल्लोइयं' सेटिकादिना कुड्यादिषु धवलनं ताभ्यां महितं पूजितं ते एव वा महितं-पूजनं यत्र तत्तथा 'गोसीससरसरत्तचंदणदद्दरदिन्नपंचंगुलितलं' गोशीर्षस्य-चन्दनविशेषस्य सरसस्य च-रक्तचन्दनविशेषस्यैव ददरण-चपेटारूपेण दत्तान्यस्ताः पञ्चाङ्गुलयस्तलाहस्तका यस्मिन् कुड्यादिषु तत्तथा 'उवचियचंदणकलसं' उपचिता-उपनिहिता गृहान्तः कृत-चतुष्केषु चन्दनकलशामङ्गण्यघटाः यत्र तत्तथा 'चंदणघडसुकय-तोरणपडिदुवारदेसभाग' चन्दनघटाः सुष्ठ कृताः तोरणानिच प्रतिद्वारं द्वारस्य 2 देशभागेषु यत्र तत्तथा आसत्तोसत्तविपुलवट्टवग्घारियमल्लदामकलावं' आसक्तोभूमिलग्नः उत्सतश्चउपरिलग्नो विपुलो वृत्तो 'वग्घारिय' ति प्रलम्बो माल्यदाम्नांपुष्पमालानां कलापः-समूहोयत्र तत्तथा पंचवन्नसरससुरभिमुक्क-पुप्फपुंजोवयारकलियं' पञ्चवर्णाः सरसाः सुरभयो ये मुक्ताःकरप्रेरिताः पुष्पपुजास्तैर्य उपचारः-पूजा भूमेः तेन कलितं 'काला(गु) गरुपवरकुदुरुक्कतुरुक्कधुवडज्झंतमघमघंतगंधुद्धयाभिराम' कुंदुरुकचीडा तुरुवं सिल्हकं 'सुगंधवरगन्धियं गन्धवट्टिभूयं नडनट्टगजल्लमल्लगमुट्ठियवेलगकहकहगपवगलासग-अक्खायगलंखमंखतूणइल्लतुंबवीणियअणेगतालायरपरिगीयं' तत्र नटा-नाटकानां नाट
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________________ मेहकुमार 401 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मेहकुमार यितारः नर्तकाः ये नृत्यन्ति अकिला इत्येके जल्ला-वरवाखिलका राज्ञः स्वजनाः-पितृव्यादयः संबन्धिनः-श्वशुरपुत्रश्वशुरादयः परिजनोस्तोत्रपाठका इत्यन्ये मल्लाः-प्रतीताः मौष्टिका-मल्ला एव ये मुष्टिभिः दासीदासादिः बलं च--सैन्यं च गणनायकादयस्तु प्रागभिहिताः, 'महइप्रहरन्ति विडम्बकाः-विदूषकाः कथाकथकाः- प्रतीताः प्लवका ये महालइ'त्ति अति-महति, आस्वादयन्तौ आस्वादनीय, परिभाजयन्तौ उत्प्लवन्तेनद्यादिकंवा तरन्तिलासकाः ये रासकान्गायन्तिजयशब्द- अन्येभ्यो यच्छन्तौ मातापितराविति प्रकमः, 'जेमिय' त्ति जेमितौ भुक्तप्रयोक्तारो वा भाण्डा इत्यर्थः, आख्यायका-ये शुभाशुभमाख्यान्ति वन्तौ 'भुत्तुत्तर' त्ति भुक्तोत्तरं-भुक्तोत्तरकालम् 'आगय' त्ति आगतावुपलङ्घार्यशखेलकाः मङ्घाः-चित्रफलकहस्ता भिक्षाटाः तृणइल्लाः- वेशनस्थाने इति गम्यते, 'समााणे' त्ति सन्तौ, किंभूतौ भूत्वेत्याह? तूणाभिधानवाद्य-विशेषवन्तः, तुम्बवीणका-वीणावादका अनेके ये आचान्तौ शुद्धोदकयोगेन चोक्षौ लेपसिक्थाद्यपनय-नेन अत एव तालाचराः-तालाप्रदानेन प्रेक्षाकारिणः तेषां परिसमन्तागीतं ध्वनितं परमशुचिभूताविति, 'अयमेयारूवे' ति इदमेतद्रूपं गौणं कोऽर्थो ?यत्र तत्तथा कुरुतस्वयं, कारयतान्यैस्तथा चारगशोधनं कुरुत कृत्वा च गुणनिष्पन्नं नामधेयं-प्रशस्तं नाम मेघ इति। क्षीरधात्र्यास्तन्यदायिन्या मानोन्मानबर्द्धनं कुरुत, तत्र मान-धान्यमानं से (ति) टिकादि उन्मानं- मण्डनधात्र्या-मण्डिकाया मजन-धात्र्या स्नापिकाया क्रीडनधात्र्यातुलामानं कर्षादिकं श्रेणयः-कुम्भकारादिजातयः प्रश्रेणयः-तत्प्र क्रीडनकारिण्या अङ्कधात्र्या उत्सङ्गस्थापिकया कुब्जिकाभिः-वक्रजभेदरूपाः। 'उत्सुक्क मित्यादि, उच्छुल्काम्-उन्मुक्तशुल्का स्थिति डाभिः चिलातीभिः- अनार्यदेशोत्पन्नाभिर्वामनाभिः-हस्वशरीराभिः पतितां कुरुतेति संबन्धः, शुल्कं तु विक्रेतव्यं भाण्डं प्रति राजदेयं द्रव्यम्, वटभाभिः महत्कोष्ठाभिः वर्बरीभिः-वर्बरदेशसंभवाभिः वकुसिकाभिउत्कराम्-उन्मुक्तकरां, करस्तु गवादीनां प्रतिवर्ष राजदेयं द्रव्यम्, र्योनकाभिः पलविकाभिः ईसिनिकाभिः धोरुकिनिकाभिः लासिकाभिः अविद्यमानो भटानां-राजपुरुषाणाम् आज्ञादायिनां प्रवेशः कुटुम्बि लकुसिकाभिर्द्राविडीभिः सिंहलीभिः आरवीभिः पुलिन्द्रीभिः पक्वणीभिः मन्दिरेषु यस्यां सा तथा तामभटप्रवेशां, दण्डेन निर्वृत्तं दण्डिमं कुदण्डेन बहलीभिः मुरुण्डीभिः शबरीभिः पारसीभिः 'नानादेशीभिः' बहुविधाभिः निर्वृत्तं कुदण्डिमं राजद्रव्यं तन्नास्ति यस्यां सा तथा तामदण्डिम अनार्यप्रायदेशोत्पन्नाभिरित्यर्थः, विदेशः स्वकीयदेशापेक्षया राजगृहनकुदण्डिमां,तत्र दण्डोऽपराधानुसारेण राजग्राह्यं द्रव्यम्, कुदण्डस्तु गरदेशस्तस्य परिमण्डिकाभिः इङ्गितेन-नयनादिचेष्टाविशेषेण चिन्तित च-अपरेण हृदि स्थापितं प्रार्थितं च-अभिलषितं विजानन्ति यास्ताः कारणिकानां प्रज्ञाद्यपराधान्महत्यप्यपराधिनोऽपराधे अल्पं राजग्राह्य द्रव्यम्, अविद्यमानं धरिमं' ति ऋणद्रव्यं यस्यां सा तथा ताम्, अविद्य तथा ताभिः, स्वदेशे यन्नेपथ्यं परिधानादिरचना तद्वद् गृहीतो वेषो मानो धारणीयः-- अधमर्णो यस्यां सा तथा ताम्, 'अणु यमुइंग' त्ति यकाभिस्तास्तथा ताभिः, निपुणानां मध्ये कुशला यास्तास्तथा ताभिः, अत एव विनीताभिर्युक्त इति गम्यते, तथा चेटिकाचक्रवालेन अर्थात् अलुद्भूता अनुरूप्येण वादनार्थमुत्क्षिप्ता अनुद्ध(द्ध)ता वा-वादनार्थमेव स्वदेशसंभवेन वर्षधराणांवर्धितकरिन्थनरुन्धनप्रयोगेण नपुंस-कीकृतावादकैरत्यक्ता मृदङ्गामर्दला यस्यां सा तथा ताम्, 'अ(म्मा) यमिलायम नामन्तःपुरमहल्लकानां 'कंचुइज्ज' ति कञ्चुकिनामन्तः पुरप्रयोजनल्लदाम' त्ति अम्लानपुष्पमालां गणिकावरैः विलासिनीप्रधानैर्नाट निवेदकानां प्रतीहाराणां वा महत्तरकाणांच-अन्तः पुरकार्यचिन्तकानां कीयैः-नाटकप्रतिबद्धपात्रैः कलिता या सा तथा ताम्, अनेकतालाच वृन्देन परिक्षिप्तो यः स तथा, हस्ताद्धस्तंहस्तान्तरं संहियमाणः अङ्कारानुचरितां प्रेक्षाकारिविशेषैः सेवितां प्रमुदितैः-हृष्टः प्रक्रीडितैश्चक्रीडि दङ्कम्-उत्सङ्गादुत्सङ्गान्तरं, परिभोज्यमानः परिगीयमानः तथाविधतुमारब्धैर्जनैरभिरामा या सा तथा ता 'यथाम्'ि यथोचितां स्थिति वालोचितगीतविशेषैः उपलाल्यमानः क्रीडादिलालनया, पाठान्तरे तुपतितां स्थितौ–कुलमर्यादायां पतिता-अन्तर्भूता या प्रक्रिया पुत्रजन्मो 'उवणचिजमाणे 2 उवगाइजमाणे 2 उवलालिज्जमाणे 2 अवगूहिज्जमाणे त्सवसंबन्धिनी सा स्थितिपतिता ताम्, वाचनान्तरे 'दसदिवसियं 2' आलिङ्ग्यमान इत्यर्थः, 'अवयासिज्जमाणे' 2 कथञ्चिदालिङ्गयमान ठियपडिय' ति दशाहिकमहिमानमित्यर्थः कुरुत कारयत था, 'सएहिं' एव, 'परिवंदिज्जमाणे' 2 स्तूयमान इत्यर्थः, 'परिचुंबिजमाणे' 2 इति ति शतपरि-माणैः, 'दाएहिं' ति दानैः याचनान्तरे शतिकांश्चेत्यादि, प्रचुम्ब्यमानः 2 चक्रम्यमाणः, निर्वाते-नियाघाते 'गिरिकन्दरे' त्ति यागान्-देवपूजाः दायान्-दानानि भागान-लब्धद्रव्यविभागानि ति, गिरिनिकुञ्ज आलीन इव चम्पकपादपः सुखं सुखेनवर्द्धते स्मेति, प्रचङ् प्रथमे दिवसे जातकर्म-प्रसवकर्म नालच्छेदननिखननादिकं द्वितीय क्रमणकंभ्रमणं चूडोपनयनं मुण्डनं, 'महया-इड्डी-सक्कारसमुदएणं' ति दिने जागरिकां-रात्रिजागरणं तृतीये दिवसे चन्द्रसूर्यदर्शनम् उत्स महत्या ऋद्ध्या एवं सत्कारेण पूजया समुदयेन च जनानामित्यर्थः, वविशेष एत इति, पाठान्तरे तु-प्रथमदिवसे स्थितिपतितां तृतीये 'अर्थत' इति व्याख्यानतः करणतः-प्रयोगतः 'सेहावएं' ति सेधयति चन्द्रसूर्यदर्शनिकां षष्ठे जागरिकां 'निवत्ते असुइजायकम्मकरणे' त्ति निष्पादयति शिक्षयतिअभ्यास कारयति 'नवंगसुत्तपडिबोहिए' ति निवृत्ते-अतिक्रान्ते अशुचीनां जातकर्मणां करणे 'निव्वत्ते सुइजाय- नवाङ्गानि द्वे द्वे श्रोत्रे नयने नासिके जिह्नका त्वगेका मनश्चैकं सुप्तानीव कम्मकरणे ति' वा पाठान्तरं, तत्र निर्वृत्ते कृते शुचीनांजातकर्मणां करणे सुप्तानि-बाल्यादव्यक्तचेतानि प्रतिबोधितानि-यौवनेन व्यक्तचेतनावन्ति 'बारसाहे दिवसे' ति द्वादशाख्ये दिवसे इत्यर्थः, अथवा-द्वादशानामहां कृतानि यस्य स तथा, आह च व्यवहारभाष्ये-'सोत्ताई नव सुत्ता' समाहारो द्वादशाहं तस्य दिवसोयेन द्वादशाहः पूर्यते तत्र तथा, मित्राणि- इत्यादि, अष्टादश विधिप्रकाराः--प्रवृत्तिप्रकाराः अष्टादशभिर्वा सुहृदः ज्ञातयो-मातापितृभ्रा-वादयः निजकाः-स्वकीयाः पुत्रादयः- / विधिभि:-भेदैः प्रचारः-प्रवृत्तिर्यस्याःसा तथातस्यां, देशीभाषयां-देशभे
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________________ मेहकुमार 402 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मेहकुमार देन वर्णावलीरूपायां विशारदः पण्डितो यः स तथा, गीतिरति-न्धर्वेगीते नाट्ये च कुशलः, हयेन युध्यत इति हययोधी एवं रथयोधी बाहुयोधी बाहुभ्यां प्रमृगातीति बाहुप्रमी साहसिकत्वाद्विकाले चरतीति विकालचारी। पासायवडिसए त्ति अवतंसका इवावतंसकाः शेखराः, प्रासादाश्च तेऽवतंसकाश्च प्रासादावतंसकाः प्रधानप्रासादा इत्यर्थः 'अब्भुग्गयमूसिय 'त्ति अभ्युद्गतोच्छ्रितान् अत्युचानित्यर्थः, अत्र च द्वितीयाबहुवचनलोपो दृश्यः, 'पहसिए विव' त्ति प्रहसितानिव श्वेतप्रभाप्रबलपटलतया हसन्त इवेत्यर्थः, तथा मणिकनकरत्नानां भक्तिभिः-विच्छित्तिभिश्चित्रा ये ते तथा वातोद्भूता याः विजयशूचिका वैजयन्त्यभिधानाः पताकाः छात्रातिच्छत्राणि च तैः कलिता येते तथा ततः कर्मधारयस्ततस्तान्, तुङ्गान् कथमिव? गगनतलमभिल यच्छिखरान् 'जालंतररयणपंजरुम्मिल्लिय व्व' तिजालान्तेषु मत्तालम्बपर्यन्तेषु जालान्तरेषु वा जालकमध्येषु रत्नानि येषां ते तथा ततो द्वितीयाबहुवचनलोपो दृश्यः, पञ्जरोन्मीलितानि च-पृथक्कृतपञ्जराणि च प्रत्यग्रच्छाया नित्यर्थः, अथवा-जालान्तररत्नपञ्जरै:-तत्समुदायविशेषैरुन्मीलितानीवोन्मीलितानि चोन्मीलितलोचनानि चेत्यर्थः, मणिकनकस्तूपिकानिति प्रतीतं विकसितानि शतपत्राणि पुण्डरीकाणि च प्रतिरूपापेक्षया साक्षाद्वा येषु ते तथा तान्, तिलकैः-पुण्ड्रैः रत्नैः-कर्केतनादिभिः अर्द्धचन्द्रैः सोपानविशेषैः भित्तिषु वाचन्दनादिमयैरालेख्यैः अर्चिता ये ते तथा तान्, पाठान्तरेण–'तिलकरत्नार्द्धचन्द्रचित्रान्' नानामणिमयदामालंकृतान् अन्तर्बहिश्च श्लक्ष्णान्-मसृणान् तपनीयस्य या रुचिरा वालुका तस्याः प्रस्तरः-प्रतरः प्राङ्गणेषु येषां तेतथा तान्, सुखस्पर्शान् सश्रीकाणि सशोभनानि रूपाणि-रूपकाणियेषु ते तथा तान्, प्रसादीयान् चित्ताहादकान् दर्शनीयान्-यान् पश्यच्चक्षुर्न श्राम्यति, अभिरूपान्मनोज्ञरूपान् द्रष्टारं द्रष्टारं प्रति रूपं येषां ते तथा तान्, एकं महद्भवनमिति, अथ भवनप्रासादयोः को विशेषः? उच्यते-भवनमायामापेक्षया किञ्चित् न्यूनोच्छ्रायमानं भवति, प्रासादस्तु आयामद्विगुणोच्छ्राय इति, अनेकेषु स्तम्भशतेषु संनिविष्ट यत्तत्तथा, लीलया स्थिताः शालभञ्जिकाःपुत्रिका यस्मिन् तत्तथा, अभ्युद्गता-सुकृता वज्रस्य वेदिकाद्वारमुण्डिकोपरि वेदिका तोरणं च यत्र तत्तथा, वराभिः रचिताभिः रतिदाभिर्वा शालभञ्जिकाभिः सुश्लिष्टा संबद्धाः विशिष्टा लष्टाः संस्थिताः प्रशस्ताः वैडूर्यस्य स्तम्भा यत्र तत्तथा, नानामणिकनकरत्नैःखचितंच उज्ज्वलं च यत्तत्तथा, ततः पदत्रयस्य कर्मधारयः, 'बहुसम' त्ति अतिसमः सुविभक्तो निचितो-निविडो रमणीयश्च भूभागो यत्र तत्तथा, ईहामृगवृषभतुरगनरमकरविहगव्यालकिन्नररुरुसरभचमरकुञ्जरवनलतापद्मलताभक्तिचित्रमिति यावत् करणात् दृश्यम्, तथा स्तम्भोगतया स्तम्भोपरिवर्तिन्या वज्रस्य वेदिकया परिगृहीतं-परिवेष्टितमभिरामं च यत्तत्तथा 'विज्जाहरजमलजुयलजंतजुत्तं ति विद्याधरयोर्यत् यमलं समश्रेणीकं युगलं-द्वयं तेनैव यन्त्रेण-संचरिष्णुपुरुषप्रतिमाद्वयरूपेण युक्तं यत्तत्तथा आर्षत्त्वाच्चैवंविधः समास इति, तथा अर्चिषां किरणानां सहस्रैर्मालनीयं-परिवारणीयं 'भिसमाणं' ति दीप्यमानं 'भिडिभसमाणं' ति अतिशयेन दीप्यमानं चक्षुःकर्तृ लोकनेअवलोकने दर्शने सति लिशतीव-दर्शनीयत्वातिशयात श्लिष्यतीवयत्र तत्तथा, नानाविधाभिः पञ्चवर्णाभिर्घण्टाप्रधान-पताकाभिः परिमण्डितमनशिखरंयस्य तत्तथा, धवलमरीचिलक्षणं कवचंकण्टकं तत्समूह | मित्यर्थः विनिमुञ्चन्—विक्षिपन् सदृशीनां शरीरप्रमाणतो मेघकुमारापेक्षया परस्परतो वा सदृग्वयसां समानकालकृतावस्थाविशेषाणा सदृक्त्वचा सदृशच्छवीनां सदृशैलावण्यरूपयौवनगुणैरुपपेतानां, तत्र लावण्यं मनोज्ञता रूपम् आकृतिविनं-युवता गुणाः-प्रियभाषित्वादयः,तथा प्रसाधनानि चमण्डनानि अष्टासुचाङ्गेषु अविधववधूभिःजीव-त्पतिकनारीभिर्यदवपदन-प्रोड्खनकं तच्च मङ्गलानिच दध्यक्ष-- तादीनि गानविशेषो वा सुजल्पितानि च-आशीर्वचनानीति द्वन्द्वस्तैः करणभूतैरिति, इदं चास्मै प्रीतिदानंदते स्म, तद्यथा-अष्टौ हिरण्यकोटी: हिरण्यं च रूप्यम्, एवं सुवर्णकोटीः, शेषं च प्रीतिदानं गाथानुसारेण भणितव्यं यावत्प्रेक्षणकारिकाः। गाथाश्चेह नोपलभ्यन्ते, केवलं ग्रन्थान्तरानुसारेण लिख्यन्ते"अट्ठहिरण्णसुवन्नय, कोडीओ मउडकुंडला हारा। अट्ठऽहहार एका-बली उ मुत्तावली अट्ठ।।१।। कणगावलिरयणावली-कडगजुगा तुडियजोयखोमजुगा। वडजुगपट्टजुगाई, दुकूलजुगलाई अट्ठ (वग्ग)ऽट्ठ२|| सिरिहिरिधिइकित्तीउ, बुद्धी लच्छी य होति अट्ठट्ठ। नंदा भद्दा य तला, झयवयनाडाइं आसेव // 3 // हत्थी जाणा जुग्गा, सीया तह संदमाणि गिल्लीओ। थिल्लीइ वियडजाणा, रहगामा दासदासीओ // 4 // किंकर कंचुइ मयहर-वरिसधरे तिविहदीयथाले य। पाई थासग पल्लग, कति विय अवएड अवपक्का / / 5 / / पावीड भिसिय करोडि-याओ पल्लंकए य पडिसिजा। हंसाईहिँ विसिट्ठा, आसणभेया उ अट्ठट्ठ॥६|| हंसे 1 कंचे 2 गरुडे 3, ओण य 4 पणए५ यदीह 6 भद्दे 7 य। पक्खे 8 मयरेह पउमे 10, होइ दिसासोस्थिए ११क्कारे।।७।। तेल्ले कोट्ठसमुग्गा, पत्तेचोए य तगर एलाय। हरियाले हिंगुलए, मणोसिला सासव समुग्गे।।८।। खुज्जा चिलाइ वामणि, वडभीओ बब्बरी उ वसियाओ। जोणियपल्हवियाओ, ईसणिया धोरुइणिया य !|| लासियलउसिय दमिणी, सिंहलि तह आरबी पुलिंदीय। .पक्कणि वहणि मुरंढी, सबरीओ पारसीओ य॥१०॥ छत्तधरी चेडीओ, चामरधरतालियंटयधरीओ। सकरोडियाधरीओ, खीराती पंच धायीओ।।११।। अटुंगमदियाओ, उम्मद्दिगविमंडियाओय। वण्णयचुण्णय पीसिय, कीलाकारी य दवगारी / / 12 / / उच्छाविया उ तह ना-डइल्ल कोडुबिणी महाणसिणी। भंडारि अज्जधारी, पुप्फधरी पाणियधरी य / / 13 / / बलकारिय सेज्जाका-रियाओं अभंतरी उ बाहिरिया। पडिहारी मालारी, पेसणकारीउ अट्ठऽट्ठ॥१४॥" अत्र चायं पाठक्रमः स्वरूपं च- 'अट्ठ मउडे मउडपवरे अट्ठ, कुंडले कुंडलजोयप्पवरे' एवमौचित्येनाध्ये यम्, हारार्द्धहारौ अष्टादशन-वशरिको एकावली-विचित्रमणिका, मु
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________________ मेहकुमार 403 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मेहकुमार क्तावली-मुक्ताफलमयी, कनकावली-कनकमाणिकमयी, कटकानि कलाचिकाभरणानियोगो-युगलं तुटिका-बाहुरक्षिका क्षौम-कासिक वटकं–त्रिसरीमयं पट्ट-पट्टसूत्रमयं दुकूलं-दुकू-लाभिधानवृक्षनिष्पन्न वल्क-वृक्षवल्कनिष्पन्नं, श्रीप्रभृतयः षट् देवताप्रतिमाः संभाव्यन्ते, नन्दादीनां लोकतोऽर्थोऽवसेयः, अन्ये त्वाः -नन्दं-वृत्तं लोहासनं भद्रं-- शरासनं, मूढक इति यत्प्रसिद्धं, 'तल' त्ति-अस्येवं पाठः 'अकृतले तलप्पवरे सव्वरयणामए नियगवरभवणकेऊ" ते च तालवृक्षाः संभाव्यन्ते, ध्वजाः-केतवः, 'वए त्ति' गोकुलानि दशसाहसिकेण गोव्रजेनेत्येवं दृश्यम् 'नाडय'त्ति 'बत्तीसइबद्धेणं नाडगेण' मिति दृश्यम्, द्वात्रिंशद्वद्धं-द्वात्रिंशत्पा-त्रबद्धमिति व्याख्यातारः, 'आसे' त्ति 'आसे आसप्पवरे सव्वरय–णामए सिरिघरपडिरूवे'-श्रीगृह-भाण्डागारम्, एवं हस्तिनोऽपि, यानानि-शकटादीनि-युग्यानि-गोल्लविषये प्रसिद्धानि जम्पानानि द्विहस्तप्रमाणानि चतुरस्राणि वेदिकोपशोभितानि शिबिकाः कूटाकारणाच्छादिताः-स्यन्दमानिकाः-पुरुषप्रमाणा-यामा जम्पानविशेषाः,गिल्लयः-हस्तिन उपरिकोल्लररूपा मानुषं गिलन्तीवेति गिल्लयः, लाटानां यानि अड्डपल्यानानि तान्यन्यविषयेषु 'थिल्लीओ' अभिधीयन्ते, 'वियडजाणं' ति अनाच्छादितानि बाहनानि, 'रह' त्तिसंग्रामिका परियानिकाश्चाष्टाष्ट, तत्र संग्रामरथानां कटीप्रमाणाफलकवेदिका भवन्ति वाचनान्तरे-रथानन्तरमश्वा हस्तिनश्वाभिधीयन्ते तत्र ते वाहन-भूताः ज्ञेयाः, 'गाम' त्ति दशकुलसाहनिको ग्रामः ‘तिविहदीव' ति त्रिविधा दीपा अवलम्बनदीपाः शृङ्ग( ख) लाबद्धा इत्यर्थः, उत्कम्पनदीपाः ऊर्ध्वदण्उवन्तः पञ्जरदीपा अभ्रपटलादिपञ्जर-युक्ताः त्रयोऽप्येते त्रिविधाः सुवर्णरूप्यतदुभयमयत्वादिति, एवं स्थालादीनि सौवर्णादिभेदात् त्रिविधानि वाच्यानि, 'कइविका' कलाचिका अवएज' इति तापिकाहस्तकः अवपक्क त्ति अवपाक्या तापिकेति संभाव्यते, 'मिसियाओ' आसनविशेषाः करोटिकाधारिकाः-स्थगिकाधारिकाः द्रवकारिकाः-परिहासकारिकाः, शेष रूढितोऽवसेयम्, 'अन्नंचे त्यादि, विपुलं-प्रभूतं धनं-गणिमधरिममेयपरिच्छेद्यभेदेन चतुर्विधं, कनकंचसुवर्ण-रत्नानि च कर्केत नादीनि स्वस्वजातिप्रधानवस्तूनि वा मणयः-चन्द्रकान्तद्या मौक्तिकानि च शङ्खाश्च प्रतीता एव शिलाप्रवालानि च-विद्रुमाणि, अथवा-शिलाश्च-राजपट्टा गन्धपेषणशिलाश्च प्र-यालानि च-विद्रुमाणि रक्तरत्नानि च-पद्मरागादीनि एतान्येव 'संत' ति सत् विद्यमानं यत् सारं-प्रधानं स्वापतेयं-द्रव्यं तद्दत्त-वन्ताविति प्रक्रमः, किंभूतम्?-'अलाहि' त्ति अलं-पर्याप्तं परिपूर्णं भवति 'याव' त्ति यावत्परिमाणम् आसप्तमात् कुललक्षणे वंशे भवः कुलवंश्यस्तस्मात् सप्तमं पुरुषं यावदित्यर्थः, प्रकामम्-अत्यर्थं दातुं-दीनादिभ्यो दाने एवं भोक्तुं स्वयं भोगे परिभाजयितुं-दाया दादीनां परिभाजने तत्परिमाणं दत्तवन्ताविति प्रकृतम्, 'उप्पि' ति उपरि 'फुट्टमाणेहिं' मुयंगमत्थएहिं स्फुटद्भिरिवातिरभसाऽऽस्फालनात् मृदङ्गमस्तकै:-मर्दलमुखपुटैः 'रायगिहे नगरे सिंघाडग' इत्यनेनालापकाशेनेदं द्रष्टव्यम्-'सिंघाडगतिगचउक्क-चचरचउम्मुहमहापहपहेसु''महया जणसद्देइवा' इह यावत्करणादिदं दृश्यम्- 'जणसमूहेइ वा जणबोलेइ वा जणकलकलेइ वा जणुम्मीइवाजणुक्कलियाइवा जणसन्निवाएइ वा बहुजनो अन्न-मन्नस्स एवमाइक्खइ एवं पन्नवेइ एवं भासइ एवं परूवेइ-एवं खलु देवाणुप्पिया! समणे भगवं महावीरे आइगरे तित्थगरे०जाव संपाविउकामे पुव्वाणुपुट्विं चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे इहमागए इह संपत्ते इह समोसढे इहेव रायगिहे नगरे गुणसिलए चेइए अहा-पडिरूवं उग्गहं उग्गिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणे विहरइ-तं महाफलं खलु भो देवाणुप्पिया ! तहारूवाणं अरहंताणं भगवंताणं नामगोयस्स विसवणयाए किमंग ! पुण अभिगमणवंद-णणमंसणपडिपुच्छणपज्जुवासणयाए, एगस्स वि आयरियस्स धम्मियस्स सुवयणस्स सवणयाए किमंग! पुण विउलस्स अट्ठस्स गहणयाए? तं गच्छामो णं देवाणुप्पिया ! समणं भगवं महावीर वंदामोणमंसामो सक्कारेमो सम्माणेमो कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पजुवासामो एवं नो पेच भवे हियाए सुहाएखमाए निस्सेसाए अणुगा-मित्ताए भविस्सइ' त्ति कटु त्ति 'बहवे उग्गा' इह यावत्करणादिदं द्रष्टव्यम्'उग्गपुत्ता भोगा भोगापुत्ता एवं राइन्ना खत्तिया माहणा भडा जोहा मल्लई लेच्छई अन्नेय बहवेराईसरतलवरमाडंबिय-कोडुबियइब्भसेट्ठिसेणावइसत्थवाहप्पभियिओ अप्पेगइया वंदण-वत्तियं अप्पेगइया पूयणवत्तिय एवं सकारवत्तियं सम्माणवत्तियं कोउहल्लवत्तियं असुयाई सुणिस्सामो सुयाई निस्संकियाइं करिस्सामो अप्पेगइया मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पव्वइस्सामो अप्पेगइया पंचाणुव्वइयं सत्त सिक्खावइयं दुवालसविहं गिहिधम्म पडिवजिस्सामो, अप्पेगइया जिणभत्तिरागेणं अप्पेगइया जीयमेयं ति कटु व्हाया कयवलिकम्मा कयकोउयमंगलपायच्छित्ता सिरसा कंठेमालकडा आविद्धमणिसुवन्ना कप्पियहारद्धहारतिसरयपालंबपलंबमाणकडिसुत्तयसुकयसोभाभरणा पवरवत्थपरिहिया चंदणोवलित्तगायसरीरा अप्पेगइया हयगया एवं गयरहसिवियासंदमाणिगया अप्पेगइया पायविहारचारिणो पुरिसवग्गुरापरिक्खित्ता महया उक्किद्विसीहणायबोलकलकलरवेणं समुद्दरवभूयं पिव करेमाणा रायगिहस्स नगरस्स मज्झं मज्झेणं ति' अस्यायमर्थः-शृङ्गाटिकादिषु यत्र महाजनशब्दादयः तत्र बहुजनोऽन्योऽन्यमेवमाख्यातीति वाक्यार्थः 'महया जणसर्वेइ वति महान् जनशब्दः-परस्परालापादिरूपः इकारो वाक्यालङ्कारार्थः, वाशब्दः पदान्तरापेक्षया समुच्चयार्थः / अथवा-'सइइव' त्ति-इह संधिप्रयोगात् इतिशब्दो द्रष्टव्यः, स चोपप्रदर्शने, यत्र महान् जनशब्द इति वा, यत्र जनव्यूह इति वा, तत्समुदाय इत्यर्थः, जनबोलःअव्यक्तवर्णो ध्वनिः कलकलः स एवोपलभ्यमानवचनविभागः ऊर्मि:संबाधः एवमुत्कलिकालघुतरः समुदाय एवं सन्निपातः- अपरापर-स्थानेभ्यो जनानामेकत्रमीलनंतत्र, बहुजनोऽन्योऽन्यस्याख्याति-सामान्येन, प्रज्ञापयति विशेषेण, एतदेवार्थद्वयंपदद्वयेनाह-भाषतेप्ररूपयतिचेति, अथवा-आख्याति सामान्यतः प्रज्ञापयति विशेषतो बोधयति वा भाषते व्यक्तपर्यायवचनतः
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________________ मेहकुमार ४०४-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मेहकुमार प्ररूपयति उपपत्तितः 'इह आगए' त्ति राजगृहे 'इह संपत्ते' त्ति गुणशिलके 'इह समोसढे' ति साधूचितावग्रहे। एतदेवाह-'इहेव रायगिहे' इत्यादि | 'अहापडिरूवं' ति यथाप्रतिरूपम्-उचितमित्यर्थः 'तमिति' तस्मात् | 'महाफलं' ति महत्फलम्-अर्थो भवतीति गम्यम्, 'तहारूवाणं' ति तत्प्रकारस्वभावानां महाफल-जननस्वभावानामित्यर्थः, 'नामगोय- | स्स' ति नाम्नो यादृच्छि-कस्याभिधानकस्य गोत्रस्य गुणनिष्पन्नस्य | 'सवणयाए' त्ति श्रवणेन किमङ्ग ! पुण' त्ति किमङ्ग ! पुनरिति पूर्वोक्तार्थस्य विशेषद्योत-नार्थम्, अङ्गेत्यामन्त्रणे, अथवा परिपूर्ण एवायं शब्दो विशेषणार्थ इति, अभिगमनम्-अभिमुखगमनं वन्दनं-स्तुतिः नमस्यनं प्रणमनं प्रतिप्रच्छनं-शरीरादिवार्ताप्रश्नः पर्युपासनं-सेवा एतद्धावस्तत्ता तया, तथा एकस्याप्यार्यस्य आर्यप्रणेतृकत्वात् धार्मिकस्य-धर्मप्रतिबद्धत्वात् 'वन्दामो' त्ति-स्तुमो नमस्यामः-प्रणमामः सत्कारयामः-आदरं कुर्मो वस्त्राद्यर्चनं वा सन्मानयामः-उचितप्रतिपत्ति-भिः कल्याणं-कल्याणहेतु मङ्गलं-दुरितोपशमहेतुं दैवतं-दैवं चैत्यमिव चैत्यं पर्युपासयामः-सेवामहे, एतत् नः-अस्माकं प्रैत्य-भवे-जन्मान्तरे हिताय पथ्याऽन्नवत् सुखाय-शर्मणे क्षेमाय-संग-तत्वाय निःश्रेयसायमोक्षाय आनुगामिकत्वाय-भवपरम्परासु-खानुबन्धिसुखाय भविष्यतीति कृत्वा-इति हेतोर्बहव उग्राआदि-देवावस्थापिता रक्षवंशजाः उग्रपुत्राः-तएव कुमाराद्यवस्था-एवं भोगाः--आदिदेवेनैवावस्थापितगुरुवंशजाताः राजन्या-भगवद्वय-स्यवंशजाः क्षत्रियाः-सामान्यराजकुलीनाः भटाः-शौर्यवन्तो योधाः-तेभ्यो विशिष्टतरा मल्लकिनो लेच्छकिनश्च राजविशेषाः, यथा श्रूयन्ते चेटकराजस्थाष्टादशगणराजानो नव मल्लकिनो नव लेच्छकिन इति 'लेच्छइ त्ति क्वचिदणिजो व्याख्याताः लिप्सव इति संस्कारेणेति, राजेश्वरादयः प्राग्वद्, 'अप्पेगइय' त्ति अप्येके केचन 'वंदणवत्तियं' ति वन्दनप्रत्ययं वन्दनहेतोः शिरसा कण्ठे च कृता-धृता माला यैस्ते शिरसाकण्ठेमालाकृताः कल्पितानिहारार्द्धहारन्निसरकाणि प्रालम्बश्चप्रलम्बमानः कटिसूत्रकंच येषान्ते तथा, तथाऽन्यान्यपि सुकृतशोभान्याभरणानि येषां ते तथा, ततः कर्मधारयः, चन्दनावलिप्तानि गात्राणि यत्र तत्तथाविधं शरीरं येषां ते तथा, 'पुरिसवग्गुर' त्ति-पुरुषाणां वागुरेव वागुरापरिकरं च महयामहता उत्कृष्टिश्च आनन्दमहाध्वनिः गम्भीरध्वनिः सिंहनादश्च बोलश्चवर्णव्यक्तिवर्जितो ध्वनिरेव कलकलश्चव्यक्त-वचनः स एव एतल्लक्षणो यो रवस्तेन समुद्रवभूतमिव जलधिशब्दप्राप्तमिव तन्मयभिवेत्यर्थो नगरमिति गम्यते कुर्वाणाः 'एगदिसिं' ति एकया दिशा पूर्वोत्तरलक्षणया एकाभिमुखा-एकं भगवन्तम् अभिमुखं येषां तेएकाभिमुखा निर्गच्छन्ति, 'इमंचणं' ति इतश्च 'रायमगंच आलोएमाणे एवं चणं विहरइ, तते णं से मेहे कुमारे ते बहवे उग्गे०जाव एगदिसाभिमुहे निग्गच्छमाणे पासइ / पासित्ता' इत्यादि स्फुटम्, इन्द्रमहः-इन्द्रोत्सवः एवमन्यान्यपि पदानि, नवरं स्कन्दः कार्तिकेयः रुद्रः प्रतीतः शिवो-महादेवः वैश्रमणो-यक्षराट् नागोभवनपतिविशेषःयक्षोभूतश्च व्यन्तर-विशेषौ चैत्यं सामान्येन प्रतिमा पर्वतः-प्रतीत उद्यानयात्रा-उद्यानगमनं गिरियात्रा-गिरिगमनं 'गहियागमणपवित्तिए' ति परि-गृहीतागमनप्रवृत्तिको गृहीतवात इत्यर्थः / तते णं से मेहे कंचुइज्जपुरिसस्स अंतिए एतमुटुं सोचा णिसम्म हहतुढे कोडुंबियपुरिसे सद्दावेति २त्ता एवं वदासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! चाउग्घंटे आसरहं जुत्तामेव उवट्ठवेह, तह त्ति उवणे ति, तते णं से मेहे पहातेजाव सव्वाऽलंकारविभू-सिए चाउग्घंटं आसरहं दुरूढे समाणे सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिजमाणेणं महया भडचडगरविंदपरियालसंपरिवुडे रायगिहस्स नगरस्स मज्झं मज्झेणं णिग्गच्छति 2 त्ता जेणामेव गुणसिलए चेतिए तेणामेव उवागच्छति २त्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स छत्तातिछत्तं पड़ागातिपडागं विजाहरचारणे जंभए य देवे ओवयमाणे उप्पयमाणे पासति पासित्ता चाउग्घंटाओ आसरहाओ पचोरुहति 2 त्ता समणं भगवं महावीरं पंचविहेणं अभिगमेणं अभिगच्छति, तं जहा-सचित्ताणं दव्वाणं विउसरणयाए अचित्ताणं दवाणं अविउसरणयाए एगसाडियउत्तरासंगकरणेणं चक्खुप्फासे अंजलिपग्गहेणं मणसो एगत्तीकरणेणं जेणामेव समणे भगवं महावीरे तेणामेव उवागच्छति २त्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आदाहिणं पदाहिणं करेति २त्ता वंदति णमसंइ 2 त्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स णचासन्ने नातिदूरे सुस्सूसमाणे नमसमाणे अंजलियउडे अभिमुहे विणएणं पञ्जुवासति, तए णं समणे भगवं महावीरे मेहकुमारस्स तीसे य महतिमहालियाए परिसाए मज्झगए विचित्तं धम्ममातिक्खति जहा जीवा वज्झंति मुचंति जह य संकिलिस्संति धम्मकहा भणियय्वाजाव परिसा पडिगया। (सूत्र-२५) 'चाउग्घंटे आसह' ति चतस्रो घण्टा अवलम्बमाना यस्मिन् स तथा, अश्वप्रधानो रथोऽश्वरथः, युक्तमेव अश्वादिभिरिति, 'दुरूढे' त्ति आरूए: 'महया' इयादि महद् यत् भटानां चटकरं वृन्दं विस्तारवत् समूहस्तल्लक्षणो यः परिवारस्तेन संपरिवृतो यः स तथा। जृम्भकदेवास्तिर्यगलोकचारिणः 'ओवयमाणे' त्ति अवपततो व्योमाङ्गणादवतरतः 'उप्पयंते 'त्ति भूतलादुत्पततो दृष्ट्वा 'सचित्ते' त्यादि सचित्तानां द्रव्याणां पुष्पताम्बूलादीनां 'विउसरणयाए' त्ति व्यवसरणेन व्युत्सर्जननाचित्तानां द्रव्याणामलङ्कारवस्त्रादीनामव्यवसरणेनअव्युत्सर्जनेन क्वचिद् 'वियोसरणयेति' पाठः, तत्र अचेत-नद्रव्याणां छत्रादीनां व्युत्सर्जनेनपरिहारणे, उक्तं च- 'अवणेइ पंचककुहाणि रायवरवरसभचिंधभूया ,
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________________ मेहकुमार 405 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मेहकुमार णि। छत्तं खग्गो वाहण, मउड तह चामराओ य॥१॥ त्ति एका शाटिका | यस्मिस्तत्तथा तच तदुत्तरासङ्गकरणं व उत्तरीयस्य न्यासविशेषस्तेन, चक्षुःस्पर्श-दर्शने अञ्जलिप्रग्रहेण हस्तजोट-नेन, मनस एकत्वकरणेन एकाग्रत्वविधनेनेति भावः, क्वचिद्-'एगत्तभावेणं' ति पाठः, अभिगच्छतीति प्रक्रमः, 'महइमहालयाए' त्ति महातिमहत्याः धर्म-श्रुतचारित्रात्मकम् आख्याति, स च यथा जीवा बध्यन्ते कर्मभिः मिथ्यात्वादिहेतुभिर्यथा मुच्यन्ते तैरेव ज्ञानाद्यासेवनतः यथा संक्लिश्यन्ते अशुभपरिणामा भवन्ति तथा आख्यातीति, इहावसरे धर्मकथा उपपातिकोक्ता भणितव्या, अत्र च बहुन्थि इति न लिखितः। तते णं से मेहे कुमारे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मं सोचा णिसम्म हहतुडे समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आदाहिणं पदाहिणं करेति २त्ता वंदति नमसइ२त्ता एवं वदासीसदहामि णं भंते ! णिग्गंथं पावयणं एवं पत्तियामि णं रोएमिणं अब्मुट्ठमि णं भंते ? निग्गंथं पावयणं एवमेयं भंते ! तहमेयं अवितहमेयं इच्छितमेयं पडिच्छियमेयं कंते ! इच्छितपडिच्छियमेयं भंते ! से जहेव तं तुब्भे वदह जं नवरं देवाणुप्पिया ! अम्मापियरो आपुच्छामि तओ पच्छा मुंडे भवित्ता णं पव्वइस्सामि, अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिवंधं करेह, तते णं से मेहे कुमारे समणं भगवं महावीरं वंदति नमसति २त्ता जेणामेव चाउग्घंटे आसरहे तेणामेव उवागच्छति २त्ता चाउ-घंट आसरहं दुरूहति २त्ता महया भडचडगरपहकरेणं राय-गिहस्स नगरस्स मज्झं मज्झेणंजेणामेव सए भवणे तेणामेव उवागच्छति | 2 ता चाउग्घंटाओ आसरहाओ पचोरहति 2 त्ता जेणामेव अम्मापियरोतेणामेव उवागच्छति २त्ता अम्मापिऊणं पायवडणं करेति 2 त्ता एवं वदासी-एवं खलु अम्मयाओ ! मए समणस्स भगवतो महावीरस्स अंतिए धम्मे णिसंते से वि य मे धम्मे इच्छिते पडिच्छिते अभिरुइए, तते णं तस्स मेहस्स अम्मापियरो एवं वदासी-धन्ने सि तुमं जाया ! संपुग्नो० कयत्थो० कयलक्खणोऽसि तुमं जाया ! जण्णं तुमे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मे णिसंते से वि य ते धम्मे इच्छिते पडिच्छिते अभिरुइए, तते णं से मेहे कुमारे अम्मापिन्यरो दोच्चं पितचं पि एवं वदासी-एवं खलु अम्मयातो ! मए समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मे निसंते से वि य मे धम्मे० इच्छियपडिच्छिए अभिरुइए तं इच्छामिणं अम्मयाओ तुब्मेहिं अब्भणुनाए समाणे समणस्स भगवतो महावीरस्स अंतिए मुंडे भवित्ता णं आगारातो अणगारियं पव्वइत्तए, तते णं सा धारिणी फरसं गिरं सोचा णिसम्म इमेणं एतारूवेणं मणो-माणसिएणं महया पुत्तदुक्खेणं अभिभूता समाणी सेयागयरोमकूवपगलंतविलीणगाया सोयभरपवेवियंगी णित्तेया दीणविमणवयणा करयलमलिय व्व कमलमाला तक्खणओलुग्गदुम्बलसरीरा लावन्नसुन्ननिच्छायगयसिरीया पसिढिलभूसणपडतखुम्मियसंचुनियधवलवलयपब्मट्ठउत्तरिजा सुकुमालविकिनकेसहत्था मुच्छावसणट्ठचेयगरुई परसुनियत्त व्व चंपकलया निव्वत्तमहिम व्व इंदलट्ठी विमुक्कसंधिबंधणा कोट्टिमतलंसि सव्वंगेहिं धसत्ति पडिया, ततेणं साधारिणी देवी ससंभमोवत्तियाए तुरियं कंचणभिंगारमुहविणिग्गयसीयलजलविमलधाराए परिसिंचमाणा निवावियगायलट्ठी उक्खेवणतालवंटवीयणगजणियवाएणं सफुसिएणं अंतेउरपरिजणेणं आसासिया समाणी मुत्तावलिसन्निगासपवडंतअंसुधाराहिं सिंचमाणी पओहरे कलुणविमणदीणा रोयमाणी कंदमाणी तिप्पमाणी सोयमाणी विलवमाणी मेहंकुमारं एवं वयासी-(सूत्र-२६) 'सदहामी' त्यादि, श्रद्दधे-अस्तीत्येवं प्रतिपद्ये नैर्ग्रन्थं प्रवचन-जैन शासनम्, एवं 'पत्तियामि' त्ति प्रत्ययं करोम्यत्रेति भावः, रोचयामिकरणरुचिविषयीकरोमिचिकीर्षामीत्यर्थः, किमुक्तं भवति?-- अभ्युत्तिष्ठामि अभ्युपगच्छामीत्यर्थः, तथा एवमेवैतत्यद्भवद्भिः प्रतिपादितं तत्तथैवेत्यर्थः, तथैव तद्यथा वस्तु, किमुक्तं भवति?- अवितथं-सत्यमित्यर्थः, अतः 'इच्छिए' इत्यादि प्राग्वत्, 'इच्छिए' त्ति इष्टः, पडिच्छिए त्ति पुनः पुनरिष्टः भाव, तो वा प्रतिपन्नः अभिरुचितः-स्वादुभावमिवोपगतः 'आगाराओ' तिगेहात् निष्क्रम्यानगारिता-साधुतां प्रव्रजितुं मे, 'मणोमाणसिएण' ति मनसि भवं यन्मानसिक तन्मनोमानसिकं तेन अबहिर्वृत्ति नेत्यर्थः, तथा स्वेदागताः-आगतस्वेदाः रोमकूपा येषु तानि स्वेदागतरोमकूपाणि, तत एव प्रगलन्तिक्षरन्ति विलीनानि च क्लिन्नानि गात्राणि यस्याः सा तथा, शोकभरेण प्रवेपिताङ्गी कम्पितगात्रा या सा तथा, निस्तेजा, दीनस्येव-विमनस इव वदनं वचनं वा यस्याः सा तथा, तत्क्षणमेव-प्रव्रजामीति वचनश्रवण-क्षणे एव अवरुग्णं म्लानं दुर्बलं च शरीरं यस्याः सा तथा, लावण्येन शून्या लावण्यशून्या निच्छाया-- गतश्रीका च या सा तथेति, पद-चतुष्टयस्य कर्मधारयः, दुर्बलत्वात् प्रशिथिलानि भूषणानि यस्याः सा तथा, कृशीभूतबाहुत्वात्पतन्तिविगलन्ति खुम्मिय' त्ति-भूमिपतनात् प्रदेशान्तरेषु नमितानि चूर्णितानि च-भूपातात् एव भग्नानि धवलवलयानि यस्याः सा तथा, प्रभ्रष्टमुत्तरीयं चयस्याः सातथा, ततः पदत्रयस्यकर्मधारयः, सुकुमारोविकीर्णः केशहस्त:केशपासो यस्याः सा तथा, मूर्छावशान्नष्ट चेतसि सति गुवी-अलघुशरीरा या सा तथा, परशुनिकृत्तेव चम्पकलता कुट्टिमतले पतितेति सं
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________________ मेहकुमार ४०६-अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मेहकुमार बन्धः, निवृत्तमहा इव इन्द्रयष्टि:-इन्द्रकेतुर्वियुक्तसन्धिबन्धना श्लथीकृतसन्धाना धसतीत्यनुकरणे ससंभ्रमं व्याकुलचित्ततया उवत्तियाए' त्ति अपवर्तितया क्षिप्तया त्वरितंशीघ्रं काञ्चनभृङ्गारमुखविनिर्गता या शीतलजलविमलधारातया परिषिच्यमाना निर्वापिताशीतलीकृता गात्रयष्टिर्यस्याः सा परिषिच्यमाननिर्वापितगात्रयष्टिः, उत्क्षेपको वंशदलादिमयो मुष्टिग्राह्यो डण्डमध्यभागः तालवृन्तं तालाभिधानवृक्षपत्रवृन्तं पत्रच्छोट इत्यर्थः, तदाकारं वा चर्ममयं बीजनकं तु वंशादिमयमेवान्तग्राह्यदण्डम् एतैर्जनितो यो वातस्तेन 'सफुसिएणं' सोदकबिन्दुना अन्तःपुरजनेन समाश्वसि-ता सती मुक्तावलीसन्निकाशा याः प्रपतत्योऽश्रुधारास्ताभिः सिञ्चन्ती पयोधरौ, करुणा च विमनाश्च दीना च या सा तथा, रुदन्ती-साश्रुपातं शब्दं विदधाना क्रन्दन्तीध्वनिविशेषेण तेषमाना-स्वेदलालादि क्षरन्ती शोचमाना-हृदयेन विलपन्तीआर्त्तस्वरेण। तुमं सि णं जाया ! अम्हं एगे पुत्ते इढे कंते पिए मणुन्ने मणामे थेग्जे वेसासिए सम्मए बहुमए अणुमए भंडकरंडगसमाणे रयणे रयणभूते जीवियउस्सासयहिययाणंदजणणे उंबरपुप्फं व दुल्लभे सवणयाए किमङ्ग ! पुण पासणयाए? णो खलु जाया ! अम्हे इच्छामो खणमवि विप्पओगं सहित्तते तं मुंजाहि ताव जाया ! विपुले माणुस्सए कामभोगे जाव ताव वयं जीवामो तओ पच्छा अम्हेहिं कालगतेहिं परिणयवए वड्डियकुलवंसतंतुकअम्मि निरावयक्खे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए मुंडे भवित्ता आगारातो अणगारियं पव्वइस्सति। ततेणंसे मेहे कुमार अम्मापिऊहिं एवं वुत्ते समाणे अम्मापियरो एवं वदासी-तहेव णं तं अम्मतायो ! जहेव णं तुम्हे ममं एवं वदह तुम सिणं जाया! अम्हं एगे पुत्ते तं चेव० जाव निरावयक्खे समणस्स भगवओ महावीरस्स० जाव पव्वइस्ससि,एवं खलु अम्मयाओ ! माणुस्सए भवे अधुवे अणियए असासए वसणसओवद्दवामिभूते विजुलयाचंचले अणिचे जलबुब्बुयसमाणे कुसग्गजलबिंदुसन्निभे संझब्भरागसरिसे सुविणदंसणोवमे सडणपडणविद्धंसणधम्मे पच्छा पुरं च णं अवस्सविप्पजहणिज्जे से के णं जाणति अम्मयाओ ! के पुवि गमणाए के पच्छा गमणाए ? तं इच्छामिणं अम्मयाओ ! तुब्भेहिं अब्मणुन्नाते समाणे समणस्स भगवतो०जाव पव्वतित्तए, तते णं तं मेहं कुमारं अम्मापियरो एवं वदासी-इमातो त जाया ! सरिसियाओ सरिसत्तयाओ सरिसवयाओ सरिसलावन्नरूवजोय्वणगुणोववेयाओ सरिसेहिंतो रायकुलेहितो आणियल्लिंयाओ भारियाओ, तं मुंजाहि णं जाया ! एताहिं सद्धिं विपुले माणुस्सए कामभोगे तओ पछा भुत्तभोगे समणस्स० जाव पव्वइस्ससि, तते णं से मेहे कुमारे अम्मापितरं एवं वदासी-तहेवणं अम्मायाओ! जन्नं तुम्भे मम एवं वदह इमाओ ते जाया ! सरिसियाओ०जाव समणस्स भगवओ महावीरस्स अंते पव्वइस्ससि, एवं खलु अम्मयाओ! माणुस्सगा कामभोगा असुई असासया वंतासवा पित्तासवा खेलासवा सुक्कासवा सोणियासवा दुरुस्सासनीसासा दुरूयमुत्तपुरीसपूयबहुपडिपुन्ना उचारपासवणखेलजल्लसिंघाणगवंतपित्तसुक्कसोणितसंभवा अधुवा अणित्तिया असासया सडणपडणविद्धंसणधम्मा पच्छा पुरं च णं अवस्सविप्पजहणिज्जा, से के णं अम्मयाओ ! जाणति के पुट्विं गमणाए के पच्छा गमणाए? तं इच्छामिणं अम्मयाओ !०जाव पव्वतित्तए। तते णं तं मेहं कुमारं अम्मापितरो एवं वदासी-इमे य ते जाया ! अजयपज्जयपिउपज्जयागए सुबहुहिरने य सुवण्णे य कंसे य दूसे य मणिमोत्तिए य संखसिलप्पवालरत्तरयणसंतसारसाव-तिजे य अलाहि०जाव आसत्तमाओ कुलवंसाओ पगामं दाउं पगाम भोत्तुं पगाम परिभाएउं तं अणुहोहि ताव०जाव जाया ! विपुलं माणुस्सगं इडिसक्कारसमुदयं तओ पच्छा अणुभूयक-ल्लाणे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए पटवइस्ससि, तते णं से मेहे कुमारे अम्मापियरं एवं वदासी-तहेव णं अम्मयाओ ! जं णं तं वदह इमे ते जाया! अज्जगपज्जगजाव तओ पच्छा अणुभूय कल्लाणे पव्वइस्ससि, एवं खलु अम्मयाओ ! हिरने य सुवण्णे य० जाव सावतेजे अग्गिसाहिए चोरसाहिए रायसाहिए दाइयसाहिए मचुसाहिए अग्गिसामने०जाव मचुसामने सडणपडणविद्धंसणधम्मे पच्छा पुरं च णं अवस्सपिप्पजहणिजे से के णं जाणइ अम्मयाओ ! के०जाव गमणाए, तं इच्छामि णं०जाव पव्वतित्तए। तते णं तस्स मेहस्स कुमारस्स अम्मापियरो जाहे नो संचालेइ मेहं कुमारं बहूहिं विसयाणुलो-माहिं आघवणाहि य पन्नवणाहि य सन्नवणाहि य विनवणाहि य आघवित्तए वा पन्न वित्तए वा सन्नवित्तए वा विन्नवित्तए वा ताहे विसयपडिकूलाहिं संजमभवउव्वेयकारियाहिं पन्नवणाहिं पनवेमाणा एवं वदासी-एस णं जाया ! निग्गंथे पावयणे सच्चे अणुत्तरे केवलिए पडिपुग्ने णेयाउए संसुद्धे सल्लगत्तणे सिद्धिमग्गे मुत्तिमग्गे निजाणमग्गे निवाणमग्गे सय्वदुक्खप्पहीणमग्गे अहीवएगंतदिट्ठीएखरोइवएगंतधाराएलोहमयाइवजवाचावयव्वा बालुयाकवले इव निरस्साए गंगा इव महानदी पडिसो-यगमणाए महासमुद्दो इव भुयाहिंदुत्तरे तिक्खं चंकमियव्वं गरुअं लंबेयध्वं असिधार व्व संचरियव्वं, णोय खलु कप्पतिजाया ! समणाणं नि
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________________ मेहकुमार 407- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मेहकुमार ग्गंथाणं आहाकम्मिए वा उद्देसिए वा कीयगडे वा ठवियए वा भिमूतोव्याप्तः, शटनं-कुष्ठादिना अङ्गुल्यादेः पतनं-बाहादेः खगच्छेरइयए वा दुब्भिक्खभत्ते वा कंतारभत्ते वा वद्दलियाभत्ते वा दादिना विध्वंसनं-क्षयः एते एव धर्मा यस्य सतथा, पश्चात्-विवक्षितगिलाणभत्ते वा मूलभोयणे वा कंदभोयणे वा फलभोयणे वा कालात्परतः 'पुरं च' त्ति पूर्वतश्च णमलंकृतौ 'अवस्सविप्पजहणिज्जे' बीयभोयणे वा हरियभोयणे वा भोत्तए वा पायए वा, तुमं च णं अवश्यं त्याज्यः। 'से के णं' 'जाणइत्ति अथ को जानाति ? न जाया ! सुहसमुचिए णो चेव णं दुहसमुचिए णालं सीयं णालं कोऽपीत्यर्थः, अम्ब तातक! पूर्व-पित्रोः पुत्रस्य चान्योऽन्यतः गमनाय उण्हणालं खुहणालं पिवासंणालं वाइयपित्तियसिंभियसन्नि- परलोके उत्सहते कः पश्चाद्गमनाय तत्रैवोत्सहते इति, कः पूर्वं को वा वाइयविविहे रोगायंके उच्चावए गामकंटए वावीसं परीसहोवसग्गे पश्चान्मियते इत्यर्थः वाचनान्तरे-मेघकुमारभार्यावर्णक एवमुपलभ्यते उदिने सम्म अहियासित्तए, मुंजाहि ताव जाया ! माणुस्सए 'इमाओ ते जायाओ विपुलकुलबालियाओ कलाकुसलसव्वकाल-- कामभोगे ततो पच्छा भुत्तभोगी समणस्स भगवओ महावीरस्स लालिय- सुहोइयाओ मद्दवगुणजुत्तनिउणविणओवयारपंडियवियजाव पव्वतिस्ससि, तते णं से मेहे कुमारे अम्मापिऊहिं एवं क्खणाओ' पण्डितानां मध्ये विचणाः पण्डितविचक्षणाः अतिपण्डिताः वुत्ते समाणे अम्मापितरं एवं वदासी-तहेव णं तं अम्मयाओ! इत्यर्थः। 'मंजुलमियमहुरभणियहसियविप्पेक्खियगइविलासवट्ठियविजन्नं तुम्भे ममं एवं वदह एस णं जाया ! निग्गंथे पावयणे सचे सारयाओ' मञ्जुलं-कोमलं शब्दतःमितं-परिमितं मधुरम्-अकअणुत्तरे०पुणरवितं चेव०जाव तओ पच्छा भुत्तभोगी समणस्स ठोरमर्थतो यगणितं तत्तथा अवस्थितं-विशिष्टस्थिति शेषं कण्ठ्यम् भगवओ महावीरस्स०जाव पव्वइस्ससि, एवं खलु अम्मयाओ! 'अविकलकुलसीलसालिणीओ विसुद्धकुलवंससंताणतंतुवद्धणपगिग्गंथे पावयणे कीवाणं कायराणं कापुरिसाणं इहलोगपडि गब्भुभवप्पभाविणीओ' विशुद्धकुलवंश एव सन्तानतन्तुः विस्तारबद्धाणं परलोगनिप्पिवासाणं दुरणुचरे पाययजणस्स णो चेवणं वत्तन्तुः तद्वर्द्धना ये प्रकृष्टा गर्भाः-पुत्रवरगर्भास्तेषां य उद्भवःसंभवस्तधीरस्स निच्छियस्स ववसियस्स एत्थं किं दुक्करं करणयाए? ल्लक्षणो यः प्रभावो-माहात्म्यं स विद्यते यासांताः तथा 'मणोणुकूल हिययइच्छियायो' मनोऽनुकूलाश्च ताहृदयेनेप्सिताश्चेति कर्मधारयः, तं इच्छामि णं अम्मयाओ ! तुब्भेहिं अब्भणुनाए समाणे समणस्स भगवओ०जाव पव्वइत्तए। (सूत्र-२७) 'अट्ठतुज्झगुणवल्लहाओ' गुणैर्वल्लभा यास्तास्तथा भजाओ उत्तमाओ निचं भावाणुरत्ता सव्वंगसुंदरीओ' त्ति 'माणुस्सगा कामभोग' त्ति इह 'जाय' ति हे पुत्र ! इष्टः इच्छाविषयत्वात् कान्तः कमनीयत्वात् प्रियः कामभोगग्रहणेन तदाधारभूतानि स्त्रीपुरुषशरीरण्यभिप्रेतानि अशुचयः प्रेमनिबन्धनत्वात् मनसा ज्ञायते उपादेयतयेति मनोज्ञः मनसा अभ्यसे अशुचिकारणत्वात् वान्तंवमनं तदाश्रवन्तीतिवान्ताश्रवाः एवमन्यान्यपि, गम्यसे इति मनोऽमः, स्थैर्यगुणयोगात् स्थैर्यो वैश्वासि-को-विश्वास नवरंपित्तं प्रतीतं खेलो निष्ठीवनं शुक्र-सप्तमो धातुः शोभितरक्तं स्थानं संमतः कार्यकरणे बहुमतः बहुष्वपि कार्येषु बहुर्वाऽनल्पतयाs दुरूपाणि-विरूपाणि यानि मूत्रपुरीषपूयानि तैर्बहुप्रतिपूर्णाः उच्चारः-पुरीषं स्तोकतया मतो बहुमतः, कार्यविधानस्य पश्चादपि मतोऽनुमतः, प्रसवणं-मूत्र खेलः-प्रतीतः सिधाणो-नासि-कामलः वान्तादिकानि 'भाण्डकरण्डकसमानो' भाण्डम् आभरणं, रत्नमिवरत्नं मनुष्यजाता प्रतीतान्येतेभ्यः संभवः-उत्पत्तिर्येषां ते तथा इमे यते' इत्यादि, इदं च वुत्कृष्टत्वात् रजनो वा रञ्जक इत्यर्थः, रत्नभूतः चिन्तामणिरत्नादि ते आर्यकः पितामहः प्रार्यकः दितुः पितामहः पितृप्रार्यकः-पितु: कल्पो जीवितमस्माकमुच्छ्वासयसि--वर्द्धयसीतिजीवितोच्छासः स एव प्रपितामहः तेभ्यः सकाशादागतं यत्तत्तथा, अथवा-आर्यकप्रार्यकपितृणां जीवितोच्छासिकः, वाचनान्तरे तु- 'जीविउस्सइए' त्ति-जीवित यः पर्यायः परिपाटिरित्यनर्थान्तरं तेनागतं यत्तत्तथा, 'अग्गिसाहिए' स्योत्सव इव जीवतोत्सवः स एव जीवितोत्सविकः, हृदयानन्दजननः इत्यादि, अग्नेः स्वामिनश्च साधारणं 'दाइय'त्ति दायदाः पुत्रादयः, एतदेव उदुम्बर-पुष्पं ह्यलभ्यं भवति अतस्तेनोपमान, 'जाव ताव अम्हेहिं द्रव्य-स्यातिपारवश्यप्रतिपादनार्थं पर्यायान्तरेणाह-'अग्गिसामण्णे' जीवामो' त्ति इह भुव तावद्भोगान् यावद्वयं जीवाम इत्येताव तैव इत्यादि, शटनं वस्त्रादेरतिस्थगितस्य पतनंवर्णादिविनाशः विध्वंसनं चविवक्षितसिद्धौ यत्पुनः तावत् शब्दस्योचारणं तद्भाषामात्रमेवेति, परिण- प्रकृतेरुच्छेदः धर्मो यस्य तत्तथा, 'जाहे नोसंचा-एति त्ति' यदा न तवया ' वड्डियकुलवंसतंतुकज्जम्मि' वर्द्धित वृद्धिमुपागते पुत्रपौत्रादिभिः शक्नुवन्तौ 'बहूहि विसए' त्यादि, बहीभिः विषयाणां शब्दादीनामनुलोमाः कुलवंश एव-सन्तान एवतन्तुः दीर्घत्वसाधात् कुलवंश-तन्तुः स एव तेषु प्रवृत्तिजनकत्वेन अनुकूला विषयानुलोमास्ताभिः आख्यापनाभिश्चकार्य-कृत्यंतस्मिन्, ततः 'निरवेक्खे' त्ति निरपेक्षः सकलप्रयोजनानाम् सामान्यतः प्रतिपादनैः प्रज्ञापनाभिश्च-विशेषतः कथनैः संज्ञापनाभिश्च'अधुवे' त्ति न ध्रुवः सूर्योदयवत् न प्रति-नियतकाले अवश्यंभावी, संबोधनाभिर्विज्ञापनाभिश्चविज्ञप्तिकाभिश्वसप्रणयप्रार्थनःचकाराः समुचयार्थाः अनियतः ईश्वरादेरपि दरिद्रादिभावात्, अशाश्वतः क्षणविनश्वरत्वाद् आख्यातुंवाप्रज्ञापयितुंबासंज्ञापयितुंवा विज्ञापयितुंवानशक्नुत इति प्रक्रमः व्यसनानिधूतचौर्यादीनि तच्छतैरु-पद्रवैः स्वपरसंभवैः सदोपद्रवैर्वाऽ- | 'ताहे' त्ति तदा विषयप्रतिकूलाभिः शब्दादिविषयाणां परिभोगनिषेध
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________________ मेहकुमार 408 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मेहकुमार कत्वेन प्रतिलोमाभिः संयमाद्भयमुद्वेगं च-चलनं कुर्वन्ति यास्ताः संयमभयोद्वेगकारिकाः संयमस्य दुष्करत्वप्रतिपादनपरास्ताभिः प्रज्ञापनाभिः प्रज्ञापयन्तौ एवमवादिष्टाम्-'निगंथे' त्यादि, निर्ग्रन्थाः साधवस्तेषामिदं नैर्ग्रन्थं प्रवचनमेव प्रावचनं सद्भ्यो हितं सत्यं सद्भूतं वा नास्मादुत्तर-प्रधानतरं विद्यत इत्यनुत्तरम्, अन्य-दप्यनुत्तरं भविष्यतीत्याह-कैवलिक केवलम्-अद्वितीयं केवलि-प्रणीतत्वाद्वा कैवलिकं प्रतिपूर्णम्-अपवर्गप्रापकैर्गुणैर्भूतं नयनशीलं नैयायिकं मोक्षगमकमित्यर्थः, न्याये वा भवं नैयायिकं मोक्षगमकमित्यर्थः संशुद्धं सामस्त्येन शुद्धमेकान्ताकलङ्कमित्यर्थः शल्यानिमायादीनि कृन्ततीति शल्यकर्तनं सेधनं सिद्धिः हितार्थप्राप्तिस्तन्मार्गः सिद्धिमार्गः मुक्तिमार्गः अहितकर्मविच्युतेरुपायः, यान्ति तदिति यानं निरुपम यानं निर्यानं सिद्धिक्षेत्रं तन्मार्गो निर्माणमार्गः एवं निर्वाणमार्गोऽपि नवरं निर्वाणं-सकलकर्मविरहजं सुखमिति सर्वदुःखप्रक्षीणमार्गः सकलाशर्मक्षयोपायः अहिरिव एकोऽन्तो निश्चयो यस्याः सा एकान्ता सा दृष्टिः बुद्धिर्यस्मिन्निग्रन्थे प्रवचने-चारित्रपालनं प्रति तदेकान्तदृष्टिकम्। अहिपक्षे आमिषग्रहणैकतानतालक्षणा एकान्ता-एकनिश्चया दृष्टिः दृक् यस्य स एकान्त-दृष्टिः क्षुरप्र इव एकधारा द्वितीयधाराकल्पाया अपवादक्रियाया अभावात्, पाठान्तरेण--एकान्ता-एकविभागाश्रया धारा यस्य तत्तथा,लोहमया इव यवाः चर्वयितव्याः प्रवचनमिति प्रक्रमः, लोहूमययवचर्वणमिव दुष्कर चरणमिति भावः, वालुकाकवलइव निरास्वादं वैषयिकसुखास्वादनापेक्षया प्रवचनम्, गङ्गे व महानदी प्रतिश्रोतसा गमनं प्रतिश्रोतोगमनं तद्भावस्तत्ता तया, प्रतिश्रोतो-गमनेन गनेव दुस्तरं प्रवचनमनुपालयितुमिति भावः, एवं समुद्रोपमानं प्रवचनमिति तीक्ष्णं खङ्गकुन्तादिकं चङ्क्रमितव्यम्- आक्रमणीयं यदेतत्प्रवचनं तदिति, तथा खङ्गादि क्रमितुमशक्यमेवमशक्यं प्रवचनमनुपालयितुमिति भावः, गुरुकं महाशिलादिकं लम्बयितव्यम्-अवलम्बनीयं प्रवचनं गुरु, कलम्बनमिव दुष्करं तदिति भावः, असिधारायां संचरणीयमित्येवंरूपं यदवृतं-नियमस्तदसिधाराव्रतं चरितव्यम्-आसेव्यं यदेतत्प्रवचनानुपालनं तद्वदेतदुष्करमित्यर्थः, कस्मादेतस्य दुष्करत्वमत उच्यते 'नो य कप्पई त्यादि, 'रइए व' ति औद्देशिकभेदस्तच मोदकचूर्णादि-पुनर्मोदकतया रचितं भक्तमिति गम्यते, दुर्भिक्षभक्तं यद्भिक्षुकार्थ दुर्भिक्षे संस्क्रियते एवमन्यान्यपि, नवरं कान्तारम्- अरण्यं वईलिकावृष्टिः ग्लानः सन्नारोग्याय यद्ददाति तद् ग्लानभक्तम्, मूलानि पद्मसिन्नाटिकादीनां कन्दाःसूरणादयः फलानि-आम्रफलादीनि बीजानि-शाल्यादीनि हरितमधुरतृणकटुभाण्डादि भोक्तुं वा पातुं वा नालं नसमर्थः शीताद्यधिसोढुमिति योगः, रोगाः-कुष्ठादयः आतङ्का-आशुघातिनः शूलादयः उचावचान्-नाना-विधान ग्रामकण्टकान्-इन्द्रियवर्गप्रतिकूलान्, 'एवं खलु अम्म-याओ !' इत्यादि यथा लोहचर्वणाधुपमया दुरनुचरं दुःखासेव्यं नैर्ग्रन्थम् प्रवचनं भवद्भिरुक्तमेवंदुरनुचरमेव, केषां ? क्लीवाना-मन्दसंहननानां कातराणांचित्तावष्टम्भवर्जितानामत एव कापुरुषाणां कुत्सितनराणां, विशेषणद्वयं तु कण्ठ्यम्, पूर्वोक्तमेवार्थमाहदुरनुचरं-दुःखासेव्यं नैर्ग्रन्थं प्रवचनमिति प्रकृतं , कस्येत्याह-प्राकृतजनस्य, एतदेव व्यतिरेकेणाह-'नो चेव णं' नैव धीरस्यसाह सिकस्य दुरनुचरमिति प्रकृतम्, एतदेव वाक्यान्तरेणाहनिश्चितं-निश्चयवद् व्यवसितं-व्यवयासः कर्म यस्य स तथा तस्य, एत्थ' त्ति अत्र नैर्ग्रन्थे प्रवचने किं दुष्करं? न किञ्चित् दुर-नुचरमित्यर्थः, कस्यामित्याह'करणतायां' करणानां-संयम-व्यापाराणां भावः करणता तस्या, संयमयोगेषु मध्ये इत्यर्थः, तत्-तस्मादिच्छाम्यम्ब ! तात! तते णं तं मेहं कुमारं अम्मापियरो जाहे नो संचाइंति बहूहिं विसयाणुलोमाहि य विसयपडिकूलाहि य आघवणाहि य पन्नवणाहि य सन्नवणाहि य विनवणाहि य आघवित्तए वा पन्नवित्तए वा सन्नवित्तए वा विनवित्तए वा ताहे अकामए चेव महं कुमार एवं वदासी-इच्छामो ताव जाया ! एगदिवसमवि ते रायसिरिं पासित्तए, तते णं से मेहे कुमारे अम्मापितरमणुवत्तमाणे तुसिणीए संचिट्ठति तते णं से सेणिए राया कोडुंबियपुरिसे सहावेति 2 त्ता एवं वदासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! मेहस्स कुमारस्स महत्थं महग्धं महरिहं विउलं रायाभिसेयं उवट्ठवेह, तते णं ते कोडुबियपुरिसा०जाव ते वि तहेव उवट्ठवें ति, तते णं से सेणिए राया बहूहिं गणणायगदंडणायगेहि य०जाव संपरिवुडे मेहं कुमारं अट्ठसएणं सोवनियाणं कलसाणं एवं रुप्पमयाणं कलसाणं सुवन्नरुप्पमयाणं कलसाणं मणिमयाणं कलसाणं सुवन्नमणिमयाणं कलसाणं रुप्पमणिमयाणं कलसाणं सुवन्नरुप्पमणिमयाणं कलसाणं भोमेजाणं कलसाणं सव्वोदरहि सव्वमट्टियाहिं सव्वपुप्फेहिं सव्वगंधेहिं सव्वमल्लेहिं सय्वोसहीहिय सिद्धत्थएहिय सव्विड्डीए सव्वजुईए सव्वबलेणं जाव दुंदुभिनिग्घोसणादि तरवेणं महया महया रायाभिसेएणं अभिसिंचति २त्ता करयल०जाव कटु एवं वदासी-जयजयणंदा!जय जय भद्दा! जय णंदामद्दा ! भदंते अजियं जिणेहि जियं पालयाहि जियमज्झे वसाहि अजियं जिणेहि सत्तुपक्खं जियं च पालेहि मित्तपक्खं०जाव भरहो इव मणुयाणं रायगिहस्स नगरस्स अन्नेसिं च बहूणं गामागरनगर०जाव सन्निवेसाणं आहेवचंन्जाव विहराहि त्तिकट्टु जयजयसहं पउंजंति,ततेणं से मेहे राया जाते महया० जाव विहरति, ततेणं तस्समेहस्सरनो अम्मापितरो एवं वदासीभण जाया ! किं दलयामो किं पयच्छामो किंवा ते हियइच्छिए सामत्थे (मन्ते)? तते णं से मेहे राया अम्मापितरो एवं व
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________________ मेहकुमार 406 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मेहकुमार दासी-इच्छामि णं अम्मयाओ ! कुत्तियावणाओ रयहरणं पडिग्गहगं च उवणेह कासवयं च सद्दावेह,तते णं से सेणिए राया | कोडुबियपुरिसे सद्दावेति सद्यावेत्ता एवं वदासी-गच्छह णं तुन्भे देवाणुप्पिया ! सिरिघरातो तिन्नि सयसहस्सातिं गहाय दोहिं सयसहस्सेहिं कुत्तियावणाओ रयहरणं पडिग्गहणं च उवणेह सयसहस्सेणं कासवयं सद्दावेह, तते णं ते कोडुंबिय-पुरिसा सेणिएणं रन्ना एवं वुत्ता समाणा हट्टतुट्ठा सिरिघराओ तिन्नि सयसहस्सातिं गहाय कुत्तियावणाओ दोहिं सयसहस्से हिं रयहरणं पडिग्गहं च उवणेति सयसहस्सेणं कासवयं सद्दावेंति, तते णं से कासवए तेहिं कोडं बियपुरिसेहिं सद्दाविए समाणे हढे०जाव हयहियए पहाते कतबलिकम्मे कयकोउयमंगलपायच्छित्ते सुद्धप्पावे सातिं वत्थाई मंगलाई पवरपरिहिए अप्पमहग्घाभरणालंकितसरीरे जेणेव सेणिए राया तेणामेव उवागच्छति २त्ता सेणियं रायं करयलमंजलिं कट्ट एवं वयासी-संदिसह णं देवाणुप्पिया ! जं मए करणिजं, तते णं से सेणिए राया कासवयं एवं वदासी-गच्छाहिणं तुम देवाणुप्पिया ! सुरभिणा गंधोदएण णिक्के हत्थपाए पक्खालेह सेयाए चउप्फालाए पोत्तीए मुहं बंधेता मेंहस्स कुमारस्स चउरंगुलवज्जे णिक्खमणपाउग्गे अग्गकेसे कप्पेहि, तते णं से कासवए से गिएणं रन्ना एवं वुत्ते समाणे हट्ठ०जाव हियए ०जाव पडि-सुणेति २त्ता सुरमिणा गंधोदएणं हत्थपाए पक्खालेति २त्ता सुद्धवत्थेणं मुहं बंधति 2 त्ता परेणं जत्तेणं मेहस्स कुमारस्स चउरंगुलवज्जे णिक्खमणपाउग्गे अग्गकेसे कप्पति, तते णं तस्स मेहस्स कुमारस्स माया महरिहेणं हंसलक्खणेणं पडसाडएणं अग्गकेसे पडिच्छति २त्ता सुरभिणा गंधोदएणं पक्खालेति २त्ता सरसेणं गोसीसचंदणेणं चचा आदलयति २त्ता सेयाए पो-तीए बंधेति २त्ता रयणसमुग्गयंसि पक्खिवति २त्ता मंजूसाए पक्खिवति 2 ता हारवारिधारसिंदुवारछिन्नमुत्तावलिपगासाई अंसूई विणिम्मुयमाणी 2 रोयमाणी 2 कंदमाणी 2 विलवमाणी 2 एवं वदासी-एस णं अम्हं मेहस्स कुमारस्स अब्भुदएसु य उस्सवेसु य पव्वेसु य तिहीसुय छणेसुयजन्नेसुय पव्वणीसुय अपच्छिमे दरिसणे भविस्सइ त्ति कट् टु उस्सीला मूले ठवेति, तते णं तस्स मेहस्स कुमारस्स अम्मापितरो उत्तरावक्कमणं सीहासणं रयावेति मेहं कुमारं दोच्चं पि तचं पि सेयपीयएहिं कलसेहिं ण्हावेति २त्ता पम्हलसुकुमालाए गंधकासाइयाए गायातिं लूहॅति 2 त्ता सरसेणं गोसीसचंदणेणं गायातिं अणुलिंपंति 2 त्ता नासानीसासवायबोज्झंजाव हसंलक्खणं पडगसाडगं नियंसेंति २त्ता हारं पिणद्धति 2 त्ता अद्धहारं पिणद्धति 2 त्ता एगावलिं मुत्तावलिं कणगावलिं रयणावलिं पालंबं पायपलंब कडगाई तुडिगाई के उरातिं अंगयातिं दसमु-बियाणंतयं कडिसुत्तयं कुंडलातिं चूडामणि रयणुक्कडं मउडं पिणद्धति 2 त्ता दिव्वं सुमणदामं पिणद्धति 2 त्ता दहरमलय-सुधिए गंधे पिणद्धति, तते णं तं मेहं कुमारं गंठिमवेढिमपूरिम-संघाइमेण चउविहेणं मल्लेणं कप्परुक्खगं पि व अलंकित-विभूसियं करेंति, तते णं से सेणिए राया कोडु बियपुरिसे सद्दावेति २त्ता एवं वयासी-खिप्यामेव भो देवाणुप्पिया! अणेगखंभसयसन्निविटुं लीलट्ठियसालभंजियागं ईहामिगउसमतुरयनरमगरविहगवालगकिन्नररुरुसरभचमरकुंजरवणलयपउमलयभत्तिचित्तं घंटावलिमहुरमणहरसरं सुभकं तदरिसणिज्जं निउणोविय मिसिमिसिंतमणिरयणघंटियाजालपरिक्खित्तं अब्भुग्गयवइरवेतियापरिगयाभिरामं विजाहरजमलजंतजुत्तं पिव अचीसहस्समालणीयं रूवगसहस्सकलियं मिसमाणं मिडिभसमाणं चक्खुलोयणलेस्सं सुहफासं सस्सिरीयरूवं सिग्घं तुरितं चवलं वेतियं पुरिससहस्सवाहिणी सीयं उवट्टवेह, तते णं ते कोडुंबियपुरिसा हट्टतुट्ठा०जाव उवह ति, ततेणं से मेहे कुमारे सीयं दुरूहति (दूरूहति इत्यपि पाठः।)२त्तासीहासणवरगए पुरत्थाभिमुहे सन्निसन्ने, तते णं तस्स मेहस्स कुमारस्स माया पहाता कयबलिकम्मा०जाव अप्पम-हग्घाभरणालंकियसरीरा सीयं दुरूहतिर त्ता मेहस्स कुमारस्स दाहिणे पासे भद्दासणंसि निसीयति,तते णं तस्स मेहस्स कुमारस्स अंबधाती रयहरणं च पडिग्गहणं च गहाय सीयं दुरूहति 2 त्ता मेहस्स कुमारस्स वामे पासे भद्दासणंसि निसीयति, ततेणं तस्स मेहस्स कुमारस्स पिट्ठतो एगावरतरुणी सिंगारागारचारुवेसा संगयगयहसियमणियचेद्वियविलाससंलावुल्लावनिउणजुत्तोवयारकुसला आमेलगमलजुयलवट्टिय-अन्भुन्नयपीणरतियसंठितपओहरा हिमरययकुंदेंदुपगासं सकोरंटमल्लदामधवलं आयवत्तं गहाय सलीणं ओहारेमाणी२ चिट्ठति, तते णं तस्स मेहस्स कुमारस्स दुवे वरतरुणीओ सिंगारागारचारुवेसाओव्जाव कुसलाओ सीयं दुरूहंति २त्ता मेहस्स कुमारस्स उभओ पासिंनाणामणिकणगरयणमहरिहतवणिज्जुजलविचित्त दंडाओ चिल्ल्यिाओ सहमवरदीहबालाओ संखकुं ददगरयअमयमहियफेणपुंजसन्निगासाओ चामराओ गहाय सलीलं ओहारेमाणीओ चामराओ गहाय सलीलं ओहारेमाणीओ२चिट्ठति,ततेणंतस्समेहकुमारस्स
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________________ मेहकुमार ५१०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मेहकुमार एगा वरतरुणी सिंगारागारजाव कुसला सीयं०जाव दुरूहति २त्ता मेहस्स कुमारस्स पुरतो पुरथिमेणं चंदप्पभवइरवेरुलियविमलदंड तालविंट गहाय चिट्ठति, तते णं तस्स मेहस्स कुमारस्स एगा वरतरुणी०जाव सुरूवा सीयं दुरूहति 2 त्ता मेहस्स कुमारस्स पुव्वदक्खिणेणं सेयं रययमयं विमलसलिलपुन्नं मत्तगयमहामुहाकितिसमाणं भिंगारंगहाय चिट्ठति। तते णं तस्स मेहस्स कुमारस्स पिया कोडुंबियपुरिसे सहावेति २त्ता एवं वदासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! सरिसयाणं सरिसत्तयाणं सरिसवयाणं एगाभरणगहितनिजोयाणं कोडं बियवरतरुणाणं सहस्संसहावेह०जावसद्दावेति।तएणं कोडुबियवरतरुणपुरिसा सेणियस्सरन्नो कोबियपुरिसेहिं सद्दाविया समाणा हट्ठा ण्हाया०जाव एगाभरणगहितणिज्जोया जेणामेव सेणिए राया तेणामेव उवागच्छंति 2 त्ता सेणियं रायं "एवं वदासी-संदिसह णं देवाणुप्पिया ! जंणं अम्हेहिं करणिज्जं / ततेणं से सेणिएतं कोडुंबियवरतरुणसहस्सं एवं वदासी-गच्छह णं देवाणुप्पिया! मेहस्स कुमारस्स पुरिससहस्स-वाहिणीं सीयं परिवहेह / तते णं तं कोडुंबियवरतरुणसहस्सं से णिएणं रना एवं वुत्तं संतं हडं तुटुं तस्स मेहस्स कुमारस्स पुरिससहस्सवाहिणी सीयं परिवहति / तए णं तस्स मेहस्स कुमारस्स पुरिससहस्सवाहिणी सीयं दुरूढस्स समाणस्स इमे अहऽट्ठमंगलया तप्पढमयाए पुरतो अहाणुपुवीए संपट्ठिया,तं० सोत्थियसिरिवच्छणंदियावत्तवद्धमाणगभद्दासणकलसम-च्छदप्पण जाव बहवे अत्थऽत्थियाजाव ताहिं इट्ठाहिं०जाव अणवरयं अभिणंदंता य अमिथुणंता य एवं वदासी-जय जय णंदा ! जय जय भद्दा ! भदं ते अजियाइं जिणाहि इंदियाइं जियं च पालेहि समणधम्म जियविग्घोऽवि य वसाहितं देव ! सिद्धिमज्झे निहणाहि रागदोसमल्ले तवेणं धितिधणियबद्ध-कच्छे मद्दाहि य अट्ठ कम्मसत्तू झाणेणं उत्तमेणं सुक्केणं अप्प-मत्तो पाव य वितिमिरमणुत्तरं केवलं नाणं गच्छ य मोक्खं परमपयं सासयं च अयलं हंता परीसहचमुंणं अभीओपरीस-होवसम्गाणं धम्मे ते अविग्धं भवउ त्ति कद टु पुणो पुणो मंगल-जयजयसई पउंजंति, तते णं से मेहे कुमारे रायगिहस्स णगर-स्स मज्झं मज्झेणं णिग्गच्छति 2 त्ता जेणेव गुणसिलए चेतिए तेणामेव उवागच्छति २त्ता पुरिससहस्सवाहिणीओ सीयाओ पचोरहति / (सूत्र-२८) 'महत्थं' ति महाप्रयोजनं महार्घ-महामूल्यं महार्ह महापूज्य महता या योग्य राज्याभिषेकं राज्याभिषेकसामग्रीम् उपस्थापयत-सम्पादयत, सौवर्णादीनां कलशानामष्टौ शतानि चतुःषष्ट्यधिकानि 'भोमेजाणं' ति भौमानां पार्थिवानामित्यर्थः सादकैः- सर्वतीर्थसंभवैः एवं मृत्तिकाभिरिति! 'जयजये' त्यादि,जय जय त्वं जयं लभस्व नन्दति नन्दयतीति वा नन्दः-समृद्धः समृद्धिप्रापको वा तदामन्त्रणे हे नन्द ! एवं भद्र ! कल्याणकारिन् ! हे जगन्नन्द ! भद्रं ते भवत्विति शेषः, इह गमे यावत्करणादिदं दृश्यम्-'इन्दो इव देवाणं चमरो इव असुराणं धरणो इव नागाणं चन्दो इव ताराणं' ति, 'गामामर' इह दण्डके यावत्करणादिद दृश्यम्-'नगरखेडकब्बड-दोणमुहमडंबपट्टणसंवाहसन्निवेसाणं आहेवचं पोरेवचं सामित्तं भत्ति(हि)त्तं महत्तरगत्तं आणाईसरसेणायचं कारेमाणे पालेमाणे महया हयनट्टगीयवाइयतंतीतलतालतुडियघणमुइंगपडुप्पवाइयरवेणं विउलाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहराहित्ति, तत्र करादिगम्यो ग्रामः आकरोलवणाद्युत्पत्तिभूमिः अविद्यमानकर नगरं धूलीप्राकार खेटु कुनगरं कर्वट यत्र जलस्थलमार्गाभ्यां भाण्डान्या-गच्छन्तितद्रोणमुखं यत्र योजनाभ्यन्तरे सर्वतोग्रामादि नास्ति तन्मडम्बम्, पत्तनं द्विधा-- जलपत्तनं, स्थलपत्तनं च।तत्र जलपत्तनं यत्र जलेन भाण्डान्यागच्छन्ति, यत्र तु स्थलेन तत् स्थलपत्तनम्, यत्र पर्वतादिदुर्गे लोका धान्यानि संवहन्तिस संवाहः सार्थादिस्थानं सन्निवेशः, आधिपत्यम् अधिपतिकर्म रक्षेत्यर्थः, 'पोरेवच्चं' पुरो-वर्तित्वमग्रेसरत्वमित्यर्थः स्वामित्व-नायकत्वं भर्तृत्वंपोषकत्वं महत्तरकत्वम्-उत्तमत्वम् आज्ञेश्वरस्य-आज्ञाप्रधानस्य सतः तथा सेनापतेर्भावः, आज्ञेश्वरसेनापत्यं कारयन् अन्यैर्नियुक्तकैः पालयन् स्वयमेव महता-प्रधानेन 'अहय' त्ति आख्यानकप्रतिबद्ध नित्यानुबन्धं वा यन्नाट्यं च-नृत्यं गीतं च-गानंतथा वादितानियानि तन्त्री च-वीणा तलौ च -हस्तौ तालश्चकांसिका त्रुटितानि च वादित्राणि तथा घनसमानध्वनियों मृदङ्गः पटुना पुरुषेण प्रवादितः स चेति द्वन्द्वः ततस्तेषां यो खस्तेनेति, 'इति कटु' इति कृत्वा एववभिधाय जयजयशब्दं प्रयुङ्क्तेश्रेणिकराज इति प्रकृतम्, ततोऽसौ राजा जातः, 'महया' इह यावत्करणात् एवं वर्णको वाच्यः-"महया हिमवन्तमहंतमलयमंदरमहिंदसोर अचंतविसु-द्धदीहरायकुलवंसप्पसूए निरंतर रायलक्खणविराइयंगमंगे बहु-जणबहुमाणपूइए सव्वगुणसमिद्धे खत्तिए मुदिए मुद्धाभिसित्ते" पित्रादिभिर्भूर्द्धन्यभिषिक्तत्वात् 'माउपिउसुजाए दयपत्ते' दयावानित्यर्थः, 'सीमंकरे' मर्यादाकारित्वात् 'सीमंधरे' कृतमर्यादापालकत्वात्, ‘एवं खेमंकरे खेमंधरे' क्षमम्- अनुपद्रवता, 'मणुस्सिदे जणवयपिया' हितत्वाम् 'जणवयपुरोहिए' शान्तिकारित्वात् 'सेउकरे' मार्गदर्शकः केउकरे' अद्भुतकार्यकारित्वात्, केतुः-चिह्ने, 'नरपवरे' नराः प्रवराः यस्येति कृत्वा, 'पुरिसवरे' पुरुषाणांमध्ये वरत्वात्, 'पुरिससीहे' शूरत्वात्, 'पुरिसआसीविसे शापसमर्थत्वात, 'पुरिसपुंडरीए' सेव्यत्वात्, पुरिसवरगंधहत्थी प्रतिराजगजभञ्जकत्वात्, अड्डे' आळ्यः 'दिते' 'दर्पवान् वित्ते' प्रतीतः 'विच्छिन्नविउलभवणसयणासणजाणवाहणाइन्ने' विस्तीर्णविपुलानि-अतिविस्तीर्णानि भवनशयनासनानि यस्य सतथायानवाहनान्याकीर्णानिगुणवन्तियस्यसतथा, ततः कर्मधारयः,
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________________ मेहकुमार 411- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मेहकुमार 'बहुधणबहुजायरूवरयए' बहुधनं-गणिमादिकं बहुनी च जातरूपरजते यस्य स तथा, 'आयोगपयोगसंपउत्ते, आयोगस्य-अर्थलाभस्य प्रयोगा--- उपायाः संप्रयुक्ताव्यापारिता येन स तथा' 'विच्छड्डियपउरभत्तपाणे' विच्छर्दितेत्यक्ते बहुजनभोजनदाने नावशिष्टोच्छिष्टसंभवात् संजातविच्छ वा नानाविधभक्तिके भक्तपाने यस्य स तथा 'बहुदासीदासगोमहिसगवेलगप्पभूए' बहुदासीदासश्चासौ गोमहिषगवेलगभूतश्चेति समासः, गवेलका-उरभ्राः, 'पडिपुण्णजंतकोसकोट्ठागाराउहागारे' यन्त्राणि-पाषाणक्षेपयन्त्रादीनिकोशो-भाण्डागारं कोष्ठागारं-धान्यगृहम् आयुधा-गारंप्रहरणशाला, 'बलवं दुबलपचमिते' प्रत्यमित्राः-प्रातिवेशिकाः, 'ओहयकंटयं निहयकंटयं गलियकंटयं उद्धियकंटयं अकंटयं' कण्टकाः-प्रतिस्पर्द्धिनो गोत्रजाः उपहता विनाशनेन निहताः समृद्ध्यपहारेण गलिताः मानभङ्गेन उद्धृता देशनिर्वासनेन अतएवाकण्टकमिति, एवम् ‘उवहयसत्तु मित्यादि, नवरं शत्रवो गोत्रजा इति, 'ववगयदुडिभक्खमारिभयविप्पमुक्कं खेमं सिर्वसुभिक्खंपसंतडिंबडमरं' अन्वयव्यतिरेकाभिधानस्य शिष्टसंमतत्या-त्न पुनरुक्ततादोषोऽत्र 'रज्जं पसाहेमाणे विहरइत्ति। 'जाया' इति हे जात! पुत्र ! किं दलयामो' त्ति भवतोऽनभिमतं किं विघट-यामो विनाशयाम इत्यर्थः, अथवा-भवतोऽभिमतेभ्यः किं दद्मः, तथा भवते एव किं प्रयच्छामः? 'किं वा ते हियइच्छियसामत्थे' त्ति को वा तव हृदयवाञ्छितो मन्त्र इति 'कुत्तियावणाउ' त्ति देवताधिष्ठितत्वेन स्वर्गमर्त्यपाताललक्षणभूत्रितयसंभविवस्तुसंपाद-क आपणो-हट्टः कुत्रिकापणः तस्मात् आनीतं काश्यपकं च-नापितं शब्दितुम्-आकारितुमिच्छामीति वर्तते,श्रीगृहात्-भाण्डामासत् 'निक्के' त्ति सर्वथा विगतमलान् ‘पोत्तियाइ' त्ति वस्त्रेण 'महरिहे' त्यादि, 'महरिहेणं' ति महतां योग्येन महापूज्येन वा हंसस्येव लक्षणं स्वरूपं शुक्लता हंसा वा लक्षणं-चिह्र यस्य स तथा तेन शाटको-वस्त्रमात्र सच पृथुलः पटोऽभिधीयत इति पटशाटकस्तेन 'सिंदुवारे' त्ति वृक्षविशेषो निर्गुण्डीति केचित् तत्कुसुमानि सिन्दुवाराणि तानि च शुक्लानि। एस णं' ति एतत् दर्शनमिति योगः णमित्यलंकारे, अभ्युदयेषुराज्यलाभादिषु उत्सवेषु-प्रियसमागमादिमहेषु प्रसवेसु-पुत्रजन्मसुतिथिषुमदनत्रयोदशीप्रभृतिषु-क्षणेषु इन्द्रमहादिषु यज्ञेषुनागादिपूजासुपर्वणीषु च कार्त्तिक्यादिषु अपश्चिमम्-अकारस्यामङ्गलपरिहारार्थत्वात् पश्चिम दर्शनं भविष्यति, एतत्केशदर्शनमपनीतकेशावस्थस्य मेघकुमारस्य यद्दर्शनं सर्वदर्शनपाश्चात्यं तद्भविष्यतीति भावः, अथवा-न पश्चिममपश्चिमंपौनःपुन्येन मेघकुमारस्य दर्शनमेतद्दर्शनेन भविष्य-तीत्यर्थः 'उत्तरावक्कमणं' ति उत्तरस्यां दिश्यपक्रमणम्-अवतरणं यस्मात्तदुत्तरापक्रमणम् उत्तराभिमुखं राज्याभिषेककाले पूर्वाभिमुखं तदासीदिति, 'दोच्चं पि' द्विरपि 'तचं पि' त्रिरपि 'श्वेतपीतैः' रजतसौवण : ‘पायफ्लंघ' 'तिपादौयावयः प्रलम्बते अलङ्कार-विशेषः सपादप्रलम्बः, 'तुडियाई' ति बाहुरक्षकाः, केयूराङ्गदयोर्यद्यपि नाम कोशे बाह्वाभरणतया न विशेषःतथाऽपीहाकारभेदेन भेदो दृश्यः, दशमुद्रिकानन्तकंहस्ताङ्गुलि संबन्धि मुद्रिकादशकम् ‘सुमणदामं ति पुष्पमालां पिनह्यतः-परिधत्तः दर्दर:-चीवरावनद्धकुण्डिकादिभाजनमुखंतेन गालितास्तत्र पक्का वा ये 'मलय' ति मलयोद्भवं श्रीखण्डं तत्संबन्धिनः सुगन्धयो गन्धास्तान पिनह्यतः, हारादिस्वरूपं प्राग्वत्, ग्रन्थिम-यद्ग्रथ्यते सूत्रादिना वेष्टिमयद् ग्रथितं सद्वेष्ट्यते यथा पुष्पलम्बूसकः गेन्दुक इत्यर्थः, पूरिमं येन वंशशलाकामयपञ्जरकादि कूर्चादि वा पूर्यते सांयोगिकं-यत्परस्परतो नालसंघातनेन संघात्यते अलंकृतं कृतालंकारं, विभूषितं जातविभूषम्। "सहावेह ०जाव सदाविति' 'एगा वरतरुणी त्यादिशृङ्गारस्यागारमिव शृङ्गारागारम्, अथवा-शृङ्गारप्रधान आकारो यस्याश्चारुश्चा वेषो यस्याः सा तथा, सङ्गतेषु गतादिषु निपुणा युक्तेषूपचारेषु कुशला च या सा तथा, तत्र विलासो नेत्रविकारो, यदाह- "हावो मुखविचारः स्याद्भावश्चित्तसमुद्भवः। विलासो नेत्रजो ज्ञेयो, विभ्रमो भ्रूसमुद्भवः॥१॥ संलापो मिथो भाषा, उल्लपः काकुवर्णनम्।" आह च-"अनुलापो मुहुर्भाषा, प्रलापोऽनर्थकं वचः। काक्वा वर्णनमुल्लापः,संलापो भाषणं मिथः / / 1 / / " इति। 'आमेलग' त्ति आपीड:-शेखरः स चस्तनः प्रस्तावाचूचुकस्तत्प्रधानौ आमेलको वा परस्परभीषत् संबद्धौ यमलौ-समश्रेणि-स्थिती युगलौ-युगलरूपौ द्वावित्यर्थः, वर्तितौ-वृत्तौ अभ्युन्नतौ-उचौ पीनौस्थूलौ रतिदौ-सुखप्रदौ संस्थितौ विशिष्टसंस्थानवन्तौ पयोधरौ-स्तनौ यस्याः सा तथा, हिमंचरजतंच कुन्दश्वेन्दुश्चेति द्वन्द्वः एषामिव प्रकाशौ यस्य तत्तथा सकोरण्टानि कोरण्टकपुष्पगुच्छयुक्तानि माल्यदामानिपुष्पमाला यत्र तत्तथा, धवलमातपत्रं-छत्रं, नानामणिकनकरत्नानां महार्हस्य महाघस्य तपनीयस्यच सत्कावुज्ज्वलौ विचित्रौ दण्डौ ययोस्ते तथा, अत्र कनक-तपनीययोः को विशेषः? उच्यते-कनकं पीतं, तपलीयं रक्तम्, इति। 'चिल्लियाओ' त्ति दीप्यमाने लीने इत्येके सूक्ष्मवरदीर्घवाले शंखकुन्ददकरजसाम् अमृतस्य मथितस्य सतो यः फेन पुञ्जस्तस्य च सन्निकाशे सदृशे येते तथा, चामरे, चन्द्रप्रभवज्रवैडूर्यविमलदण्डे, इह चन्द्रप्रभः चन्द्रकान्तमणिः, तालवृन्तंव्यजनविशेषः मत्तगजमहामुखस्य आकृत्या आकारेण समानः-सदृशो यः स तथा तं भृङ्गारम् ‘एगे' त्यादि,एक:-असदृशः आभरणलक्षणो गृहीतो निर्योगःपरिकरो यैस्ते तथा तेषां कौटुम्बिकवरतरुणानां सहस्रमिति। 'तएणं ते कोडुंबियवरतरुणपुरिसा सद्दाविय' त्ति शब्दिताः 'समाण' ति सन्तः, अट्ठमंगलय त्ति अष्टावष्टाविति वीप्सायां द्विवचनं मङ्गलकानिमाङ्गल्यवस्तूनि, अन्ये त्याहुः अष्टसंख्यानि अष्टमङ्गलसंज्ञानिवस्तूनीति 'तप्पढ़मयाए' त्ति तेषां विवक्षितानांमध्ये प्रथमता तत्प्रथमता तया 'वद्धमाणयं' ति शरावं, पुरुषारूढः पुरुष इत्यन्ये, स्वस्तिकपञ्च-कमित्यन्ये, प्रासादविशेष इत्यन्ये 'दप्पण' ति आदर्शः, इह यावत्करणादिदं दृश्यम्'तयाऽणंतरं च णं पुण्णकलसभिंगारा दिव्वा य छत्तपडागा सचामरा दंसणरइयआलोइयदरिसणिज्जा वाउद्भूयविजयवेजयंती य ऊसिया गगणतल १-कोरेण्ट शब्दोऽपि।
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________________ मेहकुमार 412 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मेहकुमार मणुलिहंती पुरओ अहाणुपुटवीए संपट्ठिया। तयाऽणंतरं च वेरुलिय- दर्शनरतिदा-दृष्टिसुखदा आलोके-दृष्टिविषये क्षेत्रे स्थिताऽत्युचतया भिसंतविमलदंड पलंबकोरंटमल्लदामोवसोहियं चंदमंडलनिभं विमलं दृश्यतेया साआलोकदर्शनीया, ततः कर्मधारयः, अथवा-दर्शने दृष्टिपथे आयवत्तं पवरं सीहासणं च मणिरयणपायपीढं सपाउया जोयसमाउत्तं मेघकुमारस्य रचिता-धृता या आलोकदर्शनीया च या सा तथा, बहुर्किकरकम्मकरपुरिसपायत्तपरिक्खित्तं पुरओ अहाणुपुव्वीए संपट्ठियं / वातोद्भूता विजयसूचिका च या वैजयन्ती-पताका-विशेषः सा तथा, तयाऽणंतरं च णं बहवे लट्ठिग्गाहा कुंतग्गाहा चावग्गाहा धयग्गाहा साच 'ऊसिया'-उच्छ्रिता ऊर्ध्वकृता पुरतः-अग्रतः यथानुपूर्वीक्रमे ण चामरग्गाहा कुमरग्गाहा पोत्थयग्गाहा फलयग्गाहा पीढयग्गाहा वीणग्गाहा सम्प्रस्थिता-प्रचलिता, 'भिसंत त्ति दीप्यमानः, मणिरत्नानां सम्बन्धि कूवग्गाहा हडप्फग्गाहापुरओ अहाणु-पुव्वीए संपट्टिया। तयाऽणंतरंचणं पादपीठं यस्य सिंहासनस्य तत्तथा, स्वेन-स्वकीयेन मेधकुमारबहवे दंडिणो मुंडिणो सिहिणो पिंछिणो हासकरा डमरकरा चाडुकरा सम्बन्धिना पादुकायुगेन समायुक्तं यत्तत्तथा, बहुभिः किङ्करैः-किंकुर्वाणैः कीडता य वायंता य गायंता य नचंता यहासंता य सोहिंताय साविताय कर्मकरपुरुषैः पादात्येन च-पादातिसमूहेन शस्त्रपाणिना परिक्षिप्त रक्खंता य आलोयं च करेमाणा जयजयसदं च पउंजमाणा पुरओ यत्तत्तथा 'कूय' त्ति कुतुपः 'हडप्फो' ति आभरणकरण्डकं मुंडिणो' अहाणुपुव्वीए संपट्ठिया / तयाऽणंतरं च णं जचाणं तरमंल्लिहायणाणं मुण्डिताः 'सिहिणो' शिखावन्तः 'डमरकराः' परस्परेण कलहथासगअहिलाणाणं चामरगंडपरि मंडियकडीणं अट्ठसयंवरतुरगाणं पुरओ विधायकाः 'चाटुकराः' प्रियंवदाः 'सोहिता यत्ति शोभा कुर्वन्तः अहाणुपुव्वीए संपट्टियं / तयाऽणंतरं च णं ईसिदन्ताणं ईसिमत्ताण 'साविता य' त्ति श्रावयन्तः आशीर्वचनानि रक्षन्तः न्यायम् आलोकं च ईसिउच्छंगवि-सालधवलदंताणं कंचणकोसिपविट्ठदंताणं अट्ठसयंगयाणं कुर्वाणाः-मेघकुमारं तत्समृद्धिं च पश्यन्तः, जात्यानां काम्बो-जादिपुरओ अहाणुपुव्वीए संपट्ठि। तयाऽणंतरं च णं सछत्ताणं सज्झयाणं देशोद्भवानां तरमल्लिनोबलाधायिनो वेगाधायिनो वा हायनाः--संवत्सरा सघंटाणं सपडागाणं सतोरणवराणं सनंदिघोसाणं सखिंखिणीजा- येषां ते तथा तेषाम्, अन्ये तु- 'भायल' त्ति मन्यन्ते, तत्र भायलालपरिक्खित्ताणं हेममयचित्ततिणिसकणकनिजुत्तदारुयाणं कालायस- जात्यविशेषा एवेति गमनिकैवैषा, थासकादर्पणाकाराः अहिलाणानि सुकयनेमिजंतकमाणं सुसिलिट्ठवित्तमंडलधुराणं आइण्णवरतुरगसं- च कविकानि येषां सन्ति ते तथा, मतुब्लोपात्, 'चामरदण्डा' चामरपउत्ताणं कुसलनरछेयसारहिसुसंपरिग्गहियाणं वत्तीसतोणपरिमंडियाणं दण्डास्तैः परिमण्डिता कटी तेषां ते तथा तेषाम, ईषद्दान्तानां-मनाग् सकंकडवडंसकाणं सचावसरपहरणाव-रणभरियजुद्धसज्जाणं अट्ठसयं ग्राहितशिक्षाणामीषन्मत्तानां, नातिमत्तांते हि जनमुपद्रवयन्तीति, ईषत् रहाणं पुरओ अहाणुपुव्वीए संपट्ठियं तयाऽणतरं च णं असिसत्तिकोंत- मनागुत्सङ्गः इवोत्सङ्ग:-पृष्ठिदेशस्तत्र विशाला–विस्तीर्णा धवलदन्ताश्च तोमरसूललउडभिंडिमालधणुपाणिसज्जं पायत्ताणीयं पुरओ अहाणुपुव्वीए येषां ते तथा तेषां, कोशीप्रतिमा, नन्दिघोषः-तूर्यनादः,अथवासंपट्ठियं / तएणं से मेहे कुमारे हारोत्थसुकयरइयवच्छे कुंडलुज्जोइयाणणे सुनन्दीसत्समृद्धिको घोषो येषां ते तथा तेषाम्, सकिसिणि सक्षुद्रघण्टिकं मउडदित्तसिरए अब्भहियरायतेयलच्छीए दिप्यमाणेसकोरण्टमल्लदामेणं यज्जालं मुक्ताफलादिमयं तेन परिक्षिप्ता ये ते तथा तेषाम, तथा छत्तेणं धरिजमाणेणं सेयवरचामराहिं उद्बुवमाणीहिं हयगयपवरजोह- हैमवतानि-हिमवत्पर्वतोद्भवानि चित्राणि तिनिशस्य-वृक्षविशेषस्य कलियाए चाउरंगिणीए सेणाए समणुगम्ममाणमग्गे जेणेव गुणसिलए चेइए सम्बन्धीनि कनकनियुक्तानि-हेमखचितानि दारूणि-काष्ठानि येषां ते तेणेव पहारेत्थ गमणाए।तएणं तस्स मेहस्स कुमारस्स पुरओ महं आसा तथा तेषाम्, कालायसेन-लोहविशेषेण सुष्टु कृलं नेमेः-गण्डमालायाः आसधर उभओ पासे नागा नागधरा करिवरा पिट्ठओ रहा रहसंगेल्ली। यन्त्राणां च रथोपकरणविशेषाणां कर्म येषां ते तथा तेषाम्, सुश्लिष्ट तएणं से मेहे कुमारे अब्भागयभिंगारे पम्गहियतालयंटे ऊसवियसेयछत्ते 'वित्त' त्ति-वेत्रदण्डवत् मण्डले वृत्ते धुरौ येषां ते तथा तेषाम्, आकीर्णापवीजियबालवीयणीए सव्विड्डीए सव्वजुईए सव्वबलेणं सव्वसमुदएणं वेगादिगुणयुक्ताः ये वरतु-रगास्ते संप्रयुक्तायोजिता येषु ते तथा तेषाम्, सव्यादेरणं सव्वविभूईए सव्वविभूसाए सव्व-संभमेणं सव्वगन्धपुप्फम- कुशलनराणां मध्ये ये छेकाः-दक्षाः सारथयस्तैः सुसंप्रगृहीता येते तथा ल्लालङ्कारेणं सव्वतुडियसद्दसन्निनाएणं महया इड्डीए महया जुईए महया तेषाम्, 'तोण' त्ति-शरभस्त्राः सह कण्टकैः- कवचैर्वशैश्च वर्तन्ते ये ते बलेणं महया समुदएण महया वरतुडियजमगपवाइएणं संखपणवपड़- तथा तेषाम्, सचापा:-धनुर्युक्ता ये शराः, प्रहरणानि च खगादीनि हमेरिझल्लरिखरमुहिहुक्कमुरवमुइंगदुंदुभिनिग्घोसनाइयरवेणं रायगि- आवरणानि च-शीर्षकादीनि तैर्ये भृता युद्धसज्जाश्च युद्धप्रगुणाश्च येते तथा हस्स नगरस्स मज्झं मज्झे णं णिग्गच्छइ / तए णं से तस्स मेहस्स तेषाम्, 'लउड' तिलकुटाः अस्यादिकानि पाणौ हस्ते यस्य तत्तथा तच कुमारस्स रायगिहस्स नगरस्स मज्झं मज्झेणं णिग्गच्छमाणस्स बहवे तत्सजंच प्रगुणं युद्धस्येति गम्यते, पादातानीकं पदातिकटकं हारावस्तृत अत्थत्थिया कामत्थिया भोगात्थिया लाभत्थिया किदिवसिया करोडिया सुकृतरतिकं विहितसुखं वक्षो यस्य स तथा, मुकुटदीप्तशिरस्कः, पहारेत्थ कारवाहिया संखिया चकिया लंगलिया मुहमंगलिया पूसमाणगा गमणयाए' त्ति गमनाय प्रधारितवान्, 'मह' त्ति महान्तः अश्वाः, अश्व वद्धमाणगा ताहिं इवाहिं कं ताहिं पियाहिं मणन्नाहिं मणामाहिं धराः ये अश्वान् धारयन्ति, नागा हस्तिनः नागधरा ये हस्तिनो धारयन्ति, भणाभिरामाहिं हिययगमणिजाहिं वग्गूहि" ति। अयमस्यार्थः-तदनन्तरं क्वचिद्वरा इतिपाठः, तत्राश्वा नागाश्च किं विधाः?-अश्ववरा अश्वप्रधानाः, च छत्र-स्योपरि पताका छत्रपताका सचामरा चामरोपशोभिता तथा | एवं नागवराः, तथा रथा रथसंगिणेल्ली रथमाला क्वचित् 'रहसंगेल्ली' इ
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________________ मेहकुमार 413 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मेहकुमार ति पाठः, तत्र-रथसङ्गेली-रथसमूहः। 'तए णं से मेहे कुमारे अडभागयभिंगारे' इत्यादि वर्णकोपसंहारवचनमिति न पुनरुक्तम् 'सव्विड्डीए' त्यादि दोहदायसरे व्याख्यातम्, शङ्खः प्रतीतः, पणवो-भाण्डानां पटहः, पटहस्तुप्रतीत एव, मरीढक्काकारा झल्लरीवलयाकारा खरमुही-काहला हुडुक्का प्रतीता महाप्रमाणो मईलो मुरजः, स एव लधुमृदङ्गो, दुन्दुभिः भर्याकारा सङ्कटमुखी एतेषां निर्घोषो महाध्वानो नादितं चघण्टायामिव वादनोत्तरकालभावी- स तथा तद्ध्वनिस्तल्लक्षणो यो रवस्तेन, अर्थार्थिनोद्रव्यार्थिनः कामार्थिनः-शब्दरूपार्थिनः भोगार्थिनः गन्धरसस्पर्शार्थिनः लाभार्थिनः-सामान्येन लाभेपसवः किल्विषिकाः-- पातकफलवन्तो निःस्वान्धपग्वादयः कारोटिकाः-कापालिकाः करोराजदेयं द्रव्यं तद्वहन्ति ये ते करवाहिकाः करेण वा बाधिताः-पीडिता ये ते करवाधिताः, शंखवादनशिल्पमेषामिति, शांखिकाः शंखो वा विद्यते येषां माङ्गल्यचन्दनाधारभूतः ते शांखिकाः, चक्रं प्रहरणमेषामिति चाक्रिकाः योद्धारः चक्रं वाऽस्ति येषां ते चाक्रिकाः-कुम्भकारतैलिकादयः चक्रं वोपदी याचन्ते ये ते चाक्रिकाः चक्रधरा इत्यर्थः, लाङ्गलिकाः हालिकाः लागलं वा प्रहरणं येषां गले वा लम्बमानं सुवर्णादिमयं तद् येषां ते लाङ्गलिकाः-कार्पटिकाविशेषाः मुखमङ्गलानिचाटुवचनानिये कुर्वन्ति ते मुखमाङ्गलिकाः पुष्यमाणवानग्नाचार्या, बर्द्धमानकाः स्कन्धारोपितपुरुषाः, 'इट्ठाही' त्यादि पूर्ववत्, 'जियविग्धो वि य वसाहि' त्ति इहैव संबन्धः, अपि च-जितविघ्नः त्वं हेदेव ! अथवा देवानां सिद्धेश्व मध्ये वस आसस्व, 'निहणाहि, त्ति विनाशय रागद्वेषौ मल्लौ, केन करणभूतेनेत्याह-तपसा-अनशनादिना, किंभूतःसन्? धृत्या चित्तस्वास्थ्येन 'धणियं' ति अत्यर्थं पाठान्तरेण बलिका-दृढा बद्धा कक्षा येन स तथा, मल्लं हि प्रतिमल्लो मुष्ट्यादिना करणेनवस्त्रादिदृढवद्धकक्षः सन्निहन्तीति एवमुक्तमिति, तथा मर्दय अष्टौ कर्मशत्रून् ध्यानेनोत्तमेनशुक्लेनाप्रमत्तः सन्, तथा पावय त्ति प्राप्नुहि वितिमिरम्-अपगताज्ञानतिमिरपटलं नास्मादुत्तरमस्तीति अनुत्तरं केवलज्ञानं, गच्छ च मोक्षं पर पदं शास्वतमचलंचेत्येवं चकारस्य सम्बन्धः, किं कृत्वा? हत्वा परिष-' हचमू-परिषह-सैन्यम्, णमित्यलङ्कारे, अथवा-किंभूतस्त्वं? हन्ता विनाशकः परिषहचमूनाम। तते णं तस्स मेहस्स कुमारस्स अम्मापियरो मेहं कुमारं पुरओ | कट टु जेणामेव समणे भगवं महावीरे तेणामेव उवागच्छंति 2 ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करें ति २त्ता वंदति नमसंति २त्ता एवं वदासी-एस णं देवाणुप्पिया! मेहे कुमारे अम्हं एगे पुत्ते इहे कंते जाव जीवियाउसासए | हिययणंदिजणए उंबरपुप्फ पिव दुल्लहे सवणयाए किमंग ! पुण दरिसणयाए? से जहानामए उप्पलेति वा पउमेति वा कुमुदेति वा पंकजाए जले संवड्डिए नोवलिप्पइ पंकरएणं णोवलिप्पइ जलरएणं एवामेव मेहे कुमारे कामेसु जाए भोगेसु संवुड्ढे नोवलिप्पति कामरएणं, नोवलिप्पति भोगरएणं, एस णं देवाणुप्पिया ! संसारभउव्विग्गे भीए जन्मणजरमरणाणं इच्छइ देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगा-रियं पव्वतित्तए, अम्हे णं देवाणुप्पियाणं सिस्समिक्खं दलयामो, पडिच्छंतु णं देवाणुप्पिया ! सिस्सभिक्खं / तते णं से समणे भगवं महावीरे मेहस्स कुमारस्स अम्मापिउएहिं एवं वुत्ते ससाणे एयमटुं सम्म पडिसुणेति / तते णं से मेहे कुमारे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियाओ उत्तरपुरच्छिमं दिसिभाग अवक्कमति २त्ता सयमेव आमरणमल्लालंकारं ओमुयति। तते णं से मेहकुमारस्स माया हंसलक्खणेणं पड-साडएणं आभरणमल्लालंकारं पडिच्छति २त्ता हारवारिधारसिंदुवारछिन्नमुत्तावलिपगासातिं अंसूणि विणिम्मुयमाणी 2 रोयमाणी 2 कंदमाणी 2 विलवमाणी 2 एवं वदासी-जतियव्वं जाया ! घडियध्वं जाया ! परिकमियट्वं जाया ! अस्सि च णं अटे नो पमादेयव्वं अम्हं पिणं एमेव मग्गे भवउ त्ति कट् टु मेहस्स कुमारस्स अम्मापियरो समणं भगवं महावीरं वंदंति नमसंति 2 ताजामेव दिसिं पाउन्भूता तामेव दिसिं पडिगया। (सूत्र-२९) 'एगे पुत्ते' इति धारिण्यपेक्षया, श्रेणिकस्य बहुपुत्रत्वात्, जीवितो-- च्छासको हृदयनन्दिजनकः, उत्पलमिति वा-नीलोत्पलं पद्ममिति वाआदित्यबोध्यं कुमुदमिति वा चन्द्रबोध्यम्। जइयव्व' मित्यादि, प्राप्तेषु संयमयोगेषु यत्नः कार्यो हे जात! पुत्र! घटितव्यम्-अप्राप्तप्राप्तये घटना कार्या पराक्रमितव्यं च-पराक्रमः कार्यः, पुरुषत्वाभिमानः सिद्धफलः कर्तव्य इति भावः, किमुक्तं भवति?-एतस्मिन्नर्थे --प्रव्रज्यापालनलक्षणे न प्रमादयितव्यमिति। तते णं से मेहे कुमारे सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेति 2 त्ता जेणामेव समणे भगवं महावीरे तेणामेव उवागच्छति २त्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेति २त्ता वंदति नमंसति 2 त्ता एवं वदासी आलित्ते णं भंते ! लोए पलित्ते णं मंते ! लोए आलित्तपलित्ते णं भंते ! लोए जराए मरणेण य, से जहाणामए केई गाहावती आगारंसि झियायमाणंसिजेतत्थ भंडे भवति अप्पमारे मोल्लगुरुए तं गहाय आयाए एगंतं अवज्ञमति एसमे णित्थारिएसमाणेपच्छा पुरा हियाएसुहाएखमाएणिस्सेसाए आणुगामियत्तए भविस्सति एवामेव मम वि एगे आया भंडे इढे कंते पिए मणुग्ने मणामे एस मे नित्थारिए समाणे संसारवोच्छेयकरे भविस्सति / तं इच्छामि णं देवाणुप्पियाहि सयमेव पव्वावियं सयमेव मुंडावियं सेहावियं सिक्खावियं सयमेव आयारगोयरविण
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________________ मेहकुमार 414 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मेहकुमार यवेणइयचरणकरणजायामायावत्तियं धम्ममाइक्खियं / तते णं समणे भगवं महावीरे मेहं कुमार सयमेव पवावेति सयमेव आयार०जाव धम्ममातिक्खइ-एवं देवाणुप्पिया ! गंतव्वं चिद्वितध्वं णिसीयध्वं तुयट्टियव्वं भुंजियव्वं भासियव्वं एवं उहाय उहाय पाणेहिं भूतेहिं जीवेहिं सत्तेहिं संजमेणं संजमि-तय्वं अस्सिचणं अढे णोपमादेयध्वं ! तते णं से मेहे कुमारे समणस्स भगवओमहावीरस्स अंतिए इमं एयारूवं धम्मियं उवएसं णिसम्म सम्म पडिवज्जइ तमाणाए तह गच्छइ तह चिट्ठइ० जाव उट्ठाय उट्ठाय पाणेहिं भूतेहिं जीवेहि सत्तेहिं संजमइ। (सूत्र-३०) जं दिवसं च णं मेहे कुमारे मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पव्वइए तस्स णं दिवसस्स पुव्वावरण्हकालसमयंसि समणाणं निग्गंथाणं आहारातिणियाए सेज्जासंथारएसु विभञ्जमाणेसु मेहकुमारस्स दारमूले सेज्जासंथारए जाए यावि होत्था। तते णं समणा णिग्गंथा पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसिवायणाए पुच्छणाए परियट्टणाए धम्माणुजोगचिंताए य उचारस्स य पासवणस्स य अइगच्छमाणा य निग्गच्छमाणा य अप्पेगतिया मेहं कुमार हत्थेहिं संघट्टति एवं पाएहिं सीसे पोट्टे कार्यसि अप्पेगतिया ओलं. ति अप्पेगइया पोलंडेइ अप्पेगतिया पायरयरेणुगुंडियं करेंति / एवं महालियं च णं रयणीं मेहे कुमारे णो संचाएति खणमवि अच्छिं निमीलित्तए तते णं तस्स मेहस्स कुमारस्स अयमेयारूवे अन्मस्थिए० जाव समुप्पज्जित्था-एवं खलु अहं | सेणियस्सरनो पुत्ते धारि-णीए देवीए अत्तए मेहे०जाव समणयाए तं जयाणं अहं अगारमज्झे वसामि तयाणं मम समणा णिग्गंथा आढायंति परिजाणंति सकारेंति सम्माणेति अट्ठाई हेऊतिं पसिणातिं कारणाइंवाकराई आतिक्खंति इटाहि कंताहिं वग्गूहि आलवेति संलवेंति, जप्पमितिंचणं अहं मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पव्वइए तप्पमितिं च णं मम समणा नो आढायंति० जाव नो संलवंति / अदुत्तरं च णं मम समणा णिग्गंथा राओ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि वायणाए पुच्छणाए०जाव महालियं चणं रत्तिं नो संचाएमि अच्छि णिमीलावेत्तए, तं सेयं खलु मज्झं कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए०जाव तेयसा जलंते समणं भगवं महावीरं आपुच्छित्ता पुणरवि आगारमज्झे वसित्तए त्ति कट्टु एवं संपेहेति २त्ता अट्टदुहट्टवसट्टमाणसगए णिरयपडिरूवियं च णं तं रयणिं खवेइ 2 त्ता कल्लं पाउप्पभायाए सुविमलाए रयणीए० जाव तेयसा जलंते जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणामेव उवागच्छति २त्ता तिक्खुत्तो आदाहिणं पदाहिणं करेइ २त्ता वंदइ नमसइ 2 त्ता०जाव पजुवासइ। (सूत्र०-३१) आदीप्तः-ईषद् दीप्तः-प्रदीप्तः-प्रकर्षण दीप्त आदीप्तप्रदीप्तोऽत्य- | न्तप्रदीप्त इति भावः, 'गाहावइ' त्ति गृहपतिः 'झियायमाणंसि' त्ति ध्मायमाने भाण्डं-पण्यं हिरण्यादि अल्पभारम्, पाठान्तरे-अल्पं च तत्सारं चेत्यल्पसारं-मूल्यगुरुकम् 'आयाए' त्ति आत्मनः ‘पच्छा पुरा य' त्ति पश्चादागामिनि काले पुरा च पूर्वमिदानीमेव लोके-जीवलोके, अथवा-पश्चाल्लोके आगामिजन्मनि पुरालोके--इहैव जन्मनि, पाठान्तरे-'पच्छाउरस्स' त्ति पश्चादग्निभयोत्तरकालम् आतुरस्यबुभुक्षादिभिः पीडितस्येति। 'एगे भण्डे' त्ति एकम्-अद्वितीयं भाण्डमिव भाण्डं 'सयमेवे' त्यादिस्वयमेव प्रवाजितं वेषदानेन आत्मानम् इति गम्यते, भावे वा क्तः प्रत्ययः प्रव्राजनमित्यर्थः, मुण्डितं-शिरोलोचेन सेधितं-निष्पादितं करणप्रत्युपेक्षणादिग्राहणतः, शिक्षितं सूत्रार्थग्राहणतः, आचारोज्ञानादिविषयमनुष्ठानं कालाध्ययनादि गोचरो-भिक्षाटनं विनयः-प्रतीतो वैनयिकंतत्फलं कर्मक्षयादि चरणंव्रतादि करणंपिण्डविशुद्ध्यादियात्रा-संयमयात्रा मात्रा-तदर्थमेवाहारमात्रा ततो द्वन्द्वः तत एषामाचारादीनां वृत्तिःवर्तनं यस्मिन्नसौ आचारगोचरविनयवैनयिकचरणकरणयात्रामात्रावृत्तिकस्तं धर्ममाख्यातम् अभिहितम्, ततः श्रमणो भगवान् महावीरः, स्वयमेव प्रव्राजयति यावत् धर्ममाख्याति, कथमित्याह एवं गन्तव्यं युगमात्रभून्यस्तदृष्टिनेत्यर्थः,' एवं चिट्ठियव्यं' ति शुद्धभूमौ ऊर्ध्व-स्थानेन स्थातव्यम्, एवं निषीदितव्यम्-उपवेष्टव्यं संदंशकभूमि-प्रमार्जनादिन्यायेनेत्यर्थः, एवं त्वग्वर्तितव्यंशयनीयं सामायिकाद्युधारणपूर्वकं शरीरप्रमार्जनां विधाय संस्तारकोत्तरपट्टयोबर्बाहूपधानेन वामपार्श्वत इत्यादिनान्यायेनेत्यर्थः, भोक्तव्यंवेदनादिकारणतोऽङ्गारादिदोषरहितमित्यर्थः, भाषितव्यंहितमितमधुरादिविशेषणतः, एवमुत्थायोत्थाय-प्रमादनिद्राव्यपोहेन विबुद्ध्य 2 प्राणादिषु विषयेषु संयमोरक्षा तेन 'संयन्तव्यम्'-संयतितव्य-मिति, तत्र-"प्राणा द्वित्रिचतुःप्रोक्ताः, भूतास्तुतरवः स्मृताः।जीवाः पञ्चेन्द्रिया ज्ञेयाः, शेषाः सत्त्वा उदीरिताः / / 1 // " किं बहु-ना? अस्मिन् प्राणादिसंयमे न प्रमादयितव्यम्, उद्यम एव कार्य इत्यर्थः / प्रत्यपराह्नकालसमयोविकालः, 'आहाराइणियाए' त्ति यथा रत्नाधिकतया यथाज्येष्ठमित्यर्थः, शय्या-शयनंतदर्थ संस्तारकभूमयः, अथवा-शय्यायां वसती संस्तारकाः शय्यासंस्तारका वाचनायैवाचनार्थं धर्मार्थमनुयोगस्यव्याख्यानस्य चिन्ता धर्मानुयोगस्य वा-धर्मव्याख्यानस्य चिन्ता धर्मानुयोगचिन्ता तस्यै अतिगच्छन्तः-प्रविशन्तो निर्गच्छन्तश्चाऽऽलयादिति गम्यते, 'ओलंडिंति, त्ति उल्लङ्घयन्ति पोलंडन्ति' त्ति प्रकर्षण द्विस्त्रिोल्लङ्घयन्तीत्यर्थः, पादरजोलक्षणेन रेणुना पादरयाद्वातद्वेगात्रेणुना गुण्डितोयः स तथा तं कुर्वन्ति। एवं महालियं चणं रयणिं ति' इति महतीं च रजनी यावदितिशेषः, मेघकुमारो'नो संचाएति तिनशक्नोति क्षणभप्यक्षि निमीलयितुम्-निद्राकरणायेति, आध्यात्मिकः-आत्मविषयश्चिन्तित:स्मरणरूपःप्रार्थितः-अभिलाषात्मकः मनोगतः-मनस्येव वर्तते यो
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________________ मेहकुमार 415 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मेहकुमार न बहिः स तथा सङ्कल्पो-विकल्पः समुत्पन्नः आगारमध्येगेहमध्ये वसामि अधितिष्ठामि, पाठान्तरतो-अगारमध्ये आवसामि, 'आढायंति' आद्रियन्ते परिजानन्ति यदुतायमेवंविध इति 'सक्कारयंति' सत्कारयन्ति च वस्त्रादिभिरभ्यर्चयन्तीत्यर्थः सन्मानयन्ति' उचितप्रतिपत्तिकरणेन , अर्थान् जीवादीन्, हेतून- तद्गमकानन्वयव्यतिरेकलक्षणान्, प्रश्नान पर्यनुयोगान् कारणानि-उपपत्तिमात्राणि व्याकरणानि-परेण प्रश्ने कृते उत्तराणीत्यर्थः, आख्यान्ति ईषत् संलपन्ति मुहुर्मुहुः, 'अदुत्तरं च णं' ति, अथवा-परम्-‘एवं संपेहेइ' त्ति संप्रेक्षते पर्यालोचयति 'अट्टदुहट्टवसट्टमाणसगए' त्ति आर्तेनध्यानविशेषेण दुःखार्त-दुःखपीडितं वशार्तविकल्पवशमुपगतं यन्मानसं तद्गतः-प्राप्तो यः स तथा, निरयप्रतिरूपिकां च नरकसदृशीं दुःखसाधात् तां रजनी क्षपयति-गमयति। तते णं मेहातिसमणे भगवं महावीरे मेहं कुमारं एवं वदासीसे णूणं तुम मेहा ! राओ पुय्वरत्तावरत्तकालसमयंसि समणेहिं निग्गंथेहिं वायणाए पुच्छणाए०जाव महालियं च णं राई णो संचाएसि मुहुत्तमवि अच्छि निमीलावेत्तए / तते णं तुम्भं मेहा ! इमे एयारूवे अब्मथिए०समुप्पञ्जित्थाजया णं अहं, अगारमज्झे वसामि तया णं मम समणा निग्गंथा आढायंति० जाव परियाणंति, जप्पमितिं च णं मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पव्वयामि तप्पमितिं च णं मम समणा णो आढायंति जाव नो परियाणंति अदुत्तरं च णं समणा निग्गंथा राओ अप्पेगतिया वायणाए०जाव पायरयरेणुगुंडियं करेंति, तं से यं खलु मम कल्लं पाउप्पभायाए समणं भगवं महावीरं आपुच्छित्ता पुणरवि आगारमज्झे आवसित्तए त्ति कटु एवं संपेहेसि 2 त्ता अदृदुहदृवसट्टमाणसे०जाव रयणी खवेसि 2 त्ताजेणामेव अहं तेणामेव हव्वमागए ? से णूणं मेहा ! एस अत्थे समझे? हंता अत्थे समटे / एवं खलु मेहा ! तुम इओ तचे अईए भवग्गहणे वेयडगिरिपायमूले वणयरेहिं णिव्वत्तियणामधेज्जे से ते संखदलउज्जलविमलनिम्मलदहियणगोखीरफेणरयणियरप्पयासे सत्तुस्सेहे णवायए दसपरिणाहे सत्तंगपतिट्ठिए सोमे समिए सुरूवे पुरतो उदग्गे समूसियसिरे सुहासणे पिट्ठओ वराहे अजियाकुच्छी अच्छिद्दकुच्छी अलंबकुच्छी पलंबलंबोदराहरकरे धणुपट्टागिइविसिट्ठपुढे अल्लीणपमाणजुत्तवट्टियापीवरगत्तावरे अल्लीणपमाणजुत्तपुच्छे पडिपुन्नसुचारुकुम्मचलणे पंडुरसुबिसुद्धनिद्धणिरुवहयविसतिणहे छदंते सुमेरुप्पभे नाम हस्थिराया होत्था। तत्थ णं तुम मेहा ! बहूहिं हत्थीहि य हत्थीणियाहि य लोट्ठएहि य लोट्टियाहि य कलभेहि य कलभियाहि य सद्धिं संपरिवुडे हत्थिसहस्सणायए देसए पागट्ठी पट्ठवए जूहवई वंदपरियट्टए अन्नेसिं च बहूणं एकल्लाणं हत्थिकलभाणं आहेवचं०जाव विहरसि / तते णं तुम मेहा ! णिचप्पमत्ते सई पललिए कंदप्परई मोहणसीले अवितण्हे कामभोगतिसिए बहूहिं हत्थीहिय०जाव संपरिवुडे वेयवगिरिपायमूले गिरीसुय दरीसु य कुहरेसु य कंदरासु य उज्झरेसु य निज्झरेसु य वियरएसु य गद्दासु य पल्लवेसु य चिल्ललेसु य कडयेसु य कडयपल्ललेसु य तडीसुय वियडीसु य टंकेसुय कूडेसुय सिहरेसुय पन्भारेसु य मंचेसु य मालेसु य काणणेसु य वणेसु य वणसंडेसु य वणराईसुय नदीसुय नदीकच्छेसुयजूहेसु य संगमेसुय वावीसु य पोक्खरिणीसु य दीहियासु य गुंजालियासु य सरेसु य सरपंतियासु य सरसरपंतियासु य वणयरएहिं दिनवियारे बहूहिं हत्थीहि य०जाव सद्धिं संपरिदुडे बहुविहतरुपल्लवपउरपाणियतणे निभए निरुव्विग्गे सुहं सुहेणं विहरसि / तते णं तुम मेहा! अन्नया कयाइ पाउसवरिसारत्तसरयहेमंतवसंतेसु कमेण पंचसु उउसु समतिकतेसु गिम्हकालसमयंसि जेट्ठामूलमासे पायवर्घससमुट्ठिएणं सुक्कतणपत्तकयवरमारुतसंजोगदीविएणं महाभयंकरेणं हुयवहेणं वणदवजालासंपलित्तेसु वणंऽतेसु धूमाउलासु दिसासु महावायवेगेणं संघट्टिएसु छिन्नजालेसु आवयमाणेसु पोल्लरुक्खेसुं अन्तो 2 झियायमाणेसु मयकुहितविणट्ठकिमियकद्दमनदीवियरगखीणपाणीयंतेसु वणंतेसु भिंगारकदीणकंदियरवेसुखरफरसअणिहरिद्ववाहितविहु-मग्गेसु दुमग्गेसुंतण्हावसमुक्तपक्खपयडियजिब्मतालुयअसंपुउिततुंडपक्खिसंघेसु ससंतेसु गिम्हउण्हवायखरफरुसचम्ममारुयसुक्कतणपत्तकयवरवाउलिभमतदित्तसंभंतसावयाउलमिगतण्हाबद्धचिण्हपट्टेसु गिरिवरेसुसंवट्टिएसुतत्थ मियपसयसिरीसिवेसुअवदालियवयणविवरणिल्लालियग्गजीहे महंततुंबइयपुग्नकन्ने संकुचियथोरपीवरकरे ऊसियलंगूले पीणाइयविरसरमियसद्देसं फोडयंतेव अंबरतलं पाय-दहरएणं कं पयतेव मेइणितलं विणिम्मुयमाणे यसीयारं सव्वतो समंता वल्लिवियाणाइं छिंदमाणे रुक्खसहस्सातितत्थ सुबहूणि णोल्लायंते विणहरटे व्व णरवरिंदे वायाइद्धे व्व पोए मंडलवाए व्व परिब्भमंते अभिक्खणं 2 लिंडणियरं पहुंचमाणे 2 बहूहिं हत्थीहि य जाव सद्धिं दिसो दिसिं विप्पलाइत्था। तत्थ णं तुम मेहा ! जुन्ने जराजजरियदेहे आउरे गँजिए पिवासिए दुब्बले किलंतेनट्ठसुइए मूढदिसाए स 16य।
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________________ मेहकुमार 416 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मेहकुमार यातो जूहातो विप्पहूणे वणदवजालापारद्धे उण्हेण तण्हाए य लापलित्तेसु वणंऽतेसु सुधूमाउलासु दिसासुजाव मंडलवाए छुहाए य परब्भाहए समाणे भीए तत्थे तसिए उव्विग्गे संजातभए प्व, तते णं परिज्ममंते भीते तत्थे जाव संजायभए बहूहि सव्वतो समंता आधावमाणे परिधावमाणे एगं च णं महं सरं हत्थीहिय०जाव कलभियाहि यसद्धिं संपरिवुडे सव्वतो समंता अप्पोदयं पंकबहुलं अतित्थेणं पाणियपाए उइन्नो / तत्थ णं दिसो दिसिं विप्पलाइत्था। तते णं तव मेहा! तं वणदवं पासित्ता तुम मेहा ! तीरमतिगते पाणियं असंपत्ते अंतरा चेव सेयंसि अयमेयारूवे अज्झत्थिएन्जाव समुप्पञ्जित्था / कहिं णं मन्ने विसन्ने / तत्थ णं तुम मेहा ! पाणियं पाइस्सामि त्ति कटु हत्थं मए अयमेयारूवे अग्गिसंभवे अणुभूयपुटवे? तव मेहा! लेस्साहिं पसारेसि, से विय ते हत्थे उदगं न पावति। तते णं तुम मेहा! विसुज्झमाणीहिं अज्झवसाणेणं सोहणेणं सुभेणं परिणामेणं पुणरवि कायं पचुद्धरिस्सामीति कटु बलियतरायं पंकंसि तयावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमेणं ईहापूहम-गणगवेसणं खुत्ते / तते णं तुमे मेहा ! अन्नया कदाइ एगे चिरनिजूढे करेमाणस्स सन्निपुव्वे जातिसरणे समुप्पज्जित्था / तते णं तुम गयवरजुवा-णए सगाओ जूहाओ करचरणदंतमुसलप्पहारेहि मेहा ! एयमहूँ सम्म अभिसमेसि, एवं खलु मया अतीए दोचे विप्परद्धे समाणे तं चेव महद्दहं पाणीयं पाए समोयरेति। तते भवग्गहणे इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे वेयडगिरिपायमूले णं से कलभए तुमं पासति 2 त्ता तं पुटवेवरं सुमरति 2 त्ता जाव तत्थ णं महया अयमेयारूवे अग्गिसंभवे समणुभूए। तते आसुरुत्ते रुठे कुविए चंडिक्किए मिसिमिसेमाणे जेणेव तुम तेणेव णं तुमं मेहा ! तस्सेव दिवसस्स पुव्वावरण्हकालसमयंसि उवाग-च्छति 2 त्ता तुमं तिक्खेहिं दंतमुसलेहिं तिक्खुत्तो नियएणं जूहेणं सद्धिं समन्नागए यावि होत्था। तते णं तुम मेहा। पिट्ठतो उच्छुभति उच्छुभित्ता पुव्ववेरं निन्जाएति २त्ता हट्ठतुढे सत्तुस्सेहे० जाव सन्निजाइसमरणे चउड़ते मेरुप्पभे नाम हत्थी पाणियं पिवति २त्ताजामेव दिसिंपाउन्भूए तामेव दिसिंपडिगए। होत्था / तते णं तुज्झ मेहा ! अयमेयारूवे अज्झथिए०जाव तते णं तव मेहा ! सरीरगंसि वेयणा पाउब्मवित्था उज्जला विउला समुप्पञ्जित्था-तं से यं खलु मम इयाणिं गंगाए महानदीए तिउला कक्खडाजाव दुरहियासा पित्तज्जरपरिगयसरीरे दाहिणिल्लंसि कूलंसि विंझगिरिपायमूले दवग्गिसंताणकारणट्ठा दाहवकंतीए यावि विहरित्था / तते णं तुम मेहा ! तं उज्जलं० सएणं जूहेणं महालयं मंडलं घाइत्तएत्ति कटु एवं संपेहेसि 2 जाव दुरहियासं सत्तराइंदियं वेयणं वेदेसि सवीसं वा ससतं ता सुहं सुहेणं विहरसि / सते णं तु-मं नेहा ! अन्नया कयाई परमाउं पालइत्ता अट्टवसट्टदुहट्टे कालमासे कालं किन्च इहेव पढमपाउसंसि महावुट्ठिकायंसि सन्निवइयंसि गंगाए महानदीए जबुद्दीवे भारहे वासे दाहिणड्डभरहे गंगाए महाणदीए दाहिणे कूले अदूरसामंते बहूहिं हत्थीहिं०जाव कलभियाहि य सत्तेहि य विंझगिरिपायमूले एगेणं मत्तवरगंधहत्थिणा एगाए गयवर- हत्थसएहिं संपरिवुड़े एग महं जोयणपरिमंडलं महतिमहालयं करेणूए कुञ्छिसि गयकलभए जणिते / तते णं सा गयकलभिया मंडलं घाएसि।जं तत्थ तणं वा पत्तं वा कटुं वा कंटए वा लया णवण्हं मासाणं वसंतमासम्मि तुमं पायाया। तते णं तुम मेहा! वा वल्ली वा खाणुं वा रुक्खे वा खुवे वा तं सव्वं तिखुत्तो गब्भवासाओ विप्पमुक्के समाणे गयकलभए यावि होत्था, रत्तुप्प- आहुणिय एगंते एडेसि 2 त्ता पाएणं उट्ठवेसि हत्थेणं गेण्हसि / लरत्तसूमालए जासुमणारत्तपारिजातयलक्खारससर- तते णं तुम मेहा! तस्सेव मंडलस्स अदूरसामंते गंगाए महानदीए सकुंकुमसंझब्भरागवन्ने इट्टे णिगस्स जूहवइणो गणियायारकणे दाहिणिल्ले कूले विंझगिरिपायमूले गिरीसुय०जाव विहरसि। रुकोत्थहत्थी अणेगहत्थिसयसंपरिबुडे रम्मेसु गिरिकाणणे- तते णं मेहा ! अन्नया कदाइ मज्झिमए वरिसारत्तं सि सु सुहं सुहेणं विहरसि / तते णं तुमं मेहा ! उम्मुक्कबालभावे / महावुटिकायंसि सन्निवइयंसि जेणेव से मंडले तेणेव उवाजोव्वणगमणुपत्ते जूहवइणा कालधम्मुणा संजुत्तेणं तं जूहं गच्छसि २त्ता दोचं पितचं पिमंडलं घाएसि २त्ता एवं चरिमे सयमेव पडिवञ्जसि / तते णं तुम मेहा ! वणयरेहिं निव्वत्तिय वासारत्तंसि महावुट्टिकायंसि सन्निवइयमाणंसि जेणेव से मंडले नामधेजे०जाव चउदंते मेरुप्पभे हत्थिरयणे होत्था / तत्थ णं तेणेव उवागच्छसि २त्ता दोचं पितचं पिमंडलघायं करेसि, तुम मेहा ! सत्तंगपइट्ठिए तहेव०जाव पडिरूवे / तत्थ णं तुम जं तत्थ तणं वाजाव सुहं सुहेण विहरसि / अह मेहा ! तुम मेहा ! सत्तसइयस्स जूहस्स आहेवचं०जाव अभिरमेत्था। तते गइंदभावम्मि वट्टमाणो कमेणं नलिणिवणविविहणगरे हेमंते णं तुमं अन्नया कयाइ गिम्ह कालसमयंसि जेट्ठामूले वणदवजा- | कुंदलोद्धउद्धततुसारपउरम्मि अतिकं ते अहिणवे गिम्हसम
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________________ मेहकुमार 417 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मेहकुमार यंसि पत्ते वियट्टमाणेसु वणेसु वणकरेणुविविहदिण्णकयपंसुघाओ तुम उउयकुसुमकयचामरकन्नपूरपरिमंडियाभिरामो मयवसविगसंतकडतडकिलिन्नगंधमदवारिणा सुरभिजणिय- / गंधो करेणुपरिवारिओ उउसमत्तजणितसोभो काले दिणयरकरपयंडे परिसोसियतरुवरसिहरभीमतरदंसणिज्जे भिंगाररवंतभेरवरवे गाणाविहपत्तकट्ठतणकयवरुद्धतपइमारयाइद्धनहयलदुमगणे वाउलियादारुणतरे तण्हावसदोसदूसियभमंतविविहसावयसमाउले भीमदरिसणिजे वटुंते दारुणम्मि गिम्हे मारुतवसपसरपसरियवियं मिएणं अब्भहियभीमभेरवरवप्पगारेणं महुधारापडियसित्तउद्घायमाणधगधगधगंतसहुद्धएणं दित्ततरसफुलिंगेणं धूममालाउलेणं सावयसयंतकरणेणं अब्भहियवणदवेणं जालालोवियनिरुद्धधूमंधकारभीयो आयवालोयमहंततुंबइयपुग्नकन्नो आकुंचियथोरपीवरकरो भयवसभयंतदित्तनयणो वेगेण महामहो व्व पवणोल्लियमहल्लरूवो जेणेव कओ ते पुरा दवग्गिभयभीयहियएणं अवगयतणप्पएसरुक्खो रुक्खुद्देसो दवग्गिसंताणकारणट्ठाए जेणेव मंडले तेणेव पहारेत्थ गमणाए, एक्को ताव एस गमो 1 / तते णं तुम मेहा ! अन्नया कयाई कमेणं पंचसु उउसु समतिकतेसु गिम्हकालस-मयंसि जेवमूलं मासे पायवसंघससमुहिएणं०जाव संवट्टिएसु मियसुपक्खिसरीसिवेसु दिसो दिसिं विप्पलायमाणेसु तेहिं बहूहिं हत्थीहि य सद्धिं जेणेव मंडले तेणेव पहारेत्थ गमणाए, तत्थ णं अण्णे बहवे सीहा य वग्धा य विगा य दीविया य अच्छा य तरच्छा य पारासराय सरमाय सियाला विराला सुणहा कोला ससा कोकंतिया चित्ता चिल्लला पुय्वपविट्ठा अग्गिभय-विहुया एगयाओ बिलधम्मेणं चिट्ठति / तए णं तुम मेहा ! जेणेव से मंडले तेणेव उवागच्छसि 2 ता तेहिं बहूहिं सीहेहिं०जाव चिल्ललएहि य एगयओ बिलधम्मेणं चिट्ठसि। तते णं तुम मेहा! पाएणं गत्तं कंडुइस्सामित्ति कटु पाए उक्खित्ते तंसिं च णं अंतरंसि अन्नेहिं बलन्तेहिं सत्तेहिं पणोलिज्जमाणे 2 ससए अणुप्पविढे / तते णं तुम मेहा ! गायं कंडुइत्ता पुणरवि पार्य पडिनिक्खमिस्सामि त्ति कट्टु तं ससयं अणुपविढे पाससि 2 त्ता पाणाणुकंपाए भूयाणुकंपाए जीवाणुकंपाए सत्ताणुकंपाए सो पाए अंतरा चेव संधारिए, नो चेव णं णिक्खित्ते / तते णं तुम मेहा! ताए पाणाणुकंपाएजाव सत्ताणुकंपाए संसारे परित्तीकते माणुस्साउए निबद्धे / तते णं से वणदवे अढातिजाति रातिंदियाइं तं वणं झामेइ 2 त्ता निट्ठिए उवरए उवसंते विज्झाए यावि होत्था। तते णं ते बहवे सीहा य०जाव चिल्लला य तं वणदवं निट्टियंजाव विज्झायं पासंति २त्ता अग्गिभयविप्पमुक्का तोहाए य छुहाए य परब्भाहया समाणा मंडलातो पडिनिक्खमंतिरत्ता सव्वतो समंता विप्पसरित्था, (तएणं ते बहवे हत्थि०जाव छुहाए य परब्भाहया समाणा तओ मंडलाओ पडिनिक्खमंति २त्ता दिसो दिसिं विप्पसरित्था।) तए णं तुम मेहा! जुन्ने जराजजरियदेहे सिढिलवलितया पिणिद्धगत्ते दुब्बले किलंते मुंजिए पिवासिते अथामे अबले अपरक्कमे अचंकमणो वा ठाणुखंडे वेगेण विप्पसरिस्सामि त्ति कटु पाए पसारेमाणे विजुहते विव रयतगिरिप्पन्भारे धरणितलंसि सवंगेहि य सन्निवइए / तते णं तव मेहा ! सरीरगंसि वेयणा पाउन्भूता उज्जला० जाव दाहवक्कं तिए यावि विहरसि / तते णं तुम मेहा! तं उज्जलं०जाव दुरहियासं तिग्नि राइंदियाई वेयणं वेएमाणे विहरित्ता एगं वाससतं परमाउंपालइत्ता इहेवजंबुद्दीवे दीवे मारहे वासे रायगिहे नयरे सेणियस्स रन्नो धारिणीए देवीए कुञ्छिसि कुमारत्ताए पचायाए। (सूत्र-३२) 'मेहाई' त्ति हे मेघ ! इति, एवमभिलाप्य महावीरस्तमवादीत्-'सेणूण' मित्यादि, अथ नूनं-निश्चितं मेघ ! अस्ति एषोऽर्थः? 'हंते' ति कोमलामन्त्रणे अस्त्येषोऽर्थ इति मेघेनोत्तरमदायि / 'वनचरकैः' शबरादिभिः, 'संखे' त्यादि विशेषणं प्रागिव सत्तुस्सेहे' सप्तहस्तोच्छ्रितः, नवायतोनवहस्तायतः, एवं दशहस्तप्रमाणः मध्यभागे समाङ्गानिपादकरपुच्छलिङ्गलक्षणानि प्रतिष्ठितानि भूमौ यस्य स तथा, समःअविषमगात्रः सुसंस्थितोविशिष्टसंस्थानः, पाठान्तरेण सौम्यसम्मितः तत्र सौम्यः अरौद्राकारोनीरोगोवा सम्मितः-प्रमाणोपेताङ्गः, पुरतः-अग्रतः उदग्रः-उचःसमुच्छ्रितशिराः शुभानि सुखानि वा आसनानिस्कन्धादीनि यस्य स तथा, पृष्ठतः-पश्चादागे वराह इवशूकर इव वराहः अवनतत्वात्, अजिकाया इवोन्नतत्वात् कुक्षी यस्य स तथा, अच्छूिद्रकुक्षिः मांसलत्वात्, अलम्बकुक्षिरपलक्षणवियोगात्, पलम्बलंबोयराहरकरे' त्ति-प्रलम्बं च लम्बौ च क्रमेणोदरं च-जठरमधरकरौ चओष्ठहस्तौयस्य स तथा,पाठान्तरे-(प्र)लम्बौ लम्बोदरस्येव गणपतेरिव अधरकरौ यस्य स तथा, धनुःपृष्ठाकृतिः-आरोपितज्यधनुराकारं विशिष्ट-प्रधानं प्रष्ठं यस्य स तथा, आलीनानि सुश्लिष्टानि प्रमाणयुक्तानि वर्तितानि-वृत्तानि पीवराणि-उपचितानि गात्राणि-अङ्गानि अपराणिवर्णितगात्रेभ्योऽन्यानि अपरभागगतानि वा यस्य स तथा, अथवा आलीनादि विशेषणं गात्रम्-उरः अपरश्च-पश्चाद्भागो यस्य स तथा, वाचनान्तरे विशेषणद्वयमिदम्-अभ्युद्गता-उन्नता मुकुलमल्लिकेवकोरकावस्थविचकिलकुसुमवद्धवलाश्च दन्ता यस्य सोऽभ्युद्गतमुकुलमल्लिकाधवलदन्तः, आनामितंयचापंधनुस्तस्येवललितं-विलासोयस्याः सातथा, साचणंवल्लिताच-संवलेल्लन्तीसङ्कोचिता वाअग्रसुण्डा सुण्डा--
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________________ मेहकुमार 418- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मेहकुमार ग्रं यस्य स आनामितचापललितसंवेल्लिताग्रसुण्डः आलीनप्रमाणयुक्तपुच्छः प्रतिपूर्णाः सुचारवः कूर्मवचरणा यस्य स तथा, पाण्डुराःशुक्लाः सुविशुद्धाः-निर्मलाः स्निग्धाः कान्ता निरुपहताः-स्फोटादिदोषरहिता विंशतिर्नखा यस्य स तथा, तत्र त्वं हे मेघ! बहुभिर्हस्त्यादिभिः सार्द्ध संपरिवृत्तः आधिपत्यं कुर्वन् विहरसीति सम्बन्धः / तत्र हस्तिनः-परिपूर्णप्रमाणाः लोट्टकाः-कुमारकावस्थाः-कलभाः-बालकावस्थाः हस्तिसहस्रस्य नायकः-प्रधानः न्यायको वा-देशको हितमार्गादेः प्राकर्षी -प्राकर्षकोऽग्रगामी प्रस्थापको-विविधकार्येषु प्रवर्तको यूथपतिः-तत्स्वामी वृन्दपरिवर्द्धकः-तद्वृद्धिकारकः 'सइंपललिए' त्ति सदा प्रललितः--प्रक्रीडितः कन्दर्परतिः केलिप्रियः मोहनशीलोनिधुवनप्रियः अवितृप्तो मोहने एवानुपरतवाञ्छः, तथा सामान्येन कामभोगेऽतृषितः गिरिषु च पर्वतेषु दरीषु चकन्दरविशेषेषु कुहरेषु चपर्वतान्तरालेषु कन्दरासुचगुहासु उज्झरेषु च-उदकस्य प्रपातेषु निझरिषु च-स्यन्दनेषु विदरेषु च क्षुद्रनद्याकारेषु नदीपुलिनस्यन्दजलगतिरूपेषु वा गर्तासु च-प्रतीतासु पल्वलेषु च-प्रह्लादनशीलेषु चिल्ललेषु चचिक्खिल्लमिश्रेषु कटकेषु च-पर्वततटेषु कट-कपल्यलेषु पर्वततटव्यवस्थितजलाशयविशेषेषु तटीषु च नद्या-दीनां तटेषु वितटीषु च तास्वेव विरूपासु, अथवा-वियडिशब्देन लोके अटवी उच्यते, टड्डेषु च एकदिशि छिन्नेषु पर्वतेषु कुटकेषु च-अधोविस्तीर्णेषूपरिसंकीर्णेषु वृत्तपर्वतेषु हस्त्यादिबन्धनस्थानेषु वा शिखरेषु च-पर्वतोपरिवर्त्तिकूटेषु, प्राग्भारेषु च-ईषदवनतपर्वतभागेषु मञ्चेषु च-स्तम्भन्यस्तफलकमयेषु नद्यादिलङ्घनार्थेषु मालेषु च-श्वापदादिरक्षार्थेषु तद्विशेषेष्वेव मञ्चमालकाकारेषु पर्वतदेशेष्वित्यन्ये काननेषु च-स्त्रीपक्षस्य पुरुषपक्षस्य चैकतरस्य भोग्येषु वनविशेषेषु, अथवा यत्परतः पर्वतोऽटवी वा भवति तानि काननानिजीर्णवृक्षाणि वा तेषु वनेषु च- एकजातीयवृक्षेषु वन-खण्डेषु चअनेकजातीयवृक्षेषु वनराजीषु च-एकानेकजातीय–वृक्षाणां पक्तिषु नदीषु च-प्रतीतासुनदी कक्षेषु च तद्गहनेषु यूथेषु च-वानरादियूथाश्रयेषु सङ्गमेषु च-नदीमीलकेषुवापीषु च-चतुर--सासुपुष्करिणीषु चवर्तुलासु पुष्करवतीषु वा दीर्घिकासु च-ऋजु-सारिणीषु गुञ्जालिकासु चवक्रसारिणीषु सरस्सु च-जलाशय-विशेषेषु सरःपङ्क्तिकासुच-सरसा पद्धतिषु सरःसरःपक्तिकासु चयासु सरःपक्तिषु एकस्मात् सरसोऽ-- न्यस्मिन्नन्यस्मादन्य-त्रैवं सञ्चारकपाटकेनोदकं संचरति तासु बहुविधास्तरुपल्लवाः प्रचुराणि पानीयतृणानि च यस्य भोग्यतया स तथा, निर्भयः शूरत्वात्, निरुद्विग्नः सदैव अनुकूलविषयप्राप्तेः, सुखं सुखेन अकृच्छ्रेण, 'पाउसे' त्यादि, प्रावृट्आषाढश्रावणौ वर्षा-भाद्रपदाश्वयुजौ शरत्कार्तिक मार्गशीर्षा हेमन्तः-पौषमाघौ वसन्तः-फाल्गुनचैत्रौ एतेषु पञ्चसु ऋतुषु समतिक्रान्तेषु, ज्येष्ठामूलमासे' त्ति-ज्येष्ठमासे पादपघर्षणसमुत्थितेन शुष्कतृणपत्रलक्षणं कचवरं मारुतश्च तयोः संयोगेन दीप्तो यः स तथा तेन महाभयंकरेण-अति- भयकारिणा हुतवहेन अग्निना यो जनित इति हृदयस्थम्, वनदवो-वनाग्निः तस्य ज्वालाभिः संप्रदीप्ता येते तथा तेषु च वनाऽन्तेषु सत्सु, अथवा-'पायवघंससमुट्टिएण' मित्यादिषु णंकाराणां वाक्यालङ्कारार्थत्वात्सप्तम्येकवचनान्तता व्याख्येया, तथा धूमाकुलासु दिक्षु, तथा महावायुवेगेन संघट्टितेषु छिन्नज्वालेषु त्रुटितज्वालासमूहेषु आपतत्सु सर्वतः संपतत्सुतथा 'पोल्लरु-खेसु' त्ति शुषिरवृक्षेसु अन्तरन्तः-मध्ये मध्ये ध्मायमानेषु-दह्यमानेषु तथा मृतैमूंगादिभिः कुथिताः-कोथमुपनीता विनष्टाः-विगतस्वभावाः 'किमियकद्दम' त्ति कृमिवत्कर्दमा नदीनां विवरकाणां च क्षीणपानीयाः अन्ताः-पर्यन्ताः येषु, क्वचित् 'किमव' त्ति पाठः तत्र मृतैः कुथिताः विनष्टकृमिकाः कर्दमाः-नदीविदरकलक्षणाः क्षीणा जलक्षयात्पानीयान्ता-जलाशया येषु ते तथा तेषु वनान्तेषुवनविभागेषु सत्सु, तथा भृङ्गारकाणां पक्षिविशेषाणां दीनः क्रन्दितरवो येषु ते तथा तेषु वनान्तेष्वितिवर्तत, तथा खरपरुषम्-अतिकर्कशमनिष्टं रिष्ठानांकाकानां व्याहृतं शब्दितं येषु ते तथा विद्रुमाणीवप्रवालानीव लोहितानि अग्नियोगात्पल्लवयोगाद्वा अग्राणि येषां ते विद्रुमाग्रास्ततःपदद्वयस्य 2 कर्मधारयः, ततस्तेषु-द्रुमागेषुवृक्षोत्तमेषु सत्सु, वाचनान्तरे-खरपरुषरिष्ठव्याहृतानि विविधानि द्रुमाग्राणि येषु ते खरपरुषरिष्ठव्याहृतविविधद्रुमारास्तेषु वनान्तेष्विति, तथा तृष्णावशेन मुक्तपक्षा:-श्लथीकृतपक्षाः प्रकटितजिह्नातालुकाः असंपुटिततुण्डाश्च-असंवृतमुखाः ये पक्षिसङ्घास्ते तथा तेषु 'ससंतेसु' त्ति-श्वसत्सु श्वासं मुञ्चत्सु, तथा ग्रीष्मस्य ऊष्मा च-उष्णता उष्णपातश्च-रविकरसंतापः खरपरुषचण्डमारुतश्च--- अतिकर्कशप्रबलवातः शुष्कतृणपत्रकचवरप्रधानवातोली चेति द्वन्द्रः ताभिर्भमन्तः-अनवस्थिता दृप्ताःसंभ्रान्ता ये श्वापदाः-सिंहादयः तैराकुला येते तथा, मृगतृष्णा-मरीचिका तल्लक्षणो बद्धः चिह्नपटो येषु ते तथा, ततः पदद्वयस्य कर्मधारयोऽतस्तेषु सत्सु, गिरिवरेषुपर्वतराजेषु, तथा संवर्तकितेषु-संजात-संवर्तकषु त्रस्ता-भीता ये मगाश्च प्रसयाश्च आटव्यचतुष्पदविशेषाः,सरीसृपाश्च-गोधादयस्तेषु, ततश्चासौ हस्ती अवदारितवदन-विवरो निलालिताग्रजिहुश्च य इति कर्मधारयः 'महंततुंबइयपुण्ण-कण्णं' महान्तौ तुम्बकितौ-मयादरघट्टतुम्बाकारौ कृतौ स्तब्धा-वित्यर्थः, पुण्यौ व्याकुलतया शब्दग्रहणे प्रवणौ कर्णी यस्य स तथा, संकुचितः थोर' ति स्थूलः पीवरो-महान् करो यस्य स तथा, उच्छ्रितलाङ्गूलः 'पीणाइय' त्ति-पीना या-मड्डा तया निवृत्तं पैनायिक तद्विधं यद्विरसंरटितं तल्लक्षणेन शब्देन स्फोटयन्निवाम्बरतलं पादददरेण पादघातेन कम्पयन्निव 'मेदिनीतल' मित्यादि, कण्ठ्यम्, 'दिसो दिसिं' ति दिक्षु चापदिक्षु च विपलायितवान्, आतुरो-व्याकुलः 'जुजिए' त्ति बुभुक्षितः दुर्बलः-क्लान्तो ग्लानः नष्टश्रुतिको मूढदिक्कः 'परब्भाहए' त्ति पराभ्याहतो बाधितो भीतोजातभयः त्रस्तो जातक्षोभः 'तसिए' ति शुष्क आनन्दरस- शोषात् उद्विग्नः कथमितोऽनर्थान्मोक्ष्येऽहमित्यध्यवसायवान्, किमुक्तं भवति?-संजातभयः-सर्वात्मनोत्पन्नभयःआधावमानः-ईषत् परिधावमानः-समन्तात् 'पाणी (णि)यपाए' त्ति-पानं पायः पानीयस्यपायः पानीयपायस्तस्मिन्, जलपानायेत्यर्थः, सेयंसि विसन्ने' त्ति पड़े निमग्नः, कायं प्रत्युद्धरिष्यामीति कृत्वा कायमुद्ध मारब्ध इति
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________________ मेहकुमार 416 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मेहकुमार शेषः, 'बलियतरायं' ति गाढतरम्।'तएण' मित्यादि, इहैवमक्ष-रघटनात्वया हे मेघ ! एको गजवरयुवा करचरणदन्तमुशलप्रहा-रैर्विप्रालब्धो विनाशयितुमिति गम्यते, विपराद्धो वा-हतः सन् अन्यदा कदाचित् स्वकाद् यूथात् चिरम् 'निजूढे त्ति निर्धाटितो यः स पानीयपानाय तमेव महाह्रदं समवतरति स्मेति, आसुरुत्ते' ति स्फुरितकोपलिङ्गः रुष्टःउदितक्रोधः कुपितः-प्रवृद्धकोपोदयः चाण्डिक्यितःसंजातचाण्डिक्यः प्रकटितरौद्ररूप इत्यर्थः, 'मिसि-मिसीमाणे' त्ति-क्रोधाग्निना देदीप्यमान इव, एकार्थिका वैते शब्दाः कोपप्रकर्षप्रतिपादनार्थं नानादेशजविनेयानुग्रहार्थ वा, 'उच्छुहइ'- अवष्टभ्नाति विध्यतीत्यर्थः, 'निजाए' ति-निर्यात-यति समापयति, वेदनाः किं विधाः?-उज्ज्वला विपक्षलेशेनापि अकलङ्किता विपुला शरीरव्यापकत्वात् कृचित्'तितुले' त्ति पाठस्तत्र त्रीनपि मनोवाकायलक्षणानर्थास्तुलयति जयति तुला-रूढानिव वा करोतीति त्रितुला कर्कशा-कर्कशद्रव्यमिवानिष्टेत्यर्थः, प्रगाढा प्रकर्षवती चण्डारौद्रा दुःखा-दुःखरूपा न सुखे-त्यर्थः, किमुक्तं भवति?-दुरधिसह्या, 'दाहवक्कंतीए' त्ति दाहो व्युत्क्रान्तःउत्पन्नो यस्य स तथा स एव दाहव्युत्क्रान्तिकः 'अट्टवसट्टदुहट्टे' त्तिआर्त्तवशम्-आर्त्तध्यानवशतामृतोगतो दुःखार्तश्च यः स तथा, 'कणेरुए' त्ति-करेणुकायाः ‘रत्तुप्पले' त्यादि रक्तोत्पलवद्रक्तः सुकुमारकश्च यः स तथा, जपासुमनश्च आरक्तपारिजातकश्च वृक्षविशेषो लाक्षारसश्च सरसकुड्कुमं च सन्ध्या--भ्ररागश्चेति द्वन्द्वः, एतेषामिव वर्णो यस्य स तथा, 'गणियार' त्ति गणिकाकाराः- समकायाः करेणवस्तासां 'कोत्थं' तिउदरदेशस्तत्र हस्तो यस्य कामक्रीडापरायणत्वात् स तथा, इह चेत्समासान्तो द्रष्टव्यः / 'कालधम्मुण' ति कालःमरणं स एव धर्मोजीवपर्यायः कालधर्मः 'निव्वत्तियनामधेजो' इह यावत्करणेन यद्यपि समग्रः पूर्वोक्तो हस्तिवर्णकः सूचितस्तस्थापि श्वेततावर्णकवो द्रष्टव्यः, इह रक्तस्य तस्य वर्णितत्वादत एवाग्रे 'सत्तुस्सेहे' इत्यादि कमतिदेश वक्ष्यति यत् पुनरहि दृश्यते 'सत्तंगे' इत्यादितद्वाचनान्तरम्, वर्णकाक्षेपं तु लिखितमिति / लेस्साही' त्यादि तेजोलेश्याद्यन्यतरलेश्यां प्राप्तस्येत्यर्थः, अध्यवसानं-मानसी परिणतिः परिणामोजीवपरिणतिः, जातिस्मरणावरणीयानि कर्माणि मतिज्ञानावरणीयभेदाः क्षयोपशम:उदितानां क्षयोऽनुदितानां विष्कम्भितोदयत्वम् ईहा-सदाभिमुखो वितर्क इत्यादि प्राग्वत्, संज्ञिनः पूर्वजातिः-प्राक्तनं जन्म तस्या यत् स्मरणं तत्संज्ञिपूर्वजातिस्मरणम्, व्यस्तनिर्देशे तु संज्ञी पूर्वो भवो यत्र तत्संज्ञिपूर्वं संज्ञीति च विशेषणं स्वरूपज्ञापनार्थम्, न ह्यसंज्ञिनो जातिविषयं स्मरणमुत्पद्यत इति, 'अभिसमेसि' त्ति-अवबुध्यसे प्रत्यपराह्नः-अपराह्नः, 'तएण' मित्यादिको ग्रन्थो जातिस्मर-णविशेषणमाश्रित्य वर्णितः, 'दवग्गिजायकारण?' त्ति दवाग्नेः संजातस्य कारणस्यभयहेतोर्निवृत्तये इदं दवाग्निसंजातकारणार्थम्, अर्थशब्दस्य निवृत्त्यर्थत्वात्, क्वचित्– 'दयग्गिसंताणकारण?' ति दृश्यते, तत्र दवाग्रिसन्त्राणकारणायेति व्याख्येयम्, 'मंडलं घाएसि' वृक्षाद्युपघातेन तत्करोतीत्यर्थः 'खुवेतयति व त्ति क्षुवोह्रस्वशिखः शाखी 'आहुणिय' त्ति प्रकम्प्य चलयित्वेत्यर्थः, 'उडवेसित्ति उद्धरसि 'एडेसि' त्तिछर्दयसि, 'दोचं पि' द्वितीयं तस्यैव मण्डलस्य घातम्, एवं तृतीयमिति, नलिनीयनविवधनकरे, इह विवधनं विनाशः, 'हेमंते' त्ति शीतकाले कुन्दाः-पुष्पजातीयविशेषाः लोध्राश्चवृक्षविशेषास्ते च शीतकाले पुष्यत्यतस्ते उद्धताः-पुष्पसमृद्ध्या उद्धरा इव यत्रस तथा, तथा तुषारं हिम तत् प्रचुरं यत्र स तथा, ततः कर्मधारयः ततस्तत्र, ग्रीष्मे-उष्णकाले विवर्तमानोविचरन् वनेषु वनकरेणूनां ताभिर्वा विविधा 'दिन्न' त्ति दत्ताः कजप्रसवैः-पन्नकुसुमैर्घाताः-प्रहारा येषु यस्य वा स तथा 'वनरेणुविविहदिन्नकयपंसुघाओ' त्ति पाठान्तरेतु वनरेणवो-वनपांशवो विविधम्-अनेकधा 'दिन्न' त्ति दत्ता दिक्ष्यात्मनि च क्रीडापरतया क्षिप्ता येन स तथा, तथा क्रीडयैव कृताः पांशुधाता येन स तथा,ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः, 'तुम' तित्वम्, तथा कुसुमैः कृतानि यानि चामरवत्कर्णपूराणि तैः परिमण्डितोऽभिरामश्चयः सतथा क्वचित्- 'उउयकुसुम' त्ति पाठः, तत्र ऋतुजकुसुमैरिति व्याख्येयम्, तथा मदवशेन विकसन्ति कटतटानि-गण्डतटानि क्लिन्नानि आर्टीकृतानि येन तत्तथा तय तद्न्धमदवारिचतेन सुरभिजनितगन्धः-मनोज्ञकृतगन्धः करेणुपरिवृत्तः ऋतुभिः समस्ता समाप्ता वा-परिपूर्णा जनिता शोभा यस्य स तथा, काले किंभूते?-दिनकरः करप्रचण्डो यत्र स तथा तत्र, परिशोषिताः-- नीरसीकृताः तरुवणाः श्रीधराः-शोभावन्तो येन परिशोषिता वा तरुवराणां श्रीः-संपद्धरायां-भुवि वा येन, पाठान्तरे-परिशोषितानि तरुवरशिखराणि येन स तथा स चासौ भीमतरदर्शनीयश्चेति, तत्र भृङ्गाराणां-पक्षिविशेषाणांरुवता-रवं कुर्वतां भैरवो-भीमो रवः-शब्दो यस्मिन् स तथा तत्र, नानाविधानि पत्रकाष्ठ-तृणकचवराण्युद्धृतानिउत्पाटितानि येन स तथा स चासौ प्रतिमारुतश्च-प्रतिकूलवायुस्तेन आदिग्धं--व्याप्त नभस्तलंव्योम ‘पडुममाणे' त्ति पटुत्वादुपताकारि यस्मिन, पाठान्तरे उक्तविशेषणेन प्रतिमारुतेनादिग्धंनभस्तलंद्रुमगणश्च यस्मिन् स तथा, तत्र वातोल्या-वात्यया दारुणतरो यः स तथा तत्र, तृष्णावशेन ये दोषा-वेदनादयस्तैःषिता-जातदोषा दूषिता वा भ्रमन्तो विविधा ये श्वापदास्तैः समाकुलो यः स तथा तत्र भीमं यथा भवत्येवं दृश्यतेयः सभीमदर्शनीयः तत्र वर्तमानेदारुणे ग्रीष्मे, केनेत्याह-मारुतवशेन यः प्रसरः--प्रसरणं तेन प्रसृतो विजृम्भितश्च–प्रवलीभूतो यः स तथा तेन, वनदवेनेति योगः, अभ्यधिकं यथा भवत्येवं भीम-भैरवःअतिभीष्मो खप्रकारो यस्य स तथा तेन, मधुधाराया यत्पतितं-पतनं तेन सिक्त उद्धावमानः प्रवर्द्धमानो धगधगायमानो-जाज्वल्यमानः स्पन्दोद्धतश्च-दह्यमानदारुस्पन्दप्रबलः, पाठान्तरेशब्दोद्धतश्चयः स तथा तेन दीप्ततरोयः सस्फुल्लिङ्गश्च तेन धूममालाकुलेनेति प्रतीतम्, श्वापदशतान्तकरणेनतद्विनाशकारिणा ज्वालाभिरालोपितः कृताच्छादनो निरुद्धश्च-विवक्षितदिग्गमनेन निवारितो धूमजनितान्धकाराद् भीतश्च यः स तथा, आत्मानमेव पालयतीत्यात्मपालः, पाठान्तरेण- 'आयवालो य' तितत्र आतपालोकेन-हुतवहता-पदर्शनन महान्तौतुम्बकितीस्तब्धत
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________________ हकुमार 420- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मेहकुमार वा अरघट्टतुम्बाकृती-ससंभ्रमौ करें यस्य स तथा, आकुञ्चित- / स्थूलपीवरकरः भयवशेन भजन्ती दिश इति गम्यते, दीप्ते नयने यस्य स तथा, 'आकुंचियथोरपीवरकराभोयसव्वभवंतदितनयणो' त्ति पाठान्तरम्, तत्र-आभोगो-विस्तारः सर्वा दिशो भजन्ती दीप्ते नयने यस्येति, वेगेन महामेघ इव वातेनोदितमहारूपः, किमित्याह-येन यस्यां दिशि कृतोविहितः ते त्वया पुरा-पूर्वं दवाग्निभयभीतहृदयेन अपगतानि. तृणानि तेषामेव च प्रदेशा-मूलादयोऽवयवा वृक्षाश्च यस्मात्सोऽपगततृणप्रदेशवृक्षः, कोऽसौ?-वृक्षोद्देशः वृक्षप्रधानो भूमेरेकदेशो. रूक्षोद्देशो वा / किमर्थम्?-दवाग्निसंत्राणकारणार्थदवाग्निस्त्राणहेतुरिदं भवत्वित्येतदर्थम्, तथा येनैव-यस्यामेव दिशि मण्डलं तेनैव तत्रैव प्रधा रितवान् गमनाय, कथं बहुभिर्हस्त्यादिभिः सार्द्धमित्यय मेको गमः१ / यत्पुनः ‘तएणं तुम मेहा ! अण्णया कयाइं कमेण पंचसु' इत्यादि दृश्यते तद्रमान्तरं मन्यामहे तत्र एवं द्रष्टव्यम्-'दोचं पि मंडलघायं करेसिजाव सुहं सुहेणं विहरसि, तएणं तुममेहा! अन्नया क्याइपंचसुउउसु अइकंतेसु' इत्यादि, यावत् 'जेणेव मण्डले तेणेव पहारेत्थ गमणाए' त्ति, सिंहादयः प्रतीताः नवरं वृका-वरुक्षाः दीपिकाः-चित्रकाः 'अच्छ' त्ति रिक्षाः तरच्छा-लोकप्रसिद्धाः परासराः-शरभाः शृगाविडालशुनकाः प्रतीताः कोला:-शूकराः शशकाः प्रतीताः कोकन्तिकाः-लोमटकाः चित्राः चिल्ललगाः-आरण्या जीव-विशेषाः, एतेषां मध्येऽधिकृतवाचनायां कानिचिन्न दृश्यन्ते, अग्निभयविद्रुताः-अग्निभयाभिभूताः ‘एगओ' त्ति एकतो क्लिधर्मेण विलाचारेण यथैकत्र विले यावन्तो मर्कोटकादयः संमान्ति तावन्तस्तिष्ठन्ति, एवं तेऽपीति, वतस्त्वया हे मेघ! गात्रेण गात्रं कण्डूयिष्ये इति कृत्वा-इति हेतोः पाद उतक्षिप्तः-उत्पाटितः, 'तंसिच णं अंतरंसि' तस्मिंश्चान्तरे पादाक्रान्तपूर्वे अन्तराले इत्यर्थः / 'पादं निक्खेविस्सामि त्ति कट्टु' इह भुवं निरूपयन्निति शेषः, 'प्राणानुकम्पये' त्यादिपदचतुष्टयमेकार्थं दयाप्रकर्षप्रतिपादनार्थम्, 'निट्टिए'त्ति निष्ठां गतः कृतस्वकार्यो जात इत्यर्थः, उपरतोऽनालिङ्गितेन्धनाद् व्यावृत्तः उपशान्तो-ज्वालोपशमात् 'विष्मातोऽङ्गारमुर्मुराद्य-भावात् 'वाऽपी ति समुच्चये, 'जीर्ण' इत्यादि शिथिला बलिप्रधाना या त्वक तया पिनद्धं गात्रं-शरीरं यस्य स तथा, अथामा शारीरबलविकलत्वात् अबल:-अवष्टम्भवर्जितत्वात्, अपराक्रमोनिष्पादितस्वफलाभिमानविशेषरहितत्वात्, अचङ्कमणतो वा 'ठाणुखण्डे' त्ति ऊर्ध्वस्थानेन स्तम्भितगात्र इत्यर्थः 'रययगिरिपब्भारे' ति इह प्राग्भार-ईषदवनतं खण्डम्, उपमा चानेनास्य महत्तयैव, न वर्णतो रक्तत्वात्तस्य, वाचनान्तरे तु सित एवासाविति। तते णं तुम मेहा ! आणुपुटवेणं गन्भवासाओ निक्खंते समाणे उम्मुक्कबालभावे जोय्वणगमणुप्पत्ते मम अंतिए मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पथ्वइए, तं जतिजाव तुमे मेहा ! | तिरिक्खजोणियभावमुवगएणं अपडिलद्धसम्मत्तरयणलंभेण से पाणे पाणाणुकंपयाए०जाव अंतरा चेव संधारिते नो चेव णं निक्खित्ते किमंग ! पुण तुम मेहा ! इयाणिं विपुलकुलसमुन्भवे णं निरुवहयसरीरदंतलद्धपंचिंदिए णं एवं उठाणबलवीरियपुरिसगारपरक्कमसंजुत्ते णं मम अंतिए मुंडे भवित्ता आगारातो अणगारियं पव्वतिए समाणे समणाणं निग्गंथाणं राओ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि वायणाए०जाव धम्माणुओगचिंताए य उच्चारस्सवापासवणस्स वा अतिगच्छमाणाण य निग्गच्छमाणाण य हत्थसंघट्टणाणि य संघपायट्टणाणि य० जाव रयरेणुगुंडणाणि य नो सम्म सहसि खमसि तितिक्खसि अहियासेसि? तते णं तस्स मेहस्स अणगारस्स समणस्स भगवतो महावीरस्स अंतिए एतमढे सोचा णिसम्म सुभेहिं परिणामेहिं पसत्थेहिं अज्झवसाणेहिं लेसाहिं बिसुज्झमाणीहिं तयावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमेणं ईहावूहमग्गणगवेसणं करेमाणस्स सन्निपुटवे जातीसरणे समुप्पन्नेएतमटुं सम्मं अभिसमेति / तते णं से मेहे कुमारे समणेणं भगवया महावीरेणं संभा-रियपुटवजातीसरणे दुगुणाणीयसंवेगे आणंदयंसुपुग्नमुहे हरि-सवसेणं धाराहयकदंबकं पिव समुस्ससितरोमकूर्व समणं भगवं महावीरं वंदति नमंसति २त्ता एवं वदासी-अज्जप्पमितीणं भंते! ममदो अच्छीणि मोत्तूणं अवसेसे काए समणाणं णिम्गंथाणं निसट्टे त्ति कद्र पुणरवि समणं भगवं महावीरं वंदति नमंसति २त्ता एवं वदासीइच्छामि णं भंते ! इयाणिं सयमेव दोच्चं पि सयमेव पटवावियं सयमेव मुंडावियं जाव सयमेव आयारगो-यरं जायामायावत्तियं धम्ममातिक्खह / तए णं समणे भगवं-महावीर मेहं कुमारं सयमेव पव्वावेइ०जाव जायामायावत्तियं धम्ममाइक्खइ, एवं देवाणुप्पिया ! गन्तव्वं एवं चिट्ठियव्वं एवं णिसीयध्वं एवं तुयट्टियव्वं एवं मुंजियध्वं भासियव्वं उट्ठाय 2 पाणाणं भूयाणं जीवाणं सत्ताणं संजमेणं संजमितव्वं / तते णं से मेहे समणस्स भगवतो महावीरस्स अयमेयारूवं धम्मियं उवएसं सम्म पडिच्छति 2 त्ता तह चिट्ठतिजाव संजमेणं संजमति / तते णं मेहे अणगारे जाए इरियासमिए अणगारव-नओ भाणियव्यो। तते णं से मेहे अणगारे समणस्स भगवतो महावीरस्स अंतिए एतारूवाणं थेराणं सामातियमातियाणि एक्कारस अंणातिं अहिज्जति 2 ता बहूहिं च-उत्थछट्टऽहमदस-मदुवालसेहिं मासऽद्धमासखमणेहिं अप्पाणं भावेमाणे विहरति / तते णं समणे भगवं महावीरे रायगिहाओ नगराओ गुणसिलाओ चेतियाओ पडिनिक्खमति २त्ता बहिया जणवयविहारं विहरति। (सूत्र-३२) 'अपडिलद्धसम्मत्तरयणलं भेणं' ति-अप्रतिलब्धः-असं
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________________ मेहकुमार 421 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मेहकुमार जातः, 'विपुलकुलसमुब्भवे ण' मित्यादौ णकारा वाक्यालङ्कारे निरुपहतं शरीरं यस्य स तथा, दान्तानि–उपशमं नीतानि प्राक्काले लब्धानि सन्ति पञ्चेन्द्रियाणि येन स तथा, ततः कर्मधारयः, पाठान्तरेनिरुपहतशरीरप्राप्तश्वासौ लब्धपञ्चेन्द्रियश्चेति समासः 'एव' भित्युपलभ्यमानरूपैरुत्थानादिभिः संयुक्तो यः स तथा, तत्र उत्थानचेष्टाविशेषः, बलं-शारीरं वीर्य-जीवप्रभवं पुरुषकार:-अभिमानविशेषः पराक्रमः स एव साधितफल इति, नो सम्यक् सहसे भयाभावेन क्षमसे क्षोभाभावेन तितिक्षसे दैन्यानवलम्बनेन अध्यासयसि अविचलितकायतया एकार्थिकानि वेतानि पदानि, तस्य मेघस्यानगारस्य जातिस्मरणं समुत्पन्नमिति सम्बन्धः / समुत्पन्ने च तत्र किमित्याह-एतमर्थ पूर्वोक्तं वस्तु सम्यक् 'अभि–समेइ' त्ति अभिसमेति अवगच्छतीत्यर्थः / 'संभारियपुव्व-जाईसरणे' त्ति संस्मारित पूर्वजात्योः-प्राक्तनजन्मनोः सम्बन्धि सरणं-गमनं पूर्वजातिसरणं यस्य स तथा, पाठान्तरे--- संस्मारित-पूर्वभवः, तथा प्राक्कालापेक्षया द्विगुण आनीतः संवेगो यस्य स तथा, आनन्दाश्रुभिः पूर्णं भृतं प्लुतमित्यर्थो मुखं यस्य स तथा, 'हरिसवस' त्ति अनेन 'हरिसवसविसप्पमाणहियए' त्ति द्रष्टव्यम्, धाराहतं यत्कदम्बकं-कदम्बपुष्पं तद्वत् समुच्छ्रितरोमकूपो रोमाश्चित इत्यर्थः, 'निसट्टे' ति निसृष्टो दत्तः अनगारवर्णको वाच्यः, सचायम्- "इरियासमिए भासासमिए एसणासमिए आयाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिए उचारपासवणखेलसिघाणजल्लपरिट्ठावणियासमिए मणसमिए वयसमिए कायसमिए मणगुत्ते वयगुत्ते कायगुत्ते' मनःप्रभृतीनां समितिः-सत्प्रवृत्तिः गुप्तिस्तु-निरोधः, अत एव 'गुत्ते गुत्तिदिए गुत्तंबभयारी' ब्रह्मगुप्तिभिः 'चाई -सङ्गानां 'वणे लज्जू'--रज्जुरिवा वक्रव्यवहारात् लज्जालु संयमेन लौकिक-लज्जया वा 'तवस्सी खंतिखमे' क्षान्त्या क्षमते यः स तथा 'जिइंदिए सोही' शोधयत्यात्मपराविति शोधी शोभी या 'अणिदाणे' अप्पुस्सुए अल्पौत्सुक्योऽनुत्सुक इत्यर्थः, 'अवहिल्ले' संयमादबहिर्भूतचित्तवृत्तिः 'सुसामण्णरए इणमेव निग्गंथं पावयणं पुरओ त्ति कट् टुविहरइ' निर्ग्रन्थप्रवचनानुमार्गेण इत्यर्थः।। तते णं से मेहे अणगारे अन्नया कदाइ समणं भगवं महावीरं वंदति नमंसति २त्ता एवं वदासी-इच्छामि णं मंते ! तुम्भेहिं अब्भणुनाए समाणे मासियं भिक्खुपडिमं उवसंपजित्ता णं विहरित्तए, अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबन्धं करेह / तते णं से मेहे समजेणं भगवया महावीरेणं अब्भणुनाते समाणे मासियं भिक्खुपडिमं उवसंपञ्जित्ता णं विहरति / मासियं भिक्खुपडिम अहासुत्तं अहाकप्पं अहामग्गं०सम्मं काएणं फासेति पालेति सोमेति तीरेति किट्टेति सम्मं कारणं फासेत्ता पालेत्ता सोभत्ता तीरेत्ता किट्टेत्ता पुणरवि समणं भगवं महावीरं वंदति नमसति 2 ता एवं वदासी-इच्छामि णं भंते ! तुम्भेहिं अब्भणुनाते समाणे दोमासियं भिक्खुपडिमं उपसंपञ्जित्ता णं विहरित्तए, अहासुहं देवाणुप्पिया!मा पडिबन्धं करेह,जहा पढमाए अभिलावो तहा दोचाए तच्चाए चउत्थाए पंचमाए छम्मासियाए सत्तमासि-याए पढमसत्तराइंदियाए दोचं सत्तरातिदियाए तइयं सत्तराति-दियाए अहोरातिंदियाए वि एगराइंदियाए वि, तते णं से मेहे अणगारे बारस भिक्खुपडिमाओ सम्मं कारणं फासेत्ता पालेत्ता सोभत्ता तीरेत्ता किट्टेत्ता पुणरवि वंदति नमसइ 2 ता एवं वदासीइच्छामि णं भंते ! तुन्भे हिं अब्भणुनाए समाणे गुंणरतणसंवच्छरं तवोकम्म उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए / ज्ञा०। (गुणरत्नसंवत्सर तपःकर्म 'गुणरयणसंवच्छर' शब्दे तृतीयभागे 626 पृष्ठे गतम्) तते णं से मेहे अणगारे गुणरयणसंवच्छरं तवोकम्मं अहासुत्तंजाव सम्मं कारणं फासेइ पालेइ सोभेइ तीरेइ किट्टेइ अहासुत्तं अहाकप्पं०जाव किट्टेत्ता समणं भगवं महावीरं वंदति नमंसति २त्ता बहूहिं छट्ठट्ठमदसमदुवालसेहिं मासद्धमासखमणेहिं विचित्तेहिं तवोकम्मे हि अप्पाणं भावेमाणे विहरति / (सूत्र-३३)। 'अहासुहं' ति यथासुखं सुखानतिक्रमेण, मा पडिबन्धंविघातं विधेहि विवक्षितस्येति गम्यम्, 'भिक्खुपडिम' ति अभिग्रहविशेषः, प्रथमा एकमासिकी एवं द्वितीयाद्याः सप्तम्यन्ताः क्रमेण द्वित्रिचतुष्पञ्चषट्सप्तमाः समानाः, अष्टमीनवमीदशम्यः प्रत्येकं सप्ताहोरात्रमानाः एकादशी अहोरात्रमाना द्वादशी एकरात्रमानेति। तत्र'पडिवज्जइ एयाओ, संघयणधिइजुओ महासत्तो। पडिमाओ भॉवियप्पा, सम्मं गुरुणा अणुन्नाओ / / 1 / / गच्छे चिय निम्माओ, जा पुव्या दस भवे असंपुणा। नवमस्स तइयवत्थू, होइ जहन्नो सुयाहिगमो।।२।। योसट्ठचत्तदेहो, उवसग्गसहो जहेव जिणकप्पी। एसण आभिग्गहिया, भत्तं च अलेवडं तस्स।।३।। दुवस्सहत्थिमाई, तओ भएणं पयं पि नो सरई। एमाइनियमसेवी, विहरइ जाऽखंडिओ मासो॥४॥" इत्यादि ग्रन्थान्तराभिहितो विधिरासां द्रष्टव्यः / यच्चेह एकादशाङ्गविदोऽपि मेघानगारस्य प्रतिमानुष्ठानं भणितं तत्सर्ववेदिसमुपदिष्टत्वादनवद्यमवसेयमिति, यथासूत्रम्-सूत्रानतिक्रमेण, यथाकल्पम्प्रतिमाचारानतिक्रमेण, यथामार्गम्-ज्ञानाद्यनतिक्रमेण, क्षायोपशमिकभावानतिक्रमेण वा कायेन न मनोरथमात्रेण, फासेइ त्ति उचितकाले विधिना ग्रहणात्, पालयति असकृदुपयोगेन प्रतिजागरणात्, शोभयतिपारणकदिने गुरुदत्तशेषभोजनकरणात्, शोधयति वा--अतिचारपङ्कक्षालनात्, तीरयति पूर्णेऽपि काले स्तोककालमवस्थानात्, कीर्तयतिपारणकदिने इदं चेदं चैतस्याः कृत्यं कृतमित्येवं कीर्तनात्। ज्ञा०। (गुणरत्न-सवत्सरतपःकर्मव्याख्या गुणरयणसंवच्छर' शब्दे तृतीयभागे 626 पृष्ठ गता) तते णं से मेहे अणगारे तेणं उरालेणं विपुलेणं सस्सिरीएणं पयत्तेणं पग्गहिएणं कल्लाणेणं सिवेणं धनेणं मंगल्लेणं उदग्गेणं उदारएणं उत्तमेणं महाणभावेणं तवोक
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________________ मेहकुमार 422 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मेहकुमार म्मेणं सुक्के मुक्खे लुक्खे निम्मंसे निस्सोणिए किडिकिडिया- भूए अड्डिचम्मावणद्धे किसे धमणिसंतए जाते याऽवि होत्था, जीवं जीवेणं गच्छति जीवं जीवेणं चिट्ठति भासं भासित्ता गिलायति भासं भासमाणे गिलायति भासं भासिस्सामि त्ति गिलायति से जहा नाम ए (व) इंगालसगडियाइवा कट्ठसगडियाइ वा पत्तसगडियाइ वा तिलसगडियाइ वा एरंडकट्ठसगडियाइ वा उण्हे दिन्ना सुक्का समाणी ससई गच्छइ ससई चिट्ठति एवामेव मेहे अणगारे ससई गच्छइ, ससह चिट्ठइ, उवचिएतवेणं अवचिते मंससोणिएणं हुयासणे इव भासरासिपरिच्छन्ने तवेणं तेएणं तवतेयसिरीए अतीव अतीव उवसोभेमाणे२ चिट्ठति। तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे आइगरे तित्थगरे०जाव पुव्वाणुपुट्विं चरमाणे गामाणुगाम दुतिजमाणे सुहं सुहेणं विहरमाणे जेणामेव रायगिहे नगरे जेणामेव गुणसिलए चेतिए तेणामेव उवागच्छति २त्ता अहापडिरूवं उग्गहं उग्गिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरति। ततेणं तस्स मेहस्स अणगारस्स राओ पुष्वरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियं जागरमाणस्स अयमेयारूवे अज्झत्थितेजाव समुप्पजित्था-एवं खलु अहं इमेणं उरालेणं तहेव०जाव भासं भासिस्सामीति गिलामितं अत्थिता मे उट्ठाणे कम्मे बले वीरिए पुरिसक्कारपरक्कमे सद्धा धिई संवेगे तंजाव तामे अस्थि उट्ठाणे कम्मे बले वीरिए पुरिसगारपरक्कमे सद्धा धिई संवेगे०जाव इमे धम्मायरिए धम्मोवदेसए समणे भगवं महावीरे जिणे सुहत्थी विहरति ताव ताव मे सेयं कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए०जाव तेयसा जलंते सूरे समणं भगवं महावीरं वंदित्ता नमंसित्ता समणेणं भगवता महावीरेणं अब्भणुन्नायस्स समाणस्स सयमेव पंच महव्वयाइं आरुहित्ता गोयमाऽऽदिए समणे निग्गंथे निग्गथीओ य खामेत्ता तहारूवेहिं कडाईहिं थेरेहिं सद्धिं विउलं पव्वयं सणियं सणियं दुरूहित्ता सयमेव मेहघणसन्निगासं पुढविसिलापट्टयं पडिलेहेत्ता संलेहणाझूसणाए झूसियस्स भत्तपाणपडियाइक्खित्तस्स पाओवगयस्स कालं अणवकंखमाणस्स विहरित्तए, एवं संपेहेति 2 ता कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए ०जाव जलते जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छति 2 त्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आदाहिणं | पदाहिणं करेइ २त्ता वंदति नमंसति २त्ता नऽच्चासन्ने नातिदूरे सुस्सूमाणे नमसमाणे अभिमुहे विणएणं पंजलियपुडे पजुवासति, मेहे त्ति / समणे भगवं महावीरे मेहं अणगारं एवं वदासी-से गूणं तव मेहा!राओ पुवरतावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियं जागर-माणस्स अयमेयारूवे अज्झत्थितेजाव समुप्पजित्था एवं खलु अहं इमेणं ओरालेणंजाव जेणेव अहं तेणेव हव्वमागए, से णूण मेहा ! अढे समढे ? हंता ! अत्थि अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं करेह / तते णं से मेहे अणगारे समणेणं भगवया महावीरेणं अब्भणुनाए समाणे हट्ठ०जाव हियए उट्ठाइ उद्वेइत्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करई रत्ता वंदइ नमसइ रत्ता सयमेव पंच महव्वयाइं आरुमेइ २त्ता गोयमातिसमणे निग्गंथे निग्गंथीओ य खामेति खामेत्ता य तहारूवेहिं कडाईहिं थेरेहिं सद्धिं विपुलं पटवयं सणियं 2 दुरूहति 2 त्ता सयमेव मेहघणसन्निगासं पुढविसिलापट्टयं पडिले हति 2 ता उच्चारपासवणभूमि पडिलेहति 2 ता दन्भसंथारगं संथरति 2 ता दब्मसंथारगं दुरूहति 2 त्ता पुरत्थाभिमुहे संपलियंकनिसन्ने करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु एवं वदासी-नमो त्थु णं अरिहंताणं भगवंताणं जाव संपत्ताणं, णमो त्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव संपाविउकामस्स मम धम्मायरियस्स, वंदामि णं भगवंतं तत्थ गयं इहगए पासउ मे भगवंतत्थ गते इहगतंति कटु वंदति नमसइ २त्ता एवं वदासीपुटवं पि य णं मए समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए सव्वे पाणाइवाए पचक्खाए मुसावाए अदिन्नादाणे मेहुणे परिग्गहे कोहे माणे माया लोभे पे दोसे कलहे अब्भक्खाणे पेसुन्ने परपरिवाए अरतिरति मायामोसे मिच्छादसणसल्ले पचक्खाते, इयाणिं पि णं अहं तस्सेव अंतिए सव्वं पाणातिवायं पञ्चक्खामि०जाव मिच्छा-दंसणसल्लं पचक्खामि, सव्वं असणपाणखादिमसातिमं चउ-विहं पि आहारं पचक्खामि जावजीवाए, जं पि य इमं सरीरं इ8 कंतं पियं०जाव विविहा रोगायंका परीसहोवसग्गा फुसंतीति कटु एयं पि य णं चरमेहिं ऊसासनिस्सासेहिं वोसिरामि त्ति कटु संलेहणाझूसणाझूसिए भत्तपाणपडियाहखिए पाओ-वगए कालं अणवकंखमाणे विहरति / तते णं ते थेरा भगवंतो मेहस्स अणगारस्स अगिलाए वेयावडियं करेंति। तते णं से मेहे अणगारे समणस्स भगवओ महावीरस्स तहारूवाणं थेराणं अंतिए सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई अहिन्जित्ता बहुपडि-पुन्नाइंदुबालस वरिसाई सामनपरियागं पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए अप्पाणं झोसेत्ता सर्व्हि भत्ताई अणसणाए छेदेत्ता आलोयियपडिक्कते उद्धियसल्ले समाहिपत्ते आणुपुटवेणं कालगएत / ते णं ते थेरा भगवंतो मेहं अणगारं आणुपुटवेणं कालगयं पासंति २त्ता परिनिव्वाणवत्तियं का
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________________ मेहकुमार 423 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मेहकुमार उस्सगं करेंति २त्ता मेहस्स आहारमंडयं गेण्हंति २त्ता विउलाओ पव्वयाओ सणियं 2 पचोरुहंति 2 त्ता जेणामेव गुणसिलए चेइए जेणामेव समणे भगवं महावीरे तेणामेव उवागच्छंति 2 ता समणं भगवं महावीरं वंदंति नमसंति 2 त्ता एवं वयासीएवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी मेहे णामं अणगारे पगइमदए०जाव विणीते से णं देवाणुप्पिएहिं अब्भणुनाए समाणे गोतमातिए समणे निग्गथे निग्गंथीओय खामेत्ता अम्हेहिं सद्धिं विउलं पव्वयं सणियं 2 दुरूहति 2 त्ता सयमेव मेघघणसन्निगासं पुढविसिलं पट्टयं पडिलेहति २त्ता भत्तपाणपडियाइक्खिते आणुपुटवेणं कालगए / एस णं देवाणुप्पिया ! मेहस्स अणगारस्स आयारभंडए। (सूत्र-३४) 'भंतेत्ति' भगवं गोतमे समणं उवंदति नमंसति २त्ता एवं वदासी-एवं खलु देवाणुप्पियाण अंतेवासी मेहे णाम अणगारे से णं भंते ! मेहे अणगारे कालमासे कालं किया कहिं गए कहिं उववन्ने? गोतमादिसमणे भगवं महावीरे भगवं गोयम एवं वयासी-एवं खलु गोयमा ! मम अंतवासी मेहे णामं अणगारे पगतिभद्दए०जाव विणीए से णं तहारूवाणं थेराणं अंतिए सामाइयमाइयातिं एकारस अंगाति अहिजति 2 त्ता बारस मिक्खुपडिमाओ गुणरयणसंवच्छर तवोकम्मं कारणं फासेत्ताजाव किट्टेत्तामए अब्भणुन्नाए समाणे गोयमाइथेरे खामेइ २त्ता तहारूवेहिं०जाव विउलं पव्वयं दुरूहति 2 त्ता दब्भसंथारगं संथरति 2 त्ता दब्मसंथारोवगए सयमेव पंचमहव्वए उचारेइ वारस वासातिं सामण्णपरियायं पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए अप्पाणं झुसित्ता सर्टि भत्तातिं अणसणाए वेदेत्ता आलोइयपडिक्कते उद्धियसल्ले समाहिपत्ते कालमासे कालं किचा उद्धं चंदिमसूरग्महगणणक्खत्ततारारूवाणं बहूइं जोयणसयाइं बहूइंजोयणसहस्साई बहूई जोयणसयसहस्साई बहूई जोयणकोडीओ बहूइं जोअणकोडाकोडीओ उड्वदूरं उप्पइत्ता सोहम्मीसाणसणंकुमारमाहिंदबंभलंगतमहासुक्कसहस्साराणयपाणयारणचुते तिण्णि य अट्ठारसुत्तरे गेवेजविमाणावाससए वीइवइत्ता विजए महाविमाणे देवत्ताए उववण्णे / तत्थ णं अत्थे गइयाणं देवाणं तेत्तीसं सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता, तत्थ णं मेहस्स वि देवस्स तेत्तीसं सागरोवमातिं ठिती पण्णत्ता। एसणं भंते ! मेहे देवे ताओ देवलोयाओ आउक्खएणं ठितिक्खएणं भवक्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता कहिंगच्छिहिति कहिं उववजिहिति? गोयमा! महावि-देहे वासे सिज्झिहिति बुज्झिहिति मुचिहिति परिनिवाहिति सव्वदुक्खाणमंतं काहिति। एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया महावीरेणं आइगरेणं तित्थगरेणंजाव संपत्तेणं अप्पोपालंभ-निमित्तं पढमस्स नायज्झयणस्स अयमढे पन्नत्ते त्ति बेमि / (सूत्र-३५) 'उरालेण'मित्यादि, उरालेन-प्रधानेन विपुलेन-बहुदिनत्वाद्वि-- स्तीर्णेन सश्रीकेण सशोभेन पयत्तेणं' तिगुरुणा प्रदत्तेन प्रयत्नवता या प्रमादरहितेनेत्यर्थः, प्रगृहीतेनबहुमानप्रकर्षाद् गृहीतेन, कल्याणेननीरोगताकरणेन शिवेन-शिवहेतुत्वात्, धन्येन-धनावहत्वात्, माङ्गल्येन-दुरितोपशमे साधुत्वात्, उदग्रेण तीव्रण, उदारेण-औदार्यवता निःस्पृहत्वातिरेकात्, 'उत्तमेणं' त्ति ऊर्ध्वं तमसः-अज्ञानाद्यत्तत्तथा तेन अज्ञानरहितेनेत्यर्थः, महानुभागेन -अचिन्त्यसामर्थ्येन, शुष्कोनीरसशरीरत्वात्, ‘भुक्खे' त्ति बुभुक्षावशेन-रुक्षीभूतत्यात्, किटिकिटिका-निर्मासास्थिसम्बन्धी उपवेशनादिक्रियाभावी शब्दविशेषः तां भूतः-प्राप्तोयः सतथा, अस्थीनि चर्मणाऽवनद्धानियस्य स तथा, कृशोदुर्बलो, धमनीसन्ततः-नाडीव्याप्तो, जातश्चाप्यभूत्, 'जीवं जीवेण गच्छति' जीवबलेन शरीरबलेनेत्यर्थः, 'भासं भासित्ता' इत्यादौ कालत्रयनिर्देशः 'गिलायति' त्ति ग्लायति ग्लानो भवति, 'से' इति अथार्थः अथशब्दश्च वाक्योपक्षेपार्थः, यथा-दृष्टान्तार्थः, नाम- इति संभावनायाम्, एव--इति वाक्यालङ्कारे, अङ्गाराणां भृता शकटिकागन्त्री अङ्गारशकटिका, एवं काष्ठानां पत्राणां-पर्णानां 'तिल' ति तिलदण्डकानाम्, एरण्डशकटिका- एरण्ड-काष्ठमयी, आतपे दत्ता शुष्का सतीति विशेषणद्वयषूआईकाष्ठ-पत्रभृतायाः तस्यान (शब्दः) संभवति, इतिशब्द उपप्रदर्शनार्थः वाशब्दाः-विकल्पार्थाः, सशब्दे गच्छति तिष्ठति वा, एवमेव मेघोऽनगारः सशब्दं गच्छति, सशब्दं तिष्ठति, हुताशन इव भस्म राशिप्रतिच्छन्नः, 'तवेणं' तितपोलक्षणेन-तेजसा, अयमभिप्रायो-यथा भस्मच्छन्नोऽग्निर्बहिर्वृत्त्या तेजोरहितोऽन्तर्वृत्त्या तुज्वलित एवं मेघोऽनगारोऽपि बहिर्वृत्त्याऽपचितमांसादित्वान्निस्तेजा अन्तर्वृत्या तु शुभध्यानतपसा ज्वलतीति, उक्तमेवाह-तपस्तेजःश्रिया अतीवातीव उपशोभमानः 2 तिष्ठतीति! 'तं अत्थिता में त्ति तदेवमस्ति तावन्मे उत्थानादि न सर्वथा क्षीणं तदिति भावः। 'तं जाव ता मे' त्ति तत्-तस्मात् यावन्मेऽस्ति उत्थानादि ता इति-भाषामात्रेण यावच मे धर्माचार्यः 'सुहत्थी' ति पुरुषवरगन्धहस्ती शुभाः वा क्षायिकज्ञानादयोऽर्था यस्य स तथा, 'ताव ताव' त्ति तावच तावचेति वस्तुद्वयापेक्षया द्विरुक्तिः 'कडाईहि' ति कृतयोग्यादिभिः, 'मेहघणसन्निगासं' तिघनमेघसदृशम्कालमित्यर्थः, भत्तपाण-पडियाइक्खियस्स' त्ति प्रत्याख्यातभक्त-पानस्य 'कालं' ति मरणम्, 'जेणेव इह ति इहशब्दविषयं स्थानम् इदमित्यर्थः 'संपलियंकनिसणे त्ति पद्मासनसन्निविष्टः 'पेजे ति अभिष्वङ्गमात्र दोस' त्ति अप्रीतिमात्रम् अभ्याख्यानम्-असदोषारोपणं पैशुन्यं-पिशुनकर्म परपरिवादः-विप्रकीर्णपरदोषकथा अरतिरती धर्माधर्माङ्गेषु मायामृषावेषान्तरकरणतो लोकविप्रतारणं संलेखनांकषायशरीरकृशतां स्पृशतीति संलेखनास्पर्शकः पाठान्तरेणसंलेहणाझूसणाझूसियत्तिसंलेखनासेवनाजु
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________________ मेहकुमार 424 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मेहकुमार ष्ट इत्यर्थः।'मासियाए' तिमासिक्या मासपरिमाणया 'अप्पाणं झूसिते' | मेहवोस-पुं०(मेघघोष) कल्किप्रपौत्रधर्मदत्तपौत्रे स्वनामख्याते जितशत्रुत्ति क्षपयित्वा षष्टिं भक्तानि 'अणसणाए' ति अनशनेन, छित्त्वाव्यव- | पुत्रे, ती०१ कल्प। च्छेद्य, किल दिने 2 द्वे द्वे भोजने लोकः कुरुते, एवं च त्रिंशता दिनैः | मेहचंद-पुं०(मेघचन्द्र) तिलङ्गजनपदस्थामरकुण्डनगरवासिनि पद्मिनीषष्टिभक्तानां परित्यक्ता भवतीति, 'परिनिव्वाणवत्तिय' त्ति परिनिर्वाणम्- | देव्युपासके स्वनामख्याते दिगम्बरे,ती०४६ कल्प। उपरतिः, मरणमित्यर्थः, तत्प्रत्ययोनिमित्तं यस्य सः परिनिर्वाणप्रत्ययः- | मेहचारण-पुं०(मेघचारण) नभोवर्मनि प्रविनतजलघरपटल–पटास्तरणे मृतकपरिष्ठापनाकायोत्सर्ग इत्यर्थः, तं कायोत्सर्ग कुर्वन्ति, 'आयार __ जीवानुपधातिचक्रमणप्रभवे चारणविशेषे, ती०४६ कल्प। भंडगं' ति आचाराय-ज्ञानादिभेदभिन्नाव भाण्डकम्-उपकरणं वर्षाक मेहच्छीर-(देशी) जले, दे०ना०६वर्ग 136 गाथा। ल्पादि-आचार-भाण्डकम्, 'पगइभद्दए' इत्यत्रयावत्करणादेवं दृश्यम् मेहण-न०(मेहन) मैथुनप्रधानाङ्गे, प्रजनने, लिङ्गे, भगे च / स्था० 3 'पगइउवसन्ते पगइपयणुकोहमाणमायालोभे मिउमद्दवसंपन्ने आलीणे ठा०३उन भद्दए विणीए' त्ति तत्र प्रकृत्यैव-स्वभावेनैव भद्रकः-अनुकूलवृत्तिः प्रकृत्यैवोपशान्तः-उपशान्ताकारः, मृदु च तन्माईवं च मृदुमाईवम् मेहणाद-पुं०(मेघनाद) स्वनामख्याते वैतादयपर्वतविद्याधरे, कृष्णेन अत्यन्तमार्दवम् इत्यर्थः, आलीन:-आश्रितो, गुर्वननुशासनेऽपि सुभद्रक स्थापिते रैवतक्षेत्रपाले, आ०क०१ अ० आ०म० नालन्दाक्षेत्रपाले, एव यः तथा 'कहिं गए' त्ति कस्यां गतौ गतः? क्वच देवलोकादौ उत्पन्नो? ती०१० कल्प। ('माण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 236 पृष्ठे उदाहरणम्)। जातः, विजयविमानमनुत्तरविमानानां प्रथमं पूर्वदिग्भागवर्ति, तत्रोत्कृ मेहपुर-न०(मेघपुर) स्वनामख्याते भारतपुरे, दर्श०१ तत्त्व। ष्टादिस्थिते वादाह-'तत्थे' त्यादि, आयुःक्षयेण-आयुर्दलिक- मेहमालिणी-स्त्री०(मेघमालिनी) ऊर्ध्वलोकवास्तव्यायां दिक्कुमार्याम्, निर्जरणेन स्थितिक्षयेण-आयुष्कर्मणः स्थितेर्वेदनेन भवक्षयेणदेव- जं०५ वक्ष०ा आ०चूला आ०का आ०म० नन्दनवने हैमवतकूटस्थायां भवनिबन्धनभूतकर्मणां गत्यादीनां निर्जरणेनेति / अनन्तरं देवभव- मेघमालिन्यां देव्याम्, स्था०६ ठा०३ उ०। सम्बन्धिनं चय'-शरीरम्, 'चइत त्ति त्यक्त्वा , अथवा च्यवं च्यवनं मेहमुणि-पुं०(मेघमुनि) लुम्पकगच्छं त्यक्त्वा हीरविजयस्य शिष्यतां गते कृत्वा, सेत्स्यति निष्ठितार्थतया विशेषतः सिद्धिगमनयोग्यतया महर्द्धि- स्वनामख्याते मुनौ, “हित्वा लुम्पकगच्छसूरिपदवीं गार्हस्थ्यलीलोपमा, प्राप्त्या वा भोत्स्यते केवलालोकेन मोक्ष्यते सकलकाशैः परिनि- प्रोद्यद्बोधिरतो यदाह भजत श्रीहीरवीरान्तिकम्। आगस्त्यागपुनव्रतवास्यतिस्वस्थो भविष्यति, सकलकर्मकृतविकारविरहिततया, किगुक्तं ग्रहपरो यो भाग्यसौभाग्यभूः, स श्रीमेघमुनिन कैः सहृदयैधर्मार्थिषु भवति?-सर्वदुःखानामन्तं करिष्यतीति। एवं खल्वि' त्यादि निगमनम् श्लाघ्यते // 1 // " प्रति०। 'अप्पोपालंभनिमित्तं' आप्तेन-हितेन गुरुणेत्यर्थ, उपालम्भो-विनेय मेहमुह-पुं०(मेघमुख) स्वनामख्याते भवनपतिदेवे मेघकुमारे, आ०म० स्थाविहितविधायिनः आप्तोपालम्भः स निमित्तं यस्य प्रज्ञापनस्य 1 अ०। स्वनामख्याते नागकुमारे, तद्द्वीपवासिनि जने च / प्रज्ञा०१ तत्तथा / प्रथमस्य ज्ञाताध्ययनस्य अयम्-अनन्तरोदितः मेघकुमारचरि पद। प्रव०। स्था०। स्वनामख्याते आपातकिरातानां नागकुमारे देवे, तलक्षणोऽर्थोऽभिधेयः-प्रज्ञप्तः-अभिहितः। अविधिप्रवृत्तस्य शिष्यस्य जं०३ वक्षका दर्शा गुरुणा मार्गे स्थापनाय उपालम्भो देयो यथा--भगवता दत्तो मेघकुमाराय मेहरह-पुं०(मेघरथ) जम्बूद्वीपे भारतवर्षे चतुर्विंशतिस्तीर्थकरास्तेषु इत्येवमर्थं प्रथम-मध्ययनमित्यभिप्रायः। इह गाथा-"महुरेहिं निउणेहिं, षोडशः शान्तिनामा; तस्य पूर्वभविकजीवे, स०॥ स्वनामख्याते विद्याधरे वयणेहिं चोययंति आयरिया। सीसे कहिं चि खालिए, जह मेहमुणिं पदाश्रियाः पितरि, आ०चू०१ अ०। ('माण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे कथा) महावीरो / / 1 // " इतिशब्दः समाप्तौ, ब्रवीमीति-प्रतिपादयाम्येतदहं तीर्थ-करोपदेशेन, नस्वकीयबुद्ध्या, इत्येवं गुरुवचनपारतन्त्र्यं सुधर्म मेहराई-स्त्री०(मेघराजी) मेघराजीव या सा कृष्णत्वान्मेघराजीति वाऽस्वामी आत्मनो जम्बूस्वामिने प्रतिपादयति / एवमन्येनापि मुमुक्षुणा भिधीयते। स्था०८ अ०३ उ०। मेघराजीति वा कालमेघरेखातुल्यत्वात्। भवितव्यमित्येतदुपदर्शनार्थमिति। ज्ञाताधर्मकथायां प्रथमं ज्ञातविवरणं द्वितीयकृष्णराजौ, भ०६ श०५ उ०१ मेधुकुमारकथानकाख्यं समाप्तम् / ज्ञा०१ श्रु० 1 अ० मेधकुमारस्य | मेहला-स्त्री०(मेखला) खघथधभाम् // 8 / 1 / 187|| स्वरात्परेषापाश्चात्यभवे हस्तिरूपस्य यन्नाम दृश्यते तत्केन दत्तमिति? प्रश्ने, मसंयुक्तानामनादिभूतानां ख-घ-थ-ध-भ इत्येतेषां वर्णानां प्रायो हो उत्तरम्-अत्र तत्पर्वतनितम्बादिनि वासिवनेचरैस्तन्नाम दत्तमिति भवति। घ-मेहला। प्रा०। काञ्चीनामके कट्याभरणविशेष, औ०। प्रश्न श्रीज्ञाताधर्मसूत्रे उक्तमस्तीति बोध्यम् / ही०३ प्रका०। मेघकारि- काञ्चीमेखलयोः कट्याभरणयोर्यद्यपि नामकोशे एकार्थताऽभिधीयते भवनपतिदेवे, पञ्चा०२ विवा तथापि इह विशेषो रूढेरवसेयः / औला रत्न-काञ्च्याम्, ज्ञा०१ श्रु०१ मेघकुमारवाहण-न०(मेघकुमारवाहन) मेघकारिदेवसंशब्दने, पश्चा०२ अ०। रसनायाम, ज्ञा०१ श्रु०६ अ० अनु०। "कच्छा कांची य मेहला विवof रसणा" पाइ० ना०११५ गाथा।
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________________ मेहवई 425 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मेहुण मेहवई-स्त्री०(मेघवती) ऊर्ध्वलोकवास्तव्यायां दिशाकुमार्याम्, आ०चू० 1 अ० स्था०। आ०म०। आक०। मेहसिरि-स्त्री०(मेघश्री) चमराग्रमहिष्या मेधायाः पूर्वभव मातरि, ज्ञा० 2 श्रु०३ वर्ग 1 अग मेहसीह-पुं०(मेघसिंह) षष्ठबलदेववासुदेवयोः पितरि, ति०। मेहस्सर-त्रि०(मेघस्वर) मेघस्येवातिदीर्घः स्वरो यस्येति। मेघतुल्य गम्भीरशब्दे, जी०३ प्रति०४ अधि०। रा०ा तं। मेहा-स्त्री०(मेधा) श्रुतग्रहणशक्ती, स्था०५ ठा०३ उ०। अपूर्वश्रुतग्रहणबुद्धौ, सका व्य०। सच्छास्त्रग्रहणपटुत्वे, पापश्रुतावज्ञाकारिज्ञानावरणीयक्षयोपशमजे चित्तधर्मे, ध०२ अधि०। प्रथम विशेषसामान्यार्थावग्रहमतिरिच्योत्तरः सर्वोऽपि विशेषे सामान्यार्थावग्रहः। नं० हेयोपादेयधियि, जं०३ वक्ष०ा अजडत्वे, ल० अवधारणायाम, विशे० हिताहितप्रामिपरिहाररूपायां प्रज्ञायाम्, सूत्र०१ श्रु०१२३३०। सामान्यप्रज्ञायाम, सूत्र०१ श्रु०१ अ०३ उ० पटुतायाम्, आव०५ अ०। बुद्धौ, 'मेहा मई मणीसा विन्नाणं धी धिई बुद्धी' पाइना० 31 गाथा / मर्यादायाम, सूत्र०२ श्रु०१ अ०॥ * मेघा-स्त्री०। चमरस्यासुरेन्द्रस्यासुरकुमारराजस्याग्रमहिष्याम्, स्था० 5 ठा०१ उ०। (अस्याः पूर्वोत्तरभवकथा 'अग्गमहिसी' शब्दे प्रथमभागे 166 पृष्ठे उक्ता।) मेहाणीय-न०(मेघानीक) अभ्रपटले, जं०३ वक्ष०। मेहावि-त्रि०(मेधाविन) मेधया मर्यादया धावत्येवंशीलमिति निरुक्तिवशादेवंभूतो हि गणस्य मर्यादाप्रवर्तको भवति अथवा-मेधा-श्रुतग्रहणशक्तिस्तद्वानेवंभूतो हि श्रुतमन्यतो झटिति गृहीत्वा शिष्याध्यापने समर्थो भवति / स्था०६ ठा० ३उ०। विज्ञानवति, आ०चू०३ अ०। सूत्र अपूर्वश्रुतग्रहणशक्तिमति, उपा०७ अ०कल्प० स्था०। प्रश्न०। सकृच्छुतदृष्टकर्मज्ञे, अनु०। उपा०। ज्ञा०ा हिताहितप्राप्तिपरिहाराभिजे, सूत्र०१ श्रु० 12 अ० तत्त्वदर्शिनि, आचा० 1 श्रु० 3 अ०२ उ०) बुद्धिमति, आचा०१ श्रु०२ अ०६ उ० व्य०। उत्त०। कुशले, आचा०१ श्रु०१ अ०२ उ०। मर्यादावति, विवेकिनि च / सूत्र०१ श्रु०१० अ०। मर्यादाव्यवस्थिते, विदित-वेद्येच। सूत्र०१श्रु०१३ अ० सदसद्विवेकिनि च / सूत्र०१ श्रु०१५ अ० मेधावी-ग्रहणधारणमर्यादा-मेधाविभेदात्रिधा / बृ०६ उ०। सूत्र०ा अध्ययनार्थावधारणशक्तिमति, मर्यादावर्तिनि च। उत्त०१ अान्यायावस्थिते, आव०३ अ०) संयते, सूत्र०१ श्रु०१ अ०२ उ०। प्रति०। परस्पराभ्याहतपूर्वापरानुसन्धानदक्षे, रा०ा जी०। आ०म०। स्वामिपदसंज्ञादिप्राप्तार्थाधारके, जं०३ वक्ष०ा अवधारणशक्तिमति, उत्त०२ अ०। सर्वभावज्ञे, आचा०१ श्रु०६ अ०१ उ०। आ०म० अथ मेधाविद्वारमाहउग्गहणधारणाए, मेराए चेव होइ मेधावी। तिविहम्मि अहीकारो, मेरासंजुत्तों मेधावी।। मेधावी त्रिविधस्तद्यथा-अवग्रहणमेघावी-सूत्रार्थग्रहण पटुप्रज्ञावान् 1, धारणामेधावी-पूर्वाधीतयोः प्रभूतयोरपि सूत्रार्थयोश्चिरमवधारणाबुद्धिमान् 2, मर्यादामेधावी-चरणकरणप्रवणमतिमान् 3, एभिस्विभिः पदैरष्टौ भङ्गाः, तद्यथा-ग्रहणमेधावी धारणामेधावी मर्यादामेधावी 1, ग्रहणमेधावी धारणामेधावी अमर्यादामेधावी 2, इत्यादि इह यत्र यत्र भङ्गो न भवति तत्र तत्र न दातव्यं, यदिददाति तदा प्रायश्चित्तम्, तत्र यदि पार्श्वस्थादिभ्यः सूत्रस्य वा ददाति तदा चत्वारो लघवः, यथाच्छन्देभ्यः प्रददाति(तदा) चत्वारो गुरुमासाः। 'तिविहम्मि अहीगारो' त्ति मर्यादामेधाविनी ग्रहणधारणामेधाभ्यां संपन्नस्य असंपन्नस्य वा दातव्यं, मर्यादाविकलयोरितरयोर्न दातव्यमिति त्रिविधेनापि दानरूपतया यथायोगमत्राधिकार इति। गाथायां तृतीयार्थे सप्तमी। अथ मर्यादामेधाविनोर्युत्पत्तिमाह-'मेरासंजुत्तो मेहावि' त्ति-मेरा मर्यादा, तत्संयुक्तो मेधावी मर्यादामेधावी शाकपार्थिवादित्वान्मध्यपदलोपी समासः। बृ०१ उ०१ प्रक० मेहिय-न०(मेधिक) स्थविरात्कामधेर्निर्गतस्य वैश्यपाटिकगणस्य द्वितीयगणे, कल्प०२ अधि०८ क्षण। मेहुण-न०(मैथुन) मिथुनं-दाम्पत्यं, तत्र भवं मैथुनम्। आचा०२ श्रु०१ चू० 1103 उ०। मिथुनस्य स्त्रीपुंसलक्षणस्यभावः कर्म वा मैथुनम् / आतु०॥धा प्रश्न०।बृलास्थालाआचा० अब्रह्मचरणे, आ०चू०४ अ०| स्त्र्यङ्गालोकनप्रसन्नवदनसस्तम्भितोरुवेपथुलक्षणे, स्था० 10 ठा०३ उ०। सूत्र०। प्रव०। स्त्र्याधभिलाषसंज्ञानिवेदमोहोदयसंवेदने, आ०चू० 4 अ० धा स्त्रीसंपर्के, सूत्र०२ श्रु०६ अ० कामसुखे, उत्त०२ अ०॥ कामक्रीडायाम, ध०२ अधि० कामाभिलाषे, सूत्र०१ श्रु०४ अ०१ उ०। त्रिविधं मैथुनम्तिविहे मेहुणे पण्णत्ते / तं जहा-दिवे,माणुस्सए, तिरिक्खजोणिए। तओ मेहुणं गच्छति। तं जहा-देवा, मणुस्सा, तिरिक्खजोणिया। तओ मेहुणं सेवंति / तं तहा-इत्थी, पुरिसा, णपुंसगा। (सूत्र-१२३) 'तिविहे मेहुणे' इत्यादि कण्ठ्यं, नवरं मिथुनं-स्त्रीपुंसयुग्मं तत्कर्म मैथुनम्, नारकाणां तन्न सम्भवति द्रव्यत इति चतुर्थ नास्त्येवेति नोक्तम्। मिथुनकर्मण एव कारकानाह- 'तओ' इत्यादि कण्ठ्यम्. तेषामेव भेदानाह-'तओ मेहुणं' इत्यादि-कण्ठ्यम्। स्था०३ठा०१ उ०। सूत्र अथ मैथुनमभिधित्सुराहमेहुण्णं पिय तिविहं, दिव्वं माणुस्सयं तिरिक्खं च / ठाणाई मोत्तूणं, पडिसेवनसोधि सचेव॥६५।। मैथुनमपि त्रिविधं, तद्यथा-दिव्यं, मानुष्यं, तैरिश्चं च / अत्र च येषु स्थानेष्वेतानि दिव्यादीनि मैथुनानि सम्भवन्तितानि मुक्त्वा स्थातव्यं, यदि तेषु तानि वा दिव्यादीनि प्रतिसेवते तदा तदेव स्थानप्रायश्चित्तं, सैव च प्रतिसेवनायां शोधिर्या प्रथमोद्देशके सागारिकसूत्रे अभिहिता। अथ द्वितीयपदं सप्रायश्चित्तमुच्यते-तत्र परः प्रेरयतिमूलुत्तरसेवासुं, अवरपदम्मिय णिज्झिती सोधी। मेहुण्णे पुण तिविहे, सोधीऽवट्ठायतो किहि णु // 66 //
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________________ मेहण मेहुणे समय कम्म, संपओ सहाहिती मेहुण 126 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 - -- मूलगुणोत्तरगुणप्रतिसेवनासु प्राणातिपातपिण्डविशोधिप्रभृतिविष- अणॉलोयंतो हु एकं पि, ससल्लमरणं मरे / यासु, अपरपदे-उत्सर्गापेक्षया अन्यस्मिन्नपवादाख्ये स्थाने शोधिः- सयसाहस्स नारीणं, पोट्ट फालित्तु निग्धिणो॥ प्रायश्चित्तम् तावन्निषिध्यते न दीयते इत्यर्थः / मैथुने-पुनस्त्रिविधेऽपि सत्तट्ठमासिगब्भेच, फडफडते णिगित्तई। किमर्थमपवादतः प्रतिसेव्यमाने शोधिरभिधास्यते? सूरिराह-द्विविधा जो तस्स जत्तियं पावं, तत्तियं तं नवं गुणं / / प्रतिसेवनादर्पिका, कल्पिका च। एकसित्थीपसंगणं, साहू बंधिज मेहुणे। अनयोः प्ररूपणार्थं तावदिदमाह साहुणीए सहस्सगुणं, मेहुणे क्खु णिसेविए। रागद्दोसाणुगया, तु दप्पिया कप्पिया तु तदभावा। कोडीगुणं तु पजेणं, तइए बोही पणस्सइ / आराधणा उ कप्पे, विराधणा होति दप्पेणं // 67|| जो साहू इत्थि (मेराए, मेहुणे इत्थिया ठिए)॥ रागद्वेषाभ्याम्-अनुगता-सहिता या प्रतिसेवना सा दर्पिका, या तु बोहिलाभपरिभट्ठो, कहं चरओ सहाहिही। कल्पिका सा तदभावात्--रागद्वेषाभावाद्भवति / शिष्यः प्राह-दर्पण अबोहिलाभियं कम्म, संजओ संजई विय। कल्पेन वा सेविते किं भवतीति? उच्यते-कल्पेनासेविते ज्ञानादीना मेहुणे सेविए आऊ, तेउकाई पबंधई / / माराधना भवति। दर्पण प्रतिसेविते तेषामेव विराधना भवति। बृ०४ उ०। जम्हा तीसु वि एएस, ऽवरज्झंतो हु गोयमा!। (अत्र विशेषः 'मूलगुणपडिसेवणा' शब्देऽस्मन्नेव भागे 370 पृष्ठे गतः) उस्सग्गे ववहारे, मग्गंठ(निह) वइ सव्वहा भगवंता / / त्रिविधे दिव्यमानुष्यतैरश्चलक्षणे मैथुने कथमभिलाष उत्पद्यते? सूरिराह एएणं नाएणं,जे गारत्थी मउकडोय। वसहीए दोसेणं, दट्टुं सरिउं व पुष्वमुत्ताई। रत्तिंदिया णं छडुति, इत्थियं तस्स का गई। तेगिच्छं सद्दमादी, असज्जणातीसु वाजतणा॥८३|| ते सरीरं सहत्थेणं छिंदिऊणं तिलं तिलं। वसतेर्दोषेण-स्त्रीपशुपण्डकसंसक्तिलक्षणेन। यद्वा-स्त्रियमालिङ्गना अग्गिए जइ वि होमंति, तो विसुद्धी ण दीसह / / दिकं वा दृष्ट्वा गृहस्थकाले वा यानि स्त्रीभिः सार्द्धं भुक्तानि वा हसितानि महा०६अ०(मैथुनसङ्कल्पो न करणीय इति 'परदारगमण' शब्दे वा उल्ललितानि वा, तानि स्मृत्वा मैथुनाभिष उत्पद्यते। एवमुत्पन्ने किं पञ्चमभागे 528 पृष्ठे गतम्) कर्त्तव्यमित्याह-'तेगिच्छ' इत्यादि चिकित्सा कर्त्तव्यासा च निर्विकृति मैथुनं सेवमानस्य कीदृशोऽसंयमःकप्रभृतिका। तामतिक्रान्त-स्य शब्दादिका वायतना कर्तव्या। किमुक्तं मेहुणे णं भो ! सेवमाणस्स के रिसे असंजमे कज्जइ? गोयमा! भवति यत्रस्थः-स्त्रीशब्दं रहस्यशब्दं वा शृणोति तत्र स्थविरसहितः से जहानामए केइ पुरिसे रूपनालियं वा बूरनालियं वा तत्तेणं स्थाप्यते / आदिशब्दाद्यत्रालिङ्गानादिकं पश्यति, तत्रापि स्थाप्यते। कणएणं समभिधंसेज्जा एरिसएणं गोयमा ! मेहुणं सेवमाणस्स 'असज्जण त्ति' तस्यां शब्दश्रवणादिरूपायां चिकित्सायां सञ्जनंसङ्गो असंजमे कज्जइ, सेवं भंते ! सेवं मंते ! त्ति०जाव विहरह। गृद्धिरिति यावत्, सा तेन न कर्त्तव्या / एवं त्रिष्वपि दिव्यादिषु मैथुनेषु (सूत्र-१०६) यतना मन्तव्या। 'मेहुणवत्तिए नामसंजोए त्ति प्रागुक्तम्। अथ मैथुन स्यैवासंयमहेतुताइदमेव सविशेषमाह प्ररूपणसूत्रम्-'रूयनालियं व तिरूतं कसिविकारस्तद्भूता नालिका विइयपदे तेगिच्छं, णिब्दीतियमादिगं अतिकते। शुषिरवंशादिरूपा रूतनालिका ताम्, एवं बूरनालिकामपि, नवरं बरं सनिमित्तऽनिमित्तं पुण, उदयाहारे सरीरे य॥१५॥ वनस्पतिविशेषावयवविशेषः। 'समभिधंसेज त्ति'रूतादिसमभिध्वंसद्वितीयपदे निर्विकृतिकावमौदारिकनिर्बलाहारोर्द्धस्थाना-चाम्ला- नाद्, इह चायं वाक्यशेषो दृश्यः / एवं-मैथुनं सेवमानो योनिगतभक्तार्थषष्ठाष्टमादिरूपां चिकित्सामतिक्रान्तस्य शब्दादिका अनन्तरोक्ता सत्त्वान्मेहनेनाभिध्वंसयेद् / एते च किल ग्रन्थान्तरे पञ्चेन्द्रियाः श्रूयन्त यतना भवति। एषा च सनिमित्ते अनिमित्ते वा मैथुनाभिलाषे भवति। तत्र इति। 'एरिसए ण' मित्यादि च निगमनमिति। भ०२ श०५ उ०। सनिमित्तोवसतिदोषादिनिमित्तसमुत्थः। अनिमित्तः पुनः-कर्मोदयेन मैथुने दोषाः। आहारतः शरीरपरिवृद्धितश्च य उत्पद्यते। सर्वमेतद्यथा निशीथे प्रथमो- अबंभचरियं घोरं, पमायं दुरहिट्ठियं / देशके भणितं तथैव द्रष्टव्यम्। बृ०४ उ०। (चतुर्विधं मैथुनम् 'मेहुणवेरमण' नायरंति मुणी लोए, मेयाययणवजिणो / / 15 / / शब्दे वक्ष्यते) (संखडि-विषये मैथुनसंभावना, अतः तत्र गमननिषेध अब्रह्मचर्यं प्रतीतम्, घोरं-रौद्र रौद्रानुष्ठानहेतुत्वात्, प्रमादम्-प्रमादवत् सूत्रम्,'संखडि' शब्दे वक्ष्यते) (योनौ नवलक्षजीवास्तत्र हि स्त्रीपुरुषान् सर्वप्रमादमूलत्वात्, दुराश्रयम्-दुःसेवं विदितजिनवचनेनानन्तसंसारमैथुनं सेवमानान् दृष्ट्वा शुक्र निष्काशयतो दोषाः, प्रायश्चित्तञ्च पच्छित्त' हेतुत्वात्, यतश्चैवमतो नाचरन्तिनासेवन्ते, मुनयो लोकेमनुष्यलोके, किं शब्दे पञ्चम-भागे 200 पृष्ठे अवादिषत) विशिष्टाः? इत्याह-- भेदायतनवर्जिनः-भेदः चारित्रभेदः तदायतनं साध्व्या सह मैथुने दोषाः तत्स्थानमिदमेवोक्तन्यायात्तद्वर्जिनः-चारित्रातिचारभीरवः। इति सूत्रार्थः।
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________________ मेहुण 427- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मेहुण एतदेव निगमयतिमूलमेयमहम्मस्स, महादोससमुस्सयं / तम्हा मेहुणसंसर्ग, निग्गंथा वज्जयंति णं // 16|| मूलम्-बीजम् एतद् अधर्मस्य--पापस्येति पारलौकिकापायः महादोष- | समुच्छ्यम् महतां दोषाणाम्--चौर्यप्रवृत्त्यादीनां समुच्छयं-संघातवद्, इत्यैहिकापायः, यस्मादेवं तस्मान् मैथुन-संसर्गम्-मैथुनसंबन्धं योषिदालापाद्यपि निर्ग्रन्था वर्जयन्ति। णमिति वाक्यालंकारे। इति सूत्रार्थः / दश० 6 अ०२ उ०। (मैथुनस्य दर्पिका कल्पिका च प्रतिसेवना'मूलगुणपडिसेवणा' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 370 पृष्ठे गता) "नय किंचि अणुण्णायं, पडिसिद्ध वावि जिनवारेदेहिं / मोत्तुं मेहुणभावं, न विणा तं रागदोसेहिं 1" ध०३ अधि। कथमेकान्ततो निषेधः? अत्रोच्यते नैष दोषोऽत्रा-स्माकमार्हतानाम्, नैकान्ततः किंचित्प्रतिषिद्धम् अभ्युपगतं वा, मैथुनमेकं विहाय / अपि तु-द्रव्यक्षेत्र कालभावनाश्रित्य तदेव प्रतिषिध्यते, तदेव चाभ्युपगम्यते / उत्सर्गोऽप्यगुणाय, अपवादोऽपि गुणाय, कालज्ञस्य साधोः। आचा०१ श्रु०८ अ०४उ०। मैथुनदोषेऽष्टकम्। अथ यदुक्तम् 'न च मैथुने" दोष इति तन्निराचिकीर्षुराहरागादेव नियोगेन, मैथुनं जायते यतः। ततः कथं न दोषोऽत्र, येन शास्त्रे निषिध्यते / / 1 / / रागः-अभिष्वङ्गलक्षणः, अथवा-स्नेहरागविषयरागदृष्टिरागभेदात् त्रिविधो रागः / तत्राद्यः-अपत्यादिषु, द्वितीयः-'वेदादिरूपः, तृतीयः-- वादिना स्वदर्शनपक्षपातरूपः। तत्र रागात्कामोदयरूपादेव शब्दोऽनाभागमाध्यस्थ्यादिव्यवच्छेदार्थः, नियोगेन-अवश्यं भावेन अनेन च मैथुने माध्यस्थ्येन प्रवृत्त्यसंभवोपदर्शनेन मैथुनद्र-तस्य निरपवादतामाह। आह च-"न वि किंचि अणुन्नायं, पडिसिद्धं वावि जिणवरिंदेहिं। मोत्तुं मेहुणभावं, न विणा तं राग-दोसेहि।।१।।" इति। मैथुनस्य प्रायः स्त्रीपुरुषद्वन्द्वस्य कर्म मैथुनंजायते-उपपद्यते, यतो यस्मात्तत्तस्मात्कथम्-केन प्रकारेण, न-नैव, दोषो-दूषणम्, रागलक्षणस्तजन्यकर्मबन्धलक्षणो वा / अत्रैतस्मिन् मैथुने येन कारणेन शास्त्रे-नच मैथुने दोष इत्येवं लक्षणे ग्रन्थे, निषिध्यतेनिराक्रियते, त्वया दोष इति गम्यम्। अथवा-चकारदर्शनाद्येन च यतश्च शास्त्रे निषिध्यते मैथुनमतः कथं न दोषः इति हृदयम्। अथवा-यदि नाम रागाज्जायते मैथुनं तदा जायताम्, कुतोऽत्र दोषसद्भावः? उच्यते-येन कारणेन शास्त्रे निषिध्यते राग इत्यनुवर्तत। आह च-"को दुक्खं पाविज्जा, कस्स व सोक्खेहि विम्हओ हुजा। को व न लभेज मोक्खं, रागद्दोसा जइ न होज्जा / / 1 // " अतः शास्त्रनिषिद्धरागपूर्वकत्वान्मैथुने कथं न दोष इति हृदयम् / प्रयोगोऽत्र "यद्रागजन्यं तत्सदोषम्" यथा-हिंसाविशेषो, रागजन्यं च मैथुनम, अतः सदोषमिति॥१॥ अथ पक्षकदेशात्सिद्धोऽयं हेतुरिति परमतमाशङ्कमान आहधर्मार्थ पुत्रकामस्य, स्वदारेष्वधिकारिणः। ऋतुकाले विधानेन, यत्स्याहोषो न तत्र चेव / / 2 / / धर्मार्थम्-पुण्यनिमित्तम्, पुत्रकामस्य सुतार्थिनः अपुत्रस्य हि धर्मो न भवति। यदुच्यते-"अपुत्रस्य गति स्ति, स्वर्गो नैव च नैव च।तस्मात् पुत्रमुखं दृष्ट्वा, पश्चाद्धर्मं चरिष्यति // 1 // " इति / स्वदारेषु-स्वकलत्रेषु परकलत्रे वेश्यायां वा तदधिगमस्यानर्थहेतुत्वात् / यदाह-"कुलानि पातयन्त्यष्टौ, परदारानधिश्रयन्। स्वयं च नष्टसंस्कारः, षण्ढत्वं लभते मृतः / / 1 / / " तथा- "वृषलीफेनपीतस्य, निःश्वासोपहतात्मनः / तस्याश्चैव प्रसूतेश्व, निष्कृतिर्नोपपद्यते // 1 // " तस्याश्चैव प्रसूतेश्चवृषलीप्रसवस्य च। निष्कृतिः-प्रतिक्रिया सुद्धिरित्यर्थः, अधिकारिणोगृहस्थस्य न यतेः तस्य कलत्राद्यभावात्। ऋतुकाले आर्त्तवसंभवावसरे अन्यदा दोष-संभवात्। यदाह- "ऋतुकाले व्यतिक्रान्ते, यस्तु सेवेत मैथुनम् / ब्रह्महत्याफलं तस्य, सूतकं च दिने दिने॥१॥" विधानेनस्त्रीशरीरे नवानीतदर्भाच्छादनदर्भमणिमूलबन्धनादिना स्मृति-मार्गाभिहितेन विधिना यन्मैथुनं स्याद्भवेदोषो-दूषण, न-नैव, तत्र-मैथुने प्रवृत्तत्वाद्वेदना कारणाश्रितभोजन इवेति, चेद्यदि मन्यसे त्वम्, परम्अनेन च पक्षकदेशासिद्धता हेतोदर्शिता, न च मैथुने दोष इत्यस्य च पक्षस्य विषयविशेषोपदर्शनेनाव्याहतिरभिहितेति। अत्राचार्य उत्तरमाहनापवादिककल्पत्वान्नैकान्तेनेत्यसंगतम्। वेदं ह्यधीत्य स्नायाद्यदधीत्यैवेति शासितम् // 3 // 'धर्मार्थम्' इत्यादिविशेषणोपेतमैथुने न दोषः, इति यदुक्तं तत् ननैव, कुत इत्याह-अपवादो-विशेषोक्तविधिः तत्रापवादे भव आपवादिकः स चासौ कल्पश्चाचार आपवादिककल्पआपवादिकप्रायं चापवादिककल्पंतद्भावस्तत्त्वं तस्मादापवादिककल्पत्वाद्, व्यसनगतस्य श्वमांसभक्षणवदिति दृष्टान्तोऽभ्यूह्यः। अयमभि-प्रायो–यद्यप्यपवादेन श्वमांसाद्यासेव्यते तथापि तत्स्वरूपेण निर्दोषं न भवति प्रायश्चित्ताद्यप्रतिपत्ति प्रसङ्गात्, किं तर्हि गुणान्तरकारणत्वेन गुणान्तरार्थिना तदापद्यत इति। एवं मैथुनं स्वरूपेण सदोषमप्याकौमाराद्यतित्वपालनासहिष्णुः गुणान्तरापेक्षी समा-श्रयते सर्वथा निर्दोषत्वे त्वकुमारत्वात् यतित्यपालनोपदेशोऽनर्थकः स्यागार्हस्थ्यत्यागोपदेशश्चेत्यतः साधूक्तं धर्मार्थादिविशेषणेन मैथुने दोषाभावः अपवादिककल्पत्वात्तस्येति / ततश्च नैकान्तेन सर्वथा मैथुने दोष इति यदुक्तम् 'न च मैथुने' इत्यनेन च वचनेन इत्येतदसङ्गतमयुक्तं रागादिभावन कथंचित्तस्य सदोषत्वाद्धर्मार्थिनोऽपि हि पुंसो मैथुने मेहनविकारकारिणः कामोदयस्य तथा-विधारम्भपरिग्रहयोश्चावश्यंभावित्वात्, न च कामोद्रेकं विना मेहनविकारविशेषः संभवति, भयाद्यवस्थायामिवेति / आपवादिक-कल्पत्वादिति क्वचित् पठ्यते। तत्रैकवाक्यतया व्याख्या कार्या। अथ कथमापवादिककल्पत्वं धर्मार्थादिविशेषणयुक्तमैथुनस्येत्याह-वेदम्-ऋगादिकं हिशब्दोवाक्यालंकारार्थः अधीत्य-पठित्वा, स्नायात-कलत्रसंग्रहाय स्नानं कुर्यादित्यत्र वेदवाक्ये वेदव्याख्यातृभिर्यादिति यस्मादधीत्यैव वेदं पठित्वैव, नाऽपठित्वा स्नायादित्येवावधारणे शासितं व्याख्यातमिति।
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________________ मेहुण 428 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मेहुण विपर्यमाहस्नायादेवेति न तु यत्ततो हीनो गृहाश्रमः। तत्र चैतदतो न्यायात, प्रशंसाऽस्य न युज्यते // 4 // वेदमधीत्य स्नायादेव, वेदाध्ययनानन्तरं कलत्रसंग्रहाय स्नानं कुर्यादव इत्येव, नतु नपुनरवधारणंशासितम्, अतः औत्सर्गिको मैथुनपरिहारः। आपवादिकमैथुनमित्यभिहितमनेन चापवादिकेऽपि तत्र रागभावसूचनातो--रागजन्यत्वहेतोः, पक्षकदेशासिद्धता परिहता। अथाधिकृतवाक्यार्थनिगमनायाऽऽह-यदिति-यस्मादेवमवधारणविधिः, ततस्तस्माद् कारणात् हीनः जघन्यो, गृहाश्रमो-गृहस्थत्वम्, यत्याश्रमापेक्षयेति गम्यम् / ततः किमित्याह-तत्र च-तस्मिन् पुनर्गृहस्थाश्रमे, एतत्मैथुनम्, धर्मार्थादिविशेषणं संभवति। तत्रैव दारसंग्रहाद्, अतः एतस्माद्, न्यायाद्-नीतेः प्रशंसाश्लाघा अस्य-मैथुनस्य न युज्यते-न घटते यत्याश्रमापेक्षया हीनगृहाश्रमसंभवित्वेन हीनत्वादस्येति भावः। यथोक्तं पुत्रार्थमित्यत्र 'अपुत्रस्य गतिनास्ति' इति, तदयुक्तम्-परमतेनैवतस्य बाधितत्वात् / यदाह-"अनेकानि सहस्राणि, कुमार ब्रह्मचारिणाम् / दिवं गतानि विप्राणामकृत्वा कुलसन्ततिम् / / 1 / / " इति // 4 // अथ यदुक्तम् 'प्रशंसाऽस्य नयुज्यते' इति, अत्र परमतमाशङ्कमान आहअदोषकीर्तनादेव, प्रशंसा चेत्कथं भवेत्। अर्थापत्त्या सदोषस्य, दोषाभावप्रकीर्तनात्॥५|| अदोषः-दूषणाभावः तस्य कीर्तनं "नच मैथुने' इत्यनेन मनु-वचनेन संशब्दनमदोषकीर्तनम्, तस्मादेव निमित्तान्तर व्यवच्छेदार्थमवधारणम्, प्रशंसा-श्लाघा मैथुनस्य युज्यत इति शेषः? चेद्यद्येवं मन्यसे तदा यो दोषस्तमाह-कथम् केन प्रकारेण न कथं-चिदित्यर्थः, भवेत्जायेत, प्रशंसेति वर्तते / अर्थापत्त्या च वेदं ह्यधीत्य स्नायादिति पूर्वोक्तप्रमाणेन सदोषस्य-पापस्वरूपस्य मैथुनस्यदोषभावप्रकीर्तनात्। न च मैथुने इत्येवं लक्षणाद्दोषा-भावोक्तिमात्रादेवाप्रमाणकादिति। न-- हि यदर्थापत्त्या दोषवदिति निश्चित्तं तदप्रमाणकेन वचनमात्रेण निर्दोषमिति प्रतिपतुं शक्यमिति भावः। अथवा 'प्रशंसाऽस्य नयुज्यत' इति यदुक्तम् तदुयुक्तम्, यतो न मया तत् प्रशंतितमत्, किं तु-निर्दोषमित्युक्तशङ्कां परिहरन्नाह–'अदोषे त्यादि अदोषकीर्तनमात्रादेव कथं प्रशंसाऽस्य भवतीति चेदिति परमतं,सूरिराह-अर्थापत्त्या भवति। अथ तामे-वाह-सदोषस्य दोषाभावप्रकीर्तनात्प्रशंसा कृता भवतीति॥५॥ यदुक्तमदोषकीर्तनात्प्रशंसाऽस्य युक्तेतितत्रादोषतोक्तेरेवान्याय्यत्वमुपदर्शयन्नाहतत्र प्रवृत्तिहेतुत्वात्त्याज्यबुद्धरसंभवात्। विध्युक्ते रिष्टसंसिद्धरुक्तिरेषा न भद्रिका // 6|| उक्तिः-'न मांसभक्षणे दोष' इत्यादिभणनम्। एषा-अनन्तरा भिहिता इति, धर्मिनिर्देशः, न भद्रिका-न शोभनेति साध्यधर्म-निर्देशः, कुत इत्याह-तत्र मैथुनेऽर्थापत्त्या प्रागुपदर्शितदोषे प्रवृत्तिहेतुत्वात् प्राणिनां प्रवर्त्तननिबन्धनत्वादिति हेतुः, प्रयोगश्चैव या प्राणिनां सदोषपदार्थे प्रवृत्तिहेतुभूतोक्तिः सान भद्रिका यथा हिंसानिर्दोषतोक्तिः सदोषमैथुन- | प्रवृत्तिहेतुश्चेयम्, न मांसेत्यादिकोक्तिरिति / प्रवृत्तिहेतुत्वमेव कुत इत्याह- "त्याज्यं मैथुनम्" एवंभूता या बुद्धिस्तस्या असंभवात्अनुत्पादात् न मैथुने दोष एतामुक्तिं श्रद्दधानस्य न मे त्याज्यमिदमित्येषा बुद्धिराविरस्तीति त्याज्यबुद्ध्यभावे च को हि नाम न तत्र प्रवर्तेत, इत्यादित्याज्य-बुद्ध्यसंभवः कुत इत्याह-विधिविधानमनुष्ठान मैथुनस्य तस्योक्तिः-भणितिर्विध्युक्तिस्ततो विध्युक्तः, को हि नाम मैथुने नदोषोऽस्तीति वचनाद्विधेयं मैथुनं न प्रतिपद्यते इति। नन्वनेन वचनेन दोषाभावमात्रमेव मैथुनस्योक्तमिति कथमियं विध्युक्तिः स्यादित्याहइष्टस्यानादिमहामोहवासनावासितमानसानां देहिनामभिलषितस्य मैथुनस्येतो मैथुननिर्दोषताभिधायकवचनात्संसिद्धिर्निष्पत्तिरिष्टसंसिद्धिस्तत इष्टसंसिद्धेः,को हि तस्य निर्दोषतामवगम्य तदिष्टं न निष्पादयति / इष्टं चेदं सर्वप्राणभृता-मित्याह च- "कामिनीसंनिभा नास्ति, देवताऽन्या जगत्त्रये। यां समस्तोऽपि पुंवर्गा, धत्ते मानसमन्दिरे // 1 // " अत उक्तिरेषा न भद्रिकेति व्याख्यातमेव / अथवा-उक्तिरषा न भद्रिकेत्यस्यां प्रतिज्ञायां प्रवृत्तिहेतुत्वादयो भिन्नाश्चत्वारो हेतव इति॥६॥ मैथुनं प्रकारान्तरेण दूषयन्नाहप्राणिनां बाधकं चैत-च्छास्त्रे गीतं महर्षिभिः। नालिकातप्तकणक-प्रवेशज्ञाततस्तथा / / 7 / / प्राणिनां जीवानां बाधकमुपघातकम्।चशब्दोदूषणान्तरसमुच्च-यार्थः / एतन्मैथुनं शास्त्रे व्याख्याप्रज्ञप्त्याख्यपञ्चमाङ्गे गीतं-गदितं महर्षिभिः-- महामुनिभिः श्रीवर्द्धमानस्वामिप्रमुखैः / कथं बाधकं गीतमित्याह-- नलिकायां-वेणुपर्वादिरूपायां तप्तस्याग्निना दीप्तस्य कणकस्य-लोहशलाकावि शेषस्य प्रवेशः--प्रक्षेपः स एव ज्ञातमुदा-हरणम्, ततो नलिकातप्तकणकप्रवेशज्ञाततः, तथेति-तत्प्रकारात् रूतभृतनलिकेति विशेषणयुक्ता। तथा हि (भगवत्याम्-) "हेहुणं भंते! सेवमाणस्स केरिसए असंजमे कजइ? गोयमा ! से जहानामए केइ पुरिसे बूरनलियं वा रूयनलियं वा तत्तेणं 2 अओ कणएणं रसमहिधंसेजा मेहुणं सेवमाणस्स एरिसए णं असंजमे कज्जइ त्ति (भ०२श० 5 उ०) // 7 // दूषणान्तरमाप्तवचनप्रसिद्ध मैथुनस्य ब्रुवाणः प्रकरणो पसंहारायाऽऽहमूलं चैतदधर्मस्य, भवभावप्रवर्द्धनम्। तस्माद्विषान्नवत्त्याज्यमिदं मृत्युमनिच्छता ||8|| मूलम् कारणम्। चशब्दः समुच्चये। एतन्मैथुनमधर्मस्य-पापस्ययत एवमत एव भवभावस्य-संसारसत्तायाः, अथवा भवे-संसारेयेभावा-उत्पादास्तेषां भवहेतूनां वा भावानांपरिणामानां प्राणवधादिक्रोधादीनां प्रवर्द्धन वृद्धिकरमितिविग्रहः / उक्तञ्च- "मूलमेयमहम्मरस, महादोस-ममुस्सयं। तम्हा मेहुणसंसग्गं, णिगंथा वज्जयतिणं // 1 // " यस्मादेवं तस्मात्कारणाद्विषान्नवत्हालाहलमिश्रभोजनमिव त्याज्यपरिहार्य मृत्युंमरणम-निच्छता-अनभिलषता अमुमूर्षुणा यथा विषानंत्यजनीयमेवं मैथुनंत्याज्यमिति भावः / / 8 / हा०२० अष्टा द्वाof सूत्र०। (यो ह्याचार्यो गणावच्छेदको वा गणादपक्रम्य गणमनिक्षिप्य वा मैथुनप्रतिसेवतेसनोपदेष्ट्र शक्नोतीति'उ
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________________ मेहुण 426 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मेहुण द्देश' शब्दे द्वितीयभागे 806 पृष्ठे गतम्) (संयत्या मैथुनासक्तायाः प्रतिक्रिया आलोयणा' शब्दे द्वितीयभागे 426 पृष्ठे दर्शिता) भयवं निन्भट्ठसीलाणं, दरिसणं तं पि निच्छसी। पच्छित्तं वागरेसी य, इति उभयं न जुज्जए।। गोयमा ! भट्ठसीलाणं, दुत (त्त) र संसारसागरे। धुवं तमणुकंपित्ता, पायच्छित्ते पदरिसिए। भयवं ! किं पायच्छित्तेणं, छिंदिज्जा नारगाउयं / (अणु) चरिऊणं वि पच्छित्तं, बहवे दुग्गइं गए। गोयमा ! जे समज्जेजा, ऽणतं संसारियत्तणं / पच्छित्तेणं धुवं ते पि, छिंदे किं (पुणो) नरयाउयं / / पायच्छित्तस्स भावेण, नासत्तं किंचि वजए। बोहिलाभ पमोत्तूणं, हारियं तं न लब्मए / तं वाउकायपरिभोगे, तेकायस्स निच्छियं / अबोहिलाभियं कम्म, वजए मेहुणेण य / / मेहुणं आउकायं च, तेउकायं तहेव य। तम्हा तओ विजं तेणं, वजेजा संजइंदिए। महा०२ अ०। निर्ग्रन्श्याः उचारप्ररत्रवणे कुर्वन्त्या इन्द्रियजातं परामृशेत् तन्निन्थिः स्वदेत् हस्तकर्मप्रतिसेवनाप्राप्तानिग्गंथीए य रातो वा वियाले वा उच्चारं वा पासवणं वा विगिचमाणीए वा विसोहेमाणीए वा अन्नयरे पसुजातीए वा पक्खिजातीए वा अन्नयरं इंदियजाय परामुसेजा,तंच निग्गंथी साइज्जेज्जा हत्थकम्मपडिसेवणप्पत्ता आवजइ मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्घाइयं // 13 // निग्गंथीए य राओ वा वियाले वा उच्चारं वा पासवणं वा विगिंचमाणीए वा विसोहेमाणीए वा अन्नयरे पसुजातीए वा पक्खिजातीए वा अन्नयरंसि सोयंसि ओगाहिज्जा, तं च निग्गंथी साइजिजा मेहुणपडिसेवणपत्ता आवज्जइ चउम्मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्घाइयं / / 14|| अस्य सूत्रद्वयस्य संबन्धमाहपढमिल्लुगततियाणं, चरितो णत्थोवताण रक्खट्ठा। मेहुणरक्खहा पुण, इंदियसोए य दो सुत्ता / / 236 / / प्रथमतृतीययोर्वतयोः प्राणातिपातादत्तादानविरतिलक्षणयोः रक्षणार्थ तीर्थकराननुज्ञातशीतोदकपरिभोगे तयोर्भङ्गो मा भूदिति कृत्वा पूर्वसूत्रस्यार्थश्चरितोगतो भणित इत्यर्थः / संप्रति तु मैथुनव्रतरक्षणार्थमिन्द्रियश्रोतो-विषये द्वे सूत्रे आरभ्येते / अनेन संबन्धेनायातस्यास्य व्याख्यानिन्थ्या रात्रौ वा विकाले वा उच्चारं वा प्रस्रवणं वा वि कुर्वत्या वा विशोधयन्त्या वा अन्यतरपशुजातीयो बानरादिकः पक्षिजातीयो वा मयूरादिकोऽन्यतरदिन्द्रियजातंप-रामृशेत्-स्पृशेत्सा च निर्ग्रन्थी तत्स्पर्श स्वादयेत् सुन्दरोऽस्य स्पर्श इत्यनुमन्येत हस्तकर्मप्रतिसेवनप्राप्ता आपद्यते मासिकमनुद्धातिकं स्यात् / इह निर्ग्रन्थीनां परिहारतपो भवतीति कृत्वा 'परिहारट्टाणं' ति पदं न पठनीयमेव।। द्वितीयसूत्रमेवमेव व्याख्येयं नवरमन्यतरस्मिन् श्रोतसि योन्यादौ वानरादिरवगाहेतु सा च मैथुनप्रतिसेवनप्राप्ता यदि स्यादयेत् ततश्चतुर्गुरुकमिति सूत्रार्थः। अथ भाष्यविस्तरःवानरछगलाहरिणा, सुणगादीया य पसुगणा हो ति। वरिहिणि चासा हंसा, कुक्कुडसुणगादिणो पक्खी / / 240 / / वानरछगलाहरिणाः शुनकादयश्च पशुगणा मन्तव्याः,बर्हिणश्चषा हंसाः कुक्कुटाः शुनकादयश्च पक्षिण उच्यन्ते। जहि यं तु अणाययणा, पासवणुचारतहिं पडिकुटुं। लहुगो य होइ मासो, आणादि सती कुलघरे वा // 241 / / यत्रैते पशुजातीयाश्च प्राणिनः संभवन्ति तदनायतनमुच्यते, तर निर्ग्रन्थीनामवस्थानं प्रस्रवणोच्चारपरिष्ठापनं च प्रतिक्रुष्टम्, यदि कुर्वन्ति तदा लघुमासः आज्ञादयश्च दोषाः। सई कुलघरे व त्ति भुक्तभोगिन्याश्च स्मृतिकरणं कुलगृहे वा भूयस्तासां बान्धवादिभिर्नयनं क्रियते। इदमेव व्याचष्टेमुत्तामुत्तविभासा, तस्सेवी कायि कुलघरे आसी। बंधवतप्पक्खी वा, दट्ठूण णयंति लज्जाए।।२५२।। भुक्ताभुक्तविभाषा-भुक्तभोगिन्याः स्मृतिकरणम्, अभुक्तभोगिन्याश्च कौतुकमुत्पद्यत इत्यर्थः / तथा 'तस्सेवि त्ति' गृहवासे तैः पशुजातीयादिभिः प्रतिसेविता काचित् कुलगृहे आसीत्, सा तान् दृष्ट्वा स्मृतपूर्ववरा प्रतिगमनादीनि कुर्यात्। यद्वा तासां बान्धवास्तत्पाक्षिका वासुहृदस्तादृशेऽनायतने स्थितां तामार्यिकां दृष्ट्वा लज्जया भूयः गृहमानयन्ति। किंचआलिंगणादिया वा, अणिहुयमादीसु वा णिवेदेजा। एरिसगाण पवेसो, ण होति अंतेपुरेसुं पि॥२४३।। ते पशुजातीया वानरादयस्तां संयतीमालिङ्गे युः, सा वा संयती तानालिङ्गेत्, एवमादयो दोषा भवेयुः / अपि च-एते वानरादयः स्वभावादेवानिभृताः कन्दर्पबहुला मायिनश्च भवन्ति अतस्तैर-निभृतमाथिभिः सा कदाचिदात्मानं निषेवयेत्। ईदृशानां च पशु-पक्षिजातीयानां प्रवेशो राज्ञोऽन्तः-पुरेष्वपि न भवति-न दीयते। कारणेन पुनरन्यस्या वसतेरभावे तत्रापि तिष्ठेयुः। कारणगमणे उतहिं, विविंचमाणीऍ आगतों लिहेजा। गुरुगो य होति मासो, आणादि सती तु सचेव।।२४४।। कारणे तत्रापि स्थितानामुच्चारभूमौ प्रस्रवणभूमौ वा गत्वा विविचन्त्याः परिष्ठापयन्त्या वानरादिः समागच्छेत् आगतश्चतामालिङ्गेत्। सा च यदि लिह्यात-तत्स्पर्श स्यादयेत्ततोगुरुमासः, आज्ञादयश्च दोषाः, स्मृतिश्च सा चैव पूर्वोक्ता भवति। अथन स्वादयति ततः सा शुद्धा। यतना चेयं तत्र कर्तवयावंदेण दंडहत्था, णिम्गंतुं आयरंति पडिचरणं / पविसंते वारेति य, दिवा विण उ काइए एक्को // 24 //
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________________ मेहुण 430- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मेहुणसुमिण वृन्देन-द्वित्र्यादिवतिनीसमुदायेन दण्डकहस्ता निर्गच्छन्ति, निर्गत्य | मेहुणद्वि(ण)-पुं०(मैथुनार्थिन्) उद्भ्रामके, बृ०१०॥ कायिकादिकमाचरन्ति, वानरादीनां च प्रतिचरणं कुर्वन्ति, ये तत्राऽ- | मेहुणधम्म-पुं०(मैथुनधर्म) अब्रह्मव्यापारे, आचा०२ श्रु०१ चू०१० भिद्रवन्ति तान् दण्डकेन ताडयन्ति, प्रतिश्रये वा प्रविशतो निवारयन्ति।। 3 उ०। दिवा अपि च कायिकभूमिमेकाकिनी न गच्छति। व्याख्यातमिन्द्रिय- | मेहुणधम्मपरियारणा-स्त्री०(मैथुनधर्मप्रतिचारणा) मैथुनधर्मप्रतिसूत्रम्। - सेवनायाम्, आचा०२ श्रु०१चू०२१०१३०। __संप्रति श्रोत सूत्रं व्याचष्ट मेहुणभाव-पुं०(मैथुनभाव) द्वन्द्वकर्मणि, "ण य किंचि अणुण्णायं, एवं तु इंदिएहिं, सोते लहुगा य परिणए गुरुगा। पडिसिद्धं वावि जिणवरिंदेहिं / मोत्तुं मेहुणभावं, ण विणा तं रागदोसेहि बितियपदकारणम्मि य, इंदियसोए य आगाढे // 246|| |1" आचा०१ श्रु०२ अ०५ उ०। व नादिन्टियसले पाशितविधियानात जातीवाटय मेहुणवडिया-स्त्री०(मैथुनप्रतिज्ञा) मिथुनभावो मैथुनं, मिथुनकर्म वा श्रोतोऽवगाहनं कुर्वन्ति तत्र तिष्ठन्तीनां चतुर्लघु।तेषु श्रोतोवगाहनं कुर्वाणेषु मैथुनम्: अब्रह्मेत्यर्थः / मिथुनभावे प्रतिपत्तिः-प्रतिज्ञा मैथुन-प्रतिज्ञा। यदि सासुन्दरमिदमितिपरिणता ततश्चतुर्गुरु। द्वितीय-पदे आगाढे कारणे मैथुनसेवनप्रतिज्ञायाम्, नि०चू०५ उ०) इन्द्रिये श्रोतसि च परामर्श स्वादयेदपि। इद-मुत्तस्त्र भावयिष्यते-कारणे मेहुणवत्तिय-पुं०(मैथुनप्रत्ययिक) स्त्रीपुंसयोर्वेदोदये सति पूर्वकर्मएकाकिन्यास्तिष्ठन्त्यास्तावदियं यतना।। निवर्तितेऽरणिकाष्ठयोरिव संयोगे, सूत्र०२ श्रु०३ अ०) गिहिणिस्सा एगागी, तहिं समं णिति रत्तिमुभयस्स। मेहुणविरइ-स्त्री०(मैथुनविरति) मिथुनं स्त्रीपुंसद्वन्द्व तस्य कर्म मैथुनं दंडगसारक्खणया, वारेति दिवा य पेल्लंते // 247 // तस्माद् विरतिः। मैथुनविरमणे, प्रव०६६ द्वार। मेहुणविहि-पुं०(मैथुनविधि) मैथुनप्रकारे, उपा०। "तदाणंतरं च णं गृहस्थनिश्रया कारणे काचिदेकाकिनी वसन्ती ताभिरविरतिकाभिः सदारसंतोसिए परिमाणं करेइ, णण्णत्थ एक्काए सिवाणंदाए भारियाए समंरात्रावुभयस्य प्रस्रवणोच्चारणस्यव्युत्सर्जनार्थ निर्गच्छति, निर्यान्ती अवसेसं सव्वं मेहुणविहिं पञ्चक्खामि।" उपा०१ अ०) च वानरादीनभिद्रवतो दण्डकेन संरक्षति। दिवा च प्रतिश्रयं प्रेरयतः मेहुणवेरमण-न०(मैथुनविरमण) मिथुनं स्त्रीपुंसद्वन्द्वं तस्य कर्म मैथुनं प्रविशतो निवारयति। तस्माद् विरमणम्। पा०। ब्रह्मचर्य, (तच्च देशतः श्रावकस्य चतुर्थमणुव्रतं अथ गाढकारणं व्याचष्टे भक्तीति। 'सदारसंतोस' शब्दे वक्ष्यते) सर्वतः साधोश्चतुर्थे महाव्रते, अट्ठाणसद्दआलिंगणादिपयकम्मऽतित्थितासंती। दश०४ अ०। (अत्रत्यसूत्रम् 'पडिक्कमण' शब्दे पञ्चमभागे 261 पृष्ठेगतम्) अचित्तं पिंप (बिम्ब) अणिहुत,कुलघरसडादिगेहे वा॥४८|| मेहुणसंसग्ग-पुं०(मैथुनसंसर्ग) मैथुनसम्बन्धे, 'मूलमेयमहम्मस्स, कस्याश्चिदार्यिकायाः सनिमित्तोऽनिमित्तो वा मोहोद्भवः संजात-स्ततो महादोससमुस्सयं। तम्हा मेहुणसंसग्गं, निग्गंथा वजयंतिणं' // 16 // " निवृत्तिकादिकायां मोहचिकित्सायां कृतायामपि यदा न तिष्ठति तदा दश०६अ०२ उ01 अस्थाने शब्दनिबद्धायां वसतौ स्थापनीया, ततो यत्रा-विरतिकाना- मेहुणसण्णा-स्त्री०(मैथुनसंज्ञा) मैथुनं संज्ञायतेऽनयेति मैथुनसंज्ञा। मालिङ्गनादिकं क्रियमाणं दृश्यते तत्र स्थाप्यते। तथाऽप्यनुपरते मोहे पुंवेदोदयान्मैथुनाय स्त्र्यङ्गालोकनप्रसन्नवदनसंस्तम्भितोरुवेपथुप्रभृपादकर्म करोति। तदप्यतिक्रान्ता सती यदचित्तं पिम्पं हुण्डुशिरादिकं तिलक्षणायां क्रियायाम्, स्था०१ ठा० 330 / भाआव०। स्त्र्यादिवेतेन प्रतिसेवयति / तथाऽप्यतिष्ठन्ती योऽद्य न वृतस्तेनास्थानादिकं दोदयरूपायां संज्ञायाम, आचा०१ श्रु०१ अ०१उ०। चतुर्भिर्हेतुभिसर्वमपि कृत्वा ततः कुलगृहे भगिन्या भ्रातृजायाया वा आलिङ्गनादिकं मैथुनसंज्ञोत्पद्यते। स्था०। क्रियमाणं प्रेक्षते, तदभावे श्राद्धिकायास्तदप्राप्तौ तथा भद्रिकाया अपि चउहिं ठाणेहिं मेहुणसन्ना समुप्पजति, तं जहा-चितमंससोप्रेक्षते। प्रथममिन्द्रिये पश्चात् श्रोतःस्वपि यतनयन्ति।बृ०५ उ०"मेहुणं णिययाए मोहणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं मतीए तदट्ठोवओगेणं। पडिसेवमाणे सबले भवति"। स०२१ सम०। ('सबल' शब्दे-व्याख्या) (सूत्र-४) मैथु-नमब्रह्म अतिक्रमादिना सेवमानोऽनुद्धातको भवति। स्था०५ ठा०२ चिते-उपचिते, मांसशोणिते यस्य स तथा, तद्भावस्तत्तातया चितमांसउ०। (यो हि स्त्रिया सह संयोगं नाभिलषति स धन्य इति 'इत्थी' शब्दे शोणिततया मत्या-सुरतकथाश्रवणादिजनितबुद्ध्या, तदर्थोपयोगेनद्वितीयभागे 620 पृष्ठे उक्तम्) (मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिज्ञया प्रतिसेव- मैथुनलक्षणार्थानुचिन्तनेनेति / अविमुक्ततया-सपरिग्रहतया मत्या नादिकं निशीथचूर्णिसप्तमोद्देशकादवसेयम्) (मैथुनार्थ हस्तकर्म सचेतनादिपरिग्रहदर्शनादिजनितबुद्ध्या तदर्थोपयोगेनपरिग्रहानुनिशीथचूर्णा प्रथमोद्देश के व्याख्यातम्) (सागारिकायां वसतौ न स्थेयं चिन्तनेनेति / स्था० 4 ठा०४ उ०। मैथुनविरतेरतिक्रमः 'पडिक्कमण' तत्र मैथुन दोषः स च 'वसहि' शब्दे वक्ष्यते) (प्रश्न-व्याकरणोक्ता शब्दे पञ्चमभागे 265 पृष्ठे गतः) चतुर्थास्त्रवद्वारोक्ता निखिला वक्तव्यता 'अबंभ' शब्दे प्रथमभागे 675 मेहुणशाल-न०(मैथुनशाल) रतिगृहे, नि०चू०८ उ०। पृष्ठे उक्ता) मधुसर्पिषि, पौराणिकमते मैथुनशब्देन मधुसर्पिषोहणं मेहुणसुमिण-पुं०(मैथुनस्वप्न) स्वप्ने मैथुनकरणे, 'मेहुणसुमिणे अट्ठ भवति / स्या०। मातुलपुत्रे, पुं०। बृ० 10 सय' मैथुनस्वप्नेऽष्टशतमष्टोत्तरशतोच्छ्रासमानं कायोत्सर्ग कुर्यादिमेहुणकम्म-न०(मैथुनकर्मन) हस्तकर्मणि, व्य०२ उ०। त्यर्थः / जीता
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________________ मेहुणिआ 431 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मोक्ख मेहु (थु)णिआ-(देशी) श्याली-मातुलात्मजयोः, दे०ना०६ वर्ग 148 गाथा। मेहुणिय-पुं०(मैथुनिक) मातुलपुत्रे, बृ० 4 उ०॥ मेहुणिया-स्त्री०(मैथुनिकी) मैथुनजीवनायां पण्याङ्गनायाम्, व्य०१ उ०। मातुलदुहितरि, बृ०४ उ०। मेहोदय-न०(मेघोदक) मेघेषु वर्षत्सु यत्कस्मिंश्चिन्निर्लेपे शुभे स्थानेऽधिक्रियते तन्मेघोदकम् / मेघजले, ज्यो०२ पाहु०। मेहोह-पुं०(मेघौघ) मेघानामोघः-संघातो मेघौघः / मेघसमूह, रा०॥ "मेहोहरसिय" मेघस्येवौधेन प्रवाहेनरसितं यस्याः सा मेघौघरसिता। आ०म०१अ० रा० मोअ-(देशी) अधिगतचिमिटिकादिबीजकोशयोः, देखना०।६ वर्ग 148 गाथा। मोक्कणिआ-(देशी) असितपद्मोदरे, दे०ना०६ वर्ग 140 गाथा। मोक्ख-पुं०(मोक्ष) मुच्- षः / परित्यागे, श्रा० निसर्गे ,विशे० आत्यन्तिके पृथग्भागे, उत्त०१ अ०! छुटने, आ० चू०१ अ०। संसारप्रतिपक्षभूते, जी०१ प्रतिका दुःखापगमे, मोक्षकारणे वा संयमानुष्ठाने, आचा०१ श्रु०६ अ०१ उ०ा निर्वाणे, पञ्चा०१ विव०। सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रेभ्यः कर्मणामत्यन्तोच्छदे, ध०१ अधि०। सूत्र०ा जीवस्य रागद्वेषमदमोहजन्मरोगादिदुःखक्षयरूपेऽवस्थाविशेषे, ध०२ अधि०। सकलकर्माशैः (नि०१ श्रु०१वर्ग१०) मुक्तत्वे, आ०चू०१ अ०सकलकर्मवियोगे, औ०। सर्वकर्माभावलक्षणे, आत्मनस्तादात्म्यावस्थाने, अष्ट० 27 अष्ट०। सव्वकम्मावगमो मोक्खो भण्णति / नि०चू०१उ०। कृत्स्नकर्मक्षये,स्या० उपा०। नीसेसकम्मविगमो, मुक्खा जीवस्स सुद्धरूवस्स। साइणपज्जवसाणं, अव्वाबाहं अवत्थाणं // 8 // निःशेषकर्मविगमो मोक्षः-"कृत्स्नकर्मक्षयान् मोक्ष' इति वचनात्। (तत्त्वार्थाऽधिगमसूत्रम्-१०१) जीवस्य शुद्धस्वरूपस्य-कर्मसंयोगापादितरूपरहितस्येत्यर्थः। साद्यपर्यवसानम् अव्या-बाधम्-व्याबाधावर्जितमवस्थानम्-अवस्थितिः जीवस्यासौ मोक्ष इति / साद्यपर्यवसानता चेह व्यक्त्यपेक्षया न तु सामान्येन, तेन मोक्षस्याप्यनादिमत्त्वमिति / श्रा०। कर्मविचटने, आचा०१ श्रु० 4 अ०४उ०। "पुष्टिः पुण्योपचयः, सुद्धिः पापक्षयेण निर्मलता। अनुबन्धिनि द्वयेऽस्मिन, क्रमण मुक्तिः परा ज्ञेया // 1 // " षो०३ विव०। ('धम्म' शब्दे चतुर्थभागे 2666 पृष्ठे व्याख्यातम्) तस्योपात्तपुंस्त्रीशरीरस्य सम्यग्ज्ञानक्रियाभ्यां कृत्स्नकर्मक्षयस्वरूपा सिद्धिः / / 57 // तस्य-अनन्तरनिरूपितस्वरूपस्य आत्मनः, उपात्तपुंस्त्रीशरीरस्यस्वीकृतपुरुषयोषितपुषः, एतेन स्त्रीनिर्याणद्वेषिणः काष्ठाम्बरान शिक्षयन्ति। सम्यग्ज्ञानं च यथावस्थितवस्तुतत्त्वावबोधः, क्रिया च तपश्चरणादिका, 'ताभ्याम् / ननु सम्यग्दर्शनमपि कृत्स्नकर्मक्षयकारणमेव / यदाहुः(उमास्वातिवाचकाः)-''सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग;"इति। / तत्कथमिह नोपदिष्टम्? उच्यते-सम्यग्ज्ञानोपादानेनैव तस्याक्षिप्तत्वात्, द्वयोरप्यनयोः सहचरत्वात्। सम्याज्ञानस्य क्रियातः पृथगुपादानाद्या क्रिया सम्यग्ज्ञानपूर्विका सैव तत्कारणं न पुनर्मिथ्यात्वमलपटलावलुतविवेकविकलानां मिथ्याज्ञानपूर्विका दफलमूलशैवालकवलनादिका। कृत्स्नस्य-अष्टप्रकारस्यापि न तु कतिपयस्य जीवन्मुक्तेरनभिधित्सितत्वात्; कर्मणः ज्ञानावरणीयादेरदृष्टस्य नतुबुद्धयादिगुणानामपि, नापि ज्ञानमात्रसन्तानस्य, क्षयः-सामस्त्येन प्रलयःस्वरूपं यस्याः सा तथा; एतेन नैयायिकसौगतोपकल्पित-मुक्तिप्रतिक्षेपः / एवंविधा सिद्धिर्मोक्षो भवति। रत्ना०७ परि०ा "सम्यग्भावपरिज्ञानाद, विरक्ताभावतोजनाः / क्रियां सत्कृत्याऽविघ्नेन, गच्छन्ति परमां गतिम् // 1 // " दशा०१ अ०॥ (मोक्ष-सिद्धिः 'केवलिसमुग्घाय' शब्दे तृतीयभागे 656 पृष्ठे तत्रैव केवलिनः सर्वा समुद्धातक्रिया च प्रत्यपादि)"विनिर्मुक्ताशेषबन्धनस्य प्राप्तनिजस्वरूपस्यात्मनो लोकान्तेऽवस्थानं मोक्षः" "बन्धवियोगो मोक्षः" इति वचनात्। सम्म०३ काण्ड। ('बंध' शब्दे पञ्चमभागे 1168 पृष्ठेऽत्र विशेषो गतः) सर्वकर्मनिर्जरावद्भिस्तु स्वसंवेदनाध्यक्षतः परमपदप्राप्तिहेतोः सम्यग्दर्शनज्ञानदेः स्वसंवेदितत्वात्सर्वकर्मापगमाविर्भूतचैतन्यसुखस्वभावात्मस्वरूपस्य मोक्षस्याप्यनन्तरोक्तन्यायतः प्रतिपत्तिः मता, तथाहि-यदुत्कर्षतारतम्याद्यस्यापचयतारतम्यं तत्प्रकर्षनिष्ठागमने भवति तस्यात्यन्तिकः क्षयः यथा-उष्णस्पर्शतारतम्याच्छीतस्पर्शस्य, भवति च ज्ञानवैराग्यादेरु(कर्षतारतम्यादज्ञान-रागादेरपचयतारतम्यमित्यनुमानतो भगवदागमतश्चास्मदादेरपवर्गसिद्धिः। भगवतांतु केवलाध्यक्षत इति / सम्म०३ काण्ड०६३ गा०टी०। आचा० नं०। स्था०। विशे० ('निव्वाण' शब्दे 'बन्ध' शब्दे च मोक्षतत्त्वसिद्धिर्विस्तरेण प्रपञ्चिता) एगे मोक्खे (सूत्र-१०) मोचन कर्मपाशवियोजनमात्मनो मोक्षः, आह च-'कृत्स्नकर्मक्षयान्मोक्षः, सचैको ज्ञानावरणीयादिकमपिक्षयाऽष्टविधोऽपि मोचनसामान्यात्, मुक्तस्यव वा पुनर्मोक्षाभावात् / ईषत्प्राग्भाराख्यक्षेत्रलक्षणो वा द्रव्यार्थतयैकः, अथवा द्रव्यतो मोक्षो निगडादितः, भावतः कर्मतस्तयोश्च मोचनसामान्यादेको मोक्ष इति / स्था०१ ठा० स०। ‘णत्थि बंधे य मोक्खे य, णेवं सन्नं निवेसए। अत्थि बंधे यभोक्खे य, एवं सन्नं निवेसए // 15 // " सूत्र०२ श्रु०५ अ०। ('अस्थिवाय' शब्दे प्रथमभागे 520 पृष्ठे व्याख्यातैषा) (सिद्धशब्दोऽप्यत्र वीक्ष्यः) मोक्षे सुखमस्तीति 'सिद्ध शब्दे वक्ष्यामि) सचिदानन्दलक्षणं ब्रह्मपरमार्थतत्त्वं तत्संप्राप्तिर्मोक्ष इति वेदान्तिनः। ज्ञानं सुखं वा मोक्षेऽवतिष्ठते सत्तातत्त्वादिति नैयायिकाः प्रत्यवतिष्ठन्तेएवं च आत्मविशेषगुणोच्छेदस्वरूपां मुक्तिमज्ञानादङ्गीकृतवतः परानुपहसन्नाहनसंविदानन्दमयीच मुक्तिः, सुसूत्रमासूत्रितमत्वदीयैः।।८।। तथा न संविदित्यादि, मुक्ति-मोक्षः; न संविदानन्दमयीन ज्ञानसुखस्वरूपा। संविद्- ज्ञानम्, आनन्दः-सौख्यम्, ततोद्वन्द्वः, संविदानन्दौ प्रकृतीयस्यां सा संविदानन्दमयी एतादृशीन भवति।बुद्धिसुखदुःखेच्छाद्वेषप्रयत्नधर्माधर्मसंस्काररूपाणां नवानामात्मनो वैषेशिकगुणानामस्य
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________________ मोक्ख 432- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मोक्ख न्तोच्छेदो मोक्ष'' इति वचनात् / घशब्दः पूर्वोक्ताभ्युपगमद्वयसमुच्चये। ज्ञानं हि क्षणिकत्वादनित्यम्, सुखं च सप्रक्षयतया सातिशयतया च न विशिष्यते, संसारावस्थातः इति। तदुच्छेदेआत्मस्टरूपेणावस्थानं मोक्षः इति। प्रयोगश्चात्र-नवानामात्मविशेषगुणानां सन्तानः-अत्यन्तमुच्छिद्यते सन्तानत्वात्, यो-यः सन्तानः सः-सोऽत्यन्तमुच्छिद्यते, यथा. प्रदीपसन्तानः, तथा चायम्, तस्मादत्यन्तमुच्छिद्यत इति। तदुच्छेद एव महोदयः, न कृत्स्नकर्मक्षयलक्षण इति। "न हि वै सशरीरस्य प्रियाप्रिययोरपहतिरस्ति"। "अशरीरं वा वसन्तं प्रियाप्रिये न स्पृशतः'। इत्यादयोऽपि वेदान्तास्तादृशीमेव मुक्तिमादिशन्ति। अत्र हि प्रिया-प्रियेसुखदुःखे ते चाशरीरंमुक्तं नस्पृशतः। अपिच"यावदात्मगुणाः सर्वे, नोच्छिन्ना वासनादयः। तावदात्यन्तिकी दुःख-व्यावृत्ति विकल्प्यते // 1 // धर्माधर्मनिमित्तो हि,सम्भवः सुखदुःखयोः। मूलभूतौ च तावेव, स्तम्भौ संसारसद्मनः॥२॥ तदुच्छेदे च तत्कार्य-शरीराद्यनुपप्लवात्। नात्मनः सुखदुःखे स्तः, इत्यसौ मुक्त उच्यते॥३॥ इच्छाद्वेषप्रयत्नादि, भोगाऽऽयतनबन्धनम्। उच्छिन्नभोगाऽऽयतनो,नाऽऽत्मा तैरपि युज्यते // 4 // तदेवं धिषणाऽऽदीनां, नवानामपि मूलतः। गुणानामात्मनो ध्वसः, सोऽपवर्गः प्रतिष्ठितः / / 5 / / ननु तस्यामवस्थायां, कीदृगात्माऽवशिष्यते? स्वरूपैकप्रतिष्ठानः,परित्यक्तोऽखिलैर्गुणैः // 6 / / ऊर्मिषट्काऽतिगं रूपं, तदस्याऽऽहुर्मनीषिणः / संसारबन्धनाऽधीन-दुःखक्लेशाद्यदूषितम्॥७॥" कामक्रोधलोभगर्वदम्भहर्षा-ऊर्मिषट् कमिति / तदेतदभ्युपगमत्रयमित्थं समर्थयद्भिः, अत्वदीयैः-त्वदाज्ञाबहिभूतैः कणादमतानुगामिभिः, सुसूत्रमासूत्रितम्--सम्यगागमः प्रपञ्चितः। अथवाः-'सुसूत्रमिति' क्रियाविशेषणम् शोभनं सूत्रं वस्तुव्यवस्थाघटनाविज्ञानं यत्रैवमासूत्रितं तत्तच्छास्त्रार्थोपनिबन्धः कृतः इति हृदयम्। 'सूत्रंतु सूचनाकारि, ग्रन्थे तन्तुव्यवस्थयोः'। इत्यनेकार्थवचनात्। अत्र च सुसूत्रमिति विपरीतलक्षणयोपहासगर्भ प्रशंसावच-नम्। यथा- "उपकृतं बहुतत्र किमुच्यते, सुजनता प्रथिता भवता चिरम्' इत्यादि। उपहसनीयता चयुक्तिरिक्तत्वात् तदङ्गीकाराणाम् (स्या०) यदपि "न संविदानन्दमयी च मुक्तिरिति व्यवस्थापनाय अनुमानमवादि सन्तानत्वादिति। तत्राभिधीयते-ननु किमिदं सन्तानत्वम्-स्वतन्त्रम्-अपरापरपदार्थोत्पत्तिमात्रं वा एकाश्रया अपरापरोत्पत्तिा? तत्राद्यः पक्षः सव्यभिचारः, अपरापरेषामुत्पादकानां घटपटकटादीनां सन्तानत्वेऽप्यत्यन्तमनुच्छिद्यमानत्वात्। अथ द्वितीयः पक्षस्तर्हि तादृशंसन्तानत्वं प्रदीपे नास्तीति साधनविकलो दृष्टान्तः / परमाणुपाकजरूपादिभिश्च व्यभिचारी हेतुः, तथाविधसन्तानत्वस्य तत्र सद्भावेऽप्यत्यन्तोच्छेदाभावात्। अपि च- | सन्तानत्वमपि भविष्यति अत्यन्तानुच्छेदश्च भविष्यति विपर्यये बाधकप्रमाणाभावात्, इति संदिग्धविपक्षव्यावृत्तिकत्वादप्यनैकान्तिकोऽयम् / किं च-स्याद्वादवादिनां नास्ति क्वचिदत्यन्तमुच्छेदः द्रव्यरूपतया स्थास्नूनामेव सतां भावानामुत्पादव्यययुक्तत्वाद्, इति विरुद्धश्चेति नाधिकृतानुमानाद्बुद्ध्यादिगुणोच्छेदरूपा सिद्धिः सिध्यति। नापि "न हि वै सशरीरस्य सतः प्रियाप्रिययोरपहतिरस्ती'' त्यागमेन शरीरराहित्ये सुखदुःखाभावप्रतिपादनान्न मोक्षे सुखमध्यवसातव्यम्। तत्र हि शुभाऽशुभाऽदृष्टपरिपाकजन्ये सांसरिकप्रियाप्रिये परस्परानुषक्ते अपेक्ष्य व्यवस्थितः / मुक्तिदशायां तु-सकलादृष्टक्षयहेतुकमैकान्तिकमात्यन्तिकं च केवलं प्रियमेव तत्कथं प्रतिषिध्यते? आगमस्य चायमर्थ:-सशरीरस्य गतिचतुष्टयान्यतमस्थावर्तिनश्चात्मनःप्रियाप्रिययोः परस्परानुषक्तयोः सुखदुःखयोः, अपहतिः-अभावो नास्तीति, अवश्यं हि तत्र सुखदुःखाभ्यांभाव्यम्, परस्परानुषक्तत्वंच समासकरणादभ्यूह्यते। अशरीरं मुक्ताऽऽत्मानं वाशब्दस्यैवकारार्थत्वाद् अशरीरमेव; वसन्ते-सिद्धिक्षेत्रमध्या-सीनं प्रियाप्रिये-परस्परानुषक्ते सुखदुःखे, न स्पृशतः / इदमत्र हृदयम्-यथा किलसंसारिणः सुखदुःखे परसपरानुषक्ते स्यातां, न तथा मुक्तात्मनः, किंतु-केवलं सुखमेव दुःखमूलस्य शरीरस्यैवाभावात्।सुखंतुआत्मस्वरूपत्वादवस्थितमेव, स्वस्वरूपावस्थानं हि मोक्षः, अत एव चाशरीरमित्युक्तम् / आगमार्थश्चायमित्थमेव समर्थनीयः यत एतदर्थानुपातिन्येवस्मृतिरपि दृश्यते-"सुखमात्यन्तिकं यत्र, बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम्। तं वै मोक्षं विजानीयाद, दुष्प्रापमकृतात्मभिः / / 1 // " न चायं सुखशब्दो दुःखाभावमात्रे वर्तते-मुख्यसुखवाच्यतायां बाधकाभावात्, अयं रोगाद् विप्रमुक्तः सुखी जात इत्यादिवाक्येषु च सुखीति प्रयोगस्य पौनरुक्त्यप्रसङ्गाच / दुःखाभावमात्रस्यरोगाद्विप्रमुक्तः इतीयतैव गतत्वात् / न च भवदुदीरितो मोक्षः पुंसामुपादेयतया संमतः, को हि नाम-शिलाकल्पमपगतसकलसुखसंवेदनमात्मानमुपपादयितुंयतेत दुःखसंवेदनरूपत्वादस्य; सुखदुःखयोरेकस्याभावेऽपरस्यावश्यं भावात्। अत एव तदुपहासः श्रूयते-'वरं वृन्दावने रम्ये, क्रोष्टुत्वमभिवाञ्छितम्।न तु वैशेषिकी मुक्तिं, गौतमोगन्तुमिच्छति॥१॥ सोपाधिकसावधिकपरिमितानन्दनिष्यन्दात् स्वर्गादप्यधिकं तद्विपरीतानन्दमम्लानज्ञानं च मोक्षमाचक्षते विचक्षणाः यदि तु जडः पाषाणनिर्विशेष एव तस्यामवस्थायामात्मा भवेत् तदलमपवर्गण, संसार एव वरमस्तु / यत्र तावदन्तराऽन्तराऽपि दुःखकलुषितमपि कियदपि सुखमनुभुज्यते, चिन्त्यतां तावत्-किमल्पसुखानुभवो भव्यःउत सर्वसुखोच्छेद एव? अथास्तितथाभूते मोक्षे लाभातिरेकः प्रेक्षादक्षाणाम्, तेह्येवं विवेचयन्तिसंसारेतावदुःखास्पृष्ट सुखनसंभवति, दुःखं चावश्यं हेयम्, विवेकहानं चानयोरेकभाजनपतितविषमधुनोरिव दुःशकम्, अत एव द्वे अपि त्यज्येते, अतश्च संसारान्मोक्षः श्रेयान् / यतोऽत्र दुःखं . सर्वथा न स्याद् वरमियती कादाचित्कसुखमात्राऽपि त्यक्ता, न तु तस्याः कृते दुःखभार इयान् व्यूढ इति / तदेतत्सत्यम्, सांसारिकसुखस्य मधुदिग्धधाराकरालमण्डलाग्रग्रासवदुःखरूपत्वादेवयुक्तैव मुमुक्षूणां तजिहासा, किन्त्वात्यन्तिकसुखविशेषलिप्सूनामेव। इहापि
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________________ मोक्ख 433 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मोक्ख विषयनिवृत्तिजं सुखमनुभवसिद्धमेव, तद्यदि मोक्षे विशिष्टं नास्ति ततो मोक्षो दुःखरूपएवापद्यत इत्यर्थः / ये अपि विषमधुनी एकत्र संपृक्तेत्यज्येते ते अपि सुखविशेषलिप्सयैव / किञ्च-यथा प्राणिनां संसारावस्थायां सुखमिष्टं दुःखं चानिष्ट, तथा मोक्षावस्थायां दुःखनिवृत्तिरिष्टा सुखनिवृत्तिस्तु अनिष्टव / ततो यदि त्वदभिमतो मोक्षः। स्यात्तदा न प्रेक्षावतामत्र प्रवृत्तिःस्यात्, भवति चेयम् / ततः सिद्धो मोक्षः सुखसंवेदनस्वभावः, प्रेक्षावत्प्रवृत्तेरन्यथाऽनुपपत्तेः / अथ यदि सुखसंवेदनैकस्वभावो मोक्षः स्यात्तदा तद्रागेण प्रवर्तमानो मुमुक्षुर्न मोक्षमधिगच्छेत् / न हि रागिणां मोक्षोऽस्ति, रागस्य बन्धनात्मकत्वात्, नैवम्। सांसारिकसुख एव रागो बन्धनात्मकः विषयादिप्रवृत्तिहेतुत्वाद्, मोक्षसुखे तु रागस्तनिवृत्तिहेतुत्वान्न बन्धनात्मकः। परां कोटिमारूढस्य च स्पृहामात्ररूपोऽप्यसौ निवर्तते, "मोक्षे भवेच सर्वत्र निःस्पृहो मुनिसत्तमः" इति वचनात्। अन्यथा भवत्पक्षेऽपिदुःखनिवृत्त्यात्मकमोक्षाङ्गीकृतौ दुःखविषयं कषायकालुष्यं केन निषिध्येत? इति सिद्धं कृत्स्नकर्मक्षयात्परमसुखसंवेदनात्मको मोक्षः न बुद्ध्यादिविशेषगुणोच्छेदरूप इति। स्या० आव० सकलकर्मक्षयाद्यत्स्यात्तदर्शयितुमाहकृत्स्नकर्मक्षयान् मोक्षो, जन्ममृत्त्य्वादिवर्जितः। सर्वबाधाविनिर्मुक्त, एकान्तसुखसङ्गतः।।१।। मोक्ष एवान्यैः परमपदसंज्ञयाऽभिहित इति परमपदरूपं दर्शयन्नाहयत्र दुःखेन संभिन्नं, नच भ्रष्टमनन्तरम्। अभिलाषोपनीतं यत्, तज्ज्ञेयं परम पदम् / / 2 / / एकान्तसुखसंगतो मोक्ष इत्युक्तं तत्र परविप्रतिपत्तिं दर्शयन्नाहकश्चिदाहान्नपानादि, भोगाभावादसंगतम्। सुखं वै सिद्धिनाथानां, प्रष्टव्यः स पुमानिदम्॥३॥ तदेव प्रष्टव्यमाहकिंफलोऽन्नादिसंभोगो, बुभुक्षादिनिवृत्तये। तन्निवृत्तेः फलं किं स्यात्, स्वास्थ्यं तेषां तु तत्सदा // 4 // अमुमेवार्थ भङ्गयन्तरेणाऽऽहअस्वस्थस्येव भैषज्यं, स्वस्थस्य तुन दीयते। अवाप्तस्वास्थ्यकोटीनां, भोगोऽन्नादेरपार्थकः / / 5 / / यत एवमत एवम्अकिञ्चित्कारकं ज्ञेयं, मोहाभावाद्रताद्यपि। तेषां कण्डाद्यभावेन, हन्त कण्डूयनादिवत्॥६॥ सिद्धसुखं स्वरूपत आहअपरायत्तमौत्सुक्य-रहितं निष्प्रतिक्रियम्। सुखं स्वाभाविकं तत्र, नित्यं भयविवर्जितम् / / 7 / / इदं च परैः परमानन्द इत्यभिहितमेतदेवाऽऽहपरमानन्दरूपं तद्, गीयतेऽन्यैर्विचक्षणः। इत्थं सकलकल्याण-रूपत्वात्सांप्रतं ह्यदः।।८|| अथ केषामिदमवसेयमित्यत आह संवेद्यं योगिनामेतदन्येषां श्रुतिगोचरः। उपमाऽभावतोऽव्यक्तमभिधातुं न शक्यते।।६हा० 32 अष्टO ('ठाण' शब्दे 'सिद्ध शब्द च सिद्धानां स्थानप्ररूपणावसरेऽप्युक्त एषोऽर्थः / सम्मतितर्के च-"ठाणमणोवमसुखमुवगयाणं'' इति सम्मतितर्के द्वितीये काण्डे प्रथमगाथाया व्याख्यानावसरे प्रपञ्चतो भावितं तत एवावगन्तव्यम्, विस्तरभियाऽत्र न लिख्यते) विशे०। ण य संसारम्मि सुह, जाइजरामरणदुक्खगहियस्स। जीवस्स अस्थि जम्हा, तम्हा मोक्खो उवाए उ। सव्वभावंतरेहिं णं गोयम ! तिबेमि। महा०६ अ०। (न स्त्री मोक्षमेतीति दिगम्बरमतम्, स्त्री अपि निर्वाणं गन्तुं शक्नोतीति स्वमतप्रदर्शनपुरः सरमस्माभिरुपपादि 'इथिलिंग- . सिद्ध' शब्दे द्वितीयभागे 560 पृष्ठे) (कृत्स्नकर्मक्षयानमोक्षो भवत्वितीदमपि निदानत्वेन मन्यते इत्यादि आरुगबोहि-लाभ' शब्दे द्वितीयभागे 386 पृष्ठे)आव०ाला (ज्ञानमात्रान्मोक्षः, क्रियाया एव मोक्षः, समुदिताद् वा द्वयादिति 'णाणणय' "किरियाणय'--णाणकिरियाणय-शब्देषु व्यवस्थितम्) आ०चू०आचा०] ज्ञानक्रियामिश्रतयैवैताः क्लेशहानोपायभूता ___ भवन्ति नान्यथेति विवेचयन्नाहज्ञानं च सदनुठानं, सम्यकसिद्धान्तवेदिनः। क्लेशानां कर्मरूपाणां, हानोपायं प्रचक्षते / / 1 / / (ज्ञानं चेति) सज्ज्ञानम्-सदनुष्ठानं च सम्यग-अवैपरीत्येन सिद्धान्तवेदिनः कर्मरूपाणां क्लेशानां हानोपायम्-त्याग-सामग्रीम्प्रचक्षते-प्रकथयन्ति। "संजोगसिद्धीइफलं वयंति" इत्यादिग्रन्थेन॥१॥ नैरात्म्यदर्शनादन्ये, निबन्धन वियोगतः। क्लेशप्रहाणमिच्छन्ति, सर्वथा तर्कवादिनः॥२॥ (नैरात्म्यति) नैरात्म्यदर्शनात-सर्वत्रैवात्माभावावलोकनात्। अन्येबौद्धाः, निबन्धनवियोगतो-निमित्तविरहात्क्लेश-प्रहाणम्-तृष्णाहानिलक्षणमिच्छन्ति, सर्वथा-सर्वे :प्रकारेस्तर्कवादिनः न तु शास्त्रानुसारिणः 2 // अत एव स्वमतं पुरस्कर्तुमाहुःसमाधिराज एतच, तदेतत्तत्त्वदर्शनम्। आग्रहाच्छेदकार्येतत्तदेतदमृतं परम् // 3 // (समाधिराज इति) समाधिराजः सर्वयोगाग्रेसरत्वात्। एतच नैरात्म्यदर्शनम्, तदेतत्तत्त्वदर्शनम् परमार्थावलोकनतः; आग्रहच्छेदकारिमूछ विच्छेदकम्, एतत्तदेतदमृतम्-पीयूषम्, परंभावरूपम्॥३॥ जन्मयोनिर्यतस्तृष्णा, धुवा सा चात्मदर्शने। तदभावे च नेयं स्याद्रीजाभाव इवाङ् कुरः // 4 // (जन्मेति) यतः-यस्मात् तृष्णा-लोभलक्षणा जन्मयोनिः-पुनर्भवहेतुः ध्रुवा--निश्चिता ! सा च-तृष्णा आत्मदर्शनेअहमस्मीति निरीक्षणरूपे तदभावे आत्मदर्शनाभावेच नेयं तृष्णा स्यात्; अङ्कुर इव बीजाभावे॥४॥ न ह्यपश्यन्नहमिति, स्निह्मत्यात्मनि कश्चन। न चात्मनि विना प्रेम्णा, सुखहेतुषु धावति // 5 //
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________________ मोक्ख 434 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मोक्ख (नहीति) न-नैव हिः--यस्मात् अपशन् अनिरीक्षमाणः अहमि- | त्युल्लेखेन, स्निह्यति-स्नेहवान् भवति; आत्मनि विषयभूते कश्चन | बुद्धिमान् / नचात्मनि प्रेम्णा विना सुखहेतुषु धावति-प्रवर्तते कश्चन / तस्मादात्मदर्शनस्य वैराग्यप्रतिपन्थित्यान्नैरात्म्यदर्शनमेव मुक्तिहेतुरिति सिद्धम् // 5 // एतद्दूषयतिनैरात्म्यायोगतो नैतदभावक्षणिकत्वयोः। आद्यपक्षेऽविचार्यत्वाद्धर्माणां धर्मिणं विना // 6 // (नैरात्म्येति) एतदन्येषां मतं न युक्तम, अभावक्षणिकत्वयोः-अर्थाद आत्मना विकल्पमानयोः सतोः; नैरात्म्यायोगतः। आद्यपक्षे-आत्मनोऽभावपक्षे धर्मिणम्--आत्मानं विनाः धर्माणाम्-सदनुष्ठानमोक्षादीनाम् अविचार्यत्वाद्-विचारायोग्यत्वात्, नहि वन्ध्यासुताभावे तद्गतान् सुरूपकुरूपत्वादीन् विशेषांश्चिन्तयितुमारभते कश्चिदिति // 6 // वक्त्राद्यभावतश्चैव, कुमारीसुतबुद्धिवत्। विकल्पस्याप्यशक्यत्वाद्वक्तुं वस्तु विना स्थितम् // 7 // (वक्त्रादीति) वक्त्रादीनां-नैरात्म्यप्रतिपादकतद्रष्ट्रादीनाम् अभावतश्चैव / आद्यपक्षे नैरात्म्यायोगतो नैतदिति संबन्धः / ज्ञानवादिमते त्वाह-कुमारीसुतबुद्धिवत्-अकृतविवाहस्त्रीपुत्रज्ञानवत्। विकल्पस्यापि प्रतिपादकादिगतस्य स्थितं वस्तु विना वक्तुम् अशक्यत्वात्। कुमारीसुतबुद्धि रपि हि प्रसिद्धयोः कुमारीसुतपदार्थयोः संबन्धमेवारोपितमवगाहते, प्रकृते त्यात्मन एवाभावात्तत्प्रतिपादकादिव्यपदेशौ निर्मूल एव / क्वचित्प्रमितस्यैव क्वचिदारोप्यत्वात् / इत्थं च- "यथा कुमारी शयनान्तरेऽस्मिन्, जातं च पुत्रं विगतं च पश्येत् / जाते च हृष्टाऽपगते विषण्णा, तथोपमान जानत सर्वधर्मान्॥१॥" इत्यादि परेषां शास्त्रमपि संसारासारतार्थवाद-मात्रपरतयैवोपयुज्यते इति द्रष्टव्यम्।।७।। द्वितीयेऽपि क्षणादूर्व , नाशादन्याप्रसिद्धितः। अन्यथोत्तरकाङ्गिभावाविच्छेदतोऽन्वयात्|||| (द्वितीयेऽपीति) द्वितीयेऽपि पक्षे, नैरात्म्यायोगतो नैतदिति संबन्धः। क्षणादूर्ध्वम् क्षणिकस्यात्मनो नाशात् अन्यस्य-अनन्त-रक्षयस्य अप्रसिद्धितः-आत्माश्रयानुष्ठानफलाद्यनुपपत्तेः। अन्यथा--भावादेव भावाभ्युपगमे उत्तरकार्य प्रति अङ्गभावेनपरिणामिभावेन अविच्छेदतोऽन्वयात्, पूर्वक्षणस्येव कथञ्चिदभावीभूतस्य तथापरिणमने क्षणद्वयानुवृत्तिध्रौव्यात् / सर्वथाऽसतः खरविषाणादेरिवोत्तरभावपरिणमनशक्त्यभावात्, सदृशक्षणान्तरसामग्रीसंपत्तेरतियोग्यताविच्छिन्नशक्त्यैवोपपतेरिति / किं च-क्षणिको ह्यात्माऽभ्युपगम्यमानः स्वनिवृत्तिस्वभाकः स्यात्, उतान्यजननस्वभावः, उताहो उभयस्वभावः? इतित्रयो गतिः। तत्राद्यपक्षे आहस्वनिवृत्तिस्वभावत्वे, न क्षणस्यापरोदयः। अन्यजन्मस्वभावत्वे, स्वनिवृत्तिरसंगता॥९॥ (स्वनिवृत्तीति) स्वनिवृत्तिस्वभावत्वे क्षणस्य आत्मक्षणस्य अभ्युपगम्यमाने नापरोदयः-सदृशोत्तरक्षणोत्पादः स्यात्, पूर्वक्षणस्योत्तरक्षणजननास्वभावत्वात् / द्वितीये त्वाह- अन्यजन्मस्वभावत्वे- सदृशापरक्षणोत्पादकस्वभावत्वे स्वनिवृत्तिरसंगता तद-जननस्वभावत्वादेव // 3 // तृतीये त्वाहउभयकस्वभावत्वे, न विरुद्धोऽन्वयोऽपि हि। न च तद्धेतुकः स्नेहः, किं तु कर्मोदयोद्भवः / / 10 / / (उभयेति) उभयैकस्वभावत्वे स्वनिवृत्तिसदृशापरक्षणोभयजननैकस्वभावत्वे, अन्वयोऽपि हि न विरुद्धः। यदेव किञ्चिन्निवर्तते तदेवापरक्षणजननस्वभावमिति शब्दार्थान्यथानुपपत्त्यैवान्वयसिद्धेः, उक्तोभयैकस्वभावत्ववत् पूर्वापरकालसंबन्धकस्वभावत्वस्याप्यविरोधात्। इत्थमेव प्रत्यभिज्ञाक्रियाफलसामानाधिकरण्यादीनां निरुपचरितानामुपपत्तेरिति निर्लोठितमन्यत्र / न च तद्धेतुकः-आत्मदर्शनहेतुकः स्नेहः किं तु कर्मोदयोद्भवो-मोहनीयकर्मोदयनिमित्तकः / अतो नायमात्मदर्शनापराध इति भावः / / 10|| ननु यद्यप्यात्मदर्शनमात्रनिमित्तको न स्नेहः, क्षणिकस्याप्यात्मनः स्वसंवेदनप्रत्यक्षेण समवलोकनात्तदुद्भवप्रसङ्गात्, किंतु-ध्रुवात्मदर्शनतो नियत एव स्नेहोद्भवस्तद्गतागामिकालसुखदुःखा-वाप्तिपरिहारचिन्तावश्यकत्वादित्यत्राऽऽहधुवे क्षणेऽपि न प्रेम, निवृत्तमनुपप्लवात् / ग्राह्यकार इव ज्ञाने-ऽन्यथा तत्रापि तद्भवेत्॥१॥ (ध्रुवे क्षणेऽपीति) ध्रुवे क्षणेऽपि-ध्रुवात्मदर्शनेऽपि, न प्रेम समुत्पत्तुमुत्सहते। निवृत्तम्-उपरतम् उपप्लवात्-संक्लेशक्षयात * विसभागपरिक्षयाभिधानात्, ज्ञाने ग्राह्याकार इवभवन्मते उपप्लववशाद्धि तत्र तदवभासस्तदवभासे तुतन्निवृत्तिरिति / तथा च सिद्धान्तो वः-"ग्राह्य न तस्य ग्रहणं न तेन, ज्ञानान्तरग्राहतयाऽपि शून्यम् / तथाऽपि च ज्ञानमयः प्रकाशः, प्रत्यक्षरूपस्य तथाऽऽविरासीत् / / 1 / / " इति / अन्यथोपप्लवं विनाऽपि ध्रुवात्मदर्शनन प्रेमोत्पत्त्यभ्युपगमे तत्रापि त्वन्मतप्रसिद्धात्मन्यपि तत्प्रेम भवेत्, आत्मदर्शनमात्रस्यैव लाघवेन प्रेमहेतुत्वात् / ध्रुवत्वभावनमेव मोहादिति तु स्ववासनामात्रमिति न किञ्चिदेतत् // 11 // विवेकख्यातिरुच्छेत्री, क्लेशानागनुपप्लवा। सप्तधा प्रान्तभूप्रज्ञा, कार्यचित्तविमुक्तिभिः॥१२॥ (विवकेति) विवेकख्यातिः प्रतिपक्षभावनाबलादविद्याप्रविलये विनिवृत्तज्ञातृत्वकर्तृत्वाभिमानाया रजस्तमोमलानभिभूताया बुद्धेरन्तर्मुखायाश्चिच्छायासंक्रान्तिः अनुपप्लवा अन्तरान्तराव्युत्थानरहिता क्लेशानामुच्छेत्री। यदाह-'विवेकख्याति रविप्लवा हानोपायः' (2-26) सा च सप्तधा सप्तप्रकारैः प्रान्तभूप्रज्ञासकलसालम्बनसमाधिपर्यन्तभूमिधीभवति / कार्यचित्त-विभुक्तिभिः-चतुस्त्रिप्रकाराभिः / तत्र न मे ज्ञातव्यं किंचिदस्ति, क्षीणा मे क्लेशाः, न मे क्षेतव्यं किंचिदस्ति, अधिगतं (ता) मया हानप्राप्तविवेकख्यातिरिति कार्यविषयनिर्मलज्ञानरूपाश्चतस्रः कार्यविमुक्तयः / चरितार्था मे बुद्धिगुणाः कृताधिकारा मोहबीजाभावात् कुतोऽमीषां प्ररोहः, सात्मीभूतश्च मे समाधिरिति, स्वरूपप्रतिष्ठोऽहमिति गुणविषयज्ञानरूपास्तिस्रः कार्यविमुक्तय इति / तदिदमुक्तम्-"तस्य सप्तधा प्रान्तभूप्रज्ञेति' (2-27) / / 12|| * 'विस' इति बौद्धानां पारिभाषिकः शब्दः। विष इति वा।
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________________ मोक्ख 435 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मोक्ख बलानश्यत्यविद्याऽस्या, उत्तरेषामियं पुनः। प्रसुप्ततनुविच्छिन्नो-दाराणां क्षेत्रमिष्यते।।१३।। (बलादिति) अस्या-विवेकख्यातेःबलादविद्या नश्यति / इयम्अविद्या पुनरुत्तरेषाम्-अस्मितादीनां क्लेशानां प्रसुप्ततनुविच्छिनोदाराणां क्षेत्रमिष्यते। तदुक्तम्-''अविद्या क्षेत्रमुत्तरेषां प्रसुप्ततनुविच्छिन्नोदाराणामिति" (2-4) // 13 // स्वकार्य नारभन्ते ये, चित्तभूमौ स्थिता अपि। विना प्रबोधकबलं, ते प्रसुप्ताः शिशोरिव।।१४|| (स्वकार्यमिति) ये-क्लेशाः चित्तभूमौ स्थिता अपि स्वकार्य नारभन्ते, विना प्रबोधकस्य-उद्रोधकस्य बलम्- उद्रेकम; ते-क्लेशाः प्रसुप्ताः शिशोरिव-बालकस्येव // 14 // भावनात्प्रतिपक्षस्य, शिथिलीकृतशक्तयः। तनवोऽतिबलापेक्षा, योगाभ्यासवतो यथा / / 15 / / (भावनादिति) भावनाद्-अभ्यासात् प्रतिपक्षस्य--स्वविरोधपरिणामलक्षणस्य शिथिलीकृता कार्यसंपादन प्रति शक्तिर्येषां ते तथा तनवो-वासनावरोधतया चेतस्यवस्थिताः, न तु बालस्येवानवरुद्धवासनात्मानः। अतिबलापेक्षाः- स्वकीर्यारम्भे प्रभूतसामग्रीसापेक्षाः, नतूद्रोधकमात्रापेक्षाः योगाभ्यासवतो यथा-रागादयः क्लेशाः / / 15 / / अन्येनोचैर्बलवता--ऽभिभूतस्वीयशक्तयः। तिष्ठन्तो हन्त विच्छिन्ना, रागो द्वेषोदये यथा॥१६|| (अन्येनेति) अन्येन-स्वातिरिक्तेन उचैर्बलवता-अतिशयित-बलेन क्लेशेन अभिभूतस्वीयशक्तयस्तिष्ठन्तो हन्त विच्छिन्नाः क्लेशा उच्यन्ते; यथा-रागो द्वेषोदये / त हि रागद्वेषयोः परस्पर विरुद्धयोर्युगपत्संभवोऽस्तीति // 16 // सर्वेषां सन्निधिं प्राप्ता, उदाराः सहकारिणाम्। निर्वर्तयन्तः स्वं कार्य, यथा व्युत्थानवर्तिनः / / 17 / / (सर्वेषामिति) सर्वेषां सहाकारिणां सन्निधिम्-सन्निकर्ष प्राप्ताः स्व कार्य निर्वर्तयन्त उदारा उच्यन्ते; यथा-व्युत्थानवर्तिनो योग-प्रतिपन्थिदशावस्थिताः // 17 // अविद्या चास्मिता चैव, रागद्वेषौ तथापरौ। पञ्चमाऽभिनिवेशश्च, क्लेशा एते प्रकीर्तिताः॥१८॥ (अविद्या चेति) क्लेशानां विभागोऽयम् / तदुक्तम्-"अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः क्लेशाः" इति (2-3) / / 18|| विपर्यासात्मिका विद्या, ऽस्मिता दृग्दर्शनकता। रागस्तृष्णा सुखोपाये, द्वेषो दुःखाङ्गनिन्दनम्।।१६।। (विपर्यासात्मिके ति) विपर्यासः-अतरिंमस्तद्ग्रहस्तदात्मिका अविद्या; यथा-अनित्येषु घटादिषु नित्यत्वस्य, अशुचिषु कायादिषु शुचित्वस्य,दुःखेषु विषयेषु सुखरूपस्य, अनात्मनि च शरीरादावात्मत्वस्य अभिमानः। तदुक्तम्-"अनित्याशुचिदुःखानात्मसु नित्यशुचिसुखात्मख्यातिरविद्येति' (2-5) / दृग्दर्शनयोः-पुरुषरजस्तमोऽ१-आख्यातिसंज्ञावाचके ख्यातिशब्दोऽपि। नभिभूतसात्विक परिणामयोःभोक्त-भोग्यत्वेनावस्थितयोरेकता अस्मिता। तदुक्तम्-'दृग्दर्शनशक्त्योरेकात्म-तैवास्मिता" (2-6) / सुखोपाये--सुखसाधने तृष्णा सुखज्ञस्य सुखानुस्मृतिपूर्वो लोभपरिणामो रागः / तदुक्तम्- "सुखानुशयी रागः" इति (2-7) दुःखाङ्गानाम्दुःखकारणानाम् 'निन्दन दुःखाभिज्ञस्य तदनुस्मृति पूर्वकं विगर्हणं द्वेषः / यत उक्तम्-"दुःखानुशयी द्वेषः" इति (2-8) ||16|| (अत्रत्यो विंशतितमः श्लोकः अभिणिवेस' शब्दे प्रथमभागे 715 पृष्ठे गतः) एस्वः कर्माशयो दृष्टा-दृष्टजन्मानुभूतिभाक् / तद्विपाकश्च जात्यायु-भॊगाख्यः संप्रवर्तते // 21 // (एभ्य इति) एभ्यः-उक्तेभ्योऽविद्यादिभ्यः क्लेशेभ्यः, कर्माशयो भवति / दृष्टादृष्टजन्मनोरनुभूतिं भजति यः स तथा, तद्विपाकःकर्मविपाकश्च जात्यायुभॊगाख्यः संप्रवर्तते निरूपित-तत्त्वमेतत्॥२१॥ परिणामाच तापाच,संस्काराद् द्विविधोऽप्ययम्। गुणवृत्तिविरोधाच, हन्त दुःखमयः स्मृतः॥२२॥ (परिणामाचेति) अयम्-कर्मविपाको दुःखालादफलत्वेन द्विविधाऽपि 'तेह्लादपरितापफला' (2-14) (पुण्यापुण्य-हेतुत्वात) इत्यत्र तच्छब्दपरामृष्टानां जात्यायुभॊगानां द्वैविध्यश्रव-णात् / परिमामाच-यथोत्तरं गाह्माभिवृद्धेस्तदप्राप्तिकृतदुःखापरिहारलक्षणाद् दुःखान्तरजननलक्षणाचातापाच-उपभुज्यमानेषु-सुखसाधनेषु सुखानुभवकालेऽपि सदावस्थिततत्प्रतिपन्थि-द्वेषलक्षणात्। संस्काराच–अभिमतानभिमतविषयसन्निधाने सुखदुःखसंविदोरुपजायमानयोः स्वक्षेत्रेतथाविधसंस्कारतथाविधानुभवपरंपरया सस्कारानुच्छेद्रलक्षणात् / गुणवृत्तिविरोधाचगुणानां सत्त्वरजस्तमसां वृत्तीनाम्-सुखदुःखमोहरूपाणां परस्पराभिभाव्याभिभावकत्वेन विरुद्धानांजायमानानां सर्वत्रैव दुःखानुवेधाचेत्यर्थः / हन्त दुःखमयो-दुःखैकस्वभावः स्मृतः / तदुक्तम्"परिणामतापसंस्कारदुःखैर्गुणवृत्तिविरोधाच दुःखमेव सर्वं विवेकिनः" इति (2-15) // 22 // इत्थं दृग्दृश्ययोगात्माऽ-विद्यको भवविप्लवः। नाशान्नश्यत्यविद्यायाः, इति पातञ्जला जगुः॥२३॥ (इत्थमिति) इत्थं-दुःखरूपो दृग्दृश्ययोः-पुरुषबुद्धितत्त्वयोः योगोविवेकाख्यातिपूर्वकः संयोग आत्माकारणं यस्य स तथा। अविद्यक:अविद्यारचितो भवविप्लव:-संसारप्रपञ्चोऽविद्याया नाशान्नश्यति / अविद्यानाशात्स्वकार्यदृगदृश्यसंयोगनाशे तत्कार्यभवप्रपञ्चनाशोपपत्तेरिति पातञ्जला जगुः-भणितवन्तः / / 23 / / एतद्दूषयतिनैतत्साध्वपुमर्थत्वात्, पुंसः कैवल्यसंस्थितैः। क्लेशाभावेन संयोगा-जन्मोच्छेदो हि गीयते // 25|| (नैतदिति) न एतत्-पातञ्जलमतंसाधुन्याय्यम्पुंसः कैवल्य-संस्थितेः सदातनत्वेनापुमर्थत्वात्-पुरुषप्रयत्नासाध्यत्वात्, हि-यतः, क्लेशाभावेन संयोगस्याविद्यकस्य स्वयमेव निवृत्तस्याजन्मानुत्पाद उच्छेदो गीयते / तदेव च पुरुषस्य कैवल्यं व्यपदिश्यत इति न पुनर्मूर्तद्रव्यवत्संयोगपरित्यागोऽस्य युज्यते; कूटस्थत्वहानिप्रसङ्गात् इति हि परसिद्धान्तः। तदुक्तम्-"तदभावात्संयोगाभावो हानमिति" (2-25) // 24 //
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________________ मोक्ख 436- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मोक्ख एतदेवाऽऽहतात्त्विको नात्मनो योगो, होकान्तापरिणामिनः। कल्पनामात्रमेवं च, क्लेशास्तद्धानमप्यहो // 25 // (तात्त्विक इति) तात्त्विक:-पारमार्थिको नात्मनो हि योगः-- संबन्धः एकान्तापरिणामिनः सतो युज्यते। एवं च अहो इति आश्चर्ये, क्लेशास्तद्धानमपि कल्पनामात्रम्; उपचरितस्य भवप्रपञ्चस्य प्रकृतिगतत्वं विनाऽपि अविद्यामाननिर्मितत्वेन बौद्धनयेन वेदान्तिनयेनाऽपि च वक्तुं शक्यत्वात्, मुख्यार्थस्य च भवन्मतनीत्याऽद्याप्यसिद्धत्वादित्यर्थः / / 25|| काल्पनिकत्वेनैवैतन्मतम्, अन्यदपीत्थं दूषयन्नाहनृपस्येवाभिधानाद्यः,सातबन्धः प्रकीर्तितः। अहिशङ्काविषज्ञाना-बेतरोऽसौ निरर्थकः॥२६|| (नृपस्येति) नृपस्येव लथाविधनरपतेरिवाभिधनाद् राजाऽय मिति भणनरूपायः सातबन्धः-सुखसंबन्धरूपःप्रकीर्तितः,नित्येऽप्यात्मनि परैः। अहिनाऽदष्टस्यापि तथाविधप्रघट्टकव शादहिशङ्काविषज्ञाचेतरोऽसातबन्धः असौ निरर्थकः कल्पनामात्रस्यार्थासाधकत्वादेव? अथ प्रकृतौ कर्तृत्वभोक्तृत्वाभिमानोपवर्णनमात्रमेतत्, तन्निरासार्थमेव च सकलशास्त्रार्थोपयोग इति को दोषः? तत्त्वार्थसिद्ध्यर्थमुपचाराश्रणस्यापि अदुष्टत्वादिति चेन्न, तत्त्वार्थस्यैवात्मनाश्चद्रूपत्वे मुक्त्यवस्थायां विषयंपरिच्छेदकत्वस्याप्यापत्तेः ज्ञानस्य ज्ञानत्ववत्सविषयकत्वस्यापि स्वभावत्वात्, अन्तःकरणाभावेऽर्थपरिच्छेदाभावस्य च निरावरणज्ञाने तस्याहे-तुत्वेन वक्तुमशक्यत्वात् / दिदृक्षाभावेऽपि दर्शनानिवृत्तेः / प्राकृता-प्राकृतज्ञानयोः सविषयकत्वाविषयकत्वस्वभावभेदकल्पनस्य चान्याय्यत्वात् / आत्मचैतन्येऽविषयकत्वस्वाभाव्यवत्सविषयकत्वस्वाभाव्यकल्पने बाधकाभावात्। किंच-विवेकाख्यातिरूपसंयोगाभावोऽपि विवेकाख्यातिरूप एवेति, विषयग्राहकचैतन्यस्य स्वतन्त्रनीत्यैवोपपत्तेः; मुक्तावपि निर्विषयचिन्मात्रतत्त्वार्थासिद्धिः। तदुक्तं हरिभद्राचार्य :-"आत्मदर्शनतश्च स्यान्मुक्तिर्यत्तन्त्रनीतितः / तदस्य ज्ञानसद्भावस्तन्त्रयुक्त्यैव साधितः॥१॥" इति। ननु विवेकाख्यातिरपि अन्तःकरणधर्म एव, तस्मिश्च प्रकृतौ प्रविलीने नतद्धर्मस्थित्यवकाशः, नचैवं संयोगोन्मजनप्रसङ्गः; परेषां घटविलयदशायां घटप्रागभावानुन्मजनवदुपपत्तेः इत्थं च प्रकृतेरेव तत्त्वतः संयोगहानम्, आत्मनस्तूपचारादिति नास्माकमयमुपालम्भः शोभत इति चेन्न, उपचारस्यापि संबन्धाविनाभावस्याश्रयणे चिन्मात्रधर्मकत्वत्यागात्सर्वज्ञत्वस्वभावपरित्यागस्य स्ववासनामात्रविजृम्भितत्वादित्याचाणामाशयात्॥२६॥ पुरुषार्थाय दुःखेऽपि, प्रवृत्तेज्ञानदीपतः। हानं चरमदुःखस्य, क्लेशस्येति तु तार्किकाः // 27|| (पुरुषाथायेति) ज्ञानदीपतः-तत्त्वज्ञानप्रदीपाद् अज्ञानध्वान्तनाशात्, पुरुषार्था-पुरुषार्थनिमित्तं, दुःखेऽपि प्रवृत्तेः राजसेवादौ तथा दर्शनात् / चरमदुःखस्य क्लेशस्य स्वयमुत्पादितस्य हानमिति तु तार्किकाः नैयायिकाः; अतीतस्य स्वत एवोपरतत्वात्, अनागतस्य / हातुमशक्यत्वात्, वर्तमानस्यापि विरोधिगुणप्रादुभविनैव नाशात् / वरमदुःखमुत्पाद्य तन्नाशस्यैव पुरुषार्थकत्वादिति भावः।।२७॥ एतदपि मतं दूषयतिब्रूते इन्त विना कश्चि-ददोऽपि न मदोद्धतम् / सुखं विना न दुःखार्थ , कृतकृत्यस्य हि श्रमः // 28 // (बूत इति) अदोऽपि वचनं मदोद्धतं विना कश्चिदित्यनन्तरमपेर्गभ्यमानत्वात्, कश्चिदपि न ब्रूते / हि-यतः, कृतकृत्यस्य सुखं विनास्वसुखातिशयितसुखं विना दुखार्थ श्रमो नास्ति। राजसेवादावपि हि सुखार्थ प्रवृत्तिर्दृश्यते / कटुकौषधपानादावपि आगामिसुखाशयैव; अन्यथा विवेकिनोदुःखजिहासोमरणादावपि प्रवृत्त्यापत्तेः; न च मोक्षे सुखमिष्यते भवद्भिरिति व्यर्थः सर्वः प्रयासः॥२८॥ किं च-घरमदुःखत्वंतत्त्वज्ञानजन्यतावच्छेदकमपि न संभवतीत्याहचरमत्वं च दुःखत्व-व्याप्या जातिर्न जातितः। तच्छरीरप्रयोज्याऽतः,सार्यानान्यदर्थवत्॥२६ (चरमत्वं चेति) चरमत्वं चदुःखत्वव्याप्या जातिःनतच्छरीरप्रयोज्या, अतोजातितः सार्यात् मैत्रीयचरमदुःखचैत्राचरमदुः खवर्तिन्योस्तयोश्चैत्रचरमदुःख एव समावेशात् / चैत्रशरीरप्रयोज्यजातिव्याप्यायाश्चैत्रचरमसुखदुःखादिनिष्ठाया भिन्नाया एव चरमत्वजातेरुपगमे तु सुखत्वादिनैव साङ्कात् / अन्यत्समानाधिकरणदुःखप्रागभावासमानकालीनत्वलक्षणं चरमत्वं नार्थवत्, न तत्त्वाज्ञानजन्यतावच्छेदकम् अर्थादेव समाजात्तदुपपत्तेः / कार्यवृत्तियावद्धर्माणां कार्यतावच्छेदकत्वे चैत्रावलोकितमैत्रनिर्मितघटत्वादेरपि तथात्वप्रसङ्गात्। तथा नियतितत्त्वाश्रयणापत्तेरिति दिक् // 26 // अन्यमतदूषणेन नियूढं स्वमतमुपन्यस्यन्नाहसुखमुद्विश्य तदुःखा-निवृत्त्या नान्तरीयकम्। प्रक्षयः कर्मणामुक्तो, युक्तो ज्ञानक्रियाध्वना॥३०॥ (सुखमिति) तत्-तस्मात् दुःखानिवृत्त्या नान्तरीयकंव्याप्तं सुख-मुद्दिश्य कर्मणाम्-ज्ञानावरणादीनां प्रक्षयो ज्ञानक्रियाध्वना युक्त उक्तः // 30|| क्लेशाः पापानि कर्माणि, बहुभेदानि नो मते / योगादेव क्षयस्तेषां, न भोगादनवस्थितेः॥३१|| ततो निरुपमं स्थान-मनन्तमुपतिष्ठते। भवप्रपञ्चरहितं,परमानन्दमेदुरम्॥३२॥ द्वा० 25 द्वा०। (अनयोयाख्या 'जोग' शब्दे चतुर्थभागे 1633 पृष्ठे गता) एवं पञ्चविंशतितत्त्वपरिज्ञानान्मोक्ष इति भागवताः। आचा०१ श्रु०४ अ०२उ०। “षडिन्द्रियाणि षड् विषयाः षड् बुद्धयः सुखं दुःखं शरीरश्चेत्येकविंशतिभेदभिन्नस्य दुःखस्यात्यन्तोच्छेदान्मोक्ष" इति नैयायिकमतम्। बुद्धिसुखदुःखेच्छाद्वेषप्रयत्नधर्मा-धर्मसंस्कार रूपाणां नवानां विशेषगुणानामत्यन्तोच्छेदो मोक्षः। जै०गा०। (अत्र विस्तरः सम्मतितर्कग्रन्थादवसेयः) मोक्षस्वरूपमाहमोक्षः कर्मक्षयो नाम, भोगसंक्लेशवर्जितः। तत्र देषो दृढाज्ञाना-दनिष्टप्रतिपत्तितः।।२२।। (मोक्ष इति) दृदाज्ञानाद्- अवाध्यमिथ्याज्ञानात् / भवा
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________________ मोक्ख 437 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मोक्ख भिष्वङ्गाभावेनानिष्टाननुबन्धिन्यपि मोक्षेऽनिष्टानुबन्धित्वेनानिष्ट-- प्रतिपत्तेः // 22 // भवाभिनन्दिनां सा च, भवशर्मोत्कटेच्छया। श्रूयन्ते चैतदालापा, लोके शास्त्रेऽप्यसुन्दराः // 23 // (भवेति) सा च-मोक्षेऽनिष्टप्रतिपत्तिश्च भवाभिनन्दिनाम्- उक्तलक्षणानाम् भवशर्मणो-विषयसुखस्योत्कटेच्छया भवति, द्वयोरे--- कदोषजन्यत्वात् // 23 // मदिराक्षी न यत्रास्ति, तारुण्यमदविहला। जडस्तं मोक्षमाचष्टे, प्रिया स इति नो मतम्॥२४॥ (मदिराक्षीति) लोकालापोऽयम् // 24 // वरं वृनवने रम्ये, क्रोटुत्वमभिवाञ्छितम्। नत्वेवाविषयो मोक्षः, कदाचिदपि गौतम ! / / 2 / / (वरमिति) गौतभेति गालवस्य शिष्यामन्त्रणम् / ऋषिवचनमिदमिति शास्त्रालापोऽयम् // 25 // देषोऽयमत्यनाय, तदभावस्तु देहिनाम् . . भवानुत्कटरागेण, सहजाल्पमलत्वतः // 26 // (द्वेष इति) अयम्-मुक्तिविषयो द्वेषोऽत्यनर्थाय-बहुलसंसार–वृद्धये। / तदभावस्तु मुक्तिद्वेषाभावः पुनर्देहिनाम्-प्राणिनाम् भवानुत्कटरागेणभवोत्कटेच्छाभावेन सहजम्-स्वाभाविकम्। यदल्पमलत्वंततः मोक्षरागजनकगुणाभावेन तदभावेऽपि गाढतरमिथ्यात्वदोषाभावेन तवेषाभावो भवतीत्यर्थः / / 26 / / ("मलस्तु०" (27) इति श्लोकः 'मल' शब्देऽस्मिन्नेव भागे गतः) प्रागबन्धान बन्धचेत्, किं तत्रैव नियामकम्। योग्यतां तु फलोनेयां, बाधते दूषणं न तत् / / 2 / / (प्रागिति)प्राक्-पूर्वम् अबन्धाद्-वन्धाभावाज्जीवत्वरूपा-विशेषेऽपि न बन्धो मुक्तस्य चेत् किं तत्रैव-प्रागबन्धे एव, नियामकम्; योग्यताक्षयं विना / योग्यतां तु फलोनेयाम्-फलबलकल्पनीयां तदूषणं न बाधते। तत्र कुतो न योग्यता? इत्यत्र फलाभावस्यैवोत्तरत्वात् / युक्तं चैतत् वन्धस्य बध्यमानयोग्यतापेक्षत्वनियमाद्वस्त्रादीनां मञ्जिष्ठादिरागरूपबन्धने तथा दर्शनात्; तद्वै-चित्र्येण फलभेदोपपत्तेस्तस्या अन्तरङ्गत्यात्तत्परिपाकार्थमेव हेत्वन्तरापेक्षणादित्याचार्याः // 28 // ('"दिदृक्षा०" (29) इति-श्लोकः दिदिक्खा' शब्देचतुर्थभागे 2520 पृष्ठेगतः) प्रत्यावर्त व्ययोऽप्यस्या-स्तदल्पत्वेऽस्य संभवः। अतोऽपि श्रेयसां श्रेणी, किं पुनर्मुक्तिरागतः॥३०॥ (प्रत्यावर्तमिति) प्रत्यावर्तम्-प्रतिपुद्गलावर्तम् ध्ययोऽपि-अपगमोऽपि अस्याः योग्यतायाः दोषायां क्रमहासं विना भव्यस्य मुक्तिगमनानुपपत्तेः / तदल्पत्वे-योग्यताल्पत्वे अस्य-मुक्त्यद्वेषस्य संभव-उपपत्तिः। तदुक्तम्-"एवं चापगमोऽप्यस्या, प्रत्यावर्त सुनीतितः / स्थित एव तदल्पत्वे भावशुद्धिरपि ध्रुवा / / 9 / / " अतोऽपिमुक्त्यद्वेषादपि श्रेयसां श्रेणी-कुशलानुबन्धसन्ततिः, किं पुनर्वाच्यं मुक्तिरागतस्तदुपपत्तौ // 30 // नचायमेव रागः स्या-न्मृदुमध्याधिकत्वतः। तत्रोपाये च नवधा, योगिभेदप्रदर्शनात्॥३१॥ (न चेति) न चायमवे-मुक्त्यद्वेष एव रागःस्यात्-मुक्तिरागो भवेदिति वाच्यम्-मृदुमध्याधिकत्वतो-जघन्यमध्यमोत्कष्टभावात्। तत्र मुक्तिरागे उपाये च नवधा नवभिः प्रकारैर्योगिभेदस्य प्रदर्शनाद्-उपवर्णनात् (अतः परनवधा योगिभेदप्रतिपादिकाव्याख्या 'जोइ' शब्देचतुर्थभागे 1587 पृष्ठ) देषस्याभावरूपत्वा-दद्वेषश्चक एव हि। रागात् क्षिप्रंक्रमाचातः, परमानन्दसंभवः // 32 // (द्वेषस्येति) अद्वेषश्च द्वेषस्याभावरूपत्वादेक एव हि / अतो न तेन योगिभेदोपपत्तिरित्यर्थः; फलभेदेनापि भेदमुपपादयति-ततो मुक्तिरागात् क्षिप्रमनतिव्यवधानेन अतो मुक्त्यद्वेषात्क्रमेण मुक्तिरागापेक्षया बहुद्वारपरम्परालक्षणेन परमानन्दस्य निर्वाणसुखस्य संभवः॥३२॥ द्वा० 12 द्वा० मुक्त्यद्वेषं प्राधान्येन पुरस्कुर्वन्नाहउक्तभेदेषु योगीन्द्र-मुक्त्यद्वेषः प्रशस्यते। मुक्त्युपायेषु नो चेष्टा, मलनायैव यत्ततः॥१॥ विषान्नतृप्तिसदृश, तद्यतो व्रतदुर्ग्रहः। उक्तःशास्त्रेषु शस्त्रानि-व्यालदुर्ग्रहसनिमः॥२॥ (अनयोर्व्याख्या 'मुत्तिअदोस' शब्देऽस्मिन्नेव भागे गता) ननु दुर्गृहीतादपि श्रामण्यात्सुरलोकलाभः केषांचिद्भवती तिकथमत्रासुन्दरतेत्यत्राऽऽहप्रैवेयकातिरप्यस्मा-दिपाकविरसाऽहिता। मुक्त्यद्वेषश्च तत्रापि, कारणं न क्रियैव हि // 3 // (ग्रेवेयकाप्तिरिति) अस्माद्-व्रतदुर्ग्रहात् ग्रैवेयकाप्तिरपि-शुद्ध-समाचारवत्सुसाधुषु चक्रवर्त्यादिभिः पूज्यमानेषु दृष्टषु संपन्नतत्पूजास्पृहाणां तथाविधान्यकारणवतां च केषांचिद्व्यापन्नदर्शनानामपि प्राणिनां नवमवेयकप्राप्तिरपि विपाकविरसा-बहुतरदुःखानुबन्धबीजत्वेन परिणतिविरसा, अहिता-अनिष्टा तत्त्व-तश्चौर्जितबहुविभूतिवदिति द्रष्टव्यम्। तत्रापि-नवमग्रैवेयकप्राप्तावपिचमुक्त्यद्वेषः कारणं न केवला क्रियैव हि अखण्डद्रव्यश्रामण्यपरिपालनलक्षणा। तदुक्तम्-"अनेनापि प्रकारेण, द्वेषाभावोऽत्र तत्त्वतः / हितस्तु यत्तदेतेऽपि, तथा कल्याणभागिनः ||1||" इति // 3 // लाभाधर्थितयोपाये, फले चाप्रतिपत्तितः। व्यापन्नदर्शनानां हि, न देषो द्रव्यलिङ्गिनाम् // 4 // (लाभेति) व्यापन्नदर्शनानां हि द्रव्यलिङ्गिनामुपाये-चारित्रक्रियादौ लाभाद्यर्थितयैवन द्वेषो रागसामग्रयां द्वेषानवकाशात्। फले च-मोक्षरूपे अप्रतिपत्तित एव न द्वेषः / न हि ते मोक्षं स्वर्गादिसुखाद्भिन्नं प्रतीयन्ति, यत्र द्वेषावकाशः स्यात्। स्वर्गादिसुखाभिन्नत्वेन प्रतीयमाने तु तत्र तेषां राग एव। वस्तुतो भिन्नस्य तस्य प्रतीतावपि स्वेष्टविघातशङ्कया तत्र द्वेषो नस्यादिति द्रष्टव्यम्॥४ मुक्तौ च मुक्त्युपाये च, मुक्त्यर्थ प्रस्थिते पुनः।
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________________ मोक्ख 538 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मोक्ख यस्य देषो न तस्येव, न्याय्यं गुर्वादिपूजनम् // // (मुक्तौ चेति)-स्पष्टः // 5 // गुरुदोषवतः स्वल्पा, सत्क्रियाऽपि गुणाय न। भौतहन्तुर्यथा तस्य, पदस्पर्शनिषेधनम् // 6|| (गुर्विति) गुरुदोषवतः-अधिकदोषवतः स्वल्पा-स्तोका सत्क्रियाऽपि सचेष्टाऽपिगुणाय नभवति यथा-भौतहन्तुः-भस्मव्रतिघातकस्य तस्यभौतस्य पदस्पर्शनस्य-चरणसंघट्टनस्य निषेधनम् / कस्यचित् खलु शबरस्यः कुतोऽपि प्रस्तावात्-"तपोधनानांयादेन स्पशनं महतेऽनाय संपद्यते'' इति श्रुतधर्मशास्त्रस्य, कदाचिन्मयूरपिच्छः प्रयोजनमजायत! यदाऽसौ निपुणमन्वेषमाणो नलेभे; तदा श्रुतमनेन यथा भौतसाधुसमीपे तानि सन्ति, ययाचिरेचतानि तेन तेभ्यः; परं न किंचिल्लेभे। ततोऽसौ शस्त्रव्यापारपूर्वक तान्निगृह्य जग्राह तानि, पादेन स्पर्श च परिहृतवान्। यथाऽस्य पादस्पर्शपरिहारो गुणोऽपि शस्त्रव्यापारेणोपहतत्वान्न गुणः, किंतुदोष एव। एवं मुक्तिद्वेषिणां गुरुदेवादिपूजनं योजनीयम्॥६॥ मुक्त्यद्वेषान्महापाप-निवृत्त्या यादृशो गुणः। गुर्वादिपूजनात्तादृक्, केवलान्न भवेत् क्वचित् / / 7 / / (मुक्त्यद्वेषादिति)-स्पष्टः॥७॥ . एकमेव नुहानं, कर्तृभेदेन भिद्यते। सरजेवरभेदेन, भोजनादिगतं यथा // || (एकमेवेति) एकमेव ह्यनुष्ठानम्-देवतापूजनादि कर्तृभेदेन चरमाचरमावर्तगतजन्तुकर्तृकतया भिद्यते-विशिष्यते सरुजेतरयोः-सरोगनीरोगयो क्त्रोर्भेदेन भोजनादिगतम् भोजनपान-शयनादिगतम्, यथा अनुष्ठानम्। एकस्य रोगवृद्धिहेतुत्वात्, अन्यस्य बलोपचायकत्वादिति। सहकारिभेद एवायं न तुवस्तुभेद इति चेन्न, इतरसहकारिसमवहितत्वे न फलव्याप्यतापेक्षया तदवच्छेदकं कारणं भेदस्यैव कल्पनौचित्यात्तथैवानुभवादिति "कल्पलतायां" विपश्चितत्वात् / / 8|| भवाभिम्वङ्गतस्तेना-नाभोगाच विषादिषु / अनुष्ठानत्रयं मिथ्या, दयं सत्यं विपर्ययात् / / 6 / / (भवेति) तेन कर्तृभेदादनुष्ठानभेदेन भेदनम् भवाभिष्वङ्गतः-संसारसुखाभिलाषात्। अनाभोगतः-सन्मूर्छनजप्रवृत्तितुल्यतया च विषादष्वनुष्ठानेषु मध्ये अनुष्ठानत्रयमादिम मिथ्या-निष्फलम्, द्वयमुत्तरं च सफलम्; विपर्ययात्-भवार्भिष्वङ्गानाभोगाभावात् / / 6 / / इहामुत्र फलापेक्षा, भवाभिष्वज उच्यते / क्रियोचितस्य भावस्या-नाभोगस्त्वतिलानम्॥१०॥ (इहेति) प्रागेव शब्दार्थकथनाद्भतार्थोऽयम्॥१०॥ विषं गरोऽननुहानं, तद्धेतुरमृतं परम् / गुर्वादिपूजानुष्ठान-मिति पञ्चविधं जगुः / / 11 / / (विषमिति-) पञ्चानामनुष्ठानानामयमुद्देशः // 11 // विषं लब्ध्याधपेक्षातः, क्षणात्सचित्तमारणात्। दिव्यभोगामिलाषेण, गरः कालान्तरे क्षयात्॥१२॥ (विषमिति) लब्ध्याद्यपेक्षातो-लब्धिकीयादिस्पृहातो यदनुष्ठानं | तद्विषम् उच्यते। क्षणात्-तत्कालं चित्तस्य शुभान्तः करणपरिणामस्य, नाशनात् तदात्तभोगेनैवतदुपक्षयात्। अन्यदपि हि स्थावरजङ्गमभेदभिन्न विषं तदानीमेव नाशयति। दिव्यभोगस्याभिलाष-ऐहिकभोगनिरपेक्षस्य सतः स्वर्गसुखवाञ्छालक्षणस्तेन अनुष्ठानं गर उच्यते / कालान्तरेभवान्तरलक्षणे, क्षयाद्-भोगात्पुण्यनाशेनानर्थसंपादनात् / गरो हि कुद्रव्यसंयोगजो विष-विशेषः, तस्य च कालान्तरे विषविकारः प्रादुर्भवतीति उभयापेक्षाजनितमतिरिच्यते नोभयापेक्षायामप्यधिकस्य बलवत्त्वादिति संभावयामः / / 12 / / संमोहादननुष्ठन,सदनुठानरागतः। तद्धेतुरमृतं तु स्या-च्छूद्धया जैनवर्त्मनः // 13|| (व्याख्या 'मुत्तिअदोस' शब्देऽस्मिन्नेव भागे गता) चरमे पुदलावर्ते , तदेवं कर्तृभेदतः। सिद्धमन्यादृशं सर्व, गुरुदेवादिपूजनम् // 14 // (चरम इति) निगमनं स्पष्टम्॥१४॥ सामान्ययोग्यतैव प्राक्, पुंसः प्रववृते किल। तदा समुचिता सातु, संपन्नेति विभाव्यताम् // 15 // (सामान्येति) सामान्ययोग्यता-मुक्त्युपायस्वरूपयोग्यता, समुचित. योग्यता तु तत्सहकारियोग्यतेति विशेषः / पूर्वं ह्येकान्तेन योग्यस्यैव देवादिपूजनमासीत्, चरमावर्तेतु समुचितयोग्यभावस्येति 'चरमावर्तदेवादिपूजनस्यान्यावर्तदेवादिपूजनादन्यादृशत्वमिति' योगबिन्दुवृत्तिकारः // 15 // चतुर्थ चरमावर्ते, प्रायोऽनुष्ठानमिष्यते। अनाभोगादिभावे तु, जातु स्यादन्यथाऽपि हि॥१६|| (चतुर्थमिति) चरमावर्ते प्रायो-बाहुल्येन चतुर्थम्-तद्धेतुनामकम् अनुष्ठानमिष्यते! अनाभोगादिभावे तुजातु-कदाचिदन्यथाऽपि स्यादिति प्रायोग्रहणफलम् // 16 // शइतेनन्वदेषोऽथवा रागो, मोक्षे तद्धेतुतोचितः। आधे तत्स्यादभव्याना-मन्त्ये न स्यात्तदद्विषाम् / / 17 / / (नन्विति) मुक्त्यद्वेषप्रयुक्तानुष्ठानस्य तद्धेतुत्वे-अभव्यानुष्ठानविशेष अतिव्याप्तिः; नवमग्रैवेयकप्राप्तेमुक्त्यद्वेषप्रयुक्तत्वप्रदर्शनात्। मुक्तिरागप्रयुक्तानुष्ठानस्य तत्त्वे तु मनाग् रागप्राक्कालीनमुक्त्यद्वेषप्रयुक्तानुष्ठानेऽव्याप्तिरित्यर्थः // 17 // नचादेषे विशेषस्तु, कोऽपीति प्राग निदर्शितम्। ईषद्रागाद्विशेष-दद्वेषोपक्षयस्ततः॥१८॥ (न चेति) अद्वेषे विशेषस्तु न च कोऽप्यस्ति अभावत्वादिति प्राक्पूर्वद्वात्रिंशिकायां निदर्शितम् / ईषद्रागाचेद्विशेषस्तर्हि तत एवाद्वेषस्योपक्षयः विशेषणेनैव कार्यसिद्धौ विशेष्यवैयर्थ्यात्। इत्थं च मुक्त्यद्वेषण मनाग मुक्त्यनुरागेण वा तद्धेतुत्वमिति वचनव्याघात इति भावः // 18|| उत्कटानुत्कटत्वाभ्यां, प्रतियोगिकृतोऽस्त्वयम् / नैवं सत्यामुपेक्षायां,देषमात्रवियोगतः॥१६॥
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________________ मोक्ख 436 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मोक्ख (उत्कटेति) अभव्यानां मुक्तौ उत्कटद्वेषाभावेऽप्यनुत्कटद्वेषो भविष्यति, अन्येषां तु द्वेषमात्राभावादेवानुष्ठानं तद्धेतुः स्यादितिपूर्वार्धार्थः। नैवम्उपेक्षायां सत्यां द्वेषमात्रस्य वियोगतः। अन्यथा स्वेष्टसांसारिकसुखविरोधित्वेनोत्कटोऽपि द्वेषस्तेषां मुक्तौ स्यादित्युत्तरार्धार्थः / / 16 // समाधत्तेसत्यं बीजं हि तद्धेतो-रेतदन्यतरार्जितः। मुक्त्यद्वेषो न तेनाति-प्रसङ्गः कोऽपि दृश्यते // 20 // (सत्यमिति) तद्धेतोः-अनुष्ठानस्य हि बीजम् ; एतयोर्मुक्त्यद्वेषरागयोरन्यतरेणार्जितः-जनितः क्रियारागः-सदनुष्ठानरागः / तेनातिप्रसङ्गः कोऽपि न दृश्यते / अभव्यानामपि स्वर्गप्राप्तिहेतुमुक्त्यद्वेषसत्वेऽपि तस्य सदनुष्ठानरागाप्रयोजकत्वाद्वाध्यफलापेक्षासहकृतस्य सदनुष्ठानरागानुबन्धित्वात्॥२०॥ अपि बाध्या फलापेक्षा, सदनुष्ठानरागकृत्। साच प्रज्ञापनाधीना, मुक्त्यद्वेषमपेक्षते // 21 // (अपीति) बाध्या-बाधनीयस्वभावा फलापेक्षाऽपिसौभाग्यादिफलवाञ्छाऽपि सदनुष्ठाने रागकृत्-रागकारिणी। साच-बाध्य–फलापेक्षा च प्रज्ञापनाधीना-उपदेशायत्ता मुक्त्यद्वेषमपेक्षते कारणत्वेन // 21 // यतःअबाध्या सा हि मोक्षार्थ-शास्त्रश्रवणघातिनी। मुक्त्यद्वेषे तदन्यस्यां, बुद्धिर्मानुसारिणी // 22 // (अबाध्येति) अबाध्या हि सा-फलापेक्षा; मोक्षार्थशास्त्रश्रवण-घातिनी तत्र विरुद्धत्वबुद्धयाधानाद्व्यापन्नदर्शनानां चतच्छ्रवणं नस्वारसिकमिति भावः / तत्- तस्मान्मुक्त्यद्वेषे सति अन्यस्यांबाध्यायां फलापेक्षायां समुचितयोग्यतावशेन मोक्षार्थशास्त्रश्रवणस्वारस्योत्पन्नायां बुद्धिार्गानुसारिणीमोक्षपथाभिमुख्यशालिनी भवतीति; भवति तेषां तीव्रपापक्षयात् सदनुष्ठानरागः / / 22 / / तत्तत्फलार्थिनां तत्त-तपस्तन्त्रे प्रदर्शितम्। मुग्धमार्गप्रवेशाय, दीयतेऽप्यत एव च।।२३।। (तत्तदिति) तत्तत्फलार्थिनां-सौभागयादिफलकाक्षिणाम् तत्तत्तपोरोहिण्यादितपोरूपम् अत एव तन्त्रे प्रदर्शितम्; अत एव मुग्धानां मार्गप्रवेशाय दीयतेऽपि गीतार्थः / यदाह-"मुद्धाण हियट्ठया सम्म"। नहोवमत्र विषादित्वप्रसङ्गो न वा तद्धेतुत्वभङ्गः, फलापेक्षाया बाध्यत्वात् / इत्थमेव मार्गानुसरणोपपत्तेः // 23 // इत्थं च वस्तुपालस्य, भवभ्रान्तो न बाधकम्। गुणाद्वेषो न यत्तस्य, क्रियारागप्रयोजकः // 24 // (इत्थं चेति) इत्थं च मुक्त्यद्वेषविशेषोक्तौ च वस्तुपालस्य पूर्वभवे साधुदर्शनेऽप्युपेक्षया अज्ञाततद्गुणरागस्य चौरस्य भवभ्रान्तोदीर्घसंसारभ्रमणेन बाधकम् / यद्-यस्मात्तस्य गुणाद्वेषः क्रियारागप्रयोजको नाभूत् / इष्यते च तादृश एवाऽयं तद्धत्वनुष्ठानोचितत्वेन संसारहासकारणमिति // 24 // जीवातुः कर्मणां मुक्त्य-द्वेषस्तदयमीदृशः। गुणरागस्य बीजत्व-मस्यैवाव्यवधानतः॥२५।। धारालग्नःशुभो भाव, एतस्मादेव जायते। अन्तस्तत्त्वविशुद्ध्याच, विनिवृत्ताग्रहत्वतः॥२६|| अस्मिन् सत्साधकस्येव, नास्ति काचिद्विभीषिका। सिद्धेरासन्नभावेन, प्रमोदस्यान्तरोदयात्॥२७॥ चरमावर्तिनो जन्तोः, सिद्धेरासन्नता धुवम् / भूयांसोऽमी व्यतिक्रान्ता-स्तेष्वेको बिन्दुरम्बुधौ // 28|| मनोरथिकमित्थं च, सुखमास्वादयन् भृशम्। पीड्यते क्रियया नैव, बाढं तत्राऽनुरज्यते // 26 // प्रसन्नं क्रियते चेतः, श्रद्धयोत्पन्नया ततः। मलोज्झितं हि कतक-क्षोदेन सलिलं यथा // 30 // वीर्योल्लासस्ततश्चस्या-ततःस्मृतिरनुत्तरा। ततःसमाहितं चेतः, स्थैर्यमप्यवलम्बते॥३१॥ अधिकारित्वमित्थं चाड-पुनर्बन्धकतादिना। मुक्त्यदेषक्रमेण स्यात्, परमानन्दकारणम् // 32 // जीवातुरित्याधारभ्याष्टश्लोकी सुगमा / 32 // द्वा० 13 द्वा०। "जे जत्तिया य हेऊ, भवस्स ते चेव तत्तिया मोक्खे। गणणाईया लोया, दोण्ह वि पुण्णा भवे तुल्ला // 1 // " अस्या व्याख्या-रागद्वेषज्ञानवतां जन्तूनां वधाद्यनिवृत्तानां वितथप्ररूपणादिप्रवृत्तानां ये-सूक्ष्मबादरजीवसर्वद्रव्यादयो भावा यावन्मात्राश्च हेतवो-निमित्तानि संसारस्य रागादिविरहितानां सम्यश्रद्धानवतामवद्यावितथप्ररूपणादिप्रवृत्तानां त एवं सर्वजीवादयो भावास्तावन्मात्रा हेतवो मोक्षे मोक्षस्यापीत्यर्थः / उक्तं च-"अहो ध्यानस्य महात्म्यं, येनैकाऽपि हि कामिनी। अनुरागविरागाभ्यां, स्याद्भवाय शिवाय च // 1 // " ननु भवत्वेवं, किं तु-कियत्संख्या अभी भवशिवहेतवः? इत्याह-द्वयोरपि भवमोक्षयोः संबन्धिनां हेतूनां प्रत्येक गणनयाएकद्वित्र्यादिरूपया अतीता-अतिक्रान्तालोका भवन्ति पूर्णा नैकेनापि आकाशप्रदेशेन हीनाः परस्परं तुल्या अन्यूनाधिकसंख्याः, न तु त्रैलोक्यान्तर्वर्तिजीवादिपदार्थानामनन्तत्वेनानन्ता एव भवमोक्षयोर्हेतवो भवन्त्यतस्ते कथमसंख्येया इत्युक्तम्? सत्यम्-यद्यपि जीवादयो भावा अनन्तास्तथापि तैः सवैरपि विसदृशान्यसंख्येयान्येवाध्यवसायस्थानानिजन्यन्ते नानन्तानि, तेभ्यः परतोऽन्याध्यवसायानां पूर्वाध्यवसायेष्वेवान्तर्भावात् / अतस्तज्जन्याध्यवसायस्थानानामसंख्येयत्वेनार्था अप्युपचारादसंख्येयत्वेनोक्ता इत्यदोषः, अतः स्थितमेकाऽपि जीवोपमर्दादिका विराधना परिणामवैचित्र्येण कर्मबन्धहेतुस्तन्निजराहेतुश्च जायते। इति गाथार्थः / पञ्चा० टिप्पणी१ विवा ___ अथद्वादशाङ्गम्य सारमाहसोउं सुयण्णवं वा, दुग्गेज्झं सारमेत्तमेयस्स। घेच्छं तयंति पुच्छह, सीसो चरणं गुरु भणइ // 1127 // 'वा' इति-अथवा पातनान्तरसूचक : 'सोउ ति' - सामायिकादिबिन्दुसारपर्यन्तं श्रुतार्णवम् दुर्गाह्यम्-अतिदुस्तरं श्रुत्वा; यदि समस्तमपि तं ग्रहीतुं न शक्ष्यामि तर्हि सारमात्र
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________________ मोक्ख ४४०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मोक्ख यल्लामानन्तरमेव च स मोक्षोऽवश्यं भवति स संवरो ज्ञानात्प्रधानः / एवमेव च संयमस्य प्रधानकारणतां मन्यमानः शुद्धनयाः-ऋजुसूत्रशब्दादयःसंयममेव निर्वाणमाहुः, अत्यन्त-प्रत्यासन्नकारणे सर्वसंवरसंयमकार्यस्य निर्वाणस्योपचारात्; न तु ज्ञानं निर्वाणं ते ब्रुवते, तस्य व्यवहितकारणत्वादिति भावः। तथा चोक्तम्-'तवसंजमो अणुमओ, निग्गथं पवयणंच ववहारो। सद्दज्जुसुयाणं पुण, निव्वाणं संजमो चेव // 1 // इति // 1132 // प्रेरकःप्राहआह पहाणं नाणं, न चरित्तं नाणमेव वा सुद्धं / कारणमिह नउकिरिया, सा वि हुनाणप्फलं जम्हा।।११३३।। ज्ञानवादी प्राह-ज्ञानमेव प्रधानं मोक्षकारणं, न चारित्रम् / यदिवाशुद्धज्ञानमेवैकं मोक्षस्य कारणं,न तुक्रिया। यस्मादसावपि ज्ञानफलमेवज्ञानकार्यमेव / ततश्च यथा मृत्तिका घटस्य कारण भवन्त्यपि तदपान्तरालवर्तिनां पिण्डशिवककुशूलादीनामपि कारणं भवति, एवं ज्ञानमपि मोक्षस्य कारणं तदपान्तरालभाविनां सर्वसंयमक्रियादीनामपीति। यथा च क्रिया ज्ञानस्य कार्यम्, तथा शेषमपि यत्क्रियानन्तरभावि मोक्षादिकम, यच्च क्रियाया अर्वाग्भावि बोधिलाभकाले तत्त्वपरिज्ञानादिकं रागद्वेषनिग्रहादिकं च तत् सर्व ज्ञानस्यैव कार्यम् / यचेह सकलजनप्रत्यक्ष मनश्चिन्तितमहामन्त्रपूतविषभक्षण-भूत-शाकिनीनिग्रहादिकं तत्सर्वं क्रियारहितस्य ज्ञानस्यैव कार्यम्। अतो दृष्टनाऽदृष्टमपि निर्वाणं ज्ञानस्यैव कार्यमित्यनुमीयत इति // 1133 // मेतस्य श्रुतार्णवस्य ग्रहीष्यामि इति सञ्चिन्त्य शिष्यस्तत्सारमात्रं पृच्छति-कोऽस्य द्वादशाङ्गस्य सारः? इति सोपस्कारमिह व्याख्येयम्। तत्र गुरुर्भणतितस्यापि श्रुतज्ञानस्य सारश्वरणमिति / एतत्पुनरपुष्टनापि गुरुणा नियुक्तिगाथान्तेप्रोक्तम्- "सारश्चरणस्य निर्वाण'' मिति॥११२७॥ अथ प्रेरकः प्राहअन्नाणओहयत्तिय, किरिया नाणकियाहिं निव्वाणं। भणियं तो किह चरणं, सारो नाणस्स तमसारो॥११२८॥ ननु ‘हयं नाणं कियाहीणं, हया अन्नाणओ किया' इत्यादि-वचनादज्ञानतो हतैव क्रिया, इति, ज्ञानक्रियाभ्यां समुदिताभ्यामेव निर्वाणमागमे भणितम्-अनेकस्थानेषु प्रतिपादितम्। ततः कथं ज्ञानस्य सारश्चरणम्, तत्तु ज्ञानमसारः? इति // 1128|| अत्रोत्तरमाहचरणोवलद्धिहेऊ,जं नाणं चरणओय निवाणं। सारो त्ति तेण चरणं, पहाणगुणभावओ भणियं // 1126 / / नाणं पयासयं विगु-त्ति विसद्धिफलं च जं चरणं। मोक्खो य दुगाहीणो, चरणं नाणस्स तो सारो॥११३०|| यद्-यस्माद् मतिश्रुतादिकं ज्ञानंचरणोपलब्धेः-चारित्रप्राप्तेरेव मुख्य कारणम्, ज्ञानं विना चरणविषयस्य जीवाजी वादेहेयोपादेयादेश्व वस्तुनोऽपरिज्ञानात्, अपरिज्ञातस्य च य थावत् कर्तुमशक्यत्वात्। चरणाच तपःसंयमरूपाद् निर्वाणमुपजायते। अतो निर्वाणस्य सर्वसंवरूपस्य चरणमेव मुख्यम्-प्रधानं कारणम्, ज्ञानं तु कारणकारणत्वाद् गौणं तस्य कारणम् / अतस्तेन-कारणेन प्रधानगुणभावाज्ज्ञानस्य सारश्चरणं भणितम्। प्रधानगुणभावमेव भावयति-"नाणमित्यादि" ज्ञानं यस्मात् कृत्याकृत्यादिवस्तुनः प्रकाशकमेव वस्तुपरिज्ञानमात्रेव्याप्रियत इत्यर्थः / चरणं पुनर्गुप्तिविशुद्धिफलम्-गुप्तिः-संवरः, विशुद्धिस्तुकर्मनिर्जरा, गुप्तिविशुद्धी फलं यस्य तत्तथा। एवं च सति ज्ञानचरणलक्षणद्वयाधीनो मोक्षः, केवलं प्रधानतया चरणस्याऽधीनोऽसौ, गौणतयैव च ज्ञानस्य / ततः प्रधानगुणभावाचरणं ज्ञानस्य सार इति // 1126 / / 1130 // प्रकारान्तरेणापि ज्ञानाचारित्रस्य प्रधानत्वं भावयन्नाहजं सव्वनाणलाभा-णंतरमहवा न मुथए सव्वो। मुचइ य सव्वसंवर-लाभे तो सो पहाणयरो / / 1131|| अथवा यद्-यस्मात्सर्व जानातीति सर्वज्ञानम् केवलज्ञानं, तल्लाभानन्तरमेव सर्वोऽपि प्राणी न मुच्यते-न मुक्ति प्राप्नोति, मुच्यते च यस्माच्छैलेश्यवस्थायां सर्वंसंवरलाभेऽवश्यमेव सर्वः, ततो ज्ञायते केवलज्ञानादप्यन्वयव्यतिरेकाभ्यां मुख्यो मोक्षकर्ता सर्वसंवर एव प्रधानतरः, स च क्रियारूपत्वाचारित्रमिति // 1131 / / अमुमेवार्थ समर्थयन्नाहलामे वि जस्स मोक्खो, न होइ जस्स य स होइ स पहाणो। एवं चिय सुद्धनया, निव्वाणं संजमंति॥११३।। यस्य-मत्यादिज्ञानपञ्चकस्य लाभेऽप्यनन्तरमेव मोक्षो न भवति, तज्ज्ञानं मोक्षस्यानन्तर्येण कारणत्वाभावात् 'अप्रधानम्' इति शेषः।। जह साणाणस्स फलं,तह सेसं पितह बोहकाले वि। नेयपरिच्छेयमयं, रागादिविणिग्गहो जो य॥११३|| जं च मणोचिंतियम-तपूतविसमक्खणाइवहुभेयं / फलमिहतं पचक्खं, किरियारहियस्स नाणस्स।।११३५।। द्वे अप्युक्तार्थे एव / / 1134 // 1135|| एवं ज्ञानवादिना परेणोक्ते सत्याचार्यः प्राहजेणं चिय नाणाओ, किरिया तत्तो फलंच तो दो वि। कारणमिहरा किरिया-रहियं चिय तं पसाहेजा॥११३६|| येनैव च यस्मादेव कारणात् ज्ञानात् क्रिया भवति, ततस्त स्याश्च क्रियायाः समनन्तरमिष्ट फलमवाप्यते; ततएव तेज्ञानक्रिये द्वे अप्यभीष्टफलस्य मोक्षादेः कारणं भवतः। अन्यथा-ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षभवनपरिकल्पनमनर्थकमेव स्यात् क्रियारहितमेव ज्ञानमात्मलाभानन्तरमेव झगित्यभीष्टफलं केवलमपि प्रसाधयेत् क्रिया-वदिति॥११३६॥ अपिचनाणं परंपरमणं-तरा उ किरिया तयं पहाणयरं। जुत्तं कारणमडवा, समयं तो दोण्णि जुत्ताई // 1137 / / यदि ज्ञानं परम्परया कार्यस्योपकुरुते, क्रिया त्वानन्तर्येण, ततो यदेवानन्तरमुपकुरुते तदेव प्रधानं कारणं युक्तम्। अथ समकयुगपद् द्वे अपि ज्ञानक्रिये कार्योत्पत्तावुपकुरुतः, तर्हि द्वयोरपि प्राधान्यं युक्तम्, नत्वेकस्य ज्ञानस्येति॥११३७||
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________________ मोक्ख 441- अभिधानराजेन्द्रः- भाग 6 मोक्ख किं च- ज्ञानात् क्रिया भवन्त्यपि मोक्षस्य कारणमसाविष्यते, नवा? यदि नेष्यते, तर्हि तामनपेक्ष्यैव केवलादपि ज्ञानात् क्रियावद् मोक्षोऽपि | भवेत्, अकरणस्याऽनपेक्षणीयत्वात् / / 1137 / / अथ क्रियाऽपि कार्यस्य कारणमिष्यते, तत्राऽऽहकारणमंतं मोत्तुं, किरियमणंतं कहं मयं नाणं? | सहचारित्ते व कहं, कारणमेकं न पुणरेकं ? ||1138 / / नन्वेवं सत्यानन्तर्योपकारित्वान्त्यकारणभूतां क्रियां मुक्त्वा कथं परम्परोपकारित्वादनन्त्यं ज्ञानं कारणं भवतोऽभिमतम्? इति निवेद्यताम् ? अथ ब्रूषे-नेहाऽन्त्यानन्त्यविभागः, किंतु कार्यस्योत्पित्सोः सहैव युगपद्वे अप्युपकुरुतः, तद्देवं हन्त! द्वयोरपि सहचारित्वे कथमेकं ज्ञानं मोक्षस्य कारणम्, न पुनरेकं क्रियारूपं कारणमिष्यते? न ह्याग्रहग्रहग्रस्ततां विहायापरो हेतुरिहोपलभ्यत इति भावः / / 1138|| __यदुक्तम्-'रागादिविणिग्गहो जो यत्ति' तत्राऽऽहरागाइसमो संजम-किरिय चिय नाणकारणा होजा। तीसे फले विवाओ, तं तत्तो नाणसहियाओ॥११३६।। रागादिशमो रागादिनिग्रहस्तावत्संयमक्रियैव भण्यते, नापरं किञ्चित् साच, ज्ञानं कारणं यस्याः सा ज्ञानकारणाज्ञानफला भवेदेव, नेहाऽस्माकं काचिद् विप्रतिपत्तिः। किंतुयत् तस्याः समनन्तरं मोक्षादिकं फलमुपजायते तत्र विवदामः, तथाहि-तत्कि ज्ञानादेव केवलादुपजायते, आहोस्वित् केवलक्रियातः, उत-ज्ञान-क्रियोभयात्? इति त्रयी गतिः। तत्र न तावदाद्यः पक्षः, ज्ञानादपान्तराले भवताऽपि क्रियोत्पत्तेरभ्युपगमात्, नापि द्वितीयः पक्षो युक्तः, ज्ञानशून्यक्रियातो मोक्षादिकार्याभ्युपगमे उन्मत्तादि-क्रियातोऽपि मुक्तिप्रसङ्गात् / तस्मात् तृतीय एव पक्षो युज्यते, अतएवाह-"तंतत्तो नाणसहियाउत्ति" तमोक्षादिकार्यततस्तस्याः क्रियायाः सकाशादुत्पद्यते / कथंभूतायाः? ज्ञानसहिताया इति // 1136 // यदुक्तम् ‘जंच मणोचिन्तियमंतपूतेत्यादि / तत्राऽऽहपरिजवणाई किरिया, मंतेसु वि साहणं न तम्मत्तं / तण्णाणओ य न फलं, तं नाणं जेणमकिरियं // 1140 // विषघात-नभोगमनादिहेतुषु मन्त्रेष्वपि परिजपनादिक्रिया मन्त्रसहायिनी कार्यस्य साधनं--कार्यसाधिके त्यर्थः, न तु तन्मात्रंमन्त्रमात्रमेव तत्साधकम्। अथाभिधत्से-ननु प्रत्यक्षविरुद्धमिदम्, यतो | दृष्ट क्वचिद्मन्त्रानुस्मरणज्ञानमात्रादप्यभीष्टफलम; इत्याह-तज्ज्ञानाचकेवलाद् मन्त्रानुस्मरणज्ञानाच न तत्फम्, येन कारणेनाऽक्रियमेव तज्ज्ञानम्, अमूर्तत्वात्, यच्चाक्रियं न तत् कार्याणि कुरुते, यथाआकाशम्, अक्रियं च ज्ञानम्, इति कथं कार्याणि कुर्यात् ? यच करोति तत्सक्रियं दृष्टम्, यथा-कुलालः, न चैवं ज्ञानम्, इतिन तत्केवलं किमपि करोति / न चेदं प्रत्यक्ष-विरुद्धम्, न हि क्रियासाहाय्यरहितं ज्ञानं क्वचिदपि फलमुपाहर-दुपलभ्यत इति // 1140 / / अथ प्रेर्यमाशङ्कय परिहरन्नाह तो तं कत्तो भन्नइ, तं समयनिबद्धदेवओबहियं / किरियाफलं चिय जओ, न मंतनाणोवओगस्स॥११४१।। यदि केवलमन्त्रज्ञानकृतं नभोगमनादि कार्य न भवति, ततस्तर्हि कुतस्तत्? इति वाध्यम्? भण्यतेऽत्रोत्तरम्-तद् नभोगमनादिकार्य समयनिबद्धदेवतोपहितं सत् क्रियाफलमेव यस्मात्, ततोनज्ञानोपयोगमात्रस्यैव फलमिति। इदमुक्तं भवति-समयः-संकेत-स्ततो यत्र यत्र देवतानां समये-सङ्केते उपनिबद्धा मन्त्रास्तत्र तत्र देवताकृतमेव तत्तत् फलम, देवताश्च सक्रिया एव / अतः सक्रिय-देवताभिरुपाहृतं सत् तक्रियाफलमेव यतः, अतोन केवलस्य ज्ञानमात्रोपयोगस्य फलमिति स्थितम्।आह-ननुदेवताह्वानं तावत् केवलादेव मन्त्रानुस्मरणज्ञानोपयोगाद्भवति, नवा? इति वक्तव्यम्। यदि भवति, तर्हि शेषकार्याण्यपि केवलात् तत एव किं नेष्यन्ते? अथन भवति तर्हि कथमसाविहऽऽगत्य नभोगमनविष-वीर्यापहारादिकंकार्याणि कुर्यात्? अत्रोच्यते-देवताह्वानं भवति, परंन केवलादेव मन्त्रस्मरणज्ञानोपयोगमात्रातू; किंतु-पुनः पुनस्तज्जपन-पूजनादिक्रियासहायात् तस्माद् देवताहानमपि संपद्यते, इत्यलं विस्तरेणेति॥११४१|| आह-किं ज्ञानं सर्वथैव निष्क्रियम्? किंवा कांचिदेव विशिष्टां क्रियामधिकृत्य तन्निष्क्रियम्? इति / अत्रोच्यते- वस्तुपरिच्छेद-मात्र तत् करोति, तत्करणादेव च सहकारिकारणतया जीवस्य चारित्राक्रियां जनयति, यत्तु विशिष्ट मोक्षलक्षणं कार्य, तन्निर्वर्तकं ज्ञानमानन्तर्येण न भवति, इत्येतद् दिदर्शयिषुः, तथा वक्ष्यमाणं च संबन्धयितुमाहवत्थुपरिच्छेयफलं, हवेज किरियाफलं च तो नाणं / न उनिव्वत्तयमिटुं,सुद्ध चिय जंतओऽभिहियं / / 1152 / / 'किरियाफलं ति’ क्रियैव फलं यस्य तत् क्रियाफलम् / शेषं सुगमम्। इति गाथार्थः // 1142 // किं पुनरभिहितम्? इत्याहसुयनाणम्मि वि जीवो, वर्सेतो सोन पाउणइ मोक्खं / जो तवसंजममइए, जोगे न चएइ वोढुं जे // 1143|| श्रुतज्ञानेऽपि, अपिशब्दाद्-मत्यादिज्ञानेष्वपि जीवो वर्तमानः सन्न प्राप्नोति मोक्षम्, इत्यनेन प्रतिज्ञार्थः सूचितः। यः कथंभूतः? इत्याहयस्तपःसंयमात्मकान् योगान् न शक्नोति वोढुम्, इत्यनेन हेत्वर्थ इति। दृष्टान्तस्त्वभ्यूह्यः, वक्ष्यति वा / इति नियुक्तिगाथार्थः / / 1143 // अथ सूचितप्रयोगम्, वक्ष्यमाणनियुक्तिगाथासंबन्धंच विवक्षुराहसक्किरियाविरहाओ, इच्छियसंपावयं न नाणं ति। मग्गण्णू वाऽचिहो, वायविहीणोऽहवा पोओ।।११४४|| केवलमेव ज्ञानं नेप्सितार्थसंप्रापकम, सत्क्रियाशून्यत्वात् यथास्वसमीहितदेशप्रापणक्षमसचेष्टाविरहितो मार्गज्ञः पुरुषः स्वाभिलषितदेशाप्रापकः / अथवा--सौत्र एव दृष्टान्तः,यथा-ईप्सितदि संप्रापकवातसत्क्रियारहितः पोतईप्सितदिगसंप्रापकः, सत्क्रियाविरहितंचज्ञानम्, तस्माद्नेष्टार्थसंपादकंतत्। इतिगाथार्थः / / 1144 / /
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________________ मोक्ख 442 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मोक्ख तथाहिजह छेयलद्धनिजा-मओ वि वा णियगइच्छियं भूमि / वारण विणा पोओ, न चएइ महण्णवं तरिउं॥११४५|| तह नाणलद्धनिज्जा-मओ वि सिद्धिवसहिं न पाउणइ। निउणो विजीवपोओ, तवसंजममारुयविहीणो॥११४६।। संसारसागराओ, उच्छुड्डो मा पुणो निबुडेजा। चरणगुणविप्पहीणो, बुड्डुइ सुबहु पि जाणंतो / / 1147|| छेको-दक्षोलब्धः-प्राप्तो निर्यामको येन-पोतेन स तथाविधः, अपिशब्दात्-सुकर्णधाराद्यधिष्ठितोऽपि, वणिज इष्टां-वणिगिष्टां तां भूमि महार्णवं तीर्खा वातेन विना पोतो न शक्नोति 'प्राप्तुम्' इति वाक्यशेषः / उपनयमाह--तथा श्रुतज्ञानलब्धनिर्यामकोऽपि, अपिशब्दात्-सुनिपुणमतिकर्णधाराद्यधिष्ठितोऽपि संयम-तपो नियममारुतसत्क्रियारहितो निपुणोऽपि जीवपोतो भवार्णवं तीर्खा सन्मनोरथवणिजोऽभिप्रेतां सिद्धिवसतिंच प्राप्नोति। तस्मात्-तपःसंयमानुष्ठानेऽप्रमादवता भवितव्यमिति / तथा चोपदेशमाह-'संसारेत्यादि विनेयस्यापदिश्यते भोदेवानुप्रिय ! कथं कथमपि महता कष्टेनातिदुर्लभं श्रीसर्वज्ञधर्मान्वितं मानुषजन्म त्वया लब्धम्। तल्लाभाच्च संसारसारादुन्मग्न इवोन्मग्नस्त्वं वर्तसे। अतश्चरणकरणाद्यनुष्ठानप्रमादेन मा तत्रैव निमाक्षीरिति। नच वक्तव्यम्-विशिष्टश्रुतज्ञानयुक्तोऽहं तद्वलेनैव-वस्तुपरिज्ञानमात्रादेव मुक्ति-मासादयिष्यामीति; यतश्चरणगुणविप्रहीणः सुबह पि श्रुतज्ञानेन जानन बुडतिनिमज्जति, पुनरपि संसारसमुद्रे / अतो ज्ञानमात्रसमुत्थमवष्टम्भमपहाय चरणकरणानुष्ठान एवोद्यमो विधेयः। इति नियुक्तिगाथात्रयार्थः / / 1145||1146||1147|| तृतीयगाथाभावार्थ भाष्यकारो दृष्टान्तेनाऽऽहसंसारसागराओ, कुम्मो इव कम्मचम्मविवरण। उम्मजिउमिह जइणं, नाणाइपगासमासज्ज // 1148|| दुलहं पिजाणमाणो, सयणसिणेहाइणा तयं तत्तो। संजमकिरियारहिओ, तत्थेव पुणो निबुडेजा।।११vell अयमत्र भावार्थः-यथा-कश्चित् कूर्मः कच्छपस्तृणपत्रपटलप्रचुरातिनिविडशेवालाच्छादितोदकान्धकारमहाहदान्तर्गतोऽनेकजलचरक्षोभादिव्यसनव्यथितमानसः सर्वतः परिभ्रमन् कथमपिशेवालरन्ध्रमासाद्यतेनैवोपरि निर्गत्य च शरत्पार्वणचन्द्रचन्द्रिकाम्पर्शसुखमनुभूय भूयोऽपि स्वबन्धुभूतान्यजलचरस्नेहाकृष्टचित्तः, तेषामपि वराकाणामदृष्टकल्याणानामहमिदं सुरलोककल्पं किमपि दर्शयामि, इत्यवधार्य पुनस्तदेव-हदमध्वं प्रविष्टः / अथ समाहूता-शेषजलचरवृन्दस्तद्रन्ध्रोपलब्ध्यर्थं पर्यटन, अपश्यंश्च; कष्टतरं व्यसनमनुभवति / एवमयमपि जीवकच्छपोऽनादिकर्मसन्तानाच्छादिताद् मिथ्याज्ञानतिमिरानुगताद् विविधशिरोनेत्रव्यथाज्वरकुष्ठभगन्दरादिशारीरेष्टविप्रयोगानिष्टसंप्रयोगादिमानसदुःखजलचरसमूहानुगतात् संसारसागरात् कथञ्चिदेव मनुष्यभवप्राप्तियोग्यकर्मोदयलक्षणं रन्ध्रमासाद्यमानुषत्वप्राप्त्योन्मग्नः सन् जिनवरेन्द्रचन्द्रवाक्चन्द्रिकासंगमसुखमनुभूय दुष्प्रापोऽयं जिनवचनबोधिलाभः इत्येवं जानन्नपि स्वजनस्नेहविषयानुक्तचित्ततया पुनरपि तत्रैव / भव सागरे निमजेत् / अत उच्यते- 'मा त्वमित्थमस्मिन्नेव भवसागरे निमासीः, किंतु-सदनुष्ठानेष्वप्रमादपरो भव' इति। अक्षरार्थस्तु सुगम एव, नवरं मनुष्यभवप्राप्त्यावारककर्मैव चर्मशेवालः कर्मचर्म तस्य विवरोऽनुदयावस्था तेन। 'जइणमि-त्यादि जैनंज्ञानादिप्रकाशंज्ञान-- दर्शनचारित्रस्वरूपावबोधात्मकं तत्स्वरूपश्रवणादिद्वारेण गुरुभ्यः समासाद्येति / 'तयं ति' ज्ञानादिप्रकाशं दुर्लभमपि 'जानानः' इत्यत्र संबध्यते, स्वजनस्नेहादिना ततोवियोजितः संयमक्रियारहितः पुनरपितत्रैव भवसागरे निमजेदेष संसारिजीवः / इति गाथाद्वयार्थः॥११४८॥११४६॥ __ अत्र प्रेरकः प्राहआहऽण्णाणी कुम्मो, पुणो निमज्जेज न उण तन्नाणी। सक्किरियापरिहीणो, बुडइ नाणी जहऽनाणी॥११५०।। नेच्छइ य न य मएण, अन्नाणी चेव सो मुणन्तो वि। नाणफलाभावाओ, कुम्मो व निबुड्डएँ भवोहे // 1151|| आह परः-ननु चाज्ञानी-हिताहितविभागपरिज्ञानशून्यः, पुनरपि तत्रैव जले निमज्जेत् कूर्मः, नेह किमपि चित्रम् / एत्तत्तु न विदुषां मतं, यत्जैनमार्गज्ञो हिताहितविभागवेत्ता ज्ञान्यपि भवसागरे पुनर्निमञ्जति / अत्राचार्यः प्राह ज्ञान्यपि पुनर्भवसागरे निमज्जति, सत्क्रियाविरहात्, अज्ञानिकूर्मवत् समुद्र इति / वा इति-अथवा, निश्चयनयमतेन जानन्नप्यज्ञान्येवासौ सत्क्रियापरिहीणः, ज्ञानफलस्य विरतेरभावात्। अतोऽज्ञानी कुर्म इव पुनर्बुडति-निमज्जति भवौघे संसारसमुद्रसंबन्धिनि जन्मजराऽऽमयमरणसलिलप्रवाहे। इतिगाथाद्वयार्थः॥११५०।११५१।। अतएवाह नियुक्तिकारःसुबहुं पि सुयमहीवं, किं काही चरणविप्पहाणस्स। अंधस्स जह पलित्ता, दीवसयसहस्स कोडी वि? ||1152 / / सुबह पि श्रुतमधीतं चरणविप्रहीणस्य निश्चयतोऽज्ञानमेव / अतस्तस्य फलशून्यत्वादकिञ्चित्करमेव / यथा-अन्धस्य दीपशतसहस्रकोट्यपि प्रदीप्तान किश्चित्करोति। दीपानांशतसहस्राणि लक्षा इत्यर्थः ,तेषां कोटी, अपिशब्दात्-तद्व्यादिकोटयोऽपि।इति नियुक्तिगाथार्थः / / 1152 / / अथ भाष्यम्संतं पितमण्णाणं,नाणफलाभावओ सुबहुयं पि। सक्किरियापरिहीणं, अंधस्स पईवकोडि व्व // 1153|| गताथैव / / 1153 // अत्र प्रेर्यमुत्थाप्य परिहरतिअंधोऽणवबोहो चिय, बोहफलं पुण सुयं किमण्णाणं / बोहो वितओ, विफलो, तस्स जमंधस्स अवबोहो // 1154 / / आह नन्वत्र दृष्टान्तदा नितकयोर्वेषम्यमेव, यतोऽन्धोऽनववोध एवान खलुतस्य बहुभिरपि प्रदीपकोटिभिः प्रज्वलिताभिघटाधवबोधो जन्यते, स्वयं चक्षुर्विकलत्वात्तस्य। श्रुतज्ञानं तुसज्जचक्षुषः प्रदीपवत्बोधफलमेव, ततः किमदमज्ञानमभिधीयते? किमिति केवलाधीतश्रुतस्य तद१-सेवाल इति दन्त्यादिरपि।
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________________ मोक्ख 443 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मोक्ख किञ्चित्करमुच्यते? इति भावः / अत्रोत्तरम्-बोधोऽपि तकोऽसौ श्रुतजनितस्तस्य करणहीनस्य विफलो यस्मात. तस्माद् अनवबोध एव, इति भावः, यथाऽन्धस्य 'अवबोहो त्ति' अवबोधः। इति गाथाद्वयार्थः।।११५४॥ व्यतिरेकमाहअप्पं पि सुयमहीयं, पगासयं होइ चरणजुत्तस्स / एको विजह पईवो, सचक्खुअस्सो पयासेइ // 1155|| अल्पमपि श्रुतमधीतं चरणयुक्तस्य तद्धेतुत्वात् प्रकाशकं भवति-- प्रकाशकं भण्यते, क्रियाहेतुत्वेन सफलत्वाज्ज्ञानत्वेन व्यपदिश्यत इति तात्पर्यम् / यथैकोऽपि प्रदीपो हेयोपादेयपरिहारोपादानादिक्रियाहेतुत्वाचक्षुष्मतः प्रकाशयति प्रकाशको भण्यते / इति नियुक्तिगाथार्थः // 115|| भाष्यम्किरियाफलसंभवओ, अप्पं पि सुयं पगासयं होइ। एक्को विहु चक्खुमओ, किरियाफलदो जह पईवो // 1156|| पूर्वार्धस्यान्ते 'चरणयुक्तस्य' इति शेषः। शेषमुक्तार्थमेव / / 1156 / / वक्ष्यमाणवृत्तं संबन्धयन्नाहन हि नाणं विफलं चिय, किलेसफलयं पि चरणरहियस्स। निप्फलपरिवहणाओ, चंदणमारो खरस्सेव॥११५७|| न हि ज्ञानं चरणरहितस्य विफलम्, इत्येतावतैव तिष्ठति, किन्तुपठनगुणनचिन्तनादिभिः क्लेशफलदमपि भवति, यथा निष्फलवहनाचन्दनकाष्ठभारः खरस्य विफलः, क्लेशप्रदश्च // इतिगाथाद्वयार्थः॥११५७॥ तथा चाह नियुक्तिकारःजहा खरो चंदणभारवाही, भारस्स भागीन उचंदणस्स। एवं खु नाणी चरणेण हीणो, नाणस्स भागी न उ सुग्गईए॥११५८|| यह खरश्चन्दनकाष्ठभारमुहंस्तञ्जनितश्रमादिकष्टभाजनमेव भवति, नतु चन्दनस्य तद्रसोपकल्पितविलेपनादिभाग्भवतीत्यार्थः। एवं चरणेन हीनः श्रुतज्ञान्यपि तद्भारमुद्धहन् ज्ञानभागेव भवति, तत्पठनपरावर्तनचिन्तनादिकृतकष्टभाजनमेव भवतीत्यर्थः, न तु सुदेवत्वसुमानुषत्वसिद्धिलक्षणायाः सुगतेरिति / / 1158|| अथमा भूदित्थं विनेयस्यैकान्तेन ज्ञानेऽनादरः, क्रियायां चैतन्छ्न्यायामपि पक्षपातः, इत्यतो द्वयोरपि केवलयोरिष्ट फलासाधकत्वमुपदर्शयन्नाहहयं नाणं कियाहीणं,हया अन्नाणओ किया। पासंतो पङ्कलो दड्डो, धावमाणो य अंधओ||११५६।। अत्राक्षरार्थः सुगम एव, भावार्थ तु भाष्यकारो वक्ष्यति। इति नियुक्तिवृत्तश्लोकार्थः / / 1156 // अथ भाष्यकारोऽनन्तरोक्तश्लोकभावार्थमाहहयमिह नाणं किरिया-हीणं तिजओ हयं तिजं विफलं। १-छन्दोऽनुरोधात्सौत्रत्वाद्वा दीर्घान्तः। लोयणविनाणं पिव, पंगुस्स महानगरदाहे // 1160 / / काहिइ नाणचार्य, किरियाए चेव मोक्खमिच्छंतो। मा सीसो तो भण्णइ, हया य अन्नाणओ किरिया / / 1161 // हतमिह ज्ञानम् / किं विशिष्टम् ? इत्याह-क्रियाहीनमिति यत्र चारित्रक्रिया नास्तीत्यर्थः / ननु कथं क्रियाहीनं ज्ञानं हतम् उच्यते? इत्याह-यतो यस्माद् यद् विफलं तदिह हतं विवक्षितम्, फलंचज्ञानस्य क्रियैव / ततो विगतफलं ज्ञानं क्रियाहीनमेवोच्यते, नान्यत् / अत्र च प्रयोगः-हतंज्ञानमेव केवलम् सत्क्रियाहीनत्वात् महानगरप्रदीपनकदाहे पलायनक्रियारहितपङ्गुलोचनज्ञानवदिति / एवमुक्ते सति क्रियात एव मोक्षमिच्छन् ज्ञानेऽनादृतस्तत्त्यागं मा कार्षीच्छिष्यः, इत्यतो भण्यतेहताऽज्ञानतः क्रिया-हता मोक्षलक्षणफलरहिताऽज्ञानपरिगृहीता निहवादेः क्रिया, सम्यग्दृष्टरपि ज्ञानोपयोगशून्यस्य क्रिया हतैव तथाविधफलविकलत्वात् सर्वतः संकटप्रदीप्तनगरे दह्यमानगृहाद्यभिमुखपलायमानान्धगतिक्रियावदिति / तस्मादन्योऽन्यापेक्षे समुदिते एव ज्ञानक्रिये मोक्षस्य साधनमेष्टव्ये, न प्रत्येकमिति॥११६०॥११६१॥ एतदेवाहअइसकड पुरदाह-म्मि अंधपरिधावणाइकिरिय व्व / तेणऽन्नोन्नावेक्खा, साहणमिह नाणकिरियाओ।।११६२|| गताथैव / / 1162 / / अत्र परः प्राहपत्तेयमभावाओ, निव्वाणं समुदियासु वि न जुत्तं / नाणकिरियासु वोत्तुं, सिकतासमुदायतेल्लंव।।११६३|| आह-ननु भवत्प्रतिपादितन्यायेन प्रत्येकावस्थायां ज्ञान क्रिययोनिर्वाणसाधकसामाभावात् समुदिताभ्यामपि ज्ञानक्रियाभ्यां निर्वाणं वक्तुं न युक्तम्, सिकतासमुदाये तैलवत् / अत्र प्रयोगः--इह यद् यतः प्रत्येकावस्थायां नोत्पद्यते तत् ततः समुदायेऽपि न भवति, यथा सिकताकणेषु प्रत्येकमभवत् तैलं तत्समुदायेऽपि न भवति। न जायतेच प्रत्येकं ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः, अतस्तत्समुदायादप्यसौनयुज्यत इति। तदेतदयुक्तम्, प्रत्यक्ष-विरुद्धत्वात्; तथाहि-मृत्तन्तुचक्रचीवरादिभ्यः प्रत्येकभवन्तोऽपि तत्समुदायाद् घटादिपदार्थसार्थाः प्रादुर्भवन्तो दृश्यन्त, अतोऽदृष्टस्य मोक्षस्यापि ज्ञानक्रियासमुदायात् प्रादुर्भूतिरविरुद्धैवेति // 1163|| वीसुंन सव्वह चिय, सिकतातेल्लं व साहणाभावो। देसोवगारिया जा,सा समवायम्मिसंपुण्णा // 1164|| न च विष्वक्-पृथक् सर्वथैव सिकताकणानां तैल इव साध्ये ज्ञानक्रिययोर्मोक्षं प्रति साधनत्वाभावः, किन्तु-या चयावती चतयोर्मोक्षं प्रति देशोपकारिता प्रत्येकावस्थायामप्यस्ति, सा च समुदाये संपूर्णा भवति, इत्येतावान् विशेषः; अतः संयोग एव ज्ञानक्रिययोः कार्यसिद्धिः / इति गाथापञ्चकार्थः // 1164 // एतदेवाहसंजोगसिद्धीइ फलं वयंति, नहे (हुए) गचक्केण रहो पयाइ।
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________________ मोक्ख 444- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मोक्ख अंधो य पंगू य वणे समिच्चा, ते संपत्ता नगरं पविट्ठा।।११६५।। ज्ञानक्रिययोः संयोगनिष्पत्तावेव मोक्षलक्षणं फलमाचक्षते तीर्थकराः न हि लोकेऽप्येकचक्रेण रथः प्रवर्तते। एवमन्यदपि सर्व सामग्रीजन्यमेव कार्यमवगन्तव्यम् / तथा चान्धपगूदाहरणमिह वक्तव्यम्, तद्यथा-- कस्यापि नगरस्य सत्को लोकः कुतोऽपि राजभयादरण्यं गतः। तत्रापि तस्करधाटीभयाद्वाहनादिकमुज्झित्वा प्रपालयितः। अन्धपगूपुनरनाथौ तत्रैव स्थितौ। तत्र च दवाग्नौ सर्वतः प्रदीप्ते तौ परस्परं संप्रयुक्ती पडुरन्धेन स्वस्कन्धमारोपितः। स चान्धस्य सम-विषम-स्थाणुकण्टकादिकं कथयति।अत-स्तस्य सत्केनचाक्षुषज्ञानेन, अन्धसत्कया च गतिक्रियया सम्यग मार्गप्रवृत्त्या क्षेमेण नगरं प्रविष्टाविति। एवं सर्वत्र संयोगात् फलसिद्धिर्भावनीया / इति नियुक्तिवृत्तार्थः // 1165|| अत्र भाष्यम्दुगसंजोगम्मि फलं, सम्मक्किरिओवलद्धिभावओ। इहपुरागमणं पिव, संजोए अन्धपंगूणं / / 1166|| वइरेगो जं विफलं, न तत्थ सम्मकिओवलद्धीओ। दीसंति गमणविफले, जहेगचक्के भुवि रहम्मि // 1167 / / अनेन गाथाद्वयेन प्रस्तुतार्थसिद्धयेऽन्वय-व्यतिरेकप्रयोगौ निर्दिष्टौ, तथाहि-द्विकं ज्ञानक्रियालक्षणं तत्संयोग एव फलं मोक्षलक्षणं भवति। कुतः? अत्र संयोगे सम्यक्रियोपलब्धिभावादिति। क्रियाचारित्ररूपा, उपलब्धिस्तुज्ञानम्। इह यत्र यत्र सम्यक्रियाज्ञाने तत्र तत्रेष्टफलसिद्धिः, यथा-अन्धपङ्घसम्यक्-- क्रियाज्ञानसंयोगे, सम्यक्रियाज्ञाने चात्र द्वयसंयोगे, तस्मादतो मोक्षफलसिद्धिः। इत्यन्वयप्रयोगः। अथ व्यतिरेकप्रयोग उच्यते-यद् विफलं न तत्र सम्यक्रियाज्ञाने दृश्येते यथाभुवि पृथिव्यां गति क्रियारहिते विघटितैकचक्रे रथे, सम्यक्क्रियाज्ञाने चात्र द्वयसंयोगे, तस्मादतो मोक्षफलप्राप्तिरिति / / 1167 // वक्ष्यमाणनियुक्तिगाथासंबन्धनार्थमाहसहकारिते तेसिं, किं केणोवकुरुते सहावेणं / नाण चरणाणमहवा, सहावनिद्धारणमियाणिं / / 1168|| आह-ज्ञानक्रिययोः सहकारित्वे सति किं केन स्वभावेनोप-कुरुतेकिमविशेषेणोपकुरुतः, शिबिकावाहकपुरुषसड़ातवत्? आहोस्विद् भिन्नस्वभावतया, गतिक्रियायां नयनचरणादिवत्? अत्रोच्यते-भिन्नस्वभावतया, यत आह-'नाणं पयासयमित्यादि' इत्येका वक्ष्यमाणगाथायाः प्रस्तावना / अथवा-संक्षिप्ताऽन्या प्रस्तावनोच्यते, यथातयोरेव ज्ञानचरणयोरिदानी स्वभावनिर्धारणं क्रियते, इतिसंक्षेपविस्तरकृत एव भेदः, न तु पारमार्थिकः। इति गाथात्रयार्थः / / 1168 / / नाणं पयासयं सो-हओ तवो संजमो य गुत्तिकरो। तिण्हं पि समाओगे, मोक्खो जिणसासणे भणिओ // 1166 // | इह यथा किञ्चिदुद्वाटद्वार बहुवातायनजालकच्छिद्रं वाताकृष्टादि प्रचुररेणुकचवरपूरितं शून्यगृहम्। तत्र च वस्तुकामः कोऽपि तत् सुशोधयिषुरवातायनजालकानि सर्वाण्यपि बाह्यरेणुकचवरप्रवेशनिषेधार्थं स्थगयति / मध्ये च प्रदीपं प्रज्वलयति / पुरुषं च कचवराधाकर्षणाय व्यापारयति / तत्र च प्रदीपो रेवादिमलप्रकाशनव्यापारेणोपकुरुते, द्वारादिस्थगनं तु बाहारेण्वादिप्रवेशनिषेधेन, पुरुषस्तुरेण्वाद्याकर्षणात् तच्छोधनेन / एवमिहापि जीवापवरक उद्घाटाश्रवद्वारः सद्गुणशून्यो मिथ्यात्वादिहेत्वाकृष्टकर्मकचवरपूरितो मुक्तिसुखनिवासहेतोः शोधनीयो वर्तते / तत्र च प्रदीपस्थानीयं ज्ञानं जीवादिवस्तूनां प्रकाशकम्, तपस्तु पुरुषस्थानीयं कर्म कचवरशोधकम्, संयमस्तु द्वारादिस्थगनकल्पो गुप्तिकरो नूतन-कर्मकचवरप्रवेशनिषेधकः / एवं त्रयाणामपि ज्ञानादीनां समायोगे समवाये मोक्षो जीवस्य जिनशासने भणितः। एवं शुद्धस्वरूपे जीवमन्दिरे सिद्धिसुखानि संततं निवसन्ति। इति नियुक्तिगाथार्थः।।११६६॥ आह-ननुजीवापवरकशोधेन किमिति ज्ञानादीनां त्रितयमप्य पेक्ष्यते, यावताऽन्यतरेणैकेनापि तच्छुद्धिर्भविष्यति ? इत्याशक्यकैकस्मात् कार्यसिद्धिनिराकरणेन त्रितयसमुदायादेव तत्सिद्धिं समर्थयन्नाह भाष्यकार:असहायमसोहिकरं, नाणमिह पगासमेत्तभावाओ। सोहेइघरकयारं, जह सुपगासो विन पईवो // 1170 / / नय सय्वविसोहिकरी, किरिया विय जमपगासधम्मा सा। जहन तमो गेहमलं, नरकिरिया सव्वहा हरइ॥११७१।। दीवाइपयासं पुण, सक्किरियाए विसोहियकयारं। संवरियकयारागम-दारं सुद्धं घर होइ॥११७२।। तह नाणदीवविमलं, तवकिरियासुद्धकम्मयकयार। संजमसंवरियमुहं, जीवघरं होइ सुविसुद्धं // 1173 / / इह न ज्ञानमसहायमेकाक्येव शोधयितुमलम्, प्रकाशमात्रस्वभावत्वात्, यदक्रियं प्रकाशमात्रस्वभावं न तद् विशुद्धिकरं दृष्टम्, यथा न गृहरजोमलविशुद्धिकृद् दीपः / यच विशुद्धिकरं न तत् प्रकाशमात्रस्वभावम्, यथेष्टाऽनिष्टप्राप्तिपरिहारपरिस्पन्दवान् नयनादिप्रकाशधर्मा देवदत्तः, प्रकाशमात्रस्वभावंच ज्ञानम्, तस्मादसहायत्वाद्न विशुद्धिकरं तदिति। क्रियाऽप्येकाकिनी न सर्वशुद्धिकरी, अप्रकाशधर्मकत्वात्, यद् यदप्रकाशधर्मक नतत्सर्वविशुद्धिकरम्, यथा न समस्तगृहरजोमलविशुद्धयेऽन्धक्रिया, चक्षुष्मतो वा क्रियाः, यथा-तमोयुक्तं गृहं तमोगृहं तस्यन सर्वविशुद्धयेऽलम्। याचसर्वविशुद्धयेऽलं नसाऽप्रकाशस्वभावा, यथा-चक्षुष्मतो नरस्य वितमस्कगृहे समस्तरजोमलापनयनक्रिया, अप्रकाशस्वभावा चैकाकिनी क्रिया, अतोनसर्वविशुद्धिकरीति। त्रितयादपि समुदितात् तर्हि सुद्धिर्न भविष्यतीति चेत्? नैवम्, इत्याह-दीपादिप्रकाश पुनर्यथा गृहसक्रियया विशोधितकचवरंसंभृतकचवरागमहेतुभूतद्वारं सर्वथा शुद्धं भवतिः तथा तेनैव प्रकारेण ज्ञानदीपविमलितं तपःक्रियया शोधितकर्मकचवरंसंयमेन संभृत-समस्ताश्रवद्वारंजीवगृहं सुविशुद्धसिद्धि
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________________ मोक्ख 445 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मोक्ख सुखसंदोहनिवासयोग्यं भवतीत्यर्थः / इति // 1170 / 1171|| 9172 / 1173 // आह-ननु पूर्वं ज्ञानक्रियालक्षणाद् द्वया मोक्षः, इदानीं तु ज्ञानतपःसंयमरूपात् वितयादसावुच्यते, इति कथं न पूर्वापरविरोधः? इत्याशयाऽऽहसंजमतवोमई जं, संदरनिज्जरफलामया किरिया। तो तिगसंजोगो विहु, ताउ चिय नाणकिरियाओ ||1174 // संयमतपोमयी संवरनिर्जरफला च यद्-यस्माद् तीर्थकरगणधराणां मतासंमता क्रिया, ततस्तस्माज्ज्ञानतपःसंयमरूपस्त्रिकसंयोगोऽप्यसौ; ते एव पूर्वोक्त ज्ञानक्रिये, नाधिकं किञ्चिदिति। इदमुक्तं भवतिएकैव चारित्रक्रिया संयमतपोभेदाद् द्विधा भिद्यते, तपःसंयमरूपत्वाचारित्रस्य। अतएव संवरो निर्जराचतस्याः फलम्, संयमस्याऽऽश्रवद्वारसंवरहेतुत्वात्, तपसस्तु कर्मनिर्जराकारणत्वात् / अतो यद्यपीह ज्ञानादित्रयाद् मोक्ष उच्यते, तथापि तपःसंयमयोः क्रियायामेवैकस्यामन्तर्भावाज्ज्ञानक्रियालक्षणद्वयादेवायम्, इति न कश्चिद् विरोधः / अपरस्त्वाह-ननु "सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः" इति प्रसिद्धम्, अत्रतु ज्ञानचारित्राभ्यां स प्रतिपाद्यते, इति कथं न विरोधः? एतदप्ययुक्तम्, अभिप्रायापरिज्ञानात्, यतो-ज्ञानग्रहणेनैवेह सम्यक्त्वमाक्षिप्यते, सम्यक्त्वमन्तरेण ज्ञानस्याप्यभावात, मिथ्यादृष्टिज्ञानस्याज्ञानत्वेनासकृत्प्रतिपादनात्, तथा-ज्ञानविशेष एव सम्यक्त्वम्, इति प्रागत्राप्युक्तमेव, तद्यथा-'नाणमवायधिईओ, देसणमिटुंजहोग्गहेहाओ। तह तत्तरुई सम्मं, रोइज्जइ जेण तं नाणं 1' तस्माज्ज्ञानान्तर्गतमेव सम्यक्त्वम्, अतो ज्ञानग्रहणात् तद् गृहीतमेव इत्यलं प्रसङ्गेन / तदेवं व्याख्याता नाणं पयासयं' इत्यादि गाथा // 1174|| अथ भावे खओवसमिए' इत्याधुत्तरगाथासंबन्धनार्थमाह-- न लहइ सिवं सुयम्मि वि, वटुंतो अचरणो त्तिजं तस्स। हेऊ खओवसमओ, जह वहृतोऽवहिण्णाणे ||1175|| इह 'जं ति' 'सुयनाणम्मि वि जीवो वट्टतो सो न पाउणइ मोक्खं' इत्यादि गाथायां यत् पूर्वं प्रतिज्ञातमित्यर्थः। किं प्रतिज्ञातम्? इत्याह'न लभते शियं-मोक्षं श्रुतेऽपि वर्तमानोऽचरणो जीवः' इति / तस्य प्रतिज्ञातस्य हेतुरयं द्रष्टव्यः। कः? इत्याह 'खओवसमओ त्ति क्षायोपशमिकत्वात्- श्रुतज्ञानस्य क्षायोपशमिकभाववर्तित्वात्, मोक्षस्य च क्षायिकज्ञान एव भावादिति भावः / यथाऽवधिज्ञाने वर्तमान इति दृष्टान्तः // 117 // अत्र परः प्राह-ननु यद्येवम्,तर्हि चरणसहितादपि श्रुताद् मोक्षो न भवत्येव, अस्मादेव हेतोः असुष्मादेव च दृष्टान्तादिति। कः किमाह?क्षायोपशमिके चरणसहितेऽपि ज्ञानेन भवत्येव मोक्ष इति सिद्धसाध्यतैव,किन्तु-क्षायिकज्ञानचारित्राभ्यामेव मोक्ष इति। एतदेवाहसक्किरियम्मि विनाणे, मोक्खो खइयम्मिन उखओवसमे। सुत्तं च खओवसमे,न तम्मि तो चरणजुत्ते वि।।११७६|| गतार्थव / / 1176 / / __ आह-यद्येवं क्षायोपशमिकभाववृत्तित्वेनैव श्रुताद् मोक्षोनिषिद्ध इत्यतश्वरणसहितात् ततः प्राग् यद् मोक्षाभिधाने तच्छून्य चित्तभाषितमेव। नैवम्, यतः साक्षादानन्तर्येणैव श्रुताद् मोक्षो निषिध्यते, पारम्पर्येण तु तस्मादप्यसौ भवत्येव, यस्मात् श्रुतज्ञानचारित्राभ्यां क्षायिकज्ञानचारित्रे लभ्येते, ताभ्यां च मोक्षः संप्राप्यते। ततश्चारित्रयुक्तं श्रुतं मोक्षहेतुरिति यदुक्तं प्राक्, तदप्यविरुद्धमेवेति। एतदेवाहजं सुयचरणेहिंतो, खाइयनाणचरणाणि लब्मंति। तत्तो सिवं सुयं तो, सचरणमिह मोक्खहेउ ति॥११७७।। व्याख्याताथैव / / 1177 // ननु कुतः पुनरिदमवसीयते यत्क्षायोपशमिकेभावे श्रुतं वर्तते? उच्यतेआगमे तथैवाभिधानात्। कः पुनरेवमागमः? इत्याह- 'भावे खओवसमिए' इत्यादि इत्येवमेकया पातनयेयं गाथा संबध्यते। अथ पातनान्तरं चिकीर्षुराह-- अहवा निजिण्णे चिय, कम्मे नाणं ति किं य चरणेणं / न सुयं खयओ केवल-नाणचरित्ताई खइयाइं॥११७८।। तेसु य ठियस्स मोक्खो, तो सुयमिह सचरणं तदवाए। तं कह मीसंखइयं, च केवलं जं सुएऽभिहियं // 1176 / / 'अहव त्ति' अथवा, पर आह-ननु च स्वावारके कर्मणि तावत् सर्वथा निर्जीर्णे-परिक्षीणे सर्वमपि ज्ञानमुत्पद्यते, न तूदयप्राप्ते / ततश्च यथा चारित्रमन्तरेणापि कथमपि तज्ज्ञानावरणं कर्मक्षीणम्, तथा मोक्षलाभावारकमपि कथमप्येवमेव क्षयमुपयास्यति, ततोज्ञानादेव केवलाद्मोक्षो भविष्यति, किं चारित्रेणेति? अत्रोत्तरमाह-'नसुयं खयउत्ति' सर्वमपि ज्ञानं स्वावरणे सर्वथा क्षीणे समुत्पद्यते, इत्येतदसिद्धम्, यस्मात् श्रुतज्ञानम्, उपलक्षणत्वाद् मत्यवधिमनः पर्यायज्ञानानि च न स्वावरणक्षयात्, किन्तु-तत्क्षयोपशमादेवैतानि जायन्ते / क्षायिकं त्वेकमेव केवलज्ञानम्, तथा क्षीणमोहसबन्धि चारित्रं च क्षायिकम्, तयोश्च स्थितस्याऽऽनन्तर्येण मोक्षो जायते / ततः सचरणं श्रुतमिह तदर्थाय क्षायिकज्ञानचारित्रलाभाय भवति, इत्येवं परम्परया चारित्रसहि-तात् श्रुताद् मोक्षप्राप्तेः पूर्वोक्तं न विरुध्यते / परः प्राह-कथं पुनरि-दं विज्ञायतेतत् श्रुतज्ञानं मिश्र क्षायोपशमिकं, केवलज्ञानं तु क्षायिकमिति?आचार्यः प्राह-यद्-यस्मात्, श्रुते-आगमेऽभिहि-तमेतत्। इति गाथादशकार्थः // 1176 // किं तदभिहितम्? इत्याहभावे खओवसमिए, दुवालसंग पि होइ सुयनाणं। केवलियनाणलंभो,ऽनण्णत्थ खए कसायाणं / / 1180|| भवनम्-भावः, भवतीति-वा-भावः, तत्र भावे श्रुतज्ञानं भवति। कस्मिन् ? इत्याह-क्षयोपशमाभ्यां निवृत्तः, क्षयोपशमावेव वा क्षायोपशमिक स्तत्रैव भवति, न त्वौदयिकादिके / कियत् ? इत्याह-द्वादशाङ्गानि यत्र तद् द्वादशाङ्गम्, अपिशडदाद्--बाह्यमपि सर्वम्, तथा-प्रत्यवधिमनःपर्यायज्ञानत्रयमपि, तथा-क्षायिकौप
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________________ मोक्ख 446 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मोक्ख - शमिकभाववृत्तिवय॑सामायिकचतुष्टयमपि / केवलस्य भावः कैवल्यं घातिकर्मवियोग इत्यर्थः, तस्मिन् कैवल्ये सति ज्ञानं कैवल्यज्ञानं केवलज्ञानमित्यर्थः,तल्लाभःपुनः कषायाणाम्-क्रोधादीनां सर्वथा क्षये सत्येव भवति, नान्यत्र नान्येन प्रकारेण। इह च यद्यपि धातिकर्मसु चतुर्वपि क्षीणेषु केवलज्ञानं भवति, न तु केवलेषु कषायेषु; तथापि प्राधान्यख्यापनार्थं तेषामेव ग्रहणम्, तत्क्षये शेषकर्मक्षयस्याऽवश्यंभावित्वात्। इति नियुक्तिगाथार्थः // 1180|| भाष्यम्सव्वं पि किमुय देसो, केवलवजाणि वावि सद्देणं। चत्तारिखओवसमे, सामइयाइंच पाएणं॥११९१॥ सव्वकसायावगमे केवलमिह नाणदंसणचरित्ते। देसक्खए वि सम्म, धुवं सिवं सव्वखइएसुं॥११८२॥ सर्वमपि श्रुतं क्षायोपशमिकभाववर्ति, किमुत तद्देशः, इत्यपिशब्दभावार्थः / अथवा-अपिशब्दात्-केवलज्ञानवानि चत्वारि ज्ञानानि, सामायिकानि च सम्यक्त्वश्रुतदेशसर्वविरमणरूपाणि चत्वारि, प्रायोग्रहणादक्षायिकौपशमिका नीति / इह 'नण्णत्थ खए कसायाणं' इति केवलज्ञानविषयसामान्योक्तावतिप्रसङ्गाद्, विशेषं दर्शयतिकेवलज्ञानम्, केवलदर्शनम्, केवलं परिपूर्ण क्षायिकंचारित्रं चेति। एतानि त्रीणि सर्वेषामेव कोधादिकषायाणामपगमे क्षये भवन्ति। क्षायिकं सम्यक्त्वं पुनस्तेषामनन्तानुबन्धिचतुष्टयरूपदेशक्षयेऽपि भवति। ततः सर्वेष्वपि ज्ञानदर्शनसम्यक्त्वचारित्रेषु क्षायिकेषु जातेषु सत्सुध्रुवं-निश्चितं शिवं-- मोक्षो भवति जीवस्येति ॥११८११११८२विशे० द०प० (मोक्षे नवसद्भावपदार्थज्ञानं मोक्षतत्त्वप्रतिपादकमिति 'तत्त' शब्दे चतुर्थभागे 2181 पृष्ठे गतम्) (धर्मस्य फलं मोक्षः इति 'अत्थ' शब्दे प्रथमभागे 507 पृष्ठे गतम्) (केवलज्ञानानन्तरं मोक्षः इति 'धम्म' शब्दे चतुर्थभागे २६८१पृष्ठे गतम्) (प्रातः स्नानादिषु मोक्षमिच्छतां मतम् 'उदग' शब्दे द्वितीयभागे 766 पृष्ट गतम्) | महेशानुग्रहान्मोक्ष इति पातञ्जलमतमवशिष्यते-- एतदेवाहअन्यतोऽनुग्रहोऽप्यत्र, तत्स्वाभाव्यनिबन्धनः। अतोऽन्यथा त्वदःसर्व,न मुख्यमुपपद्यते // 7 // "महेशानुग्रहाबोधनियमौ'' इति वचनाद् अन्यतो-महेशाद्, अनुग्रहः अपि-उपकारोऽपि शुद्धज्ञानक्रियालाभलक्षणः, किं पुनः पूर्वोक्ती संसारापवर्गावित्यपिशब्दार्थः / अत्र योगचिन्तायाम्, किम्? इत्याह-- तत्स्वाभाव्यनिबन्धनःस-महेशानुग्रहयोग्यः स्वभावो यस्य स तथा; तद्भावस्तत्स्वाभाव्यम्; तन्निबन्धनं-हेतुर्यस्य स तथा विपर्यये बाधामाह-अतः-तत्स्वाभाव्यात्, अन्यथा तु-अन्येन प्रकारेण, पुनः केवलमहेशानुग्रहादिरूपेण, अदः-संसारित्वादि, सर्व-कृत्स्नम्, न-नैव, मुख्यम्-अनुपचरितम्, उपपद्यते-घटते। यथा हि-कासादिः स्वभावत एवायोग्यो लाक्षारसादिना रज्यमानोऽपि न तात्त्विकं रागं प्रतिपद्यते, किंतु-रागाभासमेव, एवमात्मनां योग्यताविरहे महेशेन क्रियमाणावप्य- नुग्रहनिग्रहो न तात्विकौ स्यातामिति, तत्स्वाभाव्यमवश्यमभ्युपगतन्तव्यम् / तदभ्युपगमे च तत एव संसारमोक्षोपपत्त्या न किंचि-न्महेशानुग्रहादिना प्रयोजनमस्तीति सिद्धम् "आत्मा तदन्ययो-गात्संसारी" इत्यादि ।यो०वि०॥ अनुग्रहोऽप्यनुग्राह्य-योग्यतापेक्ष एव तु / नाणुः कदाचिदात्मा स्या-देवतानुग्रहादपि॥१२॥ अनुग्रहोऽपि महेशकृतः किं पुनः शेषक्रियाविशेष इत्यपिशब्दार्थः। अनुग्राह्यस्य-अनुग्रहविषयस्य,जन्तोर्योग्यतापेक्ष एव तु-योग्यतामेवापेक्ष्य नपुनरन्यथा। अमुमेवार्थं प्रतिवस्तूपमया भावयति-न-नैव, अणुः-पुद्गलविशेषः। कदाचित्-वापि काले, आत्मा-जीवः स्यात् / कुतोऽपीत्याह-देवतानुग्रहादपि-देवताया दिव्य-विशेषरूपाया, अनुग्रहः-प्रसादः, तस्मादपि किं पुनस्तदभाव इत्यपि शब्दार्थः। अमुमेवार्थं भावयतिकर्मणो योग्यतायां हि, कर्ता तद्रयपदेशभाक् / नान्यथाऽतिप्रसङ्गेन,लोकसिद्धमिदं ननु॥१३|| कर्मणः-क्रियाविषयस्य, सामान्येन मुद्रादेर्वस्तुनो योग्यतायाम्योग्यभावे, हि-यस्मात्कारणात्, कर्ता-पाचकादिः; तद्व्यपदेश-भाक्तं पाचकादिरूपं व्यपदेशं भजते यः स तथा। विपक्षे बाधा-माह-ननैव, अन्यथा अन्येन प्रकारेण कर्मणः पाकादियोग्यता-विरहे कर्ता तद्व्यपदेशभाक् / कथमित्याह-अतिप्रसङ्गेन-अति-व्याप्तिलक्षणेन लोकसिद्धं बालावालादिजनप्रतीतम् इदम् पूर्वोक्तं वस्तु ननु-निश्चितम्, नास्मिन्नर्थेऽन्यत्प्रमाणं गवेषणीयमिति भावः। पुनरप्यमुमेवार्थ पुरस्कृत्याऽऽहअन्यथा सर्वमेवैत-दौपचारिकमेव हि। प्राप्नोत्यशोभनं चैत-तत्त्वतस्तदभावतः||१४|| अन्यथा-स्वयोग्यतामन्तरेणापि, कर्मणो यदि कर्ता तद्व्यपदेशभागिष्यते; तदा सर्वमेवैतद्बाह्यम्, आभ्यन्तरंच, कार्यजातम्। किमित्याह-औपचारिकमेव-उपचारमात्रोद्भवमेव, हि-स्फुटम्, प्राप्नोतिप्रसज्यते, माणवकसिंहत्ववत्। यदि नामैवं, तथापि को दोष इत्याहअशोभनं च-अशोभनं पुनः एतत्-सर्वमेवौपचा--रिकतयाऽभ्युपगम्यमानम् / कुत इत्याह-तत्त्वतः-पारमार्थिक्या वृत्त्या, तदभावतःऔपचारिकवस्तुनोऽभावात् न [पचरिता भावा माणवकसिंहतादयः पारमार्थिक सिंहादिरूपं भजन्ते। एवं मोक्षादयोऽप्यात्मनः स्वयोग्यताया विरहे महेशानुग्रहादेः परैरभ्युपगम्यमाना न पारमार्थिकरूपभाजो भवेयुरिति। किंचउपचारोऽपि च प्रायो, लोके यन्मुख्यपूर्वकः। दृष्टस्ततोऽप्यदः सर्व-मित्थमेव व्यवस्थितम्॥१५॥ उपचारोऽपि च-उपचरितवस्तुव्यवहाररूपः किं पुनर्मुख्यपूर्वको व्यवहार इत्यपिचशब्दार्थः / प्रायोबाहुल्येन लोके - व्यवहाराहे जने यद्-यस्माद् मुख्यपूर्वकः-निरुपचरितव
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________________ मोक्ख 447- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मोक्खमम्म स्तुव्यवहारापेक्षः, दृष्टः-उपलब्धः। प्रायोग्रहणं क्वचिद् व्यभिचारार्थम् | मोक्षान्वेषी। सिद्धिमार्गयितरि, आचा०१ श्रु० १अ०६उ०। "तेन मेरुमन्थानेन मथितो नीरनिधिः सुरैः" इत्यादयोऽत्यन्तम- | मोक्खतरु-पुं०(मोक्षतरु) मोक्षरूपे वृक्षे, संथा०। संबद्धाः, केचिल्लोकव्यवहारपूर्वकाः, किं तु मिथ्याविकल्पवासना- मोक्खतित्थ-न०(मोक्षतीर्थ) अयोध्यान्तर्गते स्वनामख्याते तीर्थे , तत्र प्रकोपपूर्वका इति / ततोऽपि मुख्यपूर्वकत्वादप्युपचारस्य, किं पुनः- | हि नमिस्तीर्थकृत्पूज्यते। ती०४३ कल्प। प्रागुक्तयुक्तरित्यपिशब्दार्थः / अदः-एतत्स्व-योग्यताया एव सकाशा- मोक्खत्थ-पुं०(मोक्षार्थ) सिद्ध्यर्थे ,पञ्चा०८विव०॥ त्कर्मबन्धादि सर्वम्- निरवशेषम् इत्थमेव व्यवस्थापितनीत्यैव | मोक्खत्थि-त्रि०(मोक्षार्थिन) सिद्धिकामे, पञ्चा०विव०) व्यवस्थितम्-प्रतिष्ठितम् // 15 / / यो०वि०। अविद्यानिवृत्तिर्मोक्षः।। मोक्खदेव-पुं०(मोक्षदेव) 'कोकावसहिपासणाह' शब्देतृतीयभागे 673 सम्म०१ काण्ड। प्रकृतिपुरुषदर्शनान्निवृत्तायां प्रकृतौ पुरुषस्य स्वरूपा- पृष्ठे उक्त स्वनामख्याते श्रावके, ती०३६ कल्प। वस्थानं मोक्षः इति साङ्ख्याः जै०गाला 'ग्रहः सर्वत्र तत्त्वेन, मुमुक्षूणा- | मोम्खा दोस-(मोक्षद्वेष) सर्वाङसखखानिभतायां मक्तौ मत्सद्दे मसंगतः / मुक्तौ धर्मा अपि प्रायस्त्यक्तव्याः किमनेन तत्॥१।'' इति पि०विंग ('मोक्ख' शब्देऽत्रैव प्रत्यपादि) // 32 // द्वा० 23 द्वा०। भव्यानामेव मोक्ष इति 'बन्धमोक्खसिद्धि' शब्दे | मोक्खद्ध-पुं०(मोक्षाध्वन्) निर्वाणमार्गे , पञ्चा० ३विव०। पञ्चमभागे 1243 पृष्ठे बन्धमाक्षसद्भावे प्रत्यपादि] "निर्जितमदमद मोक्खद्धदुग्गग्गहण-म०(मोक्षाध्वदुर्गग्रहण) निर्वाणमार्ग पर्वतवनादिनाना, वाक्कायमनोविकाररहितानाम् / विनिवृत्तपराशाना-मिहैव दुर्गाश्रयणकल्पे,पञ्चा०। मोक्षःसुविहितानाम्" बो०वि० [हवनात्सिद्धिं वदतां मतम् 'अग्गिहोत' अथवन्दनामेव मोक्षाध्वदुर्गतया समर्थयन्नाहशब्दे प्रथमभागे 177 पृष्ठे गतम् ] मोक्षोपायं 'मोक्खमग्गगइ' शब्दे मोक्खद्धदुग्गगहणं, एयं तं सेसगाण वि पसिद्धं / वक्ष्यामि वेदयित्वैव पापकर्मणो मोक्षः इति 'पापकम्म' शब्दे पञ्चमभागे भावेयव्वमिणं खलु, सम्मति कयं पसंगणं // 16|| 876 पृष्ठे गतम् ] केवलिभिर्यस्मिन् काले येषां जीवानां मोक्षगमनं दृष्ट मोक्षाध्वनि-निर्वाणमार्गे दुर्गग्रहणमिव-पर्वतवनादिदुर्गाश्रयणमिव तस्मिन्नेव काले तेजीवा मोक्षं यान्तिनवेति, केचन वदन्ति-पुण्यं पापंच मोक्षाध्वदुर्गग्रहणम् / यथा ह्यध्वनि प्रवृत्तस्य तस्कारादिभिरभिभूयमाकुर्वतां जीवानां कालस्थितेर्हानिर्वृद्धिश्च भवतीति? प्रश्ने, उत्तरम्-येषां नस्य दुर्गसमाश्रयणं त्राणं भवति, एवं मोक्षाध्वनि प्रवृत्तस्य कर्मचौरादिजीवानां यस्मिन् काले केवलि-भिर्मोक्षगमनं दृष्टमस्ति तस्मिन्नेव काले भिरभिभूयमानस्य यत्त्राणहेतुस्तन्मोक्षाध्वदुर्गग्रहणमुच्यते, अथवातेजीवा मोक्ष यान्तिपर केवलिभिः सर्वसामग्यपि सहैव दृष्टाऽस्तितस्मान्न मोक्षाध्वा च दुर्गग्रहणमिव दुर्गग्रहणंच मोक्षाध्वदुर्गग्रहणम्। पञ्चा०३विव०। काऽप्याशङ्केति॥५०॥ सेन०३ उल्ला०ा त्रयोदशचतुर्दशगुणस्थानयोर्द्धि मोक्ख(द्ध)द्धाणसेवा-स्त्री०(मोक्षाध्वसेवा) मोक्षो-निर्वाणं, तस्य चरमसमयं यावत् षट्संहननसत्ता केन हेतुना? यतो मोक्षगमनमायेनैव अध्वा-मार्गः, सम्यग्दर्शनज्ञानचरणलक्षणः,तस्य सेवा- अनुष्ठानम्, भवतीति? प्रश्ने, उत्तरम्-यद्यपि मोक्षगमनमायेनैव भवति तथापि मोक्षाध्वसेवा। संयमानुष्ठाने, हा०४अष्ट०। प्राक्तनसंहननानां सत्तासद्भावे को विचार इति।।१९६॥सेन०३ उल्ला मोक्खपय-न०(मोक्षापद) सद्बोधकारणत्वात्कृत्स्नकर्मक्षयलक्षणस्य मोक्खंग-न०(मोक्षाङ्ग) मोक्षकारणे, पं०व०३ द्वारा सिद्धिकारणे, पञ्चा० मोक्षस्य प्रतिपादके पदे। अबन्धपदे, अनु०। 6 विव० मोक्खपह-पुं०(मोक्षपथ) मोक्षस्य पन्थाः। अपवर्गमार्गे , आव०४ अ०) मोक्खंगपत्थणा-स्त्री०(मोक्षाङ्ग प्रार्थना) मोक्षाङ्गानाम्-निवृतिकार- तीर्थकरे, तत्प्रदर्शकत्वात् कारणे कार्योपचारात्। आव०५ अ०। जैनणानां प्रार्थना-आशंसा, अथवा-मोक्षामंचासौ प्रार्थना चेति, मोक्षाङ्गस्य शासने, आ०चू०५अ० वा प्रार्थना मोक्षाङ्गप्रार्थना / मोक्षाशंसायाम, पञ्चा०४विव०। मोक्खपहसामिय-पुं०(मोक्षपथस्वामिक) सिद्धिमार्गप्रभौ, पञ्चा०५ विव०॥ मोक्खंगया-स्त्री०(मोक्षाङ्गता) निर्वाणहेतुतायाम्, पञ्चा०६ विव०।। मोक्खपहो (हाव)यारग-पुं०(मोक्षपथावतारक) सम्यग्दर्शनादिषु मोक्खकं खिय-त्रि०(मोक्षकाक्षित) मोक्षे काङ्क्षा संजाताऽस्येति प्राणिनां प्रवर्तके, स० मोक्षकासितः। सिद्धिकासके, तं०। मोक्खपिवासिय-त्रि०(मोक्षपिपासित) मोक्षफलातृप्ते, तं०। मोक्खकामय-त्रि०(मोक्षकामक) मोक्षे--शिवेऽनन्तानन्तसुखमये / मोक्खफल-त्रि०(मोक्षफल) मोक्षः फलमस्मादिति मोक्षफलः। मोक्षकामोऽभिलाषो यस्य सः मोक्षकामकः / सिद्धिकामुके, तं०। जनके, पञ्चा०८विव०। मोक्खऽट्ठ-पुं०(मोक्षार्थ) सकलकर्मविनिर्मुक्तिनिमित्ते, हा०४ अष्टा | मोक्खमग्ग-पुं०(मोक्षमार्ग) मोक्षोऽष्टकर्मणांन्यासस्तम्य मार्गो ज्ञानादिसिद्ध्यर्थे , पञ्चा०८विव० मोक्षमार्गः / तस्मिन्, उत्त०३२अ०। मोक्षस्य मार्गइव मार्गो यत्तत्तथा। मोक्खण्णेसि(ण)-त्रि०(मोक्षान्वेषिन) स्थित्यनुभागप्रदेशरूपस्य प्रश्न०५ संव० द्वार। सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राख्ये, (सूत्र०१ श्रु०१३अ०)। चतुर्विधस्यापि यो मोक्षस्तदुपायो वा तमन्वेष्टुं मृगयितुंशीलमस्येति निर्वाणपथे, ग०२अधि० कर्मवादश। जिनपूजा-सर्वज्ञाभ्यर्चनं मोक्ष
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________________ मोक्खमग्ग 148 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मोक्खमग्ग मार्गः / जी०१ प्रतिका आचा०। सूत्रका स्थान बृ० नं०। विशिष्टमेव सुखमभिलषणीयं न यत्किञ्चित् तर्हि विशिष्टमेकान्तेन सुखं मोक्ष एव विद्यते न रागादौ क्षुदादौ वा तस्मातदेवाभिलषणीयं, नशेषमिति। योऽपि च सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररूपो मोक्षमार्ग उक्तः सोऽपि युक्त्या विचार्यमाणः प्रेक्षावतामुपादेयतामश्नुते। तथाहि-सकलमपि कर्मजालं मिथ्यात्याज्ञानप्राणिहिंसादिहेतुकम् / ततः सकलकर्मनिर्मूलनाय सम्यग्दर्शनाद्यभ्यास एव घटते।नंग मोक्खमग्गगइ-न०(मोक्षमार्गगति) मोक्षमार्गगतेः प्रतिपादके अष्टाविंशे उत्तराध्ययने, उत्तम सम्प्रति यथाऽस्य मोक्षमार्गगतिरिति नाम तथा दर्शयितुमाहमुक्खो मग्गो अ गई, वणिजइ जम्ह इत्थ अजमझणे। तं एअं अज्झयणं, नायव्वं मुक्खमग्गगई / / 502|| मोक्षः प्राप्यतया मार्गस्तत्प्रापणोपायतया, चशब्दो भिन्नक्रमः, ततः गतिश्च-सिद्धिगमनरूपा तदुभयफलतया वर्ण्यते प्ररूप्यते यस्माद् अत्रेति-प्रस्तुतेऽध्ययने तत्-तस्मादेतदध्ययनं ज्ञातव्यं मोक्षमार्गगतिः इति; मोक्षमार्गगतिनामकम; अभिधेयेऽभिधानोपचारादिति भावः। इति गाथार्थः। उक्तो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, सम्प्रति सूत्रानुगमे सूत्रमुचारणीयं, तच्चेदम्मुक्खमग्गगई तचं, सुणेह जिणभासियं / चउकारणसंजुत्तं, नाणदंसणलक्खणं / / 1 / / मोक्षणं मोक्षः अष्टविधकर्मोच्छेदस्तस्य मार्गः उक्तरूपस्तेन गतिः-- अनन्तरोक्ता मोक्षमार्गगतिस्ताम, कथ्यमानामिति गम्यते / 'तचं ति तथ्याम्-अवितथा श्रुणुत-आकर्णयत जिनभाषिताम्- तीर्थकृदभिहितां, चत्वारि कारणानि वक्ष्यमाणलक्षणानि तैः संयुक्तासमन्विता चतुष्कारणसंयुक्ता ताम्। नन्वमूनिचत्वारि कारणानि कर्मक्षयलक्षणस्य मोक्षस्यैव, गतेस्तु तदनन्तरभावित्वात् स एवेति कथं चतुष्कारणवतीत्वमस्या न विरुध्यते? उच्यते-व्यवहारतः कारणकारणस्यापि कारणत्वाभिधानाददोषः, अत एव चानन्तरकारणस्यैव कारणत्वमित्याशङ्काऽपोहार्थमस्य विशेषणस्योपन्यासः, अन्यथा हि मोक्षमार्गेण गतिरिति विग्रहेगतिं प्रति मार्गस्य कारणत्वं प्रतीयतएव, तद्रूपाणि चामूनि चत्वारि कारणानीति / तथा-ज्ञानदर्शने लक्षणं-चिह्न यस्याः सा ज्ञानदर्शनलक्षणा, यस्य हि तत्सत्ता तस्यावश्यंभाविनी मुक्तिरिति निश्चीयते, अत एव चानयोर्मूलकारणतां दर्शयितुमित्थमुपन्यासः। यद्वामोक्ष-उक्त-लक्षणे मार्गः-शुद्धो 'मृजू शुद्धौ' इति धातुपाठातस्य गतिः-- प्राप्तिस्तां, ज्ञानदर्शने-विशेषसामान्योपयोगरूपे लक्षणम्-असाधारणं स्वरूपं यस्याः सा तथा ताम् / न चेह नियुक्तिकृता मार्गगत्योरन्यथा व्याख्यानात्तद्विरोधः, अनन्तगमपर्यायत्वात्सूत्रस्य, शिष्यासंमोहाय कस्यचिदेवार्थस्य तेनाभिधानात्, शेषं प्राग्वदिति सूत्रार्थः। यदुक्तं 'मोक्षमार्गगतिं शृणुत' इति तत्र मोक्षमार्ग तावदाह नाणं च दंसणं चेव, चरित्तं च तवो तहा। एसमग्गुत्ति पन्नत्तो, जिणेहिं वरदंसहिं / / / ज्ञायते अवबुध्यतेऽनेन वस्तुतत्त्वमिति ज्ञानं, तच्च सम्यग्ज्ञानमेव ज्ञानावरणक्षयक्षयोपशमसमुत्थं मत्यादिभेदम्। दृश्यते तत्त्वमस्मिन्निति दर्शनम्, इदमपि सम्यग्रूपमेव, दर्शनमोहनीयक्ष-यक्षयोपशमोपशमसमुत्पादितमर्हदभिहितजीवादितत्त्वरुचिलक्षणात्म-शुभभावरूपम्, 'एव' अवधारणे भिन्नक्रमश्चोत्तरत्र योक्ष्यते, चरन्ति-गच्छन्त्यनेन मुक्तिमिति चरित्रम्, एतदपि सम्यग्रूपमेव, चारित्रमोहनीयक्षयादित्रयप्रादुर्भूतसामायिकादिभेदं सदसत्क्रिया- प्रवृत्तिनिवृत्तिलक्षणम्, तपति पुरोपात्तकर्माणि क्षपणेनेति तपो बाह्याभ्यन्तरभेदभिन्नं यदर्हद्वचयनानुसारि तदेव समीचीनमुपा-दीयते। इत्थं चैतत्, सर्वत्र मोक्षमार्गगतिप्रस्तावाद्विपर्यस्तज्ञाना-दिना तत्कारणतानुपपत्तेः अन्यथा अतिप्रसङ्गात्तथेति, सर्वत्र च-शब्दः समुच्चये, सर्वत्र समुच्चयाभिधानं समुदितानामेव मुक्तिमार्गत्वख्यापकम् एष एव 'मार्ग' इति मार्गशब्दवाच्यः, अस्यैव मुक्ति-- प्रापकत्वात् प्रज्ञाप्तः-प्रज्ञापितःजिनैः-तीर्थकृद्भिः वरम्-समस्तवस्तुव्यापितया, अव्यभिचारितया च द्रष्टुम्-प्रेक्षितुं शीलमेषां ते वरदर्शिनस्तैः। इह च चारित्रभेदत्वेऽपि तपसः पृथगुपादानमस्यैव क्षपणं प्रति असाधाराणहेतुत्वमुपदर्शयितुम्, तथा च वक्ष्यति- "तवसा(व) विसुज्झइ"त्ति। इति सूत्रार्थः। सम्प्रत्येतस्यैवानुवादद्वारेण फलमुपदर्शयितुमाह-- नाणं च दंसणं चेव, चरित्तं च तवो तहा। एयं मग्गमणुप्पत्ता, जीवा गच्छंति सुग्गइं // 3 // पूर्वार्द्ध व्याख्यातमेव, एनम्-इति-अनन्तरम्; उक्तरूपं मार्गम्पन्थानम् अनुप्राप्ताः-आश्रिता जीवाःगच्छन्ति यान्ति 'सुग्गई' ति सुगतिम्-शोभनगतिम्, प्रक्रमान्मुक्तिम्। इति सूत्रार्थः। उत्त०। ज्ञानादीनि मुक्तिमार्ग इत्युक्तम्, अतस्तत्स्वरूपमिहाभिधेयम्, तच तद्भेदाभिधानेऽभिहितमेव भवतीति मत्वा यथोद्देशस्तथा निर्देश' इति न्यायतो ज्ञानभेदानाह-(ते च ज्ञानभेदाः 'णाण' शब्दे चतुर्थभागे 1938 पृष्ठे गताः) (अन्येषां पदानां व्याख्या स्वस्वस्थानादवसेया) ज्ञानादीनां मध्ये कस्य कतरो व्यापार? उच्यतेनाणेण जाणई भावे, संमत्तेण य सद्दहे।। चरित्तेण निगिण्हाइ,तवेण परिमुज्झई // 35 // ज्ञानेन-मत्यादिना जानाति-अत्रबुध्यते भावान्-जीवादीन्, दर्शनेन च-उक्तरूपेण 'सदहि' ति श्रद्धत्ते, चारित्रेण-अनन्तराभिहितेन "निगिण्हाति' त्ति निराश्रवो भवति पठ्यते च-'न गिण्हति' ति तत्रन गृह्णातिनादत्ते कर्मेति गम्यते, तपसा परिशुद्धति-पुरो-पचितकर्मक्षपणतः शुद्धो भवति, उक्तं हि-"संजमे अणण्हयफले तवे वोदाणफले" ति। इति सूत्रार्थः / अनेन मार्गस्य फलं मोक्ष उक्तः। सम्प्रति तत्फलभूतां गतिमाहखवित्ता पुठ्वकम्माइं, संजमेण तवेण य। सव्वदुक्खप्पहीणऽट्ठा, पक्कमंतिमहेसिणो॥३६||
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________________ मोक्खमग्गगइ 446- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मोण्ड क्षपयित्वा क्षयं नीत्या पूर्वकर्माणि-पूर्वोपचितज्ञानावरणादीनि संयमः- ध्याम्,देवना०६वर्ग 136 गाथा। सम्यक् पापेभ्य उपरमणं चारित्रमित्यर्थः, तेनतपसा-उक्तरूपेण मोचमेह-पुं०(मोचमेह) मोचः-प्रस्रवणं; कायिकेत्यर्थः तेन मेहः-सेचनम् / चशब्दाद्-ज्ञानदर्शनाभ्यां च। नन्वेवमनन्तरंतपस एव कर्मक्षपणहेतुत्व- कायिकव्युत्सर्जने, "कोसं च मोचमेहाए, सुप्पुक्खलगं च खारगलणं मुक्तम् इह तु ज्ञानादीनामपीति कथं न विरोधः? उच्यते-तपसोऽप्येत नादानामपातिकथनावराधः? उच्यत-तपसोऽप्यत- / चा" सूत्र०१श्रु०४ अ०२उ०। त्पूर्वकस्यैव क्षपणहेतुत्वमिति ज्ञापनार्थ-मित्थमभिधानम्, अत एव | मोद्राय-धा०(रम) क्रीडायाम. रमे संखडू-खेडोभाव-किलिकिञ्चमोक्षमार्गत्वमपि चतुर्णामप्युपपन्नं भवति, ततश्च- सव्वदुक्खप्पहीणट्ठ' कोटुम-मोट्टाय–णीसर-वेल्लाः / / 8 / 4 / 165|| इति रमतेोट्टायादेशः / त्ति प्राकृतत्वात्प्रकर्षेण हीनानि-हानि गतानि प्रक्षीणानि वा सर्वदुःखानि मोट्टायइ। रमते। प्रा०४पाद। यस्मिन् , यता-सर्वदुःखानां प्रहीणं प्रक्षीणं वा यस्मिस्तत्तथा,तच मोट्ठिय-पुं०(मौष्टिक) मुष्टिप्रमाणेप्रोतचर्मरजुकेपाषाणगोलके, उपा०२ अ०। सिद्धिक्षेत्रमेव तदर्थयन्त इवार्थयन्ते सर्वार्थेच्छोपरमेऽपि तद्गामितया ये मोठेर-न०(मौठर) मोठजातीयब्राह्मणवणिजामुत्पत्तिपुरे, तत्र वीरजिनः ते तथा-विधाः प्रक्रामन्तिभृशं गच्छन्ति। अथवा-प्रहीणानि वा सर्व पूज्यते। ती० 43 कल्प। दुःखान्याश्च प्रयोजनानि येषां ते तथाविधाः प्रक्रामन्ति सिद्धिमिति मोड-(देशी) जूट, देवना०६ वर्ग 117 गाथा। शेषः, 'महेसिणो' त्ति महर्षयो; महैषिणो वा प्राग्वन्महामुनयः। इति मोडणा-स्वी०(मोटना) गात्रभञ्जनायाम, प्रश्न०३आश्र० द्वार / मर्दने, सूत्रार्थः / उत्त०पाई०२८ अ०॥ प्रश्न०३आश्रद्वार। मोक्खवरमुत्तिमग्ग-पुं०(मोक्षवरमुक्तिमार्ग) मोक्षे सकलकर्मक्षयलक्षणे मोडिय-न०(मोटित) गात्रमोटने,बृ०१उ०। वालिताङ्गेषु, विपा०१ श्रु०६ गन्तव्ये मुक्तिरेव निर्लोभतैव मार्गः पन्थाः मोक्षवरमुक्तिमार्गः। मोक्षाना अ० दशा०। भग्नाङ्गेषु, प्रश्न०३आश्र० द्वार। भनेषु, ज्ञा०१श्रु०६अ। शंसायाम, प्रश्न०५ संव०द्वार। मोण-पुं०(मौन) मुनेरयं मौनः / मुनेर्भावो वा मौनम् / वाचःसंयमने, मोक्खविगुण-पुं०(मोक्षविगुण) सिद्ध्यननुगुणे, पञ्चा०६विव०। आचा०१श्रु०२अ०६ उ०ा संयमानुष्ठाने, आचा०१ श्रु०५१०३उ०। मोक्खविणय-पुं०(मोक्षविनय) मोक्षविषयो विनयो मोक्षविनयः। 'विणय' अशेषसावद्यानुष्ठानवर्जने,आचा०१श्रु०५अ०३उ०। व्य० प्रति०। शब्दे वक्ष्यमाणस्वरूपे विनयभेदे, दश०६अ०१उ०। सूत्राआव०। साधुधर्मे, उत्त०१४अ०। सूत्र। मुन्याचारे, उत्त० १४अ०। मोक्खविसारय-पुं०(मोक्षविशारद) मोक्षमार्गस्य सम्यग्ज्ञानदर्शन सम्यक्चारित्रे, उत्त०१५अ०। मौनव्रते, स्था०५ठा०१ उ०। आचा०। चारित्ररूपस्य प्ररूपके, सूत्र०१ श्रु०३ अ०३ उ०। सम्यक्त्वे, प्रतिका श्रा०। सुनेरिदं मौनम्। सर्वज्ञोक्ते प्रवचने, आचा०१ मोक्खसुह-न०(मोक्षसुख) सिद्धिसुखे, आचा। श्रु०५अ०२ उ०। धo "मुणी मोणं समादाय, धुणे कम्म सरीरंग' मोक्खहेउ-पुं०(मोक्षहेतु) सर्वकर्मक्षयकारणे,पञ्चा०३विव०। मुनिर्जगत्त्रयस्यमन्ता मौनं मुनित्वमशेषसावद्यानुष्ठानवर्जनरूपं समादाय मोक्खोवाय-पुं०(मोक्षोपाय) मोक्षस्य निर्वृतरुपायः-सम्यक्-साधनम् / गृहीत्वा धुनीयाच्छारीरकमौदारिकं कर्म; शरीरं वेति। आचा०१ श्रु०२ सम्यग्दर्शनचारित्ररूपेषु मुक्तिसाधनेषु, ध०२ अधि० "दोसा जेण अ०ETON "भूत्रोत्सर्ग मलोत्सर्ग, मैथुनं स्नानभोजनम्। सन्ध्यादिकर्म णिरुभति,जेण खिजति पुष्वकम्माई। सो सो मोक्खोवाओ, रोगावत्थासु पूजांच,कुर्याज्जापंच मौनवत्॥१॥" ध०२ अधिवा "सुलभंवागनुचारवमणं व॥१॥" नि०चू०१६ उ०) मौनमेकेन्द्रियेष्वपि / पुद्गलेष्वप्रवृत्तिस्तु,योगानां मानमुत्तमम् // 1 // " मोग्गर-(देशी) मुकुले, देवना०६ वर्ग 136 गाथा। अष्ट०१३ अष्टाआ०म०। (मौनाष्टकम् 'मुणि' शब्देऽस्मिन्नेव भागेगतम्) मोग्गरग-पुं०(मुद्गरक) ओत् संयोगे 18111116 // इति संयोगपर- मोणचरय-पुं०(मौनचरक) मौनम्- मौनव्रतं तेन चरति मौनचरकः। त्वादादेरुतः ओत्त्वम्। प्रा०ा मगदन्तिकापुष्पे,ध०२अधि०। क-ग-ट तथाविधाभिग्रहवशान् मौनेनैव भिक्षाचरके, स्था० 5 ठा०१उ०। औ०। ड-त-द-प-श--षस-क-पामूज़ लुक् / / 12 / 77 // एषां संयुक्तवर्ण- | मोणपय-न०(मौनपद) मुनीनामिदं मौनं तच्च तत्पदं च मौनपदम्। संयमे, संबनिधनामूज़ स्थितानां लुग्भवति / प्रा0। गुल्मविशेषे, जंगा। सूत्र०१श्रु०१३ अ०। काष्ठादिमये मल्लोपकरणे, प्रश्न०१आश्र० द्वार। मोणिंद-पुं०(मौनीन्द्र) वीतरागे, तत्प्रवचने च। द्वा०८द्वा०। मोग्गरपाणि-पुं०(मुद्रपाणि) मुद्गरहस्ते स्वनामख्याते यक्षे, अन्ता | मोणिंदपय-न०(मौनीन्द्रपद) मौनीन्द्रं पद्यते गम्यतेऽनेनेनि मौनी(अस्य 'अज्जुणय' शब्दे प्रथमभागे 224 पृष्ठे कथोक्ता) न्द्रपदम् / संयमे, सूत्र०१श्रु०२१०२उ०। सर्वज्ञप्रणीते मार्गे, सूत्र०१श्रु० मोग्गलायण-पुं०(मौद्गलायन) मुद्गलस्यर्षेोत्रापत्ये, अभिजिन्न–क्षत्रं | 13 अ०| मोगलायनगोत्रम्। चं०प्र०१० पाहु०। सू०प्र०ा जंग मोण्ड-न०(मुण्ड) ओत्संयोगे।।८।१।११६॥ इति संयुक्त-परत्वादादेरुत मोच-पुं०(मोच) प्रस्रवणे, कायिकायाम्, सूत्र०१श्रु० अ०२उ० अर्द्धजङ् | ओत्त्वम्। मोण्डं। मुखे, प्रा० १पाद।
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________________ मोत्तव्य १५०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 ___ मोर मोत्तव्व-त्रि०(मोक्तव्य) रुदभुजमुचां तोऽन्त्यस्य।८।४।२१२।। एषामन्त्यस्य क्त्वा-तुम्-तव्येषु परतःतो भवति / मोत्तव्वं / छोटनीये, प्रा०४ पाद। मोत्ति-स्त्री०(मुक्ति) लोभनिग्रहे, स्था०४ठा०१३० निष्परिग्रहत्वे, स्था०६ठा०३उ०। मोत्तिमग्ग-पुं०(मुक्तिमार्ग) मुक्तिः-निष्परिग्रहत्वम्: अलोभत्व मित्यर्थः / सैव मार्ग इव मार्गः। निर्वृतिपुरस्य मार्गकल्पे अलोभे, स्था०६ ठा०३उ०। मोत्तिय-न०(मौक्तिक) मुक्ताफलें, आ०म०१अ०। ज्ञा० अनु०। औ०। तदाश्रिते द्वीन्द्रियविशेषे, प्रज्ञा०१ पद / जी०। इहैके सत्त्वाः पूर्व नानाविधयोनिकाः स्वकृतकर्मवशगास्त्रसस्थावरशरीरेषु सचित्ताचित्तेषु पृथ्वीकायत्वेनोत्पद्यन्ते, यथा-शिरःसुमणयः; करिदन्तेषुमौक्तिकानि,विकलेन्द्रियेष्वपि शुक्त्यादिषु यौक्तिकानि, स्थावरेष्वपि पारकरादिषु जीवा लवणभावनोत्पद्यन्ते, एतान्यक्षराणि सूत्रकृदङ्गदीपिकायां सन्तीत्युक्त्वा मौक्तिकानि सचित्तानि खरतराःकथयन्तःसन्ति, प्रश्नोत्तरग्रन्थे तु-अचित्तानि तानि भवन्तीत्युक्तमस्ति, तत्कथम्? इति प्रश्ने, उत्तरम्-सूत्रकृदङ्गदीपिकादौ मौक्तिकानियद्यपिसचित्तत्वेनोत्पद्यन्ते इत्युक्तमस्ति, तथापि तान्यनुयोगद्वारादौ अचित्तत्वेनोक्तानि, तेनो-- त्पत्तिस्थाने तानि सचित्तानि, तन्निर्गतानि चाचित्तानीति बहुश्रुताः,येच सर्वदा तेषां सचित्तत्वं वदन्ति तेषां श्राद्ध्यादिहस्तेन विहरणा-द्यप्रसङ्गः // 286 / / सेन० ३उल्ला०। मौक्तिकानि सचित्तानि, अचित्तानि वा कुत्र वा कथितानि सन्तीति? अत्र मौक्तिकानि विद्धानि,अविद्धानि वा अचितानि शेयानि, यतः श्रीअनुयोगद्वार-सूत्रे मौक्तिकरत्नादीनि अचित्तपरिग्रहमध्ये कथितानि सन्तीति / / 16|| तथा सर्वार्थसिद्धविमाने मौक्तिकवलयानि शास्त्रे कथितानि? परंपरातो वाऽभिधीयन्ते? शास्त्रे चेत्तदक्षराणि प्रसाद्यानीति? अत्र सर्वार्थसिद्धविमाने मौक्तिकवलयाक्षराणि छुटितगाथासु परंपरया भुवनभानुकेवलिचरित्रे च सन्ति, तथा च तद्गाथा:"तत्थ य महाविमाणे, उवरिमभागं पि वट्टए एणं। सायररस (64) मणमाणं, मुत्ताहलमुजलजलोहं / / 1 / / मज्झगयस्स इमस्स य, वलयाकारेण ताव सोहंति। चत्तारि मुत्तिआई, नित्तानल (32) माणपमॉणाई // 2 // पुणरवि बीए वलए, अड (8) संखा कलिअमुत्तिअकलावो। निउचंद (16) मणपमाणा, दिप्पइ खजलं च मलसुक्को // 3 // वंदकला (16) संखाई, चंदकलानिम्मलत्तजुत्ताई। तइए वलए अडमण-पमिआई मुत्तिआणि तओ / / 4 / / लोअणकिसाणु 32 पमिआणि, मुत्तिअफलाणि तुरिअवलयंमि जलहि (4) मणसरीराइं नायव्वाइं विअट्टेहिं / / 5 / / वेअरस (64) संखया पुण, पंडियमतुत्तिअफलाणि जाणाहिं। पंचमवलयम्मि तओ, लोअण (२)मणभारमाणाई॥६॥ कुंजरलोअणवसुहा (१२८)-मिआणि मुत्ताहलाणि नेआणि। इगमणभारवहाई, छठे वनयम्मि बट्टाई / / 7 / / मुत्ताहलमंतट्ठिअ-अणेगवजंतवायलरीहिं। वलयगमुत्तिअनिअरो, समुत्थलिअ आहणेइ जया / / 8 / / 1- पुस्तकद्वये परिकरादिषु इत्येव पाठः।२-विहरणं भिक्षाऽऽदानम्। एअंमहाविमाणं, महुररवेकंतभायणं जायं। कत्थऽविऽन्नत्थ नऽत्थि, एरिसंसहमहुरतं / / 6 / / तत्थ विमाणम्मि सुरा, तन्नायरसेगमोहिअसचित्ता। समयग्गि (33) सायरम्मि अ, सुहेण पूरंति निअमाउं / / 10 / / ' ही०४प्रकाश मोत्तुं-अव्य०(मोक्तुम्) क्त्वः तुमत्तूणऽतुआणाः / / 8 / 22146|| क्त्या. प्रत्ययस्य तुम्-अत्-तूण-तुआण इत्येते आदेशा भवन्ति / इति क्त्वा. प्रत्ययस्य तुमादेशः / प्रा०। रुद्-भुज-मुचां तोऽन्त्यस्य / / 8 / 2 / 212 / एषामन्त्यस्य क्त्वा-तुम्-तव्येषु भवति / मोत्तुं / प्रा०ा हातुमित्यर्थे बृ०३उ० मोत्तूणं-अव्य०(मुक्त्वा ) युवर्णस्य गुणः / / 14 / 237 / / धातोरिवर्ण स्योवर्णस्य च नित्यपि गुणो मवति। प्रा०। रुद भुज-मुचां तोऽन्त्यस्त 1 / 4 / 212 / / एषामन्त्यस्य क्त्वातुम्तव्येषु परतः तो भवति। मोत्तूण प्रा०। परिहत्येत्यर्थे, पिं० विहायेत्यर्थे,श्रा०। मोत्था-स्त्री०(मुस्ता) ओत्संयोगे / / 8 / 1 / 116 / / इत्युकारस्यौकारः 'नागरमोथा' इति ख्याते गन्धद्रव्ये, प्रा०। मोदग-पुं०(मोदक) लडके, प्रज्ञा०१७ पद 4 उ० मोय-पुं०(मोक) कायिक्याम्, व्य०९ उ०प्रस्रवणे, व्य०६उवाका गाउत्त० अन्योऽन्यस्य मोकमादातुंन कल्पतेनो कप्पइ निम्गंथाण वा निग्गंथीण वा अन्नमन्नस्स मोएणं आयमित्तए, नन्नत्थ गाढागाढेहिं रोगायङ्केहिं / / 47 / / नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अन्नमन्नस्स मोये आइत्तए नन्नत्थ गाढागादेहिं रोगायंकेहिं / / 4 / / नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा अन्योन्यस्य परस्परस्य मोकमाचमितुमापातुं वा, किं सर्वथैव नेत्याह-माढाः-अहिविषविशूचिकादयः, आगाढाश्वज्वरादयो रोगातङ्कास्तेभ्योऽन्यत्र न कल्पते, तेषु कल्पते इत्यर्थः / एष सूत्रार्थः। संप्रति नियुक्तिविस्तरः-- मोएण अण्णमण्णस्स, आयमणे चउगुरं च आणाई। मिच्छत्ते उड्डाहो, विराहणा भावसंबन्धो।।२९७|| अन्योन्यस्य-संयतः संयतीनानां मोकेन निशाकल्प इति कृत्वा रात्री यद्याचामति तदा चतुर्गुरु, आज्ञादयश्च दोषाः, मिथ्यात्वं च भवेत्। न यथा वादी तथा कारीति कृत्वा, यद्वा-कश्चिदभिनवधर्मा तं निरीक्ष्य मिथ्यात्वं गच्छेत्। अहो अमी समला इति, उड्डाहश्च भामिनीघटिकादिज्ञापने भवति, विराधना च संयमस्याऽऽत्मनो वा भवति / तत्र संयमविराधना तेन स्पर्शेनैकतरस्य भावसंबन्धो भवेत्। ततश्च प्रतिगमनादयो दोषाः / आत्मविराधना च- "चिंतेइ दळु मिच्छइ'' इतयादि क्रमेण ज्वरदाहादिका। किञ्चदिवसं पिताण कम्पइ, किं पुण णिसि मोएणऽण्णमण्णस्स। अत्थंगते किमण्णं,न करेज अकिच्चपडिसेवं // 298|| दिवसेऽपि तावन्न कल्पते अन्योन्यस्य मोके नाचमितुं किं पुनः निशि-रात्रौ, अस्तंगते हि परस्परं मोकाचमनेऽपि
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________________ मोय 451 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मोय कृते किन्नाम तदकृत्यमस्ति यस्य प्रतिसेवां न कुर्याताम्। वत्तुं पिता गरहितं, किं पुण चित्तुं करा विलातो वा। सस्सपइट्ठो गोणो, दुरक्खओ सस्सअन्मासे / / 266 वक्तुमपि तावदेतत्मोकरमणं गर्हितम्, किं पुनःसंयत्याः कराद् विलाद् वा मोकं ग्रहीतुम्। अपि च-धासः-चारिः तस्याश्चरणार्थम् गौः प्रविष्टः सन् तस्याभ्यासे धान्यमूले चरन् दूरक्ष्यो भवति, धान्यं महादुःखेन रक्ष्यते इत्यर्थः / एवमयमपि संयत्या मोकेनाचामनप्रसङ्गतः सेवनक्रियां कुर्वन्नवारयितुं शक्य इति भावः। दिवसउ सपक्ख लहुगा, अद्धाणाऽऽगाढगच्छजयणाए। रत्तिं च दोहि लहुगा, विइयं आगाढजयणाए॥३००|| दिवसतः स्वपक्षेऽपि संयतःसंयतीनां,संयतिः संयतानां मोकेन यदाचामति तदा चतुर्लघु, शैक्षाणां तदवलोकनादन्यथाभावो भवेत्।। गृहस्थपरतीर्थिकाश्चोड्डाहं कुर्युः। कथमित्याहअट्ठिसरक्खा वि जिता,लोए णत्थेरिसेडण्णधम्मसुं। सरिसेणं सरिससोही, कीरइ कत्थाइ सोहेज्जा // 301 / / अहो अमी ते श्रमणा यैरेवं मोकेनाचामद्भिरस्थिसरजस्का अपि जिताः, अस्मिन् लोके अन्ये बहवो धर्मा विद्यन्ते परं कुत्रापीदृशं शौचन दृष्ट, सदृशेन च सदृशस्य या शोधिः क्रियते सा किं कुत्रचिच्छोधयेत्शुद्धं कुर्यात्? अशुचिना क्षाल्यमानं न शुध्यतीति भावः / द्वितीयपदेअध्वनिवर्तमानस्य गच्छस्यान्यस्मिन् वा आगाढे कारणे तने यदि कश्चन मोकेनाचामेत्, अथ रात्रौ निष्क्रारणं मोकेनाचामति ततश्चतुर्लघु: द्वाभ्यामपि तपःकालाभ्यां लघु। रत्तिं दवे विलहुगो' त्ति-पाठान्तरम्, तत्ररात्री द्रवं पानकमाचमनार्थ यदि परिवासयति ततश्चतुर्लधु,संवयपनकसम्मूर्छनादयश्चानेकविधा दोषाः / आह च बृहद्भाष्यकृत- रतिंदवपरिवासे, लहुगा दोसा हवंतऽणेगविहा' इति द्वितीयपदे आगाढेकारणे यतनया रात्रावपि मोकेनाचामेत्, द्रवं वा परिवासयेत्। तत्राध्वनि द्वितीयपदं व्याचष्टेनिच्छुभई सत्थाओ, भत्तं वारेइ तक्करदुर्ग वा। परमुहवंचनलब्भइ, सा विय उचिट्ठविज्जाउ // 302 / / यद्यध्वनि प्रतिपन्नं गच्छं प्रत्यनीकः सार्थवाहादिः सार्थान्निष्काशयति, भक्तं वा वारयति / यद्वा तस्करद्विकम्-उपधिशरीरस्तेनद्वयमुपद्रोतुमिच्छति। तत्र कस्यापि साधोराभि चारिका विद्या समस्ति, यया परिजापितया स आवय॑ते / स च साधुस्तदानीं संज्ञालेपकृतः, पुनः प्राशुकं द्रवं तत्र न लभ्यते, साऽपि चोच्छिष्टविद्या ततो मोकेनाचम्य तां परिजपेत्। अथाऽऽगाढपदं व्याख्यातिअत्तुकडे व दुक्खे, अप्पा वा वेयणा अवेआय। तत्थ वि सो चेव गमो, उचिट्ठगमंतविज्जा वा // 303 / / अत्युत्कटं वा शूलादकं दुःखं कस्याप्युत्पन्नमल्या वा वेदना सर्पदशनादिरूपा संजाता या शीघ्रमायुः क्षयेत्,ततस्तत्रापि स एव गमो मन्तव्यः, प्राशुकद्रवाभावे मोकेनाचामेदित्यर्थः। तत्र उच्छिष्ट्र मन्त्र विद्यां | वा परिजप्य तं साधुमाशुशीघ्रं प्रगुणं कुर्यात्। अत्र यतनामाहमत्तगें मोयायमणं,अभिगय आइण्ण एस निसि कप्पो। संफासुड्डाहादिय,मोयगमत्ते भवे दोसा॥३०॥ कायिकामात्रके मोकं गृहित्वा तेनाचमनं कर्तव्यम्, अभिगतस्यगीतार्थस्याचीर्णमेतत्; एष च निशाकल्प उच्यते। पानकाभावेन रात्रावेव प्रायः क्रियमाणत्वात्। अथ मोकं विना स्वपक्षसागारिकान् गृह्णन्ति ततः संस्पर्शाड्डाहादयो दोषाः, एवं रात्रौ मोकेनाचमनीयं,न पुनस्तदर्थं द्रवं स्थापनीयम्। द्वितीयपदे स्थापयेदपि कथमित्याह--- पिट्ट को चिय सेहे, जइ सरई मा व हुन्ज से सन्ना। जयणाएँ ठवें ति दवं, दोसाय भवे निरोहम्मि||३०|| यदि कोऽपि शैक्षः पिट्ट सरति, अतीव व्युत्सर्जनं करोति इत्यर्थः। स चाद्यापि मोकाचमनेनाभावित इति कृत्वा तदर्थ यतनया द्रवं स्थापयन्ति / सामान्यतो वा 'से' तस्य शैक्षस्य रजन्यां न कस्माद् व्युत्सर्जनं भवेदिति कृत्वा द्रवं स्थापयन्ति / अथ न स्थाप्यते ततः-स रात्रौ संज्ञासंभवे पानकाभावे निरोधं कुर्यात्: निरोधे च परितापमरणादयो दोषा भवेयुः। एवं तावदाचमने भणितम्। अथापि च तान्दोषानाहमोयं तु अन्नमन्नस्स, आयमणे चउगुरुंच आणाई। मिच्छत्ते उड्डाहो, विराहणादेविदिहति॥३०६|| अन्योन्यस्य मोकं यद्यापिवति तदा चतुर्गुरु, आज्ञादयश्च दोषाः, मिथ्यात्वं च सागारिकादिस्तदवलोक्य गच्छेत्, उड्डाहो वा भवेत्, विराधना च संयमस्यात्मनो वा भवति। तत्र च देवीदृष्टान्तः। तमेवाऽऽहदीहे ओसहरचित्तं, मोयं देवी पञ्जिओ राया। आसाय पुच्छ कहणं, पडिसेवा मुच्छिओ गलितं // 307 / / अह रन्ने तो रते, सुक्करगहणं तु पुच्छणा वेजे। जइ सुकमत्थि जीवइ, खीरेण य भच्छिओ ण मओ॥३०८|| एगोराया महाविसेण अहिणाखइओ, विजेण भणियंजइपरंमोयं आयइ तो न मरई, तओ देवीए तेण ओसहेहिं वासेऊण दिन्ना तेण थोवावसेसं आसाइयं। तओ पउणेपुच्छइ-किं ओसह? तेहिं कहिओ, सोराया तेण वसीकओ, दिया रत्तिं च पडिसेविउमारद्धो। देवीए नायं, मओ होइ, त्ति, सक्कं कप्पासेण साविय अवमाणे सीसओ होजाउ मरिउमारद्धो। विजेण भणियं-जइ एयस्स चेव सुक्कं अस्थि तो जीवइ, तीए भणियं-अत्थि। खीरेण समं कडेउं दिन्नं पउणो जाओ "अक्षरगमनिकादीर्घेणाहिना भक्षितो राजा, देव्याः सबन्धि मोकेनौषध भावितं पायितः / तत्र आस्वादे जाते पृच्छा कृता, ततः कथनं, ततो दिवा रात्रौ च प्रतिसेवां मूर्छितः करोति, प्रभूतं च शुक्र गलितम् / अथानन्तरं राज्ञि मरणाय त्वरमाणे देव्या शुक्रग्रहणं, वैद्यस्य च पृच्छा, यदिशुक्रमस्ति ततो जीवति। एवं कथिते क्षीरेण समं तदेव शुक्रं पायितस्ततो न मृतः / एवमेव मो
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________________ मोय 452 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मोयणवंदण केन पीतेन साधुरपि वशीक्रियेत, वशीकृतश्चात्र भाषेत, प्रतिगमनादीनि शानातः परमन्यदस्तीत्यर्थः / अतो लघु शीघ्रं नयता किमर्थमित्थं वा कुर्यात्। तस्मान्न पातव्यम् / कारणे पुनराचमनमापानं वा कुर्यात्। कथयति? इत्याह-मा सागारिको 'ममापि एतदौषधं प्रयच्छत' इत्येवं तथा चाऽऽह मार्गयेत् / यदा तु नास्त्यतः परमिति प्रतिषेधः कृतस्तदा व्यवच्छेदः सुत्तेणेवऽववाओ,आयमइ पियेज्ज वावि आगाढे। तो भवतीति न भूयो मार्गयति इत्यर्थः। आयमणं आमयऽणा-मए य पियणं तु रोगम्मि॥३०६।। नविते कहिंति अमुको,खइओ ण वितावि एत अमुईए। सूत्रेणैवापवादो दर्शाते-आगाढे रोगातङ्के आचामेद्, पि वेद वेति यदुक्तं घेत्तुंणयणं खिप्पं, ते वि य वसहिं सयमुर्वेति // 31 // सूत्रेतत्राचमनं निर्लेपनमामये-रोगे, अनामये च निशाकल्पं भवति; पानं | ते साधवो न कथयन्ति यथा अमुकः साधुरहिना खादितः, त तु रोग एव संभवति नान्यदा। अप्यार्यिका न कथयन्ति यथैतन्मोकममुकस्याः सत्कमिति: गृहीत्वाच तत्रायं विधिः क्षिप्रं नयनं कर्तव्यं पूर्वोक्तेन च विधिना ते स्वकाम्-आत्मीयां वसतिमुदीहरयणादिगमणं, सामारियपुच्छिए य अइगमणं। पयान्ति। रत्तिं सागारियजुयाणं, कप्पइ गमणं जहिं च भयं // 310 / / आह–अमुकः साधुःदष्टोऽमुकस्या या मोकमिदमिति दीर्पण एकस्याऽपि साधो रदनेन क्षणे कृते स्वपक्षमेकाभावे संयति कथ्यते ततः को दोषः? इत्याहप्रतिश्रये गमनम्, ततस्तासां सागारिके पृष्ट सति अतिगमनम्- प्रवेशः जायति सिणे हो एवं, मिण्णरहस्सत्तया यवीसंभो। कर्तव्यः / अथ संयत्याः सर्पदशनं जातं ततस्तासां सागारिकयुक्तानां तम्हा न कहेयव्वं, को व गुणो होइ कहिएणं // 31 / / साधुवसतौ गमनं कल्पते / तत्र च भयं तदा दीपको ग्रहीतव्यः इति एवं कथ्यमाने तया स्नेहो जायते, भिन्नरहस्यता च भवति। रहस्ये वाक्यशेषः, इति / एष संग्रहगाथा-समासार्थः। भिन्ने विश्रम्भो भवति / यत एते दोषास्तस्मान्न कथयित-व्यम्। को वा साम्प्रतमेनामेव विवृणोति गुणस्तेन कथितेन भवति न कोऽपीत्यर्थः यदा सयतिर्दीर्घजातीयेन दष्टो निहामुत्ता उववा-सिया य योसिहमत्तगा वावि। भवति तदाऽयं विधिःसागारियाइसहिया, सभए दीवेण य ससदा // 311 / / सागारिय सहियाँ नियमा, दीवगहत्था वएज जइनिलयं / अहिना भक्षितःसाधुःस्वपक्ष एव साधूनां मोकं पाय्यते, अथ तेषां सागारियं तु बोहे, सो विजई स एव य विही उ॥३१६।। नाऽस्ति मोकम, कुत इत्याह-नियमाहारं तदिवसं भुक्ता उपवासिका आर्यिका नियमात्सागारिकसहिताः शय्यातरसहायाः सभये वादीपकवा ततो नास्ति मोकम् / अथवा व्युत्सृष्टमात्रकास्ते तत्क्षण एव मोकं हस्ता यतीनां निलयं व्रजेयुः। स च संयतिसागारिक इतरसंयतसागारिक व्युत्सृष्टमपरं च नास्तीति भावः / ततो निर्ग्रन्थीनां प्रतिश्रये गन्तव्यम्। बोधयति, सोऽपि प्रतिबुद्धः साधून् बोधयति / अत्रापि स एव विधियदि निर्भयं ततएवमेवगम्यते। अथ सभयं ततः सागारिकादिना केनचित् र्मोकदाने द्रष्टव्यः / बृ०५उ०। द्वितीयेन दीपकेन च सहिताः सशब्दा गच्छन्ति / ततः संयतीवसतिं मोयग-पुं०(मोचक) मोचयत्यन्यानपीति मोचकः / ध०२ अधिol प्रविशन्तो यदि नैषेधिकां कुर्वन्ति ततश्चतुर्गुरु। चतुर्गतिविपाकचित्रकर्मबन्धादुच्छोटके, तीर्थकरे, ला "मोयगाणं तथा तिण्णाणं तारयाणं," रा० जी० स० सेवकानां मोचके, कल्प०१ तुसिणीए चउगुरुगा, मिच्छत्ते सारियस्स आसंका। अधि०२ क्षण। पडिबुद्धबोहियासुय,सागारियकज्जदीवणया॥३१२|| मोदक-पुं०। लड्डुके, प्रश्र०५ संव० द्वार। नि०चूला बृका ('अकप्पिय' तूष्णीका अपि यदि प्रविशन्ति तदा चतुर्गुरु, मिथ्यात्वं वा कश्चित् | शब्दे प्रथमभागे 116 पृष्ठे संसक्तत्वमुक्तम्) अत्रमोदकदृष्टान्तं पूर्वसूरयो तूष्णीभावेन प्रविशतो दृष्ट्वा गच्छेत्। सागारिकस्य वाशङ्का भवति। किमत्र व्यावर्णयन्ति-यथा वातापहारी द्रव्य-निचयनिष्पन्नो मोदकः प्रकृत्या कारणं यदेवममी अस्यां वेलायामागता इति स्तेना अमी इति वा मन्य वातमपहरति; पित्तापहद्रव्यनिर्वृत्तः पित्तं, श्लेष्मापहद्रव्यसंजनितःमानो ग्रहणाकर्षणादिकं कुर्यात्, आहन्याद् वा / ततस्तूष्णीकैरपि न श्लेष्माणमित्यादि। स्थित्या तु स एव कश्चिद्दिनमेकमवतिष्ठते, अपरस्तुप्रवेष्टव्यं किन्तु-प्रथमं सागारिक उत्थापनीयः ततस्तेन प्रतिबुद्धेनो, दिनद्वयम्,अन्यस्तु दिवस-त्रयं यावन्मासादिकमपि कालं कश्चिदवत्थितेन बोधितासु संयतीषु सागारिकस्य कार्यदीपना कर्तव्या / एकः तिष्ठते, ततः परं-विनश्यति। स एवानुभावेन रसापर्यायेण स्निग्धमधुरसाधुरहिना दष्ट इह चौषधं स्थापित-मस्ति तदर्थं वयमागताः। त्वादिलक्षणेन कश्चिदेकगुणानुभावः,परस्तुद्विगुणानुभावः, अन्यस्तुततः प्रवर्तिनी भणति त्रिगुणानुभाव इत्यादि। प्रदेशाः कणिक्कादिद्रव्यप्रमाणरूपास्तैः प्रदेशैः स मोयं ति देह गणिणी, थोवं चिय ओसह लहुँ णेव। एव कश्चिदेकप्रसृतिप्रमाणः, अपरस्तु प्रसृतिद्वयमानः,अन्यस्तु पुन:मा मग्गेज्ज सॉगारो, पडिसेहे वावि वुच्छेओ // 313|| प्रसृतित्रयप्रमाण इत्यादि। कर्म०५ कर्म०। अहिदष्टस्यौषधं मोकमिति प्रयच्छत। ततो गणिनी-प्रवर्तिनी यतनया | मोयण-न०(मोचन) पृथग्भावे, प्रव०२द्वार ध० मोकं गृहीत्वा साधूनां ददाति, भणति च स्तोकमेवेदमौषधमत्र दैवव- | मोयणवंदण-न० (मोचनवंदन) षड्वंशे वन्दनकदोषे, 'लोइय
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________________ मोयणवंदण 453 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मोयपडिमा कराउ मुक्का, न मुचिमो वन्दणकरस्स," आ० चू०३अ०। आव०) करमिव-राजदेयभागमिव मन्यते, ददद् वन्दनकमार्हतः कर इति गृहीतव्रताश्च वयं लौकिककरान्मुक्तास्तावन्न मुच्यामहे तु वन्दनकरस्याहतस्येति मोचनवन्दनकमिति। प्रव०२ द्वार। मोयपडिमा-स्त्री०(मोकप्रतिमा) प्रश्रवणप्रतिमायाम, स्था० 4 ठा०१ उ०ा नि०चू०। सा च-क्षुद्रा, महती चेति द्विविधा / व्य०। दोपडिमाओ पण्णत्ताओ। तं जहा-खुड्डिया चेव मोयपडिमा १.महल्लिया चेव मोयपडिमा राखुड्डियाणं मोयपडिमं पडिवण्णस्स अणगारस्स कप्पति से पढमणिदाहकालसमयंसिवा, चरिमणिदाहकालसमयंसि वा बहिया ठाइयव्वा गामस्स वा नगरस्स वा जाव (बृहत्कल्प-१उद्दे०६ सूत्रात्-खेडस्स वा कव्वडस्स वा मडंबस्स वा पट्टणस्स वा आगरस्स वा दोणमुहस्स वा निगमस्स वा) रायहाणीएवा वणंसि वा वणदुग्गंसि वा पव्वयंसि वा पव्वयदुग्गंसि वा भोचा आरुभइ चोदसमेणं पारेइ, अभोचा आरुभइ, सोलसमेणं पारेइ, जाए जाए मोए आ (पा) ईयव्वे दिया आगच्छेह / आईयव्वे रायं आगच्छइ, णो आईयव्वे य सपाणे मत्ते आगच्छह णो आईयव्वे अप्पाणे मत्ते आगच्छइ, आईयटवे एवं सवीए ससणिद्ध ससरक्खे मत्ते आगच्छइ, णो आईयव्वे असरक्खे मत्ते आगच्छइ आईयव्वे / ताए जाए जाए मोए आईयव्वे, तं जहा-अप्पे वा बहुए वा एवं खलु एसाखुडिया मोयपडिमा अहासुत्तंजाव अणुपालिया भवइ / // 37 // महल्लियाणं मोयपडिमंपडिवण्णस्स अणगारस्स कप्पति से पढमसरयकालंसि०जाव पव्वयविदुग्गंसि वा भोचा आरुभइ सोलसमेणं पारेइ, अमोचा आरुभइ अट्ठारसमेणं पारेइ / जाए जाए मोए आईयव्वे तह चेव आणाए अणुपालिया भवइ // 38 // द्वे प्रतिमे प्रज्ञप्ते, तद्यथा-क्षुल्लिका च मोकप्रतिमा 1! महती च मोकप्रतिमा 2 / मोकं कायिकी। तदप्युत्सर्गप्रधाना प्रतिमा मोकप्रतिमा। तत्र क्षुल्लिकाणामिति प्राग्वत् / मोकप्रतिमा प्रतिपन्न-स्याऽनगारस्य कल्पते (से) तस्य प्रथमनिदाधकालसमये वा बहिमिंस्यवा यावत्करणात् नगरादिपरिग्रहः / राजधान्यां वा वने वा, एकजातीयद्रमसंझातःवन, विदुर्गे वा-नानाजातीयद्रुमस-घाते. पर्वते प्रतीते, पर्वतविदुर्गेअनेकपर्वतसङ्घातरूपे भुक्त्वा यदि प्रतिमामारोहति-प्रतिपद्यते, तदा चक्षुर्दशनेन भक्तेन पारयति-समापयति / अथ अभुक्त्वा आरोहति तदा षोडशकेन भक्तेन पारयति, तेन च जात जातं मोक-कायिकी (आईयव्ये) पातव्यम्, आगमने च दिवा आगच्छति / एवं महत्या अपि प्रतिमायाः सूत्रं वाच्यम्। विशेषोऽपि पाठसिद्ध एव। संम्प्रति भाष्यप्रपञ्चः तत्र मोकप्रतिमाशब्दार्थमाहसव्वातो पडिमातो, साधू मोयंति पावकम्मेहिं। एएण मोयपडिमा, अहिगारों इंह तु मोएणं // 88|| मोचयति पापकर्मभ्यः साधुमिति मोका उदकादित्वादन्यदपि कुर्वन्ति, सो चासौ प्रतिमा च मोकप्रतिमा। एतेनान्वर्थेन सर्वा अपि प्रतिमाः साधु पापकर्मभ्यो मोचयन्तीति कृत्वा मोकप्रतिमाः प्राप्नुवन्ति, ततो विशेषप्रतिपादनार्थमिहाधिकारः-- प्रयोजनं मोकेन, मोकापरित्यागप्रधाना प्रतिमा मोकप्रतिमेति। (व्य)। (अत्रत्यविषमपदानांव्याख्या 'वण' शब्दे) सम्प्रति येन विधिना बहिर्निर्गच्छति तं विधिमाहनिसिजं च चोलपट्ट-कप्पं घेत्तूण मत्तगं चेव / एगंते पडिवजति, काऊण दिसाण वाऽऽलोयं // 10 // निषद्यां सोऽत्तरा चोलपट्टकल्पं मात्रकं च-कायिकीमात्रकं गृहीत्वा ग्रामादेर्बहिर्विनिर्गच्छति / विनिर्गत्यैकान्ते प्रतिमा प्रतिपद्यते / तत्र कायिकीसमागमे तां मात्रके व्युत्सृज्य नाऽपाते-असंलोके दिशा (शं)वाऽऽलोकं कृत्वा आपिवति, यद्यपि सः ज्ञानातिशय्यतिशयज्ञानेनैव जानाति-सागारिकोऽस्ति नवेति तथापि सामाचारी पालिता भवत्विति कृत्वा दिशालोकं कृत्वा व्युत्सृजत्यापिवति वा। सम्प्रति कल्पादिग्रहणे प्रयोजनमाहपाउणइ तं पवाए, तत्थ निरोहेण जिज्जए दोसा। सिण्हाइपरित्ताणं, च कुणति अबुण्हवाते वा ||1|| तं कल्पं प्रतिवाते प्रावृणोति, तत्र च प्रावरणे कृते वातनिरोधेन यः प्रवाते वा तत्सम्पर्केणापादितो दोषः स जीर्यते / यदि वा-स कल्पः 'सिण्हादिपरित्ताणं' लक्ष्णादि-सचित्तरजःपरित्राणं करोति / अथवाप्रत्युष्णे वाते वाति स प्रावियते मोकमापिवेदित्युक्तम्। तत्र मोकस्वरूपमाहसाभावियं च मोयं,जाणइ जं वाऽवि होइ विवरीयं / पाणवीय ससणिद्धं, ससरक्खाधिराय न पिएज्जा||२|| स प्रतिमाप्रतिपन्नो यन्मोकं स्वाभाविकं, यच्च भवति विपरीतं तत्सर्वं जानाति / तत्र स्वाभाविकमापिबति / इतरविपरीतं प्राण-संसक्तम्बीजसन्मित्रं सस्निग्धं सरजस्काधिराजकलितं न पिबति। तत्र प्राणसंसक्तं कथयतिकिमिकुडे सिया पाणा, ते य उण्हाभिताविया। मोएण सह मेज्जण्हु, निसिरे ते उछायॉए|३|| कृमिसंकुलं कोष्ठ म्-उदरं तत्र कृमिकोष्ठ स्युः प्राणिनः कृमिरूपास्ते चोष्णेनाभितापिताः सन्तो मोकेन कायिक्या सार्धमागच्छेयुस्ततस्तान् छायायां निसृजेत्। बीजादिप्रतिपादनार्थमाहबीयं तु पोग्गला सुक्का, ससणिद्धातु चिक्कणा। पडंति सिथिले देहे, खमणुण्हामिताविया ||6|| बीजं नाम-शौक्राः पुद्गलास्ते च द्विधा-चिक्कणाः, अचिकणाश्च / तत्राचिक्कणा बीजग्रहणेन गृहीताः, चिक्कणाः स
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________________ मोयपडिमा 154 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मोरंड स्निग्धा उच्यन्ते। ते उभयेऽपि शिथिले देहे क्षपणेनोष्णेन वाऽभितापिताः पूर्वव्याख्यानुसारेणेयं गाथा स्वयं भावनीया, अधिकार्थाभावात् / सन्तः पतन्ति / (व्य०६ उ०) (प्रमेहकणिका 'पमेहकणिया' शब्दे तदनन्तरमन्यान् मधुरकेण उल्लणेण सह उपलक्षणमेतत् अन्यैर्वा पञ्चमभागे 501 पृष्ठे गता) यूषप्रकारैः सह भक्तं भुङ्क्ते, ततः परमन्यान् सप्तसप्तकान् यानि तस्य संप्रति द्रव्यादितो मार्गणामाह-- व्याधेरविरुद्धानि तैर्दध्यादिभिः सह भावयित्वा भुङ्क्ते / तदनन्तरं दवे खेत्ते काले, भावम्मिय होइसा चउविगप्पा। सर्वप्रचारा भवति। दवे उ होइ मोयं,खेत्ते गामाइयाण बहिं ||18|| एतदेवाऽऽह महुरेणं सत्तन्ने, भाविता उल्लणादिणा। काले दिया व रातो, भावे साभावियं व इयरं वा। दहिगादीण भावित्ता, ताहे ण सत्तसत्तए।।१०४।। सिद्धाए पडिमाए, कम्मविमुक्को हवइ सिद्धो Ill अत्रादिशब्दादन्येषां यूषप्रकाराणा परिग्रहः / व्याख्यातप्रायम्। देवो महड्डितो वाऽवि, रोगातोऽहवाँ मुचति। साम्प्रतमुपसंहारमाहजाती कणगवण्णो उ, आगते य इमो विही // 10 // एवमेसा उखुड्डिया, पडिमा होइ समाणिया। सा क्षुल्लिका मोकप्रतिमा चतुर्विकल्पा-चतुराश्रिता भवति, तद्यथा भोचाऽऽरुहंते चोडसेण, अभोचा सोलसेण तु / / 10 / / द्रव्ये, क्षेत्रे, काले, भावे च। तत्र-द्रव्ये भवति। मोकमापातव्यम्, क्षेत्रे एवमेषा क्षुल्लिका मोकप्रतिमा भवति / सा च भुक्त्वा आरोहताग्रामादीनां बहिः, काले-दिवा रात्रौ वा, भावे-तन्मोकं स्वाभाविकम्; प्रतिपद्यमानेन चतुर्दशकेन समानीता-समाप्ति नीता भवति। अभु-क्त्वा इतर वा। तत्रस्वाभाविकमापिवति, इतरद् त्यजति। अस्यांच प्रतिमायां प्रतिपद्यमानेन-षोडशकेन / आरुहन्ते इत्यत्र सप्तमी तृतीयार्थे प्रतिसिद्धायां कश्चित्कालं कुर्वन् कर्मविमुक्त सिद्धो भवति / यदि वा-देवो पत्तव्या। महर्द्धिकः, अथवा–काले-कारणाभावे रोगाद् विमुच्यते।शरीरेण कनक संप्रति महतीं मोकप्रतिमा व्याख्यातुमाहवर्णो जायते। पालितायां प्रतिमायामुपाश्रयमागतस्यायं वक्ष्यमाणो विधिः / एमेव महल्ली विउ,अट्ठारसमेण नवरि निहाति। तमेवाऽऽह परिहारों अट्ठ दिवसा, नहु रोगि वलिस्स वा एसा / / 103 // उण्होदगे य थोवे, तिभागमद्धे तिभागथोवे य। एवमेव-अनेनैव प्रकारेण महत्यपि मोकप्रतिमा द्रष्टव्या / नवरं सा महुरमभिन्ना महुरग, एकेकं सत्त दिवसाई॥१०१।। अष्टादशकेन निष्ठां याति, परिहारस्तपोऽष्टौ दिवसान्, नचस रोगी भवति उष्णोदकादिकमधिकृतगाथोपन्यस्तमुक्तक्रमेण एकैकं सप्त दिवसान् प्रतिमाप्रभावात्। यदि वा-बलिन एषा प्रतिमा भवति, नेतरस्य। कुर्यादिति गाथापदयोजना / भावना त्वियम्-सप्त दिवसानुष्णोदकेन पडिवत्ती पुण तासिं, चरमनिदाहे व पढमसरते वा॥ ओदनं भुङ्क्ते, चशब्दाद्-द्वितीयान् सप्त दिवसान् जूषमण्डेन पाययेत् संघत्तणधितिजुत्तो, फासुयती दो वि एयातो॥१०७।। (जापयेत्) प्रतिपत्तिः पुनरेतयोः प्रतिमयोश्चरमनिदाघेवा प्रथमशरदिवा। एते चद्वे एतदेवाऽऽह अपि प्रतिमे स्पर्शयति आद्यं संहननं च योऽन्यतमसंहनन-युक्तो धृत्याच ओदणं उसिणोदेणं, दिणे सत्त तु मुंजिउं। वज्रकुड्यसमानः / व्य०६उ०) जूसमंडेण वा अने, दिणे जावेइ सत्तओ // 102 // मोयमही-स्त्री०(मोकमही) प्रश्रवणभूमौ, व्य०६ उ०। पाठसिद्धम् / 'थोव' त्ति अन्यान् तृतीयान् सप्त दिवसान् त्रिभागे | मोया-स्त्री०(मोचा) कदलीवृक्षे, ल०प्र०) उष्णोदके स्तोकं मधुरमोल्लणं मिश्रयित्वा तेन सह भुङ्क्ते, 'तिभागे' मोयाफल-न०(मोचाफल) कदलीवृक्षफले, ल०प्र०) त्ति तदनन्तरमन्यान् सात दिवसान् मधुरस्योल्लणस्य त्रिभाग द्वौ | मोयावइत्ता-अव्य०(मोचयित्वा) प्रव्रज्याभेदे, यथैकेन साधुना तैलार्थमार्गी उष्णोदकस्य मीलयित्वा तेन सह भुङ्क्ते, 'अद्धे' इति-ततः / त्वादासन्नप्राप्तभगिनीवदिति। स्था०४ ठा०४ उ०। परमन्यान् सप्त दिवसानर्द्धमधुरोल्लणस्य मिश्रयित्वा तेन सह कर भुङ् | मोयाविय-त्रि०(मोचित) छोटिते, आ०म०१अ०॥ ते, तिभाग' तितदनन्तरमन्यान् सप्त दिवसान् त्रिभागमुष्णोदकस्यद्वौ मोर-पुं०(मोर) केकिनि, अनु० स्था०। रा०ा जं०। मोरो मउरो इति तु भागौ मधुरोल्लणस्य मिश्रयित्वा तेन सह भुङ्क्ते 'थोव य' त्ति ततः मोर-मयूर-शब्दाभ्यां सिद्धम्। प्रा०१पाद। श्चपचे, दे०ना०६ वर्ग 140 परमन्यान् सप्त दिवसान मधुरोल्लणे स्तोकमुष्णोदकं प्रक्षिप्य तेन सह गाथा। मयूरे, "मोरो सिही बरहिणो" पाइ० ना०४२ गाथा। भुङ्क्ते / एवं पञ्च सप्तकान् मधुरकभिन्नान् स्तोकादिकान् मधुरक मयूर-पुं० बर्हिणि, राण सहितान् भुक्ते। मोरउल्ला-अव्य० मुधाशब्दार्थे , मोरउल्ला मुधा / / 8 / 2 / 214 / / मोरएतदेवाऽऽह उल्ला इति मुधाशब्दार्थे प्रयोक्तव्यम्। मोरउला मुधेत्यर्थः। प्रा०२ पाद। मधुरोल्लणेण थोवेण, मीसे तइयसत्तए। मोरंगचूलिया-स्त्री०(मयूराङ्कचूलिका) आभरणविशेषे, व्य०६उ०| तिभागव्यजुयं चेव, तिभागो चेव मिस्सियं / / 103 / / मोरंड-पुं०मोरण्ड(क) तिलादिमोदके, बृ०१उ०।
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________________ मोरग 455 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मोसा मोरग-न०(मयूरक) मयूरपिच्छनिष्पन्ने संस्तारकादौ, आचा०२ श्रु०१चू० मृषावादस्य चतुर्विधत्वमाह२अ० 310 / कुण्डले, बृ०४ उ० मयूरकाभिधाने सन्निवेशे, यत्र चउविहे मोसे पण्णत्ते, तं जहा-कायअणुजुयया, मासअणुकुण्डपुरान्निर्गत्य महावीरस्वामी गतः। स्था० १०ठा० हुयया, भावअणुनुयया, विसंवादणाजोगे। मोरग्गीवा-स्त्री०(मयूरग्रीवा) मयूरकण्ठे,रा० प्रज्ञा०। मृषा-असत्यम्, नवरम्-ऋजुकस्य-अमायिनो भावः कर्म वा मोरत्तअ-(देशी) श्वपचे, चाण्डाले इत्यन्ये। देवना०६ वर्ग 140 गाथा। ऋजुकता कायस्य ऋजुकता कायर्जुकता, न ऋजुकता अनृजुकता मोरपिच्छ-न०(मयूरापिच्छ) मयूरबहे,"मोरपिच्छकयमुद्धयं" कल्प०१ एवमितरे अपि, नवरं भावो-मन इति / कायर्जुकतादयश्च शरीरअधि०३ क्षण। वाङ्मनसां यथावस्थितार्थप्रत्यायनार्थाः प्रवृत्तयः,तथा अनाभोगादिना मोरसिहा-स्त्री०(मयूरशिखा) महौषधिभेदे, ती०६ कल्प। गवादिकमश्वादिकं यद्वदति कस्मैचित् किञ्चिदभ्युपगम्य वा यन्न करोति मोराग-पुं०(मोराक) स्वनामख्याते सन्निवेशे, यत्र विहरन्तं वीर-स्वामिनं सा विसंवादना। स्था०४ ठा०१3०। तापसाश्रमे सिद्धार्थमित्रकुलपतिमिलितः / कल्प०१ अधि०६ क्षण / दसविहे मोसे पण्णत्ते, तं जहा-"कोहे मागे माया, लोभे पिजे आ०का आ०म०। आ०चूल। तहेवदोसे या हास भये अक्खाइय,उवघाए निस्सएदसमे॥१॥" मोरिय-पुं०(मौर्य) मगधजनपदेषु स्वनामख्याते सन्निवेशे, यत्र मौर्यो (दसेत्यादि) 'मोसे' त्ति / प्राकृतत्वात् मृषा-अनृतमित्यर्थः / 'क्रोहे' मण्डिकपुत्रश्च जज्ञे, आ०चू०१ अ० "रायगिहे मोरियवंसप्पसूओ गाहा 'कोहे' त्ति क्रोध निश्रितमिति सम्बन्धात् क्रोधाश्रितं (कोपाश्रित) बलभद्दो नाम राया समणोवासओ" उत्त० ३अ० आ०क०। चन्द्रगुप्ते, मृषेत्यर्थः। तच यथा-क्रोधाभिभूतोऽदा समपि दासमभिधत्त इति। मानेती० 20 कल्प। निश्रितं यथा-मानाध्मातः कश्चित्केन-चिदल्पधनोऽपि पृष्टः सन्नाहमोरियम्गाम-पुं०(मौर्यग्राम) चन्द्रगुप्तग्रामे, आ००१ अ०॥ महाधनोऽहमिति / 'माय' त्ति मायायां निश्रितं यथा-मायाकारप्रभृतमोरियपुत्त-पुं०(मौर्यपुत्र) मण्डिकमातृपुत्रे मौर्यात्मजे वीरजिनस्य सप्तमे यश्चाहुः--नष्टो गोलकः, इति। 'लोभे' ति! लोभे निश्चित्तं वणिकप्रभृतीगणधरे, स०११ सम०। कल्प। आम०। (मौर्यपुत्रगणधर-वक्तव्यता नामन्यथा क्रीतमेवेत्थं क्रीतमित्यादि / 'पिज्ज' त्ति प्रेमणि निःश्रित'देव' शब्दे चतुर्थभागे 2607 पृष्ठे गता) मतिरक्तानां दासोऽहं तवेत्यादि, 'तहेवदोसे य' त्ति द्वेषे निःश्रितं मत्सरिणां थेरे णं मोरियपुत्ते पणसट्ठिवासाई अगारमज्झे वसित्ता मुंडे गुणवत्यपि निर्गुणोऽयमित्यादि / 'हासे' त्ति हासे निश्रितं यथाभवित्ता अगाराओ अणगारियं पवइए। (सू०-६६) कन्दर्पिकाणां कस्मिंश्चित्कस्यचित्सम्बन्धिनि गृहीते पृष्टानां न द्रष्टमौर्यपुत्रो भगवतो महावीरस्य सप्तमो गणधरः तस्य पञ्चषष्ठि-वर्षाणि मित्यादि। भये' त्ति भयनिश्रितं तस्करादिगृहीतानां तथा तथा असमगृहस्थपर्यायः। स०६५ सम०। जसाभिधानम्, 'अक्खाइय' ति आख्यायिकानिश्रितं तत्प्रतिबद्धोऽ-- थेरेणं मोरियपुत्ते पंचाणउइ वासाइंसव्वाउयं पालइत्ता सिद्धे सत्प्रलापः, 'उवघायनिस्सिय' त्ति / उपघाते-प्राणिवधे निश्रितम्बुद्धे० जाव प्पहीणे। (सू०६५) आश्रितं दशमं मृषा, अचौरे चौरोऽयमित्यभ्याख्यानवचनम्, मृषाशब्दतस्य (मौर्यपुत्रस्य) पञ्चनवतिवर्षाणि सर्वायुः / कथम्- गृहस्थ स्त्वव्ययोऽलिङ्गश्चेति। स्था०१० ठा०३उ०। ('मुसावाय' शब्देऽस्मिन्नेव त्वछद्मस्थत्वकेवलित्वेषुक्रमेण पञ्चषष्टिचतुर्दशषोडशानां वर्षाणां भावात्। भागे 320 पृष्ठे वक्तव्यतोक्ता) स०६५ समा मोसमणप्पओग-पुं०(मृषामनःप्रयोग) मनःप्रयोगभेदे, स० 13 सम०। मोरियस-पुं०(मौर्यवंश) चन्द्रगुप्तराजवंशे, ती०२ कल्प। मोसलि-पुं०(मोसलि) स्वनामख्याते ग्रामे, यत्र तोसलिग्रामाद गलो मोरी-स्त्री०(मौरी) परिव्राजकप्रयुक्तसर्वविद्याप्रतिपक्षभूतायां विद्यायाम्, वीरभगवान् विहृतः। आ०म०१अ०। आ०चूना आ०म०१०। विशे मोसली(लि)-स्त्रीला ऊर्ध्वाधस्तिर्यक्कुड्यादिपरामर्श , उत्त०२६ अ०। मोलिकड-त्रि०(मौलिकृत) आबद्धपरिधानकच्छे, स०११ सम०। प्रत्युपेक्षमाणवस्त्रभागेन तिर्यगूर्ध्वमधो वा घट्टने, स्था०६ ठा०३उ०। मोल्ल-न०(मूल्य) ओत् कूष्माण्डी-तूणीर-कूर्पर-स्थूल-ताम्बूल- मोसवत्तिय-न०(मृषाप्रत्ययिक) सद्भूतनिह्नवासद्भूतारोपणे, सूत्र०२ गुडूची-मूल्ये / / 8 / 1 / 124 // अनेनोकारस्य ओत्त्वम्। मोल्लं / प्रा०१ | श्रु०२अ० "अहावरे छ8 किरियाठाणे मोसवत्तिए त्ति'' इत्यादिपाद। अये,आ०म०। उत्ता षष्ठक्रियास्थानप्रतिपादकं सूत्रम् (22) 'मुसादंड' शब्दे अस्मिन्नेव भागे मोस-अव्य०(मृषा) प्राकृतत्वात् मृषा ! अनृते, स्था०५ ठा०१०। गतम्। मृषावादे,स्था०३ ठा०३उ०। असदर्थाभिधाने, आचा०२ श्रु०१ चू०४ | मोसा-अव्य०(मृषा) असत्ये भाषाभेदे,स्था०४ ठा०१ उ०ा प्रव०। प्रज्ञा०| अ०१ उ०। असत्ये, स्था०३ ठा०३ उ०। प्रश्न०। प्रवका उत्त० स०) (मृषा दशधा सा च 'भासा' शब्दे पञ्चमभागे इहापि'मोस' शब्दे उक्ता)
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________________ मोसाणुबंधि 456 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मोह मोसाणुबंधि-न०(मृषानुबन्धिन) मृषा असत्यं तदनुबध्नातीति पिशुनाऽ सभ्याऽसद्भूतादिभिर्वचनभेदैस्तन्मृषानुबन्धिी रौद्रध्यानभेदे, भ०२५ श०७ उ०। पिसुणाऽसब्भासब्भूयभूयघायाइवयणपणिहाणं / मायाविणोऽतिसंधण, परस्स पच्छण्णपावस्स॥१॥" स्था०४ ठा०१ उ०। अलीकवचनेन स धर्मोपघातकुमार्गप्ररूपणनिन्दादि विधत्ते / दर्श०४ तत्त्व। मोसमासाणुगय-त्रि०(मृषाभाषानुगत) असत्यवादान्विते, पञ्चा० ४विवot मोसोवएस-पुं०(मृषोपदेश) असदुपदेशे, आव०६ अ०। परेषाम-- सत्योपदेशे, उत्त०१ अ०। अज्ञातमन्त्रौषधाधुपदेशने, ध०२ अधि०) मोसोवएसया-स्त्री०(मृषोपदेशता) मृषा अलीककथनविषय उपदेशः यस्य स तथा, तद्भावस्तत्ता। मृषोपदेशकता इदमेवं चैवं च ब्रूहि इत्यादिकमसत्याभिधानशिक्षणे, पञ्चा० १विव०। आ० चूल। मोह-पुं०(मयूख) नवा मयूख-लवण-चतुर्गुण-चतुर्थचतुर्दश चतुरि सुकुमार-कुतूहलोदूखलोलूखले।।८।१।१७१।। इत्यादेः स्वरस्य परेण व्यञ्जनेन सहोद्वा। ततः खस्य हः / किरणे, प्रा०१ पाद। मोघ-त्रिवाख-घ-थ-ध-भाम्॥८।१।१८७॥ इतिघस्य हः। प्रा०१ पाद। निष्फले, बृ०४ उ०| "मिच्छा मोहं विहलं, अलियं असचं असब्भूअं" पाइ०ना०५३ गाथा। मोह-पुं०। मोहनं मोहः / वितथग्रहे, विशे० तदोषदर्शने मूढत्वे, ज्ञा०१ श्रु०८ अ01 रागद्वेषरूपे, सूत्र०१ श्रु०४ अ०२ उ०। विपर्यासे, विशेष द्विविधो मोहः-ज्ञान-दर्शनभेदात्। स्था०। मोहे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-णाणमोहे चेव, दसणमोहे चेव। ज्ञानं मोहयति-आच्छादयतीति ज्ञानमोहो-ज्ञानावरणादयः, एवम्'दंसणमोहे चेव' सम्यग्दर्शनमोहोदय इति। स्था०२ ठा० 4 उ०ा "रागो द्वेषश्व मोहश्च, भवमालिन्यहेतवः। एतदुत्कृर्षतो ज्ञेयो, हन्तोत्कर्षोऽस्य तत्त्वतः // 1 // " द्वा०६ द्वा० सदसद्विवेकनाशे, स्था०२ ठा०४उ०। तिमिरोपप्लुतबुद्धिलोचनस्यानिश्चये, दश०१ अ० आत्मनो वैचित्र्यकारणेऽज्ञानत्वे, आतु०। अज्ञाने, उत्त०१६ अ० षो। द्वा०ा आ००। आव०ा अबोधौ, स्था०३ ठा०१ उ०ा चित्तव्याकुलतायाम, सूत्र०१ श्रु०४ अ०१ उ०। मूढतायाम्, पञ्चा०४ विव० प्रश्न०। गृहकर्तव्यताजनितवैचित्र्यात्मके हेया-पादेयविवेकाभावे, उत्त०३ अ०। आ०म० मोहेण गन्मं मरणाइ एइ, एत्थ मोहे पुणो पुणो। (सूत्र-१४२+) (मोहेणेति) मोहःअज्ञानं मोहनीयं वा मिथ्यात्वकषायविषयाभिलाषमयम्, तेन मोहेन मोहितः सन् कर्म बध्नाति, तेन च गर्भमवाप्नोति, ततोऽपि जन्म पुनर्बालकुमारयौ, वनादिवयोविशेषाः, पुनर्विषयकषायादिना कर्मोपादायाऽऽयुषःक्षयान्मरणमवाप्नोति, आदिग्रहणात्पुनगममित्यादि, नरकादियातनास्थानमेतीत्यतोऽभिधीयते 'एत्थ' इत्यादि, १-आधुनिकपुस्तके असत्ये ति पाइ:२-अयं पाठष्टीकायामस्ति। अत्र-अस्मिन्ननन्तरोक्ते मोहे-मोहकार्ये गर्भमरणादिके पौनः पुन्येनाऽनादिकमपर्यन्तं चतुर्गतिक-संसारकान्तारं पर्यटति, नास्मादपैतीति यावत्। कथं पुनः संसारेन बंभ्रम्या? तदुच्यते-मिथ्यात्वकषायविषयाभिलाषाभावात्। असावेव कुतो? विशिष्टज्ञानोत्पत्तेः / सैव कुतो? मोहाभावात् / यद्येवमितरेतराश्रयत्वम्, तथाहि-मोहोऽज्ञानं मोहनीयं वा, तदभावो विशिष्टज्ञानोत्पत्तेः, साऽपि तदभावादिति भणता स्पष्ट--- मेवेतरेतराश्रयत्वमुक्तम् / ) आचा०१ श्रु० ५अ० 1303 (निराकरणं 'संसार' शब्दे वक्ष्यते / “एत्थ मोहे पुणो पुणो 2" अत्र-अस्मिन्निच्छाप्रणीतादिके हृषीकानुकूले मोहे, कर्मरूपे वा मोहे निमग्नाः पुनःपुनस्तत् कुर्वन्ति / आचा० 1 श्रु०४ अ०२उ०। मूर्खायाम, ध०२ अधिकाअथ स्थिरता मोहत्यागाद् भवति, आत्मनः परिणतिचापल्यं मोहोदयात्, मोहोदयश्च निर्धाररूपसम्यगदर्शनस्वरूपरमणचारित्रवारकश्च, क्षयोपशमी चेतनावीर्यादीनां विपर्यासपररमणतप्तत्वादिपरिणमनरूप इति,तेन चापल्यम्, अतोमोहोदयवारणेन स्थिरता भवति, तेन त्यागाष्टकं वितन्यते, नामस्थापनामोहः, सुगमः। द्रव्येण मदिरापानादिना मोहो मूढतापरिणामः, द्रव्याद्-धनस्वजनवियोगात् द्रव्येशरीरपरिग्रहादौ द्रव्यरूपो मोहः, मोहनगीतादिषु गन्धर्वादीनां वाक्येषु, अनुपयुक्तस्य आगमतो नोआगमतो रागवत्। भावतो मोहः अप्रशस्तः, समस्तपापस्थानहेतु-परद्रव्येषु, कुदवेकुगुरुकुधर्मेषु। प्रशस्तो मोक्षमार्गेसम्यग्दर्शनज्ञा-नचारित्रतपोहेतुषुसुदेवगुर्वादिषु।तत्र मोहत्याग उत्सर्जन, भिन्नी-करणम्, अत्र यावान् अप्रशस्तमोहस्तावान् सर्वथा त्याज्य एव अशुद्धत्व निबन्धनत्वात्। प्रशस्तमोहसाधने असाधारणहेतुत्वेन पूर्णतत्वनिष्पत्तेः अर्वाक् क्रियमाणोऽपि अनुपादेयः। श्रद्धया विभावत्वेनैवावधार्यः / यद्यपि-परावृत्तिस्तथापि अशुद्धपरिणतिरतः साध्ये सर्वमोहपरित्यागएव श्रद्धेय आद्यनयचतुष्टये कर्मवर्गणापुद्-गलेषु तद्योगेषु तद्ग्रहणप्रवृत्त्या सङ्कल्पे कर्मपुद्गलेषु बध्यमानेषु सत्तागतेषु चलोदीरितेषु उदयप्राप्तेषु अशुद्धविभावपरिणामरूपमोहहेतुषु मोहत्त्वम्, शब्दादिनयत्रये मोहपरिणतचेतनापरिणामेषु मिथ्यात्वासंयमप्रशस्ताप्रशस्तरूपेषु मोहत्वम; अत आत्मनः अभिनवकर्महेतुः मोहपरिणामः। मोहेनैव जगद् बद्धं मोहमूढा एव भ्रमन्ति संसारे। यतो ज्ञानादिगुणसुखरोधकेषु च तेषु अनन्तवारम् अनन्तजीवैर्भुक्तमुक्तेषु जडेषु अग्राह्येषु पुद्गलेषु मनोज्ञाऽमनोज्ञेषु ग्रहणाऽग्रहणरूपो विकल्पो मोहोद्भवः तेनायं पुद्गलासक्तो मोहपरिणत्या पुद्गलानुभवी स्वरूपानवबोधेन मुग्धः परिभ्रमति / अतो मोहत्यागो हितः। उक्तं च"आया नाणसहावी, दंसणसीलो विसुद्धसुहरूवो। सो संसारे भमई, एसो दोसो खु मोहस्स।।१।। जो उ अमुत्तिअकत्ता, असंगनिम्मलसहावपरिणामी। सो कम्मकक्यबद्धो, दीणो सो मोहवसगत्ते / / 2 / / ही दुक्खं आयभवं, मोहमहऽऽप्पाणमेव धंसेई। जस्सुदये णियभावं, सुद्ध सव्वं पिनो सरई॥३॥"
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________________ मोह 557 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मोह इत्येवंमोहस्य विजृम्भितं मत्या त्याज्य इति कथयतिअहं ममेति मन्त्रोऽयं, मोहस्य जगदान्यकृत्। अयमेव हि नपूर्व प्रतिमन्त्रोऽपि मोहजित् // 1 // अहं ममेति-मोहस्याऽऽत्मा शुद्धपरिणामस्य उपचारतो नृपेतिसंज्ञस्य,अहं; मम; इति-अयं मन्त्रः जगदान्ध्यकृत्-ज्ञानचक्षुरोधकः। अहमिति, स्वस्वभावेनोन्मादः, पर इत्यनेन अहं ममेति परभावकरणे कर्तृतारूपोऽहङ्कारः अहं, सर्वस्वपदार्थतो भिन्नेषु पुद्गलजीवादिषु इदं ममेति परिणामो ममकारः / इत्यनेन 'अहं ममेति' परिणत्या सर्वपरत्वं, स्वतया कृतमा एषोऽशुद्धाध्यवसायो मोहजः मोहोद्योतकश्व, शुद्धज्ञानाजनरहितानां जीवानां आन्ध्यकृत्-स्वरूपावलोकनशक्तिध्वंसकृत्, 'हीति' निश्चितम्। अयमेव नपूर्वः प्रतिमन्त्रो' विपरीतमन्त्रः मोहजित्मोहजये मन्त्रः / तथा च नाहं, एते मे परे भावा ममापि एते न, भ्रान्तिः एषा; साम्प्रतं यथार्थपदार्थज्ञानेनाहं पराधिपोन परभावा मम। उक्तं च "एगो हं नऽत्थि मे कोऽई, नाहमन्नस्स कस्स वि। एवं अदीणमणसो, अप्पाणमणुसासई॥१॥ एगो मे सासओ अप्पा, नाणदंसणसंजुओ। सेसा मे बाहिरा भावा, सव्वे संजोगलक्खणा ||2|| संजोगमूला जीवेण, पत्ता दुक्खपरंपरा। तम्हा संजोगसंबंध, सव्वं तिविहेण वोसिरे।।३।।" इत्येवं विभाव्य द्रव्यकर्मतनुधनस्वजनेषु भिन्नता नीतेषु स्वभावैकत्वेन मोहजयो दृष्टः, अतः अहङ्कारममकारत्याग इष्ट इति // 1 // पुनस्तदेव भावयतिशुद्धात्मद्रव्यमेवाहं, शुद्धज्ञानं गुणो मम / नान्योऽहं न ममान्ये चे-त्यदो मोहास्त्रमुल्यवणम् / / 2 / / शुद्धात्मद्रव्यमिति, शुद्धो निर्मलः सकलपुद्गलाश्लेषरहितो ज्ञानदर्शनचारित्रवीर्याव्याबाधामूर्ताद्यनन्तगुणापर्यायनित्यानित्याद्यनन्तस्व-- भावमयः असंख्यप्रदेशी स्वभावपरिणामी स्वरूपकर्तृत्वभोकृत्वादिधर्मोपेतः, आत्माशुद्धात्मा। तदेव-शुद्धात्मद्रव्यम् एव अहं अनन्तस्याद्वादस्वसत्ताप्राग्भवरसिकः, अनवच्छिन्नानन्दपूर्णः परमात्मा परमज्योतीरूपः, अहं शुद्धं निरावरणं सूर्यचन्द्रादिसहायविकलप्रकाशम्, एकसमये त्रिकालत्रिलोकगतसर्वद्रव्यपर्यायोत्पादव्ययध्रौव्यावबोधकं ज्ञानं ममगुणः, कर्ता ज्ञानस्य, मे कार्यज्ञानं, ज्ञानकरणान्वितो ज्ञानपात्रोज्ञानात् जानन, ज्ञानाधारोऽहम्, ज्ञानमेव मम स्वरूपम्, इत्यवगच्छन् अन्यधर्माधर्माकाशपुद्गलास्ततोऽन्यत् जीवपदार्थसार्थः जीवपुद्गलसंयोगजपरिणामः अन्यः सर्वः, अहं न,मत्तोभिन्ना एव एते पूर्वोक्ता भावा मम द्रव्यादिचतुष्टयेन भिन्नत्वात्। यो हि व्याप्यव्यापकभावाद् भिन्नः स मम न, यः असंख्यप्रदेशे स्वक्षेत्रे अभेदतया स्वपर्यायपरिणामः स मम इति स्वस्वरूपे स्वत्वं, परेपरत्वपरिणामः' 'मोहास्त्रं'-मोहच्छेदकम् अस्त्रम् ईदृग्भेदज्ञानविभक्तेन मोहक्षयः, अतः सर्वपरभावभिन्नत्वं विधेयम्। अत एव निर्ग्रन्थास्त्यजन्ति आस्रवान्, श्रयन्ति गुरुचरणान्, वसन्ति वनेषु, उदासीभवन्ति विपाकेषु, अभ्यस्यन्ति आगमव्यूहम् अनातिपरभावच्छेदाय प्रयत्न उत्तमानाम् // 2 // यो न मुह्यति लग्नेषु, भावेष्वौदयिकादिषु / आकाशमिव पङ्केन, नाऽसौ पापेन लिप्यते // 3 // 'यो न मुह्यति' इति यो जीव तत्त्वविलासी औदयिकादिषु भावेषुशुभाशुभकर्मविपाकेषु आदिशब्दात्-परभावानुगक्षयोपशमे अशुद्धपारिणामिकभावग्रहः, तेषु लग्नेषुआत्मनि स्वक्षेत्रीभूतेषु यो न मुह्याति मोहैकीभावं न प्राप्नोति, भेदज्ञानविवेकेन त्यक्तपरसंयोगः अवश्योदिषेषु यः अव्यापकः स पापेन कर्मणा न लिप्यते। किमिव पङ्केन आकाशमिव। यथा-आकाशस्थपङ्कः आकाशस्य न लेपकृत, तत्र-अपरिणमनात्। एवं शमसंवेगनिर्वेदनिगृहीतपरभावस्य अवश्योदयविपाके भुज्यमानेऽपि अव्यापकत्वाद् नलेपः / स हि-पूर्वकर्मनिर्जरारूपं कार्य करोति, स्वीयपरिणामस्य भिन्नरक्षणेन अकर्तृत्वं तस्य परभावानाम् / उक्तं च अध्यात्मविन्दौ "स्वत्वेन स्वं परमपि, परत्वेन जानन् समस्तान्यद्रव्येभ्यो विरमणभियचिन्मयत्वं प्रपन्नः। स्वात्मन्येवाभिरतिमुपयन् स्वात्मशीली स्वदर्शीत्येवं कर्ता कथमपि भवेत् कर्मणो नैष जीवः // 1 // न कामभोगा सभयं उर्वति, न यावि भोगा विगई उति। जे तप्पओसी अपरिग्गही असो तेसु मोहा विगइं उवेइ / / 2 / / " एवं पद्रव्ये अरमन् आत्मा मुच्यते, अत एव सर्वसङ्गपरिहारः, असङ्गो हि मुच्यतां निमित्तं, मुक्त्याऽस्य गाय॑निमित्तान् धनस्व-जनाङ्गनाभोगभोजनादीन् त्यजति कारणाभावे कार्याभावः, इति भावाश्रयपरिणतिरोधसंयमः तद्रक्षणाय वृद्ध्यर्थ हिताय आश्रवत्यागो मुनीनाम्, भावना च-यैः परभावा अभोग्या अग्राह्याः कृताः ते कथं तत्र रमन्ते? ||3|| पश्यन्नेव परद्रव्य-नाटकं प्रतिपाटकम् / भवचक्रपुरःस्थोऽपि,नामूढः परिखिद्यति॥४॥ 'पश्यन्नेवेति'-स्वरूपाच्युतिस्वधर्मकत्वे अमूढः-तत्त्वज्ञानी, स्वरूपसाधनोद्यतः, प्रतिपाटकम्-एकेन्द्रियविकलेन्द्रियपञ्चेन्द्रियरूपपाटके नरतिर्यग्देवनरकलक्षणे सर्वस्थाने परद्रव्यनाटकं जन्मजरामरणादिरूपं संस्थाननिर्माणवर्णादिभेदविचित्रं, पश्यन् एव न परिखिद्यति-नखेदवान् भवति। जानातिच पुद्गलकर्मवि-पाकजां चित्रतां, न मत्स्वरूपं, भ्रान्तानां भवत्येव, न तत्त्वपूर्णानाम्। कथंभूतः? अमूढ, भवचक्रपुरस्थः अपि, अनादिस्वकृतकर्मपरिणामनृपराजधानीचतुर्गतिरूपभवचक्रक्रोडगतोऽपि, आत्मानं भिन्नं जानन् न खिद्यति, परस्मैपदं तु काव्ये प्रयुक्तत्वात् 'खिद्यति काये जडः" इति पाठदर्शनात् / इत्यनेन कर्मविपाकचित्रतां भुञ्जन्नपि अखिन्नः तिष्ठतिः कर्तृत्वकालं न अरतिःअनादरःतर्हि भोगकाले को द्वेष उदयागतभोगकाले इष्टानिष्टतापरि-णतिरेव अभिनवकर्म-हेतुःअतः अव्यापकतया भवितव्यम्, शुभोदयोऽपि आवरणः, अशुभोदयोऽप्यावरणः, गुणावरणत्वेन तुल्यत्वात् का इष्टानिष्टता? ||4|| विकल्पचषकैरात्मा, पीतमोहासवो ह्ययम्।
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________________ मोह 458 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मोह भवोचतालमुत्ताल-प्रपञ्चमधितिष्ठति // 5 // विकल्पचषकैरिति-विकल्पाश्चित्तकल्लोला एव चषकाः-- मद्यपानपात्राणि तैः, हीति-निश्चितम्, अयं जीवः पीतो मोह एव आसवोमादकरसो येन सः पीतमोहासवः पुरुषो, भवोचतालं-भवः-संसारः स एव उचतालं-मद्यपगोष्ठीक्षेत्र प्रति उच्चतालं पुनः पुनः उचस्वरेण तालदानरूपं प्रपञ्चं विस्तारमधितिष्ठति--प्राप्नोति / इत्यनेन मोही जीवो मदिरामत्तवत् चापल्यवैकल्यं करोति, परं स्वत्वेन, स्वं च परत्वेन; कलयन् आत्मानम् अकायनिष्पादनपटिष्ठं प्रवर्तयन् स्वस्थानभ्रष्टो भ्रमति। अत एव मोहत्यागः श्रेयान्॥५|| निर्मलस्फटिकस्येव, सहज रूपमात्मनः। अध्यस्तोपाधिसम्बन्धो, जडस्तत्र विमुह्यति॥६॥ 'निर्मलस्फटिकस्येवेति, निर्मलस्फटिकस्य वरणनिस्सङ्गस्फटिकस्य इव आत्मनो ज्ञापकद्रव्यस्य सहज-स्वाभाविकं शुद्ध रूपम् अस्ति इत्यनेन वस्तुवृत्त्या आत्मा स्फटिकवत् निर्मल एव-निस्सङ्ग एव।। संग्रहनयेन आत्मा परोपाधिसङ्गीएव नास्ति परमज्ञापकचिदानन्दरूपः अध्यास्तोपाधिसम्बन्धः, प्रामपुद्गलसंसर्गजकर्मोपाधिसम्बन्धः अनेकग्लानम्लानावस्थो जडः वस्तुस्वरूपापरिज्ञानी। तत्र उपाधिभावे मुह्यति, एकत्वं प्राप्नोति, यथा--मूखःश्यामनीलपीतादिपुष्पसंयोगात् स्फटिकाभेदरीत्या नीलपी-तस्वभावं जानाति; तथा वस्तुस्वरूपावबोधविकलो जीवो मिथ्यात्वाऽविरतिकषाययोगनिमिताद् बद्धकेन्द्रियादिनामक-मोदयात् एकेन्द्रियादिभावमापन्नम् एकेन्द्रियादिरूपमेव मन्यते। एकेन्द्रियोऽहं, विकलोऽहं, पञ्चेन्द्रियोऽहं जानाति / परं शुद्धं स्वीयं सचिदानन्दरूपं निर्मलं स्यरूपं नावबोधतीति मूर्खतापरिणतिः तत्त्वज्ञः खानिस्थवजं समलं सावरणं समृदपि रत्नपरीक्षकवत् वज्रत्वेन अवधारयति / एवं ज्ञानावरणाद्यावृतम् अतदाकारं ज्ञान-ज्योतिः प्रकाशविकलमपि आत्मानं पूर्णानन्दं सहजाप्रयासानन्दसंदोहं सर्वज्ञ सर्वतत्त्वस्वरूपाभिन्नमात्मानं सम्यग्ज्ञानबलेन निर्धारयति इति,इत्यनेन आत्मा शुद्ध एव श्रद्धेयः / उपाधिदोषस्तु सन्नपि तादाम्याभावात् संसर्गत्वात् भिन्न एव निर्धार्य इति // 6 // मोहात् जीवः; परवस्तु आत्मत्वेन जानन् आरोपजं सुखं सुखत्वेन अनुभवति, भेदज्ञानी तु आरोपजं सुखं दुःखमेवेति निवारणाय यत् तदुपदिशन्नाहअनारोपसुखं मोह-त्यागादनुभवन्नपि / आरोपप्रियलोकेषु, वक्तुमाश्चर्यवान् भवेत्? ||7|| अनारोपे अनारोपज-सहजं सुखं स्वगुणज्ञाननिर्भारप्राग-भावरूपं सुखं मोहत्यागात्-- मोहक्षयोपशमात् अनुभवन्नपि-भुजन्नपि, आरोपोमिथ्योपचारः प्रियो येषां ते आरोपप्रियाः ते च ते लोकाश्च आरोपप्रियलोकाः तेषु आरोपसुखं वक्तुम् आश्चर्यवान् भवेत्? अत्र काकूक्तिः अपि तु न भवेत,येन आरोपजं सुखं प्राप्तं स आरोपसुखे आश्चर्यवानचमत्कारवान् भवति / अथवा-अनारोपसुखानुभवी आरोपप्रियलोकेषु अग्रे आरोपजं सुखं सुखम् इति वक्तुमपि आश्चर्यवान् भवति, वक्तुं न . समर्थो भवति सुखाभावात् सुखकारणाभावात्। तच वस्तुवृत्त्या दुःखरूपे सुखम् इति लोकार्थम् उक्तेऽपि स्वयम् आश्चर्यवान् भवेत्। किमुक्तम्?इदं मया? नेदं सुखम् अतः परसंभवे सुखे सुखाभासो निवारणीयो मोहमूलत्वात्, पौगलिके सुखे सुखभ्रान्तिरेव आभ्यन्तरमिथ्यात्वादिति // 7 // यश्चिद्दर्पणविन्यस्त-समस्ताचारचारधीः। क्व नाम स्वपरद्रव्ये-ऽनुपयोगिनि मुह्यति ? ||8|| (यश्चिद्दर्पण इति) यः पुरुषः आगमानुगताशयः चिद्-ज्ञानं सर्वपदार्थपरिच्छेदकं तदेव दर्पणम्-आदर्शः तेन विन्यस्ताः-स्थापिताः समस्ता ज्ञानाद्याचाराः तेन चारुः मनोहरा धीर्बुद्धिर्यस्य स पुरुषः, नाम इतिकोमलामन्त्रणे परद्रव्येपुद्गलादौ अनुपयोगिनि अकिञ्चित्करे कस्मिन्नपि कार्ये गृहीतुमयोग्ये क्व मुह्यति? इत्यर्थः,यो ज्ञानादिपश्चाचारेण संस्कारितोपयोगी आत्मानन्दंज्ञानदर्पण पश्यतिसपरद्रव्ये कथं मुह्यति? नैवेति। तत्त्वज्ञानविकलानाम् अनादिमिथ्यात्वाऽसंयभवतां स्वरूपानुभवशून्यानामेव परद्रव्यानुभवः। तत्र सुखभ्रान्तिरूपो मोहः। स्वभावधर्मनिर्धारभासनरमणानुभवसुखाऽऽस्वादलीनानां नमोहः, अत आत्मस्वरूपैकत्वमेव मोहत्यागोपायः, अत एव अनादिभ्रान्तिमपहाय आत्मानुभवरसिकतया भवितव्यम् / आत्मस्वरूपश्रद्धानभासनरभणानुभववता स्थातव्यम्, इति तत्त्वम्। आगमश्रवणकुसङ्गत्यागात्तत्त्वरचिस्तत्त्व-ज्ञानबलेन संयोगजं सर्वमनित्यम्, अशरणं संसारहेतुः, आत्मा एकः, सर्वपदार्थान्तरम् आत्मव्यतिरिक्तं परस्पर्श एवाशुचि, परानुयायिता एव आश्रवाः, स्वरूपानुगमनं संवरः, उदीरणके अमग्रता इत्यादि परिणत्या मोहत्यागो विधेयः / अष्ट०४अष्टा लोभक्रोधमोहेषु मोहः प्रधानम्, स्वपरविभागपूर्वकयोर्लोभक्रोधयोस्तन्मूलत्वात्। द्वा० 21 द्वा०। मुहात्यनेनजानन्नपि जन्तुरिति मोहः / दर्शनमोहनीयादौ, उत्त०८ अ० मिथ्यादर्शने, सूत्र०१ श्रु० ३अ०१उ०। मुह्यति-मूढो भवति जीवोऽनेनेति मोहः / मद्यवति मोहनीये कर्मणि, उत्त०३३ अ०1 सूत्र०। पुरुषवेधुदयरूपे (बृ०१ उ०३ प्रक०1) कामोद्रेके, व्य०४ उ०। (मोहेनाऽऽचार्योपाध्याया-नामवधावनम् 'आयरिय' शब्दे द्वितीयभागे 318 पृष्ठे दर्शितम्) कामानुरागे, ग०३ अधि०। मोहनीयोदये, मोहनीयं नाम येनाऽऽत्मा मुह्यति तच ज्ञानावरण मोहनीयं वा यथायथं द्रष्टव्यम्। तादृशं मोहं प्राप्तस्य चिकित्सा / व्य०२ उ० पं०सू०। विकृतित्यागिनो मोहोदयः। पं०व०। ओघतो विकृतिपरिभोगदोषमाहविगई परिणइधम्मो, मोहो जमुदिजए उदिण्णे अ। सुतु वि चित्तजयपरो, कहं अकजे न वट्टिहिई॥३८३॥ विकृति परिणतिधर्मः कीदृगित्याह-मोहो यत् उदीर्यते ततः किमित्याह-उदीर्णे च मोहे सुष्ठपि चित्तजयपरः प्राणी कथमकार्ये न वर्तिष्यत इति गाथार्थः। दावानलमज्झगओ, को तदुवसमट्ठयाएँ जलमाई।
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________________ मोह 456 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मोहणिज पाप्तः पण्डितः साम्भसि मञ्जति कार्याध०१ संतेऽविनसेविजा, मोहानलदीविए उवमा॥३५४|| श्रु०२अ० दावानलमध्यगतः सन् कस्तदुपशमार्थं जलादीनि सन्त्यपि न सेवेत? | मोहणघर-न०(मोहनगृह) मोहनं मैथुनसेवा तत्प्रधानानि गृहकाणि / सर्व एव सेवत इत्यर्थः, मोहानलदीप्तेऽप्युषमेति जलादिसंस्थानीया वासभवनेषु, जं०१ वक्ष०ा रा०ा ज्ञा०। सम्मोहोत्पादके गृहे, रतिगृहे वा। योषितः सेवेत इति गाथार्थः / पं०व०२ द्वार। मिथ्यात्व-मोहनीयोदये, ज्ञा०१ श्रु०८ अ0जी01 षो०११ विव०। आचा०। मोहयति ज्ञानिनमपि प्राणिनं सदसद्विवेक- | मोहणसील-त्रि०(मोहनशील) निधुवनप्रिये, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। विकलं करोतीति मोहः। लिहादित्वादच्प्रत्ययः / कर्म०१ कर्म०। निधुवनशीले, भ०१४ श०८ उ०) मोहनीयकर्मणि, पं०सं०५ द्वार। दर्श०॥ त्रिंशन्मोहनीयस्थानेषु, आतु०। मोहणिंदा-स्त्री०(मोहनिन्दा) मूढताया अनादरे, ध०। 'उपायतो मुह्यतीति मोहः / मिथ्याप्रत्यये, सम्म०१ काण्ड। बृ०। मोहनिन्दा' इति-उपायतः-उपायेनानर्थप्रधानानां मूढपुरुषअथ मोहद्वारमाह लक्षणानाम् प्रपञ्चनरूपेण मोहस्य-मूढताया निन्दाअनादरणीयभावोवहयमईओ, मुज्झइ नाणचरणंतराईसु। ताख्यापनेति / यथाइड्डीओ य बहुविहा, दटुं परतित्थियाणं तु // 385 / / "अमित्रं कुरुते मित्रं, मित्रं द्वेष्टि हिनस्ति च / भावेन शङ्कादिपरिणामेनोपहता दूषिता मतिर्यस्य स भावोपहत- कर्म चारभते दुष्ट, तमाहुर्मूढचतसम्॥१॥ मतिकः, एवंविधो मुह्यति-वैचित्त्यमुपयाति, ज्ञानावरणान्तरादिषु / अर्थवन्त्युपपन्नानि, वाक्यानि गुणवन्ति च। ज्ञानान्तराणि नाम ज्ञानविशेषास्तद्विषयो व्यामोहो यथा-यदि नाम नैव मूढो विजानाति, मुमूर्षुरिव भैषजम् / / 2 / / परमाण्वादिसकलरूपिद्रव्यावसानविषयआहकत्वेन संख्यातीतरूपा सम्प्राप्तः पण्डितः कृच्छू, पूजया प्रतिबुध्यते। ण्यवधिज्ञानानि तत् किमपरेण मनः पर्यवज्ञानेनेति। चरणान्तरव्यामोहो मूढस्तु कृच्छ्रमासाद्य, शिलेवाम्भसि मञ्जति।।३।।" यथा यदि सामायिकं सर्वसावधविरतिरूपं छेदोपस्थापनीयमप्येवंवि अथवोपायतो मोहफलोपदर्शनद्वारलक्षणान्मोहनिन्दा कार्याध०१ धमेव तत्को नामाऽनयोर्विशेषः। आदि-शब्दाद्दर्शनान्तरवाचनादिपरिग्रहः / अधि। ऋद्धिश्च बहुविधा-अनेकप्रकारा, समृद्धिः परतीथिकानां दृष्ट्वा यन्मुह्यति मोहणिज्ज-न०(मोहनीय) मोहयति सदसद्विकलं करोत्यात्मानमिति स मोह उच्यते / बृ०१ उ० प्रकला एव च मोहः संमोहभावनाया हेतुः / मोहनीयम्। प्रव० 215 द्वार। मोहाय योस्य मोहनीयम्। उत्त०३३ अ०। सूक्ष्मभावेषु परतीर्थिकसमृद्ध्यालोकने च मोहने, ध०३ अधिा आचाo! "मजं व मोहणीय" इति मद्यमिव मदिरासदृशं मोहयतीति मोहनीयं योगिपरिभाषयाऽविद्यायाम्, स्या०। मोहन मोहः / वेदरूपमोहनीयोदय कर्म। प्रवचनीयादयः॥५१८॥ इति सूत्रेण कर्तर्यनीयप्रत्ययः। यथाहि सम्पाद्यत्वादज्ञानरूपत्वाद् वा मैथुने, प्रश्न०२ आश्र० द्वार / मोह मद्यपानमूढः प्राणी सदसद्विवेकविकलो भवति / तथा मोहनीयेनापि हेतुत्वात् मोहः / कर्मबन्धविशेषे मोहनीयकर्मबन्धने, आचा०१ श्रु०२ कर्मणा मूढोजन्तुः सदसद्विवेकवि-कलो भवति। कर्म०१ कर्म कर्मभेदे, अ० ४उ०॥ उत्त०२ अ०॥ मोहंझाण-न०(मोहध्यान) मोहनं मोहः आत्मनो वैचित्त्यंहा करण मोहणिजे कम्मे दुविहे पण्णत्ते,तं जहा-दंसणमोहणिजे चेव, मज्ञानत्वमित्यर्थः, तस्य ध्यानम्। मोहात्कृष्णतनुं वहतो बलभद्रस्येव चरित्तमोहणिजे चेव। (सूत्र-१०५) दुनि, आतुन मोहयतीति मोहनीयम्, तथाहि-"जह मज्जपाणमूढो, लोए पुरिसो मोहंत-त्रि०(मुह्यत्) कामक्रीडां कुर्वति, निचू० 17 उ०। आचा०। परव्वसो होइ।तह मोहेण विमूढो, जीवो उ परव्वसो होइ।।१।।" इति। मोहगब्भवेरम्ग-न०(मोहगर्भवैराग्य) "एको नित्यस्तथा बद्धः, क्षय्य स्था०२ ठा०४ उ०ा आचा० अनु०। पं०सं० उत्ता सत्येह सर्वथा / आत्मेति निश्चयाद् भूयो, भवनैर्गुण्यदर्शनात् / / 1 / / मोहणिलं पि दुविहं, दसणे चरणे तहा। त्यक्त्वा मायोपशान्तस्य, सवृत्तस्यापि भावतः। वैराग्यं तद्गतं यत्त-- न्मोहगर्भमुदाहृतम्॥२॥" इति वेग्ग' शब्दे वक्ष्यमाणलक्षणे वैराग्यभेदे, दंसणे तिविहं वुत्तं, चरणे दुविहं भवे ||8|| हा०१० अष्टा द्वा० सम्मत्तं चेव मिच्छत्तं, सम्मामिच्छत्तमेव य। मोहजाल-न०(मोहजाल) सान्तरप्रकृतिके मोहनीयकर्मणि, "मोहणिलं एयाओ तिन्नि पयडीओ, मोहणिज्जस्स दंसणे / / 6 / / कम्मं सभेदं मोहजालंभन्नति," "पप्फोडियमोह-जालस्स" आ०चू० चरित्तमोहणं कम्म, दुविहं तु वियाहियं / 5 अ० कसायमोहणिज्जं च, नोकसायं तहेव य॥१०॥ मोहण-न०(मोहन) मैथुनासेवनायाम्, "रमिय मोहणाई" इति नाम- सोलसविहभेए-णं कम्मं तु कसायजं / मालावचनात्। जी०३ प्रति० 4 अधिoा निधुवने, मोहकारणे च / ज्ञा०१ सत्तविह नवविहं, वा कम्मं नोकसायजं // 11 // श्रु०३ अ०भ० मोहनीयमपि द्विविधम्, न केवलं वेदनीयम्, विषयतश्चैमोहणकरा-स्त्री०(मोहनकरी) मोहोदयकरणशीले विद्याभेदे, सूत्र०२ तद् द्विधेति / द्वैविध्यमाह,-दर्शने-तत्त्वरुचिरूपे चरणे-चा
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________________ मोहणिज्ज ४६०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मोहणिज्ज रित्रे तथा-किमुक्तं भवति?-दर्शनमोहनीयं, चारित्रमोहनीयं च / तत्र दर्शने दर्शनविषयं प्रक्रमान्मोहनीयं त्रिविधमुक्तं भवति, चरणे-चरणविषयं मोहनीयं द्विविधं भवेत् // 8 // वथा। दर्शनमोहनीय-त्रैविध्यम् तथाह सम्यग्भावः सम्यक्त्वं शुद्धदलिकरूपं यदुदयेऽपि तत्त्वरुचिः स्यात्, चैव इति -पूरणे / मिथ्याभावः मिथ्यात्वम्-अशुद्धदलिकरूपं यतस्तत्त्वे अतत्त्वम् अतत्त्वेऽपि तत्त्वमिति बुद्धिरुत्पद्यते, सम्यग्मिथ्यात्वमेवच-शुद्धादशुद्धदलिकरूपम्।यतः-उभयस्वभावता जन्तोर्भवति, इह च सम्यक्त्वादयो जीवधर्मास्तद्धेतुत्वाच दलिकेषु एतद्व्यपदेशः / एतास्तिस्रः प्रकृतयो मोहनीयस्य दर्शन-दर्शनविषयस्य || चरित्रे मुह्यतेऽनेनेति मोहनं चरित्रमोहनं कर्म, यतः श्रद्दधानोऽपि यदिकथंचनाहमेनं प्रतिपद्य इतिजानन्नपि तत्फलादिन प्रतिपद्यते, उत्तरत्रतुशब्दस्य भिन्न-क्रमत्वात् तत्पुनर्द्विविधं व्याख्यातं श्रुतधरैरिति शेषः, पठन्ति च "चरित्तमोहणिज्जं दुविहं वोच्छामि अणुपुव्वसो' त्ति स्पष्टमेव, कथं तद् द्विविधम्? इत्याह- कषायाः क्रोधादयस्तद्रूपेण वेद्यतेऽनुभूयते यत्तत्कषायवेदनीयं चः समुचये। 'नोकषायमिति' प्रस्तावान्नोकषायवेदनीयम्। नोकषायाः कषायसहवर्तिनो हास्यादयस्तद्रूपेण यवेद्यते। तथेति समुच्चये॥१०॥ अनयोरपि भेदानाह-षोडशविधः--षोडशप्रकारो यो भेदोनानात्वं तेन, लक्षणे तृतीया। यता-षोडशविधं, भेदेनभिद्यमानतया चिन्त्य मानम्, प्राकृतत्वादनुस्वारलोपः, कर्म-क्रियमाणत्वात्। तुः-- पुनरर्थे भिन्नक्रमचा कषायेभ्यो जायत इति कषायजम् 'यंवेयतितं बंधइ' इति वचनात्कषायवेदनीयमित्यर्थः / षोडशविधत्वं चास्य क्रोधमानमायालोभानां चतुर्णामपि प्रत्येकमनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणसंज्वलनभेदतश्चतुर्विधत्वात्, 'सत्तविह' त्ति प्राग्वद्विन्दुलोपात्सप्तविधं वा कर्म, नोकषायेभ्यो जायत इति नोकषायजं, नो कषायवेदनीयमित्यर्थः / तत्र सप्तविधम्-हास्यरत्यरतिभय-शोकजुगुप्साः षड्, वेदश्च सामान्यविवक्षयैक एवेति, यदा तु वेदः स्त्रीपुंनसकभेदेन त्रिधेति विवक्ष्यते तदा षभिस्त्रयो मिलिता नव भवन्तीति नवविधमिति। उत्त०३३ अ० कर्म०। प्रव०। मोहनीयका शानाहअभवसिद्धियाणं जीवाणं मोहणिज्जस्स कम्मस्स छथ्वीसं कम्मंसा संतकम्मा पण्णत्ता, तं जहा-मिच्छत्तमोहणिज्जं, सोलस-कसाया, इत्थीवेदे, पुरिसवेदे, नपुंसकवेदे, हासं, अरति-रति-भयं, सोगं, दुगुंछा, / (सू०२६+) मोहणिज्जस्स कम्मस्स सत्तावीसं उत्तरपगडीओ संतकम्मंसा पण्णत्ता। (सू०२७+) मोहनीयकर्मणोऽष्टाविंशतिविधस्य मध्ये सप्तविंशतिरुत्तरप्रकृ-तयः सत्कर्माशाः सत्तायामित्यर्थः, एकस्योदलितत्वादिति। मोहणिज्जस्स कम्मस्स अट्ठावीसं कम्मंसा संतकम्मापण्णत्ता, | तं जहा-सम्मत्तवेयणिज्ज मिच्छत्तवेयणिजं सम्मामिच्छत्तवेयणिजंसोलस कसाया णवनोकसाया। (सू०२८)। स०२८ सम०। यावन्मोहनीयं तावद्दोषाःकम्माण रायभूयं, वेअंतं जाव मोहणिजंत। संभावणिज दोसा, चिट्ठइता चरमदेहाऽवि // 63|| पं०व०१ द्वार / व्याख्याऽस्या गाथायाः 'पवजा' शब्दे पञ्चम-भागे 738 पृष्ठे गता) कति कर्मवृक्षाः किंमूलाश्चेत्याहअट्ठविहकम्मरुक्खा, सवेते मोहणिज्जमूलागा। कामगुणमूलगं वा, तम्मूलागं च संसारो॥१७८|| अष्टविधकर्मवृक्षाः, ते सर्वेऽपि मोहनीयमूलाः, न केवलं कषायाः, कामगुणा अपि मोहनीयमूलाः, यस्माद् वेदोदयाद् कामाः, वेदश्च मोहनीयान्तःपातीत्यतस्तन्मोहनीयं मूलम् आद्यं कारणं यस्य संसारस्य स तथा इति गाथार्थः / तदेवं पारम्पर्येण संसारकषायकामानां कारणत्वान्मोहनीयं प्रधानभावमनुभवति, तत्क्षये चावश्यंभावी कर्मक्षयस्तथा चाभाणि- "जहा मत्थयसूईए, हयाए हम्मए तलो / तहा कम्माणि हम्मन्ति, मोहणिज्जे खयं गए।॥१॥" आचा० १श्रु०२१०१३०। (मोहनीयस्य कर्मक्षोऽनुभावः 'अनुभाग' (व) शब्दे प्रथमभागे 367 पृष्ठे गतः) मोहणिज्जस्स णं कम्मस्स सत्तरं सागरोवमकोडाकोडीओ अबाहूणिया कम्मट्टिई कम्मणिसेगे पण्णत्ते / (सू०७०x) 'अबाहूणिया कम्मट्ठिई कम्मणिसेगे पण्णत्ते' त्ति इह किलाऽऽत्मा अविशिष्टमेव कर्म पुद्गलोपादानं कृत्वा उत्तरकालं ज्ञानावरणीयादिकर्मणां स्वं स्यमबाधाकालं मुक्त्वा ज्ञानावरणीयादिप्रकृतिविभाग-तया अनाभोगिकेन वीर्येणोदयसहितं तद्दलिकं निषिञ्चति, उदय-योरयं रचयतीत्यर्थः / अतो द्विविधा स्थितिः-कर्मत्वापादनामात्ररूपा, अनुभवरूपा च / यतः स्थितिः-अवस्थानं तेन भावेनाप्रच्यवनम्, तत्र कर्मत्वापादनरूपा तामधिकृत्य सप्ततिः सागरोपमकोटीकोट्यः, अनुभवरूपां त्वधिकृत्य सप्तवर्षसहस्रोनेति, तत्र 'अबाह' ति किमुक्तं भवति ? बन्धावलिकायाः आरभ्य यावत्सप्तवर्षसहस्राणि तावत्कर्म न बाधते, नोदयं यातीत्यर्थः / ततोऽनन्तरसमये कर्मदलिकंपूर्वनिषिक्तमुदये प्रवेशयति। निषेको नामज्ञानावरणादिकर्मदलिकस्यानुभवानार्थं रचना, तच प्रथमसमये बहुकं निषिञ्चति,द्वितीयसमये विशेषहीनं, तृतीयसमये विशेषहीनमेवं यावदुत्कृष्टस्थिति कर्मदलिकतावद् विशेषहीनं निषिञ्चति। तथा चोक्तम्- "मोत्तृण समगबाहं, पढमाए ठिईऐं बहुतरं दव्यं / सेसे विसेसहीणं, जावुक्कोसं ति सव्वासि / / 1 // " बाध-लोडने, बाधत इति बाधा, कर्मण उदय इत्यर्थः,न बाधा अबाधा, अन्तरं कर्मोदयस्येत्यर्थः, तया ऊनिका अबाधोनिका,कर्मस्थितिः कर्मनिषेको भवति इत्येवमेके प्राहुः। अन्ये पुनराहुः-अबाधाकालेन वर्षसहस्रसप्तकलक्षणेनोना कर्म
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________________ मोहणिज्ज 461 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मोहणिज्जट्ठाण स्थितिः- सप्तसहस्राधिकसप्ततिसागरोपमकोटाकोटिलक्षणा कर्म- मोहोदये सम्यक्त्वात् संयमावेशसंयमाद्वा अपक्राभेत्-मिथ्यादृष्टिनिषेको भवति, स च कियान्? उच्यते-'सत्तर सागरोवमकोडाको- भवेदिति। णो पंडियवोरियत्ताए अवक्कमेज' त्ति न हि पण्डितवीर्यत्यादडीओत्ति' / स०७० सम०। (मोहनीयस्य कर्मणः बन्धोदय-सत्तास्थानैः पक्रामेत्, न हि पण्डितत्वात्प्रधानतरं गुणस्थान-कमस्ति यतः पण्डितसह संवेधः / 'कम्म' शब्दे तृतीयभागे 263 पृष्ठ चिन्तितः) (कासा- वीर्येणापसप॑त् / 'सिय बालपंडियवीरियत्ताए अवक्कमेज' त्ति स्याद् मोहनीयकर्मणोवक्तव्यता, 'कंखामोहणिज्ज' शब्देतृतीयभागे 164 पृष्ठउक्ता) बालपण्डितवीर्यत्वादपक्रामेत् स्यात्कदाचि चारित्रमोहनीयोदयेन मोहनीयबन्धादि संयमादपगत्य बालपण्डितवीर्येण देशविरतो भवेदिति / वाचनान्तरे जीवे णं भंते ! मोहणिजेणं कडेणं कम्मेणं उदिण्णेणं उवट्ठा त्वेवम्- 'बालवीरियत्ताएनो पंडियवीरियत्ताए नो बालपण्डियवीरियत्ताए' एजा? हंता ! उवट्ठाएज्जा। से भंते ! किं वीरियत्ताए उवट्ठावेज्जा त्ति-तत्र च मिथ्यात्वमोहोदये बालवीर्यस्यैव भावादितरवीर्यद्वयनिषेध अवीरियत्ताए उवट्ठावेजा? गोयमा! वीरियत्ताए उवट्ठाएजा, नो इति उदीर्णविपक्षत्वादुपशान्तस्येत्युपशान्तसूत्रद्रयं तथैव, नवरम्अवीरियत्ताए उवट्ठाएजा, जइ वीरियत्ताए उवट्ठाएज्जा किं 'उवट्ठाएजा पंडिय-वीरियत्ताए'त्ति उदीर्णालापकापेक्षया उपशान्तलाबालवीरित्ताए उवट्ठाएजा पंडितवीरियत्ताए उवट्ठाएजा बाल पकयोरयं विशेषः-प्रथमालापके सर्वथा मोहनीयेनोपशान्तेन सता पंडियवीरियत्ताए उवट्ठाएजा? गोयमा ! बालवीरियत्ताए उव उपतिष्ठेत क्रियासु पण्डितवीर्येण, उपशान्तमोहवस्थायां पण्डितवीर्यस्यैव भावादितरयोश्वाभावात्, वृद्वैस्तु काञ्चिद्वाचनामाश्रित्येदं व्याख्यातम्, हुएज्जा णो पंडियवीरियत्ताएऊवट्ठाएजानोबालपंडियवीरिय मोहनीयेनोपशान्तेन सता न मिथ्यादृष्टिर्जायते, साधुः श्रावको वा त्ताए उवट्ठएजा। भवतीति / द्वितीयालापके तु-'अवक्कमेज बालपंडियवीरयत्ताए' त्ति 'मोहणिजेणं' ति मिथ्यात्वमोहनीयेन 'उदिण्णेणं' ति उदितेन मोहनीयेन हि उपशान्तेन संयतत्वाद् बालपण्डितवीर्येणापक्रामन्देश'उवट्ठाएज' त्ति उपतिष्ठेत उपस्थानम्-परलोकक्रियास्वभ्युपगर्म संयतो भवति, देशतस्तस्य मोहोपशमसद्भावात्, न तु मिथ्यादृष्टिः, कुर्यादित्यर्थः / 'वीरियत्ताए'त्ति-वीर्ययोगाद्वीर्यः-प्राणी तद्भावो वीर्यता, मोहोदय एव तस्य भावात्, मोहोपशमस्य चेहाधिकृतत्वादिति। अथवा-वीर्यमेव स्वार्थिकप्रत्ययाद् वीर्यता वीर्याणां वा भावो वीर्यता, अथापक्रामतीति यदुक्तं तत्र सामान्येन प्रश्नयन्नाहतया, 'अवीरियत्ताए' त्ति अविद्यमानवीर्यतया वीर्याभावेनेत्यर्थः, 'नो से भंते ! किं आयाए अवक्कमइ अणायाए अवकमइ? गोयमा ! अवीरियत्ताए' त्ति-वीर्यहतुकत्वादुपस्थानस्येति। 'बालवीरियत्ताए' त्ति आयाए अवकमइ णो अणायाए अवकमइ, मोहणिज्जं कम्म बालः-सम्यगर्थानवबोधात् सद्बोधकार्यविरत्यभावाच मिथ्यादृष्टिस्तस्य वेदेमाणे से कहमेयं भंते ! एवं? गोयमा ! पुट्विं से एयं रोयइ, यां वीर्यता--परिण-तिविशेषः सा तथा, तया। 'पंडियवीरियताए' त्ति इयाणिं से एयं एवं नो रोयइ एवं खलु एयं एवं / (सूत्र-३९) पण्डितः-सकलावद्यवर्जकस्तदन्यस्य परमार्थतो निर्ज्ञानत्वे नापण्डि 'से भंते किं' इत्यादि 'से' ति असौ जीवः अथार्थो वा 'से' शब्दः तत्वाद्, यदाह-"तज्ज्ञानमेव न भवति, यस्मिन्नुदिते विभाति 'आयाए' त्ति आत्मना 'अणायाए' त्ति अनात्मना परत इत्यर्थः। रागगणः / तमसः कुतोऽस्ति शक्तिर्दिनकरकिरणाग्रतः स्थातुम्? // 1 // " अपक्रामति अपसर्पति, पूर्वं पण्डितत्वरूचिर्भूत्वा पश्चान्मिश्ररुचिइति; सर्वविरत इत्यर्थः / 'बालपंडियवीरियत्ताए' त्ति बालो देशे विरत्य मिथ्यारुचिर्वा भवतीति, कोऽसौ? इत्याह-मोहनीयं कर्म मिथ्याभावात्, पण्डितो देश एव विरतिसद्भावादिति बालपण्डितो-देशविरतः। त्वमोहनीयं चारित्रमोहनीयं वा वेदयन् उदीर्णमोह इत्यर्थः / 'से कहमेयं इह च मिथ्यात्वे उदिते मिथ्यादृष्टित्वाजीवस्य बालवीर्येणैवोपस्थान भंते 'त्ति अथ कथं-केन प्रकारेण एतद्-अपक्रमणम् एवं ति मोहनीयं स्यान्नेतराभ्याम् / एतदवाह-गोयमेत्यादि। वेदयमानस्येति / इहोत्तरम् 'गोयमेत्यादि' पूर्वमपक्रमणात्प्रागसौ उपस्थानविपक्षोऽपक्रमणमतस्तदाश्रित्याऽऽह अपक्रमणकारी जीवः एतज्जीवादिअहिंसादिवा वस्तु। एवं यथा जिनैरुक्तं जीवे णं भंते ! मोहणिजेणं कडेणं कम्मेणं उदिण्णेणं अवक रोचते-श्रद्धत्ते करोति वा, इदानीं-मोहनीयोदयकाले स जीवः मेज्जा? हंता! अवक्कमेजा, से भंते ! जाव वालपंडियवीरि- एतज्जीवादि अहिंसादि वा एवं-यथा जिनैरुक्तं नो रोचते न श्रद्धते न यत्ताए अवक्कमेज्जा 3? गोयमा ! बालवीरियत्ताए अवक्कमेजा, नो करोति वा, एवं खलु उक्तप्रकारेण एतत्-अपक्रमणम्-एवं मोहनीयवेदन पंडियवीरियत्ताए अवक्कमेजा, सिय बालपंडियवीरिय-ताए इत्यर्थः / भ०१श०४उ०। मोहयतीति मोहनीयम् / मिथ्यादर्शनादिके अवक्कमेजा। जहा उदिनेणं, दो आलावगा, तहा उवसंतेण वि ज्ञानावरणीयादिके वा कर्मणि, सूत्र०१ श्रु०२ अ०३उ०। दो आलावगा भाणियव्वा, नवरं उवट्ठाएजा पंडियवीरियत्ताए, | मोहणिजहाण-न०(मोहनीयस्थान) मोहनीयं सामान्येनाष्ट प्रकारं कर्म अवक्कमेजा वालपंडियवीरियत्ताए। विशेषतश्चतुर्थी प्रकृतिस्तस्य स्थानानि निमित्तानि मोहनीयस्थानानि। 'जीवे णं' इत्यादि-'अवक्कमेज' ति अपक्रामेद- अपसर्पत, उत्तम- मोहनीयकर्मबन्धनिमित्तेषु, स०२६ सम०। दशा०। गुणस्थानकाद्धीनवरं गच्छेदित्यर्थः, बालवीर्यतयाऽपक्रामेत् मिथ्यात्व- | तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नाम नयरी होत्था, व
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________________ मोहणिजहाण 462- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मोहणिज्जट्ठाण ण्णओ-पुनभद्दे चेइए, कोणिए राया, धारिणी देवी, सामी समोसळे,परिसा णिग्गया, धम्मो कहितो, परिसापडिगया, अजो त्तिसमणे भगवं महावीरे बहवे निग्गंथाय निग्गंथीओय आमंतेत्ता एवं वदासी-एवं खलु अजो! तीसं मोहणिज्जहाणाइं जाइं इत्थी वापुरिसो वा अभिक्खणं 2 आयारमाणे वा मोहणिजत्ताए कम्म पकरेति / तं जहाजे केइ तसे पाणे, वारिभज्जं विगाहिता। उदएणं कम्ममारेति, महामोहं पकुव्वति // 1 // व्याख्या प्राग्वत्-'तेण कालेणं' इति / तस्मिन् काले तस्मिन् समये तस्मिन् पूर्णभद्रे चैत्ये 'समणे भगवं महावीरे' त्ति श्रमणो भगवान् महावीरः अर्हन् सर्वदशीं सप्तहस्तप्रमाणशरीरोच्छ्रयः समचतुरस्रसंस्थानो वज्रर्षभनाराचसंहननः कजलप्रतिमकालिमोपेतस्निग्धाकुञ्चितप्रदक्षिणावर्त्तमूर्द्धजःउत्तप्ततपनीयाभिरामकेशान्तकेशभूमिरातपत्राकारोत्तमाऽङ्ग सन्निवेशः परिपूर्णशशाङ्कमण्डलादप्यधिकतरवदनशोभः पद्मोत्पलसुरभिगन्धनिःश्वासो वदनविभागप्रमाणकम्बूः शश चारुकन्धरः सिंहशार्दूलवत्परिपूर्णविपुलस्कन्धप्रदेशो महापुरकपाटवत्पृथुलवक्षस्थलाभोगो यथा-स्थितलक्षणोपेतश्रीवक्षः परिघोपमप्रलम्बबाहुयुगलो रविशशिच-क्रकोशादिप्रशस्तलक्षणोपेतपाणितलःसुजातपावो झषोदरः सूर्यकरस्पर्शसंजातविकोशपद्मोपमनाभिमण्डलः सिंहवत्संवर्तितकटीप्रदेशो निगूढजानुः कुरुविन्दवृत्तगुम्फयुगलः सुप्रतिष्ठितकूर्मचारुचरणः प्रशस्तलक्षणाङ्कितचरणनतप्रदेशोऽनाश्रवः निर्ममः छिन्नश्रोता निरुपलेपोपगतप्रमेरागोद्वेषः चतुस्विंदतिशयोपेतो गगनगतेन धर्मथकेण आकाशगतेन छत्रेण आ१काशगताभ्यां चामराभ्याम् आकाशगतेनातिस्वच्छस्फटिकविशेषमयेन सपादपीठेन सिंहासनेन पुरतो देवैः प्रकृष्यमाणेन 2 धर्मध्वजेन चतुर्दशभिः श्रमणसहस्रैः परिवृतो यथा स्वकल्पं सुखेन विहरन्, यथारूपमवग्रहं गृहीत्या संयमेन तपसा चात्मानं भावयन्, 'जाव' त्ति यावत्करणात् तीर्थकरसाधुवर्णकः सर्वोऽपि वाच्यः। 'समोसरणं' त्ति समवसरणवर्णनं भगवत औपपातिकग्रन्थादवसेयम् 'परिसागय' त्ति चम्पानगरीवास्तव्यो लोको भगवन्तमागतं श्रुत्वा भगद्वन्दनार्थं स्वस्मात्स्वस्मादाश्रयादाकृष्टः कृतकौतुकमङ्गलप्रायश्चित्तोऽल्पमहर्घाभरणालङ्कृतशरीरः स्वस्वपरिकरसमेतो हस्त्यादिवाह-नारूढो निजचरणविहारचारी च सन् निर्गतः, भगवता च धर्मकथा कथिता; श्रुत्वा च तां हृष्टचित्तो वन्दित्वा-भगवन् ! स्वाख्यातो भगवद्धर्म इत्युक्त्वा पर्षतस्वस्थानं प्रतिगता।तदा-'अज्जो' त्ति प्राग्वत् 'तीस' ति–त्रिंशत्संख्यानि 'मोहणिज्जट्ठाणाई' ति मोहनीयस्थानानि-मोहनीयं सामान्येनाष्टप्रकारं कर्म विशेषतश्चतुर्थी प्रकृतिः, तस्याः स्यानानि-निमित्तानि मोहनीयस्थानानि। यानि इति पूर्वतनतीर्थङ्करैः प्रतिपादितानियानि इमानि अनन्तरवक्ष्यमाणानि स्त्री वा पुरुषो वा अभीक्ष्णम् 2 आचरन् असकृच्छठाध्यवसायादितया वा समाचरन् असकृत्तीव्राध्यवसायपरिगतो वा मोहनीयतया इति-मोहनीयकर्मत्वेन कर्म प्रकरोति / तद्यथा-'जे के' इत्यादि श्लोकः / यः-कश्चन त्रसान् स्त्रीपुरुषगृहस्थपाखण्डिप्रभृतीन वारिमध्ये विगाह्य प्रविश्य परिव्राजकवत् १-पंडिगय इत्यपि पाठः। 'उदएणं ति उदयेन तथा हिंसादिप्रवर्तककर्मोदयेन उदकेन वाशस्त्रभूतेन मारयति / कथमित्याह-- आक्रम्य पादादिना, स इति गम्यते / मार्यमाणस्य महामोहोत्पादकत्वात् संक्लिष्टचित्तत्वात, भवशते दुःखवेदनीयमात्मना महामोहं प्रकरोति-जनयति / तदेवंभूतं त्रसमारणेनैकं मोहनीयस्थानमेवं सर्वत्रेति।। पाणिणा संपिहित्ताणं, सोयमावरिय पाणिणं / अंतो णदंतं मारेति, महामोहं पकुव्वइ / / 2 / / प्राणिना हस्तेन संपिधाय स्थगयित्वा, किं तत्? श्रोतो-रन्ध्रमुखमित्यर्थः, तथा-आवृत्य-अवरुध्य प्राणिनं, ततः अन्तर्नदन्तंगलमध्ये रवं कुर्वन्तं घुरघुरायमाणमित्यर्थः स इति गम्यते महामोहं प्रकरोतीति द्वितीयम् // 2 // जायतेयं समारब्भ, बहुं ओरुज्झिय जणं। अंतो धूमेण मारेति, महामोहं पकुव्वति // 3 // जाततेजसम्-वैश्वानरं समारभ्य-प्रज्वाल्य बहु-प्रभूतम्-अवरुध्य महामण्डपवाटादिषु प्रक्षिप्य जनं लोकमन्तर्मध्ये मण्डपादेवूमेनबहिलिङ्गेन, अथवा-अन्तधूमो यस्यासावन्तधूमः तेन जाततेजसा विभक्तिविपरिणामात् मारयतियः, असौ महामोहं प्रकरोतीति तृतीयम्।।३।। सीसम्मि जो पहण्णेइ, उत्तमंगम्मि चेयसा। विभन्न मत्थयं फाले, महामोहं पकुव्वति // 4 // शीर्षे -शिरसि यः प्रहन्ति खड्गमुद्गरादिना प्रहरति प्राणिनमिति गम्यते,किंभूते शिरसि स्वभावतः उत्तमाङ्गे सर्वावयवानां प्रधाना-वयवे तद्विधातेऽवश्यं मरणात्,चेतसा-संक्लिष्टन मनसा न यथा-कथंचिदित्यर्थः, तथा विभाव्य मस्तकं प्रकृष्टप्रहारदानेन स्फोट-यति ग्रीवादिकं कायमपीति गम्यते। स इत्यस्य गम्यमानत्वात्, समहामोहं प्रकरोतीति चतुर्थम्। सीसावेढेण जे केइ, आवेढेइ अभिक्खणं। तिव्वासुभसमायारे, महामोहं पकुव्वइ // 5 // शीर्षावेष्टेनामादिमयेन यः कश्चिद् वेष्टयति स्त्रीपुरुषादिः त्रसान् इति गम्यते। अभीक्ष्णं भृशं तीव्रोऽशुभसमाचारः स इत्यस्य गम्यमानत्वात्स मार्यमाणस्य महामोहोत्पादकत्वेन आत्मनो महामोहं प्रकुरुते इति पञ्चमम् // 5 // पुणो पुणो पणिहिए, नासे उवहसे जणं / फलेणं अदुव दंडेणं, महामोहं पकुव्वइ // 6 // पौनःपुन्येन प्रणिधिना-मायया यथा-वाणिजकादिवेषं विधाय गलाकर्तकाः पथि गच्छता सहगत्वा विजनं विश्रब्धं वा मारयन्ति, तथा चविनाशे उपहसेत् आनन्दातिरेकात् जनं मूर्खलोकं हन्यमानं, केन हत्वा फलेन योगविभावेन मातुलिङ्गादिना, अथवा- तथा दण्डेन-प्रसिद्धेन इति गम्यते / महामोहं प्रकरोतीति षष्ठम्।।६।। गूढायारी निगृहेजा, मायं मायाएँ छायए। असचवाई णिण्हाइ, महामोहं पकुय्वइ // 7 // गूढाचारी-प्रच्छन्नाचारवान् निगूहयेत्-गोपयेत्, स्वकीयं प्रच्छन्नं दुष्टमाचार, तथा मायां परकीयां, मायया स्वकीयया
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________________ मोहणिजट्ठाण 463 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मोहणिज्जट्ठाण छादयेत्-जयेत् / यथा-शकुनिमारकाः छदैरात्मानमावृत्य शकुनीन् ___ अब्रह्मचारी मैथुनादनिवृत्तो यः कश्चित्तत्काल एवाऽऽसेव्य, 'ब्रहाचारी गृह्णन्तः स्वकीयमायया शकुनिमायां छादयन्ति, तथा असत्यवादी निह्नवी सांप्रतमह' मित्यतिधूर्ततया परप्रवञ्चनाय वदति। तथाय एवमशोभावहं अपलापकः स्वकीययोर्मूलगुणोत्तरगुणप्रतिषेधयोः सूत्रार्थयोर्वा महामोहं / सतामनादेयं भणन्, गर्दभ इव गवांमध्ये विचरन् वृषभवन्मनोइंनदति-- प्रकरोतीति सप्तमम् // 7 // नदं नादं शब्दमित्यर्थः, तथा य एवं भणन, आत्मनोऽहितो न हितकारी धंसेइ जो अभूएणं, अकम्मं अत्तकम्मणा / बालो मूढो माया मृषा बहुशो व्यावृत्तं प्रभूतंभाषतेऽसूचं निन्दितं भाषते, अदुवा तुम मकासि त्ति, महामोहं पकुव्वइ / / 8 / / कया स्त्रीविषयगृद्ध्या हेतुभूतया यः स इत्थंभूतो महामोहं प्रकरोतीति ध्वंसयति छायायां शृंशयति यः पुरुषान् अभूतेनासद्भूतेन कम्? द्वादशम् / / 12 / / अकर्मकम् अविद्यमानं दुश्चेष्टितम्, आत्मकर्मणा-आत्मकृतऋषिघाता- जं णिस्सितो उव्वहइ,जससाऽहिगमेण वा। दिना दुश्चेष्टितेन दुटव्यापारेण, अथवा-यदन्येन कृतं तदाश्रित्य परस्य तस्स लुब्मइ वित्तम्मि, महामोहं पकुव्वति // 15 // समक्षमेव त्वमकारितन्महापापमिति वदति। क्रियाया गम्यमानत्वात् यं राजानं राजामात्यादिकं वा निश्रित उद्बहते जीविकालाभेनात्मानं स इत्यस्यापि गम्यमानत्वात् महामोहं प्रकरोतीत्यष्टमम्॥८॥ धारयति। कथं यशसा, तस्य राजादेः सत्कोऽयमिति प्रसिद्ध्या अभिजाणमाणो परीसाए, सबमोसा ण भासए। गमेन वा सेक्या आश्रितराजादेस्तस्य-निर्वाहकारकस्य राजादेलुभ्यते अच्छीण डंडोल्लुरए, महामोहं पकुव्वति || वित्तेद्रव्ये यः स महामोहं प्रकरोतीति त्रयोदशम्॥१३॥ जानानो यथा अनृतमेतत्परिषदः सभायां बहुजनमध्ये इत्यर्थः, इस्सरेणऽदुवा गामे-ण ऽणिस्सरें इस्सरीकए। सत्यामृषा किञ्चित्सत्यानि सत्यनिबद्धानि किञ्चिदसत्यानि वस्तूनि तस्स संपग्गहीयस्स, सिरी तुलयमागया।।१६।। वाक्यानि वा भाषते अक्षीणं दण्डोल्लुयरतकलहः यः स इति गम्यते ईसादोसेण आभट्ठो, कलुसाऽऽविलचेतसा। महामोहं प्रकरोतीति नवमम् // 6 // अणायगस्स नयवं, दारं तस्सेव धंसई। जो अंतरायं चेएइ, महामोहं पकुव्वइ / / 17 / / विपुलं विक्खोभइत्ता णं, किचाणं पडिवाहिरं॥१०॥ ईश्वरेण-प्रभुणा अदुवा' अथवा ग्रामेण जनसमूहेन अनीश्वर ईश्वरीअनायक:-अविद्यमाननायको राजा तस्य नयवान-नीतिमान कृतः, तस्य पूर्वावस्थायामनीश्वरस्य संप्रगृहीतस्य पृच्छादिना अमात्यः, स तस्यैव राज्ञो दारान-कलत्रं द्वारं वा अर्थागमस्यो-पायं / श्रीलक्ष्मीरतुला असाधारणा आगता-प्राप्ता अतुलं वा यथा भवतीत्येवं श्रीः समागता, आगतश्रीकश्च प्रभवाद्युपकारक-विषये ईर्ष्णदोषेणाविष्टो ध्वंसयित्वा भोगभोगान् विदारयतीति सम्बन्धः, किं कृत्वा विपुलं प्रचुरमित्यर्थः, विक्षोभ्यसामन्तादिपरिकरभेदेन संक्षोभ्य नायकंतस्य क्षोभं युक्तः कलुषेण द्वेषलोभादिलक्षणया येना-बिलमाकुलं वा चेतो यस्य स जनयित्वेत्यर्थः, कृत्वाविधाय णमित्यलङ्कारे प्रतिबाह्यमनधि-कारिणं तथा। यः अन्तरायम्-व्यवच्छेदंतंभोगानां चेतयते-करोतिप्रभ्वादेरसौ दारेभ्योऽर्थागमद्वारेभ्यो वा दारान् राज्यं वा स्वयमधिष्ठायेत्यर्थः // 10 // महामोहं प्रकरोतीति चतुर्दशम् // 14|| उवगतं पि डंपित्ता, पडिलोमाहिं वग्गुहिं। सप्पी जहा अंडपुडं, भत्तारं जो विहिंसइ। भोगभोगे वियारेइ, महामोहं पकुव्वति // 11 // सेणावतिं पसत्थारं, महामोहं पकुव्वइ // 18|| तथा उपगतमपि समीपमागच्छन्तमपि सर्वस्वमपहरत् एतेनानुलोमैः सी-नागी यथा'अण्डपुर्ड' अण्डकपुटं स्वकीयमण्डकसमूहमित्यर्थः, करुणैश्च वचनैर्निरनुकूलयितुमुपस्थितमित्यर्थः,डम्पयित्वानष्टवचना- अण्डकस्य वा पुटं संबद्धदलद्वयरूपं हिनस्ति, एवं भरिम्पोषयितारं यो वकाशं कृत्वा प्रतिलोमाभिस्तस्य प्रतिकूलाभिर्वाग्भिर्वचनैरेतादृश- विहिनस्ति सेनापतिम्- राजानं, प्रशास्तारम् राजामात्यं धर्मपाठकं वा स स्तादृशस्त्वमित्यादिभिरित्यर्थः, भोगभोगान् विशिष्टशब्दादीन् विदार- महामोहं प्रकरोतीति, तन्मरणे बहुजनदुस्थता भवतीति पञ्चदशम्।।१५।। यतिहरति योऽसौ महामोहं प्रकरोतीति दशमम्।।११।। जो णायगं च रहस्स, नेयारं निगमस्स य। अकुमारभूतो जे केइ, कुमारभूए त्ति हंवए। सेटिं बहुरवं हंता, महामोहं पकुवइ // 16 // इत्थीहिँ गिद्धे वसए, महामोहं पकुवइ // 12 // यो नायकं वा-प्रभु राष्ट्रस्य राष्ट्रमहत्तरादिकमति भावः तथा नेतारंअकुमारभूतः-अकुमारब्रह्मचारी सन्यः कश्चित्कुमारभूतोऽहं कुमार- प्रवर्तयितारं प्रयोजनेषु निगमस्य, वाणिजक समूहस्य कं श्रेष्ठिनश्रीदेवब्रह्मचारी अहमिति वदति, अथवा-स्त्रीषु गृद्धो वशकश्च स्त्रीणामेवायत्त ताङ्कितपट्टबन्धम, किम्भूतं बहुरवं भूरिशब्दं प्रभूततरयशसमित्यर्थः हत्या इत्यर्थः, अथवा-वसतिश्रुतस्तेस महामोहं प्रकरोतीत्येकादशम्॥१२॥ महामोहं प्रकुरुते। इति षोडशम् // 16 // अबंभयारी जे केइ, बंभयारित्ति हं वए। बहुजणस्स नेयारं, दीवं ताणं च पाणिणं / गद्दहो व्व गवं मज्झे, विस्सरं नदती नदं॥१३॥ एयारिसं नरं हंता, महामोहं पकुव्वइ // 20 // अप्पणो अहियं बाले, मायामोसंबहुन्न से। बहुजनस्य-पञ्चषादीनांलोकानां नेतारं नायकंद्वीपः-संसार-सागरान्तरइत्थीविसयभावीए, महामोहं पकुव्वति॥१४|| गतानाश्वासनम्। अथवा-दीप इव दीपोऽज्ञानान्धकारावृतबुद्धिदृष्टिप्रसराणां 1- मोहनीयस्थानपरकमिदम्। हेयोपादेयवस्तुस्तोमप्रकाशकत्वात्। अतएवत्राणम्-आपद्रक्षणंप्राणिनामेतादृ
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________________ मोहणिज्जहाण 464 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मोहणिजट्ठाण शा गणधरादयो भवन्ति, नवरं प्रावनिकादिपुरुषं हत्वा महामोहं प्रकरोतीति सप्तदशम्॥१७॥ उच्चट्ठियं पडिविरयं,संजतं सुसमाहियं / विउकम्पधम्माउ भंसेइ, महामोहं पकुव्वइ / / 21 / / उपस्थितं प्रव्रज्यायां प्रव्रजिषुमित्यर्थः, प्रतिविरतं-सावद्ययोगेभ्यो निवृत्तं प्रवृजितमित्यर्थः, संयतं साधुमुपस्थितं तपांसि कृतवन्तं शोभनं वा तपः श्रितमाश्रितं क्वचित्-'जे भिक्खू जगजीवणं' ति पाठः / तत्रजगन्ति-जङ्गमानि अहिंसकत्वेन जीवयतीति जगजीवनस्तं विविधैः प्रकारैरुपक्रम्याऽऽक्रम्य बलादित्यर्थः / धर्माद् व्रतचारित्रलक्षणाद् मुंशयतियः स महामोहं प्रकरोतीति अष्टादशम्॥१८|| तहेवाणतणाणीणं, जिणाणं वरदंसिणं। तेसिं अवण्णवं बाले, महामोहं पकुव्वइ॥२२॥ यथैव प्राकृतं मोहनीयस्थानं तथैवेदमपि अनन्तज्ञानिनां ज्ञानस्यानन्तविषयत्वेन अक्षयत्वेन वा जिनानामर्हतां वरदर्शिनां क्षायिकदर्शनत्वात् तेषां ये ज्ञानाद्यनेकातिशयसंपदुपेतत्वेन भुवन-त्रये प्रसिद्धाः 'अवण्णवं' अवर्णवादो वक्तव्यत्वेन यस्यास्ति सोऽवर्णवान् यथा-नास्ति कश्चित् सर्वज्ञो शेयस्यानन्तत्वात्, तत्रोच्यते-अदूषणं चैतदुत्पत्तिसमय एव केवलज्ञानं युगपल्लोकालोकौ पश्यदुपजायते यथा अपवरकान्तर्वर्तिदीपकलिकाऽपवरकमध्यप्रकाशस्वरूपा इत्यभ्युपगमादिति, बालोऽज्ञानो महामोहं प्रकरोतीति एकोनविंशतितमम् / / 16 / / णेयाइअस्स मग्गस्स, दुढे ऽवयरई बहु। तं तिप्पयंतो भावेण, महामोहं पकुव्वइ / / 23 / / नैयायिकस्य-न्यायमनतिक्रान्तस्य मार्गस्य-सम्यग्दर्शनादेर्मोक्षपथस्य दुष्टो द्विष्टो वा अपकरोतीति-अपकारं करोतीति बहु-अत्यर्थं पाठान्तरेणापहरति बहुजनं विपरिणमयतीति भावः, तंमार्ग 'तिप्पयंतो' त्ति निन्दया द्वेषेण वा वासयति परम्, अपरम् च यः स महामोह प्रकरोतीति विंशतितमम्॥२०॥ आयरियउवज्झाएहिं, सुत्तं विणयं च गाहिए। ते चेव खिंसई बाले, महामोहं पकुवइ // 24 // आचार्योपाध्यायैयः श्रुतं स्वाध्यायं विनयं च ग्राहितः-शिक्षितः तानेव खिंसति-निन्दति अल्पश्रुता एते इत्यादि ज्ञानतः ज्ञानवन्तः अन्यतीर्थिकसंसर्गकारिण इत्यादिदर्शनतः, मन्दधर्माणः पार्श्वस्थादिस्थानवर्तिनः तैः सहालापनाभिवादनादिकरणाविदः इत्यादिचारित्रतः, यः स एवंभूतो बालो महामोहं प्रकरोतीत्येक-विंशतितमम्।।२१।। आयरियउवज्झायाणं,सम्मं नो परितप्पइ। अप्पडिपूयइ थद्धे, महामोहं पकुवइ / / 25 / / आचार्यादीन् श्रुतदानग्लानावस्थाप्रतिचरणादिभिस्तर्पितवतः उपकृतवतः सम्यङ् न प्रतितर्पति विनयाहारोपध्यादिभिर्न प्रत्युपकरोति / तथा-अप्रतिपूजको न पूजाकारी तथा स्तब्धः मानवान् स महामोहं प्रकरोतीति द्वाविंशतितमम् / / 22 / / अबहुस्सुए विजे केइ, सुएणं पविकत्थइ। सज्झायववायं वयइ, महामोहं पकुय्वइ॥२६॥ अबहुश्रुतश्च यः कश्चिच्छुतेन-ज्ञानेन प्रविकथ्यते-स्वश्लाघाम् करोति, यथा-गण्यहं वाचकोऽहं केनचित्पृष्टं यथा भवान, स बहुश्रुतो योऽस्माभिः श्रुतः, तदा स एवं वदति सोऽहमिति सद्भाववादं भवति / तत्सदृशत्वम् आत्मनः ख्यापयतियः स महामोहं प्रकरोति। श्रुतवानहमनुयोगधरोऽहमित्येवम्, अथवा-कस्मिश्चित्त्वमनुयोगाचार्यो वाचको वेति पृच्छति प्रतिभणति, आत्मनः स्वाध्यायवादं वदति, विशुद्धपाठकोऽहमित्यादिकं यः स महामोहं श्रुताला-महेतुं प्रकरोतीति त्रयोविंशतितमम्॥२३॥ अतवस्सिय जे केइ, तवेणं पविकत्थई। सव्वलोए परे तेणे, महामोहं पकुव्वइ // 27 // सुगमम्। पूर्वाध कण्ठ्यम्। नवरं सर्वलोकात्-सर्वजनात् सकाशात्परःप्रकृष्टः स्तेनः-चौरी भावचौरत्वात् स महामोहं तपस्विताऽलाभहेतुं प्रकरोतीति चतुर्विंशतितमम्॥२४॥ साहारणऽट्ठा जे केइ, गिलाणम्मि उवहिते। पभूण कुव्वती किचं, मज्झऽप्पेस ण कुव्वति // 28|| सढे णियट्टिपण्णाणे, कलुसाउलचेयसा। अप्पणो य अबोहीए, महामोहं पकुव्वइ // 26 // साधारणार्थमुपकारार्थ यः कश्चिदाचार्यादिग्लाने-रोगवति उपस्थितेप्रत्यासन्नीभूते प्रभुः-समर्थ उपदेशेनौषधादिदानेनच स्वतोऽन्यतश्चोपकारं न करोति कृतमुपेक्षत इत्यर्थः केनाभिप्रायेणेत्यर्थः ममाप्येषन करोति किञ्चनापि कृत्यम् समर्थोऽपि सन्निति द्वेषेणासमर्थोऽयं वा बालत्वादिना किंकृतेनास्य पुनरुपकर्तुमशक्तत्वादिति लोभेने तिशठःकैतवयुक्तः शक्तिलोपनात्, निकृतिर्माया तद्विषये प्रज्ञानं यस्य स तथा। ग्लानः प्रतिजागरणीयो मा भवत्विति ग्लानवेषमहं करोमिति विकल्प. वानित्यर्थः, अत एव कलुषाकुलचेताः आत्मनश्चाबोधिको भवान्तराप्राप्तव्यजिनधर्मकोग्लाना-प्रतिजागरणेनाज्ञाविराधनात्। चशब्दात्परेषां वा बोधिकः अविद्यमानाबोधिरस्मादिति व्युत्पादनात् / यदि तदीयं ग्लानाप्रतिचरणमुपलभ्य जिनधर्मपराङ्मुखो भवति तेषामबोधिस्तत्कुत इति स एवंभूतो महामोहं प्रकरोतीति पञ्चविंशतितमम् // 25 // जे कहाहिगरणाई, संपउंजे पुणो पुणो। सव्वतित्थाण भेयाए, महामोहं पकुव्वइ // 30 // यः कथा-वाक्यप्रबन्धशास्त्रमित्यर्थः, तद्रूपाण्यधिकरणानि कथाधिकरणानि कौटिल्यशास्त्रादीनि प्राण्युपमर्दनप्रवर्तकत्वेन तेषामात्मनो दुर्गतावधिकरणात्, कथा वा क्षेत्राणि कृषि-गानरूपतेत्यादिकया अधिकरणानि तथाविधप्रवृत्तिरूपाणि / अथवा-कथा-राजकथादिका अधिकरणानि च यन्त्रादीनि कलहा वा कथाधिकरणानितानि संयुक्तेपुनः पुनः, एवं सर्वतीर्थानां भेदाय संसारतरणकरणात् तीर्थानि ज्ञानादीनि तेर्षा सर्वथा नाशाय प्रवर्तमानः स महामोहं प्रकरोतीति षड्विंशतितमम्॥२६॥ जो य अहम्मिए जोए, सपउंजे पुणो पुणो। सहाहेउं सव्वहेठ, महामोहं पकुम्वइ // 31 // व्यक्तम्, नवरम्-अधार्मिको योगनिमित्तवशीकरणादिप्रयोगः। किमर्थ श्लाघाहेतोः सर्वहेतोर्मित्रनैमित्त इत्यर्थः, इति सप्तविंशम् // 27 //
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________________ मोहणिञ्जट्ठाण 465 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मोहणिजट्ठाण जो य माणुस्सए भोगे, अदुवा पारलोइए। तेऽतिप्पंतो आसायइ, महामोहं पकुव्वइ // 32 // यश्च मानुष्यकान् भोगान्, अथवा-पारलौकिकान 'ते' इति विभक्तिविपरिणामत्वात् तेषु वा अतृप्यन् तृप्तिमगच्छन् आस्वादते-अभिलषति आश्रयति वा स महामोहं प्रकारोतीति अष्टाविंशति-तमम्।।२।। इड्डी जुइ जसो वन्नो, देवाणं बलवीरियं / तेसिं अबण्णयं बाले, महामोहं पकुव्वइ // 33 // ऋद्धिः-विमानादिसम्पत्, द्युतिः-शरीराभरणदीप्तिः, यशः कीर्तिः, वर्णः-शुक्लादिः शरीरसम्बन्धी देवानां सम्यग्दृशाम् वैमानिकादीनां बलम्-शारीरं वीर्यम्-जीवप्रभवमस्तीत्यध्याहारः तेषामिह अपेर्गम्यमानत्वात् तेषामपि देवानामनेकातिशायिगुणवतामवर्णवान्-अश्लाघाकारी अथवा-अवर्णवान् केनोल्लेखेन देवानामृद्धिर्देवानां धुतिरित्यादि काक्का व्याख्येयं न किञ्चिदेवा नामृद्ध्यादिकमस्ति इत्यवर्णवादभावार्थः / यद्वा--किममी कामग्रस्ता धर्मानुष्ठानं कर्तुमसममर्थाःअविरता इति कथनमपि महान् दोषः। तथा चोक्तम्-"पंचहिं ठाणेहिं जीवा दुल्लमबोहियत्ताए कम्मं पकरेंति, तंजहा-अरहंताणमवन्नं वदमाणे 2, अरहंतपन्नत्तस्सधम्मस्स अवनं वदमाणे 2, आयरियउवज्झायाणमवन्नं वदमाणे ३,चाउवन्नस्स संघस्सअवन्नवदमाणे 4, विवक्तवबंभचेराणंदेवाणमवन्नं वदमाणे ५,"तत्र पञ्चमपदव्याख्या-"विपक्कं सुपरिनिष्ठितंप्रकर्षपर्यन्तमुपगतमित्यर्थः तपश्च ब्रह्मचर्य च भवान्तरे येषां, विपक्वं वा उदयागतं तपो ब्रह्मचर्य तद्धेतुकं देवायुष्कादि कर्म येषां ते तेषामवर्णवादं वदन् दुर्लभबोधितया कर्म करोति। तदेवम्-'नसन्त्येव देवाः कदाचनानुपलभ्यमानत्वात, किं वा तैः विटैरिव कामासक्तमतोभिरविरतैः, तथा नि थैरचेष्टश्च क्रियमाणैरिव प्रवचनकार्यानुपयोगिकैश्चेत्यादिकम् "य एवंभूतः स महामोहं प्रकरोतीत्येकोनत्रिंशत्तमम् / / 2 / / अपस्समाणो पस्सामि, देवा जक्खा य गुज्झगा। अण्णाणी जिणपूयट्ठी, महामोहं पकुय्वइ // 3 // अपश्यन्नपि यो ब्रूते-पश्यामि देवानित्यादि / तत्र देवा वैमानिकज्योतिष्काः यक्षाश्व-व्यन्तरा--गुह्यकाश्च भवनवासिनः तान् तान् स्वरूपेणाज्ञानी, जिनस्यैव पूजामर्थयते यः स जिनपूजार्थी गोशालकवत् स महामोहं प्रकरोतीति त्रिंशत्तमम् // 30 // साम्प्रतमुक्तरूपाणि मोहनीयस्थानानि उपसंहरन्नुपदेशसर्वस्वमाहएते मोहगुणा वुत्ता, कम्मंता चित्तवडणा। जे तु भिक्खू विवजेजा, चरिज ऽत्तगवेसए॥३५|| एते-अनन्तरोक्ताः मोहगुणाः, अथवा-मोहानां गुणाः गुणकारका मोहसम्बन्धं प्रतीति मोहगुणाः नमोक्ष प्रतियद्वा-मोहाश्च ते मोहगुणाश्चमोहगुणाः प्राकृतत्वात्पूर्वपदलोपः, यथा गुणेहि-साहुगुणेहिं' इत्यादौ, कथं भूताः? इत्याह-कर्मता-कर्मकारणानि, अथवा--कर्माण्येव अन्तः-- अवसानं फलं येषांते कर्मान्ताः, चित्तवर्धनाः-मोहरूपस्य चित्तस्य वर्धना वृद्धिकारणानि 'चित्तबद्धणा वा' पाठः तत्रापि चित्तम्- संक्लेशरूपम् | अशुभम्बन्धरूपं तद्वर्धनाः, तान् इत्यध्याहार्यम्, 'जे उ' त्ति यान् मोहप्रकारान् भिक्षुः- महात्मा वर्जयित्वा चरेत्, संयमाध्वनि चरेत् वा--- आचरेत् क्षान्त्यादिकं दशप्रकारं धर्मम्, कथंभूतः सन्-'अत्तगवेसए' आप्ताः-तीर्थकराः तेषां गवेषको नाम-तद्वचनानुसरणपरः आप्तगवेषकः,यदा-आत्मानं गवेषयति, न परम् इत्यात्मगवेषकः; संवेगपर आत्मचिन्तकः। पुनः कुर्याद्? इत्याहजं पि जाणे इतो पुव्वं, किया चिचं बहुं जढं। तं चत्ताताणि सेवेला,जेहिं आयारवं सिया॥३६॥ यतःजानीयात् वक्ष्यमाणम् इतः-अस्मात्प्रव्रज्याकालात् पूर्वं कृत्यम्कुटुम्बपोषणसुतोत्पादनादिकम् अकृत्यम्-चौरहननकूटतुलाव्यापारपरवञ्चनादिकं बहु-अनेकप्रकारम् 'जढ' त्यक्तम्, तथा बहुजदं नाममातापित्रादिस्वजनबन्धंतं त्यक्त्वा वान्त्वा वा, तानि यथोचितानि सेवेत यैराचारवान् चारित्रवान् स्यात्-भवेत्। आयुगुत्तो उ सुद्धप्पा, धम्मे ठिया अणुत्तरे। बमे कम्मे सए दोसे, विसमासीविसो जहा॥३७॥ आचारवानिति अध्याहार्यम्, एवंविधश्च सन्यो गुप्तो गुप्तियुक्तः, अथवा--- आचारेण ज्ञानाचारादियुक्तः शुद्धः- पापकृत्यपरित्यागने आत्मा यस्यासौ शुद्धात्मा, धर्मे दशविधे क्षान्त्यादिके स्थित्वा अनुत्तरे अनल्पे ततो जीवः निर्मलत्वादेव वमेत्-त्यजेत्, स्वीयान्-आत्मीयान् दोषान् विषयकषायरूपान्, कः? किमिव-आशीविषो-विषमिव, यथासो विषं त्यजेत् त्यक्त्वा वानपुनरावर्तेत एवमसावपीति उपनयोव्यक्तः! ___ सच यथाभूतो यचाप्नोति तदाहसुवंतदोसे सुद्धप्या, धम्मऽट्ठी विदितापरे। इहेव लभते कित्तिं, पेचाय सुगतिं चरिं // 38 // सुष्ठवतिशयेन वान्तदोषः शुद्धात्मा धर्मः श्रुतचारित्रलक्षणस्तस्याओं विद्यतेऽस्मिन्नितिधर्मार्थी विदितं-ज्ञातम् अपरंमोक्षो येन स विदितापरः, अपरग्रहणात्पूर्वग्रहणमपि; दत्त इत्युक्ते, देवदत्त-ग्रहणवत्। स चैवंभूत इहैव लभते-प्राप्नोति कीर्ति प्रशंसारूपाम्। अथवा-कीर्तिमित्युपलक्षणमामाँषध्यादिकमप्याप्नोति पेचाय' ति प्रेत्यपरलोके सुगतिसुष्ठु गतिं मुक्तिरूपां लभते। उक्तोपसंहारमाहएवं अभिसमागम्म, सूरा दठपरकमा। सय्यमोहविणिम्मुका,जातीमरणमिच्छिया / / 3 / / एवम्-पूर्वोक्तप्रकारेण अवधारणेवा, अभिः-आभिमुख्येसम्-एकीभावे आङ्-मर्यादाऽभिविध्योः गम्लसृपृगतौ। सर्वे गत्यर्थाः धातवःज्ञानार्था ज्ञेयाः। ज्ञात्वा गुणदोषानित्यर्थः; शूराः-तपसि परीषहसहेन च दृढपराक्रमाः समाधृततपउपधानाद्यनुष्ठाननिर्वाह-काः न तु तद्भञ्जकाः, अथवा-ज्ञाननयकथनात्करणनयोऽपि गृहीतोऽत्र, ते चैवं ज्ञात्वा कुर्वन्ति ततः किमस्य फलमित्युच्यते, 'सव्वमोहे' तिसर्वमोहः-अष्टकर्मप्रकृतिरूपः तस्माद्विशेषेण नितरामतिशयेन मुक्ताः यदा निरवशेषो मोहोगतो भवति
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________________ मोहणिज्जट्ठाण 466 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मोहोदय तदा कारणस्याभावात् कार्यस्याभावो भवति, तत्त्वाभावे तत्त्वकरणं शून्यस्त्वच्छासनप्रतिहतेषु न मोहराज्यम् // 1 // " आचा० १श्रु०५ मोहंकार्यम, जातिमरणे अतिक्रान्ते अतीतेकाले एवं सांप्रतागामिकाल- अ०६उ०। योर्भावना कार्या। ब्रवीमि-इति पूर्ववत्। दशा०६अ। आ० चू०। स्था०। मोहरिय-त्रि०(मौखरिक) मुखमतिभाषणातिशयेन वदतीति मुखरः। प्रश्न०आव० अथवा-मुखेनारिमावहतीति निपातान्मौखरिकः / मुखरे, स्था० 6 मोहणिज्जवग्ग-पुं०(मोहनीयवर्ग) मोननीयप्रकृतिसमुदाये, क०प्र०१प्रका ठा०३ उ०। नानाविधासम्बद्धाभिधायिषु, औ०। ध०र०। "मोहरिए मोहतर-पुं०(मोहतरु) मोहस्तरुरिव अशुभपुष्पफलदानभावे न सञ्चवयणस्स परिमंथू' बृ०। मुखं प्रभूतभाषणातिशायि वदनमस्यामोहतरुः। तरुरूपत्वेन विवक्षिते मोहे, पं०व०१द्वार। स्तीति मुखरः; स एव मौखरिकोबहुभाषी विनयादेराकृतिगणत्वादिमोहतिगिच्छा-स्त्री०(मोहचिकित्सा)तपसा मोहक्षये, नि०चू०४ उ०। कणप्रत्ययः / यदा-मुखेनारिमावहतीति व्युत्पत्या निपातनात् मौखरिकः / मोहतिमिरंसुमालि-पुं०(मोहतिमिरांशुमालिन्) मोहस्तिमिरमिव मोह- सत्यवचनस्य मृषावादविरतेः परिमन्थुः मौखये सति मृषावादसम्भवात्। तिमिरं सद्दर्शनावारकत्वेन तस्यांशुमालीवांशुमाली / मोहापनयनादा- बृ०६उ० दित्यकल्पे, पं०सू०४ सूत्रा (स च मौखरिकः 'कुक्कुइय' शब्दे तृतीयभागे 574 पृष्ठे गतः) मोहदंसि-पुं०(मोहदर्शिन) मोहं स्वरूपतो वेत्यनर्थपरित्यागरूपत्वात् (मौखरिकत्वेऽपवादः 'कप्प' शब्दे तृतीयभागे 230 पृष्ठे गतः) ज्ञानस्य परिहरति च समानमपि पश्यति परिहरति चेति / मोहपरि- मौखर्य-न०। मुखमस्यास्तीति मुखरोऽनालोचितभाषी वाचाटस्तस्य ज्ञाज्ञातरि, आचा०१ श्रु०३ अ०४ उ०। भावः कर्म वा मौखर्यम् / धाष्र्यप्रायेऽसत्यासंबद्धापलापित्वे, अनर्थमोहदुग-न०(मोहद्विक) दर्शनमोहनीयचारित्रमोहनीययुग्मे, क०प्र०२ दण्डविरतेर्द्वितीयेऽतिचारे, अतिचारत्वं चास्यपापोपदेशसंभवात्। प्रव० प्रका ६द्वार। श्रा०। पञ्चा०। धo आ०० मोहरिओ मुहेण आयरियाण। मोहदुगुच्छा-स्त्री०(मोहजुगुप्सा) स्त्रीपरिभोगहेतुवेदादिमोहनीय- जहा कुमारा मच्चेणं रन्नो तुरियं किं पि कज्ज० जाव को सिग्धं ओहोजति निन्दायाम, पञ्चा० १विव० आ० चू० 40 मोहद्धंतविणासिणी-स्त्री०(मोहध्वान्तविनाशिनी) अज्ञानतिमिराप- | मोहली-स्त्री०(मौखली) महौषधिभेदे, ती०६ कल्प। हारिण्याम्, द्वा०२४ द्वा० मोहविगारसमेय-त्रि०(मोहविकारसमेत) मनोविमुमद्दोष-समन्विते, मोहपयडि-स्त्री०(मोहप्रकृति) मोहनीयकर्मभेदे, आव०५ अ०) षो०११ विवश मोहपसत्त-त्रि०(मोहप्रसक्त) विषयरते, तं० मोहविस-न०(मोहविष) विवेकचैतन्यापहारिणि विषे, पञ्चा० 14 विव०॥ मोहपास-पुं०(मोहपाश) मोहरूपे बन्धनरञ्जौ, "वेरगतिक्ख-खग्गेहिँ, मोहसण्णा-स्त्री०(मोहसंज्ञा) मिथ्यादर्शनरूपाद् मोहोदयात्संज्ञाने, छिदिउंमोहपासअंजे उ। गिण्हति महासत्ता, अदिट्ठ-पियसंगमा दिक्खं' __ आचा०१ श्रु०१ अ०१उ० सङ्घा०१ अधि०१ प्रस्ता मोहसम-पुं०(मोहशम) मोहस्य मोहनीयस्य शमः शमकउप-शमकः। मोहमेसज्ज-न०(मोहभैषज्य) मोहचिकित्सने, बृ०१ उ०। उपशमश्रेण्यारूढे निवृत्तिबादरे, सूक्ष्मसंपरायेच। कर्म०५ कर्मा मोहमहन्भयप(वट्ट)यट्ठय-त्रि०(मोहमहाभयप्रकर्षक) मोहोमूढता मोहावत्त-पुं०(मोहावर्त) मोहो-मोहनीयं कर्म तदेवातिभ्रमिजनकमहाभयम्-अतिभीतिस्तयोः प्रकर्षक:-प्रवर्तकः यः स मोहमहा-भय त्वादावर्तत इत्यावर्त्तः, सोऽस्मिन्नस्तीति मोहावर्तः / मोहरूपावर्तसप्रकर्षकः प्रवर्तको वा। अज्ञानभयजनके, प्रश्न०१आश्र० द्वार। ड्कुले, दर्श०४ तत्व। मोहमोहियमइ-त्रि०(मोहमोहितमति) मोहेन मोहिता मतिर्यस्य स मोहिय-त्रि०(मोहित) मैथुनसेवां कुर्वति, रा० / निधुवने, न०। ज्ञा०१ तथा / मुग्धेषु कामकीडासक्तेषु, प्रश्न० 4 आश्र० द्वार। श्रु०६अ01 मोहर-न०(मौखर) मौखर्येण पूर्वसंस्तवपश्चात्संस्तवादिना बहुभाषित्वेन यल्लभ्यते तत् मौखरम्। उत्पादनादोषे, प्रश्न ५संव०द्वार / मुखर एव मोहुद्दाम-पुं०(मोहोद्दाम) सकलसमनप्लोषकत्वाद्दावानलकल्पे मोह, प्रति मौखरः। मुखरतया चाटुकरणतः आत्मानं पुत्रतयाऽभ्युपगमयति, स्था० १०ठा०३उ०। मोहुम्माद-पुं०(मोहोन्माद) मोहजनिते उन्मादे, प्रतिका मोहरज-न०(मोहराज्य) मूढताप्रकर्षे, "दग्र्घन्धनः पुनरुपैति भवं | | मोहुम्मायजणण-न०(मोहोन्मादजनन) कामोद्दीपके, उपा०५ अ०1 प्रमथ्य, निर्वाणमप्यनवधारितभीरुनिष्ठम्।मुक्तः स्वयं कृतभवश्च परार्थ- | मोहोदय-पुं०(मोहोदय) क्लिष्टचित्तपरिणामे, पं०व०४ द्वार। 4 इति श्रीसौधर्मबृहत्तपोगच्छीय-कलिकालसर्वज्ञकल्पप्रभु- श्रीमद्भारकजैनश्वेताम्बराऽऽचार्यश्री 1008 श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरविरचिते “अभिधानराजेन्द्रे" मकाराऽऽदिशब्दसङ्कलनं समाप्तम्।।
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________________ साम्म्म्म्म्म्म्म्म्म्म्म्म्म्म्म्म्म्म्म्म्म अभिधानराजेन्द्रः। रकार / र-अव्य०(र) अयं वर्णः मूर्द्धस्थानीयः अन्तस्थः / रा--डा वह्रौ, उग्रे, कामानले, वाच० / सूर्ये, अग्नौ, धने, एका०। शिवे, वजे, कामे, नरे, रुवौ, आराधने, निधौ, पिण्डे, निरर्य च। एका०। जले, रोगे वेगे, न०। एका०ा विरसे, स्त्याने, तीक्ष्णे, च। त्रि० एका० किलशब्दार्थे, दश०१ अ० पादपूरणे च / बृ०३ उ० व्य० ग०। आ०म०। आव०। रअ-धा०(रच) प्रतियत्ने, चुरा०। पर०। रचेरुग्गाहा-ऽवहविडविड्डाः // 814164 / / इति आदेशत्रयाभावे, रअइ। रचयति / प्रा०४पाद। रजस्-ना धूलो, "रेणू पंसू रओ पराओ य" पाइ०ना० 13 गाथा। रअअ-न०(रजत) क-ग-च-ज-त-द-प-य-वां प्रायो लुक // 8/1/177 / / इति / जकारतकारयोर्लुक् / रअ। रूप्यधातौ, प्रा०। लुकि सति। अवर्णो यः श्रुतिः / / 8 / 1 / 180 // इति अकारौ यश्रुतिकौ / रययं। प्रा०ा प्राकृते तु-रअअमित्येव भवति। अदंतु-सौरसेनीमागध्योः। प्रा०१पाद। रअण-न०(रत्न) क्ष्मा-श्लाघा-रत्नेऽन्त्यव्यञ्जनात् / / 8 / 1 / 101!! इत्यनेन तकारनकारयोर्मध्ये ह्रस्वाकारः। प्रा०। माणिक्यादि-प्रस्तरे, स्वस्वजातिषु श्रेष्ठ च / वाचा रअणिअर-पुं०(रजनिचर) राक्षसे, चौरे, यामिकभटे च / प्रा०४ पाद। रइ-स्त्री०(रति) रमणं रतिः / क्रीडायाम्, आचा०१ श्रु०२ अ०२ उ०। आ०म०। औ०। उत्त०। सूत्र०। ज्ञा०रा० मानसे विकारे, आचा०१ श्रु०३ अ०३उ०। अभीष्टपदार्थानामुपरि मनःप्रीती, प्रव० 41 द्वार / मनोऽभिप्रेतवस्तुनः-प्राप्तिजनितचित्तानन्दे, दर्श०१ तत्त्व ! मन्मथवाञ्छायाम्, तं० दयिताङ्गसङ्गजनितायाम् (उत्त०१६ अ०) मैथुनप्रीतौ, उत्त० 14 अ० विषयाभिष्वङ्गे, सूत्र०१ श्रु०१६ अ०। आसक्ती, चं०प्र०२० पाहु०। "एगा रई" रतिश्च तथा-विधानन्दरूपा। स्था०१ ठा०। मोहनीयकर्मोदयजन्ये तथाविधानन्दरूपे विकारे, ध०२ अधि०। विषयेषु मोहनीयोदया-चित्ताभिरतौ, दशा०६अ० रुच्या कामभोगे, नि० चू०१ उ०। असंयमे प्रीतौ, उत्त०६अ०। रम्यते अस्यामिति रतिः। स्पर्शनादिभोगजनितायां चित्तप्रहत्तौ, उत्त०५०। रम्यतेऽनयेति रतिः। क्रीडायाम्, दश०१०। रतिवेदनीयकर्मणि, दश०१चू०। उपचारात् रतिकारणे सुरतव्यापाराङ्गे ललनादौ, अनुवा रतिविषयगतेललनावगूह नादिके, आचा०१ श्रु०२ अ०१उ०) "नग्नप्रेत इवाविष्टः, क्वणन्तीमुपगृह्य ताम्। गाढायासितसर्वाङ्गः, स सुखी रमते किल / / 1 / / '' विशे० प्रश्ना पद्मप्रभस्य षष्ठजिनस्य प्रवर्त्तिन्याम्, प्रव०५ द्वार। स०। भूतानन्दस्य नाट्यानीकाधिपतौ, पुं०। स्था०५ठा०२ उ०! मनोज्ञेषु असंयमे वा रमणं सा रतिः। आभ्यन्तरपरिग्रहे, बृ०१ उ०) रइआसण-न०(रचिताशन) लोकोत्तररीत्या त्रयोदशतिथिदिने, कल्प० 1 अधि०६क्षण। रइकम्म-न०(रतिकर्मन्) यदुदयेन सचित्ताचित्तेषु बाह्यद्रव्येषु जीवस्य रतिरुत्पद्यते-तस्मिन् कर्मणि, स्था०६ ठा०३उ०। रइकर-पुं०(रतिकर) नन्दीश्वरद्वीपे दक्षिणपूर्वाऽऽदिकोणवर्तिषु स्वनाम ख्यातेषु पर्वतेषु, रा०। रइकरपय्वय-पुं०(रतिकरपर्वत) नन्दीश्वरद्वीपे विदिग्व्यवस्थितेषु पर्वतेषु, स्थान रतिकरपर्वतवक्तव्यताणंदीसरवरस्सणं दीवस्स चकवालविक्खंभस्स बहुमज्झद-- सभागे चउसु विदिसासु चत्तारि रतिकरंगपटवता पण्णत्ता। तं जहा--उत्तरपुरच्छिमिल्ले रतिकरगपवते, दाहिणपुरच्छिमिल्ले रइकरगपव्वए, दाहिणपञ्चस्थिमिल्ले रतिकरगपव्वते, उत्तरपचत्थिमिल्ले रतिकरगपव्वए। ते णं रतिकरगपव्वता दस जोयणसयाई उड्डं उच्चत्तेणं दस गाउयसताई उव्वेहेणं सव्वत्थसमा झल्लरिसंठाणसंठिया दस जोयणसहस्साई विक्खंभेणं एकतीसं जोयणसहस्साई अब तेवीसे जोयणसते परिक्खेवेणं, सव्वस्यणामया, अच्छा०जाव पउिरूवा। तत्थ णं जे से उत्तरपुरच्छिमिल्ले रतिकरगपव्यते, तस्स णं चउदिसिं ईसाणस्स देविदस्स देवरन्नो चउण्हमग्गमहिसीणं जंबुद्दीवपमाणाओचत्तारिरायहाणीओ पण्णत्ताओ.तंजहाणंदत्तराणंदा उत्तरकुरा देवकुरा, कण्हाते कण्हरातीते रामाए रामरक्खियाते। तत्थ णं जे से दाहिणपुरच्छिमिल्ले रतिकरगपव्वते, तस्स णं चउद्दिसिं सकस्स देविदस्स देवरनो चउण्हमग्गमहिसीणं जंबुद्दीवपमाणातो चत्तारिरायहाणीओपण्णत्ताओ, तंजहा-समणा सोमणसा अचिमाली मणोरमा पउमाते सिवाते सतीते अंजूए। तत्थ णं जे से दाहिणपचत्थिमिल्ले रतिकरगपवते तत्थ णं चउद्दिसिं सक्कस्स देविंदस्स देवरन्नो चउण्हमग्गमहिसीणं जंबुद्धीवपमाणमेत्तातो चत्तारिरायहाणीओ पण्णत्ताओ, तंजहाभूता भूतवर्डेसागोथूभासुदंसणा, अमलाते अच्छरातेणवमिताते
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________________ रइकरपव्वय ४६८-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 रइवक्का रोहिणीते / तत्थ णं जे से उत्तरपचत्थिमिल्ले रतिकरगपटवते रइप्पिया-स्त्री०(रतिप्रिया) किन्नरस्य किन्नरेन्द्रस्य अग्रमहिष्याम्, ज्ञा०२ तत्थ णं चउहिसिमीसाणस्स देविंदस्स देवरन्नो चउण्हमम्ग- श्रु०४ वर्ग 1 अ०भ०। पूर्वोत्तरजन्मकथा 'अग्गमहिसी' शब्दे प्रथमभागे महिसीणं जंबुद्दीवप्पमाणमित्तातो चत्तारि रायहाणीओ पण्ण- 171 पृष्ठे उक्ता) त्ताओ, तं जहा-रयणा रतणुचता सय्वरतणा रतणसंचया वसूते | रइमंदिर-न०(रतिमन्दिर) रतिक्रीडागृहे, "सोवणयं रइमंदिरं" पाइ० वसुगुत्ताते वसुमित्ताते वसुंधराए / (सू० 307) ना० 108 गाथा। बहुमध्यदेशभागे-उक्तलक्षणे विदिक्षु-पूर्वोत्तराद्यासु रतिकरणाद्रति- रइमेल्ल-(देशी) अभिलषिते, देना० 7 वर्ग 3 गाथा। कराः, 4 राजधान्यः क्रमेण कृष्णादीनामिन्द्राणीनामिति, तत्र दक्षिण- रहमोहणिज्ज-न०(रतिमोहनीय) यदुदयात्सनिमित्तमनिमित्तं वा बाह्यालोकार्द्धनायकत्वाच्छक्रस्य पूर्वदक्षिणदक्षिणापरविदिग्द्वयरतिकरयो- भ्यन्तरेषु वस्तुषु जीवस्य रतिः प्रमोदो भवति / मोहनीय-कर्मणि, स्तस्येन्द्रामीनां राजधान्य इतरयोरीशानस्योत्तरलोकार्दाधिपतित्वात् कर्म०६ कर्म०। पं० सं० तस्येति,एवञ्च नन्दीश्वरे द्वीपे अञ्जनकदधिमुखेषु 4-16 विंशतिर्जि रइय-त्रि०(रचित) निर्मिते, न्यस्ते, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। पञ्चा०) औ०। नायतनानि भवन्ति, अत्र च देवाः चातुर्मासिकप्रतिपत्सु सांवत्सरिकेषु स०। रा०। विहिते, औला रचितमौद्देशिकादिभेदाद्यन्मोदकचूर्णादि चान्येषु च बहुषु जिनजन्मादिषु देवकार्येषु समुदिता अष्टाह्निका महिमाः पुनर्मोदकतया कूरदध्यादिकं वा यत्करम्बकादितया विरचितं तद्रचितकुर्वन्तः सुखं सुखेन विरहन्तीत्युक्तं जीवाभिगमे, ततो यद्यन्यान्यपि मित्युच्यते। औगराला रचितं नाम संयतनिमित्तं कांसयपात्रादौ मध्ये तथाविधानि सन्ति सिद्धायतनानि तदा न विरोधः, सम्भवन्ति च तानि भक्तं निवेश्य पार्येषु व्यञ्जनानि बहुविधानि स्थाप्यन्ते। औद्देशिकतया उक्तनगरीषु विजयनगर्यामिवेति, तथा दृश्यते च पञ्चदशस्थानोद्धार विरचिते भक्तादौ, व्य०३ उ० लेशः- "सोलसदहिमुहसेला, कुंदामलसंखचंदकासंकासा। कणयनिभा रतिद-त्रि०। रम्ये, सुखप्रदे च। जी०३प्रति०४ अधि०। ज्ञा०ा औ०। रा० बत्तीसं, रइकरगिरि बाहिरा तेसिं॥१॥" द्वयोर्द्वयोर्वाप्योरन्तराले बहि: प्रश्न कोणयोः प्रत्यासन्नौ द्वौ द्वावित्यर्थः, "अंजणगाइगिरीणं, णाणामणि रइय(य)भोइ-पुं०(रचितकभोजिन्) रचितकं नाम कांस्यपात्रापज्जलंतसिहरेसु। बावन्नं जिणणिलया, मणिरयणसहस्सकूडवरा।।१।।" दिदेयबुद्ध्या वैचित्र्येण स्थापितं तद्भुङ्क्ते इत्येवंशीलो रचितकभोजी। इति, तत्त्वन्तु बहुश्रुता विदन्तीति एतच्च पूर्वोक्तं सर्व सत्यं जिनोक्तत्वात्। धातुपात्रभोजिनि साधौ, व्य०१ उ०॥ स्था०४ ठा०२ उ०। रइल्लिय-त्रि०(रजस्वल) रजोयुक्ते, भ०५श०३७०। रतिकरणामुच्चत्वादिवक्तव्यता रइवंत-पुं०(रतिमत्) रतिः कामप्रिया विद्यतेऽस्येति रतिमान्। कन्दर्प, तं०/ सव्वे वि णं रइकरगपव्वया दस जोयणसयाई उद्धं उच्चत्तेणं रइवका-स्त्री०(रतिवाक्या) रतिकारकाणि-रतिजनकानि तानि दस गाउयलयाई उव्वेहेणं सव्वत्थसमा झल्लरिसंठिया दस वाक्यानि येन कारणेनास्यां चूडायां तेन निमित्तेन रतिवाक्या; एषां च जोयणसहस्साइं विक्खंभेणं पण्णत्ता। (सू०७२५) रतिकर्तृणां वाक्यानि यस्यां सा रतिवाक्या / रतिजनक वाक्यदोषरतिकरा नन्दीश्वरद्वीपे विदिग्व्यवस्थिताः चत्वारश्रतुः-स्थान प्रतिबद्धायां चूडायाम्, दश० काभिहितस्वरूपाः / स्था० 10 ठा०३ उ० वी० जी०। (रतिकर प्रथमा रतिवाक्यचूडा, अस्याञ्चानुयोगद्वारोपन्यासः। पूर्ववत्तावपर्वतानामुच्चत्यादिवक्तव्यता 'अंजणग' शब्दे प्रथमभागे 46 पृष्ठे विस्तरतो द्यावन्नामनिष्पन्ने निक्षेपे, रतिवाक्येति द्विपदं नाम, तत्र रतिनिक्षेप गता) उच्यते-तत्रापि नामस्थापने अनादृत्य द्रव्यभावरत्यभिधित्सयाऽऽह-- रइगेल्ली-(देशी) रतितृष्णेति केचित्। दे०ना०७ वर्ग 3 गाथा। दव्वे दुहा उ कम्मे, नो कम्मरई असहदव्वाई। रइणाह-पुं०(रतिनाथ) कामदेवे, 'मयरद्धओ अणंगो, रइणाहो वम्महो भावरई तस्सेव उ,उदए एमेव अरई वि॥३६॥ कुसुमवाणो'। पाइ० ना०७ गाथा। द्रव्यरतिः-आगम नोआगमज्ञशरीरेतरातिरिक्ता द्विधा, कर्मद्रव्यरतिः, रइतरंगा-स्त्री०(रतितरङ्गा) तरङ्गनन्दननामराजस्य भार्यायाम, दश०५ नोकर्मद्रव्यरतिश्च / तत्र कर्मद्रव्यरती रतिवेदनीयं कर्म, एतच बद्धमनुअ०१उ०) दयावस्थं गृह्यते, नोकर्मद्रव्यरतिस्तु शब्दादिद्रव्याणि, आदिशब्दात्रइप्पभा-स्त्री०(रतिप्रभा) किन्नरेन्द्रस्य अग्रमहिष्याम्, स्पर्शरसादिपरिग्रहः / रतिजनकानिरतिकारणानि। भावरतिः 'तस्यैव किन्नरस्सणं किन्नरिंदस्स चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ। तु' रतिवेदनीयस्य कर्मण उदये भवति, एवमेवारतिरपिद्रव्यभावभेदभिन्ना तं जहा-वडेंसा, केतुमती, रतिसेणा, रतिप्पभा। (सू०२७३) | यथोक्तरतिप्रतिपक्षतो विज्ञेया इति गाथार्थः / उक्ता रतिः। स्था०४ ठा०१३० इदानीं वाक्यमतिदिशन्नाह--- रइप्पिय-पुं०(रतिप्रिय) किन्नरेन्द्र, नवमे किन्नरमेदे च / प्रज्ञा० १पद। वकं तु पुध्वमणि, धम्मे रइकारगाणि वकाणि /
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________________ रइवक्का 466 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 रओहरण जेण मिमीए तेणं, रइवक्के सा हवइ चूडा॥३६३।। पुण पांसुरता भण्णति। नि० चू०१६ उ०। आ०५०। वाक्यं तु पूर्वभणितं-वाक्यशुद्ध्यध्ययनेऽनेकप्रकारमुक्तम् धर्मे-- रओहरण-न०(रजोहरण) बाह्यम्, आभ्यन्तरं च / रजो हियते अनेनेति चारित्ररूपे रतिकारकाणिरतिजनकानि तानि च वाक्यानि,येन कारणेन रजोहरणम्, तत्र बाह्यरजोऽपहारित्वमस्य सप्रतीतम्, आन्तररजोऽपहअस्यां चूडायां तेन निमित्तेन रतिवाक्यैषा चूडा, रति कर्तृणि वाक्यानि रणसमर्थश्च परमार्थतः संयमयोगस्तेषां च कारणमिदं धर्मलिङ्गमिति यस्यां सा रतिवाक्या इतिगाथार्थः। कारणे कार्योपचाराद्रजोहरणमित्युच्यते। पिं०। रजो ह्रियते अपनीयते इह चरत्यभिधानं सम्यक्सहनेन गुणकारिणीत्वोपदर्शनार्थम्। आह च- येन तद्रजोहरणम् / स्था०५ ठा०३ उ०। पं०व०। (रजोहरणशब्दार्थः जह नाम आउरस्सिह, सीवणछेजेसु कीरमाणेसु। 'पवञ्जा' शब्दे पञ्चमभागे 746 पृष्ठे गतः) प्रव०१ द्वार / पादप्रोज्छने, जंतणमपत्थकुच्छाऽऽ-मदोसविरई हिअकरी उ॥३६॥ पञ्चा०१० विवश यथा नामेति-प्रसिद्धमेतत् आतुरस्य-शरीरसमुत्थेन आगन्तुकेन वा रजोहरणप्रमाणम्व्रणेनग्लानस्य इह-लोके सीवनच्छेद्येषु-सीवनच्छेदनकर्मसु क्रियमाणेषु वत्तीसंगुलदीहं, चउवीसं अंगुलाई दंडस्स। सत्सुकिमित्याह-यन्त्रणं गलयन्त्रादिना अपथ्यकुत्सा-अपथ्यप्रतिषेधः सेसदसापडिपुण्णं, रयहरणं होइ माणेणं // 814 // आमदोषविरतिः-अजीर्णदोषनिवृत्तिः हितकारिण्येव विपाकसुन्दरत्या- | द्वात्रिंशदगुलदीर्घ रजोहरणं भवति सामान्येन, तत्र चतुर्विशतिदिति गाथार्थः। रड्गुलानि दण्डस्य, तस्य रजोहरणस्य शेषाः अष्टाङ्गुला दशाः प्रतिपूर्ण दान्तिकयोजनामाह सह पादपुञ्छननिषद्यया रजोहरणं भवति मानेन-प्रमाणेन इति अट्ठविहकम्मरोगा-उरस्स जीवस्स तह तिगिच्छाए। गाथाऽर्थः / / पं०व०३ द्वार / धo धम्मे रई अधम्मे, अरई गुणकारिणी होइ॥३६॥ रजोहरणस्वरूपमाहअष्टविधकर्मरोगातुरस्य-ज्ञानावरणयादिरोगेण भावग्लानस्य जीव घणं मूले थिरं मज्झे, अग्गे मद्दवजुत्तया। स्य-आत्मनः तथा-तेनैव प्रकारेण चिकित्सायाम-संयम-रूपायां एगंगियं अज्झुसिरं, पोरायामं तिपासियं // 262|| प्रक्रान्तायामस्नानलोचादिना पीडाभवेऽपि धर्मे-श्रुतादिरूपे रतिः-- मूले-हस्तग्रहणप्रदेशे रजोहरणं धनम्- निविडवेष्टितम् / मध्ये--- आसक्तिः अधर्मे-तद्विपरीते अरतिः-अनासक्तिः गुणकारिणी भवति, मध्यभागे स्थिरम्- दृढम् अग्रे-दशिकापर्यन्ते मार्दवयुक्तता, दशिका निर्वाणसाधकत्वेनेति गाथार्थः। मृदुस्पर्शा विधेया इत्यर्थः / एकाङ्गिकं नाम तज्जातदशिकं नवाद्यादिएतदेव स्पष्टयति खण्डनिष्पन्नम्, अज्झुषिरम्-नरोमबहुलं, नवा ग्रन्थिलम; 'पोरायाम' सज्झायसंजमतवे, वेआवचे अझाणजोगे अ। ति पर्वायामम् अङ्गुष्ठपर्वणि प्रतिष्ठितायाः प्रदेशिन्या यावत्तदपान्तरालं जो रमइ नो रमइ असं-जमम्मि सो वचई सिद्धिं // 366 // तावत्प्रमाणायामम् 'तिपासियं' ति त्रिभिर्दवरकवेष्टिकैः पाशितं बद्धम्, स्वाध्याये-वाचनादौ संयमे-पृथिवीकायसंयमादौ तपसिअन-शनादौ एवंविधं रजोहरणं कर्तव्यम्। वैयावृत्त्ये च-आचार्यादिविषये ध्यानयोगे चधर्मध्यानादौ यो रमते इदमेव स्पष्टतरमाहस्वाध्यायादिषु सक्त आस्ते, तथा न रमते-न सक्त आस्ते असंयमे- अप्पोलं मिदुपण्हं, पडिपुत्रं हत्थपूरिमं / प्राणातिपातादौ स व्रजति सिद्धिं गच्छति मोक्षम्। इह च संयमतपोग्रहणे तिपरियल्लमणीसहूं, रयहरणं धारए मुणी / / 263|| सति स्वाध्यायादिग्रहणं प्राधान्यख्यापनार्थमिति गाथार्थः / दृढवेष्टनादस्य शिरः दण्डं वा, तथा मृदूनि-कोमलानि पक्ष्मानिउपसंहरन्नाह दशिकारोमाग्रभागरूपाणि यस्य तन्मृदुपक्ष्मकम् प्रतिपूर्ण बाह्येन निषद्यातम्हा धम्मे रइका-रगाणि ऽरइकारगाणि उ (य) अहम्मे। द्वयेन युक्तं, हस्तपूरिममेव यथा हस्तं पूरयति तथा कर्त्तव्य-मित्यर्थः / ठाणाणि ताणि जाणे, जाई भणिआई अज्झयणे // 367 // त्रिपरिवर्त्तत्रीन वारान् वेष्टनीयम्, अनिसृष्टं नाम हस्त-प्रमाणादवतस्मात् धर्मे-चारित्ररूपे रतिकारकाणि-रतिजनकानि अरति ग्रहादस्फेटितम्, एवंविधं रजोहरणं मुनिर्धारयेत्। कारकाणि च--अरतिजनकानि च अधर्मे- असंयमे स्थानानि तानि- उन्नियं उट्टियं चेव, कंबलं पायपुंछणं। वक्ष्यमाणानि जानीयात; यानि भणितानि-प्रतिपादितानि इह अध्ययने रयणीए माणमित्तं, कुजा पोरपरिग्गहं / 265|| प्रक्रान्ते इति गाथार्थः / उक्तो नामनिष्पन्नो निक्षेपः। दश०१ चू० और्णिकम्-ऊर्णामयम् औष्ट्रिकं वा-उष्ट्ररोममयं यत्कम्बलं तत्पारइसेट्ट-पुं०(रतिश्रेष्ठ) किन्नरभेदे, प्रज्ञा०१पद। दप्रोञ्छनं रजोहरणं कर्त्तव्यम्, रत्निप्रमाणं-हस्तप्रमाणायामं दण्डकं, रइसेणा-स्त्री०(रतिसेना) किन्नरस्य अग्रमहिष्याम्, स्था० 4 ठा०१ | पर्वपरिग्रहम् अङ्गुष्ठपर्वलग्नप्रदेशिनीशुषिरपूरकम् एवंविधं रजोहरणं उ० भ०| कुर्यात् / बृ०३उ० रउग्घाय-पुं०(रजउद्धात) रजस्वलासु दिक्षु, यासु समन्ततो धार इव पञ्च रजोहरणानि। सूत्रम्दृश्यते।व्य०७ उ० भ०। आवा महासंधावारगमनसमुद्धता इव विश्रसा कप्पइ निग्गंथाण वाणिग्गंथीण वा इमाई पंच रयहरणाई परिणामतः समन्तात् रेणुपतनं रउग्धातो भण्णति, अहवा-एस रउग्घाओ | धारित्तए वा परिहरित्तए वा, तं जहा-उण्णिए य उट्टिए
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________________ रओहरण ४७०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 रओहरण साणए वचयपिप्पए मुंजविप्पए नाम पंचमे // 30 // अथास्य सम्बन्धमाहउदितो खलु उक्कोसो, उवहिं मज्झिममिदाणि वोच्छामि। संखा व एस सरिसी, पाउंछणसुत्तसंबंधो॥३७॥ उदितो-भणितः खलु-अनन्तरसूत्रे औणिको मौक्तिककल्परूप उपधिः, इदानीं तु मध्यम उपधिः- रजोहरणलक्षणमहमस्मिन् सूत्रे वक्ष्यामि। यद्वा अनयोः सूत्रयोर्या पञ्चलक्षणा सङ्ख्याएषा सदृशी वस्त्राणां रजोहरणानां च तुल्या, अत इदं पादप्रोञ्छनं रजोहरण तद्विषयं सूत्रमारभ्यते; एष सम्बन्धः, अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य (सूत्रस्य 30) व्याख्या-कल्पते निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां च इमानि पञ्च रजोहरणानि धारयितुंवा परिहर्तुं वा। तद्यथेत्युपदर्शनार्थः। और्णिकम् ऊर्णिकानाम्, ऊर्णाभिर्निर्वृत्तम् ओर्णिकम् / उष्टरोमनिर्वृत्तम् औष्ट्रिकम्, सानकंसनवृक्षजातम् / वल्कलाज्जातं वल्कलस्तृणविशेषस्तस्य 'विप्पकः' कुट्टितस्त्वग्रूपः तेन निष्पन्नं वल्कलविष्पकम्, मञ्चः-शरस्तम्वस्तस्य विप्पकाद्यातं पुजविप्पकं नाम पञ्चमम्, इति सूत्रार्थः / अथ भाष्यविस्तरःअन्भतरं च वज्झं, हरति रयं तेण होइ रयहरणं / तं उण्णि उट्टि सणयं, वचयविप्पं च मुंजं च // 376|| यस्माद् आभ्यन्तरं बाह्यं च रजो हरति तेन रजोहरणं भवति / तत्रयद्वाह्यं रजो हरति तदाभ्यन्तरं कथं पुनरपहरतीति? उच्यते-रजोहरणेन प्रमार्जिते भूमागे य आदाननिक्षेपाद्रयः संयमव्यापारा विधीयन्ते, अष्टकर्मरूपमाभ्यन्तरं रजो हरति, अतः कारणे कार्याध्यारोपं विधायतदप्याभ्यन्तररजोहरणमुच्यते। उक्तं च-"संजम-जोगे एत्थं, रओहरा तेसि कारणं जेणं / रयहरणं उवयारा, संजम भन्नइ रओकम्म" तच पञ्चविधम्-और्णिकम्, औष्ट्रिकम्, शानकम्, वचकविप्पकम, मुज- 1 विप्पकं चेति। तत्राद्यानि त्रीणि सुप्रसिद्वानि, अन्त्यद्वयं व्याख्यानयतिवचकमुजे कत्तं-ति विप्पितुं तेहि भूयए गोणी। पाउरणत्थरणाणि य, करेंति दोसं समासज्ज // 377 / / क्वचिद्धर्मचक्रभूमिकादौ देशे वच्चकंदर्भाकारं तृणविशेष, मुजं शरस्त च प्रथमं विप्पित्वा-कुट्टयित्वा तदीयो यः क्षोदस्त कत्तयन्ति, ततस्तैवचकसूत्रैर्मुञ्जसूत्रैश्च गोणीवारका भूयते। प्रावरणास्तरणानि च देशदेशविशेषमासाद्य कुर्वन्ति, अतस्त-निष्पन्नं रजोहरण वचकविप्पक मुजविप्पकं वा भण्यते। रयहरणपण्णगस्स, परिवाडीए य होति गहणं तु। उप्परिवाडीगहणे,आवजति मासियं लहु॥३७८|| रजोहरणपञ्चकस्यानन्तरोक्तस्य परिपाटिकया ग्रहणं भवति। व्यत्ययपरिपाट्या तु ग्रहणे आपद्यते मासिकं लघुकम्। का पुनः परिपाटिरित्याहतिविहोण्णिय असईए, उट्टियमादीण गहणधरणं तु। उप्परिवाडीगहणे, तत्थ विसठ्ठाणपच्छित्तं // 376 / यथा कृतादिभेदात्त्रिविधं यदौर्णिकं तत्प्रथमतो गृहीतव्यं, यथा | कृतलाभवर्गः प्राग्वत् द्रष्टव्यः / अथौर्णिकं न प्राप्यते तत औष्ट्रिका दीनामपि चतुर्णा यथाक्रमं ग्रहणं धारणं वा कर्त्तव्यम् / अथोत्परिपाट्या यथोक्तव्यत्यासेन ग्रहणं करोति ततस्तत्राऽपि स्वस्थानं प्रायश्चित्तं मध्यमोपधिनिष्पन्नं लघुमासिकमिति भावः / आह-किमर्थं प्रथममौर्णिकं स्तूयतेउट्टसणा कुत्थंती, ओल्ला रयरेसु मुहवं णऽत्थि। तेणोपिणयं पसत्थं, असतीए उक्कम कुना // 380|| 'उद्दसण' त्ति उष्ट्रिकसणकरजोहरणके वर्षाकाले व्यवधारितवृष्टिकायेनार्दीभवने सति कुथ्यतः, ततश्च पनकसम्मूर्छनादयो दोषाः, प्रमार्जनाकार्यं च न भवति। अथाइँणाऽपि प्रमाजने कृते सति दशिकान्तेषु गोलकाः प्रतिबध्यन्ते / मलिनीभूते च तत्राप्कायविराधना / तथा इतरयोर्वचकमुजविप्पकाख्यरजोहरणयोमार्दवं नास्ति, स्वभावत एव कठिनत्वात् ; तेन कारणे नौर्णिकरजोहरणमौष्ट्रिकादिभ्यः प्रशस्तम् / और्णिकस्या सत्यभावे उत्क्रम कुर्यात् / औष्ट्रिकादीन्यपि यथालाभं गृह्णीयादिति भावः / बृ०२ उ०। स्था०। (द्वितीयरजोहरणप्रयोजनम् 'उवहि' शब्दे द्वितीय-भागे 1066 पृष्ठे दर्शितम्) "जन्तवो बहवः सन्ति, दुर्दर्शा मांसचक्षु-षाम्। तेभ्यः स्मृतं दयार्थ तु, रजोहरणधारणम्॥१॥" उत्त०३ अ० पिं० रजोहरणं दारुदण्डकं गृह्णीयात्। सूत्रम्-- जे भिक्खू दारुदंड्यं पायपुंछणयं गिण्हइ गिण्हंतं वा साइजइ / / 1 / / 'जे' ति–णिद्देसे भिक्खू-पूर्वोक्तः दारुमओ दंडओजस्सतंदारुदंडयं, पादे पुंछति जेण तं पाउपुंछणं, वा पट्टओ य निसिज्जवज्जियं रओहरणमित्यर्थः। तं जो करेइ करतं वा साइजइ ॥सा तंजो करेति करतं वा सातिजति तस्स मासलहुं पच्छित, एस सुत्तत्थो। एयं पुण सुत्तं अववातियं। इदाणिं णिज्जुत्तिवित्थरो / गाहापाउंछणगं दुविधं, उस्सग्गियमाववातियं चेव। एकेक पि य दुविधं, णिय्वाघातं च वाघातं // 4 // पाउंछण-रओहरणं, तंदुविधं-उस्सग्गिय, आववातियं च। उस्सग्गियं द्विविध-णिव्याघातियं, बाघातियं च / आववातियं च दुविधणिव्वाघातितं, वाघातितं च। एतेसिं वक्खाणमियाणिं भण्णति। गाहाजंतं णिव्वाघातं, तं एग उण्णियं तु णायव्वं / वाघातउट्टियं पुण, सण पप्पय मुंजविप्पं च // 5 // जंउस्सग्गिय णिव्वाघातितंतं एगति उणियं भवति। झ्याणि उस्सगो-- वाघातियं भण्णति, जंतस्सेव अणेगाओ उण्णिदसाओ। असति तस्सेव उट्टदसाओ, असतितस्सेव उ सणदसाओ, असति तस्सेव उवचपिघदसाओ / वचओ--तणविसेसो दर्भाकृतिर्भवति / असति तस्सेव मुंजपिचदसाओ मुंजो विचउत्ति वा विणिउ त्ति वा कुट्टितो ति वा एगहूँ। असति उणियपट्टयस्स उट्टितपट्टगो एगंगदसो, एगंगासति उण्णिउट्टसणादिपट्टगेसु वि उण्णिदसाओ कारेयव्वा / सणादिपट्टगेसु वि उण्णिदसादओ कारेयव्वा / एते उस्सग्गितवाघातप्रकारा अभिहिता ट्रका | इत्यर्थः।
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________________ रओहरण 471 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 रओहरण इदानीमववातिकं द्विविधं भण्णति-गाहा-- अहवा तं तघहेवा, तण उवरि दारुदंडगं होति। वाघाते अतिरेगो, इमो विसेसो तहिं होति // 6 // जहा उस्सग्गितं णिवाघातं ओण्णियं, सवाघातितंच उट्टादिदसं भणियं अववातिकं तथा वक्तव्यमित्यर्थः / रओहरणपट्टयं दुणिसेज्जवज्जियं दारुदंडयमेवतं भवति। उस्सग्गियअववातितवाधाते अइरेगोइमो, अण्णो विदसाविसेसो भवति। गाहाउवरिनं मुंजयसा, कोसेज य पट्टपोत्त पिच्छे य। संबद्धे वि य तत्तो, एस विसेसो तु वाघाते // 7 // रओहरणपट्टेदारुदंडे वा मुंजदसा भवति, मुंजदसाऽसति कोसेजदसा, कोसेज्जो-वडओ भण्णति / तस्सासति दुगुल्लपट्टदसा, तस्सासति पोत्तदसा, पोत्तदसासति मोरंग-पिच्छदसा 'संबद्ध विय तत्तो' त्ति ततः कोसेतगादिविगप्पेसु वि संबंधासंबंधविकप्पेण रओहरणविकप्पा कार्याः / आद्यभेदानाम-भावादित्यर्थः। चतुर्भङ्गार्थनिरूपणार्थं गाथाद्वयमाहजं जं णिव्वाघातं, एगं तं उणियं तु घेत्तव्वं / उस्सग्गियवाधातं,उट्टिय-सण-पप्प-मुंजं च ।।चा पूर्वार्द्धन प्रथमभागार्थः, पश्चार्द्धन द्वितीयभङ्गार्थः / गाहाणिव्वाघातऽववादी, दारुगदंड उणियाहि दसियाहि। अववातियवाघातं, उट्टिय-सण-पप्प-मुंजदसं III पूर्वार्द्धन तृतीयभङ्गार्थः, पश्चार्टून चतुर्थभङ्गार्थः / एवमेते चउरो भङ्गा विशेषार्थदर्शनार्थमर्थेनाभिधानप्रकारेण प्रदर्श्यन्ते। गाहाअहवा उसग्गुसग्गिय, चउस्सम्गओय अववातं। अहवा उस्सगंवा, अववाओवाइयं चेव॥१०॥ उस्सग्गियणिव्वाधातादि चउरो जे भेया त एव चतुरः उत्सर्गोत्सर्गादि द्रष्टव्याः / प्रथमद्वितीयभङ्गप्रदर्शनार्थ तृतीयचतुर्थभङ्गप्रतिषेधार्थ च इदमाह गाहाएगंगि उणियं खलु, असती तस्स दसिया उता चेव। तत्तो एगंगोट्टी, ओण्णियउट्टियदसा तस्स॥११॥ संबद्धसागंजंतं उस्सग्गितं, इदाणी उस्सग्गाववातितं भण्णति। असति संबद्धदसागस्स उण्णिएपट्टए उणियदसालातिजंति, तस्सासति एगंगियं उट्टियं, तस्सासति उट्टियपट्टए उण्णियदसा, तस्सासति उट्टियपट्टए उट्टियदसा, तस्सासति उण्णियपट्टए सणादिदसा, सव्वाणेया जओ ] भण्णति। गाहा-- एवं सण पप्प मुंज, विप्पिते कोसपट्टदुगल्ले य। पोत्तो पच्छायतहा, दारगदंडे तहा दोसो॥१२॥ असति उण्णियपट्टयस्स उट्टियपट्टए सणादिदसा सव्वाणेया। उड्डियपट्टासति सणयं एगंगियं, तस्सासति सणपट्टए उणियादिदसा णेया। वचगे वि एणंगियं उण्णियादिदसा सव्वा कारेयव्वा, एवं मुंजादिसु वि। णवरं पेच्छे पट्टयं ण भवति / चोदक आह-णणु सणवचगादिपट्टगेसु कोसेज्जपट्टगादिदसा अणाइण्णा? आयरियाऽऽह ता एव वरंण कारुदंड्यं पादपुंछणं। कह? जतो दारुदंडेय बहू दोसा। के यते दोसा?-इमेइहरह विताव गरयं, किं पुण भत्तोग्गहे अहव पाए। भारे हत्थुवघातो, पडमाणे संजमा ताए // 13 // इहरहे त्ति विणा भत्तपाणेण स्वभावेन गुरुरित्यर्थः, किमित्यतिशे, पुणविशेषणे।जदापडिग्गहे भत्तं वा पाणं वा गहितं तदा पुव्वगुरुततो गुरुतरं भवतीत्यर्थः / गुरुत्वात् हस्तोपघातः। पडमाणं गुरुत्वात् जीवोपघातं करोति। पादोवरि आतोऽवघातं वा। चसद्दा-आणादओ दोसा, तम्हादारुदंडगं पायपुंछणं न गेण्हियव्वं / कारणओ गेण्हेज। इमे य ते कारणासंजमखेत्तयथोवा, अद्धाणादिसु हिते विणढे वा। पुवुत्तस्स उगहणं, उण्णिदसा जाव पिच्छं तु॥१४|| जत्थ आहारोवहिसेज्जा काले वा सति ततो अविरुद्धो यत्थ उवही लब्भति तं संजमखेत्तं। तओ असिवादिकारणेहिं वुत्ता। सेसं कंठं। तस्स इमो दंडोवेणुमओ वित्तमओ, दारुमओ वा वि दंडगो तस्स। रयणीपमाणमेत्तो, तस्स दसा होति मइयव्वा // 1 // दसा तस्स भेजा, कथं यद्यसौ त्रयोविंशाङ्गुलस्तदा णवाङ्गुला दसा। अथासौ चतुर्विशाङ्गुलस्तदा अष्टाङ्गुलादसा। यद्यसौपञ्चविंशाङ्गुलस्तदा सप्ताङ्गुला दसा, दंडदसाभ्याम् अहो कतमे द्वितीयभजनीयमित्यर्थः। गाहातं दारुदंडयं पाद-पुंछणं जो य कारए मिक्खू / सो आणाअणवत्थं, मिच्छत्तविराधणं पावे ||16|| कंठा। गाहाणद्वेहि तवस्सरिते, भामियछूढे तहेव परिजुण्णे। असती दुल्लभपडिस्स, ततो य जतणा इमा तत्थ // 17 // उस्सग्गियस्स पुटवं, णिव्वाघाते गवेसणं कुब्जा। तस्सासति वाघातिम, तस्सासति दारुदंडगए|१८|| तम्गि वि णिव्वाघाते, पुष्वकता चेव होति वाघाते। असती पुष्वकयस्स तु, कप्पति ताहे सयंकरणं // 16 // तम्मि वि आववातिते णिव्याधातिते पुव्वकए गहणं / जे भिक्खू धरेति गहियं अपरिभोगेन धारयति। दारुदण्डकं रजोहरणं वितरति परिभाजयति धरति च। सूत्राणिजे भिक्खू दारुदंड्यं पायपुंछणयं वियरइ वियरतं वा साइजइ||३||
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________________ रओहरण 472- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 रओहरण जे भिक्खू अण्णमण्णस्स वियरइ-अन्योन्यस्स साधोग्रहणं प्रतिपुढे वियरति। ग्रहणानुज्ञां ददातीत्यर्थः / सूत्रम् जे मिक्खु दारदंडयं पायपुंछणयं परिभाएइ परिभावेयंत वा साइजह III जे भिक्खू परिभाएति ति नयनं दानमित्यर्थः / सूत्रम्जे भिक्खू दारुदंडयं पायपुंछणयं परिभुंजइ परिभुजंतं वा / साइबइ॥॥ जे भिक्खू परि जति, परिभोगो तेन कार्यकरणमित्यर्थः / गाहाएसेव गमो णियमा, गहणे धरणे तहेव य वियारे। परिमायणपरिमोए, पुव्ये अवरम्मिय पदम्मि॥२०॥ कंठा। गाहा काउंसयं व कप्पति, मुचकितुं पि हुण कप्पती घेत्तुं / धरणं तु अपरिभोगो, वितरणपुढे पराणुण्णा // 21 // परिभायणं तु दाणं, सयं तु परिभुंजणं तदुपभोगो। गहणं पुष्वकतम्मि उ, सयं तु परकते य धरणादी // 22 // गहणं णियमा पुव्वकयस्स, धरणादिपदा पुण चउरो य सयंकते परकते वा भवंति। सूत्रम्जे भिक्खू दारुदंडयं पायपुंछणयं परं दिवढाउ मासाउ घरेइ धरंतं वा साइज्जइ॥६॥ जे भिक्खू दारुदंडयं पायपुंछणं परं दिवढे मासातो धरेति धरतं वा साइजति तस्स आणादिआ य दोसा, संजमविराहणा य / मासलहुयं पच्छित्तं। गाहाउस्सग्गियवाघातं, अहवा तं खलु तहेव दुविघं तु। जो भिक्खू परियट्टति, परं दिवड्डा उमासातो // 23|| उस्सग्गियवाघातादि तिण्णि वि,परं दिवड्डातो मासाउ परिकद्वंतस्स दोसा इमे। गाहासो आणाअणवत्थं, मिच्छत्तविराधणं तहा दुविधं / पावति जम्हा तेणं, अण्णं पाउंछणं मग्गे // 24 // 'अण्णं ति उस्सग्गियणिव्वाघातं। गाहा-- इतरह वि ताव गरुयं, किं पुण भत्तोग्गहे अहव पाए। भारे हत्थुवघातो, जति पडणं संजमा ताए // 25 // पूर्ववत्। तेण गुरुणा दण्डपादपुंछणेण हत्थोवघाएहिंघेप्पति, पडतंवा पायं विराहेज्जा / तत्थ आणा गाढातिविराहणा वा छक्कायविराहणा वा करेजा, तम्हा परं दिवड्डातो मासा / तेण वोढव्वं (इ) अण्णं मग्गियव्वं / इमाए जयणाए। गाहाउस्सग्गियवाघाते,सुत्तत्थं करेइ मग्गणा होति। बितियम्मि सुत्तवज्ज, ततियम्मि तु दो वि व जा॥२६|| बितियं अववाउस्सग्गिय, ततियं अववाताववातितं। गाहाचत्तारि अधाकडए, दो मासा हाँति अप्पपरिकम्मे। तेण पर वि मग्गेज्जा, दिज्जयमासं सपरिकम्मं // 27|| एवं वि मग्गमाणे, जदि अण्णं पादपुंछणं न लभे। तं चेव णु कड्डेजा, जावऽण्णं ण लब्मती ताव // 28|| पूर्ववत्। गाहाएसेव कमो णियमा, समणीणं पादपुंछणे दुविधो। णवरं पुण णाणत्तं, कुजति चप्पदंडओ तासिं // 26 // दुविहं उस्सग्गियं अववातितं च / तासिं डंडए च विसेसोहत्थकम्मादिपरिहरणत्थं चप्पडंडो कज्जति नवृत्ताकृतिरित्यर्थः / सूत्रम्जे भिक्खू दारुदंडयं पायपुंछणयं विसूयावइ विसूयावंतं वा साइजइ॥७॥ गाहाविसुआवणसुक्कवणं, तं कप्पय मुंजपिञ्चसंबद्धे। तं कडिएण दोसा, कारण कप्पती सुक्कबेतुंजे // 30 // तं विसुआवणं पडिसिज्झंति पञ्चयं मुंजयपिच्चिएसु तदसिएसु वा ते य सुक्खा अतिकठिणा भवंति। मजणादिसुय चोदकाह-तद्दोस-परिहारत्थिणा सव्वहा ण कायव्वमेव आचार्याहनेत्युच्यते 'णढे'-गाहा"एवमादिकारणेहि, कायव्वं इमाएँ जयणाए' ''उस्सग्गि-यस्स' गाहा कंठा / मा जीवविराहणा भविस्सति अतो ण उल्लेति ण वा सुक्केति, करणओ उल्लेज्जा वि। गाहाबितियपदे वासासुं, उदुबद्धे वा सिय त्तिते मेज्जा। विसुयावणछायाए, अद्धातवमानवेमलणा॥३१॥ वासाकाले वग्धारियवुट्ठिकायम्मि सग्गामे परगामे भिक्खादिगतस्स उल्लेज्जा, उदुबद्धे वा सिय त्ति स्यात्-कदाचित्। कथम्? उच्यते-- गाहाउत्तरमाणस्स नदि, सोर्धेतस्स व दवं तु उल्लेजा। पडिणीयजलक्खेवे, धुवणे फिडिते व्व सिण्हाए॥३२॥ पडिणीएणवाजले खित्तोसव्योवहिकप्पेवातंधोतपंथातो वापडियस्स उप्पहे उत्तिण्णेसु उण्णए उल्लेज, असुक्खतस्स इमे दोसा। गाहाकुच्छण दोसा उल्ले-ण दावितं कज्जपूरणं कुणति। डंडाय पमळते, मलो य आउं ततो विसुवे॥३३॥ उल्ले असुक्खवेंतस्स कुहए पमञ्जणकजं च ण करेति, अह उल्लेण पमञ्जति तो दसंतेसु गोलया पडिवज्झन्ति, मलिणे य १-इमागाथाष्टाकांकारेणव्याख्योप्रदर्शनार्थसारिताः। --उसाएइतिपुस्तके।
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________________ रओहरण 473 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 रओहरण वासासु आउवधो भवति। एवं दोसगहणं णाउं विसुक्खावेंतिछायाए वि जति ण सुक्खेज तो अट्ठाए वेदेति तह विउ सुक्खते आयवे सुक्खवेति। अंतरंतरे मलेउ पुणो आयवे ठवेति। एवं जाव सुक्खं मृदुकारणत्वात्। नि०० उ०। अतिरिक्तप्रमाणं रजोहरणं धरतिजे भिक्खू अतिरेगप्पमाणं रयहरणं धरेइधरंतं वा साइजइ।।७०|| रओ-दव्येभावे य, तंदुविहं पिरयं हरतीतिरयोहरणं। अतिरेगंधरेंतस्स मासलहुँ। गाहागणणाएँ पमाणेण य, हीणऽतिरित्तं च अवचितोवचितो। झुसिरं खरपम्हं वा, अणेगखेड व जो धीरे // 266 / / गणणाए उदुबद्ध एगं, वासासु दो। पमाणेण वत्तीसंगुलदीहं जदि हीणं एतो पमाणाओ करेति, तो ओणमंतस्स कडिवियडणा, अपमज्जंतस्स पाणिविराहणा, अतिरित्ते अधिकरणं / भारो य संचयदोसो य / अह वासारत्ते एगं धरेति तं हिंडतस्स उल्लं; जति तेण उल्लेण पमज्जति तो उंडया भवंतितारिसेण पमजंतस्स असंजमो, अपजतो असंजतो, भारिये आयविराहणा। पोरप्पमाणाओजंऊणं अवि-चियं तंमिताण विराहणा जं पोरप्पमाणातो अतिरित्तं उवचियं तम्मि भारो भवपरितावणाऽपि अतिरिते अधिकरणं च / संचयदोसो झुसिरं कोयवगपावारगणवयगेसु अतिरोमधूयलं वा झुसिरं, एतेसु संजमविराहणा पडिलेहणा य ण सुज्झति,खराणिसवा दसाओ जस्सतं खरपम्ह। एत्थपमज्जणे कुंथुमातिविराहणा अणेगसिव्वणीहिं अणेगखंडझुसिरं भवति। एत्थ विसंजमविराहणा / सिव्वंतस्स य सुत्तत्थपलिमंथो / जो एरिसं धरेति / "सो आणावा" गाहा गाहाहीणे कजविवत्ती, अतिरेगसंवत्तो अवधिकरणं। झुसिरादि उवरिमेसुं, विराहणा संजमा होति // 267 / / बत्तीसंगुलातो हीणतरं / शेषं गतार्थम्। गाहाहीणाधिए य पोरा, भाणविवत्तीय होति भारो य। कडिवीयणा य अदीहे, ऊणम उड्डाहमादीय // 268|| अंगुट्ठपोराओ हीणं-अवचियं, अहियं-उवचियं, हीणे भायणे वितत्ती, अधिभारो बत्तीसंगुलातो हीणं अदीहं भवति / तंमि ओणमंतस्स कडिवियडणा अतिऊणतेय जलहरपलंवणे उड्डाहो। उदुवसासु धरणे इमं पमाणं एवं उडुबद्धम्मि वि, वासावासासु होइ दो चेव। दंडो दसाय तस्स तु, पमाणतो दोण्ह बी मइए२६६|| जति दंडो हत्थपमाणो तो दसा अट्टगुला, इह दंडग्गहणातो गब्भगडंडिया रयोहरणपट्टगो वा, अह डंडो वीसंगुलो तो दसा वारसंगुला। * अह दंडगो छव्वीसंगुलो तो दसा छ अंगुला / एवमाति भयणा / इभेरिसं धरेयव्वं। १-अत्रैव ४७१पृष्ठे उक्ता टीकाकृतास्मारिता। चतुर्विंशतितमा गाथा। गाहापडिपुण्णहत्थपूरिम, जुत्तपमाणं तु होति णायव्वं / अप्पोल्लंभेउ पोम्हं, एगखंडं च गुण्णातं // 270 / / बत्तीसंगुलपडिपुण्णं बाहिरणिसेजाए ससहत्थपूरिमं एरिसं जुत्तमाणं रओहरणं, पोल्लड़यं पोल्लं ण पोल्लं अपोल्लं अज्झुसिरमित्यर्थः / भेओ अ दसम्मि उ पोम्हें एगखंडं च एरिसं अणुण्णातं भवे, कारणं जेण सव्वाण विधरेजा। गाहाबितियपदमणप्पज्झे, असइ पुवकयदुल्लभे चेव। सण्हे वुत्ते य खरे, एगस्सऽती य दुगतिमादी // 271 / / अणप्पज्झो सव्वाणि करेति, धरेति वा, अप्पज्झो वि असति जहा ऽभिहियस्स हीणातिरित्तातिए करेज धरेज वा / पुचकतं वा हीणातिरित्तादियं दुल्लभं वा जुत्तपमाणं जाव लभति ताव हीणातिरित्ताए वि धरेति, असती ते सण्हं वा धरेति / खरदंस वा धरेति एगखंडस्स वा असति दुगादिखंडं धरेति। गाहासण्हे करेंति थुल्लं, उगब्भयं परिहरेंति तं थुल्ले / झुसिरे ऽवणेति लोमे, खरं तु उल्लं पुणो मलए // 272 / / सण्हे रयहरणपट्टते थूलं गभं करेति, अह थूले रयहरणे पट्टतो ताहे रयहरणगब्भयपरिहवेंति, गब्भएवाथूलेतंपट्टयं परिट्ठति रोमज्झुसिरतो रोमे अवणेति, अथ खरदसं ताहे उल्लेउ पुणो मलिजति। रजोहरणस्य सूक्ष्मा दशा न कुर्यात्। सूत्रम्जे भिक्खू सुहुमाइं रयहरणसीसाइं करेइ करतं वा साइज्जइ।७१॥ सुहुमा सण्हा रयहरणसीसगा दसाओ। गाहाजे भिक्खू सुहुमाई, करेज रयहरणसीसगाई तु। सो आणाअणवत्थं, मिछत्तविराहणं पावे॥७२॥ इमे दोसा। गाहामूढेसुं संमहा, झुसिरमणाइण्णदुप्पला चेव। सुहुमेसु होति दोसा, बितियं कासीय पुवकते // 273|| मूढेसु सम्मघदोसो झुसिरदोसो साधूहि अणाइण्णो दुव्वलाइ भवंति, 'बितियपदमणप्पज्झा'ऽऽदि पुव्वकते वा।। कण्डूसकं बन्धने बध्नाति। सूत्रम्जे भिक्खू रयहरणं के डू सगबंधणं बंधइ बंधतं वा साइजइ॥७३|| कंडूसगबंधो णाम-जाहे रयहरणं तिभागपएसो खोमिएण उणि-एण वा चीरेण वा वेढियं भवति, ताहे उन्निदोरेण तिपासियं करेति तं चीरं कंडूसगपट्टओ भण्णति। १-स्वस्वहस्त।२-इयं (271) टीकाकृता स्मारिता। (3-(275)
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________________ रओहरण रओहरण अणिसिटु णाम-तित्थकरेहि अदिण्णं तस्स मासलहुं, आणादिणो य दोसा। णिज्जुत्तीए इमा गाहादवे खित्ते काले, भावेऽपि य वचमुंज अणिसिह / बितिओऽविय आएसो, जं विदिण्णं गुरुजणेणं / / 281 / / पंचतिरित्तवचेसु, अचित्तं दुल्लभ व दोसुं च। भावम्मि वण्णमोल्ला, अणणुण्णातं च जं गुरुगा॥२८शा दव्वतो पंचण्हं अइरित उण्णियं उट्टियं सणयं वश्चयं मंजपिचं वा, एतेसिं पंचण्हं परतो णाणुन्नातं / दोसु खेत्तकालेसु जं अचित्तं दुल्लभं वा तं णाणुण्णतं, भावतो जं वण्णुकिट्ट महग्धमोल्लं वा तं णो तित्थकरेहिं णिसिटुं ण दत्तमित्यर्थः / अहवा-बितिओ आएसो जं गुरुजणेण नो अणुन्नायं तं अणिसिटुं। गाहाएतेसा-मण्णतरं, रयहरणं जो हरिज अणिसिहं। आणाय विराहणया, संजममुच्छा य तेणादी॥२८३|| महग्घाण वण्णुक्किट्ठे वा मुच्छा भवति / रागो रागेण संजमविराहणा तेणादिएहिं वा हरिजति। गाहाकंडूसगबंधेणं, जइवा इतरेण जो उ रयहरणं। बंधति कंडूसो पुण, पट्टओं आणादिणो दोसा // 275 / / आणाइणो दोसा मासलहुं च / इमे दोसा माहाअतिरेगउवधिअधिकरण मेव सज्झायज्झाणपलिमंथो। कंड्सगबंधम्मि य, दोसो लोभे पसज्जणता // 276 // अतिरेगोवधी निरुवओगताएय, अधिकरणं तस्स सिव्यणधोवणबंधणणमुवणेहिं सुत्तत्थपलिमंथो, लोभे य पसंगो, णटेहिय विस्सरिएहिय अधितो भवति। गाहाबितियपदमणप्पज्झे, असतीए दुब्बले अपडिपुण्णे। एतेहिं कारणेहिं, संबद्ध कप्पती काउं॥२७७।। एगम्मि पएसे दुब्बलं ताहे पडिसवडिं करेति अपडिपुन्नं वा तेण वेढेत्ता हत्थपूरिमं करेति, एतेहिं कारणेहिं तथैवथिग्गलकरण संबद्धं करेइ जेण पुण पडिलेहणा भवति। अविधिबन्धने निषेधसूत्रम्जे भिक्खू रयहरणं अविहीए बंधइ बंधंतं वा साइजइ / / 72 / / अक्स्सगादिअववादियव्यो। सूत्रम्जे मिक्खू रयहरणस्स एकबंधं देयइ देयंतं वा साइजइ॥७३॥ एगबंधो एगपासियं। सूत्रम्जे भिक्खू रयहरणस्स परितिण्णि बंधणे देएइ देयंत वा साइजइ॥७४|| तिपासितातो परं चउपासियादि, आणादिणो य दोसा बहुबंधणे सज्झायज्झाणे य पलिमंथो य भवति / एतेसिं तिण्ह वि सुत्ताण इमो अत्थो त्ति। गाहातिण्हुवरि पवाणं, दंडतिभागस्स हेद्वतो उवरिं। दोरेण असरिसेणं, संतरणं बंधणाणादी॥२७८|| दंडतिभागस्सजति हेहो बंधति उवरिवा असरिसेण वा दोरेण अतिव्वो दूएण बंधे तीएण वा संतरं दोरं करेति, तो आणादिणो दोसा / सव्येसु मासलहुँ / जम्हा एते दोसा। गाहातम्हा तिपासिए खलु, दंडतिभागे उ सरिसदोरण। स्यहरणं बंधेजा, पदाहिण-णिरंतरं भिक्खू // 276 / / बितियपदमणप्पज्झे, संघे अविकोविते व अप्पज्झे। जाणंते वावि पुणो, असती सरिसस्स दोरस्स॥२८०॥ अण्णासति तज्जातीयस्स। अनिसृष्टधारणे दोषः। सूत्रम्जे भिक्खू स्यहरणं अणिसिटुं धरेइ धरतं वा साइज्जइ // 7 // बितियपदमणप्पज्झे, धरेज अवि कोवि नेव अप्पज्झे। जाणते वावि पुणो, धरेज असिवादिणेगागी // 28 // असिवेण एगागी जातो, तेन कस्स णिवेए गुरूणऽत्थि, एवं अणिसिह पि धरेज। रजोहरणं व्युत्सृष्ट धरतीति! सूत्रम्जे भिक्खू रयहरणं वोसहूं धरेइ धरतं वा साइज्जइ // 76|| गाहाआउग्गहखेत्ताओ, परेण जंतं तु होति वोसहूं। ओरेणमवोसटुं, वोसट्टधरंत आणादी॥२८|| वोस8 णाम जं आउम्गहाओ परेण, जं पुण अनुग्रहे वट्टति तं अवोसष्टुं आयपमाणं खेत्तं आउम्गहो इह पुण रजोहरणं पडुच्च समंततो हत्थो हत्थाओ परंण पावति त्ति वोसटुं भण्णति। वोसट्टधरणे इमे दोसा गाहामूइंगमादिखइते, अपमजंते तु ता विराधेति। सप्पे व विच्छुगे वा, गेण्हति खइए य आताए।।२८६|| मूइंगा-पिपीलिका एताहि खइतो, आदिसरातो मक्कोडगादिणा जइ अपमजिउं रयोहरणेण कंडूयति तो तं विराहेति, रयहरणं अप्पहें तो वा सहसा कंडूयतितो विराहेति, अथ सप्पो विच्छुगोवा आगतोजावरयहरणं गेण्हति ताव खइतो मतो आयविराहणा। गाहाबितियपदमणप्पज्झे, वोत्तुल्लगिलाणसंभमेगतरे। असिवादी परलिंगे, वोसटुंजा धरेज्जाहि॥२८७|| अणप्पज्झो धरेति, धाउं वा जाव ओदव्वादि नेइ संतरणे वा उल्लं गिलाणो गिलाणपडिरयगो वा उच्चत्तणाइ कारणेहिं वोसिटुं पि धरेजा।
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________________ रओहरण 475 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 रंतिदेव गाहा तम्हा ताणि णिवण्णो णिसण्णो वा दाहिणपासे अधोदसं करेज्ज। मुहपुत्ती सेजाए, एसेव गमो उ होइ णायव्वो। ___गाहावोसट्ठमवोसट्टे, सुचे अवरम्मिय पदम्मि॥२८॥ बितियपदमणप्पज्झे, करेल अवि को विनेव अप्पज्झे। मुहपोत्तीए खिसेजा एसेव गमो।वोसढेसु पुव्वावरएसु। ओवास असति मूसग, तेणगमादीसु, जाणमवि॥२९॥ सूत्रम् नि० चू०५ उ० पं०व०। जे भिक्खू रयहरणं अहिटेइ अहिटुंतं वा साइजइ // 7 // रजोहरण-प्रयोजनमाहअहिट्ठाणं णाम सणिसेज्जवेढिए चेव उवविसणं एवं अहिट्ठाणं मासलहुँ, आयाणे निक्खेवे, ठाणनिसीअणतुअदृसंकोए। आणादिया य दोसा। पुट्विं पमजणवा, लिंगट्ठा चेव रयहरणं // 15 // गाहा आदाने-ग्रहणे कस्यचित् निक्षेपे मोक्षे स्थाननिषीदनत्वग्वर्त्तनतिण्हं तु विकप्पाणं, अणंतराएण जो अधिढेजा। सङ्कोचनेषु पूर्वम्-आदौ प्रमार्जनार्थ भूम्यादेर्लिङ्गार्थ चैव साधो रजोहरणं पाउंछणगं भिक्खू, सो पावति आणमादीणि // 28 // भवति इति गाथार्थः। पं०५३ द्वार। दोहि वि णिसिज्जसोहिं, एक्केण व बितियततियबादेहि। अविहीए नियंसणुत्तरी परं पहरणदंडगं वा परिभुजे चउत्थं अधवा मग्गों एको, दोहि विपासेहि दोण्णि भवे // 290| सहसा रयहरणं खंधे निक्खवइ उवट्ठावणं, अंगं वा उवंगं वा इमे तिण्णि विकप्पा दोहि वि उवविसतिएको विकप्पो, एगेण वा बितिओ संवाहावेजाखवणं रयहरणं ! वामुस्संगे धरेइचउत्थं / महा० विकप्पो, दोसु विकप्पेसुपण्हियासुअवक्कमतिततिओ विकप्पो। अहवा- १चू०। मांगतो ति पिट्ठतो अक्कमति एगो विगप्पो, दोसु पासेसु पुतोरूएसु ऋतुबद्धे रजोहरणं ग्राह्य वर्षासु पादलेखनिका पं०भा० 1 कल्प०) अक्कमति / एते दो विगप्पा, एते वा तिन्नि। रंक-पुं०(रङ्क) कृपणे, स्था०५ ठा०३ उ०। गाहा रंकय-पुं०र(क) बलभीपुरवास्तव्ये श्रेष्ठिनि, यो रत्नजटितकङ्कणबितियपदमणप्पज्झे, अधिठेजा कुट्टिते व अप्पज्झे। लुब्धेन बलभीपुरराजेन शिलादित्येन पराभूतःगजनीपतिं म्लेक्षराजजाणते वाऽवि पुणो, मूसगतेणादिमादीसुं // 261|| मानीय तद्राजविनाशाय निमित्तमभूत्। ती०१६ कल्प। मूसगेण वा कुट्टिजाति, तेणगेण वा हरिजति, आदिग्गहणातो चतुरूवाणि | खोलिर-त्रि०(दोलक) उत्क्षेपके "रंखोलिरंपट्टोलिरं" पाइ० ना० 186 वा हरेज्जा पडिणीओ वा तेण अधिटेजा। गाथा। सूत्रम् रंग-न०(रङ्ग) नाट्यस्थाने, व्य०८ उ०। 'रायाए रंगोवजीवियाए' आ० जे भिक्खू रयहरणं उसीसमूले ठवइठवंतं वा साइजइ // 76|| म०१ अ०। मल्लयुद्धमण्डपे, कल्प०१ अधि०५ क्षण / रङ्गमण्डपे, सीसस्स समीवं-उवसीसं वकारलोपात्, स्थानयाची मूलशब्दः। "रंगो पिच्छाभूमी" पाइ० ना० 272 गाथा / रक्ताव-यवच्छविविसीसस्स वा उक्खंभणं उसीसट्ठवणं णिक्खेवो सुत्तपडिसंधितं सेवमाणे, चित्ररूपे, दश०२ अास्था बृ०। त्रपुणि, दे०ना०७ वर्ग 1 गाथा। अन्जेतिपावति; मासियं, परिहरणं परिहारो चिट्ठति जम्मितं ठाणं लहु- रंगण-पुं०(रङ्गण) रङ्गणं रागस्तद्योगाद्रङ्गणः जीवे, भ०२० श०२उ०। गमिति उवघातियं। रंज-धा०(रञ्ज) रागे, / रजे रावः ||8446 इत्यनेन रजेय॑न्तस्य सूत्रम् रावादेशो वा ! रावेइ! प्रा०४ पाद। जे मिक्खू रयहरणं तुयट्टेइ तुयतं वा साइजइ / / 8 / / रंजण-न०(रञ्जन) रागे, ज्ञा०१ श्रु०५ अाघटे, देना०७वर्ग 3 गाथा / गाहा कुण्डमिति केचित् / दे०ना०७ वर्ग 3 गाथा। पाइ० ना०२२२ गाथा। जे भिक्खू तुयट्टते, रयहरणं सीसए ठवेजाहि। रंडक्क-पुं०(राण्डक्य) रण्डकय॑पत्ये, राण्डक्यो नाम भोजः कामात् पुरतो व मग्गतो वा, गमगपासे णिसण्णो वा // 26 // ब्राह्मणकन्यामभिगम्यमानः विनष्टः। ध०१ अधिका त्वग्वर्तनवट्टणं शयनमित्यर्थः, वामपासे दाहिणपासे वा उवरि हत्थदसं | रंडा-स्त्री०(रण्डा) मूषिकपण्याम, वाच०। विधवायाम, महा०२ चू० पादमूले वा ठवेति, ण केवलं णिवण्णो णिसण्णो वा पुरओ मम्गओ वा / रंडिया-स्त्री०(रण्डिका) व्यभिचारिण्यां स्त्रियाम्, तं०। वामपासे ठवेति। रंतुअं-(देशी) रजौ, देवना०७ वर्ग 3 गाथा। गाहा रंतिदेव-पुं०(रन्तिदेव) चन्द्रवंशे स्वनामख्याते नृषे, "ध्योमचुम्बिशिखरं सो आणाअणवत्थं, मिच्छत्तविराहणं तहा दुविहं। मनोहरं रन्तिदेवतटिनीतटस्थितम् / अद्ध चैत्यमवलोक्य यात्रिकाः, पावति जम्हा तेणं, दोहिण पासम्मि तं कुल्ला // 26 // शैत्यमाशु ददति स्वचक्षुषोः॥१॥" ती० 43 कल्प।
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________________ रंदूण 476 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 रज्ज रंदूण-अव्य०(रन्त्वा) क्रीडित्वेत्यर्थे , क्त्व इयदूणौ // 8 / 4 / 271 / / इति | रग्ग-त्रि०(रक्त) रक्ते, "गो वा" ||2|10 // रक्तशब्दे संयुक्तस्य गो वा दूणेत्यादेशः / पक्षेरन्त्वा / प्रा० 4 पाद। भवति / इति तस्य गः / प्रा०। अनादौ शेषादेशयोर्द्वित्वम् / / 8 / 2 / 46|| रंध-न०(रन्ध्र) छिद्रे,दूषणे च / व्य०७ उ०। ज्ञा०ा "विवरं कुहरं रंध, इति गस्य द्वित्वम् / रग्गो। नील्यादिभी रजिते, प्रा० 2 पाद। कुच्छिल्लं अंतरं कुडिल्लंच" पाइ० ना०६३ गाथा। रग्गय-(देशी) कौसुम्भरक्तवस्त्रे, दे०ना०७ वर्ग 3 गाथा। "रगयं च रंधण-न०(रन्धन) अन्नादीनां पाचने, प्रव०३८ द्वार। ज्ञा०) रन्धनविषय- नवरंग' पाइ० ना० 261 गाथा। कविशेषपरिज्ञानरूपे 51 स्त्रीकलाभेदे, कल्प०१ अधि०७ क्षण। रखोल-धा०(दोलि) उत्क्षेपणे, दुल-स्वार्थे णिच् / दुले रङ्खोल: रं(म्म)म-धा०(गम्) गतौ, गमेः रई-अइच्छाणुवज्जावजसोकु-साकुस- |8/4/48|| दुलेः स्वार्थे ण्यन्तस्य रखोलइत्यादेशो वा भवति / पनडु-पच्छन्द-णिम्मह-णि-णीण-णीलुक्क-पदअ-रम्भ-परिअल्ल- रड्खोलइ / दोलइ / दोलयति / प्रा० वोल-परिअल-णिरिणास-णिवहावसेहावहराः ||4|162 / / इति रचिय-त्रि०(रचित) निहिते, स०॥ रचनाविशेषे, प्रश्न०३ आश्र० द्वार। गमधातोरम्भादेशे वा। रम्भइ। गच्छति, प्रा०४ पाद। अन्दोलनफलके, रच्छामअ-(देशी) शुनि, दे०ना०७ वर्ग 4 गाथा। देना०७ वर्ग 1 गाथा। रज्ज-न०(राज्य) यावत्सुदेशेषु एकभूपतेराज्ञा तावद्देशप्रमाणे राष्ट्र, बृ०४ रंभा-स्त्री०(रम्भा) वैरोचनेन्द्रस्य बलेरग्रमहिष्याम्, ज्ञा०२ श्रु०३ वर्ग 1 उका जीत०। उत्त०ा ज्ञा०ा राजादिपदार्थसमुदाये, "स्वाम्यमात्यश्व राष्ट्र अ०भ०। कदल्याम्, "रंभा कयली'' पाइ०ना० 254 गाथा। च, कोशो दुर्ग बलं सुहृत् / सप्ताङ्गमुच्यते राज्यं, बुद्धिसत्त्वसमाश्रयम् रक-न०(रक्क) वृषभादिशब्दकरणे, अनु०॥ // 1 // " / भ० 15 श० रा०ा ग० कल्प० नृपत्वे, तं०। प्रभुतायाम, रक्ख-पुं०(रक्षस्) राक्षसे, "रयणियरजाउहाणा, कव्याया कोणवा स्था०५ ठा०३उ०। रक्खा' पाइ० ना० 30 गाथा। ऋषभः स्वपुत्रादिभ्यो राज्यं दत्तवानत्र दोषविचारः। रक्खंत-त्रि०(रक्षत्) अन्यायात् रक्षां कुर्वति, औ०। भा एवं जगद्गुरुविषयां महादानविप्रतिपत्तिनिरतस्यैव राज्यदानविषयां रक्खण-न०(रक्षण) आहारादिना उपजीव्ये, सूत्र०१ श्रु० 4 अ०१ उा / तां निरस्यन् परमतं तावदाहतं०। सम्यक्त्वव्रतानामनुपालनोपाये, ध०२ अधि०। अन्यस्त्वाहाऽस्य राज्यादि-प्रदाने दोष एव नु / रक्खस-पुं०(राक्षस) मांसास्वादनपरे, उत्त० 16 अ० व्यन्तरविशेषे, ' महाधिकरणत्वेन, तत्त्वमार्गे विचक्षणः ||1|| उत्त० पाई०१६ अ०। औ० प्रश्नस्था०। सूत्र०। प्रव०। औ० स०) अन्यस्तु--जगद्गुरुमहादानपूर्वपक्षवाद्यपेक्षया, अपरः पुनर्वादी आहव्यन्तरमात्रे, सूत्र०१ श्रु०१२ अ०। प्रज्ञा०। ब्रूते अस्य-जगद्गुरोः राज्यादिप्रदानेस्वपुत्रादिभ्यो नरनायकत्वकलरक्खा समासओ दुविहा पण्णत्ता,तं जहा-पज्जत्तगाय, अप- अकलाकर्मशिल्पप्रभूतीनां वितरणे दोष एव-अशुभकर्मबन्धलक्षणं जत्तगाय। प्रज्ञा०१ पद। दूषणमेव। तुशब्दः-पूरणे केन हेतुनेत्याह-महच-तद् गुरुकमधिकरणं राक्षसाः सप्तविधा प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-भीमा 1 महाभीमा 2 विघ्रा 3 च-दुर्गतिहेत्वनुष्ठानं महाधिकरणं तद्भावस्तत्त्वं तेन, राज्यादिप्रदानं विनायका 4 जलराक्षसा 5 राक्षसराक्षसा 6 ब्रह्मराक्षसाः 7 / प्रज्ञा०१ हिमहाधिकरणं महारम्भमहापरिग्रहकुणिमाहारपञ्चेन्द्रियवधादिपद / अहोरात्रस्य त्रिंशे मुहूर्ते च / कल्प०१ अधि०६ क्षण। चं०प्र० हेतुत्वात्तस्य अग्निशस्त्रादिदानमिवेति दृष्टान्तोऽभ्यूहाः। क एवमाहेत्याहज्यो जं० स० तत्त्वमार्गेवस्तुपरमार्थाध्वनि परिच्छेत्तव्ये अविचक्षणः-अपण्डितः / रक्खिय-त्रि०(रक्षित) गुप्ते, स्था०६ठा० 330 / उत्तका दुर्गतिप-तनात् अविचक्षणत्वं चास्य वक्ष्यमाणराज्यदानादिहेतोरपरिज्ञानादिति / निवारिते, उत्त०१५ अ० प्रश्न। अनुयोगचातुर्विध्यकारके सोमदेवेन अथवा-विचक्षण इत्युपहासवचनमिति॥१॥ ब्राह्मणेन रुद्रसोमायां भार्यायां जाते आर्यवर्यशिष्ये पूर्वधरे सूरौ / उत्तरमाहआ०म०१ अ०। आ० चू०। (तत्कथा 'अजरक्खिय' शब्दे प्रथमभागे अप्रदाने हि राज्यस्य, नायकामावतो जनाः। 212 पृष्ठे प्रत्यपादि) "वन्दामि अज्जरक्खिय-खमणे रथियचरित्तस- मिथो वै कालदोषेण, मर्यादाभेदकारिणः // 2 // व्वस्सो। रयणकरंडगभूओ, अणुओगो रक्खिओजेहिं // 1 // " नं०आर्य- विनश्यन्त्यधिकं यस्मा-दिहलोके परत्र च / सुहस्तिनो द्वादशशिष्याणां सप्तमे, कल्प०२ अधि०८ क्षण। शक्ती सत्यामुपेक्षा च, युज्यते न महात्मनः॥३॥ रक्खिया-स्त्री०(रक्षिता) धनेन सार्थवाहेन भद्रायां भार्यायां जनितस्य तस्मात्तदुपकाराय, तत्पदानं गुणावहम् / धनगोपाख्यपुत्रस्य भार्यायाम, ज्ञा०१ श्रु०७ अ०। अष्टादशतीर्थकरस्य परार्थदीक्षितस्यास्य, विशेषेण जगद्गुरोः॥४॥ स्वनामख्यातायां प्रवर्त्तिन्याम्, ति०) अप्रदाने-पुत्रादिभ्योऽवितरेण सति, हिशब्दः-पूर्वपक्षपरिहारभावनार्थः, रक्खी-स्त्री०(रक्षी) अष्टादशजिनस्य स्वनामख्यातायां प्रवर्त्तिन्याम्, राज्यस्यभूपतित्वस्यनायकाभावतः स्वामिकाभावात्जनाः-लोकाः मिथ:प्रश्न०१आश्र०द्वार। परस्परेण विनश्यतीतियोगः। वैशब्दः-वाक्यालङ्कारे। कालदोषेण अवसर्पि
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________________ रज्ज 477 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 रजजिया णीलक्षणस्य हीनहीनतरादिस्वभावस्य समयस्यापराधेन हेतुना निवारणलक्षणसम्पादनेन न दोषवान् अयमिति योगः। अथ किमल्पमर्यादाभेदकारिणः-स्वपरधनदारादिव्यवस्थालोपः कारकाः सन्तः स्यापि दोषस्याभावेन महानर्थरक्षां न करोतीत्याह--अन्यथा अन्येन विनश्यन्ति-क्षयमुपगच्छन्ति।नायकसद्भावेऽपि केचिद्विनश्यन्तो दृश्यन्ते प्रकारेणाऽल्पस्याप्यनर्थस्या-यनाश्रयणलक्षणेनासम्भवात्-महानर्थरइत्यत्राऽऽह-अधिकम्-अत्यर्थं यस्मात् कारणात्-वनश्यन्तीत्याह- क्षणस्याघटनात्, अयमिति जगद्गुरुरिति / उक्तञ्च--- इहलोके इहैव मनुष्यजन्मनि प्राणादिक्षयात्, परत्र च-परलोके च तत्थ पहाणो आसो, बहुदोसोसनिवारणाउ जगगुरुणो। हिंसानृतधनदारापहारादेः,तथा-शक्तौ-सामर्थ्य सत्याम्-विद्यमाना नागाइरक्खणे जह, कढणदोसे वि सुहलोगो।।१।। याम् उपेक्षा अवधीरणा चशब्दो-हेत्वन्तरसमुचये, युज्यते-घटते, न गत्तातडम्मि बिसमे, इट्ठसुयं पिच्छऊण कीलंतं। नैव महात्मनो-जगद्गुरोर्युगादिदेवादेर्यस्मादेवं तस्मात्कारणात्तेषां तप्पचवायभीया, तयाणणट्ठा गया जणणी / / 2 / / परस्परेण विनश्यतामुपकारोऽनयंत्राणम् तदुपकारस्तस्मै तदुपकाराय दिट्ठो य तीऍ नागो, तं पइ इंतो दुओ य खड्डाए। तत्प्रदानम्-राज्यदानम् गुणावहम्, राज्यहातुरुपकारकमेवनपुनर्दोषावहम्। परस्मै इदं परार्थम् परोपकारार्थमित्यर्थः,दीक्षितस्य कृतनिश्च तो कड्डिओ तओ तह, पीडाएँ विसुद्धभावाए / / 3 / / यस्यपरार्थोद्यतस्येत्यर्थः, अस्य-जगद्गुरोः विशेषेण-सुतरां सामान्य अधिकदोषनिवारणार्थी प्रवृत्तिरस्य किञ्चिद्दोषवत्यपिन दुष्टत्ये-तस्य राज्यदायकापेक्षया जगद्गुरोर्भुवनभर्तुः जिनस्येति, अनेन च राज्य पक्षस्याभ्युपगमे बाधामाहप्रदानस्य महाधिकरणस्वभावत्वं व्युदस्तम्। तदानस्यैव महाधिकरण- इत्थं चैतदिष्टव्य-मन्यथा देशनाऽप्यलम्। त्वेन प्रसाधनतः परोक्तो महाधिकरणत्वलक्षणो हेतुरसिद्ध इत्युक्तम्, कुधर्मादिनिमित्तत्वा-दोषायैव प्रसज्यते॥८|| तदसिद्धेश्व राज्यादिदाने दोष एवेत्यपहसितमिति // 4 // इत्थं चैतदिहैव अनन्तरोक्तेन गुरुतरानर्थनिवारकत्वलक्षणेन चशब्दोऽराज्यादिदानेषु दोष एवेत्यत्रादिशब्देन विवाह वधारणे एतदनन्तरोदितं राज्यप्रदानादिकं वस्तु इह-प्रक्रमे एष्टव्यम्-- दिव्यवहारदर्शनं भगवतःसदोषमित्यास अभ्युपगन्तव्यम्, अन्यथा-एतस्यानभ्युपगमे देशनाऽपितत्त्वप्ररूपणाजितम् / तत्र परिहारातिदेशमाह-- ऽप्यास्ताम् राज्यादिदाने दोषायैवेति योगः, अलम्-अत्यर्थम् / कुतः एवं विवाहधम्मदिौ,तथा शिल्पनिरूपणे। इत्याह-कुधाः -शाक्यादिप्रवचनानि आदिर्येषांश्रुतचारित्रप्रत्यन दोषे ह्युत्तमं पुण्य-मित्थमेव विपच्यते // 5 // नीकत्वादिभावानां ते तथा तेषां निमित्तं हेतुस्तद्भावस्तत्त्वं तस्माजियथा राज्यादिदाने न दोषो महाधिकरणत्वाभावात् गुणावहत्वाच्च, नदेशना हि नयशतसमाकुला , नयाश्च-कुलप्रवचनालम्बनभूतादोषायैव एवम्-अनेनैव प्रकारेण विवाहः-परिणयनं तद्रूपो धर्मः-समाचारो अनर्थायैव न पुनर्गुणाय प्रसज्यते-प्राप्नोति / न चभगवद्देशनाया व्रतबन्धो वा विवाहधर्मः, तदादौतत्प्रभृतिके आदि-शब्दाद्राजकुलग्राम अनर्थनिबन्धनत्वमम्युपगन्तव्यम् अनन्योपायत्वेनार्थप्राप्तेरभावप्रसङ्गाधर्मादिपरिग्रहः, तथा-शब्दः समुच्चये शिल्पनिरूपणोघटलोहचित्र दिति।।८। हा०२८ अष्टा वस्त्रनापितव्यापारोपदर्शने, किमित्याह-न दोषः, नैवाशुभकर्मबन्ध रजचिंध-न०(राज्यचिह्न) मुकुटचामरादिषु, प्रव०१द्वार। लक्षणंदूषणमस्तिभगवतः इह प्रतिज्ञायां हेतुमाह-हिशब्दो-यस्मादर्थः, | रजजिया-स्त्री०(राज्यार्या) स्वनामख्यातायामार्यिकायाम्, महा०। ततश्च यस्मादुत्तमम्-प्रकृष्टं तीर्थकरनामकर्मलक्षणं पुण्यम्-शुभकर्म सारासारमयाणित्ता, अगीयत्थत्तदोसओ। इत्थमेव-अनेनैव विवाहशिल्पादिनिरूपणप्रकारेण विपच्यते विपाकं वयमेत्तेण विरजाए, पावर्ग जं समझियं / याति स्वफलं ददातीत्यर्थः / / 5 / / तेणं तीए अहंताए, जा जा होइ नियंतणा। इहाभ्युपच्यमाह नारय-तिरिय-माणुस्से, तं सोचा को धियं लभे। किं चेहाधिकदोषेभ्यः, सत्त्वानां रक्षणं तु यत् / कथानकम्उपकारस्तदेवैषां, प्रवृत्त्यङ्ग तथाऽस्य च॥६॥ सेभयवं! काउणसारजजिया विविवाया। तीएअगीयत्थत्तदोसेणंवयमेतेणं नागादे रक्षणं यद-दर्ताधाकर्षणेन तु / पि, पावं कम्मं समज्जियं / जस्स णं विवागयं सोऊणं को धिई लभेजा। कुर्वन्नदोषवांस्तद-दन्यथाऽसमावादयम्।।७।। गोयमा ! णं इहेव भारहे वासे भद्दो नाम आयरियो अहेसि, तस्स यपंचसए नागादेः-सर्पगोनसादेः सकाशाद्रक्षणम्-इष्टपुत्रादित्राणम् यद्वत्-यथा साहूणं महाणुभागाणं दुवालससए निग्गन्थीणं / तत्थ य गच्छे चउत्थरसियं गदिः--श्वभ्रादेः सकाशाद् आदिशब्दात्सोपानपत्यादि-परिग्रहः, ओसावणं तिदंडोऽचित्तं च कढिओदगं विप्पमोत्तूणं चउत्थं न परिभुंजइ, आकर्षणमाक्षेपणं गद्द्याकार्षणं तेनाधिकरणभूतेन हनु-जानुप्रभृत्य- अन्नयारजानामाएअज्जियाएपुवकायअसुहपावकम्मोदएणसरीरगंकुहवाहीए घर्षणलक्षणानर्थकरणेनान्यथारक्षणस्यासम्भवादिति भावः। तुशब्दो- परिसडिऊण किमिएहिं समुद्दिसिउमारद्धं / अहऽन्नयापरिगलंतपूइरुहिरतणुं पिशब्दार्थः, कुर्वन् विदधद्रक्षणमिति योगः, (न)-नैव दोषवान्- तां रजजियां पासिया ताओ य संजईओ भणंति / जहा-हालाहलदुक्करदूषणवान् मात्रादिरिति दृष्टान्तः। अथ दान्तिक-माह-तद्वत्-तथा कारणे किमयं ति, ताहेगोयमा!पडिभरियंतीएमहापावकम्माएभमालक्खणराज्यादियच्छन्घर्षणतुल्यानथसम्भवेऽपि नागादिरक्षणकल्पमहानर्थ- ___ संजमाए रज्जज्जियाए। जहाएएणंफासुगपाणएणंसेविञ्जमाणेणं विणलृमेसरी
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________________ रजजिया 578 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 रगं ति। जाव इयं पलवे लावणं संखुहियहिययं गोयमा! सव्वसंजईसमूह जहा णं विवज्जामो, फासुगपाणगं ति। तओ एगाए तत्थ चिंतियं संजईए जहा--णं जइ संपयं चेव मम एयं सरीरगं एगनिमिसभंतरे-णेव पडिमडिऊणं खंडखंडेहिं परिसढेजा तहावि अफासुगोदगं इत्थ जमेण परिभुंजामि, फासुगोदर्गण परिहरामि, अन्नं च किं सव्वमेयं फासुगोदगेणं इमीए सरीरगं विणटुं सव्वहा ण सव्वमेयं, जं उण पुवकयअसुहपावकम्मोदएणं सव्वमेयंबिहं हवइ त्ति सुठुयरं चिंतिउं पयत्ता; जहाणं जहा भोपेच्छइ अत्ताणदोसोवहयाए दढमूढहि-ययाए विगयलज्जाए इमीए महापावकम्माए संसारघोरदुक्खदायगं केरिसं दुद्रुवयणं गिराइयं, जं मम कन्नविवरेसु पि ण पविसज्जति / जओ भवंतरकएणं असुहपावकम्मोदएणं; जं किंचि दारिद्वदुक्खदोहग्गअयस्सऽभक्खाणकुट्ठाइवाहिकिलेससन्निवायं देहमि संभवइ, न अन्नह ति। जेण तुएरिसमागमे पढिजइ। तं जहा-"को देइ कम्ह देजइ, विहियं को हरइ हारए कस्स। सयमप्पणो विढत्तं, अल्लिययइ दुहं पि सुक्खं पि॥१॥" चिंतमाणीए चेव उप्पन्नं केवलनाणं / कया य देवेहि केवलिमहिमा। केवलिणा वि परसुरासुराणं पणासियं संसयतमपडलं अज्जियाणं च / तओ भत्तिभरनिटभराए पणामपुव्वं पुट्ठो केवलीरज्जाए, जहा-भयवं ! किमट्ठ-महं एयाणं महंताणं महावाहिवेयणाणं भायणं संवुत्ता। ताहे गोयमा! सजलजलहरसुरदुंदुहिनिग्घोसमणोहारिगंभीरसरेणं भणियं केव-लिणा, जहा-- सुणसुदुक्करकारिए! जंतुज्झ सरीरविहडणकारणं ति। तएरत्तपित्तदूसिए अभंतरओ सरीरमे सिणिद्धाहारमाकंठाए कोलियमीसं परिभुत्तं / अन्नं चएत्थ गच्छेएतीए साहुसाहुणीए, तहाऽविजावइयं अच्छीणि पक्खालिजंति तावइयं पि बाहिरपाणगं सागारियट्ठापनिमित्तेण वि ण कयाइ परिभुजइ। तए पुण गोमुत्तपडिग्गहणगयाए तस्स मच्छियाहिं भिणिभिणितसिंघाणगलाला-लोलियवयणस्स संसट्टगमुवगयस्स बाहिरपाणगं संघट्टिऊणं मुहं पक्खालियं / तेण य बाहिर पाणयसं घट्टणविराहणेणं ससुरासुरजगवंदाणं पि अलंघणिजा गच्छमेरा अइक्कमिया।तंचणंखमियं तुज्झ पववणदेवायाए, जहा-साहुणाणं च पाणावरमे विणिच्छिप्पे हत्थेणावि, जंकूवतलायपुक्खरिणीसरियाइमतिगयं उदगं ति, केवलं तु जमेव विराहियं अवगयसयलदोसं फासुगं तस्स परिभोगं पन्नत्तं वीयरागेहि, ता सिक्खावेमि एसा दुरायारा जेणऽन्नो वि को विण एरिसं समायारंपवत्तेइ त्ति चिंतिऊणं अमुगेर चुन्नजोगं समुद्दिसमाणाए पक्खित्तं असणमज्झमितंदेवयाए।तंचतेणोवलक्खियंति देवयाए। एएण कारणेणं ते सरीरं विहडियं ति, ण उण फासुगपरिभोगेणं ति। ताहे गोयमा! रज्जाए विभावियं, जहा-एवमेयं ण अन्नह त्ति; चिंतिऊण विनविओ केवली। जहा-भयवं! जइ अहं जहुत्तं पायच्छितं चरामि, ता किं पन्नप्पइ मज्ज एव तणुं। तओ केवलिणा भणियं / जहा-जइ कोइ पायच्छित्तं पयच्छइ ता पन्नप्पइ। रजाए भणियं। जहा भयवं! जइ तुमंचिय पायच्छित्तपयच्छसि, अन्नो को एरिसो महप्पा / तओ केवलिना भणियं जहा दुक्करकारि पयच्छामि अहं तहा पच्छित्तमेव नऽत्थि, जेणं ते सुद्धी भवेज्जा / रज्जाए भणियं भयवं ! किं कारणं ति। केवलिणा भणियं, जहा-जं ते संजइ वंदपुरओ गिराइयं / जहा-मम फासुयपाणपरिभोगेण सरीरगं विहडियं ति / एयं च दुट्ठपावं सहासमुदाए कहियं पडिवयणं सोचा संखुद्धाओ सव्वाओ चेव इमाओ संजइओ। चिंतियं च एयाहिं, जहा निच्छयओ विमुच्चामो फासुओदगं, भयऽज्झवसायाण आलोइयं निंदियं गरहियं चेयाहिं, दिन्नं च मए एयाणं पायच्छित्तं। तत्थं च एए तव्वयणदोसेणं जंते समज्जियं अचंतकडुविरसंदारुणबद्धपुट्ठनिकाइयं तुंग जं च पावरासिं, तं च कुट्ठभगंदरजलोदरवायुगुमासासनिरोहहरिसागंडमालाहिं अणेगवाहिवेयणापडिगयसरीराए दारिद्ददुक्खदोहग्गअयसऽभक्खाणसंतावुव्वेगसंदीवियपज्जालियाए अणंतेहिं भवगहणेहिं सुदीहकालेणं तु अहन्निसाणुभवेयव्वं / एएणं कारणेणं णसमा गोयमा ! सा रजजिआ जा अगीयत्थत्तदोसेणं वायामेत्तेणेव पमहंतं दुख्खदायगं पावकम्मं समञ्जियं ति। महा०६उ० रज्जधम्म-न०(राज्यधर्म) प्रतिराज्यं भिन्ने करादिके,दश०१ अ० रज्जपालिया-स्त्री०(राज्यपालिका) कामर्द्धिकस्थविरान्निर्गतस्य वेसपाटिकगणस्य द्वितीयशाखायाम्, कल्प०। रजमाण-त्रि०(राज्यमान) रागवति, ज्ञा०१ श्रु०१७ अ०। रज्जवइ-पुं०(राज्यपति) स्वतन्त्रे राजनि, ज्ञा०१ श्रु०१०। रज्जवद्धण-पुं०(राज्यवर्द्धन) अवन्तिराजपालकपुत्रे अवन्तिवर्द्ध नलघुभ्रातरि, आ०चू०४० रजहीण-पुं०(राज्यहीन) राज्यच्युते, सूत्र०१ श्रु०३अ०१3०। रजाहिवइ-पुं०(राज्याधिपति) महामन्त्रिणि, राजनि च। बृ०४ उ०। रज्जु-स्त्री०रज्जु(जू) रज्ज्वा यत्संस्थानं तद रज्जुरभिधीयते। क्षेत्रग-णिते, स्था० 10 ठा० 30 सम्प्रति रज्जूस्वरूपमाहसयंभुपरिमंताओ, अवरंतो जाव रज्जुमाईओ। एएण रज्जुमाणेण, लोगो चउद्दसरलुओ॥३१॥ केवलद्वीपपयोधिपर्यन्तवर्तिनः स्वयंभूरमणाभिधानजलनिधेः परतटवर्तिपूर्ववेदिकान्तादारभ्य यावत्तस्यैव तोयधेरपरवेदिकान्तः, एतावत्प्रमाणा रज्जुरवगन्तव्या। अनेन च रज्जूमानेनोच्छ्रयतो लोकश्चतुर्दशरलूप्रमाणो भवतीति: प्रव० 143 द्वार। रजवः कस्मिन् स्थाने कति सन्तीतिमाघवईएँ तलाओ, ईसिप्पन्भार उवरिमतलं जा। चउदसरजू लोगो, तस्साऽहो वित्थरे सत्त।।६०६॥ उवरि पएसहाणी, ता नेया जाव भूतले एगा। तयणुप्पएसवुड्डी, पंचमकप्पम्मि जापंच / / 610|| पुणरवि पएसहाणी, जा सिलाएँ एक्कगा रज्जू / घम्माऐं लोगमज्झे, जोयणयअसंखकोडीहिं / / 911|| माधवत्याः-तमस्तमःप्रभापराभिधानायाः सप्तमनरक पृथिव्यास्तलादलोक पृथिव्याः संस्पर्शिनः सर्वाधस्तनभागादारभ्य ईषत्प्रागभारायाः सिद्धशिलायास्सर्वोपरितनतलं लोका
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________________ रज्जु 476 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 रज्जु न्तलक्षणं यावदूर्वाधोभागेन चतुर्दशरज्जूप्रमाणो लोको भवति, तस्य च लोकस्याधस्तात्सप्तमपृथिव्या अधोभागे विस्तरतो देशोनाः सप्त रज्जवः। सूत्रकारेण त्वल्पत्वाद्देशोनत्वं न विवक्षितम्। ततोऽधोलोकान्तादुपरिप्रदेशहानिस्तिर्यगडलासंख्येयभागहानिस्तावद् ज्ञातव्या यावद् भूतले तिर्यग्लोकमध्यवर्ति समभूमिभागे विस्तरत एका रज्जूः, तदनुसमभूमिभागादुपरिमुखं प्रदेशवृद्धिस्तिर्यगडलासंख्येयभागवृद्धिस्तावद् द्रष्टव्या यावदूर्ध्वलोकमध्ये पञ्चमे ब्रह्मलोकाभिधे कल्पे विस्तरतः पञ्च रज्जवः, ततः पुनरप्यूर्व प्रदेशहानिस्तावदवसेया यावत्सिद्धशिलाया उपरिष्टाल्लोकान्ते विस्तरत एकैकरतः / धर्मायां च रत्नप्रभाषराभिधानाया प्रथम-पृथिव्यां योजनानामसंख्याताभिः कोटिभिर्बहुसमभूमिभागादिक्रान्ताभिर्लोकमध्यम्। इयमत्र भावना-इह सामस्त्येन चतुर्दशरज्ज्वात्मको लोकः, सच त्रिधा भिद्यते, तद्यथा-ऊर्ध्वलोकस्तिर्यग्लोकोऽधोलोकश्च / तत्र तिर्यग्लोकस्य ऊधिोऽपेक्षया अष्टादशयोजनशतप्रमाणस्य मध्यभागे जम्बूद्वीपरत्नप्रभाया बहु-समे भूमिभागे मेरुबहुमध्येऽष्टप्रादेशिको रुचकः, तत्र गोस्तनाकाराश्चत्वार उपरितनाः प्रदेशाश्चत्वारश्चाधस्तनाः / एष एव रुचकः सर्वासां दिशां विदिशां च प्रवर्तकः / एतस्माच रुचकादू धस्तिर्यग्लोकविभागाः, तथाहि-रुचकस्याधस्तादुपरिष्टाच नव नव योजनशतानि तिर्यग्लोकस्याधस्तादधोलोक उपरिष्टादूर्ध्वलोकः। देशोनसप्तरजूप्रमाणऊर्ध्वलोकः, समधिकसप्तरजूप्रमाणोऽधोलोकः, मध्येऽष्टादशयोजनशतोच्छयस्तिर्यग्लोकः, ततो रुचकसमभूतलभागादधोमुखमसंख्यातायोजनकोटीर्गत्या रत्नप्रभायां चतुर्दशरज्ज्वात्मकस्य मध्यमभागः परिपूर्णसप्तरज्जूप्रमाणो भवतीति। संप्रति लोकस्य संस्थानमाहहेट्ठाहोमुहमल्लग-तुल्लो उवरिं तु संपुडठियाणं / अणुसरइ मल्लगाणं, लोगो पंचत्थिकायमओ ||12|| अधस्तादधोभागोऽधोमुखमल्लकतुल्याऽधोमुखीकृतशराबसदृक्षाकारः उपरि पुनः संपुटस्थितयोर्मल्लकयोः शरावयोराकारमनुसरति लोकः / अयमर्थः प्रथमं तावदेकं शरावमधोमुखमवस्थाप्यते, ततस्तस्योपरि द्वितीयमुपरिमुखं, तस्याप्युपरितृतीयमधोमुखमित्येवं व्यवस्थितशरावत्रयसदृशाकारः सकलोऽपिलोको भवतीति, सच पश्चास्तिकायमयो धर्माधर्माकाशजीवपुद्गललक्षणैः पञ्चभिरस्तिकायैयाप्तः। अथ चतुर्दशरज्ज्वात्मकमपिलोकमसत्कल्पनया खण्डकप्रवि भागेन दिदर्शयिषुः खण्डकनिष्पादनाय तावदाहतिरियं सत्तावन्ना, उड्डं पंचव हुंति रेहाओ। पाएसु चउसु रत, चउदस रज्जू य तसनाडी॥९१२|| तिर्यक्-तिरश्चीनाः सप्तपञ्चाशत्संख्या रेखाः पट्टिकादौ स्थाप्यन्ते, ऊर्ध्वमुपर्यधोभावेन पुनः पञ्चेव रेखाः स्थाप्या भवन्ति। तथा-'पाएसु चउसुत्ति सप्तम्यास्तृतीयार्थत्वाच्चतुर्भिः पादैः खण्डकैरेका रज्जूभवति। इह चतुर्भिः खण्डकैरेका रज्जूःपरिकल्पिता, ततो रज्जूचतुर्थभागत्वात् खण्डकं पादं इत्यभिहितम् / चतुर्दशरज्जूश्च ऊध्वधिोभावेन चतुर्दशरजूप्रमाणा वसनाडी। इयमत्र भावनातिर्यग्व्यव स्थापितसप्तपञ्चाशद्रेखाभिरूधिोभावेन षट्पञ्चाशत्खण्डकानि जायन्ते / चतुर्भिश्च खण्ड कैरेकारज्जूरिति षट्पञ्चाशतश्चतुर्भिगिहारे ऊर्ध्वाधश्चतुर्दश रज्जवो लभ्यन्ते इति, तिर्यक्त्रसनाडीमध्ये सर्वां एकैव रज्जूरुपर्यधोभावविनिवेशितरेखापञ्च-केन खण्डचतुष्कस्यैव निष्पन्नत्वात् / एवं तावत् वसनाडीमध्ये ऊधिोभावेन खण्डकान्युक्तानि।। अथ सकलस्यापि लोकस्य तिर्यग्वर्तीनि खण्डकान्यभिधातुकामः प्रथमं तावदूर्ध्वलोके रुचकादारभ्य लोकान्तं यावत्तिर्यक्खण्डान्याहतिरियं चउरो दोसु, छ घोसुं अट्ठ दस य इकिके। वारस दोसुं सोलस, दोसुं वीसा य चउसुं वि||१४|| रुचकसमाद् भूभागादूर्ध्वं द्वयोः पङ्क्त्योरेकोनत्रिंशत्तमरेखापरिवर्तिन्योस्तिर्यतिरश्चीनानि चत्वारि चत्वारि खण्डकानि त्रसनाडीमध्यगतान्येव भवन्ति, सनाड्या बहिस्तत्र खण्डकानामभावात्। तत उपरितन्योर्द्वयोः पड्क्त्योः षट् खण्डकानि। तत्र चत्वारि त्रसनाडीमध्यवर्तीन्येव एकैकं तु बसनाड्या बहिः प्रत्येकमुभयपार्श्वयोरिति। तत एकैकस्यांपङ्क्तौ मध्ये क्रमेणाऽष्टौ दश च खण्डकानि, तथाहि-एकस्यां पङ्क्तौ नाडीमध्ये चत्वारि, बहि-श्चैकपार्श्वे द्वयम्, द्वितीयपार्श्वेऽपि द्वयमित्यष्टौ, परस्यां च पङ्क्तौ चत्वारि, मध्ये बहिश्च उभयतः प्रत्येक त्रितयं त्रितयमिति दश / ततोऽपि द्वयोः पङ्क्त्योः प्रत्येकं द्वादश खण्डकानि / चत्वारि मध्ये, बहिश्चत्वारि चत्वारीति। तदनन्तरं द्वयोः पङ्क्त्योः प्रत्येकं षोडशषोडशखण्डानि। चत्वारि मध्ये पार्श्वयोश्च षट् षडिति। तत उपरितनीषु चतसृषु पङ्क्तिषु प्रत्येकं विंशतिखण्डकानि, चत्वारि मध्ये, बहिश्चैकपार्श्वेऽष्टावपरपार्श्वेऽप्यष्टाविति। तदेवमूर्ध्वलोके चतुर्दशसु पङ्क्तिषु यथासंभवं खण्डकानां वृद्धिरुक्ता। अथ चतुर्दशस्वपि पङ्क्तिषु हानिमाहपुनरवि सोलस दोसुं, वारस दोसुं पिहुंति नायव्वा। तिसु दस तिसु अट्ट, छ दोसु दोसु पि चत्तारि॥१५॥ पुनरप्युपरितनपक्तिद्वये षोडश खण्डकानि, भावनाच सर्वत्र प्राग्वदक्सेया। तत ऊर्ध्वं द्वयोः पङ्क्त्योदश द्वादश खण्डकानि। ततोऽपि तिसृषु पङ्क्तिषु दश दश खकानि, तिसृषु पङ्क्तिषु अष्टावष्टौ खण्डकानि / तदनुद्वयोः पङ्क्त्योः षट्षट्खण्डकानिा ततोऽपि सर्वोपरिवर्तिन्योर्द्वयोः पङ्क्त्योर्नाडीमध्यगतान्येव चत्वारि खण्डकानि भवन्तीति। इत्थं तावन्निजगुरुप्रदर्शितस्थापनानुसारतो रुचकादारभ्य लोकान्तं यावत् 'तिरियं चउरो दोसु' इत्यादि गाथाद्वयं व्याख्यातम् / अपरे तु वैपरीत्येन पठ्नु स्थापना पश्यन्तः एतद्राथाद्वयं लोकान्तादारभ्य लोकमध्यं यावद्व्याख्यानयन्तीति। अथाधोलोके सप्तस्वपि पृथिवीषु ऊधिोभावेन खण्डकान्याहउवरिय य लोयमज्झा, चउरो चउरो य सव्वहिं नेया। तिग तिग दुग दुग एकि-क्कगो य जा सत्तमी पुढवी ||16|| अवतीर्य लोकान्ताल्लोकमध्यं समागत्य ततो लोकमध्याद् रुचकलक्षणादारभ्य सर्वत्र सर्वासु पृथिवीषु त्रसनाडीमध्ये
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________________ रज्जु ४८०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 ऊवधिोभावेन चत्वारि चत्वारि खण्डकानि ज्ञातव्यानि सनाड्याश्च बहिः खण्डकानामभाव एव, ततः शर्कराप्रभाया उपरितनतलादारभ्य दक्षिणवामभागयोः प्रतिपक्ति तिरश्चीनानि त्रीणि त्रीणि खण्डकानि, तावदूधिोभावेन क्षेयानि यावत्सप्तमपृथिव्या अधस्तनो भागः / ततो बालुकाप्रभाया उपरितलादारभ्य उपरि पार्श्वयोः खण्डकत्रयात्पुरतः पुनरपि त्रीणि त्रीणि खण्डकानि तावदवसेयानि यावत्सप्तमी पृथिवी। ततः पङ्कप्रभाया उपरि तलादारभ्य द्वयोः पाश्वयोः पूर्वोक्तखण्डकेभ्य परतो द्वे द्वे खण्डके तावदवगन्तव्ये यावत्सप्तमी पृथिवी। ततः पुनरपि धूमप्रभाया आरभ्य पार्श्वद्वयेऽपि द्वे द्वे खण्डके तावद्भवन्ति यावत्सप्तमी पृथिवी ततो भूयोऽपितमः प्रभाया आरभ्य पार्श्वद्वयोस्तावदेकैकं खण्डकं स्थापनीयं यावत् सप्तमी पृथिवी / ततः सप्तम्यामपि पृथिव्यां पूर्वोक्तखण्डकेभ्यः परत उभयपार्श्वयोरेकैकं खण्डकं प्रतिपङ्क्ति तावद्भवति यावत्सर्वाधस्तनी पङ्क्तिरिति तदेवमधोलोके ऊर्ध्वाधोभावेन खण्डकान्युक्तानि / अथ तमस्तमःप्रभाया आरभ्य रत्नप्रभा यावत्पृथिवी ___ तिर्यक्खण्डकप्रमाणमाहअडबीसा छव्वीसा, चउवीसा वीस सोल(स)दस चउरो। सत्तासु वि पुढवीसुं, तिरियं खड्डयगपरिमाणं / / 17 / / सप्तम्यां तमस्तमःप्रभायां नरकपृथिव्यामष्टाविंशतिःखण्डकानि तिर्यग्भवन्ति। तत्र त्रसनाड्या बहिरेकपार्श्वे द्वादश द्वितीयपार्श्वेऽपि द्वादश, वसनाडीमध्ये च चत्वारीति। तमः-प्रभायां षड्विंशतिः खण्डकानि, चत्वारि मध्ये, बहिर्भागयोश्चैकादशेति। धूमप्रभायां चतुर्विंशतिः चत्वारि मध्ये, उभयपार्श्वयोश्च दश दशेति। पङ्कप्रभायां विंशतिः, मध्ये चत्वारिबहिर्भागयोश्चाष्टाष्टाविति। वालुकाप्रभायां षोडश, मध्ये चत्वारि, उभयपार्श्वयोः षट् षडिति। शर्कराप्रभायां तिर्यग् दश खण्डकानि, चत्वारि मध्ये, दक्षिणवामभागयोश्च त्रीणि त्रीणीति। रत्नप्रभायां च त्रसनाडीमध्यगतान्येव चत्वारि तिर्यक्-- खण्डकानीत्येवं सप्तस्वपि तमस्तमःप्रभाद्यासु पृथिवीषु तिर्यक्तिरश्वीनखण्डकानां कल्पितचतुरस्राकारनभोभागरूपाणां परिमाणं सख्यानां समवसेयमिति। अथ सकलस्यापि लोकस्य खण्डकसर्वसंख्यामाह-- पंचसयबारसुत्तर, हेहा तिसयाउ चउर अन्महिया। अह उड्ढ अट्ठ सया, सोलहिया खण्डया सवे // 15 // पञ्च शतानि द्वादशोत्तराणि द्वादशाधिकानि खण्डकानाम 'हेट्ठ त्ति' अधोलोके भवन्ति। तथाहि-'अडवीसा इत्यादिगाथोक्तान् अष्टाविंशत्याद्यङ्कान् मीलयित्वा प्रतिपृथिवीम् अष्टाविंशतिषड् विंशत्यादिखण्डकसंख्योपेतपङ्क्तिचतुष्टयसद्भावाचतुर्भिर्गुणयेत्। ततो जायन्ते पञ्च शतानि द्वादशोत्तराणीति / 'अह उडे ति' अथा-धोलोकादनन्तरम्-लोके त्रीणि शतानि चतुर्भिरभ्यधिकानि खण्डकानां भवन्ति / 'तिरियं चउरो दोसु' इत्यादि गाथाद्वितयोदितखण्डकमीलने यथोक्तसंख्यासद्भावात्, सर्वाणि चाधोलोकोर्ध्वसम्बनधीनिखण्डकानि मिलितानि अष्टौ शतानि षोडशाधिकानि (816) भवन्तीति। अथ सर्वस्मिन्नपि लोके यावन्त्यो यावन्त्यो रजवो भवन्ति ताक्तीर्दर्शयितुमाहबत्तीसं रज्जूओ, हेट्ठा रुयगस्स हुंति नायव्वा / एगोणवीसमुवरिं, ऍगवन्ना सव्वपिंडेणं / / 16 / / रुचकस्य पूर्वोक्तस्वरूपस्याधस्ताद्-अधोलोके इत्यर्थः, द्वात्रिंशद् रज्जवो भवन्ति-ज्ञातव्याः। इह किल त्रिधा रज्जू:-सूचीरजूः, प्रतररज्जूः, धनरज्जूश्च। तत्रायामतः खण्डकचतुष्टयप्रमाणा बाहल्यतः पुनरेकखण्डप्रमिता खण्डकश्चेणिसूच्याकारव्यवस्थापितखण्डकचतुष्टयनिष्पन्नत्वात् सूचीरज्जूः / तथा एषैव प्राक् प्रदर्शिता खण्डकचतुष्कात्मिका सूचिस्तथैव गुण्यते, अतः प्रत्येकं खण्डकचतुष्टयनिष्पन्नसूचीचतुष्टयात्मिका उपरितनाऽधस्तनखण्डकरहिता षोडशखण्डकसंख्या, प्रतररज्जूः संपद्यते / तथा प्रतर एव सूच्या गुणितो दैर्येण विष्कम्भतः पिण्डतश्च समसंख्यखण्डकोपेता सर्वतश्चतुरखा घनरज्जूः / दैादिषु त्रिष्वपि स्थानेषु समतालक्षणस्यैव घनस्येह रूढत्वात् / प्रतररज्जूश्च दीर्घविष्कम्भाभ्यामेव समानपिण्डस्तस्यैकखण्डकमात्रत्वादिति भावः / एषा च घनरजूश्चतुः- षष्टिखण्डकात्मिका, पूर्वोक्तसूच्याऽनन्तरोदितषोडशखण्डकप्रमिते प्रतरे गुणिते एतावतामेव खण्डकानां भावात्, स्थापनाच प्रागुक्तषोडशखण्डकात्मकप्रतरस्योपरि त्रीन् वारान् षोडशषोडश खण्डकानि दत्वा भावनीया। तथा च दैय॑विष्कम्भपिण्डैस्तुल्योऽयमापद्यत इति। उक्तंच-"सूईरज्जूचउहि उखण्डगेहिं सोलसेहिँ पयररज्जू य। चउसहिखंडगेहि, घणरजू होइ विन्नेया // 1 // ततो द्वादशोत्तरपञ्चशतरूपस्याधोलोकखण्डराशेः प्रतरज्ज्वानयनाय षोडशभिर्मागे हृते द्वात्रिंशत्प्रतररज्जवो भवन्ति / तथा उपरि ऊर्ध्वलोके एकोनविंशतिः प्रतररजवः / चतुरुत्तरशतत्रयस्य षोडशभिर्भागाहारे एकोनविंशतेरेव लभ्यमानत्वात् / तथा सर्वपिण्डेनाधोलोकोव॑लोकसम्बन्धिसर्वरजूमीलनेन एकपञ्चाशत्प्रतररज्जवो भवन्तीति / साम्प्रतं धनरज्जूसंख्यां प्रतिपादयिषुः प्रथमं तावल्लोकघनीकरणमाहदाहिणओ उ दुखण्डा, वामे संधिज्ज विहियविवरीयं / नाडीजुयातिरज्जू, उड्डाऽहो सत्तत्तो जावा / / 620 // हेट्ठाओं वामखंडं,दाहिणपासम्मि ठवसु विवरीयं / उवरिमतिरज्जुखंडं, वामे ठाणम्मि संधिजा // 21 // ऊर्ध्वलोके सनाड्या दक्षिणपार्श्ववर्तिनी ये द्वे खण्डे ब्रह्मलोकमध्यादधस्तनमुपरितनंच खण्डं परिगृह्यविपरीते च विधाय, अधस्तनभागमुपरितनं चाधःकृत्वेत्यर्थः वामपार्श्वे संदध्यात्-संयोजयेत्। ततस्ते द्वे खण्डे रज्जूविस्तृततया नाड्या युते सर्वत्र विस्तरतस्तिस्रो रज्जवो जाताः, ऊधिोऽधश्चोच्छ्रयेण सप्त रज्जवः इत्थूर्वलोकसम्बन्धिनं, 'हेटाउ त्ति' अधस्तादधोलोके पुनस्त्रसनाडीतो वामभागवर्तिखण्डं बुद्ध्या गृहीत्वा दक्षिणपाचे विपरीतं कृत्वा स्थापयेत्। तत उपरितनसंवर्तितोललोकरूपं खण्ड विरज्जुविस्तीर्ण संवर्तिताधोलोकखण्डस्य वामे स्थाने वामपार्श्वे सङ्घातयेत्। इयमत्र भावना-इह
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________________ 481 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 रहवाल स्वरूपतस्तावल्लोकश्चतुर्दशरजूप्रमाणः, अधस्ताद्विस्तरतो देशोनसप्त- रुचकस्माद् भूभागादुपरिमुखेषु षट्सु खण्डकेषु सार्धरज्जूप्रमाणे क्षेत्रे रज्जूप्रमाणः तिर्यग्लोकमध्यभागे एकरजूः, ब्रह्मलोकमध्ये पञ्चरज्जूः, उपरि इत्यर्थः, द्विकं सौधर्मेशानलक्षणं देवलोकद्वयं भवति। ततोऽप्युपरितनेषु च लोकान्ते एकरज्यू:, शेषस्थानेषु पुनरनियतविस्तरः / एवं प्रमाणस्य चतुर्यु खण्डकेषु रज्जूमाने क्षेत्रेसनत्कुमारमाहेन्द्ररूपं देवलोकद्विकं भवति / लोकस्य चैशाखस्थानस्थकटिस्थकरयुग्मपुरुषाकारस्य घनीकरणाय ततोऽप्युपरि दशसुखण्डकेषु अर्धतृतीयरज्जूप्रमिते क्षेत्रे भवन्तिब्रह्मलोकप्रथममुपरित्तनलोकाध संवर्त्यते। तथाहि सर्वत्रैकरजू विस्तीर्णायास्त्र- लान्तकशुक्रसहस्रारस्वरूपाश्चत्वारो देवलोकाः। तदनु चतुर्यु खण्डकेषु सनाड्या दक्षिणभागवर्तिनि ब्रह्मलोकमध्यादधस्तनमुपरितनं च ये द्वे रज्जूपरिच्छिन्ने क्षेत्र आनत-प्राणतारणाच्युतनामकानां देवलोकानांचतुष्कं खण्डे कूर्पराकारसंस्थिते ब्रह्मलोकमध्ये प्रत्येकं द्विरज्जूविस्तीर्णे देशोना भवति / ततः सर्वोपरिवर्तिनि खण्डकचतुष्टयेऽन्तिमरजौ नवग्रैवेयक(चतुष्टयरज्जूच्छ्ये, ते बुद्धिकल्पनया समादाय सनाड्या एवमुत्तरपार्वे विजयवैजयन्तजयन्तापराजितसर्वार्थसिद्धाख्यानि पञ्चानुत्तरविमावैपरीत्येन संचात्येते / एवं चोपरितनं लोकाध बिरजूविस्तारं देशोन मानि सिद्धक्षेत्रं च भवन्तीति। प्रव०१४३ द्वार। सूत्र०ा स्था०। सनादिमये सप्तरज्जूच्छ्रयम्, बाहल्यतस्तु ब्रह्मलोकमध्ये पञ्चरज्जूप्रमाणमन्यत्र दवरिके, भ०८ श०६ उ०। बृला "रज्जू वरत्ता य" पाइ० ना० 210 त्वनियतबाहल्यं जायते / ततोऽधोलोके त्रसनाड्या दक्षिणभागवर्त्य गाथा। धोलोकखण्डमधोभागे देशोनत्रिरज्जूविस्तारं क्रमेण हीयमानविस्तरं रञ्जुग-पुं०(रज्जुक) लेखके, कल्प०१ अधि०६ क्षण। तावद्यावदुपरिष्टाद्रशूसंख्येयभागविष्कम्भं समधिकसप्तरज्जूच्छ्रयं बुद्ध्या परिगृह्य त्रसनाड्या एवोत्तरपार्श्वे ऊवधिोभागविपर्यासेन संयोज-येत्। रज्जुगसभा-स्त्री०(रज्जुकसभा) रज्जुका लेखकाः। 'कारकून' शालायाम्, कल्प०१ अधि०६क्षण। एवं च कृतेऽधस्तनं लोकार्धं देशोनचतूरजूविस्तारं सातिरेकसप्तरजूच्छ्रयम्, बाहल्यतोऽप्यधः क्वचित्किचिदूनसप्तरजूमानम्, अन्यत्र रजुग्घाय-पुं०(रजउद्घात) विश्रसः परिणामतः समन्ताद्रेणुपतने, स्था० त्वनियतबाहल्यं जायते / तत उपरितनमर्धं बुद्ध्या गृहीत्वाऽधस्तन 10 ठा०३उ०। स्यार्धस्योत्तरपार्श्वे संघात्यते / तथा च सति क्वचित्सातिरेक रज्जुचिलिमिलिया-स्त्री०(रज्जुचिलिमिलिका) और्णिकदवरके,बृ० 130 सप्तरज्जूच्छ्रयः, क्यचिन देशोनसप्तरज्जूच्छ्रयः, विस्तरतस्तु देशोन- ३प्रक०। सप्तरजूप्रमाणो घनो जातः, ततः सप्तरज्जूनामुपरि यदधिकं तत्परिगृह्य रजुपिणद्ध-त्रि०(रज्जुपिनद्ध) रश्मिनियन्त्रे, प्रश्न०४ संवद्वार। उत्तरपार्वे ऊवधि आयतं संघात्यते ततो विस्तरतोऽपि परिपूर्णाः सप्त | रज्जुमग्ग-पुं०(रज्जुमार्ग) यत्र रज्ज्वा किश्चिदतिदुर्गमतिलध्यते तादृशे रज्जवो भवन्ति। तथा संघातितोपरिखण्डस्य बाहल्यं क्वचित्पञ्च रज्जवः। मार्गे, सूत्र०१ श्रु०११अ०) अधस्त नखण्डस्य तु बाहल्यं अधस्ताद्यथासंभवं देशोनाः सप्त रज्जवः। रज्झिय-त्रि०(रहित) अनिरनतरे, "नतत्थ सायं लहतीऽभिदुग्गे, अरहि ततः उपरितनखण्डबाहल्याद्देशोनरद्वयमत्रातिरिच्यते, इत्यस्माद (ज्झ) याभितावा तहवी तविंति' / 17 / / सूत्र०१ श्रु० 5 अ०१ उ01 तिरिच्यमानबाहल्यादर्धं गृहीत्वा उपरितनखण्डबाहल्ये संयोज्यतेएवं रह-न०(राष्ट्र) जनपदे, देशे, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। कल्पका रा०ाजनपदैकच कृते बाहल्यतस्तावत् कियत्यपि प्रदेशे किंचिदूनाः षट्रज्जवो भवन्ति / देशे, भ०१५ श०। ऋषभदेवस्य स्वनामख्याते चतुस्त्रिंशे पुत्रे, कल्प०१ व्यवहारतस्तु सर्वमप्येतचतुरस्रीकृतनभःखण्डसप्तरज्जूप्रमाणमुच्यते / अधि०७ क्षण। व्यवहारनयो हि किंचिन्न्यूनसप्तहस्तादिप्रमाणमपि पटादिवस्तु परिपूर्णसप्तहस्तादिमानं व्यपदिशति, देशतोऽपि च दृष्ट बाहल्यादिधर्म रहउड-पुं०(राष्ट्रकूट) राष्ट्रमहत्तरे, बृ०३ उ०। मण्डलोपजीविनि परिपूर्णेऽपि वस्तुनि व्यवस्यति स्थूलदृष्टित्वादिति भावः। अत एव तन्म राजनियोगिके, विपा०१ श्रु०१अ०। तेनैवात्र सप्तमरजूबाहल्यता सर्वगताऽवगन्तव्या। आयामविष्कम्भाभ्या रहकूट-पुं०(राष्ट्रकूट) वेभेससंनिवेसे स्वमातुलसुतायाः सोमानाम्न्याः मपि यत्र देशोनसप्तरज्जूप्रमाणमिदं व्यवहारतस्तत्रापि प्रत्येकं सप्तरज्जू पत्यौ, नि०१ श्रु०३ वर्ग 4 अ०| प्रमाणता दृश्या। तदेवं व्यवहारनयमतेनायामविष्कम्भबाहल्यैः प्रत्येकं | रखधम्म-पुं०(राष्ट्रधर्म) देशाचारे, स्था० 10 ठा०३ उ०। सप्तरज्जूप्रमाणो घनो जायते। एतच पट्टिकादौ लिखित्वा भावनीयमिति। रहवद्धण-पुं०(राष्ट्रवर्द्धन) अवन्तिराजस्य पालकस्य पुत्र प्रद्योतस्य पौत्रे, (प्रव) (घनीकृतस्य लोकस्य रज्जूसंख्यां घणरज्जु' शब्देतृतीयभागे 104 आव०४ अ०।आ०यू० पृष्ठेगता) रहवाल-न०(राष्ट्रपाल) भरतचक्रवर्तिनः चरितप्रकाशके आषाढ-भूतिना अथोर्ध्वलोके यावत्सु खण्डकेषु यावन्तो देवलोका कृते नाटके, यद्धि सिंहरथस्य राज्ञः सभायाम्- प्रतिनर्तितं सत् भवन्तीत्येतदाह पञ्चशतानां राजपुत्राणां नाट्यपात्रीभूतानां प्रव्रज्याकारणमभूदिति। पिं०। छसु खंडगेसु य दुर्ग, चउसु दुगं दससु हुंति चत्तारि। (अग्नौ प्रवेशितमिति नेदानीमुपलभ्यते) आसाढभूई' शब्दे द्वितीयभागे चउसु चउकं गेवे-जणुत्तराई चउकम्मि॥३०॥ 477 पृष्ठे उदाहृतम्)
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________________ रट्ठिय 582- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 रत्तप्पभ रट्ठिय-न०(राष्ट्रिक) राष्ट्रमहत्तरे, नि०चू० 230 // रडिय-न०(रुदित) अश्रुविमोचने, प्रश्न०५ संव० द्वार। रटित-नका कलहायिते, "कलहाइअं रडिअं' पाइ०ना० 232 गाथा! रण-पुं०(रण) कातरजनक्षोभके संग्रामे, स०१४१ सूत्र०। ध०॥ सूत्र०। प्रव०। कलहे, "संगामो संजुअं आहवं रणं संगरं समरं" पाइ० ना०३३ गाथा। शब्दे, "रणो सद्दो" पाइ० ना० 266 गाथा। रणरणअ-पुं०(रणरणक) पीडायाम, "अदिही अरईयरणरणओ" पाइ० ना० 164 गाथा। रणसीस-न०(रणशीर्ष) संग्रामशिरसि, सूत्र० १श्रु०३ अ० 130 / प्रश्नका रणशब्दस्यापभ्रंशे सप्तम्यां रणिः / (1) प्रङ्गणि चिट्ठदि नाहुँ, धुं त्रं रणि करदिन भ्रन्त्रि" प्रा०४ पाद। रण्ण-न०(अरण्य) वने, “वाऽलाब्वरण्ये लुक" ||8166|| इत्यनेन आद्याकारस्य लुग वा। प्रा०१ पाद। रतनुचय-पुं०(रत्नोचय) रत्नानां नानाविधानामुत्प्रावल्येन चयः उपचयो यत्र स रत्नोचयः / मेरुपर्वते, सू०प्र०५ पाहु०। (अस्मा-देव दिशां विभागः स च 'दिसा' शब्दे चतुर्थभागे 2523 पृष्ठे दर्शितः) (अस्य षोडश नामानि 'गिरिराय' शब्दे तृतीयभागे 876 पृष्ठे गतानि) (अस्य उच्चत्वादिकम् 'मंदर' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 27 पृष्ठे गतम्) रत-त्रि०(रक्त) रञ्जिते, ज्ञा०१ श्रु०६ अ उत्ताअरुणे, "अरुणं सोणं रत्तं पाडलमायंबिरं तंब" पाइ० ना०६३ गाथा / अत्यन्तसम्यक्त्ववासितान्तश्चेतसि, सूत्र०२ श्रु०७ अ०। प्रदत्तरागे, बृ०२ उ०। धातुप्रभृतिभिर्द्रव्यैः रक्तीकृते, बृ०१ उ०२प्रक०। कुसुम्भरागे, बृ०१ उ०३ प्रकला लोहिते, रक्तवर्णे भ०१ श०१उ०। प्रश्रका "रतासोगपगासकिं सुअमुहगुञ्जद्धरागसरिसे'' रक्ताशोकप्रकाशस्य किंशुकस्यपुष्पितपलाशस्य शुकमुखस्य गुजार्द्धस्य च रागेण सदृशो यः सः तथा तस्मिन् / आरक्तेत्यर्थे, अनु० रुधिरे, ना तंा स्था०ा रागयुक्ते, तद्भावितमूर्ती च। त्रि०ा आचा०१ श्रु०३ अ०२ उ०ा आवला गेयरागानुरक्तेन यद् गीयते तद् रक्तम् / द्वितीय-गेयगुणे, जी०३ प्रति०४ अधि०। अनु०। जंगा रा० मनोहरे, औ| गृद्धे, आचा०१ श्रु०२ अ०३उ०। अत्यन्तोत्कटरागतया प्रधानमपि वस्तु विरूपतयाऽध्यवस्यति इति आरक्तः श्रावकगुणः / दर्श०२ तत्त्व। रत्तंसुय-न०(रक्तांशुक) मशकगृहाभिधे, चं० प्र०२० पाहु०। रत्तंसुयसंबुड-त्रि०(रक्तांशुकसंवृत) रक्तांशुकेनातिरमणीयेन मशकगृहाभिधानेन वस्त्रेण संवृते आच्छादिते, कल्प०१अधि०२क्षण। जी० रा० भ०। रत्तकं बलसिला-स्वी०(रक्तकम्बलशिला) मेरौ, पण्डकवनमध्ये चूलिकायाः पश्चिमदिशि चतुर्योजनोच्छितसर्वकाञ्चनमयचन्द्रार्द्धसंस्थानसंस्थितायां चतुर्थ्यां शिलायाम्, स्था०। 'दो रत्तकंवल सि लाओ' स्था०२ ठा०३ उ०॥ कहिणं भन्ते ! पंडगवणे रत्तकंबलसिला णामं सिला पण्णत्ता? गोअमा! मंदरचूलिआए उत्तरेणं पंडगवणउत्तरचरिमंते एत्थणं पंडगवणे रत्तकंबलसिलाणामं सिला पण्णत्ता,पाईणपडीणायया उदीणदाहिणवित्थिण्णासव्वतवणिज्जमई अच्छा० जाव मज्झदेसमाए सीहासणं, तत्थणंबहूर्हि भवणवइजाव देवेहिं देवीहि अ एरावयगा तित्थयरा अहिसिचंति। (सू० 107) सम्प्रति चतुर्थी शिला-'कहिण' मित्यादि, प्रश्नः प्राग्वत्, उत्तरसूत्रे सर्व द्वितीयशिलानुसारेण वाच्यम्, वर्णतश्च सर्वतपनीयमयी, श्रीपूज्यैस्तु सर्वा अर्जुनस्वर्णवर्णा उक्ता इति, 'ऐरावतका' इति ऐरावतक्षेत्रभवाः, सिंहासनस्यैकत्वं भरतक्षेत्रोक्तयुक्त्या वाच्यम्। ज०४ वक्ष०ा स्थाना रत्तकूड-न०(रक्तकूट) शिखरधरपर्वते षष्ठे कूटे, जं०४ वक्ष०। रत्तक्ख-त्रि०(रक्ताक्ष) अयणदिवाकरनयने, आव०४अ०॥ रत्तक्खर-(देशी) सीधुनि, दे०ना०७ वर्ग०४ गाथा। रत्तचंदण-न०(रक्तचन्दन) लोहितवर्णे चन्दनविशेषे, स०। रा०) प्रज्ञा०। औ०। रत्तच्छ-त्रि०(रक्ताक्ष) लोहितलोचने, उपा०२ अ०। रत्तडी-स्त्री०(रात्रि) "रजन्याम्, ढोल्ला मइ तुहुँ वारिआ, मा कुरु दीहा ___ माणु। निदरा गमिहा रत्तडी, दडवड होइ विहाणु'। प्रा० 4 पाद। रत्ततल-न०(रक्ततल) लोहिताधोभागे, औ०। तं०) रत्तधाउ-पुं०(रक्तधातु) कुण्डलवरद्वीपमध्यगतस्य कुण्डलशैलस्य दक्षिणश्रेण्यां चतुर्णां कूटानां मध्ये द्वितीयकूटे, द्वी०। रत्तपड-पुं०(रक्तपट) सौगते, परिव्राजके च। बृ०१ उ०२ प्रक०। ज्ञा० रत्तपालजक्ख-पुं०(रक्तपालयक्ष) महापुरं नाम नगरं रक्ताशोकं नाम उद्यानम्; तस्मिन् पूज्यमाने यक्षे, विपा०२ श्रु०७ अ०। रत्तप्पभ-पुं०(रक्तप्रभ) कुण्डलवरद्वीपमध्यगतस्य कुण्डलशैलस्य दक्षिणश्रेण्यां चतुर्णां कूटानां मध्ये प्रथमे कूट, द्वी०। रक्तप्रभकूटस्थोचत्वादिएएसिं कूडाणं, उस्सेही पंच जोयणसयाई। पंचेव जोयणसए, मूलम्मि उ वित्थडा कूडा॥७७|| तिन्नेव जोयणसए, पण्णत्तरि जोय॒णसयाई मज्झम्मि। अड्डाइजे य सए, सिहरितले वित्थडा कूडा // 78|| तिण्णेव जोयणसए, पंचेव सयाई एकवीसाई। मूलम्मि उ कूडाणं, सविसेसो परिरओ होइ॥७९॥ एग चेव सहस्सं, चूलसियं चेव होइ सममेगं। मज्झम्मि उ कूडाणं, विसेसहीणो परिक्खेवो ||8|| १-नायक! मया त्यं वारितः, मा कुरु दीर्घ मानम्। निद्रया गमिष्यति रात्रिः, शीघ्रं भवति प्रभातम्। १-पाङ्गणे तिष्ठति नाथो यः सरणे करोति नभ्रान्तिः।
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________________ रत्तप्पभ 483- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 रत्ततिहि सत्तेव जोयणसए, एकाणउयं च जोयणा हों ति। दीर्धवैताढ्यपर्वत पश्चिमोदधिगामिन्याः रक्तवत्याः नद्याः उद्गमस्थाने सिहरितले कूडाणं, सविसेसो परिरओ होइ / / 81|| सिन्धुप्रपातसदृशे प्रपातहदे, स्था०२ ठा०३उ०। पलिओवमट्ठिईआ, नागकुमारा हवंति एएसुं / दी। दो रत्तवइप्पवायहहा। स्था०२ ठा०३ उ०। रत्तप्पवायदह-पुं०(रक्तप्रपातहृद) जम्बूद्वीपे ऐरवतवर्षे, दीर्घवैताठ्यपर्वते | रत्तसिला-स्त्री०(रक्तशिला) मेरौ पण्डकवने तृतीयशिलायाम, जंग पूर्वोदधिगामिन्याः रक्तवत्याः महानद्याः उद्गमस्थाने गङ्गाप्रपातहदसदृशे, अथ तृतीयशिलास्था। कहिणं मंते ! पडंगवणे रत्तसिला णामं सिला पण्णता? जंबूमंदरउत्तरेणं एरवए वासे दो पवायहहा पण्णत्ता,तं जहा- गोयमा ! मन्दरचूलिआए पचत्थिमेणं पंडगवणपचत्थिमपेरंते, बहुसमतुल्लाजाव रत्तप्पवायहहे चेव, रत्तावइप्पवायहहे चेवा एत्थ णं पंडगवणे रत्तसिला णामं सिला पण्णत्ता / उत्तरदाहि(सू०५८) स्था०२ ठा०३ उ०। णायया पाईणपडीणवित्थिण्णा जाव तं चेव पमाणं सव्वतरत्तफुड-पुं०(रक्तस्फुट) वदरीवननिवासिनि स्वनामख्याते, नागे, "येन वणिजमई अच्छा उत्तरदाहिणेणं एत्थणं दुवे सीहासणा पण्णत्ता, रक्तस्फुटो नागो निवसन् वदरीवने। पातितः क्षतिशस्त्रेण, क्षत्रियः सैष वै तत्थणं जे से दाहिणिल्ले सीहासणे तत्थ णं बहूहिं भवणवइपभवान्॥१॥" प्रव०२ द्वार। म्हाइआ तित्थयरा अहिसिचंति,तत्थणंजे से उत्तरिल्ले सीहारत्तय-(देशी) बन्धके, देखना०७ वर्ग 3 गाथा। सणे तत्थ णं बहूहिं भवणजाव वप्पाइआ तित्थयरा अहिसिरत्तरयण-न०(रक्तरत्न) पद्मरागादिके, सूत्र०२श्रु०२ अ०भ० ज्ञा०) चंति (न्ति) (सू०१०७) रत्तवई-स्त्री०(रक्तवती) जम्बूद्वीपे ऐवतवर्षे शिखरिवर्षधरपर्वतातनिर्गत्य 'कहि ण' मित्यादि, इदं च सूत्रं पूर्वशिलागमेन बोध्यम् केवलं वर्णतः पश्चिमसमुद्रसङ्गतायां महानद्याम्, स्था०३ ठा०४ उ०। सर्वात्मना तपनीयमयी रक्तवर्णत्वात, सिंहासनद्वित्वभावनात्वेवम्-एषा एवं जह चेव गंगासिंधूओ तह चेव रत्ता-रत्तवईओ णेयव्वाओ। पश्चिमाभिमुखा तद्विगभिमुखं-च क्षेत्रं पश्चिममहाविदेहाख्यं शीतोदापुरच्छिमेणं रत्ता, पचत्थिमेणं रत्तवई अवसिहं तं चेव। (सू 11) दक्षिणोत्तररूपभागद्वयात्मकम्, तत्र च प्रतिविभागमेकैकजिनजन्म सम्भवाद्युगपजिनद्वयमुत्पद्यत, तत्र दाक्षिणात्ये सिंहासने दक्षिणभागगतयथैवगङ्गासिन्धूतथैव रक्तारक्तवत्यौ नेतव्ये,तत्रापि दिग-व्यक्तिमाह-- पक्ष्मादिविजयाष्टकजाता जिनाः स्त्राप्यन्ते, औत्तराहे च उत्तरभागगतवपूर्वस्याम्-- रक्ता, पश्चिमायाम्- रक्तावती। जं०४ वक्ष०ा (जम्बूद्वीपे प्रादिविजयाष्टकजाता इति। जं०४ वक्ष। द्वीपे महानदीनां मध्ये गता एषा चतुर्दशनदीसहनैः सह पश्चिमसमुद्र गच्छतीत्यादिवक्तव्यता 'जंबूदीव' शब्दे चतुर्थ-भागे 1378 पृष्ठे उक्ता) रत्ता-स्त्री०(रक्ता) जम्बूद्वीपे ऐरवतवर्षे शिखरिवर्षधरपर्वतान्निर्गत्य रत्तारत्तवतीओणं महाणदीओपवाहे सातिरेगे चउव्वीस कोसे पूर्वलवणसमुद्रसङ्गतायां मनद्याम्, (तद्वक्तव्यता गङ्गावक्तव्य तावज्ज्ञेया) स्था०३ ठा०४उ०। वित्थारेणं पन्नत्ता। (सू०२५) 'पवह' इति–'यतः स्थानान्नदी प्रवहति-वोढुं प्रवर्तते, स च पद्म रत्ताकुंड-न०(रक्ताकुण्ड) रक्ताख्यमहानद्युद्गमस्थानीभूते कुण्डे, स्था०८ हृदात्तोरणेन निर्गम इह संभाव्यते, न पुनर्योऽन्यत्र प्रवहशब्देन ठा०३ उ०। मकरमुखप्रणालनिर्गमः प्रपातकुण्डनिर्गमो वा विवक्षितः, तत्र हि जम्बू रत्ताभ-पुं०(रक्ताभ) रक्तवर्णे ,जी०४ प्रति०] द्वीपप्रज्ञप्त्यामिह च पञ्चविंशतिकोशप्रमाणा गङ्गाऽऽदिनद्यो विस्तार- | रत्तावईकुंड-न०(रक्तावतीकुण्ड) रक्ताख्यमहानद्युगमस्थानीभूते कुण्डे, तोऽभिहिताः // 24|| स०२४ सम०। स्था०८ ठा० ३उ०। जंबूमंदरउत्तरेणं रत्तावइंमहाणदिंपञ्च महाणईओसमप्पें ति। | रत्तावंग-त्रि०(रक्तापाङ्ग) लोहितनयनोपान्ते, जं०१ वक्ष०ा जी० इंदा इंदसेणा सुसेणा वारिसेणा महाभागा।स्था०५ ठा०३७०। रत्तासोग-पुं०(रक्ताशोक) अशोकवृक्षविशेषे, कल्प० १अधि० ३क्षण / जंबू ! मन्दरउत्तरेणं रत्तारत्तवईओ महाणईओ स महाणईओ औ० समप्पेति / तं जहा-किण्हा महाकिण्हा नीला महानीला तारा | रत्तासोगप्पगास-पुं०(रक्ताशोक प्रकाश) रक्तस्याशोकस्य प्रभासमूह, महातारा इंदा०जाव महाभागा / (सू० 470) स्था० 10 कल्प०१ अधि०३ क्षण। दशा०। ठा०३ उ०। रत्ति-स्त्री०(रात्रि) रजन्याम्, सर्वत्र ल-व-रामचन्द्र | 70 / / इति चम्पाजदत्तस्य भार्यायां महाचन्द्रकुमारमातरि,विपा०२श्रु०६० रत्तवइप्पवायदह-पुं०(रक्तवतीप्रपातह्रद) जम्बूद्वीपे ऐरक्तवर्षे | रत्तितिहि-स्त्री(रात्रितिथि) तिथेः पश्चार्द्धभागे, चं०प्र०१ पाहुन
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________________ रत्तिय 454 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 रम्मग रत्तिय-त्रि०(रात्रिक) रात्रौ भवं रात्रिकम् / रात्रियाते, उत्त० 26 अ०। मोट्टाय-णीसर-वल्लाः " / / 8 / 4 / 168|| रमतेरे-तेऽष्टादेशा वा भवन्ति / रात्रेरन्ते भवे, प्रव०३ द्वार। संखुडइ / खेडुइ / उब्भवइ / किलिकिञ्चइ / कोटुमइ / मोट्टायइ / रत्तियर-त्रि०(रात्रिचर) चौरादिके, स्था०४ ठा०३ उ०। णीसरइ। वेल्लइ। रमइ। प्रा०ा "हसताणिवा, रमंताणि या, मोहंताणि रत्तिविणासअ-पुं०(रात्रिविनाशक) रात्रिविनाशकारणे, कल्प० 1 अधि० / वा।"आचा०२ श्रु०२~०४ अ० ३क्षण। रमंत-त्रि०(रममाण) अक्षादिना रतिं कुर्वति। भ० 13 श० 6 उ०। रत्ती-(देशी) आज्ञायाम्, दे०ना०७ वर्ग 1 गाथा। रमण-न०(रमण) नितम्बे, "रमणं तियं नियंबो'' पाइ० ना० 115 गाथा। रत्तीअ-पुं०(रक्तिक) नापिते, "वच्छीउत्तं जाणह य, चंडिलंण्हाविअंच पत्यौ,''रमणो कंतो पणइ, पाणसमो पिययमो दइओ" पाइ० ना०६१ रत्तीअं" पाइ० ना०६१ गाथा / देखना गाथा। रत्तुक्कडा-स्त्री०(रक्तोत्कटा) मासान्ते त्रीणि दिनानि यावत्स्त्रीणां यन्नि- रमणिज-पुं०(रमणीय) जम्बूमन्दरस्य पूर्व सीतायाः महानद्याः दक्षिणे रन्तरमसृक् सवति तदत्र रक्तमुच्यते तने रक्तेन रुधिरेण उत्कटा या सा। सुभाख्यराजधानीविभूषिते विजयक्षेत्रे, स्था०८ ठा०३ उ०। रमणीय, रजस्वलायाम्, तं० आवा मनोहरे, स्था०६ ठा०1 ज्ञा०। कल्प०। औ०। महाविदेहान्तर्गतायां रत्तुप्पल-न०(रक्तोत्पल) रक्तपद्मपत्रे, प्रश्न०४ आश्र० द्वार / रा०ा लोहित- स्वनामख्यातायां नगर्याम्, स्था०। कमले, औ०ा भला कल्प० "रत्तुप्पलपत्तसुकुमालकोमलतला' रक्त दो रमणिजाओ। स्था०२ ठा०। लोहितम् उत्पलपत्रवत्। जी०३ प्रति०२ उ०। "रत्तुप्पलपउकरचरण- रतिजनके, त्रिका रमणीया मनोहरा रूपंशोभा यस्य। कल्प०१ अधि०३ कौमलङ्कुलितला'' रक्तोत्पलवत् करचरणानां कोमला अङ्गुल्यो येषाम् / क्षण। सुन्दरे, "मणोरमंचारु रमणिज'। पाइ० ना० 14 गाथा। तं०। 'रत्तुप्पलपत्तमउयसुकुमालतालुनिल्लालियग्गजीहं" रक्तोत्पलं रमणी-स्त्री०(रमणी) प्रियायाम्,"रामा रमणी सीमंतिणी बहू वामलोरक्तकमलम् / कल्प०१ अधि०२ क्षण / अणा विलया" पाइ० ना० 12 गाथा। रत्तोयाकूड-न०(रक्तोदाकूट) शिखरधरपर्वते अष्टमे कूटे, स्था०२ | रमिअ-अव्य०रन्त्वा(मित्वा) क्रीडित्वेत्यर्थे , "क्त्व इअदूणौ" ठा०३ उ०। // 4 / 271 / / इति क्त्वास्थाने इअ आदेशः। प्रा० रत्थंतर-न०(रथ्यान्तर) मार्गमध्ये, कल्प०१ अधि०५ क्षण। औ०। रमिय-न०(रमित) मैथुनसेवायाम, जी०३ प्रति०४ अधि०। राof रत्था-स्त्री०(रथ्या) सेरिकायाम्, उत्त०३० उ०। रम्प-धा०(तक्ष) तनूकरणे, "तक्षेस्तच्छ-चच्छ-रम्प-रस्फाः" रत्थामुह-न०(रथ्यामुख) मार्गप्रवेशे, आ०म०१अ०। रथ्यायाः पार्थे, ||84|164 / / इति तक्षेः रम्परम्फावादेशौ वा / तक्षति। प्रा० बृ०१ उ०३ प्रका रम्फा-स्त्री०(रम्भा) स्वनामख्यातायां स्वर्वेश्यायाम्, "चूलिकारथकार-पुं०(रथकार) काष्ठकलाभिज्ञे कारूके, "पुरं सोपारकं तत्र, पैशाचिके तृतीय-तुर्ययोराद्य-द्वितीयौ" |8 / 4 / 325 / / इति भस्य फः। रथकारोऽभवत्सुधीः / तद्दास्याश्च द्विजाज्जातः, कोकसो नाम दारकः रम्भा / रम्फा / प्रा०४ पाद। ||1||"! आ० क०१ अ० रम्म-न०(रम्य) रमयति मनांसि द्रष्ट्रणामिति रम्यम् / रमणीये, जी०३ रद्ध-न०(राद्ध) पाचिते, पक्के च / आव०४ अ०नि० चूल। जी०। प्रति०४ अधिकारा०ा जं० पञ्चा०। उत्त०। जम्बूमन्दरस्य पूर्वे सीताया रद्धी-(देशी) प्रधाने, देना०७ वर्ग 2 गाथा। महानद्याः दक्षिणे अङ्कवत्याख्यराजधानीभूषितविजयक्षेत्रे, स्था०२ रन-न०(अरण्य) वने, "कंतारं काणणं रन्नं" पाइ० ना० 135 गाथा। ठा०३ उका रम्यो विजयः अश्रावती राजधानी अञ्जनो वक्षस्कारः। रप्पुय-पुं०(रप्पुक) वल्मीकरोगे, पञ्चा०१६ विव०ा आव०॥ जं०४ वक्षः। रप्फ-(देशी) वल्मीके, देखना०७ वर्ग 1 गाथा। दोरम्मा। स्था०२ ठा०३ उ०। रप्फडिआ-गोधायाम्, देना० ७वर्ग 4 गाथा। सुन्दरे, "रुइरं राहं रम्मं, अहिरामं वधुरं मणुजं च / लट्ठ कंतं सुहयं, रप्फा-स्त्री०(देशी) वल्मीके, "रप्फा वम्मीअ-वामलूराय' पाइ० ना० मणोरमं चारु रमणिज्ज' पाइ० ना० 14 गाथा। 171 गाथा। रम्मग-पुं०(रम्यक) पक्ष्मावतीराजधानीभूषिते विजयक्षेत्रे, स्था। रफस-पुं०(रभस) वेगे, "चूलिका-पैशाचिके तृतीय-तुर्य-योराद्य- दो रम्मगा। स्था०२ ठा०३ उ०॥ द्वितीयौ" ||8 / 4 / 325 / / इति भस्य फः। रभस / रफस / प्रा०४ पाद। जम्बूद्वीपे वर्षविशेषे, स०७ सम०। प्रवका "रम्मए विजए पम्हावई -रम-धा०(रम) क्रीडायाम, प्रा०४ पाद / रमते-हर्षितो भवति / उत्त० / रायहाणी" जंग पाई०४ अ०। अभिरतिमान् भवति। उत्त० पाई०१ अ०) रति कुरुते,। कहि णं भंते ! जम्बुद्दीवे दीवे रम्मए णाम वासे ज्ञा०१ श्रु०१७ अ० "रमेः संखुड्ड-खेड्डोभाव-किलि-किञ्च-कोटुम- / पण्णते ? गोयमा! णीलवन्तस्स उत्तरेणं रुप्पिस्स द
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________________ रम्मग 485 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 रयण क्खिणेणं पुरत्थि(च्छि)मलवणसमुहस्स पचत्थिमेणं पञ्चत्थि- सुखमसुखमाकालः / स्था०२ ठा०३ उ०। प्रज्ञा०। जं०। स०। अनु०। मलवणसमुहस्स पुरत्थिमेणं एवं जह चेव हरिवासं तह चेव रुक्मिवर्षधरपर्वते तृतीयकूटे, जं०४ वक्ष०ा स्थाot रम्मयं वासं भाणिअव्वं, णवरं दक्खिणेणं जीवा उत्तरेणं धj रम्मगकूड-न०(रम्यककूट) जम्बूद्वीपे मन्दरस्योत्तरे नीलवतो वर्षअवसेसंतं चेव। धरपर्वतस्याष्टमे कूटे, स्था०६ ठा०। प्रश्नः प्रतीतः, उत्तरसूत्रे नीलवत उत्तरस्यां रुक्मिणो-वक्ष्यमाणस्य | रम्भगवंसग-पुं०(रम्यकवर्षक) रम्यकवर्षजाते मनुष्ये, स्था०७ ठा०॥ पञ्चमवर्षधराद्रेर्दक्षिणस्याम् एवं यथैव हरिवर्ष तथैव रम्यकं वर्षयश्च विशेषः रय-पुं०(रज) सूक्ष्मधूलीरूपे, दशा०७ अ० वातोत्खाते आकाशवर्तिनि सनवरमित्यादिना सूत्रेण साक्षादाह-'दक्खिणेणं जीवे' त्यादि व्यक्तम्, (स०३४ सम०) लक्ष्णतरे रेणुपुद्गले, जी० ३प्रति० 4 अधि०। तं०। अथ यदुक्तं नारीकान्ता नदी रम्यकवर्षगच्छन्तीगन्धापातिनं वृत्तवैताढ्यं औ०। पृथ्वीकाये, निचू० 16 उ०! मले, औ०। आ० चूल। जीवस्वयोजनेनासम्प्राप्ते, तदेष गन्धापाती वास्तीति पृच्छति रूपोपरञ्जनाद्रजइव रजः। कर्माणि, स्था०५ ठा०२ उ०1 धा अष्ट०। कहि णं भन्ते ! रम्मए वासे गन्धावई णामं वट्टवेअङ्क पव्वए आ० म०। विशे०। सूत्र०ा वद्ध्यमाने कर्मणि, आव०३अ० वद्ध्यमानकं पण्णत्ते? गोअमा! णरकंताए पचत्थिमेणं णारीकंताए पुरत्थि कर्म रजो भण्यते / नं० मेणं रम्मगवासस्स बहुमज्झदेसमाए एत्थ णं गन्धावईणाम रत-त्रि०ा सक्ते, आ०चू० १अ०। विशे०। औ०। स्था०। मैथुनक्रीडिते, वट्टवेअजे पव्वएपण्णत्ते, जंचेव विअडावदस्सर्तचेव गंधावइ स०६ सम०ा व्यवस्थिते. सूत्र०१ श्रु०१० अ०। स्त्रीभिः सह निधुवने, स्स वि वत्तट्वं, अट्ठो बहवे उप्पलाइं०जाव गं(न्धा)धावइव ध०३ अधि०। स्था० "रमियमोहरयाई" इति नाममालावचनात् / ण्णाई गंधावइप्पभाई पउमे अइत्थ देवे महिद्धीए०जाव पलि जी०३ प्रति०४ अधिo! ओवमहिइए परिवसइ, रायहाणी उत्तरेणुं ति। सेकेणऽटेणं भंते ! रय-पुं०। वेगे, औ०। आव० एवं वुबइ रम्मए वासे वासे 2? गोयमा ! रम्मगवासे णं रम्मे रम्मए रमणिजे रम्मए अइत्थ देवे०जाव परिवसइ, सेतेणऽटेणं / रयअ-पुं०(रजक)(धोवी) इतिख्याते वस्त्रमलहारके मनुष्यजातिविशेषे, "सोज्झओ रयओ" पाइ० ना० 237 गाथा। (सू०१११) 'कहि णं' इत्यादि, क्व भदन्त ! रम्यके वर्षे गन्धापाती नाम वृत्तवै रयउञ्जोय-पुं०(रजउद्योत) रजस्वलादिके, अनु०॥ ताठ्यपर्वतः प्रज्ञप्त:? गौतम ! नरकान्ताया महानद्याः पश्चिमायां | रयत-त्रि०(रदत्) रद विलेखने, शतृ०। उत्पाटने, तं० नारीकान्तायाः पूर्वस्यां रम्यकवर्षस्यबहुमध्यदेशभागे / अत्रान्तरे रयंधकार-पुं०(रजोऽन्धकार) रेणोः यो रयो वेगः तेनान्धकारः। रेणुवेगेगन्धापाती नाम वृत्तवैतादयः प्रज्ञप्तः, यदेव विकटापातिनो हरिव- / नान्धकारे, प्रश्न०३ आश्र० द्वार। र्षक्षेत्रस्थितवृत्तवैताढ्यस्योचत्वादिकं तदेवगन्धापातिनोऽपि वक्तव्यम्, | रयग-पुं०१ स्त्री (रजक) वस्त्रप्रक्षालके, व्य०३ उ०। यच सविस्तरं निरूपितस्य शब्दापातिनोऽतिदेशं विहाय विकटापाति- रयण-न०(रत्न) कर्केतनादौ रत्नविशेषे, रा०ा आ०म०। स०। ज्ञा० नोऽतिदेशः कृतस्तत्र तुल्यक्षेत्रस्थितिकत्वं हेतुः, अत्र यो विशेषस्तमाह- प्रश्ना दर्शा सू०प्र० संथा० जी०। कल्प० भ०। ज्ञा० औ०।०प्र०। अर्थस्त्वयम्-वक्ष्यमाणो बहून्युत्पलानि यावद् गन्धापातिवर्णानि रत्नानि द्विविधानिद्रव्यरत्नानि, भावरत्नानि च / तत्र मरकतवतृतीयवृत्तवैताढ्यवर्णानि गन्धापातिवर्णसदृशानीत्यर्थः रक्तवर्णत्वात्, जेन्द्रनीलवैडूर्यादीनि द्रव्यरत्नानि, सुखमधिकृत्य तेषामनैकान्तिगन्धापातिप्रभाणि-गन्धापातिवृत्तवैताढ्याकाराणि सर्वत्र समत्वात् तेन कत्वादनात्यन्तिकत्वाच्च भावरत्नानि / आ० म०१ अ०। स्था० तद्वर्णत्वात् तदाकारत्वाचगन्धापातीनीत्युच्यते। पद्मश्चात्र देवो महर्द्धिकः ('भरह' शब्दे पञ्चमभागे 1463 पृष्ठे विस्तरः) पल्योपमस्थितिकः परिवसति, तेन तद्योगात्तत्स्वामिकत्वाच अधुना रत्नविभागमाहगन्धापातीति, यथा च विसदृशनामकस्वामिकत्वेन नामान्वर्थोपपत्ति रयणाणि चउव्वीसं, सुवण्णतउतंबरययलोहाई। स्तथा प्रागभिहितम्। अस्याधिपस्य राजधान्युत्तरस्याम्। अथ रम्यक सीसगहिरण्णपासा-ण-वइरमणिमोत्तिअपवालं॥२५४| क्षेत्रनामनिबन्ध-माह-'से केण?णं' इत्यादि, अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यतेरम्यकं वर्ष 2? गौतम ! रम्यकं वर्ष; रम्यते-क्रीड्यते संखो तिणिसाऽगुरुचं-दणाणि वत्थामिलाणि कट्ठाणि। नानाकल्पद्रुमैः स्वर्णमणिखचितैश्च तैस्तैः प्रदेशैरतिरमणीयतया तह चम्मदंतवाला, गंधादवोसहाइंच // 25 // रतिविषयता नीयते इति रम्यं रम्यमेव रम्यकं रमणीयं च त्रीण्येकार्थिकानि रत्नानि चतुर्विंशतिः, सुवर्णत्रपुताम्ररजतलोहानि सीसकहिरण्यपाषाणरम्यतातिशयप्रतिपादकानि, ग्यकश्चात्र देवो यावत् परिवसति तेन तद् | वज्रमणिमौक्तिकावालानि। सखतिनिशागरुचन्दनानिवस्त्रामिलानि काष्ठानि रम्यकमिति व्यवह्रियते / जं० 4 वक्ष०। स्था०। रम्यके वर्ष तथा चर्मदन्तवाला गन्धा द्रव्यौषधानि व। एतान्यपि प्रायो लौकिकसिद्धान्ये
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________________ रमण 486 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 रयणमाला व नवरं रजतं-रूप्यम्, हिरण्यरूपकादि पाषाणाविजातीयरत्नानि | रयणदीवदेवया-स्त्री०(रत्नद्वीपदेवता) रत्नद्वीपस्वामिन्यां देवतायाम्, मणयो-जात्यानि तिनिशोवृक्षविशेषः अमिलानि-ऊर्णा-वस्त्राणि ज्ञा०१ श्रु०६ अ० काष्ठानि श्रीपादिफलकादीनि चर्माणि सिंहादीनां,दस्स गजादीनां, रयणदोससिरिपुरणयर-नरत्नदो(पश्री)ससिरिपुरनगर भरतक्षेत्रे वालाः चमर्यादीना, द्रव्यौषधानि-पिप्पल्यादीनि इति गाथाद्वयार्थः / जम्बूद्वीपे सिंहलद्वीपे रत्नदो(षश्री)ससिरिपुरनगरे, यत्र चन्द्रगुप्तो राजा दश०६अ०३ उ० (मानुषत्वदौर्लभ्ये रत्नदृष्टान्तः 'माणुसत्त' शब्देऽ- तस्य चन्द्रलेखा भार्या / ती०६ कल्पा स्मितन्नेव भागे 247 पृष्ठे गतः) (चक्रिणः चतुर्दश रत्नानि 'चक्कवट्टि' रयणपुर-पुं०(रत्नपुर) मालवदेशप्रसिद्ध नगरे, अणु (तद्वृत्तम् शब्दे तृतीयभागे 1102 पृष्ठे दृश्यानि) स्वजातीयमध्ये समुत्कर्षवति 'पेढालपुत्त' शब्दे पञ्चमभागे 1080 पृष्ठे विस्तरतो गतम्) वस्तुनि, स० 14 सम०। स्था०। रुचकपर्वतस्याग्निकोणीयकूटे, द्वी०। रयणप्पभसूरि-पुं०(रत्नप्रभसूरि) वडगच्छीयदिगम्बरजेतुर्देवसूरिसुवप्रविजये राजधान्याम्, स्त्री०। स्था०२ ठा०३ उ०। शिष्यभद्रेश्वरसूरिशिष्ये, स च विक्रमसंवत् 1238 वर्षे आसीत्, तेन च रदन-न०। दन्ते, 'दसणा रयणा दंता' पाइ० ना० 110 गाथा। उपदेशमालाटीका, रत्नाकरावतारिका ग्रन्थश्च व्यरचिषाताम्। जै० इ०। रयणकंड-न०(रत्नकाण्ड) रत्नप्रभायाः पृथिव्याः षोडशविधरत्नमये रयणप्पमा-स्त्री०(रत्नप्रभा) रत्नानि वज्रवैडूर्यादीनि प्रभा स्वरूपं यस्यां प्रथमकाण्डे, स०८ सम। सा। रत्नबहुलाया रत्नमय्यां गोत्रेणधानाम्न्यां नरकप्रथमपृथि-व्याम, रयणकरंडग-पुं०(रत्नकरण्डक) रत्नानां रक्षणपुटके, रा०। प्रज्ञा० १पद। जी० औ० स० विपा०ा सू०प्र०ा प्रव०। अनु०। स्था०। तद्वक्तव्यतामाह इमीसे णं रयणप्पमाते पुढवीए रयणे कंडे दस जोअणसयाई तेसि णं तोरणाणं पुरतो दो दो चित्ता रयणकरंडगा पण्णत्ता। वाहल्लेणं पण्णत्ते, इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए वइ (तं) रे कंडे से जहाणामए रणो चाउरंतचकवट्टिस्स चित्ते रयणकरंडए दस जोयणसयाई वाहल्लेणं पण्णत्ते / एवं वेरुलिए लोहितक्खे वेरुलियमणी फालिहं पडलपचोयडे साएप्पभाए पएसे सवओ मसारगल्ले हंसगब्भे पुलए सोगंधिते जोतिरसे अंजणे अंजणसमंतातो भासति, उज्जोइतवतिप्पभासति एवमेव ते विचित्ता पुलते रयए जायरूवे अंके फलिहे रुढे जहा रयणे तहा सोलरयणकरंडगा सातिप्पभाए ते पएसे सवओ समंता भासंति, सविधा माणियव्वा / (सू०७७८) उज्जोवंति तवंति पगासंति। 'इमीसे ण' मित्यादि, येयं रज्जुरायामविष्कम्भाभ्यामशीतिसहराधा जी0। उत्तम स्त्राधिक योजनलक्षं बाहल्यतः उपरि मध्येऽधस्ताययस्याः खरकाण्डरयणकूड-न०(रत्नकूट) जम्बूमन्दरस्य उत्तरे रुचकरपळतस्य प्रथम- पङ्कबहुलकाण्डजलबहुलकाण्डाभिधानाः क्रमेण षोडशचतुरशीत्य कूटे, स्था०८ ठा०३ उ०। मानसोत्तरपद्धतस्य गरुडस्य वेणुदेवस्य शीतियोजनसहस्रबाहल्या विभागास्सन्ति, 'इमीसे त्ति एतस्याः प्रत्यनिवासभूते कूटे; स्था०४ ठा०२ उ०। क्षासन्नायाः रत्नानां प्रभा यस्यां रत्नैर्वा प्रभाति-शोभते या सा रत्नप्रभा रयणणिकररासि-पुं०(रत्ननिकरराशि) रत्ननिकराणामुच्छ्रितसमूह, तस्याः पृथिव्याः भूमेर्यत्तत् खरकाण्डं तत्षोडशविधरत्नात्मकत्त्यात् कल्प०१ अधि०३ क्षण। षोडशविम्, तत्र यः प्रथमो भागो रत्नकाण्डं नाम तदृश योजनशतानि रयणणिहाण-पुं०(रत्ननिधान) खरतरगच्छीयजिनचन्द्रसूरिशिष्ये, पं० बाहल्येन सहस्र-मेकं स्थूलतयेत्यर्थः / एवमन्यानि पञ्चदशापि सूत्राणि व०५ द्वार। वाच्यानि, नवरं प्रथम सामान्यरत्नात्मकं, शेषाणि तद्विशेषमयानि, रयणत्तय-स्त्री०(रत्नत्रय) ज्ञानदर्शनचारित्रत्रये, अष्ट०८ अष्ट०। चतुर्दशानामतिदेशमाह-- 'एवमित्यादि,' 'पूर्व' मिति पूर्वाभिलापेन रयणस्थाल-न०(रत्नस्थाल) रत्नभृतस्थाले, व्य०६ उ०। सर्वाणि वाच्यानि, 'वैरुलिय' ति वैडूर्यकाण्डम्, एवं लोहिताक्षकाण्ड रयणत्थि-त्रि०(रत्नार्थिन्) रत्नानि वैडूर्यादीनि तान्यर्थयन्तीत्येवंशीला मसारगल्लकाण्ड हंसगर्भकाण्डमेवं सर्वाणि, नवरं रजतं रूप्यं जातरूपं ते रत्नार्थिनः / यद्वा अर्थः-प्रयोजनं विद्यते येषां ते तथा रत्नार्थिनः। सुवर्णमेते अपि रत्ने एवेति। स्था०१० ठा०३ उ०। भीमस्य राक्षसेन्द्रस्य रत्नकामेषु, दर्श०२ तत्त्व। अग्रमहिष्याम्, स्था०४ ठा०१ उभा (अस्याः सर्वा वक्तव्यता ‘णरय' रयणदीव-पुं०(रत्नद्वीप) लवणसमुद्रमध्यगे स्वनामख्याते द्वीपे, यत्र शब्दे चतुर्थभागे 1906 पृष्ठे उक्ता) माकन्दीपुत्रौ तदधिष्ठात्र्या देवतया छलितो, ज्ञा०१ श्रु०६ अ०। महा०। रयणभूय-त्रि०(रत्नभूत) चिन्तारत्नादिसदृशे, भ०६ श० 33 उ०॥ ज्ञाताधर्मकथाङ्गनवमाध्ययने रत्नद्वीपदेवी मौलश-रीरेण समुद्रशोध- रयणमणिभेय-पुं०(रत्नमणिभेद) रत्नमणिभेदपरिज्ञानाऽऽत्मके सप्तचनार्थं गतेत्युक्लमस्ति परं मौलशरीरेणान्यत्र गमनं कथं सङ्गच्छते इति? त्वारिंशत्तमे 47 स्त्रीकलाभेदे, कल्प० १अधि०७ क्षण। अत्र ज्ञातामध्ये रत्नद्वीपमध्ये देवी मौलशरीरेण समुद्रशोधनार्थं गताऽस्ति | रयणमाला-स्त्री०(रत्नमाला) रत्नशे खरराजपालिते नगरे, पर तस्याः। मौलशरीरेण गमनप्रतिषेधो ज्ञातो नास्तीति।शही०३ प्रका०। | "श्रीरत्नमालनगरे, राजाभू द्रत्नशे खरः / सोऽनपत्यतया
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________________ रयणमाला 457- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 रयणसेहरसूरि दूनः, प्रैषीच्छाकुनिकान्बहिः / / 1 / / " ती०७ कल्प। सूत्र०। रयणवई-स्त्री०(रत्नवती) पक्षहरिलकन्यायां ब्रह्मदत्तचक्रिभायायाम, उत्त० पाई०१३ अग रयणवडंसय-न०(रत्नावतंसक) ईशानकल्पे रत्नमयेऽवतंसके, प्रज्ञा०२ पद। रयणवास-पुं०(रत्नवास) रत्नवर्णरूपे वर्षे, भ०१५ श०। स्था०। रयणवाह-न०(रत्नवाह) अयोध्यासमीपे नागसहिते श्रीधर्मना-- थावासरूपे पुरभेदे, ती०४३ कल्प। एतत्कथा यथाश्रीधर्मनाथमानम्य, रत्नवाहपुरे स्थितम् / तस्यैव पुररत्नस्य, कल्पं किञ्चिद् ब्रवीम्यहम्।।१।। अस्तीहैव जम्बूद्वीपे भारते वर्षे कौशलेषु जनपदेषु नानाजातीयोचे स्तरशाखिशाखावहलदलकुसुमफलाच्छन्नताच्छादिधर्मघृणिकरगहनवनमण्डितं शीतलविमलबहुलजलनिर्झरघर्घरनदबन्धुरं रत्नवाह नाम पुरम्, तत्र चेक्ष्वाकुकुलप्रदीपः कनककान्तकायकान्तिः कुलिशलाञ्छितपादः पञ्चचत्वारिंशचापोच्छ्रायकायः पञ्चदशतीर्थपतिविजयविमानदेवतीर्थे श्रीभानुनरेन्द्रवेश्मनिसुव्रतादेवीकुक्षौ तनयतयाऽवततार, क्रमेण गुरुवितीर्णधर्मनामधेयो जननिष्क्रमणकेवलज्ञानानि तत्रैव समाससाद, निर्वृतश्च सम्मेत-शिखरिशिखरे। तस्मिन्नेव च पुरेजननयनजनितशैत्यं श्रीधर्मनाशचैत्यं नागकुमारदेवाधिष्ठितं कालेन निर्वृत्तं, तत्र च नगरे कुम्भकार एकः स्वशिल्पच्छेक आसीत, तस्य तनयस्तरुणिमानमधिगत्य क्रीडादुर्ललिततया नवरामणीयकशालिनि चैत्ये गृहादागत्याऽऽगत्य स्वैरं द्यूतादि तत्तत्क्रीडाविधाभिश्चिक्रीड, तत्रैको नागकुमारः कलिप्रियतया कृतमानुषतनुस्तेन कुम्भकारदारकेण सार्द्ध प्रत्यहं प्रववृते क्रीडितुम्। तत्पित्रा च स पुत्रः कुलक्रमागत-कुलालकर्माण्यनिर्मिमाणः प्रतिदिनं दुर्वाग्भिरुपालेभे, न च तद्व-चनमसौ प्रत्यपादि। ततः पित्रा गाढं प्रत्यहं बलादपि स्वकर्माणि मृत्खननायनादीनि कारयितुमुपक्रान्तः। अन्तरमवलोक्य पुनस्तचैत्ये गत्वा अन्तराऽन्तरा तथैव तेन नागकुमारेण साकं खेलितुं लग्नः, पृष्टश्च नागकुमारेण, किं कारणं पूर्ववन्निरन्तरं न क्रीडितु-मायासि? तेनोक्तम्-जनकः कुप्यति मह्यं, स्वकर्मनिर्माणमन्तरेण कथमिव जठरपिठरविवरणमुपपद्यत इति। तदाकण्यं दृक्कर्णकुमारोवाचमुवाच / यद्येवं तर्हि क्रीडान्ते भूपीठे विलुप्तो भविष्याम्यहम-हिर्मत् पुच्छं चतुरङ्गुलमात्रं लोहेन मृत्खननोपकरणेन छित्त्वात्वया ब्राह्यं, तच चारुचामीकरमयं भविष्यति, तेन हेम्ना तव कुटुम्बस्य वृत्तिनिर्वाहो भविष्यतीति, सौहार्देनाभिहितेस तथैव प्रतिदिवसं कर्तुप्रवृत्तः, पितुश्च तत्कनकमर्पयतिस्म,नचरहस्यमभिन्दत्। अन्यदाऽतिनिर्बन्धं विधाय पृच्छति सति पितरि भयाद्यथाऽवस्थितमचकथत्। ततः सस्मितेन विस्मितेन जगदे जनकेन, रे मूर्ख ! चतुरङ्गुलमात्रमेव किमिति छिनत्सि, बहुतरे हि छिन्ने भूरितरं भवति। तेन भणितम्, तात! नातः समतिरिक्तमहं छेत्तुमुत्सहे परमसुहृद्देवतावचनातिक्रमप्रसङ्गात्, ततस्तजनकेन लोभसंक्षोभाकुलितमनसा तस्मिस्तनये क्रीडाथ चैत्यमुपेयुषि प्रच्छन्नमनुवव्रजे, यावत् प्रकीड्य धरणिपीठे विलुप्य स पन्नगता मापनस्तावत् कुम्भकारेण विले प्रविशतस्तस्य वपुरर्द्ध कुद्दालिकया विचिच्छिदे / ततः कोपाटोपात्तेन नागकुमारेण रे पापिष्ठ ! रहस्यभेदं करिष्यतीति गाढं निर्भय॑ गाढं निर्भय॑ स दारको दंष्ट्रासम्पुटेन दृष्टात्र्यापादितः, पिता च / रोषप्रकर्षात्सकलान्यपि कुलालकुलानि कालकवलितानि कृतानि। ततः प्रभृति चन कश्चन चक्रजीवनजातीयस्तत्र रत्नवाहपुरेऽद्यापि निवसतीति कौलालभाण्डनि स्थानान्तरादेवानयति जनता, तत्र च तथैव नागमूर्तिषरिवारिता श्रीधर्मनाथप्रतिमाऽद्यापि सम्यग्दृष्यिाकजनैरनेकविधिप्रभावप्रभावनापुरस्सरं पूज्यते / अद्यपि च परसमयिनो धर्मराज इति व्यपदिश्य कदाचिदवर्षति वर्षासु, जलधरक्षीरघटसहस्रैर्भगवन्तं स्नपयन्ति, सम्पद्यतेचतत्-क्षणाद्विशिष्टा मेघवृष्टिः। कन्दर्पा शासनदेवी, किन्नरश्च शासनयक्षः श्रीधर्मनाथापादपद्मसेवाहेवाकचञ्चरीकाणामनर्थप्रतिघातमर्थप्राप्ति चात्र सूत्रयतीति। इतिश्रीरत्नवाहस्य, श्रीजिनप्रभसूरिभिः। कल्पः कृतो रत्नपुरा-ख्यपुरस्य यथाश्रुतम्॥१॥ ती० 16 कल्प रयणविचित्त-त्रि०(रत्नविचित्र) रत्नखचिते, आ०म०२०। रयणसंकडुक्कड़-न०(रत्नसङ्कटोत्कट) रत्नसङ्कटे उत्कृष्टवस्तुनि, भ०६ श०३३ उ०। रयणसंचय-पुं०(रत्नसञ्चय) रत्नपुरवास्तव्ये रत्नगुणसागरपितरि सुमङ्गलापतौ, ध०२० 2 अधिo रयणसंचया-स्त्री०(रत्नसंचया) उत्तरपश्चिमे रतिकरपर्वते उत्तरस्यां दिशि ईशानेन्द्रस्य देवस्य वसुन्धरानामिकाया अग्रमहिष्यां राजधान्याम, जी०३ प्रति०५ अधिo द्वी०। ती०। स्था०। जं०। सुवप्रविजयराजधान्याम्, स्त्री०। स्था० दो रयणसंचयाओ। स्था०२ठा०३उ०। रयणसंचयाकूड-पुंगाना(रत्नसञ्चयाकूट) जम्बूद्वीपेमेरोरुत्तरे रुचक पर्वते चतुर्थे कूटे, स्था०८ ठा०३ उ०। रयणसार-पुं०(रत्नसार) सिंहपुरराजे मदनरेखापतौ स्वनामख्याते राजनि, सफा०१ अधि०१प्रस्ता०। स्था। रयणसिरि-स्त्री०(रत्नश्री) आमलकल्पायां नगर्या रत्निनो गृहपतेर्भार्यायां रत्नायाः अग्रमहिष्याः पूर्वभवमातरि, ज्ञा०२ श्रु०१ वर्ग 4 अ०। रयणसीहसूरि-पुं०(रत्नसिंहसूरि) तपागच्छीये सैद्धान्तिकमुनिचन्द्रसूरिशिष्ये, पुद्गलषत्रिंशिकानिगोदषट्त्रिंशिकादिग्रन्थानां कर्ता स आचार्यः विक्रमसंवत् 1200 वर्षे विद्यमाम आसीत्। जै०३०। रयणसेहरसूरि-पुं०(रत्नशेखरसूरि) तपागच्छीयमुनिसुन्दरसूरि-शिष्ये, तस्य जन्मविक्रमसंवत् 1457, दीक्षाप्राप्तिसंवत् 1463, पण्डितपदप्राप्तिसंवत् 1483, वाचकपदप्राप्तिसंवत् 1463, सूरिपदसंवत् 1502 स्वर्गतिसंवत् 1517 / श्राद्धप्रतिक्रमणवृत्तिः, श्राद्धविधिवृत्तिः, आचारप्रदीपः,लघुक्षेत्रसमासश्चेति ग्रन्थाः अनेन रचिताः। द्वितीयश्च रत्नशेखरसूरिः नागपुरीयतपागच्छीयहेमतिलकसूरिशिष्यः विक्रमसंवत्सरे 1420 विद्यमान आसीत्, श्रीपालचरित्रगुणस्थानक्रमारोहणाधनेकग्रन्थानामयं कर्ता। फीरोजशाहेतुवलक नाम्नो दिल्लीपतेरयं मानपात्रश्चासीत् / जै०इ०॥
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________________ रयणा 485 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 रयणावलि रयणा-स्त्री०(रत्ना) उत्तरकुरुपश्चिमे रतिकरपर्वते पूर्वस्यां दिशि | * लोकाख्यतत्सूत्रार्थमात्रप्रकाशनपरा रत्नाकरावतारिका नाम्नी लघीईशानेन्द्रस्य देवस्य रत्नवसुनामिकाया अग्रमहिष्याः राजधान्याम, यसी टीका प्रकटीक्रियते। रत्ना० १परि०। जी०३ प्रति०४ अधि० स्था०ा ती रयणावलि(ली)-स्त्री०(रत्नावली) रत्नमयमणिकात्मिके आभरणरयणाइच-पुं०(रत्नादित्य) अणहिलपट्टनराजे चौलुक्यवंशीये नृपभेदे, विशेषे, रा०। विशे०रा०ा तपोविशेषे, च / प्रव०॥ ती०२५ कल्प। रत्नावलीतपः स्वरूपमाहरयणागर-पुं०(रत्नाकर) माणिक्योत्पादनस्थाने, समुद्रे च। पञ्चा०१२ इग दु ति काहलियासु, दाडिमपुप्फेसु हुंति अकृतिगा। विव०। बृ०॥ ज्ञा०) उत्त०। प्रश्न०) गवेषणायामुदाहृतस्य शुद्धगवेषक- एगाइसोलसंता, सरियाजुयलम्मि उववासो।।१५३९।। क्षपकस्य गुरौ एकदा पोतनपुरसमवसृते सूरौ, पिं०। अंतम्मि तस्स पयगं, तत्थं कट्ठाणमेक्कमह पंच / रयणागरसूरि-पुं०(रत्नाकरसूरि) देवप्रभसूरिशिष्ये, येन विक्रमसंवत् सत्तय सत्तय पण पण, तिनिक तेसु तिगरयणा / / 1140 / / 1308 रत्नाकरपञ्चत्रिंशिका नाम आत्मनिन्दाप्रतिपादको ग्रन्थो पारणदिणअट्ठासी, पडिचउक्कमे वरिसपणगं। लिखितः। जै००। नवमासा अट्ठारस, दिणाणि रयणावलितवम्मि।।१५५१।। रयणायर-पुं०(रत्नाकर) समुद्रे, "मयरहरो सिंधुवई सिंधू रयणायरो रत्नावली-आभरणविशेषः, रत्नावलीव रत्नावली, यथा हि रत्नावली सलिलरासी।' पाइ० ना०८ गाथा। उभयत आदिसूक्ष्मस्थूलस्थूलतरविभागकाहलिकाख्यसौवर्णावयवरयणावतारिया-स्त्री०(रत्नावतारिका) स्याद्वादरत्नाकरटीकायाम्, द्वययुक्ता, तदनु दाडिमपुष्पोभयोपशोभिता, ततोऽपि सरलसरिकारत्नान युगलशालिनी, पुनर्मध्यदेशे सुश्लिष्टपदकसमलंकृता च भवति, एवं यत्तपः "सिद्धये वर्धमानः स्तात्, ताम्रा यन्नखमण्डली। पट्टादावुपदर्शमानमिममाकारं धारयति, तद्रत्नावलीत्युच्यते। तत्रैकक द्विकत्रिका उत्तरार्धक्रमेण काहलिकयोः स्थाष्या भवन्ति। तदनु द्वयोरपि प्रत्यूहशलभप्लोषे, दीप्रदीपाङरायते // 1 // दाडिमपुष्पयोः प्रत्येकमष्टौ त्रिकाः, तेचोभयतो रेखाचतुष्टयेन नवकोष्ठयैरत्र स्वप्रभया, दिगम्बरस्यार्पिता पराभूतिः। कान् विधाय, मध्ये च शून्यं कृत्वा पतयः स्थाप्यन्ते। ततश्चाधोऽधः प्रत्यक्षं विबुधानां, जयन्तु ते देवसूरयो नव्याः / / 2 / / सरिकायुगले एकादयः षोडशान्ताःस्थाप्याः, तस्य च सरिकायुगलस्यास्याद्वादमुद्रामपनिद्रभक्त्या, न्तेपर्यन्ते पदकं पङ्क्त्यष्टकेन चतुस्त्रिंशादङ्कस्थानानि कोष्ठका इत्यर्थः / क्षमाभूतां स्तौमि जिनेश्वराणाम्। तत्र प्रथमायां पङ्क्तविकमङ्कस्थानं द्वितीयस्यां पञ्च, तृतीयस्यां सप्त, सन्न्यायमार्गानुगतस्य यस्यां, चतुर्थ्यामपि सप्त,पञ्चम्यां पञ्च,षष्ठ्यामपि च पञ्च, सप्तम्यां त्रीणि, अष्टम्यां सा श्रीस्तदन्यस्य पुनः स दण्डः // 3 // " त्वेकमेवाङ्कस्थानम् / तेषु चतुस्त्रिंशत्यपि कोष्ठकेषु त्रिकरचना त्रिकाः इह हि लक्ष्यमाणाऽक्षोदीयोऽर्थाथूणाक्षरक्षीरनिरन्तरे, तत इतो दृश्य स्थाप्यन्ते इति भावः। इदमत्र तात्पयरत्नावलीतपसि प्रथममेकमुपवास मानस्याद्वादमहामुद्रामुदितानिद्रप्रमेयसहस्रोत्तुङ्ग तङ्गत्तरङ्गभङ्गि करोति, ततोद्वौ, ततस्त्रीन, इत्येका काहलिका। अन्तराच सर्वत्र पारणकं सङ्खसौभाग्यभाजने, अतुलफलभरभ्राजिष्णुभूयिष्ठागमाऽभिरामातुच्छ वाच्यम्, ततोऽष्टावष्टमान्युपवासत्रिकत्रिकात्मकानि करोति। एतैः किल परिच्छेदसन्दोहशाद्वलासन्नकानननिकुञ्ज, निरुपममनीषामहापान काहलिकाया अधस्ताद्दाडिमपुष्पं निष्पद्यते। ततश्चैकमुपवासं करोति, ततोऽपि द्वौ, ततस्त्रीन्, ततोऽपि चतुरः, इत्येवं पञ्च षट् सप्ताष्टौ नव पात्रव्यापारपरायणपूरुषप्राप्यमाणाप्राप्तपूर्वरत्नविशेषे, क्वचन वचनरच दशैकादशं द्वादश त्रयोदश चतुर्दशपञ्चदश षोडशोपवासान् करोति। एषा नानवद्यगद्यपरम्पराप्रवालजालजटिले, क्वचन सुकुमारकान्तालोक हि दाडिमपुष्पाधस्तादेका सरिका। ततश्चतुस्त्रिंशदष्टमानि करोति। एतैः नीयास्तोकश्लोकमौक्तिकप्रकरकरम्बिते, क्वचिदनेकान्तवादो किल पदकं सम्पद्यते / ततः षोडशोपवासान् करोति, ततः पञ्चदश, पकल्पितानल्पविकल्पकल्लोलोल्लासितोद्दामदूषणाद्रिविद्राव्य ततश्चतुर्दश, इत्येवमेकैकहान्या तावन्नेयं यावदेक उपवासः / एषा माणानेकतीर्थिकनक्रचक्रचक्रवाले, क्वचिदपगताशेषदोषानुमाना द्वितीया सरिका भवति / ततश्चाष्टावष्टमानि करोति। एतैरपि द्वितीय भिधानोद्वर्तमानासमानपाठीनपुच्छच्छटाऽच्छोटनोच्छलदतुच्छशी दाडिमपुष्पं निष्पद्यते / ततस्त्रीनुपवासान् करोति, ततो द्वौ, ततः करश्लेष संजायमानमार्तण्डमण्डलप्रचण्डच्छमत्कारे, क्वापि तीर्थिक एकमुपवासं करोति / एतैर्द्वितीया काहलिका निष्पद्यते / एवं सति ग्रन्थग्रन्थिसार्थसमर्थकदर्थनोपस्थापितार्थानवस्थितप्रदीपायमान परिपूर्णा रत्नावली सिद्धा भवति। अस्मिन् रत्नावलीतपसि काहलिप्लवमानज्वलन्मणिफणीन्द्रभीषणे, सहृदयसैद्धान्तिकतार्किक कायास्तपोदिनानि 12, दाडिमपुष्पयोः षोडशभिरष्टमैर्दिनानि 48 | वैयाकरणकविचक्रचक्रवर्तिसुविहितसुगृहीतनामधेयास्मद्गुरुश्रीदेव सरिकायुगले द्वाभ्यां षोडशसङ्कलनाभ्यां दिनानि 272 / पदके सूरिभिर्विरचिते स्यावादरत्नाकरे न खलु कतिपयतर्कभाषातीर्थमजान- चतुस्त्रिंशताष्टमैर्दिनानि 102 / सर्वेकत्वे चत्वारि शतानि चतुस्त्रिंशदुत्तन्तोऽपाठी-ना अधीवराश्च प्रवेष्टुं प्रभविष्णवः; इत्यतस्तेषामवतारदर्शनं राणि, अष्टाशीतिश्च पारणकदिनानि, उभयमीलने पञ्च शतानि द्वाविंशकर्तुमनुरूपम् / तच्च संक्षेपतः शास्त्रशरीरपरामर्शमन्तरेण नोपपद्यते।। त्युत्तराणि। पिण्डितास्तु वर्षमेकं, मासाः पञ्च, दिनानि च द्वादश।इदमपि सोऽपि समासतः सूत्राभिधेयावधारणं विना न; इति प्रमाणनयतत्त्वा- चतपः पूर्ववच्चतसृभिः परिपाटिभिः समर्थ्यते। ततश्चतुभिर्गुणने वर्षाणि
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________________ रयणावलि 486 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 रयणावलि 3 3 पञ्च, मासा नव, अष्टादश च दिनानीति / प्रव० 271 द्वार तथा च सूत्रम्चउत्थं करेति चउत्थं करेत्ता सव्व कामगुणियं पारेति / सव्वकामगुणियं शिशशशग३] पारेत्ता छटुं करेति, छठें करेत्ता सव्व३३३३ कामगुणियं पारेति / सव्वकाम गुणियं पारेत्ता, अट्ठमं करेति अट्ठमं करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति सव्वकामगुणियं पारेत्ता अट्ट छट्ठाई करेति, अट्ठ छट्ठाई करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति / सव्वकामगुणियं पारेत्ता,चउत्थं करेति, चउत्थं करेता सव्वकामगुणियं पारेति। सव्वकामगुणियं पारेत्ता छटुं करेति, छटुं करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति / सव्वकामगुणियं पारेत्ता अट्ठमं करेति, अट्ठमं करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति / सव्वकामगुणियं पारेत्ता दसमतं करेति, दसमं करेत्ता, सव्वकामगुणियं पारेति। सव्वकामगुणियं पारेत्ता दुवालसमं करेति, दुवालसमं करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति। सव्वकामगुणियं पारेत्ता चोद्दसमं करेति, चोद्दसमं करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति। सव्वकामगुणियं पारेत्ता सोलसमं करेति, सोलसमं करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति। सव्वकामगुणियं पारेत्ता अट्ठारसमं करेति, अट्ठारसमकरेता सव्वकामगुणियंपारेति।सव्वकामगुणियं पारेत्ता वीसइमं करेति, वीसइमं करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति / सव्वकामगुणियं पारेत्ता बावीसइमं करेति, बावीसइमं करेत्ता सव्वकाम-गुणियं पारेति। सव्वकामगुणियं पारेत्ता चउवीसइम करेति, चउवीसइमं करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति ।सव्वकामगुणियं पारेत्ता छव्वीसइमं करेति, छव्वीसइमं करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति। सव्वकामगुणियं पारेत्ता अट्ठावीसइमं करेति, अट्ठाव-सइमं करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति / सव्वकामगुणियं पारेत्ता तीसइमं करेति, तीसइमं करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति। सव्वकामगुणियं पारेत्ता बत्तीसइमं / करेति / बत्तीसइमं करेत्ता सव्व-कामगुणियं पारेति / सव्वकामगुणियं पारेत्ता चोत्तीसइमं करेति, चोत्तीसइमं करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति। सव्वकामगुणियं पारेत्ता चोत्तीसं छट्ठाई करेति, चोत्तीसं छट्ठाई करेत्ता सव्वकाम-गुणियं पारेति / सव्वकामगुणियं पारेत्ता चोत्तीसं क रेति, चोत्तीसं करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति। सव्वकामगुणियं पारेत्ता बत्तीसं करेति, बत्तीसं करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति। सव्वकामगुणियं पारेत्ता तीसं करेति, तीसं करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति / सव्वकामगुणियं पारेत्ता अट्ठावीसं करेति, अट्ठावीसं करेत्ता सव्वकामगुणियंपारेति। सव्वकामगुणियं पारेत्ता छव्वीसं करेति, छव्वीसंकरेत्ता सव्वकामगुणियं पारेतिसव्वकामगुणियं पारेत्ता चउवीसं करेति, चउवीसं करेत्ता सव्वकामगुणियं यं पारेति। सव्वकामगुणियंपारेत्ता बावीसंकरेति, बावीसं करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति। सव्वकामगुणियं पारेत्तावीसंकरेति, वीसं करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति / सव्वकामगुणियं पारेत्ता अट्ठारसं करेति, अट्ठारसं करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति / सव्वकामगुणियं पारेत्ता सोलससं करेति, सोलसमं करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति। सव्वकामगुणियं पारेत्ता चोद्दसमं करेति, चोद्दसमं करेता सव्वकामगुणियं पारेति। सव्वकामगुणियंपारेत्ता बारसमं करेति, बारसमं करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति / सव्वकामगुणियं पारेता दसमं करेति, दसमं करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति / सव्वकामगुणियं पारेत्ता अट्ठमं करेति, अट्ठमं करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति / सव्वकामगुणियं पारेत्ता छटुं करेति, छ8 करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति / सव्वकामगुणियं पारेत्ता चउत्थं करेति, चउत्थं करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति / सव्वकामगुणियं पारेत्ता अट्ठ छट्ठाई करेति, अट्ठ छट्ठाई करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति / सव्वकामगुणियं पारेत्ता अट्ठमं करेति, अमटुं करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति। सव्वकामगुणियं पारेत्ता अट्ठावीसं करेति, अट्ठावीसं करेत्तासव्वकामगुणियंपारेति। सव्वकामगुणियं पारेता चउत्थं करेति, चउत्थं करेत्ता सव्वकामगुणियं पारेति / एवं खलु एसा रयणावलीए तवोकम्मस्स पढमा परिवाडी। एगेणं संवच्छरेणं तिहिं मासेहि बावीसाए य अहोरत्तेहिं अहासुत्ता०जाव आराहिया भवति।तदाणंतरचणंदोचाएपरिवाडीए चउत्थं करेति, विगतिवचंपारेति। विगतिवजंपारेताछट्टेकरेतिद्वंकरेता विगतिवद्धं पारेति। एवं जहा पढमाए वि नवरं सव्वपारणवे विगतिवजं पारेति 3 राय بده [نبه 1 به 1 به 1 به به ابه اسه اسبه
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________________ रयणावलि 460- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 रय(ता)ताण - जाव आराहिया भवति / तयाऽणंतरं च णं तबाए परिवाडीए / उक्ता) षड्जग्रामस्य चतुर्थमूर्च्छनायाम, स्था०७ ठा०३उ०। निशायाम्, चउत्थं करेति चउत्थं करेत्ता अलेवाडं पारेति। सेसं तहेव, एवं | "रयणी विहावरी सव्वरी निसा जामिणी राई' पाइ० ना०४७ गाथा। चउत्था परिवाडी नवरं सव्वपारणते आयंबिलं पारेति / सेसं तं | रत्नि-पुंoास्त्री हस्ते,जं०२ वक्षाअनु०। 'रयणी हत्थो" पाइ० ना० चेव "पढमम्मि सय्वकामं, पारणयं बितियते विगतिवजं / 260 गाथा। ततियम्मि अलेवाड,आयंबिलमो चउत्थम्मि॥१॥" अन्त०८ रयणीपचक्खाण-न०(रजनीप्रत्याख्यान) रात्रिभोजनविरमणे, "रयवर्ग 10 णिपच्चक्खाणस्स, तीरणरूवा सिहा समुद्दिट्ठा / नवकारेण समेया, रयणावलिमहावर-पुं०(रत्नावलिमहावर) रत्नावलिवरसमुद्रदेवे, जी०३ नवकारणवच्चचूला या''||२५|| ल०प्र०। प्रति०४ अधि०। स्यणुचयकूड-पुं०(रत्नोचयकूट) मानसोत्तरपर्वतस्वदक्षिणस्य गरुडस्य रयणावलिवर-पुं०(रत्नावलिवर) स्वनामख्याते द्वीपे, समुद्रे च / तत्र वेलम्बसुखदमित्यपरनामकवेलम्बस्य वायुकुमारेन्द्रस्य निवासभूते कूटे, द्वीपे रत्नावलिवरभद्र-रत्नावलिवरमहाभदौ समुद्रौ रत्नावलिवर- स्था०४ ठा०२ उ०ा जम्बूद्वीपे मन्दरस्योत्तरे रुचकरपर्वते द्वितीये कूटे, रत्नावलिमहावरौ देवौ / जी०३प्रति०४ अघि स्था०८ठा० रयणावलिवरभद्द-पुं०(रत्नावलिवरभद्र) स्वनामख्याते रत्नावलिवर- | रयणोचय-पुं०(रत्नोचय) रत्नानां नानाविधानामुत्प्रावल्येन चयः द्वीपाधिपतौ देवे, जी०३ प्रति०४ अधि० उपचयो यत्र स रत्नोचयः। मन्दरे, जं०४ वक्ष०ा स० रयणावलिवरमहाभद्द-पुं०(रत्नावलिवरमहाभद्र) रत्नावलिवरमहा- मन्दर 1 मेरु 2 मणोरम 3, भद्रद्वीपाधिपतौ देवे, जी०३ प्रति०४ अधि०| सुदंसण 4 सयंपभे अ५ गिरिराया 6 / रयणावलिवरोभास-पुं०(रत्नावलिवरावभास) स्वनामख्याते द्वीपे, रयणो (णु) चय 7 सिलोचय 8, समुद्रे च। तत्र द्वीपे रत्नावलिवरावभासरत्नावलिवरावभासमहाभद्रौ देवी, मज्झे लोगस्स गाभी य 10 // 1 // जी०३ प्रति०४ अधि। अच्छे अ११ सरिआवत्ते 12, सूरिआवरणे 13 त्ति अ। रयणावलिवरोभासवर-पुं०(रत्नावलिवरावभासवर) रत्नावलिवराव उत्तमे १४अ दिसादी अ 15 वडेंसेति 16 असोलसे॥२॥ भासासमुद्रदेवे, जी०३ प्रति०४ अधिo) जं०४ वक्ष०1 रयणावहसत्थवाह-पुं०(रत्नावहसार्थवाह) रत्नवतीभर्तरि स्वनाम ('गिरिराय' शब्दे तृतीयभागे 876 पृष्ठे व्याख्या गता) रत्नहेचयख्याते श्रेष्ठिनि, दर्श०१ तत्त्व। स्योच्चत्वादि 'मन्दर' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 26 पृष्ठे गतम्) (अत्र भद्रसालरयणाहिय-पुं०(रत्नाधिक) पर्यायज्येष्ठे, आव०३ अ०॥ वनवक्तव्यता भदसालवण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 1373 पृष्ठे गता) रयणि-स्वी०(रजनि) रात्रौ, आ०म०१अ० ही0। उत्त०। रयणोचया-स्त्री०(रत्नोचया) उत्तरपाश्चात्यरतिकरपर्वतस्य दक्षिणस्यां रत्नि-पुंoास्त्री०। हस्तपरिमाणे, जी०१ प्रति० / नि०चू०! भला वसुगुप्तायाः ईशानाग्रमहिष्याः राजधान्याम, स्था०४ ठा०२ उाती। "चउव्वीसअंगुलाई रयणी''। भ०६ श०७ उ०) रयणोरुजालय-न०(रत्नोरुजालक) रत्नसम्बन्धि ऊर्वोवृहज्जङ्घस्यणिअ(ग)र-पुं०(रजनिकर) निशाकरे, आ०५० 110 / सू०प्र० | योर्जालकम् / उरःप्रदेशे लम्बमाने रत्नमये जालके,प्रश्र०५ संव० द्वार। औ०। निका रा० आ०म०। ज्ञा०] "स्वरस्योवृत्ते" ||8/1 / 8 / / इति स्य(ता)त्ताण-न०(रजस्त्राण) पात्रावेष्टनके, बृ०३ उ०। ज्ञा०। प्रवा सन्धिर्न / रयणिअरो। प्रा० ___इदानी रजस्त्राणमाह-- रयणिणाह-पुं०(रजनिनाथ) चन्द्रमसि, "इंदू निसायरो ससहरो विहू माणं तु रयत्ताणे, भायणपमॉणेण होइ निप्फन्नं / गहवइ रयणिणाहो।" पाइ० ना०५ गाथा। पायाहिणं करतं, मज्झे चउरंगुलं कमई ||511 // रयणिद्धय-(देशी) कुमुदे, देवना०७ वर्ग 4 गाथा। मानं तु-प्रमाणं रजस्राणे-रजस्त्राणविषयं भाजनप्रमाणेन भवति रयणिविराम-पुं०(रजनिविराम) प्रातःकाले, "गोसो रयणिविरामो, निष्पन्नं, तच्चैवं वेदितव्यमित्याह-प्रादक्षिण्यं कुर्वन् पात्रस्य मध्ये गोसम्यो दिणमुहं च पचूसो''। पाइ० ना०४६ गाथा। चतुरगुलमिति चत्वार्यङ्गुलानि यावत्क्रामत्यधिकं तिष्ठति। एतदुक्तं रयणी-स्त्री०(रजनी) ईशानेन्द्रलोकपालसोमराजस्याग्रमहिष्याम्, | भवतिपात्रकानुरूपं रजस्त्राणं कर्त्तव्यम्। किं बहुना? तिर्यक्--प्रदक्षिस्था०४ ठा०१उ०। भला चरमासुरेन्द्रस्याग्रमहिष्याम, स्था०५ ठा०१ णाक्रमेण भाजने वेष्ट्यमाने भाजनस्य मध्यभागो यथा चतुर्भिरङ्कुलै उ० (अस्याः पूर्वोत्तरभवकथा अग्गमहिसी' शब्दे प्रथमभागे 167 पृष्ठे / रजस्त्राणे तिक्रम्यते, तथा रजस्त्राणं विधेयं कार्यं वा / प्रयोजन
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________________ रय(ता)ताण 461 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 -- चास्य मूषकभक्षणरेणूत्करवर्षोदकावश्यायसचित्तपृथिवीकायाऽऽ-- | रव-धा०(रु) शब्दे "रूते रुञ्ज–रुण्टौ" ||4|57 // इति रुते-रुजदिसंरक्षणम् / उक्तं च -''भूसगरयओक्केरे, वासासिल्हारपयररक्खट्ठा। रुण्टादेशाभावे। प्रा०ा "उवर्णस्यावः" // 94233 // इति उवर्णस्यावाहोति गुणा रयताणे, एवं भणियं जिणिंदेहिं / / 1 // " प्रव०६१ द्वार। देशः / रवइ / रौति : प्रा०ा "रवं अलसंकलमंजुलं" पाइ० ना० 204 रयतामयकूल-न०(रजतमयकूल) रूप्यमये कूले, जी०३ प्रति०४ अधिका गाथा। रयमल-पुं०(रजोमल) रज इव रजः / मल इव मलः / संक्रममणोद्वर्तना- रवअ-(देशी) मन्थाने, दे०मा०७ वर्ग 3 गाथा। पवर्तनादियोग्ये निधत्तनिकाचितावस्थे कर्मणि, व्य०३ उ०। दशा रवण-त्रि०(रुवत) रवं कुर्वति, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०॥ रयय-न०(रजत) जातरूपेरौष्ये, ज्ञा०१ श्रु०१ अ० अनु०। ज्ञा० स्था०। रवण्य-त्रि०(रम्य)"शीघ्रादीनांबहिल्लादयः" // 8 / 4 / 422|| इति सूत्रेण दशा औ०। रा०ा प्रश्न०। ८०॥"कलहोअंरुप्पयं रययं" पाइ० ना० सूत्रान्तरपठितस्य रम्यस्य स्थाने रवण्णादेशः। "सरिहिं न सरेहिं न 116 गाथा। सरवरेहिं, नवि उजाण वणेहिं / देसरवण्णा होंति वढ, निवसंतेहि रययकलस-पुं०(रजतकलश) रूप्यघटे, कल्प०१ अधि०३ क्षण। सुवणेहिं" प्रा०४ पाद। रययकूड-पुं०(रजतकूट) मेघमालिन्यावासभूते (स्था०६ ठा०३ उ०।) रवि-पुं०(रवि) सूर्ये, अर्कवृक्षे च / प्रश्न० 2 आश्र० द्वार / औ०। जम्बूद्वीपस्य पूर्वे रुचकपर्वते चतुर्थकूटे,स्था०८ ठा०३ उ०) "रविकिरणतरुणबोहियसहस्सपत्तसुरभितरपिंजरजलं" प्राकृतत्वारययमय-त्रि०(रजतमय) रूप्यविकारे,उपा०७ अ०रा०) द्विशेषणस्य परनिपातात् तरुणो नूतनो यो रविस्तस्य ये किरणास्तैः रययमयकूल-त्रि०(रजतमयकूल) रूप्यमये कूले, जं०१ वक्षा "बोहिय" त्ति-बोधितानि याति सहस्रपत्राणि महापद्मानि तैरत्यन्तं स्ययमहासेल-पुं०(रजतमहाशैल) रजतस्य-रूप्यस्य महाशैलोपतः। सुगन्धि पीतरक्तं च जसं यस्य तत्तथा। कल्प०१ अधि०३क्षण। वैताब्ये, कल्प०१ अधि०२ क्षण। भ०। रविगय-न०(रविगत) यत्र रविस्तिष्ठति तादृशे नक्षत्रे, आ० म०१ अ०। विशे० नि०चू०। द०प०। जीता रययहार-पुं०(रजतहार) रजतमये आभरणविशेषे, रजतं जातीयरूप्यं हारो मुक्ताहारः ताभ्यां सदृशः। उत्त० 34 अ०॥ रविप्पहा-स्त्री०(रविप्रभा) तरणिकान्तौ, प्रतिका रथयागर-पुं०(रजताकर) रूप्यखतौ, ओघका रविभत्ता-स्त्री०(रविभक्ता) औषधभेदे, ती०६ कल्प! रयरेणुविणासण-न०(रजोरेणुविनाशन) श्लक्ष्णतरा रेणुपुद्गला रेजः, त रविय-न०(रुत) शब्दायिते, ज्ञा० १श्रु० अ०। एव स्थूला रेणवः रजांसि रेणवश्च रजोरेणवस्तेषां विनाशनं रजोरेणु रवेहिइ-(देशी) क्रियावाची आर्द्रतां नेष्टयतीत्यर्थके, / "होही से उगदविनाशनम्।जी०३ प्रति०४ अधिवातोत्पाटितस्य व्योमवर्तिनो रजसः विन्दू, जेणं तं मल्लग रवेहिइ।" नं०! भूमिवर्तिपांशूनां रेणूनां चोपशमके, भ० 15 श०॥ रस-पुं०(रस) रसनेन्द्रियविषये, स्था०। रयवुट्ठि-स्त्री०(रजोवृष्टि) पांशुवृष्टौ, "आसारो रयवुट्टी" पाइ० ना०२४३ एगे रसे। (सू०४७) गाथा। रस्थते आस्वाद्यते इति रसः। स्था० 1 ठा०। रयसंसट्टहडा-स्त्री०(रजःसंसृष्टहता) पृथिवीरजः सम्बद्धानीतायां दुविहारसा पण्णत्ता,तं जहा-अत्ताचेव, अणत्ता चेव।०जाव भिक्षायाम्, आव०४अ०। मणामा। (सू०५३) स्था०२ ठा०३ उ०पंच रसा पण्णत्ता,तं रयहरण-न०(रजोहरण) बाह्याभ्यन्तरमलापहारके, नि०चू० (वक्तव्यता जहा-तित्ता० जाव महुरा। (सू०३९०) रओहरण शब्दे) नवरम्-- श्राद्धानां चरबलकग्रहणं 'छदप्पिअकरणे' त्ति स्था०५ ठा०१ उ०। रसः पञ्चधा-तत्र श्लेष्मनाशकृत्तिक्तः 1 वैश-- विना व्यक्तरीत्या वचिचूादावभिहितं स्यात् तदा तान्यक्षराणि द्यच्छेदनकृत्कटुकः 2 अन्नरुचिस्तम्भनकृत्कषायः,३ आश्रवणक्लेप्रसाद्यानीति प्रश्ने, उत्तरम्- 'साहूणं सगासाओ रयहरणं निसिज्जं वा दनकृदम्लः,४ ह्रादनबृहणकृन्मधुरः 5 / स्था०५ ठा०१ उ०। रस्यते मगति, अह घरे तोसे उवग्गहिअरयहरणं अत्थि' इत्यादिकान्यावश्यक आस्वाद्यत इति रसः (अनु०) स च तिक्तकटुकषायाम्लमधुरभेदात् चूयादौ रजोहरणाक्षराणि सन्ति, श्राद्धानां च रजोहरणं चरवलक एवेति पञ्चविधः / तत्र श्लेष्मादिदोषहन्ता निम्बाद्याश्रितस्तिक्तो रसः, तथा च // 333 / / सेन०३ उल्ला भिषक्शास्त्रम्- "श्लेष्माणमरुचिं पित्तं, तृषं कुष्ठं विषं ज्वरम् / हन्यात् रयावंत-त्रि०(रुञ्जयत्)रञ्जनं कारयति, नि०चू० 17 उ०। तिक्तो रसो बुद्धेः, कर्तामात्रोपसेवितः॥१॥" गलामयादिप्रशमनोमरिच नागराद्याश्रितः कटुः / उक्तंच-"कालामयंशोफं, हन्तियुक्त्योपसेवितः / स्यावेइयत्ता-अव्य०(रचयित्वा) रचनांकृत्वेत्यर्थे , कल्प०१ अधि०३क्षण। दीपनः पाचको रुच्यो; बृंहणोऽतिकफापहः / / 2 / / " रक्तदोषाधपहर्ता रल्लग-पुं०(रल्लग) द्रुमविशेषे, जं०२ वक्ष०। बिभीतकमलककपित्थाद्याश्रितः कषायः, आहच-"रक्तदोषंकफपित्तंकषायो रल्ला-(देशी) प्रियङ्गवे, देवना० 7 वर्ग 1 गाथा। हन्ति सेवितः / रूक्षः शीतो गुणग्राही, रोचकश्च स्वरूपतः // 3 // " रख-पुं०(रव) नादितरूपे शब्दे, औ०। स्था०। विपाof अग्निदीपनादिकृदम्लीकाद्याश्रितोऽम्लः। पठ्यते च- "अम्लोऽग्निदीप्तिकृत १-प्राकृते रयतामय इति दीर्घ एव। स्निग्धः,शोफपित्तकफावहः क्लेदनः पाचनोरुच्यो, भूवातानुलोमकः॥४॥"
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________________ रस 492- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 रसमाण पित्तादिप्रशमनः खण्डशर्कराधाश्रितो मधुरः, तथा चोक्तम्- "पित्तं वातं खीरदहिसप्पिमाई,पणीयं पाणभोयणं / विषं हन्ति, धातुवृद्धिकरो गुरुः। जीवनः क्लेशकृद्वाल-वृद्ध-क्षीणौजसां परिवजणं रसाणं तु, भणियं रसविवज्जणं // 26 // हितः // 5 // " इत्यादि, स्थानान्तरे स्तम्भिताहारबन्धविध्वंसादिकर्ता एतद्रसविवर्जन रसत्यागाख्यं तपस्तीर्थङ्करैर्भणितं रसानां परिवर्जन सिन्धुलवणाद्याश्रितोलवणोऽपि रसः पठ्यते, सचेहनोदाहृतो, मधुरा- रसपरिवर्जन, क्षीरं-दुग्धं दधि तथा सर्पिघृतं क्षीरं च दधि सर्पिश्च दिसंसर्गजत्वात, तद्भेदेन विवक्षणात्, सम्भाव्यते च तत्र माधुर्यादि- क्षीरदधिसपीषि। एतानि आदिर्यस्य स तत् क्षीरदधिसर्पिरादि। प्रणीतंसंसर्गः, सर्वरसानां लवणप्रक्षेप एव स्वादुत्वप्रतिपत्तेरित्यलं विस्तरेण / पुष्टिकारकं पान-पानयोग्याहारं भोजनं भक्तं यस्मिन् पीते भुक्ते सति अनु०। अनुरागे, "नेहो पिम्मं रसो य अणुराओ" पाइ० ना० 120 बहुकामोद्दीपनं स्यात्, तस्य परिवर्जनं रसत्यागाख्यं तप उच्यते / गाथा / विशे० भ०। प्रज्ञा प्रव० षो०। कर्म० पं०सं०। आचा०। प्राकृतत्वात् षष्ठीस्थाने द्वितीया, 'पाणीयं पाणभोयणं' 'परिवजणं' इत्यत्र आ०म०/ भोजनस्वादे, ग०२ अधिकारस्यत इति रसः। मकरन्दे, दश०१ ज्ञेयम्॥२६।। उत्त०३० अ०) अ० "जेण धातुपाणिएण तंबगादि आसन्नं सुवण्णादि भवति सो रसो रसणा-स्त्री०(रसना) गुणे रजौ, जिवायाम्, आचा०२ श्रु०१ चू०२ भण्णति' नि०चू०१३ उकास्नेहे, क०प्र०१प्रक०ा रसाः क्षीरादयः। अ०१उ०। “रसणा जीहा'' पाइ० ना०२५१ गाथा। आचा०। मेखलास्था०६ ठा०३ उ०। मद्यादिके, अनु०। (देशघातिरसस्वरूपम् 'देसघाइ' याम, "कच्छा कंची य मेहला रसणा" पाइ० ना० 115 गाथा। शब्दे चतुर्थभागे 2626 पृष्ठे गतम्)। तीमनकञ्जिकादौ, स्था०७ ठा०३ रसणाम-न०(रसनामन्) रस्यते-आस्वाद्यते इति रसस्तिक्तादिस्तन्निउला रस्यन्ते अन्तरात्मनानुभूयन्ते इति रसाः / तत्सह-कारिकारण- बन्धनं रसनाम।जन्तुशरीरे तिक्तादिरसहेतुके कर्मणि, कर्म०६ कर्मा सन्निधानेषु चेतोविकारविशेषेषु, रसाः शृङ्गारादयः। उत्त०३२अ०(ते पं०सं०। रसाभिधायके, नामनि, अनु०। च 'कव्वरस' शब्दे तृतीयभागे 363 पृष्ठे दर्शिताः) (लेश्याद्रव्याणां रसः से किं तं रसनामे? रसनामे पंचविहे पण्णते, तं जहा-तित्तर'लेस्सा' शब्दे वक्ष्यते) (कर्मापुद्गलानां रसो 'बंधण' शब्दे पञ्चमभागे सणामे कडुअरसणामे कसायरसणामे अंबिलरसणामे महुरर१२२० पृष्ठे दर्शितः) सणामे अ, सेत्तं रसणामे। रसंत-त्रि०(रसत्) भृशं शब्दं कुर्वति, तं०। प्रक्षिपति, सूत्र०१ श्रु०५ अ०१ अनु०। (व्याख्या 'रस' शब्दे गता) उ०। प्रलपति, प्रश्न०१आश्र० द्वार। आरटति, सूत्र०१ श्रु०५ अ०१उ०। रसणिजूढ-पुं०(रसनियूंढ) सर्वगुणोपेते, दश०८ अ०। रसकारणओ-अव्य०(रसकारणतस्) सर्वघात्यादिरसरूपं करणमधि- रसद्ध-(देशी) चुल्लीमूले, देना० 7 वर्ग 2 गाथा। कृत्येत्यर्थे , पं०सं०५ द्वार। रसपरिचाय-पुं०(रसपरित्याग) क्षीरादीनां परित्यागे, व्य०४३०। पा०) रसग-त्रि०(रसग) रसमनुगच्छन्तीति रसगाः / कटुतिक्तकषायादिरसा- दश। स्था०। बाह्यतपोभेदे, स०६ सम०। विकृतीनां परित्यागे, उत्त० स्वादिनि, आचा०१ श्रु०७ अ०१ उ०। 30 अ० रसगारव-पुं०(रसगौरव) रसेन तत्प्राप्त्यभिमानम् / तदप्राप्तिप्रार्थन- से किं तं रसपरिचाए? रसपरिचाए अणेगविहे पण्णत्ते / तं द्वारेणाऽऽत्मनोऽशुभभावगौरवे, स०३सम०। जहा-णिव्विगितिए पणीयरसविवजाए जहा उववाइए० जाव रसगिद्ध-पुं०(रसगृद्ध) मधुराहारलम्पटे, बृ०४ उ०। (अत्र विषये लूहाहारे, सेत्तं रसपरिचाए। भ०२५ श०७ उ०। प्रश्रव्याकरणमूलम् 'जिभिंदियसंवर' शब्दे चतुर्थभागे 1510 पृष्ठे गतम्) रसपरिणाम-पुं०(रसपरिणाम) रसरूपतया पुद्गलानां परिणामे, स्था० (तद्व्याख्या परिगहवेरमण' शब्दे पञ्चमभागे 565 पृष्ठे गता) १०टा०३ उ० स्सगेही-स्त्री०(रसगृद्धि) मधुरादिरसेष्वभिकाङ्क्षायाम्, उत्त० पाई०७अ० | रसपुलाग-न०(रसपुलाग) अतीसारकर्तरि द्राक्षादिके, बृ०५ उ०। रसघाय-पुं०(रसघात) कर्मपुद्गलानां रसस्य प्रचुरीभूतस्य सतो-ऽप- (व्याख्या 'पुलागभत्त' शब्दे पञ्चमभागे 1060 पृष्ठे (367) गाथाव्या वर्त्तनाकरणेन खण्डने अल्पीकरणे, कर्म०२ कर्म०। क०प्र०ा पं० सं० ख्याने गता) रसचाय-पुं०(रसत्याग) दुग्धदध्यादीनां त्यागे, पञ्चा०१६ विव०। धo! रसफड्डय-न०(रसस्पर्धक) कर्मपुद्गलानां परस्परं संश्लेषनिबन्धने, रसत्यागोऽनेकधा-यथौपपातिके-"णिव्वितिए पणीयरसपरिचाई। स्नेहप्रत्ययस्पर्धके, कर्मा आयंबिले य आयामसित्थं भोई अरसाहारे विरसाहारे अंताहारे पंताहारे रसबंध-पुं०(रसबन्ध) कर्मपुद्गलानामेव शुभोऽशुभो वा घात्यघाती वा लूहाहारे" इत्यादि। ग०१ अधि० बाह्यतपोभेदे, नं०। यो रसः सोऽनुभागबन्धो रसबन्धः / कर्मपुद्गलानां शुभाऽशुभे घात्यरसचायतव-न०(रसत्यागतपस्) रसत्यागतपसि, उत्त०३० अ०। धातिनि वा रसे, कर्म०५ कर्मा अथ रसत्यागाख्यं तप आह रसमाण-न०(रसत्) शब्दायमाने, प्रश्र०१ आश्र0 द्वार।
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________________ रसमाणप्पमाण 463- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 रहजत्ता रयमाणप्पमाण-न०(रसमानप्रमाण) मद्यादिविषयकमानेन प्रमाणे, रसाला-स्त्री०(रसाला) सुगन्धिवस्तुमिश्रितदुग्धे, "मजिआरसाला उ" अनु०। (रसमानप्रमाणम् 'माण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे गतम्) पाइ० ना० 237 गाथा। मार्जितायाम्। देवना०७ वर्ग 2 गाथा। रसमेह-पुं०(रसमेघ) रसजनको मेघः रसमेघः / दुष्षमदुष्षमाभाविनि रसालु-पुं०(रसाल) आल्विल्लोल-वन्त-मन्तेत्तेर-मणा मतोः रसजनकवारिवर्षणकारके मेघे, तिन जंग 18/23156 / / इति मतोः स्थाने आलु इत्यादेशः / रसालो / प्रा० रसय-पुं०(रसज) रसाजाता रसजाः। तक्रारनालदधितीमनादिषु दाडिमामादिषु, आव०४ अ० कृम्याकृतितयाऽतिसूक्ष्मेषूपपन्नेषु जीयेषु, आचा०१ श्रु०१ अ०६ उ०। रसालु-पुं०। मज्जिकायाम्, तल्लक्षणम्- "दो घयपला महुपलं, दहियप्रश्न०। सूत्र०। स्था०। दश०। दधिसोवीरकादिषु रूपपक्ष्मसन्निभेषु स्सऽद्धाढयं मिरियवीसा। दस खंडगुलपलाई, एस रसालू निवइजोग्गो जीवेषु, सूत्र०१ श्रु०७ अ |1||" भ०७ श०१० उ००प्र० भोजनभेदे, स्था०३ ठा०१ उ०। रसरूव-पुं०(रसरूप) रसप्रधाने, तंग सू०प्र०। रसवई-स्त्री०(रसवती) बहुरसायाम, आचा०२ श्रु०१ चू०४अ० २उ०। रसावण-पुं०(रसापण) मद्यहट्टे. बृ०२ उ०। दर्श०। नि०चू० सूपकारशालायाम्, ओघ०। ज्ञा० आ०म०। रसिणी-स्त्री०(रसिनी) सौवीरिण्याम् मदिरायाम, बृ०१ उ०२प्रक०। रसवंत-न०(रसवत्) देवानामाहारभेदे, स्था०४ ठा०४ उ०) रसिय-न०(रसिक) माधुर्याऽऽद्युपेते, स्था०६ ठा०। रसितदाडि-- रसवाणिज-न०(रसवाणिज्य) मधुमद्यमांसभक्षणवसामञ्जादुग्धदधिधृत- माम्रादिरसाले, आव०४ अ०। गर्जिते, रा०। अनु०ा आचा०ा शूकरादितैलादिविक्रये, ध०२ अधि०। आव०। उत्त० भ०। ध०। प्रव०। पञ्चा०। शब्दमिव शब्दकरणे, प्रश्न० 5 संव० द्वार। ज्ञपिते, आ० चू० ४अ०। आ०० रसेसि(ण)-पुं०(रसैषिण) रस्यत आस्वाधत इति रसस्तमेष्टुं शीलमेषां रसविवागा-स्त्री०(रसविपाका) अहेतुमधिकृत्य विपाकशालिनीषु ते रसैषिणः। रसान्वेषणे, आचा०२ श्रु०१चू०१ अ०६ उ०ा पानार्थिनि, कर्मप्रकृतिषु / पं०सं०३ द्वार। (ताश्च 'कम्म' शब्दे तृतीयभागे 272 पृष्टे आचा०१ श्रु०६ अ०४ उ01 दर्शिताः) रस्सि-पुं०स्त्री०(रश्मि) किरणे, जं०३ वक्ष०ा आ०म०। रजौ, दश०७ रसवेजयंत-पुं०(रसवैजयन्त) स्वगुणैरपरपताकेवोपरि व्यवस्थिते, सूत्र० अ० "अधो मनयाम्" / / 278 // इति संयुक्तस्याधो वर्तमानस्य १श्रु०६अ। मस्य लुक् / रस्सी / प्रा०। "वेमाऽञ्जल्याद्याः स्त्रियाम्" / / 8 / 1 / 35 / / रससेस-न०(रसशेष) रसशेषेऽजीणे, "आमं विदग्धं विष्टब्धं, रसशेषं इत्यञ्जल्यादित्वात् स्त्रीत्वं वा / प्रा०॥"अंसू रस्सी' पाइ० ना०४७ तथाऽपरम् / आमे तु बद्धगन्धित्वं, विदग्धे धूमगन्धिता / / 1 / / विष्टब्धे गाथा। गात्रभङ्गोऽत्र, रसशेषे तु जाड्यता"। ध०१ अधि०। रह-पुं०(रथ) स्यन्दने, भ०८ श०६ उ०/"संदणो रहो" पाइ० ना० रसहरणी-स्त्री०(रसहरणी) रसो हियते आदीयते यया सा रसहरणी। 223 गाथा / रथा द्विधा-यानरथाः, संग्रामरथाश्च / जी०३ प्रति०४ नाभिनाले, तंग अधि०। अनु०॥ रहसि, एकान्ते, विजने, आव०६अ। स्था०। सूत्र०। रसाअल-न०(रसातल) क-ग-च-ज-त-द-प-य-वां प्रायो लुक्' ज्ञा०। प्रच्छन्ने, स्था०३ठा०४उग रहस्ये, स्था०५ ठा०३ उास्थविरस्य / 81 / 177 // इति तस्य लुकि सति / 'अवर्णो यश्रुतिः ||1 / 180 // आर्यवजस्य त्रयाणां शिष्याणामन्यतमे शिष्ये, कल्प० २अधि० 8 क्षण। इति यकाराभावे। भूमेरधोभागे, प्रा०१ पाद। रहंग-न०(रथाङ्ग) चक्रे,ज्यो०१०पाहु०॥ चातके, "चक्कायओ रहंगो' रसाउ-पु०(रसायूस) भ्रमरे, "फुल्लंधुआ रसाऊ" पाइ० ना० 11 / पाइ० ना० 132 गाथा। "चक्काइँ रहंगाई" पाइ० ना० 122 गाथा / गाथा : भ्रमरे, दे०ना० 7 वर्ग 2 गाथा। रहकार-पुं०(रथकार) स्थनिर्माणकर्तरि, सूत्र०१ श्रु०४ अ०१उ०॥ रसाणु-पुं०(रसाणु) रस्यते विपाकानुभवनेनास्वाद्यत इति रसोऽनुभाग- रहघणघणाइय-न०(स्थघनधनायित) रथानां यत् घनघनायि-तम्। स्तस्याणवोंऽशा रसाणवः / कर्मणामनुभागस्यांशे, कर्म०५ कर्म०।। घनघनेत्येवं रूपे शब्दे, प्रश्न०३ आश्र० द्वार। आ० म०। औ०।। रसायण-न०(रसायन) रसः-अमृतरसस्तस्यायनं प्राप्ती रसायनम्। रहचकवालसंठाण-न०(रथचक्रवालसंस्थान) रथाङ्गस्य चक्रवालवयःस्थापने आयुर्मेधाकरणे रोगापहरणसमर्थे च क्रियाभेदे, स्था०८ मण्डलं तस्येव संस्थानम्। अथवा-चक्रवालं मण्डलं मण्डलत्वधर्मठा०३ उ०। पञ्चा० / विपा० आचा० पुरुषकलाभेदे, कल्प०१अधि० ] योगाच रथचक्रमपि रथचक्रवालम्। वलयवृत्ताकारे, जं०१वक्ष०। औ०। ७क्षण। रहजता-स्त्री०(रथयात्रा) शृङ्गारितप्रवररथे जिनप्रतिमा संस्थाप्य समहं रसायल-न०(रसातल)पाताले, "पायालंच रसायलं" पाइ० ना०१७१ स्नानपूजादिपुरः सरं समस्तनगरे पूजाप्रवर्तनादिरूपे यात्राभेदे, गाथा। (तद्विधिः अणुजाण' शब्दे प्रथमभागे 367 पृष्ठे विस्तरतो दर्शितः)
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________________ रहजत्ता 494 -अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 रहणेमि सा च--हैमपरिशिष्टपणिसुहस्त्याचार्यपादाना-मवन्त्यामेव तस्थुषाम्। चैत्ययात्रोत्सवश्चक्रे, सङ्गेनान्यत्र वत्सरे।।१।। मण्डपं चैत्ययात्रायां, सुहस्ती भगवानपि। एत्य नित्यमलञ्चक्रे, श्रीसङ्घन समन्वितः / / 2 / / सुहस्तिस्वामिनः शिष्यः, परमाणुरिवाग्रतः। कृताञ्जलिस्तत्र नित्यं, निषसाद च सम्प्रतिः॥३॥ यात्रोत्सवाङ्गे सङ्घन, रथयात्रा प्रचक्रमे। यात्रोत्सवो हि भवति, सम्पूर्णो रथयात्रया // 4 // रथोऽथ रथशालाया, दिवाकररथोपमः। निर्ययौ स्वर्णमाणिक्य-द्युतिद्योतितदिङ्मुखः / / 5 / / श्रीमदर्हत्प्रतिमाया, रथस्थाया महर्द्धिभिः / विधिज्ञैः स्नात्रपूजादि, श्रावकैरुपचक्रमे॥६॥ क्रियमाणेऽर्हतः स्नात्रे, स्नात्रा-म्भो न्यपतद्रथात्। जन्मकल्याणके पूर्व ,सुमेरुशिखरादिव |7|| श्राद्धैः सुगन्धिभिर्द्रव्यैः, प्रतिमाया विलेपनम्। स्वामिविर्ताप्सुभिरिवा-कारि वक्त्राहितांशुकैः / / 8 / / मालतीशतपत्रादि-दामभिः प्रतिमाऽर्हतः / पूजिताऽभात्कलेवेन्दो-वृत्ता शारदवारिदैः ||6|| दह्यमानागरुत्थाभि-धूमलेखाभिरावृता। अराजत्प्रतिमा नील वासोभिरिव पूजिता / / 10 / / आरार्तिकं जिनार्चायाः, कृतं श्राद्धवलच्छिखम्। दीप्यमानौषधीचक्र-शैलशृङ्गविडम्बकम् / / 11 / / वन्दित्वा श्रीमदर्हन्त-मथ तैः परमार्हतैः। रथ्यैरिवाग्रतो भूयः, स्वयमाचकृषे रथः॥१२॥ नागरीभिरुपक्रान्त-सहल्लीसकरासकः। चतुर्विधाऽऽतोद्यवाद्य-सुन्दरप्रेक्षणीयकः॥१३॥ परितः श्राविकालोक-गीयमानोरुमङ्गलः / प्रतीच्छन् विविधां पूजा, प्रत्यहं प्रतिमन्दिरम् / / 14|| बहुलैः कुङ्कुमाम्भोभि-रभिपिक्ताग्रभूतलः। सम्प्रतेः सदनद्वार-माससाद शनै रथः॥१५॥ त्रिभिर्विशेषकम्राजाऽपि संप्रतिरथ, रथपूजार्थमुद्यतः। आगात्पनसफलव-त्सर्वाङ्गोद्भिन्नकण्टकः॥१६|| स्थाधिरूढां प्रतिमा, पूजयाऽष्टप्रकारया। अपूजयन्नवानन्द-सरोहंसोऽवनीपतिः॥१७॥'' इति महापाचक्रिणाऽपि मातुर्मनोरथपूर्तये रथयात्राऽत्याडम्बरैश्चक्रे। कुमारपालरथयात्रा त्वेवमुक्ता"चित्तस्स अट्ठमिदिणे, चउत्थपहरे महाविभूईए। सहरिस-भिलंतनायर-जणकयमंगल्लजयसद्दो // 1 // सोवण्णजिणवररहो, नीहरइ चलंतसुरगिरिसमाणो। कणगोरुदंडधयछत्त-चामरराईहिं दिप्पंतो // 2 // एहविअ विलित्तं कुसुमेहि, पूइअंतत्थ पासजिणपडिमं। कुमरविहारदुवारे, महायणो ठवइ रिद्धीए॥३॥ तूररवभरिअभुवणो, सरभसणचंतचारुतरुणिगणो। सामंतमंतिसहिओ, वचइ निवमंदिरम्मि रहो।।४।। राया रहत्थपडिम, पढेंसुअकणयभूसणाईहिं। सयमेव अचिउं का-रवेइ विविहाइ नट्टाइ // 5 // तत्थ गमिऊण रयणिं, नीहरिओ सीहबारबाहम्भि। वाएण चलिअधयतं-डवम्मि पडमंडवम्मि रहो॥६|| तत्थ पभाए राया, रहजिणपडिमाइ विरइउं पू। चउविहसंघसमक्खं, सयमेवारत्तिअंकुणइ।।७।। तत्तो नयरम्मि रहो, परिसक्कइ कुंजरेहिँ जुत्तेहिं / ठाणे ठाणे पडम-डवेसु विउलेसु चिट्ठतो // 8 // " इत्यादि / ध० २अधि०। बृ०॥ रहजोही-पुं०(रथजोधी) रथेन युध्यते इति रथयोधी। रथक रणकयुद्ध कतरि, औ०। ज्ञा० रहणेमि-पुं०(रथनेमि) अरिष्टनेमिजिनभ्रातरि, तत्कथा राजीमत्या सह तत्सम्बादश्च। उत्ता चरणसहितेन धृतिमता चरण एव शक्यते कर्तुमतो रथनेमिवचरणम्। तत्रच कथञ्चिदुत्पन्नविश्रोतसिकेनाऽपिधृतिश्चाधेयेत्यनेनोच्यत इत्यमुना सम्बन्धेनायातमिदमध्ययनम्, अस्याऽपि चतुरनुयोगद्वारचर्चा प्राग्वद्विधाय नामनिष्पन्ननिक्षेप एवाऽभिधेय इति चेतसि व्यवस्थाप्याऽऽह नियुक्तिकृत्रहनेमीनिक्खेवा, चउकओ दुविह होइ दवम्मि। आगम नोआगमतो, नोआगमतोय सो तिविहो // 437 / / जाणगसरीरभविए, तव्वइरित्ते य सो पुणो तिविहो। एगभविअवद्धाऊ, अभिमुहओ नामगोए य / / 438|| रहनेमिनामगोअं, वेणंतो भावओ अ रहनेमी। तत्तो समुट्ठियमिणं, रहनेमिजं ति अज्झयणं / / 539 / / प्राग्वद् व्याख्येयम्, नवरं रथनेमिशब्दोच्चारणमिह विशेष इत्यवसितो नामनिष्पन्ननिक्षेपः सम्प्रति सूत्राऽऽलापकनिष्पन्न-निक्षेपावसरः, सच सूत्रे सति भवत्यतः सूत्राऽनुगमे, सूत्रमुच्चारणीयम्, तच्चेदम्सोरियपुरम्मि नयरे, आसि राया महड्डिए। वसुदेव त्ति नामेणं,रायलक्खणसंजुए।।१।। तस्स भन्जा दुवे आसि, रोहिणी देवई तहा। तासिं दुण्डं पिदो पुत्ता, इट्ठा(जे)रामकेसवा / / 2 / / सोरियपुरम्मि नयरे, आसि राया महड्डिए। समुद्दविजये नाम,रायलक्खणसंजुए||३|| तस्स भजा सिवानाम, तीसे पुत्तो महायसो। भयवंऽरिट्टनेमि त्ति, लोगनाहे दमीसरे / / 4 / / सोऽरिट्ठनेमिनामो अ,लक्खणस्सरसंजुओ। (अट्ठ)सहस्सलक्खणधरो, गोयमो कालगच्छवि।।५।। वजरिसहसंघयणो, समचउस्सो झसोदरो। तस्स राईमई कनं, भजं जायइ केसवो // 6 / / अह सा रायवरकन्ना, सुसीला चारुपेहिणी।
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________________ रहणेमि 465 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 रहणेमि सव्वलक्खणसंपन्ना, विजुसोआमणिप्पभा |7|| अहाऽऽह जणओ तीसे, वासुदेवं महड्डियं / इहागच्छउ कुमरो, जा से कन्नं ददामहं / / 8 / / सव्वोसहीहिंण्हविओ, कयकोउयमंगलो। दिव्वजुयलपरिहिओ,आभरणेहिं विभूसिओ। मत्तं च गंधहत्थिं च, वासुदेवस्स जिट्ठयं / आरूढो सोहई अहियं, सिरे चूडामणी जहा // 10 // अह ऊसिएण छत्तेणं, चामराहिय सोहिओ। दसारचक्केण तओ, सव्वओ परिवारिओ॥११॥ चउरंगिणीए सेणाए, रइयाए जहक्कम। तुडियाणं सन्निनाएणं, दिव्वेणं गगणं फुसे // 12 // एयारिसीए इड्डीए, जुईए उत्तसाइय। नियगाओ भवणाओ, निजाओ वण्हिपुंगवो॥१३॥ अह सो तत्थ निजातो, दिस्सपाणे भयहुए। वाडेहिं पंजरेहिं च, संनिरुद्धे सुदुक्खिए॥१४॥ जीवियंतं तु संपत्ते, मंसट्टा भक्खियध्वए। पासित्ता से महापण्णे, सारहिं इणमय्ववी।।१५।। कस्स अट्ठा इमे पाणा, एए सवे सुहेसिणो। वोडहिं पंजरेहिं च, संनिरुद्धाय अच्छहिं? ||16|| सूत्रषोडशकं प्रायः प्रकटार्थमेव, नवरं राजेव राजा तस्य लक्षणानिचक्रस्वतिकाऽड्कुशादीनि त्यागसत्यशौर्यादीनि वा तैः संयुतोयुक्तो राजलक्षणसंयुतोऽत एव राजेत्युक्तं, 'भज्जा दुवे आसि त्ति' भार्ये द्वे अभूताम्, 'तासिं ति' तयो रोहिणीदेवक्यो पुत्रौ इष्टीवल्लभौ 'रामकेशवौ' बलभद्रवासुदेवावभूतामितीहाऽपि योज्यते, तत्र रोहिण्या रामो देकक्याश्च केशवः / इह चरथनेमिवक्तव्यतायां कस्यायं तीर्थ इति प्रसङ्गेन भगवचरितेऽभिधित्सितेऽपि तद्विवाहादिषूपयोगिनः केशवस्य पूर्वोत्पन्नत्वेन प्रथममभिधानम्, तत्सहचरितत्वाच रामस्येति-भावनीयम्। पुनः सौर्यपुराभिधानं च समुद्रविजयवसुदेवयोरेकत्रावस्थितिदर्शनार्थम्। इह च राजलक्षणसंयुत इत्यत्र राजलक्षणानिछत्रचामरसिंहासनादीन्यपि गृह्यन्ते। दमिनः-उपशामिनस्तेषामीश्वरः-अत्यन्तोपशमवत्तया नायको दमीश्वरः। कौमार एव क्षतमारवीर्यत्वात्तस्य। लक्खणसरसंजुतो त्ति' प्राकृतत्वात्स्वरस्य यानि लक्षणानि-सौन्दर्यगाम्भीर्यादीनि तैः संयुतः स्वरलक्षणसंयुतः, लक्षणोपलक्षितं वा स्वरो लक्षणस्वरः प्राग्वन्मध्यपदलोपी समासः तेन संयुतो लक्षणस्वरसंयुतः। पठन्ति च-'वंजणस्सरसंजुओ त्ति' व्यञ्जनानि-प्रशस्ततिलकादीनि स्वरोगाम्भीर्यादिगुणोपेत-स्तत्संयुतः, अष्टसहस्रलक्षणधरः-अष्टोत्तरसहस्रसङ्ग्यशुभसूचककरादिरेखाद्यात्मकचक्रादिलक्षणधारकः, गौतमः-गौतमसगोत्रः 'कालकच्छविः' कृष्णत्वक् / 'झसोदरो त्ति' झषो-मत्स्यस्तदुदरमिव तदाकारतयोदरं यस्यासौ झषोदरो, मध्यपदलोपी समासः। इतश्च गतेषु द्वारकापुरी यदुषु निहते जरासिन्धनृपतावधिगतभरतार्द्धराज्यः केशवो यौवनस्थेऽरिष्टनेमिनि समुद्रविजयादेशतो यदचेष्टत तदाह- तस्यअरिष्टनेमिनो राजीमती भार्यां गन्तुमिति शेषः, याचते केशवस्तजनकमिति प्रक्रमः / सा च कीदृशीत्याह- 'अथ'-इत्युपन्यासे, राजवर इहोग्रसेनस्तस्य कन्या राज्ञो वा-तस्यैव वरकन्या राजवरकन्या सुष्टु शील-स्वभावो यस्याः सा सुशीला, चारु प्रेक्षितुम्-अवलोकितुं शीलमस्याः चारुप्रेक्षिणी, नाधोदृष्टितादिदोषदुष्टा, 'विज्जुसोयामणिप्पह त्ति' विशेषेण द्योतते दीप्यत इति विद्युत्; सा चासौ सौदामनी च विद्युत्सौदामनी, अथवा--विद्युदग्निः सौदामनी च तडित्, अन्ये तु सौदामनी प्रधानमणिरित्याहुः / 'अथ' इति याञ्चानन्तरमाह-जनकस्तस्याः राजीमत्या उग्रसेन इत्युक्तवान्, 'जासे त्ति' सुव्यत्ययात् येन तस्मै 'ददामि' विवाहविधिनोपदै कयाम्यहम्। एवं च प्रतिपन्नायामुग्रसेनेन राजीमत्यामासन्ने च क्रौष्टिक्यादिष्ट विवाहलग्ने यदभूत्तदाह-सर्वाश्च ता औषधयश्चजयाविजयर्द्धिवृद्ध्यादयः सर्वोषधयस्ताभिः स्नपितःअभिषिक्तः, कृतकौतुकमङ्गल इत्यत्र कौतुकानि-ललाटस्य मुशलस्पर्शनादीनि मङ्गलानि च-दध्यक्षतचन्दनादीनि 'दिव्यजुयलरहिय त्ति' प्राग्वत्परिहितं दिव्ययुगलमिति प्रस्तावाद् दूष्ययुगलं येन स तथा, वासुदेवस्य सम्बन्धिनमिति गम्यते, ज्येष्ठमेव ज्येष्ठकम्-अतिशयप्रशस्यमतिवृद्धवागुणैः, पट्टहस्तिनमित्यर्थः, शोभत इति वर्तमाननिर्देशः प्राग्वत, चूडामणिः-शिरोऽलङ्कार रत्नम्। अथ-अनन्तरम् उच्छ्रितेनउपरिघृतेन पाठान्तरतश्च श्वेतोच्छ्रितेन 'चामराहियत्ति' चामराभ्यां च शोभितः 'दसारचक्केणं ति' दशार्हचक्रेण यदुसमूहेन चतुरङ्गिण्याहस्त्यश्वरथपदातिरूपाङ्गचतुष्टयान्वितया रचितयान्यस्तया यथाक्रमयथापरिपाटितूर्याणां-मृदङ्गपटहादीनां सन्निनादेनेति सनात इत्यादिषु समो भृशार्थस्यापि दर्शनादतिगाढध्वनिना 'दिव्येन' इति प्रधानेन देवागमनस्याऽपि तदा सम्भवाद्देवलोकोद्भवेन वा 'गयणं फूसे त्ति' आर्षत्वाद् गगनस्पृशा-अतिप्रबलतया नभोऽङ्गणव्यापिना, सर्वत्र च लक्षणे तृतीया,एतादृश्या अनन्तराभिहितरूपया ऋद्ध्याविभूत्या द्युत्या-दीप्त्या उत्तरत्र चशब्दोऽभिन्नक्रमतो द्युत्या चोत्तमयोपलक्षितः सन्निजकाद्भवनात् निर्यातः-निष्क्रान्तः वृष्णिपुङ्गवः-यादवप्रधानो भगवानरिष्टनेमिरिति यावत् / ततश्चाऽसौ क्रमेण गच्छन् प्राप्तो विवाहमण्डपासन्नदेशम् / अथ-अनन्तरं स तत्र निर्यन् अधिकं गच्छन् 'दिस्स त्ति' दृष्ट्वा अवलोक्य प्राणान् स-प्राणिनः मृगलावकादीन भयद्रुतान्भयत्रस्तानवाटैरितिवाटकैः-वृत्तिवरण्डकादिपरिक्षिप्तप्रदेशरूपैः पञ्जरैश्वबन्धनविशेषैः सन्निरुद्धान्-गाढनियन्त्रितान्, पाठान्तरतस्तुबद्ध-द्धान्, अत एव सुदुःखितान, तथा जीवितस्यान्तोजीवितान्तो, मरणमित्यर्थस्तं संप्राप्तानिव सम्प्राप्तान, अतिप्रत्यासन्नत्वात्तस्य / यद्वा-जीवितस्यान्तःपर्यन्तवत्ती भागस्तमुक्तहेतोः सम्प्राप्तान्मासार्थमांसनिमित्तं च भक्षयितव्यान् मांसस्यैवातिगृद्धिहेतुत्वेन तद्भक्षणनिमित्तत्वादेवमुक्तम्। य-दिवा- 'मांसनैव मांसमुपचीयते इति प्रवादतो मांसमुपचितं स्यादिति मांसा) भक्षयितव्यानविवेकिभिरिति शेषः / 'पासित्त त्ति' दृष्ट्वा, कोऽर्थः?-उक्तविशेषणविशिष्टान् हदिनिधाय 'सः' इति भगवानरिष्टनेमिमहती प्रज्ञा-प्रक्रमान्मति
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________________ रहणेमि 466 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 रहणेमि श्रुतावधिज्ञानत्रयात्मिका यस्याऽसौ महाप्रज्ञः, सारथिं-प्रवर्त्तयितारं तुनैव 'निस्सेयं ति' 'निःश्रेयसं' कल्याणं परलोके भविष्यति, पापहेतुप्रक्रमानन्धहस्तिनो हस्तिपकमिति यावत्, यद्वाऽत एव तदा रथारोहण- त्वादस्येति भावः / भवान्तरेषु परलोकभीरुत्वस्यात्यन्तमभ्यस्ततयैमनुमीयत इति रथप्रवर्तयितारम्। 'कस्य' अर्थात् निमित्तादिमे प्राणाः, वमभिधानमन्यथा चरमशरीरत्वादतिशयज्ञानित्वाच भगवतः कुत एते सर्वे 'इमे' इत्यनेनैवच गते इति पुनरभिधानप्रतिसार्द्रहृदयतया पुनः एवंविधचिन्तावसरः? एवं च विदितभगवदाकूतेन सारथिना मोचितेषु पुनस्तएव भगवतो हृदि विपरिवर्तन्त इति ख्यापनार्थम्। यदि वा-इमे-- सत्त्वेषु परितोषितोऽसौ यत्कृतवांस्तदाह-'सो' इत्यादि 'सुत्तकं चेति' प्रत्यक्षाः एते-समीपतरवर्तिनः, उक्तं हि-''इदमः प्रत्यक्षगतं, समीप- कटीसूत्रम्, अर्पयतीति योगः, किमेतदेवेत्याह-आभरणानि च सर्वाणि तरवर्त्ति चैतदो रूपम्," पठ्यते च-'बहुपाणे' त्ति प्रतीतं, सुखैषिणः- शेषाणीति गम्यते / ततश्च मनःपरिणामश्चअभिप्रायः कृतो निष्क्रमण साताभिलाषिणः 'संनिरुद्धे यत्ति' सन्निरुद्धाः नः पूरणे 'अच्छिहि त्ति' प्रतीति गम्यते,'देवाः' चतुर्निकाया एव यथोचितम्-औचित्यानआसत इतिषोडशसूत्रार्थः॥ तिक्रमेण समवतीर्णाः, पाठान्तरत समवपतिताः / चकाराभ्यां चेह एवं च भगवतोक्ते समुच्चयार्थाभ्यामपि तुल्यकालताया ध्वन्यमानत्वात्तदैवेति गम्यते, अह सारही (तओ) भणइ, एए भद्दा उ पाणिणो। सर्वद्ध्या-समस्तविभूत्या सपरिषदः बाझमध्याभ्यन्तरपर्षत्रयोपेताः 'निष्क्रमणम्' इति प्रक्रमान्निष्क्रमणमहिमानं 'तस्य' इति भगवतोऽतुझं विवाहकजम्मि, भोआवेउं बहु जणं // 17 // रिष्टनेमिनः कर्तुं 'जे' इति निपातः पूरणे। शिविकारत्नं देवनिर्मितमुत्तरसुगममेव, नवरम् 'अथ' इति-भगवद्वचनानन्तरं 'भद्दा उ त्ति' भद्रा कुरुनामकमिति गम्यते, ततः-तदनन्तरं समारूढः-अध्यासीनः एव-कल्याणा एव न तु श्वशृगालादय एव कुत्सिताः, अनपराधतया वा * निष्क्रम्य-निर्गत्य द्वारकातः-द्वारकापुर्याः रैवतके उज्जयन्ते स्थितः-- भद्रा इत्युक्तं भवति, तव विवाहकायें-परिणयनरूपप्रयोजने 'भोयावेउं गमनान्निवृत्तः / तत्राऽपि कतरं प्रदेशं प्रातः स्थित इत्याह-उद्याने ति' भोजयितुम्, अनेन यदुक्तं 'कस्यादिति' तत्प्रत्युत्तरमुक्तमिति सहस्रामवणनामकं सम्प्राप्तः, तत्र चावतीर्णः 'सीयातो त्ति' शिबिकातः सूत्राऽर्थः॥ 'साहस्सी य त्ति' सहस्रेण प्रधानपुरुषाणामिति शेषः, परिवृतःइत्थं सारथिनोक्ते यद्भगवान् विहितवांस्तदाह-- परिवेष्टितः, अथेत्यानन्तर्ये निष्क्रामतिश्रामण्यं प्रतिपद्यते। 'तुः पूरणे सोऊण तस्स वयणं, बहुपाणिविणासणं। 'चित्ताहिं ति' चित्रासुचित्रानाम्नि नक्षत्रे / कथमित्याह-सुगन्धिगन्धिचिंतेइसे महापन्ने, साणुकोसे जिएहि उ॥१८|| कान्-स्वभावत एव सुरभिगन्धीन् त्वरितम्-शीघ्रं मृदुकत्वकुञ्चितान्जइ मज्झ कारणा एए, हम्मति सुबहू जिया। कोमलकुटिलान् स्वयमेव-आत्मनैव लुञ्चति-अपनयति केशान् न मे एयं तु निस्सेयं, परलोगे भविस्सई // 16 // 'पञ्चाष्टाभिः' पञ्चमुष्टिभिः समाहितः-समाधिमान्, सर्व सावा सो कुंडलाण जुयलं, सुत्तगं च महायसो। ममाकर्तव्यमिति प्रतिज्ञारोहणोपलक्षणमेतत् / इह तु वन्दिकाचार्यः सत्त्वमोचनसमये सारस्वतादिप्रबोधनभव नगमनमहादानानन्तरं आभरणाणिय सव्वाणि, सारहिस्स पणामई // 20 // निष्क्रमणाय पुरीनिर्गममुपवर्णयांबभूवेति सूत्रसप्तकार्थः / / मणपरिणामो अकओ, देवा य जहोइयं समोइन्ना / एवं च प्रतिपन्नप्रव्रज्ये भगवतिसव्विड्डीइ सपरिसा, निक्खमणं तस्स काउंजे // 21 // वासुदेवो अणं भणई, लत्तकेसं जिइंदियं / देवमणुस्सपरिवुडो, सिविया रयणं तओ समारूढो। इच्छियमणोरहे तुरियं, पावसू तं दमीसरा!|२५|| निक्खमिय वारगाओ, रेवययम्मि ट्ठिओ भयवं // 22 // नाणेणं दंसणेणंच, चरित्तेणं तवेण य। उजाणे संपत्तो, ओइन्नो उत्तमाउ सीयाओ। खंतीए मुत्ती, वड्डमाणो भवाहि य॥२६|| साहस्सीय परिवुडो, अह निक्खमई उ चित्ताहिं।।२३।। एवं ते रामकेसवा, दसारा य बहू जणा। अह सो सुगंधगंधिय-तुरियं मउअदुंचिए। अरिहनेमिं वंदित्ता, अइगया बारगाउरि / / 27|| सयमेव लुचई केसे, पंचमुट्ठीसमाहिओ // 24 // सूत्रत्रयं स्पष्टम्, नवरं वासुदेवश्चेति चशब्दाबलभद्रसमुद्रविजयादयश्च सुगममेव नवरं तस्य-इति सारथेः बहूनां--प्रभूतानां प्राणाना-प्राणिनां 'लुप्तकेशम्' अपनीतशिरोरुहम् ईप्सितः- अभिलषितः स चाऽसौ विनाशनं--हननमर्थादभिधेयं यस्मिस्तद्रहुप्राणविनाशनं स--भगवान् मनोरथश्च भगवन्मनोरथविषयत्वान्मुक्तिरूपोऽर्थः ईप्सितमनोरथस्तं सानुक्रोशः-सकरुणः केषु?-'जिएहिउ त्ति' जीवेषु तुः-पूरणे मम 'तुरिय' तित्वरितं 'पावसु त्ति प्राप्नुहि, आशीर्वचनत्वादस्या"आशिषि कारणादिति-हेतोमद्विवाहप्रयोजने भोजनार्थत्वादमीषामित्यभिप्रायः, लिङ्लोटौ" // 3 / 3 / 173 / / इत्याशिषि लोट्। 'तम्' इतित्वं 'वर्द्धमानः' 'हामंति त्ति' हन्यन्ते वर्त्तमानसामीप्ये लट्, ततो हनिष्यन्त इत्यर्थः, इति-वृद्धिभाक् 'भवाहि यत्ति' भव, चशब्द आशीर्वादान्तरसमुच्चयते। पाठान्तरतः 'हम्मिहति त्ति' स्पष्टम् सुबहवः-अतिप्रभूताः जिय त्ति' एवम्-उक्तप्रकारेण वन्दित्वास्तुत्वेति योगः, इह चैवंविधाशीर्वचनाजीवाः, एतदति-जीवहननं 'तुः एवकारार्थो नेत्यनेन योज्यते, ततःन | नामपि गुणोत्कर्षसूचकत्वेन स्तवनरूपत्वमविरुद्धमिति भावनीयम्,
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________________ रहणेमि 467 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 रहणे मि 'दसाराय त्ति' दशार्हाः, चशब्दो भिन्नक्रमस्ततः 'बहु त्ति' बहवो जनाश्च अतिगताः-प्रविष्टा इति सूत्रत्रयार्थः। तदा च कीदृशी सती राजीमती किमचेष्टतेत्याहसोऊण रायकन्ना, पव्वजं सा जिणस्स उ। णीहासा उ निराणंदा, सोगेण उसमुच्छिया // 28 // राईमई विचिंतेइ, धिरत्थु मम जीवियं / जाऽहं तेणं परिचत्ता, सेयं पव्वइउं मम // 29|| अहसा भमरसन्निभे, कुत्रफणगप्पसाहिए। सयमेव लुचई केसे, घिइमंती ववस्सिया // 30 // सूत्रत्रयं स्पष्टं, नवरं निष्क्रान्ता हासान्निर्हासा, चशब्दो भिन्नक्रमस्ततो | निरानन्दा च समवसृता-अवष्टब्धा। धिगस्तु मम जीवितमिति स्वजीवितनिन्दोद्भावकं खेदवचो, याऽहं तेन परित्यक्तेति खेदहेतूपदर्शनम्, ततश्च श्रेयः-अतिशयप्रशस्य प्रव्रजितुं-प्रव्रज्यां प्रतिपत्तुं मम, येनान्य जन्मन्यपि नैवं दुःखभागिनी भवेयमिति भावः। इत्थं चाऽसौ तावदवस्थिता यावदन्यत्र प्रविहत्य तत्रैव भगवानाजगाम, तत उत्पन्नकेवलस्य भगवतो निशम्य देशनां विशेषत उत्पन्नवैराग्या किं कृतवतीत्याह-'अहे' त्यादि, अथ-अन्तरं सा-राजीमती भ्रमरसन्निभान्-कृष्णतया आकुञ्चिततया च, कूर्ची-गूढकेशोन्मोचको वंशमयः फणक:-कङ्कतकस्ताभ्यां प्रसाधिताः-संस्कृता ये तान्, स्वयम्-आत्मनैव, लुञ्चति-अपनयति, भगवदनुज्ञयेति गम्यते / केशान्-कचान् ‘धिइमंति त्ति' धृतिमति व्यवसितेतिअध्यवसिता सती, धर्म विधातुमिति शेष इति सूत्रत्रयार्थः। तत्प्रव्रज्याप्रतिपत्तौ चवासुदेवो अणं भणइ, लुत्तके सिं जिइंदियं। संसारसागरं घोरं, तर कन्ने ! लहुं लहुं // 31 // स्पष्टमेव, नवरं तर-इत्युल्लङ्घय, आशीर्वचनत्वादयमप्याशिषि लोट्, लघु लघु-त्वरितं, 2 संभ्रमे द्विवचनमिति सूत्रार्थः / तदुत्तरवक्तव्यतामाहसा पव्वईया संती, पव्वावेसी तहिं बहुं। सयणं परियणं चेव, सीलबंता बहुस्सुआ॥३२॥ गिरि रेवययं जंती, वासेणोल्लाउ अंतरा। वासंते अंधयारम्मि, अंतो लयणस्स साठिया॥३३॥ चीवराणि विसारंती,जहा जाय त्ति पासिया। रहनेमी भग्गचित्तो, पच्छा दिट्ठो अतीइ वि॥३४|| भीया य सा तहिं दटुं, एगते संजयं तयं / बाहाहिं काउँ संगुप्फं, वेवमाणी निसीयई / / 3 / / सूत्रचतुष्टयं स्पष्टमेव, नवरं सा इति-राजीमती 'पव्वावेसि' त्ति प्राविव्रजत्-प्रताजितवती 'तहि ति' तस्यां द्वारकापुरि, रैवतकम्उज्जयन्तं यान्ती-गच्छन्ती, भगवद्वन्दनार्थमिति गम्यते, वर्षेण वृष्ट्या 'उल्ल' ति-आर्द्रा स्तिमितसकलचीवरेति यावत्, अन्तरे अन्तराले अर्द्धपथ इत्यर्थः, 'वासंति' ति-वर्षति नीरद इति गम्यते। अन्धकारे अपगतप्रकाशे, कस्मिन्?-अन्तः-मध्ये, उक्तं हि, अन्तःशबदोऽधिकरणप्रधानम्, मध्यमाह-लयनमिह गृहा तस्यां सा-राजीमती स्थिता इत्यासिता, असंयमभीरुतयेति गम्यते, तत्र च चीवराणिसङ्घाट्यादिवस्त्राणि विसारयन्तीविस्तारयन्ती; अत एव यथा जाता-अनाचछादितशरीरतया जन्मावस्थोपमा 'इती' त्येवं रूपा पासिय' त्ति दृष्टा। तद्दर्शनाच रथनेमिः-रथनेमिनामा मुनिः भग्नचित्तः भग्नपरिणामः सन् प्रक्रमात्संयम प्रति, स हि तामुदाररूपामवलोक्य समुत्पन्नतदभिलाषतिरेकः परवशमनाः समजनि। पश्चाद् दृष्टश्च तया-राजीमत्या अपिः पुनरर्थे , प्रथमप्रविष्टर्हि नान्धकारप्रदेशे किश्चिद वलोक्यते, अन्यथा हि वर्षणसम्भ्रमादन्यान्याश्रयगतासु शेषसाध्वीष्वेकाकिनी प्रविशेदपि न तत्रेयमिति भावः, भीता च मा कदाचिदसौ मम शीलभङ्गं विधास्यतीति, तस्मिन् इति लयने दृष्ट्वा एकान्ते-विविक्ते तकम् इति-रथनेमिं, किं कृतवत्यसावित्याह- 'बाहाहिं ति' बाहुभ्यां कृत्वा संगोपंपरस्परबाहुगुम्फनं स्तनोपरिमर्कटबन्धमिति यावत, वेपमाना शीलभङ्ग भयाकम्पमाना निषीदति-उपविशति, तदाश्लेषादिपरिहारार्थमिति भाव इति सूत्रचतुष्टयार्थः / / अत्रान्तरेअह सोऽवि रायपुत्तो, समुहविजयंगओ। भीयं पवेवियं दटुं, इमं वकमुदाहरे // 36|| रहनेमी अहं भहे, सुरूवेचारुभासिणी! ममं भयाहि सुअणु !, न ते पीला भविस्सई // 37|| एहि ता भुजिमो भोगे, माणुस्संखु सुदुल्लहं। भुत्तभोगा पुणो पच्छा, जिणमग्गं चरिस्सिमो॥३|| अथ च सोऽपीति-स पुनः राजपुत्रः--रथनेमिः भीतां प्रवेपितां च प्रक्रमाद्राजामतीम् 'उदाहरे त्ति' उदाहरत्- उक्तवान्, किं तदित्याह'रथनेमिरहमिति' अनेनात्मनिरूपवत्त्याद्यभिमानतः स्वप्रकाशनंतस्या अभिलाषोत्पादनार्थं विश्वासविशसनहेत्वन्यशङ्कानिरासार्थ वा स्वनामख्यापनं, ममं ति' मां भजस्व-सेवस्व सुतनु ! न ते तव पीडाबाधा भविष्यति, सुखहेतुत्वाद्विषय-सेवनस्येति भावः। यद्वा-तां ससम्भ्रमां दृष्टुिवमाह-"मम भयाहि त्ति' मा मा भैषीः सुतनु! यतो नते-तव पीडा भविष्यति, कस्य चिदिह पीडाहेतोरभावात्, पीडया शङ्कया च भयं स्यादित्येवमुक्तम्, एहि-आगच्छ-'ता' इति-तस्मात्तावता मानुष्यं "खुः' इति-निश्चितं सुदुर्लभम्, तदेतदवाप्ताविदमपि तावद्भोगलक्षणमस्य फलमुपभुज्महे इत्याशयः 1 भुक्तभोगाः पुनः-पश्चाद् इति वार्धक्ये जिनमार्गजिनोक्तमुक्तिपथं 'चरिस्सामो त्ति' चरिष्यामः, शेषं स्पष्टमिति सूत्रत्रयार्थः॥ ततो राजीमती किमचेष्टतेत्याहदठूण रहनेमिं तं, मग्गुजोयपराइयं / राईमई असंभंता, अप्पाणं संवरे तहिं // 36|| अहसा रायवरकन्ना, सुट्टिया नियमव्वए। जाई कुलं च सीलं च, रक्खमाणी तयं वदे // 40 // जहऽसि रूवेण वेसमणो, ललिएण नलकूबरो।
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________________ रहणेमि 498 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 रहणे मि तहाविते न इच्छामि, जइऽसि सक्खं पुरंदरो / / 11 / / धिरत्थु तेजसो कामी, जो तं जीवियकारणा। वंतं इच्छसि आवेळं, सेयं ते मरणं भवे // 42 // अहं च भोगरायस्स, तं चऽसि अंधगवण्हिणो। मा कुले गंधणा होमो, संजमं निहुओ चर // 43 / / जइतं काहिसि भावं, जा जा दिच्छसि नारीओ। वायाविद्ध व हडो, अट्ठिअप्पा भविस्ससि // 4 // गोवालो भंडवालो वा, जहा तहव्वऽणिस्सरो। एवं अणीसरो तंपि, सामन्नस्स भविस्ससि ||4|| सूत्रसप्तकं पाठसिद्धं, नवरं 'भगुज्जोयपराइयं ति' भग्रोद्योगः अपगतोत्साहः प्रस्तावात् संयमे। स चासौ पराजितश्च-अभिभूतः स्वीपरीषहेण भनोद्योगपराजितस्तम् असम्भ्रान्तानायं बलादकार्ये प्रवर्त्तयितेत्यभिप्रायेणावस्ता आत्मानं-स्वं 'संवरे त्ति' समवारीत् आच्छादितवती चीवरैरिति गम्यते, तस्मिन् इति लयनमध्ये पीडया शङ्कया च भयं स्यादित्येवमुक्तम् / सुस्थिता-निश्चला 'नियमव्रते' इतीन्द्रियनोइन्द्रियनियमने--प्रव्रज्यायां च जातिं कुलं शीलं च 'रक्खमाणि ति' रक्षन्ती, शीलध्वंशे हि कदाचिदस्या एवंविधैव जातिः कुलं चेति सम्भावनातस्ते अपि विनाशिते स्यातामित्येवमुक्तम्, यद्यपि असिभवसि रूपेण-आकारसौन्दर्येण वैश्रमणः-धनदः ललितेन–सविलासचेष्टितेन नलकूवरः-देवविशेषः 'ते' इति त्वां साक्षात्-समक्षः पुरन्दरःइन्द्रो रूपाद्यनेकगुणाश्रयो य इति भावः, रूपाद्यभिमानी चायमित्येवमुक्तः। अपरं च-धिगस्तुते-तव पौरुषमिति गम्यते,अयशः कामिन्निव अयशः कामिन्!-अकीर्त्यभिलाषिन् ! दुराचारवाञ्छितया,यद्वा ते-तव यशोमहाकुलसम्भवोद्भूतं धिगस्त्विति सम्बन्धः, कामिन् !-भोगाभिलाषिन्! जीवितकारणात् जीवितनिमित्तमाश्रित्य, तदनासेवने हि तथाविधदशावाप्तौ मरणमपि स्यादित्येवमभिधानम्, वान्तम्-उद्गीर्णं यत् शृगालैरपि परिहृतंतदिच्छस्यापातुम,यथाहि-कश्चिद्वान्तमापातुमिच्छत्येवं भवानपि प्रव्रज्याग्रहणतस्त्यक्तान् भोगान् पुनरापातुमिवापातुम्उपभोक्तुमिच्छति अतः श्रेयः-कल्याणं ते-तव मरणं भवेत्, न तु वान्तापानं, ततो मरणस्यैवाल्पदोषत्वात्। अनूदितं चैतद्- "विज्ञाय वस्तुनिन्द्यं, त्यक्त्वा गृह्णन्ति किं वचित्पुरुषाः? वान्तं पुनरपि भुङ्क्ते, न च सर्वः सारमेयोऽपि // 1 // ' 'अह' मित्यात्मनिर्देशे चः-पूरणे 'भोजराजस्य-उग्रसेनस्य त्वं च असि-भवसि अन्धकवृष्णेः कुले जातः इत्युभयत्र शेषः, अतश्च मा इति निषेधे कुले-अन्वये 'गंधणे त्ति' गन्धनाना--सर्पविशेषाणां 'होमो क्ति' भूव, तचेष्टितानुकारितयेति भावः ते हि वान्तमपि विष ज्वलदह्निपातभीरुतया पुनरपि पिवन्ति, तथा च वृद्धाः-"सप्पाणं किल दो जाईओ-गंधणा य; अगंधणा य / तत्थ गंधणाणाम जे डसिए मंतेहिं आकड्डिया तं विसं वणमुहातो आवियंति, अगंधणा उण अवि मरणमज्झवसंति ण य वंतमावियं ति।" किं तहिं कृत्यमित्याह-संयम निभृतः-स्थिरः चर आसेवस्व, यदि त्वं भाव प्रक्रमाद्भोगाभिलाषरूपं यो याः "दिच्छसि त्ति' द्रक्ष्यसि तासु तास्विति गम्यते, ततः किमित्याह-वातेनाविद्धः-समन्तात्ताडितो वाताविद्धो भ्रमित इति यावत्। हठोवनस्पतिविशेषः स इवास्थितात्माचञ्चलचित्ततयाऽस्थिर-स्वभावः / गोपालः-योगाः पालयति, भाण्डपालो वा-यः परकीयानि भाण्डानि भाटकादिना पालयति, पठ्यते च- 'दण्ड-पालो वा नगररक्षको वा' यथा-तद्रव्यस्य गवादेः सततरक्षणीयस्य अनीश्वरः-अप्रभुः, विशिष्टतत्फलोपभोगाभावात्, एवमनीश्वरस्त्व-मपि श्रामण्यस्य भविष्यसि, भोगाभिलाषतस्तत्फलस्याऽपि विशिष्टस्याभावादिति भाव इति सूत्रसप्तकार्थः। एवं तयोक्तो रथनेमिः किं कृतवानित्याह?तोसे सो वयण सुचा, संजईए सुभासियं / अंकुसेण जहा नागो, घम्मे संपडिवाइओ॥४६|| मणगुत्तो वयगुत्तो, कायगुत्तो जिइंदिओ। सामन्नं निचलं फासे, जावज्जीवं दढव्वओ // 47 // सूत्रद्वयम्, तस्याः-राजीमत्याः सः-रथनेमिः वचनम् - अनन्तरोक्तानुशिष्टिरूपं श्रुत्वा-आकर्ण्य संयतायाः-प्रव्रजितायाः सुष्ठसंवेगजनकत्वेन भाषितम्-उक्तं सुभाषितम्, अङ्कुशेनप्रतीतेन, यथानागः-हस्ती पथिइति शेषः, एवं धर्मे चारित्रधर्मे 'संपडियाइओ त्ति' 'सम्प्रतिपातितः संस्थितः, तद्वचसैवेतिगम्यते। अत्र च वृद्धसम्प्रदायः"णेउरपंडियाक्खाणयं भणिऊणजाव ततो रुद्रेण राइणा देवी मेंठो हत्थीय तिन्नि विछिन्नकडगे चडावियाणि, भणिओय मेंठो-एत्थं वाहेहि हत्थिं, दीहि य पासेहिं वेणुग्गहा ठविया, ०जाव एगो पाओ आगासे ठविओ। जणो भणइ-किं एस तिरियो जाणइ? एयाणि मारेयव्वाणि, तहावि राया रोसं न मुञ्चति, ततो अ तिन्नि पाया आयासे कया, एगेण ठितो, लोगेण अक्कंदो कतो-किमेयं हत्थिरयणं दावाइजति? रण्णा मिठो भणिओ-तरसि णियत्तेउं? भणइ-जइ दुयग्गाणवि अभयं देसि, दिण्णं, ततो तेण अंकुसेण नियत्तिओ हत्थि त्ति।" इह चायमभिप्रायःयथा-अयमीदृगवस्थो द्विपोऽड्कुशवशतः पथि संस्थित एवमयमप्युत्प-- नविश्रोतसिकस्तद्वचेनन अहितप्रवृत्तिनिवर्तकतयाऽङ्कुशप्रायेण धर्म इति, ततश्च श्रामण्यं निश्चलं-स्थिरं 'अस्पाक्षीद्-आसेवित-वान, शेष स्पष्टमिति सूत्रद्वयार्शः। उभयोरप्युत्तरवक्तव्यतामाहउग्गं तवं चरित्ताणं, जाया दुन्नि वि केवली। सव्वं कम्मं खवित्ताणं, सिद्धिं पत्ता अणुत्तरं / / 48|| उग्रं कर्म रिपुदाणतया तपः-अनशनादि चरित्ताणं ति' चरित्वाजातीभूतौ द्वावपीति-रथनेमिराजीमत्यौ, 'केवली ति' केवलिनी सर्व निरवशेषकर्मभवोपग्राहि 'खवित्ताणं ति' क्षपयित्वा सिद्धि प्राप्तावनुत्तरामिति सूत्रार्थः। सम्प्रति नियुक्तिरनुश्रियतेसोरियपुरम्मि नयरे, आसी राया समुद्दविअओ त्ति।
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________________ रहणे मि 466 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 रहमुसल तस्सासि अग्गमहिसी, सिव त्ति देवी अणुजंगी|४४३|| तेसिं पुत्ता चउरो, अरिठ्ठनेमी तहेव रहनेमि। तइओ असचनेमी, चउत्थओ होइ दढनेमी॥४४४|| जो सो अरिट्ठनेमी, बावीसइमो अहेसि सो अरिहा। रहनेमिसचनेमी, एए पत्तेयबुद्धा उ॥४४५।। रहनेमिस्स भगवओ, गिहत्थए चउर हुंति वाससया। संवच्छरछउमत्थो, पंचसए केवली हुंति॥४४६।। नववाससएवासा-हिए उसवाउगस्सनायव्वं / एसो उचेव कालो, राव(य)मईए उनायव्वो // 47 // अत्र च प्रथमगाथया रथनेमेरन्वय उक्तः। तेसिं ति तयोः-समुद्रविजयशिवादेव्योः, प्रसङ्गतश्चेह शेषपुत्राभिधानम् ' 'अहेसि त्ति' अभूत, इह च वदरिष्टनेमेरहत्त्वं रथनेमेश्च प्रत्येकबुद्धत्वमुक्तं तदर्हद्भातृत्वेन स्वगुणप्रकर्षेण च रथनेमेर्माहात्म्यख्यापनार्थम्। चतुर्थगाथया पर्यायपरिमाणाभिधानम्, तत्रचत्वारि वर्षशतानि गृहस्थपर्यायः, वर्ष छदास्थपर्यायः, वर्षशतकपञ्चकं केवलिपर्याय इति; मिलितानि नव वर्षशतानि वर्षाधिकानि सर्वाऽऽयुरभिहितम्, एष चैव त्विति' च-तु-शब्दौ पूरणे, तत एष एव च वर्षाधिकवर्षश-तनवकलक्षणः, शेषं स्पष्टमिति गाथापञ्चकार्थः। सम्प्रति प्रतिभग्रपरिणामतया मा भूद्रथनेमौ कस्यचिदवज्ञेति सूत्रकृदाहएवं करेंति संबुद्धा,पंडिया पवियक्खणा। विनियदृति भोगेसं,जहा सो पुरिसोत्तमो ||४|त्ति वेमि। एवम्- इति वक्ष्यमाणं कुर्वन्ति-विदधति संबुद्धाः बोधिलाभतः, पण्डिताः बुद्धिमत्त्वेन, प्रविचक्षणाः प्रकर्षण शास्त्रज्ञतया न त्वनीदृशाः, किमित्याह-विशेषेण कथञ्चिद्विश्रोतसिकोत्पत्तावपि तन्निरोधलक्षणेन निवर्तन्ते, 'भोगेसुंति' भोगेभ्यो यथासः-पुरुषोत्तमोरथनेमिः, अनीदृशा ह्येकदाभग्नपरिणा मानपुन संयमे प्रवर्तितुंक्षमाः, ततो भोगविनिवर्तनात् सम्बुद्धादिविशेषणान्वितत्वेन कथ-मयमवज्ञास्पदं भवेदिति भावः / उपदेशपरतया वा प्राग्वव्याख्येयमिति सूत्रार्थः / / इति' परिसमाप्तौ, ब्रवीमीति पूर्ववत्, उत्त०२२ अ० दश०। कल्प०। रहणे मिज-न०(रथनेमीय) रथनेमिवक्तव्यताप्रतिपादके द्वाविंशे उत्तराध्ययने, उत्त०२२ अ०स० रहपह-पुं०(रथपथ) शकटचक्रद्वयप्रमिते मार्गे , भ०७श०६ उ०। रहपहगर-पुं०(रथपथकर) रथनिकरे, औ०। रहमद्दण-न०(रथमईन) धातकीखण्डे अतरकङ्कायां नगर्यां स्वनामख्याते कोष्ठे, ज्ञा०१ श्रु०१६ अ०॥ * रहमुसल-पुं०(रथमुशल) यत्र रथो मुशलेन युक्तः परिधाववन् महा जनक्षयं कृतवान् असौ रथमुशलः। स्वनामख्याते कोणिकपुत्राणां चेटकेन राज्ञा सार्द्ध संग्रामे, भ०७ श०६उ०। नि०ा (रथमुशलाख्यसंग्रामस्योत्पत्तौ किं निवन्धनमिति 'काल' शब्दे तृतीयभागे ४८१पृष्ठे गतम्) णायमे यं अरहया सुयमेयं अरहया विनायमेयं अरहया रहमुसले संगामे, रहमुसले णं भंते ! संगामे वट्टमाणेके जइत्था के पराजइत्था? गोयमा ! वनी विदेहपुत्ते चमरे असुरिंदे असुरकुमारराया जइत्था, नव मल्लईनवलेच्छई पराजइत्था। तए णं से कूणिए राया रहमुसलं संगाम उवट्टियं सेसं जहा महासिलाकंटए, नवरं भूयाणंदे हत्थिरायाजाव रहमुसलसंगामं ओयाए, पुरओय से सक्के देविंदे देवराया, एवं तहेव०जाव चिंट्ठति, मग्गओ य से चमरे असुरिंदे असुरकुमारराया एगं महं आयासं किठिणपडिरूवगं विउव्वित्ताणं चिट्ठा, एवं खलु तओ इंदा संगाम संगामेंति, तं जहा-देविंदे य मणुइंदे य असुरिंदे य। एगहत्थिणा वि णं पभू कूणि ए राया जइत्तए तहेव जाव दिसो दिसिं पडिसेहित्था। से केणऽटेणं भंते ! रहमुसले संगामे? रहमुसले संगामे, गोयमा ! रहमुसले णं संगामे वट्टमाणे एगे रहे अणासए असारहिए अणारोहए समुसले महया जणक्खयं जणवहंजणप्पमहंजणसंवट्टकप्पं रुहिरकद्दमं करेमाणे सव्वओ समंता परिधावित्था, से तेणणं०जाव रहमुसले संगामे / रहमुसले णं मंते ! संगामे वट्टमाणे कति जणसयसाहस्सीओ बहियाओ? गोयमा! छनउतिं जणसयसास्सीओ बहियाओ। तेणं मते ! मणुया निस्सीला०जाव उववन्ना? गोयमा! तत्थ णं दस साहस्सीओ एगाए मच्छीए कुच्छिसि उववनाओ, एगे देवलोगेसु उववन्ने, एगे सुकुले पचायाए, अवसेसा ओसन्न नरगतिरिक्खजोणिएसु उववन्ना। (सू०-३०१) कम्हा णं भंते! सके देविंदे देवराया चमरे असुरिंदे असुरकुमारराया कूणियस्स रनो साहेजं दलइत्था? गोयमा ! सके देविंदे देवराया पुटवसंगतिएचमरे असुरिंदे असुरकुमारराया परियायसंगतिए, एवं खलु गोयमा ! सके देविंद देवराया चमरे य असुरिंदे असुरकुमारराया कूणियस्स रनो साहिलंदलइत्था। (सू०३०२) बहुजणे णं भंते ! अन्नमन्नस्स एवमाइक्खंतिजाव परूति एवं खलुबहवे मणुस्सा अन्नयरेसु उचावएसु संगामेसु अभिमुहा चेव पहया समाणा कालमासे कालं किचा अन्नयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति, से कहमेयं भंते ! एवं? गोयमा ! जण्णं से बहुजणो अन्नमन्नस्स एवं आइक्खति जाव उववत्तारो भवन्ति, जे ते एवमाहंसुमिच्छंते एवमाहंसु, अहंपुण गोयमा! एवमाइक्खामिजाव (१-'महासिलाकंटय' शब्दे अस्मिन्नेवभागे गतम्)
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________________ रहमुसल 500- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 रहमुसल परूवेमि-एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं वेसाली नाम नगरी होत्था, वण्णओ, तत्थ णं वेसालीए णगरीए वरुणे। नाम णागनत्तुए परिवसइ अड्डे जाव अपरिभूए समणोवासए अभिगयजीवाजीवे जाव पडिलामेमाणे छटुं छटे णं | अनिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावेमाणे विहरति, तए णं से वरुणे णागनत्तुए अन्नया कयाइ रायामिओगेणं गणामिओगेणं बलामिओगेणं रहमुसले संगामे आणत्ते समाणे छट्ठभत्तिए अट्ठमभत्तं अणुवट्टेति अट्ठममत्तं अणुवर्दृत्ता कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ सद्दावेइत्ता एवं वदासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! चाउग्धंट आसरहं जुत्तामेव उवट्ठावेह हयगयरहपवर०जाव सन्नाहेत्ता मम एयमाणत्तियं पचप्पिणह / तए णं से कोडुंबियपुरिसाजाव पडिसुणेत्ता खिप्पामेव सच्छत्तं सज्झयं०जाव उवट्ठावें ति हयगयरह०जाव सन्नाति सन्नाहेतित्ता जेणेव वरुणे नागनत्तुएन्जाव पञ्चप्पिणंति। तए णं से वरुणे णागनत्तुए जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छति जहा कूणिओ०जाव पायच्छित्ते सव्वालंकारविभूसिए सन्नद्धबद्धे सकोरेंटमल्लदामेणं ०जाव धरित्रमाणे णं अणे गगणनायग०जाव दूयसंधिपालसद्धिं संपरिवुडे मज्जणघराओ पडिनिक्खमति पडिनिक्खमित्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला जेणेव चाउग्घंटे आसरहे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छइत्ता चाउग्घंटं आसरहं दुरूहइ दुरूहइत्ता हयगयरह०जाव संपरिखुड़े महया भडचडगर०जाव परिक्खित्ते जेणेव रहमुसले संगामे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छइत्ता रहमुसलं संगामं ओयाओ। तए णं से वरुणे णागणत्तुए रहमुसलं संगामं ओयाए समाणे अयमेयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हइकप्पति से रहमुसलं संगामं संगामेमाणस्स जे पुट्विं पहणइ से पडिहणित्तए अवसेसे नो कप्पतीति, अयमेयारूवं अभिग्गहं अभिगेण्हइ अभिगेण्हइत्ता रहमुसलं संगाम संगामेति। तए णं तस्स वरुणस्स नागनत्तुयस्स रहमुसलं संगामं संगामेमाणस्स एगे पुरिसे सरिसए सरिसत्तए सरिसव्वए सरिसभंडमत्तोवगरणे रहेणं पडिरहं हव्वमागए, तए णं से पुरिसे वरुणं णागणत्तुर्य एवं वयासी-पहण वरुणा! णागणत्तुया ! प०२,तए णं से वरुणे णागणत्तुएतं पुरिसं एवं वदासी-नो खलु मे कप्पइ देवाणुप्पिया! पुट्विं अहयस्स पहणित्तए, तुमचेवणं पुव्वं पहणाहि। तएणं से पुरिसे वरुणे णागणत्तुएणं एवं वुत्ते समाणे आसुरुत्ते०जाव मिसिगिसेमाणे धणु परामुसइ परामुसइत्ता उसुं परामुसइ एसुं परामुसित्ता ठाणं ठाति ठाणं ठिचा आययकचायचं उसुं करेइ आययकन्नाययं उसुं करेत्ता वरुणं णाग णत्तुयं गाढप्पहारी करे।। तएणं से वरुणे णागनत्तुए तेण पुरिसेणं गाढप्पहारीकए समाणे आसुरत्ते०जाव मिसिमिसेमाणे धणुं परामुसइधमरामुसित्ता उसुं परामुसइ उसु परामुसित्ता आययकन्नाययं उसुं करेइ आययकनाययं उसुं करेत्ता तं पुरिसं एगाहचं कूडाहचं जीवियाओ ववरोवइ / तए णं से वरुणे णागणत्तुए तेणं पुरिसेणं गाढप्पहारीकए समाणे अत्थामे अबले अबीरिए अपुरिसक्कारपरक्कमे अधारणिज्जमितिकटु तुरए निगिण्हइ तुरए निगिण्हत्ता रहं परावत्तेइरहं परावत्तित्ता रहमुसलाओ संगामाओपडिनिक्खमति पडिनिक्खमित्ता एगंतमंतं अवकमइ एगंतमंतं अवकमित्ता तुरए निगिण्हइ निगिण्हित्ता रहं ठवेइ ठवेइत्ता रहाओ पचोरुहइ रहाओ पचोरुहइत्ता रहाओ तुरए मोएइ तुरए मोएत्ता तुरए विसजेइ विसञ्जित्ता,दव्मसंथारंगसंथरइ दब्भसंथारगंसंथरइत्ता (पुरच्छभिमुहे दुरूहइ दब्भसंथारगं संथरइ संथरइत्ता) पुरच्छाभिमुहे संपलियंकनिसने करयल०जाव कटु एवं वसासीनमोऽत्थु णं अरिहंताणं०जाव संपत्ताणं नमोऽत्थुणं समणस्स भगवओ महावीरस्स आइगरस्सन्जाव संपाविउकामस्स मम धम्मायरियस्स धम्मोवदेसगस्स वंदामि णं भगवन्तं तत्थगयं इहगए पासउ मे से भगवं तत्थगए०जाव वंदति नमंसति वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-पुटिवं पि मए समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए थूलए पाणातिवाए पचक्खाए जावजीवाए एवं०जाव थूलए परिग्गहे पचक्खाए जावजीवाए, इयाणि पिणं अरिहंतस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं सव्वं पाणातिवायं पञ्चक्खामि जावञ्जीवाए एवं जहाखंदओ०जाव एवं पिणं चरमेहि ऊसासनीसासेहिं वोसिरि-स्सामि ति कट्टु सन्नाहपट्टे मुयइ सन्नाहपढें मुइत्तासल्लुद्धरणं करेति सल्लुद्धरणं करेत्ता आलोइयपडिरते समाहिपत्ते आणु-पुटवीए कालगए।तएणं तस्स वरुणस्स णागनत्तुयस्स एगे पियबालवयंसए रहमुसलं संगाम संगामेमाणे एगे णं पुरिसे णं गाढप्पहारीकए समाणे अत्थामे अबले०जाव अधाराणिज्जमिति कटु वरुणं णागनत्तुयं रहमुसलाओ संगामाओपडिनिक्खममाणं पासइपासइत्तातुरए निगेण्हइ तुरए निगेण्हित्ता जहा वराणे०जाव तुरए दि सजेति पडिसंथारंग दुराहइ पडिसंथा-इगं दुरूहित्ता पुरत्थाभिमुहे जाव अंजलिं कटु एवं वयासी-जइणं भंते! मम पियबालवयस्सस्स वरणस्स नागमत्तुयस्स सीलाईवयाइंगुणाई वेरमणाई पञ्चक्खाणपोसहो
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________________ रहमुसल ५०१-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 रहमुसल वबासाइं ताइणं ममं पि भवंतु त्ति कट्ट सन्नाहपट्ट मुयइ मुयइत्ता सल्लुद्धरणं करेति सल्लुदरणं करेत्ता आणुपुथ्वीए कालगए। तए णं तं वरुणं णागणत्तुयं कालगयं जाणित्ता अहासन्निहिएहिं वाणमंतरेहिं देवंहिं दिव्वे सुरभिगंधोदगवासे वुढे, दसद्धवन्ने कुसुमे निवाडिए, दिवे य गीयगंधय्वनिनादे कएयाऽवि होत्था। तए णं तस्स वरुणस्स णागनत्तुयस्स तं दिव्वं देविहिं दिव्वं देवजुति दिवं देवाणुभागं सुणित्ता य पासित्ता य बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ जाव परवेति-एवं खलु देवाणुप्पिया! बहवे मणुस्सा जाव उवतत्तारो भवंति। (स०३०३)। वरुणे णं भंते ! नागनत्तुए कालमासे कालं किच्चा कहिं गए कहिं उववन्ने ? गोयमा ! सोहम्मे कप्पे अरुणाभे विमाणे देवत्ताए उववन्ने, तत्थ णं अत्थे गतियाणं देवाणं चत्तारि पलिओवमाणि ठितीपण्णत्ता, तत्थणं वरुणस्स वि देवस्स चत्तारिपलिओवमाई ठिती पण्णत्ता / से णं भंते ! वरुणे देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं भवक्खएणं ठिइक्खएणं जाव महाविदेह वासे सिज्झिहिति० जाव अंतं करेहिति / वरुणस्स णं भंते ! णागणतुयस्स पियबालवयंसए कालमासे कालं किचा कहिं गए ? कहिं उव्ववन्ने ? गोयमा ! सुकुले पञ्चायाते। से णं भंते ! तओ हिंतो अणंतरं उटवट्टिता कहिं गच्छहिति कहिं उववजहिति? गोयमा ! महाविदेहे वासे सिज्झिहिति जाव अंतं करेति / सेवं भंते ! सेवं मंते ! ति। (सू०३०५) 'सारुढ त्ति' संरुष्टाः मनसा 'परिकुविय त्ति' शरीरे समन्ताद्दर्शितकोपविकारा : 'समरवहिय ति' संग्रामे हताः 'रहमुसले त्ति' यत्र रथो मुशलेन युक्तः -परिधावन् महाजनक्षयं कृतवान् असौ रथमुशलः, 'मग्गओ त्ति' पृष्ठतः 'आयसंति' लोहमयम् 'किढिणपडिरूवगं ति' कठिनं-वंशमयस्तापससम्बन्धी भाजनविशेषस्तत्प्रतिरूपकम्-तदाकारं वस्तु 'अणासए त्ति' अनारोहकः-योधवर्जितः 'महता जणक्खयं ति' महाजनविनाशं 'जणवहं ति' जनवधं जनव्यथा वा 'जणपमहं ति' लोकचूर्णन 'जणंवट्टकप्पं ति जनसंवर्त इव-लोकसंहार इव जनसंवतकल्पोऽतस्तम् / 'एगे देवलोगेसु उववन्ने एगे सुकुलपचायाए त्ति' एतत्स्वभावत एव वक्ष्यति / 'पुव्वसंगइए त्ति कार्तिकश्रेष्ठ्यवस्थायां शक्रस्य कूणिकजीवो मित्रमभवत्, 'परियायसंगइए त्ति' पूरणतापसावस्थायां चमरस्याऽसौ तापसपर्यायवर्ती मित्रासीदिति / 'जन्नं से बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खई' इत्यत्रैकवचनप्रक्रमे 'जे तेएवमाहंसु .इत्यत्र यो बहुवचननिर्देशः स व्यक्त्यपेक्षोऽवसे यः 'अहिगयजीवाजीवे' इत्यत्र यावत्करणात् उचलद्धपुन्न पावा' इत्यादि दृश्यम् 'पडिलाभेमाणे ति' इदंच'समणे निग्गथेफासुएणं एसणिज्जेणं असणपाणखाइमसाइमेणं | वत्थपडिग्गहकंबलरओहरणेणं पीढफलगसेज्जासंथारएणं पडिलाभोमाणे विहरइ' इत्येवं दृश्यम्, 'चाउग्धंट ति घण्टा चतुष्टयोपेतम् 'आसरहं ति' अश्ववहनीयं रथं 'जुत्तामेव त्ति' युक्तमेव रथसामग्रेति गम्यम्, 'सज्झयं' इत्यत्र यावत्करणादिदं दृश्यम्--'यघंटे सपडागं सतोरणवरं सणं दिघोस सकिंकिणीहेमजालपेरंतपरिक्खित्तं' सकिङ्किणीकेन क्षुद्रघण्टिकायुक्तेन हेमजालेन पर्यन्तेषु परिक्षिप्तो यः स तथा हेमवयचित्ततेणिसकणगनिउत्तदारुयागं' हैमवतानि-हिमवगिरिजातानि चित्राणि-विचित्राणि तैनिशानि-तिनिशाभिधानवृक्षसम्बधीनि सहिमवतीति तद्रहणं कनकनियुक्तानिनिलयुक्तकनकानि दारुणि यत्र स तथा तम्, 'सुसंविद्धचक्कमंडलधुरागं' सुठु संविद्धे चक्रे यत्र मण्डला च-वृत्ता धूर्यत्र स तथा तम्, 'कालायसयुकयनेमिजंतकम्म' कालायसेनलोहविशेषेण सुष्ठ कृतं नेमेः-चक्रमण्डलमालाया यन्त्रकर्मबन्धनक्रिया यत्र स तथा तम्, 'आइन्नवरतुरयसुसंपउत्तं' जात्यप्रधानाश्वैः सुष्टु संप्रयुक्तमित्यर्थः, 'कुसलनरच्छेयसारहिसुसंपग्गाहियं' कुशलनर रूपो यश्छेकसारिथः-दक्षप्राजिता तेन सुष्ठु सम्प्रगृहीतो यः स तथा तम्, 'सरसयबत्तीसयतोणपरिमंडिपं' शराणां शतं प्रत्येकं येषु ते शरशतास्तैभत्रिंशता तोणैः-शरधिभिः परिमण्डितो यः स तथा तम्, 'सकंकडवडेंसगं' सह कङ्कटैः-कवचैरवतंसैश्चशेखरकैः शिरस्त्राणणभूतैर्यः स तथा तम्, 'सचावसरपहरणावरणभरियजोहजुद्धसज्ज' सह चापशरैर्यानि प्रहरणानि खणादीनि आवरणानि च-स्फुरकादीनि तेषां भृतोऽत एव योधानांयुद्धसज्जश्च-युद्धप्रगुणो यः स तथा तम्, 'चाउग्घंट आसरहं जुत्तामेव त्ति, वाचनान्तरेतु साक्षादेवेदं दृश्यत इति, अयमेयावरूवं ति' प्राकृतत्वदिदम्, एतद्रूपम् वक्ष्यमाणरूपं 'सरिसए त्ति' सदृशकः-समानः 'सरिसत्तए' ति सदृशवक् 'सरिसव्वएत्ति' सदृग्वयाः 'सरिसभंडमत्तोवगरणे' त्ति सदृशी भाण्डमात्रा-प्रहरणकोशादिरुपा उपकरणं च-कङ्कटादिकंयस्य सतथा, 'पडिरहंति' रथं प्रति आसुरुत्ति' आशु-शीघ्रं रुप्तः-कोपोदयाद्विमूढः 'रुप-लुप-विमोहेन' इति वचनात्; स्फुरितकोपलिङ्गोवा, यावत्करणादिदंदृश्यम्-'रुटेकुविएचंडिक्किएत्ति'तत्र 'रुष्टः' उदितक्रोधः 'कुपितः प्रवृद्धकोपोदयःचाण्डिकितः सञ्जातचाण्डिक्यः प्रकटिरौद्ररूप इत्यर्थः, मिसिमिसेमाणे ति क्रोधाग्निना दीप्यमान इव, एकार्थिका वैते शब्दाः कोपप्रकर्षप्रतिपादनार्थमुक्ताः, 'ठाणं ति' पादन्यासविशेषलक्षणं'ठातित्ति' करोति'आययकण्णाययं ति' आयतःआकृष्टः सामान्येनसएव कर्णायतः-आकर्णमा-कृष्टः आयतकर्णायतस्तम् 'एगाहचं ति एका हत्या हननं प्रहारो यत्र जीवितव्यपरोपण तदेकाहत्यं तद्यथा-भवति, 'कूडाहच्चंति कूटे इव तथाविधपाषाणसम्पुटादौ कालविलम्बाभावसाधादाहत्या आहननं यत्रतत्कूटाहत्यम् 'अत्थामे त्ति' 'अस्थामा' सामान्यतः शक्रि विकलः 'अबले त्ति' शरीरशनिवर्जितः / अवीरिए त्ति व्यक्तंनवरंपुरुषक्रियापुरुषकारः-पुरुषाभिमानः स एव निष्पा
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________________ रहमुसल 102- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 राइ दितस्वप्रयोजनः पराक्रमः 'अधारणिज्जं ति' आत्मनो धरणं कर्तुम- रहस्सदूसण न० (रहस्यदूषण) मृषावादस्य द्वितीयातिचारे, प्रव०। रह शक्यम् 'इति कटु त्ति कृत्वा इति हेतोरित्यर्थः 'तुरए णिगिण्हइ ति' | एकान्तस्तत्र भवं रहस्यम् / राजादिकार्यसम्बद्धं यदन्यस्मै न कथ्यते, अश्वान् गच्छतो निरुणद्धीत्यर्थः 'एगंतमंतं ति' एकान्तम्-विजनम् / तस्य दूषणम्, अनधिकृतेन वाऽऽकारेङ्गितादिभित्विा अन्यस्मै अन्तम् भूमिभागसीलांइंति' फलानपेक्षाः प्रवृत्तयः ताश्च प्रक्रमाच्छुभाः प्रकाशनं रहस्यदूषणम्, यथा-रहसि मन्त्रयमाणान् कांश्चिदवलोक्य 'वयाई ति' अहिंसादीनि 'गुणाई ति' गुणव्रतानि 'रमणाई ति' गृहीतमृषाव्रतः कश्चिद्वदति-एते हि राजापकारादिकारकमिदमिदं च सामान्येन सागादिविरतयः 'पच्चक्खाणपोसहोववासाइं ति' प्रत्या- मन्त्रयन्ते, यद्वा-रहस्यदूषणं पैशून्यम्, यद्वा-द्रयोः प्रीतौ सत्यामेकस्यैख्यानं-पौरुषादिविषयं पौषधोपवासः-पर्वदिनोपवासः 'गीयगंधव्व- कस्याकारणादिनोपलभ्याभिप्रायमितरस्य तथा कथयति यथा प्रीतिः निनाए त्ति' गीतं-गानमात्रं गन्धर्वतदेव मुरजादिध्वनिसनाथं तल्लक्षणो प्रणश्यति, इति द्वितीयोऽतिचारः / प्रव०६ द्वार। निदानः-शब्दो गीतगन्धर्वनिनादः / 'कालमासे त्ति' मरणमासे रहस्सम्भक्खाण न० (रहस्याभ्याख्यान) रह एकान्तस्तत्र भवं रहस्य मासस्योपलक्षणस्वात् कालदिवसे इत्याद्यपि द्रष्टव्यं 'कहिं गए कहिं रहस्येनाभ्याख्यानभिशंसनमदसदध्यारोपणं रहस्याभ्याख्यानम् / उववन्ने त्ति' प्रश्नद्वये 'सोहम्मे त्याद्येकमेवोत्तरंगमनपूर्वकत्वादुप्तादस्यो- स्थूलमृषावादविरते द्वितीयातिचारे, ध०२ अधि० / पञ्चा० / ध०। रह त्पादाभिधानेन गमनं सामर्थ्यादवगतमेवेत्यभिप्रायादिति। आउक्ख एकान्तस्तत्र भवं रहस्यं तेन तस्मिन्वा अभ्याख्यान रहस्याभ्याख्यानम्, एण' आयुः कर्मदलिकनिर्जरणेन भवक्खएणं ति' देवभवनिधन्धदेवग एतदुक्तं भवति एकान्ते मन्त्रयमाणान्वक्ति-एते हीदं चेदं च राजात्यादिकर्मनिर्जरणेन "ठिइक्खएणं ति' आयुष्कादिकर्मणां स्थिति पकारित्वादि मन्त्रयन्ति। आव०६ अ०1०र०। उपा०। श्रा०॥ निर्जरणेनेति / भ०७ श०६ उ०1 रहस्सयंत पुं० (हस्ववन्त) वामनकुब्जादिषु, सूत्र०२ श्रु०१ अ०॥ रहयारपुं० (रथकार) वर्द्धकिनि, "रहयारा वड्डइणो' पाइ० ना० 103 रहस्सिय न० (रह(स्यि)सिक) अकार्यसम्बद्धमन्त्रे, आचा०२ श्रु०१ गाथा। चू० 2 अ०३ उ०ारहसिके जने, विपा० 1 श्रु०१०। एकान्तयोगिनि, रहरेणु पुं० (रथरेणु) रथेन गच्छता उत्खातो रेणुः रथरेणुवा, रथे गच्छति 'ज्ञा०१ श्रु०१ अ० / गुप्ते, ज्ञा०१ श्रु०१ अ01 रहावट्टगिरिपुं० (रथावर्तगिरि) वज्रस्वामिनोऽनशनेन शरीरत्यागस्थाने, तदुत्खातो य ऊर्ध्वतिर्यक्रेणुः रथरेणुः अष्टत्रसरेणुपरिमिते परिमाणे, कल्प० 2 अधि० 8 क्षण / प्रति० / आचा० आ० म०। "तत्थ य देवा ज्यो०२ पाहु० / अनु० स्था०। जं०प्रव०। भ०। पडिणीया, ते साहुणो सावियारूपेण भत्तपाणेण निमंतेइ, अज्ज भे रहवर पुं० (स्थवर) ऋषभदेवस्य चतुर्दशे पुत्रे, कल्प० अधि०७ क्षण ! पारणयं करेह, ताहे आयरिणहिं णायं जहा अवियत्तोग्गहो त्ति, तत्थ य रहवीरउर न० (रथवीरपुर) अष्टमनिहवानां बोटिकानाम् उत्पत्तिस्थाने, अब्भासे अन्नो गिरी, तं गया, तत्थ य देवयाए काउस्सग्गो कतो, सा आ० म०१ अ०। विशे०। आ० क०। आ० चू०। उत्त०। कल्प०। आगंतूण भणइ-अहो मह अणुग्रहो अच्छइ, तत्थ समाहीए कालगया, रहसंगेल्ल पुं० (रथसंगेल्ल) रथसमुदाये, औ०। ज्ञा०॥ दशा०॥ ततो इदेण रहेण वंदिया, पयाहिणीकरें तेण तरुवरादीणि दासिल्लाणि; रहसिय(ग) न० (राहसिक) विजने, विपा०१ श्रु०१ अ०। कयाणि; तेण तस्स रहावत्तो नामं जायं // 744 (गा०) आ० म०१ रहस्सन० (रहस्य) रह एकान्तस्तत्र भवं रहस्यम्। विविक्तोपाश्रयादौ, आ०/आ० चू०। प्रच्छन्ने, गृह्ये, गुप्ते, प्रव०६ द्वार।"गुज्झं रहस्सं पाइ० ना० 271 रहिय पुं० (रहित) परित्यक्ते, वियुक्ते च। आव० 4 अ०। विशे०। गाथा। आव०। उत्त०। सूत्र० / अनु०। भ०। स्था०। प्रश्न० / नि० चू०। रहुवंस पुं० (रघुवंश) रघुकुले, "तहा नवमस्स सिरिवीरगणहरस्स ज्ञा०। ऐदम्पर्ये, ज्ञा०१ श्रु०५ अ०। अयलभउणा जन्मभूमी रहुवंसभवाणं " ती०१२ कल्प। हस्वन० अपवादपदे, इहापवादपदानिरहस्यमुच्यते। बृ०६ उ०। अदीर्घे, रहोकम्मन० (रहःकर्म) विजनव्यापारे, स्था० 6 ठा०। "एगे रहस्से।" स्था० 1 ठा०। राअ धा० (राज) द्वीप्तौ, राजेरग्ध-छज्ज-सह-रीर-रेहाः // 8 | 4 | रहस्सकडपुं० (रहःकृत) प्रच्छन्नकृते, भ०२ श०१ उ०। 100 // इति आदेशाभावे / राअइ। राजति। प्रा०] रहस्सगय न० (रहस्यगत) कलाभेदे, स०७२ सम०। राअघर न० (राजगृह) गृहस्य घरोऽपतौ / / 8 / 2 / 144 / / इति गृहेः रहस्सगारवपरिणाम पुं०(हुस्वगौरवपरिणाम) परिणामभेदे,यस्माद्धस्वं घरादेशः / मगधदेशप्रधाननगरे, प्रा०। गमनं स हस्वगौरवपरिणमः / स्था०६ ठा०॥ राअला (देशी) प्रियङ्गवे, दे० ना०७ वर्ग 1 गाथा। रहस्सहाण न० (रहस्यस्थान) गुह्यापवरकमन्त्रगृहादौ, दश०५ अ० | राइ स्त्री० (राजि) अवल्याम, पता, तं०।"ओली मालास्त्रका राई रिंछोली आवली पंती' पाइ० ना० 62 गाथा। औ०।
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________________ राइ 503 -- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 राइ एकानेकजातीयवृक्षाणां पक्तिषु, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। रेखायाम, स्था० पण्णरसमुहुत्ते दिवसे भवति एत्थि पण्णरसमुहुत्ता राती भवति, 4 ठा० / 3 उ०। तत्थ णं कं हेतुं वदेज्जा ? ता अयएणं जंबुद्दीवे दीवे सव्वदीवसरात्रि स्त्री० रज्यते इति रात्रिः / रजन्याम्, सा च सूर्यकिरणास्पष्ट- मुद्दाणं सव्वमंतराए जाव विसेसाहिए परिक्खेणं पण्णत्ते, ता व्योमखण्डरूपाश्चतुर्यामात्मिका। पा०। विशे०। सूत्र०। जता णं सूरिए सव्वन्भंतरमंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति तदा पक्षस्य पञ्चदश रात्रयः णं उत्तमर्कट्ठपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहत्ते दिवसे भवति, ता कहं ते रातीओ आहिताति वदेज्जा ? ता एगमेगस्स णं जहणिया दुवालसमुहुत्ता राती भवति, से निक्खममाणे सूरिए पक्खस्स पण्णरस राईओ पण्णत्ताओ, तं जहा-पडिवा-राई नवं संवच्छरं अयमाणे पढमंसि अहोरत्तंति अभिंतरं मण्डलं बिदियाराई० जाव पण्णरसा राई, ता एतासि णं पण्णरसण्हं उवसंकमित्ता चारं चरति, ता जया णं सूरिए अभिंतरणंतरं राईणं पण्णरस नामधेज्जा पण्णत्ता, तं जहा मण्डलं उवसंकमित्ता चारं चरति तदा णं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे उत्तमा य 1 सुणक्खत्ता 2 एलावच्चा 3 जसोधरा / भवति दोहिं एगहमागमुहुत्तेहि ऊणे, दुवालसमुहुत्ता राती भवति सोमणसा 5 चेव तधा, सिरिसंभूता 6 य बोद्धष्वा // 1 // दोहि एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं अधिया, से णिक्खममाणे सूरिए दोचंसि विजया य 7 वेजयंता, 8 अहोरत्तंसि अब्भन्तरं तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति, जयंति / अपराजिया य 10 गच्छा य 11 // ता जया णं सूरिए अभिंतरं तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चार समाहारा 12 चेव तधा, चरति तदा णं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति चउहिं एगट्ठिभागतेया 13 य तहा य अतितेया 15 // 2 // मुहुत्तेहिं ऊणे दुवालसमुहुत्ता राती भवति चउहिं एगट्ठिभागदेवाणंदा 15 निरती रयणीणं णामधेज्जाई (सूत्र 48) / मुहुत्तेहिं अहिया, एवं खलु एएणं उवाएणं णिक्खममाणे सूरिए एगमेगे मंडले दिवसे खेतस्स णिवुड्डेमाणे 2 रतणिक्खेत्तस्स 'ता' कहमित्यादि, ता इति-पूर्ववत्, कथम् केन प्रकारेण, केन अभिवुड्डेमाणे 2 सव्वबाहिरमंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति ता क्रमेणेत्यर्थः, रात्रय आख्याता इति वदेत् ? भगवानाह-'ता एगमेगस्स जया णं सूरिए सव्वमंतरातो मण्डलाओ सव्वबाहिरं मंडलं ण' मित्यादि, ता इति प्राग्वत्, एकैकस्य पक्षस्य पञ्चदश 2 रात्रयः उवसंकमित्ता चारं चरति तता णं सवभंतरमंडलं पणिधाय प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-प्रतिपत्-प्रतिपत्सम्बन्धिनी प्रथमा रात्रिः, द्वितीय एगणं तेसीतेणं राइंदियसतेणं तिण्णि छावट्ठ एगट्ठिभागमुहुत्ते दिवससम्बन्धिनी द्वितीया रात्रिः, एवं पञ्चदशदिवससम्बन्धिनीपञ्चदशी सते दिवसे खेत्तस्स णिवुड्डित्ता रतणिक्खेत्तस्स अभिवुडित्ता चारं रात्रिः, एतच कर्ममासापेक्षया द्रष्टव्यम्, तत्रैव पक्षे पक्षे परिपूर्णानां चरति, तदा ण उत्तमकट्ठपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राती पञ्चदशानामहोरात्राणां सम्भवात्, 'ता एएसिण' मित्यादि, तत्र एतासां भवति, जहण्णए बारसमुहुत्ते दिवसे भवति, एसणं पढमे छम्मासे पञ्चदशानां रात्रीणां यथाक्रमममूनिपञ्चदशनामधेयानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा एस णं पढम छम्मासस्स पज्जवसाणे / से पविसमाणे सूरिए प्रतिपत्सम्बन्धिनी रात्रिरुत्तमा-उत्तमनामा, द्वितीया-सुनक्षत्रा, दोच्चं छम्मासं अयमाणे (आयमाणे) पढमंसि अहोरत्तंसि तृतीया-एलापत्या, चतुर्थी-यशोधरा, पञ्चमी-सौमनसी, षष्ठी बाहिराणंतरं मंडलं उवसंकमेत्ता चारं चरति, ता जया णं सूरिए श्रीसम्भूता, सप्तमी-विजया, अष्टमी-वैजन्ती, नवमी-जयन्ती, बाहिराणंतरं मंडलं उवसंक मित्ता चारं चरति तदा णं दशमी-अपराजिता, एकादशी इच्छा, द्वादशी-समाहारा,त्रयादशी अट्ठारसमुहुत्ता राती भवति, दोहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं अहिए, से तेजा, चतुर्दशी-अतितेजा, पञ्चदशी देवानन्दा, अमूनि क्रमेण रात्रीणां पविसमाणे सूरिए दोसि अहोरत्तंसि बाहिरं तचं मण्डलं नामधेयानि भवन्ति / सू० प्र० 10 पाहु०। ज्यो० ज०। चं० प्र० / कल्प०। उवसंकमित्ता चारं चरति, ताजयाणं सरिए बाहिरं तचं मण्डलं जइखलु तस्सेव अदिबस्स संवच्छरस्स सयं अट्ठारसमुहुत्ते उवसंकमित्ता चारं चरति तदा णं अट्ठारसमुहुत्ता राती भवति दिवसे भवति, सई अट्ठारसुमुहत्ता राती भवति, सई चउहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं अहिए / एवं खलु एतेणुवाएणं दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवति, सई दुवालसमुहुत्ता राती भवती, पविसमाणे सूरिए तयाणंतरातो तयाणंतरं मंडलातो मंडलं पढमे छम्मासे अस्थि अट्ठारसमुहुत्ता राती भवति, दोच्चे छम्मासे संकममाणे दो दो एगट्ठिभागमुहुत्ते एगमेगे मंडले रतणिखेत्तस्स अस्थि अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे, एत्थि अट्ठारसमुहुत्ताराती, अस्थि णिवुझेमाणे 2 दिवसखेत्तस्मा अभिवड्डमाणे 2 सव्वन्भंतरं मंडलं दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवति पढमे छम्मासे, दोचे छम्मासे एस्थि / उवसंकमित्ता चारं चरति, ताजया णं सरिए सव्ववाहिराओ मं-'
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________________ राइ ५०४-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 राइ डलाओ सव्वन्मतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति तदा णं कोसे अट्ठावीसंचधणुसयं तेरस य अडलाइंअद्धड्डल च किञ्चिविसेसाहिए सव्वबाहिरं मंडलं पणिधाय एगेणं तेसीएणराइंदियसतेणं तिन्नि परिक्खेवेणं पन्नते' इति, अत्र 'सव्वखुड्डाग' त्ति सर्वेभ्योऽप्यन्येभ्यो छाबडे एगहिभागमुहत्तसते रयणिखेत्तस्स निवृड्डित्ता द्वीपसमुद्रेभ्यः क्षुल्लको लघुरायामविष्कम्भाभ्यां योजनलक्षप्रमाणत्वात्, दिवसखेत्तस्स अभिवडित्ता चारं चरति तया णं उत्तमकट्ठपत्ते शेष प्रायः सुगम, परिधिपरिमाणं गणितं च क्षेत्रसमासटीकातः उकोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति, जहणिया दुवालसमुहुत्ता परिभावनीयम्, 'ता' इति ततो यदा णमिति पूर्ववत्, सूर्यः सर्वाभ्यन्तरराती भवति, एस णं दोचे छम्मासे एस णं दुचस्स छम्मासस्स मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा णमिति प्राग्वत्, उत्तमकाष्ठाप्राप्तः, पज्जवसाणे, एस णं आदिचे संवच्छरे एसणं आदिघस्स अत्र काष्ठाशब्दः प्रकर्षवाची परमप्रकर्षप्राप्तो यतः परमन्योऽधिको न संवच्छरस्स पनवसाणे, इतिखलु तस्सेवं आदिचस्स संवच्छ- भवति स इत्यर्थः, 'उक्कोस'त्ति, उत्कर्षतीत्यत्कर्षः उत्कर्ष एवोत्कर्षकः रस्स सइं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति, सइं अट्ठारसमुहुत्ता राती उत्कृष्ट इत्यर्थः, अष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवति, तस्मिन्नेव च सर्वाभ्यन्तरे भवति, सई दुवालसमुहुत्ता राती भवति, पडमे छम्मासे अस्थि मण्डले सूर्ये चारं चरति जघन्यासर्वलध्वी द्वादशमुहुर्ता रात्रिः, एषोऽहोरात्रः अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे अस्थि दुवालसमुहुत्ते दिवसे नत्थि पाश्चात्यस्य सूर्यसंवत्सरस्य पर्यवसानं, ततः ससूर्यस्तस्मात्सर्वाभ्यदुवालसमुहुत्ता राई अस्थि दुवालसमुहुत्ता राई नत्थि दुवाल- न्तरान्मण्डलान्निष्क्रामन् नवं सूर्यसंवत्सरमाददानः-प्रवर्तमानः प्रथमे समुहुत्ते दिवसे भवति, पढमे वा छम्मासे एत्थि पण्णरसमुहुत्ते अहोरात्रे 'अभिंतरानंतरं' ति सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलादनन्तरं द्वितीयं दिवसे भवति, णत्थि पण्णरसमुहुत्ता राई भवति णत्थि रातिं मण्डलमुपसंक्रम्य चार चरति ततो यदा सूर्योऽभ्यन्तरानन्तरंसर्वाभ्यन्तदियाणं वड्डोबड्डीए मुहुत्ताण वा चयोवचएणं, णण्णत्थ वा रान्मण्डलादनन्तरं द्वितीयं मण्डलमुफ्संक्रम्य चारं चरति तदा अष्टाअणुवायगईए, गाधाओ माणितव्वाओ। (सूत्र-११) दशमुहूर्तो दिवसो द्वाभ्यां मुहुर्तकषष्टिभागाभ्यामूनो भवति, द्वाभ्यां च 'जइ खलु' इत्यादि, यदि खलु षट् षष्ट्यधिकरात्रिन्दिवशतत्रय- मुहूर्तकषष्टिभागाभ्यामधिका द्वादशमुहूर्ता रात्रिः, कथमेतदवसीयते इति परिमाणायामद्धायां ट्यशीतं मण्डलशतं द्विकृत्वश्चरतिद्वेच मण्डले एकैकं चेत ? उच्यते, इहैकं मण्डलमे के नाहोरात्रेण द्वाभ्यां सूर्याभ्यां वारमिति तत एवं सति यदेतद्भगवद्भि प्ररूप्यते, तस्य षट् षष्ट्यधिक- परिसमाप्यते, एकैकश्च सूर्यः प्रत्यहोरात्रंमण्डलस्य त्रिंशदधिकोऽष्टादशरात्रिन्दिवशतत्रयपरिमाणस्य सूर्यसंवत्सरस्स मध्ये सकृद् एकवारमष्टा- शतसंख्यान् भागान् परिकल्प्य एकैकं भागं दिवसक्षेत्रस्य रात्रिख्क्षेत्रस्य दशमुहूर्तप्रमाणो दिवसो भवति, सकृचाष्टादशमुहूर्ता रात्रिः, तथा सकृद्- वा यथायोग्यं हापयिता वर्द्धयिता वा भवति, स चैको मण्डलगतस्त्रिंशएकवरं द्वादशमुहूर्तो दिवसो भवति सकृच द्वादशमुहूर्ता रात्रिः, तत्रापि दधिकाष्टादशशतमो भागो द्वाभ्यां मुहूर्त्तकषष्ठिभागाभ्यां गम्यते, तथाहिषण्मासे प्रथमेऽस्ति अष्टादशमुहूर्ता रात्रिनत्वष्टादशमुहूर्तो दिवसः, तथा तानि मण्डलगतानि त्रिंशदशिकान्यष्टादशशतानि भागानां द्वाभ्या अस्ति तस्मिन्नेव प्रथमे षण्मासे द्वादशमुहूर्तो दिवसो न तु द्वादशमुहूर्ता सूर्याभ्यामेकेनाहोरात्रेण गम्यते, अहोरात्रश्च त्रिंशमुहूर्तप्रमाणः, ततः रात्रिः, द्वितीये षण्मासेऽस्त्यष्टादशमुहूर्तो दिवसो नत्वष्टादशमुहूर्ता रात्रिः, सूर्यद्वयापेक्षया षष्टिर्मुहूर्त्ता लभ्यन्ते ततस्त्रैराशिककर्मावकाशः, यदि तथा अस्ति तस्मिन्नेव द्वितीय षण्मासे द्वादशमुहूर्ता रात्रिन्तु द्वादशमुहूर्तो षष्ट्या मुहूर्तेष्टादशशतानि त्रिंशदधिकानि मण्डलस्य भागानां गम्यन्ते तत दिवसः, तथा प्रथमे षण्मासे द्वितीये वा षण्मासे नास्त्येतत् यदुत-- एकेन मुहूर्तेन किगम्यते?,राशित्रयस्थापना--1६०।१८३०११अत्रान्त्येन पञ्चदशमुहूर्तोऽपि दिवसो भवति, नाप्यस्त्येतत्, यदुत पञ्चदशमुहूर्ता राश्निा एककलक्षणेन मध्यस्थ राशेर्गुणनाजातानि तान्येवाष्टादशशतानि रात्रिरिति, तत्र एवंविधे वस्तुतत्त्वावगमे को हेतुः ? -किं कारणं कया त्रिंशदधिकानि तेषामाद्येन राश्निा षष्टिलक्षणेन भागो हियते लब्धाः युक्त्या एतत्प्रतिपत्तव्यमितिभावार्थः, 'इति वदे दिति, अत्रार्थे भगवान् सार्द्धास्त्रिंशद्भागाःएतावन्मुहूर्तेन गम्यते, मुहूर्तेश्चैकषष्टिभागीक्रियते तत प्रसादं कृत्वा वदेत्। अत्र प्रतिवचनमाह-'ता अयण्ण' मित्यादि, 'अयं' आगतमेको भागो द्वाभ्यां मुहूर्तकषष्टिभाग्यां गम्यते, यदि वा-यदि प्रत्यक्षत उपलभ्यमानो णमितिवाक्यालङ्कारे 'जम्बूद्वीपो' चम्बूद्वीपनामा त्र्यशीत्यधिकेनाहोरात्रशतेन षट्मुहुर्ता हानौ वृद्धौ वा प्राप्यन्ते तत द्वीपः, सच सर्वेषांद्वीपसमुद्राणां सर्वाभ्यन्तरः-सर्वमध्यवर्ती सर्वेषामपि एकेनाहारात्रेण किं प्राप्यते?,राशित्रयस्थापना-1१८३।६।१अत्रान्येन शेषद्वीपसमुद्राणामित आरभ्य यथागमोक्र क्रमद्विगुणविष्कम्मतया राशिना एककलक्षेन मध्यराशिगुण्यते, जातास्त एव षट्, तेषां त्र्यशीत्यभवनात् 'जाव पस्क्खेिवेणं पन्नत्ते' इति, अत्र यावच्छब्दोपादानादि- धिकेन शतेन भागहरणम्, अत्रोपरितनराशेः स्तोकत्वाद्भागो न लभ्यते दमन्यद्ग्रन्थान्तरे प्रसिद्धं सूत्रमवगन्तव्यम्। 'सव्वखुड्डागे वट्टे तेल्ला- ततश्चेद्यच्छेदकराश्यास्त्रिकेनापवर्त्तना, जात उपरितनो राशिद्विकरूपोऽपूयसंठाणसंठिए पट्टे रहचक्कवालसंठाणसंठिए बट्टे पुक्खरकन्निया- धस्तन एकषष्टिरूपः, आगतंद्वावेकषष्टिभागौ मुहूर्तस्य एकस्मिन्नहोरात्रेवृध्दी संठाणसंठिए वट्टे पड्पुिन्नचंदसंठाणसंठिए, जोयणसयसहस्समायाम- हानौ वा प्राप्येते इति, तथा 'ता' इति तस्माद् द्वितीयान्मण्डलान्निष्क्रामन विक्खंभेणं तिन्निजोयणसयसहस्साइंदोन्निय सत्तावीसे जोयणसए तिन्नि | सूर्योद्वितीये अहोरात्रेसर्वाभ्यन्तरंमण्डलपेक्ष्य तृतीयंमण्डलमुपसंक्रम्यचा
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________________ राइ 505 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 राइ णं चरति, 'ता जया ण' मित्यादि, तत्र यदा तस्मिन्सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमपेक्ष्य तृतीये मण्डले उपसक्रम्य चारं चरति तदा चतुर्भिर्मुहूर्तस्यैकषष्टिभागींनोऽष्टादशमुहूर्तप्रमाणो दिवसो भवति, चतुर्भिर्मुहूर्तस्यैकषष्टिभागैरधिका द्वादशमुहूर्तप्रमाणा रात्रिः, एवमुक्तनीत्या 'खलु' निश्चितमेतेनानन्तरोदितेनोपायेन प्रतिमण्डलं दिवसरात्रिविषयमुहूर्तकषष्टिभागद्वयहानिवृद्धिरूपेण निष्क्रामनन्मण्डलपरिभ्रमणगत्या शनैः शनैर्दक्षिणाभिमुखे गच्छन् सूर्यः, 'तयाणंतरा' इति तस्माद्विवक्षितादनन्तरान्मण्डलात्'तयाणंतर' मितितद्विवक्षितमनन्तरं मण्डलं संक्रामन् संक्रामन् एकैकस्मिन् मण्डले मुहूर्तस्य द्वौ द्वावेकषष्टिभागौ दिवसक्षेत्रस्य निर्वेष्टयन् निर्वेष्टयन् हापयन् हापयन् रजनिक्षेत्रस्य प्रतिमण्डलं द्वौ द्वौ मुहूर्तस्यैकषष्टिभागौ अभिवर्द्धयन् अभिवर्द्धयन्त्र्यशीत्यधिकशतततमे अहोरात्रे प्रथमज्ञण्मासपर्यवसानभूते सर्वबाह्य मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति 'ता-' इति--ततो यदा तस्मिन् काले अहोरात्ररूपेणमिति प्रागिव सूर्यः सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलान्ममण्डलपरिभ्रमणगत्या शनैः शनैः निष्क्रम्य सर्वबाह्यं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा सर्वाभ्यन्तरमण्डलं 'प्रणिधाय' भर्यादीकृत्य द्वितीयान्मण्डलादारभ्येत्यर्थः, एकेन त्र्यशीत्यधिकेन रात्रिन्दिवशतेन त्रीणि षट्पष्टीनिषट्षष्ट्यधिकानि मुहूर्त्तकषष्टिभागशतानि दिवसक्षेत्रस्य 'निर्वेष्ट्य' हापयित्वा रजनिक्षेत्रस्य तान्येव त्रीणि मुहूर्त्तकषष्टिभागशतानि षट्षष्ट्यधिकानि अभिवद्ध्यं चार चरति, तदा णमिति पूर्ववत्, उत्तमकाष्ठाप्राप्तापरमप्रकर्षप्राप्ता उत्कर्षिकाउत्कृष्टा अष्टादशमुहूर्ता अष्टादशमुहूर्तप्रमाणा रात्रिर्भवति, जघन्यश्च द्वादशमुहूर्तप्रमाणो दिवसः, एषा प्रथमा षण्मासी, यदिवा--एतत् प्रथम षणमासं, सूत्रे च पुंस्त्वनिर्देश आर्षत्वात्, एष त्र्यशीत्यधिकशततमोऽहोरात्रः प्रथमस्य षण्मासस्य पर्यवसानम्। 'से पविसमाणे' इत्यादि, सः-सूर्यः सर्वबाह्यान्मण्डलादभ्यन्तरं प्रविशन् द्वितीयं षण्मासमाददानःप्रतिपद्यमानो द्वितीयस्य षण्मासस्य प्रथमे अहोरात्रे सर्वबाह्यान्मण्डलादगिनन्तर द्वितीयं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति 'ता' इतितत्र यदा सूर्यो बाह्यात्-सर्वबाह्यान्मण्डलादक्तिनं द्वितीयं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा द्वाभ्यां मुहूर्त्तकषष्टिभागाभ्यामूना अष्टादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति, द्वाभ्यां मुहूर्त कषष्टिभागाभ्यामधिको द्वादशमुहूर्तप्रमाणो दिवसः, ततस्ततोऽपि द्वितीयान्मण्डलादभ्यन्तरं स सूर्यः प्रविशन् द्वितीयस्य षण्मासस्य द्वितीये अहोरात्रे 'बाहिरं तच्चं' ति सर्वबाह्यान् मण्डलादत्किनं तृतीयं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति 'ता जया ण' मित्यादि, ततो यदा णमिति पूर्ववत्, सूर्यः सर्वबाह्यान्मण्डलादर्वाक्तनं, तृतीयं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा अष्टादशमुहूर्ता रात्रिश्चतुर्भिः 'एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं ति प्राकृतत्वाद् यत्यासेन पदोपन्यासः, एवं तु यथास्थितपदनिर्देशो द्रष्टव्योमुहूर्त्तकषष्टिभागैरूना भवति, चतुर्भिर्मुहूर्तकषष्टिभागैरधिको द्वादशमुहुर्ती दिवसः। एवं खलु एएण' मित्यादि,एवं- | उक्तनीत्याखल्वेतेनअनन्तरोदितेनोपायेन प्रतिमण्डलं रात्रिदिवसविष मुहुर्त्तकषष्टिभागद्वयहानिवृद्धिरूपेण प्रविशन् मण्डलपरिभ्रमणगत्या शनैः शनैरुत्तराभिमुखं गच्छन् 'तयाणंतराउ' ति तस्ताद्विवक्षितान्मण्डलात् 'तयाणंतर मिति तद्विवक्षितमनन्तरं मण्डलं संक्रामन् एकैकस्मिन् मण्डले मुहूर्तस्य द्वौद्वावेकषष्टिभागौरजनिक्षेत्रस्य निर्वेष्टयन दिवसक्षेत्रस्य प्रतिमण्डलं द्वौ द्वौ मूहूर्तस्यैकषष्टिभागौ अभिवर्द्धयन् अभिवर्द्धयन् त्र्यशीत्यधिकशततमे अहोरात्रे द्वितीयषणूसपर्यवसानभूते सव्वन्भतरं' ति सर्वाभ्यन्तरमण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति, 'ता' इति-ततो यदायस्मिन् काले णमिति पूर्ववत्, सूर्यः सर्वबाह्यान्मण्डलान्मण्डलपरिभ्रमणगत्या शनैः शनैरभ्यन्तरं प्रविश्य सर्वाभ्यन्तरंमण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा सर्वबाह्यमण्डलं 'प्रणिधाय' मर्यादीकृत्य तदवीक्तनाद् द्वितीयान्मण्डलादारभ्येत्यर्थः, एकेन त्र्यशीत्यधिकेन रात्रिदिवशतेन त्रीणि षट्पष्टीनि-षट्षष्ट्यधिकानि मुहूर्त्तस्यैकषष्टिभागशतानि रजनिक्षेत्रस्य निर्वेष्टय हापयित्वा दिवसक्षेत्रस्य च तान्येव त्रीणि षट्षष्टीनि मुहूर्त्तकषष्टिभागशतानि अभिवयं चारं चरति, तदा णमिति वाक्यलंकारे, उत्तमकाष्ठाप्राप्तः-परमप्रकर्षप्राप्त उत्कर्षकः उत्कृष्टोऽष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवति, जघन्या च द्वादशमुहूर्ता रात्रिः, एतद् द्वितीयं षण्मासं, यदि वा-एषा द्वितीया षण्मासी, सूत्रे पुंस्त्वनिर्देश आर्षत्वात् एष षट्षष्ट्यधिकत्रिशततमोऽहोरात्रो द्वितीयस्य षण्मासस्य पर्यवसानभूतः, 'एष एवंप्रमाण आदित्यसंवत्सरः, एषषट् षष्ट्यधिकत्रिशततमोऽहोरात्रोः 'आदित्यस्य' आदित्यसम्बन्धिनः संवत्सरस्य पर्यवसानम्। सम्प्रत्यपसंहारमाह- 'इह खलु तस्सेव' मित्यादि, यस्मादेवम् 'इति' तस्मात्कारणात्तस्यादित्यस्य-आदित्यसंवत्सरस्य' मध्ये 'एवम्' उक्तेनप्रकारेण सकृद्' एकवारमष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवति सकृचाष्टादशमुहूर्ता रात्रिः, तथा सकृद् द्वादशमुहूर्तो दिवसो भवति सकृय द्वादशमुहूर्ता रात्रिः, तत्र प्रथमे षण्मासे अस्त्यष्टादशमुहूर्ता रात्रिः, साच प्रथमषण्मासपर्यवसानभूतेऽहोरात्रे, नत्वष्टादशमुहूर्तो दिवसः, तथा अस्ति तस्मिन्नेव प्रथमे षण्मासे द्वादशमुहूर्तो दिवसः, सोऽपि प्रथमषण्मासपर्यवसानेऽहोरात्रे, नतु द्वादशमुहूर्ता रात्रिः, द्वितीये षण्मासेऽस्त्येतद् यदुत अष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवति, स च द्वितीयषण्मासपर्यवसानभूतेऽहोरात्रे नत्वष्टादशमुहूर्त रात्रिः, तथा अस्त्येतत् यदुत तस्मिन्नेव द्वितीयषण्मासे अस्ति द्वादशमुहूर्ता रात्रिः, साऽपि तस्मिन्नेव द्वितीयषण्मासपर्यवसानभूतेऽहोरात्रे,नपुनरस्त्येतत् यदुत द्वादशमुहूर्तो दिवसो भवतीति, तथा प्रथमे वा षण्मासे नास्त्येतत्यदुतपञ्चदशमुहूर्ता रात्रिः, किंसर्वथा नेत्याह-नान्यत्ररात्रिन्दिवानांवृद्ध्यपवृद्धेन्यत्र नभवति, रात्रिन्दिवानां तु वृद्ध्यपवृद्धौ च भवत्येव पञ्चदशमुहूर्तारात्रिः पञ्चदशमुहूर्तो दिवसः, ते च वृद्ध्यपवृद्धी रात्रिन्दिवानां कथं भवत इत्याह-'मुहत्ताणं चयोवचएण' मुहूर्तानां पञ्चदशसङ्ख्यानां चयोपचयेन चयेनधिकत्वेन वृद्धिः, अपचयेन-हीनत्वेनापवृद्धिः। इयमत्र भावनापरिपूर्णपञ्चदशमुहूर्तप्रमाणे दिवसरात्रीन भवतो, हीनाधिकपञ्चदशमुहूर्तप्रमाणे तु दिवसरात्री भवतः, एवम् अन्नत्थ वा अणुवायगईए, इति, वाशब्दः प्रकारान्तर
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________________ राइ 506 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 राइ सूचने अन्यत्रानुपातगतेः-अनुसागरगतेः पञ्चदशमुहूर्तो दिवसः पञ्चदशमुहूर्ता वा रात्रिन भवति, अनुसारगत्या तु भवत्येव / सा चानुसारगतिरेवम्-यदि त्र्यशीत्यधिकशतमे मण्डले षण्मुहूर्ता वृद्धौ हानौ वा प्राप्यन्ते ततोऽर्वाक् तदर्द्धगतो त्रयो मुहूर्ताः प्राप्यन्ते, ज्यशीत्यधिकशतस्य वाऽर्द्ध सार्द्धा एकनवतिः, तत आगतम्-एकनवतिसंख्येषु मण्डलेषु गतेषु द्विनवतितमस्य च मण्डलस्या? गते पञ्चदश मुहूर्ताः प्राप्यन्ते, ततस्तत ऊर्ध्व रात्रिकल्पनायां पञ्चदशमुहूर्तो दिवसः, पञ्चदशमुहूर्त्ता च रात्रिर्लभ्यते नान्यथेति, 'गाहाओ भणितव्याओ' त्ति अत्र अनन्तरोक्तार्थसमाहिका अस्या एव सूर्यप्रज्ञत्पेर्भद्रबाहुस्वामिना या नियुक्तिः कृता तत्प्रतिबद्धा अन्या वा काश्चन ग्रन्थान्तरसुप्रसिद्धा गाथा वर्तन्ते ता भणितव्याः-पठनीयाः, ताश्च सम्प्रति क्वापि पुस्तकेषु न दृश्यन्त इति व्यवच्छिन्नाः सम्भाव्यन्ते ततो न कथयितुं व्याख्यातुंवा शक्यन्ते, यो वा यथा सम्प्रदायादवगच्छतितेन तथा शिष्येभ्यः कथनीया व्याख्यानीयाश्चेति। सू० प्र० 1 पाहु०। सम्प्रति द्वितीयमर्द्धमण्डलसंस्थितिप्रतिपादक विवक्षुरिदं प्रश्नसूत्रमाहता कहं ते अद्धमंडलसंठिती आहिताति वदेज्जा ?, तत्थ खलु इमे दुवे अद्धमंडलसंठिती पण्णत्ता, तं जहा-दाहिणा चेव अद्धमंडलसंठिती, उत्तरा चेव अद्धमंडलसंठिती। ता कहं ते दाहिणा अद्धमंडलसंठिती आहिताति वदेजा ?, ता अयण्णं जंबुद्दीवे दीवे सव्वदीवसमुहाणं जाव परिक्खेवेणं ता जया णं सूरिए सव्वन्भंतरं दाहिणं अद्धमंडलसंठितिं उवसंकमिता चारं चरति तदाणं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्तेदिवसे भवति, जहणिया दुवालसमुमुत्ता राती भवति,से णिक्खममाणे सूरिए एवं संवच्छरं अयमाणे पढमंसि अहोरत्तंसि दाहिणाए अंतराए भागाते तस्सादिपदेसाते अन्भितराणंतरं उत्तरं अद्धमंडलसंठिति उवसंकमिता चारं चरति, जताणं सूरिए अन्मिंतराणंतरं उत्तरं अद्धमंडलसंठिति उवसंकमित्ता चारं चरति तदा णं अट्ठारसमुहुत्ते(हिं) दिवसे भवति दोहिं एगट्ठभागमुहुत्तेहिं ऊणे दुवालसमुहुत्ता राती दोहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं अधिया से णिक्खममाणे सूरिए दोचंसि अहोरत्तंसि उत्तराए अंतराए भागाते तस्सादिपदेसाए अभिंतरं तचं दाहिणं अद्धमंडलसंठितिं उवसंकमिता चारं चरति / ता जया णं सरिए अभिंतरं तचं दाहिणं अद्धमंडलसंठिति उवसंकमित्ता चार चरति, तदा णं अट्ठारसमुहुत्ते (हिं) दिवसे भवति चउहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं ऊणे दुवालसमुहुत्ता राई भवति चउहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं अधिया।। एवं खलु एएणं उवाएणं णिक्खममाणे सूरिए तदणंतरातोऽणंतरंसितंसितंसि देसम्मितं तं अद्धमंडलसंठितिं संक्रममाणो संकममाणो दाहिणाए दाहिणाए अंतराए भागाते तस्सादिपदेसाते, सव्वबाहिरं उत्तरं अद्धमंडलसंठिति उवसंकमित्ता चारं चरति / ता जया णं सूरिए सव्वबाहिरं उत्तरं अद्धमंडलसंठिति उवसंकमित्ता चारं चरति तदा णं उत्तमकट्ठपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई मवति, जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवति / एस णं पढमे छम्मासे, एस णं पढमछम्मासस्स पज्जवसाणे, से पविसमाणे सूरिए दोचं छम्मासं अयमाणे पढमंसि अहोरत्तंसि उत्तराते अंतरभागाते तस्सादिपदेसाने बाहिरणंतरं दाहिणं अद्धमंडलसंठिति उवसंकमित्ता चारं चरति, ता जया णं सरिए बाहिराणं तरं दाहिणं अद्धमंडलसंठितिं उवसंकमित्ता चारं चरति तदाणं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवति दोहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं ऊणा, दुबालसमुहुत्ते दिवसे भवति दोहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं अहिए, से पविसमाणे सूरिए दोचंसि अहोरत्तंसि दाहिणातं अंतराए भागाते तस्सादिपदेसाए बाहिरंतरं तचं उत्तरं अद्धमंडलसंठिति उवसंकमित्ता चारं चरति, ता जया णं सूरिए बाहिरं तचं उत्तरं अद्धमंडलसंठिति उवसंकमित्ता चार चरति तदा णं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवति चउहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहि अधिया एवं खलु एतेणं उवाएणं पविसमाणे सूरिएतदाणंतराउ तदाणंतरं तंसि तंसि देसंसि(म्मि) तं तं अद्धमंडलसंठिति संकममाणे उत्तराए अंतराभागाते तस्सादिपदेसाए सव्वमंतरं दाहिणं अद्धमंठलसंठिति उवसंकमित्ता चारं चरति, ता जया णं सूरिए सव्वन्मंतरं दाहिणं अद्धमंडलसंठिति उवसंकमित्ता चार चरति तदा णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति,जहणियादुवालसमुहुत्ता राईभवति, एसणंदोचेछम्मासे, एसणंदोच्चस्स छम्मासस्सपज्जवसाणे, एसणं आदिघे संवच्छरे, एस णं आदिघसंवच्छरस्स पजवसाणे / (सूत्र-१२) ता कहं ते उत्तरा अद्धमंडलसंठिती आहिताती वेदज्जा?, ता अयं णं जंबुद्दीवे दीवे सव्वदीव जाव परिक्खेवेणं, ता जता णं सूरिए सव्वन्मंतरे उत्तरं अद्धमंडलसंठिति उवसंकमित्ता चारं चरति तदा णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति जहाण्णिय दुवालसमुहुत्ता राई भवति,जहादाहिणा तहाचेवणवरं उत्तरहिओ अभिंतराणंतरंदाहिणं उवसंकमइ, दाहिणातो अभिंतरं तचं उत्तरं उवसंकमति / एवं खलु एएणं उवाएणं० जाव सव्वबाहर दाहिणं उवसंकमंति, सव्वबाहिरंदाहिणं उवसंकमित्तादाहिणाओबाहिराणंतरं उत्तर उवसंकमति, उत्तरातो बाहिरं तचं दाहिणं तच्चातो
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________________ राइ 507 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 राइ दाहिणातो संकममाणे २०जावसवमंतरं उवसंकमति, तहेव संस्थितेरुक्तप्रकारेण स सूर्यो निष्क्रमान् अभिनवस्य सूर्यसंवत्सरस्य एस णं दोचे छम्मासे एस णं दोबस्स छम्मासस्स पछवसाणे, द्वितीयेऽहोरात्रे उत्तरस्मादुत्तरदिग्भाविनोऽन्तराद् द्वितीयोत्तरार्द्धमण्डलएस णं आदिचे संवच्छरे, एस णं आदिचस्स संवच्छरस्स गताष्टाचत्वारिशद्योजनकषष्टिभागाभ्यधिकयोजनद्वयप्रमाणापान्तरालरूपाद् पनवसाणे गाहाले। (सूत्र-१३) विनिःसृत्य 'तस्साइपएसाए' इति तस्य-दक्षिणदिग्भाविनस्तृतीयस्या'ता कहं ते' इत्यादि, 'ता' इति प्रक्रमार्थः, पूर्ववद्भावनीयः, कथं- र्द्धमण्डलस्यादिप्रदेशमाश्रित्य 'अभिंतरंतच्यं तिसर्वाभ्यन्तरमण्डलकेन प्रकारेण भगवन् ! ते-तव मते अर्द्धमण्डलसंस्थितिः अर्द्धमण्डल- मपेक्ष्यतृतीयांदक्षिणामर्द्धमण्डलसंस्थितिमुषसंक्रम्य चारं चरति, अत्रापि व्यवस्था आ,यातेति वदेत् पृच्छतश्चायमभिप्रायः-इह एकैकः सूर्य तथा चारं चरति आदिप्रदेशादू_ शनैः शनैरपर मण्डलाभिमुखं येन एकैकेनाहोरात्रेणैकैकस्य मण्डलस्यार्द्धमेव भ्रमणेन पूरयति, ततः तस्याहोरात्रस्य पर्यन्ते तन्मण्डलगतानष्टाचत्वारिंशद्योजनकषष्टिभासंशयः कथमेकैकस्य सूर्यस्य प्रत्यहोरात्रमेकैकार्द्धमण्डलपरिभ्रमण- गानपरे च द्वे योजने अपहाय चतुर्थस्योत्तरार्द्धमण्डलस्य सीमायामव्यवस्थेति, अत्र भगवान् प्रत्युत्तरमाह-'ता खलु' इत्यादि, 'ता' इति वतिष्ठते, 'ताजयाण' मित्यादि, ततो यदा णमिति पूर्ववत्सर्वाभ्यन्तरातत्रार्द्धमण्डलव्यवस्थाविचारे खलुनिश्चितमिमे द्वे अर्द्धमण्डलसंस्थिती न्मण्डलातृतीयांदक्षिणामर्द्धमण्डलसंस्थितिमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा मया प्रज्ञप्ते, तद्यथा-एका दक्षिणा चैव-दक्षिणदिग्भाविसूर्यविषया अष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवति चतुर्भिर्मुहूर्तेकषष्टिभागैरूनः, द्वादशमुहूर्ता अर्द्धमण्डलसंस्थितिः-अर्द्धमण्डलव्यवस्था, द्वितीया उत्तराचैव-उत्तर- रात्रिः चतुर्भिर्मुहूर्तकषष्टिभागैरभ्यधिका, 'एवं खलु' इत्यादि, एवम्दिग्भाविसूर्यविषया अर्द्धमण्डलसंस्थितिः, एवमुक्तेऽपि भूयः पृच्छति- उक्तनीत्या खलुनिश्चितमेतेनोपायेन प्रत्यहोरात्रमष्टा-चत्यारिंशद्योजनै'ता कहं ते इत्यादि, इह द्वे अपि अर्द्धमण्डलसंस्थिति ज्ञातव्ये तत्रेदं कषष्टिभाग्याधिकयोजनद्वयविकम्पनरूपेण निष्क्रामन् सूर्यस्तदनन्ततावत्पृच्छामि-कथं त्वया भगवन् ! 'दक्षिणा दक्षिणदिग्भाविसूर्यविषया रादर्द्धमण्डलात्तदनन्तरंतस्मिन् 2 देशे-दक्षिणपूर्वभागे उत्तरपश्चिमभागे अर्द्धमण्डलसंस्थितिराख्याता इति वदेत् ?, भगवानाह-'ता अयण्ण' वा तां ताम्अर्द्धमण्डसंस्थितिं संक्रामन् 2 व्यशीत्याधिकशततमाहोमियादि, इदं जम्बूद्वीपवाक्यं प्रागिव स्वयं परिपूर्ण परिभावनीयम्, 'ता रात्रपर्यन्ते गते दक्षिणस्मात्- दक्षिणदिग्भाविनोऽन्तरात् व्यशीत्यजयाण' मित्यादि, तत्र यदा, णमिति वाक्यालंकारे, सूर्यः सर्वाभ्यन्तरां धिकशनममण्डलगताष्टाचत्वारिंशद्योजनकषष्टिभागाभ्यधिकतदनन्तरसर्वाभ्यन्तरमण्डलगतां दक्षिणामर्द्धमण्डलसंस्थितिमुपसंक्रम्य चारं योजनद्वयप्रमाणादपान्तरालरूपाद्भगात् 'तस्साइपएसाए' इति तस्यचरति तदा णमिति पूर्ववत्, उत्तमकाष्ठाप्राप्तः परमप्रकर्षप्राप्तः, उत्कर्षक- सर्वबाह्यमण्डलगतस्योत्तरस्यार्द्धमण्डलादिप्रदेश्माश्रित्य सर्वबाह्याउत्कृष्टोद्धष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवति, जघन्या च द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिः। मुत्तरार्द्धमण्डलसंस्थितिमुपसक्रम्या चारं चरति, सचादिप्रदेशादूर्ध्व शनैः इह सर्वाभ्यन्तरेमण्डले प्रविष्टः सन् प्रथमक्षणादूचं शनैः शनैः सर्वाभ्य- 2 सर्वबाह्यानन्तराभ्यन्तरदक्षिणार्द्धमण्डलाभिमुखं तथा कथञ्चनापि न्तरानन्तरद्वितीयमण्डभिमुखं तथा कथञ्चनाऽपि मण्डलगत्या परिभ्र- चरति येन तस्याहोरात्रस्य पर्यन्ते सर्वबाह्यानन्तराभ्यन्तरदक्षिणार्द्धमति येनाहोरात्रपर्यन्ते सर्वाभ्यन्तरमण्डलगतान् अष्टाचत्वारिंशदेकषष्टि- मण्डलसीमायां भवति, ततो यदा णमिति पूर्ववत् सूर्यः सर्वबाह्याभागानपरे च द्वे योजने अतिक्रम्य सर्वाभ्यन्तरानन्तरद्वितीयोत्तरार्द्ध- / मुत्तरार्द्धमण्डलसंस्थितिमुपसंक्रम्य चारं चरति, तत्र उत्तमकाष्ठा प्राप्ता मण्डलसीमायां वर्त्तते, तथा चाहं--'से निक्खममाणे ' इत्यादि स सूर्यः (परमप्रकर्ष गता) उत्कर्षिका-उत्कृष्टा अष्टादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति, सर्वाभ्यन्तरगतात्प्रथमक्षणादूर्ध्वंशनैः शनैर्निष्क्रामन् अहोरात्रेऽतिक्रान्ते जघन्यश्च द्वादशमुहूर्तो दिवसः, 'एस ण' मित्यादि, निगमनवाक्यं सति नवम्-अभिनवं संवत्सरमाददानो नवस्य प्रथमेऽहोरात्रे दक्षिण- प्राग्वत्, 'स पविसमाणे' इत्यादि, सूर्यः सर्वबाह्योत्तरार्द्धमण्डलादिस्माद्-दक्षिणदिग्भाविनोऽनन्तरात्-सर्वाभ्यन्तरमण्डलगताष्टाचत्वा- प्रदेशादूर्ध्वं शनैः शनैः सर्वबाह्यानन्तरद्वितीयदक्षिणार्द्धमण्डलाभिमुख रिंशद्योजनैकषष्टिभागाभ्यधिकयोजनद्वयप्रमाणापान्तरालरूपाद्विनिर्गत्य संक्रामन् तस्मिन्नेवाहोरात्रेऽतिक्रान्ते सति अभ्यन्तरं प्रविशन् द्वितीयं 'तस्सादिपएसाए' इति तस्य सर्वाभ्यन्तरानन्तरस्योत्तरार्द्धमण्डलस्या- षण्मासमाददानो द्वितीयस्य षण्मासस्य प्रथमेऽहोरात्रे उत्तरस्मादुत्तरदिदिप्रदेशमाश्रित्याभ्यन्तरानन्तरांसर्वाभ्यन्तरमण्डलानन्तरामुत्तरार्मद्ध- ग्भाविसर्वबाह्यमण्डलगतादन्तरात् सर्वबाह्यान्तरार्द्धमण्डलगताष्टचत्वामण्डलसंस्थितिमुपसंक्रम्य चारं चरति, स चादिप्रदेशादूर्ध्व शनैः शनैर- रिंशद्योजनकषष्टिभागाभ्यधिकतदनन्तराग्भिावियोजनद्वयप्रमाणादपरमण्डलाभिमुखमत्रापि तथा कथञ्चनापि धरति येन तस्याहोरात्रस्य पान्तरालरूपाद् भागात् 'तस्साइपएसाए' इति तस्य-दक्षिणदिग्भाविनः पर्यन्ते तदपि मण्डलमन्ये च द्वे योजने परित्यज्य दक्षिणदिग्भविन- सर्वबाह्यानन्तरस्य दक्षिणस्यार्द्धमण्डलस्यादिप्रदेशमाश्रित्य 'बाहिराणंस्तृतीयस्य मण्डलस्य सीमायां भवति, 'ता जया ण' मित्यादि ततो तर ति सर्वबाह्यस्य मण्डलस्यानन्तरामभ्यन्तरां दक्षिणामर्द्धमण्डलयदा सूर्यः सर्वाभ्यन्तरानन्तरां द्वितीयामुत्तरामर्द्धमण्डलसंस्थितिमुप- संस्थितिमुपसंक्रम्यचारंचरति, अत्रापिचार आदिप्रदेशादूर्ध्वं तथा कथश्चसंक्रम्य चारं चरति तदा दिवसोऽष्टादशमुहूर्तों द्वाभ्यां मुहूर्त्तकषष्टिभागा- नाप्यभ्यन्तराभिमुखं वर्तते येनाहोरात्रपर्यन्ते सर्वबाह्यन्मण्डलादभ्यभ्यामूनो भवति, जघन्या च द्वादशमुहुर्ता रात्रिः द्वाभ्यां मुहूर्तकषष्टि- न्तरस्य तृतीयार्द्धमण्डलस्य सीमायां भवति,'ता जया ण' मित्यादि, ततो भागाभ्यामभ्याधिका, ततस्तस्या अपि द्वितीयस्या उत्तरार्द्धमण्डल | यदा सूर्यो बाह्यानन्तरासर्वबाह्यानन्तरां दक्षिणाममर्द्धमण्डलसंस्थितिमुप
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________________ राइ 508 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 संक्रम्य चारं चरति तदा अष्टादशमुहूर्ता रात्रिीभ्यां मुहूर्त्तकषष्टिभागाभ्यामूना भवति, द्वादशमुहूर्तप्रमाणो दिवसो द्वाभ्यां मुहूर्त्तकषष्टिभागाभ्यामधिकः 'से पविसमाणे इत्यादि, ततस्तस्मिन्नहोरात्रेऽतिक्रान्तेसति सूर्योऽभ्यन्तरं प्रविशन् द्वितीयस्य षण्मासस्य द्वितीयेऽहोरात्रे दक्षिणस्माद्भागाद्दक्षिणदिग्भाविनोऽन्तराद्दक्षिणदिग्भाविसेर्वबाह्यानन्तरद्वितीयमण्डलगताष्टाचत्वारिंशद्योजनकषष्टिभागाभ्यधिकतदनन्तराग्भिावियोजनद्वयप्रमाणादपान्तरार्वाग्भावियोजनद्वयप्रमाणापान्तरालरूपाद्भागाद्विनिःसृत्य 'तस्साइपएसाए' इति तस्यसर्वबाह्यादभ्यन्तरस्य तृतीयस्योत्तरार्द्धमण्डलस्यादिप्रदेशात्-आदिप्रदेशमाश्रित्य बाह्यतृतीयां सर्वबाह्याया अर्द्धमण्डलसंस्थितेस्तृतीया-मुत्तरामर्द्धमण्डलसंस्थतिमुपसंक्रम्य चारं चरति, अत्रापि चार आदिप्रदेशादारभ्य शनैः शनैरपरार्द्धमण्डलाभिमुखं तथा कथंचनापि प्रवर्त्तमानो द्रष्टव्यो येन तदहोरात्रपर्यन्ते सर्वबाह्यादर्द्धमण्डलात्तृतीयामक्तिनीमर्द्धमण्डलसंस्थितिमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा अष्टादशमुहूर्ता रात्रिश्चतुर्भिर्मुहूर्तकषष्टिभागैरूना भवति, द्वादशमुहूर्तश्च दिवसश्चतुर्भिमुहूर्तकषष्टिभागैरभ्यधिकः, 'एव' मित्यादि, एवम्-उत्कप्रकारेण खलुनिश्चितमेतेनोपायेनप्रत्यहोरात्रमभ्यन्तरमष्टाचत्वारिंशद्योजनकषष्टिभागयोजनद्वय-विकम्पनरूपेण शनैः शनैरभ्यन्तरं प्रविशन् सूर्यस्तदनन्तराद् अर्द्धमण्डलात् तदनन्तरां तस्मिन् 2 प्रदेशे दक्षिणपूर्वभागे उत्तरापरभागे वा तांतामर्द्धमण्डलसंस्थितिं संक्रामन् द्वितीयस्य षण्मासस्य व्यशीत्यधिकशतमाहोरात्रपर्यन्ते गते उत्तरस्मादुत्तरदिग्भाविनोऽन्तरात्सर्वबाह्यमण्डलमपेक्ष्य यद् ह्यशीत्यधिकशततसं मण्डले तद्गताष्टाचत्वारिंशद्योजनकषष्टिभागाभ्यधिकतदनन्तराभ्यन्तरयोजनद्वयप्रमाणादपान्तरालरूपाद्भागात् 'तस्साइपएसाए' इति तस्य-सर्वाभ्यन्तरमण्डलगतस्य दक्षिणस्यार्द्धमण्डलस्यादिप्रदेशमाश्रित्य सर्वाभ्यन्तरां दक्षिणामर्द्धमण्डलसंस्थितिमुपसंक्रम्य चार चरति, स चादिप्रदेशादूर्ध्वं शनैः शनैः सर्वाभ्यन्तरानन्तराबाह्योत्तरार्द्धमण्डलाभिमुखं तथा कथञ्चनापि चारं प्रतिपद्यते येन तस्याहोरात्रस्य पर्यन्ते सर्वाभ्यन्तरानन्तरस्योत्तरस्यार्द्धमण्डलस्य सीमायां भवति, 'ता जया ण ' मित्यादि, तत्र यदा सूर्यः सर्वाभ्यन्तरां दक्षिणामर्द्धमण्डलसंस्थितिमुपनसंक्रम्य चारं रति तदा उत्तमकाष्ठाप्राप्त उत्कर्षकः-उत्कृष्टः अष्टादशमुहूर्तप्रमणो दिवसो भवति, सर्वजघन्या च द्वादशमुहूर्ता रात्रिः ‘एस ण मित्यादि, निगमनवाक्यं प्राग्वत्, तदेवमुक्ता दक्षिणा अर्द्धमण्डलसंस्थितिः। साम्प्रतमुत्तरामर्द्धमण्डलसंस्थितिं जिज्ञासुः प्रश्नयति 'ता कहं ते' इत्यादि, एतत्प्राग्वद् व्याख्येयम्, "ता जयाण, मित्यादि, ततो यदा सूर्यः सर्वाभ्यन्तरामुत्तरामर्द्धमण्डलसंस्थितिमुफ्संक्रम्य चारं चरति तदा उत्तमकाष्ठाप्राप्त उत्कर्षकोऽष्टदशामुहूर्तो दिवसो भवति, जघन्या च द्वादशमुहूर्ता रात्रिः, 'जहा दाहिणा तह चेव' त्ति यथा दक्षिणा अर्द्धमण्डलव्यवस्थितिः प्रागभिहिता तथा चैव-तेनैव प्रकारेणैषाऽप्युत्तरार्द्धमण्डलव्यवस्थितिराख्येया, नवरम् 'उत्तरे ठिओ अभिंतराणंतरं दाहिण उवसंकमइ, दाहिणाओ अभिंतरं तच उत्तरं उवसंकमइ, एएणं उवाएणं० जाव सव्वबाहर दाहिणं उवसंकसइ, सव्वबाहिराओ बाहिराणंतरं उत्तरं उवसंकमइ, उत्तराओ बाहिरंतचंदाहिणं तच्चाओदाहिणाओ संकममाणे २०जाव सव्वन्भंतरमुत्तरं उवसंकमइ इति, नवरमयं दक्षिणार्द्धमण्डलव्यवस्थितेरस्यामुत्तरार्द्धमण्डलव्यवस्थायां विशेषोयदुत सर्वाभ्यन्तरे उत्तरस्मिन्नर्द्धमण्डले स्थितः सन् तस्मिन्नहोरात्रेऽतिक्रान्ते नवं संवत्सरताददानः प्रथमस्य षण्मासस्य प्रथमेऽहोरात्रे अभ्यन्तरानन्तरां सर्वाभ्यन्तरस्य मण्डलस्यानन्तरां दक्षिणामर्द्धमण्डलसंस्थितिमुपसंक्रामति, तस्मिन्नहोरात्रेद्धतिक्रान्ते प्रथमस्य षण्मसस्य द्वितीयहोरात्रेद्धभ्यन्तरतृतीयं सर्वाभ्यन्तरस्य मण्डलस्य तृतीयामुत्तरामर्द्धमण्डलसंस्थितिमुपसंक्रामति,एवं खल्वनेनोपायेन प्रागिव तावद्द्वक्तव्यं यावत्प्रथमस्य षण्मासस्य त्र्यशीत्यधिकशततमे अहोरात्रे पर्यवसनभूते सर्वबाह्यां दक्षिणामर्द्धमण्डलसंस्थितिंपुसंक्रामति, एतत्प्रथमस्य षण्मासस्य पर्यवसानं, ततो द्वितीयस्य षण्मासस्य प्रथमेऽहोरात्रबाह्यनन्तरां सर्वबाह्यस्य मण्डलस्यक्तिनींमुत्तरामर्द्धसंस्थितिमपुसंक्रामति ततस्तस्मिन्नहोरात्रे द्वितीयस्य षण्मासस्याऽहोरात्रे उत्तरस्या अर्द्धमण्डलसंस्थितेर्विनिःसृत्य बाह्यतृतीयां सर्वबाह्यस्य मण्डलस्याक्तिनी तृतीयां दक्षिणामर्द्धमध्डलसंस्थितिमपसंक्रामति, तस्याश्च तृतीयस्या दक्षिणस्या अर्द्धमण्डलसंस्थितिमुपसंक्रामति, तस्याश्च तृतीयस्या दक्षिणस्यामर्द्धमण्डलसंस्थितिमुपसंक्रामपित, तस्याश्च तृतीसस्या दखिणस्या अर्द्धमण्डलसंस्थि तेरेकैकेनाहोररात्रेणैकामर्द्धमण्डलसंस्थितिंसंक्रामन् 2 तावदवसेयोयाव द्वितीयषण्मासपर्यवसानभूतेऽहोरात्रे सर्वाभ्यन्तरामुत्तरारामर्द्धमण्डल संस्थितिमुपसंक्रामति, तदेवं दक्षिणस्या अर्द्धमण्डलसंस्थितेः उत्तरस्यामर्द्धमण्डलसंस्थिती नानात्वमुपदर्शितम्, एतदनुसारेण चस्वयमेव सूत्रालापको यथावस्थितः परिभावनीयः, स चैवम् "से निक्खममाणे सूरिए नवं संवच्छरमयमाणे पढमंसि अहोरत्तंसिम उत्तराए अंतराए भागाएतस्साइपएसाए अभिंतराणंतरं दाहिणं अद्धमंडलं संठिति उवसंकमिता चारं चरति, जया णं सूरिए अभिंतराणंतरं दाहिणं अद्धमंडलसंठिति उवसंकमित्ता चारं चरति तया णं अट्ठारसमुहत्तै दिवसे भवति दोहिं एगट्ठिभागमुहत्तेहिं ऊणे दुवालसमुहत्ता राई भवतिदोहि एगट्ठिभागमुहत्तेहिं अंहिंया, से निक्खममाणे सूरिए दोचंसि अहोरत्तंसि दाहिणाए अंतराए भागाए तस्सादिपदेसाए अभिंतरं तच्चं उत्तरं अद्धमडलसंठिइं उवसंकमित्ता चारं चरति, तया णं अट्ठारसमुहत्तै दिवसे भवति चउहि एमद्विभागमुहूत्तेहिं ऊणे, दुवालसमुहुत्ता राई भवति चउहिं एगद्विभागमुहुत्तेहिं अहिया, एवं खलु एएणं उवाएणं निक्खममाणे सूरिएतयाणंतराओतयाणंतरंतंसितंसिदेसंसितंतं अद्धमंड लसंठिई संकममाणे उत्तराए भागाए तस्साइपएसाए सव्ववाहिरं दसहिणमद्धमंडलसंठिई उवसंकमित्ता चारं चरति, ता जया णं सूरिए सव्वबाहिरं दाहिणं अद्धमंडलसंठिइमुवसंकमित्ता चारं चरति तया णं उत्तमकट्टपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहत्तत राई भवति, जहन्नए दुवालसमुहुत्ते दिवसेभवइ, एसणंपढमेछम्मासेएसणंपदमस्सम्मासस्सपज्जवसाणे, से पविसमाणे सूरिएदोचं छम्मासमयमाणेपढमसिअहोरात्तंसिदाहिणाएअंतराए भागाए तस्साइपएसाए बाहिराणंतरं उत्तरं अद्धमंडलसंठिइमुवसंकमित्ता चार चरति, ता जया ण सूरिए बाहिराणंतरं उत्तरं अध्दमंडलसंठिइमुक्संकमि
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________________ राइ 506 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 राइभोयण त्ता चार चरति तयाणं अट्ठारसमुहत्ता राई भवइ दोहि य एगट्ठिभागमुहत्तेहिं ऊणा दुवालसमुहत्ते दिवसे भवइ चउ(दो)हिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं अहिए, एवं खलु एएणं उवाएणं पविसमाणे सूरिए तयाणंतराओ तयाणंतरं तसि तंसि देसंसितं तं अद्धमंडलसंठिइं संकममाणे दाहिणाए अंतराए भागाए तस्सादिपएसाए सव्यहभंतरं उत्तर अट्टमंडलसंठिइमुवसंकमित्ता चारं चरइ ता जया णं सूरिए सव्वभंतरं उत्तरं अद्धमंडलसंठिई उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसिए अट्ठारस मुहुत्ते दिवसे भवति, जहन्निया दुवालसमुत्ता राई भवति त्ति, एस णं दुचे छम्मासे, इत्यादि प्राग्वत्। सू०प्र०१ पाहु०। तत्र रात्रिशब्दे आदेशद्वयं केचिदाचार्या ब्रुवते, स सन्ध्यायतो राजते शोभते तेन निरुक्तिवशात्-रात्रिरुच्यते, यस्तु संख्याया अपगमः स हि कालः, अन्ये तुबुवते यतः सन्ध्याया अपगमे चौरपारदारिकादयो रमन्ते ततोऽसौ रात्रिरितिपरिभाष्यते। बृ०१७०। विपा० / स्था०। रात्रौ सकलानपानमध्ये सूक्ष्माः तद्रूपा जीवा उत्पद्यन्ते प्रभाते विलयं यान्ति तस्सत्यमसत्यं वा इति प्रश्नः ? अत्रोतरम्-रात्रौ समस्तानपानमध्ये तद्रूपाः सूक्ष्मा जीवा उत्पद्यन्ते प्रभाते च विलयं यान्तीत्येतत् शास्त्रमध्ये कापि ज्ञातं नास्तीति || 150 / / सेन०४ उल्ला० / चमरलोकपालसोममहाराजस्याग्रमहिष्याम, स्था०५ ठा० 1 उ०। भ०। राइअंत्रि० (रात्रिक) रजनिनिवृत्ते, आव० 4 अ०। राइंदियन० (रात्रिंदिव) अहोरात्रे, स०।। अथ सूर्ये निवतिस्थानके गते किमपि वितन्यतेतेणउईमंडलगते णं सूरिए अतिवट्टमाणे निवट्टमाणे वा समं अहोरत्तं विसमं करेइ / / 63 // 'तेणउईमण्डलेत्यादि',तत्र अतिवर्तमानो वा-सर्वबाह्यात्सर्वाभ्यन्तरं प्रतिगच्छन् निवर्तमानो वा–सर्वाभ्यन्तरात्सर्वबाह्यं प्रति गच्छन् व्यत्ययो वा व्याख्येयः, सममहोरात्रं विषमं करोतीत्यर्थः। अहश्च रात्रिश्च अहोरात्रं तयोः समता तदा भवति यदा पञ्चदश पञ्चदश मुहूर्ता उभयोरपि भवन्ति, तत्र सर्वाभ्यन्तरमण्डले अष्टादशमुहूर्त्तमहर्भवति रात्रिश्च द्वादशमुहूर्ता, सर्वबाह्ये तु व्यत्ययः, तथा त्र्यशीत्यधिकमण्डलशते द्वौ द्वावेकषष्टिभौ वर्द्धत हीयेतेच, यदा च दिनवृद्धिस्तदा रात्रिहानिः रात्रिवृद्धौ च दिनहानिरिति / तत्र द्विनवतितमे मण्डले प्रतिमण्डलं मुहूर्त्तकषष्टिभागद्वयवृद्ध्या त्रयो मुहूर्ता एकेनैकषष्टिभागेनाधिकाः वर्द्धन्ते वा हीयन्ते वा, तेषु च द्वादशमुहूर्तेषु मध्ये क्षिप्तेषु अष्टादशभ्योऽपसारितेषु वा पञ्चदशमुहूर्ता उभयत्रैकेनैकषष्टिभागेनाधिका हीना वा भवन्तो द्विनवतितममण्डलस्यार्द्धसमाद्धहोरात्रतोतस्यैव चान्ते विषमाऽहोरात्रता भवति, द्विनवतितम मण्डलं चादित आरभ्य त्रिनवतितमंतत्रच मण्डले यथोक्तः सूत्रार्थ इति / / स०६३ सम० / ज्यो० / स्था० / सूत्र० / ज्ञा० / चं० प्र०। (असंख्येयलोक अनन्तानिरात्रिदिन्दवानि, इति'लोग' शब्दे वक्ष्यते) राइक त्रि० (राजकीय) पर--राजभ्यां क्क-डिक्कौ च // 8 / 21148 / / इति . इयप्रत्यस्थाने डिक्कादेशः / राजकीयम् / राइक्कं / राअकेरं / राजसम्बन्धिकार्यादौ, प्रा०२ पाद। राइडिस्त्री० (राजर्द्धि) त्रिधा 2 प्रकाराभ्यां षड्धा राजर्द्धिः। राजसंपत्ती, स्था० 3 ठा० 4 उ०। (व्याख्या 'इड्डि 'शब्दे द्वितीयभागे 582 पृष्ठे गता) राइणिय पुं० (रात्निक) रत्नेमा॑नादिर्भर्व्यवहरतीति रात्रिकः / बृ०। बृहत्पर्याये, स्था०५ ठा०१ उ०।सापञ्चा०। आचा० बृ०। (अन्यगच्छसत्का रत्नधिकतरा आचार्यस्याऽपि रत्नाधिका भवन्ति इति 'किइक्कम' शब्दे तृतीयभागे 510 पृष्ठे दर्शितम्) राइण्ण पुं० (राजन्य) भगवद्धयस्यवंशजे क्षत्रियजातिविशेषे, ये हि श्रीऋषभदेवेन मित्रस्थाने स्थापिताः। ज्ञा०१श्रु०१अ०। कल्प०। भ०। राइपचक्खाण न० (रात्रिप्रत्याख्यान) रात्रिभोजनप्रत्याखाने, ल० प्र०। राइभत्तन० (रात्रिभत्क) रजनिभोजने,प्रव०२३७ द्वार। दश०। सूत्र०। राइभोयण न० (रात्रिभोजन) रात्रौ-भक्तं भोजनं-भुक्तिः रात्रिभोजन्न्(तच रात्रिभोजनं चतुर्विधमिति पडिक्कमण' शब्दे पञ्चमभागे 264 पृष्ठे गतम्) निशि भोजने, तत्त्याज्यं बहुदोषसम्भवात् (ध०) बहुविधजीवसम्पातसम्भवेनैहिकपारलौकिकानेकदोषदुष्टत्वात्, यदभिहितम्-"मेहं पिवीलिआओ, हणंति वमणं च मच्छिआ कुणइ / जूआ जलोदरत्तं, कोलिअओ कुट्ठरोगं च // 1 // बालो सरस्स भंग, कंटो लग्गइ गलम्मि दारुं च / तालुम्मि विंधइ अली, वंजणमज्झम्मि भुजंतो // 2 // " व्यञ्जनमिह वान्ताकशाकरूपमभिप्रेतम् तद्वृन्तं च वृश्चिकाकारमेव स्यादिति वृश्चिकस्यासूक्ष्मस्याद्धपि तन्मध्यपतितस्यालक्ष्यत्वादोज्यता सम्भवतीति विशेषः / निशीथचूर्णावपि-"गिहकालइलअवयवसम्मिस्सेण भुत्तेण पोट्टे किल मिहकोइला सम्मुचछं ति" एवं सदिलालामलमूत्रदिपाताद्यपिः तथा-'''मालिंति य महीअलं, जामिणिसु रयणिअरा य (भ) मंतेणं / तो वि छलंति हु फुड, रयणीए भुजमाणं तु // 1 // " अपि च-निशाभोजने क्रियमाणे अवश्यं पाकः सम्भवी, तत्र षड् जीवनिकायवधोऽवश्यम्भावी, भाजनधावनादौ च जलगतजन्तुनाशः, जलोज्झनेन भूमिगतकुन्थुपिपीलिाकादिजन्तुघातश्च भवति, तत्प्राणिरक्षणकाङ्ग्याऽपि निशाभोजनं न कर्तव्यम्, यदाहु:-"जीवाण कुंथुमाईण, घायणं भाणधोअणाईसुं / एमाइ रयणिभोयणदोसे को साहिउंतरइ ? ॥१॥"यद्यपि च सिद्धमोदकादिखर्जूरद्राक्षादिभक्षणे नास्त्यन्नपाको, न च भाजनधावनादिसम्भवः, तथाऽपि कुन्थुपनकादिघात-सम्भवात्तस्याऽपि त्याग एव युक्तो, यदुक्तं निशीथभाष्ये "जइ विहु फासुगदव्वं, कुंथू पणगा तहाऽवि दुप्पस्सा। पच्चक्ख-णाणिणोऽवि हु, राईभत्तं परिहरति / / 1 / / जइ वि हु पिवीलिगाई, दीसंति पईवमाइउज्जोए। तह वि खलु अणाइन्नं, मूलवयविराहणा जणणं / / 2 / / "
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________________ राइभोयण 510- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 राइभोयण एतत्फलं चउलूककामार्जार-गध्रशम्बरशूकराः। अहिवृश्चिकगोधाश्च, जायन्ते रात्रिभोजनात् // 1 // परेऽपि पठन्तिमृते स्वजनमात्रेऽपि, सूतकं जायते किल। अस्तंगते दिवनाथे, भोजनं क्रियते कथम्?।।१॥ रक्तीभवन्ति तोयानि, अन्नानि पिशितानि च / रात्रौ भोजनसक्तस्य, ग्रासे तन्मांसभक्षणम्॥२॥ स्कन्दपुराणे रूद्रप्रणीतकपालमोचनस्तोत्रे सूर्यस्तुतिरूपेऽपि-- एकभक्ताशनन्नित्य-मग्निहोत्रफलं लभेत्। अनस्तभोजनो नित्यं, तीर्थयात्राफलं लभेत्॥१॥ तथानैवाहुतिर्नच स्नानं, न श्राद्धं देवतार्चनम्। दानं वा विहितं रात्रौ, भोजनं तु विशेषतः॥२॥ आयुवेर्देऽपिदृन्नाभिपद्मसङ्कोच-चण्डरोचिपायतः। अतो नक्तं न भोक्तव्यं, सूक्ष्मजीवादनादपि // 3 // तस्माद्विवेकिना रात्रौ चतुर्विधोऽप्याहारः परिहार्यः, तदशक्ती त्वशनं खादिमं च त्याज्यमेव, स्वादिमं पूगीफलाद्यपि दिवा सम्यक् शोधनादियतनयैव गृह्णात्यन्यथा त्रसहिंसादयोऽपि दोषाः; मुख्यवृत्त्या च प्रातः सायं च रात्रिप्रत्यासन्नत्वावे द्वे घटिके भोजनंत्यजेद्, यतो योगशास्त्रे "अहो मुखेऽवसोन चढे द्वेघटिके भोजनंत्यजन्। निशाभोजनदोषज्ञोऽनात्येसौ पुण्यभाजनम् / अत एवागमे सर्वजधन्यं प्रत्याख्यानं मुहूर्तप्रमाणं नमस्कारसहितमुच्यते, जातु तत्तत्कार्यव्यग्रत्वादिना तथा न शक्नोति, तदाऽपि सूर्योदयास्तनिर्णयमपेक्षत एवाऽतपदर्शनादिना, अन्यथा रात्रिभोजनदोषः, अन्धकारभवनेऽपि वीडया प्रदीपाकरणादिना त्रसादिहिंसा-नियमाभङ्गमायामृषावादादयोऽधिकदोषा अपि। ध०२ अधि०। अधुना षष्टमधिकृत्याऽऽहअहो निचं तवोकम्म, सव्वबुद्धेहिं वण्णि। जावलजासमा वित्ती, एगभत्तं च भोअणं / / 22 // 'अहोत्ति' सूत्रम्, अहो नित्यं तप कर्मेति-अहो-विस्मये, नित्यं नामापायाभावेन तदन्यगुणवृद्धिसम्भवादप्रतिपात्येव तपःकर्मतपोऽनुष्ठानम्, सर्वबुद्धैः सर्वतीर्थकरैः वर्णितम्देशितम्, किं विशिष्टमित्याह-यावल्लज्जासमावृत्तिः-लज्जासंयमस्तेन समा-सदृशी तुल्या संयमाविरोधिनीत्यर्थः, वर्तनं सृत्ति०-देहपालना, एकभक्तंच भोजनम्'एक भक्तं द्रव्यतो भावतश्च यस्मिन् भोजने तत्तथा। द्रव्यत एकम्एक संख्यानुगतम्, भावत एकम्-कर्मबन्धाभावादद्वितीयम्, तद्दिवस एव रागादिरहितस्य अन्यथा भावत एकत्वाभावादिति सूत्रार्थः / / 22 // रात्रिभोजने प्राणातिपातसम्भवेन कर्मबन्धस द्वितीयतां दर्शयतिसंतिमे सुहुमा पाणा, तसा अदुव थावरा। जाइं राओ अपासंतो,कहमेसणिअंचरे ? // 23 // 'संतिमे त्ति' सूत्रम्, सन्त्येते-प्रत्यक्षोपलभ्यमानस्वरूपाः सूक्ष्माः प्राणिनो-लीवाः, वसा-द्वीन्द्रियादयः, अथवा-स्थावराः-पृथिव्यादयः यान् प्रणिनोरात्रावपश्यन् चक्षुषा कथम् एषणीयं-सत्त्वानुपरोधेनचरिष्यति भोक्ष्यते च ? असम्भव एव रात्रावेषणीयचरणस्यति सूत्रार्थः।। 23 / / एवं रात्रौ भोजने दोषमभिधायाधुना ग्रहणगतमाहउदउल्लंबीअसंसत्तं, पाणा निवडिया महिं। दिआ ताइं विवधिज्जा, राओ तत्थ कहं चरे? // 24 // 'उदउल्लं ति' सूत्रम्, उदकाई पूर्ववदेकग्रहणे तज्जातीयग्रहणात्सस्निग्धादिपरिग्रहः, तथा 'बीजसंसक्तम्' बीजैः संसक्तं मिश्रम, ओदनादीति गम्यते। अथवा-बीजानि पृथग्भूतान्येव, संसक्तं मिश्रम्, ओदनादीतिगम्यते। अथवा-बीजानि पृथग्भूतान्येव, संसक्तं चारनालाद्यपरेणेति, तथा-प्राणिनः-सम्पातिमप्रभृतयो, निपतिता मह्याम्पृथिव्यां सम्भवन्ति, ननु दिवाऽप्येतत् संभवत्येवं?, सत्यम्, किंतुपरलोकभीरश्चक्षुषा पश्यन् दिवा तान्युदका दीनि विवर्जयेत्, रात्री तु तत्र कथं चरेत् संयमानुपरोधेन ? असम्भव एव शुद्धचरणस्येति सूत्राद्धर्थः / / 24 / / उपसंहरन्नाहएअंच दोसं दणहूँ, नायपुत्तेण भासि। सव्वाहारं न मुंजंति, निग्गंथा राइमोअणं / / 25 // 'एअं च त्ति' सूत्रम्-एतं च-अनन्तरोदितं प्राणि-हिंसारूपमन्यं चात्मविराधनादिलक्षणं दोषं दृष्ट्वा मतिचक्षुषा ज्ञातपुत्रेण-भगवता भाषितम्-उक्तम् सर्वाहारम्-चतुर्विधमप्यशनादिलक्षणमाश्रित्य न भुञ्जते, 'निर्ग्रन्थाः-साधको रात्रिभोजनमिति सूत्रार्थः // 25 // दश०६ अ०२ उ०॥ किंचअत्थंगयम्मि आइचे,पुरत्था अ अणुग्गए। आहारमइयं सवं,मणसाऽविण पत्थए / / 28 // 'अत्थं ति' सूत्रम्, 'सूत्रम्, 'अस्तं गत आदित्ये'अस्तपर्वतं प्राप्ते अदर्शनीभूते वा 'पुरस्ताच्चानुगते प्रत्यूषस्यनुदित इत्यर्थः, आहारात्मकं सर्वम् निरवशेषम्, आहारजातं मनसाऽपि न प्रार्थयेत्, किमङ्ग ! पुनर्वा कर्मणा वेति।। 28 / / दश०८ अ०२ उ०। दिवसस्याष्टमे भागे, मन्दीभूते च भास्करे। तं नक्तं च विजानीया–न्न नक्तं निशि भोजनम्॥१॥ नैवाहुतिर्न च स्नानं, न श्राद्धं देवतार्चनम्। दानं वा विहितं रात्रौ, भोजनं च विशेषतः // 2 // पतङ्गकीटकमण्डूक-सत्त्वसङ्घातधातकृत्। अतोऽतिनिन्दितं ताव-द्धार्थ निशि भोजनम्॥३॥ पशूनां मानवानांच, शीलसंयमनं विना। रात्रौ दिवाऽदतां तात ! को विशेष इहोच्यताम् // 4 // दर्श०२ तत्त्व। अथ रात्रिभोजनमाहरातो च भोयणम्मि, चउरो मासा हवंतिऽणुग्धाया। आणादिणो य दोसा, आवजण संकणा जाव / / 85 // रात्रौ भोजने क्रियमाणे चत्वारो मासा अनुद् घाता गुरवो भवन्ति, आज्ञादयश्च दोषाः।येचप्राणातिपातादिविषया आपत्तिशङ्कादोषाः परिग्रहस्यापति शङ्कांच यावत्प्रथमोद्देशके "नो कप्पइराओवा वियालेवा असणं वा
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________________ राइभोयण 511 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 राइभोयण पास वा खाइमं वा साइमं वा " इत्यादौ रात्रिभक्तसूत्रे इहैवामिहितास्ते / | भाजनेषु वा प्रक्षिपन्ति, यदि निजकानि अलाबूनि भवन्ति। सर्वेऽपि द्रष्टव्याः / अथ प्रदीपं नापनयन्ति तत इदं वक्तव्यम्अथ द्वितीयपदमाह गेलण्णेण व पुट्ठा, वाहाडरूची व अंगुली वावि। णिउवद्दवं व खेमं, होहिति रण्णो य कीरए संती। मुंजंता विउ असढा, सालंवाऽमुच्छिता सुद्धा / / 65 / / अद्धाणनिम्गतादी, देवीपूया य अज्झियमं // 16 // यदि ते दुर्बलास्ततो भणन्ति ग्लानत्वेन स्पृष्टा वयम् एतचास्माकउपद्रवो नाम-अशिवं गलरोगादिकं वातस्याभावो निरुपद्रवम्, क्षेमं- मपथ्यम्, यदि समुदिशामस्ततो क्रियामाह-तस्मान् न ऋषिहत्यां परचक्राद्युपत्पवाभावः, क्षेमं च मदीयदेशे भविष्यतीति परिभाव्य राजा कुरुत।अथवा-भणितव्यम्-अस्माभिर्गलकं यावद्भुक्तं वाहडं च प्रभूतं शान्तिकर्तुकामस्तपस्विनो रात्रौ भोजयेत्, यद्धा-राजपुत्रो वा नागरा भुक्तानां कुतो रुचिरूपजायते, यद्येवं न प्रत्ययन्ति ततो वा राज्ञः शान्तिं क्रियनामिति कृत्वा, ये रात्रौ न भुञ्जते सुतपस्विनश्चते मातृस्थानेनाङ्गुली वदने प्रक्ष्ज्ञिप्य वमनमुत्पादयन्ति, यदि तथाऽपिन रात्रौ भोजनीयाः, एष तस्या विद्याया उपचार इति भावयन्ति / ते च प्रत्ययन्ति ततः स्तोकं तन्मध्यात् स्वादयन्ति, अथ तथाऽपि न साध्वोऽध्वनिर्गतादयसस्तत्र सम्प्राप्तास्ततो वक्ष्यमानो विधिर्विधातव्यः / चिसर्जयन्ति तत एवं सालम्बा-अशठा रागद्वेषरहिता अमूर्छिताः स्तोक यदा-राज्ञः कस्याऽपि देवी वाणमन्तरपूजां कृत्वा तपस्विनां रात्रि- भुजाना अपि शुद्धाः॥ भोजनलक्षणम् 'अज्झियकम्' उपयाचितं मन्यते। उपसंहरनाह__ कुत इति चेदुच्यते एत्थं पुण अधिकारो, अणुघाता जेसु जेसु ठाणेसु। अवधीरिया व पतिणा, सपत्तिणीएव पुत्तमाताए। उचरियसारियाई, सीसाण विकोवणवाए।।१२॥ गेलण्णेण व पुट्ठा, वुण्हउप्पायसमणट्ठा / / 87 // अत्र पुनः प्रस्तुतसूत्रे हस्तकर्ममैथुनरात्रिभक्तविषये; स्थानैधिकारः पत्या-भा अवधीरिता-अपमानिता सा देवी, यद्धा-या तस्याः प्रयोजनम्, कैकरत्याह-येषु येषु स्थानेषु अनद्धातानि गुरुकाणि सपत्नी सा पुत्रमाता तया न सुष्ठु बहु मान्यते ग्लानत्वेन वा सा गाढतरं प्रायश्चित्तानि भणितानि तैरेवाधिकारः / शेषाणि पुनरुच्चारितार्थस्पृष्टा विग्रहो वा तस्याः केनापि सार्द्धमुत्पन्नस्ततो विग्रहात्पादस्य सदृशानि शिष्याणां विकोपनार्थमुक्तानि / / बृ०४ उ०। (रात्रौ भिक्षां न शमनार्थं वाणमन्तरपूज कर्त्तव्या, सच वाणमन्तरो रात्रौ साधुषु भोजितेषु प्रहीतव्या अत्र सूत्रम् "नोकप्पइ० (42) इत्यादितच्च 'गोयरचरिया' परितोषमुद्धहति // शब्दे तृतीयभागे 678 पृष्ठे गतम्) ततः नोदकः प्रेरयति / किमिति-रात्रिभोजनं परिहियते?, उच्यतेएकेक जतिणेतुं, निमंतणा भोयणेण विउलेणं। बहुदोषदर्शनात्, पुनरपि परः प्राह युष्माकं द्वाचत्वारिंशद्दोषेषु रात्रिभोजन भोत्तुं अणिच्छमाणे, मरणं च तहिं ववसितस्स / / 55 // न क्वाऽपि प्रतिषिद्धम्, अप्रतिषिद्धत्वाचावश्यमेव निर्दोषमिति मे मतिः, एकैकं साधु बलाभियोगेन राजभवनेऽद्य अतिनीय प्रविश्य रात्रौ विपुलेन अस्य नोदकवचनस्य प्रतिघातम्-प्रतिषेधम् आचार्यः करोति, नोदक! भोजनेन निमन्त्रणा कृत, अभिहिताश्च साधवः, यदि-सम्प्रति न व भवत एवं बुदाणस्याज्ञाभङ्गादयो दोषाः, तथाहि-यच्च त्वयोदितम्भोक्ष्यध्वे ततो वयं व्यपरोपयिष्यामः, एवमुक्ते तेषामेकस्य साधोः तदानी रात्रिभोजनप्रतिषेधः क्वाऽपि अस्माभिर्न दृष्ट इत्यादि, तदेतदज्ञानभोक्तुमनिच्छतो मरणं च तत्र व्यवसितस्य शिरश्छिन्नं, द्वितीयो प्रलपितमिव लक्ष्यते / यतःहर्षादुल्लसितस्तृतीयो भीत इत्यादि; यथा मैथुने तथा मन्तव्यम्।। जइ वियन प्पडिसिद्धं, वायालीसाय राइभत्तं तु। अथ प्रायश्चित्तमाह छठेमहव्वयम्मि पडिसेहो तस्स णणु वुत्तो / / 700 / सुहल्लसिते भीए, पचक्खाणे पडिच्छगच्छाव। यद्यपि द्वाचत्वारिंशतिदोषेषु रात्रिभक्तंन प्रतिषिद्धं तथपिषष्ठे महाव्रते ठवएि मूलं छेदो, छमासचउरो य गुरुलहुओ // 26 // षट्जीवनिकाया तु तस्य निषेध उक्त एव, तथा सूत्रम्-"अहावरे छठे गातार्थः॥ भंते! महव्वएराईभोयणाओवेरमणं" इत्यादि। (तच्च सूत्रम् 'पडिक्रमण' अत्र यतनामाह शब्दे पञ्चमभागे 265 पृष्ठे गतम्)। तत्थेव य भोक्खामो, अणि (मि) मुंजामोऽन्धकारम्मि। ___ अपि चकोणादीपक्खेवो, पोट्टलभावेण जति णीता / / 10 // जइ ता दिया न कप्पइ, तमं ति काऊण कोहगादीसुं। रात्रौ भोज्यमानैः साधुभिरभिधातव्यं भाजनेषु गृहीत्वा ततस्तत्रैव किंपुण तमस्सिनीए, कप्पिस्सइ सव्वरीए उ॥७०१।। स्वप्रतिश्रये भोक्ष्यामहे. न वर्तते गृहस्थानां पुरतो भोक्तुम, एवमुक्त्वा यदि तावत्तमः-अन्धकारमिति कृत्वा तमः कोष्ठकादिषु दिवाऽपि भक्तं ततोऽल्पसागरिकं नीत्या परिष्ठापयन्ति। अथाऽन्यत्र नेतुं न प्रयच्छन्ति पानं ग्रहीतुं न कल्पते, "नीयदुवारं तमसं कोडगं परिवज्जए'' इति * भणेन्ति च-अस्माकं पुरतो भोक्तव्यम्, ततः प्रदीपमपनयते अन्धकारे वचनात् ततः किं पुनस्तमस्विन्यां बहलतमः पटलकलितायां शर्वर्या भोजनं कुर्मः, ततस्तेषामपश्यतां कोणेषु आदिशब्टाद्-अपरत्र चैकान्ते रात्रौ कल्पिष्यते नैवेति भावः / यच्चोक्तं रात्रिभक्ते दोषान सन्तीति कवलान् प्रक्षिपन्ति / अथवा-वस्त्रेण पोट्टलक बध्वा तत्र प्रक्षिपन्ति। / तदप्यपरिभावितभाषितम् /
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________________ राइभोयण 512- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 . राइभोयण यतः-साक्षादेवाऽमी दोषास्तत्रोपलभ्यन्तेमिच्छत्तम्मिय भिक्खू, विराहणा होइ संजमायाए। पक्खलण खाणुकंटग-विसमदरी बालसाणे य॥ 702 // भगवता प्रतिषिद्धं रात्रिभेजन कुर्वता। आज्ञाभङ्ग कृतो भवति, तं दृष्ट्वा अन्येऽपि रात्रिभक्ते प्रवर्त्तन्ते, इत्यनवस्थाऽपि स्यात्, मिथ्यात्वे भिक्षुदृष्टान्तो वक्तव्यः-"जहा कालोदाई नाम भिक्खुगो रयणीए एगस्स माहणस्स गिहं भिक्खडाए पविट्ठो, तओ माहणी तस्स भिक्खानिमित्तं जाव मज्झे पविसइ ताव अंधयारवहलयाए अग्गओ खीलओ न दिट्ठो, तत्थ वडियाए तीसे खीलएण कुच्छी फोडिआ, सा च गुध्विणी आसि, गब्भो फुरफुरंतो पडिओ, मओय। सा वि मया, तं द8 लोगेण भणियं अदिद्वधम्माणो एण ति।" एवं साधुरपि रात्रौ भिक्षामटन् भगवत्यसर्वज्ञत्वशङ्कामुत्पादयति विराधना द्विविधा-संयमे आत्मनि च, तत्र आत्मविराधना भाव्यते-रात्रौ मार्गमपश्यतः स्सखलनं भवति, स्थाणुकण्टकाभ्यां वा पादयोः परितप्यते 'विसमन्ति'-उन्नतंदरी-गर्तः तयेः प्रपतेत्, व्यालः-सर्पस्तेन वा दश्येत श्वाने वा रात्रावुपद्रवं कुर्युः। गोणे य तेणमादी, उन्मामग एवमाइ आयाए। संजमविराहणाए, छक्काया पाणवहमादी 703 / / गौः-वलीवर्दस्तेन हन्येत, स्तेना आदिशब्दादारक्षिकादयो वा तमःकाले पर्यटन्त गृह्णीयुः, यद्वा स एव साधुरकाले पर्यटत्, स्तेन आदिशब्दाच्चारिको वा अभिमरो वा उद्भ्रामको वा आरक्षिकपुरुषैः शडक्येत्, ततश्च प्रतापनादयो दोषाः, एवमादयो दोषा आत्मविराधनाविषया भवन्ति। तानेव भावयतिपाणवह पाणगहणे, कप्पट्ठोडाएण असंकाउ। मणिओ भवाइ साणे, मोसमिति संकणा ठाणे / / 704 // दिवा जीवसंसक्तोदकादानि सुप्रत्युप्रेक्षतया सुखेनैव साधुः परिहर्तुमीष्ट,रात्रौ तु दुष्यप्रत्युपेक्षतया तेषां परिहारः कर्तुं न शक्यते,अतः प्राणिग्रहणे प्राणवधो भवति कल्पस्थके वापद्राणेऽगारिणो वक्ष्यमाणनीत्याऽऽशङ्का भवेत अहमेतेनापद्रावित इति, तथा कोऽपि साधुरगारिणा भणितो-रात्रौ मा मदीयं गृहमायासीरिति, ततः श्वानस्ते गृहमा यास्यन्तीति प्रतिज्ञां कृत्वा गतः, परमसौ स्थाने स्वचने न तिष्ठति, ततश्च मृषावादमसौ ब्रूते इति शङ्का गृहस्थस्य स्यात्, एतदुत्तरत्र भावयिष्यति। अथ कल्पस्थके उपद्रावणे यथा शङ्का भवति तदेतदुपदर्शयतिहंतुं सवत्तिणिसुयं, पडियरई काउ मग्दारम्भि। समणेण णोल्लियम्भिय, देवणं जणस्स आसंका / / 705 / / काचिदविरतिका रजन्यां सपत्नीसुतं हत्वा ततस्तमग्रद्वारे कृत्वा कपाटस्य पृष्ठस्तमवष्टभ्य प्रतिचरति प्रतिजाग्रती तिष्ठति, श्रमणश्च तदानी भिक्षार्थमायातः, तेन कपाट प्रेरितं स च दारकः सहसैव भूमौ पतितः। ततस्तयाचदेवनं कृतं पूत्कृतमित्यर्थः। यथ- आः कृष्ट संयतेन दारको व्यापादित इति, ततश्च जनस्याऽऽशङ्का भवति, किं मन्ये सत्यमेवेदमिति, तत्र ग्रहणाकर्षणाऽऽदयो दोषाः। अथ मृषावादे विराधनामाशङ्कां चाहमा निसि मेकं एग्जसु, भणाइ एहिंति ते गिहं सुणगा। पुणरेतं सिष्टिपई, भणाइ सुणओ सि किं जातो? / 706 // एवं चिय मे रत्तिं, कुसुणं दिजाहितं च सुणएण। खइयं ति य भणमगे, भणइ जाणामि ते सुणए / / 707 // काचिदविरतिका कस्यापि साधोरुपशान्ता, सा तस्य रात्रावपयागतस्य भक्तपानं प्रयच्छति, तद् दृष्ट्वा तदीयेन भ; स साधुरभिहितो मा निशि-रात्रौ मदीयेकौ गृहमायासीः ततः साधुर्भणति-एष्यन्ति त्वदीयं गृहंशुनका इति, ततःस साधुर्जिह्वादण्डदोषेणाकृष्यमाणः पुनश्च तदीयं गृहमागतवान्, पुनरायातंस श्राविकापतिर्भणति–किमेवं त्वं श्वानो जातः, एवं मृषावाददोषमापद्यते।अथ एवं केनचिदगारिणा साधुर्निशिसमागच्छन् प्रतिषिद्धः श्वानस्ते गृहमागमिष्यन्तीति प्रतिज्ञां कृतवान्, अन्यदा च तेनाविरतकेन दिवा भुञ्जानेन महेला भणिता मन्निमित्तमद्य कुसणं स्थापयेः, पश्चाच मम रात्रौ भुजानस्य दृष्ट्वा परिवेषयेमः, ततस्तया स्थापितं ततश्च शुनकेन भक्षितम्, रात्रौ च या भणिता परिवेषय तत्कुसणम् / तया भणितं शुनकेन भक्षितम् / स प्राह-जानाम्यहं त्वदीयान् शुनकान्, एवं मृषावादविषयाऽऽशङ्का भवेत्। अथ तृतीयचतुर्थव्रतयोर्विराधनामाशङ्का-- च प्रतिपादयतिसयमेव कोइ लुद्धो, अवहरती तं पडुच कम्मकरी। वाणिगिणी मेहुन्नं, बहुसो य चिरं च संका य / / 706 / / चिरं च कश्चिल्लुब्धो भिक्षार्थं प्रविष्टो रजन्यामाकिर्णमिव कीर्ण वनहिरण्यादि दृष्ट्वा स्वयमेवापहरेत्, अथवा-तं संयतं प्रतीत्य कर्मकरीकाचिदपहरेत्, संयतेन हृतं भविष्यतीति गृहपतिप्रभृतयश्चिन्तयन्तीति बुद्ध्याऽस्य सुवर्णादिकुं चोरयेदिति भावः / तथा-काचिद्वाणिजिका प्रोषितभर्तृका मैथुनमवभाषेत तद्वचनाभ्युपगमे चतुर्थव्रतविराधना / तथा--आहारानिमित्तं बहुशः प्रवेशनिर्गमौ कुर्वाणश्चिरं चालापसंलापादिभिस्तिष्टन् मैथुनप्रतिषिद्धायां जनैः शक्लेयत / / अथ पञ्चमव्रतविषये विराधनाशङ्का दर्शयतिअणॉभोगेण भएण व, पडिलाउं मीस भत्तपाणं तु। दिला हिरण्णमादी, आवजण संकणादिहे / / 706 / / कश्चिदाभोगेन भक्तपानोन्मिश्रितं हिरण्यादि दद्यात्, भयेन वा यथा कयाचिह्यक्षरिकया हिरण्यादिकमपहृतं सा च तं न शक्नोति सङ्गोपयितुं वा ततः संयतस्य भक्ष्येण समं दद्यात, प्रत्यनीकतया वा कष्ट श्रेष्ठिनः, साधोर्वज्यानामिकया प्राक्तनमर्थयति, एवं हिरण्यादिके गृहीते सति कश्चित्तत्रैव मूर्छया चैकान्ते सङ्गोष्य धारयेत् ततः परिग्रहदोषास्यापत्तिर्भवति / तथा तत्सुवर्णादिकं भक्तपानसंमिश्रं दीयामानं दत्तं वा प्रतिग्रहे जाज्वल्यमानंकश्चित्पश्येत्, दृष्टचतस्यशङ्काजायेत, किमन्येअर्थजानानो
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________________ राइभोयण 513- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 राइभोयण लुब्धतया गृह्णाति उताऽजनानः प्रमादादित्यादि / वत एते दोषा अतो इह साधूनां भिक्षामटतां क्वचिदतर्कितः प्रभूतभक्तस्य लाभो भवेत्, रात्रौ न पर्यटितव्यम्॥ संखड्यां वा प्रचुरमवगहिमादि लब्धम् अनुचितक्षेत्रे वा गुरुग्लानादीनां अथ रात्रिभक्तमेच भेदतः प्ररूपयन्नाह-- वा योग्यग्रहणर्थमथैरपि सङ्घाटकैर्मात्रकाणि व्यापादितानि एवमादिभिः तं पि य चउव्विहं रा-इभोयणं बोलपट्टमइरेगे। कारणैः प्रायोग्यद्रव्यमतिरिक्तं ग्रहीतव्यम्, तच्चोदरितम्, तत आवलिपरियावन्न विगिचण, दरगुलिया रूक्खसुण्णघरे // 710 // काम्-अचोल्लिकाभक्तार्थिकादिपरिपाटीरूपां विधिना प्रत्याख्यानतदपि रात्रिभोजनं चतुर्विधम्। तद्यथा-दिवा गृहीतं दिवा भुक्तम्, दिवा नियुक्त्यादिशासप्रसिद्धेन प्रकारेण पृष्ट्वा निमन्त्र्य तथाऽप्यतिरिक्तपरिगृहीतं रात्रौ भुक्तम्, रात्रौ गृहीतं दिवा भुक्तम्, रात्रौ गृहीतं रात्रौ गृहीतं ष्ठापनाय गत एकान्तमनापातं बहुप्राशुकं स्थण्डिलं तत्र च प्राप्तः / रात्रौ भुक्तं वेति / एतेषु चतुर्वपि भङ्गेषु यथाक्रमं तपःकाललघुकाल उत्कृष्टविनाशिद्रव्यलोभेन च कल्यं भोक्ष्येऽहमिति चिन्तयित्वा दरे गुरुतपोगुरुकोभयगुरुकरुपाश्चत्वारो गुरवः; तत्र प्रथमभङ्गो भाव्यते आदिशब्दाद्-गुलिकावृक्षशून्यकोटरगृहेषु स्थपयति, सच साभिग्रहो वा 'चोलपट्ट त्ति कस्याऽपि संयतस्य संज्ञातकानां सङ् खडिरुपस्थिता, स्यादन्यो वा। अनभिग्रहो नामयत्किञ्चिदाहा रोपकरणादिकं परिष्ठापस च तस्मिन् दिवसे प्राप्ते वा भक्तार्थं प्रत्याख्यातवान्, ततो मामेते नायोम्यं भवति तत्सर्व मया परिष्ठापयितव्यमित्येवं प्रतिपन्नाभिग्रहः, अभक्तार्थिनं न ज्ञास्यन्तीति कृत्वा पात्रकैरनुर्दग्राहितैश्चोलपट्टकसहितो तद्विपरीतोऽनाभिग्रह इति। गतः संज्ञातकगृहम्, पृष्टश्च किं भवद्भिर्भाजनानि नानीतानि? ततस्ते अर्थतेषु स्थापयतः प्रायश्चित्तमाहनान्येन वा भणितम्। अद्याभक्तर्थिक इति ततस्ते संज्ञातकाः कल्ये वयं विलें मूलं गुरुगा वा, अणंत गुरु लहुग सेस जंबन्नं / दास्याम इति कृत्वा यत्तदर्थं स्थापयन्तिततः प्रथमभङ्गो भवति 'अइरेग थेरी य उ निक्खिते, पाहुणसाणाइ खइए वा।। 713 / / त्ति' सङ्खडिगतमन्यत्र वा क्वचिदतिरिक्तमवगाहिमादिलब्धं तच पर्यापन्नं आरोवण उ तस्स उ, बंधस्स परूवण य कायव्वा / परिष्ठापनायोग्यतां प्राप्तं ततस्तस्य विगिञ्चपंच-परिष्ठापनं तदर्थ निर्गतः कुल-नाम-द्विगमाउं,मंसो जिन्नं ण जा उट्ठो॥ 714 / / तोत्कृष्टमविनाशि द्रव्यं मत्त्वा द्वितीये दिने समुद्देशनार्थं दरगुलिकायां बिले स्थापयतो मूर्म, गुरुका वा / यदि वसिमे बिले स्थापयति तदा वृक्षशून्यगृहे स्थापयति / दरो विलङ्गुलिका नाम पिकं बुसपुञ्जो वा, मूलम्, उद्वासे चत्वारो गुरुवः, अनन्तवनस्पतिकोटरे स्थापयतः वृक्षशब्देन वृक्षकोटरमुच्यते / यद्वा गुलिकया 'रुक्ख त्ति' गुलिकाः चतुर्गुरवः, शेषेषु प्रत्येकवनस्पतिकोटरगुलिकाभ्रान्यगृहेषु चतुर्लघवः / पण्डकाः तान् कृत्वा वृक्षकोटरे स्थापयेत् / शून्यगृहं प्रतीतम्, एतेष्वपि यचान्यदात्मसंयविराधनादिकमपद्यते तन्निष्पन्नं प्रायश्चित्तम् / अथा स्थापयित्वा द्वितीयदिवसे भुञ्जानस्य प्रथमभङ्गो भवतीति गाथार्थः / / अथ भाष्यकार एवैनां व्याख्यानयति स्थविरगृहे स्थापयति ततस्तत्र निक्षिप्ते चत्वारो लघवः, अथ यदि खमणं मोह तिगिच्छा, पच्छित्तमजीरमाण खमओ वा। प्राधूर्णकाय दत्तं, स्वयमेव वा प्राघूर्णकेन भुक्तं, श्वगवदिभिर्वा भक्षितं गच्छइ स चोलपट्टो, पुच्छ हवणं पढमभंगो // 711 // तदा तस्य स्थापकस्याऽऽरोपणा कर्तव्या, चतुर्लघुकादिकं यथायोग एकेन साधुना क्षपणं कृतम्, उपवास इत्यर्थः, तच्च मोहचिकित्सार्थं वा प्रायश्चित्तं दातव्यमिति भावः। तत्र च प्राघूर्णकादिना भुक्ते कियन्त कालं प्रायश्चित्तविशुद्धिहेतोर्वा अजीर्यमाणभक्तपरिणतिनिमित्तं वा क्षपको वा यावत्कर्मबन्धो भवतीत्याशङ्कायां बन्धस्य प्ररूपणा कर्त्तव्या, सा चेयम्एकान्तरितादिक्षपणकर्ताऽसौ तद्दिने च तस्य संज्ञातकानां संखडि 'कुल' इत्यादि केचि दाचार्यदशीया ब्रुवते यावत्तस्य प्राघूर्णकस्य सप्तमं रूपस्थिता, तैश्च साधवो भिक्षाग्रहणार्थमामन्त्रिताः क्षपकसाधुश्चानुद् कुलं वंशः तावदनुसमयं तस्य स्थापकस्य साधोः कर्मवन्धो मन्तव्यः, ग्राहितयाचकः स चोलपट्टः द्वितीये समये अत्र स्थितममक्तार्थिन न अपरे प्राहः यावत् तस्य नामगोत्रं नाद्यापि प्रक्षीणे, अन्ये भणन्ति या ज्ञास्यन्ति अज्ञाताश्च न तदर्थ संविभागं स्थापयिष्यन्तीति बुद्ध्या वत्तस्यास्थीनि धियन्ते, इतरे ब्रुक्ते यावदसा वायुर्धारयति, तदपरे प्रस्थितः, आचार्यान् प्रति ब्रवीति च, ते स्वभावत एवातिप्रान्ता मां विना कथयन्ति-यावत्तस्यतत्प्रायोमासोपचयो ध्रियते, अन्येप्रतिपादयन्तिन पर्याप्तं प्रदास्यन्ति, न वा अवगाहिमादीन् उत्कृष्टद्रव्याणि ढौकयि- यावत्तस्य तद्भक्तपानमद्याऽपि न जीर्णम्, आचार्यः प्राह--एते सर्वेऽप्युध्यन्ति, ततोऽहं गच्छामीति। स च तत्र गतः सन्ननुद्याहितपात्रको दृष्टः पदेश्याः सिद्धान्तसद्भावः पुनरयम्-यावदसौ स्थापकसाधुरद्यापितस्मात् तैः पृष्टः किमद्यापवासी ज्येष्ठार्य इति / स प्राह-आमन्त्रितस्तदर्थमव- स्थानान्नवृत्तो नालोचनाप्रदानादिना प्रतिक्रान्तः तावत्तस्य कर्मबन्धो न गाहिमादिसंविभागभणिता अपि ते स्थापयन्ति, कल्ये पारणकदिवसे व्यवच्छिद्यते। गतः प्रथमो भङ्गः। दास्याम इति कृत्वा। यद्यपि तेन स्थापयन्ति, तथाऽपि क्षपकस्य चत्वारो अथ शेषभङ्गत्रयी भावयतिगुरुकाः, भावतस्तेन सन्निधौ स्थापनायाः कारितत्वात्। द्वितीयदिवसे संखडिगमणे बीओ, बीयारगयस्स तइयआ होइ। व तदुद्गृहीतं भुजानस्य प्रथमभङ्गो भवति। सन्नायगमणे चरिमो, तस्स इमे वनिया भेदा / / 715 // अथातिरिक्तादिपदानि व्याचष्टे अपराह्ने या संखडी तस्यांगमने-दिवा गृहीतंरात्रोभुक्तमिति द्वितयभङ्गो कारणगहि उव्वरियं, आवलिय विहिए पुच्छिऊण गओ। भवति। अनुद्गते सूर्ये बहिर्विचारभूमिमागतस्य बलिना निमन्त्रितस्य-रात्री भोक्खंसु य दाराइसु, ठवेइ सामिग्गहऽन्नो वा / / 712 // | गृहीतं दिवा भुक्तमिति तृतीयो भङ्ग, संज्ञातकुलगमने संज्ञातकनामेव च
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________________ राइभोयण 515 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 राइभोयण तेनात्मीयलोचनता रात्रौ गृहीत्वा रात्रावेव भुजानस्य चरमः-चतुर्थों भङ्गः, तस्य-चतुर्थभङ्गस्य इमे वक्ष्यमाणाः प्रायश्चित्तभेदाः वर्णिताः, इति नियुक्तिगाथासमासार्थः। अथैनामेव गाथां व्याख्यानयतिगिरिजन्न तमाईसु व, संखडि उक्कोस लंमें बिइओ उ। / अग्गिद्विमंगलट्ठी, पंथिगवइगाइसुं तइओ।।७१६॥ गिरियज्ञो नामल्कोङ्कणदेशेषु सायाहकालभावी प्रकरणविशेषः, आह चूर्णिकृत्-गिरियज्ञः कोकणादिषु भवति उस्सूरे ति। विशेष चूर्णिकारः पुनराह--'गिरिजन्नो मत्तवालसंखडी भन्नइ, सा डाल(लाट)विसए वस्सिारत्ते भवइ त्ति" तदादिषु सङ्खडीषु सूर्ये धियमाणो उत्कृष्टवगाहिम यदि द्रव्यं लब्ध्वा यावत्प्रतिश्रयामागच्छतितावदस्तमुपगतो रविः, ततो रात्रौ भुक्त इति द्वितीयो भङ्गः, तथा दक्षिणपथे कुडवा र्द्धमात्रया महाप्रमाणो मण्डकः क्रियते, सहेमन्तकाले अरुणोदयवेलायाम् अग्नीष्टिकायां पक्त्वा धूलीजड्डाय दीयते, तंगृहीत्वा भुजानस्य तृतीये भुङ्गः, श्राध्दो वा प्रातर्गन्तुकामः साधुं विचारभूमौ गच्छन्तं दृष्ट्वा मङ्गलार्थी अनुद्गते सूर्ये निमन्त्रयेत्, पथिकानां पन्थानं प्रतिव्रजन्तो निमन्त्रयेयुः, व्रजिकायां वा अनुगते सूर्ये उच्चलितुकामाः साधुं प्रतिलाभयेयुः, एवमादिषु गृहीत्या भुञानस्य तृतीयो भङ्गो भवति। अथचतुर्थभङ्गं व्याख्यानयतिछंदियसयंगयाण वा, सन्नायगसंखडीइ वीसरणं / दिवसें गते संभरणं,खामण कल्लं न हण्हि त्ति // 717 // केषाश्चिद् साधूनां संज्ञातकगृहे सङ्घडिरुपस्थिता, तत्र ते छन्दितानिमन्त्रिताः, स्वयं वा अनिमन्त्रिता गताः, ततः संज्ञातकैस्ते संयता / अभिहिताः-अद्य यूयं भिक्षार्थ पर्यटत, वयमेव पर्याप्त प्रदास्याम इति। तेच संयता गताः, भोजनकाले परिवेषणादिकृत्यव्यग्राणां तेषां विस्मरण- . मुपागताः, ततो यदा लोकस्य यद्दातव्यं तद्दत्तं यच कर्त्तव्यं तत्कृतम्। ततः क्षणिकीभूतैस्तैर्दिवसैदिवसे गते व्यतीते सति संयतानां संस्मरणं कृतम्, ततस्ते रात्रौ प्राञ्जलिपुटाः पादयोः पतित्वा क्षामणं कुर्वन्ति, परिवेषणव्यग्रैरस्माभिए॒यं न संस्मृताः क्षमध्वमस्मदपराधं गृह्णीध्वमस्मदनुग्रहाय भक्तपानमिति / संयता बुवते, कल्ये ग्रहीष्यामो नेदानीं रात्राविति। ___ गृहस्थाः प्रश्नयन्ति किं कारणं? संयताः प्रतिब्रुवते-- संसत्ताइ न सुज्झइ, तणुजोण्हा अवि य दो विउ सिणाई। काले अब्भरए वा, मणिदीबृद्धित्तएवेति॥७१८ // रात्रौ भक्तपानं कीटकादिभिः संसक्तसंसक्तं वेति न शुद्ध्यति, आदि.. शब्दाद् यूयमस्मदर्थ भिक्षामानयन्तो मार्गे कीटकादिजन्तूनामाक्रमाणं कुरध्वम् / तच यूयं वयं च न पश्यामः, तदा तनुचन्द्रज्योत्स्ना वर्तते। अथ कालः कृष्णोऽसौ पक्षो वर्तते. शुक्लपक्षो वा अभ्रच्छन्नो रजश्छन्नो वा चन्द्रो भवेत्, ततस्ते गृहस्थाः 'विति' ति ब्रुवते अस्माकं मणिः रत्नमस्ति तेन दिवसो विशिष्यते प्रदीप्त्या वा उद्दीप्तं वा ज्योतिः पूर्व कृतं विद्यते, तेन परिस्फुटः प्रकाशो भवति। एवमुक्ते यदि गृह्णन्ति भुञ्जन्ते वा तदा इदं तत्संस्थितं प्रायश्चित्तम्जोण्हामणीपदीये, उद्दित्त जहन्नगाइँ ठाणाई। वउगुरुगा छग्गुरुगा, छेओ मूलं जहन्नम्मि / / 716 // ज्योस्त्नाया उद्योते भुञ्जानस्य चत्वारो गुरवः, मणूरुद्योते षड्गुरुयः, प्रदीपप्रकाशे छेदः, उद्दीप्तोद्योते मूलम।अमूनि प्रायश्चित्तानि ज्योत्स्नादिपदोपलक्षितानि यथाक्रममधोऽवस्थापनीयानि, एतानि जघन्यानि स्थानानि किमुक्तं भवति-प्रसङ्गतमन्तरेण जघन्यतोऽपि तानि द्रष्टव्यानि / अथ प्रसङ्गतो यत्प्रायश्चित्तं भवति तद्विभणिषुराहभोत्तूण य आयमणं, गुरुहि वसमेहिँ कुलगणे संघे। आरोवण कायव्वा, बिइया य अभिक्खगहणेणं / / 720 / / रात्रौ ज्योस्त्नाप्रकाशादिषु भुक्त्वा गुरुणां समीपे तेषमागमनम्, आगतैश्चालोचनापरिणतैरन्यथा वा गुरुणां कथितम् ततो गुरुभिरुक्तं दुष्टं कृतं भवर्द्धिन्निशाभक्तमासे वित्, इत्युक्ते यदि सम्यगावृत्ता मिथ्यादुष्कृतं न भूयः करिष्याम इति ततश्चर्गुरवः / अथ नावृत्ताः, कि तु-गुरुवचनातिक्रमं कुर्वन्ति, को नाम दोषो यदि ज्योत्स्नाप्रकाशे दिवससङ्काशे भुक्तमिति ततः षड्गुरुकाः / वृषभैरभिहिताः-आर्याः ! किमेवं गुरुणा वचनमतिक्रामन्ति, यदि वृषभवचने सम्यगावृत्तास्ततः षड्गुरुका एव, अथ वृषभवचनातिक्रमं कुर्वन्ति ततः छेदः, एवं कुलेन कुस्थविरैर्वा प्रतिनोदितानां सम्यगावृत्तानां छेद एव, अनावृत्तानां मूलम् / गणेन गणस्थविरैर्वा नोदिता यद्यावृत्तास्ततो मूलमेव, अथ नावृत्तास्तंतोऽनवस्थाप्यम्। सङ्घस्थविरैर्वा नोदिताः किमिति गणं गणस्थविरान् वा अतिक्रामथ इत्युक्ते यद्यावर्त्तन्तेततोऽनवस्थाप्यमेव, अनावर्तमानानां पाराञ्चिकम् / एषा चारोपणा प्रायश्चित्तवृद्धिगुरुवृषभादिवचनातिक्रमनिष्पन्ना प्रागुक्तजघन्यप्रायश्चित्तस्थानेभ्यो दक्षिणतः कर्तव्या। द्वितीया तु रात्रिभक्तस्यैव यदभीक्ष्णग्रहणं पुनरासेव तन्निष्पन्ना वामपार्श्वतः कर्तव्या। तद्यथा-एक बारंज्योत्स्नाप्रकोशे भुजतो चत्वारो गुरवः, द्वितीयं वारं षड् गरुवः तृतीयं वारं छेदः, चतुर्थ वारं मूलं पञ्चम वारमनवम्थ्याप्यम्, षष्ठं वारं भुञ्जानस्य पाराञ्चिकमाण्या ज्योत्स्नाप्रकाये प्रायश्चित्तवृद्धिरुक्ता। एवं मणिप्रकाशे, नवरं गुरुभिः प्रतिनोदिता यद्यावृत्तस्ततः षड्गुरुकम्, अथ गुरुवचनमतिक्रामन्ति ततः छेदः, एवं वृषभवचनातिक्रमे मूलं, कुल स्थविरातिक्रमे पारश्चिकम् / अभीक्ष्णसेवायां तु पञ्चभिवीरेः पाराञ्चिकम् / एव प्रदीपेऽपि दक्षिणतो वामतचोरोपणाः नवरमाचार्यातिक्रमे मूलम्, वृषभातिक्रमे अनवस्थाप्यं, कुलगणसङ्घस्थविरातिक्रमे पाराञ्चिकम्। अभीक्ष्णसेवायां तु चतुर्भिवीरैः पाराञ्चिकम् / एवमुद्दीप्तप्रकाशेऽपि; नवरमाचार्यातिक्रमे अनवस्थाप्यम्, वृषीकुलगणसङ्घ स्थविराणां चतुर्णामप्यतिक्रमे पाराञ्चिकम् / अभीक्ष्णसेवायां तु त्रिभिवीरेः पाराश्चिकम्। एषा प्रथमा नौरवसातव्या। द्वितीयदयोऽपि वक्ष्यमाणा एवमेव स्थायाः। शिष्यः प्राह-कुलगणसंघस्थविरवचनमतिकामतां यद्गुरुतरं प्रायश्चित्तमुक्तं तदव किं कारणम् ? अत्रोच्यते-एते त्रयोऽपि स्थविरा आचार्यादपि गरीयांसो मन्तव्याः प्रमाणपुरुषतया स्थापितत्वात्। कथं पुनरेतेप्रमाणपुरुषा उच्यन्ते-- तिहि थेरेहिं कयं जं, सट्ठाणे तं तिगं न बोलेति। हेहिल्ला वि उवरिमे, उवरिमथेरा उ भइयव्वा / / 721 // त्रिभिः कु णसङ्घस्थविरैर्यद-व्यवहारादिविषयं कार्य
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________________ राइभोयण 515 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 राइभोयण कृतं तत्कार्यं स्वस्थानं त्रिकं कुलगुणसंघलक्षणं न बोलवतिः न व्यतिक्रामतीत्यर्थः / किमुक्तं भवति-कुलस्थविरेण कृतं कुलं नातिक्रामति, गणस्थवरेण कृतं गणो नातिक्रामति, संघस्थविरेण कृतं संघो नातिक्रामति। 'हेट्ठिल्ला वि उवरिमे त्ति' अधस्तनाः कुलस्थविरास्तेऽप्युपरितनैर्गणस्थविरैश्च कृतं नातिक्रामन्ति, तथा गणस्थविरेभ्योऽधस्तना ये संयतस्थविरास्तैः कृतं तद्गणस्थविरा नातिक्रामन्ति / उपरितना स्तु स्थविरा भक्तव्या-विकल्पयितव्याः, कथमिति चेद् ? उच्यते-कुलस्थविरैररक्तद्विष्ट्यकृतं तद्गणस्थविरा नान्यथा कुर्वन्ति, अथागमोक्तविधिमन्तरेण रक्तद्विष्टः कृतं ततस्तन्न प्रमाणयन्ति / एवं गणस्थविरैरपि यदरक्तद्विष्टः कृतं तत्संघस्थविरा नातिक्रामन्ति। अथ / रक्तद्विष्टेः कृतं ततो न प्रमाणयन्ति / एवमेतेषु गुरुतरं प्रायश्चित्तम्। अथद्वितीयतृतीयचतुर्थदर्शनार्थमाहचंदुजोएँ कों दोसो, अप्पपाणे य फासुये दवे / भिक्खूवसभायरिए, गच्छम्मि य अट्ट संघाडा / / 722 / / ज्योत्स्नाप्रकाशे भुक्त्वा समागत्य गुरूणामालोचयन्ति ततो भिक्षुभिः प्रतिनोदिता यदिसम्यगावर्तन्तेततश्चतुर्गुरुकमेव, अथब्रुवते-चन्द्रद्योते को नाम दोषः ? को वा स्वल्पप्राणेऽवगाहिमादौ प्राशुके, द्रव्ये ? एवं भणतां षड्लघवः, ततो वृषभैरभिधीयन्ते, आर्या ! मा भिषणामतिक्रम कुरुत, यद्यावर्त्तन्ते ततः षङ्लघुका एव, अथ वृषभानतिक्रमन्ति ततः षड्गुरुकाः, तत आचार्यरभिहिताः यथावृत्तास्ततः षड्गुरुका एव, अनावृत्तानां छेदः, 'गच्छम्मिय त्ति कुलगणसंघा इह गच्छशब्देनोच्यन्ते। ततः कुलेन भणिता यदि समुपरतास्ततः छेद एव, अथ नोपरमन्ते ततो मूलम् / गणेनाऽप्यभिहिता यद्यावृत्तास्ततो मूलम्, अथ नावृत्तास्ततोऽनवस्थाप्यम्। ततः संघेनाऽभिहिता यधुपरमन्ते ततोऽनवस्थाव्यम, अथ नोपरमन्तेततः पारञ्चिकम् / एषा प्रायश्चित्तवृद्धिदक्षिणतः कर्तव्या। अभीक्ष्णसेवायां द्वितीयं वारं ज्योत्स्नाप्रकाशे भुञानस्य षड्लघुकम्, तृतीयं वारं षड्गुरुकम्, चतुर्थं छेदः, पञ्चमं मूलम्, षष्ठमनवस्थाप्यम्, सप्तमं पाराश्चिकम्, एषा वामतः स्थापयितव्या। एवमपि प्रदीपोद्दीप्तप्रकाशेष्वपि भिक्षुवृषभव्यतिक्रमनिष्पन्ना दक्षिणतोऽभीक्ष्णसेवानिप्पन्ना तुवामतो यथाक्रमं प्रायश्चित्तवृद्धिः स्थापनीया / एषा द्वितीया नौरवमेव तृतीया कर्तव्या; नवरं तत्र ज्योस्त्नादिप्रकाशेषु भुक्त्वा न कस्याप्याचार्यादेः कथयन्ति, किं तु भिक्षुप्रभृतयः तेषां परस्परं संलापं श्रुत्वा अन्यस्माद्वा श्रावकादिमुखादाकर्ण्य तान् प्रति नोदयन्ति, शेषं सर्वमपि द्वितीयतो द्रष्टव्यम्, चतुर्थी पुनरियम्-भिक्षूणामतिक्रमे चतुर्गुरं, वृषभाणामतिक्रमे षडलघु, आचार्याणामतिक्रमे षड्गुरु गच्छस्य साधुसमूहरूपस्यातिक्रमे छेदः, कुलस्यातिक्रमे मूलम्, गणस्याऽतिक्रमे अनवस्थाप्यम्, संघस्याऽतिक्रमे पाराञ्चिकं यावत् वासतं स्थापनीया एवं ज्योत्स्नायामुक्तम्। मणिप्रदीपोद्दीप्तेष्वपि यथाक्रमंषड्रलघुषड्गुरुकच्छेदनादौ कृत्वा पाराञ्चिकान्तां दक्षिणतो वामतश्चैवमेव प्रायश्चित्तवृद्धिर्द्रष्टव्या। एषा चतुर्थी नौरुच्यते। एकैकस्यां च नावि द्वे द्वे प्रायश्चित्ते भवतः, तद्यथा-दक्षिणपार्श्ववर्तिनी वामपार्श्ववर्तिनी, च। ततश्चतसृषु नौषु सर्वसंख्ययाऽष्टौ लता लभ्यन्ते,तथा चाऽष्टौ सङ्घाटका मन्तव्याः, यत आह चूर्णिकृत्-"अट्टस घाड ति जोण्हामणिपदीवुद्दित्तेसु मूलपरिच्छित्ता चत्तारो तस्स इतो वि चत्तारि पच्छित्तलया उत्ति सव्वे ते अट्ठ संघाडगा। संघाड त्ति वा लय त्ति वा पगारो त्ति वा एगढ़ ति" अथ ज्योस्नदिविरहितं सामन्यतः प्रायश्चित्तमाहसन्नातगआगमणे, संखडि राओ य भोयणे मूलं / बितिए अणवठ्ठप्पो, ततियम्मि य होइ पारंची।। 723 / / संज्ञातककुले आगमनं कृत्वा संखड्यां वा गत्वा रात्रौ यदि भुङ्क्ते तदा मूलव्रतविराधनानिष्पन्नं मूलं नाम प्रायश्चित्तम् / द्वितीयं वारं रात्री भुञ्जानस्य अनवस्थाप्यं, तृतीयं वारंपाराश्चिकम्। अथवा-भिक्षोः रात्रौ भुजानस्य मूलम्, द्वितीय उपाध्यायस्तस्यानवस्थाप्यम्, तृतीय आचार्यस्तस्य रात्रौ भुजानस्य मूलम्, द्वितीय उपाध्यायस्तस्यानवस्थाप्यम्, तृतीय आचार्यस्तस्य रात्रौ भुजानस्य पाराञ्चिकम्। अथयदुत्कमल्पप्राणे प्राशुकद्रव्ये को दोष एष इति तदेतत्परिहरन्नाहजह विय फासुगदव्वं, कुंथूपणगाइ तह वि दुप्पस्सा। पचक्खनाणिनो वि हु, राईभत्तं परिहरति / / 724 / / 'यद्यपि तत्प्राशमुकद्रव्यमवगाहिमादि तथापि कुन्थुपनकादयः आगन्तुकाः, तदुद्भवाश्च जन्तवो रात्रौ दुर्दशा भवन्ति / किश्च-येऽपि तावत्प्रत्यक्षज्ञानिनः केवलिप्रभृतयस्ते यद्यपिज्ञानालोकेन तद्भवागन्तुकसत्त्वविरहितं भक्तपानं पश्यन्ति तथाऽपि रात्रिभक्तं पारहरन्ति मूलगुणविराधना मा भूदिति कृत्वा। अथ यदुक्तं चन्द्रप्रदीपादिप्रकाशे को दोष इति, तत्र . परिहारमाहजइ विय पिपीलियाई, दीसंति पईवजोइउज्जोए। तह वि खलु अण्णइन्न, मूलवयविराहणा जेणं / / 725 / / यद्यपि प्रदीपज्योतिषो रुपलक्षणत्वाचन्द्रस्योद्योते पिपीलिकादयो जन्तवो दृश्यन्ते, तथाऽपि खलु-निश्चये अनाचीर्णमिदं रात्रिभक्तम् / कुत इत्याह-मूलव्रतानां प्राणातिपातव्रतानाम्-प्राणातिपातविरमणादीनां प्रागुक्तनीत्या विराधना येन रात्रिभक्तेन भवति; अतो रात्रौ न भोक्तव्यम्। अथ 'गच्छम्मि यत्ति' पदं व्याचष्टेगच्छगहणेण गच्छो, भणाइ अहवा कुलाइओ गच्छो। गच्छग्गहणे व कए, गहणं पुण गच्छवासीणं / / 726 / / गच्छग्रहणेन गच्छः-साधुसमूहरूपस्त्रिरात्रिभक्तप्रतिसेवकान् भणति नोदयतीति मन्तव्यम् / यथा-चतुर्थ्यां ना वि चतुर्थे पदे, अथवागच्छग्रहणेन कुलादिकं-कुलगणसङ्करूपो गच्छो नोदयतीति मन्तव्यम्, यथा-सस्विपि नौपु, यद्वा--गच्छग्रहणे कृते गच्छवासिना ग्रहणं विज्ञेयं, तेषामेवेदं प्रायश्चित्तानिकुरम्बं न जिनकल्पिकादीनाम् / इह पूर्व भाष्यकारेण प्रथमा नौः परिस्पष्टमुपदर्शिता न द्वितीयादयः
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________________ राइभोयण 516 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 राइभोयण अतो यथाक्रमं तासां व्याख्यानमाहबिइयादेसे भिक्खू, भणंति दुर्ट में कयं ति बोलिंति। छल्लहु वसभे छग्गुरु, छेदो मूलाइ जा चरिमं / / 727 // द्वितीयादेशो नाम द्वितीयो नौसंस्थितः प्रायश्चित्तप्रकारस्तत्र तथैव भुक्त्वा गुरूणां निवेदिते भिक्षवो भणन्ति दुष्टमेव भवद्भिः कृतमिति, तच्च वचनं यदितेवालयन्तिन प्रतिपद्यन्ते तदा षङ्लघुकं, वृषभवचनातिक्रमे षगुरुकम्, आचार्याणामतिक्रमे छेदः, कुलस्थविरस्यप्रमाणीकरणे मूलम, गणस्थविरस्याप्रमाणने अनवस्थप्यम्, सङ्घस्थविरस्यातिक्रमे पाराश्चिकम्, एवं मणिप्रकाशादिष्वपि मन्तव्यम्, नवरं मणिप्रकाशे षड् गुरुकाद्, प्रदीपप्रकाशे छेदात्, उद्दीप्ते मूलादारब्धम्, अभीक्ष्णसेवायांतु सप्तभिरिः पाराञ्चिकम् / भावना प्रागेव कृता। तृतीया भाव्यतेततियादेसे भोत्तूण, आगया नेव कस्सइ कहिंति। तेसं ततो व सोचा, खिंसंतहं भिक्खुणो ते उ॥७२८॥ तृतीयादेशेतृतीयायां नावि तथैव भुक्त्वा समागताः सन्तो नैव कस्याऽपि कथयन्ति, नवरं भिक्षवस्तेषां परस्परं संलापं श्रुत्वा तैर्वा अन्यस्य कस्याऽपि श्रावकादेः कथितं ततो वा श्रुत्वा भिक्षवस्तान् कथयन्ति। अथ श्रवणानन्तरं खिंसन्ति खरण्टन्तीत्यर्थः। ___ खरण्टिताश्च यद्यतिक्रामन्ति तत इयं प्रायश्चित्तवृद्धिःभिक्खुणों अतिकमते, छल्लहुगा वसमें हॉति छग्गुरुगा। गुरुकुलगणसंघाइ-कमेइ छेदाइ जा चरिमं / / 726 / / भिक्षूनतिक्रामन्ति षड्लधुकाः गुरूणामतिक्रमे छेदः, कुलस्यातिक्रमे मूलम्, गणस्याऽतिक्रमे हनवस्थाप्यम्, सङ्घस्याऽतिक्रमे पाराञ्चिकम्। अथ चतुर्थी नावमुपदर्शयतिभिक्खू वसमायरिए, वयणं गच्छस्स कुलगणे संघे। गुरुगादतिकमंते, जा सपद चउत्थ आदेसे।। 730 // ज्योत्स्नप्रकाशादिषु भुक्त्वा गुरूणामालोचिता भिक्षुभिर्नोदिता / यद्यावृत्तास्ततश्चतुर्गुरुकाः, अथ भिक्षणां वचनमतिक्रामन्ति ततोऽपि चतुर्गुरु, वृषभाणां वचनमतिक्रामतः षड्लघुकाः आचार्यानतिक्रामतः षशुरुकाः, गच्छप्तमन्यमानस्य छेदः, कुलमप्रमाणीकुर्वतो मूलम्, गणमप्रमाणतोऽनवस्थाप्यम्, सङ्घ व्यतिक्रामतः स्वपदं पाराश्चिकम् / अभीक्ष्णसेवायामपि प्रथमे द्वितीये च वारे चतुर्गुरु तृतीयादिष्वमान्तेषु वारेषुषलघुकादि पाराञ्चिकान्तम्, एष चतुर्थ आदेशः-चतुर्थी नौः। अथपूर्वोक्तानेव प्रायश्चित्तवृद्धिहेतून् संदर्शयतिपेच्छध उ अणायारं, रत्तिं मुत्तं न कस्सइ कहिति। एवं एक्केक्कनिवे-दणेण वुड्डी उपच्छित्ते / / 731 // पश्यताममीषामनीचारं यदेवं रात्रौ भुक्त्वा न कस्याऽपि कथयन्ति, एवं भिक्षुभिः खरण्टिता यदि नावर्त्तन्ते ततो भिक्षवो वृषभाणां कथयन्ति। वृषभा गुरुणां, गुरवोऽपि कस्येत्यादि, एवमेकैकस्य वृषभादिनिवेदितेन प्रायश्चित्तस्य वृद्धिर्भवति। को दोसो को दोसो-त्ति भणंतं लग्गई वितियठाणं। अहवा अभिक्खगहणे, अहवा वत्थुस्स अइयारो। 732 / अग्निचन्द्रोद्योतादिषु को दोष इत्युत्तरोत्तरप्रदानेन द्वितीयं प्रायश्चित्तस्थानं लगति--प्राप्नोति, अथवा अभीक्ष्णग्रहणे पुनः पुनरासेवायाम, अथवा-वस्तुन आचार्योपाध्यायादिरूपस्य योऽतिचारो रात्रिभक्तलक्षणं तस्मात् प्रायश्चित्तवृद्धिर्भवति, यत एवं प्रायश्चित्तजालम् अतोन कल्पते चतुर्विधमपि रात्रिभक्तम्। कारणसद्भावात् पुनः कल्पते। तान्येव कारणनि दर्शयतिबिइयपयं गेलने, पढमे बिइए य अणहियासम्मि। फिट्टइ चंदगवेज्झं, समाहिमरणं च अद्धाणे / / 733 // द्वितीयपदं नाम-यदिवा गृहीतं दिवा भुक्तमित्यादिचतुर्मङ्गी प्रतिसेवनात्मकं तदागाढे म्लानत्वे आसेवितव्यम् / प्रथमद्वितीयपरीषनुरतायां वा 'अणहियासम्मि त्ति' असहिष्णुतायां वा, चन्द्रकवेधं नाम अनशनं तदसमाधिमुपगतस्य स्फिटति न निर्वहतीति भावः / अप्राप्तस्य यथा समाधिमरणं भवति तथा चतुर्भङ्गयाऽपि यतितव्यम्, अध्वनिच-तुपनि भङ्गेषु ग्रहणं कर्त्तव्यमिति द्वारगाथासमासार्थः / अथैनामेव विवरीषुग्लानत्वद्वारं व्याख्यानयतिपइदिणमलब्भमाणे, विसोहिमसमइचिउं पढमभंगो। दुल्लभदिवसंतेवा, अहिसूलरुयाइसं विइओ॥७३४।। एमेव तइयभंगो, आइतमो अंतए पगासो उ। दुहओ वि अप्पगासो, एमेव य अंतिमो भंगो / / 735 / / यदा ग्लानस्य प्रतिदिनं विशुद्ध भक्तपानं न लभ्यते, तदा पञ्चकपरिहाण्या विशोधिकिादयो दोषास्तेषु प्रतिदिवसं ग्रहीतव्यं यावचतुर्लघुकाः प्रायश्चित्तम्, यदा तदपि समतिक्रान्तस्तदा प्रथमो भङ्गो भवति, रात्रौ परिवारस्य दिवा दातव्यमित्यर्थः / तथा-दुर्लभंग्लानप्रायोग्यमशनादि द्रव्यम्, तच्च गृहीत्वा यावत्प्रतिश्रयमागच्छति तावदस्तमुपगतः सविता अतो दिवा गृहीत्वा रात्रौ ग्लानस्य दातव्यम्, अथवाकश्चिदिवसान्तेष्वहिना सर्पणखाद्येत, शूलरुपवा कस्यापितदानीमुद्भवेत् आदिग्रहणाद्-विषविसूचिकादिकादिष्वागाढेषुसमुत्पन्नेषु सर्पडाधुपशमनलब्धप्रत्ययमगदाद्योषमानीय यावद्दीयते तावदस्तंगतो रविः, अतो रात्रावपि दातव्यम् / एष द्वितीयो भङ्ग / एवमेव तृतीयो भङ्गो वक्तव्यः / यानि प्रथमद्वितीयभङ्गयोः कारणानि तानि तृतीयभङ्गेऽपि भवन्तिपि भावः / अत्र च भङ्गे आदौ तमोऽन्धकारं रात्रिपदमित्यर्थः / अन्ते च प्रकाशादिवा पदम्। अन्तिमश्चतुर्थो भङ्ग / सोऽप्येवमेव अहिदष्टादावागाढकारणे प्रतिसेवितव्यः,नवरमसौ द्विधाऽप्ययं प्रकाशो मन्तव्य इति। गतं ग्लानद्वारम्। ____ अथ प्रथमद्वितीयासहिष्णुपदानि व्याचष्टे-- पढमबितियाउरस्स, असहस्स हवेज अहव जुगलस्स। कालम्मिदुरहियासे , मंगचउक्केण गहणं तु / / 736 // प्रथमः क्षुधापरीषहो, द्वितीयः पिपासापरीषहस्ताभ्यामातुरस्य अहिष्णोर्वा स्थूलभद्रस्वमिलघुभातु श्रीयकक - ल्पस्य युगलं बालवृद्धरूपं तस्य वा असहिष्णोः काले
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________________ राइभोयण 517- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 राइभोयण वा दुरधिसहे अवसौन्दर्यलक्षणे भङ्गचतुष्केनाऽपि ग्रहणं कर्त्तव्यम्। / एमेव उत्तिमट्टे, चंदगवेज्झ सरिसे भवे भंगा। उभयपगासे पढमो, आदीयंते असचतमो।। 736 / / चन्द्रको नाम-चक्राष्टकेपरिवर्त्तिन्याः पुत्तलिकाया वामाक्षिगोलकः तस्य वेधः-ताडनं तत्सदृशे तद्विराधे उत्तमार्थे अनशने प्रतिपन्ने सति यदि कदाचिदसमाधिरूत्पद्यते तदास नमस्कारं नाराधयिष्यति असमाधिमृत्युना वा मा म्रियतामिति कृत्वा चत्वारोऽपि भङ्गा प्रयोक्तव्याः। तत्रच प्रथमो भङ्ग उभयप्रकाशो, द्वितीयो भङ्गः आदौ प्रकाशवान् अन्ते तमस्वान्, तृतीयोऽन्ते प्रकाशवान्, चतुर्थो भङ्गः सर्वत उभयथाऽपि मतो युक्तो रात्रौ गृहीत्वा रात्रौ चैव भोगभावादिति॥ अथाध्वद्वारं सविस्तरं व्याचिख्यासुराहअद्धाणम्मि व होज्जा, भंगा चउरो उतं न कप्पई उ। दुविहा उ हाँति उदरा, पोट्टे तह धन्नभाणा य / / 737 // अध्वनि वा वर्तमानानां चत्वारोऽपि भङ्गाः भवेयुः। परंतमध्वानं गन्तुमूवंदरेन कल्पतेतेचदरा द्वितिधाः, तद्यथा-पोट्टदरा, धान्यभाजनदराश्च। पोट्ट सुन्दरं तद्भवा दरापोट्टदराः, धान्यभाजनानि कटपल्यादयः तान्येव दरा धान्यभाजनदराः। ऊर्ध्वं यत्र पूर्यन्ते तत्तूवंदरमुच्यते। उद्धदरे य सुभिक्खे, अद्धाण-पवजणं तु दप्पेणं / लहुगा पुण सुद्धपए, जं वा आवजई जत्थ / / 738 / / ऊर्ध्वदरमनन्तरोक्तं सुभिक्षम्-सुलभभैक्षम्, अथ चत्वारो भङ्गाः ऊर्ध्वदरमपि सुभिक्षमपि १,ऊर्ददरमसुभिक्षम् २,सुभिक्ष नोवंदरम् 3, नोर्ध्वदरं न सुभिक्षम् 4 , अत्र द्वितीयचतुर्थभङ्गयोरध्वगमनं कर्त्तव्यम्, अथ प्रथमतृतीयभड़योरध्वप्रतिपत्तिं दर्पतः करोति तदा ऊर्ध्वपदेऽपि चत्वारो लघुकाः, यद्वा-यत्र संयमविराधनादिकमापद्यते तत्र तप्पिष्पन्न न प्रायश्चित्तम्। . प्रथमतृतीयभङ्गयोरप्येतैः कारणैर्न गन्तुं कल्पत इति दर्शयतिनाएट दसणट्ठा, चारित्तहेवमाइ गंतव्वं। उवगरणपुष्वपडिले-हिएण सत्थेण गंतव्वं // 736 // ज्ञानार्थ दर्शनार्थं चरित्रार्थम्, एवमादिभिः कारणैर्गन्तव्यम्, गच्छद्भिच तलिकादिकमुपकरणं ग्रहीतव्यम्, पूर्वप्रत्युपेक्षितेन च सार्थेन सह गन्तव्यमिति नियुक्तिगाथासमासार्थः। अथैनामेव व्याख्यानयतिसुगुरुकुलसदेसे वा, नाणे गहिए सति य सामत्थे। वबइ उ अन्नदेसे, दंसणजुत्ताइ अत्थो वा।। 740 // ज्ञानम् आचारादिश्रुतं तद्यावत् गुरुणां समीपे सूत्रतोऽर्थतश्च विद्यते तावति सम्पूर्णे गृहीते ततः स्वदेशे यदात्मीयं कुलं तत्र तदभावे परकुलेवा गत्वा शेषश्रुतग्रहणं कर्त्तव्यम् / अथ नास्ति स्वदेशे तथाविधः कोऽपि बहुश्रुत आचार्यस्ततोऽन्यं देशं गच्छति, तत्राऽपि ये आसन्ने एकवाचनाचार्यास्तेषां समीपे अवशिष्यमाणश्रुतं गृह्णाति, यदा च परिपूर्णमपि | विवक्षितयुगसम्भवि श्रुतं गृहीतं तदा यद्यात्मनः प्रतिभादिसामर्थ्यमास्ति ततो 'दंसणजुत्ताइ अत्थो व त्ति दर्शनविशुडिः कारणीय, गोविन्दनियुक्तिरादिशब्दात्-भङ्गादितत्त्वार्थे प्रवृत्तिं गच्छेत् शास्त्राणि तदर्थस्तत्प्रयोजनं तेन प्रमाणशास्त्रकुशलानामाचार्याणां समीपे गच्छेत् / / अथ चारित्रार्थमिति द्वारमाहपडिकुट्ठदेसकारण, गया उ तदुवरम्मि नितिय चरणट्ठा। असिवाई व भविस्सइ, भूते व वयंति परदेसं / / 741 // सिन्धुदेशप्रभृतिको योऽसंयमविष्ज्ञयः स भगवता प्रतिष्ठो न तत्र विहर्तव्यम्, परंतं प्रतिषिद्धदेशमशिवदिभिः कारणैर्गताः,ततो यदा तेषां कारणानामुपरमः परिसमाप्तिर्भवति तदा चारित्रार्थ ततोऽसंयमविषयानिर्मच्छति निर्गत्य च संयमविषयं गच्छन्ति / यद्वा-तत्र क्षेत्रे वसतां निमत्तबलेन ज्ञातं यथा अशिवादिकमत्र भविष्यति / अथवा-भूतमापन्नमत्राशिवदिअतः परदेशंब्रजन्ति, एवमादिभिः कारणैरध्वागन्तव्यतया निश्चित्य गच्छोपग्रहकरमिदमुपकरणं गृह्णन्ति। चम्माइलोहगहणे, नंदीमाणे य धम्मकर(णे य) यस्स। परउत्थियउवगरणे, गुलियाओ खोलमाईणि / / 742 / / एककम्मि य ठाणे, चउरोमासा हवंतिऽणुग्धाया। आणादिणे य दोसा, विराहणा संजमाई य॥७५३ / / चर्मशब्देन चर्ममयं तलिकाधुपकरणं गृह्यते आदिशब्दात् सिक्थकादिपरिग्रहः / लोहग्रहणेन पिप्पलकादिलोहमयोपकरणेन ग्रहणमध्वनि गच्छतो कर्त्तव्यम्। नन्दीभाजनं धर्मकारकस्य, तया परतीर्थिकोपकरणं वक्ष्यमाणरूपं, तथा गुलिका नामतुंबवृक्षचूर्णगुटिका, खोला गोरसभवाविता नियमत एवमादीन्युपकरणानि ग्रहीतव्यानीति गाथाद्वयसमासार्थः। अथाऽस्या एवाद्यपदं व्याचिख्यासुः प्रतिद्वारगाथामाहतलिय पुडगाव खेल्लय, कोसग कत्तीय सिक्कए काए। पिप्पलगसूइआरिय, नक्खचणि सत्थकोसे च // 744 // तलिका-उपनाहः, पुटकानि खेल्लकानिच, प्रतीताः कोशकोनखभङ्गरक्षार्थ यत्रामुल्यः प्रक्षिप्यन्ते, कृत्तिः-चर्म सिक्थकं प्रतीतं कायो नाम-कायोतिका, पिप्पलकः सूची आरिका च प्रतीता, नखार्चनीनखहरणिका, शस्त्रकोशः-शरखेधादि-शस्त्रसमुदायः इति प्रतिद्वारगाथासंक्षेपार्थः। बृ०१ उ०३ प्रक०(तलिय०"७४५ गाथा'तलिया' शब्दे चतुर्थभागे 2166 पृष्ठे गता) कोसग नहरक्खऽहा, हिमाहिकंटाइपचखपुसादी। कत्ती वि विकरणणट्ठा, विवित्त पुढवाइरक्खट्ठा / / 746 // अङ्गुलीकोशे नखभङ्गारक्षार्थ गृह्यते, स च पादयोरङ्गुल्यो रङ्गुष्ठके च प्रक्षिप्यते, तथा हिमं-शीतम्, अहिकण्टको प्रतीर्ता,तदादिप्रत्ययाय रक्षणार्थम् खपुसा आदिशब्दार्द्धजडिकादयश्च गृह्यन्ते। कृत्तिः चर्म तत्प्रलम्बादि विकरणार्थं मा धूल्या लोलीयभावमनुभूय मलिनानि भवन्त्विति कृत्वा 'विवित्तं ति' ते साधवः कदापि स्तेनैर्विविक्ता मुषिता भवेयुः ततो वस्त्राऽभावे कृत्तिं प्रावृण्वन्ति, यत्र वा पृथिवीकायो भवति तत्र कृत्तिं प्रस्तीर्य समुपविशन्ति, एवं पृथिवीकायरक्षा
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________________ राइभोयण 518- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 राइभोयण आदिशब्दात्-प्रतिलोमे वनदवे तृणरहिप्रदेशाभावे कृत्तिं प्रस्तीर्य तिष्ठन्तीति कृत्वा तेजःकायरक्षाऽपि कृता स्यात् / गतं चर्मद्वारम्। अथाऽऽदिग्रहणलब्धे सिक्कककापोतिके . व्याख्यानयतितहिं सिक्कएहि हिंडति, जत्थ विवित्ता व पल्लिामणं वा। | परलिंगग्गहणम्मि वि, निक्खिवणट्टा व अन्नत्थ।। 747 // यत्र विविक्ता मुषितास्तत्र बन्धाभावे चौरपल्यां वा भिक्षार्थ गमनं विदधाना अलाबुकानि सिक्ककेषु कृत्वा हिण्डन्ते, चक्रचरादिलिन वा भक्तपानग्रहणे प्राप्ते सिक्ककेन पर्यटितव्यम्, अथ कल्पादेर्वा सिक्कके निक्षेपणं कार्य प्रलम्बादिकं वा सिक्ककेष्वानीयान्यत्र स्थविरगृहादौ निक्षिप्यते। जे चेव कारणा सि-कगस्स ते चेव होंति काये वि। कप्पुवधी वालादी, व वहिति तेहिं पलंबे वा / / 748|| यान्येव कारणानि सिक्ककस्योक्तानि तान्येव कार्यऽपि कापोतिकायामपि भवन्ति, यद्वा सिक्कककापोतिकयोरपि उपयोगः, कल्पम्अध्वकल्पम् उपधिमाचार्यासहिष्णुप्रभृतीनां बालादीन् वा प्रलम्बानि वा उपलक्षणत्वादाकस्मिकमूलविद्धं वा ताभ्यां सिक्क्ककापोतिकाभ्यां वहति। अथ लोहग्रहणद्वारं भावयतिपिप्पलओं विकरणहा, विवित्तजुन्ने व संधणं सूई। आरतलिसंधणहा, नखबण नक्खकंटाई||७VE|| पिप्पलकः प्रलम्ब विकरणार्थ गृह्यते। यद्वा विविक्तानां यदवशिष्यमाणं वस्त्रं यथा स्वभावजीर्ण तस्य सन्धानार्थ वा सूची ग्रहीतव्या, त्रुटिततलिकानां सारा गृह्यते, नखार्चनं नखहरणिका सा नखच्छेदनार्थ कण्टकादिशल्योद्धरणार्थ वा गृह्यते, शस्त्रको वा पुनरयं शिरावेधशस्वकं पच्छणशस्त्रकं भेदकण्टिका संदंशिका। एवमादिकस्य शस्त्रकोशस्योपयोगदर्शयतिकोसाहि सल्लकंटग, अगदोसधमाइयं तु वग्हणा। अहवा खेत्ते काले, गच्छे पुरिसे य जं जोगं / / 750 / / शस्त्रकोशेनेदं प्रयोजनम्, अहिः-सर्पस्तेन यावन्मात्रमङ्गभवष्टम्भो वा छिद्यते, शल्यं वा कण्टको वनखहारणिकया हर्तुमशक्यस्तेन उध्रियते। इह प्रतिद्वारगाथायां 'सत्थकोसेय त्ति' यश्चशब्दस्तद्ग्रणादगदौषधदिकं गृहीतस्य यदनेकद्रव्ये निष्पन्नं तदगर्हः यत्पुनरेकानिकंतत्सर्वमप्यौषधम्, 'अथवा' शब्दोपादानात् दक्षिणापथादौ यद्यत्र दुर्लभं काले-ग्रीष्मादौ यत्तु शक्नुपभृतिकं शीतलद्रव्यमुपयोगि महति गच्छे वा शक्तुरेव इत्यादिकं साधारण पुरुषस्य वा आचार्यदर्यस्य यद्योग्यं तद्यथायोगं गृहीतव्यम्। बृ० १उ०३ प्रक०। (नन्दीभाजनचर्मकरकयोरुपयोगप्रतिपादिका "एक्क भरेमि" (751) इत्यादि गाथा। एंदिभाण' शब्दे चतुर्थभागे 1757 पृष्ठेउक्ता) परतीर्थिकोपकरणमाहपरितिथिउवगरणं,खेत्ते काले य जंतु अविरुद्ध / तं रयणितलं पुट्ठा, पडिणीऍ दिया वा कोट्टादी।। 752 / / परतीर्थिका बद्धाग्निकादयस्तेषां सम्बन्धि उपकरणं यत्र क्षेत्रे काले वा अविरुध्दमर्चितं तत् रजनयां भक्तपानग्रहणार्थी प्रलम्बानयानार्थं वा कर्तव्यम्,यत्र वा प्रत्यनीका भवन्ति तत्र पर तीर्थिकवेषच्छन्ना गच्छन्ति, भक्तपानं वा उत्पादयन्ति। म्लेच्छकोट्ट वा गताः परतीर्थिकवेषेण दिवा पुद्गलाऽऽदिकं गृह्णन्ति आदिशब्दात्-प्रत्यन्तकोट्टादिपरिग्रहः।। अथ गुलिका-खोले द्वारे व्याख्यानयतिगोरसमावियपोत्ते, पुवकयदव्वस्स संभवे बोधे। असई य तु गुलियम्मि य, सुन्ने नवरंग दइयादि। 753 // गोरसभावितानि वस्त्राणि खोलानि भण्यन्ते; तेषु पूर्वकृतेषु अध्वानं प्रविष्टानां यदा प्राशुकद्रव्यस्यासम्भवस्तदानीं पोतानि भावयेयुः प्रक्षालयेयुः, अगीतार्थप्रत्ययोत्पादनार्थवाऽऽलोच्यते गोकुलादिदं संम्रष्टपापकमानीतम् / अथ न सन्ति खोलानि ततो गुलिकाः तुवरवृक्षचूर्णगुलिकाः तद्भावितपानकं प्राशुकीकृत्य मृगा अगीतार्थाः तेषां चित्तरक्षणार्थं शून्ये ग्रामे प्रतिसार्थिकादीनां नवरं गच्छतिकादेरिदं गृहीतमित्यालोचयन्ति। विशेशचूर्णोतु गुलिकाखोलपदे इत्थं व्याख्याते-"जत्थय पव्वयकोट्टासु पंडुरंगादी पुजंति संजयाण भे पडिणीया होज्जा तत्थ गुलिय त्ति वक्कलाणि घेप्पंति / खोल त्ति सीसखोलाति एरिसं वेढियव्वं / जहा न भज्जइलोयहयं सीसं ससरक्खणट्ठाए वा। अथैषामुपकरणानां ग्रहणं करोति ततः-- एकेडम्मि य ठाणे, चउरो मासा हवंति ऽणुग्घाता। आणाइणो य दोसा, विराहणा संजमायाए।। 754 / / एकैकस्मिन् स्थाने एकैकस्योपकरणस्य ग्रहणे इत्यर्थः, च-त्वारो मासा अनुद्धाता--गुरवो भवन्ति, आज्ञादयश्चदोषाः, विराधना संयमात्मविषया। अमुमेवार्थं स्पष्टतरमाहणमाइअणागयदो-स रक्खणट्ठा अगेण्हणे गुरुगा। अणुकूले निग्गमओ, पच्छा सत्तस्स सउणेणं / / 755|| एवमादीनामुपकरणानामनागतमेव संयमात्मविराधनादिरक्षणार्थं ग्रहण कर्तव्यम्। अथ न गृह्णति ततः प्रत्येकं चत्वारो गुरवः / गतमुपकरणद्वारम् / अथ पूर्वप्रत्युपेक्षितेन सार्थेन गन्तव्यमिति व्याख्याति / 'अणुकूले' इत्यादि, अनुकूलं चन्द्रबलं ताराबलं वायदा सूरीणां भवति तदा निर्गमकः प्रस्थान क्रियते, निर्गताश्चोपाश्रयाद्यावत् सर्वेन प्राप्नुवन्ति तावद्यात्मनैव कुशलं गृह्णन्ति साथ प्राप्तास्तुसार्थं 'सउनेन' शकुनेन गच्छन्ति। इदमेव सविशेषमाहअप्पत्ताण निमित्तं, पत्ता सत्थम्मि तिन्नि परिसाउ। सुद्धेति पत्तआणं, अद्धाणे भिक्खपडिसेहो।। 756 // सार्थे अप्राप्तानां निमित्तं शकुनग्रहणं भवति, प्राप्तानां तु यः सार्थस्य, यथा कुलसंयतानामपि भवति / सार्थ च प्राप्ताः सन्तस्तिस्रः परिषदः कुर्वन्ति / तद्यथा-सिंहपरिषदम्, मृगपरिषदम् / तथा सर्वशुद्धो निर्दोष इति कृत्वा स्थिताः, परं यदा अध्वनि अटवीं प्राप्ता
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________________ राइभोयण 516 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 राइभोयण भवन्ति तदा कोऽपि प्रत्यनीको भिक्षायाः प्रतिषेधं कुर्यादिति / बृ०१ / भवति ततस्तेषां प्रज्ञापना कर्तव्या। भो भद्रा ! नास्यशरीरविरहितो उ०३ प्रक०। (अथ सिंहादीना पर्षदा व्याख्या परिसा' शब्दे पञ्चमभागे धर्मः, अत इदं शरीरं सर्वप्रयत्नेन रक्षणीयं, पश्चादिदं चान्यत्र प्रायश्चित्तेन 648 पृष्ठे गता) 'अट्ठसुद्धित्ति 'अपत्तयाणं ति' पदं व्याख्ययायते- विशोधयिष्याम इति / साधुभिः प्रथमत एव सार्थाधिपतिराभिधातव्यः, वयं युष्माभिः समं अथ पूर्वोक्तानां तिसृणामपि पर्षदां गमनविधिमाहव्रजामोयद्यस्माकमुदन्तसुद्धहत, एवमुक्तं यद्यर्थमसावभ्युपगच्छतिततः पुरतो वचंति मिगा, मझे वसभा उ मग्गओ सीहा। शुद्धसार्थ इति मत्वा प्रस्थिताः परमटवीं प्राप्तानां कोऽप्येवं कुर्यात्- पिट्टउ वसभाऽग्नेसिं, पडिया सहु रक्खगा दोण्हं // 762 / / सिद्धत्थगपुप्फे वा, एवं वुत्तुं पि निच्छुभइ पंतो। पुरतो मृगा अगीतार्थामध्ये वृषभाः मार्गत सिंहा गीतार्था व्रजन्ति, भत्तं वा पडिसेहइ, तिण्हणुसट्टाइ तत्थ इमा / / 718 // अन्येषमाचार्याणा मतेन पृष्ठतो वृषभा व्रजन्ति / किं कारणमित्यत सिद्धार्थाः सर्षपाश्चम्पकपुष्पाणि वा शिरसि स्थापितानि काश्चिदपि आह ?-द्वयानां मृगसिंहानां बालवृद्धानां वा ये पतिताः परिश्रान्ता ये पीडां न कुर्वन्ति एवं यूयमपि मम कमपि भारं न कुरुध्वम्, एवमुक्त्वाऽपि चासहिष्णवः क्षुणापिपासापरीषहाभ्यां पीडितास्तेषां वृषभाः पृष्ठतः कश्चित्प्रान्तो भिक्षपासकादिरटवीमध्ये सान्निष्काशयतिनास्माभिः स्थिता व्रजन्ति। सार्धमागच्छति, भक्तपानं वा प्रतिषेधयति, मा अभीषां कोऽपि किञ्चिदपि अथवादद्यात्। ततस्रयाणां सार्थवाहायात्रिकाणामनुशिष्यादिका इयं यतना पुरतो अपासतो पि-दुतो य वसभा हवंति अद्धाणे। कर्तव्या गणवइपासे वसभा, मगमज्झे नियम वसभेगो / / 763 / / अणुसिट्ठी धम्मकहा, विजनिमित्ते पउस्सकरणं वा। अध्वनि व्रजतां वृषभाः पुरतः पार्श्वतः पृष्टतश्च भवन्ति गणपतिपरउत्थियाय वसभा, सयं च थेरी य चउंभो / / 756 / / राचार्यस्तस्य पार्श्वे नियमादेववृषभा भवन्ति, मृगाणां च मध्ये नियमादेको यदि लोकापायप्रदर्शनं क्रियतेसा अनुशिष्टिरूच्यते, यत्पुनरिह परस्त्रच वृषभो भवति। स्वयं च कर्मविपाकोपदर्शनं साधर्मकथा, तसा अनुशिष्ट्या धर्मकथया तेच वृषभा किं कुर्वन्तीत्याहवा सार्थवाह आपत्तिका वा उपसमयितव्याः / विद्यया मन्त्रेण वा वशी वसभा सीहेसु मिए-सुमेव थमावहारिविजढाउ। कर्तव्याः, निमित्तेन वा आवर्तनीयाः।यो वा प्रभुः सहस्रयोधी बलात् स जो जत्थ होइ असह, तस्स तह उदग्गहं कुणति / / 764 // सार्थवाहं बध्वा स्वयमेव सार्थमधिष्ठाय प्रभुत्वं करोति। एषा निष्काशने वृषभाः स्थामापहारवमुिक्ता अनिगृहीतबलवीर्याः सन्तो मृगेषु सिंहेषु यतना। भिक्षाप्रतिषेधे पुनरियम्-सर्वथा भिक्षाया अलाभे वृषभाः वायो यत्र तेषां मध्ये असहिष्णुर्भवति, तस्य तथा उपग्रहं कुर्वन्ति। परयूथिकाः भूत्वा भक्तपानमुत्पादयन्ति, सार्थवाहं वा प्रज्ञापयन्ति यदि कथमित्याहच-सार्थेऽपि गीतार्थस्ततः स्वयं स्वलिङ्गैनैवरात्रिभक्तविषयया चतुर्भग्या भत्ते पाणे विस्सा-मणे उवगरण देहवहणे य।। यतन्ते, अथ गीतार्था मिश्रास्ततः स्थविराया गृहे निक्षिपन्ति। अमुमेवान्त्यपदं व्याख्यानयति थामावहारविजढा, तिण्णि वि उवगिण्हए वसभा।। 765 // .. पडिसेह अलंभे वा, गीयत्थेसु सयमेव चउभंगो। मृगाणां सिंहानां वृषभाणां च मध्ये यः क्षुधातॊ भवति; तस्य भक्तं थेरिसगासं तु गिए, पेसे तत्तो व आणीयं // 760 // प्रयच्छन्ति, पिपासितस्य पानकं ददति, परिश्रान्तस्य विश्रामणां सार्थाधिपतिना भक्तपानस्य प्रतिषेधः कृतो, यद्वा-न प्रतिषेधः परं कुर्वन्ति / य उपकरणं देह वा बोढुं न शक्रोति, तस्य तयोर्वहनं कुर्वन्ति। स्तेनेः सार्थः सर्वोऽपि लुण्ठितः अतो भक्तपानं न लभ्यते, ततः सर्वेऽपि एवं स्थानापहारविमुक्ता वृषभास्त्रीनपि-मृगसिंहवृषभानुपगृहन्ति। गीतार्थास्तदा स्वयमेव परलिङ्गमन्तरेण रात्रिभक्तचतुर्भङ्गी यतनया जो सो उवगरणगणो, पविसंताणं अणागयं भणिओ। प्रतिसेवितव्या। गाथायां पुस्त्वं प्राकृतत्वात्। अगीतार्थमिश्रास्ततो यदि सहाणासवाणे, तस्सुवओगो इदं कमसो।। 766 / / तत्र सार्थे भद्रिका स्थविरा विद्यते तदा तस्याः समीपे निक्षिपन्ति, ततः अध्वनि प्रविशतां योऽसौ तलिकादिरुपकरणगणः अनागतं भणितः, स्थविरायाः सकाशं मृगान् प्रेष्य तेषां पाश्वर्वादानाययेत् / ततो वा तस्येह स्वस्थानास्वस्थाने अचक्षुर्विषयगमनादावुपस्थिते क्रमशः-क्रमेण स्थविरासमीपादायान्तमिति भणति। उपयोगः कर्त्तव्यः। येन यदा प्रयोक्तव्यमिति भावः। . अथवा असई य गम्ममाणे, पडिसत्थे तेणसुन्नगामे वा। कुत एवं पल्लीउ, सड्ढा थेरीपडिसस्थिगओ वा। रुक्खाईण पलोयण, असई नंदी दुविहदवे // 767 // नायम्मि य पन्नवण, नहु असरीरो भवइ धम्मो // 761 // तत्राध्वनि गम्यमाने भक्तपानस्य प्रतिसाथै वा स्तेनपल्ल्यां वा शून्यग्रामे वृषभैः स्थविरासमीपादानीते सतियदितेमृगाः प्रश्नयेयुः कुत एतदानीतं वा भक्तपानादिनिमित्तं प्रलोकनं कर्त्तव्यम्। सर्वथा संस्तरणासनं द्विविधं ततो वक्तव्यम्, पल्ल्याः सकाशादिदमानीतम्, दम्भदिश्राद्धैर्वा दत्तं, परीतानन्तादिभेदाद् द्विप्रकारे यद् द्रव्यं तेन तथा नन्दिः-तपःसंयमस्थविरया वा वितीर्णं, प्रतिसार्थिकाद्वा लब्धम्, एवमपि यदि तैमृगैतिं / योगानां स्फूतिर्भवति तथा विधेयमिति नियुक्तिगाथासमासार्थः /
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________________ राइभोयण 520- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 राइभोयण अथैवानामेव विवरीषुराहमत्तेण व पाणेण व, निमंतए गुग्गए व अत्थमिए। आइयो उदिय त्तिव, गहणं गीयत्थसंविम्गे।। 768|| अध्वानं गच्छतां यदि कोऽपि प्रतिसार्थो मिलितः। तत्र केचिद् श्राद्धा भक्तेन वा पानेन वा रात्रावनुगते वा अस्तमितेवा सूर्ये निमन्त्रयेयुः यदि सर्वेऽपि गीतार्थाः ततो गृह्णन्ति। अथ गीतार्थमिश्रास्ततो गीतार्था ब्रुवतेगच्छत यूयं, वयमुदित आदित्ये भक्तं पानं गृहीत्वा सार्थमनुगच्छन्ति। स्थिते सार्थे मृगाणां शृण्वतामालोचयन्ति / आदित्य उदित इति मत्या वयं ग्रहणं कृत्वा समागताः, एवंविधा यतनां गीतार्थः संविनः करोति। किमर्थं गीतार्थसंविग्नगहणमित्याहगीयत्थम्हणेणं, समाए गिण्हते भवे गीओ। संविग्गग्गहणेणं, तं गेण्हंतो वि संविग्गो / / 766 / / गीतार्थग्रहणेन इदमावेदितं, यो गीतार्थो भवति स एवं श्यामायां-रात्रौ / गृह्णाति, नागीतार्थः। संविग्नग्रहणेन तु तद्रात्रिभक्तं गृह्णन्नपि असौ संविग्न एवेत्युक्तं भवति। गतं प्रतिसार्थद्वारम्।। अथ स्तेनपल्लीद्वारं तस्यां च पिशितं सम्भवति, तत्राऽयं विधिःबेइंदियाणं, संथरणे चउलहुं व सविसेसा। तेचेव असंथरणे, विवरीयसभावसाहारे।। 770 / / यदि संस्तरणे द्वीन्द्रियादीनां पुद्गलं गृहन्ति, तदा चतुर्लघवः / सविशेषास्तपःकालविशेषिताः / तद्यथा-द्वीन्द्रियपुगलं गृह्णति सति चत्वारो लघवः, तपसा कालेन चतुर्लघुकाः। त्रीन्द्रियपुद्रलेन त एव कालेन गुरुकास्तपसा लघुकाः / चतुरिन्द्रियपुद्गलेन तपोगुरुकाः / अथापववादव्याप्यापवाद उच्यते द्वीन्द्रियादीनां पुद्गलमधिकतरेन्द्रियपुद्गलादधिकतरबलम्, ततो यत् स्वभावेनैव साधारणं तदुपगृह्णन्तिजत्थ विसेसं जाणं-ति तत्थ लिंगेण चउलहू पिसिए। अन्नाए ण उगहणं, सत्थम्मि वि होइ एमेव / / 771 / / यत्र ग्रामे विशेष जानन्ति यथा-साधवः पिशितं न भुञ्जते, तत्र यदि स्वलिङ्गेनेत्यर्थः / तेन पल्ल्यादीनामभावे सार्थेऽपि पुद्गलग्रहणे एष च कमो विज्ञेयः। अथ शून्यग्रामद्वारमाहअद्धाणे संथरणे, सुन्ने दवम्मि कप्पई गहणं / / लहुओ लहुया गुरुगा, जहन्नए मज्झिमुक्कोसे / / 772 // अध्वप्रतिपन्नानामसंस्तरणे जाते शून्यग्रामे तं सार्थमायान्तं दृष्ट्वा चौरसेना समागच्छतीति शङ्कयोद्वसिते ग्रामे जघन्यमध्यमोकृष्टभेदभिन्नस्य द्रव्यस्य आहारादिग्रहणं कर्तुं कल्पते, अथ संस्तरे गृह्णति तत इदमायातं प्रायश्चित्तं-जधन्ये मासलघु मध्यमे चत्वारो लघवः उत्कृष्ट चत्वारो गरवः। आह-जघन्यमध्यमोत्कृष्टान्येव वयं नजानीमः। अतो निरूप्यतामेतत्स्वरूपम्। उच्यतेउक्कोसं विगईओ, मज्झिमर्ग होइ कूरमाईणि। दोसऽण्णाइ जहन्नं , गिण्हते आयरियमादी / / 773 / / उत्कृष्टद्रव्यं विकृतयो-दधिदुग्धघृतादयः, मध्यमंद्रव्यंकूरूकुसण-दीनि, जघन्यं द्रव्यम्-दोषान्नादि। एतानि गृह्णतामार्यादीनामाज्ञादयो दोषाः। __ अथ पुरुषविभागेन प्रायश्चित्तमाहअद्धाणे संथरणे, सुन्ने गामम्मि जो उ गिण्हेजा। छेदादी आरोवण, नेयव्वं जाव मसलहू,॥ 774 / / अध्वनि संस्तारणे शून्यग्रामे विकृत्यादि द्रव्यं यो गृह्णीयात्तस्य छेदमादौ कृत्वा मासघुकं यावदारोपणा ज्ञातव्या। इदमेव स्पष्टतरमाहछेदो छग्गुरु छल्लहु, चउगुरु चउलहु य गुरुलहू मासो। आयरियवसभभिक्खू, उक्कोसे मज्झिमजहन्ने // 775 / / आचार्यस्य विकृत्यादिकमुत्कृष्टद्रव्यं शून्यगामे अन्तद्रव्यं गृह्णतः छेदः, अदृष्टं गृह्णतः षड्गुरुकाः, बहिदृष्ट षड्लधुकाः, अदृष्ट चतुर्गुरवः, जधन्य दोषान्नदिकमन्तदृष्टं गृह्णतः षड्लघुकाः चतुर्गुरवः, बहिदृष्ट चतुर्गुरवः अदृष्ट चतुर्लधकाः, एवमाचार्यास्योक्तम्। वृषभस्यानयैव चारणिकया षड्गुरुकादारब्धं मासगुरुके, भिक्षोस्तु षङ्लघुकादारब्धं मासलघुके तिष्ठति यत एवमतः संस्तरेण ग्रहीतव्यम्। असंस्तरेण न ग्रहीतव्यम्। असंस्तरेण गृह्णतां यतनामाह-- विलओलए व जायइ, अहवा कडवलए अणुन्नवए। इयरेण व सत्थभ्या, अन्नभया वृहिते को?।। 776 // 'बिलओलग त्ति' देशीपदत्वात् लुण्ठाका यैः स ग्रामो मुषित इत्यर्थः। तत्र शून्यग्रामे विकृत्यादि द्रव्यं याचते / अथवा-कटपालका ये तत्र वृद्धादयः, अजङ्गमाः गृहपालकाः स्थिताः नष्टास्तान् तज्ज्ञापयेत् 'इयरेण व त्ति' स्वलिङ्गेन अलभ्यमाने इतरेण-परेण परलिङ्गेनाऽपि गृह्णन्ति। तथा कोट्ट नाम यद्रव्यं चतुर्वर्णजनपदमिश्रंभिल्लदुर्ग वसतिः तस्मिन्नपि सार्थभयादाअन्यभयाद्वापरचक्रगमादिलक्षणादुत्थितेउनसीभूते सति जघन्यादिरूपद्रव्यस्य ग्रहणं कल्पते। तत्रेयं यतना-- उदूढसेसबाहूहि, अंतो वी पंत गिण्हतं दिटुं। बहिअंततओ दिलं, एवं मझे तदुक्कोसे // 777 // उदूदंति' देशीवचनत्वान्मुषितस्य यच्छेषं लुण्ठकै क्त्वा ग्रामादेवहिः परित्यक्तं तजघन्यमदृष्ट गृहन्ति, तस्यासतिग्रामादेरन्तः प्रान्तं दृष्ट्वा ततो ग्रामोदेरन्तेऽपि प्रान्तं दृष्ट्वा गृहन्ति / तथा लाभे मध्यमेऽप्येवमेवेचारणीयम्, तदप्राप्तावनुत्कृष्टमप्यनयैव चारणिकया ग्रहीतव्यम् / अथवाकिमनेन जधन्यादिविकल्पदर्शनन। तुल्लम्मि अदत्तम्मि, तं गिण्हसु जेण आवइं तरसि / तुल्लो तत्थ अवाओ, तुल्ल्बलं वज्जए तेणं / / 778 // जघन्यमध्यमोत्कृष्ट तुल्ये-समाने अदत्तदोषे सति तद्विकृत्यादिकं द्रव्यं गृहाण येन आपदमसंस्तरणलक्षणं तरसिपारं प्रापयसि, यतस्तुल्य एव तत्र संयमात्मविराधनारूपोऽप्रायः तेन हेतुना स्वबलं दोषान्नदिद्रव्यं वर्जयेः / गतं शून्ययामद्वारम।
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________________ राइमोयण 521 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 राइभोयण अथ 'रुक्खाईण पलोयण' त्ति पदं व्याख्यानयतिफासुग जोणिपरित्ते, एगट्ठिय ववभिन्नभिन्ने य। व(ख)ट्टिये विएवं, एमेवय होइ बहुवीए।। 776 // प्राशुकम्-अचित्तीभूतं, परीत्ता योनिरस्येति परीत्तयोनिका, गाथायां प्राकृतत्वाद् व्यत्यासेन पूर्वापरनिपातः / एकास्थिकम्-एकबीजम्, अथवा-एकास्थिकं नाम अद्याप्यबहुबीजम, अनिष्पन्नमित्यर्थः / भिन्नम्-विदारितम् एतेन प्रथमो भङ्गः / 'भिन्ने य त्ति' अभिन्नम्अविदारितम् अनेन द्वितीयो भङ्ग उपात्तः। उच्चारणविधिः पुनरेवम्प्राशुकं परीत्तयोनिकम् एकास्थिकम् अबद्धास्थिकं, परीत्तयोनिकम् एकास्थिकम् अभिन्नम् / एवं बद्धास्थिकेऽपि द्वौ भङ्गौ वक्तव्यौ / एते एकास्थिके चत्वारो भङ्गा लब्धाः / बहुबीजेऽप्येवमेव चत्वारो लभ्यन्ते। जाता अष्टौ भङ्गाः। एतेपरीत्तयोनिपदममुञ्चाना लब्धाः। एवमेवानन्तयोनिपदेनाप्यष्टौ भङ्गाः प्राप्यन्ते, जाताः षोडशभङ्गाः। एते प्राशुकपदेनाऽपि षोडशावाप्यन्ते, सर्वसङ्ख्यया जाता द्वात्रिंशद्भङ्गा / एते च वृक्षस्याधस्तात्पतितं प्रलम्बमधिकृत्य मन्तव्याः। एमेव होइ उवरि, एगट्ठिय तह य होइ बहुबीए। साहरणस्स भावा, आदीए बहुगुणं जं च // 780 // एवमेव वृक्षस्योपर्यपिएकास्थिकपदे, तथैव बहुबीजपदे० उपलक्षणत्वात्प्राशुकादिशेषपदेषु च द्वात्रिंशद्धङ्गाः कर्त्तव्याः। यो यः पूर्वो भङ्गकः स प्रथममासेधितव्यः, सर्वथा वाऽधस्तात्पतितानां प्रलम्बानामप्राप्तौ वृक्षोपरिवर्तिप्रलम्बविषया अपि द्वात्रिंशद्भङ्गकाः यथाक्रममेवमेवावसितव्याः। अथापवादस्य अपवाद उच्यते-स्वभावात्-प्रकृत्यैव साधारणं शरीरोपष्टम्भकहरीतकद्रव्यमेकास्थिकमनेकास्थिकं वा, बद्धास्थिकं परीत्तमनन्तं वा, तदुत्क्रमेणाप्यदत्ते-गृह्णाति बहूपकारकम् / बृ० 1 उ० 3 प्रक०। (अथ द्वारगाथान्तर्गतं नन्दिपदम् 'णंदि' शब्दे चतुर्थभागे 1753 पृष्ठे व्याख्यातम्) नन्द्रिद्रव्यं द्विविधम्, तद्यथापरिनिट्टिय जीवजढं, जलयं थलयं अचित्तमियरं च। परित्ते / तरं च दुविहं, पाणगजयणं अतो वोच्छं / / 782 / / द्विधा द्रव्यं-परिनिष्ठितम्, जीवविप्रमुक्तंचा परिनिष्ठितं नाम यत्परार्थचित्तीकृतम्, जीवविप्रमुक्तं तु सार्वर्थमचित्तीकृतम्, आधाकर्मेति हदयम् / आह च चूर्णिकृत्-"परिनिट्ठियं तिजं परकडमचित्तं, जीवजढं ति आहाकम्म।' यद्वा-द्विविधं द्रव्यम्-जलजं, स्थलजं चेति। अथवौअचित्तेतरभेदाद् द्विधा, तत्राऽचित्त नाम-यन्न परार्थचित्तीकृतं, नापि संयमार्थ , केवलमायुःक्षपणादचित्तीभूतम्। यत्पुनरायुर्धारयति तत्सचित्तम्। अथवा-परीत्तं-प्रत्येकम् इतरदनन्तमिति वा द्विविधं तदेवमुक्ता तावदाहारयतना। अथ पानकयतनामत ऊर्ध्वं वक्ष्ये। यथाप्रतिज्ञातमेव निर्वाहयति-- तुवरे फले अ पत्ते, रुक्खसिलातुप्पमद्दणाईसुं। पासंदणे पवाए, आयवतत्ते वहे अवहे / / 753 // अध्यनि वर्त्तमानेः काञ्जिकादिप्राशुकपानकाप्राप्तावीदृशानि ग्रहीतव्यानि, तद्यथा-तुम्बरफलानि हरीतकीप्रभृतीनि तुवररपत्रादीनि तैः | परिणामितम्, तथा 'रूक्खे त्ति' वृक्षको टरे कटुकफलपत्रादिपरिणामितम्, एवंविधस्याभावे 'सिल त्ति' सिलाजतुभावितम्, तदभावे 'उप्प त्ति' मृतककलेवरवशाघृतादिभिः परिणामितम्, तदप्राप्तौ 'मद्दणाईसु त्ति हस्त्यादिमर्दनेनाक्रान्तम्, आदिशब्दो हस्त्यादिनामेवानेकभेदसूचकः / तदभावे प्रस्यन्दनं-निर्झरणं तत्पानकं प्रपातो नाम यत्र पर्वतात्पानीयं निपतति यथा-उअयन्तादिगिरिः, तदभावे आतपेन यत्तप्तं तत्प्रथममवहमानकं पश्चात्तदेव वहमानकं ग्राह्यमिति अथ 'मद्दणाईसुत्ति' पदं व्याचष्टेजड्ढे खग्गे महिसे, गोणे गवए य सूयर मिगे य। उप्परिवडीगहणे, चाउम्मासा भवे लहुगा॥७८४ // 'जडो हस्ती, खड्गो नाम-एकशृङ्गः आटव्यतिर्यविशेषः, गोमहिषौ प्रसिद्धौ, गवयो-गवाकृतिराटव्यजीवविशेषः, शूकरमृगौ प्रसिद्धौ, एतैर्जड्डादिभिमर्दनेन परिणामितंपानकं यथाक्रमं ग्रहीतव्यम्। अथोत्परिपाट्या यथोक्रक्रममुल्लङ्कय ग्रहणं करोति ततश्चत्वारो लघुका भवेयुः। सूत्रम्नन्नत्थ एगेणं पुथ्वपडिलेहिएणं सेज्जासंथरएणं // 44 // 'न कल्पते रात्रौ वा विकाले वेति' योऽयं प्रतिषेधः सं एकस्मात्पूर्वप्रत्युपेक्षितात् शय्यासंस्तारकादन्यत्र / इहान्यत्रशब्दः परिवर्जनायाम, यथा-'अन्यत्र द्रोणभीष्माभ्यां, सर्वे योधाः पराङ्मुखाः' / द्रोणभीष्मी वर्जयित्वेत्यर्थः / ततश्चैकं शय्यासंस्तारकं विहायापरं किमपि रात्रौ ग्रहीतुं नकल्पते इति सूत्र संक्षेपार्थः। अथ नियुक्तिविस्तरःसिज्जासंथारगहणे, चउरो मासा हवंति उग्घाये। आणाइणो य दोसा, विराहणा संजमायाए।। 715 // शेरतेऽस्मामिति शय्या-वसतिः सैव शय्या संस्तारकः, यद्वा-शय्या वसतिरेव संस्तारको द्विधा-(६०) (इति 'संथार' शब्दे वक्ष्यते) शय्योपलक्षितः संस्तारकः शय्यासंस्तारकः / यद्यपि सूत्रे रात्रौ ग्रहणमनुज्ञातं तथाऽप्युत्सर्गतो न कल्पते। यदि गृह्णाति ततश्चत्वारो मासा, उद्धातः-प्रायश्चित्तम्, आज्ञादयश्च दोषाः। विराधना चसंयमात्मविषया। तामेव भावयतिछक्कायाण विराहण, पासवणुचारमेव संथारे। पक्खलणखाणुकंटग-विसम दरी-बाल गोणे य।७८६॥ रात्रावप्रत्युपेक्षितायां भूमौ उच्चारं प्रश्नवणं वा व्युत्सृजतः षट्कायानां पृथिव्यादीनां विराधना। अथैतद्दोषभयान्न व्युत्सृजति तत आत्मविराधना, यत्र वा व्युत्सृजति तत्र विलान्निर्गत्य दीर्घजातीयेन भक्ष्येत एवमप्यात्मविराधना / 'संथारे त्ति' अप्रत्युपेक्षितायां भूमो संस्तारकं प्रक्षिप्तमेवं षट्कायविराधना, विलाद् आत्मविराधनाऽपि तथा स्थाणुकण्टके तत्र प्रस्खलनं भवेत् कण्टकैर्वा विध्येत, विषमे निम्नोनते दरीषु वा बिलेषु प्रस्खलेत्-प्रपतेद्वा, व्यालाः-सस्तैिर्दश्येत, गोबलीवर्दस्तेनाभिघातो भवेत्। किञ्चएरंडईय सेणा, गोम्मि य आरक्खि तेणगा दुविहा। एए हवंति दोसा, वेसित्थिणपुंसएसुं वा / / 757 //
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________________ राइभोयण 522 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 राइभोयण 'एरंडईय साणे त्ति' हडक्कयितः श्वा तेन खाद्येत, गौल्मिकैर्वद्धस्थानकैः रक्षपालैः-आरक्षिकैर्वा चौरग्राहं गृह्यते। स्तेनका द्विविधाः शरीरस्तेनाः उपधिस्तेनाश्च, तेरपहियेत साधवो वा हियेरन्। एते दोषा रात्रौ शय्यासंस्तारकग्रहणे भवन्तिा वेश्यास्त्रीनपुंसकेषुव वेश्यापाटके वा स्थितानां रात्रौ परिवत्तयतां स्वाध्यायशब्दं श्रुत्वा लोकः प्रवचनावर्णवादं कुर्यात्। अहो साधवस्तपोवनमासेवन्ते / यत एते दोषा अतो न रात्रौ शय्यासंस्तारको ग्रहीतव्य इति। आह यद्येवंततः-- सुत्तं निरत्थगं का-रणिकमिणमोंऽद्धाण निग्गया साहू / मरुगाण कोट्ठगम्मी, पुवदिहम्मि संझाए।७८८|| सूत्रं निरर्थकं प्राप्नोति, सूरिराह-न भवति सूत्रं निरर्थकम्, किंतु कारकिणम् / किं पुनः कारणमित्याह-इदमनन्तरमेवोच्यमानम्। अध्वनिर्गताः केचन साधवोऽस्तमनवेलायां ग्रामं प्राप्ताः, तत्र तैर्मरुकाणां कोष्ठकोऽध्ययनोपरतो दृष्टः परं तदीयस्वामी तत्र सन्निहितो न विद्यते, ततस्ते साधवस्तं मरुककोष्ठकम् उच्चारप्रस्रवणकालभूमिकाश्च प्रत्युपेक्ष्य स्वामिनमध्यापकं समागतं याचन्ते, याचित्वा च तत्र कोष्ठके पूर्वदृष्ट सन्ध्यायां गृह्यमाणे सूत्रनिपातो दृष्टव्यः / एवं सन्ध्यालक्षणं रात्रिमङ्गीकृत्योक्तम् / न केवलं सन्ध्यायां; किं तु विकालेऽपि शय्यासंस्तारकस्यामीभिः कारणैर्ग्रहणं कल्पते। दूरे व अन्नगामो, उग्धाया तेण सावय नई वा। दुल्लभवसहिग्गामे, रुक्खाइठियण समुदाणं / / 786 // यतोग्रामात् प्रस्थिता ततो यत्र गन्तुमीप्सितं सोऽन्यग्रामाद्दूरे, अथवाउद्धाता:-परिश्रान्तास्ततो विश्राम्यम्।ततः समायाताः स्तेनाः स्वापदभयाद्धा सार्थमन्तरेण गन्तुं न शक्यते स च सार्थश्वरेण लब्धः, नदी वा प्रत्यूढा / एतैः कारणैर्यस्मिन् ग्रामे प्रस्थितास्तमसम्प्राप्ता अपान्तरालग्रामे भिक्षावेलायां प्राप्तास्तत्र च वसतिर्दुर्लभा, ततो मार्गयद्भिरपि ततः क्षणमलब्धा, ततो वृक्षादिमूले बहिःस्थिताः सर्वेऽपि समुदानम्-भैक्षं हिण्डितवन्तः, तैश्च हिण्डमानैरमूषां वसतीनाम् एकतरा दृष्टा भवति।। कम्मारणंतदारग, कलाय समभुञ्जमाणिये दिहा। तेसु गएसु वि संते, जहि दिट्ठा उभयभोमाई।। 760 // कर्मकरा लोहकारास्तेषां शाला कारशाला नन्तकानि वस्राणि तानि | उद्व्यूयन्ते यत्र सा नन्तकशाला, दारका बालकास्ते यत्र निवसन्तः पठन्ति सा दारकशाला लेखशालेत्यर्थः / कलादाः सुवर्णकारास्तेषां शाला कलादशाला, सभा बहुजनोपवेशनस्थानम् यद्वा-सभाशब्दः शालापर्यायः,अतः प्रत्येकमभिसम्बध्यते कम्मारसभा नन्तकसभा इत्यादि एतेषामेकतराऽपि वा भुज्यमाना दृष्टाः / ततो व्यतीतायां सन्ध्यायां तेषु लोहकारादिषु गतेषु तत्र कर्मकरशालादौ प्रविशन्ति / तत्राऽपि यदि वसतः एतद् उभयभूमिके उच्चारप्रस्रवणभूमिकालक्षणे आदिशब्दात्-कालभूमिश्च यत्र दृष्टा तत्र रजन्यामपि गन्तुंकल्पते। तत्र च सूत्रतो निपात एवमादिके सूत्रे भूयोऽप्यर्थतो द्वितीयपदमुच्यते / पूर्वमप्रत्युपेक्षितेऽपि संस्तारकोचारप्रस्रवणभूमिषु तिष्ठन्ति। कथमित्याहमज्झे य देउलाई, बाहिं ठवियाण होइ अइगमणं / सावय मकोडग ते-ण वाल भसयज्यगेर साणे / / 761 // मध्ये च ग्रामादेमध्यभागे यदेवकुलम् आदिग्रहणात्-कोष्टकशाला वा तत्र दिवसतो विधिना स्थिताः। अथवा-ग्रामादेर्बहिर्देवकुलादौ सकलमपि दिवंसं स्थिताः, ततो लोकस्तत्र स्थितान दृष्ट्वा ब्रूयात 'सावय' इत्यादि अत्र देवकुलादौ रात्रौ स्वापदः सिंहव्याघ्रादिस्तद्रं भवति, अतोनात्र भवतां वस्तुं युज्यते / तथा मर्कोटका अत्र रात्रावुत्तिष्ठन्ति, स्तेना वा द्विविधा अत्र रजन्यामभिपतन्ति, व्या, ला वो वा सर्पः स खादति, मशका वा निशायामत्राभिद्रवन्ति, अजगरो वाऽत्र रात्रौ, गिलति, श्वा वा सगागत्य दशति। एतैयाघातकारणै रात्रावन्यस्यां वसतावतिगमनं प्रवेशो भवति। इदमेव स्फुटतरमाहदिवसहिया विरत्तिं, दोसे मकोडगाइए नाउं। अंतो वयंति अन्नं, वसहिं बहिया व अंतो।। 792 // देवकुलादौ दिवसतः स्थिता अपि रात्रौ मर्कोटकादीन् दोषान् ज्ञात्वा यदि अन्तः--ग्रामाभ्यन्तरे स्थितास्ततो ग्रामान्तर्वर्तिनीमेवान्या वसति व्रजन्ति, तदप्राप्तौ बाहिरिकायां गच्छन्ति / दिवसतो बहिर्देवकुलादिषु स्थिताः ततस्तत्राऽपि रात्रौ पूर्वोत्कान् दोषान् मत्वा बहिर्वाहिरिकाया वा अन्तः समागच्छन्ति। अथोक्तमेवार्थमन्याचार्यपरिपाट्या प्रतिपादयतिपुष्वहिए व रत्तिं, दवण जणो मणाइमा एत्थं / निवसह इत्थं सावय-तकर माई उ अहिंलिंति / / 763 / / देवकुलादौ पूर्वस्थितान् साधून् रात्रौ जनो भणति-य-था मात्र निवसत, यतोऽत्र रात्रौ स्वापदतस्करादयोऽभिलीयन्ते समागछन्ति। इत्थी नपुंसओ वा, खुधारो आगतो त्ति अइगमणं / गामाणुगामिएहिं, होज्ज विगालो इमेहिं तु / / 765 / / लोको ब्रूयात-अत्र देवकूलादौ रात्रौ स्त्री वा नपुंसको वा समागत्योपसर्ग करोति, स्कन्धावारो वा आमतः, एवमादिभिः कारणैर्बाहिरिकायाः सकाशादन्तरमिगमनं-प्रवेशं कुर्युः-ग्राम्याभ्यन्तराद्वा बहिर्गच्छेयुः। एवं तावदध्वनिर्गतानां यतनोक्ता। अथ विहरतां प्रतिपाद्यते-(गामाणुगामि इत्यादि) मासकल्पविधिना ग्रामानुग्रामं विहरन्ति तेषामप्येभिर्वक्ष्यमाणकारणैर्विकालो भवेत्। तान्येवाऽऽहवितिगिट्टि तेण सावय, फिडिय गिलावेण दुब्बल नई वा। पडिणीय सेह सत्थं, ण तु पत्ता पठमबितियाई॥७६५ // यत्र क्षेत्रे मासकल्पः कृतस्तस्माद्यमन्यं ग्रामं प्रस्थिताः सव्यतिकृष्टो दूरदेशवर्ती, सेनावाद्विविधा:-उपधिस्तेनाश्वापदावापथवर्तन्तेतद्भयाचिरलब्धसार्थेन सहागताः स्फिटित वा सार्थात्परिभ्रष्टास्ततो यावदनुमार्गमवतीर्णास्तावद्दूरतंरसमजनि।यद्वा-साधुः कोऽपि स्फिटितः यवावदन्वेषि
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________________ राइभोयण 523 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 राइभोयण - तस्तावचिरीभूतं, ग्लानो वा साधुरधनोत्थितः शनैः शनैः समागच्छति, दुर्बलो वा स्वभावेनेव कश्चित् सोऽपि न शीघ्रं गन्तुं शक्नोति, नीद वा पूर्णा यवदपरिच्यते तावत्प्रतीवक्ष्यमाणाः स्थिता यदा नीद यावत्परिव्हियते तावद्विलम्बो लग्नः, प्रत्यनीकैर्वा पन्थाः समंततो रुद्धः ततो यावदपरेण मार्गेणाऽऽगत्यते तावद् दूरतरं जातं, शैक्षो वा कश्चिदुत्पन्नः स पथि प्रतीक्षितः, अथवा-तस्य दिवा व्रजतः सागारिकः सार्थे वा शनैः शनैरागच्छति, यद्वा-तं सार्थं प्रतीक्षमाणानां विकाल सञ्जातः / एतैः कारणैः प्रथमद्विरीयोपौरुष्योः आदिग्रहणात्तृतीयचतुर्थ्योरपि पौरुष्योनतुनैव प्राप्ताः भवेयुः / अर्थादापन्नं विकाल रात्रौ प्राप्ताः। ततश्च तदानीं प्राप्तैस्तैर्विधिना प्रवेष्टव्यं नाऽविधिना। यत आहअइगमणे अविहीए, चउगुरुगा पुर्ववनिय दोसा। आणाइणो विराहण, नायव्वा संजमायाए॥७६६॥ यद्यविधिना अतिगमनं प्रवशे कुर्वन्तिततः चत्वारो गुरुकाः पूर्ववर्णिताश्च षट्कायविरोधनादये दोषा अत्रावसातव्याः, आज्ञादयश्च दोषा, विराधना च संयमात्मविषया ज्ञातव्या यत एवमतो विधिना प्रवेष्टव्यम् कः पुनर्विधिरित्यत आहसव्वे वा गीयत्था, मीसा वा अजयणाएँ चउगुरुगा। आणइणो विराहण, पुव्वं पविसंति गीयत्था / / 767 // ते साधवो यदि सर्वेऽपि गीतार्थास्ततः सर्व एव प्रविशन्ति, तदा चतुर्गुरुकाः, आज्ञादयो दोषाः, विराधना च संयमात्मविषया। का पुनर्यतना? इत्यत आह-पूर्व प्रथमंतावद्गीतार्थाः प्रविशन्ति, पश्चादगीतार्था इति संग्रहगाथासंक्षेपार्थः। अथैनामेव विवृणोतिजह सव्वे गीयत्था, सवे पविसंति ते वसहिमेव। विहि-अविहिए पवेसो, मीसे अविही य गुरुगा उ॥ 798 // यदि ते साधवः सर्वे गीतास्तिः सर्वेऽपि ते समकमेव प्रविशन्ति, अथागीतार्थामिश्रास्ते ततो द्विधा प्रवेशो विधिना अविधिना च / यद्यविधिना प्रविशन्ति ततश्चर्गुरुकाः अविधिर्नाम-यद्यगीतार्थमिश्राः सर्वेऽपि प्रविशन्ति। कः पुनस्तत्र दोषो भवतीत्युच्यतेविप्परिणामो अप्प-च्चओ य दुक्खं व चोदणा होइ। पुरते जयणा करणं, अकरणे सव्वे वि खलु चत्ता || 7 || यदि मृगाणां पुरतो ज्यातिरानयनादिकं वक्ष्यमाणां यतनां कुर्वन्ति ततस्तेषां विपरिणामो भवेत्, न वर्त्तते अग्निकायसमारम्भं कर्तुमित्युपदिश्यसम्प्रति तमेव स्वयं समारभते / अप्रत्ययोऽपि तेषामुपजायते; यथैतदलीकं तथा सर्वमप्यमीषामेवंविधमिति, ततश्च प्रतिगमनादयो दोषाः / तथा तेषां मृगाणां पश्चादग्निकायसङ्घट्टादि कुर्वतामपरां वा 'समाचारी वितथामाचरतां दुःखनोदना भवति / तदा स्वयमेव अग्निकायसमारम्भं कृत्वा सम्यप्रत्यस्मान् वारयत इत्यादिसम्मुखवल्गनतः सम्यक् शिक्षा न प्रतिपद्यन्ते इत्यर्थः / अथैतद्दोषभयादेना ज्योतिर्यतनां नकुवन्ति, ततः सर्वेऽप्याचार्यादयः परित्यक्ता भवन्ति, सर्पश्वापदादिभिरात्मविराधनात्वात्ः तस्माद्विधिना प्रवेष्टव्यम्। तमेव विधिमाहबाहिं काऊण मिए, गीया पविसंति पुंछणे घेत्तुं / देउलसभपरिभुत्ते, मग्गंति सजोइए चेव / / 800 / / मृगान् बहिः कृतवा--स्थापयत्विा प्रोञ्छनादिदारुदण्डकानिप गृहीत्वा गीतार्थाः प्रविशन्ति, प्रविश्य च देवकुलसभादीनि परिभुजमानानि सयोगेनेव ज्योतिः सहितानि मार्गयन्ति / अथ पूर्वं कृतं ज्योतिस्तत्र न प्राप्यते ततस्तदानयन्ति आनाययन्ति वा समुच्चारादिभूमिकाः प्रत्युपेक्ष्य मृगानानयन्ति परिभुञ्जमाण असई,सुन्नागारे वसति सारविए। अहणुव्वासिय सकवा-ड निविले निचले चेव // 80111 परिभुज्यमाना वसतिर्न लभ्यते तदा शून्यागारम्-शून्यगृहं गवेषयन्ति, तचाधुनोद्वासितं साम्प्रतमेवोद्वसीभूतं सकपाटं कपाटयुक्तं निर्बिलम्सप्पादिबिलरहितं निश्चलं-दृढं नयन्ति प्रकामम् / अब चतुर्भिः पदैः षोडश भङ्गा भवन्ति / एषां च मध्ये यः प्रथमो भङ्गः तदुपेते शून्यगृहे सारविते-प्रमार्जिते वसन्ति। अथ सर्वेषु गीतार्थेषु विधिमाहजइ नाऽऽणयंति जोइं, गिहिणो तो गंतु अप्पणा आणे। कालोभयसंथारग, भूमीओ पेहए तेणं / / 802 / / यदि गृहिणः प्रेरिता अपि ज्योति नयन्ति तत आत्मनाऽपि गत्वा आनयन्ति, ततस्तेन ज्योतिषा कालोभसस्स्ताराणां भूमिं प्रत्युपेक्षेत, कालभूमिं संस्तारकभूमिं चेत्यर्थः। असई य पईवस्स, गोवालाकुंबदारदंडेणं। बिलपुंछणेण ढक्कण, मंतेण व जा पमायं तु / / 903 / / एमेव य भूमितिए, हरितादी खाणुकंटबिलमादी। दोसदुगवजणट्ठा, पेहिय इतरे पवेसंति / / 804 // अथ प्रदीपो न प्राप्यते यथा सर्वेषां गीतार्थानां विधिरुक्तस्तथा गीतार्थमिश्राणामप्येवमेव ज्ञातव्यः, नवरं तानगीतार्थान् बहिः-स्थापयित्वा गीतार्थाः प्रविश्य भूमित्रिके संज्ञायककालभूमिलक्षणे रहितबीजादीन् जन्तून् स्थाणुकण्टकबिलादींश्च प्रत्यपायान् दोषद्वयवर्जनार्थम्-संयमात्मविराधनालक्षणदोषद्वयपरिहाराऽथ प्रत्युपेक्ष्य इतरान् मृगान् वसतिं प्रवेशयन्ति। ठाणासति य बाहि-तेणग दोबा व सटवें पविसंति। गुरुगा उ अजयणाए, विप्परिणामाइते चे।। 805 // यदि बहु स्थानं नास्ति, यत्र मृगाः स्थाप्यन्ते 'तेणग दोचा व त्ति' स्तेनकभयं वा बहिर्वत्तते ततः सर्व एव प्रविशन्ति, प्रविष्टाश्च यदि यतनां म कुर्वन्ति ततश्चतुर्गुरुकाः तएव विपरिणामाः-प्रत्यपायादयो दोषाः। अथ यतनामेव च वयं न जानीम इति प्रश्नावकाशमाश क्यतत्स्वरूपमाहअवगीयत्थविमिस्साणं, जयणे इमा तत्थ अंधकारम्मि। आण्णणोभोगेणं, अणागयं कोइ वारेइ / / 806 //
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________________ राइभोयण 524 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 राइभोयण अगीतार्थमिश्राणां तत्र वसताक्न्धकारे इयं यतना--'आण्णभोगेणं ति' तथा ते मृगा नाभोगयन्ति तथा दीपस्य अन्यव्यपदेशेनानयनं विधेयम्। / अथ गृहस्थोऽन्यव्यपदेशेनोक्तोऽपि दीपं गृहीत्वा नागच्छति ततस्तमनागतंगृहमपि गत्वा प्रज्ञापयन्ति, यथा-दीपमानय। यदि कश्चिद्वारयति तततस्तस्य शिक्षा प्रदातव्या। विशेषचूर्णोतु-'अण्णण्णे कोइ वारे त्ति' पाठः / अन्येन गृहस्थेनाग्नेनयने यदि कोऽपि अगीतार्थो वारयति ततस्तस्य नोदना कर्तव्या। इदमेव भावयतिअम्हेहि अभणिओ अ-प्पणाणु आओ णु अम्ह अहाए। आणेइ इह जोई, अयगोलं मा णिवारेह / / 807 // यदी गृही दक्षतया स्वयमेव ज्योतिरानयति, तं च कोप्यगीतार्थो वारयति, तदा स वक्तव्यः, अस्माभिरभणितः स्वयोगेन यद्येष गृहस्थ आत्मनोऽर्थ नुरिति संशये, 'उताहो' अस्मदर्थं ज्योतिरानयति, ततः किमस्माकम् एतदीयया चिन्तया, अत एव तमयोगोलकल्पं मा वारयत। गिहिणं भणति पुरओ, अइतमसमिणं न पस्सिमो किंचि / आणिंति जइ अवुत्ता, तहेव जयणा निवारेंते / 508 // अथ ते गृहस्थाः स्वयं नानयन्ति, ततो गीतार्था अन्यव्यपदेशेन तेषां गृहिणां पुरतो भणन्ति-अतितम-अतीवान्धकारमिति न पश्यामो वयं किञ्चिदपीति। यद्येवमनुक्ताः साक्षादभणिताः सन्तोज्योतिरानयन्ति; ततः सुन्दरमेव। यश्च तत्र निवारयति;तस्य यतनया तथैव नोदना कार्या। अथते गृहस्था अन्यव्यपदेशेनोक्तं नावबुध्यन्ते ततः किं कर्तव्यमित्याहगंतूण य पन्नवणा, आणण तह चेव पुटवभणियं तु। भण्ण ऑदायणा असई, पच्छायणामल्लगाईसुं। 206 / / गीताथैर्गत्वा चशब्दाद् अगत्वाऽपि तत्र स्थितैर्गृहिणां प्रज्ञापना विधेया, यथा-नपश्यामो वयमत्र बिलादिकं स्थाणुंकण्टकादिकं वा, अत उद्योतो यथा भवति, तथा कुरुता एव परिस्फुटमभिहताः सन्तः ते प्रदीपस्यानयनं कुर्वन्ति, यद्यगीतार्थो निवारयति तस्य तथैव नोदनायामयोगोलं मा निवारय इत्यादिकं पूर्वभणितमेव द्रष्टव्यम्, 'भण्ण त्ति' गृहिषु प्रदीषमानयेति प्रज्ञाप्यमानेषु यो ब्रवीति, किमेवं सावधप्रवृत्ति कारयसीति, तस्याने मिथ्यादृष्कृतभणनं कर्त्तव्यम् 'असह त्ति' अथ गृहस्थः प्रदीपमानेतुं नेच्छति, ततः 'आदायणपच्छायणमल्लगाईसुत्ति' मृगाणामदर्शने मल्लगादिभिः पृच्छा, अद्य प्रदीपः स्वयमेवानेतव्यः। अथेदमुत्तरार्द्ध विवरीषुराहगिहिजोति मग्गंतो, मिगपुरओ भणइ चोइओ इणमो। णाभोगेण मउत्तं-मिच्छाकारं भणामि अहं / / 810 // गृहिणां समीपे ज्योतिः-प्रदीपं मृगपुरतो मृगाणां श्रृण्वतामग्ने यदि केनचन्नोदितः किमेवं सावधं कारयसीति ? ततोऽसौ गीतार्थः 'इत्थं भणति'-अनाभोगेन मयेदमुक्तं ततोऽहं मिथ्याकारं भणति, मिथ्यादुष्कृतं प्रयच्छामीत्यर्थः। एमेव जइ परोक्खं, जाणंति मिगा जहेमिणा भणिओ। तत्थ वि चोइज्जतो, सहसा णाभोगओ भणइ॥११॥ __एवमेव यदि मृगाणां परोक्षं गृहे गत्वा गृहस्थो भणित स्तथापि यदि ते मृगाः कथमपि जानन्ति यथा एतेन साधुना गृहस्थो भणितः प्रदीपानयनाय प्रेरितः तत्राऽप्यपरेण नोद्यमानः स तु भणति-सहसाकारेण अनाभोगतो वा मयेदमुक्तं मिथ्यादुष्कृतमिति। गिहिगम्मि अनिच्छंते, सयमेवाणेइ आवरित्ताणं। जत्थ दुगाई दीवा, ततो मा पच्छकम्मं तु / / 812 // अथ गृही प्रदीपमानेतुं नेच्छति, ततः स्वयमेव मल्लकसम्पुटेन वा करिण वा कल्पे वा प्रदीपो भवति, तत्राऽपि यत्रगृहे द्विकादयो द्वित्रप्रभृतयो दीपाः, ततो गृहादानयति, कृत इत्याह-'मा पच्छकम्मं तु त्ति' यत्रैक एव दीपो भवति, तत्राऽपरप्रतापकरणलक्षणं पश्चात्कर्म मा स्यादिति कृत्वा ततः प्रदीपो वानेतव्यः। ततश्च-- उज्जोविएँ आयरिओ, किमिदं अहगम्मि जीवियट्ठीउ। आयरिए पन्नवणा, नट्ठोय मयो य पटइतो।। 813 // ज्योतिः प्रतिश्रये सति आचार्यो भणन्ति, हन्त किमिदं भवता कृतम्, सपाह-क्षमाश्रमणा ! अहमद्यापि जीवितार्थी , अतो बिलादिपरिज्ञानार्थ मयेत्थं कृतम्, तत आचार्यो मातृस्थानेन तस्य प्रज्ञापनां करोति, हन्त मृत एव त्वं, कुतो भवतो जीवितं, यत एवं कुर्वन् प्रव्रजितो नष्टश्चसन्मार्गपरिभ्रष्टः, मृतश्च संयमजीविततवरहितो भवति। तस्सेव य मग्गेणं, वारणलक्खेण निति वसभा उ। भूमितियम्मि उदिट्टे, पचप्पिय मो इमा मेरा / / 14 / / तस्यैव ज्योतिरानेतुः साधोर्गिण पृष्ठतो वारणलक्ष्येण निवारणव्याजेन वृषभा गच्छन्ति, ततो भूमित्रिके उच्चारप्रश्रवणकालभूमिलक्षणे दृष्टे सति प्रदीपं समर्पयत, 'मो' इति निपातः पादपूरणे इयं मर्यादार सामाचारी। खरंटण वण्टियभायण-गहिय निक्खिवण बाहिपडिलेहा वसएहि गहियचित्ता, इयर पसादेंति कल्लाणं / / 15 / / येन प्रदीपानयनाय अविरतकः प्रेरितो, येन वा प्रदीप आनीतः, तस्य खरण्टना कर्तव्या, ततोऽसौ वेण्टिकां भाजनानिच गृहीत्वा निक्खिवण त्ति' बहिःस्थाप्यते, निर्गच्छास्माकं गच्छात् न त्वया कार्यम् / ततोऽसौ कैतवनिष्काशितो बहिःस्थितः प्रतिलेखयति, प्रतिक्रमणं च विदधाति। ततो वृषभैर्गृहीतचित्ता इतरे मृगा गुरुं प्रसादयन्ति / ततो गुरुवस्तं भूयोऽप्यन्योऽपि पञ्चकल्याणकं प्रायश्चित्तं प्रयच्छन्ति। अथ कथं वृषभा मृगाणां चित्तग्रहणं कुर्वन्तीत्याहतुम्हय अम्हय अट्टा, एवमकासी न केवलं समया। खामेसु गुरुं पविसउ, बहुसुंदरकारओ अम्हं॥१६॥ आर्याः ! युष्माकमस्माकं च सादिप्रत्यपायरक्षणार्थमेष एवमकार्षीत, न केवलं स्वभयादेव / अत आगच्छत, येन सर्वेऽपि गुरुं क्षमाश्रमणं क्षमयामः, प्रविशतु बहुसुन्दकारकप्रत्यपायरक्षकतया बहुकल्याणकरोऽस्माकं भूयः प्रतिश्रयम् / एवमुक्ता मृगा वृषभैः सह समागत्य गुरु प्रसादयन्ति। ततो गरुवः वक्ष्यमाणं ब्रुवते-आर्या ! यूयमपि निर्धर्माणः सजाताः।
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________________ राइभोयण 525 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 राइभोयण अन्ने वि विद्देवेहि य, अलमजो अहव तुम्भ मरिसेमि। तेसिं पि होइ बलियं, अकजमेयं न य तुदंति / / 817 // एष एवं कुर्वन्नन्यानपि साधून विद्रावयिष्यति-विनाशयिष्यति / अत आर्याः ! अलं-पर्याप्तमस्माकमेतेन / साधवो ब्रुवते--क्षमाश्रमणाः / न भूय एवं करिष्यति / एकवारपराधं क्षमयन्तु भगवन्तः / गुरवो भणन्तिख्येवं ततोऽहं युष्माकंन मर्षयामि, परमेतस्य पञ्चकल्याणक प्रायश्चित्तं दीयते। एवमुक्ते तेषामप्यगीतार्थानां वलिकमत्यर्थं हृदये भवति। यथानूनमकार्यमेतदिति,नच पश्चाज्ज्योतिः स्पर्शनादौ नोद्यमानास्तुदन्ति, प्रतिनोदनया अन्यथा-उत्पादन्तीत्यर्थः। एसो विहिउ अंतो, बाहिं रुद्धे इमो विही होइ। सावय तेणय पडिणी-य देवयाए विही ठाणं // 18 // एष विधिरन्तस्तिष्ठमभ्यन्तरे प्रविष्टानामक्तः / अथ बहिस्तिष्ठतां विधिरुच्यते। निरुद्धे-स्थगिते द्वारे ग्रामादौ विकाले वा तत्रापूर्वः प्रवेशे न लभते इत्यादिकारणसम्भवे बहिःस्थितानां यदि श्वापदभयं स्तेनकभयं वा भवति, तदा वक्ष्यमाणा यतना कर्तव्या। यवद्देवताया आकम्पनार्थ विधिना स्थानं कायोत्सर्गलक्षणं क्षपणकेण कत्तय॑मिति / यतनामेवाऽऽहभूमिघरदेउले वा, सहिया वरणे व रहिय आवरणे। रहिए विजा अचित-मीसं सचित गुरुआणा॥ 16 // बहिस्तिष्ठतां यदि श्वापदादिभयं, तथा भूमिगृहे देवकुले वा आवरणं-- कपाट तेन सहिते तिष्ठन्ति। गाथायां प्राकृतत्वात् व्यत्यासेन पूर्वापरनिपातः / अथ सकपाटं न प्राप्यते, तत आवरणरहितेऽपि तिष्ठन्ति, दिशां वा विद्याप्रयोगेण बन्धं विदधति, यतः श्वापदादयो न प्रविशन्ति, विद्याया अभावेऽचित्तकण्टिकाभिस्तदप्राप्तौ मिश्रकण्टिकाभिस्तदलाभे सचित्तकण्टिकाभिरपि स्थगयन्ति / तदभावे 'गुरुआण' त्ति गरुयो भागवतीमाज्ञां प्ररूपयन्ति / यथा-आचार्यादीनां मारणान्तिक उपसर्गे उपस्थिते यः समर्थो भवति, तेन यथासामर्थ्य तन्निवारणे पराक्रमणीयमिति नियुक्तिगाथासमासार्थः / अथैनामेव विवरीषुराहसंकवाडम्मि उपुट्विं, तस्सासइ आणइंति उ कवाडं। विजाएँ कंटियाहि व, अचित्तचित्ताहि ठगयंति॥२०॥ पूर्व सकपाटे भूमिगृहे देवकुले वा स्थातव्यम्, तस्याऽसति अकपाटे तिष्ठन्तः कपाटमन्यत आनयन्ति। अथ नास्तिकपाटं, ततो विद्यया द्वारं स्थगयन्ति, तदभावे कण्टिकाभिः प्रथममचित्ताभिस्ततो मिश्राभिस्ततः सचित्तताभिरपि स्थगयन्ति। एएसिं असईए, पागारवई व रुक्खनीसाए। परिखेव विज अचित्त-मीससचित्तगुरुआणा।। 521 // एतेषां भूमिगृहादीनामसति प्राकारं वाऽऽवृत्तिं वा वृक्ष वा निश्रये निश्रां कृत्वा तिष्ठन्ति। तत्राऽपि विद्यया परिक्षेपं कुर्वन्ति। तदभावे कण्टिकाभिर्यथाक्रममचित्तमिश्रसचित्ताभिः परिक्षिपन्ति, गुरवश्चाज्ञाप्ररूपणां कुर्वन्ति। गिरिनइतलागमाई, एमेवागम ठयंति विजाई। एगइगे तिदिसिं वा, ठयंति असई असव्वत्तो / / 522 / / गिरि वा नदीं तडागं वा आदिग्रहणाद्गादिकं च निश्रांकृत्वा तिष्ठन्ति तेषां च यत्रैक एव प्रवेशस्तत्र प्रथमस्तिष्ठन्ति, तदभावे यत्र द्वयार्दिशोः प्रवेशस्तत्र तदप्राप्तौ यत्र त्रिषु दिक्षु प्रवेशस्तत्राऽपि तिष्ठन्ति। तेषां चागर्म प्रवेशमुखे च विद्यादिभिः स्थगयन्ति 'असई असव्वत्तो त्ति' प्राकारादिनिश्राया एकप्रदेशादीनांवा अप्राप्तावाकाशे वसन्तः सर्वतो विद्याप्रयोगेण स्थगयन्ति-दिशाबन्धं कुर्वन्ति, तदभावे गुरवः आज्ञाप्ररुपणं कुर्वन्ति। केन विधिनेति चेदुच्यतेनाउमगीयत्थ बलि-ग ताव तेसिंच बलसारं। घोरे मयम्मिथेरा-भणंति अविगीयथेअत्थं / / 523 / / ज्ञात्वा कमप्यगीतार्थं बलिनम्-समर्थम्, यद्वा अविजानन्तस्तेषां स्वसाधूनां पराक्रममाहात्म्यं कस्य कीदृशः पराक्रमो विद्यते इत्येवमजानन्तं इत्यर्थः / घोरे रौद्रे स्वापदादिभये स्थविरा आचार्या अविगीतस्थैर्य स्थिरीकरणार्थ भणन्ति॥ कथमित्याह ?आयरिए गच्छम्मि य, कुलगणसंघे य चेइयविणासे। आलोइयपडिकंतो, सुद्धो जं निजरा विउला / / 24 / / षष्ठीसप्तम्योरर्थं प्रति अभेदः। आचार्यस्य वा गच्छस्य वा कुलस्य वा गणस्य वा चैत्यस्य वा विनाशे उपस्थिते सति सहस्रयोधिप्रभुतिना स्ववीर्यमहापयता तथापराक्रमणीयं यथा, तेषामाचार्यादीनां विनाशो नोपजायेत। स च तथा पराक्रममाणो यद्यपराधमापन्नस्तथाऽप्यालोचितप्रतिक्रान्तः शुध्दः, गुरुसमक्षमालोच्य मिथ्यादुष्कृतप्रदानमात्रेणैवाऽसौ शुद्ध इति भावः / कुत इत्याह यद्यस्मात् कारणात् विपुला महती निर्जरा कर्मक्षयलक्षणा तस्य भवति, पुष्टालम्बनमवलम्ख्य भगवदाज्ञया प्रवर्त्तमानत्वादिति। सोऊणं य पन्नवणं, कयकरणस्सा गयाइणो गहणं / सीहाई चेव तिगं, तवबलिपदे ववट्ठाणं // 525 / / एवंविधा प्रज्ञापनां श्रुत्वा यः कृतकरणस्रयोधिप्रभृतिकस्तस्य गदाया आदिशब्दाल्लगुडस्य वा ग्रहणं भवति, गृहीत्वा गदादिकमसौ गुरुन्न् ब्रवीति; भगवन् ! शेरत विश्वस्ताः सर्वेऽपि साधवः, अहं सिंहाऽऽदीनां निवारणं करिष्यामिाततः सुप्ता साधवः,सपुनरेकाकी गदाहस्तः प्रतिजाग्रदवतिष्ठते। तस्य च प्रतिजाग्रतः सिंहत्रिकं समागच्छत् आदिशब्दाव्याघ्रादिपरिग्रहः / (बृ०)(अस्मिविषये 'मूलगुणपङिसेवणा' शब्देऽस्मिन्नेवभागेव्याघ्रद्दष्टान्तो गतः) ईदशस्यकृतकरणस्याभावेयस्तपोवलिको विकृष्टपसा बलीयान्क्षपकः सदेवतायाआकम्पननिमित्तंस्थानकायोत्सर्ग करोतिएतातोभावयिष्यते।
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________________ राइभोयण 526 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 राइभोयण अथ तेन कृतकरणेन साधुना प्राभातिकप्रतिक्रमणवे लायां यथा गुरुसमक्षमालोचितं तथा प्रतिपादयतिहिंछिम्मि पुरा सीह, खुडयाइ इयाणि मंदथामो मि। तिनावाए सीहो, रत्तिं पहओ मया नमओ।। 26 // क्षमाश्रमण ! पुरा-पूर्वमहं प्रबलशरीरतया खुडकामात्रेणैव सिंह हन्ताऽस्मि, इदानीं मन्दस्थामाऽस्मि। ततः 'तिन्नावाए' त्ति विभक्तिव्यत्ययात्रिष्वापातेषु गदाघातेन सिंहो रात्रौ मया प्रहतः परं न मृतोऽपद्रणः, एवमालोच्य मिथ्या दुष्कृतं दत्तवान्। एतावतैव चासौ शुद्धोऽदुष्टपरिणामत्वात्। नितेहिं तिन्नि सीहा, आसन्ने नाइदूर दूरे य। निग्गयजीवा दिट्ठा, स चावि पुट्ठो इमं भणई / / 527 // प्रभाते निर्गतैः-पन्थानं गच्छद्भिस्त्रयः सिंहा निर्गतजीवा दृष्टाः / तत्रैक आसन्ने, द्वितीयो नातिदूरे, तृतीयो दूरे / स ष्टाऽऽचार्यः पृष्टः / आर्य ! किमेवं सिंहत्रयं विपन्नमवलोक्यते। . ततः इदं भणतिमा मरिहिति तो गाढं, न आहओ तेण पढमओ दूरे। गाढतरं बितितईओ, न य मे नायं जहऽण्णो मो॥ 12 // भगवन् / यदा प्रथमः सिंह आयातस्तदा मा मरिष्यतीति कृत्वा गाढं नाहतः तेनासौ दूरे गत्वा विपन्नः, द्वितीयस्तु स एवायं भूयोऽप्यायात इति बुद्ध्या गाढतरमाहतः तेनासौ नासन्ने नातिदूरे, तृतीयस्तु द्वितीयादपि गाढतरमाहतस्तेनाऽसौ, इत्यासन्न एव भूभागे गत्वा मृतः। न च मया ज्ञातं यथाऽयमन्यान्यसिंहः समागतो न स एवेति। ईदृशस्य कृतकरणस्य भावे देवतायाः कायोत्सर्गः कर्तव्यः / सच केन कियद्वा कालं यवदित्यत्रोच्यतेखमओ व देवयाए, उस्सग्गं करेइ जाव आउट्टा। रक्खामि जा पभातं. सवंतु जइणो सुवीसत्था / / 526 / / क्षपको वा देवताया आकम्पननिमित्तं कायोत्सर्ग करोति, यावदसावावृत्ता आराधिता सती ब्रूते--भगवन् ! पारय कायोत्सर्ग; यावत् प्रभात तावदहं श्वापदाधुपसर्ग रक्षामि। रुपन्तु यतयः सुविश्वस्ता इति। वृ०१ उ० 3 प्रक० (रात्रौ वस्त्रादिधारणनिषेधः 'उवहि' शब्दे द्वितीयभागे 1072 पृष्ठ गतः) (विहारविषयः “विहार' शब्दे वक्ष्यते) यादृश आहारो रात्रौ रक्षितुं शक्यते-तद् भैक्ष्यद्वारेऽभिहि तम् नवरं केवलमिह कल्वे अध्यकल्पविषयं तदेवाऽऽहअग्गहणे कप्पस्स उ, गुरुगा दुविधा विराधना णियमा। पुरिसट्ठाणं सत्थं, गाउंता वीण गिणिहज्जा / / 646| छिन्ने चपथि यद्यध्वकल्पंन गृह्णन्तितदा चतुर्गुरवः, द्विविधा चात्मसंयमे विराधना / भक्तालाभे क्षुधातस्य परितापनादिना आत्मविराधना, संयमविराधना तु क्षुधातः सन्नध्वकल्पं विना कन्दादिग्रहणं कुर्यात्; अतो ग्रहीतव्योऽध्वकल्पः / एभिः कारणैर्न गृह्णीयादपि, यदि पुरुषाः सर्वेऽपि संहननधृति बलवन्तः, अध्वाऽप्येकदैवसिको वा, सार्थेऽपि प्रभूतभैक्षमवाप्यते, तदपि ध्रुवलाभम्, सार्थश्च भद्रकः कालभोजी कालस्थायी च। एवमादीनि ज्ञात्वा छिन्नपथेन गृह्णीयात्। सपुनरध्वकल्पः कीदृशो ग्रहीतव्यः ? इत्युच्यतेसक्करघ-गुलमीसा, अगंथिमा खज्जुरा व तम्मासा। सत्तू पिण्णागो वा, घतगुलमिस्सं खरेणं वा / / 657 // शर्करेया घुतेन च मिश्राणि अग्रन्थिमानि कदलीफलानि खण्डाखण्डीकृतानिगृह्यन्ते। अथ शर्करयान प्राप्यन्तेततोगुडेनघृतेन च मिश्रितानि, एषामभावे खजूराणि घृतगुडमिश्राणि, तदप्राप्तौ सत्कुकान् घृतगुडमिश्रान्, तदलाभे पिण्याकोऽपि।घृतं न प्राप्यते ततः खरसंज्ञकेन तैलेन मिश्रितः पिण्याकः। एतेषां ग्रहणे गुणमुपदर्शयति-- थोवा वि हणंति खुहं, न य तह करेंति एतें खजंता। सुक्खोदण व लंभे, समितिम-दंतिकचुण्णं वा ||648 // एतानि अग्रन्थिमादीनि खाद्यमानानिस्तोकान्यपि क्षुधं घन्ति न चैतानि भुक्तानि सन्ति तृष्णां कुर्वन्ति, अत ईदृशोऽध्वकल्पो गृह्यमं। ईदृशस्यालाभे शुष्कौदनः-शुष्ककूरः, तदलाभे समितिमाः--शुष्कमण्डकाः, तदप्राप्तौ दन्तिकचूर्णम्तन्दुललोट्टः। यद्वा-दन्तिकम्-तन्दुलघूर्णः, चूर्णम् तुमोदकादिखाद्यकचूरिः। एतत्सर्वमपिघृतगुडेन मिश्रयित्वा स्थापनीयम्। यदि शुद्धं भक्तं लभन्ते ततो नाध्वकल्पं भुञ्जते। यावन्मात्रेण वा न्यून शुद्धं लभन्ते तावन्मात्रमध्वकल्पाल्परिभुञ्जते / अनुपस्थापितेभ्यो वा प्रयच्छन्ति। तिविहाऽऽमयभेसजा, वणभेसज्जाय सप्पि महु पट्टे / सुद्धासतितिपरिरए, जा कम्मंणाउमद्धाणं / / 646|| त्रिविधाः-त्रिप्रकारा वातजपित्तजश्लेष्मजभेदाद्ये आमया रोगास्तेषां यानि भेषजानि भैषज्यानि, यानि च व्रणस्य भैषज्यानि सर्पिर्मधुमिश्राणि वा व्रणेषु दत्वा पट्टबंध्यन्ते तानि गृह्णन्ति, सर्वमप्येतदध्वकल्पादिक प्रथमतः शुद्ध, तदभावे अशुद्धमपि त्रिपरिरयं यतनया पश्चकपरिहाण्या ग्रहीतव्यम्, यावदाधाकर्मेति / प्रमाणतः पुनरध्वानं स्तोकं वा बहुं वा ज्ञात्वा तदनुसारेणाध्वकल्पोऽपि ग्रहीतव्यः। एवं यदा सर्वमुष्यत्पादितं भवति तदा किं विधेयमित्याहअद्धाण पविसमाणो, जाणगनीसाएँ गाहए गच्छं। अह तत्थ न गाहिज्जा, चाउम्मासा भवे गुरुगा / / 650 // अध्वानं प्रविशन् सूरिः प्रथमत एव यस्य गीतार्थस्य निश्चयान्त पुरस्कृत्य गच्छमध्वकल्पं ग्राहयति, अथ तत्राध्वप्रवेशे गच्छंन ग्राहयति ततश्चतुर्मासा गुरुका भवेयुः / अतो गीतार्थं पुरस्कृत्य गीतार्थप्रत्ययनिमित्तामन्तराऽन्तरा कानिचिदर्थपदानि परित्यजन् सूरिर्गच्छमध्वकल्प ग्राहयेत्। एवं विधेन विधिना निर्गतानामयं विधिः। सभए सरभेदादी, लिंगविओगं च काउ गीयत्था। खरकम्मिया व होउं, करेंति गुत्तिं उभयवग्गे / / 651 // .यत्र सभयं तत्र वृषभाः स्वरभेदवर्णभेदकारिणीभिगुलिकाभिस्तादृशं स्वर वर्ण च कृत्वा गच्छन्ति, अथवा-यथैते संयता इति न ज्ञायन्ते तथा लिङ्गवियोगं कृत्वा गीतार्था गच्छन्ति / खरकर्मिका वा सन्नद्धपरिकरा यथा समये गृहीतायुधा भूत्या उभयवर्गे साधुसाध्वीरक्षणे गुप्तिरक्षा कुर्वन्ति।
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________________ राइभोयण 527 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 राइभोयण किञ्चजे पुटवं उवकरणा, गहिया अद्धाणे पविसमाणेहिं। जं जं जोग्ग जत्थ तु, अद्धाणे तस्स परिभोगो।। 652|| यानि पूर्वं धर्मकरणादीन्युपकरणानि अध्यानं प्रविशद्भिगृहीतानि तेषां मध्ये यद्यसिमन् काले योग्यं तस्य तदाऽध्वनि परिभोगः कर्तव्यः। सुक्खोदणो समितिवा, भुंजसुणोदेहि उण्हविय मुंजे। गूलुत्तरे विभासा, जतिऊणं णिग्गते विवेगो || 653 / / इह लाटदेशे अवश्रावणं काञ्जिकं भण्यन्ते, यदाह चूर्णिकृत-"अव- | सावणं लाडाणं काजिकं भण्यइ त्ति," ततो ऽवश्रावणेनोष्णोदकेन वा शुष्कौदनंशुष्क समितिमांश्चोष्णयित्वा मुहुः भोजनार्थमुष्णीकृतंभुञ्जीत 'जइऊणं निग्गएविवेगोत्ति एवमादिकया यतनाया यतित्वा यदा अध्वनो निर्गतास्तदा तमध्वकल्पमभुक्तं भुक्तोद्वरितं वा विविचन्ति परिष्ठापयन्तीत्यर्थः / 'मूलुत्तरे विभास त्ति' मूलोत्तरगुणविषया विभाषा कर्त्तव्या। तद्यथा-शिष्यः पृच्छति, यः अध्वकल्प आधाकर्मिकः परिवासितश्च स तावदाधाकर्मिकत्वेनोत्तरगुणोपघाती, परिवासितत्वे तु मूलगुणोपघाती, ततः किमेष भुज्यताम् ? उत प्रतिदिवसं लभ्यमानामाधाकर्म ?, अत्रोच्यते-अकल्प्यो भुज्यतां नाऽऽधाकर्म। ननु दोषद्यदुष्टोऽसौ ? सूरिराहकामं कम्मो तु सो कप्पो, णिसिंच परिवासितो। तहा वि खलु से सेओ,ण य कम्म दिणे दिणे // 65 // कामम्-अनुमतं यदसावध्वकल्पकतावदाधाकर्म, अपरं च निशिरात्रौ परिवासितः तथापि खलु निश्चितं स एवाध्वकल्पः श्रेयान्, नत्वाध्वाकर्म दिने दिने लभ्यमानं वरम्। कुत इति चेदुच्यतेआधाकम्मा सतिं घातो, सई पुय्व हत्ते त्तिय। ये उ ते कम्म मिच्छंति, णिग्घिणा ते ण मे मता / / 65|| यदाधाकर्म दिने दिने लभ्यते तत्र असकृदनेकवारंजीवोपघातः, अध्वकल्पे तु यदाधाकर्म तत्र सकृदेकमेव वारं जीवोपधातः / पूर्वहताश्च ते जीवाः न दिने दिने हन्यन्ते। ततोऽध्वकल्प एव वरं नाऽऽधाकर्म। ये पुनः अविदितनप्रवचनरहस्या अध्वकल्पं मूलोत्तरगुणोपधातिनं मत्वा न भुञ्जते; आधाकर्म तु केवलोत्तरगुणोपघातकमिति मत्वा दिने दिने भोक्तुमिच्छान्त,ते अत्यन्तनिघृणाः सत्त्वेषु अतएव न ते मम संमता इति। भैक्षद्वारे एव विशेषं दर्शयतिकालुहाईमादिसु, भंगेसु जतंति वियभंगादी। लिंगविवेगो काउं,चुडलीए मग्गतो भसए 11956 // कालोत्थयिप्रभृतिषु भङ्गेषु संभवति तत्र द्वितीयभङ्गमादौ कृत्वा यतन्ते, तथाहि-कालोत्थायी कालनिवेशी स्थानस्थायी कालभोजी इत्यत्र प्रथमभङ्गे नास्ति यतना सर्वथाऽपि शुद्धत्वात् / द्वितीयादिषु संभवति तत्र-द्वितीयभङ्गे अकालभोजीति कृत्वास्वलिङ्गविवेकं विधाय रात्रौ परलिङ्गेन गृह्णन्ति / तृतीयचतुर्थभङ्गयोरस्थानस्थायीति कृत्वा यद् गवादिभिराक्रान्तं स्थानं तत्र तिष्ठन्ति। पञ्चमादिषु चतुर्यु भङ्गेषु अकाल निवेशीति कृत्वा कालिकाय तिष्ठन्तश्चुडकिया संस्तारिकभूम्यादिषु बिलादिकं गवेषयन्ति, नवमादिषु षोडशान्तेष्वष्टसु भङ्गेषु अकालोत्थायीति कृत्वा रात्रौ गन्तव्ये उपस्थिते मार्गतः पृष्ठतः स्थिता गच्छन्ति। क सतीत्याह-अभये यदिपृष्ठतो गच्छतां स्तेनादिभयं न भवेत्, भक्तार्थन तु। यः सार्थोऽकालस्थायी तत्र निर्भये पुरतो गत्वा तथा समुद्दिशन्ति यथा समुद्दिष्टे सार्थस्तत्र प्राप्नोति, वसतिं च मध्ये गृह्णति। सावय अप्पट्टकडे, अट्ठा सुक्खे सय जोइजयणाए। तेण वयणवडगरं, तत्तो व अवाउडा होति / / 957 // श्वापदभयेऽन्यैः सार्थिकैरात्मार्थ योवृत्तिपरिक्षेपः कृतस्तत्र तिष्ठन्ति, तदभावे 'अट्ठ' त्ति साधूनामर्थाय कृते वृत्तिपरिक्षेपे तिष्ठन्ति, तदभावे 'सुक्खे सय' त्ति शुष्ककण्टिकादिभिः स्वयमेव वृत्तिपरिक्षेपं कुर्वन्ति 'जोइजयणाए त्तियदिश्वापदभये ज्योतिषा अग्निना कार्यं ततः परकृतमग्निं सेवन्ते। अथ चैते सेवितुं न प्रयच्छयन्ति ततः परकृतमेवानि गृहीत प्राशुकदारुभिः प्रज्वलयन्ति, यत्र तु स्तेनभयं तत्र तथा वचनवटकर वागाडम्बरं कुर्वन्ति यथा ते स्तेना भयादेव शीघ्र नश्यन्ति। अथ यदि ते स्तेनाः समागच्छन्ति तदा तदभिमुखीमूय प्रवृत्ता भवन्ति। एवविधं विधि कुर्वाणा अध्वानो निस्तरन्ति / अथायं व्याघातो भवेत्। सावयतेणपरद्धे, सत्थे फिडिया न उ जति हेवजा। अंतिमवइगा विंटीय, णियट्टण य गोउलं कहणा / / 658 // महाटव्यां सिंहादिभिः श्वापदः स्तेनैर्वा साथः प्रारब्धः सन् दिशो दिशि प्रनष्टः, साधवोऽप्येकां दिशं गृहीत्वा विग्रनष्टाः, ते च सार्था न स्फेटिता यदि भवेयुः, ततो दिग्भागमजानन्तो वनदेवतायाः कायोत्सर्ग कुर्वन्ति। सा च वजिकां विकुर्वती अन्तिमायां च प्रजिकायामुपकरणं विस्मारयति तस्याग्रहणार्थ साधवो निवर्त्य यावत् तत्रागताः तावद्धोकुलंन पश्यन्ति, ततो गुरूणां समीपे कथनं यथा नास्ति सा जिकेति। इदमेव स्पष्टयतिअद्धाणम्मि महंते, वट्टतो अंतरा तु अडवीए। सत्थां तेण परद्धे,जो जत्तो सो ततो नहो / / 656 || संजयणो य सव्वो, हंचि सथिल्लयं अलभमाणो। पंथं अजाणमाणो, पविसेज्ज महाडविं भीमं / / 660|| अध्वनि महति वर्तमानः सार्थः सर्वोऽप्यन्तरा महाटव्यां स्तेनैः प्रारब्धः, ततश्च यो यत्र वर्तते स च तत एव नष्टः-पलायितः संयतजनश्च सर्वः कथंचिदपि सार्थिकमलभमान पन्थानं वा अजानन् भीमां महाटवी प्रविशेत्। ततः किं कर्तव्यमित्याहसव्वत्थामेण ततो, विसवाकज्जुज्जुया पुरिससीहा। वसभ गणीपुरोगा, गच्छं धारिंति जतणाए ||661|| ततः सर्वस्थाम्ना सर्वादरेण वृषभाः सर्वकार्योद्यताः सकलगच्छकार्यैबऽकक्षाः पुरुषसिंहाः सातिशयपराक्रमतया पुरुषाणां मध्ये सिंहकल्पाः गणिपुरोगाः आचार्यपुरस्सरा ईदृश्यां विषमदशायां प्रपतन्तं गच्छं यतनया धारयन्ति।
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________________ राइभोयण 528 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 राइभोयण तामेवाहजइ तत्थ दिसामुढो, हवेज गच्छो सबालवृड्डोउ। वणदेवयाए ताहे, णियमगंपं तह करेंति // 962 // यदि तत्नाटव्यां सबालवृद्धोऽपि गच्छो दिग्मूढो भवेत ततो नियमेननिश्चयेन प्रकम्पोदेवताया आकम्पो यस्मादिति नियमप्रकम्पःकायोत्सर्गस्तं वनदेवताया आकम्पनार्थ तथा कुर्वन्ति यथा सा आकम्पिता सती दिग्भागं पन्थानं वा कथयति। यतःसम्मचिट्ठी देवा, वेयावचं करेंति साहूणं / गोकुलविउध्वणाए, आसासपरंपरा सुद्धा / / 663|| ये सम्यगदृष्टयो देवास्ते साधूनां वैयावृत्यं भक्तपानोपदानादिना दिव्यापदाद्युद्धरणात्मकं कुर्वन्तीति स्थितिः। ततः सम्यग्दृष्टिदेवाता काचिद् गोकुलं विकुर्वती साधूनां तद्दर्शनेनाश्वासः, ततस्तया देवतया साधवो गोकुलपरंपरया तावन्नीता यावज्जनपदं प्राप्ताः। तया एवं नीता अपि शुद्धा निर्दोषाः। __ अमुमेवार्थसविशेषमाहसावयतेणपरद्धे, सत्थे फिडिया न उ जइहवेज्जा। अंतिमवइगा विंटीय, णियट्ट ण य गोउलं कहणा // 16 // श्वापदैः स्तनैश्च प्रारब्धा इतस्ततोगतास्ते च सार्थान स्फिटिता यदि भवेयुः ततः कायोत्सर्गेण देवतामाकम्पयेत्, आकम्पिता चकाचित्पन्थानं कथयेत् जिकाः परंपरया विकुळ जनपदं प्रापयेत्, अन्तिमायां च प्रजिकायाम् उपकरणविण्टिकाम् उपधिं विस्मारयेत्, तदर्थ साधवो निवर्त्य यावत्तवागतास्तवाद्गोकुलं न पश्यन्ति। ततो गुरूणां समीपे कथनं, यथा नास्ति सावजिकेति।गुरुभिश्च ज्ञातं तथैव सर्व देवताकृतमिति। भंडी वहिलगमरवा-हिगेसु एसा तु वणिया जतणा। ओदरिय विवित्तुसे य, जयण इमा तत्थ णायव्वा / / 665 / भण्डीवहिलकमारवाहिकेषु-सार्थेष्वेषा अनन्तरोक्ता यतना वर्णिता / अथौदरिकेषु विविक्तेषु च कार्पटिकेषु इयं यतना ज्ञातव्या। तामेवाऽऽहओदरयिपच्छणासइ, पच्छयणं तेसि कंदमूलफला। अग्हणम्मि य रज्जु, वर्लेति गहणं च जयणाए।।९६६॥ आगाढे राजद्विष्टाकार्ये औदरिकादिभिरपि सह गम्यभोन पथ्योदनस्य / शम्बलस्याभावे यदि तेषामौदारिकादीनां कन्दमूलफलाद्याहारो भवेत्, ततः साधूनामपि तमेवाऽऽहारं स्वयं प्रयच्छन्ति,ये च तत्रापरिणतास्ते कन्दादि न गृह्णन्ति / अग्रहणे च ते सार्थिका अपरिणतानां भीषणार्थ रज्जु वलयन्ति। ततो यतनाया ग्रहणं कुर्वन्ति। इदमेव स्पष्ठयतिकंदाइ अभुंजुते, अपरिणए सत्थिगाण कहयंति। पुच्छा वेहासे पुण, दुक्खिहरा खाइउं पुरतो / / 667 / / अपरिणते कन्दादिकमभुञ्जाने वृषभाः सार्थिकानां कथयन्ति एतान् / तथा भावयत यथा खादन्ति ततस्ते सार्थिका रज्जवलनं कुर्वन्ति, ततो गीतार्थाः कृतसङ्केताः पृच्छन्ति। कथयत किमताभी रज्जुभिः प्रयोजनम् ? सार्थिका भणन्ति-वयमेकनावारूढा अतो योऽस्माकं कन्दादीनि न भक्षयति तं वयमेताभिर्विहायसि लम्बयामः, इतरथा तस्य बुभुक्षार्तस्य पुरतः खादितु दुष्करं न वयं भक्षयितुं शक्नुम इति भावः। इहरा विमरति एसो, अम्हे खायामों सो विउ भएणं / कंदादि कजगहणे, इमा तु जतणा तहिं होति।।१६॥ कन्दादीनयभक्षयन्नितरथाऽप्यस्यामटव्यामवश्यमेव मियते अतो विहायसि लम्बनेन तं मारयित्वा सुखेनैव वयं भक्षयामः, इत्युक्ता सोऽप्यपरिणतो भयेनकन्दादिभक्षणं करोति। एवमादिषु कार्येषु कन्दादिग्रहणे प्राप्त इयं यतना भवति। तामेवाऽऽहफासुगजोणिपरित्ते, एकट्ठियवद्धभिन्नभिण्णे अ। बद्धहिए वि एवं, एमेव य होइ बहुबीए / / 666 // एमेव होइ उवरिं, एगट्ठिय तह य होइ बहुबीए। साहारणस्स भावा, आईए बहुगुणं जं च / / 670|| द्वे अपि व्याख्यातार्थे। . पानकसतनामाहतुवरे फले य पत्ते, रुक्खसिला तुप्पमद्दणादीसुं। पासंदणे पवाते, आतवतत्ते वहे अवहे / / 771 / / एषाऽपि गतार्था / गता अशिवविषया यतना। अथावमौदर्यविषयां यतनामाहओमे एसणसोहिं,पजहति परितावितो दुंगुंछाए। अलभंते वि य मरणं, असमाहि तित्थवोच्छेदो / / 672 / / अवमौदारिक विज्ञाय अनागतकेव द्वादशभिर्वर्षर्निच्छन्ति ततश्च गुर्वाज्ञादयो दोषाः। तत्र च तिष्ठन् जुगुप्सया क्षुधा परितापितः सन्नेषणाशुद्धिं प्रजहाति / अथवा-भक्तपानमलभमानो भरणं प्राप्नोति, एवं चान्यान्यसाधुषु म्रियमाणेषु तीर्थस्य व्यवच्छेदो भवति। यत एवमतःओमोदरियागमणे, मग्गे असतीय पंथजयणाए। परिपुच्छिऊण गमणं, चउव्विहं रायदुटुं च / / 173|| अवमौदरिकायां गमने प्राप्ते पूर्व मार्गेण गन्तव्यम्, मार्गस्थाभावे पथाऽपि किं छिन्नः अच्छिन्नो वाऽयंपन्था इतिपस्पृिच्छ्ययतनया अशिवद्वारोक्त्या गमनं विधेयम्। अथ राजद्विष्टद्वारे तच्च निर्विषयादभिर्वक्ष्यमाणभेदैश्चतुर्विधम्। तत्र स राजा कथं प्रद्वेषमापन्न इत्याशङ्कावकाशमवलो क्येदमाहओराहधरिसणाए, अब्भरहितसेहदिक्खणाए वा। अहिमरअणिट्टदरिसण,बुग्गाहणया अणायारे॥६७४|| अवरोधः अन्तः पुरंतस्य लिङ्गस्थेनकेनाप्याघर्षणाकृत्ता, राज्ञोवा अभ्यर्हितो गौरविकोराजामात्यादिपुत्रःशैक्षोदीक्षितोभदेत, साधुवेषणवाकेचिदभिमराप्रविटा, अनिष्टवा साधुदर्शनं स्वयमेव पुरोहितप्रभृतिभिर्वा ब्युमाहितोमन्यते, सं
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________________ राइभोयण 526 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 राइभोयण यतो वा कयचिदविरतिकया सममनाचारं प्रतिसेवमानो द्रष्टः। एवमादिभिः त्पादनयोश्च यतितव्यम् / भक्तार्थन्तु द्वयो राद्यगमनयोर्मण्डल्यादिकारणैः प्रद्विष्ट इत्थं चतुर्विधं दण्डं प्रयुञ्जीत। विधिनैव कुर्वन्ति। तृतीये तुगमने राजपुरुषसमीपे भुजानानां न मण्डनिव्विसउत्तिय पढमो, बितिओ मा देह भत्तपाणं से। ल्यादिनियमः।स्थण्डिलसामाचारी तु त्रिष्वपि न हापयन्ति, राजपुरुषततितो उवकरणहरो, जीयचरित्तस्स वा भेदो || 675 // समीपे स्थिता वा कुरुकुचां कुर्वन्ति। यदितेबुवीरन् अस्मत्समीपेवस्तव्यं प्रथमो राजदण्डो निर्विषयाज्ञापनलक्षणः, द्वितीयो मा भक्तपानममीषां ततो वसतावसत्यां यत्राल्पदोषतरंतत्र निवसन कर्त्तव्यम्। प्रयच्छतेत्येवं लक्षणः, तृतीयः पुनरुपकरणहरः, चतुर्थो जीवितस्य अथ प्रकारत्रयमेव व्यक्तीकुर्वन्नाहचारित्रस्य वा भेदः कर्त्तव्यः। सच्छंदओ य एकं, वितियं अण्णत्थ भोतिहं एह। एवंविधे राजद्विष्ट आज्ञातिक्रमं कुर्वाणानां प्रायश्चित्तमाह ततिए मिक्खं घेत्तुं, इह भुजहतीसुवी जतणा ||10|| गुरुगा आणालोवे, बलियतरं कुप्पें पढमए दोसा। एकं स्वच्छन्दतो गमनम, द्वितीयं पुनरन्यत्र भुक्त्वा इह समागच्छत्, गिण्हत देंत दोसा, बितिततिचरिमे दुविहभेयो / / 676 / तृतीयम् इह समागत्य भोजनं कुरुत। एषु त्रिष्वपि भैक्षादियतना कर्तव्या। येन राज्ञो निर्विषयाज्ञातिक्रमे राजा बलिकतरम्--गाढतरं कुप्यति;एष बितिइज्जए व मुंचति, आण्णावे तं च तुल्लपदे। प्रथमभेददोषोऽभिहितः। द्वितीयतृतीयभेदयोः यत्र राज्ञा ग्रामानगरादिषु अम्हुग्गमाइसुद्धं, अणुसिहि अणुच्छ जं अन्नं / / 651 // भक्तपानमुपकरणं वा वारितं तत्र ये साधवा गह्णन्ति,ये च गृहस्थाः तेषां वाशब्दः प्रकारान्तरोपन्यासे कश्चिदतिप्रान्तः स द्वितीयान् साधून प्रयच्छन्ति, तेषामुभयेषामपि दोषाग्रहणाकर्षणादयो भवन्ति। चमश्चतुर्थी मुञ्चति / किमुकं भवति / साधूनां भिक्षामटतां राजपुरुषान् दृष्ट्वा पृष्ठतः भेदो भवति जीवितभेदः, चारि० भेदश्चेत्यर्थः / स्थितास्थातुर्हिण्डापयतितेच यद्युत्सुकायामानाअनेषणीयं ग्राहयन्ति / अथ निर्विषयाज्ञप्तानां गमनविधिमाह यदिवा-सराजपुरुष एकत्रस्थाने साधून्निरुध्यधोल्लकभोजनमानाय्य सच्छंदेण य गमणं, मिक्खे भत्तट्ठणे य वसहीए। ददाति, यथा सर्वेऽप्येतदाहारयत ततोऽसौ वक्तव्यः। अस्माकमुद्मादिदारे ठियो निरम्भति, एगट्ठठितो व आणाए।। 977 / / शुद्धं ग्रहीतुं कल्पते / एवमुक्तो यद्युत्संकलयति ततो भिक्षां हिण्डन्ते, अथ नोत्संकलयति ततो अनुशिष्टिः कर्त्तव्या। तथापि मोक्तुमनिच्छति यत्र राज्ञा भणिताः स्वच्छन्दं गच्छन्तु भवन्तो नाहं गच्छतां किमपि यचोलकम् अन्नं पिण्याकदोषान्नादि तद् गृह्णन्ति। निरोधं कुर्वे, तत्र भैक्षे भिक्षार्थेन वसतिविषयां व सामाचारी न परिहार पुवं च उवक्खडियं, खीरादी वा अणिच्छे जं दिति। यन्ति। अथद्वारे-गामादिप्रवेशमुखे स्थितो राजपुरुषवर्गः साधून भिक्षा कमढगभुत्ते सण्णा, कुरुकुय दुविहेण वि दवेणं / / 652 // गतान्निरुणाद्धि, एकत्र वा सभादेवकुलादौ स्थितः साधून भुक्तानात्म अथवा--चोल्लके आनीते तन्माध्याद्यत्पूर्वमात्मार्थं तैरुपस्कृतं राद्धं समीपे आनाययति; ततो वक्ष्यमाणां यतनां कुर्वन्तीति नियुक्तिगाथा क्षीरध्यादि वा तद्भुज्जते, यदि पूर्वराद्धं नेच्छति प्रदातुं ब्रवीति च, यदहं समासार्थः। भोजयाति भणामि वा तत्समुद्दिशत, ततः शुद्धमशुद्धं वा यत्ते प्रयच्छन्ति साम्प्रतमिदमेव व्यक्तीकुर्वन्नाह तद्भुञ्जते / तत्र चेयं यतना-कमठकेषु परस्परं सान्तरमुपविष्टाः सन्तो सच्छंदेण उगमणं, सयं व सत्थेण वाऽवि पुवुत्तं / भुञ्जते भुक्तोत्तरकालं संज्ञाविसर्जनानन्तरं च प्रायः प्राशुकमृत्तिकया तत्थुग्गमादिसुद्धं, असंथरे वा पणगहाणी।।९७८॥ द्रावणं च द्विविधनाऽपि सचित्ताचित्तभेदभिन्नेन कुरुकुचां कुर्वन्तिा पूर्वमपि यत्र राज्ञा स्वच्छन्देन गमनमनुज्ञातं तत्र स्वयं वा सार्थेन वा सहिता तेन पश्चात् सचित्तेनपि पूर्व मिश्रेण पश्चाद् व्यवहारसचित्तेनेति गमनं गच्छन्ति, पूर्वोक्तमिहैवाऽशिवद्वारे ओघनिर्युक्तौ वा भणितं भैक्षं निर्विषयज्ञानद्वारम् / षट्काययतनादिकं कर्त्तव्यं, नवरं तत्र स्वच्छन्दगमने उद्गमादिशुद्धं अथ भक्तपान निवारणद्वारं व्याचष्टेभक्तपानं ग्राह्यम्, असंस्तरणे पञ्चकपरिहाण्या गृह्णन्ति / अथ राजा मा बिइए वि होइ जयणा, भत्ते पाणे अलब्भमाणम्मि। अत्रैव जनपदे कचित्प्रदेशे निलीय स्थास्यतीति बुद्ध्या पुरुषान् सहा दोसणे तकपिंडी, एसणमादीसु जतितव्वं / / 683 // यान प्रयच्छन्ति, यूयं ग्रामं प्रविशत तत्र भिक्षामटित्वा भुक्त्वा च प्रत्या द्वितीयेऽपि राजद्विष्टे भक्तपाने अलभमाने इयं यतना भवति-यावदगच्छत, वयमिहैव ग्रामद्वारे स्थिताः प्रतीज्ञामहे। ततस्ते तत्र स्थिताः यो थापि जनो न संचरति तावत्प्रत्यूषवेलायां दोषान्नं तवं च गृह्णान्ति, यथा साधुः समागच्छति तं तथा निरुम्भन्ते यावता सर्वे मिलिताः। पिण्याकपिण्डिका वायसपिण्डिकां वा गृहन्तिाततएषणादिषु यतितव्यम्। अथवा-तेराजपुरुषाः सभायां देवकुलेवा स्थिता ब्रुवते, यूयं भिक्षामटित्वा केषु पुनस्तद्गृहीत इत्याहगृहीत्वा चेह समागच्छत, अस्माकं समीपे समुपदिशतेति। पुराणादिपण्णवेतुं, णिस्सियं गीतती होति गहणं तु। ततश्च अगीते दिवग्गहणं, सुण्णघरे वा इमेहिं च // 984|| तिण्हेगयरे गमणे, एसणमादीसु होति जतियव्वं / पुराणं श्रावकं वा साधुसमाचारिकुशलं प्रज्ञाप्य सर्वेऽपि भत्तहणं थंडिल्ले, असती वसहीऍ जं जत्थ / / 676 // गीतार्था मिश्रेषु तु पुराणादिप्रज्ञापितः शून्यगृहे वाशब्दाद्देवत्रयाणां प्रकाराणमेकतरस्मिन् गमने एषणायाम् आदिशब्दादुद्रमो- | कुलादौ बलिनिवेदनलक्ष्येण पौगलिकं स्थापयन्ति, तस्य
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________________ राइभोयण ५३०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 राइभोयण दिव ग्रहणं कर्तव्यम्, एतेषु वा स्थानेषु स्थापितं गृह्णन्ति। तान्येवाऽऽहउंबरकोडिंबसु व, देवउले वा णिवेदयाऽरणे। कतकरणे करणं वा, असती नंदी दुविहदवे / / 985 // देवकुलादिषु ये उदुम्बरास्तेष्वनिकालक्ष्येणोपढौकितं कूरादिकं गृह्णन्ति, कोट्टिबा नाम यत्र गोभक्तं दीयते, तत्र गोभक्तलक्ष्येण स्थापितम्, अरण्ये वा यद्देवकुलं तत्र बलिनिवेदनं गृह्णन्ति, यदि राजा बहुभिरप्युपायैरुपशम्यमानो नोपशाम्यति ततो यः संयतः कृतकरणः इषुशास्त्रे कृताभ्यासः सहस्रयोधि स करणं करोति, तं राजानं बध्या शास्तीत्यर्थः / विद्याबलेन वा वैक्रियलब्धिसंपन्नो वा विष्णुकुमारादेरिवतस्य शिक्षां करोति। असइ त्ति' यदा कृतकरणादयो न प्राप्यन्ते तदा अध्वानं गच्छद्भिः नन्दिः-प्रमोदो येन द्रव्येण गृहीतेन स्यात्तद् द्विविधमपि ग्रहीतव्यम्। तद्यथा-प्राशुकमप्राशुकं वा, परीत्तमनन्तंवा, परिवासितमपरिवासितं वा, एषणीयमनेषणीयं वा। गतं भक्तपानप्रतिषिद्धद्वारम्। अथोपरकणहरद्वारे व्याख्यानयति-- तइए वि होति जतणा, वत्थे पत्ते अलग्भमाणम्मि। उच्छुकृविप्पइण्णे, एसणमादीसु जतितव्वं // 86 // तृतीयं राजद्विष्टं नाम, यत्र राज्ञा प्रतिषिद्ध मा अमीषां वस्त्रं पात्रं वा कोऽपि दद्यात्, अपहत्तव्यं वा। तत्र वस्त्रे वा पात्रे वा अलभ्यमाने यतना कर्तव्या / कथमित्याह देवकुलादिषु कार्पटिकैर्यदस्रादिकमुच्छूढं परित्यक्तं यच्च विप्रकीर्णमरुकु टिकादिस्थापितं तद् गृह्णन्ति / एषणादिदोषेषु यतितव्यम्। हियसेसगाण असती, तण अगणी सिकगा व पिण्डति। पेहूणचम्मग्गहणं, मुत्तं तु पलासपाणिसु वा // 687 // राज्ञा साधूनामपकरणानि हृतानि ततस्तेषां शेषाणां तदुरितानामभावः संवृत्तः, किंचिदवशिष्यमाणं नास्तीति भावः / ततः शीताभिभूताः सन्तस्तृणानि गृह्णन्ति, अग्निं वा सेवन्ते, पात्रकबन्धभावे तृकदिसिक्ककानि गृह्णन्ति / 'पेहुणं' ति मयूराङ्गमयी पिच्छिका रजोहरणस्थाने कर्तव्या। चर्मणो वा प्रस्मरणप्रावरणार्थ ग्रहण कार्यम्, भुक्तं तुपलाशपत्रादिषु तेषामभावे पाणिष्वपि गृह्णीयाद्धा भुञ्जीत वा। असई य लिंगकरणं, पण्णवणऽट्ठा सयं व गहणऽहा। आगाठे कारणम्मि, जहेव हंसादिणं गहणं // 958|| यदि राज स्वलिङ्गेनोपशाम्यमानो नोपशाम्यति, स्वलिङ्गेन मृग्यमाणं न लभते ततः परलिङ्ग कुर्वन्ति ।किमर्थमित्याह-प्रज्ञापनार्थ स्वयं वा ग्रहणार्थम्। किमुक्तं भवति–बौद्धादिना राजानुगतेन परलिङ्गेन स्थिताः स्वसमयपरसमयवेदिनो वृषभा युक्तियुक्तैर्वचोभिस्तं राजानं प्रज्ञापयन्ति, तेन वा परलिङ्गेन स्थिता उपकरणं स्वयमेवोत्पादयन्ति ईदृशे आगाढे कारणे यथैव हंसतैलादीनां ग्रहणं तथा वस्रपात्रादेरप्यवस्थापनतालोद्घाटनाप्रयोगैः कर्त्तव्यमिति / गतमुपकरणहरद्वारम्। अथ जीवितचारित्रभेदद्वारं भावयति दुविहम्मि भेरवम्मि, विज्ञणिमित्ते य चुण्ण-देवी य। सेडिम्मि अमचम्मिय, एसणपादीसु जतितव्वं / / 689ll द्विविधे जीवितचारित्रव्यपरोपणात्मके भैरवे समुत्पन्ने तं राजानं विद्यया निमित्तेन वा चूर्ण, वशी कुर्यात् / या च देवी तस्य राज्ञ इष्टा सा विद्याभिरावय॑ते / एवमप्यनुपशान्तौ श्रेष्ठिनममत्यं वा उपलक्षणत्वात् पाषण्डिगणं वा प्रज्ञापयन्ति / ततस्तद्द्वारेणोपशमयन्ति, अथवा-- यावन्नृपतिमुपशमयन्ति यावत् श्रेष्ठिनोऽमात्यस्य वा अवग्रहे तिष्ठन्ति। एषणादिषु प्राग्वदेव यतितव्यम्। आगाढे अन्नालग, कालक्खेवो य होति गमणं वा। कयकरणे करणं वा, पच्छादण थावरादीसं | EOIl आगाढे-राजद्विष्ट अन्यलिङ्गं विधायाऽज्ञायमानस्तत्रैव कालक्षेपः कर्तव्यः, विषयान्तरगमनं वा कर्त्तव्यम् / यो वा कृतकरणः स नृपतेः शिक्षां करोति / अथ तदपि नास्ति, ततः स्थावरा-वृक्षा तेषां गहनेषु तडागसरः प्रभृतिषु वा आत्मानं प्रच्छाद्य दिवा निलीना आसते, रात्रो च व्रजन्ति / गतं राजद्विष्टद्वारम्। अथ भयादिद्वाराणि युगपदाह-- बोहियमिच्छादिभए, एमेव य गम्ममाणजतणाए। दोण्हहा व गिलाणे,णाणट्ठा दाव गम्मते ||4|1|| बोधिका-मालवस्तेनाः म्लेच्छा:-पारशीकादयः तदादीनां भये समुपस्थिते गन्तव्यम्, तत्रच गम्यमाने एवमेवाशिवादिद्वारवद्रक्षादिकं यतनया कर्तव्यम्। आगाढं तु किंचिदौत्पत्तिकं कार्यम्, यथा संज्ञातकैः संदिष्टम्-इदं कुलं प्रव्रज्यामभ्युपगच्छतु यदि यूयं नागमिष्यथ, ततो विपरिणमिष्यति, अन्यस्मिन् वा शासने प्रव्रजिष्यति, इति ईहशे अगीतार्थसमीपं गच्छेत् ज्ञानदर्शनचारित्रार्थे वा गन्तव्यम् / एतैः कारणैर्गम्यमाने पूर्व मार्गेण पश्चादंच्छिन्नेन पथा गन्तव्यम्। अत्र यतनामाहएगावण्णं च सता, वीसं च द्वाणि णिग्गमा णेया। एतो एकेकेम्मिय,सतग्गसो होति जयणाओ ||2|| सार्द्धपञ्चकेन कालोत्थयिप्रभृतिभिश्चतुर्भिः पदैः सप्रतपक्षरेकपञ्चाशत् शतानि विशत्यधिकानि अध्वनि गमाः प्रकारा भवन्ति / एते च प्राक सप्रपञ्चं भाविताः। एतेषु भङ्गकेषु एकैकस्मिन् अशिवादिकारणे च तादृशः प्रागुक्तनीत्या यतना भवन्ति / बृ०१ उ०३ प्रक०। रात्रिभोजनं प्रशंसति, दिवा प्रतिग्रहणात् रात्रौ वा भुङ्क्तेजे भिक्खू दियाभोयणस्स अवण्णं वदइ अवणं वदंतं वा साइजइ / / 178 // जे भेक्खू राइमोयणस्स वण्णं वदह वर्ण वदंतं वा साइजइ / / 179l दियाभोयणस्स अवण्णं-दोसं भासति, रातीभोयणस्स वन्ने गुणे भासति / / गाहादियभत्तस्स अवण्णं, जे तु वदे रातिभोयणे वण्णं। चउगुरु आणादीया, कहति अवण्णं च वण्णं वा / / 110 //
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________________ राइभोयण 531- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 राइभोयण आणादिया य दोसा च उगुरुगं च से पच्छित / कहं पुण दियाभोयणस्स अवण्णं भासतिवायावेहि सूसति, ओयो हीरतिय दिहिदिहस्स। मच्छियमाति णिपातो, बलहाणी चेव चंकमणे // 111 // | दियोभोयणं वातेण आतवेण य सुसियं अबलकरं भवति। ओयो तेयो भन्नति, दिद्विणा दिटुं दिट्ठिदिटुं, परजनदृष्टः स्यात्तस्य ओजोपहारो भवतीत्यर्थः दिवसतो मच्छियमादी णिवतंति, उद्देव गुलियादि दोसा, दिवसयो य भुंजित्ता कम्मचेट्ठासु अवस्सं चंकमियव्वं,तत्थ पस्सेदो भवति / आयासोस्सासो बहुं च दगमादीयति। एवं तं अबलकरं भवति। इमं रातीभोयणस्स वन्नं वदतिआउंबंभं च वकृति, पाणेति य इंदियाइँ णिसि भत्तं। णेव जिजइ य देहो, गुण दोसविवजओ चेव // 112|| रातो भुत्ते अकम्मस्स सत्थेंदियस्स चिट्ठतो सुभपोग्गलोवचयो भवति, सुभपोग्गलोवचयातो आयुबलईदायाण बुड्डी भवति। रसायने पयोगवत् सुभपोग्गलोवचयातो शीघ्रं देहो नजीर्यते। एते गुणा रातीभोयणे। एयस्स विवज्जओ दिवसे / तो तम्मि एते चेव गुणा, विवरीया दोसा भवंति / इमम्मि कारणजाते वएज्जा। गाहाबितियपदमणप्पज्झे, वएम अवि कोविए व अप्पज्झे। जाणंते वावि पुणो, कारणजाते वएग्जा उ॥११३॥ अणप्पज्झे-अणप्पवसो खेत्तादितोसो दियातो वण्णस्स अवनं वदेजा, राईभोयणस्स वा वन्नं वएज। अवि कोवितो वा अग्गीयत्थो अप्पज्झेऽवि वएज / बहुसु या अवसिवोमगिलाणरायदुवादिकारणेसु गुणबुड्डिहेउं गीयत्थो वि य वन्नं वा वएला। . सूत्रम्जे भिक्खू दिया असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा | पडिग्गाहित्ता दिया मुंजइ, दिया मुंजंतं वा साइडइ / / 180 // जे मिक्खू दिया असणं वा०४ पडिग्गाहित्ता रत्तिं भुंजइ, मुंजंतं वा साइजइ / / 181 // जे भिक्खू रत्तिं असणं वा०४पडिग्गाहित्ता दिया मुंजइ, मुंजंतुवा साइजइ।।१५।जे मिक्खू रत्तिं असणं वा०४ पडिग्गाहेत्ता रत्तिं मुंजइ भुजंतं वा साइजइ॥ 183 // चउसु विभंगेसु आणादिया यदोसा चउगुरुं पच्छित्तं, एवं कालविसेसियं दिजति। नि० चू०११ उ०। रात्रिभक्तं गृहीतं स्यात्, अज्ञानात् रात्रिभक्तं गृहीयात्। सूत्रम्भिक्खू य उग्गयवित्तीए अणत्थमियसंकप्पे संथडिए निवितिगिच्छे असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहिता आहारं आहारेमाणे अह पच्छा जाणेज्जाअणुग्गए सूरिए अत्थमिए | वा, से जंच मुहे जंच पाणिंसि, जंच पडिग्गहिये तं विगिंचमाणे वा विसोहेमाणे नाइकमइ, तं अप्पणा भुंजमाणे अन्नेसिं व अणुप्पदेमाणे राइभोयणपडिसेवणपत्ते आवाइ चाउम्मासियं परिहारहाणं अणुग्धाइयं // 6 // भिक्खू य उग्गयवित्तीए अणथमियसंकप्पे संथडिए वितिगिच्छासमावन्ने असणं वा० पडिग्गहित्ता आहारं आहारेमाणे अहपच्छाजाणेशा, अणुग्गए सूरिए अत्थमिए वा, से जंच मुहे जं च पाणिरिजंच पडिग्गहे तं विगिंचमाणे विसोहेमाणे नाइकमइ, तं अप्पणा भुजमाणे अन्नेसिं वा अण्णप्पदेमाणे राइ भोयणपडिसेवणपत्ते आवजइ चाउम्मासियं परिहारहाणं अणुग्घाइयं / / 7 / / भिक्खू य उग्गयवित्तीए अणत्यमियसंकप्पे असंथडिए निविइगिच्छे असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गहित्ता आहारमाहारेमाणे अह पच्छा जाणेजा-अणुग्गए सूरिए अत्थमिए वा से जं च मुहे जं च पाणिसि जं च पडिग्गहे तं विगिश्चमाणे विसोहेमाणे नाइक्कम तं अप्पणा भुञ्जमाणे अन्नेसिं वा अणुप्पदेमाणे आवाइ चाउम्मासियं परिहारहाणं अणुग्धाइयं / / // भिक्खू य उग्गयवित्तीए अणत्थमियसंक प्पे असंथडिए विइगिच्छासमावन्ने असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहित्ता आहारमाहारेमाणे अहपच्छा जाणेशा-अणुग्गए सूरिए अत्थमिए वा, से जं च मुहे च पाणिंसि जंच पडिग्गहे तं विगिधमाणे विसोहेमाणे नाइकामइ,तं अप्पणाभुजमाणे अन्नेसिंवा अणुप्पदेमाणे आवाइ चाउम्मासियं परिहारहाणं अणुग्घाइयं // 6 // अस्य सूत्रचतुष्टस्य सम्बन्धमाहअण्णगणं वचंतो, परिणिव्ववितो व तं गणं पत्तो। विहसंथरेतरे वा, गेण्हे (अ) सामाएँ जोगो य॥ 103 / / अधिकरणं कृत्वा अनुपशान्तोऽन्यपणं व्रजन् परिनिर्वापितो वा भूयस्तमेव गणमागच्छन्, 'विहे'-अध्वनि संस्तरणे इतरस्मिन् वा असंस्तरणेश्यामायाम्-रजन्याम् आहारांगृह्णीयात्, एष योगः सम्बन्धः / अनेनाऽयातस्यास्य सूत्रचतुष्टस्य व्याख्या-भिक्षुः-पूर्ववर्णितः, चशब्दाद् आचार्य उपाध्यायश्च परिगृह्यते, उद्गते आदित्ये वृत्तिः जीवनोपायो यस्य स उगतवृत्तिकः / पाठान्तरं वा-'उग्गयमुत्तीए त्ति मूर्तिः-शरीरम् उद्गते रवौ प्रतिश्रयावग्रहाद्वहिः प्रचारवती मूर्तिरस्येत्युद्गमूर्तिको मध्यमपदलोपी समासः,अनस्तमिते सूर्ये सङ्कल्पः। संस्तृतो नाम-समर्थस्तदिवसंपर्याप्तओजी.वा 'तिव्वितिगिच्छत्ति' विचिकित्सा-चित्तविप्लुतिः सन्देह इत्येकोऽर्थः / सा निर्गता यस्मात्स निर्विचिकित्सः, उदितोऽनस्तमितो वा रविरित्येवं निश्चयवानित्यर्थः, एवविधविशेषणयुक्तोऽशनं वा पानं वा खादिम वा खादिम वा प्रतिगृह्याऽऽहारभाहरन्, भुञ्जानः। अथ पश्चादेव जानीयत् अतुगतः सूर्यः अस्तमितो वा / एवं वि
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________________ राइभोयण 532- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 राइभोयण ज्ञाय (से) तस्य यच्च मस्रप्रक्षिप्तं, यच्च पाणेरुत्पाटितं, यच्च प्रतिगृहे स्थितं, तद्विविचन् वा परिष्ठापयन् वा विशोधयन् वा निरवयवं कुर्वन्, (न) नैव भगवतामाज्ञातिक्रामति / तदशनादिकम् आत्मना भुञ्जानः, अन्येषां वा ददानो रात्रिभोजन प्रतिसेवनप्राप्त आपद्यते चातुर्मासिकं परिहारस्थानमनुद्धातिकम् / एवमपरमपि सूत्रत्रये मन्तवयम्, नवरं द्वितीयसूत्रे संस्तृतसे विचिकित्सासमापन्नश्च यो भुडेक्त। विचिकित्सासमापन्नो नाम-किमुदितो वा रविः, अथवा अस्तमितो वेति सन्देहदोलायमानमानसः एवं भुञ्जपस्य अन्येषां वा ददानस्य चतुर्गुरुकम्, तृतीयसूत्रे 'असंथडिय' त्ति-असंस्तृतः अध्वप्रतिपन्नः क्षपको ग्लानो वा भण्यते स नैव विचिकित्स्यो नियमादनृद्गतः अस्तमितो वा रविरित्येवं निःसन्देहं जानानो यदि भुडक्ते तदाऽपि चतुर्गुरुकम्। शेषं प्रथमसूत्रवज्झेयम्। चतुर्थसूत्रे संस्तृतो विचिकित्सासमापन्नश्चयोभुङ्क्तेस आपद्यते चातुर्मासिकं परिहारस्थानमनुवातिकम्, एष सूत्र चतुष्टयार्थः। अथ नियुक्तिविस्तरःसंखडमसंखडे वा, निव्वितिगिच्छे तहेव वितिमिच्छे। काले दव्वे भावे, पच्छिते मग्गणा होइ॥ 10 // प्रथमसूत्र संस्तृते निर्विचिकित्से, द्वितीयं संस्तृते विचिकित्सासमापन्ने, तृतीयमसंस्तृते निर्विचिकित्से, चतुर्थसंस्तृते विचिकित्सासमापन्ने मन्तव्यम्। तत्र प्रथमसूत्रे तावत्त्रिविधा प्रायश्चित्तमार्गणा भवति-कालतो द्रव्यतो भावतश्च। तत्र कालतस्तावदाहअणुगयमणसंकप्पे, गवेसणे गहणभुंजणे गुरुगा। अह संकियम्मि मुंजति, दोहि विलहु उग्गते सुद्धो॥ 105 / / अनुगतो नाऽद्याप्युद्गतो रविरित्येवं निःशङ्कितेन मनःसकल्पेन यो भक्तपानस्य गवेषणं ग्रहणं भोजनं च करोति तस्य चतुर्गुरवो द्वाभ्यामपि तपःकालाभ्यां गुरुकाः। अथ शङ्कितेन मनः संकल्पेन भुङ्क्ते। ततस्त एव चतुर्मुरुका द्वाभ्यामपि लघवः / उद्गत सूर्य इति निस्सन्दिग्धे मनःसङ्कल्पे भुजापः शुद्धः। अत्थंगसंकप्पो, गवेसणे गहणे भुञ्जने गुरुगा। अह संकियम्मि भुंजइ, होहि वि लहुऽणत्थमिऍ सुद्धो॥ 106 / / अस्तंगतो रविरित्येवंविधेनसङ्कल्पेन गवेषणे ग्रहणे भोजने च चतुर्गुरुकास्तपसा कालेन च गुरवः / अथास्तंगतोऽनस्तंगतो वा इति शङ्कितं भुक्ते, ततश्चतुर्गुरुकाः, द्वाभ्यामपि तपः-कालाभ्यां लघवः / यः पुनरनस्तमितो रविरित्येवं निःसंदिग्धेनचेतसा भक्ते सः शुद्धः। अथ 'उग्गयवित्ती' इत्यादिपदव्याख्यानमाहउग्गयवित्ती सुद्धो, मणसंकप्पे य हाँति आएसा। एमेव अणत्थमिए, धाए पुण संखडीपुरतो / / 107 // उर्दगते रवौ वृत्तिर्वर्त्तनं यस्य स उगतवृत्तिः, पाठानन्तरेण उद्गभूतिरिति वा, उगते सूर्ये मूर्तिः-शरीरं वृत्तिनिमित्तं बहिःसप्रचारं यस्यस उद्गतमूर्तिः, मनःसङ्कल्पेनोदितं मन्यते स भुञ्जानोऽपि न दोषभाक् भवति / यः पुनरुदितेऽसपि रवी नाऽद्याप्युदित इति चेतसा मन्यमानो भुङ्क्ते स | सदोषः, एवमेवामस्तमितेऽपि मन्तव्यम्। किमुक्तं भवति-अस्तमितेऽपि रवौ नाऽद्याप्यस्तङ्गत इति बुद्ध्या भुञ्जानोऽपि न प्रायश्चित्ती, अस्तमितेऽपि वाऽस्तङ्गत इत्यभिप्रायेण भुञ्जानः सदोषः / अथवा-'मणसंकप्पे य होंति आदेस' अनुदितमनःसङ्कल्पास्तमितमनःसङ्कल्पयोः कतरो गुरुतरो लघुतरो वेति चिन्तायां द्वावादेशौ भवतः / तौ चोत्तरत्र अभिधास्येते। अनुदिते अस्तमिते वा कथं ग्रहणं सम्भवतीत्याह-'हीने पुण संखाडी पुरतो त्ति' ध्यातं सुभिक्षमिति चैकार्थः / तत्र संखडी सम्भवति, सा च द्विधा / पुरःसंखडी, पश्चात्संखडी वा। तत्र पूर्वाह्न या क्रियते सा पुरःसंखडी / अपराह्न तु क्रियमाणा पश्चत्संखडी / इह पुनरनुदिते रवौ पुरःसंखडी। पुनःशब्दग्रहणादस्तमितेपश्चात्संखडीति। सूरे अणुग्ग्तम्मि, अणुदित उदिओ य होति संकप्यो। एवं अत्यमियम्मि वि, एकतरं होति णिस्संको।। 105 // सूर्ये अनुद्गते अनुदितसंकल्पः, उदितसङ्कल्पो वा भवेत् / उपलक्षणं चैतत्-उदितोऽप्यनुदितः, उदितो वा सङ्कल्पो भवेत् / एवमेवास्तमितेऽप्येकतरः अस्तमितः अनस्तमितो वा निशङ्कोमनःसङ्कल्पो भवति, उपलक्षणत्वादनस्तमितेऽप्यस्तमितसंकल्पः, अनस्तमितसंकल्पो भवेत् / इहानुदितोदितविषया अनस्तमितास्तमितविषया च प्रत्येक षोडशभङ्गी भवति / तद्यथा-अनुदितमनःसंकल्पः अनुदितगवेशी अनुदितग्राही अनुदितभोजी, एवं चतुर्भिः पदैः सप्रतिपक्षैः भङ्गरचनालक्षणा षोडशभङ्गी रचयितव्या / रचितेषु भङ्गेषु यत्र द्वयोर्मध्यपदयोः परस्परं विरोधोदृश्यते, मध्यपदेषुवाद्वयोरेकस्मिन् उदितो दृष्टोऽन्यपदेषु पुनरपुदितस्ते भङ्गा विरुद्धत्वेन वर्जनीयाः,शेषा ग्राह्याः। तथा अनस्तमितसंकल्पोऽनस्तमिगवेषी अनस्तमितग्राही अनस्तमितभोजी, एवमपि षोडश भङ्गा कर्तव्याः। अत्राऽपि यत्र मध्यपदेषु परस्परं विरोधो दृश्यते, यत्र मध्यपदेषुद्वयोरेकस्मिन् वा अस्तमितो दृष्टः, अन्यपदेवाअनस्तमिस्ते भङ्गा अविद्यमानकत्वेन वर्जनीयाः, शेषाः ग्राह्याः। अनुदितोदितास्तमितानस्तमितेषु चतुर्वपि स्थानेषु यावन्तो भङ्गा घटमानकास्तत्प्रदर्शनार्थमाहअणुदियमणसंकप्पे गहणगवेसी य मुंजणे चेव / उग्गयणथमिए वा, अत्थंपत्ते विचत्तारि॥ 106 / / अनुदितमनःसंकल्पे गवेशणग्रहणभोजनाख्यैस्त्रिभिः पदैर्यअष्टौ भङ्गाः घटन्ते, शेशाश्चत्वारोऽघटमानकाः उद्गतमनःसंकल्पेऽप्येत एव चत्वारो घटन्तेन शेषाः अनस्तमितसङ्कल्पे अस्तंप्राप्तसङ्कल्पेऽपिचैते एव चत्वारे ग्राह्याः, शेषास्तुतृतीयपञ्चमषष्ठसप्तमा असम्भवित्वाद्वर्जनीयाः। अर्थतेषामेव घटमानकभङ्गानां विभागतः प्ररुपणामाहअणुदितमणसंकप्पे, गवेसगहभोयणम्मि पढमलता। बितियाएँ तिसु असुद्धो, उग्गयभोई तु अंतिमओ // 110 // अनुदितमनःसङ्कल्पोऽनुदितगवेषी अनुदितग्राही अनुदितभोजी एषा प्रथमा लता; प्रथमो भङ्ग इत्यर्थः / द्वितीयस्यां तु लतायां त्रिषु पदेषु अविशुद्धः, तद्यथा-अनुदित
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________________ राइभोयण 533- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 राइभोयण सङ्कल्पोऽनुदितगवेषी अनुदितग्राही उद्गतभोजी, इयं हिलता सङ्कल्पगवेषणग्रहणपदैस्विभिरशुद्धा। उद्गतभोजित्वरूपेणान्त्यपदेन तु शुद्धा। तइयाऐं दो असुद्धा, गहणे भोति य दोण्णि उ विसुद्धा। संकप्पम्मि असुद्धा, तिसु सुद्धा अप्तिमलया उ॥१११॥ तृतीयस्यां लतायां द्धे, सङ्कल्पगवेषणपदे अशुद्धे, ग्रहणभोजनपदे तुद्वे विशुद्ध। तद्यथा-अनुदितसङ्कल्पोऽनुदितगवेषी उदितग्राही उदितभोजी चेति, अन्त्यलतानामनुदितसङ्कल्पम्य चरमा लता चतुर्थीत्यर्थः / सा सङ्कल्पपदे अविशुद्धा शेपैस्त्रिभिः पदैः शुद्धा / तद्यथा-अनुदितसङ्कल्प उदितगवेषी उदितग्राही उदितभोजी। एवमनुदितमनःसङ्कल्पस्यच-तस्रो लता उक्ताः / अथोदितनमःसङ्कल्पस्य चतस्रो लता आहउग्गयमणसंकप्पे, अणुदितगवेसी य गहणभोई य। एमेव वितियलता, सुद्धा आदिम्मि अंते य॥११२॥ ततियलताएँ गवेसी, होइ असुद्धो उसेसगा सुद्धा। सम्वविसुद्धासु भवे, चउत्थलतिया उदियचित्ते / / 113 // आदित्य उगतोऽनद्गतो वा भवतु नियमात् उद्गतं मन्यते इत्युद्गमनःसंकल्प उच्यते, यस्य प्रथमलता उद्गतमनःसकल्पोऽनुदितगवेषी अनुदितग्राही अनुदितभोजी / एवमेवाद्वितीयलताऽपि द्रष्टव्या, नवरमादिपदे अन्तयपदेच, साशुद्धा मध्यम पदद्वये अशुद्धा, तृतीयलतायामेकं गवेषणापदमशुद्धं, शेषाणि संकल्पग्रहणभोजनपदानि त्रीण्यपिशुद्धानि। चतुर्थी तुलता सर्वेषु पदेषु शुद्धा एताश्चतस्रोऽप्युदितचित्तविषया लता भावस्य विशुऽतया शुद्धा प्रतिपत्तव्याः / एवमस्तमितानस्तमितसंकल्पयोरप्यष्टौ लता भवन्ति। तासामेव विभागमुपदर्शयतिअत्थंगसंकप्पे, पढम धरेंतेसि गहणभोजीय। दो संतेसु असुद्धा, बितिया मज्झे भवति सुद्धा / / 114 // ततिया गवेसणाए, होति विसुद्धा उतीसु अविसुद्धा। चत्तारि वि होति पदा, चउत्थलतियाएँ अत्थमिते॥११५।। इहास्तमितमनस्तमितं वा रवि यो नियमादस्तमि मन्यते सोऽस्तगतसंकल्पः, तस्य प्रथमा लता-अस्तमितसंकल्पः अनस्तमितगवेषी अनस्तमितग्राही अनस्तमितभोजी 1, अत एवाऽऽह-प्रथमायां लतायां 'धरेंतेसि त्ति' ध्रियमाणे सूर्ये भक्तपानस्यैषणं ग्रहणं भोजनं वाऽस्तंगतो रविरिति बुद्ध्या करोति, द्वितीया तुलता द्वयोराधन्तपदयोरशुद्धा मध्ये गवेषणाग्रहणपदयोः शुद्धा 2, तृतीया गवेषणायां विशुद्धा, त्रिषु शेषेषु संकल्पादिष्वविशुद्धा, चतुर्थलतायांचाऽस्तमितविषयत्वात्। चत्वार्यपि पदान्यविशुद्धानि अस्तमितकन्संकल्प इति कृत्वा चतस्त्रोऽप्येता अशुद्धाः। __अथ विशुद्धलता आहअणत्थगयसंकप्पे, पढमा एसी यस गहण भोजी य। मणएसिगहण सुद्धा, बितिया अंतम्मि अविसुद्धा / / 116 // मणएसणाए सुद्धा, ततिया गहभोयेणेसु अविसुद्धा। संकप्पेण विसुद्धा, तिसु वि असुद्धा उ अंतिमिया // 117 // अस्तमितमना अस्तमितं वा सूर्ये यो नियमादनस्तमि मन्यते, तस्य प्रथम लता-अनस्तमितसंकल्पः अनस्तमितगवेषी अनस्तमितग्राहा अनस्तमितभोजी। अत एवाऽऽह_ 'पढमा एसीय गहणभोजी यत्ति' प्रथमायामनस्तमितैषी अनस्तमितग्रहणभोजी चेति, द्वितीया तु लता-मनःसङ्कल्पैषणग्रहणपदेषु त्रिषु विशुद्धा, अन्त्यपदे अविशुद्धा 2, तृतीया लता-मनःसङ्कल्पैषणीया शुद्धा ग्रहणे भोजने चाऽविशुद्धा / अन्त्या नाम-चतुर्थी नलता सा नवरं संकल्पपदे विशुद्धाशेषेषु त्रिपुगवेषग्रहणभोजनपदेषु अशुद्धा। अर्थतास्वविशुद्धलतासु प्रायश्चित्तमाहपढमाए बितियाए, ततिय चउत्थी' नवमदसभाए। एकारस वारीसऍ, लताएँ चउरो अणुग्घाता।। 118 // प्रथमायां द्वितीयस्यां तृतीयस्यां चतुर्थ्यां नवम्यां दशम्यामेकादश्यां द्वादश्यां चेत्यष्टासुलतासु भावस्याविशुद्धतया चत्वारोऽनदाता मासाः। पंचमिछस्सत्तमिया, अट्ठमिया तेर(स) चोइसमियाय। पण्णरस सोलसा वि य, लताउ एया विसुद्धा उ॥११६।। पञ्चमी षष्ठी सप्तमी अष्टमी त्रयोदशी चतुर्दशी पञ्चदशी षोडशी चेत्यष्टौ लता विशुद्धाः प्रतिपत्तव्याः, सर्वत्राऽपि भावस्य विशुद्धत्वात्। अत्र शिष्यः पृच्छति-- दोण्हं वि कतरो गुरुओ, अणुग्गतत्थम्मि मुंजमाणाणं / आदेस दोण्णि काउं, अणुग्गए लहु गुरु इयरो।। 120 / / अनुद्गतास्तमितभुजानयोद्वेयोर्मध्ये कतरो गुरुतरो-महा-दोषः / सूरिराह-आदेशद्वयं कर्तव्यम्, एके आचार्या ब्रूवते अनुद्रतभोजिनः अस्तमितभोजी गुरुतरः / कृत इति चेदुच्यते -सःसंक्लिष्टपरिणामो दिवसतो भुक्त्वा भूयोरजन्याः प्रमुख एव भुङ्क्त, तदानी चाविशुद्ध्यमानः कालः, अनुदितभोजी पुनः सकलां रजनीमधिसह्य नक्तान्ते भुङ्क्ते विशुद्धयमानश्च तदानीं कालः अतोऽसौ लघुतरः / अपरे भणन्तिअस्तमितभोजिनः अनुदितभोजी गुरुतरः, यस्मादसौसर्वा रात्रिमधिसह्य स्तोकं कालं न प्रतीक्षते, ततः संक्लिष्टपरिणामः ! इतरस्तु चिन्तयति भूयान् मया कालः सोढव्यः, अतो भुङ्क्ते एवमसौ लघुतरः / एवमादेशद्वयं कृत्वा स्थितपक्ष उच्यते, अनृद्गतसूर्ये प्रतिसमयं विशुद्ध्यमानकालो भवतीति कृत्वा अनुदितभोजी लघुतरः, इतरः पुनरस्तमितभोजी स तदानीं प्रतिसमयविशुद्ध्यमानः कालो भवतीति कृत्वा गुरुतरः। उक्तं कालनिष्पन्नं प्रायश्चित्तम्। अथ द्रव्यभावनिष्पन्नमभिधित्सुराहगेण्हणगहिए आलो-यण नमुकारे भुंजणे य संलेहे। सुद्धो विगिंचणे अवि-गिचणा सों वि दव्व भावे य॥ 121 / / अनुदितोऽस्तमितो वा रविरेतेषु स्थानेषु ज्ञातो भवेत्। 'गेण्हण ति' कृते उपयोगे पदभेदे कृते ज्ञातं यथा नाद्याप्युद्गतोऽस्तमितो वा तदा तत एव निवर्तमानः शुद्धः / अथ ग्रहणं गवेषणां कुर्वता ज्ञातं तदाऽपि निवर्तमानः शुद्धः / अथ गृहीते ज्ञातं, ततो यद् गृहीतं तत्परिष्ठापयन् शुद्धः।
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________________ राइभोयण 534 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 राइभोयण अथालोचयता ज्ञातं, तदाऽपि विविञ्चयन् शुद्धः / अथ मोक्नुकामेन नमस्कारं भणतो ज्ञातं, ततोऽपि विविश्चयन् शुद्धः, भुजानेन ज्ञातं शेष परित्यजन् शुद्धः / अथ सर्वस्मिन् भुक्ते संलेखनाकल्पं कुर्वति ज्ञातं तथाऽपि विविश्चयन् शुद्धोन प्रायश्चित्ती। अथन विविनक्ति ततो द्रव्यतो भावतश्चा शोधिः प्रायश्चित्तं भवति। तंत्र द्रव्यनिष्पन्नं तावदाहसंलेहण य तिभागेद्धे, दो भाए 5 पंच मोत्तु भिक्खुस्स। मासो चउछल्लहु गुरु, अभिक्खगहणे तिसू मूलं / / 122 // संलेखः कवलत्रयप्रमाणस्तमेवाशेषनुगते अस्तमितेवाज्ञातेऽपि भुक्ते मासलघु, पञ्चकवलाविशिष्यमाणान् भुङ्क्तेमासगुरु, त्रिभागा दशकवलास्तान् अशेषान् भुङ्क्ते चतुर्लघु, अपरार्द्ध पञ्चदश कवलास्तान् अशेषान् भुजानस्य चतुगुरु 'दो भाग त्ति' द्वौ त्रिभागौ विंशतिः कवलास्तान् भुजानस्य षङ्लघु पंच मोत्तुं ति' त्रिभतो मध्यात् पञ्च मुक्त्वा ये शेषाः पञ्चविंशतिः कवलास्तान् यदि भुङ्क्तदा षड्गुरु, एवं यथा यथा द्रव्यवृद्धिः तथा तथा प्रायश्चित्तमपि वर्द्धते, अभीक्ष्णग्रहणं पुनः ताः सर्वाः प्रतीत्य द्वितीयवारमेव भुञ्जानस्य मासगुरुकादारब्धं छेदे तिष्ठति, तृतीयं वारं चतुर्लघुकादारभ्य मूलं यावन्नेतव्यम् / एवं त्रिषु वारेषु मूलं यावत्प्रयश्चित्तं भिक्षोरुक्तम्। एमेव गणायरिए, अणवट्ठप्पो य होइ पारंची। तम्मि वि सो चेव गमो, भावे पडिलोम वोच्छामि / / 123 / / एवमेव गणिन उपाध्यायस्य आचार्यसय चवारणिकागमः स एव कर्तव्यः, नवरमुपाध्यायस्य प्रथमवारंमासगुरुकादारब्धंछेदे, द्वितीयवारं चतुर्लघुकादारब्धं मूले, तृतीयवारं चतुर्लधुकादारब्धमनवस्थाप्ये तिष्ठति / एवमाचार्यस्याऽपि प्रथमवारं चतुर्लघुदारब्धं मूले, द्वितीयवारं चतुर्लघुदारब्णमनवस्थाप्ये, तृतीयवारं षड् लघुकादारब्धं पाराश्चिके पर्यवस्यति। गतं द्रव्यनिष्पन्नम्। अथ भावप्रतिलोमप्रायश्चित्तं वक्ष्यामि। पूर्वं द्रव्यवृद्धौ प्रायश्चित्तवृद्धिरुक्ता। सम्प्रति यथा यथा द्रव्यपरिहाणिस्तथा तथा परिमाणसंक्लेशी वृद्धिमङ्गीकृत्य प्रायश्चित्तवृद्धिमभिधास्ये / तामेवाऽऽहपणऊण तिभागद्धे, तिभागसेसे य पंच मोत्तु संलेहं। तम्मि विसो चेव गमो, णायं पुण पंचहि गतेहिं / / 124 // तत्राऽपि भावप्रायश्चित्ते यो द्रव्यनिष्पन्ने वारणे गत उक्तः, सएव द्रष्टव्यो नवरं 'पणऊण त्ति' पञ्चभिः कवलैरूना या त्रिंशतिशेषाः पञ्चविंशतिः कवला भवन्ति, ततः पञ्चसुकवलेषु गतेषु यदिज्ञातमनुदितोऽस्तमितो वा रविः एवं ज्ञात्वा शेषान् पञ्चविंशतिकवलान् भुञ्जानस्य मासलघु 'तिभाग त्ति' त्रिशद्भागेन हीना विंशतिः कवलास्तान भुञ्जानस्य मासगुरु / 'अद्ध त्ति' अर्द्ध पञ्चदश कवलास्तान् भुजानस्य चतुर्लघु, त्रिभागो दश कवलास्तान् भुजानस्य चतुर्गुरु, त्रिंशतः पञ्चकवलान् मुक्त्वा शेषाः पञ्चविंशतिरज्ञाते भुक्त्वा ज्ञाते तु पञ्च शेषान् भुञ्जानस्य षड्लघुकाः। संलेखनाशेषं भुजानस्य षड्गुरवः। इह प्रभूततरतमकवलेषु / अधिकाधिकतरायामपि तृप्तौ संजातायां शेषस्तोकं स्तोकतरमपि च ज्ञाते सति भुङ्क्ते तत्र परिणामः संश्लिष्टः-संश्लिष्टतर इति कृत्या बहु बहुतरं प्रायश्चित्तम्। एमेवऽभिक्खगहणे, भावे ततियम्मि भिक्खुणो मूलं। एमेव गणायरिए, सपदा सपया पदं हसति / / 125 / / एवमेव अभीक्ष्यग्रहणेऽपि भावनिष्पन्नं प्रायश्चित्तं भिक्षोर्द्रष्टव्यम्, नवनरं द्वितीयं वारं मासगुरुकादारब्धं छेदे तिष्ठति, तृतीयं वारं चतुर्लधुकादारब्धं मूलं यावन्नेयम् / एवमेव गणिन आचार्यस्य द्रष्टव्यम् / नवरं स्वपदात् स्वपदमेकं तु तयोरपि हसति, तत्रोपाध्यायस्य प्रथमवारं चतुर्लघुकादारब्धं तृतीयवारायां पाराञ्चिके तिष्ठति / इह पूर्वमुद्गतवृत्तिपदमनस्तमितसङ्कल्पपदं च व्याख्यातं नशेषाणि संस्तृतादीनि। - अतस्तानि व्याचष्टेसंथडिओ संथरंतो, संतयभोजी व होइनायव्यो। पजत्तं अलभंतो, असंखडी छिन्नभत्तो य / / 126 // संस्तृतो नाम पर्याप्तं भक्तपानं लभमानः संस्तरति, अथवा यः संततभोजीदिने दिने पर्याप्तं भक्तपानं नलभते चतुर्थादिना नित्यभक्ता वासोऽसंस्तृतः। निर्विचिकित्सपदं व्याख्यातिनिस्संकमणुदिनो ति-त्थितो व सूरो त्ति गेण्हती जो तु। उदितधरेतं विहुसो, लग्गति अविसुद्धपरिणामो / / 127 // निर्विचिकित्सो नाम निश्शङ्कमनुदितोऽतिक्रान्तो वा सूर्य इति मन्यते एव, यो निःशङ्कितेन मनसा गृह्णाति स उदिते ध्रियमाणे वा-अनस्तमिते रवौ गृह्णति तथाऽप्यविशुद्धपरिणामेन स प्रायश्चित्तं लभते। एमेव य उदिओ तिव, धरति त्ति व सोढतुवगतं जस्स। स विवजए विसुद्धो, विसुद्धपरिणामसंजुत्तो।। 128|| एवमेवयस्य सोढुं निस्सन्दिग्धं चित्ते उपगतं यदुताऽऽदित्य उदितो ध्रियते वा नाद्याऽप्यस्तमेति, स यद्यपि विपर्यये विपर्यासज्ञाने वर्तते, तथाऽपि विशुद्धपरिणाम इति कृत्वा विशद्धो,न प्रायश्चित्ती। अथ यदुक्तं सूत्रे 'अह पुण जाणेज्जा अणुग्गए अत्थमिए व त्ति' तत्रोद्गतमनस्तमितं वा रविं चेतसि कृत्वा गृहीतं पश्चात्पुनतिं यथा अनुगतोऽस्तमितो वा, कथं पुनस्तज्ज्ञातमित्याहसमिचिंचिणिगादीणं,पत्तापुप्फायणलिणिमादीणं। उदयत्थमणं रविणो, कहिंति विगसंत मउलेत्ता॥ 126 // शमीचिञ्चिणिकादीनां तरूणां पत्राणि नलिनीप्रभृतीनां च पुष्पाणि विकसन्ति रवेरुदयं कथयन्ति। एतान्येव मुकुलयन्ति सन्ति रवेरस्तमनं कथयन्ति। कथं पुनरादित्य उदितोऽस्तमितो वा न दृश्यते इत्याह-- अब्भहिमवासमहिया, महागिरीराहुरेणुरयछण्णो। मूढदिसस्स ब बुड्डी, वंदे गेहे मते मिरिए // 130 // अभ्रसंस्तृते गगने, हिमनिकरे वा पतति, वर्षणे वा, महिकया वा पतन्त्याऽऽच्छादिते, महागिरिणा वा अन्तरिते, रा
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________________ राइभोयण 535 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 राइभोयण हुणा वा सर्वग्रहणेनोदयास्तमनयोरगृहीते रवौ,रेणुःकटकगमनाधुत्थितो धूलिः रज इत्यादिकं, ताभ्यां वा छन्न उदितो वा रविन ज्ञायते, दिङ्मूढो वा कश्चिदपरां दिशं पूर्वां मन्यते स नीचमादित्यं विलोक्यागतमात्र आदित्य इति बुद्धया भक्तपानं गृहीत्वा वसतिं प्रविष्टो यावद्भक्तस्तावदन्धकारं जातम्, ततो जानाति अस्तमिमे अहं भुक्तं इति / अथवागेहे-गृहाभ्यन्तरे कारणजाते दिवा सुप्तः प्रदोषे चन्द्रे उदिते विबुद्धो विवरण ज्योत्स्ना प्रतिष्ठां दृष्ट्वा चिन्तयति, एषः आदित्यातपः प्रविष्टः / स च तैमिरिको मन्दं मन्दंपश्यति। ततो गृहिणा निमन्त्रितो भुक्तः। एवमादिभिः कारणेरनुदितमुदितं मन्येत उदितं वा अनुदितम्, अस्तमितमनस्तामितम्। ततःसुत्तं पडुच गहिते, णाउं गहरा उ सो ण गेण्हंतो। जो पुण गेण्हति णाउं, तस्सेगट्ठाणगं वड्डे / / 131 / / यद्युद्गतः अस्तमितो वेति बृद्ध्या सूत्रं प्रतीत्य 'उग्णयवित्ति अत्थत्थमियसंकप्पे' इति सूत्रप्रमाण्येन गृहीतं पश्चाच्च ज्ञातमनुद्रतः अस्तमितो वा रविः, ततो यन्मुखे यच पाणौयच प्रतिग्रहे तत्सर्वमपि व्युत्सृजेत्, इतरद्वा यद्यसौपूर्वमेवानुदितमस्तमितंवा अज्ञास्यत्ततो नागृहीष्यत् / यः पुनरनुद्गतमस्तमितं वा ज्ञात्वा गृह्णाति गृहीत्वा वा भुङ्क्ते, अन्येषां वा ददाति, तस्यैकं स्थानकं वर्द्धयेत्। तं प्रतीत्य 'तं भुञ्जमाणे अन्नेसिं वा दलमाणे आवजइ चाउम्मासियं अणुग्घाइयं' इत्युत्तरं सूत्रखण्ड वर्द्धयेदिति भावः। अथ विवेचनविशोधनपदेव्याचष्टेसव्वस्स छडण विगि-चणाउ मुहहत्थपादछूठस्य। फुसणधुवणाविसोहणा, स किं व बहुसा व णाणत्तं // 133|| अनुदित मस्तमितं वा ज्ञात्वा यन्मुखे प्रक्षिप्तं तस्य ज्ञाते सति खेलमल्लकवत्प्रक्षेपणम्,यच हस्ते-पाणौ वाऽस्य प्रतिग्रहे यत्पात्रप्रतिग्रहे तस्य स्थण्डिले, एवं सर्वस्याऽपि यत्परिष्ठापनं सा विवेचना, यत्तु स्पशनं हस्तेनामर्षण धावनं कल्पकरणं सा विशोधना, अथवा-सकृदेकशः परिष्ठापनस्पर्शधावनानां करणं विवेचना,एतेषामेव बहुश, करणं विशोधनम्, एतद्धि विवेचनविशोधनयोन नात्वमुक्तम्, अथ 'नो अइक्कमइ ति पदं व्याख्यातिनातिकमति आणं, धम्म मेरं व रातिमत्तं वा। अत्तेडेगागी वा, सयपुंजे सो स देखाऽपि॥ 133 // एव विविञ्चन् विशोधयन् वा तीर्थकृतामाज्ञां नातिक्रामति / अथवा-- श्रुतधर्म चारित्रमर्यार्दा रात्रिभक्तव्रतं वा नातिक्रामति "भुञ्जमाणो अन्नेसिं वा दलमाणो' त्ति पदद्वयं व्याख्यायते-(अत्तढे इत्यादि) आत्माधिक आत्म्लीनो ग्रिहकरणे वा य एकाकी सस्वयंभुङ्क्ते, नान्येषां ददाति इति। शेषः पुनरनात्मलीनः अनेकाकी वा अन्येषामपि दद्यात्, स्वयमपि भुञ्जीत। गतं प्रथम संस्तृतनिर्विचिकित्ससूत्रम्। अथं द्वितीयं संस्तृविचिकिस्तसूत्रं व्याख्याति एवं वितिगिच्छो वा, दोहि लहू एवरि ते तु तवकाले। तस्स पुण हवंति लता, अट्ट सुद्धाण इतरा उ॥ 134|| विचिकित्सते-किमुदितो रविः नवेति उदितानुदित इत्यादि संशयं करोतीति विचिकित्सः, सोऽप्यमवे वक्तव्यो नवरं यानि तस्य तपोहानिप्रायश्चित्तानि तपसा कालेन लघुकानितस्य च विचिकित्सस्य पुनरशुद्धा एव केवला अष्टौ लता भवन्ति, नेतरा सङ्कल्पस्य शङ्कितत्वेन प्रतिपक्षाऽभावात्। कथं पुनरसौ ? शङ्खां करोतीत्याहअणुदिय उदिओ किं ण हु, संकप्पो उभयहा अदिहे उ। धरति ण वत्ति व सूरो, सो पुण नियमा चउण्हेको / / 135 // उभयथा-उदयकाले अस्तमनकाले वा अभ्रहिमादिभिः कारणादृष्ट आदित्ये सङ्कल्पो भवति, किमनुदित उदितो वारविः, अस्तमनकालेऽपि भूयो ध्रियते न वेति शङ्का भवति, स पुनः सूर्यो नियमादनुदित उदितः अनस्तमितः अस्तमितो वेति चतुर्णा विकल्पानामेकतरस्मिन् वर्तते। भङ्गा पुनरत्र स्वयमुच्चारणीयाः / उदयं प्रतीत्य विचिकित्से मनःसङ्कल्पे सति विचिकित्सतगदेषी विचिकिस्तिग्राही विचिकित्सितभोजी एवमष्टौ भङ्गा, अस्तमनमपि प्रतीत्यैवमेवाष्टौ भङ्गाः, द्वयोरप्यष्टभङ् ग्योः प्रथमद्वितीयचतुर्थाष्टमा भङ्गा, घटमानकत्वाद् ग्राह्याः, शेषाश्चत्वारोऽग्राह्याः। गतं संस्तृतविचिकित्ससूत्रम्। अथ तृतीयसंस्तृतविचिकित्ससूत्रं व्याचिख्यासुराहतवगेलण्णट्ठाणे, तिविहो तु असंथडो तिहे तिविहो। नवसंथडमीसस्सा, मासादारोवणा इणमो॥१३६|| (अस्याः गाथाया अक्षरार्थः-'असंथड शब्दे प्रथमभागे 824 पृष्ठेगतः / इह ततो विशेष उच्यते) इहाऽपि पूर्वक्रमेण षोडश लताः कर्त्तव्याः कालनिष्पन्नं च प्राग्वत् / द्रव्यभावप्रायश्चित्तयोस्त्वयं विशेषः,तपोऽसंस्तृतो विकृष्टतपःक्लान्तः पारणके अनुद्गतेअस्तामतेवाउदितानस्तमितबुध्द्या भक्तपानीये भुञ्जानो यदा उद्गतस्तमितं वा जानाति, ततः परं भुञ्जानस्येदं प्रायश्चित्तम्एकदुग तिण्णि मासा, चउमासा पंचमास छम्मासा। सव्वे वि होति लहुगा, एगुत्तरवनिया जेणं // 137 / / संलेखनाशेषं यदि ज्ञातो भुङ्क्ते, ततः एकमासिकं, पञ्च कवलान् समुद्दिशति द्वैमासिकं, दश कवलान् समुद्दिशति त्रैमासिकं, पञ्चदश कवलान् भुजानस्य चतुर्मासिकं, विंशति भुजानस्य पञ्चमासिकम् / अथ पञ्च कवला विशुध्दभावेन समुद्दिष्टाः शेषान् पञ्चविंशतिं कवलान् ज्ञाते भुक्ते ततः पाण्मासिकम्, एतानि सर्वाण्यपि लघुकानि प्रायश्चित्तानि भवन्ति। कुत इत्याह-येन कारणेनैकोत्तरवृद्धया द्वित्र्यादिरूपया अमूनि वर्द्धितानि। इदमेव विविनक्तिदुविहाय होइ वुड्डी, सहाणे चेद होइ परठाणे। सट्ठाणम्मि उगुरुगा, परठाणे लहुग गुरुगावा / / 138||
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________________ राइभोयण 536 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 राइभोयण द्विविधा च भवति वृद्धिस्तद्यथा-लघुका गुरुका भवति। तत्रलघुकस्थानादारब्धा लघुका, गुरुकस्थानादारब्धा गुरुका भवति / अत्र च मासलघुकादारब्धा अतः सर्वाण्यपि लघूनि द्रष्टव्यानिभिक्खुस्स ततियगहणे, सहाणे होइ दव्वनिप्फन्नं / भावम्मि उ पडिलोम, गणिआयरिए वि एमेव / / 136 // भिक्षोर्द्वितीयवारं द्वैमासिकादारब्धं छेदे तिष्ठकित, तृतीयवारग्रहणे त्रैमासिकादारब्धं स्वस्थानं मूलं यावन्नेयम्। एवं द्रव्यनिष्पन्नं प्रायश्चित्तमुक्तम्। भावनिष्पन्नं पुनरेतदेव प्रतिलोकमं मन्तव्यम्। गणिन आचार्यस्यापि द्रव्यभावयोरुभयोरप्ययमेव प्रायश्चित्तं,नवरमुपाध्यायस्य द्वैमासिकादारब्धं त्रिभिवरिरनवस्थाप्ये, आचार्यसरू त्रैमासिकादारब्धं त्रिभिवरिः पाराश्चिके पर्यवस्यति। गतस्तयोरसंस्तृतः।। अथ ग्लानासंस्तृतमाह-- एमेव य गेलण्णे,पट्ठवणा तत्थ णवर भिण्णेणं। चउहि गहणेहि सपदं, काम अगीतत्थ सुत्तं तु॥१०॥ ग्लानासंस्तृतस्याऽप्येवमेव प्रायश्चित्तम्, नवरं तत्र तत्र 'भिण्णेणं ति भिन्नमासात्प्रस्थापना कर्तव्या / प्रथमं वार पञ्चमासलघुके, द्वितीयं षण्मासलघुके, तृतीयं छेदे, चतुर्थवारं मूले तिष्ठति / अत एवाऽऽहचतुर्भिर्ग्रहणैरभीक्ष्णं सेवारूपैः स्वपदं मूलं भिक्षुः प्राप्नोति उपाध्यायस्य लघुमासादारब्धं चतुर्भिवारैरनवस्थाप्ये, आचार्यस्य द्विमासलघुकादारब्धं चतुर्भिवरिः पाराश्चिके पर्यवस्यति / शिष्यः पृच्छतिकस्यैतत्प्रायश्चित्तम् ? सूरिराह यदुक्तं यच्च वक्ष्यमाणमेतत् सर्वमगीतार्थस्य सूत्रं भवति, प्रस्तुतसूत्रोक्तं प्रायश्चित्तमित्यर्थः। स हि कार्ये वा यतनामयतनां वा न जानीते अतस्तस्य प्रायश्चित्तम्। गतो ग्लानासंस्तृतः। अथाध्वासंस्तृतमाहअद्धाणा संथडिए,पवेस-मज्झे तहेव उत्तिण्णे। मज्झम्मि दसगवुड्डी, पवेस-उतिग्णपणएणं // 141 // अध्वनि-मार्गे यः असंस्तृतःस त्रिविधः / तद्यथा-अध्वनः प्रवेशे मध्ये उत्तरे च। तत्र प्रथमं मध्ये भाव्यते-भिक्षोः संलेखनादिषु षट्सु स्थानेषु दशरात्रिन्दिवमादौ कृत्वा प्रायश्चित्तवृद्धिः कर्त्तव्या। उपाध्यायस्य पञ्चदश रात्रिन्दिवादिकमाचार्यस्य विंशतिरात्रिन्दिवादिकं प्रायश्चित्तं भवेत्। एतदेव प्रतिलोमं वक्तव्यम् / अथ प्रवेशे उत्तरणे च भण्यते-'पवेस उत्तिण्णपणएणं 'ति प्रवेशे तथा उत्तरणमुत्तीर्ण तत्र च पञ्चकेन स्थापना क्रियते।संलेखनादिषुषट्सुपदेषु पञ्चरात्रिनिदवान्यादौ कृत्वा मासलघुकं यावन्नेतव्यमिति। तथा उभयोरपि अष्टभिरिमूलं प्राप्नोति, उपाध्यायस्य दशरात्रिन्दिवादिकं दशमवारायामनवस्थाप्यम् / आचार्यस्य पञ्चदशरात्रिन्दिवादिकं पाराञ्चिकान्तं भवेत्। एतदेव प्रतिलोमं प्रायश्चित्तम्। शिष्यः पृच्छन्ति-अध्वासंस्तृतो मध्ये क्षिप्रमेव स्वपदं प्रापितः, प्रवेशे उत्तरणे च चिरेण न तावदेव कथम् ? अलोच्यते-अध्वनः प्रवेशे भयमुत्पद्यते, वयमध्वानं निस्तरिष्यामः। उत्तरणेऽपि बुभुक्षातृषादिभि रत्यन्तं क्लान्तः, अत एतौ चिरेण स्वचपदंप्रापितौ।अध्वमध्ये पुनर्जितभयो नातिक्लान्तश्च, अतः शीघ्रं सपदं प्रापितः / अत्रैकैकस्मिन् पदे आशादयो रात्रिभोजनदोषाश्च। अगीतार्थस्य चैतन्मन्तव्यं, न गीतार्थस्य। कुत इतिचे दुच्यतेउग्गतमणुग्गते वा, गीतत्थो कारणेणऽतिकमति। दूता हिंडविहारी, ते विय होती सपडिवक्खा // 142 // गीतार्थः अध्यप्रवेशादौ कारण्णे उत्पन्ने उद्गते अनुद्गते वा सूर्ये यतनया अरक्तोऽदिष्टो भुञ्जानो भगवतामाज्ञां धर्म वा नातिक्रामति, ते चाध्वप्रतिपन्नास्त्रिविधा-द्रवन्तः आहिण्डकाः, विहारिणश्च / तत्र द्रवन्तःग्रामानुग्रामं गच्छन्तः, अहिण्डकाः-सततपरिभ्रमणशीलाः, विहारिणःमासं मासेन विहरन्तः। तेऽयि प्रत्येकं सप्रतिपक्षाः। तद्यथादूइज्जता दुविहा, णिकारणिगा तहेव कारणिगा। असिवादी कारणिया, चके मूलाइया इतरे / / 153 / / उवदेस अणुवदेसा, दुविहा आहिंडगा मुणेयय्या। विहरंता विय दुविहा, गच्छगता निग्गता चेव // 14 // द्रवन्तो द्विविधा-निष्कारणिकाः, कारणिकाश्च। तत्राशिवावामौदर्यराजद्विष्टादिभिः, कारणैरुपधेलपस्य वा निमित्तं गच्छस्य वा बहुगुणभरमिति कृत्वा आचार्यादीनां वा आगाढे कारणे द्रवन्ति ते कारणिकाः, ये पुनरुत्तरापथे धर्मचक्रं, मथुराया देवनिर्मितः स्तम्भः, आदिशब्दात्कोशलायां जीवस्वामिप्रतिमा तीर्थकृतां वा जन्मादिभूमय एवमादिदर्शनार्थं द्रवन्तो निष्कारणिकाः। आहिण्डका अपि द्विधा उपदेशाऽहिण्हका, अनुपदेशाऽऽहिण्डकाश्च। तत्र ये सूत्रार्थी गृहीत्या भविष्यदाचार्यगुरूणामुपदेशेन विषयाचारभाषोपलम्भनिमित्तमाहिण्डन्ते ते उपदेशाऽऽहिण्उडकाः ।विहरन्तोऽपि द्विविधा-गच्छगता गच्छनिर्गताश्च। गच्छवासिनः ऋतुबद्ध मासं मासेन विहरन्ति, गन्तुकेन देशदर्शनं कुर्यन्ति ते गच्छगताः / गच्छनिर्गता द्विधा-विधिनिर्गताः, अविधिनिर्गताश्च। विधिनिर्गताश्चतु जिनकल्पिकाः, प्रतिमाप्रतिपन्नाः, यथालन्दिकाः (शुद्धाः) पारिहारिकाश्चेति। अविधिनिर्गताः साधारणादिभिः त्याजिता एकाकीकृताः। एतेषां भेदानामितरयोः प्रायश्चित्तं लगतिनिकारणिगाऽणुवदे-सिगा य लग्गतंणुदिय अत्थमिते। गच्छा विणिरता वि हु, लग्गेजति ते करेज्जेवं // 14 // निष्कारणिका द्रवन्तः, अनुपदेशाऽऽहिण्डकाः, अवहिधनिर्गताश्च अनुदिते अस्तमिते वा यदि गृह्णन्ति भुजते वा ततः पूर्वोक्तप्रायश्चित्तं लगति / ये तु कारणिका उपदेशाऽऽहिण्डका गच्छगताश्च ते कारणे यतनया गृह्णन्तः भुजानाश्च शुद्धाः। ये तुगच्छनिर्गता जिनकल्पिकादयस्तेऽपि यद्येवमनुदिते वा ग्रहणं कुर्युस्ततो लगति, नियमात्तदानी न गृह्णन्ति त्रिकालविषयज्ञानसम्पन्नत्वात्। अथवा तेसिंततियं, अप्पत्तो अणुदितो भवे सूरो। पत्तो उ पत्थिमं पो-रिसिं च अत्थंगतो होति // 146||
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________________ राइभोयण 537- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 राइभोयण अथवाशब्दः प्रकारान्तरे वा। तेषां जिनकल्पिकादीनां तृतीयां पौरुषीमप्राप्तः सूर्योऽनुदितो भण्यते। पश्चिमांच पौरुषीं प्राप्तोऽस्तंगत उच्यते। अत एव भक्तं पन्थाश्च तेषां तृतीयपौरुष्यामेव भवति, नान्यथा। गतं संस्तृतनिर्विचिकित्ससूत्रम्। अथासुस्तृतविचिकित्ससूत्रं व्याचष्टवितिगिच्छ अब्भसंथड, सत्थो उपहावितो भवे तुरियं / अणुकंपदाएँ कोई, भत्तेण निमंतणं कुज्जा / / 157 // अभ्रसंस्तृते-हिमानीसंछादिताभिरदृश्यमाने सूर्ये विचिकित्सो भवति, तेच साधवः सार्थेनाध्वानं प्रतिपन्नाः अन्तरा वाऽभिमुखे वा अपरः सार्थ आगतः। द्वावप्यकस्साने आवसितौ। अभिमुखागन्तुकसार्थिकोऽप्युनकम्पया साधूनां भक्तेन निमन्त्रणं कुर्यात्, यस्मिंश्च सार्थे साधवः सञ्चलिताः अतः सूर्योदयवेलायामुदितोऽनुदित इति शङ्कया गृह्णीयुः, इहाऽपि त्रिविधि असंस्तृते तथैवाऽष्टौ लता नवरं संस्तृते निर्विचिकित्से तपः प्रायश्चित्तान्युभयगुरुकाणि असंस्तृते विचिकित्से पुनरुभयलघूनि / शेषं सर्वमपि प्राग्वत्। बृ०५ उ० / अत्र प्रायश्चित्तं विवेकाहम्। जीतः। रात्रिभोजनं प्रतिगृहीतं सत्परिष्ठापयेत्। इह खलु निग्गंथस्स वा निग्गंथीए वा रातो वा वियाले वासपाणे सभोयणे उम्गाले आगच्छेज्जातं विगिचमाणे वा विसोहेमाणे वा, नो अतिक्कमइ, तं उग्गिलित्ता पचोगिलमाणे राईभोयणपडिसेवणपत्ते आवजह, चाउम्मासियं परिहारहाणं अणुग्घाइयं // 10 // अस्य सम्बन्धमाहनिसिभोयणं तु पगतं, असंथरंतो बहू व भोत्तूणं / उग्गालमुग्गिलिज्जा, कालपमाणं च दव्वं तु / / 148 // निशि भोजनं पूर्वसूत्रे प्रकृतम्, इहाऽपि तदेवाभिधीयते, यद्वा असंस्तरन् बहु-प्रभूतं भुक्त्वा रजन्यामुगारामुद्रिते तन्निषेधार्थमिदं सूत्रम् / अथवा कालप्रमाणमनन्तरसूत्रे उक्तम्, इह तु कालप्रमाणादनन्तरं द्रव्यप्रमाणमुच्यते अनेन सम्बन्धेनाऽऽयातस्यास्य (सूत्रस्य--१०) व्याख्या-इहाऽस्मिन् मौनीन्द्रे प्रवचने ग्रामादौ वा वर्तमानस्य खलुर्वाक्यालङ्कारे निर्ग्रन्थस्य वा निन्थ्या वा रात्रौ वा विकाले वा सह पानेन सपानः सह भोजनेन सभोजनः, उद्गार आगच्छेत् / किमुक्तं भवतिसिक्यविरहिनामकं पानीयमुद्गारेण सहागच्छति, कूरसिक्थं वा केवलमागच्छति, कदाचि दुभयं वा। तमुद्गारं विचिन्तयन् सकृत् परित्यजन्, विशोधयन् वा बहुशः परित्यजन् नो आज्ञामतिक्रामति, तमुद्गीर्य्य प्रत्यवगिलन् भूयोऽप्यास्वादयन् आपद्यते चातुर्मासिकं परिहारस्थानमनुद्घातिकमेवेति सूत्रार्थः। सम्प्रति नियुक्तिविस्तर: उडदरे वमित्ता, आदिअणो पणगबुडिजाती सा। / चतारि छघ लहु गुरु, छेदो मूलं च भिक्खुस्स / / 146 // ऊर्ध्वद्वारमनिक्षेपपयप्तिमशनादिकं युक्त्वा वमित्वा च यो विशिष्टमनुकूलोऽनेन भूयः प्रत्यापिवति ततो यदि दिवसस्तत एकलम्बनमादौ कृत्वा यावत्पञ्चलम्बनास्तावदापिवति ततश्चत्वारो लघवः / ततः पञ्चकृत्वस्त्रिंशतं यावत् कर्तव्याः / तद्यथा-षट्प्रभृति यावदशलम्बना एतेषु चतुर्गुरवः / एकादशादिषु पञ्चदशान्तेषु षड्लघवः, षोडशादिषु विंशत्यन्तेषु षड्गुरवः, एकविंशत्यादिषु पञ्चविंशत्यन्तेषु छेदः , षड्विंशत्यादिषु त्रिंशदन्तेषु लम्बनेषु प्रत्यवगिल्यमानेषु मूलम् / एवं भिक्षोरुक्तम्। गणि आयरिए सपदं, एगग्गहणे वि गुरुग आणादी। मिच्छत्तमच्च व दुए, विराहणा तस्स वण्णस्स। 150 // गणी उपाध्यायस्तस्य चतुर्गुरुकादारब्धं स्वपदमनवस्थाप्य यावन्नेयम्, आचार्यस्य षड्लघुकादारब्धं स्वपदपाराञ्चिकंयावद्रष्टव्यम्, एवं दिवसत उक्तम् / रात्रौ तु यद्येकमपि सिक्थं गबृह्णाति प्रत्यादते ततश्चतुर्गुरु आज्ञादयश्च दोषाः। मिथ्यात्वंचासौअन्येषां जनयति-यथावादिनस्तथा कारिणो न भवन्त्यमी इति राजावा तंज्ञात्वा भिक्षादीनां प्रतिषेधं कुर्यात, मावा कोऽप्यमीषां मध्ये प्राव्रातिदिति वारयेत्, असारं च प्रवचनं मन्येत / अस्थिसरजस्का अप्यमीभिर्वान्तमापिबद्भिर्जिता इति तस्य वा वान्ताशिनः अन्यस्य वान्तं पश्यतो विराधना भवति / अत्राऽमात्यदृष्टान्तः :"एको रंकवडुगो संखडीए मज्जिया कूरं अइप्पमाणं जिमितो, निग्गयस्स रायमग्गमाढस्स हिययमुच्छत्तं अतिपिपासियस्स हिट्ठा वडिउमारद्धो / अमचेण य पयोयणहिएण दिवसे य वमित्ता तमहारमविणटुं पासित्ता लोभेण भुंजिउमारद्घो। तं दठूण अमच्चअंगाणि उद्धसिसियाणि उर्ल्ड च जातं / अमचो दिणे दिणे जेमणवेलाए समुद्धिसंतो सं भरेत्ता उड्ढे करेइ। एवं तस्स वग्गुली वाही जातो। तओ मओ। सो वि घिजाईओ एवमेव विणट्ठो। जम्हो एते दोसा तम्हा पमाणपत्तं भोत्तव्वं " / अऋशिष्यः प्राहरातो व दिवसतो वा, उग्गाले कत्थ संभवो होला। गिरिजण्णसंखडीए, अह्राहियतोसलीएवा।। 152 / / रात्रौ दिवसतो वा कुत्रोद्गारस्य सम्भवो भवेत्। सूरिराह-गिरियज्ञादिषु संखडीषु तोसलिविषये वा अष्टाहिकादिमहिमासु प्रमाणातिरिक्तं भुजानानाद्धारः सम्भवति। तत्र प्रायश्चित्तभिधित्सुः प्रस्तावनार्थ तावदिदमाहअद्धाणे वत्थव्वा, पत्तमपत्ताय जोयणदुगे य। पत्ता य संखडिं जे, जतणमजणाएँ ते दुविहा॥१५३॥ ते संखडीभो जिनः साधवो द्विधा-अध्वप्रतिपन्नाः, वास्तव्याश्च / तत्र ये वास्तव्यास्ते द्विधा-संखड्याः प्रेक्षिणः,
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________________ राइभोयण ५३८-अभिधानराजेन्द्रः- भाग 6 राइभोयण अप्रैक्षिणश्च / अध्वप्रतिपन्ना अपि द्विधा-तत्र च गन्तुकामाः अन्यत्र वा गन्तुकामाः / येऽन्यत्र गन्तुकामास्ते द्विधा प्राप्त भूमिकाः, अप्राप्तभूमिकाश्च / प्राप्तभूमिका नाम ये संखडिग्रामपार्श्वतो गन्तुकामाः, संखडीमाभधार्या योजनादागच्छन्ति ! अप्राप्तभूमिका ये योजनात् योजनाधिकादुपलक्षणत्वा द्यावत् द्वादशयोजनेभ्यः संखडीनिमित्तमागताः। ये तत्रैव गन्तुकामाः, संखडीग्रामे प्राप्तास्ते द्विविधा-द्विप्रकारा-- यतनाप्राप्ता, अयतनाप्राप्ताश्व। ये पदभेदकुर्वन्तः सूत्रार्थपौरुष्यो विदधाना आगतास्ते यतनाप्राप्ताः, ये तु संखडी कृत्वा सूत्राऽर्थों हापयन्ज उत्सुकीभूता आगताः ते अयतनाप्राप्ताः। वत्थव्व जयणपत्ता, एगगमा दो वि होति णेतव्वा। अजयणवत्थव्वा वि य, संखडिपेही उ एक्कगमा।। 154 // भिन्ना ये वास्तव्याः संखडीलोकिनो ये च तत्रैव गन्तुकामाः यतनाप्राप्ता, एते द्वावपि प्रायश्चित्तवा(चा)रणिकायामिकगमा भवन्ति--ज्ञातव्याः, ये तु तत्रैव गन्तुकामा अयतनाप्राप्ता ये च वास्तव्याः संखडीप्रालोकिनः, एते द्वयेऽपि वा(चा) रणिकायामेकगमा भवन्ति। "पत्ताय संखडि जे" इति पदं व्याख्याति-- तत्थेव गन्तुकामा, वोलेउमणा व तं उवरिएणं / पदभेदें अजयणाए, पडिच्छ उव्यत्तं सुतभंगे।। 155 / / यत्र ग्रामे संखडिस्तत्रैव आगन्तुकामा ये वा तस्य ग्रामस्य परिवोलियतुमनसस्ते यदि स्वभावगतेः पदभेदं कुर्वन्ति एकट्यादीनि वा दिनानि प्रतीक्षन्ते अवेलायामुद्वर्त्तन्ते वा सूत्रार्थपौरुषीभङ्गेन वा प्राप्ता भवन्ति, तदा अयतनाप्राप्ताः / इतरथा यतनाप्राप्ताः। प्राप्तभूमिकानप्राप्ताभूमिकाँश्च व्याख्यातिसंखडिमभिधारेता, दुगाउया पत्तभूमिगा होति। जोयणमाइअपत्ते, भूमीया वारस उजाव / / 156 // संखडिग्रामपार्श्वतो ये गन्तुकामास्ते यदि संखडीमभिधार्य गव्यूतिद्वित्रान्तरं गच्छन्ति; तदा प्राप्तभूमिका भवन्ति / ये पुनर्योजनादायोजनद्वयात्-द्वादशयोजनेभ्यः आगच्छन्ति ते सर्वे अप्राप्तभूमिकाः। खेत्तंतो खेत्तबहिं, अप्पत्ता बाहि जोयणदुगे य। चत्तारि अहवारस, जग्ग सुव विगिचणाऽऽपियणा / / 157|| संखडिं कृत्वा क्षेत्रान्तः क्षेत्रबहिर्वा आगच्छेयुः। ये क्षेत्रान्तः सार्धक्रोशद्वयादागच्छन्ति ते प्राप्तभूमिकाः, ये पुनः क्षेत्रबहिर्योजनात्योजनद्वयाचतुर्योजनादष्टयोजनाधावत् द्वादशयोजनादागच्छन्ति ते अप्राप्तभूमिकाः / एते सर्वेऽपि संखड्यामतिमात्रं भुक्त्वा प्रदोषे न जाग्रति त्रैरात्रिककालवेलायामपि स्वपन्ति नोतिष्ठन्ते 'विगिचण त्ति' उद्गारमुद्गीर्य परित्यजन्ति 'आपियण' त्ति तमेव आपिवन्ति प्रत्यवगिलन्ति। एतेषु चतुषु पदेशु इयमारोपणावत्थव्व जयणपत्ता, सुद्धा पण्गं वा भिण्णमासो अ। तवकाले हि विसुद्धा, अजयणमादीवितु विसुद्धा / / 158 !! संखड्या लोकिनो वास्तव्या यतनया प्राप्ताश्चागन्तुकाः संखड्यां यावद् व्रतं भुक्त्वा प्रादोषिकी पौरुषी न कुर्वन्ति मा न जरिष्यन्तीति कृत्वा, तत आचार्यानापृच्छय स्वपन्तः शुद्धाःतएव यदि त्रैरात्रिकं स्वाध्यायं न कुर्वन्ति; तदा पञ्चरात्रिंदिवानि तपोगुरूणि, कालगुरूणि / अथोद्रार आगतस्तं च यदि विचिन्तवन्ति, ततो भिन्नमासस्तपोगुरु काललघु / अथ तमुगारमापिवन्ति, ततो मासलघु, तपसा कालेन च गुरुकम् / ये अयतनाप्राप्ताः येच वास्तव्याः संप्रतीप्रलोकिनः, एते द्वयेऽपि संखड्यां भुक्त्वा प्रादोषिकं स्वाध्यायं न कुर्वन्ति तदा मासलधु, द्वाभ्यामपि लधुकम् / त्रैरात्रिकं न कुर्वन्ति, मासलधु कालगुरुकम् / उदारमागतं परित्यजति मासलघु तपसा कालेनच गुरुकम्। अतएवाहतिसु लहुगगुरुग एगे, तीसु य गुरुओ उ चउलहू अंते। तिसु चउलहुगा चउगुरु, ति चउगुरु छल्लहू अंते / / 156 / / त्रिषु स्थानेषु प्रादोषिकस्वाध्यायत्रैराविकाकरणोद्गारविवेचनरूपेषु लघुको मासः / एकस्मिन् चतुर्थे प्रत्यवगिलनाख्ये स्थाने मासगुरु। ये अन्यत्र गन्तुकामाः प्राप्तभूमिकाः संखडिहेतोः अर्द्धयोजनादागताः तेषां प्रादोषिकस्वाध्यायाकरणादिषु त्रिषु मासगुरु, अन्त्यस्थाने चतुर्लधु। ये अप्राप्तभूमिकाः संखडिनिमित्तं योजनादगातास्तेषां प्रादोषिकादिषु त्रिषु पदेषु चतुर्लघु, अन्यपदेषु चतुर्गुरु। ये तुयोजनद्वयादायातास्तेषामादिपदेषु त्रिषु चतुर्गुरु, अन्त्यपदे षड्लघु। तिसु छल्लहुगा छग्गुरु, तिसु छग्गुरुगा य अंतिमे छेदो। छेदादी पारंची, वारसगादीसुय चउक्कं / / 160 / / येयोजनचतुष्टयादागतास्तेषां त्रिष्वाद्यपदेषुषङ्लघु, अन्तयपदेषड्गुरु। ये योजनाष्टकादागतास्तेषां त्रिषु षड्गुरु, अन्त्यपदे छेदः / ये द्वादशयोजनादागताः ते प्रादोषिकंस्वाध्यायन कुर्वन्तीति छेदः / आदिशब्दाद्द्वैरात्रिकमकुर्वतां मूलम् / उद्गारविविञ्चतामनवस्थाप्यम्, प्रत्यापिवतां पाराञ्चिकम्। वारसगादीसु च उक्कं तिप्रतीपक्रमेण यानिद्वादशयोजनप्रभृतीनि स्थानानि तेषु सर्वेष्वपि प्रत्येकं प्रत्येकं प्रादोषिकादिचतुष्कं मन्तव्यम्। चतुर्पपि पदेषु तपोऽर्हाणि प्रायश्चित्तानि प्राग्वत् तपःकालविशेषितानि कर्तव्यानि। __ अस्यैवार्थस्य सुखावबोधनार्थमिमां प्रस्तावनामाहखेत्तंतो खेत्तबहिया, अपत्ता बाहि जोयणदुगे य। चत्तारि अट्ठ वारस, जग्ग सुव विगिचणाऽऽपियणा / / 161 // इहोधिः क्रमेणाष्टौ गृहाणि कर्तव्यानि / प्रथमगृहाष्टकपङ्क्त्यामधोऽध एते अष्टौ पुरुषविभागा लेखितव्याः, ये तत्रैवगन्तुकामा यतनाप्राप्ता ये च वास्तव्या यतनाकारिण एष एकः पुरुषविभागः, येतुतत्रैव गन्तुकामा एवायतनया प्राप्ता वास्तव्याश्च यतनाकारिणः, एष द्वितीयः। ये तु अन्यत्र गन्तुकामास्ते क्षेत्रान्तः क्षेत्रबहिर्वा आगता भवेयुः, ये क्षेत्रान्तस्ते प्राप्तभूमिका उच्यन्ते, एष तृतीयः। ये तु क्षेत्रबहिस्ते अप्राप्तभूमिका उच्यन्ते, तेचयोजनादागताः स एष चतुर्थः पुरुषविभागः।योजनद्वयादागताः पञ्चमः / चतुर्योजनादागताः षष्ठः, अष्टयोजनादायाताः सप्तमः, द्वादशयोजना-- दागताः अष्टमः / उपरितनतिर्यगायतचतुष्कपड्क्त्या उपरिक्रमेणामी
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________________ राइभोयण ५३६-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 राइभोयण चत्वारो विभागा लेखितव्याः। प्रदोषे अजागरणं त्रैरात्रिकस्वाध्यायवेलायां स्वपनम्, उद्गारविवेचनं प्रत्यवगिलनम् आदिमः। चतुष्कपड्क्त्या द्वितीयगृहादमूनि प्रायश्चि ___त्तानि क्रमेण स्थापयितव्यानिपणगं च भिण्णमासो, मासो लहुओ य पढमतो सुद्धो। मासो तवकालगुरू, दोहि वि लहुओ य गुरुओ य // 162|| द्वितीयगृहे पञ्चकं, तृतीयगृहे भिन्नमासः, चतुर्थे मासलघु / प्रथमगृहे शुद्धः, चतुर्थे तु पदे मासस्तपसा कालेन च गुरुकः / यत्र चादिपदेऽपि प्रायश्चित्तं भवति; तत्र द्वाभ्यामपि लधुकं, मध्यपदयोरपि यथासंख्यं कालेन तपसा च गुरुकम्। द्वितीयादिचतुर्पु गृहेषु पङ्क्त सर्वा अमुना प्रायश्चित्तेन पूरयितव्याःलहुओ गुरु मासो, चउरो लहुगा य हॉति गुरुगाय। छम्मासा लहुगुरुगा, छेदो मूलं तह दुगं च / / 162|| द्वितीयस्यां पङ्क्तौ त्रिषु गृहेषु लधुमासश्चतुर्थे गुरुमासः। तृतीयस्यां त्रिषु गुरुमासः, चतुर्थ चतुर्लघु। चतुर्थ्या त्रिषु चतुर्लघु, चतुर्थे चतुर्गुरु / पञ्चम्यां त्रिषु चतुर्गुरु, चतुर्थे षड्लघुषष्ठ्यां त्रिषु षड्लघु, चतुर्थेषड्गुरु। सप्तम्यां त्रिषु षड्गुरु, चतुर्थे छेदः / अष्टम्यां पङ्क्तौ चतुर्पु गृहेषु छेदमूलानवस्थाप्यपाराञ्चिकानि / तथा चाऽऽहजह भणियचउत्थस्स, तह इयरस्स य पढमे मुणेयव्वं / पत्ताण होइ भयणा, जे जतणा गंतु वत्तव्यो।। 16 / / / यस्यां पूर्वस्यां पक्तौ चतुर्थे स्थाने भणितम् / गाथायां सप्तम्यर्थे षष्ठी, तथेरतरस्याअग्रेतन्याः पङ्क्ते प्रथमेषु त्रिषु स्थानेषु प्रायश्चि ज्ञातव्यम्। अन्त्यपदेषु पुनस्ततएव यतना, यथा यतनाप्राप्ता येऽध्वप्रपन्ना ये च वास्तव्या यतनाकारिणस्तेषां चतुर्थे स्थापने मासलघुरूपं यत्पुनः प्रायश्चित्तमुक्तं तदेव तेषामेवायतनावतामाद्येषु त्रिषु स्थानेषु भवति / अन्यपदेतु मासगुरुकमित्येवं प्राप्तभूमिकादिष्वपि भजना-प्रायश्चित्तरचना विज्ञेया, नवरमन्त्यपङ्क्त्यां छेदमूलानवस्थाप्यपाराञ्चिकानि भवन्ति। एतेण सुत्तनुगतं, सुत्तणिवाते इमे तु आदेसा। लोहीय अउमपुण्णा, केइ पमाणं इमं बॅति 11 165 / / तत्तत्थमिते गंधे, गलगपडिगते तहा अणाभोगे। एते ण हॉति दोण्णि वि, सुहणिग्गतणा तुयोगिलणा।। 166|| एतत्सर्वमपि प्रसङ्गतो विनेयानुग्रहार्थमुक्तम्, नैतेन सूत्रं गतार्थ तव सूत्रस्य निपातो भवति। तत्रामी आदेशा भवन्ति-'लोही य थउमपुण्ण त्ति'गुडर्भणति-गुणकारित्वादवमं भोक्तव्यं, यथोद्गारमागच्छति / तथा चावलोही कव(ल्ली)लीतत्र दृष्टान्त-यथा कवल्यां यद्यवम प्रमाणादून मागृह्यते ततोऽन्तरन्तरुद्वर्तते, उपरि मुखं न निर्गच्छति / अथ पूर्णाआकण्ठं भृता तत उद्धर्तिता सर्वमपि परित्यजति, अग्निमपि विध्मापयति; एवमेव यद्यवममाहियते / ततो वातः शरीरान्तः सुखेनैव प्रतिचरति,तस्मिन्नुद्गारो नाऽऽयाति। अथातिमात्रं समुद्दिश्यते ततोऽन्त युपूरप्रेरित उद्गार आगच्छति, तस्मादवममेव भोक्तव्यम्। केचित्पुनराचार्यदेश्या इदं वक्ष्यमाणं प्रमाणं ब्रुवते।। तत्रानन्तरोक्तं कवली(ल्ली) दृष्टान्तं भावयतिअतिमुत्ते उग्गालो, तेणो संभुंज जुण्ण उत्तिगगसि। छड्डिजति अतिपुण्णा, तत्ता लोही ण पुण ओमा॥ 167 // गतार्था। नैषमपक्षाश्रिताः पुनराचार्यदेशीया इत्थं वदन्तितत्तऽत्थमिते गन्धे, गलगपडिगते तहा अणाभोए। एतेण हॉति दोण्णि वि, मुहणिग्गतणाउमोबिलणा / / 168|| एको नैगमपक्षाश्रितो भणति-'भत्ते कवल्लिते बिंदुपतितो यथा तत्क्षणादेव नश्यति तथा यद्भुक्तमात्रं जीर्यति ईहशमवममाहरणीयम्, एवमपरोऽस्तमिते रवौ यजीर्यते, तृतीयो गन्धेन रहितः सहितो वा यथोदार एति, चतुर्थो गलकं यावदुद्गार आगम्यते भोगेनाजानान एवं प्रतिगच्छति भूयः प्रविशति / ईहश समुद्दिशतां गुरुराह-एते द्वयेऽपि प्रकारा न भवन्ति / द्वये नाम-यत्प्रथमद्वितीयादिष्यप्युद्गारं प्रतिषेधयन्ति, ये च तृतीयचतुर्थरात्रावुद्गारमनुमन्यन्ते, एते द्वयेऽपि न घटन्ते, किं येनावश्यकयोगानांन हानिस्तावदाहारयितव्यम्। मुखनिर्गतं चोद्गारं ज्ञात्वा यः प्रत्यवगिलति तत्र निपातः। एतां संग्रहगाथां विवरीषुराहभणति जति ऊणमेवं, तत्तकवल्ले व बिंदुणासणया। बितिओ न संथरे वं, तं मुंजसु सूर जं जिले // 16 // एको नैगमनयाश्रितो भणति-यधूनं भोक्तव्यम् ततस्तप्ते कवल्ले प्रक्षिप्तस्योदकबिन्दोः तत्कालमेव यथा नशनं भवति, तथा यद्भुक्तमात्रमेव जीर्यते ईहशं भोक्तव्यम्, द्वितीयः प्राह-एवमीहशे भुक्ते न संस्तरति, तस्मात्तदीहशं भुक्ष्व यत् सूर्ये अस्तमयति जीर्यते। निग्गंधे उग्गालो, बितिए गंधो य एति ण उ सित्थं / अविजाणंत चउत्थे, पविसतिगलगं तु जो पप्प // 170 // गन्धे द्वावादेशौ। एको भणति-सूर्यास्तमितेजीणे आहारे रात्रावसंस्तरं भवति, तस्मादीदृशं भुङ्क्तां येनास्तमितेऽपि निर्गन्धोऽन्नगन्धरहित उदार एति। द्वितीयः प्राह-यदि गन्ध उद्गारस्य एति-आगच्छति तत आगच्छतु यथा सिक्थं नागच्छति तथा भुक्ताम् / एतौ द्वावप्येक एव, 'ततिया विउग्गालो एत्थि किं पुण विसातीय' आदेशः। चतुर्थो भणतिससिक्थ उद्गारो गलकं प्राप्तोऽविजानत एव यावद्भूयः प्रविशति तावद्भुक्ताम् / एते चत्वारोऽप्यनादेशाः। तथा चाहपढमे बितिए दिया वी, उग्गालो एस्थि किं पुण णिसाए। गंधे य पडिगते पुण, एए दो वी अणाएसा / / 171 / / प्रथमद्वितीययोरादेशयोर्दिवाऽप्युद्गारो नास्ति किं पुनर्निशायामित्यतस्तावदनादेशौ, यस्तृतीयो गन्धादेशो, यश्चतुर्थ उद्गारस्य गलके प्रतिगमनादेश, एतौ द्वावपि सूत्रार्थाभिप्रायबहिर्भूतत्वादनादेशौ। कः पुनरादेश इत्याह-- पडुपन्नऽणागते वा, संजमजोगाण जेण परिहाणी। एऽवि जायति तं जाणसु, साहुस्स पमाणमाहारं // 172 / /
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________________ राइभोयण 540 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 राइभोयण प्रत्युत्पन्ने वर्तमाने अनागतः कालो येन यावता भुक्तेन संयमयोगानां य अंतरा पच्चंतविसए एगा अडवी सबरपुलिचोराकिन्ना। सो चिंतेतिप्रत्युपेक्षणादीनां परिहाणिर्न जायते तदाहारस्य प्रमाणं साधोजानीहि। कहं अविग्घेण णित्थरिजामि, त्ति / ते रयणे एक्कम्मि विजणे पदेसे एवं पमाणजुत्तं, अतिरेगं वाऽवि भुजमाणस्स। णिक्खणति, अन्न फुट्टपत्थरे घेत्तुं उम्मत्तगयेसं करेति चोराकुलंच अडविं वायादीखोमेण व, पजाहि कहं वि उग्गालो / / 173 / / पवजइ। तक्करे इज्जमाणे पासित्ता भणतिअहंसागरदत्तो नाम रयणवाणिओ एवंविधं प्रमाणयुक्तं कारणे वा अतिरिक्तमपि आहारं भुजानस्य वातादि- मामे डक्कह, मा मेरयणे हरीहह। सो पलवंतो चोरेहिं गहितो, पुच्छितो। क्षोभेण वा कथंचिदुद्गार आगच्छेत्। कतरेते रयणा। फुडपत्थरंदंसेति। चोरेहिंणातं, केणाऽविएयस्स रयणा __ ततः किमित्याह हरिता। तणे उम्मत्तगोजातो, मुक्को या एवं तेण तणपुप्फफकंदमूलाहारेण जो पुण समोयणं वा, सित्थं णाऊणं णिग्गतं गिलति। सो अडवीपंथो य आगमगमं करेंतेण जाहे भाविता ताहे ते रणे णिसाए तहियं सुत्तनिवाओ, तत्थाऽऽएसा इमे होति।।१७४।। घेत्तुं अडविं पवन्नो / जाहे अडवीए बहुमज्झदेसभागगतो ताहे तम्हा पुनःशब्दो विशेषणे, स चैतद्विशिनष्टि-यस्तमुद्गारमागतं परित्यजति पयरेजमाणो एगम्मि सिलातलकुंडे गवयादिमडदेहभावितं विवन्नगंधरसं तस्यन प्रायश्चित्तम्, यस्तु तमुद्गारं सभोजनं सिक्थं वा एवमागतं ज्ञात्वा उदगं पातुं चिंतेति, जति एवं न पिवामि तो मेरयणोवज्जणं सव्वं निरत्थयं / मुखानिर्गतं भूयो गिलति, तत्रसूत्रनिपातः-प्रस्तुतसूत्रनिपातः प्रस्तुत कामभोगाययणो अणाभोगी भवमि / ताहे तं पवित्ता अडविं नित्थिण्णो सूत्रस्यावतारः। तत्र चेमे आदेशा भवन्ति सणजणकामभोगेण यसव्वेसिंआगतो जाओ। अक्षरगमनिकाकस्याऽपि अच्छे ससित्थ वचिय, मुहणिग्गतकवलभरिय हत्थे य। जलस्थलपथयो रत्नानामुपार्जनं कृत्वा प्रत्यन्तविषये अटव्यां बहवः ..अंजलिपडिते दिखे, मासादारोवणा चरिमं / / 175 / / स्तेनाः सन्तीति कृत्वा रत्नानां क्वचित्प्रदेशे निखननफुटितप्रस्तराणांच अच्छे द्रवमागतं यदि परेणादृष्टमापिवति ततो मासलघु, अथ दृष्ट ततो ग्रहणे मा मदीयानि रत्ना नि हरतेति प्रलापेन भावयित्वा निशि--रात्री मासगुरु। ससिक्थमागतं परेणादृष्टमाददानस्य मासगुरु, दृष्ट चतुर्लधु। रत्नानि गृहीत्वा पलायनम् / अटव्यां तृषितो मृतदेहभावितं जलं पीत्वा अथ तं ससिक्थमदृष्टं चर्वयति, ततश्चतुर्लघु, दृष्ट चतुर्गुरु। सुखान्निर्गतं स्वजनवर्ग समागम्य रत्नानामाभोगी जातः / एष दृष्टान्तः। अयमर्थोपनयःकवलमेहस्तेनादृष्टमापिवति चतुर्गुरु / दृष्ट षड्लघु / अथैकहस्तपुट वणियत्थाणी साहू, रतणत्थाणी वता तु पंचेव। भरितमदृष्टमापिवति ततः षड्लघु, दृष्ट षड्गुरु / अथाजलिभरितम मितुदयसरिसंवंतं, तमापियं रक्खए ताणि / / 176 / / दृष्टमापिवति षड्गुरु, दृष्ट छेदः / अञ्जलिं हत्वा यदन्यद्भूमौ पतितं वणिक् स्थानीयाः साधवः, रत्नस्थानीयानि पञ्च महाव्रतानि, तुशब्दतदप्यदृष्टमापिवति छेदः, दृष्ट मूलम् / एवं भिक्षोरुक्तम् / उपाध्यायस्य स्यानुक्तसमुच्चयार्थत्वात्, तस्करस्थानीया द्रव्यापदादय इति द्रष्टव्यम्। मासगुरुकादारब्धम् अनवस्थाप्ये तिष्ठति।आचार्यस्य चतुर्लघुकादारब्धं मृतोदकसदृश वान्तम्, तत्कारणे आपिवन् तानि माहव्रतान्यात्मानं च चरमे तिष्ठथ्ता एवं मासादिका चरमं यावदारोपणा मन्तव्या। रक्षेत्। प्रकारान्तरेण प्रायश्चित्तमाह ___ कथं पुनरापिवेदित्याहदिय रातो लहु गुरुगा, बितिए रतणसहितेण दिटुंतो। दियरातो अण्ण गिण्हति, असति तुरंते उसत्थें तं चेव / अद्धाणसीसए वा, सत्थो व पहावितो तुरियं // 176 / / णिसिलिंगेण्णं वा, तं चेव सुगंधदव्वं व // 10 // अथवा ससिक्थमसिक्थं वा दृष्टभदृष्ट वा दिवा प्रत्यवगिलतश्चतुर्लघु, अर्ध्वशीर्षके मनोज्ञ भुक्तं परंवान्तम्, ततो दिवा रात्रौ वा अन्यद्गृह्णाति रात्रौ चतुर्गुरु / द्वितीयपदमत्र भवति / कारणे वान्तमप्यापिवेत् न च अलभ्यमामने वा निशि-रात्रावन्यलिङ्गे नान्यद् गृह्णाति / तस्याप्यभावे प्रायश्चित्तमाप्नुयात्, तत्र च रत्नसहितवणिजो दृष्टान्तः कर्तव्यः / पुनरिदं सार्थे वा त्वरमाणे तदेव वान्तं गृहीत्वा चतुर्जातकादिना सुगन्धद्रव्येण सम्भवतीत्याह-अध्वशीर्षके मनोज्ञ भत्कं, भुत्कं तच्च वान्तमन्यच न वासयित्वा भुङ्क्ते न कश्चिद्दोषः। बृ०५ उ०। लभ्यते,सार्थो वात्वरितं प्रधावितस्ततस्तदेव सुगन्धिद्रव्येण वासयित्वा रात्रिभोजने प्रायश्चित्तानिभुक्ते। लेवाडय परिवासे, अभत्तट्ठोसुक्कसन्निहीएय। अथरत्नसहितवणिगदृष्टान्तमाह इयराए छट्ठभत्तं, अट्ठमर्ग सेसनिसिभत्ते // 34 // जलथलपहेसु रयणा-ऽणुवज्जणं तणे अडवि पचंते। लेपकृद्रव्योपलिप्तस्य पात्रके पावाबद्धे तुम्बकादेः पर्युषितत्वे शुष्कनिक्खण्ण फुट्टपत्थर-मा मे रयणे हर पलावे / / 177 // सन्निधौ च शुण्ठीहरितकीविभीतिकादिकायामभक्तार्थः, इतरस्यामाघेत्तूण निसि पलायण, अडवीमडदेहभावितं तिसितो। प्र॒यां गुडककवघृततैलादिकायाम् उत्तरत्र, शेषग्रहणदिह दिवा गृहीतं पिविउं रयणाणभोगी, जातो सयणं समागम्भ / / 178|| रात्रिं परिवास्य दिवैव भुक्तामिति प्रथमभङ्गके षष्ठाभक्तम्, षष्ठभ जहा एगो वणिओ कहिं वि जलपहेण महता किलेसेण सतसहस्सं क्तार्थद्वयप्रायश्चित्तमित्यर्थः / शेषनिशाभक्ते प्रथमभङ्गके विमुच्य मोल्लाइं पंच रयणाई उवञ्जिणित्ता परदेसे, पच्छा सदेसं पत्थित्तो। तत्थ | शेषैस्त्रिभिर्दिवा गृहीतं रजन्या भुक्तं, रजन्यां गृहीतं दिवा भुक्तं, रजन्यां
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________________ रायभोयण 541 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 रायभोयण गृहीतं रजन्यामेव भक्तमिति द्वित्रिचतुर्थभङ्ग कैर्निशाभक्ते रात्रिभोतने जाते सत्यष्टममिति / उक्तं रात्रिभोजनप्रयश्चित्तम् / जीत / कल्प०। (रात्रौ कल्पनीयाः औषधयः'आहारपञ्चक्खाण' शब्दे द्वितीयभागे 526 पृष्ठे उक्ताः)स्थानाङ्गसूत्रपञ्चमाध्ययनद्वितीयोद्देशके ' राइभोअणंभुंजमाणे ' इत्यस्य वृत्तौ दिवा गृहीतं दिवा भुक्तमिति भङ्गकस्य कथं रात्रिभोजनता ? पर्युषितरक्षणादन्यथा वेति ? प्रश्नः, अत्रोत्तरम्रात्रिभोजनचतुर्भङ्गयां दिवा गृहीतं दिवा भक्तमिति भङ्गकस्य पर्युषितरक्षितभक्षणेन राचिभोजनता ज्ञेया, हारिभद्रयां दशवैकालिकवृत्तौ पाक्षिकसूत्रवृत्तौ च सन्निधिपरिभोगाधिकारे तथैव प्रतिपादनादिति // 36 / / सेन०१उल्ला०। रात्रिभोजनप्रत्याख्यानवताऽन्नादिविषये रात्रिसिद्धदिवा भुक्तादि चतुर्भङ्गयां त्रिभङ्गी वज्यां, तथा पक्वान्नेऽपि सावयं न वा ? आद्येऽन्नादिष्विव न तथा, तत्र तद्व्यवहारोऽद्य यावत् तत्र किं निदानमिति ? द्वितिय आरम्भसाम्येऽन्नादिष्वेव तद्वय॑ता न पक्वान्नेष्विति किम? अथ जलश्लेषाभाव एव तत्र तद्दोषपरिहारनिदानम्, अत एव तस्य मासाद्यपीति चेत्तदा राम्प्युषितकल्प्यस्य करम्भादेरपि रात्रिसिद्धस्य किमकल्यताव्यवहारः ? तेनारम्भादिदूषणसाम्येऽप्यनपक्वन्नयो रत्रिसिद्धवर्जनीयतायां पडक्तिभेदश्चेतः संशयाकुलमातनोतीति प्रश्नः,अन्नोत्तरमात्रिसिद्धा दिवा भुक्तादिका सा शस्त्र कापि दृष्टा नास्तीति, तेन रात्रिभोजनप्रत्याख्यानवतां तामाश्रित्य वय॑ता का? कञ्च पक्वान्नदृष्टान्तोऽपि? स्वयमेव सम्यक्तया पर्यालोच्यम, परं रात्रिरन्धने महानारम्भो भवतीति श्राद्धैस्तद्वारणार्थं स्वशक्त्या रात्रिरन्धनं वजनीयम्, न तु रात्रिभोजनप्रत्याख्यानभङ्ग भयेन, ततो न कोऽपि पक्ति भेद साधुमाश्रित्य तु दिवा गृहीतरात्रिभुक्तादिका चतुर्भङ्गीशास्त्रे प्रोक्ताऽस्ति, न तु श्राद्धानाश्रित्येति ध्येयम्॥८६॥ सेन०१ उल्ला०। अन्धकारे आहारकरणे रात्रिभोजनदोषो लगति न वा ? इति प्रश्नः, अत्रोत्तरम् -- " जे चेव रयणिभोयण - दोसा ते चेव संकडमहे, ते दोसा अंधयारम्मि।।१॥" इत्योपनियुक्तिवचनात् रात्रिभोजनदोषो लगतीति ज्ञायते // 71 / / सेन० 3 उ०। ये केचन रात्रिभोजनप्रत्याख्यामिनो घटिद्वयशेषे दिवसे भोजनं कुर्वन्ति तेषा रात्रिभोजन प्रत्याख्यानभङ्गो भवतिनवा? इतिप्रश्नः,अत्रोत्तरम्-घटीद्वयशेषे दिवसे भोजनं कुर्वतां रात्रिभोजस्यातीचारो लगति, नतुतद्भङ्ग इति॥१८|| सेन०४ उल्ला०। राइभोयणवेरमण न० (रात्रिभोजनविरमण) निशि भोजनवर्जने, पा०। सूत्र०। षष्ठव्रतमचतुर्विधस्याऽऽहारस्य, सर्वथा परिवर्जनम्। षष्ठं व्रतमिहैतानि, जिनर्मूलगुणाः स्मृताः॥४६|| चतुर्विधस्य अशनपानखादिमभेदभिन्नस्य आहारस्य-अभ्यवहारस्य सर्वथा-त्रिविधत्रिविधेन परिवर्जनम् विरमणं व्रतं भवतीति क्रियान्वयः। ध०२ अधि०। अत्रार्थापत्त्याऽऽ क्षिप्तमनवगच्छन्नाह परःनिसिभत्तविरमणं पिहु, नणु मूलगुणो कहं न गहियं तं / वयधारिणो चिय तयं, मूलगुणो सेसयस्सियरो।१२४०। आहारविरमणाओ, तवो व तव एव वा जओऽणसणं / अहव महव्वयसंस्-क्खत्तणओ समिइउवा।१२४१।। ननु रात्रिभोजनविरमणमपि मूलगुणः, तदिह किमिति मूलगुणत्वेन नोपात्तम् ? / अत्रोत्तरमाह-व्रतधारिणः संयतस्यैव तद रात्रीभोजनविरमणं मूलगुणः, शेषस्य तु गृहिणो देशविरतस्योत्तरगुणा इत्यर्थः ? आहारविरमणरूपत्वात्, तपोवत्। अथवा-तप एव तद् निशिभोजनविरमणमिति प्रतिज्ञा, यतोऽनशनम् --अनशनत्यागरूपत्वादिति हेतुः, चतुर्थादिवत् , इत्यनुक्तोऽपि दृष्टान्तः स्वयं दृश्यः, तपञ्चोत्तरगुण एवेति भावः। इपञ्चेदमुत्तरगुणः कुतः? महाव्रतसंरक्षणात्मकत्वात्, समित्यादिवदिति / / 1240 / 1241 // अत्राह-यद्येवम्, उक्तयुक्ते व्रतधारिणोऽपितदमूलगुणो न प्राप्नोति, इत्याहतहऽवि तयं मूलगुणो, मण्णइ मूलगुणपालयं जम्हा। मुलगुणग्गहणम्मि य , तं गहियं उत्तरगुण व्व / 12420 तथाऽपि वतिनस्तन्मूलगुणो भण्यत, समस्तव्रतानुपालनात्, समस्तव्रतसंरक्षणेनाऽत्यन्तोपकारित्वात्, प्राणातिपातविरमणवत्, मुलगुणग्रहणाच साक्षादनुपात्तमपि तद् गृहीतमेव द्रष्टव्यम्, उत्तरगुणवदिति // 1242 / कस्माद् मूलग्रहणे तद् गृह्यते? इत्याहजम्हा मूलगुण चिय , न हो ति तचिरहियस्स पडिपुन्ना। तो मूलगुणग्गहणे, तग्गहणमिहत्थओ नेयं / / 1253 / / यस्मात् तद्विरहितस्य-रात्रिभोजनविरमणविरहितस्य महाव्रतादयो मूलगुणा एव परिपुर्णा न भवन्ति, अतो मूलणग्रहणे तद् ग्रहणमिहार्थतो विज्ञेयम्। तथाहि-रात्रौ भोजने विधेये रात्रौ भिक्षार्थमचक्षुर्विषये पर्यटनाद् वसिप्रदीपनादिभिः स्पर्शनात्, पुरःकर्म पञ्चात्कर्माद्यनषणादोषदुष्टाहारग्रहणादेश प्रणातिपातव्रतविघातः। अन्धकारवशेन च पतितहिरण्याविद्राविणग्रहणादेः, योषित्परिभोगसम्भवाच शेषतविलोपः। इत्येव रात्रिभोजनविरमणमन्तरेण न सम्भवन्त्येव प्राणातिपातविरत्यादिमूलगुणाः अत एव तद्ग्रहणेऽत्यन्तोपकारित्वाद्गृहीतमेवार्थतस्तादिति॥१२४३।। अत्र प्रेरक : प्राहजाइ मूलगुणो मूल-प्वय उवगारित्ति तं तवाईया। तो सव्वे मूलगुणा , जइव न तो तं विमा होज्जा // 12441 गुण इष्यते , ततस्तर्हि तपःप्रभृतयः सर्वेऽपि मूलगुणाः प्राप्नुवन्ति , तेषामपि तदुपकारित्वात् , अतो विशीर्णोत्तरगुणकथा / यदि पुनस्ते तपःप्रभृतयो मूलगुणा न भवन्ति,तर्हि तदपि रात्रिभोजनविरमणं मूलगुणो मा भूत् , उपकारित्वाविशेषात्। पूर्वापरविरोधश्चैवमनभ्युपगच्छतोभवतः।तभाहि-भवतैवानन्तरमुक्तंयथा 'महाव्रतसंरक्षणादुत्तरगु
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________________ राइभोइण 542- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 राक्खसदीव ण इदम्, समितिवत्' इति; इदानीं त्वभिघत्से--महाव्रतसंरक्षणाद् मूलगुण तथाऽऽ चाम्लं कृत्वाऽहोरात्रिकंकरोति, स उपधानाऽऽलोचनामध्ये समेति एतदिति ।अत्रौच्य-किमिह विरुद्धम् , उभयधर्मकं हिरात्रि- भोजन- किं वा न ? इति प्रश्नः , अत्रोत्तरम्-उपवस्त्रं कृत्वा यः प्रातरहोरात्रिकविरमणम्, यतो गृहस्थस्य तदूत्तरगुणः तस्याऽऽम्भजप्राणातिपाताद- पौषधः कृतो भवति स उपधानाऽऽ लोचनामध्ये समेति नान्य इति निवृत्तत्वात् निशि भोजनेऽपि मूलगुणा-नामखण्डनात्, अत्यान्तोप- // 125 / / सेन० 4 उल्ला०। काराभावादिति वतिनस्तु तदेव मूलगुणः, तस्याऽऽरम्भजादपि प्राणाति- राइया स्त्री० (रात्रिका ) अतिलघुसर्षपे, सूत्र०१ श्रु० 4 अ०१ उ०। पातान्निवृत्तत्वात्, रजनिभोजने च तत्सम्भवात्, अतस्तद्विधाने मूल- राइयाखाड न० (राजिकाखाट) करमथितलवणकणयुते दध्नि, ध०२ गुणानां खण्डनात्। तद्विरमणे तु तेषां संरक्षणेनात्यन्तोपकारात्तत् तस्य अधि०। मूलगुणः / तपःप्रभृतीनां चेत्थमत्यन्तोपकारित्वाभावादुत्तरगुणत्व- राइसिरी स्त्री० ( राजश्री) चमरेन्द्रस्याऽग्रमहिष्या मातरि, ज्ञा०२ श्रु०१ मिति // 1124|| वर्ग 2 अ०॥ आह च राइ स्त्री० (रात्री) निशायाम् , "रयणी विहावरी सब्बरी निसा जामिणी सव्वव्वओवगारिं, जह तंतहा तवादओ वीसुं। राई। 'पाइ० ना० 47 गाथा! जं ते तणुत्तरिया, होति गुणा तं च मूलगुणो // 1255 / / राईमई स्त्री० (राजीमती) उग्रसेनपुत्र्यामरिष्टनेमिभार्यायाम् कल्प०१ 'जंति' यस्मात् कारणाद्यथा तद्रात्रिभोजनविरमणं सर्वव्रतोपकार- अधि०७ क्षण। (अस्या व्याख्या 'रहणेमि' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 464 कम् ,नतथातपःसमित्यादयो विष्वक्-पृथक्, तेन कारणेनतेउत्तरिका- पृष्ठे उक्ता ) ऐरवते राजीमतीप्रतिमा। ती०२ कल्प०। उत्तरगुणा भवन्ति / तत्तू रात्रिभोजनव्रतं मूनगुणानात्यन्तोपकारित्वाद् | राईमईगुहा स्त्री० (राजीमतीगुहा) यत्र राजीमत्या रथनेमिःप्रतिबोधितमूलगुणः / यथा हि-प्राणातिपातादिव्रतानां पञ्चानामेस्याभावे शेषाणाम- स्तादृशायां गुहायाम्, ती० 3 कल्प / (व्याख्या उज्जयन्त' शब्दे भावाद् मुलगुणत्वम्, एवं रात्रिभोजनव्रतास्याऽप्यभावेसर्वव्रताभावदत्य- द्वितीयभागे 736 पृष्ठेगता) न्तोपकारित्वाद् मूलगुणत्त्वमिति भावः।।१२४५।। विशे०। दश०।०। राईव न० (राजीव) कमल, 'राईवं पाइ० ना० 10 गाथा। मनुष्यलोकादहिःक्वचिद्रात्रिरेव ववचिदिवैव, तत्र कालप्रत्याख्यानं | राउग्गह पुं० (राजावग्रह) राजा-चक्रवर्ती तस्याऽवग्रहःषट्खण्डभरतादिरात्रिभोजनप्रत्याख्यांन च घटते नवा? इति प्रश्नःअत्रोत्तरम्- मनुष्य- क्षेत्र राजावग्रहः / अवग्रहभेदे, भ०१३ श०२ उ०। प्रति० / आचा०। लोकादहिः कालत्याख्यानं रात्रिभोजनं चेहेत्यपेक्षया सम्यक्कालस्वरूप- राउल न० (राजकुल) 'लुग्भाजन-दनुज-राजकुले जः सस्वरस्य न परिज्ञाने भवत्यन्थातुसङ्केत्तप्रत्याख्यानमिति॥१२४॥सेन०१ उल्ला०॥ वा' / / 6 / 1 / 267 / / इति सस्वरस्यजकारस्यलुग्वा / राउलं। राअउलं। (रात्रिभोजविरमणसूत्रम् 'पडिक्कमण' शब्दे पञ्चमभागे २८४पृष्ठेऽस्ति) | प्रा०ा नृपकुले, पं० चू०३ कल्प०। राइय त्रि० (रात्रिक) रात्रौ भवः रात्रिक : / रात्रियाते, आतु०। आव०) | राक्खसदीवपुं०(राक्षसद्वीप) स्वनामख्यातेद्वीपे, सेन०। राइयपोसहपुं० (रात्रिकपौषध) पौषधभेदे, सेन०। मज्झण्हाओ परओ राक्षसद्वीपो जम्बूद्वीपेऽस्ति लवणसमुद्रेवा? सच प्रमाणाङ्गुलेनोत्सेधाजाव दिवसस्स अंतोमुहूत्तो ताव घ्प्पिइ इति सामाचारीमध्ये विद्यते, तेन ङ्गुलेन वा ? इति प्रश्नः, अत्रोत्तरम्तृतीययामदर्वाक् मध्याह्वात्परतः रात्रिपौषधः कर्तुं कल्पते नवा ? इति लवणोदे पयोराशौ, दुर्जयो धुसदामपि। प्रश्नः , अत्रोत्तरम्- मध्याह्णात्परतः पौषधग्रहणं शुद्ध्यति, परंसाम्प्रतीन- योजनानां समशतीं, दिक्षु सर्वासु विस्तृतः॥३१॥ प्रवृत्या प्रतिलेखनात् अर्वाग्न कार्यते, किन्तु परत इति।।३०२।। सेन० राक्षसद्वीप इत्यस्ति, सर्वद्वीपशिरोमणिः। 3 उल्ला० / खाद्याः कथयन्त्यस्माकं पौषधिकाः रात्रेस्तुर्ययामे समु तदन्तरे त्रिकूटाद्रि-भूमिनामौ सुमेरुवत् / / 32 / / थाय पौषधमध्ये सामायिकंकुर्वन्ति , तदक्ष्राणि च प्रतिक्रमणसूत्रचूर्णी महर्विलयाकारो, योजनानि नवोन्नतः। सन्ति श्रीमतां श्रीपूज्याः सामायिकं कथं न कारयन्ति ? इति प्रश्नः, पञ्चाशतं योजनानि, विस्तीर्णोऽस्त्यतिदुर्मदः // 33 // अत्रोत्तरम् - रात्रिपौषधमध्ये पाश्चात्यरात्रौ सामायिककरणमाश्रित्य यानि तस्योतरिष्ठात्सौवर्ण-प्राकारगृहतोरणा। चूर्ण्यक्षराणि सन्ति तानि सामाचारीविशषेण समर्थनीयानि न तु दूषणी- मया लङ्केति नाम्ना पू-रधुनैवास्ति कारिता ||34|| यानि, तस्याः शिष्टकृतत्वात् / चात्मनां तदक्षरदानेन तत्कर्तव्यता- षड्योजनानि भूस्तस्या- मतिक्रम्य चिरंतनी। पत्तिः, सर्बेरपि अवश्यंभावेन विधेया एवेति, शास्त्राक्षरानुपलम्भादिति / शुद्धस्फटिकवप्राङ्का, नानारत्नमयालया // 35 // किच-खरतरपक्षीयाणां चूर्णिगतैकवचनं युक्तिमन्न प्रतिभाति, तद्गत- सपादयोजनशत-प्रमाणा प्रवरा पुरी। सकलसामाचार्यास्तैरकरणात्, यदि वा - तेषां चूर्णेः प्रामाण्यमेव तदा मम पाताललङ्केति, विद्यते चातिदुर्गमा // 36|| तद्गता सकलाऽपि सामाचारी तैः कथं न विधियत इति बहुवक्तव्यमस्तीति पुरीद्वयमिदं वत्सा-ऽऽदत्स्व तन्नृपतिर्भव। // 319 // सेन० 3 उल्ला० / प्रातरुपवस्त्रं कृत्वा सायं रात्रिपौषधं करोति, भवत्वद्यैव ते तीर्थ-नाथदर्शनजं फलम्॥३७||
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________________ राक्खसदीव 543 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 राग इत्युक्त्वा राक्षसपति- माणिक्यैर्नवभिः कृतम। खमासमणा ! तेहिं तडिभिन्नो भणइनत्थि त्ति, आयरिया अणुवट्ठियस्स ददौ तस्मै हाहरं,सद्यविद्यां च राक्षसीम्॥३८॥ नदेंति पायच्छित्तं, सोचिंतेइ-किं कह वत्ति ? सा उवसंता साहइ-एयं भगवन्तं नमस्कृत्य, तदैव घनवाहनः। मए कयं साविगाजाया, सव्वं तरिकहेइ। एस तिविहो अप्पसत्थो, तस्स आगत्य राक्षसद्वीपे, राजाऽभूल्लङ्कयोस्तयोः // 36 // अप्पसत्थस्स इमा णिरुत्तगाहा-"रजंति असुभकलिमल-कुणिमाणिटेसु राक्षसद्वीपराज्येन, राक्षस्या विद्ययाऽपि च / पाणिणो जेण / रागो ति तेण भण्णइ, जंरजइ तत्थ रागत्थो // 1 // " तदादि तस्य वेशोऽपि , ययौ राक्षसवंशताम्॥४०॥ एपोऽप्रशस्ताः (आव०१अ०) दीर्घसंसारहेतुकत्वादध्यवसायात्मकत्वात्। इति श्रीअजितनाथचरित्रानुसारेण राक्षसद्वीपोलवण समुद्रेति प्रमा- (आ० म०१ अ०) प्रशस्तस्तु रागोऽर्हदादिविषयः। णाङ्गुलैचेति ध्ययेम्॥१६०|| सेन० 4 उल्ला०। उक्तंचरागपुं० (राग) रञ्जनं रागः।कुसुम्भादिना वर्णान्तरापादने, उत्त० पाई 1 अरहतेसु य रागो, रागो साहसु बंभयारीसु / अ०। रज्यतेऽनेनेति रागः। सौवीरदिके अञ्जने, सूत्र०१श्रु०६ अ०। एसपसत्थो रागो, अन्ज सराणाण साहूणं / / 1 / / औ० / स०। रञ्जनं रज्यते वा अनेन जीव रागः / आ० चू०४ अ०। एवंविधं राग नामयन्तः-अपनयन्त, क्रियाकालनिष्ठाकाल योरभेदारागवेदनीयक पिादितेऽभिष्वङ्गपरिणामरूपे भावे, पं० सू०१ सूत्र०। दपनीत एव गृह्यते। आह-प्रशस्तनामनमयुक्तं,न, तस्याऽपिबन्धात्मऔ० आव०।अनभिव्यक्त मायालोभलक्षणभेदस्वाभावेऽभिष्वङ्गमात्रे, कत्वात्, यद्येवम् ततः "एस पसत्थो रागो "इत्यादि विरुद्धम, नैष / पा० / आ० म०। सूत्र० / आतु० / आव०। ध० ! नं०१ अष्ट० / ग०। सरागसंयतानां कूपखननोदाहरणतस्तस्य रागस्य प्रशस्त्यादित्यलं प्रेव०नि० चू०। प्रसङ्गेन। आव 01 अof "रागं च दोसं च तहेव मोहं, उद्धत्तुकामेण रागे उदाहरणम् समूलजालं। जे जे उवायापडिवज्जियव्या, ते कित्तइस्समि अहाणुपुव्यि / क्षितिप्रतिष्ठितं नाम, पुरं द्वौ तत्र सोदरौ! "उत्त०३२ अ०।"रागदोसे यदोपावे, पावकम्मपव। जे भिक्खू संभई अर्हन्नतोऽन्मित्रच, ज्येष्ठभार्या लघौ रता |1|| निचं, सेन अच्छइमण्डले, 'उत्त०३१ अ०।"रागतृष्णासुखोपाये"लघुर्नेच्छति तां चाऽऽह, भातरं मे न पश्यसि ?| सुखोपाये-सुखसाधने तृष्णासुखज्ञस्य सुखानुस्मृतिपूर्वो लोभपरिणामो पति व्यापाद्य सा भूय-स्तमचे नाऽन्दमस्त सः॥२॥ रागः। द्वा० 25 द्वा० / विशे। निर्वेदेनाऽथ तेनैव, सलघुव्रतमाददे। विस्तरार्थमविधित्सुस्तावद्रागस्वरूपं विवृणोतितद्भेक्ता साऽपि मृत्वा भू- ग्रामे काप्यार्तिता शुनी / / 3 / / रजंति तेण तणेमव,रंजणमहवा निरूविओ राओ। साधवोऽपि ययुस्तत्र, शुन्याऽदर्शि मुनिः सच! नाणाइचउम्मेओ, दवे कम्मेयरविभिण्णो // 2961 // तदैवाऽऽगत्य साश्लेषं, मुहर्मर्तुरिवाकरोतृ॥४॥ रन्यन्ते तेन, तस्मिन् वा सति क्लिष्टसत्त्वाः-प्राणिनः स्त्र्यादिष्विति नष्टः साधुर्मुतासाच , ततोऽटव्यां च मर्कटी। रागः अथवा - रजंन रागः। सच नामादिचतुभेदः स्थानान्तरे नेरूपिते तस्या एव च मध्येना-टव्यायातं कथंचन।।५।। रागः / तत्र नाम स्थापनाज्ञशरीरभव्यशरीरद्रव्यरागावचारः सुज्ञेय एव / अन्तर्मुनीनां तं वीक्ष्य, प्रेम्णा शिश्लेषा मर्कटी। ज्ञ-भव्यशरीरव्यतिरिक्ते तु द्रव्ये विचार्य को रागः ? इत्याह-कम्भेयर तां विमोच्याथ कष्टेन, स कथंचित्पलायितः // 6|| विभिन्नो त्ति कर्मद्रव्यरागः,नो कर्मद्रव्यरागञ्जेत्यर्थः।।२६६१॥ मृत्वा सत्राऽपि सा जज्ञे, यक्षा तं प्रेक्ष्य सावधेः। तत्र 'कर्मद्रव्यरागं 'व्याचिख्यासुराहमैच्छन्मामेष तचिछद्रा-णीक्षतेन त्ववैक्षत।।७।। जुग्गा बद्धा वझं-तया य पत्ता उईरणावलियं / समानवयसोऽवोचन्, हसन्तस्तंचसाधवः। अह कम्मदव्वराओ, चउव्विहा पोग्गला हुंति // 2662 / त्वमर्हन्मित्र ! धन्योऽसि, यच्छुनीमर्कटीप्रियः // 8 "अहति 'अथैतझ्याख्यानमुच्यते-तत्र कर्मद्रव्यरागः चतुर्विधाः पुद्गला अन्यदा क्रमनस ,जलवाहं विलचितुम्। भवन्ति; तद्यधा-योग्याबन्धपरिणामाभिमुखाः, बध्यमानाः-प्रारब्धप्रमादाद्गतिभेदेन, पदं णासारयन्मुनिः / / 6 / / वन्धक्रियाः बद्धा-उपरतबन्धक्रियाः। गाथाबन्धानुलोम्याच्च व्यत्ययेनोतस्य तच्छिद्रमासाद्य,सा चिच्छेदाचिमूरुतः। पन्यासः / तथा उदीरणाकरणोनाऽऽकृष्योदीरणावानिकां प्राप्ता यावदस मिथ्यादुष्कृतं जल्प-नपत्तच जलादहिः ||10|| द्याप्युदयं न गच्छन्ति , उदयेन वेद्यमानानां भावरागत्वेन वक्ष्यमाणत्यासम्यग्दृष्टिः सुरी तां च निर्धाट्य तं मुनेः क्रमम्। दिति // 2662 / / तदैवाऽलगयद्रढो, देवतातिशयेन सः॥११॥ नोकर्मद्रव्यरागमाहआ० क० 1 अ०। आ० म०। अन्ने भणति-सोभिक्खस्सगओ अण्ण- नोकम्मदवराओ, पओगओ सो कुसुंभरागाई। गामे, तत्थ ताए वाणमंतरीएतस्स रूवं छाएत्ता तस्स रूवेणं पंथे तलाए बीओ य वीससाए, नेओ संझन्भरागाई।।२९६३।। ण्हाइ, अन्नेहिं दिवो सिटुं गुरूणं, आवस्सए आलोएइ, गुरूहि भणियं- नोकर्मद्रव्यरागस्तु द्विवधः-प्रयोगतः, विस्रसातञ्चः। तत्र प्रयोगतः सव्वं आलोएहि, अज्जो ! सो उवउत्तो मुहणंगमाइ भणइन सभ संभरामि | कुसुम्मरागदिः,विनसातस्तु सन्ध्याभ्ररागादिरिति॥२९६३||
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________________ राग ५४४-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 राग भावरागमाहजं रायवेणिजं, समुइण्णं भावओ तओ राओ। सो दिट्ठि-विसय-नेहा,-णुरायरूवो अभिस्संगो // 266|| कुप्पवयणेसु पढमो,विइओ सहाइएसु विसएसु। विसयादनिमित्तो विहु, सिणेहराओ सुयाईसु // 2665 // यद् रागेण वद्यत इति रागवेदनीयं माया-लोभलक्षणं कर्म समुदीर्णमुदयप्राप्तं विपाकेन वेद्यते, तज्जनितच जीवपरिणामरूपाऽभिष्वङ्गस्तकोऽसौ भावतो रागो भावरागः। स च त्रिविधोऽभिष्वङ्गरूपः, तद्यथादृष्टयनुरागः, विषयानुरागःस्नेहरागञ्चेति। तत्र प्रथमः कुप्रवचनेषुद्रष्टव्यः, द्वितीयस्तु शब्दादिविषयेषु, स्नेहारागस्तु विषयाद्यनिमित्तोऽविनितेष्वाप सुतबान्धवादिष्विति।।२६६४॥२६६५|| विशे०। (यादृशं वस्तुतादृगेव रागो भवतीति वक्ष्यते 'वसहि 'शब्दे ) रागे दुवहे पण्णते / तं जहा-माया य, लोभे य। प्रज्ञा०२३ पद। आ० म०। स०। आ० चू० / श्रा०। आव०। पुत्रादिषु स्नेहे, प्रश्न०४ सवं० द्वार। समाइ पेहाइपरिव्वयंतो, सिया मणो निस्सरई बहिद्धा। न सा महं नो वि अहं पि तीसे, इन्चेव ताओ विणइज्ज रागं || तस्यैवं त्यागिनः समया-आत्मपरतुल्या प्रेक्ष्यतेऽनयेति प्रेक्षादृष्टिस्तया प्रेक्षया- दृष्ट्या परि-समन्माद्ब्रजतोगच्छतः परिव्रजतः, गुरूपदेशादिना संयमयोगेषु वर्तमानस्यत्यर्थः, स्यात्- कदाचिदचिन्त्यत्वात् कर्मगतेः,मनो निःसरति बहिधा-बहिः भुक्तभोगिनः पूर्वक्रीडितानुस्मरणादिना, अभुक्तभोगिनस्तु कुतूहलादिना मन:-अन्तःकरणं निःसरतिः-निर्गच्छति बहिर्धा - संयमगेहाद्वहिरित्यर्थः / एत्थ उदाहरणम्-"जहा एगो रायपुत्तो बाहिरियाए उवठ्ठणसालाए अभिरमंतो अच्छा। दासी य तेण अंतेण जलभरियघडेण वोलेइ। तओ तेण तीए दासीए सो घडो गोलियाए भिन्नो, तंच अधिई करिति दगुण पुणरावत्ती जाया,चिंतिये च - "जे चेव रक्खगा ते , चेव लोलगा कत्थ कुविउँ सक्का ? / उदगाउ समुज्जलिओ, अग्गी किह विज्झवेयव्वो / 1 / 'पुणो चिक्खलगोलएण तक्खणा एव लहुहत्थयाएतं घडछिडुंढक्कियं / एवं जइ संजयस्स संजमं करेंतस्स बहिया मणो णिग्गच्छइ तत्थ पसत्थेण परिणामेण तं असुहसंकप्पछिडु चरित्तजलरक्खणट्ठाए ढक्केयव्वं / केनालम्बनेनेति ? यस्यां राग उत्पन्नास्तां प्रति चिन्तनीयत् - नसा मम नाऽप्यहं तस्याः, पृथक्कर्मफलभुजो हि प्राणिन इति / एवं ततस्तस्याः सकाशाद्यपनयेत रागम्, तत्त्वदर्शिनो हि सन्निवर्तन्त एव। अतत्त्वदर्शननिमित्ततवातस्येति। तत्थ न सा महंणोऽवि अहं वि तिसे 'त्ति, एत्थ उदाहरणं-एगो वाणियदारओ, सो जायं दज्झित्ता पव्वइओ / सो य ओहावणुप्पेभुओ , इमंच घोसेइ-" न सा महणो वि अहं पि तीसे "सो चिंतेइ -सा वि तीसे, सा ममाणुरत्ता कहमहं तं छड्डुहामि त्ति काउं / गहियावारभंडाणेवत्थो चेव संपट्टिओ।ग अतंगामंजत्थ सा। सोय णिवाणतडं संपतो। तत्थ य सा पुव्वजाया पाणियस्स आगया ! सा य साविया जाया पव्वइउकामाय।ताए सो णाओ, इयरोतंन याणइ। तेण सा पुच्छियाअमुगस्स धूया किंमया, जीवइ वा ? सो चिंतेइ-जइ सासहरा तो उप्पच्यामि, इयरहाण ताए णायं-जहा एस त्ति, भणियं च अणाएसा अण्णस्स दिण्णा; तओ सो चिंतिउमारद्धो- सच्चं भगवतंहिं साहूहिं अहं पाढिओ-जहा ' ण सा महं णो वि अहं पि तीसे', परमसंवेगमावणो। भणियं च अणेण - पडिणियत्तामि।तीए वेस्गपडिओ तिणाऊण अणुसासिओ' अणिचं जीवियं कामभोगा इत्तरिया ' एवं तस्स केवलिपन्नत्तं धम्म पडिकहंइ। अणंसिट्ठा जाणाविओ य पडिगआ असयरियसगासं पवजाए थिरीभूओ। एवं अप्पा साहारेतव्वो जहा तेणं ति सूत्रार्थः / / 4 / / दश०२ अ०। रागद्वेषौ विनिर्जित्य , किमरण्ये करिष्यसि ? अथ नो निर्जितावेतौ, किमाण्ये करिष्यसि"? सूत्र०२ श्रु०६ अ०। रागादत्तदानस्यापि निषेधः - "सुहिएसु अ दुहिएसु अ, जा मे अस्संजएसु अणुकंपा / रागेण व दोसेण वतं निंदेतंच गरिहाति " // 1 // एतगाथाव्याख्यानं प्रसाद्यम् ? इतिप्रश्नः, अत्रोत्तम्- साधुष्विति विशेष्यमनुक्तमपि संविभागवतप्रस्तावादध्याहर्म्यम्, ततः साधुषु कीदृशेषु ? सुष्ठ हितं - ज्ञानादिवयं येषांते युहितास्तंषु, पुनः कथम्भूतेषु ? दुःखितेषुरोगेण तपसा वा ग्लानीभूतेषु उपधिरहितेषु वा, पुनः कदृक्षु ? न स्वयं - स्वच्छन्देन यताउछता अस्वयतास्तेषु गुज्ञियैव विहरत्सु इत्यर्थः, या भया कृताऽनुकम्पा - कृपाऽन्नपानवस्त्रादिदानरूपा भक्तिः, अनुकम्पाशब्दनाव भक्तिः सूचिता। यथाक-क्तम्-आवरिआणुकंपाए, गच्छो अणुकंपिओ महाभागो। गच्छाणुकंपणाए, अव्वुच्छित्ती कया तित्थे // 1 // " रागेणस्वजनमित्रादिप्रेम्णा न तु गुणवत्त्वबुया तथा द्वेषण-इह द्वेषः साधुनिन्दाख्यो,यथा धनधा-न्यादिरहिता ज्ञातिजनपरित्यक्ताः क्षुधार्ताः सर्वथा निर्गतिका अमी उपष्टम्भार्हाः इत्येवं निन्दापूर्वी या अनुकम्पा साऽपि निन्दैव, अशुभदीर्घायुष्कहेतुत्वाद् , यदागमः- 'तहारूवा समणं वा माहणं वा संजयविदयपछिहयपचक्खायपावकम्मं हीलित्ता निदित्ता खिंसित्ता गरिहिगत्ता अवमन्नित्ता अमुणुन्नेणं अपीइकारगेणं असणपाणखाइमसाइमेणं पडिलाभित्ता असुहदिहाउअत्ताए कामंपगरेइ त्ति। यद्वासुखितेषु दुःखितेषु वा असंयतेषु-पार्श्वस्थादिषु, शेषं तथैव परं द्वेषण 'द-गपाणं पुष्फफले, अणेसणिज्ज 'मित्यादि तद्गतदोषदर्शनान्मत्सरेण, अथवा-असंयतेषु-षड्विधजीववधकेषु कुलिङ्गिषु , रागेण-एकदेशग्रामगोत्रोत्पत्त्यादिप्रीत्या द्वेषेण-जिनप्रवचनप्रत्यनीकतादिदर्शनोत्थेनाननु प्रवचनप्रत्यनीकादेदानमेव कुतः ? उच्यते-तद्भक्तभूपत्यादिभयात्, तदेवेविधं दानं निन्दामि गर्हे च / यत्पुनरौचित्येन दीनादीनां तदप्यनुकम्पादानम्, यतः-'कृपणेऽनाथदरिद्रे, व्यसनप्राप्तेच रोगशोकहते। यद्दीयते कृपार्थमनुकम्पा तद्भवेद्दानम् // 1 // " समर्थदेहस्यापि प्रार्थना-कारिणा दरिद्रप्रायत्वादनुकम्पादानम्।तचन निन्दाहे, जिनेन्द्रैरपि वार्षिकदानावसरे तस्यदर्शितत्वात्, उक्तंच-" इयंमोक्षफलेदाने, पात्रापात्रविचारणा।दया
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________________ राग 545 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 रागदोसविजेता दानं तु सर्वज्ञैः , कुत्रापि न निषिध्यते // 1 // " तथा-'दानं यत्प्रथमोपकारिणि न तत्प्रायः स एवार्ण्यते, दीने याचनमूल्यमेव दयिते तक्ति न रागाश्रयात् / पात्रे यत्फलविस्तरप्रियतया तद्वार्द्धषीकं न किं, तद्दानं यदुपेत्य निःस्पृहतया क्षीणे जने दीयते।।१॥ इतिगाथार्थो ज्ञेयः।।१७०॥ सेन०४ उल्ला० / मन्मथपारवश्ये, तं०। रागकिरिया स्त्री० (रागक्रिया) येन परस्य राग उत्पद्यते तादृशे क्रियाभेदे, आ० चू०४ अ०॥ रागज्झवसाण न० (रागाध्यवसान) रागहेतुकेऽध्यवसानभेदे,आ० चू० 1 अ०। (अस्य कथा आउ' शब्दे द्वितीयभागे 11 पृष्ठे गता) रागज्झाण न० (रागध्यान) रागविषयकदुर्व्याने , आतु०।"रागज्झाणे "रागोऽभिष्वङ्गमात्रम् , स च कामरागस्नेहरागदृष्टिरागभेदात्रिधा। तत्र कामरागो विष्णुश्रियां विक्रमयशोराजस्येवा स्नेहरागोदामत्रकस्य सुरश्रेष्ठिन इव स्वपुत्रमरणश्रवणतो हृदयस्फाटात्, दृष्टिरागो ब्रह्मलोकादागत्य स्वदर्शनानुरागतः स्वशिष्यं प्रति-आसुरे ! रमसे इत्या-दिभणतः कपिलस्येव तस्य ध्यानम्। तस्मिन् , आतु०। रागदोसविजेतापुं० (रागद्वेषविजेतृ) जिने, रत्ना० / रागद्वेषविजेतारं, ज्ञातारं विश्ववस्तुनः। शक्रपूज्यं गिरमीशं ,तीर्थेशं स्मृतिमानये / / 1 / / तीथस्य चतुर्वणस्य श्रीश्रमणसङ्घस्य, ईशम्-स्वाभिनम् , आसन्नोपकारित्वेनात्र श्रीमहावीरम्; अहमिह प्रक्रमे स्मृतिमानये, इति सण्टङ्कः / रागद्वेषयोः , विशेषेण अपुनर्जेयतारूपेण जयनशीलमिति ताच्छीनिकस्तृन्; ततः "न कर्तृतजकाभ्याम् "इति तृचा षष्ठीसमासप्रतिषेधात् कथमत्रायम् ? ; इति नाऽऽरेकणीयम् / तथा विश्ववस्तुनः कालत्रयवर्तिसामान्यविशेषात्मकपदार्थस्य, ज्ञातारम्, अमकेवलालोकेन / शक्राणाम् -इन्द्राणाम् पूज्यम्-अर्च, नीयम्, जन्मस्नात्राष्टमहाप्रातिहार्यादिसम्पापनेन। गिराम् वाचाम् , ईशम्-ईशितारम् , अवितथवस्तुवातविषयत्वेन तासां प्रयोक्तृत्वात् / अनेन च विशेषण-चतुष्टयेनाऽमी यथाक्रमं भगवतो मूलातिशयाञ्चत्वारः प्ररूपिताः। तद्यथा-अपायापगमातिशयः, ज्ञानातिशयः, पूजातिशयः, वागतिशयञ्चे-ति। एतेनैव च समस्तेन गणधरादेः स्वगुरुपर्यन्तस्य स्मृतिः कृतैव द्रष्टव्या; तस्याप्येकदेशेन तीर्थेशत्वात् , / निगदितातिशयचतुष्टधारत्वाच / इति परापरप्रकारेण द्विविधस्याप्युपकारिणः सूत्रकाराः सस्मरूः / अपकारिणस्तु तथाभूतस्येत्थमनेनैव श्लोकेन स्मृतिमकुर्वन् तीर्थस्य-प्रागृक्तस्य, तदाधेयस्याऽऽ गमस्य वाः ईम्-लक्ष्मी, महिमानं वाः श्यति तत्तदसद्भूतदूषणोद्धोषणैः स्वाभिप्रायेण तनूकरोति यःस तीर्थशः, तीर्थान्तरीयो बहिरङ्गापकारी, तम्। किं रूपम् ? शक्रः पूज्यो यागादौ हविनादिना यस्य स तथा, तम्: एतावता वेदानुसारिणो भट्टप्रभाकरकणभक्षाक्षपादकपिलाः सूचयाञ्चक्रिरे / पुनः किं भूतं तीर्थेशम् ? -गिरामीशंवाचस्पतिमः इति नास्तिकप्रतप्रवर्तयितुर्वृहस्पतेः सूचा। तथा गिराम् वाचम् ईम्-लक्ष्मी शोभां, श्यति यः तमः परमार्थतः पदार्थप्रतिपादनं हि वाचां शोभा, तां च तासामपोहमात्रगोचर-तामाचक्षाणस्तथागतस्तनूकरोत्येव; इति विशेषणावृत्त्या सुगतोपक्षेपः / पुनः कीदृशं तम् ? ज्ञातारमविश्ववस्तुनः-नोऽस्माकं श्वेतभिक्षणां सम्बन्धि, विश्ववस्तु समस्तजीवादितत्त्वं कर्मताऽऽपन्नम्, समानतन्त्रत्वाज्ज्ञातारम्; इति दिगम्बरावमर्शः / ज्ञातारमिति च तृन्नन्तम्, इति "तृनुदन्त०"इत्यादिना कर्मणि षष्ठीप्रतिषेधः / नन्वेकस्मिन्नेव वक्तरि स्वात्मानं निर्दिशति कथम् 'आनये' इत्येकवचनम्, 'नः' इति बहुवचनं च समगंसाताम् ? इति चेत् / नैतद् वचनीयम्, 'नः' इत्यत्रापि वक्त्रा स्वस्यैकत्वेनैव निर्देशात्; बहुवचनं त्वेकशेषवशात्। तथाहि ते चान्ये सर्वे श्वेतवाससः, अहं च प्रचिक्रसितशास्वसूत्रधारः, वयम्; तेषां नः, "त्यदादिः" इत्यनेनाऽस्मन्छब्दोऽवशिष्यते, बहुवचनंच भवति। ततोऽस्माकं श्वेतवासोदर्शनाश्रितानां सर्वेषां तत्त्वं यो जानाति,तंचस्मरामीत्युक्तं भवति / इत्थं चैकशेषशालिविशेषणं कुर्वाणैस्तच्छब्दोपदिष्टमार्गस्थाशेषश्वेताम्बरपारतत्त्र्यं स्वसरूाऽऽविश्वक्रे / पुनः कीदृक्ष तम् ? रागद्वेषविजेताऽरम्-इतम्-प्राप्तसम्बन्धम्, आरम्-सांसारिकानेकक्लेशस्वरूपशत्रुसमूहोयस्मिस्तीर्थेशेस तथा,तंच; कथमतादृशं तम् ? इत्याह-रागद्वेषविजारागद्वेषाभ्यां कृत्वा याऽसौ विक् श्रीमदर्हत्प्रतिपादितत्वात् पृथग्भावः, तया। भगवदर्हत्प्रतिपादितं तत्त्वमनुभवन्तोऽपि हि रागद्वेषकालुष्यकलङ्काक्रान्तस्वान्ततया परेऽपरथैव प्रलपन्तः संसारिकक्लेशशात्रवगोचरतां गच्छन्त्येवा अनेन चाशेषाणां शेषाणामपि सम्भवैतिह्यप्रमाणवादिचरकप्रमुखाणामाविष्करणम् / न खलु मोहमहाशैलूषस्यैको नर्तनप्रकारो यदशेषतीर्थकानां प्रत्येकं स्मृतिः कर्तुं शक्येता नन्वेवमेतान् प्रतिक्षेपाथमुपक्षितोऽस्य रागद्वेषकालुष्यवृद्धिः स्यात्, इति श्रेयोविशेषार्थमुपस्थितस्याऽश्रेयसि प्रवृत्तिरापन्ना; इतिशङ्का निरसितुं 'रागद्वेष-' इति विशेषणं श्लिष्टमजीघटन्-अरम्-अत्यर्थम्, रागद्वेषयोर्विजयनशीलः; तेषां स्मृतिमस्मि करोमि, न त्वन्यथा, इति तत्र भवदभिप्रायः; प्रमाणनयतत्त्वं खल्वत्र शुचिविचारचातुरीपूर्वमालोकनीयम्। नच रागद्वेषकषायितान्तःकरणैर्विरच्यमानो विचारश्चारुतामञ्चति / इत्यन्तरङ्गापकारिस्मरणम् / ननु तथाऽपि कथमेतैर्दिव्यदृग्भिरर्वाग्दृशऽस्य तत्त्वविचारः साधीयान् ? इत्यारेकामपाकर्तुं श्लेषेणैव व्यशीशिषन्-ज्ञातारं विश्ववस्तुनः / विमलकेवलालोकाऽऽलोकितलोकालोकश्रीमदर्हत्प्रतिपादितागमवशात् खल्वहमपि कामं विश्वस्तूनां ज्ञातैवेति / बृहवृत्तौ तु स्वकर्तृकत्वाद नामीषामपकारिणां निराचिकीर्पितत्वेन स्मरणं व्याख्यायि, न खलु महामीदृशमर्थमित्थं प्रकटयतामौचिती नातिवर्त्तते; फलानुमेयप्रारम्भत्वात् तेषाम् / सूचामात्रं तु सूत्रे कतिपयात्यन्तसहृदयहृदयसंवेद्यमविरुद्धमिति। रत्ना०१परि०। रागदोसभिभूय न० (रागद्वेषाभिभूत) रागश्च-प्रीतिलक्षणो द्वेषश्च तद्विपरीतलक्षणस्ताभ्यामभिभूत आत्मा येषाम्। रागद्वेषाभिभूतस्वरूपे, सूत्र०१श्रु०३१०३उ०।
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________________ रागदोसविस० ५४६-अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 राम रागदोसविसपरममंत पुं० (रागद्वेषविषपरममन्त्र) रागद्वेषौ विषमिवेति मीति। मन्त्र्याह-नायं योग्यः। को दोष? इति राज्ञोक्ते मन्त्र्याह-देव! रागद्वेषविषं तस्य परममन्त्रः तद्घातित्वादिति / रागद्वेषविनाशने, पं० अयमवशश्रोत्रेन्द्रियः, प्रत्यहं गीतप्रियः। राजा हसित्वाऽऽह-मन्त्रिन्! सू०१ सूत्र०। राज्ञांगीतप्रियत्वंगुणः अहो तव चतुरता मन्त्र्याह-देव ! अत्यासक्तत्वं रागदोसाणुगयास्त्री० (रागद्वेषानुगता) प्रीतिलक्षणो रागः, अग्रीतिलक्षणो दोषः। "जह अग्गीहलवो विहु, पसरंतो दहइ गामनगराई। इक्किक्कमिदियं द्वेषः, ताभ्यामनुगता सहिता। निष्कारणदर्परागद्वेषानुगतायां दर्पिका- पिहु, तह पसरंत समग्गगुणे" / / 1 // ततः एतस्य लघुभ्रातुः सम्प्रति प्रतिषेवणायाम्, नि० चू०१ उ०। जातस्य राजलक्षणलक्षितस्य यौवराज्यं दीयतामिति, मन्त्रिणि रागबंधण न० (रागबन्धन) रञ्जनं रज्यते वाऽनेन जीव इति रागः ।राग कथयत्यपि राज्ञा रामस्यैव दत्तम् / क्रमेण राजनि मृते, स एव राजा एवबन्धनरागबन्धनम्। बन्धनभेदे, आचू०४अ०॥ दुविहे बंधणे पण्णत्ते, जातः / कनीयान् भ्राता युवराजः / रामोऽहर्निशं गीतानि श्रृणोति, तंजहा–रागबंधणे, दोसबंधणे चेव। स०२ सम०। स्वयमपि गायति, करोत्यभिनवानि गीतानि, शिक्षयति डुम्यादीन्नित्यं रागमंडल न० (रागमण्डल) वसन्तादिरागसमूह, ग०३अधिक! गीतासक्तएवास्ते, नराज्यचिन्तांकरोति। अन्यदातरुणीडम्बीभिर्गीतरागरत्तन० (रागरक्त) अभिष्वङ्गलक्षणो रागः तेन रक्तः। तद्भावितमूर्ती, प्रसक्तस्तद्रूपमोहितोऽवगणय्य निजकुलादिमर्यादा तास्सेवते, आव० 4 अ०। विषयासक्ते, तं०। अनाचारी सततं तदासक्त एवास्ते। ततो मन्त्रिप्रभृतिभिर्विचयार्य तस्य रागविहि पुं० (रागविधि) रञ्जनं रागः कुसुम्भादिना वर्णान्तरापादनं लघुभ्राता महाबलो राज्ये स्थापितः रामो निर्घाटितो देशात् / विदेशे तद्विधयः। स्निग्धत्वादिषु रूक्षत्वादिषु च क्रियाभेदेषु, उत्त०१ अ०। भ्रान्त्वा मृतया हरिणो जातः / गीतश्रवणासक्तो व्याधेन हतो। जातो रागाइकिलेसवासिय न० (रागादिक्लेसवासित) रागादिक्लेशैः सर्वथा महाबलपुरोहितस्य पुत्रोऽपि गीतप्रियः अवशश्रवणेन्द्रियः / अन्यदा चित्तादव्यतिरिक्तैः संस्कृते, ध०१ अधि०। महाबलनृपेण रात्रौ डुम्बकुटुम्बे गायति पार्श्वस्थितपुराहितपुत्रो भणितःरागाइरहिय पुं०(रागादिरहित) वीतरागे, पं०व०१द्वार। यन्मम निद्रासमये एते गायनतः स्थाप्याः / तने सरसगीतासक्तेन न वारिताः / पश्चाद्रात्रौ राजा प्रबुद्धो रुष्टः, तैलं पक्त्वा तस्य कर्णयोः रागाइविणासणन० (रागादिविनाशन) रागद्वेषमोहापोहके, पञ्चा०१८ विव०। क्षिपति, स मृतः / राज्ञः पश्चात्तापो जातः, यत्स्वल्पेऽप्यपराधे मया गुरुर्दण्डः कृतः। इतश्च तत्रायातः केवली, राजा तं वन्दित्वा तस्य कथा रागाइविधुरया स्त्री० (रागादिविधुरता) अविषमत्वे, नि० चू०१६ उ०। पृच्छति। रामभवादारभ्य यथास्थितमाख्याता अग्रस्तस्य भूयान् संसार ** राच पुं० (राजन) "चूलिका-पैशाचिक तृतीय-तुर्ययोराद्य इति श्रुत्वा श्रवणेन्द्रियाविपाकं दारुणं दृष्ट्वा महाबलः प्रव्रजितः, द्वितीयौ" || 41 4 / 325 / / इति जकारस्थाने चकारादेशः / राजा शिवमाप, इति श्रवणेन्द्रियविषयमापके रामकथा !| ग०२ अधि०। राचा / नृपतौ, प्रा० 4 पाद। क्षत्रियपरिव्राजकभेदे, औ०। स्वनामख्यातेदशरथात्मजे, स०६० सम०। ** राजपध पुं० (राजपथ) "थो धः // 8 / 4 / 267 // इतिथस्य तत्कथा चैवम्धः शौरसेन्याम् / राजमार्ग, प्रा० 4 पाद। सीता जैनकाभिधानस्य मिथिलानगरीराजस्य दुहिता वैदेहीनाम्न्या** राडी स्त्री० (राटी) कलहे, स्था० 1 ठा०। संग्रामे, दे० ना०७ वर्ग स्तद्भार्यायाः देहजा भामण्डलस्य सहजातस्य भगिनी विद्याधरोपनीतं 4 गाथा। देवताधिष्ठितं धनुः स्वयंवरमण्डपे नानाखेचरनाकिनिकरसमक्षमयो** राम पुं० (राम) बलदेवे, आव० 1 अ० / पाइ० ना० / स०। ध्याभिधाननगरीनिवासिनो दशरथभिधानस्य नरनायकस्यसुतेन रामदेवेन ('दसारमंडल' शब्दे 4 भाग बलदेवा वासुदेवाश्च दर्शिताः) "अयले पद्मापरनाम्ना बलदेवेनलक्ष्मणाभिधानवासुदेवज्येष्ठभ्रात्रास्वप्रभावेणोपशाविजये भद्दे, सप्पभे असुदंसणे।आणंदेणंदनेपउमे, रामे आऽवि अपच्छिमे न्ताधिष्ठातृदेवतमारोपितगुरां विधाय प्राप्तसाधुवादेन महाबलने परिणीता, // १॥"आव०१ अ०। प्रव०। ततोदशरथराजेप्रविजिषौरामदेवाय राज्यदानार्थमभ्युत्थितेभरताभिधाने रामेण बलदेवे दुवालसवाससयाई सव्वाउयं पालित्ता देवत्तं गओ। च रामदेवस्य मात्रन्तसम्बन्धिनि भ्रातरि प्रव्रजितुकामे भरतमात्रा स०१२सम०। पूर्वप्रतिपन्नवरयाचनोपायेन राज्ये भरताय दा पितेबन्धुस्नेहाचाप्रतिपद्यमाने आ० म०। आ० चू०। नवमे बलदेवे, स०१० सम० / रेणुकायां याते राज्यं भरते पितृवचनसत्यतार्थं भरतस्य राज्यप्राप्त्यर्थं वनवासुपाश्रितेन जमदग्नेः, पुत्रे आ० क० 1 अ० / दर्श०। (यो हि कार्तवीर्य प्रति क्रुद्धः सलक्ष्मणेन रामेण सह वनवासमधि-ष्ठिता, ततश्च लक्ष्मणेन कौतुकेन त्रिःसतकृत्वा निः-क्षत्रियां प्रथिवीमकरोत्-तद्धृत्तं 'जमदग्मि' शब्दे तत्र दण्डकारण्ये सञ्चरता आकाशस्थं खङ्गरत्नमादाय कौतुकेनेव चतुर्थभागे 1400 पृष्ठे उदाहृतम्) स्वनामख्यातेराजपुत्रे, ग०। लिख्यते वंशलालिच्छेदे कृते छिन्ने च तन्मध्यवर्तिनि विद्यासाधनपरायणे तत्र रामकथा-"यथा ब्रह्मस्थलपुरे भुवनचन्द्रो राजा, रामः सुतः द्वारु- रावणभागिनेये खरदूषणचन्द्रनखासुते संबुक्काभिधाने विद्याधरकुमारे सतिकलाकुशलः, अन्यदा राज्ञा मन्त्री पृष्टः रामाय यौवराज्यपदं ददा- | दृष्ट्वा च तं पश्चात्तापमुपगतेन लक्ष्मणेनागत्य भ्रातुर्निवेदितेऽस्मिन् व्य
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________________ राम 547 -अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 राय तिकरे एतद्व्यतिकरदर्शनकुपितायां चन्द्रनखायां पुना रामलक्ष्म- | विजयपण्डित-शिष्यश्रीविजयविविधभुख्यानाम्। अभ्यर्थनाऽपि हेतुणयोर्दर्शनात् सञ्जातकामायां कृतकन्यारूपायां तत्प्रार्थनापरायां र्विज्ञेयोऽस्याः कृतौ विवृत्तेः।" कल्प०३ अधि०६ क्षण। ताभ्यामनिष्टायां च पुत्रमारणादिव्यतिकरे च तया शोकरोषाभ्यां | रामसयण-पुं० (रामशयन) स्वनामख्याते तीर्थे , श्रीरामशयने प्रद्योतखरदूषणस्य निवेदिते तेन च वैरनिर्यातनोद्यतेन सह लक्ष्मणेन कारी श्रीवर्द्धमानः। ती० 43 कल्प। योद्धमारब्धे ज्ञातभागिनेयमरणादिव्यतिकरण लङ्कानगरीत आकाशेन रामा- स्त्री० (रामा) श्रीअरिष्टनेमिना सह रमते गोबिन्दनितम्बिनीवत् गच्छता रावणेन दृष्टा,दृष्ट्वाचतांतेन कुसुमशायक-शरप्रसरविधुरितान्तः क्रीडयतीति / तं० / ईशानेन्द्रस्याग्रमहिष्याम् ,ज्ञा० 2 श्रु० 8 वर्ग 1 करणेन अगणितकुलमालिन्येन अपहसितविवेकरत्नेन विमुक्तधर्मसंज्ञेन अ०भ०। सुग्रीवराजभार्यायाम्, पुष्पदन्तनवम-नीर्थकरमातरि,स्था० अनाकलितानर्थपरम्परेण विमुक्तपरलोकचिन्तनेन जातसीतापहार 5 ठा०१उ०।तिका आव०। प्रव०। स०। स्त्रियाम् , "रामा" पाइ० बुद्धिना विद्यानुभावोपलब्धरामलक्ष्मणस्वरूपेण विज्ञाततत्सत्कसिंह ना०१२ गाथा। नादसङ्केतकरणेन लक्ष्मणसंग्रामस्थाने गत्वा मुक्त सिंहनादे चलिते रामायण-न०(रामायण) वाल्मीकिकृते दाशरथिरामचरितप्रति-बद्ध तदभिमुखे रामे एकाकिनी सती अपहृता,झिगिति नीता च लङ्कायां स्वनामख्याते महाकाव्ये,अनु०। सम्म०। विमुक्ता गृहोद्याने प्रार्थिता च दशकन्धरेणानुकूलप्रतिकूलवाग्भिर्वहुशो राय-पुं० (राजन) राजते इति राजा / नरपतौ,स्था० 5 ठा० 3 उ०। न च तमिष्टवती / रामेण च सुग्रीवभामण्डलहनुमदादिविद्याधरवृन्द दश०। ज्ञा०।०। प्रश्न०1 औ०। चक्रवर्त्यादौ, सूत्र०१श्रु०३ अ०२ सहायेन महारणविमई विधाय नानाविधानरेश्वरान्निहत्य दशवदनं च उ०। राजा-चक्रवर्ती बलदेवो वासुदेवो महामाण्डलिको वा / जी०३ विनिपात्य नीता स्वगृहमिति / प्रश्न० 4 आश्र० द्वार। प्रति०४ अधि० / राजा द्विविधो भवति आत्माभिषिक्तः,अपराभिषिक्तश्च। आत्मनैव-निजवलेन राज्येऽभिषिक्तः आत्माऽभिषिक्तः, परेणाभिरामकण्ह-पुं० (रामकृष्ण) कूणिकमहाराजभार्यायाः राम-कृष्णायाः षिक्तः पराभिषिक्तः / तत्राऽऽत्माभिषिक्तो भरतश्चक्रवर्ती तस्य पुत्र अपत्ये,नि०१श्रु०१वर्ग०१अ०। (तद्वक्तव्यता कालकुमारवक्तव्यतावद् आदित्ययशाः पराभिषिक्तः। व्य०५ उ०। भावनीया इति निरयावलिकाया अष्टमेऽध्ययने सूचितम्) राजलक्षणमाहरामगुत्त-पुं०(रामगुप्त) साकेतनगर स्थिते भद्रपुत्रे,अणु० स्था०। (सच उभतो जोणिविसुद्धो,राया दसभागमेत्तसंतुहो। द्वात्रिंशत् कन्याःपरिणीय वीरान्तिके प्रव्रज्यसंलेखनया मृत्वा सर्वार्थसिद्धे लोए वेदे समए,कयाऽऽगमो धम्मितो राया // 308 // उपपद्य महाविदेहे सेत्स्यतीति अनुत्तरोपपातिकस्य तृतीयेवर्गे पञ्चमाध्य यो राजा उभयोर्विशुद्धः-मातृपितृपक्षपरिशुद्धः,तथा प्रजाभ्यो यने सूचितम्।) स्वनामख्याते लौकिकराजर्षा, रामगुप्तश्च राजर्षिराहा दशभागमात्रग्रहणसन्तुष्टः,तथा लोके-लोकाचारे वेदे-समस्तदर्शनिनां रादिकं भुक्त्वैव भुञ्जान एव सिद्धि प्राप्तः। सूत्र० १श्रु०३ अ०४ उ०। सिद्धान्ते समये-नीतिशास्त्रे कृतागमः-कृतपरिज्ञानो धार्मिकोधर्मद्विगृद्धिदशानां दशमाध्ययनोक्ते स्वनामख्याते पुरुषे,स्था० 10 ठा० / श्रद्धावान् स राजा,शेषस्तु राजाऽऽभासः / रामचंद्रसूरि-पुं० (रामचन्द्रसूरि) कुमारपालप्रतिबोधकश्रीहेमाचार्य तथाशिष्ये, अनेन निर्भयभीमव्यायोगरघुविलासनाटकविहारशतकद्रव्याल पंचविहे कामगुणे,साहीणे मुंजए निरुवसगे। झारराघवाभ्युदयमहाकाव्ययादवाभ्युदयमहाकाव्यनलविलासमहा- वावारविप्पमुको,राया एयारिसो होइ॥३०॥ काव्यादिग्रन्थशतं निर्मम इति प्रबन्धशतककर्तृनामविरुदेन प्रसिद्धः / पञ्चविधान्-पञ्चप्रकारान् रूपसगन्धस्पर्शशब्दलक्षणान् कामगुणाजै० इ०॥ न्स्वाधीनान-स्वभुजोपार्जितान् निरुद्विग्नः-प्रत्यन्तराजकृतमनोदुःखारामण-न० (रामण) मञ्चाक्रीडने,ग० 3 अधि०। सिकाया अभावात् ,व्यापारविप्रमुक्तोदेशपरिपन्थ्यादिव्यापारविप्रमुक्तो रामदेव-पुं० (रामदेव) कोकापार्श्वनाथप्रतिमोद्धारके सौवर्णिकनाय- युवराजादीनां तद्व्यापाराघ्यारोपणात् यः स एतादृशो राजा भवति / कवंशोत्पन्ने विक्रमसंवत्सराणां 1262 समये गुर्जरदेशीये स्वनामख्याते च्य०१ उ० / राजवर्णको लिख्यते- 'महयाहिमवंतमहंतमलयमंदरपुरुष,ती०४६ कल्प। महिंदसारे ' महाहिमवानिव महान् शेषराजपर्वतापेक्षया,तथा मलयःरामय-पुं० (रामक)म्लेच्छदेशमेदे,तद्वास्तव्ये जनेच। प्रव० 274 द्वार। पर्वतविशेषो मन्दरो-मेरुः महेद्रः-पर्वतविशेषः शक्रो वा,तद्वत्सारः-- रामरक्खियास्त्री० (रामरक्षिता) ईशानेन्द्रस्याग्रमहिष्याम, भ० 10 10 प्रधानो यः स तथा। अचन्तविसुद्धदीहरायकुलवंससुप्पसूए" अत्यन्त५ उ०। ती०। (अस्याः पूर्वोत्तरभवकथा 'अग्ग-महिसी' शब्दे प्रथमभागे विशुद्धो-निर्दोषो दीर्घः-चिरकालीनो यो राज्ञां कुलरूपो वंशस्तत्र सुष्ठ 166 पृष्ठे उक्ता) प्रसूतो य स तथा। "णिरंतरं रायलक्खणविराइयंगमंगे' राजलक्षणैः - रामविजय-पुं०(रामविजय) कथासूत्रस्य कल्पसुबोधिकानामवृत्तेः स्वस्तिकादिभिः विराजितमङ्गमङ्ग-गात्रं यस्य स तथा, मकारस्तु कारकस्य विनयविजयस्य वृत्तिकरणाभ्यर्थकश्रीविजयगुरौ, "श्रीराम- 1 प्राकृतशैलीप्रभवः। 'मुइए' त्ति मुदितः-प्रमोदवान्, अथवा-निर्दोषमातृको,
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________________ राय 548 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 राय यदाह- 'मुइओ जो होइ जोणिसुद्धो' त्ति। मुद्धाहिसित्ते' त्ति पितृपितामहादिभिः राजभिर्वा यो राज्येऽभिषिक्तः / 'माउपिउ-सुजाए' त्ति पित्रोविनीततया सत्पुत्रः। 'दयपत्ते' त्ति प्राप्तकरुणा-गुणः। 'सीमंकरे' त्ति सीमाकारी,मर्यादाकारीत्यर्थः। 'सीमंधरे' त्ति कृतमर्यादापालकः / एवं 'खेमंकरे खेमंधरे' त्ति क्षेमं पुनरनु-पद्रवता। 'मणुस्सिदे त्ति मनुजेषु परमेश्वरत्वात्। 'जणवयपिय' त्तिजनपदानां पितेव हितत्वात्। 'जणवयपाले ति तद्रक्षकत्वात्। 'जणवयपुरोहिए' त्ति जनपदस्य शान्तिकरत्वात्। ' 'सेउकरे'त्ति मार्गदर्शक इत्यर्थः। 'केउकरे' त्ति अद्भुतकार्यकारित्वेन चिह्नकारी। 'णरपवरे' त्ति नराः प्रवरा अस्येति कृत्वा 'पुरिसवरे' त्ति पुरुषाणां मध्ये प्रधानत्वात्। 'पुरिससीहे' त्ति क्रूरत्वात्। 'पुरिसवग्धे' त्ति रोषे सति रौद्ररूपत्वात्। 'पुरिससीविसे' त्ति पुरुषश्चासावाशीविषश्च पुरुषाशीविषः, आशीविषश्च सर्पः, कोपसाफल्यकरणसामर्थ्यात् / 'पुरिसपुंडरीए' त्ति सुखार्थिनां सेव्यत्वात् , पुण्डरीकं च सितपद्यम्। 'पुरिसवरगंधहत्थी'ति प्रतिराजगजभञ्जकत्वात्। 'अड्डे' त्ति समृद्धः 'दित्ते' त्ति दृप्तो दर्पवान् 'वित्ते' त्ति प्रसिद्धः / 'विच्छिण्णविउलभवणसयणासण-जाणवाहणाइण्णे' त्ति विस्तीर्णानिविस्तारवन्ति विपुलानिप्रभूतानि भवनशयनासनानि प्रतीतानि यस्य स तथा, यानवाह-नानिरथाश्वादीनि आकीर्णानिगुणाकीर्णानियस्य स तथा, ततः कर्मधारयः, अथवा-विस्तीर्णविपुलभवनानि शयनासन-यानवाहनाकीर्णानि यस्य सतथा। 'बहुधणबहुजायरूवरयते' बहु-प्रभूतं धनं-गणिमादिकं बहुनी च जातरूपरजते-सुवर्णरौप्ये यस्य स तथा। 'आओगपओगसंपउत्ते' त्ति आयोगस्य-अर्थलाभस्य प्रयोगाः-उपायाः सम्प्रयक्ताः-व्यापारिता येन; तेषु वा सम्प्रयुक्तोव्यापृतो यः स तथा 'विच्छड्डियपउरभत्तपाणे'त्ति विच्छर्दितेत्यक्ते बहुजनभोजनदानेनाविशिष्टोच्छिष्टसम्भवात् सञ्जातविच्छुदैर्वा नानाविधे प्रचुरे भक्तपाने भोजनपानीये यस्य स तथा / 'बहुदासीदासगोमहिसगवेलगप्पभूए' त्ति बहवो दासी-दासा गोमहिषगवेलकाश्च प्रभूता यस्य स तथा, गवेलका-उरभ्राः 'पडिपुण्णजंतकोसकोट्ठागाराऽऽउधागारे' प्रतिपूर्णानि यन्त्राणि च-पाषाणक्षेपयन्त्रादीनि कोशोभाण्डागारः कोष्ठागारश्चधान्यगृहम् आयुधागारश्य-प्रहरणशाला यस्य स तथा / 'बलवं' ति प्रभूतसैन्यः 'दुब्बलपञ्चमित्ते' त्ति दुर्बलाः प्रत्यमित्राः-प्रातिवेश्मिकनृपा यस्य स तथा'ओहयकंटयं ति उपहताविनाशिताः कण्टकाः-प्रतिस्पर्द्धिगोत्रजा यत्र राज्ये तत्तथा, क्रियाया वा विशेषणमेतत् , एवमन्यान्यपि, नवरं निहताः-कृतसमृद्ध्यपहाराः, मलिता:-कृतमानभङ्गाः, उद्धृता-देशान्निर्वासिताः, अतएवाविद्यमाना इति। तथा शत्रवः-अगोत्रजा निर्जिताः-स्वसौन्दर्यातिशयेन परिभूताः, पराजितास्तु तद्विधराज्योपार्जने कृतसम्भावनाभङ्गाः, ववगयदुब्भिक्खमारिभयविप्पमुक्त मिति / व्यक्तम् 'पसंतडिंबडमरं' ति डिम्बा:विघ्नाः डमराणि-राजकुमारादिकृतवैराज्यादीनि, 'पसंताहियडमरं ति क्वचित्पाठः, तत्राहितडमरं-शत्रुकृतडमरोऽधिकडमरो वा। 'रज्जं पसासेमाणे त्ति प्रशासयन्-पालयन् पसाहेमाणे 'त्ति क्वचित्पाठः, तत्राऽप्ययमेवार्थः, विहरति-वर्तते / अथ राज्ञीवर्णकं लिख्यते-'अहीण पडिपुण्णपंचिंदियसरीरा' कचित्त-'अहीणपुण्णपंचिंदियसरीरा' अहीनानि-अन्यूनानि लक्षणतः,पूर्णानि-स्वरूपतः, पुण्यानि वापवित्राणि पञ्चापीन्द्रियाणि यत्र तत्तथाविधं शरीरं यस्याः सा तथा 'लक्खणवंजणगुणोववेया' लक्षणानिस्वस्तिकचक्रादीनि व्यञ्जनानिमषीतिलकादीनि तेषां यो गुणः-प्रशस्तत्वं तेनोपपेतायुक्ता या सा तथा। 'माणुम्माणप्पमाणपडिपुण्ण-सुजायसव्वंगसुंदरंगी' तत्र मानम् - जलद्रोणप्रमाणता,कथम् ?- जलस्यातिभूते कुण्डे प्रमातव्यमानुषे निवेशिते यजलं निस्सरति तद्यदि द्रोणमानं स्यात्तदा तन्मानुषं मानप्राप्तमुच्यते तथा उन्मा-नम् -अर्द्धभारप्रमाणता,कथम् ?तुलारोपितं मानुषं यद्यर्द्धभारं तुलति तदा तदुन्मानप्राप्तमित्युच्यते, प्रमाणं तुस्वाङ्गुलेनाष्टोत्तरशतोच्छ्रयता, ततश्च मानोन्मानप्रमाणैः प्रतिपूर्णानिअन्यू-नानि सुजातानि-सुनिष्पन्नानि सर्वाण्यङ्गानि-शिरःप्रभृतीनि यत्र तत्तथाविधं सुन्दरमङ्ग-शरीरं यस्याः सा तथा / 'ससिसोमाकारकतपियदसणा' शशिवत्सौम्याकारं-कान्तंच-कमनीयमत एव च प्रियंवल्लभं द्रष्टणां दर्शनरूपं यस्याः सा तथा / अत एव 'सुरुव' क्ति शोभनरूपा। करयलपरिमिअपसत्थतिवलिय-वलियमज्झा' करतलपरिमितो-मुष्टिग्राह्यः प्रशस्तः-शुभस्त्रिवलिको-वलित्रययुक्तो वलितःसञ्जातवलिमध्यो-मध्यभागो यस्याः सा तथा, / 'कुंडलुल्लिहियगंडलेहा' कुण्डलाभ्यामुल्लिखिता गण्डलेखाः-कपोलपत्रवल्ल्यो यस्याः सा तथा, 'कुण्डलोल्लिखितपीनगण्डलेखेति' पाठान्तरं,व्यक्त च / 'य..इरयणियरविमलपडिपुण्णसोमवयणा' कौमुदी-चन्द्रिका कार्तिकी वातत्प्रधानस्तस्यां वा यो रजनीकर:-चन्द्रस्तद्वद्विमलं प्रतिपूर्ण सौम्यं च वदनं यस्याः सा तथा / 'सिंगारागारचारुवेसा' शृङ्गारस्य-रसविशेषस्यागारमिवस्थानमिव चारु-शोभनो वेषोनेपथ्यं यस्याः सा तथा / अथवा-शृङ्गारो-मण्डनभूषणाटोपस्तत्प्रधानः आकारः-संस्थानं चारुश्च वेषो यस्याः सा तथा। 'संगयगयहसियभणियविहियविलाससललियसंलावणिउण-जुत्तोवयारकुसला' सङ्गता-उचिता गतहसितभणितविहित-विलासा यस्याः सा तथा,तत्र विहितं-चेष्टितं विलासो-नेत्रचेष्टा, तथा सह ललितेन-प्रसन्नतया ये संलापाः-परस्परभाषणलक्षणास्तेषु निपुणा या सा तथा।तथा युक्ताःसङ्गतायेउपचारालोकव्यवहारास्तेषु कुशला यासातथा,ततः पदत्रयस्य कर्मधारयः / क्वचिदिदमन्यथा दृश्यते- 'सुंदरथणजघणवयणकरचरणनयणलावण्णविलासकलिया' व्यक्तमेव,नवरं जघनं-पूर्वकटीभागःलावण्यम्- आकारस्य स्पृहणीयता विलासः-स्त्रीणां चेष्टा-विशेषः, आह च-"स्थानासनगमनानां,हस्तभूने-त्रकर्मणां चैव / उत्पद्यते विशेषो,यः श्लिष्टः स विलासः स्यात्॥१॥" इति।तथा। औ०। अणुरत्ता अविरत्ता इहे सद्दफरिसर-सरूवगंधे पंचविहए माणुस्सए कामभोए पञ्चणुब्भवमाणी विहरति,' व्यक्तमेव,नवरम् , अनुरक्ता-अविरक्ता अनुरज्य न विप्रियेऽपि विरक्ततां गतेत्यर्थः / / 7 / / औ०। (राजादेरात्मीकरणम् अर्ची करणं च स्वस्वस्थाने व्याख्याते) माण्डलिके, भ०६ श० 33 उ० / कल्प।
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________________ राय 546 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 रायकहा ___ मेघदृष्टान्तेन राजवर्णनं भावयतिचत्तारि मेहा पण्णत्ता,तं जहा-देसवासीणाममेगे णो सव्ववासी 1,13, एवामेव चत्तारि रायाणो पण्णत्ता,तं जहा-देसाधिवती णाममेगे णो सव्वाधिवती,१५ / / (सू 346) विवक्षितभरतादिक्षेत्रस्य प्रावृडादिकालस्य वा देशे आत्मनो वा देशेन वर्षतीति देशवर्षी 1, यस्तु तयोः सर्वयोः सर्वात्मना वा वर्षति स सर्ववर्षी,अन्यस्तु क्षेत्रतो देशेकालतः सर्वत्रात्मनो वा सर्वतः 2, अथवाकालतो दशे शेवतः सर्वत्र 3, आत्मनो वा सर्वतः 4, अथवा आत्मनो देशेन क्षेत्रतः५, कालतोवा सर्वत्र 6, अथवा क्षेत्रकालतो देशेन आत्मनः सर्वतः 7, अथवा-क्षेत्रतो देशे,आत्मनो देशेन कालतः सर्वत्र 6, अथवाकालतो देशे आत्मनो देशेन क्षेत्रतोनसर्वत्र 8, इत्येवं नवभिर्विकल्पैर्वर्षति स देशवर्षी सर्ववर्षी चेति,चतुर्थः सुज्ञात इति 13, राजा तु यो विवक्षितक्षेत्रस्य मेघवदेश एव योगक्षेमकारितया प्रभवतिस देशाधिपतिर्न सर्वाधिपतिः स चपल्लीपत्यादिः, यस्तुनपल्ल्यादौ देशेऽन्यत्र तु सर्वत्र प्रभवति स सर्वाधिपतिर्न देशाधिपतिः। यस्तूभयत्र स उभयाधिपतिः, अथवा-देशाधिपतिर्भूत्वा सर्वाधिपतिर्यो भवति वासुदेवादिवत् स देशाधिपतिश्च सर्वाधि-पतिश्चेति, चतुर्थो राज्यभ्रष्ट इति 14 // स्था० 4 ठा०४ उ०। लक्ष्म्या देदीप्यमाने,प्रश्न० 4 आश्र० द्वार।पञ्चाशीतितमे महा-ग्रहे,सू० प्र०२० पाहु०। चं० प्र०। कल्प०। रायंएय-न० (देशी) घेतसीतरौ, "रायंछुयं च वेडिसं" पाइ० ना० 258 गाथा। रायंत-पुं० (राजमान) देदीप्यमाने,कल्प०१ अधि० 3 क्षण। रायंतेउर-न० (राजान्तःपुर) राजमहिषीगृहे,स्था०५ ठा०२ उ०। रा०। रायंबू-(देशी०)। वेतसद्रुमे; शरभे च / दे० ना०७ वर्ग 14 गाथा। रायंस-पुं० [राजा(श)स] राजयक्ष्मणि,आचा०१ श्रु०६ अ०१उ०। रायंसि-त्रि० [राजां(शि)सिन्] राजांसः-राजयक्ष्मा सोऽस्यास्तीति राजांसी। क्षयिणि,आचा० 1 श्रु०६ अ०१ उ०। रायककुह-पुं०,न० ( राजककुद) राजचिह्न,प्रव०१ द्वार।दशा०। औ० ! दर्श० स्था०। अधुना खड्गादिरूपं राज्ञां तदेवाऽऽहपंच रायककुहा पण्णत्ता। तं जहा-खम्गं छत्तं उप्फे सं उपाणहाओ बालवीअणी। (सू० 405) 'पंच रायककुदा' इत्यादि व्युक्तम् , नवरं राज्ञा-नृपतीनां ककुदानिचिह्नानि राजककुदानि, 'उप्फेसि' त्ति शिरोवेष्टनं शेखरक इत्यर्थः, 'उपाहणाउ' ति उपानहौ,बालव्यजनी चामरमित्यर्थः, श्रूयते च "अवणेइ पंच ककुहाणि,जाणि रायाण चिधभूयाणि / खग्गं छत्तो* वाहण,मउडं तह चामराओ य॥१॥ इति। (खङ्ग छत्रम् उपानहौ,मुकुट तथा चामराणि। पञ्चापनयति यानि, राज्ञश्चिह्नभूतानि॥१॥) स्था० 5 ठा०१3०1 रायकहा-स्त्री० (राजकथा) राजसम्बन्धिन्यां विकथायाम् , स्था०। रायकहा चउविहा पण्णत्ता,तं जहा-रनो अतिताणकहा रनो निज्जाणकहारण्णो बलवाहणकहा रनो कोसकोट्ठागार-कहा। (सू०२८२) तथा अतियानं नागरादौ प्रवेशस्तत्कथा अतियानकथा, यथा"सियसिंधुरखंधगओ,सियचमरो सेयछत्तछन्नणहो / जण-णयणकिरणसेओ,एसो पविसइ पुरे राया।१।" इति,एवं सर्वत्र, नवरं निर्याणंनिर्गमः; तत्कथा यथा-"वजंताउज्जममंदवंदिसबं मिलंतसामंतं / संखुद्धसेन्नमुद्धयचिंधंनयरा निवो नियई॥१॥"बलं-हस्त्यादि वाहनंवेगसरादि,तत्कथा,यथा-"हेसंतहयंगजंतमयगलंधणघणंतरहलक्खं / कस्सऽन्नस्स विसेन्नं, णिन्ना-सियसत्तुसिन्नं भो!॥१॥" कोशो-भाण्डागारं कोष्ठागारधान्यागारमिति, तत्कथा, यथा-"पुरिसपरंपरपत्तेण, भरियविस्संभरेण कोसेणं। णिज्जियवेसमणेणं, तेण समोको निवो अन्नो? // 1 // " इति / इह चैते दोषाः-"चारिय चोरा 1 भिमरे, हिय 1 मारिय 2 संककाउकामा वा / भुत्ताभुत्तोहाणे, करेज वा आससपओगं॥ 1 // " स्था० 4 ठा०२ उ०।"राजाऽयं रिपुवारदार-णसहः क्षेमंकरश्चौरहा,युद्धं भीममभूत्तयोः प्रतिकृतं साध्वस्थतेनाधुना। दुष्टोऽयं म्रियतां करोतुसुचिरं राज्यं ममाप्यायुषा, भूयो बन्धनिबन्धनं बुधजनै राज्ञां कथा हीयताम् / 36 / " ध० 20 1 अधि० 13 गुण। आव०। नि० चू०। राज्ञो कहा राजकहा सा चउव्विहाअझ्याणं णिजाणं, बलवाहाकोसमेव सट्ठाणं। एता कहा कहते, चउ जमला कालगा चउरो // 128 // बलवाहणं ततिओ भेओ कोसमेव कोट्ठागारं चउत्थो भेओ केविएयं एवं पढति कोसमेव सट्ठाणं, तत्थ बलवाहणकोसमेव सव्वं एक्कं संठाणमिति चउत्थं,सेसंगाहाएकंठं। पुरिमद्धवक्खाणं इमअन अतियाति जिंती, पंतो वा सोभए एवं / बल कोसे य पमाणं, संठाणं वण्णनेवत्थं / / 126 // अज्ज इति अज्ज दिणं अतिजाति पविसतिणीति-णिग्गच्छति जातस्स रण्णोणिन्ताणितस्स विभूती तंदट्ठणं अन्नेसिंपुरतो सिलाघयति। अहवासो राया धवलतुरगादिरूढो कयसेहरो विलेवणोवलित्तगत्तो पुरओ पउंजमाणजयसदो अणेगगयतुरगरह-कयपरिवारो णितो अयंतो वा एवं सोभति। बलं-सारीरं,सेवणाल वा। वाहणं एत्तियं तेसु एत्तियं पमाणं एवं कह करेति, कोसो-जहिं रयणादियं दव्वं, कोट्ठागारो-जत्थ सालिमाइधण्णं, तम्मि वा एत्तियं पमाणं / जे पुण सट्ठाणं पदंति तस्सिमं वक्खाणंसट्ठाणं वण्णणेवत्थं सट्ठाणं रूवं वण्णो सुद्धसामादिणेवत्थं परिहरणं। रायकहादोसदरिसणत्थं भण्णतिचारितचोराऽहिमरा-हित-मारितसंककाउकामा वा। हाएकठा
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________________ रायकहा ५५०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 रायपसेणीय उक्ता) भुत्तामुत्तोहाणं, करिण वा आससपओगं / / 130 // प्रवृत्तिः, 'पुढवी जीवाइ य अजीवाइ य नगरं रायगिहं ति पवुधई' त्ति साहू णिलयट्टिता रायकहं कहेमाणा अत्थंति। तेय सुता रायपुरिसेहि, जीवाजीवस्वभावं राजगृहमिति प्रतीतं, ततश्च विवक्षिता पृथिवी सचेतताण य रायपुरिसाण एवमुवट्ठियं चित्तस्स जइ परमत्थेणिमे साहूतो किमे नाचेतनत्वेन जावाश्चाजीवाश्चेति राजगृहमिति प्रोच्यत इति / भ०५ एएसिं रायकहाए, णूणं एते चारिया-भंडिया चोरा वा वेसपरिच्छण्णा | श०६ उ० अहिमराणाम दद्दरचोरा,अस्स-रसणं वाहियं केणइ रण्णो वा सयणो रायग्गपय-पुं० (राजाग्रपद) स्वनामख्याते तीर्थविशेषे,प्रति०। केणइ अदिट्टण अरिणा मारितो एतेसु संकिज्जति। अहवा-चोरिया-चोरेसु रायग्गल-पुं० (राजार्गल) षष्ठाशीतितमे महाग्रहे, स्था० / “दो रायसंका अहिमरत्तं अस्स-हरणं वा मारणं वा काउकामा, वा-विगप्पदरि- म्गला"।स्था०२ ठा० 3 उ०। सणे,अहवा-राय-कहाए रायदिक्खि यस्स अणुसरणं भुत्तभोगिणो रायजक्ख-पुं०(राजयक्ष्मन्) रोगविशेषे, आचा०१ श्रु०२ अ०१उ०। सइकरणं इतरेसुकोउयं पुनस्सरणकोउएणं ओहावर्ण करेज,कारिज वा रायणिय-त्रि०(रातिक) रत्नाधिके, व्य०२ उ० स्था०। ज्ञानादिभावआससप-ओगं। आससपओगोनाम-निदानकरणं,रायकह त्ति दारंगयं ! रत्नाभ्युच्छिते, दश०६ अ०३उ० रत्नाधिकस्तुपर्यायज्येष्ठः।यद्वानि० चू०१ उ01 औ० | ग०। दर्श०। राजकथा यथा-शूरो ऽस्मदीयो ___ "रायणिओनाम-जो नाणदंसणचरणसाहणेसु सु पयओ"त्ति। ध० राजा सधनाश्चमाः गजपतिौडः अश्वपतिस्तुरुष्क इत्यादि। ध०२ 2 अघि०। कल्प०। आ० चू०। चिरदीक्षितादिषु, दश०८ अ०। अधि०। स०। आ० चूला रायणियत्तवाद-पुं०(रात्निकत्ववाद) रत्नाधिकोऽयमिति प्रवादे, व्य० रायकुल-न० (राजकुल) 'राउला' इति ख्यातेराजवंशे, अनु० आ०म०। 4 उ01 रायखुजय-पुं० (राजक्षुल्लक) राजबालके, बृ०६ उ०।(एकस्य राज रायणि(णी)यपरिहासी-पुं० (राजनीतिपरिभाषिन) अचार्यादिषु परिक्षुल्लकस्य क्षिप्तचित्तस्य कथा 'खित्तचित्त' शब्दे तृतीयभागे 741 पृष्ठे भवकारिणि, स०२० सम०।"राइणियपरिभासी राइणिओ-आयरिओ अण्णो वा जो महल्लो जाइसुयपरियायादीहिं तस्स परिभासी परिभवरायगई-(देशी०)। जलौकसि,दे० ना०७ वर्ग 5 गाथा। कारी असुद्धचित्तत्तणओ अप्पाणं परेय असमाहीए जोजयति।" आव० 4 अ० / दश०। रायगिह-न० (राजगृह) मगधेषुजनपदेषु वैभारगिर्युपत्यकायां प्रधाननगरे, रायणीइ-स्त्री० (राजनीति) राज्ञांनीतिः। राजज्ञेये सामाधुपाये, तत्प्रतिप्रज्ञा०१पद। सूत्र०। प्रव०1 आव०। आ० म० भ० / स्था०।अणु० / | पादके शास्त्रे च। ज्ञा० 1 श्रु०१ अ०। अन्त०। आ०चू०। (राजगृहोत्पत्तिः 'सेणिय' शब्दे वक्ष्यते)(एतत्कल्पः रायदसण-न० (राजदर्शन) राज्ञो नृपतेर्दर्शनम्। नृपतिमीलके, पश्चा०६ 'वेभार' शब्दे वक्ष्यते) विव०। इदं किलार्थजातं गौतमो राजगृहे प्रायः पृष्टवान्बहुशो रायदुट्ठ-न० (राजद्विष्ट) द्वेषणं द्विष्टं राज्ञो द्विष्ट राजद्विष्टम्। राज-द्वेष,व्य० भग- वतस्तत्र विहारादिति राजगृहदिस्वरूप 1301 आव० / (कल्पिकायां प्रतिसेवनायां यान्यपवादपदानि निर्णयपरसूत्रप्रपञ्चं नवमोद्देशकमाह अशिवादीनि तेष्वन्यतमं राजद्विष्टम् / तत्र किं कथं कल्पते तदुक्तं तेणं कालेणं तेणं समएणं० जाव एवं वयासी-किमिदं भंते ! 'मूलगुणपडिसेवणा' शब्दे पञ्चमभागे 367 पृष्ठे) (अनवस्थाप्याhण नगरं रायगिहं ति पवुबह ?,किं पुढवीनगरं रायगिहं ति राजप्रशमनार्थं यथा गन्तव्यं,तथा राजप्रश-मद्विष्ट विहरतां यथा रात्रौ पवुचइ ? आउनगरं रायगिहं ति पवुचइ ? ०जाव वणस्सइ ? भोजनं कल्पते तथा 'राइभोयण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 527 पृष्ठे उक्तम् ) जहा एयणुद्देसए पंचिंदियतिरिक्खजो णियाणं वत्तव्वया तहा रायधम्म-पुं० (राजधर्म) दुष्ट नरनिग्रहपरिपालनादिरूपे लौकिकधर्मभाणियव्वं० जाव सचित्ताचित्तमीसयाई दवाई नगरं रायगिहं भेदे, दश०१०। आखेटकेन विनोदक्रियायाम् , सूत्र०१ श्रु०५ अ० ति पवुच्चइ ? गोयमा ! पुढवी वि नगरं रायगिहं ति पदुबइ० १उ० जाव सचित्ताचित्तमीसियाई दवाई नगरं रायगिहं ति पवुचइ। रायपध-पुं० (राजपथ)"थोधः शौरसेन्याम्"||२६७।। इति से केणऽटेणं ? गोयमा ! पुढवी जीवाति य अजीवाति य नगरं थस्य धः। राजपथो / राजपधो / प्रा० / राजगमनयोग्यमार्ग, स्था०५ रायगिहंति पवुचई जाव सचित्ताचित्तमीसियाइंदव्वाइंजीवाति ठा०१ उ०। औ०। य अजीवाति य नगरं रायगिह ति पवुचति / से तेणऽटेणं तं रायपसेणीय-न० (राजप्रश्नीय) राज्ञः-प्रदेशिनाम्नः प्रश्नानि राजचेव / (सू० 223) प्रश्नानि / तत्प्रतिपादके सूत्रकृताङ्गस्योपाने, रा०। 'तेणमि' त्यादि, 'जहा एयणुद्देसए ति एजनोद्देशकोऽस्यैवपञ्चमशतस्य "प्रणमत वीरजिनेश्वर-चरणयुगं परमपाटलच्छायम्। सप्तमः, तत्र पञ्चेन्द्रियतिर्यग्वक्तव्यता'टङ्का कूडासेला सिहरी' त्यादिका अधरीकृतनतवासव-मुकुटस्थितरत्नरुचिचक्रम्॥१॥ या उक्ता सा इह भणितव्येति / अत्रोत्तरम्- 'पुढवी वि नगरं' इत्यादि, राजप्रश्नीयमहं,विवृणोमि यथाक्रमं गुरुनियोगात्। पृथिव्यादिसमुदायो राजगृहं, न पृथि-व्यादिसमुदायादृते राजगृहशब्द- तत्र च शक्तिमशक्तिं, गुरवो जानन्ति मे काञ्चित्॥२॥
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________________ रायपसेणीय 551 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 रायपिंड अथ कस्मादिदमुपाङ्गं राजप्रश्नीयाभिधानमिति? उच्यते- इह प्रदेशो नाम राजा भगवतः के शिकुमारश्रमणस्य समीपे यान् जीवविषयान् प्रश्नानकार्षीत्, यानि च तस्मै केशिकुमारश्रमणो गणभृत् व्याकरणानि व्याकृतवान्, यच्चव्याकरणसम्यक्परिणातभावतो बोधिमासाद्य मरणान्तः-शुभानुशययोगतः प्रथमं सौधर्मिनाम नाकलोकविमानमाधिपत्येनाध्यतिष्ठत् / यथा च विमानाधिपत्यप्राप्त्यनन्तरं सम्यगवधिज्ञानाभोगतः श्रीमद्वर्द्धमानस्यामिनं भगवन्तमालोक्य भक्त्यतिशयपरीतचेताः सर्वस्व-सामग्रीसमेत इहावतीर्य भगवतः द्वात्रिंशद्विधेन नाट्यमनरी-नृत्यत् नर्त्तित्वाच यथायुक्तं दिवि सुखमनुभूय ततश्च्युत्वा यत्र समागत्य यथा मुक्तिपदमवाप्स्यति तदेतत्सर्वमस्मिन्नुपाङ्गमभिधेयं परं सकालवक्तव्यतामूलम्। राजप्रश्न इति राजप्रश्नेषु भवं राजप्रश्नीयम् , अथ कस्याङ्गस्येदमुपाङ्गम् ? उच्यते-सूत्र-कृताङ्गस्याकथं तदुपाङ्गतेति चेत् ? सूत्रकृते ह्यङ्गम् , अशीत्यधिक शतं क्रियावादिना, चतुरसीतिरक्रियावादिनाम् , सप्तषष्टिर-ज्ञातकानां, द्वात्रिंशत् वैनयिकानां, सर्वसंख्यया त्रीणि त्रिषष्ट्य-धिकानि पाषण्डिकशतानि प्रतिक्षिप्य च समयं स्थाप्यते। उक्तं च -नन्द्यध्ययने "सूयगडेणं असीयसई किरियावाईणं, चउरासी अकिरियावाइणं, सत्तसट्ठी अन्नाणियवाईणं वत्तीसा वेणइयवाईणं / तिण्हं तिसट्ठीणं पासंडियसयाणं वूहं कित्ता ससमये वाविज्जइ त्ति' प्रदेशी च राजा पूर्वमक्रियावादिमतभावितमना आसीत्, अक्रियावादिमतमेव चालम्ब्य जीवविषयान् प्रश्नानकरोत्, केशिकुमारश्रमणश्च गणधारी सूत्रकृताङ्गसूचितम-क्रियावादिमतप्रतिक्षेपमुपजीव्यव्याकरणानि व्याकार्षीत्। ततो यान्येव सूत्रकृताङ्गसूचितानि केशिकुमारश्रमणेन व्याकरणानि व्याकृतानितान्येवाऽत्र सविस्तरमुक्तानीति सूत्रकृताङ्गगतविशेषप्रकटनादिदमुपाङ्गं सूत्रकृताङ्गस्येति / एतद्वक्तव्यता च भगवता वर्द्धमानस्वामिना गौतमाय साक्षादभिहिता। रा०। रायपिंड-पुं० (राजपिंड) राज्ञश्चक्रवर्त्तिवासुदेवादेः पिण्डो राजपिण्डः। नृपाहारे,स्था० 6 ठा०।दशा०। सेनापतिपुरोहित-श्रेष्ठ्यमात्यसार्थवाहलक्षणैः पञ्चभिः सह राज्यं पालयन्मूर्धाभिषिक्तो यो राजा; तस्य अशनादिचतुष्कं-वस्वं, पात्रं, कम्बलं, रजोहरणं चेत्यष्टविधे पिण्डे, कल्प०१ अधि०१क्षण। बृ०। राजपिण्डद्वारमाहकेरिसगो त्ति व राया,भेदा पिंडस्स के व से दोसा। केरिसमम्मि व कजे, कप्पति काए व जयणाए। 304 // कीदृशोऽसौ राजा यस्य पिण्डः परिहियते इति। के वा तस्य राजपिण्डस्य भेदाः, के वा(से) तस्य ग्रहणे दोषाः। कीदृशे वा कार्ये राजपिण्डो गृहीतुं कल्पते, कया वा यतनया कल्पते। एतानिद्वारानि चिन्तनीयानि। तत्र प्रथमद्वारे निर्वचनं तावदाहमुइते मुद्धमिसित्ते,मुइतो जो होइ जोणिसुद्धो उ। अमिसित्तो व परेहिं, सयं व भरहो जहा राया / / 305 / / राजा चतुर्धा-मुदितो मूर्धाभिषिक्तो 1, न मुदितो मूर्धाभिषिक्तः 2, न मूर्धाभिषिक्तो मुदितः ३.न मुदितो न मूर्धाभिषिक्तश्च 4, तत्र मुद्रितो | नामयोनिशुद्धः शुद्धोभयपक्षसम्भूतो यस्य मा तापितरौ राजवंशीयाविति भावः, यः पुनः परेण मुकुटबद्धेन राज्ञा प्रजया वा राज्येऽभिषिक्तः, यो वा स्वयमात्मनैवाभिषिक्तो यथा भरतो राजा, एष मूर्धाभिषिक्त उच्यते। एषु विधिमाहपढमगभंगे वज्जो,होउ व मा वा वि जे तहिं दोसा। सेसेस होति पिंडो, जहि दोसा तहि विवजेंति / / 306 // प्रथम भने राजपिण्डो वज्यैः-परित्यक्तव्यो,ये तत्र राजपिण्डे गृह्यमाणे दोषास्ते भवन्तु वा मा वा तथाऽपि वर्जनीयः / शेषेषु त्रिषु भङ्गेषु पिण्डो राजपिण्डो न भवात, तथाऽपि येषु दोषा भवन्ति तान् द्वितीयादीनपि भङ्गान्वर्जयन्ति। इयमत्र भावना-यः सेनापतिमन्त्रिपुरोहितश्रेष्ठिसार्थवाहसहितो राज्यं भुइँततस्य पिण्डो वर्जनीयः। अन्यत्रतुभजनेति,गतं कीदृशो राजेति द्वारम्। अथ के तस्य भेदा? इतिद्वारं चिन्तयन्नाहअसणाईया चउरो, बत्थे पादेय कंबले चेव / पाउंछणए य तहा, अट्ठविधो रायपिंडो उ॥३०७॥ अशनादयः अशन 1 पान 2 खादिम 3 स्वादिम 4 रूपा ये चत्वारो भेदाः यच वस्खं 5 पात्रं 6 कम्बलं 7 पादप्रोञ्छनकम् 8 एषोऽष्टविधो राजपिण्डः। __ अथ के तस्य दोषाः? इति द्वारमाहअट्ठविहरायपिंडे, अण्णतरं यं तु जो पडिग्गाहो। सो आणाअणवत्थं, मिच्छत्तविराहणं पावे / / 306 / / अष्टविधे राजपिण्डे अन्यतरदशनादिकं यः प्रतिगृह्णाति स साधुराज्ञाभगमनवस्थां मिथ्यात्वं विराधनां च प्राप्नुयात्। एते चापरे दोषाः। ईसरतलवरमाडं-बिएहि सिट्ठीहिँ सत्थबाहेहिं। जिंतेहिं अतिंतेहि य ,वाघातो होति भिक्खुस्स / / 306 / / ईश्वरतलवरमाडम्बिकैः श्रेष्ठिसार्थवाहैश्च निर्गच्छद्भिः अति- यद्भिः प्रविशद्भिर्भिक्षोभिक्षार्थं प्रविष्टस्य व्याघातो भवति। एतदेव व्याचष्टेईसर भोइयमाई-तलवरपट्टेण तलवरो होति। वेट्ठणबद्धो सेट्ठी, पचंतऽहिवो उ माडवी।।३१०॥ ईश्वरो-भोगिकादिग्रामस्वामिप्रभृतिक उच्यते, यस्तु परितुष्टनृपतिप्रदत्तेन सौवर्णेनतलवरपट्टेनाङ्कितशिराः स तलवरो भवति। श्रीदेवताध्यासितपट्टो वेष्टनकमुच्यते, तद्यस्य राजानुज्ञातं स वेष्टनकबद्धः श्रेष्ठी, यस्तु प्रत्यन्ताधिपच्छन्नमडम्बनायकः समाडम्बिकः, सार्थवाहः प्रतीत इति कृत्वा न व्याख्यातः। जाणिंति इंतिता अच्छओ य सुत्तादिभिक्खहाणी य। इरिया अमंगलं ति य,पेल्लाहणणा इयरहा वा।।३११॥ एतेईश्वरादयोयावनिर्गच्छन्ति प्रविशन्तिच तावदसौ साधुः प्रतीक्ष-माण आस्ते। तत एवमासीनस्य सूत्रार्थयोर्भेक्षस्य च परिहाणिर्भवति , अश्वहस्त्यादिसम्मर्दैन चर्या शोधयितुं न शक्नोति / अथ शोधयति ततस्तैरभिघातो भवति। कोऽपि निर्गच्छन् प्रविशन्वा तं साधुंविलोक्यामङ्गलमिति धाम
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________________ रायपिंड 552 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 रायपिंड 187/ मन्यमानस्तेनैवाश्वाहस्त्यादिना प्रेरणं कशादिना वा आहननं कुर्यात् 'इतरहा वत्ति' यद्यपि कोऽप्यमङ्गलं न मन्यते तथाऽपि जनसंमर्दे प्रेरणमाहननं वा यथाभावेन भवेत्। किंचलोभे एसणघाते, संका तेणे नपुंस-इत्थी वा। इच्छंतमणिच्छंते,चाउम्भासा भवे गुरुगा।३१२॥ राजभवनप्रविष्टो लोभे उत्कृष्टद्रव्यलोभवशत एषणाघातं कुर्यात्, स्तेनोऽयमित्यादिका वा शङ्का राजपुरुषाणां भवेत् , नपुंसकाः स्त्रियो वा तत्र निरुद्धेन्द्रियाः साधुमुपसर्गयेयुस्तत्रेच्छतोऽनिच्छतश्च संयमविराधनादयो बहवो दोषाः / राजभवनं च प्रविशतः शुद्धः, शुद्धेनाऽपि चत्वारो'मासा गुरुकाः प्रायश्चित्तम्। एनामेव गाथां व्याख्यानयतिअन्नत्थ एरिसं दुल्लभंति गेण्हेअऽणेसणिणं पि। अण्णेणावि अवहिते,संकिजति एस तेणो ति॥३१३॥ अन्तःपुरिकाभिरुत्कृष्टद्रव्यं दीयमानं दृष्ट्वा नास्त्यन्यदृशं दुर्लभ वेति लोभवशतोऽनेषणीयमपि गृह्णीयात् / राज्ञश्च प्रकीर्णे सुवर्णादौ द्रव्ये अन्येनाऽप्यपहृते स एव साधुः शङ्कयते एष स्तेन इति। संका चारिंग चोरे, मूलं निस्संकियम्मि अणवट्ठो। परदारियऽभिमरे वा, णवमं णिस्संकिए दसमं / / 314 / / चारिकोऽयं चौरो वा अयं भविष्यतीति शङ्कायां मूलम् / निःशजिते अनवस्थाप्यम्, पारदारिकशङ्कायामभिमरशङ्कायां च नवमम्-अनवस्थाप्यम्, निःशङ्किते दशमम्-पाराशिकम्। अलमंता परियारं, इत्थिनपुंसाबला वि गेण्हेजा। आयरिय-कुलगणे वा, संघे व करेन पत्थारं // 315 // तत्र प्रविचारं बहिर्निर्गममलभमानाः स्त्रीनपुंसका बलादपि साधुगृह्णीयुः, तान् यदि प्रतिसेवते तदा चारित्रविराधना, अथ न प्रविसेवते तदा ते उड्डाहं कुर्युः / ततः प्रतापनादयो दोषाः / अथवा-राजा रुष्ट आचार्यस्य कुलस्य गणस्य वा सङ्घस्य वा प्रस्तारम्-विनाशं कुर्यात् / अण्णे वि हॉति दोसा, आइण्णे गुम्मरतणमादीया। तण्णिस्साएँ पवेसो, तिरिक्खमणुया भवे दुट्ठा // 316 // अन्येऽपितत्र प्रविष्टस्यदोषा भवन्ति। तद्यथा-रत्नादिभिराकीर्ण 'गुम्म' त्ति गौल्मिकास्तत्स्थानपालास्ते अतिभूमिं प्रविष्ट इति कृत्वा तं साधुं गृह्णन्ति, प्रतापयन्ति वा, एवमादयो दोषाः / अथवा-तन्निश्रया तस्य साधोः यथा रत्नादिमोषणार्थस्तेनकाः प्रवेशं कुर्युः, तिर्यञ्चोवानरादयो मनुजाश्चम्लेच्छादयो दुष्टा-स्तत्र राजभवने भवेयुस्तेसाधोरुपद्रवं कुर्वीरन्। एनामेव नियुक्तिगाथा व्याख्यातिआइण्णे रयणादी, गेण्हेज सयं परो व तन्नीसा। गोम्मियगहणाहणणं, रणो य णिवेदयंते तो।।३१७॥ रत्नादिमिराकीर्णं स प्रविष्टः स्वयमेव तत्र रत्नादिकं गृह्णीयात् परो वा तन्निश्रया गृह्णीयात, गौल्मिकाश्च ग्रहणमाहननं वा कुर्युः, राज्ञो वा तेतं साधु निवेदयन्त्युपढौकयन्ति, ततो निवेदिते सति तत्प्रतापनादिकमसौ करिष्यति। तन्निष्पन्नं प्रायश्चित्तमाहचारियचोराभिमरा, कामी पविसंति तत्थ तण्णीसा। वाणरतरच्छवग्धा,मेच्छादिणराव घातेन्ज / / 318 // चारिकाश्चौरा अभिमरा कामिनो वा तत्र तस्य साधोर्निश्रया प्रविशेयुः,तथा वानरतराव्याघ्राम्लेच्छादयो वानराः तत्रसाधुंधातयेयुः। अथ कीदृशे कार्य कल्पते कया वा यतनया इति द्वारद्वयमाहदुविहे गेलण्णम्मि, णिमंतणे दव्वदुल्लमे असिवे / ओमोयरियपदोसे, भए य गहणं अणुण्णायं // 316 / / तिक्खुत्तो सक्खत्ते, चउद्दिसिं जो गणंसि कडजोगी। दध्वस्स य दुल्लभया, जयणाए कप्पई ताहे // 320 // गाथाद्वयं शय्यातरपिण्ड च द्रष्टव्यम् / नवरमागाढे ग्लानत्वे क्षिप्रमेव राजपिण्डं गृह्णाति, अनागाढे तु त्रिःकृत्वो मार्गयित्वा यदा न लभ्यते तदा पञ्चकपरिहाण्या चतुर्गुरुप्राप्तो गृह्णाति निमन्त्रणेराज्ञा निर्बन्धेन निमन्त्रितो भणति यदिभूयो भणसि ततो गृहीमो वयं नान्यथा, अवमे अशिवे वाऽन्यत्रालभ्यमाने राजकुलं वा नाशिवेन गृहीतं ततस्तत्र गृह्णाति / राजद्विष्टेतु अपरस्मिन् ाज्ञि कुमारे वा प्रद्विष्टबोधिकम्लेच्छभये वा राज्ञो गृहान्नि-गच्छन् गृह्णीयात्। बृ०६ उ०। दश०। राजान्तःपुरं प्रविश्य गृहाणेति परं वदति, तत्र सूत्रम्जे भिक्खू रायंतेपुरं वि वएना आउसो रायंतेपुरिए नो खलु अम्हं कप्पइ रायंतेपुरं णिक्खमित्तए वा पविसित्तए वा, अम्हे तुम्हं पडिग्गहं गहाय रायंतेपुराउ असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा अमिहडं आहह दलयामो जोतं ते एवं वदइ वदंतं वा साइजइ॥४॥ गाहाजे भिक्खू वएनाहि, अंतेउरियं ण कप्पते मज्झं। अंतेउरमतिगंतुं, आहारपिंडं इहाऽऽणाहि॥२६॥ नीहारय-निष्क्राम्य गृहीत्वा वा आह स मम ददातीत्यर्थः, इहैव बाहिं ठियस्स मम आहारादि आनय। इमे दोसा गाहागमणादि अपडिलेहा, दंडिय कोवे हिरण्ण संचिंते। अभियोग्गविसे हरणं, भिंदे विरोधे य लेवकडे / / 27 // गच्छति आगच्छतिय छक्कायं विराहेज अपडिलेहिएयगमागमे भिक्खा ण कप्पति, अपडिलेहिए वा भायणे गेण्हेज, दंडिओ वा दलृ पडुसेज वा संकेज वा अणायारं हिरण्णादिवा किंचितेणियं पच्छातीया तत्थछुभेज पलंबादि बा संचिते-छुभेज, ओरालियसरीरस्स वा वसीकरणं देज्ज / अप्पणा पदुट्ठा अण्णेण वा पउत्ता विसं देज्ज / भायणं वा हरेज्ज अजाणंती वा भायणं भिंदेज, खीरं विहवाविरोहिदव्वे एकतो गेण्हिज, पोग्गलादि वासंजमविरुद्धंगेण्हेज लेवाडेजवा। गाहालोभे एसणघाते,संका तेणे चरित्तभेदे य।
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________________ रायपिंड 553 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 रायपिंड पितिकाले वि णिवेदण, वणीमगापिंडणिगरसामण्णे // 13 // पितृपिण्डप्रदानकालो मघा, श्राद्धेषु भवति। गाहाइंदमहादीएसुव-हार णिवस्संसजणवतपुरे वा। तति मिस्सितो ण कम्पति, भद्दगपंतादिदोसेहिं // 136 // इन्दादीण वा महेसुजे उवहारा णिज्जंति वलिमादिया जणेण पुरणे वा ते जइ णिवपिंडविमिस्सा तो ण संकप्पंति भद्दपंतादिया य दोसा। गाहारण्णो पत्तो अत्थवि, होजा अहव विमिस्सिता ते उ। गहणाऽगहणेगस्स तु, दोसा उ इमे पसज्जंति / / 140 / / अण्णस्ससतियं गेण्हति, रण्णो सतियस्स अगाहणं-अहरणं अण्णस्स वसतियस्स गहणे अग्गहणे वि दोसा। गहणे दुविधा भद्दपंतदोसा। गाहाभदंतो तण्णीसा, पंतो घेप्पंते दहण भणति। अंतोघरे ण इच्छध, इह गहणं दुठ्ठधम्म त्ति / / 141 / / भद्दतो चिंतेति-एएणं उवाएण गेण्हंति,ताहे अभिक्खणं समवायादसंखडी तो करेति,लोगेण वा सम पत्तेग वा पत्तो तत्थं समवादियासु घंप्यते दठूण भणति-अंतो मम घरेण इच्छह इह मम संतियंजणवयमत्तेण सह गेण्हह, अहो दुद्दधम्मो! ततो सो रुट्ठो। इच्छंतमणिच्छंते, चाउम्मासा भवे गुरुगा / / 28 // उक्कोसलोभण एसणधातं करेज, णूणं स उज्झामगो,संकिते-ह, णिस्संकिते मूलं, तेणढे वा संकेज किं पि हरिउ एयस्स परिणामओ य आयपरोभयसमुत्थेहिं दोसेहिं चरित्तभेदो अगारीए य बलागहिए इच्छते चरित्तभेदो,उड्डाहभया अणिच्छते-ह। गाहादुविधे गेलण्णम्मि, णिमंतणे दव्वदुल्लभे असिये। ओमोरियपदोसे, भए य सा कप्पते भणितुं // 26 // पूर्ववत् / नि० चू०६ उ०। पञ्चा०। पं० भा०। पं० चू०। राज्ञां पिण्ड कीदृशमपि कथमपि न गृह्णीयात्। साम्प्रतमजुगुप्सितेष्वपि कषुचिद्दोषदर्शनात्प्रवे शप्रतिषेधं दर्शयितुमाहसे भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जाइं पुण कुलाइं जाणिज्जा / तं जहा-खत्तियाण वा राईण वा कुराईण वा रायपेसियाण वा रायवंसट्ठियाण वा अंतो वा बाहिं वा गच्छंताण वा संनिविट्ठाण वा निमंतेमाणाण वा अनिमंतेमाणाण वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा लाभे संते नो पडिगाहिज्जा / (सू० 21) स भिक्षुर्यानि पुनरेवम्भूतानि कुलानि जानीयात्, तद्यथा-क्षत्रियाःचक्रवर्त्तिवासुदेवबलदेवप्रभृतयस्तेषां कुलानि, राजा-न:-क्षत्रिये - भ्योऽन्ये, कुराजानः-प्रयन्तराजानः, राजप्रेष्याः-दण्डपाशिकप्रभृतयः, राजवंशे स्थिता-राज्ञो मातुलभागिनेयादयः एतेषां कुलेषु संपातभयान्न प्रवेष्टव्यम्, तेषां च गृहान्तर्बहिर्वा स्थितानां गच्छतां-पथि वहता सन्निविष्टानाम्-आवासितानां निमन्त्रयतामनिमन्त्रयता वाऽशनादि सति लाभेन गृह्णीयादिति। आचा०२ श्रु०१ चू०१ अ०४ उ०। अथ राजपिण्डं गृह्णातितत्र सूत्रम्जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धामिसित्ताणं पिंडं मुत्तेहिंसु वा समवाए जाव सहेसु वा असणं वा पाणं वा खाइम वा साइमं वा पडिगाहइ पडिगाहंतं वा साइजइ॥ 15 // खत्तिय इति-जातिग्गहणं, मुदितो-जातिग्गहणं, मुदितो जातिशुद्धो पिउमादिएण अभिसित्तोमुद्धाभिसित्तो, समवायो-गणभत्तं पिंडणिगरोदाइयभत्तं पितिपिंडपदाणं वा पिंडणिगरो, इंदमहो खंदकुमारो भागिणेयो रुद्रः मुकुंदो बलदेवो चेति। तं देवकुलं कहिं चि रुक्खस्स जत्ता कीरई, गिरिपव्वयजत्ता णागदरिगादिऽधो उच्चायविलं वा सेसा पसिद्धा। एतेसि एणतरमहे जत्थ रण्णो अंसियापत्ते गधारण्णे भत्ते जो गेण्हइ-ह / गाहासमवायादी तु पदा, जत्तियमेत्तातु आहिता सुत्ते। तेसिं असणादीणं, गेण्हताणादिणो दोसा।। 137 // गणमत्तं समवाओ, तत्थ ण कप्पं जहिं णिवस्संसो। गाहा भत्तोवधिवोच्छेदं, णिव्विसयचरित्तजीवभेदं वा। गमणेण पदोसे उ, कुजा पत्थारमादीणि / / 142 // तेसु भत्तादिवोच्छेद करेन्ज, मा एतेसिं को वि उवगरणं देल, णिव्विसए वा करेज, चरिताओ वा भसेज, जीवियाओ वा ववरो-वेज, एगस्स वा पदुसेज्ज अणेगाण वा, कुलगणसंघे वा पत्थारं करेज। इमे अगेण्हणे दोसा। गाहातेसु अगिण्हतेसु , तीसे परिसाएँ एवमुप्पजे / को जाणति किं एते, साधु घेत्तुं ण इच्छंति // 143 // साधूहिं अगेण्हतेहिं तीसे गोट्ठिपरिसाए एवं चित्तमुप्पजति,को पुण कारणं जाणेज किमिति कस्माद्धेतोरित्यर्थः / गाहाइतरेसिं गहणम्मी, णिवचोल्लगवजणे हु जणसंका। जाती दोसंसे ते, जाणताऽऽगंतुओ सो य / / 144 // इयरे गोट्ठियजणा तेसिं चोल्लगस्स गहणे णिवचोल्लगस्स वजणे जणस्स आसंका भवति / एते साधूणिसहिएण जाति त्ति जाणंति, दोसंसो य / तत्थ आगंतुको करकण्डूवत् जणेणधूसिय, रण्णा उवालद्धं, ताहे पदुट्ठो भत्तोवहिवोच्छेदादिए दोसा करेजा।
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________________ रायपिंड 554 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 रायपिंड गाहाअम्हाण तत्थ गमणं, समवायादीसु जत्थ रण्णो तु। पत्तेगं वा भत्तं, अण्णेगे वा ण गिण्हेजा / / 155 / / रण्णौ दुवारमादी, भुत्ताऽभुत्ता उ जत्तिया सुत्ते। गहणागहणे तत्थ य, दोसा उ इमे पसज्जंति // 146 / / दोवारिय पुवुत्ता, पलंबगादीसु हयगयादी य। मेय घरे न य इच्छह, इह गहणं दुहृधम्म त्ति / / 147 // भिन्नोवहिवोच्छेथं, णिव्विसयचरित्तजीवभेदं वा। गमणे एगपदोसे, कुज्जा पत्थारमादीणि / / 148 // तेसु अगिण्हतेसुं, तीसे परिसाएँ एवमुप्पज्झे। को जाणति किं एते, साहू घेत्तुं ण इच्छंति // 146 // आगाढे गेलण्णे, णिमंतणा दव्वदुल्लभे असिवे। ओमोयरिऍ पदोसे, भए य गहणं अणुण्णायं / / 150 // छद्दोसायतणे पुण, रण्णो अविजाणितूण जे भिक्खू / चउराय-पंचरायं, परेण पविसाणमादीणि॥१५१॥ कोट्ठागारा य तहा, भंडागारा य पाणगारा य। खीरघरगंजसाला, महाणसाणं व जायतणा / / 152 / / गहणाईया दोसा, आययणं संभवो त्ति वेगट्ठा। दिउतरें पुच्छिगवे-सणगंजसालाउ कुणिया // 153 / / पढमे बितिए ततिए, चउत्थमासादि चउगुरू अंतो। उग्धातो पढमदिणे, बितिया एगेसि ते चेव // 154 / / अहवा पढमे दिवसे, भिण्णमासादि पंचमे गुरुगा। वीसादिव एगेसिं,परेण पंचण्ह दिवसाणं / / 155 / / भद्देसु रायपिंडं,आवजति गहणमादि पिंडेसु / असिवे ओमोयरिए, गेलण्णपए य वितियपयं / / 156 // गोट्ठियसमवायभतेसु वा पत्तेयं भद्दकुलजणसम्मिस्सं वा रण्णो णो / गेण्हेजा "बितियपदगाहा" आगाढे गेलण्णे अण्णतो न लब्भति ताहे घेप्पति, अभिक्खणं णिमंतमाणस्स घेत्तुंपसंग वारेति। जंवा से एत्थितं मगंति दुल्लभं दव्वं तमण्णतो नत्थि, असिवगहिया अण्णे गिहिणो ओमे रण्णो गेहे लभंति, अण्णो अधिकतरोराया पदुट्ठो अण्णतो वोहिगादिभयं एवमादिएहिं कारणेहिं गहणं अणुण्णायं। राजपिण्डम् उत्तरशालादिषुजे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुद्दि (दि)याणं मुद्धाभिसित्ताणं उत्तरसालंसिवा उत्तरगिहंसि वा रायाणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिगाहेइ पडिगाहंतं वा साइजइ।। 16 // अत्यातिगादिमंडवो उत्तरसाला हयगयाण साला उत्तरसाला, मूलगिहमसंबद्ध उत्तरगिहं। गाहाउत्तरसाला उत्तर-गिहाय रण्णो हवंति दुविधाओ। गहणाऽगहणे तत्थ उ, दोसा ते तं च बितियपदं / / 157 / / कंठा। गाहासालत्ति णवरिणाम, उजाणपथे व संव्वहिं वो। सालाणं पुण गहणं, हयादिहितणट्टमासंका / / 158|| णिवमेत्तं णाम उदाहरणमात्र हयादिहिते णटे वा संका भवति, कल्लं एत्थ संजया आगया, तेहिं हिंडतेहिं हिडेतु अण्णेसिं कहियं, तेहिं हडं, हरित्तुं वा अण्णेसिं कहियं, तेहिं हडं / उत्तरसालागिहाण इमं वक्खाणं। गाहामूलगिहमसंबद्धा, गिहा य साला य उत्तरा होति। जत्थवण वसति राया, पच्छा कीरति जावऽण्णे / / 156 / / जत्थवा कीडापुव्वं गच्छंति, ण वसंतिः ते उत्तरसाला गिहा वत्तव्वा। जे वा पच्छा कीरंतिते उत्तरसाला गिहा, एतेसु ठाणेसु मीसं अमीसंवा जो गेण्हति तस्स ते चेव दोसा,तं चेव पच्छित्तं, तं चेव बितियपदं। सूत्रम्जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुद्दियाणं मुद्धामिसित्ताणं हयसालगयाणं वा गयसालगयाणं वा मंतसालगयाणं वा गुज्झसालगयाणं वा रहसालगयाणं वा मेहुणसालगयाणं वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिगाहेइ पडिगाहंतं वा साइजइ॥ 17 // हयगयसाला उ हयगयाण उवा जत्थ पिंडमाणीय देंति तत्थ रायपिंडो अंतरा पदोसोय सेससालासु पइट्ठा भत्ता, अहवा सुत्ताऽभिहियसालासु ठितादीण अणाहादियाण भत्तं पयच्छंति जो गेण्हति-ह। गाहाहयमादी सालाखलु, जत्तियमेत्ता तु आहिता सुत्ते। गहणाऽगहणे तत्थ उ, दोसा ते तं च वितियपदं।। 160 // रण्णो रायपिंडो त्तिण गेण्हति, अण्णेसिं गेण्हति / कहं पुण अण्णेसिं गेण्हति,जे ईसरादियादसणपिंडगे आणंति अण्णेसिं तस्स गहणसंभवो भवति। सूत्रम्जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुहियाणं मुद्धाभिसित्ताणं सण्णिहिसंचयाउ खीरं वा दहिं वा णवणीयं वा सप्पिं वा तेल्लं वा गुलं वा खंडं वा सक करं वा मच्छंडियं वा अण्णयरं वा भोयणजायं पडिगाहेइ पडिगाहंतं वा साइज्जइ॥१८॥ जे भिक्खू० जाव सण्णिहिसंचयाउ सण्णिही नाम-दधिखीराऽऽदिअ जंविणासिदव्वं, जंपुण घयतेल्लवत्थपत्तगुलखंड-सक्कराइअं अविणासिदव्यं विरमति, अच्छइन विणस्सइ सो सरओ विडंकलवणं सामुद्दकादि उभिज। गाहासण्णिधिऽसण्णिहिघातो,खीरादीवत्थपत्तमादी वा। गहणाऽगहणे तत्थ तु, दोसा ते तं च वितियपदं // 16 // ओदणगोरसमादी,विणासिदव्वा उसाण्णिधा होति।
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________________ रायपिंड 555 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 रायपिंड सकुसितघतगुला, अविणासी संचइयदव्वा / / 162 / / ___ राज्ञः कोशागारादिषु प्रविशतिसक्कुलिः पर्पटिः। जे भिक्खू रन्नो खत्तियाणं मुहियाणं मुद्धाभिसित्ताणं अहिसियाणं सूत्रम् इमाइं छद्दोसाइं आयतणयं अजाणिय अपुच्छिय अगवेसिय परं जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुहियाणं मुद्धाभिसित्ताणं चउपंचरत्ताओ गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए निक्खमिइत्तए वा ओसट्ठपिंडं वा संसहपिंडं वा अणाहपिंडं वा किविणपिंडं वा | पविसित्तए वा निक्खमंतं वा पविसंतं वा साइजइ, तं जहावणीमगपिंडं वा पडिगाहेइ पडिगाहंतं वा साइज्जइ // 16 // कोट्ठागारसालाणिवा 1 भंडागारसालाणिवा २पाणसालाणि वा 3 गाहा खीरसालाणिवा गंजसालाणिवा 5 महाणससालाणिवा 6 // 7 // ओसट्टे उज्झितध-म्मिए उसंसत्तें सावसेसे उ। इमेति-प्रत्यक्षीभावे,षडिति संख्या दोसाणं, आययणं-ठाणं अजाणियंवणिमग जातणपिंडे, अणाहपिंडे अबंधूणं // 163 / / अविज्ञाय भिक्षायाः प्रविशति, चतुरात्रात्परतः आदेशेन वा पञ्चरात्रात्परतः ओसट्टे-उज्झियधम्मिए, संसत्तपिंडो-भुत्तावसेसे वणीम-गपिंडोणाम द्वादशपरिक्खेवातो अंतो पविसति, अतो वा बाहिरियं णिग्गच्छति, जो जायणवित्तिणो दाणादिफलं लवित्ता लंभंति, तेसिं जं कडं तं धण्णागारं-कोट्ठागारोभंडगारोहिरण्णसुवण्णभायणं, जत्थ उदगादिपाणं वणीमगपिंडो भण्णति। अणाहा-अबंधवा, तेसिं जो कओ पिंडो। एतेसिं सा पाणसाला भण्णति, खीरघरंखीरसाला, जत्थ धण्णं उडिभञ्जति सा जो गेण्हति-ह। गंजसाला, उवक्खडणसाला-महाणसो, पुव्वदिढे पुच्छा अपुव्वे गवेसणा अपुच्छंतस्स-ह (अत्र पूर्वोक्तबृहत्कल्पव्याख्यानुगतार्थत्वाचूर्णिर्न गृहीता) गाहाएतेसामण्णतरं, जे पिंडं रायसंतियं गिण्हे। (चक्षुर्दर्शनप्रतिज्ञया यत्कर्तव्यं तत् 'चक्खुदंसणवडिया' शब्दे तृतीयभागे ते चेव तत्थ दोसा, तं चेव य तत्थ बितियपदं // 16 // 1107 पृष्ठे गतम्) नि० चू० 8 उ०। सूत्रम्राजपिण्डं गृह्णाति गृह्णन्तं वा स्वदते। तत्र सूत्रम् जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुखियाणं मुद्धाभिसित्ताणं मंसखा-याणं जे भिक्खू रायपिंडं गिण्हह गिण्हतं वा साइजइ // 1 // वा मच्छखायाणं वा छविखायाणं वा बहिया णिग्गयाणं असणं वा जे भिक्खू रायपिंड परिभुंजइ परिभुजंतं वा साइडइ॥२॥ पाणंवा खाइमं वा साइमंवापडिगाहेइपडिगाहंतंवा साइजइ / / 10 / / मिगादिपारद्धिणिग्गता मंसखाया, दहणइसमुद्देसु मच्छखागा छवी इमो संबंधो। कलमादि संगता खागा, तिण्णि गया उज्जा णियाए वाणिय-कुयाणं / गाहा गाहापत्थिवपिंडाधिकारे, अयमवि तस्सेव एस णवमस्स। मंसछवि भुक्खणट्ठा, सवे उदु णिग्गमा समक्खाया। सो कतिविधो त्ति पिंडो, केरिसरण्णो विवजो उ॥१॥ गहणाऽगहणे तत्थ उ, दोसा ते तं च बितियपदं / / 56 // अट्ठमुद्देसगस्स अंतिमसुत्ते पत्थिवपिंडविचारो इहाविणवमस्स आदिसुत्ते तेसुछसु उउसुराओ पुण णिग्गताण तत्थेव असणपाणखाइ-मसातिमं सो चेवाधिकतो,एस संबंधो / सो कतिविहो पिंडो केरिसस्स वा रण्णो उक्करेंति। तडियकप्पडियाण 'वा तत्थ भत्तपंतादयो दोसा, गहणे पूर्ववत्। वजेयव्वो? अण्णेसिंगहणे रण्णो अम्गहणे इमं वक्खाणंगाहा मंसक्खायापार-द्धिणिग्गया मच्छणदिदहसमुद्दे। जो मुद्धा अभिसित्तो,पंचहिं सहितो य मुंजए रज्जं / छविकलमादी संगा, जे य फला जम्मि तु उडम्मि // 17 // तस्स य पिंडो वज्जो,तविव्वरीतम्मि भयणा तु // 2 // तत्थगया पगते कारवेति। मुद्धं परं प्रधानम्-आद्यमित्यर्थः " तस्सादिराइणा अभिसित्तो मुद्धो मांसाशिराजानां पिण्डं गृह्णाति। तत्र सूत्रम्मुद्धाभिसित्तो, सेणावइअमचपुरोहियसेट्ठिसत्थवाह-सहिओरखं भुंजतिः जे भिक्खू रन्नो खत्तियाणं मुहियाणं मुद्धाभिसित्ताणं अण्णयरं एयस्स पिंडो वञ्जणिज्जो सा भयणा-जति अत्थि दोसो तो वजो, अह उववहणियं समीहियं पेहाएताएपरिसाए अणुट्टियाए अभिण्णाए पत्थि दोसो तो ण वज्जो / नि० चू० / अवोच्छिण्णाए जे तं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा यावत्प्राधूर्णकभक्तं गृह्णाति, तत्र सूत्रम् पडिगाहेइ पडिगाहंतं वा साइजह // 11 // जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुडियाणं मुद्धाभिसित्ताणं दुबारि- क्षतात्त्रायन्तीति क्षत्रियाः, अण्णतरग्रहणेन भेददर्शनं, शरीरम् उपबृंहययमत्तं वा बसुमत्तं वा भयगभत्तं वा बलमत्तं वाकयगमत्तं वा गयभत्तं तीति उपवृहणीया समीहिता समीपमाती तंपुण पाहुडं पेहाप्रेक्ष्य उपवृहवाकंतारभत्तं वादुमिक्खभत्तं वा दुमगभत्तं वा दमगभत्तं वा गिला-| णियति। जभत्तं वा वदिलियामत्तं वा पाहुणभत्तं वा पडिगाहेति पडिगाहंतं अप्पपदस्य व्याख्या। गाहावा साइजइ॥६॥ मेहाधारणइंदिय, देहाऊ विवङ्कए जम्हा।
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________________ रायपिंड 556 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 रायपिंड तम्हा उववूहणिया, चंउव्विहा सा उ असणादी।। 58 // शीघ्रं ग्रन्थग्रहणं मेधा, गृहीतस्य अविस्मरणे निर्वृत्तिर्धारणा, सोतिंदियमादियाण सविसए पावजणणं देहस्सोवचओ, आउसंवडणं, जम्हा एते एव उववूहणियाए। सा च चउव्विहा असणादि। 'ताए परिसाए अणुट्ठिताए' अस्यव्याख्या। गाहाआसणमुक्का उहिय, भिण्णा उव णिग्गया ततो के वि। वोच्छिण्णा कव्वे णि-गया तु पडिपक्खसुत्तं वा / / 56|| जेमंतस्स रण्णो उववूहणियापट्टओ त्ति वुत्तं भवति, तंजो ताएपरिसाए अणुट्ठिताए गेण्हति तस्स-ह। रायपिंडो चेव सो, असणाति मोत्तुं उठ्ठिया अच्छंति, ततो के विणिग्गता भिण्णा अन्नेसु णिग्गतेसु वोच्छिण्णा, एरिसे णरायपिंडो पडिपक्खेसुत्तं अणुट्ठिताए अभिण्णाए अवोच्छिण्णायेत्यर्थः / गाहा रण्णो उववूहणिया, समीहितोवक्खडाय दुविहाओ। गहणाऽगहणमछिन्ने, दोसा ते तं च वितियपदं / / 60 // उवक्खडाय-खीरदहिमादी, अणुवक्खडा-सव्येसु उववि-टेसु छिण्णा परिस्समाणी अच्छिण्णा सा उवज्झहणिया तीसे परिण्णाए अणुवट्ठिताए दिण्णाए अवोछिनाएवा उववूहणियाएघेप्पमाणीए; तेचेव भद्दपंता दोसा, तंचेव बितियपदं। नि० चू०६ उ०। ("जेभिक्खूअह०' (12) इत्यादिसूत्रम्'वसहि' शब्दे वक्ष्यते) ___राज्ञां यात्रासंस्थितानामशनादि गृह्णाति। तत्र सूत्रम्जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुधियाणं मुद्धाभिसित्ताणं बहिया जत्तासंठियाणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वापडिगाहेइ पडिगाहंतं वा साइजह // 13 // जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुहियाणं मुद्धाभिसित्ताण बहिया जत्तापडिणियत्ताणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वापडिगाहेइ पडिगाहंतं वा साइबइ // 17 // जाहे परविजयट्ठाय गच्छति ताहे मंगल्लंसंतिणिमित्तंदीणा-दीणं भोयणं काउं गच्छति, पडिणियत्ता वि विजए संखडिं करेति। गाहाजत्तुग्गतरादीणं, अहवाजत्तातों पडिणियत्ताणं। गहणाऽगहणे तत्थ उ, दोसा ते तं च बितियपदं / / 67 // गहणाऽगहणे भद्दपंतदोसा रण्णो ण गेण्हंति अण्णेहिं वा अत्त-ट्ठियं गेण्हंति, ते चेव दोसा तं चेव बितियपदं। गाहामंगलममंगलत्था, नियत्तमणियत्तणे य अहिकरणं। जावंति गमादीया, एमेव य पडिणियत्ते वि॥६॥ जत्ताभिमुहस्स णिवस्स वा, मंगलबुद्धीए वा अमंगलबुद्धीए वा गच्छति पविसतिवा, अमंगलबुद्धीएण गच्छतिण वा गिहंपविसतिदुहा अधिकरणं जावंतिय गमादीण वा दोसेण दुटुं भत्तं गेण्हेजा। * सूत्रम्जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुहियाणं मुद्धाभिसित्ताणं णदीजत्तासंपट्ठियाणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेइ पडिग्गाहंतं वा साइजह // 15 // जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुहियाणं मुद्धाभिसित्ताणं णदीजत्तापडिणियत्ताणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेइ पडिग्गाहंतं वासाइडइ॥१६॥जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुतियाणं मुद्धाभिसित्ताणं गिरिजत्तासंपट्ठियाणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वापडिग्गाहेइपडिग्गाहंतं वा साइजइ / / 17 // जे मिक्ख रपणो खत्तियाणं मुबियाणं मुद्धाभिसित्ताणं गिरिजत्तापडिणियत्ताणं असणंवा पाणं वा खाइमं वा साइमं वापडिग्गाहेइपडिग्गाहंतं वा साइअइ॥१६॥ ततो पडिणियत्ताण वेत्यादि। गिरिजत्तापट्ठियाणं गहणागहणे तत्थ उते चेव दोसातंच बितियपदं। गाहागिरिजत्तागयगहणी, तत्थ उ संपट्ठियानियत्ताणं। गहणाऽगहणे तत्थ उ, दोसा ते तंच बितियपदं॥६६॥ नि० चू०६ उ०। सूत्रम्जे मिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुखियाणं मुद्धाभिसित्ताणं असणं वापाणं वा खाइमं वासाइमं वा परस्सणीहडं पडिग्गाहेइ पडिग्गाहंतं वा साइजइ, तं जहा खत्तियाणं वा 1, रायाणं वा 2, कुराईणं वा 3, रायंसस्सियाणंवा, रायपेसियाणं वा 5, // 21 // क्षतात् त्रायन्तीति क्षत्रिया आरक्षकेत्यर्थः, अभिसित्तोराया, कुच्छितो राया-कुराई, अहवा-पचंतणिवो कुरायीजे एतेसिं चेव प्रेष्येति पेसिता, एतेसिंणीयं णिसटुं दत्तमित्यर्थः। गाहा खत्तियमादी ठाणा, जत्तियमेत्ता उ आहित्ता सुत्ते। तेसु यणीहडगहणे ,दोसा ते तं च बितियपदं / / 18|| सूत्रम्जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुखियाणं मुद्धाभिसित्ताणं असण वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा परस्स नीहडं पडिग्गाहे। पडिग्गाहंतं वा साइजह 1 / तं जहा-नडाण वा नट्टयाण वा 2, कल्लयाण वा ३,जल्लाण वा 4, मल्लाण वा 5, मुट्टियाण वा 6, वेलंबगाण वा 7, कहगाण वा 8, पवगाण वाह, लासगाण वा १०,खेलाण वा 11, छत्ताण वा 12, // 22 // णाडगादि णाडयंता नडा णट्टा आकल्ला राज्ञः-स्तोत्रपाठकाः अगाहजलपविट्ठा जल्ला मल्लगणपविट्ठा मल्ला मुट्ठिया जुज्झणम
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________________ रायपिंड 557- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 रायपिंड ल्ला वेलंककारगा वेलं वा अइकातिगा, कहकारगाकहगा, णदीसमुद्दा गाहादिसुंजे तरंति ते पवगा जयसद्दपयोत्तारो लासगा; भंडा इत्यर्थः। आसाण य हत्थीण य, दमगा जे पढमताए विणएंति। गाहा परियट्ट मेण्ठ पच्छा, आरोहा जुद्धकालम्मि|| 104 / / णडमादी ठाणा खलु, जत्तियमेत्ता उ आहित्ता सुत्ते। जे पढमं विणयं गाहें ति ते दमगा, जे जणजोगासणेहिं वावारं वा वाहेति तेसु य णीहडगहणे,दोसा ते तं च बितियपदं || El ते मेंठा, जुद्धकाले जे आरुहतिते आरोहा। सूत्रम् सूत्रम्जे मिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुद्धियाणं मुद्धाभिसित्ताणं असणं जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुहियाणं मुद्धाभिसित्ताणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा परस्स नीहडइ पडिग्गाहेइ वा पाणं वा खाइम वा साइमं वा परस्स नीहडं पडिग्गाहेइ वा पडिग्गाहंतं वा साइज्जइ, तं जहा-आसपोसयाण वा १,हत्थि- पडिग्गाहंतं वा साइजइ, तं जहा-सत्थवाहयाण वा 1, संवाहापोसयाणं वा 2, महिसपोसयाणं वा 3, वसभपोसयाण वा., वयाण वा 2, अभिंगावयाण वा 3, उवट्टणावयाण वा 5, मनसीहपोसयाण वा 5, वग्धपोसयाण वा 6, मिंठगपोसयाण वा७, णावयाण वा 5, मंडावयाण वा ६,छत्तगाहीण वा७, चामरगाहीण सुणहपोसयाण वा 8, सूयरपोसयाण वा 6, मिगपोसयाण वा वा, हडप्फगाहीण वाद, परियट्टयगाहीण वा १०,दीवियम्गा१०,कुकुडपोसयाण वा 11, तित्तरपोसयाण वा 12, वट्टयपो- हीणवा 11, असिग्गाहीणवा 12, धणुग्गाहीणवा 13, सत्तिगाहीण सयाण वा 13, लावगपोसयाण वा 14, चासगपोसयाण वा 15, वा 15, कुंतगाहीण वा 15, हत्थिपगाहीण वा 16, / / 27 // हंसपोसयाण वा 16, मयूरपोसयाण वा 17, सुयपोसयाण वा ईसत्थ मादियाणि रायसत्थीणि आहयंति-कथयंति ते सत्थवाहा, 18, सन्माणपोसयाण वा 19, // 23 // पडिमइंति जे ते परिमद्दा सयनकाले परिपिट्टति शतपाकादिना तैलेन बृहत्तररक्तपादा वट्टा अल्पतरा लावगा। अब्भंगेति पदेहिं उव्वटेंति, पहावेंति जे ते मञ्जावका, मउडादिणा मंडति गाहा जेते मंडावगा, वस्त्रपरावर्त गृह्णतिजे ते परिवट्टगा। आभरणभंडयं हडप्पो अभंगाई ठाणा, जत्तियमेत्ता तु आहिया सुत्ते। वा धणुयाई समागं। तेसुंणीहडगहणे, दोसा ते तं च बितियपदं॥ 101 // गाहापोसगमाई ठाणा, जत्तियमेत्ता तु आहिया सुत्ते। संवाहगठाणा खलु, जत्तियमेत्ताउ अहित्ता सुत्ते। तेसुंणीहडगहणे, दोसा ते तं च बितियपदं / / 102|| तेसुंनीहडगहणे, दोसा ते तं च बितियपदं / / 103 / / सूत्रम् सूत्रम्जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुडियाणं मुद्धाभिसित्ताणं असणं जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुड़ियाणं मुद्धामिसित्ताणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा परस्स नीहडं पडिग्गाहेइ वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा, परस्स नीहडं पडिगाहेइ पडिग्गाईतं वा साइजइ, तंजहा-आसदमगाण वा 1, हथिदम- पडिग्गाहंतं वा साइज्जइ। तं जहा-दरिसद्धराण वा 1, कंचुईण गाण वा 2, आसमबाण वा 3, हथिमहाण वा // 24 // जे वा 2, दोवारियाण वा 3, दंडरक्खियाण वा // 28 // भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुहियाणं मुद्धामिसित्ताणं असणं वा गतार्था। पाणं वा खाइम वा साइमं वा परस्स नीहडं पडिग्गाहेइ पडि गाहाग्गाहर्त वा साइज्जइ, तं जहा-आसमें ठाण वा हत्थिौठाण वा॥ वरिसधरहाणादी, जत्तियमेत्ता उ आहिया सत्ते। 25 // जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुहियाणं मुद्धामिसित्ताणं तेसुंणीहडगहणे, दोसा ते तं च वितियपदं // 10 // असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा परस्सनीहडं पडिग्गाहेइ सूत्रम्पडिग्गाहंतं वा साइजह, तं जहा-आसरोहाण वा हत्थिरोहाण |. जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुहियाण मुद्धाभिसित्ताणं असणं वा वा॥२६॥ पाणं वाखाइमं वासाइमं वा, परस्सनीहडं पडिम्गाहेइपडिम्पाहतं गाहा वा साइजातं जहा-खुजाण जाव पारसीणं // 26 // दमगादीया ठाणा, जलियमेत्ता तु आहिया सुत्ते। तं संयमाणा आवञ्जइ चाउम्मासियं परिहारहाणं अणुग्याइयं // 26 // तेसुनीहडगहणे, दोसा ते तं च बितियपदं॥ 103 // जे भिक्खू सरीरवका, सुजा कुट्ठी कंगाण णिग्गता वडकहा इमं सुत्तवक्खाणं सेसा विसयाभिहाणेहिं वत्तव्वा।
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________________ रायपिंड 558 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 रायसुया गाहा राजवल्ली। क० प्र०ालताभेदे, प्रज्ञा०१ पद। खुज्जादीया ठाणा, जत्तियमित्ता उ आहिया सुत्ते। रायवाडिया-स्त्री० (राजवाटिका) राज्ञां विहारार्थे लघुद्याने, ती०४६ तेसु य नीहङगहणे, दोसा ते तं च वितियपदं // 105|| कल्प। अद्धाण-सहदोसा, दुगुंछिता लोगसंक सतिकरणं / रायविजय-पुं० (राजविजय) तन्दुलवैचारिकग्रन्थसंशोधनकर्तरि, आतपरसमुत्थेहिं, गेण्हणगहणाइया दोसा / / 106 // स्वनामख्याते सूरौ, तं०। खुजादियासुगच्छंतस्स अद्धाणदोसा, गीयादिया य सद्ददोसा, दुगुंछि- रायविरुद्ध-न० (राजविरुद्ध) राज्ञः सम्मतानामसम्माने, ध०२ अधि०। यातिया यतओ लोए अणायारसेवणे संकिजंति सुत्ताण सतिकरणादिया रायवुग्गह-पुं० (राजव्युद्ग्रह) राज्ञां संग्रामे, स्था० 10 ठा०३ उ०। दोसा। इतराण कोउयं आयपरउभयसमुत्था य दोसापुरिसो वा इत्थी वा रायवेढि-स्त्री० (राजवेष्टि) भूतिशून्ये राजकाये, उत्त० 27 अ०। तं बला गेण्हेज्जा गेण्हण-कड्डण-दोसा। नि० चू०६ उ०। रायसंमय-पुं० (राजसम्मत) राजगणाः सम्मताश्चेति राजसम्मताः / रायपुर-पुं० (राजपुर) स्वनामख्याते नगरे, तत्र समरकेतुर्नाम राजा मन्त्र्यादिकेषु, दश०३ अ०। व्य०। परिवसति, तस्य शृङ्गारमञ्जरी नाम भार्या / दश०१ अ०। आव०। / रायसहल-पुं०(राजशार्दूल) शार्दूलशब्दः सिंहपर्यायः / राजा शार्दूल इव रायपुरी-स्त्री० (राजपुरी) अयोध्यायाम् , ती०१२ कल्प। राजशादूलः / चक्रवर्तिनि, प्रव० 208 द्वार। ति०। रायपेसिय-त्रि० (राजप्रेष्य) दण्डपाशप्रभृतिषु, आचा०२ श्रु०१चू०१ रायसिरि-स्त्री० (राजश्री) राजशोभायाम् , राजैश्वर्ये च / आ० म०१ अ०३ उ०। अ० उत्त०। रायभय-न० (राजभय) राज्ञो भयं राजभयम्।राजसम्बन्धिनि भये, औ०। रायसुया-स्त्री० (राजसुता) राज्ञः सुतायाम् , आ० क०। रायभाव-पुं० (राजभाव) रागोत्पादके,पं०व०३ द्वार। अत्र राजसुताकथारामभोत्ति-स्त्री० (राजभुक्ति) राज्ये, नि० चू०१ उ०। एकेन भूभुजा पुत्री, दत्ताऽन्यस्य महीभृतः। रायमत्तंड-पुं० (राजमार्तण्ड) अन्तर्बहिर्मुखव्यापारद्वयविरोधात्तन्निष्पा- स मृतः स्वसुताऽऽनीय, भणिता जनकेन सा॥१॥ द्यफलद्वयस्यासंवेदनाच बहिर्मुखतयैवार्थनिष्ठत्वेन चित्तस्य संवेदनार्थ- धर्म कुरु सुते! दानं, दत्ते पाषण्डिनांततः। निष्ठमेव तत्फलंनस्वनिष्ठमिति राजमार्तण्डः ग्रन्थविशेषे, द्वा०११ द्वा०। अन्यदा कार्तिक धर्म-मास इत्यामिषस्य सा // 2 // रायमाण-त्रि० (राजमाण) शोभमाने, प्रव० 266 द्वार। प्रत्याख्यानं विधत्ते स्म, पारणस्य दिने ततः। रायमास-पुं० (राजमाष) चवलकाख्यधान्यविशेषे, ग०२ अधि०।०। राजाऽनेकानि मांसार्थ, हरिणादीन्युपानयत् // 3 // दश। दते स्म साऽन्नपानानि, मांसानि विविधानि च / रायरक्खिय-त्रि० (राजरक्षिक) राजपालके, नि० चू० 4 उ०। आसन्नाः साधवो यान्त-स्तयाऽऽनीता निमन्त्र्य ते // 4 // रायरिसी-पुं०(राजर्षि) राजा ऋषिरिव श्रेष्ठत्वात् , संयतत्वाच्च। राजश्रेष्ठ, भक्तं जगृहिरे मांसं, नैषुस्ते साऽह किं न वः। उत्त०१८ अ०। आ०म०। पूर्यते कार्तिकस्तेऽपि, प्राहूनः कार्तिकः सदा॥५॥ रायरुक्ख-पुं० (राजवृक्ष) वृक्षविशेष, वाच० / वृक्षाणां राजा राजवृक्षः, सोचे कथमथोचुस्ते, तस्या धर्मकथां तदा। वृक्षशब्दस्य परनिपातः। आरग्वधे, 'सोन्दाल' इति राजप्रियोवृक्षस्तत- भूयसो मांसदोषांश्च, प्रबुद्धा प्राव्रजत्ततः।। 6 / / त्फलबीजजातलड्डुकानां राजप्रियत्यात्। प्रियाले, रा०। औ०। प्रागासीद्व्यतस्तस्याः,प्रत्याख्या भावतोऽन्वभूत्। रायलक्खण-न० (राजलक्षण) राज्यसूचकचिह्न, "रायलक्खणविरा- अदित्सा प्रत्याख्यानं, हे ब्राह्मण ! श्रमण ! यत्त्वं याचसे तद्विषया इयंगमंगा"। रा०। मेऽदित्सा। इह श्रावकधर्मस्य मूलं सम्यक्त्वं प्रस्तुतम् अतस्तद्विधिमाहरायललित-पुं० (राजललित) नवमबलदेवस्य पूर्वभवजीवे, "महीयान् राजाभियोगादिना अन्यतीर्थिकपाषण्ड्यादिषु दानादि कुर्वतोऽपि न राजललितः"। आ०क०१अ०।आ०म०ा स्था०। (तत्कथा सामा- सम्यक्त्वस्यातिचारः। अत्र कथा-पृथि-वीभूषणं नाम नगरंगतदूषणम्। यिकव्यसनेन सामायिकलाभे वक्ष्यते) एवं गणाभियोगेन बलाभियोगेन देवताभियोगेन च। रायवंसतिलग-पुं० (राजवंशतिलक) राजवंशमण्डनभूते, प्रश्न०४ अत्र देवताभियोगे कथाआश्र० द्वार। "एकोऽजनि गृही श्राद्धः, सोऽत्यजद्व्यन्तरादिकान्। रायवट्टय-न० (राजवर्तक) "र्तस्याऽधूर्तादौ"॥१२॥३०॥ इति चिराराद्धानपि ततो, व्यन्तर्येका क्षुधातुरा // 1 // तस्यटः। रा(य) अवट्टयं / रत्नविशेषे, प्रा०। गोरक्षकं सुतं तस्य, गोभिः सममपाहरत्। रायवल्लभ-पुं० (राजवल्लभ) विक्रमसंवत् 1524 वर्षे कृतस्यचित्रसेन- तर्जयन्त्यवतीर्योचे, मामद्यापि किमुज्झसि ? // 2 // पद्मावतीचरित्रनाम्नो ग्रन्थस्य कारके, स्वनामख्याते पाठके,जै० इ०। मा मे धर्मातिचारोऽभू-दिति तां श्रावकोऽवदत्। रायवल्ली-स्त्री० (राजवल्ली) राजते इति राजा अच् / सा चासौ वल्ली भव त्वं जिनपादान्ते, स्वात्तवाऽपि यथाऽर्चना / / 3 / /
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________________ रायसुया 556 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 रायहाणी ततस्थैव तस्थौ सा, सुतो गोभिः समागतः"। आ०क०६ अ०॥ रायसेहर-पुं० (राजशेखर) हर्षपुरीयगच्छोद्भवतिलकसूरिशिष्ये, तेन विक्रमसंवत् 1405 वर्षे श्रीधररचितन्यायकन्दलीनाम्नः प्रशस्तपादभाष्यटीकायाः पञ्जिका नाम वृत्तिः प्रबन्धामृतंदीर्घिका नाम ऐतिहासिकग्रन्थश्च विरचितः। जै० इ०। रायहंस-पुं० (राजहंस) हंसानां राजा श्रेष्ठत्त्वात् / रक्तवर्णचक्षुचरणयुक्तेश्वतेवणे हंसभेदे, कलहंसे च। राजा हंस इव सारग्रहणात्। नृपश्रेष्ठ, प्रव०२ द्वार। प्रज्ञा० / प्रश्न०। रायहंससरिस-पुं० (राजहंससदृश) राजहंसगतिसदृशे, भ०११श० 11 उ०।रायहाणी-स्त्री० (राजधानी) राजा धीयते विधीयतेऽभिषिच्यते यस्यां सा राजधानी। जनपदानां मध्ये प्रधाननगर्याम् , राजाधिष्ठाननगरे, यत्र राजा स्वयं वसति।स्था० 10 ठा०३ उ०। जी०। भादशा०।उत्त०। आचा०। प्रज्ञा०नि० चू०। बृ०। राजकुलस्थाने, सूत्र०२ श्रु०२ अ०। इन्द्राणां राजधान्यःरायहाणीसुविचत्तारि उद्देसाभाणियव्वाजाव एवम-हिडिए. जाव वरुणे महाराया। सू० 173 | चउत्थे सए पंचम-छ?सत्तमट्ठमा उद्देसा समत्ता। 4-8 | 'रायहाणीसु चत्तारि उद्देसा भाणियव्वा' ते चैवम्-'कहिं णं भंते ! ईसाणस्स देविंदस्स देवरन्नो सोमस्स महारन्नो सोमा नाम रायहाणी पण्णत्ता ? गोयमा ! सुमणस्स महाविमाणस्स अहे अपक्खि' इत्यादि पूर्वोक्तानुसारेण जीवाभिगमोक्तविजय-राजधानीवर्णकानुसारेण चैकैक उद्देशकोऽध्येतव्य इति, नन्वेता राजधान्यः किल सोमादीनां शक्रस्येशानस्य च सम्बन्धिना लोकपालनां प्रत्येकं चतस्र एकादशे कुण्डलवराभिधाने द्वीपे द्वीपसागरप्रज्ञप्त्यां श्रूयन्ते,उक्तं हि तत्संग्रहिण्याम्"कुंडलनगस्स अभि-तरपासे होति रायहाणीओ। सोलस उत्तरपासे, सोणस पुण दक्खिणे पासे // 55 // जा उत्तरेण सोलस, ताओ ईसाणलोगपालाणं। सक्कस्स लोगपालाण, दक्खिणे सोलस हवंति // 86 // " एताश्च सोमप्रभ-यमप्रभ-वैश्रमणप्रभवरुणप्रभाभिधानानां पर्वतानां प्रत्येकं चतसृषु दिक्षु भवन्ति, तत्र वैश्रमणनगरीरादौ कृत्वाऽभिहितम् "मज्झे होइचउण्हं, वेसमणपभो नगुत्तमो सेलो। रइकरगपव्वयसमो, उव्वेहुच्चत्तविक्खंभे॥७॥ तस्स य नगुत्तमस्स उ, चउद्दिसिं होति रायहाणीओ। जंबुद्दीवसमाओ, विक्खंभायामओ ताओ।। 88 // पुव्वेण अयलभद्दा, समक्कसा रायहाणिदाहिणओ। अवरेण ऊ कुबेरा, घणप्पभा उत्तरे पासे।। 86 // * एएणेव कमेणं, वरुणस्स वि होति अवरपासम्मि। वरुणप्पभसेलस्स वि, चउद्दिसिं रायहाणीओ।।१०।। पुव्वेण होइ वरुणा, वरुणपभा दक्खिणे दिसीभाए। अवरेण होइ कुमुया, उत्तरओ पुंडरिगिणिया।। 61 // एएणेव कमेणं, सोमस्स विहति अवरपासम्मि। सोमप्पभसेलस्स वि, चउद्दिसिं रायहाणीओ।। 62|| पुव्वेण होइ सोमा, सोमप्पभदक्खिणे दिसीभाए। सिवपागरा अवरे-ण होइ नालियाण उत्तरओ॥३॥ एएणेव कमेणं, अंतकरस्स विय होंति अवरेणं। समवित्तिपभसेलस्स, चउद्दिसिं रायहाणीओ।। 64|| पुव्येण ऊ विसाला, अतिव्विसाला उदाहिणे पासे। सेज्जप्पभाऽवरेणं, अमुया पुण उत्तरे पासे // 15 // " इति। इह चग्रन्थे सौधर्मावतंसकादीशानवतंसकाचासंख्येया योजनकोटीयतिक्रम्य प्रत्येक पूर्वादिदिक्षु स्थितानियानि सन्ध्याप्रभादीनिसुमनःप्रभृतीनि च विमानानि तेषामधोऽसंख्याता योजनकोटीरवागाह्य प्रत्येकमेकैका नगर्युक्ता, ततः कथं न विरोधः? इति अत्रोच्यते-अन्यास्ता नगर्यो याः कुण्डलेऽभिधीयन्ते एताश्चान्या इति, यथा शक्रेशानाग्रमहिषीणां नन्दीश्वरद्वीप कुण्डलद्वीपे चेति। भ० 4 श०८ उ०। स्था०। सकस्स देवरनो, जाओ य हवंति अग्गमहिसीओ। तासिं पिय पत्तेयं, अद्वेव य रायहाणीओ // 16 // जन्नामा देवीओ, तन्नामा हो ति रायहाणीओ। सकस्स देवरत्रो, ताओय हवंति दक्खिणओ।।१७॥ इसाणदेवरभो, जाओ योति अग्गमहिसीओ। तासिं पि य पत्तेयं, अहेव य रायहाणीओ / / 68 // जन्नामा देवीओ, तन्नामा हाँति रायहाणीओ। ईसाणदेवरन्नो, तासिं तु हवंति उत्तरओ||| कुंडलवरस्स बाहिं, छसु चेव हवंति सयसहस्सेसु / तेत्तीसं रइकरंगा, पव्वया सच्छरम्माओ।। 100 // सकस्स देवरन्नो,तायत्तीसा हवंति जे देवा। उप्पायपव्वया खलु, पत्तेयं तेसि बोधव्वा // 101 // पत्ते एक्कक्कस्स उ, चउद्विसिं होति रायहाणीओ। जंबुद्दीवसमाओ, विक्खंभायामओ ताओ॥ 102 // पढमा उसयसहस्सा, बिझ्या तिसुचेव सयसहस्सेसु / पुवाइयाणुपुथ्वी, तासिं नामाई कित्तेमि / / 103 // विजया य वेजयंति, जयंति अपराजिया य बोधव्वा / ततो य नलियॉनामा, नलिणगुम्मा य पउमा य / / 104 // तत्तोय महापउमा, अट्ठेव य होति रायहाणीओ। चक्कज्झयाय सव्वा, सव्वा वइरज्झयाओ य॥ 105 / / सकस्स देवरनो, तायत्तीसाण अग्गमहिसीणं / तासिं खलु पत्तेयं, अढे व य रायहाणीओ।। 106 / / जनामा देवीओ, तन्नामा तासि रायहाणीओ। ईसाणदेवरन्नो, तायत्तीसाण उत्तरओ / / 107 / / बावन्नं बायाला, चुलसीदसजोयणसहस्सा। गोतित्थेण विरहियं, खित्तं खलु कुंडलसमुहे / / 108|| दी।
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________________ रायहाणी ५६०-अभिधानराजेन्द्रः- भाग 6 रायहाणी सकस्स देवरनो, सामाणिय खलु हवंति जे देवा। उववायपव्वयाखलु, पत्तेयं तेसि बोधव्वा // 18 // पत्ते एककस्स उ, चउहिसिंहॉति रायहाणीओ। जंबुद्दीवसमाओ, विक्खंभायामओ ताओ॥ 14 // पढमा उसयसहस्से, बिइया-चेव सयसहस्सेसु / पुष्वाइयाणुपुथ्वी, तेसिं नामाणि कित्तेहि / / 150 / / पुवाइयाणुपुर्वी, तत्तो नंदाइ होइ नंदवई। अवरेण उत्तरा उ, उत्तरओ नंदिसेणा उ।। 151 // महा उसुभद्दा य, कुमुया पुण होइ पुंडरिगिणी उ। चक्षज्झयाय सव्वा, सव्वा वइरज्झया चेवा / / १५२॥दी। जंबूदीव दीवे भरहे वासे दस रायहाणीओ पण्णत्ताओ।तं जहा"चंपा महुरा वाणी-रसीय सावत्थीं तह य साएयं / हत्थिणपुर कंपिल्लं, मिहिला कोसंवि रायगिहं॥१॥" 'रायहाणीओ' त्ति राजा धीयते-विधीयते अभिषिच्यते यासु ता राजधान्यः-जनपदानां मध्ये प्रधाननगर्यः, 'चंपा' गाहा-चम्पा नगरी अङ्गजनपदेषु, मथुरा शूरसेनदेशे, वाराणसी का-श्याम, श्रावस्ती कुणालायाम् साकेतमयोध्येत्यर्थः, कोशलेषु जनपदेषु, 'हत्थिणपुरं' ति नागपुरं कुरुजनपदे, काम्पिल्यं पाञ्चालेषु, मिथिला विदेहे, कौशाम्बी वत्सेषु, राजगृहं मगधेष्विति। एतासु किल साधवः उत्सर्गतोन प्रविशन्ति तरुणरमणीयपण्यरमण्यादिदर्शनेन मनःक्षोभादिसम्भवात्, मासस्यान्तद्धि-स्वियं प्रविशतां त्वाज्ञादयो दोषा इति, एताश्च दशस्थानकानुसारेणाभिहितानतुदशैवैताः, अर्द्धषविंशतावार्यजनपदेषुषविंशतेनगरीणामुक्तत्वादिति। अयंच न्यायोऽन्यत्र ग्रन्थे तेषु तेषु प्रायश्चित्तादिविचारेषु प्रसिद्ध एवेति, व्याख्यातं च दशराजधानीग्रहणे शेषाणामपि ग्रहणं निशीथभाष्ये, यदाह-"दसराय-हाणिगहणा, सेसाणं सूयणा कया होइ।मासस्संतो दुगतिग- ताऑअइंतम्मि आणाई।। 1 // " स्था०१० ठा०३उ०। जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुड़ियाणं मुद्धामिसित्ताणं इमाओ दस अभिसेगरायहाणीओ उहिट्ठाओगणियाओवंजियाओ अंतो मासस्स दुक्खुत्तो वा तिक्खुत्तो वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा निक्खमंतं वा पविसंतं वा साइजइ। तं जहा-चंपा 1, महुरा 2, वाणारसी 3, सावत्थी,साकेयं 5, कंपिल्ल 6, कोसंबी 7, मिहिला, हत्थिणापुरं, रायगिहं 10, // 20 // इमा प्रत्यक्षीभावेदस इति संख्या "राईणठाणं रायधाणि त्ति उद्दिट्ठातो गणियाओ दस, वंजियाओ णामेहि। अंतो मासस्स दुक्खुत्तो तिक्खुत्तो वा णिक्खमपवेसं करेंतस्स-ह। गाहादसरायहाणिगहणा, सेसाणं सूयणा कया होति। मासस्संतो दुगतिग-ताओं अतितम्मि आणादी|ll अण्णाओ विणयरीओ बहुजणसंपगाढाओ णो पविसियव्वं / इमा सूत्राव्याख्या / गाहाइम इति पञ्चक्खम्मी, दस संखा जत्थ राइणो ठाणा। उद्दिद्वरायहाणी, भणिता दस वंज चंपादी॥१०॥ णामेहिं वंजिताओ। गाहाचंपा महुरा वाणा-रसीय सावत्थिमेव साएतं / हत्थिणपुर कंपिल्लं, मिहिला कोसंवि रायगिहं / / 61 // वारस चक्कीणं एयाओ रायहाणीओ। गाहासंती कुंथू य अरो, तिण्णि वि जिणचकिएकहिं जाया। तेण दस होति जत्थव, केसव जाया जणाइण्णा // 12 // जासु वाणारसीणगरीसु केसवा, अण्णावि जा जणाइण्णा सा विवज्जणिज्जा, तत्थ को दोसो ? गाहातरुणी वेसित्थिविवा-ह रायमादीसु सतिकरणं। कोउयमादी आउछ, गीयसद्दे य सवियारे॥१३॥ तरुणी हायविलेवेत्थी गुम्मपरिवुडे दवण वेसित्थी उरउत्तरे वेउव्वियाउ वीवाहे रिद्धिसमिद्धे आहिंडमाणो रायाणो य विविह-रिद्धिजुत्ते जिंताणिते दर्दू भुत्तभोगीणं सतिकरणं अभुत्ताण कोतुयं पडिगमणादिदोसा, आदिसदातो बहूण अणट्ठादि आउज्जाणिवा ततवितयादीणि गीतसद्दाणि वा ललियविलासहसियभणियाणि मंजुलाणि य सद्दाणि, सविगारगहणातो मोहोदीरणा। किञ्चान्यत्रूवं आभरणविही, वत्थालंकारभोयणे गंधे। मत्तुम्मत्तविउव्वण, वाहणजाणे सतीकरणं / / 64|| सिंगारागाररूवं, णिहार व्व हारादीया-आभरणविधी वत्था आदिणा सहिरण्णादिया समुद्दा समभिहिता, केसपुष्पादि-अलङ्कारा, विविधवंजणोववेयं भोयणजातियंभुंजमाणं पासित्ता मिगंडकपूरागरुकुंकुमचंदणतुरुक्खादिए गंधे तहा मत्तेविलेवे, कपोलतलयाण उत्प्रावल्येन मत्तो उन्मत्तः, दरमत्तोवा उन्मत्तो, विविधवे सेहिं विउव्विया आसादिवाहणारूढा सिवियादिएहिं वा जाणेहिं गच्छमाणे पासित्ता सतिकारणादिएहिं दोसेहिं संजमाओ भंसेज, अहवा-वेहाणगयटुं वा करेज। इसे य विराहणादोसा / गाहाहयगयरहसंमहे,जणसम्मद्देण आयवावन्नी। मिक्खवियारविहारे, सज्झायज्झाणपलिमंथो // 5 // हयगयरहजणसम्मखूण आयविराहणा भवे, बहुजणसम्मद्वेण रोहियरत्थासु दिक्खंतस्स भिक्खावियारे विहारेसु सज्झाएसु य पलिमंथो, जम्हा एते दोसा तम्हा तत्थ ण गंतव्वं /
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________________ रायहाणी 561 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 रायाऽमिसेय कारणे गच्छेत्बितियपदे असिवादी, उवहिस्सव कारणे व लेवे वा। बहुगुणतरं व गच्छे, आयरियादीण आगाः ||16|| अण्णओ असिवं तेण अतिगम्मति, उवहीवा अण्णओण लब्भतितत्थ सुलभो, लेवो वा तत्थ सुलभो,गच्छवासी ण वा तं बहुगुणखेत्तं, आयरियाण वा तत्थ जवणिज्जं पाउग्गंवा लब्भति। आदिसद्दाओ बालवुड्डगिलाणाण वा अण्णतरे वा आगाढे पओ-यणे अहवा। गाहा रायादिगाहणऽट्ठा, पदुट्ठउवसामणट्ठकब्जे वा। सेहे व अनिच्छंता, गिलाणवेजोसहठ्ठावा।।१७॥ राणो धम्मगाहणट्ठा; रण्णो अण्णस्स वा पदुट्ठस्स उवसमणट्ठा, सेहोवा तत्थ ठितो, संण्णायगाण य अगम्मो तं मज्झेण वा गच्छिउकामा | गिलाणस्स वा वेजोसहणिमित्तं / नि० चू०६ उ०। स्वयम्भूरमणसमुद्रस्योपरि ये ज्योतिष्कास्सन्ति तेषां राजधानी उत्पातस्थानं च क्वास्ति? इति प्रश्नः, अत्रोत्तरम्-स्वयम्भूरमणसमुद्रस्योपरिस्थज्योतिष्काणां राजधानी स्वयम्भूरमणसमुद्रमध्येऽस्तीति जीवाभिगते उक्तमस्ति, तेषामुत्पातस्थानं स्वस्वविमानेऽस्ति, प्रज्ञापनोपाङ्गादिष्विति / / 13 / / सेन०४ उल्ला०। राया-पुं० (राजन्) राज्ञि, "नरनाहो पत्थिवो निव्वो राया'। पाइ० ना० 100 गाथा। रायादण-पुं० (राजादन) वृक्षविशेषे, "राजादनश्चैत्यशाखी, श्रीशम्पाद्वतमान्यतः / दुग्धं वर्षति पीयूष-मिव चन्द्रकरोत्करः॥१॥" ती०१ कल्प। रायाभियोग-पुं० (राजाभियोग) राज्ञो नृपादेरभियोगो राजाभियोगः / राजपरतन्त्रतायाम्, ध०२ अधि०। उपा० प्रति०ा गच्छान्तरीयसम्यक्त्वदेशविरत्युच्चारविधिपत्रेषु सम्यक्वोचारालापकप्रान्तवत्द्वादशव्रतोचारालापकप्रान्तेषु अपि 'रायाभि-योगेणमि' त्यादिषडाकारोचारणमस्ति तद् यौक्तिकमन्यथा वा ? इति प्रश्नः-अत्रोत्तरम्-आवश्यकनिर्युक्त्युपासकदशाङ्गादौ श्रावकाणां सम्यक्त्वोच्चार एवषडाकारा उक्ताः सन्ति, न तु द्वादशव्रतोचारे, तेन सम्यक्त्वोचार एवराजाभियोगादिषडाकारोचारणं युक्तिमत्प्रतिभातीति / / 354 / / सेन०३ उल्ला०। रायाभिसेय-पुं० (राजाभिषेक) राज्ञोऽभिषेकक्रियायाम् , नि० चू०। राजाभिषेकसमये निष्क्रामति। सूत्रम्जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुड़ियाणं मुद्धाभिसित्ताणं महाभिसेयवट्टमाणंसि णिक्खमित्तए वा पविसित्तए वा णिक्खमंतं वा पविसंतं वा साइबइ // 19 // जे त्ति-णिद्देसे, भिक्खू पुव्वण्णिओ, राज दीप्तौ ईसरतलवरमादियाणं अभिसेगाण महंततरो अभिसेओ महाभिसेओ, अवि रायत्तेण अभिसेओ तम्मि वट्टते जो तस्स समीवेण वा मज्झेण वा णिक्खमिति पविसति वा तस्स आणादी दोसा-ह। गाहारण्णो महाभिसेगे, वटुंतो जो उणिक्खमे भिक्छ। अहवापविसेनाही, सो पावति आणामादीणि।।७०॥ मंगलममंगले वा, पवत्तणणिवत्तणे य थिरमथिरे। विजए पराजए वा, वोच्छेए वा विपडिसेहं॥७॥ मंगलबुद्धीए पवत्तणे अहिकरणं, अमंगलबुद्धीए णियत्तणे अहिकरणं दोसा वोच्छेदादिया य, जा से थिररजं विजओ वा जातो पुणो पुणो मंगलिएसु अत्थेसुसाहवो तत्थ ठविजंति अहि-करणंठ अत्थिरे पराजये वा वोच्छेदं पडिसेहं वा णिव्विसयादि वा करेज। गाहादठूण व राइडिं, परिसहपराजिओ य कोइंतु। आसंसंवा कुमा, पडिगमणाईणिव पयाणि / / 72 / / पूर्ववत्। गाहाबितियपदमणप्पज्झे, अमिचारकि कोविते व अप्पज्झे। जाणते वावि पुणो, अणुण्णवणॉदीणि कोहि // 73 // कोविए विहिए अणुण्णवितव्यो कि पुव्विं पच्छा मज्झे अणुण्णवेयव्वो? उच्यते गाहानाऊणमणुण्णवणा, पुट्विं पच्छा अमंगलावण्णा। उवओगपुच्छिऊणं, नाए मजमे अणुन्नवणा |74 // ओहावीयाभोगिणि, णिमित्तवसरण वाऽविणाऊणं / महे पुष्वाणुण्णा, पंतमणाए य मज्झम्मि।। 75 / / ओहिमादिणाणाणविसेसेण अभोगिणिज्जाए वा अवितहणिमित्तेण वा उवउजिऊण अप्पणो असति अण्णं वा पुच्छिऊणं थिरंति रजं णाऊणं अणुण्णवण्णा पुव्विं भवति, अथिरंवारजंणाऊण पुट्विं अणुण्णविजंतो अमंगलबुद्धी वा से उप्पजति पच्छा अवज्ञाबुद्धी उप्पजति। ओहिमादिणाणाभावे वा मज्झे अणुण्णा वेति। गाहाअणणुण्णविते दोसा, पच्छा वा अप्पिओ अवण्णो वा। पंते पुव्वममंगल,णिच्छुभणपओसपत्थारो॥७६॥ मम रज्जाभिसेए अट्ठारस पगतीओ सव्वपासंडाय अग्गे घेत्तुमागया इमे य भिक्खुणो णागया, त एते अप्पड्डा-अलोकज्ञा। अहवा-अहमेतेसिं अप्पिओ णिव्विसयादी करेजा। पत्थादि अवज्ञा दोसा भवंति / पुव्वं अमंगलदोसा, तम्हा अणुण्णावेयव्यं / गाहाआभोए जाणह किं, पुट्विं पच्छा णिमित्तविसएण। राया किं देमि त्ति य, जं दिण्णं पुष्वरादीहिं / / 77 // धम्मलाभेत्ताणं ति अणुजाणह पाउग्गं, ताहे जइजाणति पाउग्गं भद्दगो वाताहे भणंतिजं दिण्णं पुव्वरातीहि, राजा भणति किं दिण्णं पुव्वरातीहि, साहवो भणंति-इमं सुणसु-"आहार'' गाहा-एवं भणिये।
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________________ रायाभिसेय 562 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 रास गाहा बहुतरो वग्गो तं पटवावेति। नि० चू०६ उ०| भद्दो सव्वं वितरित, दिक्खावजमणुजाणते पंतो। रायावकारि-पुं० (राजापकारिन्) गृहान्तःपुरनृपतिशरीरतत्पुत्रादिअणुसङ्घाति अकाउं, णिते गुरुगाय आणादी / / 7 // द्रोहकारिणि, ग०१ अधि०1 ध०१ पं०भा०। पं० चू०। नि० चू०। भद्दो भणातिमापव्वावेह सव्वं अणुण्णायं, जह तुझे सव्वं लोगंपव्वावेह राजापकारिस्वरूपमाहकिं करेमो एवं पडिसिद्धा अणुसट्ठादि काउं ततो रजातो णिति चउगुरुं रण्णोऽन्तेउऽवरद्धो, संबंधे तहय दय्वजायम्मि। आणादिणो इमे य दोसा। उन्मुट्ठितो विणासा-य होति रायावकारी तु // 374 / / गाहा इमो रायावकारी रण्णा अंतेउरे अवरद्धो, सयणो वा। किंचि दव्वजातं चेतियसावय पव्वति, कुमअतरंत बालवुड्डीय। वा अवहितं, रण्णो रयणदव्वस्स वा विणासाय अब्भुट्टितो रायावगारी। वत्ता अजंगमा विय, अभत्तितित्थस्स हाणीय // 76|| गाहाएते सव्वे परिचत्ता भवंति-चेतियतित्थकरेसु अभत्ती पवयणे हाणी सचित्ते अचित्ते, व मीसए कूडलेहवहकरणे। कता / एत्थ पडिसिद्ध अण्णथाविपडिसिद्धं, एवं णको विपव्ययति। एवं समणाण व समणीण व,ण कप्पती तारिसे दिक्खा // 37 // हाणी। जे रणो सचित्तं दव्वं-पुत्तादि, अचित्तं-आहारादि, मीसंवा दूतत्तणेण गाहा वा विरोहो कतो कूडलेहेण वा रायविरुद्धं कयं दंडियविरोहो वा पुत्तादिसे अच्छंताण वि गुरुगा, अभत्तितित्थे य हाणिजा वुत्ता। वाहितो, एरिसोण कप्पति पव्वावेउं। भणंति भणावेंति य, अच्छंति अणिच्छ गच्छंति॥५०॥ गाहापडिसिद्धे वि अच्छंताण चउगुरुं, अण्णत्थ वि भवियजीवा वोहियव्वा आसा हत्थीखरिगा,ऽतिवाहिता कतक-तंव-कणकादी। तेण वाहेंति, अओतत्थता सयं भणंति अण्णेहिय भणावेंति, किंचिकालं दोच विरुद्धं च कयं,लीहावहि नो य से काइ।। 376 // पडिक्खंति सव्वहा अणिच्छंते अण्णरजं गच्छंति। तंतु अणुट्ठियदंडं, जो पव्वावेति होति मूलं से। गाहा एगमणेगपदोसे, पत्थारपओसओ वाऽवि॥३७७॥ संदिसह य पाउग्गं, दंडिग णिक्खमण एत्थ वारेति। कंठा, 'वधवंध' गाहा 'अयसो' गाहा, एवमादिदोसे जो पव्वावेति गुरुगा अणिग्गमम्मी, दोसु वि रज्जेसु अप्पबहू // 11 // तस्स मूलं। पुव्वभणियं तुज भण्णति दारगाहा एत्थ पडिसेहे दोसाणुण्णा इमो दोसु कारणे वा पव्वावेजा। गाहावि रज्जेसु अप्पबहु त्ति तम्हा दो रज्जे हवेजा। उको वा मोइतो वा, अहवा वीसजितो नरिंदेणं / गाहा अद्धाण परविदेसे, दिक्खा से उत्तमढे वा।। 378 / / एकहि विदित्त रजे, एगत्थे होति अविदिणं। पूर्ववत्। नि० चू०११ उ०। एगत्थ इत्थियाओ, पूरिसजाता य एगत्थ॥१२॥ रायाहीण-पुं० (राजाधीन) राज्ञो दूरेऽपि वर्तमानाः / राजवशवर्तिनि, तरुणा थेरा य तहा, दुग्गयगा अङ्क कुलपुत्ता। ज्ञा०१श्रु०१४ अ०1 जणवयगा णागरगा, अन्मंतरगा कुमारा य॥३॥ रालग-पुं० (रालक) कविशेषे, स्था०७ ठा०।आव०।दश० प्रा०! अहवा सो भणेज्ज-एणत्थ पव्वावेह; एगत्थमा पव्वावेह। साहवो रज्जेसु ज०म०।०। अप्पबहुंजाणिऊण जत्थबहुया पव्वयंतितत्थगच्छंति, अहवा-एगत्थरजे राला-(देशी०)। प्रियङ्गवे, दे० ना०७ वर्ग 1 गाथा! इत्थियाओ अब्भणुण्णाया एगत्थ पुरिसा, दोसु वि रज्जेसु एगतरं वा / राव-धा०(रंजि) रागे,"रजेः रावः"||८|NIVE |इति रञ्जर्ण्यअहवा-भणेज्ज थेरे पव्वावेह मा तरुणे, अहवा-मा थेरे तरुणे, अहवा- न्तस्य रावाऽऽदेशो वा / रावेइ ! रंजेइ। प्रा० / शब्दे, पुं०1"रोलो दुग्गएपव्वावेह मा अड्डे, अहवा-अड्डे मा दुग्गए, अहवा-कुलपुत्ते कुलपुत्ता राओ" | पाइ० ना०३४ गाथा। णाम-सुसीला, सुसीले पव्वावेह मा दुस्सीले, अहवा-दुस्सीले मा | रावण-पुं० (रावण) दशग्रीवे लङ्काराजे; स च अष्टापदगिरि वालिऋषिसुसीले / एवं जाणपदा णागरा णगरभंतरा बाहिरा कुमारा, कुमारा- सहितम् उत्पाटयन महर्षिपादाङ्गुष्ठानमितगिरिणापीडितः आरावं मुञ्चन् अकतदा-रसंगहा। रावणेति प्रसिद्धिं गतः / ती०४७ कल्प। ति० / अष्टमस्य वासुदेवस्य गाहा लक्ष्मणस्य प्रतिवासुदेवे, प्रव० 211 द्वार। ओहीमाती णातं.जे दिक्खमुर्वेति तत्थ बहुगाओ। राविअ-(देशी०)। आस्वादिते, दे० ना०७ वर्ग 5 गाथा। तं वेति समणुजाणसु, असती पुरिसे य जे य बहू / / 85 // रास-पुं० (रास) शब्दे, ध्वनौ, द्वयोर्द्वयोर्मध्यस्थित्या क्रीडाभेदे, कोलाहले असति त्ति ओहिमादीण पुरिसे पव्वावेति जो वा वि पुरिसा-वियाण | च। वाच० "रासो हल्लीसओ' / पाइ० ना० 271 गाथा।
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________________ रासभ 563 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 रिंगिअ रासभ-पुं० (रासभ) गर्दभे, सूत्र०१श्रु०३ अ०४ उ०।"रासहो गद्दहोय णिकाः। हा० 1 अष्ट० / मण्ड०। राहुविमानेनातिनीचत्वात्सूर्यविमानं खरो''। पाइ० ना० 150 गाथा। कथमाव्रियतेऽत्युचत्वाच तेन चन्द्रविमानम् ? इति प्रश्नः, अत्रोत्तरम्रासभी स्त्री० (रासभी) गर्दभस्त्रियाम् , प्रज्ञा० 11 पद। तत्त्वार्थभाष्यवृत्त्यनुसारेण चन्द्रविमानाद्राहुविमानमुपरिष्टाद्वर्त्तते, तचारासि-पुं० (राशि) समूहे, औ०। ओघ० / अनु० / विशे० / पुजे, ज्ञा० 1 नियतचारत्वात्कदाचित्सूर्यविमानस्याधस्तादृशयोजनानि यावच्चाश्रु०१ अ०। पूगीफलादिसमुदाये, पिं०। इह सजातीयवस्तुसमुदायो धश्चरतीति चन्द्रसूर्ययोरावरणे न काप्याशङ्केति / / 207 / / सेन०२ वर्गाणां समूहो वर्गो राशिरिति पर्यायाः / विशे० / शालिधान्यादिरा- उल्ला०। शिवदाशिः, विप्रकीर्णपुजीकृतधान्यादिपुजवत् पुञ्जः। अनु०। स०। | राहुकम्म-न० (राहुकर्मन्) राहुक्रियाख्यायाम् , सू० प्र० 20 पाहु० / दुवे रासी पण्णत्ता। तं जहा-जीवरासी अजीवरासीय॥ चं० प्र०। सर्वे तदक्षरमध्येतव्यं, किमवसानमित्याह-'जाव से किं तं' इत्यादि, राहुचरिय-न० (राहुचरित) 41 कलाभेदे, स०७२ सम०। केवलमस्य प्रज्ञापनासूत्रस्य चायं विशेषः, इह 'दुवे रासी पण्णत्ता' | राहुहय-न०(राहुहत) रविशशिनोर्यत्र ग्रहणमभूत् तादृशे नक्षत्रे,नि० चू० इत्यभिलापसूत्रम् / स० 146 सम० / स्था० / गच्छे, व्य० 1 उ०। 20 उ० / आ० म० / विशे०। "राहुहयं तु जहिं गहणं, राहुहयम्मिय धान्यादेरुत्करस्तद्विषयं संख्यानं राशिः; सच पाट्यां राशिव्यवहार इति मरणं।" पं०व०१ द्वार :द०प०। राहुणा मुखेन पुच्छेन वा आक्रान्ते प्रसिद्धः / स्था० 10 ठा० ! त्रैराशिकपञ्चराशिकादिषु, स्था० 4 ठा०३ नक्षत्रे, जीत०1 उ०।वर्गराश्यादिषु, विशे०। आ०म०। धान्यादीनां पुजे, ज्योतिश्च- रिअ-न० (ऋत) गमने, रङ्गभूमेनिष्क्रामणे, जं०५ वक्ष०। प्रवेशे, "प्रविशे क्रस्य द्वादशांशे मेषादौ, द०प०॥ रिअः"||४|१५३ / / इति प्रविशे रिअ इत्यादेशो वा। रिअइ। अथ राशीकृतादिपदानां व्याख्यानमाह पविसइ / प्रा०४ पाद। पुंजो यहोति वट्टो, सो चेव य ईसि आयतो रासी। रिउ-पुं० (ऋतु) अत्र केचित् ऋत्वादिषु 'द' इत्यारब्धवन्तः,स तु कुलिया कुडुल्लीणा, भित्ति कडा संसियाभित्ती॥ शौरसेनीमागधीविषय एव दृश्यते इति नोच्यते। प्राकृते तुऋतुः। रिऊ। वृत्तो वृत्ताकारो धान्योत्करः पुजः इत्युच्यते, स एव ईषदायतो मनाक् उऊ / प्रा०। पाइ० ना०।"ऋणदृषमत्वृषी वा" ||8|| दीर्घो राशिः / अपुञ्जः पुञ्जः कृतानीति व्युत्पत्त्यापुजीकृतानि, एवं 1.1 // इति ऋतोः ऋकारस्य 'रिः' वा। रिऊ। मास-द्वयात्मके राशीकृतानीति। बृ० 2 उ०। शनैश्चरादीनां राशिपरावर्तदिनमिदमिति काले, प्रा०। (अस्या वक्तव्यता 'उउ' शब्दे द्वितीयभागे 676 पृष्ठे गता) ज्ञात्वा ये जिनपूजाऽऽचाम्लादिकं कुर्वते तेषां सम्यक्त्वंम्लानं भवतिन | *रिपु-पुं०1"क-ग-च-ज-त-द-प-य-वां-प्रायो लक"।। वा? इति प्रश्नः, अत्रोत्तरम्-शनैश्वरराशिपरावर्त्तदिने विशेषतपःपूजा- 11177 // इति पस्य लुक्। रिऊ। द्विषि, प्रा०। प्रव०ा शत्रौ, "सत्तू दिकरणे सम्यक्त्वम्लानिर्माता नास्तीति॥ 303 / / सेन०३ उल्ला०। ___ अरी अमित्तो रिऊ"! पाइ० ना० / 35 गाथा। राह त्रि० (राध) सुन्दरे, "रुइरं राहं''। पाइ० ना० 14 गाथा। दयिते, | रिउकाल-पुं० (ऋतुकाल) मासान्ते यत् स्त्रीणामजसमसृक् दिनत्रयं निरन्तरे, शोभिते, सनाथे, पलिते, दे० ना०७ वर्ग 14 गाथा। स्रवति स ऋतुकालः / स्त्रीणां रजःप्रवृत्तिकाले, तं०। राहव-पुं० (राघव) मत्स्यविशेषे, “अस्ति मत्स्यस्तिमिर्नाम, शतयोजन- | रिउपडिसण्ण-पुं० (रिपुप्रतिसंज्ञ)अचलबलदेवस्य पितरि प्रजापतौ,स विस्तृतः। तिमिङ्गिलगिलोऽप्यस्ति, तगिलोऽप्यस्ति राघवः॥१॥"। च पूर्व रिपुसंज्ञनामाऽऽसीत् , ततः स्वपुत्रीं मृगावती परिणयन् अचलं सूत्र०२ श्रु०५ अ०। नाम बलदेवंतत्रोत्पाद्य पुत्रीपतित्वेन प्रजापतिरिति प्रसिद्धो जातः। आ० राहस्सिय-पुं० (राहसिक) रहसि भवा राहसिकाः। पुरुषेण परिभुज्य- | म०१ अ० मानायाः स्त्रियाः स्तनितादिषु शब्देषु, बृ०१३०३ प्रक० / नि० चू०।। रिउमइ स्त्री० (ऋजुमति ) सामान्यग्राहिण्यां मतौ, पा०1 (व्याख्या राहावेहग-न० (राधावेधक) राधायाः प्रसिद्धाया वेधो यत्र ज्ञाने | 'उज्जुमइ' शब्दे द्वितीयभागे 736 पृष्ठे) तद्राधावेधकम् / चन्द्रकवेधे, पञ्चा० 14 विव०। रिउया स्त्री० (ऋजुता) आर्जवे, विशे०। राहु-पुं० (राहु) महाग्रहे, "दोराहू," स्था०२ ठा०३उ०।"अब्मपि- | रिउव्वेय-पुं० (ऋग्वेद) चतुण्णां वेदानां प्रथमे व्यवस्थितपादासाओ राहू''। पाइ० ना०३० गाथा। कल्प। प्रज्ञा०। सू०प्र०। प्रश्न०।। त्मकऋगात्मके वेदे, भ०२ श०१ उ०। औ०। ऋग्वेदाहितनिर्णीयव्याच० प्र०। स्वनामख्याते ज्योतिषिकदेवे, औ०। स च द्विधा नित्यराहुः, पारे, स्था०३ ठा०३ उ०। पर्वताहुश्चेति। चं० प्र०।ज्यो०। स०। (कथं चन्द्र सूर्यं वा राहुगुह्णातीति | रिंखा स्त्री० (रिखा) सर्पणक्रियायाम् . बृ०१०। 'गहण' शब्दे तृतीयभागे८६१पृष्ठे उक्तम्) राहोः शिरोमात्रता पुनरेवम्देवैः | रिंगत धा० (रिङ्गत्) रिगि-गतौ, प्रवेशेऽपि। रिंगइ। प्रविशति / गच्छति किलामृतस्य कुण्डानि विष्णुश्च तद्रक्षायां नियुक्तः। ततश्च कार्यान्तर- वा। प्रा०४ पाद। व्याक्षिप्तस्य तदाहुणा पातुमारब्धं, विष्णुना च तं तथा वीक्ष्य चक्रक्षेपेण | रिंगण-नक (रिङ्गण) किञ्चिन्चलने, प्रव०२ द्वार। आव०। तच्छिरश्छेदः कृतः, पीतामृतत्वात्तच्छिरोऽजरामरं संवृत्तमिति पौरा- | रिंगिअ (देशी०) भ्रमणे, दे० ना०७ वर्ग 6 गाथा।
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________________ रिंगिसिया 564 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 रिमिय रिंगिसिया-स्त्री० (रिङ्गिसिका) वौद्यभेदे, रा०। रिट्ठाभ-न० (रिष्टाभ) पञ्चमदेवलोकविमानभेदे, स०८ सम० / कृष्णरिंछोली-स्त्री०1 श्रेणी, "ओली माला राई रिंछोली' पाइ० ना०६३ राजीमध्यमभागवर्तिनि रिष्टाख्यलोकान्तिकदेवाऽऽवासभूते विमाने, भ० गाथा। दे० ना०। ६श०५ उ०। रिंडी-(देशी०) / कन्थाप्रायसि, दे० ना०७ वर्ग 5 गाथा। रिद्विसाल-न० (रिष्टिशाल) अष्टमदेवलोकविमानभेदे, स०१८ सम०। रिक-न० (रिक्त)त्यक्ते, नि० चू०१६ उ०। आचा०। स्तोके, दे० ना०७ रिण-न० (ऋण) "ऋणर्वृषभवृषौ वा"|| 8111141 // इति वर्ग 6 गाथा। "रिकं रितं"। पाइ० ना०२१८ गाथा। रितो रिर्वा / रिणं / अणं / अधमर्णेन उत्तमर्णात् पुनर्देयत्वेनाभ्युपगम्य रिक्किअ-(देशी०)। शटिते, दे० ना०७ वर्ग 7 गाथा गृहीते धने, प्रा०१ पाद! रिक्ख-न० (ऋक्ष) "रिः केवलस्य"||८|११४०॥ इति केवलस्य रितंभरा-स्त्री० (ऋतुम्भरा) अध्यात्मप्रसादानन्त विन्यां योगिप्रज्ञाव्यञ्जनेनाऽसम्पृक्तस्य ऋतो 'रि' इत्यादेशः। रिच्छ। प्रा०।"ऋक्षे याम्, द्वा०। वा"|| 8 / 2 / 16 / / इति ऋक्षशब्दस्थस्य क्षस्य छो वा / रिच्छं। अध्यात्म निर्विचारत्व-वैशारघे प्रसीदति। रिक्खं / नक्षत्रे, प्रा० / चं० प्र०।"रिक्खं उडु नक्खत्तं''। पाइ० ना०६६ | ऋतम्भरा ततः प्रज्ञा, श्रुतानुमितितोऽधिका / / 12 // गाथा। आ० म० / वयःपरिणामे, दे० ना०७ वर्ग 6 गाथा / वृद्धे, दे० / ___ द्वा० 20 द्वा० / ( व्याख्या 'जोग'शब्दे चतुर्थभागे 1630 पृष्ठे गता) ना०७ वर्ग 6 गाथा 1 रिक्ख (च्छ) 1क्षुद्रे, क्रूरे, जन्तुविशेषे, स्था०६ रित्त-न० (रिक्त) तुच्छे, आचा०१ श्रु०२ अ०६ उ०। "रिक रित्त'। पाइ० ना०२१८ गाथा। ठा०३ उ०। रित्तग-पुं० (रिक्तक) शुद्धे, आ० चू० 4 अ०। रिक्खण-(देशी०)। उपालम्भे, कथने च। दे० ना०७ वर्ग 14 गाथा। रित्तमुट्ठि-स्त्री० (रिक्तमुष्टि) पोल्लकमुष्टौ, तं०। रिग्ग-(देशी०) प्रवेशे, दे० ना० 7 वर्ग 5 गाथा। रित्तहत्थ-पुं० (रिक्तहस्त) फलादिशून्यकरे, "रिक्तहस्तो न वै पश्येत्, रिच्छ-पुं० (ऋक्ष) नक्षत्रे, प्रा० / भल्लूके, "रिच्छो य अच्छ-हल्लो''। राजानं देवतां गुरुम्। निमित्तत्वं विशेषेण, फलेन फलमादिशेत्॥१॥"| पाइ० ना० 128 गाथा। वृद्धे, दे० ना०७ वर्ग 6 गाथा। कल्प०१ अधि० 4 क्षण। रिच्छज्झय-पुं० (ऋक्षध्वज) ऋक्षाङ्कितध्वजे, रा०। रित्तूडिअ-(देशी०)। शातिते, दे० ना०७ वर्ग 8 गाथा। रिच्छभल्ल (देशी०) ऋक्षे, दे० ना०७ वर्ग 7 गाथा। रित्थ-न०(रिक्थ) धने,"रित्थं दविणं"। पाइ० ना०५० गाथा। रिजु-पुं० (ऋजु) "ऋणज्र्वृषभवृषौ वा"।।८।१।१५१॥ इति रिद्ध-न० (ऋद्ध) संपत्ती, धनधान्यभवनादिभिर्वृद्धिमुपगते, त्रि०। सू० रिर्वा ! रिजू / उजू। सरले, प्रा० 1 पादा प्र०१ पाहु० / विपा० / प्रश्न / ज्ञा०। भ०। "रिद्धस्थिमियसमिद्धा"। रिजुभाव-पुं० (ऋजुभाव) ऋजुरकुटिलो मोक्षं प्रति प्रगुणो यो भावः / ऋद्धा भवनैः पौरजनैश्चातीव वृद्धिमुपगता "ऋद्धवृद्धौ" इति वचनात्। परिणामः स ऋजुभावः / मोक्षौपयिकपरिणामे, बृ०१ उ०२ प्रक०। रा०। औ० भ० / चं० प्र० / आगामिन्यामुत्सर्पिण्यां भारते भविष्यति रिट्ठ-पुं० (रिष्ट) रत्नविशेषे, आ० म०१०।ती०। औ०। ज्ञा०। जं०। द्वादशे चक्रवर्तिनि। ति०! पक्के, दे० ना०७ वर्ग 6 गाथा। रा० / प्रव०जी०। काके, दे० ना०७ वर्ग 6 गाथा। वेलम्बस्य प्रभञ्ज रिद्धमेहवण-न० (ऋद्धमेघवन) भारते वर्षे रोहिडनगरस्य समीपोद्याने, नेन्द्रस्य च तृतीये लोकपाले, स्था० 4 ठा०१ उ०। महाकच्छविजया नि०॥ ख्यराजधान्याम् , स्था०२ ठा०३ उ० पक्षिविशेषे, कलविशेषे च / रिद्धि-स्त्री० (ऋद्धि) "रिः केवलस्य"॥ 811 | 140 / / इति औ० / ज्ञा० / काके, "वलिउहा रिट्ठा"। पाइ० ना० 54 गाथा। दे० ना०। व्यञ्जनेनासम्पृक्तस्य ऋतो रि इत्यादेशः / रिद्धी / प्रा० / "इत् रिद्वकंड-न० (रिष्टकाण्ड) रत्नप्रभायाः पृथिव्याश्चतुर्दशे काण्डे, स्था० कृपादौ"||१1१२८॥ इति ऋत इत्त्वम् "श्रद्धर्द्धिमूर्धिs१० ठा०। न्ते वा"|| 81241 / / इति एष्वन्ते वर्तमानस्य संयुक्तस्य ढो वा रिद्वकूड-पुं० (रिष्टकूट) जम्बूद्वीपे मन्दरस्य पूर्वे रुचकरपर्वतस्य प्रथमे भवति / इड्डी। रिद्धी / प्रा० / अनेककोटीसंख्यद्रव्यादिसम्प-द्विशेषे, कूटे, स्था०८ ठा० प्रा० / स०। समूहे, दे० ना०७ वर्ग 6 गाथा। "विच्छड्डो सामिद्धी रिठ्ठपुर-पुं० (रिष्टपुर) कच्छगावत्याख्यराजधान्याम् , "दो रिट्ठपुरे''। रिद्धी०"। पाइ० ना० 62 गाथा / स्था०२ ठा०३ उ०। रिद्धिविद्धिजुत्त-त्रि०(ऋद्धिवृद्धियुक्त) ऋद्धिवृद्ध्यभिधानौपधिसनाथे, रिट्ठमय त्रि० (रिष्टमय) रिष्टरत्नमये, जी०३ प्रति० 4 अधि० ज०। रा०ा 'मंगलपडिसरणाइचित्ताई रिद्धिविद्धिजुत्ताइं"। पंञ्चा० 8 विव०। रिट्ठा-स्त्री० (रिष्टा) मदिरायाम् , ज्ञा० 1 श्रु०१७ अ० 1 या शास्त्रान्तरे | रिप्प-(देशी०)। पृष्ठे, दे० ना०७ वर्ग 5 गाथा। जम्बूकलकालिकेति प्रसिद्धा ! जं०२ वक्ष० / पञ्चमनरकपृथिव्याम् , रिमिय-न० (रिभित) स्वरघोलनाप्रकारे, ज्ञा०१श्रु०१७अ०।त्रिका स्वरघोलनास्था०७ ठा० 3 उ० / जी०। "दो रिट्ठाओ'। स्था० 2 ठा०२ उ०। | प्रकारोपेते, यत्रस्वरोऽक्षरेषुधोलनास्वरविशेषेषुचसञ्चरिङ्गतीवप्रतिभाषतेस
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________________ रिमिय 565 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 रुक्ख पदसञ्चारः रिभित उच्यते। ज्ञा०१ श्रु०१६ अ०) रा०। स्था०। न०। रीयमाण त्रि० (रीयमाण) संयमानुष्ठाने, गच्छति, विहरति च। आचा०१ नाट्यभेदे, आ० म०१ अ०। स्था०। श्रु०६ अ०२ उ०। उत्त०। भ०। बृ०। रिमिण (देशी०)। रोदनशीले, दे० ना०७ वर्ग 7 गाथा। रीर धा० (राज) दीप्तौ, "राजेरग्घ छज्ज-सह-रीर-रेहाः" ||8| रियन० (ऋत) सत्ये, 108 श०७ उ०। 1 / 100 / / इति राजे रीर आदेशः। रीरइ / राजति। प्रा०। रियारिय न० (रितारित) गमनागमने, रा०। जी० / आ० म०। रुअरुइआ (देशी०) उत्कण्ठायाम् , दे० ना०७ वर्ग 8 गाथा। रिरंसा स्त्री० (रिरंसा) कदलीगृहादिक्रीडायाम् , आ० म० 1 अ०। रुइस्त्री० (रुचि) परमश्रद्धायाम् , आत्मनःपरिणामविशेषरूपे, बृ०१ उ० रिरिअ (देशी०)। लीने, दे० ना०७ वर्ग 7 गाथा। 1 प्रक० / चेतोऽभिप्राये, सूत्र०२ श्रु० 1 अ० / ध० / विशे० / रिसजिह-पुं० (रिश्यजिह्व) महाकुष्ठभेदे, प्रश्न०५ संव० द्वार। अभिलाषरूपे, स्था०१० ठा०। प्रीतौ, आव०४ अ०। विशे०। नैर्मल्ये, रिसभ-पुं०(ऋषभ)"ऋणज्र्वृषभत्वषौ वा"|| 8 ||141 // उत्त०१ अ०। इति ऋतो रिर्वा / रिसहो। उसहो। वृषभे, प्रा०१पाद। प्रथम-तीर्थकरे, तिविहा रुई पण्णत्ता / तं जहा-सम्मरुई मिच्छरुई सम्माआ० म० (व्याख्या 'उसभ' शब्दे 113 पृष्ठे) मिच्छराई। स्था०३ ठा०३ उ०। *ऋषभो वृषभस्तद्वद्यो वर्त्तते स ऋषभ इति, आह च-"वायुः समुत्थितो रुइर न० (रुचिर) मनोजे, उत्त०३२ अ० / स्निग्धे, जं०१ वक्ष० / नाभेः, कण्ठशीर्षसमाहतः। नर्दत्वृषभवद्यस्मात् , तस्मादृषभ उच्यते।। सुन्दरे,"रुइरं राह रम्म"। पाइ० ना०१४ गाथा। 1 // " इत्युक्तलक्षणे स्वरभेदे,स्था०७ ठा०। अनु०।अस्थिद्वयस्यावेष्टके रुइल त्रि० [रुचि(र)ल] रुचिर्दीप्तिस्तां लान्त्याददतीति रुचि-लानि। पट्टे,तं०। सद्दीप्तिमत्सु। सूत्र०२ श्रु० 1 अ०। मनोज्ञे, औ०। जं०। जी०स०। रिसभपुर न० (ऋषभपुर) जम्बूद्वीपे मन्दरस्य पूर्वतः शीतोदायाः ब्रह्मलोके स्वनामख्याते विमाने, न०। ब्रह्मलोके हि "रुइल्लं रुइल्लावंतं महानद्याः दक्षिणस्थे राजधानीभेदे, ती०१० कल्प। रुइल्लप्पभं रुइल्ललेसं रुइल्लवण्णं' इत्यादि विमानानि सन्ति। स० रिसि-पुं० (ऋषि) "ऋणर्वृषभवृषौ वा"|| 8 / 1 / 141 // इति सम० ऋतो रिर्वा / रिसि। इसि / गच्छगतगच्छनिर्गतादिभेदेषु साधुषु, प्रा०। संचणी (देशी०)। घरट्ट्याम् , दे० ना०७ वर्ग 8 गाथा। पा० / मुनौ, "जइणो तवस्सिणो तावसा रिसी'। पाइ० ना० 32 गाथा। रंचिजमाण त्रि० (रुचीयमान) श्लक्ष्णखण्डीयमाने, जं०१ वक्ष० / रिसिघायण न० (ऋषिघातन) ऋषिवधे, "विजं परिभवमाणो, आयरि आ०म०॥ आणं गुणे पणासिंतो। रिसिघायणाण लोअं, वच्चइ मिच्छत्तसंजुत्तो।" रंजधा० (रु)शब्दे,"रुते रुंज-रुण्टौ"||८||५७॥ इति रौतेः द०प०। रिसिदास-पुं० (ऋषिदास) "साकेतनगरे याते सार्थवाहपुत्रे, अणु०। (स रुंजादेशः 1 रुंजइ। प्रा० 4 पाद। च वीरान्तिके प्रव्रज्य बहुवर्षाणि श्रामण्यं परिपाल्य सर्वार्थसिद्धे उत्पद्य रु(रु)जग-पुं० (रुचक) द्रुमे, कस्मिंश्चिद्देशे द्रुमाः रुचका इत्याख्यायन्ते। महाविदेहे सेत्स्यतीति अनुत्तरोपपातिकदशानां 3 वर्ग तृतीयाध्ययने दश०१०॥ सूचितम्) रंटिय त्रि० (रुत) गुञ्जितध्वनौ, पाइ० ना० 262 गाथा। रिसिभासियन० (ऋषिभाषित) उत्तराध्ययनादिश्रुते, विशे०। "देवलोग संढ (देशी )आक्षिके, कितव इत्यर्थः / दे० ना०७ वर्ग 8 गाथा। घुयाणं इसीणं चोयालीसं इसिभासिय अज्झयणा''। स० "पण्हवा रुढिअ (देशी०)। सफले, दे० ना०७ वर्ग 18 गाथा। गरणदसाणं दस अज्झयणा पण्णता, तं जहा-उवमा-संखा-रि(इ) रुंद त्रि० (रुन्द) विस्तीर्णे, बृ०१उ०३ प्रक०। औ०। ध०। नि० चू०। सिभासियाइं"। स्था०१० ठा०। नं०। प्रश्न०। शिखरितलकूटाधिपतिदेवे,द्वी०। स्थूले, पाइ० ना०७३ रिसिवज्झा स्त्री० (ऋषिहत्या) ऋषिव्यापादने, "राअं पिअं वजह गाथा। विपुले, मुखरे च।.दे० ना०७ वर्ग 14 गाथा। रिसिवज्झा जह न सुंदरो होइ।" बृ० 1 उ० 3 प्रक०। रुंघंतिया स्त्री० (रुन्धन्तिका) यन्त्रके ब्रीहिकोद्रवादीनां निस्तुरिसिवाइय-पुं० (ऋषिवादिक) गन्धर्वभेदे, प्रज्ञा०१ पद। षत्वकारिकायां क्रियायाम् ज्ञा०१ श्रु०७ अ०॥ रीइ स्त्री० (रीति) स्वभावे, अनु० / भ०। संध धा० (रुन्ध) आवरणे,"रुधेः रुत्थकः"||||१३३ / / इति रीइया स्त्री० (रीतिका) पित्तलाख्ये धातुविशेषे, औ०। आचा०। रुधेः रुत्थनः इत्यादेशो वा / उत्थडइ / रुंधइ। प्रा०1"व्यञ्जनारीडधा० (मडि) इदित्। चुरा०। भूषायाम् ,"मण्डे चिञ्च-चिचिअ- | ददन्ते"|| 81 41239 / / इति व्यञ्जनाद्धातोरन्ते अकारः।रुंधइ। चिचिल्ल-रीड-टिविडिक्काः"|| 8 | 4 | 115 / / इति मण्डे: रुणद्धि / प्रा०। "मो दुह-लिह-वह-रुधामुचातः"||८|| रीडादेशः। रीडइ / मण्डयति। प्रा० 4 पाद। 255 / / इति द्विरुक्तेः डभो वा / रुभइ / रुधिज्जइ / प्रा०४ पाद। रीढ (देशी०) / अवगणने, दे० ना०७ वर्ग 8 गाथा। रंभणन० (रोधन) आवरणे, प्रश्न०१आश्रद्वार। गुप्तप्रक्षेपणे, बृ०३ उ०। रीढा स्वी० (रीढा) यदृच्छायाम् घुणाक्षरन्याथे,बहुधम्मचरण-हसणं, रुक्ख-पुं० न०। (वृक्ष)पुं०। "वृक्ष-क्षिप्तयोः रुक्ख-छूढो"|| रीढा जणपूयणिज्जाणं / बृ० 1 उ० 3 प्रक० / जी०। अनादरे, ''हेलाय / 2 / 127 / / इति वृक्षे रुक्खादेशो वा ! रुक्खो / वच्छो / प्रा० / अनादरो रीढ''| पाइ० ना० 162 गाथा। "गुणाद्याः क्लीबे वा" // 8 // 1 // 34 // इति प्राकृते क्लीबत्वं वा
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________________ रुक्ख 566 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 रुक्खासण च्यम् / रुक्खाई। रुक्खा / वृश्च्यत इति वृक्षाः। चूताऽऽशोका-दिकेषु तमारुह्य कश्चिद्गन्धादिगुणसमन्वितानां कुसुमानां सञ्चयं कृत्वा तदधोतरुषु,कल्पादिगुमेषु च। प्रा०। उत्त०। (भेदाः एगट्ठिय' शब्दे तृतीयभागे भावर्तिनापुरुषाणां तदारोहणासमर्थानामनुकम्पया कुसुमानि विसृजति, ११पृष्ठेगताः) तेऽपि च भूपातरजोगुण्डन-भयात् विमलविस्तीर्णपटैः प्रतीच्छन्ति, से किं तं सक्खापण्णत्ता? गोयमा!तिविहारुक्खापण्णत्ता।। 'पुनर्यथोपयोगमुपभुजानाः पुरेभ्यश्चोपकुर्वाणाः सुखमाप्नुवन्ति / एवं तं जहा-संखेजजीविया, असंखेनजीविया, अणंत-जीविया। भाववृक्षेऽपि सर्वमिमायोज्यम् / (86 मा० टी०)। आ० म०१ अ०। भ० से किं तं अणंतजीविया ? अणंतजीविया अणेगविहा विशे०। (श्रमणार्थ निष्पादित आम्रवृक्ष साधूनांन कल्पते इति 'आधापण्णत्ता,तं जहा-आलुए मूलए सिंगबेरे। भ०८ श०३ उ०। कम्म' शब्दे द्वितीयभागे 242 पृष्ठे उक्तम्) बहुबीजकवृक्षप्रतिपादनार्थमाह *रूक्ष-पुं०। पुद्गलद्रव्याणां मिथोऽसंयुज्यमानानामबन्धनिबन्धने भस्मासे किं तं बहुबीयगा ? बहुबीयगा अणेगविहा पण्णत्ता तं जहा द्याधारे स्पर्शनभेदे, कर्म०१ कर्म०॥ अस्थिय तेंदु कविटे, अंवाङग माउलिंग विल्ले य। .. रुक्खकालिय-न० (वृक्षकालिक) अनन्तोत्सर्पिण्यवसर्पिणीमाने, आ० आमलग फणिस दालिम, आसोठे उंबर वडे य // 15 // म०१ अ०। णग्गोह णंदिरक्खे, पिप्परी सयरी पिलुक्खरक्खे य। रुक्खगिह-न० (वृक्षगृह) वृक्ष एव गृहाकारः वृक्षगृहं, वृक्षे वा गृहं वृक्षगृहम् / काउंबरि कुत्युंभरि, बोद्धव्वा देवदाली य // 16 // वृक्षप्रधाने, तदुपरि वा गृहे, नि० चू०१२ उ01 आचा०। तिलए लउए छत्ताह-सिरीस सतवन्न दहिबन्ने। रुक्खगुंद-न० (वृक्षगुन्द) वृक्षनिर्यासे, ल० प्र०। लोद्धधवचंदणऽशुण-णीमे कुडए कयंबे य१७॥ रुक्खगेहालय-पुं० (वृक्षगेहालय) वृक्षरूपाणि गेहानि आलया आश्रया . जे यावन्ने तहप्पगारा, एतेसि णं मूला वि असंखेनजीविया येषाम्। वृक्षरूपगेहनिवासिषु, जं० 2 वक्ष०1 कंदा विखंदा विसाला वि, पत्ता पत्तेयजीविया, पुप्फा अणेग रुक्खपइट्ठिय-न० (वृक्षप्रतिष्ठित) स्फुटितबीजप्रतिष्ठित आहारशय नादौ, दश० 4 अ०। जीविया, फला बहुबीयगा। सेत्तं बहुबीयगा, सेत्तं रुक्खा। रुक्खफासणाम-न० (रूक्षस्पर्शनामन्) यदुदयाजन्तुशरीरं भूत्यादिवच अथ के ते बहुबीजगाः?, सूरिराह-बहुबीजका अनेकविधाः प्रज्ञप्ताः, रूक्षं भवति तद्रूक्षस्पर्शनाम। स्पर्शनामभेदे, कर्म०१ कर्म०! तद्यथा-'अस्थिये त्यादिगाथात्रयम्, एतेच अस्थिकतिन्दुककपित्था रुक्खमूल-न० (वृक्षमूल) वृश्च्यत इति वृक्षः, तस्य मूलम्। सहकारादिम्बाडकमातुलिङ्गविल्वाऽऽमलकपनसदाडिमाश्वत्थोदुम्बरवटन्य वृक्षस्याधोभागे, उत्त०२ अ० 1 वृ०। औ०। ग्रोधनन्दिवृक्षपिप्पलीशतरीप्लक्षकादुम्बरिकु स्तुम्भदेवदालितिल रुक्खमूलगिह-न० (वृक्षमूलगृह) वृश्च्यत इति वृक्षः तस्य मूले गृहम्। कलवकच्छत्रोपगशिरीषसप्तपर्णदधिपर्णलोद्भधवचन्दनार्जुननीपकुट सहकारादिवृक्षस्याधोभागे गृहे, उत्त० 2 अ० / बृ०। औ० / वृक्षस्य जकदम्बकानां मध्ये केचिदतिप्रसिद्धाः केचिद्देशविशेषतो वेदितव्याः, करीरादेर्निर्गलस्य मूलमधोभागस्तदेव गृहं वृक्षमूलगृहम् / वृक्षाधोगृहे, नवरमिहामलकादयो न लोकप्रसिद्धाः प्रतिपत्तव्याः, तेषामेकास्थिक स्था०३ ठा०४ उ०। त्वात् , किस-देशविशेषप्रसिद्धाः बहुबीजका एव केचन, 'जे यावन्ने रुक्खमूलिअ-पुं० (वृक्षमूलिक) वृक्षमूल एव सदा वासिनि वानप्रस्थे, तहप्पगार ति येऽपि चान्ये तथाप्रकाराः-एवंप्रकारास्तेऽपि च औलानि० चू०। वैताठ्यपर्वतवासिनि विद्याधरमनुष्ये, आ० चू०१०। बहुबीजका मतव्याः। एतेषामपि मूलकन्दस्कन्धत्वक्शाखाप्रवालाः रुक्खविगुष्वणा-स्त्री० (वृक्षविकुळणा) वृक्षविक्रियापादने, स्था०। प्रत्येकमसंख्येयप्रत्येकशरीरजीवकाः, पत्राणि प्रत्येकजीवकानि, पुष्पा वृक्षविभूषामाहण्यनेकजीवकानि, फलानि बहुबीजकानि, उपसंहारमाह-सेत्तमित्यादि चउव्यिहारुक्खविगुटवणापण्णत्ता। तंजहा-पवालत्ताए पत्तत्ताए निगमनद्वयं सुगमम् / प्रज्ञा० 1 पद / स्था० / जी० ! आचा० 1 स०। पुप्फत्ताए फलत्ताए। (सू०३४४४) सूत्र०। ज्ञा०। दश०।व्य०। ('संखेज्जजीविय' शब्दे संख्यातजीविकान 'चउव्विहे' त्यादि, अथवा-पूर्वमुञ्छजीविकासम्पन्नः साधुपुरुष उक्तः, वक्ष्यामि) (असंख्यातजीविकाः 'असंखेजजीविअ' शब्दे प्रथमभागे तस्य च वैक्रियलब्धिमतस्तथाविधप्रयोजने वृक्ष विकुळतो यद्विधा 820 पृष्ठे गताः) तद्रिक्रिया स्यात्तामाह- 'चउविहा' इत्यादि, पातनयैवोक्तार्थ, नवरं अथवृक्षनिक्षेपमाह 'प्रवालतयेति' नवाङ्कुरत-येत्यर्थः। स्था० 4 ठा० 4 उ०। वृक्षोद्विधा-द्रव्यतो, भावतश्च।द्रव्यतः प्रधानो वृक्षः कल्प-वृक्षः,यथा- [ रुक्खासण-न० (वृक्षासन) स्नेहरहितभोजने,बृ०१ उ०३ प्रक०।
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________________ रुग्ग 567 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 रुह रुग्ग-त्रि० (रुग्र) जीर्णतां गते, ज्ञा० 1 श्रु०७ अ०। रोगिणि, पाइ० ना० 243 गाथा। रुट्ट-त्रि० (रुष्ट) क्रोधविमोहिते, नि०१ श्रु०१ वर्ग 1 अ० / विपा० / उदितक्रोधे, भ०७ श०६ उ० / ज्ञा० / प्रश्न०। रुट्ठवंदण-न० (रुष्टचन्दन) क्रोधाध्मातो वन्दते, क्रोधाध्मातं वा।। वन्दनदोषविशेषे, आव०३ अ०। "रोसेण धमधमंतो जं वंदइ रुट्टमेअं तं''रोषेण केनाऽपि स्वविकल्पजनितेन 'धमधमंतो' त्ति जाज्वल्यमानो यद्वन्दते तत् रुष्टवन्दनकमिति। आव०३अ० प्रव०1आ० चू०।। रुण्ट-धा० (रु) शब्दे, "रुतेः रुञ्ज-रुण्टौ"1111४७॥ इति रौतेरेतावादेशौ वा / रुञ्जइ। रुण्टइ। रौति। प्रा०। रुण्ण-न० (रुदित) "रुदिते दिना पणः"||८1१।२०६ // इति रुदिते दिनासह तस्य द्विरुक्तो णो भवति। प्रा०ारुण्णं / अश्रु विमोचने, प्रश्न०५ संव० द्वार। भगवत्यपवर्ग गते, भरत-दुःखमसाधारणभवबुध्य तदपसरणाय शक्रेण कृतस्ततोलोकेऽपिततः कालादारभ्य रुदितशब्दः प्रवृत्तः / तथा चाह-लोकोऽपि तथा भरतवद शक्रवद वा रुदितशब्द प्राकृतः कर्तुमारब्धवान्। आ० म०१ अ०। रुत्तजोणि-न० (रुदितयोनि) रुदितं योनिर्जातिः समानरूपतया यस्य तत् रुदितयोनिकम् / रुदितसमाने गीते, "सत्त सरा णाभीओ, भवंति गीतं च रुत्तजोणी यं''स्था०८ ठा०३ उ०॥ रुद्द-पुं० (रुद्र)"द्रे रो न वा"|| 8 / 2 / 80 // इति द्रशब्दे रेफस्य वा लुक् / रुद्दो। रुद्रो। हरे, प्रा०। अनु० / भ० / आव०। श्लेषानक्षत्रस्याऽधिपतौ, जं०७ वक्ष०। (तन्नामनिरुक्तिः जैन-शास्वप्रसिद्धा) नारकाणां दुःखोत्पादके असुरकुमारविशेषे, प्रश्न० 5 संव० द्वार / स० / भ० / प्रव० / आव०। अपिचअसिसत्तिर्कोततोमर-सूलतिसूलेसु सूइवियगासु। पोयंति रुद्दकम्मा उ, णरगपाला तहिं रोहा / / 75 // तथा अन्वर्थाभिधाना रौद्राख्या नरकपाला रौद्रकर्माणो नानाविधेष्वसिशक्त्यादिषु प्रहरणेषु नारकानशुभकर्मोदयवर्तिनः प्रोतयन्तीति / सूत्र०६ अ०१ उ०। तृतीयबलदेववासुदेवपितरि, आव०१ अ०।ति० / स्था०1 पार्श्वनाथतीर्थाधिष्ठायके देवे, ती०५ कल्प। अहोरात्रस्य प्रथमे मुहूर्ते, ज्यो०२पाहु०।सू०प्र०ा जं०।सका कल्प। आचा०ाचं०प्र०। पर्युषणायां कलह-क्षामणावसरे उदाहृते खेटवास्तव्ये बलीबईमारके द्विजे, कल्प 1 अधि०५ क्षण। रौद्रे, प्राणिनां भयोत्पादके, त्रि०। सूत्र०१ श्रु० 5 अ०२ उ० / रोदयत्यपरानिति रुद्रः। प्राणिवधादिपरिणत आत्मैव तस्यैकं कर्म रौद्रम् / ध्यानविशेषे, न० / प्रव०६द्वार। चण्डे, तीव्र च। सूत्र०२ श्रु०३ अ०। महादेवे, तत्कथा चैवम्- ''वेसालिजणो सव्वो महेसरेण नीलवंतम्मि साहरिओ। को महेसरो ति? तस्सेव चेडगस्स धूया सुजेट्ठा वेरगा पव्वइया, सा उवस्सयस्तो आयावेइ, इओ य पेढालगो नाम परिव्वायओ विज्जासिद्धो विजाउदाउकामो पुरिसं मग्गइ, जइ वंभचारिणीए पुत्तो होज्जा तो समत्थो होजा, तं आयाती दतॄणं धूमिगावामोहं काऊण विजाविवज्जासो तत्थ से रितुकाले जाए गन्भे अतिसय-णाणीहिं कहियं-न एयाए कामविकारो जाओ, सङ्ख्यकुले वडा-विओ, समोसरणं गओ साहुणीहिं सह, तत्थय कालसंदीवो वंदित्ता सामि पुच्छइ-कओ मे भयं ? सामिणा भणियं-एयाओ सच्च-तीओ ताहे तस्स मूलं गओ, अवण्णाए भणइअरे तुम ममं मारेहिसि त्ति पाएसु बला पाडिओ, संवडिओ, परिव्वायगेण तेण संजतीणं हिओ, विजाओ सिक्खाविओ, महारोहिणिं च साहेइ, इमं समत्तं भवं, पंचसु मारिओ, छोछम्मासावसेसाउएणनेच्छिया, अहसाहेत्तुमारद्धो अणाहमडए चितिय काऊण उज्जालेत्ता अल्लचमं वियडित्ता वामेण अंगुट्ठएण ताव चंकमइ जाव कट्ठाणि जलंति, एत्थंतरे कालसंदीवो आगओ कट्ठाणि छुडभइ, ससत्तरते गए देवया सयं उवट्ठिया-मा विग्धं करेहि, अहं एयस्स सिज्झिउकामा, सिद्धा भणइ-एणं अंगं परिचय जेण पविसामि सरीरं, तेण निलाडेण पडि-च्छिया, तेण अइयया, तत्थ बिलं जायं, देवयाए से तुट्ठाए तइयं अच्छिं कयं, तेण पेढालो मारिओ, कीस णेणं मम माया रायधूय त्ति विद्धसिया; तेण से रुद्दो नामंजायं, पच्छा कालसंदीवं आभोएइ, दिट्ठो, पलाओ, मग्गओ लग्गइ, एवं हेहा उवरिं च नासइ, कालसंदीवेण तिन्नि पुराणि विउविता, सामिपायमूले अच्छइ, ताणि देवयाणि पहओ, ताहे ताणि भणंति-अम्हे विज्जाओ, सो भट्टारगपायमूलं गओत्ति तत्थगओ, एक्कमेकं खामिओ। अण्णे भणंति-लवणे महापायाले मारिओ, पच्छा सो विज्जा चक्कवट्टी तिसंझं सव्वतित्थगरे वंदित्ता णटुं च दाइत्ता पच्छा अभिरमइ, तेण इंदेण नामं कयं महेसरो त्ति, सो वि किर घेज्जाइयाण पओस-मावण्णो धिज्जाइयकन्नगाण सयं सयं विणासेइ, अन्नेसुअंतेउरेसु, अभिरमई तस्स य भणंति दो सीसा-नंदीसरोनंदीय, एवं पुप्फएण विमाणेण अभिरमइ, एवं कालो वच्चइ / अन्नया उज्जेणीए पज्जो-यस्स अंतेउरे सिवं मोत्तूणं सेसाओ विद्धंसेइ, पज्जोओ चिंतेइको उवाओ होज्जा जेण एसो विणासेज्जा ? तत्थेगा उमा नाम गणिया रूवस्सिणी, सा किर धूवग्गहणं गेण्हइ जाहे ते णतेण एइ, एवं क्चइ काले उइण्णो, ताए दोण्णि पुप्फाणि वियसियं मउलियं च मउलियं पणामियं महेसरेण वियसियस्स हत्थो पसारिओ, सा मउलं पणामेइ एयस्स तुज्झे अरहसि त्ति, कह? ताहेभणइ-एरिसिओ कण्णाओममंतावपेच्छह, तीए सह संवसइ हियहियओ कओ, एवं वच्चइ कालो। सा पुच्छइ-काए वेलाए देवयाओ ओस-रंति? तेण सिट्ठ-जाहे मेहुणं सेवामि, तीएरण्णो सिट्ठमा ममं मारेहि त्ति, पुरिसेहिं अंगस्स उवरि जोगा दरिसिया, एवं रक्खामो, ते य पजोएण भणिया-सह एयाए मारेह माय दुरारद्धं करेहिह, ताहेमणुस्सा पच्छण्णं गया, तेहिं संसट्ठो मारिओ सह तीए, ताहे नंदीसरोताहिं विजाहिं अहिडिओ आगासे सिलं विउव्वित्ता भणइ-हा दास ! मओऽसि ति, ताहे सनगरो राया उल्लपडसाडगो खमाहि एगावराह ति, सो भणइ-एयस्स जह एणमेतदवत्थं अचेह तो मुयामि, एवंचणयरेणयरे एवं अवाउडियंठावेह
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________________ रुद्द ५६८-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 रुहज्झाण त्ति तो मुयामि, तो पडिवण्णो, ताहे आययणाणि कारावियाणि, एसा | पिसुणासम्भॉसब्भूय-भूयघायाइवयणपणिहाणं। महेसरस्स उप्पत्ती।"आव०४ उ०॥ मायाविणोऽइसंघण-परस्स पच्छन्नपावस्स।।२०।। रु(रो)हज्झाण-न० (रौद्रध्यान) रोदयत्यपरानिति रुद्रः। प्राण्युपघाता- पिशुनासभ्यासद्भूतभूतघातादिवचनप्रणिधानम्- इत्यत्रा-निष्टस्य दिपरिणत आत्मैव तस्येदं कम्मं रौद्रम् / उत्त० पाई० 30 अ०! सूचकं पिशुनं पिशुनमनिष्टसूचकम्। पिशुनं सूचकं विदुः' इति वचनात्, हिंसाद्यतिक्रौर्यानुगतं रौद्रम् / स्था० 4 ठा० 1 उ० / आव०। रौद्रभावं सभायांसाधुसभ्यं, न सभ्यमसभ्यम्-जकारमकारादि,नसद्भूतमसद्भूतगतो रौद्रः। उक्तं च-हिंसानुरञ्जितं रौद्रम्। आ० चू० 4 अ०। तच्च ध्यानं मनृतमित्यर्थः, तच्च व्यवहारनयदर्शने-नोपाधिभेदतस्विधा, तद्यथाचेति। हिंसानृतचौर्यधनसंरक्षणाभिधानलक्षणेध्यानभेदे, स०४ सम०। अभूतोद्भवनम् , भूतनिह्नवो, ऽर्थान्तराभिधानं चेति, तत्राभूतोद्भावनं "संछेदनैर्दहन-भञ्जनमारणैश्च, बन्धप्रहारदमनैर्विनिकृन्तनैश्च / यो यथा-सर्वगतोऽयमात्मेत्यादि, भूतनिह्नवस्तुनास्त्येवात्मेत्यादि, याति रागमुपयाति च नानुकम्पाध्यानं तुरौद्रमिति तत् प्रवदन्ति तज्ज्ञाः गामश्वमित्यादि ब्रुवतोऽर्थान्तराभिधानमिति, भूतानांसत्त्वानामुपघातो // 1 // " दश०१ अ० आव०।पा। यस्मिन् तद्भूतोपघातं छिन्धि भिन्धि व्यापादय इत्यादि, आदिशब्दः रौद्रध्यानभेदानाह प्रतिभेदं स्वगतानेकभेदप्रदर्शनार्थः, यथा-पिशुनमनेकधाऽनिष्टसूचकरोहे झाणे चउटिवहे पण्णत्ते / तं जहा-हिंसाणुबंधि 1, मित्यादि, तत्र पिशुनादिवचनेष्वप्रवर्त्तमानस्यापि प्रवृत्ति प्रति प्रणिधानंमोसाणुबंधि२, तेणाणुबंधि ३,संरक्खणाणुबंधि॥ 5 // दृढाध्यवसानलक्षणं रौद्रध्यानमिति प्रकरणागम्यते। किं विशिष्टस्य सत हिंसा-सत्त्वानां वधबेधबन्धनादिभिः प्रकारैः पीडामनुबध्नातिसतत- इत्यत आह-माया-निकृतिः साऽस्यास्तीति मायावी तस्य मायाविनो प्रवृत्तं करोतीत्येवं शीलं यत्प्रणिधानं, हिंसानुबन्धो वा यत्रास्ति तद्धिं- वणिजादेः, तथा अतिसन्धानपरस्यपरवञ्चनाप्रवृत्तस्य, अनेनाशेषेष्वपि सानुबन्धि रौद्रध्यानमिति प्रक्रम इति। स्था० 4 ठा० 1 उ०। आव०। प्रवृत्तिमस्याऽऽह, तथा-'प्रच्छन्नपापस्य कूटप्रयोगकारिणस्तस्यैव, (रौद्रध्यानलक्षणानि'लक्खण'शब्दे वक्ष्यन्ते) साम्प्रतंरौद्रध्यानावसरः, अथवा-धिग्जातिककुतीर्थिकादेरसद्भूतगुणं गुणवन्तमात्मानं ख्यापतदपि चतुर्विधमेव, तद्यथा-हिंसानुबन्धि, मृषानुबन्धि, स्तेयानुबन्धि, यतः,तथाहि-गुणरहितमप्यात्मानं योगुणवन्तंख्यापयति नतस्मादपरः विषयसंरक्षणानुबन्धि च / उक्तं चोमास्वातिवाचकेन-"हिंसाऽनृत- प्रच्छन्नपापोऽस्तीति गाथाऽर्थः / / 20 / / उक्तो द्वितीय भेदः। स्तेयविषयसंरक्षणेभ्यो रौद्रम्" इत्यादि, (तत्त्वार्थे, अ०६ सू०३६) ___ साम्प्रतं तृतीयमुपदर्शयतितत्राऽऽद्यभेदप्रतिपादनायाऽऽह तह तिव्वकोहलोहा-उलस्स भूओवघायणमणज्ज / सत्तवहवेहबंधण-डहणं कणमारणाइपणिहाणं / परदव्वहरणचित्तं, परलोयावायनिरवेक्खं // 21 // अइकोहग्गहधत्थं, निग्धिणमणसोऽहमविवागं // 16 // तथाशब्दो दृढाध्यवसायप्रकारसादृश्योपदर्शनार्थः, तीव्रौ- उत्कटौती सत्त्वा-एकेन्द्रियादयः तेषां वधवेधबन्धनदहनाङ्कनमारणादिप्रणि- क्रोधलोभौ च ताभ्यामाकुल:-अभिभूतस्तस्य, जन्तोरिति गम्यते किं धानम् , तत्र वधः-ताडनं करकशालतादिभिः,वेधस्तुनासिकादिवेधनं / ?भूतोपहननमनार्यम्-इति हन्यतेऽनेनेति हननम् उप-सामीप्येन हननम् कीलकादिभिः, बन्धनम्-संयमनं रज्जुनिगडादिभिः, दहनम्-प्रतीत- उपहननं भूतानामुपहननं भूतोपह-ननम् ,आराद्यातं सर्वहेयधर्मेभ्य मुल्मुकादिभिः, अङ्कनम्-लाञ्छनं श्वशृगालचरणादिभिः,मारणम्- इत्यार्यं न आर्यमनार्य, किं तदेवं-विधमित्यत आह-परद्रव्यहरणचित्तं, प्राणवियोजनमसिशक्तिकुन्तादिभिः, आदिशब्दाद्-आगाढपरितापन- रौद्रध्यानमिति गम्यते, परेषां द्रव्यं परद्रव्यं सचित्तादितद्विषयं हरणचित्तं पाटनादिपरिग्रहः, एतेषु प्रणिधानम्-अकुर्वतोऽपि करणं प्रति दृढाध्य- परद्रव्यहरण-चित्तम् , तदेव विशेष्यते-किम्भूतं तदित्यत आहवसानमित्यर्थः, प्रकरणाद् रौद्रध्यानमिति गम्यते, किं विशिष्ट प्रणि- परलोकापाय-निरपेक्षम्,- इति, तत्र परलोकापायाः-नरकगमनादयधानम् ?-अतिक्रो-धग्रहग्रस्तम्-अतीवोत्कटो यः क्रोधः-रोषः स स्तन्निर-पेक्षमिति गाथार्थः // 21 // उक्तस्तृतीयो भेदः। एवापायहेतुत्वा-द्ग्रह इव ग्रहस्तेन ग्रस्तम्अभिभूतम् , क्रोधग्रहणाच साम्प्रतं चतुर्थ भेदमुपदर्शयन्नाहमानादयो गृह्यन्ते; किं विशिष्टस्य सत इदमित्यत आह-निघृणम्नसः- सहाइविसयसाहण-धणसारक्खणपरायणमणिटुं। निघृणम्- निर्गतदयं मनः-चित्तम्- अन्तःकरणं यस्य स निघृण-मना- सध्वामिसंकणपरो-वधायकलुसाउलं चित्तं // 22 // स्तस्य। तदेव विशेष्यते-अधमविपाकम् इति-अधमः-जघन्यो नरका- शब्दादयश्च ते विषयाश्च शब्दादिविषयास्तेषां साधनंकारणं शब्दादिदिप्राप्तिलक्षणो विपाक:-परिणामो यस्य तत्तथा-विधमिति गाथार्थः / / विषयसाधनम्। तच तद्धनं चशब्दादिविषयसाधनधनंतत्संरक्षणेतत्परि१६ / उक्तः प्रथमो भेदः। पालने परायणम् - उद्युक्तमिति विग्रहः, तथा अनिष्टंसतामनभिलषसाम्प्रतं द्वितीयमभिधित्सुराह णीयमित्यर्थः, इदमेव विशेष्यते-सर्वेषामभिशङ्कनेनाऽकुलमिति सम्बध्यते,
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________________ रुद्दज्झाण 566 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 रुप्प न विद्मः कः किं करिष्यती-त्यादिलक्षणेन, तस्मातसर्वेषां यथाशक्त्योप- सर्वेष्वपि चैवमेव प्रवर्तत इति बहुलदोषः। नानाविधेषु त्वक् त्वक्षणनधात एव श्रेयानित्येवं परोपघातेन च, तथा कलुषयन्त्यात्मानमिति यनोत्खननादिषु हिंसाधुपायेष्वसकृदप्येवं प्रवर्त्तत इति नानाविधदोषः, कलुषा:-कषायास्तैराकुलं व्याप्तं यत्तत्तथोच्यते, चित्तम्-अन्तःकरणं, महदापगतोऽपि स्वतः महदापगतेऽपि च परे आमरणादसञ्जातानुतापः प्रकरणाद्रौद्रध्यानमिति गम्यते, इहच शब्दादिविषयसाधनं धन-विशेषणं कालसौकरिकवद्, अपि त्वसमाप्तानुतापानुशयपर इत्यामरणदोष इति किल श्रावकस्य चैत्यधनसंरक्षणेन रौद्रध्यानमिति ज्ञापनार्थमिति तेष्वेव हिंसादिषु, आदिशब्दान्मृषावादादिपरिग्रहः, ततश्च तेष्वेव गाथाऽर्थः / / 22 // हिंसानुबन्ध्यादिषु चतुर्भेदेषु, किं ?बाह्यकरणोपयुक्तस्य सतउत्सन्नादि__ साम्प्रतं विशेषणाभिधानगर्भमुपसंहरन्नाह दोषलिङ्गानीति, बाह्यकरणशब्देनेह वाकायौ गृह्येते, ततश्च ताभ्यामपि इय करणकारणाणुम-इविसयमणुचिंतणं चउन्भेयं / तीव्रमुपयुक्तस्येति गाथाऽर्थः / / 26 // अविरयदेसासंजय-जणमणसंसेवियमहण्णं // 23 // किंच'इय' एवं करणं स्वयमेव कारणमन्यैः कृतानुमोदनमनुमतिः। करणं च परवसणं अहिनंदइ, निरवेक्खो निद्दओ निरणुतावो। कारणं चानुमतिश्च करणकारणानुमतयः। एता एव विषयः-गोचरो यस्य हरिसिजइ कयपावो, रोदज्झाणोवगयचित्तो / / 27 // तत्करणकारणानुमतिविषयं, किमिदमित्यत आह-अनुचिन्तनंपर्या- इहाऽऽत्मव्यतिरिक्तो योऽन्यः स परस्तस्य व्यसनम्-आपत् परव्यसनं लोचनमित्यर्थः, चतुर्भेदम् इति हिंसानुबन्ध्यादिचतुष्प्रकारं, रौद्रध्यान- तद् अभिनन्दति-अतिक्लिष्टचित्तत्वाद्रहु मन्यत इत्यर्थः, शोभनमिदं मिति गम्यते, अधुनेदमेव स्वामिद्वारेण निरूपयतिअविरताः-सम्यग- यदेतदित्थं संवृत्तमिति, तथा-निरपेक्ष-इहान्य-भविकापायभयरहितः, दृष्टयः, इतरे च देशा-संयताः-श्रावकाः, अनेन सर्वसंयतव्यवच्छेदमाह- तथा निर्गतदयो निर्दयः-परानुकम्पाशून्य इत्यर्थः, तथा निर्गतानुतापो अविरतदेशासंयता एवं जनाः जनाः तेषां मनांसिचित्तानि तैः संसेवितं, निरनुतापः-पश्चात्तापरहित इति भावः, तथा किं च-हृष्यते-तुष्यति सञ्चिन्तितमित्यर्थः, मनोग्रहणमित्यत्र ध्यानचिन्तायां प्रधानाङ्गख्या- कृतपापः-निवर्तितपापः सिंहमारकवत्,क? इत्यतआह-रौद्रध्यानोपपनार्थम् , 'अधन्यम्' इत्यश्रेयस्करं पापं निन्द्यमिति गाथाऽर्थ // 23 // गतचित्त इति, अमूनि च लिङ्गानि वर्तन्त इतिगाथाऽर्थः / / 27 / / आव० अधुनेदं यथा भूतस्य भवति यद्वर्द्धनं चेदमिति तदे 4 अरोदयति परानिति रुद्रः-दुःखहेतुः तेन कृतंतस्य वा कर्मरौद्रम् / तदभिधातुकाम आह दुःखहेतौ, न०। ध०२ अधि०। एयं चउव्विहं रा-गदोसमोहाउलस्स जीवस्स। रुद्ददेव-पुं० (रुद्रदेव) अङ्गारमर्दकाचार्येति प्रसिद्ध अभव्याचार्ये, पश्चा० रोद्दज्झाणं संसा-रवद्धणं नरयगइमूलं / / 24 / / 6 विव०। काङ्कतीग्रामवास्तव्ये स्वनामख्याते राजनि, ती०४६ कल्प। एतद्-अनन्तरोक्तं चतुर्विधम्-चतुष्प्रकारं रागद्वेषमोहाङ्कितस्य आकु- रुद्दय-पुं० (रुद्रक) आर्जवशब्दे उदाहृते ज्योतिर्यशसो मारके कौशिलस्य वेति पाठान्तरं कस्य ?जीवस्य-आत्मनः किं ?रौद्रध्यानमिति, ___ कार्यशिष्ये, आ० क० 4 अ०। आ० चू०। इदमत्र चतुष्टयस्याऽपि क्रिया, किं विशिष्टमिदमित्यत आह-संसारव- / रुहसेण-पुं० (रुद्रसेण) धरणिनागकुमारेन्द्रस्य पदात्यनीकाधिपतौ, र्द्धनम्-ओघतः, नरकगतिमूलं विशेषत इति गाथार्थः // 24 // स्था०७ ठा०। साम्प्रतं रौद्रध्यायिनो लेश्याः प्रतिपाद्यन्ते रुद्दसोमा-स्वी० (रुद्रसोमा) दशपुरनगरे शोमदेवनामब्राहाणस्याग्रमकावोयनीलकाला, लेसाओ तिव्वसंकिलिट्ठाओ। हिष्याम् आर्यवज्रमातरि, विशे० / दर्श० / आ० क० / सङ्घा० / आ० रोद्दज्झाणोवगय-स्स कम्मपरिणामजणियाओ॥२५॥ / चू० / आ० म०। पूर्वव व्याख्येया, एतावांस्तु विशेषः-तीव्रसंक्लिष्टा-अति संकिष्टा | रुद्वा-स्त्री० (रुद्रा) तुरिमिण्यां नगर्यां दत्तस्य मातरि कालिकाचार्यसूरेभएता इति। गिन्याम् , दर्श०३ तत्त्व। आह कथं पुनः रौद्रध्यायी ज्ञायत इति? उच्यते-लिङ्गेभ्यः, तान्ये- रुद्ध-न० (रुद्ध) स्थगिते, बृ०३ उ० वोपदर्शयति रुंध(म्भ)(झ)-धा० (रु) आवरणे, "रुधो न्ध-म्भौ-च' // 8 // लिंगाई तस्स उस्सण्ण-बहुलनाणाविहा मरणदोसा। 4 // 21 // इति रुधोऽन्त्यस्यन्धम्भ इत्यतौ आदेशौ, सूत्रे चकाराद् तेसिं चिय हिंसाइसु, बाहिरकरणोवउत्तस्स / / 26 // ज्झश्च ।रुन्धइ। रुम्भइ। रुज्झइ। प्रा०४ पाद। लिङ्गानि-चिह्नानि तस्य-रौद्रध्यायिनः, 'उत्सन्नबहुलनानाविधा | रुधिर-न० (रुधिर) रक्ते, स०। मरणदोषा' इत्यत्रदोषशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते, उत्सन्नदोषः बहुल- रुधिरपाल-पुं० (रुधिरपाल) उज्जयिन्यां तोसलिनगरवास्तव्ये वणिजि, दोषः नानाविधदोषः आमरणदोषश्चेति, तत्र हिंसानुबन्ध्यादीनामन्यतर- | बृ०३ उ०1 स्मिन् प्रवर्त्तमान उत्सन्नम्-अनुपरतं बाहुल्येन प्रवर्तते इत्युत्सन्नदोषः, | सप्प-न० (रुप्य) रजते, ध०२ अधि० आ० चू०। VI
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________________ रुप्पकुंभ 570- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 रुप्पि रुप्पकुंभ-पुं० (रुप्यकुम्भ) वासुपूज्यजिनशिष्ये, ती०३४ कल्प। रुप्पकूड-पुं०(रुप्यकूट) जम्बूद्वीपे मेरोरुत्तरे रुक्मिनामवर्षधरपवर्ते षष्ठे कूटे, स्था०३ उ० / जं०। (स च 'कूड' शब्दे तृतीय-भागे 625 पृष्ठे वर्णितः) रुप्पकूलप्पवायदह-पुं०(रूप्यकूलप्रपातइद) रोहितप्रपातहदसमान वक्तव्यताके रूप्यकूलोद्गम स्थाने, स्था०२ ठा० 3 उ०। रुप्पकूला-स्त्री० (रूप्यकूला) जम्बूद्वीपे पूर्वावरेण लवणसमुद्रगामिन्यां महानद्याम् , स०१४ सम० / सा च महापुण्डरीकहदस्योत्तरतोरणेन विनिर्गत्य ऐरण्यवद्वषं विभजन्ती रोहिनदीतुल्यवक्तव्या अपरसमुद्रं गच्छतीति। स्था०२ ठा०३ उ०। रा रुप्पच्छद-पुं० (रूप्यच्छद) रूप्याच्छादनेछत्रे, जी०३ प्रति०४ अधि०। रुप्पनाम-पुं० (रूप्यनामन्) मङ्गलावतीविजये वज्रसेनसुतस्य वज्रनाभ नाम्नः ऋषभपूर्वभवजीवस्य कनिष्ठभ्रातरि,आ० चू०१अ०। आ० म०। रुप्पपट्ट-पुं०(रूप्यपट्ट) रूप्यो रूप्यमयो पो येषां ते रूप्यपट्टाः। रजत पट्टकेषु, रा०। जी०। आ० म०। ज्ञा०। रुप्पय-न०(रूप्यक) रूपाय आहन्यते स्वर्णादि यत् / अलङ्कारादिनिमणाय आहन्यमाने स्वर्ण, रजते च। स्वार्थे यत्। रजतमात्रे, आव०३ अ०। "रुप्पयं रययं''। पाइ० ना० 116 गाथा। रुप्पागर-पुं० (रूप्याकर) रजतखनौ, स्था०८ ठा०। जी०। रुप्पाभास-पुं० (रुप्याभास) अष्टाविंशतितमे महाग्रहे, चं० प्र०२ पाहु०। "दो रुप्पाभासा।" स्था०२ ठा०३ उ०। कल्प०॥ रुप्पि-पुं० (रुक्मिन्)"इम-क्मोः "|| [2152 / / इति पो वा। क्वचित्-चमोऽपिरुच्मी। रुप्पो। प्रा०। "अनादौ शेषादेश-योर्दित्वम् "|| 8 |2| पर / / इति द्वित्वम् / प्रा० / कृष्णाग्रमहिष्या रुक्मिण्या भ्रातरि भीष्मसुतेकौण्डिल्यनगरराजे, ज्ञा०१श्रु०१६ अ०।मल्लीनाथतीर्थकरेण सह प्रव्रजिते कुणालराजे, ज्ञा० 1 श्रु०८ अ० / स्था। जम्बूद्वीपे मन्दरस्योत्तरे स्वनामख्याते वर्षधरपर्वते, जं०1 कहिणं भंते! जम्बुद्दीवे दीवे रुप्पीणामं वासहरपव्वएपण्णत्ते ? गोयमा ! रम्मगवासस्स उत्तरेणं हेरण्णवयवास्स दक्खिणेणं पूरस्थिमलवणसमुदस्स पचत्थिमेणं पचत्थिमलवणसमुहस्स पुरस्थिमेणं एत्थ णं जम्बुद्दीवे दीवे रुप्पी णामं वासहरपव्वए पण्णत्ते, पाईणपडीणायए उदीणदाहिणवित्थिपणे, एवं जा चेव महाहिमवंतवत्तव्वया सा चेव रुप्पिस्स वि, णवरं दाहिणेणं जीवा उत्तरेणं धणु अवसेसं तं चेव / महापुंडरीए दहे णरकंता णदी दक्खिणेणं णेअव्वा जहा रोहिया पुरथिमेणं गच्छइ, रुप्पकूला उत्तरेणं अव्वा जहा हरिकता पचत्थिमे णं गच्छा, अवसेसं तंचेव त्ति। रूप्पिम्मि णं भंते! वासहरपव्वए कह कूडा पण्णत्ता? गोयमा ! अट्ठ कूडा पण्णत्ता ? तं जहा- " सिद्ध 1 रुप्पी 2 रम्मग 3 णरकंता 4 बुद्धि 5 रुप्पकूला य 6 / हेरण्णवय 7 मणिकंचण 8 अ य रुप्पिम्मि कूडाइं // 1 // " सय्वे वि एए पंचसइआ रायहाणीओ उत्तरेणं से केणऽटेणं भंते ! एवं वुचइ रुप्पी वासहरपव्वए ? रुप्पी वासहरपव्वएगोअमा! रुप्पी णाम वासहरपब्वए रुप्पी रुप्पपट्टे रुप्पोभासे सव्वरुप्पामए रुप्पी अ इत्थ देवे पलिओवमहिईए परिवसइ, से एएणऽहणं गोअमा ! एवं वुचइत्ति। (सू०१११) 'कहिणं भंते !' क्व भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे रुक्मी नाम वर्षधरपर्वतः प्रज्ञप्तः ? गौतम ! रम्यकवर्षस्य उत्तरस्यां वक्ष्यमाणहरण्यवतक्षेत्रस्य दक्षिणस्यां पूर्वलवणसमुद्रस्य पश्चिमायां पश्चिमलवणसमुदस्यपूर्वस्याम् अत्रान्तरे जम्बूद्वीपे द्वीपे रुक्मी नाम्ना पञ्चमो वर्षधरः प्रज्ञप्तः। प्राचीनप्रतीचीनाऽऽयतः उत्तरदक्षिणयोर्विस्तीर्णः, एवमुक्तानुसारेण यैव महाहिमवद्वर्षधरवक्तव्यता सैव रुक्मिणोऽपि परं दक्षिणतो जीवा उत्तरस्यां धनुःपृष्ठम् अवशेषव्यासादिकंतदेव-द्वितीयवर्षधरप्रकरणोक्तमेव, द्वयोः परस्परं समानत्वात् , महापुण्डरीकोऽत्र(दो)द्रहो महापद्मद्रहतुल्यः, अस्माच निर्गता दक्षिणतोरणेन नरकान्ता महानदी नेतव्या, अत्र च का नदी निदर्शनीयेत्याह-'जहा रोहिय' ति यथा रोहिता 'पुरत्थिमेणं गच्छइ' त्ति पूर्वेण गच्छति समुद्रमिति शेषः, यथा रोहिता महाहिमवतो महापद्मदहतो दक्षिणेन प्रव्यूढा सती पूर्वसमुद्रं गच्छति तथैषाऽपि प्रस्तुतवर्षधरादक्षिणेन निर्गता पूर्वेणाब्धिमुपसर्पतीति भावः, रूप्यकूला उत्तरेणउत्तरतोरणेन निर्गता नेतव्या, यथा हरिकान्ता हरिवर्षक्षेत्रवाहिनी महानदी 'पच्छत्थिमेणं गच्छइ' ति पश्चिमाब्धिं गच्छति / अथ नरकान्तायाः समानक्षेत्रवर्त्तित्वेन हरिकान्तायाः रूप्यकूलायास्तु रोहिताया अतिदेशो वक्तुमुचित इत्याह-अवशेष-गिरिगन्तव्यमुखमूलव्याससरित्सम्पदादिकं वक्तव्यम् , तदेवेति-समानक्षेत्रवर्तिसरित्प्रकरणोक्तमेव,तच नरकान्ताया हरिकान्ताप्रकरणोक्तं, रूप्यकूलायास्तु रोहिताप्रकरणोक्तम् / यत्तु नरकान्ताया अतुल्यक्षेत्रवर्त्तिन्या रोहि-तया सह रूप्यकूलायास्तु हरिकान्तया सहातिदेशकथनं तत्र समानदिगनिर्गतत्वं समानदिग्गामित्वंच हेतुः। अथात्र कूटवक्त-व्यतामाह-'रुप्पिम्मि णं' इत्यादि रुक्मिणि पर्वते भगवन् ! कति कूटानि प्रज्ञातानि ? गौतम ! अष्ट कूटानि प्रज्ञप्ताति, तद्यथा-प्रथमं समुद्रदिशि सिद्धायतनकूटं ततो रुक्मिकूट-पञ्चमवर्षधर-पतिकूटं रम्यकूटरम्यकक्षेत्राधिपदेवकूट नरकान्तानदीदेवी-कूट-बुद्धिकूटंमहापुण्डरीकद्रहसुरीकूट रूप्यकूलानदीसुरीकूट हैरण्यवतकूट-हैरण्यवतक्षेत्राधिपदेवकूटमणिकाञ्चनकूटम, एतानि प्राक्परायतश्रेण्या व्यवस्थितानि पञ्चशतिकानि सर्वाण्यपि, राजधान्यः कूटाधिपदेवानामुत्तरस्याम्। सम्प्रत्यस्य नामनिदानं पर्यनुयुक्ते-'से
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________________ रुप्पि 571 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 रुयग केणढणं इत्यादि,अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-रुक्मी वर्षधरपर्वतः वर्षधरपर्वतः इति ? गौतम ! रुक्मी वर्षधरपर्वतो रुक्मरूप्यं शब्दानामनेकार्थत्वात्। तदस्यास्तीतिरुक्मी, एष सर्वदा रूप्यमयः शाश्वतिक इति नित्ययोगे इन् प्रत्ययः, रूप्यावभासो-रूप्यमिव सर्वतोऽवभासःप्रकाशो भास्वरत्वे न यस्याऽसौ तथा, एतदेवव्याचष्ट-सर्वात्मना रूप्यमय इति, रुक्मी चात्र देवस्ततस्तन्मयत्वात् तत्स्वामिकत्वाच्च रुक्मीति व्यपदिश्यते। जं०४ वक्ष०ा स्था०। स०। जम्बूद्वीपे मन्दस्योत्तरेरुक्मिवर्षधरपर्वते द्वितीये कूटे,स्था०८ ठा०। सप्तविंशतितमे महाग्रहे, स्था० 2 ठा० 3 उ० / (घातकीखण्ड-द्वीपे द्वौ रुक्मिनामानौ पर्वतौ तौ च 'यायइसंडदीव' शब्दे चतुर्थ-भागे 2746 पृष्ठे उक्तौ) रुप्पिणी-स्त्री० (रुक्मिणी) "ड्म-क्मोः"||८|२|५२॥ इतिपो वा। रुप्पिणी। रुक्मिणी। प्रा०। कृष्णवासुदेवस्याग्रमहिष्याम्, स्था०८ ठा०। रुक्मिणीपरिणयनम्। प्रश्नः / तथा रुक्मिण्याः कृते संग्रामोऽभूत् , तथाहि-कुण्डिन्यां नगर्यो भीष्मनरपतेः पुत्रस्यरुक्मिणोनृपस्य भगिनी रुक्मिणी कन्या बभूव, इतश्च कृष्णवासुदेवस्य भार्या सत्यभामा, तद्नेहे च नारदः कद्राचिदवततार, तया तु व्यग्रतया न सम्यगुपचरितः, ततः कुपितोऽसौ तां प्रति सापत्न्यमस्याः करोमीति विभाव्य कुण्डिनी नगरीमुपगतः, रुक्मिण्याच प्रणतः सन् कृष्णस्य महादेवी भवेत्याशिषमवादीत्, कृष्णगुणांश्च तत्पुरतो व्यावर्णयन्तंप्रतितां सानुरागामकरोत्, तदूपं च चित्रपटे विलिख्य कृष्णस्य तदुपदर्थ्य तां प्रति तमपि साभिलाषमकार्षीत , ततः कृष्णो रुक्मिणं तायाचितवान् ,रुक्म्यपिन दत्तवान, शिशुपालाभिधानं च महाबलं राजसूनुमानीय विवाहमारम्भितवान् , रुक्मिणीसत्कया पितृष्वस्रा च कृष्णस्य रुक्मिण्यपहरणार्थो लेखो दत्तः, ततश्च रामकेशवौ तां नगरीमागतो, रुक्मिणी च पितृष्वस्रा सह चेटिकापरिवृता देवतार्चनव्याजेनोद्यानमागता, कृष्णेन रथमारोपिताततस्तौ द्वारिकामिमुखौता गृहीत्वा प्रचलिता, पूत्कृत चचेटिकाभिः निर्गतौ सदर्गी चतुरङ्गसैन्यसमग्रोरुक्मिणीव्यावर्त्तनाथरुक्मिशिशुपालमहाराजौ, ततो विनिवृत्य हलिना हलमुशलाभ्यां दिव्यास्त्राभ्यां चूर्णित तद्वलं विमुक्तौ कुच्छ्रजीवितौ शिशुपालरुक्मिणाविति। प्रश्न० 4 आश्र० द्वार। (साच अरिष्टनेतेरन्तिके प्रव्रजिता विंशतिवर्षाणि श्रामण्यं परिपाल्य मासिक्या प्रतिलेखनया मृत्वा सिद्धा इत्यद्दशानां चतुर्थवर्गस्य अष्टमेऽध्ययने सूचितम्।) (रुक्मिण्या सर्वा वक्तव्यता पद्मावतीवक्तव्यतावत् , तद्वक्तव्यताच 'पउमावई' शब्दे पञ्चमभागे 16 पृष्ठे गता) रुयन० (रुत) रवणं रुतम्। शब्दकरणे, दश०४ अ०। ज्ञा० रुयग-पुं० (रुचक) वर्णे, औ० / कृष्णमणिविशेषे, आ० क० 1 अ०।। प्रज्ञा०। उत्त०। सूत्र०। औ० जम्बूद्वीपापेक्षया स्वनामख्याते त्रयोदशे द्वीपे, द्वी० / कुण्डलवरावभाससमुद्रपरिक्षेपौ रुचको द्वीपः (जी०) रुचकद्वीपपरिक्षेपी रुचकः समुद्रः / स्वनामख्याते समुद्रे, जी०३ प्रतिक २उ०। प्रज्ञा०।अनु० ज्ञा०। ('रुयगदीव' शब्दे वक्तव्यता सूत्रं वक्ष्यामि) रुचकद्वीपवर्तिनि चक्रवालपर्वते, स्था०६ ठा०। (रुचकवरपर्वते अष्टसु / कूटेषु अष्ट दिक्कुमार्यः स्वस्वस्थाने दर्शिताः) अथस्य द्वीपस्योचत्वादिकमाहदसकोडिसहस्साई, चत्तारिसयाइपंचसीयाई। बावतरं च लक्खा, विक्खंभो रुयगदीवस्स॥ 106 / / रुयगवरस्स उ मज्झे, नगुत्तमो होइ पवओ रुयगो। पागारसरिसरुवो,रुवगं दीवम्मि भयमाणो॥११०॥ रुयगस्स उ उस्सेहो, चउरासिं भवे सहस्साई। एग चेव सहस्सं, धरणियलमहे समोगाढो॥१११॥ दस चेव सहस्सा खलु, बावीसं जोयणाई बोधव्वा। मुलम्मि उ विक्खंभो,साहिओ रुयगसेलस्स।। 112 // सत्तेव सहस्सा खलु, तेवीसं जोयणाई बोधव्या। मज्झम्मिय विक्खंभो,रुयगस्स उपटवयस्स भवे / / 113 / / चत्तारिसहस्साई,चउवीसं जोयणाय बोधव्वा।। सिहरितले विक्खंभो, रुयगस्स उपटवयस्स भवे // 11 // सिहरितलं रुयगस्स उ, होति कूडा चउद्दिसिं तत्थ। पुष्वाणुपुथ्वी तेसिं, इमाई नामाई कित्तीहि // 115 // पुटवेण अट्ठ कूडा, दक्खिणओ अट्ठ अट्ठ यऽवरेणं। उत्तरओ अट्ठ भवे, चउद्दिसिं होति रुयगस्स॥११६॥ कणग १कंचणगें 2 तवणे 3, दिसासोवस्थिए 4 अरिडेय 5 / चंदण 6 अंजणमूले ७,वइरे पुण अहमे भणिए / / 117 // नाणारयणविचित्ता, उज्जोवंता हुयासणसिहु व्व। एए अट्ठ वि कूडा, हवंति पुटवेण रुयगस्स / / 118 / / फलिहे १रयणेर तवणे३,पढमे नलिणे५ समीय 6 नायव्वे / वेसमणे७वेरुलिएक,रुयगस्स हवंति दक्षिणओ / / 116 / / नाणारयणविचित्ता,अणोवमा वन्नरूयसंकासा। एए अट्ठ वि कूडा, रुयगस्स हवंति दक्खिणओ।। 120 // अमोहे 1 सुप्पवढे 2 य, हिमवं 3 मंदिरे 4 तहा। रुवगे 5 गुत्तरे 6 चंदे 7, अट्टमे य सुदंसणे 8 // 121 // नाणारयणविचित्ता, अणोवमा रूवसंकासा। एए अट्ठ वि कूडा, रुयगस्स वि होति पच्छिमओ॥१२२॥ विजये य वेजयंते, जयंत अवराइया अबोधवा। कुंडलरुयगारयणु-बरा य तह सव्वरयणे य॥ 123 / / नाणारयणविचित्ता, उज्जोयंता हुयासणसिहु व्व। एए अहवि कूडा, रुयगस्स वि होंति उत्तरओ।। 124 // पलिओवमहिईया, एएसिं खलु होति कूडेसु / पुवेण आणुपुथ्वी, दिसाकुमारीण ते हुंति // 125 / / नंदुत्तरा य नंदा, आणंदा नंदिसेणाय। विजया य वेजयंती,जयंति अवराइया चेव / / 126 // एया पुरिमच्छेणं,रुयगम्मि उ अहहुंति देवीओ। पुटवाइयाणुपुटवी-दिसा कुमारीण ते हुंति // 127 //
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________________ रुयग 572- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 रुयग त्रा लच्छिमई सेसमई, चित्तगुत्ता वसंधुरा / (चेव) समाहारा सुप्पदिन्ना, सुप्पबुद्धा हु(ज)सोधरा / / 128 // एया उदक्खिणेणं, हवंति अट्ठय दिसाकुमारीओ। जे दक्खिणेण कूडा, अट्ट विरुयगे तहिं एया // 126 / / इलॉदेवी सुरॉदेवी, पउमा पउमावई य विनेया। एगनासा णवमिया, सीया भव्वा य अहमिया / / 130 // एया उपच्छिमदिसा, समासिया अट्ट दिसॉकुमारीओ। अवरेण जे य कूडा, अट्ठ विरुयगे तहिं एया।। 131 / / अलंबुसा मीसकेसी, पुंडरिगिणी वारुणी य तहा। आसा सगपत्ता चेव, सिरिहिरी चेव उत्तरओ।।१३२॥ एया दिसकुमारी, कहिया सव्वन्नुसम्वदरिसीहिं। जे उत्तरेण कूडा, अह वि रुयगे तहिं एया / / 133 / / जोयणसाहस्सीया, रुयगवरे पटवयम्मि चत्तारि। पुवाइयाणुपुट्वी, दीवाहिवईण आवासा।१३।। पुव्वेण उ वेरुलियं, मणिकूड पच्छिमे दिसाभाए। रुयगं पुण दक्खिणओ, रुयगुत्तरमुत्तरे पासे / 135 / / जोयणसहस्सियाणं, एए कूडा हवंति चत्तारि। पुवाइयाणुपुर्वी, ते हॉति दिसाकुमारीणं / / 136 / / पुवेण य वेरलियं, मणिकूड पच्छिमे दिसाभाए। रुयगं पुण दक्खिणओ, रुयगुत्तरमुत्तरे पासे / / 137 // रुप्पंसा य सुरूवा, रूववई रूवकता य। पुवाइयापुथ्वी, चउद्दिसिं तेसु कूडेसुं / 138 // पलिओवमंदिवड, बिइयाओ ऍयासि होइ सवासिं। एकेकमपरियाई, होइय अट्ठण्ह कूडाणं // 136 / / पुटवेण सोस्थिकूडा, अवरेण य नंदणं भवे कूडं / दक्खिणओ लोगहियं, उत्तरओ सध्वभूयहियं / / 140 // जोयणसाहस्सीया, एए कूडा हवंति चत्तारि। पुटवाइयाणुपुव्वी, दिसा गइंदाण ते होंति // 141 / / पढमुत्तरनीलवंतं, सुहत्थी अंजणागिरीय। एए दिसागइंदा, दिवड्डपलिओवमट्ठितिया।। 152 / / पुटवेण होइ विमलं, सयंपभे दक्खिणे दिसाभाए। अवरे पुण पच्छिमओ, तिव्वुजोयं च उत्तरओ / / 143 / / जोयणसाहस्सीया, एए कूडा हवंति चत्तारि। पुटवाइयाणुपुथ्वी, विजुकुमारीण ते हंति // 14 // चित्ताय चित्तकणगा, सतेरसा सोमणीय नायव्वा। एया विज्जकुमारी,साहियपलिओवमद्वितिया।। 145 / / विज्जुकुमारीणं द-क्खिणकूडा दिसागइंदाणं / तत्तामयहरियाणं, विज्जुकुमारीण इय हुंति // 16 // रुयगवरस्स उ बाहिं, ओगाहित्ताणु अट्ट लक्खाई। चुलसीइसहस्साई, रहकरगा पव्वया रम्मा।। 147 / / दी। रुयगे णं मंडलियपव्वए पंचासीइं जोयणसहस्साई सव्वग्गेणं पण्णत्ता। (सू०८५) रुचको-रुचकाभिधानस्त्रयोदशद्वीपान्तर्गतः प्राकाराकृती रुचकद्वीपविभागकारितया स्थितः, अत एव माण्डलिकपर्वतो, मण्डलेन व्यवस्थितत्वात्, सच सहस्त्रमवगाढश्चतुरशीतिरुच्छित इतिपञ्चाशीतिः सहस्राणि सर्वाग्रेणेति। स०५५ सम०। अस्य विष्कम्भमाहरुयगवरे णं पटवए दस जोयणसयाई उटवेहेणं मूले दस जोयणसहस्साई विक्खंभेणं उवरि दस जोयणसयाई विक्खंभेणं पण्णत्ता / एवं कुंडलवरे वि। (सू०७२६) रुचको रुचकाभिधानस्त्रयोदशद्वीपवती चक्रवालपर्वतः / कुण्डलः कुण्डलाभिधान एकादशद्वीपवर्ती चक्रवालपर्वतः एव, ‘एवं कुण्डलवरेऽपि' इत्यनेनेह कुण्डलवर उद्वेधमूलविष्कम्भोपरि विष्कम्भैः रुचकवरपर्वतसमान उक्तो, द्वीपसा गरप्रज्ञप्त्यांत्वेव-मुक्त:-"दस वजोयणसए, बावीसे वित्थडो उमूलम्मि। चत्तारिजोयणसए,चउवीसे वित्थडो सिहरे // 1 // " इति रुचकस्याऽपि तत्राऽयं विशेष उक्तः-मूलविष्कम्भो दश सहस्राणि द्वाविंशत्यधिकानि, शिखरेतु चत्वारि सहस्राणि चतुविंशत्यधिकानीति / अनन्तरं गणितानुयोग उक्तः / स्था० 10 ठा० / सूत्र० / नं०।सा (दिक्) च मेरुमध्ये अष्टप्रदेशिकरुचकादाक्नीया; तथाहितिर्यग्लोकस्य मध्यभागे आयामविष्कम्भाभ्यां प्रत्येक रज्जुप्रमाणौ सर्वप्रतराणां क्षुल्लकौ द्वौ नभः-प्रदेशप्रतरौ विद्यते। तयोश्च मेरुमध्यप्रदेशे मध्यं लभ्यते। तत्रचमध्य उपरितनप्रतरस्ययेचत्वारोनभःप्रदेशास्तथाअधस्तनप्रतरस्य तु ये चत्वारो व्योमप्रदेशास्तेषामष्टानामपि प्रदेशानां समये रुचक इति परिभाषा / अयं चाष्टप्रदेशिको रुचकः समस्ततिर्यग्लोकमध्यवर्ती गोस्तनाकारः क्षेत्रतः षण्णामपि दिशां चतसृणाम पि च विदिशां प्रभवः (उत्पत्तिस्थानम्) मन्तव्यः; उक्तं च-(आचाराङ्गनियुक्तौ)"अट्ठपएसोरुयगो, तिरिय लोयस्स मज्झयारम्मि। एसपभवो दिसाणं, एसेव भवे अणुदिसाणं / / 42 ॥"(अस्या गाथाया व्याख्या 'दिसा' शब्दे चतुर्थभागे २५२३पृष्ठे गता) तथोच्यते-यथोक्तरुचकाद् बहिश्चतसृष्वपि दिक्षु प्रत्येकमादौ द्वौ द्वौ नभःप्रदेशौ भवतः, तदग्रतश्चत्वारः, तत्पुरतः षट्, ततोऽप्यग्रतोऽष्टौ व्योमप्रदेशा इत्येवंद्वयादिद्वयुत्तरश्रेण्या चतसृष्वपि दिक्षु पृथग्नेतव्यम्।तत एताः शकटोर्ध्वसंस्थानाः पूर्वादिका महादिशश्चतस्रो भवन्ति / एतासां च चतसृणामपि दिशां चतुव॑न्तरालकोणेष्वेकैकेनभःप्रदेशनिष्पन्ना अनुत्तरा यथोत्तरं वृद्धिरहिताश्छिन्नमुक्तावलीसंस्थिताश्चतस्र एव विदिशो भवन्ति। ऊर्ध्व तु चतुरो नभःप्रदेशानादौ कृत्वा यथोत्तरं वृद्धिरहितत्वाचतुःप्रदेशिकैव रुचकनिभा च चतुरस्रदण्डाकारकैव भवति, अधोऽप्येवंप्रकारा द्वितीयेति। उक्तंच"दुपएसाइदुरुत्तर, एगपएसा अणुत्तराचेव।
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________________ रुयग 573 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 रुयगुत्तमकूड चउरो चउरो य दिसा, चउरो य अणुत्तरा दोण्णि ||1|| रुयगवरभद्द-पुं० (रुचकवरभद्र) रुचकवरद्वीपाधिपे देवे, सू० प्र० 16 सगडुद्धिसंठियाओ, महादिसाओ हवंति चत्तारि। पाहु०। मुत्तावली व चउरो, दो चेव यहाँति रुयगनिभा॥शा" विशे०। | रुयगवरमहाभद्द-पुं०(रुचकवरमहाभद्र) रुचकवरद्वीपदेवे, सू० प्र०१६ "जे मंदरस्सपुव्वे-ण मणुस्सा दक्खिणेण अवरेणं। जे आवि उत्तरेणं, पाहु० जी०। सव्वेसिं उत्तरो मेरू' / / 1 // रुचकापेक्षं पूर्वादिदिक्त्वं वेदितव्यम्।आचा० रुयगवरमहावर-पुं० (रुचकवरमहावर) रुचकवरोदसमुद्रदेवे, जी०३ 1 श्रु०१ अ० 1 उ०। (रुचकादेव पूर्वादिदिशां व्यवहार इति 'दिसा' प्रति०२ उ०। शब्दे चतुर्थभागे 2553 पृष्ठे उक्तम्)। रुयगवरोद-पुं० (रुचकवरोद) रुचकवरद्वीपपरिक्षेपिसमुद्रे, चं० प्र०२० रुयगकुमारी स्त्री० (रुचककुमारी) रुचकपर्वतवास्तव्यासु दिक्-कुमारीषु, पाहु० / सू० प्र०। ति०।कल्प। (ताश्च 'दिसाकुमारी'शब्दे चतुर्थभागे 2535 पृष्ठे दर्शिताः) रुयगवरोभास-पुं०(रुचकवरावभास) रुचकोदसमुद्रपरिक्षेपिणि चतुर्यु रुचकपर्वतेषु प्रत्येकमष्टसु कूटेषु दिक्कुमार्यः। स्था० 8 ठा०। द्वीपे, जी०। रुयगकूड न० (रुचककूट) जम्बूद्वीपे मन्दरस्य पश्चिमे रुचकवरपळते रायगवरावभासे दीवे रुयगवरावभासभद्दरुयगवरावभासपश्चमे कूटे, रुचकश्चक्रवालपर्वतः तदधिष्ठातृदेवनिवासो रुचककूट महाभद्दा एत्थदो देवा महिड्डिया। मिति / निषधस्याष्टमे कूटे, स्था०६ ठा०1०।सुवत्सादेव्यधिष्ठित (रुचकवरसमुद्रपरिक्षेपी) रुचकवरावभासो द्वीपः। तत्परिक्षेपी रुचकस्थानके, स्था०६ठा०।('धायइसंडदीव' शब्दे चतुर्थभागे 2746 पृष्ठे वरावभासः समुद्रः। (जी०) रुचकवरावभासे द्वीपेरुचकवरावभासभद्र रुचकवरावभासमहाभद्रौ (देवौ महर्द्धिकौ परिवसतः)। जी०३ प्रति०२ रुचकद्वयकूटवक्तव्यता उक्ता।) उ०। स्वनामख्याते समुद्रे च / जी०। रुयगजसा स्त्री० (रुचकयशा) रुचकपर्वतस्य मध्यदेशे दक्षिणदिक्वा रुयगवरावभासे समुद्दे रुयगवरावभासवर-रुयगवरावभास्तव्यासुदिक् कुमारीषु, ति०। समहावरा एत्थ दो देवा महिड्डिया। रुपगदीव-पुं०(रुचकद्वीप) कुण्डलवरावभासपरिक्षेपिणि द्वीपभेदे, जी०। रुचकवरावभासे समुद्रे रुचकवरावभासवर-रुचकवरावभासमहावरौ कुंडलवरोभासं णं समुई रुचगे णाम दीवे वट्टे वलया० जाव (देवौ महर्द्धिकौ परिवसतः)। जी० 3 प्रति०२ उ०। चिट्ठति, किं समचकवालसंठाणसंठिए विसमचक्कवालसंठाण रुयगवरोभासभर-पुं० (रुचकवरावभासभद्र) रुचकवरावभासद्वीपदेवे, संठिए ? गोयमा ! समचकवालसंठाणसंठिए, नो विसमचक सू० प्र० 16 पाहु०। जी०। वालसंठाणसंठिते, केवतियं चक्कवालसंठाणसंठिए पण्णत्ते रुयगवरोभासमहाभद्द-पुं० (रुचकवरावभासमहाभद्र) रुचकवरावसव्वट्ठमणोरमा एत्थ दो देवा सेसं तहेव। भासोदसमुद्रदेवे, जी०३ प्रति०२ उ०। कुण्डलवरावभाससमुद्रपरिक्षेपी रुचको द्वीपो, रुचकद्वीप-परिक्षेपी रुयगवरोभासवर-पुं० (रुचकवरावभासवर) रुचकवरावभास-समुद्रदेवे, रुचकः समुद्रः(जी०) रुचकद्वीपे सर्वार्थमनोरमौ देवौ। जी०३ प्रति० सू०प्र०१६ पाहु०। 2 उ०। रुयगवरोभासोद-पुं० (रुचकवरावभासोद) रुचकवरावभासदीपपरुयगवडिंसग-न० (रुचकावतंसक) रुचकायां राजधान्यां रुचकाया देव्या परिक्षेपिणि समुद्रे, जी०३ प्रति०२ उ०। आवासभवने, ज्ञा०२ श्रु०४ वर्ग 1 उ०। द्वी0। रुयगसिरी-स्त्री०(रुचकश्री)चम्पायां नगर्या रुचकगृहपतेर्भार्यायाम् , रुयगवर-पुं० (रुचकवर) रुचकवरसमुद्रपरिक्षेपिणि द्वीपे, जी०। यत्सुतारुचका जन्मान्तरे भूतानन्द्रस्याग्रमहिषी जाता। ज्ञा०२ श्रु०३ रुयगवरं णं दीवे वट्टे रुयगवरभव-रुयगवरमहाभद्दा एत्थ दो वर्ग 1 अ०1 देवा महिड्डिया। रुयगा-स्त्री० (रुचका) रुचकपर्वतमध्यभागे पूर्वदिग्वास्तव्यायां दिक्कुमारुचकसमुद्रपरिक्षेपी रुचकवरो द्वीपः / तत्परिक्षेपी रुचकवरः समुद्रः। Uम् , ति०। (जी०) रुचकवरसमुद्रे रुचकवरभद्ररुचकवरमहाभद्रौ (देवौ महर्द्धिको रुयगावई-स्त्री० (रुचकावती) रुचकपर्वतस्य मध्यभागे उत्तरदिग्वापरिवसतः) जी०३ प्रति०२ उ०।स्वनामख्याते समुद्रे, प्रज्ञा०१५ पद | स्तव्यायां दिकुमारीमहत्तरिकायाम्, आ० म० अ० ज०भूतानन्द१उ०। सू० प्र०। स्था०। चं० प्र०। अनु०। स्याग्रमहिष्यां च। भ० 10 श०५ उ०। रुयगवरदीवे रुयगवर-रुयगवरमहावरा एत्थदो देवा महिड्डिया। / रुयगिंद-पुं० (रुचकेन्द्र) बलेः वैरोचनाराजस्य उत्पातपर्वते, स्था०२ (तत्-रुचकवरसमुद्र) परिक्षेपीरुचकवरावभासो द्वीपः। (जी०) रुचक- ठा०३ उ०। (सच 'उप्पायपव्वय' शब्दे द्वितीयभागे 837 पृष्ठे दर्शितः) वरे समुद्रे रुचकवर-रुचकवरमहावरौ (देवौ महर्द्धिकौ परिवसतः) जी० रुयगुत्तमकूड-पुं० (रुचकोत्तमकूट) जम्बूमन्दरस्य पश्चिमे राचकपर्वत 3 प्रति०२ उ०। ('रुयग'शब्दे बहु वक्तव्यमत्र गतम्) षष्ठे कूटे, स्था०८ ठा०॥
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________________ रुयगुत्तरा 574 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 रूव रुयगुत्तरा-स्त्री० (रुचकोत्तरा) रुचकपर्वतस्य मध्यभागे दिकुमार्याम् ,दी०। आ० क० 110 रुयगोद-पुं० (रुचकोद) रुचकद्वीपपरिक्षेपिणि समुद्रे,जी०॥ रूयजुय-त्रि० (रूपयुत) रूपवति, लोकानां गुणविशिष्टो बहुमानभाग रुयगोदे नामं समुद्दे जहा खोदोदे समुद्दे संखेलाइं जो यण- जायते।'यत्राकृतिस्तत्रगुणा वसन्ति' इति प्रवादात् कुरूपस्य अनादेयासतसहस्साई चकवालविक्खंभेणं संखेन्जाइं जोयणसतसह- दिप्रसङ्गाच इति रूपयुतत्वं सूरिगुणः। प्रव०६५ द्वार। स्साई परिक्खेवेणं / दारा, दारंतरं पि संखेज्जाई, जोतिसं पि | रूयणालिया-स्त्री० (रूतनालिका) रूतं कार्पासविकारस्तद्धृता नालिका सव्वं संखेज माणियव्वं, अट्ठो विजहेव खोदोदस्सनवरि सुम- / शुषिरवंशादिरूपा। तभृन्नालिकायाम्, भ०२ श०५ उ०। णसोमणसा एत्थ दो देवा महिड्रिया तहेव रुयगाओ आउत्तं रूयप्पभा-स्त्री० (रूपप्रभा) भूतानन्दस्याग्रमहिष्याम् , भ० 6 श०३३ असंखेज विक्खंभपरिक्खेवो दारा दारंतरं च जोइसं च सव्वं उ० / दिकुमार्या महत्तरिकायाम्, स्था० 6 ठा० 1 भ० 1 मध्यमरुचकुअसंखेचं भाणियव्वं / जी०३ प्रति०२ उ01 पर्वतवास्तव्यायां दिकुमार्याम् ,द्वी०। रुयण-न० (रुदन) रुदितप्राये, ज्ञा० 1 श्रु०१८ अ०। रूयवग्ग-पुं०(रूपवर्ग) लोमपक्षिविशेषे,जी०१ प्रति०। रुयणिया-स्त्री० (रुदनिका) रुदितक्रियायाम, ज्ञा० 1 श्रु०१६ अ०। रूयसीह-पुं० (रूपसीह) द्वीपकुमारेन्द्रस्य उत्तरदिग्लोकपाले, भ०३ रुरु-पुं० (रुरु) मृगविशेष, ज्ञा०१ श्रु०१अ०। कल्प। प्रज्ञा०रा०। | 0 440 / प्रश्न०। आचा० / वनस्पतिकायभेदे, म्लेच्छजा, तिभेदे च / प्रश्न०१ रूया-स्त्री० (रूपा) रुचकपर्वतस्य पूर्वदिग्वास्तव्यायां दिकुमा-म् , आश्र०द्वार। आ० क० 1 अ० ज०। पूर्वदिग्वास्तव्याया दिक्कुमार्याः महत्तरिकायाम, सरुकण्ह-पुं० (रुरुकृष्ण) साधारणबादरवनस्पतिकायभेदे, प्रज्ञा०१पद। आ०म०१अ०। स्था०। भूतानन्दस्याग्रमहिष्याम्, ज्ञा०२ श्रु० 4 वर्ग रुलंत-पुं० (रुलत) भूमौ लुठति, प्रश्न० 3 आश्र० द्वार। 1 अ०। शुक्तिकायाम्, षो०१४ विव०॥ रुह-त्रि० (रुह) रुहः बीजजन्मनि, प्रादुर्भाव, रोहयतीतिरुहः। पुनरुत्प- | रूयार-पुं० (रूपकार) चित्रकारे, विशे०। त्तिशालिनि, आचा०१ श्रु०५ अ०६ उ०। रूयासिया-स्त्री० (रूपासिका) मध्यमरुचकपर्वतवास्तव्यायां दिकुमारुहिर-न० (रुधिर) शोणिते, प्रश्न०१आश्र० द्वार।"कीलालं सोणिअं र्याम् , आ० क० 1 अ० ज०। रुहिरं''। पाइ० ना०११३ गाथा। रुइअ-न० (रोरुचित) कामचिन्तायाम् , "मुरुमुरिअं रूरुइ-अं"! रुहिरविंदु-पुं० (रुधिरविन्दु) शोणितविन्दौ,जं०७ वक्ष०। पाइ० ना० 182 गाथा। रूढ-पु० (रूढ) प्रादुर्भूते, दश०७ अ०। शुष्के, विशे०। प्रगुणे, "रूढं | रूवं-न० (रूप) रूपणं रूपः; रूप्यते अवलोक्यते इति रूपम् / आकारे पउणं"। पाइ० ना०२६८ गाथा। चक्षुर्विषये, स्था० 1 ठा० / अणु०॥ पं० चू०। स्था० आ० म०। औ०। रू(अ)य-न० (रूत) बीजरहिते लोठितकपासे, बृ० 1 उ० 3 प्रक०। "करणी रूवं''। पाइ० ना०२३६ गाथा पृथिव्युदकज्वलनवृत्तिचाक्षुषनि० चूला तूले, दे० ना०७ वर्ग गाथा। कासिपक्ष्मणि, सू०प्र०२० गुणे, सम्म० 3 काण्ड। पाहु०। ज्ञा० / भ०। एगे रूवे / स्था०१ठा० / आचा०। *रूप-पुं०। द्वीपकुमारेन्द्रस्य लोकपाले, भ०३ श०५ उ० / स्था० / दुविहा रू(वा)या पण्णत्ता, तं जहा-अत्ता चेव, अणत्ता चेव० स्वभावे, प्रश्न०१आश्र० द्वार। जाव मणामा, अमणामा चेव। (सू०८३) स्था०२ ठा०३ उ०। रूयंती-स्त्री० (रूतवन्ती) कसिलोठिन्या लोठयन्त्याम् , पिं०। शरीरसौन्दर्ये, स्था० 4 ठा०२ उ०। स० प्रश्न० / ज्ञा० / गौरादिरूयंस-पुं० (रूपांश) द्वीपकुमारेन्द्रस्य लोकपाले, भ०३ श०८ उ०! वर्णलावण्ये, उत्त० 32 अ०। आकृतौ, ज्ञा० 1 श्रु०१अ० / प्रश्न०। आ० रूयंसा-स्त्री० (रूपांशा) भूतानन्दस्याग्रमहिष्याम, भ०११२०५ उ०। म०।स्था०। नि०। रा०। नयनमनोहारिणि, सूत्र १३अ० वर्णादक्षिणदिक्कुमा- मातरि, आ० म०१ अ०। दिमत्त्वे, भ० 17 श०२ उ०। मूर्ती, स्था०५ वा उ०।अन्यनाङ्गतायाम, रूयकंत-पुं० (रूपकान्त) विशिष्टेन्द्रस्य लोकपाले, स्था० 4 ठा० 170 / उत्त० 3 अ०।सम्म०। नेपथ्यादौ, स्था० 3 ठा० 1 उ०।स्वरूपे, सूत्र०२ रूयकता-स्त्री० (रुपकान्ता) मध्यमरुचकवास्तव्यायां दिशुमारीमहत्त- श्रु०१ अ० / स्वभावे, स्था० 6 ठा० / ज्ञा० / लेप्यशिला-सुवर्णरिकायाम् , स्था० 6 ठा० / द्वी० / भूतानन्दस्य नागकुमारेन्द्रस्याग्रम- मणिवस्त्रचित्रादिषुरूपनिर्माणरूपे कलाभेदे, जं०२ वक्ष०। नि० चू०। (तच हिष्यां च / स्था०६ ठा० / भ०। भगवता ऋषभेण भरतस्य प्रथममुपदिष्टम् इति 'उसम' शब्दे द्वितीयभागे रूयगावई-स्त्री० (रूपकावती) रुचकपर्वतवास्तव्यायां दिक्कु मामि, 1126 पृष्ठेउक्तम्) अचेतर्नेस्त्रीशरीरे, "अचेयणं इत्थीसरीरंरुवं भण्णति'।
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________________ रूव 575 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 रूववं नि० चू०१ उ०। भूषणविकले वा जीवत्स्त्रीशरीरे, दश० 4 अ०। ये कुशला इति गम्यते, तथा न कस्याऽपि लञ्चमुत्कोचं गृह्णन्ति / स्वगतस्त्रीचित्रादिगते, प्रज्ञा०२३ पद। "अशक्यं रूपमद्रष्टुं, चक्षुर्गोचर- नाप्यात्मीयोऽयमिति कृत्वा पक्षं गृह्णन्ति ते एतादृशोऽलञ्चा अपक्षग्राहिणो मागतम्। रागद्वेषौ च यौ तत्र, तौ बुधः परिवर्जयेत्॥१॥" ध०३ अधि०। रूपयक्षा रूपेण मूर्त्या यक्षा इव रूपयक्षाः, मूर्तिमन्तो धमकनिष्ठा देवा रूपनिक्षेपः-चक्षुरिन्द्रियमाश्रित्य रागद्वेषोत्पत्तिर्निषिध्यते, तत्र रूपस्य इत्यर्थः / व्य० 1 उ० / प्रति०1 आ० म०॥ चतुर्धा निक्षेपः, नामस्थापने अनादृत्य द्रव्यभावनिक्षेपार्थं नियुक्तिकृद् रूवजढ-त्रि० (रूपत्यक्त) रूपं त्यक्तं येन सरूपत्यक्तः। सुखादिदर्शनात् गाथाऽर्द्धमाह तान्तस्य परनिपातः। त्यक्तवेषे, व्य०१० उ०। दव्वं संठाणाई, भावो वनकसिणं सभावो य। रूवतेणय-पुं० (रूपस्तेनक) रूपवन्तम् उपलभ्य सत्वंयोमया विवक्षितो (दव्वं सद्दपरिणयं, भावो उ गुणा य कित्ती य)।। 324 // रूपवान् इत्यादि भावनया परसम्बन्धिरूपमात्मनि सम्पादयति, प्रश्न० तत्र द्रव्यम् नोआगमतो व्यतिरिक्तं पञ्च संस्थानानि परिमण्डलादीनि, / 3 संव० द्वार। भावरूपं द्विधा-वर्णतः, स्वभावतश्च / तत्र वर्णतः- कृत्स्नाः -पञ्चापि | रूवदेस-पुं० (रूपदेश) आदित्यमण्डलादिसमाक्रान्तप्रदेशे, विशे० / वर्णाः, स्वभावरूपं त्वन्तर्गतक्रोधादिवशा भ्रूङ्गललाटनयनारोपणनिष्ठु- | ('इंद्रिय' शब्दे द्वितीयभागे 561 पृष्ठे विस्तर उक्तः) रवागादिकम् , एतद्विपरीतं प्रसन्नस्येति, उक्तश्च-"रुद्रुस्सखरा दिट्ठी, रूवधम्म-न० (रूपधर्म) रजोहरणादिके स्वलिङ्गे धर्मज्ञानाउप्पलधवला पसन्नचित्तस्स। दुहियस्स ओमिलायइ, गंतुमणस्सुस्सुआ दिके ज्ञानादित्रिके, "धम्मे रूवं होति सलिङ्ग, धम्मो नाणव्वतियं होइ॥१॥" सूत्रानुगमे सूत्रम्। आचा०२श्रु०२चू०५ अ०। (तच सूत्रम् होई"। व्य०१० उ०। 'चक्खुदंसणवडिया' शब्दे तृतीयभागे ११०६पृष्ठे गतम् रूवपरियारग--पुं० (रूपपरिचारक) रूपतः परिचारकः रूपपरिचारकः / *रूत-न०। कपीसे, "पहली ववणं तूलो रूवो"। पाइ० ना० 255 गाथा। रूपतो मैथुनासेवके, स्था० 2 ठा० 4 उ०। ('कप्प' शब्दे तृतीयभागे रूवंगी -स्त्री० (रूपाङ्गी) रूपेणातिशयिना युक्तमङ्गं शरीरं यस्याः सा 231 पृष्ठेएतद्विषयं सूत्रं गतम्) रूपाङ्गी / सुरूपायाम् , व्य०३ उ०। रूवमय-पुं० (रूपमद) रूपेण मदो रूपमदः / मदभेदे, स०८ सम० / रूवंझाण-न० (रूपध्यान) रूपविषयके ध्याने, आतु०। स्था०। रूवंधार-पुं० (रूपंधार) मुनिवेषधारिणि, उत्त० 17 अ०। रूवमिणी-(देशी०)। रूपवत्याम् , दे० ना० 7 वर्ग 6 गाथा। रूवकहा-स्त्री० (रूपकथा) विकथाभेदे, स्था० 4 ठा०। (व्याख्या | रूवलक्ख-त्रि० (रूपलक्ष्य) कथितानुसारप्रसरत्प्रज्ञानां चतुर-चेतसां 'इत्थीकहा' शब्दे द्वितीयभागे 585 पृष्ठे गता) सुज्ञेये। विशे०। रूवखंध-पुं०(रूपस्कन्ध) बौद्धपरिभाषते अवयविद्रव्यविशेषे, स च / रूववं-पुं० (रूपवान्) शुभशरीरसंस्थाने, द्वा० 14 द्वा० / प्रशस्तरूपे, पृथिवीधात्वादिरूपो रूपादिरूपश्च / सूत्र० १श्रु०१ अ० 1 उ०! विशे० / प्रशस्तरूपे स्पष्टपञ्चेन्द्रिये, ध०१अधि० / तद्योगेन्द्रियपाटवोपेते रूवग-न० (रूपक) रजतमुद्रायाम् , ग०। रूपकप्रमाणं चेदम् -द्वीपसत्क- विशिष्टसमस्तशरीरावयवे सुन्दराकार-धारके,दर्श०२ तत्त्व। ध०र०। रूपकद्विकेनोत्तरापथरूपक एकः पाटलिपुत्रीयो रूपकः / अथवा- मतोः प्रशंसावाचित्वाद्, रूपमात्राभिधाने पुनरिनेव, यथा-रूपिणः दक्षिणापथरूपकद्वयेन काञ्चीपुरीयरूपक एकः स्यात् , तद्वयेन पुद्गलाः प्रोक्ता इति। ध००१ अधि०१गुण / ग०। पाटलिपुत्रीय एकः, एवंविधो रूपकोऽत्राधगन्तव्यः। ग०१ अधि००। सम्प्रति रूपगुणमाहनि० चू० / रा० / रूपकप्रतिरूपदर्शनीये, रा०। "तद्रूपकमभेदो य संपुनंऽगोवंगो,पंचिंदियसुंदरो सुसंघयणो। उपमानोपमेययो" रित्युक्तलक्षणे काव्यालङ्कारे, प्रति०। आ० म०। होइ पभावणहेऊ, खमो य तह रूववं धम्मे // 6 // रूवगदोस-पुं० (रूपकदोष) स्वरूपभूतानामवयवानां व्यत्यये, अनु०॥ सम्पूर्णान्यन्यूनान्यङ्गानि शिरउदरप्रभृतीनिउपाङ्गानि-चाङ्गुल्यादीनियस्य आ० म०। रूपकदोषो यथा-पर्वते रूपयितव्ये तत्स्वरूपभूतान् शिखरा- ससपूर्णाङ्गोपाङ्गोऽव्यङ्गिताङ्ग इत्यर्थः। पञ्चेन्द्रियसुन्दरः-काणकेकरवधिरदीनवयवान्निरूपयाते, अन्यत्र वा समुद्रादेः सम्बन्धिनस्तांस्तत्र मूकत्वादिविकलइत्यभिप्रायः। 'सुसंघयणु त्तिशोभनंसंहननं-शरीरसामर्थ्य रूपयतीत्यादि। विशे०। यस्यनपुनराद्यमेव, संहननान्तरेऽपिधर्मप्राप्तेः "सव्वेसु विसंठाणेसु, लहइ रूवजक्ख-पुं० (रूपयक्ष) रूपेण मूर्त्या यक्ष इव रूपयक्षः / धर्म. एमेवसव्वसंघयणे" इतिवचनात्सुसंहननस्तपःसंयमाद्यनुष्ठानसामोपेल कविशिष्टे देवकल्पे आधिकरणके, व्य०। इत्याकूतम् / एवंविधस्य धर्मप्रतिपत्तौ फलमाह-भवति-जायतेप्रभावनाअधुना रूपयक्षस्वरूपमाह हेतुस्तीर्थोन्नतिकारणम् ,तथा क्षमश्च-समर्थोरूपवान्धर्मेधर्मकरणविषये भंभीऍ मासुरुक्खे, माठरकोडिनदंडनीतीसु / स्यात्, सुसंहननत्वात्तस्येति। सुजातवत्।नचनन्दिषेणहरिकेशबलादिअल्लंव-पक्खगाही, एरिसया रूवजक्खा ते // 332 // भिर्व्यभिचार उद्भावनीयस्तेषामपि सम्पूर्णाङ्गोपाङ्गत्वादियुक्तत्वात् / भाम्भ्यामाशुवृक्षे माढरे-नीतिशास्त्रे कौण्डिनयप्रणीतासुच दण्डनीतिषु प्रायिकं चैतत्शेषगुणसद्भावे कुरूपस्य गुणान्तराभावस्य चादुष्टत्वात्,
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________________ रूववं 576- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 रेणु अत एव वक्ष्यति, "पायगुणविहूणा,एएसिं मज्झिमावरा नेया'' इति / से किं तं रूविअजीवाभिगमे? रूविअजीवाभिगमे च-उविहे ध० 20 1 अधि० 2 गुण। पण्णत्ते,तं जहा-खंदाखंददेसा खंधप्पएसा परमाणु-पोग्गला, रूववई-स्त्री०(रूपवती) भूतानन्दस्याऽग्रमहिष्याम्, भ०१०श०५ उ०। ते समासतो पंचविहा पण्णत्ता,तंजहा-वण्णपरिणयागंधपरिस्था०। ज्ञा० / उत्तरदिग्वास्तव्यायां दिक्कुमारीम् हत्तरिकायाम् , स्था० णया रसपरिणया फासपरिणया संठाणपरिणया, एवं ते 5 जहा ६ठा०। पण्णवणाए, सेत्तं रूविअजीवाभिगमे। (सू०५) रूवसंपत्ति-स्त्री० (रूपसम्पत्ति) रूपणं रूपः रूप्यत इति रूपम्। तस्य 'से किं तं रूविअजीवाभिगमे? रूविअजीवाभिगमेच-उविहे पण्णत्ते, संपत्तिः रूपसम्पत्तिः। निरुपहतेन्द्रियतायाम्, पं० चू०१कल्प। तंजहा-खंधा खंधदेसाखंधपएसा परमाणु-पुग्गला' इह स्कन्धा इत्यत्र रूवसच्च-न० (रूपसत्य) रूपापेक्षया सत्यं रूपसत्यम्। सत्यभेदे, यथा बहुवचनं पुद्गलस्कन्धानामनन्तत्वख्यापनार्थम् , तथा चोक्तम्-"दव्वतो प्रपञ्चयति प्रव्रजितरूपं धारयन् प्रव्रजित उच्यते न चासत्यताऽस्येति। णं पुग्गलत्थिकाए णं अनन्ते" इत्यादि 'स्कन्धदेशा' स्कन्धानामेव स्था० 10 ठा० / रूपतः सत्या रूपसत्या। सत्यमृषाभाषाभेदे, स्त्री०। स्कन्धत्वपरिणाममजहतां बुद्धिपरिकल्पिता द्वयादिप्रदेशात्मका यथा-दम्भतो गृहीतप्रद्रजितरूपः प्रव्रजितोऽयमिति। प्रज्ञा०११ पदाध०। विभागाः, अत्रा-पि बहुवचनमनन्तप्रदेशिकेषु स्कन्धेषुस्कन्धदेशानन्तरूवसत्तिक्कय-न० (रूपसप्तैकक) रूपमभिज्ञाप्रतिबद्धे, आचा०२ श्रु०२ त्वसंभावनार्थम् , स्कन्धप्रदेशाःस्कन्धानांस्कन्धत्वपरिणाममजहतां, चू०५ अ01 आचाराङ्गस्य द्वितीयश्रुतस्कन्धस्य पञ्चमाध्ययने, स्था० प्रकृष्टा देशाः-निर्विभागाभागाः परमाणव इत्यार्थः,परमाणुपुद्गलाः७ ठा०। स्कन्धत्वपरिणामरहिताः केवलाः परमाणवः / अत ऊर्ध्वं सूत्रमिदम्रूवसहगय-पुं० (रूपसहगत) सजीवे स्त्रीशरीरे, भूषणसहि- तेवा, 'ते समासतो पंचविधा पन्नत्ता, तं जहा-वण्णपरिणया गंधपरिणता स्त्रीशरीरे, दश० 4 अ०। नि० चू०।। रसपरिणता फासपरिणता संठाणपरिणता, तत्थणं जेवण्णपरिणया ते पंचविहा पन्नत्ता,तं जहा-कालवण्णपरिणता नीलवण्णपरिणता' इत्यादि रूवसाली-पुं०(रूपशालिन्) किन्नरभेदे, प्रज्ञा०१ पद। रूवसिरी-पुं०(रूपश्री) वटगच्छापरपर्यायस्य। वृद्धगच्छस्य प्रवर्तकानां तावद्द्यावत् सेत्तं रूविअजीवाभिगमे। जी०१ प्रति०। रूविणी-स्त्री० (रूपिणी) समुद्रपालस्य मातरि पालकस्य भार्यायाम् , देवसूरीणां नृपतिप्रदत्तविरुदे, "रूपश्रीरिति नृपतिप्रदत्त विरुदोऽथ देव उत्त०२१ अ०। अतिशयेन रूपवत्याम, व्य०२ उ०। सूरिरभूत्। ग० 3 अधि01 रूवी-स्त्री० (रूपी) गुच्छवनस्पतिभेदे, प्रज्ञा०१पद। रूवसोभग्गमयमत्ता-स्त्री० (रूपसौभाग्यमदमत्ता) चार्वाकृत्या स्वकीर्ति रूस-धा० (रूष) क्रोधे,"रूषादीनां दीर्घः"||८||२३६ // श्रवणादिरूपेण सौभाग्येन मन्मथजगर्वेण च मत्तायां स्त्रियाम्, तं०। रूसइ। रूष्यति / प्रा० 4 पाद। रूवाणुवाय-पुं०(रूपानुपात) अभिगृहीतदेशादहिःप्रयोजनसद्भावे शब्द रे-अव्य० (रे) सम्भाषणादौ, "रेअरे संभाषणरतिकलहे"||८|| मनुचारत एवपरेषां स्वसमीपे नयनार्थ स्वशरीर-रूपानुदर्शनरूपानुपातः। 201 / / अनयोरर्थयोर्यथासंख्यभेतौ प्रयोक्तवयौ / रे-संभाषणे, "रे देशावकाशिकव्रतस्य चतुर्थेऽतिचारे, उत्त० 1 अ०। आव०1०। हिअयमडहसरिआ। अरेरतिकलहे "अरे मए समं मा करेसुउवहासं''। रूवावई-स्त्री० (रूपावती) मध्यरुचकवास्तव्यासु अर्हतो जातमात्रस्य प्रा०। जी०। नालकर्तनादिकारिकासु, स्था० 4 ठा० 1 उ०। रेअव-धा० (मुच) मोचने, "मुचेश्छड्डावहेड-मेल्लोस्सिकरेअवरूवि(न)-त्रि० (रूपिन्) रूपं मूर्तिवर्णादिमत्त्वं तदस्ति येषां ते रूपिणः। जिल्लुञ्छ धंसाडाः"||८||११॥ इत्यनेन मुच धातो रेअव स्था० 4 ठा०१ उ०। प्रज्ञा०। मूर्तद्रव्येषु,स्था०५ ठा०३ उ०। भ०। इत्यादेशः। रेअवइ / मुञ्चति / प्रा० 4 पाद। अर्कद्रुमे, दे० ना०७वर्ग: गाथा। अतिशये मत्वर्थीयः। अतिशयरूपवति, रेअविअ-त्रि० (मुक्त) रिक्ते, "रेअविअंसुण्णइअं" | पाइ० ना० 163 सू० प्र०१३ पाहु०। गाथा। क्षणीकृते, दे० ना० 7 वर्ग 11 गाथा! रूविअ(य)जीव-पुं० (रूप्यजीव) स्कन्धादिषु मूर्तेषु द्रव्येषु, प्रज्ञा० रेंकिअ-(देशी०) आक्षिप्ते,लीने,व्रीडिते च। दे० ना०७ वर्ग०१४ गाथा। 1 पद। रेका-पुं० (रेका) विरेचने, शङ्कायां च / अवाप्य सम्यक्त्वमपेतरेकम्। रूविअ(य)जीवाभिगम-पुं० (रूप्यजीवाभिगम) जीवाभिगम भेदे, जी० / हा०३२ अष्ट01 3 प्रति०। रेकार-पुं० (रेकार) तिरस्कारे, ध०२ अधि०। रूविअ(य)मास-पुं० (रूप्यमाष) गुञ्जाद्वयपरिमाणे कर्ममाषे, ज्यो० | रेणा-स्त्री० (रेणा) स्वनामख्यातायां स्थूलभद्रभगिन्याम, आ० क०४ २पाहु०। अ01ती०। आ० चू०। कल्प। रूविजीव-पुं० (रूपिजीव) अनादिकर्मसन्तानपरिगते जीवभेदे। आ० | रेणी-(देशी०)। पङ्के, दे० ना०७ वर्ग गाथा। म०२०। देवानां वैक्रियशरीरवतां दर्शनाद्रूप्येव जीव इत्येवमवष्टम्भ- | रेणु-पुं० (रेणु) भूवर्तिनि धूलीरूपे, स०३४ सम० / प्रश्न सदृशेषष्ठे विभङ्गज्ञाने, स्था० 4 ठा०२ उ०। नि० चू० / रेणुनाधूल्या कलुषामलिना रेणुकलुषास्तमः
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________________ रेणु 577 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 रेवय पटलेनान्धकारेण निरालोकानिरस्तप्रकाशा निरस्तदृष्टिप्रसरा वा तमः- रेवईअ-(देशी०)। मातृषु, दे० ना० 7 वर्ग 10 गाथा। पटलनिरालोकास्ततः कर्मधारयः। भ०७श०६उ०। स्थूलतरे पृथ्वी- रेवईनक्खत्त-पुं० (रेवतीनक्षत्र) आर्यनागहस्तिनां स्वनामख्याते पुद्गले, श्लक्ष्णतरा रेणुपुद्गला रजः, त एव स्थूला रेणवः। जी०३ प्रति० शिष्ये, नं०। 4 अधि०। पांशुषु, ज्ञा०१श्रु०१७ अ०।ज्ञा०।"रेणुपंसूरओ पराओ जयंजणधाउसम-प्पहाण मुहियकुवलयनिहाणं / य"। पाइ० ना० 137 गाथा। वडउ वायगवंसो, रेवइनक्खत्तनामाणं // 21 // रेणुया स्त्री० (रेणुका) परशुरामभातरि यमदनेः भार्वायाम् , आचा०१ 'जचंजणेत्यादि' आर्यनागहस्तिनामपि शिष्याणां रेवतिनक्षत्रनाम्नां श्रु०२ अ०१उ०। आ० का तं०। आ० म०। (एतत्कथा 'कोह' शब्दे वाचकानांवाचकवंशोवर्द्धताम, कथं भूतानामित्याह-जात्याञ्जनधातुतृतीयभागे 1400 पृष्ठे उक्ता) अनन्त-जीववनस्पतिभेदे, प्रज्ञा०१पद! समप्रभाणाम्-जात्यश्वासावञ्जनधातुश्च तेन समासदृशी प्रभादेहरेम-पुं० (रेफ)"फो भ-हौ"||८|१|२३६ // इति फस्य भः। कान्तिर्येषां तेतथा तेषां,मा भूतदत्यन्तकालिम्निसम्प्रत्यय इति विशेषरेफः / रेभः / रकारात्मके वर्णे, प्रा० 1 पाद। णान्तरमाहमुद्रिकाकुवलयनिभानांपरिपाकागतरसद्राक्षया नीलोत्पलेन रेय-पुं० (रेत) पुरुषसम्बन्धिनि शुक्रे, स्था० 4 ठा० 4 उ०। चसमप्रभाणाम्, अपरेपुनराहुःकुवलयमिति मणिविशेषः / तत्राप्यविरोधः। रेयग-पुं० (रेचक) बहिर्वृत्तौ श्वासे, द्वा०२२ द्वा०। नं०। स्था०। रेयगावट्ट-पुं० (रेचकावर्त्त) अङ्गप्रावर्त्तने, यदङ्गपरावर्त्तनं तद्रेचकावर्त रेवईमित्त-पुं० (रेवतीमित्र) दशपूर्विणि स्वनामख्याते युगप्रधानसूरौ, इत्यभिधीयते। प्रव०२ द्वार। कल्प०२ अधि० 8 क्षण। रेल्लि-स्त्री० (रेल्लि) श्रोतसि,तं०॥ रेवजिअ-(देशी०)। उपालब्धे, दे० ना०७ वर्ग 10 गाथा। रेवई-स्त्री० (रेवती) पूषादेवताके नक्षत्रभेदे, अनु०। स्था०।०। सू० प्र०। रेवय-पुं० (रेवत) गन्धर्वभेदे, प्रज्ञा० 1 पद। द्वारवत्यामुत्तरपूर्व स्वनामरेवईणक्खत्ते बत्तीसइतारे पण्णत्ते / स०३२ सम०। ख्याते पर्वते, आव०१श्रु०५ वर्ग 1 अ०नि० आ० म० आ० चू०। कृष्णभ्रातुः बलदेवस्य भार्यायां, निषधकुमारस्य मातरि,नि०। राजगृहे प्रव०। महाशतकस्य गृहपतेः प्रधानभार्यायाम् , उपा० अ०। (तत्कथा ‘महा रैवतगिरिकल्पःसयय' शब्दे षष्ठे भागे 214 पृष्ठे उक्ता) मेद्रिकग्रामवास्तव्यायां गृहप "सिरिनेमिजिणं सिरसा, नमिउं रेवयगिरीसकप्पम्मि। ल्याम, भ० 15 श०। तद्वक्तव्यता-रेवती भगवत औषधदात्री कथम्किलैकदा भगवतो मेदिकग्रामनगरे विहरतः पित्तज्वरोदाहबहुलो बभूव, सिरिवइरसीसभणियं, जहा य पालित्तएणं तु॥१॥" छत्तसिलाइसमीवे सिलासणे दिक्खपड्विन्ने नेमी सहस्सतवणे केवललोहितवर्चश्च प्रावर्तत, चातुर्वर्ण्य च व्याकरोति स्म,यदुत गोशालकस्य तपस्तेजसा दग्धशरीरोऽन्तः षण्मासस्य कालं करिष्यतीति, तत्र च नाणं लक्खारामे देसणा अवजोहणं, उ(सि)द्धसिहरे निव्वाणं / रेवयसिंहनामा मुनिरातापनाऽवसान एवममन्यतमम धर्माचार्यस्य भगवतो मेहलाए कण्डो तत्थ कल्लाणतिगं काऊण सुवण्णरयणपडिमालंकिंअं महावीरस्य ज्वररोगो रुजति, ततो हा वदिष्यन्त्यन्यतीर्थिकाः यथा चेइअतिगंजीवंतसामिणो अंबादेविच कारेइ। इदो विवजेण गिरिकारेऊण छयस्थ एव महावीरो गौशालकतेजोऽपहतः कालगत इतिः एवम्भूतभाव सुवण्णबलाणयंरुप्पमयं चेइ, रयणमया पडिमा पमाणक्नोववेया सिहरे नाजनितमानसमहादुःखखेदितशरीरो मालुककच्छाभिधानं विजनं अवरंगमंडवे अवलोहणसिहरं बलाणयमंडवे संबो एयाई कारेइ, सिद्धवनमनुप्रविश्य कुहुकुहेत्येवं महाध्वनिना प्रारोदीत्, भगवांश्च स्थविरैस्त विणायगो पडिहारो तप्पडिरूवं 'श्रीनेमिमुखात् निर्वाणस्थानं ज्ञात्वा माकार्योक्तवान्- हे सिंह ! यत्त्वया व्यकल्पि, न तद्भावि, यत इतोऽहं निर्वाणादनन्तरं' कण्हेण ठावियं, तहा सत्त जायवा दामोयराणुरूवादेशोनानि षोडश वर्षाणि केवलपर्याये पूरयिष्यामि, ततो गच्छ त्वं कालमेह 1, मेहनाद 2, गिरिविदारण 3, कपाट 4, सिंहनाद५, खोडिक नगरमध्ये, तत्र रेवत्यभिधानया गृहपतिपत्न्या मदर्थ द्वे कूष्माण्डफलशरीरे 6, रेवया 7, तिव्वतवेणं कीडणेणं खित्तवाला उववन्ना। तत्थ य मेहनादो उपस्कृते, न च ताभ्यां प्रयोजनम्, तथाऽन्यदस्ति तद्गृहे परिवासितं सम्मविट्ठी नेमिपयभत्तिजुत्तो चिट्ठइ, गिरिविदार-णेणं कंचणवलाणयम्मि मार्जाराभिधानस्य वायोर्निवृत्तिकारकं कुक्कुटमांसकम् , बीजपुरककटा पंच उ दारा विउव्विआ, तत्थे णे अंबापु-रओ उत्तरदिसाए सत्तहि अ हमित्यथः, तदाहर, तेन नः प्रयोजनमित्येवमुक्तोऽसौ तथैव कृतवान् , सयकमेहि गुहा, तत्थ य उववासतिगेणं बलिविहाणेणं सिलं उप्पाडिरेवंती च सबहुमानं कृतार्थमात्मानं मन्यमाना यथा याचितं तत्पात्रे ऊण मज्झे गिरिविदारणा पडिमा, तत्थय कम्मपण्णासंगए बलदेवेणं प्रक्षिप्तवती, तेनाप्यानीय तद्भगवतो हस्ते विसृष्टम, भगवताऽपि वीतरा- कारि सासयजिणपडिमारूवं नमिऊण उत्तरदिसाए पण्णासतिगं गतयैवोदरकोष्ठे निक्षिप्तम्, ततस्तत्क्षणमेव क्षीणो रोगो जातः जातानन्दो वारितिगं, पढमाएवारिआए कमसयतिगं गंतूण गोदोहिआसणेणं यतिवर्गो मुदितो निखिलो देवादिलोक इति / स्था०६ ठा० / स०। पविसिऊण उपवासपंचगंभमररूवं दारुणं सत्तेणं पाडिऊण कमसताओ ती० ।(यथा गोशालो पहत-वीरस्वामिवेदनोपशमनार्थं कपोतशरीरं अहोसुहं पविसि-ऊण वलाणमंडवे इंदादेसेणथणयजक्खकारियं इंवादेविं मारिकृते कुक्कुटमांसं च उपस्कृतमिति गोसालग' शब्दे 1030 पृष्ठे) | पूइऊण सुवण्णजालीए ठायच / तत्थ ठिएण सिरिमूलनाहो नभिजिणिं
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________________ रेवय 578 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 रोगपरीसह दो वंदिअव्वो बीअवारीए एग पायं पूयत्ता सयंवरं वादीए अहो कमवाली | रेहंत-त्रि० (राजत्) शोभमाने, ज्ञा० 1 श्रु०१अ०। संगामित्ता, तत्थणं मज्झवारीएकमसत्तसएहिं कूवो; तत्थवरहंसविअत्तेण | रेहा-स्त्री० (रेखा) अल्पे,दले, आभोगे, विन्दुपुञ्जकृते दण्डाकारेण इहावि मूलनायगो वन्देयव्वो-तइअवारीए मूलदुवारपवेसो अंबाएसेण न | चिह्नभेदे, पङ्क्तौ च / कल्प०१ अधि०१क्षण। अन्नहा। एवं कंचणबलाणयमगे। तत्थय अंबापुरओ हत्थवीसाए विवरं, | रेहिअ-(देशी०)। छिन्नपुच्छे,दे० ना०७ वर्ग 10 गाथा। तत्थय अंबाएसेण उववासति-गेण सिलुग्घाडणेण हत्थबीसाए संपुडसत्तगं | रेहिज्जमाण-त्रि० (राराज्यमान) देदीप्यमाने, अतिशयेन राजमाने, भ० समुग्णयपंचगं अहो रसकूविआ अमावासाए अमावासाए उग्घडइ तित्थय ७श०३ उ०। य उववा-सतिमं काऊणं अंबाएसेण पूयणेण बलिविहाणेणं गहियव्यं / | रेहिर-त्रि० (रेखावत्) आलिवल्लोल्लाल-वन्त-मन्ते-तेरतहाय जुण्णकूडे उववासतिगंकाऊण सरलमग्गेण बलिपूअणेणं सिद्ध- मणामतोः। 8 / 2 / 156 / इति मतोः स्थाने इरादेशः। रेहिरो। विणायगो उवलब्भइ,तत्थ य चिंतिअ सिद्धिं दिणमेगं ठायव्वं, जइतहा रेखाविशिष्टे,प्रा० 2 पाद। पचक्खो हवइ तहा राईमईगुहाए कमसएणं गोदोहिआए पविसियव्वं, | रोअ-पुं० (रोग) व्याधौ,आयको आयल्लो वाही तइ आमयो रोओ। पाइo रसकूविआएकसिणचित्ता कसिणचित्तवल्ली राईमईए पडिमा रयणमया ना०५१ गाथा! अंबाए रूप्पमयाओअणेगा ओसहिओ चिट्ठति। तत्थ छतसिला घंटसिला रोअणागिरि-पुं०(रोचनागिरि) मेरोः भद्रशालवने अष्टमे दिग्हस्तिकूटे, कोडिसिला तिगं पण्णत्तं, छत्तसिला मज्झमज्झेण कणयवल्ली सहस्सं मन्दरस्योत्तरपूर्वे उत्तरायाः शीतायाः पूर्वे स्वनामख्याते देवे च। जं०४ वणमझेरययसुवण्णमयचउव्वीसंलक्खारामेछावत्तरी चउवीसजिणाण वक्षन गुहा पण्णत्ता / कालमेहस्स पुरओ सुवण्णवालुआए नईए सट्ठिकमस- रोअणिआ-स्त्री० (रोदनिका) रोअणिआ लामाओ / पाइ० ना० 107 यतिगेण उत्तरदिसाए गमित्ता गिरगुहं पविसिऊण उदए ण्हवणं काऊण गाथा। दे० ना०। ठिए उववासपओगेहिं दुवारमुग्घाडेइ। मज्झे पढमदुवारे सुवण्णखाणी रोइआवसाण-न० (रोचितावसान) रोचितम्-सम्यम्भावितम् अवसानं संघहेउं अंबाए विउव्विआ।तत्थरयणचुण्णभंडारोअण्णोदामीदरसमीवे / यस्य तद्रोचितावसानम्, शनैः शनैः प्रक्ष्येप्यमाणस्वरं यस्य गेयस्यावसान अंजणासलाए अहोभागे रययसुवण्णधूली पुरिसवीसेहि पण्णत्ता। तत्थ तद्रोचितावसानम् / गेयभेदे, जी०३ प्रति०४ अधि००। रा०। माणमंगलयदेवदालीय संतुरससिद्धिसिरिवइरोवक्खायं संघसमुद्धरण- आ०म०। कजम्मि तस्स कडाह मज्झं गिण्हित्ता कोडिविंदुसंजोगो संघसिलाचुण्ण- रोइंदग-न० (रोधितान्तक) रोचिताऽवसाने, आ० चू०१ अ०। यजोयणाओ अंजण-सिद्धिविज्जा ! पाहुडुद्देसाओ रेवयकप्पसंखेओ | रोइज्जत-न० (रोच्यमान) प्रशस्यमाने, आचा०२ श्रु०१ चू० 5 अ०। सम्मत्तो। ती०२ कल्प०1धैवतके स्वरे, स्था०७ ठा०। अनु०। प्रणामे, | रोइय-त्रि० (रोचित) भाविते. चिकीर्षिते च / आ० म०१ अ०। स्था० / दे० ना०७ वर्ग गाथा! रोएमाण-त्रि० (रोचयत्) रुचिविषयीकुर्वाणे, ध० 3 अधि० / आचा० / रेसणिया-स्त्री० (रेषणिका) करोटिकायाम, "रेसणिया करोडिया'। आ० म० पाइ० ना०२४४ गाथा। रॉकण-(देशी०)। रङ्के, दे० ना०७ वर्ग 11 गाथा। रेवलिआ-(देशी०)। वालुकावर्त, दे० ना०७ वर्ग०१० गाथा। रोक्कणिअ-(देशी०)। भृङ्ग्याम् नृशंसेचा दे० ना०७ वर्ग 16 गाथा। रेवा-स्त्री० (रेवा) नर्मदायाम , मेअलकन्ना य नम्मया रेवा / पाइ० ना० | रोग-पुं० (रोग) व्याधौ, आचा०१ श्रु०६ अ०१ उ०। प्रव० / / 130 गाथा। ज्वरातिसारकासश्वासादिषु, आव० 4 अ० आचा० / कालसहेषु रेसणी- (देशी०) / अक्षिनिकोचे, करोटिकाख्यकांस्यभाजने च / दे० व्याधिषु, औ०। भ०।ज्ञा० स्था०। कुष्ठादिरूपे, उत्त०२ अ०। ज्ञा० / ना०७ वर्ग 15 गाथा। स्था०। सद्योधातिनिरोगे,पं० सू०३ सूत्र आव०नि० चू०। प्रश्न०। रेसि(सिं)-अव्य०॥तादर्थ्य,प्रा०ातादर्थ्य केहिं-तेहिं-रेसि-रेसिं- आचा० / खासे सासे जरे दाहे, जोणीसूले भगंदले / अरिसाऽजीरए तणेणाः।।१।२५ 1 अपभ्रंशे तादर्से द्योत्ये केहि-तेहिं-रेसि- दिट्ठी, मुद्धसूले अकारए।। (१-अक रकः अरोचकः) 1 // पं० भा०२ रेसिं-तणेण इत्येते पञ्च निपाताः प्रयोक्तव्याः। बेल्ला एह परिहासडी, कल्प०। सासे 1 कासे २जरे 3 दाहे४, कुच्छिसूले 5 भगंदरे / अरिसा अइभन कवणहि देसि। हउँ झिज्जउँतउ केहिं पिअ! तुहँ पुणु अन्नहि रेसि ७ऽजीरए 8 दिही, 6 मुद्धसूले 10 अकारए 11 / अच्छिवेयण 12 कन्न॥ 1 // प्रा० 4 पाद। वेयणं 13 कंठे१४ उदरे 15 कोढे 16 / इति पाठान्तरम्। उपा० 4 अ०। रेसिअ-देशी०। छिन्ने,दे० ना०७ वर्गगाथा। रोगतिगिच्छा-स्त्री० (रोगचिकित्सा) व्याधिप्रतिक्रियायाम, पञ्चा० 18 रेह-धा० / राज दीप्तौ, राजेरग्घ-छज्ज-सह-रीर-रहाः।८।। विव०। 1001 इति राजस्थाने रेहादेशः। रेहइ / राजति। प्रा०४ पाद। रोगपरीसह- पुं० (रोगपरीषह) रोगो-रुक् तत्परिषहणं च त
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________________ रोगपरीसह 576 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 रोह त्पीडासहनं चिकित्सावर्जनम् / भ० 8 श० 8 उ० / रोगोकण्डज्वरा- अहिताशनतया वा, अथवा साऽजीर्णे भुज्यते यत्तु, तदध्यशनमुच्यते।' दिरूपः स एव परीषहः / प्रव०८६ द्वार।रोगे सति चिकित्सायामप्रवर्त्तनेन इति वचनात्। तदध्यशनम्अजीर्णे भोजनं तदेव तत्ता तयेति, भोजनसम्यक् सहने,आवारोगो ज्वरातिसारकासश्वासादिस्तस्य प्रादुर्भावे प्रतिकूलता-प्रकृत्यनुचितभोजनता तया, इन्द्रियार्थाना-शब्दादिविषसत्यपि न गच्छनिर्गताश्चिकित्सायां प्रवर्त्तन्ते, गच्छवासिनस्त्वल्पबहु- याणां विकोपनविपाकः इन्द्रियार्थविकोपनं कामविकार इत्यर्थः, ततो त्वालोचनया सम्यक् सहन्ते, प्रवचनोक्तविधिना प्रतिक्रियामाचरन्तीति, हिस्त्र्यादिष्वभिलाषादुन्मादादिरोगोत्पत्तिः, यत उक्तम्-आदावभिलाषः एवमनुतिष्ठता रोगपरीषहजयः कृतो भवति / / 16 / / आव० 4 अ०। १स्याचिन्ता तदनन्तरं 2 ततः स्म-रणम् 3 // तदनु गुणानां कीर्तन ४नोद्विजेद्रोगसंप्राप्तौ, न चाभीप्सेचिकित्सितम्। विषहेत तथाऽदीनः, मुद्वेगश्च 5 प्रलापश्च 6 / उन्माद 7 स्तदनु ततो, व्याधि 8 जडताह श्रामण्यमनु-पालयेत्॥१॥ आ० म०१ अ०। उद्विजेत नस रोगेभ्यो,न ततस्ततोमरणम् 10 // 1 // इति विषयाप्राप्तौ रोगोत्पत्तिः, अत्यासक्ताचकाक्षेचिकित्सितम्। अदीनस्तु सहेदेहात् , जानानो भेदमात्म-नः / वपि राजयक्ष्मादिरोगोत्पत्तिः स्यादिति / स्था०६ ठा०॥ 1|1|| ध०३ अधि०। उत्त०। (चिकित्सां न कुर्याद् भिक्षुरिति 'तिगि- रोघ-(देशी०)। रङ्के, दे० ना०७ वर्ग 11 गाथा। च्छाशब्दे चतुर्थभागे 2236 पृष्ठे गतम्) (अत्र कालाश्यवैशिककथा | रोन-धा० (पिष्) पेषणे, पिषेणिवह-णिरिणास-णिरिणज्ज-रोच'कालासवेसियपुत्त'शब्दे तृतीयभागे 467 पृष्ठेगता) चड्डाः||४|१८५ / इति पिषधातोः रोञ्चादेशः / रोशइ। चड्डुइ। रोगपरीसहविजय-पुं० (रोगपरीषहविजय) रोगे सत्यल्पबहुन्वालोच- | पक्षे-पिषइ। पिनष्टि। प्रा०४ पाद! नया प्रवचनोक्तविध्यनुसारतः प्रतिक्रियासमाचरणे, पं०सं०४ द्वार। | रोज्झ-पुं० (रोज्झ) द्विखुरपशुभेदे, प्रज्ञा०१ पद। विपा० ऋश्ये, दे० रोगविहि-पुं० (रोगविधि) चिकित्सायाम् , वैद्यशास्त्रपुस्तके च / स्त्री०। | ना०७ वर्ग 12 गाथा। पुच्छार्थ रोज्झा हन्यन्ते। आचा० १श्रु०१ अ० वृ० 1302 प्रक०। 60 / रोहिते, "रोहिओ रोज्झो''। पाइ० ना०२२७ गाथा। रोगसम-पुं०(रोगशम) व्याधिशमनमात्रे, पञ्चा०६ विव०। रोट्ट-पुं० (रोट्ट) नालोट्टे,बृ०१उ०१ प्रक० तन्दुलपिष्ट, दे० ना० रोगायंक-न० (रोगातङ्क) रोगो दाहज्वरादिः आतङ्कः-शीघ्रघाती / 7 वर्ग 11 गाथा। शूलादिः, रोगश्च आतङ्कश्य अनयोः समाहारो-रोगातङ्कम्। रोगातङ्कद्वये, | रोड-(देशी०)। इच्छायाम् , व्रणिशिविकायांचा दे० ना०७ वर्ग 15 गाथा। उत्त० 16 अ०भ०। रोगोव्याधिः स चासावातश्च कृच्छ्रजीवितकारीति | रोत्तय्व-न० (रोदितव्य) रुद-भुज-मुचां तोऽन्त्यस्य।८।। रोगातङ्क रोगरूपे आतङ्के, पुं० भ०६ श०३३ उ०॥ तं० प्रश्न०। / 212 / इति अन्त्यस्य तो भवति। रोदनीये, प्रा०। रोगावत्था-स्त्री० (रोगावस्था) ज्वरादिरोगप्रकारे, बृ०२ उ०नि० चू०। रोत्तुं-अव्य० (रुदितुम्) रुद-मुज-मुचां तोऽन्त्यस्य।८।४।२१२। रोगासयसमण-न० (रोगाशयशमन) रोगनिदानचिकित्सायाम, आव० / / इति अन्त्यस्य तो भवति। रोदनं कर्तुमित्यर्थे / प्रा० 4 पाद। 4 अ०। रोत्तूण-अव्य० (रोदित्वा) रुद-भुज-मुचां तोऽन्त्यस्य।। रोगिणिया-स्त्री० (रोगिणिका) रोग आलम्बनतया विद्यते य स्यां सा | 1 / 212 / इति अन्त्यस्य तो भवति। रोदनं कृत्वेत्यर्थे, प्रा०! रोगिणी सैव रोगिणिका / सनत्कुमारस्येव प्रव्रज्या भेदे, स्था० 10 ठा०। रोद-पुं० (रौद्र) रोदयत्यतिदारुणतया अश्रूणि मोचयतीति रौद्रः। रिपुजनरोगिय-त्रि० (रोगित) सञ्जातचिरस्थायिज्वरादिदोषयुक्ते, विपा० 1 श्रु० महादारुणान्धकारादिदर्शनाद्युद्भवो विकृताध्यवसायरूपो रसोऽपिरौद्रः। 7 अ० ज्ञा०। आ०म०। रसभेदे, अनु०। रोगुप्पत्ति-स्त्री० (रोगात्पत्ति) रोगोत्पादे, स्था०। अथ रौद्रं हेतुतो, लक्षणतश्चाऽऽहणवहिं ठाणे हिं रोगुप्पत्ती सिया, तं जहा-अचासणाते भयजणणरूवसई-धयारचिंताकहासमुप्पण्णो। अहितासणाते अतिणिहाए अतिजागरितेण उच्चारनिरोहेणं- संमोहसंभमविसाय-सरणलिंगो रसो रोहो॥८॥ पासवणनिरोहेणं अद्धाणगमणेणं भोयणपडिकूलताते इंदिय रोडो रसो जहात्थविकोवणयाते। (सू०६६७) भिउडीविडंबिअमुहो, संदट्ठोह इअरुहिरमाकिण्णो। अचासणयाएत्ति अत्यन्तं-सततमासनम्-उपवेशन यस्य, साऽत्या- हणसि पसुं असुरणिभो, भीमरसिअ ! ऽइरोह ! रोद्दोऽसिह॥ सनस्तद्भावस्तत्ता तया, अर्थोविकारादयो हिरोगा एतया उत्पद्यन्त इति, रूपं शत्रुपिशाचादीनां शब्दस्तेषामेव अन्धकारंबहुलतमोनिकुरुम्बअथवा-अतिमात्रमशनमत्यशनंतदेवात्यशनता, दीर्घत्वं च प्राकृतत्वात् रुपम् ,उलक्षणत्वादरण्यादयश्च पदार्था इह गृह्यन्ते, तेषां भयजनकानां तया, सा चाजीण कारणत्वात् रोगोत्पत्तये इति, 'अहियासणयाए' त्ति रूपादिपदार्थानांयेयं चिन्तातत्स्वरूपपर्यालोचनरूपा, कथातत्स्वरूपभणअहितम्-अननुकूलं टोलपाषाणाद्यासनं यस्य स तथा, शेषं तथैव, तया, नलक्षणा,तथोपलक्षणत्वाददर्शनादीनिचगृह्यन्ते, तेभ्यः समुत्पन्नोजातोरौद्रो
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________________ रोह 580 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 रोरव रस इतियोगः। किंलक्षण इत्याह-संमोहः किंकर्तव्यत्वमूढता संभ्रमो- हाईरोमाई' पाइ० ना०२२१ गाथा। तं०। "रोमरहियवड्डलट्ठसंठियव्याकुलत्वं विषादः-किमहमत्र प्रदेशे समायात इत्यादि खेदस्वरूपः अजइन्नपसत्थलक्खणजंघाजुयला'' रोमरहितं वृत्तवर्तुलं लष्टसंस्थितंमरणंभयोद्धान्तगचशुकमालहन्तृ-सोमिलद्विजस्येव प्राणत्यागस्तानि मनोज्ञसंस्थानं क्रमेणोर्ट्स स्थूरस्थूरतरमिति भावः, अजघन्यप्रशस्तलिङ्ग-लक्षणं यस्य स तथा। आह-ननु भयजनकरूपादिभ्यः समुत्पन्न | लक्षणंजघन्यपदरहितशेषप्रशस्तलक्षणाङ्कितं जङ्घायुगलं यासां ता सम्मोहादिलिङ्गश्च भयानक एव भवति, कथमस्य रौद्रत्वम् ? सत्यं रोमरहितवृत्तलष्टसंस्थिताजघन्यप्रशस्तलक्षणजङ्घायुगलाः / जी०३ किन्तु-पिशाचादिरौद्रवस्तुभ्यो जातत्वाद्रौद्रत्वमस्य विवक्षितमित्य- प्रति० 4 अधि०२०। (जवादिरोमकल्पनम् 'परकिरिया' शब्दे पञ्चमदोषः, तथा शत्रुजनादिदशने तच्छिरःकर्तनादिप्रवृत्तानां पशुशूकरकुरङ्ग- ___भागे 516 पृष्ठे दर्शितम्।) लवणविशेषे, सूत्र०१ श्रु०७ अ०॥ वधादिप्रवृत्तानां च यो रौद्राध्यवसायात्मको भूकुटीभङ्गादिलिङ्गो रौद्रो रोमंच-पुं० (रोमाञ्च) रोम्णां हर्षे, नि० चू०७ उ०। रसः सोऽप्युपलक्षणत्वादत्रैव द्रष्टव्यः, अन्यथा स निरास्पद एव स्याद्, | रोमंचिअ-त्रि० (रोमाञ्चित) पुलकिते, "रोमंचिअं आरेइअं, ऊसलिअं अत एव रौद्रपरिणामवत्पुरुषचेष्टाप्रतिपादकमेवोदाहरणं दर्शयिष्यति। पुलइअंच कंटइअं'। पाइ० ना०७६ गाथा। भीतचेष्टाप्रतिपादकं तु तत् स्वत एवाभ्यूह्यमित्यलं प्रसङ्गेन। उदाहरण- | रोमंथ-पुं० (रोमन्थ) भुक्तस्य धासादेः पशुभिरुद्रीयं चर्वणे, व्य०१० माह-भिउडी, गाहा-त्रिवलीतरङ्गित्तललाटरूपया भूकुट्या विडम्बितं- उ० "रोमंथो उग्गालो''। पाइ० ना० 151 गाथा। विकृतीकृतं मुखं यस्य तत् सम्बोधन हे भ्रकुटीविडम्बितमुख! सन्दष्टोष्ठः | रोमकूव-पुं० (रोमकूप) रोम्णां तनूरुहाणां कूप इव कूपाः। रोमरन्ध्रेषु,तं० / 'इत' इति इतश्च इतश्च 'रुहिरमाक्षिण' ति विक्षिप्तरुधिर इत्यर्थः,हंसि- | ज्ञा० / उत्त०। आ० म०1 व्यापादयसि पशुम्, असुरोदानवस्तन्निभः-तत्सदृशः भीमं रसितं- | रोमग-पुं०(रोमक)म्लेच्छदेशभेदे, प्रश्न०१आश्र० द्वार। रोमकदेशोद्भवे, शब्दितं यस्य तत्सम्बोधनं हे भीमरसित ! अतिरौद्र ! अतिशयरौद्राकृते! | जं०३ वक्ष०ा तत्र जातेअनार्यजातिभेदे, सूत्र०२ श्रु०१ अ०। आ० चू०। रौद्रोऽसि-रौद्रपरिणामयुक्तोऽसीति / अनु० / भीषणाकारे, ज्ञा० 1 श्रु० रोमराइ-स्त्री० (रोमराजि) उदरमध्यस्थकेशावल्याम् , नि० चू०३ उ० / 4 अ०। आ० चू०।"रोदा कायाणेरइयाणं' नैरयिकाणां रौद्रा दारुणा जघने, दे० ना०७ वर्ग 12 गाथा। अत्यन्तमनिष्टत्वेन क्रोधोत्पादकत्वात् रौद्ररसोहि क्रोधरूपो, यत आह- रोमलयासय-देशी०। उदरे, दे० ना०७ वर्ग 12 गाथा। रौद्रः क्रोधप्रकृतिरिति / स्था० 4 ठा० 4 उ०! ज्ञा०ा दारुणे, षो०१६ / रोमस-न० (रोमश) पक्ष्मले, ''पम्हलयंलोमसं''पाइ० ना०२४६ गाथा। विव० / आव०। रुद्रस्येदं कर्म रौद्रं वधवेधनबन्धदहनाङ्कनमारणादि- रोमसुहा-स्त्री० (रोमसुखा) रोमसुखकारिण्यां सम्बाधनायाम, कल्प० कर्माणि / प्रव०६द्वार। ध०। हिंसाद्यतिक्रौर्यानुगते ध्यानभेदे, आव०४ 1 अधि०३ क्षण! अ०। (विशेषः 'रुद्दज्झाण' शब्देऽस्मिन्नेय भागे गतः) रोमूसल-(देशी०)। जघने,दे० ना०७ वर्ग 12 गाथा। रोद्दज्झाण-न० (रौद्रध्यान) रोदयत्यपरानिति रुद्रः, प्राणिवधादिपरि- | रोयइत्ता-अव्य० (रोचयित्वा) विधिभावनाभ्यां प्रियं कृत्वेत्यर्थे, उत्त० णत आत्मैव : तस्येदं कर्म रौद्र, तच ध्यानं च रौद्रध्यानम्। प्रव०। 26 अ०।दश। तदपि सत्त्वेषु वधवेधबन्धनदहनाङ्कनमारणादिप्रणिधानम् 1, पैशुन्यास- रोयत-त्रि० (रुदत्) सशब्दमश्रूणि विमुञ्चति, ज्ञा० 1 श्रु०६ अ०। आ० भ्यासद्भूतघातादिवचनचिन्तनम् 2, तीव्रकोपलोभाकुलं भूतोपधात- मासाश्रुपातं शब्दं विदधाने, ज्ञा० 1 श्रु०१ अ०। सूत्र०। परायणं परलोकापायनिरपेक्षं परद्रव्यहरणप्रणिधानम् 3, सर्वाभिश- रोयग-न० (रोचक) रोच्यति, सम्यगनुष्ठानप्रवृत्तिं न तु कारयतीति ङ्कनपरम्परोपघातपरायणशब्दादिविषयसाधकद्रव्यसंरक्षणप्रणिधानम्च रोचकम्। अविरतसम्यग्दृशां कृष्णश्रेणिकादीनामिव / ध०२ अधि०। उच्छन्नवधादिलिङ्गगम्यं नरकगतिगमनकारणमवसेयम्, प्रव०६द्वार। रुचिमात्रकरे सम्यक्त्वभेदे, दर्श०५ तत्त्व। श्रा०। यत्रसदनुष्ठानं रोचयत्येव हिंसाद्यतिक्रौर्यानुगतं रौद्रम्। ध्यानभेदे, स्था० 4 ठा० 1301 आव०। केवलं न पुनः कारयति। विशे०। आ० म०। भ० / दश० / स्था० / दर्श० / (तच ‘रुद्दज्झाण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे | रोयमाणी-स्त्री० (रुदन्ती) अश्रूणि विमुञ्चन्त्याम् , भ० 1 श० 33 उ०। 568 पृष्ठे व्याख्यातम्। विपा०। रोहपरिणाम-त्रि० (रौद्रपरिणाम) गिरिभेदसमानकषायरौद्रध्याना- | रोर-पुं० (रोर) रङ्के, स्था०६ ठा०। तं०। दे० ना०।"जत्थय अज्जाकप्पो, रुषितचेतोवृत्तौ, कर्म०१ कर्म०। पाणवाए वि रोरदुभिक्खे / न य परिभुजइ सहसा, गोअम ! गच्छं तयं रोद्ध-(देशी०)। कूणित्ताक्षे, मूले च / दे० ना०७ वर्ग 15 गाथा। भणियं // १॥"ग०२ अधि०। "रोरो अकिंचणो"। पाइ० ना० 35 रोम-न० (रोमन) तनूरुहे, तं० / औ०। "केशाः-शिरःकूर्चसम्भवाः, | गाथा। रोमाणि-शेषशरीरसम्भवानि''। प्रव० 40 द्वार। स०। स्था०। 'तणूरु- | रोरव-पुं० (रौरव) सप्तमनरकपृथिव्यांनरकभेदे, सूत्र०१ श्रु०१अ०१७०।
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________________ रोरुय 581 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 रोरुय-पुं० (रोरुय) जम्बूद्वीपे मेरोः दक्षिणे पङ्कप्रभायां पृथिव्यां नरकभेदे, कडगादीहिं पूजितो, पावितो सुमहंतमिस्सरियं / स्था० 6 ठा० / स० / तमस्तमायां पृथिव्यां नरकभेदे, प्रज्ञा०२ पद। कोलगयम्मि य सड्ढे, पुत्ती णामेण चंडकण्हो त्ति। जी०। पडिवन्नो तं भोग, सामंतेणाऽऽनमंतम्मि। रोल-पुं० (रोल) शब्दे, "रोलो रावो''। पाइ० ना० 34 गाथा। कलहे, पेसे त्ति चंडकण्हे, गंतूर्ण घेत्तु सज्जमाणो त्ति। खेच। दे० ना०७ वर्ग 15 गाथा। तुट्ठो य भणति राया, किं देमि अहाह सो इणमो। रोलंब-(देशी०)। भ्रमरे,दे० ना०७ वर्ग 2 गाथा। जं खज्जपेजभोलं,गेण्हिज्ज पुरम्मि तं तु सुग्गहियं / रोव-धा० (रुद) अश्रुविमोचने, रुद-नमोर्वः / 8 / 4 / 226 / इति इय होतु त्तिय भणिए, वारुणिपाणे पमादेणं / अन्त्यस्य वः। रुवइ। रोवइ / रुदति। प्रा०। रत्तिं चिरस्स सगिहं, आगच्छति मज्जमातरो तस्स। रोवग-पुं० (रोहक) रुहः पः। 4 / 2 / 14 / इति हकारस्य वा पकारः। दुहिया जग्गंतीओ, उन्निद्दा अन्नदार त्ति। हैम०।पो वः।८।१।२३१। इति पस्य वः। प्रा० / वृक्षे,दश० 1 अ01 चिरकतदारं पिहए, अह लवती आगतो तु सो दारं / रोवण-न० (रोपण) रोप्यते इति रोपणं, भावे अनट् / स्थापने, व्य०१ उग्घाडउ तो जणणी,लविंसु जत्थेस्सेि वेले। उ०। रोहणे, रुह-जन्मनि। रोहति कश्चित्; तमन्यः प्रयङ्क्ते) प्रयोक्तृ- उग्घाडियदाराई, तहियं वच त्ति मातु रुसितो तु / व्यापारे णिः / रुहः पः। 4 / 2 / 14 / इति हकारस्य पकारः। हैम०। साहुग्घाडियदारं, ति गंतु साहूणुवल्लपितुं / स्थापने, व्य०१उ०। पव्वावेहलवेसुं, ते विय मत्तो त्ति कातु वक्खेवं। रोवमाणी-स्त्री० (रुदती) अश्रुविमोचनं कुर्वत्याम् , विपा०१श्रु०६ अ०। बंती गोसग्गम्मी, पभातें पव्वावइस्सामो। रोविंदय-न० (रोविन्दक) गेयभेदे, स्था० 4 ठा०४ उ०। सयमेव कुणति लोयं, ताहे लिंगं दलंति जतिणो तु। रोविर-त्रि० (रोदिन्) शीलार्थे णिनिः। शीलाद्यर्थस्येरः // 8 / 2 / पव्वार्वति य विहिणा, एसा रोसा तु पव्वज्जा। 145 / / इति विहितस्य प्रत्ययस्य इरः / रोदनशीले, प्रा०। पं०भा०१ कल्प। रोस-पुं० (रोष) स्वविकल्पजनिते, प्रव०२ द्वार। क्रोधे, स्था० 4 ठा०४ | *रोसाए- रन्नो सीसारक्खो सो साहुसगासे धम्मं सोऊण सावओ, सो उ०ावलं जगद्ध्वंसनरक्षणक्षम,कृपा च सा सङ्गमके कृतागसि / इतीव तज्जीविओ सोतं असिं उज्झिऊण कट्ठमयं असिंधरेइ, तस्स मित्तो सो सचिन्त्य विमुच्य मानसं, रुषेव रोषस्तव नाथ ! निर्ययौ।। 1 / / कल्प०१ तं वारेइ / एवं जाव रन्नो सिटुं एस कट्ठमयं असिं धरेइ, रन्ना भणियं अधि०६ क्षण / क्रोधरूपे गौणमोहिनीयकर्मणि, स०५२ सम० / पेच्छामो तेण समद्दिट्ठी देवया आराहिया, नमंसिऊणं कड्डिओलोहमओ देशभेदे, तद्वासिनि जने च। प्रश्न०१आश्र0 द्वार। जाओ। पच्छा राया पलोएइ सो चुप्पओ विलक्खो जाओ। सावओ रोसा-स्त्री० (रोषा) रोषात् शिव भूतेरिव या सा रोषा। प्रव्रज्याभेदे, स्था० पाएसुपडिओ भणइ-सच-मेयं एवं जावतस्स पुत्तो चंडकण्णोपव्वइओ। 10 ठा०। पं० भा०॥ जेण वोडिया उप्पाइया। पं० चू०१ कल्प। ..............अहुणा रोसातु पव्वञ्जा। रोसाण-धा० (मृज) शुद्धौ, मृजे रुग्घुस-लुञ्छ-पुञ्छ-पुंस-फुससीसारक्खो रण्हो, धम्म सोऊण सावओ जातो। पुस-लुह-हुल-रोसाणाः॥८।४।१०५ // इति रोसाण इत्यादेशः। मा मारेही किंची, उज्झित्तुं असिं करे दारं। रोसाणइ। पक्षे-मजइ। मार्टि। प्रा० 4 पाद। तप्पडिणि रायकहिए,पेच्छामि असि तिसावएऽणुण्णं। रोसाणिअ-धा० (मृष्ट) आमर्षणे, रोसाणिअंमसिणिपाइ० ना०२२४ सम्महिट्ठी देवय, सा रक्खिज्जो त्ति तो कड्के / गाथा। दिव्वप्पभावमेयं, सभयं दवण कुद्धितो राया। रोह-पुं० (रोह) चतुर्थपरावर्तपरिहारे गोशालकजीवे, भ० 15 श० / णिज्जाति पचणीए, सडो तेसिं तु रक्खट्ठा। अड्कुरे, वाच०। भगवतो महावीरस्वामिनः स्वनामख्यातेऽनगारे, भ०। जंपति णरिंदमह सो, मा एतेसिं तु रूसहा वुत्ते। तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जं जंपियमेतेहिं, तं सव्वं णरवर ! तहेव। अंतेवासी रोहे नामं अणगारे पगइभद्दए पगइमउए पगइविणीए ताहे छोटूण पुणो, णिकुट्ट असी तु णवरि दारूओ। पगइउवसंते पगइपयणुकोहमाणमायालोभे मिउमद्दवसंपन्ने पुट्ठो णरवसमेणं, विभेति ओपेति किं एयं / अल्लीणे भद्दए विणीए समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसाजंपति सडो ताहे, णरवर ! देवप्पसाद इन्चेसो। मंते उड्डजाणू अहोसिरे झाणकोट्ठोवगए संजमेणं तवसा अप्पाणं पावविवजी तु णरा, हवंति देवाण वी पुजा। भावमाणे विहइइ / तए णं से रोहे नाम अणगारे जायसङ्के जाव तो तुट्ठो भणति णिवो, सेवसु एमेव दारुअसिणाओ। पजुवासमाणे एवं वदासी-पुट्विं भंते!लोए पच्छा अलोए पुट्विं अ
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________________ रोह 582- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 रोहिअंसप्प० लोए पच्छा लोए ? रोहा ! लोए य अलोए य पुट्विं पेते पच्छा तनुवाताः घनवाताः 'घणउदहि' त्ति घनोदधयः सप्त 'पुढवि' त्ति पेते दोवि एए सासया भावा, अणाणुपुर्वी एसा रोहा ! पुट्विं नरकपृथिव्यः सप्तैव 'दीवा य' त्ति जम्बूद्वीपादयोऽसंख्याता असंख्येया भंते ! जीवा पच्छा अजीवा पुट्विं अजीवा पच्छा जीवा? जहेव एव 'सागराः लवणादयः'वास तिवर्षाणि भारतादीनिसप्तेव नेरइयाइ' लोएय अलोए य तहेव जीवा य अजीवा य, एवं भवसि-द्धियाय / त्ति चतुर्विंशतिदण्डकः 'अस्थि य' त्ति अस्तिकायाः पञ्च 'समय' ति अभवसिद्धिया य सिद्धि असिद्धी सिद्धा असिद्धा, पुट्विं भंते ! कालविभागाः कर्माण्यष्टौ, लेश्याः षट्, दृष्टयो-मिथ्यादृष्ट्यादयस्तिनः, अंडए पच्छा कुकुडी, पुट्विं कुकुडी पच्छा अंडए ? रोहा से दर्शनानि चत्वारि, ज्ञानानि पञ्च, संज्ञाश्चतस्रः, शरीराणि पञ्च, योगाणं अंडए कओ? भयवं ! कुकुडीओ,साणं कुछडी कओ? स्त्रयः, उपयोगौ द्वा, द्रव्याणि षट्, प्रदेशा अनन्ताः, पर्यवा अनन्ता एव, मंते ! अंडया ओ, एवामेह रोहा ! से य अंडए सा य कुकुडी, 'अद्धत्ति अतीताद्धा अनागताद्धा सर्वाद्धाचेति, 'किं पुट्विं लोयंति'त्ति, पुट्विं पेते पच्छा पेते दुवे ते सासया भावा, अणाणुपुथ्वी एसा अयं सूत्राभिलापनिर्देशः, तथैव पश्चिमसूत्राभिलापं दर्शयन्नाह- 'पुव्यिं रोहा ? पुट्विं भंते ! लोयंते पच्छा अलोयंते, पुव्वं अलोयंते भंते ! लोयंते पच्छा सव्वद्धे ति, एतानि च सूत्राणि शून्यज्ञानादिपच्छा लोयंते !, रोहा! लोयंते य अलोयंते य० जाव अणाणु वादनिरासेन विचित्रवाह्याध्यात्मिकवस्तुसत्ताऽभिधानार्थानि ईश्वरादि कृतत्वनिरासेन चानादित्वाभिधानार्थानीति। भ० 106 उ०। पुष्वी एसा रोहा ! / पुट्विं भंते ! लोयंते पच्छा सत्तमे उवासंतरे *रोध-पुं०। प्रतिरोधे, दे० ना०७ वर्ग 16 गाथा। पुच्छा, रोहा ! लोयंते य सत्तमे उवासंतरे पुट्विं पि दो वि एते रोहग-पुं० (रोहक) उज्जयिन्याः प्रत्यासन्ननटग्रामे भरतनटसुते, जाव अणाणुपुटवी एसा रोहा ! / एवं लोयंते यसत्तमे यतणुवाए, आ० क०१अ०। आ० म०।न०। विशे०। (तत्कथा 'उप्प-त्तिया'शब्दे एवं घणवाए घणोदहिसत्तमा पुढवी, एवं लोयंते एके-केणं द्वितीयभागे 526 पृष्ठे दर्शिता।) संजोएयध्वे इमेहिं ठाणेहि-तं जहा-"ओवासवायघण-उदहि, रोहगुत-पुं० (रोहगुप्त) अन्तरञ्जिकायां नगा श्रीगुप्ताऽऽचा-र्याणां पुढवी दीवाय सागरा वासा / नेरइयाई अत्थिय, समया कम्मा शिष्यत्वं प्राप्ते त्रैराशिकनिह्नवमतप्रवर्तके तद्भागिनेये, आ० म०१ अ०। लेस्साओ॥१॥दिट्ठी दंसणणाणा, सन्नसरीरायजोगउवओगे। आ० चू०। विशे० आव०। (एतद्वक्तव्यता 'तेरा-सिय' शब्दे चतुर्थभागे दव्वपएसा पज्जव-अद्धा किं पुट्विं लोयंते ? ॥२॥"पुट्विं भंते ! 2360 पृष्ठे उक्ता) आर्यसुहस्तिशिष्ये, कल्प० 2 अधि० 8 क्षण / लोयंते पच्छा सव्वद्धा? जहा लोयंतेणं संजोइया सवे ठाणा षडुलूके, यो हिनामान्तरेण-रोहगुप्तः। स्था०७ ठा०। उत्त०। कल्प०। एते एवं अलोयंतेण वि संजोएयव्वा सव्वे पुट्विं भंते ! सत्तमे चम्पायां नगर्यां सिंहसेनस्य महामन्त्रिणि, आचा० १श्रु०४ अ०२ उ०। उवासंतरे पच्छा सत्तमे तणुवाए? एवं सत्तमं उवासंतरं सवेहिं रोहण-न० (रोधन) रज्ज्वादिना आवरणे, स्था० 5 ठा० 1 उ० / समं संजोएयव्वं जाव सव्वद्धाए। पुट्विं भंते ! सत्तमे तणुवाए स्वनामख्याते दिवसमुहूर्ते, पुंगाद०प०।रुह्यतेऽसौ, रुहल्युट्। पर्वतपच्छा सत्तमे घणवाए, एयं पितहेव नेयव्वं जाव सव्वद्धा, एवं भेदे, वाच०। काश्यपगोत्रे स्वनामख्याते आय्य-सुहस्तिशिष्ये, कल्प० उवरिल्लं एकेकं संजोयंतेणं जो जो हिट्ठि-ल्लो तं तं छबुतेणं 2 अधि०८ क्षण। नेयवं जाव अतीयअणागयद्धा पच्छा सव्वद्धा जाव रोहणगिरि-पुं० (रोहणगिरि) जम्बूद्वीपे मन्दरपर्वते भद्रशालवने, अणाणुपुर्वी एसा रोहा ! सेवं भंते ! सेवं मंते त्ति ! जाव | ईशान्यकोणे अष्टमे दिग्हस्तिकूटे, स्था०८ ठा० / विहरइ। (सू०५३) रोहा-स्त्री० (रोहा) कण्टकोद्धरणे उदाहतायां स्वनामख्यातायां परिवा'पगइभदए' ति स्वभावत एव परोपकारकरणशीलः 'पगइ-मउए' त्ति / जिकायाम् , ग०२ अधि०। बृ०। स्वभावत एव भावमार्दविकः, अत एव 'पगइविणीए' त्ति तथा पगइ- रोहिअ-(देशी०)। ऋश्ये, दे० ना०७ वर्ग 12 गाथा। "रोहिओरोज्झो"। उवसंते' ति क्रोधोदयाभावात् 'पगइपयणुकोहमाणमायालोभे' सत्यपि पाइ० ना० 227 गाथा। कषायोदये तत्कार्याभावात् प्रतनुक्रोधादिभावः "मिउमद्दवसंपन्ने' त्ति रोडिअंसप्प(साप)वायदह-पुं० (रोहितांशाप्रपातहृद) रोहितां शोद्गममृदुयन्मार्दवम्-अत्यर्थमहंकृतिजयस्तत्संपन्नः-प्राप्तो गुरूपदेशाद्यः स स्थाने, स्था० / 'रोहियंसप्पवायदहे चेय'त्ति हिपवद्वर्षधरपर्वतोपरितथा, 'आलीणे' त्ति गुरु-समाश्रितः संलीनोवा, भद्दए' त्ति अनुपतापको वर्तिपद्मह्रदोत्तरतोरणेन निर्गत्य रोहितांशा महानदी द्वे षट्सप्तत्युत्तरे गुरुशिक्षागुणा-त् , “विणीए' त्ति गुरुसेवागुणात् 'भवसिद्धिया य' त्ति योजनशते सातिरेकम् उत्तराभिमुखी पर्वतन गत्वा योजनायामया अर्द्धभविष्यतीति भवा, भवा सिद्धिः-निर्वृतिर्येषां ते भवसिद्धिकाः, भव्या त्रयोदशयोजनविष्कम्भयाक्रोशबाहल्यया जिहिकया विवृतमकरमुखइत्यर्थः, 'सत्तमे उवासंतरे त्ति सप्तमपृथिव्या अधोवाकाशमिति। सूत्र- | प्रणालेन हाराकारेण च सातिरेक योजनशतिकेन प्रपातेन यत्र प्रपसंग्रहगाथे के ?, तत्र 'ओवासे' ति सप्तावकाशान्तराणि 'वाय' त्ति / तति यश्च रोहित्प्रपातकुण्डसमानमानः तस्य मध्ये रोहितांशद्वीपो रो
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________________ रोहिअंसप्प० 553 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 रोहिणी हिद्द्वीपसमानमानः रोहितांशाभवनेन प्रागुक्तमानेनाऽलंकृतः, यतश्च तकुण्डादस्य द्विगुणत्वात्, अथात्रद्धीपमाह-'तस्सणं इत्यादि, प्रकटारोहितांशानदी रोहिनदीसमानमाना उत्तरतोरणेन निर्गत्य पश्चिमसमुद्र र्थम्, सेकेणतुणं भंते ! एवं वुचइरोहिअंसादीवे रोहिअंसादीवे इत्याद्यप्रविशति स रोहितांशाप्रपातहद इति। स्था०२ ठा०३ उ०। भिलापेन ज्ञेयः, सम्प्रत्यस्या येनतोरणेन निर्गमो यस्य च क्षेत्रस्य स्पर्शना रोहिअंसा-स्त्री० (रोहितांशा) जम्बूद्वीपे मेरोरुत्तरे शिखरिवर्षधरपर्वते, यावांच नदीपरिवारो यत्र च संक्रमस्तथाऽऽह-'तस्स णं' इत्यादि, पुण्डरीकहदानिर्गतायां स्वनामख्यातायां महानद्याम्, स्था०३ ठा०४ तस्यरोहितांशाप्रपातकुण्डस्य औत्तराहेण तोरणेन रोहितांशा महानदी उ०। स०। स्वनामख्याते द्वीपे, पं०। जं०। प्रव्यूढानिर्गता सती हैमवतं वर्षम् इयती इयती गच्छन्ती गच्छन्ती रोहितांशानामक-नदी-कुण्ड-द्वीपानां व्यक्तव्यतामाह- चर्तुदशभिः सलिलासहस्रः आपूर्यमाणा आपूर्यमाणा शब्दापातिनामानं तस्सणं पउमद्दहस्स उत्तरिल्लेणं तोरणेणं रोहिअंसा महाणई वृत्तवैताग्यपर्वतम् अर्द्धयोजनेनासम्प्राप्ता सती पश्चिमाभिमुखी आवृत्ता पवूढा समाणी दोण्णि छावत्तरे जोअणसएछच एगूणवीसइमाए सती हैमवन्तं वर्ष द्विधा विभजन्ती विभजन्ती अष्टाविंशत्या सलिलाजोअणस्स उत्तराभिमुही पव्वएणं गंता महया घडमुहपवत्तिएणं सहस्रैः समग्रापरिपूर्णा जगतीम् अधो दारयित्वा पश्चिमायां लवणसमुद्र मुत्तावलिहारसंठिएणं साइरेगजोअणसइएणं पवाएणं पवडइ, प्रविशति, अस्या एव मूलविस्ताराद्याह- 'रोहिअंसाणं' इत्यादि, रोहिरोहिअंसा णामं महाणई जओ पवडइ एत्थणं महंएगा जिन्मिआ तांशा प्रवहेमूलेऽर्द्धत्रयोदशानि योजनानि विष्कम्भेन, प्राच्यक्षेत्रनदीतो पण्णत्ता,साणं जिटिमआजोअणं आयामेणं अद्धतेरसजोअणाई द्विगुणविस्तारकत्वात् , क्रौशमुद्वेधेन प्रवहव्यासपञ्चाशत्तमभागरूप विक्खंभेणं कोसं वाहल्लेणं मगरमुहवि-विउट्ठसंठाणसंठिआ त्यात्, तदनन्तरं मात्रया मात्रयक्रमेण क्रमेण प्रतियोजनं समुदितयोरुसव्ववइरामई अच्छा, रोहिअंसा महाणई जहिं पवडइ, एत्थणं भयोः पार्श्वयोर्घनुविंशत्या वृद्धया प्रतिपाय धनुदेशकवृद्धयेत्यर्थः महं एगे रोहिअंसापवायकुंडे णाम कुंडे पण्णत्ते, सवीसं जोअण- परिवर्द्धमाना परिवर्द्धमाना मुखमूलेसमुद्रप्रवेशे पञ्चविंशतं योजनशतं सयं आयामविक्खंभेणं तिण्णि असीएजोअणसए किंचि विसेसूणे विष्कम्भेन, प्रवहव्यासाद्दशगुणत्वात्, अर्द्धतृतीयानि योजनानि उद्वेधेन परिक्खेवेणं, दस जोअणाई उटवे-हेणं अच्छे कुंडवण्णओ० मुखव्यासपञ्चाशत्तमभागरूपत्वात्, शेषं प्राग्वत्। जं० 4 वक्षः। जाव तोरणा, तस्स णं रोहिअंसापवायकुंडस्स बहुमज्झदेस- | रोहिअंसा(सप्प)पावयकुंड-न० (रोहितांशाप्रपातकुण्ड) स्वनामभाए एत्थ णं महं एगो रोहिअंसा णामं दीवे पण्णत्ते, सोलस ख्याते कुण्डे, जं०४ वक्ष०। (अस्य विष्कम्भादि रोहिअंसा' शब्देऽनुपदजोअणाई आयामविक्खंभेणं साइरेगाई पण्णासं जोयण्णाई / मेव गतम्) परिक्खेवेणं दो कोसे ऊसिए जलंताओ सव्वरयणामए अच्छे | रोहिणिज-पुं० (रोहिणीय) अन्तःपुरमहल्लिकेषु, वधिक। यैः सह राजा सण्हे सेसं तं चेव जाव भवणं अट्ठो अभाणिअय्वो त्ति / तस्स मन्त्रयते। बृ० 1 उ०१ प्रक०। णं रोहिअंसप्पवायकुंडस्स उत्तरिल्लेणं तोरणेणं रोहिअंसाम- रोहिणिया-स्त्री० (रोहिणिका) त्रीन्द्रियजीवभेदे, जी०१ प्रात०। प्रज्ञा०। हाणई पवूढा समाणी हेमवयं वासं एजेमाणी एजेमाणी चउद्दसहिं | रोहिणी-स्त्री० (रोहिणी) प्रजापतिदेवताके पञ्चतारे स्वनामख्याते सलिलासहस्सेहिं आपूरेमाणी आ-पूरेमाणी सद्दावइवट्टवे- नक्षत्रविशेषे, स्था०२ ठा०३ उ०। अनु०। चं० प्र०। अद्धपव्वयं अद्धजोअणेणं असंपत्ता समाणी पचत्थाभिमुही रोहिणीनक्खत्ते पंचतारे। स०५ सम०। आवत्ता समाणी हेमवयं वासंदुहा विभयमाणी विभयमाणी अट्ठा- रोहिणीचन्द्रस्य वल्लभा। कल्प०१ अधि० 3 क्षण / शक्रादिलोकवीसाए सलिलासहस्सेहिं समग्गा अहे जगइंदालइत्ता पचत्थि- पालसोममहाराजाग्रमहिष्याम् , स्था० 4 ठा०१ उ० / ज्ञा० / भ०। मेणं लवणसमुदं समप्पेइ, रोहिअंसा णं पवहे अद्धतेरसजो- ती० / गवि, "गिट्ठी गोलाय रोहिणी सुरही" पाइ०४५ गाथा। सुपुरुअणाई विक्खंभेणं कोसं उव्वेहेणं तयणंतरं च णं मायाएमायाए षस्य किंपुरुषेन्द्रस्याग्रमहिष्याम्, स्था० 4 ठा०१ उ० भ०। नवमबलपरिवद्धमाणी परिवद्धमाणी मुहमूले पणवीसं जोअणसयं देवस्य मातरि, स०। आव०। प्रव० जी०। ति०। प्रश्न० रुधिरसुतायां विक्खंभेणं अद्धाइजाइं जोअणाई उव्वेहेणं उभओ पासिं दोहिं / वसुदेवपत्न्यां बलदेवमातरि, प्रश्न० / तत्कृते संग्रामोऽभूत्, तथाहिपउमवरवेइआहिं दोहि अवणसंडेहिं संपरिक्खिता। (सू०७४) अरिष्टपुरे नगरेरुधिरोनाम राजा मित्रा नाम देवीतत्पुत्रो हिरण्यनाभः दुहिता 'रोहिअं' इत्यादि, व्यक्तं, नवरम् आयामे योजनं विष्कम्भमानेऽ- च रोहिणी, तस्या विवाहार्थ रुधिरेण स्वयंवरो घोषितः, मिलिताश्च र्द्धत्रयोदशानि योजनानि सार्द्धद्वादश योजनानि बाहल्ये क्रोशम्, गङ्गा- जरासन्धप्रभृतयः समुद्रविजयादयो नराधिपतय उपविष्टाश्च यथायथम्, जिबिकाया अस्था द्विगुणत्वात् / अथ कण्डस्वरूपमाह- 'रोहिअंसा' रोहिणी च धात्र्या क्रमेणोपदर्शितषु राजसु रागमकुर्वती तूर्यवादिकानां इत्यादि, प्रायः प्रकटार्थ, परमायामविष्कम्भयोविंशत्यधिकं, गङ्गाप्रपा- | मध्ये व्यवस्थितेन समुद्र विजयादीनामनुजेन देशान्तर संचारिणा तत्राऽऽ
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________________ रोहिणी 584 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 रोहिणी यातेन वसुदेवेन राजसूनुना पाणविकाकारं विभ्रता-"मुग्धमृगनयनयुगले!, शीघ्रमिहागच्छ मैव चिरयस्व / कुलविक्रमगुणशालिनि !, त्वदर्थमहमागतो यदिह॥१॥" इत्यक्षरानुकारिध्वनौ प्रवादिते पणवे समुत्फुल्ललोचना सञ्जातानुरागा सरभसमुपश्रुत्य स्वहस्तेन वसुदेवस्य गले मालामवलम्बितवती / ततस्ते राजान ईशिल्यवितुद्यमानमानसा वसुदेवेन सार्द्ध संग्रामायोपतस्थुः तेन च रणागरसिकेन सर्वान् विनिर्जित्य रोहिणी परिणीता,जातश्च तस्या रामाभिधानोबलदेवः सुनुरिति / प्रश्न०४ आश्र0 द्वार / स्वनामख्यातायां महाविद्यायाम, कल्प०१ अधि०७क्षण। स्था०।आ० चूल आव० स० चित्रकवल्ल्याम, ल० प्र०ा रोहितकपरेस्वनाम-ख्यातायां गणिकायाम, आ० क०५ अ01 आव०। आ० चू०। वासुपूज्यजिनपौत्र्याम्, ती०३४ कल्प। (अस्या वृत्तम् 'चम्पा' शब्दे तृतीयभागे 1068 पृष्ठे गतम्) कुण्डिनपुरे सुभद्रश्रेष्ठिपुत्र्याम्, ध०२०। रोहिणीज्ञातमिदम्इह कुंडिणि त्ति पवरा, नयरी नयरीइराइया अस्थि तत्थ निवो जियसत्तू, जो सत्तू दुजणजणस्स॥१॥ पायं विगहविरत्तो, सक्कह गुणरयण-रोहणसमाणो। सिट्ठी सुभहनामा, मनोरमा भारिया तस्स // 2 // पुत्तीय बालविहवा, नामेणं रोहिणी अहीणगुणा। जिनसमएलद्धट्ठा,गहियट्ठा पुच्छियट्ठाय॥३॥ पूयइ जिणे तिसंझं, अबंझमज्झयणमाइ आयरइ। आवस्सयाइ किच्चं, निचं निचिंतिया कुणइ / / 4 || धम्म संचइ नहु कं, पिवंचए अंचए गुरूण पए। नियनाम व वियारइ, कम्मप्पयडीपमुहगंथे॥५॥ दाणं देइ पहाणं, सुरसरिसलिलुजलंधरइ सीलं। जहसत्ति तवेइ तवं, भावइ सुहभावणा सुमणा // 6 // इय निम्मलगिहिधम्मा, अचलियसम्मा दढं वलियमोहा। अवितहजिणमयपयडण-पंडिया सागमइ दिवसे।। 7 // अह चित्तवित्तिअडवीइ-भुवणअक्कमणअइसयपयंडो। मोहो नाम नरिंदो, पालइ निक्कंटयं रखं / / 8 // कइयावि नियमदोसु-ग्घट्टण पवणं तुरोहिणिं सुणिउं। वरवयणाओ मोहो,विचिंतए धणियमुव्विग्गो / / 6 / / अइ सढ ! हियय ! सदागम-वासियचित्ताइ पिच्छह इमीए। कित्तियमित्तं अम्हा-ण दोसगहणे रसापसरो।। 10 // जह कह वि इमा एमे-व चिट्ठिही कित्तियं धुवं कालं। तामे निस्सत्ताणं, कोवि न पिच्छिहिइ धूलिं पि॥११॥ इय चितंतस्स इम-स्स आगओ रायकेसरी तणओ। पणमंतो वि न नाओ, तो एसो भणइ अइदुहिओ।१२।। इत्तियमित्ता चिंता, किं कज्जइ ताय ! तायपायाणं / जंति जए विन अन्नं, समंच विसमं च पिच्छामि॥१३॥ तो से कहेइ मोहो, जहट्ठियं रोहिणीइ वुत्तंतं। तं सोउ सिरे वजा-हउ व्व जाओ इमो विमणो। 14 / / अह सयलं पि हु सिन्न, सुविसन्नं मुक्ककुसुमतंबोलं। जाय मथक्के थक्कवि-य नट्टगीयाइ-वावारं // 15 // इत्थंतरम्मिसिसुणा, एगेण इत्थियाएँ एक्काए। अट्टहाससई, हसियं सुणियं च मोहेन।।१६।। ततो चिंतइ गुरुम-त्रु, पसर परिमुक्कदीहनीसासो। के मह दुहिए एवं, अइसुहिया नणु पकीलंति / / 17 / / अह कुवियस्साऽऽकूयं, नाऊणं नियवसामिसालस्स। दुट्ठाभिसंधिमंती, गयभंती विन्नवइएवं / / 18 / / देव ! निवजुवइजणवय-भत्तकहाकरणचउमुहाएसा। भुवणजणमोहिणी जो-इणि व्व विग्गह त्ति मह भज्जा / / 16 / / एस सिसू अइइट्ठो, पमायनामा ममेव वरपुत्तो। जं पुण हसिय मयग्गे, तं पुच्छेमो इमे चेव / / 20 // तो हकारिय रन्ना, ते पुट्ठा भो तुमेहि किह हसियं / वज्जरइ तत्थ इत्थी, पुजा सम्म निसामंतु।।२१।। सिसुमित्तसज्जकज्जे, किं ताओ इत्तिअंवहइ चिंतं / इय विम्हयववसाए, मए सपुत्ताइ हसियं तु॥२२॥ जंताप पसाया रोहिणिं इमं धम्मओ खणघेण। पाडेउ महं पिखमा, अहवा केयं वराई मे।। 23 / / जे उवसंता मणना-णिणो य मे सुयजुयाइचरणाओ। भंसियपुव्वा तेसिं, संखं पिन कोऽवि जाणेइ॥२४॥ जे पूण मए चउद्दस, पूव्वधराखडहडाविया धम्मा। अज्ज विधूलि व्य रुलं-ति तायपायाण परओ ते॥२५॥ तंसोउ चिंतइ निवो, धन्नो हं जस्स मज्झ सिन्नम्मि! भुवणजणजणणमंसल, वलाउ अवलाउ वि इमाओ॥ 26 // इय सामत्थियरन्ना, सातणुअंगी तणूरुहसमग्गा। सयहत्थदिन्नवीडा, सहरिसजिंघियसरोदेसा।। 27 // तुह संतु सिवा मग्गा, पिट्ठीइ चिय बलं पि आगमिही। इय लह विसज्जिया रो-हिणीइ पासम्मि सा पत्ता / / 28 // अह तीइ जोइणीए, अहिट्ठियासा सा गया जिणहरेऽवि। अन्नन्नसावियाहिं, समं कुणइ विविहविगहाओ।। 26 // नय पूएइ जिणिंदे, देवे वि वंदए पसन्नमणा। बहुहासबोलबहुला, कुणइ विघायं परेसिं पि॥३०॥ नय कोऽवि किं पिपभणइ, महिड्डिधूय त्ति तो अइपसंगा। सज्झायझाणरहिया, भणिया एगेण सड्डेणं / / 31 / / किं भइणि अइपमत्ता, धम्मट्ठाणे वि कुणसि इय वत्ता। जं भवियाण जिणेहिं, सया निसिद्धाउ विगहाओ // 32 // तथा चोक्तम्सा तन्वी सुभगा मनोहररुचिः कान्तेक्षणा भोगिनी, तस्या हारिनितम्बबिम्बमथवा विप्रेक्षितं सुभुवः। धिक्तामुष्ट्रगतिं मलीमसतर्नु काकस्वरां दुर्भगामित्थं स्त्रीजनवर्णनिन्दनकथा दूरेऽस्तु धर्मार्थिनाम्।। 33 // (अहो-) क्षीरस्यान्नं मधुरमधुगावाज्यखण्डान्वितं चेत्, (रसः) श्रेष्ठदध्नो मुखसुखकरं व्यञ्जनेभ्यः किमन्यत्। अन्नादन्यद्रमयति मनःस्वादु ताम्बूलमेकं, त्याज्या प्राहरशनविषया सर्वदैवेति वार्ता // 34 // रम्यो मालवकः सुधान्यकनकः काश्यास्तु किं वर्ण्यता, दुर्गा गुर्जरभूमिरुद्भटभटा लाटाः किराटोपमाः। कश्मीरे वरमुष्यतां सुखनिधौ स्वर्गोपमाः कुन्तलाः, वा दुर्जनसङ्गवच्छुभधिया देशी कथैवंविधा / / 35 / / राजाऽयं रिपुवारदारणसहः क्षेमङ्करश्चौरहा, युद्धं भीममभूत्तयोः प्रतिकृतं साध्वस्यते नाधुना। दुष्टोऽयं मियतां करोतु सुचिरं राज्यं ममाप्यायुषा, भूयो बन्धनिबन्धनं बुधजनै राज्ञां कथा हीयताम् // 36 // सिंगाररसुत्ति इया, मोहमई हासकेलिसंजणगा। परदोसकहणपवणा, सा विकहा नेव कहियव्वा / / 37 // ता जिणगणहरमुणिमा-इसकहा असिलयाइ छिंदिता।
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________________ रोहिणी 585 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 रोहिणी विगहावल्लिं तं होसु , धम्मझाणम्मि लीणमणा // 38 // सा भणइ तओ हे भाय !, जिणगिह पिउगिहं व पावित्ता। नियनियसुहदुहकहणे-ण हुँति सुहिया खणं महिला / / 36 / / न यवत्ताण निमित्तं, को वि हु कस्स वि गिहं समल्लियइ। ता पसिय अम्ह तुमए, न कि पि इय जंपियव्वं ति॥४०॥ तो सव्वहा अजोग, ति चिंतिउं मोणसंठिओ उसढो। इयरी चिराउ गेहे, समागया पभणिया पिउणा // 41 / / वच्छे! विगहाविसए, सुम्मइ तुह उवरयो भिसंलोए। एसो सचो अलिओ, व हणइपयडम्मि नणु महिमं॥ 42 / / उक्त चविरुद्धस्तथ्यो वा भवतु वितथो वा यदि परं, प्रसिद्धः सर्वस्मिन् हरति महिमानं जनरवः / तुलोत्तीर्णस्यापि प्रकटनिहताशेषतमसो, रयेस्तादृक् तेजो न हि भवति कन्यां गत इति॥४३॥ ता पुत्ति मुत्तिपडिकूल, वत्तिणिं वत्तणिं च नरयस्स। मुंचसुपरदोसकह, सुहं जइच्छसि जओ भणियं // 44 / / यदीच्छसि वशीकर्तुं, जगदेकेन कर्मणा। परापवादसस्येभ्य-श्चरन्तीं गां निवारय / / 45 // यावत् परगुणपरदो-षकीर्तने व्यावृतं मनो भवती। तावद्वरं विशुद्धे, ध्याने व्यग्रं मनो ध्रियताम् // 46 // तो रोहिणी पयंपइ, पढमं ता ताय! आगमो वजो। जं परगुणदोसकहा, इमाउ सव्वा पयसृति / / 47 // न य कोऽवि इत्थ दीसइ, मोणधरो जं इमेऽवि महरिसिणो। परचरियकहणनिरया, चिट्ठति विसिट्ठचिट्ठा वि।। 48 // इचाइआलमालं, भणती अवहीरिया य पिउणाऽवि। गुरुमाईहि वि एसा, उवेहिया भमइ सच्छंदं॥ 46 // अह रायअग्गमहिसीइ, सीलविसए विभासिरी कइया। दासीहि सुया देवीइ, साहिए सा कहइ रनो।।५०।। कुविएण निवेण तओ, हक्कारिय से पिया उवालद्धो। तुह धूया अम्हं पिहु, विरुद्धमेवं समुल्लवइ॥५१॥ देव ! न अम्हं भणियं, करेइ एस त्ति सिट्ठिणा वुत्ते। बहुयं विडंबिउमिमा, निव्विसया कारिया रन्ना / / 52 // तत्तो निदिजंती, पए पए पागएण विजणेण। पिच्छिजंती सुयणेहि, नेहतरलाइदिट्ठीए।। 53 // कह दारुणो विवागो, विगहासत्ताण इत्थ जीवाणं / इय वट्टती निव्वेय-रसभरं सक्कहजणाणं॥५४॥ नूणं धम्मो वि इमाण, एरिसो जं इमं फलं पत्ते। इह बोहिवीयघायं, कुव्वंती ठाणठाणम्मि॥ 55 // बहुविहसीयायवखु-प्पिवासवासाइदुक्खसंतत्ता। मरिऊण गया नरयं, ततो उव्वट्टिऊण पुणो / 56 / / तिरिएसुं बहुयभवे, अणंतकालं निगोयजीवेस। भमिउं लहिय नरभवं, कमसो किर रोहिणी सिद्धा॥ 57 // अह सो सुभद्दसिट्ठी, नियपुत्तिविडवणं निएऊण। गुरुवेरग्गपरिगओ, जाओ समणो समियपावो।।५८॥ तवचरणकरणसज्झा-यसक्कहासंगओ गयपमाओ। विगहाविरत्तचित्तो, कमेण सुहभायणं जाओ।। 56 || एवं ज्ञात्वा दुःकथाव्यापूतानां दुःखानन्त्यं दुस्तरं देहभाजाम्। वैराग्याद्यैर्वन्धुरा बन्धुमुक्ता, नित्यं वाच्या सत्कथा एव भव्यैः / / 60 // इति रोहिणी ज्ञातम्। ध० 0 1 अधि० 13 गुण / भविष्यति षोडशे तीर्थकरजीवे, प्रव०४६ द्वारा ती०राजगृहे नगरे, धनसार्थवाहपुत्रस्य धनरक्षकस्य भार्यायाम् , ज्ञा०। तद्वक्तव्यता चैवम्जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नाम नयरे होत्था, सुभूमिभागे उज्जाणे, तत्थणं रायगिहे नगरे धण्णे नामं सत्थवाहे परिवसति, अड्डे०, भद्दा मारिया अहीणपंचेंदिय०जाव सुरूवा, तस्स णं धण्णस्स सत्थवाहस्स पुत्ता भद्दाए मारियाए अत्तया चत्तारि सत्थवाहदारया होत्था, तं जहा-धणपाले धणदेवे धणगोवे धणरक्खिए, तस्स णं धण्णस्स सत्थवाहस्स चउण्हं पुत्ताणं मारिआओ चुत्त रिसुण्हाओ होत्था, तं जहा-उज्झिया, भोगवतिया, रक्खतिया, रोहिणिआ। तते णं तस्स धण्णस्स अन्नया कदाई पुटवस्त्तावरत्तकालसमयंसि इमेयारूवे अन्मथिए जाव समुप्पजित्था-एवं खलु अहं रायगिहे बहूणं ईसर ०जाव पभिईणं सयस्स कुडुंबस्स बहुसु कजेसु य करणिज्जेसु कोडुं बेसु य मंतणेसु य गुज्झे रहस्से निच्छए ववहारेसु य आपुच्छणिज्जे पडिपुच्छणिज्जे मेढीपमाणे आहारे आलंबणे चक्खुमेढीभूते कज-वट्टावए, तं ण णज्जति जंमए गयंसि वा चुयंसिवामयंसिवा भग्गंसिवा लुग्गंसिवा सडियंसिवा पडियंसि वा विदेसत्थंसि वा विप्पवसियंसि वाइमस्स कुडुंबस्स किं मन्ने आहारे वा आलंबे वा पडिबंधे वा भविस्सति ? तं सेयं खलु मम कल्लं जाव जलंते विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेत्ता मित्तणा-तिणियगसयणवग्गं चउण्हं सुण्हाणं कुलघरवग्गं आमंतेत्ता तं मित्ताणइणियगसयणवग्गं य चउण्हं सुण्हाणं कुलघरवग्गं विपुलेणं असणं पाणं खाइमं साइमं धूवपुप्फवत्थगंध० जाव सक्कारेत्ता सम्माणे त्ता तस्सेव मित्तणातिणियगसयणवग्गं० चउण्ह य सुण्हाणं कुलघरवग्गस्स पुरतो चउण्हं सुण्हाणं परिक्खपट्ठयाएपंच पंच सालिअक्खएदलइत्ता जानामि ताव काकिहं वा सारक्खेइ वा संगोवेइ वा संवड्डेति वा? एवं संपेहेइ संपेहेइत्ता कल्लंजाव मित्तणाति०चउण्हं सुण्हाणं कुलघरवग्गं आमंतेइ आमंतेत्ता विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेइ ततो पच्छा ण्हाए भोयणमंडवंसि सुहासणवरगए मित्तणातिणियगसयणवग्गेण चउण्ह य सुण्हाणं कुलघरवग्गेणं सद्धिं तं विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं . जाव सकारेति सकारेत्ता तस्सेव मित्तनातिणियगसयणवरगस्स चउण्हयसुण्हाणंकुलघरवगस्सय पुरतोपंचसालिअक्खएगेण्हति गेण्हित्ता जेट्ठा सुण्हा उज्झितिया, तं सहावेति सदावित्ता एवं
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________________ रोहिणी 586 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 रोहिणी वदासी-तुमंणं पुत्ता मम हत्थाओ इमे पंच सालिअक्खए गेण्हाहि गेण्हाहित्ता अणुपुटवेणं साक्खेमाणी संगोवेमाणी विहराहि, जया णं ऽहं पुत्ता ! तुम इमे पंच सालिअक्खए जाएज्जा तया णं तुम मम इमे पंच सालिअक्खए पडिदिजाएजासि त्ति कट्ट सुण्हाए हत्थे दलयति दलयित्ता पडिविसजेति, तते णं सा उज्झिया धण्णस्स तह ति एयमहूं पडिसुणेति पडिसुणित्ता धण्णस्स सत्थवाहस्स हत्थाओ ते पंच सालिअक्खए गेहति गेण्हेत्ता एगंतमवक्कमति एगंतमवक्कमियाए इमेयारूवे अन्मतिथए-०जाव समुप्पजित्था एवं खलु तायाणं कोट्ठागारंसि बहवे पल्ला सालीणं पडिपुण्णा चिट्ठति,तं जया णं ममं ताओ इमे पंच सालिअक्खए जएस्सति तया णं अहं पल्लंतराओ अन्ने पंच सालिअक्खए गहाय दाहामि त्ति कट्ट एवं संपेहेइ संपेहित्ता तं पंच सालिअक्खए एगते एडेति एडित्ता सकम्मसंजुत्ता जाया पावि होत्था / एवं भोगवतियाए-ऽवि, णवरं सा छोल्लेलि छोल्लित्ता अणुगिलति अणुगिलित्ता सकम्मसंजुत्ता जाया। एवं रक्खियाऽवि, नवरं गेण्हति मेण्हित्ता इमेयारूवे अब्भत्थिए-०जाव समुप्पञ्जित्था एवं खलु ममं ताओ इमस्स मित्तनातिणियगसयणवगस्स चउण्ह य सुण्हाणं कुल-घरवग्गस्स य पुरतो सद्दावेत्ता एवं वदासीतुमण्णं पुत्ता मम हत्थाओ जाव पडिदिजाएजासि त्ति कट्ट मम हत्थंसि पंच सालिअक्खए दलयति तं भवियव्वमेत्थ कारणेणं ति कट्ट एवं संपेहेति संपेहित्ता ते पंच सालिअक्खए सुद्धे वत्थे बंधइ बधित्ता रयणकरंडियाए पक्खिवेइ पक्खिवित्ता ऊसीसामुले ठावेइ ठावित्ता तिसंझं पडिजागरमाणी विहरइ। तएणं से धण्णे सत्थ-वाहे तस्सेव मित्त जाव चउत्थिरोहिणियं सुण्हं सद्दावेति सद्दावेत्तिा जावतं भवियध्वं एत्थ कारणेणं तं सेयं खलु मम एए पंच सालिअक्खए सारक्खेमाणीए संगोवेमाणीए संवड्डेमाणीए त्ति कट्ट एवं संपेहेति संपेहित्ता कुलघरपुरिसे सद्दावेति सद्दावित्ता एवं वदासी-तुब्भे णं देवाणुप्पिया ! एते पंच सालिअक्खए गेण्हइ गेण्हित्ता पढमपाउसंसि महावुद्विकार्यसि निवइयंसि समाणंसि खुड्डाग के यारं सुपरिकम्मियं करेह करेहत्ता इमे पंच सालिअक्खए वावेह वावेहत्ता दोचं पितचं पि उक्खयनिहए करेह करेहत्ता वाडिपक्खेवं करेह करेहत्ता सारक्खेमाणा संगोवेमाणा अणुपुटवेणं संबड्डेह, तने णं ते कोडंबिया रोहिणीए एतमढें पडिसुगंति ते पंच सालिअक्खए गेण्हंति गेण्हित्ता अणुपुटवेणं सारक्खंति संगोवंति विहरंति, तए णं ते कोडुबिया पढमापाउसंसि महावुट्टिकायंसि णिवइयंसि | समाणंसिखुड्डाय केदारं सुपरिकम्मियं करेंति करेंतित्ता ते पंच सालिअक्खए ववंति दुचं पि तचं पि उक्खयनिहए करेंति करेंतित्ता वाडिपरिक्खेवं करेंति करेंतित्ता अणुपुटवेणं सारक्खेमाणा संगोवेमाणा संवड्डेमाण विहरंति, तते णं ते साली अणुपुटवेणुं सारक्खिज्जमाणा संगोविजमाणा संव-विजमाणा साली जाया किण्हा किण्होभासा जाव निउरंबभूया पासादीया 4, तते णं साली पत्तिया वत्तिया गम्भिया पसूया आगयगंधा खीराइया बद्धफला पक्का परियागया सल्लइया पत्तइया हरियपव्वकंडा जाया यावि होत्था, तते णं ते कोडु-बिया ते सालीए पत्तिए जाव सल्लइए पत्तइए जाणित्तातिक्खेहिं णवपक्षणएहिं असियएहिं लुणे ति लुणेतित्ता करयलमलिते करेंति करेंतित्ता पुणंति, तत्थ णं चोक्खाणं सूयाणं अखंडाणं अफोडियाणं छडछडापूयाणं सालीणं मागहए पत्थए जाए, तते णं ते कोडुंबिया ते साली णवएसु घडासु पक्खिवंति पक्खि-वंतित्ता उपलिंपंति उपलिंपतित्ता लंछियमुदिते करेंति करेंतित्ता कोट्ठागारस्स एगदेसंसि ठावेंति ठाउँतित्ता सारक्खेमाणा संगोवेमाणा विहरति / तते णं ते कोर्नेबिया दोचंसि वासारत्तंसि पढ-मपाउसंसि महावुट्टिकायंसि निवइयंसि खुड्डागं के यारं सुपरि-कम्मियं करेंतिते साली ववंति दोचं पितचं पि उवक्खपणिहए जाव लुणेति जाव चलणतलमलिए करेंति करेंतित्ता पुणंति, तत्थ णं सालीणं बहवे कुडवा(मुरला) जाव एगदेसंसि ठावेंति ठाउँतित्ता सारक्खेमाणा संगोवेमाणा विहरंति / तते णं ते कोडं-बिया तचंसि वासारत्तं सि महाडिकायंसि बहवे केदारे सुपरिक-म्मियं जाव लुणेति लुणेतित्ता संवहंति संवहतित्ताखलयं करेंति करेंतित्ता मलेंति जाव बहवे कुंभा जाया। तते णं ते कोडुबिया साली कोट्ठागारंसि पक्खिवंति जाव विहरंति, चउत्थे वासारत्ते बहवे कुंभसया जाया। तते णं तस्स धण्णस्स पंचमयंसि संवच्छरंसि परिणममाणंसि पुव्वरत्तावरत्तकालसमयं सि इमेयारूवे अब्भत्थिए ०जाव समुप्पज्जित्था-एवं खलु मम इओ अतीते पंचमे संवच्छरे चउण्हाणं सुण्हाण परिक्खणट्ठयाए ते पंच सालीअक्खया हत्थे दिन्नातं सेयं खलु मम कल्लं जाव जलंते पंच सालिअक्खए परिजाइत्तए ०जाव जाणामि ताव काए कि हं सारक्खिया वा संगोविया वा संवड्डिया जाव त्ति कट्ट एवं संपेहेति संपेहेतित्ता कल्लं०जाव जलंते विपुलं असणं पाणंखाइमं साइमं मित्तनाइणियगसयणदग्गस्सचउण्हयसुण्हाणं कुलघर० जाव सम्माणित्तात
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________________ रोहिणी 587- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 रोहिणी स्सेव मित्तनाय० चउण्ह ए सुण्हाण कुलघरवग्गस्स य पुरतो जेटुं उज्झियं सहावेइ सहावेइत्ता एवं वयासी-एवं खलु अहं पुत्ता ! इतो अतीते पंचमंसि संवच्छरंसि इमस्स मित्त० चउण्ह य सुण्हाणं कुलघरवग्गस्स य पुरतो तव हत्थंसि पंच सालिअक्खए दलयामि जया णं अहं पुत्ता ! एए पंच सालिअक्खए जाएजा तया णं तुम मम इमे पंच सालिअक्खए पडिदिज्जाएसि त्ति कट्ठ वं इत्थंसि दलयामि, से नुणं पुत्ता ! अत्थे समढे ? | हंता अस्थि, तण्णं पुत्ता ! मम ते सालिअक्खए पडिनिन्जाएहि, तते णं सा उज्झितिया एयम8 धण्णस्स पडि-सुणेति पडिसुणेतित्ता जेणेव कोट्ठागारं तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता पल्लातो पंच सालिअक्खए गेण्हति मेण्हित्ता जेणेव धण्णे सत्थवाहे तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता धण्णं सत्थवाहं एवं वयासी-एए णं ते पंच सालिअक्खए त्ति कट्ट धण्णस्स हत्थंसि ते पंच सालिअक्खए दलयति। तते णं धण्णं उज्झियं सवहसावियं करेति करेत्ता एवं वयासी-किण्णं पुत्ता ! एए चेव पंच सालिअक्खए उदाहु अन्ने? तते णं उज्झिया धण्णं सत्थवाह एवं वयासी-एवं खलु तुब्भे तातो ! इओऽतीए पंचमे संवच्छरे इमस्स मित्तनातिणियगसयणवग्गेणं चउण्ह य सुण्हाणं कुल ०जाव वियरामि, तते णंऽहं तुभ एतमहं पडिसुणेमि परिसुणेमित्ता ते पंच सालिअक्खए गेण्हामि एगंतमवक्कमामि, तते णं मम इमेयारूवे अब्भत्थिए ०जाव समुप्पज्जित्था एवं खलु तया णं कोट्ठागारंसि ०(जाव)सकम्मसंजुत्ता, तं णो खलु / ताओ ! ते चेव पंच सालिअक्खए एएणं अन्ने ! तते णं से धण्णे उज्झि-याए अंतिए एयमटुं सोचा णिसम्म आसुरुत्ते जाव मिसिमिसे-माणे उज्झितियं तस्स मित्तनातिणियगसयणवग्गस्स चउण्ह य सुण्हाणं कुलघरवगस्स य पुरओ तस्स कुलघरस्स छारुज्झियं च छाणुज्झियं ज कयवरुज्झियं च समुच्छियं च सम्मज्जिअंच पाओवदाइं च ण्हाणोवदाई च वाहिरपेसणकारि ठवेति, एवामेव समणाउसो ! जो अम्हं निग्गंथो वा वा जाव पव्वतिते पंच य से महव्वयाति उज्झियाई भवंति सेणं इह भवे चेव बहूणं समणाणं ४-०जाव अणुपरियट्टइस्सइ जहा सा उज्झिया। एवं भोगवइया वि, नवरं तस्स कंडितियं वा कोट्टतियं चपीसंतियंच एवं रुचंतियं रंधतियं परिवेसंतियं च परिभायंतियं च अभंतरियं च पेसणकारि महाणसिणिं ठवें ति, एवामेव समणाउसो ! जो अम्हं समणो पंच ण से महव्वयाई फोडियाई भवंति / से णं इह भवे चेव बहूणं समणाणं 5-0 जाव हीलेइ | ४-जहा व सा भोगवतिया / एवं रक्खितियावि, नवरं जेणेव वास-घरे तेणेव उवागच्छद उवागच्छित्ता मंजूसं विहाडेइ विहाडित्ता रयणकरंडगाओ ते पंच सालिअक्खए गेण्हति गेण्हित्ता जेणेव धण्णे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता पंच सालिअक्खए धण्ण-स्स हत्थे दलयति / तते णं से धणे रक्खितियं एवं वयासी-किण्णं पुत्ता ते चेव ते पंच सालिअक्खया उदाहु अन्ने ति? तते णं रक्खितिया धण्णं एवं वयासी-ते चेव ताया ! एए पंच सालि-अक्खया णो अन्ने, कहनं पुत्ता!, एवं खलु ताओ ! तुम्मे इओ पंचमम्मि जाव भवियव्वं एत्थ कारणेणं ति कट्ट ते पंच सालि-अक्खए सुद्धे वत्थे जाव तिसंझं पडिजागरमाणी य विहरामि / ततो एतेणं करणेणं ताओ ! ते चेव ते पंच सालिअक्खए णो अन्ने, तते णं से धण्णे रक्खितियाए अंतिए एयमहूं सोचा हट्टतुट्ठ ०तस्स कुलघरस्स हिरनस्सय कंसदूसविपुलघण जाव सावतेजस्स य भंडागारिणिं ठवेति,एवामेव समणाउसो! जाव पंच य से महव्वयाति रक्खियातिं भवंति से णं इह भवे चेव बहूणं समणाणं-०४ अचणिजे जहा जाव सा रक्खिया। रोहिणिया वि एवं चेव, नवरं तुम्भे ताओ ! मम सुबहुयं सगडीसागडं दलाहि जेणं अहं तुब्भं ते पंच सालिअक्खए पडिणिज्जाएमि। तते णं से धण्णे रोहिणिं एवं वदासीकहण्णं तुम मम पुत्ता ! ते पंच सालिअक्खए सगडसागडेणं निजाइस्ससिं? तते णं सा रोहिणी धणं एवं वदासी-एवं खलु तातो ! इओ तुब्भे पंचमे संवच्छरे इमस्स मित्त जाव बहवे कुंभसया जाया तेणेव कमेणं एवं खलु ताओ ! तुन्भे ते पंच सालिअक्खए सगडसागडेणं निज्जाएमि / तते णं से धण्णे सत्थवाहे रोहिणियाए सुबहुयं सगडसागडं दलयति, तते णं रोहिणी सुबहुं सगडसागडं गहाय जेणेव सए कुलघरे तेणेव उवागच्छद कोट्ठागारे विहाडेति विहाडेतित्ता मल्ले उभिदति उटिमदित्ता सगडीसागडं भरेति भरेतित्ता रायगिहं नगरं मज्झं मज्झेणं जेणेव सए गिहे जेणेव धण्णे सत्थवाहे तेणेव उवागच्छति / तते णं रायगिहे नगरे सिंघाडग० जाव बहुजणो अन्नमन्नं एवमातिक्खति०-धन्ने णं देवा ! धण्णे सत्थवाहे जस्स णं रोहिणिया सुण्हा, जीएणं पंचसालिअक्खएसगडसागडिएणं निज्जाएति / तते णं से घण्णे सत्थवाहे ते पंच सालिअक्खए सगडसागडेणं निजाएतितेपासतिपासित्ताहहतुट्ठजावपडिच्छति पडिच्छित्ता तस्सेव मित्तनाति ०चउण्ह य सुण्हाणं कुलघरपुरतो रोहिणियं सुण्हं तस्स कुलघरस्स बहुसु कज्जेसु यजाव
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________________ रोहिणी 558- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 रोहिणी रहस्सेसु य आपुच्छणिज्जं जाव वट्टावितं पमाणभूयं ठावेति, एवामेव समणाउसो ! जाव पंच महव्वया संवड्डिया भवंति से णं इह भवे चेव बहूणं समणाणं जाव वीतिवइस्सइ जहा व सा रोहिणिया। (सू०६३४) इदमपि सुगमम् , नवरम् 'मए' ति मयि गयंसि' त्ति गते ग्रामादौ एवम्च्युते-कुतोऽप्यनाचारात् स्वपदात् पतिते मृतेपरासुतां गते भझेवात्यादिना कुब्जखञ्जत्यकरणेनासमर्थीभूत 'लुग्गंसिय' त्ति रुझेजीर्णतां गते शटितेव्याधिविशेषाच्छीर्णतांगते पतिते-प्रासादादेर्मश्चकेवाग्लानभावात् विदेशस्थे-विदेशं गत्वा तत्रैव स्थिते विप्रोषितेस्वस्थानविनिर्गते देशान्तरगमन-प्रवृत्ते आधारः-आश्रयो भूरिव आलम्बनंवरत्रादिकमिव प्रतिबन्धः-प्रमार्जनिकाशलाकादीनां लतादवरक इव कुलगृह-पितृगृहं तद्वर्गो मातापित्रादिः, संरक्षति अनशनतः,सङ्गोपयति संवरणतः, संबर्द्धयति बहुत्वकरणतः, 'छोल्लेइ'त्ति निस्तुषीकरोति 'अणुगिलइ' त्ति भक्षयति, क्वचित्त्- 'फोल्लेइ' इत्येतदेव दृश्यते,तत्र च भक्षयतीत्यर्थः / पत्तिय' ति सञ्जातपत्राः 'वत्तिय त्ति ब्रीहीणां पत्राणि मध्यशलाकापरिवेष्टनेन नालरूपतया वृत्तानि भवन्ति तद्वृत्ततया जातवृत्तत्वाद्वर्तिताः शाखादीनां वा समतया वृत्तीभूताः सन्तो वर्त्तिता अभिधीयन्ते, पाठान्तरेण-'तइथा व त्ति सञ्जातत्वच इत्यर्थः, गर्भिता जातगर्भा डोडकिता इत्यर्थ, प्रसूताः कणिशानां पत्रगर्भभ्यो विनिर्गमात् , आगतगन्धाजातसुरभिगन्धाः आयातगन्धा वा दूर यायिगन्धा इत्यर्थः, क्षीरकिताः-सञ्जातक्षीरकाः वद्धफलाः क्षीरस्य फलतया बन्धनात् जातफला इत्यर्थः, पक्काःकाठिन्यमुपगताः,पर्यायागताः पर्याय-गता वा सर्वनिष्पन्नतांगता इत्यर्थः, सल्लइपत्तय' त्तिसल्लकी वृक्षविशेषस्तस्या इव पत्रकाणिदलानि कुतोऽपि साधात् सजातानि येषां ते तथेति, गमनिकैवेयं पाठान्तरेण-शल्य-किताः-शुष्कपत्रतया सञ्जातशलाकाः पत्रकिताः-सञ्जातकु-त्सितकाल्पपत्राः, 'हरियपव्यकंड' ति हरितानिहरितालवर्णानि नीलानि पर्वकाण्डानि नालानि-येषां ते तथा, जाताश्चाप्यभूवन, 'नवपजाणएहिं' ति नवं-प्रत्यग्रं पायनम-लोहकारेणातापितं कुट्टितं तीक्ष्णधारीकृतं पुनस्तापितानां जले निवोलनं येषां तानि तथा तैः, 'आसिएहिं ति दात्रैः 'अखंडाणं ति सकलानाम् अस्फुटितानाम्- असञ्जातराजीकानां छड छड इत्येवमनुकरणतः सूर्यादिना स्फुटाः-स्फुटीकृताः शोधिता इत्यर्थः, स्पृष्टा वा, पाठान्तरेणपूतावा ये ते तथा तेषां 'मागहए पत्थए' त्ति "दो असईओ पसइ, दो पसईओ उ सेइआ होइ। चउसेइओ उकुडओ, चउकुडओ पत्थओ नेओ।॥१॥" इति। अनेन प्रमाणेन मगधदेशव्यवहृतः प्रस्थो मागधप्रस्थः, उपलिम्पन्ति-घटकमुखस्य तत्पिधानकस्य च गोमयादिना रन्ध्रे भञ्जन्ति 'लिंपेंति' - घटमुखं तत्स्थगितं च छगणादिना पुनर्मसृणीकुर्वन्ति, लाञ्छितं रेखादिना, मुद्रितं मृन्मयमुद्रादानेन तत्कुर्वन्ति, मुरलो-मानविशेषः,खलकं धान्यमलनस्थण्डिलं, चतुष्प्रस्थम् आढकः-आढकानां षष्ट्या जघन्यः कुम्भः अशीत्या मध्यमः शतेनोत्कृष्ट इति, क्षारोष्टिकाम्भस्मपरिष्ठापिकाम् 'कचवरोज्झिकाम्- अवकरशोधिकाम् समुचिक्षकाम्' प्रातर्गृहाङ्गणे जलच्छटकदायिकाम् , पाठान्तरेण-'संपुच्छिय'त्ति तत्र सम्प्रोच्छिकाम्-पादादिलूषिकाम-सम्मार्जिककाम् -गृहस्यान्तवहिश्च बहुकारिका-वाहिकाम् पादोदकदायिकाम् -पादशोचदायिकाम् स्नानोदकदायिकाम् -प्रतीताम् , बाह्यकानि प्रेषणानि कर्माणि करोति या सा 'बाहिरपेसणगारिय' त्ति भणिया, कण्डयन्तिकाम् इति-अनुकम्पिता कण्डयन्तीतितन्दुलादीन् उदूखलादौ क्षादयन्तीति कण्डयन्तिका ताम् , एवं कुट्टयन्तिकां-तिलादीनांचूर्णनकारिकाम् पेषयन्तिकाम् -गोधूमादीनाम् घरट्टादिना पेषणकारिकाम् रुन्धयन्तिकाम्- यन्त्रके व्रीहिकोद्रवादीनाम् निस्तुषत्वकारिकाम् रन्धयन्तिकाम् -ओदनस्य पाचिकाम् परिवेषयन्तिकाम्- भोजनपरिवेषणकारिकाम् परिभाजयन्तिकाम्- पर्वदिने स्वजन-गृहेषु स्वण्डखाद्याथैः परिभाजनकारिकां, महानसे नियुक्ता महानसिकी तां स्थापयति, 'सगडीसागडं' ति शकट्यश्चगन्त्र्यः शकटानां समूहः शाकटं च शकटीशाकटं 'गड्डीओ गडिया य'त्ति उक्तं भवति, 'दलाह त्ति' दत्त-प्रयच्छतेत्यर्थः, 'जाणंति' येन 'ण' इत्यलङ्कारे, प्रतिनिर्यातयामि-समर्पयामीति। अस्य च ज्ञातस्यैवं विशेषेणोपनयनं निगदति। यथा"जह सेट्ठी तह गुरुणो, जह णाइजणो तहा समणसंघो। जह बहुया तह भव्वा, जह सालिकणा तह वयाई // 1 // जह सा उज्झियनामा, उज्झियसाली जहत्थमभिहाणा। पेसणगारित्तेणं, असंखदुक्खक्खणी जाया // 2 // तह भव्यो जो कोइ, संघसमक्खं गुरुविदिन्नाई। पडिवजिउं समुज्झइ, महव्व्याइं महामोहा // 3 // सो इह चेव भवम्मी, जणाण धिक्कारभायणं होइ। परलोए उ दुहत्तो, नाणाजोणीसु संचरइ॥४॥" उक्तं च-"धम्माओ भट्ट" वुत्तं," इहेवऽहम्मो" वुत्तं / "जह वा सा भोगवती, जहत्थनामोवभुत्तसालिकणा। पेसणविसेसकारि-त्तणेण पत्ता दुहं चेव॥ 5 // तह जो महव्वयाई, उवभुंजइ जीविय त्ति पालितो। आहाराइसु सत्तो, चत्तो सिवसाहणिच्छाए॥६॥ सो एत्थ जहिच्छाए, पावइ आहारमाइ लिंगि त्ति। विउसाण नाइपुञ्जो, परलोयम्मी दुही चेव // 7 // जह वा रक्खियबहुया, रक्खियसालीकरण जहत्थक्खा। परिजणमण्णा जाया, भोगसुहाइं च संपत्ता // 8 // तह जो जीवो सम्मं, पडिवजित्ता महव्वए पंच। पालेइ निरइयारे, पमायलेसं पि वजेतो // 6 // सो अप्पहिएक्करई, इह लोयम्मि वि विऊहिं पणयपओ। एगंतसुही जायइ, परम्मि मोक्खं पि पावे // 10 // जह रोहिणी उ सुण्हा, रावियसाली जहत्थमभिहाणा। वड्डित्ता सालिकणे, पत्ता सव्यस्स सामित्तं / / 11 // तह जो भव्वो पाविय, वयाइं पालेइ अप्पणा सम्म। अन्नेसि विभव्वाणं, देह अणेगेसिँहियहेउं // 12 // सो इह संघपहाणो, जुगप्पहाणे त्ति लहइ संसद्दे। अप्पपरेसिंकल्ला-णकारओ गोयमपहुव्व // 13 // तित्थस्स वुड्डिकारी, अक्खेवणओ कुतित्थिपाईणं /
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________________ रोहिणी 586 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 रोहे विउसनरसेवियकमो, कमेण सिद्धि पि पायेइ / / 14 / / "त्ति / ज्ञा०१ | रोहियदीव-पुं० (रोहितद्वीप) स्वनामख्याते द्वीप, जं० 4 वक्ष०। श्रु०७ अ01आ० चू०। आव०। प्रश्न० / स०। (अत्र सूत्रम् ‘रोहिअंसा' शब्देऽस्मिन्नेव भागे गतम्) रोहिणीतव-न० (रोहिणीतपस्) सप्तमासादिकसप्तवर्षाणि यावत् | रोहियप्पवायदह-पुं० (रोहितप्रपातहूद) स्वनामख्याते हदे, स्था०। रोहिणीनक्षत्रदिनोपवासे, तत्र च वास्तुपूज्यजिनप्रतिमा प्रतिष्ठा च विधे- रोहिद्- उक्तरूपा यत्र प्रपतति यश्च सविंशतिकं योजनशतमायामयेति। पञ्चा०१६ विव०। प्रव०। विष्कम्भाभ्यां किञ्चिन्न्यूनाशीत्यधिकानि त्रीणि शतानि परिक्षेपेण यस्य रोहिणिरिक्खदिणे रो-हिणीतवे सत्तमासवरिसाइं। च मध्यभागे रोहितद्वीपः षोडशयोजनायामविष्कम्भः सातिरेकपञ्चाशसिरिवासुपूज्जपूया-पुव्वं कीरइ अभत्तट्ठो।। 56 // द्योजनपरिक्षेपो जलान्ताद् द्वि-क्रोशोच्छ्रितो यश्च रोहिदेवताभवनेन रोहिणी-देवताविशेषः, तदाराधनार्थं तपो रोहिणीतपः, तस्मिन् गङ्गादेवताभवनसमानेन विभूषितोपरितनविभागः स रोहित्प्रपात हद रोहिणीतपसि सप्तमासाधिकसप्तवर्षाणि यावद्रोहिणीनक्षत्रोफ्लक्षिते दिने इति। स्था० 2 ठा० 3 उ० (अत्र सूत्रम् ‘रोहिअंसा' शब्देऽस्मिन्नेह उपवासः क्रियते / इह च वासुपूज्यजिनप्रति-मायाः प्रतिष्ठा पूजा च भागेऽनुपदमेव गतम्।) रोहिया-स्त्री० (रोहिता) जम्बूद्वीपे पूर्वावरेण लवणसमुद्रं समुत्सर्पन्त्यां स्वनामख्यातायां महानद्याम्, स०१४ सम० / विधेया। प्रव०२७१ द्वार। रोहिणीरमण-पुं० (रोहिणीरमण) चन्द्रे,"इंदू निसायरो सस-हरो विहू स्था०। रोहिन्दी महापद्महदाद्दक्षिणतीरणेन निर्गत्य षोडश पश्चोत्तराणि योजनशतानि सातिरेकाणि दक्षिणतो गिरिणा गत्वा हाराकारधारिणा गहवई रयणिनाहो ।मयलंछणो हिमयरो, रोहिणिरमणो ससी चंदो"। सातिरेकयोजनद्विशतिकेन प्रपातेन मकरमुखप्रणालेन महाहिमवतो पाइ० ना०५ गाथा। रोहिदभिधानकुण्डे निपतति, मकरमुखजिह्वा योजनमायामेन अर्द्धत्रयोरोहिणेयचोर-पुं० (रौहिणेयचौर) स्वनामख्याते राजगृहवास्तव्ये दशयोजनानिविष्कम्भेनक्रोशं वाहल्येन, रोहित्प्रपातकुण्डाच्च दक्षिणचौर,व्य०२ उ०।ती०। प्रज्ञा०। (सूक्ष्मं परिनिर्वापणं लौकिकं रौहिणिक तोरणेन निर्गत्य हैमवतवर्षमध्यभागवर्तिनं शब्दापातिवृत्तवैताव्यमर्द्धचौरस्याभयकुमारेण कृतं तच "ओहावणे" शब्दे तृतीयभागे 133 पृष्ठे योजनेनाप्राप्याष्टाविंशत्या नदीसहसैः संयुज्याऽधो जगतीं विदार्य पूर्वतो दर्शितम्) लवणसमुद्रमतिगच्छतीति, रोहिनदी हि प्रवोहऽर्द्धत्रयोदशयोजनविष्करोहितंशकूड- पुं०(रोहितांशकूट) जम्बूद्वीपे हिमवद्वर्षधरपर्वत दशमे म्भा क्रोशोद्वेधा ततःक्रमेण वर्द्धमाना मुखे पञ्चविंशत्यधिकयोजनशतविकूटे, स्था० 2 ठा०३ उ०। ष्कम्भा सार्द्धद्वियोजनोद्वेधा, उभयतो वेदिकाभ्यां वनखण्डाभ्यां च युक्ता, रोहियंसा-स्त्री० (रोहितांशा) नदीभेदे, स्था०३ ठा०४ उ01 एवं सर्वा महानद्यः पर्वताः कूटानिच वेदिकादियुक्तानीति। स्था०२ ठा० ('रोहिअंसा' शब्देऽस्मिन्नेव भागे वक्तव्यता गता) 3 उ०। रा०। ('महाहिमवंतकूड' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 227 पृष्ठे सूत्रतो रोहिय-न० (रोहित)रुधिरे, रक्तवर्ण च। वाच०। मत्स्यभेदे, पुं०। उत्त० दर्शितैषा।) 14 अ० जी०। प्रज्ञा० / चतुष्पदविशेषे, च। प्रश्न०१ आश्र० द्वार०। रोहियाससेण-पुं० (रोहिताश्वसेन) इक्ष्वाकु वंशोत्पन्नस्य श्रीहरिस्था०। श्चन्द्रमहानरेन्द्रस्य स्वनामख्याते पुत्र, ती० 37 कल्प०। रोहीडगरोहियकूड-पुं० (रोहितकूट) जम्बूद्वीपे मन्दरस्य दक्षिणे महा-हिमवति न० (रोहीडग) भरतक्षेत्रे रोहिणीगणिकावासभूते स्वनामख्याते नगरे, वर्षधरपर्वत स्वनामख्याते सप्तमे कूटे, स्था० 2 ढा० 3 उ० / जं०। नि०। आ० क०। विपा० / संथा०। जम्बूद्वीपे हैमवद्वर्षनायकदेवावासभूते स्वनामख्याते कूटे स्था०८ ठा०। | रोहे-अव्य० (रोधयित्वा) रोधं कृत्वेत्यर्थे, बृ०३ उ०। voboobodboobodboobodoodbodoodboobodoodbodoodoodoodoodoodoodoopbe र इति श्रीसौधर्मबृहत्तपोगच्छीय-कलिकालसर्वज्ञकल्पप्रभु। श्रीमद्भारकजैनश्वेताम्बराऽऽचार्यश्री 1008 श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरीश्वरविरचिते “अभिधानराजेन्द्रे" __रकाराऽऽदिशब्दशङ्कलनंसमाप्तम्॥ 200000000000000000000000000000000000000000000000
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________________ अभिधानराजेन्द्रः। लकार pannamooooomnp लंगूलिय-पुं० (लाकॅलिक) अष्टाविंशत्यन्तीपानांमध्ये तृतीयेऽन्तद्वीपे, उत्त०३६ अ०। ('अन्तरदीव' शब्दे प्रथम भागे तत्स्वरूपं दर्शितम् ) लंधण-न० (लंडन) गरितिक्रमणे,औ० / रा० / नि० चू०। जी०। ज्ञा०। अतिदीर्घस्यात्युचस्यापि चातिक्रमणे, आ०म०१ अ० उत्प्लुत्य ल-पुं०(ल) अन्तस्थो मूर्द्धस्थानीयोऽयं वर्णः। ला-क! इन्द्रे, वाच०। गमने, उत्त०२ अ० / साधूपरि साध्व्याधुपरिवा क्रोधादिना अन्नपानादिलवने, अम्बरे, दानादाने, सुखे, वादे च। न०। आलये, आश्लेषे, पुं०। मोचने, ग०२ अधि०। लंघियजिणाण-त्रि०(लवितजिनाज्ञ) त्यक्तसर्वज्ञशासने, जी०१प्रति०। मृते, लूने च। त्रि० / एका०। लइअ-त्रि० (लगित) अवलम्बिते, स०७० सम० / परिहिते, अङ्गे लंघेयव्व-त्रि० (लयितव्य) लङ्घनीये, ज्ञा० 1 श्रु०१ अ०। लंच-(देशी०)। कुक्कुटे, दे० ना०७ वर्ग 17 गाथा। पिनद्धमित्यर्थे , इत्यन्ये। दे० ना०७ वर्ग 18 गाथा! लंचा-स्त्री० (लचा) उत्कोचे, व्य०१उ०। लइअल्ल-(देशी०) / वृषभे, दे० ना०७ वर्ग 16 गाथा। लंचिल्ल-त्रि० (लञ्चावत्) उत्कोचमुपजीव्य सापेक्षे व्यवहारिणि, व्य० लइणी-(देशी०)। लतायाम् , दे० ना०७ वर्ग 18 गाथा। 1 उ०। लउड-पुं० (लकुट) यष्टौ, औ०। "कोणो लउडो'। पाइ० ना० 230 लंछण-न० (लाञ्छन) मषतिलकादिके चिहे, अनु०। प्रव० 1 नं०। गाथा। ज्ञा० स०।प्रश्न०। प्रहरणकरणे, स्था०३ ठा०४ उ०।ज्ञा०। "लंछणं अंको चिंध'। पाइ० ना०११४ गाथा। अङ्गावयवच्छेदे, प्रव० जं०। प्रश्न०। 6 द्वार / दश० / कर्णादिकल्पनाङ्कनादिभिलाञ्छने, प्रश्न०२ आधo लउडकट्ठ-न० (लकुटकाष्ठ) लकुटदण्डे, प्रश्न०३ आश्र० द्वार। द्वार! उल्मुकादिभिरङ्कने, आव० 4 अ०। लउय-पुं० (लकुच) वृक्षविशेषे, औ०। लंछपोस-पुं० (लञ्छपोष) लञ्छाख्यचौरविशेषाणां पोषणे, विपा०१ श्रु० लउसिका-स्त्री० (लकुसिका) लकुशदेशोत्पन्नायामनार्य-स्त्रियाम् , 10 / ज्ञा०१ श्रु०१अ०। रा०। लंछिय-त्रि० (लाञ्छित) रेखादिभिः कृतलाञ्छने, बृ०२ उ०। लंककालियावात-पुं०(लङ्ककालिकावात) चक्रवद्भ्रामकेवायौ, कल्प० स्था०। ज्ञा०। भ०। आ० म०। भस्मना पिहिते, वृ०२ उ०। 1 अधि०६ क्षण। लंजर-न० (लञ्जर) उदककुम्भे, स्था० 4 ठा० 4 उ०। लंका-स्त्री० (लङ्का) भरतवर्षस्याविदूरे दक्षिणे लवणसमुद्रे त्रिकूटगिर्युषिते लंतग-पुं० (लान्तक) षष्ठे देवलोके, प्रव० 164 द्वार। स०। स्था०। पुरीभेदे, "लङ्कायां त्रिकूटगिरौ श्रीशान्तिनाथः"। ती०४३ कल्प०। औ० लान्तककल्पवासिदेवेषु, तदिन्द्रेच। विशे० स्था०ालान्तकआ० क०। देवानां स्थाने, प्रज्ञा०२पद। (व्याख्या चतुर्थभागे'ठाणा' शब्दे 1706 लंकाडाह-पुं०(लङ्कादाह) लङ्काया भस्मीकरणे, रामायणे वि सुणिज्जति पृष्ठे उक्ता) जह हणुअंतस्स पुच्छंमहन्तमासी, तंच किल अणेगेहिं वत्थसहस्सेहिं लंद-पुं० (लन्द) काले, बृ०३ उ० / प्रव०। (स च 'अहालंद' शब्दे वेढिऊण तेल्लघडसहस्सेहिं सिञ्चिऊण पलीवियन्तेण किललकापुरी प्रथमभागे 867 पृष्ठे व्याख्यातः।) यावता कालेनोदकाकरः शुष्यति दड्डा। नि०चू०१ उ०। तावान् कालो जघन्यतो लन्दः / कल्प०२ अधि०८ क्षण। लंख-पुं० (लङ्घ) महावंशानखेलके, रा०। जं०। अनु०। ये वंशादेरुपरि लंपट-त्रि० (लम्पट) लालसे, "लोला लालस-सोलुअ-उल्ले-हडवृत्तं दर्शयन्ति तेलखाः ।ध्य०३ उ०।जी०। कल्पना ज्ञा०। नर्तकभेदे, लंपटा लुद्धा'। पाइ० ना०७५ गाथा। पं० चू०१ कल्प०॥ लंपिक्ख-(देशी०)। चौरे, दे० ना०७ वर्ग 19 गाथा। लंखपेहा-स्त्री० (लङ्गप्रेक्षा) ये महावंशाग्रमारुह्य नृत्यन्ति तेषां प्रेक्षायाम्, लंब-(देशी०)। केशे, गोवाटेच। दे० ना०७ वर्ग 26 गाथा। व्य०३ उ० / जी०। लंबंत-त्रि० (लम्बमान) दैर्घ्यं गच्छति, कल्प०१ अधि०२क्षण / ज्ञा० / लंखिया-स्त्री० (लटिका) वंशोपरि नर्तक्याम् , ध०३ अधि० / ज्ञा०। लंबण-पुं० (लम्बन) कवले, बृ०४ उ०।व्यका नङ्गरे, ज्ञा०१ श्रु०८ अ01 लंगल-न० (लाङ्गल) हले, प्रश्न० 3 आश्र० द्वार। लंबाली-(देशी०) 1 पुष्पभेदे, दे० ना०७ वर्ग 16 गाथा। लंगूल-न० (लाल) पुच्छे, स्था० 4 ठा० 2 उ० / ज्ञा० / कल्प०। | लंबियय-पुं० (लम्बितक) तरुशाखायां बाही बद्धे अभिग्रह-विशेषवति "लंगूलं वाहली छिप्पं" पाइ० ना० 128 गाथा। वानप्रस्थे, औ०।
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________________ लंबुत्तर 561 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लक्खण लंबुत्तर-पुं० (लम्बोत्तर) कायोत्सर्गदोषविशेषे, कृत्वा चोलपट्टमविधिना इत्याह लक्षणरूपस्य वर्णत्रयस्याकारविशेषः / अथवा-लक्षणानां नाभिमण्डलस्योपरि अधस्ताच जातुमात्रं तिष्ठति कायोत्सर्ग इति स्वस्तिकशंखचक्रध्वजादीनां यो मङ्गलपट्टादावक्षतादिभियासोविरचना लम्बोत्तरदोषः। प्रव०५ द्वार। विधीयते तत्स्थापनालक्षणमिति // 2146 // लंबूसग-पुं० (लम्बूसक) गेन्दुके, ज्ञा० १श्रु०१ अ० / गोलाकृ-तिमण्ड 'दविए' त्ति द्रव्यलक्षणम्। तचागमनोआगमज्ञशरीरभनविशेषे, जी०३ प्रति० 4 अधि०।आ०म० जी०।नं०।दाम्नामग्रिम व्यशरीररूपं सुगमम्। तद्व्यतिरिक्तं पुनराहभागे मण्डनविशेषे, रा०। जं०। आभरणविशेषे, रा०। लक्खिज्जइ जंजेणं, दव्वं तं तस्स लक्खणं तं च / लंबेयव्व-त्रि० (लम्बयितव्य) अवलम्बनीये, रज्ज्वादिनिबद्धे, हस्तादिना गचुवगाराईयं, बहुहा धम्मत्थियाईणं // 2150 / / धरणीये च। भ०६ श०३३ उ०। यद्रव्यं धर्मास्तिकायादिकं लक्ष्यते येन तत्तस्य द्रव्यस्य लक्षणम्। तच्च लंबोयर-पुं० (लम्बोदर) गणपतौ, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। गत्युपकारादिकं धर्मास्तिकायादीनां संबन्धिबहुभेदं विज्ञेयमिति॥२१५०।। लंभ-पुं० (लाभ) मूलधनादितोऽधिके लभ्यमाने धने, प्राप्तौ च। विशे०। अर्थान्येषां सादृश्यसामान्यादिलक्षणानां सामान्येन भावार्थमाहसूत्र०। आ० म०। किंचिम्मित्तविसिटुं, एयं चिय सेसलक्खणविसेसा। लंभणमच्छ-पुं० (लम्भनमत्स्य) मत्स्यभेदे, जी०१ प्रति०। प्रज्ञा०। जंदवलक्खणं चिय,भावो वि स दध्वधम्मो त्ति / / 2151 / / लंभित्ता अव्य० (लब्ध्वा) प्रात्येत्यर्थे, स्था० 3 ठा०२ उ०। इदमेव च द्रव्यलक्षणं किंचिन्मात्रविशिष्ट सच्छेषाः सादृश्य-सामान्यादयो लंभिय-त्रि० (लम्भित) प्राषिते, सूत्र०२ श्रु०७ अ०। नव लक्षणभेदा भवन्ति / कुताः ? इत्याह-यद्यस्मात् स वक्ष्यमाणो भावोऽपि भावलक्षणरूपं द्रव्यधर्मत्वाद् द्रव्यं लक्ष्यतेऽनेनेति कृत्वा लकुड-(देशी०)। लकुटे, दे० ना०७ वर्ग 16 गाथा। द्रव्यलक्षणमेव, आसतां पुनः शेषाः सादृश्यसा-मान्यादयो लक्षणभेदा लक्ख-न० (लक्ष) शतेन गुणिते सहस्राणामकशते, कर्म० 4 कर्म० / कल्प० / कार्य, दे० ना०७ वर्ग 17 गाथा। इति / / 2151 // तदेवं सामान्येन सादृश्यादिलक्षणभेदान् व्याख्याय विशेषतो*लक्ष्य-त्रि० शरव्ये, "मुष्टिना छादयेल्लक्ष्य, मुष्टौ दृष्टिं निवेश-येत्। ऽपि सरिसे' त्ति सादृश्यलक्षणस्वरूपं विवृण्वन्नाहहतं लक्ष्यं विजनीयाद्यदि मूर्धान कम्पते। सूत्र०१श्रु०८ अ०।"लक्खं तुल्लागारदरिसणं, सरिसंदध्वस्स लक्खणं तं पि। विजायं"। पाइ० ना० 246 गाथा। जह घडतुल्लागारो, घडोत्ति तह सध्वमुत्तीसु॥२१५२॥ लक्खण-न० (लक्षण) लक्ष्यतेऽनेनेति लक्षणम् / पदार्थानां स्यरूपे, यद्व्यादिवस्तूनां तुल्यस्याकारस्य दर्शनं तदिह 'सरिसं तिसादृश्यविशे० / अनु०। मुच्यते, द्रव्यस्य तदपि लक्षणम् , तेनापि हि सदृशममुकस्येदम् इति अथ लक्षणद्वारमाह व्यपदेशहेतुत्वाद् द्रव्यं लक्ष्यत इति, एतदपि सामान्यतो द्रव्यलक्षणमेव, नामं ठवणा दविए, सरिसे सामन्नलक्खणाऽऽगारे। विशेषतस्तु सादृश्यलक्षणमुच्यत इतीह भावार्थः / एवमुत्तरत्रापि गइरागइ-नाणत्ती, निमित्त-उप्पाय-विगई य॥२१४६।। सामान्यतो द्रव्यलक्षणता, विशेषतस्तु वक्ष्यमाणतत्तद्विशेषलक्षणता वीरियभावे य तहा, लक्खणमेयं समासओ मणियं / द्रष्टव्येति। उदाहरणमाह-यथै-केन दृश्यमानघटेन तुल्याऽऽकारोऽन्योअहवा वि मावलक्खण, चउविहं सहहणमाई॥२१४७|| ऽपि सर्वो घटइति, एवम-नेनैव प्रकारेण सर्वासु मूर्तिषु सर्वेष्वपि मूर्त्तवसद्दहणजाणणा खलु, विरई मीसंच लक्खणं कहए। स्तुषु यस्य तेन सादृश्यं घटते तत्सर्वं सादृश्यलक्षणमिति॥ 2152 / / ते वि निसामिति तहा,चउलक्खणसंजुअंचेव // 2148|| अथ 'सामण्णलक्खण' ति सामान्यलक्षणव्याख्यानमाहलक्ष्यतेऽनेनेति लक्षणं पदार्थानां स्वरूपम् , तच नामादिभेदाद् द्वाद सामण्णमप्पियमण-प्पियं च तत्थंतिमं जहा सिद्धो। शधा / / 2146 // 2147 // 2148 // सिद्धस्स होइ तुल्लो, सय्वो सामण्णधम्मेहिं / / 2153 / / अत्र नामस्थापनालक्षणे व्याचिख्यासुराह भाष्यकारः - एगसमयाइसिद्ध-तणेण पुणरप्पिओ स तस्सेव। लक्खणमिह जं नाम, जस्स व लक्खिजएं व जो जेणं / तुल्लो सेसाऽतुल्लो, सामण्ण विसेसधम्मो त्ति // 2154 / / ठवणागारविसेसो, विण्णासो लक्खणाणं वा।। 2146 / इह सामान्यं द्विधा-अर्पितमनर्पितं च / तचार्पितं विशेषित-मुच्यते, इह 'लक्षण' मिति यल्लकारादिवर्णत्रयावलीमात्रं तन्नामैव लक्षणं | अनर्षितं त्वविशिष्टम्। तत्रान्तिममविशिष्टं सामान्यं यथा-सिद्धः सर्वोऽनामलक्षणम् / अथवा- 'जस्स व त्ति यस्य वा कस्यचि-जीवादे- प्यन्यस्य सर्वस्यापि सिद्धस्य सत्त्व-द्रव्यत्य-प्रमेय-त्वाऽमूर्तत्वक्षीण'लक्षण मिति नाम क्रियतेतद्वस्तु नाम्ना हेतुभूतेनलक्षणं नमलक्षणम्। कर्मत्वाऽनावाधत्व-सिद्धत्वादिभिः सामान्य-धर्मस्तुल्यः-समानो अथवा-नाम तद्वतोरभेदन्नाम चतल्लक्षणं च नामलक्षणम्। 'लक्खिज्जए भवति / एक-द्वि-त्र्यादिसमयसिद्धत्वेन पुनरर्पितो विशेषतः स व जो जेणं ति यो वा स्तम्भकुम्भाऽम्भोरुहादिः पदार्थों निजेन सिद्धः 'तस्सेव तुल्ल' त्ति तस्यैवैकद्विव्यादिसामान्यसमयसिद्धस्यैव रतम्भकुम्भादिसनाम्ना लक्ष्यते-ज्ञायतेतत्स्तम्भादि नामलक्षणमुच्यते, सिद्धस्य तुल्यः समानः, शेषस्य त्व समानसमयसिद्धस्यातुल्योऽलक्ष्यतेऽनेनेति कृत्वा / 'ठवण'त्ति स्थापनालक्षणमुच्यते / किं तत् ? | समानः। ननुकथमेकंएवायं सिद्धः सिद्धान्तरैस्तुल्योऽतुल्यश्च? इत्याह
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________________ लक्खण 592 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लक्खण सामान्यरूपा विशेषरूपाश्च धर्मा यस्यस सामान्यविशेषधर्मा इतिहेतोः / नह्यसौयैरेवधर्मस्तुल्यस्तैरेवातुल्यो येन विरोधः स्यात्, किन्तु-समानधर्मस्तुल्यो विशेषधGः पुनरतुल्य इति भावः / यचह सिद्धस्य सिद्धेन सह समानत्वं तत्सामान्यलक्षणमिति // 2153 // 2154 // विशे०। (आगारलक्षणम् आगारलक्खण' शब्दे द्वितीयभागे 64 पृष्ठे गतम् / ) (गत्यागतिलक्षणम्- 'गइआगइलक्खण' शब्दे चतुर्थभागे 1961 पृष्ठे गतम् / ) (निमित्तलक्षणम् ‘णिमित्तलक्खण' शब्दे चतुर्थभागे 2053 पृष्ठे उक्तम्।) अथ 'उप्पाय-विगई य'त्ति उत्पाद विगमलक्षणस्वरूपमाहनाणुप्पन्नं लक्खि-जए जओ वत्थु लक्खणं तेणं। उप्पाओ संभवओ, तह चेव विगच्छओ विगमो॥२१६४॥ यतो नानुत्पन्नं वस्तु लक्ष्यते तेनोत्पादोऽपि तल्लक्षणम् / कथंभूतस्य वस्तुन उत्पादो लक्षणम् ? संभवत उत्पद्यमानस्य। तथा, विगच्छतोविनश्यतो वस्तुनो विगमो-विनाशो लक्षण-मेवेति // 2164 / / ननु विगमो नाशः कथं वस्तुलक्षणम् ? इत्याहलक्खिज्जइ जं विगयं, विगमेण विणा व जंन संभूई। विगमो विलक्खणमओ,विगच्छओ वत्थुणोऽण्ण्णो॥ 2165 / / यद्यस्मात् यथोत्पादेनोत्पन्नं लक्ष्यत एवं विगतमपि विगमेन लक्ष्यत एव,यथा चोत्पादमन्तरेण नवस्तुनः सम्भूतिः, एवं 'विगमेण' इत्यस्यावृत्त्योत्तरत्रापि संबन्धाद यस्माद् विगमेनापि विना न वस्तुनः संभूतिःसंभवः / न हि मृदः प्राक्तने रूपेऽविनष्टे घटस्य संभवोऽस्ति / अतःअस्मात् कारणात् विगमोऽपि वस्तुनो लक्षणमेव, तत्संभवहेतुत्वात्, उत्पादवत्। कथंभूतो विगमः? इत्याह-विगच्छतो वस्तुनोऽनन्योऽभिन्नः, यथोत्पन्नादभेदवानुत्पाद इति / / 2165 / / एतदेव भावयतिअङ्गुलिरिजुता नियय-प्पसूइ वकत्तणासओ समयं / लक्खिज्जइनेयरहा, तह सव्वे दव्वपज्जाया // 2166 // अडल्या ऋजुता अङ्गुलयूजुतासा समकं-युगपनिजकप्रसूतियक्रत्वनाशत एव लक्ष्यते, नेतरथा-नान्यथेत्यर्थः। तत्र निजकप्रसूतिरुत्पाद ऋजुतायाः, वक्रत्वस्य नाशो वक्रत्वनाशः, निजकप्रसूतिश्च वक्रत्वनाशश्च निजकप्रभूतिवक्रत्वनाशी, ताभ्यां निजकप्रसूतिवक्रत्वनाशाभ्यामिति समासः / अस्माच पञ्चमीद्विवचनान्तात् “पञ्चम्यास्तसिल''। (पाणि० // 5 // 371) इति तसप्रत्ययः / इदमुक्तं भवति-अङ्गुलीद्रव्यस्य ऋजुतापर्यायो नियमत एव स्वस्योत्पादेन वक्रत्वस्य च नाशेन लक्ष्यते, नान्यथा, अनुत्पन्नस्य खरविषाणस्येव लक्षणायोगात्, विपक्षभूतपर्यायाविनाशे चोत्पादायोगात्। यथा चाकुल्या ऋजुतापर्यायस्तथाऽन्येऽपि सर्वद्रव्यपर्यायाः स्वस्योत्पादे स्वावपक्षभूतपर्यायविनाश एव च सति लक्ष्यन्ते, नान्यथा। ततश्च यथोत्पादो वस्तुलक्षणकत्वाल्लक्षणं तथा विनाशोऽपि, पूर्वपर्यायविनाशमन्तरेणाप्युत्तरपर्यायविशिष्टवस्तुनो लक्षणायोगादेति // 2166 // अथ विनाशस्य ये सर्वथा वस्तुत्वं नेच्छन्ति सौगताः, तन्मतानुसारी परः प्राऽऽहउप्पायस्स हि जुत्ता, लक्खणया नासओ विणासस्स। नासो व लक्खियं वा, वत्थु न भावो खपुष्पं व // 2167 / / ननूत्पादस्य लक्षणता युक्ता, उत्पन्नवस्त्वनन्यत्वेन तस्य सत्त्वात, विनाशस्य त्वसतोऽविद्यमानस्य नासौ युक्ता / नासत् खरविषाणं कस्यापि लक्षणं भवितुमर्हति / अथ नाशोऽपि वस्तुनो लक्षणमिष्यते, तर्हि तस्याभावरूपत्वात् तल्लक्षितं वस्त्वष्यभाव एव स्यात्, आकाशकुसुमवदिति। एतदेव-'नासोवलक्खियं वेत्यादि॥२१६७॥ अत्रोत्तरमाहनासो भावो संभू-इहेउओ वत्थुणो धुवत्तं व। अहव समुप्पाओ इव, वत्थुप्पभवाइभावाओ॥२१६८॥ 'नाशो भाव' इति प्रतिज्ञा, पूर्वोक्तन्यायेन वस्तुनः संभूतिहेतुत्वात्, ध्रुवत्ववदिति। अथवा-हेतु-दृष्टान्तान्यत्वेनान्यथा प्रमाणम्-नाशो भाव इति सैव प्रतिज्ञा, वस्तुनः प्रकृष्ट भवनं प्रभवः, प्रौढतापर्यायस्तस्यादौ प्रथमं पूर्व भावः सत्त्वंतस्माद् वस्तुप्रभवादिभावादिति हेतुः। समुत्पादवदिति दृष्टान्तः / इह यो यो वस्तुनः प्रकृष्टभवनस्यादौ भवति स स भावः, यथोत्पादः, भवति च वस्तुप्रभवस्यादौ पूर्वोक्तयुक्तितो नाशः, तस्माद् भाव इति / / 2168 / / एतदुक्तम्-'नासोवलक्खियं वेत्यादि' तत्राऽऽहनासोवलक्खियं चिय, तदभावो चिय तदनहा भावो। आह नणु पत्तमेवं, भावाभावोभयसभावं / / 2166 // एवं च सति 'नासोवलक्खियं चिय' तदिति नाशोपलक्षितमेव तत्निर्दिष्टयुक्तितो नाशेन लक्ष्यत एवैतदित्यर्थः तथा चैतावतांशेनाभाव एव तद्वस्तु, मात्र विवादः, कथञ्चिद्वस्तुनाम भावरूपतया जैनैरभ्युपगतत्वादिति। अन्नहा भावो' त्ति अन्यथा पुनरन्येन रूपेण तद्वस्तु भावःउत्पाद-ध्यरूपतया भाव एव तदित्यर्थः / अन्नाह परःनन्वेवं सात -भावाभावोभयस्वभावं वस्तु प्राप्तम्, एतचायुक्तम्, भावाभावयोः परस्परपरिहारेणावस्थानाच्छायाऽऽतपवदेकत्रायोगादिति // 2166 / / अत्रोत्तरमाहएवं चिय तं वत्थु, सव्वाभावे व तं खपुष्पं व। भावे व सव्वहा स-ट्वसंकरे-गत्त-णिचाई।। 2170 / / नन्वेवमेव भावाभावोभयरूपतायामेव तद्द्वस्तु भवति, न पुनरेकान्तेन भावस्वरूपत्वेऽभावस्वरूपत्वे वा, एतदेवाह-सर्वाभावे वा सर्वथैवाभावरूपतायां वा इष्यमाणायां खपुष्पमिव तद्वस्तु स्यात्, भावे वा सर्वथा भावरूपतायां वैकान्तेनेष्यमाणायां सर्वसङ्करैकत्वनित्यत्वादयो दोषाः प्रसजन्ति / तथाहि-'सर्वधा सवैरपि प्रकारैर्घटस्य भावः' इत्युक्ते यथा घटरूपतया तथा पटस्तम्भ-भू-भूधरादित्रैलोक्यरूपतयाऽपितस्य भावः प्राप्नोति, कथञ्चिदप्यभावरूपताऽनभ्युपगमात्। एव स्तम्भ-भू-भूघरादीनामपि सर्वात्मना भावात् सर्वसंकरोऽन्योन्यानुप्रवेशलक्षणः स्यात् / एकस्मिन् वा कस्मिंश्चिद्घटादिवस्तुनि सर्वस्यपि त्रिभुवनस्यानुप्रवेशात्
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________________ लक्खण 563 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लक्खण सर्वैकत्वं भवेत् / ततश्चैकस्मिन्नपि व्योमादिवस्तुनि सर्वदैव वतिष्ठमाने शेषस्यापि घटादिवस्तुजातस्य तदेकत्वापत्त्या सर्वदाऽवस्थानात् सर्वनित्यत्वप्रसङ्गः; आदिशब्दादेकस्मिन् घटादिवस्तुनि विनष्ट शेषस्यापि भू-भूधरादेस्तदेकत्वेन विनाशात् सर्वशून्यतापत्तिः, सर्वस्यापि च सर्वत्र विद्यमानत्वात् सर्वार्थेषु निराकासमेव विश्वं स्यादिति। तस्मात् कवले भावरूपत्वेऽभावरूपत्वे वेष्यमाणे दोषदर्शनाभावाभावोभयरूपं वस्तु / न चैवं विरोधः, भावाऽभावयोर्भिन्ननिमित्तत्वात् / यदि हि येनैव भावस्तेनैव चाभावः स्यात् तदा भवेद् विरोधः; नचैतदस्ति, स्वरूपेण घटादेर्भावात्, पररूपेण चाभावादिति // 2170 / / ननु यद्येवम्, तर्युत्पन्नमप्यनुत्पन्नम्, तस्याभावरूपत्वात्; अनुत्पन्नमभावीभूतं चास्ति, अभावरूपतया सत्त्वात् तथा च सति उत्पन्नम् विनष्टं वेदम्' इत्यादि लोकव्यवहारो न प्राप्नोति, इत्याशक्याऽऽहउप्पन्नं विगयं वाणप्पियमविसेसियं सधम्मेहिं। तं चिय पज्जायंतर-विसेसियमहप्पियं नाम // 2171 / / इहोत्पन्नं विगतं वेति यल्लोके व्यपदिश्यते वस्तु, तत्सर्वमपि द्विविधम्अर्पितम्, अनर्पितं च / तत्र स्वधर्भविशेषवद्भिः, पर्यायैरविशेषितं सामान्यरूपं वस्त्वनर्पितमभिधीयते / तदेव च पर्यायान्तरैः-पर्यायविशेषैर्विशेषितमर्पितमुच्यत इति। एवं व्यवस्थिते यदा सामान्यरूपमनपेक्ष्योत्पादविगमादिपर्यायेण केनापि विशेषितं वस्तु वक्तुमिष्यते तदोत्पन्नं विगतं चेत्यादिव्यपदेशतः सर्वोऽपि लोकव्यवहारः प्रवर्तते। तथाचाह- "अर्पिताऽनर्पितसिद्धेः' (तत्त्वा० 5 31,133) इति तदेवमुक्तमुत्पाद- विगमलक्षणम् / ध्रौव्यलक्षणं तु द्रव्यलक्षणाभिधानद्वारेणैवाभिहितम् ध्रुवत्वद्रव्यत्वयोरेकार्थत्वात्॥२१७१॥ अथ 'वीरिय' त्ति वीर्यलखणमभिधित्सुराहवीरिये ति बलं जीव-स्स लक्खणं जं व जस्स सामत्थं। दव्वस्स चित्त रूवं,जह वीरियमोसहाईणं // 2172|| वीर्य जीवस्य बलमुच्यते। तेन च 'बलवानयम्' इत्यादि व्यपदेशाजीवो लक्ष्यत इति तत् तस्य लक्षणम् / अथवा-न जीवस्यैव बलं वीर्यमुच्यते, किन्तु यद्यस्य सचेतनस्याचेतनस्य वा द्रव्यस्य चित्ररूपं सामर्थ्य तदिह वीर्यमभिधीयते यथा लोकेऽपि प्रसिद्धं हरीतकीगुडूच्याधौषधीनां वीर्यम्, आदिशब्दाद्-मणिमन्त्रादि-परिग्रहः, उक्तं च'अचिन्त्यो हि मणिमन्त्रौषधीनां प्रभावः' इति // 2172 / / अथ 'भावे य' त्ति भावलक्षणमाहजमिहोदझ्याईणं, भावाणं लक्खणं त एवऽहवा। तं भावलक्खणं खलु, तत्थुदओ पोग्गलविवागो॥२१७३।। यदिह भावानामौदयिकादीनां कर्मपुद्गलोदयादिरूपं लक्षणं तद् भावलक्षणम्, यथा कर्मपुद्गलानामुदयलक्षण औदयिकः, कर्मपुर-लानामेवोपशमलक्षण औपशमिकः, तेषामेच सर्वथाऽभावलक्षणः क्षायिकः, क्षयो पशमरूपमिश्रतालक्षणः क्षायोपशमिकः, सामान्येन पुद्गलपरिणतिरूपःपारिणामिकः एषामेव भावाना व्यादिसंयोगलक्षणः सांनिपातिकः 'त एव हव' त्ति अथवा-त एवौदयिकादयो भावा लक्षणं भावलक्षणम्। जीवो हि नारकादिव्यपदेशहेतुत्वात् तैर्लक्ष्यत एवेति / 'तत्थुदओ पोग्गलविवागो' त्ति तत्र प्रथमव्याख्यापक्ष औदयिकभावस्य कर्मपुगलविपाकलक्षण उदयो लक्षणम्, एवमन्येषामपि भावानांयथायोगंलक्षणं वाच्यम्। तच दर्शितमेवेति।।२१७३॥ भाष्यकारोऽपि तस्मिन्नुदये भव औदयिकः, तेन वा निवृत्त, स एव वौदयिकः' इत्यादिकां भावानां व्युत्पत्ति, शेषाणामौपशमिकादिभावानामुपशमादिरूपं लक्षणं च दर्शयन्नाह-- उदए सइ जो तेण व, निव्वत्तो उदय एव ओदइओ। उदयविधाय उवसमो, उवसम एवोवसमिउत्ति॥२१७४॥ खय इह कम्माभावो, तब्मावे खाइओ स एवऽहवा। उमयसहावो मीसो,खओवसमिओ तहेवाऽयं // 2175 / / सव्वत्तो किर नासो, परिणामोऽभिमुहया स एवेह। परिणामिउत्ति सुद्धो,जो जीवाऽजीवपरिणामो // 2176|| तिस्रोऽपि गतार्थाः, नवरम् 'उभयसहावो' इत्यादि कर्मणो यावनन्तरोक्तौ क्षयोपशमौ तदुभयस्वभावत्वाद् मिश्रः क्षयोपशमिको भावः। कथं कया व्युत्पत्त्या? इत्याह-तथैवेति, क्षयोपशमावेव क्षायोपशमिकः, तयोर्वा भवः, ताभ्यां वा निवृत्त इतिपूर्वदर्शितव्युत्पत्त्येत्यर्थः। तदेवं नामादिभावावसानं द्वादशधा संक्षेपतो लक्षणमभिहितम् / एतदेवाह नियुक्तिकारः-'लक्खणमेयं समासओ भणिय' इति॥२१७४॥२१७५।२१७६।। इह च प्रकृते भावलक्षणेनाधिकार इत्येतदेव दर्शयन्नाह भाष्यकार:सम्मत्त-चरित्ताई मीसो-वसम-क्यय-स्सहावाई। सुय-देसोवरईओ, खओवसमभावरूवाओ॥२१७७॥ सामाइएसु एवं, संभवओ सेसलक्खणाई पि। जो एल भावओ वा, वइसेसियलक्खणं चउहा॥२१७८|| इह सामायिकं तावच्चतुर्विधम्--सम्यक्त्वसामायिकम्, श्रुतसा-- मायिकम्, देशविरतिसामायिकम्, सर्वविरतिसामायिकं चेति / तत्र सम्यक्त्वसामायिकं चारित्रसामायिकं चेत्येते द्वे अपि सामायिके मिश्रोपशमक्षयस्वभावे मन्तव्ये। मिश्रः क्षायोपशमिको भावः, उपशमस्त्वौपशमिको भावः, क्षयः-क्षायिको भावः, एतेषु त्रिष्वपि भावेषु यथोक्तं सामायिकद्वयं वर्तत इत्यर्थः। 'श्रुतमिति' श्रुतसामायिकं, देशोपरतिर्देशविरतिसामायिकम्, एते द्वे अप्येकस्मिन्नेव क्षायोपशमिके भावे वर्तेते। अत एतानि चत्वार्यपि सामायिकानि यथोक्तभावरूपत्वात्, जीवस्य चैतैः सामायिकवत्त्वेन लक्षणाद् भावलक्षणरूपाणि भवन्ति / एवमेतेषु सामायिकेषु संभवतो यथासंभवं शेषाण्यपि नाम-स्थापना-द्रव्यसादृश्यरूपाणि लक्षणानियोजयेत्; तथाहि-जीवद्रव्यमेतैर्लक्ष्यते इति द्रव्यलक्षणमप्येतानि भवन्ति, एवमन्यलक्षणताऽप्यन्यूह्य वाच्या /
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________________ लक्खण 564 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लक्खण यदुक्तं नियुक्तिकृता-'अहवा वि भावलक्खण' मित्यादि, तद्व्याख्यानार्थमाह--'भावओ वेत्यादि / 'इति अथवा, भावतो-भावविषयेऽन्यद् वैशेषिकं -विशेषरूपलक्षणं चतुर्विधं बोद्धव्यम्॥२१७७।२१७८|| तच 'सदहण-जाणणा' इत्यादिना नियुक्तिकृता दर्शितं भाष्यकारो व्याख्यातुमाहसद्दहणाइसहावं, जह सामॉइयं जिणो परिकहेइ। तल्लक्खणं चिय तयं, परिणमए गोयमाईणं // 2176 // पूर्वमौदयिकादिभावानामुदयोपशमादयो लक्षणमित्येतद्भावलक्षणमुक्तम् / अथवा-त एवौदयिकादयो भावा जीवाऽऽजीवलक्षणकत्वेन भावलक्षणमुक्ताः / इदं च द्विविधमपि भावलक्षणं सामान्यम्, जीवाडजीवलक्षणकत्वेन सर्वत्र भावात् / श्रद्धानादिकं तु विशेषलक्षणम् / सम्यक्त्वादिसामायिकेष्वेव भावात्; तथाहि-जीवादिपदार्थश्रद्धानं सम्यक्त्वसामायिकस्य लक्षणम्; आदिशब्दात्- 'जाणण' त्ति ज्ञानज्ञाजीवादिवस्तुपरिच्छित्तिरित्यर्थः। सा च श्रुतसामायिकस्य लक्षणम् / 'विरइ' त्ति विरमणं-विरतिरशेषसावद्ययोगनिवृत्तिः। सा पुनश्चारित्रसामायिकस्य लक्षणम्। 'मीसंव' मीसा वत्ति। पाठान्तरं च-तत्र मिश्रम् विरताविरतम्, मिश्रा वा विरत्यविरतिर्देशविरतिसामायिकस्य लक्षणम् / ततश्चैतद् यथा श्रद्धानादिस्वभावं श्रद्धानादिचतुर्लक्षणसंयुक्तं सम्यक्त्वादि-सामायिकं जिनः- श्रीमन्महावीरः परिकथयति, तल्लक्षणयुक्त-मेव तद् गौतमादिश्रोतॄणां परिणमतीति / तदेवमभिहितं लक्षणद्वारम्॥२१७६।। विशे०। उत्ता आ०चूला आ०म० स० (लक्षण-वता सूत्रेण भवितव्यमिति 'सुत्त' शब्दे वक्ष्यामि) लक्ष्यते तदन्य-व्यपोहेनावधार्यते वस्त्वनेनेति लक्षणम् / स्था० 3 ठा०३उ०। षो धर्मास्तिकायादिद्रव्याणां गत्यादिके, आव०४ अ०। अनु०। आचा०। दर्शक प्रतिविशिष्टस्वरूपे, आ०चू०१ अ० लक्ष्यते गम्यतेऽनेनेति लक्षणम्। लिङ्गे, विशे०। आचा०। (आर्तध्यानस्य लक्षणम् 'अट्टज्झाण' शब्दे प्रथमभागे 237 पृष्ठउक्तम्।) (रौद्रध्यानस्य लक्षणं 'रुद्दज्झाण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे गतम्।) धर्मध्यानस्य सौत्रलक्षणम्धम्मस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पण्णत्ता, तं जहाआणारुई णिसग्गरुई सुत्तरुई ओगाढराई। (सू०२४७) स्था० 4 ठा०१ उ० (आज्ञारुचिव्याख्या आणारुइ' शब्दे द्वितीयभागे 127 पृष्ठे गता।) (निसर्गरुचिव्याख्या णिसग्गरुइ' शब्दे चतुर्थभागे 2135 पृष्ठे उक्ता।) (सूत्ररुचिव्याख्याम् 'सुत्तरुइ' शब्दे वक्ष्यामि।) (अवगाढरुचिविवरणम् 'ओगाढरुइ' शब्दे तृतीयभागे 76 पृष्ठे उक्तम्।) शुक्लध्यानस्य सौत्रलक्षणम्सुक्कस्सणं झाणस्स चत्तारिलक्खणापण्णत्ता,तं जहा-अव्वहे असम्मोहे विवेगे विउस्सगे। (सू०२४७) स्था०४ठा०१ उ०। (अव्यथार्थः 'अव्वह' शब्दे प्रथमभागे 817 पृष्ठे गतः।) (असम्मो-- हविवरणम् 'असम्मोह' शब्दे प्रथमभागे 825 पृष्ठे उक्तम्) (विवेकव्याख्या 'विवेग' शब्दे वक्ष्यामि।) (कतिविधो व्युत्सर्ग इति विउसग्ग' | शब्दे वक्ष्यामि।) संसारलक्षणम्"माता भूत्वा दुहिता, भगिनी भार्या च भवति संसारे। व्रजतिच सुतः पितृत्वं, भ्रातृत्वं पुनः शत्रुतां चैव // 1 // " इत्येवं संसारस्य चतसृषु गतिषुसर्वावस्थासुसंसरणलक्षणस्यानुप्रेक्षा / स्था०४ ठा०१ उ०। शुक्लध्यानस्य पुनः सौत्रलक्षणम्सुक्कस्सणं झाणस्सचत्तारि लक्खणा पण्णत्ता,तं जहा-खंती मुत्ती अज्जवे महवे / (सू०५०३x) म०२५ श०७उ०। चिह्न, औ०।शुभकर्मचिह्न, नि०चू०१३ उ०ा छत्रचामरादिके, कल्प०१ अधि०१क्षण / यवमत्स्यपद्मशंखचक्रस्वस्तिकश्रीवत्सादिके, सूत्र०२ श्रु०२ अ० व्य०। विपा० ज० नं० स० नि० अनु० औ०। जीवन नि० चू०। सामुद्रिकोक्ते करचरणरेखादिके (कल्प०१ अधि०३ क्षण) स्त्रीपुरुषादीनां शुभाशुभचिह्ने, यथा-"अस्थिष्वर्थाः सुखं मांसे, त्वचि भोगोस्त्रियोऽक्षिषु / गतौ याने स्वरे चाज्ञा, सर्वं सत्त्वे प्रतिष्ठितम् // 1 // " इत्यादि। स्था०८ ठा०३ उ०। उत्त०।"लंछणपमुहं तु लक्खणं भणि" लाञ्छनप्रमुखं तु लक्षणं भणितम्, यथा--"नाभ्यधस्ताद् भवेद्यस्या, लाञ्छनं मशकोऽपि वा / कुङ कुमोदकसंकाशं, सा प्रशस्ता निगद्यते ||1||" इत्यादि / निशीथग्रन्थे पुनरित्थमुक्तं--"माणाइगं लक्खणं, मसाइगं वंजणं, अहवा-जं सरीरेण सह समुप्पन्नं तं लक्खणं, पच्छा उप्पन्नं वंजणमिति'' प्रव०२५७ द्वार। आव०ा नि०पू० दुविहाय लक्खणा खलु, अभंतर-बाहिरा उ देहीणं। बहिया सुर-वण्णाइ, अंता सब्माव सत्ताई // 34|| गाहाबत्तीसा अट्ठ सयं, अट्ठ सहस्सं व बहुतराइंच। देहेसुदेहीणं, लक्खणॉणि सुभकम्मजणिताणि // 35 / / पागयमणुयाणं वत्तीसं अट्ठ सयं, बलदेववासुदेवाणं अट्ठ सहस्सं, चक्कवट्टितित्थंकराणं जं पुडा हत्थपादादिसु लक्खिजंति तेसिं पमाणं भणियं, जे पुण अन्तो स्वभावसत्तादि तेहिं सह बहुतरा भवंति; ते य अण्णजम्मकयसुभणामसरीरअंगावंगकम्मोदयाओ भवंति। लक्खण-वंजणाण इमो विसेसोमाणुम्माणपमाणा-दिलक्खणं वंजणं तु मसगादी। सहजं तु लक्खणं वं-जणं तु पच्छा समुप्पण्णं // 36 // जलदोण-अद्धभार-सहाई समुस्सितो व जो णव तु / माणुम्माणपमाणं, तिविहं खलु लक्खणं एयं // 37 // माणादियं लक्खणं, मसादिकं वंजणं। अहवा-जं सरीरेण सह उप्पण्णं तं लक्खणं, पच्छा समुप्पण्णं वंजणं, माणुम्माणपमाणस्स य इभं वक्खाणं,जलस्स दोणं छड्तो माणजुत्तो पुरिसो, तुलारोवितं अद्धभारं तुले माणो उम्माणजुत्तो पुरिसो भवति। पुंवार-संगुलपमाणई समूहाई णवसमुस्सितो पमाणवं पुरिसो; एवमादिति-विधलक्खणेण आदिस्सति तुमं रायादि भविस्ससि।
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________________ लक्खण 565 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लक्खणवंजण इदाणिं देवाणं भण्णति गृहस्थानां वा लक्षणं न कथनीयमिति 'अण्णउत्थिय' शब्दे प्रथमभागे। मवपव्वतिया लीणा, तु लक्खणा होति देवदेहेसु / 472 पृष्ठे उक्तम्।)"लक्खणे" (203) लक्षणं पुरुषचिह्नादि। आव० भवधारणीएसु भवे, विउविते मन्नुते वत्तो // 3 // १अ० (तच भगवता ऋषभेण बाहुबलि ने उपदिष्टमिति लोकेऽपि देवाणं भवधारणिजसरीरेसु लक्खणा लीणा-अनुपलक्खा, उत्तर- | शास्त्रत्वेन प्रसिद्धम्, तच 'लक्खणवंजणगुणोववेय' शब्देऽनुपदमेव वैकियसरीरे व्यक्ता लक्षणा। दर्शयिष्यते।) लक्ष्यते-ऽनेनेति लक्षणम् / दृष्टान्ते, लाक्षणिके, बृ०३ उ०। (लक्षणयुक्तं वस्त्र धारणीयमिति 'वत्थ' शब्दे वक्ष्यते।) ___ इदाणिं णारक-तिरियाणं भण्णति लक्खणंकिय-त्रि०(लक्षणाङ्कित) प्रशस्तलक्षणोपेते, जी०३ प्रति०। उस्सण्ण-मलक्खणसं-जुया उबोंदी तु होति नरएसुं। लक्खापंडग-पुं०(लक्षणपण्डक) लक्षणेन लक्षिते पण्डके, पं०भा०१ नामोदयसव्वतिया, तिरिएसु य होति तिविहाओ॥३९॥ कल्प उस्सण्णमेकान्तेनैव अलक्षणयुक्ता बोन्दिः सरीरमित्यर्थः तिरिएसु लक्खणपसत्थ-त्रि०(प्रशस्तलक्षण) शुभलक्षणे, भ०११श०११ उ०। लक्खणमिस्सा यतिविधा सरीराभवंति, लक्खणमलक्खणं सव्यासव्वं लक्खणवंजणगुणोववेय-त्रि०(लक्षणव्यनगुणो(प) लक्षणम्णामकम्मुदयाओ। नि०चू०१३ उ०। पुरुषलक्षणं शास्त्राभिहितम् "अस्थिष्वर्थाः, सुखं मांसे" इत्यादि, अधुना लक्षणामुच्यते, तथा चाऽऽह भाष्यकार: मानोन्मानादिकं वा, व्यञ्जनं-मषतिलकादि,गुणाः-सौभाग्यादयः / लक्खणमियाणि दारं, चिंधं हेऊ अकारणं लिङ्ग / अथवा लक्षणव्यञ्जनयोर्ये गुणास्तैरुपेतो लक्षणव्यञ्जनगुणो (प)पेतः। लक्खणमिइ जीवस्स उ, आयाणाई इमंतं च // 11 // प्रशस्तलक्षणोपेते, स्था०६ ठा०। लक्षणमिदानी द्वारमवसरप्राप्तम्, अस्य च प्रतिपत्त्यङ्गत या प्रधानत्वा तत्र लक्षणानि चक्रितीर्थकृताम् अष्टोत्तरसहस्त्रम्, बलदेववासुदेवानाम् सामान्यतस्तावत्तत्स्वरूपमेवाह-चिह्न हेतुश्च, कारणं, लिङ्गं लक्षण- अष्टोत्तरशतम्, अन्येषां तु भाग्यवतां द्वात्रिंशत्तानि चेमानि-"छत्रं 1 मिति / तत्र चिह्नम्-उपलक्षणम्, यथा-पताका देव-कुलस्य, हेतुः तामरसं 2 धनू 3 रथवरा दम्भालि५ कूर्मा-६-ऽङ् कुशा 7, वापी-- निमित्तलक्षणम्, यथा-कुम्भकारनैपुण्यं घटसौन्दर्यस्य, कारणम्- स्वस्तिक- तोरणानि 10 च सरः ११पञ्चाननः 12 पादपः 13 / / चक्रं उपादानलक्षणम्, यथा मृन्मसृणत्वं घटबलीयस्त्वस्य, लिङ्गकार्य 14 शङ्ख 15 गजौ 16 समुद्र 17 कलशौ 18 प्रासाद 16 मत्स्यौ 20 लक्षणम्, यथा-धूमोऽग्नेः। पर्यायशब्दा वा एत इति। लक्षणमित्येतल्ल- यवो २१,यूप-२२ स्तूप-२३ कमण्डलू 24 न्यवनिभृत् 25 सच्चामरो क्षणम्-लक्ष्यतेऽनेन परोक्षं वस्त्विपि कृत्वा, जीवस्य पुनरादानादि 26 दर्पणम् २७॥१॥"उक्षा 28 पताका 26 कमलाभिषेकः 30, लक्षणमनेकप्रकारमिदम्, तच्च वक्ष्यमाणमिति गाथार्थः / सुदाम 31 केकी 32 घनपुण्यभाजाम् / दारं तथाआयाणे परिभोग, जोगुवओगे कसायलेसा य। "इह भवति सप्तरक्तः, षडुन्नतः पञ्चसूक्ष्मदीर्घश्च / आणापाण इंदिय, बंधोदयनिज्जरा चेव॥२२॥ त्रिविपुललघुगम्भीरो, द्वात्रिंशल्लक्षणः स पुमान्॥१॥" चित्तं चेयण सन्ना, विन्नाणं धारणा य बुद्धी अ। तत्र सप्त रक्तानि-"नख-१ चरण-रहस्त-३ जिहा४, ओष्ठ५ तालु६ ईहामईवियक्का, जीवस्स उलक्खणा एए॥२२॥ नेत्रान्ताः 7 / षडुन्नतानि-कक्षा 1 हृदयं 2 ग्रीवा 3, नासा 4 नखा 5 एतत्प्रतिद्वारगाथाद्वयम्, अस्यव्याख्या-आदानं परिभोगस्तथा योगो- मुखं च 6 / पञ्च सूक्ष्माणि-दन्ताः 1 त्वक् 2 केशा ३अङ्गुलिपर्वाणि 4 पयोगौ कषायलेश्याश्च तथा-आनापानौ इन्द्रियाणि बन्धोदयनिर्ज- नखाश्च 5 / तथा–पञ्चदीर्घाणि नयने 1 हृदयम् 2 नासिका 3 भुजी च ४राश्चैव, तथा चित्तम्, चेतना, संज्ञा, विज्ञानं, धारणा च बुद्धिश्च, तथा 5 / त्रीणि विस्तीर्णानिभालम् 1 उरः 2 वदनं च 3 / त्रीणि लघूनि-ग्रीवा ईहामतिवितर्का जीवस्य तु लक्षणान्येतानि / तुशब्दस्यावधार- १जना२ मेहनं च 3 / त्रीणि गम्भीराणि-सत्त्वम् १स्वरः 2 नाभिश्च 3 / णार्थत्वाजीव स्यैव नाजीवस्य इति प्रतिद्वारगाथाद्वयसमासार्थः। "मुखमधु शरीरस्य, सर्वं वा मुखमुच्यते। व्यासार्थस्तुभाष्यादवसेयः, तच्चेदं भाष्यम् ततोऽपि नासिका श्रेष्ठा, नासिकायाश्च लोचने // 1 // लक्खिज्जइ त्ति नाइ, पञ्चक्खियरो व जेण जो अत्थो। यथा नेत्रे तथा शीलं, यथा नासा तथार्जवम्। तं तस्स लक्खणं खलु, धूमुण्हाइ व्व अग्गिस्स॥१२॥ यथा रूपं तथा वित्तं, यथा शीलं तथा गुणाः॥२॥ लक्ष्यत इति ज्ञायते, कोऽसावित्याह-प्रत्यक्षः-अक्षिगोचरापन्नः, इतरो अतिह्रस्वेऽतिदीर्धेऽति-स्थूले चातिकृशे तथा। वा-परोक्षः येन-उष्णत्वादिना योऽर्थः- अग्रयादिस्तत्तस्य लक्षणम् / अतिकृष्णेऽतिगौरे च, षट्सु सत्वं निगद्यते॥३॥ खल्विति, तदेव स्पष्टयति धूमौष्ण्यादिवदग्नेरिति, स हि औष्ण्येन सद्धर्मः सुभगो नीरुक्, सुस्वप्नः सुनयः कविः। प्रत्यक्षो लक्ष्यते, परोक्षोधूमेनेति गाथार्थः / दश०४ अ०। अन्ययूथिकानां सूचयत्यात्मनः श्रीमान्, नरः स्वर्गगमागमौ // 4 //
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________________ लक्खणवंजण० 596- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लक्खवाणिज्ज निर्दम्भः सदयो दानी, दान्तो दक्षः सदा ऋजुः। काहोरात्रशतत्रयमान इति (360) 'आइचे' ति आदित्यसंवत्सरः, स मर्त्ययोनेः समुद्भूतो भविता च पुनस्तथा // 5 // चत्रिंशदिनान्यर्द्ध चेति, एवंविधमासद्वादशकनिष्पन्नः षट्षष्ट्यधिकाहोमायालोभक्षुधाऽऽलस्य-बहाहारादिचेष्टितैः / रात्रशतत्रयमान इति। (366) अयमेवानन्तरोक्तो नक्षत्रादिसंवत्सरो लक्षणप्रधानतया लक्षणसंवत्सर इति। तत्र नक्षत्रमाह- 'समगं' गाहा, तिर्यग्योनेःसमुत्पत्तिं, ख्यापयत्यात्मनः पुमान् / / 6 / / समकंसमतया नक्षत्राणि-कृत्तिकादीनि, योग-कार्तिकीपौर्णमास्यासरागः स्वजनद्वेषी, दुर्भगो, मूर्खसङ्गकृत्। दितिथ्या सह सम्बन्धं योजयन्ति-कुर्वन्ति, इदमुक्तं भवति-यानि शास्ति स्वस्य गतायातं, नरो नरकवर्त्मनि / / 7 / / नक्षत्राणि-यासु तिथिषूत्सर्गतो भवन्ति, यथा कार्तिक्यां कृत्तिका, तानि आवतॊ दक्षिणे भागे, दक्षिणः शुभकृन्नृणाम्। तास्वेव यत्र भवन्ति यथोक्तम्- "जेट्ठो वच्चइ मूलेण सावणो तह वामो वामेति निन्द्यः स्याद्दिगन्यत्वे तु मध्यमः।।८।। धणिट्ठाहिं। अद्दासु य मग्गसिरो, सेसा नक्खत्तनामिया मासा ||1 // " अरेखं बहुरेखं वा, येषां पाणितलं नृणाम्। इति तथा यत्र समतयैव ऋतवः परिणमन्ति, न विषमतया, कार्तिक्या ते स्युरल्पायुषो निःस्वा, दुःखिता नात्र संशयः / / 6 / / अनन्तरं हेमन्तर्तुः, पौष्या अनन्तरं शिशिर रित्येवमवतरन्तीति भावः, अनामिकान्त्यरेखायाः, कनिष्ठा स्याद्यदाऽधिका। यश्च न-नैव, अतीव उष्ण-घर्भो यत्र सोऽत्युष्णः, न-नैवातिशीतःधनवृद्धिस्तदा पुंसां, मातृपक्षे बहुस्तथा।।१०।। अतिहिमः, बहूदकं यत्र स बहूदकः, स च भवति लक्षणतो नक्षत्र इति, (कल्प०) (जीवितरेखाया विचारः 'जीवियरेहा' शब्दे चतुर्थभागे नक्षत्रचारलक्षणलक्षितत्वान्नक्षत्रसंवत्सर इति, (स्था०)(नक्षत्रसंवत्सर 1565 पृष्ठेगतः।) व्याख्या 'णक्खत्तसंवच्छर'शब्दे चतुर्थभागे 1762 पृष्ठे गता।) (चन्द्रसंवत्सरव्याख्या 'चंदसंवच्छर' शब्देतृतीयभागे 1065 पृष्ठगता।) यवैरङ्गुष्ठमध्यस्थैर्विद्याख्यातिविभूतयः। (ऋतुसंवत्सरव्याख्या 'उउसंवच्छर' शब्दे द्वितीयभागे 686 पृष्ठे गता।) शुक्लपक्षे तथा जन्म, दक्षिणाङ्गुष्ठगैश्च तैः॥१४|| (आदित्य-संवत्सरव्याख्या 'आइचसंवच्छर' शब्दे द्वितीयभागे 4 पृष्ठे न स्त्री त्यजति रक्ताक्षं, नार्थः कनकपिङ्गलम्। प्रति-पादिता।) 'आइच' गाहा-आदित्यतेजसा तप्ताः पृथिव्यादितादीर्घबाहुनचैश्वर्यं न मांसोपचितं सुखम् / / 15 / / पेऽप्युपचारात् क्षणादयस्तप्ता इति मन्तव्यम्। तत्र क्षणो-मुहूर्तः लवःचक्षुःस्नेहेन सौभाग्यं, दन्तस्नेहेन भोजनम्। एकोनपञ्चाशदुच्छासप्रमाणो दिवसः-अहोरात्र ऋतुः-मासद्वयप्रमाणः वपुः स्नेहेन सौख्यं स्यात्, पादस्नेहेन वाहनम्॥१६|| 'परिणमन्ति' अतिक्रामन्ति यत्रेति गम्यते, यश्च पूरयति वायूत्खातरेणुभिः उरोविशालो धनधान्यभोगी, स्थलानि-भूमिप्रदेशविशेषान् तमाहुराचार्या लक्षणतः संवत्सरमभिशिरोविशालो नृपपुङ्गवश्च। वर्द्धितम् 'जाण' त्ति त्वमपि शिष्य ! तं तथैव जानीहाति / स्था०५ कटीविशालो बहुपुत्रदारो, ठा०३ उ०। विशालपादः सततं सुखी स्यात्।।१७।।" लक्खणा-स्त्री०(लक्षणा) चन्द्रप्रभस्वामिनो मातरि, प्रव०। 11 द्वार। आव०॥ तिला सा द्वारवत्यां कृष्णस्य वासुदेवस्यागमहिष्याम्, स्था० इमानि लक्षणानि / व्यञ्जनानि च-मषतिलकादीनि तेषां ये गुणा 8 ठा०। (सा चाऽरिष्टनेमिपावें दीक्षां गृहीत्वा सिद्धेत्यन्तकृद्दशानां स्तैरु(प)पेतम्। कल्प०१ अधि०१क्षण। पञ्चमवर्गे चतुर्थाध्ययने सूचितम् / ) अन्ता लक्षणाऽप्यवोचत्लक्खणसंवच्छर-पुं०(लक्षणसंवत्सर) प्रमाणसंवत्सर एव लक्षणानां "स्नानादिसर्वाङ्गपरिष्क्रियायां, विचक्षणः प्रीतिरसाभिरामः। विश्रामवक्ष्यमाणस्वरूपाणां प्रधानतया लक्षणसंवत्सरः / स्था०५ ठा०३ पात्रं विधुरे सहायः, कोऽन्यो भवेन्नूनमृते प्रियायाः // 1 // " कल्प०१ उ०प्रमाणसंवत्सरलक्षणेन यथावस्थितेनोपेते संवत्सरभेदे, चं०प्र० अधि०५ क्षण / अस्याः अवसर्पिण्याः अतीतायां चतुरशीतितमायां १०पाहुन चतुर्विंशतितीर्थकरकाले जम्बूदाडिमराजपुत्र्याम्, महा०६ अ०) लक्खणसंवच्छ रे पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा-"समगं (एतद्वक्तव्यता महानिशीथस्य षष्ठेऽध्ययने प्रतिपादिता ततएवावसेया।) नक्खत्ताणि जोगं, जोयंति समग उदू परिणमंति / णचुण्हं औषधविशेषे, ती०६ कल्प णातिसीतो, बहूदतो होति नक्खत्ते / / 1 / / (स्था०) लक्खणावती-स्त्री०(लक्षणावती) लखनऊ' इति ख्याते नगर-विशेष, आदिचतेयतविता,खणलवदिवसा उऊ परिणमंति। यदधिपतिः हम्मीर-सुरत्राणसमदीनः विक्रमादित्यवर्षेषुषष्ट्याधिकत्रयोपूरिति रेणुथलताई, तमाहु अभिववितं जाण / / 5 / / " दशशतेष्वतिक्रान्तेषु चम्पायामेकांप्रतोली भञ्जितवान्। ती०३४ कल्प। (सू०५६०x) लक्खणुण्णय-त्रि०(लक्षणोन्नत) महालक्षणे, प्रशस्तलक्षणेचाता औ०। तत्र 'नक्षत्र' इति नक्षत्रसंवत्सरः, स च उक्तलक्षणः, केवलं तत्र नक्षत्र- | लक्खपाग-पुं०(लक्षपाक) लक्ष्यरूप्यकव्ययनिष्पन्ने तैलघृतादौ, मण्डलस्य चन्द्रभोगमा विवक्षितमिह तु दिनदिनभागादिप्रमाणमिति। / स्था०६ ठाम तथा चन्द्राभिवर्द्धितावप्युक्तलक्षणावेव; किन्तु-तत्र युगावयवतामात्रमिह लक्ख(क्खा)वाणिज्ज-न०(लाक्षावाणिज्य) लाक्षा--जतुः, अत्रापि तुप्रमाणमिति विशेषः, 'उऊ' इति ऋतु-संवत्सरः, त्रिंशदहोरात्रप्रमाणे- | लाक्षाग हणमन्येषां सावद्यानां मनः शिलादीनामुपलक्षणम्, दिशभिः ऋतुमासैः श्रावणमास-कर्ममासपर्यायैर्निष्पन्नः, षष्ट्यधि- | तदाश्रिता वाणिज्या लाक्षावाणिज्यम् / लाक्षा धातकीनीली
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________________ लक्खवाणिज ५६७-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लज्जा मनःशिलावज्रले पतुवरिकापट्टवासटङ्कणसावृक्षारादिविक्र ये, लच्छी-स्त्री०(लक्ष्मी) "छोऽक्ष्यादौ" ||12 / 17 / / इति छकारादेशः। "लाक्षामनःशिलानीलीधातकी टङ्काणादिना / विक्रयः पापसदने, प्रा०ा जम्बूमन्दरस्योत्तरे पौण्डरीकहदे स्वनामख्यातायां भवनपतिलाक्षावाणिज्यमुच्ते, // 1 // " ध०२ अधिo प्रव०। पंचा० / ध०र०। निकायाभ्यन्तरभूतायां देव्याम्, स्था० ३ठा०४ उ०। ज्ञा०ा हस्तिनाआव० भ० श्रा० उपा०। पुरनगरे पद्मोत्तरस्य राज्ञो भार्यायां ज्वालायाः सपत्न्याम, ती० 20 लक्खा -स्त्री०(लाक्षा) जतौ, भ०८ श०६ उ०| कल्प / श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्रपुत्रमज्जवनृपतेर्भार्यायाम्, ती०३४ कल्प। लक्खारस-पुं०(लाक्षारस) यावके, अन्त० १श्रु०३ वर्ग 8 अ०/ सौधर्मकल्पेलक्ष्मीविमानदेव्याम, नि०१श्रु०३ वर्ग 4 अ०॥ (साच पूर्वभवे लक्खारुणित-त्रि०(लाक्षारुणित) लाक्षारजिते, "लक्खा-रुणिअ पाान्तिके प्रव्रज्य सौधर्मे कल्पे उपपद्य महाविदेहे सेत्स्यतीति पल्लविअं" पाइ० ना०२६८ गाथा। निरयावलिकानां चतुर्थवर्गस्य षष्ठेऽध्ययने सूचितम् / ) चतुर्थेस्वप्ने, लक्खी -स्त्री०(लक्ष्मी) हिमवतः उपरि पौण्डरीकहदाधीश्वरभवन- | कल्प० श्रियाम्, "कमला सिरी य लच्छो' पाइ० ना०६६ गाथा। पतिनिकायाभ्यन्तरभूतायां स्वनामख्यातायां देव्याम्, स्था०२ ठा०३ / लच्छीकूड-पुं०(लक्ष्मीकूट) शिखरिवर्षधरपवते षष्ठे कूटे, जं०४ वक्षा उ० आ०क। स्था लगंड-न०(लगण्ड) वक्रकाष्ठे, सूत्र०२ श्रु०२अ० लच्छीपुर-पुं०(लक्ष्मीपुर) स्वनामख्याते भारतवर्षीयपुरे, "पुरे लक्ष्मीपुरे लगंडसाई-पुं०(लगण्डशायिन्) लगण्ड किल दुःसंस्थितं तद्व नाम्ना, दत्तस्य श्रेष्ठिनः प्रिया / आराधयदभक्तार्थः, पुत्रार्थ नागदेवतम् न्मस्तकपार्णिकानां भुवि लगनेन पृष्ठस्य चालगनेनेत्यर्थः, यः शेते // 1 // " आ०क०४० तथाऽभिग्रहात्स लगण्डशायी। लगण्डं वक्रकाष्ठं तद्वत् शेरते लगण्ड- लच्छीविजय-पुं०(लक्ष्मीविजय) दण्ढको त्पत्तिनामग्रन्थस्य कर्तरि शायिनः / सूत्र० २श्रु० 2 अ०। मस्तकपाष्णिकाभिरेव पृष्ठप्रदेशेनै- | स्वनामख्याते आचार्य, जै००। वास्पृष्टभूभागे अभिग्रहिके साधौ, ध०३ अधि०। प्रव०॥ पञ्चा० स्था०। | लज्जण-न०(लजन) लज्जायाम, बृ०१ उ०१प्रकला लगंडसायिया-स्त्री०(लगण्डशायिका) लगण्डं किल दुःसस्थितं काष्ठं | लज्जणिज-त्रि०(लज्जनीय) लज्जते यस्मादसौ लज्जनीयः / लज्जा-हेतौ, तद्वत् कुब्जतया मस्तकपाष्णिकानां विलगनेन पृष्ठस्य चालगनेन या | ज्ञा०१ श्रु०८ अ० शेते सालगण्डशायिका। भूम्यलग्नपृष्ठायां साध्व्याम्, बृ०५ उ०। लज्जामाण-त्रि०(लज्जामान) लज्जां कुर्वाणे, 'लज्जमाणा पुढो पास, लगिय-त्रि०(लगित) संघटिते, आव०४ अ01 नियोजिते, ज्ञा०१ अणगारा मो' ति। लज्जमानाः स्वकीयं प्रव्रज्याभासं कुर्वाणाः, यदिवाश्रु०८० सावद्यानुष्ठानेन लज्जमानाः लज्जां कुर्वाणाः पृथग्विभक्ताः शाक्योलूकलग्ग-धा०(लग) सङ्गे,"शकादीनां द्वित्वम्" 1841230|| इति अन्त्य- कणभुक्कपिलादिशिष्याः। आचा०१ श्रु०१ अ०३उ०। गकारस्य द्वित्वम्। लग्गइ। लगति। प्राप्नोति। प्रा०। बृ०१उ०२ प्रक०। लज्जसंजम-पुं०(लज्जासंयम) लज्जा प्रतीता संयमःपञ्चाश्रवादिविस्म* लग्न-न० / "अधोम-न-याम," ||2178|| इति लग्नशब्दघ- णात्मक एताभ्यां समीभावमुपगताभ्यामन्य इति स एव लज्जासंयमः। टकनकारस्य लोपे। लग्यो। भावेक्तः प्रत्ययः। विलगने, प्रा०। मेषादिरा- संयते, उत्त०२ अन शीनामुदये, पुं०।द०प०। सूत्र०ा चिह्न, देवना०७वर्ग 17 गाथा। सम्बद्धे, लज्जासंजय-पुं०(लञ्जासंयत) लज्जायां सम्यक् यतते यत्नं कुरुते इति त्रिज्ञा०१श्रु०८ अ०1"घडिअंलग्गं संसत्ते" पाइ०ना०२०१ गाथा! लज्जासंयतः। लज्जया सम्-सम्यग् यतते-कृत्यं प्रत्यादृतो भवतीति लग्गणअ-पुं०(लग्नक) प्रतिभुवि, "लग्गणओ पडिहुओ' पाइ० ना० लज्जासंयतः, पचादिदर्शनादच् / लज्जावति साधौ, उत्त०२ अ०। 212 गाथा। लज्जा-स्त्री०(लज्जा) व्रीडायाम्, ग०१ अधि०। अनुचितानुष्ठानलधिमा-पुं०(लघिमन्) तूलपिण्डवल्लघुत्वप्राप्तौ, द्वा० 26 द्वा०। सूत्र०) संवरणात्मिकायां हियाम्, उत्त०५ अ० स्था०। मनोवाक्कायसंयमे, रा०। लचय-(देशी) गडुत्संज्ञे तृणे, देवना०७ वर्ग 17 गाथा। लज्जा-संयमः दश०६ अ०२ उ०॥ अपवादभये, दश० अ०१3० लज्जा लच्छिघर-न०(लक्ष्मीगृह) मिथिलायां नग· स्वनामख्याते चैत्ये, द्विविधालौकिकी; लोकोत्तरा च। तत्र लौकिकीरनुषासुभटादेः श्वशुरस्था०७ ठा०। उत्त०ा आ०म०ा आ०का आ०चून संग्रामविषया। लोकोत्तरा-सप्तदशप्रकारः संयमः। तदुक्तम्- "लज्जा लच्छिमइ-स्त्री०(लक्ष्मीमति) जम्बूद्वीपे भरतक्षेत्रे षष्ठवासुदेवस्य पुरुष- दया संजमो बंभचेरं" इत्यादि। लज्जमा-नाः-संयमानुष्ठानपराः। यदि पुण्डरीकस्य मातरि, आव०१ अ०ति सवा दक्षिणरुचकवास्तत्र्यायां वा-पृथिवीकायसमारम्भरूपादसंयमानुष्ठानाल्लज्जमानाः पृथगिति दिक्कुमारीमहत्तरिकायाम् , आ०म०१ अ० द्वी0 आ०क०। ति०| प्रत्यक्षज्ञानिनः परोक्षज्ञानिनश्च अतस्तान् लज्जमानान् पश्येत्यनेन आ०चू०। जं० स्था०। जम्बूद्वीपे भरतक्षेत्रे वर्तमानावसर्पिण्यां शिष्यस्य कुशलानुष्ठानप्रवृत्ति-विषयः प्रदर्शितो भवतीति / आचा०१ महाशिवस्य भार्यायाम, सण श्रु०१ अ०२०
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________________ लज्जाणास 565- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लट्टि लजाणास-पुं०(लज्जानाश) गुर्वादिसमक्षमपि तद्गुणोत्कीर्तने, दश०६अ। योषितो हि सङ्गे पुरुषस्य लज्जानाशो भवतिगोविन्द-द्विजपुत्रवत्।। लज्जातवस्सीजिइंदिय-पुं०(लज्जातपस्विजितेन्द्रिय) लज्जाप्रधानास्तपस्विनः शिष्या जितेन्द्रियाश्च ये ते लजातपस्विजितेन्द्रियाः / व्युत्पत्तिलब्धार्थकषु साधुषु, औ०। लज्जातप:श्रीजितेन्द्रिय-पुं० लज्जया तपःश्रिया च जितानीन्द्रियाणि यैस्ते लज्जातपः श्रीजितेन्द्रियाः। व्युत्पत्तिलब्धार्थकेषु साधुषु, औ०। लज्जादाण-न०(लज्जादान) लज्जया-हिया दानं यत्तल्लज्जादानमुच्यते। "अभ्यर्थितः परेण तु, यद्दानं जनसमूहमध्यगतः / परचित्तरक्षणार्थ, लज्जायास्तद् भवेद्दानम् "||1|| इत्युक्तलक्षणे दानभेदे; स्था० 10 ठा०३ उ०। लज्जालाघवसंपण्ण-त्रि०(लज्जालाधवसम्पन्न) तत्र लज्जा प्रसिद्धा संयमो वा लाघवं द्रव्यतोऽल्पोपधित्वं,भावतो गौरवत्यागस्ताभ्यां संपन्नः / लज्जालाघवयुते, भ०२ श०५ उ०। * लज्जालु-त्रि०(लज्जालु) अकार्यप्रवर्तनं प्रति लज्जते सशङ्को भवतीति लज्जालुः / दर्श०२ तत्त्व। अकार्यवर्जक, ध०२ अधिol लज्जावत्-त्रि० / आल्विल्लोल्लाल-वन्त-मन्तेत्तेर-मणा मतोः" // 8 / 2 / 156 // इति मतोः आल्वादेशः। लजालुः। व्रीडके, सखल्वाकृत्या सेवनवार्तया व्रीडति स्वयमङ्गीकृतमनुष्ठितं च परित्यक्तु न शक्नोति इति आलोचकेन लज्जावता न भवितव्यम्। प्रव०२३६ द्वार। लज्जालुइणी-स्वी०(लज्जावती) "गोणादयः" ||52 / 174 / / इति निपातः / लज्जावती। लज्जालुइणी / लज्जाविशिष्टायाम्, प्रा०२ पाद / लज्जावण-त्रि०(लजापन) लज्जामापयन्ति प्रापयन्तीति / लज्जाजनकेषु, प्रश्न०१ आश्र0 द्वार। लज्जाविय-त्रि०(लज्जापित) प्राप्तलज्जे, प्रश्र०३ आश्र० द्वार। लज्जासंपण्ण-त्रि०(लज्जासम्पन्न) लज्जया अपवादभीरुतया संयमेन वा सम्पन्ने, औ लज्जिय(अ)-त्रि०(लज्जित) लज्जायुक्ते, ज्ञा०१ श्रु०८ अ० "हित्थं विलियं लज्जियं" पाइ० ना० 167 गाथा। लजिर-त्रि०(लजिन्) "शीलाद्यर्थस्येरः" |2|145 // इति प्रत्ययस्य इरादेशः / लज्जिरो। लज्जाशीले, प्रा०] लजु-स्त्री०(रज्जु) रश्मौ, रज्जुरिव रज्जुः / सरलत्वात् / प्रश्न०५ संव० द्वार / अवक्रव्यवहारे, भ०२ श०१ उ० लट्ट()-त्रि०(लष्ट) मनोज्ञे, ज्ञा०१ श्रु०१अशोभने, प्रश्न० 4 आश्र० द्वार / मनोहरे, रा० / जं० औ० भ० जी०। ज्ञा०ा तं०। समीचीने, व्य०३ उ०।सुन्दरे, पाइना०ा अन्यासक्ते, मनोहरे, प्रियंवदेचा दे०ना० ७वर्ग 26 गाथा। लट्ट(ह)तर-त्रि०(लष्टतर) शोभनतरे, पं०व०४द्वार। अतिकल्याणे, तं० | लट्ट(ह)दन्त-पुं०(लष्टदन्त) मेघमुखस्यान्तीपस्य नैर्ऋत्यको णे नव योजनशतानि व्यतिक्रम्य लवणसमुद्रे अन्तीपविशेष, प्रज्ञा०१ पद। स्थान पं०व० नं०। राजगृहे श्रेणिकस्य राज्ञो धारिण्यां जाते कमारे, अणुन "विजये दोण्णि" (विजये विमाने उपपद्येत्यादि सर्वम् 'महासीहसेण' शब्दे पञ्चमभागे 222 पृष्ठे गतम्) लहबाहू-पुं०(लष्टबाहू) चम्बूद्वीपे भरतक्षेत्रे दशमतीर्थकरपूर्वभवजीवे, स० लट्ठय-(देशी) कुसुम्भे, देवना०७ वर्ग 17 गाथा। लट्ठसंद्विय-त्रि०(लष्टसंस्थित) मनोज्ञसंस्थाने, जी०३ प्रति० 4 अधिका लहसाग-न०(लष्टशाक) कौसुम्भशालनके,बृ०१ उ०२ प्रक०। लट्ठा-स्त्री०(लष्टा) कुसुम्भे, स्था०७ ठा०३ उ०। लट्ठि-स्त्री०(यष्टि) "यष्ट्यां लः" / / 8 / 1 / 247 / / इति यस्य लः। प्रा०। "ष्टस्यानुष्ट्रेष्टासंदष्ट" ||8||34|| इति ष्टस्य ठः। काष्ठयष्टिकायाम्, औ० सूत्र। यष्टिप्रमाणम्दुट्टपसुसाणसावय-विजलविसमेसु उदगमाईसु। लट्ठी सरीररक्खा, तव संजमसाहिआ भणिआ॥१॥ मोक्खट्ठा नाणाई, तणू तयट्ठा तयडिआ लट्ठी। दिट्ठा जहोवयारे, कारणतक्कारणेसुतहा // 2 // " ध०३ अधिo गाहामंडक-विडंडए य, लट्ठि-विलट्ठीय तिविधतिविधा तु। वेणुमयवेत्तदारुग, बहू अप्प अहाकडा चेव // 202 / / एगेण तिविहसद्देण वेणुवयादी, वितियेण तिविहसद्देण बहुपरिकम्मादी। गाहातिण्णि तु हत्थे दंडो, दोणि उ हत्थे विदंडओ होति। लट्ठी आतपमाणा, विलहिचउरंगुलेणूणं / / 203 / / कंठा॥ अद्धंगुलेण ऊणं,ण छिज्जंता हॉति सपरिकम्माओ। अद्धंगुलेण ऊणं, छिज्जंता अप्पपरिकम्मं // 20 // पूर्ववत्। गाहाजे पुथ्ववट्टिता वा, जमिता संठविव तत्थिता वाऽवि। होति तु पमाणजुत्ता, ते णायव्वा अहाकडका / 20 / / पूर्ववत्। गाहा-किं पुण लट्ठीए, पओयणं इम-- दुपदचउप्पदणिवा-रणवायरक्खणाहेउं। अद्धाण-भरणभय-वु-स्स वऽवटुंभणा कप्पे // 206|| दुपया-मणुस्सादि, चउप्पदा-गाविमादि बहुप्पाता डंडग गिम्हिमादि अद्धाणे पलंबमादि वुज्झति, मतो वा वुज्झति, बोहिगादिभए वा पहरणं भवति। वुड्डस्स वा अबटुंभणहेऊ लट्ठी कप्पति घेत्तुं / नि० चू० १उ०।
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________________ लडण 566 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लद्धि लडण-न०(लडन) स्त्रीपुंसयोरन्योन्यं प्रेमकलहे. बृ०१ उ० 3 प्रक०। प्रतिका लब्धिनलाभभोगो-पभोगवीर्यभेदात् पञ्चधा / सूत्र०१ श्रु० धा पं०भा० नि०चू०। आधाo 12 अ०। योग्यतायाम्, अनु०। पा०। ध०२०। "आहारे उवओगे, लद्धीए लडह-त्रि०(लडभ) सलावण्ये, औ०। जं०। मनोज्ञे, प्रश्न० 4 आश्र० वा हविजऽवत्थाणं' (716) आधारोपयोगलब्धिविषयमवधेरवद्वार / ललिते, ज०२ वक्ष०। "लडह मडह जाणुए।'' उपा०२ अ०। स्थानम् / अवधिज्ञानस्यावस्थाने, विशे०। (अभ्यन्तरलब्धिलक्षणम् रम्ये, विदग्धे, इत्यन्ये। देखना०७ वर्ग 17 गाथा। 'ओहि' शब्दे 3 भागे 145 पृष्ठे गतम्।) गुणप्रत्ययो हि सामर्थ्यविशेषो लडहक्खमिअ-(देशी) विघटिते, दे०ना०७ वर्ग 20 गाथा। लब्धिरिति प्रसिद्धिः / आ०म० 10 // लढ-धा०(स्मृ) आध्याने, "स्मरेझर-झूर-भर-भल-लढवि-म्हर-- अथ लब्धिऋद्धीर्वर्णयितुमाहसुमर-पयर-पम्हुहाः" ||1/474|| इति स्मरे लढादेशः। लढइ / आमोसहि विप्पोसहि,खेलोसहि जल्लओसही' चेव। स्मरति / प्रा० 4 पाद। सवेसहि संमिन्ने", "ओहि रिउ विउलमइलद्धी॥१५०६|| लढिय-त्रि०(स्मृत) चिन्तिते, "भरिअंलढिअं सुमरिअं" पाइ० ना० चारण आसीविस" के-वलियरगणहारिणो या पुव्वधरा"। 164 गाथा। अरहंत चक्कवट्टी, बलदेवा" वासुदेवाय // 1507|| लण्ह-त्रि०(श्लक्ष्ण) क-ग-ट-ड-त-द-प-श-ष-स-~-क-४ लब्धिशब्दस्य प्रत्येकमभिसम्बन्धात् आमीषधिलब्धिः, विपुडौषपामूज़ लुक" ||8/277 / / इति श्लक्ष्णशब्दस्य शकारस्य लोपः। घिलब्धिः, खेलौषधिलब्धिः, जल्लौषधिलब्धिः, सवौषधिलब्धिः, संभिन्नेति-सूचकत्वात्सूत्रस्य संभिन्नश्रोतोलब्धिः, अवधिलब्धिः, लण्हं / प्रा०ा घुण्टितभढवत्मसृणे, रा०जी०। प्रज्ञा०ा आ०म० औ०। ऋजुमतिलब्धिः, विपुलमतिलब्धिः, चारणलब्धिः, आशीविषलब्धिः, 이 이 이 केवलिलब्धिः, गणधरलब्धिः, पूर्वधरलब्धिः, अर्हल्लब्धिः, चक्रवर्त्तिलत्तिया-स्त्री०(लत्तिका) काशिकायाम, आचा०२ श्रु०२ चू०४ अ०| लब्धिः, बलदेवलब्धिः, वासुदेवलब्धिः। पाणिप्रहारे, स्था०२ ठा०३ उ०। आतोद्यभेदे, आ०चू० १अ०। (१)-आमीषधिलब्धिव्याख्या 'आमोसहि' शब्दे द्वितीय-भागे 262 लत्तियासह-पुं०(लत्तिकाशब्द) पाणिप्रहारशब्दे, स्था०२ ठा०३ उ०। पृष्ठेगता।)(२)-(विप्रौषधिलब्धिं विप्पोसहि शब्देव्याख्यास्यामि।) लद्ध-त्रि०(लब्ध) प्राप्ते, उत्त०२ अ०। आचा०। ज्ञा०। सूत्र० / दश०। (३)-(खेलौषधिलब्धिः 'खेलोसहि' शब्दे तृतीयभागे 772 पृष्ठे द्रव्या०। संथा०। प्रश्न०। भवान्तरोपार्जिते, ज्ञा०२ श्रु०२ वर्ग 1 अ०। विस्तरतो व्याख्याता।) (४)-(जलौषधि-लब्धिः 'जल्लोसहि' शब्द स्था०। आतु०॥ विपा०ा नि०। अवाप्ते, औ०। चतुर्थभागे 1426 पृष्ठे प्रतिपादिता)(५)-सर्वोषधिलब्धिं 'सव्वोसहि' लह-त्रि०(लब्धार्थ) लब्धोऽर्थो गुर्वादिभिः सकाशादिति गम्यते येन स शब्दे व्याख्यास्यामि।) (६)-(संभिन्नश्रोतोलब्धिं 'संभिन्नसोय' शब्दे लब्धार्थः / दर्श०३ तत्त्व / श्रवणतो गृहीतार्थे, उपा०७ अ०। सूत्र व्याख्यास्यामि।) (७)-(अवधिलब्धिः ओहि' शब्देतृतीयभागे 137 अर्थश्रवणात् (भ०२ श०५ उ०। रा०) स्वतः (भ०११ श०११ उ०) पृष्ठे विस्तरतः प्रतिपादिता।) (८)-(ऋजुमतिलब्धिः 'उज्जुमई शब्दे ज्ञाततत्त्वे, सूत्र०२ श्रु०७ अ०। "बहुपुक्खला लट्ठा" लब्धः-प्राप्तः द्वितीयभागे 736 पृष्ठे गता।) (8)-(विपुलमतित्वलधिं 'विउलमई' पुण्डरिकिणीशब्दान्वर्थतया अर्थो यया सा लब्धार्था / स्वबुद्ध्याऽ- शब्दे दर्शयिष्यामि।) (अत्र बहुविशेषः 'मणपज्जव–णाण' शब्दे पञ्चमभागे वगतार्थायाम, कल्प०१अधि० ४क्षण। 87 पृष्ठे द्रष्टव्यः।) (१०)-(चारणलब्धयो बहुविधा इति 'चारण' शब्दे *लब्धास्थ- त्रिआस्थानमास्था-प्रतिष्ठा सालब्धायेन सलब्धार्थः / तृतीयभागे 1173 पृष्ठे उक्तम्।) (११)(आसीविषलब्धिः आसीविस' शब्दे द्वितीयभागे 487 पृष्ठे विस्तरतो व्याख्याता / ) (१२)आस्थायुक्ते, सूत्र०२ श्रु०१ अ० (केवलित्वलब्धिः प्रसिद्धा, सा च 'केवलणाण' शब्दे तृतीयभागे 642 लद्धाणुमाण-त्रि०(लब्धानुमान) लब्धमनुमानं पराभिप्रायपरिज्ञानं येन पृष्ठे विस्तरतो दर्शिता।) (१३)-(गणधरत्वलब्धिः 'गणहर' शब्दे सलब्धानुमानः। पराभिप्रायज्ञे, सूत्र०१ श्रु०१३ अ० तृतीयभागे 815 पृष्ठे उक्ता)(१४)-(पूर्वधरत्वलब्धिः 'पुव्वहर' शब्दे लद्धावलद्धवित्ति-त्रि०(लब्धापलब्धवृत्ति) सन्मानादिना लब्धैः पञ्चमभागे 1064 पृष्ठे गता।) (१५)-(अर्हल्लब्धिः 'अरह' शब्दे न्यक्कारपूर्वकतया चोपलब्धैः भक्तादिभिर्निर्वाह, स्था०६ ठा० 'अरहंत' शब्दे च प्रथमभागे 755 पृष्ठे उक्ता / ) (16) लद्धि-स्त्री०(लब्धि) आत्मनो ज्ञानादिगुणानां तत्तत्कम्मक्षयादितो लाभे, (चक्रवर्तिलब्धिलक्षणं 'बल' शब्दे पञ्चमभागे 1287 पृष्ठे गतम्।) (१७)भ०५ श०२ उ०। गुणप्रत्यये सामर्थ्य विशेषे, आ०म०१अ०॥ अष्टाविंशति- (बलदेवत्वलब्धिः 'बलदेव' शब्दे पञ्चमभागे 1258 पृष्ठे गता।) (१८)सिद्धिषु, प्रव० 270 द्वार। आत्मनःशुभभावावरण–क्षयोपशमे, विशे०। (वासुदेवत्वलब्धिः 'बल' शब्देपञ्चमभागे १२८७पृष्ठउक्ता।) अन्येत्वा :केवलज्ञानादिलब्धिनिमित्तत्वाल्लब्धिः। अहिंसायाम्, प्रश्न०१ संव० विङ्-उच्चारः प्रेति-प्रश्रवणम्। खेलः-श्लेष्मा, जल्लो मल्लः, औषधिद्वार / वस्त्वादीनां प्राप्तौ, प्रव०४ द्वार / श्रोत्रेन्द्रियादिविषये, जी०१ | शब्देन समासकरणादिकं तथैव, सुगन्धाश्चैते विडादयस्तल्लब्धिम
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________________ लद्धि 600- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लद्धि तां द्रष्टव्याः। इह चात्मानं परं वा रोगापनयनबुद्ध्या विडादिभिः स्पृशतः नानाकाररूपतया विकुर्वणाशक्तिरिति / साधोस्तद्रोगापगमो द्रष्टव्यः, प्रामुक्ताऽऽमर्षलब्धिरपि शरीरैकदेशे अथ भव्यत्वाभव्यत्वरिशिष्ठानां पुरुषाणां च यावत्यो लब्धयो सर्वस्मिन् वा शरीरे समुत्पद्यते, तेन चात्मानं परं वा व्याध्यपगमबुद्ध्या भवन्तीति तत् प्रतिपादयतिपरामृशतस्तदपगमो द्रष्टव्यः। विशे० ग०। आ०म०। प्रव०। पा० नं०। भवसिद्धियपुरिसाणं, एयाओ हुँति भणियलद्धीओ। आ०चू भवसिद्धियमहिलाण वि, जत्ति य जायंति तं वोच्छं / / 1519 / / खीरमहुसप्पिआसव 19, कोट्टयबुद्धी 20 पयाणुसारी २१य। अरहंतचक्किकेसव-बलसंमिन्ने य चारणे पुवा। तह बीयबुद्धि 22 तेयग 23, आहारग 25 सीयलेसा 25 य गणहरपुलायआहा-रगं च न हु भवियमहिलाणं / / 1520 / / // 1508|| अभवियपुरिसाणं पुण, दसपुटिवल्ला उ केवलित्तं च / वेउविदेहलद्धी 26, अक्खीणमहाणमी 27 पुलाया य 28 / उज्जुमई विउलमई, तेरस एया उन हु हुंति / / 1521 / / परिणामतववसेणं, एमाई हुंति लद्धीओ।।१५०६।। अभवियमहिलाणं पि हु, एयाओ हुंति भणियलद्धी य / क्षीरमधुसप्पिराश्रवलब्धिः, कोष्ठकबुद्धिलब्धिः, पदानुसारिलब्धिः, महुखीरासवलद्धी वि, नेय सेसा उ अविरुद्धा।।१५२२|| तथा बीजबुद्धिलब्धिः, तेजालेश्यालाब्धः, आहारकलब्धिः, शीतले. भवभाविनी सिद्धिर्मुक्तिपदं येषां ते भवसिद्धिका भव्या इत्यर्थः, ते चते श्यालब्धिः, वैकुर्विकदेहलब्धिः, अक्षीणमहान-सीलब्धिः, पुलाकलब्धिः, एवमेता अष्टाविंशतिसंख्याः, आदि-शब्दादन्याश्चजीवानां पुरुषाश्च ते तथा तेषामेताः पूर्वोक्ताः सर्वाअपि लब्धयो भवन्ति / तथा शुभशुभतरशुभतमपरिणामवशादसाधारणतपःप्रभावाच्च नानाविध भवसिद्धिकमहिलानामपि यावत्यो लब्धया जायन्ते तद्वक्ष्ये, प्रतिज्ञातलब्धय ऋद्धिविशेषा भवन्ति। (प्रव०२७० द्वार) (१६/१)-(क्षीराश्रव मेव निर्वाहयात 'अर्हन्तेत्यादि' अर्हचक्रवर्तिवासुदेवबलदेवसंभिन्नलब्धिः 'खीरासवलद्धि'शब्दे तृतीयभागे 747 पृष्ठे गता।) (19/2) श्रोतश्चारणपूर्व-धरगणधरपुलाकाहारकलाब्धलक्षणा एता दश लब्धयो मध्याश्रवलब्धिः 'महुआ-सवलद्धि' शब्दे पञ्चमभागे 226 पृष्ठेद्रष्टव्या।) भव्यमहिलानां भव्यस्त्रीणाम् नहु-नैव भवन्ति, शेषास्वष्टादश लब्धयो (१९/३)-सर्पि-राश्रवलब्धिः 'सप्पिआसव' शब्दे वक्ष्यामि )(20) भव्यस्त्रीणां भवन्तीति सामर्थ्यागम्यते। यच्च मल्लिस्वामिनः स्त्रीत्वेऽपि (कोष्ठबुद्धिलब्धिः 'कोहबुद्धि' शब्दे तृतीयभागे 675 पृष्ठेगता।) (21) तीर्थकरत्वमभूत्तदाश्चर्यभूतत्वान्न गण्यते / तथा अनन्तरमुक्तास्तावद्दश (पदानुसारिलब्धिः पयाणुसारि' शब्दे पञ्चमभागे 506 पृष्ठे गता।) लब्धयः / केवलित्वं च केवलिलब्धिः, अन्यच्च ऋजुमतिविपुलमति(२२)-(बीजबुद्धिलब्धिः ‘बीजबुद्धि' शब्दे पञ्चमभागे 1324 पृष्ठे लक्षणं लब्धिद्वयमित्येतास्त्रयोदश लब्धयः पुरुषाणामप्यभव्यानां नैव उक्ता!) (२३)-तेजोलेश्यालब्धिः 'तेउलेस्सा' शब्दे चतुर्थ-भागे कदाचनापि भवन्ति, शेषाः पुनः पञ्चदश भवन्तीति भावः। अभव्यमहि२३४६ पृष्ठे विस्तरतः प्रतिपादिता।) (२४)-(आहारक-लब्धिः लानामप्येताः पूर्वभणितास्त्रयोदश लब्धयो न भवन्ति, चतुर्दशी मधु'आहारग' शब्दे द्वितीयभागे 525 पृष्ठगता।) (२५)-(शीतलेश्यालब्धिः क्षीराश्रवलब्धिरपि नैव तासां भवति, शेषास्त्वेतद्व्यतिरिक्ताश्चतुर्दश 'सीयलेस्सा' शब्दे वक्ष्यामि।) (२६)-(वैक्रियलब्धिम् वेउव्वियलद्धि' लब्धयोऽविरुद्धा भवन्तीत्यर्थः / प्रव० 270 द्वार। शब्दे वक्ष्यामि।)-(२७)-(अक्षीणमहानसिकलब्धिः 'अक्खीणमहाण लब्धिद्वारे लब्धिभेदान् दर्शयन्नाहसिय' शब्दे प्रथमभागे 146 पृष्ठे उक्ता।)(२८)-(पुलाकलब्धिः पुलाग' कइविहा णं भंते लद्धी पण्णत्ता? गोयमा ! दसविधा लद्धी शब्दे पञ्चमभागे 1060 पृष्ठे गता।) तथा 'एमाइ हुंति लद्धीओ' इत्यत्रा- पण्णत्ता, तं जहा-नाणलद्धी १दसणलद्धी 2 चरित्तलद्धी 3 दिशब्दादन्या अपि अणुत्वमहत्त्वलघुत्वगुरुत्वप्राप्तिप्रकाम्येशत्वव- चरित्ताचरित्तलद्धी 5 दाणलद्धी 5 लाभलद्धी 6 भोगलद्धी 7 शित्वाप्रतिघातित्वान्तर्धानकामरूपित्वादिका लब्धयो बोद्धव्याः / उवभोगलद्धी वीरियलद्धी इंदियलद्धी 10 / णाणलद्धी गं तत्राणुत्वमणुशरीरविकुर्वणम्, यस्य वशाच्छिद्रमपि प्रविशति, तत्र च भंते ! कइविहा पण्णत्ता ? गोयमा! पंचविहा पण्णत्ता,तं जहाचक्रवर्तिभोगानपि भुङ्क्ते / महत्त्वम्-मेरोरपि महत्तरशरीरकरणसाम- आमिणिवोहियणाणलद्धी०जाव केवलणाणलद्धी, अन्नाण-लद्धी र्थ्यम्, लघुत्वम्-वायोरपि लघुतरशरीरता, गुरुत्वम्-वज्रादपि गुरुतर-- णं भंते ! कतिविहा पण्णत्ता? गोयमा ! तिविहा पण्णत्ता, तं शरीरतया इन्द्रादिभिरपि प्रकृष्टबलैर्दुः सहता, प्राप्तिः-भूमिस्थस्य जहा-मइअन्नाणलद्धी! सुयअन्नाणलद्धी विभंगऽन्नाण-लद्धी॥ अमुल्यग्रेण मेरुपर्वताग्रप्रभाकरोदः स्पर्शसामर्थ्यम्, प्राकाम्यम्-अप्सु दसणलद्धी णं भंते ! कतिविहा पन्नत्ता? गोयमा ! तिविहा भूमाविव प्रविशतो गमनशक्तिः, तथा अप्स्विव भूमावुन्मजननिमजने, पण्णत्ता, तं जहा-सम्मदसणलद्धी, मिच्छादसणलद्धी, ईशत्वम्-त्रैलोकस्य प्रभुता, तीर्थकरत्रिदशेश्वरऋद्धिविकरणम्, सम्मामिच्छादसणलद्धीचरित्तलद्धी णं भंते ! कतिविहापण्णता? वशित्वम्-सर्वजीववशीकरण-लब्धिः, अप्रतिघातित्वम् - अद्रिमध्येऽपि गोयमा ! पंचविहा पण्णत्ता, तं जहा-सामाइयचरि-तलद्धी निःसगमनम्, अन्तर्धानम्-अदृश्यरूपता, कामरूपित्वम्-युगपदेव | छेदोवट्टावणियलद्धीपरिहारविसुद्धलद्धी सुहमसंपरा-गलद्धी अ
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________________ लद्धि 601 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लद्धि हक्खायचरित्तलद्धी / चरित्ताचरित्तलद्धी णं भंतेज कतिविहा __ निर्विष्टकायिकं च। तत्र निर्विशमानकास्तदासेवकास्तदव्यतिरेकात्तदपि पण्णत्ता ? गोयमा ! एमागारा पण्णत्ता, एवं०जाव उवभोगलद्धी निर्विशमानतम्, आसेवितविवक्षितचारित्रकायास्तु निर्विष्टकायास्त एव एगागारा पण्णत्ता। वीरियलद्धीणं भंते ! क तिविहा पण्णता? निर्विष्टकायिकास्तदव्यतिरेकात्तदपि निर्विष्टकायिकमिति, इह च नवको गोयमा! तिविहापण्णत्ता, तंजहा-बालवीरियलद्धी पंडियवीरि- गणो भवति, तत्र चत्वार; परिहारिका भवन्ति, अपरे तु-तद्वैयावृत्त्ययलद्धी बालपंडिवीरियलद्धी / इंदियलद्धी णं मंते ! कतिविहा कराश्चत्वार एवानुपरिहारिका:, एकस्तुकल्पस्थितो वाचनाचार्यो गुरुभूत पण्णत्ता ? गोयमा ! पंच विधा पण्णत्ता, तंजहा-सोइंदियलिद्धी० इत्यर्थः, एतेषां च निर्विशमानकानामयं परिहार:जाव फासिंदियलद्धी। (सू०३२०+) "परिहारियाण ए तवो, जहन्नमज्झो तहेव उक्कोसो। 'कतिविहा ण' मित्यादि, तत्र लडिधरू-आत्मनो ज्ञानादिगुणानां सीउण्हवासकाले, भणिओ धीरेहिँ पत्तेयं / / 1 / / त्तित्कर्मक्षयादितो लाभ:, सा च दशविधा, तत्र ज्ञानस्यविशेषबोधस्य तत्थ जहन्नो गिम्हे, चउत्थ छटुं तु होइ मज्झिमओ। पञ्चप्रकारस्य तथाविधज्ञानावरणक्षयक्षयोपशमाभ्यां लब्धिनिलब्धि:, अहमसिह उक्कोसो, एत्तो सिसिरे पवक्खामि॥२॥ एवमन्यत्रापि, नवरं च दर्शनं-रूचिरूप आत्मनः परिणामः, चारित्रं सिसिरे उ जहन्नाई, छट्ठाई दसम-चरिमगा होति। चारित्रमोहनीयक्षयोपशमोपशमजोजीवपरिणामः तथा चरित्रं चतदचरित्रं वासासु अट्ठमाइं, बारसपज्जन्तओ णेइ॥३॥ चेति चारित्रचरित्रं-संयमासंयमः, तचाऽप्रज्याख्यानकषायोपशमजो पारणगे आयाम पंचसु गहदोसऽभिग्गहो भिक्खे। जीवपरिणामः, दानादिलब्धयस्तु पञ्चप्रकारान्तरायक्षयोपशमसंभवा:, कप्पट्ठिया य पइदिण, करेंति एमेव आयाम // 4 // इह च सकृभोजनमशनादीनां भोगः,पौन: पुन्येन चोपभोजनमुपभोगः, इह सप्तेस्वेषणासुमध्ये आद्ययोरग्रह एव पञ्चसुपुनर्ग्रहः,तवाप्येकतरया स च वस्त्रभवनादे: दानादीनि तु प्रसिद्धानीति, तथा इन्द्रियाणां- भक्तमेकतरया च पानमित्येवं द्वयोरभिग्रहो ऽवगन्तव्य इति। स्पर्शनादीनां मतिज्ञानावरणक्षयोपशमसम्भूतानामेकेन्द्रियादिजाति- "एवं छम्मासतवं, चरिउं परिहारगा अणुचरंति। नामकर्मोदयनिय मितक्रमाणां पर्याप्तकनामकर्मादिसामर्थ्य सिद्धानां अनुचरगे परिहारिय-पयहिए जाव छम्मासा / / 5 / / द्रव्भावरूपाणां लब्धिरात्मनीतिन्द्रियलब्धिः / अथ ज्ञानलब्धेर्विपर्यय- कप्पडिओ विएवं, छम्मासतवं करेइ सेसा उ। भूताऽज्ञानलब्धिरित्यज्ञानलब्धिनिरूपणायाह-'अन्नाणलद्धी' त्यादि। अणुपरिहारिंगभवं, वयंति कप्पट्ठियत्तं च / / 6 / / 'सम्महंसणे' त्यादि, इह सम्यग्दर्शनीयं मिथ्यात्वमोहनीयकर्माणुवेद- एवेसो अट्ठारस-मासपमाणोउ वण्णिओ कप्पो। नोपशम 1 क्षय 2 क्षयोपशम 3 समुत्थआत्मपरिणामः, मिथ्यादर्शनम- संखेवओ विसेसो, सुत्ता एयस्स णायव्वो।।७।। शुद्धमिथ्यात्वदलिकोदयसमुत्थो जीवपरिणामः, सम्यग्मिथ्यादर्शनं कप्पसमत्तीइ तयं, जिणकप्पं वा उति गच्छं वा। त्वर्द्धविशुद्धमिथ्यात्वदलिकोदयसमुत्थ आत्मपरिणाम एव 'सामाइय- पडिवज्जमाणगा पुण, जिणस्सगासे पवजंति || चरित्तलद्धि' ति सामयिक-सावद्ययोगविरतिरूपम् तदेच चरित्रं- तित्थयरसमीवासे-वगस्स पासे वनोय अन्नस्स। सामयिकचरित्रं तस्य लब्धि: सामायिकचरित्रलब्धि: सामयिकचरित्रं च एएसिं जं चरणं, परिहारविसुद्धियं तं तु " द्विधा-इत्वरम् यावत्कथिकंच, तत्राल्पकालमित्वरम्, तच्च भरतैरावतेषु अन्यैस्तु व्याख्यातं-परिहारतो मासिकं चतुर्लध्वादि तपश्चरति प्रथमपश्चिमतीर्थकरतीर्थेष्वनारोपितव्रतस्य शिक्षकस्य भावति, यस्तस्य परिहारिकचरित्रलब्धिर्भवतीति, इदं च परिहारतपो यथा यावत्कथिकं तु यावज्जीविक, तच्च मध्यमवैदेहिकतीर्थङ्करतीर्थान्तर- स्यात्तथोच्यते-(व्यवहारभाष्योक्ता गाथा:)गतसाधूनामवसेयम्, तेषामुपस्थापनाया अभावात्, नन्वितरस्यापि "नवमस्स तइयवत्थु, जहन्न उक्कोसऊणगा दसउ। यावजीवितया पतिज्ञानात् तस्यैव चोपस्थापनायां परित्यागात् कथं न सुत्तत्थभिग्गहा पुण, दव्वाइ तवो रयणमाती॥६५४||" प्रतिज्ञालोपः ? अत्रोच्यते, अतिचाराभावात्, तस्यैव सामान्यतः असमर्थः-यस्य जधन्यतो नवमपूर्व तुतीयं वस्तु यावद्भवति उत्कर्षसावद्ययोगनिवृत्तिरूपेणावस्थितस्य शुद्ध्यन्तरापादनेन सञ्ज्ञामात्र- तस्त दश पूर्वाणि न्यूनानि सूत्रतोऽर्थतो भवन्ति-द्रव्यादयश्चाभिग्रहा विशेषादिति / 'छेओवट्ठावणियचरित्तलद्धि' त्ति छेदोप्राक्तनसुयमस्य रत्नावल्यादिना च तपस्तस्य परिहारतपो दीयते, तद्यने च निरुपसर्गार्थ व्यवच्छेदे सति यदुपस्थापनीयं-साधावारोपणीयंतच्छेदोपस्थापनीयम् कायोत्सर्गो विधीयते शुभे च नक्षत्रादौ तत्प्रतिपत्तिः, तथा गुरुस्तं ब्रूतेपूर्वपर्यायच्छेदेन महावृतानामारोपणमित्यर्थः। तच सातिचारमनतिचार यथा अहं तव वाचनाचार्य:, अयं च गीतार्थः-साधुः सहायस्ते, च, तत्रानतिचारमित्वरसामयिकस्य शिक्षकस्यारोप्यते, तीर्थान्तर- शेषसाधवो ऽपि वाक्ष्याः, यथा- "एस तवं पडिवाइ, न किंचि आलवइ संक्रान्तौ वा यथा पार्श्वनाथतीर्थावर्द्धमानस्वामितीर्थ संक्रमतः पञ्चयाम- मा य आलवह। अत्तट्ठचिन्तगस्स उ, वाधाओ भेनकायव्यो।।३६३॥" धर्मप्राप्तौ, सातिचारं तु मूलगुणघातिनो यव्रतारोपणं, तच्च तचारित्रं च तथा कथमहतालापादिरहितः संस्तप: करिष्यामीत्येवं विभ्यतस्तस्य छेदोपस्थापनीयचरित्रं, तस्य लब्धिश्छेदोषस्थापनीयचरित्रलब्धि:, भयापहारः कार्य:, कल्पस्थितश्च तस्यैतत्करोति-"किइकम्मं च 'परिहारविसुद्धियचरित्तलद्धि त्ति परिहार:-तपोविशेषस्तेन विशुद्धिर्य- पडिच्छइ, पडिन्न पडिपुच्छयं पि से देइ / सो वि य गुरुमुवचिट्ठइ, स्मिंस्तत्परिहारविशुद्धिकं, शेषं तथैव, एतच द्विविधं-निर्विशमानकं, | उदंतमवि पृच्छिओ कहइ 1367 / / " इह परिज्ञा-प्रत्याख्यानं प्रतिपृ
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________________ लद्धि 602 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लद्धि पाहुन च्छा, त्वालापकः, ततोऽसौ यदाग्लानीभूतः सन्नुत्थानादिस्वयं कर्तुन | लप्पसिया स्त्री०(लपनश्री) जलेन सिद्धा लप्पसिया, समुत्तारिते शक्रोति तदा भणति-उत्थानादि कर्तुमिच्छामि, ततोऽनुपरिहारक- | सुकुमारिकादौ पश्चादुद्धरितघृतेन खरण्टितायां तापिकायां जलेन सिद्धा स्तूष्णीक एव तदभिप्रेतं समस्तमपि करोति, आह च-' उट्टेल निसीएजा, लपनश्रीर्भवति / लहिगणुरिति प्रसिद्ध खादिमविशेषे, ध०२ अधि०। भिक्खं हिंडेज भंडगं पेहे कुवियपियबंधवस्स व, करेइ इयरोऽपि বogol तुसिणीओ॥३६॥ तपश्च तस्य ग्रीष्मशिशिरवर्षासु जघन्यादिभेदेन लन्म त्रि०(लभ्य) त्रि०ा उचिते, प्रश्न०५ संव० द्वार। चतुर्थादिद्वादशान्तम् / पूर्वोक्तमेवेति 'सुहमसंपरायचरित्तलद्धि' त्ति लय पुं०(लय) श्रृद्यार्वाद्यन्यतरमयेनाङ्गुलिकोशकेनाहताया: तन्त्र्याः संपरैतिपर्यटति संसारमेभिरिति सम्पराया:-कषाया: सूक्ष्मा:-लोभा- स्वरप्रकारे, स्था०७ ठा०३ उ० जी०। रा०ा लयास्तन्त्रीस्वनविशेषा:, शावशेषरूपा: सम्पराया यत्र तत् सूक्ष्मसंपरायम्, शेषं तथैव, एतदपि "तत्थ किल कोणएण तंती छिप्पति तओ नहेहिं अणुमज्जेज्ज त्ति, तत्थ द्विधा-विशुद्ध्यमानकम्, संक्लिश्यमानकं च / तत्र विशुद्ध्यमानकं अन्नारिसो सरो उद्वेति सो लयो त्ति" दश०२ अ० दुःखध्वंसे, द्वा०११ क्षपकोपशमकश्रेणिद्वयमारोहतो भवति 1, संक्लिश्यमानकंतु उपशम- द्वा० आश्लिष्टे, मिलनेच। कल्प०१ अधि०३ क्षण। नवदम्पत्यो; परस्परं श्रेणीत: प्रच्यवमानस्येति 2 / 'अहक्खायचरित्तलद्धी' ति,था-येन नामग्रहणोत्सवे, देवना०७ वर्ग 16 गाथा। प्रकारेण आख्यातम्-अभिहितमकषायतयेत्यर्थः तथैव यत्तद्यथा- | लयंग न०(लमाङ्ग) पूर्वाणां चतुरशीतिलक्षगुणिते पूर्वशतसहस्रे, ज्यो०२ ख्यातम्, तदपि द्विविधम्-उपशमक-क्षपकश्रेणिभेदात्, शोषं तथैवेति। एवं "चरित्ताचरित्ते" त्यादौ, 'एगागार' त्ति मूलगुणोत्तरगुणादीनां तद्भेदा- | लयण न०(गिरिवर्तिपनाषाणगृहे, ज्ञा०१ श्रु०२ अ० उत्कीर्णपर्वतगृहे, नामविवक्षणात्, द्वितीयकषायक्षयोपशमलभ्यपरिणाममात्रस्यैव च अनु० "छायं लउअं लयणं" पाइन्ना०५७ गाथा / तनुके, मृदुनि, विवक्षणाचरित्रे लब्धेरेकाकारत्वमवसेयम्। एवं दानलब्ध्यादीनामप्ये- | वल्ल्यां च। "लइयं तणुमिउल्लीसु" देना०७ वर्ग 27 गाथा। काकारत्वम्, भेदानामविवक्षणात्, 'बालवीरियलद्धी' ज्यादि, बालस्य- | लयणी स्त्री०(लयनी) लतायाम्, "कयणी लयणी" पाइ० ना० 136 असंयतस्स यद्वीर्यम् -असंयमयोगेषु प्रवृत्तिनिबन्धनभूतं तस्य या गाथा। लब्धिश्चारित्रमोहोदयावीर्यान्तरायक्षयोपशमाच्च सा तथा, एवमितरे लयसम न०(लयसम)लयमनुसरतो गातुर्गेये, स्था०७ ठा०३ उ० अपिन यथायोगंवाच्ये, नवरंपण्डितः-संयतो, बालपण्डितस्तुसंयताs- लया स्त्री०(लता) पद्मनागाशोकचम्पकचूतवासन्त्यतिमुक्तक कुन्दलसंयत इति / भ०८ श०२ उ०। ताद्यादिके वनस्पतिभेदे, आचा०१ श्रु०१ अ०५ ए०॥ यस्य तिर्यक् लद्धिअक्खर न०(लब्ध्यक्षर)लब्धिरूपमक्षरं लब्ध्यक्षरम्। भावश्रुते, न०। तथाविधा: शाखा: प्रशाखा वा न प्रसृता सा लतेत्यभिधीयते। जी०३ आ०चू०। बृला (तच 'अक्खर' शब्दे प्रथमभागे 140 पृष्ठे दर्शितम्।) / प्रति०४ अधि०। लद्धिपज्जत्तग पुं०(लब्ध्यपर्याप्तक) अपर्याप्तकभेदे, कर्म०१ कर्म। से किं तं लयाओ? लयाओ अणेगविहाओ, पण्णत्ताओ, तं ('अपजत्तग' शब्दे प्रथमभागे 563 पृष्ठ व्याख्यातः।) जहा-"पउमलया नागलया असोगचंपयलया य चूतलता। लद्धिपुलाय पु०(लब्धिपुलाक) देवेन्द्रर्द्धिसमसमृद्धिके लब्धिविशेषयुक्ते। वणलयवासंतिलया, अइमुत्तयकुंदसामलया ॥२५॥"जे "संघाइयाण कजे, चुण्णेज्जा चक्कवट्टिमवि जीए / तीए लद्धीऍ जुओ, यावण्णे तहप्पगारा। सेत्तं लयाओ, प्रज्ञा०१ पद। पाइ०ना। लद्धिपुलाओ मुणेयव्वो // 1 // प्रव०६३ द्वार।। ग्रन्थविशेषे, चार्वाकादिपक्षनिराशष्चातिभूयानिति लतादित एव लद्धिवीरियन०(लब्धिवीर्य)वीर्यभेदे, "जो पुण संसारी जीवो अपज्जत्तगो तदवगमो विधेयः / नयोग ठाणातिसत्तिसुजुत्तो तस्स तं लक्विीरियं भवति" निचू०१ उ० लयाघर न०(लताघर) अशोकादिलतागृहेषु, ज्ञा०१ श्रु०३ अ०) लद्धिसंपण्ण त्रि०(लब्धिसम्पन्न) आहारवस्त्राद्युत्पादनशक्तियुक्ते | लयाजुद्ध न०(लतायुद्ध) युद्धकलाभेदे, यथा लता वृक्षमारोहन्ती आमोषध्यादिलब्धियुक्ते, ग०२ अधिo"जहाघयवत्थभासपूसमित्ता आमुलमाशिरस्तं वेवेष्टि, तथा यत्र योधः प्रतियोधशरीरं गाढं निपीड्य गिलाणण त्ति यं सिग्धं करेति" नि० चू०१० उ०। भूमौ पतति तल्लतायुद्धम् / जं०२ वक्ष०ा सका औ० ज्ञा० लद्धिसागरसूरि पुं०(लब्धिसागरसूरि) तपागच्छीये उदयसागरसूरि- लयापुरिसे (देशी) यत्र पद्मकरा वधूलिख्यते तस्मिन्नर्थे, 'पउमकरा शिष्ये, तेन विक्रमसंवत् 1557 श्रीपालकथानामकः संस्कृतग्रन्थो जत्थ बहू, लिहिज्जए सो लयापुरिसो' देना०७ वर्ग२० गाथा। निर्मितः। जै० इ०। लयामग्ग पुं०(लतामार्ग) यत्र लतावलम्बन गम्यते तादृशे मार्गे, सूत्र०१ लद्धं अव्य०(लब्ध्वा) अवाप्येत्यर्थे, सूत्र०१ श्रु०१५ अ०। पञ्चा०ादशा श्रु०११ अ० लद्धेल्लिय त्रि०(लब्ध) प्राप्ते, आव०२ अ०। ललंत त्रि० (ललत्) दोलायमाने, औ०। ईप्सितक्रियाविशे
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________________ ललंत 603 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लल्ल षान् कुर्वति० भ०१३ श०६ उ०। क्रीडति,बृ०१ उ०३ प्रक०ा मनईप्सितं यथा भवति तथा वर्तमाने, रा० ललण स्त्री०(ललना)रमण्याम्, तं०। नाणा विहेसे जुद्धभंडणगामाडवीसु मुहाऽणमगिण्हणसीउण्हदुक्खकिलेसमाइएसु पुरिसे लालयंति त्ति ललणा ओ। नानाविधेसु युद्धभण्डसंग्रामाटवीषु मुधाऽणगृह्णन् शीतोष्णदुःखक्लेशादिषु पुरुषान्लालयन्ति विविधं कदर्थयन्तीति ललनाः, तत्र युद्धम् -मुष्ट्यादि परस्परताडनम्, भण्डनं-वाक्कलह: संग्रामोमहज्जनसमक्षकलहः / अटवीअरण्यं तत्र भ्रामणादिकारापणेन, यद्वामुधा निष्फलम् 'अणमिति' शब्दकरणगाल्यादिप्रदानं तेन 'गिण्हणे' त्ति कामातुरादिप्रकारेण पुरुषग्रहणं तेन शीतेन कोपाटोपात् माघ्मासादौ वस्त्रोद्दालनगृहबहिःकर्षणादिना उष्णेन स्वकार्यकारापणेन आतपादौ भ्रामयन्ति दुःखेन आपत्त्या आभरणादिपीडादर्शनेन क्लेशेन रामा द्वित्र्यादियोगे परस्परकलहोत्पादनेन आदिशब्दादन्यैरपि अनाचारसेवाद्यनर्थोत्पादनः पुरुषान् पीडयन्तीति ललना: / तं०। ललाडदेस पुं०(ललाटदेश) भाग्यलक्षणेशरीरभाग, पञ्चा०४ विवाऔ०। ललिअन०(ललित) लीलायाम्, "हेला ललिअंलीला'' पाइ० ना०७० गाथा। ललिय न०(ललित) हस्तापादाङ्ग विन्यासविशेषे,उक्तञ्च-"हस्तपादाङ्ग विन्यासो, भूनेत्रोष्ठप्रयोजितः / सुकुमारो विधानेन लललितं तत्प्रकीर्तितम् ||1|| बृ०१ उ०३ प्रक०। प्रश्नका सविलासे, उत्त०६ अ०) ज्ञा०। विलासवगतौ, औ०। सम्पन्नतायाम्, ज्ञा०१ श्रु०१०। पासकादिक्रीडायाम, प्रव०१७१ द्वार माधुयें, औ०। माईवे, आव०४ अ०) शोभावति, त्रि०ा ज्ञा०१ श्रु०१ अ० उपा०। "ललियकयाभरण०" ललितानि शोभनानि कृतानिन्यस्तानि आभरणानिसारभूषणानि यस्य स तथा तम्। विलासवति, उत्त०२ अ०। मनोहरे, औ०। स०। अनु०। रा०ा मनोज्ञलीलया सहिते, चं० प्र०१ पाहु०। ईप्सिते, क्रीडायुक्ते, स्थिते च। ज्ञा०१ श्रु० अ० लालित्योपेते, औ०। सुन्दरे, "ललियं वगुं मंजु" पाइ० ना०८८ गाथा। इष्ट, नि०। अस्यामवसर्पिण्यां जातस्य पञ्चमबलदेवस्य पूर्वभवे जीवे, पुं० स०। ललियंग पुं०(ललिताङ्ग) ईशाने कल्पे उपपन्ने ऋषभदेवपूर्वभवजीवे, तं०। कल्प०। आ०कo| आचाof (तद्वक्तव्यता श्रेयोशेन स्वपूर्वभवसम्बन्धकथनावसरे 'उसभ' शब्दे द्वितीयभागे 1134 पृद्र प्रतिपादिता / ) ललितशरीरे, 'ललियंगकयाभरणे'-ललिताङ्गकेललितशरीरे कृतानिविन्यास्तानि ललिताभरणानि येन स तथा। औ०। आ०म०। ललियंत त्रि०(लाल्यमान) विलास्यमाने, प्रश्न०४ आश्र० द्वार। ललियगुट्ठी स्त्री०(ललितगोष्ठी) रोहितकपुरे स्वनामख्यातायां गोष्ठ्याम्, आव०४ अ० ललियघडा स्त्री० (ललितघटा) स्वनामख्यातायां स्वच्छन्दचारिगोठ्याम्, संथा। __ कोसंबीनयरीए, ललियघडा नाम विस्तुता आसि। पाओवगमनसुत्ता, बत्तीसं तेय सुयनियसा ||7|| कौशाम्ब्यां नगयां ललितघटा नाम स्वच्छन्दचारिगोष्ठीपुरुषपद्धति: द्वात्रिंशन्मित्रसमवायरूपा, विश्रुता-शालिभद्रादिवद् भोगिपुरुषतया विख्याता, कुतश्चिद्वैराग्यात्स्वयमेव गृहीतव्रता गुरुसमीपे चाधीतशेषातिशायिश्रुता गीतार्था नदीपुलिनपतितपृथुकाष्ठशय्यासु पादपोपगमनेन सुप्ता द्वात्रिंशदपि श्रुतनिकषा आकर्णितरहस्यश्रुता वा / 76 / संथा०। ललियमित्त पुं०(ललितमित्र) सप्तमवासुदेवस्य पूर्वभवे जीवे, स०) ललियवित्थरा स्त्री०(ललितविस्तरा) हरिभद्रसूरिकृतायां स्वनामख्यतायां चैत्यवन्दनसूत्रवृत्तौ, ल01 "प्रणम्य भुवानालोकं, महावीरं जिनोत्तमम् / चैत्यवन्दनसूत्रस्य, व्याख्याख्येमभिधीयते॥१॥ अनन्तागमपर्यायं, सर्वमेव जिनागमे। सूत्रं यतोऽस्य कात्स्न्येन, व्याख्या कः कर्तुमीश्वरः / / 2 / / चावत्तथापि विज्ञात-मर्थजातं मया गुराः। सकाशादल्पमतिना, तावदेव ब्रवीम्यहम्।३।। ये सत्त्वा: कर्मवशतो, मत्तोऽपि जडबुद्धयः / तेषां हिताय गदतः, सफलो मे परिश्रमः ॥४॥"ल| "आचार्यहरिभद्रेण, दृब्धा सन्न्यायसंगता। चैत्यवन्दनसूत्रस्य, वृत्तिललितविस्तारा / / 1 / / य एनां भावयत्युच्चै-मध्यस्थेनान्तात्मना। सद्वन्दनां सुबीजं वा, नियमादधिगच्छति / / 2 / / पराभिप्रायज्ञात्वा, तत्कृतस्य न वस्तुनः / गुणदोषौ सता वाच्यो, प्रश्न एव तु युज्यते॥३॥ प्रष्टव्योऽन्यः परीक्षार्थ-मात्मनो वा परस्य च। ज्ञानस्य वाऽभिद्ध्यर्थ,त्यागार्थ सेशयस्य च / / 4 / / कृत्वा यदर्जितं पुण्यं, मयैनां शुभभावतः। तेनास्तु सर्वसत्त्वानां, मात्सर्यविरह: पर: // 5 // " ललिया स्त्री०(ललिता) जयपुरनगरे विक्रमसेनराजभा-याम्, दर्श०३ तत्त्व। ललियासण न०(ललिताशन) मनोज्ञभोजने, "भोयणमासणमिह ललियपरिवेसिया दुगुणाभागो" यस्य भोजनमासनं च इष्ट-तनोऽभिरुचितं क्रियते परिवेषिका च स्त्री तस्याभीष्टा क्रियते इष्टभोजनस्य द्विगुणो भागो दीयते। सलीलमशनमासनं वा अस्येति व्युत्पत्या ललिताशनको ललितासनको वा। बृ०२ उ०। लल्ल पुं०(लल्ल) अव्यक्तध्वनो, "लल्लविफपलवाया''। लल्लअव्यक्ता विफला-फलासाधनी वाग्येषाम्। प्रश्न०२ आश्र०द्वार। अर्बुदगिरिस्थस्य तीर्थस्य, 1243 शते उद्धारकर्तरि महणसिंह पुत्रे, ती०८ कल्पा सस्पृहे, न्यूने च। त्रि०ा देना०७ वर्ग 26 गाथा।
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________________ लल्लक्क 604 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लवणसमुद्ध लल्लक्क (देशी) भीमे, दे० ना०७ वर्ग 28 गाथा। "भइरवलल्लक्क भीसणया'' पाइला ना०६५ गाथा। लल्लिरी स्त्री०(लल्लिरी) मत्स्यबन्धनविशेषे, विपा०१ श्रु०८ अ० लव पुं०(लव) सप्तकस्तोकरूपे कालविशेषे,ज्ञा०१ श्रु०५ अ०। प्रव० स्था०। अनु०॥ तं०। भ० कर्म०। ज्यो०। "सत्त पासूणि ये थोवे, सत्त थोवाणि से लवे। लवाणां सत्तहत्तरिए, स मुहुत्ते वियाहिए'। भ०१ श०१ उ। काष्ठाद्वयपरिमिते काले,तंगलेशे, "थेवं लेसो लवो भत्ता'' पाइ० ना० 164 गाथा। कर्मणि, न०। सूत्र०२ श्रु०६ अ०। लवइय त्रि०(लवकित) लव एव लवकः स्वार्थेकः / स सञ्जात आस्विति लवकिता: / सञ्जातनवदलके, जं०१ वक्ष०ा रा०ा अङ्कुरवति, भ०१ श०१ उ० लवंग न०(लवङ्ग) स्वनामख्याते वुक्षे, तत्पुष्पे च। प्रज्ञा०१ पद / रा० जं आचा०ा फलाविशेषे, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। लवंगदल न०(लवङ्गदल) लवङ्गपत्रे, आ०म०१ अ०रा० लवंगविट्ठ त्रि०(लवङ्ग वेधित) दानं दत्त्वा आत्मना दानफलप्रशंसने, अन्यजीर्थिकै प्रशंसां कारयति च। नि०चू०२ उ०। ('दाण' शब्दे 4 भागे 2486 पृष्ठे लक्षणमेतस्य।) लवग पुं०(लवग) लवपरिमिते काले, स०७७ सम०। लवण न०(लवण) सामुद्रादौ क्षरविशेषे, जी०१ प्रति। ल० प्र० आतु०| पञ्चा०। दश०। सचित्तलवणगृहीते को विधि: / यदि केनाप्यनुपयोगादिना साधुना सचित्तं लवणं गृहीतं पश्चाद् तत्र को विधिारिति ? अत्र साधुस्तल्लवणंधनिकस्य निवेदयति। आयुस्मन्! त्वया ज्ञात्वा अज्ञात्या वा दत्तं तदनुजानता मयाऽऽदत्तं यूयं यथेच्छं भुग्ध्वम् अत्युक्ते तत्स्वयं भुङ्क्ते / साधर्मिकेभ्यो वा ददाति कारणे सति, करणाभावे तु परिष्ठापयतीत्युक्तमाचाराङ्गद्वितीयश्रुतस्कन्धपिण्डेषणाध्ययनदशमोद्देशके / ही०२ प्रका०। स्तम्भिताहारविध्वंसादिकर्तरि सिन्धुलवणाद्याश्रिते रसे, पुं०। अनु०। लवणेन पूरितः समुद्रो लवणसमुद्रः / एकादेशेन गम्यमानत्वात् लवणसमुद्रे, अनु०॥ लवणसमुद्दपुं०(लवणसमुद्र) लवणरसास्वादनीरपूरितः समुद्रो लवणसमुद्रः।" लवणो य होइ दाहिणेणं तु" (46 गाथा) आचा०१ श्रु०१ अ०१ उ०ा तेच असंख्येया: / जी०३ प्रति०। जम्बुद्वीपस्याभितः समुद्रे, अनुग (1) संप्रति लवणसमुद्रं विवक्षुरिदमाहजम्बूदीवं णाम दीवं लवणे णामं समुद्दे वट्टे वलयागारसंठिते सव्वतो समंता संपरिक्खित्ताणं चिट्ठति। "जम्बूदीवं दीव' मित्यादिजम्बूद्वीपं नामद्वीपं लवणो नामसमुद्रो वृत्तोवर्तुलः, स च चन्द्रमण्डलवन्मध्ये परिपूर्णो,ऽपि शक्येत तत आहवलयाकारसंस्थानसंस्थितः-वलयाकारम् -मध्यशुपिरम् यत् संस्थान तेन संस्थितो वलयाकारसंस्थानसंस्थितः सर्वतः-सर्वासु दिक्षु समन्ततः सामस्त्येन परिक्षिप्यवेष्टायित्वा तिष्ठति। लवणे णं भंते ! समुद्दे किं समचक्कवालसंठिते विसमचकवालसंठिते ? गोयमा ! समचक्कवालसंटिते नो विसमचकवालसंठिए। 'लवणे णं भंते' इत्यादि-लवणो भदन्त ! समुद्रः किं समचक्रवालसंस्थितः यद्वा-विषमचक्रवालसेस्थित' ? चक्रवालसंस्थानस्योभयथाऽपि दर्शनात्, भगवानाह-गौतम! समचक्रवालसंस्थितः, सर्वत्र द्विलक्षयोजनप्रमाणतया चक्रवालस्य भवात्, नो विषमचक्रवालसंस्थितः। (2) संप्रति चक्रवालविष्कम्भादिपरिमाणमेव पृच्छतिलवणे णं भंते ! समुहे के वतियं चकवालविक्खंभेणं? केवतियं परिक्खेवेणं पण्णते? गोयमा ! लवणे णं समुद्दे दो जोयणसतसहस्साई चक्कवालविक्खंभेणं पन्नरसजोयणसयसहस्साई एगासीइसहस्साई सयमेगूणचत्तालीसे किं चि विसेसाहिए लवणोदधिणो चकवालपरिक्खेवेणं / से णं एकाए पउमवरवेदियाए एगेण य वणसेडेणं सव्वतोसमंतासंपरिक्खित्ते चिट्ठइ दोण्ह वि वण्णओ। साणं पउमवरवेइया अद्धजोयणं उड्डं उचत्तेणं पंचधणुसयं विक्खंभेणं लवणसमुद्दसमियपरिक्खेवेणं, सेसंतहेव। सेणं वणसंडे देसूणाई दो जोयणाइं० जाव विहरइ। 'लवणे णं भंते ! समुद्दे' इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगमम्। भगवानाह-गौतम ! द्रे योजनशतसहस्रे चक्रवालविष्कम्भेनजम्बूद्वीपविष्कम्भादे: तद्विष्कम्भस्य द्विगुणत्वात्, पञ्चदशयोजन-शतसहस्राणि एकाशीतिः सहस्राणि शतमेकोनचत्वारिंशं च किञ्चिद्विशेषोनं परिक्षेपेण, परिक्षेपप्रमाणं चैतत् परिधिगणितभावनया स्वयं भावनीयम्, क्षेत्रसमासटीकातोवा परिभावनीयम्। सेण मित्यादि, स:-लवणनामा समुद्र एकया पद्मवरवेदिकया, अष्टयोजनोच्छितजगत्युपरिभाविन्येति गम्यते, एकेन वनखण्डेन सर्वतःसमन्तात् संपरिक्षिप्तः, सा च पावरवेदिका अर्द्धयोजनमूर्ध्वमुचैस्त्वेन पञ्च धनुःशतानि विष्कत्भतः परिक्षेपतो लवणसमुद्रपरिक्षेपप्रमाणा, वनखण्डो देशोने द्वे योजने, अभ्यन्तरोऽपि पद्मवरवेदिकाया वनखण्ड एवंप्रमाण एवाजी०३ प्रति०२ उ०(पद्मवरवेदिकावर्णकस्वरूपम् 'पउमवरवेइया' शब्दे पञ्चमभागे 15 पृष्ठे गतम्।) (3) वनखण्डवर्णक इत्थमसे णं वणसंडे किण्हे किण्होभासे नीले नीलोभासे हरिए हरिआभासे सीए सीओभासे णिद्धे गिद्धोभासे तिव्वे तिव्योभसे किण्हे किण्हच्छाए नीले नीलच्छाए हरिए हरियच्छाए सीए सीयच्छाए णिद्धे णिद्धच्छाए तिव्वे तिव्वच्छाए धणकछिअकडिच्छाए रम्मे महामेहणिकुरंबभूए। "किण्हे' त्ति कालवर्णः। 'किण्होभासे' त्ति कृष्णावभास:-कृष्णप्रभः कृष्ण एवावभासत इति कृष्णावभास:। एवम् 'नीले नीलोभासे' प्रदेशान्तरे 'हरिए हरिओभासे' प्रदेशान्तरे एव, तत्र नीलो-मयूरगलवत्, हरितस्तु शुकपुच्छवत्, हरितालाभ इति वृद्धाः / 'सीए' त्ति शीतः स्पर्शापेक्षया,
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________________ लवणसमुद्ध 605 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लवणसमुद्ध बल्ल्याद्याक्रान्तत्वात् इति वृद्धा: / 'णिद्धे' त्ति स्निग्धो न तु रूक्षः / 'तिव्वे' ति तीव्रो वर्णादिगुणप्रकर्षवान् / 'किण्हे किण्हच्छाए' त्ति इह कृष्णशब्द: कृष्णच्छाय इत्यस्य विशेषणमिति न पुनरुक्तता, तथाहिकृष्ण: सन् कृष्णच्छाय:, छाया चादित्यावरणजन्यो वस्तुविशेष: 'घणकडियकडिच्छाए' त्ति अन्योऽन्यं शाखानुप्रवेशाद् वहलनिरन्तरच्छाय इत्यर्थः। 'महामेहणिकुरंबभूए' त्ति महामेघपवृन्दकल्पः। ते णं पायवा मूलमंतो कंदभेतो खंधमंतो तयामंतो सालमंतो पवालमंतो पत्तमंतो पुप्फमंतो फलमंतो बीयमंतो अणुपुटवसुजायरुइलवट्टभावपरिणया एकखंधा अणेगसाला अणेगसाहप्पसाहविडिमा अणेगरवामसुप्पसारिअ-अग्गेज्झघणविउलबद्धखंधा अच्छद्दपत्ता अविरलपत्ता अवाईधपत्ता अणईअपत्ता निद्धयजरढपंडुपत्ता णवहरियभिसंतपत्तमारंधकारगंभीरदरिसणिज्जा उवणिग्गयणवतरुणपत्तपल्लव कोमलउज्जलचलंतकिसलयसुकुमालपवालसोहियवरंकुरग्गसिहरा णिचं कुसुमिया णिचंमाइया णिचं लवझ्या णिचं थवइया णिचं गुलइया णिचं गोच्छिया णिचं जमलिया णिचं जुवालिया णिचं विणमिया णिचं पणमिया णिचं कसुमियमाइयलवइयथ-बइयगुलइयगोच्छियजलमलियजुवलियविणमियपणमियसु विभत्तपिंडमंजरिवडिंसयधरा सुयबरहिणमयणसालकोइलकोहंगकभिंगारककोंडलकजीवंजीवकणंदीमुहकविलपिंगलक्खकारंडचक्कवायक लहससारसअणे गसउणगणमिहुणविरइयसहुण्णइयमहुरसरणाइए सुरम्मे संपिडियदरियभमरमहुकरिपहकरपरिलित मत्तछप्पयकुसुमासवलोलमहुरगुमगुमंतगुंजंतदेसभागे अभंतरपुप्फफले वाहिपत्तोच्छण्णे पत्तेहि य पुप्फेहि य उच्छण्णपडिवलिच्छण्णे साउफले निरोयए अकं टए णाणाविहगुच्छगुम्ममंडवगरम्मसोहिए विचित्तसूहके उभूए वावीपुक्खरिणीदीहियासु य सुनिवेसियरम्मजालहरए। 'ते णं पायव त्ति यत्संबन्धाद् वनखण्ड इति। 'मूलमंतो कन्दमन्तो' इत्यादीनि दशपदानि, तत्र कन्दोमूलनामुपरि वृक्षावयवविशेषो, मतुप्प्रत्ययश्चेह-भूम्नि प्रशंसायां वा स्कन्ध: स्थुडम् 'तय' त्ति त्वक् - | वल्कलम् शाला-शाखा प्रवाल: पल्ल्वाङ्करः, शेषाणि प्रतितानि / 'हरियमन्ते' त्ति क्वचिद् दृश्यते, तत्र हरितानिनीलतरपत्राणि। 'अणुपुयसुजायरुइलवट्टभावपरिणय' त्ति आनुपूर्वेण-मूलादिपरिपाट्या सुष्ठ जाता रुचिरा: वृत्ततभावैश्च परिणताः परिगता वा ये ते तथा! | 'अणेगसाहप्पसाहाविडिमा' अनेकशाखाप्रशाखो विटप:-तन्मध्यभागो वृक्षविस्तारो वा येते तथा। अंणगनरवामसुप्पसारियअग्गेज्झघणविउलवट्ट (बद्ध) खंधे त्ति अनेकाभिर्नरवामाभिः सुप्रसारिताभिरग्राह्यो घनोनिविडो विपुलोविस्तीर्णो बद्धोजातः स्कन्धो येषां ते तथा, वाचनान्तरेऽत्रस्थानेऽधिकपदान्येवं दृश्यन्ते 'पाईणपडीणाययसाला उदीणदाहिणवित्थिण्णा ओणयनयषणयविप्पहाइयओलंब-पलंबलंबसाहप्पसा हविडिमा अवाईणपत्ता अणुइण्णपत्ता' इति / अयमर्थः-प्राचीनप्रतीचीनयोः पूर्वापरदिशोरायता-दीर्घाः शाला:-शाखा येषां ते तथा, उदीचीनदक्षिणयोरुत्तरयाम्ययोर्दिशोर्विस्तीर्ण विष्कम्भवन्तो येषां ते तथा / अवनता-अधोमुखा न ता-आनम्रा: प्रणताश्चनन्तुं प्रवृत्ता: विप्रभाजिताश्च विशेषता विभागवत्यः अवलम्बा-अधोमुखतया अवलम्बमाना: प्रलम्वाश्च-अतिदीर्घाः लम्बा: शाखा: प्रशाखाश्चयस्मिन्स तथाविधो विटपो येषां ते तथा, अवाचीनपत्रा: अधोमुखपर्णाः अनुद्रीणपत्रा: वृत्ततया अबहिर्निगतपर्णाः। अथाधिकुतवाचनाऽनुस्रियते'अच्छिद्दपत्ता' नीरन्ध्रपत्रा:।'अविरलपत्ता' निरन्तरदला:। अवाईणपत्ता' अवाचीनपत्रा अधोमुखपलाशा:, अवातीनपत्रावा-अवातोपहतवर्हाः / 'अणईयपत्ता' ईतिविरहितच्छदा:। 'निढ्यजरढपंडुपत्ता' अपगतपुराणपाण्डुरपत्राः / ‘णवहरिभिसंतपत्तभारंधकारगम्भीरदरिसणिज्जा' नवेन हरितेन 'भिसंत' त्ति दीप्यमानेन पत्रभारेणदलचयेनान्धकारा अन्धकारवन्तोऽत एव गम्भीराश्च दृश्यन्ते ये ते तथा / 'उवणिग्गय-वतरुणपत्तपल्लवकोमलउज्जलचलंतकिसलयसुकुमालपवालसोहियवरं कुरग्गसिहरा' उपनिर्गतैर्नवतरुणपत्रपल्लवैरत्यभिनवपत्रगुच्छैः तथा कोमलोज्ज्वलश्चलद्भिः किसलयैः पत्रविशेषैः तथा सुकुमारप्रवालैः शोभितानि वराङ्कुराणि अग्रशिखराणि येषां ते तथा। च अङ्करप्रवालपल्ल्पवकिसलयपत्राणामल्पवबहुबहुतरादिकालकृतावस्थाविशेषाद्विशेषः सम्भाव्यत इति। णिचं कुसुमिया' इत्यादि व्यक्तम्, नवरं 'माइय' ति मयूरिताः 'लवइय' त्ति पल्लविता: 'थवइय' त्ति स्तबकवन्तः। 'गुलइया' गुल्मवन्तः 'गोच्छिया' जातगुच्छा:, यद्यपि च स्तबकगुच्छयोरविशेषा नामकोशेऽधीतस्तथापि इह पुष्पपत्रकृतो विशेषो भावनीयः, 'जमलिय' त्ति यमलतयासमश्रेणितया व्यवस्थिताः, 'जुवलिय' ति युगलतया स्थिता:, 'विणमिय' ति विशेषेण फलपुष्पभारेण नता:, 'पणमिय' त्ति तथैव नन्तुमारब्धाः, प्रशब्दस्यादिकमर्थित्वात् / 'णिचं कुसुमियमाझ्यलवइयथबइयगुलइयगोच्छियजमलियजुवलियविणमियसुविभत्तपिंडिमंजरिवडिंसयधर' त्ति केचित् कुसुमिताद्ये कैकगुणयुक्ता: अपरे तु-समस्तगुणयुक्तास्ततः कुसुमिताश्च तेइत्येवं कर्मधारयः,नवरं सुपिभक्ता:-सुविविक्ता:सुनिष्पन्नतया पिण्ड्योलुम्ब्यो मञ्जय॑श्च प्रतीतास्ता एव अवसंका:-शेखरकास्ता धारयन्ति यश्ते तथा। 'सुयबर हिणमयणसालकोइलकोहंगकोहंगकर्भि-गारकोंडलकजीवं जीवकनंदीमुहकविलपिंगलक्खकारडंचक्कवायकल-हंससारसअणेगउणगणमिहुणविरझ्यसद्गुण्णइयमहुरसरणाइए' शुक्रदीनां सारसान्तानामनेकेषां सकुनगणानां मिथुनैर्वरचितं शब्दोन्नतिकं च उन्नतिशब्दकं मधुरस्वरञ्चनादितंलपितंयस्मिन्सतथा, वनखण्डइतिप्रकृतम्। 'सुरम्मे अतिशयरमणीयः / 'संपिडियदरियभमरमहुकरिपहकरपरिलिंमतछष्पयकुसुमासवलोलमुहुरगुमगुमंतगुंजंतदेसभागे' संपिण्डिता: दृप्तानां भ्रमरमधुकरीणांवनसत्कानामेव पहकर' त्ति निकारायत्रसतथा, परिलीयमाना-अन्यत आगत्य लयं यान्तो मत्तष्पदा: कुसुमासवलोला: किजल्क
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________________ लद्धि 606 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लद्धि लम्पटा:,मधुरं गुमगुमायमाना: गुञ्जन्तश्च-शब्दविशेषं विदधाना: देशभागेषु यस्य स तथा, ततः कर्मधारयः। 'अब्भन्तरपुप्फफले बाहिरपत्तोच्छण्णे पत्तेहि य पुप्फेहि य उच्छण्णपडिवलिच्छण्णे' अत्यन्तमाच्छादित इत्यर्थः, एतानि त्रीण्यापि क्वचिद् वृक्षाणां विशेषणानि दृश्यन्ते-'साउफले' त्ति मिष्टफलः, 'निरोयए' त्ति रोगवर्जितः 'अकाण्टक' इति। क्वचित् - ‘णाणाविहगुच्छगम्ममंडवगरम्मसोहिए' त्ति तत्र गुच्छा: वृन्ताक्यादयो गुल्मानवमालिकादयो मण्डपका लतामण्डपादय: 'रम्भे त्ति' क्वचिन्न दृश्यते-'विचित्त सुहकेउभूए' विचित्रान् शुभान् केतमनध्वजान्भूतः-प्राप्तः। 'विचित्तसुहसेउकेउबहुले' ति पाठान्तरम्, तत्र विचित्रा: शुभा: सेतवः-पालिबन्ध यत्र केतुबहुलश्च य: तथा / 'वावीपुक्खरणीदीहियासु य सुनिवेसियरम्मजालहरए' वापीषु-चतुरसासु पुष्करिणीषु वृत्तासु पुष्करवतीषु-वा दीर्घिकासु च ऋजुसारणीषु सुष्ठ निवेशितानि रम्याणि जालगृहकाणि यत्र स तथा। पिंडिमणीहारिमसुगंधिसुहसुरभिमणहरं च मइया गंधद्धणिं मुयंते णाणाविहगुच्छगुम्ममंडवकघरकसुसेउकेउबहुला अणेगरहजाणजुग्गसिवियपविभोयणा सुरम्मा। पासादीया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा। (सू०३) 'पिंडीमणीहारिमसुगंधिसुहसुरभिमणहरं च गंधद्धणिं मुयंता' पिण्डिमनीहारिमाम् -पुद्गलसमूहरूपां दूरदेशगामिनी च सुगन्धिं च सद्गन्धिको शुभसुरभिभ्यो गन्धान्तरेभ्य: सकाशान्मनोहरा या सा तथा तां महता मोचनप्रकारेण विभक्तिव्यत्ययान्महतीं वा गन्ध एवघ्राणिहेतुत्वात्तुप्तिकारित्वाद्गन्धघ्राणिस्तां मुञ्चन्त इति वृक्षविशेषणम्। एवमितोऽन्यान्यापि- 'णाणाविहगुच्छगुम्ममण्डवकघरकसुहसे-उकेउबहुला' नानाविधा गुच्छा: गुल्मानि मण्डपका गुहकाणि च येषां सन्ति ते तथा, तथा शुभा: सेतवोमार्गा आलवालपाल्यो वा केतवोध्वजा बहुला बहवो येषां ते तथा, ततः कर्मधारयः / 'अणेगरहजाणजुग्गसिवियपविमोयणा' अनेकेषां रथादीनामधोऽतिविस्तीर्णत्वात् प्रविमोचनं येषु ते तथा। 'सुरम्मा पासाईया दरिसाणज्जा अभिरूवा पडिरूव' त्ति एतान्येव वृक्षविशेषणानि वनखण्डविशेषणतया वाचनान्तरेऽधीतानि // 3 // तस्स णं वणसंडस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एके असोगवरपायवे पण्णत्ते, कुसविकुसविसुद्धरुक्खमूले मूलमंते कंदमंतेजाव पविमोयणे सुरम्मे पासादीए दरिसणिज्जे अभिरूवे पडिरूवे। 'तस्सणं वणसंडस्स' इत्यादौ अशोकपादपवर्णके क्वचिदिदमधिकमधीयते-'दूरोवगयकंदमूलवट्टलट्ठसंठियसिलिट्टणमसिणनिद्धसुजायनिरुवहउव्विद्धपवरखंधी' दूरोपगतानि-अत्यर्थ भूम्यामवगाढानि कन्दमूलानि प्रतीतानि यस्य स तथा, वृत्तो-वत्तुलो लष्टो-मनोज्ञः, संस्थितो विशिष्टसंस्थान:, श्लिष्टः-सङ्गतो, घनो-निविडो, मसृण:-अपरुष: स्निग्धः-अरुक्षः, सुजात:-सुजन्मा, निरुपहतो-विकारविरहित / उद्विद्धः अन्यर्थमुच्च:, प्रवर:-प्रधान:, स्कन्धः-स्थुडं यस्य स तथा, इन्प्रत्ययश्च समासान्तः / 'अणेगनरपवरभुयागेज्झो अनेकनराणां प्रवरभुजे:-प्रलम्बबाहुभिर्वामाभिरित्यर्थः अग्राह्यः-अनश्लेष्यो य: स तथा, 'कुसुमभरसमोनमंतपत्तलविसालसालो' कुसुमभरेण समवनमन्त्य: पत्रला:-पत्रवत्य: विशाला: शाला यस्य स तथा। 'महुकरिभमरणगुमगुमाइयनिलिंत उडितसस्सिंरीए' मधुकरीभ्रमरगणेनलोकरूढिगम्येन, 'गुमगुमाइंत' त्ति कृतगुमगुमेतिशब्देन, निलीयमानेननिविशमानेन, उड्डीयमानेन च उत्पतता सश्रीकः-सशोभा य: स तथा। 'णाणासउणगण-मिहुणसुमहुरकण्णसुहपलत्तसद्दमहुरे' ति नानाविधानां शकुनिगणानां यानि मिथुनानि तेषां सुमधुर: कर्णसुखश्च य: प्रलप्तशब्दस्तेन मधुर इव मधुरो मनोज्ञोयस तथा। अथाधिकृतवाचना'कुसविकुसविसुद्धरुक्खमूले' त्ति कुशादर्भाः विकुशावल्वलजादयस्तौर्विशुद्धम् -विरहितं वृक्षानुरूपंवृक्षविस्तरप्रमाणमित्यर्थो मूलमम्समीपं यस्य स तथा। 'मूलमंते' इत्यादि विशेषणानि पूर्ववद्वाच्यानि, यावत्पडिरूवेति॥ सेणं असोगवरपायवे अण्णेहिं बहूहिं तिलएहिलउहि छत्तोवेहि सिरीसेहिं सत्तवण्णेहिं दहिवण्णेहिं लोद्धेहिं धवेहिं चंदणेहिं अजुणेहिं णीवहिं कुडएहिं सवेहिं फणसेहिं दाडिमहिं सालेहिं तालेहिं तमालेहिं पियएहिं पियंगूहिं पुरोवगेहिं रायरुक्खेहि णंदिरुक्खे हिं सवओ समंता संपरिक्खित्ते, ते णं तिलया लवइय० जाव णंदिरुक्खा कुसविकुसविसुद्धरुक्खमूलामूलमंतो कंदमतो, एतेसिं वण्णओ भाणियव्वो० जाव सिवियपविमोयणा सुरम्मा पासादीया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा ते णं तिलया० जाव णंदिरुक्खा अण्णेहिं बहूहिं पउमलया-हिं णागलयाहिं असोअलयाहिं चंपगलयाहिं चूयलयाहिं वणलयाहिं वासंतियलयाहिं अइमुत्तयलयाहिं कुंदलयाहिं सामलयाहिं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ता, ताओ णं पउमलयाओ णिबं कुसुमियाओ०जाव वडिंसयधरीओ पासादियाओ दरिसणिजाओ अभिरुवाओ पडिरूओ। (सू०५) सोऽशोकवरपादप: अन्यैर्बहुलभिस्तिलकैलकुचैश्छत्रोपैः शिरीषैः सप्तपणैः-अक्छदपर्यायैः अयुक्पत्रनाममकैर्दधिपणैः लोधेः धवैः चन्दनैः-मलयजपर्यायैरर्जुनः-ककुरापर्यायैः नीपैः-कदम्बैः कुटजैःगिरिमल्लिकापर्यायैः सव्यैः पनसैाडिमैः शल:-सर्जपर्यायैस्तालैः तृणराजपर्यायैः तमालैः प्रियकैः-असनपर्यायैः प्रियङ्गुभिः-श्यामपर्यायैः पुरोपगैः राजवृक्षः नन्दिवृक्षः-रूढगम्यैः सर्वतः समान्तात्सम्परिक्षिप्त इत्यादि सुगमम्, आपद्मलताशब्दादिति। 'पउमलयाहिं ति पद्मलता:स्थलकमलिन्य: पद्मकाभिधानवृक्षलता वा, नागादयो वृक्षविशेषास्तेषां लतास्तनुकास्तएव, तत्राशोकः कङ्केली चूतः-सहकार: वन:-पीलुकः, वासन्तीलता अतिमुक्तकलताश्च यद्यप्येकार्था नामकोशेऽधीनास्तथाऽपीह भेदो रूढितोऽसेयः / श्यामा-प्रियङ्गुः शेषलता रूदिगम्या:, इह
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________________ लवणसमुह 607 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लवणसमुह लतावर्णकानन्तरमधोकवर्णकं पुस्तकान्तरे इदमधिकमधीयते-'तस्स पादपस्य यदधोऽत्रेत्येवं सम्बन्धनीयः। विक्खंभ्भायामउस्सेहसुप्पमाणे' णं असोगवरपायवस्स उवरि बहवे अट्ठ अट्ठ मंगलगा पण्णत्ता' विष्कम्भ:-पृथुत्वम्, आयामोदैर्ध्यम, उत्सेध उच्चत्वमेषु सुप्रमाण:अष्टावष्टाविति वीप्साकरणात्प्रत्येकं तेऽष्टाविति वृद्धाः, अन्ये त्वष्टाविति उचितप्रमाणो य: स तथा। किण्हे त्ति कालः, अतएव 'अंजण-घणकिसंख्या, अष्टमङ्गलकानीति च संज्ञा। 'तं जहा-सोवत्थिय 1 सिरिवच्छ वाणकुवलयहलधरकोसेजागासकेसकज्जलंगीखंजणसिंगभेदरिट्ठय२ नंदियावत्त 3 वद्धमाणग 4 भद्दसणा 5 कलस 6 मच्छ 7 दप्पणा' 8, जम्बूफलअसणकसणवंधणनीलुप्पलपत्तनिकरअर्यासकुसुमप्पगासे' तत्र श्रीवत्स:-तीर्थङ्करहृदयावयवविशेषाकारो, नन्द्यावर्तः-प्रतिदिन- नील इत्यर्थः, तत्र अञ्जनको वनस्पतिविशेष: 'हलधरकोसेज्ज' बलदेववकोणः, स्वस्तिकविशेषो रूढिगम्यो, वर्द्धमानकंशगवम्, पुरुषारूढः पुरुष इत्यन्ये, भद्रासनम् -सिंहासनम्, दर्पण:-आदर्श:, शेषाणि रत्नम् असनकोवीयकाभिधानो वनस्पति: सनबन्धनम् -सनपुप्पवृन्तम्। प्रतीतानि। 'सव्वरयणामया' अच्छा:-स्वच्छा:, आकाशस्फटिकवत्, 'भरकयमसारकलित्तणयणकीयरासिवण्णे' मरकतम् -रत्नम् मसारो'सण्हा' श्लक्ष्णा:-श्लक्ष्णपुदलनिवृत्तत्वात्, 'मण्हा' मसृणाः,घट्ठा' धृष्टा मसृणीकारकः पाषाणविशेष:, स चात्र कषपट्टः सम्भाव्यते 'कलित्तं' ति इव घृष्टा: खरशानया प्रतिमेव 'मट्ठा' मृष्टः-सुकुमारशानया प्रतिमेव कलित्रं कृत्तिविशेष: नयनकीकानेत्रमध्यतारा तद्राश्विर्णः काल इत्यर्थः / प्रमार्जनिकयेव वा शोधिता:, अत एव 'निरया' नीरजस:-रजोरहिता: 'गिद्धघणे' स्निग्धघन: अट्ठसिरे' अष्टसिरा अष्टकोण इत्यर्थः। 'आयंस'निर्मला:' कठिनमलरहिता: 'निप्पंका' आर्द्रमलरहिता: 'निक्कंकड़- यतलोवमे सुरम्मे ईहामियउसभतुरगनरमगरविहगवालगकिण्णररुरुसरच्छाया' निरावरणदीप्तय: 'सप्पहा' सप्रभा: 'समिरीइया' सकिरणा: भचमरकुंज-रवणलयपउमलयभत्तिचित्ते' ईहमृगा:-वृका: व्यालका:'सउज्जोया प्रत्यासन्नवस्तूद्योतका: 'पासादीया०४।'तस्सणं असोग- स्वापदभुजगाः / 'आइणगरूयवूरणवणीयतूलफरिसे' आजिनकम् वरपावस्स उवरि बहवे 'किण्हचसमरज्झया' कृष्णवर्णचामरयुक्तध्वजा: चर्मभयवस्त्रं रूतम् प्रतीतम् बूरो-वनस्पतिविशेष:, तूलम्अर्कतूलम् 'नीलचामरज्झया लोहियचामरज्झवासुकिल्लचामरज्झयाहालिद्द- 'सीहासणसंठिए' सिंहासनाकार:, 'पासादीए० जाव पडिरूवे' त्ति चामरज्झया अच्छा सण्हा' 'रुप्पपट्टा' रौप्यमयपताकापटा: 'वइसमयदंडा' वज्रदण्डा: 'जलयामलगंधिया' पद्मवत् निर्दोषगन्धा: 'सुरम्मा लिख्यते-अञ्जनकधनकुवलयहलधरकौशेयकैः सदृश:, धनो-मेघ पासादीया' 'तस्स णं दसोगवरपायवस्स' 'उवरि' उपरिष्टात् 'बहवे' इत्यर्थः आकाशके शकज्जलकर्के तनेन्द्रनीलातसीकुसुमप्रकाश: 'छत्ताइच्छत्ता' 'उपर्युपरिस्थिताऽऽतपत्राणि 'पडामाइडाया' पताको- कर्केतनेन्द्रनीलेरत्नविशोषौ, भृङ्गाञ्जनङ्गभेदरिष्टकनीलगुलिकागवपरिस्थितपताका: 'घण्टाजुयला चामरजुयला' 'उप्पलहत्थगा' लातिरेकभ्रमरनिकुरम्वभूतः, भृङ्ग:-कीटविशेषोऽङ्गारविशेषो वा अञ्जनीलोत्पलकलापा: 'पउमहत्थगा' पद्मानिरविबोधेध्यानि 'कुसुय- नमम्सौवीराञ्जनम्, शृङ्गभेदो-विषाणच्छेदो विषाणविशेषो वा, रिष्टःहत्थगा' कुमुदानि-चन्द्रबोध्यानीति, 'कुसुमहत्थय' त्ति पाठान्तरं- काकः फलविशेषो वा अथवा अरिष्टनीले रत्नविशेषौ गुलिका-वर्णद्रव्य'नलिणहत्थगा सुभगहत्था सोगंधियहत्थगा' नलिनादयः पद्मविशेषा विशेषो गवलम्-महिषयाङ्गम्, एतेभ्योऽतिरेको नीलतयाऽतिरेकवान् यः रूढिगम्या:, 'पुंडरीयहत्थया' पुण्डरीकाणिसितपद्मानि 'महापुंडरीय- तथा, सचासौ भ्रमरनिकुरम्बभूतश्चेति कर्मधारयः। निकुरम्बः-समूह: हत्था' महापुण्डरीकाणि तान्येव महान्ति 'सयपत्तहत्था सहस्सपत्तहत्था जम्बूफलासनकुसुमबन्धननीलोत्पलपत्रनिकरमरकताशासकनयनसव्वरयणामया अच्छा० जाव पडिरूवा 4'||4|| कीकाराशिवर्णः-आशासको-वृक्षविशेष:, स्निग्धेधनोऽत एवाशुषिर: तस्स णं असोगवरपायवस्स हेट्ठा इसिं खंधसमल्लीणे एत्थ रूपपकप्रतिरूपदर्शनीय:-रूपकैः प्रतिरूपोरूपवान् अत एव दर्शनीयश्चणं महं एक्के पुढविसिलापट्टए पण्णत्ते, विक्खंभायामउस्सेह- दर्शनयोग्यो य: स तथा मुक्ताजालखचितान्तकर्मामुक्ताजालकपरिसुप्पमाणे किण्हे अंजणघणकिवाणकुवलयहलधरकोसेजा- मतप्रान्त इत्यर्थः।।५।। औ० गासकेस-कज्जलंगीखंजणसिंगभेदरिठ्ठयजंबूफलअसणक (4) संप्रति लवणसमुद्रद्वारवक्तव्यतामधित्सुरिदमाहसणबंधणणीलुप्पलपत्तनिकरअसिकुसुमप्पगासे मरकतम- लवणस्स णं भंते समुहस्स कति दारा पण्णत्ता ? गोयमा ! सारकलित्तणयकीयरासिवण्णे सिद्धधणे अट्ठसिरे आयंसयत- चत्तारिदारा पण्णत्ता, तं जहा-विजये वेजयंतेजयंते अपराजिते। लोवमे सुरम्मे ईहामियउसमतुरगनरमगरविगहवालगकिण्ण- 'लवणस्सणं भंते' ! इत्यादिलवणस्य भदन्त ! समुद्रस्य कति द्वाराणि ररुरुसरभचमरकुंजरवणलयपउमलयभत्तिचित्ते आइणगरूय- प्रज्ञप्तानि ? भगवानाह-गौतम ! चत्वारि द्वाराणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथाबूरणवणीततूलफरिसे सीहसणसंठिए पासादीए दरिसणिज्जे विजय-वैजयन्त वक्जयन्ताऽपराजिताख्यानि। अभिरूवे पडिरूवे / (सू०५) विजयद्वारप्रश्न:अथाधिकृतवाचना आश्रीयते-'ईसिं खंधसमल्लीणे' मनाक् स्कन्धा- | कहि णं भंते लवणसमुहस्स विजए णामं दारे सन्न इत्यर्थः / एत्थणं महं एक्क' इत्यत्र 'एत्थणं' ति शब्द: अशोकवर- | पण्णत्ते ? गोयमा ! लवणसमुदस्स पुरथिमपेरंते घायइखं
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________________ लवणसमुह 608 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लवणसमुद्द डस्स दीवस्स पुरित्थिमद्धस्स पचत्थिमेणं सीओदाए महानदीए उप्पिं एत्थ णं लवणस्स समुदस्स (जी०३ प्रति०२ उ० सू०१५४) विजय णामंदारे पण्णत्ते, अट्ठ जोयणाई उड्ढ उच्चत्तेणं चत्तारिजोयणाई विक्खंभेणं,तावतियं चेव पवेसेणं सेए वरकणगथूभियागे ईहामियउसमतुरगनरमगरविहगवालगकिण्णररुरुसरभचमरकुंजरवणलतपउमलयभत्तिचित्ते खंभुगतव- 1 इरवेदियापरिगताभिरामे विजाहरजमलजुयलजुतजुत्ते इव अचीसहस्समालिणीए रूवगाहस्सकलिते भिसिमाणे भिब्मिसमाणे चक्खुल्लोयणलेसे सुहफासे सस्सिरीयरूवे वण्णा | दारस्स (तस्सिमो होइ) तं जहा०वइरामया णिम्मा रिट्ठामया पतिट्ठणा वेरूलियामया खंभा जायरूवोवचियपवरपंचवण्णमणिरयणकोट्टिमतले हंसगब्भमए एलुए गोमेजमते इंदक्खीले लोहितक्खमईओ दारचिडाओ जातिरसामते उत्तरंगे वेरुलियामया कवडावइरामया संघीलोहितक्खमईओ सुइओ णाणामणिमया समुग्गगा वइरामई अग्गलाओ अग्गलपासाया वइरामई आवत्तणपेढिया अकुत्तरपासते धिरंतरितघणकवाछे भित्तीसुचेव भित्तीगुलिया छप्पण्णा तिण्णि हॉति, गोसाणसी तत्तिया णाणामणिरयणवालरूवगलीलट्ठियसालिमंजिया वइरामए कुडे रययामए उस्सेहे सव्वतवणिजमए उल्लोए णाणामणिरयणजालपंजरमणिवंसगलोहितक्खपडिवंसगरयतभोम्मे अंकामया पक्खबाहाओ जोतिरसामया वेसा वंसकवेल्लुगा य रयामयी पट्टिताओ जायरूवमती ओहछणी वइरामयी एवरि पुच्छणी सव्वसेतरययमए डायणे अंकमतकणगकूडतवणिज्जथूभियाए सेते संखतलविमलणिम्मलदधिधणगोखीरफेणरययणिगरप्पगासे तिलगरयणद्धचंदचित्ते णाणामणिमयदामालंकिए अंतो य बहिं च सण्हे तवणिज्जरुइलवालुयापत्थडे सुहप्फासे सिस्सिरीयरूवे पासातीए॥१॥ 'कहि ण' मित्यादि, क्व भदन्त ! लवणसमुद्रस्य विजयनाम द्वारं प्रज्ञाप्तम् ? भगवानाह-गौतम! लवणसमुद्रस्य पूर्वपर्यन्तेधातकीखण्डद्वीपपूर्वार्द्धस्य 'पञ्चत्थिमेणं' ति पश्चिमभागे शीतोदाया महानद्या उपर्यत्रान्तरेलवणसमुद्रस्य (जी०३ प्रति०२ए० सू०१५४) विजयनामं द्वारं प्रज्ञप्तम्, अष्टौ योजनानि ऊर्ध्वमुच्चैस्त्वेन चत्वारि योजनानि विष्कम्भेन, 'तावइयं चेव पवेसेणं तितावन्त्येव चत्वारीत्यर्थः योजनानि प्रवेशेन, कथम्भूतमित्यर्थः, 'सेए' इत्यादि, श्वेतमम्श्वेतवर्णोपेतं बाहल्येनाङ्करत्नमयत्वात् 'वरकणगथूभियाए' इति वरकनकावरकनकमयी स्तूपिका-शिखरं यस्य तद् वरकनकस्तूपिकाकम, 'ईहामियउसभतुरगनरमगरविहगवालगकिन्नररुरुसरभचमरंकुजरवणलयपउमलयभत्तिचित्ते खभुग्गयवरवेइयापरिगयाभिरामे विज्जाहरजमलजुगलजंतजुत्ते इव अचीसहस्समालणाए रूवगसहस्सकलिए भिसमाणे भिडिभसमाणे चम्खुल्लोयणलेसे सुहफासे सस्सिरीयरूवे' इति विशेषण जातं प्राग्वत्। वण्णो दारस्स तस्सिमो होइ' इति 'वर्णः' वर्णकनिवेशो द्वारस्य तस्य-विजयाभिधानस्य अयम् -वक्ष्यमाणो भवति, तमेवाह'तं जहे' त्यादि, तद्यथा-वज्रमया नेमा: भूतिभागादूर्ध्वं निष्क्रामन्तः प्रदेशा: रिष्टमयानि प्रतिष्ठानानिमूलपादा: 'वेरुलियरुइलखंभे' इति वैडूर्यावैडूर्यरत्नमया रुचिराः स्तम्भा यस्य तद् वैडूर्यरुचिरस्तम्भं 'जायरूवोवचियपवर पंचवण्णमणिरयणकुट्टितमले' इति। जातरूपेणसुवर्णेनोपचितैः-युक्तैः प्रवरैः-प्रधानैः पञ्चवर्णमणिभिः चन्द्रकान्तादिभी रत्नैः कर्केतनादिभिः कुट्टिमतलम् -बद्धभूमितलं यस्य तत्तथा 'हंसगब्भमए एलुगे' इति हंसगर्भोरत्नविशेषस्तन्मय एलुको-देहली 'गामेज्जमयइंदक्खीले' इति गोमेयकरत्नमय इन्द्रकीले लोहिताक्षरत्नमय्यौ द्वारपिण्डौ (चेट्यै द्वारशाखे 'जोइरसामए उत्तरंगे' इति ज्योतीरसमयमुत्तरङ्गम् -द्वारस्योपरि तिर्यग्व्यवस्थितं काष्ठं वैडूर्यमयौ कपाटौ लोहिताक्षमय्योलोहिताक्षरत्नात्मिकाः सूचय:-फलकद्वयसम्बन्धविघटनाभावहेतुपादुकास्थानीया: 'वइरामया संधी' वज्रमयाः-सन्धयः सन्धिमला फलकानाम्, किमुक्तं भवति ? वज्ररत्नापूरिता: फलकानां सन्धयः, नानामणिमया समुग्गया' इति समुद्रका इव समुद्रकासूतिका गृहाणि तानि नानामणिमयानि 'वइरामया अग्गला अग्गलपासाया' अर्गला: प्रतीता: अर्गलाप्रासादा; यत्रार्गलानियम्यन्ते, आह च मूलटीकाकार:- "अर्गलाप्रासादा यत्रार्गला नियम्यन्ते" इति, एतौ द्वावपि वजरत्नमयौ, 'रययामयी आवत्तणपेढिया' इति आवर्तनपीठिका यत्रेन्द्रकीलिका, उक्तं च मूलटीकायाम्"आवर्तनपीकिा यत्रेन्द्रकीलको भवति" अंकुत्तरपासाए' इति अङ्का-अङ्करत्नमयाउत्तरपार्वा यस्य तद् अङ्कोत्तरपार्श्व 'निरतरियघणकवाडे इति, निर्गता अन्तरिका लघ्वन्तररूपा ययोस्तौ निरन्तरिकौ अत एव घनौ कपाटौ यस्य तन्निरन्तरघनकपाटम् 'भित्तिसु चेव भित्तिगुलिय छप्पण्णा तिन्नि होति' इति, तस्य द्वारस्यो भयो: पार्श्वयोगिर्भित्तिषु भित्तिगता भित्तिगुलिका: पीठकसंस्थानीयास्तिस्रः षट्पञ्चाशतः-षट्पञ्चाशत् त्रिकप्रमाणा भवन्ति, 'गोमाणसिया तत्तिया' इति, गोमनस्य:-शय्या: 'तत्तिया इति, तावन्मात्रा: षट्पञ्चाशत्त्रिकसंख्याका इत्यर्थ, 'नानामणिरयणवालरूवगलीलट्ठियसालभंजियाए' इति, इदं द्वारविशेषणं, नानामणिरत्नानिनानामणिरत्नमयानि व्यालरूपकाणि लीलास्थितशालभञ्जिकाश्च-लीलास्थितपुत्रिकाश्च यस्य तत्तथा 'वइरामए कुडे' वज्रतयो-वज्ररत्नमय कूटोमाडभागः रजतमय उत्सेध:-शिखरम्, आह च मूलटीकाकार: "कूटो-माडभाग उच्छ्य:-शिखर" मिति, केवलं शिखरमत्र तस्यैव माडभगस्य सम्बन्धि द्रष्टव्यं न द्वारस्य, तस्य प्रागेवोक्तत्वात्, सव्वतवणिज्जमए उल्लोए' सर्वात्मना तपनीयमय उल्लोकः-उपरिभागः 'नानामणिरयणजालपंजरमणिवसगलोहियक्खपडिवंसगरययभोमे 'इति, मणयो मणिमया वंशा येषां तानि मणिमयवंशकानि लोहिताक्षा लेहिताक्षमयाः प्रतिवंशा येषां तानि लोहिताक्षप्रतिवंशकानि रजत्य - रजतमयी भूमिर्यषां तानि रजतभूमानि, प्राकृतत्वात्समासान्तो मकारस्य च द्वित्वम्, मणिवंशकानि लोहिताक्षप्रतिवंशकानि रज
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________________ लवणसमुद्द 606 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लवणसमुद्ध तभूमानि नानामणिरत्नानि-नानामणिरत्नमयानि जालपञ्जराणिगवाक्षापरपर्यायाणि यस्मिन् द्वारे तत्तथा, पदानामन्यथोपनिपातः प्राकृतात्वात्, 'अंकमया पक्खा पक्खबाहाओ जोईरसरमया वंसा वंसकवेल्लुगा य रययामईओ पट्टियाओ जायरूयमईओ ओहाडणीओ वइरामईओ उवरिपुंछणीओ सव्वसेयरययामए छा (य) णे' इति पद्मवरवेदिकावद्भवनीयम्, 'अंकमयकणगकूडतवणिजथूभियोगे' इति अङ्कमयं-बाहुल्येनाङ्करत्नमयं पक्षबाह्लादीनामङ्करत्नात्मकत्वात् कनकंकनकमयं कूटम-शिखरं यस्य तत् कनककूटं तपनीया-तपनीयमयी स्तूपिका-लघुशिखररूपा यस्य तत्तपनीयस्तूपिकाकम्, ततः पदत्रयस्य पदद्वयमीलनेन कर्मधारयरू, एतेन यत् प्राक्सामान्यत उत्क्षिप्तं 'सेए वरकणगथूभियागे' इति तदेव प्रपञ्चतो भावितमिति / सम्प्रति तदेव श्वेतत्वपुपसंहारव्याजेन भूय उपदर्शयति-'सेए' श्वेतं, श्वेतत्वमेवोपमया द्रढयति- 'संखतलविमलनिम्मलदधिधणगोखीरफेण रययनिगरप्पगासे' इति, विमलम् -विगतमलं यत् शङ्घतलं शङ्खस्योपरितनो भागो यश्च निर्मलो दधिघनो-घनीभूतं दधि गोक्षीर फेनो रजतनिकरश्च तद्वत्प्रकाश:-प्रतिमता यस्य तत्तथा, 'तिलगरयणद्धचंदचित्ते' इति तिलकरत्नानि-पुण्डविशेषा-स्तैरर्द्धचन्द्रश्च चित्राणिनानारूपाणि तिलकार्द्धचन्द्रचित्राणि, क्वचित् 'संखतलविमलनिम्मलदधिघणगोखीरफेणरयनियरप्प-गासद्धचंदचित्ता इति पाठस्य पूर्ववत् पृथक् पृथग् व्युत्पत्तिं कृत्वा पश्चात्पदद्वयस्य पदद्वयस्य कर्मधारयः, नाणमणिदामालंकिए' नानामणयो-नानामणिमयानि दामानिमालास्तैरलंकृतं नानामणिदामालंकृतम् अन्तर्बहिश्च 'श्लक्ष्णं' श्लक्ष्णपुद्गलस्कन्ध निर्मापितम् 'तवणिज्जवालुयापत्थडे' इति तपनीयाः-तपनीयमय्यो या वालुका:-सिकतास्तासां प्रस्तटः-प्रस्तारो यस्मिन तत्तथा, 'सुहफासे सस्सिरीयरूवे पासाईएत्र जाव पडिरूवे' इति प्राग्वत्। (5) लवणसमुद्रविजयद्वारस्य नैषेधिक्यां चन्दनकलशानन्प्रतिपादयतिविजयस्सणं दारस्स उभयो पासिं दुहतो णिसीहियाते दो दो चंदणकलसपरिवाडीओ पण्णत्ताओ, ते णं चंदणकलसा वरकमलपइहाणा सुरभिवरवारिपडिपुण्णा चंदणकयचबागा आबद्धकं ठेगुणा पउमुप्पलपिहाणा सव्वरयणामया अच्छा सण्हा० जाव पडिरूवामहतामहता महिदकुंभसमाणापण्णत्ता, समणाउसो! 'विजयस्स णं दारस्से' ज्यादि, विजयस्य णमिति प्राग्वत् द्वारस्य उभयो: पार्श्वयोरेकैकनैषेधिकीभावेन 'दुहतो' इति द्विधातो द्विप्रकारायां नषेध्क्यिां , नैषेधिकीनिषीदनस्थानम्, उक्तं च मूलटीकाकारण"नैषोध्किी निषीदनस्थान' मिति, प्रत्येकं द्वौ द्वौ चन्दनकलशौ प्रज्ञप्ती, तेच चन्दनकलशा: 'वरकमलपइट्ठाणं' इति वरं-प्रधानं यत्कमलं तटातिष्ठानमाआधारो येषां ते वरकमलप्रतिष्ठानाः, तथा सुरभिवरवारिप्रतिपूर्णाश्चन्दनकृतचर्चाका:-चन्दनकृतोपरागा: आवद्धकंठेगुणा' इति आवद्धः आरोपितः कण्ठे गुण्णेरक्तसूत्ररूपो येषा ते आवद्धकण्ठेगुणा:, कण्ठेकालवत्सप्तम्या अलुक्, 'पउमुप्पलपिहाणा' इति, पद्ममुत्पलं च यथायोगं पिधानं येषां ते पद्मोत्पलपिधाना: 'सय्वरयणामया अच्छा० जाव पडिरूवा' इति प्राग्वत् 'महया महया' इति अतिशयेन महान्तो महेन्द्रकुम्भसमानाः, कुम्भानामिन्द्र इन्द्रकुम्भो, राजदन्तादिदर्शनादिन्द्रशब्दस्य पूर्वनिपातः, महांश्चासौ इन्द्रकुम्भश्च तस्य समाना: महेन्द्रकुम्भसमानाः-महाकलशप्रमाणा: प्रज्ञप्ता: हे श्रमण! हे आयुष्मन्!। विजयस्स णं दारस्स उभयो पासिंदुहितोणिसीहिआए दो दो णागदंतपरिवाढीओ, ते णं णागदंतगा मुत्ताचालंतरूसितहेमजालगवक्खजालखिंखिणीघंटाजालपरिक्खित्ता अग्भुगता अभिणिसिट्ठा तिरियं सुसंपग्गहिता अहेपण्णगदरूवा पण्णगद्धसंठाणसंठिता सव्वरयणामया अच्छा० जीव पडिरूवा महया गयदंतसमाणा पण्णत्ता,समणउसो।। "विजयस्स ण' मित्यादि, विजयस्य द्वारस्य उभयोः पार्श्वयौरेकैकनषेधिकीभावेन द्विधातो नैषेधिक्यं द्वौ द्वौ नागदन्तकौनकुटको अडटकावित्यर्थः प्रज्ञप्तो, तेच नागदन्तकाः 'मुत्ताजालंतरूसियहेमजालगवक्खजालखिंखिणीजालपरिक्खित्ता' इति मुक्ताजालानामन्तरेषु यानि एत्सृतानिलम्बमानानि हेमजानानि-हेममयदामसमूहा: यानिच गवाक्षजालानि-गवाक्षाकृतिरत्नविशेषदामसमूहा: यानिच किङ्किणी-क्षुद्रघण्टा किङ्किणीजालानिक्षुद्रघण्टासङ्घातास्तैः परिक्षिप्ता: सर्वतो व्याप्ता: 'अब्भुग्गया' इति अभिमुखमुद्ता अभ्युद्रता अग्रिमभागे मनाग उन्नता इति भाव: 'अभिनिसिट्ठा' इति अभिमुखं-बहिर्भागाभिमुखं निसृष्टाः अभिनिसृष्टाः 'तिरियं सुसंपग्गहिया' इति तिर्यग् -भित्तिप्रदेशे सुष्टु अतिशयेन सम्यग् -मनागप्यचलनेन परिगृहीता: सुसंपरिगृहीता; 'अहेपन्नगद्धरूवा' इति अधरू-अधस्तनं यत्पन्नगस्य-सर्वस्यार्द्ध तस्येव रूपमम्आकारो योषां ते तथा, अध: पन्नगार्द्धवदति-सरला दीर्घाश्चेति भावः एतदेव व्याचष्टे-पन्नगार्द्धसंस्थानसंस्थिता:-अध: पन्नगार्द्धसंस्थानसंस्थिता: 'सव्ववइरामया' सर्वात्मना वज्रमया: 'अच्छा सण्हा० जाव पढिरूवा' इति प्राग्वत् 'महया महया' इति अतिशयेन गजदन्तसमाना:-गजदन्ताकारा: प्रज्ञप्ता: हे श्रमण ! हे आयुष्मान् ! तेसु णं णागदंतएसुबहवे किण्हसत्तबद्धवग्धारितमल्लदामकलावा० जाव सुकिल्लसुत्तबद्धवग्धारियमल्लदामकलावा।। ते णं दामा तवणिजलंबूसगा सुवण्णपतरगमंडिता णाणामणिरयणविविधहारद्धहार (उवसोभितसमुदया). जाव सिरिए अतीव अतीव उवसोमेमाणा उवसोभेमाणा चिट्ठति / / तेसिणं
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________________ लवणसमुद्द 610- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लवणसमुह णागदंतकाणं एवरि अण्णओ दो दो णागदंतपरिवाडीओ पण्णत्ताओ, तेसि णं णागदंतगाणं मुत्ताजालंतरूसिया तहेव० जावसमणाउसो ! तेसुणं णागदंतएसु बहवे रयतामया सिक्कया पण्णत्ता, तेसु णं रयतामएसु सिक्कएसु बहवे वेरुलियामतीओ धूवघडीओ पण्णत्ताओ,तं जहा-ताओणं धूवघडीओ कालागुरुपवरकुंद३कतुरुकधूवमघमघंतगंधुद्धयाभिरामाओ सुगंधवरगंधगंधियाओ गंधवट्टिभूयाओ ओरालेणं मणुण्णेणं घाणमणणिव्वुइकरेणं गंधेणं तप्पण्से सवतो समंता आपूरेमाणीओ आपूरेमाणीओ अतीव अतीव सिरिए जाव चिटुंति॥ 'तेसु णं नागदन्तएसु' इत्यादि, तेषु च नागदन्तकेषु बहवः कृष्णसूत्रे बद्धाः 'वग्धारिया' इति अवलम्बिता: माल्यदामकलापा:-पुष्पमालासमूहा बहवो नीलसूत्रबद्धा माल्यादामकलापा:,एवं लोहितहारिद्रशुक्लसूत्रबद्धा अपि वाच्या: 'ते णं दामा' इत्यादि तानि दामानि तवनिजलंबूसगा' इति, तपनीय:-तपनीयमयो लम्बूसकोदानामग्रिमभागे प्राङ्गणे लम्बमानो मण्डनविशेषो गोलकाकृतिर्येषां तानि तपनीयलम्बूसकानि 'सवण्णपयरगमंडिया' इति पार्श्वतः सामस्त्येन सुवर्णप्रतरेणसुवर्णपत्रकेण मण्डितानि सुवर्णप्रतरकमण्डितानि 'नानामणिरयणविविहहारद्धहारउवसोभियसमुदया' इति नानारूपाणां मणीनां रत्नानां च ये विविधाविचित्रवर्णा हारा-अष्टादशसरिका अर्द्धहारानवसरिकास्तैरुप शोभितः समुदयो येषां तानि, तथा-'जाव सिरिए अतीव उवसोभेमाणा चिट्ठति' अत्र यावत्करणादेवं परिपूर्णः पाठो द्रष्टव्यः - ईसिमण्णभणामसंपत्ता पुव्वावरदाहिणुत्तरागएहिं वाएहिं मंदायं मंदायमेइज्जमाणा पलंवमाणा पलंवमाणा परुंभ (झंझ) माणा ओरालणं मणुन्नेणं गणहरेणं कणामणनिव्वुइकरेणं देणं ते पएसे सव्वतो समंता आपूरेमाणा आपूरमाणा सिरीए उवसोभेमाणा उवसोभेमाणा चिष्टंति। एतच्च प्रागेव पद्मवरवेदिकावर्णने व्याख्यातमिति भूयो न व्याख्यायते। तेसि णं नागदंताण' मित्यादि, तेषां नागदन्तानामुपरि अन्यौ द्वौ नागदन्तकौ प्रज्ञप्तौ, ते च नागदन्तका: 'मुत्ताजालंतरूसियमेहजालगवक्खजाल' इत्यादि प्रागुक्तं सर्व दृष्टव्यं यावद् गजदन्तसमाना: प्रज्ञप्ता: हे श्रमण! हे आयुष्मान् ! तेसु गंणागदंतएसु' इत्यादि, तेषु नागदन्तकेषु बहूनि रजतमयानि सिक्ककानि प्रज्ञप्तानि, तेषु च रजतमयेषु सिक्ककेषु-बहवो वैडूर्यरत्नमय्यां-वैडूर्यरलाम्तिका रू धूपघट्यो-घूपघटिका:प्रज्ञप्ता:, ताश्च धूपघटिकाः, कालागुरुपवरकुंदुरु-क्कतुरुक्कधूवमघमघंतगंधुद्धयाभिरामा' कालागुरुः प्रासद्धः प्रवर:-प्रधान: कुन्दुरुष्क:-चीडा तुरुष्कं-सिलकं कालागुरुश्च प्रवरकुन्दरुप्कतुरुष्के च कालागुरुगुरुप्रवरकुन्दुरुष्कतुरुष्काणि तेषां धूपस्य यो मघमघायमानो गन्ध दद्भूत -इतस्तो विप्रसृतस्तेनाभिरामा: कालागुरुप्रवरकुन्दुष्कतुरुरूधूपमघम-घायमानगन्धोद् घृताभिरामा: तथा शोभनो गन्धो येषं ते सूगन्धास्ते च त वरगन्धास्तेषां गन्ध: स आस्वस्तीति सुगन्धवरगन्धका: 'अतोऽनेकस्वरादि' तीकप्रत्ययः, अत एव गन्धवर्तिभूता:-सौरभ्यवर्तिभूता: सौरभ्यातिशयाद्गन्धद्रव्यगुटिकाकल्पा: उदारेण-स्फारेण मनोज्ञेन-मनोऽनुकूलेन, कथा मनोऽनुकूलत्वम् ? अत आह-घ्राणनिर्वृतिकरण, हेतौ तृतीया, यतो घ्राणमनोनिर्वृतिकरस्ततो मनोज्ञस्तेन गन्धेन तान् प्रत्यासन्नान् प्रदेशान् आपूरयन्त्य आपूरयन्त्य: अत एव श्रियाऽतीव शोभमानास्तिष्ठन्ति। (6) लवणसमुद्रस्य विजयद्वारे शालभिजका: प्रतिपादयतिविजयस्स णं दारस्स उभयतो पासिं दुहतो णिसीधियाए दो दो सालिभंजियापरिवाडिओ पण्णत्ताओ,ताओणं सालभंजियाओ लीलद्विताओ सुपयट्ठियाओ सुअलेकिताओणाणागारवसणाओ णाणामल्लपिणट्टि (द्धि) ओ मुट्ठीगेज्झमत्झाओ आमेलगजमलजुयलवट्टिअन्भुण्णयपीणरचियसंठियपओहराओ रत्तावंगाओ असियकेसीओ मिदुविसयपसत्थलक्खणसंविल्लितग्गसिरयाओ ईसिं असोगवरपादवसमुद्विताओ वामहस्थगहितग्गसालाओ ईसिं अद्धच्छिकडक्खविद्धिएहिं लूसेमाणीतो इव चक्खुल्लोयणलेसाहिं अण्णमण्णं खिज्जमाणीओ इव पुढविपरिणामाओ सासय भावमुवगताओ चंदाणणाओ चंदविलासिणीओ चंदद्धसंमनिडालाओ चंदहियसोमदंसणाओ उक्का इव उज्जोएमाणीओ विज्लुधणमरीचिसूरदिप्पंततेयअहिययरसंनिकासाओ सिंगारागारचारवेसाओ पासाइयाओ०४ तेयसा अतीव सोभेमाणीओ सोभेमाणीओ चिट्ठति। "विजयस्स णं दारस्से' त्यादि, विजयस्य द्वारस्योभयोः पार्श्वयोरेकनषेधिकीभावेन द्विधातो-द्विप्रकारायांनषेधिक्यां द्वे द्वे शालभजिके प्रज्ञप्ते, ताश्च शालभञ्जिका लीलया-ललिताङ्गनिवेशरूपया स्थिता लीलास्थिताः 'सुपइट्ठियाओ' इति सुष्ठुमनोज्ञतया प्रतिष्ठिता: सुप्रतिष्ठिता: 'सुअलंकियाओ' इति सुष्ठु-अतिशयेन रमणीयतया अलंकृता: स्वलंकृता: 'नाणाविहरागवसणाओ' इति नानाविधोनानाप्रकारो रागो येषांतानि नानाविधरागाणि तानि वसनानिवस्त्राणि संवृततया यासांता नानाविधरागवसना: 'रत्तावंगाओ' इति, रक्तो पाङ्गोनयनोपान्तं यासां ता रक्तापाङ्गा: 'असियकेसीओ' इति असिता:कृष्णा: केशा यासां ता असितकेश्य: 'मिएविसयपसत्थलक्खणसंवेल्लियग्ग-सिरयाओ' मृदव:-कोमला विशदानिर्मला: प्रशस्तानिशोभनानि अस्फुटितत्वप्रभृतीनि लक्षणानि येषां ते प्रशस्तलषणा: संवेल्लितं-संवृतमग्नं येषां शेखरककरणात् ते संवेल्लिताग्रा: शिरोजा:केशा यायसयं ता मृदुविशदप्रशस्तलक्षणसंवेल्लिताग्रशिरोजा:, 'नाणमल्लपिणद्धाओ' इति नानारूपाणि माल्यानिपुष्पाणि पिनद्धानिआविद्धानि यासां ता नानामाल्यपिनद्धाः-निष्ठान्तस्य परनिपातो भार्यादिदर्शनात्, 'मुट्ठिगेज्झसुमज्झा' इति मुष्टिग्राह्य सुष्ठु-शोभनं मध्यमम्मध्यभागो यासां ता मुष्टिग्राह्यसमध्या: 'आमेलगजमलजुगलवट्टियअन्भुण्णयपीरणरइयसंठियपओहराओ पीनं-पीवरं रचितं संस्थित
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________________ लवणसमुद्द ६११-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लवणसमुह संस्थानं यकाभ्यां तौ पीनरचितसंस्थितौ आमेलक'-आपीडशेखरक इत्यर्थः, तस्य यमलं-समश्रेणीकं युगलं तद्वत् वर्ति तौ-बद्धस्वभावावुपचितकठिनभावाविति भाव: अभ्युन्नतौ पीनरचितसंस्थितौ च पयोधरौ यासांतास्तथा, 'ईसिं असोगवरपायवसमुट्ठियाओ' इति ईषत् -मनाक अशोकवरपादपे समवस्थिसता-आश्रिता ईषदशोकवरपादपसमवस्थिता:,तथा वामहस्तेन गृहीतमग्रंशालायाः-शाखाया अर्थादशोकपादस्य यकाभिस्ता वामहस्तगृहीताग्रशाला:, 'ईसिं अडऽच्छिकडक्खचिट्ठिएहि लूसेमाणीओइवे' ति ईषत्-मनाग्‘अडुतिर्यग्वलितम् अक्षि येषु कटाक्षरूपेषु चेष्टितेषु तैर्मुष्णन्त्य इव सुरजनानां मनांसि 'चक्खुल्लोयणलेसेहिं य अण्णभण्णं विज्झेमाणीओ इव' 'अण्णमण्णं' परस्परं चक्षुषां लोकनेन-अवलोकनेन लेशा:-संश्लेषास्तैर्विध्यमाना इव, किमुक्तं भवति ? एवं नाम तास्तिर्यग्वलिताक्षिकाक्षैः परस्परमवलोकमाना अवतिष्ठन्ते यथा नूनं परस्परसौभाग्यासहनतस्तिर्यग्वलिताक्षिकटाक्षः परस्परं खिद्यन्त इवेति 'पुढविपरिणामाओ' इति पृथिवीपरिणामरूपा: शाश्वतभावमुपागता विजयद्वारवत् 'चंदाणणाओ' इति चन्द्रवद् आननं-मुखंयासांताश्चन्द्रानना: 'चंदविलासिणीओ' इति चन्द्रवन्मनोहरं विलसन्तीत्येवं शीलश्चन्द्रविलासिन्य: 'चंदद्धसमनिडालाओ' इति चन्द्रार्द्धन-अष्टमीचन्द्रेण सम-समान ललाटं यासां ताश्चन्द्रर्द्धसमललाटाः 'चंदाहियसेमदंसणाओ' इति चन्द्रादप्यधिक सौम्यम् -सुभगं कान्तिमद्दर्शनम् -आकारो यासांतास्तथा, उल्का इव द्योतमाना: 'विजुघणमरीचिसूरदिप्पंततेय अहिययरसन्निकासाओ' इति विद्युतोये धना-बहुलतरामरीख्यस्तेभ्यो; यच सूर्यस्यदीप्यमानमनावृतं तेजस्तस्मादप्यधिकतरः सन्निकाश: प्रकाशो यासांतास्था 'सिंदाराचारचारुवेसाओ' इति श्रृङ्गारो-मण्डनभूषणाटोपस्तत्प्रधान आकारआकृतिर्यासांता: शृङ्गाराकारा: चारु वेषो-नेपथ्यं यासां ताश्चारुवेषास्ततः कर्मधारये शृङ्गाराकारचारुवेषा: 'पासाईयाओ' इत्यादि चिशेषणचतुष्टयं प्राग्वत्। विजयस्य णं दारस्स उभयतो पासिं दुहतो णिसीहियाए दो दो जालकडगा पण्णत्ता, ते णंजालकडगा सव्वरयणामया अच्छा० जाव पडिरूवा / / विजयस्स णं दारस्स उभयो पासिं दुहओ णिसिधियाए दो दो घंटापरिवाडिओ पण्णत्ताओ, तासिणं घंटाणं अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, तं जहा-जंबूणदमती ओ घंटाओ वइरामतीओ लालाओ णाणामणिमण घंटापासगा तवणिजमतीओ संकलाओ रयतामतीओ रजुओ / / ताओ णं घंटाओ ओहस्सराओ मेहस्सराओ हंसस्सराओ कोंचस्सराओ णंदिस्सराओ णंदिघोसाओ सीहस्सराओ सीहघोसाओ मंजुस्सराओ मंजुघोसाओ सुस्सराओ सुस्सरणिग्घोसाओ ते पदेसे ओरालेणं मणुण्णेणंक्रमणमणनिव्वुइकरणे सद्देण०जाव चिटुंति। ___ "विजयस्स णं दारस्से' त्यादि, विजयस्य द्वारस्य उभयो: पार्श्वयोरेकै कनैषेधिकीभावेन द्विधातो' द्विप्रकारायां नैषेधिक्यां द्वौ द्वौ जालकटकौ प्रज्ञप्तौ, 'तेणंजालकडगा' इत्यादि, तेचजालकटकाकीर्णा रम्यसंस्थानाः प्रदेशविशेषा: 'सव्वरयणामया अच्छा सण्हा०जाव पडिरूवा' इति प्राग्वत्। विजयस्से' त्यादि, विजयस्य द्वारस्योभयोः पार्श्वयोर्दिधातो नैषधिक्यांद्वद्वेघण्टे प्रज्ञप्ते, तासांच घण्टानामयमेतद्रूप: 'वर्णावास: वर्णकनिवेश: प्रज्ञप्तः, तद्यथा-जाम्बेनदमय्यो घण्टा: वज्रमय्यो लाला: नानामणिमया घण्टापायी: तपनीयमय्यः श्रृङ्खला यासुता अवलम्बितास्तिष्ठन्ति रजतमय्यो रज्जव: / 'ताओणं घंटाओ' अत्यादि, ताश्च घण्टा:, ओघस्वरा:-ओघेन-प्रवाहेण स्वरो यासांता ओघस्वरा:, मेघस्येवातिदीर्घः स्वरोयासांता मेघस्वरा:, हंसस्येव मधुरः स्वरो यासांता हंसस्वारा, एवं क्रोश्चस्वरा:, सिंहस्येव प्रभूतदेशव्यापी स्वरो यासां ता: सिंहस्वराः, एवं दुन्दुभिस्वरा नन्दिस्वराः, द्वादशतूर्यसङ्घातो नन्दिः, नन्दिवद्घोषो-निनादोयासांता नन्दिघोषा, मञ्जु:प्रिय: स्वरो यासांता मञ्जुस्वराः, एवं मञ्जुघोषा:, किंबहुना ? सुस्वरा: सुस्वरघेषा:, 'ओरालेण' मित्यादि प्राग्वत्। विजयस्य णं दारस्स उभओ पासिं दुहतो णिसीधिताए दो दो वणणमालापरिवाडीओ पण्णत्ताओ, ताओ णं वणमालाओ णणदुमलताकिसलयपल्लवसमाउलाओ छप्पयपरिभुजमाणकमलसोभतसस्सिरीयाओपासाईयाओतेपएसे ओरालेणं जाव गंणेणं आपूरेमाणीओ० जाव चिट्ठति। (सू०१२९) "विजयस्सणं दारस्से' मित्यादि, विजयस्य द्वारस्योभयो: पार्श्वयोर्द्विधातो नैषेधिक्या द्वे द्वे वनमाले प्रज्ञप्ते, ताश्च वनमाला नानाद्रुमाणां नानालतानां च ये किशलयरूपा अतिकोमला इत्यर्थः पल्लवास्तैः समाकुला:-सम्मिश्रा: 'छप्पयपरिभुज्जमाणसोभंतसस्सिरीया' इति षट्पदैः परिभुज्यमाना सती शोभमाना षट्पदपरिभुज्यमानशोभमाना अत एव सश्रीका ततः पूर्वपदेन विशेषणसमासः, 'पासाईया' इत्यादि पदचतुष्टयं प्राग्वत्। (७)लवणसमुद्रविजयद्वारस्य पीठादिवर्णयतिविजयस्यणंदारस्सउभओ पासिंदुहतोणिसीहियाएदोदोपगंठा पण्णत्ताओ, ते णं पगंठगा चत्तारि जोयणाई आयाम-विक्खंभेणं दोजोयणाईबाहल्लेणं सव्यवइरामता अच्छाा० जाव पडिरूवा॥ तेसिं णं पयंठगाणं एवरि पत्तेयं पासायवडेंसगा पण्णता, ते णं पासायवडिंसगाचत्तारिजोयणाइंअंउयत्तेणंदोजोयणाइंआयामविक्खंभेणं अम्मुम्गयमूसितपहसिता विव विविहमणिरयणभत्तिचित्ता वाउद्ध (द) यविजयवेजयंतीपडागच्छत्तातिछत्तकलिया तुंगा गगणतलमभिलंघमाण (णुलिहंत) सिहरा जालंतररयणपंजरुम्मिलितव्यमणिकणगथूमियागावियसियसयक्त्तपॉडरीयतिलकरयण
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________________ लवणसमुह 612 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लवणसमुद्द द्धचंदचित्ता णाणाभिमयदामालंकिया अंतो य बाहिं च सण्हा नानारूपां आश्चर्यभूता: विकसितशतपत्रपुण्डरीकतिलकार्द्धचन्द्रचित्रा: तवणिजरुइलवालुयात्थडगा सुहाफासा सस्सिरीयरूवा अन्तर्बहिश्च (नाना-अनेकप्रकाराये चन्द्रकान्ताद्या मणयस्तन्मयानिपासातीया०४॥ तत्प्रधानानि यानि दामानि-पुष्पमालास्तैरलङ्कृताः) श्लक्ष्णा:"विजयस्सणं दारस्से' मित्यादि, विजयस्य द्वारस्योभयो: पार्श्वयो- भसृणाः, तथा तपनीयमम्सुवर्णविशेषस्तन्मय्या: बालुकाया: प्रस्तटमदिधातो नैषेधिक्यां द्वो दो प्रकण्ठको प्रज्ञप्तौ प्रकण्ठको नाम पीठविशेषः, म्प्रस्तरो येषु ते तपनीयवालुकाप्रस्तटा:, सुहफासा सस्सिरीयरूवा आह च मुलटीकाकार:-"प्रकण्ठौ पीठविशेषौ' चूर्णिकारस्त्वेवताह पासाईया' इत्यादि प्राग्वत्। "आदर्शवृत्तौ पर्यन्तावनतप्रदेशौ पीठौ प्रकण्ठाविति" ते च प्रकण्ठका: तेसि णं पासायवर्डे सगाणं उल्लोया पउमलता जाव प्रत्येकं चत्वारि योजनानि 'आयामविष्कम्भेन' -आयामविष्कम्भाभ्यां सामलया भत्तिचित्तासव्वतवणिज्जमता अच्छा०जाव पडिरूवा॥ द्वे योजने बाहल्येन 'सव्ववइरामया' इति सर्वात्मना ते प्रकण्ठका तेसिंणं पासायवडिंसगाणं पत्तेयं पत्तेयं अंतो बहुसमरमणिज्जे वज्रमया: 'अच्छा सण्हाय' इत्यादि विशेषणकदम्बकं प्राग्वत्। 'तेसिणं भूमिभागे पण्णत्ते, से जहाणामए आलिंगपुक्खरेति वा० जाव पकंठयाण' मित्यादि, तेषांच प्रकण्ठकानामुपरि प्रत्येकं प्रासादावतंसक: मणीहिं उवसोभिए, मणीण गंधो वण्णे फासो यनेयव्यो / तेसि प्रज्ञप्त:, प्रासादावतंसको नाम प्रासादविशेषः, उक्तं च मूलटीकायाम्- णंबहुसमरमणिज्जाणं भूमिभागाणं बहुमज्झदेसभाए पत्तेयं पत्तेयं "प्रासादावतंसकः प्रासादविशेषः" इति, व्युत्पत्तिश्चैवम् -प्रासादा- मणिपेढियाओ पण्णत्ताओ, ताओ णं मणिपेढियाओ जोयणं नामवतंसक इव-शेखरक इव प्रासादावतंसकः, तेच प्रासादावतंसका: आयामविक्खंभेणं अट्ठजोयणं बाहल्लेणं सव्वयरणामईओ० प्रत्येकं चत्वारियोजनान्यूर्ध्वमुच्चैस्त्वेन द्वेयोजने आयामविप्कम्भाभ्याम् जाव पडिरूवाओ, तासिं णं मणिपेढियाणं उवरिं पत्तेयं पत्तेयं 'अब्भुग्गयमूसियपहसिया विवेति' अभ्युद्गता-आभिमुख्येन सर्वतो सीहासणे पण्णत्ते, तेसिंणं सीहासणाणं अयमेयारूवे वण्णावासे विनिर्गता उत्सृता-प्रबलतया सर्वासु दिक्षु प्रसृता या प्रभा तया सिता पण्णत्ते, तं जहा-तवणिजमया चक्कवाला रयतामया सीहा, इव-बद्धा इव तिष्ठन्तीति गम्यते, अन्यथा कथमिव तेऽत्युचा निरालम्बा- सोवणिया पादा, णाणामणिमयाई पायवीढगाई,जंबूणयमताई स्तिष्ठन्तीति भावः, अथवा -प्रबलश्वेतप्रभापटलतया प्रहसिताविव- गत्ताई, वतिरामया संधी, नाणामणिमए वेचे / ते णं सीहासणा प्रकर्षण हसिताविव, तथा "विविहमणिरयणभत्तिचित्ता'' विविधा- ईहामियउसभ० जाव पउमलयभत्तिचित्ता ससारसारोबइयअनेकप्रकाराये मणय:-चन्द्रकान्ताद्या यानि च रत्नानिकर्केतनादीनि विविहमणिरयणपायपीढा अत्थरगमिउमरसूरगनवत्तयतेषां भक्तिभिः विच्छित्तिभिश्चित्रा-नानारूपा आश्चर्यवन्तो वा नाना- कु संतलिचसीहके सरपत्रुत्थताभिरामा उवचियखोमविधमणिरत्नभक्तिचित्राः 'वाउद्भ्यविजयवेजयंतीपडागछत्तातिछत्त- दुगुल्लयपडिच्छयणासुविरचितरयत्ताणा सत्तसुयसंवुया सुरम्मा कलिया' वातोद्धृतावायुकम्पिता: विजय: अभ्युदयस्तत्संसूचिका वैजय- आईणगरूयबूरणवनतितूलमउयफासा मज्या पासाईया० 4|| न्तीनामानो या पताका:, अथवा-विजया इति वैजयन्तीनां पार्श्वकर्णिका 'तेसिणं' इत्यादि, तेषां च प्रासादावतंसकानाम् उल्लोका:-एपरितउच्यन्ते तत्प्रधाना वैजयन्त्यो विजयवैजयन्त्य: पताकास्ताएव विजय- नभागा: पद्मलताभक्तिचित्रा अशोकलताक्तिचित्राश्चम्पकलताभक्तिवर्जिता वैजयन्त्यः, छत्रतिच्छत्राणि-उपर्युपरिस्थितान्यातपत्राणि तैः चित्राश्चूतलताभक्तिचित्रा बनलता भक्तिचित्रा वासन्तिकलता भक्तिकलिता:, वातोद्भूतविजयन्तीपताकाछात्रातिच्छत्रकलिता: तुङ्गा:- उच्चा चित्रा: सर्वात्मना तपनीययमया: 'अच्छा सण्हा० जाव पडिरूवा' इति उस्त्वे न चतुर्योजनप्रमाणत्वात्, अत एव 'गगगणतलमणुलिहन्त- विशेषणकदम्बकं प्राग्वत्।।तेसिण' मित्यादि, तेषां प्रासादावतंसकासिहरा' इति, गगनतलमम्अम्बरम् अनुलिक्षन्ति-अभिलवयन्ति नामन्तर्बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः, 'से जहानामए आलिंगशिखराणि येषां ते गगनतलानुलिखच्छिखराः, तथा जालानि जालकानि पुक्खरेइ वा' इत्यादि समस्तं भूमिवर्णनं मणीनां वर्णपञ्चकसुरभिगन्धयानि भवनभित्तिषु लोके प्रतीतानि तदन्तरेषु विशिष्टशोभानिमित्त रत्नानि शुभस्पर्शवर्णनं प्राग्वत् 'तेसिण' मित्यादि, तेषां प्रासादावतंसकानामयेषु ते जालान्तररत्ना:, सूत्रे चात्र विभक्तिलोपः प्राकृतत्वात्, तथा न्तर्बहुसमरमणीयानां भूमिभागाना बहुमध्यप्रदेशभागे प्रत्येकं प्रत्येक पञ्जराद् उन्मीलिता इव बहिष्कृता, यथा हि किल किमपि वस्तु (मणिपीठिका: प्रज्ञप्ता: ताश्च मणिपीठिका योजनमायामविष्कम्भेन अष्ट वंशादिमयप्रच्छादनविशेषाद् बहिष्कृतमत्यन्तमविनष्टच्छायं भवति; एवं योजनानि बाहल्येन सर्वरत्नमय्यो यावत्प्रतिरूपा: तासां मणिपीठिकातेऽपि प्रासादावतंसका इति भावः, तथा मणिकनकानिमणिकनकमय्य: नामुपरि) सिंहासनं प्रज्ञप्तम्, तेषां च सिंहासनानामयमेतद्रमो 'वर्णावासो' स्तूपिका:-शिखराणि येषां ते मणिकनस्तूपिका:, तथा विकसितानि वर्णकनिवेश: प्रज्ञप्तः, तद्यथा-रजमतया: सिंहा: तैरुपशोभितानि यानि शतपत्राणि पुण्डरीकाणि च द्वारादौ प्रतिकृतित्वेन स्थितानि सिंहासनानि सौवर्णिका:-सुवर्णमया: पादा: तपनीयमयानि चक्रवातिलकरत्नानि भित्त्यादिषु पुण्डविशेषा अर्द्धचन्द्राश्च द्वारादिषु तैञ्चित्रा- | लानिपादानामध: प्रदेशाः भवन्ति, गुक्तानानामणिमयानि पादामधः प्रदे
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________________ लवणसमुह 613 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लवणसमुह शाः प्रयुक्ताः, नानामणिमयानि पादशीर्षकाणि-पादानामुपरितना अवयवविशेषा जाम्बूनदमयानि गात्राणि ईषदच्छाः, 'वज्रमयाः' - वज्ररत्नापूरिता सन्धयः-गात्राणां सन्धिमेला नानामणिमयं 'वेचं व्यूतं वानमित्यर्थः, आह च चूर्णिकृत् "वेचे वाणक्कतेण" मित्यादि तानि च सिंहासनानि ईहामुगऋषभतुरगनरमकरव्यालकिन्नररुरुसरभचमरकुञ्जरवनलतापद्मलताभक्तिचित्राणि 'ससारसारोवचियविविहमणिरयणपादपीढा' इति सारसारैः-प्रधानप्रधानैर्विविधैर्मणिरत्नैरुपचितैः पादपीठै: सह यानि तानि तथा, प्राकृतत्वाच उपचितशब्दस्यान्तरुपन्यास:, 'अत्थरमउयमसूरगनवयत्तकुसन्तलित्तकेसरपञ्चत्थुयाभिरामा' इति आस्तरकमम्आच्छादनं मृदु येषां मसूरकाणांतानि आस्तरकमृदूनि, विशेषस्या परनिपातः प्राकृतत्वात्, नवा त्वग् येषांतेनवत्वच: कुशान्तादर्भपर्यन्ताः, नवत्वचश्च ते कुशान्ताश्च नवत्वक्कुशान्ता: प्रत्यग्रत्वग्दर्भपर्यन्तरूपाणि त्वति कोमलानि लित्तानिनमनशीलानि च केसराणि, क्वचित्-'सिंहकेसरे' ति पाठस्तत्र सिंहकेसराणीव केसराणि मध्ये मसूरकाणां तानि नवत्वकुशान्तचिल्ल (लित्त) केसराणि, 'सिंहकेसरेति' पाठपक्षे-एकस्य केसरशब्दस्यशाकपार्थिवादिदर्शनाल्लोपः, आस्तरकमृदुभिर्मसूरकैर्नवत्वक्कुशान्तलित्तकेसरैः प्रत्यवस्तृतानि-आच्छादितानि सन्ति यानि अभिरामाणि तानि तथा, विशेषणपूर्वापरनिपातो यादृच्छिकः प्राकृत्वात्, 'आईणगुरु (रू) यबूरनवणीयतूलफासा' इति आजिनकम् चर्मतमयं वस्त्रंतच स्वभावादतिकोमलं भवति, रूतमम्कर्पासपक्ष्म बूरोवनस्पतिविशे: नवनीत-मक्षणं तूलम् -अर्कतूलं तेषामिव स्पर्शो येषां तानि तथा, तथा सुविरचितं रजस्त्राणं प्रत्येकमुपरि येषां तानि सुविरख्तिरजस्त्राणानि 'उवचिय खीम दुगुल्लपट्टपछिच्छायणे' इति उपचितमम्परिकर्मितं यत्क्षौमंदुकूलं कासिकंवस्त्रे तत्प्रतिच्छादनंरजस्त्राणस्योपरि द्वितीयमाच्छादनं प्रत्येकं येषां तानि तथा, तत उपरि 'रत्तंसुययंवुया' इति रक्तांशुकेन-अतिरमणीयेन रक्तेन वस्त्रेण संवृतानिआच्छादितानि रकंशुकसुवृतानि अत एव सुरम्याणि 'पासाएया' इत्यादि पदचतुष्टयं प्राग्वत्। तेसिंणं सीहासणाणं उप्पिं पत्तेयं पत्तेयं विजयं विजयदूसं पण्णत्ते, तेणं विजयादूसासेतासंखकुंददगरयअमतमहियफेणपुंजस-निकासासवरयणामया अच्छा० जाव पडिरूवा। तेसि णं विजयदूसाणं बहुमज्झदेसमाए पत्तेयं वइरामया अकुंसा पण्णत्ता, तेसु णं वइरामएसु अंकुसेसु पत्तेयं पत्तेयं कुंमिका मुत्तादामापण्णत्ता,तेणं कुंभिक्का मुत्तादामा अन्नेहिं चउहिं चउहिं तदद्धच्चप्पमाणमेत्तेहिं अद्धकुंभिक्केहिं मुत्तादामेहिं सव्वतो संमतो संपरिक्खित्ता, ते णं दामा तवणिञ्जलं दूसका सुवण्णपयरगमंडिता० जाव चिटुंति,तेसिणं पासायवडिंसगाणं उप्पिं बहवे अट्ठ मंगलगा पण्णत्ता सोत्थिय तधेव० जाव छत्ता / (सू०१३०) 'तेसि ण' मित्यादि, तेषां च सिहासनानामुपरि प्रत्येकं प्रत्येक विजयादृष्यं वस्त्रविशेषरू प्रज्ञप्तः, आह च मूलटीकाकार:-"विजयदुष्यं वस्त्रविशेष" इति। तेण' मित्यादि, तानि च विजयदूष्याणि 'शङ्ख कुन्ददकरजोऽमुतम-थिातफेनपुञ्जसन्निकाशानि' शङ्ख:-प्रतीतः कुन्देतिकुन्दकुसुमं दकरजः उदककणा: अमृतस्यक्षीरोदधिजलस्य मथितस्य यः फेनपुओडिण्डीरोत्करस्तत्सन्निकाशानितत्समप्रभाणि-पुन: कथम्भूतानि ? इत्यत आह- 'सव्वरयणामया' सर्वात्मना रत्नमयानि 'अच्छा सण्हा० जाव पडिरूवा' इति विशेषणकदम्बकं प्राग्वत्॥'तेसि ण' मित्यादि, तेषां-सिंहासनोपरिस्थितानां विजयदूष्याणां प्रत्येक प्रत्येकं बहुमध्यदेशभागे वज्रमया:-वज्ररत्नात्मका: अङ्कुशा:- अङ्कुशाकारा मुक्तादामावलम्बनाश्रयभूताः प्रज्ञप्ताः, तेषु च वज्रमयेष्वङ्कशेषु प्रत्येकं प्रत्येकं कुम्भागमम्मगधदेशप्रसिद्धं कुम्भप्रमाणं मुक्तामयं मुक्तादाम प्रज्ञप्तम, तानि च कुम्भाग्राणि मुक्तादामानि प्रत्येकं प्रत्येकमन्यैश्चतुर्भिः कुम्भागैर्मुक्तादामभिस्तदर्धाचप्रमाणमात्रैः सर्वतः-सर्वासु दिक्षु समन्ततःसामस्त्येन संपरिक्षिप्तानि, "ते णं दामा तवणिज्जलंबूसगा नाणामणिरयणविविहहारद्धहारउवसोभियसमुदाया ईसिमन्नमन्नमसंपत्ता पुव्ववरदाहिणुत्तरागएहिं वाएहिं मंदायं मंदायं एइजमाणा एइज्जमाणा येइज्जमाणा वेइज्जमाणा पकंपमाणा पकंपमाणा पझंझमाणा पझंझमाणा औरालेधं मणुण्णेणं मणहरेणं कण्णमणनिव्वुइकरेणं ते पएसे सव्वतो समंता आपूरेमाणा सिरिए उवसोभेमाणा चिट्ठत्ति'। विजयस्सणं दारस्स उभओ पासिं दुइओ णिसीहियाए दो दो तोरणा पण्णत्ता, ते णं तोरणा णाणामणिमया तहेव० जाव अg मंगलका य छत्तातिछत्ता, तेसि णं तोरणाणं पुरता दो दो सालभंजिताओ पण्णत्ताओ, जहेव णं हंडा तहेव / तेसि णं तोरणाणं पुरतो दो दो णागदंतगा पण्णत्त, ते णं णागदंतगा मुत्ताजालंतरूसिया तहेव, तेसु णं णागदंतएसु बहवे किण्हे सुत्तवट्टवग्धारितमल्लदामकलावा० जाव चिट्ठति / / तेसि णं तोरणाणं पुरतो दो दो हयसंघडगा पण्णत्ता, सव्वरयणामया अच्छा० जाव पडिरूवा, एवं पंतीओ वीहीओ मिहुणगा, दोदो पउमलयाओ० जाव पडिरूवाओ, तेसि गं तोरणाणं पुरतो (अक्खाअसोवत्थियां सव्वरयणामया अच्छा० जाव पडिरूवा) तेसिंणं तोरणाणं पुरतो दो दो चंदणकलसा पण्णत्ता, ते णं चंदणकलसा वरकमलपइहाणा तहेव सव्वरयणामया० जाव पडिरूवा समणाउसो ! // तेसिंणं तोरणाणं पुरओ दो दो भिगारगा पण्णत्ता वरकमलपइहाणा० जाव सय्वरयणामया अच्छा० जाव पडिरूवा महता महता मत्तगयमुहागितिसमणा पण्णत्ता समणाउसो!!
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________________ लवणसमुह 614 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लवणसमुह 'विजयस्य ण' मित्यादि, विजयस्य द्वारस्योभयोः पार्श्वयोर्दिधातो नैषध्क्यिां द्वे द्वे तोरणे प्ररूते, तानि च तोरणनि नानामणिमयानीत्यादि तोरणवर्णनं निरवशेष प्राग्वत्। 'तेसिण' मित्यादि, तेषां तोरणानां पुरतो द्वे वे शालभजिके प्रज्ञप्ते, शालभञ्जिकावर्णनं प्राग्वत् // 'तेसि ण' मित्यादि, तेषां तोरणानां द्वौ द्वौ नागदन्तकौ प्रज्ञप्तौ, तेषां च नागदघ्न्तकानां वर्णनं यथाऽधस्तादनन्तरमुक्तं तथा वक्तव्यम्, नवरमञोपरि नागदन्तका न वक्तव्या अभावात्।। 'जेसिण' मित्यादि तेषां तोरणानां पुरतोद्वौ द्वौ हयसंघाटको द्वौ द्वौ गजसङ्घाटकौ द्वौ द्वौ नरसङ्घाटकौ द्वौ द्वौ किन्नरसंघाटको द्वौ द्वौ किंपुरुषसेघाटको द्वौ द्वौ महोरगसंघटकौ द्वौ द्वौ गन्धर्वसङ्घाटकौ द्वौ द्वौ वृषभसङ्घाटकौ, एते च कथम्भूता: ? इत्याह'सव्वरयणामया अच्छा सण्हा' इत्यादि प्राग्वत्, एवम् -पङ्क्तिवीथिमिथुनकान्यपि प्रत्येकं वाच्यानि // 'तेसिं तोरणाण' मित्यादि, तेषां तोरणानांपुरतोद्वेद्वेपद्मलतेयावतत्करणाद्वद्वे नागलतेद्वेद्वेअशोकलते चम्पकलतेद्वेद्वेचूतलते द्वेद्वेवासन्तीलतेदेद्वेकुन्दलतेद्वेद्वे अतिमुक्तकलते इति परिग्रह: द्वे द्वेश्यामलते, एताश्च कथम्भूता:? इत्याह-'निचं कुसुमियाओ' इत्यादियावत्करणात् 'निचंमउलियाओ निचलवइयाओ निचं थबइयाओ निचं गोच्छियाओ निचंजमलियाओ निचं विणतियाओ (निचं पणमियाओ) निचं सुविभत्तपडिमंजरिवडंसगधरीओ निचं कुसुमियमएलियलवइयथबइयाओ निचं गोच्छियविणमियपणमियसुविभत्तपडिमंजरिवडंसगधरीओ' इति परिगृह्यते, अस्य व्याख्यानं प्राग्वत्। पुन: कधम्भूता:? इत्याह-'सव्वरयणामया० जाव पडिरूवा' इति, अत्रापि यावत्करणात्-'अच्छा सण्हा' इत्यादिविशेषणकदम्बकपरिग्रहः, स च प्राग्वनीयः // 'तेसि ण' मित्यादि, तेषां तोरणानां पुरतो द्वौ द्वौ चन्दनकलशै प्रज्ञयौ वर्णकश्च चन्दनकलशानां वरकमलपइट्टाणं' इत्यादिरूपः सर्वःप्राक्तनो वक्तव्यः।। 'तेसिण' मित्यादित तेषां तोरणानां पुरतो द्वौ द्वौ भृङ्गारकौ प्रज्ञप्तौ, तेषामपि चन्दनकलशानामिव वर्णको वक्तव्यः, नवरं पर्यन्ते 'मत्तययामहामुहागिइसमाणा पण्णत्ता समाणाउसो !' इति वक्तव्यम् 'मत्तगयमहामुहागिइसमाणा' इति, मत्तो यो गजस्तस्य महद् -अतिविशालं यन्मुखं तस्याकृति:आकार-स्तत्समाना:-तत्सदृशाः प्रज्ञप्ता: हे श्रमण ! हे आयुष्मान् ! / तेसि णं तोरणाणं पुरतो दो दो आतंसगा पण्णत्त, तेसि णं आतंसगाणं अयमेयारूवे वण्णवासे पण्णत्ते, तं जहा-तवणिजमया पयंठगा, वेरुलियमया छरुहा (थंभया) वइरामया वरंगा, णाणामणिमया वलक्खा, अंकमया मंडला, अणोघसियनिम्मला साए छायाए सव्वतो चेव समणुबद्धाचंदमंदलपडिणिकासा महता महता अद्धकायसमाणापण्णत्तासमणाउसो!।। तेसिणं तोरणाणं पुरतो दो दो वइरणाभे थाले पण्णत्ते, ते णं.थाला अच्छतिच्छडियसालितंदुलनसंदह-बहुपडिपुण्णा चेव चिहति सजंबूणदमया अच्छा० जाव पडिरूवा महता महता रहचकसमाणा समणाउसो ! / / तेसिणं तोरणाणं पुरतो दो दो पातीओ पण्णत्ताओ, ताओ णं पातीओ अच्छोदयपडिहत्थाओ णाणाविघपंचवण्णस्स फलहरितगस्स बहुपडिपुण्णाओ विव चिटुंति सव्वरयणामतीओ० जाव पछिरुवाओ महया महया गोकलिंजगचक्कसमाणाओ पण्णत्ताओ समणाउसो ! || "तेसिंण' मित्यादि, तेषां तोरणानां पुरतोद्वौ द्वावादर्शकौ प्रज्ञप्ती, तेषां चादर्शकानांमयमेतद्रूप: वर्णावास:-वर्णकनिवेश: प्रज्ञप्तः, तद्यथातपनीयमया: प्रकण्ठका:-पीठकविशेषा: 'वेरुलिमया थंभया' आदर्शकगण्डप्रतिबन्धप्रदेशाः, आदर्शकगण्डानां मुष्टिग्रहणयोग्या: प्रदेशा इति भावः, वज्ररत्नमया वराङ्गागण्डा इत्यर्थः, नानामणिमया वलक्षा: वलक्षो नामशृङ्खलादिरूपमवलम्बनम्, अङ्कमयानि-अङ्करत्नमयानि मण्डलानि यत्र प्रतिबिम्बसंभूति: 'अमोहसियणिम्मलाए छायाए' इति अवघर्षणमवघर्षितम्, भावे क्तप्रत्यय:, भूत्यादीनां निमज्जनमित्यर्थः, अवघर्षितस्याभावोऽनवघर्षितं तेन निर्मला अनघर्षितनिर्मला तथाछायया समनुबद्धाः, 'चंदमंडलपडिनिकासा' इति चन्द्रमण्डलसदृशाः महया महया' अतिशयेन महन्तः अर्द्धकायसमाना:-द्रष्टुः शरीरार्द्धप्रमाणा: प्रज्ञप्ता: हे श्रमण ! हे आयुष्मन् ! 'तेसि ण' मित्यादि, तेषां तोरणानो पुरतो द्वे द्वे वज्रनाभे स्थाले प्रज्ञप्ते, तानि च स्थालानि (तिष्ठन्ति) 'अच्छतिच्छदियसालितं दुलनहसंदट्ठपरिपुण्णा इव चिट्ठति' अच्छा-- निर्मला: शुद्धस्फटिकवत्त्रिच्छटिता अत एव नखसंदष्टा:-नखा संदष्टा, मुसलादिभिश्चुम्बिता येषां ते तथा, भार्यादिदर्शनात्परनिनपातो निष्ठान्तस्य, अच्छैस्त्रिच्छटितैः शालितन्दुलै खसंदष्टैः परिपूर्णानीव अच्छत्रिच्छटितशालितन्दुलनखसंदष्टपरिपूर्णानीव पृथिवीपरिमाणरूपाणि तानि तथा स्थितानि केवलमेवमाकारणीत्युपमा, तथा चाह'सव्वजंबूनदमया' सर्वात्मना जम्बूनदमयानि 'अच्छा सण्हा' इत्यादि प्राग्वत् 'महया महया' इति अतिशयेन महान्ति रथचक्र समानानि प्रज्ञप्तानि हे श्रमण ! हे आयुष्मन् ! 'तेसि ण' मित्यादि, तेषां तोरणाव्यां पुरतो दे द्वे 'पाईओ' इति पाठ्यौ प्रज्ञप्ते, ताश्च पात्र्य: 'अच्छोदकपडिहत्थाओ' इति स्वच्छपानीयपरिपूर्णा: नाणाविहस्सफलहरियस्स बहुपडिपुण्णाओ विवे' त्ति अत्र षष्ठी तृतीयार्थे बहुवचने चैकवचनं प्राकृतत्वात्, नानाविधैः फलहरितैः-हरितफलैबहु प्रभूतं प्रतिपूर्णा इव तिष्ठन्ति, न खलु तानि फलानिजलं वा किन्तु तथारूपा: शाश्वतभावमुपपगता: पृथिवीपरणामास्तत उपमानमिति, 'सव्वरयणामईओ' इत्यादि प्राग्वत्, 'महया महया' इति अतिशयेन महत्यो गोकलिज (2) चक्रसमाना: प्रज्ञप्ता: हे श्रमण! हे आयुष्मन् ! / / तेसि णं तोरणाणं पुरतो दो दो सुपतितहगा पण्णत्ता, ते णं सुपतिहगा णाणाविध (पंचवण्ण) पसाहणगमंडविरचिया सव्वोसधिपडिपुण्णा सध्वरयणामया अच्छा० जाव पडिरूवाद तेसि णं तोरणाणं पुरतो दो दो मणोगुलियाओ पण्णत्ताओ / तासु णं मण्णोगुलियासु बहवे सु
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________________ लवणसमुह 615 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लवणसमुह वण्णारुप्पामया फलगा पण्णत्ता, तेसुणं सुक्यरुप्पामएसुफलएसु बहवे वइरामया णागदंतगा मुत्ताजालंतरुसिता हेम० जाव गयंदगसमाणा पण्णत्ता, तेसु णं वइरामएसु णागदंतएसु बहवे रययामया सिक्कया पण्णत्ता, तेसुणं रययामएसु सिक्कएसु बहवे वायकरगा पण्णत्ता / ते णं वायकरण किण्हसुत्तसिक्ककगवत्थिया० जाव सुकिल्लसूत्तसिक्कगवत्थिया सव्वे वेरुलियामया अच्छा० जाव पडिरूवा, तेसिणं तोरणाणं पुरओ दो दो चित्ता रयणकरंडगा पण्णत्ता, से जहाणामए रण्णो चाउरंतचक्कवट्टिस्स चित्ते रयणकरंडे वकरुलियमणिफालियपडलपचोयडे साए पभए ते पदेसे सव्वतो समंता ओभासइ उजोवेति तावेइ पभासेति, एवामेव ते चित्तरयणकरंडगा पण्णत्ता, वेरुलियपडलपचोयडा साए पभए ते पदेसे सवतो समंमा ओमासेति // तेसि णं तोरणाणं पुरतो दो दो हयकंठगा० जाव दो दो उसभकंठगा पण्णत्ता सव्वरयणामया अच्छा० जाव पडिरूवा / तेसु णं हयकंठएसु० जाव उसमकंठएसु दो दो पुप्फचंगेरीओ, एवं मल्लगंधचुण्णवत्थाभरणचंगेरीओ सिद्धत्थचंगेरिओ लोमहत्थचंगेरीओ सय्वरयणामतीओ अच्छाओ० जाव पडिरूवाओ॥ तेसिणं तोरणाणं पुरतो दो दो पुप्फपडलाइं० जाव लोमहत्थपडलाइंसव्वरयणामयाइं० जावपडिरूवाइं। तेसिणं तोरणाणं पुरतो दो दो सीहासणाई पण्णत्ताई, तेसि णं सीहासणाणं अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, तहेव० जाव पासातीया 04 // 'तेसि णं' इत्यादिव तेषां तोरणानां पुरतो द्वा वा सुप्रतिष्ठकोआधारविशेषो प्रज्ञप्तौ, ते च सुप्रतिष्ठका: सौषधिप्रतिपूर्णा नानाविधैः पञ्चवर्णैः प्रसाधनभाण्डैश्च बहुपरिपूर्णा इव तिष्ठन्ति, अत्रापि तृतीयार्थे / षष्ठी बहुवचने चैकवचनं प्राकृतत्वात्, उपमानभावना प्राग्वत्, 'सव्वरयणामण' इत्यादितथैव // 'तेसिण' मित्यादि, तेषां तोरणानां पुरतोद्वे द्वे मनोगुलिके प्रज्ञप्ते, मनोगुलिका नाम पीठिका, उक्तं च मूलटीकायाम् - "मनोगुलिका पीठिके" ति, ताश्च मनोगुलिका: सर्वात्मना 'वैडूर्यमय्यो' वैडुर्यरत्नात्मिका: 'अच्छा' इत्यादि प्राग्वत्॥ तासु णं मणोगुलियासुबहवे इत्यदि, तासु मनोगुलिकासुबहूनि सुवर्णमयानि रूप्यमयानि च फलकानि प्रज्ञप्तानि, तेषु सुवर्णरूप्यमयेषु फलकेषु बहवो वज़मया: नागदन्तका:-अङ्कुटका: प्रज्ञप्त:, तेषु नागदन्तकेषु बहूनि 'रजतमयानि' रूप्यमयानि सिक्ककानि प्रज्ञप्तानि, तेषु च रजतमयेषु सिक्ककेषु बहवो 'वातकरका: जलशून्या: करका इत्यर्थः प्रज्ञप्ताः। ते ण' मित्यादि ते वातकरका: कृष्णा सूत्रसिक्ककगवास्थिता:-इति आच्छादनं गवस्था: (ता:) संजाता एष्विति गवस्थिता: कृष्णसेवैःकृष्णसूत्रमयैः गवरूथैरिति गम्यते,सिक्ककेसु गवस्थिता: कृष्णसूत्र सिक्ककगवस्थिता: एवं नीलसूत्रकिकगवस्थिता इत्याद्यपि भावनीयम्, ते च वा तरिका रू सर्वात्मना वैडूर्यमया 'अच्छा' इत्यादि प्राग्वत् / / 'तेसि ण' मित्यादि, तेषां तोरणानां पुरतो द्वा द्वा चित्रौ-चित्रवर्णोपेतावाश्चर्यभूतौ वा रत्नकरण्डको प्रज्ञप्तौ से जहानामए' इत्यादि, स यथानामराज्ञश्चतुरन्तचक्रवर्तिन:, चतुर्षु-पूर्वापरदक्षिणोत्तररूपेषु पृथ्वीपर्यन्तेषु चक्रेण वर्तितुं शीलं यस्य तस्य, चित्रः-आश्चर्यभूतो नानामणिमयत्वेन नानावर्णो वा 'वेरुलियमणिफलियपडलपचोय.' इति बाहुल्येन वैडूर्यमणिमयः, तथा 'स्फटिकपटलप्रत्ययवतटः' स्फटिकपटलमयाच्छादन: 'साए पभाए' इति स्वकीयया प्रभया तान - प्रत्यासन्नान् प्रदेशान् सर्वतः-सर्वासु दिक्षु समन्त:-सामस्त्येनावभासयति, एतदेव पर्यायत्रयेण व्याचष्ट-उद्योतयतितापयति प्रभासति, 'एवमेवे' त्यादि सुगमम्। 'तेसिणं तोरणाण' मित्यादि, तेषां तोरणानां पुरतो द्वा द्वा हयकण्ठौ-हयकण्ठप्रमाणौ रत्नविशेषौ, प्रज्ञप्तौ, एवं गजकिंनरकिंपुरुषमहोरगन्धर्ववृषभकण्ठा अपि वाच्या:, बक्तं च मूलटीकायामम्हयकण्ठौ-हयकण्ठप्रमाणौ रत्नविशेषौ, एवं सर्वेऽपिकण्ठा वाच्या इति, तथा चाह-'सव्वरयणामया' सर्वे रत्नमया:-रत्नविशेषरूपा 'अच्छा' इत्यादि प्राग्वत्। 'तेसिण' मित्यादि, तेषां तोरणानां पुरतो द्वे द्वे पुष्पचङ्गेयौ प्रज्ञप्ते, एवं माल्यचूर्णगन्धवस्त्राभरणसिद्धार्थकलोमहस्तकङ्गे योऽपि वक्तव्याः, एताश्च सर्वा अपि सर्वात्मना रत्नमय्य:, 'अच्छा' इत्यादि प्राग्वत्। एवं पुष्पादीनामष्टानां पटलकान्यपि द्विद्विसंख्याकानि वाच्यानि। 'तेसिण' मित्यादि, तेषां तोरणानां पुरतो द्वे द्वे सिंहासने प्रज्ञप्ते तेषां च सिंहासनसनसं वर्णक: प्रागुक्तो निरवशेषो वक्तव्यो यावद्दामवर्णनम्। तेसिणं तोरणाणं पुरतो दो दो रुप्पच्छदा छत्ता पण्णत्ता। ते णं छत्ता देरुलियभिसंतविमलदंडा जुबूणकनिकाइरसंधी मुत्ताजालपरिगता अट्ठसहस्स वरकंचणसलागादहरमलयसुगंधी सप्वोउअसुरभिसीय लच्छाया मुगलभत्तिचित्ता चंदागारोवमा वट्टा तेसिणं तोरणाणं पुरतो दो दो चामराओ पण्णत्तओ, ताओ णं चामराओ (चंदप्पभवहरवेरुलियनानामणिरयणखचियदंडा) णाणामणिकणगरयणविमलमहरिहतवणिजुजलविचित्तदंडाओ चिल्लिआओ संखकुंददगरयअमयमहियफेणपुंजसण्णिकासाओ सुहुमरयतदीहवालाओ सव्वरयणणामयाक अच्छाओ०जाव पडिरूवाओ।। तेसिणं तोरणाणं पुरतो दो दो तिल्लसमुग्गा कोहसमुग्गा पत्तसमुग्गा चोयसमुग्गा तयरसमुग्गा एलासमुग्गा हरियालसमुग्गा हिंगुलयसमुग्गा मणोसिलासमुग्गा अंजणसमुग्गा सय्वरयणामया अच्छा० जाव पडिरूवा // (सू०१३१)।
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________________ लवणसमुद्द 616 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लवणसमुह 'तेसिण' मित्यादि, तेषां तोरणानां पुरतोद्वेद्वे रूप्यच्छेदेरूप्याच्छादने फासो, तेसिणं भोमाणं उप्पिं उल्लोया पउमलया० जाव छत्रे प्रज्ञप्ते, तानि च छत्राणि वैडूर्यरत्नमयविमलदण्डानि जाम्बूनदक- सामलता त्तिचित्ता० जाव सव्वतवणिज्जमता अच्छा० जाव र्णिकानि वज्रसन्धीतिवज्ररत्नापूरितदण्डशलाकासन्धीनि मुक्ताजाल- | पडिरूवा, तेसिणं मोमाणं बहुमज्झदेसमाए जे से पंचमे भोम्मे परिगतानि अष्टौ सहस्राणिकृष्टसहस्रसेख्याका वरकाञ्चनशलाका- तस्स णं भोमस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं एगे महं सीहासणे वरकाञ्चनमय्य: शलाका येषु तानि अष्टसहस्रवर काञ्चनशलाकानि पण्णत्ते, सीहासणवण्णतो विजयदूसे० जावें अंकुसे० जावदामा 'दद्दरमलयसुगन्धिसव्वोउयसुरहिसीयलच्छाया' इति दर्दर:-चीव चिट्ठति, तस्सणं सीहासणस्स अवरुत्तेरेणं उत्तरपुरच्छिमेणं एत्थ रावनद्धं कुण्डिकादिभाजनमुखं तेनप गालितास्तत्र पक्वा वा ये मलय णं विजयस्स देवस्स चउण्हं सामाणियसहस्साणे चत्तारि मद्दइति-मलयोद्भवं श्रीखण्डंतत्सम्बन्धिन: सुगन्धयो गन्धवासास्तद्वत्सर्वेषु सणसाहस्सीओ पण्णत्ताओ, तस्सणं सीहासणस्स पुरच्छिमेणं ऋतुषु सुरभि: शीतला च छाया येषां तानि, तथा 'मंगलभत्तिचित्ता' एत्त णं विजयस्स देवस्स च उण्हं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं तेषामष्लना मङ्गलानां भक्त्याविच्छित्या चित्रम् -आलेखो येषां तानि चत्तारि भद्दासणा पण्णत्ता, तस्स णं सीहासणस्स दाहिणपुरमङ्गल भक्तिचित्राणि, तथा 'चंदागारोवमा' इति चन्द्राकार: चन्द्राकृतिः त्थिमेणं एत्थणं विजयस्य देवस्स अनिमंतरियाएपरिसाए अट्ठण्हं स एपमा येषां तानि तथा, चन्द्रमण्डलवद्वृत्तानीति भावः / तेसि णं' देवसाहस्सीणं अट्ठण्हं भद्दासणसाहस्सीओ पण्णजाओ, तस्स इत्यादि, तेषां तोरणानां पुरतो द्वे द्वे चामरे प्रज्ञप्ते, तानि च चामराणि णं सीहासणस्स दाहिजेणं विजयस्स देवस्स मज्झिमियाए 'चंदप्पभवइरवेरुलियनाणामणिरयणखचियदंडा' इति चन्द्रप्रभ:-- परिसाए दसण्हं देवसाहस्सीणं दस भद्दासणसीस्सीओ पण्ण ताओ, तस्स णं सीहासणस्स दाहीणपचत्थिमेणं एत्थ णं चन्द्रकान्तो वजं वैडूर्य च प्रतीतं चन्द्रप्रभवज्रवैडूर्याणि शेषाणि च नाना विजयस्य देवस्स बाहिरियाएपरिसरए बारसण्हं देवसाहस्सीणं मणिारत्नानि खचितानि येषु दण्डेषु ते तथा, एवं रूपाश्चित्रानानाकारा बारस महासणसाहस्सी ओ पण्णत्ताओ। तस्रणं सीहासणस्स दण्डा येषां चामराणां तानि तथा. सूत्रे स्त्रीत्वं प्राकृतत्वात्, तथा 'सुहुम पचत्थिमेणं एत्थणं विजयस्य देवस्स सत्ततण्हं अणियाहिवतीणं रययदीहवालाओ' इति सूक्ष्मा रजतमया दीर्घा वाला येषां तानि तथा, सत्त भद्दासण पण्णत्ता, तस्स णं सीहाणस्स पुरत्थिमेणं दाहिणेणं 'संखककुंददगरयअमयमहियफेणपुंजसंनिकासाओ' इति शङ्ख: पत्थिमेणं उत्तरेणं एत्थ णं विजयस्स देवस्स सोलस आयरप्रतीतोऽङ्को रत्नविशेष: कुन्देति कुन्दपुष्पं दकरजः उदककणा: क्खदेवसाहस्सीणं सोलस भद्दासणसाहस्सीओ पण्णत्ताओ, अमृतमथितफेनपुञ्ज:-क्षीरोदजलमथनसमुत्थफेनपुञ्जस्तेषाभिव तंजहा-पुरस्थिमेणं चत्तारि साहस्सीओ, एवं चएसु वि० जाव सन्निकाश:-प्रभा येषां तानि तथा, अच्छा इत्यादि प्राग्वत्। 'तेसि णं' उत्तरेणं चत्तारि साहस्सीओ, अवसेसु चेमेसु पत्तेयं पत्तेयं इत्यादि, तेषां तोरणानां पुरतो द्वा द्वा तैलसमुद्रकौसुगन्धितैलाधार महासणा पण्णत्ता॥ (सू०१३२) विशषौ, उक्तं च- जीवभिगममूलटीकायाम् "तैलसमुद्रकौसुगन्धि 'विजये णं दारे' इत्यादि, तस्मिन् विजये द्वारे अष्टशतम् -अष्टाधिकं तैलाधारौ" एवं काष्ठादिसमुद्रका अपि वाच्याः, अत्र संग्रहणिगाथा शतं चक्रध्वजानाम् -चक्रालेखरूपचिह्नोपेतानांष्वजानाम्, एवं मृगग"तेल्लो कोट्ठसमुग्गा, पत्ते चोए य तगरएला या हुरियाले हिंगुलए, मणो रुडरुरुकच्छत्रपिच्छशकुनिसिंहवृषभचतुर्दन्तहस्तिध्वजानामपि सिला अंजणसमुग्गो॥१" 'सव्वरथणामया' इति एते सर्वेऽपि सर्वात्मना प्रत्येकमष्टशतमष्टशतं वक्तव्यम्, 'एवामेव सपुव्वावरेणं( एवमेव-अनेन रत्नमया: 'अच्छा सण्हा' इत्यादि प्राग्वत्।। प्रकारेण सपूर्वापरेण सह पूर्वैरपरैश्च वर्त्तत इति सपूर्वापरं संख्याने तेन (4) अथलवणविजयद्वारे चक्रध्वजादि प्रतिपादयन्नाह विजयद्वारे अशीतम् -अशीत्यधिककेतुसहस्रं भवतीत्याख्यातं मयाऽन्यैश्च विजये णं दारे अहसतचक्कझायाणं अट्ठसयं मिगज्झयाणं तीर्थकृद्भिः।। 'विजयस्स ण' मित्यादि, विजयस्य द्वारस्य पुरतो नव अट्ठसयं गरुडज्झयाणं अट्ठसयं विगज्झयाणं (अट्ठसयं 'भौमानि' विशिष्टानि स्थानानि प्रज्ञप्तानि; तेषां च भौमानां भूमिभागा रुरुयज्झयाणं) असतं छत्तज्मयाणं अट्ठसयंपिच्छज्झयाणं उल्लेकाश्च पूर्ववद्वक्तव्याः,तेषां च भैमानां बहुमध्यदेशभगे यत्पञ्चमं भौम अट्ठसयं सउणिज्झयाणं अट्ठसयं सीहज्झयाणं असतं तस्य बहुमध्यदेशभागे विजयद्वाराधिपतिविजयदेवयोग्यं सिंहासनं प्रज्ञप्तम्, उसज्झयाणं असतं सेयाणं च उविसाणाणं णागवरकेतूणं तस्यचसिंहासनस्य वर्णनं विजयदुष्यं कुम्भागमुक्तादामवर्णनं प्राग्वत्तस्य एवामेव सपुष्वावरेणं विजयदारे आसीयं केलाहस्सं भवति त्ति च सिंहासनस्य अपरोत्तरस्याम् -वायव्यकोणे उत्तरस्यामुत्तरपूर्वस्यां च मक्खायं विज येणं दारे णव भेमा पण्णत्ता, तेसिणं भोमाणं विजयदेवस्य सम्बन्धिनाचतुर्णा सामानिकसहस्राणांचत्वारिभद्रासनसअंतो बहुसमरमणिज्जा भूमिभागा पण्णत्तास, जाव मणीणं | हस्राणिप्रज्ञप्तानि, तस्यसिंहासनस्यपूर्वस्यामत्रविजयस्य देवस्य चतसृणाम्य
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________________ लवणसमुद्द 617- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लवणसमुद्द महिषीणां चत्वारि भद्रासनसहस्राणि प्रज्ञातानि, तस्यसिंहासनस्य दषिणपूर्वस्यामाग्नेयकोण इत्यर्थः, अत्र विजयदेवस्य अभ्यन्तरपर्षदाम् अभ्यन्तरपर्षद्रूपाणामष्टानां देवसहस्राणां योग्यानि अष्टौ भद्रासनसहस्राणि प्रज्ञप्तानि, तस्य सिंहासनस्य दक्षिणस्यां दिशि अत्र विजयदेवस्य मध्यपर्षदो दशानां देवसहस्राणां योग्यानि दशभद्रासनसहस्राणि प्रज्ञप्तानि, तस्य सिंहासनस्य दक्षिणापरस्यां दिशि नैर्ऋतकोण इत्यर्थः / अत्र विजयदेश्वस्य माह्यपर्षदो द्वादशानां देवसहस्राणां योग्यानि द्वादश भद्रासनसह त्राणि प्रज्ञप्तानि / / 'तस्स णं सीहासणस्से' त्यादि, तस्रू सिंहासनस्य पश्चिमायां दिशि अत्र विजयस्य देवस्य सम्बन्धिनां सप्तानामनीकाधिपजीनां योग्यानि सप्त भद्रासनसनि प्रज्ञातानि, तस्य सिंहासनस्य 'सर्वतः-सर्वासु दिक्षु समन्तत:- सामस्त्येन अत्र विजयस्य देवस्य सम्बन्धिनां षोडशानामात्मरक्षकदेवसहस्राणां योग्यानिषोडशभद्रासन सहस्राणि प्रज्ञप्तानि, अवशेषेषु प्रत्येकं प्रत्येकं सिंहासनमपरिवार सामानिकादिदेवयोग्यभद्रासनरूपपरिवाररहितं प्रज्ञप्तम्॥ विजयस्य णं दारस्स उवरिमागार सोलसवहिं रयणेहिं उवसोभिता, तं जहा-रयणेहिं वयरेहिं वेलिएहिं० जाव रिटेहिं / / विजयस्य णं दारस्स उप्पिं बहवे अट्ठट्ठ मंगलगा पण्णत्ता,तं जहा-सोस्थितसिरिवच्छ०जाव दप्पणा सव्वरयणामया अच्छा० जाव पडिरूवा / विजयस्स णं दारस्स एप्पिं बहवे कण्हचामरज्झया० जाव सव्वरयणामया अच्छा० जाव पडिरूवा। विजयस्सणंदारस्स एप्पिं बहवे छत्तातिछत्तातहेव / / (सू०११३) 'विजयस्स ण' मित्यादि, विजयस्य द्वारस्य डवरिमाकारा:-इति दपरितन आकार:- उत्तरङ्गादिरूपः षोडशविधैः त्नैिरुपशोभितः, तद्यथा-रत्नैः सामान्यतः कर्केतनादिभि: 1 वज्रः २वैडूर्यैः 3 लोहिताक्षरू 4 मसारगल्लैः 5 हंसगर्भः 6 पुलकैः 7 सौगन्धिकैः 8 ज्योतिरसैः / अझैः 10 अञ्जनैः 11 रजतैः 12 जातरूपैः 13 अञ्जनपुलकैः 14 स्फटिकैः 15 रिष्टैः१६॥ 'विजयस्स ण' मित्यादि, विजयस्स्द्वारस्य उपरि अष्टावष्टौ स्वस्तिकादीनि मङ्गलकानि प्रज्ञप्तानि तद्यथेत्यादिना तान्येवोपदर्शयति-'सव्वरयणामया' इत्यादि प्राग्वत्॥ से केणटेणं भंते ! एवं वुचति ? विजय णं दारे 2, गोयमा ! विजये णं दारे विजये णाम देवे महिड्डीए महजुतीए० जाव महाणुभावे पलिओवमद्वितीए परिवसति, से णं तत्थ चउण्हं सामाणियसाहस्सीणं, चउण्हं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणां, तिण्हं परिसाणं, सत्तण्हं अणीयाणं, सत्तण्हं अणीयाहिवईणं सेलसण्हं आयरक्खदेवसाहस्सीणं, विजयस्स णं दारस्स विजयाए रायहाणीए अण्णेसिं च बहूणं विजयाए रायहाणीए | वत्थव्वगाणं देवाणं देवीण य आहंवचं० जाव दिव्वाई भोगभोगाई मुंजमाणे विहरह, से तेणटेणं गोयमा! एवं दुचति-विजये दारे, (अदुत्तरं च णं गोयमा! विजयस्सणंदारस्स सासए णामधेजे पण्णते, तणकयाइ णासी, ण कयाइ णत्थि, ण कयाइ ण भविस्सति,जाव अवट्ठिए णिचे विजय दारे।।)(सू०१३४) ‘से केणटेणंभंते ! एवं वुचई' इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुभमम्, भगवानाह'गोयमे' त्यादि, गौतम ! विजये द्वारे विजयो नाम, प्राकृतत्वात् अव्ययत्वाच नामशब्दात्परस्य टावचनस्य लोपस्ततोऽययमर्थ:प्रवाहतोऽनादिकालसन्ततिपतितेन विजय इति नाम्ना देव: 'तहर्द्धिकः' महती ऋदि: भवनपरिवारादिका यस्यासौ महर्द्धिकः 'महाद्युतिकः महति धुति:-शरीरगता आभारणगता च यस्यासौ महाछुतिकः, तथा महद् बलं-शारीर: प्राणो यस्य स महाबलः, तथा महद्यश:-ख्यातिर्यस्यासौ महायशाः, महेश इत्याख्या-प्रसिद्धिर्यस्य स महेशाख्यः, अथवाईशनमीशो भावे घञ्प्रत्यय: ऐश्वर्यमित्यर्थः 'ईश ऐश्वर्ये' इति वचनात् तत ईशनमैश्वर्यम् आत्मन: ख्याति:, अन्तर्भूतण्यर्थतया ख्यापयतिप्रथयति यः स ईशाख्यः, महांञ्चासावीशाख्यश्च महेशाख्यः, क्वचित् महायोक्खे इति पाठस्तत्र महत् सौख्यं प्रभूतसद्वेद्योदयवशायस्य स महायौख्य: पल्योपमस्थितिकः परिवसति, सच तत्र चतुर्णा सामानिकसहस्राणां चतसृणामग्रकहिषीणां सपरिवाराणां प्रत्येकमेकैकसहस्रसंख्यपरिवारसहितानां तिसुणाम् अभ्यन्तरमध्यमबाह्यरूपाणां यथाक्रममष्टदशद्वादशदेवसहस्रसंख्याकानां पर्षदां सप्तानामनीकानांहयानीकगजानीकरथानीकयदात्यनीकमहिषानीकगन्धर्वानाकनाटयानीकट्यानीकरूपाणां सप्तानामनीकाधिपतीनां षोडशानात्मरक्षसहस्राणां विजयस्य द्वारस्य विजयाया राजधान्या अन्येषां च बहूनां विजयाराजधानीवास्तव्यानां देवानां देवीनांच'आहेवच्चं ति आधिपत्यम् -अधिपतेः कर्म आधिपत्यं रक्षा इत्यर्थः, सा च रक्षा सामान्येनाप्यारक्षकेणेव क्रियते तत आह-पुरस्य पतिः पुरपतिस्तस्य कर्म पौपत्यं सर्वेषामग्रेसरत्वमिति भावः। तच्चाग्रेसरत्वं नायकत्वमन्तरेणापि स्वनायकनियुक्तथा विधगृहचिन्तकसामान्य-पुरुषस्येव (स्यात्) ततो नायकत्वप्रतिपत्त्यर्थमाह-'स्वामित्वम् स्वमस्यास्तीति स्वामी; तद्भव: स्वामित्वं नायकत्वमित्यर्थः, तदपि च नायकत्वं कदाचित्पोषकत्वमन्तरेणापि भवति, यथा- हरिण्यूथाधिपतेर्हरिणस्य तत आह-भर्तृत्वपोषकत्वम्, "दुभृञ्धारणपोषणयोः" इति वचनात्, अत एव महत्तरकत्वम्, तदपि चेह महत्तरकत्वं कस्यचिदाज्ञाविकलस्यापि भवति, यथा-कस्यचिद्वणिज: स्वादासीवर्ग प्रति तत आह 'आणाईसरसेणावच्चं' आज्ञया ईयवर आज्ञेयवर: सेनाया: सेनापतिः, आज्ञेश्वरश्चासौ सेनापतिश्च आज्ञेश्वरसेनापतिस्तस्य कर्म आज्ञेश्वरसेनापत्यं स्वसैन्यं प्रत्यद्रुतमा-ज्ञाप्राधान्यमिति भावः, कारवन् अन्यैर्नियुक्तैः पुरुषः पालयन स्वमेव, महता रवेणेतियोगः 'अहय,ति आक्ष्यानकप्रतिगद्धानि, यदि वा-अहतानि-अव्याहतानि नित्यानि-नित्यानुबन्धीनीति भावः, ये
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________________ लवणसमुद्द - 618 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लवणसमुह नाट्यगीते नाट्यं-नृत्यं गीत-गानं यानि च वादितानि तन्त्रीतलताल त्रटितानि तन्त्री-वीणा तलौ-हस्ततलौ तल:-कंसिका त्रुटितानि. वादित्राणि, तथा यश्च घनमृदङ्गः पटुना पुरुषेण प्रवादितः, तत्रधनमृदङ्गो नाम-घनसमानध्वनियों मृदङ्गस्तत एतेषां द्वन्द्वस्तेषां रवेणा दिव्यान् - प्रधानान् भोगार्हा भोगा:-शब्दादयो भोगभोगास्तान् भुजानः विहरतिआस्ते 'से एएणडेणं इत्यादि, तत एतेन अर्थेन-कारणेन गौतम ! एवमुच्यते, विजयद्वारं-विजयद्वारभिति, विजयाभिधानदेवस्वामिकत्वाद् विजयमिति भावः / / कहि णं मंते ! विजयस्य देवस्य विजया णाम रायहाणी पण्णत्ता ? गोयमा! विजयस्सगंदारस्स पुरत्थिमेणं तिरियमसंखेज्जे दीवसमुद्दे वीतिवतित्ता अण्णम्मि (जी०सू० 135+) लवणसमुद्दे (जी० सू० 154+) वारस जोयणसहस्सई ओगाहित्ता, एत्थ णं विजयस्स देवस्स विजया णाम रायहाणी पण्णत्ता, वारसजोयणसहस्साइंआयामविक्खंभेणं सत्ततीसजोयणसहस्साइंव अडय ले जोयणसइ किंचि विसेसाहिएपरिक्खेणं पण्णत्ते // साणं एगेणं पागारेणं सवतोसमंता संपरिक्खित्ता।। से णं पागारे सत्ततीसं जोयणाई अद्धजोयणं च उडू उच्चत्तेणं मूले अद्धतेरस जोयणाई विक्खंभेणं मज्झेत्थ सक्कोसाई छ जोयणाई विक्खंभेणं उप्पिं तिण्णि सद्धकोसाइं जोयणाई विक्खंभेणं मूले वित्थिपणे मज्झे संखित्ते उप्पिं तणुए बाहिं वट्टे अंतो चउरंसे गोपुच्छसंठाण संठिते सव्वकणगामए अच्छे० जाव पडिरूवे / / से णं पागारे णाणाविचहपंचवण्णेहिं कविसीसरहिं एवसोभिए, तं जहा-किण्हेहिं जाव सुकिल्लेहिं / / ते णं कविवसीसका अद्धकोसं आयातेणं पंच धणुसताई विक्खंमेणं देसणमद्धकोसं उद्धं उच्चत्तेणं सव्वमणिमया अच्छा० जाव पडिरूवा। विचजयाए णं रायहाणीए एगमेगाए बाहाए पणुवीस पणुवासं दारसतं भवतीति मक्खायं // तेणं दारा बावष्टिं जोयमाइं अद्धजोयणं च उड्डं उच्चत्तेणं एकतीसं जोयणाई कोसं च विक्खंभेणं तावतियं चेव पवेसे णं सेता वरकणगथूभियागा ईहामिय० तहेव जधाविजए दारे०जाव तवणिज्जवालुगपत्थडा सूहफासा सस्सि (म) रीए सरूवा पासातीया० / तेसिणं दाराणं उभयपासिंदुहतो णिसीयाए दो वंदणकलसपरिवाडीओ पण्णत्ताओ तहेव भाणियव्यं० जाव वणमालाओ। 'कहि णभंते!' इत्यादि,व भदन्त ! वितयस्स देवस्य विजया द्वारस्य पूर्वास्यां दिशि तिर्यगसंख्येयान् द्वीपसमुद्रान् व्यतिव्रज्यान्यस्मिन् लवणसमुद्रे द्वादश योजनसहस्राण्यवगाह्यात्रान्तरे विजयस्य देवस्य विजया नाम राजधानी प्रज्ञप्ता / जी०३ प्रति०२ उ०सू०१५४) मया शेषैश्च तीर्थकृद्धि, सा च द्वादशयोजनसहस्राणि आयामविष्कम्भेन | | आयामविष्कम्भाभ्यां सप्तत्रिंशद् योजनसहस्राणि नवशतानि अष्टचत्वारिंशानि-अष्टचत्वारिंशदधिकानि किञ्चिद्विशेषाधिकानि परिक्षेपेण, इदंचपरिक्षेपपरिमाणम् 'विक्खंभवम्मदहगुणकरणी वट्टस्स परिरओ होइ' इति करणवशात्स्वयमानेतव्यम्। 'सा ण' मित्यादिसा-विजयाभिधाना राजधानी णमिति वाक्यालङ्कारे एकेन महता प्राकारेण सर्वतः-सर्वासु दिक्षु समन्ततः-सामस्त्येन परिक्षिप्ता 11 से ण' मित्यादि, स प्राकार: सप्तत्रिंशतं योजनानातर्द्धयोजनातूर्ध्वमुचैस्त्वेन मूलेऽर्द्धत्रयोदश योजनानि विष्कम्भेन मध्ये षड्योजनानि सक्रेाशानि-एकेन क्रोशेनाघिकानि विष्कम्भेन उपरि त्रीणि योजनानि सार्द्धक्रोशानि (योजनानि) सा निद्वादश अर्द्धक्रोशाधिकानि (द्वादश) विष्कम्भेन, मूले विस्तीर्णो मध्ये संक्षिप्तो, मूलविष्कम्भतोऽर्द्धस्य त्रुटितत्वात्, उपरि तनुको, मष्यविष्कम्भादप्यर्द्धस्य त्रुटितत्वात्, बहिवृत्तोऽन्तश्चतुरस्रो गोपुच्छसंस्थानतिः-ऊर्वीकृतगोपुच्छसंस्थानसंस्थितः 'सव्वकणगमए' सर्वात्मना कनकमय: 'अच्छे' इत्यादि विशेषणजातं प्राग्वत् / / 'से ण' मित्यादि, स प्राकारो नानाविधानि च तानि पञ्चवर्णानि च नानाविधपञ्चवर्णानितै:, नानाविधत्वं च पञ्चवर्णापक्षया कृष्णादिवर्णतारम्यापेक्षया वा द्रष्टव्यम्, पञ्चवर्णत्वमेवोपदर्शयति-'किण्हेहिं' इत्यादि / / 'ते णं कविसीसगा' इत्यादि, तानि कपिशीर्षकाणि प्रत्येकमर्द्धक्रोशं धनुःसीस्रप्रमाणमायामेनदैर्येण पञ्चधनुःशतानि विष्कम्भेनविस्तारेण, देशोनमचक्रोशमर्ध्वमच्चैस्त्वेन 'सव्वमणिमया' इत्यादि सर्वात्मना मणिमया अच्छा' इत्यादि विशेषणकदम्बकं प्राग्वत् / / 'विजयाए णं रायहाणीए' इत्यादि, विजयाया राजधान्या एकवस्यां बाहायां पञ्चविंश-पञ्चविंशत्यधिकं द्वारशतं 2 प्रज्ञप्तम, सर्वसंख्यया पञ्चद्वारशतानि॥ तेणं दारा' अत्यादि, तानिद्वारणि प्रत्येकं द्वाषष्टियोजनानि अर्द्धयोजनं चोर्ध्वमुच्चैस्त्वेन, एकत्रिंशतं योजनानि क्रोशंच विष्कम्भतः 'तावइयं चेव पवेसेणं' एततावदेव-एकत्रिंशद् योजनानि क्रोशं चेत्यर्थाः; प्रवेशेन, 'सेया थूवरकणगभियागा' इत्यादि द्वारवर्णनं निरवशेषं तावद्वक्तव्यं यावदनमालावर्णनम् / तेसि णं दाराणं उभयो पासिं दुहतो णिसीहियाए दो दो पगंठगा पण्णत्ता, ते णं पगंठगा एकतीसं जोयणाई कोसं च आयामविक्खंभेणं पन्नरस जोयणाई अड्डाइज्जे कोसे वाहल्लेणं पण्णत्ता सव्वावइरामया अच्छा० जाव पडिरूवा / तेसिणं पगंठगाणं उप्पिं पत्तेयं पत्तेयं पासायवडिंसगा पण्णत्ता / ते णं पासायवडिंसगा एकतासं जोयणाई कोसं च उद्धं उचत्तेणं पन्नरस जोयणाई अड्डाइजे य कोसे आयामविक्खंभेणं सेसं तं चेव० जाव समुग्गया णवरं बहुयणं माणितव्वं / विजयाए णं रायहाणीए एगमेगे दारे अट्ठसयं चक्कज्झयाणं० जाव अट्ठसतं सेयाणं चउदिसाणाणं णागवरकेऊणं, एवामेव सपुटवावरेणं वि मालावणनमा
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________________ लवणसमुह 619 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लवणसमुह जयाए रायहाणिए एगमेगे दारे असीतं असीतं के उसहस्सं पुष्पादिचङ्गे यों वक्तव्यास्तत: पुष्पादिपटलकानि ततः सिंहासनानि भवतीति मक्खायं / विजयाए णं रायहाणीए एगमेगे दारे (तेसि तदनन्तरं छत्राणि ततश्चामराणि ततस्तैलादिसमुद्रका वक्तव्यास्ततो णं दारपुरओ) सत्तरस भोमा पण्णत्ता, तेसि णं भोमाणं ध्वजाः, तेषांचध्वजानामिदं चरमसूत्रम्-'एवामेव सपुव्यावरेणं विजयाए (भूमिभोगा) उल्लोया (य) पउमलया० भत्तिचित्ता।। तेसिणं रायवहाणीए एगमेगंसि दारं असीयं असीयं केउसहस्सं भवतीति भोमाणं बहुमज्ण देसभाए जे ते नवनवमा भोमा तेसिणं भोमाणं मक्खायं तदनन्तरं भौमानि वक्तव्यानि, तत्समत्रं साक्षादुपदर्शयतिबहुमज्झदेसमाए पत्तेयं 2 सीयासणा पण्णत्ता, सीहासणव- 'तेसिणं दाराण' मित्यादि, तेषां द्वाराणां पुरतः सप्तदश सप्तदश भौमानि पणओ०जावदामा जहा हेट्ठा, एत्थ णं अवसेसेसु भोमेसु पत्तेयं प्रज्ञप्तानि, तेषां च भौमानां भूमिभागा उल्लोकाश्च प्राग्द्वक्तव्या: / 'तेसिणं भद्दासणा पण्णत्ता / तेसि णं दाराणं उत्तिमा (उवरिमा गारा भौमाण' मित्यादि, तेषां च भौमानां बहुमध्यदेशभागे यानि नवमनवमानि सोलसविधेहिं रयणेहिं उवसोभिया तं चेव० जाव छत्ताइछत्ता, भौमानितेषां बहुमध्यदेशभागेषु प्रत्येक विजयदेवयोग्यं (सिंहासनं यथा) एवामेव पुवावरेण विजयाए रायहाणीए पंच दारसता भवंतीति विजयद्वारपञ्चमभौमे किन्तु सपरिवारं सिंहासनं वक्तव्यम्, अवशेषेषु च मक्खाया।। (सू०१३५) भौमेषु प्रत्येकं सपरिवारं सिंहासनं प्रज्ञप्तम्, 'तेसिणं दाराणं उवरिमागारा 'तेसि णं दौराण' मित्यादि, तेषां द्वाराणां प्रत्येकमुभयो: पार्श्वयोरे- सोलसविहेहिं रयणेहिं उवसोभिया' इत्यादि प्राग्वत्। कै कनेषेधिकीभवकन-द्विधातो, द्विप्रकारायां नैषेध्क्यिां द्वौ द्वौ (E) लवणसमुद्रस्य वनखण्डादिवर्णयतिप्रकण्ठको-पीठविशेषौ प्रज्ञप्तौ, ते च प्रकण्ठका: प्रत्येकमेकत्रिंशतं विजयाए णं रायहाणीए चउद्विसिं पंचजोयणसताइं अहाहाए, योजनानि क्रोशमेकं च आयामविष्कम्भाभ्याम्, पञ्चदश योजनानि एत्थणं चत्तारिवणसेडा पण्णत्ता, तं जहा-असोगवणे सत्तण्णवणे अर्द्धतृतीयांश्च क्रोशान् बाहल्येन 'सव्ववइरामया' इति सर्वात्मना ते चंपगवणे चूतवणे, पुरथिमेणं असोगवणे दाहिणेणे सत्तवण्णवणे प्रकण्ठका वजरत्नमया: अच्छा सण्हा' इत्यादि विशेषणजातं प्राग्वत्॥ पचत्थिभेणं चंपगवणे उत्तरेणं चूतवणे // तेणं वणसंडासाइरे'तेसिं पगंठगाण' मित्यादि, तेषां प्रकण्ठाकायामुपरि प्रत्येकं 2 प्रासादा- गाई दुवालसजोयणसहस्साई आयामेणं पंच जोयणसयाई वतंसकः-प्रासादविशेष: प्रज्ञप्तः।। 'ते णं पासायवडेंसगा' इत्यादि, ते विक्खंभेणं पण्णत्ता पत्तेयं पत्तेयं पागारपरिक्खत्ता किण्हा प्रासादावतंसका एकत्रिंशतं योजनानि क्रेाशं चैकमूर्ध्वमुचैस्त्येन, पञ्चदश किण्होभासावणसंडवण्णओ माणियवे०जाव बहवे वाणमंतरा योजनानि अर्द्धतुतीयोश्च क्रोशान् आयामविष्कम्भाभ्याम, तेषां च देवा य देवीओ य आसयंति सयंति चिटुंति णिसीदति तुयटुंति प्रासादानाम् अन्भुग्गयमूसियपहसिया विव' इत्यादि सामान्यतः रमंति ललंति कीलंति मोहंति पुरा पोराणाणं सुचिण्णाणं स्वरूपवर्णनम् उल्लोकवर्णनं मध्यभूमिभागवणनं सिंहासनवर्णनं विजय- सुपरिवंताणं सुभाणं कम्माणं कडाणं कल्लाणाणं फलवित्तिदुष्यवर्णनं मुक्तादामोपवर्णनं च विजयद्वारवत्, शेषमपि तोरणादिकं विसेसं पञ्चणुभवमाणा विहरंति। तेसिणं वणसंडाणं बहुमज्झविजयद्वारवदिमाभिर्वक्ष्यमाणाभिर्गाथाभिरनुगन्तव्यम्, ता एव गाथा देसभाए पत्तेयं पत्तेयं पासायवडिंसगा पण्णत्ता, ते णं पासायआह-'तोरणे' त्यादि गाथात्रयम्, द्वारेषु प्रत्येकमेकैकस्यां नैषेधिक्यां द्वे वडिंसगा बाहवट्टि जोयणाइं अद्धजोयणंच उड्ळ उच्चत्तेणं एकतीसं द्वे तोरणे वक्तव्ये, तेषां च तोरणानामुपरि प्रत्येकमष्टावष्टौ मङ्गलकानि, जोयणाई कोसं च आयामविक्खंभेणं अन्भुम्गतमूसिया तहेव० तेषां तोरणानामुपरि कृष्णाचामरध्वजादयोध्वजाः, तदनन्तरं तोरणानां जाव अंतो बहुसमरमणिज्जा भूमिभागा पण्णत्ता उल्लोया पउमपुरतःशालभजिका: तदनन्तरं नागदन्तकास्तेषु च नागदन्तकेषु दामानि भत्तिचित्ता भाणियव्वा, तेसि णं पासायवडेंसगाणं बहुमज्झततो हयसनावदय: सङ्घाटा वक्तव्याः, ततो हयपंक्त्यादय: पंक्तयस्त- देसभाए पत्तेयं सीहासणा पण्णत्ता वण्णादासो सपरिवारा, तेसि दनन्तरं हयवीथ्यादयो वीथ्यादयो वीथयस्ततो हयमिथुनकादीनि णं पासायवडिं सगाणं उप्पिं बहवे अहह मंगलगा झया मिथुनानि ततः पद्मलतादयो लता: ततः 'सोत्थिया' चतुदिक्यौवस्तिका छत्तातिछत्ता॥ वक्तव्यास्ततो वन्दनकलशास्तदनन्तरं भृङ्गारकास्तत आदर्शकास्ततः 'विजयायणरायहाणीए इत्यादि, विजयाया राजधान्या:-चउद्दिसि' मिति स्थालानि ततः पात्र्यस्तदनन्तरं सुप्रतिष्ठानि ततो मनोगुलिकास्तासु चतने दिश: समाहृताश्चतुर्दिक् तस्मिन् चतुर्दिशिचतुसृषु दिक्षु पञ्च 'वातरका: वातभृता करका वातकरका जलशून्या इत्यर्थः, तदनन्तरं पञ्चयोजनशतानि 'अबाहाए' इति बाधनंबाधा-आक्रमणंतस्यामबा-धायां चित्रा रत्नकण्डकास्ततो हयकण्ठा गजकण्ठा नरकण्ठा: उपलक्षणमेतत् कृत्वेति गम्यते, अपान्तरालेषु मुक्त्वेति भावः, चत्वारो वनखण्डा: प्रज्ञप्ता: किनकिंपुरुषमहोरगगन्धर्ववृषभकण्ठका: क्रमेण वक्तव्याः, तदनन्तरं | 'तद्यथे त्यादि, तानेव वनखण्डान्नामतो दिग्मेदत्श्च दर्शयति, अशोकवृ
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________________ लवणसमुह 620 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लवणसमुह क्षप्रधानं वनमशोकवनम्, एवं सप्रतपर्णवनं चम्पकवनं चूतवनमपि भावनीयम्, 'पुव्येण असोगवण' मित्यादिरूपा गाथा पाठसिद्धा (अत्र मूले न) / / 'ते णं वणसंडा' इत्यादि, ते वनख(ष)ण्डाः, सातिरेकाणि द्वादश योजनसहस्राण्यायामेन पञ्च योजनशतानि विष्कम्भेन प्रत्येक प्रत्येकं प्राकारपरिक्षिप्ता: प्रज्ञप्ता:, पुनः कथम्भूतास्ते वनखण्डा:? इत्यादि पद्मवरवदिकाबहिर्वनखण्डत्तावद-विशेषेण वक्तव्यं यावत् 'तत्थ णं' बहवे बाणमंतरा देवा य देवीओय आसयंति० जाव विहरंति। तेसिण' मित्यादि, तेषां वनखण्डानां बहुमध्यदेशभागे प्रत्येकं 2 प्रासादावतंसका: प्रज्ञप्ता:, तेच प्रासादावतंसकाद्वाषष्टियोजनान्यद्धयोजनं चोर्ध्वमुच्चैस्त्वेन एकत्रिंशतं योजनानि क्रोशं च विष्कम्भेन'अब्भुम्गयमूसियपहसिया विव' इत्यादि प्रासादावतंसकानां वर्णनं निरवशेषं तावद्वक्तव्यं यावत्तत्र प्रत्येक 2 सिंहासनं सपरिवारम्। तत्थ णं चत्तारि देवा महड्डिया० जाव पलिओमट्टिजीया परिवसंति, तं जहा-असोए सत्तवण्णे चुपए चूते // तत्थ णं ते साणं साणं वणसंडाणं साणं साणं पासायवडेंसयाणं साणं सामाणियाणं साणं साणं अग्गमहिसीणं साणं साणं परिसाणं साणं साणं आयरक्खदेवाणं आहेवचं० जाव विहरंति॥ विजयाए णं रायहाणीए अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते० जाव पुचवण्णेहिं मणीहिं उवसोभिए तणसद्दविहूणे० जाव देवा य देवीओ य आसयंति० जाव विहरंति / / तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थणं एगे महं ओवरियालेणे पण्णत्ते बारस जोयणसयाई आयामविक्खंभेणं तिन्नि जोयणसहस्साइं सत्तयपंचाणउते जोयणसत्ते किंचि विसेसाहिए परिक्खेणं अद्धकोसं बाहल्लेणं सध्वजंबूमए णं अच्छे० जाव पडिरूवे॥ 'तत्थ ण' मित्यादि, तेषु वनखण्डेषु प्रत्येकमेकैकदेवभावेन चत्वारो देवा महर्द्धिका यावत् ‘महजुइया महाबला महायसा महासोक्खा महाणुभावा' इति परिग्रहः, पल्योपमस्थितिकाः परिवसन्ति, तद्यथा'असोए' इत्यादि, अशोकवनेऽशोकः, सप्तपर्णवने सप्तपर्णः, चम्पकवने चम्पकः, चूतवने चूतः / / 'तेसि ण' मि (तत्थ णं ते इ) त्यादि, ते अशोकादयो देवास्तस्य वनखण्डस्य स्वस्य प्रासादावर्तसकस्य, सूत्रे बहुवचनं प्राकृतत्वात्, प्राकृते हि वचनव्यत्ययो भवजीति, स्वेषां स्वेषां सामनिकसहस्राणां स्वासां स्वासामग्रमहिषीणां सपरिवाराणां स्वासां पर्षदां स्वेषां स्वेषामनीकानाम् (अनीकाधिपतीनां) स्वेषां स्वेषामात्मरक्षकाणाम् 'आहेवचं पोरेवच्च' मित्यादि प्राग्वत्॥ 'विजयाएण' मित्यादि, विजयाया राजधान्या अन्तर्बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः, तस्य 'से जहानामए आलिंगपुक्खरेइवा' इत्यादि वर्णनं प्राग्वत् निष्वशें तावद्वक्तव्यं यावन्मणीनां स्पर्शः, तस्य च बहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागे, अत्र महद् एकमुपकारिकालयनं प्रज्ञप्तम्, राजधानीस्वामिसत्कप्रसादावतंसकादीन् उपकरोति-उपष्टभ्नातीत्युपकारिकाराजधानी स्वामिसत्कप्रासादावतंसकादीनां पीठिका, अन्यत्र त्वियमुपकार्योपकारिकेति प्रसिद्धा, उत्कञ्च-"गृहस्थानं स्मृतं राज्ञामुपकार्योपकारिका" इति, उपकारिकालयनमिव उपकारिकालयनं तद् द्वादश योजनशतानि आयामविष्कम्भेन-आयामविष्कम्भाभ्याम् त्रीणि योजनसहस्राणि सप्त योजनशतानि पञ्चनवतीनि-पञ्चनवत्यधिकानि किञ्चिदिशेषाध्किानि परिक्षेपेण प्रज्ञप्तानि, परिक्षेपपरिमाणं चेदं प्रागुक्तकरणवशात्स्वयमानेतव्यम्। अर्द्धक्रोशम् -धुनुःसहस्रपरिमाणं बाहुल्येन 'सव्वजंबूणयामए' इति सर्वात्मना जाम्बूनदमयम् 'अच्छे' इत्यादि विशेषणजातं प्राग्वत्। से णं एगाए पउमवरेइयाए एगेणं वणसेडेणं सवतो समंता संपरिक्खित्ते पउमवरवेदियाए वण्णओ वणसंडवण्णओ० जाव विहरंति, से णं वणसंडे देसूणाई दो जोयणाई चक्कवालविक्खंभेणं ओवारियालयणसमपरिक्खेवेणं / / तस्स णं ओवरियालयणस्स चउहिसिं चत्तारि तिसोवाणपडिरूवगा पण्णत्ता, वण्णओ, तेसि णं तिसोवाणपडिरूवगाणं पुरतो पत्तेयं पत्तेयं तोरणा पण्णत्ता, छत्तातिछत्ता // तस्स णं उवारियालयणस्स उप्पिं बहुसमरमणिजे भूमिभागे पण्ण्ते० जाव मणीहिं उवसोभितेमीणवण्णओ, गंधरसफसो, तस्स णं बहुसमरमणिजस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसमाए एत्थ णं एगे महं मूलपासायवडिंसए पण्णत्ते, सेणं पासायवडिंसए बावहिं जोयणाई अद्धजोयणं च उड्डु उर्चेणं एकतीसंजोयणाई कोसंच आयामविक्खंभेणं अन्मुग्गयमूसिप्पहसिते तहेव णं पासावडिंसगस्स अंतो बहुसमरमणिजे भूमिभागे पण्णत्ते० जाव मणिफासे उल्लेए। तस्सणं बहुसमरमणिजस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसमगे एत्थ णं एगा महं मणिपे ढिया पण्णत्ता सा च एणं जोयणमायामविक्खंभेणं अद्धजोयणं बाहल्ले णं सव्वमणिमई अच्छा सण्हा० जाव पडिरूवा। 'से ण' मित्यादि, तद् -उपकारिकालयनम् एकया पद्मवरवेदिकया तत्पृष्ठभाविन्या एकेन च वनखण्डेन 'सर्वतः-सर्वासु दिषु समन्ततःसामस्त्येन संपरिक्षिप्तम् पद्मवरवेदिकावर्णको वनखण्डवर्णकः प्राग्वन्निरवशेषे शेषो वक्तव्योयावत् 'तत्थबहवेवाणमुतरा देवाय देवीओय आसयंति सयंति० जाव विहरंति' इति। तस्स ण' मित्यादि, तस्य उपकारिका
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________________ लवणसमुद्द 621 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लवणसमुह लयनस्य 'चउद्दिसिं' ति चतुर्दिशि चतसृषु दिक्षु एकैकस्यां दिशि एकैकभो न चत्वारि त्रिसोपापानप्रतिरूपकाणि प्रतिविशिष्टरूपाणि त्रिसोपानानि प्रज्ञप्तानि, त्रिसोपानवर्णकः पूर्ववद्वक्तव्यः / तेषां च त्रिसोपानप्रतिरूपकाणां पुरतः प्रत्येकं प्रत्येकं तोरणं प्रज्ञप्तम्, तेषां च तोरणानां वर्णनम प्राग्वद्वक्तव्यम्॥ तस्सणं' मित्यादि, तस्य एपकारिका लयनस्य उरिबहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः, 'सेजहानामए' इत्यादि भूमिभागवर्णनं प्राग्वत्तावद्वाच्यं यावन्मणीनांस्पर्शः, तस्य च-बहुसमरणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागेऽत्र महानेका मूलप्रासादावतंसकः प्रज्ञप्तः, स द्वाचष्टिर्योजनानि अर्द्ध चयोजनमूर्ध्वमुचैस्त्वेन, एकत्रिंशतं योजनानिक्रोशं चायाविष्कम्भाभ्याम, 'अब्भुग्गयमूसियपहसिया विवे' त्यादि, तस्य वर्णनं मध्ये भूमिभागवर्णनं सिंहासनवर्णनं शेषाणि च भद्रासनानि तत्परिवारभूतानि विजयद्वारबहिः-स्थितप्रासादवद्भवनीयानि।। तस्सणं' इत्यादि, तस्य मूलप्रासादावतंसकस्य बहुमध्यदेशभागेऽत्र महती एका मणिपीहठका प्रज्ञप्ता सा चैकं योजनमायाविष्कम्भाभ्यामर्द्धयोजनं बाहेल्येन 'सव्वमणिमयी' इति सर्वात्मना मणिमयी 'अच्छा सण्हा' इत्यादिविशेषणकदम्बक प्राम्वत्॥ तीसे णं मणिपेढियाए उवरि एगे महं सीहासणे पण्णत्ते एवं सीहासणवण्णओ सपरिवारो, तस्सणं पासायवडिंसगस्स उप्पिं बहवे अट्ठ मंगलगा झया छत्तातिछत्ता / / से णं पासायडिंसए अण्णेहिं चउहिं तद चत्तपमाणेत्तेहिं पासायवडिंसएहिं सव्वतो समंतासंपरिक्खित्ते, ते णं पासायवडिंसगा एकातीसं जोयणाई कोसं च उड्डं उच्चत्तेणं अद्धसोलसजोयणाई अद्ध,कोसं च आयामविक्खंभेणं अब्भुग्गत० तहेव, तेसिणं पासायवडिसयाणं अंतो बहुासमरमणिज्जा भूमिभागा उल्लोया। तेसिणंबहुसमरमणिजाणं भूतिभागाणं बहुमज्झदेसभाए पत्तेयं पत्तेयं सीहासण्णं पण्णत्तं, वण्णओ, तेसिं परिवारभूता भद्दासणा पण्णत्ता, तेसि णं अट्ठट्ठ मंगलगाझया छत्तातिछत्ता // ते णं पासायवडिंसगा अण्णेहिं चउहिं तदद्धचत्तप्पमाणमेत्तेहिं पासायव.सएहिं सव्वतो समंता संपरिक्खित्ता॥ तेणं पासायवडेंसगा अद्धसोलसजोयणाई अद्धकोसंच उड्डे उच्चत्तेणं देसूणाइं अट्ठजोयणाई आयामविक्खंभेणं अन्भुग्गय० तहेव।। तेसिंणं पासायवडेंसगाणं अंतो बहुसमरमणिज्जा भूमिभागा उल्लोया। तेसिणं बहुसमरमणिजाणं भूमिभागाणं बहुमज्झदेसभाए पत्तेयं पत्तेयं पउमासणा पण्णत्ता।। तेसिंणं पासायाणं अट्ठठ मंगलगाझया छत्तातिछत्ता / / ते णं पासायवर्डेसगा अण्णेहिं चउहिं तदद्धचत्तप्पमाणमेत्तेहिं पासायव.सएहिं सयव्वतो समंता संपरिक्खित्ता। 'तीसे ण' मित्यादि, तस्या मणिपीष्ठिकाया उपरि अत्र महदेकं सिंहासनं प्रज्ञप्तम्, तस्य च सिंहासनस्य परिवारभूतानि शेषाणि भद्रासनानि प्राग्वद्वक्तव्यानि || ‘से ण' मित्यादि, स च मूलप्रासादाक्तंसकोऽनयैश्चतुर्भिमूलप्रासादवतंकैस्तदर्बोच्चत्वप्रमाणमात्रैः-मूलप्रासा दावतंसकाद्धद्रत्वप्रमाणैः सर्वतः-समान्तात्संपरिक्षिप्तः, तदोच्चत्वप्रमाणभेव दर्शयति-एकत्रिशतं योजनानि क्रोशं चैकमूर्ध्वमुचैस्त्वेन, पञ्चदश योजनानि अर्द्धतृतीयांश्च क्रोशान् आयामविष्कम्भाभ्याम्, तेषामपि 'अब्भुग्गयमूसियपहसिया विवे' त्यादि स्वरूपवर्णनं मध्ये भूमिभागवर्णनमुल्लोकवर्णनं च प्राग्वत् / / / तेसि ण' मित्यादि, तेषां प्रासादावतंसकानां बहुमध्यदेशभागे प्रत्येकं प्रत्येक सिंहासनं प्रज्ञप्तम्, तेषां च सिंहासनानां वर्णनं प्राग्वत्, नवरमत्र सिंहासनानों शेषाणि परिवारभूतानि न चक्तव्यानि // 'ते णं पासायवडेंसया' इत्यादि, ते प्रासादावतंसका अन्यैश्चतुर्भिः प्रासादावतंसकैस्तदचित्वप्रमाणमात्रैः-मूलप्रासादावतंसकपरिवारभूतप्रासादावतंसकार्बोच्चत्वप्रमाणमात्रैर्मूलप्रासादपेक्षया चतुर्भागमात्रप्रमाणैरित्यर्थः सर्वतः-समन्तात्संपरिक्षिप्ता:, तद चत्वप्रमाणमेव दर्शयति-'ते ण' मितयादि, ते प्रासादावतंका: पञ्चदश योजनानि अर्द्धतृतीयाश्च क्रोशान् ऊर्ध्वमुचैस्त्वेन देशोनानि अष्टौ योजनानि आयामविष्कम्भाभ्यां, समत्रे च-'आयामविक्खभेणं' तिएकवचनं समाहारविवक्षणात्, एवमन्यत्रापि भावनीयम्, एतेषामपि अभुग्गयमूसिये त्यादिस्वरूपवर्णनं मध्ये भूतिभागवर्णनमुल्लोकवनं सिंहासनवर्णनं च प्राग्यत् केवलमत्रापि सिंहासनमपरिवारं वक्तव्यम्। 'ते ण' मित्यादि, तेऽपि प्रासादावतंसका अन्यैश्चतुर्भिः प्रासादवतंसकैस्तदोच्चत्वप्रमाणमात्रैः-अनन्तरोक्तप्रासादावतंसका॰चत्वप्रमाणैर्मूलप्रासादापेक्षयाऽष्टभागमात्रप्रमाणैरित्यर्थः, सर्वतःसमान्तात्सम्परिक्षिप्ताः, तदेव तदोचत्वप्रमाणमात्रमुपदर्शयति-'तेण' मित्यादि, ते प्रासादावतंसका देशोनानि अष्टौ योजनानिऊर्ध्वमुच्चैस्त्वेन देशोनानि चत्वारि योजनान्यायामविष्कम्भाभ्यां तेषामपि 'अब्भुग्गयमूसियहसिया विवे' त्यादि स्वरूपादिवर्णनमनन्तरप्रासादावतंसकवत्। (एतयो: सूत्रयोर्मूलपाठो न दृश्यते।) ते ण' मित्यादि, तेच फासादावतंसका अन्यैश्चतुर्भिःप्रासादवतंसर्कस्तदच्चित्वप्रमाणमात्रैः-अनन्तरोक्तप्रासादावतंसकार्बोच्चत्वप्रमाणमात्रैःर्मूलप्रासादावतंसकापेक्षया षोडशभागप्रमाणमात्ररित्यर्थः, सर्वत:-समन्ततः संपरिक्षिप्ताः। तदोच्चत्वप्रमाणमेव दर्शयतिते णं पासावडेंसगा देसूणाई अट्ठ जोयणाई उड्डं उच्चत्तेणं देसूणाई चत्तारि जोयणाई आयामविक्खंभेणं अब्भुग्गत० भूमिभागा उल्लोया भद्दासणाइंउवरिंमंगलगाझयाछत्तातिछत्ता, ते णं पासायवडिंसगा अण्णेहिं चउहिं तदद्धचत्तप्पमाणमेत्तेहिं पासायवडिसएहिं सव्वतो संमता संपरिक्खित्ता। तेणं पासायवडिंसगा देसूणाई चत्तारि जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं देसूणाई जोयणाई आयामविक्खंभेण अन्भुग्गयमूसि० भूमिभागा उल्लोया पउमासणाई दवरिं मंगलगा झया छत्ताइछत्ता। (सू०१३६) 'ते ण' मित्यादि, ते प्रासादावतंसका: देशोनानि चत्वारियोजनान्यूर्ध्वमुचैस्त्वेन देशोने द्वे योजने आयामविष्कम्भा-भ्याम्, तेषाामपि स्वरूपवर्णनं मध्ये भूमिभागवर्णनमुल्लोकवर्णनं सिं
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________________ लवणसमुद्द 622 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लवणसमुह हासनवर्णनं च परिवारवर्जितं प्राग्वत्, तदेवं चतस्र: प्रासादावतंसकपीपाट्यो भवन्ति, क्वचित्तिः एव दृश्यन्ते न चतुर्थी। (10) अथलवणसमुद्रे विचयदेवस्य सभामाहतस्स णं मूलपासावडें सगस्स उत्तरपुरस्थिमेणं एत्थ णं विचयस्य देवस्स सभा सुधम्मा पण्णत्ता, अद्धतेरसजोयणाई आयामेणं, छ सकोसाइं जोयणाई विक्खंभेणं, णव जोयणाई उड्डे उच्चत्तेणं, अणेगखंभसतसंनिविट्ठा अन्भुग्गयसुकयवइरवेदिया तोरणवररतियसालभंजिया सुसिलिट्ठविसिट्ठलट्ठसंठियपसत्थवेरुलियविमलखंभाणाणामणिकणगरयणखइयउज्जलबहुसमसुविभचित्त (णिचियं) रमणिज्जकृट्टिमतला ईहमियउसमुरगएरमगरविहगवालगकिण्णररुसरभचमरकुंजरवणलयपउमलयभत्तिचित्ता थंभुग्गवयइरवेझ्यापरिगयाभिरामा विजाहरजमलजुयलजंतजुत्ता विव अचिहस्समालणीया रूवगसहस्सकलिया भिसमाणी मिब्भिसमाणी चक्खुलोययणलेसा सुहफासासस्सिरीयरूवा कंचणमणिरयणथूमियागा नाणाविहपंचवण्णघंटापडागपछिमंडितग्गसिहरा धवला मिरीइकवचं विणिम्मयंती लाउल्लोइयमहिया गोसीससरसरत्तचंदणदद्दरदिनपंचंगुलितला उवचियचंदणकलसा चंदणघडसुकयतोरणपडिदुवारदेसभागा बासत्तोसत्तविउलवट्टवग्धारियमल्लदामकलावापंचवण्णसरससुरमुक्कपुप्फपुंजोवयारकलिता कालागुरुपवरकुंदुरुक्कतुरुकधूवमघमर्चेतगंधुद्धयाभिरामा सुगंववरगंधिया गंधवट्टिभूया अच्छरगणसंघसंविकिन्ना दिव्वतुडियमधुरसहस्रपणाइया सुरम्मा सव्वरयणामती अच्छा० जावपडिरूवा। 'तस्स ण' मित्यादि, तस्य मूलप्रासादावताकस्य उत्तरपूर्वस्याम् ईयानकोण इत्यर्थः, अत्र-एतस्मिन् भागे विजयस्य देवस्य योग्या सभा सुधर्मा नाम विशिष्टच्छन्दकोपेता याऽर्द्धत्रयोदशयोजनान्यामेन, षट् सक्रोशानि योजनानि विष्कम्भेन, नव योजनानि ऊर्ध्वमुच्चैस्त्वेन, 'अगे' त्यादि अनेकेषु स्तम्भशतेषु सन्निविष्टा अनेकस्तम्भशतसन्निविष्टा 'अब्भुग्गयसुकयवरवेइया तोरणवररइयसालभंजिया सुसिलिट्टविसिट्ठलट्ठसंठियपसत्थवेरु-लियविमलखंभा' अभ्युद्रताअतिरमणीयतया द्रष्टणां प्रत्यभिमुखम्, उत्-प्राबल्येन स्थिता सुकृतेव सुकृता निपुणशिल्पिरचितेवेति भावः, अभ्युद्गता चासौ सुकृतमा च अभ्युद्गतसुकृिता वज्रवेदिकाद्वारमुण्डकोपरिवज्ररत्नमयी वेदिका तोरणं चाभ्युद्तसुक्रतं यत्र सा तथा, तथा वराभिः-प्रधानाभिः रचिताभिःविरचिताभिः रतिदाभिर्वा सालभञ्जिकाभिः-सुश्लिष्टा-संबद्धा विशिष्ट प्रधानं लष्टमनोज्ञं संस्थितम् -संस्थानं येषां ते विशिष्ठलष्टसंस्थिताः प्रशस्ताः प्रशयास्पदीभूता वैडूर्यस्तम्भा:-वैडूर्यरत्नमया: स्तम्भा यस्यां सा वररचितशालभञ्जिकासुश्लिष्टविशिष्टलष्टसंस्थितप्रशस्तवैडूर्यस्तम्भाः, ततः पूर्वपदेन कर्मधारयः, मथा नानामणिकनकरत्नानि खचितानि यत्र य नानामणिकनकरत्नखचितः, निष्ठान्तस्य परनिपातो भार्यादिदर्शनात्, नानामणिकनरत्नखचितः उज्ज्वलो-निर्मलो बहुसमः-अत्यन्तसमः सुविभक्तो निचितोविविडो रमणीयश्च भूमिभागो यस्यां नानामणिकनकरत्नखचितोज्ज्वलबहुसमसुविभक्त (निचितरमणीय) भूमिभागा 'ईहामिगउसहतुरगनरमगरविहगवालगकिन्नररुरुसरभचमरकुञ्जरवणलयपउमलयभत्तिचित्ता' इति स्तम्भोगतयास्तमम्भोपरिवर्त्तिन्या वज्रवेदिकया-वज्ररत्नमय्या वेदिकया परिगता सती याऽभिरामा स्तम्भोगतवज्रवेदिकापरिगताभिरामा 'विज्जाहरजमलजुगल-जंतुजुत्ता विव अचिसहस्समालणीया रूवगसहस्सकलिया भिसमणा भिडिभसमाणा चक्खुल्लोयणलेसा सूहफासासस्सिरीयरूवा' इति प्राग्वत् 'कंचणमगिरयणथूभियागा' इति काञ्चनमणिरत्नानां स्तूपिका शिखरं यस्याः सा काञ्जनमणिरत्नंस्तूपिकाका 'नाणाविहपंचवण्णघंटापडागपरिमंडियग्गसिहरा' नानाविधाभिः नानाप्रकाराभिः पञ्चवर्णाभिघण्टाभि: पताकाभिश्च परिसामस्त्येन मण्डितमग्रशिखरं यस्याः सा नानाविधपञ्चचर्णघण्टापताकापरिमपिछतागंशिखरा धवलाश्वेता मरीचिकवचम् -किरणजाल परिक्षेपं विनिर्मुञ्चन्ती'लाउल्लोइयमहिया' इहत लाइयं नामय भामेर्गोमयादिना उपलेपनम्, 'उल्लोइयंकुड्यानां मालस्य च सेटिकादिभिः संमृष्टीकरणं 'लाउल्लोइयं' ताभ्यामिव महितापूजिता लादल्लोइयमहिता, तथा गोशीवर्षेण गोशीर्षनामचन्दनेन सरसरक्तचन्दनेन दईरेण-बहलेन-चपेटाकारेण वा दत्ता: पञ्चाङ्गुलयस्तला-हस्तका यत्र सा गोशीर्षकसरसरक्तचन्दनदर्दरदत्तपञ्चाङ्गुलितला, तथा उपचिता-निवेशिता वन्दनकलशा-मङ्गलकलशा यस्यां सा उपचितवन्दनकलशा, 'चंदणघछसुकयतोरणपछिदुवारदेसभागा' इति चन्दनघटैः चन्दनकलशैस्सुकृतानि-सुष्ठ कृतानि शोभनानीति तात्पर्यार्थः, यानि तेरणानि तानि चन्दनघटसुकृतानि तोरणानि प्रतिद्वारदेशभागे यस्यां सा चन्दनघटसुकृततोरणप्रतिद्वारदेशभागा, तथा-'आसत्तोसत्तवट्टदग्धारियमल्लदामकलावा' इति, आ-अवाङ् अधोभूमौ सक्त-आसक्तो भूमौ लग्न इत्यर्थः ऊर्ध्वं सक्त उत्सक्तः-उल्लोचतले उपरि संबद्ध इत्यर्थः, विपुलो-विस्तीर्णः वृतो वर्तुलः 'वग्धारिय' इति प्रलम्बितो मादल्यदामकाप:-पुष्पमालासमूहो यस्यां सा आसक्तोत्सतविपुलवृत्तवग्घारितमाल्यदामकलापा, तथा पञ्चवर्णेन सरसेन-सच्छायेन सुरभिणा मुक्तेनक्षिप्तेन पुष्पपुञ्जलक्षणेनोपचारेण पूजया कलिता पञ्चवर्णसरस-सुरभिमुक्तपुष्पपुञ्जोपचारकहलतः 'कालागुरुपवरकुन्दुरुक्क-मुरुक्कधूवमधमततगंधुद्धयाभिरामा सुगंधवरगंधगंधिया गंधवट्टिभूया' इति प्राग्वत्, 'अच्छरगणसंधसंविकिण्णा' इति अप्सरोगणानां सङ्घः-समुदायस्तेन सम्यग्-रमणीयतयाविकीर्ण-व्याप्ता 'दिव्वतुडियसहसंपणादिया' इति दिव्यानां त्रुटितानाम् -आतोद्यानां वेणुवीणामृदङ्गानां ये शब्दास्तैः सम्यक् श्रोत्रगमनोहाहरतया प्रकर्शण नादिताशब्दावती दिव्यत्रुटिशब्दसंप्रणादिता 'अच्छा सण्हा० जाव पछिरुवा' इति प्राग्वत्॥ तीसे णं सोहम्माए समाए तिदिसिं तओ दारा पण्णत्ता।
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________________ लवणसमुह 623 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लवणसमुद्द ते णं दारा पतेयं पत्तेयं दो दो जोयणाई उच्चत्तेणं एग जोयणं विक्खंभेणं तावइयं चेव पवेसेणं सेया वरकणगथभियाग० जाव वणमालादारवन्नओ। तेसिणं दाराणं पुरओ मुहमंझ्वा पण्णत्ता, ते णं मुहमंडवा अद्धतेरसजोयणाई आयामेणं छ जोयणाई सक्कोसाई विक्खंभेणं साइरेगाई दो जोयणाई उड्ढ उचत्तेणं मुहमंडवा अणेगखंभसयसंनिविट्ठा० जाव उल्लोया भूमिभागवण्णओ / / तेसि णं मुइमंडवाणं उदरिं पत्तेयं पत्तेयं अट्ठ मंगला पण्णत्ता, सोत्थिय० जाव मच्छ०|| तेसिणं मुहमंडवाणं पुरओ पत्तेयं पत्तेयं पेच्छाघरमंडवा पण्णत्ता, ते णं पेच्छाघरमंडवा अद्धतेरसतोयणाई आयामेणं० जाव दो जोयणाई उड्डं उच्चत्तेणं० जाव मणिफासो | तेसि णं बहुमज्झेसभाए पत्तेयं पत्तेयं वइरामयअक्खाडगा पण्णात्ता, तेसि णं वइरामयाणं अक्खाडगाणं बहुमज्झदेसभाए पत्तेयं पत्तेयं महणापीढिया पण्णत्ता,ताओणं मणिपीठियाओजोयणमेगं आयामविक्खंभेणं अद्धजोयणं वाहल्लेणं सव्वमणिमईओ अच्डाओ० जाव पडिरूचाओ / / ता सि णं मणिपीढियाणं उप्पिं पत्तेयं पत्तेयं सीहासणा पण्णत्ता, लीहासणवण्णओ० जाव दामा परिवारो। तेसि णं पेच्छाघरमंडवाणं उप्पिं अट्ठट्ठ मंगलगा झया छत्तातिछत्ता (०जाव पडिरूवा)। 'तीसे णं सुहम्माए' इत्यादि, तस्या: सुधर्माया: सभाया: त्रिदिशितिसृषु दिक्षु एकैकस्यां दिशि एकैकद्वारभावेन त्रीणि द्वाराणि, तद्यथाएकं पूर्वस्यामेकं दक्षिणस्यामेकमुत्तरस्याम्। 'तेणंदारा' अत्यादि,तानि द्वाराणि प्रत्येकं प्रत्येकं द्वेद्वेयोजने ऊर्ध्वमुच्चैरूत्वेनयोजनमेकं विष्कम्भेन 'वावइयं चेवे' ति योजनमेकं प्रवेशेन-'सेयावरकणागथूभियाग' इत्यादि प्रागुक्तंद्वारवर्णनंतदेतावद्वक्तव्यं यावद्वनमाला इति।। तेसिण' मित्यादि, तेषां द्वाराणां पुरतः प्रत्येकं प्रत्येकं मुखमण्डप: प्रज्ञप्तः, ते च मुखमण्डपा अर्द्धत्रयोदशयोजनानि आयामेन, षड्योजनानि सक्रोशानि विष्कम्भेन, सातिरेके द्वे योजने ऊर्ध्वच्चैस्त्वेन, एतेषामपि 'अणेगखंभसयसनिविट्टा' इत्यादि वर्णनं सुधायाः सभाया इव निरवशेषं द्रष्टव्यं, तेषां मुखमण्डपानामुल्लोकवर्णनं बहुसमरमणीयभूमिभागवर्णनं च यावन्मणीनां स्पर्शः प्राग्वत् // 'तेसि ण' मित्यादि, तेषां मुखमण्डपानामुपरि अष्टावष्टौ मङ्गलकानिस्वस्तिकादीनि प्रज्ञप्तानि, तान्येवाह-'तं जहे' त्यादि, एतच्च विशेषणं सुधर्मासभाया अपिद्रष्टव्यम्। 'तेसिण' मित्यादि, | तेषां मुखमण्डपानां पुरतः प्रत्येकं 2 प्रेक्षागृहमण्डपः प्रज्ञप्तः, तेऽपि च प्रेक्षागृहमण्डपा अर्द्धत्रयोदश योजनान्यायामेन, सक्रोशानि षछ योजनानि विष्कम्भेन, सातिरेके द्वे योजने ऊर्ध्वमुचैस्त्वेन, प्रेक्षागृहहमण्डपानां च भूमिभागवर्णनं पूर्ववत्ताववद्वाच्यं यावन्मणीनां स्पर्शः / / 'तेसि ण' मित्यादि, तेषां च बहुसमररमणीयानां भूमिभागानां बहुमध्यदेशभागे प्रत्येकं प्रत्येकं वज्रमय: अक्षपाटकः चतुरस्राकार: प्रज्ञाप्तः, तेषां चाक्षपाटकानां बहुमध्यप्रदेशभागे प्रत्येकं प्रत्येकं मणिपीष्ठिका:प्रज्ञप्तः, ताश्य मणिपीष्ठिका योजनमेकमायामविष्कम्भाभ्यारम योजनं बाहल्येन 'सव्वमणिमईओ' इति सर्वात्मना मणिमय्य:' अच्छा' इत्यादि विशेषणकदम्बकं प्राग्वत् // 'तासि ण' मित्यादि, तासां मणिपीठिकानामुपरि प्रत्येकं प्रत्येक सिंहासनं प्रज्ञप्तम्, तेषां च सिंहासनानां वर्णनं परिवारश्च प्राग्वद्वक्तव्यः, तेषांच प्रेक्षागृहमण्डपानामुपरि अष्टावष्टौ स्वस्तिकादीनि मङ्गलकानि प्रज्ञप्तानि, कृष्णचामरध्वजादि च प्रागवद्वक्तव्यम्॥'तेसि ण' मित्यादि, तेषां प्रेक्षागृहमण्डपानां पुरतः प्रत्चयेकं प्रत्येकं मणिपीष्ठिका: प्रज्ञप्ताः, ताश्च मणिपीठिका: प्रत्येकं द्वे द्वे योजने आयामविष्कम्भाभ्यां योजनमेकं बाहल्येन सर्वात्मना मणिमय्य: अच्छा इत्यादि प्राग्वत्। (चैत्यस्तूपवक्तव्यतासूत्रम् 'चेइयथूम' शब्दे तुतीयभागे 1262 पृष्ठे गतम्) तद्याख्या च इहोपयुक्तत्वात्प्रदर्श्यते'तेसि ण' मित्यादि, तेषां चैत्यस्तूपानां प्रत्येकं प्रत्येकं 'चतुर्दिशि' चतसृषु दिनु एकै कस्यां दिशि एकैकमणिपीठिकाभावेन चतस्रो मणिपीष्ठिका: प्रज्ञप्ताः; ताश्च महणपीठिका योजनमयामविष्कम्भाभ्यामर्द्ध योजनं बाहल्येन सर्वातमना मणिमय्यः अच्छा इत्यादि प्राग्वत् / / 'तेसि ण' मित्यादि, तासां मणिपीठिकानामुपरि एकैकस्या मणिपीठिकाया उपरि एकैकप्रतिमाभावेन चतस्रो जिनप्रतिमाः, जिनोत्सेधः-उत्ककषतः पञ्च धनुःशतानि, जघन्यतः सप्त हस्ता:, इह तु पञ्च धनु:शतानि संभाव्यन्ते, 'पलियं कनिसन्नाओ' इति पर्यङ्कासननिषण्णा: स्तूपाभिमुख्यस्तिष्ठन्ति, तद्यथा-ऋषभा वर्द्धमाना चन्द्रानना वारिषेणा / 'तेसि ण' मित्यादि, तेषां चैत्यस्तूपानां पुरतः प्रत्येकं प्रत्येकं मणिपीठिका: प्रज्ञप्ता:, ताश्च मणिपीठिका द्वे द्वे योजने मणिमय्य: अच्छा इत्यादि प्राग्वत् (जी०) (चैत्यवृक्षाणां वर्णावासादिसूत्रं 'चेइयरुक्ख' शब्दे 1265 पृष्ठे गतम्) (चैत्यवृक्षाणां वर्णावासादिसूत्रव्याक्ष्या च तत्रैव चेइयरुक्ख' शब्दे तृतीयभागे 1265 पृष्ठे गता।) (11) अथ मणिपीठिकानां माहेन्द्रध्वजाः प्रतिपादयतितासि णं मणिपे बियाणं उप्पिं पत्तेयं पत्तेयं माहिंदज्झया अट्ठमाइंजोयणाइंउड्ढउचत्तेणं अद्धकोसं उव्वेहेणं अद्धकोसं विक्खंभेणं वइरामयवट्टलट्ठसंठियसुसिलिट्ठपरिष्टमट्ठसुपतिहिता विसिट्ठा अणेगवरपंचवण्णकुडभी-सहस्सपरिमंडियाभिरामावाउद्धयविजयवेजयंतीपडागा छत्ताछित्तकलिया तुंगा गगणतलमभिलंघमाणसिहरा पासादीया० जाव पडिरूवा। 'तासि ण' मित्यादि, तासाां मणिपीठिकानामु परि प्रत्येकं प्रत्येक महेन्द्रध्वजः प्रज्ञप्तः,तेचमहेन्द्रध्वजा अष्टिमानिसा नि सप्तश्योजनान्यूध्वमुचैस्त्वेन, अर्द्धक्रोशम् -धनुःसहस्रप्रमाणमुद्रेधेन, अर्द्धक्रोशं
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________________ लवणसमुद्द 624 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लवणसमुह धनुःसह:प्रमाणं विष्कम्भेनविस्तारण, 'वइरामयवट्टसंठियसुसिलिट्ठपरि-घट्ठमट्ठसुपइट्ठिया' इति वज्रमया-वज्ररत्नमया: तथा वृत्तं-वर्तुलं लष्ट-मनोज्ञं संस्थितं-संस्थानं येषां ते वृत्तलष्टसंस्थिता:, तथा सुश्लिष्टायथा भवन्ति एवं परिघष्टा इव खरशानयापाषाणप्रतिमेव सुश्लिष्टपरिघृष्टाः मृष्टाः सुकुमाराशानया पाषाणप्रतिमेव सुप्रतिष्ठिता मनागप्यचलननात् 'अणेगवरपंचवण्णकुडभीहस्सपरिमंडियाभिरामा' अनेकैवरैः-प्रधानैः पञ्चवर्ण: कुडभीसहौः-लघुपताकासहस्रैः परिमण्डिता: सन्तोऽभिरामा अनेकवरपञ्चवर्णकुड-भीसहस्रपरिमण्डिताभिरामा: 'वाउछुयविजयवेजतीपडागा छत्ताइछत्तकलिया तुंगा गगणतलमणुलिहंतसिहरा पासाईया० जाव पडिरूवा' इति प्राग्वत्। तेसिणं महदिज्झयाणं उप्पिं अट्ठट्ठ मंगलगा झया छत्तातिछत्ता। तेसिणं महिंदत्झयाणं पुरतो तिदिसिं तओ णंदाओ पुक्खरिणीओ पण्णत्ताओ ताओणं पुक्खरिणीओ अद्धतेरसजोयणाई आयामेणं सक्कोसाइं छ जोयणाई विक्खंभेणं दस जोयणाई एव्वेहेणं अच्छाओ सहाओ पुक्खरिणीवण्णओ पत्तेयं पत्तेयं पउमवरवेझ्यापरिक्खित्ताओ पत्तेयं पत्तेयं वणसंडपरिक्खित्ताओ वण्णओ० जाव पडिरूवाओ॥ तेसिणं पुक्खरिणीणं पत्तेयं पत्तेयं तिदिसिं तिसोवाणपडिरूवगा पण्णत्ता, तेसि णं तिसोवाणपडिरूवगाणं वण्णओ, तोरणा भाकणयव्वा,जाव छत्तातिछत्ता। 'तेसिण' मित्यादिव तेषां महेन्द्रध्वजानामुपरि अष्टावष्टौ मङ्गलकानि बहवः कृश्णचामरध्वजी इत्यादि पूर्ववत् सर्वं वक्तव्यं यावद्हवः सह:पत्रकहस्तका इति // तेसि ण' मित्यादि, तेषां महेन्द्रध्वजानां पुरतः प्रत्येकं प्रत्येकं नन्दा-नन्दाभिधाना पुष्करिणी प्रज्ञप्ता, अर्द्धत्रयोदशसार्द्धानि द्वादश यासेजनानि आयामेन, षड् योजनानि सक्रोशानि विष्कम्भेन, दश योजनान्युद्वेधेन-उण्डत्वेन, अच्छाओ सहाओ रययमयकूडाओ' इत्यादिवर्णनं जगत्युपरिपुष्करिणीवन्निरवशेषं वक्तव्यं यावत् 'पासाईयाओ उदगरसेणं पन्नत्ताओ' ताश्च नन्दपुष्करिण्य: प्रत्येक प्रत्येकं पद्मवरवेदिकया प्रत्येकं प्रत्येकं वनखण्डेन च परिक्षिप्ताः, तासां च नन्दापुष्करिणीनां त्रिदिशि त्रिसोपानप्रतिरूपकाणि प्रज्ञप्तानि तेषां च वर्णनं तोरणवर्णनं च प्राग्वत्। समाए णं सुहम्माए छ मणोगुलियासाहस्सीओ पण्णत्तओ, तं जहा-पुरत्थिमेणं दो साहस्सीओ पचत्थिमेणं दो साहस्सीओ दाहिणेणं एगा साहस्सी उत्तरेणं एगा साहस्सी, तासुणं मणोगुलियासु सुवण्णरुप्पामया फलगा पण्णत्ता, तेसुणंसुवण्णरुप्पामएसु फलगेसु बहवपे वइरामया णागदंतगा पण्णत्ता, तेसु णं वइरामएसु नागदंतएसु बीवे किण्हसुत्तवट्टवग्धारितमल्लदामकलावा जाव सुकिल्लवट्टवग्घारितमल्लदामकलावा, ते णं दामा तवदिज्जलंबूसगा जाव चिट्ठति / / सभाए णं सुहम्माए छ गोमाणसीसाहस्सीओ पण्णत्ताओ, तं जहा-पुरस्थिमेणं दो साहस्सीओ, एवं पञ्चत्थिमेणं वि, दाहिणेणं सहस्सं एवं उत्तरेण वि, तासुणं गोमाणसीसु बहवे सुवण्णरुप्पपमया फलगा पण्णत्ता जाव तेसुणं वइरामएसु नागदंतएसु बहवे रयतामया सिक्कता पण्णत्ताख तेसु णं रयतामएसु सिक्कएसु बहवे वेरुलियामईओ धूवघडिताओ पण्णत्ताओ, ताओ णं धूवघडियाओ कालागुरुपवरकुंदुरकरुक जाव घाणमध्णणिवुइकरेण गंधेणं सव्वतो समंता आपूरेमाणीओ चिडुति / सभाए णं सुधम्माए अंतो बहुसमरमणिजे भूमिभागे पण्णत्तेजाव भणीणं फासो उल्लोया पउमलयभत्तिचित्ता जाव सव्वतवणिज्जमए अच्छे जाव पडिरूवे / / (सू०१३७) 'सभाएणं सुहम्माए' इत्यादि, सभायां सुधर्मायां षड् (मनो) गुलिकासहस्रणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-द्वे सहस्रे पूर्वस्यां दिशि द्वे पष्चिमायामेकं सहस्रं दक्षिणस्यामेकमुतरस्यामिति, एतासु च फलाकनागदन्तकमाल्यदामवर्णनं प्राग्वत् / / 'सभाए णं सुहम्माए' इत्यादि, सभायां सुधर्मायां षड् गोमानसिका:-शय्यारूपा: स्थानविशेषास्तासां सहस्राणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-द्वे सहने पूर्वस्यां दिशि द्वे पश्चिमायामेकं दक्षिणस्यामेकमुत्तरस्यामिति, तास्वपि फलकवर्णनं नागदन्तवर्णन धूपघटिकावण्र्धनं च विजयद्वारवत् / 'सभाए णं सुहम्माए' इत्यादि उल्लाकेवर्णनं 'सभाए णं सुहम्माए' इत्यादिभूमिभागवर्णनं च प्राग्वत्। (12) अथ लवपासमुद्राविजयद्वारे मणिपीठिकामाहतस्सणं बहुसमरमणिजस्स भूमिभागस्स बहुज्झदेसभाए एत्थ णं एगा मणिपीढिया पण्णत्ता, साणं मणिपीदिया दो जोयणाई आयामविक्खंभेणं जोयणं बाहल्लेणं सव्वमणिमता / / तीसे णं मणिपीढियाए उप्पिं गत्थ णं माणवए णाम चेइयखंभे पण्णत्ते अद्धमाइं जोयणाई उड्वं उच्चत्तेणं अद्धकोसं उटवेहेणं अद्धकोसं विक्खंभेणं छ कोडीए छ लंसे छ विग्गहिते वइरामयवट्टलट्ठसंठिते, एवं जहास महिदज्झयस्स वण्णओ० जाव पासातीए॥ तस्स णं माणवकस्सचेतियखंभस्स उवरि छकोसे ओगाहित्ता हेट्ठा वि छक्कोसे वजेत्ता मज्झे अद्धपंचमेसु जोयणेसु एत्थ णं बहवे सुवण्णरुप्पमया फलगा पण्णत्ता, तेसु णं सुवण्णरुप्पमएसु फलएसु बहवे वइरामया णागदंता पण्णत्तमा, तेसुणं वइरामएसुनागदंतएसुबहवे स्ययामता सिक्कगा पण्णत्ता। 'तस्स णं बहुसमरमणिजस्स भूमिभागरसे' त्यादि, तस्य
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________________ लवणसमुद्द 625 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लवणसमुह बहुसमरणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागे अत्र महती एका महणपीठिका प्रज्ञप्ता, द्वे योजने आयविष्कम्भाभ्यागेकं योजनं बाहल्पेन सर्वात्मना मणिामयी 'अच्छा' इत्यादि प्राग्वत्। 'तीसे ण' मित्यादिद्व तस्या मणिपीठिकाया एपरि महानेको माणवकनामा चैत्यस्तम्भः प्रज्ञप्तः, अष्टिमानि-सार्द्धानि सप्त योजनान्यम_सुच्चैस्त्वेन, अर्द्धक्रोशमम्धनुःसहस्रमानमुद्वेधेन, अर्द्धक्रोशं विष्कम्भेन षडरित्रकः-षट्कोटिक: षद्धिग्रहिक: 'वइरामयवट्टलट्ठसंठिए' / इत्यादि महेन्द्रध्वजवद् वर्णनमशेषमस्यापि तावद्वक्तव्यं यावद् पडिरूवा' इति। 'तस्स ण' मित्यादि, तस्य माणवकस्य चैत्यस्तम्भस्योपरि षट् क्रोशान् अवगाह्य उपरितनभागात् षट् क्रोशान् वर्जयित्वेति भावः, अधस्तादपि षट् क्रोशान् वर्जयित्वा मध्येऽर्द्धपञ्चमेषु योजनेषु 'बहवे सुवण्णरुप्पमया फलगा' इत्यादि फलकवर्णनं नागदन्तवर्णनं सिक्कगवर्णनं च प्राग्वत्। तेसु णं रययामयसिक्कएसु बहवे वइरामया बोलवट्टसमुग्गका पण्णत्ता तेसु णं वइरामएस गोलवट्टसमुग्गएसु बहवे जिणसकहाओ संनिक्खित्ताओ चिट्ठति, जाबओ णं विजयस्स देवस्स अण्णे सिं च बहूणं वाणमंतराणं देवाण य देवीणय अचणिज्जाओ वंदणिज्जाओ पूयणिज्जाओ सक्कारणिज्जाओ सम्माणणिज्जाओ कल्लाणं मंगल्लं देवयं चेतियं पज्लजुवासणिजाओ। माणवगस्सणं चेतियखंभस्स उवरिं अट्ठ मंगलगा झया छत्तातिछत्ता / तस्स णं माणवगस्स चेतियखंभस्स पुरित्थिमेणं णं एगा महं मणिपेढिया पण्णत्ता, साणं मणिपेढिया | दो जोयणाई आयामविक्खं भेणं जोयणं बाहल्लेणं सव्वमणिमई० जाव पडिरूवा। तीसे णं मणिपेढियाए उप्पिं एत्थ णं एगे महं सीहासणे पण्णत्ते, सीहासणवण्णअ / तस्स णं माणवगस्स चेतियखंभस्स पचत्थिमेणं एत्थं णं एगा महं मणिपेढिया पण्णत्ता, जोयणं आयामविक्खंभेणं अद्धजोयणं बाहल्लेणं सव्वमणिमती अच्छा / / (देवशयनीयवक्तव्यतासूत्रम् -'देवसयणिज्ज' शब्दे चतुर्थभागे 2625 पृष्ठे गतम्) तस्स णं देवसयणिजस्स उत्तरपुरित्थमेणं एत्थं णं महई एगा मणिपीढिया पण्णत्ता, जोयणमेगं आयामविक्खंभेणं अद्धजोयणं बाहल्लेणं सव्वमणिमई० जाव अच्छा। 'तेसुण' मित्यादि, ते षुरजतमयेषु सिक्ककेषु बहवो वज्रमया गोलवृत्ता: समुद्रकाः, तेषु च वज्रमयेषु समुद्रकेषु बहूनि जिनसक्थीनि संनिक्षिप्तानि / तिष्ठन्ति, यानि विजयस्य देवस्यान्येषां च बहूनां वानमन्तराणां देवानां देवीनां चार्चनीयानि-चन्दनतः, वन्दनीयानिस्तुत्यादिना, पूजनीयानिपुष्पादिना, ताननीयानि बहुमानकरणतः, सत्कारणीयानि-वस्त्रादिना, कल्याणं मङ्गलं दैवतं-चैत्यमिनि बुद्धया पर्युपासनीयानि // तस्स ण' मित्यादि, तस्य माणवकस्य चैत्यस्तम्भस्य पूर्वस्यां दिशि अत्र महत्का मणिपीठिका प्रज्ञप्ता, योजनमे कमायामविष्कम्भाभ्यामर्द्धयोजनं बाहुल्येन सर्वात्मना मणिमयी 'अच्छा' इत्यादि प्राग्वत् / / 'तीसे ण' मित्यादि, तस्या मणिपीठिकाया एपरि अत्र महदेकं सिंहासनं प्रज्ञप्तं तद्वर्णनं शेषाणि च भद्रासनानि तत्परिवारभूतानि प्राग्वत्। 'तस्स ण' मित्यादि, तस्य माणवकनामश्चैत्यस्तम्भस्य पश्चिमायां दिशि अत्र महत्येका मणिपीठिका प्रज्ञप्ता, एकं योजनमायामविष्कम्भाभ्यामर्द्धयोजनं बाहल्येन 'सव्वमणिमयी' इत्यादि प्राग्वत्। 'तीसे ण' मित्यादि तस्या मणिपीठिकाया एपरि अत्र महदेकं (देव) शयनीयं प्रज्ञप्तम्, तस्य च देवशयनीयस्यायमेतद्रूप: वर्णावास:-वर्णकनिवेश: प्रज्ञप्तः, तद्यथानानामणिमयाः प्रतिपादा:-मूलपादानां प्रहतविशिष्टोपष्टम्भकरणाय पादा: प्रतिपादा: सौवर्णिका:-सुवर्णमया: पादा:-मूलपादाः, जाम्बूनदमयानि गात्राणि ईषादीनि वज्रमया वज्ररत्नपूरितः सन्धयः, 'नानामणिमये चिचे' इति चिचं नामच्युतं वानमित्यर्थः, नानामणिमयं च्युतम् - विशिष्टवानं रजतमयी तूली लोहिताक्षमयानि, 'बिब्बोयणा' इति उपधानकानि, आह च मूलटीकाकार:-"विब्बोयणा-उपधानकानि उच्यन्त' इति तपनीयमय्यो गण्डाोपधानका: / / 'सेणं देववसयणिज्जे' इत्यादि, तद् देवशयनीयं सालिङ्ग नवर्त्तिकम् -सह आलिङ्गनवाशरीरप्रमाणेनोपधानेन यद् तत्तथा 'उभओ बिब्बोयणे' इति उभयतः उभौ-शिरोऽन्तपादान्तावाश्रित्य बिब्बोयणे-उपधाने यत्र तद् उभयतो बिब्बोयणम् 'दुहतो उन्नते' - इति उभयत उन्नतं 'मज्झे णयगंभहरे' इति, मध्ये चनतं निम्नत्वात् गम्भीरं च महत्वात् नतगम्भीरं गङ्गापुलिनवालुकाया अवदालोविदलनं पादादिन्यासेऽधोगमनमिति भावः तेन 'सालिसए' इति सदृशकं गङ्गापुलिनवालुकावदालसदृशकम्, तथा 'ओयवियं इति विशिष्ट परिकर्मितं क्षौम-कार्यासिकं दुकूलं-वस्त्रं तदेव पट्ट ओयवियक्षौमदुकूलपट्टः, सप्रतिच्छादनं-आच्छादनं यस्य तत्तथा, 'आईगरूयबूरनवणीयतूलफासे' इति प्राग्वत्, 'रत्तंसुयसंवुए' इति रक्तांशुकेन संवृतं रक्तांशुक संवृतम्, अतएव सुरम्यम् 'पासाइए' इत्यादि पदचतुष्टयं प्राग्वत् // 'तस्स ण' मित्यादि, तस्य देवशयनीयस्य उत्तरपूर्वस्यां दिशिअत्र महेत्येका मणिपीठिका प्रज्ञप्ता, योजनमेकमायाविष्कम्भाभ्यामर्द्धयोजनं बाहल्येन 'सव्वमणिमयी अच्छा' इत्यादि प्राग्वत्॥ तीसे णं मणिपीढियाए उप्पिं एग महं खुडए महिंदज्झए पण्णत्ते अद्धमाई जोयणाई उड्डे उच्चत्तेणं अद्धकोसं उव्वेहेणं अद्धकोसं विक्खंभेणं वेरुलियामयवट्टसेठिते तहेव जाव मुंगला झया छत्तातिडत्ता // तस्स्पधं खुड्डमहिंदज्झयस्स पचत्थिमेणं एत्थ ण विजयस्य देवस्स चुप्पालए नाम पहरणकोसे पण्णत्ते / / तत्थ णं विजयस्स देवस्स फलिहरयणपामोक्खावहवेपहरणरयणासंनिक्खित्ताओ चिटुंति, उज्जलसुणिसि
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________________ लवणसमुद्द 626- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लवणसमुह यसुतिक्खधारापासाईया।। तीसेणं सभाए सहम्माए उप्पिं बहवे | अट्ठ मंगलगा झया छत्तातिछत्ता० जाव पडिरूवा॥ (सू०१३८) | 'तीसे ण' मित्यादि तस्या मणिपीठिकाया उपरि अत्रक्षुल्लको महेन्द्रध्वजः प्रज्ञप्तः, तस्य प्रमाणं च वर्णकश्च महेन्द्रध्वजवद्वक्तव्यः / 'तस्सण' मित्यादि, तस्य क्षुल्लकस्यमहेन्द्रध्वजस्य पश्चिमायां दिशि अत्र विजयस्य देवस्य सम्बन्धी महान् एकश्चोप्पालो नाम प्रहरणकोश:प्रहरणस्थानं प्रज्ञप्तम्, किंविशिटमित्याह- 'सव्ववइरामए अच्छे० जाव पडिरूवे' इति प्राग्वत् / 'तत्थ ण' मित्यादि, तत्र चोप्पालकाभिधाने प्रहरणकोशे बहूनि परिघरत्नप्रमुखाणि प्रहरणरत्नानि संक्षिप्तानि तिष्ठन्ति, कथम्भूतानीत्यत आह-उज्ज्वलानिनिर्मलानि सुनिनशितानि-अतितेजितानि अत एव तीक्ष्णधाराणि प्रासादीयानीत्यादि प्राग्वत्॥ तीसेकणं सभाए' इत्यादि, त्स्या: सुधाया: सभाया उपरि बहून्यष्टावष्टौ मङ्गलकानि, इत्यादि सर्वं प्राग्दत्तावद्वक्तव्यं यावदहवः सहस्रपत्रहस्तका: सर्वरत्नमया अच्छा यावत्प्रतिरूपाः। . (13) सुधर्मसभाया: सिद्धायतनादीति प्रतिपादयतिसभाए णं सुधम्माए उत्तरपुरित्थमेणं एत्थ णं एगे महं सिद्धायतणे पण्णत्ते अद्धतेरसजोयणाई आयशमेणं छ जोयणाई सकोसाइं विक्खंभेणं नव जोयणाई उड्डं उच्चत्तेणं जाव गोमाणसिया वत्तध्वया, जाव चेव समाए सुहम्माए वत्तव्वया सा चेव निरवसेसा भाणियव्वा तहेव दारा मुहमंडवा पेच्छाधरमंडवा झया थूमा चेइयरक्खा महिंदज्झया णंदाओ पुक्खरिणीओ, तओ य सुधम्माए जहा पमाणं मणगुलियाणं गोमाणसीया धूवयघडिओ तहेव भूमिभागे उल्लोए य० जाव मणिफासे // तस्स णं सिद्धयतणस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं एगा महं महणपेढिया पण्णत्ता दो जोयणाई आयामविक्खं भेणं जोयणं वाहल्लेणं सव्वमणिमयी अच्छा सण्हा लण्हा घट्टा मट्ठा णीरया णिप्पकंपा पडिरूवा / (अतःपरं चैत्यवक्तव्यता 'चेइय' शब्द तृतीयभगे 1252 पृष्ठे गता।) तस्सणं सिद्धायतणस्सणं उप्पिं बहवे अट्ठट्ठ मंगलगा झया डत्तातिछत्ता उत्तिमगारा सोलसविहेहिं रयणेहि उवसोभियातं जहा रयणेहिं० जाव रिटेहि। (सू०१३९) "सभाए ण' मित्यादि, सभाया: सुधर्माया उत्तरपूर्वस्यां दिशि अत्र महदेकं सिद्धायतनं प्रज्ञप्तम्, अर्द्धत्रयोदशयोजनान्यामेन, षट् सक्रोशानि योजनानि विष्कम्भतो, नवयोजनान्यूर्ध्वमुच्चैस्त्वेनेत्यादि सर्व सुधर्मावद्वक्तव्यं यावद् गोमानसीवक्तव्यता, तथा चाह-'जा चेव सभाए सुधम्माए वत्तव्वया सा चेव निरवसेसा भाणियव्वा० जाव गोमाण ‘सियाओ' इति, किमुक्तं भवति? यथा सुधाया: सभाया: पूर्वदक्षिणोत्तरवर्तीनि त्रीणि द्वाराणि, तेषां च द्वाराणां गृहमण्डपाः, तेषां च प्रेक्षागृहमण्डपानां पुरतश्चैत्यस्तूपाः सप्रतिमाः, तेषां च चैत्यस्तूपानां पुरतश्चैत्यवृक्षाः, तेषां च चैत्यवृक्षाणां पुरतो महेन्द्रध्वजाः, तेषां च महेन्द्रध्वजानां पुरतो नन्दापुष्करिण्य उक्ता:, तदनन्तरं च सभायां सुधर्मायां षड् गुलिकासहस्राणि षड्गोमानसीसहस्राण्यप्युक्तानितथाऽत्रापि सर्वमनेनैव क्रमेण निरवशेषं वक्तव्यम्, उल्लोकवर्णनं बहुसमरणीय भूमिभागवर्णनमपि तथैव / / 'तस्स ण' मित्यादि, तस्य (सिद्धायतनस्य बहुसमरणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागे अत्र महत्येका मणिपीठिका प्रज्ञप्ता द्वे योजने आयामविष्कम्भाभ्यां योजनमेकं बाहल्येन सर्वमणिमयी अच्छा इत्यादि प्राग्वत् / तस्याश्च मणिपीठिकाया उपरि अत्र महानेका देवच्छन्दकः प्रज्ञप्तः, सातिरेके द्वे योजने ऊर्ध्वमुच्चैस्त्वेन द्वे योजने आयामविष्कम्भाभ्यां सर्वात्मना रत्नमया अच्छा इत्यादि प्राग्वत्॥('तत्र देवच्छन्दके अष्टशतम्' जिनप्रतिमानां तिष्ठतीति 'चेएय' शब्दे तृजतीयभागे 1242 पृष्ठे गतम् 'तस्सण' मित्यादि, तस्य सिद्धायतनस्य उपरि अष्टावष्टौ मङ्गलकानि, ध्वजच्छत्रातिच्छत्रादीनि तु प्राग्वत्॥ (14) अथ तत्रोपपातसभा प्रतिपादयन्नाहतस्स णं हसद्धाययणस्सणं उत्तरपुरस्थिमेणं एत्थ णं एगा महं उववायसभा पण्णत्ता जहा सुधम्मा तहेव० जाव गोमाणसीओ उववरायसभाए विदारा मुहमंडरा सव्वं भूमिभागे तहेव० जाव मणिफासो (सुहम्मासभावत्तव्वया भाणियय्वा० जाव भूमीए फासो)। 'तस्स ण' मित्यादि, तस्य सिद्धायतनस्य उत्तरपूर्वस्यामत्र महत्येका एपपातसभा प्रज्ञप्ता, तस्याश्च सुधासभाया इव प्रमाणं त्रीणि द्वाराणि तेषां च द्वाराणां पुरतो मुखमण्डका इत्यादि सर्व तावद्वक्तव्यं यावद् गोमानसीवर्णनम्, तदनन्तरमुल्लोकवर्णनं ततो भूमिभागवर्णनं तावद् यावन्मणीनां स्पर्शः, तथा चाह-'सुहम्मासभाक्त्तव्वया भाणियव्याजाव भममिए फासो' इति। तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थणं एगा महं मणिपेढिया पण्णत्ता जोयणं आयामविक्खंभेणं अद्धजोयणं बाहल्लेणं सवमणिमती अच्छा, तीसे गं मणिपेढियाए उप्पिं एत्थ णं एगे महं देवसयणिज्जे पण्णत्ते, तस्स णं देवसयणिज्जस्स वण्णओ, उवदासयसभाए णं उप्पिं अg मंगलगाझ्या छत्तातिडत्ता० जाव उत्तिमागारा,तीसे ण उववायसभाए उत्तरपुरस्थिमेणं एत्थ णं एगे महं हरए पण्णत्ते, सेणं हरए अद्धतेरस जोयणाई आयामेणं छ कोसातिं जोयणाई विक्खंभेणं दस जोयणाइं उव्वेहेणं अच्छे सण्हे वण्णओ जहेब णंदाराणं पुक्खरिणीणं० जाव तारेणवण्णओ। 'तस्स ण' मित्यादि, तस्स च बहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागेऽत्र महत्येका मणिपीठिका प्रज्ञप्ता,
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________________ लवणसमुद्द 627- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लवणसमुह योजनमेकमायामविष्कम्भाभ्यामर्द्धयोजनं बाहल्येन सर्वात्मना मणिमयी अच्छा इत्यादि विशेषणजातं प्राग्वत्, तस्याश्च मणिपीठिकाया उपरि अत्र महहदेकं देव शयनहयं प्रज्ञप्तं, तस्य स्वरूपचर्णनं यथा सुधर्मायां सभायां देवशयनीयस्य तस्य द्रष्टवम्, तस्या अपि उपपातस्रभाया उपरि अष्टाचष्टौ मङ्गलकानीत्यादि प्राग्वत्॥'तीसेण मित्यादि, तस्या उपपातसभाया उत्तरपूर्वस्यां दिशि अत्र महानेको हद: प्रज्ञप्तः, अर्द्धत्रयोदश योजनान्यामेन, षड् योजनानि सक्रोशानि विष्कम्भेन, दश योजनान्युरोधेन 'अच्छे सण्हे रययाकूले' इत्यादिनन्दापुष्करिणीत्सर्वं निरवशेष वाच्ययम्, तथा चाह-'आयामुव्वेहेणं विक्खंभेणं वन्नओ जो चेव नंदापुक्खरिणीण' मिति।।'तीसेण मित्यादि, सहद एकया पद्मवरवेदिकया एकेन च वनखण्डेन सर्वतः समान्तात्संपरिक्षिप्तः, पद्मवरवेदिकाया वर्णनं वनखण्डवर्णनं च तावद् यावत् 'तत्थ णं बहवे वाणमंतरा देवा य देवीओ य आसयंति० जाव विहरंतमीति' तस्य हदस्य त्रिदिशि-त्रिसृषु दिक्षु त्रिसोपानप्रतिरूपकाणि प्रज्ञप्तानि, तेषां च त्रिसोपानप्रतिरूपकाणां तोरणानां च (वर्णनं पूर्ववत्।) तस्स णं दह (हरत)स्स उत्तरपुरथिमेणं एत्थ णं एगा महं अभिसेयसभा पण्णत्ता, जहा सभा सुधम्मा तं चेव निरवसेसं० जाव गोमाणसीओ भूमिभाए उल्लोए तहेव / तस्स णं बहुसमरमणिजस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं एगा मणिपेढिया पण्णत्ता जोयणं आयामविक्खंभेणं, अद्धजोयणं बाहल्लेणं, सय्वमणिमया अच्छा। तीसे णं मणिपेठियाए उप्पिं एत्थणं महंएगे सीहासणे पण्णत्ते,सीहासणवण्णओ अपरिवारो। तत्थ णं विजयस्स देवस्स सुबहु अभिसेक्के मंडे संणिक्खित्ते चिट्ठति, अमिसेयसभाए उप्पिं अट्ठ मंगलए० जाव उत्तिमागारा सोलसविधेहिं रयणेहिं,तीसे णं अभिसेयसभाए उत्तरपुरस्थिमेणं एत्थं णं एगा महं अलंकारियसभावत्तव्वया भाणियव्वा० जाव गोमाणसीओ मणिपेढियाओ जहा अभिसेयसभाए उप्पिं सीहासणं स (अ)-परिवारं / तत्थ णं विजयस्स देवस्स सुबहुअलंकारिए भंडे संनिक्खित्ते चिट्ठति, उत्तिमागारा अलंकारियसभावत्तवया भाणियव्वा० जाव गोमाणसीओ मणिपेढियाओ जहा अभिसेयसभाए उप्पिं मंगलगा झया० जाव (छत्ताइडत्ता)। तीसे णं अलंकारियसहाए उत्तरपुरत्थिमेणं एत्थं णं एगा ववसायसमा पण्णत्ता, अमिसेयसभावत्तव्वया ०जाव सीहासणं अपरिवारं। 'तस्सण' मित्यादि, तस्य हदस्य उत्तरपूर्वस्यां दिशि अत्रमहत्येकाऽभिषेकसभा प्रज्ञप्ता, साऽपि प्रमाणस्वरूपद्वारमुखमण्डपप्रेक्षागृहमण्डपचैत्यस्तूपवर्णनादिप्रकारेण सुधर्मासभावत्तावद्वक्तव्या यावद् गोमानसीवक्तव्यता, तदनन्तरं तथैवोल्लोकवर्णनं भूमिभागवर्णनंचतावद् | यावन्मणीनां स्पर्श: / 'तस्स ण' मित्यादि, तस्य बहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागे अत्र महत्येका मणिपीठिका प्रज्ञप्ता योजनमेकमायामविष्कम्भाभ्यामर्द्धयोजन, बाहुल्येन सर्वात्मना मणिमयी 'अच्छा सण्हा' इत्यादि विशेषणकदम्बकं प्राग्वत् / तीसे ण' मित्यादि, तस्या मणिपीठिकाया उपरि अत्र महदेकं सिंहासनं प्रज्ञप्तम्, सिंहासनवर्णकः-प्राग्वत्, नवरमत्र परिवारभूतानि भद्रासनानि न वक्तव्यानि। 'तत्य ण' मित्यादिद्व तस्मिन् सिंहासने विजयस्य देवस्य योग्यं सुबहु अभिषेकभाण्डम् -अभिषेकांपस्करः संनिक्षिप्तः तिष्ठति, तस्याश्चाभिषेकसभाया उत्तरपूर्वस्यां दिशि अत्र महत्येकाऽलङ्कारसभा प्रज्ञप्ता, सा च प्रमाणस्वरूपद्वारत्रयमुखमण्डपप्रेक्षागृहमण्डपादिवर्णनप्रकारेणाभिषेकसभा-वत्तावद्वक्तव्या यावदपरिवारं प्रित्येक प्रत्येक सिहासनम्। 'तत्थ ण' मित्यादि, तत्र-सिंहासने विजयदेवस्य योग्यं सुबहु आलङ्कारिकमम्अलङ्कारयोग्यं भाण्डं संनिक्षिप्तं तिष्ठति। 'तीसे ण' मित्यादि, तस्या अलङ्कारसभाया उत्तरपूर्वस्यां दिशि अत्र महत्येका व्यवसायसभा प्रज्ञप्ता, सा चाभिषेकसभावत्प्रमाणस्वरूपद्वारत्रयमुखमण्डपादिवर्णकप्रकारेण तावद्वक्तव्यायावदपरिवारं सिंहासनम्। ए (त) त्थ णं विजयस्य देवस्स एगे महं पोत्थयरयणे संनिक्खित्ते चिट्ठति, तत्थ णं पोत्थयरयणस्स अयमेयारूवे वण्णवासे पण्णत्ते, तं जहा-रिद्वामतीओ कंख्यिाओ (रयतामतातिं पत्तकाई रिहामयाति अक्खराइं) तवणिजमए दोरे णाणामणिमए गंठी (अंकमयाइं पत्ताई) वेरुलियमए लिप्पासणे तवणिज्जमती संकलारिट्ठमए छादने रिट्ठामया मसी वइरामयी लेहणी रिट्ठामयाइं अक्खराइं धाम्मिए सत्थे ववसायसभाए णं उप्पिं अट्ठट्ठ मंगलगा झया छत्ततिछत्ता उत्तिमागारेति। तीसेणं ववसा (उववा) यसभाए उत्तरपुरथिमेणं एगे महं बलिपेढे पण्णत्ते दो जोयणाई आयामविक्खंभेणं जोयणं बाहेल्लेणं सय्वरयतामए अच्छे० जाव पडिलवे / / एत्थ णं तस्स णं वलिपेढस्स उत्तरपुरस्थिमेणं एगा गंदापुक्खरिणी पण्णत्ता जं चेव माणं हरयस्स तं सव्वं / / सू०१४०) 'एत्थ ण' मित्यादि, 'अत्र सिंहासने महदेकं पुस्तकरत्नं संनिक्षिप्त तिष्ठति, तस्य च पुस्तकरत्नस्थायमेतद्रूप: 'वर्णावास: वर्णकनिवेश: प्रज्ञप्तः-'रिष्टमय्यौ' रिष्टरत्नात्मिके कम्बिके पुष्टके इति भावः, रजतमयो (तपनीयमयो) दवरको यत्र पत्राणि प्रोतानि सन्ति, नानामणिमयो ग्रन्थिर्दवरकस्यादौ येन पत्राणि न निर्गच्छन्ति, 'अङ्कमयानि' अङ्करत्नमयानि पत्राणि नानामणि (वैडूर्य) मयं लिप्पासनमषीभाजनमित्यर्थः, तपनीयमयी शृङ्खला मषीभाजनसत्का रिष्ठरत्नमयमुपरितनं तस्य छादनं 'रिष्ठमयी' रिष्ठरत्नमयी मषी वज्रमयी लेखनी रिष्ठमयान्यक्षराणि धार्मिक लेख्यम्, तस्याश्च एपपातसभाया उत्तर पूर्वस्यां दिशिमहदेकं बलिपीठंप्रज्ञप्तम, द्वेयोजनेआयामविष्कम्भाभ्यां
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________________ लवणसमुह ६२८-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लवणसमुह योजनमेकंबाहल्येन 'अच्छेसण्हे' इत्यादि विशेषणजातं प्राग्वत्। 'तस्स विजयो देव उपपातसभायां देवशयनीये देवदूष्यान्तरिते प्रथमतोऽगुलाण' मित्म्यादि, तस्य बकलपीठस्य उत्तरपूर्वास्यां दिशि अत्र महत्येका संख्येयभागमात्रयाऽवगाहनयासमुत्पन्न // तए ण' मित्यादि, सुगमम्, नन्दापुष्करिणी प्रज्ञप्ता, सा च हदप्रमाणा, हदस्येव च तस्या अपि नवरमिह भाषामन:-पयाग्प्त्यो : समाप्तिकालान्तरस्य प्राय: शेषपर्याप्तित्रिसोपानवर्णनं तोरणवर्णनं च प्राग्वत्॥ तदेवं तत्रयादृग्भूताच राजधानी / कालान्तरापेक्षया स्तोकत्वादेकत्वेन विवक्षणमिति 'पंचविहाए पज्जत्तीए विजयस्य देवस्य तदेतद् उपवर्णितम्। पजत्तिभावंगच्छइ' इत्युक्तम्॥'तएण' मित्यादि, ततस्तस्य विजयस्य (15 सम्प्रति विजयो देवस्तत्रोपन्नस्तदा यदकरोद् देवस्य पञ्चविधया पर्याप्त्या पर्याप्तिभावं गतस्य सतोऽयमाएतद्रूप: तथा च तस्याभिषेकोऽभवत्तदुपदर्शयति संकल्प: समुद्यपद्यत, कथम्भूतः ? इत्याह-मनोगमः-मनसि गतोतेणं कालेणं तेणं समएणं विजया देवे विजयाए रायहाणीए व्यवस्थितो नाद्यापि वचसा प्रकाशितस्वरूप इति भावः, पुन: उववातसभाए देवसयणिज्जं सि देवदूसंतरिते अंगुलस्स कथम्भूतः? इत्याह-आध्यात्मिकः-आत्मन्यधि अध्यात्म तत्र भव असंखेजतिभागमेत्तीए बोंदीए विजयदेवत्ताए उववण्णे | तएणं आध्यात्मिक आत्मविषय इति भावः, सङ्कल्पश्च द्विधा भवहत-कश्चिदसे विजये देवे अहुणोववण्णमेत्तए चेव समाणे पंचविहाए पजत्तीए ध्यात्मिकोऽपरश्च चिन्तात्मकः, तत्रायं चिन्तात्मक इति प्रतिपादनार्थपज्जत्तीभावं गच्छति, तं जहा-आहारपज्जत्तीए सरीरपज्जत्तीए माह-चिन्तितः-चिन्ता संजाताऽस्मिन्निति चिन्तितश्चिन्तात्मक इति भावः, सोऽपि कश्चिदमिलाषात्मको भवति कश्चिदन्यथा तत्रायमभिइंदियपद्धत्तीए आणापाणुपजत्तीए भासामणपञ्जत्तीए॥तएणं तस्स विजयस्स देवस्स पंचविहाए पज्जत्तीए पज्जत्तीभावं गयस्स इमे लाषात्मकस्तथा चाह-प्रार्थनं प्रार्थोणिजन्तादच् प्रार्थः संजाताऽस्मि निति प्रार्थिकोऽभिलाषात्मक इति भावः, किं स्वरूपः ? इत्याह-'किं एयारूवे अज्झथिए चिंतिए पत्थिते मणोगए संकप्पे समुप्प मे' इत्यादि, किं मे-मम पूर्वं करणीयं किं मे पश्चात् करणीयम्, तथा किं जित्था-किं मे पुट्वं सेयं, किं मे पच्छा सेयं, किं मे पुट्विं मे पूर्वं कर्तुं श्रेयः किं मे पश्चात्कर्तुं श्रेयः, तथा कि मे पूर्वमपि ख्व करणिचं, किं ते पच्छा करणिचं, किं मे पुट्विं वा पच्छा वा पश्चादपि च हिताय भावप्रधानोऽयं निर्देशो हितत्वाय परिणामसुन्दरतायै हिताए सुहाए खेमाए णिस्सेसयाते अणुगामियत्ताए भविस्सतीति सुखाय-शर्मणे क्षेमायेति, अयमपि भावप्रधानोनिर्देश: संगत्वाय, कट्ट एवं संपेहेति // तते णं तस्स विजयस्स देवस्स सामाणिय निःश्रेयसायनिश्चितकल्याणाय आनुगामिकतायै परम्परया शुभानुपरिसोववण्णगा देवा विजयस्स देवस्स इमं एतारूवं अज्झ बन्धसुखाय भविष्यतीति // 'तए ण' मित्याकद 'तत: एतचिन्तात्थितं चिंतियं पत्थियं मणोगयं संकप्पं समुप्पण्णं जाणित्ता समनन्तरमेव दिव्यानुभावतो विजयस्य देवस्य 'सामाणियपरिसोवजेणामेव से विजए देवे तेणामेव उवागच्छंति तेणामेव उवाग वन्नगा देवा' इति सामानिका: पर्षदुपपन्नकाश्च-अभयन्तरादिपर्षदुपगता: च्छित्ता विजयं देवं करतलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं इमम् -अन्तरोक्तम् एतद्रूपम् -अनन्तरोदितस्वरूपमाध्यात्मिकं चिन्तितं कटु जएणं विजएणं वद्धाति जएणं विजएणं वद्धावेत्ता एवं प्राकर्थतं मनोगतं सङ्कल्पं समभिज्ञाय 'जेणेथे' त्ति यत्रैव विजयो वयासी-एवं खलु देवाणुप्पियाणं विजयाए रायहाणीएद्धायत देवस्तपागच्छन्ति-उवागम्य च करयलपरिगहिय' मित्यादि द्वयोर्हणंसि अट्ठसतं जिणपडिमाणं जिणुस्सेहपमाणमेत्ताणं संनिक्खित्तं स्तयोरन्योऽन्यान्तरिताङ्गुलिकयोः संपुटरूपतया यदेकत्र मीलनं सा चिट्ठति, सभाए य सुधम्माए माणवए चेतिखंभे वइरामएसु अञ्जलिस्तां करतलाभ्यां परिगृहीता-निष्पादिता करतलपरिगृहीता गोलवट्टसमुग्गतेसु बहूओ जिणसकहाओ सन्निक्खित्ताओ ताम, आवर्तनमावर्त्तः, शिरस्यावर्तो यस्याः सा षिरस्यावती, कण्ठेकाल चिटुंति, जओ णं देवाणुप्पियाणं अन्नेसिंच बहूणं विजयराय- उरसिलोमेत्यादिवदलुक्समास:, तामत एव मस्तके कृत्वा जयेन विलयेन हाणिवत्थव्वाणं देवाणं देवीण य अचणिज्जाओ वंदणिज्जाओ वर्धापयन्ति-जय त्वं देव ! विजय त्वं देव ! अत्येवं वर्धापयन्जीत्यर्थः, पूयणिज्जाओ सक्कारणिज्जाओ सम्माणणिज्जाओ कल्लाणं मंगलं तत्र जय:-परैरनभिभूयमानता प्रतापवृद्धिश्च, विजयस्तु-परेषामसहदेवयं चेतियं पज्जुवासणिज्जाओ एतं णं देवाणुप्पियाणं पुट्विं पि मानानामभिभवोत्पाद:, जयेन विजयेन च वापयित्वा एवमवादिषु:सेयं, एतं णं देवाणुप्पियाणं पच्छा वि सेयं, एतं णं देवाणुप्पियाणं एवं खलु देवाणुप्पियाण' मित्यादि पाठसिद्धम्।।। पुट्विं करणिनं पच्छा करणिजं, एतं णं देवाणुप्पियाणं पुट्विं तए णं से विजया देवे तेसिं सामाणियपरियपरिसोववा पच्छा वा० जाव आणुगामियत्ताते भविस्सतीति कट्ट महता वण्णगाणं देवाणं अंतिए एयमढे सोचा णिसम्म हहतुट्ठ० जय (जय) सई पउंजंति। जाव हियते देवसयणिज्जाओ अन्भुढे इ अग्भुढे इत्ता 'तेणं कालेणं तेणं समएणं' इत्यादि, तस्मिन् काले तस्मिन् समये | दिव्वंदेवदूसजुयलं परिहेइ परिहेइत्ता देवसयणिज्जाओ पचोर
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________________ लवणसमुह 626 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लवणसमुह हइ पचोरुहिता उपपातसभाओ पुरस्थिमेणं दुबारेण णिग्गच्छइ णिग्गच्छइत्ता जेणेव हरते तेणेव उवागच्छति उवागछित्ता हरयं अणुपदाहिणं करेमाणे करेमाणे पुरस्थिमेणं तोरणेणं अणुप्पविसति अणुप्पविसित्ता पुरथिमिल्लेणं तिसोवाणवडिरूवएणं पचोरुहति पचोरुहतित्ता हरयं ओगाहति ओगाहिता जलावगाहणं करेति जलावगाहणं करेत्ता जलमजणं करेति जलमजणं करेत्ता जलकिडं करेति जलकिछुकरेत्ता आयंते चोक्खे परमसुतिभूते हरतातो पञ्चुत्तरति पचुत्तरेत्ता। 'तए ण' मित्यादिततः-एतद्वचनानन्तरं विजयो देवस्तेषां सामानिकपर्षदुपपन्नकानां-सामानिकाना पर्षदुपपन्नकानां च देवानामन्तिके एनमर्थं श्रुत्वा-आकर्ण्य निशम्य हृदये परिणमय्य 'हट्टतुट्टचित्तमाणदिए' इति हृष्टतुष्टोऽतीव तमुष्ट इति भावः, अथवा-हृष्टो नाम विस्मयमापन्नो यथा-शोभनमहो! एतैरुपदिष्टमिति, तुष्टः-तोष कृतवान् यथा-भव्यमभूद् यदेतैरित्थमुपदिष्टमिति, तोषवशादेव चित्तमानन्दितम् -रफीतीभूतं "टुणदिसमृद्धौ" इति वचनात्, यस्य स चित्तानन्दितः, भार्यादिदर्शनात्पाक्षिको निष्ठान्तस्य परनिपातः, मकार: प्राकृतत्वादलाक्षणिकस्ततः पदत्रयस्य पदद्वयपदद्वयमीलनेन कर्मधारयः, 'पीइमेणे' इति प्रीतिर्मनसि यस्यासौ प्रीतिमना: जिनप्रतिमाऽर्चनविषयबहुमानपरायणमना इति भावः, ततः क्रमेण बहुमानोत्कर्षवशात् परमसोमणस्सिए' इति शोमन मना यस्यासो सुमनारतस्य भावः सौमनस्यं परमं च तत् सौमस्यं च परमसौमनस्यंतत्संजातस्मिन्निति परमसौमनस्थितः, एतदेव व्यक्तीकुर्वन्नाह-'हरिसवसविसप्पमाणहियए' हर्षवशेन विसर्पद - विस्तारयायि हृदयं यस्य स हर्षवशविसर्पहृदय, देवशयनीयादभ्युत्तिछति,अभ्युत्थाय च देवदूष्यं परिधत्ते, परिधायच उपपातसभातः पूर्वद्वारेण निर्गच्छति, निर्गत्य च यत्रैव प्रदेशे हदस्तत्रोपागच्छति, उपागत्य हदमनुप्रदक्षिणीकृत्य पूर्वेण तोरणेन हदमनुप्रविशति, प्रविश्च हदे प्रत्यवरोहति, मध्ये प्रविशतीति भावः, प्रत्यवरुह्य च हदमवगाहते, अवगाह्य जल मज्जनं करोति, कृत्वा च क्षणमात्रं जलक्रीडां करोति, ततः 'आयते इति नवानामपि श्रोतसां शुद्धदकप्रक्षालनेनाऽऽचान्तो गृहीता च मनश्चोक्ष:स्वल्पस्यापि शङ्कितमलस्यापनयनात्, अत एव परमशुचिभूतो हदात् प्रत्युत्तरति। (जी) (अतः परम् :अभिसेय शब्दे प्रथमभागे 726 पृष्ठे अभिषेकवर्णको गतः) तते णं तं विजयदेवं चत्तारिय सामाणियसाहस्सीओ चत्तारि अग्गमहिसीओ सपरिवाराओ तिण्णि परिसाओ सत्त अणिया सत्त अणियाहिवई सोलस आयरक्खदेवसाहस्सी अन्ने य बहवे विजयरायघाणिवत्थव्वगा वाणमं तरा देवा य देवीओ य तेहिं साभावितेहिं उत्तरवे उठिवते हि य वरकमलपतिहाणे हिं सुरभिवरवारिपडिपुण्णे हिं चंदणकयतचातेहिं आविद्धकंठेगुणेहिं पउमुप्पलपिधाणेहिं करतलसुकुमालकोमल-परिग्गहि- | एहिं अडसहस्साणं सोवणियाणं कलसाणं रूप्पमयाणं ताव अट्ठसहस्साणं भोमेयाणं कलयाणं सय्वोदएहिं सव्वमट्ठियाहिं सव्वतु वरे हिं सवपुप्फे हिं जाव सम्वोसहिसिद्धत्थाहिं सव्विड्डीए सव्वजुत्तीए सव्वबलेणं सव्वसमुदएणं सव्वायरेणं सव्वविभूतिए सव्वविभूसाए सव्वसंभमेणं सवरोहेणं सव्वणाडएहिं सव्वपुप्फगंधमल्लालंकारविभूसाए सव्यदिव्वतुडियाणिणाएणं महया इड्डीए महया जुत्तीए महया बलेणं महता समुदएणं महता तुरियजमगसमगपडुप्पवादितरवेणं संखपणवपडहभे रिझल्लरिखरमुहिमुरवमुयंगदुंदुहिहुडुक्कणिग्योससंनिनादितरवेणं महता महता इंदाभिसेगेणं अभिसिचंति। 'तए ण' मित्यादि, ततो णमिति वाक्यालङ्कारे तं विजयं देवं चत्वारि देवसामानिकसहस्राणि चतस्रोऽग्रमहिष्य: सपरिवारास्तिस्रः पर्षदो यथाक्रमष्टदशद्वादशदेवसहस्रपरिमाणा: सप्तानीकनि सप्तानीकाधिपतयः षोडश आत्मरक्षदेवसहस्राणि, अन्ये च बहवो विजयराजधानी-वास्तव्या वानमन्तरा देवा देव्यश्च तैः-तगतदेवजनप्रसिद्धैः स्वाभाविकैर्वेकुर्विकैश्च वरकमलप्रतिस्थसानैः सुरभिवरवारिप्रतिपूर्णश्चन्दनकृतचर्चाकैः, आविद्धकण्ठेगुणै:-आरोपितकण्ठेक्तसूत्रतन्तुभिः पद्मोत्पलपिधानैः सुकुमारकर तलपरिगृहीतैरनेकसहस्रसंख्यैः कलशैरिति गम्यते, तानेव विभागतो दर्शयति-अष्टसहस्रेण सौवर्णिकानां कलशानाम्, अष्टसहस्रेण रूप्यमायानाम्, अष्टसहस्रेण मणिमयानाम् अष्टसहस्त्रेण सुवर्णरूप्यमयानाम्, अष्टसहस्रेण सुवर्णमणिमयानाम, अष्टसहस्रेण सुवर्णरूप्यमणिमयानाम्, अष्टसहस्रेण सुवर्णरूप्यमहणमयानाम्, अष्टसहस्रेण भौमेयानां, सर्वसंख्यया अष्टभिः सहश्चतुषट्यधिकैः, तथा 'सर्वोदकैः सर्वतीर्थानद्याधुकैः सर्वत्वरैः सर्वपुष्पैः सर्वगन्धैः सर्वमाल्यैः सर्वौषधिसिद्धार्थकैश्च सर्वोपरिवारादिकया सर्वधु, त्या-यथाशक्तिविस्फारितेन शरीरतेजसा सर्वबलेनसामस्त्येन स्वस्वस्त्यिादिसैन्येन सर्वसमुदयेनस्वस्वाभियोग्यादि-समस्तपरिवारेण सर्वादरेण-समस्तयावच्छक्तितोलनेन सर्वविभूत्या स्वस्याभ्यन्तरवैक्रियकरणादिबाह्यरत्नादिसम्पदा, तथा सर्वविभूषयायावच्छक्तिस्फारोदारश्रृङ्गारकरणेन 'सव्वसंभमेणं' ति सवाद्रत्कृष्टन संभमेण, सर्वोत्कृष्टसंभ्रमो नाम-इह स्वनायकविषयइहुमानख्यापनार्थापरा स्वनायक कार्यसम्पादनाय यावच्छाक्तित त्वरितत्वरिता प्रवृत्तिः, सर्वपुष्पवस्वगन्धमाल्यालङ्कारेण, अत्र गन्धा-वासा माल्यानि-पुष्पदामानः अलङ्कारा:-आभरणानिततः समाहारोद्वन्द्वः, ततः सर्वदिव्यत्रुटितानि तेषां शब्दा: सर्वदिव्यत्रुटितशब्दास्तैः सह सर्वशब्देन विशेषणसमासः, 'सव्वदिव्वतुडियसद्दनिनाएण' मिति सर्वाणि च तानि दिव्यत्रुटितानि च दिव्यतूर्याणि च, एषामेकत्र मीलनेन य: संगतो नितरां नादोमहान्घोष, सर्वदिव्यत्रुटिशब्दसंनिनादस्तेन, इह तुल्येष्वपि सर्वशब्दो दृष्टो यथाऽनेन सर्व पीतंघृतमिति, तत आह-'महया इडीए' इत्यादि,महत्या यावच्छक्तितुलितया'ऋद्धया परिवारादिकया 'महयाजुईए' इत्याद्यपिभाव
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________________ लवणसमुह 630 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लवणसमुद्द नीयम्, तथा महता स्फूर्त्तिमता वराणां-प्रधानानां त्रुटितानाम् - आतोद्यानां यमकसम-एककालं पटुभिः पुरुषः प्रादिताना यो वस्तेन, एतदव विशेषेणाचष्टे 'संखपणवपडहभेरिझल्लरिखरमुहिहुडुक्कमुरवमुइंगदुहिनिग्धोससंनिनादितरवेणं' शंख. प्रजीतः पणवोभण्डाना, पटहः प्रतीतः भेरी-ढक्का झल्लरी-चविनद्धा विस्तीणी वलयरूपा खरमुहीकाहला हुडुक्का-महाप्रमाणो मर्दलो मुरजः-स एव लधुर्मुदड़ोदुन्दुभिःभेर्याकारा सङ्कटमुखी, तासा द्वन्दः, तासं निर्येषो-महान ध्वानो नादित च घण्टायामिव वादनोत्तरकालभावी सततध्वनिस्तल्लक्षणो यो वस्तेन महता महता इन्द्राभिषेकेणाभिश्चन्ति / / तए परं तस्स विजयस्स देवस्स महता महता इंदभिसेगंसि वट्टमाणंसि अप्पेगतिया देवा णचोदगंणातिमट्टियं पविरलफुसियं दिव्वं सुरभिं रयरेणुविणासणं गंधोदगवासं वासंति, अप्पेगतिया देवा णिहतरयं णहरयं भट्ठरयं पसंतरयं उवसंतरयं करेंति, अप्पेगतिया देवा विजयं रायहाणि सब्मिंतरबगाहिरियं आसित्तसम्मनितोवलित्तं सित्तसुइसम्मट्टरत्यंतरावणवीहियं करेंति, अप्पेगतिया देवा विजयं रायहाणिं मंचातिमंचकलितं करेंति, अप्पे गतिया देवा विजयं रायराणिं णाणाविहरागरंजियऊसियजयविजयवेजयन्तीपडागातिपडागमंडितं करेंति, अप्पेगतिया देवा विजयं रायहाणिं लाउल्लोइयमकिहयं करेंति, अप्पेगतिया देवा विजयंरा० गोसीससरसरत्तचंदणदद्दरदिएणपंचंगुलितलं करेंति, अप्पेगतिया देवा विजयं रा० उवचियचंदणकलसं चंदणघडसुकयतोरणपडिदुवारदेसमागं करेंति, कप्पेगतिया देवा विजयं रा० आसत्तोवसत्तविपुलवट्टवग्धारितमल्लदामकलावू करेंति, अप्पेगइया देवा विजयं रायहाणिं पंचवणसरससुरभिमुक पुप्फपुंजो वयारक लितं करें ति, अप्पेगइया देवा विजयं रा० कालागुरुपवरकुंदुरुक्कतुरु-कधूवडझंतमघमर्धेतगंधुद्धयाभिरामं सुगंधवरगंधियं गंधवष्टिभूयं करेंतिख, अप्पेगइया देवा हिरण्णवासं वासंति, अप्पेगइया देवा सूवण्णवासं वासंति, अप्पेगइया देवा एवं रयणवासं वइरवास पुप्फवासं मल्लवासं गंधयासं चुण्णवासं वत्थवासं आहरणवासं, अप्पे गइया देवा हिरण्णविधिं माइंति, एवं सुवण्णविधि रयणविधिं वतिरविधिं पुप्फ विधिं मल्लविधिं चुण्णविधिं गंधविधिं वत्थविधिं भाइंति आभारणविधिं / / स। मित्यादि, ततो णमिति पूर्ववत् तस्य विजयस्य देवस्य महया' इति अतिशयन महान इन्द्राभिषेके वतमान प्येकका दवा विचजया राजधानी, रगतम्यर्थे द्विजीया प्राकृतत्वात, ततोऽयमर्थः-विजयाया राजधान्या नारदका प्रभूतजलसंग्रहभावतो वैरस्योपपत्ते, नातिमृत्तिक अतिमृतिकाया अपि कदमरूपतायामुत्साह वृद्धिजनकत्वाभावात 'पविरफसिय मिति प्रविरलानि घनभावे कर्दमसम्भवात प्रकर्षण यावता रेणव: स्थगिता भवन्ति तावन्मात्रेणोत्कर्षण स्पृष्टानि-स्पर्शनानि यत्र वर्ष तत् प्रविरलस्पृष्टम् / ‘रयोणुविणासणं' ति लक्ष्णतरा रेणुपुद्गला रजस्त एव स्थूला रेणवः, रजोसि च रेण्णवश्च रजोरणवस्तेषां विनाशनं रजोरेणुविनाशनं दिव्यम् -प्रधान सुरभिगन्धोदकवर्ष वर्षन्ति अप्येकका विजया राजधानी समस्तामपि निहतरजसम् -निहत रज” यस्यां सा निहतरजास्ताम्, तत्र निहतत्वं रजसः क्षणमात्रमुत्थानाभावेनापि संभवति तत आह-नष्टजसम् -नष्ट सर्वथाऽदृश्यीभूतं र जो यत्र सा नष्टरजास्ताम्, तथा भ्रष्टम् -वातोद्भूतजया राजधान्या दूरतः पलायित रजो यस्याः सा भ्रष्टरजास्तात्, एतदेवैकार्थिकद्वयेन प्रकटयात प्रशान्तरजसम् उपशान्तरजसं कुर्वन्ति, अप्यकका देवा विजया राजधानी - 'आसियसमज्जियोवलित सित सुइसम्मट्ट (स्य) रत्थंतरावणवीहियं करेंति' इति आसिक्तमुदकच्छण्टेन, संमार्जित कचवरशोधनेन, उपनिसमिव गोमयादिनोपलिपम, तशा सिक्तानि जलेनात एव शुबीनीपवित्राणि समृष्टा' -कचवरापनयनेन रथ्यान्तराणि आपण पीथय इवहट्टभाई इव आपणवीथयो रथ्याविशेषाश्च यस्यां सा तथा तां कुर्वन्ति अप्यकका देवा मञ्चालिमकलितां कुर्वन्ति, अप्येकका देव नानाविधा विशिष्टा रागा यात नानाविरागा नानाविरागैच्छितैः-ऊध्र्व वृतध्वजः पताकातिपताकाभिश्च मण्डितां कुर्वन्ति, अप्येकका देवा 'लाउल्लोइयमहिता' गोशर्षिसरसरक्तचन्दनददरीदत्तपञ्चाङ्ग लितल कुर्वन्ति, अप्येकका देवा विजया राजधानीमुपचितचन्दनकलाश कुर्वन्ति, अप्येकका देवा चन्दनघटसुकृततारणप्रतिद्वारदेशभाग कुर्वन्ति, अप्येकका देवा विजयां राजधानीमासितोसिक्तविपुलवृत्वग्धारिनमाल्यादामकलाप कुर्वन्ति, अप्यकका देवा विजया राजधानी पञ्चवण्धसुराभिमुक्तपुष्पपुजापचारकलितां कुर्वन्ति, अप्टकका ट्या बिजयां राजधानी कालागुरुपवरकुन्दुरुप्रवरकुन्दुरुष्कतुरष्कधूपनघमधायमाना गधोद्भूताभिरामा सुगन्धवरगन्धगन्धिका गन्धवर्तिता कुर्वन्ति, एतेषां च पदानां ध्याख्यानं पूर्ववत्, अप्येकका देवा हिरण्यकर्ष वर्षन्ति, अप्येकका सुवर्णवर्षमप्येकका आभरणवर्ष (रत्नवर्षमप्येकका वजदषमप्यकका.) पुष्पवर्षमप्येकका माल्यवषमप्येककाश्चूर्ण वर्ष वस्त्रवर्षम (आभरणवर्ष) वर्षान्ति, अप्येकका देवा हिर ग्यविश् i. हिरण्यरूपं मङ्गलप्रकार भाजयन्ति-विश्राणयन्ति-शेषदेवेभ्यो ददर्ता ते भावः, एवं सुवर्णरत्नाभरणपुष्पमाल्यगन्धचूर्णवस्वविधि पालनमा भावनीयम् / (इह द्वात्रिंशन्नाट्यविधयः ते च येन का मगरको वर्द्धमानस्वामिनः पुरतः सूर्याभदेवेन भावेनास राणा बीयोपा हे दर्शितास्तेन क्रमेण इहापि भावनीयम्. तेच 'ण' अन्द तुगे 1883 पृष्ठे व्याख्याता:) अप्पे गतिया देवा चउविधं वातियं वादेंति, तं जहाततं विततं घणं झुसिरं, अप्पे गतिया देवा चउविधं गेयं गायंति, तं जहा-उक्खित्तयं पवत्तयं मदायं रोइदावसाणं, अप्पे गतिया देवा चउविहं अथिणयं अभिणयंति, तं ज.
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________________ लवणसमुह 631 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लवणसमुह हा-दिलृतियं पाडं तियं सामन्तोवणिवातियं लोगमज्झावसाणियं, अप्पेगतिया देवा पीणेति, अप्पेगतिया देवा बुक्कारेंति, अप्पे गतिया देवा तं डिवें ति, अप्पे गतिया देवा लासें ति, अप्पेगतिया देवापीणेति बुक्कातितंडर्वेति लासेंति, अप्पेगतिया देवा अप्फडेंति अप्पेगतिया देवा वग्गंति, अप्पेगतिया देवा तिवंति अप्पेगतिया देवा छदंति, अप्पेगतिया देवा हअफोर्डेति वग्गंति तिवंति छिदंति, अप्पेगतिया देवा हतहेसियं करेंति, अप्पेगतिया देवा हत्थिगुलगुलाइयं करेंति, अप्पेगतिया देवा रहघणतियं करेंति, अप्पे० हयहेसियं करेंति हत्थिगुलगुलाइयं करेंति रहघणघणाइयं करेंति, अप्पेगतिया देवा उच्छोलेंति, अप्पेगतिया देवा पच्छोलेंति, (अप्पेगतिया देवा उक्किढिं करेंति) अप्पेगतिया देवा उक्किट्ठीओ करेंति,अप्पेगतिया देवा उच्छोलेंति पच्छोलेंति उक्किट्ठीओ करेंति. अप्पेगतिया देवा सीहणादं करेंति, अप्पेगतिया देवा पाददद्दरयं करेंति, अप्पेगतिया देवा भूमिचवेडं दलयंति, अप्पेगतिया देवा सीहनादं पाददद्दरयं भूतिचवेडं दलयंति, अप्पेगतिया देवा हमारेंति, अप्पेगतिया देवा बुक्काति, अप्पेगतिया देवा थक्कारेंति, अप्पेगतिया देवा पुक्कारेंति, अप्पेगतिया देवा नामाइं सावेंति, अप्पेगतिया देवा हकारेंति तुकारेंति थक्कारेंति पुकारेंति णामाइं सार्वेति, अप्पे गतिया देवा उप्पतंति, अप्पे गतिया देवा णिवयंति, अप्पेगतिया देवा परिवयंति, अप्पेगतिया देवा उप्पयंति णिवयंति परिवयंति, अप्पेगतियश देवा जलंति, अप्पेगतिया देवा तवंति, अप्पेगतिया देवा पतवंति, अप्पेगतिया देवा जलंति तवंति पतवंति, अप्पेगइया देवा गजंति, अप्पेगइया देवा विजुयायंति, अप्पेगइया टेवा वासंति, अप्पेझगया देवा गजंति विजुयायति वासंति, अप्पगतिया देवा देवसनिवार्य करेंति, अप्पेगतिया देवा देवक्कलियं करेंति, अप्पे गइया देवा देवकहकहकहं करेंति अप्पेगइया दुहदुहं करेंति, अप्पेगतिया देवा देवसन्निवायं देवकुलियं देवकहकहकहं देवदुहदुहं करेंति, अप्पे गतिया देवा देवुजोयं करें ते, अप्पेगतिया देवा विजुयारं करेंति, अप्पेगतिया देवा चेलुक्खवं करेति, अप्पेगतिया देवा देवुञ्जोयं विजुतारं चेलुक्खेवं करेंति, अप्पेगतिया देवा उप्पलहत्थगता 0 जाव सहस्सपत्ता घटाहत्थगता कलसहत्थगता 0 जाव घूवकडुच्छहत्थगता हट्ठतुट्ठा० जाव हरिसवसविसप्पमाणहियया विजयाए रायहाणिए सव्वतो समंता आधावेंति परिधाति। अप्य ककाश्चतुर्विधमभिनयमभिनयन्ति, तद्यथा-दार्शन्तिक प्रतिश्रुतिका साभा यतो विनिपातिक लोकमध्यावसानिकमिति, एतेऽभिनर विधयो नाट्यकुशलेभ्यो वेदितव्याः अप्यिकका देवाः पीनयन्ति- | पीनमात्मानं कुर्वन्ति स्थूला भवन्तीति भावः, अप्येकका देवाः ताण्डवयन्तिताण्डवरूप नृत्य कुर्वन्ति, अप्येकका देवा: लास्ययन्ति-लास्यरूप नृत्य कुवन्ति, अप्येकका दवा: छुक्कारेंति-छूत्कार कुर्वन्ति, अप्येकका देवा एतानि पीनत्वादीनि चत्वार्यपि कुर्वन्ति, अप्येकका देवा उच्छलन्ति, अप्येकका देवा: प्रोच्छलन्ति अप्येकका बेवास्त्रिपदिकां छिन्दन्ति, अप्येकका-स्त्रीण्यप्येतानि कुर्वन्ति, अप्यकका देवा हयहेषितानि कुवन्ति, अप्येकका देवा हस्तिगडगडायितं कुर्वन्ति अप्येकका देवा स्थाधणघणायितं कुवन्ति अप्येकका देवास्त्रीण्यप्येतानि कुर्वन्ति, अंप्यकका देवा आस्फोटयन्ति, भूम्यादिकमिति गम्यते, अप्येकका देवा वल्गन्ति, अप्येकका देवा: सिंहनादं नदान्त, अप्येकका देवा: पादददरेक कुर्वन्ति, अप्येकका देवा भूमिचपेटां ददति-भूमि चपेटयाऽऽस्फालयन्तीतिभावः, अप्येकका देवा महता महता शब्देन रवन्त-शब्दं कुवन्ति, अप्यकका देवायचात्वार्यपि सिंहनादादीनि कुर्वन्ति, अप्येकका देवा हकारेंति-हक्कारं कुर्वन्ति, अप्येकका देवा: वुक्कारेंति-मुखेन वुक्कारशब्द कुर्वन्ति, अप्येकका देवा: थक्कारेंति-थक्का इत्येवं महता शब्देन कुर्वन्ति, अप्यककारवीण्यप्येतानि कुर्वन्ति, अप्येकका देवा अवपतन्ति, अप्येकका देवा उत्पतन्ति, अप्येकका देवा: परिपतन्तितिर्यगनिपनत्यर्थः, अप्यकका दबास्त्रीण्यप्येतानि कुवन्ति, अप्येकका ज्वलन्ति-ज्वालामालाकुला भवन्ति अप्येकका देवा: तपन्तितप्ता भवन्ति, अप्येकका प्रतपन्ति, अप्येकका देवास्त्रीण्यपि कुर्वन्ति, अप्येकका देवा अर्जयन्ति अप्येकका 'विजयारं ति-विद्युतं कुर्वन्ति, अप्येकका देवा वर्ष वर्षन्ति, अप्यककारत्रीण्यप्येतानि कुर्वन्ति अप्येकका देवा देवोत्कलिका कुवन्तिदेवानां वातस्ये कालिका देवोत्कालिका तां कुर्वन्ति, अप्येकका देवा देवकहकह कुर्वन्ति-प्रभैतानां देवानां प्रमोदभरवशतः स्वेच्छावचनैर्बोल: कोलाहलो दवकहकहस्त कुर्वन्ति, अप्येकका देवा देवदुहुदुहुकं कुर्वन्तिदुहुदुहुकमित्यनुकरणवचनमेतत्, अप्येककास्त्रीण्यप्येतानि कुवन्ति, अप्येकका देवाश्चोलोत्क्षेपं कुर्वन्ति, अप्येकका देवा वन्दनकलशहस्तगता: वन्दनकलशा हस्ते गता येषां ते वन्दननकलशहस्तगताः, अप्येकका देवाः भृङ्गारकलशहस्तगताः एवमादर्शस्थालपात्रीसुप्रतिष्ठकवातकरकाचत्ररत्नकरण्डकपुष्पचङ्गेरीयावल्लोमहस्तचड्नेरीपुष्पपटकलकयावल्लोमहस्तपटलकसिंहासनचामरतैलसमुद्रकयावदञ्जनामुद्रकधूपकडुच्छुकहस्मगता प्रचित्तमाणदिया पीतिमणा परमसोमणस्सिया हरिसवसविसप्पमाणहियया' इति परिग्रह', सर्वतः-समन्ताद् आधावन्ति प्रधावन्ति / तएणं तं विजयं देवं चत्तारि सामाणियसाहस्सीओ चत्तारि अग्गमहिसीओसपरिवाराओ० जावसोलस आयरक्खदेवसाहस्सीओअण्णे य बहवे विजयरायहाणीवत्थव्वा वाणमंतरा देवा य देवीओ य तेहिं वरकमलपतिट्ठाणेहिं जाव अट्ठसतेणं सोवणियाणं कलसरणे तं चेव० जाव अट्ठसएणं भोसेज्राणं कलस णं सव्वोदगेहि सव्वमट्टि
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________________ लवणसमुद्द 632 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लवणसमुद्द याहिं सव्वतुवरेहिं सव्वयुप्फे हिं० जाव सवोसहिसिद्धत्थएहिं सव्विवीय० जाव पिग्घोसनाइयरवेणं महया महया इंदाभिएणं | अभिसिंचंति अभिसिंचंतित्ता पत्तेयं पत्तेयं सिरसावत्तं अंजलिं कट्ट एवं वयासी-जय जय नंदा ! जय जय भद्दा ! जय तय नंद भदं ते अजियं जिअणेहि जियं पाले हि, अजितं जिणे हि सत्तुपक्खं जितं पालेहि मित्तपक्खं, जियमज्झे वसाहितं देव ! निरुवसग्गं इंदो इव देवाणं, चंदो इव ताराणं, चमरो इव असुराणं, धरणो इव नागाणं, भरहो इव मणुयाणं, बहूणि पलिओवमाइं बहूणि सागरोवमाणि, चउण्हं सामाणियसाहस्सीणं० जाव आयरक्खदेवसाहस्सीणं विजयस्य देवस्स विजयाए रायहाणीए अण्णे सिं च बहूणि विजयरायहाणिवत्थव्वाणं वाणमंतराणं देवाणं देवीण य आहेवचं० जाव आणाईसरसेणावचं कारेमाणे पालेमाणे विहराहि त्ति कट्ट महता महता जय तय सदं पउंजंति। (सू०१४१) तएणं तं विजय देवं चत्तारि सामाणियसाहस्सीओ' इत्याद्यभिष कनिगमनसूत्रमाशीर्वादसूत्रं च पाठसिद्धम्। (१६)लवणसमुद्रस्थिताया विजयराजधान्या अधिपतेर्विजयदेवस्य निश्रमणादि प्रतिपादयन्नाहतए णं से विजये देवे महया महया इंदामिसेएणं अभिसित्ते समाणे सीहासणाओ अब्भुढे इ सीहासणाओ अब्भुढे त्ता अमिसेयसभातो पुरत्थिमेणं दारेणं पडिनिक्खमति पडिनिक्खमित्ता जेणामेव आलेकारियसभा तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता आलंकारियसभं अणुप्पयाहिणीकरेमाणे अणुप्पयाहिणी करेमाणे पुरस्थिमे णं दारेणं अधुपविसति पुरत्थिमेणं दारेणं अणुपविसित्ता जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता सीहासणवरगते पुरत्थाभिमुहे सण्णिसण्णे, तए णं तस्स विजयस्स देवस्स सामाणियपरिसोववण्णगा देवा आमिओगिए देवे सद्दावेंति सद्दावेंतित्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! विजयस्स देवस्स आलंकारियं भंड उवणेह, तेणेव ते आलंकारियं भंडं० जाव उवट्ठवेंति। 'तएण' मित्यादि, ततः विजयो देवो वानमन्तरैः 'भहया महया' इति अतिशयेन महतो इन्द्राभिषेकेणाभिषिक्तः सन् सिंहासनादभ्युत्तिष्ठति, अभ्युत्थायाभिषेकसभातः पूर्वद्वारेण विनिर्गत्थ यवालङ्कारिकसभा तत्रैवोपागच्छति, उपागत्यालङ्कारिकसभामनुप्रदक्षिणीकुर्वन पूर्वद्वारेणानुप्रविशति, अनुप्रविश्य च यत्रैव मणिपीठिका सत्रैव च सिंहासनं तत्रापगच्छति, उपागत्य सिंहासनवरगतः पूर्वाभिमुख सनिषण्णः, ततस्तस्य विजयस्य देवस्याभियोग्या देवा सुबहु आलङ्करिकमम्अलङ्कारयोग्य भाण्डमुपनयन्ति। जए णं से विजया देवे तप्पढमयाए पम्हलसुमालाए दिव्वाए सुरभीए गंधकासाईए गाताई लूहेति गाताई लूहेत्ता सरसरणं गोसीसचंदणेणं गाताई अणुलिंपति सरासेणं गोसीसचंदणेणं गाताई अणुलिंपेत्ता ततोऽणंतरं च णं नासाणीसासवायवज्झं चक्खुहरं वण्णफरिसजुत्तं हतलालापेलवातिरेगं धवलं कणगखइयंतकम्मं आगासफलिहसरिसप्पभं अहतं दिव्वं देवदूसजूयल णियंसेइ णियंसेत्ता हारं पिणिद्वेइ हारं पिणिवेत्ता एवं एकावलिं पिणिंधति एकावलिं पिणिंघत्ता एवं एतेणं अभिलावेणं मुत्तावलिं कणगावलिं रयणावलिं कडगाइं तुडियाइं अंगयाई केयूराई दसमुदिताणंतकं कछिसुत्तकं ते अस्थिसुत्तगं मुरविं कंठमुरविं पालंबंसि कुंडलाई चूडामणिं चित्तरयणुक्कडं मउडं पिणिंधेइ पिणिंधेत्ता गंठिमवेढिपूरिमसंघाइमेणं चउव्विहेणं मल्लेणं कप्परुक्खयं पिवअप्पाणं अलकियविभूसितं करेति, कप्परुक्खयं पिव अप्पाणं अलंकियविभूसियं करेत्ता ददरमलयसुगंधगंधितेहिं गंधेहिं गाताई सुक्किडति सुकिडइत्ता दिन्च्वं च सुमणदामं पिणिद्धति / / तए णं से विजए देवे कोसालंकारेणं वत्थालंकारेणं मल्लालंकारेणं आभारणालंकारेणं चउविहेणं अलंकरेणं अलंकिते विभूसिए समाणे पडिपुण्णालंकारे सीहासणाओ अब्भुढेइ अब्भुट्टित्ता आलंकारियसभओ पुरत्थिमिल्लेणं दारेणं पडिनिक्खमति पडिनिक्खमइत्ता जेणेव ववसायसमा तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता ववसायसभं अणुप्पसाहिणं करेमाणे करेमाणे पुरथिमिल्लेणं दारेणं अणुपविसति अणुपविसित्ता जेणेव सीहासणे तेणेव एवागच्छति उवागच्छित्ता सीहासणवरगते पुरत्थाभिमुहे सण्णिसण्णे / तते णं तस्स विजयस्स देवस्स आहिओगियरा देवा पोत्थयरयणं उवर्णेति। 'तेइ ण' मित्यादि, ततः स विजयो देवस्तत्प्रथम्तया तम्यामलङ्कारसभायां प्रथमतया पक्ष्मला च सा सुकुगारा च पक्ष्मलकुमारा तया सुरभिगा धकाषायिक्या-सुरभिगन्धकषायद्ररा परिकामतया लघुशाटिकयेति गम्यते गात्राणि रूक्षयति रूयित्वा सरसेन गोशीपंधन्दनेन गात्राध्यनुलिम्पति अनुलिप्य देवष्ययुगलं निधत्त इति योग : कथम्भूतः ? इत्याह-'नासानीसासवायवज्झ' नासिका निश्वासवा नबाहाम् एतेन श्लाक्ष्णतामाह, चक्षुर्हरम् -चक्षुर्हरति-आत्मवशं नयति विशिष्टर शातिशयकलितत्वाचक्षुर्हरवर्णस्पर्शयुक्तम्-अतिशामिना वार्गना रायिना रदर्शन युक्तम 'हयलालापेलवाइरेग' मिति हयलाला- आश्वलाला तरण अपि पेलवमतिरेकण हयलालापेलवातिरक 'नाम नानार्थं समासो बहुल" मिति समास: अतिविशिष्टमृदुत्वलघुत्वगुणोपेलमिति भावः, धवलश्टेत कनकखचितानिविच्छुरितानि अन्तकर्माणिअञ्चलयोवान् लक्षणानि यत्स्य तत कनकखचितान्तकर्म आकाशस्फटिक नाम- अति स्वच्छरझटकविशेषस्तत्समप्रभ दिव्यं देवययुगलंदेववस्त्रयुग्मं निवस परिधत्त, परि
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________________ लवणसमुद्द 633 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लवणसमुद्द धाय हारादीन्याभरणानि पिनाति, तत्र हार:-अष्टादशसरिकः विघाट्यानुप्रवाचयति अनुपरिपाट्या प्रकर्षण-विशिषटार्थावगमरूपेण अर्धहारोनवसरिकः एकावली-विचित्रमणिका मुक्तावली-मुक्ताफलमयी वाचयति वाचयित्वा धार्मिकम्धर्मानुगतं व्यवसायंव्यवस्यतिकर्तुमभिकनकावलीकनकमणिमयी प्रालम्बः तपनीयतयो विचित्रमणिरत्न- लषजीजि भाव:, व्यवसायसभाया: शुभाध्यवसायनिबन्धनत्वात, क्षेत्राक्तिचित्र आत्मनः प्रमाणेन स्वप्रमाण आभारणविशेष: कटकानिकला- देरपि कर्मक्षयोपशमादिहेतुत्वात्, उक्तञ्च-"उदयक्खयख-ओवसमोचिकाभरणानि त्रुटितानि-बाहुरक्ष्का: अङ्गदानि-बाह्वाभरणविशेषा: वसमा जं च कम्मुणो भणिया। दव्वं ख्तं कालं, भवं च भावं च संपप्प दशमुद्रिकाऽनन्तकम् -हस्ताङ्गुलिसम्बधि मुद्रिकादशकम् कुण्डले- // 1 // " इति धार्मिकं च व्यवसायं व्यवसायपुस्तकरत्नं प्रतिनिक्षिपति कर्णाभरणे चूडामणिमिति-चूढामणिमि सकलपार्थिवरत्नसर्वसारो प्रतिनिक्षिप्य सिंहासनादम्युत्तिष्ठहत , अभ्युत्थाय व्यवसायसभात: पूर्वदेवेन्द्रमनुष्येन्द्रमूर्ध्वकृतनिवासो निशेषापङ्गलाशान्तिरोगप्रमुखदोषा- द्वारेण विनिर्गच्छति विनिर्गत्य यत्रैव व्यवसायसभाया एव पूर्वा नन्दापुष्कपहारकारी प्रवरलक्षणोपेतः परममङ्गलभूत आभारणविशेष: 'चित्तरय- रिणी तत्रैवोपागच्छति उपागत्य नन्दो पुष्करिणीमनुप्रदक्षिणीकुर्वन् णसेकर्ड मउड' मिति चित्राणि-नानाप्रकाराणि यानि रत्नानि तै' सङ्कटः पूर्वतोरणेनानुप्रविशति प्रविश्य पूर्वेण त्रिसोपानप्रतिरूपण प्रत्यवचित्ररत्नसङ्कटः प्रभूतरत्ननिचयोपेत इति भावः / 'तं दिव्वं सुमणदामं रोहति, मध्ये प्रविशतीति भावः, प्रत्यवरुह्य हस्तपादौ प्रक्षालयति प्रक्षाति' दिव्यामम्प्रधानां पुष्पमालाम्, 'तएणं से विजय' इत्यादि, ग्रन्थिम- ल्यैकं महान्तं श्वेतं रजतमयं विमलसलिलपूर्ण मत्तकरिमहामुखाकृतिग्रन्थनं ग्रन्थस्तेन निवृत्तं ग्रन्थिमं 'भावादिमः प्रत्ययः यत् सूत्रादिना समानं शृङ्गारं गृह्णाति गृहीत्वा यानि तत्रोत्पलानिपद्मानि कुमुदानिग्रथ्यते तद् ग्रन्थिममिति भाव:, भरिम-यद् ग्रन्थितं सद्वेष्ट्यते यथा नालनानि यावत् शतसहस्रपत्राणि तानि गृह्णाति गृहीत्वा नन्दातः पुष्पलम्बूसको गण्डूक इत्यर्थः, पूरिमं येन वंशशलाकादिमयमञ्जरी पुष्करिणीतः प्रत्युत्तरति प्रत्युत्तीर्य यत्रैव सिद्धायतनं तत्रैव प्रधाक्तिवान पूर्यते, सङ्घातिमं यत्परस्परतो नालसङ्घातेन संघात्यते, एवंविधेन गमनाय / / चतुर्विधेन माल्येन कल्पवृक्षमिवात्मानमलङ्कतविभूषितं करोति कृत्वा तएणं तस्स विजयस्स देवस्सचत्तारिसामाणियसाहस्सीओ० परिपूर्णालङ्कारः सिंहासनादभ्युत्तिष्ठति, अभ्युत्थायालङ्कार-सभातः जाव अण्णे य बीवे वाणमंतरा देवा य देवीओ य अप्पेगइया पूर्वेण द्वारेण सिंहासनवरगतः पूर्वाभिमुख: सन्निषण्ण। 'तएण' मित्यादि, उप्पलहत्थगया० जाव हत्थगया विजयं देवं पिट्ठतो पिट्ठतो ततस्तस्य विजयस्य देवस्याभियोग्याः पुस्तकरत्नमुपनयन्ति।। अणुगच्छति। तएणं तस्सविजयस्स देवस्स बहवे आमिओगिया तएणं से विजय देवे पोत्थयरयणं गेणहित गेण्हित्ता पोत्थयरयणं देवा य देवीओ य कलसहत्थगता० जाव धूवकडुच्छयहत्थगता मुयति पोत्थयरयणं मुएत्ता पोत्थयरयणं विहाडेति पोत्थरयरयणं विजयं देवं पिट्ठतो पिट्ठतो अणुगच्छंति, तते णं से विजए देवे विहाडेत्ता पोत्थयरयणं वाएति पोत्थयरयणं वाएत्ता धम्मियं चउहिं सामाणियसाहस्सीहिं० जाव अण्णेहि य वहूहिं वाणववसायं पगेण्हति धम्मियं ववसायं पगेण्हित्ता पोत्थयरयणं मंतरेहिं देवेहि य देवीहि य सद्धिं संपरिखुडे सव्विड्डीए सव्वपडिणिक्खवेइ पडिणिक्खवेत्ता सीहासणाओ अब्भुतुति जुत्तीए० जाव णिग्घोसणाइयरवेणं जेणे व सिद्धाययणे तेणेव अब्भुढेत्ता ववसायसभाओ पुरिस्थिमिल्लेणं दारेणं पडिणिक्ख- उवागच्छति उवागच्छित्ता सिद्धायतणं अणुप्पहिणीकरेमाणे मइ पडिणिक्खम इत्ता जेणेव एदापुक्खरिणी तेणेव उवागच्छति अणुप्पयाहिणीकरेमाणे पुरथिमिल्लेणं दारेणं अणुपविसति उवागच्छित्ता गंदं पुक्खरिणिं अणुप्पयाहिणीकरेमाणे पुरत्थि- अणुपविसित्ताजेणेव देवच्छंदए तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता मिल्लेण दारेणं अणुपविवसति अणुपविसित्ता पुरित्थिमिल्लेणं आलोए जिणपडिमाणं पणामं करेति पणामं करेत्ता लोमहत्थगं तिसोपाणपडिरूवगएणं पच्चोरुहति पचोरुहइत्ता हत्थं पादं गेण्हति लोमहत्थगंगेण्हित्ता जिणपडिमाओलोमहत्थएणं पमज्जति पक्खालेति पक्खालेत्ता एगं महं सेतं रयतामयं विमलसलिल- पमजित्ता सुरमिणा गंधोदएणं ण्हा (वे) णेतिण्हा (वे) णेत्ता दिव्वाए पुण्णं मत्तगयमहामुहाकितिसमाणं भिंगारं पगेण्हति पगेण्हित्ता सुरभिगंधकासाइएगाताईलूहेति लूहेत्ता सरसेणं गोसीसचंदणेणं जाई उप्पलाइं पउमाइं० जाव सतसहस्सपत्ता इं ताइं गिण्हति गाताई अणुलिंपइ अणुलिंपेत्ता जिणपडिमाणं अहहयाई सेताई गिण्हित्ता गंदातो पुक्खहरणीतो पञ्चुत्तरेइ पञ्चुत्तरेत्ता जेणेव दिव्वाइंदेवदूसजुयलाई णियंसेइ नियंसेत्ता अग्गेहिं वरेहिय गंधेहि सिद्धायतणे तेणेव पहारेत्थ गमणाए। य मल्लेहि य अचेति अवेत्ता पुप्फारुहणं गंधरहणं मल्लारुहणं 'तए ण' मित्यादि, ततः स विजयो देव: पुस्मकरत्नं गृह्णाति गृहीत्वा वण्णारहणं चुण्णरुहणं आभारणारुहणं करेत्ता आसत्तोसत्तविउलपुस्ततकरत्नमुत्सङ्गादाविति गम्यते मुञ्चति मुक्त्वा विघाटयति | वट्ठवग्धारितमलदाम० करेति करेत्ता अच्छेहि सण्हेहिं (सेएहिं) र
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________________ लवणसमुद्द 634 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लवणसमुह ययामएहिं अच्छरसातंदुलेहिं जिणपडिमाणं पुरतो अट्ठ मंगलए आलिहति सोत्थियसिरिवच्छ० जाव दप्पण अट्ठट्ठ मंगलगे आलिहति आलिहिता॥ 'तएण' मित्यादि, ततस्तस्य विजयस्य देवस्य चत्वारि सामानिकदेवसहस्राणि चतस्रः सपरिवारा अग्रमहिष्य तिस्रः पर्षदः, सप्तानीकानि, सप्तानीकाधिपनतयः, षोडशात्मरक्षदेवसहस्राणि अन्ये च बहवो विजयराजधानीवास्तव्या वानमन्तरा देवाश्च द्रव्यश्च आप्येकका उत्पलहस्तगता, अप्येकका: पद्महस्तगता, अप्येकका: कुमुदहस्तगता:, एवं नलिनसुभगसौगन्धिकपुण्डरीकमहापुण्डरीकशतपत्रसहस्रपत्रशमसहस्रपत्रहस्तगता: क्रमेण प्रत्येकं वाच्या:, विलयं देवं पृष्ठतः पृष्ठतः परिपाट्येति भावः अनुगच्छन्ति॥'तएण' मित्यादि, ततस्य विजयस्य देवस्य बीव आभियोग्या देवा देवव्यश्च अप्येकका वन्दनकलशहस्तगताः, अप्येकका भृङ्गारहस्तगताः, अप्येकका आदर्शहस्तगता:,एवं स्थालपात्रीसुप्रतिष्ठवातकरकरकचित्ररत्नकरण्डकपुष्पचङ्गेरीयावल्लोमहस्तचङ्गे रीपुष्पपटलकयावल्लोमहस्तपटलकसिंहासनच्छत्रचामरतैलसमुद्रकयावदञ्जनसमुद्रकधूपकडुच्छुकहस्तगताः क्रमेण प्रत्येकमालाप्यो:, विजयं देवं पृष्ठतः पृष्ठतोऽनुगच्छन्ति। ततः स विजयो देवश्चतुर्भि: सामानिकसहजैश्चसृभिः सपरिवाराभिरामहिषीहभस्तिसृभिः पर्षद्भिः, सप्तभिरनीकैः, सप्तभिरनीकाधिपतिभिः, षोडशभिरात्मरक्षवैदद्रवीभिश्च सार्द्ध संपरिवृतः सर्वद्धर्य 'जाय निग्घोसनादितरवेण' मिति यावत्करणादेवं परिपूर्णः पाठो द्रष्टव्य:-'सव्यजुईए सव्वबलेण सव्वसमुदएणं सव्वविभूईए सव्वसंभमेणं सव्वपुप्फगंधमल्लालंकारेणं सव्वतुडियसद्दनिनाएणं महया इड्डिीय महया जुईया महया बलेणं महया समुदएणं महया वरतुडियजमगसमगपडुप्पवा-इयरवेणं संखपणपडहभेरिझल्लरिखरमुहिदुक्कदुंदुभिनिग्धोस-नादितरवेणं' अस्य व्याख्या प्राग्वत्। तत्रैव सिद्धायतनं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य सिद्धायतनमनुप्रदक्षिणीकुर्वन् पूर्वद्वारेण प्राविशति, प्रविश्यालोक्य जिनप्रतिमानां प्रणामं करोति, कृत्वा यत्रैव मणिपीठिका यत्रैव देवच्छन्दको यत्रैव / जिनप्रतिमास्तत्रोपागच्छति, उपागत्य लोमहस्तकं परामृशति, परामृश्य च जिनप्रतिमाः प्रमार्जयति, प्रमाद्यं दिव्ययोदकधारया स्नपयति, स्नपयित्वा सरसेनाइँण गोशीर्षचन्द्रनेन गात्राण्यनुलिम्पति, अनुलिप्य अहतानि-अपरिमलितानि दिव्यानि देवदूष्ययुगलानि 'नियंसइ' त्ति परिधापयतिपरिधाप्य अप्रैः-अपरिभुक्तैः वरैः-प्रधानैर्गधर्माश्चार्चयति। एतदेव सविस्तरमुपदर्शयति-पुष्पारोपणं माल्यारोपणं वर्णकारोपणं चूर्णारोपणं गन्धारोपणम् आभरणारोपणं (च) करोति, कृत्या तासां जिनप्रतिमानांपुरतः अच्छः-स्वच्छः श्लच्णैः-मसृणैः रजतमयः, अच्छो रसो येषां तेऽच्छरसाः, प्रत्यासन्नवस्तुप्रतिबिम्बाधारभूता इवामिनिर्मला इति भावः, ते च ते तन्दुलाश्चाच्छरसतन्दुला:, पूर्वपदस्य दीर्धान्तता | प्राकृलत्यात्, यथा-'वइरामया नेमा, इत्यादी, तैरष्टावष्टौ स्वस्तिकादीनि मङ्गलकान्यालिखति, आलिख्य। कयग्गाहग्गहितकरतलपडभट्ठविप्पमुक्के णं दसद्धवनेणं कुसुमेणं मुक्कपुप्फपुंजोवयारकलितं करेति करेत्ता चंदप्पभवइरवेरुलियविमलदंड कंचणमणिरयणभत्तिचित्तं कालागुरुपवरकुंदुरुक्कतुरुकधूवगुधुत्तमाणुविद्धं घूमवट्टि विवणिम्भुयंत वेरुलियामयं कडुच्छुयं पग्गहित्तु पयत्तेण धूवं दाऊण जिणवराणं अट्ठसयविसुद्धगंथजुत्तेहिं महावित्तेहिं अत्थजुत्तेहिं अपुणरुत्तेहिं संथुणइ संथुणइत्ता सत्तह पयाई ओसरति सत्तड पयाइं ओसरित्ता वाडं जाणु अंचेइ अंचेइत्ता दाहिणं जाणुंधरणितलंसि णिवाडेइ तिक्खुत्तो धरणिलंसि णमेइ नमित्ताईसिं पचुण्णमति पचुण्णमतित्ता कडयतुडियथांभियाओं भुयाओ पडिसाहरति पडिसाहरतित्ता करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं अंजलिं कट्ट एवं वयासी'कयग्गाहगिय' मित्यादि मैथुनप्रथमसंरम्भे मुखचुम्बनाद्यर्थं युवत्याः पञ्चाङ्गुलिभिः केशोषु ग्रहणं कचग्राहस्तेन कचग्राहेण गृहीतं करतलाद्विमुक्तं सत्प्रभ्रष्ट करतलप्रभ्रष्टविमुक्तम्, प्राकृतत्वादेवं पदव्यत्यश्यः, तेन दशार्द्धवर्णेनपञ्चवर्णेन कुसुमेनकुसुमसमूहेन पुष्पुञ्जोपचारकलितमम्पुष्पपुञ्ज एवोपचार:-पूजा पुष्पपुञ्जोपचारस्तेन कलितंयुक्तं करोति, कृत्वा च 'चंदप्पभवइरवेरुलियविमलदंड' चन्द्रप्रभवजडूर्यमयो विमलो दण्डो यस्यस तथा तं, काञ्चनमणिरत्नभक्तिचित्रं कालागुरुप्रवरकुन्दुरुष्कतुरुष्कधूपेनगन्धोत्तमेनानुविद्धा कालागुरुप्रवरकुन्दुरुष्कतुरुष्कधूपगन्धोत्तमानुविद्धा, प्राकृतत्वा त्पदव्यत्ययः, तां धूपवर्त्ति विनिर्तुञ्चन्तं वैडूर्यमयं धूपकडुच्छुकं प्रगृहतो धूपं दत्त्वा जिनवरेभ्य:, सूत्रेषष्ठी प्राकृतत्वात्, सप्ताष्टौ पदानि पश्ख्चादपसृत्य दशाङ्गुलिमञ्जलिं मस्तके कृत्वा प्रयतः 'अट्ठसयविसुद्धगंठजुत्तेहिं' इति विशुद्धोनिर्मलो लक्षणदोषरहित इति भावः, यो ग्रन्थ:-शब्दसंदर्भस्तेन युक्तानि विशुद्धग्रन्थयुक्तानि अष्टशतंचतानि विशुद्धग्रन्थयुक्तानि च तैः अर्थायुक्तै:-अर्थासारै अपुनरुक्तैः महावृत्तः, तथा विधदेवलब्धे प्रभाव एषः, संस्मौति संस्तुत्यं वाम जानुम् अञ्चति-उत्पाटयति दक्षिणं जानु धरणितले 'निवाडेइ, इति निपातयति लगयतीत्यर्थः, त्रिः कृत्वात्रीन वारान् मुर्धानं धरणितले 'नमेइ' त्तिनमयति नमयित्वा चेषत्प्रत्युन्नमयति, ईषत्प्रत्युन्नम्य कटकत्रुटितस्तम्भितौ भुजौ संहरति-सङ्कोख्यति, संहृत्य करतलपरिगृहीतं शिरस्यावत मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वैवमवादीत् णमोऽऽत्थुणं अरिरहताणं भगवंताणं० जाव सिद्धिगइणामधेयं ठाणं संपत्ताणं। 'नमोऽत्थुण मित्यादि, नमोऽस्तु णमिति वाक्यालङ्कारे देवादिभ्योऽतिशयपूचामर्हन्तीत्यर्हन्तस्तेभ्यः, सूत्रेषष्ठी "छद्धिविभत्तीऍ भन्नइच उत्थी" इति प्राकृतलक्षणात, ते चाहन्तो नामादिरूपा अपि सन्ति ततो भावाईत्प्रतिपत्त्यर्थमाह-'भग-वढ्य:- भगः-समयवर्यादिलक्षणःसएषामस्तीतिभ
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________________ लवणसमुह 635 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लवणसमुद्द गवन्तस्तेभ्यः, आदिक्षधर्मस्य प्रथमा प्रवृत्तिस्तत्करणशीला आदि- येषां ते धर्मवरचतुरन्तचक्रवर्त्तिनस्तेभ्यः, तथा अप्रतिहते- अप्रतिकरास्तेभ्यः, तीयते संसारसमुद्रोऽनेनति तीर्थं तत्करणशीलास्तीर्थक- स्खलिते क्षायिकत्वाद् वरे प्रधाने ज्ञानदर्शने धरन्तीति अप्रतिहतवररास्तेभ्यः, स्वयमम्अपरोपदेशेन सभ्यग्वरोधिप्राप्त्या बुद्धा मिथ्यात्व- ज्ञानदर्शनधरास्तेभ्यः, तथा छादयति-आवरयतीति छद्मघातिकर्मनिद्रापगमसम्बोधेन स्वयं संबुद्धास्तेभ्यः, तथा पुरुषाणामुत्तमाः पुरुषो- चतुष्टयं व्यावृत्तमम्अपगतं छायेभ्यस्ते व्यावृत्तछद्मानस्तेभ्यः, तथा त्तमाः, भगवन्तो हिसंसारमप्यावसन्तः सदा परार्थव्यसनिन उपसर्जनी- रागद्वोषकषायेन्द्रिपरिषहोपसर्गघातिकर्मशत्रून् जितवन्तो जिनाः कृतस्वार्थी उचितक्रियावन्तोऽदीनभावा: कृतज्ञतापतयोऽनुपहतचित्ता अन्यात् जापयन्तीतिजापकास्तेभ्यो जिनेभ्यो जापकेभ्य:,तथा भवार्णवं देवगुरुबहुमानिन इति भवन्ति पुरुषोत्तमास्तेभ्य:, तथा पुरुषा: सिंहाइव स्वयं तीणि अन्यांश्च तारयन्तीति तीस्तारकास्तेभ्यः, तथा केवलकर्मगजान प्रति पुरुषसिंहास्तेभ्यः, तथा पुरुषा वरपुण्डरीकाणीब वेदेन अवगततत्त्वा बुद्धा अन्यांश्च बोधयन्तीति बोधकास्तेभ्य:, मुक्ता:संसारजलासङ्गादिनाधर्मकलापेनेति पुरुषवरपुण्डरीकाणि तेभ्यः, तथा कृतकृत्या निष्ठितार्था इति भावः, अन्यांश्च मोचयन्तीति मोचकास्तेभ्य:, पुरुषा वरगन्धहस्तिन इव परचक्रदुर्भिक्षमारिप्रभृतिक्षुगजनिराकरणेनेति सर्वज्ञेभ्य: सर्वदर्शिभ्य: शिव-सर्वोपद्रवरहितत्वात्, अचलमम्स्वाभाविपुरुषवरगन्ध-हस्तिनस्तेभ्यः, तथा लोकोभव्यसत्त्वलोकस्तस्य सकल कप्रायोगिक चलनक्रियाव्यपोहात्, अरुजमम्शरीरमनसोरभावेनाऽऽ.. कल्याणैकनिबन्धनतया भव्यत्वभावेनोत्तमा लोकोत्तमास्तेभ्यः, तथा धिव्याध्यसम्भवात् अनन्तं-केवलात्मनाऽनन्तत्वात्, अक्षयमविनाशलोकस्य-भव्यलोकस्य नाथा-योगक्षेमकुतो लोकनाथास्तेभ्यः, तत्र कारणाभावात्, अव्याबाधमम्केनापि बिबाधयियतुमशक्यत्वात्, न योगो-बीजधानोद्भदपोषणकरणं क्षेमं तदुपद्रवाद्यभावापादनम्, तथा पुनरावृत्तिर्यस्मात्तददपुनरावृत्ति, सिध्यन्तिनिष्ठितार्था भवत्यस्यामिति सिद्धिः-लोकान्तक्षेत्रलक्षणा सैव गम्यमानत्वाद् गति : सिद्धिगतिः / लोकस्य-प्राणिलोकस्यपञ्चास्तिकायात्मकस्य वा हितोपदेशेन सम्यक सिद्धिगतिरिति नामघेयं यस्य तत्सिद्धिगतिनामधेयम्, तिष्ठत्यस्मिन्निति प्ररूपणया वा हिता लोकहितास्तेभ्य:, तथा लोकस्य देशनायोग्यस्य स्थान-व्यवहारितः सिद्धक्षेत्रं निश्चयतो यथाऽवस्थितं स्वं स्वरूपं, विशिष्टस्य प्रदीपा देशनांशुभिर्यथाऽवस्थितवस्तुप्रकाशका लोक स्थानस्थानिनोरभेददोपचारात्तु सिद्धिगतिनामधेयं तत्संप्राप्तेभ्यः / प्रदीपास्तेभ्यः, तथा लोकस्य-उत्कृष्टमते भव्यसत्त्वलोकस्य प्रद्योतनं ति कई वंदति णमंसति वंदित्ता णमंसित्ता जेणेव सिद्धाायप्रद्योतःप्रद्योतकत्व-विशिष्टज्ञानशक्तिस्तत्करणशीला लोकप्रद्येतकरा:, तणस्स बहुमज्झदेसभाए तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता तथा च भवन्ति भगवत्प्रसादात् तत्क्षणमेव भगवन्तो गणभृतो विशिष्ट दिवाए उदगधाराए अब्भुक्खति अन्भुक्खित्ता सरसेणं ज्ञानसम्पत्समन्विता यद्वशाद द्वादशाङ्गमारचयन्तीति तेभ्यः, तथा गोसीसचंदणेणं पंचंगुलितलेणं मंडलं आलिहति आलिहित्ता अभयं-विशिष्टमात्मनः स्वास्थ्यं निःश्रेयसधर्मभूतिकानिबन्धनभूता वचएदलयति वचए दलयित्ता कयग्गाहग्गहियकरतलपब्मट्ठविपरमा धृतिरिति भावः, तद् अभयं ददतीत्यभयदास्तेभ्यः, सूत्रे च मुक्केणं दसवण्णेणं कुसुमेण मुक्कपुप्फपुंजोवयारकलियं कप्रत्यय: स्वार्थिकः प्राकृतलक्षणवशात्, एवमन्यत्रापि, तथा चक्षुरिव करेति करेत्ता धूवं दलयति दलयतित्ता जेणेव सिद्धायतण्रास्स चक्षुः-विशिष्ट आत्मधर्मस्तत्त्वावबोधनिबन्धनं श्रद्धास्वभावः श्रद्धा दाहिणिल्ले दारे तेणेव उवागच्छति उवागच्छति उवागच्छित्ता विहीनस्याचक्षुष्मत इव तत्त्वदर्शनायोगात्, तद्ददतीति चक्षुस्तेिभ्य:, लोमहत्थयं गेण्हइ गेण्हित्ता दारचेछीओ य सालिभंजियाओ य तथा मार्गो विशिष्टगुणस्थानावाप्तिप्रगुण: स्वरसवाही क्षयोपशमविशेषस्तं वालरूवए य लोमहत्थएणं पमञ्जति पतज्जित्ता बहुमज्झदेस भाए ददतीति मार्गदास्तेभ्य: तथा शरणं-संसारकान्तारगतानामतिप्रबल सरसेणं गोसीसचंदणेणं पंचंगुलितलेणं अणुलिंपति अणुलिंपित्ता रागादिपीडितानां समाश्वसनस्थानकल्पं तत्त्वचिन्तारूपमध्यवसानं चचएदलयति दलयित्ता पुष्फारुहणं० जाव आहरणारुहणं करेति तददतीति शरणदास्तेभ्यः, तथा बोधि: जिनप्रणीतधर्मप्राप्तिस्तां करेत्ता आसत्तोसत्तविपुल०जाव मल्लदामकलावं करेति करेत्ता तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणसम्यग्दर्शनरूपां ददतीति बोधिदास्तेभ्य:, तथा कयग्गाहग्गहित० जाव पुंजोवयारकलितं करेति करेत्ता धूवं धर्मचारित्ररूपं ददतीति धमग्दास्तेभ्यः, कथं धर्मदा:? इत्याह-धमा दलयति दलयित्ता जेणेव मुहम्रडवस्स बहुमज्झदेसभाए तेणेव दिशन्तीति धर्मदेशकास्तेभ्य:, तथा धर्मास्य नायका:-स्चामिनस्तद्वशी उवागच्छति उवागच्छित्ता बहुमज्झ्देसभाए लोमहत्येणं पमञ्जति करणात्तत्फलपरिभोगाच धर्मनायकास्तेभ्यः, धर्मस्य सारथय इव पमञ्जित्ता दिव्वाए उदगधाराए अभुक्खेति अन्मुक्खित्ता सरसेणं सम्यक्प्रवर्तनयोगेनपधर्मसारसारथयस्तेभ्यः, तथा धर्ममेव वरं प्रधानं गोसीसचंदणेणं पंचंगुलितलेणं मंडलगं आलिहति आलिहिताचचए चतुरन्तहेतुत्वात् चतुरन्त, चतुरन्तं चक्रमिव चतुरन्तचक्रं तेनवर्तितुंशीलं | दलयति दलयित्ता कयग्गाह० जाव धूर्व दलयति दलयित्ता जेणेव
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________________ लवणसमुद्द 636 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लवणसमुह मुहमंडवगस्स पञ्चस्थिमिल्ले दारे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता लोमहत्थगं गेण्हति गेण्हित्ता दारचेडीओय सालिभेजिजयाओ य वालरूवए य लोमहत्थगेण पमज्जति पमजित्ता दिव्वाए उदगधाराए अब्भुक्खेति अब्मुक्खित्ता सरसेणं गोसीसचंदणेणं० जाव चचएदलयति दलयित्ता आसत्तासत्त० कयग्गह धूवे दलयति दलयित्ता जेणेव मुहमंडवस्स उत्तरिल्ला णं खंभपंती तेणेव उवागच्छइ एवागच्छित्ता लोमहत्थगं परा० सालभंजियाओ दिव्वाए उदगधाराए सरसेणं गोसीसचंदणेणं पुप्फारुहणं० जाव आसत्तोसत्त० कयग्गाह० धूवं दलयति जेणेव मुहमंडपवस्स पुरथिमिल्ले दारे तं चेव सव्वं भाणियव्वं० जाव दारस्स अचणिया, जेणेव दाहिणिल्ले दारे तं चेव जेणेव पेच्छाघररमंडवस्स बहुमज्झदेसभाए जेणेव वइरामए अक्खाडए जेणेव मणिपेढिया जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता लोमहत्थं गिण्हति लोमहत्थगं गिण्हित्ता अक्खाडगंच सीहासणं च लोमहत्थगेण पमजति पमञ्जित्ता दिव्वाए उदगधाराए अब्भु० पुप्फारुहणं० जाव धूवं दलयति जेणेव पेच्छाघरमंडवपच्चथिमिल्ले दारे दारचणिया उत्तरिल्ला खंभपंती तहेव पुरस्थिमिल्ले दारे तहेवजेणेव दाहिणिल्ले दारे तहेव जेणेव चेतियथूमे तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता लोमहत्थगं गेण्हति गेण्हित्ता चेतियथूमं लोमहत्थएणं पमञ्जतिपमजित्ता दिव्वाए उदगधाराए सरसेण पुप्फारुहणं आसत्तोसत्त० जाव धूवं दलयति दलयित्ता जेणेव पचत्थिमिल्ला मणिपेढिया जेणेव जिणपडिमा तेणेव उवागच्छति जिणपडिमाए आलोएपणामं करेइ करेत्ता लोमहत्थगं गेण्हति गेण्हित्ता तं चेव सव्वं जं जिणपडिमाणं० जाव सिद्धिगइनामधेचं ठाणं संपत्ताणं वंदति णमंसति, एवं उत्तरिल्लाए वि, एवं पुरथिमिल्लाए वि, एवं दाहिणिल्लाए वि। एवं प्रणिपातदण्डकं पठित्वा 'वंदइ नमसई' इति वन्दते ताः प्रतिमाश्चैत्यवन्दनविधिना प्रसिद्धेन, नमस्करोतिपश्चात्प्रणिधानादियोगेनेत्येके, अन्ये त्वभिदधतिविरतिमतामेव प्रसिद्धश्चैत्यवन्दनविधिरन्येषां तथाऽभ्युपगमे कायोत्सर्गासिद्धेरिति वन्दते सामान्येन, नमस्करोत्याशयवुद्धेरुत्थाननमस्कारेणेति, तत्त्वमत्र भगवन्तः परमर्षय: केवलिनो विदन्ति, ततो वन्दित्वा नमस्यित्वा यत्रैव सिद्धायतनस्य बहुमध्यदेशभगस्तत्रैवोपागच्छति उपागत्य बहुमध्यदेशभागं दिव्ययोदकधारया अभ्युक्षति-अभिमुखं सिञ्चति, अभ्युक्ष्य सरसेन गोशीर्षचन्दनेन पञ्चाङ्गुलितलंददाति, दत्त्वा कचग्राहगृहीतेन करतलप्रभ्रष्टविमुक्तेन दशार्द्धवर्णन कुसुमेन-कुसुमजाजेन पुष्पपुजोपचारकलितं करोति कृत्वा धूपं ददाति, दत्त्वा च यत्रैव दाक्षिणात्यं द्वारं तत्रैवोप्रागच्छति, उपागत्य लोमहस्तकं गृह्णाति, गृहीत्वा तेन द्वारशाखाशालभञ्जिकाट्यालरूपकाणि च प्रमार्जयति, प्रमृज्य दिव्ययोदकधारयाऽभ्युक्षणं गोशीर्षचन्दनचर्चा पुष्पाद्यारोपणं धूपदानं करोति, ततो दक्षिणद्वारेण निर्गत्य यत्रैव दाक्षिणा त्यस्य मुखमण्डपस्य बहुमध्यदेशभागस्तत्रोपागच्छति, उपागत्यलोमहस्तकं परामृशति, परामृश्य च बहुमध्यदेशभाग लोमहस्तकेन प्रमार्जयति, प्रमूज्य दिव्ययांदकछारयाऽभ्युक्षणं सरसेन गोशीर्षचन्दनेन पञ्चाङ्गुलितलं मण्डलमालिखति, कचग्राहीतेन करतलप्रभ्रष्टविमुक्तेन दशार्द्धवर्णेन कुसुमेन पुष्पुञोपवचारकलितं करोति, कृत्वाधूपं, दत्त्वा च यत्रैव दाक्षिणात्यस्य मुखमण्डपस्य पश्चिमं द्वारं तत्रोपागच्छति, उपागत्य लोमहस्तपरामर्शनं तेन चलोमहस्तकेनद्वारशाखाशालभञ्जिकाव्यालरूपकप्रमार्तनम्, उदकधारयाऽभ्युक्षणं गोशीर्षचन्दनचर्चा पुष्पाद्यारोपणं धूपदानं करोति, कृत्या यत्रैव दाक्षिणात्यस्य मुखमण्डपस्योत्तरिद्वारं तत्रोपागच्छति, उपागत्य, पूर्ववद्वारार्चनिकां करोति, कृत्याच यत्रैव दाक्षिणात्यस्य मुखमण्डपस्य पूर्वद्वारं तत्रोपागच्छति, उपागत्य पूर्ववत्तत्राप्यर्चनिकां करोति, कृत्वा च दाक्षिणात्यस्य मुखमण्डपस्य यत्रैव दाक्षिणात्यं द्वारं तत्रोपागच्छति, उपागत्य पूवग्यत्तत्र पूजा विधाय तेन द्वारेण विनिर्गत्य यत्रैव दाक्षिणात्य: प्रेक्षागृहमण्डपो यत्रैव दाक्षिणात्यस्य प्रेक्षागृहमण्डपस्य बहुमध्यदेशभागे यत्रैव वज्रमयोऽक्षपाटको यत्रैय च मणिपीठिका यत्रैव च सिंहासनं तत्रैवोगच्छति, उपागत्य लोमहस्तकं परामृशति, परामृश्याक्षपाटकं मणिपीठिका सिंहासनं च प्रमार्जयति, प्रमाोदकधारयाऽभ्युक्ष्य चन्दनचर्चा पुष्पपूजां धूपदानं च करोति कृत्वा च यत्रैव दाक्षिणात्यस्य प्रेक्षागृहमण्डपस्योत्तरद्वारं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य पूर्ववद् द्वारार्च निकां करोति कृत्वा यत्रैव दाक्षिणात्यस्य प्रेक्षागृहमण्डपस्य पूर्वद्वारं तत्रोपागच्छति, उपागत्य पूर्वद्वाराचनिका करोति, कृत्वा यत्रैव तस्य दाक्षिणात्यस्य प्रेक्षागृहमण्डपस्य दाक्षिणात्यं द्वारं तत्रोपागच्छति, उपागत्य तत्रानिकां कृत्वायत्रैव दाक्षिणात्यश्चैत्यस्तम्भस्तत्रोपागच्छति उपागत्य स्तूपं मणिपीठिकां च लोमहस्तकेन प्रमृज्य दिव्ययोदकधारयाऽभ्युक्षति सरसगोशीर्षचन्दनचर्चा पुष्पाद्यारोहणधूपदानादि करोति, कृत्वा च यत्रैव पाश्चात्या मणिपीठिका यत्रैव च पाश्चात्या जिनप्रतिमा तत्रोपागच्छति, उपागत्य जिनप्रतिमाया आलोके प्रणामं करोतीत्यादि पूर्ववद्द्यावन्नमस्यित्वायत्रैवोत्तरा जिनप्रतिमा तत्रोपागच्छति, उपागत्य तत्रापि यावन्नकस्यित्वा यत्रैव पूर्वा जिनप्रतिमा तत्रोपागच्छति उपागत्य पूर्ववद् यावन्नमस्यित्वा यत्रैव दाषिणात्या जिनप्रतिमा सर्वं यावन्नमस्यित्या।। जेणेव चेइयरुक्खा दारविही य मणिपेठिया जेणेव महिंदज्झए दारविहि, जेणेव दाहिणिल्ला नंदापुक्खरिणी तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता लोमहत्थगं गेण्हति चेतियाओ य तिसोपाणपडिरूवए य तोरणे य सालभंजियाओं य बालरूवए य लोमहत्थएण पमजति पमजित्ता दिव्वाए उदगधाराए सिंचति सरसेणं गोसीसचंदणेणं अणुलिंपति अणुलिंपित्ता पुप्फारुहणं० जाव धूवं दलयति दलयित्ता सिद्धायतणं अणुप्पयाहिणं करेमाणे जेणेव उत्तरिल्लाणंदापुक्खरिणी-तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता तहेव महिंदज्झया चेतियरुक्खो चेतियथूभे पचत्थिमिल्ला महणपेढिया जिणपहिमा उत्तरिल्ला पुरित्थिकमल्ला दविखणिल्ला पेच्छा
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________________ लवणसमुद्द 637 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लवणसमुद्द धरमंडबस्स वि तहेव जहा दक्खिणिल्लस्स पञ्चस्थिमिल्ले दारे | तहा जेणेव बलिपीढं तेणेव उवाच्छति उवागच्छित्ता आभिओगे जाव दक्खिणिल्ला णं खंभपुती मुहमंडवस्स वि तिण्हं दाराणं देवे सद्दावेति सद्दावेत्ता एवं क्यासीअचणिया भणिऊण दक्खिणिरल्ला णं खंभपुती उत्तरे दारे यत्रत दाक्षिणात्यश्चैत्यवृश्स्तत्रोपागच्छति, उपागत्य पूर्ववदनिका पुरत्थि दारे सेसं तेणेव कमेण० जाव पुरथिमिल्ला गंदापु- करोति, कृत्वा च यत्रैव महेन्द्रध्वजस्तत्रोपागच्छति, उपागत्य पूर्ववदक्खरिणी जेणेव सभा सुधम्मा तेणेव पहारेत्थगमणाए।। तते णं चनिकां विधाय यत्रैव दाषिणाल्या नपन्दापुष्करिणी तत्रैवोपागच्छति तस्स विजयस्स चत्तारि सामाणियसाहस्सीओ एयप्पभिति० जाव उपागत्य लोमहर तक परामृशति परामृश्य तोरणानि त्रिसोपानप्रतिरूपसव्विड्डीए ०जाव णाइवरवेणं जेणेव सभा सुहम्मा तेणेव / काणि शालमजिकाव्यालरूपकाणि च प्रमार्जयति, प्रमा| दिव्योउवागच्छति एवागच्छित्ता तं णं सभं सुधम्म अणुप्पयाहिणी दकधारया सिशति, सिक्त्वा सरसगोशीर्षचन्दनपञ्चाङ्गलितलप्रदानकरेमाणे अणुप्पयाहिणीकरेमाणे पुरथिमिल्लेणं अणुपविसति पुष्पाधारोहणधूपदानादिकरोति, कृत्वा च सिद्धायतनमनुप्रददक्षिणीअणुपविसित्ता आलोए; जिणसकहाणं पणामं करेति पणाम कृत्य यत्रैवोतरानन्दापुष्करिणी सतत्रोपागच्छति, उपागत्य-पूर्ववत् सर्व करेत्ता तेणेव मणिपेढिया जेणेव माणवगचेतियक्खंभे जेणेव करोति, कृत्वा चौतराहे माहेन्द्रध्वजे तदनन्तरमोत्तराहे चैत्यवृक्षे तत वइरामया गोलवट्टसमुग्गका तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता ओतराहे चैत्यरतूपे, ततः पश्चिमोत्तरपूर्वदक्षिण-जिनप्रतिमासु पूर्ववलोमहत्थयं गेण्हति गेणहित्ता वइरामए गोलवट्टसमुग्गए लोम (सर्वा वक्तव्यता वक्तव्या, तदनन्तरमौत्तराहे प्रेक्षागृहमण्डपे समागच्छति, रात्र दाक्षिणात्ये प्रेक्षागृहमण्डपे पूर्ववत्सर्वं वक्तव्यम्, तत उत्तरदारण हत्थएणं पमज्जति पमज्जित्ता वइरामए गोलवट्टसमुग्गए विहाडेति विनिर्गत्यौत्तराहे मुखमण्डपे समागच्छति, तत्रापि दाक्षिणात्यमुखमण्डविहाढित्ता जिणसकहाओ लोमहत्थएणं पमजति पमनित्ता पवत्सर्वं कुत्वोत्तरद्वारेण विनिर्गत्य सिद्धायतनस्य पूर्वद्वारे समागच्छति, सुरभिणा गंधोदएणं तिसत्तखुत्तो जिणसकाओ पक्खालेति तत्राचैनिकां पूर्ववत्कृत्वा पूर्वस्य मुखमण्डपस्य दक्षिणोत्तरपूर्वद्वारेषु पक्खालेत्ता सरसेणं गोसीसचंदणेणं अणुलिंपइ अणुलिंपित्ता क्रगणो करूया पूजां विधाय पूर्वद्वारेण विनिर्गत्य पूर्वप्रेक्षामण्डपे समागत्य अग्गेहिं वरेहिं गंधेहिं मल्लेहि य अचिणति अचिणइत्ता धूयं पूर्ववदनिकां करोति, ततः पूर्वप्रकारेणैव क्रमेण चैत्यस्तूपजिनप्रतिमादलयति दलयित्ता वइरामएसु गोलबट्टसमुग्गएसु पडिणिक्खिवति चैत्यवृक्ष-माहेन्द्रध्वजनन्दापुष्करिणीनां ततः सभायां सुधमायां पूर्वद्वारण पडिणिक्खवित्ता माणवकं चेतियखंभं लोमहत्थएणं पमज्जति प्रविशति, प्रविश्य यत्रैव मणिपीठिका तत्रैवोपागच्छति, उपागत्यालोके पमञ्जित्ता दिव्वाए उदगधाराए अब्भुक्खेइ अब्भुक्खेत्ता सरसेणं जिनसक्थ्ना प्रणामं करोति, कृत्वा च यत्र माणवकश्चैत्यस्तम्भो यत्र गोसीसचंदणेणं चचए दलयति दलयित्ता पुप्फारुहणं० जाव वज्रमया गोलवृत्ताः समुद्रकास्तत्रागत्य समुद्रकान् गृह्णाति, गृहीत्वा च आसत्तोसत्त० कयग्गाह० धूवं दलयति दलयित्ता जेणेव सभाए विधाटयति, विधाट्यलोमहस्तकेन प्रमार्जयति, प्रमार्योदकधारयाऽसुधम्माए बहुमज्झदेसभाएतं चेव जेणेव सीहासणे तेणेव जहा भ्युक्षति, अभ्युक्ष्य गोशीर्षचन्दनेनानुलिम्पति, ततः प्रधानर्गन्धमाल्यैरदारचणिता जेणेव देवसयणिजे तं चेव जेणेव खुड्डागे महिंदज्झए चयति, अर्चयित्वा धूप दहति, तदनन्तरं भूयोऽपि वज़मयेषु गोलवृत्ततं चेव जेणेव पहरणकोसे चोप्पाले तेणेव उवागच्छति उवाग समुद्रकेषु प्रक्षिपति, प्रक्षिप्य तान् वजभयान् गोलवृत्तसमुद्रकान् च्छित्ता पत्तेयं पत्तेयं पहरणाई लोमहत्थएणं पमज्जति पमञ्जित्ता स्वास्थाने प्रतिनिक्षिपति, प्रतिनिक्षिप्य तेषु पुष्पगन्धमाल्यचस्वाभरणासरसेणं गोसीसचंदणेणं तहेव सव्वं सेसं पि दक्खिणदारं आदि न्यारोपयति, ततो लोमहस्तकेन माणवकचैत्यस्तम्भं प्रमाज्याद्रदकधाकाउंतहेवणेयव्वं० जाव पुरथिमिल्ला णंदापुक्खरिणी सव्वाणं रयाऽभ्युक्ष्य वन्दनचर्चा पुष्पाद्यारोपण धूपदानं च करोति, कृत्वा सभाणं जहा सुधम्माए सभाएतहा अच्चणिया उववायसभाएणवरि सिंहासनप्रदेश समागत्या सिंहासनस्य लोमहस्तकेन प्रमार्जनादिरूपा देवसयणिज्जस्स अचणिया सेसासु सीहासणाण अचणिया पूर्ववदर्चनिका करोति, कृत्वा यत्र मणिपीटिका यत्र च देवशयनीयं तत्रोपागत्य हरयस्स जहा णंदाए पुक्खरिणीए अचणिया ववसायसभाए मणिपीठिकाया देवशयनीयस्य च प्राग्वदर्चनिकां करोति, ततउक्तप्रकारेणैव पोत्थयरयणं लोमहत्थएणं दिव्वाए उदगधाराए सरसेणं क्षुल्लकेन्द्रध्वजपूजां करोति, कृत्वा च यत्र चोप्पालको नाम प्रहरणगोसीसचंदणेण अणुलिंपति अग्गेहिं वरेहिं ग्रधेहिं य मल्लेहि य कोशस्तत्र रामागत्य लोमहरतेन परिघरत्नप्रमुखाणि प्रहारणरत्नानि अचिणति अधिणित्ता (मल्लेहि) सीहासणे लोमहत्थएणं प्रमार्जयति, प्रमाज्योदकधारयाऽभ्युक्षण चन्दनचर्चा पुष्पाद्यारोपणं धूपदानं पमज्जति० जाव धूवं दलयति सेसं तं चेव णंदाए जहा हरयस्स | काति, कृत्वा सभायाः सुधर्माया बहुमध्यदेशभागेऽर्चनिका पूर्ववत्करोति,
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________________ लवणसमुद्द 638 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लवणसमुह क. भिाया: सुधमन्या दक्षिणद्वारे, समागत्यार्चनिका पूर्ववत्करोति, हाता दक्षिणद्वारे विनिर्गच्छति, इत ऊर्ध्व यथेव सिद्धायत-नानिष्कामता दक्षिणद्वारादिका दक्षिणनन्दापुष्करिणीपर्यवसाना पुनरपि प्रविशत उत्तरनन्दापुष्करिणीप्रभृतिका उत्तरान्ता, ततो द्वितीय वर निष्कमतः पूर्वद्वारादिका पूर्वनन्दापुष्करिणीपर्यवसानार्च निका वक्तव्या., तसेच सुधर्मायाः सभाया अप्यन्यूनातिरिक्ता द्रष्टव्या, ततः पूर्वनन्दापुष्करिण्या अर्चनिकां कृत्वोपपातसभा पूर्वद्वारेण प्रविशति, प्रविश्य च मणिपीटिकाया देवशयनीयस्य तदनन्तरं बहुमध्यदेशभागे प्राग्वदनिका विदधाति, ततो दक्षिणक्षरेण सभागत्यतस्यानिकां कुरुते, अनऊयमत्रापि सिहायतनवदृक्षिणद्वारादिका पूर्वनन्दापुष्करिणीपर्यवसाना-5चैनिका वक्तव्याः / ततः पूर्वनन्दापुष्करिणीतोऽपक्रम्य हदे समागत्य पूर्ववतोरणार्चनिकां करोति, कृत्वा पूर्वद्वारेणाभिषेकसभाया प्रविशति, प्रविश्य मणिपीठिकाया: सिंहासनस्याभिषेकभाण्डस्य बहुमध्यदेशभागस्य च पूर्ववदर्च निकां क्रमेण करोति, तदनन्तरमपि सिद्धायतनवदक्षिणदारादिका पूर्वनन्दापुष्करिणीपश्वसानाऽर्चनिका वक्तव्या, ततः पूर्वनन्दापुष्करिणीतः पूर्वद्वारेण व्यवसायसभां प्रविशति प्रविश्य पुस्तकरत्न लोमहस्तकेन प्रमृज्योदकधारयाऽभ्युक्ष्य चन्दनेन चर्चयित्वा वरगन्धमाल्यरचयित्वा पुष्पाद्यारोपणं धूपदानं च करोति, तदनन्तरं मणिपीष्ठिकाया सिंहासनस्य बहुमध्यदेशभागस्य च प्रमेणाचनिका करोति, तदनन्तरमत्रापि सिद्धायतनवद्दक्षिणद्वारादिका पूर्वनन्दापुष्करिणीपर्यवसायाऽनिका वक्तव्याः, ततः पूर्वनन्दापुष्करिणीतो बलिपीठे सभागत्य तस्य बहुमध्यदेशभागे पूर्वदनिकां करोति, कृत्वा चोत्तरपूर्वस्या नन्दापुष्करिण्या समागत्य तस्यास्तोरणेषु पूर्ववदर्चनिकां कृत्वाऽऽभियोगिकान् देवान शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीत - खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! विजया रायहाणीए सिंघाडगेसु य तिएसु य चउक्के सुय चच्चरेसु य चतुम्मुहेसु य महापहपहेसुय पासाएसु य पागारेसु य अट्टालएसु य चरियासु य दारेसु य गोपुरेसु य तोरणेसु य वावीसु य पुक्खरिणीसु य ०जाव बिलपंतिगासु य आरामेसु य उज्जणेसु काण्णेसु य वणेसु य वणसंडेसु य वणराईसु य अचणियं करेह करेत्ताममेयमाणत्तियं खिप्पामेव पञ्चप्पिएराह / तए णं ते आभिओगिया देवा विजएणं देवेणं एवं वुत्ता समाणा ०जाव हद्वतुट्ठा विणएणं पडिसुणेति पडिसुणेतित्ता विजयाए रायहाणिए सिंघडगेसु य० जाव अचणियं करेति करेत्ता जेणेव विजए देवे तेणेव उवागच्छन्ति उवागच्छित्ता एयमाणत्तियं पञ्चप्पिणंति। तए णं से विजयपूर्वनन्दापुष्करिणीए देवे तेसिणं आभिओगिआणं देवाणं अंतिए एवमटुं सोचा णिसम्म हट्ठतुट्ठ चित्तमाणंदिय० जाव हयहियए जेणेव णंदापुक्खरिणी तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता पुरथिमिल्लेणं तोरणेणं० जाव हत्थपायं पम्थालेति पक्खालेत्ता आयंते चोक्खे परमसुइभूए | णं दापुक्खरिणीओ पयुत्तरत्ति पञ्चुत्तरित्ता जेणेव सभा सुधम्म तेणेव पहारेत्थगमणाए / तए णं से विजये देवे चउहिं सामाणियदेवसाहस्सीहिं० जाव सोलसहिं आयाक्खदेवसाहस्सीहिं सव्विड्डीए० जाव निग्घोसनाइरयरवेणं जेणेव सभा सुधम्मा तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता सभं सुधम्म पुरथिमिल्लेणं दारेणं अणुपविवसति अणुपविसित्ता जेणेव मणिपेढिया तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता सीहासणवरगते पुरत्थाभिमुहे सण्णिसण्णे। (सू०१४२) 'खिप्पामेव' त्यादि सुगम यावत् ‘एयमाणत्तियं पञ्चधिणंति' नवर श्रृङ्गाटक-त्रिकोणं स्थानं त्रिकम् -यत्र रथ्यात्रयं मिलति चतुष्कम् - चतुष्पथयुक्तं चत्वरम् -बहुरथ्यापातस्थानं चतुर्मुखम् -यस्नाचतसृष्वपि दिक्षु पन्थानो निस्सरन्ति महापथो-राजपथ: शेष: सागन्यः पन्थाः प्राकारः-पनतीतःअट्टालका: प्राकारस्योपरि मृत्याश्रयविशेषा: चरिकाअष्टहस्त प्रमाणे नगरपगाकारान्तरालमार्गः द्वाराणिप्रासादादीना गोपुराणि प्राकारद्वाराणि तोरणानिद्वारादिसम्बन्धीनि, आरत्य रमन्तेऽत्र माधवीलतागुहादिषु दम्पत्य इति स आरामः, पुष्पादिसदृक्षसङ्कुलमुन्सवादौ बहुजनोपभेग्यमुद्यानं, सामान्यवृक्षवृन्दं नगरासन्नं काननं, नगरविप्रकृष्ट वनम्, एकोनेकजाजीयोत्तमपवृक्षसमूहो वनषण्ड., एकनाजीयोत्तमवृक्षसमूहो वनराजो। 'तए ण' मित्यादि, ततः स विजयो देवो बलिपीठे बलिवियर्जन करोति, कृत्वा च यत्रैवोत्तरनन्दापुकरिणी तत्रोपागच्छति, उपागत्योत्तरपूर्वं नन्दा पुष्करिणी प्रदक्षिणीकुईन् पूर्वतोरणेनानुपविशति, अनुप्रविश्य पूर्वत्रिसोपनप्रतिरूपकेण प्रत्यवरोहति, प्रत्यवरुह्य हस्तपादौ प्रक्षालयति, प्रक्षाल्य नन्दाधुष्करिणीतः प्रत्युत्तरति, प्रत्युत्तीर्य चतुर्भिः सामानिकसहनैश्चसृभिरगमहिषीभिः सपरिवाराभिस्तिसृभिः पर्षद्भिः सप्तभिरनीकैः सप्तभिरनीकाधिपतिभिः षोडशभिरात्मरक्षदेवसहस्सैरन्यैश्च बहुभिर्विजयराजधनीवास्तव्यैवानमन्तरैर्देवैदद्रवीभिश्च सार्द्ध संपरिवृतः सर्वद्ध्या यावद् दुन्दुभिनिोषनादितरवेण विजयाया राजधान्या मध्ये मध्येन यत्रैव सभा सुधर्मा तत्रोपागच्छति, उपागत्य सभा सुधर्मा पूर्व द्वारेणानुप्रविशति, अनुप्रविश्य यैव मणिपीठिका यत्रैव सिंहासनं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य सिंहासनवरगतः पूर्वाभिमुख: सन्निषण्णः / (17) अथा विजयस्यदेवस्य तन्महिषीणां च निषीदनादि प्रतिपादयन्नाहतए णं तस्स विजयस्स देवस्स चत्तारि सेमाणियसाहस्सीओ अवरुत्तरेणं उत्तरेणं उत्तरपुरित्थमेणं पत्तेयं पत्तेयं पुथ्वणत्थेसु भद्दासणेसु णिसीयंति / तए णं तस्स विजयस्स देवस्स चत्तारि अग्गमहिसीओ पुरत्थिमेणं पत्तेयं पत्तेयं पुव्वणत्थेसु भद्दासणेसु णिसीयंति / तए णं तस्स वितयस्स देवस्स दाहिणपुरत्थिमेणं अभिंतरियाए परिसाए अहदेवसाहस्सीओ पत्तेयं पत्तेयं० जाव णिसीयंति। एवं दक्खिणेणं मज्झिमियाएपरिसाए दस देवसाह
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________________ लवणसमुह 636 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लवणसमुह स्सीओ० जाव णिसीदंति।दाहिणपच्चत्थिमेणं बाहिरिए परिसाए शरासन:-इषुधि: तस्य पष्टिका यैरुत्पीडितशरासनपष्टिका पिणद्धगबारस देवसाहस्सीओ पत्तेयं पत्तेयं० जाव णिसीदति / तए णं विमलवरचिंधपट्टा' इति पिनद्धं गैवेय ग्रीवाभरण विमलवरचिहपश्च तस्स विजयस्स देवस्स पचाथिमेणं सत्त अमीयाहिवती पत्तेयं यस्ते निण्व रवेयविमलवरचिह्नपट्टा: 'गहियाउहप्पहरणा' इति आयुपत्तेयं जाव णिसीयंति। तएणं तस्स विजयस्स देवस्स पुरत्थि- यतेऽनेनेत्यायुधम् -खेटकादि प्रहरणरम् -आसिकुन्तादि, गृहीतानि मेणं / दाहिणेणं पञ्चत्थिमेणं एत्तरेणं सोलस आयरक्खदकव- आयुधानि प्रहरणानि च यैस्ते गृहीतायुधप्रहरणाः, त्रिनतानिआदिमसाहस्सीओ पत्तेयं पत्तेयं पुव्वणत्थेसु भद्दासणेसु णिसीदंति, तं ध्यवसानेषु नमनभावात, त्रिसन्धीनि-आदिमध्यावसानेषु सन्धिजहा-पुरस्थिमेणं चत्तारि साहस्सीओ० जाव उत्तरेणं // 4 // ते भावात, बद्धमराकोटीनि धषि अभिगृह परियाइयकंडकलावा ' इति णं आयरक्खा सन्नद्धबद्धवम्मियकवया उप्पीलियसरासणपट्टिया पनिकाण्डकलावा विचित्रकाण्डकलापयोगात्, केचित् नीलपाषाणय' पिणद्धगेवेजविमलवरचिंधपट्टा गहियाउहपहरणा तिणयाई इति नील. काण्डकलाप इति गम्यते पाणी येषां ते नीलपाणय. एवं तिसंधीणि वइरामया कोडिणि धण्इं अहिगिज्झपरियाइकंड- पीतपाणयः रक्तपाणयः, चाप पाणी येषां ते चापपाणयः, चारु:कला वा णीलपाणिणो पीयपाणिणो रत्तपाणिणो चावपाणिणो प्रहरणविशेष: पाणी येषां ते चारुपाणय:, चर्म-अङ्गुष्ठाऽमुल्योराच्छादनचारुपाणिणा चम्मपाणिणो खग्गपाणिणो दंडपाणिणो पासपा- रूपं पागौ येषां ते चर्मपाणयः, एवं दण्डपाणयः खड्गपाणय: पाश्णय, गिणो णीलपीयरत्तचावचारुचम्मखग्गदंडपासवरधरा आयरक्खा एतदेव व्याचष्टे-यथायोग नीलपीतरक्तचापचारुचर्मदण्डपाशधरा रक्खोवगा गुत्ता गुत्तपालिता जत्ता जुत्तपालिता पत्तेयं पत्तेयं आत्मरक्षा., रक्षामुपगच्छन्तितदेकचित्ततया तत्परायण वर्तन्त इति समयतो विणयतो किंकरभूता विव विलृति॥ विजयस्सणं भंते ! रक्षोपगा गुप्ता:-नस्वामिभेदकारिण: गुप्तापराप्रवेश्या पालि -सेतुयद्रषां देवस्स केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता ? गोयमा ! एग पलिओवर्म ते गुप्तपालिकाः, तथा युक्ताः-सेवकगुणोपेततयोचिता., तथा युक्ता ठिती पण्णत्ता, विजयस्स णं भंते / देवस्स सामाणियाणं देवाणं परस्पर बद्धा न तु बृहदन्तराला पालिर्येषां ते युक्तपालिकाः, प्रत्यक केवतियं कालं ठिती पण्णता ? गोयमा ! एगं पलिओवमं ठिती प्रत्येक समयतः-आचारत आचारेणेत्यर्थः विनयतश्चकिङ्करभूता इव पण्णत्ता एवं महिड्डीए एवं महाजुतीए एवं मीब्बले एवं महायसे तिष्ठन्ति, न खलु ते किङ्करा: किन्तु तेऽपि मान्याः तेषामपि पृथगासएवं महासुक्खे एवं महाणुभागे विजए देवे विजए देवे। (सू०१४३) ननिपातनात्, केवलं ते तदानीं निजाचारपरिपालनतो विनीतत्वेन च ततरत्स्य विजयस्य देवस्यापरोत्तरेण-अपरोत्तरस्यां दिशि एव मुत्तर- तथाभूता इव तिष्ठन्ति तदृक्तं किङ्करभूता इवेति / 'तए णे से विजए' स्यामुत्त-पूर्वस्यां दिशि च चत्वारि चत्वारि सामानिकदेवसहस्राणि चतुर्घ अत्यादि सप्रतीत यावद्विजयदेववक्तव्यतापरिसमाप्तिः / / तदेवमुक्ता भद्रासनसहस्रेषु निषीदन्ति, ततस्तस्य विजयस्य देवस्य पूर्वस्यां दिशि विजयद्वारबक्तव्यता / / जी०३ प्रति०२ उ०। चतस्रोऽयमहिष्यश्चतुर्ष भद्रासनेषु निषीदन्ति, ततस्तस्य विजयस्य (18) संप्रति लवणसमुद्रगतवैजयन्तद्वारप्रतिपादानर्थमाहदेवस्य दक्षिणपूर्वस्यामभ्यन्तरिकाय पर्षदोऽष्टौ देवसहस्राणि अष्टासु कहि णं भंते ! लवणसमुद्दे वेजयन्ते नामं दारे पण्णत्ते ? भद्रारानसहरसेषु निषीदन्तिाततस्तस्य विजयस्य देवस्य दक्षिणस्यंदिशि गोयमा ! लवणसमुद्दे दाहिणपेरंते धतइसंडदीवस्स दाहिणद्धस्स मध्यमिकाया: पर्षदो दश देवसहस्राणि दशसु भद्रासनसहस्रेषु एत्तरेणं सेसं तं चेव सव्वं / एवं जयंते विणवरिसीयाए महाणदीए नेषीदन्ति / ततस्तस्य विजयस्य देवस्य पश्चिमायां दिशि बाह्या पर्षदो उप्पिं भाणियव्वे। एवं अपराजिते वि, णवरं दिसिभागे भणियव्वो। नाटशवसहस्राणि द्वादशसु भद्रासनसहस्रेषु निषीदन्ति / ततस्य 'कहिण भते' इत्यादि, व भदन्त ! लश्णस्य समुद्रस्य वैजयन्तं नाम वेजयरादेव पश्चिमायां दिशि सप्तानीकाधिपतय: सप्तसु भद्रासनेषु प्रज्ञप्तम्, भगवानाह गौतम ! लवणसमुद्रस्य दक्षिणपर्यन्ते धातकीविपीदान्त / ततस्तस्य विजयस्य देवस्य सर्वतः राममन्तात् सर्वासु खण्डद्वीपदविणार्द्धस्योत्तरतोऽत्र लवणसमुद्रस्य वैजयन्तं नाम द्वारं 'देक्षु सामन्येनषोडा आत्मरक्षकदेवसहस्राणि षोडशसुभद्रासनसहस्रेषु प्रज्ञाप्तम् / एतद वक्तव्यता सर्वाऽपि विजयद्वारवदवसेया, नवरं राजधानी निषीदन्ति, तद्यथा- चत्वारि सहस्राणि चतुर्यु भद्रासनसहतेषु पूर्वरया वैजयन्तद्वारस्य दक्षिणतो वेदितव्या / तयन्तद्वारप्रतिपादनार्थमाह'दशि, एवं दक्षिणस्यां दिशि, एवं प्रत्येकं पश्चिमोत्तरयोरपि। ते चात्मरक्षा: कहि णं भते' इत्यादि, तभदन्त ! लवणसमुद्रस्य जयन्तं द्वारम् सन्नद्धबद्धवर्मितकवचाः, कवच-तनुत्राणं वर्मलोहमय-कुतूलिकादिरूपं प्रज्ञप्तम् ? भगवानाह-गौतम! लवणसमुद्रस्य पश्चिमपर्यन्ते धातमीसंजातमस्मिन्निति वर्मितं सन्नद्धं शरीरे आरोपणात, बद्ध गाढतरबन्धनेन खण्डपश्चिमार्द्धस्य पूर्वत; शीताया महानद्या उपरिलवणस्य समुद्रस्य बन्धनात, वर्मितं कवचं यस्ते सन्नद्धबद्धवर्मितकवचाः, 'उप्पीलियसरा- जयन्तं नाम द्वारं प्रज्ञप्तम, तद्रक्तव्यताऽपि विजयद्वारवद् वक्तव्या० सणपट्टिया' इति उत्पीडिता गाढीकृता शरा अस्यन्ते क्षिप्यन्तेऽस्मिन्निति | नवरं राजधानी जयन्तद्वारस्य पश्चिमभागे वक्तव्या। अपराजितद्वा
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________________ लवणसमुद्द 640- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लवणसमुह राप्रतिपादनार्थगाह- 'कहि ण भंते' इत्यादि, क्क भदन्त ! लवणस्य समुद्ररयापराजित नाम द्वार प्रज्ञतम् ? भगवानाह-गौतम ! लवणसमुद्रस्याचरपर्यन्ते धातकीखण्डद्वीपोत्तरार्द्धस्य दक्षिणतोऽत्र लवणस्य समुद्रस्यापराजितं नाम द्वार प्रज्ञप्तम्। एतद्वक्तव्यताऽपि विजयद्वारवन्निरवशेषा वक्तव्या नवरं राजधानी अपराजितद्वारस्योत्तरतोऽवसातव्या / (लवणसमुद्रविजयादि-द्वाराणा परस्परमन्तरम् 'अंतर' शब्द प्रथमभागे 74 पृष्ठे गतम्) (16) संप्रति लवणसमुद्रनामान्वर्थ पृच्छतिलवणस्स णं भंते ! समुदस्स पएसा धायइसंडं दीवं पुट्ठा, तहेव / जहा जंबूदीवे धायइसंडे वि सो चेव गमो / लवणे णं भंते ! समुद्दे जीवा उदाइत्ता सो चेव विही, एवं धायइसंडे वि / / से केणतुणं भंते ! एवं वुचइ लवणसमुद्दे लवणसमुद्दे ? गोयमा ! लवणे णं समुद्दे उदगे आविले रइले लोणे लिंदे खारए कडुए अपेजे बहूणं दुपयचउप्पयमियपसुपक्खिीरीसवाणं नण्णत्थर तज्जोणियाणं सत्ताणं सोस्थिए एत्थ लवणाहिवई देवे महिड्डिए पलिओवमठिईए, से णं तत्थ सामाणिय० जाव लवणसमुद्दस्स सुत्थियाए रायहाणीए अण्णेसिं० जाव विहरइ, से एएणऽटेणं गोयमा ! एवं वुचइ लवणे णं समुद्दे लवणे णं समुद्दे अदुत्तरं च णं गोयमा ! लवणसमुद्दे सासए० जाव णिचे। (सू०१५४) 'लवागरस णं भंते ! समुदस्स पएसा इत्यादि सूत्रचतुष्टय प्राग्वद भावनीयम् / / सम्प्रति लवणसमुद्रनामान्वर्थ पुच्छति-से केण?ण' मित्यादि, अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-लवणः समुद्रो लवण, समुद्रः ? इति भगवानाह-गौतम! लवणस्य समुद्रस्य उदकः आविलमम् अविमलम् अस्वच्छ प्रकृत्या 'रइल' रजोवत, जलवृद्धिहानिभ्या पड़बहुलमिति भाव:, लवण सान्निपातिक रसोपेतत्वाल्लिन्द्र गावराख्यरसचिशेषकलितत्वात्, क्षारमम्तीक्ष्णं लवणरसविशेषवत्त्वात. कटुकाकटुकरसोपेतत्वात्, अत एवोपद्रवव्रातादपेयम्, केषामपेयम् ? चतुष्पदमृगपक्षिसरीसुपाणाम्, नान्यत्र तद्योनिकेभ्य:-लवणसमुद्रयोनिकभ्य, सत्त्वेभ्यस्तेषां पेयमिति भावः, तद्योनिकतया ते तदाहारकत्वात्, तदेवं यरमात्तस्योदकं लवणमतोऽसौ लवण: समुद्र इति, अन्यच 'सुट्टिए लवणाहिवई' इत्यादि सुगमंनवरं भावार्थः यरमात सुरिशतनामा तदधिपतिः-लवणाधिपतिरिति स्वकल्पपुस्तके प्रसिद्धम, आधिपत्य च तस्याधिकृतसमुद्रस्य विषये नान्यस्य ततोऽप्यसो लकणसमुद्र इति, तथा चाह,-से एएण?ण' मित्यादि। (20) सम्प्रति लवणसमुद्रगतचन्द्रादिसंख्यापरिमाण प्रतिपादनार्थमाहलवणे णं भंते ! समुद्दे कति चंदा पभासिंसु वा पभासिंति वा / पभासिस्संति वा? एवं पंचण्ह विपुच्छा, गोयमा! लवणसमुद्दे चत्तारिदा पभासिंसु वा पभासिंति वा पभासिस्संति वा, चत्तारि सूरिया वा तविति वा तविस्संति वा, वारसुत्तरं नक्खत्तसयं जोगं जोएंसु वा जोएंति वा जोएस्संति वा, तिण्णि बावण्णा महम्गहसया चारं चरिसुं चरंति वा चरिस्संति वा, दुण्णि सयसहस्सा सत्तर्हि च सहस्सा नव य सया तारागणकोडाकोडीणं सोभं सोभिंसु वा सोभिंति वा सोभिस्संति वा / (सू०१५५) 'लवणे णं भंते !समुद्दे' इत्यादि प्रश्नसूत्र सुगमम, भगवानाइ-गौतम ! चत्वारश्चन्द्रा: प्रभासितवन्तः प्रभासन्ते प्रभासिष्यन्ते, चत्वारः सूय:रस्तापितवन्तस्तापयन्ति तापयिष्यन्ति, ते च जम्बूद्वीपगतचन्द्रसूर्यः सहसमश्रेण्या प्रतिबद्धा वेदितव्याः, तद्यथा-दौ सूर्यो एकस्य जम्बूद्वीप गतस्य सूर्यस्य श्रेण्या प्रतिबर्द्धा, द्वौ सूर्या द्वितीयस्य जम्बू द्वीपगतस्य सूर्यस्य, तथा द्वौ चन्द्रमसावेकस्य जम्बूद्वीपगमस्य समश्रेण्या प्रतिबद्धी, दो द्वितीयचन्द्रस्य, तौ चैवमम्यदा जम्बूद्वीपगत एकः सूर्यो मेरोर्दणतश्रारं चरति तदा लवणसमुद्रेऽपि तेन समश्रेण्या प्रतिबद्धः एकः शिखाया अभ्यन्तरं वारं घरति द्वितीयस्तेनैव सह श्रेण्या प्रतिबद्ध शिखया: परतः, तदैव च यो जम्बूद्वीपे मेरोरुत्तरतश्चार, चरतितेन सह समश्रेण्याप्रतिबद्ध लवणसमुद्रे उत्तरत एकः शिखाया अभ्यन्तरं चारं चरति, द्विजीयस्तु सह समश्रेण्या प्रतिबद्धः शिखाया: परतः, एवं चन्द्रमसोऽपि जम्बूद्वीपगतचन्द्राभ्यां सह रामश्रेणिप्रतिबद्धा भावनीयाः, अत एव जन्बूद्वीप इव लवणसमुद्रेऽपि यगा मेरोदक्षिणतो दिवसः संभवति, तदा मेरोरुत्तरतोऽपि लवणसमुद्रे दिवसः, यदा च मेरोरुत्तरतो लवणसमुद्रे दिवसस्तदा दक्षिणतोद्धपि दिवसस्तदा च पूर्वस्या पश्चिमायां दिशि लवणसमुद्रे रात्तिः, यदा च मेरो, पूर्वस्यां दिशि लवणसमुद्रे दिवसस्तदा पश्चिमायामपि दिवस:, यदा पश्चिमायां दिवसस्तदा पूर्वदिश्यपि, तदा च मेरोदक्षिणत उत्तरतश्च नियमतो रात्रिः, एवं धातकीखण्डादिष्वपि भावनीयम, तद्गतानामपि चन्द्ररयसूर्याणां जम्बूद्वीपगतचन्द्रसूर्य: सह समश्रेण्या व्यवस्थितत्वात्, उक्तं च सूर्यप्रज्ञप्तौ- "जया णं लवणसमुद्रे दाहिणड्ढे दिवसे भवइ, तया णं उत्तरड्डे वि दिवसे हवइ / जया ण उत्तरड्डे दिवसे हवइ, तया ण लवणसमुद्दे पुरस्थिमपचत्थिमेणं राई भवइ / एवं जहा जुद्दीवे दी तहेव'' तथा 'जया णं धायइसंडे दीवे दाहिणड्डे दिवसे भवइ, तयाण उत्तरड्डु वि, जया णं उत्तरड्ढदिवसे हवइ, तया णं धायइसडे दीये मंदाराणं पव्वयाणं पुरस्थिमपञ्चत्थिमेणं राई हवइ / एवं जहा जम्बू (दीवे दीवे तहेब, कालेए जहा लवणे तहेव' तथा-"जया णं अभिंतरपुक्खरद्धे दाहिणड्डे दिवसे भबइ, तया णं उत्तरड्डे वि दिवसे हवइ। जय गं उत्तरड्डे दिवसे हवइय तयाणं अभितर डे मंदराणं पव्ययाणं पुरथिमपचत्थिमणं राई हवइ, सेस जहा जुबुद्दीवे तहेव" आह-लवणसमुद्रे षरशयोज
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________________ लवणसमुद्द 641 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लवणसमुद्द नसस्प्रमाणा शिखा ततः कथं चन्द्रसूर्याणां तत्र तत्र देशे वारं चरता न / गतिव्याघात: ?, उच्यते-इह लवणसमुद्रेवर्जेषु शेषेषु द्वीपसमुद्रेषु यानि ज्योतिष्कटिमानानि लानि सर्वाण्यपि सामान्यरुपस्फटिकमयानि, यानि पुनर्लवणसमुद्र ज्योतिष्कविमानानि तानि तथाजगतस्वभाव्यादुदकस्फाटन-र वभावस्फटिकमयानि, तथा चोक्तं सूर्यप्रज्ञप्तिनियुक्ती"जाइसियावेमाणाई, सव्वाइ हवति फलिहमइयाई। दगफालिया मया पुण, लवणे जे जोइसविमाणा / / 1 / / ' ततो न तेषामुदकमध्य वार चरतामुदकेन व्याघात', अन्य शेषाद्वीपसमुद्रष चन्द्रसूर्यविचमानान्यधोलेश्याकानि यानि पुन लवणसमुद्रे तानि तथा जगत्स्वाभाव्यादूर्ध्वलेश्याकानि तेन शिखायामपि सर्वत्र लवणसमुद्रे प्रकाशो भवति, अयं घार्थ प्रायो बहूनामप्रतीति इति संवादार्थभतदर्थप्रतिपादको जिनभद्रगणिक्षमाश्मणविरचितो चिशेषणवतीग्रन्थ उपदीत-"शोलससाहसियाए सिहाए कह जोइसियाविघातो न भवति? तत्थ भन्नई-जेण सूरपन्नत्तीए भणिय-"जाइसियविमाणाई, सव्वाई हवंति फलिहमइयाई। दगफलिया मया पुण, लवणे जे जोइसविमाणा।।१।।" ज सवदीवसमुद्देसु फलिहामयाइं लवणसमुद्रे चेव केवलं दगफलिहामयाइंतत्थ इदमव कारणं मा उदगेण विघातो भवउ" इति, जुबूसूरपन्नत्तीए चेव भयिं- 'लवणम्मिए जोइसिया, उड्डे लेसा हवंति नायव्वा / तेण पर जोइसिया, अह लेसगा मुणयव्वा।।१।।" तं पि उदगमालावभासण्त्थमेव लरेगठिई एसा'' इति। तथा द्वादशं नक्षत्रशतम, एवं चत्वारो हि लवणसमुद्रे शशिनः एक करय र शाशिनः परिवारे अष्टाहवंशतिनक्षत्राणि, ततोऽष्टाविंशतेश्चतुर्भिगुणने भवति द्वादशोर शतमिति / त्रीणि द्विपशाशदधिकानि महाग्रहशतानि, एककारय शशिन परिवारऽष्टाशीतप्रहाणां भावात्, द्वे शततसहते सप्तषष्टिः सहस्राणि नय शतानि तारगणकोटीकोटीनाम् 26760000000000000000, उक्तञ्च"यत्तारि चव चंदा, चत्तारि य सूरिया लवणतोए। बारं नक्खत्तसयं, गहाण तिन्नेव बावना // 1 // दो चेव सयसहस्सा, सत्तट्टी खलु भवे सहस्सा य। नव य सया लवणजले, तारागणकोडिकाडीणं / / 2 / / " इह लवण समुद्रे चतुर्दश्यादिषु तिथिषु नदीमुखानामापुरणतो जलमतिरेकेण प्रवर्द्धमानमुपलक्ष्यते तत्र कारणं पिपृच्छिषुरिदमाहकम्हाणं भंते! लवणसमुद्दे चाउद्दस्सट्टम्मुद्दिद्वपुण्णिमासिणीसु अतिरेगं अतिरेगं वड्डति वा हायति वा ?, गोयमा ! जंबुद्दीवस्स णं दीवस्स चउद्दिसिं बाहिरिल्लाओ वेइयंता ओ लपणसमुद्धं पंचाणउतिं पंचाणउतिं जोयणसहस्साइं ओगाहित्ता एत्थ णं चत्तारि महालिंजरसंठाणसंठिया महइमहालया महापायाल पण्णत्ता, तं जहा-वलयामुहे, केतूए, जूवे, हारे। तेणं महापाताला उगमेगं जोयणसतसहस्सं उव्वेहेणं मूले दस जाकेयण- | सहस्साई विक्खंभेणं मज्झे एगपदेसियाए से ढिए एगमे गं जोयणसतसहस्सं विक्खंभेणं एवरिं मुहमूले दस जोयणसहस्साई विक्खम्भेणं / तेसि णं महापायालाणं कुड्डा सव्वत्थ समा दसजोयणसतबाहल्ला पण्णत्ता अच्छा सव्ववइरामया० जाव पडिरूवा। तत्थ णं बहवे जीवा पोग्गला य अवक्कमति विउक्कमंति चयंति उपचयंति सासया णं ते कुड्डा दव्वट्ठयाए वण्णपजवेहिं असासया / तत्थ णं चढतारि देवा महिड्डिया० जाव पलिओवमड्डितीया परिवसंति, तं जहा-काले, महाकाले, वेलंबे, पभंजणे / ते सि णं महापायालाणं तओ तिभागा पण्णत्तास, तं जहा-हेट्ठिल्ले तिभागे मज्झिल्ले तिभागे उवरिमे तिभागे। ते णं तिभागा तेत्तीसं जोयए।सहस्सा तिण्णि य तेत्तीसं जोयणसतं जोयणतिभागं च बाहल्लेणं तत्थ णं जे से हेट्ठिल्ले तिभागे एत्था णं वाएकाओ संचिट्ठति, तत्थ णं जे से मज्झिल्ले तिभागे एत्थ णं वाउकाए य आउकाए य संचिटुंति, तत्थ णं जे से उवरिल्ले तिभागे एत्थ णं आउकाए संचिटुंति, अदुत्तरं च णं गोयमा ! लवणसमुद्दे तत्थ तत्थ देसे बहवे खुडुगलिंजरसंठाणसंठिया खुड्डापायालकलसा पण्णत्ता, ते णं खुड्डा पाताला एगमेगं जोयणसहस्सं उव्वेहेणं मूले एगमेगं जोयणसतं विक्खंभेणं मज्झे एगपदेसियाए सेढिए एगमेगं जोयणसहस्सं विक्खंभेणं उप्पिं मुहमूले एगमेगं जोयणसतं विक्खंभेणं / तेसिणं खुड्डागपायालाणं कुड्डा सव्वत्थ समा दस जोयणाइं बाहल्लेणं पण्णत्ता सव्ववइरामया अच्छा० जाव पडिरूवा / तत्था णं बहवे जीवा पोग्गला य० जाव असासया वि, पत्तेयं 2, अद्धपलिओवमड्डिती ताहिं देवताहिं परिग्गहिया तेसि णं खुड्डाागपातालाणं ततो तिभागा पण्णत्ता, तं जहा-हेविल्ले तिभागे मज्झिल्ले तिभागे उवरिल्ले तिभागे, ते णं तिभागे तिणि तेत्तीसे जोयणसते जोयणतिभागं च बाहल्लेणं पण्णत्ते / तत्थ णं जे से हेट्ठिल्ले तिभागे एत्थ णं वाउकाओ, मज्झिल्ले तिभागे वाउआए आउयाते च, उवरिल्ले आउकाए, एवामेव सपुवावरेणं लवणसमुद्दे सत्त पायालसहस्सा अट्ठय चुलसीतापातालसता भवंतीति मक्खाया / तेसि णं महापायालाणं खुड्डागपायालाण य हंट्ठिममज्झिमिल्लेसु तिभागेसु बहवे ओराला वाया संसेयंति संमुच्छिमंति एयंति चलंति कंपंति खुम्भंति घट्टति फंदंति तं तं भावं परिरणमंति, तया णं से उदए उण्णमिज्जति, जया णं तेसिं महापायालाणं खुडगपायालाण य हे हिल्लमज्झिमिल्लेसु तिभागेसु नो बहवे ओराला० जाय तं तं भवं न परिणमन्ति, तया णं से उदए नो उन्नामिजइ अंतरा वि य णं ते वायं उदीरेंति अंतरा वियणं उदगे उण्णामिजइ अंतरा वि य ते वाया नो उदीरंति अंतरा वि य णं से उदगे णो उदण्णामिज्जइ
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________________ लवणसमुद्द 642- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लवणसमुह एवं खलु गोयमा ! लवणसमुद्दे चाउद्दस (स्स) मु(म्मु) दिट्ठपुण्णमासिणीसु अइरेगं वड्डति वा हायति वा / (सू०१५६) 'कम्हा णं भंते !, इत्यादि कस्माद्भन्त ! लवणसमुद्रे चतुर्दश्यष्टम्युद्दिष्टपौर्णमासीषु तिथिषु, अत्रोद्दिष्टा अमावस्या, पौर्णमासी प्रतीता, पर्णो मासो यस्यां सा पौर्रामासी, प्रज्ञादित्वात्स्वार्थेऽण् / अन्ये तु व्याचक्षते-पूर्णा मा -चन्द्रमा अस्यामिति पौर्णमासी, अण तथैव, प्राकृतत्वाच सूत्रे- 'पुण्णमासिणी' ति पाठः। 'अइरेगं अइरेग' अतिशयेन अतिशयेन वर्द्धते हीयते वा ? भगवानाह-गौतम ! जम्बूद्वीपे यो मन्दरपर्वतस्तस्य चतसृषु पूर्वादिषु दिषु लवणसमुद्रं पञ्चनवति योजनसहस्राण्यवगाह्यात्रान्तरे चत्वारः 'महइ महालया' अतिशयेन महान्तो महालिञ्जरं महापिडह तत्संस्थानसंस्थिताः, क्वचित - महारंजरसंठाणसंठिया' इति पाठः / तत्रारञ्जर:-अलिञ्जर इति, महापातालकलशा: प्रज्ञप्ताः / उक्त च-"पणनउइसहस्साई, ओगाहित्ता चउद्विसि लवणं / चउरोऽलिंजरसंठाणसंष्ठिया होंति पायाला॥१॥' तानव नामतः कथमिति कथयति। तद्यथा-मेरो: पूर्वस्यां दिशि वडवामुखः, दक्षिणरयां केयूपः, अपरस्यां यूपः, उत्तरस्यामीश्वर ते चत्वारोऽपि महापातालकलशा एकैकं योजनशतसहस्रं लश्म् उद्वेधेन दशयोजनसहस्राणि विष्कम्भेन तत ऊर्द्धवम् एकप्रादेशिक्या श्रेण्या विष्कम्भतः प्रवर्द्धमाना प्रवर्द्धमाना मध्ये एकैकं योजनयातसहस्रं विष्कम्भेन ततई भूयोऽप्येकप्रादेशिक्या श्रेण्या विष्कम्भतो हीयमाना हीयमाना उपरि मुखमूले दश योजनसहस्राणि विष्कम्भतः, उक्त "जायणसहस्सदसगं, मूले उवरि च होति वित्थिण्णा। मज्झे य सयसहस्सं, तेत्तिमेत्तं च ओगाढा / / 1 / / " 'तेसिण' मित्यादि, तेषां महापातालकलशानां कुड्याः सर्वत्र समा दशयोजनशतबाहल्यायोजनसहस्रबाहल्या इत्यर्थः, सर्वात्मना बज्रमया 'अच्छज्ञ०जाव पडिरूवा' इति प्राग्वत् / / 'तत्थ ण' मित्यादि, तेषु वज्रमयेषु कुङ्येषु बहवो जीवाः पृथिवीकायिका पुद्गलाश्च अपक्रामन्तिगच्छन्तिव्युत्रामन्ति-उत्पद्यन्ते जीवो इति सामर्थ्याद् गम्यम्, जीवानामेवोत्पत्तिधर्मकतया प्रसिद्धत्वात्, चीयन्ते-चयमुपगच्छन्ति उपचीयन्तेउपचयमायान्ति, एतच पदद्वयं पुद्गलापेक्ष, पुद्गलानामेव चयापचयधर्मकतया व्यवहारात, तत एवं सकलकालंतदारस्य सदाऽवस्थानात् शाश्वतास्ते कुड्या द्रव्यार्थतया प्रज्ञप्ता, वर्णपर्याय: रसषयायैःगन्धपर्यायः स्पर्शपर्यायः पुनरशाश्वता., वर्णादीनां प्रतिक्षणं कियत्कालादूर्द्धवं वाऽन्यथा भवनात्।। 'तत्थ ण' मित्यादि, तत्र तेषु चतुर्पु पातालकलशेषु चन्वारो देवा महर्द्धिका यावत्करणान्हाद्युतिका इत्यादिपरिग्रहः, पल्योपमस्थितिका परिवसन्ति, तद्यथा-'काले' इत्यादि, बडवामुखेकालः, केयूपेमहाकालः, यूपे-वेलम्बः, ईयवरे-प्रभञ्जन / 'तेसि ण' मित्यादि, तेषा महापातालकलशाना प्रत्येक प्रत्येक त्रयविभागा: प्रज्ञप्ता , तद्यथा-अधस्तनरित्रभागो मध्यमस्त्रिभाग एपरितनस्त्रिभागः। ते ण' मित्यादि, ते त्रयोऽपि त्रिभागास्त्रयस्त्रियायोजनसहस्राणि त्रीणि योजनशतानि त्रयस्त्रिंशानि योजनत्रिभगं च बाहल्येन प्रज्ञप्ताः / / तत्र चतुष्यपि पातालकलशेषु अशस्तनेषु त्रिभागेषु वातकाय सतिष्ठति, मध्यमेषु त्रिभागेषु वायुकायोऽप्कायाश्च, उपरितनेषु त्रिभागेष्वप्काय एव। 'अदुत्तरं च ण' मित्यादि, अथान्यद, गौतम ! लवणसमुद्रे 'तत्थ तत्थ देसे तहिं तर्हि' इति तेषां पातालकलशानामन्तरेषु तत्र तत्र देशे तस्य तस्य देशस्य तत्र तत्र प्रदेश क्षुल्लारञ्जरसंस्थानसंस्थिता: क्षुल्ला:-पवातालकलशा: प्रज्ञप्ताः, ते क्षुल्ला: पातानकलशा एकमेक योजनसहस्रमुद्वेधेन मूले एकक योजनशतं विष्कम्भेन मध्ये एकक योजनसहसं विष्कम्भेन उपरि मुखमूले एकैकं योजनशत विष्कम्भेण 'तेसि ण' मित्यादि, तेषा-क्षुल्लकपातालकलशानांकुड्या सर्वत्र समा दश दश योजनानि बाहल्यतः / उक्तञ्च-"जोयणसयविस्थिण्णा, मूले “उवरि दस सयाणि मज्झम्मि। ओगाढा य सहस्स, दस जोयणिया य से कुड्डा / / 1 / / '' 'सव्ववइरामया' इत्यादि प्राग्वत् यावत् 'फासपञ्जयेहि असासया' इति, प्रत्येक प्रत्येकं तेऽर्द्धपल्योपमस्थितिकाभि-देवताभिः परिगृहिता: / / 'तेसि ण मित्यदि, तेषां क्षुल्लकपातालकलशाना प्रत्येक प्रत्येक त्रयविभागा: प्रज्ञप्ता:, तद्यथा-अधस्तनविभागी मध्यमस्त्रिभाग उपरितनस्त्रिभगः / 'ते ण' मित्यादि, ते त्रिभागा: प्रत्येक त्रीणि योजनशतानि त्रयस्त्रिंशानि त्रयस्त्रिंशदधिकानि योजनत्रिभाग च बाहल्येन प्रज्ञप्ताः, तत्र सर्वेषापि क्षुल्लकपातालकलशानामधस्तनेषु त्रिभागषु वायुकाय: संतिष्ठति, मध्येषु त्रिभागेषु वायुकायोऽप्यकायश्च, उपरितनेषु त्रिभागेष्वप्काय: सतिष्ठति, एवमेव 'सपूर्वापरेण' पूर्वापरसमुदायसंख्यया सप्त पातालकलशसहस्राणिक्षुल्लकपातालकलशसहस्राणि, अष्टौ च पातालकलशशतानिक्षुल्लकपातालकलशशतानि चतुरशीतानि., चतुरशीत्यधिकानि भवन्तीत्याख्यातं मया शेषैश्च तीर्थकृति, उक्तश"अन्नेऽवि य पायाल खुड्डालञ्जरगसंठिया लवणे। अट्ठ सया चुलसीया, सत्त सहस्सा य सव्वे वि।।१।। पायलाण विभागा, सव्वाण वि तिन्नि तिन्नि विन्नेया। हेहिमभागे वाऊ, मज्झे वाऊय उदगं च / / 2 / / एवरि उदगं भणियं, पढमगबीएसु वाउसंखुभिओ। उड्डे वामइउदगं, परिवड्डइ जलनिही खुभिओ॥३॥ "तेसिण' मित्यादि, तेषां क्षुल्लकपातालाना-क्षुल्लकपाता-लकलशाना महापातालाना चाधस्तनमध्येषु त्रिभागेषु तथा जरस्थितिस्वाभाव्यात प्रतिदिवस द्विकृत्वस्तत्रापि चतुर्दश्यादिषु तिथिष्वतिरेकेण बहवः अतिप्रभूता उदारा:-ऊर्द्धवगमनस्वभावाः प्रबलशक्तयश्च, उत् / प्राबल्येन आरो येषां ते उदारा इतिव्युत्पत्ते, वाता:-वायवः संस्विद्यन्तेउत्पत्त्यभिमुखीभवन्ति, ततः क्षणानन्तरं 'संमूर्च्छन्ति-संमूर्छजन्मना लब्धात्मलाभा भावन्ति, ततः चलन्ति-कम्पन्ते वाताना चलनस्वभावत्वात, ततः घट्टन्तेपरस्पर सङ्घट्टमाप्नुवन्ति, तदनन्तरम क्षुभ्यन्तेजातमहाद्भुतशक्तिका: सन्त ऊर्द्धवमिस्ततो विप्रसरन्ति, ततः उदीरयन्ति-अन्यान् वातान् जलमपि चोतत्प्राबल्येन प्रेरयन्ति, तंत देशाकालोचित मन्दं तीव्र मध्यमं वा भावं-परिणाम परिणमन्तिधामूनामनेकार्थत्वात् प्रपद्यन्ते। 'जयाणं तेसिंखुड्डागपायालाण' मिन्यादि सुगमं
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________________ लवणसमुह 643 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लवणसमुह भगवस्वगत्। 'तया ण' मित्यादि, तदा णमिति वाक्यालङ्कारे तद् -उदगम उन्नामिजते' उन्नम्यते ऊर्द्धमुत्क्षिप्यत इति भावः / जया ण' मित्यादि, पदा पुनः 'ण' मिति पुनरर्थे निपातानामनेकार्थत्वात्, तेषां क्षुल्लकपाताललानां महापातालानां चाधस्तनमध्यमेषु त्रिभागेषु नो बहव उदारा याता, संस्विद्यन्ते इत्यादि प्राग्वत् 'तया ण' मित्यादि तदा तदुदकं 'नोन्नाम्यते' नोर्द्धवमुत्क्षिप्यते उत्क्षेपकाभावात् एतदेव स्पष्टतरमाह'अन्तराऽवियण' मित्यादि, अन्तरा-अहोरात्रमध्ये द्विकृत्व फ़तिनियते कालविभागे पक्षमध्ये चतुदश्यादिषु तिथिष्वतिरेकेण ते वाता: तथाजगत्स्वाभाव्यादुदीर्यन्ते धातूनामनेकार्थत्वादुत्पद्यन्ते, ततोऽन्तराअहोरात्रमध्ये द्विकृत्वः प्रतिनियते कालविभागे पक्षमध्ये चतुर्दश्यदिषु तिथिषु अतिर फण तत उदकमुन्नाम्यते। अंतराऽवि य ण' मित्यादि, अन्तरा-प्रतिनियतकाल-विभागादन्यत्रतेवाता: नोदीर्यन्ते-नोत्पद्यन्ते, तदभावात् अन्तराप्रतिनियतकालविभागादन्यत्र कालविभागे उदकं नोन्नाभ्यते उन्नामकाभावात्, तत एवं खलु गौतम ! लवणसमुद्रे चतुर्दश्यष्टम्युद्दिष्टपूर्णमासीषु तिभिषु अतिरेकमतिरेकम् -अतिशयेनातिशयेन वर्द्धते हीयते वेति॥ तदेव चतुर्दश्यादिषु तिथिष्वतिरेकेण जलवृद्धौ कारणमुक्तभिठानीमहोरात्रमध्ये द्विकृत्वोऽतिरेकेण जलवृद्धी कारणमभिधित्सुराहलवणे णं भंते ! समुद्दे तीसए मुहुत्ताणं कतिखुत्तो अतिरेगं अतिरेगं वड्डति वा हायति वा ? गोयमा? गोयमा ! लवणे णं तीसाए मुहुत्ताणं दुक्खुत्तो अतिरेगं अतिरेगं वड्डति वा हायति वा / / से केणऽतुणं भन्ते ! एवं वुचइ-लवणे णं समुद्दे तीसए मुहुत्ताणं दुक्खुत्तो अइरेगं अइरेगं वड्डइ वा हायइवा? गोयमा! उड्डमंतेसु पायालेसु वड्डइ आपूरितेसु पायालेसु हायइ, से तेणऽटेणं गोयमा ! लवणे णं समुद्धे तीसए मुहुत्ताणं दुक्खुत्तो अइरेगं अइरेगं वड्डइ वा हायइ वा / / (सू०१५७) लवणे णं भंते ! समुद्दे' इत्यादि, लवणो भदन्त ! समुद्रस्त्रिंशतो मुहूर्तानां मध्ये-आहोरात्रमध्ये इति भावः ‘कतिकृत्व: कति वारान अतिरेकमतिरेक वर्द्धते हीयते वा? इति तदेवं (प्रश्ने) भगवानाह-गौतम ! द्विकृत्वोऽतिरेकमतिरेक वद्धते हीयते वा।। 'से केणऽढेण' मित्यादि प्रश्नसूत्रं सुगमम्, भगवानाह-गौरम ! उद्गमत्सु अधस्तनमध्यमत्रिभागगतवातसंक्षोभवशाजलमूर्द्धवभुत्क्षिपत्सु पातालेषुपनातालकलशेषु महत्सु लघुषु च वर्द्धते आपूर्यमाणेषुपरिसंस्थिते पवने भ्यो जलेन ध्रियमाणेषुपातालेषुपातालकलशेषु महत्सुलघुषु, हीयते से एएणऽट्टेण' मित्यादि उपसंहारवाक्यमा 21) अधुना लवणशिखावक्तव्यतामाहलवणसिहा णं भंते ! केवतियं चक्कवालविक्खणं केवतियं अइरेग अइरेगं वडति वा हायति वा?,गोयमा! लवणसिहाए णं दस जोयणसहस्साई चक्कवालविक्खंभेणं देसूणं अद्धजोयणं अतिरेगं वडति वा हायति वा / / लवणस्स णं भंते ! समुद्देसु कति णागसाहस्सीओ अभिंतरियं बेलं धरंति ?, कइ नागसाहस्सीओ बाहिरियं बेलं धरंति ?, कइ नागसाहस्सीओ अग्गोदयं धरंति?,गोयमा ?लवणसमुदस्स बायालीसं णागसाहस्सीओ अन्भिंतरियं वेलं धरंति, बावत्तरं णागसाहस्सीओ बाहिरियं बेलं धरंति, सर्व्हि गागसाहस्सीओ अग्गोदयं धरंति, एवमेव सपुव्वावरेणं एगा णागसतसाहस्सी चोवत्तरिं च णागसहस्सा भवंतीति मक्खाया।। (सू०१५८) 'लवणसिहा णं भंते' इत्यादि, लवणशिखा भदन्त ! कियचक्रवालविष्कम्भेन?, कियच अतिरेकमतिरेकम् - अतिशयेन अतिशयेन वर्द्धत हीयते वा?, भगवानाह-गौतम ! लवणशिखा सर्वतश्चक्रवालविष्कम्भातया समा-समप्रमाणा दश योजनसहस्राणि विष्कम्भेन चक्रवालरूपतया विमतिरेकम् -अतिशयेनातिशयेन वर्द्धत हीयते वा, इयमत्र भावनालवणसमुद्रे जम्बूद्वीपाद् धातकीखण्डद्वीपाच प्रत्येक पञ्चनवति पञ्चनवतियोजनसहस्राणि गोतीर्थम् -गोतीर्थ नाम तडागादिष्विव प्रवेशमार्गरूपो नीचो नीचतरो भूदेशो गोस्तीर्थमिव गोतीर्थमिति व्युत्पत्तेः, मध्यभागावगाहस्तु दशयोजनसहराप्रमाणविस्तार: गोतीर्थ च जम्बूद्वीपवेदिकान्तसमीपे धातकीखण्डवेदिकान्तसमीपे चाडलासंख्येयभागः-ततः परसमतला भूभागादारभ्य क्रमेण प्रदेशहान्या तावनीचत्वं नीचतरत्वं परिभावनीयम् यावत्पञ्चनवतियोजनसहस्राणि, पश्चनवतियोजनसहसपर्यन्तेषु समतलं भूभागमपेक्षयोण्डत्वं योजनसहस्रमेकत्, तथा जम्बूद्वीपवेदिकातो धातकीखण्डद्वीपवेदिकातश्च ? तत्र समतले भूभागे प्रथमतो जलवृद्धिरकुलसुचयेयभागः, ततः समतलभूभागमेवाधिकृत्य फगेशवृद्ध्या जलवृद्धिः क्रमेण परिवर्द्धमाना तावत्परिभावनीया यावदुभ्यतोऽपि पञ्चनवतियोजनसहस्राणि, पञ्चनवतियोजनसहस्रपर्यन्ते चोभयतोऽपि समतलभूभागमपेक्ष्य जलवृद्धिः सप्त योजनशतानि, किमुक्तं भवति? तत्र प्रदेशे समतलभूभागमपेक्ष्यावगाहे योजनसहस्रम्, तदुपरि जलवृद्धिः सप्त योजनशतानीति, ततः परं मध्यभाग दशयोजनसहस्रविस्तारेऽवगाहो योजनसहसं जलवृद्धिः षोडश याजनसहस्राणि, पातालकलशगतवायुक्षोभे च तेषामुपर्यहोरात्रमध्ये द्वौ वारौ किञ्चिन्न्यूने द्वे गव्यूते उदकमतिरेकेण वर्द्धते पातालकलशगतवायूपशान्तौ च हीयते, उक्तञ्च"पंचाणउयसहस्से, गोतित्थं उभयतोऽविलवणस्स। जोयणसयाणि सत्त उ, दगपरिवुड्डीऽवि उभयशेऽवि / / 1 / / दस जोयणसाहस्सा, लवणसिहा चक्कवालतो रुंदा। सोलससहस्स उचा, सहस्समेगं च ओगाढा // 2 // देसूणमद्धजोयण-लवणसिहोवरि दुगं दुवे कालो। अइरेग अइरेग, परिवड्डइ हायए वाऽवि / / 3 / / " सम्प्रति वेलन्धरवक्त व्यतामाह - 'लवणस्स णं भते /
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________________ लवणसमुद्द 644 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लवणसमुद्द इत्यादि लवणस्य भदन्त ! समुद्रस्य कियन्तो नागसहया नागकुमाराणां भवनपतिनिकायान्तर्वतिनां सहस्रा आभ्यन्तरिकी-जम्बूद्वीपाभिमुखा वेला-शिखोपरिजल शिखां च-अर्वाक पतन्ती धरन्ति-वारयन्ति ? कियन्तो नागसहस्रा बाह्यां-घातकीखण्डाभिमुखां वेला धातकीखण्डद्वीपमध्ये प्राविशन्जी धरन्ति वारयन्ति ?, कियन्तो वा नागसहस्रा अग्रोदकं देशोनयोजनार्द्धजलादुपरिवर्द्धमान जल धरन्ति- वारयन्ति, भगवानाह-गौतम ! द्विचत्वारिंशन्नागसहस्राण्यान्य तरिकी वेला धरन्ति द्वासप्तति गसहस्राणि वाह्या वेलां धरन्ति, पष्टिनांगसहस्राण्यग्रोदक धरन्ति / उत्कञ्च "अभितरियं वेल, धरति लवणोदहिस्स नागाण। बायालीससहस्सा, दुसत्तरिसहस्सॉ बाहिरियं / / 1 / / सहि नागसीस्सा, धरंति अग्गोदयं सगुद्दस्स' इति एवमेव सपूर्वापरेण' पूर्वापरसमुदायेन एक नागशतसहसं चतुःसप्ततिश्च नागशतसहस्राणि भवन्जीत्यारख्याजानि मया शेषैश्च तीर्थकृद्धि। (22) वेलन्धरनागराजसंख्यादिकमाहकतिणं भंते ! वेलंधरा णागराया पण्णता?, गोयमा ! चत्तारि वेलंधरा णागराया पण्णत्ता, तं जहा-गोथूभे सिवए संखे मणोसिलए। एतेसि णं भंते ! चउण्हं वेलधरणागरायाणं कति आवासपव्वता पण्णत्ता ?, गोयमा ! चत्तारि आवासपव्वता पण्णत्ता, तं जहा-गोथूभे उदगभासे संखे दगसीमाए / कहिणं भंते ! गोथूभस्स वेलंधरणागरायस्स गोथूभे णामं आवासपव्वते पण्णते?, गोयमा ! जंबूदीवे दीवे मंदरस्स पुरित्थिमेणं लवणं समुई बायालीसं जोययणसहस्साई ओगाहित्ता एत्थ णं गोथूभस्स वेलंधरणागरायस्स गोथूभे णामं आवासपव्वते पण्णत्ते सत्तरस एकवीसाई जोयसताई उद्धं उच्चमेणं चत्तारि तीसे जोयणसते कोसं च उव्वेघेणं मूले दस बावीसे जोयणसते आयामविक्खंभेणं बत्झे सत्त तेवीसे जोयणसते उवरिं चत्तारि चउवीसे जोयणसए आयामविक्खंभेणं मूले तिण्णि जोयणसहस्साइं दोण्णि य बत्तीसुत्तरे जोयसए किंचि विसेसूणे परिक्खेवेणं मज्झे दो जोयणसहस्साई दोण्णि य छलसीते जोयसते किंचिविसेसाहिए परिक्खेवणं उवरिं एग जोययणसहस्सं तिण्णि य ईयाले जोयणसते किंचिवेसूणे परिक्खेणं मूले विस्थिपणे मज्झे संखित्ते उप्पिं तणुए गोपुच्छसंठाणसंठिए सव्वकणगामए अच्छे० जाव पडिरूवे / से णं एगाए पउमवरवेदियाए एगेण य वणसंडेणं सव्वतो समंता संपरिक्खित्ते, दोण्हं वि वण्णओ गोथूभस्स णं आवासपव्वतस्स उवरिं बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते ०जाव आसयंति। तस्स णं बहुसमरमणिजस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं एगे महं पासायवडेंसए बावट्ठ जोयणद्धं च उढे उच्चत्तेणं तं चेव पमाणं अद्ध आयामविक्खंभेणं / वण्णओ० जाव सीहासणं सपरिवारं / से केणऽटेणं भंते ! एवं | वुच्चइ गोथूभे आवासपव्वए गोथूभे आवासपदए ?, गोयमा ! गोथूभे णं आवासपव्वते तत्थ तत्थ देसे तहिं तहिं बहुओ खुड्डाखुड्डिओ० जाव गोथूभवण्णाई बहूई उप्पलाइं तहेव० जाव गोथूभे तत्थ देवे महिड्डिए० जाव पलिओवमट्टितीए परिवसति, से णं तत्थ चउण्हं सामाणिायसाहस्सीणं० जाव गोथूभ(य)स्स आवासपव्वतस्स गोथूभाए रायहाणीए ०जाव विहरति, से तेण?णं जाव णिच्चे / रायहाणिपुच्छा, गोयमा ! गोथूभस्स आवासपव्वतस्स पुरित्थिमेणं तिरियमसंखेजे दीवसमुद्दे वीतिवइत्ता अण्णम्मि लवणसमुद्दे तं चेव पमाणं तहेव सव्वं / 'कतिण भते' इत्यादि, कर्तिभदन्त ! वेललन्धरनागराजा प्राप्ताः ?, भगवानाह- चत्वारो वेलन्धरनागराजा: प्रज्ञप्तास्तद्यथा-गोस्तूयः शिवकःशको मन शिलाकः / / एएसिण मित्यादि, एतेषां भदन्त ! चतुर्णा वेलन्धरनागगराजाना कति आवासपर्वता प्रज्ञप्ता ? भगवानाहगौतम ! एकैकस्य एकैकभावेनचत्वार आवासपर्वता प्रज्ञप्तास्द्यथागोस्तूप उदकभारा शंखो दकसीमः / / कहिणं भंते' इत्यादि प्रश्नसून सुगमम, भगवानाह-गौतम ! अस्मिन जम्बूद्वीपे यो मन्दरपर्वतस्तस्य पूर्वरयां दिशि लवणसमुद्रं द्वाचत्वारिंशत योजनसहस्राण्यवगाहात्र गोस्तूपस्य भुजगेन्द्रस्य भुजगराजस्य गोस्तूपो नान आवासपर्वतः प्रज्ञाप्तः, सप्तदश योजनशतानि एकविंशान्यूर्द्धवमुरत्वेन, चत्वारि यो जनशतानि त्रिशदधिकानि कोशं चैक मुद्वेषान, उच्छूया क्षयाऽवगाहस्य चतुर्भागभावात, मूल दश योजनशतानि द्वाविंशत्युत्तराणि विष्कम्भत:, मध्ये सप्तयेजनशतानि त्रयोविंशत्युत्तराणि, उपरि चत्वारि योजनशतानि चतुर्विशत्युत्तराणि, मूले त्रीणि योजनसहस्राणि द्वे च योजनशते द्वात्रिंशदुत्तरे किश्चिद्विशेकषोने परिक्षेपेण, मध्ये द्वेयोजनसहसे द्वे च योजनशते चतुरशीते किशिद्विशेषाधिके परिक्षेपेण, उपर्येक योजनसहरसं त्रीणि योजनशतानि एकचत्वारिंशानि किञ्चिद्विशेषोनानि परिक्षेपेण, ततो मूले विस्तीर्णो मध्ये सङ्गिप्त उपरि जनुकः, अल एव गोपुच्छरास्थानसंस्थितो गोपुच्छस्याप्येवमाकारत्वात्. सर्वात्मना जाम्बूनदमयः, अच्छे० जाव पडिरुवे' इति अप्राग्वत्। 'से ण' मित्यादि स:-गोस्तूपनामा आवासपर्वत एकया पद्मवरवेदिकया एकेन च वनखप्छन सर्वतःसर्वासु दिक्षु समन्ततः-सामस्त्येन 'संपरिक्षिप्तः, द्वयोरपि चानयोर्वेदिकावनखण्डयोवर्णकः प्राग्वत्। 'गोथूभरण' मित्याकद, गोस्तूपस्य णमिति पूर्ववद् आवासपर्वतस्योपरि बहुसमरमणीयो भूनिभान: प्रज्ञप्तः, से जहानामए आलिगपुक्खरेइ वा इत्यादि प्राग्मत् याव नत्र बहवो नागकुमारा देवा आसते शेरते यावद्विहरन्तीति। तस्स ग मित्यादि तम्स बहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्य देशभागेऽत्र महानेकः प्रासादावतंसकः प्रज्ञप्तः, स च विजयदेवस्य प्रासाद वन्तसरूसदृशो वक्तव्यः, स चेवम् साििन द्वाषष्टिोजना नि उचैस्त्वेन, स्क्रोशानेकत्रिशदयोजनान्यायामविष्कम्भाभ्यां, प्रासादवर्णनमुल्लोचापन च प्राग्वट /
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________________ लवणसमुह 645 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लक्णसमुह तस्य च प्रासादावतंसकस्यान्तर्बहुमध्यदेशभागे महत्येकासर्वरत्नमयी अग्निपीठिक', सा व योजनायामविष्कम्भप्रमाणा गव्यूत द्वयबाहल्या. तर याश्च मणिपीठिकाया उपरि महदेकं सिंहासनम्, तचेन्द्रमामानेकादिदेवयोग्येर्भद्रासनः परिवृतमिति / / 'से केणद्वेणं भत! इत्यादि. अध केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते गोर तूप आवासपर्वतो गोस्तूप आवारापठनः ? इते. भगवानाह-गोतम ! गोस्तूपे आवासपर्वते क्षुल्लासु झुल्लिकासुदापीषुयावद्विलपतिकषु बहून्यपलानि यावत् शतसहस्रपाणि गोर नूपप्रभाणि गोस्तूपाकाराणि गोस्तूपवर्णानि गोस्तूपवर्णस्येवाभापतिभासो येषां तानि गोस्तूपवर्णाभानि, ततस्तानि तदाकारत्वात सद्गत्यात्तवर्णसा दृश्याच गोस्तूपानीति प्रसिद्धानि, तद्योगादावासपर्वताऽपि गोस्-पः अनादिकालप्रवृतोऽयं व्यवहार इति तेन नेतरेतराश्रय देषः, एवमुरारत्रापि भावनीयम, तथा गोस्तूपश्चात्र भुजगेन्द्रो भुजगराजो महको यावत्करणात्- महाद्युतिक इत्यादि परिग्रहः / स च चतुर्णा सामानिकसहस्राणां चतसृणामग्रहिषीणा सपरिवाराणा तिसृणां पर्षदा रमत नामनीकानां सप्तानामनीकाधिपतीनां षोडशानामात्मरक्षदेवसहवाणाम, गोस्तूपस्यावासपर्वतस्य गोस्तूपायाश्च राजधान्या अन्येषां 5 बहूनां गस्तूरपराजधानीवास्तव्यानां देवाना देवीनां चाधिपत्यं याददिहरति. ततो गोस्तूपदेवरवामिकत्वाचा गोस्तूपः, ‘से एए?ण' मिन्याद्युपसंहारवाक्यं प्रतीतम्। सम्प्रति गोस्तूपा राजधानी पृच्छति - 'काले ण भंते !' इत्यादिक्क भदन्त ! गोस्तूपस्य भुजगेन्द्रस्य भुजगराजस्य गास्तूचा नाग राजधानी प्रज्ञप्ता ?. भगवानाह - गौतम ! गोस्तूपस्यावास्पर्वतररः पूर्वया दिशा तिर्यगसंख्येयान द्वीपसमुद्रान् व्यतिव्रज्यान्यस्मिन् लाण समुद्रे द्वादशयोजनसराहस्राण्यवगाया जा रे गोर सूपस्य भुजगेन्द्रस्य भुजगराजस्य गोस्तूपा नाम राजधानी प्रज्ञप्ता, सा च विज्यराजधानीसदृशी वक्तव्या।। तदेवमुक्तो गोस्तूपः / (23) अधुना दकाभासवक्तव्यतामाह-- कहि णं भंते ! सिवगस्स वेलंधरणागरायस्स दओभासणामे आवासपव्वते पण्णत्ते ?, गोयमा ! जंबूद्दीवे णं दीवे मंदरस्स पव्ययस्स दक्खिणेणं लवणसमुदं बायालीसं जोयणसहस्साई ओगाहित्ता एत्थणं सिवगस्स वेलंधरणागरायस्स दोभासे णाम आवासपव्वते पण्णत्ते, तं चेव पमाणं जं गोथूभस्स, णवरि सव्वअंकामए अच्छे० जाव पडिरुव० जाव अट्ठो भाणियव्वो, गोयमा ! दओमासे णं आवासपव्वते लवणसमुद्दे अट्ठजोयणिय खेत्ते दगं सव्वतो समंता ओमासेति उज्जोवेति तवति पभासेति सिवए इत्थ देवे महिड्डिए० जाव रायहाणी से दक्खिणेणं सिविगा दओभासस्स सेसं तं चेव।। "कहिण नंते ! शिवगरस' इत्यादि प्रश्नसूत्रां पाठसिद्धम्, भगवानाह - गौतम ! जम्बूद्वीप द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिणतो लवणसमुद्रं | द्वाचत्वारिंशतं योजनसहस्राण्यवगाह्य अत्रान्तरे शिवकस्य भजुगेन्द्रस्य / भुजगराजस्य दकाभासो नामावासपर्वतः प्रज्ञप्तः, स च गोस्तूपवदविशेषेण वक्तव्यो यावत्सपरिवारं सिंहासनम् / / अधुना नामनिमित्त पिपरिछषुराह- 'से केणट्टेण मित्यादि प्रश्नसूत्र सुगमम, भगवानाह - गौतम ! टकाभास आवासपर्वतो लवणसमुद्दे सर्वासु दिक्षु स्वसीमातोऽ रायोजनिक-अष्टयोजनप्रमाणे क्षेत्रो यदुदकं लत् समन्ततः-सामस्त्येनातिविशुद्धाङ्कनामरत्नमयत्वेन स्वप्रभयाऽवभासयति, एतदेव पर्यायायेण व्याचष्टे -. उदद्योतयति चन्द्र इव, तापयति सूर्य इव, प्रभासयति ग्रहादिरिव, ततो दकं पानीयमाभासयति - समन्ततः- सर्वासु दिक्षु अवभासयतीति दकाभाराः, अन्यच शिवको नामात्र पर्वतेषु भुजगेन्द्रो भुजगराजो महर्द्धिको यावतपल्योपमस्थितिकः परिवसति। 'सेणं तत्थ चउण्ह सामाणियसाहस्सीण' मित्यादि प्राग्वत् नवरमा शिवका राजधानी वत्ताव्या, तरिमंश्च परिवसति स आवासपर्वतो दकमध्येऽतीवाऽऽभासते-शोभते इति दकाभासः, ‘से एएणद्वेण' मित्याधुपसंहारवाक्यं गतार्थम्, शिवका राजधानी दकाभासस्यावासपर्वतस्य दक्षिणतोऽन्यस्मिन् लवणसमुद्दे विजयराजधानीव भावनीया / (24) अधुना शंखनामकावासपर्वतवक्तव्यतामाहकहिणं भंते ! संखस्स वेलन्धरणागरायस्स संखे णामं आवासपव्वतें पणत्ते?, गोयमा ! जंबुद्दीवे णं दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पचत्थिमेणं बायालीसं जोयणसहस्साइं एत्थ णं संखस्स० वेलंधरणागरायस्स संखे णामं आवास पव्वते तं चेव पमाणं णवरं सव्वरयणाए अच्छे। से णं एगाए पउमवरवेदियाए एगेण य वणसंडेण० जाव अट्ठो बहूओ खुड्डाखुडिआओ० जाव बहूई उप्पलाई संखाभाई संखवण्णाई संखवण्णभाई संखे एत्थ देवे महिड्डिए० जाव रायहाणीए पचत्थिमे संखस्स आवास पव्वयस्स संखा नाम रायहाणी तं चेव पमाणं। 'कहिणं भते!' इत्यादि,क्क भदन्त! शंखस्य भुजगेन्द्रस्य भुजगराजस्य शंखो नामावासपर्वतः प्रज्ञप्तः, भगवानाह-गौतम ! जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पश्चिमाया दिशि लवणसमुद्रं द्वाचत्वारिंशतं योजनसहस्राण्यवगाह्यात्रान्तरे शंखस्य भुजगेन्द्रस्य भुजगराजस्य शंखो नामवासपर्वतः प्रज्ञप्तः, स च गोस्तूपवदविशेषेण तावद्वक्तव्यो यावत्सपरिवार सिंहासनम् / इदानीं नामनिबन्धनमभिधित्सुराह - 'सेकेणतुण' मित्यादि प्रश्नसूत्रां सुगमम्, भगवानाह -- शखे आवासपर्वते क्षुल्लासु क्षुल्लिकासु वापीषु यावद्विलपतिषु बहून्युत्पलानि यावत् शतसहसपत्राणि शंखाभानि - शखाकाराणि शंखवर्णानिश्वेतानीति भावः, शंखवर्णाभानिप्रायः शखवर्णसदृशवर्णानि, शंखचात्रा भुजगेन्द्रो, भुजगराजो महर्द्धिको यावत्पल्योपमस्थितिकः परिवसति। 'से ण तत्थ चउण्ह सामाण्यिसाहस्सीण मित्यादि प्राग्वत, नवरमा शखा राजधानी वक्तव्यता, तदेवं यतस्तद्रतान्युत्पलादीनि शंखाकाराणि शंखदेवस्वामिकश्चायमतः शख इति, 'सेएएणडेण' मित्याद्युपसंहारवाक्यं गतार्थम्, शंखा राजधानी शंख स्यावासपर्वतस्य पश्चिमायां दिशि तिर्यगसंख्येयान्
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________________ लवणसमुह 646 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लवणसमुह द्वीपसमुद्रान व्यतिव्रज्यान्यस्मिन् लवणसमुद्रे विजयाराजधानी सदृशी रयणमया / / 1" वेलन्धराणां - गोस्तूपदीनामावासा गास्तूपादयश्चवक्तव्या।। स्वारः पर्वता यथाक्रम कनकाङ्करजतस्फटिकमयाः, गोस्त्पः कनकमयो, सम्प्रति दकसीमापर्वतवक्तव्यतामाह - दकाभासो ऽङ्करत्नमयः, शंखो रजतमयो, दकसीमः स्फटिकमय इति, कहिणं भंते ! मणोसिलकस्स वेलंधरणागरायस्स उदगसीमाए तथा महतां वेलन्धराणामादेशप्रतीच्छकतयाऽनुयायिनो वेलन्धराश्चाणामं आवासपव्वते पण्णत्ते?,गोयमा! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स नुवेलन्धराः ते च ते राजानश्च अनुवेलन्धरराजा स्तेपामावासपवर्ता उत्तरेणं लवणसमुदं बायालीसं जोयणसहस्साइं ओगाहित्ता एत्थ रत्नमया भवन्ति। जी०। (अनुवेलन्धरनागराजवक्तव्यता सूत्रम् (160) णं मणो सिलगस्स वेलंधरणागरायस्स उदगसी माए णामं 'अणुवेलंधर' शब्दे प्रथमभागे 361 पृष्ठे गतम्) आवासपव्वते पण्णत्ते, तं चेव पमाणं णवरि सव्वफलि हामए (25) लवणाधिपतेीपं प्रतिपादयन्नाह - अच्छे० जाव अट्ठो, गोयमा! दगसीमंते णं आवासपव्वते सीता कहिणं भंते ! सुट्ठियस्य लवणाहिवइस्स गोयमदीवे णामं दीवे सीतोदगाणं महाणदीणं तत्थ गतो सोए पडिहम्मति, से पण्णत्ते?,गोयमा! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पचत्थितेणऽद्वेणं० जाव णिच्चे मणोसिलाए एत्थ देवे महिड्डिए० जाव से मेणं लवणसमुदं बारसजोयणसहस्साइं ओगाहित्ता एत्थ णं णं तत्थ चउण्हं सामाणिय० जाव विहरति / / कहि णं भंते ! सुट्ठियस्स लवणाहिवइस्स गोयमदीवे दीवे पण्णत्ते, बारसजो मणोसिलगस्स वेलंधरणागरायस्समणोसिला णाम रायहाणी?, यणसहस्साई आयामविक्खंभेणं सत्ततीसं जोयणसहस्साइं नव गोयमा ! दगसीमस्स आवासपव्वयस्स उत्तरेणं तिरियमसंखेज्जाई य अडयाले जोथणसए किंचि विसेसूणे परिक्खेवेणं, जंबूदीवं दीवसमुद्दाई वीतिवइत्ता० अणम्मि लवणे एत्थ णं मलोसिलिया तेणं अद्धकोणणउते जोयणाई चत्तालीसं पंचणउतिभागे जोय णस्स ऊसिए जलंताओ लवणसमुह, तेणं दो कोसे ऊसिते णाम रायहाणी पण्णत्ता, तं चेव पमाणं० जाव मणोसिलाए देवे जलंताओ / / से णं एगाए य पउमवरवेइयाए एगेणं वणसंडेणं - "कणगंकरययफालिया-मया य वेलंधराण मवासा / अणु सव्वतो समंता तहेव वण्णओ दोण्ह वि / गोयमदीवस्स णं वेलंधरराई-ण पव्वया होति रयणमया'' // 1 / / (सू० 156) दीवस्स अंतो 0 जाव बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते, से 'कहिणं भंते !,' इत्यादि प्रश्नसूत्रां प्रतीतम, भगवानाह- गौतम ! जहानामए-आलिंग० जाव आसयन्ति / तस्स णं बहुसमरमणिं जम्बूद्वीपे द्वीप मन्दरस्य पर्वतस्योत्तरतो लवणसमुह द्वाचत्वारिंशत जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभागे, एत्थ णं सुट्ठियस्स योजनसहस्राण्यवगाह्य अत्राएतस्मिन्नवकाशे मनः शिलकस्य भुजगेन्द्र लवणाहिवइस्स एगे महे अइकीलावासे नाम भोमेअविहारे स्य भुजगराजस्य दकसीमो नामावास पर्वतः प्रज्ञप्तः, सोऽपि गोस्तू पण्णत्ते बावढेि जोयणाई अद्धजोयणं उड्ढे उच्चत्तेणं एक्कतीसं पर्वतवदविशेषेण तावद्वक्तव्यो यावत्सपरिवारं सिंहासनम् / / इदानी जोयणाई कोसं च विक्खं भेणं अणे गखं भसतसन्निविटे नामनिमित्त विभणिषुराह - 'से केण?ण भित्यादि प्रतीतम, भगगनाह भवणवणओ भाणियव्वो। अइक्कीलावासस्सणं भीमेजविहारस्स - गौतम ! दकसीमे आवासपर्वते शीताशीतोदयोर्महानद्योः श्रोतासि अंतो बहु समरमणिज्जे पण्णत्ते० जाव मणीणं भासो / तस्स णं जलप्रवाहास्ता गतानि तस्माच तेन प्रतिहतानि प्रतिनिवर्तन्ते तता बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ एगा दकसीमाकारित्वादकसीमः, दकस्य सीमा-शीताशीतो दापानीयस्य मणिपे ढिया पण्णत्ता / सा णं मणि पेढिया दो जोयणाई सीमा-यत्रासौ दकसीम इति व्युत्पत्तेः, अन्यच्च मनः शिलको भुजगेन्द्रो आयामविक्खंभेणंजोयणबाहल्लेणं सव्वमणिमयी अच्छा० जाव भुजगराजो महर्द्धिको यावत्पल्योपमस्थितिकः परिवसति। 'सेणं तत्थ पडिरुवा / / तीसे णं मणिपेढियाए उवरि एत्थ णं देवसयणिज्जे चउण्हं सामाणियसहस्सीणं' मित्यादि प्राग्वत्, नवर मनः शिलाऽत्रा पण्णत्ते वण्णओ। से के णतुणं भंते ! एवं वुचति- गोयमहीने राजधानी वक्तव्या, ततो मनःशिलस्य देवस्य दवोलवणजलमध्ये णं दीवे ?, तत्थ तत्थ तहिं तहिं बहूई उप्पलाइ० जाद सीमा-आवासचिन्तायां मर्यादा, अत्रोतिदक सीमे, मनःशिला च गोयमप्पभाई से एएणतुणं गोयमा ! ०जाव णिच्चे / कहि मं राजधानी दकसीमस्यावासपर्वतस्योत्तरतरितर्यगसंख्येयान् द्वीपसमुद्रान् भंते ! सुवियस्स लवणाहिवइस्स सुटिया णाम रायहाणी व्यतिव्रज्यान्यरिमन लवणसमुद्रे विजयाराजधानीव वक्तव्या। तदेव- पण्णत्ता?,गोयमदीवस्स बारस जोयणसहस्साई ओगाहित्ता, मुक्ताश्चत्वारोऽपि वेलन्धराणामावासपर्वताः, सर्वत्र च गोस्तूपेनातिदेशः एवं तहेव सव्वं णेयवं० जाव सुत्थिए देवे। (सू०१६१) कृतः , अत्र च मूलदले विशेषस्ततस्तमभिधित्सुराह -- ''कणगंकरयय 'कहिण भंते !' इत्यादि, क्व भदन्त ! सुस्थितस्य लवण, फालिय–मयाय वेलंधराणामवासा / अणुवेलंधरराई–ण पव्वया होति | पिधस्य गौतमद्वीपो नाम द्वीपः प्रज्ञप्तः ?, भगवानाह - गौत
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________________ लवणसमुद्द 647 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लवणसमुह मा जम्बूद्वीपस्य पश्चिमायां दिशि लवणसमुद्रं द्वादश योजन सहखाण्य - वगाह्यात्रान्तर सुस्थितस्य लवणाधिपस्य गौतमद्वीपो नाम द्वीपः प्रज्ञप्तः, द्वादश योजनसहस्राण्यायाम विष्कम्भाभ्याम्, सप्तत्रिशदयोजनसहखाणि नव चाष्टाचत्वारिंशानि किञ्चिद्विशेषोनानि पारक्षेपेण, 'जंबूदीवं तण' मिति जम्बूद्वीपदिशि 'अर्द्ध कोननवतीनि - अर्द्धमेकोन नवतेर्येषां तानि अर्द्धकाननवतीनि साष्टिाशीतिसंख्यानीति भावः, योजनानि चत्वारिंशत च पञ्चनवतिभागान योजनस्य जलान्तात् - जलपर्यन्तादूवमुच्छूितः, एतावान जलस्योपरि प्रकट इत्यर्थः, लवणसमुद्रान्ते -- लवणसमुद्रदिशि द्वौ क्रोशी जलान्तादुच्छ्रितो, दावेव क्रोशौ जलस्योपरि प्रकट इत्यर्थः / 'से ण' मित्यादि, स एकया पद्मवरवेदिकया एकेन वनषण्डेन सर्वतः- समन्तात्सपरिक्षिप्तः, द्वयोरपि वर्णनं प्राग्वत्। तस्य च गौतमद्वीपस्योपरि बहुसमरमणीयभूमिभागवर्णनं प्राग्वद्यावत्तृणानां मणीनां च शब्दवर्णन वाप्यादिवर्णन यावद्वहवो वानमन्तरा देवा आसते शेरते यायद्विहरन्तीति। तरय बहुसमर मणीयरय भूमिभागस्य बहुमध्यदेश भागेऽत्रा सुस्थितस्य लवणाधिपस्य योग्यो महानेकः अतिक्रीडावासःअत्यर्थ क्रीडावासो नाम भौमयविहारः प्रज्ञप्तः, सार्द्धानि द्वापष्टिोजना न्यूर्वमुपैरत्वेन एकत्रिशतं च योजनानि क्रोशमेक च विष्कम्भन 'अणेगखंभसयसन्निविट्ठ' इत्यादि, भवनवर्णन मुल्लोचवर्णनं भूमिभागवर्णन् च प्राग्वत्। तस्य च बहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागे, अत्रा महत्येका मणिपीठिका प्रज्ञप्ता, सा योजनमायामविष्कम्भा या मर्द्धयोजनं बाहल्येन सर्वात्मना मणिमयी अच्छा यावत् प्रतिरूपा / 'तीसे णं' मित्यादि, तस्या मणिपीठिकाया उपरि देवशयनीयम, तस्य वर्णक उपर्यष्टाष्टमङ्गलकादिकं च प्राग्वत् / नामनिमित्त पिपृच्छिषुराह- 'से केणट्ठण' मित्यादि, अथ केनार्थेन-केन कारणेन एवमुच्यते -- गौतमद्वीपो नाम द्वीपः ?, भगवानाह- गौतमद्वीपरय शाश्वतमिदं नामधेयं न कदाचिन्नासीदित्यादि प्राग्वत्। पुस्तकान्तरेषु पुनरेवं पाठः-'गोयमदीवे णं दीवे तत्थ तत्थ तहिं तहिं बहूई उप्पलाई जाव सहर सपत्ताइंगोयमाप्पभाई गोयमवन्नाई गोयमवण्णाभाई इति, एवं प्राग्वद्भावनीयः / सुस्थितश्चात्रा (देवः) लवणाधिपो महर्द्धिको यावत्पल्योपमस्थितिकः परिवसति, स च तत्रा चतुणां सामानिकसहस्त्राणां यावत्षोडशानामात्मरक्षकदेव सहसाणां गौतमद्वीपस्य सुस्थितायाश्च राजधान्या अन्येषां च बहूनां वानमन्तराणां देवानी देवीना चाधिपत्यं यावद्विहरति, तत एवमेव शाश्वतनामत्वात्, पाठान्तरेतद्गतानि उत्पलादीनि गौतमप्रभाणीति गौतमानीति प्रसिद्धानि ततस्तद्योगात्तथा, तदधिपतिस्तमाधिपतिरिति प्रसिद्धम् इति सामर्थ्यादेष गौतम द्वीप इति / उपसंहारमाह - 'से तेणट्टेण मित्यादि गतार्थम् / जी०। (लवणसमुद्दे कियदवगाह्य जम्बूद्वीपगतचन्द्रसत्कादि तत्सूत्रां, लवणसमुद्रगतचन्द्रादित्यद्वीपवक्तव्यतासूत्रां, लवण समुद्रमवगाह्या धातकीखण्डगतचन्द्रादित्यद्वीपवक्तव्यता सूत्राञ्च 'चंददीव' शब्देतृतीय भाग 1074 पृष्ठे द्रष्टव्यानि) अत्थि णं भंते ! लवणसमुद्दे वेलंधरा ति या णागराया अग्धा ति वा खन्ना ति वा सिंहा ति वा विजा ति वा हासबट्टी ति?,हंता अस्थि / जहा णं भंते ! लवणसमुद्दे अत्थि वेलंधरा ति वा णागराया अग्धा सीहा विजा ति वाहासवट्टी ति वा तहा णं बाहिरतेसु वि समुद्देसु अत्थि वेलंधराइ वा णागराया ति वा अग्घा ति वा सीहा ति वा विजातीति वा हासवट्टी ति वा ?, णो इणढे समझे।। (सू. 168) लवणे णं भंते ! समुद्दे किं ऊसितोदगे किं पत्थडोदगे किं खुभियजले किं अक्खुमियजले ?, गोयमा ! लवणे णं समुद्दे ऊसिओदगे नो पत्थडोउगे खुभियजले नो अक्खुमियजले, जहा णं भंते ! लवणे समुई ओसितोदगे नो पत्थडोदगे खुभियजले नो अक्खुभियजले तहा णं बाहिरगा समुद्दा किं ऊसिओदगा पत्थडोदगा खुभियजला अक्खुमियजला ?, गोयमा ! बाहिरगा समुद्दा नो उस्सितोदगा पत्थडोदगा नो खुमियजला अक्खुमियजला पुण्णा पुण्णप्पमाणा वोलट्टमाणा वोसट्टमाणा समभरघडत्ताए चिट्ठति / / अत्थि णं भंते ! लवणसमुद्दे बहवो ओराला बलाहका संसेयंति संमुच्छिंति वा वासं वासंति वा ?, हंता अत्थि / जहा णं भंते ! लवणसमुद्दे बहवे ओराला बलाहका संसेयंति समुच्छिति वासं वासंति वा तहाणं बाहिरएसु वि समुद्देसु बहवे ओराला बलाहका संसेयंति संमुच्छंति वासं वासंति ?, णो तिणढे समठे, से केणऽटेणं भंते ! एवं वुचति बाहिरगा णं समुद्दा पुण्णा पुण्णप्पमाणा दोलट्ठमाणा वोसट्टमाणा समभरघडियाए चिटुंति ? गोयमा ! बाहिरएसु णं समुद्देसु बहवे उदगजोणिया जीवा य पोग्गला उदगत्ताए वक्कमति विउक्कमति चयंति उवचयंति, से तेणऽटेणं एवं वुचति-बाहिरगा समुद्दा पुण्णा पुण्णप्पमाणा० जावसमभरघडताए चिट्ठति / / (सू०१६६) 'अस्थि ण भंते !' इत्यादि, सन्ति भदन्त ! लवणसमुद्रे वेलन्धरा इति वा नागराजाः, अग्धा इति वा खन्ना इति वा सीहा इति वा विजाइ इति वा?, अग्घादयो मत्स्यकच्छपविशेषाः, आह च चूर्णिकृत् - "अग्घा खन्ना सीहा विजाइ इति मच्छकच्छभा'' इति, हस्ववृद्धी जलस्येति गम्यते इति, भगवानाह-गौतम् ! सन्ति / 'जहा णं भंते ! लवणसमुद्दे वेलंधरा इति वा इत्यादि पाठसिद्धम् 'लवणे णं भंते ! इत्यादि, लवणो भदन्त / समुद्रः किमुच्छ्रितोदकः प्रस्तटोदकः--प्रस्तटाकारतया स्थितमुदकं यस्य स तथा, सर्वतः समोदक इति भावः, क्षुभितं जलं यस्य स क्षुभितजलस्तत्प्रतिषेधादक्षुभितजलः ?, भगवानाह- गौतम ! उच्छ्रितोदको न प्रस्तटोदकः, क्षुभितजलो नाक्षुभितजलः / / 'जहा ण भते !' इत्यादि, यथा भदन्त ! लवणसमुद्द उच्छ्रितोदक इत्यादि तथा
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________________ लवणसमुह 648 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लवणसमुह "या अपि समुद्राः किमुच्छ्रितोदकाः प्रस्तटोदकाः क्षुभितजला अक्षभितजाः ?, भगवानाह- गौतम ! बाह्याः समुद्रा न उच्छितोदकाः किन्तु प्रस्तटोदकाः सर्वत्रा समोदकत्वात, तथा न क्षुभितजनाः कित्यक्षुभितजलाः क्षोभहेतुपातालकलशाद्य भावात, किन्तु- पूजाः, ता किञ्चिद्धीनमपि व्यवहारतः पूर्ण भवति तत आहे पूर्णप्रमाणाः स्वप्रमाणं यावजलेन पूर्णा इति भावः, 'बोसड़माणा' परिपुर्ण तत्तया उल्लुठन्त इवेति भावः, बोलट्टमाणा' इति विशेपेण उल्लुठन्त इवेत्यर्थः 'समभरघडताए चिट्ठति' इति सर्ग-परिपूर्णो भरा मरण यस्य सममर: परिपूर्णभृत इत्यर्थः, स चासो घटश्व समभरघटस्तता बरतता तया समभृतघट इव तिष्ठन्तीति भावः / / अत्थिण भंते ! इत्यादि, अस्त्यतद भदन्त ! लवणसमुद्दे ओराला बलाहका उदारा मेघाः संस्विद्यन्ते-- संमूर्छनाभिमुखीभवन्ति, तदनन्तरं संमूर्च्छन्ति, ततो वर्षम्-पानीयं वर्षन्ति ?, भगवानाह-हन्त! अस्ति / / "जहा णं भंते ! लवणसमुद्दे' इत्यादि प्रतीतम / / 'से केणटेण' मित्यादि, अथ केनायन भदन्त / एवमुच्यते बाह्याः समुद्राः पूर्णाः .. पूर्णप्रयाणा: ? इत्यादि प्रा. भगवानाह- गौतम ! बाह्येषु समुद्रेषु बहव उदकयोनिका जीवाः पुद्रलाश्चादकतया अपक्रामन्ति गच्छन्ति व्युत्क्रामन्ति-उत्पद्यन्ते, एक गच्छन्त्यन्ये उत्पद्यन्त इति भावः, तथा 'चीयन्ते' चयमुपगच्छन्ति उपचीयन्ते-उपचय गायान्ति, एतच पुद्गलान् प्रतिद्रष्टव्यम्, पुद्रलानामेव चयापचयार्थप्रसिद्धेः, 'से एएणडेण मित्याधुपसंहारवाक्यं प्रतीतमा (26) सम्प्रत्युद्धेधपरिवृद्धि चिचिन्तयिषुरिदमाह - लवणे णं भंते ! समुद्दे केवतियं उव्वेहपरिवुड्डीए पण्णत्ते ?, गोयमा! लवणस्सणं समुदस्स उभओ पासिं पंचाणउति पंचाण उति पदेसे गंता पदेसं उव्वेहपरिवुड्डीए पण्णत्ते, पंचाणउति पंचाणउति वालग्गाई गंता वालग्गं उवेहपरिवुड्डीए, पण्णत्ते, पंचाण०लिक्खाओ गंता लिक्खा उव्वेहपरि० पंचाणउइ जवाओ जवमझे अंगुलविहत्थिरयणीकुच्छी धणु (उव्वेहपरिवुड्डीए) गाउयजोयणजोयणसतजोयण सहस्साइं जोयणसहस्सं उव्वेह परिवुड्डीए पण्णत्ते ?, गोयमा ! लवणस्स णं समुद्दस्स उभओ पासिं पंचाणउतिं पदेसे गंता सोलसपएसे उस्सेहपरिवुड्डीए पण्णत्ते, गोयमा ! लवणस्स णं समुदस्स एएणेव कमेणं जाय पंचाणउतिं पंचाणउतिं जोयणसहस्साई गंता सोलस जोयण सहस्साई उस्सेहपरिवुड्डीए पण्णत्ते / (सू०१७०) लवणे गं भंते! समुद्दे इत्यादिलवणो भदन्त ! समुद्रः किया कियन्ति योजनानि यावद उद्धपरिवृद्ध्या प्रज्ञप्तः ?, किमुक्त भवति ? - जम्यूद्वीपवेदिका ताल्लव समुद्रवेदि कान्ताच्चारभ्योभयताऽपि लवणसमु.. द्रस्य कियन्ति योजनानि यावत् माणया मात्रया उबंधपरिवृद्धिरिति, भगवानाह गीतम! लक्षणसमुद्रे उभयोः पार्श्वयोर्जम्बूद्वीपवेदिकान्ताल्लवणसमुद्र वेदिकान्ताचार येत्यर्थः पञ्चनवतिप्रदेशान गत्या प्रदेश उद्वेध परिवृद्ध्या प्रज्ञप्तः, इह प्रदेशस्त्रसरेण्वादिरूपोद्रश्वयः, पञ्चनपतिं चालाग्राणि गत्वैकं वालागगमुद्वेधपरिवृद्धया प्रज्ञप्तम्, एवं लिक्षायवभध्याकुलवितास्तिरात्निकुक्षिधनुर्गव्यूतयोजनयो योजनशतसूत्राण्यपि भावनीयानि, पञ्चनवति योजनसहस्राणि गत्वा योजनसहस्रमुद्वेधपरिवृष्ट्या प्रज्ञतम्, औराशिकभावना चैवं योजनादिषु द्रष्टव्या, इहोभयत'ऽपि पञ्चनवतियोजन राहस्रपयन्ते योजनसहस्रमवगाहेन दृष्ट ततस्त्रैराशिककवि तारः, यदि पञ्चनवतिसहसपर्यन्ते योजनसहसमवगाहस्ततः पञ्चनवतियोजनपर्यन्ते कोऽवगाह:?, राशित्रयस्थापना - 65000 / 1000 / 65 / अत्रादिमध्ययो राश्योः शून्यायस्या पवर्त्तन्ना 65 / 1 / 65 / ततो मध्यस्य राशेरेकरुपस्य अन्त्येन पञ्चनवतिलक्षणन राशिना गुणनात जाता पञ्चनवतिः, ताहोन राशिना पञ्चनवतिलक्षणेन विभज्यते लब्धमेकं योजनम्, उक्तच - 'पंचाणउइसहस्से, गंतृणं जोयणाणि उभओ वि। जोयणसहस्सम लवणे ओगाइओ होइ / / 1 / / पंचाणउईणवगे, (लवणे) गंतूणं जोयणाणि उभओ वि। जोयणगंग लवण, ओगाहेणं मुणेयव्वा / / 2 / / पचनवतियोजनपर्यन्ते च यटोक योजनमवगाहस्ततोऽर्थ त्पञ्चनवतिगव्यूतपर्यन्ते एक गत्युतं पञ्चनवतिधनुः पर्यन्ते एकं धुनरित्यादि लब्धम् / सम्प्रत्युत्सेधमधिकृत्याह - 'लवणे ण भते ! समुद्दे इत्यादि लवणो भदन्त ! समुद्रः कियत कियन्त योजनानि उत्सेधपरिवृद्धया प्रज्ञाराः ?, एतदुक्तं भवति - जम्बूद्वीपवेदिकान्तालवणसमुद्रवेदिकान्तःचारभ्योभयतोऽपि लवणसमुद्रस्य कियत्या कियत्या मात्राया कियन्ति योजनानि यावदुल्सेधपरिवृद्धिः?. भगवानाह-गौतम !'लवणस्स ण समुहस्से त्यादि, इह निश्यतो लवणसमुद्रस्य जम्बूद्वीपयदि कातो लवणसमुद्रवेदिकातच रामतले भूभागे प्रथमतो जलवृद्धि रडलसंख्येयभागः, समतलमेव भूभागमधिकृत्य प्रदेशवृद्धया जलवृद्धिः क्रमेण परिभाना सावदवसेया यावदुभयतोऽति पञ्चनवतियोजनसहसपर्यन्त सप्तशतानि ततः पर मध्यदेश भागे दशयोजनसहसविस्तारे षोडशयोजनसहरसाणि, इह तु पोडशयोजनसहस्रप्रमाणयाः शिखायः शिरसि उपयोश्च वेदिकान्तयोर्मूले दविरकाया दत्तायां यदपान्तराल किमपि जल रहितमाकाशं तदपि करणगत्या तदा भाव्यमिति स जल विपक्षि चाऽधिकृतमुच्यते --'लवणरय समुद्रस्योभयतो जम्बूद्वीपवेदिकान्त लवणसमुद्रवेदिकान्ताच पञ्चनवति प्रदेशान् गत्वा षोडश प्रदेशा उल्लेधपरिवृद्धिः प्रज्ञप्ता, पञ्चनवति वालाग्राणि गत्वा षोडश वालाग्रामि, व यादत पञ्चनवति योजनसहस्राणि गत्वा षोडश योजन सहस्राणि / अन्य राशिकभावनापचनवतियोजनसहखातिक्रमश योजनराहसाणि जलोत्सेधस्ततः पञ्चनवतियोजनातिक्रमे क उत्सेधः ?, सशिायस्थापना -- 65000 / 16000 / 65 / अत्रादिमध्यया राश्योः शून्पत्रिकस्यापवर्तना 65 / 16 / 65, ततो मध्यमराशेः षोडशलक्षणस्थान्त्येन परनदतिलक्षणेन गुणेन जातानि पञ्चदशशतानि विंशत्याधिकानि 1520,
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________________ लवणसमुह 646 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लवणसमुद्द एणमादिराशिना पञ्चनवतिलक्षणेन भागे हृते लब्धानि षोडश योजनानि, उक्त - "पंचाणउइसहस्से, गतूणं जोयणाणि उभओ वि। उस्सेहग लवणे, सोलससाहस्सिओ मणिओ।।१।। पचागउई लवणे. गंतुणं जोयणाणि उभओ वि। कस्सेहेण लवणो, सोलसकिल जोयणे होइ / / 2 / / " सत्रा यदि पञ्चनवतियोजनपर्यन्ते षोडशयोजनावगाहस्ततोऽ | लभ्यते पञ्चनवतिगव्यूतपर्यन्ते षोडश गत्यूतानि पञ्चनवति धनुः एटन्ते शोडश धनूषीत्यादि। (27) सम्प्रति गोतीर्थप्रतिपादनार्थमाह - लवणस्स णं भंते ! समुदस्स के महालए गोतित्थे पण्णते ?, गोयमा ! लवणस्स गं समुदस्स उभओ पासिं पंचाणउति पंचाणउति जोयणसहस्साई गोतित्थं पण्णत्तं / लवणस्स णं भंते ! समुहस्स के महालए गोतित्थविरहिते खेत्ते पण्णत्ते?, गोयमा ! लवणस्स णं समुदस्स दस जोयणसहस्साई गोतित्थ विरहिते खेत्ते पण्णत्ते / लवणस्स णं भंते ! समुदस्स के महालए उदगमाले पण्णत्ते?,गोयमा! दस जोयणसहस्साई उदगमाले पण्णत्ते / (सू०१७१) ल्वणस्स णं भंते !' इत्यादि, लवणस्य भदन्त ! समुद्रस्य कि महतकिं प्रमाणम्हत्वं गोतीर्थ प्रज्ञप्तम् ? गोतीर्थमिव गोतीर्थ क्रमेण नीचो नीयतरः प्रवेशमार्गः, भगवानाह-गौतम् ! लवणस्य समुद्रस्योभयोः पायो / बूद्वीपवेदिकान्ताल्लवण समुद्रवेदिकान्ताचार येत्यर्थः पञ्चनवति योजनसहस्राणि यावद गोतीर्थ प्रज्ञप्तम, उक्तञ्च - पंचाणउइसहस्से गोतित्थं उभयतो विलवणस्स' इति। 'लवणररा णं भंते !' इत्यादि, लवणस्य भदन्त ! समुद्रस्य किं महत् - किं प्रमाणमहत्व गोतीर्थविरहित क्षेत्रां प्रज्ञप्तम् ?, भगवानाह-गौतम! लवणस्य समुद्रस्य पश योजनसहस्राणि गोतीर्थविरहति क्षेत्र प्रज्ञमम्। 'लवणस्सणं भंते!' इत्यादि, लवणस्य भदन्त ! समुद्रस्य किं महती-विस्तरमधिकृत्य किं प्रमाणमहत्या उदकमाला-समपानीयोपरिभूता षोडशयोजनसह - सोच्छ्या प्रज्ञप्ता ?, भगवानाह - गौतम ! दश योजनसहयाणि उदकमाला प्रज्ञा। (28) लवणसमुद्रः किंसंस्थानसस्थित :लवणे णं भंते ! समुद्दे किं संठिए पण्णत्ते ?, गोयमा ! गोतित्थसंठिते नावासंठाणसंठिते सिप्पिसंपुडसंठिए आसखंध संठिते वलमिसंठिते वट्टे वलयागारसंठाणसंठिते पण्णत्ते ? लवणे णं भंते ! समुद्दे केवतियं चक्कवालविक्खंभेणं? केवतियं परिक्खेवेणं ? केवतियं उव्वेहेणं ? केवतियं उस्सेहेणं ? केवतियं सव्वग्गेणं पण्णत्ते ?, गोयमा ! लवणे णं समुद्दे दो जोयणसहस्साइं चक्कवालविक्खंभेणं पण्णरस जोयणसतस- | स्साई एकासीतिं च सहस्साइंसतं च इगुयालं किंचि विसेसूणे परिक्खेवेणं, एगं जोयणसहस्सं उव्ये हेणं सोलस जोयण सहस्साई उस्सेहेंण सत्तरस जोयणसहस्साइंसव्वग्गेणं पण्णत्तं / (सू०१७२) 'लवणे णभते' इत्यादि, लवणो भदन्त! समुद्रः किं संस्थितः प्रज्ञप्तः ?, भगवानाह..गौतम ! गोतीर्थसंस्थान संस्थितः, क्रमेण नीचैर्नीचर तरामुद्धरय भावात, नावासस्थितः बुध्नादूर्द्ध नाव इव उभयोरपि पार्श्वयोः समतल भूभागनपेक्ष्य क्रमेण जलवृद्धिसम्भवेन उन्नताकारत्वात्, 'सिप्प संपुडसदित इति शुक्तिकासंपुटसंस्थानसंस्थितः, उद्वेधजलस्य जलवृद्धिजलस्य चकत्र मीलनचिन्तायां शुक्तिका संपुटाकारसादृश्यसम्भवाल, अश्वस्कन्धसस्थितः उभयोरपि पार्श्वयोः पञ्चनवतियोजनसहयपर्यन्तऽश्वरकन्ध स्येवोन्नततया षोडशयोजनसहस्रप्रमाणोचैस्वयोः शिवाया भावात, वलभीसंस्थितः-वलभीगृहसंस्थानसंस्थितः दश योजनसहरसप्रमाणविरतारायाः शिखाया वलभीगृहाकाररुपतया प्रतिभारानात, तथा वृतो लवणसमुद्रो वलयाकारसंस्थितः, चक्रवालतया तस्यावस्था नात् / / सम्प्रति विष्कम्भादिपरिमाणमे ककालं पिपृत्तिछपुराह .. 'लवणे णं भंते ! समुद्दे' इत्यादि, लवणो भदन्त ! समुद्रः किया चक्रवालविष्कम्भेन कियत्परिक्षेषेण कियदुद्वेधेनउण्डत्वेन कियदुत्सधेन कियत्सर्वाग्रण-उत्सेधोद्धपरिमाणसामस्त्येन प्रज्ञप्तः ?, भगवानाह - गौतम ! लवणसमुद्रो द्वे योजनशतसहस्र चक्रवालविष्कम्भेन प्रज्ञासः, पञ्चदश योजनशतसहस्राणि एकाशीतिः सहस्राणि शतंचकोनचत्वारिंशं किञ्चिद्विशेषोन परिक्षेपेण प्रज्ञप्तः, एक योजनसहरसमुद्वेधेन, षोडश योजनसहस्राण्युत्सेधेन, सप्तदशयोजनसहस्राणि सर्वाग्रेण उत्सधोद्धमीलनचिन्तायाम। इह लवणसुद्रस्य पूर्वाचार्येन प्रतरगणितभावनाऽपि कृता सा विनयजनानुग्रहाय दात, तत्रा प्रतरभावना क्रियते - प्रतरानयनार्थ चेदं करणम्, लवणसमुद्र सत्कविस्तारपरिगाणाद द्विलक्षयोजनरुपाद दश योजनसहस्राणि शोध्यन्ते, तेषु च शाधितेषु यच्ष तरया क्रियते, जातानि पञ्चनवतिः सहस्राणि, यानि च प्राकशोधितानि दश सहस्राणि तानि च तत्र प्रक्षिप्यन्ते, जातं पञ्चोत्तर लक्षम 105000, एतच कोटीति व्यवह्रियते, अनया च कोट्या लवणसमुद्रस्य मध्यभागवत्ती परिरयो नव लक्षा अएचत्वारिंशत्सहस्राणि षट शतानि त्र्यशीत्यधिकानि 648683. इत्येवं परिमाणो गुण्यते, ततः प्रतरपरिमाण भवति, तचेदं-नवनवतिः कोटिशतानि एकषष्टिः कोट्यः सादश लक्षाः पञ्चदश सहस्राणि६६६११७१५०००, उक्तञ्च - "वित्थाराओसोहिय, दस सहस्साई सेसअद्धम्मि। तं चेव पविखवित्ता, लवणसमुदस्स सा कोडी।।१।। लक्खं पंच सहस्सा, कोडीए तीऍ संगुणेऊणं। सवणरस मज्झपरिही, ताहे पयरं इस होइ / / 2 / / नवनउई कोडिसया, एगट्ठी कोडिलक्खसत्तरसा। पन्नरस सहस्साणि य, पयर लवणस्स निद्दिट्ट // 3 // " घनगणितभावना त्वेवम् - इह लवणसमुद्रस्य शिखा षोडश सहस्राणि योजनसहस्रमुद्वेधः सर्वसंख्यया सप्तदश सहस्राणि, तै: प्राक्तन प्रतरपरिमाणं गुण्यते ततो घनगुणितं भवति, तचेदम् - षोडश कोटीकोटयरित्रनवतिः कोटिशतसहस्राणि एकोनचत्वारिंशत् कोटि
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________________ लवणसमुह 650 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लवणसमुद्द सहस्राणि नव कोटिशतानि पञ्चदशकोट्याधिकानि पञ्चाशल्लक्षाणि योजनानामिति 1663366155000000, उक्तज्च"जोयणसहस्ससोलस, लवणसिहाऽहोगया सहस्सेग। पयरं सत्तरसह-स्ससंगुणं लवणघणगणियं / / 1 / / सोलसकोडाकोडी, तेणउई कोडिसयसहस्साओ। उणयालीससहरसा, नव कोडिसया य पन्नरसा / / 2 / / पन्नास सयसहस्सा, जोयणयाणं भवे अणूणाई। लवणसमुहस्सेयं, जोयणसंखाएँ घणगणियं / / 3 / / " आह-कथमेतावत्प्रमाणं लवणसमुद्रस्य घनगणितं भवति?, न हि सर्वत्रा तस्य सप्तदशयोजनसहस्रप्रमाण उच्छ्यः , किन्तु मध्यभाग एव दशसहसप्रमाणविस्तारस्ततः कथं यथोक्तं घनगणितमुपपद्यते? इति, सत्यमेतत, केवलं लवणशिखायाः शिरसि उभयोश्च वेदिकान्तयोरुपरि दवरिकायामेकान्तऋजु रुपायां दीयमानायां दीयमानायां यदपान्तराले जलशून्य क्षेत्र तदपि करणगत्या तदा भाव्यमिति सजल विवक्ष्यते, अत्रार्थे च दृष्टान्तो मन्दरपर्वतः, तथाहि- मन्दरपर्वतस्य सर्वौकादश भागपरिहाणिरुपवर्ण्यते, अथ च न सर्वत्रीकादशभागपरिहाणिः, किन्तु कापि कियती, केवलं मूलादारभ्य शिखरं यावद्दवरिकायां दत्तायां यदपान्तराले क्वापि कियदाकाशं तत्सर्व करणगत्या मेरोभाव्यमिति मेरुतया परिकल्पय गणितज्ञाः सर्वत्रीकादश परिभागहानि परिवर्ण यन्ति, तद्वदिदमपि यथोक्तं धनपरिमाण मिति, न चैतत्स्वमनीषिकाविजम्भितम्, यत आह जिनभद्र गणिक्षमाश्रमणो विशेषणवत्यामेताद्विचारप्रक्रमे-''एवं उभयवेइयंताओ सोलसहस्सुस्सेहस्स कन्नगईए जलवणसमुद्दाभव जलसुन्नं पि खेत तस्स गणिय,जहा मंदरपव्व यस्स एक्कारसभागपरिहाणी कन्नगईए आगासस्स वितदा भव्य ति काउ भणिया तहा लवणसमुद्दरस वि।" इति। जइ णं भंते ! लवणसमुद्दे दो जोयणसतसहस्साई चक्कबाल विक्खं भेणं पण्णरस जोयणसतसहस्साई एकासीतिं च सहस्साई सतं इगुयालं किंचि विसेसूणा परिक्खे वेणं एगं जोयणासहस्सं उव्वेहेणं सोलस जोयणसहस्साई उस्सेधेणं सत्तरस जोयणसहस्साइं सव्वग्गेणं पण्णत्ते / कम्हा णं भंते ! लवणसमुद्दे जंबुद्दीवे दीवं णो उवीलेति नो उप्पीलेति नो चेव णं एकादगं करेति ?, गोयमा ! जंबूद्दीवे णं दीवे भरहेवएसु वासेसु अरहंतचक्कवट्टिबलदेवा वासुदेवा चारणा विजाधरा समणा समणीओ सावया सावियाओ मणुया एगधच्चा पगतिभहया पगतिविणीया पगतिउवसंता पगतिपयणुकोहमाण मायालोभा | मिउमद्दवसंपन्ना अल्लीणा भद्दगा विणिता, तेसि णं पणिहाते लवणे समुद्दे जंबूद्दीवं दीवं नो उवीलेति नो उप्पीलेति नो चेव / णं एगोदगं करेति, गंगासिधुरत्तारवईसु सलिलासु देवया महिड्डियाओ० जाव पलिओवमद्वितिया परिवसंति, तेसि णं पणिहाए लवणसमुद्दे० जावणो चेवणं एगोदगं करेति, चुल्लहिमवंत सिहरेसुवासहरपव्वतेसुदेवा महिड्डिया तेसिणं पणिहाए० हेमवतेरणणवतेसु वासेसु मणुया पगतिभद्दगा० रोहितंससुवण्णकूलरुप्पकूलासु सलिलासु देवयाओ महिड्डियाओ तासिं पणि० सद्दावतिवियडावतिवट्टवेयड्ड पव्वतेसु देवा महिड्डिया० जाव पलिओवमट्ठितिया परिव० महाहि मवंतरुप्पिसु वासहरपव्वतेसु देवा महिड्डिया० जाव पलिओवम ट्ठितिया हरिवासरम्मयवासेसु मणुया पगतिभद्दगा गंधावतिमाल वंतपरिताएस वट्टवेयड्नुपव्वतेसु देवा महिड्डिया, णिसढनीलवंतेसु वासधरपव्वतेसु देवा महिड्डिया०, सव्वाओ दहदेवयाओ भाणियवाओ पउमद्दहतिगिच्छिकेसरिदहा वसाणेसु देवा महिड्डियाओ तासिं पणिहाए० पुव्वविदेहावरविदेहेसुवासेसु अरहंतचक्कवट्टीबलदेवा वासुदेवा चारणा विजाहरा समणा समणीओ सावगा सावियाओ मणुया पगति० तेसिं पणिहाए लवण० सीयासीतोदगासु सलिसासु देवता महिड्डिया०, देवकुरुउत्तरकुरुसुमणुया पगतिभद्दगा०, मंदरे पय्वते देवता महिड्डिया० जंबूए य सुदंसणाए जंबूदीवाहिवर्ती अणाढिए णामं देवे महिड्डिए० जाव पलिओमवट्टितीए परिवसति, तस्स पणिहाए लवणसमुद्दे नो उदीलेति णो उप्पीलेतिनो चेवणं एकोदगं करेति, अट्टत्तरं च णं गोयमा ! लोगद्विती लोगाणुभवि जएणं लवणसमुद्दे जंबुदीयं दीवं नो उवीलेति नो उप्पीलेति नो चेव णमेगोदगं करेति। (सू० 173) "जइणं भत!' इत्यादि, यदिभदन्त ! लवणसमुद्रो द्वे योजनशतराहरवे चक्रवालविष्कम्भेन पञ्चदश योजनशतसहस्राणि एकाशीतिः सहरमाणि शतं चैकोनचत्वारिंशं किञ्चिद्विशेषानं परिक्षेपेण प्रज्ञाप्तः, एक योजनसहसमुद्वधन षोडश योजनसहस्राण्युत्सेधेन सप्तदश योज्न सहस्राणि सर्वाग्रण प्रज्ञप्तः, तर्हि 'कम्हा णं भंते !' इत्यादि, कस्माद् भदन्त ! लवणसमुद्रो जम्बूद्वीप द्वीपं न अवपीडयति-जलेन प्लावयति, न उत्पीडयति - प्राबल्येन बाधते नापि णमिति वाक्यालंकृतौ एकोदकसर्वात्मनोद कल्पावित करोति?, भगवानाह-गौतम ! जम्बूद्वीपे भरतैरा वतयोः क्षेत्रायोरहन्तश्चक्रवर्त्तिनो बलदेवा वासुदेवाः चारणाः-जवाचारणमुनयो विद्याधराः श्रमणा:-- साधवः श्रमण्यः-संयत्सः श्रादकाः श्राविकाः, एतत् सुषमदुष्षमादिकुमारकाय मपेक्ष्योक्तं वेदितव्यम्, तौवार्हदादीना यथायोगं सम्भवात्, सुषमुसुषमादिकमधिकृत्याह - मनुष्याः प्रकृतिभद्रकाः प्रकृति प्रतुनुक्रोधमानमायालोभाः मृदुमार्दवसपन्ना आलीना भद्रका विनीताः, एतेषां व्याख्यानं प्राग्वत्, तेषणं प्रणिधया, प्रणिधान-प्रणिधा, 'उपसर्गादात इत्यङ्प्रत्ययः, तान्, प्रणिधाय अपेक्ष्य तेषां प्रभावत इत्यर्थः, लवण्समुद्रो जम्बूद्वीपंद्वीपनावपीड़यतीत्यादि, दुष्यम
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________________ लवणसमुद्द 651 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लवसत्तम दुष्पमादावपि नावपीडयति. भरतवैताढ्याद्यधिपतिदेवताप्रभावात, तथा क्षल्लहिमवच्छिखरिणोर्वर्षधरपर्वतयोर्देवता महर्द्धिका यावत्करणान्महाद्युतिका इत्यादिपरिग्रहः परिवसन्ति तेषां प्रणिधयाप्रभावेन लवणसमुद्रो जम्बूद्वीप द्वीपं नावपीडयतीत्यादि, तथा हैमवतहरण्यवतोर्वर्षयोर्मनुजाः प्रकृतिभद्रका यावत् विनीतास्तेषां प्रणिधयेत्यादि पूर्ववत्, तथा तयोरेव वर्षयोर्या यथाक्रमं शब्दापातिविकटापातिनौ वृत्तवैता ढ्यो पर्वतो तयोर्देवो महर्द्धिको यावत्पल्योपमस्थितिको परिवस तस्तेषां प्रणिधयेत्यादि पूर्ववत् / तथा महाहिमवद्रुक्मिवर्षधर पर्वतयोर्देवता महर्द्धिका इत्यादि तथैव। तथा हरिवर्षरम्यकवर्ष योर्मनुजाः प्रकृति भद्रका इत्यादि सर्व हैमवतवत्, तथा तयोः क्षेत्रायोर्यथाक्रमं गन्धापातिमाल्यवत्पर्यायौ यो वृत्त वैताढ्यपर्वतो तयोर्देवौ महर्द्धिकावित्यादि पूर्ववत्। तथा पूर्व विदहापरविदेहवर्षयोरर्हन्तश्चक्रवर्तिनो यावन्मनुजाः प्रकृति भद्रका यावद विनीतास्तेषां प्रणिधयेत्यादि पूर्ववत्। तथा देवकुरुत्तरकुरुषु मनुजाः प्रकृतिभद्रका यावद्विनीतास्तेषां प्रणि धयेत्यादि पूर्ववत्। तथा उत्तरकुरुषु कुरुषु जम्ब्यां सुदर्शनाया मनाहृतो नाम देवो जम्बूद्वीपाधिपतिः परिवसति तस्य प्रणिधयां-प्रभावेनेत्यादि तथैव / अथान्यद् गौतम ! कारणम्, नदेवाह-लोकस्थितिरेषालोकानुभाव एष यल्लवणसमुद्रो जम्बूद्वीपंद्वीप जलेन नावपीडयतीत्यादि। तृतीयप्रतिपत्तावेष मन्दरोद्देशकः समाप्तः / (जी०) लवणसमुद्रा असंख्येयाः। जी०३ प्रति०२ उ०। भरतक्षेत्रासम्बनिधमागधादितीर्थानि जगत्या अर्वाक् सन्ति लवणसमुद्रे वेति प्रश्ने ? अनोत्तर--भरतक्षेत्रा सम्बन्धिमागधादितीर्थानि जगत्याः परतो लवणसमुद्रेऽवसीयन्ते, यतो जम्बूद्वीपसमासे भरतक्षेत्रावर्णा नाधिकारे मागधवरदामप्रभासतीर्थद्वारमित्याद्युत्कमस्तीति / / 26 / / सेन०१ उल्लाc / लवणसमुद्रे वृद्धकलशाना लघुकलशानां च मुखानि सर्वथा पानीयस्याधो वर्तन्ते किंवा सहस्रयोजनानामुपरीति प्रश्ने ?, अत्रोत्तर कलशाना मुखानि पानीयस्याधो भूमिसम्बद्धानि वर्त्तन्त इति प्रवचनसारोद्धारसूत्रा वृत्तिक्षेत्रसमासानुसारेण ज्ञायत इति / / 140 / / सेन०३ उल्ला / विषयसूची(१) लवणसमुद्रवक्तव्यता। (2) लवणसमुद्रचक्रवालवष्किम्भादिपरिमाणम्। (3) लवणसमुद्रवनखण्डवर्णकः। (4) लवणसमुद्रद्वारवक्तव्यता। (5) लवणसमुद्रविजयद्वारनैषेधिक्या चन्दनकलशवर्णनम्। लवणसमुद्रविजयद्वारशालभजिकावर्णनम्। (7) लवणसमुद्रविजयद्वारपीठादिवर्णनम्। (8) लवणसमुद्रविजयद्वारचक्रध्वजादिप्रतिपादनम्। (E) लवणसमुद्रगतविजयराजधानीवनखण्डवर्णनम्। (10) लवणसमुद्रे विजयदेवसभा। (11) लवणसमुद्रविजयद्वारस्य चैत्यवृक्षमणिपीठिकाना महेन्द्र ध्वजा दीनां च प्रतिपादनम्। (12) लवणसमुद्रविजयद्वारमणिपीटिकावर्णनम् / (13) सुधर्मासभायाः सिद्धायतनादिप्रतिपादनम्। (14) तत्रोपपातसभाग्रतिपादनम्। (15) विजयदेवाभिषेकः। (16) लवणसमुद्रस्थिताया विजयराजधान्या अधिपतेर्विजय देवस्य निष्क्रमणादिवर्णनम्। (17) विजयदेवस्य तन्महिषीणां च निषीदनादिप्रतिपादनम्। (18) लवणसमुद्रगतवैजयन्तद्वारप्रतिपादनम्। (16) लवणसमुद्रनित्यतादर्शनम्। (20) लवणसमुद्रगतचन्द्रादिसंख्याप्रतिपादनम्। (21) लवणसमुद्रशिखावक्तव्यता। (22) लवणसमुद्रवेलाधारकवेलन्धरादिनागराजाना संख्या तेषा वक्तव्यता च। (23) दकाभासवक्तव्यता। (24) संखवक्तव्यता। (25) लवणाधिपतेधप्रतिपादनम्। (26) उद्वेधपरिवृद्धिचिन्तनम्। (27) लवणसमुद्रगोतीर्थप्रतिपादनम्। (28) लवणसमुद्रः किंसंस्थासंस्थित इत्यस्य वर्णनम्। लवणिया स्त्री० (लवणिका ) दिगम्बरप्रसिद्ध साधूपकरणे, आचा० 1 ध्रु०२ अ०५ उ०। लवणोदपुं० (लवणोद) लवणमिवोदकं यत्रा सलवणोदः / समुद्रे, स्था० २ठा० 1 उ०। लवमेत्त न० (लवमात्र) स्तोकमात्रपरिमितकाले, षो० 8 विव० / लवली स्त्री० (लवली) गन्धवद्वक्षविशेषे, आचा०१ श्रु०१ अ०५ उ०। लवसत्तम पुं०(लवसप्तम्) पञ्चानुत्तराविमानस्थदेवेषु, सूत्रा०१ श्रु०६ अ०। सम्प्रति लवसप्तमदेवस्वरुपमाह - सत्त लवा जइ आऊ, पहु प्पमाणं ततो सिज्झन्तो। तत्तियमेत नहु ततो, ते लवसत्तमा जाया।।१३२|| यदि सप्त लवा:- कालविशेषा आयुः प्रभवेत् स्यात् सप्तलवप्रमाण यद्यायुः प्राप्यतेत्यर्थः ततः सिध्येयुः, परंतत् आयुस्तावन्मात्रम्, (नहु--) नैव अभवत् ततस्ते लवसप्तमा देवा जाता लवे सप्तमे सिद्धिरभविष्यति, यदि तावदायुभवद्येषां ते लव सप्तमाः 'नाम नाम्नैकार्थे समासो बहुलम्' / / 3 / 1 / 18 // इति समासः। के ते लवसप्तमा इत्याहसव्वट्ठसिद्धिनामे, उक्कोसठिई य विजयमादीसु। एगावसेसगढभा, भवंति लवसत्तमा देवा / / 133 / / ये देवाः सर्वार्थासिद्धिनामके महाविमाने ये च विजयादिषूत्कृष्टास्थितय एकोऽवशेषो गर्भो येषां ते एकावशेषगर्भास्ते भवन्ति लवसप्तमाः / व्य० 5 उ०। अत्थि णं भंते ! लवसत्तमा देवा लवस०?, हंता अस्थि से केणऽ?णं भंते! एवं वुच्चइलवसत्तमा देवा लवसत्तमा देवा?, गोयमा ! से जहानामए केइ पुरिसे तरुणे० जाव णिउणसिप्पोव गए सालीण वा वीहीण वा गोधूमाण वाजवाण वाजवजवाण वा पक्काणंपरियाताणं हरियाणं हरियकंडाणं तिक्खेणं णवपज्जणएणं असियएणं पडिसाहरिया पडिसाहरिया पडिसंखिविया पडिसंखिविया०
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________________ लवणसमुद्द 652 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लवसत्तम जाव इणामेव इणामेवे त्ति कट्ट सत्तलवए लुएला, जइणं गोयमा ! | कि मे परो पासइ किञ्च अप्पा, तेसिं देवाणं एवतियं कालं आउए बहुप्प तओ णं ते देवा तेणं किं वाह खलिअंच विवज्जयामि / / 7 / / चेव भवग्गहणेण सिज्झन्ता० जाव अंतं करेंति / से तेणऽटेणं० भाव्यं चिन्तापरेणैव, सर्वदैव हि साधुना ।।''आ० क० 4 अ०। जाव लवसत्तमा देवा लवसत्तमा देवा ! (सू०५२५) लवावसंकि त्रि० (लवावशतिन) लय कर्म तस्मादपशङ्कितुम पसतुं शीलं 'अस्थि ण मित्यादि. लवाः शाल्यादिकवलिका लवनक्रिया प्रमिता: येषां ते लवापशनिः / कायतिकेषु, शाक्यादिषु च / "लवावसंकी य कालविभागाः सप्त सप्तसंख्यामानं प्रमाणं यस्य कालरयासी लवराप्त- अणागएहिं, णो किरियमासु अकिरियवादी। सूत्रा०१ श्रु०१२ अ० | मस्तं लवसप्तमं कालं यावदायुष्यप्रभवति सति ये शुभाध्यवसायप्रवृत्तयः लवावसप्पि त्रि० (लवावरार्पिन) लवं कर्म तस्माद् 'अवसप्पिणो त्ति सन्तः सिद्धिं न गता अपि तु देवेषूरपन्नारते लवसप्तमास्ते च रावार्थ- अवसर्पिणः यदनुष्ठानं कर्मबन्धोपादानभूत तत्परिहारिषु, सिद्धाभिधानानुत्तरसुर विमाननिवासिनः, ‘से जहानामए सिस 'सीओदगपडिदुगंछिणो अपडिणणस्सलवाव सप्पिगो' / सूत्र० 1 श्रु० कश्चिद्यथानामकोऽ निर्दिष्टनामा पुरुषः 'तरणे इत्यादेव्याख्यान प्रागिव १अ०। 'पक्काणं' ति पक्षानाम् 'परियायाण ति। पर्यवगतानां लवनीयावस्था लसइ-देशी-कामे, दे० ना०७ वर्ग 18 गाथा। प्राप्तानाम्, 'हरियाण' ति पिङ्गीभूतानाम ते च पत्रापेक्षयाऽपि भवन्ती लसक - देशी- तरुक्षीरे, दे० ना०७ वर्ग 18 गाथा। त्याह - हरियकंडाण' ति पिड़ीभूतजालानाम्। 'नवपज्जएए' ति, लसअ-देशी-तेल्ले, दे० ना० 7 वर्ग 18 गाथा: नव-प्रत्यय 'पज्जणय ति प्रतापितरयायोधनकुट्टनेन तीक्षणीकृतस्य लसुएन० (लशुन) कन्दविशेषे, उत्त० 36 अ०।३०। (लशुनं सचित्मचित्तं पायनंजलनिवोलन यस्य तन्नवपायनं तेन 'असियएण ति दात्रण वेति सचित्त' शब्दे वक्ष्यते) पउिसाहरियत्ति। प्रतिसंहृत्य विकीर्णनालान् बाहुना सगृह्य 'पडि लहरी स्त्री० (लहरी) उत्कलिकायाम्, स्था० 4 टा०३ उ०। संखिविय' ति मुष्टिग्रहणेन संक्षिप्य 'जाव इणामेव' इत्यादि प्रज्ञापकरय लहु न० (लघु) शीघ्र, उत्त० 1 अ०। पञ्चा० / प्रश्न०। प्रायस्तिय॑ गूर्वाधो लवनक्रिया शीघ्रत्योपदर्शनपरचप्पुटिका दिहस्तव्यापारसूचक वचनम। गमनहेतौ अर्कतूलादिनिः सृते स्पर्शभेदे, अनु० / 'एग लहुए / स्था०१ ठा० विशे० / कर्म० / लघुस्पर्शवद् द्रव्ये, यत्तु द्रव्यं निसर्गत एवोर्ध्व'सत्तलव' इति लूयन्त इति लवाः शाल्यादिनालमुष्टयर तान लवान गतिस्वभाव तल्लधु यथा दीपफलकादि। आ० म०१ अ०। (अथ कि 'लुएन त्ति लुनीयात, ता च सप्तलवलवने यावान कालो भवतीति गुरु किं लघु किं वा अगुरुलघु इति 'अगरुलहुय' शब्दे प्रथमभागे 157 वाक्यशेषो दृश्यः, ततः किमित्याह- 'जइण' इत्यादि, 'तेसिं देवाण ति पृष्टे दर्शितम्) अणुके, स्था०५ ठा०१ उ० / गुणगौरवरहिते प्रश्न०१ द्रव्य देवत्वे साध्ववस्थायामित्यर्थः 'ते ण चेव' नि यस्य भवग्रहणस्य आश्र० द्वार। लघुपञ्चकादौ प्रायश्चिते, व्य०१ उ०। सम्बन्धि आयुर्न पूर्ण तेनैव, मनुष्यभवग्रहणेनेत्यर्थः / भ०१४ २०७उ० / लहुअकड - देशी- न्यग्रोथे, दे० ना०७ वर्ग 20 गाथा। लवालवपु० (लवालव) कालानुपेक्षणेन सामाचार्यनुछाने, स०३२ सम०। लहुइय त्रि०। (देशी) तुलिते, "लहुइअं" ओहामि तुलिअं' पाइ० प्रश्न०। आव०। ना०१८७ गाथा। लवालवोदाहरणमाह -- लहुकरण न० (लघुकरण) गमनादिकायां शीघ्रक्रियायाम, ज्ञा०१ श्रु०३ 'भरुअस्थम्म अविज्जए, नगपिडए वास वासनागहरे। अ० / 'लहुकरणजुत्तजोइयं” लघुकरणेन दक्षत्वेन ये युक्ता पुरुषाठवणा आयरिअररा उ, सामायारीपउंजणया।।१।। स्तैोजितं यन्त्ररुपादिभिः सम्बद्धिलं यत्तत्तथा। उपा० 7 अ० लघुकरण आसीद भृगुपुरे सूरि-रेकस्तेन निजो (नि) स्तिषत। शीघ्रक्रियादक्षत्वं तेन युक्तौ योगिकौ च प्रशस्तयोगवन्तौ प्रशस्तसदृशविजयः प्रेषितोऽवन्ती- पुर्या कार्येण केनचित् / / 2 / / रुपत्वाद्यौ तौ तथा। भ०६ श०३३ उ०। स च ग्लानादिकार्यण, व्याक्षेपादन्तरे स्थितः। लहुग पुं० (लघुक) षष्ट भक्तकरणतः पूरणीये त्रिशदिवरापरिमाणे रुद्धश्चाकालवणेन, भूरभूदण्डकाकुला // 3 // प्रायश्चित्तव्यवहारे, व्य०२ उ० / बृ० / गौरवत्रयत्यागात् लाघववति, वर्षावासं वटपिट-ग्रामे नापिगृहे स्थितः। प्रश्न० 5 संव० द्वार / एकः पार्श्वस्थादिद्लकादिषु दुष्टकर्मकारी पर कर्तु गुरुकुलावासं. न्यधत्त स्थापनागुरुम् / / 4 / / शुद्धप्ररुपकोऽपर उत्सूत्राप्ररुपकः परं तपः प्रभृति भूयः क्रियावान् कालं जग्राह कृत्वा वा--ऽऽवश्यकं विधिपूर्वकम्। एतयोर्मध्ये को गौरववान् कश्च लाघव वानिति प्रश्ने ?, अत्रोत्तरम् - कालं प्रवेद्य पश्चाच, कृत्वा स्वाध्यायमुत्तमम् / / 5 / / एतयोर्मध्येऽयं गुरुरय च लघुरिति निर्णयः कर्तुं न शक्यते, तथाविधएवमावश्यकाद्या स, समाचारी व्यवान्मुनिः। सिद्धान्ताक्षरानुपलम्भाजीवपरिणामानां वैचित्र्याच, सर्वथा निर्णयरतु न किञ्चन विसरमार, सोपयोगः क्षणे क्षणे।।६।। सर्वविद्वेद्यो, व्यवहारवृत्त्या तूत्सूत्रप्ररुपको गौरववानिति सम्भाव्यते किं मे कडं किञ्चमकिञ्चसेसं. // 13 // सेन०१ उल्ला०। किं सक्कणिजं न समायरामि। | लहुत्तरगन० (लघूत्तरक) अष्टाविंशतिदिनमाने प्रायश्चिते, व्य) 2 उ८।
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________________ लहुत्थाण 653 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लहुसीहणि० लहुत्थाण न० (लघूत्थान) अल्पोत्थाने, "लघूत्थानान्य विनानि, | | लहुस त्रि० (लघुस्व) लघुः स्व आत्मा यस्य सः लधुरतः। सम्भवत्साधनानि च / कथयन्ति पुरः सिद्धि, कारण न्येव कर्मणाम् | अल्पस्वरूपे, 01 श्रु०२ अ०। ईषदल्पे, स्तोके, नि० चू०२ उ०। 12|| संघा०१ अधि०२ प्रस्ता०। लहुसग त्रि० (लहुराग) स्तोके, व्य०२ उ० / लघुस्वभावयुत्ते, भ०६ लहुदक्खोववेय म० (लघुदाक्ष्योपपेत) लघु-शीघ्र दाक्ष्यं चातुर्य श०३३ उ०। लहुस्सगे नाम ववहारे पट्टवियब्वे सिया। नि० चू०२ उ / तनोपपेतः / अविलम्बितचातुर्यतया कार्यकारिणी, उत्त०१ उ०। लहुसीहनिक्कीलिय न० (लघुसिहनिष्क्रीडित) स्वनामख्याते तपसि, लहुदारुन (लघुदारु) लघुकाटे, "लघुदारु किलिंब पाइ० ना०२२६ प्रव०। गथा। लघुसिंहनिष्क्रीडितं तपः प्रतिपादयितुमाहलहुपरकम धु० (लघुपराक्रम) ईशानेन्द्रदेवस्य पदात्यनीकाधिपती. स्था० इग दुग इग तिग चउ तिग, दुग पण चउ छक्क पंच सत्त छगं। 5 ठा०१ उ०। अडग सत्तग नवगं, अट्ठग नव सत्त अद्वेव।।१५२६।। लहुपययणसार पुं० (लघुप्रवचनसार) श्रीहेमचन्द्रसूरिशिष्य श्रीचन्द्र- छग सत्तग पण छक्कं, चउ पण तिण चउर दुग तिगं एगं / सुरिविरचिते साध्वाहारभेदज्ञानार्थे प्रकरणग्रन्थे, "रइयं पगराणमेग, दुग एक्कग उपवासा, लहुसीहनिकीलियतवम्मि।।१५३०।। मुणीणमाहारभयनीणड / सिरिसिरिचन्दमुणिदण हेमसूरीण सिस्सेण" अनन्तरवक्ष्यमाणमहासिंहनिष्क्रीडितापेक्ष्या लघु हरवं सिंहस्य ल०प्र० निष्क्रीडितमिदमित्यर्थः, सिंहनिष्क्रीडितं तदिव यत्त पस्तत्सिंहलहुफासणाम न० (लघुस्पर्शनामन) स्पर्शनामभेदे, यदुदयात् जन्तु निष्क्रीडितमिति, सिंहो हि गच्छन् गत्वाऽतिक्रान्तं देशमवलोकयति, शरीरमर्व तूलादिवल्लघु भवति। कर्म०१ कर्म०। एवं यत्र तपस्यतिक्रान्ततपोविशेष पुनरासे व्यागेतनं प्रकरोति तत लहुबुद्धिरपी० (लघुबुद्धि) शीघ्रक्रियाकरणाध्यवसाये, कल्प०१ अधि० सिंहनिष्क्रीडितमिति, एतस्य चैवं रचना-एकादयो नवान्ताः क्रमेण स्थाप्यन्ते, पुनरपि प्रत्यागत्य नवादयः एकान्ताः, ततश्च द्वयादीनां ७क्षण। नवान्तानामग्रे प्रत्येक मेकादयोऽष्टान्ताः स्थाप्यन्ते, ततोनवाद्येकान्तलहुभूय पुं० (लघुभूत) लघुभूतो अनुपधित्वेन गौरवत्यागेन च लधुरुष प्रत्यागत पड़ क्तावष्टादीनां द्वयन्तानामादौ सप्तादय एकान्ताः स्थाप्यन्ते साधी, स्था० 6 टा०३ उ०।मोक्षे, संयमे च। आचा० 1 श्रु०३ अ०२ उ०। इति / अयमर्थ:- प्रथममेक उपवासकः, ततः-पारणकम्, एव मन्तरा लहुभूयगा (का) मि (न) पु० (लघुभूतगामिन्) लघुभूतो मोक्षो संयमो सर्वा पारणकं ज्ञेयम्, ततो-दौ, ततएकः, ततस्त्रय उपवासाः, ततो द्वौ, वा तं गन्तु शीलमस्येति लघुभूतगामी। लघुभूतं वा कामयितुं वा शीलम ततश्चत्वारः, ततस्त्रयः, ततः पञ्च, ततः-चत्वारः,ततः-षट्,ततःम्येतिलघुभूतकामी। मुमुक्षौ, संयते च / आचा०१ श्रु० 3 अ०२ उ०। पञ्च, ततः-सप्त, ततः-षट्, ततः-अष्टौ, ततः-सप्त, ततो-नय, ततःलहुभूयविहारि पु० (लघुभूतविहारिन् ) लघुभूतो वायुः वायुभूतो अरी. ततो-नव, ततः- सप्त, ततः-अौ, ततः-षट्, ततः-सस, ततःप्रतिबद्धतया विहारोऽस्यास्तीति लघुभूतविहारी। कचिदप्य प्रतिवाद पञ्च, तत:-पट, ततः-चत्वारः, ततः--पञ्च, ततः यः, ततः-- विहारिणि, दश० 4 अ०। चत्वारः, ततो-दो, ततः-त्रयः, ततः-एक इति, एते लघुसिंह निष्क्रीलहुमच्छ पुं० (लघुमत्स्य) लघुमीने, "कडुयाला कुंधरा यलहु भच्छा" डिले तपस्युपवासाः। पाइ०1०१२८ गाथा। अथोपवासादिवसानां पारणकदिनानां च संख्यामाह - लहुय त्रि० (लघुक) अल्पे, सूत्रा०२ श्रु०२ अ०। 'छुई भडह लहुयं'' चउपन्नखमणसयं, दिणाण तह पारणाणि तेत्तीसं / पाइ० ना० 171 गाथा। ऊर्ध्वगमनस्वभावे धूमादौ, स्था० १०टा०३ इह परिवाडिचउको, परिसदुगं दिवस अडवीसा / / 1531 / / उ०। सत्वसारवर्जित तुच्छे, प्रश्न०२ संव० द्वार। लधुसिंहनिष्क्रीडिते तपसि क्षमणदिनानाम्-उपवासादिव साना लहुयत्तन० (लघुकत्व) गौरव विपरीते, भ०१९०६ उ०पलाधवे, पञ्चा० शलगेकं चतुःपञ्चाशदधिक, तथाहि-द्वे नवसंकलने, ततः-एका 45, 17 विव० / (जीवा लधुकत्वं गुरुत्वं वा कथं गच्छन्तीतित कम्म' शब्दे पुनः 45, अष्टसंकलना चैका 36, सप्त संकलनाऽप्येवैका 28, सर्वमीलने तृतीयभागे 332 पृष्ठे गतम्) ('आउलीकरण' शब्दे द्वितीयभागे लघुकत्वं च यथोक्ता संख्या भवति 154, तथा पारणकानि कायरिवंशत् तदेवं जीवाः कथं गच्छन्तीत्युक्तम्) सर्वदिनसंख्या 187, तथा च- षण्मासाः सप्तदिनाधिका भवन्ति, तच लहुया रत्री० (लघुता) लघोर्भायो लघुता / लघुत्वे, व्य० 1 उ० / तपः परिपाटीचतुष्टयेन क्रियते, तत एतेषु चतुर्गुणितेषु द्वे वर्षे अष्टा स्तोकतायाम्, आ० म०१ अ०। त्रीन्द्रियजीवभेदे, प्रज्ञा० 1 पद। विंशतिदिनाधिके भवतः। लहुवित्तिपरिक्खेव पुं० (लघुवृत्तिपरिक्षेप) लघुवृत्तिः परिक्षेपोऽ स्येति अथ परिपाटीचतुष्टयेऽपि प्रत्येकं पारणस्वरुपं निरुपयति .. लघुवृत्तिपरिक्षेपः / अल्पाहारे, आचा०१ श्रु० 8 अ०१ उ०। विगईओ निव्विगइये , तहा अलेवाडयं च आयामं / लहुवी स्त्री० (लघ्वी) "नन्वीतुल्येषु // 8 / 2 / 113 / / इति अन्तव्यञ्जनात् परिवाडिचउक्कम्मि, पारणएसुं विहेयव्वं / / 1532 / / पूर्व उकारः / लाघववत्याम्, प्रा०२ पाद / प्रथमपरिपाट्या पारणकेषु विकृतयो भवन्ति, सर्वरसोपे -
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________________ लहुसीहनि० 654 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लाभ संपारणकमिति भावः, द्वितीयपरिपाट्यां निर्विकृ तिर्विकृतिविरहः, | लाउयनिल्लेवण न० (अलाबुकनिर्लेपन) पात्रप्रक्षालने , बृ० 0 उ० तृतीयपरिपाट्यामलेपकारिवल्लचणकादिः, चतुर्थपरिपाट्यामाचाम्लं 2 प्रक०। परिमितभेक्ष्यमिति, एवमस्य तपसः पारणक भेदेन चतसः परिपाट्यो लाउयपाय न० (अलाबुकपात्र) तुम्बपात्रो, स्था० 3 ठा०३ उ०। (अत्र विधेयाः। प्रव० 271 द्वार। भेदाः पत्त' शब्दे पञ्चमभागे 363 पृष्ठे गताः) लहुस्सग पुं० (लघुस्वक) तुच्छात्मनि, प्रश्न० 3 आश्र द्वार। लाउयफल न० (अलाबुकफल) तुम्बिनः फले, अनु०। लहुस्सगदोस पुं० (लघुकस्वकदोष) तुच्छत्वरुपस्वकदोष, व्य० 5 उ०। लाउयवण्ण त्रि० (अलाबुकवर्ण) आर्द्रततुम्बवणे, चं० प्र० 20 पाहु०॥ लहुहत्थ पुं० (लहुहस्त) हस्तलाघवे, प्रश्न० 3 आश्र0 द्वार। क्रियासु लाउयवण्णाभत्रि० (अलाबुकवर्णाभ) पक्कावस्थतुम्बकवभि, भ०१२ दक्षे हस्ते, ज्ञा० 1 श्रु०२ अ०। श०३ उ०। लाअण्ण न० (लावण्य) "क-ग-च-ज-त-द-प-य-वां प्रायो लुक लाउल्लोइयमहिय त्रि० (लापितोल्लोचितमहित) 'लाउल्लोइयं' / / 8 / 1 / 177 // इति वस्य लुक् / लाअणं / लवणिमनि, प्रा०१ पाद। छागणादिना भूमौ लेपनम् / 'उल्लोइयं सेढिटि) कादिना कुडयादिषु लाआण पुं० (राजन) नृपे, "शेष शौरसेनीवत् ॥८।४।३०सा मागध्यां धवलन ताभ्या महितमिव - पूजितमिव ते एव वा महित पूजनतो यत्रा। रस्य लः / अवशलोपसप्पणीया लायाणो' प्रा०। अन्ये तु व्याचक्षते-लिप्तम्, उल्लोचितम् उल्लाचयुष्कं महितं चेतित। लाइअ-देशी-भूषायाम्, गृहीते, चौधे च। दे० ना०७ वर्ग 27 गाथा / भ०१२ श०८ उ०। लाइम त्रि० (लाविम) लवनमति, लवनयोग्ये च / दश०७ अ०। आचा०। लाघव न० (लाघव) लघोर्भावो लाघवम्। आचा० 1 श्रु०६ अ० 3 उ०। लाइय न० (लायित) छगणादिना भूमिकायाः संमृष्टीकरणे, भ. 12 श० द्रव्यतोऽल्पोपधित्वे, भावतो गौरवायत्यागे, कल्प०१ अधि०६ क्षण। 8 उ०। ज्ञा०। जी01 आचा० / स्था० / नि० चू०। औ० / स० / नि० / तद्रूपे श्रमणभेदे, स्था० लाइल्ल - देशी-वृषभे, दे० ना०७ वर्ग 18 गाथा। 10 ठा० 3 उ० / क्रियासुदक्षत्वे, भ०२ श०५ उ०। रा०। लाउ न० (अलाबुक) तुम्बके, "वाऽलाब्बरण्ये लुक" / / 8 / 1 / 66 / / इति | लाघविय न० (लाघविक) कर्मणा लाघवापादनं कर्म गुरोर्वात्मनः आदेरस्य लुक् / लाउं। अलाउ। प्रा० / ब० / नि०। चू०। भ०। पात्रभेदे, कम्प नययतो लघ्ववस्थासजनने, सूत्रा०२ श्रु०१ अ०। स्था०३ ठा०३ उ० / विशे०। ज्ञा०। से नूणं भंते ! लाघवियं अप्पिच्छा अमुच्छा अगेही अपडि___ निर्ग्रन्थीभिः सवृन्तकमलाबुन धर्त्तव्यम्। बद्धया समणाणं णिग्गंथाणं पसत्थं ?, हंता गोयमा! लाघवियं० नो कप्पइ निग्गंथीणं सर्वेटगं लाउयं धारित्तए वा परिहरित्तए जाव पसत्थं। (सू०७४) वा / / 43|| कप्पइ निग्गंथाणं सर्वेटगं लाउयं धारित्तए वा 'लाघवियं' ति लाघवमेव लाघविकम् अल्पोपाधिकम्, 'अप्पिच्छे परिहरित्तए वा।।४४|| ति अल्पोऽमिलाष आहारादिषु 'अमुच्छ ति उपधावसंरक्षणानुबन्धः व्याख्या सुगमा। नवरं सवेण्टकम्-नालयुक्तम् अलाबुक तन्निन्थीना "अगेहि त्ति भोजनादिषु परिभोगकालेऽनासक्तिः अप्रतिबद्धता स्वजनान कल्पते / / 43 / / निर्ग्रन्थानां तु कल्पते।।४४।। दिषु स्नेहाभाव इत्येतत्पञ्चक मिति गम्यम्, श्रमणानांनिर्ग्रन्थानाम्, अत्रा भाष्यम् - प्रशस्तम्- सुन्दरम्, अथवा-लाधविक प्रशस्तम्, कथम्भूतमित्याहते चेव सर्वेटम्मि वि, दोसा पादम्मि जे तु सविसाणे। 'अप्पिच्छा' अल्पेच्छारुपमित्यर्थः, एवमितराण्यपि पदानि / भ०१ अइरेग अपडिलेहा, विइयगिलाण सदट्ठवणा। श०६उ०॥ त एव सवृन्तेऽपि-सनालेऽपि अलाबुमये पात्रो दोषा मन्तव्याः, ये ] लाडपुं० (लाट) कोटीवर्षनगरप्रतिबद्धे आर्य्यदेशे, प्रज्ञा०१पदा आचा० / सविषाणे आसने पादकादय उक्ताः / द्वितीयपदे तु धारयेदपि, | __सूत्रा० / स्था० / आ० म०। आ० क० / तत्राध्वनि घृतं वा तैले वा सुखेनैवापरिगलदुह्यते, ग्लानाया वा योग्य लाढ-पुं०। लाढयति प्रासुकैषणीयाहारेण साधुगुणैः आत्मानं यापयतीति तत्रौषध प्रक्षिप्तमाने तव्यं संवृन्तकं प्रवर्तिनी स्वयं सारयति / लाढः, प्रशसाभिधेयो वा, देशीपदमेतद्वा। (उत्त०) लाढयति यापयति निर्ग्रन्थानामपि निष्कारणे न कल्पते, यदि धारयन्ति ततोऽतिरिक्तोपर- आत्मानम् एषणीयाहारेण निर्वाहयतीति लाढः / एषणीयचारिणि साधी, कणदोषः सवृन्तके च प्रत्युपेक्षणेन शुद्धयति, द्वितीयपदे ग्लानस्य योग्य उत्त०२ अ०। मौषधं ता स्थापयति इति कृत्वा ग्रहीतव्यम्। 05 उ०। (अलाबु- लाढायरिय पुं० (लाढाचार्य) छेदग्रन्थव्याख्याविशेषकारके स्वनामख्याते प्रमाणमात्रापादकेशरिकानधारयितव्येति पायकेसरिया' शब्दे पञ्चम- आचार्य, बृ०१ उ०३ प्रक० / नि० चू०। भागे 850 पृष्ठे उक्तम्) लाभ पुं० (लाभ) अप्राप्तवस्तुप्राप्तो, उत्त० 1 अ० / लम्भलाउडिय पु०(लाकुटिक) डङ्गरायाम, बृ०३उ०। नमलाभः / स्था० 3 ठा०४ उ० / अभ्युदयप्राप्तिविशेषे, आ०
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________________ लाभ 655 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लासग म०१ अ०। पञ्चा० / लभ्यत इति लाभः / उत्त०२८ अ०। अन्नादौ, | पेयायाम, जीत०। स्था०४ ठा०३उ०। लालंपिअ--देशी-प्रबालखलीनाकन्दितेषु / दे० ना०७ वर्ग 27 गाथा। लाभंतर न० (लाभान्तर) लम्भनं लाभोऽपूर्वार्थप्राप्तिरन्तरं विशेषः, लालप्पइत्ता अव्य० (लालप्य) अत्यर्थं पुनः पुनर्वा लपित्वेत्यर्थे, सूत्र० लाभश्चासावन्तरञ्च / उत्त० 4 अ०। लाभविशेषे, व्य० 10 उ० / १श्रु०१०अ०। एकस्माल्लाभादन्यो लाभो लाभान्तरम् / ज्ञानदर्शन चारित्रादीनां लालप्पणपत्थणा स्त्री० (लालपनप्रार्थना) लालपनस्य गर्हितलापस्य लाभविशेषे, उत्त० 4 अ०। प्रार्थनेव प्रार्थना लालपनप्रार्थना। चौर्य हि कुर्वन् गर्हितलपनानि तदपलाभतरायन० (लाभान्तराय)अन्तरायकर्मभेदे, यदुदयवशाद्दानगुणेन लापरुपाणि, दीनवचनरुपाणि वा प्रार्थयत्येव, तत्र हि कृते तान्यवश्यं प्रसिद्धादपि दातुर्गृहे विद्यमानमपि देयमर्थजात याञ्चाकुशलोऽपि वक्तव्यानि भवन्तीति भावः / पञ्चविंशतितमे गौणचौर्ये, प्रश्न०३ गुणवानपि याचको न लभते तल्लाभान्तरायम् / पं० सं०३ द्वार / आश्र० द्वार। कर्म०। स01 लालप्पणया स्त्री० (लालपनता) भृशं लपनताप्रार्थने, भ० १२श०५ उ०। लामकं खि त्रि० (लाभाकाक्षिन्) ज्ञानदर्शनचारिारुपपरमार्थ- लालप्पमाण त्रि० (लालप्यमान) भोगार्थमत्यर्थे लपति, आचा०१ श्रु० लाभार्थिनि, व्य० 1 उ०। 2 अ०३ उ०। लाभट्ठि त्रि० (लाभार्थिन) धनादिलाभार्थिनि, भ० 6 श० 33 उ० / | लालस-देशी-मृदुनि, इच्छायांचा दे० ना०७ वर्ग 21 गाथा। लम्पटे, भोजनमात्रादिप्रार्थिनि, औ०। "लोला-लालस लोलुअ'' पाइ० ना०७५ गाथा। लाभट्ठिय पुं० (लाभार्थिक) भावलाभेन निर्जरादिनाऽर्थो ऽस्येति | लाला स्त्री० (लाला) लालतीति लाला / अत्रुट्यन्मुखश्लेष्मस न्ततौ, लाभार्थिकः / संयते, दश०५ अ०१ उ०। आचा०१ श्रु०२ अ०५ उ०। औ०।०नि० चू०। जी०। मुखश्रावे, लाभमय पुं० (लाभप्रद) अहमेव लाभेनोत्तमया पर्यन्तवर्तीति लाभ प्रज्ञा०१ पद / उदाहरणम् --- 'लालापगलंतकन्ननासं' ति लालाभिः जन्यमदभेदे, स्था० 10 ठा० 3 उ० / स०। यो कल्पान्तरायो लब्धि- ल्केदतन्तुभिः प्रगलन्तौ कौँ नासा च यस्य। विपा०१ श्रु०७ अ०। मानात्मकृते परस्मै चोपकरणादिकमुत्पादयितुमलं स लघुप्रकृतितया लालापचासि (म्) त्रि० (लालाप्रत्याशिन्) ललतीति लालाअत्रुट्यन्मुलाभमदावलिप्तो भवति। सूत्रा०१श्रु०१३ अ०। खश्लेष्मसन्तातिस्तां प्रत्यशितुं शीलमस्येति लाल प्रत्याशी / लाभविजय पुं० (लाभविजय) श्रीमहोपाध्यायश्रीकल्याणविजय वान्ताभिलाषिणि, आचा० 1 श्रु०२ अ०५ उ०। गणिशिष्यमुख्यपण्डिते, नं०। प्रतिकाद्वा०॥"चमत्कारं दत्ते त्रिभुवन- लालाविस पुं० (लालाविष) लाला-मुखश्रावः तत्र विषं यस्य। सर्पभेदे, जनानामपि हृदि, स्थितिमी यस्मिन्नधिकपदसिद्धि प्रणयिनी। प्रज्ञा०१ पद। जी०। सुशिष्यास्ते तेषां बभुरधिकविद्यार्जितयशः- प्रशस्तश्रीभाजः प्रवर- | लावंज- देशी-उशीरे, दे० ना०७ वर्ग 21 गाथा। विबुधा लाभविजयाः" ||1 // द्वा० 32 द्वा०। लावग पुं० (लावक) पक्षिविशेषे, प्रश्न०२ आश्र० द्वार / विपा०नि० लाभासंसापओग पुं० (लाभाशंसाप्रयोग) कीर्तिः श्रुतादिलाभो मे चू० / प्रज्ञा०। भूयादिति लाभाशंसाप्रयोगः / तद्मापारे, स्था० 10 ठा० 3 उ०। लावगकरण न० (लावककरण) यत्र लावकपक्षिणमुद्दिश्य किंचित् ('आसंसापओग' शब्दे द्वितीयभागे 466 पृष्ठे अत्रात्या वक्तव्यता गता) क्रियते / तादृशे स्थाने, स्था० 4 ठा०१ उ०। आचा०। लाभत्रि० (ललाम) रम्ये, "ललंतलामगललायवरभूसणाणं " ललन्ति- लावगलक्खण न० (लावकलक्षण) लावकपक्षिप्रतिपादके शास्त्रे, सूत्रा० दोलायमानानि लामन्ति प्राकृतत्वाद् रम्याणि गललातानि-कण्ठेना- २श्रु०२अ०। ऽऽत्तानि वरभूषणानि येषां ते तथा। (प्राकृतत्वात्तथापदसिद्धिः।) औ०। लावण्ण न० (लावण्य) स्पृहणीयत्वे, ज्ञा०१श्रु०६ अ०। लामंजय न० (लामञ्जय) कमलतन्तौ, "नलयं लामंजयं उसीरं च" उत्त०ा औ०। मनोज्ञत्वे, ज्ञा०१ श्रु०१अ०।शरीरकान्तौ, रा०ा सौन्दर्य, पाइ० ना० 146 गाथा। अणु० / लावण्यं छायाविशेषेलक्षणम्, कुङ्कुमाद्यनुलेपन जभित्यपरे, लामा - देशी - डाकिन्याम्, दे० ना० 7 वर्ग 21 गाथा। "रोअणिआ प्रज्ञा०२३ पद। शरीराकृतिविशेषे, भ० 14 श० उ०। लामाओ" पाइ० ना० 107 गाथा। लावण्णलतिया स्त्री० (लावण्यलतिका) वरधनुषो भार्यायाः श्रीकान्त्याः लाय पुं० (लाज) भृष्टब्रीहौ, आचा०२ श्रु०१चू०४ अ०२ उ०। दास्याम, उत्त० 16 अ०। लायण्ण न० (लावण्ण) शरीरकान्तौ, "छाया कंती छवी य लायण्णं" | लासन० (लास्य)लासिकानां नृत्ये, "न दीर्घानुस्वारात्"।२५।२१२।। * पाइ० ना०११३ गाथा। इति सकारस्य न द्वित्वम्। लास्यम्। लासं। प्रा०। "नमुलासं तंडन' लायातरण न० (लाजातरण) तीर्यते इवास्यामतिस्वच्छतया इत्यधि- | पाइ० ना० 166 गाथा। करणे अनट् तरणम्, लाजाभृष्टा ब्रीहयस्तैर्निर्वृत्तं तरणं लाजातरणम्। | लासग पुं० (लासक) गायके, अनु० /
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________________ लासग 656 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लिंग * रासक-पुं० / गायके, अनु० / रा०। ये रासकान् गायन्ति, जयशब्दप्रयोक्तारो वा भाण्डाः / औ०। जी०। रा०। नि० चू० / जं०॥ प्रश्न०। ज्ञा०। लासयविहअ-देशी-मूयरे, दे० ना०७ वर्ग 21 गाथा। लासिय पुं० (लासिक) भिल्लविशेषे, प्रश्न०१आश्र० द्वार। लाह पुं० (लाभ) "ख-घ-थ-ध-भाम्-" ||8 / 1 / 187 / / इति भस्य हः / प्रा० / प्राप्तौ, अष्ट०५ अष्ट० आव०। अप्रतिष्ठिताजिन बिम्बमर्चयतः, पादादिनाऽऽशातयतो वा लाभालाभौ न वेति ?, लाभश्चेत्तर्हि प्रतिष्ठायाः किं प्रयोजनमिति प्रश्नः?, अत्रोत्तरम्-अप्रतिष्ठितप्रतिमानां वन्दने व्यवहारो नास्तीति कथं लाभः। आशातनाकारणे तु प्रत्यवायो भवत्येव, तासु तीर्थकराकरोपलम्भादिति // 133 / / सेन०२ उल्ला० नमस्कारस्य श्रीशत्रुञ्जयनाम्नश्च गणने अधिकलाभः कुत्रास्तीति प्रश्नः। अत्रोत्तरं यस्य यद्गणने चित्तोलासोऽधिको भवति तस्य तद्रणनेऽधिकलाभोऽस्ति, परं द्वयोमहिम्नः पारो नास्तीति / / 464 // सेन०३ उल्ला० / पुञ्जणिकया वायुकरणे लाभोऽलाभो वा इति प्रश्नः ?, अत्रोत्तरंमुख्यवृत्त्या पुञ्जणिकया वायुकरणं ज्ञातं नास्ति, परंगुर्वादीनां मक्षिकोड्डोपनार्थं वायुकरणे लाभोऽस्ति,नत्वलाभो, यतो मक्षिकोड्डापनं गुरुभत्किरेवेति॥१४६। सेन०४ उल्ला०। वृद्धकल्पदिने पौषधकरणे लाभः पूजाकरणे वा इति प्रश्नः ?, अत्रोत्तरं-मुख्यवृत्त्या पौषधकरणे महान् लाभः, कारणविशेषे तु यथाप्रस्तावो भवति तथा करणे लाभ . एवास्ति, यतो जिनशासने एकान्तवादो ज्ञातो नास्तीति॥१५१।। सेन० उल्ला०। लाहण-देशी--- भोज्यभेदे, दे० ना०७ वर्ग 21 गाथा। लाहवियन० (लाघविक) लघो वो लाघवं तद्विद्यते यस्यासौ लाघविकः / लघुभूते, आचा०१ श्रु०८ अ० गौरवत्यागे, स्था०५ ठा०३ उ०। विव०। वेषे, षो०१ विव० / शिश्ने, सूत्रा०१ श्रु० 4 अ०१ उ०। ('अंगादाण' शब्दे प्रथमभागे 40 पृष्ठे तत्संचालनादिनिषेधः) रजोहरणादिबाह्यने पथ्ये, दर्श०५ तत्त्व / व्य० / ननु गृहिचरकादयो भवन्तु भवानुयायिनो भगवल्लिङ्गधारिणस्तु कथमित्यत्राह, "संसारसागरमिणे, परिभमंतेहि सव्वजीवेहिं / गहियाणि य मुक्काणि य, अणंतसो दव्वलिंगाइं॥८॥" ननु त्रयः संसारपथा स्त्रयश्च मोक्षपथा इति यदुक्तं तत् सुन्दरं परं यत्सुसाधुविहारेण तत् कुा पक्षे निक्षिप्यतामित्यत आह - "सागेण वइय जे गच्छ निग्गया पविहरंति पासत्था। जिणवयणबाहिरा विय,तेउ पमाणं न कायव्वा / / 6 // " ग०१ अधि० शब्दनिष्ठे अर्थगतसत्त्वाद्युपचयापचयनिमित्ते स्त्रीत्वपुंस्त्वादिके धर्मविशेषे, लिङ्गमशिष्यं लोकाश्रयत्वात्। कर्म०४ कर्म०। लिङ्गमतन्त्रम्। कर्म०५ कर्म०। ऋजुसूत्रन्यायमते- 'एकमपि त्रिलिङ्गम् आ० म०१ अ०। वाक्ये लिङ्गव्यत्ययं न कुर्यात् / दश० 7 अ०२ उ०। (यदि लिङ्गव्यत्यये दोषः तदा कथं पृथ्व्या दीनां नपुंसकत्वेऽपि स्त्रीपुंस्त्वेन निर्देशः प्रवर्त्तते इति 'भासा' शब्दे पञ्चमभागे 1547 पृष्ठे उक्तम्) साध्यादिवेषे, जीवा०॥ वेसो वि अप्पमाणं, दव्वाइंवेसिऊण वारेति। सव्वं पि हु करणीयं, इह लिंगुवजीविणो वइणो // 1 // वेषोऽप्यप्रमाणमित्यादिदर्शयति ये वा आदिग्रहणाद्-"असंजमपएसु वट्टमाणस्स किं परियत्तिय वेसविसनं मारेइ खज्जत' इति दृश्यं वारयन्ति सर्वमपि--समस्तमपि करणीयम्-कर्तव्यम् इह-समये लिङ्गोपजीविगो गुणशून्यत्व व्रतिनः-साधोरिति गाथार्थः / उत्तरमाहतत्थ वि वुज्झसु तं पइ, अप्पमाणमेव सो वेसो। जो निस्संकं वट्टइ, असुहट्टाणेसु तेण जुओ / / तत्रापि-बेषनिराकरणे बुध्यस्व-जानीहि तं प्रति-तमाश्रित्य अप्रमाणभेव निष्फलः स वेषो रजोहरणादियों निर्दिष्टनामा निःशङ्ख निरपेक्षं वर्तते अशुभस्थानेषु-साध्वयोग्येषु तेन वेषणयुतः-सहित इति गाथार्थः। एतदेव भावयन्नाहदुग्गइगइए गच्छं-तयस्स न ह तस्स तेण साहारो। ववहारा अन्नेसिं, तस्स वि लिंगं पमाणं तु // 3 // दुर्गतिगत्या-नरकादिकायां गच्छतो-व्रजतो न वा हुरवधारणे तेनवेषेण तस्य-लिङ्गोपजीविनः साधारः-परित्राणं व्यवहारात्व्यवहारनयमतेन तस्यापि-लिङ्गोपजीविनोऽपि लिङ्ग-वेषः प्रमाणमेव तुरवधारणे इति गाथार्थः। व्यतिरेकमाहजइन पमाणं तो कहनु, कप्पगंथम्मि एरिसं वुत्तं / सुविहियजईण इयरं, पडुच एयाए गाहाए॥ यदि नेति निषेधे, प्रमाणं लिङ्ग मिति शेषः, ततः कथं नुइति वितके , कल्पगन्थे प्रतीते ईदृग्वक्ष्यमाणमुक्तम्-भणितम् सुविहितयतीनाम्-प्रधानसाधूनाम इतरम्-लिङ्गोपजीविनं सेन। लाहिसकं गीरयणा स्त्री० (लाहिसत्काझीरचना) जिनप्रतिमानां रचनाविशेषे, सेन० / जिनप्रतिमानां लाहिसत्काङ्गीरचना क्रियमाणा दृश्यते, सा युक्तिमती न वेति प्रश्नः?, अत्रोत्तरं यद्यपि लाहिसंस्कारे किञ्चिदपावित्र्यं श्रूयते तथापि नामग्राहं निषेधाक्षरानुपलम्भादिदानींतनकाले स्थाने स्थाने तथाप्रवृत्ति दर्शनादहूनां पूजाकरणान्तराप्रसङ्गाच सर्वथा निषेधः कर्तुं न शक्यत इति // 15 // सेन०२ उल्ला० / लाहुक्क न० (लाघुक्य) लाघवे, बृ०५ उ०। लिंक - देशी-वाल० दे० ना० 7 वर्ग 22 गाथा! लिकिअ-देशी--आक्षिप्ते, लीने च। दे० ना०७ वर्ग 28 गाथा। लिंगन० (लिङ्ग) लिङ्गयते गम्यतेऽतीन्द्रियार्थोऽनेनेति लिङ्गम्। अथवा लीनं तिरोहितमर्थं गमयतीति लिङ्गम् / धूभकृतकत्या दिके, विशे०। दश०। परोक्ष्याकृत्यगमके, पञ्चा० 15 विव०।व्यञ्जके, ध०२ अधि०। दर्श० प्रति०। लिङ्ग यते विशेषेण ज्ञायसेऽनेनेति लिङ्गम्। चिन्हे, दर्श० 4 तत्त्व / पञ्चा० आव०। प्रव०। विशे० भ०। आकारविशेषे, षो०१ /
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________________ लिंग .. 657 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लिंगकम्प प्रतीत्य-आश्रित्योपलक्षणत्वाद्विशिष्ट वेत्यपिद्रष्टव्यम्। एतद्राथयेत्यर्थः। तामेवाहलिंगत्थस्स उ वजो,तं परिहरओ व मुंजओ-वादि। जुत्तस्स अजुत्तस्स व, रसावणो एत्थ दिलुतो // 5 // लिङ्गस्थस्य-रजोहरणादिवतः तुरवधारणे, स च व्यवहितो वर्त्यः स चैवं वर्ण्य एव-परिहरणीय एव आधाकर्माद्याहारः शय्यातरस्याधाकम्ादिकं तस्य स्वयं परिहरतो-वर्जयतो भुजानस्य-आसेवतः चापीति समुचये, युक्तस्य वा अयुक्तस्य वा वक्ष्यमाणनीत्या वा समुच्चये, रसायणः कल्पपालहट्टोऽत्र दृष्टान्तः / इहोदाहरणं यथाहि-कस्मिंश्चिदेशेऽपि रजोहरणादिध्वजः परिध्वजः क्रियते, ततस्तं दृष्टवा सुखेनैव ब्राह्यणादयस्तं वर्जयन्त्येव तत्रापि रजोहरणादिध्वजतुल्यं योज्यमिति गाथार्थः। तामेव गाथां किञ्चिद् व्याख्यातुकाम आह - वक्खाणं एयाए, तत्थ पुण जुतस्स संजमगुणेहिं। अजुयस्स उतेहिं वि य, इय लिंगुवजीणियो भणियं // 6 // व्याख्यानम्-विवरणम् एतस्याः-पूर्वोक्तगाथायाः तत्रपुनः-कल्पग्रन्थे युक्तस्य-सहितस्य संयमगुणैः-क्षान्त्यादिभिः अयुत्कस्य असहितस्य तुः पूरणे, तैरेवं क्षान्त्यादिभिरिति इत्थं लिङ्गोपजीविनः-साधुवेषधारकस्य भणितमुक्तमिति गाथार्थः। व्यतिरेकमाह - जइ लिंगमप्पमाणं, हविज तो तस्स अविरयस्सेव। सिज्जायरम्म चिन्ता, आहाकम्मेव का जइणो / / 7 / / यदि लिङ्गम-वेषोऽप्रमाणम्-अकारणं भवेत्-जायेत्, ततस्तस्य-- लिङ्गजीविनोऽविरतस्येव-मिथ्यादृष्टरिव शय्यातरे वसतिदातरि आधाकर्मणि वा प्रतीते, वा-समुच्चये, चिन्ता तद्वत्कव्यतारुपा का ?, न काचित् यतेः-साधोरिति गाथार्थः।। इति स्थिते जीवोपदेशमाह - तम्हा एवं देससु, रे जिय ! धम्मत्थ अप्पणो एवं / सव्वाणं सुत्ताणं, विसयविभागो दुहुन्नेओ||८|| तस्मादेवम्-पूर्वोक्तमक्रमेण आदिश-कथय रे जीव ! भो प्राणि न ! धर्मार्थ --वृषनिमित्तमात्मनः स्वस्य एवम्-उक्तवत् सर्वेषां समस्तानां सूत्राणां विषयविभागो-यथावस्थितरुपो दुःखोन्नेयः कृच्छ्रबोध्य इतिगाथार्थः / वेषोऽप्रमाणमिति कथन विचारस्रयस्त्रिंशोऽधिकारः / जीवा०३३ अधि०। लिंगकप्य पुं० (लिङ्गकप्प) लिङ्गसामाचार्याम्, पं० भा०। ........................."एत्तो वोच्छामि लिंगकप्पं तु। तहि यं तु लिंगकप्पो, इणमो जिणकप्पे भवती तु॥ रुढणकक्खणिगिणो, मुंडो दुविहोवही जहण्णेसिं। एसो तु लिंगकप्पो, णिव्वाघातेण णेयव्वो।। * स्यहरणं मुहपोत्ती, संखेवेणं तु दुविह उवहीओ। वाघातो कितलिंगो, अरिसपमेहे य कडिपट्टो॥ दुविहा अतिसेवा विय, तेसि इमे वणिता समासेणं / बाहिरअभिंतरगा, तेसि विसेसं पवक्खामि / / बाहिरगो सरीरस्स, अतिसेसो तेसिमो उ बोधव्वो। अच्छिद्दपाणिपाता, वइरोसभसंघयणधारी॥ अभिंतरमतिसेसो, इमो उ तेसिं समासओ भणिओ। उदही विव अक्खोमा, सूरो इव तेयसा जुत्ता। अव्वावण्हसरीरा, वतिगंधो ण भवति सरीरस्स। खतमवि ण कुत्थ तेसिं, परिकम्मंण वि य कुव्वंति // पाणिपडिग्गहधारी, एरिसया णियमसो मुणेयवा। अतिसेसावोच्छामि, अण्हे विसमासतो तेसिं।। दुविहोऽतिसेसो तेसिं, णाणातिसओ तहेव सारीरो। णाणातिसओ ओहि, मणपज्जव तदुभयं चेव / / आमिणिबोहियणाणं, सुयणाणं चेवणाणमतिसेसो। तिवली अभिण्ण बच्चा, एसो सारीरमतिसेसो॥ रयहरणं मुहपोत्ती, जहण्णो वहि पाणिपत्तियस्सेसो। उकोस तिण्ह कप्पा, रयहरणमुहपोत्ति पणगं तु / / उवट्ठा पडिवग्गहीणं, जहन्नमुक्कोसो होति बारसहा। तेसिं विइयाणिं विय, अतिरोगायातणिजोगो॥ उवट्ठाण घंसणम-ज्जणायणहणयदंतसोभाए। एते उवघाता खलु, भयंति जिणलिंगकप्पस्स / / उवट्टणादियांति, उवगरणं चेव थेरकप्पीणं / भइयव्वो लिंगकप्पो, गेलण्हादीहि कोहि / / कञ्जम्मि गिलाणादिसु, उवट्टमाइय अणुण्हाता। दुगुणो चउग्गुणो वा, कारणतो होति उवहीओ।। रुदणकक्खणयणो, मुंडो दुविहोवही समासेणं / एसो तु लिंगकप्पो, कारणवचासि अण्हतरो।। लोए खुरकत्तरी य, मुंडं तिविहं तु होति थेराणं / असिवादिकारणेहिं, कज्जविवज्जो सलिंगस्स।। णिरुवहतलिंगभेदे, गुरुगा कप्पति य कारणे जाते। गेलण्हरोगलोए, सरीरवेजा वडियमादी।। वासत्ताणेण वि हु, भेदो लिंगस्स तं अणुण्हातं। चाउम्मासुकोसं, सत्तरिराइंदिय जहण्णं // एयं तु दय्वलिंग, भावे समणत्तणं तु णायध्वं। . को उवणे दय्वलिंगे, भण्णति इणमो सुणसु वोच्छं // सकारवंदणणमं-सणा य पूजा य लिंगकप्पम्मि। पत्तेयबुद्धमादी, लिंगे छउमत्थतो गहणं / / वत्थासणसक्कारो, वंदण अत्भुट्टणं तु नायव्वं / पणिवाते तु नमसण-संतगुणकित्तणं पूया / / दट्ठण दवलिंग, कुव्वंते ताणि इंदमादी वि। लिंगम्मि अविजंते, णणज्जती एस विरओ त्ति॥ कहिंतो साहुलिंगेणं, धमंतो संजतो भवे / अलिंगं चेत्ति तं कीस, जाणंतो ण करे तुमं / /
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________________ लिंगकप्प 658 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लिंगपुलाग पत्तेय बुद्धो जाव, गिहिलिंगी अहव अन्नलिंगीसु / रुढणहकक्खमादी, सो चेव इह पिणायव्यो। देवा वि ताण पूए, मा पुखं होहिति कुलिंगं / इति एस लिंगकप्पो / पं०भा०५ कल्प। णयणं पुच्छति कोती, केरिसओ होति तुज्झ धम्मो त्ति। / इयाणिं लिंगकप्पो तत्थ गाहा–'रुदनह' सो य रुढनहकक्खडा जा णय सल्लिंगविहूणं, छउमत्था जाण विरओ त्ति। हेट्ठिला दो लिंगकप्पा वन्निया तहा इह पि। पं० चू० 5 कल्प०। एसो तु लिंगकप्पो। पं०भा०२ कल्प। लिंगकरण न० (लिङ्गकरण) रजोहरणसमर्पणे, व्य०१उ०। इयाणी लिंगकप्पो सो पढमं जिणाणं तत्थ गाहा-रुढनहरोमया लिंगतिय न० (लिङ्गत्रिक) स्त्रीपुंनपुंसकरुपे लिङ्गनाये, अनु०। त्रिविधलिङ्गे उदाहरणम् - अवट्टियधुयलोयया निगिणो मुंडो जहन्नेण दुविहो उवही-रयहरणं, तं पुणणामं तिविहं, इत्थी पुरिसं णपुंसगं चेव। मुहपोत्तिया य। एस लिंगकप्पो। गाहा–'अच्छिद्दपाणि' जिणा अच्छिद्द एएसिं तिण्हं पि अ, अंतम्मि अपरुवणं वोच्छं॥१॥ पाया वइरोसभसंघयणधारी समुद्रवद्गम्भीरा सूर्यवत्तेजोराशियुक्ताः। गाहा तत्पुनर्नाम द्रव्यादीनां सम्बन्धि सामान्येन सर्वमपि स्त्रीपुंनपुंसकलिङ्गेषु अव्वावन्नसरीरं नाम विगंधसरीरया न भवइ खयं पि न कुच्छइ वर्तमानत्वात् त्रिविधं त्रिप्रकारम्, तत्र स्त्री लिङ्गे नदी महीत्यादि, बाह्यशरीरपरिकर्मरहिता धीरा- बुद्धिमन्त इत्यर्थः / ईदृशाः पुंलिङ्गे-घटः पट इत्यादि, नपुंसकेदधि मध्वित्यादि, एषां च स्त्रीलिंग पाणिपात्रधराः जिनशासने शास्त्रे विनिर्दिष्टाः 1 गाहा-दुविहो तेसिं वृत्त्यादीनां त्रयाणामपि नाम्नां प्राकृतशैल्या उच्चार्यमाणानामन्ते अइसओ नाणइसओ, सरीराइसओ य / नाणाइसओ ओहिमणपज्जव यान्याकारादीन्यक्षराणि भवन्ति, तत्प्ररुपणाद्वारेण लक्षणं सुत्तत्थ तदुभयं च। “तिवली अभिन्नवच्चर सरीराहों ति अइसेसा' तेसिं निर्दिदिक्षुरुतरार्द्धमाह- 'एएसि' मित्यादि, गतार्थमेवेति गाथार्थः। जहन्नेण दुविहोवही-रयहरणं, मुहपोत्तिया य / उक्कोसेणं पंचविहो तत्थ पुरिसस्स अंता, आई ऊ ओ हवंति चत्तारि। रयहरणं मुहपोत्ती कप्पा य तिणि एस पंचविहो / गाहा-उव्वट्टणारुई ते चेव हत्थिआओ, हवंति ओकारपरिहीणा / / 2 / / सरीरस्सधंसणा धोवणाइ य पायाईणं नेहनयणदंतसोहाइदंतकट्टाइएसु (अस्या गाथाया व्याख्या 'पुरिस' शब्दे पञ्चमभागे 1014 पृष्ठे गता) उवकरणाइसु जिणकप्पियाणं उवघावो भवइ / एयाणि चेव थेरकप्पिया अनु०॥ आणि चोदसविहउवहि अइवेगाणि जाणिय उव्वट्टणाइ निक्कारणे पच्छित, अंतिम इंतिअउंतिअ,अंताए णपुंसगस्स बोद्धवा। कारणगे जनाइसु भइयव्व वामत्तणेण लिंगभेओ भवइ तं तु अणुणणायं एतेसिं तिण्हं मि अ, वोच्छामि, निदंसणे एत्तो॥शा केवञ्चिरं कालं उक्कोसेण चाउम्मासं, जहन्नेण-सत्त राइंदिया, ठिइकप्पे नपुंसकवृत्तिनाम्नां त्वन्ते अंकार इंकार उकारश्चेत्येतान्येव त्रीण्यक्षअट्टिथकप्पे वा असिवाइकारणेहिं विवचासियं नयरं / एतदुक्तं भवति। / राणि भवन्ति, नापरम् / एतेषां च त्रयाणामपि निदर्शनम्-उदाहरणं गाहा–'निरुवहयलिग' निक्कारणे निहत्थलिंग वा अन्नतित्थियलिंगं वा प्रत्येकं वक्ष्यामीतिगाथार्थः। करेइ मूलं, निक्कारणे कटिपट्टयं बंधइ चउगुरु, गुरुलघुपक्खे एगओ दुहओ तदेवाहवा अद्धं सकडी चउगुरु, संजइयाउए चउलहु, गंधपुच्छे मासलहुं, आगारंतो राया, ईगारंतो गिरी असिहरी अ। उन्नारंतो विण्ह, दुमो अ अंता उ पुरिसाणं // 4 // विइयपए कारणजाए रायदुट्ठमाईहिं गिहिलिंगमन्नलिंग वा करें तो सुद्धो। आगरंता माला, ईगारंता सिरी अलच्छी अ। कडिपट्टयं पि लोयं करेंतो का भायणं उयारेंतो वा उलएंतो वा गिलाणं ऊगारंतं जंबू, बहू अ अंताउ इत्थीणं / / 5 / / वहंतो सइ गिलाणो अतरंतो कडिपट्टयं काऊण चंकमज्जा, पाहुणयं वा अंकारंतं धनं, इंकारंतं नपुंसगं अत्थिं / विस्सामित्तो कडिपट्टयं करेजा / गुरुलपक्खं अद्धंसकवं वा अणाभोएण उंकारंतं पीलु, महुंच अंता णपुंसाणं // 6 // सेहा वा करेजा संजयाउयं वासारते करेजा वा केवलनाणे वि उप्पन्ने से तं तिणामे (सू०१२७)। कहयंतस्स छउमत्थजणो न सद्दहइ तुमं कीसमप्पणा न करेंसि जं पुण गाथात्रयं व्यक्तम्, नवरं संस्कृते यद्यपि विष्णुरित्युकारान्तमेव भवति पुण पत्तेयबुद्धाणं गिहलिंग वा अन्नलिगं वा न पूएइ, कीइ न वा कोइ तथापि प्राकृतलक्षणस्यैवेह वक्तुमिष्टवादूकारान्तता न विरुध्यते, पुच्छइ केरिसओतुब्भधम्मोतंछउमत्थाणं गहणमेवणागच्छइ लिंगकप्पो एवमोकारान्तो द्रुम इत्यादिष्वपि वाच्यम्, जम्बूः- स्त्रीलिङ्गवृत्तिर्वनसम्मत्तो। पं० चू०२ कल्प। स्पतिविशेषः, 'पीढं निक्षीरम्, शेषं सुगमम् / से तं तिनाम' ति लिङ्गकल्पद्वारमाह निगमनम् / अनु०। अहुणा तिलिगकप्पं, वोच्छामि अहाणुपुथ्वीए। लिजत्थपुं० (लिङ्गस्थ) द्रव्यप्रव्रजिताङ्गारमईकादौ, दश०३ अ०) लिंगधारि (ण) पुं० (लिङ्गधारिन) वेषमात्रधारिणि, ग० 1 अधि०। जो पुट्विंवक्खातो, जिणथेराणं तु दोण्ह वी कप्पो। लिंगपुलाग पुं० (लिङ्ग पुलाक) संयतवेषधारिणि पुलाकल दारं।
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________________ लिंगपुलाग 656 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लीलट्ठिय ब्धिसंपन्ने, प्रव०६३ द्वार। (अस्य व्याख्या 'पुलाग' शब्दे पञ्चमभागे _द्रव्यलेपो लगति। पिं० (तच न गाह्यमिति एसण्णा' शब्दे तृतीयभागे 1060 पृष्ठेगता) 65 पृष्ठेगतम्) लिंगपूरणपटव न० (लिङ्गपूरणपर्व) माधमासभाविनि शैवानामा राध्ये लिती-देशी-खगादीनां दोषे, दे० ना०७ वर्ग 22 गाथा। शिवलिङ्गघृतपूजातिथौ ती०६ कल्प। लित्तसीहके सर पुं० (लिप्तसिंहकेशर) आस्तरणविशेषे, ज्ञा०१ श्रु० लिंगभिण्ण न० (लिङ्गभिन्न) सूत्रदोषभेदे, यत्र लिङ्गव्यत्ययो यथा-इयं | 10i स्त्रीति वक्तव्ये अयं स्त्रीति वक्ति। आ० म०१ अ०। लिथारिय-देशी-खरण्टिते, पिं०॥ लिंगमेत्तन० (लिङ्गमात्र) बुद्धौ, द्वा०२० द्वा०। लिप्पकम्मन० (लेप्यकर्मन) लेप्यरुपकर्मणि० अनु०। लिङ्गविहार पुं० (लिङ्ग विहार) लिङ्गावस्थितस्य विहारः / स्वलिङ्ग लिप्पगहत्थिपुं० (लिप्यकहस्तिन) चित्रकहस्तिनि, आव०५ अ०। परित्यजनेन विहारे, बृ०१ उ०१ प्रक०। लिम्भ धा० (लिह) आस्वादे, 'भो दुह-लिह-रुधामुच्चातः" लिंगाजीवपुं० (लिङ्गाजीव) लिङ्गम्-साधुलिङ्गं तेनाजीवति, ज्ञानादि / / 1 / 245 / / इति द्विरुक्तो भो वा वयस्य च लुका लिहिजइ। लिह्यते। शून्यस्तेन जीविकां कल्पयति / साधुवेषजीविनि, स्था०५ ठा० 1 उ०। प्रा० 4 पाद। लिंगावसेसमेत न० (लिङ्गावशेषमात्र) मात्राशब्दो लक्षणवाची, इति लिम्प धा० (लिप) उपदेहे, "लिया सिम्पः // 14146 // इति प्रव्रज्यालक्षणे द्रव्यलिङ्गमात्रे, नि० चू०१३ उ०। लिंगि (ण) नि० (लिङ्गिन) लिङ्ग-तिरोहितमर्थ गमयतीति लिङ्गं लिपेलिम्पादेशः / लिम्पइ / लिम्पति / प्रा० / 'स्वराणां स्वराः धूमकृतकत्वादिकं तदस्यास्तीति लिङ्गी। साध्येऽनुमेये, विशे०। लिङ्ग प्रायोऽपभ्रंशे" ||4|326 // लिह। लेह / लीह। प्रा० 4 पाद। विद्यतेऽस्यासौ लिङ्गी। साधुवेषवति, ग०२ अधि०नि० चूरजोहर- | लिम्बपु० निम्ब) पिचुमन्दक, निम्बनापन | लिम्बपुं० (निम्ब) पिचुमन्दके, "निम्बनापितेल-हं वा // 1230 / / णादिसाधुलिङ्गवति, प्रज्ञा०२० पद। / इति नस्य लः। लिम्बो। निम्बो। प्रा०। कोमले रा०। लिंछन० (लिच्छ) कुम्भकारस्यापाके भाण्डपचनस्थाने, स्था०८ ठा० लिवि स्त्री० (लिपि) अक्षरलेखप्रक्रियायाम, स०१८ सम० / पुस्तका३ उ०। दावक्षरविन्यासे, भ०१श०१ उ०। अष्टादशलिपयः शास्त्रेषु श्रूयन्ते। लिंद न० (लिद्र) सशैवलपुराणजलवत्स्वादरहिते, प्रश्न०५ संव० द्वार। तद्यथा--- "हंसलिवी 1 भूयलिवी 2, जक्खी 3 तह रक्खसीय बोधव्वा / गोवराख्यसविशेषकलिते, जी० 3 प्रति० 4 अधिक। उड्डी 5 जवणि 6 तुरुक्की 7, कीरी 8 दविडी यह सिंघवी य 10 / / 1 / / लिक धा० (निली) निलयने, "निलीडेर्णिलीअ-णिलुक्क-णिरिग्घ- मालविणी 11 नडि 12 नागरि 13, लाडलिवी 14 पारसी य 15 लुक्क लिक्क-ल्हिक्काः" ||8455 / / इति निपूर्वस्य लीधातोर्लिक्का- बोधव्वा / / तह अनिमित्ती य लिवी 16, चाणक्की 17 मूलदेवी य 18 देशः / लिक्कइ / निलीयते। प्रा०॥ ॥शा" विशे०। प्रज्ञा० 1 लेप्यविधौ, स० 45 सम०। (एता 'आयरिय' लिक्खा स्त्री० (लिक्षा) लघूयूके, जं० 2 वक्ष० / वालाग्राष्टके प्रमाणे शब्दे द्वितीयभागे 336 पृष्ठे व्याख्याताः) अवमानभेदेनं०1०।"हरिवासरम्मगहेमवगेरन्न वयाणं पुव्वविदेहाणं लिविपरच्छियपुं० (लिपिपरिच्छेद) लिपिभेदपरिज्ञाने कलाभेदे, कल्प० मणूसाणं अट्ठकालग्गा सा एगा लिक्खा' भ०६श०६ उ०। तनुवोतसि, 1 अधि०७क्षण / दे० ना०७ वर्ग 21 गाथा। लिव्वायण न० (लिप्पासन) मसीभाजेन, रा० / जी० / लिच त्रि० (लिच्च) कोमले, आ० म०१ अ० जी०। लिस धा० (स्वप) शयने, "स्वपेः कमवस-लिस--लोट्टाः" / / 8 / 4 / लिच्छ धा० (लिप्स) लाभेच्छायाम्, “हस्वात् थ्य–श्च-त्स-प्साम 146 // इति स्वपेः स्थाने लिसादेशः / लिसइ / स्वपिति / प्रा० 4 पाद ! निश्चले // 8 / 21 // इति प्सस्य छः / लिच्छइ। लिप्सते / प्रा०२ लिसय-देशी-तनूकृते, दे० ना०७ वर्ग 22 गाथा / पाद। लिट्टिअ-देशी-चाटुनि, दे० ना०७ वर्ग 22 गाथा। लिहमाण त्रि० (लिखत्) लेखन्या मृष्टं कुर्वाणे, अनु० / लित्त त्रि० (लिप्त) संमृष्टे, स्था०५ ठा०२ उ० / सर्वतः (स्था० 3 ठा०१ लिहिअ-देशी-तनौ, सुप्ते च 1 देना०७ वर्ग 28 गाथा / उ०) पिच्छिलीकृते, सूत्रा०२ श्रु०२ अ०। उपदिग्धे, प्रज्ञा०२ पद। लिहिय न० (लिखित) अक्षरविन्यासीकृते, कर्म०४ कर्म० / छगणादिभिः (कल्प०३ अधि०६ क्षण) श्लेषिते, अष्ट० 11 अष्ट शिल्पविशेषे, कल्प०१ अधि०७ क्षण / मृत्तिकाया सवर्तः खरण्टिते, बृ०२ उ० / ग० / प्रचुरकर्मखरण्टिते, लीण त्रि० (लनि) गुप्ते, आचा०१ श्रु०३ अ०३ उ०। उत्त०८ अ०। सूत्रा० प्रव० / वसादिना गर्हितद्रव्येण लिप्ते, पञ्चा०। | लीलट्ठिय त्रि० (लीलास्थित) ललिताङ्गनिवेशरुपया लीलया स्थिते, एषणादोषविशेषे, स्था० 3 ठा०४ उ० आचा०ा लिप्तं यत्रा दध्यादि- | जं०१ वक्ष०। "लीलट्ठियसालिभंजिया०" जी०३ प्रति०४ अधि०।
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________________ लीला ६६०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लीला स्त्री० (लीला) सकामगमनभाषितादिके, अनु०॥ विलासे, श्रृङ्गार- लुक धा० (तुड) त्रोटने, "तुडेस्तोड-तुट्ट-खुट्ट-खुडोक्खुडो ल्लकु चेष्टायाम्, क्रीडायां च / वाच०। "हेलाललिअंलीला' पाइ० ना०७० णिलुक्क-लुक्कोल्लूराः" / / 8 / 4 / 116 / / इति तुडस्थाने लुक्कादेशः / गाथा / "लीलावायकयपक्खएणं" लीलया-न तु प्रस्वेदापनोदाय, | लुक्कइ / तुडति। प्रा०। भेदे, वाच०। प्रस्वेदस्य दिव्यशरीरे अभावात्, ततो लीलया 'वाय'त्ति वातोदीरणार्थं निली-धा०। तिरोधाने, “निलीडेर्णिलीअ-णिलुक्क-णिरिग्घ-लुक्क 'कयपक्खएणं' ति कृतः-अवधूतो यः पक्षकस्तालवृन्तं तेन (शोभि- - लिक्क - ल्हिक्काः " ||8455 / / इति निपूर्वस्य लिङ्गो लुक्कादेशः। ताम्) / कल्प०१ अधि०२क्षण। लुक्कइ / निलीयते / प्रा० / ओगोरीमुहनिजि अउ, वट्टति लुक् (क) लीलाचंकम्ममाण कि० (लीलाचङ्क्रम्यमाण) हेलया कुटि लगमनं मिअंका" प्रा०४ पाद। कुर्वाण, प्रश्न०५ सम्ब० द्वार। रुग्ण-शि०। रोगिणि, "शत्क-मुक्त-दष्ट - रुग्ण-मृदुत्वे कोवा" लीलायंत त्रि० (लीलायत्) सविलासगतौ, कल्प० 1 अधि० 2 क्षण।। / / 2 / 2 / / इति संयुक्तस्य को वा / लुक्को / लुग्गो। "हरिद्रादौ लः' लीलां कुर्वति, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। // 61 / 254 // इति रस्य लः। रुग्णो। प्रा०। लीलालग्गन० (लीलालन) कल्पनाकल्पितक्रीडामुग्धे, अष्ट० 1 अष्ट। लुञ्चित-उत्पाटितकेशे, 'लुक्कविलुक्को जह कवोडो' लुञ्चितविलुञ्चितो लीलो--देशी-यज्ञे, दे० ना०७ वर्ग 23 गाथा। यथा कपोतः। पिं०। लीव-देशी- बाले, दे० ना०७ वर्ग 22 गाथा। लुकसिरय त्रि० (लुञ्चितशिरष्क) कर्तरील्किप्तशिरके, कल्प०३ अधि० लीहोदर न० (लीहोदर) रोगविशेषे, प्रश्न०५ सम्ब० द्वार। क्षण। लुअत्रि० (लून) "त्केनाप्फुण्णादयः" / / 8 / 4 / 258|| निपातात्।लु। | लुक्ख पुं० (रुक्ष) संयोगे सति संयोगिनामबन्धकारणे स्पशभेदे, “एगे लून। छिन्ने, प्रा०ालूने, दे० ना०७ वर्ग 23 गाथा। लुक्खे' स्था०१ठानिस्नेहे, नि० प्रश्न०५ सम्ब० द्वार।जीत०। लुक पुं० (लुङ्क) जिनप्रतिमापूजाविरोधिनि स्वनामख्याते गच्छे, / बृ० स्था०। "किञ्चिन्निरीक्ष्याप्यसमञ्जसं तच्छास्त्रार्थशून्यैः प्रतिभोज्झितैश्च / | लुक्खदेसीय पुं० (रुक्षदेशीय) रुक्षकल्पे, आचा०१ श्रु०६ अ०३ उ०। लुङ्काद्यनादेयभतान्धकूपेप्यन्धैवोच्चैः पतितं प्रभूतैः॥४३॥" ग०३ लुक्खफासपरिणय पुं० (रुक्षस्पर्शपरिणत) भस्मादिवत् रुक्षस्पर्शपरिअधि०। सुप्ते, दे० ना०७ वर्ग०२३ गाथा। गतेषु, पुद्गलेषु, प्रज्ञा०१ पद। लुंकणि- देशी-लयने, दे० ना०७वर्ग 24 गाथा। लुक्खाणण पुं० (रुक्षानन) अलाउद्दीनसुरत्राणस्य कनिष्ठभ्रातरि, लुंख-देशी-नियमे, दे० ना०७ वर्ग 23 गाथा। "ताणस्स कनिट्ठो लुक्खाननामधिजो दिल्लीपुरओ मंतिमाहवपेरिओ लुंखाअ-देशी-निर्णये, दे० ना०७ वर्ग 23 गाथा। गुजरधरं पट्ठिओं' ती०१६ कल्प। लुंचनन०(लुञ्चन) सामान्यतः केशोत्पाटने, पिं०। अपनयने, सूत्र०१ लुक्खमरसुण्डमनिकामभोइपुं० (रुक्षाऽरसोष्णानिकामभोजिन्) रुक्षम् श्रु०४ अ०२ उ०। -निस्नेहम् अरसोष्ण मितिनञ्प्रत्येकमभिसंबध्यते, अरसंहिग्वादिलुंचित त्रि०(लुञ्चित) उत्पाटितकेशे, आचा०१ श्रु०६ अ०२ उ०। भिरसंस्कृत मनुष्णं-शीतलमनिकामं परिमितं भक्तं भोक्तुं शीलशेषां लुंछ धा० (मृज) शुद्धौ, मृजे रुग्घुस-लुच्छ-पुच्छ-पुंसफुस-पुस- शीलमेषां ते रुक्षारसानुष्णानिकामभोजिनः / मकारावलाक्षणिको। लुह- हुल- रोसाणाः ||84/105|| लुच्छाइमार्टि / प्रा०। तथाविधाऽभिग्रहविशेषपरके, ब०१ उ०३ प्रक०। लुंपइत्ता त्रि० (लुम्पथित) ग्रन्थिच्छेदनादिभिर्विलुम्पयितरि, आचा०१ लुग्ग त्रि० (रुग्ण) जीर्णतां गते, "त्केनाफुण्णादयः" // 1/4/258 / / इति श्रु०२ अ०१ उ० / अन्यतरागावयवविकर्त्तने, सूत्रा०२ श्रु०२ अ०। रुग्णस्थाने लुग्गेति निपातः। लुग्गो। रुग्णो। प्रा० / भग्ने, दे० ना०७ वर्ग केशाकर्षणाद्युत्पीडनै, सूत्र०२ श्रु०२ अ०।। 23 गाथा। लुंपणा स्त्री० (लोपना) प्राणानां छेदने, प्रश्न०१ आश्र० द्वार। लुट्टन न० (लुट्टन) अवधावने, व्य०१ उ०। लुंपागपुं० (लुम्पाक) प्रतिमाविरोधिनि दुण्टके, 'उचनीयमज्झि कुलाई लुणधा० (लू) छेदने, "चि-जि-श्रु-हु-स्तु-लू-पू-धू-गांणो अडइ' इति अत्रा लुम्पाका नीचशब्देन सर्वाणि नीचकुलानि वदन्ति, हस्वश्च" ||4|241 / / इति अन्ते णकारगमः, दीघस्वरस्य हस्वः / तत्कथमिति प्रश्नः ?, अत्रोत्तरम् - नीचकुलानि -दरिद्रकुलानि - लुणई। लुनाति। प्रा०४ पाद। उच्चकुलानि-ऋद्धिमत्कुलानीति श्रीदशवैकालिकवृत्यादिषु व्याख्यात- लुत्त त्रि० (लुप्त) अपगते, सूत्रा०१श्रु०५ अ० 170 / मस्तीत्यतो नीचशब्देनाऽनृद्धिमत्कुलानि ज्ञेयानिन तुगर्हणीयकुलानि, लुत्तधम्म त्रि० (लुप्तधर्मन्) विगतधर्मणि, प्रश्न० 2 आश्र० द्वार। तथा च दशवैकालिकेऽपि पडिकुट्ठकुलं न पविसे' इत्यादि सूपपन्नमिति लुत्तपण्ण त्रि० (लुप्तप्रज्ञ) अपगतावधिविवेके, सूत्र०१श्रु०५ अ०१3०। // 118 / सेन०३ उल्ला०1 लुद्ध त्रि० (लुब्ध) अन्नादिष्वभिकाङ्कावति, उत्त०११ अ०। आहारोपधिलुंबीस्त्री० (लुम्बी) आम्रादिमञ्जर्याम, कल्प०२ अधि०८ क्षण। स्तवके, पात्रादिषु लोलुपे, ग०२ अधि०। पाइ० ना०। रागद्वेषाते, सूत्रा०२श्रु० लतायां च / दे० ना०७ वर्ग 28 गाथा। १अ०।लोभनम् -लुब्धम्, नपुंसके त्कः। लोभे, न०।०३ उ०।
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________________ 661 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लूहचरय *लोध -- पुं०। स्वनामख्याते गन्धद्रव्यविशेषे, दश०६ अ०1 अ०१उ०। लुद्धगपुं० (लुब्धक) व्याधे, प्रश्न०१ आश्र० द्वार। साम्प्रतं लूषकमधिकृत्याहतुद्धगदिटुंतिभाविय त्रि० (लुब्धकदृष्टान्तभावित) पार्श्वस्थादि तउसगवंसगलूसग-हेउम्मिय मोयओ य पुणो |8|| भिर्माविते, नि० चू०। पासत्थातीहिं जे भाविता तते लुद्धगदिट्ठति त्रपुषव्यंसकप्रयोगे पुनर्चेषके हेतौ च मोदको निदर्शनमिति गाथाक्षरार्थः। भाविता / कहं ? ते पासत्था एवं कहें ति–जहा लुद्धगो हरिणस्स पिट्टतो भावार्थः कथानकादवसेयः, तच्चेदम् - "जहाएगो मणुस्सो तउसाणं धावति हरिणस्स पलायमाणस्स सेयं लुद्धगस्स वि जेण तेण पगारेण तं भरिएण सगडेन नयरं पविसइ, सो पविसंतो धुत्तेण भणइ-जो एयं हरिणं असेउं वावातेंतस्स सेयं एवं जहा हरिणो तहा साहू, जहा लुद्धगो तउसाण सगड खाइजा तस्स तुमं कि देसि?,ताहे सागडिएण सो धुत्तो तहा सावगा। नि० चू०४ उ०। भणिओ-तस्साहं तं मोयग देमि, जो नगरहारेण ण णिप्फडइ, धुत्तेण लुप्पमाण त्रि० (लुप्यमान) कर्णनासिकादिच्छेदनेन छिद्यमाने, उपा० भण्णतितोऽहं एवं तउससगडं खायामि, तुम पुण तं मोयग देजासि जो 7 अ01 नगरद्दारेण ण नीसरति, पच्छा सागडिएण अब्भुवगए धुत्तेण सक्खिणो लुरणी-देशी-वाद्यविशेषे, दे० ना०७ वर्ग 24 गाथा। कया, सगड अहिद्वित्ता तेसिं तउसाणं एकेक्कयं खंडं अवणित्ता पच्छा तं लुलिय त्रि० (लुलित) अतिक्रान्तप्राये, ज्ञा०१ श्रु०४ अ०। मदवशेन सागडियं मोयजमग्गति, ताहेसागडिओ भणति-इमेतउसा ण खाइया घूर्णिते, चलत्पदे च / उत्त० 5 अ०। तीवभुवि लुठति, प्रश्न०३ तुमे, धुत्तेण भण्णति-जइ न खाइया तउसा अग्धवेह तुम, सओ अग्घ आश्र० द्वार। विएसु कइया आगया, पासंति खंडिया तउसा, ताहे कइया भणंति-को लुव्वंति त्रि० (लुप्यमान)" न वा कर्म-भावे व्वः क्यस्य च लुक्" एए खइए तउसे किणइ ?, तओ करणे ववहारो जाओ खइय त्ति, जिओ // 8 / 4 / 242|| लुब्वइ / लूयते / प्रा० / छिद्यमाने, प्रज्ञा०१ पद। सागडिओ। एस वंसगो चेव लूसगनिमित्तमुवण्णत्थो, ताहे धुत्तेण मोदगं लुहिल न० (रुधिर) रक्ते, "ता कहिं नु गदे लुहिलप्पिए भविस्संदि'' मग्गिजति, अचाइओ सागडिओ, जूतिकरा ओलग्गिया, तेतुट्टा पुच्छंति, प्रा० 4 पाद। तेसिंजहावत्तं सव्वं कहेति, एवं कहिते तेहिं उत्तरं सिक्खाविओ जहा तुम लूआ-देशी मृगतृष्णायाम, दे० ना०७ वर्ग 25 गाथा। खुडुयं मोदगंणगरदारे ठवित्ता भण एस स मोदगोण णीसरइणगरदारेण, लूडण न० (देशी) अपहरणे, जी०१ प्रति०। गिण्हाहि, जिओ धुत्तो / एस लोइओ, लोगुत्तरे वि चरणकरणाणुयोगे लूडिय त्रि० (लूटित) अपहृते, आचा०२ श्रु०१चू०२ अ०१ उ०।। कुस्सुतिभावितस्स तहा लूसगोपउंजइ-जहा सम्मपडिवाइ।दव्वाणुआ० म०। जोगे पुण पुजा भणंति - पुव्वं दरिसिओ चेव / अण्णे पुण भणंति पुव्वं लूगपुं० (लवण) वनस्पतिविशेषे, येन दग्धेन सर्जिका निष्पद्यते। ध०२ सयमेव सव्वभिचारं हेउं उच्चारेऊण परविसंभणानिमित्तंसहसा वा भणितो अधि० / खारीक्षारके, ध०२ अधि०। होजा, पच्छा तमेव हेउं अण्णे' निरुत्तवयणेणं ठावेइ।" दश 1 अ०। लूणप्पसायपुं० (लवणप्रसाद) अलाउद्दीनाऽऽगमनसमकालिक कणदेव- / लूसणन० (लुषण) कदर्थने, सूत्रा०१श्रु०३ अ०१ उ०। दूषणे, सूत्रा०१ पूर्वजसारङ्गदेवपूर्वजा जुनदेवपूर्वजविशलदेवपूर्वजबीर धवलपूर्वजे गुर्जर- श्रु०१४ अ०। उपमर्दने, सूत्रा०१श्रु०१४ अ० अतिक्रमणे, सूत्र०१ देशाधिपतौ वाघेलक्षत्रिये, ती० 25 कल्प। श्रु० 5 अ०२ उ० / विध्वंसने, आचा०१ श्रु०६ अ० 4 उ० / विराधने, लूणरुक्खच्छल्ली स्त्री० (लवणवृक्षच्छवि) लवणापरपर्यायस्य वृक्षस्य आचा०२ श्रु०१ चू०१अ०७ उ० / हस्वकरणे, सूत्रा०१श्रु०७ अ०। त्वचि, ध०२ अधि०। लूसिय त्रि० (लूषित) परितापने, आचा०२ श्रु०४ चू०। हिंसके, सूत्रा० लूणिगवसति स्त्री० (लूणिकवसति) अर्बुदपर्वते ग्रामविशेष, लूणिगवसत्यां १श्रु०१ अ०। आचा० नव शतानि चतुरशीतिश्च पौषधशाला वस्तुपा खतेजपालाभ्यां स्था- लूसियपुय्वन० (लूषितपूर्व) हिंसितपूर्व, आचा०१ श्रु०६ अ०१उ०। पिताः। ती० 42 कल्प। लूह त्रि० (रुक्ष) निस्नेहे, स्था० 5 ठा०१ उ०। बृ०1 आचा०। ज्ञा० / लूयास्त्री० (लूता) वातिकरोगविशेषे, पञ्चा०१ विव०। कोलिक पुटके, प्रति० अप्रणीते, भ० 3 श०४ उ० स्नानस्निग्धभोजनादिपरि हारेण, कोलिकाजालके च। बृ०१ उ०२ प्रक०। (उत्त०२ अ०) तैलाभ्यङ्गादिरहिते, उत्त०२ अ० / स्वजनादिषु लुरधा० (छिद) द्वेधीकरणे, छिदेर्दुहाव-णिच्छल्ल-निज्झोड-णिव्वर- स्नेहविरहाद्रक्षः / दश० 10 अ० / रुक्षः शरीरे मनसि च / द्रव्यभावगिल्लूर-लूराः। // 8 / 4 / 124 // इति लूरादेशः / पक्षे-छिंदइ। प्रा०४ स्नेहवर्जितत्वेन परुष, स्था० 4 ठा०१ उ०। रागद्वेष रहिते, सूत्रा०२ श्रु०१ अ०। लूसग त्रि० (लूषक) मुष्णाति लूषयति वा इति लूषकः। स्था० 4 ठा०३ | लूष पुं०। लूषयति वा कर्ममलमपनयतीति लूषः / स्था० 4 ठा० 1 उ०1 * उ०। चौरे, व्य० 4 उ०। क्रूरे, भक्षके च। सूत्रा० 1 श्रु०३ अ०१ उ०॥ उत्त० स्नेहपरित्यागे, दश०२अ०संयमे, सूत्र०१श्रु०३ अ०२ उ०। हिंसके, सूत्रा०१ श्रु०२ अ० 3 उ० / व्यापादके, सूत्रा०२ श्रु०४ अ01 | लूहचरय पुं० (रुक्षचरक) रुक्ष - निस्नेहं चरति अभिग्रहविशेषात् / विराधके, सूत्र०१ श्रु०२ अ०२ अ०। उपमर्दकारिणि, सूत्रा०१ श्रु०५ | रुक्षमात्राग्राहके भिक्षौ स्था० 5 ठा०१ उ०। सूत्रा०। पाद।
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________________ लूहसीवि 662 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लेव उ०। लूहजीवि (ण) पुं० (रुक्षजीविन) रुक्षेण-तैलादिवर्जितेन जीवितुं (से किंतं तेणसुहमे) अथ कानितत्, लयनम्-आश्रवः सत्वानां, यत्र शीलमस्येति, निस्नेहभोजिनि आभिग्रहिकेसाधौ, स्था०५ ठा०१ उ०। कीटिकाद्यनेकसूक्ष्मसत्वा भवन्ति तल्लयनं सूक्ष्मबिलानि, गुरुराहलूहवित्ति पुं० (रुक्षवृत्ति) वल्लचणकादिभिवर्तनशीले आभिग्रहिके (लेणसुहुमे पंचविहे पण्णत्ते) सूक्ष्मविलानि पञ्चविधानि प्रज्ञप्तानि (तं साधौ, दश। जहा) तद्यथा (उत्तिंगलेणे 1 भिंगुलेणे 2 उज्जुए 3 तालमूलए 4 संबुक्कावट्टे लूहाहार पुं० (रुक्षाहार) रुक्षं तैलादिवर्जितम् आहारयति रुक्षो वा आहारो नामं पंचमे) उत्तिङ्गा-गर्दभाकारा जीवस्तेषां बिलंभूमौ उत्कीर्ण गृहम् यस्य स तथाविधे आभिग्राहिक साधौ, स्था०५ ठा०१ उ०। उत्तिङ्गलयनम् 1, भृगुः-शुष्कभूरेखा जलशोषानन्तरं जलकेदारादिषु लूहिय न० (रुक्षित) विरुक्षिते, ओ०। निर्जलीकृते, कल्प० 1 अधि०३ स्फुटिता दालिरित्यथः 2, सरलं बिलम् 3, तालमूलाकारम्-अधः पृथु उपरिच सूक्ष्म बिलं तालमूलम् 4, शम्बुकावत-भ्रमर गृहं नाम पञ्चमम, क्षण। 5, (जे छउमत्थेणं .जाव पडिलेहियव्वे भवइ) यानि छद्मस्थेन यावत् ले धा० (ला) आदाने, "स्वराणां स्वराः" / 84 / 238 // इत्या कारस्थाने प्रतिलेखितव्यानि भवन्ति (सेतंलेणसुहमे) तानि सूक्ष्मबिलानि। कल्प० एकारः। लेइ। लाति: प्रा०४ पाद / 3 अधि०६ क्षण / कीटिकामगरादिके, सूक्ष्मभेदे, स्था० 10 ठा०३ लेक्खविहाणन० (लेख्यविधान) लेख्यविधौ, प्रज्ञा० 1 पद। लेच्छहपुं०(लेच्छकिन्) क्षत्रियविशेषे, सूत्रा०१श्रु०१३ अ०ालेच्छकि लेच्छारिय-देशी, खरण्टिते, बृ०१ उ० 1 प्रक०। जातीयेषु कोशलदेशस्य राजसु, कल्प० 1 अधि०६क्षण / भ०। लेप्पकम्म न० (लेप्यकर्मन्) लेप्यपरिज्ञानात्मके कलाभेदे, कल्प०१ ज्ञा० / औ०। अधि०७ क्षण। लेज्झ त्रि० (लेह्य) मधुशिखरिणीप्रभृतिषु आस्वाद्यरसेषु, ज्ञा०१ श्रु० लेप्पकार पुं० (लेप्यकार) लेप्यकरणशिल्पिनि, अनु०। 17 अ०। लेप्पपुत्तलिया स्त्री० (लेप्यपुत्तलिका) लेप्यकर्मनिर्मित्तायां पुत्तलिले पुं० (लेष्ट) प्रस्तरे, प्रश्न०३ आश्र० द्वार। पाषाणे, कल्प०१अधि० कायाम्, अनु०। ६क्षण। (लेष्टुकदृष्टान्तः 'थीणद्धि' शब्द चतुर्थभागे 2412 पृष्ठे गतः) | लेलु पुं० (लेष्टु) लोष्टे, सूत्रा०२ श्रु०१ अ०। कपाले, आचा० 1 श्रु०६ लेडुअ-देशी-लोष्ठके, दे० ना०७ वर्ग 24 गाथा। "लेडुओ लो?" अ०३ उ०। पृथिवीशकले, आचा०२ श्रु०१चू०१ अ०५ उ०। पाइ० ना० 153 गाथा। लेवपुं० (लेप) मृल्लेपनादिश्लेषे, दश०५ अ०१ उ० / उपचये, उत्त० लेडुक्क- देशी-लम्पटे, लोष्ठे च / दे० ना०७ वर्ग 26 गाथा। 8 अ०। बृ०॥ लेढिअ-देशी-स्मरणे, दे० ना० 7 वर्ग 25 गाथा। अधुना लेपद्वारमाहलेढुक्क पुं० (लेष्टुक) लोष्टके, दे० ना०७ वर्ग 24 गाथा।''लेढुक्को लेड्डओ' अप्पत्ते अकहित्ता, अणहिगया परिछणे य चउगुरुगा। पाइ० ना०। दोहि विगुरु तवगुरुगा, कालगुरु दोहि वी लहुगा / / 477|| लेण-लयन-न० स्थाने, वसतिरुपे (दश० 8 अ०) शैलगृहे, प्रश्न०६ तदा तस्य प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः तद्यथा-तपोगुरुका:-कालसंव० द्वार। मयगृहे, प्रश्न०३ आश्र०द्वार। पद्धत निकुट्टितगृहे, प्रश्न० गुरुकाश्च। अथ प्राप्तेऽपि श्रुते तदमर्थकथ यित्वा कथनेऽधिगतस्तदर्थो १आश्र० द्वार। गृहे, स्था०६ ठा०३ उ०। कल्प०। उत्कीर्णपर्वतगृहे, न वेत्यपरिज्ञाय अधिगतमपि सम्यक् अद्दधाति न वेत्यपरीक्ष्य यदि प्रेषयति तदा प्रत्येकमकथनेऽनधिगमेऽपरीक्षणेच तस्य प्रायश्चितं चत्वारो भ०५ श०७ उ०। आश्रये, स्था०८ ठा०३ उ० / गुहायाम्, उत्त०२ लघुकाः, द्वाभ्यां लघवः। तद्यथा-तपोलघुकः, काललघुकश्च। यत एवं अ०। सूत्र०। प्रायश्चित्तमाज्ञादयश्च दोषामस्तस्मात्सूत्रो प्राप्ते तत्रापि कथिते तत्राप्यलेणजभयपुं० (लयनजृम्भक) जृम्भन्ते-विजृम्भन्ते स्वच्छन्द चारितया धिगते स परीक्ष्य लेपस्यानयनाय प्रेषणीयः, एष लेपस्य कल्पिकः / चेष्टन्ते ये ते जृम्भकाः-र्तिग्लोकवासिनो व्यन्तरदेवाः (भ०) लयनम् अञ्जकालियलेवं, वयंति अवियाणिऊण सब्भावं। गृहम्, लयनाविभागेन जृम्भको देवः लयनजृम्भकः / जृम्भकदेवभेदे, ते व तब्वा लेवो, दिट्ठो तेलोकदंसीहिं / / 47|| भ०१४ श०८ उ०। केचित्प्रवचनस्य सद्भावम् - रहस्यम् अविदित्वा - अविज्ञाय अद्यलेणभोग पुं० (लयनभोग) चित्रशालाद्यावास-नवनवाभोगे, औ०। कालिकं लेपं पात्रस्य वदन्ति न एष पात्रस्य लेपः सर्वहरुक्तः किं लेणसुहुम न० (लयनसूक्ष्म) लयनम् - आश्रयः सत्वानाम्, यत्रा त्वद्यकल्पे-अधुनातनसूरिभिः प्रवर्तितः, ते वक्तव्याः, दृष्टः खलु पात्रस्य कीटिकाद्यनेकसूक्ष्मसत्वा भवन्ति तल्लयनम् / सूक्ष्मविले, स्था०।। लेपः त्रैलोक्यदर्शिभिः। से किं तं लेणसुहुने ? लेणसुहुमे पंचविहे पण्णत्ते, तंजहा-उत्तिंगलेणे 1 एनामेव गाथां व्याचिख्यासुः प्रथमतः पूर्वार्द्ध व्याख्यानयन् लेपस्य भिंगुलेणे 2 उज्झुए 3 तालमूलए 4 संवुक्कावट्टेनामपंचमे 5 / जे छउमत्थेणं जिनानुपदिष्टत्वं भावयतिजाव पडिलेहियव्वे भवइ, से तं लेणसुहुमे॥७॥ आया-पवयण-संयम-उवघाओदीसईजओ तिविहो।
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________________ 663 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लेव तम्हा वयंति केईन लेवगहणं जिणा बिंति // 476 / / यस्माल्लेपे गृह्यमाणे त्रिविध उपधातो दृश्यते, तद्यथा-आत्मनः , / प्रवचनस्य, संयमस्य च। तस्मात्केचिद्वदन्ति-नलेपग्रहणं जिना ब्रुवतेन खलु भवगन्तः सावद्यं वचनमुचरन्ति। कथं पुनरात्मप्रवचनसंयमोपघात इत्यत आहरहपडणउत्तमंगा-दिभंजणा घट्टणे य करघातो। एसाऽऽय विराहणया, जक्खुल्लिहणे पवयणम्मि॥४०॥ गमणागमणे गहणे-तिहाणे संजमे विराहणया। महि-सरि-उम्मुग-हरिया, कुंथू वासं रओवसिया।।४८१।। रथस्य शकटस्य पतने उत्तमाङ्गादेः शरीरावयवस्य भङ्गः, तथा-- भाजनस्य लेपे दत्ते घट्टकने दत्तलेपं पात्रं घट्टयतः करघातः करस्यापीडा, एषा आत्मविराधना। यक्षाः-श्वानस्तैः शकटस्याक्षोऽनेकधा जिह्वयोल्लिखितः साधुरपि च तत्र लेपं गृह्यति, तमपि च भोजनयोग्यं पात्रो दास्यति, ततो यक्षोल्लिखने यक्षोल्लिखितलेफ्ग्रहणे प्रवचने-प्रवचनस्योपघातः तथा-त्रिस्थाने त्रिषु स्थानेषु च संयमे संयमस्य विराधना तद्यथा-लेपग्रहणाय गमने लेप गृहीत्वा पुनर्वसतावागमने लेपग्रहणे च। तथाहि-गच्छतामागच्छतां तत्रा वा मह्याः सचित्तपृथिवीकायस्य विराधना, सरिद्-नदी तत्रा गमने आग मने चाऽप्कायविराधना, तथाकदाचित्तौः शाकटि कैरग्निका य उद्दीपितो भवेत, तत्र कथमप्यनुपायागत उल्मु कचालने अनिकायविराधना, यानिस्तव वायुरिति वायुविराधना, हरितकायक्रमेण वनस्पतिकायविराधना, तथा-लेपे कुन्थ्वादयः प्राणालग्रा भवेयुः ततस्तद्ग्रहणे त्रसकाय विराधना। तथा-गमने आगमने तत्र वा वर्ष पतेत् रजो वा सचित्त वातोद्भूतमापतितं स्यात् ततस्तद्विराधनाऽपि तत्राऽवसेया / तदेवमायातम्-आत्मप्रवचनसंयमानामुपद्यातेन च यथा पिण्डषैणा, पात्रैषणा वा, जिनर्भणिता, न तथा लेषैषणाऽपि, तस्मान्न जिनोपदष्टिः पात्रस्य लेपः / तदेतदसमीचीनम्, पात्रलेपस्य जिनैरर्थत उक्तत्वात्। पात्रौषणायां हि त्रिविधं पात्रमुक्तम्, तद्यथा-यथाकृतम् अल्पपारकर्म, सपरिकर्म च / तत्राल्पपरिकर्मणः सपरिकर्मणश्चावश्यं लेपेन कार्यमिति सामर्थ्यदुक्तो जिनैः पात्रस्य लेपः / अन्यचौघनियुक्तौ (नियुक्तिगाथया 371) प्रपञ्चेन लेपैषणाऽप्यभिहिता तस्मात् दृष्टस्त्रैलोक्यदर्शिभिः लेपः। यच वदसि आत्मोपघातादयो दोषा इति, तत्रा प्रत्युत्तरमाह -- दोसाणं परिहारो, चोयग जयणाएँ कीरए तेसिं। पाते उ अलिप्पंते, ते दोसा होतिऽणेगगुणा / / 482|| हे नोदक ! ये दोषास्त्वया प्रागात्मोपघातादयः उक्तास्तेषां परिहारो यतनया क्रियते, यत नया गच्छतो लेपग्रहणे च कुर्वतो न कश्चिदात्मोपधातादिको दोष इति भावः / पात्रे तु अलिप्यमाने ते आत्मोपघातादयो 'दोषा अनेकगुणाः-- अनेकप्रकार भवन्ति। कथमिति चेदत आहउड्डादीणि उ बिरस-म्मि मुंजमाणस्स हों ति आयाए। दुग्गंधिमायणं ति य, गरहति लोगो पवयणम्मि // 43 // अलेपितं किल पात्रामतीव विरसं भवति, तस्मिन् भुजानस्य विरसगन्धघ्राणतऊर्बादीनि भवन्ति, ऊर्ध्व-वमनम् आदिशब्दादरुचिमान्द्यादिपरिग्रहः / एते आत्मनि दोषाः, तथा-लोको भिक्षां ददानी दुर्गन्धिभाजनं दृष्टा गर्हयति-ईद्दशा एवामी पापोपचिता इति। एष प्रवचने उपवातः। यदप्युक्तम्- 'यक्षोल्लिखितलेपग्रहणे प्रवचनोपघात' तदेतत्ता वदतिसूक्ष्मम्। अन्येऽपि खलु महान्तः प्रवचनोपघाता अवश्यकर्तव्यतया यतनया परिहियन्ते। पुनर्नैष इति प्रतिपादयन्नाहपवयणघायाऽन्ने वि, अस्थि जयणाए कीरए तेसिं। आयमणभोयणाई, लेवे तव मच्छरो को णु? ||484 / / अन्येऽपि खलु आचमनभोजनादयः कायिकेनाचमनं कायिक्या आचमन वापाने भोजनं भण्डल्यां भोजनमित्येवमादयः प्रवचनघाताःप्रवचनोपघाताः सन्तिः, परंतेऽप्यवश्यकर्तव्यतया यतनया सागरिकरक्षणादिरुपया क्रियन्ते एवमवश्यग्रहीतव्ये लेपे यतनया तत्कालदृष्टदोष परिहारादिलक्षणया गृह्यमाणे कः नुतव मत्सरो, नैवासो युत्क इति। संप्रत्यन्यामपि पात्राऽलेपे दोषानाहखंडम्मि मग्गियम्मिय,लोगो दिन्नम्मि अवयवविणासो। अणुकंपादी पाण-म्मि होति उदगस्स उ विणासो ||485|| अलेपिते पाठो कस्मिंश्चित्प्रयोजने समापतिते खण्डं याचितम्। तथा चाविरत्या खण्डमिति भ्रान्त्या अनाभोगेन सैन्धवादि लवणं दत्तम्, तस्मिंदत्तम्, तस्मिंश्चालेपिते भाजने केविदवयवा अद्याप्यम्लाः सन्ति, ततस्तैरवयवैस्तस्य लवणस्य पृथिवीकायस्य विनाशः, तथा--पानके याचिते कया चिदविरत्या एते उदकस्य स्वादं न जानन्तीत्यनुकम्पया आहिशब्दाद् अनामोगेन वा उदकं दीयते तत एवम् उदकस्याम्लावयवसंस्पर्शतो विनाशः। पूपलियलग्गअगणी-पलीवणं गाममादिणं होजा। रोट्टपणगा तरुम्मी, मिगुकुन्थादीय छट्टम्मि।।४८६|| कयाचिदविरत्या अनाभोगतः सागारा पूपलिका दत्ता भवेत्, तत्राम्लावयवसस्पर्शतस्तस्य विध्वसः / यद्वा-पूपलिकालग्नोऽनिर्दहेत्, स च साधुर्न चेतयते, ततः प्रदीप्ते पात्रो परितापलगनतः सहसा तत्पात्रां त्यज्येत्, तच्च कण्टक-भित्यपारि पतितमिति कृत्वा तद्दाहप्रसङ्गतो ग्रामादीनां ग्रामस्य नगरस्य पाटकस्य वा प्रदीपनं भवेत् / ततो महती अनिकायस्य विराधाना / यत्राग्निस्तत्रा वायुरिति वायुविराधना / वनस्पतिविराधनामाह - 'रुट्टे' त्यादि कयाचिदविरत्या रोट्टो-लोट्टो दत्तः सोऽम्लावय वसंस्पर्शतः प्राणविपत्तिमाप्रोति, तथा भृगुनामश्लक्ष्णराजिः तासु पनकः संमूच्छिति सोऽन्नपानग्रहणतो विध्वंसमापद्यते, एषा तरौ वनस्पतिकाये विराधना। तथा-भृगुषु पनके संमूर्छिते कुन्थ्वादयोऽपि संमूर्च्छिन्ति, तेऽवयवाना-मम्लभावेनानपान ग्रहणतो वा विराध्यन्ते, एषा षष्ठ त्रयकाय विराधना / एवं षण्णामपि कायानां पात्रास्थालेपे विराधाना।
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________________ लेव 664 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लेव यदप्युक्तं लेपैषणा भगवद्भिर्नोत्केति तत्रा प्रतिविधानमाहपायग्गहणम्मि उ दे-सियम्मि लेवेसणा वि खलु वुत्ता। तम्हा उ आणणा लिं-पणा य लेवस्स जयणाए।॥४८७|| पात्रग्रहणे देशिते खलु लेपैषणाऽप्युक्ता दृष्टव्या। लेपमन्तरेणावश्यं षट् / जीवनिकायाविराधनात्, यथोत्कमनन्तरम्, तस्मात् जिनोपदिष्टत्वाल्लेपस्य यतनया आनयनं तेन च पात्रस्य लेपनं कर्त्तव्यम्। पर आहयतनया लेपस्यानयनादि कर्त्तव्यम्, तत एवं क्रियताम्। हत्थोवघाय गत्तू-ण लिंपणा-सोसणा य हत्थम्मि। सागारिए पभू जिं-घणा य छक्कायजयणा य॥४५५|| यस्माल्लेपस्यानयने हस्तोपघातः, तस्मात्तत्र गत्वा पात्रास्य लेपनं कर्तव्यमिति नोदकवचनम्, इदमपि नोदकवचो लिप्तस्य पात्रस्य हस्ते धारणतः शोषणा कर्त्तव्या। अत्रोभयत्रापि प्रत्युत्तरमग्ने दास्यते। तथाव्रजता प्रत्यासन्नं शय्यातरशकटमवलोक्य सागारिकपिण्डएष इति कृत्वा न वर्जनीयं किं तु तत्रौव लेपग्रहणं कार्यम्, तथा तस्य शकटस्य प्रभुः प्रभुसंदिग्ध वा तमनुज्ञापयेत्, अनुज्ञाप्य च कटुगन्धपरिज्ञानाय नासामसंस्पर्शयन्तं लेपं जिघ्रत्तदनन्तरं लेपस्य ग्रहणं षट्काययतनया कर्त्तव्यमित्येष द्वारगाथासंक्षेपार्थः। साम्प्रतमेनामेव विवरीषु प्रथमतः 'गंतूणं लिंपणे ति द्वारंव्याख्यानयतिचोयगवयणं गंतू-ण लिंपणा आणणे बहू दोसा। संपातिमादिघातो, अहि उस्सग्गो य गहियम्मि||४८९ll नोदकवचनम्-तत्र शटकसमीपे गत्वा पात्रस्य लेपनं कर्त्तव्यम्, यतो लेपस्थानयने बहवो दोषाः, तथाहि-भारेण हस्तोपघातः पूर्ववत्, तथा-- संपातिमानाम, आदिशब्दाद्असंपातिमानांच जीवानां तापतितानामुपघातः, स च कदाचिदधिको लेपो गृहीतो भवेत्, ततस्तस्मिन्नधिके गृहीते उत्सर्गपरिष्ठापनिकादोषः संपद्यते। उक्तंच-"भारे हत्थुवघाओ, तत्थ य संपादिणो पंडते य / पारियट्ठावणि दोसो, अहिगम्मि य होइ आणीए'' ||1 / / एवमुक्ते आचार्य आह-नोदक ! तत्रा पात्रो लिप्यमाने सविशेषतरा आत्मोपघातादयो दोषाः। तथा चाऽऽह-- एवं पि भाणभेदो, वियावणे अत्तणो उ उवधाओ। निस्संकियं च पाय-गिण्हणे इयरहा संका / / 460|| एवमपि-तत्र गत्वा पात्रलेपनेऽपि ऊर्ध्वस्थितो लेपं गृहीत्वा भाजने | प्रक्षिपति, तत्रा व्यापृतस्य सतः कदाचित् हस्ताद्भाजनं पतेत्, तत एवं व्यापृते भाजनभेदः, तद्यथा-कथमपि शकटस्य पतनत आत्मनश्चोपघातः। किञ्च-पात्रलेपस्य ग्रहणे गृहीत्वा च तत्रौव पात्रास्य लेपने क्रियमाणे तेषां साक्षात्पश्यतामेवं निःशङ्कितं भवति / यथैतेनाशुचिना लेपेन भोजनपात्राममी लिम्पन्ति, ततो महान् प्रवचनोपघातः / इतरथा तत्र पात्राऽलेपने शरीराऽवयवलेपस्य ग्रहणे शङ्कोपजायते. किं पात्रस्य / लेपनाय, उत-दुःखयतः पादस्य पिण्डीबन्धनाय लेपमाददले ततो न प्रवचनोपघातः। यदप्युक्तम् - 'भारेण हस्तोपघात' इति। तत्रापिप्रत्युत्तरमाह - जइ वा हत्थुवधाओ, आणिचंतम्मि होइ लेवम्मि। पडिलेहणादिचेट्टा, तम्हा उन काइ कायव्वा / / 461 / / यदि लेपे आनीयमाने भारेण हस्तोवधात इति नानयनं क्रियते, तर्हिन कदाचिदपि प्रतिलेखनादिक्रिया कर्त्तव्या। अत्रापि यथायोग हस्तपादादेरुपघातसम्भवात्, तस्मात् -यथा प्रतिलेखनादिका क्रियाऽवश्यं क्रियते तत्करणे गुणसम्भवादेवं लेपानयनमपि। तदेवम् - हत्थोवघाय गंतूण लिंपणे त्ति' व्याख्यातम्।। अधुना "सोसणा य हत्थम्मि'' इति व्याख्यानयति -- जति नेवं तो पुणरवि, आणे लिंपिऊण हत्थम्मि। अच्छति य धारमाणो, सद्दव निक्खेव परिहारी||४| यदिनाम तागत्वा पात्रांलेपनीयमिति नैवमिष्यते अनन्तरोदितानेकदोषप्रसङ्गात्ततः पुनरपि किञ्चिद्वत्कव्यम्-लेपमानीय पात्रं लिप्तवास इव निक्षेपपरिहारी स इव निक्षेप परिहारमिच्छन् हस्ते पात्रं धारयन् तावत्तिष्ठति यावल्ले पस्य शोषो भवति। एवं क्रियतामत्राचार्यः प्राह - एवं पि हु उवधातो, आयाए संजमे पवयणे अ। मुच्छादी पवडते, तम्हा उन सोसए हत्थे // 493|| एवमपि हस्ते धृत्वा पात्रलेपस्य शोषणेऽपि हनिश्चितम् उपघातः आत्मनः, संयमस्य, प्रवचनस्य च। तत्रात्मोपघातो मूर्छाया आदिशब्दात्पात्रभारेण च प्रति पतति वेदितव्यः, संयमोपघातः षट्कायानामुपरिपतनात्, प्रवचनोपघातः पतन्तं दृष्टवा लोको ब्रूयात- 'दुष्टधाणोऽमी' इति। उक्तञ्च"कायाणमुवरिपडणे, आयाए संजमे पवयणे च। उण्हेण व भारेण व, मुच्छा पवडंति आयाए / / 1 / / कायोवरिपवंडते, अह होही संयमे विराहणया। यवयणे अदिधम्मा, पडंत दटुं वए लोगो // 2 // " यस्मादेते दोषास्तस्मान्न हस्ते पात्र शोषयतितव्यम् / अत्र सर्वत्र नोदकस्यैवं ब्रुवतो यथाच्छन्द इति कृत्वा चतुर्गुरुकं प्रायश्चितम्। एवमाचार्यो मोदकं प्रतिहत्य साम्प्रतमात्मना यतना समाचारीमाहदुविहा य होंति पाता जुण्णा य नवा य जे उ लिंपति। जुण्णे दाएऊणं, लिंपति मुच्छा य इयरेंसि ||4|| यानि पात्राणि लिप्यन्ते तानि द्विविधानि भवन्ति / तद्यथा जीर्णानि, नवानि च। ता यानि जीर्णानि तानि नियमत आचार्याणां दर्शनीयानि। यथा इदृशो लेपः क्षमाश्रमणाः ! पात्राणामग्रेतने वर्तत, ततः सम्प्रति लिम्पामि न वा; तौवं दर्शयित्वा यद्यनुज्ञा ज्ञाता ततस्तानि जीर्णानि लिम्पति नेतरथा, आदर्शयित्वा लेपने प्रायश्चित्तं मासलघु / यानि पुनर्नवानि तान्यवश्यं, लेपनीयनीति कृत्वा आचार्यस्यापृच्छ्याऽपि तेषामितरेषांनवानां लेपनं कर्तव्यम्।
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________________ लेप 665 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लेप अथ जीर्णानामदर्शने को दोश इत्यत आह एवमुक्तवा आचार्यान् शेषसाधूंश्च वक्ति युष्माकमप्यस्ति लेपेन प्रयोजन पाडिच्छगसेहाणं, नाऊणं कोऽपि आगमणमाई। मानीयताम्। तत्र यो वक्ति आमम्, तं प्रति ब्रूते कियन्तमानयामि, किं दढलेवे वि उपाये, लिंपतिमा तेसि दिजिज्जा ||465|| वा लेपं तत्र यद्भणति तदिच्छामि इति प्रतिपद्य कृतोत्सर्ग उपयोगअहवा वि विभूसाए, लिंपतिजा सेसगाण परिहाणी। कायोत्सर्ग कृत्वा गुरुन् नमस्कृत्याऽऽवश्यिकीं कृत्वा यदि तेषां पात्रअपडिच्छणे य दोसा, सेहे काए अनेगाए||४९६|| वस्त्राणां कल्पिकस्ततो गृहेषु गतवा मल्लकं रुतं च गृह्यति। कश्चिन्मायी शिष्याणां प्रतीच्छकानांचागमनं ज्ञात्वा मा तेषां दद्यादिति अथाकल्पिकस्तत आहकृत्वा दृढलेपान्यपि पात्राणि भूयोऽपि लिम्पति, अथवा-न शोभन: गीयत्थपरिग्गहिते, अयाणओ रुयमल्लए घेत्तुं। अग्रेतनो लेप इति विभूषानिमित्तमजीर्ण लेपमपि पात्रं भूयः कोऽपि खारं च तत्थ वचति, गहिए तसपाणरक्खट्ठा / / 501|| लिम्पति। एवं मायया विभूषानिमित्तं वा भाजनेषु तेषु लिप्तेषु या शेषकाणां योज्ञायकोऽगीतार्थः सगीतार्थेन परिगृहीतानिरुतमल्लकानि गृहीत्वा साधूनां प्रतीच्छकानां शिष्याणां परिहाणिस्तां समायी विभूषार्थी वा सति लेपे संपातिमासप्राणरक्षणार्थम्, तत्र मल्लकेषु क्षारं च गृहीत्वा प्राप्नोति / तमेव दर्शयति -- 'अपडिच्छणे य' इत्याकेचित्प्रतीच्छकाः व्रजति। समागतास्तद्योग्यानि च पात्राणि न सन्ति लिप्तानि तिष्ठन्तीति कृत्वा संप्रति यदधस्तादभणितम्। 'सागरिय' त्ति तदव्याख्यानार्थमाह - तत एवं पाठौर्विना तेषां प्रतीच्छकानामप्रतीच्छने ज्ञान दर्शनचारित्रा- वचंतेण य दिहुँ, सागारिदुचक्कगं तु अब्भासे। परिहाणिः 'सेहेकाए' त्ति तथा शैक्षः कश्चिदुपस्थितोऽथ च भाजनं न तत्थेव होइ गहणं,न होति सागारिओ पिंडो॥५०२|| विद्यते लिप्तमस्तीति कृत्वा ततो भाजन विना कथं स प्रव्राज्यते इति तेन गृहीतरुतमल्लकक्षारेण व्रजता यदि सागारिकस्य शय्यातरस्य सोऽप्रव्राजितः कायविराधनां कुर्यात, सा च तन्निमित्तेति ज्ञानदर्शन- द्विचक्रकं तमभ्यासे निकटे प्रदेशे दृष्ट ततस्तत्रैवतस्य लेपग्रहणं भवति, चारित्र परिहाणिप्रत्ययं कायविराधनाप्रत्ययं च प्रायश्चित्तं प्राप्रोति। यतः स न भवति सागारिकापिण्ड इति। यत एवमतदर्शिते दोषास्तस्मात् जीर्णानि दर्शयेत्। सम्प्रति प्रभुद्वारमाहअथ केन विधिना लेपस्य ग्रहणादि कर्त्तव्यम् अत आह गंतुं दुचकमूलं, अणुण्णविज्जा पहुं तु साहीणं / पुटवण्हे गंतूणं, लेवग्गहणं सुसंवरं काउं। एत्थ य पभु त्ति भणिए, कोई गच्छे निवसमीवं // 503 / / लेवस्स आणणा लिं-पणा य जयणाएँ कायव्वा ||7|| किं देमि त्ति नरवई, तुम खरमक्खिया दुचकित्ति। पूर्वाह्न लेपनिमित्तं गमनं कृत्वा तत्र यतनया लेपग्रहणं च कृत्वा ततः सोय पसत्थो लेवो, पंतयभद्देयरे दोसा / / 504|| सुसंवरं भवत्येवं लेपस्य यतनया आनयनं कर्तव्यम्, आनीते च यतनया गत्वा द्विचक्रमूलं शकटस्य स्वाधीनं-प्रत्यासन्नं प्रभुमनु ज्ञापयेत् / पात्रस्य लेपना। अननुज्ञापने प्रायश्चित्तं मासलघु, तस्मात्प्रायश्चित्तभीरुणा नियमतः एनामेव गाथा व्याचिख्यासुराह प्रभोरनुज्ञापना कर्तव्या / अत्र प्रभुरित्युत्के कश्चिश्चिन्तयति राजानं पुटवण्हें लेवगहणं, काहंति चउत्थगं करिस्सामि। मुक्तवा कोऽन्यः प्रभुरिति राजाऽनुज्ञापनीय उक्तः, एवं चिन्तयित्वा असहो वासियभत्तं, अकारलंभे व दितियरे।।४९८|| नृपसमीपं गच्छेत्, गत्वा चतंराजानंधर्म लाभयेत। तत्र सनरपति—यासाधुना प्रतिक्रमणचरमकायोत्सर्गस्थितेन चिन्तनीयम् / किमद्य तकिं ददामि ?, साधुर्वदति - युष्माकं द्विचक्राणि - शकटानि खरेण भाजनानि लेपनीयानि न वा, तत्रा यदि लेपनीयानि ततः पूर्वाहे तेलैन भ्रक्षितानि सन्ति, तत्र च यो लेपः प्रशस्त इति, तमनुजानीत। लेपग्रहणमहं करिष्यामीति विचिन्त्य चतुर्थकम भत्ककं कुर्याद्। अथ अत्र भद्रेतरदोषाः भद्रकदोषाः, प्रान्तदोषाश्च। तत्र भद्रके दोषा इमे, स असहः- असमर्थः चतुर्थभक्तं कर्तुं तर्हि पर्युषितं गृह्णाति, भक्तमथ राजाऽनुज्ञापितः सन् ब्रूयादहो निर्ममत्वा भगवन्त एतदप्ययाचितं न पर्युषितमपकारकमपथ्यम्, यदि वा न लभ्यते ततः पौरुषीं न करोति, गृह्यन्ति, ततःस आज्ञापयेत् यानि कानिचित् मम विषये शकटानि तानि किं त्वितरे साधवो मध्याहे हिण्डित्वा तस्मै भक्तं ददति। सर्वाण्यपि तैलेन भ्रक्षणीयानि प्रान्तः पुनरेवं चिन्तयेदहोऽमी अशुचयो कयकिइकम्मोछंदे-ण छंदितो भणति लेव घिच्छामि। यदेतत्मा याचन्ते मां याचन्ते नूनं सर्वमिदं नगरमभी भिर्धर्षयितव्यमिति तुज्झ वि याऽऽणे मट्ठो, आमंतं कित्तियं किं वा 49l प्रदेषं यायात्, प्रद्विष्टश्च घोषापयेत्, यथा मम राज्ये न कोऽपि शकटं सेसे वि पुच्छिऊणं, कयउस्सग्गो गुरुण नमिऊण। तैलेन भ्रक्षयेत्किं तु-घृतेनान्येन वा। मल्लगरुए गेण्हइ, जइ तेसिं कप्पितो होति / / 500|| तम्हा दुचक्कपतिणा, तस्संदिद्वेण वा अणुण्णाते। कृतं कृतिकर्म-वन्दनं येन स कृतकृमिकर्मा, किमुक्तं भवतिस लेपान- कडुगंधजाणणट्ठा, जिंघे नासं अघट्टतो / / 505 / / यनाय गन्ता प्रथममाचार्याणं वन्दनकं ददाति, दत्वाब्रूते-'इच्छाकारेण यस्मादेवं भद्रकप्रान्तदोषास्तस्मात्राजा नानुज्ञापयितव्यः / कोऽनुपसंदिशत' एवमुक्ते सूरयोऽभिदधति 'छंदेन' छन्दसा विज्ञापयेति भावः। ज्ञापयितव्य इतिचेद् ? उच्यते-यस्तस्य द्विचक्रस्य-शकटरुपतिःएवं छन्दसा छन्दितो निमन्त्रितः सन् भणति-गत्वा लेपं ग्रहीष्यामि | स्वामी, यो वा तेन - शकटपतिना संदिष्टः द्विचक्रपतिना तत्संदि -
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________________ लेप 666 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लेप टन वा अनुज्ञाते तैलस्य किल कटुको गन्ध इति कटुगन्धज्ञाना ऽर्थ- | कटुगन्धोऽस्ति न वेति परिज्ञानाऽर्थ नासामघट्टयन् असंस्पृशन् तं-लेपं दूरस्थो जिघ्रति, ध्राते च यदि कटुको गन्धः समायाति ततस्तैललेप इति कृत्वा तं समादत्ते। सम्प्रति 'छकायजयणाए' इति व्याख्यानयति -- हरिए बीए बले जुत्ते, वच्छे साणे जलट्ठिए। पुढवि संपातिमा सामा,महाँवाते महियामित्ते / / 506 // हरिते बीजे वा साधोः शकटे वा प्रतिष्ठिते तथा बलेबली वर्दाभ्यां युक्ते वा शकटे, तथा शकटेन सह बद्धे वत्स, शकट स्याधः स्थिते शुनि वा, तथा जलस्योपरि स्थिते पृथिव्यां वा सचित्तपृथिवीकायस्योपरि प्रतिष्ठिते शकटे, तथा-संपातिमेषुत्रसगणेषु सत्सु, तथा-श्यामा-रात्रिः तस्यां, महावाते वा वाति, महिकायां निपतन्त्यां लेपग्रहणं नानुज्ञातं, नाप्यमितस्य लेपस्य ग्रहणम्, एष द्वारगाथासंक्षेपार्थः / व्यासार्थस्तु प्रतिद्वारं वक्ष्यते। तत्र यद्यप्यनन्तरं प्रायश्चित्तगाथाद्वयं तथाऽपि नाऽ व्याख्यातेषु द्वारेषु तद्याख्यातुं शक्यमिति प्रथमतोद्वाराणि व्याख्यायन्ते। तत्र हरितद्वारबीजद्वारं चाधिकृत्याहहरिय बिय पतिहिते य, अनन्तर-परंपरे य बोधवे। परित्तऽणंते य तहा, चउभंगो होति नायव्वो // 507 / / हरिते बीजे ये साधौ शकटे वा अनन्तरपरम्परे वा प्रतिष्ठिते प्रत्येकं चतुर्भङ्गी भवति-ज्ञातव्या / गाथायां पुंस्त्वं प्राकृतत्वात्। तथा-हरिते बीजे च प्रत्येक परीत्तेऽनन्ते च साधौ शकटे वा वाऽनन्तरपरम्परप्रतिष्ठिते प्रत्येकं चतुर्भङ्गी। इयमत्रा भावना-हरितेषु साधुरनन्तरप्रतिष्ठितः ना परं परप्रतिष्ठितः 1 परंपर प्रतिष्ठितो नानन्तरप्रतिष्ठितः 2, अनन्तरप्रतिष्ठितोऽपि परंपर प्रतिष्ठितोऽपि 3, नानन्तरप्रतिष्ठितो नापि परंपरप्रतिष्ठितः 4, एवं बीजेष्वपि साधुमधिकृत्य चतुर्भङ्गो, एवं गन्त्रामप्याधिकृत्य हरितेषु बीजेषु च प्रत्येकं चतुर्भङ्गी द्रष्टव्या। हरितेष्वनन्तरं प्रतिष्ठिता गन्त्री नो परंपरप्रतिष्ठिता इत्यादि, एवं सर्वसङ्कलनया चतुर्भङ्गी चतुष्टयं जातम् / चतुर्भङ्गीद्विकं तु-साधुगन्त्रीसंयोगतो द्रष्टव्यम्, तथाहरितेषु च साधुर्गन्त्री चानन्तरप्रतिष्ठिता इत्यादिभङ्गचतुष्टयं प्राग्वत् / एवं बीजेष्वपि सर्वसंख्यया षट् चतुर्भङ्गयः / एतच चतुर्भङ्गषट्कं किल प्रत्येकेषु हरितबीजेषू त्कम्, एवमनन्तेष्वपि द्रष्टव्यमेवं मिश्रेष्वपि। साम्प्रतमौव प्रायश्चित्तमुच्यते। चउरो लहुगा गुरुगा, मासो लहु गुरु य पणगलहुगुरुयं / छसु परितणंमीसे, बीजे से अणंतरपरे य / / 508|| हरिते चशब्दसंसूचिते प्रत्येकके अनन्तरपरंपरभेदतस्त्रिष्वाद्येषु भङ्गेषु चत्वारो लघुका वक्तव्याः। इयमा भावना प्रत्येकेषु हरितेषु साधावनन्तरप्रतिष्ठिते प्रथम भङ्गे प्रायश्चित्तं चतुर्लघु, द्वितीये परम्परप्रतिष्ठिते चतुर्लघु, तृतीये भङ्गे अनन्तरपरम्परप्रतिष्ठिते द्वे चतुर्लधुके, चरमे भङ्गे शुद्धः। तथा प्रत्येकहरितेषु साधौगन्त्र्यां वाऽनन्तरप्रतिष्ठायां द्वे चतुर्लधुके, द्वितीयभङ्गेऽपि परम्परप्रतिष्ठितायां द्वे चतुर्लघुके, तृतीयभङ्गे उभयोः उभयत्रा प्रतिष्ठितयोश्चत्वारि लघुकानि, चरमभङ्गे शुद्धः / तथा हरितेष्वनन्तेषु साधावनन्तरप्रतिष्ठिते प्रायश्चितं चतुर्गुरुकम्, द्वितीयेऽपि परम्परप्रतिष्ठितेचतुर्गुरु, तृतीयेऽनन्तरपरम्परप्रतिष्ठितेद्वे चतुर्गुरुकें, चरमे शुद्धः, गन्त्र्याभप्यनन्तहरिते अनन्तरप्रतिष्ठितायां चतुर्गुरु परम्पर प्रतिष्ठितायामपि चतुर्गुरु, उभयप्रतिष्ठितायां द्वे चतुर्गुरुके, चरमे शुद्धः / अनन्तरहितेषु साधौ गन्त्र्यां वाऽनन्तरप्रतिष्ठितायां द्वे चतुर्गुरुके, परम्परप्रतिष्ठितायामपि द्वे चतुर्गुरुके, उभयप्रतिष्ठितायां चत्वारि चतुर्गुरुकाणि, चरमे शुद्धः, तथा-मिश्रेषु प्रत्येकहरितेषु साधावनन्तरप्रतिष्ठितेमासलघु, परम्पर प्रतिष्ठितेऽपि मासलघु, उभयप्रतिष्ठिते द्वेमासलघुके, चरमे भङ्ग शुद्धः / गन्त्र्यामप्यनन्तर-परंपरप्रतिष्ठितायामपि मासलघु, उभयप्रतिष्ठितायांद्वेमासलघुके, चरमे भङ्गे शुद्धः। साधौ गन्त्र्यां वाऽनन्तर प्रतिष्ठितायां द्वे मासलघुके, परंपरप्रतिष्ठितायामपि द्वे मासलघुके, उभयप्रतिष्ठितायां चत्वारि मासलघूनि, चरमे भने शुद्धः / तथा-मिश्रेष्वनन्तहरितेषु साधावनन्तरप्रतिष्ठिते मासगुरु, परंपर प्रतिष्ठिते पिमासगुरु, उभयप्रतिष्ठिते द्वे मासगुरुके, चतुर्थे शुद्धः / गन्त्र्यामपि तदनन्तरप्रतिष्ठितायां मासगुरु, परम्परप्रतिष्ठितायमपि मासगुरु, उभयप्रतिष्ठितायां द्वे मासगुरुके, चरमे शुद्धः / साधौ गन्त्र्यां वाऽनन्तरतिष्ठितायां द्वे मासगुरुके, परंपरप्रतिष्ठितायामपि द्वे मासगुरुके, उभय प्रतिष्ठितायां चत्वारि मासगुरुकाणि, चरमभङ्गे शुद्धः / 'पणग लहुगुरुगमिति' बीजेषु प्रत्येकेषु सचितेषु मिश्रेषु वा प्रत्येकं साधावनन्तरत्रातिष्ठिते लघुरात्रिंदिवपञ्चकम्, परंपरप्रतिष्ठितेऽपि लघुपञ्चकम्, उभयप्रतिष्ठिते द्वे लघुपञ्चके, चरमभङ्गे शुद्धः / तथा गन्त्र्यामनन्तर प्रतिष्ठितायां लघुपञ्चकम्, परंपरप्रतिष्ठितायामपि लघुपञ्चकम्, उभय प्रतिष्ठितायां वे लघुपञ्चके, चरमभङ्गे शुद्धः / साधौ गन्त्र्यां वाऽनन्तर प्रतिष्ठितायां वे लघुपञ्चके, परमप्रतिष्ठितायामाप द्वे लघुपञ्चके, उभयप्रतिष्ठितायां चत्वारि लघुपञ्चकानि चरमभङ्गे शुद्धः / एवमनन्तेषु रात्रिन्दिवपञ्चकं गुरुकं द्रष्टव्यम् / एवं बीजे, चशब्दात् हरिते च प्रत्येके सचित्तेऽनन्ते सचित्ते मिश्रे वा वाऽनन्तरे षट्पट्सु भङ्गेषु यथायोग प्रायश्चित्तमवगन्तव्यम्। इदानीं चलादिद्वारप्रतिपादनार्थमाह - दवे भावे य चलं, दव्वम्मी दुट्टियं तु जं दुपयं / आयाएँ संजमम्मिय, दुविहा उ विराहणा तत्थ / / 506 / / चलं नाम द्विविधम्, तद्यथा-द्रव्यतः, भावतश्च। तत्र द्रव्यतश्चलं यत् द्विपदं शकटं दुःस्थितं तत्र लेपं गृहृतश्चतुर्गुरुकम्, यतस्ततो द्विविधा विराधना-आत्मनि, संयमे च / तत्रात्मविराधना शकटने पततोऽभिघातसम्भवात्, संयमविराधनाशकटे संचाल्यमाने प्राणिजात्युपमर्दनात्। भावचलँ गंतुकाम, गोणाई अन्तराइयं तत्थ / जुत्ते वि अंतराई, वित्तस चलणे य आयाए॥५१०॥ भावचलं नाम-गन्तुकामं योज्यमानमित्यर्थः, तत्रा यावत् लेपो गृह्यते तावद् बलीवनां चारिपानीयनिरोधनम्, आदिशब्दात्मनुष्याणामप्यन्तरायम्, ततो भावचलेऽपि लेपं गृह तश्चत्वारो लघुकाः / गतं चलद्वारम् / अधुना युत्कद्वारमाह-"जुत्ते वी त्यादि युत्कं योक्वितबलीवर्हम्।तत् स्थापयित्वा यदि लेपं गृहति यतः प्राय
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________________ लेप 667 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लेप श्चित्तं चत्वारो गुरुकाः, यतस्तत्रापि स एवान्तरायदोषः / अन्यश्चायं दोष, ते बलीव विास्येयुः तत्र गन्त्र्या चलन्त्या चरणाक्रमणेआत्मविराधना, संयमविराधना त्रसादिनिपातः / सम्प्रति तत्सदारं श्वद्वारं चाहवच्छो भएण णासति, गंतिक्खोभे य आयवावत्ती। आया पवयण साणे, काया य भएण नासंतो // 511 // यत्रा शकटे वत्सो बद्धः, श्वा वा यस्याधस्तात्तिष्ठति, बद्धो वा वर्तते, तत्र वत्से-लेपं गृह्णतश्चत्वारो लघुकाः, शुनि-चत्वारो गुरुकाः, यतोवत्सो भयेन नश्यति, गन्त्र्या क्षोभे चलने आत्मव्यापत्तिः, तथा श्वा समागच्छन्तमपूर्व दृष्टवा दशति तत्रा आत्मोपधातः, शुना लीढं लेपममी गृहन्तीति प्रवचनोपघातः, भयेन नश्यति शुनि कायाः-पृथिवीकायादयो विनाशमापद्यन्ते;ततः संयमोपघातश्च। सम्प्रति जलस्थितद्वारं पृथिवीस्थितद्वारं चाहजो चेव य हरिएसुं, सो चेव गमो उदगपुढवीए। संपाइमे तसगणा, सामाए होइ चउभंङ्गो॥५१२|| यएव गमः प्राक् हरितेषूत्कः स एवोदके पृथिव्यां च वेदितव्यः, इयमत्र भावना-सचित्ते उदके साधुरनन्तरप्रतिष्ठितो, न परंपरिप्रतिष्ठित, इत्यादि चतुर्भगी। गन्त्र्यामप्येवं चतुर्भङ्गी। उभयोरपि चतुर्भङ्गी, तदेवं चतुर्भङ्गीत्रयम्, सचित्ताऽप्काये, अचित्ताऽप्काये, एवं मिश्राप्कायेऽपि चतुर्भङ्गीत्रयमवसातव्यम्, उभयमीलनेन चतुर्भङ्गीषट्कम्, एवं चतुर्भगीषट्कं पृथिवीकायऽपि भावनीयम्। तत्र सचित्तेऽप्काये साधावनन्तर प्रतिष्ठिते प्रायश्चित्तं चतुर्लघु, परंपरप्रतिष्ठितेऽपि चतुर्लघु, उभयप्रतिष्ठिते द्वे चतुर्लघुक, चरमे भङ्गे शुद्धः / गन्त्र्यामप्यनन्तरप्रतिष्ठितायां चतुर्लघु, परंपरप्रतिष्ठितायामपि चतुर्लघु, उभयप्रतिष्ठितायां द्वे लघुके, चरमे भने शुद्धः / चरम भङ्गेषु मिश्रेऽप्काये साधावनन्तरप्रतिष्ठिते द्वे मासलघुके, चरमेशुद्धः / एवं गन्त्र्यामपि भङ्गचतुष्टयं वक्तव्यम्, साधुगन्त्र्योर नन्तरप्रतिष्ठितयोर्दैमासलघुके, परंपरप्रतिष्ठितयोरपिद्वेमासलघुके, उभयोरुभयत्रा प्रतिष्ठितयोः चत्वारि मासलघुकानि, चरमभङ्गे शुद्धः / एवं पृथिवीकायेऽपि चतुर्भङ्गी षट्के प्रायश्चित्तमवगन्तव्यम् / सम्प्रति सम्पातिमद्वारं श्यामाद्वारं चाह--"संपातिमा'' इत्यादि। अथ के नाम सम्पातिमाः-येषु पतत्सु लेपो न गृह्यते। किं ासाः स्थावरा वा ? | तत्राह सम्पातिमाः सप्राणा न स्थावरास्तेषु संपातिमेषु पतत्सु यदि लेपं गृह्वति तदा यस्य प्रायश्चितं चत्वारो लघुकाः / श्यामा रात्रिः, तत्र-चतुर्भङ्गी, तद्यथा-रात्रौ लेपं गृह्णति, रागावेव भाजनस्य लेप ददाति। अत्र प्रायश्चित्तं चत्वारो लघुकाः, एवं मध्यमभङ्गद्वयेऽपि तपोलघवः कालगुरुकाः। दिवसे गृहीत्वा दिवस एव ददातिशुद्धः। महावातादिद्वारठायमाह - वायम्मि वायमाणे, महियाए चेव पवडमाणीए। नाणुण्णायं गहणं, अभियस्सयमा विगिचणया॥५१३।। वाते-महावाते वाति, तथा-महिकायां प्रपतन्त्यां लेपस्य ग्रहणं नानुज्ञातं तीर्थकरगणधरैः महावाते वाति तुदद्धृतानां त्रसस्थावराणां लेपसंपर्कता विनाशसंभवात्। महिकायां निपतन्त्यामप्कायविराधनात्, तथा अमितस्यापिलेपस्य ग्रहणं नानुज्ञातंमा भूद्विवेचनिकापरिष्ठापनिका इति कृत्वा तत्रा महावाते वाति लेपं गृह्णतः प्रायश्चित्तं चतुर्लघु, महिकायामपि निपतन्त्यां चतुर्लघु, अमितग्रहणे मासलधु। एतदेव प्रायश्चित्तं प्रतिपादयन्नाहबलजुत्तवच्छमहिया, तसेसु सामाएँ चेव चउलहुगा। दव्वबलसाणगुरुगा, मासो लहुओ उ अमियम्मि।।५१४|| भावतश्चले बलीवद्दयुक्त वत्से निबद्धे, तथा महिकायां निपतन्त्यां त्रसेसु सम्पातिमेषु निपतत्सु श्यामायां च लेपं गृहृतः प्रत्येकं प्रायश्चित्तं चत्वारो लघुकाः / द्रव्यबले शुनि वा स्थिते चत्वारो गुरुकाः, अमिते गृहीते लघुको मासः। विशेष भावना तु प्रतिद्वारं प्रागेव कृता। एतद्दोसविमुक्कं, घेत्तुं छारेणा अक्कमित्ताणं / चीरेण बंधिऊणं, गुरुमूले पडिक्कमा लोए // 515|| ये एते हारतादयोऽनन्तरं दोषा उत्कास्तैर्मक्तं लेपं गृहीत्वा मा सम्प्रातिमानां वधो भूयात तं क्षारेण-भस्मना आक्रम्य चीवरेण बध्वा गुरुपादमूलमागच्छति। आगम्य चेर्यापथिकी प्रतिक्रम्यालोचयति। दंसिय छंदिय गुरु से-सए य ओमत्थियस्स माणस्स। काउं चीरं उवरिं,रुयं व छुसेज तो लेवं / / 516|| आलोच्य लेपं गुरादर्शयतिः दर्शयित्वा गुरुं लेपेन छन्दयतिनिमन्त्रयति, निमन्त्रणानन्तरं शेषकानपि साधून निमन्त्रयति, ततो यावता यस्यार्थस्तस्य तावन्तं दत्त्वा एकस्य भाजनस्यावमस्थितस्यावाङ्मुखीकृतस्योपरि चीवरं कृत्वा तत्र लेपं रुतं च प्रक्षिपेत्। सम्प्रति लेपदानविधिमाह - अंगुठ्ठपएसिणिम-ज्झिमाहिं घेत्तुं घणं ततो चीरं। आलिंपिऊण भाणं, एक दो तिनि वा घटे ||517 / / अङ्गुष्ठेन प्रदेशिन्या मध्यमया चाङ्गुल्या लेपं गृहीत्वा घनंचचीवरमादाय तत्रलेपं प्रक्षिप्य निष्पीडयेत्। निष्पीड्यचएकैकभाजनमेकं द्वौत्रीन् वा वारान् लेपयेत्, अधिकं तु लेपमट्ट कनिमित्तं सरुतकं पेषयेत्। अथ न दातव्यः अट्टकः, यदि वा-ताशुद्धिरतः सरुतकं तं क्षारे परिष्ठापयेत्, अन्यचान्यच भाजनं लिप्तवा अन्यदन्यद्वारंवारेण घट्टणपाषाणेन घट्यति। तथा चाहअण्णोणे अंकम्मी, अण्णं घटेति वारवारेणं। आणेइतमेव दिणे, दवं च घेत्तुं अभत्तट्ठी॥५१८|| अन्यास्मन भाजने घट्टिते अन्यतरभाजनमङ्के स्थापयित्वा वारंवारेण घट्टयति, तत्रा यदि उद्वानो लेपो यदि च तस्य ,द्रवेण कार्य समुत्पन्नं स चाऽऽत्मनाऽभक्तार्थी ततः सोऽभक्तार्थी तस्मिन्नेव दिने पात्र लेपनोपरज्य उद्घाने लेपे तेन द्रवं सपानीय मानयति / अथ नोद्वानस्ततोऽन्येषामभक्तार्थिनामहिण्डमानानां वा तत्पात्रे समन्येिन पानीयमानयेत्। भत्तट्ठीणं दाउं, अन्नेसिंवा अहिंडमाणाणं।
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________________ लेप 668 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लेप हिंडेज असंथरणे, असती घेत्तुं अरइयं तु // 516|| यदि स भक्तार्थी, न च पात्रास्य लेपोऽद्यापि शुष्कस्ततोऽसंस्तरणे भोजनमन्तरेण संस्तरीतुमशत्कावभक्ता र्थिनामन्येषां वा साधूनामहिण्डमानानां तत्पात्रां समर्प्य हिण्डेत, असति अन्येषामभक्तार्थिनामहिण्डमानानां वा अभावे तत् अरञ्चितमद्याप्यपरिणतलेपं गृहीत्वा हिण्डेत्। न तरिज जह तिन्नि उ, हिंडावेउं ततो णु खारेण / ओयत्तेउं हिंडइ, अन्ने व दवंसें गिण्हंति // 520 / / यदि त्रीणि पात्राणि हिण्डापयितुं न शक्रोति ततो नु-निश्तिम्, तत् पात्रामुपाश्रये क्षारेणावनम्य स्थगयित्वा हिण्डते। यदि वा-(से) तस्य योग्यं द्रवमन्ये गृह्णन्ति, ततोऽतिरित्कपात्रवहने न कश्चिद्भार इत्यदोषः। लिथारियाणि जाणि उ, घट्टगमादीणि तत्थ लेवेणं / संजमभूतिनिमित्तं, ताई भूईए लिंपिज्जा // 521 / / तत्र पात्रलेपने यानि लेपेन घट्टकादीनि लित्थारियाणि देशीपदमेतत् खरण्टितानि संयमभूतिनिमित्तम्-संयमविभूति हेतोः विभूत्या क्षारण तानि लिम्पेत्, येन तत्संस्पर्शतः त्रसानां स्थावराणां वा विनाशो न भवति। एवं लेवग्गहणं, आणयणं लिंपणा य जयणा य। मणियाणि अतो वोच्छं, परिकम्मविहिं तु लित्तस्स / / 522 // एवमुक्तेन प्रकारेण लेपस्य ग्रहणमानयनंपात्रस्य लेपनाय सर्वत्र यतना, एतानि भणितानि। अत ऊर्ध्वं पुनर्लिप्तस्य परिकर्मविधिं वक्ष्यामि। तमेवाभिधातुकाम आह -- लित्ते छाणियछारो, घणेण चीरेण बंधिउं उण्हे। उव्वत्तण परियत्तण, अंच्छिय धोए पुणो लेवो // 523 / / पात्र लिप्ते सति यः क्षाणितो-गलितः क्षारो-भस्म स तत्रा प्रक्षिप्यते, ततो घनेन चीरेण बध्वा उष्णे ध्रियते, तत्र चपात्रास्योद्वर्तनं परिवर्तनं च तावत्कर्तव्यं यावत् लेपः शुष्को भवति। ततः पात्रामञ्चते-आकृष्यते, आकृष्य पानीयेन प्रक्षाल्यते, ततः प्रक्षालिते सति पुनरपिस लेपो दीयते। काउं सरयत्ताणं, पत्ताबंधं अबंधगं कुम्जा। साणाइरक्खणहा, पमजणाउण्हसंकमणा / / 524 // पात्रे भूयो लिप्ते सति तस्योपरि सरजस्त्राणसहितं पात्राबन्धम बन्धक मग्रन्थिकं कुर्यात् कस्मादबन्धकं कुर्यादत आहश्वादि रक्षणार्थम्, शुनः आदिशब्दात्-मर्कटमाञ्जारादिभ्योऽपिरक्षणार्थम्, अन्यथा हि ग्रन्थौ दत्ते सपात्राबन्धं पात्रं श्वादिभिर्नीयते। तथा छायायामुष्णे च पात्रस्य संक्रमणे प्रमृज्यते तत्पात्रं स्थापयितव्यम्। तदिवसं पडिलेहा, कुभमुहादीण होइ कायध्वा / छण्णे य निसिं कुज्जा, कयकजाणं विविगो उ॥५२५|| यस्मिन् दिने पात्रलेपनं तस्मिन्नेव दिवसे कुम्भमुखादीनां घटकण्ठादीनाम् आदिशब्दात्-स्थालीकण्ठादिपरिग्रहः-प्रत्यपेक्षा भवति -- कर्तव्या, कुटकण्ठादीनि तस्मिन् दिने आनेतव्यानीत्यर्थः / किमर्थमित्यत आह-निशि-रात्रौ तेषामुपरि छन्ने प्रदेशे लिप्तानि पात्राणि | कुर्यादित्येवमर्थ तदनन्तरं तेषां घटमुखादीनां कृतकार्याणां विवेकःपरिष्ठापनिकाः। अट्टगहेउं लेवा-ऽहिगं तु सेसं सरुतगं पीसे। अहवा विन दायव्वो, सरुयगं छारतो उण्हे // 526|| उष्णे शेषमधिकं लेपम् अट्टकहेतोः-अट्टकनिमित्तम् सरुतकम् पेषयेत्। अथवाऽपि न दातव्योऽट्टकस्ततस्तमधिकं सरुतक लेपं क्षारे भस्मनि उष्णे तत्परिष्ठापयेत्, अयं चार्थो या भणितस्तत्र प्रागेवोपदर्शितः। सम्प्रति तु गाथाक्रमानुलोमत उक्त:पढम चरमा उ सिसिरे, गिम्हे अद्धं तु तासि वज्जित्ता। पायं ठवेसिणेहा-दिरक्खणट्ठा पवेसे वा।।५२७|| शिशिरे-शीतकाले प्रथमचरमे पौरुष्यौ वर्जयित्वा ग्रीष्मे-उष्णकाले तयोः प्रथमचरमपौरुष्योरर्द्धमर्द्ध वर्जयित्वा पात्रामुष्णे स्थापयेत्, प्रथमचरमपौरुष्यादिकाले तु मध्ये प्रवेशयेत् / किमर्थमित्याह - स्नेहादिरक्षार्थ स्नेहोऽवश्मायः आदिशब्दात्-महिकाहिमवर्षादिपरिग्रहः तगाणार्थम्, इयमत्रा भावना-शिशिरकाले प्रथमायां पौरुष्यामतिक्रान्तायामुष्णे ददाति, चरमायां तु पौरुष्यामनवगाढायांमध्ये प्रवेशयति, अन्यथा शिशिरकालस्य स्निग्धतया प्रथमायांच पौरुष्यामवश्यायादिपतनभावतो लेपविनाशप्रसङ्गात्, उष्णकाले तु प्रथमायाः पौरुष्या अर्धे अपक्रान्तेपात्रामुष्णे दद्यात्, चरमायास्तुपौरुष्याः, पश्चिमेऽर्द्ध ऽनवगाढे मध्ये प्रवेशयत्, कालस्य रुक्षतया तत ऊर्द्ध पश्चाचावश्यायादिवस म्भवात्। उवयोगं च अभिक्खं, करेति वासादिसाण रक्खट्ठा। वावरेति च अण्णे, गिलाणमादीसु कजेसु // 528|| उष्णे च पात्र दत्ते सतिस वर्षादिभ्यो रक्षणार्थं वर्षम्वृष्टिः आदिशब्दात्हिमप्रपातादिपरिग्रहः श्वा-कुकुरः तद्रक्षणार्थ मभीक्ष्णमनवरतमुपयोगं करोति / यदि वा ग्लानादिप्रयोजनेषु समापतितेष्वन्यान् साधून व्यापारयति, सतु तत्रौव रक्षयन् तिष्ठति। अथ कियन्तः पात्रस्य लेपा दीयन्ते ?, इत्याहएको य जहन्नेणं, विय तिय चत्तारिपंच उक्कोसा। संजमहेउं लेवो, वज्जित्ता गारवविभूसं॥५२६|| पात्रस्य संयमहेतोर्जघन्येनैको लेपो दातव्यः। मध्यमतो द्वौत्रयो वा। उत्कर्षतः-चत्वारः,पञ्च वावर्जयित्वा गौरवम्, विभूषां च। गौरवेणात्मनो महर्द्धिकत्वमनेन लक्षणेन विभूषया वा न लेपो दातव्यः, किन्तु संयमस्यातिनिमित्तमिति। अणवढे ते तह विउ, सव्वं अवणेतु तो पुणो लिंपे। तज्जाय सचोप्पडयं, घट्टरएउं ततो धोवे // 530 / / उत्कर्षतः पञ्चस्वपि लेपेषु यदि स लेपो नावतिष्ठेत-न पात्रोण सह लोलीभवति, ततः तस्मिन्ननवतिष्ठमानेन सर्व लेपमपनीय ततः पुनर्मूलतः पात्रां लिम्पयेत्, यथा स लेपोऽवतिष्ठते। 'तज्जाये' त्यादि इह यत् अलाब्वादिपात्र तैलादिना सचोप्पडम्-सस्नेहं तत्र च धूलिः प्रभूता लग्ना, तं लेपं घट्टक पाषाणेन घट्टयित्वा तदगतेनैव लेपेन भूयस्तत्पात्र रज्जित्वा ततः प्रक्षालयेत्, एष तद्यातो नाम लेपः।
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________________ 666 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लेप सम्प्रति लेपस्यैव भेदानाह भवति मध्येनैव पात्रककाष्ठस्य दवरको याति तावत्यावत् सा तज्जाय-जुत्ति लेवो, दुचक्कलेवो य होइ नायव्वो। - राजीः सीविता भवति तेन स्तेनकबन्धेन दुर्बलं पात्राकं भवति, मुद्दियनावाबंधो, तेणगबंधो य पडिकुट्ठो // 531 / - अतोऽसौ वर्जनीयः / ओघ०। त्रिविधो लेपो भवति -- ज्ञातव्यस्तद्यथा-तज्जातलेपः, युक्तिलेपः, - सम्प्रति लेपस्य जघन्यादिभेदानाहद्विचक्रलेपश्च / द्विचक्रलेपो नाम शकटलेपः, तत्र लिप्यमानं लिप्तं वा खर अयसि कुसंभ सरिसव, कमेण उक्कोसमज्झिम जहन्नो। यदि पात्रं कथमपि भङ्गमाप्नुयात् ततो ऽन्यस्याभावे मुद्रितनौबन्धेन नवणीए-सप्पि वसा, गुले अलोणे अलेवो उ॥५३५।। बध्नीयात् न स्तेनकबन्धेन / यतो मुद्रितनौबन्ध एव तीर्थकरैरनुज्ञातः खरसंज्ञिकेन तिलतैलेन यो लेपःस उत्कृष्टः। अतसीतैलेन कुसुम्भतैलेन स्तेनकबन्धस्तु प्रतिकुष्टः। च मध्यमः, सर्षपतैलेनजघन्यः। उक्तञ्च-"सो पुण लेवोखरसणहएण साम्प्रतमेनामेव गाथां विवरीषुस्तद्यातलेपस्य प्राग्व्याख्यातत्वात् उमोसओ मुणेयव्यो। अयसि कुसुंभिय मज्झो, सरिसवतिल्लेणय जहन्नो शेषपदव्याख्यानार्थ माह ॥१॥"नवनीतेन भ्रक्षणेन सर्पिषाघृतेनं वसा च निर्वृत्तोऽलेपोज्ञातव्यः / जत्ती उपत्थरादी, पडिकुट्ठा सा तु सन्निही काउं। तस्य पात्रो सम्यग् लगनाभावात्, जुगुप्सितत्वाच्च / तथा-गुडभृतेषु वा दयसुकुमालअसन्निहि, दुचकलेवो अतो इहो // 532 / / शकटेषु तिलतैलभ्रक्षितेष्वपि यो लेपः सोऽलेपः तस्यापि लवणाद्यवयवो युत्किः पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात् धूलिलेपः, प्रस्तरादिः- गतः अप्रशस्तत्वात्, तदेवमुत्को लेपस्य विधिः। बृ० 1301 प्रक०। प्रस्तरादिकृतः आदिशब्दात्-शर्करालोहकिट्ट केदारमृत्तिकादिपरिग्रहः, अथकल्पकरणद्वारमभिधित्सुराहसा च युत्किः सन्निधिरिति कृत्वा तीर्थकरगणधरैः प्रतिक्रुष्टानिराकृता। माणस्स कप्पकरणे, अलेवडे नत्थि किंचि कायव्वं / तद्यातलेपश्च कदाचिद वाप्यते, तत एतेषु मध्ये शकटलेपः सुन्दरः। यतः तम्हा लेवकडस्स उ, कायव्वा मग्गणा होइ॥८६८|| तस्मिन् सुकुमारतया पानजातयो जन्तवः स्पष्टाः दृश्यन्ते, दृश्यमानेषु भाजनस्य कल्पकरणे चिन्त्यमाने यदलेपकृतं द्रव्यं तद्या प्रक्षिप्तं तस्य च तेषु दया कर्तुं शक्यते न च सन्निधिदोषः / अतः सुन्दररत्वात् स एव भाजनस्य न किंचित्कर्तव्यम्-कल्पोन विधेय इत्यर्थः। लेपकृतभाजद्विचक्रलेप इष्टः। नस्यत्ववश्यकल्पोदातव्यः, इत्यतो लेपकृतस्य मार्गणा कर्तव्या, कीदृश संजमहेउं लेवो-विभूसाए वयंति तित्थयरा। लेपकृतम्, अलेपकृतं चेति चिन्तनीयमित्यर्थः / बृ० 1 उ०२ प्रक०। सतीऽसती दिलुतो, विभूसॉए होंति चउगुरुगा॥५३३|| (तत्रालेपकृतानि 'अलेवकड' शब्दे प्रथमभागे 755 पृष्ठे गतानि) लेपः पात्रास्य दातव्यः संयमहेतोर्न विभूषया, उपलक्षणमेतत्, नापि अथलेपकृतानि निरुपयतिगौरवेण, इति भगवन्तस्तीर्थकरा वदन्ति। संयमहेतोः पुनर्दीयमाने लेपे विगई विगइ अवयवा, अविगई पिण्डरसहि जं मीसं। यदि विभूषा भवति तथापि सासंयमहेतोरेव। अत्रा सत्यसत्योर्दृष्टान्तः। गुलरहितेल्लावयवे, विगडम्मिय सेसएसुं च // 871 / / तथाहि-सती आत्मानं विभूषयति, असत्यपि। केवलं सती कुलाचार | दधिदुग्धघृतादिका या विकृतयो ये च विकृतीनामवयवाः मधुप्रभृतनिमित्त मात्मानं विभूषयतीति तुल्यमपि तद्विभूषणमदुष्टम् / इतरा यस्तैर्यन्मिश्रम, यद्वा-विकृतिरुपैः पिण्डरसैः खजूरादिभिर्मिश्रम्, जारतोषणानिमित्तमिति दोषवत् / एवं यथा सत्यसौ तथा साधुः, यथा एतत्सर्वमपि लेपकृतमिति प्रक्रमः। अत्र च गुडदधितैलानां ये अवयवाः विभूषणं तथालेपः, यथा कुलाचारः तथासंयमः, यथा जारतोषणं तथा यश्च विकटे-मध्ये अवयवः शेषेषु च घृतादिषु येऽवयवास्ते केचिद् असंयमः / विभूषया लेपं ददतः प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः। उपलक्षण- विकृतयः, किञ्चिचा विकृतयः प्रतिपत्तव्याः। मेतत् गौरवेणापि ददत एतत् प्रायश्चित्तमवसातव्यम् / उक्तञ्च - अथैनामेव नियुक्तिगाथां विवृणोति"संयमहेऊलेवो, न विभूसा, गारवेण वा देयो। चउगुरुगविभूसाए, लिंपिते दहि अवयवो उमंथू, विगई तक न होइ विगई उ। गारवेणं वा / / " खीरंतु निरावयवं, नवणीओगाहिमा चेव // 872 / / भिजिज्ज लिप्पमाणं, लित्तं वा असइए पुणो बंधे। घयघट्टो पुण दिगई, वीसंदणसोय केइ इच्छन्ति। मुद्दियनावाबंधे, न तेण बंधेण बंधिज्जा // 534|| तिल्लगुलाण अविगई, सुकुमालियखंडमाईणि // 873 / / तत्पात्रनं लिप्यमानं लिप्तं वा कथमपि हस्तपतनादिनाऽभिद्यत न महुणो मयणमविगई, खोलो मन्जस्स पोग्गले पिउडं / चान्यत्पात्रं तत्पात्रां भूयो मुद्रितनौबन्धेन बध्नीयात्, नस्तेनकबन्धेन। रसओ पुण तदवयवो, सो पुण नियमा भवे विगई।॥८७४|| बृ०१ उ०१ प्रक०। दध्नः सम्बन्धी यो मधु इति नाम्ना प्रसिद्धोऽवयवः सव तत्र मुद्रिकाबन्धस्येयं स्थापना - विकृतिः, यत्तु तक्रं तद्दध्यवयवरुपमपि विकृ तिर्न भवति / नौबन्धः पुनर्द्विविधो भवति तस्य स्थापना चेयं स्तेनकबन्धः पुनर्गुप्तो . क्षीरं तु दुग्धं पुनर्निरवयवम्-अवयवरहितं नवनीतं-भक्षणम्
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________________ लेव 670- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लेव अवगाहिम पक्कान्नम् (ते अपि निरवयवे एतद्विषयाणामवयवानां पृथगव्यवहियमाणत्वादिति / घृतघट्टः- पुनघृतस्य सम्बधी यः किट्टो महियाद्रुकमित्यर्थः / स विकृतिर्व्यवह्मियते। विस्पन्दनं नाम–अर्धनिदग्धघृतमध्यक्षिप्ततन्दुलानिष्पन्नम्, उत्कच्च पञ्चवस्तुकटीकायाम् - 'वीसंदणं अद्धनिद्ददघयमज्झछूढतंदुल निप्फणं 'ति, सो इति पादपूरणे, चशब्दार्थः- अपिशब्दार्थे, विस्पन्दनमपि केचिद्विकृतिकमिच्छन्ति न पुनर्न चायं यदाह चूर्णिकृत्-"अम्हाणं पुण वीसंदणं अविगई"। त्ति / तैलगुलयोर्यथाक्रमं यानि सुकुमारि-काखण्डादीनितानि अविकृतिः विकृतिनँ भवतीत्यर्थः / सुकुमारका तैलविशेष, खण्डः- प्रतीतः आदिशब्दात्-शर्करादिपरिग्रहः / मधुनो माक्षिकादिभेद भिन्नस्यावयवो यन्मन्दनंतद विकृतिः। मद्यस्य खोलम् किट्ट विशेषः, सोऽपिन विकृतिः पुदलस्य यत्पिकटमुज्झमस्थि वा तदप्यविकृतिरसकः, पुनर्यस्तस्य पुद्रलस्यावयवः स पुनर्निय मात् भवेद विकृतिः।। अथ पिण्डरसपदं व्याख्यानयतिअंबंबाडकविटे. मुद्दिया माउलुंगकयले य / खजूरनालिएरं, कोले चिंचा य बोधव्वा / / 875 / / आमम् आम्रातकम्, कपित्थम्-प्रसिद्धम् मुद्रिका द्राक्षा मातुलिङ्गम्बीजपूरम, 'कयलं' - कन्दलीफलम्, खजूरम् नालिकेरमुभयमपि सुप्रसिद्धम, कोलो-बदरचूर्णम्, चिञ्चाअम्लिका, चशब्दाद्-अन्यान्यप्येवंविधानि पिण्डरसद्रव्याणि वोद्धव्यानि / एतानि न नव विकृतयो भवन्ति। यत आहखजूर-मुद्दिय-दाडिं-माणं पीलत्थु-चिंचमाईणं। पिण्डरस न विगईओ, नियमा पुण होति लेवाडा॥८७६|| खजूरमुद्रिकादाडिमानां पील्विक्षुचिञ्चादीनां च संबन्धिनौ यौ पिण्डरसौ तौ अविकृती-विकृती नभवतः। नियमात् पुनर्लेप कृतौ भवत इति। उत्कानिलेपकृतानि। लेपकृतिः संसृष्टस्य भाजनस्य कल्पकरणो यदि पुनस्तस्य भाजनस्य लेपः स्फुटितो भवति ततः कल्पत्राये कृतेऽपि लेपकृतमेव तन्मन्तव्यम् अतस्तद्दोषपरिहारार्थमाह - कुट्टिमतलसंकासो, मिसिणीपुक्खपलाससरिसोवा। समासधुवणसुक्का, णायसुहुमेरिसो होइ॥८८७॥ यथा कुट्टिमतलं निनोन्नतप्रदेशरहितं सर्वतः सममेव भवति एवं पात्रकस्य लेपोऽपि कुट्टिमतलसंकाशः सर्वतः सम एव कर्तव्यः / तथा विसिनी-पद्मिनी तस्य यत्पुष्कलं विस्तीर्ण पलाशपत्र तत्र पतितं जलं यथा नावतिष्ठते, एवं या सूक्ष्मसिक्थावयवा लग्ना अपिन स्थितिं कुर्वन्ति स विसिनी पुष्कलपलाशसदृशः, ईदृशो लेपः पाठाकस्य समासधावनशोषणाः सुखमेव कर्तुं शक्यन्ते, समिति-सम्यक् प्रवचनोत्केन विधिना, आिित मर्यादया पात्रकलेपमवधी कृत्य यदसनं सिक्थाद्यवयवानामपनयनं स समासः स लेपेन कल्प इत्यर्थः, धावनं कल्पायप्रदानम्, अपरञ्चायं गुण ईदृशे पात्रो भवति “एगो साहू | रुक्खमूले समुद्दिसइ, तेण साहुणा दिसालोगो कओ,नपुण उवरिमारुढो धिजाइओ दिह्रो, तेण सोसाहू दूरओ जिमिओ दिट्ठो, ताहे सोउवरिमारुढो गाममइमओ, तत्थडणेण सिट्टे गामिल्लयाणं, तेण पुण साहुणा सो ओअरंतो दिहो, अह सो भगवं दवदव स आउत्तो तहा संलिहइ जहा नजइ धायं पिव पत्तं / पच्छा सो भगवं मुहुपुत्ति याए मुहं पिहेऊण पढंतो अत्थइ, ते आगया पिच्छंति साहुं उवसंतं, कओ एक कतो भिक्खंगहियं, तओ भणइ न ताव हिंडामि, किं बेला जाया ते अन्नमन्नस्स मुहं पलोयंति / ताहे धिज्जाइओ भणइ-मए दिह्रो, पलोएहँ से भायणं ति, पिच्छा मो भायणं, तेणं दरिसियं, ताहे ते दखूण भणति-तुमं पिपावो मरुगो'' त्ति। असुमेवार्थ भाष्यकृदाह-- आउत्तो सो भगवं, चोक्खं मुइयं च तं कयं पत्तं / निस्सीलनिजाणं, पत्तस्स सदायणा भणिया॥८७८|| ओभामिओ समरुओ, पत्तो साहू जसंच कित्तिं च। पच्छाइआय दोसा-वण्णोय पभाविओ तहियं // 7 // स भगवान् तं धिग्जातियं वृक्षादवतरन्तं दृष्टवा आयुक्तः प्रवचनमालिन्यरक्षणाय प्रवचनपरोऽभवत्, ततस्तेन संलेखना कल्पकरणेन 'चोक्खं' सुविकृतं तत्पात्रकम्, ततश्च निःशील निर्वृतानां च तेषां ग्रामेयकाणां पात्राकस्य दर्शना-निरीक्षध्वमिदं यदि भवतामेतद्दर्शने कौतुकमस्तीत्येवं लक्षणा भणिता पात्रे च दर्शिते तैर्मरुकोधिगजातीयः अपवाजितो, यथा-धिग्भवन्तमसद्दोषोद्धोषणकारकम्, गुणिषु मत्सरिणमिति / साधुश्च प्रायो यत्राप्यमिथ्यादृष्टिमानमईनपराक्रम समुत्थां कीर्तिं च शुचिसमाचाररुपं सुकृतं प्राप; प्रच्छादिताश्च दोषाः पानकेन विना तुम्बकेषु वा भोजनकरणसमुत्थाः, वर्णश्च प्रभावितः प्रवचनस्य, तत्रावसरे तेन भगवता एष गुणः शोभनलेपोपलितस्य पात्रास्येति। अथ येषु द्रव्ये तु कल्पकरणमवश्यं कर्तव्यं तानिदर्शयतिलेवाडविगइ गोरस-कढिते पिंडरस जहन्नउब्भज्जी। एएसिं कायव्वं, अकरणे गुरुगाय आणाइ॥५०॥ एतानि द्रव्याणि लेपकृतानि, तद्यथा-विकृतयो-दधिदुग्धा दिकाः, गोरसं-तक्रादि, क्वथितं-तीमनादि, पिण्डरसाः-खर्जूरादयो यावत् जघन्यतः 'उन्भजित्ति कोद्रवजालकम्, एतेषां लेपकृतानां कल्पकरणं कर्त्तव्यम् / यदि न करोति तदा चत्वारो गुरुकाः, आज्ञादयश्च दोषाः, विराधना च संयमादि विषया। तामेव भावयतिसंचयपसंगदोसा, निसिभत्तं लेवकुत्थणमगंधं / दव्वविणासुडादी, अवनसंसंजणाहार||८८१॥ लेपकृतपात्राकस्य कल्पे अक्रियमाणे यः संचयः-सूक्ष्मसिक्थाद्यवयवपरिवासनरुपस्तस्य प्रसङ्गे न दोषा एते भवेयुः, निशिभक्तं प्रतिसेवितं भवति / लेपस्य च कोथनं-प्रतिभवनं ततश्च अगन्धम्नञः कुत्सार्थत्वादतीव दुर्गन्धि भाजनं भवति, तादृशे च भाजने गृहीतस्य द्रव्यस्यौदनादेर्विनाशो भवति / तस्मिन् भुञ्जानस्य च विरसगन्धाघ्राणत ऊर्ध्वादीनि भवन्ति / ऊर्ध्वम्-वमनम्, आदिशब्दाद्-अरोचकमान्द्यादिपरिग्रहः। अवर्णश्च प्रवचनस्योड्डाहो भवति। तथाहि-लोकः भिक्षां ददानो दुर्गन्धिभाजनं दृष्ट्वा गर्हिता ईदृशा एवैते अशुचयः पापो
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________________ लेव 671 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लेव पहता इति 'संसंजणाहारे' त्ति। दुर्गन्धिनाऽऽहारेण पनककुन्थुप्रभृतयः प्राणिनः संसजेयुः। यत एवमत:लेवकडे कायव्वं, परवयणे तिनि वार गंतव्वं / एवं अप्पा य परो, पवयणं होंति चत्ताइ॥५२॥ लेपकृते भाजने कर्त्तव्यं कल्पकरणम्। अत्र परः- प्रेरकस्तस्य वचने त्रीन्वारान् कल्पे प्रायोग्यपानकग्रहणार्थे गृहपतिगृहे गन्तव्यमिति / सुरिराह -- एवं क्रियमाणे आत्मा अपरश्च प्रवचनं च भवन्ति परित्यतानीति नियुक्तिगाथासमासार्थः / अथैनामेव विवरीषुराहगाउलऽभिरुव संखडि-अलभे साधारणं च सव्वेसिं। गहियं संतीइ तहिं, तक्केच्छुरसादिलग्गट्ठा||१८३।। गच्छे साधवः शुचयो भवेयुः तैश्च भिक्षां हिण्डमानैर्गोकुले दुग्धदध्यादीनि प्राचुर्येण लब्धानि, विरुपायांवा अनेकभक्ष्य भोज्यप्रकारायां संखड्यामुत्कृष्टमशनादिद्रव्यं लभ्यते! तैश्च साधुभिरलाभे अन्यत्र तथाविधस्य दुर्लभद्रव्यस्यासंप्राप्तौ सर्वेषां साधारणमुपष्टम्भकारकमिदमिति मत्वा सर्वाण्यपि भक्त भाजनानि भृत्वा पानकं प्रति गृहीष्यति, गृहीतं ततः प्रतिश्रय मागताः, यावत्पानकेन विना नशक्यतेसमुद्देष्टुमाहारस्य गलके विलगनात्, ततः किं कर्त्तव्यमित्याह - सन्ति च तत्र तक्रेक्षुरसा दीनि आदिशब्दात्-दुग्धादीनि च तान्यपान्तराले आपिवेत्। किमर्थमित्याह - 'लग्गट्ठ' त्ति लग्ने-भावेत्कप्रत्ययः, आहारस्य गलके विलगनम्, अनुत्तरणं वा तदर्थं तन्माभूदित्यर्थः / आह यद्येवं तर्हि पानकाभावे समुद्देशनानन्तरं कथं तानि कल्पयितव्यानीत्युच्यतेमंडलितक्काखमए, गुरुभाणेणं च आणयंति दवं / अपरीभोगतिरित्ते, लहुओ अणुजीविभाणे य॥५|| यः क्षपकः 'मंडलितक्का' मण्डल्युपजीवकः तस्य भाजनेन गुरुणां भाजनेन वा द्रवं-पानकमानयन्ति / अथापरिभोग्येषु भाजनेषु अतिरिक्त वा नन्दीभाजने मण्डल्यनुपजीविक्षपकभा जने वा द्रवमानयन्ति तदा लघुको मासः। अथ परवचने त्रीन् वारान् गन्तव्यमिति पदं व्याख्यानयतिभणइ जइ एस दोसो, तो आइमकप्पमाणसलिहिउं। अन्नेसि तग दाउं, तो गच्छइ बिइय-तइयाणं // 15 // भणति परः प्रेरयति यद्येष दोषः प्रायश्चित्तापत्तिलक्षण स्ततोऽहं विधि भणामि। प्रतिगृहं संलिख्यते एकाकी गृहपतिः गृहे प्रविश्यादिमकल्पमानं यावता सर्वसाधुभिरादिमः कल्पः क्रियतेतावन्मात्र द्रवं गृहीत्वा अन्येषां साधूनां तत्पानकं दत्वा ततः स्वयं प्रथमकल्पं करोतु कृत्वा च ततो . गच्छति द्वितीय तृतीयकल्पयोः / इदमुक्तं भवति-द्वितीयकल्पकरणार्थ द्वितीयं वारं तत्रा गृहे प्रविश्य तावन्मात्रं द्रवं गृहीत्वा प्राग्वदन्य साधूनां दत्त्वा द्वितीयकल्पं करोतु, ततस्तृतीयं वारं भूयः प्रविश्य तावन्मात्रगृहीत्वा तथैव तृतीयं कल्पं कृत्वा यावन्मात्रेण शेषभाजनानि धाव्यन्ते, संज्ञाभूमिः पानकं च भवति, तावन्मात्रां गृहीत्वा समायायात्। आचार्यः प्राह-एवं कुर्वति आत्मा च परश्च प्रवचनं च परित्यत्कानि भवन्ति। तत्रात्मा कथं त्यक्तो भवतीत्युच्यते-- संदंसणेण बहुसो, संलावणरागकेलिआ उभया। दंती णु कंजियं णु, जइस्स दट्ठो त्ति य भणंति // 56|| तस्यैकाकिनो भूयो भूयः तदगृहं प्रविशतो या काञ्चिकदात्री अविरतिका तस्याः संबन्धिना बहुशः संदर्शनेन संलापानुराग केलिप्रभृतयः आत्मोभयसमुत्था दोषा भवेयुः संलापःसंकथा अनुरागः-परस्परं सात्यन्तिकी प्रीतिः, केलिः-परिहासः। तथा यद्येष प्रव्रजति कः पुनः पुनरेति याति च तत्किमस्य ददती पानकदायिका दृष्टा उत काञ्चिकमित्येवमगारिणस्तमुद्दिश्य भणन्तिानुशब्दः उभयत्रापि वितर्के। प्रवचनं यथा परित्यक्तं भवति तथा दर्शयतिआयपरोभयदोसा, चउत्थितेणट्ठसंकणाणीए। दोचं णु चारिऊणं, करोति आयट्ठगहणाई // 887 / / आत्मपरोभयदोषाः, आत्मानस्तस्मात्परस्याः काञ्चिदायिकायाः तदुभयस्माच एते दोषा भवेयुः तद्यथा- चतुर्थी चतुर्थाश्रवद्वारविषया स्तैन्यार्थविषया वा शङ्का तस्याः सत्कैः--निजकैः क्रियते, यथा-नुरिति वितर्के, किमेष प्रव्रजति कः कस्याप्युभ्रामकस्य मैथुनदोषं करोति, यावत् समायति याति च / यद्बा-चारिको भूत्वा चौराणां तैरिक्तां कर्तुमित्थमायाति, यता-आत्मार्थमेवायमित्थं करोति / स्वयमेव मैथुनाथ नेतुकामो वेत्यर्थः / इत्थं शङ्कमानास्ते तस्य साधोहणाकर्षणादीनि कुर्युः, ततः प्रवचनं परित्यक्तं भवति। परः कथं परित्यक्तो भवति इति। उच्यते -- गिण्हंति सिज्झियाओ, छिईजाउगसवित्तिणीओ य। सुत्तत्थे परिहाणी, निग्गमणे सोहि वुड्डी य॥८८८|| गृहन्ति छिद्रम्-दूषणम् काञ्चिकदायिकायाः, का इत्याह--'सिज्झिकाः' सहवासिन्यः, प्रातिवेश्मिकाः स्त्रिय इत्यर्थः। 'जाउग' ति यातरो ज्येष्ठदेवरजायाः, सपत्न्यः प्रतीताः, यथा-यदेष संयतो भूयो भूयः समायाति च नूनमस्या अयमुद भ्रामक इति, ततो यदा तया सह संखडमुपजायते तदा तत् प्राग्विकल्पितं दूषणं साक्ष्यनुत्पत्तेः पुरत उद्विरन्ति / तथा-सूत्रार्थविषय परिहाणिः पुनःपुनर्गच्छतो भवति 'निग्गमणे साहिवुड्डी य' त्ति त्रीन् चतुरो वारान् निर्गमने शोधिवृद्धिश्च तथैव द्रष्टव्या यथा भिक्षा-द्वारे प्रागुक्ता। यत एते दोषा अतो नैकाकिना भूयो भूयो गन्तव्यम्। कथं पुनस्तर्हि गन्तव्यमित्याहसंघाडएण एगो, खमए बिइए य बुडमाइन्ने। पुबुद्धिएण करणं, तस्सच असइ य उस्सित्ते ||886|| संघाटकेनभावितकुलेषु प्रविश्य पानकंग्रहीतव्यम्, द्वितीयपदेएकोऽपि यःक्षपको वृद्धोवा अशङ्कनीयः स आकीर्णेषु भावितकुलेषुपानकं गृह्णाति, तच पानकं यत्पूर्वमेव सौवीरिणा उद्धृतं पृथग् स्थापितं तेन कल्पकरणं कर्तव्यम् / तस्य वा पूर्वो द्धतृस्य असत्यभावे उत्सवे तमुत्सितं तदपि कारापणीयम्। एषा पुरातनगाथा।
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________________ लेव 672 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लेव अथैनामेव भाष्यकृद्विवृणोतिभावितकुलेसु पवे सितु, मायणे आणयंति सेसाणं / तव्विहकुलाण असई, अपरिभोगादिसु जयंति॥८६०|| भावितकुलानि नाम-येषु पूर्वोक्ताः शङ्कादयो दोषा न स्युस्तेषु गत्वा गृहस्थभाजने मण्डल्युपजीविक्षपकभाजने गुरु भाजने वा द्रवं गृहीत्वा स्वकीयभाजनानि धौत्वा शेषाणां भाजनानां धावनार्थ संज्ञाभूमि गतानामाचमनार्थं चापरमपि पानकमानयन्ति / तद्विधानां-भावितकुलानाम् असति-अभावे अपरिभोम्यादिषु यतन्ते / अपरिभोग्यानि नामअत्र वार्यमाण भाजनानि तेषु, आदिग्रहणात्-मण्डल्यनुपजीविक्षपकभाजनेषु नन्दीभाजने वा द्रवं गृहीत्वा संसृष्ट भाजनानां कल्पं कुर्वन्ति, तच पानकं पूर्वोत्सित्कमेव गृह्णन्ति। ननु यदि सौवीरिणीमुद्धृत्य दीयमानं गृहन्ति ततः कोदोषः स्याद् ? उच्यते। यतःउध्वत्तम्मि वहो, पाणाणं तेण पुष्व उस्सित्तं / असती दुस्सविणीए, जंपेक्खइवा असंसत्तं / / 861| 'उव्वत्तम्मि' त्ति प्राकृतत्वात् पुस्त्वनिर्देशः, सौवीरिण्यामुद्वर्तमानायां येता सौवीरगन्धेन कंसारिकादयः प्राणजातीया आयाताः सन्ति तेषां वा वाधा भवति, तेन कारणेन पूर्वोत्सित्कं ग्रहीतव्यम्, अथ नास्ति पूर्वोत्सितं ततस्तस्यासति उञ्चनिका ततो यत्पावं प्राणिभिरसंसक्तं प्रेक्षन्ते तेनोद्वर्त्य गृहभाजनं प्रातिहारिकं याचित्वा तत्रा द्रवं गृहीत्वा भाजनानि कल्ययन्ति। आह च-- गिहिसंति भाणपहिय, कयकप्पा सेसगं दवं घेत्तुं / धोअणपियणुस्सट्ठा, अह थोवं गिण्हए अन्नं / / 862| गृहिसक्तं भाजनं प्रत्युपेक्ष्य यदि निर्जीवं भवति तदा तत्रा द्रवं गृहीत्या कृतकल्पोः स्वकीयभाजनानि कल्पयत्विा शेषं द्रवमन्येषां भाजनानां धावनार्थं भुक्तोत्तरकालं च पानार्थमुप लक्षणत्वात् संज्ञाभूमिगमनार्थ गृहीत्वा समायान्ति। अथ तत्र स्तोकमेव द्रवं लब्धं ततो थावता पर्याप्तं भवति तावदन्यदपरेषु गृहेषु गृह्णन्ति-- जा भुजइ ता वेला, फिट्ट तो खमगथेरओ आणे। तरुणो व नायसीलो,नीयल्लगभावियादीसुं ||3|| 'जा भुञ्जइ'त्ति प्राकृतत्वादेकवचनेन निर्देशः, यावद्वा साधवो भुञ्जते तावत्पानकस्य वेला फिट्टति-व्यतिक्रामति, ततः क्षपक:-उपवासिकः स्थविरो वा-वृद्धः अशङ्कनीय इति कल्पकरणार्थमेकाक्यपि 'आणि' त्ति पानकमानयेत् / तरुणो वा यो ज्ञातशीलो दृढधर्मा निर्विकारश्च स एकाक्यपि निजकानां मातृपितृपक्षीयस्वजनानां कुलेषु भावितकुलेषु वा आदिशब्दाद्-- अन्येष्वपि तथाविधकुलेषु प्रविश्य पानकं गृहीयात्। अत्रौव कल्पकरणद्वारे विध्यन्तरं विभणिषुरिमाहविइयपद मोय गुरुग, ठाणनिसीयणतुयट्टधरणं वा। गोवरपुंछणठवणा, धोवण छटे य दव्वाइं॥५६४|| द्वितीयपदेऽपवादाख्ये साधवो वजिकां गता भवेयुः, तत्रा च पानकं न लब्धमिति कृत्वा यदि मोकेन-प्रस्रवणेनाचमन्ति ततश्चत्वारो गुरवः, शिष्यः प्राह-यदि मोकेनाचमने दोषास्ततो रात्रौ स्थानं निषीदनं त्वग्वर्तनं चाकुर्वन् संसृष्टपात्रकस्यधारणं करोतु। सूरिराह-एवं कुर्वतः संयमात्मविराधना भवति। ततो गोवरेण-गोमयेन प्राक् तस्य प्रोच्छनम्-घर्षणं कृत्वा स्थापनं कर्तव्यम्, ततो द्वितीयदिवसे यदिद्रवं ग्रहीतव्यं तदा धावनं कल्पत्रयप्रदानकं कर्तव्यम् / यदि न कल्पायं दातव्यम्, ततः छठे अ दव्वाई' ति शिष्यः प्राह-यद्यधौते पात्रे भक्तं गृह्यते ततो नु तत्र यान्यवयवद्रव्याणि पर्युषितानि सन्ति तै षष्ठव्रतमति चरितं स्यादिति नियुक्तिगाथासंक्षेपार्थः। विस्तरार्थं तु विभणिषुराह - वइगा अद्धाणे वा, दवअसईण विलंबि सूरे वा। जइ मोएणं धोवइ, सेहत्तह भिक्खगंधाई // 895|| व्रजिका-गोकुलं तस्य कारणगतानामध्वनि वा वहमानानां द्रवस्यपानकस्य असति-अप्राप्तौ विलम्बिनि वा अस्तंगतप्राये सूर्ये यदिपानक नास्ति ततः कथं कल्पः करणीयः, अत्र नोदकः स्वच्छन्दमत्या प्रतिवचनमाह - मोकेनतदानीं पात्रमा चमनीयम्। आचार्य आह--एवं ते स्वच्छन्दंप्ररुपणं कुर्वाणो यथाछन्दत्वाच्चत्वारो गुरवः प्रायश्चित्तम्। मोकेन पात्रकमाचामति तस्यापि चतुर्गुरवः / कुतः ? इत्याह- यदि मोकेन धावतित तदा शैक्षाणामन्यथाभावोऽपि विपरिणमनं भवेत्, विपरिणताश्च प्रतिगमनादीनि कुर्युः, द्वितीये च दिवसे भिक्षार्थं पात्राके प्रसारिते सति कायिक्याः कथितो गन्धः समायति, ततोलोकः प्रवचनावर्णवादं कुर्याद, अहा अमीभि स्थिकापालिका अपि निजिता यदेवं पात्रकं प्रस्रवणेनाचामन्तीति। आदिग्रहणेन श्रावकाणां विपरिणामो भवतीत्यादिपरिग्रहः / अथ भूयः परः प्राहभणइ जइ एस दोसो, तो ठिय निसीयणा तुअट्ट धरणं वा। भण्णइ तं तु न जुज्जइ, दुदोस पादे अहाणी य||६|| भणति परा यथेष शैक्षः विपरिणमादिक उपजायते ततोमा मोकेनाचामतु परं ग्रहीतेनैव पात्रकेण सकलामपिरात्रि 'ठाणिं' त्ति ऊर्ध्वस्थितः तिष्ठतु, तथा यदि न शक्नोति स्थानुंततः 'निसीय त्ति निषण्णः पात्रकं धारयतु, तथापि यदिनशक्रोति ततस्वग्वर्तनं कुर्वाणस्तिर्यग्निषण्णाःसन्धारयतु। सूरिराह-भण्यते अत्रोत्तरम्- हेनोदक! तत्तु नयुज्यते यद्भवता प्रोक्तम्, कुतः?, इत्याह-'दु दोसो' ति द्वौ दोषावत्र भवतः, तद्यथा-आत्मविराधना, संयमविराध ना च / तत्रोयस्थितस्योपविष्ट स्य वा निद्रया प्रेरितस्य भूमौ निपततः शिरोहस्तपादाद्युपघाते आत्मविराधना, परिणतः सन् षण्णां कायानामन्यत्र संविराधयेदिति संयमविराधना। 'पाद्रे अ हाणि' त्ति तदा पात्रां पतितं सद्भज्येत ततो या पात्रकेण विना परिहाणिस्तन्निष्पन्नं प्रायश्चितम् / यत एते दोषा अतोऽयं विधि:निद्धमनिद्धं णिलं, गोव्वरपुट्ट ठविंति पेहित्ता। जइ य दवं घेत्तव्यं, बिइयदिणे धोइउं गिण्हे ||897||
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________________ लेव 673 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लेव लेपकृतं स्निग्धं वा भवेत्, अस्निग्धं वा भवेत् / यदि स्निग्धं ततो गोबरेण-गोमयेन - 'पुढे' प्रोच्छितं सुघृष्ट पात्रकं कृत्वा निरवयवीभूतं सत्प्रत्युपेक्ष्य रात्रौ स्थापयन्तिनधारयन्तीति भावः। अथास्निग्धं ततः संलेखनकल्पेन सुसंलीढं कृत्वा स्थाप्यते; न पुनः करीषेण मृष्यते, यदिवसे द्रवं ग्रहीतव्यं ततो धावित्वा त्रिः कल्पयितव्याः / अथ भक्तं ततोऽधौतेऽपि गृह्यते न कश्चिद्दोषः।। अत्र पर प्राहजइ ओदणो अधोए, धिप्पइ तो अवयवेहि निसिभत्तं / तिनि य न होति कप्पा, ता धोवसु जाव निग्गंधं ||18|| तम्हा गुय्वरपुटुं, सलीढंचे धोविउं हिंडे। इहरा भे निसिभत्तं, ओअविअंचेव गुरुमादी||cell यद्यधौते पाने द्वितीये अहनि ओदनो गृह्यते ततो नुतत्र सूक्ष्मा अवयवाः सन्ति येषां गन्धस्तृतीयेऽप्यहनि लक्ष्यते, तैश्चावयवैः तथास्थितैः सद्भिर्यदपरं भक्तं तत्र गृह्यते तद्भञ्जानानां निशिभक्तं भवति, तच युष्माभिर्लेपकृतस्य यः कल्पा:-शुद्धिकरणतया निर्दिष्टास्तदप्यस्माकं मनसि न रुचि पथमियर्ति, कल्पत्रये दत्तेऽपि तदीयगन्धस्याघ्रायमाणत्वात्, ततोऽहमित्थं प्ररुपयामीति 'धोबसु जाव निगंध' ति तावत् तत्प्रक्षालय यावन्निर्गन्धीभवति, न च बहुभिराप कल्पैनिगन्धी भवति तस्माद्यल्लेपं कृतं स्निग्धं तद् गोबरेण-छगणेन प्रोञ्छितं कृत्वा अस्निग्धं तु सुसंलीदं कृत्वा द्वितीये दिवसे धावित्वाकल्पयित्वा भिक्षां हिण्डेतइतरथा--कल्पकरणमन्तरेण (भे) भवतां निशिभक्तमापद्यते, अकृतकल्पे च भाजने गृहीतमपरमपि भक्तम्, 'उअवियं उच्छिष्टं भवति / तच गुर्वादीनामाचार्योपाध्यायप्रभृतीनां दीयमानं महतीमाशातनामु पजनयति। इत्थं परेणोक्ते सति सूरिराह - भन्नइ न अन्नगंधा, हणंति छटुंजव उग्गारा। तिनि य कप्पा नियमा, जइ विय गंधो जहा लोए / / 10 / / भण्यते अत्र प्रतिवचनम्-अमुष्य भक्तस्य गन्धाः षष्ठं-रात्रिविरमणव्रतं नम्नन्ति, यथैवोद्वारा राम्रो समागच्छन्तोऽपि नषष्ठव्रतमुपनन्तिः, तथा पात्रके यद्यपि गन्धः समागच्छन्ति तथापि नियमात् त्रय एव कल्पा दातव्या नाधिका न वा हीनाः, तथा भगवद्भिरुक्तत्वात्, यथा-लोकेऽपि प्रतिनियता भाजनशोधनाय मृत्तिकालेपाः भवन्ति। तथाहिवारिखलाणं बारस, मट्टीया छच वाणपत्थाणं। मा एत्तिए भणाही, पडिमा भणिया पवयणम्मि||६०१।। वारिखलाः- प्रव्राजकास्तेषां द्वादश मृत्तिकालेपा भाजनशोधका भवन्ति, षट् च मृत्तिकालेपा वानप्रस्थानां तापसानां शौच साधकाः संजायन्ते, एवं लोकेऽपि स्वसमयप्रतिपादितानि प्रति नियतान्येव शौचानि दृष्टानि / अतो हे नोदक ! एतावतः कल्पान् मा भण-मा वृहि, तावद् दातव्यं यावन्निर्गन्धीभवतीत्यप्रति नियतानित्यर्थः / तथाप्रतिमेति मोकप्रतिमा साऽपि प्रवचन भणिताः, तस्यां हि मोकमपि पीत्वा शुचिरेव भवति। एतदेव भावयतिपिह सोयाइं लोए, अम्हं पि अलेवगं अगंधं च। मोरण वि आयमणं, दिह तह मोयपडिमाए।।१०।। यथा लोके पृथक्-विभिन्नानि शौचानि दृष्टानि तथाऽस्माक मपि त्रिभिः कल्पैः प्रदत्तैरलेपकम् अगन्धं च पाठाकं भवतीत्येवं शोधविधिर्भगवद्भिर्दृष्ट इति। तथा मोकेनाप्याचमनं मोक प्रतिमायां दृष्टमेव / परः प्राऽऽहजइ निल्लेवमगंध, पडिकुटुं तं कहं नु जिणकप्पे। तेसिं चेव अवयवा, रुक्खासि जिणा न कुव्वंति।।६०३|| यदि निर्लेपमगन्धं च शौचं दृष्टं ततः कथं नुरिति वितर्के, तन्निर्लेपनं जिनकल्पे प्रतिपन्ने सति प्रतिक्रुष्टम् -प्रतिषिद्धम्। 'तेसिं चेव अवयव' त्ति अनिर्लेपिते तेषां जिनकल्पिकानां सन्त्येव सूक्ष्माः पुरीषादेरवयवाः यैरमीषां शुचित्वं न भवति। सूरिराह-रुक्षाशिनो जिनाः-जिनकल्पिका भगवन्तस्ततः अभिन्नवर्चस्कतया नसन्ति सूक्ष्माश्चावयवाः अमीषाम, तदभावाच दूरापास्तप्रसरस्तेषां पुरीषगन्ध इति हेतोर्न लेपनम्। आहयद्यभिन्नवर्चस्कतया जिनकल्पिकाः शौचं न कुर्वन्ति, तर्हि ये स्थविरकल्पिका अप्यभिन्नोचारास्तेषामपि संज्ञामुत्सृज्य किं कारणमवश्यं शौचकरणमुक्तम् ?, उच्यतेथंडिल्लाण अनियेमा, अभाविए इविजुयलमुडयरे। सज्झाए पडणीए, न ते जिणे जं अणुप्पेहे ||10|| स्थविरकल्पिका प्रथमस्थण्डिला भाविद्वितीयतृतीय चतुर्थान्यपि स्थण्डिला गच्छन्ति, तत्रा च यदि न निर्लेपयन्ति तत आपाततः संलोकसमुत्था अवर्णवादादयो दोषा भवेयुः, इति स्थथिलानामनियमादवश्यतया शौचं कुर्वन्ति, अभावितो नाम-अपरिणतजिनवचनः, तस्य निर्लेपनाभावेमा भूद्विपरिणाम इति 'इड्डि' त्ति ऋद्धिमान राजादीनामन्यतमः प्रव्रजितः,स प्रायेण शौचकरणभावित इति तदर्थम, तथायुगलं बालवृद्धद्वयं तत्प्रायेण भिन्नवर्चस्कं भवति, उड्डयरो नाम-यः समुद्दिशन संज्ञां वा व्युत्सृजन् चपलत्या हस्तादीन्यपि लेपयति, 'सज्झाए' ति अनिर्लेपित स्थविरकल्पिकानां स्वाध्यायो न वर्तते वाचा कर्तुम्पडिणीए त्ति प्रथमस्थण्डिलाभावे द्वितीयस्थण्डिलगतस्य शौचकरणमदृष्टवा प्रत्यनीकः उड्डाहं कुर्यात्, 'न ते जिण' ति जिनकल्पिके नैतेषां स्थण्डिलानियमादयो दोषा भवन्ति 'जं अणुप्पेहे ति यद्यस्माचासौ स्वाध्यायं मनसैवानुप्रेक्षितेन वा परिवर्तयति ततो न निर्लेपयति, स्थविरकल्पिकानां तु मनसा स्वाध्यायकरणे प्रभूतेनापि कल्पेन न सूत्रार्थी परिजितौ भवति इति। एमेव अप्पलेवं, सामासेउं जिणा नधोवंति। जइ विन निरावयवं, अहावि ईए उसुज्झंति / / 105|| एवमेवाल्पलेपमल्पशब्दस्य नार्थवाचकत्वादलेपकृतं भाजनं यद्यपि न निरवयवं संजायते तथापि यथा स्वकल्पानु पालनादेव शुद्ध्यति, स्थितिरियं तेषां यदेवमेव शुचयो भवन्ति इति।
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________________ लेव 674 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लेव यदप्युक्तं भवता प्राक् अकृतकल्पभाजने गृहीतं भक्तमुच्छिष्ट भवति, मिति चतुर्थो भङ्ग शुद्धः / इति गतं कल्पकरणद्वारम् / बृ० 1 उ०२ तदपि परिफलिग' त्ति दर्शयति प्रक० / ओघ०। ध०। प्रव० / नाभेरुपरिजले, कल्प०३ अघि०६ मन्नतो संसह, जं इच्छसि धोवणं दिणे बिइए। क्षण / नाभिरेव तावद्यत् प्रविशति स लेपः। बृ०४ उ० / नि० चू० / इत्थ विसुणसु अपंडिय! , जहा तथं निच्छए तुच्छं।६०६|| नालन्दावास्तव्ये स्वनामख्याते गृहपतौ, 'तत्थ णं नालंदाए बाहिरियाए संसुष्ट मन्यमानो यत् द्वितीये दिने धावनम्-कल्पकरणम् इच्छसि, लेवे नाम गाहवई होत्था' तस्यां च लेपो नाम गृहपतिः- कुटुम्बिक अत्राप्यर्थे शृणु-निशमय हे अपण्डित ! यथा-तकत त्वदीयं वचनं आसीत्। (सूत्रा०)"सेणं लेवे नाम गाहावई समणो वासएयावि होत्था" निश्चये परमार्थत् , तुच्छम्-असारम्। स लेपाख्यो गृहपतिः श्रमणान्-साधूनु पास्ते-प्रत्यहं सेवत इति तदेवाह श्रमणोपासकः / सूत्रा०२ श्रु०७ अ०। ('पेढालपुत्त' शब्दे पञ्चमभागे सव्वं पिय संसटुं, नऽत्थिय संसट्टितेल्लयं किंचि। 1081 पृष्ठे वक्तव्यता गता) सर्वत्रा प्रत्याख्याने 'अन्नत्थणाभोगेणं' सव्वं पिय लेवकडं, पाणगजाए कहं सोही॥६०७|| इत्याद्याकारोचारणं प्रोक्तमस्ति, परं पाणस्सलेवेण वा इत्यादिषु कथं यदि गन्धमात्रेणैवत्वुदक्तया नीत्या भक्तमुच्छिष्टं भवति ततः सर्वमप्यन्नं तन्न? इतिप्रश्नः। अत्रोत्तरम्-'पाणस्सलेवेणवा' इत्यत्र 'अन्नत्थणाजगति संसृष्टम्-उच्छिष्टमेव विद्यते, 'नत्थि' नास्ति किञ्चिदप्यसंसृष्टम्, भोगेणं' इत्याद्याकारनुचारणे हेतुःशास्त्रे दृष्टोन स्मरति, षडावश्यकसूत्रएवं सर्वमपि भक्तं पानकं चलेपकृतम्-उच्छिष्ट भवति, अतः पानकजातेन मध्येऽपि तद्रहित एव पाठो दृश्यत-इति // 57 / सेन०२ उल्ला०। कथं शुद्धिर्भविष्यति। विहृतपात्राकाणि पुनर्लेपितानि विहृतानि कल्पते न वा ? इति प्रश्नः, एतदेव भावयति अत्रोत्तरम्-पूर्वविहृत पात्रत्रकाणि पुनर्लेपितानि चतुर्मासके विहृतानि खीरं वच्छुच्छिटुं, उदगं पि य गच्छकच्छमुच्छिटुं। कल्पन्त इति॥७५।। सेन०२ उल्ला०। चंदो राहुच्छिट्ठो, पुप्फाणि य महुयरिगणेहिं। लेवकप्पिय पुं० (लेपकल्पिक) लेपसामाचार्यभिज्ञे, ब०। रंघतीओ वोट्टि ति, वंजणे खलगुले य तकारी। साम्प्रतं लेपकल्पिकमाह - संसट्टमुहा य दव्वं, पियंति जइणो कहं सुज्झे / / 608|| पढियसुयगुणियमगुणिय-धारमधारउवउत्तो परिहरति। आलोयायरियादी, आयरिओ विसोहिकरगो से / / 537 / / क्षीरं वत्सोच्छिष्ट वत्सेन स्वमातुः स्तन्यमापिवता संसृष्टम् / तथा यस्माद्-ज्ञानतः प्रायश्चितं तस्माद्येनौद्यनियुक्तिसूत्रामियं वा उदकमपि मत्स्यकच्छपोच्छिष्टम्, चन्द्रो राहूच्छिष्टः, पुष्पाणि मधुकरगणैरुच्छिष्टानि, तथा--अविरतिका रन्धयन्त्यो व्यञ्जनानि-शालन कल्पपीठिका पठिता स्यात्, श्रुता वा गुणिता-अत्यन्त स्वभ्यस्तीकृता स्याद, अगुणिता वा स्याद्, धारिता वा स्याद् अधारिता वा; तथापि कानि 'वोट्टयं ति किं निष्पन्नानि न वेति परिज्ञानार्थम्, खलगुलावपि चेदुपयुक्तः सन् सूत्रोत्कप्रकारेण लेपं परिहरति-परिभोगयतिः, स तच्छाककारिणः-- तस्य खलादेः, कारिणश्चाक्रिकादयो 'वोट्टयन्ति' लेपकल्पिकः, तेन च लेपसूत्रोण पठितेनापठितेन वा गुणितेनागुणितेन संसृष्टमुखाश्चोच्छिष्टन मुखेन यतयो यद्द्वमापिवन्ति तदपि संसृष्टं तेतन वा, धारितेनाधारितेन वा उपयुक्ते वा यां विराधनामापद्यते तामाचार्यादेः संसृष्टेन यस्य भाजनस्य कल्पः क्रियते तत्कथं शुद्ध्यतीति। यत एवमतो पुरतः आलोचयन् प्रथमत आचार्यस्य, तदभावे उपाध्यायादेरपि, न गन्धमाोणैव भक्तमुच्छिष्ट भवतीति स्थितम्। आलोचिते च (से) तस्य प्रायश्चित्तप्रदानेन विशोधिकारक आचार्यः। अथ कलपकरणे वितथसमाचारीनिष्पन्न प्रायश्चित्तमाह उक्तो लेपकल्पिकः / 601 उ०१प्रक०। एकिकम्मि उठाणे, वितह करितस्स मासियं लहुअं। लेवण न० (लेपन) कुड्यानां कर्दमेन गोयमेन च लेपप्रदाने, बृ०१३०२ तिगमासिय तिगपणगा, यहोति कप्पं कुणइ जत्थ / / 106 // प्रक० / नि० चू०। प्रलेपे, सूत्रा०२ श्रु०१ अ०। एकस्मिन् स्थाने वितथा समाचारी कुर्वाणस्य मासिकं लघुकम्।। लेवमेरा स्त्री० (लेपमर्यादा) नियमितलेपविधाने, "लेव (मेरा) मायाए तद्यथा-असली पात्राके प्रथमं कल्पं करोति, संलिख्य वा प्रथमं कल्पं __ संजए' (1 गाथा) दश०५ अ०२ उ०। कृत्वा तं नापिबतीति द्वितीयं कल्पं, पात्रके अप्रक्षिप्य बहिर्निगच्छति, लेववं त्रि० (लेपवत्) सलेपे, सूत्रा०१ श्रु०२ अ०१ उ०। एतेषु त्रिष्वपि स्थानेषु मासलघु।तथा-त्रीणि मासिकानि पञ्चकानिच | लेवाडन० (लेपकत) स्निग्धावयवमिश्रे, पञ्चा०५ विव०। ('लेव' शब्दे भवन्ति या कल्पं करोति, तद्यथा-न प्रत्युपेक्षिते न प्रमार्जयति 1, लेपकृतान्युक्तानि) नाप्रत्युपेक्षितं प्रमार्जयति 2, प्रत्युपेक्षिते न प्रमार्जयति 3, एतेषु त्रिषु लेवालेव न० (लेपालेप) भोजनभाजनस्य विकृत्या तीमनादिना वा भङ्गेषु प्रत्येकं तपः कालविशेषितं मासलधु / चतुर्थभने प्रत्युपेक्षितं / आचामाम्लप्रत्याख्यातुरकल्पनीयेन लिप्ततायाम, ध०२ अधि० / प्रमार्जयति च नवरंदुष्प्रत्युपेक्षितं दुष्प्रमार्जितं करोति, १दुष्प्रत्युपेक्षितं | "लेवालेवेणं गिहत्थसंसट्ठणं'' पञ्चा०५ विव०! सुप्रमार्जितं करोति 2 दुष्प्रमार्जितं सुप्रत्युपेक्षितं करोति 3 एतेषु त्रिषु | लेवि अव्य० (लातुम् ) आदाने, "तुम एवमणाहमतपः कालविशेषितानि पञ्चरागिन्दिरवानि। सुप्रत्युपेक्षितं सुप्रमार्जित- | णाहें च" ||841441 / / अनेन तुमः स्थाने वैकल्पिकः
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________________ लेवि 675 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लेसा 'एविणु' इत्यादेशः / ग्रहीतुमित्यर्थे, "लेवि महव्वय सिवु लहहि" प्रा० | 4 पाद। लेविणु अव्य० (लातुम्) आदाने, "लेविणुतवु पालेवि" प्रा० 4 पाद। लेस पुं० (श्लेष्म) श्लेष्मणि, विशे०। लेश पुं० / संक्षेपे, पञ्चा० 18 विव० / पं० व० / कलाद्वयकाले, तं०। स्तोके, "थेवलेसोलवो कला मत्ता' पाइ० ना० 164 गाथा। लिखिते आश्वस्ते, निद्रायाम, निःशब्दे च दे० ना०७ वर्ग 28 गाथा। *श्लेष पुं० संश्लेषे, रा०। आचा० / मात्रामायाम, पञ्चा०७ विव०। त्रि० श्लेषद्रव्ये, प्रश्न०५ संव० द्वार। लेसणता स्त्री० / श्लेष्मण - न० / ऊर्बादीनां जानुप्रभृतिभिः संबन्धे, प्रज्ञा०१६ पद। लेसणा स्त्री० (श्लेषणा) श्लेषद्रव्येण द्रव्ययोः सम्बन्धने, भ०८ श०६ उ०। सूत्र०। लेशना-स्त्री० / अङ्गुल्याद्यवयवसंश्लेषरुपायाः स्तम्भने, सूत्रा० 1 श्रु० ३अ०१ उ०। लेसणी स्त्री० (श्लेषणी) श्लिष्टताहेतौ विद्याभेदो, ज्ञा०१श्रु०१६ अ०। लेसमेत्त त्रि० (लेश्यमात्र) अल्पमात्र, द्रव्या०१ अध्या०! लेसा(स्सा) स्त्री० (लेश्या) लिश्यते प्राणी कर्मणा यया सा लेश्या / यदाह-श्लेष इव वर्णबन्धस्य कर्मबन्धस्थितिविधात्र्यः / स्था०१ठा०। ज्ञा०। लिश्यते-श्लिष्यते कर्मणा सह आत्मा अनयेति लेश्या। कर्म०४ कर्म०। कृष्णादिद्रव्यसाचिव्या दात्मनः परिणामविशेषे, "कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यात्परिणामो य आत्मनः / स्फटिकस्येव तत्रायं, लेश्याशब्दः प्रवर्तते // 1 / / प्रज्ञा० 17 पद / स्था० / आ० म० / पा० / स०। अध्यवसाये, आचा०१श्रु०६अ०५ उ०। अन्तः करणवृत्तौ, आचा०१ श्रु०८ अ०५ उ०। सूत्र०। अथ कानि कृष्णादीनि द्रव्याणि ? उच्यतेइहयोगेसति लेश्या भवति, योगाभावेचन भवति ततो योगेन सहान्वयव्य तिरेकदर्शनात् योगनिमित्तालेश्येति निश्चीयते, सर्वत्रापि तन्निमित्तत्वनिश्चयस्यान्यव्यतिरेकदर्शन मूलत्वात्, योगनिमित्ततायामपि विकल्पद्वयमवतरति-किंयोगान्तरगत द्रव्यरुपायोगनिमित्तकर्मद्रव्यरुपावा ? तत्रा न तावद्योगनिमि तकर्माद्रव्यरुपा, विकल्पद्वयानतिक्रमद्रव्यरुपा अघातिकर्म द्रव्यरुपा वा?, न तावद्घातिकर्मद्रव्यरुपा, तेषामभावेऽपि सयोगिकेवलिनि लेश्यायाः सद्भावात्, नापि अघातिकमरुपा, तत्सद्भावेऽपि अयोगिकेवलिनि लेश्याया अभावात्, ततः पारिशेष्यात् योगान्तर्गतद्रव्यरुपा प्रत्येया। तानि च योगान्त र्गतानि द्रव्याणि यावत्कषायास्तावत्तेषामप्युदयोपबृहकाणि भवन्ति, दृष्टं च योगान्तरगतानां द्रव्याणां कषायोदयोपबृंहणसा मर्थ्यम्, यथा पित्तद्रव्यस्य। तथाहि-पित्तप्रकोपविशेषादुपलक्ष्यते महान् प्रवर्द्धमानः कोपः अन्यच्च--बाह्यान्यपि द्रव्याणि कर्मणामुदयक्षयोपशमादिहेतव उपलभ्यन्ते, यथा-ब्राह्ययोषधिार्ज्ञानावरणक्षयोपसमस्य, सुरापानं ज्ञानावरणोदयस्य, कथमन्यथा युक्तायुक्तविदेक विकलतोपजायते, दधिभोजनं निद्रारुपदर्शनावरणोदयस्य, तत्किं योगद्रव्याणि न भवन्ति ? तेन यः स्थितिपाकविशेषो लेश्यावशादुपगीयते शास्त्रान्तरेस सम्यगुपपन्नः, यतः स्थिति पाको नामानुभाग उच्यते, तस्य निमित्तं कषायोदयान्तर्गत कृष्णादिलेश्यापरिणामाः, ते च परमार्थतः कषायस्वरुपा एव, तदन्तर्गतत्वात्, केवलं योगान्तर्गतद्रव्यसहकारिकारणभेदवैचित्र्याभ्यां ते कृष्णादिभेदेर्भिन्नाः तारतम्यभेदेन विचित्राश्चोपजायन्ते, तेन यद्भगवता कर्मप्रकृतिकृता शिवशर्माचार्येण शतकाख्ये ग्रन्थेऽभिहितम्- "ठिइ अणुभार्ग कसायओ कुणइ' इति तदपि समीचीन मेव, कृष्णादिलेश्यापरिणमानामपि कषायोदयान्तर्गतानां कषायोदयान्तर्गतानां कषायरुपत्वात् तेन यदुच्यते कैश्चिद्योगपरिणामत्वे लेश्यानाम् "जोगा पयडिपएसं ठिइअणुभार्ग कसायओ कुणइ'' इति वचनात् प्रकृतिप्रदेशबन्धहेतुत्वमेव स्यान्न कर्मस्थितिहेतुत्वमिति, तदपि न समीचीनम्, यथोत्कभावार्थापरिज्ञानात्। अपिच - न लेश्याः स्थितिहेतवः, किन्तु-कषायाः, लेश्यास्तु कषायो दयान्तर्गता अनुभाग हेतवः, अत एव च- "स्थितिपाकविशेष स्तस्य भवति लेश्याविशेषेण" इत्यत्रानुभागप्रतिपत्यर्थं पाकग्रहणम् / एतच सुनिश्चित्तं कर्मप्रकृतिटीकादिषु, ततः सिद्धान्त परिज्ञानमपिन सम्यक् तेषामस्ति / यदप्युक्तम् - 'कर्मनिष्यन्दो लेश्या, निष्यन्दरुपत्वे हि यावत् कषायोदयः तावन्निष्यन्दस्यापि सद्भायात्, कास्थितिहेतुत्वमपि युज्यते एवेत्यादि, तदप्यश्लीलम, लेश्यानामनुभागबन्ध हेतुतया स्थितिबन्धहेतुत्वायोगात् / अन्यच्च-कर्मनिष्यन्दः किं कर्म कल्क, उत कर्मसारः ?, न तावत्कर्मकल्कः तस्यासारत योत्कृष्टानुभागबन्धहेतुत्वानुपपत्तिप्रसङ्क्तेः, कल्को हि असारो भवति, असारश्व कथमुत्कृष्टानुभाग बन्धहेतुः?, अथ चोत्कृष्टानुभागबन्धहेतवोऽपि लेश्या भवन्ति, अथ कर्मसार इति पक्षस्तहि कस्य कर्मणः सार इति वाच्यम् ?, यथायोगमष्टानामपीति चेत् अष्टानामपि कर्मणां शास्त्रे विपाका वर्ण्यन्ते, न च कस्यापि कर्मणो लेश्यारुपो विपाक उपदर्शितः, ततः कथं कर्मसारपक्षमङ्गीकुर्महे ?, तस्मात् पूर्वोक्त एव पक्षः श्रेयानित्यङ्गीकर्तव्यः / तस्य हरिभद्रसूरिप्रभृतिभिरपि तत्र तत्र प्रदेशे अङ्गीकृतत्वादिति। प्रज्ञा०१७ पद। (1) अथलेश्यानिक्षेपमाह- . आगम नोआगमतो, नोआगमतो य सो तिविहो। लेसाणं निक्खेवो, चउकओ दुविह होइ नायव्वो // 13 // जाणगभवियसरीरा, तय्वइरित्ताय सा पुणो दुविहा। कम्मा नोकम्मे या, नोकम्मे हुंति दुविहा उ॥५३५|| जीवाणमजीवाण य, दुविहा जीवाण होइ नायव्वा। भवमभवसिद्धिआणं, दुविहाण वि होइ सत्तविहा॥५३६।। अजीवकम्मनो दव्व लेसा सा दसविहा उनायव्वा। चंदाण य सूराण य, गहगणनक्खत्तताराणं / / 537 / / आभरणच्छायणा-दंसगाण मणिकागिणीण जा लेसा। अजीवदव्वलेसा, नायव्वा दसविहा एसा॥५३८|| जा दव्वकम्मलेसा, सा नियमा छव्विहा उनायव्वा।
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________________ लेसा 676 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लेसा किण्हा नीला काऊ, तेऊ पम्हा य सुका य / / 539 / / भेदसम्भवात् / इत्थ नोकर्मद्रव्यलेश्यामभिधाय कर्मद्रव्य लेश्यामाहदुविहा उ भावलेसा, विसुद्धलेसा तहेव अविशुद्धा। या कर्मद्रव्यलेश्या अग्रेतनतुशब्दसम्बन्धात्सा पुनर्नियमात् अवश्य दुविहा विशुद्धलेसा, उवसमखइआकसाथाणं / / 10 / / सम्भवात् षड्विधा ज्ञातव्या-अवबोद्धव्या, कथमित्याह-कृष्णा नीला अविसुद्धभावलेसा, सा दुविहा नियमसो उनायव्वा। 'काउ' त्ति कापोता 'तेउ' ति, तैजसी पद्मा च शुत्का चेति, इह च पिज्जम्मि स दोसम्मि अ, अहिगारो कम्मलेसाए॥५४१॥ कर्मद्रव्यलेश्येति सामान्याविधानेऽपि शरीरनामकर्मद्रव्याण्येव कर्मद्रव्यनो कम्मदव्वलेसा, पओगस वीससा उनायव्वा। लेश्या, यदुक्तं प्रज्ञापनावृत्तिकृता-"योगपरिणामो लेश्या, कथं पुनर्योग भावे उदओ भणिओ, छण्हं लेसाण जीवेस // 54 // परिणामो लेश्या?, यस्मात्सयोगिकेवली शुल्कलेश्यापरिणामेन अज्झयणे निक्खेवो, चउकाओ दुविह होइ दध्वम्मि। विहृत्यान्तमुँहत्ते शेषे योगनिरोधं करोति, ततोऽयोगित्वमलेश्त्वं च आगम नोआगमतो, नोआगमतो ययं तिविहं // 563|| प्राप्नोति; अतोऽवगम्यते-योगपरिणामो लेश्येति / स पुनर्योगः शरीरजाणगभवियसरीरं, तव्वइरित्तं च पोत्थगाईसुं। नामकर्मपरिणतिविशेषा, यस्मादुक्तम्- "कर्म हि कार्मणस्य कार्यमन्येषां णज्झप्पस्साणयणं,नायव्वं भावमज्झयणं // 14 // चशरीराणा'"मिति, तस्मादौदारिकादिशरीरयुक्तस्यात्मनो वीर्यपरिण'लेसाणं' मित्यादिगाथा एकादश, तत्र 'लेसाणं' ति सूत्रत्वाल्ले- तिविशेषः काययोगः, तथौदारिकवैक्रियाहारकशरीरव्यापाराहृतावाग्द्रव्य श्यायाम, कोऽर्थः?,लेश्याशब्दस्य निक्षेपश्चतुर्विधः-नामादि, 'दुविहो' समूहसाचिव्याज्जीव्यापारो यः स वाग्योगः, तथैवोदारिकादि शरीरव्याइत्यादि प्राग्वत्, यावत् 'सा पुणो दुविह' त्ति, सा-व्यतिरिक्तलेश्या पाराहृतमनोद्रव्यसमूहसाचिव्याज्जीवव्यापारो यः समनोयोग इति। ततो पुनर्द्विविधा, द्वैविध्यमेवाह-कर्मणि नोकर्मणि च, तत्रा कर्मण्यल्पवक्त- यथैव कायादिकरणयुक्तस्यात्मनो वीर्यपरिणतिर्योग उच्यते, तथैव यैवेति, तामुपेक्ष्य नोकर्मविषयमाह- 'नोकर्मणि-कर्माभावरूपे भवति "लेश्याऽपि" इति / गुरवस्तु व्याचस्ते-कर्मनिस्यन्दो लेश्या, यतः द्विविधा, तुः- अवधारणार्थ इति द्विधैव / कथमित्याह-जीवानाम्- कर्मस्थितिहेतवो लेश्याः। यथोक्तम्- "ताः कृष्णनीलकापो-ततेजसीउपयोगलक्षणानाम, अजीवानां च -तद्विपरीतानाम्, उभयत्र लेश्येति पद्मशुल्कनामानः / श्लेष इव वर्णबन्धस्य कर्मबन्धस्थितिविधात्र्यः प्रक्रमः, अत्राच नोकर्मत्वमु भयोरपि कर्माभावरूपत्वात् सम्बन्धिभेदाच्च ||1 // " इति, योगपरिणामत्वे तुलेश्यानाम्, "जोगा पयडिपएसं, ठिइद्विभेदत्वम्। तत्रापि द्विविधा जीवानां भवति-ज्ञातव्या। भवभवसिद्धि- अणुभार्ग कसायओ कुणति ति वचनात्प्रकृतिप्रदेशबन्ध हेतुल्मेव स्यात् याणं' ति मकारस्यालाक्षणिकत्वात्, सिद्धिशब्दस्य च प्रत्येकमभि- नतुकर्मस्थितिहेतुत्वम्, कर्मनिस्यन्दरुपत्वतुयावत्कषायोदयस्तावत्तसम्बन्धाद्, भविष्यतीति भवा--भाविनीत्यर्थः, तादृशी सिद्धिर्येषां ते निस्यन्दस्यापि सद्भावात्कर्मस्थिति हेतुत्वमपि युज्यत एव, अत एवोपभवसिद्धिका-भव्यास्तेषाम्, अभवसिद्धिकानां-तद्विपरीतानां द्विविधा- शान्तक्षीणमोहयोः कर्मबन्धसद्भावेऽपिन स्थितिसम्भवः, यदुत्कम्-"तं नामप्युत्कभेदेन, प्रक्रमाजीवानां भवति सप्तविधा-सप्त प्रकारा इहापि पढमसमये बद्धं, बीयसमये वेइयं, ततियसमए निजिणं' ति, आह यदि लेश्येति प्रक्रमः। अत्र च जयसिंहसूरिः कृष्णादयः षट् सप्तमी संयोगजा, कर्मनिस्यन्दोलेश्या तदासमुच्छिन्नक्रियं शुक्लध्यानध्यायतः कर्मचतुष्टइयं च शरीरच्छायात्मिका परिगृह्यते, अन्ये त्वौदारिकौदारिक सद्भावे तनिनस्यन्दसम्भवेन कथं न लेश्या सद्भावः ?, उच्यते, नायं कमिश्रमित्यादिभेदतः सप्तविधत्वेनजीवशरीरस्य तच्छायामेव कृष्णादि- नियमो यदुत निस्यन्दवतो निस्यन्देन सदा भाव्यं, कदाचिन्निस्यन्दववर्णरुपांनो कर्मणि सप्तविधां जीवद्रव्यलेश्यां मन्यन्ते, तथा-'अजीव- स्वपि वस्तुषु तथा विधानस्थायांतदभावदर्शनात्। यच्चोत्कम्-'अयोकम्मणो दव्वलेस' त्ति अजीवानां 'कम्मणो' त्ति आर्षत्वान्नोकर्मणि गिनो योगपरिणामाभावेन लेश्यापरिणामाभाव' इति निश्चिनुमः-योगद्रव्यलेश्या अजीवनोकर्मद्रव्यलेश्या, तुशब्द स्येह सम्बन्धात्सा परिणाम एव लेश्येति, तदप्यसाधकम्, यतो रश्म्यादयः सूर्याद्यभावे न पुनर्दशविधा ज्ञातव्या / चन्द्राणा सूर्याणां च ग्रहा मङ्गलादयस्तद्रणश्च भवन्ति, न च ते तद्रुपा एव, यत उत्कम्-"यच चन्द्रप्रभाधा, ज्ञातं नक्षत्राणि च-कृत्तिकादीनि ताराश्वप्रकीर्णज्योतींषि ग्रहगणनक्षत्रातारा- तज्झातमात्रकम् / प्रभा पुद्गलरुपा यत्तद्धर्मो नोपद्यते / / 1 / / ' अन्ये स्तेषाम्, आभराणानि च एकवलिप्रभृतीनि आच्छादनानि च -सुवर्ण- त्वाहुः- कार्मणशरीरवत्पृथगेव कर्माष्टकात्कर्मवर्गणानिष्पान्नानि चरितादीनि आदर्शा एवादर्शका दर्पणास्ते चाभरणाच्छा दनादर्शका- कर्मलेश्याद्रव्याणीति,तत्वंपुनः केवलिनो विदन्ति। इत्युक्ता द्रव्यलेश्या। स्तेषाम्, तथा मणिश्च-मरकतादिः काकिणिः-चक्रवर्तिरत्नं मणिका- भावलेश्यामाह - द्विविधा च भावलेश्या-विशुद्धलेश्या-अकलुषद्रव्य किण्यौ तयोर्यो लेशयति-श्लेषयति वात्मनि जननयनानीति लेश्या- संपर्कजात्मपरिणामरुपा, तथैव-अविशुद्धा-इत्यविशुद्धलेश्या। तत्र अतीव चक्षुराक्षेपिका सिग्धदीप्तरुपाछाया अजीवद्रव्यलेश्या प्रक्रमान्नो- द्विविधा विशुद्धलेश्या-"उवसमखइय' त्ति सूत्रा त्वादुपशमक्षयौ ? कर्मणि ज्ञातव्या, दशविधैषा / अत्र च चन्द्रादिशब्देस्ताद्विमानानि यतो जायत इयमित्याह- कषायाणाम, अयमर्थः-कषायोपशमजा "तात्स्थ्यात्त द्व्यपदेश' इतिन्यायेनोच्यन्ते, तेषां च पृथ्वीकायरुपत्वे- कषायक्षयजा च, एकान्तविशुद्धिं चाऽऽश्रित्त्यैवमभिधानम्, अन्यथा ऽपि स्वकायपरकायशस्त्रोपनिपातसम्भवात्, तत्प्रदेशानां केषाञ्चिदचे- हिक्षायोपशमिक्यपि शुक्ला तेजः पद्मे च विशुद्धलेश्ये सम्भवत एवेति। तनत्वेनाजीवद्रव्यलेश्यात्वं द्रष्टव्यम्, उपलक्षणं चात्रा दशविधत्व- अविशुद्धभावलेश्या सेति या प्रागुपक्षिप्ता द्विविधा-द्विभेदा, 'णियमसा मेवंविधद्रव्याणां रजतरुप्यताम्रादीनं बहुतरत्वेन तच्छायाया अपि बहुतर- | उत्ति, आर्षत्वात् नियमन-अवश्यम्भावेन ज्ञातव्या, 'पेजम्मिय' त्ति
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________________ लेसा 677 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लेसा 'दोसम्मिय' त्ति प्रेमणि च-रागे द्वेषे य द्वये, किमुक्तं भवति? -- रागविषया, द्वेषविषया च / इयं चार्थात्कृष्णनीलकापोतरुपा, तदेवमस्या नामादिभेदतोऽनेकविधत्वम्, इह कयाऽधिकृतमित्याह-अधिकारः कर्मलेश्यया, कोऽर्थः?-कर्मद्रव्यलेश्यया, प्रायस्तस्या एवात्र वर्णादिरुपेण विचारणात् / इत्थं नामादिभेदेन लेश्योक्ता, तत्र च वैचित्र्यासूत्रकृतेनों कर्मद्रव्यलेश्यायां भावलेश्यायां च यत्प्राग् नोक्तं सम्प्रति तदाह- नोकर्मद्रव्यलेश्या शरीराभरणादिच्छाया पओगस्स' ति प्रयोगः-जीवव्यापारः स च शरीरादिषु तैलाभ्यञ्जमनः शिलाघर्षणादिस्तेतन वीससाय'त्ति विस्रसाजीवव्यापारनिरपेक्षा अभेन्दधनुरादीनां तथा वृत्तिस्तया च ज्ञातव्या। 'भाव' इति-भावलेश्या उदयः-विपाकः, इह तूपचारादुदयजनितपरिणामो भणितः षण्णां लेश्यानां जीवेषु / 'अज्झयणे' त्यादिगाथाद्वयम्-अध्ययननिक्षेपाभिधायि विनयश्रुत एव व्याख्यातप्रायमिति गथैकादशकार्थः। सम्प्रत्युपसंहारंव्याजेनोपदेशमाह - एयासिं लेसाणं, नाऊण सुहासुहं तु परिणामं / चइऊण अप्पसत्थं,पसत्थलेसासु जइअव्वं / / 415| एतासाम्-अनन्तरमुक्तस्वरुपाणंलेश्यानां ज्ञात्वा-एतदध्ययनानुसारतोऽवबुध्य शुभाशुम, तुः-पुनरर्थे, ततःशुभाशुभंपुनः परिणामम्, किमित्याह-त्यक्त्वा-अपहाय 'अपसत्थं ति अप्रशस्ता-अशुभपरिणामा कृष्णादिलेश्या इति योऽर्थः प्रशस्तलेश्यासु-शुभपरिणामरुपासुपीताद्यासु यतितव्यम्, यथा ता भवन्ति यथा यत्नो विधेय इति गाथार्थः / इत्यवसितो नाम निष्पन्नो निक्षेपः / उत्त०३४ अ०। अस्मिंश्च लेश्यापदेषड् उद्देशकाः, तत्रेय प्रथमोहे शकार्थ संग्रहगाथाआहारसमसरीरा, उस्सासे कम्मवन्नलेसासु। समवेदणसमकिरिया,समाउया चेव बोधव्वा ||1|| ('सम' शब्दे इमं प्रथममुद्देशकं वक्ष्यामि) प्रज्ञा० 17 पद। (2) अथलेश्यासंख्यामाहकइणं भंते ! लेस्साओ पण्णत्ताओ?, गोयमा ! छल्लेस्साओ पण्ण- | ताओ, तं जहा-कण्हलेसा?, नीललेसा 2, काउलेसा 3, तेउलेसा 4, पम्हलेसा 5, सुक्कलेसा 6 (सू०२१४) 'कइ णं भंते ! लेसाओ' इत्यादि, कः पुनरस्य सूत्रास्य सम्बन्ध इति चेद् ?, उच्यते-उक्तं प्रथमोद्देशके 'स लेसाणं भंते ! नेरइया' इत्यादि, इह तु ता एव लेश्याश्चिन्यन्ते। 'कइ लेसा' इति, तत्रा लेश्याः, प्रागनिरुपितशब्दार्थाः 'क' त्ति, किंपरिमाणाः प्रज्ञप्ताः, भगवानाह-गौतम् ! षड् / ता एव नामतः कथयति-'कण्हलेसा' इत्यादि, कृष्णद्रव्यात्मिका कृष्णद्रव्य- | जनिता वा लेश्या कृष्णलेश्या, एवं नीललेश्येत्या दिपदेष्वपि भावनीयम्। (3) नैरयिकादीनां लेश्यापृच्छाजेरइयाणं भंते ! कइ लेसाओ पन्नत्ताओ?, गोयमा ! तिन्नि, तं जहा-किण्हलेसा, नीललेसा, काउलेसा / / तिरिक्खजोणियाणं भंते ! कइ लेसाओ पन्नत्ताओ?, गोयमा ! छल्लेसाओ पण्णत्ताओ, तं जहा कण्हलेसा.जाव सुक्कलेसा।। एगिदियाणं भंते ! कह लेसाओ पण्णत्ताओ?, गोयमा ! चत्तारि लेसाओ पण्णत्ताओ, तं जहा-कण्ह .जाव तेउलेसा / पुढविकाइयाणं भंते ! कइलेसाओ पण्णत्ताओ?, गोयमा! एवं चेव, आउवणस्सइकाइयाण वि एवं चेव, तेउवाउवेइंदिय तेइंदियचउरिदियाणं जहा नेरइयाणं। पंचेदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गोयमा ! छल्लेस्सा-कण्हलेस्सा० जाव सुक्कलेस्सा / समुच्छिमपंचिदिय-तिरिक्खजो णियाणं पुच्छा, गोयमा! जहा नेरइयाणं, गब्भवकं तियपंचेदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गोयमा ! छल्लेसा कण्हलेस्सा० जाव सुकलेसा // तिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गोयमा ! छल्लेसा एयाओ चेव / / मणूसाणं पुच्छा, गोयमा! छल्लेसा एयाओ चेव / समुच्छिममणुस्साणं पुच्छा, गोयमा ! जहा नेरइयाणं, गम्भवकं तियमणुस्साणं पुच्छा, गोयमा ! छल्लेसाओ, तं जहा कण्हलेसा० जाव सुक्कलेसा। मणुस्सीणं पुच्छा, गोयमा ! एवं चेव / देवाणं पुच्छा, गोयमा ! छ एयाओ चेव, देवीणं पुच्छा, गोयमा ! चत्तारि कण्हलेसा. जाव तेउलेस्सा / भवणवासीणं भंते ! देवाणं पुच्छा, गोयमा ! एवं चेव / एवं भवणवासिणीण वि / वाणमंतरदेवाणं पुच्छा, गोयमा ! एवं चेव, वाणमंतरीण दि / जोइसियाणं पुच्छा, गोयमा! एगा तेउलेसा एवं जोइसिणीण वि, वेमाणियाणं पुच्छा, गोयमा ! तिन्नि, तं जहा-तेउलेसा, पम्हलेसा सुक्कलेसा, वेमाणिणीणं पुच्छा, गोयमा ! एगा तेउलेस्सा। (सू०२१५) 'नेरइयाणं भंते!" इत्यादि, सूत्रमल्पबहुत्ववक्तव्यतायाः प्राक् सकलमपि सुगमम्, नवरं वैमानिकसूत्र यद्वैमानिकानामेका तेजोलेश्योक्ता तोदं कारणं वैमानिक्यो हि देव्यः सौधर्मे शानयोरेव, तत्र च केवला तेजोलेश्यति। सामान्यतः सङ्गहणिगाथा अोमा:"किण्हा नीला काऊ, तेऊ लेसा य भवणवंतरिया। जोइससोहम्मीसा--ण तेउलेसामुणेयव्वा / / 1 / / कप्पे सणंकुमारे, माहिदे चेव बंभलोए य। एएसु पम्हलेसा, तेण परं सुक्कलेसा उ॥२॥ पुढवी आउवणस्सइ, बायर–पत्तेय लेस चत्तारि।
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________________ लेसा 678 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लेसा गब्मयतिरियनरेंसु, छल्लेसा तिन्नि सेसाणं // 3 // " प्रज्ञा० 17 पद 2 उ०। (एतेषां जीवानामल्पबहुत्वम् 'अप्पाबहुय' शब्दे प्रथमभागे 658 पृष्ठे गतम्) _सौधर्मेशानकल्पे देवाः तेजोलेश्या :दोसु कप्पेसु देवा तेउलेस्सा पण्णत्ता, तं जहा सोहम्मे चेव, | ईसाणे चेव। स्था० 2 ठा० 4 उ० / जी०। , (4) असुरकुमारदीनां देवानां कति लेश्या भवन्तीत्याह- | असुरकुमाराणं चत्तारिलेस्सातोपण्णत्ता,तं जहा-कण्हलेसा णीललेसा काउलेस्सा तेउलेस्सा, एव० जावथणियकुमाराणं, एवं पुढवीकाइयाणं आउवणस्सइकाइयाणं वाणमंतराणं सव्वेसिं जहा असुरकुमाराणं / (सू०३१६) असुरदीनां चतस्रो लेश्या द्रव्याश्रयेण, भावतस्तु षडपि सवदेवानां मनुष्यपञ्चेन्द्रियतिरश्चां तु द्रव्यतो भावतश्च षडपीति, पृथिव्यब्बनस्पतीनां हि तेजोलेश्या भवति देवोत्पत्तेरिति तेषां चतस्र इति उक्तलेश्याविशेषेण च विचित्रापरिणामा मानवाः स्युरिति। स्था० 4 ठा० 3 उ०। (किं लेश्याको नैरयिकादिकः किलेश्याकेषु नैरयिकादिकेषु उपपद्यते इति उववाय' शब्दे द्वितीयभागे 675 पृष्ठे दर्शितम्) (5) अल्पर्द्धिकत्वमहर्द्धिकत्वेएएसिं णं भंते ! कण्हलेसाणं. जाव सुक्कलेसाण य कयरे कयरे अप्पड्डिया वा महड्डिया वा?, गोयमा ! कण्हलेसेहितो नीललेसा महड्डिया, नीललेसेहिंतो काउलेसा महड्डिया, एवं काउलेस्सेहिंतो तेउलेसा महड्डिया, तेउलेसेहिंतो पम्हलेसा महड्डिया, पम्हलेसेहिंतोसुक्कलेसा महड्डिया, सव्वप्पड्डियाजीवा कण्हलेसा सव्वमहड्डिया सुक्कलेसा। एएसिणं भंते ! नेरइयाणं कण्हलेसाणं नीललेसाणं काउलेसाण य कयरे कयरे अप्पडिया वा महड्डियावा?,गोयमा! कण्हलेसेहिंतो नीललेसे महड्डिया, नीललेसे हिंतो काउलेसा महड्डिया, सवप्पड्डिया नेरइया कण्हलेसा, सध्वमहड्डिया नेरइया काउलेसा। एएसिणं भंते! तिरिक्खजोणियाणं कण्हलेसाणं जाव सुक्कलेसाण य कयरे कयरेंहितो अप्पड्डियावा महड्डिया वा?,गोयमा! जहा जीवाणं / एएसिणं भंते ! एगेंदियतिरिक्खजोणियाणं कण्हलेसाणं. जाव तेउलेसाण य कयरे कयरेहिंतो अप्पड्डिया वा महड्डिया वा?, गोयमा ! कण्हलेस्सेहिंतो एगेदियतिरिक्खजोणियाणं नीललेसाणं महड्डिया,नीललेसेहिंतो तिरिक्खजोणियाणं काउलेसा महड्डिया, काउलेसेहिंतो तेउलेसा महड्डिया, सय्वप्पडिया एर्गेदियतिरिक्खजोणिया कण्हलेसा, सव्वमहनिया लेउलेसा। एवं पुढविकाइयाण वि, एवं एएणं अभिलावेणं जहेव लेस्साओ भावियाओतहेव नेयव्व० जाव चउरिदिया। पंचेदियतिरिक्खजो णियाणं तिरिक्खजोणिणीणं समुच्छिमाणं गब्भवक्कंतियाण य सव्वेसिंभाणियव्वं० जाव अप्पड्डिया वेमाणिया देवा तेउलेस्साणं सव्वमहड्डिया वेमाणिया सुक्कलेसा / केई भणंति-चउवीसं दंडएणं हड्डी भाणियव्वा / (सू०२२१) 'एएसिंणं भंते ! जीवाणं कण्हलेसाण' मित्यादि, सुगमम्, नवरं लेश्याक्रमेण यथोत्तरं महर्द्धिकत्वं यथाऽकि अल्पर्द्धिकत्वं भावनीयम्, एवं नैरयिकतिर्यग्योनिकमनुष्यवैमानिक विषयाण्यपि सूत्राणि येषां यावत्यो लेश्यास्तेषां तावतीः परिभाव्य भावनीयम्। प्रज्ञा० 17 पद 3 उ०। (किलेश्यो जीवः किलेश्येषूपपद्यते इति उववाय' शब्दे द्वितीयभागे 676 पृष्ठे गतम्) कृष्णलेश्यादिनैरयिकः किलेश्येषूपद्यते इति तस्मिान्नेव भागे तस्मिन्नेव शब्दे 175 पृष्ठे उक्तम् / कृष्णलेश्यादिः नीललेश्यादिधूपद्यते इत्यपि तस्मिन्नेव भागे तस्मिन्नेव शब्दे 620 पृष्ठे गतम्।) (6) कृष्णलेश्यः कृष्णलेश्यं प्रणिधाय अवधिना कियत्क्षेत्रां पश्यति। कृष्णलेश्यादिनैरयिकसत्कावधिज्ञानदर्शनविषयक्षेत्र परिमाणतारतम्यञ्चाहकण्हलेसे णं मंते ! नेरइए कण्हलेस नेरइयं पणिहाए ओहिणा सव्वओ समंता सममिलोएमाणे केवतियं खेत्तं जाणइ केवइयं णेत्तं पासइ ?, गोयमा ! णो बहुयं खेत्तं जाणइ, णो बहुयं खेत्तं पासइ, णो दूरं खेत्तं जाणइ, णो दरं खेत्तं पासइ, इत्तरियमेव खित्तं जाणइ, इत्तरियमेव खेत्तं पासइ / से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ कण्हलेसे णं नेरइए तं चेव० जाव इत्तरियमेव खेत्तं पासइ?,गोयमा! से जहानामए केइ पुरिसे बहुसमरमणिज्जंसि भूमि भागंसि ठिचा सव्वओ समंता सममिलोएज्जा, तए णं से पुरिसे धरणितलगयं पुरिसं पणिहाए सवओ समंता सममिलोएमाणे णो बहुयं खेत्तं० जाव पासइ० जाव इत्तरियमेव खेत्तं पासइ, से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुचइ-कण्हलेसे गं नेरइए० जाव इत्तरियमेव खेत्तं पासइ।नीललेसेणं भंते ! नेरइए कण्हलेसं नेरइयं पणिहाय ओहिणा सवओ समंता सममिलोएमाणे समभिलोएमाणे केवतियं खेत्तं जाणइ केवितयं खेत्तं पासइ?, गोयमा ! बहुतरागं खेत्तं जाणइ बहुतरागं खेत्तं पासइ, दूरतरखेत्तं जाणइ दूरतरखेत्तं पासइ, वितिमिरतरागं खेत्तं जाणइ वितिमिर तरागं खेत्तं पासइ, विसुद्धतरागं खेत्तं जाणइ विसुद्धतरागं खेत्तं पासइ / से केणटेणं भंते ! एवं दुबइ-नीललेसे णं नेरइए कण्हलेसं नेरइयं पणिहाय० जाव विसुद्धतरागं खेत्तं जाणइ, विसुद्धतरागं खेत्तं पासइ ? से जहानामए केइ पुरिसे बहुसमर मणिज्जाओ भूमिभागाओ पव्वयं
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________________ लेसा 676 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लेसा खतं जाणइलमा ! एवं तिमिरतराग दुरुहित्ता सव्वओ समंतासममिलोएज्जा,तएणं से पुरिसे धरणि तलगयं पुरिसं पणिहाय सवओ समंता समभिलोएमाणे सममिलोएमाणे सममिलोएमाणे बहुतरागं खेत्तं जाणइ, 0 जाव विसुद्धतरागं खेत्तं पासइ, से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं दुचइनीललेस्से नेरइए कण्हलेसं० जाव विमुद्धतरागं खेत्तं पासइ। काउलेस्सेणं भंते ! नेरइए नीललेस्सं नेरइयं पणिहाय ओहिणा सव्वओ समंता समभिलोएमाणे सममिलोएमाणे केवतियं खेत्तं जाणइ पासइ?, गोयमा! बहुतरागं खेत्तं जाणइ पासइ० जाव विसुद्धतरागं खेत्तं पासति / से केणतुणं भंते एवं वुच्चइकाउलेस्से णं नेरइए० जाव विसुद्धतरागं खेत्तं पासइ ?, गोयमा ! से जहा नामए केइ पुरिसे वहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ पव्वयं दुरुहइ दुरहित्ता दोऽवि पाए उच्चाविया (वइत्ता) सव्वओ समंता समभिलोएज्जा तए णं से पुरिसे पव्वयगयं धरणितलगयंच पुरिसंपणिहाय सव्वओ समंतासममिलोएमाणे बहुतरागं खेत्तं जाणइ बहुतरागं खेत्तं पासइजाव वितिमिरतरागं पासइ, से तेणतुणं गोयमा! एवं वुचइ-काउलेस्से णं नेरइए नीललेस्सं नेरइयं पणिहाय तं चेव० जाव वितिमिरतरागं खेत्तं पासइ / / (सू०२२३) 'कण्हलेसे णं भंते!' इत्यादि, कृष्णलेष्यो भदन्त! कश्चिन्नैरयिकोऽपरं कृष्णलेश्याकं प्रणिधाय अपेक्ष्यावधिना-अवधिज्ञानेन सर्वतः-सर्वासु दिक्षु समन्ततः-सर्वासु विदिक्षु समभिलोकमानो-निरीक्षमाणः कियत्किंपरिमाणं क्षेत्रां जानाति कियदा क्षेत्रामवधिदर्शनेन पश्यति ?, भगवानाह - गौतम ! न बहुक्षेत्र जानाति नापि बहुक्षेत्र पश्यति, किमुक्तं भवति ? - अपरं कृष्णलेश्याकं नैरयिकमपेक्ष्य न विवक्षितः कृष्णलेश्याको योग्यतानुसारेणातिविशुद्धोऽपि नैरयिकोऽतिप्रभूतं क्षेत्रामवधिना जानाति पश्यति / एतदेवाह - न दूरम् - अतिविप्रकृष्ट क्षेत्रों जानाति नाप्यतिविप्रकृष्ट क्षेत्रं पश्यति, किंतु इत्वरमेव- स्वल्पमेवाधिक क्षेत्रां जानाति इत्वर मेवाधिकं क्षेत्रं पश्यति, एतच्च सूत्रां समानपृथिवीककृष्णलेश्य नैरयिकविषयमवसेयमन्यथा व्यभिचारसम्भवात, तथाहि - सप्तमपृथिवीगतः कृष्णलेश्याको नैरयिको जघन्यतो गव्यूतार्द्ध जानाति, उत्कर्षतो गव्यूतम्, षष्ठपृथिवीगतः कृष्णलेश्याको जघन्यतो गव्यूतमुत्कर्षतः सार्द्धम्, पञ्चमपृथिवीगतः कृष्णालेश्याको जघन्यतः सार्द्ध गव्यूतमुत्कर्षतः किञ्चिदूने द्वे गव्यूते / ततो द्विगुणत्रिगुणाधिकक्षेत्रसम्भवाद् भवत्यधिकृत सूत्रास्य व्यभिचारः, यथा समानपृथिवीकमपरं कृष्णलेश्याकं नैरयिकमपेक्ष्यातिविशुद्धोऽपि कृष्णले. श्याको नैरनिको मनागधिकं पश्यति नातिप्रभूतं तथा दृष्टान्तेनोपपिपादयिषुराह -- 'से केणढणं भंते!' इत्यादि, इयमत्र भावनायथा समभूभाग व्यवस्थित एव कश्चित् विवक्षितः पुरुषः चक्षुर्नर्मल्यवशात् मनागधिकं पश्यतिन प्रभूततरं तथा विवक्षितोऽपि कश्चित् कृष्णलेश्याको नैरयिकः स्वभूमिकानुसारेणातिविशुद्धोऽपि समानपृथिवीकमपरं कृष्णलेश्याकं नैरयिकमपेक्ष्य यदि परमावधिना मनागधिकं पश्यति न तु प्रभूततरम्, अत्र समभूभागस्थानीया समाना पृथिवी, स्वभूमिकासमाना च कृष्णरुपा लेश्या, चक्षुः स्थानीयमवधिज्ञानम्। एतावता चैतदपि ध्वनितम् - यथा समभूभागव्यवस्थितः पुरुषः सर्वतः समन्तादभिलोकमानो गर्तगते पुरुषमपेक्ष्यातिप्रभूततरं पश्यति तथा पञ्चमपृथिवीगतः स्वभूमिकानुसारेणातिविशुद्धः कृष्ण लेश्याको विवक्षितोऽपि नैरयिकः सप्तमपृथिवीगतं कृष्णलेश्या कमतिमन्दानुभागावधिनैरयिकमपेक्ष्यातिप्रभूतं पश्यति, मनागधिकत्रिगुणक्षेत्रसम्भवात्। सम्प्रति नीललेश्याकविषयं सूत्रमाह'नीललेसे णं भंते ! नेरइए कण्हलेसं नेरइयं पणिहाए' इत्यादि, अक्षरगमनिका सुगमा, नवरं 'वितिमिरतरागं खेत्तं जाणइ' इति विगतं तिमिरम्-तिमिरसम्पाद्यो भ्रमो या तद्वितिमिरम्, इदं वितिमिरमिदम् वितिमिरमनयोरतिशयेन वितिमिरं वितिमिरतरम् 'द्वयोर्विभज्ये तरवि' ति तरप्प्रत्ययः / ततः प्राकृतलक्षणात् स्वार्थे कप्रत्ययः पूर्वस्य च दीर्घत्वम्, अत एव विशुद्धतरं-निर्मलतरम्, अतीव स्फुटप्रतिभासमिति -यावत्। भावना त्वियम्-यथा धरणितलगत पुरुषमपेक्ष्य पर्वतारुढः पुरुषोऽतिदूर क्षेत्रं पश्यति तदपि प्रायः स्फुटप्रतिभासं तथा विवक्षितोऽपि नीललेश्याको नैरयिको योग्यतानुसारेणातिविशुद्धावधिः कृष्णलेश्याकं नैरकपेक्ष्याति दूरं वितिमिरतरं स्फुटप्रतिभासं च क्षेत्रनं जानातीति। अत्रा पर्वत स्थानीया उपरितनी तृतीया पृथिवी अतिविशुद्धा च स्वभूमिका नुसारेण नीललेश्या, धरणितलस्थानीया अधस्तनी कृष्णलेश्या, चक्षुःस्थानीयमवधिज्ञानमिति।।सम्प्रति नीललेश्याकमपेक्ष्य कापोतलेश्याविषयं सूत्रमाह-काउलेस्सेणं मंते! नेरइए नीललेस्सनेरइयं पणिहाये' त्यादि, अक्षरगमनिका सुगमा, नवरम् 'दोवि पाए उच्चावइत्ता' इति, द्वावपि पादौ उचैः कृत्वा द्वावपि पाणी उत्पाठ्येत्यर्थः, भावना त्वियम्यथा पर्वतस्योपरि वृक्षमारुढः सर्वतः समन्तादवलोकमानो बहुतरं पश्यति स्पष्टतरं च तथा कापोत लेश्यो नैरयिकोऽपरं नीललेश्याकमपेक्ष्य प्रभूतं क्षेत्रमवधिना जानाति पश्यति च, तदपि च स्पष्टतरमिति / इह वृक्षस्थानीया कापोतलेश्या उपरितनी च पृथिवी पर्वतस्थानीया नीललेश्या तृतीया च पृथिवी, चक्षुः स्थानीयमवधिज्ञानमिति।। (7) सम्प्रति का लेश्या कतिषु ज्ञानेषु लभ्यते इति निरुपयितुकाम आहकण्हलेसे णं भंते ! जीवे कइसु नाणेसु होजा?, गोयमा ! दोसुवा तिसुवा चउसु वा नाणेसु होजा, दोसु होमाणे आमिणिबोहियसुयनाणओहिनाणेसु होजा, अहवा तिसु होमाणे आमिणिबोहियसुयनाणमणपजवनाणेसु होजा, चउसु होमाणे आमिणिबोहियसुय ओहिमणपञ्जवनाणेसु होजा० एवं जाव पम्हलेसे। सुक्कलेसे णं भंते ! जीवे कइसु नाणेसु होजा?, गो
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________________ लेसा 680- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लेसा यमा ! दोसु वा तिसु वा चउसु वा होजा, दोसु होमाणे आभिणिबोहियनाणे एवं जहेव कण्हलेसाणंतहेव भाणियव्वं. जाव चउहि, एगम्मि, नाणे होजा, एगम्मि केवलनाणे होजा। (सू० 225) 'काहलेसे णं भंते! जीवे कइसुनाणेसुहोजा' इत्यादिप्रश्न सूत्रां सुगमम्, भगवानाह-गौतम ! द्वयोस्त्रिषु चतुषु च ज्ञानेषु भवति / तत्र द्वयोराभिनिबोधिक श्रुतज्ञानयोः त्रिषु आभिनिबोधिक श्रुतावधिज्ञानेषु, यदिवा-आभिनिबोधिकश्रुत मनः पर्यायज्ञानेषु, इहावधिरहितस्यापि मनः पर्यवज्ञानमुपजायते, सिद्धप्राभृतादावनेकशस्तथा प्रतिपादनात्, अन्यच विचित्रा प्रतिज्ञानं तदावरणक्षयोपशमसामग्री, तत्र कस्यापि चारित्रिणोऽप्रमत्त स्यामर्षोषध्याद्यन्यतमकतिपयलब्धिसमन्वितस्य मनः पर्याय ज्ञानावरणक्षोगपशमनिमित्त सामग्री तथारुपाध्यवसायादिलक्षणा सम्पद्यते न त्ववधिज्ञानावरण क्षयोपशमनिमित्ता ततस्तस्य मनः पर्यवज्ञानमेव भवति। ननु मनः पर्यवज्ञानमतिविशुद्धस्योपजायते कृष्णलेश्या चसंल्किष्टाध्यवसायरुपा ततः कथं कृष्णलेश्याकस्य मनः पर्यायज्ञान सम्भवः?, उच्यतेइह लेश्यानां प्रत्येकासंख्येयलोकाकाश प्रदेशप्रमाणन्यध्यवसायस्थानानि, तत्र कानिचित् मन्दानु भावान्यध्यवसा यस्थानानि प्रमत्तसंहतस्यापि लभ्यन्ते, अत एव कृष्णनीलकापोतलेश्या अन्यत्र प्रमत्तसंयतान्ता गीयन्ते, मनः पर्यवज्ञानं च प्रथमतोऽप्रमत्तसंयतस्योत्पद्यते , ततः प्रमत्त संयतस्यापि लभ्यते इति सम्भवति कृष्णलेश्याकस्यापि मनः पर्यवज्ञानम्, चतुर्वाभिनिबोधिकश्रुतावधिमनः- पर्यवज्ञानेषु, 'एवं. जाव पम्हलेसे' इति एवं-कृष्णलेश्योक्तेन प्रकारेण तावद्वक्तव्यं यावद् पद्मलेश्या। किमुक्तं भवति?नीललेश्यः कापोत लेश्यः तेजोलेश्यः पद्यलेश्यश्च उक्तप्रकारेण द्वयोस्त्रिषु चतुषु वा ज्ञानेषु भणनीयः। स च एवम्-'नीललेस्सेणं भंते ! जीवे कइसुनाणेसु होज्जा ?, गोयमा ! दोसुवा तिसु वा चउसु वा नाणेसु होज्जा' इत्यादि, शुल्कलेश्येषु विशेष इति तं पृथक् वक्ति-'सुक्कलेसे णं भंते !' इत्यादि, इह शुल्कलेश्यायामेव केवलज्ञाननलेश्यान्तरे ततःशेषलेश्याकेभ्योऽस्य शुल्कलेश्यस्य विशेषः। प्रथमं परिणामधिकारः१, द्वितीयो वर्णाधिकारः 2, तृतीयो रसाधिकारः 3, चतुर्थो गन्धाधिकारः 4. पञ्चमः शुद्धाशुद्धाधिकारः 5, षष्ठः प्रशस्ताप्रशस्ताधिकारः 6, सप्तमः संल्किष्टासंल्किष्टाधिकारः 7, अष्टम उष्णशीताधिकारः 8, नवमो गत्यधिकारः 6, दशमः परिणामाधिकारः १०,एकादशोऽप्रदेशप्रदेशप्ररुपणाधिकारः 11, द्वादशोऽवगाहाधिकारः 12, त्रयोदशो वर्गणाधिकारः 13, चतुर्दशः स्थानप्ररुपणाधिकारः 14, पञ्च, दशोऽल्पबहुत्वाधिकारः 15 // (1) तत्रा प्रथमं परिणामलक्षणमभिधित्सुर्यासां परिणामो वक्तव्यः ता एव लेश्याः प्रतिपादयति परिणामवन्नरसगं-धसुद्धअपसत्थसंकिलिङ्कण्हा। गतिपरिणामपदेसे, गाढवग्गण्ठाणाणमप्पबहुं // 1 // कइ णं भंते ! लेसाओ पन्नत्ताओ?, गोयमा ! छल्लेसाओ पन्नत्ताओ,तं जहा-कण्हलेसा० जाव सुक्कलेसा, से नूणं मंते! कण्हलेसा नीललेसं पप्प तारुवत्ताए तावण्णत्ताए तागंधत्ताए तारसत्ताए ताफासत्ताए भुजो भुञ्जो परिणमति, हंता गोयमा ! कण्हलेस्सा नीललेस्सं पप्प तारुवत्ताए 0 जाव भुजो मुजो परिणमति, से केणतुणं भंते ! एवं वुचइ-कण्हलेस्सानीललेस्सं पप्प तारुवत्ताए० जाव भुजो भुञ्जो परिणमति ?, गोयमा ! से जहानामए खीरे दूसिं पप्प सुद्धे वा वत्थे रागं पप्प तारुवत्ताए. जाव ताफासत्ताए मुखो मुजो परिणमइ, से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुचइ-कण्हलेसा नीललेसं पप्प तारुवत्ताए० जाव भुजो भुजो परिणमइ, एवं एतेणं अभिलावेणं नीललेसा काउलेसं पप्प काउलेसा तेउलेसंपप्प तेउलेसा पम्हसेसं पप्प पम्हलेसा सुक्कलेसं पप्प. जाव भुजो भुजो परिणमइ, से नूणं भंते ! कण्हलेसानीललेसं काउलेसं तेउलेसं पम्हलेसं सुक्कलेसं पप्प तारुवत्ताएतावण्णत्ताए तागंधत्ताए तारसत्ताए ताफासत्ताए मुजो भुजो परिणमइ?, हंता गोयमा ! कण्हलेसा नीललेसं पप्प. जावसुक्कलेसं पप्प तारुवत्ताएतागंधत्ताए तार सत्ताएताफासत्ताए भुजो मुजो परिणमइ. से केणट्टेणं भंते ! एवं वुबइ-कण्हलेसा नीललेसं. जाव सुक्कलेसं पप्प तारुवत्ताए० जाव भुजो भुजो परिणमइ ?, गोयमा ! से जहा नामए वेरुलियमणी सिया कण्हसुत्तए वा नीलसुत्तए वा लोहियामणी सिया हालिहमणी सिया सुकिल्लमणी सिया आइएसमाणे तारुवत्ताए० जाव भुजो भुञ्जो परिणमइ, से तेणटेणं एवं वुच्चइ-कण्हलेसा नीललेसं० जाव सुक्कलेसं पप्प तारुवत्ताए भुजो मुजो परिणमति / से नूणं भंते ! नीललेसा किण्हलेसं० जाव सुक्कलेसं पप्प तारुवत्ताए० जाव भुजो मुजो परिणमइ, हंता गोयमा ! एवं चेव, काउलेसा किण्हलेसं, नीललेसा तेउलेसं, पम्हलेसा सुकलेस, एवं तेउलेसा किण्हलेसं नीललेसं काउलेसं पम्हलेसं सुकलेसं, एवं पम्हलेसा किण्हलेसं, नीललेसा काउलेसं, तेउलेसा सुक्कलेसं पप्प० जाव भुञ्जो भुजो परिणमइ ?, हन्ता गोयमा! तं चेव, से नूणं भंते ! सुक्कलेसा किण्हलेसं, नीललेसा काउलेसं, तेउलेसा पम्हलेसं पप्प० जाव भुजो भुञ्जो परिणमइ ?, हंता गोयमा ! तं चेव / (सू० 225) 'कइणं भंते ! लेसाओ पन्नत्ताओ' इत्यादि, इदं सूत्रां प्रागप्युक्तं परंपरिणामाद्यर्थप्रतिपादनार्थ भूय उपन्यस्तम्-'सेनूगंभंते! इत्यादि, अथभदन्त कृष्णलेश्या-कृष्णलेश्या योग्यानि द्रव्याणि नीललेश्यां नीललेश्यायोग्यानिद्रव्याणि प्राप्य अन्योऽन्यावयवसंस्पर्शमासाद्य तद्रूपतया-नील
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________________ लेसा 681 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लेसा लेश्यारुपतया, रुपशब्दोऽत्र स्वभाववाची, नीललेश्यास्वभाव तयेत्यर्थः केणटेणं भंते! इत्यादिसुगमम्, नवरं यथा वैडूर्यमणिरेक एव तत्तदुपाभूयो भूयः परिणमतीति योगः। तत्स्वभावच तद्धर्गणा (तद्वर्णा) दिरुपतया धिद्रव्य सम्पर्कतस्तद्रूपतया परिणमते तथैव तान्यपि कृष्णलेश्यायोग्यानि भवति, तत आह-तद्वशतयातद्रसतया तद्गन्धतया तत्स्पर्शतया, द्रव्याणि तत्तन्नीलादिलेश्यायोग्यद्रव्यसम्पर्कस्तत्त द्रूपतया परिणमन्ते सर्वत्रापि तच्छब्देन नीललेश्ययोग्यानिद्रव्याणि परामृशन्ति, भूयो भूयः-- इति, एतावतांशने दृष्टान्ते न तु पुनर्यथा वैडूर्यमणिः स्वस्वरुपमजहाअनेकवारं तिर्यग्मनुष्याणां तत्ततदूभवसंक्रान्तौ शेषकालं वा परिणमते, नस्तत्तदुपाधिद्रव्यसम्बन्धतस्तत्त दाकारमात्रभाजितया तत्तद्रूपतया इदं हि तिर्यग्मनुष्यानधिकृत्य वेदितव्यम्, एवं गौतमेन प्रश्ने कृते परिणमते तथैतान्यपि कृष्ण लेश्या योग्यानि स्वस्वरूप-मजहानान्येव भगवानाह-'हंता गोयमा!' इत्यादि, हन्तेत्यनुमतौ अनुमतमेतत् गौतम ! द्रव्याणि तत्तन्नीलादिले श्यायोग्यद्रव्यसम्पर्कतस्तत्तदाकारमात्राधारितया कृष्णलेश्या नीललेश्यां प्राप्येत्यादि, प्राग्वत् / इयमत्र भावना-यदा तत्तद्रूपतया परिणमन्ते इत्यनेनांशने, तिरश्चां मनुष्याणांचलेश्याद्रव्याणां कृष्णलेश्यापरिणतो जन्तुस्तिर्य ग्मनुष्यो वा भवान्तरसंक्रान्ति चिकीर्षु- सामस्त्येन तद्रूपतया परिणामाभ्युपगमात्, अन्यथा-नैरयिक देवसनीललेश्यायोग्यानि द्रव्याणि गृह्णाति तदा नीललेश्यायोग्यद्रव्यसम्पर्क- कलेश्याद्रव्याणामिव तिर्यग्यमनुष्याणामपि लेश्याद्रव्याणां सर्वथा तस्तानि कृष्णलेश्यायोग्यानि द्रव्याणि तथारुपजीवपरिणामलक्षणं स्वरुपापरित्यागेन चिरकालमवस्थान सम्भवात्, यत उत्कर्षतोऽप्येषामसहकारिकारणमासाय नीललेश्याद्रव्यरुपतया परिणमन्ते, पुद्रलानां न्तर्मुहुर्तलक्षणं स्थिति परिमाणमन्यत्रोक्तं तद्विरुध्येत, पल्योपमत्रयमपि तथा तथा परिणमनस्वभावत्वात्, ततः स केवलनील लेश्यायोग्य यावत् उत्कर्षतः स्थितिसंभवात्, तदेवं तदन्यलेश्यापञ्चक परिणाम द्रव्यसाचिव्यान्नीललेश्यापरिणतःसन् कालं कृत्वा भवान्तरे समुत्पद्यते। मधिकृत्य कृष्णलेश्याविषयं सूत्रमुक्तम्, एवं नीलादिलेश्या विषयाण्यपि उक्तं च - 'जल्लेसाई दवाई परियाइत्ता कालं करेइ तल्लेसे उक्वजइ' प्रत्येकं तदन्यलेश्यापञ्चकपरिणाममधिकृत्य पञ्च सूत्राणि वक्तव्यानि, इति, तथा स एव सिर्यग्मनुष्यो वा तस्मिन्नेव भवे वर्तमानो यदा कृष्ण तदेवं तिर्यङ्मनुष्याणां भवसंक्रान्तौ शेषकालं च लेश्याद्रव्यपरिणाम लेश्यापरिणतो भूत्वा नीललेश्याभावेन परिणमते तदापि कृष्णलेश्या उक्तः / देवनैरयिकसत्कानि तु लेश्याद्रव्याणि आभवक्षयमवस्थितानि योग्यानि द्रव्याणि तत्कालगृहीतनीललेश्यायोग्यद्रव्यसम्पर्कतो नील यत्तदन्यलेश्याद्रव्य सम्पर्कत आकारमात्र तदनौव वक्ष्यते। तत उक्तः परिणाम लक्षणाधिकारः। लेश्यायोग्यद्रव्यरुपतया परिणमन्ते, अमुमेवार्थ , दृष्टान्तेन,विभावयिषुः (E) अधुना वर्णाधिकारमाहप्रथमं प्रश्नसूत्रमाह- 'से केणतुणं भंते!' इत्यादि, सुगमम्। भगवानाह जीमूतनिद्धसंकासा, गवलरिट्ठगसंनिभा। गौतम ! 'से जहानामए खीरे इत्यादि, ततः लोकप्रसिद्धं यथानामकं गोक्षीरम् अजाक्षीरं महिषीक्षीर मित्यादिनामकं क्षीरम् 'दूसि' मिति खंजंजणनयणनिभा, किण्हलेसा उ वण्णओ|४|| नीलाऽसोगसंकासा, चासपिच्छसमप्पभा। देशीवचनादृष्यमेतत्, मथितंतनं प्राप्यान्योऽन्यावयवसंस्पर्शनाविभागं वेरुलियनिद्धसंकासा, नीललेसा उ वण्णओ।।५।। गत्वा यथा च शुद्धमलरहितं समले हि रागः सम्पद्यमानोऽपिन तथा रुपो अयसीपुप्फसंकासा, कोइलच्छदसंनिभा। लगतितत उक्तम्-शुद्ध वस्त्रं चेलम्, रज्यते अनेनेति रागः,'करणे घञ्' पारेवयगीवनिभा, काउलेसा उ वण्णओ॥६|| मञ्जिष्ठादिकं प्राप्य तद्रूपतया-मञ्जिष्ठादिरागद्रव्यस्वभावतया, एतदेव हिंगुलुयधाउसंकासा, तरुणाइचसंनिभा। व्याचष्टे-'तपूर्णतये' त्यादि, सुगमम्। तथा कृष्णलेश्यायोग्यानि द्रव्याणि सुयतुंडपईवनिभा, तेउलेसा उवण्णओ।।७।। नीललेश्यायोग्यानि द्रव्याणि प्राप्य तद्रूपतया परिणमन्ते / इयमत्र हरियालभेयसंकासा, हलिद्दाभेदसंनिभा। भावना-यथा क्षीरलक्षणकारणगता रुपादयस्तकरुपादिभावं प्रति सणासणकुसुमनिभा, पम्हलेसा उवण्णओ।||| पद्यन्ते, यथा वा शुद्धचस्त्रकारणता रुपादयो मञ्जिष्ठादिरागद्रव्यपादि संखंककुंदसंकासा, खीरधारसमप्पभा। भावं प्रतिपद्यन्ते तथा कृष्णलेश्यायोग्यद्रव्यरुपकारणगता रुपादयो रययहारसंकासा, सुक्कलेसा उवण्णओ।।६।। नीललेश्यायोग्यद्रव्यरुपादिभावं प्रतिपद्यन्ते, 'से तेणतुण' मित्याधुप 'जीमूयनिद्धसंकास' त्ति प्राकृतत्वाद स्निग्धश्चासौ स जलत्वेन संहारवाक्यं सुगमम्, एवं नीललेश्या कापोतलेश्यां प्राप्येत्यादीन्यपि जीमूतश्च मेघः स्निग्धजीमूतस्तद्वत्सम्यक् काशते वर्णतः प्रकशत इति चत्वारि सूत्राणि भावनीयानि, तदेवं पूर्वस्याः पूर्वस्या लेश्याया उत्तरा स्निग्धजीमूतसङ्काशा तत्सदृशीति यावत्, तथा गवलंमहिषशृङ्ग रिष्ठोमुत्तरां लेश्यां प्रतीत्य तद्रूपतया परिणमनमुक्तम् / इदानीमेक कस्याः द्रोणकाकः स एव रिष्ठकः, यद्वारिष्ठको नाम फलविशेषस्तत्संनिभा-- लेश्याया यथायोगंक्रमेण शेषसमस्तलेश्यापरिणमनमाह- 'से नूणं भंते ! तच्छाया, 'खंजण' त्ति खञ्जनं-स्नेहाभ्यक्तशकटाक्षधर्षणोद्भूतम्, कण्हलेसा नीललेस्सं काउलेस्स' मित्यादि, वाशब्दोऽत्र सर्वत्राप्यनुक्तो | अञ्जनं च-कज्जलं नयनं -लोचनम्, इह चोपचारत्तदेक देशस्तन्मद्रष्टव्यः, नीललेश्यां वा कापोतलेश्यां वा यावत् शुल्कलेश्यांवा, एकस्या ध्यवर्ती कृष्ण सारस्तन्निभातत्समा कृष्णलेश्या, तुः- विशेषणे स च लेश्यायाः परस्परविरुद्धतया युगपदने कलेश्यापरिणामासम्भवात्। | शेष लेश्याभ्यो वर्णकृतं विशेष द्योतयति / यद्वा-तुः-अवधारणे, शेषाक्षरगमनिका प्राग्वत् / अौवार्थे दृष्टान्तमभिधित्सुरिदमाह- ‘से | भिन्नक्रमश्च, ततः वर्णते एव-वर्णमेवाश्रित्यन तुरसादीन, एवमुत्तर --
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________________ लेसा 682 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लेसा त्रापि / नीलश्चासावशोकश्व-वृक्षविशेषो नीलाशोक स्तत्सङ्काशा, रत्काशोकव्यवच्छेदार्थ च नीलविशेषणम्, चासः- पक्षिविशेषस्तस्य पिच्छंपतत्त्रं तत्समप्रभातत्तुल्यधुतिः, स्निग्धोदीप्तो वैडूर्योमणिविशेषस्तत्सङ्गाशा तत्सदृशी पदविपर्ययः प्राग्वत्, नीललेश्या तुवर्णतो नीलेति तात्पर्यम् / अतसीधान्यविशेषस्तत्पुष्पसङ्काशा, कोकिलच्छदः-तैलकण्टकः, तथा च वृद्धसम्प्रदायः-"वण्णाहिगारे जो एल्थ कोइ-लच्छदो सो तैलकंटतो भण्णइ त्ति, क्वचित्तु पठ्यते च - 'कोइलच्छवि' त्ति, तत्रा कोकिलः-अन्यपुष्टस्तस्य छविस्तत्संनिभा, पारावतः-पक्षिविशेषस्तस्य ग्रीवाकन्धरा तन्निभाकपोतलेश्या तु वर्णतः, किञ्चित्कृष्णा किञ्चिच लोहितेति भावः, तथा च प्रज्ञापना-"काउलेसा काललोहितेण वण्णेणं साहिज्जइ''त्ति। हिड्डलकः-प्रतीतो धातुः-पाषाणधात्वादिस्तस्सङ्काशा, तरुण इहाभिनवोदितः आदित्यः- सूर्यस्तत्सन्निआ, शुक:-प्रसिद्धस्तस्य तुण्डंमुखंशुकतुण्डतच्च प्रदीपश्च तन्निभावा,पठन्ति च - 'सुयतुंडा लत्तदीवाभा' अन्ये तु 'सुयंतुडग्ग-संकासा' द्वयमपि स्पष्टम, तेजोलेश्या तु वर्णतो रक्तेति भावार्थः / हरितालोधातुविशेष स्तस्य भेदो द्विधाभावस्तत्सङ्काशा, भिन्नस्य हि वर्णप्रकर्षों भवतीति भेदग्रहणम्, हरिद्रह पिण्डहरिद्रा तस्या भेदस्तत्संनिभा, सणो धान्यविशेषः असनो-बीयकस्तयोः कुसुमं तन्निभा, पद्मलेश्या तुवर्णतः पीतेति गर्भार्थः। शङ्खाः- प्रतीतः, अङ्कोमणिविशेषः कुन्दः-कुन्दकुसुमं तत्सड्राशा, क्षीरं-दुग्धं तूलकं-तूलं पाठान्तरतः पूरोवा-क्षीरप्रवाहः, अन्ये तु 'धारि' त्ति पठन्ति तद्ग्रहणंतु भाजनस्थस्य हि तशादन्यथात्वमपि संभक्तीति तत्समप्रभा, रजतरुप्यं हारोमुक्ताकलापस्तत्सङ्काशा शुल्कलेश्या तु वर्णतः शुल्केति हृदयमिति सूत्रषट्कार्थ। उत्त०३४ अ०। (10) विशेषतो वर्णाधिकार :कण्हलेसा णं भंते ! वन्नेणं केरिसिया पन्नत्ता ?, गोयमा ! से | जहानामए जीमूते इ वा अंजणे इ वा खंजणे इ वा कज्जले इवा गवले इ वा गवलए इवा जंबूफले इ वा अद्दारिद्वपुप्फे इ वा पुरपुढेइवा भामरे इवा भमरावली इवा गयकलमे इवा किण्हकेसरे इवा आगासथिग्गले इवा किण्हासोए इवा कण्ह कणवीरए इवा कण्हबंधुजीवए इवा, भवे एतारुवे ?, गोयमा ! णो इणढे समढे, कण्हलेस्सा णं इत्तो अणिट्ठयरिया चेव अकंतयरिया चेव अप्पियतरिया चेव अमणुनतरिया चेव अमणामतरिया चेव वनेणं पन्नत्ता / नीललेस्सा णं भंते ! केरिसिया वन्नेणं पन्नत्ता ?, गोयमा ! से जहानामए भिंगए इ वा भिंगपत्ते इ वा चासे इ वा चासपिच्छए इवा सुए इवा सुयपिच्छे इवा सामाइ वा वणराइ इवाउचंतए इवा पारेवयगीवाइवा मोरगीवा इ वा हलहरवसणे इ वा अपसिकुसुमे इ वा वणकुसुमे इ वा अंजणकेसियाकुसुमे इवा नीलुप्पले इवानीलासोए इवा नीलकणवीरए इचा नीलबंधुजीवे इवा, भवेयारुवे ?,गोयमा ! णो इणढे समठे, एत्तो० जाव अमणामयरिया चेव वन्नेणं पन्नत्ता। काउलेस्सा णं भंते ! केरिसिया वन्नेणं पन्नत्ता ?, गोयमा ! से जहानामए खदिरसारए इ वा कइरसारए इवा धमाससारए इ वा धमाससारए इ वा तंबे इवा तंबकरोडे इवा तेवच्छिवाडियाए इ वा वाइंगणिकुसुमे इ वा कोइलच्छदकुसुमे इ वा जवासाकुसुमे इ वा, भवेयारुवे ?, गोयमा ! णो इणढे समढे, काउलेस्सा णं एत्तो अणिट्ठयरिया चेव० जाव अमणामयरिया चेव / तेउलेस्सा णं भंते ! केरिसिया वनेणं पन्नता ?, गोयमा ! से जहानामए ससरुहिरए इवा उरभरुहिरे इवा वराहरुहिरे इवा संवररुहिरे इवा मणुस्सरुहिरे इवा इंदगोपेइ वा वालेंदगोपे इ वा वालदिवायरे इ वा संझारागे इ वा गुंजद्धरागे इ वा जातिहिंगुले इ वा पवालंकुरे इ वा लक्खारसे इ वा लोहितक्खमणी इवा किमिरागकंबले इ वा गयतालुए इ वा चीणपिट्ठरासी इ वा परिजायकुसुमे इ वा जासुमणकुसुमे इ वा किंसुयपुप्फरासी इ वा रत्तुप्पले इवा रत्तासोगे इवा रत्तकणवीरए इवा रत्तबंधुय जीविए इवा, भवेयारुवे ?, गोयमा ! णो इणढे समढे / तेउलेसा णं एत्तो इद्वतरिया चेव० जाव मणामतरिया चेव वन्नेणं पन्नत्ता। पम्हलेसा णं भंते ! केरिसिया वन्नेणं पन्नत्ता ?, गोयमा ! से जहानामए चंपे इवा चंपयछल्ली इ वा चंपयभेदे इ वा हालिहा इ वा हालिद्दगुलिया इ वा हालिबभेदे इ वा हरियाले इ वा हरियालगुलिया इ वा हरियालभेदे इ वा चिउरे इ वा चिउररागे इवा सुवन्नसिप्पि इवा वरकणगणिहसे इ वा वरपुरिसवसणे इ वा अल्लइकुसुमे इ वा चंपयकुसुमे इ वा कण्णियारकुसुमे इ वा कुहंडयकुसुमे इ वा सुवण्णजुहिया इवा सुहिरनियाकुसुमे इवा कोरिंटमल्लदामे इवा पीतासोगे इ वा पीतकणवीरे इवा पीतबंधुजीवए इवा, भवेयारुवे ?, गोयमा ! णो इणढे समढे, पम्हलेस्सा णं एत्तो इद्वतरिया० जाव मणामयरिया चेव वनेणं पन्नत्ता / सुकलेस्सा णं भंते ! केरिसिया वन्नेणं पन्नत्ता ?, गोयमा ! से जहानामए अंके इवा संखे इवा चंदे इ वा कुंदे इ वा दगे इ वा दगरए इ वा दधी इ वा दहिवणे इ वा खीरे इ वा खीरपूरए इ वा सुकच्छिवाडिया इ वा पेहुणमिंजिया इ वा धंतधोयरुप्पपट्टे इ वा सारदबलाहए इ वा कुमुददले इ वा पोंडरीयदले इ वा सालिपिट्ठरासीति वा कुडगमुप्फरासीति
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________________ लेसा 683 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लेसा वा सिंदुवारमल्लदामे इ वा सेयाऽसोए इवा सेयकणवीरे इवा | सेतबंधुजीवए इवा, भवेयारवे?, गोयमा ! नो इणढे समढे, सुक्कलेसा णं एत्तो इद्वतरिया चेव मणुण्णयरिया चेव वन्नेणं पन्नत्ता। (सू०२२६) 'कण्हलेस्सा णं भंते ! वण्णेणं केरिसिया पन्नत्ता' इत्यादि, कृष्णद्रव्यात्मिका लेश्या कृष्णलेश्या, कृष्णलेश्यायोग्यानि द्रव्याणि इत्यर्थः, तेषामेव वर्णादिसम्भवात् न तु कृष्णद्रव्यजनिता भावरुपा कृष्णलेश्या, तस्या वर्णाद्ययोगात्, भदन्त ! कीदृशी वर्णेन प्रज्ञप्ता ?, भगवानाहगौतम् ! स लोक प्रसिद्धो यथानामको-जीमूत इति वा-जीमूतोबलाहकः, सचेह प्रावृट् प्रारम्भसमयभावी जलभृतो वेदितव्यः, तस्यैव प्रायोऽतिकालिमसम्भवात्, इति शब्द उपमानभूतवस्तुनाम परिसमाप्तिद्योतकः, वाशब्द उपमानान्तरापेक्षया समुच्चये, एवं सर्वत्रा इतिवाशब्दौ, द्रष्टव्यौ, अञ्जनम्-सौवीराञ्जनम्-रत्न विशेषो वा खञ्जनम्-दीपमल्लिकामलः स्नेहाभ्यत्कशकटाक्ष घर्षणोद्भवमित्यपरे कज्जलम्-- प्रतीतम् गवलम्-माहिषं शृङ्गं तदपिच उपरितनत्वभागापसारणे द्रष्टव्यम्, तत्रैव विशिष्टस्य कालिम्नः सम्भवात्, जम्बूफलं प्रतीतम्, अरिष्टकं फलविशेषः परपुष्टः-कोकिलः भ्रमरः-चञ्चरिकः भ्रमरावलिः-भ्रमरपङ् क्ति गजकलभः करिपोतः कृष्णकेशरः-कृष्णबकुलः आकाशथिग्गलंशरदि मेघापान्त्यालवाकाशखण्डम्, तदपि हि अतीव कृष्ण प्रतिभाति इत्युक्तम्, कृष्णाशोककृष्णकणवीर कृष्णबन्धुजीवाः-अशोककणवीर बन्धुजीवाः वृक्षविशेषाः, अशोकादयो हि जातिभेदेन पञ्चवर्णा भवन्ति ततः शेषवर्ण व्युदासार्थं कृष्णग्रहणम्, एतावत्युक्ते गौतम आह - 'भवे एयारुवा ?' भगवन् ! भवेत् कृष्णलेश्या वर्णेन एतद्रूपा ?, भगवानाह-- गौतम ! नायमर्थः समर्थः-नायमर्थ उपपन्नः, एतद्रूपा कृष्णलेश्येति, किन्तु ?, सा कृष्णलेश्या इतो जीमूतादेः कृष्णेन वर्णेन अनिष्टतरिका चैव इयमनिष्टा 2 इयमनयोर्मध्येऽतिशयेनानिष्टा अनिष्टतरा अनिष्टतरैवानिष्टता रिका अनीप्सिततरिका एवेति भावः / इह किञ्चिदनिष्टमपि स्वरुपतः कान्तं भवति ततः कान्तताव्युदासार्थमाह-अकान्ततरिकैवः, किञ्चित्केषाञ्चिदनिष्टमपि स्वरुपतोऽकान्तमपि अपरेषां प्रियं भवति ततः सर्वथा प्रियताव्युदासार्थमाहा-अप्रियतारिकैव, अत एवामनोज्ञतरिकैव, वस्तुतः सम्यक्परिज्ञाने सति मनागप्युपादेयतया तत्रा मनसः प्रवृत्यसंभवात्, अमनोज्ञतरमपि किञ्चिन्मध्यमं भवति ततः प्रकृष्टतर-- प्रकर्ष विशेषप्रतिपादनार्थमाह-अमनआपतरिकैव, मनांसि आप्नोति-- आत्मवशतां नयतीति भनआपा न मनआपा अमन आपा, ततो द्वयोः प्रकर्षे तरप एवं भूता वर्णेन प्रज्ञप्ता। 'नीललेसा णं भंते !' इत्यादि, अक्षरगमनिका प्राग्वत्, नवरं भृङ्गः पक्षिविशेषः पक्ष्मलः भृङ्गपत्रं-तस्यैव पक्षिविशेषस्य पक्ष्म, चासः-पक्षिविशेषः 'चासपिच्छं' चासस्य पतत्त्रां | शुकः-कीरः 'शुकपिच्छं' शुकस्य पतलं श्यामाप्रियङ्गुः वनराजी-- प्रतीता उच्चन्तको दन्तरागः, आह चमूलटीकाकार:-'उचेतगो दन्तरागो भन्नइ पारावतग्रीवा मयूरग्रीवा च सुप्रतीता, हलधरो-बलदेवः तस्य वसनं-वस्त्रां हलधरवसनम्, तद्धि नीलं भवतीत्युपात्तम्, अतसीकुसुम वणवृक्षकुसुमं च प्रतीतम्, अञ्जनकेसिकावनस्पतिविशेषः तस्याः कुसुमम् अञ्जनकेसिकाकुसुमं नीलोत्पलम्-कुवलयं नीलाशोकनीलकणवीरनीलबन्धुजीवा--अशोकादिवृक्षविशेषाः 'काउलेस्सा णं भंते !' इत्यादि, अत्राप्यक्षरगमनिका प्राग्वत्, खदिरसारो धमासासाश्चलोकप्रतीतः 'तंबे इ वा तंबकरोडए इवा तबछेवाडिया इवा' इति सम्प्रदायादवसेयम्, वृन्ताकीकुसुमं प्रतीतं 'कोइलच्छदकुसुमए इवा' इतिकोकिलच्छदः-तैलकण्टकः, तथा च मूलटीकाकृत- 'वन्नाहिगारे जो एत्थ कोइलच्छदो सो तिलकंटओ भन्नइ' इति, तस्य कुसुमं प्रतीतम् 'तेउलेस्सा णं भंते !' इत्यादि, शशकोर भ्रवराहमनुष्यरुधिराणि शेषरुधिरेन्यो लोहितवर्णोत्कटानि भवन्ति तत एतेषामुपादनम्, बालेन्द्र गोपकः- सद्यो जात इन्द्रगोपकः, स हि प्रवृद्धः सन् ईषत् पाण्डुरक्तो भवति ततोबालग्रहणम्, इन्द्रगोपकः प्रावृटप्रथमसमयभावी कीटविशेषः, बालदिवाकरः--प्रथममुद्गच्छन् सूर्यः, गुञ्जा-लोकप्रतीता तस्या अर्धरागो गुजार्धरागः, गुञ्जाया हि अर्धमतिरत्कं भवति अर्ध चाति कृष्णमिति अर्धग्रहणम्, जात्यः- प्रधानो हिड्डलको जात्य हिड्डुलकः प्रवालः-शिलादलं तस्याड्डरः प्रवालाङ्कर, स हि प्रथममुद्रच्छन् अत्यन्तरक्तो भवति ततस्तदुपादानम्, लाक्षारसः-प्रतीतः, लोहिताक्षमणिः-लोहिताक्षनामा रत्न विशेषः कृमिरागेण रक्तः कम्बलः कृमिरागकम्बलः, शाकपार्थिवादिदर्शनान्मध्यमपदलोपी, समासः, गजतालुचीन पिष्टराशिपारिजातकुसुमजपाकुसुमकिंशुकपुष्पराशिरत्कोत्पल रत्काशोकरक्तकणवीररक्तबन्धुजीवा लोकप्रतीताः 'भवे एयारुवा' इति पदयोजना प्राग्वत्, भगवानाह-गौतम! णो इण समढे' यतस्तेजोलेश्या इतः-शशकरुधिरादिभ्यो लोहितेन वर्णेनेष्टतरिकैव, ता किञ्चिदकान्तमपि केषांचि दिष्टतरं भवति ततः कान्ततरताप्रतिपादनार्थमाह-कान्ततरि कैव, केषाञ्चिदिष्टतरमपि स्वरुपतः कान्ततरमप्यपरेषामप्रियं भवति ततः प्रियतरताप्रतित्यर्थमाह-प्रियतरिकैव, अत एव मनोज्ञतरिका, मनोज्ञतरमपि किञ्चिन्मध्यमं संभवेदतः प्रकृष्ट तरप्रकर्षविशेषप्रतिपादनार्थमाह-मनआपतरिकैव वर्णेन प्रज्ञप्ता। पम्हलेस्सा णं भंते !' इत्यादि, अक्षरगमनिका प्राग्वत्, नवरं चम्पक:- सामान्यतः सुवर्णचम्पकोवृक्षविशेषः 'चम्पकछल्ली इ वा' इति सुवर्णचम्पकत्वक् 'चम्पकभेए इ वा' इति सुवर्णचम्पकस्य भेदो द्विधाभावः, भिन्नस्य हि वर्णप्रकर्षो भवति ततो भेदग्रहणम्, हरिद्रा इह पिण्डहरिद्रा हरिद्रागुटिकाहरिद्रानिवर्तिता गुटिका हरिद्राभेदोहरिद्राया द्वैधीभावः हरितालोधातुविशेषः हरितालगुटिकाहरितालमयी गुटिका हरितालभेदोहरिताल-च्छेदः चिकुरः-पीतद्रव्यविशेषः चिकुररागः-तन्निष्पादितो वस्त्रादौरागः 'सुवन्नसिप्पी इवा' इति सुवर्णमयीशुक्तिका, वरम्-प्रधानंयत्कनकंतस्य निकषःकषपट्टकेरेखारुपः वरकनकनिकषः वरपुरुष:-वासुदेवस्तस्यवसनंवस्त्रां वरपुरुषवसनं तद्धि पीतं भवतीत्युपात्तम, अल्लकीकुसुमं लोकतो-ऽवसेयं चम्पककुसुम-सुवर्णचम्पकवृक्षपुष्पम् कन्नियारकुसुमेइवा इतिकाञ्चनार
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________________ लेसा 684 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लेसा ककुसुमं कृष्माण्डिकाकुसुमं-पुष्पा (पुंस्फ)लिकापुष्पं सुवर्ण यूथिकाकुसुमं प्रतीतं सुहिरण्यिकावनस्पतिविशेषस्तस्याः कुसुमं कोरण्टकमाल्यदामपीताशोकपीतकणवीरपीतबन्धुजीवाः प्रतीताः। 'सुक्कलेसा णं भंते' इत्यादि, अत्राप्यक्षरगमनिका प्राग्वत्, नवरमङ्कोरत्नविशेषः | शङ्खचन्द्रौ प्रतीतौ कुन्दं-कुसुमंदकम् उदकं उदकरजः-उदककणाः, ते हि अतिशुभ्रा भवन्तीत्युपात्ताः, दधि-प्रतीतं दधिधनो दधिपिण्डः क्षीरं-प्रतीतं क्षीरपूर-कथ्यमानम् अतिता पादूर्ध्व गच्छत् क्षीरम्, 'सुक्कच्छिवाडिया इवा' इति छिवाडिः-वल्लादिफलिका सा च शुष्का सती किलातीवशुल्का भवतीत्युपात्ता पेहुणमिजियाइवा' इति पेहुणंमयूरपिच्छं तन्मध्यवर्तिनी मिञ्जा पिहुणमिञ्जा सा चातीव शुल्केत्य भिहिता 'धंतधोयरुप्पपट्टे इवा' इतिष्मातः अग्निसम्पर्कतो निर्मलीकृतः धौतो भूतिखरण्टितहस्तसम्भार्जनेनातिनिशिती कृतो योरुप्यमयः पट्टः सध्मातधौतरुप्यपट्टः, सारइयबलाहगेइवा' इति शारदिकः--शरत्कालभावी बलाहकः पुण्डरीकम्-सिताम्बुजं तस्य दलं पत्रं पुण्डरकदलं शालिपिष्टराशिकुटज पुष्पराशिसिन्दुवारमाल्यदामश्वेताशोकश्वेतकणवीरश्वेतबन्धुजीवाः प्रतीताः। प्रज्ञा० 17 पद। (11) कृष्णादिलेश्याकनारकाणां स्थित्याऽल्पमहत्वम् --- सियं भंते ! कण्हलेसे नेरइए अप्पकम्मतराए नीललेसे नेरइए / महाकम्मतराए ?,हंता सिया, से केणटेण एवं वुचइ-कण्हलेसे नेरइए अप्पकम्मतराए नीललेसे नेरइए महाकम्मतराए ?, गोयमा! ठितिं पडुच, से तेणटेणं गोयमा! जाव महाकम्मतराए। सिय भंते ! नीललेसे नेरइए अप्पकम्म तराए काउलेसे नेरइए महाकम्मतराए ?, हंता सिया, से केणटेणं भंते ! एवं दुचति-नीललेसे नेरइए अप्पकम्मतराए काउलेसे नेरइए महाकम्मतराए?, गोयमा ! ठितिं पडच / से तेण?णं गोयमा! जाव महाकम्मतराए / एवं असुरकुमारे वि, नवरं तेउलेसा अब्भहिया एवं जाव वेमाणिया, जस्स जत्तिया लेसाओ तस्स तत्तिया माणियव्वाओजोइसियस्सन भन्नइ,जाव सिय भंते ! पम्हलेंसे वेमाणिए अप्पकम्मतराए सुकलेसे वेमाणिए महाकम्मतराए?,हंता सिया से केण?णं० सेसं जहानेरइयस्स जाव महाकम्मतराए। (सू०२७८) 'सिय भंते ! कण्हलेसे नेरइए' इत्यादि, 'ठिंति पडुच' त्ति, अोयं भावना-सप्तमपृथिवीनारकः कृष्णलेश्यस्तस्य च स्वस्थितौ बहुक्षपितायां तच्छेषे वर्तमानेपञ्चमपृथिव्यां सप्त दशसागरोपमस्थिति रको नीललेश्यः समुत्पन्नः, तमपेक्ष्य स कृष्णलेश्योऽल्पकर्मा व्यपदिश्यते, एवमुत्तरसूत्राण्यपि भावनीयानि। 'जोइसियस्स न भन्नइ'त्ति एकस्या एव तेजो लेश्यायास्तस्य सद्भावात् संयोगो नास्तीति। भ०७श०३ उ०। (12) इह वर्णाः पञ्च भवन्ति, तद्यथा-कृष्णो नीलो लोहितो हारिद्रः शुल्कश्च, लेश्याश्य षट्, तत उपमानतो वर्णनिदेर्श कृतेऽपि संशयः का लेश्या कस्मिन्वर्णे भवति?, ततः पृच्छतिएयाओ णं भंते ! छल्लेसाओ कइसु वन्नेसु साहिलं ति ?, गोयमा! पंचसु बन्नेसु साहिज्जंति, तं जहा-कण्हलेसा कालए ण वनेणं साहिज्जति, नीललेस्सा नीलवनेणं साहिति, काउलेस्सा काललोहिएणं वन्नेणं साहिञ्जति, तेउलेस्सा लोहिएणं वन्नेणं साहिति, पम्हलेस्सा हालिबएणं वनेणं साहिलइ सुकलेस्सा सुक्किल्लएणं वन्नेणं साहिज्जति। (सू० 226) 'एयाओणं भंते!' इत्यादि, एता अनन्तरोदिता भदन्त ! षड् लेश्याः 'कइसु वन्नेसु' त्ति प्राकृतत्वात् तृतीयार्थे सप्तमी यथा- 'तिसु तेसु अलंकिया पुढवी' (त्रिभिस्तैरलंकृता पृथ्वी) इत्यत्रा, ततोऽयमर्थःकतिभिर्वणे : 'साहिज्जंति' कथ्यन्ते प्ररुप्यन्ते इति यावत्, भगवानाहगौतम् ! पंचसु वन्नेसु' इति पञ्चभिर्वणैः शिष्यन्ते यथा शिष्यन्ते तथा तद्यथा इत्यादिना दर्शयति। उक्तो वर्णपरिणाम्। (13) सम्प्रति रसपरिणाममभिधित्सुराहकण्हलेस्सा णं भंते ! केरिसिया आसाएणं पन्नत्ता?,गोयमा ! से जहानामए निवेइवा निंबसारे इ वा निंबछल्लीइवा निंबफाणिए इ वा कुडए इ वा कुडगफलए इ वा कुडग छल्ली इ वा कुडगफाणिए इवा कडुगतुंबीइवा कडुगतुंबिफले इवाखारतउसी इवा खारतउसीफले इवा देवदालीति वा देवदाली पुप्फे इवा मिगवालुकी इवा मियबालुंकी फले इ वा घोसाडिए इवा घोसाडिफले इवा कण्ह कंदए इवा वज्जकंदए इवा, भवेयारुवे ?, गोयमा ! णो इणढे समढे, कण्हलेसा णं एत्तो अणितरिया चेव० जाव अमणामयरिया चेव आसाएणं पन्नता, नीललेसाए पुच्छा, गोयमा! से जहानामए भंगीति वा भंगीरए इवा पाढाइ वा (चवियाइवा) चित्तामूलए इवा पिप्पलीइवा पिप्पलीमूलए इवा पिप्पलीचुण्णे इ वा मिरिए इवा मिरियचुण्णए इवा सिंगबेरे इवा सिंगबेरचुण्णे इवा, भवेयारुवे?, गोयमा !णे इणठे समढे, नीललेस्सा णं एत्तो० जाव अमणामतरिया चेव आसाएणं पन्नत्ता, काउलेस्साए पुच्छा, गोयमा! से जहानामए अंवाण वाअंबाडगाण वामा उलिंगाण वा विल्लाण वा कविठ्ठाण वा अक्खोड-याण वा बोराण वा तिंदुयाण वा अपकाणं अपरिवागाणं वनेणं अणुववेयाणं गंधेणं अणुववेयाणं फासेणं अणुववेयाणं, भवेया रुवे ?,गोयमा! णो इणटे समढे 0 जाव एत्तो अमणामयरिया चेव काउलेस्सा अस्साएणं पन्नत्ता। तेउलेस्सा णं पुच्छा, गोयमा ! से जहानामए अंबाणवा पक्काणं परियावन्नेणं उववेयाणं पसत्थेण जावफासेणं
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________________ लेसा 685 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लेसा जाव एत्तो मणामयरिया चेव तेउलेस्सा आसाएणं पन्नत्ता। पम्हलेस्साए पुच्छा, गोयमा ! से जहानामए चंदप्पमा इ वा मणसिला इ वा वरसीधू इ वा वरवारुणी इ वा पत्तासवे इवा पुप्फासवे इवा फलासवे इवा चोयासवे इवा आसवे इवामहू वा मेरए इ वा कविसाणाए इवा खजूरसारए इ वा मुद्दियासारए | इवा सुपक्कखोतरसे इवा अट्ठपिट्ठणिट्ठिया इवाजंबुफलकालि याइवा वरप्पसन्नाइवा (आसला) मंसला पेसला ईसिं ओट्ठ वलंबिणी ईसिंवोच्छेदकडुई ईसिं तंबच्छिकरणी उक्कोसमदपत्ता वनेणं उववेया० जाव फासेणं आसायणिज्जा वीसायणिज्जा पीण णिज्जा विहणिज्जा दीवणिजा दप्पणिज्जा मदणिज्जा सर्वेदियगाय पल्हायणिज्जा, भवेयारुवा !, गोयमा! णो इणढे समढे पम्हलेसा एत्तो इट्ठतरिया चेव जाव मणामयरिया चेव आसाएणं पन्नता। सुकलेसाणं भंते ! केरिसिया आसाएणं पन्नत्ता?,गोयमा ! से जहानामए गुले इवा खंडे इ वा सक्करा इ वा मच्छंडिया इवा पप्पडमोदए इवा मिसकंदए इ वा पुप्फुत्तरा इ वा पउमुत्तरा इ वा आदंसिया इवा सिद्धत्थियाइ वा आगासफालितोवमा इवा उवमा इ वा अणोवमा इवा, भवेतारुवे ?,गोयमा ! णो इणडे समडे, सुक्कलेस्सा एत्तो इतरिया चेव पियतरिया चेव मणाम यरिया चेव आसाएणं पन्नत्ता। (सू० 227) 'कण्हलेसा णं भंते! ' इत्यादि, प्रश्नसूत्रसुगमम्, भगवानाह- गौतम ! स लोकप्रतीतो यथानामको निम्बो-वृक्ष विशेषः निम्बासारो-निम्बमध्यवर्त्यवयवविशेषः, निम्बच्छल्ली - निम्बत्वक् निम्बफाणितम्निम्बक्काथः कुटजो-वृक्षविशेषः तस्यैव फलं कुटजफलं तस्यैव त्वक् कुटजछल्ली तस्यैव काथं-कुटजफाणितं कटुकतुम्बी प्रसिद्धा तस्या एवं फलं कटुकतुम्बीफलम्, 'खारतउसी' ति खारशब्दः कटुकयाची तथाऽऽगमे अनेकधा प्रसिद्धः, ततः कटुका पुषीं क्षारत्रपुषी तस्या एव फलं शास्त्रापुषीफलं देवदालीरोहिणी तस्या एव पुष्पं देवदालीपुष्पं मृगवालुङ्गी लोकतोऽवसेया तस्या एव फलं मृग वालुङ्गीफलं घोषातकी प्रसिद्धा तस्या एव फलं घोषातकीफलं कृष्णकन्दोवज्रकन्दश्चानन्तकायवनस्पतिविशेषौ लोकतः प्रत्येतव्यौ, एतावति उत्के गौतमः पृच्छति / भगवन् ! भवेत् सतः कृष्णलेश्या एतद्रूपा-निम्बादिरुपा?, भगवानाह-- गौतम् ! नायमर्थः समर्थः, यतः कृष्णलेश्या इतो-निम्बादिरसमधि कृत्यानिष्टतरिकैवेत्यादि प्राग्वत् / 'नीललेसाए' इत्यादि, भङ्गी वनस्पतिविशेषः तस्या एव रजो भगीरजः पाठा-चित्रमूलके लोकप्रतीते पिप्पलीपिप्पलीमूलपिप्पलीचूर्णमरिचमरिचचूर्ण शृङ्ग बेरशृङ्गबेरचूर्णान्यपि प्रसिद्धानि। काउलेस्साए' इत्यादि, आम्राणां फलानामेवं सर्वत्रापि भावनीयम् 'अंबाउयाण वा' इति आम्राटकाः- फलविशेषाः मातुलिङ्ग बिल्वबपित्थपनसदाडिमानि प्रतीतानि पारावताः- फलविशेषाः अक्षोडवृक्षफलानि अक्षोडानि बोरवृक्षफलानि बोराणि बदराणि तिन्दुकानि च प्रतीतानि, एतेषां फलानामपकानाम्, तत्रा सर्वथाऽपि अपकं फलमुच्यते तत आह अपरिपाकानां न विद्यते परिपाकः-परिपूर्णः पाको येषां तान्य परिपाकानि तेषामीषत्मपक्कानामित्यर्थः, एतदेव वर्णादिभिः कथयति-वर्णेनातिविशिष्टन गन्धेन घ्राणेन्द्रियनिर्वृत्तियकरण स्पर्शन विशिष्टपरिपाकविनाभाविना अनुपपेतानाम्-असम्प्राप्तानां यादृशो रसः, अत्र गौतमः पृच्छति- एतद्रूपा एवंरुपरसोपेता भवेत् कापोतलेश्या ?, भगवानाह-गौतम ! नायमर्थः समर्थः विं तु इत:अपरिपक्कामफलादेरनिष्टतरिकै वेत्यादिप्राग्वत्॥ 'तेउलेस्साणं भंते!' इत्यादि, तेषामेव आम्रफलादीनां पक्कानां तोषद्यत् किमपि पक्कं लोके पक्कं व्यवहियते तत आह-पर्यायापन्नानां-परिपूर्णपाकपर्याय प्राप्तानाम्, एतदेव वर्णादिभिर्निरुपयति-वर्णेन प्रशस्तेन-एकान्ततः प्रशस्येन तथा प्रशस्तेन गन्धेन प्रशस्तेन स्पर्शनोपेतानां यादृगरसः, एतावत्युक्ते गौतम आह-रसमधि कृत्य एतद्रूपा-पक्काम्रादिफलरुपा तेजोलेश्या भवेत ?, भगवानाह-नायमर्थः समर्थः किंतु-परिपक्कामफलादेरिष्टतरिकैवेत्यादि प्राग्वत् ‘पम्हलेसाए पुच्छा' सूत्रापाठोऽक्षरगमनिका च प्राग्वत्, नवरं 'से जहानामए' इति सा लोकप्रसिद्धा यथा-येन प्रकारेण नाम यस्याः सा यथानामिका पुंस्त्वं सूत्रो प्राकृत लक्षणवशात, प्राकृते हि लिङ्गमनियतं, यदाह पाणिनिः स्वप्राकृत लक्षणे- 'लिङ्गं व्यभिचार्यपी ति 'चन्द्रप्रभा इतिवे' हृत चन्द्रस्येव प्रभा-आकारो यस्याः सा चन्द्रप्रभा, मणिशिलाकेव मणिशिलाका वरं च तत् सीधु च वरसीधु वरा चासौ वारुणी च वर वारुणी पलौः-धातकीपौर्निष्पाद्य आसवः पत्राऽऽसवः एवं पुष्पासवः, फलासवश्च परिभावनीयःचोयोगन्धद्रव्यं तन्निष्पाद्य आसवः चोयासवः, पत्रादिविशेषेण व्यतिरिक्त आसव आसव इति गीयते, मधुमेर ककापिशायनानि मद्यविशेषाः, मूलदलखर्जूरसारनिष्पन्न आसवः खजूरसारः, मृद्वीकाद्राक्षा तत्सारनिष्पन्नो मृद्वीकासारः सुपक्केक्षुरसमूलदलनिष्पन्नः-सुपक्केक्षुरस अष्टभिः शास्त्राप्रसिद्धः पिष्टः निष्ठिता अष्टपिष्टनिष्ठिता जम्बूफलवत् कालेव कालिका जम्बूफलकालिका वरा चासौ प्रसन्नाचवरप्रसन्ना, एते सर्वेऽपि मद्यविशेषाः पूर्वकाले लोकप्रसिद्धा इदानीमपि शास्त्रान्तरतो लोकतो वायथास्वरुपं वेदितव्याः, वरप्रसन्नाविशेषणान्याह-मांसला-उपचितरसा पेशला-मनोज्ञा मनोज्ञत्वादेव ईषत्-मनाक् ततः परम्परमास्वादतया झटित्येवाग्रतो गच्छति ओष्ठे ऽवलम्बतेलगतीत्येवंशीलाईष दोष्ठावलम्बिनीतथा ईषत्-मनाक्पानव्यवच्छेदेसतिततऊर्ध्वं कटुकएलादिद्रव्यसम्पर्कतः उपलक्ष्य-माणतित्कवीर्येति यावत् तथा ईषत्-मनाक्ताने अक्षिणी क्रियेते अनयेति ईषात्ताम्राक्षिकरणी मद्यस्य प्रायः सर्वस्यापि तथास्वभावत्वात् ‘उक्कोस-मयपत्ता' इति उत्कर्षतीति उत्कर्षः स चासौ मदश्च उत्कर्षमदः तं प्राप्ता उत्कर्षमदप्राप्ता, एतदेव वर्णादिभिः समर्थयतेवर्णेनोत्कृष्टमदाविनाभाविना प्रशस्येन गन्धेन घ्राणेन्द्रियनिर्वृत्तिकरणे रसेन परमसुखासिकाजनकेन स्पर्शेन मद
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________________ लेसा 686 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लेसा परिपाकाव्यभिचारिणा अत एवास्वादनीया विशेषतः स्वादनीया विस्वादनीया प्रीणयतीति प्रीणनीया "कृद् बहुल'' मिति वचनात् कर्तर्यनीयप्रत्ययः, एवं दर्पयतीति दर्पणीया मदयतीति मदनीया सर्वाणीन्द्रियाणि सर्वं च गात्रं प्रहादयति इति सर्वेन्द्रियगात्राप्रह्लादनीया एतावत्युक्ते भगवान् गौतम आह- "भवेयारुवा' भगवन् ! एतद्रूपाएवरुपरसोपेता पद्मलेश्या भवेत्। भगवानाह-'नो इणढे समढे' इत्यादि प्राग्वत् / / 'सुक्कलेस्सा णं भंते !' इत्यादि, गुडखण्डे प्रसिद्ध शर्करा-- काशादिप्रभवा मत्स्यण्डी-खण्डशर्करा पर्पटमोदकादयः सम्प्रदायादव सेयाः, शेषंसुगमम्।तदेवमुक्तो लेश्याद्रव्याणां रसः। प्रज्ञा० १७पद 4 उ०। सम्प्रति प्रकारान्तरेण रसमाह -- जह कडुय (य) तुंबरसो, निंबरसो कडुयराहिणिरसो वा। इत्तो वि अणंतगुणो, रसो उ कण्हाइ नायव्यो |10|| जह तिकडुयस्स य रसो, तिक्खो जह हस्थिपिप्पलीए वा। इत्तो वि अणंतगुणो, रसो उनीलाइ नायव्वो // 11 // जह तरुणअंबयरसो, तुवरकवित्थस्स वावि जारिसओ। इत्तो वि अणंतगुणो, रसो उ काऊइ णायव्वो // 13|| जह परिणयंबगरसो, पक्ककवित्थस्स वावि जारिसओ। इत्तो वि अणंतगुणो, रसो उ तेऊइ नायव्वो // 13|| वरवारुणीइ व रसो, विविहाणं व आसवाण जारिसओ। महुमेरगस्स व रसो, इत्तो पम्हाइ परएणं // 14 // खजूमुद्दियरसो,खीररसो खंडसकररसो वा। इत्तो उ अणंतगुणो, रसो उ सुकाइ नायव्वो // 15 // 'यथे ति सादृश्ये ततश्च यादृक् कटुकतुम्बकस्य रसः-आस्वादः कटुकतुम्बकरसः निम्बरसः-प्रतीतः कटुका चासौ रोहिणीच त्वग्विशेषः कटुकरोहिणी कटुकत्वाव्यभिचारित्वेऽपि तद्विशेषणमतिशयख्यापकं तद्रसो वा, ओषधीविशेषो वा कटु केह गृह्यते, 'यथे' ति सर्वत्रापेक्षते, इतोऽपि कटुकतुम्बकरसा देरनन्तेन-अनन्तराशिना गुणनं गुणो यस्यासावन्तगुणो रसस्तु-आस्वादः कृष्णायाः- कृष्णलेश्यायाःज्ञातव्यः- अवबोद्धव्यः, अतिकटुक इति तात्पर्यम् / यथा-यादृशः त्रिकटुकस्य प्रसिद्धस्य रसस्तीक्ष्णः-- कटुर्यथा हस्तिपिप्पल्या वा, अतोऽप्यनन्तगुणो रसस्तुनीलायाः ज्ञातव्योऽतिशयतीक्ष्ण इतिहृदयम्। यथा तरुणम्-अपरिपक्कं तच तदानकं च-आम्रफलं तद्रसः, तुवरम्सकषायम्, पाठान्तरतः-आर्द्रत्वाद्, उभयत्र चाथीदपक्कं तच्चतत्कपित्थं च-कपित्थ फलं तस्य, वाविकल्पे, अपिः-पूरणे, यादृशको रस इति प्रक्रमः / अतोऽप्यनन्तगुणो रसस्तु 'काऊए' त्ति कापोताया ज्ञातव्यः, अतिशयकषाया इत्याशयः / यथा परिणतं-परिपक्वं यदाभ्रकं तद्रसः पकवपित्थस्य वाऽपि यादृशको रसोऽतोऽप्य नन्तगुणो रसस्तु तेऊए' त्ति तेजोलेश्याया ज्ञातव्यः, आम्लः किञ्चिन्मधुरश्चेत्यैदम्पर्यम्। वरवारुणी-प्रधानसुरा तस्या वा रसो यादृशक इति योगः, विविधानां | वा-नानाप्रकाराणाम् आसवानाम्-पुष्पप्रसवमद्यानां वा यादृशको रस इति सम्बन्धः, 'महुमेरयस्स व रसो' ति मधु-मद्यविशेषो मैरेयं सरकस्तयोः समाहारे मधुमैरेयं तस्य वा रसो यादृशकोऽतो वरवारुण्यादिरसात्पद्मायाः प्रक्रमाद्रसः 'परकेणं तिअनन्ता नन्तगुणत्वात्तदतिक्रमण वर्त्तत इति गम्यते, अयं च किञ्चिदम्ल कषायो माधुर्यवांश्चेति भावनीयम्, पाठान्तरतोऽप्यनन्तगुणो रसस्तु पद्मायाः ज्ञातव्यः / खजूरं च - पिण्डखजूरादि मृद्रीका च-द्राक्षा एतद्रसः तथा क्षीररसः-प्रतीतः खण्डा च-इक्षुविकारः शर्करा च-काशादिप्रभवा तद्रसो वा यादृश इति शेषः, अतोऽप्यनन्तगुणो रसस्तुशुल्काया ज्ञातव्योऽत्यन्तमधुर इतिगर्भ इति सूत्राषट्कार्थः। उत्त०३४ अ०। (14) सम्प्रति लेश्यानां गन्धमाहकइणं भंते ! लेस्साओ दुब्मिगंधाओ पन्नत्ताओ?, गोयमा ! तओलेस्साओ दुब्मिगंधाओ पण्णत्ताओ, तं जहा-कण्हलेस्सा नीललेस्सा काउलेस्सा। कइणं भंते ! लेस्साओ सुब्भिगंधाओ पन्नत्ताओ?,गोयमा!तओलेस्साओ सुब्भि गंधाओपण्णत्ताओ, तं जहा-तेउलेस्सा पम्हलेस्सा सुक्कलेस्सा। (सू० 228) 'कइणं भंते !' इत्यादि, सुगमम्। नवरम् - कृष्णनीलका पोतलेश्या दुरभिगन्धाः मृतगवादिकलेवरेभ्योऽप्यनन्तरगुणदुर भिगन्धोपेतत्वात्, तेजः पद्मशुल्कलेश्याः सुरभिगन्धाः पिष्य माणगन्धवाससुरभिकुसुमादिभ्योऽनन्तगुणपरमसुरभिगन्धोपेत त्वात्। प्रज्ञा० 17 पद। कीदृग्गन्धः लेश्यानामा दृष्टान्त :-- जह गोमडस्स गंधो, सुणगमडस्स व जहा अहिमडस्स। इत्तो वि अणंतगुणो, लेसाणं अप्पसत्थाणं // 16 // जह सुरहिकुसुमगंधो, गंधवासाण पिस्समाणाणं / इत्तो वि अणंतगुणो, पसत्थलेसाण तिण्हं पि॥१७॥ यथा गवां मृतकं-मृतकशरीरं तस्य गन्धः श्वमृतकस्य वा तथा यथा अहिः- सर्पस्तन्मृतकस्य गन्ध इति सम्बन्धः, सूत्रात्वान्मृतकशब्दे कलोपः अतोऽपि एतत्प्रकारादपि गन्धाद नन्तगुणोऽतिदुर्गन्धतया लेश्यानाम्, अप्रशस्तानाम्-अशुभानाम्, कोऽर्थः ?- कृष्णनीलकापोतानाम्, गन्ध इति प्रक्रमः, इह चलेश्यानामप्रशस्तत्वं गन्धस्याशुभत्वे हेतुरिति तद्विशेषादनुक्तोऽप्यस्य विशेषोऽवगम्यत इति नोक्तः। यथा सुरभिकुसुमानां-जातिकेतक्यादिसम्बन्धिनां सुगन्धुपुष्पाणां गन्धः-परिमलः सुरभिकुसुमगन्धः, तथा गन्धाश्चकोष्ठपुट पाकनिष्पन्ना वासाश्च-इतरे गन्धवासाः, इह चैतदङ्गान्येवोपचारादेवमुक्तानि, तेषाम्, पाठान्तरतश्च गन्धानां च पिष्यमाणानां संचूर्ण्यमानानां यथा गन्ध इति प्रक्रमः, तथा चातिप्रबलतरोऽसौ प्रादुर्भवतीत्येवभमिधानम्, अतोऽपिएतत् प्रकारादपि गन्धाद् अनन्तगुणः अतिशयसुगन्धितया प्रशस्त लेश्यानाम् तिसृणामपि-तैजसीपद्मशुल्कानां गन्ध इति प्रक्रमः इहापि प्रशस्तत्वविशेषाद्गन्धविशेषोऽनुमीयत इति नोत्क इति सूत्राद्वयार्थः // उत्त०३४ अ०।
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________________ लेसा ६८७-अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लेसा (15) अधुना शुद्धाशुद्धत्वप्रतिपादनार्थमाहएवं तओ अविसुद्धाओ, तओ विसुद्धाओ, तओ अप्पसत्थाओ, | तओ पसत्थाओ, तओ संकिलिट्ठाओ,तओ असंकिलिट्ठाओ। (सू०२२८) "एवं तओ अविसुद्धाओ ततो विसुद्धाओ' इति, एवम्-उत्केन प्रकारेण आद्यास्तिस्रो लेश्या अविशुद्धा वक्तव्याः, अप्रशस्तवर्णगन्धरसोपेतत्वात्, उत्तरास्तिस्रो लेश्या विशुद्धाः, प्रशस्तवर्णगन्धरसोपेतत्वात्, ततश्चैवं / वक्तव्याः - "कइ णं भंते ! लेस्साओ अविसुद्धाओ पण्णत्ताओ ?, गोयमा ! तओलेस्साओ (अप्पसत्थाओ) अविसुद्धाओ पण्णत्ताओ, तं जहा-कण्हलेस्सा नीललेस्सा काउलेस्सा // कइणं भंते ! लेस्साओ अविसुद्धाओ पण्णत्ताओ?, गोयमा ! तओ लेस्साओ (अप्प सत्थाओ) अविसुद्धाओ पण्णत्ताओ, तं जहा-कण्हलेस्सा नीललेस्सा काउलेस्सा / कइणं भंते! लेस्साओ विसुद्धाओ पण्णत्ताओ? गोयमा ! तओलेस्साओ विसुद्धाओ पण्णत्ताओ, तं जहा-तेउलेस्सा पउमलेस्सा सुक्कलेस्सा" इति, उक्ते शुद्धत्वाशुद्धत्वे / सम्प्रति प्राशस्त्याप्राशस्त्ये प्रतिपादयति- 'तओ अप्पसत्थाओ तओ पसत्त्थाओ' आधस्तिस्रो | लेश्या अप्रशस्ता वक्तव्याः, अप्रशस्तद्रव्यत्वेनाप्रशस्ताध्यवसायहेतु त्यात्, उत्तरास्तिस्रोलेश्याः प्रशस्ताः,प्रशस्तद्रव्यातया प्रशस्ताध्यवसायकारणत्वात्, सूत्रापाठः प्राग्वदवसेयः, 'कइ णं भंते ! लेस्साओ अप्पलेस्साओ पन्नत्ताओ' इत्यादि, उक्ते प्राशस्त्याप्राशस्त्ये। अधुना | संक्तिष्टाऽसंक्तित्वे प्रतिपादयति- 'तओ संकिलिहाओ तओ असंकिलिहाओ' इति आद्यास्तिस्रो लेश्याः संल्किष्टाः, संल्किष्टार्तरौद्रध्यानानुगताध्यवसाय स्थानहेतुत्वात् उत्तरास्तिस्रो लेश्या असंल्किष्टाः, असंक्तिष्ट धर्मशुल्कध्यानानुगताध्यवसायकारणत्वात्, अत्रापि पाठः प्राग्वत्- 'कइणं भंते ! लेस्साओ संकिलिट्ठाओ पन्नत्ताओ' इत्यादि / प्रज्ञा० 17 पद 4 उ०। जम्बूद्दष्टान्तं भावयति-प्रतिक्रमामिषड्भिर्लेश्याभिः करणभूताभिर्यो मया दैवसिकोऽतिचारः कृतः , तद्यथाकृष्णलेश्ययेत्यादि-"कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यात्, परिणामोय आत्मनः / स्फटिकस्येव तत्रायं, लेश्याशब्दः प्रयुज्यते॥१॥"कृष्णादि द्रव्याणि नसकलप्रकृतिविष्यन्दभूतानि, आसांच स्वरुपं जम्ब खादकदृष्टान्तेन, ग्रामघातकदृष्टान्तेन च प्रतिपाद्यते"जह जंबुतरुवरेगो, सुपक्कफलभरियनमियसालग्गो। दिह्रो छहि पुरिसेहि, ते बिंती जंबुभक्खेभो // 1 // किह पुण? ते बेंतेक्को, आरुहमाणण जीवसंदेहो। तो छिंदिऊण मूले, पासुंताहे भक्खेमो // 2 // बितिआह एबहेणं, किं छिण्णेणं तरुण अम्हं ति? | साहामहल्लछिंदह, तइओ बेंती पसाहाओ।।३।। गोच्छे चउत्थओ उण, पंचमओ बेति गेण्हह फलाई। छट्ठो बेती पडिया, एए चिय खाह घेत्तुं जे॥४॥ दिट्ठतस्सोवणओ, जो बेंतितरु वि छिन्नमूलाओ। सो वट्टइ किण्हाए, सालमहल्ला उ नीलाए / / 5 / / हवइ पसाहा काऊ, गोच्छा तेऊ फला य पम्हाए। पर्डियाए सुक्कलेसा, अहवा अण्णं उदाहरणं॥६॥ चोरा गामवहत्थं, विणिग्गया ऍगो बॅति घाएह। जंपेच्छह सव्वं वा, दुपयं च चउप्पयं वावि।।७।। बिइओ माणुसपुरिसे य, तइओ साउहे चउत्थे य। पंचमओ जुज्झंते, छट्टो पुण तत्थिमं भणइ / / 8 / / एक ता हरह धणं, बीयं मारेह मा कुणइ एवं। केवल हरह धणंती, उवसंहारो इमो तेसिं।।६।। सव्वे मारेह त्ती, वट्टइ सो किण्हलेसपरिणामो। एवं कमेण सेसा, जा चरमो सुक्कलेसाए॥१०॥ आदिल्ल तिण्णि एत्थं, अपसत्था उवरिमा पसत्त्था। अपसत्थासुंवट्टिय, नवट्टियंजंपसत्थासुं॥११॥ एसऽइयारो एया-सु होइ तस्स य पडिक्कमामि त्ति। पडिकूलं वट्टामी, जं भणिय पुणो न सेवेमि // 12 // " आव०४ अ०॥ (16) अधुना शीतोष्णस्पर्शप्रतिपादनार्थमाह -- जह करगयस्स फासो, गोजिब्भाए व सागपत्ताणं। एत्तो वि अणंतगुणो,लेसाणं अप्पसत्थाणं ||18|| जह बूरस्स वि फासो, नवणीयस्स द सिरीसकुसुमाणं। एत्तो वि अणंतगुणो, पसत्थलेसाण तिण्हं पि॥१९॥ व्याख्या-यथा करगयस्स' त्ति क्रकचस्य-करपत्रस्य स्पर्शो गोर्जिह्वा गोजिह्वा तस्या वा, यथा वा शाको-वृक्षविशेष स्तत्पत्राणां स्पर्श इति प्रक्रमः, अतोऽपि-एतत्प्रकारादपि स्पर्शादनन्तगुणः अत्यतिशायितया यथाक्रमं लेश्यानामप्रशस्तानामाद्यानां तिसूणां प्रक्रमात्स्पर्शोऽतिकक ‘श इति हृदयम्। यथा बूरस्य वा प्रतीतस्य स्पर्शः नवनीतस्य-भ्रक्षणस्य यथा वा शिरीषो-वृक्षविशेषस्तत्कुसुमानामुभया यथा स्पर्श इति प्रक्रमः, अतोऽपिएतत्प्रकारादपि स्पर्शाद अनन्तगुणः- अतिसुकुमारतया यथाक्रमं प्रशस्तलेश्यानां तिसृणामपि-उक्तरुपाणां स्पर्श इति प्रक्रमः, इह च यदनेकदृष्टान्तोपादानं तन्नानादेशजविनेयानुग्रहार्थम्, वचिद्धि किञ्चित्प्रतीतमिति, यद्वा-निगदितो-दाहरणेषु वर्णादितारत म्यसम्भवाल्लेश्यानां स्वस्थानेऽपि वर्णादिवैचित्र्यज्ञापनार्थ मिति सूत्रद्वयार्थः / उत्त०३४ अ०। तओ सीतलुक्खाओ, तओ निद्धण्हाओ। (सू० 228) 'तओ सीयलुक्खाओतओ निझुण्हाओ' इति, आद्या स्तिस्रो लेश्याः शीतरुक्षाः-शीतरुक्षस्पर्शे पेताः, उत्तरास्तिस्रो लेश्याः स्निग्धोष्णस्पर्शाः, इहान्येऽपिलेश्याद्रव्याणां कर्कशा दयः स्पर्शाः सन्ति (प्रज्ञा०) तथापिशीतरुक्षौ स्पर्शी आद्यानां तिसृणां लेश्यानां चित्तास्वस्थ्यजनने सिग्धोष्णस्पर्श, उत्तरासां तिसृणां लेश्यानां परमसंतोषोत्पादने साधकतमाविति तावेव पृथक् पृथक् साक्षादुक्तावित्यदोषः, सूत्रपाठः प्राग्वत्, 'कह णं भंते! लेस्साओ सीयलुक्खाओ पन्नत्ताओ' इत्यादि। (17) सम्प्रति गतिद्वारमभिधित्सुराहतओ दुग्गतिगामिणी (णि) ओ, तओ सुगतिगामिणीओ। (सू०२२८) 'तओ दुग्गइगामिणीओ तओ सुगइगामिणीओ' इति, आद्यास्तिस्रो लेश्या दुर्गतिगामिन्यः-दुर्गतिं गमयन्तीत्येवं शीला दुर्गतिगामिन्य, संक्लिष्टाध्यवसायहेतुत्वात, उत्तरास्तिस्त्रो लेश्याः सुगतिं गमयन्तीत्येवंशीलाः सुगतिगामिन्यः, प्रशस्ताध्यवसायकारणत्वात्, उभयत्रापि गमेय॑न्तादिन् प्रत्ययः, सूत्रपाठः प्राग्वत् 'कइ णं भंते ! लेस्साओ दुग्गइगामिणीओ पन्नत्ताओ' इत्यादि। प्रज्ञा० 17 पद 4 उ०1
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________________ लेसा 658 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लेसा पुनरपि ग्रन्थान्तरतो गतिद्वारमाह वाशब्दश्चोभयत्र संबध्यते, ततश्च सप्तविंशतिविध एकाशीतिविधो वा किण्हा नीला काऊ, तिन्नि वि लेस्साउऽहम्मलेसाऊ। 'दुसओ तेयालो व त्ति अत्रापि विधशब्दस्य सम्बन्धनात् त्रिचत्वारिंशएयाहि तिहि विजीवो, दुग्गइं उववजई // 56|| दद्विशतविधो वा लेश्यानां भवति, परिणाम :-तत्तद्रूपगमनात्मकः, इह तेऊ पम्हा सुक्का, तिन्नि वि एया उधम्मलेसाउ। च 'त्रिविध जघन्यमध्य मोत्कृष्टभेदेन नवविधः-यदेषामपिजधन्यादीनां एयाहि तिहि वि जीवो, सुग्गइं उववजई / / 57 / / स्वस्थानतार तम्यचिन्तायां प्रत्येकं जधन्यादिायेण गुणना एवं पुनकृष्णानीलाकापोतास्तिस्रोऽप्येता अधर्मलेश्याः, पापोपा दानहेतु- स्त्रिकगुणा नया सप्तविंशतिविधत्वमेकाशीतिविधत्वं त्रिचत्वारिंशदुद्विशत त्यात्, पाठान्तरतोऽधर्मलेश्या वा, तिसृणामप्यविशुद्ध त्वेनाप्रशस्त विधत्वं च भावनीयम्। आह एवं तारतम्यचिन्तायांकः संख्या नियमः ?, त्वात्, यद्येवं ततः किमित्याह-एताभिः-अनन्तरोक्ताभिः 'तिसृभिरपि उच्यते, एवमेतत्, उपलक्षणं चैतत्, तथा च प्रज्ञा पनायाम्-'कण्हलेसा कृष्णादिलेश्याभिः जीवः- जन्तुः दुर्गतिम्-नरकतिर्यग्गतिरुपाम्, गंभंते! कतिविधपरिणामं परिणमति?, गोयमा ! तिविहं वानवविहं वा उपपद्यते--प्रायोति, सुब्बयत्ययाद्वा दुर्गतौ उपपद्यते-जायते, संक्लिष्ट सत्तावीसइविहं वा एक्कासीइ विहं वा वि तेयालदुसयविहं वा बहुयं वा त्वेन तत्त्प्रायोग्यायुष एव तद्वतां बन्धसम्भवादिति भावः / तथा तैजसी बहुविहं वा परिणाम परिणमति, एवं जाव सुक्कलेसा'' इति सूत्रार्थः / पद्माशुक्लास्तिस्रोऽप्येताः धर्मलेश्याः-प्रधानलेश्याः, विशुद्धत्वेनासां उक्तः परिणामः। उत्त०३४ अ०॥ धर्महेतुत्वात्, तथा चागमः- "तओ लेसाओ अविसुद्धाओ तओ (१६)त्र्यादिपरिणतिश्च जीवानां लेश्यावशतो भवतीति तन्नि बन्धनविसुद्धाओतओपसत्थाओ तओ अपसत्थाओतओ संकिलिट्ठाओतओ कर्मकारणत्वात् तासमिति नारकादिपतेषु लेश्यास्त्रिस्थानकावतारेण असंकिलिहाओ तओ दुग्गतिगामियाओ तओ सुगतिगामियाओ' / अत निरुपयन्नाह - णेरझ्याणं तओलेस्साओ पण्णत्ताओ,तंजहा कण्ह-लेस्सा एव एताभि स्तिसृभिः-तैजस्यादिलेश्याभिर्जीवः 'सुगतिं ति सुगतिम् नीललेस्सा काउलेसा 1, असुरकुमाराणं तओ लेस्साओ देवमनुष्यगतिलक्षणां मुक्ति वोपपद्यते, यद्वा प्राग्वत्सुगतौ उत्पद्यते संकिलिट्ठाओ पण्णताओ, तं जहा-कण्हलेस्सा नीललेस्सा जायते, तथाविधायुर्वन्धतः सकल कर्मापगमतश्चेति सूत्राद्वयभावार्थः / काउलेस्सा 2 एवं जाव थणियकु माराणं 11, एवं उत्त०३४ अ०। पुढवीकाइयाणं 12, आउवणस्सइकाइयाण वि 13-15, (18) अधुना परिणामद्वारमभिधित्सुराह तेउकाइयाणं 15, वाउकाइयाणं 16, बेइंदियाणं 17, कण्हलेस्सा णं भंते ! कतिविहं परिणामं परिणमति ?, तेइंदियाणं 18, चरिंदियाण वि 16, तओ लेस्सा जहा गोयमा ! तिविहं वा नवविहं वा सुत्तावीसविहं वा एक्कासीतिविहं णेरइयाणं / पंचेदियतिरिक्खजोणियाणं तओ लेस्साओ वा वि तेयालदुसतविहं वा बहुयं वा बहुविहं वा परिणाम संकिलिट्ठाओ पणत्ताओ, तं जहा-कण्हलेस्सा नीललेसा परिणमइ, एवं० जाव सुक्कलेसा। (सू० 226) काउलेसा 20 / पंचेदियतिरिक्खजोणियाणं तओ लेसाओ 'कण्हलेस्सा णं' मित्यादि, अत्र 'कइविहं परिणाम' इत्यत्र प्राकृत अंसकिलिट्ठाओ पणत्ताओ, तं जहा-तेउलेस्सा पम्हलेस्सा त्वात् तृतीयार्थे द्वितीया द्रष्टव्या, यथा आचाराङ्गे-"अगणिं (च खलु) सुक्कलेसा, 21, एवं मणुस्साण वि 22, वाणमंतराणं जहापुट्ठा' इत्यत्र, ततोऽयमर्थः-कृष्णलेश्या णमिति वाक्यालङ्कारे भदन्त् ! असुरकुमाराणं 23, वेमाणियाणं तओ लेस्साओ पण्णत्ताओ, कतिविधेन परिणामेन परिणमति?, भगवानाह - 'गोयमा ! तिविहं वा' तं जहा-तेउलेस्सा पम्हलेस्सा सुक्कलेस्सा 24 // (सू०१३२) इत्यादि, इ त्रिविधो-जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदेन नवविधो यदैषामपि 'नेरइयाणं' इत्यादि, दण्डकसूत्रां कण्ठ्यम्, नवरम्। नेरइयाणं तओ जधन्यादीनां स्वस्थातारतम्यचिन्तायां प्रत्येक जघन्यादित्रयेण गुणना, लेस्साओ' त्ति एतासामेव तिसृणां सद्भावाद विशेषणो निर्देशः, असुरएवं पुनः पुनस्त्रिकगुणनया सप्तविंशतिविधत्वम् एकाशीतिविधत्वं कुमाराणन्तु चतसृणां सद्भावात् संल्किष्टा इति विशेषितं चतुर्थी हि त्रिचत्वारिंशदधिकशतद्वयविधत्वं बहुत्वं-बहुविधत्वं भावनीयम्, सर्वत्र तेषां तेजोलेश्याऽस्ति, किन्तु सा-न संल्किष्टति पृथिव्यादिष्वसुरच तृतीयार्थे द्वितीया, ततस्त्रिविधेन वा परिणामेन परिणमति नवविधेन कुमार-सूत्रार्थमति दिशन्नाह-‘एवं पुढवी' इत्यादि पृथिव्यब्वनस्पतिषु वा इत्येवं पदानां योजना कर्तव्या / एवं .जाव सुक्कलेसा' इति एवं-- देवोत्पाद सम्भवाच्चतुर्थी तेजोलेश्याऽस्तीति सविशेषणो लेश्यानिकृष्णलेश्यागतेन प्रकारेण नीलादयोऽपि लेश्यास्तावद्वक्तव्याः यावत् र्देशोऽतिदिष्टः, तेजोवायुद्वित्रिचतुरिन्द्रियेषु तु देवानुत्पत्या तदभावा शुल्कलेश्याः। सूत्रापाठस्तु सुगमत्वात् स्वयं परिभावनीयः। प्रज्ञा० 17 निर्विशेषण इति, अत एवाह- 'तओ' इत्यादि, पञ्चेन्द्रियतिरश्यां पद 4 उ० मनुष्याणां च षडपीति संल्किष्टाऽसंल्किष्टविशेषणतश्चतुः सूत्री नवरं तिविहो वनवविहो वा, सत्तावीसइविहिक्कसीओ वा। मनुष्यसूत्रोऽतिदेशेनोक्त इति व्यन्तरसूत्रो संल्किष्टा वाच्या अतएवोत्कम्। दुसओ तेयालो वा, लेसाणं होइ परिणामो॥२०॥ 'वाणमंतरे' त्यादि। वैमानिकसूत्रां निर्विशेषणमेव, असंक्लिष्टस्यैव त्रिविधो नवविधो वा 'सत्तावीसइविहिक्कसीओ व त्त विधशब्दो | अयस्य सद्भावात्, व्यवच्छेद्याभावेन विशेषणायोगादिति ज्योति
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________________ लेसा 686 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लेसा ष्कसूत्रं नोक्तम्, तेषां तेजोलेश्याया एव भावेन त्रिस्थानकान वतारादिति / स्था० 3 ठा०१ उ०। (20) लक्षणद्वारम्पंचासवप्पमत्तो, तीहि अगुत्तो छस्सु अविरओ य। तिवारंभपरिणओ, खुद्दो साहस्सिओनरो॥२१॥ निद्धंधसपरिणामा, निस्संसो अजिइंदिओ। एयजोगसमाउत्तो, कण्हलेसं तु परिणमे // 22 // इस्साअमरिसअतवो, अविजमाया अहीरिया। गेही पओसे य सढे, रसलोलुए सायगवेसए य / / 23 / / आरंभा विरओ, खुद्दो साहस्सिओ नरो। एयजोगसमाउत्तो, नीललेसं तु परिणमे // 24 // बंके बंकसमायारे, नियडिल्ले अणुज्जुए। पलिउंचग ओवहिए, मिच्छदिट्ठी अणारिए।।२५।। उम्फालगदुहवाई य, तेणे अविय मच्छरी। एयजोगसमाउत्तो, काउलेसं तु परिणमे // 26|| नीआवित्ती अचवले, अमाई अकुऊहले। विणीयविणए दंते, जोगवं उवहाणवं // 27 // पियधम्मे दढधम्मे, वजभीरुहिए सए। एयजोगसमाउत्तो, तेउलेसं तु परिणमे // 28|| पयणुक्कोहमाणो य, मायालोभे य पयणाए। पसंतचित्ते दंतप्पा, जोगवं उवहाणवं / / 29|| तहा य पयणुवाई य, उवसंते जिइंदिए। एयजोगसमाउत्तो, पम्हलेसं तु परिणमे // 30 // अट्ठरुहाणि वज्जित्ता, धम्मुसुक्काणिसाहए। पसंतचित्ते, दंतप्पा, समिए गुत्ते य गुत्तिसु // 31 // सरागे वीयरागे वा, उवसंते जिइंदिए। एयजोगसमाउत्तो, सुक्कलेसं तु परिणमे // 32 // पञ्चाश्रवा :- हिंसादयस्तैः प्रमत्तः-प्रमादवान् पञ्चाश्रवप्रमत्तः पाठान्तरतः पञ्चाश्रवप्रवृत्तौ वा अतस्त्रिभिः प्रस्तावान्मनोवाक्कायैः अगुप्तः-अनियन्त्रिातो मनोगुप्तयादिरहित इत्यर्थः, तथा-षट्सुपृथ्वीकायादिषु अविरतः-अनिवृत्तस्तदुपमर्दकत्वादेरिति गम्यते, अयं चातीव्रारम्भोऽपि स्यादत आह-तीव्रा-उत्कटाः स्वरुपतोऽध्यव सायतो वा आरम्भाः-सावद्यव्यापारास्तत्परिणतः-तत्प्रवृत्त्या तदात्मतांगतः, तथा क्षुद्रः-सर्वस्यैवाहितैषी कार्पण्ययुक्तो वा, सहसा-अपलोच्य गुणदोषान् प्रवर्तत इति साहसिकः, चौर्या दिकृदिति योऽर्थः, नरः-पुरुषः उपलक्षणत्वात्त्र्यादिर्वा 'णिद्धंधस' त्ति अत्यन्तमैहिकामुष्मिकापायशङ्काविकलोऽत्यन्तं जन्तुबाधानपेक्षो वा परिणामोऽध्यवसायो वा यस्य ‘स तथा 'णिस्संसो' त्ति नृशंसः-निस्तूंशो जीवान् विहिंसन् मनागपिन शङ्कते, निःशंशोवा-परप्रशंसारहितः। अजितेन्द्रियः अनिगृहीतेन्द्रियः, अन्ये तुपूर्वसूत्रोत्तरार्द्धस्थान इदमधीयते तचेहेति, उपसंहारमाह-एते च ते अनन्तरोक्ता योगाश्चमनोवाक्कायव्यापारा एतद्योगाः-पञ्चाश्रयप्रमत्तत्वादयस्तैः समिति--भृशमाइित्यभिव्याप्तया युक्तः-अन्वितः एतद्योगसमा युक्तः, कृष्णलेश्यां तुः-अवधारणे कृष्णलेश्यामेव परिणमेत् तदद्रव्य साचिव्येन तथाविधद्रव्यसम्पर्कात्स्फटिकवत्तदुपरञ्ज नात्तद्रूपतां भेजत्, उक्तं हि- "कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यात्परिणामोय आत्मनः / स्फटिकस्येव तत्रायं, लेश्याशब्दः प्रयुज्यते // 1 // एतेन पञ्चाश्रवप्रमत्तत्वादीनां भावकृष्णलेश्यायाः सद्भावोपदर्शनादमीषां लक्षणत्वमुत्कम्, यो हि यत्सद्भाव एव भवति यतस्य लक्षणं यथौष्ण्यमग्नेः, एवमुत्तर त्रापि लक्षणत्वभावना कार्या 1 नीललेश्यालक्षणमाह - ईर्ष्या चपरगुणसहनम्, अमर्षश्च-अत्यन्ताभिनिवेशः, अतपश्चतपोविपर्ययः अमीषां समाहारनिर्देशः, 'अविज्ज' त्ति अविद्याकुशास्त्ररुपामायावञ्चनात्मिका अहीकता च-असमाचारविषया निर्लज्जता गृद्धिः-अभिकाङ्क्षा विषयेष्विति गम्यते, प्रद्वेषश्च-प्रद्वेषः मतुब्लोपादभेदोपचाराद्वा सर्वा तद्वान् जन्तुरुच्यते अतएव शठः अलीकभाषणात् प्रमत्तः प्रकर्षण जात्यादिमदासेवनात् पाठान्तरतः शठश्च मत्तः, तथा रसेषु लोलपोलम्पटो रसलोलुपः, सात-सुखं तद्भवेषकश्च-कथं मम सुखं स्यादिति बुद्धिमान,आरम्भात्-प्राण्युपमर्दात् अविरतः-अनिवृत्तः क्षुद्रःसाहसिको नरः, एतद्योगसमायुक्तो नील लेश्यां परिणमत्, तुः-प्राग्वत् पुनरर्थो वा 4 वक्र:-वचसा 'वक्रसमाचारः' क्रियया, निकृतिमानमनसा, अनृजुकः- कथंचिद्दजूकतमशक्यतया 'पलिउंचग' त्ति प्रतिकुञ्चक:-स्व-दोषप्रच्छादकतया उपधिः-छद्मतेन चरत्यौपधिकः, सर्वत्र व्याजतः प्रवृत्तेः, एकार्थिकानि वैतानि नानादेशजविनेयानुग्र हायोपात्तानि, मिथ्याद्दष्टिनार्यश्च प्राग्वत्, 'उप्फालग' ति उत्प्रासकं यथा पर उत्प्रायस्ते दुष्ट च रागादिदोषवद्यथा भवत्येवं वदनशील उत्प्रासकदुष्टवादी, चः- समुच्चये स्तेनः-चौरः चः- प्राग्वत् अपि चइति पूरणे मत्सरः परसम्पदसहनं सति वा वित्ते त्यागाभावः, तथा चाहुः शाब्दिकाः- "परसम्पदामनसहन, वित्ताऽत्यागश्च मत्सरो ज्ञेयः" इति, तद्वान् मत्संरी, एतद्योगसमायुक्तः कापोतलेश्यां 'तुः' इति पुनः परिणमेत् // 'णीयावित्ति' ति नीचैर्वृत्तिः-कायमनोवाग्भिरनुत्सिक्तः अचपलः-चापलानुपेतः अमायी-शाट्यानन्वितः अकुतूहलःकुहकादिष्वकौतुकवानत एव विनीतविनयः-- स्वभ्यस्तगुर्वाधुचितप्रतिपत्तिः, तथा दान्तः इन्द्रियदमेन योग:--स्वाध्यायादिव्यापारस्तद्वान्, उपधानवान्-विहितशास्त्रोपचारः प्रियधर्मा अभिरुतिधर्मानुष्ठानः द्रढधर्माः-अङ्गीकृतव्रतादिनिर्वाहकः, किमित्येवम् ?, यतः 'वज्ज' त्ति वयम् प्राकृतत्वादकारलोपे अवयं चोभयत्र पापं तदीरुः हितैष्कःमुक्तिगवेषकः, पाठान्तररतो-हिताशयो वा परोपकारचेताः पठ्यते च'अणासवे तितत्रचन विद्यन्ते आश्रवा-हिंसादयो यस्यासाव नाश्रवः, एतद्योगसमायुक्तस्तेजोलेश्यांतुपरिणमेत्। प्रतनू अतीवाल्पो उक्तरुपः / प्रतनुक्तो यस्येति शेषः, अत एव प्रशान्तं-प्रकर्षेणोपशमवचित्तमस्येति प्रशान्तचित्तः, दान्तः-अहितप्रवृत्तिनिवारणतोवशीकृतआत्मायेनस तथा, योगवानु पधानवानिति च प्राग्वत्, तथा प्रतनुवादीस्वल्पभाषकश्चश
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________________ लेसा ६६०-अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लेसा ब्दोभिन्नक्रमोयोक्ष्यत्, उपशान्तः अनुद्भटतयोपशान्ताकृतिः जितेन्द्रियचवशीकृताक्षः एतद्योगसमायुक्तः पद्मलेश्यां तु परिणमेत् / / आर्तरौद्रेउक्तरुपे ध्याने-वर्जयित्वा परिहत्य धर्म शुल्के-प्रागुक्ते एव शुभध्याने साधयेत्-सतताभ्यासतो निष्पादयेत्, यः कीदृशः सन् ?, इत्याहप्रशान्तचित्तो दान्तात्मेति च प्राग्वत, पाठान्तरश्च ध्यायति यो विनीतविनयो दान्तः समितः- समितिवान् गुप्तश्च-निरुद्धसमस्तव्यापारः गुप्तिभिः-मनोगुप्तयादिभिः तृतीयार्थे सप्तमी, सच सरागः-अक्षीणनुपशान्तकषायतया वीतरागो वा ततोऽन्य उपशान्तः, पाठान्तरतः शुद्धयोगो वा-निर्दोष व्यापारो जितेन्द्रियः प्राग्वत्, स एतद्योसमायुक्तः शुल्कलेश्यां तुपरिणभति, इह च शुभलेश्यासु केषाञ्चिद्विशेषणानां पुनरुपादानेऽपि लेश्यान्तरविषय त्वादपौनरुक्तयम्, पूर्वपूर्वापेक्षयोत्तरोत्तरेषां विशुद्धितः प्रकृष्टत्वं च भावनीयम्, विशिष्टलेश्या वा वाऽपेक्ष्यैवं लक्षणाभिधानमिति नदेवादिभिर्व्यभिचार आशङ्कनीय इति द्वादशसूत्रार्थः / उत्त०३४ अ०। (20) सम्प्रति प्रदेशद्वाराभिधित्सया प्राह -- कण्हलेसाणं भंते ! कतिपदेसया पन्नत्ता?, गोयमा! अणंतपदेसिया पन्नत्ता, एवं० जाव सुक्कलेस्सा। (सू० 226) 'कण्हलेसाणं भंते! कइपएसिया' इत्यादिसुगमम् नवरमनन्तप्रदेशिकेति-अनन्तानन्तसंख्योपेताः प्रदेशाः-तद्योग्याः परमाणवो यस्याः कृष्णलेश्यायाः कृष्णलेश्याद्रव्यसंघातस्य सा अनन्तप्रदेशिका, अन्यथा-अनन्तप्रदेशव्यतिरेकेण स्कन्धस्य जीवग्रहणयोग्यताया एवाभावात्, एवं नीलादयोऽपि लेश्या वक्तव्याः, तथा चाह- 'एवं जाव सुक्कलेसा' इति। प्रज्ञा० 17 पद 4 उ०। अवगाहनाद्वारमाह - कण्हलेस्सा णं मंते ! कतिपएसोगाढा पण्णत्ता ?, गोयमा ! असंखेज्जा पएसोगाढापण्णत्ता, एवं० जाव सुक्कलेसा। (सू०२२९) 'कण्हलेस्सा णं भंते !' इत्यादि इह प्रदेशाः-क्षेत्रापदेशाः प्रतिपत्तव्यास्तेष्वेवावगाहप्रसिद्धेः, ते चानन्तानामपि वर्गणा नामाधारभूता असंख्येया एव द्रष्टव्याः सकलस्यापि लोकस्य प्रदेशानामसंख्यातत्वात्। वर्गणाद्वारमाहकण्हलेस्साए णं भंते ! केवतियाओ वग्गणाओ पण्णत्ताओ?, गोयमा! अणंताओवग्गणाओ, एवं० जावसुक्कलेसाए। (सू०२२९) 'कण्हलेसा णं भंते ! केवझ्याआ वग्गणाओ पण्णत्ताओ' इत्यादि इह वर्गणा औदारिकशरीरप्रायोग्यपरमाणुवर्गणावत् कृष्णलेश्यायोग्यद्रव्यपरमाणुवर्गणा गृह्यन्ते ताश्च वर्णादिभेदेन सामानजातीयानामेकसद्भावादनन्ताः प्रत्येतव्याः, एवं नील लेश्यादीनामपि वर्गणाः प्रत्येक वक्तव्यास्तथा चाह-- 'एवं० जाव सुक्कलेस्साए इत्यादि। प्रज्ञा०१७ पद 4 उ०। (21) अधुना स्थानद्वारमभिधित्सुराहकेवतिया णं मंते ! कण्हलेस्साणं ठाणा पन्नत्ता ?, गोयमा ! | असंखेजा कण्हलेस्साणं ठाणा पन्नत्ता, एवं. जाव सुक्कलेस्सा। 'केवइया णं भंते! कण्हलेसाणं ठाणा पन्नत्ता' कियन्ति भदन्त ! कृष्णलेश्यास्थानानि प्राकर्षापकर्षकृताः स्वरुपभेदाः प्रज्ञाप्तानि ?, सूत्रो च पुस्त्वं प्राकृतत्वात्, इह यदा भावरुपाः कृष्णादयो लेश्याश्चिन्त्यन्ते तदा एक कस्या लेश्यायाः प्रकर्षा पकर्षकृतस्वरुपभेदरूपाणि स्थानानि कालतोऽसंख्येयोत्सर्पि ण्यवसर्पिणीसमयप्रमाणानि क्षेत्रतोऽसंख्येयलोकाकाशप्रदेश प्रमाणानि, उक्तं च-"अस्संखेज्जाणुस्सप्पिणीण अवसप्पिणीण जे समया / संखाईया लोगा, लेस्साणं हों ति ठाणाई / 1 / / " नवरमशुभानां संक्लेशरुपाणि शुभानांच विशुद्ध रुपाणि, एतेषां च भावलेश्यागतानां स्थानानां यानि कारणभूतानि कृष्णादिद्रव्यवृन्दानि तान्यपि स्थानान्युच्यन्ते तान्येव चेह ग्राह्याणि, कृष्णादि द्रव्याणमेवेहोद्देशके चिन्त्यमानत्वात्,तानिच प्रत्येकमसंख्येयानि, तथाविधैकपरिणामनिबन्धनाना मनन्तानामपि द्रव्याणामेकाध्यवसायहेतुत्वेनैकत्वात्, तानि च प्रत्येकं द्विविधानि, तद्यथा-जघन्यान्युत्कृष्टानि च, जघन्यलेश्या स्थानपरिणामकारणानि जधन्यानि, उत्कृष्टलेश्या स्थानपरिणामकारणान्युत्कृष्टानि, यानि तु मध्यमानि तानि जघन्यप्रत्यासन्नानि जधन्येष्वन्तर्भूतानि, उत्कृष्टप्रत्यासन्नानि तूत्कृष्टेषु, एकैकानि च स्वस्थाने परिणाम गुणभेदतोऽसंख्येयानि, अत्रा दृष्टान्तोयथा स्फटिकमणेरलत्क कवशेन रक्तता भवति, सा च जघन्यर- , त्कतागुणालत्ककवशेनजघन्यरत्कता, एकगुणा (धिका) लत्ककवशेनैकगुणाधिक जघन्या, एवमेकैकगुणवृद्ध्या जघन्यायामेव रक्ततायाम संख्येयानि स्थानानि भवन्ति, तानि च व्यवहारतः स्तोकगुण त्वात् सर्वाण्यपिजघन्यान्येवोच्यन्ते, एवमात्मनोऽपिजघन्यै कगुणाधिकद्विगुणाधिकलेश्याद्रव्योपधानवशतो लेश्यापरिणाम विशेषा असंख्येया भवन्ति, तेच सर्वेऽपि व्यवहारतोऽल्पगुणत्वात् जघन्यव्यपदेशं लभन्ते, तत्कारणभूतानि च द्रव्याणामपि स्थानानि जघन्यानि, एवमुत्कृष्टान्यपि स्थानान्यसंख्येयानि भावनीयानि। प्रज्ञा० 17 पद 4 उ०। ग्रन्थान्तरतः पुनः स्थानद्वारमाहअस्संखिजाणणोस-प्पिणीण उस्सप्पिणीणजे समया। संखाईया लोगा, लेसाण हवंति ठाणाइं॥३३॥ असंख्येयानां-संख्यातीतानाम् अवसर्पन्ति-प्रतिसमयं कालप्रमाण जन्तूनां वा शरीरायुः प्रमाणादिकमपेक्ष्य हासमनु भवन्त्यवश्यमित्यवसर्पिण्यो दशसागरोपमकोटीकोटिपरिमाणा स्तासां तथा तत्परिमाणानामेव उत्सर्पन्ति उक्तन्यायतो वृद्धि मनुभवनित अवश्यमित्युत्सपिण्यस्तासां ये समयाः परमनिरुद्ध काललक्षणाः कियन्त इत्याहसंख्यातीताः पाठान्तरतोऽसंख्येया वा लोका असंख्येयलोकप्रमितत्वेन यथा दशप्रस्थप्रमितत्वेन ब्रीहयो दशप्रस्थाः , ततोऽयमर्थः-असंख्येयलोकाकाशप्रदेशपरिमाणानिलेश्यानां भवन्ति स्थानानि प्रकर्षापकर्षकृतानि, अशुभानां संक्लेशरुपाणि, शुभानां च विशुद्धिरुपाणि तत्परिमाणानीति शेषः, यद्वा-असंख्येयोत्सर्पिण्यवसर्पिणानां ये समया ग
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________________ लेसा 661 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लेसा म्यमानत्वात्तावन्ति लेश्यानां भवन्ति स्थानानीति कालतोऽ संख्याता लोका इति च क्षेत्रातः स्थानमानमेवोक्तमिति सूत्रार्थः / / उक्त स्थानम्। (22) इदानी स्थितिमाह - मुहुत्तद्धं तु जहन्ना, तित्तीसा सागरा मुहुत्तऽहिया। उकोसा होइ ठिई, नायव्वा किण्हलेसाए // 34 // मुहुत्तद्धं तु जहन्ना, दस उदहिपलियमसंखभागब्भहिया। उक्कोसा होइ ठिई, नायव्वा नीललेसाए॥३५॥ मुहुत्तद्धं तुजहन्ना, तिण्णुदही पलियमसंखभागब्भहिया। उक्कोसा होइ ठिई, नायव्वा काउलेसाए // 36 / / मुहुत्तद्धं तु जहन्ना, दोण्हुदहीपलियमसंखभागमभहिया। उकोसा होई ठिई, नायव्वा तेउलेसाए॥३७।। मुहुत्तद्धं तु जहन्ना, दसउदही होइ मुहुत्तममहिआ। उकोसा होइ ठिई, नायव्वा पम्हलेसाए॥३८|| मुहुत्तद्धं तु जहन्ना, तित्तीसं सागर मुहुत्तहिया। उकोसा होई ठिई, नायव्वा सुक्कलेसाए / / 3 / / मुहुर्तस्याओं मुहूर्ताः, तत्कालात्यन्तसंयोगे द्वितीया, इह च समप्रविभागस्याविवक्षितत्वादन्तर्मुहूर्तामित्युक्तं भवति, तुः-त्रायस्त्रिंशत् 'सागराई हत पदैकदेशेऽपि पद प्रयोगदर्शनात्सागरोपमाणि 'मुहुत्तऽहिय' त्ति इहोत्तरत्रा च मुहुर्त्तशब्देन मुहत्तैकदेश एवोक्तः, समुदायेषु हि प्रवृत्ताः शब्दा अवयवेष्वपि वर्तन्ते, यथा-ग्रामोदग्धः पटोदग्धः इति, ततश्चान्तर्मुहूर्ताधिकान्युत्कृष्टा भवति स्थितितिव्या कृष्ण लेश्यायाः। इह चान्तमुहूर्तयासंख्येयभेदत्वादन्तर्मुहूर्तशब्देन पूर्वोत्तरभवसम्बन्ध्यन्तर्मुहूर्तद्वयमुक्तंद्रष्टव्यमेवमुत्तरत्रापि। मुहुर्तार्द्धस्तु जघन्या 'दशे' तिदशसंख्यानि उदधय इत्युक्तन्या येनोदध्युपमानि, कोऽर्थः?-सागरोपमाणि पलिय' त्ति तथैव पल्योपमं तस्यासंख्यभागस्तेनाधिकानि पल्योपमासंख्येय भागाधिकान्युत्कृष्टा भवति स्थितितिव्या नीललेश्यायाः नन्वस्या धूम्रप्रभोपरितनप्रस्तटएव सम्भवः तत्र च अंतो मुहूत्त म्मि गए' त्यादिवक्ष्यमाणन्यायतः पूर्वोत्तरभवान्तर्मुहूर्त्तद्वय पल्योपमासंख्येयभागाभ्यधिकदशसागरोपमपरिमाणैवासो किं नोक्ता?, उच्यते, उक्तैव, पल्योपमासंख्येयभाग एव तस्याप्यन्तर्मुहूर्तद्वयस्यान्तर्भावात्, तदसंख्येयभागानां चासंख्येयभेदत्वादिहैतावत्परिमाणस्यैवास्य विवक्षितत्वान्न विरोधः, एवमुत्तरत्राप भावनीयम्। अक्षरसंस्कारस्तूत्तरेषु कृत एव, नवरं त्राय उदधयः सागरोपमाणि द्वावुदधी-द्वे सागरोपमे, दशोदधयोदशसागरोपमाणि, 'तेत्तीसं' ति, त्रयस्त्रिंशत्सागरो पमाणि, पठन्ति च सर्वा 'मुहत्तद्धाउ' त्ति तत्र मुहूर्त (तर्धि) शब्देन प्राग्वदन्तर्मुहूर्तस्योत्कत्वादन्तर्मुहूर्त्तकालमिति सूत्रष ट्कार्थः॥ सम्प्रति प्रकृतमुपसंहरन्नुत्तरग्रन्थसम्बन्धमाह - एसा खलु लेसाणं, ओहेण ठिई उ वणिया होई। चउसु वि गईसु इत्तो, लेसाण ठिई उ वुच्छामि // 40|| स्पष्टमेव, नवरम् ओघेन इति-सामान्येन गतिभेदावि वक्षयेति यावत्, चतसृष्वपि गतिषु-नरकगत्यादिषु प्रत्येकमिति शेषः, 'अतः' इत्योघस्थितिवर्णनानन्तरमिति सूत्रार्थः / / प्रतिज्ञातमेवाहदसवाससहस्साई, काऊइ ठिई जहनिया होइ। तिनोदहि पलियमसं-खेलमागं च उकोसा।॥४१॥ तिण्णुदहीपलिओवम-मसंखभागो जहन्ननीलठिई। दसउदहीपलिओवम-मसंखभागं च उकोसा ||4|| दसउदहीपलिओवम-मसंखभागंजहनिया होइ। तित्तीससागराइं, उक्कोसा होइ किण्हाए।।३।। एसा नैरइयाणं, लेसाणं ठिई उ वणिया होइ। तेण परं वुच्छामि, तिरियमणुस्साण देवाणं ||4|| अंतोमुहुत्तमद्धं, लेसाण ठिई जहिं जहिं जाउ। तिरियाणं नराणं वा, वज्जित्ता केवलं लेसं // 45 // मुहुत्तद्धं तु जहन्ना, उक्कोसा होइ पुवकोडी उ। नवर्हि वरिसेहि ऊणा, नायव्वा सुकलेसाए।।४६|| एसा तिरियनराणं, लेसाण ठिई उ वणिया होइ। तेण परं वुच्छामि, लेसाण ठिई उ देवाणं // 47 // दसवाससहस्साई, किण्हाए ठिई जहनिया होइ। पलियमसंखिजइमो, उक्कोसो होइ किण्हाए।।४८|| जा किण्हाइ ठिई खलु, उकोसा सा उसमयमभहिया। जहन्नएँ नीलाए, पलियमसंखं च उकोसा / / 49ll जानीलाइठिई खलु, उकोसा सा उसमयमन्महिया। जहन्नएँ काऊए, पलियमसंखं च उकोसा / / 10 / / तेण परं वुच्छामि, तेऊलेसा जहा सुरगणाणं / भवणवइवाणमंतर-जोइसवेभाणियाणं च ||11|| पलिओवमं जहन्ना, उक्कोसा सागरा उदुण्हहिया। पलियमसंखिजेणं, होई भागेण तेऊए।१२।। दसवाससहस्साइं, तेऊए ठिई जहनिया होइ। दुनुदही पलिओवम-असंखभागंच उकोसा॥५३|| जा तेऊए ठिई खलु, उकोसा सा उसमयमन्भहिया। जहन्नएँ पम्हाए, दसमुमुत्ताहियाई उकोसा ||5|| जा पम्हाइ ठिई खलु, उक्कोसा सा समयमब्भहिया। जहन्नेर सुकाए, तित्तीसमुत्तमम्महिया ||5|| दशवर्षसहस्राणि कापोतायाः स्थितिर्जघन्यका भवति, जय उदधयः 'पलियमसंखेजभागं च' त्ति सूत्रात्वात् पल्योपमास ड्वयेयभागं चोत्कृष्टा, पठन्ति च- 'उक्कोसा तिनुदही, पलियम संखेजभागाऽहिय' ति स्पष्टम्, इयं च जघन्या रत्नप्रभायाम, तस्यां हि जघन्यतोऽपि दशवर्षसहस्राण्यु-रिति, उत्कृष्टा च वालुकाप्रभायाम, तत्रात्युपरितनप्रस्तटनारकाणामेव, तेषामे तावस्थितिकानामसा
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________________ लेसा 692- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लेसा विति भावनीयम् / नाय उदधयः पल्योपमासंख्येयभागश्च, मकारस्यालक्षणिकत्वात् चस्य गम्यमानत्वाजजघन्या नीलायाः स्थितिदशोदधयः पल्योपमासंख्येयभागश्चोत्कृष्टा, इहापि जघन्या वालुकाप्रभायामेतावस्थितिकानामेव, उत्कृष्टा च धूमप्रभायामुपरितनप्रस्तटनारकाणाम्, तत्रापि येषामेतावती स्थितिरिति मन्तव्या, इहोत्तरत्र च पाठान्तरं दृश्यते, तत्र च जघन्यस्थितिः समयाधिकत्वमुक्तं तच्च न बुध्यत इति, न तद् व्याख्या, दशोदधयः पल्योपमासंख्येयभागो जघन्यिका भवति प्रक्रमात्स्थितिः कृष्णाया इति सम्बन्धः, अस्याश्च धूमप्रभाया मेतावत्स्थितिकेष्वेव नारकेषु सम्भवः,त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि उत्कृष्टा भवति कृष्णायाः स्थितिरिती हापि प्रक्रमः, इयं च महातमः प्रभायाम् तत्रैवैतावत्प्रमाणस्या युषः संभवात्, इह च नारकाणमुत्तरत्रा च देवानां द्रव्यलेश्या स्थितिरेवैवं चिन्त्यते तद्भावलेश्यानां परिवर्त्तमानतया अन्यथा ऽपि स्थितेः सम्भवात्, उक्तं हि-"देवाण नारयाण य, दव्वलेसा भवंति एयाओ / भावपरावत्तीए, सुरणेरइयाण छल्लेसा // 1 // " पूर्वोक्तं निगमयन्नुत्तरं च ग्रन्थं प्रस्तावयन्निदमाह - एषा-अनन्त रोक्ता निरये भवा नैरयिका स्तेषां संबन्धिनीनां लेश्यानां स्थितिः-अवस्थितिः तुःपूरणे, वर्णिता-आख्यात भवति 'तेण' ति सूत्रात्वात् ततः परमितिअग्रतो वक्ष्यामि प्रक्रमाले श्यानां स्थितिम्, तिर्यग्नमनुष्याणां तथादेवानाम्। यथा प्रतिज्ञातमेवाह - 'अंतोमुत्तमद्धं ति अन्तर्मुहूर्ताम्अन्त मुहूर्त-कालं लेश्यानां स्थितिर्जधन्योत्कृष्टा चेति शेषः, कतरा ऽसौ ? इत्याह-यस्मिन् इति-पृथिवीकायादौ संमूर्छिममनुष्यादौ च याः कृष्णाद्याः तुः-पूरणे तिरश्चां मनुष्याणां मध्ये संभवन्ति तासाम्, एता हि क्वचित्काश्चित्संभवन्ति, यत आगम:- "पुढवीकाइया णं भंते ! कई लेसातो पन्नत्ताओ?, गोयमा ! चत्तारि लेसाओ, तं जहा-कण्हलेसा० जाव तेउलेसा, आउवणप्फइकाइयाण वि एवं चेव, तेउवाउबेइदियतेइंदियचउरिदियाण जहा नेरइयाणं, पंचेदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गोयमा ! छलेसाओ कण्हा० जाव सुक्कलेसा। मणुस्साणं पुच्छा, गोयमा ! छ एयाओ चेव समुच्छिममणुस्साणं पुच्छा, गोयमा! जहा नेरइयाणं" / / नन्वेवं शुल्कलेश्याया अप्यन्तर्मुहूर्तमेव स्थितिः प्राप्तेत्याशङ्कयाह - वर्जयित्वा केवलां शुद्धां लेश्यां शुल्कलेश्यामिति यावत् अस्याश्च यावतीस्थितिस्तामाह - 'मुहुत्तऽद्धं तु'त्ति प्राग्वदन्त र्मुहूर्तमेव जघन्या उत्कृष्टा भवति पूर्वकोटी तुः-विशेषणे, सच जघन्यस्थित्यपेक्षयाऽस्या उक्त मेव विशेषं द्योतयति, नवभि वर्षयूंना ज्ञातव्या शुल्कलेश्यायाः स्थितिरिति प्रक्रमः, इह च यद्यपि कश्चित्पूर्वकोट्यायुरष्टवार्षिक एव व्रतपरिणाममाप्नोति तथाऽपि नैतावद्वयः स्थस्य वर्षपर्यायादक शुल्कलेश्यायाः सम्भव इति नवभिर्वर्षेन्यूँना पूर्वकोटिरुच्यते। एसा' सूत्रां स्पष्टमेव / प्रतिज्ञातनुरुपमाह - दशवर्षसहस्राणि कृष्णायाः स्थितिर्जघन्यका भवति, भवनपतिव्यन्तरेषु चास्याः सम्भव स्तेषामेव। जघन्यतोऽप्येतावत्स्थितिकत्वात्, उक्तं च - "दसभवणवणयराणं वाससहस्सा ठिई जहन्नेणं' ति, पलिय मसंखेज्जइमो तिपल्योपमा संख्येयतमः प्रस्तावाद् भाग उत्कृष्टा भवति कृष्णायाः स्थितिरिति प्रक्रमः, एवंविधाविमध्य मायुषामेव भवनपतिव्यन्तराणाभियं द्रष्टव्या। सम्प्रति नीलायाः स्थितिमाहया कृष्णायाः स्थितिः 'खलुः-याक्यालकारे 'उत्कृष्टा अनन्तरमुक्तरुपा 'सा उत्ति सैव 'समयमब्भहिय' त्ति समयाभ्यधिका जघन्येन नीलायाः, पलियमसंखिज्ज' त्ति प्राग्वत्पल्योपमासंख्येयश्च भाग उत्कृष्टा स्थितिर्नवरमुक्तहेतोरेव बृहत्तरोऽयमसंख्येयभागो गृह्यते। या नीलायाः स्थितिः खलूत्कृष्टा सा उ' त्ति सैव समयाभ्यधिका जघन्येन कापोतायाः पल्योपमासंख्येयश्च भाग उत्कृष्टा स्थितिः, एतावदायुषामेव भवनपतिव्यन्तराणामिमेमन्तव्ये, इहाप्युक्तहेतोरेव पूर्वस्माद् बृहत्तरोऽसंख्यातभागः परिगृह्यते। इत्थं निकायद्वयभाविनीमाद्यलेश्यात्रयस्थितिमुपदर्थ्य समस्त निकायभाविनी तेजोलेश्यास्थितिमभिधातुं प्रतिज्ञासूत्रमाह-'तेण' त्ति ततः परं प्रवक्ष्यामि तेजोलेश्याम्, 'यथे ति येना वस्थानप्रकारेण सुरगणानां भवति तथेत्युपस्कारः, किमन्यतर निकायानामेवामीषामुतान्यथेमाह - भवनपतिवाणमन्तर ज्योतिर्वैमानिकानां चतुर्निकायानामिति योऽर्थः, चः-पूरणे, प्रतिज्ञातमे-वाह-पल्योपमं जघन्या उत्कृष्टा 'सागर' त्ति सागरोपमे तुः-प्राग्वत् द्वे-द्विसंख्ये अधिके-अर्गले, कियते-त्याहपल्योपमासंख्येयेनेति योगः, भवति तैजस्याः स्थितिरिति प्रक्रमः, इयं च सामान्योपक्रमेऽपि वैमानिकानिका यविषयतयैव नेया, तत्राच सौधर्मेशानदेवानां जघन्यत उत्कृष्ट श्चैतावदायुषः सम्भवात्, उपलक्षणं चैतच्छेषनिकाय तेजोलेश्यास्थितेः, ततश्च भवनपतिव्यन्तराणां जघन्यतो दश वर्षसहस्राणि, उत्कृष्टतस्तुभवनपतीनां सागरोपममधिकं, व्यन्तराणां च पल्योपर्म, ज्योतिष्काणांत जघन्यतः पल्योपमाष्टभागः, उत्कृष्टतस्तु वर्षलक्षाधिकं पल्योपमम्, एता यन्मात्राया एवैषांजघन्यत उत्कृष्टतश्चायु:- स्थितेः सम्भवात्। 'दसवाससहस्साइं.' इत्यादि स्पष्टमेव, नवरमेनन् निकाय भेदमनङ्गीकृत्यैव लेश्यास्थितिरुत्का। इह च दशवर्षसहस्राणि जघन्या तेजस्याः स्थितिरभिहिता, प्रक्रमानुरुपेण तु योत्कृष्टा कापोतायाः स्थितिरसावेवास्याः समयाधिक प्राप्रोति, अधीयते च केचनानन्तरसूत्रत्रयस्थाने 'जा काऊइ ठिई खलु उक्कोसे' त्यादि तदा तत्त्वं न विद्मः। पद्मायाः स्थितिमाह-या तेजस्याः स्थितिः खलुत्कृष्टा 'साउ' त्ति सैव समयाभ्यधिका जघन्येन पद्मायाः स्थितिरिति प्रक्रमः, 'दश तु' इति दशैव प्रस्तावात्सागरोपमाणि मुहूर्त्ताधि-कान्युत्कृष्टा, इयं च जघन्या सनत्कुमारे उत्कृष्टा च ब्रह्मलोके, तयोरेवैतदायुष्कसंभवात्, आह-यदीहा न्तर्मुहूर्तमधिकमुच्यते ततः पूर्वत्रापि किंनतदधिकमुच्यते? देवभवलेश्याया एव तत्र विवक्षितत्वात, प्रतिज्ञातं हि 'तेण परं वोच्छामि, लेसाण ठिई तु देवाणं' ति, एवं सतीहान्तर्मुहूर्त्ताधि कत्वं विरुध्यते, न अभिप्रायपरिज्ञानात्, अत्रा हि प्रागुत्तरभव लेश्याऽपि"अन्तोमुत्तम्मि गए 'त्ति वचनाद्देवभवसम्बधिन्ये वेति प्रदर्शनार्थमित्थमुक्तामिति न विरोध इति भावनीयम् / शुक्ललेश्यास्थितिमाह - या पद्मायाः स्थितिः खलत्कृष्टा 'सा उ' त्ति सैव समयाभ्यधिका जघन्येन शुल्कायाः स्थितिरिति प्रक्रमः, त्रयस्त्रिं
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________________ लेसा 693 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लेसा शत् 'मुहूत्तमभहिये' त्ति प्राग्वन्मुहूर्ताभ्यधिकानि सागरोपमाण्युत्कृष्टति गम्यते अस्याश्च लान्तकाभिधानषष्ठदेवलोकात्प्रभृति यावत्सर्वार्थसिद्धस्तावत्संभवः, अनौवैतावदायुषः सद्भाव इति कृत्येति पञ्चदशसूत्रार्थः / उत्त०३४ अ०॥ (23) संप्रति अल्पबहुत्वमाहएएसि णं भंते ! कण्हलेस्साठाणाणं जाव सुक्कलेसाठाणाण य जहन्नगाणं दव्वट्ठयाए, पएसट्ठयाए, दवट्ठपएसठ्ठयाए, कतरे कतरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ?, गोयमा ! सव्वत्थोवा जहन्नगा काउलेस्साठाणा दव्वट्ठयाए जह नगा नीलले साठाणा दव्वयट्टयाए असंखेनगुणा जहन्नगा कण्हलेसाठाणा दवट्ठयाए असंखेजगुणा जहन्नतेउलेसाठाणा दध्वट्ठयाए असंखेज्जगुणा जहन्नगा पम्हलेसाठाण दव्वट्ठयाए असंखेजगुणा जहन्नगा सुक्कलेसाठाणा दव्वट्ठयाण असंखेनगुणा पएसट्टयाए सव्वत्थोवा जहन्नगा काउलेसाठाणा पएसट्ठयाण असंखे० जहन्नगा नीललेसाठाणा पएसट्ठयाए असंखेनगुणा जहन्नगा कण्हलेसाठाणा पएसट्टयाए अखेजगुणा जहनतेउलेस्साठाणा पएसट्टयाए असंखेनगुणा जहन्नगा पम्हलेसाठाणा पएससट्टयाण असंखेजगुणा जहन्नगा सुक्कलेसाठाणा पएससट्ठयाए असंखेज्जगुणा / / दव्वट्ठपएसट्टयाए सम्वत्थोवा जहन्नगा काउलेसाठाणा दव्वट्ठयाए जहन्नगा नील लेसाठाणा दव्वट्ठयाए असंखेज्जगुणा / एवं कण्हलेसाठाणा तेउले साठाण पम्हलेसाठाणा जहन्नगा सुक्कलेसाठाणा दवट्ठयाण असंखेजगुणा जहन्नएहिंतो सुक्कलेसाठाणे हिंतो दव्वट्ठयाए जहन्नकाउलेसाठाणा पएसट्टयाए असंखेज्जगुणा एवं० जाव सुक्कलेस्साठाणा। एतेसि णं कण्हलेस्साठाणाणं०जाव सुक्कलेस्साठाणाण य उक्कोसगाणं दव्वट्ठयाए पएसट्ठयाए दवट्ठ पएसट्टयाए कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ?, गोयमा ! सव्वत्थोवा उक्कोसगा काउलेस्सा ठाणा दव्वट्ठयाए उक्कोसगानीललेसाठाणा दय्वट्ठयाए असंखेन गुणा, एवं जहेव जहन्नगा तहेव उक्कोसगा वि नवरं उक्कोस त्ति अमिलावो। एतेसि णं मंते ! कण्हलेस्साठाणाणं०जाव सुक्क लेस्साठाणाण य जहन्नउकोसगाणं दव्वट्ठयाएपएसट्ठयाए दवट्ठ पएसट्ठयाए कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ?, गोयमा ! सव्वत्थोवा जहन्नगा काउलेस्सा ठाणा दवट्ठयाए जहन्नया नीललेसाठाणा दट्वट्ठयाए असंखेज्जगुणा। एवं कण्हतेउपम्हलेसट्ठाणा जहन्नगा सुक्कले सट्ठाणा दवट्ठयाए असंखेज्ज गुणा जहन्नएहिंतो सुक्कलेसहाणेहिंतो दवट्ठयाए उक्कोसा काउलेसट्ठाणा दय्वट्ठयाए असंखेजगुणा उक्कोसानीललेसटाणा दवट्ठयाए असंखेजगुणा एवं कण्हतेउपम्ह०उकोसा सुक्कलेसाठाणा दव्वट्ठयाए असंखेजगुणा। पएसट्टयाएसम्वत्थोवाजहन्नगा काउलेस सट्ठाणा पएसट्ठयाए जहन्नगानीललेसट्ठाणा पएसट्टयाए विभाणियव्वं, नवरं पएसट्ठयाएत्ति अमिलावविसेसो, दवट्ठपएसट्टयाए सव्वत्थोवा जहन्नगा काउलेसट्ठाणा दव्वट्ठयाए जहन्नगा नीललेसट्ठाणा दट्वट्ठयाए असंखेजगुणा एवं कण्हतेउपम्ह जहन्नया सुकलेसट्ठाणा दव्वट्ठयाए असंखेज्जगुणा, जहन्नएहितो सुकलेसाठाणे हिंतो दवट्ठयाए उक्कोसो काउलेसाठाणा दवट्ठयाए असंखेज्जगुणा उक्कोसा नीललेस्सट्ठाणा दध्वसट्ठयाए असंखेजगुणा एवं कण्हतेउपम्ह ०उकोसगा सुक्कलेसहाणा दवट्ठयाणा असंखेज्जगुणा उक्झोराए हिंतो सुकलेसहाणे ०दव्वट्ठयाए जहन्नगा काउलेसट्ठाणा पएस ट्ठयाए अणंतगुणा, जहन्नगा नीलले सट्ठाणा पएसट्टयाए असंखेन्ज गुणा एवं कण्हतेउपम्ह०जहन्नगा सुक्कलेसट्ठाणा असंखेजगुणा, जहन्नएहिंतो सुक्कलेसाठाणे हिंतो पएसट्टयाए उक्कोसगा काउले साठाणा पएसठ्ठयाए असंखेनगुणा उक्कोसया नीललेसाठाणा पएस द्वयाए असंखेजगुणा, एवं कण्हतेउपम्ह०उकोसया सुक्क लेसाठाणा पएसट्ठयाए असंखेनगुणा। (सू० 230) 'एएसिणं भंते?' इत्यादि, इह त्रीणि अल्पबहुत्वानि, तद्यथा-जघन्यस्थानविषयम्, उत्कृष्टस्थानविषयम्, उभयस्थानविषयं च। एकैकमपि त्रिविधम्, तद्यथा-द्रव्यार्थ तया प्रदेशार्थतया उभयार्थतया च / तत्रा जघन्यस्थानविषये द्रव्यार्थतायां प्रदेशार्थतायां च प्रत्येक कापोतनीलकृष्णतेजः- पद्मशुल्कलेश्यास्थानानि क्रमेण यथोत्तरमसंख्येयगुणानि वक्तव्यानि, उभयार्थतायां प्रथमतो द्रव्यार्थतया कापोतनील कृष्णतेजः पदाशुल्कलेश्यास्थानानि क्रमेण यथोत्तरमसंख्येय गुणानि वक्तव्यानि, ततः शुक्ललेश्यास्थानानन्तरं प्रदेशार्थतया कापोतलेश्यास्थानानि अनन्तगुणानि वक्तव्यानि, तदनन्तरं नीलकृष्णतेजः पद्मशुक्ललेश्यास्थानानि क्रमेण प्रदेशार्थतया यथोत्तरमसंख्येयगुणानि, एवमुत्कृष्टान्यपि स्थानानि द्रव्यार्थतया प्रदेशार्थतया उभयार्थतया च चिन्तयितव्यानि, तथा चाऽऽह-'एवं जहेव जहन्नगा तहेव उदोसगा वि नवरमुझोस त्ति अभिलावो' इति। जघन्योत्कृष्टस्थानसमुदाय विषये त्वल्पबहुत्वे प्रथमतो जघन्यानि द्रव्यार्थतया कापोतनी लकृष्णतेजः पदाशुक्ललेश्यास्थानानि क्रमेण यथोत्तरमसंख्येयगुणानि वक्तव्यानि, तदनन्तरं जघन्यशुक्ल लेश्यास्थानेभ्य उत्कृष्टानि कापोतनीलकृष्णतेजः पद्मशुक्ललेश्यास्थानानिक्रमेण द्रव्यार्थतथैव यथोत्तरमसंख्येयगुणानि
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________________ लेसा 69. - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लेसा वाच्यानि, एवं प्रदेशार्थतयाऽपि जघन्योत्कृष्टस्थानविषयमल्प बहुत्वं भावनीयम्, तथा चाह-'एवं जहेव दव्वट्ठयाए तहेव पएस याए वि / भाणियव्यं, नवरं 'पएसट्टयाए' त्ति 'अभिलावे विसेसो' इति, द्रव्यार्थप्रदेशार्थतायां प्रथमतो द्रव्यार्थतया जघन्यानि कापोतनीलकृष्णतेजः पद्मशुल्कलेश्यास्थानानि क्रमेण यथोत्तरमसंख्येयगुणानि वक्तव्यानि ततोजघन्येभ्यः शुक्लेश्यास्थानेभ्यः उत्कक्रमेणैव चोत्कृष्टानि स्थानानि द्रव्यार्थतया यथोत्तरमसंख्येयगुणानि वाच्यानि तत उत्कृष्टेभ्यः शुल्कलेश्यास्थानेभ्यो जघन्यानि कापोतलेश्यास्थानानि प्रदेशार्थतया अनन्तगुणानि वक्तव्यानिततः प्रदेशार्थतयैव जघन्यानि नीलकृष्णतेजः पद्मशुल्कलेश्यास्थानानि यथोत्तर मसंख्येयगुणानि एवमुत्कृष्टस्थानान्यपि उत्कक्रमेणैव यथोत्तर मसंख्येयगुणानि वक्तव्यानीति / प्रज्ञा० 17 पद 4 उ०। ' (24) साम्प्रतमायु‘रावसरः, तत्र च यस्या लेश्याया यदायुषो मानं तस्थितिद्वार एवार्थतोऽभिहितम्, इह त्विदमुच्यते अवश्यं हि जन्तुर्यल्लेश्येषूत्पद्यते तल्लेश्य एव भियते, यत आगमः- "जल्लेसाइंदव्वाई परियाइत्ता कालं करेइ तल्लेसो उववजइ''त्ति, तथेहैव वक्ष्यति "अंतो मुहुत्तम्मिगए'' इत्यादि ता जन्मान्तरभाविलेश्यायाः किं प्रथम समये परभवायुष उदय आहोस्विचरमसमयेऽन्यथा वेति संशयापनोदनायाहलेसाहिं सव्वाहिं, पढमे समयम्मि परिणयाहिं तु। न हु कस्सइ उववत्ति, परे भवे अस्थि जीवस्स // 58| लेसाहिं सव्वाहि, चरमे समयम्मि परिणयाहिं तु / न हु कस्सइ उववत्ति, परे मवे अस्थि जीवस्स / / 56 अंतमुहुत्तम्मि गए, अंतमुहुत्तम्मि सेसए चेव। लेसाहिं परिणयाहिं,जीवा गच्छंति परलोयं // 60|| लेश्याभिः-उक्तरुपाभिः सर्वाभिः इति षडिरपि प्रथमे समये तत्प्रतिपत्तिकालापेक्षया परिणताभिः-प्रस्तावादात्मरुपतामापन्नाभिः,लक्षणे तृतीया, तुः-पूरणे, नहु-नैव कस्यापि 'उववत्ति ति उत्पत्तिः-उत्पादः, पठ्यते-'न विकस्स वि उवववाओ ति सुगमम्, परे--अन्यस्मिन् भवेजन्मनि भवति-विद्यते जीवस्य-जन्तोः,तथा लेश्याभिः सर्वाभिः चरमे समये इति-अन्तसमये परिणताभिस्तु न हु-नैव कस्याप्युत्पत्तिः परे भवे भवति जीवस्य / कदा तर्हि ? इत्याह- अन्तर्मुहूर्ते गत एव-- अतिक्रान्त एव, तथाऽन्तर्मुहूर्ते शेषके चैव-अवतिष्ठमान एव लेश्याभिः परिणताभिरुपलक्षिता जीवा गच्छन्ति परलोकम्-भवान्तरम्, इत्थं चैतन्मृतिकाले भाविभव लेश्याया उत्पत्तिकाले वा वाऽतीतभवलेश्याया अन्तर्मुहूर्त्तमवश्यं भावात्, न त्विह विपरीतमवधार्यत-अन्त मुहूर्त एव गत इत्यन्तर्मुहूर्त एव शेषक इति च देवनारकाणां स्वस्वलेश्यायाः प्रागुत्तरभवान्तर्मुहूर्तद्वयसहितनिजायुः कालं यावदवस्थितत्वात्, उक्तं हि प्रज्ञापनायाम् - "जल्लेसाईदव्वाईआयतित्ता कालं करेति तल्लेसेसु उववज्जइ'त्ति, तथा 'कण्हलेसे णेरतिए कण्हलेसेसुणेरइएसु उववज्जति कण्हलेसेसु उव्वदृइ' "जल्लेसेउववज्जइ तल्लेसे उव्वट्टति एवं नीललेसे वि, काउलेसे वि, एवं-असुर-कुमारा० जाववेमाणिया ति, अनेनान्तमुहूर्तावशेष आयुषि परभवलेश्यापरिणाम इत्युक्तं भवतीति सूत्रत्रयार्थः / इत्थं लेश्यानां नामाद्यभिधाय साम्प्रतमध्यनार्थमुपसंजिहीर्षु रुपदेशमाहतम्हा एयासि लेसाणं, अणुभावं वियाणिया। अप्पसत्था उ वञ्जित्ता, पसत्थाओऽहिहए मुणी॥६१|| 'तम्ह' त्ति यस्मादेता अप्रशस्ता दुर्गतिहेतवः प्रशस्ताश्च सुगतिहेतवस्तस्मात् एतासाम्-अनन्तरमुक्तानां लेश्यानाम् अनुभागम्-उक्तरुपं विज्ञाय-विशेषेणावबुध्य अप्रशस्ताः-कृष्णाद्यास्तिस्रो वर्जयित्वा प्रशस्ताः-तैजस्याद्यास्तिस्रः अधि तिष्ठेत्-भावप्रतिपत्त्याऽऽश्रयेन्मुनिरिति शेष इति सूत्रार्थः / उत्त० 34 अ०। (25) कृष्णलेश्यां नीललेश्यां प्राप्य न तद्रूपतया परिणमतीत्याह - कहणमंते ! लेस्साओ पन्नत्ताओ?,गोयमा ! छ लेस्साओ पन्नत्ताओ, तंजहा-कण्हलेसा० जाव सुक्कलेसा। से नूणं मंते ! कण्हलेसा नीललेसं पप्प तारुवत्ताए तावन्नत्ताए तागंधत्ताए तारसत्ताए ताफासत्ताए भुजो मुझो परिणमति, इत्तो आढत्तं जहा चउत्थओ उद्देसओ तहा भाणियव्वं० जाव वेरुलियमणि दिवतो त्ति / से नूणं भंते ! कण्हलेसा नीललेसं पप्प णो तारुव त्ताए. जाव णो ता फासत्ताए भुजो भुञ्जो परिणमइ ?, हंता गोयमा ! कण्हलेसा नीललेस्सं पप्प णो तारुवत्ताए णो तावन्नत्ताए णो तागंधत्ताए णो तारसत्ताए णोताफासत्तए भुजो भुजो परिणमति, से केण?णं भंते ! एवं वुचइ ?, गोयमा ! आगारभावमायाए वा से सिया पलिभागभावमायाए वा से सिया कण्हलेस्सा णं सा णोखलुनीललेसा तत्थ गया ओसकाइ उस्सकाइवा, से तेणष्टेणं गोयमा! एवं वुचइ कण्हलेस नीललेसं पप्पणो तारुवत्ताएजाव भुजो भुजो परिणमति, से नूणं भंते ! नीललेसा काउलेसं पप्प णो तारुवत्ताए. जाव भुजो भुञ्जो परिणमति ?, हंता गोयमा! नीललेसा काउलेसं पप्प णो तारुवत्ताए०जाव भुजो मुजो परिणमति, से केणतुणं भंते ! एवं वुचइ-नीललेसा काउलेसं पप्प णो तारुवत्ताए०जाव भुजो मुजो परिणमति ?, गोयमा! आगारभावमायाए वा सिया पलिभागभावमायाए वा सिया नीललेस्सा णं सा णो खलु सा काउलेसा तत्थ गया ओसक्का उस्सकतिवा, से एएणतुणंगोयमा! एवं वुचइनीललेसा काउलेसं पप्प णो तारुवत्ताए० जाव मुजो मुजो परिणमति, एवं काउले सा तेउलेसं पप्प तेउलेसा पम्हलेसं पप्पपम्हलेसा सुक्कलेसं पप्प, से
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________________ लेसा 695 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लेसा नणं भंते ! सुक्कलेसा पम्हलेसं पप्प णो तारुवत्ताए० जाव परिणमति ?, हंता गोयमा ! सुक्कलेसा तं चेव, से केणटेणं भंते ! एवं वुचति-सुक्कलेसा० जाव णो परिणमति ?, गोयमा! आगारभावमायाए वा० जाव सुक्कलेसा णं सा णो खलु सा पम्हलेसा तत्थ गया ओसकइ, से तेणटेणं गोयमा ! एवं बुचइ० जाव णो परिणमइ। (सू०२३१) 'कइणं भंते! लेस्साओ पन्नत्ताओ' इत्यादि, चतुर्थो देशकवत्तावन्द्वत्कव्यं यावद्वैडूर्यमणिदृष्टान्तः, व्याख्या च प्राग्वदेव निरवशेषा कर्तव्या, प्रागुपन्यस्तस्याप्यस्य सूत्रस्य पुनरुपन्यासोऽग्रेतनसूत्रासम्बन्धार्थः, तदेव सूत्रमाह- 'से नूणं भंते! इत्यादि, इह तिर्यानुष्यविषयं सूत्रामनन्तरमुत्कम्, इदं तु देवनैरयिकविषयमवसेयम्, देवनैरयिका हि पूर्वभवगतचर मान्तर्मुहूर्तादारभ्ययावत् परभवगतमाद्यमन्तर्मुहूर्त तावदवस्थितलेश्याकाः, ततोऽमीषां कृष्णादिलेश्याद्रव्याणां परस्परसम्पर्केऽपि न परिणम्यपरिणामकभायो घटते ततः सम्यगधिगमाय प्रश्नयति 5 'से नूणं भंते ! इत्यादि, सेशब्दो ऽथशब्दार्थः, स च प्रश्ने, अथ नूनम्निश्चितं भदन्त ! कृष्ण लेश्याः कृष्णलेश्याद्रव्याणि नीललेश्या नीललेश्याद्रव्याणि प्राप्य, प्राप्तिरिह प्रत्यासन्नत्वमात्रं गृह्यते न तु परिणम्यपरिणा मकभावेनान्योऽन्यसंश्लेषः, तद्रूपतया-तदेव-नीललेश्याद्रव्यगत रुपम्-स्वभावो यस्य कृष्णलेश्यास्वरुपस्य तत्त द्रूपं तद्भावस्तद्रूपता तया, एतदेवव्याचष्टे नतद्वर्णतया न तद् गन्धतयानतद्रसतयान तत्स्पर्शतया भूयो भूयः परिणमते, भगवानाह हन्तेत्यादि, हन्त गौतम ! कृष्णलेश्येत्यादि, तदेव, ननु यदि न परिणमते तर्हि कथं सप्तमनरकपृथिव्यामपि सम्यक्त्वलाभः, सहि तेजोलेश्यादिपरिणामे भवति सप्तमनरकपृथिव्यां च कृष्णलेश्येति, कथं चैतद्द्वाक्यं घटते? 'भावपरावत्तीए पुण सुरनेरइयाणं पिछल्लेसा' इति लेश्यान्तर द्रव्यसम्पर्कतस्तद्रूपतया परिणामाऽसम्भवेन भावपरावृत्तेरेवायोगात्, अत एव तद्विषये प्रश्ननिर्वचनसूत्रो आह-'सेकेण?णं भंते !' इत्यादि तत्रा प्रश्नसूत्रां सुगमं निर्वचनसूत्राम्-आकारः- तच्छायामात्रामाकारस्य भावः- सत्ता आकारभावः स एव मात्रा आकारभावमात्रा तया आकारभावमात्राया, मात्राशब्द आकारभावातिरित्कपरिणामान्तरप्रतिपत्तिव्युदासार्थः, 'से' इति-सा कृष्णलेश्या नीललेश्यारुपतया, स्यात्, यदिवा-प्रतिभागः-प्रतिबिम्बमादर्शादाविव विशिष्टः प्रतिबिम्ब्व्यवस्तुगत आकारः प्रतिभाग एव प्रतिभागमात्रा तया, अत्रापि मात्राशब्दः प्रतिबिम्बातिरित्कपरिणामान्तरव्यु दासार्थः स्यात्, कृष्णलेश्या नीललेश्यारुपतया, परमार्थतः पुनः कृष्णलेश्यैव नो खलु नीललेश्या सा, स्वरुपापरित्यागात् न खल्वाददियो जपाकुसुमादिसन्निधानतस्तत्प्रतिबिम्बमात्र मादधाना नादर्शादय इति परिभावनीयमेतत्, केवलं सा कृष्ण लेश्या तत्र-स्वस्वरुपे गता-अवस्थिता सती उत्ष्वष्कते तदाकारभावमाधारणतस्तत्प्रति बिम्बमात्रधारणतो वोत्सर्प तीत्यर्थः, कृष्णलेश्यातो हि नीललेश्या विशुद्धा ततस्तदाकार भावं तत्प्रतिबिम्बमानं वा दधाना सती मनाक् विशुद्धा भवतीत्युत्सर्पतीति व्यपदिश्यते' उपसंहारवाक्यमाह - 'से एएण?ण' मित्यादि, सुगमम् / एवं नीललेश्याया कापोतलेश्यामधिकृत्य कापोतलेश्यायास्तेजोलेश्यामामधिकृत्य तेजोलेश्यायाः पद्मलेश्यामधिकृत्य पद्मलेश्यायाः शुल्क लेश्यामधिकृत्य सूत्राणि भावनीयानि, सम्प्रति पद्मलेयामधिकृत्य शुल्कलेश्याविषयं सूत्रामाह - ‘से नूणं भंते ! सुक्कलेसा पम्हलेसं पप्प' इत्यादि, एतच प्राग्वद् भावनीयम्, नवरं शुल्कलेश्यापेक्षया पालेश्या हीनपरिणामा ततः शुक्ल लेश्या पदालेश्याया आकारभावं तत्प्रतिबिम्बमात्र वा भजन्ती मनागविशुद्धा भवति, ततोऽवष्वष्कते इतिव्यपदिश्यते, एवं तेजः कापोतनीलकृष्णलेश्याविषयाण्यपि सूत्राणि भावनीयानि, ततः पद्मलेश्यामधिकृत्य तेजः कापोतनीलकृष्ण लेश्याविषयाणि तेजोलेश्यामधिकृत्य कापोतनीलकृष्ण विषयाणि कापोतलेश्यामधिकृत्य नीलकृष्णलेश्याविषये नील लेश्यामधिकृत्य कृष्णलेश्याविषयमिति, अमूनि च सूत्राणि साक्षात् पुस्तकेषु न दृश्यन्ते केवलमर्थतः प्रतिपत्तव्यानि, तथा मूलटीकाकारेण व्याख्यानात्, तदेवं यद्यपि देवनैरयिकाणामव स्थितानि लेश्याद्रव्याणि तथापि तत्तदुपादीय मानलेश्यान्तरद्र व्यसम्पर्कतः तान्यपि तदाकारभावमात्रा भजन्ते इति भावपरा वृत्तियोगः षडपि लेश्या घटन्ते, ततः सप्तमनरकपृथिव्यामपि सम्यक्त्वलाभ इति न कश्चिदोषः। प्रज्ञा० 17 पद 5 उ०। (26) मनुष्यादिगतलेश्यासंख्यामाहकति णं भंते ! लेसा पन्नत्ता?, गोयमा ! छ लेसा पन्नता, तं जहा कण्हलेसा .जाव सुक्कलेसा, मणुस्साणं भंते ! कइ लेसा पण्णता ?, गोयमा ! छ लेस्साओ पण्णत्ताओ, तं जहाकण्हलेसा.जाव सुक्कलेसा, मणुस्सीणं मंते ! पुच्छा, गोयमा! छल्लेसाओ पण्णत्ताओ, तं जहा-कण्हा० जाव सुका, कम्मभूमयमणुस्साणं भंते ! कह लेसाओ पण्णत्ताओ ?, गोयमा छलेसाओ पण्णत्ताओ,तं जहा-कण्हा० जाव सुक्का, एवं कम्म भूमयमणुस्सीण वि। भरहेरवयमणुस्साणं भंते ! कति लेसाओपण्णत्ताओ?,गोयमा! छलेसाओपण्णत्ताओ,तं जहाकण्हा०जाव सुक्का, एवं मणस्सीए वि, अकम्मभूमय-मणुस्साणं पुच्छा, गोयमा! चत्तारिलेसाओ पण्णत्ताओ, तं जहा-कण्हा० जाव तेउलेसाओ एवं अकम्मभूमिगमणुस्सीए वि, एवं अंतरदीवमणु स्साणं, मणुस्सीण वि, एवं हेमवयएरनवयअमम्मभूमयमणुस्साणं,मणुस्सीण यकइलेसाओ पण्ण्त्ताओ?, गोयमा ! चत्तारि, लेसाओ पण्णत्ताओ, तं जहा-कण्हा 0 जाव तेउलेसा, हरिवासरम्मयअकम्मभूमयमणुस्साणंमणुस्सीणय पुच्छा, गोयमा ! चत्तारि, तं जहा कण्हा 0 जाव तेउलेसा, देवकुरुउत्तर -
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________________ लेसा 666- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लेसा कुरुअकम्मभूमयमणुस्सा एवं चेव, एतेसिं चेव मणुस्सीणं एवं (E) लेश्यानां वर्णाधिकारः। चेव, धायइसंडपुरिमद्धे वि एवं चेव, पच्छिमद्धे वि एवं (10) विशेषतो वर्णाधिकारः। पुक्खरदीवे वि भाणियध्वं / कण्हलेसे णं मंते ! मणुस्से (11) कृष्णादिलेश्याकनारकाणां स्थित्याऽल्पमहत्तवम् / कण्हलेसं गम्भं जा (ज) णेशा?, हंता गोयमा ! जाणेजा, (12) लेश्यानां वर्णस्थानम्। कण्हलेसा मणुस्से नीललेसं गन्भं जाणेजा?, हंता गोयमा ! (13) लेश्यानां रसाधिकारः। जाणेशा० जाव सुकलेसं गर्भ जाणेजा, नीललेसा मणुस्से (14) लेश्यानां गन्धाधिकारः। कण्हलेसं गम्भं जाणेला? हंता गोयमा ? जाणेला, एवं (15) लेश्यानां गन्धाधिकारः। नीललेसा मणुस्से० जाव सुबलेसं गम्भं जाणेजा, एवं (16) लेश्यानां शीतोष्णस्पर्शाधिकारः। काउलेसेणं छप्पि आलावगा भाणियव्वा, तेउलेसाण वि, (17) लेश्यानां गतिद्वारम्। पम्हलेसाण वि, सुकलेसाण वि, एवं छत्तीसं आलावगा | (18) लेश्यानां परिणामसंख्यानिरुपणम्। माणियव्वा, कण्हलेसा इत्थिया कण्हलेसं गम्भं जाणेजा ?, (19) लेश्यानां त्रिस्थानकावतारः / हंतागोयमा! जाणेजा, एवं एते विछत्तीसं आलावगा भाणियव्वा (20) लेश्यानां प्रदेशाः। कण्हलेसाणं भंते ! मणुस्से कण्हलेसाए इत्थियातो कण्हलेसं (21) लेश्यानां स्थानानि। गन्मं जाणेजा ?, हंता गोयमा ! जाणेजा० एवं एते छत्तीसं (22) का लेश्या कियत्कालं तिष्ठति। आलावगा, कम्मभूमगकण्हलेसे णं भंते ! भणुस्से कण्हलेसाए (23) लेश्यास्थानानामल्पबहुत्वम् / इत्थियाए कण्हलेसंगम्भ जाणेजा?,हंता गोयमा ! जाणेजा, (24) लेश्यानामायुरिम् / एवं एते छत्तीसं आलावगा भाणियव्या, अकम्मभूमयकण्हलेसा (25) लेश्यानां परस्परपरिणामनिरुपणम्। (26) मनुष्यादिगतलेश्यासंख्यानिरुपणम् / मणुस्सा अकम्मभूमय कण्हलेसाए इत्थियाए अकम्मभूमयकण्हलेसंगम जाणेशा?,हंता गोयमा! जाणेजा, नवरं चउसु लेस्सापरिणाम पुं० (लेश्यापरिणाम) जीवानां लेश्यापरिणतौ, प्रज्ञा० 13 पदा स्था०1 लेसासु सोलस अलागवा, एवं अंतरदीवगाण वि। (सू०२३२) लेस्सामिताव पुं० (लेश्याभिताप) तेजसोऽभितापे, भ०८ श० 8 उ०। 'कइणं भंते! लेस्साओपन्नत्ताओ' इत्यादि, सुगमम् उद्देश कपरिसमाप्ति लेस्सि (ण) त्रि० (लेश्यिन्) लेश्या विद्यते येषां ते लेश्यिनः / यावत्, नवरमुत्पद्यमानो जीवो जन्मान्तरे लेश्याद्रव्याण्यादायोत्पद्यते शिखादेराकृतिणत्वादिन् प्रत्ययः। लेश्यावति, बृ०१ उ०१ प्रक०। तानि च कस्यचित्कानिचिदिति। कृष्णलेश्यापरिणतेऽपिजनके जन्यस्य लेह पुं० (लेख) लेखनं लेखः। "ख-ध-थ-ध-भाम्" // 1187 / / विचित्रलेश्यासंभवः, एवं शेषलेश्यापरिणतेऽपि भावनीयम॥ प्रज्ञा०१७ इतिखस्य हः / प्रा०। अक्षरविन्यासे, स०७२ सम०। आ० चू०। प्रव०। पद 6 उ०। (ध्यानिनां लेश्याः 'रुद्दज्झाण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 568 आ० म०। बृ०। ज्ञा०। लिपिपरिज्ञाने, नं० तद्विषये कलाभेदे, जं०२ पृष्ठे उत्काः / ) किरणे,ज्ञा०१श्रु०६अ०॥ तेजसि, भ०१४ श०६ उ०। वक्ष०ा लिख्यते इति लेखः / ग्रन्थे, आव०३ अ०। देहवर्णसुन्दरतायाम्, जी०३ प्रति० 4 अधि०। 'अंतमुहूत्त ठिईओ, लेह (लिक्ख) गन० (लेख्यक) व्यवहारादिसम्बन्धानि पत्रचये, प्रव० तिरियनराणं हवंति लेसाओ' एवं युगलिनामपि तथैव लेश्यास्थिति 38 द्वार। कालोऽन्यथा वेति?, प्रश्नः, अनोत्तरम् युगलानिमप्यन्यतिर्यड्मनुष्य लेहड-देशी-- लम्पटे, दे० ना०७ वर्ग 25 गाथा। वदान्तमौहूत्तिों लेश्यास्थितिकालोज्ञेयः, प्रज्ञापनावृत्त्यादिष्वविशेषेण लेहणा स्त्री० (लेखना) सत्पुस्तकेषु अक्षरविन्यसने, "तथा सिद्धान्ततथाऽभिधानादिति // 60 // सेन०२ उल्ला० / माश्रित्य, विधिना लेखनादि च / " द्वा० 21 द्वा०। विषयसूची लेस्सागइस्त्री० (लेश्यागति) तिर्यड्मनुष्याणां कृष्णादिलेश्या द्रव्याणि (1) लेश्यानिक्षेपः। संप्राप्य तद्रूपादितया परिणमतीति लेश्यागतिः / गतिभेदः, प्रज्ञा० (2) लेश्यासंख्या। १६पद। (3) नैरयिकादीनां लेश्याः / लेस्साणुवायगइ स्त्री० (लेश्यानुपातगति) लेश्याया अनुपातो ऽनुसरणं (4) असुरकुमारादीनां, देवानां च लेश्याः / तेन गतिर्लेश्यानुपातगतिः। गतिभेदे, प्रज्ञा०१६ पद। (5) कृष्णादिलेश्यावन्तः केऽल्पर्द्धिकाः के महर्द्धिकाः। लेहना-स्त्री० आस्वादने, कल्प०१ अधि०१क्षण। (6) कृष्णलेश्यां प्रणिधाय अवधिना कियत्क्षेत्रां पश्यति। लेहणी स्त्री० (लेखनी) लेखनसाधने, (कलमे) रा०! (7) का लेश्या कतिषु स्थानेषु लभ्यते। लेहसालास्त्री० (लेखशाला) अक्षरविन्यसनशिक्षणशालायाम्, आ० चू० (8) का लेश्या केन परिणामेन परिणमति। १अ०॥
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________________ लेसा 667- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लेसा वीरस्य लेखशालाप्रवेशः"अथ तं मातापितरौ, विज्ञौ ज्ञात्वाऽष्टवर्षमतिमोहात्। वरममितालङ्कारी-रुपनयतो लेखशालायाम् / / 1 / / लग्रदिवसव्यवस्थिति-पुरस्सरं परमहर्षसम्पन्नौ। प्रौढोत्सवान्महा_न, वितेनर्तुघनधनव्ययतः // 2 // तथाहिमजतुरगसमूहः स्फारकेयूरहारैः, कनकघटितमुद्राकुण्डलैः कङ्कणाद्यैः। रुचिरतरदुकूलैः पञ्चवर्णैस्तदानीं, स्वजनमुखनरेन्द्राः सक्रियन्ते स्म भक्तया / / 3 / / तथापण्डितयोग्यं नाना, वस्त्रालङ्कारनालिकेरादि। अथ लेखशालिकानां, दानार्थमनेकवस्तूनि / / 4 / / तथाहिपूगीफलशृङ्गाटक-खर्जूरासितोपलास्तथा खण्डा। चारुकुलीचारुबीजा द्राक्षादिसुखाशिकावृन्दम्।।५।। सौवर्णरत्नराजत--मिश्राणि च पुस्तकोपकरणानि। कमनीयमषीभाजन-लेखनिकापट्टिकादीनि // 6 // वाग्देवीप्रतिमार्चा-कृतये सौवर्णभूषणं भव्यम्। नव्यबहुरत्नखचितं, छात्राणां विविधवस्त्राणि // 7 // " इत्यादि समग्रपठनसामग्रीसहितः, कुलवृद्धादिभिस्तीर्थोदकैः स्मपितः, परिहितप्रचुरालङ्कारभासुरः शिरोधृत मेघाडम्बरच्छत्राश्चतुरङ्ग सैन्यपरिवृत्तो वाद्यमानाऽनेकवादित्राः पण्डितगेहमुपाजगाम् / पण्डितोऽपि भूपालपुत्रापाठनोचितां पर्व परिधेयक्षीरोदकधौतिकमयज्ञोपवीतकेसरतिलकादि सामग्री यावत् करोति तावत् पिप्पलपर्णत्वात्, गजकर्णवत्, कपटिध्यानवत्, नृपतिमानवत् चलाचलसिंहासनः शक्रोऽव धिना ज्ञाततत्स्वरुपो देवान् इत्थमवादीत्-अहो ! महचित्राम्, यद्भगवतोऽपि लेखशालायां मोचनम्। यतः"सामे वन्दनमालिका समधुरीकारः सुधायाः सच, ब्राह म्याः पाठविधिः स शुभिमगुणारोपः सुधादीधितौ।। कल्याणे कनकच्छटाप्रकटनं पावित्र्यसंपत्तये, शास्त्राध्यापनमहतोऽपि यदिदं सल्लेखशालाकृते / / 1 / / मातुः पुरो मातुलवर्णनं तत्, लङ्कानगर्यां लहरीयकं तत्। तत्याभृतं लावणमम्बुराशेः, प्रभोः पुरोयद्वचसा विलासः // 2 // " यतः"अनध्ययनविद्वांसो, निद्रव्यपरमेश्वराः॥ अनलङ्कारसुभागाः, पान्तु युष्मान जिनेश्वराः॥१॥" इत्यादि वदन् कृतब्राह्मणरुपस्त्वरितं यत्रा भगवास्तिष्ठति तत्रापण्डितगेहे समाजगाम, आगत्य पण्डितयोग्ये आसने भगवन्तमुपवेश्य पण्डितमनोगतान् संदेहान् पपृच्छ, श्रीवीरोऽपि बालोऽयं किं वक्ष्यतीत्युत्कर्णेषु सकललोकेषु सर्वाणि उत्तराणि ददौ, ततो जैनेन्द्रं व्याकरणं जज्ञे। यतः "सको अतस्समक्खं, भगवन्तं आसणे निवेसिता / / सद्द (स्स) लक्खणं पुच्छे, वागरणं अवयवा इंद॥१॥" सर्वे जना विस्मयं प्रापुः, अहो बालेनापि वर्द्धमानकुमारेण एतावती विद्या कुत्राधीता, पण्डितोऽपि चिन्तयामास"आबालकालादपि मामकीनान्, यान संशयान् कोऽपि निरासयन्न। बिभेद तांस्तान्निखिलान् स एष, बालोऽपि भोः पश्यत चिामेतत् / / 1 / / " किंच-अहो ईदृशस्य विद्याविशारदस्यापि ईदृशं गाम्मीर्यम्। अथवायुत्कमेवेदम् ईदृशस्य महात्मनः। यतः''गर्जति शरदि न वर्षति, वर्षति वर्षासु निःस्वनो मेधः। नीचो वदतिन कुरुते, न वदति साधुः करोस्येव / / 1 / / तथाअसारस्य पदार्थस्य, प्रायेणडम्बरो महान्। न हि स्वर्णे ध्वनिस्ताद्दग, यादृक् कांस्ये प्रजायते॥२॥ इत्यादि चिन्तयन्तं पण्डितं शक्रः प्रोवाच"मनुष्यमात्र शिशुरेष विप्र!, न शङ्कनीयो भवता स्वचित्ते' विश्वत्रायी-नायक एष वीरो, जिनेश्वरो वाङ्मयपारद्दश्वा / / 3 / / " इत्यादि, श्रीवर्द्धमानस्तुति निर्माय शक्रः स्वस्थानं जगाम। भगवानापि सकलज्ञातक्षत्रियपरिकलितः स्वगृहमागात्, इति श्रीलेखशालाकरणम्। कल्प०१ अधि०५ क्षण। लेहायरिय पुं० (लेखाचार्य) उपाध्याये, आ०म०१०। / लेहुड-देशी-लोष्ठवाचके, दे० ना०७ वर्ग 24 गाथा। लोअ पुं० (लोच) "क-ग-च-ज-त-द-प-य-वां प्रायोलुक्" ||8/1 / 177 // इति चकारस्य लुक् / प्रा०। केशानामुत्पाटने, सूत्र०१ श्रु०५ अ०१ उ०। लोक-पुं०। जगति, "भुअणं जयं च लोओ' पाइ० ना० 100 गाथा। लोअण- स्त्री०। न०। लोचन - न०। नेत्रे, "वाऽक्ष्यर्थवचनाद्याः" // 1133 // इति प्राकृते स्त्रीत्वं-वा। लोअणा। लोअणाई। प्रा०१पाद। लोइय पुं० (लौकिक) लोके भवा, लोके वा विदिता इति लौकिका अध्यात्मादित्वादिकण। सूत्रा०१श्रु०३ अ०२ उ०। इतिहासादिकर्तृषु, दश०४ अ० लोकाचीर्णे , उत्त० / अनु० / सामान्यलोकाश्रये, स्था० 3 ठा० 3 उ०। सू० प्र०।०। लोइयकहास्त्री० (लौकिककथा) असंविग्नलोकसम्बन्धिन्यां कथायाम, प्रश्न०४ संव० द्वार। लोइयमग्गपुं० (लौकिकमार्ग) यथावस्थितशब्दार्थनभिज्ञमुग्धजनव्यव हारे, अने०१ अधि०। लोउज्जोय पुं०(लोकोद्योत) लोकप्रकाशे, स्था०। चउहिं ठाणेहिं लोउज्जोते सिता, तं जहा-अरहंतेहिं जाय माणेहिं अरहंतेहि पव्वतमाणेहिं अरहंताणं णाणुप्पायमहिमासु अरहताणं परिनिव्वाणमहिमासु 4 / (सू०३२४) 'चउही' त्वादि, सुगमश्चार्य, नवरं लोकोद्योतश्चतुलपि स्थानेषु देवागमात्, जन्मादित्रये तुस्वरुपेणापि। स्था० 4 ठा० 3 उ०।
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________________ लोउत्तर 698 - अमिधानराजेन्द्रः- भाग 6 लोक लोउत्तर न० (लोकोत्तर) लोकस्योत्तरम्-प्रधानं लोकोत्तरम्। जिनशा सने, अनु० / नि० चू०। लोउत्तरिय न० (लोकोत्तरिक) लोकोत्तरे-जिनप्रवचने भवं लोकोत्तरिकम्। जिनप्रवचनभवे, लोकोत्तराणि यानि न लोके प्रसिद्धानि, किंतु-प्रवचन एव कृतानि तानि लोकोत्तराणि। शास्त्रमात्रप्रसिद्धे, सू०प्र० 10 पाहु० / व्य०। नि० चू०। लोक (ग)(य) पुं० (लोक) लोक्यत इति लोकः / लोक दर्शन इत्यस्माद् धातोः। "अकर्तरि च कारके संज्ञायाम्" इति घम्। आचा०१ श्रु०२ अ० 1 उ० / लोक्यते दृश्यते केवलज्ञानभास्व तेति लोकः। आव०५ अ०॥ चतुर्दशरज्ज्वात्मके (आचा०१ श्रु०२ अ०१3०1) धमाधास्तिकायव्यवच्छिन्ने अशेषद्रव्याधारे वैशाखस्थानकटिन्यस्तकरयुग्म पुरुषोपलक्षिते आकाशखण्डे, आचा०१श्रु०२ अ०१उ०। पञ्चास्तिकायात्मके, सूत्रा० 1 श्रु० 12 अ० / लोक्यते प्रमाणेन दृश्यत इति भावः / आव०६ अ०।आचा०ाल०। विशे०। आव०। सू० प्र०। आo म०।"धर्मादीनांवृत्तिर्द्रव्याणां भवति यत्र तत् क्षेत्रम्। तैर्व्यः सह लोकस्तद्विपरीतं ह्यलोकाख्यम्' ||1|| आव० 5 अ०। अनु० / विशे०। ल०। चतुर्दशरज्जुप्रमाणं चेत्थम् - (1) ता कियत्प्रामाणो लोक इत्याहचउदसरजू लोओ, बुद्धिकओ होइ सत्तरज्जुघणो (67) चतुर्दश रजवो यस्य य चतुर्दशरजुः, रज्जुप्रमाणं तु स्वयंभूरमण समुद्रस्य पोरस्त्यपाश्चात्यवेदिकान्तं यावद्दक्षिणोत्तरवेदिकान्तं वा यावदवसेयम्, उच्छ्यमानमिदमस्य अधस्ताद्देशोनसप्तरज्जु विस्तरः, तिर्यग्लोकमध्ये एकरज्जुविस्तरः ब्रह्मलोकमध्ये पञ्चरज्जुविस्तीर्णः उपरि तु लोकान्ते एकरजुविस्तृतः, शेष स्थानेषु पुनः कोऽपि कियानस्य विस्तर इति / तदेवंरुपो लोको बुद्धिकृतोमतिपरिकल्पनया विहितो भवति-संपद्यते, किरुपो भवतीत्याह-सप्त रज्जवः प्रमाणतया यस्यय सप्तरजुः स चासौ घनश्च समचतुरस्रआयामविष्कम्भबाहल्यैस्तुल्यत्वात् सप्तरज्जुघनः।स चेत्थं बुद्ध्या विधीयते- इह रज्जुविस्तीर्णा यास्रसनाड्या दक्षिणदिग्वयंधोलोकखण्डमधोदेशोनरज्जुायवि स्तृतम्, क्रमेण हीयमानाविस्तारं तावद्यावदुपरिष्टाद्रजुसंख्येय भागविस्तारं सातिकरेसप्तज्जूच्छ्यं गृहीत्वा असनाडिकाया एवोत्तरदिग्भागे विपरीतं योज्यते, उपरितनभागमधः कृत्वाऽधस्तनं थोपरि विधाय संघात्यते इत्यर्थः। एवं च कृतेऽ धस्तनं लोकस्या) सातिरेकसप्तरजूच्छ्रितं किंचिदूनरज्जुचतुष्ट यविस्तीर्ण बाहल्यतोऽप्यधः क्वचिद्देशोनसप्तरज्जुमानमन्यत्र पुनरनियतबाहल्यं जायते। इदानीमुपरितनलोकाधूसंवय॑त-तत्रापि रज्जुविस्तरायास्रसनाडिकाया दक्षिणदिग्वर्तिनी ब्रह्मलोकमध्यादधस्तनमुपरितनंचद्वे अपि खण्डे ब्रह्मलोकमध्ये प्रत्येकं द्विरज्जुविस्तरे उपर्यलोकसमीपेऽधस्तु रत्नप्रभाक्षुल्लकप्रतरसमीपेऽङ्गुलसहस्रभागविस्तरवती देशोन सार्धत्रयरज्जूच्छूिते बुद्ध्या गृहीत्वा त्रासनाडिकाया एवोत्तरपार्श्वे पूर्वोदितस्वरुपेणैव वैपरीत्येन संघात्वेते. एवंच कृते उपरितनं लोकस्यार्धद्वाभ्यामडल सहस्रभागाभ्यामधिकरज्जुत्र विष्कम्भम्, इह चतुर्णा खण्डानां पर्यन्तेषु चत्वारोऽङ्गुलसहस्र भागा भवन्ति, केवलमेकस्यां दिशि योजिताभ्यां द्वाभ्यामप्येक एवाङ्गुलसहस्रभाग एकदिग्वर्तित्वादेवमपरमपि द्वाभ्यामिथ्यमेवे त्यतस्तद्वयाधिकत्वमुक्तं देशोनसप्तरजूच्छ्रितम्।बाहल्यतस्तु ब्रह्मलोकमध्ये पञ्चरज्जुबाहल्यमन्यत्रा त्वनियमबाहुल्यम् / इदं च सर्व गृहीत्वा आधस्त्यसंवर्तितलोकार्धस्योत्तरपार्वे संघात्यते। एवं च योजिते आधस्त्यखण्डयोच्छ्रये यदितरोच्छ्याधिकं तत् खण्डयित्वोपरितनसंघातितखण्डस्य बाहल्ये ऊर्ध्वायतं संयोज्यते, एवं च सातिरेकाः पञ्चरजवः क्वचिद्वाहल्यं सिध्यति। तथा-आधस्त्यखण्डमधस्ताद्यथा संभवं देशोनसप्तरज्जुबाहल्यं प्रागुक्तम्, अत उपरितनखण्डबाहल्यादेशोनरज्जुद्वयमत्राधस्त्यखण्डेऽतिरिच्यते इत्यस्मादतिरिच्यमानबाहल्या देशोनरञ्जुरुपं गृहीत्वोपरितनखण्ड बाहल्ये संघात्त्यते, एवं च कृते बाहल्यतस्तावत् सर्वमप्येतचतुरस्त्रीकृत नभः खण्डा कियत्यपि प्रदेशे रज्जवसंख्येयभागाधिकाः षड्रज्जवो भवन्ति। व्यवहारतस्तुसर्वं सप्तरज्जुबाहल्यमिदमुच्यते / व्यवहारनयो हि किंचिदूनसप्तहस्तादिप्रमाणमपि पटादिवस्तु परिपूर्णसप्तहस्तादिमानं व्यपदिशति, देशतोऽपि च दृष्ट बाहल्या दिधर्म परिपूर्णेऽपि वस्तुन्यध्यवस्यति स्थूलदृष्टित्वादिति भावः / अतएव तन्मतेनैवात्र सप्तरज्जुबाहल्यता सर्वगता द्रष्टव्याः। आयामविष्कम्भाभ्यां तु प्रत्येक देशोनसप्तरज्जुप्रमाणमिदं जातम्। व्यवहारतस्तुतत्रापि सप्तरजुप्रमाणता द्रष्टव्या, तदेवं लोको व्यवहारनयमतेन / अायामविष्कम्भबाहल्यैः प्रत्येकं सप्तरज्जु प्रमाणो घनो भवतीति समुदायार्थः / एतच वैशाखस्थानस्थित पुरुषाकारं सर्वत्र वृत्तस्वरुपं लोकं संस्थाप्य सर्वं भावनीयमिति। कर्म०५ कर्म० / दश। (2) कोऽयं लोक :किमियं मंते ! लोए त्ति पवुचइ ?, गोयमा ! पंचत्थिकाया, एस णं पवत्तिए लोए त्ति पवुचा, तं जहा-धम्मत्थिकाए अधम्म स्थिकाए० जाव पोग्गलत्थिकाए (सू०४८१) भ०१३ श०४ उ०। (धर्मास्तिकायादीनां व्याख्या स्वस्वस्थाने) (3) लोकस्यैकत्वं नामादितश्चाष्टाविधत्वं निरुपयति -- एगे लोए। (सू०५) एको लोकः, त्रिविधोऽप्यसंख्येयप्रदेशोऽपि वा द्रव्यार्थतया / स०१ सम०। एकः अविवक्षितासंख्यप्रदेशाधस्तिर्यगादि दिग्भेदतया लोक्यतेदृश्यते केवलालोके नेति लोकः- धर्मास्तिकायादिद्रव्याधारभूत आकाशविशेषः, तदुत्कम् - "धर्मादीनां वृत्तिर्द्रव्याणां भवति यत्र तत् क्षेत्राम् / तैर्द्रव्यैः सह लोक-स्तद्विपरीतं ह्यलोकाख्यम् // 1 // " इति, अथवा-लोको नामादिरष्टधा / स्था०१ ठा०। आह चनाम ठवणा दविए, खित्ते काले भवे य भावे य। पज्जवलोए य तहा, अट्टविहो लोयनिक्खेवो // 1057|| आव० 2 अ० / नामस्थापने सुज्ञाने, द्रव्यलोको-जीवाजीव द्रव्यरुपः / क्षेत्रालोकः-आकाशमात्रामनन्तप्रदेशात्म -
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________________ लोक 696 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लोक कम्, काललोकः-समयावलिकादिः, भवलोकः--नारकादिः, स्वस्मिन् स्वस्मिन् भवे वर्तमाना यथा मनुष्यलोको देवलोक इति। भावलोकःषडौदयिकादयो भावाः / पर्यवलोकस्तुद्रव्याणां पर्यायमात्ररुप इति, एतेषां चैकत्वं केवलज्ञानालोक नीयत्वसामान्यादिति। (स्था० 1 ठा०।) नामलोकः 1, स्थापना लोकः 2, द्रव्यलोकः 3, क्षेत्रलोकः 4, काललोकः 5, भवलोको 6, भावलोकः 7, पर्यायलोकश्च 8, तथा, एवमष्टविधो लोकनिक्षेप इति गाथासमासार्थः / / व्यासार्थं तु भाष्यकार एव वक्ष्यति, तत्रा नामस्थापने अनादृत्य द्रव्यलोकमभिधित्सुराहजीवमजीवे रुवम-रुवी सपएसमप्पएसे अ। जाणाहि दवलोग, णिचमणिचंच जं दव्वं ||19|| जीवाजीवावित्यत्रानुस्वारोऽलाक्षणिकः, तत्रा सुखदुःखज्ञानोपयोग- | लक्षणो जीवः, विपरीतस्त्वजीवः, एतौ च द्विभेदौरुप्य रुपिभेदाद, आह च - 'रुप्यरुपिणावि' ति तत्रानादिकर्मसन्ता नपरिगता रुपिणःसंसारिणः, अरुपिणस्तु-कर्मरहिताः सिद्धा इति, अजीवास्त्वरुपिणोधर्मा-धर्माकाशास्तिकायाः, रुपिणस्तुपरमाण्वादय इति, एतौ च जीवाजीवावोघतः सप्रदेशाप्रदेशाववगन्तव्यौ, तथा चाह-'सप्रदेशाप्रदेशावि' ति, तत्र सामान्यविशेषरुपत्वात्परमाणुव्यतिकरेण सप्रदेशाप्रदेशत्वं सकलास्तिकायानामेव भावनीयम्, परमाणवस्त्वप्रदेशा एव, अन्येतुव्याचक्षते-जीवः किल कालादेशेन नियमात् सप्रदेशः,लब्ध्याप्रदेशेनतुसप्रदेशोवाऽप्रदेशो वेति, एवं धर्मास्तिकायादिष्वपि त्रिष्वस्तिकायेषु परापरनिमित्तं यक्षद्वयं वाच्यम्, पुद्गलास्तिकायस्तु द्रव्याद्यपेक्षया चिन्त्यः, यथा-द्रव्यतः परमाणुरप्रदेशो, द्वयणुकादयः सप्रदेशाः, क्षेत्रतः एकप्रदेशावगा ढोऽप्रदेशो द्वयादिप्रदेशावगाढाः सप्रदेशाः, एवं कालतोऽप्येकाने कसमयस्थितिर्भावतोऽप्येकानेकगुणकृष्णादिरिति कृतं विस्तरेण / प्रकृतमुच्यते-इदमेवम्भूतं जीवाजीवव्रतां जानीहि द्रव्यलोकम्, द्रव्यमेव लोको द्रव्यलोक इति कृत्वा, अस्यैवशेष धर्मोपदर्शनायाऽऽहनित्या नित्यं च यद्रव्यम्, चशब्दादभिलाप्यानभिलाप्यादिसमुच्च इति गाथार्थः / / 16 / / सांप्रतं जीवजीवयोर्नित्यानित्यतामेवोपदर्शयन्नाह भाष्यकार :गइ 1 सिद्धा 2 भविआय 3, अभविअ 4-1 पुग्गल 1 अणागयद्धाय 2 / तीअद्ध 3 तिन्नि काया-२, जीवा 1 जीव 2 टिई चउहा ||196 // अस्याः सामायिकवव्याख्या कार्येति, भङ्गकास्तुसादिसपर्यवसानाः साद्यपर्यवसाना अनादिसपर्यवसाना अनाद्यपर्यव वसाना, एवमजीवेषु जीवाजीवयोरष्टौ भङ्गाः। द्वारम-अधुना क्षेत्रलोकः प्रतिपाद्यते, तत्र भाष्यम् -- आगासस्सपएसा, उड्डंच अहे अतिरियलोएय। जाणाहि खित्तलोग, अणंत जिणदेसिसम्मं ||167 / / आकाशस्य प्रदेशाः-प्रकृष्टा देशाः प्रदेशास्तान् ऊर्ध्वं च इति- | ऊर्ध्वलोके च अधश्च इति-अधोलोके च तिर्यग्लोके च, किं?--जानीहि क्षेत्रलोकम्, क्षेत्रमेव लोकः क्षेत्रालोक इति कृत्वा, लोक्यत इति च लोक इति, ऊर्ध्वादिलोक विभागस्तु सुज्ञेयः, अनन्तमिति-अलोकाकाशप्रदेशापेक्षया चानन्तम्, अनुस्वारलोपोऽत्रा द्रष्टव्यः, जिनदेशितमितिजिनकथितम् सम्यक्-शोभनेन विधिनेति गाथार्थः / / 167 / / साम्प्रतं काललोकप्रतिपादनायाह भाष्यकार :समयावलिअमुत्ता, दिवसमहोरत्तपक्खमासाय। संवच्छरजुगपलिआ,सागरओसप्पिपरिअट्टा||१९|| इह परमनिकृष्टः कालः-समयोऽभिधीयते, असंख्येयसमय माना त्वावलिका, द्विघटिको मुहूर्तः, षोडश मुहूर्ता दिवसः, द्वात्रिंशद् अहोरात्रम्, पञ्चदशाहोरात्राणि पक्षः द्वौ पक्षौ मासः, द्वादशमासाः संवत्सरमिति, पञ्चसंवत्सरं युगम्, पल्योपममु द्धारादिभेदं यथा अनुयोगद्वारेषु तथावसेयम्, सागरोपमं तद्वदेव, दशसागरोपमकोटाकोटिपरिमाणोत्सर्पिणी, एवमवस पिण्यपि द्रष्टव्या, परावर्तः-पुद्रलपरावर्तः, स चानन्तोत्सर्पिण्य वसर्पिणीप्रमाणो द्रव्यादिभेदः, तेऽनन्ता अतीतकालः अनन्त एवैष्यन्निति गाथार्थः // 168 / उक्तः काललोकः। लोकयोजना पूर्ववद्। अधुना भवलोकमभिधित्सुराह भाष्यकार :णेरइअदेवमणुआ, तिरिक्खजोणीगया य जे सत्ता। तम्मि भवे वटुंता, भवलोगं तं विआणाहि||१६|| नारकदेवमनुष्यास्तथा तिर्यग्योनिगताश्च ये सत्त्वाः-प्राणिनः 'तम्मि' त्ति तस्मिन् भवे वर्तमाना यदनुभावमनुभवन्ति भवलोकं तं विजनीहि, लोकयोजना पूर्ववदिति गाथार्थः / / 166 / / साम्प्रतं भावलोकमुपदर्शयतिओदइए 1 ओं वसमिए 2, खइए अ३ तहा खओवसमिए / परिणामि 5 सन्निवाए अ६, छविहो भावलोगो उ॥२००|| उदयेन निवृत्त औदयिकः कर्मण इति गम्यते, तथोपशमेन निवृत्त औपशमिकः, क्षयेण निर्वृत्तः क्षायिकः, एवं शेषेष्वपि वाच्यम्, ततश्च क्षायिकश्च तथा क्षायोपशमिकश्च पारिणामिकश्च सान्नि पातिकश्च एवं षडविधो भावलोकः, तत्रा सान्निपातिक ओघतोऽनेकभेदोवसेयः, अविरुद्धस्तुपञ्चदशभेद इति, उक्तं च"ओदइअ-खओवसमे, परिणामेक्केको (क) गइ चउक्केऽवि। खयजोगेण वि चउरो, तदभावे उवसमेणं पि॥१॥ उवसमसेढी एक्को, केवलिणोऽवि य तहेव सिद्धस्स। अविरुद्धसन्निवाइय-भेया एमेव पण्णस्स / / 22 / / " त्ति इति गाथार्थः // 20 // भाष्यम्तिव्वो रागो अदोसो अ, उइन्ना जस्स जन्तुलो। जाणाहि भावलो,अणंतजिणदेसिअंसम्म // 201 / /
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________________ लोक 700- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लोक तीव्रः-उत्कटः रागश्च द्वेषश्च, तत्राभिष्वङ्गलक्षणो-रागः अप्रीति- लोकः, संलोक्यत इति च संलोकः, एते एकार्थिकाः शब्दाः, लोकः लक्षणो-द्वेष इति, एतावुदीर्णी यस्य जन्तोः यस्य प्राणिव इत्यर्थः,तं- अष्टविधः खल्वित्यत्र आलोक्यत इत्यादि योजनीयम्, अत एवाऽऽह प्राणिनं तेन-भावेन लोक्यत्वाजानीहि भावलोकमनन्तजिनदेशितम्- तेनैष उच्यते लोको येनाऽऽलोक्यत इत्यादि, भावनीयमिति गाथार्थः एकवाक्यतया अनन्तजिन कथितम् 'सम्यग्' इति क्रियाविशेषणमित्ययं // 1058|| आव०२ अ०। गाथार्थः // 201 // (4) त्रिविधो लोक:द्वारम्-साम्प्रतं पर्यायलोक उच्यते, तत्रौघतः पर्याया धर्मा उच्यन्ते, तिविहे लोगे पण्णत्ते, तंजहा–णामलोगे, ठवणालोगे, दव्वलोगे। इह तुकिल नैगमनयदर्शनं मूढनयदर्शनं वाऽधिकृत्य चतुर्विधंपर्यायलोक- (सू० 153) माह भाष्यकार : लोक्यतेऽवलोक्यते केवलावलोकेनेति लोकः, नामस्थापने इन्द्रदव्वगुण 1 खित्तपञ्जव २-भवाणुभावे अ३ भावपरिणामे / / सूत्रवद, द्रव्यलोकोऽपि तथैव नवरं ज्ञशरीरभव्यशरीर व्यतिरिक्तजाण चउव्विहमेअं,पज्जवलोगं समासेणं // 202 / / द्रव्यलोको धर्मास्तिकायादीनि-जीवाजीवरुपाणि रुप्यरुपीणिद्रव्यस्य गुणाः-रुपादयः, तथा क्षेत्रस्य पर्यायाः-अगुरु-लघवः भरता सप्रदेशाप्रदेशानि द्रव्याण्येव, द्रव्याणि च तानि लोकश्चेति विग्रहः / दिभेदा एव चान्ये, भवस्य च नारकादेरनुभावः-तीव्रतमदुः खादिः, उत्कञ्च - "जीवमजीवे रुवम् रुवी सपएस अप्पएसे य / जाणाहि यथोक्तम् दव्वलोयं, णिचमणिचं च जंदव्यं / / 1|| "अच्छिणिमिलीयमेत्तं, णत्थि सुहं दुक्खमेव अणुवंध। भावलोकं त्रिधाऽऽह -- णरए णेरइआणं, अहोणिसिं पञ्चमाणाणं / / 1 / / तिविहे लोगे पन्नत्ते, तं जहा-णाणलोगे,दसणलोगे, चरित्तअसुभा उव्यियणिज्जा, सद्दरसा रुवगंधफासाय। लोगे। (सू०१५३) णरए णेरइआणं, दुक्कयकम्मोवलित्ताणं // 2 // " 'तिविहे' त्यादि, भावलोको द्विविधः-आगमतो नोआगमतश्च / इत्यादि ‘एवं शेषानुभावोऽपि वाच्यः' तथा भावस्य जीवाजी वसम्बधिनः तत्रागमतो लोकपर्यालोचनोपयोगस्तदुपयोगा नन्यत्वाद् पुरुषो वा, परिणामस्तेन अज्ञानाद् ज्ञानं नीलाल्लो हितमित्या दिप्रकारेण नोआगमतस्तु-सूत्रोक्तो ज्ञानादिः, नो शब्दस्य मिश्रवचनत्वात् इदं हि भवनमित्यर्थः, जानीहि-अवबुध्यस्व चतुर्विधमेन मोघः पर्यायलोक त्रयं प्रत्येकमितरेतरसव्यपेक्षं नागम एव केवलो नाप्यनागम इति। तत्रा ज्ञानं चासौ लोकश्चेति ज्ञानलोकः, भावलोकता चास्य क्षायिकसमासेन-संक्षेपेणेति गाथार्थः / / 202 / / क्षायोपशमिकभाव रुपत्वात् क्षायिकादिभावानां च भावलोकत्वेनातत्र यदुक्तं द्रव्यस्य गुणा इत्यादि तदुपदर्शनेन भिहितत्वाद, उक्तञ्च-'"ओदइए उवसमिए, खइएयतहा खओवसमिए निगमयन्नाह भाष्यकार : य। परिणामसन्निवाएँ य, छव्विहो भावलोओ उ // 1 // " ति / एवं वनरसगंधसंठा-णफासट्ठाणगइवन्नभए / दर्शनचारित्रलोकावपीति। स्था० 3 ठा०२ उ०। परिणामे अबहुविहे, पज्जवलोग विआणाहि॥२०३|| (5) प्रकारान्तरेण चतुर्विधत्वं तद्भेदांश्चाहवर्णरसगन्धसंस्थानस्पर्शस्थानगतिवर्णभेदाश्च, चशब्दाद्रसादिभेद रायगिहे 0 जाव एवं वयासी-कतिविहे णं मंते ! लोए पन्नते ?, परिग्रहः, अयभत्र भावार्थः-वर्णादयः सभेदा गृह्यन्ते, तत्र वर्णः-कृष्णा गोयमा! चउविहे लोए पन्नते। तं जहा-दद-लोए खेत्तलोए दिभेदात् पञ्चधा, रसोऽपि तित्कादिभेदात्पञ्चधा गन्धः-सुरभिरित्या काललोए भावलोए / खेत्तलोए णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते? दिभेदाद् द्विधा, संस्थान-परिमण्डलादिभेदात्पञ्चधैव, स्पर्श: गोयमा ! तिविहे पन्नत्ते,तं जहा अहोलोयखेत्तलोए ? तिरियकर्कशादिभेदादष्टव्या, स्थानम् अवगाहनालक्षणं तदाश्रयभेदादनेकधा, लोयखेत्तलोए 2, उड्डलोयखेत्तलोए 3 // अहोलोयखेत्त लोएणं गतिः-स्पर्श वद्गतिरित्यादिभेदाद् द्विधा, चशब्द उत्कार्थ एव, अथवा भंते ! कतिविहे पन्नत्ते, गोयमा ! सत्तविहे पन्नत्ते, तं जहाकृष्णा दिवर्णादीनां स्वभेदा पेक्षया एकगुणकृष्णाद्यनेकभेदोपसङ्ग्रहार्थ रयणप्पभापुढविअहोलोयखेत्तलोए० जाव अहेसत्तमा पुढवी इति, अनेन किल द्रव्यगुणा इत्येतह्याख्यातम् / परिणामांश्च बहुविधा- अहोलोयखेत्तलोए / तिरियलोयखेत्तलोए णं भंते ! कतिविहे नित्यनेन तु चरमद्वारम्, शेषं द्वारद्वयं स्वयमेव भावनीयम्, तच भावित- पन्नत्ते ?, गोयमा ! असंखेजविहे पन्नत्ते, तं जहा-जंबुद्दीवे मेवेत्यक्षरगमनिका / भावार्थ स्त्वयम्-परिणामांश्च बहुविधान जीवा- तिरियखेत्तलोएन्जाव सयंभूरमणसमुद्दे तिरियलोयखेत्तलोए। जीवभावगोचरान, किं ?-पर्यायलोकं विजानीहि इति गाथार्थः / / 203 / / उङ्कलोगखेत्तलोएणं भंते! कतिविहे पन्नत्ते?, गोयमा! पन्नरसअक्षरयोजना पूर्ववदिति द्वारम्। विहे पन्नत्ते, तं जहा-सोहम्मकप्पउड्ड लोगखेत्तलोए ०जाव साम्प्रतं लोकपर्यायशब्दान्निरुपयन्नाह नियुक्तिकारः अचुयउड्डलोए गेवेजविमाणउड्ड लोए अणु त्तरविमाणउडलोए आलुकइ अ पलुक्कइ, लुकइ संलुक्कई अ एगट्ठा। ईसिंपन्भारपुढविउद्धृलोग खेत्तलोए। (सू०४२०) लोगो अट्ठविहो खलु, तेणेसो वुचई लोगो // 1058|| 'रायगिहे' इत्यादि 'दव्वलोए' त्ति द्रव्यलोक आगआलोक्यत इत्यालोकः, प्रलोक्यत इति प्रलोकः, लोक्यत इति | मतो, नोआगमतश्च / तत्रागमतो द्रव्यलोको लोकशब्दार्थ
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________________ लोक ७०१-अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लोक ज्ञस्तत्रानुपयुक्तः "अनुपयोगो द्रव्य" मिति वचनात् , आह च मङ्गलं प्रतीत्य द्रव्यलक्षणम्-"आगमओऽणुवउत्तो, मंगलसराणुवासिओवत्ता। तन्नाणलद्धिजुत्तो, उ नोवउत्तो त्ति दव्वं ति // 1 // " नोआगमतस्तु ज्ञशरीरभव्यशरीरतद्व्यतिरिक्तभेदात्त्रिविधः, तत्र लोकशब्दार्थज्ञस्य शरीरंमृतावस्थं ज्ञानापेक्षया भूतलोकपर्यायतया घृतकुम्भवल्लोकः, स च ज्ञशरीररूपो द्रव्यभूतो लोको ज्ञशरीरद्रव्यलोकः, नोशब्दश्चेह सर्वनिषेधे, तथा लोकशब्दार्थं ज्ञास्यति यस्तस्य शरीरं सचेतनं भाविलोकभावत्वेन मधुघटवद्भव्यशरीरद्रव्यलोकः, नोशब्द इहापि सर्वनिषेध एव, ज्ञशरीरभव्य-शरीरव्यतिरिक्तश्च द्रव्यलोको द्रव्याण्येव धर्मास्तिकायादीनि, आह च-"जीवमजीवे रूविम्-रूवि सपएस अप्पएसे य। जाणाहि दव्वलोयं, निच्चमणिचं च जं दव्वं // 1 // " इहापि नोशब्दः सर्वनिषेधे, आगमशब्दवाच्यस्य ज्ञानस्य सर्वथा निषेधात् , ' खेत्तलोए' त्ति क्षेत्ररूपो लोकः स क्षेत्रलोकः, आह च-" आगासस्स पएसा, उर्ल्ड च अहे य तिरियलोए य / जाणाहि खेत्तलोयं, अणंतजिणदेसियं सम्म॥१॥"'काललोए' त्ति कालः-समयादिः तद्रूपो लोकः काललोकः, आह च-" समयावली मुहुत्ता, दिवसअ-होरत्तपक्खमासा य। संवच्छरजुगपलिया, सागरउस्सप्पिपरियट्टा॥१॥"" भावलोए 'त्ति भावलोको द्वेधा-आगमतो, नोआगमतश्च / तत्रागमतो लोकशब्दार्थज्ञस्तत्र चोपयुक्तः, भावरूपो लोको भावलोक इति। नोआगमतस्तुभावाऔदयिकादयस्तद्रूपोलोको भावलोकः, आह च-" ओदइए उवसमिए, खइए यतहा खओ-वसमिए या परिणामसन्निवार्य, छव्विहो भावलोगो उ॥१॥" इति, इह नोशब्दः सर्वनिषेधे मिश्रवचनो वा, आगमस्य ज्ञानत्वात् क्षायिकक्षायोपशमिकज्ञानस्वरूपभावविशेषेण च मिश्रत्वादौदयिकादिभावलोकस्येति, 'अहेलोयखेत्तलोए 'त्ति, अघोलोक-रूपः क्षेत्रलोकोऽधोलोक क्षेत्रलोकः, इह किलाष्ट प्रदेशो रुचकस्त-स्य चाधस्तनप्रतरस्याधो नवयोजनशतानि यावत्तिर्यग्लोकस्ततः परेणाधः स्थितत्वादधोलोकः साधिकसप्तरज्जुप्रमाणः, 'तिरिय-लोयखेत्तलोए' तिरुचकापेक्षयाऽध उपरिच नव नव योजनशत-मानस्तिर्यग्रूपत्वात्तिर्यग्लोकस्तद्रूपः क्षेत्रलोकस्तिर्यग्लोकक्षेत्रलोकः' उडलोयखेत्तलोए' त्ति तिर्यग्लोकस्योपरि देशोनसप्तरज्जुप्रमाण ऊर्ध्वभागवर्तित्वादूर्ध्वलोकस्तद्रूपः क्षेत्रलोकः ऊर्ध्व-लोकक्षेत्रलोकः, अथवा-अधः-अशुभः परिणामो बाहुल्येन क्षेत्रानुभावाद् यत्र लोके द्रव्याणामसावधोलोकः, तथा-तिर्यङ्मध्यमानुभावं क्षेत्रं नातिशुभं नाप्यत्यशुभं तद्रूपो लोकस्तिर्यग्लोकः, तथा-ऊर्ध्व-शुभः परिणामो बाहुल्येन द्रव्याणां यत्रासावूवलोकः, आह च-" अहव अहो परिणामो, खेत्तणुभावेण जेण ओसन्नं / असुहो अहो ति भणिओ, दव्वाणं तेणऽहोलोगे // 1 // " इत्यादि / भ०११ श०१० उ०। (6) ऊर्ध्वादितो लोकस्त्रिधा तद्यथातिविहे लोगे पन्नत्ते, तं जहा-उडलोगे, अहोलोगे, तिरियलोगे। (सू० 1534) तिविहे इत्यादि, इह च बहुसमभूमिभागे रत्नप्रभाभागे मेरुमध्ये अष्टप्रदेशो रुचको भवति, तस्योपरितनप्रतरस्योपरिष्टान्नवयोजनशतानि यावज्ज्योतिश्चक्रस्योपरितलस्तावत् तिर्यग्लोकस्ततः परत ऊर्ध्वभागस्थितत्वात् ऊर्ध्वलोको देशोनसप्तरज्जुप्रमाणो रुचकस्याधस्तनप्रतरस्याधो नवयोजनशतानि यावत्तावत्तिर्यग्लोकः, ततः परतोऽधोभागस्थितत्वादधोलोकः सातिरेकसप्तरज्जुप्रमाणः, अधोलोकोर्ध्वलोकयोमध्ये अष्टादशयोजनशतप्रमाणस्तिर्यग्भागस्थितत्वात् तिर्यग्लोक इति, प्रकारान्तरेण चायं गाथाभियाख्यायते - "अहवा अह परिणामो, खेत्तणुभावेण जेण ओसन्नं / असुहो अहो त्ति भणिओ, दव्वाणं तेणऽहोलोगो॥१॥ उड्डेउवरि जंठिय, सुहखेत्तं खेत्तओ य दव्वगुणा। उप्पजंति सुभावा, तेण तओ उड्डलोगो त्ति // 2 // मज्झणुभावं खेत्तं, जंतं तिरिय ति वयणपजवओ। भण्णइ तिरियविसालं, अओ यतं तिरियलोगो त्ति // 3 // " स्था० 3 ठा० 3 उ०। (7) लोकमध्यद्वाराणि - कहि णं भंते ! लोगस्स आयाममज्झे पण्णत्ते ? गोयमा ! इमीसे णं रयणप्पभाए उवा(ओगा)संतरस्स असंखेजतिभागं ओगाहेत्ता एत्थ णं लोगस्स आयाममज्झे पण्णत्ते। कहिणं भंते ! अहेलोगस्स आयाममज्झे पण्णते? गोयमा! चउत्थीएपंकप्पभाए पुढवीए उवासंतरस्स सातिरेगं अद्धं ओगाहित्ता एत्थ णं अहेलोगस्स आयाममज्झे पण्णत्ते,। कहिणं मंते ! उडलोगस्स आयाममज्झे पण्णत्ते ? गोयमा ! उप्पिं सणंकु-मारमाहिंदाणं कप्पाणं हेडिंबंभलोए कप्पे रिट्ठविमाणे पत्थडे एत्थ णं उनलोगस्स आयाममज्झे पण्णत्ते।कहिणं भंते! तिरियलोगस्स आयाममज्झे पण्णत्ते ? गोयमा! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स वहुमज्झदेसभाए, इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उवरिमहेढिल्लेसु खुड्डागपयरेसु एत्थ णं तिरियलोगस्स मज्झे अट्ठपएसिएरुयएपण्णत्ते, जओणं इमाओ दसदिसाओ पवहंति, तं जहा-पुरच्छिमा पुरच्छिमदाहिणा एवं जहा दसमसए नामधेनं ति। (सू०४७९) 'चउत्थीए पंकप्पभाए' इत्यादि, रुचकस्याधो नवयोजनशतान्यतिक्रम्याधोलोको भवति लोकान्तं यावत् , स च सातिरेकाः सप्त रजवः, तन्मध्यभागः चतुर्थ्याः पञ्चम्याश्च पृथिव्या यदवकाशान्तरं तस्य सातिरेकमर्द्धमतिबाह्य भवतीति, तथा रुचकस्योपरि नवयोजनशतान्यतिक्रम्योद्धर्वलोको व्यपदिश्यते लोकान्तमेव यावत् , सच सप्तरज्जवः किञ्चिन्न्यूनास्तस्य च मध्यभागप्रतिपाद-नायाह- ' उप्पिं सणंकुमारमाहिंदाणं कप्पाण' मित्यादि / तथा- " उवरिमहिट्ठिल्लेसु खुड्डागपयरेसु 'त्ति लोकस्य वज्रमध्यत्वाद्रत्नप्रभाया रत्नकाण्डे सर्वक्षुल्लकंतरद्वयमस्ति, तयोश्वोपरिमो यतआरभ्य लोकस्योपरिमुखा वृद्धिः 'हेहिल्ले 'त्ति अधस्तनोयत आरभ्य लोकस्याधोमुखा वृद्धिः तयोरूप
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________________ लोक 702 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लोक रिमाधस्तनयोः ' खुड्डागपयरेसु 'त्ति क्षुल्लकप्रतरयोः-सर्वलघुप्रदेशप्रतरयोः एत्थणं ति प्रज्ञापकेनोपायतः प्रदर्घामाने तिर्यग्लोकमध्येऽष्टप्रदेशको रुचकः प्रज्ञप्तः, (रुचकपर्वतस्य विष्कम्भादिः रुयग' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 571 पृष्ठे उक्तः) यश्च तिर्यग्लोकमध्ये प्रज्ञातः ससामर्थ्यात्तिर्यग्लोकायाममध्यं भवत्येवेति, किम्भूतोऽसावष्टप्रदेशिको रुचकः ? इत्याह-'जओ णं इमाओ' इत्यादि। भ०१३ श०४ उ०। तस्य चेयं स्थापना उप्पिं विसाले अहे पलियंकसंठाणसंठिए मज्झे वरवयरविग्गहिए 'त्ति दृश्यम, व्याख्या चास्य प्राग्वदिति। अनन्तरं लोकस्वरूपमुक्लम् , तत्र च यत्केवली करोति तदर्शयन्नाह- 'तंसी' त्यादि, 'अंतं करेइ 'त्ति अत्र क्रियोक्ता। भ०७श०३ उ०। चन्द्रादीनामेवार्थानामाधारभूतस्यलोकस्य स्वरूपभिधीयते / स्था०३ ठा०३ उ० किंसंठिएणं भंते ! लोए पण्णत्ते ? गोयमा ! सुपइट्टियसंठिए लोए पण्णते, हेट्ठा वित्थिन्ने मज्झे जहा सत्तमसये पढमुद्देसे. जाव अंतं करेति। (सू०४८७+) भ०१३ श०४ उ०। (10) अधोलोक क्षेत्रादिसंस्थानम् - अहोलोगखेत्तलोए णं भंते किंसंठिए पण्णत्ते ? गोयमा ! तप्पागारसंठिए पण्णत्ते। तिरियलोयखेत्तलोएणं भंते ! किंसंठिए, पनत्ते ? गोयमा ? झल्लरिसंठिए पन्नत्ते उडलोयखेत्तलोयपुच्छा उडमुइंगागारसंठिए पन्नचे / लोए णं मंते ! किंसंठिए पन्नत्ते ? गोयमा ! सुपइट्ठगसंठिए लोए पन्नत्ते, तं जहा-हेट्ठा वित्थिन्ने मज्झे संखित्ते जहा सत्तमसए पढमुद्देसएन्जाव अंतं करेति / अलोए णं मंते ? किंसंठिए पन्नते ? गोयमा ! झुसिरगोलसंठिए पन्नत्ते। (सू०४२०) 'तप्पागारसंठिए' त्ति तप्तः-उड्डपकः, अधोलोकक्षेत्रलोकः अधोमुखशरावाकारसंस्थान इत्यर्थः, स्थापना चेयम्-A'झल्लरिसंठिए' त्ति अल्पोच्छ्रायत्वान्महाविस्तारत्वाच तिर्यग्लोकक्षेत्रलोको झल्लरीसंस्थितः, स्थापना चात्र- 'उड्ड-मुइंगागारसंठिए' त्ति ऊर्ध्वःऊर्ध्वमुखो यो मृदङ्गस्तदाकारेण संस्थितो यः स तथा शरावसंपुटाकार इत्यर्थः, स्थापना चेयम्- 'सुपइट्टमसंठिए' त्ति सुप्रतिष्ठकम्स्थापनकं तचेहा-रोपितवारकादि ग्रह्यते, तथाविधे- नैव लोकसा (8) लोकस्य महत्त्वम् - तेणं कालेणं तेणं समएणं जाव एवं वयासी-के महालए णं मंते! लोएपन्नते? गोयमा! महतिमहालए लोए पन्नत्ते, पुरच्छिमेणं असंखेज्जाओ जोयणकोडाकोडीओ, दाहिणेणं असंखिजाओ, एवं चेव, एवं पञ्चच्छिमेण वि, एवं उत्तरेण वि, एवं उड्ड पिअहे असंखेजाओ जोयणकोडाकोडीओ आयाममिक्खंमेणं / (सू०४४७४) भ० 12 श०७ उ० (नास्ति कोऽपि लोकस्य एतादृशः प्रदेशः यत्रायं जीवो नजातो नमृतो वा इति 'जीव' शब्दे चतुर्थभागे 1545 पृष्ठेगतम्।) (6) लोकस्य संस्थानम् - किंसंठिए णं मंते ! लोए पन्नत्ते ? गोयमा ! सुपइट्ठगसंठिए लोए पन्नत्ते, हेहा वित्थिन्ने जाव उप्पिं उड्ड मुइंगागारसंठिए, तेसिं च णं सासयंसि लोगंसि हेट्ठा वित्थिन्नंसि जाव उप्पिं उळ मुइंगागारसंठियंसि उप्पन्ननाणदंसणधरे अरहा जिणे केवली जीवे वि जाणइ पासइ अजीवे वि जाणइ पासइ तओ पच्छा सिज्झति जाव अंतं करेइ। (सू०२६१) 'सुपइहगसंठिए' त्ति, सुप्रतिष्ठकम्-शरयन्त्रकं तचेह उपरिस्थापितकलशादिकं ग्राह्यम् , तथाविधेनैव लोकसादृश्योपपत्तेरिति / एतस्यैव भावनार्थमाह-' हेट्ठा वित्थिन्ने इत्यादि, यावत्करणात् ' मज्झे सखित्ते / दृश्योपपत्तेरिति, स्थापना चेयम्- 'जहा सत्तमसए' इत्यादौ यावत्करणादिदं दृश्यम् ,' उप्पिं विसाले अहे पलियंकसंठाणसंठिए मज्झे वरवइरविग्गहिए उप्पिं उद्धमुइंगागारसंठिए तेसिंचणं सासयंसि लोगसि हेट्ठा वित्थिन्नसि० जाव उप्पिंउडमुइंगागारसंठियंसि उप्पन्ननाणदंसणधरे अरहा जिणे केवली जीवे वि जाणइ अजीवे वि जाणइ तओ पच्छा सिज्झइ बुज्झइ' इत्या-दीति, ' झुसिरगोलसंठिए 'त्ति अन्तः शुषिरगोलकाकारो यतोऽ लोकस्य लोकः शुषिरमिवाभाति, स्थापना चेयम्-०भ०११श०१० उ०। (11) मरणादिस्वरूपं भगवता लोके प्ररूपितमिति लोकस्वरूपप्ररूपणाय प्रश्न कारयन्नाह - के अयं लोगे? जीव चेव अजीव चेव, के अणंता लोए ? जीव चेव अजीव चेव, के सासया लोगे? जीव चेव अजीव चेव (सू०१०३) 'क' इति प्रश्नार्थः, 'अव मिति देशतः प्रत्यक्ष आसनश्च यत्र भगवता मरणादिप्रशस्तासमस्तवस्तुस्तोमतत्त्व
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________________ लोक 703 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लोक मभ्यधायि, लोक्यत इति लोक इतिप्रश्नः, अस्य निर्वचनम्जीवाश्चाजीवाश्चेति, पञ्चास्तिकायमयत्वाल्लोकस्य,तेषां च जीवाजीवरूपत्वादिति,उक्तश्च - "पंचत्थिकायमइयं, लोगमणाइणिहणं जिणक्खायं " ति। लोकस्वरूपभूतानां च जीवाजीवानां स्वरूपं प्रश्नपूवकेण सूत्रद्वयेनाह - ' के अणंते 'त्यादि के अनन्ताः लोके इति प्रश्नः, अत्रोत्तरम् - जीवा अजीवाश्चेति, अत एव च शाश्वता द्रव्यार्थतयेति / स्था०२ ठा० 4 उ०। (12) अधोलोकादिक्षेत्रलोकेः किं जीवोऽजीवो वा - अहे (हो) लोयखेत्तलोए णं भंते ! किं जीवा जीवदेसा जीवपएसा? एवं जहा इंदा दिसा तहेव निरवसेसं भाणि-यव्वं० जाव अद्धासमए || तिरियलोयखेत्तलोए णं भंते ! किं जीवा जीवदेसाजीवपएसा? एवं चेव, एवं उडलोयखेत्तलोए वि, नवरं अरूवि छविहा अद्धासमओ नत्थि॥ लोएणं भंते ! किं जीवा जहा बितियसए अस्थि उद्देसएलोयागासे नवरं अरूवी सत्त वि० जाव अहम्मत्थिकायस्स पएसा नोआगासत्थिकाए आगास- | थिकायस्स देसे आगासस्थिकायपएसा अद्धासमएसेसंतंचेव। (सू०४२०+) 'अहेलोयखेत्तलोए णं भंते !' इत्यादि, 'एवं जहा इंदा दिसा तहेव निरवसेसंभाणियब्वं तिदशमशते प्रथमोद्देशके यथा एन्द्री दिगुक्ता तथैव निरवशेषमधोलोकस्वरूपं भणितव्यम्, तचैवम् - "अहेलोयखेत्तलोए णं भंते ! किं जीवा जीवदेसा जीवपएसा अजीवा अजीवदेसा अजीवपएसा ? गोयमा ! जीवा वि जीवदेसा वि जीवपएसा वि अजीवा वि अजीवदेसा वि अजीवपएसा वि" इत्यादि, नवरमित्यादि, अधोलोकतिर्यग्लोकयोररूपिणः सप्तविधाः प्रागुक्ताः धर्माधर्माकाशास्तिकायानां देशाः 3 प्रदेशाः 3 कालश्चेत्येवम् ऊर्द्धवलोके तुरविप्रकाशाभिव्यङ्ग्यः कालो नास्तिः, तिर्यगधोलोकयोरेव रविप्रकाशस्य भावाद् , अतः षडेव त इति॥' लोए ण 'मित्यादि, 'जहा बीयसए अत्थिउद्देसए 'त्ति यथा द्वितीयशतेदशमोद्देशक इत्यर्थः। लोयागासे 'त्ति लोकाकाशे विषयभूते जीवादय उक्ताः एवमिहापीत्यर्थः, ' नवर ‘मिति केवलमयं विशेषः - तत्रारूपिणः पञ्चविधा उक्ताः, इह तु सप्तविधा वाच्याः, तत्र हिलोकाकाशमाधारतया विवक्षितमत आकाशभेदास्तत्र नोच्यन्ते, इह तु लोकोऽस्तिकायसमुदायरूप आधारतया विवक्षितोऽत आकाशभेदा अप्याधेया भवन्तीति सप्त, ते चैवम् - धर्मास्तिकायः, लोके परिपूर्णस्य तस्य विद्यमानत्वात् धर्मास्तिकायदेशस्तु न भवति, धर्मास्तिकायस्यैव तत्र भावात् / धर्मास्तिकायप्रदेशाश्च सन्ति; तद्रूपत्वाद्धमास्तिकायस्येतिद्वयम्।। एवमधर्मास्तिकायेऽपि द्वयम्। 4 / तथा नो आकाशा-स्तिकायो, लोकस्य तस्यैतद्देशत्वात्, आकाशदेशस्तुभवति; तदंशत्वात् लोकस्य, तत्प्रदेशाश्च सन्ति 6, कालश्चे७ति सप्त। (13) अलोकः किं जीवोऽजीवो वा ? अलोए णं भंते ! किं जीवा जीवदेसा जीवपएसा? एवं जहा अस्थिकायउद्देसए अलोयागासे तहेव निरवसे सं० जाव अणंतभागूणे।। अहेलोगखेत्तलोगस्सणं भंते ! एगम्मि आगासपएसे किं जीवा जीवदेसा जीवपएसा, अजीवा अजीवदेसा अजीवपएसा ? गोयमा ! नो जीवा जीवदेसा वि जीवपएसा वि अजीवा वि अजीवदेसा वि अजीवपएसा वि, जे जीवदेसा ते नियमा एगिंदियदेसा 1, अहवा - एगिदियदेसा य बेइंदियस्स देसे 2, अहवा- एगिदियदेसा य बेइंदियाण य देसा 3, एवं मज्झिल्लविरहिओ० जाव अणिंदिएसु० जाव, अहवा - एगिंदियदेसा य अणिंदियदेसा य, जे जीवपएसा ते नियया एगिदियपएसा 1, अहवा - एगिंदियपएसाय बेइंदिय-स्सपएसा २,अहवा- एगिदियपएसा य बेइंदियाण य पएसा 3, एवं आइल्लविरहिओ० जाव पंचिंदिएसु अणिंदिएसु तियमंगो / जे अजीवा ते दुविहा पन्नत्ता, तं जहा - रूवी अजीवा य, अरूवी अजीवाय,रूवीतहेव-जे अरूवी अजीवा ते पंचविहा पण्णत्ता, तंजहा- नो धम्मत्थिकाए धम्मत्थिकायस्स देसे 1 धम्मत्थिकायस्सपएसे 2, एवं अहम्मत्थिकायस्स वि 3,-5, अद्धासमए 5 / तिरियलोगखेत्तलोगस्स णं भंते ! एगम्मि आगासपएसे किं जीवा०? एवं जहा अहोलोगखेत्तलोगस्स तहेव, एवं उडलोगखेत्तलोगस्स वि, नवरं अद्धासमओ नत्थि, अरूवी चउविहा, लोगस्स जहा अहेलोगखेत्तलोगस्स एगम्मि आगासपएसे / / अलोगस्स णं भंते ! एगम्मि आगासपएसे पुच्छा, गोयमा ! नोजीवा नोजीवदेसातंचेव० जाव अणंतेहिं अगुरुयलहुयगुणेहिं संजुते सव्वागासस्स अणंतभागूणे ॥दव्वओ णं अहेलोगखेत्तलोए अणंताई जीवदव्वाइं अणंताई अजीवदय्वाइं अणंता जीवाजीवदवा एवं तिरियलोयखेत्तलोए वि, एवं उडलोयखेत्तलोए वि, दव्वओ णं अलोए णेवत्थि जीवदव्या नेवत्थि अजीवदव्वा नेवत्थिजीवाजीवदव्वा, एगे अजीवदव्वदेसे० जाव सव्वागास-अणंतभागूणे / कालओ णं अहेलोयखेत्तलोए न कयाइ नासि० जाव निचे, एवं० जाव अहेलोगे / भावओ णं अहेलोगखेत्तलोए अणंता वन्नपज्जवा जहा खंदए० जाव अणंता अगुरुय-लहुयपजवा एवं० जावलोए, भावओणं अलोए नेवत्थि वनपज्जवा० जाव नेवत्थि अगुरुयलहुयपज्जवा एगे अजीवदव्वदेसे०जाव अणंतभागूणे / (सू०४२०+) 'अलोए णं भंते ! इत्यादि, इदं च ' एवं जहे 'त्याधतिदेशादेवं दृश्यम्-' अलोएणभंते! किंजीवाजीवदेसाजीवपएसा, अजीवाअजीवदेसा अजीवपएसा ? गोयमा! नो जीवदेसानोजीवपएसा, नो अजीवदेसानोअजीवप
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________________ लोक 704 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लोक एसा, एगे अजीवदव्वदेसे अणंतेहिं अगुरुलहुयगुणेहिं संजुत्ते सव्वा-गासे अणंतभागूणे 'त्ति-तत्र सर्वाकाशमनन्तभागोनमित्यस्यायमर्थः-लोकलक्षणेन समस्ताकाशस्यानन्तभागेन न्यूनं सर्वाकाशमलोक इति / / ' अहोलोगखेत्तलोयस्सणं भंते! एगम्मि आगासपएसे, इत्यादि, नो जीवा एकप्रदेशे तेषामनवगाहनात्, बहूनां पुनर्जीवानां देशस्य प्रदेशस्य चावगाहनात् उच्यते -'जीवदेसा वि जीवपएसा वित्ति, यद्यपि धर्मास्तिकायाद्यजीवद्रव्यं नैकत्राकाशप्रदेशेऽवगाहते तथापि परमाणुकादिद्रव्याणां कालद्रव्यस्य चावगाहनादुच्यते -'अजीवा वित्ति, व्यणुकादि-स्कन्धदेशानां त्ववगाहनादुक्तम् - 'अजीवदेसा वि' ति, धर्मा-धर्मास्तिकायप्रदेशयोः पुद्गलद्रव्यप्रदेशानां चावगाहनादुच्यते -' अजीवपएसा वि' त्ति, एवं 'मज्झिल्लविरहिओ 'त्ति दशमशतप्रदर्शितत्रिकभङ्गे' अहवा एगिदियदेसाय बेइदियदेसाय'इत्येवंरूपोयोमध्यमभङ्गस्तद्विरहितोऽसौ त्रिकभङ्गः, एव' मिति सूत्रप्रदर्शितभङ्गद्वयरूपोऽध्येतव्यो मध्यमभङ्गस्येहासम्भवात्, तथाहि-द्वीन्द्रियस्यैकस्यैकत्राकाशप्रदेशे बहवो देशा नसन्ति, देशस्यैव भावात्,' एवं आइल्लविरहिओ' त्ति, अहवा एगिदियस्स पएसा य बेंदियस्स पएसा य' इत्येवं रूपाद्यभङ्गकविरहितस्त्रिभङ्गः, एव 'मिति सूत्रप्रदर्शितभङ्गद्वयरूपोऽध्येतव्य आद्यभ कस्येहासम्भवात्, तथाहि - नास्त्येवैकत्राकाशप्रदेशे केवलिसमुद्घातं विनैकस्य जीवस्यैकप्रदेशसम्भवोऽसंख्यातानामेव भावादिति, 'अणिंदिएसु तियभंगो' त्ति अनिन्द्रियेषूक्तभङ्गकत्रयमपि सम्भवतीति कृत्वा तेषु तद्वाच्यमिति। 'रूवी तहेव त्ति स्कन्धाः देशाः प्रदेशा अणवश्चेत्यर्थः,'नो धम्मत्थिकाये' त्ति नो धर्मास्तिकाय एक त्राकाशप्रदेशे संभवत्यसंख्यातप्रदेशावगाहित्वात्तस्येति, 'धम्मत्थिकायस्सदेसे 'त्ति यद्यपि धर्मास्तिकायस्यैकत्राकाशप्रदेशे प्रदेश एवास्ति तथाऽपि देशोऽवयव इत्यनान्तरत्वेनावयवमात्रस्यैव विवक्षितत्वात् निरंशता-याश्च तत्र सत्या अपि अविवक्षितत्वाधर्मास्तिकायस्य देश इत्युक्तम् , प्रदेशस्तु निरुपचरित एवास्तीत्यत उच्यते 'धम्मत्थिकायस्स पएसे' त्ति' एवमहम्मत्थिकायस्स वित्ति'नो अहम्मत्थिकाए अहम्मत्थि-कायस्स देसे अहम्मत्थिकायस्सपएसे 'इत्येवधर्मास्तिकायसूत्रं वाच्यमित्यर्थः, 'अद्धासमओ नत्थि त्ति अरूवी चउव्विह 'त्ति ऊर्ध्व-लोकेऽद्धासमयो नास्तीति अरूपिणश्चतुर्विधाः-धर्मास्तिकायदेशादयः ऊर्ध्वलोक एकत्राकाशप्रदेशे सम्भवन्तीति। लोगस्स जहा अहोलोगखेत्तलोगस्स एगम्मि आगासपएसे' त्ति अधोलोकक्षेत्रलोकस्यैकत्राकाशप्रदेशे यद्वक्तव्यमुक्तं तल्लोकस्याप्येकत्राकाशप्रदेशेवाच्यमित्यर्थः, तच्चेदम् - 'लोगस्स णं भंते ! एगम्मि आगासपएसे किं जीवा जीवदेसाजीवपएसा? पुच्छा गोयमा ! नो जीवे' त्यादि प्राग्वत् / ' अहेलोयखेत्तलोए अणंता वन्नपजव 'त्ति अधोलोकक्षेत्रलोके अनन्ता वर्णपर्यवाः, एकगुणकालकादीनामनन्तगुणकालाद्यवसानानां पुद्गलानां तत्र भावात् / अलोकसूत्रे 'नेवत्थि अगुरुलहुयपज्जव 'त्ति अगुरुलघुपर्यवोपेतद्रव्याणां पुद्गलादीनां तत्राभावात्। (14) लोकः क्वति महालयादिःलोए णं भंते ! के महालाए पन्नत्ते ? गोयमा ! अयन्नं जंबुद्दीवे दीवे सव्वदीवा जाव परिक्खेवेणं, तेणं कालेणं तेणं समएणं छ देवा महिड्डीया०जाव महेसक्खा, जंबुद्दीवे दीवे मंदरे पव्वए मंदरचूलियं सवओ समंता संपरिक्खित्ता णं चिट्ठज्जा, अहे णं चत्तारि दिसाकुमारीओ महत्तरियाओ चत्तारि वलिपिंडे गहाय जंबुद्दीवस्स दीवस्स चउसु वि दिसासु बहियाभिमुहीओ ठिचा ते चत्तारि वलिपिंडे जमगसमगं बहियाभिमुहे पक्खिवेज्जा, पभू णं गोयमा ! ताओ एगमेगे देवे ते चत्तारि वलिपिंडे धरणितलमसंपत्ते खिप्पामेव पडिसाहरित्तए, ते णं गोयमा ! देवा ताए उक्किट्ठाए जाव देवगइए एगे देवे पुरच्छाभिमुहे पयाते एवं दाहिणाभिमुहे एवं पञ्चत्थाभिमुहे एवं उत्तराभिमुहे एवं उड्डाभिमुहे ०एगे देवे अहोभिमुहे पयाए / तेणं कालेणं तेणं समएणं वाससहस्साउए दारए पयाए,तएणं तस्स दारगस्स अम्मा-पियरो पहीणा भणंति, णो चेव णं ते देवा लोगंतं संपाउणंति, तए णं तस्स दारगस्स आउए पहीणे भवति णो चेव पंजाब संपाउणंति, तएणं तस्स दारगस्स अद्विमिंजापहीणा भवंतिणो चेवणं ते देवा लोगंतं संपाउणंति, तएणं तस्सदारगस्स आसत्तमे विकुलवंसे पहीणे भवति णो चेवणं ते देवा लोगंतं संपाउणंति, तए णं तस्स दारगस्स नामगोए वि पहीणे भवति णो चेव णं ते देवा लोगंतं संपाउणंति, तेसिणं भंते देवाणं किं गए बहुए अगए बहुए ? गोयमा ! गए बहुए नो अगए बहुए, गयाउ से अगए असंखेज्जइभागे अगयाउ से गए असंखेजगुणे लोए णं गोयमा ! एमहालए पन्नत्ते। (15) अलोकः कतिमहालयःअलोएणं भंते ! के महालए पन्नत्ते? गोयमा! अयन्नं समयखेत्ते पणयालीसंजोयणसयसहस्साइं आयामविक्खंभेणं जहाखंदए० जाव परिक्खेवेणं। तेणं कालेणं तेणं समएणं दस देवा महिडिया तहेव जाव संपरिक्खित्ता णं संचिट्टेखा, अहे णं अट्ठ दिसाकुमारीओ महत्तरियाओ अट्ठ वलिपिंडे गहाय माणुसुत्तरस्स पव्वयस्सचउसु वि दिसासु चउसु वि विदिसासु बहियाभिमुहीओ ठिचा अट्ठ बलिपिंडे गहाय माणुसुत्तरस्स पव्वयस्स जमगसमगं बहियाभिमुहीओ पक्खिवेजा, पभू णं गोयमा ! तओ एगमेगे देवे ते अट्ठ बलिपिंडे धरणितलसमसंपत्ते खिप्पामेव पडिसाहरित्तए, तेणं गोयमा! देवा ताए उक्किट्ठाए जाव देवगईए लोगंसि ठिचा असम्भावपट्ठवणाए एगे देवे पुरच्छा भिमुहे पयाए, एगे देवे दाहिणपुरच्छाभिमुहे पयाए, एवं जाव उत्तरपुच्छामिमुहे एगे देवे उड्डाभिमुहे एगे देवे अहोभिमुहे पयाए, तेणं कालेणं तेणं समएणं वाससयस हस्साउएदारए पयाए, तएणं तस्स दारगस्स अम्मा
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________________ लोक 705 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लोक पियरो पहीणा भवंति नो चेवणं ते देवा अलोयंतं संपाउणंति,तं चेव०,तेसि णं देवाणं किं गए बहुए अगए बहुए ? गोयमा ! नो | गए बहुए अगए बहुए गयाउ से अगए अणंतगुणे, अगयाउ से गए | अणंतभागे अलोए णं गोयमा ! एमहालए पन्नत्ते / (सू०४२१) / 'सव्वदीव' त्ति इह यावत्करणादिदं दृश्यम्-' समुद्दाणं अभंतरए सव्वखुड्डाएवढे तेल्लापूपसंठाणसंठिए वट्टे रहचक्कवालसंठाणसंठिए वट्टे पुक्खरकन्नियासंठाणसंठिए वट्टे पडिपुन्नचंदसंठाणसंठिए एक जोयणसयसहस्सं आयामविक्खंभेणं तिन्निजोयणसयसहस्साइंसोलस य सहस्साई दोन्नि य सत्तावीसे जोयणसए तिन्नि य कोसे अट्ठावीसं च धणुसयं तेरस अंगुलाईअद्धंगुलंच किंचि विसेसाहियं 'ति' ताए उक्किट्ठाए 'त्तिइहयावत्करणादिदं दृश्यम्-'तुरियाएचवलाए चंडाए सिहाए उद्ययाए जयणाए छेयाए दिव्वाए 'त्ति तत्र त्वरितया-आकुलया चपलयाकायचापल्येन चण्डया-रौद्रया गत्युत्कर्षयोगात् सिंहया-दाळ्यस्थिरतया उद्धृतया-दप्पाति-शयेन जयिन्या- विपक्षजेतृत्वेन छेकया-निपुणया दिव्यया-दिवि भवयेति, 'पुरच्छाभिमुहे' त्ति मेर्वपेक्षया, 'आसत्तमे कुलवंसे पहीणे 'त्ति कुलरूपो वंशः प्रहीणो भवति आसप्तमादपि वंश्यात् ,सप्तममपि वंश्यं यावदित्यर्थः, 'गयाउसे अगए असंखेजइभागे अगयाउ से गए अंसेखज्जगुणे त्ति, ननुपूर्वादिषु प्रत्येक-मर्द्धरनुप्रमाणत्वाल्लोकस्योवधिश्च किंञ्चिन्न्यूनाधिकसप्तरप्रमाणत्वात्तुल्यया गत्या गच्छतां देवानां कथ षट्स्वपि दिक्षुगतादगतं क्षेत्रमसंख्यातभागमात्रम् ,अगताच गतमसंख्यात-गुणमिति ? क्षेत्रवैषम्यादिति भावः, अत्रोच्यते-घनचतुरस्त्री-कृतस्य लोकस्यैव कल्पितत्वान्न दोषः,ननु यधुक्तस्वरूपयाऽपि गत्या गच्छन्तो देवालोकान्तं बहुनापि कालेन न लभन्ते तदा कथमच्युताजिनजन्मादिषु द्रागवतरन्ति ? बहुत्वात्क्षेत्रस्याल्पत्वादवतरणकालस्येति, सत्यम्, किन्तु-मन्देयंगतिः, जिन-जन्माद्यवतरणगतिस्तु शीघ्रतमेति। असब्भावपट्ठवणाए ति असद्भूतार्थकल्पनयेत्यर्थः। पूर्व लोकालोकवक्तव्यतोक्ता। (16) अथलोकैकप्रदेशगतं वक्तव्यविशेष दर्शयन्नाह - लोगस्स णं भंते ! एगम्मि आगासपएसे जे एगिदियपएसा० जाव पंचिंदियपएसा अणिंदियपदेसा अन्नमन्नबद्धा, अन्नमन्नपुट्ठा०जाव अन्नमन्नसमभरघडताए चिटुंति, अत्थि णं भंते ! अन्नमन्नस्स किञ्चि आबाहं वा वाबाहं वा उप्पायंति छविच्छेदं वा करें ति? णो तिणढे समढे, से केणतुणं भंते ! एवं वुबइ लोगस्सणं एगम्मि आगासपएसेजे एगिदियपएसा० जाव चिट्ठति पत्थि णं भंते ! अन्नमन्नस्स किंचि आबाहं वा०जाव करेंति? गोयमा! से जहानामए नट्टिया सिया सिंगारागारचारुवेसाजाव कलिया रंगट्ठाणंसि जणसयाउलंसि जणसयसहस्साउलंसि बत्तीसइविहस्स नट्टस्स अन्नयरं नट्टविहिं उवदंसेजा, से नूणं गोयमा! ते पेच्छगा तं नट्टियं अणिमिसाए दिट्ठीए सव्वओ समंता सममिलोएंति? हंता सममिलोएंति, ताओ णं गोयमा! दिट्ठीओ तंसि नट्टियंसि सवओ समंता सन्निपडियाओ ? हंता सन्निपडियाओ, अत्थिणंगोयमा!ताओ दिट्ठीओ तीसे नट्ठियाए किंचि वि आबाहं वा वाबाहं वा उम्पाएंति छविच्छेदंवा करेंति? णो तिणढे समढे, अहवा-सा नट्टिया तासिं दिट्ठीणं किंचि आबाहं वा वाबाहं वा उप्पाएंति छविच्छेदंवा करेइ ? णो तिणटे समढे, ताओ वा दिट्ठीओ अन्नमनाए दिट्ठीए किंचि आवाहं वा वाबाहं वा उप्पाएंति छविच्छेदं वा करेंति? णो तिणढे समडे,से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुबइ तं चेव० जाव छविच्छेदं वा करेंति / / (सू०४२२) 'लोगस्सण 'मित्यादि,'अत्थिणं भंते! 'त्ति अस्त्ययं भदन्त ! पक्षः इह च त इति शेषो दृश्यः , ' जाव कलिय त्ति इह याव-त्करणादेवं दृश्यम्-' संगयगयहसियभणियचिट्ठियविला-सललियसंलावनिउणजुत्तोवयारकलिय 'त्ति, 'बत्तीसइविहस्स नट्टस्स 'त्ति द्वात्रिंशद् विधाभेदा यस्य तत्तथा तस्य नाट्यस्य, तत्र ईहामृगऋषभतुरगनरमकरविहगव्यालककिन्नरादिभक्ति-चित्रानोमैको नाट्यविधिः, एतचरिताभिनयनमिति संभाव्यते , एवमन्येऽप्येकत्रिंशद्विधयो राजप्रश्नकृतानुसारतो वाच्याः। लोकैकप्रदेशाधिकारदेवेदमाहलोगस्सणं भंते ! एगम्मि आगासपएसे जहन्नपए जीवपएसाणं उक्कोसपए जीवपएसाणं सव्वजीवाणयकयरे कयरेहिंतो० जाव विसेसाहिया वा!, गोयमा! सव्वत्थोवा लोगस्स एगम्मि आगासपएसे जहन्नपए जीवपएसा, सव्वजीवा असंखेनगुणा, उक्कोसपए जीवपएसा विसेसाहिया सेवं भंते! मंते ! त्ति। (सू०४२३) 'लोगस्स णं 'मित्यादि, अस्य व्याख्या-यथा किलतेषु त्रयोदशसु प्रदेशेषु त्रयोदश प्रदेशकानि दिग्दशकस्पानि त्रयोदशद्रव्याणि स्थितानि तेषां च प्रत्याकाशप्रदेशं त्रयोदश त्रयोदश प्रदेशा भवन्ति, एवं लोकाकाशप्रदेशेऽनन्तजीवावगाहेनैकै कस्मिन्नाकाशप्रदेशेऽनन्ता जीवप्रदेशा भवन्ति लोके च सूक्ष्मा अनन्तजीवात्मका निगोदाः पृथिव्यादिसर्वजीवासंख्येयकतुल्याः सन्ति, तेषां चैकैकस्मिन्नाकाशप्रदेशे जीवप्रदेशा अनन्ता भवन्ति तेषां च जघन्यपदे एकत्राकाशप्रदेशे सर्वस्तोका जीवप्रदेशाः, तेभ्यश्च सर्वजीवा असंख्येयगुणाः, उत्कृष्टपदे पुनस्तेभ्यो विशेषाधिका जीवप्रदेशा इति / अयं च सूत्रार्थोऽमूभिवृद्धोक्तगाथाभिभविनीयः - "लोगस्सेगपएसे, जहन्नयपयम्मि जियपएसाणं।
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________________ लोक 706 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लोक उकोसपए य तहा, सव्वजियाणंच के बहुया ? ॥१॥इति प्रश्नः, उत्तरं पुनरत्र - थोवा जहण्णयपए, जियप्पएसा जिया असंखगुणा। उक्कोसपयपएसा, तओ विसेसाहिया भणिया॥२॥ अथजघन्यपदमुत्कृष्ठपदं चोच्यते - तत्थ पुण जहन्नपयं, लोगंतो जत्थ फासणा तिदिसिं। छहिसिमुकोसपयं, समत्तगोलम्मि णण्णत्थ // 3 // तत्र-तयोर्जघन्येतरपदयोर्जघन्यपदंलोकान्ते भवति' जत्थ 'त्ति यत्र गोलके स्पर्शना निगोददेशस्तिसृष्वेव दिक्षु भवति शेष-दिशामलोकेनावृतत्वात् , सा च खण्डगोल एव भवतीति भावः 'छद्दिसिं ' ति यत्र पुनर्गोलकेषट्स्वपिदिक्षु निगोददेशैः स्पर्शना भवति तत्रोत्कृष्टपदं भवति तय समस्तगोलैः परिपूणगोलके भवति, नान्यत्र, खण्डगोलके न भवतीत्यर्थः, सम्पूर्णगोलकश्च लोकमध्य एव स्यादिति। अथपरवचनमाशङ्कमान आह - उक्कोसमसंखगुणं, जहन्नयाओ पयं हवइ किंतु? नणु तिदिसिं फुसणाओ, छदिसिं फुसणा भवे दुगुणा / / 4 / / उत्कर्षम्-उत्कृष्टपदमसंख्यातगुणं जीवप्रदेशापेक्षया जघन्यकात्पदादिति गम्यं भवति, किन्तु-कथं तु, न भवतीत्यर्थः, कस्मादेवम् ? इत्याह-ननु-निश्चितम् , अक्षमायां वा ननुशब्दः, त्रिदिक्स्पर्शनायाः सकाशात् षड्दिकस्पर्शना भवेद् द्विगुणेति, इह च काकुपाठाद्धेतुत्वं प्रतीयत इति, अतो द्विगुणमेवोत्कृष्ट पदं स्यादसंख्यातगुणं च तदिष्यते, जघन्यपदाश्रितजीवप्रदेशापेक्षयाऽसंख्यातगणसर्वजीवेभ्यो विशेषाधिकजीवप्रदेशोपेत-त्वात्तस्येति / इहोत्तरम् - थोवा जहन्नयपए , निगोयमित्तावगाहणाफुसणा। फुसणासंखगुणत्ता , उक्कोसपए असंखगुणा // 5 // स्तोका-जीवप्रदेशा जघन्यपदे कस्मात् ? इत्याह-निगोदमात्रे क्षेत्रेऽवगाहना येषां ते तथा, एकावगाहना इत्यर्थः, तरेव यत्स्पर्शनम्अवगाहनं जघन्यपदस्य तन्निगोदमात्रावगाहनस्पर्शनं तस्मात् , खण्डगोलकनिष्पादकनिगोदैस्तस्यासंस्पर्शनादित्यर्थः, भूम्यासन्नापवरककोणान्तिमप्रदेशसदृशो हि जघन्यपदाख्यः प्रदेशः, तं चालोकसम्बन्धादेकावगाहनाएव निगोदाः स्पृशन्ति;नतुखण्डगोलनिष्पादकाः, तत्र किल जघन्यपदं कल्पनया जीवशतं स्पृशति, तस्य च प्रत्येक कल्पनयैव प्रदेशलक्षं तत्रावगाढमित्येवंजघन्यपदे कोटी जीवप्रदेशानामवगादैत्येवं स्तोकास्तत्र जीवप्रदेशा इति / अथोत्कृष्टपदजीवप्रदेशपरिमाणमुच्यते-' फुसणासंखगुणत्त ' त्ति स्पर्शनायाः-उत्कृष्टपदस्य पूर्णगोलकनिष्पादकनिगोदैः संस्पर्शनाया यदसंख्यातगुणत्वं जघन्यपदापेक्षया तत्तथा तस्माद्धेतोरुत्कृष्टपदेसंख्यातगुणा जीवप्रदेशा जघन्यपदापेक्षया भवन्ति, उत्कृष्टपदं हि सम्पूर्णगोलकनिष्पादकनिगोदरेकावगाहनैरसंख्येयैः तथोत्कृष्टपदाविमोचने-नैकैकप्रदेशपरिहारानिभिः प्रत्येकसंख्येयैरेव स्पृष्टम् , तच किल कल्पनया कोटीसहस्त्रेण जीवानां स्पृश्यते, तत्र च प्रत्येकं जीवप्रदेशलक्षस्यावगाहनाजीवप्रदेशानां दशकोटीकोट्योऽवगाढाः स्युरित्येवमुत्कृष्टपदे तेऽसंख्येयगुणा भावनीया इति। अथ गोलकप्ररूपणायाह - उक्कोसपयममोत्तुं ,निगोयओगाहणाए सव्वत्तो। निफाइजइ गोलो,पएसपरिवुड्डिहाणीहिं॥६॥ उत्कृष्टपद-विवक्षितप्रदेशम् अमुञ्चद्भिः निगोदावगाहनाया एकस्याः सर्वतः-सर्वासु दिक्षु निगादान्तराणि स्थापयद्विर्निष्पाद्यते गोलः, कथम्?, प्रदेशपरिवृद्धिहानिभ्यांकांश्चित्-प्रदेशान् विवक्षितावगाहनाया आक्रामद्भिः कांश्चिद्विमुञ्चद्भिरित्यर्थः, एवमेक-गोलकनिष्पत्तिः। स्थापना चेयम्-० गोलकान्तरकल्पनायाह - तत्तो चिय गोलाओ, उक्कोसपयं मुइत्तु जो अन्नो। होइ निगोओ तम्मि वि, अन्नो निष्फज्जती गोलो // 7 // तमेवोक्तलक्षणं गोलकमाश्रित्यान्यो गोलको निष्पद्यते, कथम् ? उत्कृष्टपदं प्राक्तनगोलकसम्बन्धि विमुच्य योऽन्यो भवति निगोदस्तस्मिन्नुत्कृष्टपदकल्पनेनेति। तथा च यत्स्यात्तदाह - एवं निगोयमेत्ते, खेत्ते गोलस्स होइ निप्फत्ती। एवं निप्पजंते, लोगे गोला असंखिज्जा॥८॥ एवम्-उक्तक्रमेण निगोदमात्रे क्षेत्रे गोलकस्य भवति निष्पत्तिः, विवक्षितनिगोदावगाहातिरिक्तनिगोददेशानां गोलकान्तरानुप्रवेशात्, एवं च निष्पद्यन्ते लोके गोलका असंख्येयाः, असंख्येयत्वात् निगोदावगाहनानाम् , प्रतिनिगोदावगाहनं च गोलकनिष्पत्तेरिति / अथ किमिदमेव प्रतिगोलकं यदुक्तमुत्कृष्टपदं तदेवेह ग्राह्य-मुतान्यत् ? इत्यस्यामाशङ्कायामाह - ववहारनएण इमं, उन्कोसपया वि एत्तिया चेव। जं पुण उक्कोसपयं, नेच्छइ यं होइ तं वोच्छं // 6 // व्यवहारनयेन-सामान्येन इदम्-अनन्तरोक्तमुत्कृष्टपदमुक्तम् , काका चेदमध्येयम्, तेनं नेहेदं ग्राह्यमित्यर्थः स्यात्, अथ कस्मादेवम् ? इत्याह'उक्कोसपया वि एत्तिया चेव' त्ति न केवलं गोलक असंख्येयाः उत्कर्षपदान्यपि परिपूर्णगोलकप्ररूपितानि एतावन्त्येवअसंख्येयान्येव भवन्ति यस्मात्ततोन नियतमुत्कृष्टपदं किञ्चनस्यादिति भावः, यत्पुनरुत्कृष्टपदं नैश्चयिकं भवति सर्वोत्कर्षयोगाद्यदिह ग्राह्यमित्यर्थः तद्वक्ष्ये। तदेवाह - बायरनिगोयविग्गह-गइयाई जत्थ समहिया अन्ने। गोला हुन्ज सुबहुला, नेच्छई पयं तदुक्कोसं // 10 // बादरनिगोदानां-कन्दादीनां विग्रहगतिकादयो बादरनिगोदविग्रहगतिकादयः,आदिशब्दश्चेहाविग्रहगतिकावरोधार्थः, यत्रोत्कृष्टपदे समधिका अन्ये-सूक्ष्मनिगोदगोलकेभ्योऽपरे गोलका भवेयुः सुवहवो नैश्चयिकपदं तदुत्कर्षम्, वादरनिगोदा हि पृथिव्यादिषु पृथिव्यादयश्च स्वस्थानेषु स्वरूपतो भवन्ति न सूक्ष्मनिगोदवत्सर्वत्रेत्यतो यत्र क्वचित्रे भवन्ति तदुत्कृष्टपदं तात्त्विकमिति भावः। एतदेव दर्शयन्नाह - इहरा पहुच सुहुमा, बहुतुल्ला पायसो सगलगोला। तो बायराइगहणं, कीरइ उक्कोसयपयम्मि // 11 // 'इहर' त्ति बादरनिगो दाश्रयणं विना सूक्ष्मनिगो दान् प्रतीत्य बहुतुल्याः-निगोदसंख्यया समानाः प्रायशः, प्रा
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________________ लोक ७०७-अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लोक योग्रहणमेकादिना न्यूनाधिकत्वे व्यभिचारपरिहारार्थम्, कएते ? इत्याह-सकलगोलाः, नतु खण्डगोलः, अतोन नियतं किञ्चि-दुत्कृष्टपदं लभ्यते, यत एवं ततो बादरनिगोदादिग्रहण क्रियते उत्कृष्टपदे। अथ गोलकादीनां प्रमाणमाह - गोला य असंखेजा, हॉति निगोया असंखया गोले। एकेको उनिगोओ, अणंतजीवो मुणेयय्वो।।१२।। (भ०) (जीवप्रदेशपरिमाणप्ररूपणापूर्वकं निगोदादीनामवगाहनामानादिप्ररूपणा' ओगाहणा 'शब्दे तृतीयभागे 83 पृष्ठे गता) अथ सर्वजीवेभ्य उत्कृष्टपदजीवप्रदेशा विशेषाधिका इति बिभणिपुस्तेषां सर्वजीवानां च तावत्समतामाह - गोलो जीवो य समा, पएसओ जंच सव्वजीवा वि। होति समोगाहणया, मज्झिमओगाहणं पप्प // 23|| गोलको जीवश्च समौ प्रदेशतः-अवगाहनाप्रदेशानाश्रित्य, कल्पनया द्वयोरपि प्रदेशदशसहस्यामवगाढत्वात् , 'जंच 'त्ति यस्माच सर्वजीवा आपसूक्ष्मा भवन्ति समावगाहनका मध्यमावगाहनामाश्रित्य, कल्पनया हि जघन्यावगाहना पञ्चप्रदेशसहस्राणि उत्कृष्टा तु पश्चदशेति द्वयोश्च मीलनेनार्डीकरणेन च दश सहस्राणि मध्यमा भवतीति। तेण फुडं विय सिद्धं, एगपएसम्मि जे जियपएसा। ते सव्वजीवतुल्ला, सुणसु पुणो जह विसेसहिया।। 24 // इह किलासद्भावस्थापनया कोटीशतसंख्याप्रदेशस्य जीवस्याकाशप्रदेशदशसहय्यामवगाढस्य जीवस्य प्रतिप्रदेश प्रदेशलक्ष भवति, तच्च पूर्वोक्तप्रकारतो निगोदवर्तिना जीवलक्षण गुणितं कोटिसहस्रं भवति, पुनरपि च तदेकगोलवर्त्तिना निगोदलक्षण गुणितं कोटीकोटीदशकप्रमाणं भवति, जीवप्रमाणमप्येतदेव / तथाहि-कोटीशतसंख्यप्रदेश लोके दशसहस्रावगाहिनां गोलानां लक्षं भवति, प्रतिगोलकं च निगोदलक्षकल्पनात् निगोदानां कोटसहस्रं भवति, प्रतिनिगोदं च जीवलक्षकल्पनात् सर्वजीवानां कोटीकोटीदशकं भवतीति। अथ सर्वजीवेभ्य उत्कृष्टपदगतजीवप्रदेशा विशेषाधिका इति दर्शाते - जं संति केइ खंडा, गोला लोगंतवत्तिणो अन्ने / वायरविग्गहिएहि य, उक्कोसपयं जमन्भहियं / / 25 / / यस्माद्विद्यन्ते केचित्खण्डा गोला लोकान्तवर्तिनः 'अन्ने ति पूर्णगोलकेभ्योऽपरेऽतो जीवराशिः कल्पनया कोटीकोटीदशकरूपऊनो भवति, पूर्णगोलकतायामेव तस्य-यथोक्तस्य भावात् , ततश्च येन जीवराशिना खण्डगोलका पूर्णीभूताः स सर्वजीवराशेरपनीयते असद्भूतत्वात्तस्य, स च किल कल्पनया कोटीमानः, तत्र चापनीते सर्वजीवराशिः स्तोकतरो भवति, उत्कृष्टपदं तु यथोक्त-प्रमाणमेवेति तत्त्वतो विशेषाधिकंभवति, समता पुनः खण्डगोलानां पूर्णताविवक्षणादुक्तेति, तथा बादरविग्रहिकैश्च बादरनिगोदादि-जीवप्रदेशेश्चोत्कृष्टपदं यद्-यस्मात्सर्वजीवराशेरभ्यधिकं ततः सर्वजीवेभ्य उत्कृष्टपदे जीवप्रदेशा विशेषाधिका भवन्तीति / इयमत्र भावना-बादरविग्रहगतिकादीनामनन्तानां जीवानां सूक्ष्मजीवा संख्येयभागवर्तिनां कल्पनया कोटीप्रायसंख्यानां पूर्वोक्तजीवराशिप्रमाणे प्रक्षेपणेन समताप्राप्तावपि तस्य बादरादिजीवराशेः कोटीप्रायसंख्यस्य मध्यादुत्कर्षतोऽसंख्येयभागस्य कल्पनया शतसंख्यस्य विवक्षितसूक्ष्मगोलकावगाहनायामवगाहनात् एकैकस्मिंश्च प्रदेशे प्रत्येक जीवप्रदेशलक्षस्यावगाढत्वात् लक्षस्य च शतगुणत्वेन कोटीप्रमाणत्वात् तस्याश्चोत्कृष्टपदे प्रक्षेपात्पूर्वोक्तमुत्कृष्टपदजीवप्रदेशमानं कोट्यधिकं भवतीति। यस्मादेवम् - तम्हा सव्वेहिंतो, जीवहिंतो फुडं गहेयव्वं / उक्कोसपयपएसा,होति विसेसाहिया नियमा।।२६।। इदमेव प्रकारान्तरेण भाव्यते - अहवा जेण बहुसमा, सुहुमा लोएऽवगाहणाए य। तेणेक्केचं जीवं, बुद्धीऍ विरल्लए लोए / / 27 // यतो बहुसमाः-प्रायेण समाना जीवसंख्यया कल्पनया एकैकावगाहनायां जीवकोटीसहस्रस्यावस्थानात् , खण्डगोलकेव्यभिचारपरिहारार्थ चेह बहुग्रहणं सूक्ष्माःसूक्ष्मनिगोदगोलकाः कल्पनया लक्षकल्पाः लोके-चतुर्दशरज्ज्वात्मके, तथाऽवगाहनया च समाः, कल्पनया दशसु दशसु प्रदेशंसहस्रेष्यवगाढत्वात् , तस्मादेक प्रदेशावगाढजीवप्रदेशानां सर्वजीवानां च समतापरिज्ञानार्थमेकैकं जीवंबुद्ध्या ' विरल्लए 'त्ति केवलिसमुद्घातगत्या विस्तारयेल्लाके / अयमत्र भावार्थः-यावन्तो गोलकस्यैकत्र प्रदेशे जीवप्रदेशा भवन्ति, कल्पनया कोटीकोटीदशकप्रमाणास्तावन्त एव विस्तारितेषु जीवेषु लोकस्यैकत्र प्रदेशे ते भवन्ति, सर्वजीवा अप्येतत्समाना एवेति। अतएवाह - एवं पिसमा जीवा, एगपएसगयजियपएसे हिं। बायरबाहुल्ला पुण, हॉति पएसा विसेसहिया॥२८॥ एवमपि न केवलं' गोलो जीवो यसमा इत्यादिना पूर्वोक्तन्यायेन समा जीवा एकप्रदेशगतैर्जीवप्रदेशैरिति, उत्तरार्द्धस्य तु भावना, प्राग्वदवसेयेति। __ अथ पूर्वोक्तराशीनां निदर्शनान्यभिधित्सुः प्रस्तावयन्नाह - तेसिं पुण रासीणं, निदरिसणमिणं भणामि पचक्खं / सुहगहणगाहणत्थं, ठवणा रासिप्पमाणेहिं / / 26 // गोलाण लक्खमेकं, गोले गोले निगोयलक्खं तु / एकेके य निगोए, जीवाणं लक्खमेककं // 30 // कोडिसयमेगजीव-प्पएसमाणं तमेय लोगस्स। गोल-निगोय-जियाणं,दस उसहस्सा समोगाहो // 31 // जीवस्सेकेकस्सय, दससाहस्सावगाहिणोलोगे। एकेक्कम्मि पएसे, पएसलक्खं समोगाढं // 32 // जीवसयस्स जहन्ने, पयम्मि कोडी जियप्पएसाणं। ओगाढा उक्कोसे, पयम्मि वोच्छं पएसग्गं // 33 // कोडिसहस्सजियाणं, कोडाकोडीदसप्पएसाणं।
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________________ लोक 708 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लोक उक्कोसे ओगाढा, सव्वजियाऽवेत्तिया चेव // 34 // कोडी उक्कोसपय-म्मिबायरजियप्पएसपक्खेवो। सोहणयमेत्तियं चिय, कायव्वं खंडगोलाणं // 35 // उत्कृष्टपदे सूक्ष्मजीवप्रदेशराशेरुपरिकोटीप्रमाणो बादरजीव-प्रदेशानां प्रक्षेपः कार्यः, शतकल्पत्वाद्विवक्षितसूक्ष्मगोलकावगाढ-बादरजीवानाम, तेषां च प्रत्येक प्रदेशलक्षस्योत्कृष्टपदेऽवस्थितत्वात् , तन्मीलने च कोटीसद्भावादिति,तथा सर्वजीवराशेर्मध्याच्छोधनकम्-अपनयनम् ' एत्तियं चिय'त्ति एतावतामेव-कोटीसंख्यानामेव कर्तव्यम्,खण्डगोलानाम् खण्डगोलकपूर्णताकरणे नियुक्तजीवानां तेषामसद्भाविकत्वादिति। एएसि जहासंभव-मत्थोवणयं करेज रासीणं। सटभावओ व जाणि-ज ते अणंता असंखा वा / / 36 // " इहार्थोपनयो यथास्थानं प्रायः प्राग् दर्शित एव ' अणंत 'त्ति निगोदे जीवा यद्यपि लक्षमाना उक्तास्तथाऽप्यनन्ताः,एवं सर्वजीवा अपि, तथा निगोदादयो ये लक्षमाना उक्तास्तेऽप्यसंख्येया अवसेया इति। भ० 11 / श०११ उ०। (17) असंख्येयेषु लोकेषु अनन्तानि रात्रिन्दिवानीत्याह - तेणं कालेणं तेणं समएणं पासावचिज्जा (ते )थेरा भगवंतो जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते ठिचा एवं वदासीसे नूणं भंते ! असंखेज्जे लोए अणंता राईदिया उप्पलिंसु वा उप्पजंति वा उप्पजिस्संति वा विगच्छिंसु वा विगच्छंति वा विगच्छिस्संति वा परीत्ता राइंदिया उप्पजिंसु वा उपज्जतिसु वा उप्पजिस्संति वा विगच्छिंसु वा विगच्छंति वा विगच्छिस्संति वा? हंता अजो? असंखेज्जे लोए अणंता राइंदिया तं चेव, से केणढेणं० जाव विगच्छिस्संति वा ? मे नूणं भंते ! अओ ! पासेणं अरहया पुरिसादाणीएणं सासए लोए वुइए, अणादीए अणवदग्गे परित्ते परिवुडे हेट्ठा वित्थिपणे गज्झे संखित्ते उप्पिं विसाले अहे पलियंकसंठिए मज्झे वरवइरविग्गहिते उप्पिं उद्धमुइंगाकारसंठिए तेसिंचणं सासयंसि लोगंसि अणादियंसि अणवदग्गंसि परित्तंसि परिवुडंसि हेट्ठा वित्थिनंसि मज्झे संखित्तंसि उप्पिं विसालंसि अहे पलियंकसंठियंसि मज्झे वरवइरविग्गहियंसि उप्पिं उद्धमुइंगाकारसंठियंसि अणंता जीवघणा उप्पजित्ता उप्पञ्जित्ता निलीयंति परित्ता जीवघणा उप्पञ्जित्ता उप्पज्जित्ता निलीयंति।से नूणं भूए उत्पन्ने विगए परिणए अजीवेहिं लोकति पलोकइ, जे लोकइ से लोए ? हंता भगवं (ते)!, से सेण?णं अञ्जो ! एवं वुच्चइ असंखेजेतंचेवातप्पमिति चणं ते पासावचेजा थेरा भगवंतो समणं भगवं महावीर पञ्चभिजाणंति सव्वन्नू सव्वदरिसी,तएणते थेरा भगवंतो समणं भगवं महावीरं वंदंति नमसंति वंदित्ता नमंसित्ता एवं वदासीइच्छामि णं मंते ! तुम अंतिए चाउजामाओ धम्माओ पंच महव्वइयं सप्पडिक्कमणं धम्म उवसंपजित्ता णं विहरित्तए, अहासुहं देवाणुप्पिया!मा पडिबंधं करेह, तएणं ते पासावचिन्जा थेरा भगवंतो जाव चरिमेहिं उस्सासनिस्सासेहिं सिद्धा जाव सव्वदुक्खप्पहीणा अत्थेगतिया देवा देवलोएसु उववन्ना। (सू०२२६) 'तेणं कालेणं ' इत्यादि, तत्र ' असंखेजे लोए ' त्ति असंख्यातेऽसंख्यातप्रदेशात्मकत्वात् लोकेचतुर्दशरज्ज्वात्मके क्षेत्रलोके आधार-- भूते ' अणंता राइंदिय ‘त्ति अनन्तपरिमाणानि रात्रिन्दिवानिअहोरात्राणि 'उप्पजिंसुवा' इत्यादि, उत्पन्नानि वा उत्पद्यन्तेवा उत्पत्स्यन्ते वा, पृच्छतामयमभिप्रायः-यदिनामासंख्यातोलोकस्तदा तत्रानन्तानि तानि कथं भवितुमर्हन्ति ? अल्पत्वादाधारस्य महत्वाचाधेयस्येति, तथा ' परित्ता राइदिय 'त्ति परीत्तानि-नियतपरिमाणानि नानन्तानि, इहायमभिप्रायः-यद्यनन्तानि तानि तदा कथं परीत्तानि ? इति विरोधः, अत्र हन्तेत्याधुत्तरम् , अत्र चायमभिप्रायः-असंख्यातप्रदेशेऽपिलोकेऽनन्ता जीवा वर्तन्ते, तथाविधस्वरूपत्वाद्, एकत्राश्रये सहस्रादिसंख्यप्रदीपप्रभा इव, ते चैकत्रैव समयादिके कालेऽनन्ता उत्पद्यन्ते विनश्यन्ति च, स च समयादिकालस्तेषु साधारण-शरीरावस्थायामनन्तेषु प्रत्येकशरीरावस्थायां च परीत्तेषु प्रत्येक वर्तते, तत्स्थितिलक्षणपर्यायरूपत्वात्तस्य, तथा चकालोऽनन्तः परीत्तश्च भवतीति, एवं चासंख्येयेऽपि लोके रात्रिन्दिवान्यनन्तानि परीत्तानि च कालत्रयेऽपि युज्यन्त इति / एतदेव प्रश्नपूर्वकं तत्संमतजिनमतेन दर्शयन्नाह-' से नूण मित्यादि,' भे'त्ति भवतां सम्बन्धिना' अजो 'त्ति हे आर्याः !' पुरिसादाणीएणं ति पुरुषाणां मध्ये आदानीयः-आदेयः-पुरुषादानीयस्तेन ' सासए 'त्ति प्रतिक्षणस्थायि, स्थिर इत्यर्थः 'वुइए 'त्ति उक्त, स्थिर-श्चोत्पत्तिक्षणादारभ्य स्यादित्यत आह-'अणाइए 'त्ति अना-दिकः, स च सान्तोऽपि स्याद्भव्यत्ववदित्याह - 'अनवयग्गे' त्ति अनवदनः - अनन्तः परिते 'त्ति परिमितिः प्रदेशतः, अनेन लोकस्यासंख्येयत्वं पार्श्वजिनस्यापि संमतमिति दर्शितम्।तथा-'परिखुडे 'त्तिअलोकेन परिवृतः 'हेट्ठा वित्थिन्ने 'त्ति सप्तरज्जू-विस्ततृत्वात् 'मज्झे संखित्ते ति एकरजुविस्ता-रत्वात् ' उप्पिं विसाले 'त्ति ब्रह्मलोकदेशस्य पश्चरज्जुविस्तारत्वात् , एतदेवोपमानतः प्राह-' अहे पलियंकसंठिए 'त्ति उपरि सङ्कीर्ण-त्वाधोविस्तृतत्वाभ्यां ' मज्झे वरवइरविग्गहिए त्ति वरवज्रव-द्विग्रहः-शरीरमाकारो मध्यक्षामत्वेन यस्य स तथा, स्वार्थिकश्चेह कप्रत्ययः, 'उप्पिं उद्धमुइगागारसंठिए' ति ऊो न तु तिरश्चीनो यो मृदङ्गस्त-स्याकारेण संस्थितो यः स तथा, मल्लकसंपुटाकार इत्यर्थः, अणंता जीवघण 'त्ति अनन्ताःपरिमाणतः सूक्ष्मादिसाधारणशरीराणां विवक्षितत्वात् , सन्तत्यपेक्षया वाऽनन्ताः, जीवसन्ततीनाम पर्यवसानत्वात् , जीवाश्च ते घनाश्चानन्तपर्यायसमूहरूपत्वादसंख्येयप्रदेशपिण्डरूपत्वाचजीवधनाः किमित्याह
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________________ लोक 706 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लोक 'उप्पञ्जिते ‘त्ति उत्पद्योत्पद्य विलीयन्ते-विनश्यन्ति, तथा परीत्ताःप्रत्येकशरीरा अनपेक्षितातीतानागतसन्तानतया वा संक्षिप्ताः, जीवधना इत्यादि तथैव, अनेन च प्रश्ने यदुक्तम् ' अणंता राइंदिया ' इत्यादि तस्योत्तरं सूचितम्, यतोऽनन्तपरीत्त जीवसम्बन्धात्कालविशेषा अप्यनन्ताः परीत्ताश्च व्यपदिश्यन्तेऽतो विरोधः परिहृतो भवतीति। अथ लोकमेव स्वरूपत आह-' से ( नूणं) भूए ‘ति यत्र जीवघना उत्पद्य उत्पद्य विलीयन्ते स लोको भूतः-सद्भूतो भवनधर्मयोगात् , स चानुत्पत्तिकोऽपि स्याद्यथा नयमतेनाकाशमत आह-उत्पन्नः, एवंविधश्चानश्वरोऽपि स्यात् यथा विवक्षितघटाभाव इत्यत आह-विगतः, स चानन्वयोऽपि किल भवतीत्यत आह-परिणतः-पर्यायान्तराणि आपन्नो नतु निरन्व-यनाशेन नष्टः / अथ कथमयमेवंविधो निश्चीयते? इत्याह'अजीवहिं ति अजीवैः-पुद्गलादिभिः सत्तां विभ्रद्भिरुत्पद्य-मानैर्विगच्छद्भिः परिणमद्भिश्च लोकानन्यभूतैः लोक्यते-निश्चीयते प्रलोक्यतेप्रकर्षेण निश्चीयते, भूतादिधर्मकोऽयमिति, अत एव यथार्थनामाऽसाविति दर्शयन्नाह' जे लोक्कइ से लोए 'त्ति यो लोक्यते-विलोक्यते प्रमाणेन स लोकोलोकशब्दवाच्यो भवतीति, एवं लोकस्वरूपाभिधायकपार्श्वजिनवचनसंस्मरणेन स्ववचनं भगवान् समर्थितवानिति / 'सपडिक्कमणं ति आदिमान्तिमजिनयोरेवावश्यकरणीयः सप्रतिक्रमणो धर्मोऽन्येषां तु कदाचितत्प्रतिक्रमणम्, आह च-" सपडिक्कमणो धम्मो, पुरिमस्सय पच्छिमस्सय जिणस्स। मज्झिमगाण जिणाणं, कारणजाए पडिक्कमणं // १॥"ति॥अनन्तरं' देवलोएसु उववन्ना ' इत्युक्तम् / भ० 5 श०६ उ०। (स्वकीयैः स्वकीयैः पर्यायैः कृतोऽयं लोक इति' कडवाइ 'शब्दे 3 भागे 204 पृष्ठे गतम्) (लोकवादं लोगवाय' शब्दे वक्ष्यामि) (18) लोकसम्मतो लोकः - अस्ति लोकः स्थावरजङ्गमात्मकः, तत्र नवखण्डा पृथ्वी, सप्त-दीपा वसुंधरेति वा / अपरेषां तु-ब्रह्माण्डान्तर्वर्ती, अपरेषां तु-प्रभूतान्येवंभूतानि ब्रह्माण्डान्युदकमध्ये प्लवमानानि संतिष्ठन्ते।आचा०१ श्रु०८ अ०१उ० (पृथिव्याः चलाचलत्वविचारः। सर्वा अपि पृथ्व्यः अलोकंन स्पृशन्तीति व ' पुढवी ' शब्दे पञ्चमभागे 672 पृष्ठे ' भूगोल ' शब्दे 1564 पृष्ठे च दर्शितम् ) अनेकेषामत्र मतम्- ' लोकक्रियात्मतत्त्वे, विवदन्ते वादिनो विभिन्नार्थम् / अविदितपूर्व येषां, स्याद्वादविनिश्चित तत्त्वम्॥१॥ येषां तुपुनः स्याद्वादमतं निश्चितं तेषामस्तित्वनास्तित्वादेरर्थस्य नयाभि-प्रायेण कथंचिद् वा श्रयणाद्विवादाभाव इत्यादि। (आचा० 1 श्रु०८ अ०१ उ01) भूगोल 'शब्दे पञ्चमभागे 1564 पृष्ठे सर्वेषां मतं प्रतिपादितम्-अस्ति लोको नास्ति वेत्यादि, ध्रुवो लोकः अधुवो लोक इत्यादि च / (अस्ति लोकः इति ' अस्थिवाय ' शब्दे प्रथम-भागे 516 पृष्ठे उक्तम्) (नास्तिलोक इत्यस्य खण्डनम् भूगोल 'शब्दे पञ्चमभागे 1564 पृष्ठे विस्तरतो दर्शितम् / ध्रुवो लोकः अस्य खण्डनम् ' पुढवी ' शब्दे 672 पृष्ठे उक्तम्। अध्रुवो लोकः इति मरणनिरूपणे ' मरण शब्देऽस्मिन्नेव भागे 108 पृष्ठे उक्तम्। सादिको लोक इति' कम्म शब्द तृतीयभागे 243 पृष्ठे दर्शितम् ) / (16) कुत्र लोको बहुसमः - कहिणं भंते! लोए बहुसमे? कहिण भंते! लोए सव्वविग्गहिए पण्णते? गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उवरिमहे-ट्ठिल्लेसु खुड्डागपयरेसु एत्थ लोए बहुसमे एत्थ णं लोए सव्व-विग्गहिए पण्णत्ते / कहि णं भंते ! विगहविगहिए लोए पण्णते? गोयमा! विग्गहडएएत्थणं विग्गहविगहिए लोए पण्णत्ते। (सू०४८६) ' कहि ण ' मित्यादि, ' बहुसमे त्ति अत्यन्तं समः, लोको हि क्वचिद्वर्द्धमानः क्वचिद्धीयमानोऽतस्तन्निषेधाद्वहुसमो वृद्धिहानि-वर्जित इत्यर्थः, ' सव्वविग्गहिए 'त्ति विग्रहो वक्त्रं लघुरित्यर्थः, तदस्यास्तीति विग्रहिकः सर्वथा विग्रहिकः सर्वविग्रहिकः-सर्व-संक्षिप्त इत्यर्थः, 'उवरिमहेट्ठिल्लेसु खुडागपयरेसु 'त्ति उवरिमो यमवधीकृत्योर्ध्वं प्रतरवृद्धिः प्रवृत्ता, अधस्तनश्च यमवधीकृत्याधः प्रतरप्रवृद्धिः प्रवृत्ता, ततस्तयोरुपरितनाधस्तनयोः क्षुल्लक-प्रतरयोः शेषपेक्षया लघुतरयो रज्जुप्रमाणायामविष्कम्मकयोस्तिर्यग्लोकमध्यभागवर्त्तिनोः 'एत्थ णं' ति एतयोःप्रज्ञापकेनोपदर्यमानतया प्रत्यक्षयोः 'विग्गहविग्गहिए 'त्ति विग्रहो-वक्त्रं तद्युक्तो विग्रहः-शरीरं यस्यास्ति स विग्रहविग्रहिकः ' विग्गहकंडए ' त्ति विग्रहो-वक्त्रं कण्डकम्-अवयवो विग्रहरूपं कण्डकं विग्रहकण्डकं तत्र ब्रह्मलोककूपर इत्यर्थः यत्र वा प्रदेशवृद्ध्या हान्या वा वक्त्रं भवति तद्विग्रहकण्डकम् तच्च प्रायो लोकान्तेष्वस्तीति / भ०१३ श०४ उ०।' अनन्तो नित्यश्च लोक ' इति यदभिहितं, तत्रेदमभिधीयते-यदि स्वजात्यनुच्छेदेनास्य नित्यताऽभिधीयते ततः परिणामानित्यत्वमस्मदभीष्टमेवाभ्युपगतं न काचित्क्षतिः, अथा-प्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकस्वभावत्वेन नित्यत्वमभ्युपगम्यते तन्न घटते, तस्याध्यक्षवाधितत्वात्, न हि क्षणभाविपर्यायानालिङ्गितं किञ्चिद्वस्तु प्रत्यक्षेणावसीयते, निष्पर्यायस्य च स्वपुष्पस्येवासद्रूपतैव स्यादिति। तथा शश्वद्भवनं कार्यद्रव्यस्याऽऽकाशात्मादेश्चाविनाशित्वम् यदुच्यते-द्रव्यविशेषापेक्षया तदप्यसदेव, यतः सर्वमेव वस्तूत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तत्वेन निर्विभागमेव प्रवर्तते, अन्यथा वियदरविन्दस्येव वस्तुत्वमेव हीयेतेति। तथा यदुक्तम्'अन्त-वाँल्लोकः सप्तद्वीपावच्छिन्नत्वा 'दित्येतन्निरन्तराः सुहृदः प्रत्येष्यन्ति, न प्रेक्षापूर्वकारिणः, तद्ग्राहकप्रमाणाभावादिति। तथा यदप्युक्तम् , ' अपुत्रस्य न सन्ति लोका ' इत्यादित्येतदपि बालभाषितम् , तथाहि-किं पुत्रसत्तामात्रेणैव विशिष्टलोकावाप्तिरुत तत्कृतविशिष्टानुष्ठानात् ? तद्यदि सत्तामात्रेण तत इन्द्रमहकामुकग वराहादिभिव्याप्ता लोका भवेयुः, तेषां पुत्रबहुत्वसंभवात् , अथानुष्ठानमाश्रीयते तत्र पुत्रद्वये सत्येकेनशोभनमनुष्ठितम् ,अपरेण अशोभनमिति तत्र का वार्ता ? स्वकृतानुष्ठानं च निष्फलमापद्येतेत्येवं यत्किंचिदेतदिति। सूत्र०१ श्रु० 1 अ०४ उ०। (20) धर्मास्तिकायादिभिर्लोकः स्पृष्टः - चउहिँ अस्थिकाएहिं लोगे फुडे पण्णत्ते, तं जहा-थम्मत्थिकारणं अधम्मत्थिकाएणं जीवत्थिकाएणं पुग्गलत्थिकाए ण
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________________ लोक 710 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लोक णं चउहिं बादरकाएहिं उववजमाणेहिं लोगे फुडे पण्णत्ते, तं जहा-पुढविकाइएहिं आउकाइएहिं वाउकाइएहिं वणस्सइकाइएहिं / (सू०३३३) 'चउर्हि' इत्यादि गतार्थम्, केवलम् 'फुडे 'त्ति स्पृष्टःप्रतिप्रदेश व्याप्तः, सूक्ष्माणां पञ्चानामपि सर्वलोकात्सर्वलोके उत्पादात्बादरतैजसानांतु सर्वलोकादुहृत्य मनुष्यक्षेत्रे ऋजुगत्या वक्रगत्या चोत्पद्यमानानां द्वयोरूर्ध्वकपाटयोरेव बादरतेजस्त्वव्यपदेशस्येष्टत्वाच' चउहि बादरकाएहिं ' इत्युक्तम्, बादरा हि पृथिव्यम्बुवायुवनस्पतयः सवता लोकदुद्वृत्य पृथिव्यादिघनोदध्यादिघनवात-वलयादि घनोदध्यादिषु यथास्वमुत्पादस्थानेष्वन्यतरगत्योत्पद्यमाना अपयाप्तकावस्थायामतिबहुत्वात्सर्वलोकं प्रत्येकं स्पृशन्ति, पर्याप्तास्त्वेते बादरतेजस्कायिकास्त्रसाश्च लोकासंख्येयभागमेव स्पृशन्तीति, उक्तञ्च प्रज्ञापनायाम्" एत्थ णं बादरपुढेविकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा पन्नत्ता, उववाएणं लोयस्स असंखेज्जइ-भागे "तथा-" बादरपुढविकाइयाणं अपजत्तगाणं ठाणा पन्नत्ता, उववाएणं सव्वलोए" एवमब्वायुवनस्पतीनाम् , तथा - " बादर-तेउक्काइयाणं अपज्जत्ताणं ठाणा पन्नत्ता, उववाएणं लोयस्स असंखे-जइभागे " " बादरतेउक्काइयाणं अपजत्ताणं ठाणा पन्नत्ता, लोयस्स दोसुउड्डकवासुतिरियलोयत यत्तिद्वयोरूर्ध्वकपाटयोरूर्ध्व-कपाटस्थतिर्यग्लोके चेत्यर्थः, तिर्यग्लोकस्थालके चेत्यन्ये, तथा - " कहि णं भंते ! सुहुमपुढविकाइयाण पज्जत्तगाणं अपज्जत्तगाण य ठाणा पन्नत्ता ? गोयमा ! सुहुमपुढविकाइया जे पजत्तगाजे य अप-जत्तगा ते सव्वे एगविहा अविसेसमणाणत्ता सव्वलोगपरियावन्नगा पन्नत्ता समणीउसो ! " त्ति, एवमन्येऽपि," एव बेइंदियाणं पज्जत्ताऽपञ्जत्ताणं ठाणा पन्नत्ता, उवाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागो" ति, एवं शेषाणामपीति। चतुर्भिर्लोकः स्पृष्ट इत्युक्तमिति स्था० 4 ठा० 3 उ०। (21) लोकस्य चरमान्तो जीवोऽजीवो वेत्याह - लोयस्सणं भंते ! पुरच्छिमिल्ले चरिमंते किं जीवा जीवदेसा जीवपएसा, अजीवा अजीवदेसा अजीवपएसा ? गोयमा ! णो जीवाजीवदेसा वि जीवपएसा वि अजीवा वि अजीवदेसा वि अजीवपएसा वि / / जे जीवदेसा ते णियमं एगिदियदेसा य, अहवा-एगिंदियदेसाय बेइंदियस्सय देसे एवं जहा दसम-सए अग्गेयी दिसा तहेव णवरं देसेसु अणिंदियाणं आइल्लविरहिओ, जे अरूवी अजीवाते छव्दिहा अद्धा समयो णत्थि सेसं तं चेव णिरवसेसं // लोगस्स णं भंते ! दाहिणिल्ले चरिमंते किं जीवा० एवं चेव / / एवं पचच्छिमिल्ले वि।। एवं उत्तरिल्ले वि।। लोगस्स णं भंते ! उवरिल्ले चरिमंते किं जीवा० पुच्छा, गोयमा ! णो जीवा जीवदेसा वि० जाव अजीवपएसा वि / जे जीवदेसा ते णियम एगिदियदेसा य अणिंदियदेसा य, अहवाएगिदिय-देसाय अणिंदियदेसाय,बेइंदियस्सय देसे,अहवा एगि-दियदेसाय अणिंदियदेसाय बेइंदियाणयदेसा एवं मज्झिल्लविरहिओ० जाव पंचिंदियाणं / जे जीवप्पएसा ते णियमं एगिदियपएसा य अणिंदियपदेसाय, अहवा-एगिदियपदेसाय अणिंदियपदेसायबेइंदियस्सपदेसाय,अहवाएगिदिय-पदेसा य अणिं दियपदेसा य बेइंदियाण य पदेसा, एवं आदिल्लविरहिओन्जाव पंचिंदियाणं। अजीवाजहादसमसए तमाए तहेव णिरवसेसं।लोगस्सणं भंते ! हेट्ठिल्ले चरिमंते किं जीवा० पुच्छा, गोयमा ! णो जीवा जीवदेसा वि० जाव अजीवपदेसा वि, जे जीवदेसा ते णियम एगिदियदेसा, अहवा-एगिदियदेसा य बेइंदियस्स देसे, अहवा एगिदियदेसा बेइंदियाण य देसा, एवं मज्झिल्लविरहिओ० जाव अणिंदियाणं पदेसा आइल्लविरहिया सव्वेसिं जहा पुरच्छिमिल्ले चरिमंते तहेव अजीवा जहेव उवरिल्ले चरिमंते तहेव / (सू०५८३+) ' चरिमंते 'त्ति चरमरूपोऽन्तश्चरमान्तः तत्र चासंख्यातप्रदेशावगाहित्वान्जीवस्यासम्भव इत्यत आह-'नोजीवे 'त्ति जीवदेशा-दीनां त्वेकप्रदेशेऽप्यवगाहः संभवतीत्यत उक्तम्-' जीवदेसा वी ' त्यादि। 'अजीवा वि 'त्ति पुद्गलस्कन्धाः ' अजीवदेसा वि 'त्ति। धर्मास्तिकायादिदेशाः स्कन्धदेशाश्च तत्र सम्भवन्ति, एवमजीवप्रदेशा अपि / अथ जीवादिदेशादिषु विशेषमाह-'जे जीवे 'त्यादि ये जीवदेशास्ते पृथिव्याघेकेन्द्रियजीवानां देशास्तेषां लोकान्तेऽवश्यंभावादित्येको विकल्पः।' अहव 'ति। प्रकारान्तरदर्शनार्थः एकेन्द्रियाणां बहुत्वाद्रहवस्तत्र तद्देशा भवन्ति, द्वीन्द्रियस्य च कादाचित्कत्वात्कदाचिद्देशः स्यादित्येको द्विकयोगविकल्पः / यद्यपि हि लोकान्ते द्वीन्द्रियो नास्ति तथापि यो द्वीन्द्रिय एकेन्द्रियेषुत्पित्सुरिणान्तिकसमुद्धातं गतस्तमाश्रित्यायं विकल्प इति एवं जहे 'त्यादियथा दशमशते आग्नेयीं दिशमाश्रित्योक्तम्, तथेह पूर्वचरमान्तमाश्रित्य वाच्यम् , तचेदम्-" अहवा एगिदिय-देसाय बेंदियस्स य देसा, अहवा-एगिदियदेसा य बेंदियाण देसा, अहवाएगिदियदेसा य तेइंदियस्स य देसे " इत्यादि, यः पुनरिह विशेषस्तदर्शनायाह-' नवरं अणिंदियाण 'मित्यादि अनिन्द्रियसम्बन्धिनि देशविषये भङ्ग कत्रये " अहवा एगिंदियदेसा य अणिंदियस्स य देसे" इत्येवंरूपः प्रथमभङ्गको दशमशते आग्नेयीप्रकरणेऽभिहितोऽपीह ने वाच्यः, यतः-केवलिसमुद्घाते कपाटाद्यवस्थायां लोकस्य पूर्वचरमान्ते प्रदेशवृद्धिहानिकृतलोकदन्तकसद्भावेनानिन्द्रियस्य बहूनां देशानां सम्भवो नत्वेकस्येति, तथा आग्नेय्यां दशविधेष्वरूपिद्रव्येषु धर्माधर्माकाशास्तिकायद्रव्याणां तस्यामभावात्सप्तविधा अरूपिण उक्ता लोकस्य पूर्वचरमान्तेष्वद्धासमयस्याप्यभावात् षड्विधास्ते वाच्याः, श्रद्धासमयस्य तु तत्राभावः समयक्षेत्र एव तद्भावादत एवाह-" जे अरूवी अजीवा ते छव्विहा श्रद्धासमयो नऽस्थि"त्ति / / ' उवरिल्ले चरिमंते 'त्ति अनेन सिद्धोपलक्षितः उपरितनचरमान्तो विवक्षितः, तत्र च एकेन्द्रियदेशा अनिन्द्रियदेशाश्च सन्तीति कृत्वाऽऽह-'जे जीवे'
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________________ लोक 711 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लोक त्यादि, इहायमेको द्विकसंयोगः त्रिकसंयोगेषु च द्वौ द्वौ कार्यो तेषु हि मध्यमभङ्गः, 'अहवाएगिदियदेसा य अणिंदियदेसा य बेंदियस्सय देसा' इत्येवंरूपो नास्तिद्वीन्द्रियस्य च देशा इत्यस्याऽसम्भवाद्यतो द्वीन्द्रियस्योपरितनचरमान्ते मारणान्तिकसमुद्घातेन गतस्यापि देश एव तत्र सम्भवति; न पुनः प्रदेशवृद्धिहानिकृतलोकदन्तकवशादनेकप्रतरात्मकपूर्वचरमान्तवद्देशाः, उपरितनचरमान्तस्यैकप्रतररूपतया लोकदन्तकाभावेन देशानेकत्वाहेतुत्वादिति, अतएवाह-'एवं मज्झिल्लविरहिओ' ति।त्रिकभनक इति प्रक्रमः, उपरितनचरमान्तापेक्षया जीवप्रदेशप्ररूवणायामेवम् , 'आइल्लविरहिओ' त्ति यदुक्तं तस्यायमर्थः-इह पूर्वोक्तं भङ्ग-कत्रये प्रदेशापेक्षया, "अहवा-एगिदियपदेसा य अणिदियपएसाय बेइंदियस्स पदेसे" इत्ययं प्रथमभङ्गको न वाच्यः, द्वीन्द्रियस्य च प्रदेश इत्यस्याऽसम्भवात्तदसम्भवश्च लोकव्यापकावस्थानिन्द्रियवयंजीवानां यत्रैकप्रदेशस्तत्रासंख्यातानामेव तेषां भावादिति, 'अजीवा जहा दसमसए तमाए' त्ति अजीवानाश्रित्य यथा दशमशते, 'तमाए' त्ति तमाभिधानां दिशमाश्रित्य सूत्रमधीतं तथेहोपरितनचरमान्तमाश्रित्य वाच्यम्, तचैवम्-'जे अजीवा ते दुविहा पण्णत्ता,तं जहा-रूवि अजीवा य, अरूवि जीवा, य जे रूवि अजीवा ते चउव्विहा पण्णत्ता, तं जहाखंधा० 4 जे अरूविअजीवा तेछव्विहा पन्नत्ता, तंजहा-नोधम्मत्थिकाए धम्मत्थिकायस्स देसे धम्मत्थिकायस्स पएसा' एवमधर्माकाशास्तिकाययोरपीति। लोगस्स णं भंते ! हिट्ठिल्ले' इत्यादि, इह पूर्वचरमान्तवद्भङ्गाः कार्याः, नवरं तदीयस्य भङ्गकत्रयस्य मध्यात् , "अहवा एगिदियदेसा य बेइंदियस्स य देसा' इत्येवं रूपो मध्यमभङ्गकोऽत्र वर्जनीयः, उपरितनचरमान्तप्रकरणोक्तयुक्तेस्तस्याऽसम्भवादत एवाह'एवं मज्झिल्लविरहिओ' ति देशभङ्गका दर्शिताः। अथ प्रदेशभङ्गकदर्श-- नायाह-'पएसा आइल्लविरहिआ सव्वेसिं जहा पुरच्छिमिल्ले चरिमंते' त्ति, प्रदेशचिन्तायामाद्यभङ्गकरहिताः प्रदेशा वाच्या इत्यर्थः, आद्यश्च भङ्गक एकवचनान्तप्रदेशशब्दो-पेतः, स च प्रदेशानामधश्चरमान्तेऽपि बहुत्वान्न सम्भवति, सम्भवति च-'अहवा-एगिदियपएसा य बेइदियस्स पएसा,''अहवा-एगिंदियपएसा य बेइंदियाण य पएसा' इत्येतद्वयम्। 'सव्वेसिं' ति / द्वीन्द्रियादीनामनिन्द्रियान्तानाम् / 'अजीवे' त्यादि व्यक्तमेव / भ०१६ श०८ उ०। (22) ऊवधिस्तिर्यग्लोकानामल्पबहुत्वम् - एयस्सणं भंते ! अहेलोअस्स तिरियलोअस्स उड्डलोयस्सय कयरे कयरेहिंतो जाव विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवे तिरियलोए उड्डलोए असंखेजगुणे, अहेलोए विसेसाहिए। (सू०४५७x) 'सव्वत्थोवे तिरियलोए' त्ति अष्टादशयोजनशतायामत्वात् , 'उडलोए असंखेजगुणे ति किंचिन्न्यूनसप्तरज्जूच्छ्रितत्वात्। अहेलोए विसेसाहिए' त्ति किंचित्समधिकसप्तरज्जूच्छ्रितत्वादिति। भ०१३ श० 4 उ०। / (23) त्रीणि लोके समानि - ततो लोगे समा सपक्खि सपडिदिसिं पण्णत्ता, तं जहाअप्पइहाणे णरए जंबुद्दीवे दीवे सव्वऽसिद्धे महाविमाणे तओ लोगे समा सपक्खि सपडिदिसिं पण्णत्ते, तं जहा-सी मंतए णं णरए समयक्खेत्ते ईसीपब्भारा पुढवी। (सू०१४८) त्रीणि लोके समानि-तुल्यानि योजनलक्षप्रमाणत्वात् , न च प्रमाणत एवात्र समत्वमपि तु औत्तराधर्यव्यवस्थिततया समश्रेणितयाऽपीत्यत आह-'सपक्खि' मित्यादि, पक्षाणां-दक्षिणवामादिपावा॑नां सदृशतासमता सपक्षमित्यव्ययीभावस्तेन समपार्श्वतया समानीत्यर्थः, इकारस्तु प्राकृतत्वात् , तथा प्रतिदिशांविदिशां सदृशता सप्रतिदिक्तेन समप्रतिदिक्तयेत्यर्थः, अप्रति-ष्ठानः सप्तम्यां पञ्चानां नरकावासानां मध्यमः, तथा-जम्बूद्वीपः सकलद्वीपमध्यमः, सर्वार्थसिद्धं विमानं पञ्चानामनुत्तराणां मध्यममिति। सीमन्तकः प्रथमपृथिव्यां प्रथमप्रस्तदे नरकेन्द्रका पञ्चचत्वारिंशद्योजनलक्षाणि, समयः-कालः तत्सत्तोपलक्षित क्षेत्रं समयक्षेत्रं मनुष्यलोक इत्यर्थः, ईषद्-अल्पो योजनाष्टकबाहल्यपञ्चचत्वारिंशल्लक्षविष्कम्भात् प्राग्भार:-पुद्गलनिचयो यस्याःसेषत्प्रारभारा-अष्टमपृथिवी, शेषपृथिव्यो हि रत्नप्रभाद्या महाप्राग्भाराः, अशीत्यादिसहस्राधिकयोजनलक्षवाहल्यत्वात्, तथाहि-"पढमाऽसीइसहस्सा, बत्तीसा अट्ठवीसवीसा या अट्ठारस सोलस य, अट्ठसहस्सलक्खोवर कुज्जा / / 1 / / " इति। स्था० 3 ठा०१ उ०। (24) लोकानां निःशीलत्वादिकमाह - तओ लोगे णिस्सीला णिव्वता णिग्गुणा निम्मेरा णिप्पचक्खाणपोसहोववासा कालमासे कालं किया अहे सत्तमाए पुढवीए अप्पतिट्ठाणे णरए णेरइयत्ताए उववजंति, तं जहारायाणो मंडलिया जे य महारंभा कोडंबी। तओ लोए सुसीला सुव्वया सगुणा समेरा सपञ्चक्खाणपोसहोववासा कालमासे कालं किया सव्वट्ठसिद्धे महाविमाणे देवत्ताए उववत्तारो भवंति, तं जहा-रायाणो परिचत्तकामभोगा सेणावत्तीपसत्थारो। (सू०१५०) 'तओ' इत्यादि, निःशीला-निर्गतशुभस्वभावाः दुःशीला इत्यर्थः, एतदेव प्रपञ्च्यते-निर्वताः-अविरताः प्राणातिपातादिभ्यो निर्गुणाउत्तरगुणाभावात् 'निम्मेर ति निर्यादाः-प्रतिपन्नापरिपालनादिना, तथा प्रत्याख्यानंच-नमस्कारसहितादिपौषधः-पर्वदिनमष्टम्यादितत्रोपवासःअभक्तार्थकरणं स च तौ निर्गतौ येषां ते निष्प्रत्याख्यान-पौषधोपवासाः कालमासेमरणमासे कालम्-मरणमिति,'णेरइयत्ताए ति पृथिव्यादित्वव्यवच्छेदार्थम् , तत्र ह्येकेन्द्रियतया तदन्येऽप्युत्पद्यन्त इति, तत्र राजानःचक्रवर्तिवासुदेवाः,माण्डलिकाः-शेषाराजानः,येचमहारम्भाः पञ्चेन्द्रियादिव्यपरोपणप्रधानकर्मकारिणः कुटुम्बिन इति, शेषंकण्ठ्यम्॥अप्रतिष्ठानस्य स्थित्यादिभिः समाने सर्वार्थे ये उत्पद्यन्ते तानाह-'तओ' इत्यादि सुभम
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________________ लोक 712 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लोगंतिय म्, केवलं राजन:- प्रतीताः परित्यक्तकामभोगा:-सर्वविरताः, एतचोत्तरपदयोरपि सम्बन्धनीयम् , सेनापतयः-सैन्यनायकाः प्रशास्तारो-लेखा-चार्यादयः, धर्मशास्त्रपाठका इति क्वचित् / स्था०३ ठा०१उ०।लोक्यत इति लोकः। लोकालोकस्वरूपे समस्तवस्तुस्तोमे, भ०१श०१ उ०। क्षेत्रे, सूत्र०२ श्रु०२ अ० स्थाने, यथा-देवलोकः। सूत्र०१ श्रु० 2 अ०३ उ० / लोकयतीति लोकः / एकद्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियजीवराशौ, आचा० 1 श्रु०२ अ० 3 उ० / चतुर्दशभूतग्रामे, आचा०१श्रु०३ अ०२ उ० / तिर्यग्नरनारकिलक्षणजीवलोके, स०१ सम०। चतुर्गतिकसंसारे, भवाभवान्तरगतौ च। सूत्र०१ श्रु०१०१ उ०। प्रजायाम् , उत्त०३ अ० लोक्यते परिच्छिद्यते इति लोकः / रूपरसगन्धस्पर्शाद्यात्मके विषये, लोको बाह्योऽभ्यन्तरश्च, तत्र बाह्यो धनहिरण्यमातापित्रादिः, आन्तरस्तुरागद्वेषादिस्तत्कार्य वा अष्टप्रकारं कर्मति। आचा०१ श्रु०१अ०५ उ०। दक्षजनसमूहे, अष्ट०३२ अष्ट। जन्मनि, स्था०८ ठा०३ उ०। पाखण्डिके, पौराणिके, सूत्र०१श्रु०१ अ० 4 उ०। लोकाचारे, बृ०३ उकालोकशास्त्रे, स्था०३ ठा० 4 उ०। परदर्शने, जीवा०७ अधि० / षष्ठदेवलोकविमानभेदे, तत्र हि-लोकसुलोक-लोकावर्त्त-लोकप्रभ-लोकान्त-लोकवर्ण-लोकलेश्यलोकरूपादीनि विमानानि सन्ति, स०१३ सम०। भुवने, सेन०। यथाप्रस्थादिना कश्चित्सवधान्यानि मिनुयादेवमसद्भावप्रज्ञापनाङ्गीकरणाल्लोकं कुडवीकृत्याजधन्योत्कृष्टावगाहनान् पृथिवीकायिकान् जीवान् यदि मिनोति ततः पृथिवीकायिका असंख्येयान् लोकान् पूरयन्तीत्याचाराङ्गप्रथमश्रुतस्कन्धप्रथमाध्ययनद्वितीयो-देशकवृत्ती, स्थावरचतुर्णां तु अङ्खलासंख्येयभागप्रमितिरव-गाहनोक्ता, अत एते पृथिवीकायिकाः कथं पूरयन्ति ? इति प्रश्नः, अत्रोत्तरम्-प्रस्थदृष्टान्ते सामान्योक्तावपि प्रत्याकाशमेकैक-पृथिवीकायिकजीवकल्पनया लोकरूपपल्यभरणं सम्भाव्यते, अन्यथा प्रज्ञापनासूत्रवृत्त्यादिग्रन्थान्तरविरोध इति॥८२॥ सेन०२ उल्ला०। जने, सेन०। लोका जिनकल्पिनं नग्नं पश्यन्तिन वा ? इति प्रश्नः, अत्रोत्तरम्-लोकास्तं नग्नं पश्यन्ति, यतः शास्त्रे लज्जाजेता जिनकल्पमङ्गीकरोतीति॥६०॥ सेन०३ उल्ला०। विषयसूची(१) कियत्प्रमाणो लोक इति रज्जुप्रमाणेन दर्शयति। (2) कोऽयं लोकः। (3) लोकस्यैकत्वं नामादिभेदतश्चाष्टविधत्वं च। (4) लोकस्त्रिविधः। (5) लोकश्चतुर्विधः। (6) ऊर्ध्वादिभेदात्त्रिविधो लोकः। (7) लोकमध्यद्वाराणि। (8) लोकस्य महत्त्वम्। (8) लोकस्य संस्थानम्। (10) अधोलोकक्षेत्रादिसंस्थानम्। (11) मरणादिस्वरूपं लोक एवातो लोकस्वरूपनिरूणम्। (12) अधोलोकादिक्षेत्रलोकः किं जीवोऽजीवो वा। (13) अयं लोकः किं जीवोऽजीवो वा। (14) लोकः कति महालयादिः। (15) अलोकः कतिमहालयः। (16) लोकैकप्रदेशगतं वक्तव्यविशेषनिरूपणम्। (17) असंख्येयेषु लोकेषु अनन्तानि रात्रिन्दिवानि। (18) लोकसम्मतो लोकः। (16) कुत्र लोको बहुसमः। (20) लोको धर्मास्तिकायादिभिः स्पृष्टः / (21) लोकस्य चरमान्तो जीवोऽजीवो वा। (22) ऊर्ध्वाधस्तिर्यग्लोकानामल्पबहुत्वम्। (23) त्रीणि लोके समानि। (24) लोकानां निःशीलत्वादिकम्। लोगंत-पुं०(लोकान्त) लोकाग्रलक्षणे सिद्धस्थाने, स्था० 6 ठा०३ उ० / लोको लोकशास्त्रं तत्कृतत्वात्तदध्येयत्वाचार्थशास्त्रादि तस्मादन्तो निर्णयस्तस्य वा परमरहस्यं पर्यन्तो वेति लोकान्तः।लौकिकसिद्धान्ते, स्था०३ ठा०४ उ०। ईषत्प्राग्भाराख्यायां पृथिव्याम्, आ०म०१ अ०। चउहि ठाणेहिं जीवा य पुग्गलायणो संचातेंति बहिया लोगंता गमणताते,तं जहा-गइअमावेणं 1 णिरुवग्गहयाए 2, लुक्खताए 3, लोगाणुभावेणं 4 / (सू०३३७) 'चउही' त्यादि, व्यक्तम्, परमन्येषां गतिरेव नास्तीति 'जीवायपोग्गला 'य' इत्युक्तम् , 'नो संचाए' त्ति न शक्नुवन्ति नालम् 'बहि य' त्ति बहिस्ताल्लोकान्तादलोके इत्यर्थः गमनतायै गमनाय गन्तुमित्यर्थः गत्यभावेन लोकान्तात्परतस्तेषां गतिलक्षणस्वभावाभांवदधोदीपशिखावत्तथा निरुपग्रहतया धर्मास्तिकायाभावेन तजनितगत्युपष्टम्भाभावात्, गन्त्र्यादिरहितपडवत्, तथा रूक्षतया सिकतामुष्टिवल्लोकान्तेषु हिपुद्गला रूक्षतया तथा परिणमन्ति यथा परतो गमनाय नालं कर्म्म पुद्गलानां तथा भावे जीवा अपि सिद्धास्तु निरुपग्रहतयैवेति लोकानुभावेन-लोकमर्यादया विषयक्षेत्रादन्यत्र मार्तण्डमण्डलवदिति। स्था०४ ठा०३ उ०। लोगंतिय-पुं०(लोकान्तिक) लोकान्तिकविमानवास्तव्येषु सारस्वतादिकेषु, स्था०। तेहिं ठाणेहिं लोगंतिया देवा माणुसं लोग हव्यमागच्छिज्जातं जहा-अरहंतेहिं जायमाणेहिं अरहंतेहिं पध्वयमाणेहिं अरहंताणं णाणुप्पायमहिमासु / (सू०१३४) 'तेही त्यादि कण्ठ्यम् , नवरं लोकस्य ब्रह्मलोकस्यान्तःसमीपं कृष्णराजीलक्षणं क्षेत्रं-निवासी येषां ते, लोकान्ते वा-औदयिकभावलोकावसाने भवा अनन्तरभवे मुक्तिगमनादिति लोकान्तिकाः, सारस्वतादयोऽष्टधा वक्ष्यमाणरूपा इति। स्था०३ ठा०१ उ०। (तेच देवाः कण्हराइ' शब्दे तृतीयभागे 217 पृष्ठे दर्शिताः) (अष्टानामपि लोकान्तिकदेवानां स्थितिः 'ठिइ' शब्दे चतुर्थभागे 1726 पृष्ठे गता) लोकान्तिकदेवानां यथा-'पढम-जुअलम्मि सत्तसयाणी' ति सर्वेषां लोकान्तिकानां षष्ठाडोक्तः पत्तेअंपत्तेअंचउहिं सामाणिअसाहस्सीहिं' इत्यादिपरिवारः ? किं वा विमानाधिपतेः ? परं सामान्यतो लोकान्तिका देवा भगवन्तं विबोधयन्तीति दृश्यते न तु क्वापि तत्स्वामिन
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________________ लोगंतिय 713 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लोगंघयार उत्तरा 8 सुप्रतिष्ठाभं / रिष्टं १अर्चिः दक्षिणा 5 चन्द्राभ 4 प्रभङ्कर इति, तथा तत्परिवारभूतानां तेषामिव भवस्थितिः किं वा विशेषो वा ? सव्ये पाणा० 4 पुढविकाइयत्ताए 5 देवत्ताए उववन्नपुव्वा ? 'हते' त्यादि इति प्रश्नः अत्रोत्तरम्-सप्ताधिकसप्तशतादीनां लोकान्तिकानां देवानां लिखितमेव, 'केवतियं तिछान्दसत्वात् कियत्या' अबाधया' अन्तरेण ज्ञाताधर्मकथाङ्गोक्तः, सामानिकादिकः परिवारः प्रत्येकं सम्भाव्यते लोकान्तः प्रज्ञात इति। भ०६श०५ उ०। (अष्टानां कृष्णराजीनामष्टस्यनत्वेकस्य विमानाधिपतेः, तत्प्रतिपादकव्यक्त-शास्त्राक्षरानुपलम्भा- वकाशान्तरेषु राजीद्वयमध्यलक्षणेष्वष्टौ लो-कान्तिकविमानानि तानि दिति, तथा परिवारभूतानां देवानां भवस्थितिः पृथगुक्ता नास्तीति च'कण्हराइ' शब्दे तृतीयभागे 217 पृष्ठे दर्शितानि।) तत्स्थापना चेयम्लोकान्तिकानामिव सम्भाव्यते, तत्त्वंतु सर्वविदो विदन्ति इति।। 55 / / सेन०१ उल्ला० लोकान्तिकाः किमेकावतारिण उत नेति? प्रश्नः, अत्रोत्तरम्-लोकान्तिका देवा एकावतारिण एवेत्येकान्तो ज्ञातो नास्तीति २अर्चिालिः // 52 // सेन०२ उल्ला० / संग्रहण्यन्तर्वाच्यादिषु लोकान्तिकदेवानां नव निकाया उत्तमचरित्रे दश निकायाः कथिताः, तत्र किं प्रमाणम् ? ३वैरोचनं इति प्रश्नः, अत्रोत्तरम्-बहुग्रन्थेषु तेषां नव निकाया उक्ताः, उत्तमचरित्रे यदि दश तदा मतान्तरमिति ज्ञेयम्॥१८८॥ सेन०२ उल्ला०। का लोगंतियविमाण-पुं०(लोकान्तिकविमान) लोकस्य ब्रह्मलोकस्यान्ते-समीपे भवानि लोकान्तिकानि तानि च तानि विमानानि चेति ६सूराभं . समासः। लोकान्तिका वा देवास्तेषां विमानानीति समासः। सारस्वतादिलोकान्तिकदेवावासविमानेषु, भ०७ श०८ उ०। Thigh लोगंतिगविमाणा णं भंते ! किं पतिट्ठिया पण्णत्ता ? गोयमा! लोगंधयार-पुं०(लोकान्धकार) लोके अयमेवान्धकारो नान्योऽस्तीदृश वाउपइट्ठिया तदुभयपतिहिया पण्णत्ता, एवं नियव्वं, "वि इति लोकान्धकारः / तमस्काये, स्था० 4 ठा०२ उ०। माणाणं पतिट्ठाणं, बाहल्लुबत्तमेव संठाणं"|बंभलोयवत्तव्वया तिहिं ठावेहिं लोगंधयारे सिया.तं जहा-अरिहंतेहिं वोच्छिनेयव्वा / (जहा जीवाभिगमे देवुहेसए) ०जाव हंता गोयमा ! जमाणेहिं अरिहंतपश्नत्ते धम्मे वोच्छिज्जमाणे पुथ्वगते वोच्छिअसतिं अदुवा अणंतखुत्तो।नो चेवणं देवित्ताए। लोगंतियवि जमाणे 1 / (सू०१३४४) माणेसुणं भंते ! केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता ? गोयमा ! अट्ठ कण्ठ्या चेयम् , नवरं लोके-क्षेत्रलोके अन्धकारम्-तमोलोकान्धकारं सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता। लोगंतियविमाणेहिंतो णं भंते ! स्याद् भवेत् , द्रव्यतो लोकानुभावागावतो वा प्रकाशकस्वभावकेवतियं अबाहाए लोगंते पण्णत्ते? गोयमा! असंखेज्जाइं जो ज्ञानाभावादिति, तद्यथा-अर्हन्तिः अशोकाधष्टप्रकारां परमभक्तिपरयणसहस्साई अबाहाए लोगंते पण्णत्ते। (सू०२५३+) सुरासुरविसरविरचितां जन्मान्तरमहालवालविरूदानवद्यवासनाजला'एवं नेयव्वं तिपूर्वोक्तप्रश्नोत्तराभिलापेन लोकान्तिकविमान-वक्तव्य भिषिक्तपुण्यमहातरुकल्याणफलकल्पां महा-प्रातिहार्यरूपां पूजा ताजातं नेतव्यम् , तदेव पूर्वोक्तेन सह दर्शयति- 'विमाणाण' मित्यादि निखिलप्रतिपन्थिप्रक्षयात् सिद्धिसौधशिखरारोहणं चेत्यर्हन्तः, उक्तं चगाथार्द्धम् , तत्र विमानप्रतिष्ठानं दर्शितमेव, बाहल्यं तु विमाननां पृथिवी- "अरिहंति वंदण--नम-सणाणि अरि-हंति पूयसक्कारं / सिद्धिगमणं च बाहल्यं तच पञ्चविंशतिर्योजनशतानि, उच्चत्वं तु सप्त योजनशतानि, अरिहा, अरिहंता तेण वुचंति॥१॥"त्ति, तेषु व्यवच्छिद्यमानेषु निर्वाण संस्थानं पुनरेषां नानाविधमनावलिकाप्रविष्टत्वात्, आवलिकाप्रविष्टानि गच्छत्सु, तथाऽर्हत्प्रज्ञप्ते धर्मे व्यवच्छिद्यमाने तीर्थव्यवच्छेदकाले, तथा हि वृत्तत्र्यस्रचतुरस्रभेदात् त्रिसंस्थानान्येव भवन्तीति / 'बंभलोए' पूर्वाणि दृष्टिवादाङ्गभागभूतानि तेषु गतं-प्रविष्ट तदभ्यन्तरीभूतं तत्स्वरूपं इत्यादि, ब्रह्मलोके या विमानानां देवानां च जीवाभिगमोक्ता धक्तव्यता यच्छुतंतत्पूर्वगतंतत्र व्यवच्छिद्यमाने, इह चराजमरणदेशनगरभङ्गादावपि सा तेषु नेतव्या-अनुसर्तव्या, कियद्दूरम् ? इत्यत आह- 'जावे' त्यादि, दृश्यते दिशामन्धकारमात्रं रजस्वलतयेति, यत्पुनर्भगवत्स्वर्हदादिषु सा चेयं लेशतः- 'लोयंतियविमाणा णं भंते ! कति वण्णा पण्णता ? निखिलभुवनजनानवद्यनयनसमानेषु विगच्छत्सु लोकान्धकारं भवति गोयमा !, तिवण्णा पण्णत्ता लोहिया हालिद्दा सुकिल्ला, एवं पभाए तत्किमद्भुतमिति ? स्था० 3 ठा०१ उ०। निचा-लोया गंधेणं इट्टगंधा एवं इट्ठफासा एवं सव्वरयणमया तेसु देवा चउहिं ठाणेहिं लोगंधगारे सिया, तं जहा-अरहंतेहिं सम-चउरंसा अल्लमहुगवन्ना पम्हलेसा। लोयंतियविमाणेसुणं भंते ! | वोच्छि-जमाणेहिं अरहंतपण्णत्ते धम्मे वोच्छिन्जमाणे पु
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________________ लोगंघयार 714 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लोगट्ठि व्वगते वोच्छिज्जमाणे जायते ते वोच्छिन्जमाणे (सू० 3244) 'चउही' त्यादि व्यक्तम्-किन्तु लोके अन्धकारम्-तमिस्रं द्रव्यतो भावतश्च, यत्र यत्स्यात्संभाव्यते ह्यर्हदादिव्यवच्छेदे द्रव्यतोऽन्धकारम् , उत्पातरूपत्वात् तस्य छत्रभङ्गादौ रजउद्धातादिवदिति, वहिव्यवच्छेदेऽन्धकारं द्रव्यत एव, तथा स्वभावात् दीपादेरभावादा, भावतोऽपि वा / एकान्तदुष्षमादावागमादेरभावादिति। स्था० 4 ठा०३ उ०। लोगकंत-न०(लोककान्त) लान्तककल्पे षष्ठदेवलोकविमाने, स०१३ सम० भ०। लोगगरिहणिज्ज-त्रि०(लोकगर्हणीय) जघन्ये, पं०व०३ द्वार। लोगग्ग-न०(लोकाग्र) ईषत्प्रारभाराख्ये (आव० 5 अ01) ऊर्ध्व लोकस्याग्रे (आ० चू०५ अ०1) सिद्धानां स्थाने, औ01 लोगग्गचूलिया-स्त्री०(लोकाग्रचूलिका)लोकस्य चतुर्दशरज्ज्वात्मकस्य चूलिका शिखररूपा लोकाग्रचूलिका / ईषत्प्राग्भाराख्यायां पृथिव्याम् , स०१२ सम०। लोगग्गपइट्ठाण-पुं०(लोकाग्रप्रतिष्ठान) ईषत्प्राग्भाराख्यपृथिवीस्थिते सिद्धे, औ०। लोगजत्ता-स्त्री०(लोकयात्रा) लोकव्यवहारे, द्वा० 11 द्वा० / लोक चित्तानुवृत्तिरूपे व्यवहारे, ध० 1 अधि०। लोगट्ठिइ-स्त्री०(लोकस्थिति) लोकव्यवस्थायाम् , स्था०। लोकस्थितिनिरूपणायाह - तिविहा लोगट्टिई पण्णत्ता, तं जहा-आगासपइट्ठिए वाए, वातपतिहिए उदही, उदहिपइट्ठिया पुढवी। (सू०१६३४) 'तिविहे' त्यादि कण्ठ्यम्, किन्तु लोकस्थितिः-लोकव्यवस्था आकाश-व्योम तत्र प्रतिष्ठितो-व्यवस्थित आकाशप्रतिष्ठितः, वातो. घनवाततनुवातलक्षणः सर्वद्रव्याणामाकाशप्रतिष्ठितत्वात्, उदधिःघनोदधिः पृथिवी-तमस्तमःप्रभादिनकेति। स्था०३ ठा०३ उ०। स्वाध्यायप्रवृत्तस्य लोकस्थितिपरिज्ञानं भवतीति प्रतिपादयन्नाह - चउव्विहालोगडिती पण्णत्ता, तं जहा-आगासपतिहिए वाते, वातपतिट्ठिए उदधी, उदधिपतिट्ठिया पुढवी, पुढविपइडिया तसा थावरा पाणा / (सू०२८६) 'चउविहे' त्यादि, लोकस्य-क्षेत्रलक्षणस्य स्थितिः-व्यवस्था लोकस्थितिः, आकाशप्रतिष्ठितो वातो-धनवाततनुवातलक्षणः, उदधिः-घनोदधिः, पृथिवी-रत्नप्रभादिका, साः-द्वीन्द्रियादयस्ते पुनर्ये रत्नप्रभादिपृथिवीष्वप्रतिष्ठितास्तेऽपि विमानपर्वतादिपृथिवीप्रतिष्ठितत्यात् पृथिवीप्रतिष्ठिता एव, विमानपृथिवीनां चा-काशादिप्रतिष्ठितत्वं यथासम्भवमवसेयम् , अविवक्षा वेह विमानादिगतदेवादित्रसानामिति, स्थावरास्त्विह बादरवनस्पत्यादयो ग्राह्याः, सूक्ष्माणां सकललोकप्रतिष्ठितत्वात् , शेष सुगममिति। स्था०४ ठा०२ उ०। छव्विहा लोगट्टिई पण्णत्ता, तं जहा-आगासपइट्ठिए वाए, वायपइट्ठिए उदही, उदधिपइट्ठिया पुढवी, पुढविपइट्ठिया तसा थावरा पाणा, अजीवा जीवपइट्ठिया, जीवा कम्मपइडिया। (सू०४६८) 'छविहे' त्यादि इदं पूर्वमेव व्याख्यातम्, नवरमजीवा औदारिकादिपद्गलास्ते जीवेषु प्रतिष्ठिता-आश्रिताः, इदं चानवधारणं बोद्धव्यम् , जीवविरहेणापि बहुतराणामजीवानामवस्थानात्, पृथिवीविरहितोऽपि त्रसस्थावरवदिति, तथा जीवाः कर्मसु ज्ञानवरणादिषु प्रतिष्ठिताः प्रायस्तद्विरहितानां तेषामभावादिति। स्था०६ ठा०३ उ०। लोकान्तादिलोकपदार्थप्रस्तावाद् गौतममुखेन लोकस्थितिप्रज्ञापनायाह भगवं गोयमे समणं ०जाद एवं वयासी-कतिविहा गं भंते ! लोयद्विती पण्णत्ता? गोयमा! अट्ठविहा लोयहिती पण्णत्ता,तं जहा-आगासपइट्ठिए वाए 1, वायपइट्ठिए उदही 2, उदहिपइट्ठिया पुढवी 3, पुढविपइट्ठिया तसा थावरा पाणा, अजीवा जीवपइट्ठिया 5, जीवा कम्मपइट्ठिया 6, अजीवा जीवसंगहिया 7, जीवा कम्मसंगहिया 8 / से केणतुणं भंते ! एवं वुचइ ? अट्ठविहा० जाव जीवा कम्मसंगहिया ? गोयमा ! से जहानामए केइ पुरिसे वत्थिमाडोवेइ वत्थिमाडोवित्ता उप्पिं सितंबंधइ बंधइत्ता मज्झेणं गठिंबंधइबंधइत्ता उवरिल्लं गंठिं मुयइ मुयइत्ता उवरिल्लं देसं वामेह उवरिल्लं देसं वामेत्ता उवरिल्लं देसं आउयायस्स पूरेइ पूरेइत्ता उप्पिं सितं बंधइ बंधइत्ता मज्झिल्लं गंठिं मुयइ / से नूणं गोयमा ! से आउयाए तस्स वा-उयायस्स उप्पिं उवरितले चिट्ठइ ? हंता चिट्ठइसे तेणऽद्वेणं जाव जीवा कम्मसंगहिया, से जहा वा केइ पुरिसे वत्थिमा-डोवेइ वत्थिमाडोवेइत्ता कडीए बंधइ बंधइत्ता अत्थाहमतारम-पोरसियंसि उदगंसि ओगाहेजा, से नूणं गोयमा! से पुरिसे तस्स आउयायस्स उवरिमतले चिट्ठइ ? हंता चिट्ठइ, एवं वा अट्ठविहा लोयट्ठिई पण्णत्ता० जाव जीवा कम्मसंगहिया। (सू०५४) अयं सूत्राभिलापः आकाशप्रतिष्ठितो वायुः-तनुवातघन वातरूपः, तस्यावकाशान्तरोपरिस्थितत्वात् , 1 / आकाशं तु स्वप्रतिष्ठितमेवेति न तत्प्रतिष्ठाचिन्ता कृतेति / तथा वातप्रतिष्ठित उदधिः-घनोदधिस्तनुवातधनवातोपरिस्थितत्वात् 2 / तथा उदधिप्रतिष्ठिता पृथिवी, धनोदधीनामुपरिस्थितत्वात् , रत्नप्रभादीनांबाहुल्यापेक्षया चेदमुक्तम्, अन्यथाईषत्प्राग्भारा पृथिवी आकाशप्रतिष्ठितैव 3 / तथा पृथिवी-प्रतिष्ठिता- स्वसा स्थावराः प्राणाः, इदमपि प्रायिकमेव, अन्यथा आका-शपर्वतविमानप्रतिष्ठिता अपि ते सन्तीति / तथा अजीवाः-शरीरादि-पुद्गलरूपा जीवप्रतिष्ठिताः, जीवेषु तेषां स्थितत्वात् 5 / तथा जीवाः कर्मप्रतिष्ठिताः कर्मसु अनुदयावस्थकर्मपुद्गलसमुदायरूपेषु संसारिजीवानामाश्रितत्वात्, अन्ये त्वाः-जीवाः कर्मभिः प्रतिष्ठिताः-नारकादिभावेनावस्थिताः। तथा
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________________ लोगट्ठि 715 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लोगट्ठि अजीवा जीवसंगृहीताः, मनोभाषादिपुद्गलानां जीवैः संगृहीतत्वात् , अथ अजीवा जीवप्रतिष्ठितास्तथा अजीवा जीवसंगृहीता इत्ये-तयोः को भेदः ? उच्यते, पूर्वस्मिन् वाक्ये आधाराधेयभाव उक्तः, उत्तरे तु संग्राह्यसंग्राहकभाव इति भेदः, यच तस्य संग्राह्यं तत्तस्याऽयमप्यर्थापत्तितः स्याद् , यथा-अपूपस्य तैलमित्याधाराधेयभावोऽप्युत्तरवाक्ये दृश्य इति 7 / तथा जीवाः-कर्मसंगृहीताः, संसारिजीवानामुदयप्राप्तकर्मवशवर्तित्वात् ये च यद्वशास्ते तत्र प्रतिष्ठिताः, यथा-घटे रूपादय इत्येवमिहाप्याधाराधेयता दृश्येति। ' से जहानामए केइ'त्ति, स यथानामकः-यत्प्रकारनामा, देव-दत्तादिनामेत्यर्थः, अथवा-'से' इति स 'यथा' इति दृष्टान्तार्थः 'नाम' इति संभावनायाम् 'ए' इति वाक्यालङ्कारे, 'वत्थिं' ति बस्तिम् दृतिम्' आडोवेइ'त्ति, आटोपयेत्वायुना पूरयेत् , 'उप्पिं सियं बंधइ' त्ति उपरि सितम्-'पिञ्बन्धने' इति वचनात् क्तप्रत्ययस्य च भावार्थत्वात् कर्मार्थत्वाद्वा बन्धम्-ग्रन्थिमित्यर्थः बध्नातिकरोतीत्यर्थः, अथवा-'उप्पिंसि त्ति उपारि'त' मिति बस्तिम्-'से आउयाए' ति, सोऽप्कायस्तस्यवायुकायस्य 'उप्पिं ति उपरि, उपरिभावश्च व्यवहारतोऽपि स्यादित्यत आह-उपरितले सर्वोपरीत्यर्थः, यथा-वायुराधारो जलस्य दृष्ट एवमा-धाराधेयभावो भवति आकाशधनबातादीनामिति भावः। आधा-राधेयभावश्च प्रागेव सर्वपदेषु व्यज्जित इति / 'अत्थाह-मतारमपोरुसियंसि' त्ति, अस्ताघम्अविद्यमानस्ता-घम्-अगाधमित्यर्थः, अस्ताधो वा निरस्ताधस्तलमिवेत्यर्थः अत एवातारम्-तरीतुमशक्यम् , पाठान्तरेणापारम्-पारवर्जितं पुरुषः प्रमाणमस्येति पौरुषेयं तत्प्रतिषेधादपौरुषेयम् ततः कर्मधारयोऽतस्तत्र, मकारश्चेहालाक्षणिकः, ‘एवं वा' इत्यत्र वाशब्दो दृष्टान्तान्तरतासूचनार्थः / भ०१श०६ उ०। आव०। स्था०। दसविधा लोगट्टिती पण्णत्ता,तं जहा-जणं जीवा उद्दा-इत्ता उद्दाइत्ता तत्थेवतत्थेव भुजो भुञ्जो पचायंति एवं एगालोगद्विती पण्णत्ता 1, जण्णं जीवाणं सता समियं पावे कम्मे कजति एवप्पेगा लोगट्ठिती पण्णत्ता 2, जणं जीवा सया समितं मोहणिजे पावे कम्मे कजति एवप्पेगा लोगट्ठिती पण्णत्ता ३,ण एवंभूतं वा भव्वं वा भविस्सति वा जं जीवा अजीवा भविस्संति अजीवा वा जीवा भविस्संति एवप्पेगा लोगद्वितीपण्णत्ता,ण एवं भूतं वा भव्वं वा भविस्सं वा जं तसा पाणा वोच्छिजिस्संति थावरा पाणावोच्छिजिससंति तसा पाणा भविस्संति वा एवप्पेगा लोगट्टिती पण्णत्ता 5, ण एवं भूतं वा भव्वं वा भवि स्सं वाजं लोगे अलोगे भविस्सति, अलोगे वा लोगे भविस्सति * एवप्पेगा लोगट्टित्ती पण्णत्ता ६,ण एवं भूतं वा भव्वं वा भविस्सं वाजंलोए अलोएपविस्सति अलोएवालोएपविस्सति एवप्पेगा लोगद्विती७, जाव ताव लोगे ताव ताव जीवा जाव ताव जीवा ताव ताव लोए एवप्पेगा लोगहिती 8, जाव ताव जीवाण ता पोग्गलाण ता गतिपरिताते ताव ताव लोए जाब ताव लोगे ताव ताव जीवाण य पोग्गलाण ता गतिपरिताते एवप्पेगा लोगहिती 6, सवेसु विणं लोगंतेसु अबद्धपासपुट्ठा पोग्गला लुक्खत्ताते कज्जति जेणं जीवा तापोग्गला तानो संचायंति बहिता लोगंता गमणयाते एवप्पेगा लोगहिती पण्णत्ता 10 / (सू०७०४) 'दसविहा लोगे' त्यादि, अस्य च पूर्वसूत्रेण सहायमभिसम्बन्धः-पूर्व नवगुणरूक्षाः पुद्गला अनन्ता इत्युक्तंतेचासंख्येयप्रदेशे लोकेसमान्तीति लोकस्थितिरतः सैवेहोच्यते इत्येवं सम्बन्धस्यास्य व्याख्या, इहापि संहितादिचर्चः प्रथमाध्ययनवत् केवलं लोकस्यपञ्चास्तिकायात्मकस्य स्थितिः-स्वभावः लोकस्थितिर्यदित्युद्देशे णमिति वाक्यालङ्कारे 'उद्दाइत्त' त्ति अपद्रायमृत्वेत्यर्थः, तत्थेव' तिलोकदेशे गतौयोनौ कुले वा सान्तरं निरन्तरं वौचित्येन भूयो भूयः-पुनः पुनः प्रत्याजायन्तेप्रत्युत्पद्यन्त इत्येवमप्येका लोकस्थितिरिति, अपिशब्द उत्तरवाक्यापेक्षया / अपिः क्वचिन्न दृश्यते 1 / अथ द्वितीया-'जन्न' मित्यादि, सदा प्रवाहतोऽनाद्यपर्यवसितं कालं 'समियं' ति निरन्तरं पापं कर्मज्ञानावरणादिकं सर्वमपि मोक्षविबन्धकत्वेन सर्वस्यापि पापत्वादिति क्रियतेबध्यते इत्येवमप्येका अन्येत्यर्थः, सततं कर्मबन्धनमिति द्वितीया 2, 'मोहणिज्जे त्ति मोहनीयं प्रधानतया भेदेन निर्दिष्टमिति सततं मोहनीयबन्धनं तृतीया 3, जीवाजीवानाम-जीवजीवत्वाभावश्चतुर्थी 4, त्रसानां स्थावराणां चाव्यवच्छेदः पञ्चमी ५,लोकालोकयोरलोकलोकत्वेनाभवनं षष्ठी 6, तयोरेवान्योऽन्याप्रवेशः सप्तमी७, 'जाव ताव लोए ताव ताव जीव' त्ति यावल्लोकस्तावज्जीवाः, यावति क्षेत्रे लोकव्यपदेशस्तावति जीवा इत्यर्थः, 'जाव ताव जीवा ताव ताव लोए' त्ति, इह यावञ्जीवास्तावत्तावलोकः, यावति यावति क्षेत्रे जीवास्तावत्क्षेत्रं लोक इति भावार्थः, 'जाव तावे' त्यादि वाक्यरचना तु भाषामात्रमित्यष्टमी 8, यावज्जीवादीनां गतिपर्यायस्तावल्लोक इति नवमी 6, सर्वेषु लोकान्तेषु'अबद्धपासपुट्ठति बद्धा-गाढश्लेषाः पार्श्वस्पृष्टाःछुसमात्रा येन तथा तेऽबद्धपार्श्वस्पृष्टाः रूक्षद्रव्यान्तरेणेति गम्यते तत्सम्पर्कादजातरूक्षपरिणामाः सन्त इति भावः, लोकान्ते स्वभावात् पुद्गलाः रूक्षतया क्रियन्ते रूक्षतया परिणमन्ति, अथवा- लोकान्तरस्वभावाद् या रूक्षता भवति तथा तेपुद्गला अबद्धपार्श्व-स्पृष्टाः-परस्परमसम्बद्धाः क्रियन्ते,किं सर्वथा ? नैवम् , अपितु-तेनेत्यस्य गम्यमानत्वात्तेन रूपेण क्रियन्ते येन जीवाः सकर्म-पुद्गलाः, पुद्गलाश्चपरमाण्वादयः, 'नो संचायति' त्ति न शक्नुवन्ति बहिस्ताल्लोकान्ताद् गमनतायैगन्तुमिति, छान्दसत्वेन तुमर्थे युट्प्रत्ययविधानादिति, एवमप्यन्या लोकस्थितिर्दशमी 10, शेषं कण्ठ्यमिति। स्था० 10 ठा०३ उ०! अत्थि णं मंते ! सया समियं सहमे सिणेहकाये पव
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________________ लोगट्ठि 716 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लोगपञ्जोयगर डइ? हंता अस्थि / से भंते ! किं उड्डे पवडइ अहे पवडइ तिरिए पवडइ ? गोयमा ! उड्डे वि पवडइ अहे वि पवडइ तिरिए वि पवडइ, जहा-से बादरे आउयाए अन्नमन्नसमाउत्ते चिरं पि दीहकालं चिट्ठइ तहाणंसे वि? नो इणद्वे समढे,सेणं खिप्पामेव विद्धंसमागच्छद। सेवं भंते ? सेवं मंते ! त्ति। (सू०५६) सदा-सर्वदा 'समिय' ति सपरिमाणं न बादराप्कायवदपरि-मितमपि, अथवा-'सदा' इति सङ्घर्तुषु'समित' मिति रात्रौ दिवसस्य च पूर्वापरयोः प्रहरयोः, तत्रापि कालस्य स्निग्धेतरभावमपेक्ष्य बहुत्वमल्पत्वं चावसेयमिति, यदाह-"पढ़मचरिमा उ सिसिरे, गिम्हे अद्धं तु तासि वजेत्ता। पायं ठवेसि गेहाइ, रक्खणठ्ठा पवेसे वा // 1 // " लेपितपात्रं बहिर्न स्थापयेत् स्नेहादिरक्षणार्थायेति, 'सूक्ष्मः स्नेहकाय' इति अप्कायविशेष इत्यर्थः 'उड्डे' त्ति ऊर्ध्वलोके वर्तुलवैताढ्यादिषु 'अहे' त्ति अधोलोकग्रामेषु 'ति-रियं' ति तिर्यग्लोके 'दीहकालं चिट्ठइ' त्ति तडागादिपूरणात् , 'विद्धंसमागच्छइत्ति स्वल्पत्वात्तस्येति / भ०१ श०६ उ०। लोगणाभि-पुं०(लोकनाभि) लोकस्य तिर्यग्लोकस्य स्थालप्रख्यस्य नाभिरिव स्थालमध्यगतसमुन्नतं वृत्तचन्द्रक इवेति लोकनाभिः / मेरुपर्वते, चं० प्र०५ पाहु०। सू०प्र०।। लोगणाह-पुं०(लोकनाथ)लोकस्य संज्ञिभव्यलोकस्य नाथः प्रभुलोकनाथः / स०१ सम० / रा०। चतुर्दशरज्जुप्रमाणलोकप्रभौ, उत्त० 22 अ० / भव्यानां नाथे, कल्प० 1 अधि०१ क्षण। "लोकनाथेभ्य" इति। इह तुलोकशब्देन तथेतरभेदाद्विशिष्ट एव। तथा तथा रागाद्युपद्रवरक्षणीयतया बीजाधानादिसंविभक्तो भव्यलोकः परिगृह्यते अनीदृशि नाथत्वानुपपत्तेः योगक्षेमकृदयमिति विद्वत्प्रवादः नतदुभयत्यागादाश्रयणीयोऽपि परमार्थेन तल्लक्षणायोगात् , इत्थमपि तदभ्युपगमेति प्रसङ्गात्, महत्त्वमात्र-स्येहाप्रयोजकत्वात् विशिष्टोपकारकृत एव तत्त्वतो नाथत्वात्। औपचारिकवाग्वृत्तेश्च पारमार्थिकस्तवत्वात् सिद्धिः, तदिह येषा-मेव बीजाधानोद्भेदपोषणैर्योगः क्षेमं च तत्तदुपद्रवाद्यभावेन त एवेह भव्याः परिगृह्यन्ते न चैते कस्यचित्सकलभव्यविषये ततस्तत्प्राप्त्या सर्वेषामेवमुक्तिप्रसङ्गात् , तुल्यगुणा ह्येतेप्रायेण ततश्च चिरतरकालातीतादन्यतरस्माद्भगवतो बीजाधानादिसिद्धेरल्पेनैव कालेन सकलभव्यमुक्तिः स्यात् बीजाधानमपि ह्यपुनर्बन्धकस्य, न चास्यापि पुद्गलपरायतः संसार इति कृत्वा तदेवं लोकनाथाः / / 11 / / ल०। जी० / भ० / ध०। स०। स्था०। लोकणीइ-स्त्री०(लोकनीति) लौकिकन्याये, पञ्चा० 8 विव०। लोकतम-न०(लोकतमस) लोके इदमेव तम इति लोकतमः। तमस्काये, स्था० 4 ठा०२ उ०। लोगदव्व-न०(लोकद्रव्य) लोकस्यांशभूतं द्रव्यं लोकद्रव्यम् / पञ्चा- | स्तिकायादौ, यत उक्तम्-"पंचत्थिकायमइयं,लोगमणाइनिहणं ति"। स्था०५ ठा०३उ०१ लोगदिट्ठि-स्त्री०(लोकदृष्टि) सामान्यजनदर्शने,हा०२६ अष्ट०। लोकपईव-पुं०(लोकप्रदीप) लोकस्य-विशिष्टतिर्यग्जन्मजरामरणरूपस्यान्तरतिमिरनिकरनिराकरणेन प्रकृष्टपदार्थप्रकाशकारित्वात्प्रदीप इव प्रदीपो लोकप्रदीपः / स०१ सम०। लोकस्य सम्यग्दर्शनादेर्योगकरणेन लब्धस्य परिपालनेनेति, भ०१श०१उ०। मिथ्यात्वध्वान्तनाशकत्वात्। कल्प० 1 अधि० 1 क्षण / लोकस्यदेशनायोग्यस्य विशिष्टस्य प्रदीपदेशनांशुना यथावस्थि-तवस्तुप्रकाशको लोकप्रदीपः / जिने, जी०३ प्रति०४ अधि०। "लोकप्रदीपेभ्यः" अत्र लोकशब्देन विशिष्ट एव तद्देशनाद्यंशुभिर्मिथ्यात्वतमोपनयनेन यथार्ह प्रकाशितज्ञेयभावः संज्ञिलोकः परिगृह्यते, यस्तु नैवभूतस्तत्र तत्त्वतः प्रदीपत्वायोगाद् , अन्धप्रदीपदृष्टान्तेन, यथा-ह्यन्धस्य प्रदीपस्तत्त्वतोऽप्रदीप एव तं प्रति स्वकार्याकरणात्तत्कार्यकृत एव च प्रदीपत्वोपपत्तेः, अन्यथाऽतिप्रसङ्गात्। अन्धकल्पश्च यथोदिलोकव्यतिरिक्तस्तदन्यलोकः, तद्देश-नाद्यंशुभ्योऽपि तत्त्वोपलम्भाभावात् , समवसरणेऽपि सर्वेषां प्रबोधाश्रवणात् , इदानीमपि तद्वचनतः प्रबोधादर्शनात्, तदभ्युपगमवतामपि तथाविधलोकदृष्ट्यनुसारप्राधान्यादनपेक्षितगुरुलाघवं तत्त्वोपलम्भशून्यप्रवृत्तिसिद्धेरिति / तदेवंभूतं लोके प्रति भगवन्तोऽपि अप्रदीपा एव तत्कार्याकरणादित्युक्तमेतत् / नचैवमपि भगवतां भगवत्त्वायोगः, वस्तुस्वभावविषयत्वादस्य, तदन्यथा-करणे तत्तत्त्वायोगात्, स्वो भावः स्वभावःआत्मीया सत्ता, सचान्यथा चेति व्याहतमेतत् , किंच-एवमचेतनानामपि चेतनाकरणे समानमेतदित्येवमेव भगवत्त्वायोगः, इतरेतरकरणेऽपि स्वात्मन्यपि तदन्यविधानाद् यत्किंचिदेतदिति यथोदितलोकापेक्षयैव लोकप्रदीपाः। ल०। रत्ना०। ध०। लोगपएस-पुं०(लोकप्रदेश) चतुर्दशरज्ज्वात्मकक्षेत्रखण्डस्य निर्विभाग भागेषु, कर्म०५ कर्म०। लोगपंति-स्त्री०(लोकपङ्क्ति) लोकसदृशभावे, यो० वि०। लोकराधनहेतोर्या, मलिनेनान्तरात्मना। क्रियते सत्क्रिया सा च,लोकपङ्क्तिरुदाहृता / / 6 / / द्वा० १०द्वा। (व्याख्या 'जोग' शब्दे चतुर्थभागे 1618 पृष्ठे गता) लोगपगत-पुं०(लोकप्रकृत) बहुलोकसम्मते, बृ० 3 उ०। लोगपज्जोयगर-पुं०(लोकप्रद्योतकर) लोक्यते इति लोकः, इति व्युत्पत्या लोकालोकरूपस्य समस्तवस्तुस्तोमस्य भावस्याखण्डमार्तण्डमण्डलमिव निखिलभावस्वभावावभासनसमर्थः केवलालोकपूर्वप्रवचनप्रभापटलप्रवर्तनेन प्रद्योतं-प्रकाशं करोतीत्येवं शीलो लोकप्रद्योतकरः / स०१ सम०। लोकस्योत्कृष्टमते व्यसत्त्वलोकस्य प्रद्योतनंप्रद्योतकत्वं विशिष्टा-ज्ञानशक्ति-स्तत्करणशीलो लोकप्रद्योतकरः / रा० / जी० / सूर्यवत्सर्ववस्तुप्रकाशकत्वाद् जिने, कल्प०१ अधि०१ क्षण!"लोकप्रद्योत-करेभ्यः"। इह यद्यपि लोकशब्देन प्रक्रमाद्रव्यलोक उच्यते-"भव्यानामालोको, वचनांशुभ्योऽपि दर्शनं यस्मात्। एतेषां भवति
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________________ लोगपज्जोयगर 717 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लोगपाल तथा, तदभावे व्यर्थ आलोकः / / 1 / / इति वचनात, तथाप्यत्र लोकध्वनि- अभिसेयो नवरं सोमे देवे / / संझप्पस्सणं महाविमाणस्स अहे नोत्कृष्टमतिः भव्यसत्त्वलोक एव गृह्यते तत्रैव तत्वतः प्रद्योतकरण- सपक्खिं सपडिदिसिं असंखेज्जाइं जोयणसयसहस्साइं ओगाशीलत्वोपपत्तेः, अस्ति च चतुर्दशपूर्वविदामपि स्वस्थाने महान् दर्शन- हित्ता एत्थ णं सक्कस्स देविंदस्स देवरन्नो सोमस्स महारस्रो सोमा भेदः, तेषामपि परस्परं षट्स्थानपतितत्वश्रवणात् / न चायं सर्वथा नाम रायहाणी पण्णत्ता, एगंजोयणसयसहस्सं आयामविक्खंप्रकाशाभेदे अभिन्नो होकान्तेनैकस्वभावः तन्नास्य दर्शनभेदहेतुतेति, स भेणं जंबुद्दीवपमाणेण वेमाणियाणं पमाणस्स अद्धं नेयव्वं० जाव हि येन स्वभावेनैकस्य सहकारी तत्तुल्यमेवं दर्शनमकुर्वन् तेनैवापरस्य उवरियलेणं सोलस जोयणसहस्साई आयामविक्खंभेणं पन्नासं तत्तत्त्वविरोधादिति भावनीयम् , इतरेतरापेक्षो हि वस्तुस्वभावः, जोयणसहस्साई पंच य सत्ताणउए जोयणसते किंचि विसेसूणे तदायत्ता व फलसिद्धिरिति उत्कृष्टचतुर्दशपूर्वविल्लोकमेवाधिकृत्य परिक्खेवेणं पण्णत्ते, पासायाणं चत्तारि परिवाडीओ नेयव्वाओ, प्रद्योतकराइति लोकप्रद्योतकराः॥१४॥ प्रद्योत्यं तु सप्तप्रकारं जीवा- सेसा नत्थि। सक्कस्स णं देविंदस्स देवरम्नो सोमस्स महारन्नो दितत्त्वम् , सामर्थ्य-गम्यमेतत्,तथाशाब्दन्यायात्, अन्यथा अचेतनेषु इमे देवा आणाउववायवयणनिद्दे से चिटुंति -तं जहाप्रद्योतनाऽयोगः, प्रद्योतनं प्रद्योत इति भावसाधनस्यासंभवात्, अतो सोमकाइयाति वा सोमदेवकाइयाति वा विजुकुमारा विजुकुज्ञानयोग्यतैवेह। प्रद्योतनमन्यापेक्षयेति तदेवं स्तवेष्वपि एवमेव वाचक- | मारीओ अग्गिकुमारा अग्गिकुमारीओ वाउकुमारा वाउप्रवृत्तिरितिस्थितम् / एतेनस्तवे 'अपुष्कलशब्दः प्रत्यवायाय' इति कुमारीओ चंदा सूरा गहा णक्खत्ता तारारूवा जे यावन्ने तहप्रत्युक्तम् , तत्त्वेनेदृशस्याऽपुष्कलत्वायोगादिति / लोकप्रद्योतकराः / / प्पगारा सव्वे ते तन्मत्तिया तप्पक्खिया तब्भारिया सक्कस्स 14 // ल०। देविंदस्स देवरन्नो सोमस्स महारश्नो आणाउववायवयणनिद्देसे लोगपरिपूरणा-स्वी०(लोकपरिपूरणा) ईषत्प्राग्भाराख्यायां पृथिव्याम्, | चिट्ठति // जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणंजाइंइमाइं स०१२सम। समुप्पजंति, तं जहा-गहदंडाति वा गहमुसलाति वा गहगलोगपाल-पुं०(लोकपाल)शक्रादीनां पूर्वादिदिक्पालेषु सोमादिषु, स्था० / ज्जियाति वा, एवं गहयुद्धाति वा गहसिंघाडगाति वा गहावस३ ठा० 1 उ०। व्वाइ वा अब्भाति वा अब्भरक्खाति वा संज्झाइ वा गंधवनरायगिहे नगरे जाव पज्जुवासमाणे एवं वयासी-सकस्स णं गराइ वा उकापायाति वा दिसीदाहाति वागज्जियाति वा विजयाति भंते ! देविंदस्स देवरन्नो कति लोगपाला पण्णत्ता? गोयमा ! वा पंसुवुड्डीति वा जूवे त्ति वा जक्खालित्त त्ति वा धूमयाइ वा चत्तारि लोगपाला पण्णत्ता, तं जहा-सोमे, जमे, वरुणे, वेस महियाइ वा रयुग्घायाइ वा चंदोवरागाति वा सरोवरागाति वा मणे। एएसिणं भंते ! चउण्हं लोगपालाणं कति विमाणा पण्ण चंदपरिवेसाति वा सूरपरिवेसाति वा पडिचंदाइ वा पडिसूराति त्ता ? गोयमा ! चत्तारि विमाणा पण्णत्ता, तं जहा-संझप्पभे, वा इंदधणूति वा उदगमच्छकपिहसियअमोहापाईणवायाति वा वरसिट्टे, सयंजले, वग्गू / कहि णं भंते ? सक्कस्स देविंदस्स पडीणवाताति वा० जाव संवट्टयवाताति वागामदाहाइवा० जाव देवरण्णो सोमस्स महारनो संझप्पभे णामं महाविमाणे पण्णत्ते ? सग्निवेसदाहाति वा पाणक्खया जणक्खया धणक्खया गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणे णं इमीसे कुलक्खया वसणब्भूया अणारिया जे यावन्ने तहप्पगारा ण ते रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ उर्ल्ड सक्कस्स देविंदस्स देवरन्नो सोमस्स महारनो अण्णाया अदिट्ठा चंदिमसूरियगहगणणक्खत्ततारारूवाणं बहूइं जोयणाइं०जाव असुया अमुया अविण्णया तेसिं वा सोमका-इयाणं देवाणं, पंच वडिंसया पण्णत्ता, तं जहा-असोयवर्डेसए सत्तवन्नवडिं सक्कस्सणं देविंदस्स देवरन्नो सोमस्स महारश्नो इमे आहावबा सए चंपयवडिसए चूयवडिंसए मज्झे सोहम्मवडिंसए, तस्सणं अभिन्नाया होत्था, तं जहा-इंगालए वियालए लोहियक्खे सोहम्मवडेंसयस्स महाविमाणस्स पुरच्छिमे णं सोहम्मे कप्पे सणिचरे चंदे सूरे सुके बुहे बहस्सती राहू / / सक्कस्स गं असंखेजाइं जोयणाई वीतिवइत्ता एत्थ णं सक्कस्स देविंदस्स देविंदस्स देवरनां सोमस्स महारनो सत्तिभागं पलिओवमं ठिती देवरन्नो सोमस्स महरन्नो संझप्पभे नामं महाविमाणे पण्णत्ते, पण्णत्ता, अहावच्चामिनायाणं देवाणं एगपलिओवमं ठिई पण्णत्ता, अद्धतेरस जोयणसयसहस्साई आयामविक्खंभेणं उयालीसं | एवं महिड्डीए० जाव महाणुभागे सोमे महाराया। (सू० 165) / जोयणसयसहस्साई बावन्नं च सहस्साई अट्ठ य अडयाले / 'रायगिहे' इत्यादि, 'बहूइं जोयणाई' इह यावत्करणादिदं जोयणसए किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं पण्णत्ते, जा सरिया- दृश्यम् -' बहूई जोयणसयाई बहूई जोयणसहस्साई बहूई भविमाणस्स वत्तव्वया सा अपरिसेसा भाणियटवा ०जाव जोयण-सयसहस्साइं बहूओ जोयणकोडीओ बहुओ जोयण
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________________ लोगपाल 718 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लोगपाल कोडाकोडीओ उड्ढे दूरं बीइवइत्ता एत्थणं सोहम्मे णामं कप्पे पण्णत्ते, पाईणपडीणायए उदीणदाहिणवित्थिन्ने अद्धचंदसंठाणसंठिए अचिमालिभासरासिवन्नाहे असंखेज्जाओ जोयणकोडाकोडीओ आयामविक्खंमेणं असंखेजाओ जोयणकोडाकोडीओ परिक्खे-वेणं, एत्थ णं सोहम्माणं / देवाणं बत्तीसं विमाणावाससयसहस्साई भवन्तीति अक्खाया, ते णं विमाणा सव्वरयणामया अच्छा० जावपडिरूवा, तस्सणंसोहम्मकप्पस्स बहुमज्झदेसभाए इति, 'वीइवइत्त' त्ति व्यतिव्रज्यव्यतिक्रम्य 'जा सूरियाभविमाणस्स' त्ति सूरिकाभविमानं राजप्रश्नीयोपाडोक्तस्वरूपं तद्वक्तव्वतेह वाच्या, तत्समानलक्षणत्वादस्येति। कियतीसा वाच्या ? इत्याह-यावदभिषेक:-अभिनवोत्पन्नस्य सोमस्य राज्याभिषेकं यावदिति, सा चेहातिबहुत्वान्न लिखितेति / / 'अहे' इति तिर्यग्लोके 'वेमाणियाण पमाणस्स' त्ति वैमानिकानां सौधर्मविमानसत्कप्रासादप्राकारद्वारादीनां प्रमाणस्येह नगर्यामर्द्ध ज्ञातव्यम् 'सेसा नत्थि' त्ति सुधदि(काः) सभा इहन सन्ति, उत्पत्तिस्थानेष्वेव तासांभावात्, 'सोमकाइय' त्ति सोमस्य कायो-निकायो येषामस्ति ते सोमकायिकाःसोम-परिवारभूताः 'सोमदेवयकाइय' त्ति सोमदेवताःतत्सामानिकादयस्तासां कायो येषामस्ति ते सोमदेवताकायिकाः-सोमसामानिकादिदेवपरिवारभूता इत्यर्थः, 'तारारूव' त्ति तारकारूपाः 'तत्भत्तिय' त्ति तत्र-सोमे भक्तिः-सेवा बहुमानो वा येषां ते तद्भक्तिकाः 'तप्पक्खिय' त्ति सोमपाक्षिकाः सोमस्य प्रयोजनेषु सहायाः, तब्भारिय 'त्ति तद्भार्याः-तस्य सोमस्य भार्या इव भायां अत्यन्तंवश्यत्वात्पोषणीयत्वाचेति तद्भार्याः, तद्भारो वा येषां वोढव्यत्याऽस्तितेतद्वारिकाः।। 'गहदंड' त्ति दण्डा इव दण्डाः-तिर्यगायताः श्रेणयः ग्रहाणांमङ्गलादीनां त्रिचतुरादीनां दण्डा ग्रहदण्डाः, एवं ग्रहमुशलादीनि नवरमूर्ध्वायताः श्रेणयः, 'गहगजिय' त्ति ग्रहसञ्चालादौ गर्जितानिस्तनितानि ग्रहगर्जितानि ग्रहयुद्धा-नि-ग्रहयोरेकत्र नक्षत्रे दक्षिणोत्तरेण समश्रेणितयाऽवस्थानानि, ग्रहसिनाटकानि-ग्रहाणां सिङ्घाटकफलाकारणावस्थानानि, ग्रहापसव्यानि-ग्रहाणामपसव्यगमनानि प्रतीपगमनानीत्यर्थः, अभ्रात्मका वृक्षा अभ्रवृक्षाः, गन्धर्वनगराणि-आकाशे व्यन्तरकृतानि नगराकारप्रतिबिम्बानि, उल्कापाताः-सरेखाः सोद्योता वा तारकस्येव पाताः दिग्दाहाः-अन्यतमस्यां दिशि अधोऽन्धकारा उपरि च प्रकाशात्मका दह्यमानमहानगरप्रकाशकल्याः 'जूवय' त्ति शुक्लपक्षे प्रतिपदादिदिनत्रयं यावद्यैः सन्ध्याछेदा आवियन्ते ते यूपकाः 'जक्खालित्तय'त्ति' यक्षोद्दीसानि आकाशे व्यन्तरकृतज्वलनानि, धूमिकामहिकयोर्वर्णकृतो विशेषः, तत्र धूमिका-धूम्रवणा धूसरा इत्यर्थः, महिका त्वापाण्डुरेति, 'रउग्घाय' त्ति दिशां रजस्वलत्वानि 'चंदोवरागा सूरोवरागा' चन्द्रसूर्य-ग्रहणानि 'पडिचंद' त्ति द्वितीयचन्द्राः 'उदगमच्छ'त्ति इन्द्रधनुःखण्डानि'कविहसिय' त्ति अनभ्रे या विद्युत्सहसा तत् कपिहसितम् , अन्ये त्याहुः कपिहसितं नाम यदाकाशे वानरमुखसदृशस्य विकृतमुखस्य हसनम् 'अमोह' त्ति अमोवा-आदित्योदयास्तमययोरादित्यकिरणविकारजनिताः आताम्राः कृष्णाः श्यामा वा, शकटोर्ध्वसंस्थिता दण्डा इति, 'पाइणवाय'त्ति पूर्वदिग्वाताः'पडीणवाय तिप्रतीचीनवाताः, यावत्करणादिदं दृश्यम्-'दाहिणवायाइ वा उदीणवायाइ वा उड्ड-वायाइ वा अहोवायाइ वा तिरियवायाइ वा विदिसीवायाइ वा वाउम्भामाइ वा वाउक्कलियाइवा वायमंडलियाइवा उक्कलियावायाइवामंडलियावायाइ वा गुंजावायाइवा झंझावायाइव' त्ति, इह वातोद्धामाः-अनवस्थितवाताः वातोत्कलिकाः-समुद्रोत्कलिकावत् वातमण्डलिकावातोल्यः उत्कलिकावाताः-उत्कलिकाभिर्ये वान्ति, मण्डलिकावाताः-मण्डलिकाभिर्ये वान्ति, गुज्जवाता:-गुज्जन्तः सशब्दं ये वान्ति, झञ्झावाताःअशुभ-निष्ठुरा, संवर्तकवाताः-तृणादिसंवर्तनस्वभावा इति।अथानन्तरोक्तानां ग्रहदण्डादीनां प्रायिकफलानि दर्शयन्नाह -'पाणक्खय 'त्ति बलक्षयाः 'जणक्खय' त्ति लोकमरणानि, निगमयन्नाह-'व-सणभूया अणारिया जे यावन्ने तहप्पगार' त्ति इहैवमक्षरघटना न केवलं प्राणक्षयादय एव, ये चान्ये एतद्व्यतिरिक्तास्तत्प्रकाराः-प्राणक्षयादितुल्याः व्यसनभूताः-आपद्रूपाः अनार्याः-पापात्मकाः न तेऽज्ञाता इति योगः 'अण्णाय' त्ति अनुमानतः 'अदिह' ति प्रत्यक्षापेक्षया 'असुय' त्ति परवचनद्वारेण अमुय, त्ति अस्मृता मनोऽपेक्षया 'अविण्णाय' त्ति अवध्यपेक्षयेति। अहावच' त्ति यथा अपत्यानि तथा ये ते यथाऽपत्याःदेवाः पुत्रस्थानीया इत्यर्थः, 'अभिण्णाया' इति अभिमता अभिमतवस्तुकारित्वादिति होत्थ त्ति अभवन् , उपलक्षणत्वाचास्यभवन्ति भविष्यन्तीति द्रष्टव्यम्, 'अहावच्चाभिन्नायाणं' ति यथाऽपत्यमेवमभिज्ञाताअवगता यथाऽपत्याभिज्ञाताः, अथवा-यथाऽपत्याश्च तेऽभिज्ञाताश्चेति कर्मधारयः, ते चाङ्गारकादयः पूर्वोक्ताः, एतेषु च यद्यपिचन्द्रसूर्ययोर्वर्षलक्षाद्यधिकंपल्योपमं तथाऽप्याधिक्यस्याविवक्षितत्वादङ्गारकादीनां च ग्रहत्वेन पल्योपमस्यैव सद्भावात् पल्योपममित्युक्तमिति। कहि णं मंते ! सक्कस्स देविंदस्स देवरन्नो जमस्स महारनो वरसिट्टे णामं महाविमाणे पण्णत्ते ? गोयमा ! सोहम्मवडिंसयस्स महाविमाणस्स दाहिणेणं सोहम्मे कप्पे असंखेज्जाई जोयणसहस्साइं वीइवतित्ता एत्थ णं सक्कस्स देविंदस्स देवरनो जम्मस्स महारनो वरसिटेणामं महाविमाणे पण्णत्ते, अद्धतेरसजोयणसयसहस्साई जहा सोमस्स विमाणे तहा० जाव अमिसेओरायहाणीतहेव० जावपासायपंतीओ।सकस्सणं देविंदस्स देवरनोजमस्समहारनो इमे देवा आणाए० जाव चिटुंति, तंजहाजमकाइयाति वा जमदेवकाइयाइ वा पेयकाइयाइ वा पेयदेवकाइयाति वा असुरकुमारा असरकुमारीओ कंदप्पा निरयवाला आभिओगा जे यावन्ने तहप्पगारा सव्वे ते तब्मत्तिगा तप्पक्खि
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________________ लोगपाल 719 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लोगपाल या तब्भारिया, सक्कस्स देविंदस्स देवरन्नो जमस्स महारनो आणाए जाव चिट्ठति / / जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं जाई इमाइं समुप्पाजंति, तं जहा-डिंवाति वा डमराति वा कलहाति वा बोलाति वा खाराति वा महायुद्धाति वा महासंगामाति वामहासत्थनिवडणाति वा एवं पुरिसनिवडणाति वा महारुधिरनिवडणाइ वा दुब्भूयाति वा कुलरोगाति वा गामरोगाति वा मंडलरोगाति वा नगररोगाति वा सीसवेय-णाइ वा अच्छिवेयणाइ वा कन्ननहदंतवेयणाइ वा इंदग्गहाइ वा खंदग्गहाइ वा कुमारग्गहाइ वा जक्खग्गहाइ वा भूयग्गहाइ वा एगाहियातिवा बेआहियाति वा तेआहियाति वा चाउत्थ-हियाति वा उद्वेगाति वा कासाति वा सासाति वा सोसेति वा जराइ वा दाहाति वा कच्छकोहाति वा अजीरया पंडुरगा हरिसाइ वा | भगंदराइ वा हिययसूलाति वा मत्थयसूलातिवाजोणि-सूलाति वा पाससूलाति वा कुच्छिसूलाति वा गाममारीति वा नगरमारीति वा खेडमारीति वा कम्वडमारीति वा दोणमुह-मारीतिमडं बमुहमारीति वा पट्टणमुहमारीति वा आसमसंवाहमुहमारीति वा संनिवेसमारीति वा पाणक्खया धणक्खया जणक्खया कुलवसणभूयमणारिया जे यावन्ने तहप्पगारा न ते सकस्सदेविंदस्स देवरन्नो जमस्स महारनो अण्णाया०५ तेसिं वा जमकाइयाणं देवाणं / सक्कस्स देविंदस्स देवरन्नो जमस्स महारन्नो इमे देवा अहावचा अमिण्णाया होत्था, तंजहा-"अंबे 1 अंबरिसे चेव 2, सामे 3 सबले त्तियावरे / रुद्दो 5 वरहे 6 काले य 7, महाकाले त्ति यावरे 8 // 1 // असिपत्ते / धणू 10 कुंभे 11, बालू 12 वेयरणीति य 13 / खरस्सरे 14 महाघोसे 15, एए पन्नरसाहिया // 2 // " सक्कस्सणं देविंदस्स देवरन्नो जमस्स महारनो सत्तिभागं पलिओवमं ठिती पण्णत्ता, अहावचाभिण्णायाणं देवाणं एग पलिओवमं ठिती पण्णत्ता, एवं महिड्डिए जाव जमे महाराया॥२॥ (सू०१६६) 'पेयकाइय' त्ति प्रेतकायिकाः व्यन्तरविशेषाः 'पेयदेवतका-इय' त्ति प्रेतसत्कदेवतानां सम्बन्धिनः 'कंदप्प' त्ति ये कन्दर्पभावनाभावितत्वेन कान्दर्पिकदेवेषूत्पन्नाः कन्दर्पशीलाश्च,कन्दर्पश्च-अतिकेलिः,'आहियोग' त्ति येऽभियोगभावनाभावितत्वेनाभियोगिकदेवेषूत्पन्ना अभियोगधर्तिनश्च, अभियोगश्चआदेश इति // 'डिंबाइव' त्ति डिम्बाविघ्नाः 'डमर' त्ति एकराज्य एव राजकुमारादिकृतोपद्रवाः कलह' त्ति वचनराटयः 'बोल' ति अव्यक्ताक्षरध्वनिसमूहाः 'खार' ति परस्परमत्सराः 'महायुद्ध' त्ति महायुद्धानिव्यवस्थाविहीन महारणाः 'महासंग्राम' त्ति सव्यवस्थचक्रादिव्यूहरचनोषेतमहारणाः महाशस्त्रनिपातनादयस्तु त्रयो महायुद्धादिकार्यभूताः, 'दुत्भूय त्ति दुष्टा-जनधान्या-दीनामुपद्रवहेतु- | त्वाद्भूताः-सत्त्वाः यूकामत्कुणोन्दुरतिकुप्रभृतयो दुर्भूता-ईतय इत्यर्थः, इन्द्रग्रहादयः उन्मत्तताहेतवः, एका-हिकादयोज्वरविशेषाः, उव्वेयग' त्ति उद्वेगका-इष्टवियोगादि-जन्या उद्वेगाः उद्वेजकावालोकोद्वेगकारिणश्चोरादयः 'कच्छ-कोह' त्ति कक्षाणां-शरीरावयवविशेषाणां वनगाहनानां वा कोथाः-कुथितत्वानि शटितानि वा कक्षाः कोथा कक्षकोथा वा। अम्ब' इत्यादयः पञ्चदशासुरनिकायान्तवर्तिनः परमाधार्मिकनिकायाः, तत्र यो देवो नारकानम्बरतले नीत्वा विमुञ्चत्यसौ अम्ब इत्यभिधीयते 1, यस्तु नारकान् कल्पनिकाभिः खण्डशः कृत्वा भ्राष्ट्रपाकयोन्यान् करोतीत्यसावम्बरीषस्य-भ्राष्ट्रस्य सम्बन्धादम्बरीष एवोच्यते 2, यस्तु तेषां शातनादि करोति वर्णतस्तु श्यामः स श्याम इति 3, 'सबले त्ति यावरे' त्ति शबल इति चापरो देव इति प्रक्रमः स च तेषामन्त्रहृदयादीन्युत्पाटयति वर्णतश्च शबलः-कर्बुर इत्यर्थः 4, यः शक्तिकुन्तादिषु नारकान् प्रोतयति स रौद्रत्वाद्रौद्र इति 5, यस्तु तेषामेवाङ्गोपाङ्गानि भनक्ति सोऽत्यन्तरौद्रत्वादुपरौद्र इति 6, यः पुनः कण्ड्वादिषु पचति वर्णतश्च कालः स काल इति 7; 'महाकाले त्ति यावरे त्ति महाकाल इति चापरो देव इति प्रकमः, तत्र यः श्लक्ष्णमांसानि खण्डयित्वा खादयति वर्णतश्च महाकालः स महाकाल इति 8, 'असी य'त्ति यो देवोऽसिना तान छिनत्ति सोऽसिरेव 6, असिपत्ते ति अस्याकारपत्रवद् वनविकुर्वणादसिपत्रः 10, 'कुंभे' त्ति कुम्भादिषु तेषां पचनात्कुम्भः 1, क्वचित्पठ्यते - 'असिपत्ते धणुं कुंभे' त्ति तत्रासिपत्रकुम्भौ पूर्ववत् , 'धणु' त्ति यो धनुर्विमुक्तार्द्धचन्द्रादिभिर्वाणैः कर्णादीनां छेदनभेदनादिकरोति सधनुरिति ११,'बालु'त्ति कदम्बपुष्पाद्याकारवालुकासु यः पचति स वालुक इति 12, 'वेयरणीति य' वैतरणीति च देव इति प्रक्रमः, तत्र पुयरुधिरादिभृतवैतरण्यभिधाननदीविकुर्वणाद्वैतरणीति 13, 'खरस्सर' त्ति यो वज्रकण्टकाकुलशाल्मलीवृक्षमारोप्य नारकं खरस्वरं कुर्वन्तं कुर्वन् वा कर्षत्यसौ खरस्वरः १४,'महाघोसि' त्ति, यस्तु भीतान् पलायमानान्नारकान् पशूनिव वाटकेषु महाघोषं कुर्वन्निरुणद्वि स महाघोष इति 15, 'एए पन्नर-साहिय' त्ति 'एवम्' उक्तन्यायेन-एते यमयथाऽपत्यदेवाः पञ्चदश आख्याता इति / भ० 3 श०७ उ०। (शतञ्जलमहाविमानस्य वक्तव्यता। 'सयंजल' शब्दे वक्ष्यामि) सक्कस्सणं वरुणस्समहारनो इमे देवा आणाए० जाव चिट्ठति, तं जहा-वरुणकाइयाति वा वरुणदेवयकाइयाइ वा नागकुमारा नागकुमारीओ उदहिकुमारा उदहिकुमारीओ थणियकुमारा थणियकुमारीओजे यावण्णे तहप्पगारा सवे ते तब्मत्तियाजाव चिट्ठति। जंबुहीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं जाई इमाई समुप्पचंति, तं जहा-अतिवासाति वा मंदवासाति वा सुवुट्ठीति वोदुव्वुट्ठीति वा उदन्भेयाति वा उपप्पीलाइ वा उदवाहाति वा
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________________ लोगपाल - 720- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लोगपाल पटवाहाति वा गामवाहाति वा जाव सन्निवेसवाहाति वा | सुभिक्खाति वा दुब्भिक्खाति वा कयविक्कयाति वा सन्निहियाति पाणक्खया ०जाव तेसिंवा वरुणकाइयाणं देवाणं, सक्कस्सणं | वा संनिचयाति वा निहीति वा णिहाणाति वा चिरपोरणाई देविंदस्स देवरन्नो वरुणस्स महारन्नो जाव अहावचा-भिन्नाया पहीणसामियाति वा पहीणसेउयाति वा (पहीणमग्गाणि वा) होत्था, तं जहा-ककोडए कद्दमए अंजणे संखवालएपुंडे पलासे पहीणगोत्तागाराइ वा उच्छिन्न-सामियाति वा उच्छिन्नसेउयाति मोएलए दहिमुहे अयंपुले कायरिए। सक्कस्स देविंदस्स देवरन्नों वा उच्छिन्नगोत्तागाराति वा सिंघाडगतिगचउक्कचचरचउम्मुहवरुणस्स महारण्णो देसूणाई दो पलिओ-वमाई ठिती पण्णत्ता, महापहपहेसु नगरनिद्धमणेसु वा सुसाणगिरिकंदरसंतिसेलोवअहावचामिनायाणं देवाणं एगं पलिओवमं ठिती पण्णत्ता, एवं ट्ठाणभवणगिहेसु संनिक्खित्ताई चिटुंति, एताई सक्कस्स महिड्डीए ०जाव वरुणे महाराया।३। (सू०१६७) देविंदस्स देवरन्नो वेसमणस्स महारनो (ण) अण्णायाई 'अतिवास' ति अतिशयवर्षा-वेगवद्वर्षणानीत्यर्थः, 'मन्द-वास' त्ति अदिट्ठाई असुयाइं अविनायाई तेसिं वा वेस-मणकाइयाणं शनैर्वर्षणानि 'सुवुट्टित्ति धान्यादिनिष्पत्तिहेतुः 'दुव्वुट्टि त्ति धान्याद्य देवाणं, सक्कस्स देविंदस्स देवरन्नो वेसमणस्स महारन्नो इमे निष्पत्तिहेतुः 'उदडभेय' त्ति उदकोद्भेदाः गिरितटादिभ्यो जलोद्भवाः देवा अहावचामिन्नाया होत्था, तं जहा-पुन्नभद्दे माणिभद्दे 'उदप्पील' त्ति उदकोत्पीलाः-तडा-गादिषु जलसमूहाः 'उदवाह' त्ति सालिभद्दे सुमणभद्दे चक्के रक्खे पुन्नरक्खे सव्वाणे (पटवाणे) अपकृष्टान्यल्पान्युदकवहनानि, तान्येव प्रकर्षवन्ति प्रवाहाः, इह सव्वजसे सव्वकामे समिद्धे अमोहे असंगे, सक्कस्सणं देविंदस्स प्राणक्षयादयो जलकृता द्रष्टव्याः, कक्कोडए'त्ति कर्कोटकाभिधानोऽनुवे देवरन्नो वेसमणस्स महारनो दो पलिओवमाणि ठिती पण्णत्ता, लन्धरनागराजावासभूतः पर्वतो लवणसमुद्रे ऐशान्यां दिश्यस्ति तन्नि- अहावचाभिण्णायाणं देवाणं एग पलिओवडं ठिती पण्णत्ता, एवं वासी नागराजः कर्कोटकः, 'कद्दमए' त्ति आग्नेय्यां तथैव विद्युत्प्रभ महिड्डीएन्जाव वेसमणे महाराया सेवं भंते! रत्ति। (सू०१६८) पर्वतस्तत्र कर्दमको नाम नागराजः 'अंजणे' ति वेलम्बाभिधानवायु- 'वसुहाराइव' ति तीर्थकरजन्मा दिव्याऽऽकाशाद्र्व्यवृष्टिः, 'हिरण्णकुमारराजस्य लोकपालोऽञ्जनाभिधानः 'संखवालए' त्ति धरणाभिधा- वास'ति हिरण्यं रूप्यंघटितसुवर्णमित्यन्ये वर्षोऽल्पतरो वृष्टिस्तुमहतीति ननागराजस्य लोकपालः शंखपालको नाम, शेषास्तु पुण्ड्रादयोऽ- वर्षवृष्ट्योर्भेदः माल्यं तु ग्रथितपुष्पाणि वर्णः- चन्दनं चूर्णोगन्धद्रव्यप्रतीता इति। सम्बन्धी गन्धाः-कोष्ठपुटपाकाः 'सुभिक्खाइव' ति सुकाले दुष्कालेवा कहिणं भंते ! सक्कस्स देविंदस्स देवरन्नो वेसमणस्स महारनो भिक्षुकाणां भिक्षासमृद्धयः दुर्मिक्षास्तूक्तविपरीताः 'संनिहियाइ' त्ति वग्गू णामं महाविमाणे पण्णत्ते ? गोयमा ! तस्स णं सोहम्मव धृतगुडादिस्थापनानि 'संनिचयाइति धान्यसञ्चयाः 'निहीइ व' त्ति डिंसयस्स महाविमाणस्स उत्तरेणं जहा सोमस्स विमाणराय- लक्षादिप्रमाणद्रव्यस्थापनानि निहाणाइ व' त्ति भूमिगतसहस्रादिहाणिवत्तथ्वया तहानेयव्वा जावपासायवडिंसया। सक्कस्सणं संख्यद्रव्यस्य सञ्चयाः, किंविधानि ? इत्याह-'चिरपोराणाई' ति देविंदस्स देवरन्नो वेसमणस्स महारनो इमे देवा आणाउव- चिरप्रतिष्ठितत्वेन पुराणानि चिरपुराणानि अत एव 'पहीणसामियाई' ति वायवयणनिद्देसे चिट्ठति, तं जहा-वेसमणकाइयाति वा वेस- स्वल्पीभूतस्वामिकानि 'पहीणसेउयाई ति प्रहीणाः अल्पीभूताः मणदेवकाइयाति वा सुवन्नकुमारा सुवन्नकुमारीओ दीवकुमारा सेक्तारः-सेचकाः-धनप्रक्षेप्तारो येषां तानि तथा, प्रहीणमार्गाणि वा, दीवकुमारीओ दिसाकुमारा दिसाकुमारीओ वाणमंतरा वाण 'पहीणगोत्तागाराई ति प्रहीणं-विरलीभूतमानुषं गोत्रागारंतत्स्वामिमंतरीओजे यावन्ने तहप्पगारा सवे ते तब्भत्तिया जाव चिट्ठति। गोत्रगृहं येषां तानि तथा, 'उच्छिन्नसामियाई ति निःसत्ताकीभूतप्रभूणि जंबुद्दीवे दीवे संदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं जाइं इमाइं समुप्प- 'नगरनिद्धमणेसु' त्ति नगरनिर्द्धमनेषुनगरजलनिर्गमनेषु 'सुसाणगिरिजंति, तं जहा-अयागराइंवा तउयागराइ वा तंबयागराइ वा एवं कन्दरसंतिसेलोवट्ठाणभवणगिहेसुति गृहशब्दस्य प्रत्येकं सम्बन्धात् सीसागराइ वा हिरन्नसुवन्नरयणवइरागराइ वा वसुहाराति वा श्मशानगृहम्-पितृवनगृहम् , गिरिगृहम्-पर्वतोपरिगृहम् कन्दरगृहम्-गुहा हिरनवासाति वा सुवनवासाति वारयण०- वइर०-आभरण शान्तिगृहम्-शान्तिकर्मस्थानम् शैलगृहम्-पर्वतमुत्कीर्य यत्कृतम् पत्त०-पुप्फ०-फल०-बीय०-मल्ल०-वण्ण०-चुन्न०-गंध० उपस्थानगृहम-आस्थानमण्डपो भवनगृहम्-कुटुम्बिवसन-गृहमिति। वत्थवासाइ वा, हिरनवुट्ठीति वा सुव-प्रण०-रयण०-वइर० भ०३ श०७ उ०। आभरण०-पत्त०-पुप्फ०-फल०-बीय०-मल्ल०-वण्ण०- रायगिहे नगरे०जाव पञ्जवासमाणे एवं वदासी-असुरकुमाचुन्न०-गंध०-वत्थवुट्ठीति वा भायणवुट्ठीति वा खीरवुट्ठीति वा राणं भंते ! देवाणं कति देवा आहेवचं०जाव विहरंति ? सुयालाति वा दुक्कालाति वा अप्पग्धाति वा महग्धाति वा गोयमा ! दस देवा आहेवचंन्जाव विहरंति, तं जहा-चमरे
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________________ लोगपाल 721- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लोगपाल असुरिंदे असुरराया सोमे जमे वरुणे वेसमणे बली वइरोयणिंदे वइरोयणराया सोमे जमे वरुणे वेसमणे / नागकुमाराणं भंते! पुच्छा, गोयमा ! दस देवा आहेवचं०जाव विहरंति, तं जहाधरणे नागकुमारिंदे नागकुमारराया कालवाले कोलवाले सेलवाले संखवाले भूयाणंदे नागकुमाररिंदे णागकुमारराया कालवाले कोलवाले संखवाले सेलवाले, जहा नागकुमारिंदाणं एयाए वत्तव्वयाए णेयव्वं एवं इमाणं नेयव्वं, सुवन्नकुमाराणं वेणुदाली चित्ते विचित्ते चित्तपक्खे विचित्तपक्खे, विज्जुकुमाराणं हरिकंत हरिस्सह पम 1 सुप्पभ 2 पभकंत 3 सुप्पभकंत 5, अग्गिकुमाराणं अग्गिसीहे अग्गिमाणवतेउ तेउसीहे तेउकते तेउप्पभे, दीवकुमाराणं पुण्णविसिट्ठ रूयसुरूयरूयकंतरूयप्पभा, उदहिकुमाराणं जलकं ते जलप्पम जलजलरूयजलकंत-जलप्पभा, दिसाकुमाराणं अमियगति अभियवाहण तुरियगति खिप्पगति सीहगति सीहविक्कमगति, वाउकुमाराणं बेलंबपभंजण काल महाकाल अंजणरिट्ठा, थणियकुमाराणं घोस महाघोस आवत्त वियावत्त नंदियावत्त-महानंदियावत्ता, एवं माणियव्वं जहा असुरकुमाराणं, सो०१ का०२ चि०३प्प०४ ते०५७०६ ज०७ तु०८ का०९ आ०१०, पिसायकु-माराणं पुच्छा, गोयमा ! दो देवा आहेवचं० जाव विहरंति, तं जहा"काले य महाकाले,सुरूवपडिरूवपुग्नभद्दे य। अमरवइमाणिभद्दे, भीमे य तहा महाभीमे // 1 // किंनर किंपुरिसे खलु, सप्पुरिसे खलु तहा महापुरिसे। अतिकाय महाकाए, गीयरती चेव गीयजसे // 2 // एते वाणमंतराणं देवाणं / जोतिसियाणं देवाणं दो देवा आहेवचं० जाव विहरंति, तं जहा-चंदे यसरे य।सोहम्मीसाणेसु णं भंते ! कप्पेसु कइ देवा आहेवचं० जाव विहरंति ? गोयमा ! दस देवा० जाव विहरंति, तं जहा-सक्के देविंदे देवराया सोमे जमे वरुणे वेसमणे, ईसाणे देविंदे देवराया सोमे जमे वरुणे, वेसमणे एसा वत्तवया सवेसु वि कप्पेस, एए चेव भाणियटवा, जे य इंदा ते य भाणियव्वा सेवं भंते ! त्ति / (सू०१६६) देववक्तव्यताप्रतिबद्ध एवाष्टमोद्देशकः स च सुगम एव, नवरं 'सो 1 का 2 चि 3 प्प 4 ते 5 रु 6 ज 7 तु 8 का 6 आ 10' इत्येनाक्षरदशकेन दक्षिणभवनपतीन्द्राणां प्रथमलोकपालनामानि सूचितानि, वाचनास्तरे त्वेतान्येवगाथायाम् , साचेयम्-"सोमे य१महाकाले 2, चित्त 3 प्पभ 4 तेउ 5 तह रुए चेव ६।जलखतह तुरियगईय८, काले आउत्त 10 पढमाउ॥१॥"एवं द्वितीयादयोऽप्यभ्यूह्याः, इहच पुस्तकान्तरेऽयमों दृश्यते-दाक्षिणात्येषु लोकपालेषु प्रतिसूत्र यौतृतीयचतुर्थी तावौदीच्येषु / चतुर्थतृ-तीयाविति, 'एसा वत्तव्वया सव्वेसुवि कप्पेसुएए चेवभाणियव्य' त्ति, एषासौधर्मेशानोक्ता वक्तव्यता सर्वेष्वपि कल्पेषु इन्द्रनिवासभूतेषु भणितव्या-सनत्कुमारादीन्द्रयुग्मेषु पूर्वेन्द्रापेक्षयोत्तरेन्द्रसम्बन्धिनां लोकपालानां तृतीयचतुर्थयोर्व्यत्ययो वाच्य इत्यर्थः, तथैत एव सोमादयः प्रतिदेवलोकं वाच्या न तु भवनपतीन्द्राणामिवापरापरे, 'जे य इंदा ते य भाणियव्वा' शक्रादयो दशेन्द्रा वाच्याः, अन्तिमे देवलोकचतुष्टये इन्द्रद्वयभावादिति।। तृतीयशतेऽष्टमो-द्देशकः / / 3-6 / / देवानां चावधिज्ञानसद्भावेऽपीन्द्रियोपयोगोऽप्यस्तीत्यत इन्द्रिय-विषयं निरूपयति रायगिहे० जाव एवं वयासी-कतिविहे णं भंते ! इंदियविसए पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचविहे इंदियविसए पण्णत्ते, तं जहासोतिंदियविसए जीवाभिगमे जोतिसिय उद्देसो नेयम्वो अपरिसेसो।। (सू०१७०) 'रायगिहे' इत्यादि, 'जीवाभिगमे' जोइसिय उद्देसओ णेयव्वो त्ति। भ०३ श०६ उ०। सोतिंदियविसए० जाव फासिंदियविसए। सोतेंदियविसए णं भंते ! पोग्गलपरिणामे कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! दुविहे पण्णते, तं जहा-सुन्मिसइपरिणामे य दुन्मिसहपरिणामे य, एवं चक्खिदियविसयादिएहि वि सुरूवपरिणामे य दुरूवपरिणामे य / एवं सुरभिगंधपरिणामे य दुरभिगंधपरिणामे य, एवं सुरसपरिणामे य दुरसपरिणामे य, एवं सुफासपरिणामे य दुफासपरिणामे य॥ से नूणं भंते ! उचावएसु सहपरिणामेसु उचावएसु रूवपरिणामेसु एवं गंधपरिणामेसु रसपरिणामसु फासपरिणामेसु परिणममाणा पोग्गला परिणमंतीति वक्तवंसिया? हंता गोयमा ! उच्चावएसु सहपरिणामेसु परिणममाणा पोग्गला परिणमंति त्ति वत्तव्यं सिया, से नूर्ण मंते ! सुरिभसद्दा पोग्गला दुन्मिसहत्ताए परिणमंति, दुन्भिसद्दा पोग्गला सुबिभसहत्ताए परिणमंति? हंतागोयमा! सुब्भिसद्वादुब्भिसहत्ताएपरिणमंति, दुमिसदा सुस्मिसत्ताए परिणमंति, से नूणं भंते ! सूरूवा पोग्गला दुरूवत्ताएपरिणमंति, दुरूवा पोग्गला सुरूवत्ताएपरिणमंति? हंता गोयमा ! एवं सुम्मिगंधा पोग्गला दुब्मिगंधत्ताए परिणमंति दुन्मिगंधा पोग्गला सुन्मिगंधत्ताएपरिणमंति ? हता गोयमा! एवं सुफासा दुफासत्ताए परिणमंति? सुरसादूरसत्ताए परिणमंति? हंता गोयमा! 01 (सू०१९१) 'क इविहे णं भंते !' इत्यादि, कतिविधो भदन्त ! इन्द्रियविषयः पुद्गलपरिणामः प्रज्ञप्तः ? भगवानाह-गौतम !
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________________ लोगपाल 722 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लोगमज्झ पञ्चविध इन्द्रियविषयः पुद्गलपरिणामः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-श्रोत्रेन्द्रियविषय | लोगप्पिय-पुं०(लोकप्रिय)लोकस्य सर्वजनस्य इह परलोकविरुद्धविइत्यादिसुगमम्, 'सुडिभसद्दपरिणामे' इति शुभः शब्दपरिणामः 'दुब्भि- वर्जनेन दानशीलादिगुणश्च प्रियो वल्लभो लोकप्रियः। प्रव० 236 द्वार। सद्दपरिणामे' इति अशुभः शब्दपरिणामः।। 'से णूणं भंते' ! इत्यादि, सदाचारचारिणि, ध० 201 अधि०१ गुण / अयमभिप्रायः-एतानि अथ'नूनम्' निश्चितमेतद् भदन्त! उचावचैः-उत्तमाधमैः शब्दपरिणा- कर्माणि लोकवैमुख्यकारणानि परिहरन्नेव शिष्टजनप्रियो भवतिधर्ममैर्यावत्स्पर्शपरिणामैः परिणमन्तः पुद्गलाः / परिणमन्तीति वक्तव्यं स्यापि स एवाधिकारीति। तथा दानम्-त्यागो विनयः-उचितप्रतिपत्तिः स्याद् ? परिणमन्तीति ते वक्तव्या भवेयुरित्यर्थः, भगवानाह-'हंता शीलम्-सदाचारपरता एभिराढ्यः-परिपूर्णो यः स लोकप्रियो भवति। गोयमा ! इत्यादि, हन्तेति प्रत्यवधारणे स्यादेव वक्तव्यमिति भावः, उक्तंचपरिणामस्य यथावस्थितस्य भावात् , तथा तथा द्रव्यक्षेत्रादिसामग्री दानेन सत्त्वानि यशीभवति,दानेन वैराग्यपि यान्ति नाशम् / वशतस्तत्तद्रूपास्कन्दनं हि परिणामः, स च तत्रास्तीति न कश्चित्तथा परोऽपिबन्धुत्वमुपैति दाना-त्तस्माद्धि दानं सततं प्रदेयम्।।१।। ऽभिधाने दोषः / / 'से नूणं भंते!' इत्यादि, अथ नूनम्-निश्चितमेतद् भदन्त ! शुभशब्दाः शुभशब्दरूपाः पुद्गला अशुभशब्दतया परिणमन्ति विणएण नरो गंधे-ण चंदणं सोमयाइ रयणियरो। अशुभशब्दा वा पुद्गलाःशुभशब्दतया? भगवानाह-हन्त गोतम! इत्यादि महुररसेणं अमयं, जणप्पियत्तं लहइ भुवणे // 2 // सुप्रतीतम् / एतेन सान्वयं परिणाममाह, अन्यथा तद्योगादसतः सुविसुद्धसीलजुत्तो, पावइ कित्तिं जसंच इह लोए। सत्तानुपपत्तेरतिप्रसङ्गात्। एवं रूपरसगन्ध-स्पर्शष्वप्यात्मीयात्मीयाभि- सव्वजणवल्लहो विय,सुहगइभागीय परलोए॥३॥"इति। लापेन द्वौ द्वावालापको वक्तव्यौ। जी० 3 प्रति०२ उ०। एतस्य धर्मप्रतिपत्तौ फलमाह-एवंविधो लोकप्रियो जनानां सम्यग्रायगिहे नगरे जाव एवं वयासी-ईसाणस्स णं भंते ! देविं दृशामपि जनयत्युत्पादयति धर्गे-यथावस्थितमुक्तिमार्गे बहुमानम्दस्स देवरण्णो कति लोगपाला पण्णत्ता ? गोयमा ! चत्तारि आन्तरप्रीतिं धर्मप्रतिपत्तिहेतुं बोधिबीजं वा / विनयंधरवत् , तथा लोगपाला पण्णत्ता,तं जहा-सोमे,जमे वेसमणे वरुणे / एएसि चोक्तम्-"युक्तं जनप्रियत्वं, शुद्धं सद्धर्मसिद्धिफलदमलम्। धर्मप्रशंणं भंते ! लोगपालाणं कति विमाणा पण्णता? गोयमा! चत्तारि सनादे/जाधानादिभावेन // 1 // " इति। ध० 20 1 अधि० 4 गुण / विमाणा पण्णत्ता, तं जहा-सुमणे सव्वओभई वग्गू सुवागू / कहि (लोकप्रियत्वे विनयन्धरकथा'विणयंधर' शब्दे वक्ष्यते) सदा सदाचारणं भंते ! ईसाणस्स देविंदस्स देवरन्नो सोमस्स महारनो सुमणे त्वेन सम्मते, दर्श०२ तत्त्व! नाम महाविमाणे पण्णत्ते ? गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स लोगप्पइअ-पुं०(लोगप्राकृत) त्रिजगता अर्चिते. उत्त० 23 अ०। पव्वयस्स उत्तरेणं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए जाव ईसाणे लोगफुड-पुं०(लोकस्पष्ट) लोकेन-लोंकाकाशेन सकलस्वप्रदेशैः स्पृष्टो णामं कप्पे पण्णत्ते, तत्थ णं जाव पंचवडेंसया पण्णत्ता, तं लोकस्पृष्टः / तथा लोकमेव च सकलस्वप्रदेशैः स्पृथ्वा तिष्ठति / जहा-अंकवडें सए फलिहवर्डे सए रयणवडें सए जायरूव सकललोकपरिमिते आत्मनि, भ०२ श०१० उ०। वडेंसए, मज्झेय तत्थ ईसाणवडेंसए, तस्सणं ईसाणवडेंसयस्स महाविमाणस्स पुरच्छिमेणं तिरियमसंखेजाई जोयण लोगबाह-पुं०(लोकबाध) लोकः प्रामाणिकलोकः सामान्यलोकश्च तेन सहस्साई वीतिवतित्ता एत्थ णं ईसाणस्स देविंदस्स देवरण्णो बाधो विरोधो लोकबाधस्तदप्रतीतव्यवहारसाधनात् बाधशब्दस्य। सोमस्स महारण्णो सुमणे नामं महाविमाणे पण्णत्ते अद्धतेर लोकविरोधे, स्या०। सजोयणं जहा सक्कस्स वत्तव्वया ततियसए तहा ईसाणस्स वि लोगबिन्दुसार-पुं०(लोकबिन्दुसार) अस्मिन् लोके श्रुतलोके बिन्दुरि जाव अचणिया समत्ता / चउण्ह वि लोगपालाणं विमाणे वाक्षरस्य सर्वोत्तममिति, सर्वाक्षरसन्निपातप्रतिष्ठितत्वेन लोकबिन्दुसारम्। वितियउद्देसओ, चउसु विमाणेसुचत्तारि उद्देसा अपरिसेसा, नवरं चतुर्दशे पूर्वे,तत्प्रमाणमर्द्धत्रयोदशपदकोट्य इति। स०।नं०। ठितिए नाणत्तं-"आदिदुय तिभागणा, पलिया धणयस्स हॉति लोगबिन्दुसारस्स णं पुटवस्स पणवीसं वत्थू पण्णत्ते / स० दो चेव / दो सतिभागा वरुणे,पलियमहावचदेवाणं // 1 // " 26 सम०। (सू० 172) लोगमज्झ-पुं०(लोकमध्य) लोकस्य तिर्यग्लोकस्य समस्तस्यापि मध्ये 'चत्तारीत्यादि' व्यक्तार्थाः 'अचणिय' त्ति सिद्धायतने जिनप्रति- वर्त्तते इति लोकमध्यः। मेरुपर्वते, चं० प्र०४ पाहु०। सू०प्र०। संपूर्णमाद्यर्चनमभिनवोत्पन्नस्य सोमाख्यलोकपालस्येत्ति। भ० 4 श०४ उ०। गोलकश्च लोकमध्य एवस्यादिति। भ०११श०११ उ०। दर्श०।"जे (राजधानीवक्तव्यता रायहाणी' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 556 पृष्ठे गता।) | मंदरस्स पुव्वेण मणुस्सा दाहिणेण अवरेणं / जे वावि उत्तरेणं, सव्वेसिं सूर्यवत्सर्ववस्तुप्रकाशकत्वात् / स्था० 4 ठा०१उ०। पञ्चा० / उत्तरो मेरू' / / 46 / आचा०१ श्रु०१ अ० 1 उ०। (व्याख्याऽस्यागाप्रज्ञा० भ०। थायाः 'दिसा' शब्दे चतुर्थभागे 2523 पृष्ठे गता।)
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________________ लोगमज्झवासिय 723 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लोगवाय लोगमज्झवासिय-न०(लोकमध्यवासिक) अभिनयभेदे, स्था०४ ठा० 4 उ०। लोगमज्झावसाणिय-न०(लोकमध्यावसानिक) अभिनयभेदे, रा० / एतच नाट्यकुशललेभ्यो वेदितव्यम्। आ०म०१ अ०। एते नाट्यविधयोऽभिनयविधयश्च भरतादिसङ्गीतशास्त्रज्ञेभ्योऽवसे-याः। जं०५ वक्षः। लोगमत्थयत्थ-पुं०(लोकमस्तकस्थ) त्रैलोक्योपरिवर्त्तिनि सिद्धे, दश० 4 अ०॥ लोगरिसि-पुं०(लोकऋषि) तापसे, व्य० 10 उ०। लोगरूढिनिराकय-पुं०(लोकरूढिनिराकृत) मिथ्याभेदे, यथा शुचि नरशिरःकपालमिति। स्था०१० ठा०३ उ०। लोगववहारविरय-पुं०(लोकव्यवहारविरत) लोकयात्रानिवृत्ते, पञ्चा० 10 विव०। लोगवाइ-त्रि०(लोकवादिन्) लोकयतीति लोकः प्राणिगणस्तं वदितुं शीलमस्येति। बह्वात्मवादिनि,आचा०१ श्रु०१ अ० 1 उ०। लोगवाय-पुं०(लोकवाद) पाखण्डिनां पौराणिकानां वा वादे, सूत्र०। लोगवायं णिसामिज्जा, इहमेगेसि माहियं / विपरीयपन्नसंभूयं, अन्नउत्तं तयाणुयं / / 5 / / 'लोगवायमि' त्यादि, लोकानां पाखण्डिनां पौराणिकानां वा वादो लोकवादः / यथा-स्वाभिप्रायेणाऽन्यथा वाऽभ्युपगमस्तं निशामयेत्शृणुयात् जानीयादित्यर्थः / तदेव दर्शयति-इह-अस्मिन्संसारे एकेषां केषांचिदिदमाख्यातम्-अभ्युपगमः / तदेव विशिनष्टि / विपरीतापरमादिन्यथाभूता या प्रज्ञा तया संभूतं-समुत्पन्नं तत्त्वविपर्यस्तबुद्धिग्रथितमिति यावत्, पुनरपि विशेषयति-अन्यैरविवेकिभिर्यदुक्तं तदनुगं यथावस्थितार्थविपरीतानुसारिभिर्यदुक्तं विपरीतार्थाभिधायितया तदनुगच्छतीत्यर्थः। तमेव विपर्यस्तबुद्धिरहितं लोकवादं दर्शयितुमाह - अणंते निइए लोए, सासए ण विणस्सति। अंतवं णिइए लोए, इति धीरोऽतिपासइ // 6 // 'अणंते निइए लोए' इत्यादि, नाऽस्यान्तोऽस्तीत्यनन्तः। न निरन्वयनाशेन नश्यतीत्युक्तं भवतीति / तथाहि-यो यादृगिह भवे स तादृगेव परभवेऽप्युत्पद्यते पुरुषः-पुरुष एव, अङ्गना-अङ्गनैवेत्यादि। यदि वाअनन्तः-अपरिमितो निरवधिक इति यावत् / तथा नित्य इतिअप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकस्वभावो लोक इति / तथा-शश्वद्भवतीति शाश्वतो व्यणुकादिकार्यद्रव्यापेक्षया शश्वद्भवन्नपि न कारणद्रव्यं परमाणुत्वं परित्यजतीति। तथा न विनश्यतीति दिगात्माकाशाद्यपेक्षया, तथा-अन्तोऽस्यास्तीत्यन्तवान् लोकः 'सप्तद्वीपा वसुंधरेति' परिमाणोक्तेः; स च तादृक्परिमाणो नित्य इत्येवं धीरः कश्चित्साहसिकोऽन्यथाभूतार्थप्रतिपादनात् व्यासादिरिवातिपश्यतीत्यतिपश्यति / तदेवंभूतमनेकभेदभिन्नं लोकवाद निशामयेदिति प्रकृतेन संबन्धः। तथा"अपुत्रस्यन सन्ति लोकाः, ब्राह्मणा देवाः, श्वानो यक्षाः, गोभिर्हतस्य | गोध्नस्य वान सन्ति लोका'' इत्येवमादिकं नियुक्तिकंलोकवाद निशामयेदिति। किञ्चअपरिमाणं वियाणाइ, इहमेगेसिमाहियं / सव्वत्थ सपरिमाणं, इति धीरोऽतिपासइ॥७॥ अपरिमाणमिति-न विद्यते परिमाणमियत्ता क्षेत्रतः कालतो वा यस्य तदपरिमाणं तदेवंभूतं विजानाति कश्चित्तीर्थिकःतीर्थकृत् , एतदुक्तं भवति-अपरिमितज्ञोऽसावतीन्द्रियद्रष्टा न पुनः सर्वज्ञ इति। यदि वाअपरिमितज्ञ इत्यभिप्रेतातिीन्द्रियदर्शीति, तथा चोक्तम्-"सर्वपश्यतु वा मा वा, इष्टमर्थतुपश्यतु। कोटसंख्यापरिज्ञान, तस्यनः कोपयुज्यते? // 1 // '' इति / इह अस्मिन् लोके एकेषांसर्वज्ञाऽपह्नववादिनाम् , इदमाख्यातम्-अयमभ्युपगमः, तथा सर्वक्षेत्रमाश्रित्यकाले वा परिच्छेद्यं कर्मतापन्नमाश्रित्य सह परिमाणेन सपरिमाणम्-सपरिच्छेदं धीःबुद्धिस्तया राजत इति धीर इत्येवमसौ अतीव पश्यतीत्यतिपश्यति। तथाहि-ते ब्रुवते-दिव्यं वर्षसहस्रसौ ब्रह्मा स्वपिति, तस्यामवस्थायां न पश्यत्यसौ, तावन्मानं च कालं जागर्ति, तत्र च पश्यत्यसाविति तदेवम्भूतो बहुधा लोकवादः प्रवृत्तः // 7 // अस्य चोत्तरदानायाह - जे केइ तसा पाणा, चिटुंति अदु थावरा। परियाए अस्थि से अंजु,जेण ते तसथावरा // 8 // (जे के इति)ये केचित्त्रसाः-प्राणिनस्तिष्ठन्ति अथवा-स्थावराः तेषां स्वकर्मपरिणत्याऽयं पर्यायोऽस्ति ( अंजु इति ) प्रगुणोऽव्यभिचारी तेन पर्यायेण ते त्रसाः स्थावराः स्युः। त्रसत्वमनुभूय कर्मपरिणत्या स्थावराः स्थावरत्वमनुभूय त्रसाश्च भवन्तीति। ततो यो यादृगिह भवे सपरभवेऽपि तादृगिति नियमो न युक्तः॥ 8 // सूत्र० दी०१ श्रु०१ अ०४ उ०। ये केचनत्रस्यन्तीतित्रसा-द्वीन्द्रियादयः प्राणाः-प्राणिनः सत्त्वाः तिष्ठन्ति सत्वमनुभवन्ति, अथवा-स्थावराः-स्थावरनामकर्मोदयात् (याः) पृथिव्यादयस्ते, यद्ययं लोकवादः सत्यो भवेत् यथा-यो यादृगस्मिन् जन्मनि मनुष्यादिः सोऽन्यस्मिन्नपि जन्मनि तादृगेव भवतीति, ततः स्थावराणां वसानां चतादृशत्वे सति दानाध्ययनजपनियमतपोऽनुष्ठानादिकाः क्रिया सर्वा अप्यनर्थिका आपोरम् / लोकेनापि चान्यथात्वमुक्तम्, तद्यथा-"स वै एष शृगालो जायते यः सपुरीषो दह्यते' तस्मात् स्थावरजङ्गमानां स्वकृतकर्मवशात् परस्परसंक्रमणाधनिवारितप्रिति। (सूत्र०) लोकव्यवस्था 'लोक' शब्देऽस्मिन्नेव भागेऽनुपदमेव दर्शिता / तथा 'श्वानो यक्षा' इत्यादि युक्तिविरोधित्वादनाकर्णनीयमिति.। यदपि चोक्तम्-'अपरिमाणं विजानाती' ति, तदपि न घटामियति, यतःसत्यप्यपरिमितज्ञत्वे यद्यसौ सर्वज्ञो न भवेत् ततो हेयोपादेयोपदेशदानविकलत्वान्नैवासौ प्रेक्षापूर्वकारिभिराद्रियेत, तथाहि-तस्य कीटसंख्यापरिज्ञानमप्युपयोग्येव,यतो यथैतद्विषयेऽस्यापरिज्ञानमेवमन्यत्रापीत्याशङ्कया हेयोपादेये प्रेक्षापूर्वकारिणः प्रवृत्तिर्न स्यात्, तस्मात्सर्वज्ञत्वमेष्टव्यम् / तथा यदुक्तम्-'स्वापबोधविभागेन
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________________ लोगवाय 724 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लोगविजय परिमितं जानाती' त्येतदपि सर्वजनसमानत्वे यत्किञ्चिदिति / यदपि च कैश्चिदुच्यते-यथा "ब्रह्मणः स्वप्नावबोधयोर्लोकस्य प्रलयोदयौ भवत' इति, तदप्ययुक्तिसंगतमेव, प्रतिपादितं चैतत् प्रागेवेति न प्रतन्यते। नचात्यन्तं सर्वजगत उत्पादविनाशौ विद्येते 'न कदाचिदनीदृशं जगदि' ति वचनात्। तदेवमनन्तादिकं लोकवादं परिहृत्य यथा-वस्थितवस्तुस्वभावाविर्भावनं पश्चार्द्धन दर्शयति-ये केचन त्रसाः स्थावरा वा तिष्ठन्त्यस्मिन् संसारेतेषां स्वकर्मपरिणत्याऽस्त्यसौ पर्यायः 'अजु' इति प्रगुणोऽव्यभिचारीतेनपर्यायेण स्वकर्मपरिणतिजनितेनते त्रसाः सन्तः स्थावराः संपद्यन्ते, स्थावरा अपिचत्रसत्वमश्नुयते। तथा प्रसास्त्रसत्वमेव स्थावराः स्थावरत्वमेवाऽऽप्नुवन्ति, न पुनर्यो यादृगिह स तादृगेवामुत्रापि भवतीत्ययं नियम इति / __ एवं मूलगुणानभिधायेदानीमुत्तरगुणानभिधातुकाम आह - दुसिए य विगयगेही, आयाणं सम्म रक्खए। चरिआसणसेज्जासु, भत्तपाणे अ अंतसो।।११।। विविधम्-अनेकप्रकारमुषितः-स्थितो दशविधचक्रवालसमाचार्या व्युषितः, तथा विगता-अपगता आहारादौ गृद्धिर्यस्यासौ विगतगृद्धिः साधुः एवंभूतश्चादीयते स्वीक्रियते प्राप्यते वा मोक्षो येन तदादानीयम् ज्ञानदर्शनचारित्रत्रयं तत्सम्यग् रक्षयेद्-अनुपालयेत् , यथा यथा तस्य वृद्धिभर्वतितथा तथा कुर्यादित्यर्थः / कथ पुनश्चारित्रादिपालितं भवतीति दर्शयतिचर्यासनशय्यासुचरणं चर्यागमनं साधुना हि सति प्रयोजने युगमात्रदृष्टिना गन्तव्यम् , तथा सुप्रत्युपेक्षितेसुप्रमार्जितेचासने उपवेष्टव्यम्, तथा शय्यायाम-वसतौ संस्तारके वा सुप्रत्युपेक्षितप्रमार्जिते स्थानादि विधेयम्, तथा भक्ते पाने चान्तशः सम्यगुपयोगवता भाव्यम्, इदमुक्तं भवति-ईर्याभाषैषणाऽऽदाननिक्षेपप्रतिष्ठापनासमितिषू-पयुक्ते मुनिः सदा 'विगिंचए' त्ति विवेचयेद्-आत्मनः पृथक्कुर्यादित्यर्थः / ननु चान्यत्रागमे क्रोध आदावुपन्यस्यते, तथा क्षपक श्रेण्यामारूढो भगवान् क्रोधादीनेव संज्वलनान् क्षपयति, तत् किमर्थमागमप्रसिद्ध क्रममुल्लज्यादौ मानस्योपन्यास इति? अत्रोच्यते-माने सत्यवश्यंभावी क्रोधः क्रोधे तु मानः स्याद्वा न वेत्यस्यार्थस्य प्रदर्शनायान्यथाक्रमकरणमिति // 12 // तदेवं मूलगुणानुत्तरगुणांश्चोपदाधुना सर्वोपसंहारार्थमाह - समिए उ सया साहू, पंचसंवरसंवुडे। सिएहिअसिएभिक्खू, आमोक्खायपरिव्वए।॥१३॥ त्ति बेमि तुरवधारणे, पञ्चभिः समितिभिः समित एव साधुः, तथा प्राणातिपातादिपञ्चमहाव्रतोपेतत्वात्पञ्चप्रकारसंवरसंवृतः, तथा मनोवाकायगुप्तिगुप्तः, तथा गृहपाशादिषु सिता-बद्धा अवसक्ता गृहस्थास्तेष्वसितः-अनवबद्धस्तेषु मूच्छमिकुर्वाणः पङ्काधारपङ्कजवत्तत्कर्मणाऽदिह्यमानो भिक्षुः-भिक्षणशीलो भावभिक्षुः आमोक्षाय अशेषकर्मापगमलक्षणमोक्षार्थं परिसमन्तात् ब्रजेः-संयमानुष्ठानरतो भवेस्त्वमिति विनेयस्योपदेशः। इति अध्ययनसमाप्तौ ब्रवीमीति गणधर एवमाह, यथा तीर्थकृतोक्तं तथैवाहं ब्रवीमि, न स्वमनीषिकयेति गतोऽनुगमः। साम्प्रतं नयास्तेषामयमुपसंहारः "सव्वेसि पि नयाणं, बहुविधवत्तव्वयं निसामित्ता / तं सव्वणय-विसुद्धं, जं चरणगुणट्ठिओ साहू // 1 // // 13 // सूत्र० 1 श्रु०१ अ०४ उ०। लोगविजय-पुं०(लोकविजय) भाविलोकस्य रागद्वेषलक्षणस्य विजयो निराकरणं यत्राभिधीयतेस लोकविजयः। आचाराङ्गस्य द्वितीयाध्ययने, स्था०६ ठा०३ उ०। प्रश्न०। लोकविजयेऽधिकाराः। तथाहि-अधिगतशस्त्रपरिज्ञासूत्रार्थस्य तत्प्रतिपादितैकेन्द्रियपृथिवीकायादिश्रद्दधानस्य सम्यक् तद्रक्षापरिणामवतः सर्वोपाधिशुद्धस्य तद्योग्यतयाऽऽरोपितपञ्चमहाव्रतभारस्य साधोर्यथा रागादिकषायलोकस्य शब्दादिविषयलोकस्य वा विजयो भवति तथाऽनेनाध्ययनेन प्रतिपाद्यते / तथा च नियुक्तिकारेणाध्ययनार्थाधिकारः शस्त्रपरिज्ञायां प्राग निरदेशि-"लोओजह वज्झइजह यतं विजहियवं" ति इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्याऽस्याऽध्ययनस्य चत्वार्यनुयोगद्वाराणि भवन्ति / तत्र सूत्रार्थकथनमनुयोगाः, तस्य द्वाराणि उपाया व्याख्याङ्गानीत्यर्थः, तानि चोपक्रमादीनि, तत्रोपक्रमो द्वेधाशास्त्रानुगतः शास्त्रीयः लोकानुगतो लौकिक इति, निक्षेपस्त्रिधा-ओघनामसूत्रालापकनिष्पनभेदात्, अनुगमो द्वेधा-सूत्रानुगमो निर्युक्त्यनुगमश्च, नया-नैगमादयः तत्र शास्त्रीयोपक्रमान्तर्गतोऽर्थाधिकारो द्वेधा-अध्ययनार्थाऽधिकार उद्देशार्थाधिकारश्च, तत्राध्ययनार्थाधिकारोऽध्ययनसम्बन्धे शस्त्रपरिज्ञायां प्रागेव निरदेशि, उद्देशार्थाधिकारं तु स्वयमेव नियुक्तिकारः प्रचिकटयिषुराह - सयणे य अदढत्तं, वीयगम्मि माणो अ अत्थसारो अ। पुनरपि चारित्रशुद्ध्यर्थ गुणानधिकृत्याहएतेहिं तिहि ठावेहि, संजए सततं मुणी। उक्कसं जलणं णूमं, मज्झत्थं च विगिंचए।। 12 // एतानि-अनन्तरोक्तानि त्रीणि स्थानानि, तद्यथा-ईर्यासमितिरित्येक स्थानम्, आसनं शय्येत्यनेनादानभाण्डमात्रनिक्षेपणा-समितिरित्येतच द्वितीय स्थानम् , भक्तपानमित्यनेनैषणासमितिरुपात्ता भक्तपानार्थं च प्रविष्टस्य भाषणसंभवद्भाषासमितिराक्षिप्ता, सति चाहारे उच्चारप्रसवणादीनां सद्भावात्प्रतिष्ठापना-समितिरप्यायातेत्येतच तृतीय स्थानमिति, अत एतेषु त्रिषु स्थानेषु सम्यग्यतः संयत आमीक्षाय परिव्रजेदित्युत्तरश्लोकान्ते क्रियेति / तथा-सततम्-अनवरतम् मुनिः-सम्यक् यथावस्थितजगत्त्रयवेत्ता उत्कृष्यते आत्मा दध्मातो विधीयतेऽनेनेत्युत्कर्षामानः, तथा-आत्मानंचारित्रं वा ज्वलयति-दहतीतिज्वलनःक्रोधः, तथा ममितिगहनं मायेत्यर्थः, तस्या अलब्धमध्यत्वादेवमभिधीयते, तथा आसंसारमसुमतां मध्ये-अन्तर्भवतीति मध्यस्थोलोभः, चशब्दः समुच्चये, एतान् मानादींश्चतुरोऽपि कषायांस्तद्विपाकाभिज्ञो
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________________ लोगविजय 725 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लोगविजय भोगेसु लोगनिस्साई, लोगे अममिजिया चेव / / 163 // / जानानस्तत्तद्विधत्ते येन ऐहिकामुष्मिकान् अपायान् अवाप्नोति, तद्यथातत्र प्रथमोद्देशकाधिकारः-स्वजने-मातापित्रादिके अभिष्वङ्गोऽधि- जरासन्धो जामातरि कंसे व्यापादिते स्वबलावलेपादपसृतवासुदेवपगतसूत्रार्थेन न कार्य इत्यध्याहारः, तथा च सूत्रम्-'माया मे पिया मे' दानुसारी सबलवाहनः क्षयमगात्, स्नुषा मे न जीवन्तीत्यारम्भादौ इत्यादि, 1, अदढत्तं वीयगम्मि' ति। द्वितीय उद्देशके अदृढत्वं संयमेन प्रवर्तते, 'सखिस्वजनसंग्रन्थसंस्तुता मे' सखा मित्रं स्वजनः पितृव्यादिः कार्यमिति शेषः, विषयकषायादौ चादृढत्वं कार्यमिति, वक्ष्यतिच-'अरइं संग्रन्थः स्वजनस्यापि स्वजनः पितृव्यपुत्रश्यालादिः संस्तुतोभूयो भूयो आउट्टे मेहावी' २.तृतीय उद्देशके 'माणो अअत्थसारो अत्ति जात्याधु- दर्शनेन परिचितः, अथवा-पूर्वसंस्तुतो मातापित्रादिरभिहितः पश्चात्संपेतेन साधुना कर्मवशाद्वि-चित्रतामयगम्य सर्वमदस्थानानां मानो न स्तुतः श्यालकादिः स इह ग्राह्यः, सच मेदुःखित इति परिप्यते, विविक्तं कार्यः, आह च-'के गोआवादी ? के माणावादी' त्यादि, अर्थसारस्य च शोभनं प्रचुरं वा उपकरणंहस्त्यश्वरथासनमञ्चकादिपरिवर्तनं द्विगुणत्रिनिस्सारता वर्ण्यते, तथा च-'तिविहेण जा अवि से तरथ मत्ता अप्पा वा गुणादि-भेदभिन्नं तदेव, भोजन-मोदकादि आच्छादनंपट्टयुग्मादितच बहुगावे' त्यादि 3, चतुर्थे तु 'भागेसुत्ति भोगेष्वभिष्वङ्गो न कार्य इति मे भविष्यति नष्ट वा। 'इचत्थ' मिति इत्येवमर्थं गृद्धो लोकः तेष्वेव शेषः, यतो भोगिनामपायान् वक्ष्यति, सूत्रं च-'थीहिं लोए पव्वहिए' 4, मातापित्रादिरागादिनिमित्तस्थानेष्वामरणं प्रमत्तो ममेदमहमस्य स्वामी पञ्चमे तु 'लोगाणिस्साए' त्ति त्यक्तस्वजनधनमानभोगेनापि साधुना पोषको वेत्येवं मोहितमना वसेत्-तिष्ठेदिति, उक्तं च-'पुत्रा मे भ्राता मे, संयमदेहप्रतिपालनाय स्वार्थारम्भप्रवृत्तलोकनिश्रया विहर्त्तव्यमिति स्वजना मे गृहकलत्रवर्गो मे। इतिकृतमेमेशब्द, पशुमिव मृत्युर्जनं हरति शेषः, तथा च सूत्रम्-'समुट्ठिए अणगारे इत्यादि० जाव परिव्वए 5, // 1 // पुत्रकलत्रपरिग्रहममत्वदोषैर्नरो व्रजति नाशम् / कृमिक इव षष्ठोद्देशके तु-'लोए अममिजया चेव' लोकनिश्रयाऽपि विहरता साधुना कोशकारः, परिग्रहाद् दुःखमाप्नोति // 2 // " तस्मिन् लोके पूर्वापरसंस्तुतेऽसंस्तुते च न ममत्वं कार्यम्, पङ्कजयत्तदा अमुमेवार्थं नियुक्तिकारो गाथाद्वयेनाह - धारस्वभावानभिष्वङ्गिणा भाव्यमिति, तथा च सूत्रम्-"जे ममाईयमई जहाति से जहाति ममातियं' इति गाथातात्पर्यार्थः / / आचा०१ श्रु०२ संसार छेत्तुमणो, कम्मं उम्मूलए तदद्वाए। अ०१उन उम्मूलिज्ज कसाया, तम्हा उ चइज्ज सयणाई॥१५५ / / किम्भूतः सन् ? प्रमत्तः / प्रमादश्च रागद्वेषात्मको, द्वेषश्च प्रायो न माया मे त्ति पिया मे, भगिणी भाया य पुत्तदारा मे। रागमृते, रागोऽप्युत्पत्तेरारभ्यानादिभवाभ्यासान्मातापित्रादिविषयो अत्थम्मि चेव गिद्धा, जम्ममरणाणि पावंति॥१९६।। भवतीति दर्शयति संसारम्-नारकतिर्यग्नरामरलक्षणं मातापितृभार्यादिस्नेहलक्षणं वा जे गुणे से मूलट्ठाणे, जे मूलट्ठाणे से गुणे, इति से गुणट्ठी छेत्तुमना-उन्मुमूलयिषुरष्टप्रकारं कर्मोन्मूलयेत्, तदुन्मूलनार्थ च महया परियावेणं पुणो पुणो रसे पमत्ते माया मे पिया मे मज्जा मे तत्कारणभूतान् काषायानुन्मूलयेत्, काषायापगमनाय चमातापित्रादिपुत्ता मे धूआ मे बहुसा मे सहिसयणसंगंथसंथुआ मे विवित्तुवगर- गतं स्नेह जह्यात् , यस्मान्मातापित्रादिसंयोगाभिलाषिणोऽर्थरत्नकुप्याणपरिवट्टणभोयणच्छायणं मे / इचत्थं गड्डिए लोए अहो य राओ दिके गृद्धाःअध्युपपन्ना जन्मजरामरणादिकानि दुःखान्यसुभृतः य परितप्पमाणे कालाकालसमुट्ठाई संजोगट्ठी अट्ठालोभी आलुंपे प्राप्नुवन्तीति गाथाद्वयार्थः। तदेवं कषायेन्द्रियप्रमत्तो मातापित्राद्यर्थमर्थोसहसाकारे विणिविट्ठचित्ते, एत्थ सत्थे पुणो पुणो। (सू०६२ +) पार्जनरक्षणतत्परो दुःखमेव केवलमनुभवतीत्याह-'अहो' इत्यादि, (गुणव्याख्या 'गुण' शब्दे तृतीयभागे 108 पृष्ठे गता।) 'माया में अहश्च सम्पूर्ण रात्रिंथ, चशब्दात्पक्षं मासंच, निवृत्तशुभाध्यवसायः परिइत्यादि, तत्र मातृविषयो रागः संसारस्वभावादुपकारकर्तृत्वा-द्वोप- समन्तात्तप्यमानः परितप्यमानः सन् तिष्ठति, तद्यथा-"कइया वचई जायते, रागे च सति मदीया माता क्षुत्पिपासादिकां वेदनांमा प्रापदित्यतः सत्थो, किं भण्ड कत्थ कित्तिया भूमी। को कयविक्कयकालो, निव्विसइ कृषिवाणिज्यसेवादिकां प्राण्युपघातरूपां क्रियामारभते, तदुपघात किं कहिं केण ? // 1 // " इत्यादि, सच परितप्यमानः किम्भूतो भवतीकारिणि या तस्यां वा अकार्यप्रवृत्तायां द्वेष उपजायते, तद्यथा-अनन्त- त्याह-'काले' त्यादि कालः-कर्त्तव्यावसरस्तद्विपरीतोऽकालः वीर्यप्रसक्तायां रेणुकायां रामस्येति, एवं पिता मे पितृनिमित्तं रागद्वेषौ | सम्यगुत्थातुम्-अभ्युद्यन्तुंशीलमस्येति समुत्थायीति पदार्थः / वाक्याभवतः, यथा-रामेण पितरि रागात्तदुपहन्तरिच द्वेषात् सप्तकृत्वः क्षत्रिया र्थस्तुकाले-कर्तव्यावसरे अकालेन-तद्विपर्यासेन समुत्तिष्ठते-अभ्युद्यतव्यापादिताः, सुभूमेनापि त्रिःसप्तकृत्वो ब्राह्मणा इति, भगिनीनिमित्तेन मनुष्ठानं करोति तच्छीलश्चेति, कर्तव्यावसरेन करोत्यन्यदा च विदधाच क्लेशमनुभवति प्राणी, तथा भार्यानिमित्तं रागद्वेषोद्भवः, तद्यथा- तीति, यथा वा काले करोत्येवमकालेऽपीति, यथा वा अनवसरे न चाणक्येन भगिनीभगिनीपत्याद्यवज्ञातया भार्यया चोदितेन नन्दान्तिकं करोत्येवमवसरेऽपीति, अन्यमनस्कत्यादपगतकालाकालविवेक इति। द्रव्यार्थमुपगतेन कोपान्नन्दकुलं क्षयं निन्ये, तथा-पुत्रा मे न जीवन्तीति भावना-यथा प्रद्योतेन मृगापतिरपगतभर्तृका सती ग्रहणकालमतिवाह्य आरम्भे प्रवर्तते, एवं दहिता मे दुःखिनीति रागद्वेषोपहतचेताः परमार्थम- कृतप्राकारादिरक्षा जिघृक्षितेति, यस्तु पुनः सम्यक्कालोत्थायी भवति
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________________ लोगविजय 726 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लोगविजय स यथाकालं परस्परानाबाधया सर्वाः क्रियाः करोतीति, तदुक्तम्- वा भवतीति ।(आचा०) (एत-च साम्प्रतक्षिणामपि युज्येत यद्यज"मासैरष्टभिरलाच, पूर्वेण वयसाऽऽयुषा। तत् कर्तव्यं मनुष्येण, येनान्ते रामरत्वं दीर्घायुष्कं वा स्यात् / इत्यादि 'आउ' शब्दे द्वितीयभागे पृष्ठे सुखमेधते // 1 // " धर्मानुष्ठानस्य च न कश्चिदकालो मृत्योरिवेति। गतम्) (येऽपि दीर्घायुष्कस्थिस्तिकाः उपक्रमणकारणाभावे आयुःकिमर्थं पुनः कालाकालसमुत्थायी भवतीत्याह- 'संजोगट्ठी' संयुज्यते स्थितिमनुभवन्ति तेऽपि मरणादप्यधिकां जराऽभिभूतविग्रहां जघन्यसंयोजनं वा संयोगोऽर्थः-प्रयोजनं संयोगार्थः सोऽस्यास्तीति संयोगार्थी, तमामवस्थामनुमवन्तीति 'आतट्ठ' शब्दे द्वितीयभागे 156 पृष्ठे दर्शितम्।) तत्र धनधान्यहिरण्यद्विपदचतुष्पदराज्वभार्वादिः संयोगस्तेनार्थी. अत्र हि चारित्रमोहनीयक्षयोपशमादवाप्तचारित्रस्य पुनरपि तदुतत्प्रयोजनी, अथवा-शब्दा दिविषयः-संयोगो मातापित्रादिभिर्वा तेनार्थी दयादवदिधाविषोरनेन सूत्रेणोपदेशो दीयते, तच्चावधावनं संयमाद् कालाकालसमुत्थायी भवतीति / किं च- 'अट्ठालोभी' अर्थो रत्न यैर्हेतुभिर्भवति तान्नियुक्तिकारो गाथयाऽऽचष्टे - कुप्यादिस्तत्र आसमन्ताल्लोभोऽर्थालोभः स.विद्यते यस्येत्यसावपि बिइउद्देसे अदढो, उ संजमे कोइ हुन्छ अरईए। कालाकालसमुत्थायी भवति, मम्मणवणिग्वत्, तथाहि-असावति अन्नाणकम्मलोभा-इएहिं अज्झत्थदोसेहिं / / 197 // क्रान्तार्थोपार्जनसमर्थयौवनवया जलस्थलपथप्रेषितनानादेशभाण्डभृतबोहित्थगन्त्रीकोष्ट्रमण्डलिकासम्भृतसम्भारोऽपि प्रावृषि इह हि प्रथमोद्देशके बढ्यो नियुक्तिगाथाः अस्मिंस्त्वियमेवैकेत्यतो सप्तरात्रावच्छिन्नमुशलप्रमाणजलधारावर्षनिरुद्धसकलप्राणिगण मन्दबुद्धेः स्यादारेका, यथा-इयमपि तत्रत्यैवेत्यतो विनेयसुखसञ्चारमनोरथायां महानदीजलपूरानीतकाष्ठानि जिघृक्षुरुपभोग प्रतिपत्त्यर्थं द्वितीयोद्देशकग्रहणमिति। कश्चित्कण्डरीकदेशीयः संयमेधावसरे निवृत्तापराशेषशुभपरिणामः केवलमर्थोपार्जनप्रवृत्त इति, सप्तदशभेदभिन्ने अदृढःशिथिलो मोहनीयोदयादरत्युद्भवा-द्भवेत् , उक्तंच-"उक्खणइ खणइ निहणइ, रत्तिंण सुअति दिया विय ससंको। मोहनीयोदयोऽप्याध्यात्मिकैर्दोषैर्भवेत् , ते चाध्यात्मदोषा अज्ञानलोलिंपइ ठएइ सययं, लंछियपडिलंछियं कुणइ।।१।। जसुनताव रिक्को, भादयः, आदिशब्दादिच्छामदनकामानां परिग्रहः, मोहस्याज्ञानलोभजेमेउं न विय अज्जमजीह। नऽविय वसीहामि घरे, कायध्यमिणं बहुं अज्ज कामाद्यात्मकत्वात्तेषां चाध्यात्मिकत्वादिति गाथार्थः / ननु चारतिमतो ॥२॥"पुनरपि लोभिनोऽशुभव्यापारानाह-'आलुंपे' आ-समन्ताल्लु-." मेधाविनोऽनेन सूत्रेणोपदेशो दीयते, यथा-संयमारतिमपवर्तेत, मेधावी म्पतीत्यालुम्पः, स हि लोभाभिभूतान्तःकरणोऽपगतसकलकर्त्तव्या चात्र विदितसंसारस्वभावो विवक्षितः, यश्चैवंभूतो नासावरतिमान् कर्तव्यविवेकोऽर्थलोभैकदत्तदृष्टिरैहिकामुष्मिकविपाककारिणीर्निर्ला तद्वांश्चन्न विदितवेद्य इत्यनयोः सहानवस्थानलक्षणेन विरोधेन विरोधाज्छनगलकर्तनचौर्यादिकाः क्रियाः करोति, अन्यच्च-'सहसकारे' करणं च्छायातपयोरिव नैकत्रावस्थानम् , उक्तं च-"तज्ज्ञानमेव न भवति, कारः, असीक्षित-पूर्वापरदोषं सहसा करणं सहसाकारः, स विद्यते यस्मिन्नुदिते विभाति रागगणः / तमसः कुतोऽस्ति शक्तिर्दिनकरकिरयस्येति "अर्शआदिभ्योऽच्"(पा०५-२-१२७) अथवा-छान्दसत्वा णाग्रतः स्थातुम् ? // 1 // " इत्यादि, यो ह्यज्ञानी मोहोपहतचेताः स त्कर्तर्येवघञ् , करोतीति कारः, तथाहि-लोभतिमिराच्छादितदृष्टिी विषयाभिष्वङ्गात्संयमे सर्वद्वन्द्रप्रत्यनीके रत्यभावं विदध्याद्, आहचकमनाः शकुन्तवच्छराघातमनालोच्य पिशिताभिलाषितया सन्धिच्छेद "अज्ञानान्धाश्चटुलवनितापाङ्गविक्षेपितास्ते, कामे सक्तिं दधति विभनादितो विनश्यति, लोभाभिभूतो ह्यर्थकदृष्टिस्तन्मना-स्तदर्थोपयुक्तो- वाभोगतुङ्गार्जने वा। विद्वचित्तं भवति हि महन्मोक्षमार्गकतानं, नाल्पऽर्थमेव पश्यति नापायान् , आह च-'विणिविट्ठ-चित्ते' विविधम् स्कन्धे विटपिनि कषत्यसभिर्ति गजेन्द्रः॥१॥"नैतन्मृष्यामहे, यतो अनेकधा निविष्टस्थितमवगाढमर्थोपार्जनोपाये मातापित्राद्यभिष्वङ्गे वा ह्यवाप्तचारित्रस्यायमुपदेशा दित्सितः, चारित्रावाप्तिश्च न ज्ञानमृते, शब्दादिविषयोपभोगे वा चित्तम्-अन्तः-करणं यस्य स तथा, पाठान्तरं तत्कार्यत्वाचारित्रस्यानच ज्ञानारत्ययोर्विरोधः, अपितु-रत्यरत्योः, वा-'विणिविट्ठचिट्टे' ति विशेषेण निविष्टा कायवाग्मनसांपरिस्पन्दात्मि- ततश्च संयमगता रतिरेवारत्या बाध्यते न ज्ञानम् , अतो ज्ञानिनोऽपि काऽर्थोपार्जनोपायादौ चेष्टा यस्य स विनिविष्टचेष्टः। तदेवं मातापित्रादि- चारित्रमोहनीयोदयात्संयमे स्यादेवारतिः, यतो ज्ञानमप्यज्ञानस्यैव संयोगार्थी अर्थालोभी आलुम्पः सहसाकारो विनिविष्टचित्तो विनिविष्टचेष्टो बाधकम् ,न संयमारतेः। तथा चोक्तम्-"ज्ञानं भूरियथार्थवस्तुविषय वा किम्भूतो भयतीत्याह-'इत्थ' इत्यादि, अत्र-अस्मिन्मातापित्रादौ स्वस्य द्विषो बाधकं, रागारातिशमाय हेतुमपरं युङ्क्ते न कर्तृस्वयम् / शब्दादिविषयसंयोगे वा विनिविष्टचित्तः सन् पृथिवीकायादिजन्तूनां दीपो यत्तमसि व्यनक्ति किमु नो रूपं स एवेक्षता, सर्वः स्वं विषयं यच्छस्त्रम्-उपधातकारि तत्र पुनः पुनः प्रवर्त्तते, एवं पौनःपुन्येन शस्त्रे प्रसाधयति हि प्रासङ्गिकोऽन्यो विधिः // 1 // " तथेदमपि भवतो न प्रवृत्तो भवति, यदि-पृथिवीकायादिजन्तूनामुपघाते वर्तते, तथाहि- कर्णविवरमगाद् यथा-'बलवानिन्द्रियग्रामः, पण्डितोऽप्यत्र मुह्यती' 'शसु' हिंसायाम् , इत्यस्माच्छस्यते-हिंस्यत इति करणे ष्ट्रन् विहितः, त्यतो यत्किश्चिदेतत्, अथवा-नारत्यापन्न एवैवमुच्यते, अपि त्वयमुपतच स्वकायपरकायादिभेदभिन्नमिति / पाठान्तरं वा 'एत्थ सत्ते पुणो देशो मेधावी संयमविषये मा विधादरतिमिति / संयमारतिनिवृत्तश्च पुणो' अत्र-मातापितृशब्दादिसंयोगे लोभार्थी सन् सक्तोगृद्धः अध्युपपन्नः सन् कं गुणमवाप्नोतीत्याह-'खणंसि मुक्के' परमनिरुद्धः कालः-क्षणः पौनःपुन्येन विनिविष्टचेष्ट आलुम्पकः सहसाकारः कालाकालसमुत्थायी ___ जरत्पदृशाटिकापाटनदृष्टान्तसमयप्रसाधितः,तत्र मुक्तो विभक्ति
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________________ लोगविजय 727- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लोगविजय विपरिणामाद्वा क्षणेन-अष्टमकारेण कर्मणा संसारबन्धनैर्वा विषयाभिष्वङ्गस्नेहादिभिर्मुक्तो भरतवदिति। ये पुनरनुपदेशवर्तिनः कण्डरीकाद्यास्ते चतुर्गतिकसं सारान्तर्वत्तिनो दुःखसागरमधिवसन्तीत्याह - अणाणाए पुट्ठा वि एगे नियट्टति, मंदा मोहेण पाउडा, अपरिग्गहा भविस्सामो समुट्ठाय लद्धे कामे अभिगाहइ, अणाणाए मुणिणो पडिलेहंति, इत्थ मोहे पुणो पुणो सन्ना नो हवाए नो पराए। (सू०७३) आज्ञाप्यत इत्याज्ञा-हिताहितप्राप्तिपरिहाररूपतया सर्वज्ञोपदेशस्तद्विपर्ययोऽनाज्ञा तया अनाज्ञया सत्या स्पृष्टाः परीषहोपसर्गः, अपिशब्दः सम्भावनायां स च भिन्नक्रमो निवर्तन्त इत्यस्मादनन्तरं द्रष्टव्यः, 'एके - 'मोहनीयोदयात्कण्डरीकादयोन सर्वे संयमात्समस्तद्वन्द्वोपशमरूपात निवर्तन्ते अपीति सम्भाव्यत एतन्मोहोदयस्येत्यपिशब्दार्थः / किंभूताः सन्तो निवर्तन्त इत्याह-मन्दाजडा अपगतकर्तव्याकर्तव्यविवेकाः, कुत एवंभूताः ? यतो 'मोहेन प्रावृत्ताः' मोहः-अज्ञानं मिथ्यात्वमोहनीयं वा तेन प्रावृतागुण्ठिताः, उक्तंच."अज्ञानं खलु कष्टम् क्रोधादिभ्योऽपि सर्वपापेभ्यः / अर्थ हितमहितं वा, न वेत्ति येनाऽऽवृत्तो लोकः॥१॥" इत्यादि, तदेवमवाप्तचारित्रोऽपि कर्मोदयात्परीषहोदयेऽङ्गीकृतलिङ्गः पश्चाद्धावतामालम्बत इत्युक्तम्। अपरेतु-स्वरुचिविरचितवृत्तयो नानाविधैरुपायैर्लोकादर्थं जिघृक्षयः किल वयं संसारोद्विग्ना मुमुक्षवस्तेषु तेषु आरम्भविषयाभिष्वङ्गेषु प्रवर्तन्त इति दर्शयति'अपरिग्गहा' इत्यादि, परिःसमन्तात् मनोवाक्कायकर्मभिर्गृह्यत इति परिग्रहः स येषां नास्तीत्यपरिग्रहाः, एवंभूता वयं भविष्याम इति शाक्यादिमतानुसारिणः स्वयूथ्या वा 'समुत्थाय' चीवरादिग्रहणं प्रतिपद्य, ततोलब्धान् कामान् अभिगाहन्ते-सेवन्ते, विड्व्यत्ययेनचैकवचनमिति, अत्र चान्त्यव्रतोपादानात् शेषाण्यपि ग्राह्याणि। अहिंसका वयं भविष्याम एवममृषावादिन इत्याद्यप्यायोज्यम् / तदेवं शैलूषा इत्यान्यथावादिनोऽन्यथाकारिणः कामार्थमेव तांस्तान् प्रव्रज्याविशेषाबिभ्राति, उक्तंच-"स्वेच्छाविरचितशास्त्रैः, प्रव्रज्यावेषधारिभिः क्षुद्रैः। नानाविधैरुपायैरनाथवन्मुष्यते लोकः॥१॥" इत्यादि।तदेवं प्रव्रज्यावेषधारिणो लब्धान्कामान वगाहन्ते तल्लामार्थं च तदुपायेषु प्रवर्तन्ते इत्याह-'अणाणाए' इत्यादि, अनाज्ञयास्वैरिण्या बुद्व्या'मुनय इतिमुनिवेषविडम्बिनः कामोपायान् प्रत्युपेक्षन्तेकामोपायारम्भेषु पौनःपुन्येन लगन्तीति, आह च-'एत्थ' इ-त्यादि, अत्र-अस्मिन् विषयाभिष्वङ्गाज्ञानमये भावमोहे पौनः-पुत्येन सन्नाः-विषण्णाः निमग्नाः पङ्कावमग्ना नागा इवात्मानमाक्रष्टुं नालभिति, आह च- 'नो हव्वाएनो पाराए' यो हि मध्ये महानदीपूरे निमग्नो भवत्यसौ नारातीयतीराय नापि पारे महानदीपूरमिति, एवमत्रापि कुतिश्चिन्निमित्तात्यक्तगृहगृहिणीपुत्रधनधान्यहिरण्यरत्नकुप्यदासीदासादिविभवः आकिञ्चन्यं प्रतिज्ञायारा तीयतीरदेश्याद् गृहवाससौख्यान्निर्गतः सन् 'नो हव्याए' ति भवति, पुनरपि वान्तभोगाभिलाषितया यथोक्तसंयमाभावेन तत्क्रियाया विफत्वात् 'नो पाराए' त्ति भवति, उभयतो मुक्तबन्धनामुक्तप्रतोलीवोभयभ्रष्टो न गृहस्थो नापि प्रव्रजित इत्युक्तं भवति। उक्तं च-"इन्द्रियाणि न गुप्तानि, लालितानिन चेच्छया। मानुष्यं दुर्लभं प्राप्य, न भुक्तं नापि शोषितम् // 1 // " इति। ये पुनरप्रशस्तरतिनिवृत्ताः प्रशस्तरतिमधिशयानास्ते - किंभूता भवन्तीत्याहविमुत्ता हु ते जणा जे जणा पारगामिणो, लोभमलोभेण दुगुंछमाणे लद्धे कामे नाभिगाहइ। (सू०७४) विविधम्-अनेकप्रकारं द्रव्यतो-धनस्वजनानुषङ्गाद्भावतोविषयकषायादिभ्योऽनुसमयं मुच्यमाना एव भाविनि भूतवदुपचारान्मुक्ताविमुक्ताः ते जना ये जनाः सर्वस्वजनभूता निर्ममत्वाः पारगामिनो भवन्ति, पारोमोक्षः संसारार्णवतटवृत्तित्वात्तत्कारणानिज्ञानदर्शनचारित्राण्यपि पार इति, भवति हि तादात्ताच्छच्यम् , यथा-'तन्दुलान् वर्षति पर्जन्यः' अतस्तत्पारम्-ज्ञानदर्शनचारित्राख्यं गन्तुं शीलं येषां ते पारगामिनः, ते मुक्ता भवन्तीति पूर्वेण सम्बन्धः / कथं पुनः सम्पूर्णपारगामित्वं भवती-त्याह- 'लोभं' इत्यादि,इह हि लोभः सर्वसङ्गानां दुस्त्यजो भवति, तथाहि-क्षपक श्रेण्यन्तर्गतस्यापगताशेषकषायस्यापि खण्डशः क्षिप्यमाणोऽप्यनुबध्यत इति, अतस्तं-लोभम् , तद्विपक्षण अलोभेन जुगुप्समानोनिन्दन्परिहरन किं करोतीत्याह-'लद्धे' इत्यादि, लब्धान्-प्राप्तानिच्छामदनरूपान् कामान् नाभिगाहते-न सेवते, यो हि शरीरादावपि निवृत्तलोभः स कामाभिष्वङ्गवान्न भवति, ब्रह्मदत्तामन्त्रितचित्रवदिति, प्रधानान्त्यलोभपरित्यागेनचोपसर्जनाधस्तनपरित्यागो द्रष्टव्यः, तद्यथा-क्रोधं क्षान्त्या जुगुप्समानो, मानमाईवेन, मायामार्जवेनेत्याद्यप्यायोज्यम्, लोभोपादानं तु सर्वकषायप्राधान्यख्यापनार्थमुपाददे, तथाहि-तत्प्रवृत्तः साध्यासाध्यविवेकविकलः कार्याकार्यविचाररहितः सन्नर्थकदत्तदृष्टिः पापोपादानमास्थाय सर्वाः क्रियाः अधितिष्ठतीति, तदुक्तम्-"धावेइरोहणं तरइ सायरं, भमइ गिरिणिगुंजेसुं। मारेइ बंधवं पिहु, पुरिसो जो होइधणलुद्धो॥१॥ अडइ बहुं वहइ भरं, सहइ छुहं पावमायरइ धिछ। कुलसीलजाइपच्चयधिइंचलोभद्दओ चयइ // 2 // " इत्यादि, तदेवं कुतश्चिन्निमित्तात्सहाँपि लोभादिना निष्कम्य, पुनर्लोभादिपरित्यागः कार्यः। अन्यस्तु लोभं विनापि प्रव्रज्यां प्रतिपद्यत इति दर्शयति - विणा विलोभं निक्खम्मएस अकम्मे जाणइपासइ, पडिलेहाए नावकंखइ, एस अणगारि त्ति पटवुबई, अहो य राओ परितप्पमाणे कालाकालसमुहाईसंजोगही अट्ठालोभी आलुंपे सहसकारे विणिविट्ठचित्ते इत्थ सत्थे पुणो पुणो से आयबले से नाइबले से मित्तबले से पिञ्चबले से देवबले से रायबले से चोर
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________________ लोगविजय 728 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लोगविजय बले से अतिहिबले से किविणबले से समणबले इथेएहिं विरूवरूवेहिं कन्जेहिं दंडसमायाणं संपेहाए भया कज्जइ, पावमुक्खु त्ति मन्नमाणे, अदुवा आसंसाए। (सू०७५) कश्चिद्भरतादिनिःशेषतो लोभापगमाद्विनाऽपि लोभं 'निष्क्रम्य प्रव्रज्यां प्रतिपद्य, पाठान्तरं वा 'विणइत्तु लोभं' संज्वलनसंज्ञकमपि लोभ विनीयनिर्मूलतोऽपनीय एष एवंभूतः सन् अकर्मा-अपगतघातिकर्मचतुष्टयाविभूतानावरणज्ञानो विशेषतो जानाति सामान्यतः पश्यति, एतदुक्तं भवति-एवंभूतो लोभो येन तत्क्षये-मोहनीयक्षये चावश्यं घातिकर्मक्षयस्तस्मिश्च निरावरणज्ञानसद्भावस्ततोऽपि भवोपग्राहिकपिगम इत्यतो लोभापगमे अकर्मेत्युक्तम् / एवश्चैवम्भूतो लोभो दुरन्तस्तद्धानौ चावश्यं कर्मक्षयस्ततः किं कर्तव्यमित्याह-'पडिलेहाए' इत्यादि, प्रत्युपेक्षणयागुणदोषपर्यालोचनयोपपन्नः सन् अथवा-लोभविपाकं प्रत्युपेक्ष्यपर्यालोच्य तदभावे गुणं च लोभं नावकाशतिनाभिलषतीति, यश्चाज्ञानोपहतान्तःकरणोऽप्रशस्तमूलगुणस्थानवर्ती विषयक-षायाद्युपपन्नस्तस्य पूर्वोक्तं विपरीततया सर्व संतिष्ठते। तथाहिअलोभं लोभेन जुगुत्समानो लब्धान् कामानवगाहते, लोभमनपनीय निष्क्रम्य पुनरपि लोभैकमनाः सका न जानाति नापि पश्यति, अपश्यंश्चाप्रत्युपेक्षणयाऽभिकाशति। यच प्रथमोद्देशकेऽप्रशस्तमूलगुणस्थानमवाचि तच्च वाच्यमिति, आह च- 'अहो य राओ' इत्यादि, अहोरात्रं परितप्यमानः कालाकालसमुत्थायी संयोगार्थी अर्थालोभी आलुम्पः सहसाकारो विनिविष्टचित्तः अत्र शस्त्रे पृथिवीकायाधुपघातकारिणि पौन पुन्येन वर्त्तते / किं च-'से आयबले' आत्मनो बलंशक्त्युपचय आत्मबलं तन्मे भावीति कृत्वा नानाविधैरुपायैरात्मपुष्टये 'ताः क्रियाः ऐहिकामुष्मिकोपघातकारिणीविधत्ते, तथाहि- 'मांसेन पुष्यते मांस' मिति कृत्वा पञ्चेन्द्रियघातादावपि प्रवर्तते, अपराश्च लुम्पनादिकाः-सूत्रैणैवाभिहिताः, एवं च-ज्ञातिबलम् स्वजनबलं मे भावीति, तथा तन्मित्रबलं मे भविष्यति येनाहमापदं सुखेनैव निस्तरिष्यामि, तत्प्रेत्य बलं भविष्यतीति बस्तादिकमुपहन्ति, तद्वादेवबलं भावीति पचनपाचनादिकाः क्रिया विधत्ते, राजबलं वा मे भविष्यतीति राजानमुपचरति, चौरग्रामे वा वसति चौरभाग वा प्राप्स्यामीति चौरानुपचरति, अतिथिबलं वा मे भविष्यतीत्यतिथीनुपचरति, अतिथिर्हि निःस्पृहोऽभिधीयते इति, (आचा०) (अतिथिलक्षणम् 'अइहि' शब्दे प्रथमभागे 33 पृष्ठे गतम्।) एतदुक्तं भवति-तबलार्थमपि प्राणिषु दण्डो न निक्षेप्तव्य इति, एवं कृपणश्रमणार्थमपि वाच्यमिति-एवं पूर्वोक्तैः विरूपरूपैः-नानाप्रकारैः पिण्डदानादिभिः कार्यः'दण्डसमादान' मिति दण्ड्यन्ते-व्यापाद्यन्ते प्राणिनो येन स दण्डस्तस्य सम्यगादानं-ग्रहणं समादानम् , तदात्मबलादिकंमम नाभविष्यत्यद्यहमेतनाकरिष्यमित्येवं सप्रेक्षया-पर्यालोचनया एवं संप्रेक्ष्य वा भावात् क्रियते, एवं तावदिह भयमाश्रित्य दण्डसमादानकारणमुपन्यस्तम्, आमुष्मिकार्थमपि परमार्थमजानानैर्दण्डसमादानं क्रियत इति दर्शयति- 'पावमोक्खो' त्ति इत्यादि, पातयति पासयतीति वा पापं तस्मान्मोक्षः पापमोक्षः, इतिःहेतौ, यस्मात्स मम भविष्यतीति मन्यमानः दण्डसमादानाय प्रवर्तत इति / तथाहि-हुतभुजि षड्जीवोपघातकारिणि शस्त्रे नानाविधोपायप्राण्युपधातात्तपापविध्वंसनाय पिप्पलशमीसमित्तिलाज्यादिकं शठव्युग्राहितमतयो जुह्वति, तथा-पितृपिण्डदानादौ बस्तादिमांसोपस्कृतभोजनादिकं द्विजातिभ्य उपकल्पयन्ति, तद्भक्तशेषानुज्ञातं स्वतोऽपि, भुञ्जते, तदेवं नानाविधै रुपायैरज्ञानोपहतबुद्धयः पापमोक्षार्थ दण्डोपादानेन तास्ताः क्रियाः प्राण्युपधातकारिणीः समारभमाणाः अनेकभवशतकोटीदुर्मोचमघमेवोपाददत इति। किञ्च- 'अदुवा' इत्यादि, पापमोक्ष इति मन्यमानो दण्डमादत्त इत्युक्तम् , अथवा-आशंसनम् आशंसा-अप्राप्तप्रापणाभिलाषस्तदर्थं दण्डसमादानमादत्ते / तथाहिममैतत्परुत्परारि वा प्रेत्य वोपस्थास्यते इत्याशंसया क्रियासु प्रवर्त्तते, राजानं वाऽर्थाशावि-मोहितमना अवलगति, उक्तं च- "आराध्य भूपतिमवाप्य ततो धनानि, भोक्ष्यामहे किल वयं सततं सुखानि। इत्याशया धनविमोहितमानसानां, कालः प्रयाति मरणावधिरेव पुंसाम् // 1 // एहि गच्छ पतोत्तिष्ठ, वद मौनं समाचार। इत्याद्याशाग्रहग्रस्तैः, क्रीडन्ति धनिनोऽर्थिभिः / / 2 / / " इत्यादि। तदेवं ज्ञात्वा किं कर्त्तव्यमित्याहतं परिण्णाय मेहावी नेव सयं एएहिं कज्जेहिं दंडं समारंभिज्जा, नेव अन्नं एएहिं कजेहिं दंडं समारंभाविज्जा, एएहिं कजेहिं दंडं समारंभंतं पि अन्नं न समणुजाणिज्जा, एस मग्गे आरिएहि पवेइए, जहेत्थ कुसले नोवलिंपिञ्जासि त्ति बेमि। (सू०७६) 'तदि' ति सर्वनामप्रक्रान्तपरामर्शि, 'तत् शस्त्रपरिज्ञोक्तं स्वकायपरकायादिभेदभिन्नं शस्त्रम् , इह वा यदुक्तम्-अप्रशस्तगुणमूलस्थानंविषयकषायमातापित्रादिकम्, तथा-कालाकालसमुत्थानक्षणपरिझानश्रोत्रादिविज्ञानप्रहाणादिकं तथाऽऽत्मबलाधानाद्यर्थं च दण्डसमादानं ज्ञपरिज्ञया ज्ञात्वा प्रत्याख्यानपरिज्ञया परिहरेत् मेधावीमर्यादावर्ती। ज्ञातहेयोपादेयः सन् किं कुर्यादित्याह- 'नेवं सयं' इत्यादि, नैव स्वयम्-आत्मना एतैः- आत्मबलाधानादिकैः कार्यः-कर्त्तव्यैः समुपस्थितैः सद्भिः दण्डम्-सत्त्वोपघातं समारभेत् , नाप्यन्यमपरमेभिः कार्यर्हिसानृतादिकं दण्डं समारम्भयेत्, तथा-सामारभमाणमप्यपरं योगत्रिकेण न समनुज्ञापयेद् / एष चोपदेशस्तीर्थकृद्भिरभिहित इत्येतत् सुधर्मस्वामीजम्बूस्वामिनमाहेतिदर्शयति- 'एस' इत्यादि, 'एष' इतिज्ञानादियुक्तो भावमार्गो योगत्रिककरणत्रिकेण दण्डसमादानपरिहार-लक्षणो वा आर्यैः-आराद्याताः सर्वहेयधर्मेभ्य इत्यार्याः-संसारार्णवतटवर्तिनः क्षीणघातिकमांशाः संसारोदरविवरवर्तिभावविदः-तीर्थकृतस्तैः प्रकर्षणसदेवमनुजायांपर्षदिसर्वस्वभाषानुगामिन्यावाचायौगपद्याशेषसंशी
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________________ लोगविजय 726 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लोगविजय तिच्छेत्र्या प्रकर्षेण वेदितः- कथितः प्रतिपादित इति यावत् , एवम्भूतंच मार्ग ज्ञात्वा किं कर्तव्यमित्याह- 'जहेत्थ इत्यादि, तेषु तेष्वात्मबलोपधानादिकेषु कार्येषु समुपस्थितेषु सत्सु दण्डसमुपादानादिकं परिहरन् 'कुशलोनिपुणः अवगततत्त्वो यथैतस्मिन् दण्डसमुपादाने स्वमात्मानं नोपलिम्पयेः-न तत्र संश्लेषं कुर्या इति, विभक्तित्रिपरिणामाद्वा एतेन दण्डसमुपादानजनितकर्मणा यथा नोपलिप्यसे तथा सर्वः प्रकारैः कुर्यास्त्वम्। इति-शब्दः परिसमाप्तौ, ब्रवीमिति पूर्ववत्। उक्तो द्वितीयोदेशकः। साम्प्रतं तृतीय आरभ्यते। अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरोद्देशके संयमे दृढत्वं कार्यमसंयमे चादृढत्वमुक्तम्, तच्चोभयमपि कषायव्युदासेन सम्पद्यते, तत्रापि मान उत्पत्तेरारभ्य उचैर्गोत्रोत्थापितः स्यात् अत-स्तद्व्युदासार्थमिदमभिधीयते। अस्य चानन्तरसूत्रेण सम्बन्धः'जहेत्थ कुसले नोवलिंपेज्जासि कुशलो निपुणः सन्नस्मिन्नु-धैर्गोत्राभिमाने यथाऽऽत्मानं नोपलिम्पयेस्तथा विदध्यास्त्वम्। किं मत्वा ? इत्यतस्तदभिधीयते - से असई उचागोए असई नीआगोए, नो हीणे नो अइरित्ते, नो अपीहए, इय संखाय को गोयावाई ? को माणावाई 7 कंसि वा एगे गिज्झा, तम्हा नो हरिसे नो कुप्पे, भूएहिं जाण पहिलेह सायं / (सू०७७) 'स' इति संसार्यसुमान् असकृद्-अनेकशः उचैर्गोत्रे मानसत्कारार्हे उत्पन्न इति शेषः, तथा-असकृन्नीचैर्गोत्रे सर्वलोकावगीते, पौन:पुन्येनोत्पन्न इति। तथाहि-नीचैर्गोत्रोदयादनन्तमपि कालं तिर्यक्ष्वास्ते, तत्र च पर्यटन द्विनवतिनामोत्तरप्रकृतिसत्कर्मा सन् तथाविधाध्यवसायोपपन्नः आहारकशरीरतत्संघातबन्धनाङ्गोपा-नदेवगत्यानुपूर्वीद्वयनरकगत्यानुपूर्वीद्वयवैक्रियचतुष्टयरूपाएता द्वादश कर्मप्रकृतीर्निर्लेप्याशीतिसत्कर्मा तेजोवायुषूत्पन्नः सन् मनुजगत्यानुपूर्वीद्वयमपि निर्लेप्य तत उचैर्गोत्रमुबलयति पल्योपमासंख्येयभागेन, अतस्तेजोवायुष्वाद्य एव भङ्गकः, तद्यथा-नीचैर्गोत्रस्य बन्ध उदयोऽपि तस्यैव सत्कर्मताऽपीति, ततोऽ-प्युवृत्तस्यापरैकेन्द्रियगतस्यायमेव भङ्गः, त्रसेष्वप्यपर्याप्तकावस्थायामयमेव, अनिर्लेपिते तूचैर्गोत्रे द्वितीयचतुर्थों भङ्गो, तद्यथानीचैर्गोत्रस्य बन्ध उदयोऽपि तस्यैव सत्कर्माता तूभयरूपस्यैवेति द्वितीयः, तथा उच्चैर्गोत्रस्य बन्धो नीचस्योदयः सत्कर्माता तूभयरूपस्येति चतुर्थः, शेषास्तु चत्वारो न सन्त्येव, तिर्यस्थैर्गोत्रस्योदयाभावादिति भावः / तदेवमुच्चैर्गोत्रोद्वलनेन कलंकलीभावमापन्नोऽनन्तं कालमेकेन्द्रियेष्वास्ते, अनुदलिते वा तिर्यक्ष्वास्तेऽनन्ता उत्सर्पिण्यवसर्पिणीः, आवलिकाकालासंख्येयभागसमयसंख्यान् पुद्गलपरावानिति / कीदृशः पुनः पुद्गलपरावर्त इति ? उच्यते, यदौदारिकवैक्रियतैजसभाषानापानमनःकर्मसप्तकेन संसारोदरविवरवर्तिनः पुद्गलाः आत्मसात्परिणामिता भवन्ति तदापुद्गलपरावर्त इत्येके, अन्ये तु-द्रव्यक्षेत्रकालभावभेदाचतुर्दा वर्णयन्ति, प्रत्येकमसावपि बादरसूक्ष्म- | भेदात् द्वैविरध्यमनुभवति, तत्र द्रव्यतो बादरो यदौदारिकवैक्रियतैजसकार्मणचतुष्टयेन सर्वपुद्गला गृहीत्वोज्झितास्तदा भवति, सूक्ष्मः पुनर्यदैकशरीरेण सर्वपुद्गलाः स्पर्शिता भवन्ति तदा द्रष्टव्यः 1. क्षेत्रतो बादरो यदा क्रमोत्क्रमाभ्यां म्रियमाणेन सर्वे लोकाकाशप्रदेशाः स्पृष्टा भवन्ति तदा विज्ञेयः, सूक्ष्मस्तु तदा विज्ञेयो यदैकस्मिन् विवक्षिताकाशखण्डके मृतः पुनर्यदा तस्यानन्तरप्रदेशवृद्ध्या सर्व लोकाकाशं व्याप्नोति तदा ग्राह्यः 2, कालतो बादरो यदोत्सर्पिण्यवसर्पिणी-समयाः क्रमोत्क्रमाभ्यां मियमाणेनालिङ्गिता भवन्ति तदा विज्ञेयः, सूक्ष्मस्तूत्सर्पिणीप्रथमसमयादारभ्य क्रमेण सर्वसमया नियमाणेन यदा छुप्ता भवन्ति तदाऽवगन्तव्यः 3, भावतो बादरो यदाऽनुभाग-बन्धाध्यवसायस्थानानि क्रमोत्क्रमाभ्यां म्रियमाणेन व्याप्तानि भवन्ति तदाऽभिधीयते, अनुभागबन्धाध्यवसायप्रमाणं तु संयमस्थानावासरे प्रागेवाभ्यधायीति, सूक्ष्मस्तु जघन्यानुभागबन्धाध्यवसायस्थानादारभ्य यदा सर्वेष्वपि क्रमेण मृतो भवति तदाऽवसेय इति / तदेवं कलंकलीभावमापन्नोऽन्यो वा नीचैर्गोत्रोदयादनन्तमपि कालं तिर्यक्ष्यास्ते, मनुष्येष्वपि तदुदयादेव चावगीतेषु स्थानेषूत्पद्यते, तथाकलंकलीसत्त्वोऽपि द्वीन्द्रियादिषूत्पन्नः सन् प्रथमसमये एव पर्याप्त्युत्तरकालं वोचैर्गोत्रं बध्वा मनुष्येष्वसकृदुर्गोत्रमास्कन्दति, तत्र कदाचितृतीयभङ्गकस्यः पञ्चमभङ्गो पपन्नो वा भवति,तांविमौनीचैर्गोत्रं बध्नात्युच्चैर्गोत्रस्योदयः सत्कर्मतातूभयस्येति, तृतीयः, पञ्चमस्तूचैर्गोत्रं बध्नानितस्यैवोदयः सत्कर्मता तूभयस्य, षष्ठसप्तमभड़ौतूपरतबन्धस्य भवतः, अविषयत्वान्न ताभ्यामिहाधिकारः, ती चेमौ बन्धोपरमे उच्चैर्गोत्रोदयः सत्कर्मता तूभयस्येति षष्ठः, सप्तमस्तु शैलेश्यवस्थायां द्विचरम-समयेनीचैर्गोत्रे क्षपिते उचैर्गोत्रोदयस्तस्यैव सत्कर्मतेति।तदेवमुचावचेषु गोत्रेषु असकृदुत्पद्यमानेनासुमता पञ्चभड़कान्तवर्तिना न मानो विधेयो नापि दीनतेति / तयो श्वोच्चावचयोः गोत्रयो-बन्धाध्यवसायस्थानकण्डकानि तुल्यानीत्याह- 'णो हीणे णो अइरिते' यावन्त्युच्चैर्गोत्रऽनुभावबन्धाध्यवसायस्थानकण्डकानि नीचैर्गोत्रेऽपितावन्त्येव, तानि च-सर्वाण्यप्यसुमताऽनादिसंसारे भूयो भूयः स्पर्शितानि, तत उचैर्गोत्रकण्डकार्थतयाऽसुभृन्न हीनो नाप्यतिरिक्तः, एवं नीचैर्गोत्रकाण्डकार्थतयाऽपीति। नागार्जुनीयास्तु पठन्ति-" एगमेगे खलु जीवे अईअद्धाए असई उच्चागोए असई नीआगोए, कडगट्टयाए नो हीणे नो अइरिते" एकैको जीवः खलुशब्दो वाक्यालङ्कारे अतीते कालेऽसकृदुधावचेषु गोत्रेषूत्पन्नः, स चोचावचानुभागकण्डकापेक्षया न हीनो नाप्यतिरिक्त इति / तथाहि-उच्चैर्गोत्रकण्डक्रेभ्य एकमविकेभ्योऽनेकभविकेभ्यो वा नीचैर्गोत्रकण्डकानि न हीनानि नाप्यतिरिक्तानीत्यतोऽवगम्योत्कर्षापकर्षों न विधेयौ, अस्य चोपलक्षणार्थत्वात् सर्वेष्वपि मदस्थानेष्वेतदायोज्यम् / यतश्चोचावचेषु स्थानेषु कर्मवशादुत्पद्यन्ते, बलरूपलाभादिमदस्थानानां चासमञ्जसतामवगम्य किं कर्त्तव्यमित्याह'नोऽपीहए' अपिः सम्भावने स च भिन्नक्रमः, जात्यादीनां मदस्थानानामन्यतमदपिनोईहेतापिनाभिलषेदपि, अथवा-नोस्पृहयेत्-नावकाङ्केदि
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________________ लोगविजय 730 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लोगविजय ति। तत्र यधुच्चावचेषु स्थानेष्वसकृदुत्पन्नोऽसुमांस्ततः किमित्याह- 'इय संखाय' इत्यादि, इतिरुपप्रदर्शने, इति-एतत्पूर्वोक्तनीत्योचावचस्थानोत्पादादिकम् परिसंख्यायज्ञात्वा को गोत्रवादी भवेद् ? यथाममोथैर्गोत्रं सर्वलोकमाननीयं नापरस्येत्येवंवादी को बुद्धिमान् भवेत् ? तथाहि-मयाऽन्यैश्च जन्तुभिः सर्वाण्यपि स्थानान्यनेकशः प्राप्तपूर्वाणीति, तथोचैर्गोत्रनिमित्तमानवादी वा को भवेत् ? न कश्चित्संसारस्वरूपपरिच्छेदीत्यर्थः, किंच-'कंसिवाएगे गिज्झे अनेकशोऽनेकस्मिन् स्थानेऽनुभूते सति तन्मध्ये कस्मिन्वा एकस्मिन्नुथैर्गोत्रादिकेऽनवस्थितस्थानके रागादिविरहादेकः कथं गृध्येत् ? तात्पर्यम्-आसेवां विदितकर्मपरिणामो विदध्यात् युज्येत गाद्धर्थ यदि तत्स्थान प्राप्तपूर्व नामविष्यत् , तच्चानेकशः प्राप्तपूर्वम्, अतस्तल्लाभालाभयोः नोत्कर्षापकर्षों विधेयाविति, आह च-'तम्हा' इत्यादि, (आचा०) (मदस्थानसंबन्धः 'मयट्ठाण' शब्दे पञ्चमभागे 107 पृष्ठे गतः।) तदेव-मुच्चनीचगोत्रनिर्विकल्पमनाः अन्यदपि अविकल्पेन किं कुर्यादित्याह- 'भूएहिं' इत्यादि, भवन्ति भविष्यन्त्यभूवन्निति च भूतानि-असुभृतस्तेषु प्रत्युपेक्ष्य-पर्यालोच्य विचार्य कुशाग्रीयया शेमुष्या जानीहि-अवगच्छ, किंजानीहि ? सातम्-सुखं तद्विपरीतमसात-मपि जानीहि, किंच कारणं साताऽसातयोः ? एतज्जानीहि, किं चाभिलषन्त्यविगानेन प्राणेन इति, अत्र जीवजन्तुप्राण्यादिशब्दानुपयोगलक्षणद्रव्यस्य मुख्यान् वाचकान्विहाय सत्तावाचिनो भूतशब्दस्योपादानेनेदमाविर्भावयति यथा-अयमुपयोगलक्षणपदार्थोऽवश्यं सत्तां विभर्ति, साताभिलाष्यसातंच जुगुप्सते, साताभिलाषश्च शुभप्रकृतित्वाद् अतोऽपरासामपि शुभप्रकृतीनामुपलक्षणमेतदवसेयम्, अतः शुभनामगोत्रायुराद्याः कर्मप्रकृतीरनुधावत्यशुभाश्च जुगुप्सते सर्वोऽपि प्राणी। एवं च व्यवस्थिते सति किं विधेयमित्याह - समिए एयाणुपस्सी, तं जहा-अन्धत्तं बहिरत्तं मूयत्तं काणत्तं कुंटत्तं खुज्जत्तं वडभत्तं सामत्तं सबलत्तं सह पमाएणं अणेगरूवाओ जोणीओ संधायइ विरूवरूवे फासे परिसंवेयइ।(सू०७८) अथवा-भूतेषु शुभाशुभरूपं कर्म प्रत्युपेक्ष्य यत्तेषामप्रियं तन्न विदध्यात्, इत्ययमुपदेशः, नागाजुनीयास्तुपठन्ति-"पुरिसेणं खलुदुक्खुव्येअसुहेसए" पुरुषा-जीवः णमिति-वाक्यालङ्कारे, खलुः-अवधारणे, दुःखात् उद्वेगो यस्य स दुःखोद्वेगः, सुखस्यैषकः सुखैषकः, याजकादित्वात्समासश्छान्दसत्वाद्वा, दुःखोद्वेगश्चासौ सुखैषकश्च दुःखोद्वेगसुखैषकः, सर्वोऽपि प्राणी दुःखोद्वेगसुखैषक एव भवत्यतो जीवप्ररूपणं कार्यम्, तचावनिवनपवनानलवनस्पतिसूक्ष्मबादरविकलपञ्चेन्द्रियसंज्ञीतरपर्याप्तकापर्याप्तकरूपं शस्त्रपरिज्ञायामकार्येव, तेषां च दुःखपरिजिहीषूणां सुखलिप्सूनामात्मौपम्यमाचरता तदुपमर्दकानि हिंसादिस्थानानि परिहरताऽऽत्मा पञ्चमहाव्रतेष्वास्थयः, तत्परिपालनार्थ चोत्तरगुणा अप्यनुशीलनीयाः, तदर्थमुपदिश्यते- 'समिए एयाणुपस्सी' पञ्चभिः समितिभिः समितः सन् एतत्-शुभाऽशुभं कर्म वक्ष्यमाणं चाऽन्धत्वादिकं द्रष्टुं शीलं यस्येत्येतदनुदर्शी भूतेषु सातं जानीहीति सण्टङ्कः। तत्र 'समिति' रिति 'इणगता' वित्यस्मात्सम्पूर्वात् क्तिन्नन्ताद्भवति, साच पञ्चधा, तद्यथा-इर्याभाषणाऽऽदाननिक्षेपोत्सर्गरूपाः, तोर्यासमितिः-प्राणव्यपरोपणव्रतपरिपालनाय, भाषासमितिरसदभिधाननियमसंसिद्धये, एषणासमितिरस्तेयव्रतपरिपालनाय, शेषद्वयं तु समस्तव्रतप्रकृष्टस्याहिंसाव्रतस्य संसिद्धये व्याप्रियते इति,तदेवं पञ्चमहाव्रतोपपेतस्तवृत्तिकल्पसमितिभिः समितः सन् भावत एतद्भूतसातादिकमनुपश्यति, अथवा-यदनुदर्श्यसौ भवति तद्यथेत्यादिना सूत्रेणैव दर्शयति- 'अन्धत्वमित्यादिना यावत्' विरूपरूपे फासे परिसंवेएइ' संसारोदरे पर्यटन प्राणी अन्धत्वादिका अवस्था बहुशः परिसंवेदयते। (आचा०)(अन्धः कतिविध इति 'अन्ध' शब्दे प्रथमभागे 105 पृष्ठे गतम्।) ('ब-हिर' शब्दे पञ्चमभागे 1267 पृष्ठे बधिरवक्तवता गता। मूकभेदाः 'जड्डु' शब्दे चतुर्थभागे 1387 पृष्ठ गताः।) (काणत्वं महदुःखमिति 'काण' शब्दे तृतीयभागे 430 पृष्ठे गतम् / ) कुण्टत्वंपाणिय-कत्वादिकं कुब्जत्वं वामनलक्षणं वडभत्वं-विनिर्गतपृष्ठी वडभल-क्षणं श्यामत्वंकृष्णलक्षणं शबलत्यम्-ग्वित्रलक्षणं सहज पश्चाद्भाविवा कर्मवशगो भूरिशो दुःखराशिदेशीय परिसंवेदयते। किंच-सह प्रमादेनविषयक्रीडाभिष्वङ्गरूपेण श्रेयस्यनुद्यमात्मकेन अनेकरूपाःसङ्कटविकटशीतोष्णादिभेदाभिन्ना योनीः संदधाति-संधत्ते च तुरशीतियोनिलक्षसम्बन्धाविच्छेदं विदधातीति भावः सम्यग्धावतीति वा, तासु तास्वायुष्कबन्धोत्तरकालं गच्छतीत्यर्थः तासु च नानाप्रकारासु योनिषु विरूपरूपान् नानाप्रकारान् स्पर्शान्-दुःखानुभवान् परिसंवेदयते, अनुभवतीत्यर्थः। तदेवमुच्चैर्गोत्रोत्थापितमानोपहतचेता नीचैर्गोत्रविहितदीनभावो वाऽन्धबधिरभूयं वा गतः सन्नावबुध्यते, कर्तव्यं नजानातिकर्म-विपाकं नावगच्छति, संसारापसदतां नावधारयति, हिताहिते न गणयति, औचित्यमित्यनवगततत्त्वोमूढस्तत्रैवोच्चैर्गोत्रादिके विपर्यासमुपैति।आहचसे अबुज्झमाणे हओवहए जाईमरणं अणुपरियट्टमाणे जीवियं पुढो पियं इहमेगेसिं माणवाणं खित्तवत्थुममायमाणाणं आरत्तं विरतं मणिकुंडलं सह हिरण्णेण इत्थियाओ परिगिज्झति तत्थेव रत्तान इत्थ तवो वा दमो वा नियमो वा दिस्सइ, संपु-गणं वाले जीविउकामे लालप्पमाणे मूढे विप्परियासमुवेइ। (सू०७६) 'से' इत्युच्चैर्गोत्राभिमानी अन्धबधिरादिभावसंवेदको वा कर्मविपाकमनवबुध्यमानो हतोपहतो भवति, नानाव्याधिसद्भावक्षत शरीरत्वाद्धतः, समस्तलोकपरिभूतत्यादुपहतः, अथवा-उथैर्गोत्र गर्वाध्मातत्यक्तोचितविधेयविद्वज्जनवदनसमुद्भूतशब्दापयशःपटह हतत्वाद्धतः अभिमानोत्पादि
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________________ लोगविजय 731 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लोगविजय तानेकभवकोटिनीचैर्गोत्रोदयादुपहतः, मूढो विपर्यासमुपैतीत्युत्तरेण सम्बन्धः, तथा जातिश्च मरणं च समाहारद्वन्द्वस्तद् अनुपरिवर्तमानःपुनर्जन्म पुनमरणमित्येवमरहट्टघटीयन्त्रन्यायेन संसारोदरे विवर्तमानः, आवीचीमरणाद्वा प्रतिक्षणं जन्मविनाशावनुभवन् दुःखसागरावगाये विशरारुण्यपि नित्यत्ताकृतमपिः हितेऽप्यहिताध्यवसायो विपर्यासमुपैति (जीवितस्वरूपम् 'आउ' शब्दे द्वितीयभागे 8 पृष्ठे गतम्) तथा-क्षेत्रम्शालिक्षेत्रादि वास्तुधवलगृहादिमम इदमित्येवमाचरतांसतांतत्क्षेत्रादिकं प्रेयो भवति, किं च-आरक्तम्-ईषद्रक्तं वस्त्रादि विरक्तम्-विगतरागं विविधरागं वा मणिः-इति रत्नवैडूर्येन्द्रनीलादि कुण्डलम्-कर्णाभरणं हिरण्येन सह स्त्रीः परिगृह्य तत्रैव-क्षेत्रवास्त्वारक्तविरत्तवस्त्रमणिकुण्डलस्त्र्यादौ रक्तागृद्धा अध्युपपन्ना मूढा विपर्यासमुपयान्ति, वदन्ति च-नात्र तपो वा-अनशनादिलक्षणम् दमो वा-इन्द्रियनो-इन्द्रियोपशमलक्षणो नियमो वा-अहिंसावतलक्षणः फलवान् दृश्यते, तथाहितपोनियमोपपेतस्यापि कायक्लेशभोगादिवञ्चनां विहाय नान्यत्फलमुपलभ्यते, जन्मान्तरे भविष्यतीतिचेद्व्यूद्ग्राहितस्योल्लापः। किंचदृष्टहानिरदृष्टकल्पना च पापीयसीति, तदेवं साम्प्रतेक्षी भोगसङ्गविहितैकपुरुषार्थबुद्धिः संपूर्ण यथावसरसंपादितविषयोपभोगं बालः-अज्ञः जीवितुकामः-आयुष्कानुभवनमभिलषन् लालप्यमानः-भोगार्थमत्यर्थ लपन् वाग्दण्डं करोति, तद्यथा-अत्र तपो दमो नियमो वा फलवान् न दृश्यते इत्येवमर्थ ब्रुवन् मूढः अबुध्यमानो हतोपहतो जातिमरणमनुपरिवर्तमानो जीवितक्षेत्रस्त्र्यादिलोभपरिमोहितमनाः विपर्यासमुपैतितत्त्वेऽतत्त्वाभिनिवेशम्, अतत्त्वे च तत्त्वाभिनिवेशं हितेऽहितबुद्धिमित्येवं सर्वत्र विपर्ययं विदधाति / उक्तं च- "दाराः परिभवकारा, बन्धुजनो बन्धनं विषं विषयाः। कोऽयं जनस्य मोहो? ये रिपवस्तेषु सुहृदाशा // 1 // " इत्यादि। ये पुनरुन्मज्जच्छुभकर्मापादिताध्यवसायपुरस्कृतमो क्षास्ते किंभूता भवन्तीत्याह - "इणमेव नावखंति, जे जणा धुवचारिणो / जाईमरणं परिनाय, चरे संकमणे दढे||१||"नऽत्थि का, लस्सणागमो, (आचा०) तंपरिगिज्झदुपयं चउप्पयं अभिजुंजिया णं संसिंचिया णं तिविहेण जाऊ वि से तत्थ मत्ता भवइ अप्पा वा बहुया वा, से तत्थ गड्डिए चिट्ठइ भोअणाए, तओ से एगया विविहं परिसिटुं संभूयं महोवगरणं भवइ, तं पि से एगया दायाया वा विमयंति, अदत्तहारो वा से अवहरति, रायाणो वा से विलुपंति, नस्सइ वा से विणस्सइ वा से, अगारदाहेण वा से डज्झइ, इय * से परस्सऽहाए कूराइं कम्माई वाले पकुय्वमाणे तेण दुक्खेण संमूढे वि प्परियासमुवेइ, मुणिणा हु एवं पवेइयं, अणोहंतरा एए नो य ओहं तरित्तए, अतीरंगमा एए नो य तीरं गमित्तए, अपारंगमा एएनो य पारंगमित्तए, आयाणिजंच आयाय तम्मि ठाणे न चिट्ठइ, वितहं पप्पश्खेयने तम्मि ठाणम्मि चिट्ठइ। (सू०८०) 'इणमेव' इत्यादि, इदमेव पूर्वोक्तं सम्पूर्णजीवितं क्षेत्राङ्गनापरिभोगादिकं वा नावकाङ्कन्तिनाभिलषन्ति, ये जना ध्रुवचारिणो ध्रुवोमोक्षस्तत्कारणं च ज्ञानादिध्रुवं तदाचरितुंशीलं येषां तेतथा, धुतचारिणो वा धुनातीति धुतंचारित्रं तच्चारिण इति। किंच- 'जाई' इत्यादि, जातिश्च मरणं च समाहारद्वन्द्वः, तत् परिज्ञाय-परिच्छिद्य ज्ञात्वा चरेत्-उद्युक्तो भवेत्, क ? संक्रमणे-संक्रम्यतेऽनेनेति संक्रमणंचारित्रंतत्र दृढोविश्रोतसिकारहितः परीषहोप-सर्गः निष्प्रकम्पो वा, यदिवा-अशङ्कमनाः सन् संयमंचर, न विद्यतेशङ्का यस्य मनसस्तदशङ्कम् : अशङ्कं मनो यस्यासावशङ्कमनाः-तपोदमनियमनिष्फलत्वाशङ्कारहित आस्तिक्यमत्युपपेतस्तपोद-मादौ प्रवर्तेत, यतस्तद्वान् राजराजादीनां पूजाप्रशंसा) भवति, न चौपशमिकसुखावाप्तफलस्य तपस्विनः समस्तद्वन्द्वदवीयसोऽसत्यपि परलोके किञ्चित् सूयते / उक्तं च-"संदिग्धेऽपि परे लोके, त्याज्यमेवाशुभं बुधैः / यदि नास्ति ततः किं स्यादस्ति चेन्नास्ति को हतः॥ 1 / / " इत्यादि। तस्मात् स्वायत्ते संयमसुखे दृढेन भाव्यम् , न चैतद्भावनीयम् , यथा-परुत्परारि वृद्धावस्थायां वा धर्म करिष्यामीति, यतः- 'नत्थि' इत्यादि नास्ति न विद्यते कालस्यमृत्योरनागमः-अनागमनमनवसर इति यावत्, तथाहि-सोपक्रमायुषोऽसुमतोन काचित्साsवस्था यस्यां, कर्मपावकान्तर्वर्ती जन्तुर्जतुगोलक इवन विलीयेत इति / उक्तं च- "शिशुमशिशुं कठोरमकठोरमपण्डितमपि च पण्डितम् , धीरमधीरं मानिनममानिनमपगुणमपि च बहुगुणम् / यतिमयतिं प्रकाशमबलीनमचेतनमथ सचेतनं, निशि दिवसेऽपि सान्ध्यसमयेऽपि विनश्यति कोऽपि कथमपि // 1 // " तदेवं सर्व कषत्वं मृत्योरवधार्याहिंसादिषु दत्तावधानेन भाव्यम् , (आचा०) ('सव्वे पाणा पियाउया' इत्यादीनां व्याख्या 'पियजीवि' शब्दे पञ्चमभागे६३६ पृष्ठे। आउ' शब्दे द्वितीयभागे 8 पृष्ठे चगता) तं परिगिज्झ तद्-असंयमजीवितं परिगृह्य आश्रित्य कि कुर्वन्तीत्याह-'दुपयं' इत्यादि, द्विपद-दासीकर्मकरादि चतुष्पदम्गवाश्वादि अभियुज्ययोजयित्वा अभियोगं ग्राहयित्वा व्यापारवित्वेत्युक्तं भवति, ततः किमित्यत आह- 'संसिंचियाणं' इत्यादि प्रियजीवितार्थमर्थाभिवृद्धये द्विपद-चतुष्पदादिव्यापारेण संसिच्य-अर्थनिचयं संवद्धर्थ त्रिविधेन-योग-त्रिककरणत्रिकण याऽपि काचिदल्पा परमार्थचिन्तायां बहूचपि फल्गुदेश्या (से) तस्यार्थारम्भिणः सा चार्थमात्रा / तत्र इतिद्विप-दाद्यारम्भे मात्रा इति-सोपस्कारत्वात्सूत्राणाम्, अर्थमात्रा-अर्थाल्पता भवति-सत्तां विभर्ति, किं भूता? सा, सूत्रेणैव कथयति-अल्पावा बह्री वा, अल्पबहुत्वं चापेक्षिकमतः सर्वाऽप्यल्पा सर्वाऽपि बह्वी'स' इत्यर्थवान् तत्र-तस्मिन्नर्थे गृद्धःअध्युपपन्नस्तिष्ठति, नालोचयत्यर्थस्योपाजनक्तेशम, नगणयति रक्षणपरिश्रमम्, न विवेचयतितरलताम, नावधारय
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________________ लोगविजय 732 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लोगविजय ति फल्गुताम् , उक्तं च- "कृमिकुलचितं लालाक्लिन्नं विगन्धि पृष्ठे। 'अपारंगम' इत्यादिकस्य व्याख्या च 'अपारंगम' शब्दे तस्मिन्नेव जुगुप्सितं, निरुपमरसप्रीत्या खादन्नरास्थिनिराभिषम् / सुरपति-मपि भागे 606 पृष्ठे गता।) अथ तीरपारयोः को विशेष इति, उच्यते-तीरम्श्या पार्श्वस्थं सशङ्कितमीक्षते, न हि गणयति क्षुद्रो लोकः परिग्रहफल्गुताम् मोहनीयक्षयः, पारंशेषघातिक्षयः, अथवा-तीरं-घातिचतुष्टयापगमः, पारं // 1 // " इत्यादि, स च किमर्थमर्थमर्थयत इत्यत आह- 'भोयणाए' भवोपग्राह्यभाव इत्यर्थः, स्यात्-कथमोघतारी कुतीर्थादिको न भवति भोजनम् उपभोगस्तस्मै अर्थमर्थयते, तदर्थी च क्रियासु प्रवर्तते, तीरपारगामी चेत्याह- 'आयाणिज्ज' इत्यादि, आदीयन्ते-गृह्यन्ते क्रियावतश्च किं भवतीत्याह-'तओसे' इत्यादि, ततः (से)तस्यावलग- सर्वभावा अनेनेत्यादानीयं-श्रुतंतदादाय तदुक्तेतस्मिन् संयम-स्थानेन नादिकाः क्रियाः कुर्वतः एकदा-लाभान्तरायकर्मक्षयोपशमे विविधम् - तिष्ठति, यदि वा-आदानीयम्-आदातव्यं भोगाङ्ग द्विपदचतुष्पनानाप्रकारम् परिशिष्टम्-प्रभूतत्वाद्भुक्तोद्धरितम् , सम्भूतम्-सम्यक्- दधनधान्यहिरण्यादि तदादाय-गृहीत्वा, अथवा- मिथ्यात्वाविरतिपरिपालनाय भूतं-संवृत्तं, किं तत् ? महन्य तत्परिभोगाङ्गत्वादुपकरणं च प्रमादकषाययोगैरादानीयं-कादाय, किंभूलो भवतीत्याह-तस्मिन्महोपकरणं-द्रव्यनिचय इत्यर्थः, स कदाचिल्लाभोदये भवति, असा- ज्ञानादिमये मोक्षमार्गे सम्यगुपदेशे वा प्रशस्तगुणस्थाने न तिष्ठतिवप्यन्तरायोदयान तस्योपभोगायेत्याह- 'तं पि से' इत्यादि, तदपि नात्मानं विधत्ते, न केवलं सर्वज्ञोपदेशस्थानेन तिष्ठति, विपर्ययानुष्ठायी समुद्रोत्तरणरोहणखननविलप्रवेशरसेन्द्रमर्दनराजावलगनकृषी- च भवतीति दर्शयति- 'वितह' इत्यादि, वितथम्-असद्भूतं दुर्गतिहेतुं वलादिकाभिः क्रियाभिः स्वपरोपतापकारिणीभिः स्वोपभोगायोपार्जितं तत्तथाभूतमुपदेशं प्राप्य अखेदज्ञः-अकुशलः खेदज्ञो वाऽसंयमस्थाने सत् 'से' तस्यार्थोपार्जनोपायक्लेशकारिणः एकदा-भाग्यक्षये दायादाः- तस्मिश्च साम्प्रतेक्ष्याचरित उपदिष्टे वा तिष्ठति, तत्रैवासंयमस्थानेsपितृपिण्डोदकदानयोग्याः विभजन्ते-विलुम्पति, अदत्तहारोवादस्युर्वा ध्युपपन्नो भवतीति यावत्, अथवा-वितथमिति आदानीयभोगाङ्गव्यतिअपहरति, राजानो वा विलुम्पन्ति-अवच्छिन्दन्ति नश्यति वा स्वत रिक्तं संयमस्थानं तत्प्राप्य खेदज्ञो निपुणत्तस्मिन्स्थाने आदानीयस्य एवाटवीतः, 'से' तस्य विनश्यति वा जीर्णभावापत्तेः अगारदाहेन वा- हन्तृणि तिष्ठति, सर्वज्ञाज्ञायामात्मानं व्यवस्थापयतीत्यर्थः / गृहदाहेनवा दह्यते, कियन्ति वा कारणान्यर्थनाशे वक्ष्यन्ते इत्युपसंहरति अयं चोपदेशोऽनवगततत्त्वस्य विनेयस्य यथोपदेशं प्रवर्त्त - इति-एवं बहुभिः प्रकारैरुपार्जितोऽप्यों नाशमुपैति, नैवोपार्जयितुरु मानस्य दीयते, यस्त्ववगतहेयोपादेयविशेषः स यथाऽपतिष्ठत इत्युपदिश्यते। सः-अर्थस्योत्पादयिता परस्मै-अन्यस्मै अर्थाय वसरं यथाविधेयं स्वत एव विधत्त इत्याहप्रयोजनाय अन्यप्रयोजनकृते क्रूराणिगलकर्तनादीनि कर्माणि-अनुष्ठानानि बालः-अज्ञः प्रकुर्वाणः-विदधानः तेन-कर्म-विपाकापादितेन उद्देसोपासगस्स नऽस्थि, बाले पुण निहे कामसमणुने असदुःखेन-असातोदयेन संमूढः-अपगतविवेकः विपर्यासमुपैति-अपगत मियदुक्खं दुक्खी दुक्खाणमेव आवटें अणुपरियट्टइ। त्ति बेमि। सदसद्विवेकत्वात्कार्यमकार्य मन्यते व्यत्ययं चेति। उक्तंच-"रागद्वेषा (सू०५१) भिभूतत्वात्कार्याकार्यपराङ्मुखः / एष मूढ इति ज्ञेयो, विपरीत-विधायकः उद्दिश्यते इत्युद्देशः-उपदेशः सदसत्कर्तव्यादेशः सपश्यतीति पश्यः स / / 1 // " तदेवं मौढ्यान्धतमसाच्छादितालोकपथाः सुखार्थिनो एव पश्यकस्तस्य न विद्यते, स्वत एव विदितवेद्यत्वात्तस्य, अथवादुःखमृच्छन्ति जन्तव इति ज्ञात्वा सर्वज्ञवचनप्रदीपमशेषपदार्थस्वरूपा- पश्यतीति पश्यकःसर्वज्ञस्तदुपदेशवर्ती वा तस्य, उद्दिश्यत इत्युद्देशोविर्भावकमाललम्बिरे मुनयः, अदश्च मया न स्वमनीषिकयोज्यते सुध- नारकादिव्यपदेशः उच्चावचगोत्रादिव्यपदेशो वास तस्य न विद्यते, तस्य मस्वामी जम्बूस्वमिनमाह, यदि स्वमनीषिकया नोच्यते कौत-स्त्यं द्रागेव मोक्षगमनादिति भावः। कः पुनर्यथोपदेशकारी न भवति, इत्याहतीदमित्यत आह- 'मुणिणा' इत्यादि, मनुतेजगतस्त्रिका-लावस्था- 'बाले' इत्यादि, बालो नाम रागादिमोहितः सः पुनः कषायैः कर्मभिः मिति मुनिःतीर्थकृतेन एतद्-असकृदुच्चैर्गोत्रभवनादिकं प्रकर्षणादौ वा परीषहोपसर्गा, निहन्यत इति निहः निपूर्वाद्धन्तेः कर्मणि डः / अथवासर्वस्वभावानुगामिन्या वाचा वेदितं-कथितं वक्ष्यमाणं च प्रवेदितम् , किं स्निह्यत इति स्निहः स्नेहवाम्रागीत्यर्थः, अत एवाह-'कामसमणुण्णे' तदित्याह- 'अणोह' इत्यादि, ओघो द्विधा, द्रव्यभावभेदात् , द्रव्यौघो कामाः-इच्छा-मदनरूपा सम्यग्मनोज्ञा यस्य स तथा, अथवा-सह नदीपूरादिको, भावौघोऽष्टप्रकारं कर्म संसारो वा, तेन हि प्राण्यनन्तमपि मनोहर्वर्तत इति समनोज्ञो गमकत्वात्सापेक्षस्यापि समासः, कामैः कालमुह्यते, तम्ओघं ज्ञानदर्शनचारित्रवोहित्थस्थाः तरन्तीत्योघन्तरा सह मनोज्ञः कामसमनोज्ञःस, यदि वा-कामान् सम्यगनुपश्चान ओघन्तरा अनोघन्तराः, तरतेश्छान्दसत्वात् खश् , खित्वान्मुमागमः, स्नेहानु-बन्धाञ्जानाति सेवत इति कामसमनोज्ञः, एवंभूतश्च एते कुतीर्थिकाः पार्श्वस्थादयो वा ज्ञानादियानविकलाः, यद्यपि तेऽ.. किंभूतो भवती-त्याह- 'असमियदुक्खे' अशमितम-अनुपशमितं प्योघतरणायोद्यतास्तथापि सम्यगुपायाभावात् न ओघतरण-समर्था विषयाभिष्वङ्गकषायोत्थं दुःखं येन स तथा, यत एवाशमितदुःख अत भवन्तीति / आह च- 'नो य ओहं तरित्तए' न च-नैव ओघं-भावौधं एव दुःखी शारीरमानसाभ्यां दुःखाभ्याम, तत्र शारीरं कण्टकशस्त्रतरितुं समर्थाः, संसारौघतरणप्रत्यला न भवन्ती-त्यर्थः, (आचा०) गण्डलूतादिसमुत्थम् मानसं प्रियविप्रयोगाप्रियसंप्रयोगेप्सितालाभ('अतीरंगमा' इत्यादिकस्य व्याख्या' अतीरं-गम' शब्दे प्रथमभागे 468 | दारिद्रयदौर्भारयदौर्मनस्यकृतं तद्विरूपमपि, दुःखं विद्यते यस्याऽसौ
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________________ लोगविजय 733 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लोगविजय दुःखी, एवंभूतश्वसन् क्रिमवाप्नोतीत्याह- 'दुक्खाणं इत्यादि, दुःखानां शारीरमानसानामावत पौनःपुन्यभवतमनुपरिवर्तते दुःखावर्तावमग्नो | वंभ्रम्यत इत्यर्थः / इतिः परिसमाप्तौ ब्रवीमिति पूर्ववत्। आचा०१ श्रु०२ अ०३ उ०। (भोगसुखवक्तव्यता'भोगसुह'शब्दे पञ्चमभागे १६०६पृष्ठे गता / ) ("जमिणं "इत्या-दीनि सूत्राणि 'आरंभ' शब्दे द्वितीयभागे 365 पृष्ठे गतानि।) परिग्रहादात्मानमपसर्पयदित्युक्तं, तच न निदानोच्छेदमन्तरेण, निदानं च शब्दादिपञ्चगुणानुगामिनः कामाः, तेषां चोच्छेदोऽसुकरः यत आह - कामादुरतिकमा, जीवियं दुप्पडिबूहगं, कामकामी खलु अयं पुरिसे, से सोयइ जूरइ तिप्पइ परितप्पइ। (सू०९२) कामा द्विविधाः-इच्छाकामा, मदनकामाश्च। तत्रेच्छाकामा मोहनीयभेदहास्यरत्युद्भवाः, मदनकामा अपि मोहनीयभेदवेदोदयात् प्रादुःष्यन्ति, ततश्च द्विरूपाणामपि कामानां मोहनीय कारणम् , तत्सद्भावेच नकामोच्छेद इत्यतो दुःखेनातिक्रमः-अतिलङ्घनं विनाशो येषां तेतथा, ततश्चेदमुक्तं भवति-नतत्र प्रमादवता भाव्यम्। न केवलमत्र जीवितेऽपि न प्रमादवता भाव्यमिति, आह च- 'जीवियं' इत्यादि, जीवितम्आयुष्कं तत् क्षीणं सत् 'दुष्प्रतिबृहणीय' दुरभावार्थे, नैव वृद्धिं नीयते इति यावत् , अथवा-जीवितं-संयमजीवितं तदुष्प्रतिबृहणीयम् , कामानुषक्तजनान्तर्व-तिना दुःखेन वृद्धिं नीयतेदुःखेन निष्प्रत्यूहः संयमः प्रतिपाल्यते इति, उक्तं च-"आगासे गंगसोउ व्व, पडिसोउव्व दुत्तरो। बाहाहिं चेव गंभीरो,तरिअव्यो महोअही॥१॥ वालुगाकवलो चेव, निरासाए हुसंजमो। जवा लोहमया चेव, चावेयव्या सुदुक्करं / / 2 // " इत्यादि, येन चाभिप्रायेण कामा दुरतिक्रमा इति प्रागभ्यधायि तमभिप्रायमाविष्कुर्वन्नाह- 'कामकामी' इत्यादि कामान् कामयितुम्-अभिलषितुम् शीलमस्येति कामकामी खलु' वाक्यालङ्कारे'अयम्' इत्यध्यक्षः पुरुषःजन्तुः, यस्त्वेवंविधोऽविरतचेताः कामकामी स नानाविधान् शारीरमानसान दुःखविशेषाननुभवतीति दर्शयति-'से सोयई त्यादि, स इतिकाभकामी ईप्सितस्यार्थस्याप्राप्तौ तद्वियोगे च स्मृत्यनुषङ्गः शोकस्तमनुभवति, अथवा-शोचत इति काममहाज्वरगृहीतः सन् प्रलपतीति, उक्तं च-"गते प्रेमाबन्धे प्रणयबहुमाने च गलिते, निवृत्ते सद्भावे जन इव जने गच्छति पुरः। तमुत्प्रेक्ष्योत्प्रेक्ष्य प्रियसखि ! गतांस्तांश्च दिवसान्, न जाने को हेतुर्दलति शतधा यन्न हृदयम् ? // 1 // " इत्यादि शोचते, तथा 'जूरइ' त्ति हृदयेन खिद्यते, तद्यथा- 'प्रथमतरमथेदं चिन्तनीयं तवासीबहुजनदयितेन प्रेम कृत्वा जनेन। हृतहृदय ! निराश ! क्लीब! संतप्यसे किं ? न हि जडगततोये सेतुबन्धाः क्रियन्ते॥१॥" इत्येवमादि, तथा 'तिप्पइ' ति तिपृ ते प्रक्षरणार्थी, तेपतेक्षरति सञ्चलति मर्यादातो भ्रश्यति निर्मर्यादो भवतीति यावत् , तथा शारीरमानसैर्दुःखैः पीज्यते-तथा परिः-समन्ताबहिरन्तश्च तप्यतेपरितप्यते. पश्चात्तापं वा करोति, यथेष्ट पुत्रकलत्रादौ कोपात् क्वचिद्गते समया नानुवर्तित इति परि-तप्यते, सर्वाणि चैतानि शोचनादीनि विषयविषावष्टव्धान्तःकर-- | णानां दुःखावस्थासंसूचकानि, अथवा-शोचत इति यौवनधनमदमोहाभिभूतमानसो विरुद्धानि निषेव्य पुनर्वयःपरिणामेन मृत्युकालोपस्थानेन वा मोहापगमे सति किं मया मन्दभाग्येन पूर्वमशेषशिष्टाचीर्णः सुगतिगमनैकहेतुर्दुर्गतिद्वारपरिघो धर्मो नाचीर्णः ? इत्येवं शोचत इति। उक्तं च- "भवित्रीं भूतानां परिणतिमनालोच्य नियतां, पुरा यद्यत् किशिबिहितमशुभं यौवनमदात् / पुनः प्रत्या-सन्ने महति परलोकैकगमने, तदेवैकं पुंसांव्यथयतिजराजीर्णवपु-षाम्॥१॥" तथा जूरतीत्यादीन्यपि स्वबुद्ध्या योजनीयानि। उक्तं च-"सगुणमपगुणं वा कुर्वता कार्यजातं, परिणतिरवधार्या यत्नतः पण्डितेन / अतिरभसकृतानां, कर्मणामाविपत्तेर्भवति हृदयदाही शल्यतुल्यो विपाकः॥१॥" इत्यादि। कः पुनरेवं न शोचत इत्याह - आययचक्खू लोगविपस्सी, लोगस्स अहो भागं जाणइ उड्डूं भागं जाणइ तिरियं भागं जाणइ, गडिए लोए अणुपरियट्टमाणे संधिं विइत्ता इह मचिएहि, एस वीरे पसंसिए जे बद्ध पडिमोयए, जहा अंतो तहा बाहिं, जहा बाहिं तहा अंतो, अंतो अंतो पूछ देहंतराणि पासइ पुढोविसवंताई पंडिएपडिलेहाए। (सू०६३) आयतं-दीर्घमहिकामुष्मिकापायदर्शि चक्षुः-ज्ञानं यस्य स आयतचक्षुः, कः पुनरित्येवंभूतो भवति ? यः कामानेकान्तेनानर्थभूयि-ठान् परित्यज्य शमसुखमनुभवति, किं च- 'लोगविपस्सी' लोकविषयानुषडावेशाप्तदुःखातिशयं तथा त्यक्तकामावाप्तप्रशमसुखं विविधं द्रष्टुं शीलमस्येति लोकविदर्शी, अथवा-लोकस्य ऊर्ध्वाधस्तिर्यगभागगतिकारणायुष्कसुखदुःखविशेषान् पश्यतीति, एत-दर्शयति-'लोगस्स' इत्यादि,लोकस्य-धर्माधर्मास्तिकायाव-च्छिन्नाकाशखण्डस्याधोभागं जानातीति, स्वरूपतोऽवगच्छति, इदमुक्तं भवति-येन कर्मणा तत्रोत्पद्यन्तेऽसुमन्तः यादृक्तत्र सुख-दुःखविपाको भवतितंजानाति, एवमूर्द्धवतिर्यग्भागयोरपि वाच्यम्, यदि वा-लोकविदर्शीतिकामार्थमर्थोपार्जनप्रसक्तं गृद्धमध्यु-पपन्नं लोकं पश्यतीति / एतदेव दर्शयितुमाह'गड्डिए' इत्यादि, अयं हि लोको गृद्धः-अध्युपपन्नः कामानुषड्ने तदुपाये वा तत्रैवानु-परिवर्त्तमानो भूयो भूयस्तदेवाचरस्तजनितेन वा कर्मणा संसारचक्रेऽनुपरिवर्त्तमानः-पर्यटन्नायतचक्षुषो गोचरीभवन् कामामिलाषनिवर्तनाय न प्रभवति ? यदि वा-काभगृद्धान् संसारेऽनुपरिवर्त्तमानानसुमतः पश्येत्येवमुपदेशः, अपि च- 'संधिम्' इत्यादि, इह मर्येषुमनुजेषु यो ज्ञानादिको भावसन्धिः, स च मर्येष्वेव सम्पूर्णो भवतीति मर्त्यग्रहणम्; अतस्तं विदित्वा यो विषयकषायादीन् परित्यजति स एव वीर इति दर्शयति- 'एस' इत्यादि, एषः-अनन्तरोक्तः आयतचक्षुर्यथावस्थितलोकविभागस्वभावदर्शी भावसन्धेर्वेता परित्यक्तविषयतर्षों वीरः कर्मविदारणात् प्रशंसितः-स्तुतः विदिततत्त्वैरिति। स एवंभूतः किमपरं करोतीति चेदित्याह- 'जे बद्धे' इत्यादि यो बद्धान् द्रव्यभावबन्धनेन स्वतो विमुक्तोऽपरानपि मोचयतीत्येतदेव द्रव्यभावबन्धनविमोक्षं वा
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________________ लोगविजय 734 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लोगविजय चोयुक्त्याऽऽचष्टे- 'जहा अंतो तहा बाहिं' इत्यादि, यथाऽन्तर्भावबन्धनमष्टप्रकारकर्मनिगडनं मोचयति एवं पुत्रकलत्रादि बाह्यमपि, यथा वा बाह्य बन्धुबन्धनं मोचयति एवं मोक्षगमनविघ्नकारणमान्तरमपीति, यदि वा-कथमसौ मोचयतीति चेत्तत्वाविर्भावनेन, स्यादेतत्-तदेव किंभूतमित्याह- 'जहा अंतो' इत्यादि / यथा-स्वकायस्यान्तः-मध्ये अमेध्यकललपिशितासृक्पूत्यादिपूर्णत्वेनासारत्वमित्येवं बहिरत्यसारता द्रष्टव्या, अमेध्यपूर्णघटवदिति। उक्तंच-"यदि नामास्य कायस्य, यदन्तस्तबहिर्भवेत्।दण्डमादाय लोकोऽयम् . शुनः काकांश्च वारयेत् // 1 // " इति, यथा वा बहिरसारता तथाऽन्तरेऽपीति / किं च-'अंतो अंतो' इत्यादि, देहस्य मध्ये मध्ये पूत्यन्तराणिपूतिविशेषान् देहान्तराणिदेहस्यावस्थाविशेषान् इह मांसमिह रुधिरमिह मेदो मज्जा चेत्येवमादिपूतिदेहान्तराणि पश्यति-यथावस्थितानि परिच्छिनत्ति इत्युक्तं भवति।यदि वा-देहान्तराण्येवंभूतानिपश्यति-'पुढो' इत्यादि, पृथगपिप्रत्येकमपि अपिशब्दाद-कुष्ठाद्यवस्थायां यौगपद्येनापि सवन्ति नवभिः श्रोतोभिः कर्णाक्षिमलश्लेष्मलालाप्रश्रवणोचारादीन् तथा-अपरव्याघिविशेषापादितव्रणमुखपूतिशोणितरसिकादीनि चेति / यद्येतानि ततः किम् ? - 'पंडिए पडिलेहाए एतान्येवंभूतानि गलच्छ्रोतोव्रणरोमकूपानि पण्डितः-अवगततत्त्वः प्रत्युपेक्षेत-यथावस्थितमस्य स्वरूपमवगच्छेदिति। उक्तंच-"मंसट्ठिरुहिरण्हारुवणद्धकलमलयमेयमज्जासु। पुण्णम्मि चम्मकोसे, दुग्गंधे असुइबीभच्छे // 1 // संचारिमजंतगलंतवचमुत्तंतसेअपुण्णम्मि। देहे हुजा किं रागकारणं असुइहेउम्मि? // 2 // " इत्यादि। तदेवं पूतिदेहान्तराणि पश्यन् पृथगपिन वन्तीत्येवं प्रत्युपेक्ष्य किं कुर्यादित्याहसे मइमं परिन्नाय मा य हु लालं पञ्चासी, मा तेसु तिरिच्छमप्पाणमावायए, कासं कासे खलु अयं पुरिसे, बहुमाई कडेण मूढे, पुणो तं करेइ लोहं वेरं वड्डइ अप्पणो। (सू०६४) स-पूर्वोक्तो यतिमतिमान्-श्रुतसंस्कृतबुद्धिर्यथावस्थितं हेहस्वरूपं कामस्वरूपं च द्विविधयाऽपि परिज्ञया परिज्ञाय किं कुर्यादित्याह- 'मा य हु' इत्यादि, मा-प्रतिषेधे चः समुच्चये, हुर्वाक्यालङ्कारे, ललतीति लाला-अत्रुट्यन्मुखश्लेष्मसन्ततिः तां प्रत्यशितुंशीलमस्येति प्रत्याशी, वाक्यार्थस्तु यथा हि बालो निर्गतामपि लाला सदसद्विवेकाभावात् पुनरप्यश्नातीत्येवं त्वमपि लालावत्यक्त्वा मा भोगान् प्रत्यशान्, वान्तस्य पुनरप्यभिलाषं मा कुर्वित्यर्थः / किं च-'मा तेसु तिरिच्छ इत्यादि संसारश्रोतांसि अज्ञानाविरतिमिथ्यादर्शनादीनि प्रतिकूलेन वा तिरश्चीनेन वा अतिक्रमणीयानि, निर्वाणश्रोतांसि तु ज्ञानादीनितत्रानुकूल्यं विधेयम्, मा तेष्वात्मानं तिरश्चीनमापादयः, ज्ञानादि कार्ये प्रतिकूलतांमा विदध्याः, तत्राप्रमादवता भाव्यम् , प्रमादवांश्चेहैवशान्तिं न लभते, यत आह- 'कासंकासे' इत्यादि, यो हि ज्ञानादिश्रोतसि तिरश्चीनवर्ती भोगाभिलाषवान् स एवंभूतोऽयं पुरुषः सर्वदा किं कर्तव्यताकुल इदमहमकार्षमिदं च करिष्ये इत्येवं भोगाभिलाषक्रियाव्यापृतान्तःकरणोन स्वास्थ्यमनुभवति, खलुशब्दोऽवधारणे, वर्तमानकालस्यातिसूक्ष्मत्वादसंव्यवहारित्वमतीतानागतयोश्चेदमहमकार्षमिदं च करिष्य इत्येवमातुरस्य नास्त्येव स्वास्थ्यमिति। उक्तंच- "इदं तावत् करोम्यद्य, श्वः कर्ताऽस्मीति चापरम्। चिन्तयन्निह कार्याणि, प्रेत्यार्थनावबुध्यते॥१॥' अत्र दधिघटिकाद्रमकदृष्टान्तो वाच्यः, स चायम्द्रमकः कश्चित् क्वचिन्महिषीरक्षणावाप्तदुग्धःतद्दधीकृत्य चिन्तयामास, ममातो घृतवेतनादि यावद्भार्या अपत्योत्पत्तिस्ततश्चिन्ता, कलहे पाणिप्रहारेणेव दधिघटिकाव्यापत्तिरित्येवं चिन्तामनोरथव्याकुलीकृतान्तःकरण इति, तद्दद्ध्यानयने शिरोविण्टलिकाचीवरे अदीयमाने इव शिरो विधूयास्फोटिता दधिघटिकेत्येवं यथा तेन न तद्दधि भक्षितं नापि कस्मैचित्पुण्याय दत्तम् , एवमन्योऽपि कासंकसः- किंकर्तव्यतामूढो निष्फलारम्भो भवतीति। अथवा-कस्यतेऽस्मिन्निति कासः-संसारस्तं कषतीतितदभिमुखो यातीति कासंकषः, यो ज्ञानादिप्रमादवान् , वक्ष्यमाणो वेत्याह- 'बहुमायी कासंकषो हि कषायै-भवति, तन्मध्यभूताया मायाया ग्रहणे तेषामपि ग्रहणं द्रष्टव्यमिति, ततः क्रोधी मानी मायी लोभीतिद्रष्टव्यमिति। अपि च-'कडेण मूढ़' करणं कृते तेन मूढःकिं कर्त्तव्यताकुलः सुखार्थी दुःखमश्नुते इति / उक्तं हि- "सोउं सोवणकाले,मजणकाले यमजिउंलोलो। जेमेउंच वराओ, जेमणकाले णचाएइ।। 13 // " अत्र मम्मणवणि-गदृष्टान्तो वाच्यः, स चैवम्-कासंकषः बहुभायी कृतेन मूढस्तत्तत्करोति येनात्मनो वैरानुषङ्गो जायत इति / आह च- 'पुणो तं करेइ-इत्यादि,मायावी परवञ्चनबुद्ध्या पुनरपि तल्लोभानुष्ठानं तथा करोति येनात्मनो वैरं वर्द्धते / अथवा-तं लोभे करोतीति-अर्जयति येन जन्मशतेष्वपि वैरं वर्द्धत इति / उक्तं च"दुखार्त्तः सेवते कामान् , सेवितास्तेच दुःखदाः। यदि तेन प्रियं दुःखं, प्रसङ्गस्तेषु न क्षमः // 1 // किं पुनः कारणमसुमाँस्तत्करोति येनात्मानो वैर वर्द्धते? इत्याहजमिणं परिकहिज्जइ इमस्स चेव पडिवूहणयाए, अमराय महासडी अट्टमेयं तु पेहाए अपरिण्णाए कंदह। (सू०६४x) 'जमिण' मित्यादि, यदिति यस्मादस्यैव विशरारोः शरीरकस्य परिवृंहणार्थ प्राणघातादिकाः क्रियाः करोतीति ; ते च तेनोपहताः प्राणिनः पुनः शतशो प्रन्ति, ततो मयेदं कथ्यते कासंकषः खल्वयं पुरुषो बहुमायी कृतेन मूढः पुनस्तत्करोति येनात्मानो वैरं वर्द्धय-तीति, यदि वा- यदिदं मयोपदेशप्रायं पौनःपुन्येन कथ्यते तदस्यैव संयमस्य परिवृंहणार्थम्, इदं चापरं कथ्यते- 'अमराय' इत्यादि, अमरायतेअनमरः सन् द्रव्ययौवनप्रभुत्वरूपावसक्तोऽमर इवाच-रति अमरायते, कोऽसौ ?-महाश्रद्धी-महती चासौ श्रद्धाच महा-श्रद्धा सा विद्यते भोगेषु तदुपायेषु वा यस्य स तथा अत्रोदाहरणम्। (मगधसेना गणिका तवृत्तम् 'मगहसेणा' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 37 पृष्ठे गतम् / ) यश्चामरायमाणः
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________________ लोगविजय 735 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लोगविजय कामभोगाभिलाषुकः स किंभूतो भवतीत्याह- 'अट्ट' इत्यादि, आतिःशारीरमानसीपीडा तत्र भव आर्त्तस्तमार्त्तममरायमाणं कामार्थमहाश्रद्धावन्तं प्रेक्ष्यदृष्ट्वा पर्यालोच्य वा कामार्थयोर्न मनो विधेयमिति, पुनरमरायमाणभो-गश्रद्धावतः स्वरूपमुच्यते-'अपरिन्नाए' इत्यादि, कामस्वरूपं तद्विपाकं वा अपरिज्ञाय तत्र दत्तावधानः कामस्वरूपापरिज्ञया वा क्रन्दते भोगेष्वप्राप्तनष्टेषु कासाशोकावनुभवतीति। उक्तं च-"चिन्तागते भवति साध्वसमन्तिकस्थे, मुक्तेतुतृप्तिरधिका रमितेऽप्यतृप्तिः। द्वेषोऽन्यभाजि वशवर्तिनि दग्धमानः, प्राप्तिः सुखस्य दयिते न कथंचिदस्ति॥ 1 // " इत्यादि। तदेवमनेकधा कामविपाकमुपदर्य उपसंहरतिसे तं जाणह जमहं बेमि, तेइच्छं पंडिए पवयमाणे से हंता छित्ता भित्ता लुंपित्ता विलुंपइत्ता उद्दवइत्ता अकडं करिस्सामि त्ति मण्णमाने, जस्स वि य णं करेइ अलं बालस्स संगणं, जे वा से कारइ वाले, ण एवं अणगारस्स जायति त्ति बेमि। (सू०६५) 'से' ति तदर्थे तदपि हेत्वर्थे, यस्मात्कामा दुःखैकहेतवः तस्मातज्जानीत यदहं ब्रवीमि, मदुपदेशं कामपरित्यागविषयं कर्णे कुरुतेति भावार्थः। ननु च कामनिग्रहोऽत्र चिकीर्षितः स चान्योपदेशादपि सिद्ध्यत्येवैतदाशङ्कयाह- 'तेइच्छं' इत्यादि, कामचिकित्सां पण्डितः पण्डिताभिमानी प्रवदन्नपरव्याधिचिकित्सामिवोपदिशन् अपरस्तीर्थको जीवोपमर्दै वर्तत इत्याह- ‘से हंता' इत्यादि, 'स' इत्यविदिततत्त्वः कामचिकित्सोपदेशकः प्राणिनां हन्ता दण्डादिभिश्छेत्ता कर्णादीनां, भत्ता सूलादिभिर्लुम्पयिता ग्रन्थिच्छेदनादिना, विलुम्पयिता अवस्कन्दादिना, अपद्रावयिता प्राणव्यपरोपणादिना, नान्यथा कामचिकित्सा व्याधिचिकित्सा वा अपर-मार्थदशां संपद्यते। किं च-अकृतं यदपरेण न कृतं कामचिकित्सनं व्याधिचिकित्सनं वा तदहं करिष्य इत्येवं मन्यमानः हननादिकाः क्रियाः करोति, ताभिश्च कर्मबन्धः, अतो य एवंभूतमुपदिशति यस्याप्युपदिश्यते उभयोरप्येतयोरपथ्यत्वादकार्यमिति / आह च-'जस्स वियणं इत्यादि, यस्याप्यसावेवंभूतां चिकित्सां करोति न केबलं स्वस्येत्यपिशब्दार्थस्तयोर्द्वयोरपि कर्तुः कारयितुश्च हननदिकाः क्रियाः, अतोऽलम्-पर्याप्तं बालस्य-अज्ञस्य सङ्गेन कर्मबन्धहेतुना कर्तुरिति, योऽप्येतत्कारयति बालः-अज्ञस्तस्याप्यलमिति संटङ्कः / एतचैवंभूतमुपदेशदानं विधानं वा अवगततत्त्वस्य न भवतीत्याह-'ण एवं' इत्यादि, एवंभूतं प्राण्युपमर्दैन चिकित्सो-पदेशदानं करणं वा अनगारस्य-साधोः ज्ञातसंसारस्वभावस्य न जायते-न कल्पते, ये तु कामचिकित्सां व्याधिचिकित्सा वा जीवोपमन प्रतिपादयन्ति ते बालाःअविज्ञाततत्त्वाः तेषां वचनमवधीरणीयमेवेति भावार्थः / इतिः परिसमाप्त्यर्थे ब्रवीमि पूर्ववदिति। उक्तः पञ्चमोद्देशकः। संयमदेहयात्रार्थ लोकमनुसरता साधुना लोके ममत्वं न कर्त्तव्यमित्यु- | द्देशार्थाधिकारोऽभिहितः, सोऽधुना प्रतिपाद्यते, अस्य चानन्तरसूत्रसंबन्धो वाच्यो नैवमनगारस्य जायते इत्यभिहितम् , एतदेवात्रापि प्रतिपिपादयिषुराह - से तं संबुज्झमाणे आयाणीयं समुट्ठाय तम्हा पावकम्मं नेव कुजा न कारवेज्जा / (सू०६६) यस्यानगारस्यैतत्पूर्वोक्तं न जायते सोऽनगारस्तत् प्राण्युपघातकारि चिकित्सोपदेशदानमनुष्ठानं वा संबुद्ध्यमानःअवगच्छन् ज्ञपरिज्ञया प्रत्याख्यानपरिज्ञया च परिहरन्नादातव्यम्-आदानीयम् ; तच्च परमार्थतो भावादानीयं ज्ञानदर्शनचारित्ररूपं तद्'उत्थाये 'त्यनेकार्थत्वादादायगृहीत्वा, अथवा-सोऽनगार इत्येतदादानीयम्-ज्ञानाद्यपवर्गककारणमित्येवंसम्यगवबुद्ध्यमानः सम्यक् संयमानुष्ठानेनोत्थाय सर्वसावा कर्मा नमया कर्त्तव्यमित्येवं प्रतिज्ञामन्दिरमारुह्य, क्त्वाप्रत्ययस्य पूर्वकालाभिधायित्वात् किं कुर्यादित्याह- 'तम्हा' इत्यादि यस्मात् संयमःसर्वसावद्यारम्भनिवृत्तिरूपः तस्मात्तमादाय पापं पापहेतुत्वात्, कर्मक्रिया न कुर्यात् स्वतो मनसाऽपिन समनुजानीयादित्यवधारणफलम्, अपरेणाऽपिन कारयेदिति / आह च- 'न कारवे' इत्यादि, अपरेणापि कर्मकरादिना पापसमारम्भं न कारयेदित्युक्तं भवति, प्राणातिपातमृषावादादत्तादानमैथुनपरिग्रहक्रोधमानमायालोभरागद्वेषकलहाभ्याख्यानपैशून्यपरपरिवादारतिरतिमायामृषावादमिथ्यादर्शनशल्यरूपमष्टादशप्रकारं पापं कर्म स्वतो न कुर्यान्नाप्यपरेण कारयेद् एवकाराच अपरं कुर्वन्तं न समनुजानीयाद्योगत्रिकेणापीति भावार्थः। स्यादेतत्-किमेकं प्राणातिपातादिकं पापं कुर्वतोऽपरमपि ढौकते आहोस्विन्नेत्याहसिया तत्थ एगयरं विपरामुसइछसु अन्नयरम्मि, कप्पइ सुहट्ठी लालप्पमाणे, सएण दुक्खेण मूढे विपरियासमुवेइ, सएण विप्पमाएण पुढो वयं पकुव्वइ, जंसिमे पाणा पटवहिया, पडिलेहाए नो तिकरणयाए, एस परिन्ना पवुबइ, कम्मोवसंति।(सू०१७) स्यात्तत्र-कदाचित्तत्र पापारम्भे एकतरं पृथिवीकायादिसमारम्भं विपरामृशाति-पृथिवीकायादिसमारम्भं करोति, एकतरं वाऽऽश्रवद्वारं परामृशति-आरभते स षट्स्वन्यतरस्मिन् कल्प्यते, यस्मिन्नेवालोच्यते तस्मिन्नेव प्रवृत्तो द्रष्टव्यः, इदमुक्तं भवति- पृथिवीकायादिषु षट्सु जीवनिकायेष्वाश्रवद्वारेषु वा मध्येऽन्यतरस्मिन्नपि प्रवर्त्तमानो यस्मिन्नेव पर्यालोच्यतेतस्मिन्नेव कल्प्यते, सर्वस्मिन्नेव वर्त्तत इतिभावार्थः / कथमन्यतरस्मिन् पृथिवीकायादिसमारम्भे वर्तमानोऽपरकायसमारम्भे सर्वपापसमारम्भे वा वर्त्तते इत्येवं मन्यते ? कुम्भकारशालोदकालावनदृष्टान्तेनैककायसमारम्भकोऽपरकायसमारम्भको भवति।अथवा-प्राणातिपाताखवद्वारविघटनादेकजीवातिपातादेककायातिपाताद्वा अपरजीवातिपाती द्रष्टव्यः, प्रतिज्ञालोपाचानृतः।नचतेनव्यापाद्यमानेनासुमताऽऽत्माध्यापादकायदत
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________________ लोगविजय 736 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लोगविजय स्तीर्थकरेण चानुज्ञातोऽतः प्राणिनः प्राणान् गृह्णन्न दत्तग्राही, सावद्यो- पचारात्प्राणिनः प्रव्यथिताः-नानाप्रकारैर्व्यसनोपनिपातैः पीडि-ताः, पादानाच पारिग्राहिकः,परिग्रहाच मैथुनरात्रिभोजने अपि गृहीते, यतो __ सुखार्थिभिरारम्भप्रवृत्तैर्मोहाद्विपर्यस्तैः प्रमादवद्भिश्च गृहस्थैः नापरिगृहीतमुपभुज्यते परिभुज्यते चेत्यतोऽन्यतरारम्भे षण्णामप्या- पाषण्डिकैर्यत्याभासैश्चेति वा / यदि नाम अत्र प्रव्यथिताः प्राणिनस्ततः रम्भः / अथवा-अनावृतचतुराश्रवद्वारस्य कथं चतुर्थषष्ठव्रतावस्थानं किमित्याह-'पडि' इत्यादि एतत् संसारचक्रवाले स्वकृतकर्मफलेश्वस्याद् ? अतः षट्स्वन्यतरस्मिन् प्रवृत्तः सर्वेष्वपि प्रवृत्त इति, अथ राणामसुमतां गृहस्थादिभिः परस्परतो वा कर्मविपाकतो वा प्रव्यथनं वैकतरमपि पापसमारम्भंय आरभते स षट्स्वन्यतरस्मिन् कल्पतेयोग्यो प्रत्युपेक्ष्य विदितवेद्यः साधुनिश्चयेन नितरां वा नियतं वा क्रियन्ते भवति, अकर्तव्यप्रवृत्तत्वाद् , अथवा-एकतरमपि यः पापारम्भं करोत्य- नानादुःखावस्था जन्तवो येन तन्निकरणं निकारः-शारीरमानससावष्टप्रकारं कार्मादयषट्स्वन्यतरस्मिन् कल्पतेप्रभवति, पौनःपुन्येनो- दुःखोत्पादनं तस्मै नो कर्म कुर्याद् , येन प्राणिनांपीडोत्पद्यते तमारम्भ त्पद्यत इत्यर्थः, स्यात्-किमर्थमेवंविधं पापकं कर्म समारभते ? नविदध्यादिति भावार्थः। एवं च सति किं भवतीत्याह- 'एस' इत्यादि, तदुच्यते- 'सुहट्ठी लालप्पमाणे' सुखेनार्थः सुखार्थः स विद्यते यस्या येयं सावद्ययोगनिवृत्तिरेषा परिज्ञा-एतत्तत्त्वतः परिज्ञानं प्रकर्षणोच्यते साविति मत्वर्थीयः, स एवम्भूतः सन्नत्यर्थं लपति पुनः पुनर्वा लपति प्रोच्यते, न पुनः शैलूषस्येव ज्ञानं निवृत्तिफलरहितमिति। एवं द्विविधलालप्यते वाचा कायेन धावनवल्गनादिकाः क्रियाः करोति मनसा च याऽपि ज्ञपरिज्ञया प्रत्याख्यानपरिज्ञया च प्राणिनिकारपरिहारे सति किं तत्साधनोपायांश्चिन्तयति। तथाहि-सुखार्थी सन् कृष्यादि-कर्मभिः भवतीत्याह-'कम्मोवसंति' त्ति कर्मणाम्-अशेषद्वन्द्ववातात्मकसंसारपृथिवी. समारभते, स्नानार्थमुदकं, वितापनार्थमग्निं, धर्मापनोदार्थ तरु-बीजभूतानामुपशान्तिः-उपशमः कर्मक्षयः प्राणिनिकारक्रियानिवृवायुम्, आहारार्थी वनस्पतिं, त्रसकायं वा इति असंयतः संयतो वा तेर्भवतीत्युक्तं भवति। रससुखार्थी सचित्तं लवणवनस्पतिफलादि गृह्णात्येवमन्यदपि यथा-- अस्य च कर्मक्षयप्रत्यूहस्य प्राणिनिकरणस्य संभवमायोज्यम् / स चैवं लालप्यमानः किंभूतो भवतीत्याह- 'सएण' मूलमात्मात्मीयग्रहः, तदपनोदार्थमाह - इत्यादि, यत्तदुप्तमन्यजन्मनि दुःखतरुकर्मवीजं तदात्मीयं दुःखतरु- जे ममाइयमइं जहाइ से चयइ ममाइयं, से हु दिट्ठपहे मुणी कार्यमाविर्भावयति, तच तेनैव कृतमित्यात्मीयमुच्यते, अतस्तेन जस्स नऽत्थि ममाइयं, तं परिनाय मेहावी वाइत्ता लोग वंता स्वकीयेन दुःखेनस्वकृतकर्मोदयजनितेन मूढः-परमार्थमजानानो लोगसन्नं से मइमं परिकमिजासित्तिबेमि॥"नारई सहई वीरे, विपर्यासमुपैतिसुखार्थी प्राण्युपघातकारणमारम्भमारभते, सुखस्य च वीरे न सहई रतिं / जम्हा अविमणे वीरे, तम्हा वीरे न रज्जइ विपर्यासोदुःखंतदुपैति। उक्तंच- "दुःखद्विट्सुखलिप्सुर्मोहान्धत्यादृष्ट- ॥१॥"(सू०६८) गुणदोषः / यां यां करोति चेष्टां, तया तया दुःखमादत्ते॥६॥" यदि वा- ममायितं-मामकं तत्र मतिर्ममायितमतिस्तां यः परिग्रहविपाकज्ञो मूढो-हिताहितप्राप्तिपरिहाररहितो विपर्यासमुपैति-हितमप्यहित- जहाति-परित्यजतिसममायितं-स्वीकृतं परिग्रहं जहाति-परित्यजति / बुद्ध्याऽधितिष्ठत्यहितं च हितबुद्ध्येति, एवं कार्याकार्यपथ्यापथ्य- इह द्विविधः परिग्रहोद्रव्यतो, भावतश्च / तत्र परिग्रहमतिनिषेधादान्तरो वाच्यावाच्यादिष्वपि विपर्यासो योज्यः / इदमुक्तं भवति-मोहोऽज्ञानं भावपरिग्रहो निषिद्धः, परिग्रहबुद्धिविषयप्रतिषेधाच बाह्यो द्रव्यपरिग्रह मोहनीयभेदो वा, तेनोभयप्रकारेणापि मोहेन मूढोऽल्पसुखकृते इति / अथवा-काक्वा नीयते, यो हि परिग्रहाध्यवसायकलुषितं ज्ञान तत्तदारभते येन शारीरमानसदुःखव्यसनोपनिपातानामनन्तमपि कालं परित्यजति स एव परमार्थतः सबाह्याभ्यन्तरं परिग्रहं परित्यजति, पात्रतां व्रजतीति। पुनरपि मूढस्यानर्थपरम्परां दर्शयितुमाह- 'सएण' ततश्चेदमुक्तं भवति-सत्यपि सम्बन्धमात्रे चित्तस्य परिग्रहकालुष्याभावाइत्यादि-स्वकीयेनात्मना कृतेन प्रमादेन मद्यादिना विविधमिति मद्य- नगरादिसम्बन्धः पृथ्वीसम्बन्धेऽपि जिनकल्पिकस्येव निष्परिग्रहत्व। विषयकषायविकथानिद्राणां स्वभेदग्रहणम् , तेन पृथग्-विभिन्नं व्रतं यदि नामैवं ततः किमित्याह- 'से हु' इत्यादि, यो हि मोक्षैकविधहेतोः करोति। यदिवा-पृथु विस्तीर्णम्'वय मिति-वयन्ति-पर्यटन्ति प्राणिनः संसारभ्रमणकारणात्परिग्रहान्निवृत्ताध्यवसायः, हुः-अवधारणे, सएवं स्वकीयेन कर्मणा यस्मिन् स वयः-संसारस्तं प्रकरोति, एकैकस्मिन् मुनिः, दृष्टो ज्ञानादिको मोक्षपथो येन स दृष्टपथः, यदिवा-दृष्टभयःकाये दीर्घकालावस्थानाद् / यदि वा-कारणे कार्योपचारात् स्वकीयेन अवगतसप्तप्रकारभयः शरीरादेः परिग्रहात्साक्षात्पारम्पर्येण वा पर्यालीच्यनानाविधप्रमादकृतेन कर्मणा वयः-अवस्थाविशेषस्तमेकेन्द्रियादि- मानं सप्तप्रकारमपि भयमापनीपद्यत इत्यतः परिग्रहपरित्यग्गे कललार्बुदादितदह-तिबालादिव्याधिगृहीतदारिद्र्यदौर्भाग्यव्यस- ज्ञातभयत्वमवसीयत इति। एतदेवपूर्वोक्तं स्पष्टयितुमाह- जस्स' इत्यादि नोपनिपातादिरूपं प्रकर्षण करोति-विधत्त इति / तस्मिश्च संसारेऽ- यस्य ममायितं-स्वीकृतं परिग्रहो न विद्यते स दृष्टभयो मुनिरिति संबन्धः। वस्थाविशेषे वा प्राणिनः पीड्यन्ते इति दर्शयितुमाह- 'जंसिमे इत्यादि, किं च- 'त' इत्यादि, तम्-पूर्वव्यावर्णितस्वरूपं परिग्रहं द्विविधयाऽपि यस्मिन् स्वकृतप्रमादापादितकर्मविपाकजनिते चतुर्गतिकसंसारे परिज्ञया परिज्ञाय मेधावीज्ञातज्ञेयो विदित्वा लोकम्-परिग्रहाग्रहएकेन्द्रि-याद्यवस्वाविशेषेवा इमे-प्रत्यक्षगोचरीभूताः 'प्राणाः' इत्यभेदो- | योगविपाकि नमेकेन्द्रियादिप्राणिगणं वान्त्वा-उद्गीर्य लोकस्य-प्राणिग
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________________ लोगविजय 737 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लोगविजय णस्य संज्ञा दशप्रकारा अतस्ताम् 'स' इति-मुनिः, किंभूतो ? मतिमान्सदसद्विवेकज्ञः पराक्रमेथाः-संयमानुष्ठानेसमुद्यच्छः, संयमानुष्ठानोद्योगं सम्यग्विदध्या इति यावद् / अथवा-अष्टप्रकारं कारिषड्वर्ग वा विषयकषायान् वा पराक्रमस्वेति / इतिरधिकार-समाप्तौ, ब्रवीमीति पूर्ववत्। स एवं संयमानुष्ठाने पराक्रममाणस्त्यक्तपरिग्रहाग्रहयोगो मुनिः किंभूतो भवतीत्याह-तस्य हि त्यक्तगृहगृहिणीधनहिरण्यादिपरिगृहस्य निष्किञ्चनस्य संयमानुष्ठानं कुर्वतः साधोः कदाचिन्मोहनीयोदयादरतिराविः स्यात् , तामुत्पन्नां संयमविषयां न सहते-नक्षमते, कोऽसौ ? विशेषेणेरयतिप्रेरयति अष्टप्रकार कम्मििरषड्वर्गवेति वीर:-शक्तिमान्, स एवं वीरोऽसंयमे विषयेषु परिग्रहे वा या रतिरुत्पद्यते ताम् न सहते न मर्षति, या चारतिः संयमे, विषयेषु च रतिस्ताभ्यां विमनीभूतः शब्दादिषु न रज्यति, अतो रत्यरतिपरित्यागान्न विमनस्को भवति नापि रागमुपयातीति दर्शयतियस्मात्त्यक्तरत्यरतिरविमना वीरस्तस्मात् कारणाद्वीरो न रज्यति-शब्दादिविषयग्रामे न गायं विदधाति। यत एवं ततः किमित्याह - सद्दे फासे अहियासमाणे, निर्दिवदनंदि इह जीवियस्स। मुणी मोणं समायाय, धुणे कम्मसरीरगं // 2 // पंतं लूहं सेवंति वीरा, संमत्तदंसिणो एस।। ओहंतरे मुणी तिने मुत्ते विरए वियाहिए त्ति बेमि।। (सू०६९) यस्माद्वीरो रत्यरती निराकृत्य शब्दादिषु विषयेषु मनोज्ञेषु न रागमुपयाति, नापि द्विष्टेषु द्वेषम् , तस्माच्छब्दान् स्पर्शाश्च मनोज्ञेतरभेदभिन्नान् 'अहियासमाणे त्ति सम्यक् सहमानो निर्विन्द नन्दीत्युत्तरसूत्रेण सम्बन्धः, एतदुक्तं भवति-मनोज्ञान् शब्दान् श्रुत्वा न रागमुपयाति, नापीतरान् द्वेष्टि आद्यन्तग्रहणाचेतरेषाभप्युपादानं द्रष्टव्यम्, तत्राप्यतिसहनं विधेयमिति। उक्तञ्च-"सद्धेषु अभद्द-यपा-वएसुसोयिविसयमुवगएसु। तुह्रण व रुद्रुण व, समणेण सया न होअव्वं / / 1 / / एवं रूवेसु अ भद्दयपा-वएसु० / तहा गंधेसु अ०|| "इत्यादि वाच्यम्, ततश्च शब्दादीन्विषयानतिसहमानः किं कुर्यादित्याह- 'निट्विंद' इत्यादि, इहोपदेशगोचरापन्नो विनेयोऽभिधीयते, सामान्येन वा मुमुक्षोरयमपदेशः, निर्विन्दस्वजुगुप्सस्व ऐश्वर्यविभवात्मिका मनसस्तुष्टिर्नन्दिस्ताम् इह-मनुष्यलोके यजीवितमसंयमजीवितं वा तस्य या नन्दिः-तुष्टिः प्रमोदो यथा ममैतत्समृद्ध्यादिकमभूद्भवति भविष्यति वेत्येवंविकल्पजनितां नन्दी जुगुप्सस्व-यथा किमनया पापोपादानहेतुभूतयाऽस्थिरयेति ? उक्तं च- "विभव इति किं मदस्ते ? च्युतविभवः किं विषादमुपयासि ? करनिहितकन्दुकसमाः, पातोत्पाता मनुष्याणाम् // 1 // " एवं रूपबलादिष्वपि वाच्यम्,सनत्कुमारदृष्टान्तेनेति, अथवापञ्चानामप्यतीचाराणामतीतं निन्दति प्रत्युत्पन्नं संवृणोत्यनागतं प्रत्याचष्टे। स्यादेतत्-किमालम्ब्य करोतीत्याह-'मुणी त्यादि, मुनिस्त्रिकालवेदी यतिरित्यर्थः, मुनेरयं मौनः-संयमः, यदि वा- मुनेमविः मुनित्वं / तदप्यसावेव, मौनं वा वाचः संयमनम्, अस्य चोपलक्षणार्थत्वात् कायमनसोरपि, अतः सर्वथा संयममादाय, किं कुर्यात् ? - धुनीयात् कर्मशरीरकम औदारिकादिशरीरं वा, अथ-वा-'धुनीहि' विवेचय पृथक्कु रु-तदुपरि ममत्वं मा विधत्स्वेति भावार्थः / कथं तच्छरीरकं धूयते, ममत्वं या तदुपरिन कृतं भवतीत्याह-'प्रान्तस्वाभाविकरसरहितं स्वल्पं वा रूक्षम्-आगन्तुकस्नेहादिरहितं द्रव्यतो भावतोऽपि प्रान्तम्- द्वेषरहितं विगतधूम रूक्षम्-रागरहितमपगतागारं सेक्न्ते-भुजते, के ? वीराःसाधवः / किंभूताः? समत्वदर्शिनः रागद्वेषरहिताः सम्यक्त्वदर्शिनोवासम्यक्तत्त्वं सम्यक्त्वंतर्शिनः परमार्थदृशः, तथाहि-इदं शरीरकं कृतघ्नं निरुपकारि, एतत्कृते प्राणिनः ऐहिकामु ष्मिकक्लेशभाजो भवन्ति, अनेकादेशे चैकादेश इति कृत्वा, प्रान्तरूक्षसेवी समत्वदर्शी च कं गुणमवाप्नोतीत्याह-'ए-स' इत्यादि, एष इति प्रान्तरूक्षाहारसेवनेन कर्मादिशरीरंधुनानो भावतो भदौघंतरतीति। कोऽसौ ? मुनिः-यतिः, अथवा-क्रियमाणं कृतमिति कृत्वा तीर्ण एव भवौघम् / कश्च भवौधं तरति ? - यो मुक्तः-सबाह्याभ्यन्तरपरिग्रहरहितः, कश्च परिग्रहान्मुक्तो भवति ?-यो भावतः शब्दाऽऽदिविषयाभिष्वङ्गाद्विरतः, ततश्च यो मुक्तत्वेन विरतत्वेन वा विख्यातो मुनिः स एव भवौघं तरति, तीर्ण एवेति वा स्थितम् / इतिः अधिकारपरिसमाप्तौ, ब्रवीमीति पूर्ववत् / यश्च मुक्तत्वविरतत्वाभ्यां न विख्यातः स किंभूतो भवतीत्याह-("दुव्वसुमुणी "इत्यादि सूत्राणि 'धम्मकहा' शब्दे चतुर्थभागे 2712 पृष्ठ प्रसङ्गाद् गतानि।) तद्व्याख्या-चेयम्-वसुद्रव्यमेतच भव्येऽर्थेव्युत्पादितं 'द्रव्यं च भव्य' इत्यनेन, भव्यश्चमुक्तिगमनयोग्यः ततश्च मुक्तिगमनयोग्यं यद् द्रव्यम् तद् वसु, दुष्टं वसु दुर्वसु, दुर्वसु चासौ मुनिश्च दुर्वसुमुनिःमोक्षगमनाऽयोग्यः। सच कुतो भवति?-अनाज्ञया-तीर्थकरोपदेशशून्यः स्वैरीत्यर्थः, किमत्र तीर्थकरोपदेशे दुष्करं येन स्वैरित्वमभ्युपगम्यते ? तदु-च्यते-उद्देशकादेरारभ्य सर्व यथा सम्भवंमायोज्यम् , तथाहिमिथ्यात्वमोहिते लोके संबोद्धुं दुष्करं व्रतेष्वात्मानमध्यारोपयितुंरत्यरती निगृहीतुं शब्दादिविषयेष्विष्टानिष्टषु मध्यस्थतां भावयितुं प्रान्तरूक्षाणि भोक्तुम् , एवं यथोद्दिष्टया मौनीन्द्राज्ञया असिधारकल्पया दुष्करं सञ्चरितुं तथाऽनुकूलप्रतिकूलांश्च नाना-प्रकारानुपसर्गान् सोढुम् , असहने च कम्र्मोदयोऽनाद्यतीतकाल-सुखभावना च कारणम्, जीवो हि स्वभावतो दुःखमीरुरनिरोध-सुखप्रियः, अतो निरोधकल्पायामाज्ञायां दुःखं वसति, अवसंश्च किंभूतो भवतीत्याह-'तुच्छ' इत्यादि, तुच्छोरिक्तः, स च द्रव्यतो निर्धनो घटादि जलादिरहितो, भावतो ज्ञानादिरहितः, ज्ञानादिरहितो हि वचित्संशीतिविषये केनचित्पृष्टोऽपरिज्ञानात् ग्लायति वक्तुम् , ज्ञानसमन्वितो वा चारित्ररिक्तः पूजासत्कारभयात् शुद्ध-मार्गप्ररूपणावसरे ग्लायति यथावस्थितं प्रज्ञापयितुम् , तथाहिप्रवृत्त-सन्निधिः सन्निधेर्निर्दोषतामाचष्टे, एवमन्यत्रापीति। यस्तुकषायमहाविषागदकल्पभगवदाज्ञोपजीवकः स सुवसुमुनिर्भवत्यरिक्तो न ग्लायति च वक्तुम् ,यथावस्थितवस्तुपरिज्ञानाद् अनुष्ठानाच / आह च
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________________ लोगविजय 738 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लोगविजय 'एस' इत्यादि, 'एस' इति सुवसुमुनिानाधरिक्तो यथाव-स्थितमार्गप्ररूपको वीरः कर्मविदारणात् प्रशंसितः तद्विद्भिः श्लाधित इति। किञ्च- 'अच्चेइ त्यादि, स एवं भगवदाज्ञानुवर्तको वीरोऽत्येतिअतिक्रामति, कं लोकसंयोगम्-लोकेनासंयतलोकेन संयोगः-सम्बन्धः ममत्वकृतस्तमत्येति, अथवा-लोको बाह्योऽभ्यन्तरश्च, तत्र बाह्योधनहिरण्मातापित्रादिः, आन्तरस्तुरागद्वेषादिस्तत्कार्यं वा अष्टप्रकारं कर्म तेन सार्द्ध संयोगमत्येति-अतिलइयतीत्युक्तंभवति / यदि नामैवं ततः किमित्याह- 'एस' इत्यादि,योऽयं लोकसंयोगातिक्रमः एष न्यायःएष सम्मार्गः मुमुक्षूणामयमाचारःप्रोच्यते-अमिधीयते, अथवा-परम्आत्मानं च मोक्षं नयतीति छान्दसत्वात्कर्तरिघञ्-नायः, यो हि त्यक्तलोकसंयोग एष एव परात्मनो मोक्षस्य नायः प्रोच्यते-मोक्ष-प्रापकोऽभिधीयते सदुपदेशात् / स्यादेतत् किंभूतोऽसावुपदेश इत्यत आहयदुःखं दुःखकारणं या कर्मलोकसंयोगात्मकंवा प्रवेदितम्-तीर्थकृद्भिरावेदितम् इह-अस्मिन् संसारे मानवानाम्-जन्तूनाम् , ततः किम् ?तस्य दुःखस्य-असातलक्षणस्य कर्मणो वा कुशलानिपुणा धर्मकथालब्धिसम्पन्नाः स्वसमयपरसमयविद उद्युक्तविहारिणो यथावादिनस्तथाकारिणो जितनिद्रा जितेन्द्रिया देशकालादिक्रमज्ञास्ते एवंभूताः परिज्ञाम्-उपादानकारणपरिज्ञानं निरोधकारणपरिच्छेदं चोदाहरन्तिज्ञपरिज्ञया प्रत्याख्यानपरिज्ञया च परिहरयन्ति च। किं च- 'इतिकम्म' इत्यादि, इतिः-पूर्वप्रक्रान्तपरामर्शको यत्तदुःखप्रवेदितं मनुजानाम् , यस्यचदुःखस्य परिज्ञां कुशला उदा हरन्ति तदुःखं कर्मकृतं तत्कमाष्टप्रकारं परिज्ञाय तदाश्रवद्वाराणि च / तद्यथा-ज्ञानप्रत्यनीकतया ज्ञानावरणीयमित्यादि, प्रत्याख्यानपरिज्ञया प्रत्याख्याय तदाश्रवद्वारेषु सर्वशः-सर्व प्रकारैर्योगत्रिककरणत्रिकरूपैर्न वर्तेत, अथवा-सर्वशः परिज्ञाय कथयति, सर्वशः परिज्ञानं च केवलिनो गणधरस्य चतुर्दशपूर्वविदो, वायदिवा-सर्वशः कथयति, आक्षेपण्याद्या चतुर्विधया धर्मकथयेति / सा च कीदृक्कथेत्याह- 'जे' इत्यादि, अन्यद् द्रष्टुं शीलमस्येत्यन्यदर्शी यस्तथानासावनन्यदर्शीयथावस्थितपदार्थद्रष्टा, कश्चैवंभूतो?यः सम्यग्दृष्टिमौनीन्द्रप्रवचनाविर्भूततत्त्वार्थः, यश्चानन्यदृष्टिः सोऽनन्यारामोमोक्षमार्गादन्यत्र न रमते / हेतुहेतुमद्भावेन सूत्रं लगयितुमाह'जे' इत्यादि, यश्च भगवदुपदेशादन्यत्र नरमते सोऽनन्यदर्शी यश्चैवम्भूतः सोऽन्यत्र न रमत इति। उक्तं च- "शिवमस्तु कुशास्त्राणां, वैशेषिकषष्टितन्त्रबौद्धानाम् / येषां दुर्विहितत्वाद्भगवत्यनुरज्यते चेतः / / 1 // " इत्यादि। तदेवं सम्यक्त्वस्वरूपमाख्यातम् , कथञ्चारक्तद्विष्टः कथयतीति दर्शयति- 'जहा पुण्णस्स' इत्यादि, तीर्थकरगणधराचार्यादिना येन प्रकारेण पुण्यवतः-सुरेश्वरचक्रवर्त्तिमाण्डलिकादेः कथ्यते-उपदेशो दीयते तथा-तेनैव प्रकारेण तुच्छस्यद्रमकस्य काष्ठहारकादेः कथ्यते, अथवा-पूर्णो-जातिकुलरूपाद्युपेतस्तद्विपरीतस्तुच्छः, विज्ञानवान् वा | पूर्णस्ततोऽन्यस्तुच्छ्व इति, उक्तंच-"ज्ञानेश्वर्यधनोपेतो, जात्यन्वयबलान्वितः। तेजस्वी मतिमान् ख्यातः, पूर्णस्तुच्छो विपर्ययात्॥१॥" एतदुक्तं भवति, यथा-द्रमकादेस्तदनुग्रहबुद्ध्या प्रत्युप्रकारनिरपेक्षः कथयत्येवं चक्रवत्यादेरपि यथा वा चक्रवादः कथयत्यादारेण संसारोत्तरणहेतुमेवमितरस्यापि। अत्रच निरीहता विवक्षितानि पुनरयं नियमःएकरूपतयैव कथनीयम्, तथाहि-यो यथा बुध्यते तस्य तथा कथ्यते, बुद्धिमतो निपुणं स्थूलबुद्धेस्त्वन्यथेति, राज्ञश्च कथयता तदभिप्रायमनुवर्तमानेन कथनीयम्; किमसावभिगृहीतमिथ्यादृष्टिरनभिगृहीतो वा संशीत्यापन्नो वा ? अभिगृहीतोऽपि कुतीर्थिकैर्युग्राहितः स्वत एव वा ? तस्य चैवम्भूतस्य यद्येवं कथयेद्यथा-"दशसूनासमश्चक्री, दशचक्रिसमो ध्वजः। दशध्वजसमा वेश्या, दशवेश्यासमोनृपः॥१॥"तद्भक्तिविषयरुद्रादिदेवताभवनचरितकथनेच मोहोदयात्तथाविधकर्मोदये कदाचिदसौ प्रद्वेषमुपगच्छेद, द्विष्टश्चैतद्विदध्यादित्याह च-अपिः सम्भावने, आस्ता तावद्वाचा तर्जनम्, अनाद्रियमाणो हन्यादपि, चशब्दादन्यदप्येवं जातीयक्रोधाभिभूतो दण्डकशादिना ताडयेदिति। उक्तं च-"तत्थेव य निट्ठवणं, बंधणनिच्छुमणकडगमद्दो वा। निविसयं वनरिंदो, करेज संघ पि सो कुद्धो // 1 // ' तथा तच्चनिकोपासको नन्दबलात् बुद्धोत्पत्तिकथानकाद्भागवतो वा भल्लिगृहोपाख्यानाद्रौद्रो वा पेढालपुत्रसत्यक्युमाव्यतिकराकर्णनात् प्रद्वेषमुपगच्छेत्, द्रमककाणकुण्टादि कश्चित्तमेवोद्दिश्योद्दिश्य धर्मफलोपदर्शनेनेति। एवमविधिकथनेनेहैव तावद्वाधा, आमुष्मिकोऽपि न कश्चिद्गुणोऽस्तीत्याह च- 'एत्थं पि' इत्यादि,मुमुक्षोः परहितार्थ धर्मकथां कथयतस्तावत्पुण्यस्ति, परिषदं त्वविदित्वाऽनन्तरोपवर्णितस्वरूपकथने अत्रापिधर्मकथायामपि श्रेयः-पुण्यमित्येतन्नास्तीत्येवं जानी हि, यदिवा असौ-राजादिरनाद्रियमाणस्तसाधु धर्मकथिकमपि हन्यात्। कथमित्याह- "एत्थं पी' त्यादि, यद्यदसौ पशुवधतर्पणादिकं धर्मकारणमुपन्यस्यति तत्तदसौधर्मकथिकोऽत्रापि श्रेयो नविद्यते इत्येवं प्रतिहन्ति, यदिवा-यद्यदविधिकथनंतत्रतत्रेदमुपतिष्ठतेअत्रापि श्रेयो नास्तीति, तथाहि-अक्षरकोविदपरिषदि पक्षहेतुदृष्टान्ताननादृत्य प्राकृतभाषया कथनमविधिरितरस्यांचान्यथेति। एवं च प्रवचनस्य हीलनैव केवलं कर्मबन्धश्च, न पुनः श्रेयो, विधिमजानानस्य मौनमेव श्रेय इति। उक्तं च-"सावजणवजाणं, वयणाणं जो न याणइ विसेसं। वुत्तुं पि तस्स न खमं, किमंग? पुण देसणं काउं? // 1 // " स्यादेतत्कथं तर्हि धर्मकथा कार्येत्युच्यतेकोऽयम-इत्यादि, यो हि वश्येन्द्रियो विषयविषपराङ्मुखः संसारोद्विग्नमना वैराग्याकृष्यमाणहृदयो धर्म पृच्छति, तेनाचायादिना धर्मकथिकेनासौ पर्यालोचनीयः-कोऽयं पुरुषः ? मिथ्यादृष्टिरुत भद्रकः, केन वाऽऽशयेनाऽयं पृच्छति, कं च देवताविशेष नतः, किमनेन दर्शनमाश्रितमित्येवमालोच्य यथायोगमुत्तरकालं कथनीयम् , एत-दुक्तं भवति-धर्मकथाविधिज्ञो ह्यात्मना परिपूर्णः श्रोतारमालोचयति द्रव्यतः क्षेत्रतः-किमिदं क्षेत्रं तचनिकैर्भागवतरे
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________________ लोगविजय 739 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लोगविरुद्धचाय न्यैर्वा तज्जातीयैः पार्श्वत्थादिभिर्वोत्सर्गरुचिभिर्वा भावितम, काल-तो- विषयाभिष्वङ्गजनितसुखेच्छा परिग्रहसंज्ञा वा, तां च ज्ञपरिज्ञया ज्ञात्वा दुष्पमादिकं कालं दुर्लभद्रव्यकालं वा, भावतो-अरक्तद्विष्टमध्वस्थ- प्रत्याख्यानपरिज्ञया न परिहरेत् , कथं ?-सर्वशः सर्वैः प्रकारोगत्रिभावापन्नमेवं पर्यालोच्य यथा यथा असौ बुध्यते तथा तथा धर्मकथा ककरणत्रिकेणेत्यर्थः, तस्यैवंविधस्य यथोक्तगुणावस्थितस्य धर्मकथाकार्या, एवमसौ धर्मकथायोग्यः, अपरस्य त्वधिकार एव नास्तीति / विधिज्ञस्य बद्धप्रतिमोचकस्य कर्मोद्घातनखेदज्ञस्य बन्धमोक्षान्वेषिणः उक्तं च-"जो हेउवायपक्खम्मि हेउओ आगमम्मि आगमिओ / सो सत्पथव्यवस्थितस्य कुमार्गनिराचिकीषोहिँसाद्यष्टादशपापस्थानससमयपण्णवओ, सिद्धंतविराहओ अण्णो॥१॥"य एवं धर्मकथा- विरतस्यावगतलोकसंज्ञस्य यद्भवति तद्दर्शयति-उद्दिश्यते नारकादिविधिज्ञः स एव प्रशस्त इत्याह च- 'एस' इत्यादि, यो हि पुण्यापुण्यवतो व्यपदेशेनेत्युद्देशः, स पश्य-कस्यपरमार्थदृशो न विद्यते इत्यादीनि च धर्मकथासमदृष्टिविधिज्ञः श्रोतृविवेचकः एषः-अनन्तरोक्तो वीर:- सूत्राण्युद्देशकपरिसमाप्तिं यावत्तृतीयोद्देशके व्याख्यातानि, ततएवार्थोऽकर्मविदारकः प्रशंसितः-लाधितः / किंभूतश्च यो भवतीत्याह-'जे वगन्तव्यः, आक्षेपपरिहारौ चेति। तानि चामूनिबालः पुनर्निहः कामसमबद्धे' इत्यादि, यो ह्यष्टप्रकारेण कर्मणा स्नेहनिगडादिना वा बद्धानां नुज्ञः अशमितदुःखः दुःखोदुःखानामेवावर्त्तमनुपरिवर्त्तते। इतिः परिसजन्तूनां प्रतिमोचकः धर्मकथोपदेशदानादिना स च तीर्थकृद्गणधर माप्तौ ब्रवीमीति पूर्ववत्। उक्तः षष्ठोद्देशकः। तत्परिसमाप्तौ चोक्तः सूत्राआचार्यादिर्वा यथोक्तधर्मकथाविधिज्ञ इति। वपुनर्व्यवस्थितान् जन्तून् नुगमः सूत्रालापकनिष्पन्नः, निक्षेपश्च ससूत्रस्पर्शनियुक्तिकः। सा-म्प्रतं मोचयतीत्याह-'उर्ल्ड' इत्यादि, ऊर्वेज्योतिष्कादीन् अधोभवनपत्या- नैगमादयो नयाः, ते चान्यत्र न्यक्षेण प्रतिपादिता इति नेह प्रतन्यन्ते, दीन् तिर्यक्षुमनुष्यादीनिति। किंच- 'से सव्वओ' इत्यादि, 'स' इति- संक्षेपतस्तु ज्ञानक्रियानयद्वयान्तर्गतत्वात्तेषां तावेव प्रतिपाद्येते, तयोरधीरोवद्धप्रतिमोचकः सर्वतः-सर्वकालं सर्वपरिज्ञया द्विविधयाऽपि चरितुं प्यात्मीयपक्षसावधारणतया मोक्षाङ्गत्वाभावात्प्रत्येक मिथ्यादृष्टित्वम्; शीलमस्येति सर्वपरिज्ञाचारीविशिष्टज्ञानान्वितःसर्वसंवरचारित्रोपेतोवा, अतः पम्वन्धवत् परस्परसापेक्षतयेष्टकार्यावाप्तिरवगन्तव्येति उपगम्यते। स एवंभूतः कं गुणमवाप्नोतीत्याह- 'न लिप्पई' त्यादि, न लिप्यते- आचा०१ श्रु०२ अ०६ उ०ालोककषायविजये,संथा। नावगुण्ठ्यते, केन ? क्षणपदेम-हिंसास्पदेन प्राण्युपमर्दजनितेन, क्षण लोगवियस्सि(न)-त्रि०(लोकविदर्शिन) लोकं विषयानुषङ्गावाप्तहिंसाया-मित्यस्यैतद्रूपम्। कोऽसौ ? वीर इति! किमेतावदेव वीरलक्षण दुःखातिशयं तथा त्यक्तकामावाप्तप्रशमसुखं विविधं द्रष्टुं शीलमस्येति भुतान्यदप्यस्तीत्याह-'से महावी' त्यादि , स मेधावी-बुद्धिमान् यः लोकविदर्शी,अथवा-लोकस्योधिस्तिर्यग्भागगतिकारणायुष्कसुखअणोद्घातनस्यखेदज्ञः-अणत्यनेन जन्तुगणश्चतुर्गतिकं संसारमित्यणं दुःखविशेषान् पश्यतीति लोकविदर्शी। लोकस्य विशेषतो द्रष्टरि, आचा० कर्म तस्य उत्-प्राबल्येन धातनम्-अपनयनं तस्य तत्र वा खेदज्ञो 1 श्रु०२ अ०५ उ०। निपुणः, इह हि कर्मक्षपणोद्यतानां मुमुक्षूणां यः कर्मक्षपणविधिज्ञः स लोगवित्त-न०(लोकवृत्त) आहारभयमैथुनपरिग्रहोत्कटसंज्ञात्मके मेधावी कुशलो वी इत्युक्तं भवति, किं चान्यत्- 'जे य' इत्यादि, यश्च लोकस्य वृत्ते, आचा०१ श्रु०५ अ०२ उ०। प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेश-रूपस्य चतुर्विधस्यापि बन्धस्य यः प्रमोक्षः तदुपायो वा तमन्वेष्टुमृगयितुं शीलमस्येत्यन्वेषी, यश्चैवम्भूतः स वीरो लोगविरुद्ध-न०(लोकविरुद्ध) बहुजनविरोधहेतुभूतानुष्ठानविशेषे, पञ्चा० मेधावी खेदज्ञ इति पूर्वेण सम्बन्धः, 'अणोद्घातनस्य खेदज्ञ' इत्यनेन 2 विव० / जननिन्थे, जीवा० 13 अधि०।लोकविरुद्धं लोकस्य निन्दामूलोत्तर-प्रकृतिभेदभिन्नस्य योगनिमित्तायातस्य कषायस्थितिकस्य विशिष्टस्य च गुणसमृद्धस्येयम् ,आत्मोत्कर्षश्च, यतः-"परपरिभवकर्मणो बध्यमानावस्थां बद्धस्पृष्टनिधत्तनिकाचितरूपां तदपनयनो परिवादादात्मोत्कर्षाच्च बध्यते कमानीचैर्गोत्रं प्रतिभवमनेकभवकोटिपायं च वेत्तीत्येतदभिहितम् , अनेन चापनयनानुष्ठानमिति न पुनरुक्त दुर्मोचम् // 1 // " तथा-ऋजूनामुपहासः गुणवत्सु मत्सरः, कृतघ्नत्वं दोषानुषङ्गः प्रसजति / स्यादेतत्-योऽयमणोद्धातनस्य खेदज्ञो च, बहुजनविरुद्धैः सह सङ्गतिः, जनमान्यानामवज्ञा, धर्मिणां स्वजनानां बन्धमोक्षान्वेषको वाऽभिहितः स किं छद्मस्य आहोस्वित् केवली ? वा व्यसने तोषः, शक्तौ तदप्रतीकारः, देशाधुचिताचारलङ्घनम, वित्ताकेवलिनो यथोक्तविशेषणासम्भवाच्छास्थग्रहणम् , केवलिनस्तर्हि का द्यननुसारेणत्युद्भटातिमलिनवेषादिकरणम्, एवमादिलोकविरुद्धवार्तेति ? उच्यते- 'कुसले' इत्यादि / (आचा०) (आरम्भविषयः मिहाप्यपकीयादिकृत्। यदाह वा-चकमुख्यः- "लोकः खल्वाधारः, 'आरंभ' शब्दे द्वितीयभागे 372 पृष्ठे गतः।) यद्यद्भगवदनाचीर्ण-परिहार्य सर्वेषां धर्मचारिणां यस्मात् / तस्माल्लोकविरुद्धं, धर्मविरुद्धं च तन्नामग्राहमाह- 'छणंछणं' इत्यादि, क्षणु हिंसायाम् , क्षणनं क्षणो. संत्याज्यम् // 1 // " तत्त्यागे च जनानुरागस्वधर्मनिर्वाहरूपा गुणः / हिंसनं कारणे कार्योपचारात्, येन येन प्रकारेण हिंसोत्पद्यते तत्तज्ज्ञपरि आहच- "एआइँ परिहरंतो, सव्वस्स जणस्स वल्लहो होइाजणवल्लज्ञया परिज्ञाय प्रत्याख्यानपरिज्ञया परिहरेद् , यदिवा-क्षण:-अवसरः हत्तणं पुण, नरस्स सम्मत्ततरुवीयं // १॥"ध०२ धि०। कर्तव्यकालस्तं तं ज्ञपरिज्ञया ज्ञात्वा आसेवनापरिज्ञया च आश्वरेदिति। / लोगविरुद्धचाय-पुं०(लोकविरुद्धत्याग) सर्वजननिन्दादिलोकविरुद्धाकिं च- 'लोयसन्नं' इत्यादि, लोकस्य गृहस्थलोकस्य संज्ञानं संज्ञा- | नुष्ठानवर्जने, ध०२ अधि०। ल०।
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________________ लोगसण्णा 740- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लोगसण्णा लोगसण्णा-स्त्री०(लोकसंज्ञा) मतिज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमनात् शब्दाद्यर्थगोचरायां सामान्यावबोधक्रियायाम् , प्रज्ञा० 10 पद। लोकसंज्ञास्वच्छन्दधटितविकल्परूपा लौकिकाचरिता, यथा-न सन्त्यनपत्यस्य लोकाः, श्वानो-यक्षाः, विप्रादेवाः, काकाः-पितामहाः। आचा०१ श्रु० 1 अ०१ उ०। अथ निर्वेदी जीवः मोक्षसाधनोद्यमवर्ती लोकसंज्ञायां न मुह्याति, लोकसंज्ञा हि धर्मसाधनव्याघातकरा आप्तैस्त्याज्या इति, तदुपदेशरूपं लोक संज्ञात्यागाष्टकं विस्तार्यते / लोकः,सप्तविधःनामलोकः-शब्दालापरूपः, स्थापनालोकः-अक्षरः, लोकनालियन्त्रन्यासरूपः,रूप्यजीवाजीवात्मकः-द्रव्यलोकः,ऊधिस्तिर्यग्लक्षणःक्षेत्रलोकः, समयावल्यादिकालपरिमाणलक्षणः-काललोकः, नरनारकादि-चतुर्गतिरूपः-भवलोकः, औदयिकादिभावपरिणामः-भावलोकः द्रव्यगुणपर्यायपरिणमनरूपः-पर्यवलोकः / इदंचसर्वमपि आवश्यकनियुक्तितो ज्ञेयम्।अथवा-द्रव्यलोकः-संसाररूपः अप्रशस्तभावलोकःपरभावकत्वजीवसमूहः, अत्र भवलोकाप्रशस्तभावलोकस्य संज्ञा त्याज्या, लोकसंज्ञा च नयसप्तकेन धर्मार्थिभिः परिहरणीया - प्राप्तः षठं गुणस्थानं, भवदुर्गाद्रिलङ्घनम्। लोकसंज्ञारतो न स्यान, मुनिर्लोकोत्तरस्थितिः॥१॥ प्राप्त इति-मुनिः-संयमी आस्रवविरतः षष्ठम्-सर्वविरतिलक्षणं प्रमत्ताख्यं प्राप्तः, लोकसंज्ञा-लोकः कृतं तत्कर्त्तव्यम् गतानुगति- / कतानीतिरित्यत्र रतः-रागी गृहीतग्रहः न स्यात्, लोकैः कृतं तदेव करणीयम् इति मति निवार्य आत्मसाधनोपायरतः स्यात्। किभूतं षष्ठं गुणस्थानम् ? भवः संसारः स एव दुर्गाद्रिः-विषमपर्वतः तस्य लङ्घनम्, किं विशिष्टः मुनिः? लोकोत्तरस्थितिः-लोकातीतमर्यादया स्थितः लोको हि विषयाभिलाषी मुनिः-निष्कामः, लोकः पुद्गलसंपज्ज्येष्ठत्वमानी गुनि नादिसंपदा श्रेष्ठः, अतः किल लोकसंज्ञया किं तेषाम् ? // 1 // यथा चिन्तामणिं दत्ते, बठरो बदरीफलैः। इहा जहाति सद्धर्म, तथैव जनरञ्जनः॥२॥ यथा चिन्तमणिमिति-यथा येन प्रकारेण कश्चित् बठरः-मूर्खः बदरीफलैः चिन्तामणिं दत्ते ; तथैव मूढः जनरञ्जनैः-लोकश्लाघाभिलाषैः सद्धर्म द्रव्याचरणतत्त्वानुभवलक्षणं 'हहा' इति खेदे, जहातित्यजति, इत्यनेन जिनभक्तिश्रुत-श्रवणाहारत्यागादिकंयश पूजादिना हारयति। उक्तं च-"त्वत्तः सुदुष्प्रापमिदंमयाप्तं, रत्नत्रयं भूरिभवभ्रमेण / प्रमादनिद्रावशतो गतं तत् , कस्याग्रतो नायक ! पूत्करोमि // 1 // वैराग्यरङ्गः परवञ्चनाय, धर्मोपदेशो जनरञ्जनाय। वादाय विद्याध्ययनं च मेऽभू-त्कियब्रुवे हास्यकर स्वमीश ! / / 2 / / लोकसंज्ञामयानया-मनुस्रोताऽनुगा न के। प्रतिस्रोतोऽनुगस्त्वेको, राजहंसो महामुनिः।॥३॥ लोकसंज्ञेति-लोकसंज्ञा-लोकरीतिरूपा महानदी, तस्याः अनुस्रोतः-प्रवाहः तस्य अनुगाः अनुयायिनः के न भवन्ति? अनेके इत्यर्थः, तत्र प्रतिस्रोतोऽनुगः सन्सुखप्रवाहचारीतुएकएव महा-मुनिःशुद्धश्रमणः राजहंसनामा इति, तेन लोकरूढिरूढा बहवो जीवाः, निर्ग्रन्थंः स्फुरद्रत्नत्रयसाधनोद्यतः स एव स्वरूपानुगामी। उक्तं च दशवैकालिके"अणुसोयपिट्ठिए बहुजणम्मि पडिसोयलद्धलक्खेणं / पडिसोयमेव अप्पा, दायव्वो होउ कामेण / / 1 // अणुसोयसुहो लोगो, पडिसोओ आसमो सुविहयाणं / अणुसोओ संसारो, पडिसोओ तस्स उत्तारो // 2 // " तेन मुनिर्लोकसंज्ञानुयायी न स्यात्॥३॥ लोकमालम्ब्य कर्त्तव्यं, कृतं बहुभिरेव चेत् / तदा मिथ्यादृशां धर्मो, न त्याज्यः स्यात्कदाचन / / / / लोकमिति-चेत्-यदि यद् बहुभिः कृतं तत् कर्त्तव्यं लोकमालम्ब्य एवं क्रियते तदा मिथ्यादृशां धर्मः कदाचन कदापि न त्याज्यः स्यात् , तब बहुभिः क्रियमाणत्वात् , स्वेच्छाचरणो लोको बहुतरः, यतः-अनार्येभ्यः आर्याः स्तोकाः, आर्येभ्यः जैनाचाराः स्तोकाः,जैनाचारवर्तिषु जैनपरिणतिपरिणताः स्तोकाः, अतः बहुलोकानुयायी न भवनीयमिति॥ 4 // श्रेयोऽर्थिनो हि भूयांसो, लोके लोकोत्तरे न च / स्तोका हि रत्नवणिजः, स्तीकाश्च स्वात्मसाधकाः ||5|| श्रेयोऽर्थिनो हि भूयांस इति-लोके-बाह्यप्रवाहे श्रेयोऽर्थिनः धनस्वजनभुवनवनतनुकल्याणार्थिनः भूयांसःप्रचुराः सन्ति, च-पुनः लोकोत्तरे-अमूर्ता-त्मस्वभावाविर्भावलक्षणे प्रवर्त्तमानाः न च-नैवेति हीतिनिश्चितम्, रत्नवणिजः स्तोकाः, तथा च-पुनःस्वा-त्मसाधकाःस्व आत्मा तस्य साधकाः निरावरणत्वनिष्पादकाः स्तोका इति॥५॥ लोकसंज्ञाहता हन्त !, नीचैर्गमनदर्शनैः। शंसयन्ति स्वसत्याग-मर्मघातमहाव्यथाम्॥६॥ लोकसंज्ञेति-हंत-इति खेदे, लोकसंज्ञाहता-लोकसंज्ञाव्याकुलाः नीचैर्गमनदर्शनैः-वक्रीभूतशरीरभून्यस्तदृष्ट्या गमनस्य दर्शनैः, स्वसत्यागमर्मघातमहाव्यथां स्वीयो यः सत्यागः जैनवृत्तित्यागः स च लोकरञ्जनाध्यवसायबहुलेन मर्मणि घातं लभते, तस्य घातस्य महाव्यथाम्-महापीडा शंसयन्ति-ज्ञापयन्ति, 'वयं पीडितेन वक्रशरीरा भवामः' इति शंसयन्ति-कथयन्ति वेति उत्प्रेक्षा, लोकोक्तिमिति त्यागवन्तो जीवा आत्मस्वरूपघातका इति // 6 // आत्मसाक्षिकसद्धर्म-सिद्धौ किं लोकयात्रया?| तत्र प्रसन्नचन्द्रश्च, भरतश्च निदर्शनम्॥७॥ आत्मेति-हे उत्तम ! आत्मसाक्षिकाः-आत्मा एव साक्षिकः आत्मसाक्षिकः, स चासौ सत्-शोभनः धर्मः,तस्य सिद्धौनिष्पत्तौ लोकयात्रया किं ? न किमपि, लोकानां ज्ञापनेन किमित्यर्थः, तत्र प्रसन्नचन्द्रः चपुनः भरत इति निदर्शनं दृष्टान्तः, सति द्रव्यलिने कायोत्सर्गे प्रसन्नचन्द्रस्य नरकगतिबन्धः, असति लिङ्गे मोहकलाकेलिभूतवनिताव्यूहपरिवृत्तोऽपि भरतः संप्राप्तात्मसाक्षिकत्वैकत्वरूपधर्मपरिणतः केवलं प्राप, इति आत्मसाक्षिको धर्मः-धर्म इति दृष्टान्तः, अतः आत्मसाक्षिक एव धर्मः करणीय इति॥ 7 //
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________________ लोगसण्णा 741 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लोगसार लोकसंज्ञोज्झितः साधुः, परब्रह्मसमाधिमान् / निकायान् आरम्भप्रवृत्ता विविधम्-अनेकप्रकारम् विषयाभिलाषितया सुखमास्ते गतद्रोह-ममतामत्सरज्वरः // 8 // परामृशन्ति-उपतापयन्ति, दण्डकशाताडनादिभिर्घातयन्तीत्यर्थः, लोकेति-साधुः-परमात्मसाधनोद्यतः, सुखम् आस्ते-तिष्ठति, किमर्थ विपरामृशन्तीति दर्शयति-अर्थाय-अर्थार्थम् अर्थाद्वा अर्थःकथंभूतः साधुः ? लोकसंज्ञोज्झितः-लोकसंज्ञारहितः, पुनः किंभूतः? प्रयोजनं धर्मार्थकामरूपम्, कर्मणि ल्यब्लोपे पञ्चमी, अर्थमुद्दिश्यपरब्रह्मणः-शुद्धात्मस्वरूपस्य समाधिः-स्वास्थ्यं तद्वान्-तन्मयः, प्रयोजनमुत्प्रेक्ष्य प्राणिनो घातयन्ति, तथाहि- धर्मनिमित्तं शौचार्थ आत्मज्ञानानन्दमग्नः, पुनः कथंभूतः ? गतः-नष्टः द्रोहः-मोषणशीलो पृथिवीकार्य समारभन्ते, अर्थार्थ कृष्यादि कुर्वन्ति, कामार्थमाभरणादि, ममता परभावेषु ममकारता, मत्सरः-अहंकारः एव ज्वरः-तापो यस्य एवं शेषेष्वपि कायेषु यथायोगं वाच्यम्, अनर्थाद्वा-प्रयोजनमनुद्दिश्यैव स, इत्यनेन कषायकालुष्यरहितः स्वात्मारामः स्यात्मज्ञानी तत्त्वानु तच्छीलतयैव मूगयाद्याः प्राण्युपघातकारिणी क्रियाः कुर्वन्ति, तदेवमर्थाभवयुक्तो मुनिः सुखं तिष्ठति।लोकसंज्ञात्यागेन स्वरूपयोगभोगसुखमना दनाद्व प्राणिनो हत्वा एतेष्वेव षड्जीवनिकायस्थानेषु विविधम्-अनेकनिर्ग्रन्था औदयिकमिन्द्रियसुखं दह्यमानस्वगृहप्रकाशवद् मन्यन्ते न प्रकार सूक्ष्मबादरपर्याप्तकापर्याप्तकादिभेदेन तानेकेन्द्रियादीन् प्राणिनसुखमस्ति // 8 // इति व्याख्यातं लोकसंज्ञात्यागाष्टकम् / / अष्ट० 23 स्तदुपधातकारिणः परामृशन्ति, तान् प्रपीड्य तेष्वेवानेकश उत्पद्यन्त अष्ट०॥लोकस्यगृहस्थलोकस्य, संज्ञान-संज्ञा! विषयाभिष्वङ्गजनित इति यावत्, यदिया-तत्षड्जीवनिकायबाधाऽवाप्तं कर्म तेष्वेव कायेषूसुखेच्छायाम् , आचा०१ श्रु०२ अ०६ उ०। विषयपिपासायाम् , त्पद्यते तैस्तैः प्रकारैरुदीर्ण विपरामृशन्तिअनुभवन्तीति। नागार्जुनीयाआचा०१ श्रु०३ अ०१ उ०। स्तु पठन्ति- "जावंति केइलोए छक्कायवहं समारभंति अट्ठाए अणट्ठाए लोगसण्णाहय-पुं०(लोकसंज्ञाहत)लोकसंज्ञाव्याकुले, अष्ट० 23 अष्ट। वा'' इत्यादि गतार्थम्, स्याद्-असौ किमर्थमेवंविधानि कर्माणि कुरुते यान्यस्य कायगतस्य विपच्यन्ते? तदुच्यते 'गुरू से कामा' 'से तस्यलोगसहावभावणा-स्त्री०(लोकस्वभावभावना) लोकस्वभावपरिचि अपरमार्थविदः काम्यन्त इति कामाः शब्दादयस्ते गुरवो दुस्त्यजत्वात्, न्तने, ध० 3 अधि० / प्रव० / (लोकस्वभावभावना 'भाव-णा' शब्दे कामा ह्यल्पसत्त्वैरनवाप्तपुण्योपचयैरुल्लयितुं दुष्करमित्यतस्तदर्थ पञ्चमभागे 1506 पृष्ठे गता।) कायेषु प्रवर्तते, तत्प्रवृत्तौ च पापोपचयस्तदुपचयाच यत्स्यात्तदाह-ततःलोगसार-पुं०(लोगसार) चतुर्दशरज्ज्वात्मकस्य लोकस्य परमार्थे, षड्जीवनिकायविपरामशात परमकामगुरुत्वाचासौ मरण मारः-आयुषः आचा०१ श्रु०५ अ०१ उ०॥ क्षयस्तस्यान्तवर्त्तते, मृतस्य च पुनर्जन्म जन्मनि चावश्यभावी मृत्युरेव अपरापसारप्रकर्षगतिरस्तीति दर्शयन्नुपक्षेपमाह - जन्ममरणात् संसारोदन्वति मज्जनोन्मजनरूपान्न मुच्यते। ततः किमपरलोगस्स उ को सारो, तस्सय सारस्स को हवइ सारो ? | मित्याह-'जओ से इत्यादि, यतोऽसौ मृत्योरन्तस्ततोऽसौ दूरे परमपदोतस्स य सारो सारं,जइ जाणति पुच्छिओ साह / / 244 // पायात् ज्ञानादित्रयात् तत्कार्याद्वा मोक्षाद् , यदि वा-सुखार्थी कामान्न लोगस्य-चतुर्दशरज्ज्वात्मकस्य कः सारः? तस्यापि सारस्य कोऽपरः परित्यजति, तदपरित्यागे च मारान्तर्वर्ती, यतश्च मारान्तर्वर्ती ततो सारः? तस्यापि सारसारस्य सारं यदिजानासि ततः पृष्टो मया कथयेति जातिजरामरणरोगशोकाभिभूतत्वादसौ सुखाद्दूरे। यस्मादसौ कामगाथार्थः। गुरुस्तद्-गुरुत्वान्मारान्तर्वर्ती तदन्तर्वर्त्तित्वात्क्रिम्भूतो भवतीत्यत आह- 'नेव से' इत्यादि, नैवासौ दूरे, यदिवा-यस्य गुरवः कामाः स किं प्रश्नप्रतिवचनार्थमाह - कर्मणोऽन्तर्बहिर्वेति प्रश्नावसरे सत्याह- 'णेव से' त्यादि, नेवासौ लोगस्स सारधम्मो, धम्म पि य नाणसारियं विति। कर्मणोऽन्तः-मध्ये भिन्नग्रन्थित्वात्संभावितावश्यंभाविकर्मक्षयोपनाणं संजमसारं, संजमसारंच निव्वाणं / / 255 / / पत्तेः, नाप्यसौ दूरे देशोनकोटीकोटिकमस्थितिकत्वात्, चारित्रावाप्तासमस्तस्याऽपि लोकस्य तावद्धर्मः सारः, धर्ममपि ज्ञानसारं ब्रुवते, वपि नैवान्तर्नैव च दूरे इत्येतच्छक्यते वक्तुम्, पूर्वोक्तादेव कारणादिति। ज्ञानमपि संयमसारं संयमस्यापि सारभूतं निर्वाणमिति गाथार्थः। अथवा-येने दं प्राणायि किमसावन्तर्भूतः संसारस्याहोस्विहिर्वर्तते उक्तो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, साम्प्रतं सूत्रानुगमे इत्याशङ्कयाह- 'णेव से' इत्यादि, नैवासौ संसारान्तः धातिकर्मक्षयात्, सूत्रमुचारयितव्यम् , तच्चेदम् - नापि दूरे अद्यापि, भवोपग्राहिकर्मसद्धावादिति। आवंती, केयावंती लोयंसि विपरामुसंति अट्ठाए अणवाए, एएसु यो हि भिन्नगन्थिको दुरापावाप्तसम्यक्त्वः संसारारातीयतीरवर्ती स चेव विपरामुसंति, गुरु से कामा, तओ से मारते,जओ से मारते किमध्यवसायी स्यादित्याह - तओ से दूरे, नेव से अंतो नेव दूरे। (सू०१४१) से पासइ फु सियमिव कु सग्गे पणुनं निवइयं 'आवन्ती' त्ति यावन्तो जीवा मनुष्या असंयता वा स्युः, 'के आवंति' वाएरियं एवं बालस्स जीवियं मंदस्स अवियाणओ, त्ति केचनलोके चतुर्दशरज्ज्वात्मके गृहस्थान्यतीर्थिकलोके वा षङ्जीव- | कू राई कम्माई वाले पकुवमाणे तेण दुक्खेण मूढे रविय सत्व अनियजिविय मयस्सर अधियाना
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________________ लोगसार 742 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लोगसार विपरिआसमुवेइ, मोहेण गम्भ मरणाइ एइ, एत्थ मोहे पुणो / पुणो। (सू०१४२) 'सेपासई त्यादि, सः-अपगतमिथ्यात्वपटलः सम्यक्त्वप्रभावावगतसंसारासारः पश्यति- दृशिरुपलब्धिक्रिय इत्यत उपलभते-अवगच्छति, किं तत् ?- 'फुसियमिव, त्ति-(इत्यादिपदानां व्याख्या 'जीविय' शब्दे चतुर्थभागे 1564 पृष्ठे गता। ) नाप्यसौ तदभिकाशति अतो बालग्रहणम्, बालोह्यज्ञः, स चाज्ञानत्वादेव जीवितं बहु मन्यते यत एव बालोऽत एव मन्दः सदसद्विवेकापटुः, यत एव बुद्धिमन्दोऽत एव परमार्थं न जानाति, अतः परमार्थमविजानत एवम्भूतं जीवितमित्येवं पश्यति / परमार्थमजानंश्च यत्कुर्यात्तदाह-'कूराणि' इत्यादि, क्रूराणिनिर्दयानि निरनुक्रोशानि कर्माणि-अनुष्ठानानि हिंसानृतस्तेयादीनि सकललोकचमत्कृतिकारीणि अष्ठादश वा पापस्थानानि बालः-अज्ञः प्रकर्षेण कुर्वाणः, "कत्रभिप्राये क्रियाफले" आत्मनेपदविधानात्तस्यैव तक्रियाफलविपाकं दर्शयति-तेन-क्रूरकर्मविपाकापादितेन दुःखेन मूढःकिंकर्तव्यताऽऽकुलः केन कृतेन ममैतदुःखमुपशमं यायादिति मोहमोहितो विपर्यासमुपैतियदेव प्राण्युपघातादिदुःखोत्पादने कारणं तदुपशमाय तदेव विदधातीति। किंच- 'मोहेण' (इत्यादि पदानां व्याख्या 'मोह' शब्दे पञ्चमभागे 456 पृष्ठे गता।) ततश्च न यावद्विविशिष्टज्ञानोत्पत्तिः संवृत्ता न तावत्कर्मशमनाय प्रवृत्तिः स्यात्, नैष दोषः, अर्थसंशयेनापि प्रवृत्तिदर्शनादिति। आहचसंसयं परिआणओसंसारे परित्राए भवह, संसयं अपरियाणओ संसारे अपरिन्नाए भवइ / (सू०१४३) 'संसय मित्यादि, संशीतिः संशयः-उभयांशावलम्बा प्रतीतिः संशयः, स चार्थसंशयोऽनर्थसंशयश्च / इह चार्थोमोक्षो मोक्षोपायश्च, तत्र मोक्षेन संशयोऽस्ति, परमपदमिति प्रतिपादनात्, तदुपाये तुसंशयेऽपि प्रवृत्तिर्भवत्येव, अर्थसंशयस्य प्रवृत्त्यङ्गत्वात्। अनर्थस्तु संसारः संसारकारणं च, तत्सन्देहेऽपि निवृत्तिः स्यादेव, अनर्थसंशयस्य निवृत्त्यङ्गत्वात् ; अतः संशयमर्थानर्थगतं परिजानतो हेयोपादेयप्रवृत्तिः स्यादित्येतदेवपरमार्थतः संसारपरिज्ञानमिति दर्शयति-तेन संशयं परिजानता संसारश्चतुर्गतिकः तदुपादानं वा मिथ्यात्वाविरत्यादि अनर्थरूपतया परिज्ञातं भवति ज्ञपरिज्ञया, प्रत्याख्यानपरिज्ञया तु परिहृतमिति / यस्तु पुनः संशयं न जानीते स संसारमपि न जानातीति दर्शयितुमाह- 'संसयं' इत्यादि, संशयं-सन्देह द्विविधमप्यपरिजानतो हेयोपादेयप्रवृत्तिर्न स्यात् , तदप्रवृत्तौ च संसारोऽनित्याशुचिरूपो व्यसनोपनिपातबहुलो निः-सारो न ज्ञातो भवति। कुतः पुनरेतन्निश्चीयते ? यथा तेन संशयवेदिना संसारःपरिज्ञात इति ? | किमत्र निश्चेतव्यं ? संसारपरिज्ञानकार्यविरत्युपलब्धेः, तत्र सर्वविरतिप्रष्ठां विरतिं निर्दिदिक्षुराह - जे छेए से सागारियं न सेवइ, कट्टएवमवियाणओ विइया मंदस्स बालया, लद्धा हुरत्था पडिलेहाए आगमित्ता आणविज्जा अणासेवणय त्ति बेमि। (सू०१४४) 'जे छए' इत्यादि यश्छेको-निपुण उपलब्धपुण्यपापः सः 'सागारियं ति मैथुनं न सेवते मनोवाक्कायकर्मभिः, स एव यथावस्थितसंसारयेदी, यस्तु पुनर्मोहनीयोदयात्पार्श्वस्थादिः तत्सेवते, सेवित्वा च सातगौरवभयात् किं कुर्यादित्याह- 'कट्ट' इत्यादि, रहसि मैथुनप्रसङ्ग कृत्वा पुनर्गुर्वादिना पृष्टः सन्नपलपति तस्य चैव-मकार्यमपलपतोऽविज्ञापयतो वा किं स्यादित्याह- "बिइया' इत्यादि, मन्दस्य-अबुद्धिमत एकमकार्यासेवनमियं बालता-अज्ञानता, द्वितीया तदपवनं मृषावादः तदकरणतया वा पुनरनुत्थानमिति, नागार्जुनीयास्तु पठन्ति-"जे खलु विसए सेवई सेवित्ता वा णालोएइ, परेण वा पुट्ठो निण्हवइ, अहवा-तं परं सएण वा दोसेण पविट्ठयरेण वा दोसेण उवलिंपिज्ज 'त्ति' 'सुगमम्। यद्येवं ततः किं कुर्यादित्याह-'लद्धा हु' इत्यादि, लब्धानपिकामान् 'हुरत्थे' त्ति बहिश्चित्रक्षुल्लकादिवत्तद्विपाकं प्रत्युपेक्ष्य चित्तादहिः कुर्यात् ; यदि वा-हुशब्दः-अपिशब्दार्थे, रेफागमः सुव्यत्ययेन द्वितीयार्थे प्रथमा, ततोऽयमोंलब्धानप्यर्थन्ते-अभिलषन्त इत्यर्थाः-शब्दादयस्तानुपनतानपि तद्विपाकद्वारेण प्रत्युपेक्ष्यपर्यालोच्य ततः आगम्य ज्ञात्वां दुरन्तं शब्दादिविषयानुषङ्गम्, क्त्वाप्रत्ययस्योत्तरक्रियासव्यपेक्षत्वात्तां दर्शयति-तदनासेवनतया परानाज्ञापयेत् , स्वतोऽपि परिहरेदिति, एतदहं ब्रवीमि येन मया पूर्वार्थव्यावर्णनमकारि स एवाहमव्यवच्छिन्नसम्यग्ज्ञानप्रवाह, शब्दादिविषयस्वरूपोपलम्भात् समुपजनितजिनवचनसंमद इति / एतच्च वक्ष्यमाणं ब्रवीमिति। तदाहपासह एगे रूवेसु गिद्धे परिणिज्जमाणे, इत्थ फासे पुणो पुणो, आवंती केयावंती लोयंसि आरंभजीवि, एएसु चेव आरंभजीवी, इत्थ वि बाले परिपत्रमाणे रमई पावेहिं कम्मेहिं असरणे सरणं ति मन्नमाणे / (सू० 1454) 'पासह' इत्यादि, हे जनाः! पश्यत यूयमेकान्तपुष्टधाणो, बहुवचननिर्देशादाद्यर्थो गम्यते, रूपेषुरूपादिष्विन्द्रियविषयेषु निःसारकटुफलेषु गृद्धान्-अध्युपपन्नान् सतः इन्द्रियैर्विषयाभिमुखं संसाराभिमुखं वा नरकादियातनास्थानकेषु वा परिणीयमानान् प्राणिन इति / ते च विषयगृध्नव इन्द्रियवशगाः संसारार्णव किमाप्नुयुरित्याह- 'एत्थ फासे' इत्यादि, अत्र-अस्मिन् संसारे हृषीकवशगः सन् कर्मपरिणतिरूपान् स्पर्शान् पौनःपुन्येन-आवृत्त्या तानेव तेषु तेष्वेवस्थानेषु प्राप्नुयादिति। पाठान्तरं वा- 'एत्थ मोहे पुणो पुणो' अत्र-अस्मिन् संसारे मोहेअज्ञाने चारित्रमोहे वा पुनः पुनर्भवतीति। कोऽसावेवम्भूतः स्यादित्यत आह'आवंती' त्यादि, यावन्तः केचन लोके-गृहस्थलोके आरम्भजीविनः-सावद्यानुष्ठानस्थितिकाः, ते पौनःपुन्थेन दुःखान्यनुभवेयुरिति। येऽपि गुहस्थाश्रिताःसारम्भास्तीथिकादयस्तेऽपि तदुःखभाजिन इति दर्शयति- 'एएसु' इत्यादि, एतेषु सावद्यारम्भप्रवृत्तेषु गृहस्थेषु
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________________ लोगसार 743 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लोगसार शरीरयापनार्थ वर्तमानस्तीर्थिकः पार्श्वस्थादिर्वा आरम्भजीवीसावद्यानुष्ठानवृत्तिः पूर्वोक्तदुःखभाग्भवति। आस्तां तावद् गृहस्थः तीर्थको वा, योऽपि संसारार्णवतटदेशमधाप्य सम्यक्त्वरत्नं लब्ध्वाऽपि मोक्षककारणं विरतिपरिणामं सफलतामनीत्वा कर्मोदयात् सोऽपि सावधानुठायी स्यादित्याह- 'एत्थ वि बाले' इत्यादि अत्र-अस्मिन्नप्यहत्रप्रणीतसंयमाभ्युपगमे बालोरागद्वेषाकुलितः परितप्यमानः परिपच्यमानो वा विषयपिपासया रमते कैः?-पापैः कर्मभिः, विषयार्थं सावधानुष्ठानेधृति विधत्ते, किं कुर्वाण इत्याह- 'असरण' मित्यादि, कामाग्निना पापैर्वा कर्मभिः परिपच्यमानः सावद्यानुष्ठानमशरणमेव शरणमिति मन्यमानो भोगेच्छाऽज्ञानतमिस्राच्छादितदृष्टिविपर्ययः सन् भूयो भूयो नानारूपा | वेदना अनुभवेदिति। आस्तांतावदन्ये प्रव्रज्यामप्यभ्युपेत्य केचिद्विषयपिपासास्तिांस्तान् कल्काचारानाचरन्तीति दर्शयितुमाह- 'इहमेगेसि मित्यादि, आचा०। (सूत्रम् 'एगचरिया' शब्दे तृतीयभागे 7 पृष्ठे गतम्।) (अत्रस्था चारवक्तव्यतानियुक्तिः 'चार' शब्दे तृतीयभागे 1172 पृष्ठे गता।) एकचर्याप्रतिपन्नोऽपि सावद्यानुष्ठानाद्विरतेरभावाच न मुनिरित्युक्तम् , इह तु तद्विपर्ययेण यथा मुनिभावा स्यात्तथोच्यते, इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्यादिसूत्रम् - आवन्ती केयावन्ती लोए अणारंभजीविणो तेसु, एत्थोवरएतं झोसमाणे, अयं संधीति अदक्खू, जे इमस्स विग्गहस्स अयं खणे त्ति अन्नेसी एस मग्गे आरिएहिं पवेइए, उठ्ठिए नो पमायए, जाणित्तु दुक्खं पत्तेयं सायं, पुढो छंदा इह माणवा पुढो दुक्खं पवेइयं से अविहिंसमाणे अणवयमाणे, पुट्ठो फासे विपणुनए। (सू०१४६) यावन्तः-केवल लोक-मनुष्यलोके अनारम्भजीविनः-आरम्भःसावद्यानुष्ठानं प्रमत्तयोगो वा, उक्तं च-"आदाणे निक्खेवे, भासुस्सग्गे अठाणगमणाई। सव्वो पमत्तजोगो,समणस्स वि होइ आरम्भो।। 1 // " तद्विपर्ययेण त्वनारम्भस्तेन जीवितुं शीलं येषामित्यनारम्भजीविनोयतयः समस्तारम्भनिवृत्ताः तेष्वेवगृहिषु पुत्रकलत्रस्वशरीराद्यर्थमारम्भप्रवृत्तेष्वानारम्भजीविनो भवन्ति, एतदुक्तं भवति-सावद्यानुष्ठानप्रवृत्तेषु गृहस्थेषु देहसाधनार्थमनवद्यारम्भजीविनः साधवः पङ्काधारपङ्कजवन्निर्लेपा एव भवन्ति / यद्येवं ततः किमित्याह-अत्र-अस्मिन् सावद्यारम्भे कर्तव्ये-उपरतः सङ्कुचितगात्रो, वाऽऽर्हते धर्मे व्यवस्थितपापारम्भात्, किं कुर्यात् सः?-तत्-सावद्यानुष्ठानायातकर्म झोषयन्क्षपयन मुनिभावं भजत इति / किमभिसन्धायात्रोपरतः स्यादित्याह'अयं संधी' इत्यादि, अविवक्षितकर्मका अप्यकर्मका धातवः, यथा पश्य मृगो धावति, एवमात्रप्यद्राक्षीदित्येतत्क्रियायोगेऽप्ययं सन्धिरिति प्रथमा कृतेति, 'अय' मिति प्रत्यक्षगोचरापन्न आर्यक्षेत्रसुकुलोत्पत्तीन्द्रियनिर्वृत्तिश्रद्धासंवेगलक्षणः सन्धिः-अवसरो मिथ्यात्वक्षयानुदयलक्षणो वा सम्यक्त्वावाप्तिहेतुभूतकर्मविवरलक्षणः सन्धिः, शुभाध्यव सायसन्धानभूतोवा सन्धिरित्येवं स्वात्मनि व्यवस्थापितमद्राक्षीद्भवानित्यतः क्षणमप्येकं न प्रमादयेत् न विषयादिप्रमादवशगो भूयात्। कश्च न प्रमत्तः स्यादित्याह- 'जे इमस्स' य-इति उपलब्धतस्वः अस्यअध्यक्षस्य विशेषेण गृह्यते अनेनाष्टप्रकारं कर्म तद्वेतरशरीरविशिष्ट बाह्येन्द्रियेण गृह्यत इति विग्रहः-औदारिकं शरीरं तस्य अयम् - वार्त्तमानिकक्षणः एवम्भूतः सुखदुःखान्यतररूपश्च गतः एवम्भूतश्च भावीत्येवं यः क्षणान्वेषणशीलः सोऽन्वेषी सदाऽप्रमत्तः स्यादिति / स्वमनीषिकापरिहारार्थमाह- 'एस मग्गे' इत्यादि, एषःअनन्तरोक्तो मार्गोमोक्षपथः आर्यैः-सर्वहेयधारातीयतीरवर्तिभिस्तीर्थकरगणधरैः प्रकर्षणादौ वा वेदितः-कथितःप्रवेदित इति। न केवलमनन्तरोक्तो वक्ष्यमाणश्च तीर्थकरैः प्रवेदित इति, तदाह- 'उट्ठिए' इत्यादि, सन्धिमधिगम्योत्थितो धर्मचरणाय क्षणमप्येकं न प्रमादयेत् किं चापरमधिगम्येत्याह- 'जाणित्तु' इत्यादि, ज्ञात्वा प्राणिनां प्रत्येकं दुःख तदुपादानं वा कर्म तथा प्रत्येकं सातंच-मन आह्लादिज्ञात्वा समुत्थितोन प्रमादयेत् न केवलं दुःखं कर्मवा प्रत्येकम् , तदुपादानभूतोऽध्यवसायोऽपि प्राणिनां भिन्न एवेति दर्शयितुमाह- 'पुढो' इत्यादि, पृथभिन्नः छन्दः-अभिप्रायो येषां ते पृथक्छन्दाः, नानाभूतबन्धाध्यवसायस्थाना इत्यर्थः, 'इहे ति संसारे संझिलोकेवा केते?-मानवाः-मनुष्याः, उपलक्षणार्थत्वादन्येऽपि संज्ञिनां पृथक्संकल्पत्याच्च तत्कार्यमपि कर्म पृथगेव, तत्कारणमपि दुःखं नानारूपमिति। कारणभेदे कार्यभेदस्य अवश्यंभावित्वादिति, अतः पूर्वोक्तं स्मारयन्नाह- 'पुढो इत्यादि, दुःखोपादानभेदाद् दुःखमपि प्राणिनां पृथक् प्रवोदतम्, सर्वस्य स्वकृतकर्मफलेश्वरत्वात् नान्यकृतमन्य उपभुङ्क्ते इति, एतन्मत्वा किं कुर्यादित्याह- 'से' इत्यादि, सःअनारम्भजीवी प्रत्येकसुखदुःखाध्यवसायी प्राणिनो विविधैरुपायैरहिंसन् तथा-अनपवदन्-अन्यथैवव्यवस्थितंवस्त्वन्यथावदन्नपवदन्नापवदन अनपवदन, मृषावादमब्रुवन्नित्यर्थः, पश्य चत्वं तस्यापि प्राकृतत्वादार्षत्वादालोपः, एवं परस्वमगृह्णन्नित्याद्यप्यायोज्यम्। एतद्विधायी च किमपरं कुर्यादित्याह- 'पुट्ठो' इत्यादि, स पञ्चमहाव्रतव्यवस्थितः सन् यथागृहीतप्रतिज्ञानिर्वहणोद्यतः स्पृष्टः परीषहोपसर्गस्तान्-तत्कृतान् शीतोष्णादिस्पर्शान् दुःखस्पर्शान् वा तत्सहिष्णुतया अनाकुलो विविधैरुपायैः-प्रकारैः संसारासारभावनादिसिः प्रेरयेत, तत्प्रेरणं च सम्यक् सहनम्, न तत्कृतया दुःखासिकयाऽऽत्मानं भावयेदिति यावत्। यो हि सम्यक्करणतया परीषहान्सहेत स किंगुणः स्यादित्याह - एस समिया परियाए वियाहिए, जे असत्तापावेहिं कम्मेहिं उदाहु ते आयंका फुसंति, इति। (सू० 147+) एषः-अनन्तरोक्तो यः परीषहाणां प्रणोदकः, 'समिया 'सम्यक् शमिता वा, शमोऽस्यास्तीति शमी तद्भावः शमिता, पर्यायः-प्रव्रज्या सम्यक् शमितया, वा पर्यायः-प्रव्रज्याऽस्येति विगृह्य बहुब्रीहिः स सम्यकपर्यायः शमितापर्यायो वा व्याख्यातो नापर इति / तदेवं परीषहोपसर्गाक्षोभ्यतां प्रतिपाद्य व्याधिसहिष्णुतां प्रतिपादयन्नाह- 'जे असत्ता' इत्यादि, ये अपाकृतमदनतया समतूणमणिलेष्टुकाञ्चनाः समतापन्नाः
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________________ लोगसार 744 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लोगसार पापेषु कर्मस्वसक्ताः-पापापादानानुष्ठानारता 'उदाहु-कदाचित्तान् पापारम्भेभ्य आत्मा आयत्यते-आनियम्यते यस्मिन् कुशलानुष्ठाने वा तथाभूतान् साधून आतङ्का-आशुजीवितपहारिणः शूलादयो व्याधि- यत्नवान् क्रियत इत्यायतनंज्ञानादित्रयम् एकम् अद्वितीयमायतनविशेषाः स्पृशन्ति-अभिभवन्तिपीडयन्ति। यदि नामवंततः किमित्याह- मेकायतनं तत्र रतस्तस्य, किंच-इह-शरीरे जन्मनिवा विविधं परमार्थ'इति उदाहु' इत्यादि (मूलसूत्रम् 'तित्थयर' शब्दे चतुर्थभागे 2262 भावनया शरीरानुबन्धात् प्रमुक्तोविप्रमुक्तस्तस्य नास्ति-न विद्यते, पृष्ठे गतम्।) इति एतद्वक्ष्यमाणमुदाहृतवान् व्याकृतवान् , कोऽसौ ?- कोऽसौ ?-मार्गोनरकतिर्यड्मनुष्यगमनपद्धतिः, वर्तमानसामीप्ये वर्तधीरोधीः-बुद्धिः तथा राजते, स च तीर्थकृद् गणधरोवा, किं तदुदाहृत- मानदर्शनान्न भविष्यतीति नास्तीत्युक्तम् ,यदि वा-तस्मिन्नेव जन्मनि वान् ? तैरातकैः स्पृष्टः सन्तान् स्पर्शान-दुःखानुभवान् व्याधिविशेषा समस्तकर्मक्षयोपपत्तेनास्ति नरकादिमार्गः, कस्येति दर्शयति-विरतपादितानध्यासयेत्-सहेत्ता किमाकलय्येत्याह- 'से पुटव' मित्यादि, स स्यहिंसाद्याश्रवद्वारेभ्यो निवृत्तस्य, इतिरधिकारपरिसमाप्तौ, ब्रवीमीति स्पृष्टः पीडितः आशुकारिभिरातडैरेतद्भावयेत्, यथा-पूर्वमप्येतद् पूर्ववत्, सुधर्मस्वाम्यात्मानमाह, यद्भगवता वीरवर्द्धमानस्वामिना असातावेदनीयविपाकजनितंदुःखं मयैव सोढव्यम्, पश्चाद्व्येतन्मयैव दिव्यज्ञानेनार्थानुपलभ्य वाग्योगेनोक्तं तदहं भवतां ब्रवीमि, न स्वमतिसहनीयम्; यतः-संसारोदरविवरवर्ती न विद्यते एवासौ यस्यासाता विरचनेनेति। (आचा०) (अविरतवादी परिग्रहवानिति परिगहावंत' वेदनीयविपाकापादिता रोगातङ्का न भवेयुः, तथाहि-केवलिनोऽपि शब्दे पञ्चमभागे 567 पृष्ठे गतम्!) मोहनीयादिघातिचतुष्टयक्षयादुत्पन्नज्ञानस्य वेदनीयसद्भावेन तदुदयात्त आवंती केयावंती लोयंसि अपरिगहावंती एएसु चेव अपरित्सम्भव इति, यतश्चतीर्थकरैरप्येतद्धस्पृष्ट-निधत्तनिकाचनावस्थायातं ग्गहावंती, सोचावई मेहावी पंडियाण निसामिया समियाए धम्मे कविश्यं वेद्यं नान्यथा तन्मोक्षः, अतोऽन्येनाप्यसातावेदनीयोदये आरिएहिं पवेइए जहित्य मए संधी झोसिए एवमन्नत्थ संधी सनत्कुमारदृष्टान्तेन मयैवैतत्सोढव्यमित्याकलय्य नोद्विजितव्यमिति। दुखोसए भवइ, तम्हा बेमि नो निहणिज्न वीरियं / (सू०१५१) उक्तंच-"स्वकृतपरिणतानां दुर्नयानां विपाकः, पुनरपि सहनीयोऽन्यत्र यावन्तः केचन लोकेऽपरिग्रहवन्तो विरता यतय इत्यर्थः, ते सर्वे एतेष्वेव ते निर्गुणस्य। स्वयमनुभवतोऽसौ दुःखमोक्षाय सद्यो, भवशतगतिहेतु अल्पादिषुद्रव्येषुत्यक्तेषु सत्स्वपरिग्रहवन्तो भवन्ति, यदि वैतेष्वेव षट्सु र्जायते-ऽनिच्छतस्ते॥१॥"अपि च-एतदौदारिकं शरीरं सुचिरमप्यौ जीवनिकायेषु ममत्वाभावादपरिग्रहा भवन्ति। स्यात्, कथमपरिग्रहभावः षधसायनाद्युपबृंहितं मृन्मयाऽऽमघटादपि निःसारतरं सर्वथा सदा स्यादित्याह- 'सोचा' इत्यादि, 'वइति सुब्व्यत्ययेन द्वितीयार्थे प्रथमा, विशराविति दर्शयन्नाह- 'भिदुरधम्म' मित्यादि, यदि वा-पूर्व अतो वाचं-तीर्थकराज्ञामागमरूपां श्रुत्वा-आकर्ण्य मेधावी-मर्यादापश्चादप्येतदौदारिकं शरीरं वक्ष्यमाणधर्मस्वभावमित्याह- 'भिदुर व्यवस्थितः सश्रुतिको हेयोपादेयपरिहारप्रवृत्तिज्ञः, तथा पण्डितानां गणधराचार्यादीनां विधिनियमात्मकं वचनं निशम्य सचित्ताचित्तधम्म' मित्यादि, स्वयमेव भिद्यतइति भिदुरः स धर्मोऽस्य शरीरस्येति परिग्रहपरित्यागादपरिग्रहो भवति। स्यादेतत् कदा पुनरुत्पन्ननिरावरणभिदुरधर्मम्, इदमौदारिकं शरीरं सुपोषितमापवेदनोदयाच्छिरोदरच ज्ञानानां तीर्थकृतां वाग्योगो भवति येनासावाकर्ण्यते ? उच्यतेक्षुरुरः-प्रभृत्यवयवेषु स्वतएव भिद्यत इति भिदुरम्, तथा विध्वंसनधर्म धर्मकथाऽवसरे, किम्भूतस्तैः पुनर्धर्मः प्रवेदित इत्यारेकापनोदार्थमाह पाणिपादाद्यवयवविध्वंसनात्, तथा अवश्यंभावसंभावितं त्रियामान्ते 'समिय'त्ति समता-समशत्रुमित्रता तयाऽऽयैर्धर्मः प्रवेदित इति। उक्त सूर्योदयवत् ध्रुवं न तथा यत्तदध्रुवम् तथा अप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकस्व च-"जो चंदणेण बाहुं, आलिंपइ वा सिणावतच्छेत्ति / संथुणइ जो अ भावतया कूटस्थनित्यत्वेन व्यवस्थितं सन्नित्यम् नैवं यत्तदनित्यमिति, जिंदति, महेसिणो तत्थ समभावा ॥१॥"यदिवा-आर्येसुदेशतथा तेन तेन रूपेणोदकधारावच्छश्वद्भतीति शाश्वमम्, ततोऽन्यदशा भाषाचरित्राऽऽर्येषु समतया भगवता धर्मः प्रवेदितः, तथा चोक्तम्श्वतम्, तथेष्टाहारोपभोगतया धृत्युपष्टम्भादौदारिकशरीरवर्गणापरमाणू "जहा पुण्णस्स कत्थइ तहा तुच्छस्स कत्थई" त्यादि, अथवा-शमिनो पचयाच्चयः, तदभावेन तद्विचटनादपचयः, चयाऽपचयौ विद्येतेयस्य तच्च भावः शमिता तया सर्वहेयधारातीयवर्तिभिः आर्यः प्रक-घेणादौ वा यापचयिकम् , अतएव विविधः परिणामः-अन्यथाभावात्मको धर्मः धर्मो वेदितः-प्रवेदितः, इन्द्रियनोइन्द्रियोपशमेन तीर्थ-कृद्भिर्धर्माः स्वभावो यस्य यद्विपरिणामधर्मम् / यतश्चैवम्भूतमिदं शरीरकमतोऽ-- प्रज्ञापित इति यावत्। स्याद्-अन्यैरपि स्वाभिप्रायेण धर्माः प्रवेदिता स्योपरि कोऽनुबन्धः का मूर्छा ? नास्य कुशलानुष्ठानमृतेऽन्यथा एवेत्यतस्तद्व्युदासार्थ भगवानेवाह- 'जहेत्थे त्यादि, सदेवमनुजायां साफल्यमित्येतदेवाह- 'पासह इत्यादि,पश्यतैनपूर्वोक्तं रूपसन्धि पर्षदि भगवानेवमाह- यथाऽत्र मया ज्ञाना-दिको मोक्षसन्धिः 'झोसिओ' भिदुरधम्माधाघ्रातौदारिकं पञ्चेन्द्रियनिवृतिलाभावसरात्मकम् , दृष्ट्वा त्ति सेवित इति, यदिवा-अत्र-अस्मिन् ज्ञानदर्शनचारित्रात्मके मोक्षमार्गे च विविधातङ्कजनितान् स्पर्शानध्यासयेदिति॥ एतत्पश्यतश्च यत्स्यात्त- समभाकोत्मके इन्द्रियनोइन्द्रियोपशमरूपे मया-मुमुक्षणा स्वत एव दाहसम्यगुत्प्रेक्षमाणस्यपश्यतोऽनित्यताघ्रातमिदं शरीरमित्येवमव- सन्धान सन्धिः कर्मसन्ततिः, सन्धीयत इति वा भवाद्भवान्तरमनेनेति धारयतो नास्ति मार्ग इति सम्बन्धः, किं च-आङ् अभिविधौ समस्त- | सन्धिः-अष्टप्रकारकर्मसन्ततिरूपः / स झोषितः-क्षपितः अतो
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________________ लोगसार 745 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लोगसार य एव तीर्थकृद्भिर्द्धर्मोऽभिहितः स एव मोक्षमार्गो नाऽपर इत्येत-देवाहयथाऽत्र मया सन्धिोषितः एवमन्यत्र अन्यतीर्थिकप्रणीते मोक्षमार्गे / सन्धिः कर्मसन्ततिरूपः दुयॊष्यो भवति-दुःक्षयो भवति, असमीचीनतया तदुपायाभावात्, यदि नाम भगवताऽत्र कर्मस-न्धिझोषितस्ततः किमित्याह-यस्मादस्मिन्नेव मार्ग व्यवस्थितेन मयाऽपि विकृष्टतरेण तपसा कम्मं क्षपितं ततोऽन्योऽपि मुमुक्षुः संयमानुष्ठाने तपसि च वीर्य नो निहन्यात् नो निगृहयेद् अनिगूहितबलवीर्यों भूयाद् एतदहं ब्रवीमि परमकारुण्याकृष्टहृदयपरहितैकोपदेशदायीत्येतद्वीरवर्द्धमानस्वाम्याहः सुधर्मस्वामी स्वशिष्याणां कथयति स्म। (आचा०) (अगेतनसूत्राणि' धम्म' शब्दे चतुर्थ-भागे 2673 पृष्ठे गतानि।) सदाऽऽचार्यसेविना भवितव्यम्, आचार्येण च हृदोपमेन भव्यम्, तदन्तेवासिना च तपःसमयगुप्तेन निःसङ्गेन च विहर्त्तव्यमिति, एतत्प्रतिपादनसम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्यादिसूत्रम् - से बेमि, तं जहा- अविहरए पडिपुण्णे समंसि भोमे चिट्ठ उवसंतरए सारक्खमाणे, से चिट्ठइ सोयमज्झगए से पास सव्वओ गुत्ते, पास लोए महेसिणो जे य पन्नाणमंता पबुद्धा आरम्भोवरया सम्ममेयंति पासह, कालस्स कंखाए परिव्वयंति त्ति बेमि। (सू०१६०) 'से' शब्दस्तच्छब्दार्थे, यद्गुण आचार्यो भवति तदहं तीर्थकरोपदेशानुसारेण ब्रवीमति, तद्यथेति वाक्योपन्यासार्थे, अपिशब्दो भङ्गसमुच्चयार्थः, ते चामी भङ्गाः एको हृदोजलाशयः परिगलत्स्रोताः पर्यागलस्रोताश्च, सीतासीतोदाप्रवाहहदवत्, अपरस्तुपरिगलत्स्रोताः / नो पर्यागलस्रोताः, पद्महदवत्, तथा अपरो नो परिगलस्रोताः पर्यागलत्स्रोताश्च, लवणोदधिवत्, अपरस्तु नो परिगलत्स्रोता नो पर्यागलस्रोताश्च, मनुष्यलोकादहिः समुद्रवत्। तत्राऽऽचार्यः श्रुतमङ्गीकृत्य प्रथमभङ्गपतितः, श्रुतस्य दानग्रहणसद्भावात्, साम्परायिककर्मापेक्षया तु द्वितीयभङ्गपतितः, कषायोदयाभावेन ग्रहणाभावात्तपःकायो- | त्सर्गादिना क्षपणोपपत्तेश्चेति, आलोचनामङ्गीकृत्य तृतीयभङ्गपतितः | आलोचनाया अप्रतिश्रावित्वात् कुमार्ग प्रति चतुर्थभङ्गपतितः, कुमार्गस्य हि प्रवेशनिर्गमाभावात्, यदिवा-धर्मिभेदेन भङ्गा योज्यन्ते-तत्र स्थविरकल्पिकाचार्याः प्रथमभङ्गपतिताः, द्वितीयभङ्गपतितस्तीर्थकृत्, तृतीयभङ्गस्थस्त्वहालन्दिकः, स च क्वचिदर्थापरिसमाप्तावाचायादेनिर्णयसद्भावात् , प्रत्येकबुद्धास्तूमयाभावाचतुर्थभङ्गस्था इति, इह पुनः प्रथमभङ्गपतितेनोभयसद्भाविनाऽधिकारः, तथा-भूतस्यैवायं ह्रददृष्टान्तः, स च हृदो निर्मलजलस्य प्रतिपूर्णो जलजैः सर्वतुजैरुपशोभितः समे भूभागे विद्यमानोदकनिर्गमप्रवेशो नित्यमेव तिष्ठति, न कदाचिच्छोषमुपयाति, सुखोत्तारावतारसमन्वितः, उपशान्तम् - अपगतं राजः कालुष्यापादकंयस्य सतथा, नानाविधांश्चयादसांगणान् संरक्षन् सह वा यादोगणैरात्मानमारक्षन् प्रतिपालयन् सारक्षन तिष्ठतीत्येषा क्रिया प्रकृतेव / यथा चासौ हृदस्तथाऽऽचार्योऽपीति दर्शयतिसः-आचार्यः प्रथमभङ्गपतितः पञ्चविधाचारसमन्वितोऽष्टविधाचार्यसम्पदुयेतः, तद्यथा-" आ-यार सुअसरीरे, वयणेवायणंमईपओगमई। एएसुसंपया खलु, अट्ठमिआसङ्गहपरिन्ना // 1 // " षट्त्रिंशदगुणगणाधारो हृदकल्पो निर्मलज्ञानप्रतिपूर्णः समे भूभाग इति संसक्तादिदोषरहिते सुखविहारे क्षेत्रे समो वा ज्ञानदर्शनचारित्राख्यो मोक्षमार्गः उपशमवतां तत्र तिष्ठति-समध्यास्ते, किंभूतः, उपशान्तरजाः उपशान्तमोहनीय इति, किं कुर्वन् ? जीवनिकायान् रक्षन् स्वतः परतश्च सदुपदेशदानतो नरकादिपाता।ति,' स्रोतोमध्यगत' इत्यनेन प्रथमभङ्गपतितं स्थविराचार्यमाह-तस्य हि श्रुतार्थदानग्रहणसद्भावात् स्रोतोमध्यगतत्वम् , सच किंम्भूतः स्यादित्याह-सः-आचार्योऽक्षोभ्यह्रदकल्पः, सर्वतःसर्वप्रकारतयेन्द्रियनोइन्द्रियरूपया गुप्त्या गुप्त इत्येतत्पश्य आचार्यव्यतिरेकेणान्येऽष्येवम्भूता बहवः साधवः सम्भवन्तीत्येतन्निर्दिदिक्षुराहइहमनुष्यलोके पूर्वव्यावर्णितस्वरूपाः महर्षयो-महामुनयः सन्ति इत्येतत्पश्य, किंभूतास्तेमहर्षय इत्यत आह न केवलमाचार्या हृदकल्पा ये चान्ये साधवस्तेऽपि हृदकल्पाः, किम्भूताः? प्रकर्षण ज्ञायतेऽनेनेति प्रज्ञानम्- स्वपरावभासकत्वादागमस्तद्वन्तः-प्रज्ञानवन्तः आगमस्य वेत्तार इत्यर्थः, तज्ज्ञाअपि मोहोदयात्वचिद्धेतूदोहरणासम्भवे शेयगहनतया संशयानाः न सम्यक् श्रद्धानं विदध्युरित्यतो विशिनष्टि, प्रबुद्धाःप्रकर्षेण यथैव तीर्थकृदाह तथवावगततत्त्वाः प्रबुद्धाः, तथाभूता अपि कर्मगुरुत्यान्न सावद्यानुष्ठानविरतिं कुर्युरित्यतो विशेषयति-आरम्भोपरताः आरम्भः-सावधो योगस्तस्मादुपरता आरम्भोपरताः, एतच्च न मदुपरोधेन ग्राह्यम् अपितु स्वत एव कुशाग्रीयया बुद्ध्या विचार्यमित्याहएतद्यन्भया प्रोक्तं तत्सम्यग् मध्यस्था भूत्वा समर्यादं यूयमपि पश्यत। अपि चैतत्पश्यतकालः-समाधिमरणकालस्तदभिकाङ्क्षया साधवो मोक्षाध्वनिसंयमे परिः समन्ताद् व्रजन्ति परिव्रजन्ति-उपगच्छन्ति, इतिरधिकारपरिसमाप्तौ, ब्रवीमीत्येतत्प्रकरणोद्देशकाध्ययनश्रुतस्कन्धाङ्गपरिसमाप्तौ प्रयुज्यते, तदिहाधिकारपरिसमाप्तौ द्रष्टव्यमिति। आचार्याधिकारंपरिसमापय्य विनेयवक्तव्यतामाह - वितिगिच्छसमावन्नेणं अप्पाणेणं नो लहइ समाहिं, सिया वेगे अणुगच्छंति, असिता देगे अणुगच्छंति, अणुगच्छमाणेहिं अणणुगच्छमाणे कहं न निविजे ? (सू०१६१) विचिकित्सा या चित्तविप्लुतिः यथा-इदमप्यस्तीत्येवमाकारा, युक्त्या समुपपन्नेऽप्यर्थे मतिविभ्रमो मोहोदयाद्भवति, तथाहि-अस्य महतस्तपः-क्लेशस्य सिकताकणकवलनिःस्वादस्य स्यात् सफलता न वेति ? कृषीबलादिक्रियाया उभयाथाऽपयुपलब्धेरिति, इयं च मतिर्मिथ्यात्वांशानुवेधाद्भवति ज्ञेयगहनत्वाच्च / तथाहि-अर्थस्विविधः सुखाधिगमो, दुरधिगमोऽनधिगमश्च, श्रोतारं प्र
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________________ लोगसार ७४६-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लोगसार प्रति भिद्यते, तत्र सुखाधिगमो यथा चक्षुष्मतश्चित्रकर्मनिपुणस्य रूपसिद्धः, दुरधिगमस्त्वनिपुणस्य, अनधिगमस्त्वन्धस्य, तत्रानधिगमरूपोऽवस्त्वेव, सुखाधिगमस्तु विचिकित्साया विषय एव न भवति, देशकालस्वभावविप्रकृष्टस्तु विचिकित्सागोचरीभवति। तस्मिन् धर्माधकिाशादौ या विचिकित्सेति, यदिवा- 'विइगिच्छत्ति विद्वज्जुगुप्सा, विद्वांसः-साधवो विदितसंसारस्वभावाः परित्यक्तसमस्तसङ्गास्तेषां जुगुप्सानिन्दा अस्नानात् प्रस्वेदजलक्लिन्नमलत्वामुर्गन्धिवपुषस्तानिन्दतिको दोषः स्याद्यदि प्रासुकेन वारिणाऽङ्गक्षालनं कुर्वीरन्नित्यादिजुगुप्सा तां विचिकित्सां विद्वजुगुप्सां वा सम्यगापन्नः-प्राप्तः आत्मा यस्य स तथा तेन विचिकित्सासमापन्नेनात्मना नोपलभ्यते समाधिम्चित्तस्यास्थ्यं ज्ञानदर्शनचारित्रात्मको वा समाधिस्तं न लभते, विधिकित्साकलुषितान्तःकरणो हि कथयतोऽप्याचार्यस्य सम्यक्त्वाख्यां बोधिं नावाप्नोति। यश्चावाप्नोति स गृहस्थो वा स्याद्यतिति दर्शयितुमाहसिताः-पुत्रकलत्रादिभिरवबद्धाः, वाशब्द उत्तरापेक्षया पक्षान्तरमाह-एके लघुकर्माणः सम्यक्त्वं प्रतिपादयन्तमाचार्यमनुगच्छन्तिआचार्योक्तं प्रतिपद्यन्ते, तथा असिता वा गृहवासविमुक्ता वा एकेविचिकित्सादिरहिता आचार्यमार्गमनुगच्छन्ति। तेषां च मध्ये यदि कश्चित् कङ्कटकदेश्यः स्यात् स तान् प्रभूताननपाचीनमार्गप्रतिपन्नानवलोक्यासावपि कर्मविरतः प्रतिपद्येतापीति दर्शयितुमाह-आचार्योक्तं सम्यक्त्वमनुगच्छद्भिर्विरताविरतैः सह संवसंस्तैर्वा चोद्यमानोऽननुगच्छन्अप्रतिपद्यमानः कथन निर्वेदंगच्छेद् ? असदनुष्ठानस्य मिथ्यात्वादिरूपां विचिकित्सां परित्यज्याऽऽचार्योक्तं सम्यक्त्वमेव प्रतिपद्येतेत्यर्थः, यदि वा-सितासितैराचार्योक्तमनुगच्छभिरवगच्छद्भिर्बुध्यमानैः सद्भिः कश्चिदज्ञानोदयान्मतिजाड्यतया क्षपकादिश्चिरप्रवजितोऽप्यननुगच्छन्-अनवधारयन्कर्थन निर्विद्येत् ? न निर्वेदतपःसंयमयोर्गच्छेत् ? निर्विण्णश्चेदमपि भावयेत् , यथा-नाहं भव्यः स्यांनच मे संयतभावोऽप्यस्तीति, यतः-स्फुटविकटमपि कथितनावगच्छामि,एवं च निर्विष्णस्याचार्याः समाधिमाहुः-यथा-भोः साधो! मा विषादमवलम्बिष्ठाः, भव्यो भवान्, यतो भवता सम्यक्त्वमभ्युपगतम् , तच न ग्रन्थिभेदमृते, तद्भदश्च न भव्यत्वमृत, अभव्यस्य हि भव्याभव्यशङ्काया अभावादिति भावः। किं चायं विरतिपरिणामो द्वादशकषायक्षयोपशमाद्यन्यतमसद्भावे सति भवति, स च भवताऽवाप्तः, तदेवं दर्शनचारित्रमोहनीये भवतः क्षयोपशमं समागते, दर्शनचारित्रान्यथानुपपत्तेः, यत्पुनः कथ्यमानेऽपि समस्तपदार्थावगतिर्न भवति तज्ज्ञानावरणीयविजृम्मितम् , तत्र च श्रद्धानरूपं सम्यक्त्वमालम्बनमित्याह - तमेव सचंनीसंकं,जंजिणेहिं पवेइयं / (सू० 162) यत्र क्वचित्स्वसमयपरसमयज्ञाऽऽचार्याभावात् सूक्ष्मव्यवहितातीन्द्रियपदार्थेषूमयसिद्धदृष्टान्तसम्यग्हेत्वभावाञ्चज्ञानावरणीयोदयेन सम्यग्ज्ञानाभावेऽपि शङ्काविचिकित्सादिरहित इदं भावेयत्, यथा - तदेवैकं सत्यम्-अवितथम, निःशङ्कमिति-अर्हदुक्तेष्वत्यन्तसूक्ष्मेष्वती न्द्रियेषु केवलागमग्राह्येष्वर्थेष्वेवं स्यात्, एष वा इत्येवमाकारा संशीतिःशङ्का निर्गता शङ्का यस्मिन् प्रवेदने तन्निःशङ्कम्, यत्किमपि धम्माधाकाशपुद्गलादिप्रवेदितम् , कैः ?-जिनैः-तीर्थकरै रागद्वेषजयनशीलैः, तत्तथ्यमेवेत्येवम्भूतं श्रद्धानं विधेयं सम्यक्पदार्थानवगमेऽपि, न पुनर्विचिकित्सा कार्येति / किं यतेरपि विचिकित्सा स्याद्येनेदमभिधीयते? संसारान्तर्वर्तिनो मोहोदयात्तत्किं ? यन्न स्यादिति, तथा चागमः"अत्थिणं भंते ! समणा वि निगंथा कंखामोहणिज्ज कम्मवेदेति!, हंता अत्थि, कहनं समणा वि णिग्गंथा कंखामोहणिज्जं कम्मवेयंति!, गोयमा ! तेसु तेसु नाणन्तरेसु चरितंतरेसु संकिया कंखिया विइगिच्छासमावन्ना भेयसमावन्ना कलुससमावन्ना, एवं खलु गोयमा ! समणा वि निग्गंथा कंखामोहणिज्जं कम्मं वेदेति, तत्थालंबणं तमेव सच्चं णीसकं जंजिणेहिं पवेइयं,' से पूर्ण भंते! एवं मणं धारेमाणे आणाए आराहए भवति ? हंता गोयमा ! एवं मणं धारेमाणे आणाए आराहए भवति'' किं चान्यत् ?." वीतरागा हि सर्वज्ञा, मिथ्या न बुवते क्वचित् / यस्मात्तस्माद्वचस्तेषां, तथ्यं भूतार्थदर्शनम् // 1 // " इत्यादि। सा पुनर्विचिकित्सा प्रविव्रजिषोर्भवत्यागमापरिकर्मितमतेः, तत्राप्येतत्पूर्वोक्तं भावयितव्यमित्याह - सडिस्स णं समणुनस्स संपव्वयमाणस्स समियं तिमन्नमाणस्स एगया समिया होइ 1, समियं ति मन्नमाणस्स एगया असमिया होइ २,(सू०१६३+) श्रद्धा-धर्मेच्छा सा विद्यते यस्यासौ श्रद्धावांस्तस्य समनुज्ञस्यसंविनविहारिभिर्भावितस्य संविनादिभिर्वा गुणैः प्रव्रज्याहस्य संप्रव्रजतःसम्यक्प्रव्रज्यामभ्युपगच्छतो विचिकित्साशङ्का भवेत्, तत्रैतस्य सम्यम्जीवादिपदार्थावधारणाशक्तस्येदमुपदेष्टव्यम् , यथा-तदेव सत्यं निःशङ्क यजिनैः प्रवेदितमिति, तदेवं प्रव्रज्यावसरे तदेव सत्यं निःशङ्कं यजिनैः प्रवेदितमित्येवं यथोपदेशं प्रवर्तमानस्य प्रवर्द्धमानकण्डकस्य सत उत्तरकालमपि तदधिकता तत्समता तन्न्यूनता तदभावो वा स्यादित्येवंरूपां विचित्रपरिणामतां दर्शयितुमाह-तस्य श्रद्धावतः समनुझस्य संप्रव्रजतस्तदेव सत्यं निःशः यज्जिनः प्रवेदितमित्येतत्सम्यगित्येव मन्यमान एकदा-इति उत्तरकालमपि शङ्काकाङ्क्षाविचिकित्सादिरहिततया सम्यगेव भवति-न तीर्थकरभाषिते शङ्काद्युत्पद्यत इति 1 / कस्यचित्तु प्रव्रज्यावसरे श्रद्धानुसारितया सम्यगिति मन्यमानस्य तदुतरकालमधीतान्वीक्षिकीकस्य दुर्गृहीतहेतुदृष्टान्तलेशस्य ज्ञेयगहनताव्याकुलितमतेः 'एकदे' ति मिथ्यात्वांशोदयेऽसम्यगिति भवति, तथाहि-असौसर्वनयसमूहाभिप्रायतया अनन्तधर्माध्यासितवस्तु-प्रसाधने सति मोहादेकनयाभिप्रायेणैकांशसाधनाय प्रक्रमते, यदि नित्यं कथमनित्यमनित्यं चेत्कथ नित्यमिति, परस्परपरिहारलक्षणतयाऽनयोरवस्थानात् , तथाहि-अप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकस्वभावं हि नित्यम् अतोऽन्यत्प्रतिक्षणविशरारुरूप मनित्यमित्येवमादिकमसम्यग्भावमुपयाति, न पुनर्विवेचयति,
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________________ लोगसार 747 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लोगसार यथा-अनन्तधमाध्यासितं वस्तु सर्वनयसमूहात्मकं च दर्शनमति-गहनं मन्दधियां श्रद्धागम्यमेव न हेतुक्षोभ्यमिति / उक्तं च- "सर्वनयैर्नियतनैगमसंग्रहाद्यैरेकै कशी विहिततोर्थिकशासनैर्यत् / निष्ठां गतं बहुविधैर्गमपर्ययैस्तैः, श्रद्धेयमेव वचनं न तु हेतुगम्यम्॥ 1 // ' इत्यादि, यतो हेतुः प्रवर्तमानः एकनयाभिप्रायेण प्रवर्त्तते, एकं च धर्मं साधयेत्, सर्वधर्मप्रसाधकस्य हेतोरसम्भवादिति २।('असमिय' शब्दे प्रथमभागे 844 पृष्ठे सूत्रं गतम्।) व्याख्या चेयम् यदि हि पौद्गलिकः शब्दो न स्यात् ततस्तत्कृतावनुग्रहोपघातौ श्रवणेन्द्रियस्स न स्याताम्, अमूर्त्तत्वादाकाशवदित्यादिक सम्यग् भवति 3 / कस्यचित्त्वागमापरिमिलितमतेः कथमेकेनैव समयेन परमाणोर्लोकान्तगमनमित्यादिकमसम्यगिति मन्यमानस्यैकदेतिकुहेतुवितर्काविभावावसरे नितरामसम्यगेव भवति, तथाहि- चतुर्दशरज्ज्वात्मकस्य लोकस्याद्यन्ताकाशप्रदेशयोः समयाभेदतया यौगपद्यसंस्पर्शात् तावन्मात्रता परमाणोः स्यात् , प्रदेशयोलॊकान्तद्वयगतयोर्वेक्यमित्यादिकमसम्यगिति भवति, न त्वसौ स्वाग्रहाविष्ट एतद् भावयति, यथा-विरसा परिणामेन शीघ्रगति-त्वात् परमाणोरेकसमयेनासंख्येयप्रदेशातिक्रमणम्, यथाहि-अङ्गुलिद्रव्यमेकसमयेनासंख्येयानप्याकाशप्रदेशानतिचयति, एतदेव कुत इति चेत् , न हि दृष्टऽनुपपन्नं नाम, नच सकलप्रमाणप्रत्यक्षसिद्धे अर्थऽनुमानमन्वेष्टव्यम्, तथाहि-यद्यनेकप्रदेशातिक्रमणं सामायिकं न भवेत् ततोऽङ्गुलमात्रमपि क्षेत्रमसंख्येयसमया-तिक्रमणीयं स्यात्, तथा च सति दृष्टष्टबाधाऽऽपद्येतेति, यत्किश्चिदेतत् / / साम्प्रतं भङ्गकोपसंहारद्वारेण परमार्थमाविर्भावयन्नाह - समियं ति मन्नमाणस्स समिया वा असमिया वा समिआ होइ उवेहाए 5, असमियं ति मन्नमाणस्स समिया वा असमिया वा असमिया होइ उवेहाए 6, उवेहमाणो अणुवेहमाणं बूयाउवेहाहिं समियाए, इच्चेवं तत्थ संधीझोसिओ भवइ, से उट्ठियस्स ठियस्स गई समणुपासह, इत्थं वि बालभावे अप्पाणं नो उवदंसिना / (सू०१६३+) सम्यगित्येवं मन्यमानस्य शङ्काविचिकित्सादिरहितस्य सतस्तद्वस्तु यत्नेन तथारूपतयैव भावितं तत्सम्यग्वा स्यादसम्यग्वा, तथापि तस्य तत्र सम्यगुत्प्रेक्षयापर्यालोचनया सम्यगेव भवति, ईपिथोपयुक्तस्य क्वचित्प्राण्युपमर्दवत् 5 / साम्प्रतमेतद्विपर्ययमाह-असम्यगिति किश्यिद्वस्तु मन्यमानस्य शङ्का स्यादग्दिर्शितया छास्थस्य सतस्तद्वस्तु सम्यग्वास्यादसम्यग्वा, तस्य तदसम्यगेवोत्प्रेक्षया असम्यकपर्यालोचन-- तयाऽशुद्धाध्यवसायतयेतियावत्'यद्यथा शङ्कयेत्तत्तथैव समापद्येते ति वचनादिति 6 // यदि वा- "समियं ति मन्नमाणस्स'' इत्याद्यन्यथा व्याख्यायतेशमिनो भावः शमिता इतिः-उपप्रदर्शने, तामेतां शमितां मन्यमानस्य शुभाध्यवसायिनः 'एकदे त्युत्तरकालमपि शमितैव भवतिउपशमवत्तैवोपजायते, अन्वस्य तु शमितामपि मन्यमानस्यकषा योदयादशमितोपजायत इति, अनया दिशोत्तरभङ्गेष्वपि सम्यगुपयुज्याऽऽयोज्यमिति / तदेवं सम्यगसम्यगित्येवं पर्यालोचयन्नपरस्याप्युपदेशदानायालमिति, आह च-आगमपरिकर्मितमतित्वाद्यथावस्थितपदार्थस्वभावदर्शितया सम्यगसम्यगिति चोत्प्रेक्षमाणःपर्यालोचयन्नपरमनुत्प्रेक्षमाणं गड्डुरिकायूथप्रवाहप्रवृत्तं गतानुगतिकन्यायानुसारिणं शङ्कया वाऽपधावन्तं ब्रूयात्, यथा-उत्प्रेक्षस्वपर्यालोचय सम्यग्भावेन माध्यस्थ्यमवलम्ब्य किमेतदर्हदुक्त जीवादितत्त्वं घटामियाहोश्विन्नेत्यक्षिणी निमील्य चिन्त-येति भावः, यदिवा-उत्प्रेक्षमाणः संयमम् उत्-प्रावल्येनेक्षमाणः-संयमे उद्यच्छन्ननुत्प्रेक्षमाणं ब्रूयात् , यथा-सम्यग्भावापन्नः सन् संयममुत्प्रेक्षस्वसंयमे उद्योगं कुरु। किमवलम्ब्येत्याह-इत्येवं-पूर्वोक्तेन प्रकारेण तत्र-तस्मिन् संयमे सन्धिःकर्मसन्ततिरूपो झोषित:-क्षपितो भवति, यदि संयमे सम्यग्भावे वोत्प्रेक्षणं स्यात्, नान्यथेति। सम्यगुत्प्रेक्षमाणस्य च यत्स्यात्तदाह-(से) तस्यसम्यगुत्थानेनोत्थितस्य निःशङ्कस्य श्रद्धावतः स्थितस्य गुरुकुले गुरोराज्ञायां वा या गतिर्भवतियापदवी भवति तां सम्यगनुपश्यत यूयम्, तद्यथा-सकललोकश्लाघ्यता ज्ञानदर्शनस्थैर्य चारित्रे निष्प्रकम्पता श्रुतज्ञानाधारता चस्यादिति, यदिवास्वर्गापवर्गादिका गतिःस्यात् , तां पश्यतेति सम्बन्धः, अथवा-उत्थितस्यसंयमोद्योगवतः तदभावेन च स्थितस्य पार्श्वस्थादेगतिम् सकलजनोपहास्यरूपामधमस्थानगतिं वा पश्यतेति। तदेवमुद्युत्केतरयोर्गतिमुपलभ्य पञ्चविधाचारसारे प्रक्रमितव्यम्, यदि नामानुपस्थितस्य विरूपा गतिर्भवति ततः किमित्याहअत्रापि-असंयमेबालभावरूपे इतरजनाचरिते आत्मानं सकलकल्याणास्पदं नोपदर्शयेत्, बालानुष्ठानविधायी मा भूदिति यावत्, तथाहिबालाः शाक्यकापिलादयस्तद्भावितो बालभावमाचरति, वक्तिच-नित्यत्वादमूर्तत्वाचात्मनः प्राणातिपात एव नास्त्याकाशस्येव, न हि वृक्षादिच्छेदे दाहे वाऽऽकाशस्य भिदाप्लोषो वा स्यात् एवमात्मनोऽपि शरीरविकारेऽविकारित्वम् / उक्तं च-"न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भवितेति // " "नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि, नैनं दहित पावकः / न चैनं क्लेदयन्त्यापो, न शोषयति मारुतः॥१॥अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च / नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः // 2 // " इत्यादि। ____ अध्यवसायात्तद्धननादौ प्रवृत्तस्य तत्प्रतिषेधार्थमाह - तुमंसिनाम सचेवजं हंतव्वं ति मनसि, तुमंसि नाम सबेवजं अजावेयव्वं ति मनसि, तुमंसि नाम सचेव जं परियावेयव्वं ति मन्नसि, एवं जं परिचित्तव्वं ति मनसि ,जं उद्दवेयं ति मनसि, अंजू चेयपडिबुद्धजीवी,(सू० 1644) योऽयं हन्तव्यत्वेन भवताऽध्यवसितः स त्वमेव, नामशब्दः सम्भावनायाम् , यथा-भवान् शिरःपाणिपादपार्श्वपृष्ठोरूदरवान् एव-मसावपि यं हन्तव्यमिति मन्यसे, यथा च भक्तो हननोद्यतं दृष्ट्वा दुःखमुत्पद्यते एवमन्येषामपि, तद्दुःखापादनाच किल्विषानुषङ्गः। इदमुक्तं भवति
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________________ लोगसार 748 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लोगसार नात्रान्तरात्मनः आकाशदेशस्य व्यापादनेन हिंसा, अपितु शरीरात्मनः, तस्य हि यत्र क्वचित्स्वाधारं शरीरं नितरां दयितं तद्वियोजीकरणमेव हिंसेति। उक्तंच-"पञ्चेन्द्रियाणि त्रिविधं बलंच, उच्छ्वासनिःश्वासमथान्यदायुः / प्राणा दशैते भगवद्भिरुक्तास्तेषां वियोजीकरणं तु हिंसा / / १॥"नच संसारस्थस्य सर्वथा अमूर्तत्वावाप्तिः, येनाकाशस्येव विकारो न स्यात्, सर्वत्रैव च प्राण्युपमर्दचिकीर्षितायामात्मतुल्यता भावयितव्येत्ये-तदुत्तरसूत्रर्दर्शयितुमाहत्वमपि नाम स एव यंप्रेषणादिना आज्ञापयितव्यमिति मन्यसे, तथा त्वमपि नाम स एव यं परितापयितव्यमिति मन्यसे, एवं यं परिग्रहीतव्यमिति मन्यसे, यमपद्रावयितव्यमिति मन्यसे, असौ त्वमेव, यथा भवतोऽनिष्टापादनेन दुःखमुत्पद्यते एवमस्यापीत्यर्थः, यदिवा-यं कायं हन्तव्यादितयाऽध्यवस्यसि तत्रानेकशो भवतोऽपि भावात्त्वमेवासौ, एवं मृषावादादावप्यायोज्यम्। यदि नाम हन्तव्यघातकयोरुक्तक्रमेणैक्यं ततः किमित्याह- 'अञ्जु रिति ऋजुः-प्रगुणः साधुरिति यावत्, चशब्दोऽवधारणे, एतस्य-हन्तव्यघातकैकत्वस्य प्रतिबोधः प्रतिबुद्धमेतत्प्रतिबुद्धं तेन जीवितुं शीलमस्येत्येततत्प्रतिबुद्धजीवी साधुरेव तत्परिज्ञानेनजीवति नापर इत्युक्तं भवति। (आचा०) ('तम्हा' इत्यादिसूत्राणि,सव्याख्यानि'आता' शब्दे द्वितीयभागे 200 पृष्ठे गतानि।) अवधार्य च किं कुर्यादित्याह - निद्देसं नाइवट्टेजा मेहावी सुपडिलेहिया सव्वओ सव्वप्पणा सम्मं समभिण्णाय, इह आरामो परिव्वए णिट्ठियही वीरे आगमेण सया परक्कमे / (सू० 168) निर्दिश्यत इति निर्देशः तीर्थकरायुपदशस्तं नातिवर्तेत मेधावीमर्यादावानिति। किं कृत्वा निर्देशं नातिवर्तेतेत्यत आह-सुष्टु प्रत्युपेक्ष्य हेयोपादेयतया तीर्थकवादान् सवज्ञवादंच सर्वतः सर्वैः प्रकारैर्द्रव्यक्षेत्र-- कालभावरूपैः सर्वात्मना सामान्यविशेषात्मकतया पदार्थान् पर्यालोच्य सह सन्मत्यादित्रिकेण परिच्छिद्य सदाऽऽचार्यनिर्देशवर्ती तीर्थकप्रवादनिराकरणं कुर्यात् , किंचकृत्वेत्यत आह- सम्यगेव स्वपरतीर्थिकवादान् समभिज्ञायबुद्ध्वा ततो निराकरणं कुर्यात् / किं च-इह-अस्मिन् मनुष्यलोके आरमणमारामो रतिरित्यर्थः, स चारामः परमार्थचिन्तायामात्यन्तिकैकान्तिकरतिरूपः संयमः तमासेवनपरिज्ञया परिज्ञाय आलीनो गुप्तश्च परिव्रजेत्- संयमानुष्ठाने विहरेत् , किंभूत इत्याहनिष्ठितोमोक्षस्तेनार्थी, यदि वा-निष्ठितः-परिसमाप्तः अर्थः-प्रयोजन यस्य स निष्ठितार्थः वीरः कर्मविदारणसहिष्णुः सन् आगमेन-सर्वज्ञप्रणीताचारादिना सदा-सर्वकालम् पराक्रमेथाः कर्मरिपून् प्रति मोक्षाध्वनि वा गच्छेः / इतिः-अधिकारपरिसमाप्तौ ब्रवीमीति पूर्ववत्। किमर्थं पुनः पौनःपुन्येनोपदेशदानमित्याह - उडं सोया अहे सोया, तिरियं सोया वियाहिया। एए सोया वि अक्खाया, जेहिं संगति पासह // 1 // श्रोतांसि-कस्रिवद्वाराणि तानि च प्रतिभवाभ्यासाद्विषयामुबन्धादीनि गृह्यन्ते, तत ऊर्ध्वं श्रोतांसिवैमानिकाङ्गनाऽभिलाषेच्छा वैमानिकसुखनिदानं वा, अधोभवनपतिसुखाभिलाषिता, तिर्यग्व्यन्तरमनुष्यतिर्यग्विषयेच्छा, यदिवा-प्रज्ञापकापेक्षयोक्-गिरिशिखरप्राग्भारनितम्बप्रपातोदकादीनि अधोऽपिश्वभ्रनदीकूलगुहालयनादीनि, तिर्यगप्यारामसभाऽऽवसथादीनि प्राणिनां विषयोपभोगस्थानानि विविधमाहितानि-प्रयोगविस्र-साभ्यां स्वकर्मपरिणत्या वा जनितानि व्याहितानि, एतानि च कमस्रिवद्वाराणीति कृत्वा श्रोतांसीव श्रोतांसि, एभिश्च त्रिभिः प्रकारैरप्यन्यैश्च पापोपादानहेतुभूतैयः सङ्गम्-प्राणिनामासक्तिं कर्मानुषङ्ग वा पश्यत, इतिः-हेतौ, तस्मात्कर्मानुषङ्गात् कारणादेतानि श्रोतांसीत्यतोऽपदिश्यते, आगमेन सदा पराक्रमेथा इति। आवटें तुपेहाए इत्थ विरमिज वेयवी, विणइत्तु सोयं निक्खम्भ एसमहं अकम्मा जाणइ पासइ पडिलेहाए नावकंखइ इह आगई गई परिनाय / (सू०१६६) रागद्वेषकषायविषयावर्त कर्मबन्धावत वा तुशब्दः पुनःशब्दार्थे, भावावर्त पुनरुत्पेक्ष्य अत्र-अस्मिन् भावावर्ते विषयरूपे वेदविद्आगमविद् विरमेद्-आग्रवद्वारनिरोधं विदध्यात्, पाठान्तरं वा"विवेगं किट्टइ वेदवी' आस्रवद्वारनिरोधेन तजनितकर्मविवेकम्-अभाव कीर्त्तयति-प्रतिपादयति वेदविदिति। आस्रवद्वारनिरोधेन च यत्स्यात्तदाह-स्रोतः-आस्रवद्वारं तद्विनेतुम्-अपनेतुं निष्क्रम्यप्रव्रज्य एष इतिप्रत्यक्षः प्रस्तुतार्थस्य चावश्यंभावित्वादेष इति प्रत्यक्षवाचिना सर्वनाम्नोक्तो यः कश्चिदित्यर्थः महान-महापुरुषः अतिशयिककर्मविधायी, एवम्भूतश्च किंविशिष्टः स्यादिति दर्शयति-अकर्मानास्य कर्म विद्यत इत्यका , कर्मशब्देन चात्र धातिकर्मविवक्षितम् , तदभावाच जानाति विशेषतः पश्यति च सामान्यतः, सर्वाश्च लब्धयो विशेषोपयुक्तस्य भवन्तीत्यतः पूर्वं जानाति पश्चाच पश्यति। अनेन च क्रमोपयोग आविष्कृतः; सचोत्पन्नदिव्यज्ञानस्त्रैलोक्यललामचूडामणिः सुरासुरनरेन्द्रकैपूज्यः संसारार्णवपारवर्ती विदितवेधः सन् किं कुर्यादित्याह-स हि-ज्ञातज्ञेयः सुरासुरनरोपहितां पूजामुपलभ्य कृत्रिमामनित्यामसारां सोपाधिकां च प्रत्युपेक्ष्यपर्यालोच्य हृषीकविजयजनित-सुखनिःस्पृहतया तां नाकाङ्क्षतिनाभिलषतीति। किंच-इह-अस्मिन् मनुष्यलोके व्यवस्थितः सन् उत्पन्नज्ञानः प्राणिनामागतिं गतिं च संसारभ्रमणं तत्कारणं च ज्ञपरिज्ञया ज्ञात्वा प्रत्याख्यानपरिज्ञया निराकरोति। तन्निराकरणे च यत्स्यात्तदाह - अचइ जाईमरणस्स वट्टमग्गं विक्खायरए, सवे सरा नियटुंति,तक्का जत्थ न विजइ, मई तत्थ न गाहिया, ओए, अप्पइट्ठाणस्सखेयन्ने, से नदीहे न हस्से न वट्टे न तसे न चउरंसे न परिमंडले न किण्हे न नीले न लोहिए न हालिद्दे न सुकिल्ले
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________________ लोगसार 746 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लोगहिय न सुरभिगंधे न दुरभिगंधे न तित्ते न कडुए न कसाएन अंबिले "दग्धेन्धनः पुनरुपैति भवं प्रमथ्य, निर्वाणमप्यनवधारितभीरुनिष्ठम्। न महुरे न कक्खडे न भउए न गरुए न लहुए न उण्हे न निद्धे न मुक्तः स्वयंकृतभवश्च परार्थशूरस्त्वच्छासनप्रतिहतेष्विह मोहराज्यम्॥ लुक्खे न काऊ न रहे न संगे न इत्थी न पुरिसे न अन्नहा 1 // " तथा च-न विद्यते सङ्गोऽमूर्त्तत्वाद्यस्य स तथा, तथा न स्त्री न परिने सन्ने उवमान विजए, अरूवी सत्ता, अपयस्स पयं नऽत्थि। पुरुषो नान्यथेति-न नपुंसकः, केवलं सर्वरात्मप्रदेशैः परिः-समन्ता(सू०१७०) द्विशेषतोजानातीति परिज्ञः, तथा सामान्यातः सम्यग्जानाति-पश्यतीति अत्येति-अतिक्रामति जातिश्च मरणं च जातिमरणं तस्य 'वट्टमग्ग' ति संज्ञः, ज्ञानदर्शनयुक्त इत्यर्थः, यदि नाम-स्वरूपतो न ज्ञायते मुक्तात्मा पत्थानम्-मार्गम् उपादानं कर्मेति यावत् , तदत्येति-अशेषकर्मक्षयं तथाऽव्युपमाद्वारेणादित्यगतिरिव ज्ञायतएव इति चेत् , तन्न, यत आहविधत्ते, तत्क्षयाच किं गुणः स्यादित्याह-विविधम्- अनेकप्रकारं प्रधान- उपमीयते सादृश्यात् परिच्छिद्यते यया सोपमातुल्यता सा मुक्तात्मपुरुषार्थतयाऽऽरब्धशास्त्रार्थतया तपःसंयमानुष्ठानार्थत्वेन (व्याख्यातो) नस्त-ज्ज्ञानसुखयोर्वा न विद्यते, लोकातिगत्वात्तेषाम्, कुत एतदिति मोक्षः-अशेषकर्मक्षयलक्षणो विशिष्टाकाशप्रदेशाख्यो वा तत्र रतो- चेदाह-तेषां मुक्तात्मनां वा सत्ता सा अरूपिणी, अरूपित्वं च दीर्धाव्याख्यातरतः, आत्यन्तिकैकान्तिकानाबाघसुखक्षायिकज्ञानदर्शन- दिप्रतिषेधेन प्रतिपादितमेवा किंच-न विद्यतेपदम्-अवस्थाविशेषो यस्य संपदुपेतोऽनन्तमपि कालं संतिष्ठते। किम्भूत इति चेत्, नतत्र शब्दानां सोऽपदः, तस्य पद्यते-गम्यते येनार्थस्तत्पदम्-अभिधानं तच्च नास्तिप्रवृत्तिः,नचसा काचिदवस्थाऽन्तिवाशब्दैरभिधीयेत इत्येतत्प्रतिपाद न विद्यते, वाच्यविशेषाभावात्। यितुमाह-सर्व-निरवशेषाः, स्वराध्वनयस्तस्मान्निवर्तन्ते, तद्वाच्य तथाहि-योऽभिधीयते स शब्दरूपगन्धरसस्पर्शान्यतरविशेषेणावाचकसम्बन्धे न प्रवर्त्तन्ते, तथाहि-शब्दाः प्रवर्त्तमाना रूपरसगन्ध भिधीयते, तस्य चतदभाव इत्येतद्दर्शयितुमाह-यदिवा-दीर्घ इत्यादिना स्पर्शानामन्यतमे विशेषे सङ्केतकालगृहीते तत्तुल्ये वा प्रवर्तेरन्, न चैत रूपादिविशेषनिराकरणं कृतम् / इह तु सत्सामान्यनिराकरणं कर्तुकाम तत्रशब्दादीनां प्रवृत्तिनिमित्तमस्ति, अवः शब्दानभिधेया मोक्षावस्थेति / आहन केवलं शब्दानभिधेया, उत्प्रेक्षणीयाऽपि न सम्भवतीत्याह-सम्भवत्पदार्थविशेषास्तित्वाध्यवसायः, ऊहस्तकः-एवमेवं चैतत्स्यात्, सच से न सद्देन रूवे न गंधे न रसे न फासे, इच्चेव त्ति वेमि / यत्र न विद्यते ततः शब्दानां कुतः प्रवृत्तिः स्यात् ? किमिति तत्र तकाभाव (सू०१७१) इतिचेदाह-मननं मतिः-मनसो व्यापारः पदार्थचिन्ता सौत्पत्तिक्यादिका स-मुक्तात्मानशब्दरूपः नरूपात्मानगन्धः सरसःनस्पर्श इत्येतावन्त चतुर्विधाऽपि मतिस्तत्र न ग्राहिका, मोक्षावस्थायाः सकलविकल्पातीत- एव वस्तुनो भेदाः स्युः, तत्प्रतिषेधाच्च नापरः कश्चि-द्विशेषः सम्भाव्यते त्वात्, तत्रच मोक्षे काशसमन्वितस्य गमनमाहोश्विन्निष्कर्मणः? न येनासौ व्यपदिश्यतेति भावार्थः / इतिरधिकारपरिसमाप्तौ, ब्रवीमिति तत्र कर्मसन्वितस्य गमनमस्तीत्येतद्दर्शयितुमाह-ओजः-एकोऽशेष- पूर्ववत्। आचा०१ श्रु०५ अ०६ उ०। मलकलङ्काङ्करहितस, किं च-न विद्यते प्रतिष्ठानमौदारिकशरीरादेः | लोगसारत्थ-पुं०(लोकसारार्थ) त्रैलोक्यप्रधानविजये, बृ०२ उ० कर्मणो वा यत्र सोऽप्रतिष्ठानोमोक्षस्तस्य खेदज्ञोनिपुणो, यदि वा-- | लोगसिद्धिवासि-पुं०(लोकसिद्धिवासिन्) चतुर्दशरज्ज्वात्मके लोकान्ते अप्रतिष्ठानो नरकस्तत्र स्थित्यादिपरिज्ञानतया खेदज्ञः, लोक या सिद्धिः प्रशस्तक्षेत्ररूपा तद्वासिनः। ईषत्प्रारभारावासिषु सिद्धेषु, पं0 नाडिपर्यन्तपरिज्ञानावेदनेनच समस्तलोकखेदज्ञता आवेदिता भवति। सू०५ सूत्र। सर्वस्वरनिवर्त्तनं च येनाभिप्रायेणोक्तवांस्तमभिप्रायमाविष्कुर्वन्नाह-सःपरमपदाध्यासी लोकान्तक्रोशषड्भागक्षेत्रावस्था-नोऽनन्तज्ञानदर्शनो लोगसिरी-स्त्री०(लोकश्री) स्वनामख्याते ज्योतिष्कग्रन्थे, स्था०६ पयुक्तः संस्थानमाश्रित्य-नदी| न ह्रस्वोनवृत्तो नत्र्यस्रो न चतुरस्रोन ठा०३ उ०। परिमण्डलो, वर्णमाश्रित्य-न कृष्णो न नीलो न लोहितो न हारिद्रो न लोगहिय-पुं०(लोकहित) लोकस्यैकेन्द्रियादिप्राणिगणस्य हित आत्यशुक्लो, गन्धमाश्रित्य-न सुरभि-गन्धो न दुरभिगन्धो, रसमश्रित्य-न न्तिकतद्रक्षाप्रकर्षप्ररूपणेनानुकूलवृत्तिर्लोकहितः। स० 1 सम० ! तिक्तोन कटुको न कषायो नाम्लो नमधुरः, स्पर्शमाश्रित्य-न कर्कशोन 'लोकहितेभ्यः' इह लोकशब्देन सकल एव सांव्यवहारिकादिभेदभिन्नः मृदुर्न लघुर्न गुरुर्न शीतो नोष्णो न स्निग्धो न रूक्षो, 'न काऊ' इत्यनेन प्राणिवर्गो गृह्यते तस्मै सम्यग्दर्शनप्ररूपणरक्षणयोगेन हितो लोकहितः। लेश्या गृहीता, यदि वा-न कायवान् यथा वेदान्तवादिनाम्- 'एक एव ध०२ अधि०। रा०। लोकस्य प्राणिलोकस्य पञ्चास्तिकायात्मकस्य मुक्तात्मा तत्कायमपरे क्षीणक्लेशा अनुप्रविशन्ति आदित्यरश्मय सा हितोपदेशेन सम्यक्प्ररूपणतया हितो लोकहितः। जीवानां हितइवांशुमन्तमिति, तथा न रुहः 'रुह बीजजन्मनि प्रादुर्भाव च' रोहतीति कारके दयाप्ररूपके, जी०३ प्रति०४ अधि०। कल्प०। लोकशब्देन रुहः, न रुहोऽरुहः, कर्मबीजाभावादपुनर्भावीत्यर्थः, न पुनर्वथा सकलव्यवहारिकादिभेदभिन्नप्राणिलोको गृह्यते पञ्चास्तिकायात्मको वा / शाक्यानां दर्शननिकारतो मुक्तात्मनोऽपि पुनर्भवोपादानमिति। उक्तं च- ल०। जिने, कल्प०१आच०१क्षण। रुचकपर्वतस्य दक्षिणकूटे, द्वी०।
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________________ लोगागमणी 750- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लोगुत्तरतत्त० लोगागमणीइ-स्त्री०(लोकागमनीति) लोकन्याये,पञ्चा०१७ विव०। लोगुत्तम-पुं०(लोकोत्तम) लोको-भव्यसत्त्वलोकस्तस्य सकलकलोगाणुवित्ति-स्त्री०(लोकानुवृत्ति) लोकचित्ताराधनायाम्, द्वी०। ल्याणैकनिबन्धनतया भव्यसत्वभावेनोत्तमः लोकोत्तमः। जी०३ प्रति० लोगायत-न०(लोकायत) प्रत्यक्षैकप्रमाणवादिनां जडमात्रपदार्थ 4 अधि०। रा० / लोकस्य सकलकल्याणनिबन्धनतया भव्यत्वभावे नोत्तमः लोकोत्तमः / ध०२ अधि० / लोकस्योत्तमश्यतुस्त्रिंशयुद्धावादिनां बार्हस्पत्यानां शास्त्रे, तस्यलोके विस्तीर्णत्वाल्लोकायतं नाम / तिशयाद्यसाधारणगुणोपपेततया सकलसुरासुरखेचरनिकरनमस्यतया अनु०। सम्म०। दश०। च प्रधानो लोकोत्तमः / स०१ सम०। लोकस्य भव्यसमूहस्य चतुस्त्रिलोगायतिग-पुं०(लौकायतिक) चावकि बृहस्पतिशिष्ये, सूत्र०१ श्रु०१ शदतिशययुक्तत्वाद्वा लोकोत्तमः, सकलसुरासुरादिवन्द्यमानेषु जिनाअ०१3०1"पिव खाद च चारुलोचने!, यदतीतं वरगात्रि! तन्नते।न दिषु, कल्प०१अधि०१क्षण। भ० लोकश्रेष्ठे, आव०४ अ०।आ० चू०| हि भीरु गतं निवर्त्तते, समुदयमात्रमिदं कलेवरम्॥१॥"आचा०१श्रु० चत्तारि लोगुत्तमा अरिहंता लोगुत्तमा सिद्धा लोगुत्तमा साहू 4 अ० 2 301 ('पुंडरीय' शब्दे पञ्चमभागे 646 पृष्ठएतन्मतं खण्डितम्) लोगुत्तमा केवलिपन्नत्तो धम्मो लोगुत्तमो। लोगालोगप्पमाण-न०(लोकालोकप्रमाण)लोकालोकयोस्तद्वयक्त्यो ('पडिक्कमण' शब्दे पञ्चमभागे 270 पृष्ठे चैतद् व्याख्यातम् / ) यत्प्रमाणमनन्ताः प्रदेशास्तदेव परिमाणमस्येति लोका-लोकप्रमाणः। तन्निक्षेपस्यापि तन्निबन्धनत्वान्निश्चयमतभेदादतिसूक्ष्मबुद्धिगम्यमिति लोकालोकप्रदेशपरिमिते आत्मनि, स्था० 5 ठा०३ उ०। लोकोत्तमः ! ल०। लोगालोगपवंच-पुं०(लोकालोकप्रपञ्च) लोके चतुर्दशरज्ज्वात्मके | लोगुत्तमदेव-पुं०(लोकोत्तमदेव) लोकस्य त्रिभुवनान्तर्वर्तिजनस्योत्तमा आलोको लोकालोकस्तस्य प्रपञ्चः / पर्याप्तापर्याप्तकसुभगादिद्वन्द्रवि- लोकोत्तमाः साधवस्तेषां देव आराध्यः। अथवा-लोकानामुत्तमोलोकोत्तमः, कल्पे, तद्यथा-नारको नारकत्वेनावलोक्यते एकेन्द्रियादिरेकेन्द्रियत्वे- स चासौ देवश्च लोकोत्तमदेवः। जिने, वीतरगे, दर्श०५ तत्त्व। नैवं पर्याप्तापर्याप्तकाद्यपि वाच्यम्। आचा०१ श्रु०३ अ०३ उ०। लोगुत्तममइ-स्त्री०(लोकोत्तममति) सत्यजनप्रधानबुद्धयाम्,जिनलोगालोगावलोयणाभोग-त्रि०(लोकालोकावलोकनाभोग) लोका- प्रवचनानुसारिधियाम्, पञ्चा० 3 विव०। लोकयोः समयाप्रसिद्धयोरवलोकनम् आभोग उपयोगोऽस्येति लोका- लोगुत्तरहिइ-स्त्री०(लोकोत्तरस्थिति) लोकातीतमर्यादायाम, अष्ट० 23 लोकावलोकनाभोगः / लोकालोकज्ञातरि, षो०१५ विव०। अष्टा लोगावाई-त्रि०(लोकापातिन) लोकश्चतुर्दशरज्ज्वात्मकः प्राणिगणोवा | लोगुत्तरतत्तसंपत्ति-स्त्री०(लोकोत्तरतत्वसम्प्राप्ति) परमार्थस्य लाभे, तत्रापतितुं शीलमस्येति / कोकाकाशमध्यवर्तिनि, आचा०१ श्रु०१ षो०। अ०१उ०। अधुना लोकोत्तरतत्त्वसंप्राप्तिमाह - लोगुज्जोय-पुं०(लोकोद्योत) लोकप्रकाशे, स्था०। एवं सिद्धे धर्मे , सामान्येनेह लिङ्गसंयुक्ते। तिहिं ठाणेहिं लोगुज्जोए सिया, तं जहा-अरहंतेहिं जायमा- | नियमेन भवति पुंसां, लोकोत्तरतत्त्वसंप्राप्तिः॥ 1 // णेहिं अरहंतेसु पव्वयमाणेसु अरहंताणं णाणुप्पायमहिमासु। एवं सिद्धे धर्मे-पूर्वोक्तनीत्या सामान्येन लोकलोकोत्तराप्रविभागेनेह लोकोद्योतो लोकानुभावात, मनुष्यलोके देवागमाद्वा / 'णाणु-प्पा०' प्रक्रमे लिङ्गसंयुक्ते-प्रतिपादितनीत्या नियमेन-नियोगेन भवति-जायते इति। केवलज्ञानोत्पादे देवकृतमहोत्सवेषु / स्था०३ ठा० 130 / पुंसां-पुरुषाणां लोकोत्तरस्य-लोकोत्तमस्य तत्त्वस्यपरमार्थस्य संप्राप्तिःलोगुजोयगर-पुं०(लोकोद्योतकर) लोकप्रकाशकरे, पाक्षिकदिने लाभ इति। द्वादशानां चतुर्मासक विंशतः सांवत्सरिकदिने चत्वारिंशतो लोको- इयं च यद्रूपा यस्मिँश्च काले संभवति तदेतदभिधातुमाहद्योतकराणां कायोत्सर्गः क्रियते, तत्किमिति ? अत्रोत्तरम्-पाक्षि- आद्यं भावारोग्यं, बीजं वैषा परस्य तस्यैव / कादिदिवसेषु यत्कायोत्सर्गः क्रियते तत्तु प्रतिक्रमणं कुर्वतां यदती- अधिकारिणो नियोगा-चरम इयं पुद्रलावत // 3 // चारशुद्धिर्नाभूत्तदतीचारशुद्धिनिमित्तम्, दिनप्रतिबद्धसंख्यानियमे आदौ भवमाद्यं भावारोग्यम्-भावरूपमारोग्यं तचेह सम्यक्त्वं तद्रूत्वाज्ञाप्रमाणमिति / / 153 // सेन०४ उल्ला० / सांवत्सरिकप्रति पत्वाल्लोकोत्तरतत्त्वसंप्राप्ते/जं चैषालोकोत्तरतत्त्वसंप्राप्तिः, परस्यक्रमणकायोत्सर्गे चत्वारिंशल्लोकोद्योतकरान्कथयित्वा तत्प्रान्ते एको प्रधानस्य तस्यैव-भावारोगस्य मोक्षलक्षणस्य रागद्वेषमोहानां तन्निमिनमस्कारो वक्तव्यः पश्चात् कायोत्सर्गः पारणीयः कश्चिदिति यक्ति, त्तानां च जातिजरामरणादीनां भावरोगरूपत्वात्तदभावरूपत्वाच निश्रेयकश्चिच-प्रान्ते नमस्कारं वक्तव्यं न ब्रूते, तेन किं प्रमाणमिति प्रश्नः ? सस्य, अधिकारिणः-क्षीणप्रायसंसारस्य नियोगान्नियमेन चरमे पर्यन्तअत्रोत्तरम्-सांवत्सरिकप्रतिक्रमणे सनमस्कारश्चत्वारिंशल्लोको भववर्तिनि इयम्-प्रस्तुता पुद्गलावर्तेपुद्गलपरावर्त समयप्रसिद्धे औदाद्योतकरकायोत्सर्गः प्रतिक्रमणहेतुगर्भादावुक्तोऽस्ति, पारम्पर्येणापि रिकवैक्रियतैजसकार्मणप्राणापानभाषामनोभिरेतत्परिणामपरिणततथैव क्रियत इति // 286 // सेन०३ उल्ला०। सर्वपुद्गलग्रहणरूपे॥२॥
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________________ लोगुत्तरतत्त० 751 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लोगुत्तरतत्त० कुतः पुनर्हेतोश्चरमपुद्गलावतॊ भवतीत्याशङ्कायामिदमाह - स भवति कालादेव, प्राधान्येन सुकृतादिभावेऽपि / ज्वरशमनौषधसमय-वदिति समयविदो विदुनिपुणम् / / 3 / / सः-चरमपुद्गलावर्तो भवति स्वरूपतः कालादेव प्राधान्येन हेतुविवक्षायां कालप्राधान्यमाश्रित्य शेषकर्मादिहेत्वन्तरोपसर्जनीभावप्रतिपादनेन सुकृतादिभावेऽपि-सुकृतदुष्कृतकर्मपुरुषकारनियत्यादिभावेऽपि / "कर्मादिभावेऽपी" ति पाठान्तरम्, ना-श्रितं छन्दोभङ्गभयात्। निदर्शनमाह-ज्वरशमनौषधसमयवत, ज्वरं शमयति इति ज्वरशमनं तच्च तदौषधं च तस्य समयः-प्रस्तावो देशकालस्तद्वद्ववति चरमः / ज्वरशमनीयमप्यौषधं प्रथमापाते दीयमानं न कञ्चनगुणं पुष्णाति प्रत्युतदोषानुदीरयति, तदेव चाव-सरे जीर्णज्वरादौ वितीर्यमाणं स्वकीर्य निवर्तयति। एवमयमप्यव-सरकल्पो वर्त्तते चरमइति भावः। इत्येवं समयविदः-सिद्धान्तज्ञाः विदुः-जानन्ति क्रियाविशेषणं निपुणमिति // 3 // कस्मात् पुनश्चरमपुद्गलावतः प्राधान्येन लोकोत्तरतत्त्वसंप्राप्ते - हेतुराश्रीयत इत्याहनागमवचनं तदधः, सम्यक् परिणमति नियम एषोऽत्र। शमनीयमिवामिनवे, ज्वरोदये काल इति कृत्वा // 4 // नेति-प्रतिषेधे, आगमवचनमार्षवचनं तदधस्तस्याधस्ताद् पुद्गलपरावादभ्यधिकसंसारस्य सम्यग विषयविभागेन परिणमति न परिणमत्येवेत्यर्थः / नियम एष प्रस्तुतोऽत्र प्रक्रमे शमनीयमिवौषधम्, अभिनवे ज्वरोदये प्रत्यग्रेज्वरप्रादुर्भाव किमित्यकाल इति कृत्वा अप्रस्ताव इति कृत्वा / / 4 / / नागमवचनं तस्याधस्तात्परिणमतीत्युक्तं तदेव दर्शयतिआगमदीपेऽध्यारो-पमण्डलं तत्त्वतोऽसदेव तथा। पश्यन्त्यपवादात्मक-मविषय इह मन्दधीनयनाः॥५॥ आगमप्रदीपे अध्यारोपमण्डलम्-भ्रान्तिमण्डलम् अध्यारोपोभ्रान्तिस्तया मण्डलं मण्डलाकारं दीपे, अपरे तु-भ्रान्तिसमूहम्, तत्त्वतःपरमार्थेन, वस्तुवृत्त्या असदेवा-विद्यमानमेव, तथा तेन रूपेण तैमिरिकं दृश्येन प्रदीपस्योपवर्तितया पश्यन्ति दृष्टिदोषात् अपवादात्मकम् अपवादस्वरूपम् अविषये योऽपवादस्य कथंचिन्न विषयस्तस्मिन्नविद्यमानमेवपश्यन्ति इह लोके मन्दधीनयनाः-मन्दबुद्धिचक्षुषः। यथोक्तम्"मयूरचन्द्रकाकारं, नीललोहितभा-सुरम्। प्रपश्यन्ति प्रदीपादेर्मण्डलं मन्दचक्षुषः / / 1 // // 5 // यत एवागमदीपेऽध्यारोपमण्डलं तत्त्वतोऽसदेव पश्यन्तितत एवाविधिसेवा, दानादौ तत्प्रसिद्धफल एव। तत्तत्त्वदृशामेषा, पापा कथमन्यथा भवति // 6 // ततएव-अध्यारोपादेवभ्रान्तेरेवेत्यर्थः। अध्यारोपमण्डलदर्शनादेव या अविधिसेवा-अविधेर्विधिविपर्ययस्य सेवा-सेवनं दानादौ विषये / आदिशब्दाच्छीलतपोभावनापरिग्रहः। तत्प्रसिद्धफल एव-तस्मिन्नागमे प्रसिद्धं फलं वस्य दानादेस्तस्मिन् / तस्यागमस्य तत्त्वंपरमार्थस्तं पश्यन्तीतितत्तत्त्वदृशस्तेषामेषा अविधिसेवा पापा स्वरूपेण कथमन्यथा भवति, न भवतीत्यर्थः // 6 // अविधिसेवागतमेवाह - येषामेषा तेषा-मागमवचनं न परिणतं सम्यक् / अमृतरसास्वादज्ञः, को नाम विषे प्रवर्त्तत॥७॥ येषां जीवानामेषा-अविधिसेवा तेषामागमवचनं-सर्वज्ञ-वचनं न परिणतं सम्यग्-ज्ञेयविषयविभागेन चेतसि न व्यवस्थितम् / आगमवचनापरिणतौ कारणमाह-अमृतरसास्वादज्ञः पुमान् को नाम न कश्चिद्विषे-मारणात्मके प्रवर्तेतभक्षयितुं प्रवृत्तिं विदधीत, विषप्रवृत्तिकल्पा अविधिसेवा ततो विज्ञायते नागमवचनं सम्य-क्परिणतमिति // 7 // प्रतिषेधेमुखेनोक्तमर्थ विधिमुखेन नानागमवचनपरि णामाश्रयमाहतस्माचरमे नियमा-दागमवचनमिह पुद्रलावतें। परिणमति तत्त्वतः खलु, स चाधिकारी भवत्यस्याः / / 8 / / तस्माचरमे-अवसानवृत्तौ नियमात्-नियमेनागमवचनं पूर्वोक्त-मिह पुद्गलावर्ते प्रागुक्ते परिणमति-उत्तरोत्तरपरिणामविशेषमासा-दयति, स्वरूपेण परिस्फुरतीत्यर्थः। तत्त्वतः खलु तत्वतएव यस्यै-तदागमवचनं परिणमति स चाधिकारी-अधिकारवान् भवत्यस्या-लोकोत्तरतत्त्वसंप्राप्तेः, शेषस्त्वनधिकारीति॥ 8 // (षो०)('आगम० (6) श्लोकः 'आगमवयणपरिणइ' शब्दे द्वितीयभागे 82 पृष्ठे गतः।) कथं पुनः सदोधादनुष्ठानं परिपूर्ण भवतीत्याह - दशसंज्ञाविष्कम्भण-योगे सत्यविकलं ह्यदो भवति। परहितनिरतस्य सदा, गम्भीरोदारभावस्य / / 10 / / दश च ताः संज्ञाश्च तासां विष्कम्भणं-यथाशक्तिनिरोधस्तद्योगेतत्संबन्धेसतितन्निरोधोत्साहे वा, अविकलंह्यखण्डम्, अदः एतत्सदनुष्ठानं भवति परहितनिरतस्य परोपकाराभिरतस्य, सदा-सर्वकालम्, गम्भीरोदारभावस्य गाम्भीर्यांदार्ययुक्तमनसः // 10 // (षो०)। ("सर्वज्ञवचन०" (11) इत्यादिश्लोक: 'आगम-वयण' शब्दे द्वितीयभागे 52 पृष्ठे गतः।) अध्यारोपादविधिसेवा दानादावित्युक्तं तद्विपर्ययेणाह - विधिसेवादानादौ, सूत्रानुगता तु सा नियोगेन। गुरुपारतन्त्र्ययोगा-दौचित्याचैव सर्वत्र॥ 12 // विधिसेवा-आगमाभिमतन्यायसेवा, दानादौ विषये, ज्ञेया सूत्रानुगता तु आगमानुगतातु विधिसेवा, नियोगेन-नियमेन गुरुपारतन्त्र्ययोगाद्गुरुपरतन्त्रसंबन्धात्, औचित्याचैव अनौचित्यपरिहारेण सर्वत्रदीनादावविशेषेण॥ 12 // (षो०)("न्यायात्तं०(१३)" इत्यादिश्लोकः 'दाण' शब्दे चतुर्थभागे 2560 पृष्ठे गतः!) एवं महादानं दानं चाभिधाय देवार्चनमाह - देवगुणपरिज्ञाना-त्तावानुगतमुत्तमं विधिना। स्यादादरादियुक्तं, यत्तद्देवार्चनं चेष्टम् / / 14 / / देवगुणपरिज्ञानात्-देवगुणानां वीतरागत्वादीनां परिज्ञानम् -
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________________ लोगुत्तरतत्त० 752 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लोभ अवबोधस्तस्मात्, तद्भावानुगतमुत्तमं विधिना तेषु गुणेषु भावो बहुमान- कुर्वत्याम्, ध०३ अधि०। स्तेनानुगतं युक्तम्, उत्तमम्-प्रधानम्, विधिनाशास्त्रोक्तेन, स्यादाद- लोण-न०(लवन) "न वा मयूख-लवण-चतुर्गुण-चतुर्थ-चतुर्दशरादियुक्तं यत आदरकरणप्रीत्यादिसमन्वितं यत् स्यात् तद्देवार्चनं चेष्ट चतुर्वार-सुकुमार कुतूहलोदूखलोलूखले''।। 8 / 11 171 / / इत्यादेः तच देवार्चनमिष्टम् // 14 // स्वरस्य परेण सस्वरव्यजनेन सह ओद्भवति। प्रा० / सामुद्रादिके क्षारे, प्रस्तुतएव संबन्धार्थमिदमाह - प्रज्ञा०१ पद। सैन्धवसौवर्चलादिकेषु, आचा०२ श्रु०१चू०१ अ०१ एवं गुरुसेवादिच, काले सद्योगविघ्नवर्जनया। उ० स्वनिविशेषोत्पन्ने, आचा० १श्रु०१चू०१०१३०लवणपञ्चकं इत्यादिकृत्यकरणं, लोकोत्तरतत्त्वसंप्राप्तिः / / 15 / / चेदम, तद्यथा-सैन्धवं सौवर्चल विडं रोमं सामुद्रं चेति। सूत्र०१ श्रु०७ एवं गुरुसेवादि च-एवं विधिनैव गुरूणां-धर्माचार्यप्रभृतीनाम्, सेवा अ०। (सचित्तलवणग्रहणं मूलगुणपडिसेवना' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 346 आदिशब्दात्-पूजनादिग्रहः काले-अवसरे, सद्योगविघ्रवर्जनया, पृष्ठे पृथिवी-कायप्रतिसेवनायां प्रतिषिद्धम्।) सन्तश्च-ते योगाश्च सद्योगा-धर्मव्यापाराः स्वाध्यायध्यानादयस्तेषु लोणग-पुं०(लवणक) वनस्पतिविशेषे, प्रव० 4 द्वार। विघ्रः-उपरोधो विघातस्तस्य वर्जनया गुरुसेवादि विधेयम, इत्यादि- | लोणदेवी-स्त्री०(लवणदेवी) नन्दस्तूपानां चतुर्मुखं खनने सति शिलीमकृत्यकरणम्, एवमादीनां कृत्यानाम्-कार्याणामागमोक्तानां करणम्- यगोरूपत्वेनोत्पन्नायां देव्याम्, "नामेण लोणदेवी रूवेणं नाम अहिविधानम्, लोकोत्तरतत्त्वसंप्राप्तिरुच्यत इति // 15 // तुच्छा / धरणियलाउन्भूया, दीसि सिलामयी गावी।" ति०। इयं च कथं संपद्यत इत्याह - लोणभाव-पुं०(लवणभाव) क्षारभावे, आव० 3 अ०। इतरेतरसापेक्षा, त्वेषा पुनराप्तवचनपरिणत्या। लोणासायण-न०(लवणास्वादन) लवणस्य प्रासने प्रक्षेपे, "एगा दत्ती भवति यथोदितनीत्या, पुंसां पुण्यानुभावेन // 16 // लोणासायणमित्तमवि पडिगाहिया।" कल्प०३ अधि० 8 क्षण / इतरेतरसापेक्षा तु-इतरेतरसापेक्षैव परस्पराविरोधिनी / एषा | लोतुरली-स्त्री०(लोतुरली) वादनार्थे अपर्ववंशखण्डे, नालियत्ति अपव्वा पुनराप्तवचनपरिणत्या-एषा-पुनर्लोकोत्तरतत्त्वसंप्राप्तिराप्तस्य यद्वचनं __भवति सा पुण लोतुरली भण्णति / नि० चू०१ उ०1 तत्परिणत्या-आगमपरिणत्या भवति-यथोदितनीत्या जायते यथोक्त- |लोद्ध-पुं०(लोध्र)वृक्षविशेषे, जी०एस०।ज्ञा०।तद्वक्षत्वग्रूपे हट्टद्रव्ये, न्यायेन पुंसां पुण्यानुभावनपुरुषाणां पुण्यविपाकेन ॥१६॥षो०५ विव०॥ न०। नि० चू० 1 उ०। लोगेसणा-स्त्री०(लोकैषणा) प्राणिगणस्यैषणा-अन्वेषणा / इष्टेषु लोद्धय-पुं०(लुब्धक) व्याधे, "लोद्धयं वाह' पाइ० ना० 248 गाथा। शब्दादिषु प्रवृत्तौ अनिष्टेषु च हेयबुद्धौ,आचा०१ श्रु०४ अ०१ उ०। लोभ-पुं०(लोभ) लोभनमभिकासणं लुभ्यते अनेनेति वालोभः कषायलोगोवयारविणय-पुं०(लोकोपचारविनय) लोकानामुपचारो व्य भेदे, स्था०४ ठा०१3०1(अनन्तानुबन्धिप्रभृतयोऽप्यत्रभेदाः कषाय' वहारस्तेन स एव वा विनयो लोकोपचारविनयः / विनयभेदे, सच शब्दे तृतीयभागे 366 पृष्ठे दर्शिताः।) सप्तविधः / स्था०७ठा०३ उ०। (सच 'विणय' शब्दे दर्शयिष्यते।) लोभश्चतुर्विधः-कर्मद्रव्यलोभो योग्यादिभेदाः पुद्गला इति, नोकर्मद्रव्यलोट्ट-धा०(स्वप् ) शयने,"स्वपेः कमवस-लिस-लोट्टाः"||८| लोभस्त्वाकरमुक्तिश्विक्कणिकेत्यर्थः, भावलोभस्तु तत्कर्मविपाकः, / 146 / / इति स्वपेः लोट्टादेशः, लोट्टइ, स्वपिति, प्रा०1 तद्भेदाश्चैते- "लोहो हलिदखंजणकद्दमकिमिरायसामाणो'' सर्वेषां असत्थोवहतो आमे अचेयणं, तंदुले लोट्टो भण्णति। अशस्त्रोपहते आमे क्रोधादीनां यथायोगं स्थितिफलानि- "पक्खचउमासवच्छरजावजीअचेतनेतण्डुले, नि० चू० 4 उ०। वाणुगामिणो कमसो। देवनरतिरियनारगगइसाहणहेयवो नेया // 1 // " लोट्टण-न०(लोट्टन) अवधावने, व्य०१ उ०॥ लोभे लुद्धनन्दोदाहरणम्-पाडलिपुत्ते लुद्धणंदो वाणियओ, जिणदत्तो लोट्टय-पुं०(लोट्टक) कुमारावस्थे हस्तिनि, ज्ञा०१ श्रु०१०। सावओ, जियसत्तू राया, सो तलागं खणावेइ, फाला य दिवा कम्पकरेहि *लोट्टयत्-त्रि०। सुप्ते, "लोट्टयं सुवंतं च" पाइ० ना० 226 गाथा। सूरा मोल्लंति दो गहाय वीहीए सावगस्स उवणीया, तेण ते णेच्छिया, णंदस्स उपनीया, गहिया, भणिया य-अण्णे वि आणेजह, अहं चेव गेण्हिलोट्टि-(देशी) उपविष्टे, दे० ना० 7 वर्ग 25 गाथा। स्सामि दिवसे दिवसे गिण्हइ फाले। अण्णया अब्भहिए सयणिज्जा-मंतणए लोढ-पुं०(लोष्ट) शिलापुत्रके, दश०५ अ०। स्मृते, शयिते च। दे० ना० बलामोडीए णीओ, पुत्ता भणिया-फाले गेण्हइ, सो य गओ, ते य आगया, 7 वर्ग 28 गाथा। तेहिंफालाण गहिया, अक्कुट्ठा य गया पूवियसालं, तेहिं ऊणगंमोल्लं ति एवं लोढग-पुं०(लोढक) पद्मिनीकन्दे, ध०२ अधि०। तेएडिया, किट्टपडियं, रायपुरिसेहिंगहिया, जहा क्त्तं रन्नो कहियं। सोनंदो लोढयंती-स्वी०(लोढयन्ती) स्फुटितवनीफलात् कासिनिष्कासनं आगओ भणइ गहिया ण व त्ति, तेहिं भण्णइ-किं अम्हे विगहेण गहिया ?
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________________ लोभ 753- अभिधानराजेन्द्रः- भाग 6 लोभ तेण अइलोलयाए एत्तियस्स लाभस्स फिट्टोऽहंति पादाण दोसेण एकाए कुसीए दो वि पाया भग्गा, सयणो विलवइ / तओ रायपुरिसेहिं सावओ गंदो य घेतूण राउलं नीया, पुच्छिया, सावओ भणइमज्झ इच्छापरिमाणातिरित्तं, अविय कूडमाणं ति, तेण न गहिया, सावओ पूएऊण विसजिओ, नंदो सूलाए भिन्नो, सकुलो य उच्छाइओ, सावगो सिरिघरिओठवियओ। एरिसो दुरंतो लोभो॥ एवंविधं लोभ नाम-यन्त इत्यादि पूर्ववत् / आव०१ अ०। (दण्डकः 'कसाय' शब्दे तृतीयभागे 367 पृष्ठे गतः / ) मूस्विभावे, सूत्र० 1 श्रु०१६ अ० / विशे० (वस्त्रदृष्टान्तेन लोभचातुर्विध्यम् 'कषाय' शब्दे तृतीय- भागे 366 पृष्ठे दर्शितम्।) अतिलोभे उदाहरणम् - "जो जहा वट्टए कालो" इत्यादि श्लोकः / अस्य चार्थः कथानकादवसेयस्तचेदम्-कस्मिंश्चिदटवीप्रदेशे सरोवरमेकमासीत् / तच लौकिकेषु कामिकतीर्थमुच्यते। तस्य हि तीरे वञ्जुलनामा वृक्षोऽभूत्तच्छाखामारुह्य यदि तिर्यक्सरोवरजले निपतति तदा तीर्थमाहात्म्यात्किल मनुष्यो भवति। यस्तु मनुष्य एव संनिपतति असौ देवो जायते,। यस्तु लोभाधिक्या द्वितीयामपि वारां निपततिसयादृशः प्रागासीत्पुनरपि तादृश एव संपद्यते, एवं चान्यदा वानरमिथुनस्य पश्यतो नरमिथुनं वजुलवृक्षशाखातो निपतितं तत्सरोवरजले। संजातं स भास्वरशरीरं देवमिथुनम्। ततो वानर-मिथुनमपि तथैव तत्र पतितं जातंच प्रवररूपधरं नरमिथुनम् / ततो वानरेण प्रोक्तम्-पुनरपि तथैवेह निपतावः, येन देवरूपौ भवा-वः, ततोऽसौ निषिद्धो योषिता-"यद्न ज्ञायते, पुनरपीत्थं कृते किं संपद्यते? पर्याप्त चानेनैव प्रवरमानुषत्वेन, निषिद्धो ह्यतिलोभः सर्वशास्त्रेष्वपि" इति। इत्थं निवार्यमाणोऽपितयाऽसौ पुरुषो द्वितीयामपि वारां तथैव तत्र निपपात, जातश्च पुनरपि वानरः / ततो गृहीता सा प्रवररूपा योषित्तत्रायातेन केनापि राज्ञा, संजाता च तस्यं वल्लभा पत्नी। वानरस्तु गृहीतो मायेन्द्रजालिकैः, शिक्षितश्च नर्तयितुम् / नीतश्चासौ सकलत्रोपविष्टस्य राज्ञः पुरतः / प्रत्यभिज्ञाता च तेन सा राज्ञी, तयाऽप्युपलक्षितोऽसौ वानरोधावतिच पुनर्निगृह्यमाणोऽपि राज्ञः सन्मुखग्रहणार्थम्, अतो राज्ञा पठि-तम् - जो जहा वट्टए कालो, तंतहा सेव वानर!। मा वंजुलपरिभट्ठो, वानरा ! पडणं सर / / 663 // उत्तानार्थश्चायं श्लोकः / तदेवं यथा अधिको लोभाऽभि प्रायः कृतो वानरस्याऽनय जातस्तथा मात्राद्यधिकं सूत्रमपीति भावनीयमिति। विशे० आ० म०। अथ लोभे उदाहरणम्। "नगरं पाटलीपुत्रं, जितशत्रुर्नराधिपः। श्रावको जिनदत्तोऽभू-द्वणिनन्दश्च लोभनः॥१॥ भूभुजा खन्यमानेन, तडागे स्थानके क्वचित्। दृष्टाः कर्मकरैः फाला, मृल्लेपकलुषात्मकाः॥२॥ फालद्वयं गृहीत्वा तै-र्जिनदत्तस्य दौकितम् / विलोक्य तेन मुक्तं त-इत्तं नन्दस्य तैस्ततः॥३॥ ज्ञाततत्त्व स जग्राह, स्माह चाऽऽनयताऽपराम्। अयः कुशानां मूल्येन, तेनात्ता शतशोऽपि ते॥ 4 // नात्ताः फालाः सुतैस्तेऽथ, वलित्वाऽगुर्निजाश्रये। तान् घातेनाऽमुचद्भूमौ, लेपः स्तोकोऽपतत्ततः // 5 // राजपुंभिर्गृहीतास्ते, राज्ञः सर्वं निवेदितम्। इतश्चायातवान्नन्दः, पुत्रानाह स्म किं कृतम्॥६॥ ऊचुस्ते ग्रहिलाः स्मोन, कार्य किन्तुक्रयाणकैः। नन्दोऽथ कुपितः स्वाध्री, कुशामादाय भनवान्॥७॥ इयल्लोभो ममाद्यागा-देतयोरेव दोषतः। व्यलपन् स्वजनाश्चैवं, किमिदं नन्द ! निर्ममे॥८॥ राजपुंभिस्ततो नन्द-जिनदत्तौ नृपान्तिके। धृत्वा नीतौ नृपोऽप्राक्षीत्, श्राद्धानात्ताः कथं कुशाः / / 6 / / सोऽवदन्नियमो मेऽहं, कुर्वे कूटक्रयं न तत्। सोऽथ संमान्य संभूष्य, मुक्तो राज्ञाऽगमद् गृहम् / / 10 / / लोभनन्दः पुनः शूला-रोपदण्डेन दण्डितः। लोभो दुरन्त इत्येवं, नमोर्हाणामतो मतः॥ 11 // " आ० क०१०। विशे०। अथलोभद्वारमाहलग्भतं पिन गिण्हइ, अन्नं अमुगं ति अन घेच्छामि। भद्दरसं ति व काउं, गिण्हइ खद्धं सिणिद्धाई // 481 // अद्याहममुकं सिंहकेसरादिकं ग्रहीष्यामीति बुद्ध्याऽन्यदल्लचणकादिकं लभ्यमानमपियन्न गृह्णाति, किंतु-तदेवेप्सितम्सलोभपिण्डः / अथवा-पूर्व तथाविधबुद्ध्यभावेऽपि यथाभावं लभ्यमानम् खलुप्रचुरम्। स्निग्धादिलपनश्रीप्रभृतिकं भद्रकरसमिति कृत्वा यद् गृह्णाति स लोभपिण्डः। तत्र प्रथमभेदमाश्रित्योदाहरणं गाथादयेनाह - चंपा छणम्मि घिच्छामि, मोयए ते विसीहकेसरए। पडिसेहधम्मलाभ, काऊणं सीहकेसरए.।। 452 // सङ्घहरत्तकेसर-मायण भरणं च पुच्छ पुरिमड्डे। उवओग संत चोयण, साहु त्ति विगिचंणे नाणं // 43 // चम्पा नाम पुरी, तत्र सुव्रतो नाम साधुः। अन्यदा च तत्र मोदकोत्सवः समजनि, तम्मिश्च दिने सुव्रतोऽचिन्तयत्-अद्य मया मोदका एव ग्रहीतव्याः तेऽपि सिंहकेसरकाः / तत इत्थं संप्रधार्य भिक्षां प्रविष्टो लोलुपतया अन्यत्प्रतिषेधेन सिंहके सरमोदकाँश्चालभमानस्तावत्परिभ्रमति स्म; यावत् सार्द्ध प्रहरद्वयम्, ततो न लब्धा मोदका इति प्रनष्टचित्तो बभूव, ततो, गृहद्वारे प्रविशन् वक्तव्यस्य धर्मलाभस्य स्थाने सिंहकेसरा इति वदति। एवं चसकलमपि दिनंभ्रान्त्वा रात्रौ तथैव परिभ्रमन् प्रहरद्वयसमये श्रावकस्य गृहे प्रविवेश। धर्मलाभभणनस्थाने सिंहकेसरा इत्युवाच, सोऽपि च श्रावकोऽतीव गीतार्थो दक्षश्च। ततस्तेन परिभावयामासेनूनमेतेन क्वापि न लब्धाः सिंहकेसरा मोदका इति चित्तभस्य प्रनष्टम् / ततस्तस्य चित्तसंस्थापनाय सिंहकेसराणां भृतं भाजनमुपढौकितम्, भगवन्! प्रतिगृहाण सर्वानप्येतान् सिंहकेसरमोदकानि
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________________ लोभ 754 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लोभवत्तियदंड ति, सुव्रतेन च परिगृहीताः ततः स्वस्थीभूतं तस्य चित्तम्, श्रावकेण तस्स तस्सतप्पत्तियं सावखंति आहिजइ, दुवालसमे किरियट्ठाणे चोक्तम्-भगवन् ! अद्य मया पूर्वार्द्धः प्रत्याख्यातः स किं पूर्णा न वा ? लोभवत्तिएत्ति आहिए। (सू०२८+) इति, ततः सुव्रत उपयोगमूर्ध्वं दत्तवान्, पश्यति गगनमण्डलमनेकतारा- द्वादशं क्रियास्थानं लोभप्रत्ययिकमाख्यायते, तद्यथा-य इमे वक्ष्यनिकरपरिकरितमर्द्धरात्रोपलक्षितम्, ततो ज्ञातवानात्मनो भ्रमम्, हा ! माणा अरण्ये वसन्तीत्यारण्यकाः, तेच कन्दमूलफलाहाराः सन्तः केचन मूढेन मया विरूपमाचरितम्, धिग् मे लोभाभिभूतस्य जीवितम्, भोः वृक्षमूले वसन्ति, केचनावसथेषु-उटजाकारेषु गृहेषु, तथा अपरेश्रावक ! सम्यक् कृतं त्वया, यदहं सिंहकेसरप्रदा-नपूर्वं पूर्वार्द्धप्रत्या- ग्रामादिकमुपजीवन्तो ग्रामस्यान्ते-समीपे वसन्तीति ग्रामान्तिकाः, ख्यानपरिपूर्णताप्रश्नेन संसारे निमज्जन् रक्षितः, सती मे तव चोदना, तथा-वचित्कार्ये मण्डलप्रवेशादिके रहस्यं येषां तेक्वचिद्राहसिकाः,ते तत आत्मानं निन्दन् विधिना च मोदकान् परिष्ठापयन् तथा कथमपि च न बहुसंयता-न सर्वसावद्यानुष्ठानेभ्यो निवृत्ताः / एतदुक्तं भवति-न ध्यानानलं प्रज्वालयितुं प्रवृत्तः यथा क्षणमात्रेण सकलान्यपि घाति बाहुल्येन त्रसेषु दण्डसमारम्भं विदधति, एकेन्द्रियोपजीविनस्त्वविगानेन कर्माण्युवोष, ततः प्रादुर्भूतं तस्य केवलज्ञानम् ! सूत्रं सुगमम् / उक्तं तापसादयो भवन्तीति, तथानबहुविरतानसर्वेष्वपि प्राणातिपातविरमलोभद्वारम्। पिं०। कषायभेदे, स०४ सम०। गौणमोहनीयकर्मणि,स० णादिषु व्रतेषु वर्तन्ते,किन्तु ?-द्रव्यतः कतिपयव्रतवर्तिनो न भावतः, 51 सम० भ०। मनागपि तत्कारणस्य सम्यग्दर्शनस्याभावादित्यभिप्रायः / इत्येतदालोभंझाण-न०(लोभध्यान) लोभशब्दोक्तसिंहकेसरमुग्धसुव्रतसाधोरिव विर्भावयितुमाह-'सव्वपाणे त्यादि, ते ह्यारण्यकादयः सर्वप्राणिभूतदुर्ध्याने, आतु०। जीवसत्त्वेभ्य आत्मनास्वतः अविरताः-तदुपमर्दकारम्भादविरता लोभणिस्सिय-न०(लोभनिश्रित) वणिक् प्रभृतीनामन्यथाक्रीतमेवेत्थं इत्यर्थः / तथा ते पाषण्डिका आत्मना-स्वतो बहूनि सत्यामृषाभूतानि क्रीतमित्यादिरूपे मिथ्यावचने, स्था० 10 ठा०३ उ०। वाक्यानि, एवम्-वक्ष्यमाणनीत्या विशेषेण युञ्जन्ति-प्रयञ्जन्ति, ब्रुवत लोभदंड-पुं०(लोभदण्ड) लोभनिबन्धनप्राणिहिंसायाम, प्रश्न०५ इत्यर्थः / यदि वा-सत्यान्यपि तानि प्राण्युपमर्दकत्वेन मृषा-भूतानि संव० द्वार। सत्यामृषाणि, एवं ते प्रयुञ्जन्तीति दर्शयति-तद्यथा-अहं ब्राह्मणत्वा दण्डादिभिर्न हन्तव्योऽन्ये तुशूद्रत्वाद्धन्तव्याः, तथाहि वद्वाक्यम्- 'शूद्र लोभपडिसलीण-पुं०(लोभप्रतिसंलीन) लोभ प्रतिउभयनिरोधेनोदय व्यापाद्य प्राणायाम जपेत्, किंचिद्वा दद्यात्, तथा क्षुद्रसत्त्वानामनस्थिप्राप्तविफलीकरणेन प्रतिसंलीनः लोभप्रतिसलीनः / प्रतिसंलीनभेदे, कानां शकटभरमपि व्यापाद्य ब्राह्मणं भोजये' दित्यादि, अपरं च अहं स्था० 4 ठा०४ उ०। वर्णोत्तमत्वात् नाज्ञापयितव्योऽन्ये तु मत्तोऽधमाः समाज्ञापयितव्याः, लोभपिंड-न०(लोभपिण्ड) लोभेन पिण्डग्रहणे, पिं०। (अत्रोदातरणं तथा नाहं परितापयितव्योऽन्ये तु परितापयितव्याः, तथाऽहं वेतनादिना सुव्रतसाधोः 'लोभ' शब्देऽस्मिन्नेव भागेऽनुपदमेव गतम्।) कर्मकरणाय न ग्राह्योऽन्ये तु शूद्रा ग्राह्या इति, किं बहुनोक्तेन ? लोभभय-न०(लोभभय) लोभश्च भयंचसमाहारद्वन्द्वः,लोभाता भयम्। नाहमुपद्रावयितव्यो-जीवितादपरोपयितव्योऽन्ये तु अपरोपयितव्या लोभभयद्वये, लोभरूपे भयेच!"सन्तोविणोलोभभयादतीताः" लोभ इति। तदेवं तेषां परपीडोपदेशनतोऽतिमूढतयाऽसंबद्धप्रलापिनामभयादतीताः लोभश्च भयं च समाहारद्वन्द्वः,लोभावा भयं तस्मादतीताः। ज्ञानावृतानामात्मम्भरीणां विषमदृष्टीनां न प्राणातिपातविरतिरूपं व्रतस्था०७ठा०३ उ०। मस्ति, अस्य चोपलक्षणार्थत्वात् मृषावादादत्तादानविरमणाभावोलोभवत्तिय-न०(लोभप्रत्ययिक) लोभदण्डे लोभप्रत्ययिकाभिधाने ऽप्यायोज्यः। अधुनात्वनादिभवाभ्यासाद्दुस्त्यजत्वेन प्राधान्यात्सूत्रेणैद्वादशे क्रियास्थाने, सूत्र०। वाब्रह्माधिकृत्याह- 'एवमेव' इत्यादि, एवमेव-पूर्वोक्तेनैव कारणेनातिइदं द्वादशं क्रियास्थानं पाखण्डिकानुद्दिश्याह - मूढत्वादिना परमार्थमजानानास्ते, तीर्थकाः स्वीप्रधानाः कामाः स्त्रीअहावरे वारसमे किरियट्ठाणे लोभवत्तिए त्ति आहिला,जे इमे कामाः / (सूत्र०) (तेषां व्याख्या 'इत्थिकाम' शब्दे द्वितीयभागे 586 भवंति, तं जहा-आरंनिया आवसहिया गामंतिया कण्हुई रह पृष्ठे गता।) तदेवंभूतं खलु तेषां तीर्थकानां परमार्थतः साव-द्यानुष्ठास्सिया णो बहुसंजया णो बहुपडिविरया सय्वपाणभूतजीव नादनिवृत्तानामाधाकर्मादिप्रवृत्तेस्तत्प्रायोग्यभोगभाजां- 'तत्प्रत्यसत्तेहिं ते अप्पणो सचामोसाइं एवं निरंजंति, अहं ण हतब्वो यिकंलोभप्रत्ययिकं सावद्यं कर्माधीयते / तदेतल्लोभप्रत्ययिकं द्वादशं / अन्ने हंतवा, अहं ण अज्जावेयय्वो अन्ने अन्जावेयव्वा, अहं ण क्रियास्थानमाख्यातमिति। सूत्र०२ श्रु०२ अ०। स०। आ० चू०। परिघेतल्वो अन्ने परिघेतव्वा, अहंण परितावेयव्वो अन्ने परि- लोभवत्तियदंड-पुं०(लोभप्रत्ययिकदण्ड) लोभप्रत्ययिको दण्ड इति, तावेयव्वा, अहं ण उहवेयध्वो अन्ने उद्दवेयव्वा (सूत्र०) एवं खलु | लोभनिमित्ते द्वादशे क्रियास्थाने, सूत्र० 2 श्रु० 2 अ० /
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________________ लोभविजय 755 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लोलुअ लोभविजय-पुं०(लोभविजय) लोभोदयनिरोधे, उत्त० 26 अ०। लोमाहार-पुं०(लोमाहार) शरीरपर्याप्त्युत्तरकालं बाह्यया त्यचा लोमभिलोभविजयफलम् - राहारो लोमाहारः / आहारभेदे, सूत्र०२ श्रु०३ अ०। प्रव०। लोभविजएणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? लोहविजएणं संतो- | लोय-पुं०(लोच) हस्तेन केशलुञ्चने, पञ्चा० 10 विव० / आ० म०। सिभावं जणयह लोभवेयणिज्जं कम्मनबन्धइ पुथ्वबद्धं च कम्म (लोचकर्ममुहूर्तः ‘णक्खत्त' शब्द चतुर्थभागे 1762 पृष्ठे गतः / ) निजरेइ / / 70 // (पर्युषणायां लोचकरणं 'पज्जुसवणाकप्प' शब्दे पञ्चमभागे 247 पृष्ठे हे भगवन ! लोभविजयेन जीवः किं जनयति ? गुरुराह-हे शिष्य ! उक्तम् / ) लोभविजयेन जीवः सन्तोषिभावं सन्तोषिणो भावः सन्तोषिभावस्तम् | लोयग-न०(लोचक) विगुणे अन्ने, यत्पुनरन्नादि स्वभावादेव लुप्तमाहाउत्पादयति लोभवेदनीयं कर्मन बध्नातिपूर्वनिबद्धंचकर्म निर्जरयति गुणैरनुपेतं तल्लोचकं नाम। बृ०२ उ०। // 70 // उत्त०२६ अ०। लोयग्ग-न०(लोकाग्र) मोक्षे, "लोयग्गं परमपयं मुत्ती सिद्धी सिवं च लोमसण्णा-स्त्री०(लोभसंज्ञा) लोभोदयात्प्रधानभवकारणाभिष्वङ्ग- निव्वाणं।" पाइ० ना०२० गाथा। पूर्विकासचित्तेतरद्रव्योत्पादनक्रियैव संज्ञायतेऽनयेति। भ०७श०८ उ०। लोयण-न०(लोचन) अवलोकने, दर्शन, ज्ञा० 1 श्रु० 1 अ० / उत्ता स्था० / लोभवेदनीयोदयतो लालसत्वेन लोभोदयाल्लोभसत्त्वान्विता नेत्रे, "अच्छी नयनं च लोअणं नित्तं / " पाइ० ना०१११ गाथा। सचित्तेतरद्रव्यप्रार्थनैव संज्ञायतेऽनयेति लोभसंज्ञा / स्था० 10 ठा०३ लोयणविहाण-न०(लोचनविधान) लोचकरणे, षो०१ विव०। उ०। सचित्तेतरद्रव्यप्रार्थनायाम्, प्रज्ञा०८ पद। लोयणा-स्त्री०(लोचना) उज्जयिन्यां देवलासुतराजभार्यायाम,आ० चू० लोभा-स्त्री०(लोभा) लोभानुगतायां क्रियायाम, आव० 3 अ० / 4 अ०। वाराणस्यामुदितोदयराजभार्यायाम, आ० चू०५ अ०। लोयबज्झ-त्रि०(लोकबाह्य) बहिर्भूते, जनवर्जिते च / प्रश्न० 3 लोभाणु-पुं०(लोभानु) लोभलक्षणकषायसूक्ष्मकिट्टिकायाम्, भ०५ श० आश्र० द्वार। ७उ०। लोयसार-न०(लोकसार) लोकप्रधाने, प्रश्न० 3 आश्र० द्वार। लोमि-त्रि०(लोभिन्) लुब्धे, अनु०। लोयाणी-स्त्री०(लोकानी) वनस्पतिभेदे, प्रज्ञा० 1 पद। लोम-न०(लोम) लुनाति, निलीयन्ते वा अस्मिन् यूका इति लोमम् / कक्षादिजाते केशाकारे रोमाख्ये द्रव्ये, प्रश्न०१ संव० द्वार। लोयायार-पुं०(लोकाचार) प्राण्युपमर्दादिकषायहेतुके कर्मापादाने, येन पुनः पुनः संसारे जन्म भवति तथाभूतानुष्ठाने, आचा०१ श्रु०३ अ० लोमडिया-स्त्री०(लोमडिका) शिवायाम, ज्ञा० 1 श्रु०१ अ०। 1 उ०। लोमपक्खि-पुं०(लोमपक्षिन् ) सारसराजहंसकाकबकादिके पक्षिभेदे, लोल-पुं०(लोल) चपले, ज्ञा०१ श्रु०१ अ० स्था०।लोभेच।"लोला सूत्र०२ श्रु०३ अ०। स्था०। प्रज्ञा० / लालस-लोलुअ-उल्लेहड-लंपडा लुद्धा / ' पाइ० ना० 75 गाथा / से किं तं लोमपक्खी? लोमपक्खी अणेगविहा पण्णत्ता, तं लम्पटे,ज्ञा०१ श्रु०८ अ०। रत्नप्रभायां पृथिव्यां मध्यनरकेन्द्रकात्सीजहा-ढंका कंका जे यावन्ने तहप्पगारा। से तं लोमपक्खी। मन्तकात्पूर्वावलिकायां नरकेन्द्रके, स्था०६ ठा०३ उ०। "से किं तं लोमपक्खी ? लोमपक्खी अणेगविहा पण्णत्ता, तं जहा लोलंठिअ-(देशी) चाटुनि, दे० ना 7 वर्ग 22 गाथा। ढंका कंका कुरला बायसा चक्कवागा हंसा कलहंसा पोयहंसा रायहंसा अडा सेडीवडा वेलागया कोंचा सारसा मेसरा मयूरा सेव-यगा गहरा लोलण-न०(लोलन) परतो लोलने, सूत्र०१ श्रु०५ अ०१ उ०। भूमौ पोंडरिया कामा कामेयगा वंजुलागा तित्तिरा वट्टगा लावगा कपोया __ हस्ते वाऽवज्ञया लोलयति, ध०३ अधि०। कपिंजला पारेवया चिडगा वीसा कुक्कुडा सुगा वरहिगा मयणसलागा | लोलमज्झ-पुं०(लोलमध्य) रत्नप्रभायामुत्तरस्यामावलिकायां नरकोकिला सण्हावरण्णगमादी से तं लोमपक्खी।'' जी०१ प्रति०। __ केन्द्रके, स्था०६ ठा०३ उ०। लोमसिया-स्त्री०(लोमसिका) वल्लीभेदे, व्य०१ उ०। लोलावट्ट-पुं०(लोलावत) रत्नप्रभायां पश्चिमायामावलिकायां लोमहत्थ-पुं०(लोमहस्त) लोममयप्रमार्जनके, औ०। नरकेन्द्रके, स्था०६ठा०३ उ०। लोमहरिस-पुं०(लोमहर्ष) लुनाति निलीयन्ते वा तेषु यका इति लोमानि | लोलावसिट्ट-पुं०(लोलावशिष्ट) रत्नप्रभायाः पृथिव्याः दक्षिणायातेषां हर्षो लोमहर्षः। रोमाञ्चे, उत्त०५ अ०। ज्ञा० / रोमोद्गमे, सूत्र०१ | मावलिकायां नरकेन्द्रके, स्था० 6 ठा०३ उ०। * श्रु०२ अ०२ उ०। लोलिका-न०(लोल्य) चाञ्चल्ये, प्रश्न० 3 आश्र० द्वार। लोमावहार-पुं०(लोमावहार) लोमान्यवहरन्तियेतेलोमावहाराः। लोम- लोलुअ-त्रि०(लोलुप) लोभे, लुब्धे च / "लोला लालस लोलुअकर्तकेषु, प्रश्न० 2 आश्र० द्वार। उल्लेहडलंपडा लुद्धा। पाइ० ना० 75 गाथा।
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________________ लोलुय ७५६-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 लोहियपाणि लोलुय-पुं०(लोलुष) लम्पटे, उत्त० 2 अ०। पिशिते, उत्त०७ अ०। लोहारंबरीस-पुं०(लोहकाराम्बरीष) लोहकारभ्राष्ट्रेषु, स्था० 8 ठा० गृद्धौ. सूत्र०२ श्रु०६ अ० / रत्नप्रभायां पूर्वावलिकायां नरकेन्द्रके, | 3 उ०। स्था०७ठा०३ उ०। आ० म०। लोहिआअ-नामधातुः(लोहिताय) लोहितस्येवाचरणे, "क्यङोलोलुवाविअ-(देशी) रचिततृष्णे, दे० ना०७ वर्ग 25 गाथा। र्यलुक्॥८३। 138 / / इति यस्य लुक् / लोहिआइ। लोहिआलोव-पुं०(लोप) अदंर्शने, अनु०। अइ। लोहितायते, प्रा०३ पाद। लोह-पुं०(लोभ) द्रव्याद्यभिकाङ्क्षायाम, उत्त०६ अ०। अभिष्वङ्गे, पा०। लोहिच-पुं०(लौहित्य) लोहितग्रंपत्ये, जं०७ वक्ष० / स्था० / "दुक्खं हयं जस्सन होइ मोहो, मोहोहओजस्सन होइ तण्हा।तण्हा भूतदत्ताचार्यशिष्ये, "सब्भावुब्भावणया तत्थं लोहिचणामाणं॥ 40 // हआ जस्स न होइ लोहो, लोहो हओ जस्स न किं-चणाऽवि // 1 // " "नं० शत्रुज्जयपर्वते, ती०१४ कल्प। उत्त०३२ अ०॥"जहालाहो तहा लोहो,लाहा लोहो पवड्डई। दोमासकयं लोहिचायण-न०(लौहित्यायन) लोहितर्षिगोत्रापत्ये, सू०प्र०१० पाहु०। कज्जं, कोडीए विन निट्ठियं / / 1 / / " उत्त०७ अ01गृद्धौ, प्रव०४१द्वार / लोहिणी-स्त्री०(लोहिनी) कन्दविशेषे, उत्त० 36 अ० / भ० / बादअसंतोषात्मके भावपरिणामे, प्रव०२१६ द्वार। "एगे लोभे" स्था०१ रवनस्पतिकायभेदे, प्रज्ञा० १पद। ठा०। मूच्र्छायाम, ध०३ अधि०। लोलतापरिणामे, अष्ट० 3 अष्ट०1 लोहिय-न०(लोहित) रुधिरे, सूत्र०१ श्रु०५ अ० 1 उ०। लोहिलुब्धतायाम्, निग्रहशील त्वे ममत्वबुद्धौ, दर्श०१ तत्त्व / (मायालोभौ यपूयपाइणी' लोहितं-रुधिरम्, पूयम्-रुधिरमेव पक्वं ते द्वे अपि पक्तुं 'कसाय' शब्देतृतीयभागे 368 पृष्ठेव्याख्यातौ।) (अतिलोभतोयक्षत्वा- शीलं यस्यां सालोहितपूयपाचिनी। सूत्र०१ श्रु०५ अ०१3०। सूत्र०। वाप्तिरार्य्यमङ्गोः सा च 'अज्जमंगु शब्दे प्रथमभागे 211 पृष्ठे उक्ता / ) हिड्डुलादिवत् लोहितवर्णपरिणते रक्ते, प्रज्ञा० 1 पद / स्वनामख्याते (अत्र कथा दृष्टान्ताश्च 'लोभ' शब्देऽस्मिन्नेव भागे गताः।) महाग्रहे, "एगे लोहिए।" स्था० 1 ठा०। *लोह-न० / अयसि, प्रश्न०१ आश्र० द्वार। "लोहागरधम्ममाण- लोहियकुंथु-पुं०(लोहितकुन्थु) आरक्तस्वरूपे कुन्थौ, जी०३ प्रति०१ धमधर्मेतिघोसं" लोहस्येवाकरे ध्मायमानस्याग्निना ताप्यमानस्य अधि०२ उ०। धमधमायमानो धमधमेति वर्णव्यक्तिमिवोत्पादयन् घोषः शब्दो यस्य | लोहियक्ख-पुं०(लोहिताक्ष) स्वनामख्याते महाग्रहे, कल्प०१ अधि० सः। भ०१५ श०। "लोहं कालायसं'। पाइ० ना० 230 गाथा। ६क्षण। "दो लोहियक्खा।" स्था० 2 ठा०३ उ०। स्वनामख्याते लोहकडाह-न०(लोहकटाह) बृहत्कुण्डिल्ले, अनु०॥भाजनविशेषे, भ० रत्नविशेषे, रा० / जी० / जं० / प्रज्ञा० / ज्ञा० / सूत्र० / आ० म०। "लोहियक्खपइवंसग" लोहिताक्षमयाः प्रतिवंशा येषां तानिलोहिता- . ५श०६उ01 क्षप्रतिवंशकानिाजी०३ प्रति०४ अघिकाचमरस्य असुरेन्द्रस्य महिषालोहकडाही-स्त्री०(लोहकटाही) कवेल्याम्, भ० 5 श०७ उ०। नीकाधिपतौ, स्था०५ ठा०१०। शक्रस्य देवेन्द्रस्य अपत्यस्थानीये, लोहग्गल-न०(लोहार्गल) पुष्कलावतीविजये स्वनामख्याते नगरे, भ०३श०७ उ०। रत्नप्रभायाः पृथिव्याः स्वनामख्याते काण्डे, स्था० कल्प०१.अधि०७ क्षण। वज्रजङ्घस्य राज्ञःस्वनामख्यातेपुरे चाआ० १०ठा०३ उ०। क० 10 // लोहियक्खकूड-पुं०(लोहिताक्षकूट) जम्बूद्वीपे दीपे गन्धमादने लोहजंघ-पुं०(लोहजङ्घ) उज्जयिनीनगरे चण्डप्रद्योतराजदूते, उत्त०६ वक्षस्कारपर्वते स्वनामख्याते षष्ठे कूटे, स्था०८ ठा०३ उ०। अ०।"लोहजडो लेखहारी, अग्रिभीरुस्तथा रथः / स्त्रीरत्नं च शिवा लोहियक्खबिंवउट्ठ-त्रि०(लोहिताक्षबिम्बोष्ठ) लोहिताक्षरत्नवत् देवी, गजो नलगिरिस्तथा॥१॥"आ० क०४ अ०। द्वितीयवासुदेव बिम्बवच-बिम्बाफलवत् ओष्ठौ येषां तेलोहिताक्षबिम्बोष्ठाः। आरक्तोष्ठेषु, प्रतिशत्रौ, सती०। जी०३ प्रति०४ अधि०। लोहजंघवण-न०(लोहजङ्घवन) मथुरायां स्वनामख्याते वने, ती०८ | | लोहियगंगा-स्त्री०(खोहितगङ्गा) गोशालकपरिभाषिते परिणामभेदे, भ० कल्प। 15 श०॥ लोहज-पुं०(लोहार्य) उत्पन्नकेवलज्ञानवीरस्य भिक्षादायके साधौ, आ० ] लोहियणाम-न०(लोहितनामन् ) यदुदयाजन्तुशरीरंलोहितं रक्त हिडलम०१ अ०1 कादिवद्भवति तल्लोहितनाम / वर्णनामभेदे, कर्म०१ कर्म०। लोहविलीणतत्त-त्रि०(लोहविलीनतप्त) लोहमयस्तद्वत्तप्तम्-अतिताप- लोहियपत्त-पुं०(लोहितपत्र) चतुरिन्द्रियजीवभेदे, प्रज्ञा० 1 पद। विलीनलोहसदृशे, सूत्र०१ श्रु०५ अ०२ उ०। लोहियपाणि-त्रि०(लोहितपाणि) प्राणिवत्कर्त्तनेन लोहितौ रक्तारलोहागरिय-पुं०(लोहाकरिक) लोहाकरोऽस्यास्तीति लोहाकरिकः / ततया पाणी हस्तौ यस्य। प्राणिहिंसया लोहितहस्ते, विपा०१ श्रु०२ लोहखनिस्वामिनि, ओघ०। अ०। ज्ञा०। सूत्र०।
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________________ लोहिल्ल ७५७-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 ल्हिक्क लोहिल्ल-त्रि०(लोभवत् ) मत्वर्थे इल्लप्रत्ययः / लोभिनि, बृ०१०।। ल्हादि-स्त्री०(ह्लादि) मादनं हादिः, औणादिक इप्रत्ययः। प्रहत्तौ, व्य० लम्पटे, दे० ना०७ वर्ग 25 गाथा ! १उ० लोही-स्त्री०(लौही) मण्डकादिपचनिकायाम्, भ०५ श०७ उ०।अनु०। / ल्हादिजणण-न०(हादिजनन) ह्रादेर्जननमुत्पत्ति दिजननम् / प्रमोदोत्पादने, व्य०१ उ०। मनःप्रह्लत्तिजनके, व्य० 3 उ०। आयसभाजनविशेषे, सूत्र०१ श्रु०५ अ०१ उ० / कन्दविशेषे, जी०१ प्रति०। वनस्पतिविशेषे, आचा०१ श्रु० 1 अ० 5 उ०। लिहब:धा०(निली०) तिरोधाने,"निलीडेर्णिलीअ-णिलुक्क-णिरिग्घ लुक्क-लिक-ल्हिक्का: "|| 8 | 4155 // इति निपूर्वस्य लीधातोलस-धा०(संस) अधःपतने, "संसेहँस-डिम्भौ' / 8 / 41167 // हिंकादेशः। ल्हिक्कइ। निलीयते। प्रा०४ पाद। इति संसघातोहँसादेशः। ल्हसइ / वसति। प्रा०। *नट-नि०। "क्तेनाप्फुण्णादयः" // 8 / 4 / 258 // इति निपूर्वस्य लसुन-न०(लशुन) कन्दविशेषे, प्रव० 4 द्वार। लीधातोः ल्हिक्कादेशः। ल्हिक्को-नष्टः / निलीने, तिरोहिते, प्रा० 4 पाद। PAPSPWPPPP აძoძoooooooooooooooooooooooooooooooooooooook इति श्रीसौधर्मबृहत्तपोगच्छीय-कलिकालसर्वज्ञकल्पप्रभु-श्रीमद्भहरक- . जैनश्वेताम्बराऽऽचार्यश्री 1008 श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वर विरचिते "अभिधानराजेन्द्रे" लकाराऽऽदिशब्दसङ्कलनं समाप्तम् / schooooobodoodboobodoodoodbodbodbodoodoo000doodoodoooooooooooooooooooooor SH
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________________ अभिधानराजेन्द्रः। - - - वकार - - एसा, अग्गवेणु व्व करिसिता'। सूत्र० 1 श्रु०३ अ०३ उ० / *वतिन् -पुं०। व्रतं-नियमविशेषो विद्यते यस्य स व्रती। श्रावके, प्रव० 255 द्वार। हिंसादिविरतत्वात्साधौ,दश०१० अ० / द्वा०। वइअ-(देशी)पिहिते, "पच्छाइअनूमिआइ वइआई। पाइ० ना० 176 व-पुं०(व) दन्त्यौख्योऽयमन्तस्थसञ्जको वर्णः। वाच०। वा-डः / सान्त्वने, गाथा। पीते, दे० ना०७ वर्ग 34 गाथा। वाते, वरुणे,संयमे, दरे, प्रबोधे, वन्दने, एकान वायौ, राहौ, मन्त्रणे, | वइआयार-पुं०(वागाचार)वाच्याचारोवागाचारः। वाग्गोचरे, वा-व्यापारे, कल्याणे, बलवति, वसतौ, समुद्रे, व्याने, वसने, शालूके / सादृश्ये, आचा०२ श्रु०१चू०४ अ०१3०1"वइआयाराइं सोचा णिसम्म।" अव्य०1"मणी वोष्ट्रस्य लम्बेते" वाच० श्रावके, वपति गुणवत्सप्तक्षेत्रेषु आचा०२ श्रु०१चू० 4 अ०१ उ०। धनबीजानि निक्षिपतीति वा इति व्युत्पत्तेः। "धनानि पात्रेषु | वइआलिय-पुं०(वैतालिक) "वैराऽऽदौ या "|| 811 / 152 / / इति वपत्यनारतम्" इतिश्रावक-शब्द-घटक'व' शब्दार्थनिर्वचनात्। स्था० ऐकारस्य अइ आदेशः। वैतालोपासके, प्रा० 1 पाद। 4 ठा० 4 उ०। उः-शम्भुः अः-विष्णुश्चानयोः समाहारःहरिहरद्वन्द्वे, वइस्स-पुं०(वैश्य)"अइदैत्यादीच।।१।१५१।। इत्यैतः स्थाने गा०। एका०। अइ इत्यादेशः। वणिजि, प्रा०१पाद। व-अव्य०(इव) इवशब्दार्थे, आचा०।"मिव पिव विव व विअ इवाऽर्थे | वइकलिअ-न०(वैकल्य) वैकल्ये, "चलिअं वइकलिअं''। पाइ० ना० वा" / / 8 / 2 / 182 / / इति इवार्थे वशब्दप्रयोगः / "सेसस्स व 236 गाथा। निम्मोओ"। प्रा०२ पाद। वइकुंठ-पुं०(वैकुण्ठ) उपेन्द्रे, "सउरी दसारनाहो वइकुंठो महुमहो उविंदो वअ-पुं०(व्रज) गोष्ठे, "गुढे तह गोउलं वओ धासो"। पाइ० ना० 142 / / य' पाइ० ना० 21 गाथा। गाथा / गृद्धे, "गहरो वओ अगिद्धो'। पाइ० ना० 126 गाथा। दे० ना०। | वइकत-त्रि०(व्यतिक्रान्त) गते, "बहुसुहेण भे दिवसो वइक्कतो'' आव० वअण-(पुं०न०)वचन-न०।"क-ग-च-ज-त-द-प-य-वां प्रायोलुक् 3 अ०। कल्प०। ||8111177 // इति चलुक्।"नो णः" ||8 / 1 / 228 / / इति नस्य वइकम-पुं०(व्यतिक्रम) विशेषेणापदभेदकरणतोऽतिक्रमणं व्यति-क्रमः / णः। प्रा०।"वाक्ष्यर्थवचनाद्याः" / / 8 / 1133 / / इति वा पुस्त्वम्। आतु० / प्रमादोद्भवे विपरीतकार्ये, आव० 3 अ० / अवश्यं करणीयानां उक्तौ, वअणा। वअणाई। प्रा०१ पाद। योगानां विराधने, आ० चू०४ अ० / ध०। प्रव० / व्य० / प्रति०! वअस्स-पुं०(वयस्य) मित्रे, सवयस्के, "ही ही संपन्ना मे, मनोलधा आव० / (आधाकर्माश्रित्य व्यतिक्रमस्वरूपम्'आइक्कम 'शब्दे प्रथमभागे पियवअस्सस्स"। प्रा०४ पाद। 2 पृष्ठे गतम्)(ज्ञानादित्रिविधो व्यतिक्रमः 'संकिलेस' शब्दे वक्ष्यते।) वइ-स्त्री०(वाच् )वच-परिभाषणे, वचनमुच्यत इति / वाच० / वचने, वइक्खलिय-न०(वाग्विस्खलित) वाचि विविधमनेकैः प्रकारेर्लिङ्गश्रुते,बृ०॥ भेदादिभिस्स्खलिते, दश०८ अ०। अथ वागनिक्षेपमाह वइगा-स्त्री०(वजिका) गोकुलिकायाम, बृ०३ उ०। नि० चू०। दव्ववती दवाई, जाई गहियाई मुंचइन ताव। वइगुण्ण-न०(वैगुण्य) विधर्मतायाम, विपरीतभावे, आ० चू० 4 अ०। आराहणि दव्वस्स वि, दोहि विभावस्स पडिवक्खो।। वइगुत्त-त्रि०(वाग्गुप्त) वाचि वाचावा गुप्तो वाग्गुप्तः / मौनव्रतिनि, सपर्या लोचितधर्मसम्बन्धभाषिणि, सूत्र०१ श्रु०१० अ० / आचा०। यानि भाषायोग्यानि द्रव्याणि भाषात्वेन गृहीतानिन तावदद्यापि मुञ्चति सानोआगमतो व्यतिरिक्ता द्रव्यवाक् / अथ द्रव्यस्याराधनी यथार्थरूप को भवति वागुप्तः। प्रतिपादिका सा द्रव्यवाग, द्वाभ्यामपि प्रकाराभ्यां भावस्य प्रतिपक्षो वयणविभत्तीकुसलो, वओगयं बहुविहं विआणतो। वक्तव्यः। किमुक्तं भवति-यानि भाषायोग्यानिद्रव्याणि भाषात्वेन परिण- दिवसं पि भासमाणो, तहा वि वइगुत्तयं पत्तो // 261 / / मय्य मुञ्चति सा नोआगमतो भाववाक्। अथवा-या जीवस्य भावं वचनविभक्तिकुशलो-वाच्येतरप्रकाराभिज्ञः वाग्गतं बहुविधमुज्ञानादिकमाराधयत्यजीवस्य घटादेवर्णादिकं सानोआगमतो भाववाक्, त्सर्गादिभेदभिन्न विजानन दिवसमपि भाषमाणः सिद्धान्तविधिना तथापि बृ० 1 उ० / आ० म० / आचा० / आ० चू० / सूत्र० / "एरिसा जावई | वाग्गुप्तनां प्राप्तः, वाग्गुप्त एवासाविति गाथार्थः। दश०७ अ०। सू०प्र०।
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________________ वइगुत्तया 756 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वइदिस वइगुत्तया-स्त्री०(वाग्गुप्तता) वचसोऽशुभपदार्थत्वात् गोपने, उत्त० 26 अ० / वाग्गुप्तिमत्तायाम्, उत्त०। अथ वचोगुप्तिफलमाह - वइगुत्तयाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ वइगुत्तयाए णं निस्विकारत्तं जणयइ निस्विकारेणं जीवे वइगुत्ते अज्झप्पजोगसाहणजुत्ते आऽवि भवइ // 4 // हे भदन्त ! वचोगुप्ततया जीवः किं फलं जनयति ? गुरुराह-हे शिष्य ! वचोगुप्ततया निर्विकारित्वं-विरागभावम् उत्पादयति, निर्विकारो जीवः वाम्गुप्तः-गुप्तवचनश्च सर्वविकथात्यागात्, वाड्-निरोधे वागगुप्तिमान् सन् अध्यात्मयोगसाधनयुक्तश्चापि भवति / आत्मनि अधितिष्ठतीति अध्यात्ममनस्तस्ययोगाः-शुभव्यापाराधर्मध्यानादयः तेषां साधनम्ऐकायम अध्यात्मयोगसाधनं तेन युक्तः अध्यात्मयोगयुक्तस्तादृशश्यापि स्थादित्यर्थः / / 54 / / उत्त० 26 अ०। वइगुत्ति-स्त्री०(वाग्गुप्ति) गुप्तिभेदे, वाग्गुप्तिर्द्विधा-मुखनयनभूविकारानुल्याच्छोटनलेष्टुक्षेपहुंकृतादिसंज्ञावर्जनेन मौनावलम्बम्, संज्ञादिना हि प्रयोजनानि सूचयतो मौनं निष्फलमेवेत्येका 1, वाचनप्रच्छनपरपृष्टव्याकरणादिषु लोकाऽऽगमाऽविरोधेन मुखवस्त्रिकाच्छादितमुखस्य भाषमाणस्यापि वागनियन्त्रणं द्वितीया 2, तदुक्तम्-"संज्ञादिपरिहारेण, यन्मौनस्यावलम्बनम्। वाग्वृत्तेः संवृतिर्वा या, सा वाग्गुप्तिरिहोच्यते।। 1 // " आभ्यां भेदाभ्यां वामुगुप्तेः सर्वथा वागनिरोधः सम्यग्भाषणंच स्वरूपं प्रतिपादितं भवति, भाषासमितौ तु सम्यग् वाक्प्रवृत्तिरेवेति वाग्गुप्तिभाषासमि-त्योर्भेदः, यदाह- "समिओ नियमागुत्तो, गुत्तो समिअत्त णम्मि भयणिजो। कुसलवयमुईरतो, जं वइगुत्तो वि समिओ वि।। 1 // " इति / ध०३ अधि०। उदाहरणं वाग्गुप्तौ - "साधु संज्ञातिकान् द्रष्टुं गच्छन् पल्लीं मलिम्लुचैः। गृहीतोऽमोचि चेत्युक्त्वा, मा ख्यः कस्यापि नोऽत्रगान्॥१॥ तस्याग्रे मिलिता माता-पितृभ्रात्रादयोऽखिलाः। आयान्तो जन्ययात्रायां, ववले सोऽपि तैः सह / / 2 / / तस्करैमुषितः सार्थो, दृष्ट्वा ते मुनिमूचिरे। साधुः सैष गृहीत्वेहा-स्माभिर्मुक्तोऽधुनैव यः / / 3 / / तच्छुत्वाऽम्बाऽवदचौरान, समर्पयत ते क्षुरीम्। स्तनौ छिनद्मि येनाऽसौ, किमित्यूचेऽथ चौरपः // 4 // दुष्पुत्रोऽपात् ययोः क्षीरं, नाख्यधुष्मान् सतोऽपि यः। चौरोऽवक्तं कथं नाऽख्यः, पित्रोराख्यादथो मुनिः५ / / स्वधर्म चौरपो बुद्धः, सर्वं तन्मुष्टमार्पयत्॥" आ० क० 4 अ० वइच्छल-न०(वाक्छल) असाधारणे शब्दे प्रयुक्ते वक्तुरभिप्रेतादर्थान्तरकल्पनया तन्निषेधे, स्या० ।('छल' शब्दे तृतीयभागे 1353 पृष्ठे वाक्छलं व्याख्यातम्। वइजोग-पुं०(वाग्योग) वाग्विषये योगो वाग्योगः। वाग्निसर्गविषयेव्याप्रियमाणे योगे, विशे० / वाक्परिस्पन्दे, वाग्वीर्ये, विशे०। औदारिकवैक्रियाहारकशरीरव्यापाराहृतवाग्द्रव्यसमूहसाचिव्याजीवव्यापारे, स्था०१ ठा०। दर्श01 नं0। दश० / कर्म०1 जीत०'वइ' त्ति / वाग्योगोऽपिचतुर्द्धाद्रष्टव्यः। तथा हि-सत्यवाग्-योगः 1, असत्यवाग्योगः 2, सत्यासत्यवागयोगः 3, असत्याऽमृषवाग्योगः 4, तत्र सतां हिता सत्या,सत्या चासौ वाक्च सत्यवाक्तया सहकारिकारणभूतया योगोसत्यवाग्योगः / अथवा-वचनगतं सत्यत्वंतत्कार्यत्वा-द्योगेऽप्युपचर्यते, ततश्च सत्यश्चासौ वाग्योगश्च सत्यवाग्योगः। भावार्थः सत्यमनोयोगवद्वाच्यः। असत्या-सत्यादिपरीता सा चासौ वाक् च असत्यवाक् : तया योगोऽसत्यवाग्योगः। तथा-सत्या चासावसत्या चेत्यादि पूर्ववत्कर्मधारयो बहुब्रीहिर्वा, सा चासौ वाक्च सत्यासत्यवाक्, तत्प्रत्ययो योगः सत्यासत्यवाग्योगः। न विद्यते सत्यं यत्र सोऽसत्यः,न विद्यते मृषा यत्र सोऽमृषः, असत्यश्चासावमृषश्च असत्यामृषः, स चासौ वाग्योगश्च असत्याऽमृषवाग्योगः, शेषं मनोयोगवत्सर्वं वाच्यम् / अत्र तृतीयचतुर्थी मनोयोगौ वाग्योगौ च-परिस्थूलव्यवहारनयमतेन द्रष्टव्यौ। निश्चयनयमतेन तुमनोज्ञानं वचनं वा सर्वमदुष्टविवक्षापूर्वकं सत्यम्, आज्ञानादिदूषिताशयपूर्वकं। त्वसत्यम्, उभयानुभयरूपं तुनास्त्येव सत्यासत्यराशिद्वयेऽन्तर्भावादिति भावनीयम् // कर्म० 4 कर्म०। वइणभीरु-पुं०(वृजिनभीरु) वृजिनम्-पापं तस्माद् भीरुजनिभीरुः। पापभीरौ, यो निरनुबन्धदोषाच्छ्राद्धो नाभोगवान् वृजिनभीरुः / षो० 12 विव०॥ वइणी-स्त्री०(व्रतिनि) साध्व्याम्, पं०व०४ द्वार! *वक्तृ-त्रि० / कथयितरि, "मुसं वइता भवइ" स्था० 3 ठा० १उ०। वइतुलिय-पुं०(वैतुलिक) विगतास्तुल्यभावे वैतुलिकाः। नास्तित्वादिषु, नि० चू०११ उ०। वइतेण-पुं०(वास्तेन) धर्मकथिकादितुल्यरूपे वाक्चौरे, दश०५ अ०। वइत्ता-अव्य(उदित्वा/उक्त्वा) कथयित्वेत्यर्थे, स्था० 3 ठा० 1 उ०। भ०। वइदंड-पुं०(वाग्दण्ड) सावद्यभाषायाम, आ० चू०। तत्रोदाहरण-म्-साधू सण्णाभूमिओ आगतो॥ अविधीए आलोएति। जधा सूयरवंदं दिलु ति, पुरिसेहिं सुतं, गंतुं मा रितं / अहवा-कोट्टिओ सामि दटुं भणति / जदि दिवसो होतो। सव्वे समणगा हलं वाहावेन्तो। आ० चू० 4 अ०। वइदंभ-त्रि०(वैदर्भ)"अइदैत्यादौ च"||८1१।१५१॥ इति ऐतोऽइः / विदर्भदेशादिभवे, प्रा०१पाद! वइदिस-न०(वैदिश) विदिशाया अदूरभवे नगरे, "वइदिसगोचरगामे, खल्लाडगधुत्तकोलियोथेरो"वैदिशनगरासन्ने गोचरग्रामेधूर्तः कोलिकः / बृ०६ उ०1आ०म०। ('खिंसियवयण' शब्देतृतीयभागे७४० पृष्ठविस्तरतो व्याख्या गता।)
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________________ वइदुक्कडा 760- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वइरणाम वइदुबडा-स्त्री०(वाग्दुष्कृता) असभ्यपरुषादिवचनानिमित्तायां | त्रयोविंशतितमायां चतुर्विंशतिकायां जाते पञ्चशतगच्छाधिपती, महा० भाषायाम्, भ०२ अधिक। 4 अ०। वइदुप्पणिहाण-न०(वाग्दुष्प्रणिधान) वर्णसंस्काराभावे अर्थानवगमे, वइरउसभनारायसंघयण-न०(वज्रर्षभनाराचसंहनन) वजंकीलिका चापले च। ध०२ अधि०। ऋषभः परिवेषणपट्टः नाराचम् उभयतोमर्कटबन्धः ततश्च द्वयोरस्थनोवइदुहिया-स्वी०(वाग्दुःखिता) वचसो वचसा वा दुःखकारित्वे, द्रोहकत्वे रुभयतो मर्कटबन्धेन बद्धयोः पदाकृतिङ्गच्छता तृतीयेनास्थापरिवेष्टिच।स्था०७ठा०३ उ०। तयोरुपरितदस्थित्रयभेदकीलिकाख्यं वजनामकमस्थियत्र भवति तद् वज्रर्षभनाराचसंहननम्। प्रथमसंहनने, जी०१ प्रति०। कल्प०। पं० वइधम्म-न०(वैधर्म्य) विधर्मतायाम्, विपरीतभावेच। आ० चू० 4 अ०। सं०। स्था०। कर्म०। तं०1 वर्षभनाराचसंहननं येषां ते वज्रर्षभनावइपाडव-न०(वाक्पाटव) वाग्विषयकपटुतायाम्, कल्प०१ अघि० राचसंहननिनः। प्रथमसंहननिनि, जी०३ प्रति०४ अधि०। ७क्षण। वइरकंड-न०(वज्रकाण्ड) रत्नप्रभायाः पृथिव्याः वज्ररत्नमये काण्डे, वइप्पओग-पुं०(वाक्प्रयोग) प्रयुज्यन्त इति प्रयोगाः व्यापाराधर्म-कथाः स्था० 1 ठा०३ उ०। प्रबन्धा वा। वाग्व्यापारेषु, सूत्र०१ श्रु०१३ अ०। वहरकत-न०(वज्रकान्त) षष्ठदेवलोकीये विमानभेदे, स०१३ सम०। वइप्पओगपरिणय-त्रि०(वाक्प्रयोगपरिणत) भाषाद्रव्यं काय-योगेन वइरकंद-पुं०(वजकन्द) कन्दभेदे, दश० 3 अ०। जी०। गृहीत्वा वान्योगेन निसृज्यमाने, भ०८ श०१ उ०। वइभड-पुं०(वाग्भट) आत्रेयादिसंहिताष्टकसंग्रहात्मकाऽष्टाङ्गा वइरकूड-न०(वैरकूट) मन्दरपर्वतस्य नन्दनस्य वलाहकाया देव्या युर्वेदप्रभृतिग्रन्थकारके स्वनामख्याते विदुषि, स्वनामप्रसिद्ध मन्त्रिप्रवरे, आवासभूते कूटे,स्था०६ठा०३ उ०। गुर्जरदेशाधिपतिः तिस्रः कोटीस्त्रिलक्षोनाव्ययित्वा मन्त्रीश्वरो युगादीश वइरजंघ-पुं०(वज्रज) श्रीऋषभस्वामिनः पूर्वविदेहे पुष्कलावती-विजये प्रासादमुददीधरत्त्। ती०१ कल्प! . लोहार्गलनगरे जाते पूर्वभवजीवे, आ०म०१अ०। कल्प०। आ० क०। ('उसभ' शब्दे द्वितीयभागे 1116 पृष्ठे कथा।) वइमत्त-न०(वाइमात्र) वागेव वचनमेव वाङ्मात्रम्। वचनमात्रे, "वइमेत्तं "तेणं कालेण तेणं समयेण अवरविदेहे वासेधणोनामसत्थवाहो होत्था। णिव्यिसयं दोसाय'। पञ्चा०१२ विव०। (आव०) तेण साहूण धयं फासुयं विउलं दाणं दिण्णं, सो य अहाउयं वइमय-न०(वाङ्मय)व्यञ्जनाक्षरमये, "पश्यन्तिब्रह्म निर्द्वन्द्र, निन्द्रा पालेता कालमासे कालं किच्चा तेण दाणफलेण उत्तर-कुराए मणूसो नुभवं विना / कथं लिपिमयी दृष्टिड्मियी वा मनोमयी।॥ 6 // " अष्ट० जाओ, तओ आउक्खएणं सोहम्मे कप्पे देवो उप्प-पणो, ततो चइऊण 26 अष्ट०।स्वरादिवागात्मके, "सहिज्ज कंटएवइमए कनसरे संपुज्जो''। इहेव जंबूद्दीवे अवरविदेहे गंधिलावतीविजये वेयजपव्वए गंधारजणवए दश०६ अ०। गंधसमिद्धे विजाहरणगरे (आव०) महाबलोनाम राया जाओ। (आव०) वइमादिय-पुं०(वागादिक) वचनकायविकारविशेषेषु, "वइमादि-एहिं मरिऊण ईसाणकप्पे सिरिप्पभे विमाणे ललियंगओ नाम देवो जाओ, सम्मं गुरुणो आलोयणे य"। पञ्चा० 15 विव०। ततो चइऊण इहेव जंबुद्दीवे दीवे पुक्खलावइविजए लोहग्गलणगरसामी वइयव्व-न०(ब्रजितव्य) आगन्तव्ये, बृ०१ उ०२ प्रक० वइरजंघो नाम राजा जाओ।" आव०१ अ०। वइर-न०(वज)"श-र्ष-तप्त-वजे वा"।।८।२।१०५॥र्श-र्षयोस्तप्त- | वइरणाभ-त्रि०(वजनाभ) वज्रमयी नाभिर्यस्य सः। मध्ये वज्ररत्नमये, वज्रयोः संयुक्तस्यान्त्यव्यञ्जनात्पूर्व इकारो वा भवति / इति मध्य जी०३ प्रति०४ अघि०। रा०! इकारः / वजं / वइरं। प्रा०। हीरके, अनु०। सूत्र०। स्था०। प्रज्ञा०। *वैरनाभ-पुं०। स्वनामख्याते राजनि, (170 गाथा) आव०१ अ०। जी०। आ० म०रा०। संथा० सर्वेषां रुचकादीनां रत्नमयानि कूटानि श्रीऋषभस्वामिनः पूर्वभवीये जम्बूद्वीपस्य पूर्वविदेहे पुष्कलावतीविजये रत्नानीत्युच्यन्ते। द्वी०। आर्यवज्रनाम्ना प्रसिद्ध दशपूर्विणि स्थविरेन्द्रे, पुण्डरीकिण्यां नगर्या वज्रसेनस्य केवलिनः पुत्रे चक्रवर्त्तितां प्राप्ते जीवे, "वंदामि अजधम्म, तत्तो वंदे य भद्दगुत्तं च / तत्तो य अज्जवइरं, आ० क० 1 अ०। ति०। कल्प०। आ० म०। आ० चू० तवनियमगुणेहिं वइरसम" ॥१॥नं0 1 ('अज्जवइर' शब्दे प्रथमभागे "कुरुजणपदे गयपुरणगरे बाहुबलिपुत्तो सोमप्पभो, तस्स पुत्तो सेजंसो 216 पृष्ठे कथोक्ता।) (श्रीवज्र-स्वामिना पटविद्यया सङ्घःसुभिक्षदेशे जुवराया,सोसुमिणे मंदरंपव्वयंसामवण्णंपासति, ततोतेण अमयकलसेण नीत इति 'संघ' शब्दे वक्ष्यते / ) शरीरावयवकीलिकायाम, जी०१ अभिसित्तोअब्भहिअंसोभितुमाढत्तो। नगर-सेट्ठीसुबुद्धिनामा, सो सूरस्स प्रति०। स्था० / प्रव०। रस्सीसहस्सं ठाणाओ चलियं पासति, नवरं सिजंसेण हक्खुत्तं सो य *वैर-न०।"वैरादौ वा" / / 8 / 1 / 172 // इति वैरशब्दे ऐत इरादेशः। अहिअयरं तेयसंपुण्णो जाओ। राइणा सुमिणे एक्को पुरिसो महप्पमाणो प्रा०। शत्रुतायाम्, "हत्थिसीसयं नगरं तत्थ दमदंतो नाम राया, इतोय महया रिउबलेण सह जुज्झंतो दिह्रो, सिजंसेण साहज्जं दिण्णं, ततोणेण तं पंचपंडवाणं परोप्परं वइर"। आ० म०१ अ० / महा० / अतीतायां | बलं भग्गं ति / ततो अत्थाणीए एगओ मिलिया, सुमिणे साहति, न पुण
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________________ वहरणाम 761 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वइरेय जाणंति-किं भविस्सइ त्ति, नवरं राया भणइ-कुमारस्स महंतो कोऽवि १प्रस्ता०। लाभो भविस्सइ त्ति भणिऊण उढिओ अत्थाणीओ, सिजंसो वि गओ वइररयण-न०(वज्ररत्न) वज्राभिधानरत्ने, भ०१५ श०। नियगभवणं, तत्थ य ओलोयणडिओ पेच्छति सामि पवि-समाणं, सो वइररिसि-पुं०(वैरर्षि) वैराभिधाने मुनिपतौ, पञ्चा०६ विव०॥ चिंतेइ-कहिं मया एरिसं नेवत्थं दिट्ठपुव्वं? जारिसं पपितामहस्स त्ति, वइरसामि-पुं०(वैरस्वामिन् ) आर्यवज्रति प्रसिद्धे, सिंहगिरिशिष्ये, स्था० जातीसंभरिता-सो पुव्वभवे भगवओ सारही आसि, तत्थ तेण 4 ठा० 1 उ०1 ('अज्जवइर' शब्दे प्रथमभागे 2566 पृष्ठे कथोक्ता।) वइरसेणतित्थगरो तित्थयरलिंगेण दिठो त्ति, वइरणाभे य पव्वयंते सो आर्यसमितसूरिमातुले, कल्प०२ अधि०८ क्षण। अवि अणुपव्वइओ, तेण तत्थसुयं,जहा-एस वइरणाभो भरहे पढमति. वइरसार-न०(वज्रसार) कुण्डलद्वीपस्थकुण्डलाख्यपर्वतस्य पूर्वस्यां त्थयरो भविस्सइ"ति।आव०१अ01"वइरजंघो नाम राजा (आव०) दिशि स्वनामख्याते कूटे, द्वी०। मरिऊण उत्तरकुराए सभा-रिओ मिहुणगो जाओ, तओ सोहम्मे कप्पे वइरसूरि-पुं०(वज्रसूरि) दशपूर्विणि स्वनामख्याते आचार्ये, कल्प०२ देवो जाओ, ततो चइ-ऊण महाविदेहे वासे खिइपइट्ठिए णगरे वेजपुत्तो __ अधि०८ क्षण। आयाओ (आव०) से इमे चत्तारि वयंसगा, तं जहा-रायपुत्ते, सेट्टिपुत्ते, वइरसेण-पुं०(वैरसेन) ऋषभदेवपूर्वभवजीदे वज्रनाभपितरि, स च अमञ्चपुत्ते, सत्थबाहपुत्ते त्ति, (आव०) ते पच्छा साहू जाता, अहाउयं पूर्वविदेहे-पुण्डरीकिण्यां नगा राजा भूत्वा प्रव्रजितस्तीर्थकरः पाल-इत्ता तम्मूलागं पंच विजणा अचुए उववण्णा, ततो चइऊण इहेव सञ्जातः। पञ्चा०१६ विव०। आ० क०। आ० म०। आ० चू० ('बंभी' जंबूदीवे पुव्वविदेहे पुक्खलावइविजए पुंडरीगिणीए नयरीएवेरसेण-स्स शब्दे पञ्चमभागे 1284 पृष्ठे किञ्चिद् वृत्तमस्य / ) ('उ-सह' शब्दे रण्णो धारिणीए देवीए उयरे पढमो वइरणाभो णाम पुत्तो जाओ, जो से द्वितीयभागे 1117 पृष्ठे वृत्तम्।) आर्यवज्रसूरिशिष्ये, ग०३ अधि०। वेजपुत्तो चक्कवट्टी आगतो, अवसेसा कमेण बाहुसुबाहुपीढ-महापीढत्ति, (तद्दीक्षोक्ता 'अज्जवइर' शब्दे प्रथमभागे 216 पृष्ठे।) अयं पूर्वधर आचार्यः वइरसेणो पव्वइओ, सोय तित्थंकरो जाओ।" आव०१ अ०॥ वैक्रमीये 165 संवत्सरे विद्यमान आसीत्। जै० इ०॥ वहरतुंड-त्रि०(वजतुण्ड) वज्रवत्तीक्ष्णतुण्डे, कल्प०१ अधि०६ क्षण / वइरसेणसूरि-पुं०(वज्रसेनसूरि) नागपुरीयतपागच्छोद्भवे हेमतिलक("बंभी'' शब्दे पञ्चमभागे 1284 पृष्ठे कथा।) सूरिशिष्ये, सीहडमन्त्रिप्रशंसया अलाउद्दीननाम्ना दिल्लीपतिनाऽस्मै वरदंड-पुं०(वज्रदण्ड) वज्ररत्नमये रूप्यपट्टमध्यवर्तिनिदण्डे, जी०३ हारादिक उपहारो दत्तः / जै० इ०। प्रति०४ अधि०। बइरागर-पुं०(वजाकर) वज्रानि रत्नानि तेषामाकरो वजाकरः / वइरपडिरूव-त्रि०(वज्रप्रतिरूप) वज्रसदृशे, भ०७ श०६ उ०। वज्राख्यरत्नोत्पत्तिस्थाने, औ०। नि० चू०। वइरपाणि-पुं०(वज्रपाणि) वजं पाणौ अस्य वज्रपाणिः / जी०४ प्रति०२ | वइराड-न०(वैराट) मत्स्यदेशराजधान्याम, प्रज्ञा० 1 पद / सूत्र०। उ०। करधृतक्जे, कल्प०१ अधि०१क्षण। "वइराङमच्छा' वैराटो देशो मत्स्यराजधानी।अन्ये तुमत्सदेशोवैराटपुरं वइरभूइ-स्त्री०(वज्रभूति) भरुकच्छनगरे नरवाहननृपसमये एकदा समव- नगरमित्याहुः / प्रव० 275 द्वार। सृते स्वनामख्याते आचार्य, व्य०३ उ०। वहरामय-त्रि०(वज्रमय) वज्रशब्दस्य दीर्घत्वं प्राकृतत्वात्। वज्र-रत्नमये, वइरभूमि-स्त्री०(वज्रभूमि) अङ्गदेशीये नगरीभेदे, यत्र श्रीवीरो नवम | जी०३ प्रति० 4 अधि० / भ०। औ०। "वइरामया संधी"। जं०१ वर्षारात्रं कृतवान् / कल्प०१ अधि०६ क्षण। वक्ष०ा प्रश्न०। रा०।"वइरामया णेमा।" रा०| वइरमज्झचंदपडिमा-स्त्री०(वजमध्यचन्द्रप्रतिमा) वजेणोपमा चन्द्रेण | वइरामयपासाणा-स्वी०(वज्रमयपाषाणा) वज्रमयाः पाषाणाःया-सान्ता च / वज्रस्येव मध्यं यस्याः सा वज्रमध्या। चन्द्राकारा प्रतिमा चन्द्र वज्रमयपाषाणाः / वज्रमयपाषाणै रचिततटिकायां नद्याम, जी०३ प्रति० प्रतिमा / प्रतिमाभेदे, यस्या हि कृष्णप्रतिपदि पञ्चदश कवलान् भुक्त्वा 4 अधिकारा०। ततः प्रतिदिनमेकहान्या अमावास्यायामेक शुक्लप्रतिपदि अप्येकमेव वइरासण-न०(वज्रासन) प्रधानयोगिप्रतीते आसनविशेषे, वज्रा-सने ततः पुनरेकैकवृद्ध्या पौर्णमास्यां पञ्चदश भुङ्क्ते, सा तनुमध्यत्वाद् | प्रकर्षप्राप्ते सति नियमाद् दिव्यज्ञानं समुत्पद्यते। अने०३ अधि०। वज्रमध्या। स्था०२ ठा०२ उ०। (चन्द्रप्रतिमाप्राकृतमधिकृत्य वज्र- 1 वइरित्त-त्रि०(व्यतिरिक्त) तदन्यस्मिन्, आ०म०१ अ०।"वइ-रित्तो शब्दस्य पर्यायण व्याख्यानम्'पडिमा' शब्दे पञ्चमभागे 334 पृष्ठेगतम्।) णाम जहाभिहियकालाओ अण्णो अकालो भवति''। नि० चू०१ उ०। ("किण्हे" (20) इत्यादि पश्चाशकै कोनविंशतिविवर्णगाथया वडरेय-पं०(व्यतिरेक) अभावे, षो०३ विव० साध्याभावे साधनावज्रमध्याप्रतिपादनम् 'चंदायण' शब्दे तृतीयभागे 1066 पृष्ठे गतम्।) भावरूपे, विशे० / उपमानादन्यस्मिन्, प्रति०। प्रक्रमविपर्यये, पञ्चा० वइरमुद्दा-स्त्री०(वजमुद्रा) मान्त्रिकप्रसिद्ध मुद्राविशेषे, सङ्घा० 1 अधि० 12 विव०।
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________________ वइरोयण 762 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वइवाय वइरोयण-पुं०(वैरोचन) विविधै रोचन्ते दीप्यन्ते इति विरोचनास्त एव वैरोचनाः / स्था० 4 ठा० 1 उ०। दाक्षिणात्यासुरकुमारेभ्यः सकाशाद् विशिष्टं रोचनं दीपनं येषामस्ति ते वैरोचनाः / औदीच्या-सुरकुमारेषु, भ०३ श०१ उ० / प्रज्ञा० / अग्नौ, सूत्र०१ श्रु०६ अ०। कृष्णराज्यवकाशान्तरगे वह्निनामकदेवावासभूते, स्था० 8 ठा० 3 उ०। भ०।बुद्धे, दे० ना० 7 वर्ग 51 गाथा। वइरोयणिंद-पुं०(वैरोचनेन्द्र) वैरोचना-औदीच्यासुरास्तेषु मध्ये इन्द्रःपरमेश्वरो वैरोचनेन्द्रः। बलौ, प्रा०। भ०। वैरोचनोऽग्निः स एव प्रज्वलितत्वात् इन्द्रः। विभावसौ, सूत्र०१श्रु०६अ। वइल्ल-पुं०(बलीवर्द)"गोणादयः" / / 8 / 2 / 174 / / इति निपातः। पुङ्गवे, प्रा०२ पाद / आ० म०। वइ(ई)वाय-पुं०(व्यतीपात) रविशशिगतिप्रयुक्तयोगभेदे, ज्यो०। सम्प्रति व्यतिपातं विवक्षुराह - अयणाणं संबंधे, रविसोमाणं तु बेहि य जुगम्मि। जं हवइ भागलद्धं वइवाया तत्तिया होति / / 261 / / बावत्तरीपमाणो,फलरासी..... इह सूर्याचन्द्रमसौ स्वकीयेऽयने वर्तमानौ यत्र परस्परं व्यतिपततः स कालो व्यतिपातः, तत्र'"रविसोमयोः “सूर्याचन्द्रमसोः 'युगे युगमध्येऽयनानि तेषां परस्परं 'सम्बन्धे' एकत्र मीलने कृते सति द्वाभ्यां भागो हियते, हृते च भागे यद् भवति भागलब्धं 'तावन्तः तावत्प्रमाणा एकस्मिन् युगे व्यतिपाता भवन्ति, स च भागलब्धकराशिसप्ततिप्रमाणः, तथाहि-सूर्यस्यायनानि दश चन्द्रस्यायनानां चतस्त्रिंशदधिकं शतं, तयोरेकत्र मीलने जातं चतुश्चत्वारि शदधिकं शतं 144, तस्य द्वाभ्यां भागो ह्रियते, लब्धा द्वासप्ततिरेव, तावत्प्रमाणाम युगमध्ये व्यतिपाताः॥ 261 // साम्प्रतमीप्सितव्यतिपाताऽऽनयनाय करणमाह - .................इच्छिते उजुगभेए। इच्छियवइवायं पि य, इच्छं काऊण आणेहि / / 292 // जं भवइ भागलद्धं, तं इच्छं निहिसाहि सव्वत्था। सेसेऽवितस्स भेए फलरासिस्साणए सिग्घं || 263|| 'ईप्सिते' विवक्षिते 'युगभेदे' युगविशेषे इच्छाम्-ईप्सितव्यतिपातविषयां कृत्वा ईप्सितं व्यतिपातमप्यानय / कथमित्याह तत्र यद्, भवति भागेन-द्वासप्तत्यादिभागहारेण लब्धं तंतत्संख्यम् 'इच्छं' ति ईप्सितं व्यतिपातं निर्दिशेत् / शेषानपि युगभेदान् मुहूर्तादिरूपान् 'फलरासिस्स' ति तृतीयार्थे षष्ठी फलराशिना द्वा-लप्ततिलक्षणेन शीघ्रमानय / एष करणगाथाक्षरार्थः, सम्प्रति भावना क्रियतेयदि द्वासप्ततिसङ्ख्यैर्व्यतिपातैश्चतुर्विंशत्यधिक पर्वशतं लभ्यते तत एकस्मिन् व्यतिपाते किं लभामहे ? राशित्रयस्थापना-७२-१२४-१ अत्रान्त्येन राशिना एककलक्षणेन मध्यराशिश्चतुर्विशत्यधिकशतप्रमाणो गुण्यते, जातं तदेव चतुर्विंशत्यधिकं शतं 124, तस्यद्वासप्तत्या भागे हियते, लब्धमेकं पर्व, पश्चादवतिष्ठते द्विपञ्चाशत्, सा पञ्चदशर्भिगुण्यते, जातानि सप्त शतान्यशीत्यधिकानि, तेषां द्वासप्तत्याभागहारे लब्धा दश तिथयः, शेषा षष्टिः, सा मुहूर्तकरणार्थं त्रिंशता गुण्यते, जातान्यष्टादश शतानि 1800, तेषां द्वासप्तत्या भागहरणे लब्धाः परिपूर्णाः पञ्चविंशतिर्मुहूर्ताः, पश्चान्न किमपि तिष्ठति, आगतमेकस्मिन् पर्वणि दशसु च ति थिषु गतास्वेकादश्यां पञ्चविंशती मुहूर्तेषु प्रथमो व्यतीपातः समाप्त इति, तथा यदि द्वासप्ततिसङ्ख्यैर्व्यतिपातैश्चतुर्विशत्यधिकं पर्वशतं लभ्यते ततः पञ्चभिर्व्यतिपातैः किलभ्यम् ? इति, राशित्रयस्थापना 72-124-5, अत्रान्त्येन राशिना पञ्चकलक्षणेन मध्यराशेर्गुणनं, जातानि षट् शतानि विंशत्यधिकानि 620, तेषां द्वासप्तत्या भागो ह्रियते, लब्धान्यष्टौ पर्वाणि ८,शेषास्तिष्ठन्ति चतुश्चत्वारिंशत् 44, सातिथ्यानयनाय पञ्चदशभिर्गुण्यते,जातानिषट्शतानि षष्ट्यधिकानि 660, तेषां द्वासप्तत्या भागहारे लब्धा नव६, शेषास्तिष्ठन्ति द्वादश 12, ते मुहूर्तानयनाय त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि त्रीणि शतानि षष्ट्यधिकानि 360, तेषां द्वा-सप्तत्या भागे हृते लब्धाः परिपूर्णाः पञ्च मुहूर्ताः पश्चान्न किमपि तिष्ठति, आगतमष्टसु पर्वसु गतेषु नवमस्य च पर्वणो नवसु तिथिषुगतासुदशम्यां तिथौ पञ्चसु मुहूर्तेषु पञ्चमो व्यतिपातः समाप्तः, एवं सर्वेऽपि व्यतीपाताः। (संप्रति चन्द्रनक्षत्रव्यतिपात) परिज्ञानार्थमुपक्रम्यन्ते-यदि द्वासप्ततिसङ्ख्यैर्व्यतीपातैः सप्तषष्टिश्चन्द्रनक्षत्रपर्याया लभ्यन्तेतत एकस्मिन् व्यतिपाते किं लभेयमिति, राशित्रयस्थापना-७२-६७-१, अत्रान्त्येन राशिना एककलक्षणेन मध्यमराशेः सप्तषष्टिरूपस्य गुणनात्जातः सप्तषष्टिरेव, तस्या द्वासप्तत्या भागो ह्रियते, सा च स्तोकत्वाद्भागं न प्रयच्छति, ततो नक्षत्रानयनार्थमष्टादशभिः शतैस्त्रिंशदधिकैर्गुणयिष्याम इत्यस्य गुणकारराशेश्छेदराशेश्च द्वासप्ततिरूपस्य षट्केनाप्रवर्त्तना, तत्र जातो गुणकारराशिस्त्रीणि शतानि पश्चोत्तराणि 305, छेदराशि-दश, गुणकारराशिना च सप्तषष्टिगुण्यते, जातानि विंशति-सहस्त्राणि चत्वारि शतानि पञ्चत्रिंशदधिकानि 20435, छेदराशि-रपि द्वादशलक्षणः सप्तषष्ट्या गुण्यते, जातान्यष्टौ शतानिचतुरुत्तराणि ८०४,ये चाभिजितः सप्तषष्टिभागाएकविंशतिस्तेऽपिद्वादश-भिर्गुण्यन्ते, जाते द्वे शते द्विपञ्चाशदधिके 252, ते उपरितनराशेः शोध्यन्ते, स्थितानि पञ्चाविंशतिः सहस्त्राणि शतमेकं त्र्यशीत्यधिकं 20183, तेषामष्टभिः शतैश्चतुरुत्तरैर्भागो हियते, लब्धा पञ्चविंशतिः, शेषास्तिष्ठन्ति त्र्यशीतिः संप्रति मुहूर्ता आनेतव्याः, मुहूर्ताश्च अहोरात्रे त्रिंशत्, तस्याः षट्केनापवर्तनाया जाताः पञ्च, छेदराशिरपि षट्केनापवर्तितो जातश्चतुस्त्रिंशदधिकं शतं 134, तत्रत्र्यशीतिः पञ्चभिर्गुणिता जातानि चत्वारि शतानि पञ्चदशोत्तराणि 415, तेषां चतुस्विंशदधिकेन शतेन भागहरणं, लब्धास्त्रयो मुहूर्ताः, शेषास्तिष्ठन्ति त्रयोदश, तत्र द्वाविंशत्या श्रवणादीनि विशाखापर्यन्तानिनक्षत्राणिशुद्धानि, शेषास्तिष्ठन्ति त्रयः, तैश्चानुराधाज्येष्ठामूलरूपाणि नक्षत्राणि शुद्धानि, परं ज्येष्ठानक्षत्रमर्द्ध-क्षेत्रमितितत्पञ्चदशभिर्मुहतैः शुद्ध्यति, शेषाः पञ्चदशति
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________________ वइवाय 763 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वइवाय ठन्ति, ते मुहूर्तराशौ प्रक्षिप्यन्ते,तत आगतं-पूर्वाषाढानक्षत्रस्याष्टादश मुहूतनिकस्य मुहूर्तस्य च त्रयोदश चतुस्त्रिंशदधिकशत-भागानवगाह्य प्रथमो व्यतिपातो गत इति, तथा यदि द्वासप्तति-संख्यैर्व्यतिपातैः सप्तषष्टिश्चन्द्रनक्षत्रपर्याया लभ्यन्तेततः पञ्चभिर्व्यतिपातैः किंलभामहे ? राशित्रयस्थापना -72-67-5, अत्रान्त्येन राशिना मध्यराशेर्गुणनं, जातानि त्रीणि शतानि पञ्चत्रिंशदधिकानि 335, तेषां द्वासप्तत्या भागे हृते लब्धाश्चत्वारः पर्यायाः, न तैः प्रयोजनं, शेषास्तिष्ठन्ति सप्तचत्वारिंशत्, सा नक्षत्रानयनार्थमष्टादशभिः शतैस्त्रिंशदधिकैर्गुणयितव्येति गुणकारच्छेदराश्योः षट्केनापवत्तनाज्जातो गुणकारराशिस्त्रीणि शतानि पञ्चोत्तराणि-३०५, छेदराशिदश, तत्र गुणकारराशिनापशोतरत्रिशतप्रमाणेन सप्तचत्वारिंशद् गुण्यते, जातानि चतुर्दश सह-स्त्राणि त्रीणि शतानि पञ्चत्रिंशदधिकानि 14335, छेदराशिना चद्वादशप्रमाणेन सप्तषष्टिगुण्यते, जातान्यष्टौ शतानि चतुरुत्तराणि, अभिजितोऽप्येकविंशतिः सप्तषष्टिभागा द्वादशभिर्गुणिता जाता द्वे शते द्विपञ्चाशदधिके 252, के प्राक्तनराशेः शोध्यन्ते, स्थितानि पश्चाचतुदश सहस्राणि त्र्यशीत्यधिकानि १४०८३,तेषामष्टभिः शतैश्चतुरुत्तरैर्भागहरणं, लब्धाः सप्तदश 17, शेष तिष्ठति चत्वारि शतानिपञ्चदशाधिकानि 415, एतानि च मुहूर्त्तानयनाय त्रिंशता गुणयितव्यानि, त्रिंशतश्च षट्केनापवर्तनायां जाताः पश, छेदराशेरपि षट्केनापवर्त्तनेजातं चतुस्त्रिंशदधिकं शतं, तत्र चतुर्णां शतानां पञ्चदशोत्तराणां पञ्चभिर्गुणने जातानि विंशतिशतानि पञ्चसप्तत्यधिकानि 2075, तेषां चतुस्त्रिंशदधिकशतेन भागो ह्रियते, लब्धाः पञ्चदश मुहूर्ताः, शेषाः तिष्ठन्ति चतुस्त्रिंशदधिकशतभागाः पञ्चषष्टिः, तत्र ये पूर्वलब्धाः सप्तदश तेभ्यस्त्रयोदशभिः श्रवणादीनि पुनर्वसुपर्यन्तानि शुद्धानि, शेषास्तिष्ठन्ति चत्वारि, तैश्च पुष्यादीनि पूर्वफाल्गुनीपर्यन्तानि चत्वारि नक्षत्राणि शुद्धानि, परमश्लेषानक्षत्रमद्धक्षेत्रमिति तत्पञ्चदशभिर्मुहूर्तः शुद्ध्यतीति शेषास्तिष्ठन्ति पञ्चदश, ते मुहूर्तराशौ प्रक्षिप्यन्ते, जातास्त्रिंशन्मुहूर्ताः, आगतमुत्तरफाल्गुनीनक्षत्रस्य त्रिंशन्मुहूर्तान् एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चषष्टिं चतुस्त्रिंशदधिकशतभागानामवगाह्य पञ्चमो व्यतिपातोऽभूदिति, एवं सर्वेष्वपि व्यतिपातेषु भावनीयम्॥ सम्प्रति सूर्यनक्षत्रानयना-योपक्रम्यते-यदि द्वासप्ततिसंख्यैर्व्यतिपातैः पञ्च सूर्यनक्षत्रपर्याया भवन्ति तत एकस्मिन् व्यतिपाते किं भवति ? राशित्रयस्थापना 72-5-1, अत्रान्त्येन राशिना मध्यराशेर्गुणनं,जाताः पञ्चैव, तेषामाद्येन राशिना द्वासप्ततिलक्षणेन भागो हार्यः, ते च स्तोकत्वाद्भागं न प्रयच्छन्ति, ततो नक्षत्रानयनार्थमष्टादर्शभिः शतैत्रिशदधिकै सप्तषष्टिभागैर्गुणयितव्या इतिछेदराशिगुणराश्योः षट्के नापवर्तनाः, जातश्छेदराशिादश, गुणकारराशिस्त्रीणि शतानि पञ्चोत्तराणि 305, तथोपरितनो राशिः पञ्चकलक्षणो गुण्यते, जातानि पञ्चदश शतानि पञ्चविंशत्यधिकानि 1525, छेदराशिना च द्वादशकलक्षणेन सप्तषष्टिगुण्यते, जातान्यष्टौ शतानि चतुरुत्तराणि 804, पुष्यस्य चसप्तषष्टिभागाश्चतुश्चत्वारिंशद्वादशभिर्गुण्यन्ते,जातानिपञ्च शतानि अष्टाविंशत्यधिकानि 528, तानि पूर्वराशेःशोध्यन्ते, स्थितानिपश्चान्नव शतानि सप्तनवत्यधिकानि 667, तेषामष्टभिः शतैश्चतुरुत्तरैर्भागो हियते, लब्धमेकं नक्षत्रम-श्लेषारूपं, स्थितं पश्चात्रिनवत्यधिकं शतम, एतच नक्षत्रभागं न प्रयच्छतीति सप्तषष्टिभागानयनाय छेदराशिौल एव द्वादशलक्षणः परं पञ्चभिः सप्तषष्टिभागैरहोरात्रो लभ्यत इति स पञ्चभिर्गुण्यते, जाता षष्टिः, तया भागो ह्रियते, लब्धास्त्रयोऽहोरात्राः, शेषास्तिष्ठन्ति त्रयोदश, ते मुहूर्तानयनाय त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि त्रीणि शतानि नवत्यधिकानि 360, तेषां षष्ट्या भागे हृते लब्धाः सार्धाः षड् मुहूर्ताः, अश्लेषानक्षत्रमिति तद्गता अहोरात्रा एकविंशतिश्च मुहूर्ता उद्धरन्ति, ते अत्र प्रक्षिप्यन्ते, आगतमश्लेषानक्षत्रमतिक्रम्य मघानक्षत्रस्य त्रिष्वहोरात्रेषु गतेषु चतुर्थस्य चाहोरात्रस्य साढेषु च सप्तविंशतिषु मुहूर्तेषु गतेषु प्रथमो व्यतिपातो गत इति, तथा यदि द्वासप्ततिसंख्यैर्व्यतिपातैः पञ्च सूर्यनक्षत्रपर्याया लभ्यन्ते ततः पञ्च-भिर्व्यतिपातैः किं लभ्यम् ? इति राशित्रयस्थापना-७२-५-५, अत्रान्त्येन राशिना मध्यराशेर्गुणनं, जाता पञ्चविंशतिः 25, तस्या आद्येन राशिना भागहरणं सा च स्तोकत्वाद् भागं न प्रयच्छति ततो नक्षत्रानयनार्थमेनामष्टादशभिः शतैत्रिंशदधिकैः सप्तषष्टिभागैर्गुणयिष्याम इति छेदराशिगुणकारराश्योः षट्केनापवर्तना, जातो गुणकारराशिस्त्रीणि शतानि पञ्चोत्तराणि-३०५, छेदराशिर्वादशप्रमाणः-१२, गुणकारराशिना च पञ्चविंशतेर्गुणने जातानि षट्सप्ततिः शतानि पंचविंशत्यधिकानि 7625, छेदराशिनाऽपि च द्वादशलक्षणेन सप्तषष्टिगुण्यते, जातान्यष्टौ शतानि चतुरुत्तराणि 504, पुष्यस्य च सप्तषष्टिभागाश्चतुश्चत्वारिंशत्, सा द्वादशभिर्गुण्यते, जातानि पञ्च शतानि अष्टाविंशत्यधिकानि, तानि पूर्वराशेः शोध्यन्ते, स्थितानि पश्चात् सप्ततिशतानि सप्तनवत्यधिकानि 7067, तेषामष्टभिः शतैश्चतुरुत्तरैर्भागहरणं, लब्धान्यष्टौ नक्षत्राणि, शेषाणि तिष्ठन्ति षट् शतानि पञ्चषष्ट्यधिकानि 665, एतानि नक्षत्रभागं न प्रयच्छन्ति ततः सप्तषष्टिभागानयनार्थ छेदराशिर्मूल एव द्वादशप्रमाणः परं पञ्चभिः सप्तषष्टिभागैरहोरात्रा लभ्यन्त इति पञ्चभिर्गुण्यते, जाता षष्टिस्तया भागो ह्रियते, लब्धा एकादशाहोरात्राः, शेषास्तिष्ठन्ति पञ्च, ते मुहूर्तानयनाथ त्रिंशता गुण्यन्ते, जातं सार्द्धशतं, तस्य षष्ट्या भागे हृते लब्धौ द्वौ साडौं मुहूतौः,यानि च पूर्वलब्धान्यष्टौ नक्षत्राणि तान्यश्लेषादीनि विशाखापर्यन्तानि द्रष्टव्यानि, तत आगतमनुराधानक्षत्रप्रविष्टस्य सूर्यस्य एकादशसु दिवसेषु गतेषु द्वादशस्य च दिवसस्य द्रयोः सार्द्धयोमुहूर्तयोर्गतयोः पञ्चमो व्यतिपातो गत इति एवं सर्वेष्वपि व्यतिपातेषु सूर्यनक्षत्राणि परिभावनीयानि॥सम्प्रति लनपरिज्ञानार्थमुपक्रम्यते-यदि द्वास-पतिसंख्यैर्व्यतिपातैरष्टादशशतानि पञ्चत्रिंशदधिकानि लग्नपर्यायाणां लभ्यन्ते ततः प्रथमे व्यतिपाते किं लभ्यते ? राशित्रयस्थापना७२-१८३५-१, अत्रान्त्येन राशिना मध्यराशिगुण्यते, स च तावानेव भवति, तत आद्येन राशिना द्वासप्ततिलक्षणेन भागहरणं, लब्धाः पञ्चविंशतिः लग्रपर्यायाः शेषास्तिष्ठन्ति पञ्चत्रिंशत्, एनां नक्षत्रानयनार्थमष्टादशभिःशतैस्त्रिंशदधिकैः सप्तषष्टिभागैर्गुणयिष्याम इति छेदराशिगु
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________________ वइवाय 764 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वइसेसिय णकारराश्योः षट्केनापवर्तना, ततो जातश्छेदराशिदशकरूपो | वइसदेव-पुं०(वैश्वदेव) विश्वेभ्यो देवेभ्यो देयो बलिः अण। वैश्व-देवोद्देशेन गुणकारराशिस्त्रीणि शतानि पञ्चोत्तराणि 305, तेन पञ्चत्रिंशद्गुण्यते, | दीयमाने बलौ,। ती० 55 कल्प। जातानि दश सहस्राणि षट् शतानि पञ्चसप्तत्यधिकानि 10675, वइसमाहारणा-स्त्री०(वचःसमाधारणा) वचनस्य शुभकार्येस्थापने, उत्त०। छेदराशिौदशकलक्षणः सप्तषष्ट्या गुण्यते, जातान्यष्टौ शतानि चतुरुत्त वचःसमाधारणया अपि फलमाह - राणि 804, अस्य राशेश्च प्राक्तनैः पञ्चभिः शतैरष्टाविंशत्यधिकैः पुष्यः शुद्धः,स्थितानि पश्चाद्दश सहस्राणि शतमेकं सप्तचत्वारिंशदधिकं वइसमाहारणयाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ ? वइसमाहार१०१४७, तेषामष्टभिः शतैश्चतुरुत्तरै-भगिहरणं, लब्धा द्वादश 12, णयाए णं वइसमाहारणदसणपज्जवे विसोहेइ वइसमाहारणदंशेषाणि तिष्ठन्ति चत्वारि शतानि नवनवत्यधिकानि 466, द्वादशभि सणपनवे विसोहित्ता सुलहबोहियत्तं निव्वत्तेइ, दुल्लहबोहियत्तं श्चाश्लेषादीनि पूर्वाषाढापर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि, परं ज्येष्ठान निजरेइ / / 57 // क्षत्रमर्द्धक्षेत्रमिति तच्चतुर्भिः शतैर्युत्तरैः शुद्ध्यति, शेषाणि चत्वारि हे भगवन् ! सिद्धान्तोक्तमार्गे वचनसमाधारणया स्वाध्याये एव शतानि व्युत्तराणि तिष्ठन्ति, तान्युद्धरितराशौ प्रक्षिप्यन्ते, जातानि वानिवेसनेन जीवः किं फलं जनयति, तदा गुरुराह-हे शिष्य ! नव शतान्येकोत्तराणि 601, आगतमुत्तराषाढानक्षत्रस्य लगप्रवर्तकस्य वचःसमाधारणया-वाक्साधारणया दर्शनपर्यवान् विशोधयति वाचः चतुरुत्तराष्टशतभागानां नवसु शतेष्वेकोत्तरेषु गतेषु मकरलग्ने प्रथमो साधारणया-वाक्साधारणया वाचा कथयितुं योग्याः ये पर्यवाः'व्यतिपातोऽभवदिति। तथा यदि द्वासप्ततिसंख्यैर्व्यतिपातैरष्टादश श- शब्दविशेषाः, तथा-दर्शनस्य-सम्यक्त्वस्य ये पर्यवाभेदास्तान् तानि पञ्चत्रिंशदधिकानि लनपर्यायाणां भवन्ति ततः पञ्चभिर्व्यतिपातैः विशोधयति-निर्मलीकरोति, यतो हि-वाक्समाधारणां कुर्वन् स्वाध्यायं किं भवति ? राशित्रयस्थापना-७२-१८३५-५ अत्रान्त्येन राशिना करोति, स्वाध्यायं कुर्वन् द्रव्यानुयोगाद्यभ्यासं विदधत् अनेकयज्ञो भूत्वा मध्यराशेर्गुणनं, जातान्येकनवतिशतानि पञ्चसप्तत्यधिकानि 6175, शङ्कादिदोषान् निवारयति; अतः सम्यक्त्वं निर्मलं करोति यतो तेषामायेन राशिना द्वासप्ततिलक्षणेन भागो ह्रियते, लब्धं सप्तविंश- वाक्साधारणदर्शनपर्यवान् विशोध्य सुलभबोधित्वं निवर्तयति। सुलभा त्यधिकं लग्नपर्यायाणां शतं, शेषास्तिष्ठन्त्ये-कत्रिंशत् तान् नक्षत्रानय- बोधिः परभवे जैनधर्मप्राप्तिर्यस्य स सुलभबोधिस्तस्य भावः सुलभनार्थयष्टादशभिः शतै स्त्रिंशदधिकैः सप्तषष्टिभागैर्गुणयिष्याम इति बोधित्वं तत् उत्पादयति, दुर्लभबोधित्वं निर्जरयति / / 57 // उत्त० गुणकारच्छेदराश्योः षट्केनापवर्तना, तत्र जातो गुणकारराशिस्त्रीणि 26 अ०। शतानि पश्चोत्तराणि 305, छेदराशिदश, गुणकारराशिना चैकत्रिंशद् वइसवण-पुं०(वैश्रवण)"वैराऽऽदौ वा" |||11152 / / एतोऽइः। गुण्यते, जातानि चतुर्नवतिशतानि पञ्चपञ्चाशदधिकानि 6455, प्रा०१ पाद। एतेभ्यश्च पञ्चभिः शतैरष्टाविंशत्याधिकैः पुष्यः शुद्धः, स्थितानि वइसाह-पुं०(वैशाख) "वैराऽऽदौ वा" ||8|11152 / / इति अइः। पश्चान्नवाशीतिशतानि सप्तविंशत्यधिकानि 8627, छेदराशिना च विशाखानक्षत्रयुतपौर्णमासीपर्यन्ते मासभेदे, स० 26 सम० / योधद्वादशकलक्षणेन सप्तषष्टिगुण्यते, जातान्यष्टौ शतानि चतुरुत्तराणि, स्थानभेदे, आचा० 1 श्रु०२ अ० 1 उ० / आ० म०। तैर्भागो ह्रियते, लब्धा एकादश, पश्चात्तिष्ठन्ति त्र्यशीतिः, एकादशभिश्चारलेषादिषु मूलपर्यन्तानि शुद्धानि, नवरं ज्येष्ठानक्षत्रमर्धक्षेत्रमिति वइसाही-स्त्री०(वैशाखी) वैशाखमासभाविन्याममायाम, पूर्णिमायां च। चतुर्भिः शतै-युत्तरैः शुद्धमिति चत्वारि शतानि व्युत्तराणि शेषाणि जं०७ वक्ष। तिष्ठन्ति, तान्यंशराशौ प्रक्षिप्यन्तेजातानिचत्वारि शतानि पञ्चाशीत्य- वइसिय-पुं०(वैशिक) "अइदैत्यादौ च" / / 8 / 1 / 151 // ऐतोऽइः / धिकानि 485, तत आगतमश्लेषादिषु मूलपर्यन्तेष्वेकादशसु नक्षत्रेषु / वेशोपजीविनि, प्रा०१पाद। गतेषु पूर्वाषाढानक्षत्रस्य चतुरुत्तराष्टशतभागानां चतुर्षु शतेषु पञ्चा- वइसुहया-स्त्री०(वचःशुभता) वचसः शुभभावे, तस्याः सातानुशीत्यधिकेषु गतेषु धनलने पञ्चमो व्यतिपातो गत इति, एवं सर्वेष्वपि भावकारणत्वात्। सातानुभवभेदे, स्था०७ ठा०३ उ०। व्यतिपातेषु लग्नानि परिभावनीयानि // 262-3 / / ज्यो०१६ पाहु०। वइसेसिय-पुं०(वैशेषिक) विशेषाख्यातिरिक्तपदार्थाभ्युपगन्तरिकणावइवीरिय-न०(वाग्वीर्य) 'वीरिय' शब्दे वक्ष्यमाणस्वरूपे वाग्विषयके दशिष्ये, वैशेषिकाणां शास्त्रं कणादमुनिनाद्रव्यगुणकर्मसामान्यप्रकर्षे, सूत्र०१ श्रु०८ अ०। विशेषसमवायाः षट्पदार्था इति, षट्पदार्थानङ्गीकृत्य प्रपञ्चितम्। सूत्र० वइवेभव-न०(वाग्वैभव) विभव एव वैभवम्, प्रज्ञादित्वात् स्वार्थेऽण 1 श्रु० 1 अ० 1 उ० / अत्र पदार्थविभागव्यवस्थानुपपन्नेत्याह-नापि विभोर्भावः कर्म वा वैभवम् / वाचा वैभवं वाग्वैभवम् / वचनसंपत्प्रकर्षे, वैशेषिकोक्तं तत्त्वमिति, तथाहि-द्रव्यगुणकर्म-सामान्यविशेषसमवायावाचा विभोर्भाव च। स्या०। भावास्तत्त्वमिति। सूत्र०१श्रु०१२ अ०॥ द्रव्यादीनां विवरणं स्वस्थाने। वइसंपायण-पुं०(वैशम्पायन)"वैराऽऽदौ वा // 8 | 1 | 152 // ('इस्सर' शब्दे द्वितीयभागे 636 पृष्ठे वैशेषिकाभ्युपगतेश्वरखण्डवैरादित्वादैतोऽईत्यादेशः / व्यासशिष्ये विशम्पय॑पत्ये, प्रा०। नमकारि।)
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________________ वइस्साणर 765 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वंग वइस्साणर-पुं०(वैश्वानर)"अइदैत्यादौच" // 8 / 1 / 151 / / ऐतोऽइः। | वओगय-न०(वाम्गत) वचनगते, "वयणविभत्तीकुसलो, वओगयं बहुविहं अग्नौ, प्रा०१ पाद। विआणतो" / दश०७ अ०। वउ-न०(वपुष्) शरीरे, विशे०। अनु०। वंक-त्रि०(वक्र) "वक्रादावन्तः"||८|११२६॥ इति प्रथमस्वरात्परोवउल-पुं०(वकुल) मुकुलश्रीनामके वनस्पतिभेदे, विशे०। स०। केसरे, ऽनुस्वारागमः / प्रा०। कुटिले, स्था० 4 ठा०१ उ०॥ अन्तर्मायिकत्ये, प्रज्ञा० 1 पद / कल्प० / धवलपुरवास्तत्ये स्वनामख्याते गृहपत्तौ, ज्ञा० 1 श्रु०८ अ०। महा०। औ०। रा०ा स्था०। असंयमे, आचा०१ (पञ्चा०) "चतुरधिकविंशतियुते, वर्षसहस्रेशतेच सिद्धेयम्। धवलकपुरे श्रु०४ अ०२ उ०। वसत्य, धनपत्योर्वकुलवन्दिकयोः॥७॥ अणहिलपाटकनगरे, सङ्घवरै- वंकगइ-स्त्री०(वक्रगति) वक्रा चासौ गतिः / गतिभेदे, वंकवलीविगवर्तमानबुधमुख्यैः / श्रीद्रोणाचार्याधैर्विद्वद्भिः शोधिता चेति / " पञ्चा० यभेसणमुहा-वक्रपाठान्तरेण व्यङ्ग्यम्सलाञ्छनं वलिभिर्विकृतं वीभत्सं 16 विव०। भेषणं-भयजनकं मुखं येषां ते तथा। बृ०१ उ०३ प्रक०। वउस-त्रि०(वकुश) शवले, कवुर, भ० 25 श०६ उ०। वकुशसंयमयोगाद् अथ वक्रगतिभेदानाह - वकुशः। भ०२५ श०६ उ० शरीरोपकरणविभूषादिना शवलचारित्रपटे, से किंतं वंकगती? वंकगतीचउव्विहा पण्णत्ता,तंजहा-घट्टणता स्था०३ ठा०२ उ०। निर्ग्रन्थभेदे, भ०। थंभणता लेसणता पवडणया। सेतं वंकगती। (सू० 205+) वउसे णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? गोयमा! पंचविहे पण्णत्ते, वङ्का-वक्रा सा चासौ गतिश्च वङ्कगतिः। सा चतुर्धा, तद्यथा-घट्टनता तं जहा-आभोगवउसे अणाभोगवउसे संवुडवउसे असंवुड स्तम्भनता श्लेष्मणता(प्र)पतनता / तत्र घट्टनशब्दस्य भावः-प्रवृत्तिवउसे अहासुहुमवउसे णामं पञ्चमे / (सू०७५१४) निमित्तं घट्टनमेवेति / एवं शेषपदशब्दार्थोऽपि भावनीयः / तत्र घट्टनम्वकुशो द्विविधो भवति-उपकरणशरीरभेदात्, तत्र वस्त्रपात्राथुपकरण- खजागतिः, स्तम्भनम्-ग्रीवायां धमन्यादीनां तिष्ठतो वा आत्मनोऽविभूषानुवर्तनशील उपकरणवकुशः, करचरणनखमुखादिदेहावयव- ङ्गप्रदेशानाम्, श्लेष्मणम्-ऊर्वादीनांजानुप्रभृतिभिः सम्बन्धः, (प्र) विभूषानुवर्ती शरीरवकुशः। स चायं द्विविधोऽपि पञ्चविधः, तथा चाह- पतनम्-तिष्ठत एव गच्छतो वा यल्लुठनम्, एतानि च घट्टनादीनि 'वउसे णं' इत्यादि। आभोगवउसे' त्ति आभोगः-साधूनामकृत्यमेत- जीवस्यानीप्सितत्वादप्रशस्तत्वाच वङ्कगतिशब्दवाच्यानि / प्रज्ञा० च्छरीरोपकरणविभूषणमित्येवं ज्ञानं तत्प्रधानो वकुश आभोगवकुशः, २पद। एवमन्येऽपि, इहाप्युक्तम्- "आभोगे जा-णतो, करेइ दोसं अजाण वंकचूल-पुं०(वक्रचूड) भारतवर्षे विमलयशसो भूपतेः सुमङ्गलादेव्याः मणभोगे। मूलुत्तरेहिं संवुड-विवरीओs-संवुडो होइ।। 1 // अच्छिमुह पुष्पचूलापरनामके पुत्रे, ती० 42 कल्प। (वक्रचूडकथा 'टिंपुरी' शब्दे मजमाणो, होइ अहासुहुमओ तहा वउसो। अहवा जाणिज्जंतो, असंवुडो चतुर्थभागे 1676 पृष्ठे गता।) संवुडो इयरो॥२॥"भ० 25 श०६ उ०। स्था०। ज्ञा०। ध०। वकुशः वंकजड-पुं०(वक्रजड) वक्रश्चासौ जडश्च वक्रजडः / कुटिलाप्राज्ञे, शवलः कषुर इति पर्यायाः, सातिचारत्वादेवंभूतः संयमोऽत्र वकुशस्तसंयमयोगात्साधुरपि वकुशः, सातिचारत्वात्शुझ्यशुद्धिव्यतिकीर्णचरण वीरतीर्थे हि साधवो वक्रजडाः। कल्प० तथा-कश्चिद्व्यवहारिसुतः इत्यर्थः, स च द्विविधः-उपकरणशरीरविषयभेदात्, तत्र-अकाल एव पित्रा बहुशः शिक्षमाणो जनकादीनां सन्मुखं जल्पनं न कर्तव्यम्, इति प्रक्षालितचोलपट्टकान्तरकल्पादिश्चोक्षवासः प्रियः पात्रदण्ड-काद्यपि पितृवचनं वक्रतया मनसि दधार / अथैकदा सर्वेषु स्वजनेषु बहिर्गतेषु भूषार्थं तैलमात्रया उज्ज्वलीकृत्य धारयन्नुपकरणवकुशः, तथा-अना पुनः पुनः शिक्षयन्तं पितरम्, अद्य शिक्षयामीति विचिन्त्य कपाट दत्त्वा गुप्तव्यतिरेकेण हस्तपादधावनमलापनयनादि देहविभूषार्थमाचरन् स्थितः, आगतेषु च पित्रादिषुद्वारोद्घाटनार्थ बहुशब्दरणेऽपिन वक्ति,न शरीरवकुशः, अयंचद्विविधोऽपिआभोगाऽनाभोग-संवृताऽसंवृतसूक्ष्मव चोद्घाटयति। भिक्ष्युल्लङ्घनेन मध्ये प्रविष्टन च पित्रा हसन्दृष्ट उपालब्धश्च कुशभेदात्पञ्चविधः, यतः- "उवगरणशरीरेसुं, बहुसो दुविहो दुहा वि कथयामास, भवद्भिरेवोक्तं वृद्धानामुत्तरंनदेयम्। इति द्वितीयः। कल्प० पञ्चविहो / आभोग अणाभोगे, संवुड असंवुडे सुहुमे / / 1 // " इति, 1 अधि०१क्षण / बृ०। नि० चू०। तत्राभोगः पूर्वोक्तद्विविधभूषणमकृतमित्येवंभूतं ज्ञानं तत्प्रधानो वकुश वंकणया-स्त्री०(वङ्कनता) वक्रीकरणे, स्था०२ ठा०१ उ०। आभोगवकुशः 1, द्विविधविभूषणस्य च सहसा कारी अनाभोगवकुशः वंकसमायार-त्रि०(वक्रसमाचार) वक्रः समाचारो यस्य सतथा। असंय२.संवृतो लोकेऽविज्ञातदोषः संवृतवकुशः३, प्रकटकारी त्वसंवृतवकुशः ___ मानुष्ठायिनि, आचा०१ श्रु०१ अ०५ उ०। मायाविनि, आचा०१ श्रु० 4, मूलोत्तरगुणाश्रितं वा संवृताऽसंवृतत्वम्, नेत्रमलापनयनादि 5 अ०३ उ०। किञ्चित्प्रमादवान् सूक्ष्मवकुशः 5 / ध० 3 अधि०। प्रव० 1 पं० भा०। वंकाणिकेय-पुं०(वक्रानिकेत) असंयमाश्रये,"इच्छा पणीया वंकाणि('णिगंथ' शब्दे चतुर्थभागे 2034 पृष्ठे वक्तव्यतोक्ता।)म्लेच्छविशेषे, केया" (सू० 131) आचा०१ श्रु० 4 अ०२ उ०। (व्याख्या 'धम्म' तद्देशे च। प्रश्न०१ आश्र० द्वार। प्रज्ञा०ातद्देशजाताः स्त्रियोवकुशिकाः / शब्दे चतुर्थभागे 2667-2668 पृष्ठे गता।) ज्ञा०१ श्रु०१अ०भ०। वंग-पुं०(वङ्ग) ऋषभदेवस्य त्रयोविंशे पुत्रे, कल्प० 1 अधि०७ क्षण। वउसत्तण-न०(वकुशत्व) शरीरोपकरणविभूषाकरणे, व्य० 3 उ०। तच्छासिते देशविशेषे, यत्र ताम्रलिप्ती राजधान्यासीत्। प्रज्ञा०१ पद। वऊ-(देशी) लावण्ये, दे० ना०७ वर्ग 30 गाथा। कल्प०प्रव०।
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________________ वंग 766 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वंजणणियय *व्यङ्ग-त्रि० / विगताङ्गे, क्षतिग्रस्ते, ध०२ अधि०। प्रश्न०। मभीप्सता व्यञ्जनभेदोऽर्थभेदः उभयभेदश्चन कार्य इति, तत्र व्यञ्जनवंगण-न०(व्यङ्गन)क्षते, कल्प०१अधि०७ क्षण। व्य०। भेदो यथा- 'धम्मो मङ्गलमुक्किट्ठ' इति वक्तव्ये 'पुण्णं कल्लाणमुक्को स' वंगाल-(देशी) वङ्गदेशे, कल्प०१अधि०७ क्षण। मित्यादि; अर्थभेदस्तुयथा-"आवंती केयावंती लोगसि विप्परामुसंती' वंगिय-त्रि०(व्यङ्गित) जुङ्गिताओं, स्था०५ ठा० 3 उ०। इत्यत्राचारसूत्रे यावन्तः केचन लोके-अस्मिन्पाषण्डिलोके विपरामृश न्तीत्येवं-विधार्थाभिधाने अवन्तिजनपदे केयारजुवन्तिापतिता लोकः वंचइत्ता-स्त्री०(वञ्चयित्वा) प्रभूतं त्याजयित्वाऽल्पंग्राहयित्वेत्यर्थे, सूत्र० परामृशति कूप इत्याह, उभयभेदस्तुद्वयोरपि याथात्मयोपमर्दैन यथा१श्रु०५ अ०१ उ०। 'धर्मो मङ्गलमुत्कृष्टः अहिंसा पर्वतमस्तक' इत्यादि, दोषश्चात्र व्यञ्जनवंचग-त्रि०(वञ्चक) प्रतारके, षो०१५ विव०। द्वा०। भेदे अर्थभेदस्त दे क्रियाया भेदस्तद्भेदे मोक्षा-भावस्तदभावेघ निरर्थिका वंचण-न०(वञ्चन) प्रतारणे, सूत्र०२ श्रु०२ अ०। ज्ञा०।दशा० / भ्रंशने, दीक्षेति। उदाहरणं चात्राधीयतां कुमार इति सर्वत्र योजनीयम्।क्षुण्णत्वासूत्र०१ श्रु०१३ अ०।रा० दनुयोगद्वारेषु चोक्तत्वान्नेह दर्शितमिति / दश०३ अ०। व्य० / ग०। ध०। वंचणया-स्त्री०(वञ्चनता) प्रतारणतायाम्, औ० / प्रश्न०।स०।उपघाते, इदाणिं तदुभए त्ति दारं - विशे०। दुमुपुप्फि पढमसुत्तं, अहागडरीयंति रण्णो भत्तं व। वंचिअ-त्रि०(वचित) प्रतारिते, "पयारिअं वंचिअंच वेअलिअं"। पाइ० ना० 187 गाथा। उभयण्णवकरणेणं, मीसगपच्छित्तुभयदोसा / / 20 / / वंचिय-त्रि०(वञ्चित) व्यामोहं प्रापिते, प्रति०। दोसुवमाओदुमोपुप्फविकसणे-दुमस्स पुष्पंदुमपुप्फं, तेण दुम-पुप्फेण वंछा-स्त्री०(वाञ्छा) इच्छायाम्, "ईहा इच्छा वंछा सद्धा कामो य जत्थ उवमा कीरइ तमज्झयणं दुमपुप्फिया आदाणपदेणं च से णाम, आसंसा"। पाइ० ना०७० गाथा। धम्मो मंगलं, तत्थपढमसुत्तं पढमसिलोगो, तत्थ उभयभेदो दरिसिज्जति "धम्मो मंगलमुक्किट्ठ"एवं सिलोगो पढियव्वो; सो पुण एवं पढति-"धम्मो वंज-त्रि०(वन्द्य) वन्दनाहे, ध०२ अधि०। आव०॥ मंगलमुक्कट्ठो, अहिंसाडोगरमस्तके। देवा वितस्सनासंति जस्स धम्मे वंजग-त्रि०(व्यञ्जक) प्रकाशके, विशे०। सया मती // 1 // " "अहाग-डरीयंति' त्ति 'अहाकडेसु रीयंति' त्ति, वंजण-न०(व्यञ्जन) व्यज्यतेऽनेनार्थः प्रदीपेन घट इवेति व्यञ्जनम्। एत्थ सिलोगो पढियव्वो-अत्थ उभयभेदो दरिसिजति-"अहाकडेहि विशे०। ककाराद्यक्षरे, अनु०। प्रव० नं०। व्यञ्जयति व्यनक्ति वा रंधेति, कडेहिं रहकारिया। लोहारसमावुठ्ठा, जे भवंति अणीसरा॥१॥" अर्थमिति व्यञ्जनम्। सम्म०१ काण्ड / घटादौ वाचकशब्दे, विशे०। रण्णो भत्तंति-एत्थ वि उभयभेदो दरिसिज्जति-"रायभत्तेसिणाणे य" अनु० / आव०। आचा०नि० चू०। प्रज्ञा०। कर्म० / आ० म० / पदे, सिलोगो कण्ठो-"रण्णो भत्ते सिणाणेय, गद्दहोजत्थ खजति। सण्णझती तस्यार्थाभिधायकत्वात्। बृ०४ उ०।आ०म०। सूत्रे, सुत्तं कम्हा वंजणं गिही जत्थ, राया पिंड किमत्थती // 1 // " उभयं सुत्तत्थं तमण्णहा भण्णति? उच्यते-वंजति त्तिव्यक्तं करोति जहोदणरसो वंजणसंयोगाद् कुणति, सुत्तमण्णहा पढति, अत्थमण्णहा व-क्खाणेति, एवमण्णहा सुत्ते व्यक्तो भवति एवं सुत्ता अत्थो वत्तो भवति ति वंजणं सुत्तं / नि० चू०१ अत्थे कप्पयंतस्स मीसगपच्छित्तं / मीसंणाम वंजणभेदे अत्थभेदे यजे उ० / पुद्गले, तेषां क्षेत्राभिव्यञ्जकत्वात्। आ० म०१ अ०1 उपकरणेन्द्रियस्य शब्दादिपरिणतद्र-व्याणां च परस्परं संपर्के, आ०म०१०॥ पच्छिता भणिया ते दो वीह दट्ठव्वा, ह्व-ह / उभयदोसा य, व्यञ्जननं० / स्था० / वटिकाभर्जिकापत्रशाकतीमनतक्रसूपादिके शालनके, भेदादर्थभेदः, अर्थभेदाच्च चरणभेदः, इह तु चरणभेद-एव द्रष्टव्यः। यतःस्था० 3 ठा० 1 उ०। रसाभिव्यञ्जकत्वात्तेषाम् / चं० प्र० 20 पाहु०। श्रुतार्थप्रधानं चरणंतम्हा उभय-भेदो-चरणभेदोदट्टयो / नि० चू० 170 / भ०। पिं०। बृ० / मषतिलकादिके शारीरे शुभाशुभसूचके चिह्न,अनु०। वंजणक्खर-न०(व्यञ्जनाक्षर) शब्दरूपे अक्षरश्रुतविशेषे, विशे०। विशे० स्था०। ज्ञा०। सहजे,जन्मना सहैव जाते शारीरे चिते,भ०२ अथ व्यञ्जनाक्षरमाह - श०१ उ०। कल्प०। सानि०। वंजणभेयं-मषतिलगादी, सह जायं वंजिज्जइ जेणऽत्थो, घडो व्व दीवेण वंजणं तो तं। लक्खणं, पच्छा जायं-वंजणं / नि० चू०१७ उ०। भ०। आव०। रा०॥ भण्णइ भासिझं तं, सव्वमकाराइ तकालं / / 465 // विपा० / नि०। आ० चू० / इह 'वंजणं' मषादि / प्रय० 224 द्वार। इहास्मिन् शास्त्रे व्यञ्जनम्-मषादि। प्रव०२५७ द्वार। मसाइगं वंजणं / व्यज्यतेऽनेनार्थः प्रदीपेनेव घट इति, अतस्तद् व्यञ्जनं भण्यते, अहवा जं शरीरेण सह समुप्पन्नं तं लक्खणं, पच्छा उत्पन्नं वंजणमिति। व्यञ्जनंच तदक्षरंच व्यञ्जनाक्षरम्, तचेह सर्वमेव भाष्यमाणमकारादिप्रव० 257 द्वार / मषादिव्यञ्जनफलोपदेशके शास्त्रे, स०२६ सम०। हकारान्तम्, तस्याः भाषायाः कालो यत्र तत्तत्कालं वेदितव्यम्, भाष्यप्रश्नः / दशा० / वस्तिकूर्चकक्षादिरोमणि, कल्प० 3 अधि०६ क्षण। माणः शब्दो व्यञ्जनाक्षरमिति हृदयम्, अर्थाभिव्यञ्जकत्वाच्छब्दस्येति उपस्थरोमणि, व्य०१ उ०। / / 465 / / विशे०।बृ०॥(तत्र सूत्रम्'अक्खर' शब्दे प्रथमभागे 140 पृष्ठे वंजणअत्थतदुभयभेद-पुं०(व्यञ्जनार्थतदुभयभेद) व्यञ्जनार्थतदु- उक्तम्।) भयान्याश्रित्य भेदरूपे दर्शनातिचारे, दश० / व्यञ्जनार्थतदुभयान्या- वंजणणियय-त्रि०(व्यञ्जननियत) शब्दनयनिबन्धने, "सोऊण समासश्रित्य भेदोन कार्य इति वाक्यशेषः। एतदुक्तं भवति श्रुतप्रवृत्तेन तत्फल- | ओ चिय, वंजणणियओ य अत्थणियओ य" ! सम्म०१ काण्ड।
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________________ वंजणपरियाय 767 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वंजणाऽवग्गह वंजण(पञ्जव)परियाय-पुं०(व्यञ्जनपर्याय) कालान्तरस्थायिशब्दानां संकेतविषयेषु, द्रव्या० 8 अध्या०। वंजणभेय-पुं०(व्यञ्जनभेद) व्यञ्जनमाश्रित्य भेदरूपे ज्ञानाचारे, ग०१ अधि० / दश० / व्य० / ध० / व्यञ्जयतीति व्यञ्जनं तं च अक्खरं अक्खरेहिं सुत्तं णिज्जुत्ति त्ति काउं सुत्तं वंजनं तमण्णहा करेंति। कहं ? सक्कयमत्ता बिंदू, अण्णभिधाणेण वा वितं अत्थं / वंजिजइत्ति सुत्तं, वंजणमिति भण्णते लहुगो।। 17 // पाइतं सुत्तं सक्कयं करेति, जहा- 'धर्मो मङ्गलमुत्कृष्टम् ' अभूतं वा मत्तं देति फेडेति वा, जहा-सव्वं सावजं जोगं पचक्खामि एव वत्तव्ये; सव्वे सावजे जोगे पचक्खामि त्ति भणति। एवं विंदुभूतं वा फेडेति अभूतं वादेति, जहा-णमो अरहंताणं ति वत्तव्वे पंचविसाणुस्सराणगारा क्त्तव्वा सो पुण-नमो अरहंताण भवति अभिधीयते जेण तमभिहाणं, जहा-घडो पड़ो वा, अण्णं अभिहाणं अण्णभिहाणं ततो तेण अण्णेण अभिहाणेण तम्मितंचेव अत्थं अभिलवति, जहा-"पुप्फकल्लाणमुक्कोसंदयासंवरणिज्जरा"। अभिसद्दो विकप्पत्थे पयत्थसंभावणे वा, किं पुण पदत्थं संभावयति-अक्खरपएहिं वा हीणातिरित्तं करेति अण्णहा वा सुत्तं करेति; एवं पयं पयत्थं संभावेति। सुत्तं कम्हा वंजणं भण्णत्ति ? उच्यते-वंजति त्ति-व्यक्तं करोति जहोदणरसो वंजणसंजोगा व्यक्तो भवति एवं सुत्ता अत्थो वत्तो भवति जेणं लि तम्हा कारणा वंजति त्ति अत्थो, एवं वजणसामत्थातो वंजणमिति वुचते सुत्तं / णिगमणवयणं, तं वंजणं सक्कयथयणादिभिः कप्पियं तस्स पच्छित्तं भवति ___ तदेव प्रायश्चित्तमाह - लहुगो वंजणभेदे, आणादी अत्थमेअचरणे य। चरणस्स य भेदेणं, अमोक्खदिक्खा य अफलातु // 18 // सक्कयमत्ताबिन्दूअक्खरपयभेएसु वट्टमाणस्स मासलहू, अण्णं सुत्तं करेति चउलहुं आणाअणवत्थं मिच्छत्तविराहणा य भवति / एवं सुत्तत्थभेओ, सुत्तत्थभेया अत्थभेओ, अत्थभेया चरणभेयो, चरणभेया अमोक्खो, मोक्खभावा दिक्खादयो किरिया भेदा अफला भवंति। तम्हा वंजणभेदोण कायव्यो। नि० चू०१ उ०। बंजणाऽवग्गह-पुं०(व्यञ्जनावग्रह) व्यज्यतेऽनेनार्थः। प्रदीपेनेवघट इति व्यञ्जनम् / तचोपकरणेन्द्रियस्य श्रोत्रादेः शब्दादिपरिणतद्रव्याणां च परस्परं सम्बन्धः, सम्बन्धे हि सति सोऽर्थः शब्दादिरूपः श्रोत्रादीन्द्रियेण व्यञ्जयितुं शक्यते, नान्यथा। ततः सम्बन्धो व्यञ्जनं च। तथा चाह भाष्यकृत्-"वजिज्जइजेणत्थो, घडोव्वदीवेण वंजणंतंच। उवगरणिंदियसद्दाइ परिणए दव्वसंबंधो॥१॥" व्यञ्जनेनसंबन्धेनावग्रहणं सम्बध्यमानस्य शब्दादिरूपस्यार्थस्याव्यक्तरूपः परिच्छेदो व्यञ्जनावग्रहः, अथवा-व्यज्यन्ते इतिव्यञ्जनानि'कृद्रहुल' मिति वचनात् कर्मण्यनट्, व्यञ्जनानां-शब्दादिरूपतया परिणतानां द्रव्याणाम्-उपकरणेन्द्रियसंप्राप्तानामवग्रहः-अव्यक्तरूपः परिच्छेदो व्यञ्जनावग्रहः, अथवा व्यज्यतेऽनेनार्थः प्रदीपेनेव घट इति व्यञ्जनम्-उपकरणेन्द्रियं तेन स्वसम्बद्धस्यार्थस्यशब्दादेरवग्रहणम्-अव्यक्तरूपः परिच्छेदो व्यञ्जनावग्रहः / नं० / ततश्चव्यञ्जनेनोपकरणेनेन्द्रिये (आ० म०। ध०।) प्रतिज्ञानरूपे अवग्रहविशेषे, भ०५ श०२ उ०।०। उपकरणेन्द्रियशब्दादिपरिणतद्रव्यसम्बन्धे प्रथमसमयादारभ्यार्थावग्रहात्प्राक् या सुप्तमत्तमूञ्छितादिपुरुषाणामिव शब्दादिद्रव्यसंबन्धमात्रविषया काचिदव्यक्ता ज्ञानमात्रा सा व्यञ्जनावग्रहः, सचान्तर्मुहूर्तप्रमाणः। अत्राह-ननु व्यञ्जनावग्रहवेलायां न किमपि संवेदनं संवेद्यते तत्कथमसौ ज्ञानरूपो गीयते ? उच्यते-अव्यक्त-त्वान्न संवेद्यते, ततोन कश्चिद्दोषः, तथाहियदि प्रथमसमयेऽपि शब्दादिपरिणतद्रव्यैरुपकरणेन्द्रियस्य संपृक्ती काचिदपि न ज्ञानमात्रा भवेत् ततो द्वितीयेऽपि समये न भवेत् ; विशेषाभावात्; एवं यावञ्चरमसमयेऽपि, अथ चरमसमये ज्ञानमर्थावग्रहरूपंजायमानमुपलभ्यते ततः प्रागपि क्वापि कियती ज्ञानमात्रा द्रष्टव्या। अथ मन्येथाः मा भूत् प्रथमसमयादिषु शब्दादिपरिणतद्रव्यसंबन्धेऽपि काचिदपि ज्ञानमात्रा, शब्दादिपरिणतद्रव्याणां तेषु समयेषु स्तोकत्वाचरमसमये तु भविष्यति, शब्दादिरूपपरिणतद्रव्यसमूहस्य तदानीं भूयसो भावात्, तदयुक्तम्, यतो-यदि प्रथमसमयादिषु शब्दादिद्रव्याणां स्तोकत्वात्संपृक्ता वक्तव्याऽपि काचिदपि ज्ञानमात्रा न समुल्लसेत् तर्हि प्रभूतसमुदायसम्पर्केऽपि न भवेत्, न खलु सिकताकणेषु प्रत्येकमसति तैललेशे समुदायेऽपि तैलं समुद्भवदुपलभ्यते / अस्ति च चरमसमये प्रभूतशब्दादिद्रव्यसंपृक्ती ज्ञानम्, ततः प्राक्तनेष्वपि समयेषु स्तोकस्तोकतरैरपि शब्दादिपरिणतद्रव्यैः सम्बन्धे काचिदव्यक्ता ज्ञानमात्राऽभ्युपगन्तव्या, अन्यथा चरमसमयेऽपिज्ञानानुपपत्तेः। तथा चोक्तम्-"जं सव्वहान वीसु, सव्वेसु वि तं न रेणुतेल्लं वा पत्तयमणिच्छतो, कहमिच्छसि समुदये नाणं? ॥३॥"ततः स्थितमेतत्-व्यञ्जनावग्रहोज्ञानरूपः, केवलं तेषु ज्ञानमव्यक्तमेवबोद्धव्यम्। चशब्दौस्वगतानेकभेद-संसूचकौ, ते च स्वगतानेकभेदाः अग्रे स्वयमेव सूत्रकृता वर्णयिष्यन्ते। आह-प्रथम व्यञ्जनावग्रहो भवति ततोऽर्थावग्रहः, ततः कस्मादिह प्रथममर्थावग्रह उपन्यस्तः? उच्यते-स्पष्टतयोपलभ्यमानत्वात्, तथाहि-अर्थावग्रहः स्पष्टरूपतया सर्वैरपि जन्तुभिः संवेद्यते, शीघ्रतरगमनादौ सकृत्सत्वरमुपलम्भे मया किंचित् दृष्ट परं न परिभावितं सम्यगिति व्यवहारदर्शनात्, अपि च-अर्थावग्रहः सर्बेन्द्रियमनोभावी व्यञ्जनावग्रहस्तु नेति प्रथममर्थावग्रह उक्तः। संप्रति तुव्यञ्जनावग्रहादूर्वमर्थावग्रह इतिक्रममाश्रित्य प्रथमं व्यञ्जनावग्रहस्वरूपं प्रतिपिपादयिषुः शिष्यः प्रश्नं कारयति-"से किं तं वंजणुग्गहे" (सू०२८) (इत्यादिसूत्रम् 'उग्गह' शब्दे द्वितीयभागे 668 पृष्ठे गतम्।) व्याख्या चेयम्-अथ कोऽयं व्यञ्जनावग्रहः ? आचार्य आह-व्यञ्जनावग्रहः-चतुर्विधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-'श्रोत्रेन्द्रियव्यञ्जनावग्रह' इत्यादि, अत्राह-सत्सु पञ्चस्विन्द्रियेषु षष्ठे च मनसि कस्मादयं चतुर्विधो व्यावर्ण्यते ? उच्यते-इह व्यञ्जनमुपकरणेन्द्रियस्य शब्दादिद्रव्याणां च परस्परं सम्बन्ध उच्यते संबन्धश्चतुमिव श्रोत्रेन्द्रियादीनाम्, न नयनमनसोः तयोरप्राप्यकारित्वात्। न० 1 व्यञ्जनावग्रहस्य मल्लकदृ Tool
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________________ वंजणाऽवम्गह 768 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वंदण ष्टान्तेन प्ररूपणा 'आभिणिबोहियणाण' शब्दे द्वितीयभागे 271 पृष्ठे / कतिदोषविप्रमुक्तं टोलगत्यादयो दोषाः कृतिकर्मवन्दनकर्म कीस कीरइ द्रष्टव्या।) त्ति' किमिति वा क्रियत इति। आव०३ अ०। प्रव०। ('किइकम्म' शब्दे वंजिय-त्रि०(व्यञ्जित) व्यक्तीकृते, ग० 3 अधि०।"यथा-व्यञ्जिता- तृतीयभागे 507 पृष्ठे व्याख्या-तम्।) व्यक्तीकृता यथा गङ्गेत्यादि / ग० 3 अधि०। पर्यायशब्दान् प्रतिपादयन्निदं गाथाशकलमाहवंजुल-पुं०(वजुल) वेतसे, दश०२ अ० विशे० स्था०।"वंजुलो नियुक्तिकारः - वेडसो य वाणीरो"। पाइ० ना०१४४ गाथा। लोमपक्षिविशेषे, स्त्री०। वंदणचिइ किइकम्म, पूयाकम्मं च विणयकम्मं च / जी०१ प्रति०। प्रज्ञा०। वन्दनकर्म द्विधा-द्रव्यतो, भावतश्च / द्रव्यतो-मिथ्यादृष्टरनुपयुक्तवंटग-पुं०(वण्टक) विभागे, नि० चू० 16 उ०। सम्यग्दृष्टश्च, भावतः-सम्यग्दृष्टरुपयुक्तस्य। आव०३ अ०। वंढ-(देशी) बन्धे, दे० ना०७ वर्ग 26 गाथा। तत्र कृतिकर्मणि शीतलकदृष्टान्तमाह - वंत-न०(वान्त) नपुंसके भावे क्तः / वमने, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। कर्मणि "एगस्स रण्णो पुत्तो सीयलो णाम, सो य पिणविण्णकामभोगो क्तः परित्यक्ते, द्वा०२७ द्वा। दश०। पव्वतिओ, तस्सय भगिणी अण्णस्स रण्णो दिण्णा, तीसे चत्तारिपुत्ता, सा तेसिं कहंतरेसु कहं कहेइ, जहा-तुज्झमातुलओ पुव्व-पव्वइओ, एवं वंता-अव्य०(वान्त्वा) उद्गीर्येत्यर्थे, "वंता लोएसणं से मइमं परि कालो वच्चइ। ते वि अन्नया तहारूवाणं थेराणं अंतिए पव्वइया चत्तारि, कर्मजासि"। आचा० 1 श्रु०२ अ०६ उ०। सूत्र०। बहुस्सुया जाया आयरियं पुच्छिउं माउलगं वंदगा जंति, एगम्मि णयरे *वमितृ-त्रि०। उगारके, "से वंता कोहंचमाणं च"।(सू० 121+) सुओ, तत्थ गया वियालो जाउ त्ति काउं बाहि-रियाए ठिया। सावगो य वमिता, टुवमुद्भिरणे इत्यस्मात्ताच्छीलिकस्तृन्, तद्योगे च षष्ठ्या प्रतिषेधे णयरं पवेसिउकामो सो भणिओ-सीय-लायरियाणं कहेहि-जे तुज्झं क्रोधशब्दाद् द्वितीया, लुडन्तं चैतत्, यो हि यथोक्तसंयमानुष्ठायी सोऽ- भाइणिज्जा ते आगया वियालो त्ति न पविट्ठा, तेणं कहियं, तुट्टो, इमेसिं चिरात्क्रोधं वमिष्यत्येवमुत्तरत्रापि। आचा०१ श्रु०३ अ०४ उ० } पि रत्तिं सुहेण अज्झवसाणेण चउण्ह चि केवलनाणं समुप्पण्णं / पभाए वंतपडिआया(य)ण-न०(वान्तप्रत्यादान) भुक्त्वोज्झितपरिभोगे, आयरिया दिसाउ पलोएति, एताहे मुहत्तेणं एहिंति, पोरिसि सुत्तं मण्णे दश०।"वंतस्स पडिआयाणं 6 / दश०१ चू०। (इदं सूत्रम् 'अट्ठार करेंति अच्छति / उग्घा-डाए अत्थपोरिसि त्ति, अतिचिराविए य ते सट्ठाण' शब्दे प्रथमभागे 246 पृष्ठे व्याख्यातम्।) देवकुलियंगया,तेवीय-रागाण आढायंति, दंडओणेण ठविओ, पडिकतो वंतासव-पुं०(वान्ताश्रव) वान्तं-वमनंतदाश्रवन्तीति, वान्ताश्रवाः।ज्ञा० आलोइए भणइ-कओवंदामि? भणंति-जओ भे पडिहायइ। सो चिंतेइ१ श्रु०१ अ०। वान्ताशिषु, अष्ट०१८ अष्ट०। (कारणे वान्ताशनमपि अहो दुष्ठसेहा निल्लज्ज ति, तह विरोसेण वंदइ, चउसु विवंदिएसु, केवली 'राइभोयण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 536 पृष्ठे प्रतिपादितम् / ) (वान्ता किर पुव्वपउत्तं उवयारं न भंजइ, जाव न पडिभिज्जइ, एस जीयकप्पो तेसु नऽत्थि पुव्वपवत्तो उवयारो त्ति, भणंति-दव्ववंदण-एणं वंदिया, शित्वोन्मुखो रथनेमी राजीमत्वा यथा प्रतिबोधितस्तथोक्तं 'रहणमि' भाववंदणएणं वंदाहितिंच किरवंदंतंकसायकंडएहि छहाणपडियंपेच्छंति, शब्देऽस्मिन्नेव भागे 468 पृष्ठे।) सो भणति-एयं पि नजति ? भणंति-वाद, किं अतिसओ अत्थि ? वंद-त्रि०(वन्ध) वन्दनीये, स्तुल्ये, षो० 14 विव० / विशे०। आमं / किं छाउमथिओ, केवलिओ? केवली भणति-केवलिओ। सो वंदण-न०(वन्दन) वाचा स्तुतौ, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। स्था० आचा०। किर तहेव उद्धसियरोमकूवो अहो मए मंदभग्गेण केवली आसातिय त्ति, उत्त०। संथा०। ति०। विधिना कायवाङ्मनःप्रणिधाने, प्रव०१द्वार। संवेगमागओ। ते हिं चेव कंडगठाणेहिं नियत्तो तिजाव अपुव्वकरणं दश० / जी० / संथा० / प्रति०। सूत्र० / शिरसा-ऽभिवादने, ध०२ अणुपविट्ठो, केवलनाणं समुप्पन्नं / चउत्थं वंदंतस्स सम त्ति / सा चेवं अधि०। आव०। आ० म० आ० चू०1 वदिअभिवादनस्तुत्योः इति। काइया चिट्ठा एगम्मि बंधाय एगम्मि मोक्खाय। पुव्वं दव्ववंदणं आसि, कायेनाभिवादने, वाचा स्तवने, आ० चू०१ अ०। द्वादशावर्त्तादिना पच्छा भाववंदणं जायं।" आव०३ अ० आ० चू०। वन्दनं चैत्यवन्दनम्, (स्था० 4 ठा०१ उ०।ल०।) प्रशस्तकायवाङ्मनःप्रवृत्तौ, आव०५ गुरुवन्दनं च। तत्र गुरुवन्दने, (ध०३ अधि०1) वन्दनं कस्य केन केन अ०।"वंदणं जिणमुद्दाए"। ल०। पं० चू० / वन्दनं निरूप्यते-यदि कुत्र कतिकृत्वः 4 कृत्यवनतं५ कति शिरः६कतिभिरावश्यकैश्च परिशुद्धं अभिवादनस्तुत्योः, इत्यस्य "करणाधिकरणयोश्च''(पा०।३।३। कर्तव्यमिति ('किइकम्म' शब्दे तृतीयभागे 507 पृष्ठे व्याख्यातम्।) 117 / ) इति ल्युट्"युवोरनाकौ-(पा०१७।१1१1) इति अनादेशः। (कृतिकर्म च द्विप्रकार, वन्दनकम् अभ्युत्थानं चेति 'अब्भुट्ठाण' शब्दे "इदितो नुम्घातोः " (पा०।७।१।५८।) इति नुमागमः। ततश्च प्रथमभागे 663 पृष्ठे उक्तम्।) वन्द्यते स्तूयतेऽनेन प्रशस्तमनोवाक्कायव्यापारजालेनेति वन्दनम् / अथ वन्दनकमभिधित्सुराह - आव०३ अ०। देसिय-राइय-पक्खिय, चाउम्मासा तहेव वरिसे य। कतिदोसविप्पमुकं, कितिकम्मं कीस कीरई वा वि॥११०३|| लहगुरु लहुगा गुरुगा, वंदणए जाणिय पदाणि // 778 // अवनतिः-अवनतं कल्यवनतं तद्वन्दनं कर्त्तव्यम्, कति शिरः, कति दैवसिके रात्रिके वा आवश्यके वन्दनकं न ददति शिरांसि तत्र भवन्तीत्यर्थः, कतिभिरावश्यकैरावर्तादिभिः परिशुद्धम्, | मासलघु, पाक्षिके वन्दनकं न प्रयच्छन्ति मासगुरु / चातु
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________________ वंदण 766 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वंदण मसिदिके वन्दनकमददतां चतुर्लघु, सांवत्सरिके वन्दनकाऽदाने चतुर्गुरु। चशब्दाद्वि-परीतं न्यूनाधिकं च कुर्वतां लघुमासः / योऽभिवन्दनके व्यवनतः यथा जातादीनि पदानि तेषामप्यकरणे असमाचारीनिष्पन्नं मासलघु। अथैतदेव प्रायश्चित्तं विशेषयन्नाह - आयरियाइचउण्हं, तवकालविसेसियं भवे एयं। अहवा पडिलोमे यं, तवकालविसेसिओ होइ।। 776 / / आचार्यादीनां चतुण्णामप्येतदनन्तरोक्तं प्रायश्चित्तं तपःकालवि-शेषितं भवति, तत्राचार्यस्य द्वाभ्यामपि तयःकालाभ्यां गुरुकम्, वृषभस्य तपोगुरुकम्, भिक्षोः कालगुरुकम्, क्षुल्लकस्य तपसा कालेन चतुर्लघुकम् / अथवा तपःकालविशेषत एतदेव प्रतिलोमं पश्चादनुपूर्व्या वक्तव्यम्। आचार्यस्य द्वाभ्यामपि लघुकम, वृषभस्य कालगुरुकम्, भिक्षोस्तपोगुरुकम्, क्षुल्लकस्य द्वाभ्यामपि गुरुकम्। अथ 'देसियराइय' तिपदद्वयं विशेषतो भावयतिदुगसत्तगकिइकम्म-स्स अकरणे होइ मासियं लहुगं / आवासगविवरीए, ऊणहिए चेव लहुओ उ।।७८०।। 'दुगसत्तग' त्ति द्वे सप्तके चतुर्दशभवन्तीति कृत्या पूर्वालपरालयोश्चतुर्दश वन्दनकानि भवन्ति। कथमिति चेद् ? उच्यते-इह रात्रिप्रतिक्रमणे चत्वारि वन्दनकानि / तत्रैकमालोचनायाम्, द्वितीयं क्षामणके, तृतीयं पाण्मासिकम्-तपश्चिन्तनकायोत्सर्गार्थं च, चतुर्थं प्रत्याख्यानग्रहणार्थमिति / यथास्वाध्यायं त्रीणि वन्दनकानि, तत्र च वृद्धसंप्रदायः"सज्झाए वंदित्ता पढवेइ एयं पढम पावय तस्स बिइयं पच्छा उद्दिट्ट, समुद्दिढ़ पढइ उद्देससमुद्देसवंदणाणमिहेवं तब्भा वो / तओ जाहे चउभागावसेसा पोरिसी ताहे पाए पडिलेहेइजइन पडिलेहिउकामो तो वंदा, अह पडिलेहिउकामो ताहे पडिलेहेइ, अवंदित्ता पाए पडिलेहेइ पाए पडिलेहित्ता तत्थ पढइ कालवेलाएव ठिओ पडिकम्मइ एयं तइयं''। एवं पूर्वाह्न सप्त वन्दनानि, अपराहेऽप्येवमेव सप्त भवन्ति।तत्र-चत्वारि दैवसिकप्रतिक्रमणे, त्रीणि स्वाध्याये, अनुज्ञावन्दनानां स्वाध्यायवन्दनायामेवान्तर्भावादिति सर्वसंख्यया चतुर्दश वन्दनकानि भवन्ति। एतचाभक्तार्थिकमङ्गीकृत्योक्तम् / यस्तु भक्तार्थिकस्तस्य भोजनानन्तरभावप्रत्याख्यानवन्दनकसहितानिपञ्चदश भवन्ति, तेषां मध्यादेकतरस्यापि कृतकर्मणोऽकरणे मासिकं लघुकं प्रायश्चित्तं भवति, तथा आवश्यकं कुर्वन् विपरीतमालापकोचारणं करोति / तद्यथा-दैवसिके आवश्यिके क्षमयामि क्षमाश्रमण ! रात्रिकं व्यतिक्रममित्युच्चरति, रात्रिके वा दैवसिकमालापं करोति / एवं पाक्षिकचातुर्मासिकसांवत्सरिकेष्वपि प्रतिक्रमणेषु वक्तव्यम्, अत्र सर्वत्राप्यसमाचारीनिष्पन्नं मासलघु, 'ऊणहिए चेव त्ति ऊनानि वा एकट्यादिभिर्वन्दनकैहीनानि अधिकानि च यथोक्तप्रमाणादतिरिक्तानि दैवसिकादिप्रतिक्रमणेषु वन्दनकानि प्रयच्छतो मासलघु। अथ 'वंदणए जाणि य पयाणि' त्ति पदेन यानि व्यवनतादीनि पञ्चविंशतिवन्दनकस्यावश्य कपदानि सुचितानि तानि दर्शयति दओणय अहाजायं, किइकम्मं वारसावयं होइ। चऊसिरंति गुत्तं च, दुपवेसं एगणिक्खमणं / / 781 / / अवनौ अवगतम् उत्तमाङ्गप्रधानं प्रणमता-द्वे अवनते यस्मिन् तद् व्यवनतम्, एकम्-यदा प्रथममेव"इच्छामि खमासमणो वंदिउं० जाव णिज्जाए निसीहियाए" इत्यभिधाय छन्दोऽनुज्ञापनायावनतमिति / द्वितीयं पुनरेवमेव द्वितीयप्रवेशे इति / यथाजातं नाम यथा प्रथमतो जननीजठरान्निर्गतो यथा च श्रमणोजातस्तथैव वन्दनकं दातव्यम्, तत्र रजोहरणमुखवस्त्रिकाचोलपट्टकमात्रया श्रवणः संजातो रचितकरसंपुटस्तुयोन्या विनिर्गतः एवंभूत एव वन्दनकं दते 3, कृतिकर्मवन्दनकं 'वारसावयं' ति द्वादशावर्त भवति / इह प्रथमतः प्रविष्टस्य "आहो काय कायं जुत्ता भेजवविजं च भे" इति सूत्राभिधानगर्भागुरुचरणन्यस्तहस्तशिरःस्थापनरूपाः षडावर्ता भवन्ति। अवग्रहानिर्गत्यापुनःप्रविष्टस्याप्येवमेव षडिति द्वादशावर्त्तवन्दनकमुच्यते 15, चत्वारि शिरांसि उपचाराच्छिरोनमनानि यस्मिन् तच्चतुःशिरः तत्र "संफासनमणेगं खामणा नमणे सीसस्स बीयं एवं बीए पवेसे विदोन्नित्ति॥ 16 // यथा त्रयो वा-मनोवाकाययोगा गुप्ताः-सुप्रणिहिता यस्मिन् तत्त्रिगुप्तम् / इयमत्र भावनामनसा सम्यक् प्रणिहितो, वाचा अस्खलितानितत्र पदानि विकथादिनिरोधेनोचारयन, कायेनावर्तान् सम्यक् प्रयुञ्जानोव-न्दनकं ददाति 22, द्वौ प्रवेशौ गुरोरवग्रहेऽनुज्ञाप्य प्रविशतो यस्मिन् तद्विप्रवेशम् 23. एकं निष्क्रमणं गुरोरवग्रहादावश्यकान्निर्गच्छतोयत्रतत्रैकनिष्क्रमणम् 25, एतेषां पञ्चविंशतेरावश्यकानामकरणे प्रत्येकं मासलघुप्रायश्चित्तम्, अथवा-वन्दनके यानि पदानीत्यत्र नोद्भूतादीनि द्वात्रिंशत् संख्याकानि दोषपदानि मन्तव्यानि। बृ०३ उ०। तानि चामूनि - अणाढियं च थद्धं च, पविद्धं परिपिंडियं / टोलगइ अंकुसं चेव, तहा कच्छभरिंगियं // 1207 // अनादृतम्-अनादरं सम्भ्रमरहितं वन्दते १,स्तब्धंजात्यादिमदस्तब्धो वन्दते 2, प्रविद्धं-वन्दनकं दददेव नश्यति 3, परिपिण्डितंप्रभूतानेकवन्दनेन वन्दते आवर्तान् व्यञ्जनाभिलापान् वा व्यवच्छिन्नान् कुर्वन् 4, 'टोलगति' त्ति तिडवदुत्प्लुत्योत्प्लुत्य विसंस्थुलं वन्दते 5, अडशंरजोहरणमडशवत्करणद्वयेन गृहीत्वा वन्दते 6, कच्छभरिंगियं-कच्छपवत् रिङ्गितं कच्छपवत् रिङ्गन्वन्दत इतिगाथार्थः // 1207 // मच्छुय्वत्तं मणसा, पउटुं तह य वेइयाबद्धं / भयसा चेव भयंतं, मित्ती गारवकारणा।। 1208 // मत्स्योवृत्तम्-एकं वन्दित्वा मत्स्यवद् द्रुतं द्वितीयं साधुं द्वितीयपार्श्वेन रेचकावर्तेन परावर्तते 8, मनसा प्रदुष्टम्, वन्द्यो हीनः केनचिदगुणेन, तमेव चमनसि कृत्वा सासूयो वन्दते, तथा च वेदिकाबद्धं जानुनोरुपरि हस्तौ निवेश्याधो वा पार्श्वयोर्वा उत्सङ्गे वा एकंवाजानुंकरद्वयान्तः कृत्वा वन्दते 10, 'भयसा चेव' त्ति भयेन वन्दते, मा भूद्रच्छादिभ्यो निर्धाटनमिति 11, 'भयंत' ति भजभानं वन्दते 'भजत्ययं भामतो भक्तं भजस्वेति तदार्यवृत्तम्' इति 12, 'मेत्ति त्ति मैत्रीनिमित्तं प्रीतिमिच्छन् वन्दते १३.'गारव' त्ति गौरवनिमित्तं वन्दते, विदन्तु माम्, यथा-सामाचारीकुशलोडयम् १४,'कारण' त्ति ज्ञानादिव्यतिरिक्त कारणमाश्रित्य वदन्ते,
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________________ वंदण 770 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वंदण वस्त्रादि मे दास्यतीति 15, अयं गाथार्थः / / 1208 // तेणियं पडिणियं चेव, रुष्टुं तजियमेव य। सढंच हीलियं चेव, तहा विपलिउंचियं // 1209 / / स्तैन्यमिति-परेभ्यः खल्वात्मानं गृहयन स्तेनक इव वन्दते,मा (ममैवं). लाघवं भविष्यति 16, प्रत्यनीकम्-आहारादिकाले वन्दते 17, रुष्टक्रोधाध्मातंवन्दते क्रोधाध्मातोवा 18, तर्जितंन कुप्यसि नापि प्रसीदसि काष्ठशिव इवेत्यादितर्जयन्-निर्भसयन्वन्दते, अडल्यादिभिर्वा तर्जयन् 16, शठं-शाठ्येन विश्रम्भार्थवन्दते, ग्लानादिव्यपदेशं वा कृत्वान सम्यग् वन्दते 20, हीलितं हे गणिन् ! वाचक ! किं भवतो वन्दितेनेत्यादि हीलयित्वा वन्दते 21, तथा विपरिकुञ्चितम्-अर्द्धवन्दित एव देशादिकथाः करोति 22, इति गाथार्थः / / 1206 // दिट्ठमदिटुं च तहा, सिंगं च करमोअणं / आलिट्ठमणालिटुं,ऊणं उत्तरचूलियं // 1210 // दृष्टाऽदृष्ट तमसि व्यवहितो वा न वन्दते 23, शृङ्गम्-उत्तमाङ्गैकदेशेन वन्दते 24, करमोचनं-करं मन्यमानो वन्दते न निर्जराम्, 'तहा मोयणं नाम न अन्नहा मुक्खो , एएण पुण दिनेण मुच्चेमि त्ति वंदणगं देइ 25-26' आश्लिष्टाऽनाश्लिष्ट' मित्यत्र चतुर्भगकम्-रजोहरणं कराभ्यामाश्लिष्यात शिरश्च 1, रजोहरणं न शिरः 2, शिरो न रजोहरणम् 3, न रजोहरणं नाऽपि शिरः 4, अत्र प्रथम-भङ्गः-शोभनः, शेषेषु प्रकृतवन्दनावतारः 27, ऊनंव्यञ्जनाभि-लापावश्यकैरसम्पूर्ण वन्दते 28, उत्तरचूडं-वन्दनं कृत्वा पश्चान्महता शब्देन मस्तकेन वन्दे इति भणति 26, इति गाथार्थः / / 1210 // मूयं च ढङ्करं चेव, चुडुलिं च अपच्छिमं / बत्तीसदोसपरिसुद्धं, किइकम्मं पउंजई / / 1211 // मूकम्-आलापकाननुचारयन् वन्दते 30, ढड्डरमहता शब्देनोच्चारयन् वन्दते 31, 'चुडुली' ति उल्कामिव पर्यन्ते गृहीत्वा रजोहरणं भ्रमयन् वन्दते 32, अपश्चिमम्-इदं चरममित्यर्थः, एते द्वात्रिंशद्दोषाः, एभिः परिशुद्धं कृतिकर्मकार्यम्, तथा चाह-द्वात्रिंशद्दोषपरिशुद्धं कृतिकर्म-वन्दनं प्रयुञ्जीत-कुर्यादिति गाथार्थः // 1211 // यदि पुनरन्यतमदोषदुष्टमपि करोति ततो न तत्फलमासादयतीति, आह च - किइकम्म पि करितो, न होइ किइकम्मनिजराभागी। बत्तीसामन्नयरं, साहू ठाणं विराहिंतो॥ 1212 // कृतिकर्मापि कुर्वन्न भवति कृतिकर्मनिर्जराभागी, द्वात्रिंशद्दोषाणामन्यतरत्साधुः स्थानं विराधयन्निति गाथार्थः // 1212 / / दोषविप्रमुक्तकृतिकर्मकरणे गुणमुपदर्शयन्नाह - बत्तीसदोसपरिस्सुद्धं, किइकम्मं जो पउंजइ गुरूणं / सो पावइ निव्वाणं, अचिरेण विमाणवासं वा / / 1213 / / द्वात्रिंशद्दोषपरिशुद्ध कृतिकर्म यः प्रयुक्ते-करोति गुरवे स प्राप्नोति निर्वाणम् अचिरेण विप्रानवासं वेति गाथाऽर्थः / / 1213 // आह-दोषपरिशुद्धाद्वन्दनात्को गुणः? येन तत एव निर्वाणप्राप्तिः प्रतिपाद्यत इति, उच्यते - आवस्सएसु जह जह, कुणइ पयत्तं अहीणमइरित्तं / तिदिहकरणोवउत्तो, तह तह से निज्जरा होइ / / 1214 / / आवश्यकेषु-अवनतादिषु दोषत्यागलक्षणेषु च यथा यथा करोति प्रयत्नम्, अहीनातिरिक्तं-न हीनं नाप्यधिकम्, किम्भूतः सन् ? त्रिविधकरणोपयुक्तः, मनोवाक्कायैरुपयुक्त इत्यर्थः, तथा तथा 'से' तस्यवन्दनकर्तुनिर्जरा भवति-कर्मक्षयो भवति, तस्माद्य निर्वाणप्राप्तिरिति, अतो दोषपरिशुद्धादेव फलावाप्तिरिति गाथार्थः // 1214 // आव०३ अ०। साम्प्रतमेतेष्वेव प्रायश्चित्तमाह - थद्धे गारवतेणिय, हीलियरुह लहुगा सढे गुरुगो। दुट्ट पडिणीय तजित, गुरुगा सेसेसु लहुगो उ॥ स्तब्धगौरवस्तेनितहीलितरुष्टषु प्रत्येकं चतुर्लघवः / शठेमायादोषप्रत्यये मासगुरुकम्, दुष्टप्रत्यनीकतर्जितषु चत्वारो गुरुकाः, शेषेषु अनादृतप्रविद्धपरिपिण्डितादिषु त्रयोविंशतौ दोषेषु प्रत्येकं सामाचारी निष्पन्नं मासलघु। बृ०३ उ०। प्रव०। वन्दनफलम्वन्दणएणं भंते ! जीवे किं जणयइ?वन्दणएणं नीयागोयं कम्म खवेइ, उचागोयं निबन्धइ, सोहग्गं च अप्पडिहयं आणाफलं निव्वत्तेइ दाहिणभावं च णं जणयइ॥ 10 // हे भदन्त! पूज्य ! वन्दनकेन गुरूणां द्वादशावतविधिवन्दनेन जीवः किं जनयति, हे शिष्य ! श्रीगुरूणां वन्दनकेन नीचैर्गोत्रं कर्म क्षपयति गुरूणां वन्दनकारी नीचैर्गोत्रे न अवतरतीत्यर्थः, पूर्वबद्धं च क्षपयति उचैर्गोत्रकर्म बध्नाति उच्चैर्गोत्रे अवतरतीत्यर्थः / पुनरुचैर्गोत्रेऽवतीर्णः सन् सौभाग्य सर्वलोकेषु वल्लभत्वं पुनरप्रतिहतं केनापि निवारयितुमशक्यम् आज्ञाफलम्-आज्ञासारं प्रभुत्वं निवर्तयति-उत्पादयति, च-पुनर्दाक्षिण्यभावं सर्वलोकानामनुकूलत्वं जनयति / / 10 / / उत्त० 26 अ०। स्तुत्वाऽपि तीर्थकरान् गुरुवन्दनकपूर्विकैव तत्प्रतिपत्तिरिति, तदाह-वन्दनकेनाचार्याधुतिप्रति-पत्तिरूपेण नीचैर्गोत्रम् अधमकुलोत्पत्तिनिबन्धनम् कर्म क्षपयति, उच्चैर्गोत्रं-तद्विपरीतरूपं निबध्नाति, सौभाग्यं च सर्वजनस्पृहणीय-तारूपमप्रतिहतं सर्वत्राप्रतिस्खलितमत एवाज्ञा-जनेन यथोदित-वचनप्रतिपत्तिरूपा फलम्-निवर्तयति-जनयति, तद्वतो हि प्राय आदेयकर्मणोऽप्युदयसम्भवादादेयवाक्यताऽपि संभवतीति, दक्षिणभावं च अनुकूलभावं जनयति लोकस्येति गम्यते, तन्माहात्म्यतोऽपि सर्वः सर्वावस्थास्वनुकूल एव भवति / / 10 / / उत्त० पाई० 26 अ०। या च सुरासुराधिपत्तिचक्रवर्तिबलदेववासुदेवादि-वन्दना तां नयाचेत। सूत्र०१ श्रु०६ अ०। (वन्दमानंन याचेत-इत्थियं पुरिसंवा" (26) इत्यादि / दश०५ अ०२ उ० गाथा 'गोयरचरिया' शब्दे तृतीयभागे 660 पृष्ठे गता।) (कारणे धिग्जातीयानामपि वन्दनं क्रियते, इति 'पडिसेवणा' शब्दे पञ्चमभागे 367 पृष्ठे उक्तम्।) पार्श्वस्थादिविषयवन्दनादिषूत्सर्गापवादौ प्रदर्येते, तत्र पार्श्वस्थादीनां वन्दननिषेधः प्रागुरुवन्दनाधिकारे- "पासत्थाइवंदमाणस्स" इत्यादिना प्रदर्शित एव, एतेषामभ्युत्थानादौ च प्रायश्चित्तमप्युक्तम्, तद्यथा"अहछंदब्भुट्ठाणं, अंजलिकरणं यहुंति चउगुरुआ। अण्णेसुं चउलहुआ, एवं दाणाइसु विणेयं // 1 // " व्याख्या-एतेषामभ्युत्थानादौ प्रायश्चित्तमाह यथाच्छन्दस्याभ्युत्थानाञ्जलिक रणयोर्भवन्ति प्रत्येक चत्वारो गु
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________________ वंदण 771 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वंदण रुका प्रायश्चित्तम्। तत्राभ्युत्थानं षोडा-अभिमुखोत्थानम् 1 आसनोपढौकनम् 2, किं करोमीति भणनम् 3, धर्मच्युतस्यपुनर्धर्मस्थापनारूपमभ्यासकरणम् 4, अभेदरूपाऽविभक्तिरेतत्पञ्चपदरूपः संयोगः 5-6 चेति / तत्राभिमुखोत्थानादिपञ्चके कृते अभ्यासकरण पुनः सामर्थ्य सत्यकृते प्रायश्चित्तम् / अञ्जलिकरणमपि षोढा, पञ्चविंशत्यावश्यकयुक्तवन्दनम् 1, शिरसा प्रमाणकरणम् 2, एकस्यद्वयोर्वा हस्तयोर्योजनम् 3, बहुमानरसभरेण सरमसम्-"नमो खमासमणाणं' इति भणनम् 4, निषद्याकरणम् 5, एतेषां पदानां योगश्च 6, एतेषु सर्वेष्यपि कृतेषु प्रायश्चित्तम्, अन्येषु पार्श्व स्थादिषु नवसु गृहस्थसहितेषु कृतिकर्माजलिकरणयोः प्रत्येकं चतुर्लघुकाः प्रायश्चित्तम्। ध०३ अधि०। मुद्धजणहिययसंथिय, दंसणवररयणलूडणं सजढा। अन्नायसाहुसावय-जोगा भणन्ते वं॥१॥ मुग्धः-स्वल्पमतियोंजनो-लोकस्तस्य हृदयम्-मानसंतत्रसं-स्थितमाश्रितं दर्शनंसम्यक्त्वं तदेव वररत्नं प्रधानमाणिक्यं तस्य लूडणं देशीभाषया प्रहरणम्, तत्र सदृढा-बद्धाग्रहाः अज्ञातसाधु-श्रावकयोगाःअविहितश्राद्धव्यापारा भणन्ति-जल्पन्ति एवं-वक्ष्यमाणनीत्या अयमाशयः-वक्ष्यमाणकथने हि मुग्धश्रावकाणां दर्शनपक्षपाताभावेन सम्यक्त्वध्वंशो भवतीति गाथार्थः। तदेवाह - पासत्थाई सावय-जणस्स नो हॉति वंदणिज्जा उ। तं नो जम्हा कुत्थ इ, नो दीसइ भणियमेवेत्ति // 2 // पावस्थादयस्समयप्रसिद्धाः श्रावकजनस्य-श्राद्धलोकस्य नो नैव भवन्ति-जायन्ते वन्दनीया-नमस्कर्त्तव्याः, तुःपूरणे। तद्वन्दनाकरणं, नो-नैव यस्मात् कुत्रापि कस्मिंश्चिदपि शास्त्रे नो दृश्यते, नावलोक्यते भणितमुक्तमेवं पूर्वोक्तप्रकारेण इतिः-वाक्यसमाप्तौ इति गाथार्थः। यद्भणितं तत्पूर्वपक्षगाथाद्वयेनाह - वद्दावद्दविभागो, संविग्गेयरजईण सव्वत्थ। जं पुण दंसणसत्तति-गे ण भणियं नमस्संति // 3 // अङ्गे सु अणंगेसु, छेयग्गंथेसु पयरणेसुं च / संवाओ ता कहं तं, भवे पमाणं पमाणीणं // 4 // वद्यावद्यविभागो-नमस्करणीयानमस्करणीयविशेषो भणितः संविग्रेतरयतीनां-सुविहितेतरसाधूनां सर्वत्र-सर्वस्मिन् सूत्रे इति शेषः, यत्पुनदर्शनसप्ततिकावचनम् एतन्नाम कारणगदितम्, "समणा-ण सावयाण य अवंदणिज्जा जिणमयम्मी" त्यादिलक्षणं न-नैव तस्यसप्ततिकाभणितस्यास्ति-विद्यते अङ्गेषु-आचाराङ्गादिषु अनङ्गेषुऔपपातिकादिषुःछेदग्रन्थेषु निशीथशास्त्रादिषु प्रकरणेषु-उपदेशमालादिषु चः-समुच्चये; संवादस्तत्तादृशभणनं तस्मात्कथं केन प्रकारेण तत्सप्ततिकाभणनं भवेत्-जायेत प्रमाणव्यवस्थापकम; प्रमाणिनां यथाऽवस्थितवस्तुवेदिनामिति गाथार्थः। किमित्यत आह - पयरण जम्हा संविइ-यं खलु भवे पमाणमिह। सिद्धतियवयणेहिं,नो इहरा अइपसङ्गाउ॥५॥ . प्रकरणवचनमर्वाचीनसाधुविरचितं शास्त्रं यस्मात्संविदितमेव अवितथम्, खलुः-अवधारणेः स च योजित एव भवेत्-जायेत प्रमाण व्यवस्थापकमिह-मौनीन्द्रप्रवचने। अनुस्वारः पूर्ववत्। सिद्धान्तवचनैरागमभणितेना॑नैव, इतरथा सर्वथाभावे कुतोऽतिप्रसङ्गात्, स्वाभिप्रायवशतोऽन्योऽन्यथा अन्यश्चान्यथाकरणतोऽनवस्थापात इति गाथार्थः / अथ यतिवत् श्रावकाणामपि दृश्यं तदित्याह - जइ जइकिचं सव्वं, पिसावयाणं पि हुज्ज करणीयं / तो इक्को पि य धम्मो, हवेज दुविहो विरुद्धेन // 6 // यदीत्यभ्युपगमे यतिकृत्यं-साध्वनुष्ठानं सवमपि निःशेषं श्रावकाणामपि-श्राद्धानां न केवलं यतीनामित्यपिशब्दार्थः, भवेत्-जायेत करणीयं-कृत्यं तत एक एव धर्मो भवेत् द्विविधो-द्विप्रकारो विरुध्येतविघटेतेति गाथार्थः। अत्रैवार्थे कारणान्तरमाह - तह संपुण्णगुणे वि हु, न वंदिओ वजपाणिणा भरहो। तो नज्जइ सवाणं, वेसो चिय होइ नमणीओ।।७।। तथा-अभ्युच्चयार्थः / सम्पूर्णगुणोऽपि-सुविशुद्धज्ञानादिरपिहुः-पूरणे, नवन्दितो- ननमस्कृतो वज्रपाणिना-इन्द्रेण भरतः-प्रथमचक्री, वेषरहित इति शेषः, तस्माज्ज्ञायते-बुध्यते श्रावकाणां वेष एव रजोहरणादिको भवति-जायते नमनीयोवन्द्य इति गाथार्थः / सूत्रकृत् सम्बद्धगाथाद्वयमाह - किं च जइ सावयाणं, नमणं नो सम्मयं भवे एयं / पासत्थाईणं तो, कह उवएसमालाए।।८।। सिरिधम्मदासगणिणा, न वारियं वारियं च अन्नेसिं। परतित्थियाण पणमण, इचाइवयणओ पयडं ||1| किं च-अभ्युचये, यदि-विकल्पार्थः, श्रावकाणाम्-श्राद्धानां नमन - नतिः नो-नैव सम्मतं भवेत्-जायते, एतत्पूर्वोक्तं केषामित्याह-पार्श्वस्थादीनां-प्रतीतानां ततः कथं-केन प्रकारेणोपदेशमालायां श्रीधर्मदासगणिना एतन्नाम्ना तत्कन वारितं, वारितं पुनर्निषिद्धम् अन्येषां शाक्यादीनां परतीथिकानां प्रणमनमित्यादिवचनतः, प्रकटम्-प्रसिद्धम्आदिग्रहणात्-"उहभावणथुणणभत्तिरागंच सक्कारसम्माणं दाणंविणयं च वजेइ'' इति दशावबोधं चेति गाथार्थः / पराभिप्रायमाशङ्क्याह - आलावो संवासो, इचाईयं तु मुणिजणस्सेव। एवं नो जइ तो वं, पुटवभणिया उपासत्थो // 10 // आलापः-स्तोकभणनं संवासस्तु-एकत्र निवसनमित्यादिकं पुनमुनिजनस्यैव साधुलोकस्यैव तेन हि तेषां निष्कारणं न कर्त्तव्यम्वन्दनादिकम्, कारणे तु कर्तव्यमिति प्रागेव चर्चितम्, आदिग्रहणेन"वीसंसोसंघवोपसङ्गो पहीणायारे हिंसमं सव्वा जिणिंदेहिं पडिकुट्ठो" इति दृश्यम्, तथा च तत्रोक्तं बलाद्यतिाकुलीमवतीति, किं च-इतः श्रावकधर्मवक्ष्ये इति भणता वृत्तिकृता भिन्नाधिकारिता दर्शिता, सच"वंदइ पडिपुच्छइ" इत्यादि गाथाभिरुक्तः सूत्रे एवमिच्छन्तो नैव यदि ततस्तेऽपिएवं प्रतिपादयन्ति पूर्वभणितान्- "सुत्तत्थं पोरिसिंनो करेइ'
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________________ वंदण ७७२-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वंदण इत्यादिकारे पार्श्वस्थाः शिथिला उपलक्षणत्वादवसन्नादयश्चेति गाथार्थः। ततः किमित्याह - तं वदंतु वराया, धम्मत्थी सावया तओ तुम्मे / सयभमडिया हु मूढा, अग्ने वीमा भमाडेह // 11 // तं साधुवन्दन्तु-नमस्कुर्वन्तु वराका-अनुकम्पनीया धार्थिनोवृषलम्पटाः, श्रावकाः-श्रद्धाः, तस्मात् 'तुब्भे' यूयमात्मना भ्रान्तानष्टसदोधाः मूढा-ज्ञानविकलाः अन्यान्-श्रावकादीन् मा-निषेधे, भ्रामयतनष्टसदोधान् कुरुतेतिगाथार्थः। ननु यद्येवं ततः कोऽप्यवन्द्यो नास्तीत्याह - संघेण पुणो बाही, जो बिहिओ होज सो उ नो वंदो। पासत्थाइ सढाणं, सय्वहा एस परमत्थो॥१२॥ संघेन-प्रतीतेन पुनर्बहिस्ताद्यो निर्दिष्टतया विहितः कृतो भवेत्- जायेत स पुनर्नव वन्द्यो नमस्करणीयः पार्श्वस्थादिः-प्रतीतः श्राद्धानांश्रावकाणां सर्वथा-सर्वेः प्रकारैरेष-निर्दिष्टरूपः परमार्थतत्त्वमिति गाथार्थः। सूत्रकृत्संबन्धगाथामाहकिं च सिरिपंचकप्पे, दवलिंगस्स धारणे भणिओ। एस गुणो सूरीहिं, इमाहिं गहाहि पयडत्थो / / 13 // किञ्चेत्यभ्युचये श्रीपञ्चकल्पे-छेदग्रन्थे द्रव्यलिङ्गस्य-रजोहरणादेः धारणे-स्वीकारे भणितः-उक्तः, एष-वक्ष्यमाणो गुणोलष्टत्वं सूरिभिस्तत्कारकैरिमाभिर्वक्ष्यमाणाभिर्गाथाभिः-छन्दोविशेषरूपा: प्रकटार्थोनिश्चिताभिधेय इति गाथार्थः। ता एवाऽऽहएयं तु दवलिङ्ग, भावे समणत्तणं तु नायव्वं / कॉउ गुणो दवलिङ्गे, भन्नइ इणमो सुहं वोच्छं / / 14 / / सक्कारवन्दननम-सणा, पूयणकहणा य लिङ्गकप्पम्मि। पत्तेयबुद्धमाई, लिङ्ग छउमत्थओ गहणं / / 15 // दट्ठूण दव्वलिङ्गं, कुट्वंते पाणिइंदमाई वि। लिंगम्मि अविजंते, न नजई एस विरओ त्ति॥१६॥ पत्तेयबुद्धों जाव उ, गिहिलिंगी अह व अन्नलिंगी वा। देवा वि नानापूर, मा पुजं होहिइ कुलिङ्गं / / 17 // लिङ्गकल्पः पञ्चकल्पभणितः प्रकटार्थश्च, विशेषावश्यकेऽपि लिङ्गस्य पूज्यता सपूर्वपक्षोत्तरा भणिता, अमूभिर्गाथाभिः, "नणु मुणिवेसवन्ने, निस्सीले विमुणिचुपद्वितोपावइ / मुणिदाणफलं तह, किन्न कुलिंगदाया वि॥१॥ आयरियाजंघाणं, मुन्नते, तेण पडिम व्व। पुज्जप्पाण मईयवि, न कुलिंगे सव्वहा सुत्तं / / २।।"परः प्राह- "नणु केवलकुलिंगे वि, हेउतं दव्वभावओ।" आचार्यः न वयम्- "मुणिलिङ्ग मग्गभावं, जाइ तओ तेण तं पुलं' // 3 // एवं स्थितेजीवस्योपदेशमाह - तित्थयरदसणोवरि, जइ जीव ! तुह थि निचला भत्ती। मुद्धाण सावयाणं, ता मा लाएसु कुग्गाहं / / 15 / / तीर्थकरदर्शनोपरिसज्ञप्रवचनोपरिष्टात्यदिजीव! तवास्ते निश्चलादृढा भक्तिरास्तिक्यम् मुग्धानाम्-मुग्धमतीनां श्रावकाणां तस्मात् मा इति-निषेधे, 'लाएसु' विगलय-संबन्धय कुग्राहं कुत्सितबोधं श्रावकैः-- पार्श्वस्थादयो न वन्द्याः एवरूप पूर्व साधूपेक्षया मुख्यतो वन्दनं भणितम्उक्तमत्र तु श्रावकापेक्षयोक्तमिति न पौनरुक्त्यमिति गाथार्थः / जीवा० 25 अधि। जे भिक्खू पासत्थं वंदइ वन्दंतं वा साइजइ / नि० चू०। मैथुनप्रतिसेवी अवन्धःसे भयवं ! जे णं केइ साहू वा साहुणी वा मेहुणमासेविज्जा से णं वंदेजा, गोयमा ! जे णं साहू वा साहुणी वा मेहुणं सयमेव अप्पणा णं सेवेज वा, परेहिं उवदिसेत्तुं सेवाविञ्जा, सेविजमाणं समणु-जाणिज वा, दिव्वं वा माणुसं वा तिरिक्खजोणियं वा०जाव णं करकम्माई सचित्ताचित्तवत्थुविसयं वा वि अज्झवसाएणं कारिमाकारिमोवगरणेणं मणसा वा वयसा वा काएणं से णं समणो वा समणी वा दुरंतपंतलक्खणे अट्ठध्वे अमग्गसमायारीमहापावकम्मे णो णं वंद्विजा, णो णं वंदविजा, णो णं वंदिजमाणं वा समणुजाणेजा, तिविहं तिविहेणंजावणं विसोहिकालं ति, से भयवं ! जे वंदेजा से किं लभेजा? गोयमा ! जे तं वंदेला से अट्ठारसण्हं सीलंगसहस्सधारीणं महाणुभावाणं महती वा आसायणं कुज्जेज्जा,जेणं तित्थयरादीण आसायणं कुख्खा से णं अज्झवसायं पडुच जाव णं अणंतसंसारियत्तणं लभेडा विपहिवित्थियं सम्म सय्वहा मेहुणं पिय। महा०२ अ०1 (नवेषमात्रेण वन्द्यो भवतीति सर्वत्रानाश्वासवतामाव्यक्तिक-निहवानाम् इति 'अव्वत्तिय' शब्दे 814 पृष्ठे प्रतिक्षेप उक्तः।) (चैत्यवन्दनविधिः 'चेइयवंदण' शब्दे तृतीयभागे 1312 पृष्ठे उक्तः।) वन्दनप्रकीर्णोक्तश्चैत्यगुरुवन्दनविधिः - तित्थयरे मुणिनाहे, मुक्खपहपएसए व सोंडीरे। खायगभावे वंदे, कम्मरयरहिय-जिणवीरे // 1 // नमिऊण गणहराई, सुयनाणसमत्थपारगाईणं / पूया विहि जइ भणिया, तह वंदणविहिं भणिस्सामि // 2 // दव्वाभावे सङ्को, करेइ णिचं जिणिंदपडिमाणं / पुरओ ठिचा भावा, पूआ साहु व्व संसुद्धा / / 3 / / अट्ठविई कम्मरयं, बहुएहिं भवेहि संचियं जम्हा। तवसंजमेण धोवइ, तम्हा भावं पहाणं वि॥४॥ आवस्सय काऊणं, गोसे सुहजोगझाणसंजुत्तो। पेहंतो भूभाग, गच्छिज्जा जिणवरे गेहे // 5 // कयआवस्सऐं साहू, जइ वि इयाणि अच्छती गोसे। णियमा उ वंदिअव्वा, पच्छित्तं होइ अवंदिए॥६॥ पयाँहीण उ पणामा, तिदिसि निरिक्षण निवारइ अवत्था। आलंबण तिक्खुत्तो, तह किर मुद्दा य पणिहाणं / / 7 / /
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________________ वंदण वंदण 773 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 एए अट्ठा तिविहा, सविरइ वि करेइ आवस्सं / पूआ निसीहि एगा, भणिआ किर साहुअहिगारे / / 8 / / अबा उ अचित्ताणं, मणुएगत्तं पुणो वि जिणदिहे। . अंजलिमत्थे तिन्नि, उ, साहुणो अहिगमा नेआ॥६॥ पूयणनिमित्तै वजं, सावजं सावओ विजयणाए। उत्तरसंगं बीअं, तिन्नि य सेसाणि साहु व्व / / 10 // अकसिणपवत्तगाणं, दय्वत्थं सविहि पुटवमक्खायं / तेणेह सचित्ताणं, अचाओ अत्थि लाहस्स॥११॥ तंबोलभत्तपाण-सयणउवाणहजुयं च निट्ठिवणं। मेहुणमुत्तुबारं, वजइ जिणगेहसीमासु / / 12 // काऊण पयाहीणं, भूमि पमज्जइ सुहेण जोएण। भणई इरियाविहिअं, उस्सग्गो जाव लोगस्स / / 13 / / दो जाणू दोण्णि करा, पंचमगं होइ उत्तमंगं तु / पणिवाओ पंचंगो, भणिओ सुत्तट्ठदिट्ठीहिं॥१४॥ पणामत्तियं किचा, भणई सुत्तत्थ संथवणं / दाहिणजाणुणि तओ, ठवेइ भूभागदेसम्मि / / 15 / / सजलनयणो य पडिमा, पिक्खइ इग(गा)दाहिणे पासे। भाव विसुद्धीइ भणइ, सक्कथयं जोगमुद्दासु // 16 // अण्णोण्णंतरि अंगुलि, कोसागारेहिं दोहिं हत्थेहिं। पिट्टोवरि कोप्पर सं-ठिएहिँजह जोगमुद्दति // 17 // महुरझुणिमक्खलिअं, संपत्तं मुक्ख जाव जे अ जिणा। ठवणावंदणहेऊ, भावविसुद्धीसुइह(राओ)याओ।। 18 // काऊण उड्डकायं, अरिहंतचेइअदंडयं पढई। वंदणयाइफलट्टे, उस्सग्गो (पुण) होइ जिणमुद्दा / / 16 / / चत्तारि अंगुलाई, याउ पुरो हीणपच्छिमो जत्थ। वित्थारे जिणमुद्दा, उवओगटुं अणुट्ठाणं / / 20 // उगणीसदोसवजं, झाणट्टरुद्दविमुक्कसज्झाणं। विग्गोसग्गे ठिचा, अट्टस्सासा जहन्नेणं // 21 // पूरइ णमुयारेणं, एगो सुद्धक्खरेण संथुत्ति। एगसिलोगिय अहवा, वटुंति य मूलणाहस्स / / 22 / / निउणोवमाइ कित्ति, सब्भूअगुणासु जे अलंयारा। ललियक्खरेण पएणं, सरेण वड्डेण सा थुत्ति // 23 / / अन्ने सुणंति सव्वे, एगग्गमणा उसग्गमज्झम्मि। झायंति धम्मसुकं, तस्सट्ट धरंति वा एगे / / 24 / / नामत्थयं च पच्छा, कट्टइ समग्गसुवन्नअक्खलिओ। सव्वं लोए अरिहं-तचेइयाणं समग्गं वि।। 25 / / (वंद०) मुत्तासुत्तियमुद्दा, धरेइ सुहजोगसंपन्ना / / 26 // दो वि हत्था उ सुसमा, उन्नयसुत्तीव संठिया मज्झे। मुत्तासुत्तियमुद्दा, ललाडदेसेसु सा किच्चा / / 30 // १-स्तुतिवक्तव्यता थुइ' शब्दे चतुर्थभागे 2414 पृष्ठे गता दो पणिहाणा थवणं, सुसरेण सुहोवमाइसंजुत्तं / जयवीयरायपाढो, मुद्दापुट्वं च सव्वं वि॥३१॥ मुणिवसहाय निरीहा, इच्छा जेसिं वि नत्थि मुक्खस्स। कम्मा जायण तेसिं, पुणरत्तदोसो कहं नत्थि / / 32 // नत्थि पुणरुत्तदोसो, भत्तियरागेण भासमाणस्स। जिणजायणविवहारो, करेइ तहा वि ण सो दुट्ठो॥३३॥ उक्कोसा विहि एसा, नवयारेण च जहन्नसंकहिया। मज्झिमअणेगभेया, णेया सुत्ताणुसारेणं // 34 // उमओ कालजिणहरे, उक्कोसा वंदणा य णायव्वा। जहन्नों कारणवसओ, पणवारं मज्झिमा दिवसे / / 35 / / चेइयवंदणविहिणा, करंति जेसिंच णिज्जराविउला। अविहिकए पच्छित्तं, उवहाणविणा विनिद्दिढें // 36 // चेइयहरे न गच्छंति, पमायजोएण साहु सड्डो वा। तस्सम्मत्तं मलिणं, उवएसो तित्थणाहस्स।।३७।। चेइयवंदणभणियं, अह गुरुवंदण समासओ वुच्छं। तिविहा फिदा थोभ, दुबालसावत्तओ णेयं / / 38 // सिरनमणाइसु पढम, खमासमणदुन्नि दाणओ वीयं / वंदणदुगेण तइयं, पडिवत्ती गुणवओ एसा / / 39 / / मूलं विणय धम्मस्स, पढमा सचेसु कारणे हवइ / तह वि ह विसिट्ठकजे, बीया रयणाधिके तइया / / 40 // पञ्चण्हं कायव्वा, पासत्थाणं च नत्थि पंचण्हं। वंदणववहारो वि य, णिज्जरहेऊ जिणो दिसति।। 11 // गुणनिहिगुरू अभावे, ठवणा ठावंति सुद्धअक्खाणं / सम्भावमसम्भावं, दुविहाऽऽवकहा य इत्तरिया / / 42 // रत्ते अक्खे नीला-रहे साणीलकंठणामाणं। बहु सुह विज्जा आउ, वट्टइ ठवणा न संदेहो। 43 / / मोहणयादिसु रत्ता, अद्धरत्ताद्धयीय साठवणा। कुटुं फेडइ अत्थि, दुहनासणीय अइरम्मा / / 44 / / सुक्का य सव्ववाहि, Vलरोगहरा मुणेयव्वा। नीली हलिह तिलया, विसहरणी सुहा सुधयवनी / / 15 // इगदुतियण यावत्ता, गुआइरोगा विसं भयं हंति। चउआवत्ता णिहा, संता वत्ता सुहाणेया॥४६॥ मंतक्खरेण वासो, किच्चा ठवणा य याव कहिया वा। पुव्वुत्तरासु दिसासु, ठाइत्ता उग्गहो जाव॥४७॥ आसायणपरिहारो, विणयविउत्तं सुहेण जोएण। इरियाविहियं पुवं, करेइ संविग्गचित्तेण / / 48|| पडिलेहइ मुहपोत्तिं, वंदण अणुजाणहाइ सध्वं पि। गोसे पचक्खाणं, वंदणचउ थोभसिज्झायं // 4 // सेसे दिवसे विपुणो, वंदित्ता चरिमवंदणा सव्वं / खमावइत्ता जीव-रासिं समभावनासहिओ।। 50 //
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________________ वंदण 774 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वंदण अणया वंदणविहिणा, वंदंतो तस्स णिज्जराणंता। अविहिकए पच्छित्तं, अवंदिए तह विसेसेणं / / 51 // किइकम्म करंतो वि य, ण होइ तह वि ह सणिज्जराभाग। पणवीसा मन्नयरं, विराहइ द्वाण जो साहू / / 52 // अणाइ निहणे लोए, अविहिअणुट्टाणवसेण जीवोवि। भमिओ अणंतकालं, तम्हा भासंतिविहिमगं // 53 // आलोइऊण एवं, सव्वं पुवावरेण किरिया वि। विहिणा उक्किरमाणं, लहेइ मुक्खं न संदेहो // 54 / / वंदणपयरण एसो, समयाओ विहियवायपुवाओ। संखेवेणुद्धरिओ, रइओ मुणिभद्दबाहुणा एसो।। 55 / / वंद०। वन्दनकावसरे गुरुपादचिन्तनं क्वविधेयम्-? वन्दनकावसरे मुखवस्त्रिकायां रजोहरणे वा यत्र वन्दनकं ददाति, तत्र गुरुपादौ चिन्तयति॥३॥ ही०२ प्रका०। वन्दनकावसरे मुखवस्त्रिका कुत्र मुच्यते-? वन्दनकावसरे मुखवस्त्रिका साधुभिर्वामजानुनि मुच्यते, श्रावकैस्तु गुरुपादयोर्वन्दनावसरे जानुनि, अन्यथा तु भूमौ रजोहरणे वेति / / 5 / ही० 2 प्रका० / अष्टापदगिरौ स्वकलब्ध्या ये जिनप्रतिमा वन्दन्ते ते तद्भवसिद्धिगामिन इत्यक्षराणि सन्ति, तथा च सतिये विद्याधरयमिनस्तथा राक्षसवानरचारणभेदभिन्ना अनेके ये तपस्विनस्तत्र गन्तुं शुक्तास्तेषां सर्वेषामपि तद्भवसिद्धिगामित्वमापद्यते, ततः सा का लब्धिर्यया तत्र गमने गौतमादिवत्तद्भवसिद्धिगामिनो भवन्तीति॥११॥ ही०१प्रका० श्रावको वन्दनकानि ददत् मुखवस्त्रिकया गुरुपादं प्रमार्जयति तदाऽऽशातना लगति न वा ? इति प्रश्नः, अत्रोत्तरम्-मुखवस्त्रिकया गुरुपादप्रमार्जने आशातना ज्ञाता नास्ति, प्रत्युत तत्प्रमार्जनं युज्यते, यथा-शिष्या गुरुपादौ रजोहरणे न प्रमार्जयन्ति तद्वदिदमपि ज्ञेयमिति / / 106 / / सेन० 3 उल्ला० / श्राद्धाः प्रतिक्रमणं कुर्वाणा वन्दनकदानावसरे किं मुखवस्विकां शुद्धभूमौ मुञ्चन्ति? किमुत पादप्रोञ्छनोपरि मुखवस्त्रिकां मुक्त्वा वन्दनकानि ददति ? इति प्रश्नः, अत्रोत्तरम्- प्रतिक्रमणं कुर्वाणाः श्राद्धा वन्दनकदानावसरे मुखवस्त्रिकां शुद्ध-भूमौ रजोहरणोपरि वा मुञ्चन्ति नान्यत्रेति विधिरिति / / 66 // सेन०१ उल्ला० / साध्वीनां कालिकयोगक्रियायां श्रावकदत्तानि वन्दनकानि शुद्ध्यन्ति न वा ? इति अत्रोत्तरम्- कृष्णेन सहस्रादिपरिवारसहितथावचापुत्रादीनामग्रेसराणां वन्दनकानि दत्तानि, तदनुयायिसमस्तपरिवारस्यापि तानि समागतान्येव, ततो मनसा त्वष्टादशसहस्रसाधूनां दत्तान्येव, यदीत्थं न कथ्यते तदा वेला न प्राप्नोति. यतो दिनमानं तदा महन्नाभत्तथा कृष्णस्यापि अत्रोत्तरम्- कृष्णेन सहस्रादिपरिवारसहितथावचापुत्रादीनामग्रेसराणां वन्दनकानि दत्तानि, तदनुयायिसमस्तपरिवारस्यापि तानि समागतान्येव, ततो मनसा त्वष्टादशसहस्रसाधूनां दत्तान्येव, यदीत्थं न कथ्यते तदा वेला न प्राप्नोति, यतो दिनमानं तदा महन्नाभूत्तथा कृष्णस्यापि वन्दनकदानलब्धिर्शाता नास्ति, तस्माद्वीरासालविकस्य वन्दनकदाने न काऽप्याशङ्केति ध्येयम्।। 116 // सेन०३ उल्ला० / सामायिकादिषु उपवस्त्रमध्ये सन्ध्याप्रतिलेखनायां मुखवस्त्रिका प्रतिलिख्य प्रत्याख्यानं क्रियते, एकाशनादिप्रत्याख्याने च वन्दनकानि दत्त्वा तत् क्रियते, तत्कथम् ? इति प्रश्नः, अत्रोत्तरम्-समाचारीप्रभृतिग्रन्थेषु भोजनदिवसे वन्दनकानि दत्त्वा प्रत्याख्यानं क्रियते इत्यक्षराणि सन्ति, उपवस्त्रदिवसे वन्दनकाधिकारो नास्ति, मुखवस्त्रिका तु प्रतिलिख्यते यतस्तां विना प्र-त्याख्यानं न शुद्धयतीति सामाचार्यस्ति, तथोपधानमध्येऽपि तथैव प्रत्याख्यानं कार्यत इति / / 136 / / सेन० उल्ला०। (देवान् वन्दित्या क्षमाश्रमणानि संबद्धानि नवेत्यादि प्रश्नः, उत्तरञ्च-'खमासमण' शब्दे तृतीयभागे 715 पृष्ठे गतम् / ) 'आयरियउवज्झाए' इत्यादिगाथात्रयं केचनन पठन्ति, वदन्ति च योगशास्त्रवृत्तौ"काऊण वंदणं तो'' इत्यत्र श्राद्धानामेव प्रोक्तमस्ति न यतीनामिति ? प्रश्नः, अत्रोत्तरम्-योगशास्त्रवृत्तिजीर्णपुस्तकषट्कं विलोकितम्, तत्र सर्वत्रापि 'काउण वंदणं तो' इति गाथायाः पाठः 'सढो' इति पदेनैव संयुक्तो दृश्यते, तत्र अशठा इति व्याख्यानेन साधु श्राद्धयोः समानमेवावश्यककर्तव्यं दृश्यते तथापि भावदेवसूरि-कृतसमाचार्या अवचूर्णावेतद्गाथात्रयं केषांचिन्मते साधयो न पठन्तीति प्रोक्तमस्ति तन्मतान्तरम् // 145 // सेन० 3 उल्ला० / उद्घाटितमुखजल्पने ईपिथिकी समायाति वन्दनकदानावसरेतु कथं नायाति? इति प्रश्नः, अत्रोत्तरम्-वन्दनकदानावसरे विधिसत्यापन नार्थमुद्घाटितमुखस्याऽपि जल्पतः प्रमादाभावान्नैयर्यापर्थिकी समायातीतिध्येयम्॥ 430 // सेन०३ उल्ला०। दिगम्बरा-दिप्रासादे आत्मीयाचार्यप्रतिष्ठितप्रतिमाऽस्ति सा वन्द्यते न वा? इतिप्रश्नः, अत्रोत्तरम्सा एकान्ते वन्द्यते, पर तत्समुदायमध्ये वन्दनं कुर्वतस्तन्मतस्थिरीकरणं यथा न भवति तथा करोति द्रव्यक्षेत्रकालादिकं विचार्य इति // 436 // सेन०३ उल्ला०। पूर्वनिष्पन्नं जिनगृहं कदाचित्किञ्चित्पतितं तावन्मानं द्रव्यलिङ्गिद्रव्येण कृतं तत्रस्थप्रतिमा वन्द्यते न वा ? इति प्रश्नः, अत्रोत्तरम्-तत्रस्थजिनप्रतिमा वन्द्यते इति ज्ञायते / / 62 / / सेन० 4 उल्ला० / साध्वी केवलज्ञानोत्पत्त्यनन्तरं छद्मस्थसाधून वन्दते न वा? इति प्रश्नः, अत्रोत्तरम्-केवलज्ञानवतिसाध्वी छद्मस्थसाधूननवन्दते, यतः केवली ज्ञातस्सन् छदास्थसाधून् वन्दते इत्येवं शास्त्रे न दृश्यते तथा केवलज्ञानवतीनांछ्यस्थसाधुर्वन्दतेइत्यपि सम्भवनास्ति, यतः पुरुषः स्वियं ........... ..... ....- - -.-in-तीय // 1 // " इत्यादिवचनात्तेषामवन्द्यत्वम्, प्रतिमानां त्यन्यतीर्थिकपरिगृहीतप्रतिमाव्यतिरेकेणन्यासां वन्द्यत्वमस्तीति // 130 // अभिनिवेशमिथ्यादृकप्रतिष्ठितं जिनबिम्बंवन्द्यतां प्राप्तं तत्र किंबीजम् ? इति प्रश्नः, अत्रोत्तरम्-आत्मपूर्वसूरिभिस्तद्वन्द्वनादौ अनिवारणमेव बीजम्, किश्व-शा॥ 1 // " इत्यादिवचनात्तेषामवन्द्यत्वम्, प्रतिमाना त्वन्यतार्थिकपारगृहीतप्रतिमाव्यतिरेकेणन्यासां वन्द्यत्वमस्तीति // 130 / / अभिनिवेशमिथ्यादृकप्रतिष्ठित जिनबिम्बं वन्द्यताप्राप्तंतत्र किंबीजम् ? इतिप्रश्नः, अत्रोत्तरम् आत्मपूर्वसूरिभिस्तद्वन्द्वनादौ अनिवारणमेवबीजम्, किच-शा
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________________ वंदण 775 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वंफ स्त्रेऽभिनिवेशमिथ्यादृष्टित्वं विह्नवानां प्रोक्तम्, साम्प्रतीनास्तु म-तिनो निर्भरान्तःकरणैः सुरासुरनरनायकगणैर्ये तेवन्दनीयाः। सफा०१ अधि० दिगम्बरं विहाय निहवा इति न व्यवह्रियन्ते, तथैव गुर्वादीनामाज्ञास- १प्रस्ता०। स्तुत्येषु, जी०३ प्रति०४ अधि०।औ०। उपा०ा स्तोतव्ये, दावादिति / / 131 / / सेन०२ उल्ला० / पौषधदिने श्राद्धः प्रतिक्रमण तं०। त्रिविधयोगेन सम्यक्स्तुते, ध०२ अधि०।कर्माल०। कल्प० / कृत्वा देवान् वन्दित्वा पश्चात्पौषधं करोति तथा कृतः पौषधः शुद्ध्यति आव० / ज्ञा०1 भ०। नवा ? इति प्रश्नः, अत्रोत्तरम्-पौषधं कालवेलायां कृत्वा प्रतिक्रमणं च वंदणीओदय-न०(वन्दनीयोदक) आचमनोदकप्रवाहभूमौ, "णो गाहावकृत्वा देवान् वन्दत इति विधिः कालातिक्रमादिकारणवशात्तु पूर्व देवान् तिस्स वंदणीओदयं पविद्वेज्जा" आचा०१ श्रु०१चू० 106 उ०। वन्दित्वा पश्चात्पौषधं गृह्णातीति।।१२४ // सेन०३ उल्ला०। साधूनां | वंदारय-पुं०(वृन्दारक) देवे, "अमरा तियसा वंदारया य विबुहा सुरा सप्त चैत्यवन्दनानि प्रोक्तानि तेषां मध्ये प्रतिक्रमणयोर्दै चैत्यवन्दने कुत्र | देवा'' पाइ० ना०२२ गाथा। स्थाने क्रियेते ? इति प्रश्नः, अत्रोत्तरम्-प्राभातिकप्रतिक्रमणे 'इच्छामो | वंदि-त्रि०(वन्दिन् ) स्तुतिपाठोपजीविनि, सूत्र०१ श्रु०१७ अ०। अणुसहि' इति कथनानन्तरं यदेववन्दनं क्रियते तत्रैकं चैत्यवन्दनम्, वंदिऊण-अव्य०(वन्दित्वा) नमस्कृत्येत्यर्थे, चं० प्र० 1 पाहु०। सन्ध्याप्रतिक्रमणे तु दैवसिकप्रतिक्रमणस्थापनादर्वाग्यदेववन्दनं क्रियते वंदित्तए-अव्य०(वन्दितुम्) अभिवादनं कर्तुमित्यर्थे, प्रति० / उपा० / तचैत्यव-न्दनं द्वितीयमित्यक्षराणि सङ्घाचारवृत्तौ सन्तीति // 126 // स्था० / रा०। सेन०३ उल्ला०। पौषधिकेन जिनालये गत्वा प्रहरे सार्द्धप्रहरे वा देवा वन्दितास्तस्य कालवेलायां पुनर्देववन्दनं युज्यते न वा ? इति प्रश्नः, वंदित्तु-अव्य०(वन्दित्वा) 'वदि' अभिवादनस्तुत्योरित्यर्थद्वयाभिधायी अनोत्तरम्-येनाऽकाले देवा वन्दितास्तस्य कालवेलायां पुनर्देववन्दनं धातुः / आचा० १श्रु०१ अ०१ उ०।"क्त्वस्तुमत्तूणतुआणाः" | 8 | 2 / 146 // इति क्त्वास्थाने तुम् आदेशः। वन्दित्तु इत्यनुस्वारलोपात् / युज्यते यतः कालवेलाकार्य कालवेलायामेव कर्त्तव्यम्, परम्पराऽप्येवमेव प्रा० / अभिवाद्य स्तुत्वा चेत्यर्थे, ओघ० / ध०।"काऊण सामईयं, दृश्यत इति / / 120 / / सेन०३ उल्ला०। इरि पडिक्कमिय गमणमालोए / वंदित्तु सूरिमाई, सज्झायावस्सयं वंदणकम्म-न०(वन्दनकर्मन्) वदि' अभिवादनस्तुत्योः इत्यस्य वन्द्यते कुणई' // 1 // इति श्राद्धदिनकृत्य।। 131 // गाथायाः कोऽऽर्थः ? इति स्तूयतेऽनेन प्रशस्तमनोवाक्कायव्यापारनिकरण गुरुरिति वन्दनं तदेव कर्म प्रश्नः, अत्रोत्तरम्- गाथाया अर्थो वृत्तौ सुप्रसिद्ध एव, यत्तु सूत्रपाठमात्रेण वन्दनकर्म / कृतिकर्मकरणे, प्रव०२ द्वार। सामायिकानन्तरमैर्यापथिकीप्रतिक्रमणं प्रतिभाति तत्र सविस्तराण्याबंदणकलस-पुं०(वन्दनकलश) माङ्गल्यघटे ज्ञा० 1 श्रु० 1 अ०। आ०म०। | वश्यक-चूर्ण्यक्षराण्यनुसरणीयानि येन संशयापदनोदो भवति, सर्वेषामेवंवंदणग-न०(वन्दनक) वन्द्यन्तेपूज्या गुरवोऽनेनेति वन्दनंतदेव वन्दनकम्, विधपाठानां तन्मूलकत्वादिति ज्ञायते // 225 / / सेन०३ उल्ला०) स्वार्थे कन्। प्रव०१द्वार। आचार्यादिप्रतिपत्ती, वन्दनकमपि षण्णामा- | वंदित्तुसुत्त-न०(वन्दितुसूत्र) (अनुकरणत्वेन वन्दित्तु' इत्यानुवाद) वश्यकानामन्यतमं साधोरवश्यकार्यम् श्रावकस्यापि कर्त्तव्यम् / गुण- वन्दित्तुशब्दादिके श्रावकप्रतिक्रमणसूत्रे, ही०१ प्रका०। प्रति०। (सद्दावत्प्रतिपत्तिरूपत्वात्। तस्य गुणवत्प्रतिपत्तेश्च श्रावकस्यापयविरुद्धत्वात्। लपुत्रकुम्भकारकृतप्रतिक्रमणसूत्रमिति प्रघोषः। सत्यो नवा ? कस्य ध०२ अधि०। आ० म० / गुणवत्प्रतिपत्तिप्रधाने अध्ययनविशेषे, पा० / कृतिर्वासा ? इति प्रश्नस्योत्तरम्, 'पडिक्कमण' शब्दे पञ्चमभागे 317 ध०। आ० चू०। आव०। पृष्ठे द्रष्टव्यम्।) वंदणघड-पुं०(वन्दनघट) वन्दनकलशे, आ०म०१ अ०। वंदित्तुवित्ति-स्त्री०(वन्दित्तुवृत्ति) श्रावकप्रतिक्रमणसूत्रवृत्तौ, सेन० / बंदणपइण्णय-न०(वन्दनप्रकीर्णक) गुरुदेववन्दनवक्तव्यताके भद्र वन्दित्तृवृत्तौ 'संखा कखा' इति गाथावृत्तौ एकोनाशीतिमिथ्या त्वस्थानकेषु षट्षष्टितमस्थाने सर्वमासेषु वा तासूपवासादीनि सर्वाबाहुस्वामिकृते स्वनामख्याते प्रकीर्णकग्रन्थे, वन्द०। स्वेकादशीषु उपवासकरणे कथं मिथ्यात्वम् ? इति प्रश्नः, अत्रोत्तरम्वंदणवत्तिया-स्त्री०न०(वन्दनप्रत्यय) वन्दनं प्रशस्तमनोवाक्का चतुर्दश्यष्टमीज्ञानपञ्चमीषु नियततपोदिनेषु उपवासमकृत्वा यदि यप्रवृत्तिस्तत्प्रत्ययंतन्निमित्तम् / वन्दनार्थे, "वन्दणवत्ति याए करेमि सस्विकादशीषु उपवासं करोति तदा मिथ्यात्वस्थानं भवतीति ज्ञायते काउस्सग्गं''यादृक् वन्दनात् पुण्यं स्यात्तादृक्कायोत्सर्गः कार्यः। प्रति० / इति॥ 353 // सेन० 3 उल्ला०॥ औ० / रा०। दश०। वंदिम-त्रि०(वन्द्य) वन्दनीये,"जयाय वंदिमोहोइ, पच्छा होइ अयंदिमो'' वंदणविहि-पुं०(वन्दनविधि) चैत्यवन्दनाविधौ, सङ्घा० 1 अधि०१ | यदा वन्धो भवति श्रमणपर्यायस्थो नरेन्द्रादीनाम्। दश०१०। प्रस्ता०। वंदिय-त्रि०(वन्दित) गुणस्तुतिकरणेन नमनीये, कल्प०१अधि०३क्षण। वंदणसुद्धि-स्त्री०(वन्दनशुद्धि) अस्खलितप्रणिपातादिदण्ड कसमुच्चार- | -smalnaa गा माडेरादादिलडाहिलडवच.फ-मह. णासम्भ्रान्तकायोत्सर्गादिकरणे, ध०२ अधि०। सिह-विलुपाः " / / 8 / 4 / 162 // इति काङ्क्षतेर्वम्फादेशः / प्रा०।"ण वंदणिज-त्रि०(वंदनीय) वन्द्यन्ते स्तूयन्तेऽभिवाद्यन्ते च भक्तिभर- | वंफेज्ज" नाभिलषेत्। सूत्र०१ श्रु०६ अ०।
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________________ वंफिअ 776 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वंसिअ वंफिअ-त्रि०(काशित) कवलिते, "घत्थं कवलिअं असिविलु-पिअं पविट्ठो, सो एगेण नयरधुत्तेण पुच्छिओ-कहं सगडतित्तिरी लब्भइ ? तेण वंफिअंखइअं''। पाइ० ना०७७ गाथा। भुक्ते, दे० ना०७ वर्ग 35 गाथा। गामिल्लएण भण्णइ तप्पणा दुयालियाए लब्भति, तओ तेण सविखण वंस-पुं०(वंश) परम्परयोत्पत्तिप्रवाहे, विशे० / आ० म० / प्रज्ञा० / उआहणित्ता सगडं तित्तिरीए सह गहियं, एत्तिलगो चेव किल एस वंसगु क्रमभाविपूर्वपुरुषप्रवाहे, नं०। पुत्रपौत्रादिपरम्परायाम्, स्था०१० ठा० त्ति, गुरूवो भणंति-ततो सो गामेल्लओ दीणमणसो अच्छइ, तत्थ य 3 उ० अन्वये, संथा०। सन्ताने, स्था०६ ठा०३ उ०। हरिवंशादिके, एगो मूलदेवसरिसोमणुस्सो आगच्छइ, तेण सो दिट्ठो, तेण पुच्छिओ किं ज्ञा० 1 श्रु०१६ अ01 वेणौ, ज्ञा० 1 श्रु०१७ अ० प्रज्ञा० / औ०। झियायसि अरे देवाणुप्पिया ! ? तेण भणियं-अहमेगेण गोहेण इमेण आचा० / छित्त्वराधारभूते, भ० 8 श० 6 उ० / महति षष्ठवंशे, रा०। पगारेण छलिओ, तेण भणियं-मा वीहिह, तप्पणा दुयालियं तुम सोवयारं "जोई रसमया वंसकवेल्लुका य" जी०३ प्रति०४ अधि०। रा०। मग, माइट्ठाणं सिक्खाविओ, एवं भवउत्ति भणिऊण तस्स सगासंगओ, वाद्यभेदे, नं०। आचा० / प्रश्न०।"अट्ठसयं वंसाणं अट्ठसयं वंसवाय- भणियंचऽणेणममजइसगड हियं तो मेइयाणिं तप्पणा दुयालियंसोवयार गाणं"। रा०। वेणौ, "वंसो वेणू वेलूय''। पाइ० ना० 144 गाथा। दवावेहि, एवं होउ त्ति, घरंणीओ महिला संदिहा, अलंकितविभूसिया जंबुद्दीवे दीवे भरहेरवएसु वासेसु एगमेगाते ओसप्पिणी परमेण विणएण एअस्स तप्पणा दुयालियं देहि सा वयणसमं उवट्ठिया, उस्सप्पिणीए तओ वंसाओ उप्पजिंसु वा उप्पजंति वा उप्प तओसोसागडिओभणतिमम अंगुली छिन्ना इमाचीरेणावेढियाण सक्केमि जिस्संति वा, तं जहा-अरिहंतवंसे, चक्कवट्टिवंसे, दसारवंसे उड्डयालेउं, तुम अदुयालिउं देहि, अदुआलिया तेण हत्थेण गहिया गाम 21, एवं० जाव पुक्खरवरदीवद्धपचत्थिमद्धे 25 / (सू० तेणं संपट्ठिओ, लोयस्स य कहेति-जहा मएसतित्तिरिगेण सगडेण गहिया 153 4) स्था०३ ठा०१ उ०। तप्पणादुयालिया, ताहे तेण धुत्तेण सगडं विसज्जियं, तं च पसाएऊण वंसकरिल्लय-न०(वंशकरीलक) कोमलाभिनववंशावयवविशेषे, रा०। भजा णियत्तिया, एस पुण लूसओ चेव कहाणयवसेण भणिओ। एस लोइओ, लोगुत्तरे विचरणकरणानुयोगे कुस्सुतिभावियस्स तस्स तहा वंसकवेल्लुय-न०(वंशकवेल्लुक) उभयतस्तिर्यस्थाप्यमाने वंशे, वंसगो पउज्जतिजहा सम्मंपडिवज्जति। दव्वाणुओगे पुण कुप्पावयणिओ रा०जी०। चोइजा, जधा-जति जिणपणीए मग्गे अस्थि जीवो अस्थि घडो, अत्थितं वंसग-पुं०(वंशक) व्यंसयति परं घ्यामोहयति शकटतित्तिरीग्राहकधूर्तवद् जीवे वि, घड वि, दोसु वि अविसेसेण वट्टइ ति, तेण अस्थित्तसद्दथः स व्यंसकः / दुहेतुभेदे, स्था० / तथाहि-कश्चिदन्तराललब्ध तुल्लत्तणेण जीवघडाणं एगत्तं भवति / अह अत्थि भावाओ वतिरित्तो मृततित्तिरीयुक्तेन शकटेन नगरं प्रविष्टः, उक्तो धूर्तेन, यथा-शकटतित्तिरी जीवो, तेण जीवस्स अभावो भवइ त्ति एस किल एबहमेत्तो चेव वंसगो, कथं लभ्यते? सच किलायं शकटसत्कां तित्तिरी याचत इत्यभिप्रायाद लूसगेण पुण एत्थ इमं उत्तरं भाणियव्वं-जदि जीवघडा अस्थित्ते वटुंति वोचत् तर्पणालोडिकयेति, सक्त्वालोडनेन जलाद्यालोडितसक्तु तम्हा तेसिमेगत्तं संभावेहि, एवं ते सव्वभावाणं एगत्तं भवति, कहं ? अस्थि मिरित्यर्थः, ततो धूर्तः साक्षिण आहृत्य सतित्तिरीकं शकटं जग्राह, घडो अत्थि पडो अत्थि परमाणू, अस्थि दुपएसिए खंधे, एवं सव्वभावेसु उक्तवांश्च मदीयमेतद्, अनेनैव शकटतित्तिरीति दत्तत्वात्, मया तु अस्थिभावो वट्टइत्ति काउंकिंसव्वभावाएगी.भवन्तु, एत्थसीसो भणतिशकटसहिता तित्तिरी शकटतित्तिरीति गृहीतत्वादिति, ततो विषण्णः कहं पुण एतं जाणियव्वं ? सव्वभावेसु अस्थिभावो वट्टति, ण य ते शाकटिक इति, अत्रोत्तरम्-"सा सगडतित्तिरी वंसगम्मि हेउम्मि होइ एगीभवंति / आयरिओ आह-अणेगंताओ एतं सिज्झइ इत्थ दिलुतोनयव्वा' इति, स चैवम्-अस्ति जीवोऽस्ति घट इत्यभ्युपगमे जीवघट खइरो वणस्सती, वणस्सई पुण खदिरो, पालासो वा, एवं जीवो वि योरस्तित्वमविशेषेण वर्तते ततस्तयोरेकत्वं प्राप्तमभिन्नशब्दविषय णियमा अत्थि, अत्थिभावो पुण जीवो व होज्ज अन्नो वा धम्माधम्मात्वादिति व्यंसको हेतुः, घटशब्दविषयघटस्वरूपवत्, अथाऽस्तित्वं गासादीणं"ति। उक्तो व्यसकः। दश०१अ०। जीवादौ न वर्ततेः ततो जीवाद्यभावः स्यादस्तित्वाभावादित व्यंसकः प्रतिवादिनो व्यामोहकत्वादिति। स्था० 4 ठा० 3 उ०। नि० चू०। दश०। *वंशक-पुं०। दण्डके, दण्डकाकुट्टणे, पं०व०४ द्वार। जं० साम्प्रतं व्यंसकमाह वंसप्फाल-(देशी) प्रकटे ऋजौ, चुल्लीमूले, दे० ना०७ वर्ग 48 गाथा। सासगडतित्तिरीवं-सगम्मि हेउम्मि होइनायव्वा। वंसा-स्त्री०(वंशा) शर्कराप्रभायां नरकपृथिव्याम्, तृतीयनरकपृथिवी हि गोत्रेण शर्करप्रभा नाम्ना वंशा। जी०३ प्रति०१ अधि० 130 / स्था०। अस्य व्याख्या-सा शकटतित्तिरी व्यंसकहेतौ भवति, ज्ञातव्येत्यक्षरार्थः / भावार्थः कथानकादवसेयः, तच्चेदम्-"जहा एगो गामिल्लगो वंसालय-पुं०(वंशालय) वैताळ्यनगे उत्तरश्रेण्या स्वनामख्याते नगरे, सगडं कट्ठाण भरेऊण नगरं गच्छइ, तेण गच्छंतेण अंतरा एगा तित्तिरी कल्प० 1 अधि०७ क्षण। आ० चू०। मइया दिवा, सो तं,गिण्हेऊण सगडस्स उवरि पक्खि-विऊण नयरं | वंसिअ-त्रि०(त्यंसित) छुलिते, अनर्थप्राप्ते, ज्ञा० 1 श्रु० 13 अ०।
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________________ वंसिय 777- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वक्कलचीरि * वांशिक-पुं०।''मांसादिष्वनुस्वारे''।। 8 / 1 / 70 // इति आतोऽत्। वक्ककर-पुं०(वाक्यकर) गुरुनिर्देशकरणशीले, "वाइओ वायवं वककरे वंशवादनशीले, प्रा० 1 पाद। सपुज्जो''। दश०६ अ०३ उ०। वंसी-स्वी०(वंशी) मुरलिकाख्ये वाद्यभेदे, बृ०२ उ०। *वल्ककर-०। चर्मकारे, आव० 4 अ०। वांशी-स्त्री० / वंशकरीलनिष्पन्ने सुराभेदे, बृ०२ उ०। आ० म०। औ०। | वक्कगय-न०(वाक्यगत) वाक्ये वचनरचनात्मनि गतं वाक्यगतम्। उत्त० वंसीकलंका-स्त्री०(वंशीकलङ्का) वंशजालमय्यां वृत्त्याम्, ज्ञा०१ श्रु० पाई०१ अ०। वाक्यविषये, उत्त० 1 अ०। 18 अ०। नि०। आ० चू०। वक्कथमेत्तविसय-पुं०(वाक्यार्थमात्रविषय) सकलशास्त्रगतवचवंसीणहिया-स्त्री०(वंशीनखिका) कुहणाख्यवनस्पतिभेदे, प्रज्ञा०१पद। नाविरोधिनिर्णीतार्थं वचनं वाक्यं तस्यार्थमात्रं प्रमाणं नयाधिगमरहितं वंसीपत्तिया-स्त्री०(वंशीपत्रिका) वंश्या वंशजात्याः पत्रकमिव या सा तद्विषयस्तद्गोचरो, वाक्यार्थमात्रविषयः / केवलवाक्यार्थगोचरे, षो० वंशीपत्रिका / योनिभेदे, स्था०३ ठा०१ उ०(व्याख्या 'जोणि' शब्दे 11 विव०। चतुर्थभागे 1652 पृष्ठे दर्शिता।) वक्कबंध-पुं०(वल्कबन्ध) शणप्रभृतिकवल्कलबन्धने, विपा० 1 श्रु० वंशीपासाय-पुं०(वंशीप्रासाद) वंशगहनं तदुपलक्षितं प्रासादं यंशी 8 अ०। प्रासादम् / स्वनामख्याते सन्निवेशे, यतः प्रचलितस्य ब्रह्मदत्तचक्रिणः | वक्कभेय-पुं०(वाक्यभेद) मुख्यविशेषताद्वयप्रयोजके वाक्यस्य तन्त्रेणासमकटकान्तरवर्तिन्यामटव्यां तृडतिशयः संजातः। उत्त०१३ अ०। / वृत्त्या वा कल्पिते खण्डद्वये, आचा०१श्रु०१ अ०५ उ०। वंशीमुहा-स्त्री०(वंशीमुखा) द्वीन्द्रियजीवविशेष, जी०१ प्रति०। प्रज्ञा०। वकमाण-त्रि०(व्युत्क्रामत् ) उत्पद्यमाने, ज्ञा०१ श्रु०॥ वसीमूल-न०(वंशीमूल) गृहा बहिः स्थिते अलन्दकादिके, बृ०२ उ०। वक्कय-न०(वल्कज) शणप्रभृतिके, वल्कजाते, आ० म०१ अ०। स्था०। (अत्र व्याख्या 'वसहि शब्दे अस्मिन्नेव भागे दृष्टव्या) वक्कल-न०(वल्कल) "सर्वत्र ल-व-रामचन्द्रे"।२७६ // इति वकुल-पुं०(धकुल) केसरे, यः स्त्रीमुखसीधुसिक्तो विकसति० / जं० 3 लकारस्य लुक् / प्रा० / तरुत्वचि, प्रति०। ऋषीणामुपकरणभेदे, भ० वक्ष०। 11 श०९ उ० / सूत्र० / "ताव सरूवं विउवित्ता वकलं णियत्था'। वकुस-पुं०(वकुश) शवलचारित्रे निर्ग्रन्थे, स्था०५ ठा०३ उ०। उत्त०। आ० म० 1 अ० वर्धे, सूत्र०१श्रु०५ अ० 1 उ०। वक्क-न०(वाक्य) वचने, दश०। वकलचीरि-पुं०(वल्कलचीरिण)वल्कले स्थापितत्वावल्कलचीरीति। वाक्यनिक्षेपाभिधानायाह - स्वनामख्याते तापसे, तं०। आ० म०। आ० चू०। निक्खेवो अ(उ) चउक्को, वक्के दध्वं तु भासदय्वाइं। तत्कथानकं चेदम् - भावे भासासदो, तस्स य एगहिआ इणमो॥ 266 // अणुभूते जहा वक्कलचीरिस्स ! को य वक्कलचीरी-तेणं कालेणं तेणं समयेणं चंपाणयरीए सुहम्मो गणहरो समोसढो, कोणियो राया वंदितुं निक्षेपस्तु चतुष्को नामस्थापनाद्रव्यभावलक्षणो वाक्ये-वाक्य-विषयः, निजाते कतप्पणामोय, जबू(नाम) रूवर्दसणविम्हितो मणहर पुच्छतितत्र नामस्थापने क्षुण्णे, 'द्रव्यं' तु-द्रव्यवाक्यं पुनर्जशीभव्यशरीर भगवं! इमीसे महईएपरिसाए एस सः घतसित्तो व्ववण्हिदित्तो मणोहरव्यतिरिक्तं भाषाद्रव्याणि भाषकेण गृहीतान्यनुचार्यमाणानि, भाव इति सरीरोय किं मणे एतेण सीलंसेवितं, तवो वा आचिण्णं दाणं वा दिण्णं, भाववाक्यम्, भाषा-शब्दः-भाषाद्रव्याणि शब्दत्वेन परिणतान्युचार्य जतो एरिसी तेयसंपत्ती। ततो भगवता भणियो-सुणाहि एयं जहाँ तव माणानीत्यर्थः। तस्य तुवाक्यस्य एकर्थिकानि अमूनि वक्ष्यमाणलक्षणा पितुणा सेणिएण रण्णा पुच्छितेण सामिणा कहितं-तेणं कालेणं तेणं नीतिगाथार्थः। दश०७ अ०२ उ०। (तानिएकार्थिकानि भासा' शब्दे समएणं गुणसिलए चेतिए सामी समोसरितो, सेणिओ राया तित्थगरपञ्चमभागे 1522 पृष्ठे गतानि।) दसणसमुस्सुओवंदउंणिज्जाइ, तस्सय अग्गाणीए दुवे परिसा कुटुंबसंबद्धं *वल्क पुं०। त्वचि, स्था० 10 ठा०३ उ०। आचा०। कह करेमाणा पस्संति एगे साधुंएगचलणपरिहितं समूसवियबाहुजुयलं *वक्र-त्रि० ! कुटिले, आ० क०१ अ०। षो०। आतावेंतं, तत्थेक्केण भणितं, अहो एस महप्पा रिसीसूराभिमुहो तप्पति; ववंत-त्रि०(व्युत्क्रान्त) उत्पन्ने, कल्प०१ अधि०१क्षण / ज्ञा०। एतस्स सग्गोमोक्खोवा हत्थगतोत्ति। बितिएणपञ्चभिण्णाओ।ततोभणतिवकंति-स्वी०(व्युत्क्रान्ति) उत्पत्तौ, स्थानात्प्राप्तस्योत्पादे, स्था०६ठा० कि ण याणसि एस राया पसण्णचंदो। कतो एयस्स धम्मो, पुतोऽणेण बालो 3 उ० / निष्क्रमणे, प्रज्ञा० 1 पद / स्था० / प्रज्ञापनायाः षष्ठे पदे, र ठवितो सो य मंतीहिं रज्जाओ मोइजति / सोऽणेण वंसो विणासिओ। व्युत्क्रान्तिलक्षणाधिकारयुक्तत्वात्तस्य। प्रज्ञा०१ पद। स्था०। भ०। अंतेउरजणो वि ण णज्जति किं पाविहिति / तं च से क्यणं झाणवाधातं
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________________ वक्कलचीरि 778 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वकलचीरि करेमाणं सुतिपहमुवगतं, ततो सो चिंतितुं पयत्तो अहोरत्तं, अणज्जा ते अमचा मया संमाणिया निचं, पुत्तस्स मे वि पडिवण्णा जदि हं होतो एवं च वहृतं तो णेसु नासिते करेंतोमि / एवं च से संकप्पयंतस्स तस्स तं कारणं वट्टमाणमिव जातं। तेहि य समंजुद्धजोणिं मणसा चेव काउमारद्धो / पत्तो य सेणिओ राया तं पदेसं, वंदितोऽणेण विणएण पेच्छति। ण झाणनिचलत्तं अहो अच्छरीरं तं परिसं तवस्सिसामत्थं रायरिसिणो पसन्नचंदस्स त्ति चिन्तयंतो पत्तो तित्थगरसमीवं, वंदित्ता विणएण पुच्छति-भगवं ! पसण्णचंदो अणगारो जम्मि समए ता वंदिओ जदि तम्मि समए कालं करेज का से गती भवेजा ? भगवता भणितं-सत्तमपुढविगमणजोग्गो। ततो चिंतेति, साधुणो कहं नरकगमणं ति। पुणो पुच्छतिभगवं ! पसन्नचंदो जइ इदाणिं कालं करेज कं गति वच्चेजति ? भगवता भणित-सव्वट्ठसिद्धिगमणजोग्गो इदाणिं ति।ततो भणति-कहं इमंदुविहं वागरणं ति ? नरगाऽमरेसु तव-स्सिणो त्ति / भगवता भणितंझाणविसेसेण। तम्मिय इमम्मि समए परिसितस्स असातसातकम्मादाणता। सो भणति-कहं ? भगवता भणितं। तव अग्गाणीतपुरिसमुहनिग्गतं पुत्तपरिभववयणं सोतूण उज्झितपसत्थझाणो तुमे वंदिजमाणो मणसा जुज्झति तिव्वं पराणीएण समं। तओ सोतम्मि समए अहरगतिजोग्गो आसि, तुमम्मि य उवगतजातकरणसत्ति सीसावरणेण पहरामि परं तिलो-इते सीसे हत्थं निक्खिवन्तो पडिबुद्धो, अहो अकजं कर्ज पयहि-तूण परत्थे जदिजणविरुद्धं मग्गमवतिण्णो ति चिंतितूण निंदणगरहणं करेंतो ममं पणमितूण तत्थ गतो चेव आलोइयपडिकतो पसत्थझाणी संपतंतं वऽणेण कम्मं खवितं असुभं, पुण्णमञ्जितं, तेण कालविभागेण दुविहगतिनिद्देसो। ततो कोणिओपुच्छति-कहं वा भगवं! बालं कुमारंठवेत्तेण पसण्णचन्दोराया पव्वइतो, सोतुमिच्छं। ततो भणतिपोतणपुरे णगरे सोमचन्दो राया; तस्स धारिणी देवी, सा कदाइ तस्स रण्णो ओलोयणगतस्स केसे रएति पलितं दळुणं भणति-सामि! दूतो आगतो त्ति, रण्णो दिट्ठी वितारियाणयपस्सति अपुव्वजणं, ततो भणतिदिवि दिव्वं ते चक्खुती य पलियं दंसितं धम्मदूतो एसो त्ति, तं च दद्दूण दुम्मणसितो राया।तंनाऊण देवी भणति-लज्जह वुड्डभावेण निवारिजही जिणो, ततो भणति देवी-न एवं, कुमारो वालो असमत्थो पयालणे होज्जति, मे मणं जातं पुव्वपुरिसाणुचिण्णेण मग्गेण गतोऽहं तिन निवारितु मं पसन्नचंदं सा रक्खमाणी अच्छसु त्ति / स णिच्छित्ता गमणे / ततो पुत्तस्स रज़ दाऊण धातिदेविसहितो दिसा पेक्खिय भावसत्ताए दिक्खितो, चिरसुण्णे आसमपदे ठितो देवीए पुव्वाहूतो गठभो परिवड्डति। पसण्णचंदस्सय चारपुरिसेहिं निवेदितो। पुण्णसमए सूता कुमारं वालेसु ठवितो त्ति वकलचीरित्ति। देवी विसूइया रोगेण मता, वणमहिसीदुदेण य कुमारो वड्डाविज्जति धाती वि थोवेण कालेण कालगता किढिणेण वहति रिसी वकलचीरिं परिवद्धितो य लिहिऊणं दंसितो चित्तकारहिं पसन्नचंदस्स। तेण सिणेहेण गणिका दारियाओ रूवरिसणी खंडमयविविहफलेहिं णं लभेहि त्ति। पच्छा विताओणं फलेहिं मधुरेहिं य ययणेहि य सुकुमालपीरणुण्णतघणसंपीलसोहिहि य लोभेत्ति, सो कतमसमवातो गमणे जाव अतिगतो सभंडगं संठवेतुं ताव रुक्खारूढेहिं चारपुरिसेहि तासिं सण्णा दिण्णा रिसी आगतो त्ति ताओ उत्तमवक्कंताओ सो तासिं बोधिमणुसज्जमाणो ताओ अपस्समाणो अण्णतो गतो, सो अडवीए परिभमतो रहगतं पुरिसं दवण तात ! अभिवादयामि त्ति भणंतो रहिणा पुच्छितो, कुमार ! कत्थ गंतव्वं ? सो भणति-पोतणं नाम आसमपदं तस्स य पुरिसस्स तत्थेवच गंतव्वं / तेण समयं वच्चमाणो रधिणा भणितं तात त्ति आलवति तीए भणितो को इमो उवयारो,रधिणा भणितं सुंदरि! इस्थिविरहिते णूणं एस आसमपदे वड्डितो ण याणति विसेसं, न से कुप्पतिव्वं, कुमारो य भणति-किं इमे मग्गं वाहिज्जंति ? ततो रथिणा भणितं, कुमार ! एते एतम्मिए चेव कजंति / तं एत्थ दोसो तेण वि से मोदगा दिण्णा।सो भणति-पोयणसमवासीहि मे कुमारेहिं एतारिसा चेव फलाणि दत्तपुव्वाणि त्ति / वचंताण य से एकचोरेण सह जुद्धं जातं। रधिणा गाढप्पहारोकतो सिक्खा-गुणपरितोसिओ भणति-अस्थि विउलं धणं तं गेण्हसु सूर ति। तहिं तीहिं वि जणेहिं रहो भरितो कमेण पत्ता पोतणं, मोल्लंगहाय विसञ्जितो उदयं मग्गसु त्ति। सो भमंतो गणियाघरे गतो, अभिवादये देह इमेण मुल्लेण उदयं ति। गणियाए भणिओ-दिज्जति निविस ति, तीए कासवओ सद्दाविओ,ततो अणिच्छंतस्स कतणहपरिकम्म। अवणीयवक्कलो यवत्थाभरणविभूसितो गणिया दारिया य पाणि गाहितोण्हवितोय, मामे रिसिवेसं अवणेहिं त्ति जपमाणो ताहिं भणतोजे उदगत्थी इहमागच्छंति तेसिं एरिसो उवयारो कीर त्ति / ताओ उवगणियाओ उवगायमाणीओ वधूवरं चिट्ठति / जो य कुमारविलोभणनिमित्तं रिसिवेसोजणो पेसितो सो आगतो कहेति, रण्णो कुमारो अडविं अतिगतो अम्हेहिं रिसिस्स भएण ततो णो सद्दाविओ, ततो राया विसण्णमानसो भणति-अहो अकयं न य पितुसमीवे जातो, न य इहं नाणज्जति, किं पत्तो होहिति त्ति चिंतापरो अच्छति सुणतिय मुतिंगसण्णो सहाविओ। ततो राया विसण्ण-मानसो भणति-अहो अकयं दत्तं च सेसुतिपवड्डमाणं भणति-मते दुक्खिते को मण्णे सुहितो गंधव्येण रमति त्ति / गणियाएअहितेणेजाणए कहितं।सा आगता पादपहितारायंफ्सन्नचंद विन्नवेति। देव ! नेमित्तसंदेसो देखो ताव सरूवो तरुणो गिहमागच्छेजा। तस्स मे व दारियं देजासि सो-उत्तमपुरिसो। तं संसित्ता विउलसोक्खभागिणी होहित्ति त्ति। सोय जहा भणिओणेमित्तिणा अजमे गिहमागतो। तच संदेसं पमाणं कारंती पदत्ता से मया दारिया, तन्निमित्तं उस्सवो नयाणं कुमारं पणटुपच्छ मे अवराहं मरिसिहि त्ति, रण्णा संदिट्ठा मणुस्सा। जेहि आसमे दिट्ठपुव्यो कुमारो तेहिं परगतेहि पञ्चभियाणिउं निवेदितं च पियं रण्णो परमपीतिमुक्गतेण य वधूसहितो समीवमुवणीओ। सरिसकुलरूवा जोव्वणगुणाण य रायकण्णयाण य पाणिं गाहितो, कतरज संविभागो य
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________________ वकलचीरि 776 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वक्खाण जहासुहमभिग्गइरहिओ य चोरदत्तं दव्वं विक्किणंतो रायपुरिसेहिं चोरो नय अत्तकलुसभावो, तेण इहं वक्कसुद्धि त्ति // 25 // तिगहितो चारिणा मोइतो पसण्णचंदविदितं। सोमचंदो वि आसने कुमारं यद्-यस्माद्वाक्यं शुद्धं वदतः सतः संयमः शुद्ध्यति, शुद्धयतीति निर्मल अपस्समाणो सोगसागरविगाढो पसन्नचंदसंपेसितेहिं पुरिसेहिं नगरगत- उपजायते, न पुनहिंसा भवति कौशिकादेरिव न-चात्मनः कलुषभावः वक्कलचीरि निवेदितेहिं कहिं वि संठवितो पुत्तमणुसंभरंतो अंधो जातो, कालुष्यं दुष्टाभिसंधिरूपं संजायते, तेन कारणेन इह-प्रवचने वाक्यशुद्धिः रिसीहिं साणुकम्पेहिं कतफलसंविभागो तत्थेव आसमे निवसति / गतेसु भावशुद्धेनिमित्तमित्यतोऽत्र प्रयतितव्यमिति गाथार्थः / दश०७ अ० य वारससु वासेसु कुमारो अद्धरत्ते पडिविबुद्धो पितरं चिंतितुमारद्धो, 2 उ०। किह मण्णे नातो मया णिग्घिणेण मताणि विरहितो अच्छति त्ति वक्ख-पुं०(व्याघ्र) प्राकृते व्याघ्रशब्दस्य वग्घः / "चूलिका पैशाचिके पितुदंसणसमुस्सुगो पसन्नचंदसमीवं गंतूण विण्णवेति। देव ! विसज्जेह मं तृतीयतुर्ययोराधद्वितीयौ' / / 8141325 / / इति धस्य खः। आटव्यउक्कठितो हं तातस्स / तेण भणितो समयं वद्यामो गता य आसमपदं जन्तुविशेषे, प्रा० 4 पाद। निवेदितं च रिसिणो पसण्णचंदो पणमति त्तिचलणोवगतोय णेण पाणिणा वक्खंग-न०(व्याख्याङ्ग) गौणव्याख्यारूपे अध्याहारादौ-अध्याहारो परामुट्ठो पुत्त ! निरामयोऽसि त्ति वक्कलचीरी पुणो अवदासिओ चिरकाल विपरिणामो व्यवहितकल्पना गुणकल्पना लक्षणा वाक्यभेदश्चेति / घरियं च सेवाहं तस्स उमिल्लाणि णयणाणि पस्स तेदो विजणा परमतुट्ठो आचा०१ श्रु०१अ०५ उ०। पुच्छतिय सव्वगतं कालं। वकलचीरी विकुमारो अतिगतो उदयं पस्सामि ताव तातस्स तावसभंडयं अणुवेक्खिज्जमाणं केरिसं जातं ति / तं च | वक्खा-स्त्री०(व्याख्या) व्याख्याने, उत्त० 1 अ० / स्था०। उत्तरियं तेण पडिलेहिउमारखे जति विच पत्तं पायं केसपरियाए। कत्थ वक्खाण-न०(व्याख्यान) वि-आङ्-ख्या-ल्युट् / यकारलोपः / मण्णे मया एरिसं करणं कतपुव्वं ति विधिमणुसरंतस्स तदावरणक्खएण "द्वितीयतुर्ययोरुपरि पूर्वः / / 8 / 2 / 10 // इति स्वकारोपरि ककारः / पुव्वजातिस्सरणं जातं। सुम-रतीय देवमाणुस्सभवे य सामण्णं पुरा कतं प्रा०1 अनुयोगे, विधिप्रतिषेधाभ्यामर्थप्ररूपणे, विशे० / आ० चू०। संभरितूण वेरगमग्गं समुत्तिण्णो धम्मझाणेण विसयातीतो वि विसुज्झ- (अस्य निक्षेपैकार्थनिरुक्तविधिप्रवृत्तिप्रभृतिद्वारैः प्ररूपणा 'अणुओग' माणपरिणामो य वितियसुक्कज्झाणभूमिमतिकतो नट्ठमोहावरणविग्यो शब्दे प्रथमभागे 341 पृष्ठऽकारि।) केवली जातो य परिकहितो धम्मो जिणप्पणीतो पितुणो पसन्नचंदस्सय गवाद्युदाहरणान्याश्रित्य व्याख्यानविधिमाह - रण्णो, ते दो वि लद्धसम्मत्ता पणता सिरेहिं केवलिणो सुद्धं मे दंसितो गोणी चंदण कंथा, चेडीओ सावए बहिरगोदोहे। मगोत्ति वक्कलचीरी पत्तेयबुद्धोगतो, पितरं गहेतूण महावीरबद्धमाणसा टंकणओ ववहारो, पडिवक्खे आयरिय-सीसे // 1424 / / मिणो पासं पसन्नचंदो नियकपुरंगतो, जिणो य भगवं समणो विहरमाणो आचार्यशिष्ययोर्योग्यायोग्यविचारे-गोणी-गौस्तदुदाहरणं वक्तव्यम् / पोतणपुरे मणोरमे उज्जाणे समोसरितो पसन्नचंदो बक्कलचीरिवयण तथा-वन्दनकन्थानिदर्शनम् / तथा-चेट्यौ-जीर्णाभिनवश्रेष्ठिपुत्रिके, जणितवेरग्गो परममणहरतित्थगरमासितमतिवड्डितुच्छाहो वाल पुत्तं रख्ने उविऊण पव्वइतो, अधिगतसुत्तत्थो तवसंजमभावितमती मगहपुरमागतो। तदृष्टान्तो वाच्यः। तथा-श्रावकोदाहरणम्।तथा-बधिरगोदोहनिदतत्थ य सेणिएण सादरं वंदितो आतावेंतो एवं तिक्खातो जाव भगवं र्शनम्। तथा टङ्कणकव्यवहारः षष्ठमुदाहरणम्। एतेषुषट्स्वप्युदाहरणेषु शिष्याचार्ययोः साक्षादयोग्यत्वमभिधाय ततः प्रतिपक्षे योग्यत्वं योजनरगाऽमरगतीसुउकोसद्धितिजोग्गंतं झाणपव्वयं पसण्णचंदस्सवण्णेति। नीयम् / अथवा-एषां षण्णामप्युदाहरणानां मध्ये योग्याऽयोग्ययोताव य देवा तम्मि पदेसे उवट्ठिता, पुच्छितो य अरहा सेणिएण रण्णा। विकल्पेनैकमुदाहरणमाचार्यस्य, एकं तु शिष्यस्य, इत्येवं योजनीयम्। किण्णिमित्तो। एस देवसंपादो त्ति / सामिणा भणितं-पसण्णचंदस्स इति नियुक्तिगाथासंक्षेपार्थः / / 1424 // विशे०।"संहिता च पदं चैव, अणगारस्स णाणुप्पत्ती हरिसिता देवा उवागत त्ति। ततो पुच्छति / एवं पदार्थः पदविग्रहः / चालना प्रत्यवस्थानं, व्याख्याया लक्षणानि षट् महाणुभावं केवलनाणं कत्थभण्णे वोच्छिजिहिति। तं समयं बभिंदसमाणो // 1 // " अनु०। बिज्जुमाली देवो चउहिं देवेहिं सहितो वंदितुमुवगतो उजो वेंतो दस दिसाओ। सो दंसिओ भगवता। एवमादि जहा "वसुदेवहिंडीए'' एत्थ व्याख्यालक्षणमाह - पुण वक्कलचीरिणो अहिगारो ! आ० चू०१ अ०। आ० क०। आ० म०। संहिया य पयं चेव, पयत्थो पयविग्गहो। वक्कलवास-पुं०(वल्कलवासस्) वल्कलवाससि वानप्रस्थे, नि०१ श्रु० चालणा य पसिद्धी य, छव्विहं विद्धि लक्खणं / / 304 // 3 वर्ग 4 अ०। भ०। संहिता 1, पदम् 2, पदार्थः 3, पदविग्रहः 4, चालना 5, प्रसिद्धिश्च वक्कस-न०(वकास) मुद्गभाषादिनखिकानिष्पन्ने अतिनिष्पीडितरसे तुवे, 6, एवं षड्विधम्-षट्प्रकारं व्याख्यालक्षणं विद्धि-जा-नीहि। उत्त०८ अ०। तत्र संहितेति कोऽर्थ इत्याह - वक्कसुद्धि-स्त्री०(वाक्यशुद्धि)संयमशुद्धिनिमित्ते वाक्योक्ती, दशा सन्निकरिसो परो होइ, संहिया संहिया व जं अत्था। जं वकं वयमाणस्स, संजमो सुज्झई न पुण हिंसा। लोगुत्तर लोगम्मि य, हवइ जहा धूमकेउ त्ति / / 305 / /
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________________ वक्खाण ७८०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वक्खाण यो द्वयोर्बहूनां वा पदानां परः-अस्खलितादिगुणोपेतो विविक्ताक्षरो झटिति मेधाविनामर्थप्रदायी सन्निकर्षः-सम्पर्कः संहिता, एषा संहिता सा द्विधा-लौकिकी, लोकोत्तरा च ! तत्र लौकिकी-यथा धूमकेतुरिति, यथा इति पदम्, धूम इति पदम्, केतुरिति पदम्। तिपयं जह ओवम्मे, धूमऽभिभवें केउउस्सए अत्थो। कोऽसुत्ति अग्गि उत्ते, किंलक्खणो दहणपयणाई॥३०६॥ यथा धूमकेतुरिति संहिता / तत्र त्रिपदम्, सम्प्रति पदार्थ उच्यतेयथेत्यौपम्ये, धूम इति अभिभवे'धू' विधूनने इति वचनात्, केतुरित्युच्छ्रये एव पदार्थः / धूमः केतुरस्येतिधूमकेतुरितिपदविग्रहः / कोऽसाविति चेत्-अनिः, एवमुक्ते पुनराह-स किंलक्षणः ? सूरिराह-दहनपचनादिःदाहनपाचनप्रकाशनसमर्थोऽर्चिष्मान्। अत्र चालनां प्रत्यवस्थानं चाऽऽह - जइ एव सुत्तसोवी-रगाइवी हॉति अग्गिमक्खेवो। न वि ते अग्गि पइन्ना, कसिणग्गिगुणन्निओ हेऊ // 307 // दिद्रुतो घडगारो, न वि जे उक्खेवणाइतकारी। जम्हा जहुत्तहेउ-समनिओ निगमणं अग्गी // 30 // यदि नाम-दहनपचनादिस्तर्हि शुक्तिसौवीरकादयोऽपि दहन्ति, करीषादयोऽपि पचन्ति, खद्योतमणिप्रभृतयोऽपि प्रकाशयन्ति ततस्तेऽप्यग्निर्भवितुमर्हन्ति एष आक्षेपः-चालना। अत्र प्रत्यवस्था-नमाह-नैव शुक्त्यादयोऽग्निर्भवन्तीति प्रतिज्ञा, कृत्स्नगुणसमन्वितत्वादिति हेतुः, दृष्टान्तो घटकारः / यथाहि-घटकर्ता मृत्पिण्डदण्डचक्रसूत्रादेकप्रयत्नहेतुकस्य घटस्य कात्स्र्नेनाभिनिवर्तकाभिनिवृत्तस्य चोत्क्षेपणोद्वहनसमर्थो यथाऽन्ये पुरुषाः, न च ये घटस्योत्क्षेपणादयस्तत्कारीघटस्याभिनिर्वर्त्तक एवमत्राऽपि। यो दहति पचति प्रकाशयतिच; यथा-स्वगतेन लक्षणेन साधारणः स एव यथोक्तहेतुसमन्वितः परिपूर्णोऽग्निर्न शुक्त्यादय इति निगमनम्। सम्प्रति लोकोत्तरे संहितादीनि दर्शयति - उत्तरिऍ जह दुमाई, तहत्थ हेऊ अविग्गहो चेव। को पुण दुम त्ति वुत्तो, भण्णइ पत्ताइउववेओ / / 306 // लोकोत्तरे.. 'जहादुमस्स पुप्फेसु भमरो आवियइरसं' इति। संहिता! अत्र पदानि-यथा इति, द्रुम इति, पुष्पेष्विति,भ्रमर इति, आपिबतीति, रसमिति। अधुना पदार्थ उच्यते-यथेति-औपम्ये, द्वगतौ, द्रवति गच्छति अथ उपरि चेति द्रुमः, औणादिको मक्- प्रत्ययः, तस्य द्रुमस्य, पुष्प विकसने, पुष्पन्ति-विकसन्तीतिपु-ष्पाणि अच् तेषु, भ्रम अनवस्थाने भ्राम्यति निरन्तरमिति भ्रमरः औणादिकोऽरः प्रत्ययः, पा पाने आङ् मर्यादायामभिविधौ वा, तस्य तिपि आपिबतीति रूपम्, रस आस्वादने, रस्यते आस्वाद्यते इति रसः कर्मण्यौणादिकोऽकारप्रत्ययस्तम्, अत्र व्यस्तपदत्वादि-ग्रहाभावः। तथा चाह-'तदत्थहेऊ अविग्गहोचेव' तेषां पदाना-मर्थस्य हेतुरविग्रह एव, न विग्रहद्वारेणात्र पदार्थ इत्यर्थः, अत्र चालना। नोदक आह-कः कीदृमूलक्षणो द्रुम उक्तः, सूरिराह भण्यतेपत्राद्युषतः-पत्रपुष्पफलादिसमन्वितः। उक्तं च- "पत्रपुष्पफलोपेतो, मूलस्कन्धसमन्वितः। एष वृक्ष इतिज्ञेयो, विपरीतस्ततोऽन्यथा।।१॥" / तदभावेन - तदभावे न दुम त्ति य, तदभावे वि स दुम त्ति य पन्ना। तग्गुणलद्धी हेऊ, दिलुतो होइ रहकारो॥३१०॥ यदि पत्राद्युपेतो द्रुमस्तर्हि तदा परिशटितपाण्डुपत्रादि मो भवति, तदा तस्याऽद्रुमत्वं प्राप्नोति, एषा चालना। अत्र प्रत्यवस्थानम्- तदभावेऽपि स द्रुम इति प्रतिज्ञा, तद्गुणलब्धित्वादिति हेतुः, दृष्टान्तो रथकारः, यथाहि-रथकारस्य रथकरणे प्रयत्नमकुर्वाणस्यापि रथकर्तृत्वं तद्गुणलब्धित्वात्; एवं परिशटितपाण्डुपत्रस्यापिट्ठमस्य तद्गुणलब्धेरनिवृत्तत्वादव्याहतं द्रुमत्वमिति। सम्प्रति मतान्तरेणान्यथा व्याख्यालक्षणमाह - सुत्तं पयं पयत्थो, पयनिक्खेवो य निन्नयपसिद्धी। पंच विगप्पा एए, दो सुत्ते तिन्नि अत्थम्मि॥३११॥ प्रथमतोऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयम्, ततः पदम्-पदच्छेदो विधेयः, तदनन्तरं पदार्थः कथनीयः, ततः पदनिक्षेपः-पदार्थनोदना, तदनन्तरं निर्णयप्रसिद्धिः-निर्णयविधानम्, पदनिग्रहः पदार्थेऽन्तर्भूतः। एवमेते पञ्च विकल्पाः व्याख्यायां भवन्ति / अत्र-सूत्रम् पदमिति द्वौ विकल्पौ सूत्रे प्रविष्टौ, त्रयः-पदार्थाः तदाक्षेपनि-र्णयः प्रसिद्ध्यात्मकः अर्थ इति। बृ०१ उ०१ प्रक०। अथ पदस्य किं परिमाणमत आह - अत्थवसा हवइ पयं, अत्थो इच्छियवसेण विन्नेओ। इच्छा य पकरणवसा, पगरणओ निच्छओं समत्थे / / यत्रार्थोपलब्धिस्तत्पदमतोऽर्थवशाद्भवति पदम, अर्थस्य किं प्रमाणमत आह-अर्थ ईप्सितवशेन विज्ञेयः, इच्छायाः किं प्रमाण-मत आह-इच्छा च प्रकरणवशात्-प्रकारणानुरोधत इच्छायाः प्रमाणम्, प्रकरणस्य च निश्चयः शास्त्र-शास्त्रानुसारतः। गतं लक्षणद्वारम्। बृ०१उ०१प्रक०। नामस्थापनाद्रव्यभावैरपि व्याख्या भवति। तथा चाह - "संहितादिर्यती व्याख्या-विधिः सर्वत्र दृश्यते। नामादिविधिनाऽऽरब्धू, न व्याख्या युज्यते ततः // 1 // इत्याहुरपि भाव्यैव, स्याद्वादं वादिनोऽपरे। यत्तदत्र निराकार्य-माचक्षाणेन तद्विधिम् // 2 // स्यादस्तीत्यादिको वादः, स्यावाद इति गीयते। नयौ न च विमुच्याय, द्रव्यपर्यायवादिनौ॥३॥ अतश्चैतद्वयोपेतं, स्वंमतं समुदाहृतम्। सञ्जाततत्त्वसंविद्भिः, स्याद्वादः परमेश्वरैः॥ 4 // ते हि तीर्थविधौ सर्वे, मातृकाख्यं पदत्रयम्। उत्पतिविगमध्रौव्य-ख्यापकं संप्रचक्षते // 5 // उत्पत्तिविगमावत्र, मतं पर्यायवादिनः। द्रव्यार्थिकस्य तु ध्रौव्यं, मातृकाख्यपदत्रये॥६॥ द्रव्यत्वमन्वयित्वेन, मृदो यद्बद्धटादिषु। तद्वद्देशान्वयित्वेन, नामस्थापनयोरपि।। 7 // अन्वयित्वं तु सर्वत्र, सङ्केतान्नम्न उच्यते। स्थापनायाश्च तद्रूप-क्रियातो बुद्धितोऽपि वा / / 8 //
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________________ वक्खाण 781 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वक्खाण तनामस्थापनाद्रव्य-निक्षेपैरनुवर्त्तितः। द्रव्यार्थिकनयो भाव-निक्षेपादितरः पुनः // 6 // तथा च महामतिःतित्थयरवयणसंगह-विवेगपत्थारमुलवागरणी। दव्वढिओ विपज्जव-नओय सेसा वियप्पासिं॥१०॥ तथानाम ठवणा दविय-त्ति एस दव्वट्ठियस्स निक्खेवो। भाव त्ति पज्जवडिय-परूवणा एस परमत्थो॥११॥ यद्वा किन्नः किलैताभ्यां, किंत्वेष विधिराश्रितः। यद्व्याख्या वस्तुतत्त्वस्य, बोधायैव विधीयते।।१२।। तच नामादिरूपेण, चतूरूपं व्यवस्थितम्। नामाद्येकान्तवादाना-मयुक्तत्वेन संस्थितेः // 13 // उत्त० पाई०१ अ०।नयाः व्याख्यानाङ्गानि-"ऐन्दवीव विमला कलाऽनिशं, भव्यकरवविकाशनोद्यता / तन्वती नयविवेकभारती भारती जयति विश्ववेदिनः // 1 // नयो०। (अत्र विशेषः ‘णय 'शब्दे चतुर्थभागे 1853 पृष्ठे गतः।) सूत्रे विगृहीतेऽर्थो व्याख्येयःसंबंधो दरिसिज्जइ, उस्सुत्तो खलु न विज्जते अत्थो। उच्चारितछिण्णपदे, विग्गहिए चेव अत्थो उ॥१४|| सूत्रे उच्चारिते सति सम्बन्धोऽनन्तरसूत्रादिभिः सह दर्श्यते, यतःसंबन्धोऽर्थतो भवति वर्णानां स्वतः संबन्धाभावात् / स चार्थः खलु उत्सूत्रः-सूत्ररहितो न विद्यते, संबन्धे चोपदर्शिते, उच्चारितसूत्रस्य छिन्नानि पदानि कर्त्तव्यानि, पदच्छेदो विधातव्य इत्यर्थः / ततो यानि पदानि विग्रहभाजि तेषु विग्रह उपदर्शनीयः / विगृहीते च सूत्रतोऽर्थी व्याख्येयः। व्य०५ उ०। गुरुणा यथा व्याख्यातव्यं तदाह - सुत्तत्थो खलु पढमो,बीओ निझुत्तिमीसओ भणिओ। तइओ य निरवसेसो, एस विही होइ अणुओगे॥५६६ // सूत्रस्याऽर्थो यत्रासौ सूत्रार्थः / खलुखधारणे / ततश्च सूत्रार्थ एवसूत्रार्थमात्रप्रतिपादनपर एव प्रथमः-प्रथमवारायामनुयोगो गुरुणा कर्तव्यः, द्वितीयस्तु-द्वितीयवारायां सूत्रस्पर्शकनियुक्तिमिश्रक कर्तव्यतया भणितस्तीर्थकरगणधरैः। तृतीयस्तु-तृतीयवारायां प्रसक्तानुप्रसक्तमप्युच्यते यस्मिन् स एवंलक्षणो निरवशेषो भणितः / एष उक्तलक्षणो विधान-विधिर्भवति। व? इत्याह, सूत्रस्य निजेनाभिधेयेन सार्द्धमनुकूलो योगोऽनुयोगेः सूत्रस्यार्थान्वाख्यानमित्यर्थः तस्मिन्ननुयोग-अनुयोगविषये इति नियुक्तिगा-थार्थः / विशे० / उक्तलक्षणो विधिर्भवत्यनुयोगव्याख्यायाम, आह परिनिष्ठा सप्तमे इत्युक्तम्, त्रयश्चानुयोगप्रकारास्तदेव कथम् ? उच्यते-त्रयाणामनुयोगप्रकाराणामन्यतमेन केनचित् प्रकारेण भूयो भूयो भाव्यमानेन सप्तवारं श्रवणं कार्यते ततो न कश्चिद्दोषः, अथवा-कंचिन्मन्दमतिविनेयमधिकृत्य तदुक्तं द्रष्टव्यम्,न पुनरेष एव सर्वश्रवणविधिनियमः, उद्घटिततज्ज्ञविनेयानांसकृच्श्रवणत एवा-शेषग्रहणदर्शनादिति कृतं प्रसङ्गेन। आ० म०१ अ०। यथा व्याख्यानयितव्यं तथाह - अह वक्खाणेअव्वं,जहा जहा तस्स अवगमो होइ। आगमिअमागमेणं, जुत्तीगम्मं तु जुत्तीए।। 661 // अथ व्याख्यानयितव्यं किमपि श्रुतं कथमित्याह-यथा यथा श्रोतुरवगमो भवति परिक्षेत्यर्थः, तत्रापि स्थितिमाह-आगमिकं वस्त्वागमेन, यथा-स्वर्गेऽप्सरसः, उत्तराः कुरव इत्यादि, युक्तिगम्यं पुनर्युक्त्यैव, यथा-देहमात्रपरिणाम्यात्मेत्यादीति गाथार्थः / किंमित्येतदेवमित्याह - जम्हा उ दोण्ह वि इहं, मणि पन्नवगकहणभावाणं / लक्खणमणघमएहिं, पुवायरिएहिआगमतो ||62|| यस्माद् द्वयोरप्यत्र-प्रवचने भणितं प्रज्ञापककथनभावयोः पदार्थयोरित्यर्थः, लक्षणं-स्वरूपम्, कैरित्याह-अनधमतैः-अवदातबुद्धिभिः पूर्वाचाथैः, कुत इत्याह-आगमान तुस्वमनीषिकयैवेति गाथार्थः। किं भूतं तदित्याह - जो हेउँवाओ पक्ख-म्मि हेउओ आगमे अ आगमिओ। सो समयपण्णवओ, सिद्धंत विराहओ अन्नो || 163|| यो हेतुवादः पक्षे युक्तिगम्ये वस्तुनि हेतुको-हेतुना चरति, आगमे चागमिको नतत्रापि मतिमोहनी युक्तिमाह। 'स' एवंभूतः स्वसमयप्रज्ञापका भगवदनुमतः, सिद्धान्तविरोधकोऽन्यः तल्लाघवापादनादिति गाथार्थः। आणागिज्झो अत्थो, आणाए चेव सो कहेयय्वो। दिट्ठति अदिटुंता, कहणविहिविराहणा इहरा | EEY || आज्ञाग्राह्योऽर्थः -आगमग्राह्यः आज्ञयैवासौ कथयितव्यः आगमेनैवेत्यर्थः / दान्तिको 'दृष्टान्तात्' दृष्टान्तेन कथनविधिरेष सूत्रार्थे / विराधनेतरथा कथनेनास्येति गाथार्थः / तो आगमहेउगयं, सुअम्मि मह गोरवं जणंतेणं / उत्तमनिदसणजुअं, विचित्तणयगम्भसारं च ||5|| तत्तस्मादागमहेतुगतं-यथाविषयमुभयोपयोगेन व्याख्यानं कर्त्तव्यमिति योगः श्रुते, तथागौरवं जनयता-नयथातथाभिधानंन हेयबुद्धिं कुर्वता, तथा उत्तमनिदर्शनयुतम् अहीनोदाहरणवत्, तथा विचित्रनयगर्भसारंच निश्चयाद्यने कनयार्थप्रधानमिति गाथार्थः। भगवंते सव्वण्णे, तप्पचय-कारिगंभीरसारभणिईहिं। संवेगकरं निअमा, वक्खाणं होइ कायव्वं || 616 // भगवति-सर्वज्ञे तत्प्रत्ययकारिता-सर्वज्ञ एवमाहेत्येवगम्भीरसारभणितिभिः न तुच्छग्राम्योक्तिभिरिति संवेगकर नियमाच्छ्रोतृणामौचित्येन व्याख्यानं भवति कर्त्तव्यंनान्यथेति गाथार्थः। एतदेवाहहॉति उ विपयजम्मि, दोसा एत्थं विपज्जयादेव। ता उवसंपन्नाणं, एवं चिअबुद्धिमं कुजा ||17 // भवन्तितु विपर्यये-अन्यथाकरणे दोषाः अत्र, कुत इत्याह-एत-द्विपर्ययादेव कारणात्तत्तस्मादुपसंपन्नानां सतां शिष्याणामेव यथोक्तबुद्धिमान् कुर्याद्व्याख्यानमिति गाथार्थः। कालादन्यथाकरणे अदोषाशङ्कां परिहरन्नाह - कालो वि वितह करणे,णेगंतेणेह होइ सरणं तु /
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________________ वक्खाण 782- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वक्खाण णहि एअम्मि वि काले, विसाइ सुहयं अमंतजुअं||६|| कालोऽपि वितथकरणे-विपरीतकरणे नैकान्तेन इह-प्रक्रमे भवति शरणमेव, कुत इत्याह-न होतस्मिन्नपि काले दुःषमालक्षणे विषादि प्रकृतिदुष्टं तत्सुखदममन्त्रयुतं तु भवतीति गाथार्थः। एत्थं च वितहकरणं, नेअं आउट्टिआ उसवं पि। पायं विसायतुल्लं,आणाजोगो अमंतसमो || EEET अत्र च प्रक्रमे वितथकरणं ज्ञेयमाकुट्टिकयोपेत्यकरणेन सर्वमपि पापं निध्नं विषादितुल्यं विपाकदारुणत्वादाज्ञायोगश्व-सूत्रव्यापारश्य अत्र | मन्त्रसमः तदोषापनयनादीति सूत्रार्थः। उपसंहरन्नाह - ता एअम्मि वि काले,आणाकरणे अमूढलक्खेहि। सत्तीए जहअव्वं, एत्थ विही हंदि एसो अ॥ 1000 / / यस्मादेवं तस्मादेतस्मिन्नपि काले-दुःषमारूपे आज्ञाकरणे सौत्रविधिसंपादने अमूढलक्षः सद्भिः शक्त्या यतितव्यमुपसंपदादौ, अत्र विधिरेष व्याख्यानकरणे, हंदीत्युपप्रदर्शने एष च-वक्ष्यमाणलक्षण इति गाथार्थः। मजणनिसिज्जअक्खा, किइकम्मुस्सग्गवंदणं जिहे। भासंतों होइ जिट्ठो, न उपरिआएण तो वंदे // 1001 // मार्जनं व्याख्यास्थानस्य, निषद्या-गुर्वादः, अक्षाः-वन्दनका उपनीयन्ते / कृतिकर्मवन्दनमाचार्याय कायोत्सर्गोऽनुयोगार्थं वन्दनंज्येष्ठविषयमिह भाषमाणो भवति, ज्येष्ठः न तु पर्यायेण ततो वन्देत तमेवेति गाथार्थः। व्यासार्थं त्याह - ठाणं पमजिऊणं, दोन्नि निसिजाउ हॉति कायव्वा। एका गुरुणो भणिआ, बीआ पुण होइ अक्खाणं / / 1002 // स्थानं प्रमृज्य व्याख्यास्थानं द्वे निषद्ये भवतः कर्तव्ये सम्यगुचितकल्पैस्तत्रैका गुरोमणिता निषीदननिमित्तम्, द्वितीया पुनर्भवति मनागुचतरा अक्षाणां समवसरणोपलक्षणमेतदिति गाथार्थः / विधिशेषमाह - दो चेव मत्तगाई,खेले काइअसदोसगस्सुचिए। एवंविहो वि णिचं, वक्खाणिज्ज ति भावत्थो।।१००३ // द्वे एव मात्रके भवतः, श्लेष्ममात्रकं कायिकमात्रकं च / सदोषकस्य गुरोर्न सर्वस्य, उचिते भूभागे भवतः। ऐदंपर्यमाह-एवंविधोऽपि सदोषः सन्नित्यं स व्याख्यानयेदिति प्रस्तुतभावार्थ इति गाथार्थः / भावावो उसुणंती, सव्वे विहु ते तओ अउवउत्ता। पडिलेहिऊण पोत्तिं, जुगवं वंदंति भावणया / / 1001 / / भावतः शृण्वन्ति व्याख्यानं सर्वेऽपि साधवः सर्वेऽपि ते ततश्च तदनन्तरमुपयुक्ताः सन्तः प्रत्युपेक्ष्य पोत्तिं तथा कायं च युगपद्वन्दन्ते गुरुं न विषमं भावनताः सन्त इति गाथार्थः / सव्वे वि उ उस्सग्गं, करिति सम्वे पुणो वि वंदंति। नासन्ने नाइदूरे, गुरुवयणपडिच्छगा होति // 1005 / / सर्वेऽपि च भूयः कायोत्सर्ग कुर्वन्ति अनुयोगप्रारम्भार्थ तत्समाप्तौ च सर्वे पुनरपि वन्दन्ते गुरुमेव ज्येष्ठार्यमिति। अन्ये तदनु नासन्ने नातिदूरे गुर्ववग्रहं विहाय गुरुवचनप्रतीच्छका भवन्त्युपयुक्ता इति गाथार्थः / पं० व०४ द्वार। (श्रवणविधिम् 'सवण' शब्दे वक्ष्यामि) वक्खाणसमत्तीए, जोगं काऊण काइआईणं / वंदंति तओ जि8, अण्णे पुटवचिअ भणंति / / 1006 / / व्याख्यानसमाप्तौ सत्यां किमित्याह-योगं कृत्वा कायिकादीनामादिशब्दाद्-गुरुविश्रमणादिपरिग्रहः, वन्दन्ते ततो ज्येष्ठ-प्रत्युचारकं श्रवणाय अन्ये पूर्वमेव भणन्ति; यदुतादावेव ज्येष्ठ वन्दन्त इतिगाथार्थः / चोएइ जइ उ, जिट्ठो, कहिं, वि सुत्तत्थधारणाविकलो। वक्खाणलद्धिहीणो, निरत्थयं वंदणं तम्मि / / 1010 // चोदयति कश्चिद्-यदि तु ज्येष्ठः पर्यायवृद्धः कथंचित्सूत्रार्थधारणाविकलो जडतया कर्मदोषात्ततश्च व्याख्यानलब्धिहीनोऽसौ वर्तते, एवं च निरर्थकं वन्दनं तस्मिन्निति गाथार्थः। अह वयपरिआएहिं, लहुगो विहु भासगो इह जिहो। रायणियवंदणे पुण, तस्स वि आसायणा भंते ! / / 1011 // अथ वयःपर्यायाभ्यां लघुः यदि कश्चिद्भाषक इह ज्येष्ठो गृह्यते, रत्नाधिकं वन्दते पुनस्तस्यापि लघोः आशातना भदन्त ! भवतीति गाथार्थः। अत्राहजइ वि वयमाइएहिं, लहुओ सुत्तत्थधारणापडुओ। वक्खाणलद्धिमं जो, सो चिअं इह धिप्पई जिट्ठो। 1012 / / यद्यपि क्यआदिभिः-वयसा पर्यायेण च लघुकः सन् सूत्रार्थ-धारणापटुर्दक्षः व्याख्यानलब्धिमान् यः कश्चित्स एवेह प्रक्रमे गृह्यतेज्येष्ठः, नतु वयसा पर्यायण वेति गाथार्थः। आसायणाऽवि नेवं, पडुच जिणवयणमासगं जम्हा। वंदणगं रायणिओ, तेण गुणेणं पि सो चेव / / 1013 / / आशातनाऽपि नैवं भवति प्रतीत्य जिनवचनभाषकं यस्माद्वन्दनकं तद्रत्नाधिकस्तेन गुणेनापि भाषणलक्षणेन स एवेति गाथार्थः / एतदेव भावयतिण वओ एत्थ पमाणं,ण य परिआओ उनिच्छयणएणं / ववहारओ उजुज्जइ, उभयणयमयं पुण पमाणं / / 1015 // न वयोऽत्र प्रक्रमे सामान्यगुणचिन्तायां वा प्रमाणम्, न च पर्यायोऽपि प्रव्रज्यालक्षणः निश्चयनयमतेन व्यवहारतस्तुयुज्यते। वयः पर्यायश्च। उभयनयमतं पुनः प्रमाणं सर्वत्रैवेतिगाथार्थः / यतःनिच्छयओ दुग्नेअं, को भावे कम्भि वट्टई समणो। ववहारओ उ कीरइ, जो पुटवठिओ चरित्तम्मि॥ 1015 // निश्चयतो दुर्विज्ञेयमेतत्को भावे कस्मिन् शुभाशुभतरादौ वर्तते श्रमणस्ततश्चाकर्तध्यमे वैतत्प्राप्नोति, व्यवहारतस्तु
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________________ वक्खाण 753 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वक्खारपव्वय क्रियत एवै- तद्यः पूर्वमादौ स्थितश्चारित्रे आदी प्रव्रजित इतिगाथार्थः / युक्तं चैतदित्याह - ववहारो विहु बलवं, जं छउमत्थं पि वंदई अरहा। जा होई अणामिन्नो, जाणतो धम्मयं एयं / / 1016 / / व्यवहारोऽपि निश्चयेन बलवान् वर्त्तते यत् छद्मस्थमपि सन्तं चिरप्रव्रजितं वन्दते अर्हन् केवली, यावद्भवत्यनभिज्ञः स चिरप्रव्रजितः, जानानो धर्मतामेनाम् व्यवहारगोचरामिति गाथार्थः। यद्येवं कः प्रकृतोपयोग इत्याहएत्थ उ जिणवयणाओ, सुत्तासायणबहुत्तदोसाओ। भासंति जिट्ठगस्स उ, कायव्वं होइ किइकम्मं / / 1017 / / अत्र तु 'जिनवचनाद्' 'भासन्तो' 'होती त्यादेः सूत्रात् सूत्राशातनायां दोषबहुलत्वात्कारणाद्भाषमाणज्येष्ठस्यैव कर्त्तव्यं भवति- 'कृतिकर्म' वन्दनं नेतरस्येति गाथार्थः। व्याख्येयमाह - वक्खाणेअव्वं पुण, जिणवयणं णंदिमाइसुपसत्थं / जं जम्मि जम्मि काले, जावइ भावसंजुत्तं / / 1016 / / व्याख्यानयितव्यं पुनस्तेन जिनवचनं, नान्यत्। नन्द्यादि, सुप्रशस्तंसंवेगकारि, यत् यस्मिन् यस्मिन् काले यावत्प्रचरति 'भावसंयुक्त' भावार्थसारमिति गाथार्थः। सिस्से वा णाऊणं, जोम्गयरे केइ दिद्विवायाई। तत्तो वा निजूढं, सेसं ते चेव विअरंति // 1016 / / शिष्यान् वा ज्ञात्वा योग्येतरान् काश्चन दृष्टिवादादिव्याख्यानयितव्यम्, ततो वा दृष्टिवादादेः निर्मूढमाकृष्टं शेष नन्द्यादि, तएव योग्याः वितरन्ति तदन्येभ्यो ददतीति गाथार्थः। नियूँढलक्षणमाह - सम्मं धम्मविसेसो, जहिय कसच्छेअतावपरिसुद्धो। वण्णिज्जइ निजूढं, एवंविहमुत्तमसुआइ॥ 1020 // सम्यग् धर्मविशेषः-पारमार्थिकः यत्र-ग्रन्थरूपे कषच्छेदतापपरिशुद्धः त्रिकोटीदोषवर्जितः वर्ण्यते-सम्यक् नियूढमेवंविधं भवति, ग्रन्थरूपं तमोत्तमश्रुतादि, उत्तमश्रुतं स्तवपरिज्ञा इत्येवमादीति गाथार्थः / / पं० व० 4 द्वार / ( श्रोतृणामभावेऽपि व्याख्यानं दातव्यमिति 'अणुओग' शब्दे प्रथमभागे 351 पृष्ठे गतम्।) व्याख्यानानं च व्याख्यानविधिःअनुयोगेऽन्तर्भवति। विशे०।। वक्खाणविहि-पुं०(व्याख्यानविधि) व्याख्यानस्य विधिः व्याख्यानविधिः / शिष्याचार्यपरीक्षाभिधाने, आ० म०१ अ०। वक्खाणेयव्व-न०(व्याख्यानयितव्य) कर्त्तव्ये व्याख्याने,पं०व०४ द्वार। वक्खायरय-पुं०(व्याख्यातरत) विविधम्-अनेकप्रकारं प्रधानपुरुषार्थतयाऽऽरब्धशास्त्रार्थतया तपःसंयमानुष्ठानार्थत्वेन आख्यातो व्याख्यातो मोक्षः अशेषकर्मक्षयलक्षणो विशिष्टाकाशप्रदेशाख्यो वा तत्र रतो व्याख्यातरतः / आत्यन्तिकैकान्तिकानाबाधसुखक्षायिकज्ञानदर्शनसंपदुपेते, "वट्टमग्गंवक्खायरते सव्वे सरा णियट्टति तक्का जत्थण विज्जति''| आचा०१ श्रु०५ अ०६ उ०। वक्खार-पुं०(वक्षार) अपवरके, व्य०६ उ०। वक्खारपव्वय-पुं० [व(क्षार)क्षस्कारपर्वत] वक्षसि मध्ये गोप्यं क्षेत्रं द्वौ संभूय कुर्वन्तीति वक्षस्काराः / तज्जातीयोऽयमिति वक्षस्कारपर्वतः / गजदन्तापरपर्याय पर्वते, जं० 4 वक्ष०। चं० प्र०। मेरोदक्षिणे द्वौ वक्षस्कारौ - जंबूमंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं देवकुराए पुटदावरे पासे एत्थ णं आसक्खंधगसरिसा अद्धचंदसंठाणसंठिया दो वक्खारपव्वया पन्नत्ता, तं जहा-बहुसमा० जाव सोमणसे चेव, विजुप्पभे चेव / जंबूमंदरस्स उत्तरेणं उत्तरकुराए पुष्वावरे पासे एत्थ णं आसक्खंधगसरिसा अद्धचंदसंठाणसंठिया दो वक्खारपव्वया पण्णत्ता, तं जहा-बहुसमतुल्ला० जाव गंधमायणे चेव मालवंते चेव। (सू०-८७४) 'जंबू' इत्यादि 'पुव्वावरे पासे त्ति पार्श्वशब्दस्य प्रत्येकं सम्बन्धात् पूर्वपार्श्व च, किंभूते?- 'एत्थ' ति प्रज्ञापकेनोपदर्यमानेनक्रमेण सौमनसविद्युत्प्रभौ प्रज्ञप्तौ, किं भूतौ ? अश्वस्कन्धसदृशावादौ निम्नौ पर्यवसाने उन्नतौ, यतो निषधसमीपे चतुःशतोच्छ्रितौ मेरुसमीपेतु पञ्चशतोच्छ्रिताविति। आह च - वासहर गिरि तेणं, रुंदा पञ्चेव जोयणसयाई। चत्तारि सउव्विद्धा, ओगाढा जोयणाण सयं // 1 // पञ्चसए उव्विद्धा, ओगाढा पंच गाउयसयाई। अंगुलअसंखभागा, वित्थिन्ना मंदरतेणं / / 2 // वक्खारपव्वयाणं, आयामो तीसजोयणसहस्सा। दोन्नि सया य नवहिया, छच्च कलाओ चउण्हं पि॥ 3 // इति, 'अवद्धचंद' त्ति अपकृष्टमर्द्ध चन्द्रस्यापार्द्धचन्द्रस्तस्य यत्संस्थानम् आकारो गजदन्ताकृतिरित्यर्थः, तेन संस्थितावपार्द्धचन्द्रसंस्थानसंस्थितौ, अर्द्धचन्द्रसंस्थानसंस्थिताविति क्वचित्पाठः, तत्रार्द्धशब्देन विभागमात्रं विवक्ष्यते, न तु समप्रविभागतेति, ताभ्यां चार्द्धचन्द्राकारा देवकुरवःकृताः, अतएव वक्षाराकारक्षेत्रकारिणौ पर्वती वक्षारपर्वताविति 'जम्बू' इत्यादि तथैव नवरमपरपावें गन्धमादनः पूर्वपार्श्वे माल्यवानिति। स्था०२ ठा०३ उ०। (एकशैलवक्षस्कारकूटवक्तव्यता 'एगसेलकूड' शब्दे तृतीयभागे 31 पृष्ठे गता।) जम्बूद्वीपे सीताया उभयकूलेजम्बुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरत्थिमेणं सीआए महाणईए उत्तरकूले चत्तारिवक्खारपव्वया पण्णत्ता,तंजहा-चित्तकूडे पम्हकूडे णलिणकूडे एगसेले / जम्बूदीवे दीवे मंदरपुरस्थिमेणं सीआए महाणईए दाहिणकूले चत्तारि वक्खारपव्वया पण्णत्ता।तं जहा-तिकूडे वेसमणकूडे अंजणे मायंजणे / (सू०३०२४)
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________________ वक्खारपव्वय 754- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वक्खारपव्वय सीतोदाया उभयकूले - जंबूदीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पचत्थिमे णं सीओआए महाणईए दाहिणकूले चत्तारिवक्खारपव्वया पण्णत्ता, तं जहाअंकावई पम्हावई आसीविसे सुहावहे / जंबूदीवे दीवे मंदरस्स पञ्चत्थिमे णं सीओआए महाणईए उत्तरे कूले चत्तारि वक्खारपव्वया पण्णत्ता, तं जहा-चंदपव्वए सूरपव्वए देवपव्वए णागपव्वए। (सू० -3024) मन्दरस्य चतुर्दिक्षु - जंबूदीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स चउसु वि दिसासु चत्तारि वक्खारपव्वया पण्णत्ता, तं जहा-सोमणसे विझुप्पभे गंधमायणे मालवंते। (सू०-३०२+) स्था० 4 ठा०२ उ०। जम्बूद्वीपे सीताया महानद्याः - जम्बूदीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरच्छिमेणं सीयाए महानदीए उत्तरे णं पच वक्खारपव्वया पण्णत्ता, तं जहा-मालवए चित्तकूडे पम्हकूडे णलिणकूडे एगसेले / (सू०४३४+) सीताया दक्षिणे - जंबूमन्दरस्स पुरओ सीयाए महाणदीए दाहिणे णं पंच वक्खारपव्वया पण्णत्ता, तं जहा-तिकूडे वेसमणकूडे अंजणे मायंजणे सोमणसे। (सू०-४३४+) सीतोदया उभयकुले - जंबूमंदरस्स पचत्थिमे णं सीओयाए महाणईए दाहिणे णं पंच वक्खारपव्वया पण्णत्ता,तं जहा-विज्जुप्पभे अंकावई पम्हावई आसीविसे सुहावए। जंबूमंदरस्स पचत्थिमे णं सीओयाए महाणईए उत्तरे णं पञ्च वक्खारपव्वया पण्णत्ता, तं जहा-चंदपव्वए सूरपव्वएणागपटवए देवपव्वए गन्धमायणे। (सू०४३४+) कण्ठ्यश्चायं नवरं मालवन्तो गजदन्तकात् प्रदक्षिणया सूत्रचतुष्टयोक्ता विंशतिर्वक्षस्कारगिरयोऽवगन्तव्या इति। स्था० 5 ठा०२ उ०। जम्बूद्वीपे सीताया नद्या उभयतटेजम्बूमंदरस्स पटवयस्स पुरच्छिमे णं सीयाए महानईए उभयतो कूले अट्ठ वक्खारपव्वया पण्णत्ता, तंजहा-चित्तकूडे पम्हकूडे नलिणकूडे एगसेले तिकूडे वेसमणकूडे अंजणे मायंजणे / (सू०-६२७+) सीतोदाया उभयकूले - जंबूमदरस्स पचत्थिमे णं सीओयाए महाणईए उभयतो कूले अट्ठ वक्खारपव्वया पण्णत्ता,तं जहा-अंकावई पम्हावई आसीविसे सुहावहे चंदपव्वए सूरपटवए नागपटवए देवपव्वए। (सू०-६३७+) स्था० 4 ठा०३ उ०। सीताया महानद्या उत्तरे - घायइखण्डे दीवे पुरच्छिमद्धे णं मंदरस्स पव्वयस्स पुरच्छिमे णं सीयाए महाणदीए उत्तरे णं पञ्च वक्खारपव्वया पण्णत्ता, तं जहा-मालवंते एवं जहा जम्बुद्धीवे तहा०जाव पोक्खरवरदीवडपचत्थिमद्धे वक्खारा। (सू०-४३४४) स्था०५ठा० 2 उ०। सीताया उभयकूले - जम्बुद्दीवे दीवे०मंदरस्स पव्वयस्स पुरच्छिमे णं सीयाए महानईए उभयओ कूले दस वक्खारपब्बया पण्णत्ता, तं जहामालवंते चित्तकूडे विचित्तकूडे वंभकूडे० जाव सोमणसे / जंबूमंदरस्स पचत्थिमे णं सीओयाए महानईए उभओ कूले दस पक्खारपव्वया पण्णत्ता, तंजहा-विझुप्पभे०जाव गंधमायणे। एवं धायइखंडपुरच्छिमद्धे विवक्खारा भाणियव्वाजावपुक्खरवरदीवद्धपचत्थिमद्धे / (सू०-७६८) स्था०१० ठा०३ उ०। सर्वेषां वक्षस्काराणामुच्चत्वादि - सवे विणं वक्खारपव्वया सीआसीआओ महानईओ मंदरपव्वयंते थे पंच पंच जोयणसयाई उर्छ उच्चत्तेणं पंच पंच गाउयसयाइं उव्वेहेणं पण्णत्ता। (सू०-१०८४) 'सव्वे विणं चक्खारे' त्यादि शीतादिनदीप्रत्यासत्तौ मेरुप्रत्यासत्तौ च पञ्चशतोचा इति, तथा-(स०) तत्र वर्षधरकूटानि शतद्वयमशीत्यधिकम् कथम् ?"लहुहिम हिम निसढे, एक्कारस अट्ठनव यकूडाई। नीलाइसु तिसुनवर्ग, अकारसजहासंख।। 1 / / एतेषां च पञ्च गुणत्वात् वक्षस्कारकूटानि त्वशीत्यधिक चतुःशतीसंख्यानि / कथम् ? "विजुपहमालवंते, नव नव सेसेसु सत्त सत्तेव। सोलसवक्खारेसु, चउरो चउरो य कूडाइं // 1 // चत्वारि-एतेषां पञ्चगुणत्वात्, पञ्चगुणत्वं च जम्बूद्वीपादिमेरूपलक्षितक्षेत्राणां पञ्चत्वात्, सर्वाण्येतानि पञ्चशतोच्छूितानि / एवं मानुषोत्तरादिष्वपि, वैताढ्यकूटानि तु सक्रोशषड्योजनोच्छ्रयाणि, वर्षकूटानि तु ऋषभकूटादीन्यष्ट योजनोच्छ्रितानीति, हरिकूटहरिसहकूटवर्जनं त्विह तयोः सहस्रोच्छ्रायत्वाद् / आह च"विजुप्यभहरिकूडो, हरिस्सहो मालवंतवक्खारे। नंदणवणवलकूडो, उविद्धा जोयण-सहस्सं // 1 // " अथोच्चत्वादिकमाह - सोमणसगंधमादणविजुप्पभमालवंताणं वक्खारपव्वयाणं मंदरपव्वयंतेणं पंच पंच जोयणसयाई उर्ल्ड उच्चत्तेणं पंच पंच गाउयसयाई उव्वेहेणं पण्णत्ता, सव्वे विणं वक्खारपव्वयकूडा हरिहरिसहकूडवज्जा पंच पंच जोयणसयाई उड्ड उच्चत्तेणं मूले पंच पंचजोयणसयाइंआयामविक्खंभेणं पण्णत्ता। (सू०-१०८) स०५०० सम०। शीतासीतोदे प्रति वक्षस्कारमाह - सवे विणं वक्खारपव्वया सीयासीओयाओ महाणईओ मंदरं वा पव्वयंतेणं पंच जोयणसयाई उद्धं उच्चत्तेणं पंच गाउयसयाई उव्वेहेणं / (सू० -4344) 'सवे विणं' इत्यादि, सर्वेऽपि जम्बूद्वीपादिसम्बन्धिनः
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________________ वक्खारपव्वय 785 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वग्गणा 'तेण ति' शीताशीतोदे महानद्यौ प्रतीते लक्षणीकृत्य नदीदिशीत्यर्थः, वल्गतुरङ्गैरथैश्च प्रधाविताः वेगेन प्रवृत्ता येते समरभटाश्चेति। प्रश्न०३ मन्दरं वा मेरुं वा पळतं प्रति तद्दिशीत्यर्थः, तत्र मालवत्सौमनसवि- | आश्र० द्वार। द्युत्प्रभगन्धमादनाः गजदन्ताकारपर्वता मेरु प्रति यथोक्तस्वरूपाः, | वग्गचूलिया-स्त्री०(वर्गचूलिका) वर्गोऽध्ययनाना समूहो यथाऽन्तशेषास्तु वक्षस्कारपर्यता महानद्यौ प्रतीति। स्था० 5 ठा०२ उ०। कृदशास्वष्टौ वर्गा इत्यादि, तेषां चूलिका / सांक्षेपिकदशानां प्रथमे दक्खित्त-त्रि०(व्याक्षिप्त) कर्मणि कर्तव्ये व्याकुले, व्य०६उ०। धर्मकथा- अध्ययने उत्कालिकश्रुतविशेषे, स्था० 10 ठा०३ उ०। न० / पा०। दिना (आव० 3 अ०।) प्रयोजनान्तरोपयुक्ते, ज्ञा० 1 श्रु०२ अ०। वग्गण-न०(वल्गन) उत्कूदने, ज्ञा०१ श्रु०१७ अ०। स्था०। आ०म०। "वक्खित्तचित्तेण न सुळु नायं, सकुंडलं वा वयणं न वत्तिआचा०। औ० / उल्लङ्घने, कल्प०१ अधि०३ क्षण / मल्लवद् (नि० चू०१ वक्खेव-पुं०(व्यापेक्ष) चित्तैकतानताविच्छेदे, व्य०। (व्याक्षेपेण कार्यहानि- उ०1) उल्ललने, भ०११श०११ उ०। आ० म०। प्रदर्शनं तत्र दृष्टान्ताश्च 'अइसेस' शब्दे प्रथमभागे 28 पृष्ठे उक्ताः।) वग्गणा-स्त्री०(वर्गणा)सजातीयवस्तुसमुदाये वर्गराशौ, विशे० / आ० वग-पुं०(वक) वकि-अच् / पृ० नलोपः / स्वनामख्याते विहग, स्वनाम- म०।क० प्र०। कर्म०। अष्ट० / विशे०। ख्याते पुष्पवृक्षे, कुवेरे,राक्षसभेदे, यो भीमेन हतः। औषधादिपाचन उदारवैक्रियादिवर्गणाःयन्त्रभेदे, श्रीकृष्णेन हते दैत्यभेदे, वाच० / अनन्तकायवनस्पतिभेदे, ओराल विउव्वा हा-रतेय-भासा णपाण-मण कम्मे। आचा०१ श्रु०१ अ०५ उ०। अह दव्ववग्गणाणं, कमो विवशासओ खेत्ते // 631 // वृग-पुं० शृगालाकृतौ हिंस्रजन्तौ, आ० म०१ अ०। एतां नियुक्तिगाथां 'भाष्यकारः' 'कुविकर्णगोप' इत्युदाहरणपूवर्क वगडा-स्त्री०(वगडा) परिक्षेपे, व्य०६ उ०। विस्तरतः स्वयमेव व्याख्यास्यतीति।। अथ वगडाया निक्षेपः कर्तव्यः, तमेवातिदेशेनाह - तथा च भाष्यम् - एमेव होइ वगडा, चउट्विहा सा उ वत्तिपरिखेवो। कुइयण्णगोविसेसो-वलक्खणो वम्मओ विणेयाणं / दवम्मि तिप्पगारा, भावे समणेहि भुजंती॥७॥ दवाइवग्गणाहि, पोग्गलकार्य पर्यसँति / / 632 // एवमेवोपाश्रयवद्वगडाऽपिनामादिभेदाचतुर्विधा भवति, लत्र द्रव्यवगडा आह-किमर्थं पुनरेता वर्गणाः प्ररूप्यन्ते ? उच्यते-कुविकर्णस्य गृहसंबन्धी वृत्तिपरिक्षेपो मन्तव्यः, सा च त्रिप्रकारा, तद्यथा-सचित्ता, गोमण्डलाधिपतेर्गावस्तासां परस्परं विशेषस्य यदुपलक्षणं परिज्ञानं अचित्ता, मिश्राचा इयं त्रिप्रकाराऽपि, यथा मास-कल्पप्रकृते द्रव्यपरिक्षेप तदौपम्यात्तदृष्टान्ताद्विनेयानामसंमोहार्थ द्रव्यादिवर्गणाभिः, आउक्तस्तथैव वक्तव्यः, भावे-भाववगडा श्रमणैः-साधुभिर्यो वृत्तिपरिक्षेपः दिशब्दात्-क्षेत्रवर्गणाभिः, कालवर्गणाभिः, भाववर्गणाभिश्चसमस्तमपि परिभुज्यते सा मन्तव्या। बृ०२ उ०। (अत्रत्या 'तद्दोस' शब्दे गाथा पुद्गलास्तिकायं विभज्य तीर्थकरगणधराः प्रदर्शयन्तीति गाथाऽक्षरार्थः / गता,तद्व्याख्यां वसहि' शब्दे वक्ष्यामि।) ('परिक्खेव' शब्दे पञ्चमभागे अथ भावार्थ उच्यते-इह भरतक्षेत्रे मगधजनपदे प्रभूतगोमण्डलस्वामी 552 पृष्ठे तन्निक्षेप उक्तः।) कुविकर्णो नाम गृहपतिरासीत्। स च तासांगवामतिवहुत्वात् सहस्रादिवगलग-पुं०(अवलगक) अलोपः। कुटुम्बिनि, रा०। संख्यापरिमितानां पृथक् पृथग्अनुपालनार्थं प्रभूतान् गोपालांश्चके। ते वगोड्डायक-पुं०(वकोड्डायक) स्त्र्यादेशप्रयुक्तस्वसंज्ञाप्रसिद्धे, पुरुष च तासु परस्परं मीलितासुगोष्वात्मीया आत्मीयाः सम्यगजानन्तः सन्तो विशेषे, पिं०। (एष वकोड्डायकः 'माणपिंड' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 241 नित्यं कलहमकार्षुः / तांश्च तथाऽन्योन्यं विवदमानानुपलभ्यासौ पृष्ठे उक्तः।) तेषामव्यामोहार्थं कलहव्यवच्छित्तये शुक्लकृष्णरक्तकषुरादिभेदभिन्नाना गवां प्रतिगोपालं सजातीयगोसमुदायरूपा भिन्ना वर्गणा व्यवस्थावग्ण-पुं०(वर्ग) वृजी वर्जने, वृज्यन्ते दूरतः परिहियन्ते रागादयो दोषा पितवानिति एष दृष्टान्तः। अथोपनय उच्यते-इह गोमण्डलप्रभुकल्पअनेनेति वर्गः। विशे०।"सर्वत्र लवरामचन्द्रे"।८।२।२७६ / / इति स्तीर्थकरो गोपतुल्येभ्यः स्वशिष्येभ्यो गोसमूहमानं पुद्गलास्तिकायं रलोपः / प्रा०। आवश्यके समूहे. स०ानं०। समुदाये, नि०१ श्रु०१वर्ग तद-संमोहार्थं परमाण्वादिवर्गणादिविभागेन निरूपितवानिति। 1 अ० / अन्त० / स्था० / कर्म० / समानजातीयवृन्दे, औ० / स०। एता एव वर्गणाः "ओरालविउव्व'' इत्यादिजातीयप्रकृतीनां समुदाये, कर्म०५ कर्म०। राशौ, विशे०। आ० म०। अध्ययनानां समूहे. यथाऽन्तकृद्दशास्वष्टौ वर्गा इत्यादि।नं० / स्था०। गाथां ध्याचिख्यासुर्निरूपयितुमाह - गोवर्गवत् वर्गः / अनु० / तेनैव राशिना गुणने, आव० 4 अ०। ज्ञा०। अ एगा परमाणूणं, एगुत्तरवलिया तओ कमसो। क-च-ट-त-प-य-श-वर्गा इति परिभाषितेषु स्वरादिषु हकारान्तेषु संखेजपएसाणं, संखेजा वग्गणा होति / / 633 // . अक्षरसमूहेषु, नि० चू०१ उ०।पुरुषापेक्षया स्त्रीपक्षे, नि० चू०२० उ०। ततो संखाईआ, संखाईयप्पएसमाणाणं / *वल्क-पुं०।वंशादिबन्धनभूतायांवटादित्वचि, भ० 8 / 06 उ०। विशे०। तत्तो पुणो अणंता-णंतपएसाण गंतूणं / / 635 // दगंत-त्रि०(वल्गत) वल्गनं कुर्वाणे, "वग्गंततुरंगरहपहावियसमरमडा" ओरालियस्स गहण-प्पाओग्गावग्गणा अणंताओ।
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________________ वग्गणा 756 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वग्गणा अग्गहणप्पाओग्गा, तस्सेव तओ अणंताओ।। 635 // इह सजातीयवस्तुसमुदायो-वर्गणा, समूहो, वर्गः, राशिः, इति पर्यायाः। ततश्च समस्तलोकाकाशप्रदेशवर्तिनामेकै कपरमाणू नां समुदाय एका वर्गणा, ततः समस्तलोकवर्तिनां द्विप्रदेशिकस्क-न्धानां द्वितीया वर्गणा, ततः समस्तानामपि त्रिपदेशिकस्कन्धानां तृतीया, चतुष्प्रदेशिकस्कन्धानां चतुर्थी, पञ्चप्रदेशिकस्कन्धानां पञ्चमी, षट्प्रदेशिकस्कन्धानां षष्ठी, एवमेकैकोत्तरवृद्ध्या तावन्नेयं यावत्संख्यातप्रदेशिकस्कन्धानां सर्वा अपि संख्येया वर्गणा भवन्ति, इत ऊर्द्धवमसंख्यातप्रदेशस्कन्धानामेकोत्तरवृझ्या सर्वा अप्यसंख्येया वर्गणा भवन्ति, ततश्चानन्तप्रदेशिकस्कन्धानामप्येकोत्तरवृद्ध्यौदारिकशरीरग्रहणप्रायोग्या अनन्ता वर्गणा भवन्ति ओदारिकशरीरनिर्वर्तनयोग्या इत्यर्थः, ततः प्रदेशवृद्ध्या वर्द्धमाना औदारिकस्यैवाग्रहणयोग्या अनन्ता वर्गणा भवन्ति / एताश्च प्रभूतद्रव्यनिष्पन्नत्वात्सूक्ष्मपरिणामोपेतत्वाच औदारिकस्याग्रहणयोग्या मन्तव्याः / इह च स्वल्पपरमाणुनिष्पन्नत्वाद्वादरपरिमाणयुक्तत्वाच वैक्रियस्याप्यग्रहणयोग्या एवैताः केवलमौदारिकवर्गणानामासन्नत्वेन तदाभासत्वात्तदग्रहणयोग्या उच्यन्त इति। अथ कार्मणपर्यन्तानां शेषवर्गणानामतिदेशमाह - एवमजोग्गाजोग्गा, पुणो अजोग्गा य वग्गणाऽणंता। वेउव्वियाइयाणं, नेयं तिविगप्पमिक्केक।। 636 // एवमुक्तानुसारेणाऽयोग्यास्ततो योग्याः, पुनरयोग्याः प्रत्येकमनन्ता वर्गणा इति / एवं वैक्रियाऽऽहारकतैजसभाषानापानमनःकर्मणामेकैकं त्रिविकल्पं-त्रिप्रभेदं ज्ञेयमिति गाथाक्षरार्थः। भावार्थस्तु उच्यते-पुनरौदारिकाग्रहणप्रायोग्यवर्गणानामुपर्येकोत्तरवृद्ध्या वर्द्धमानाः स्वल्पद्रव्यनिष्पन्नत्वाद्वादरपरिणामयुक्तत्वाच्च वैक्रियशरीरस्याग्रहणयोग्या अनन्ता वर्गणा भवन्ति। एताश्च प्रचुरद्रव्यनित्तत्वात्सूक्ष्मपरिणामत्वाच औदारिकस्याप्यग्रहणप्रायोग्या एव, केवलं वैक्रियवर्गणाऽऽसन्नत्वेन तदाभासत्वात्तदग्रहणयोग्यवर्गणाः प्रोच्यन्त इति / एवमुत्तस्त्रापि सर्वत्र भावनीयम् / ततश्चैकोत्तरवृद्ध्या वर्द्धमानाः प्रचुरद्रव्यनिवृत्तत्वात्तथाविधसूक्ष्मपरिणामत्वाच्च वैक्रियशरीरस्य ग्रहणयोग्या अनन्ता वर्गणा भवन्ति। ततश्चैकोत्तरवृद्ध्या वर्द्धमानाः प्रचुरद्रव्यत्वात् सूक्ष्मतरपरिणामत्वाच वैक्रियस्याग्रहणयोग्या अनन्ता वर्गणा भवन्ति, ततो वैक्रियाग्रहणयोग्यवर्गणानामनन्तरमेकोत्तरवृद्ध्या वर्द्धमानाः स्वल्पद्रव्यनिष्पन्नत्वादादरपरिणामत्वाच आहारकशरीरस्याग्रहणयोग्या अनन्ता वर्गणा भवन्ति / ततश्चैकोत्तरवृद्ध्या वर्द्धमानाः प्रचुरद्रव्यनिष्पन्नत्वात्तथाविधसूक्ष्मतरपरिणामत्वाच्चाहारकशरीरस्य ग्रहणयोग्या अनन्ता वर्गणा भवन्ति / ततोऽप्येकोत्तरवृद्ध्या वर्द्धमाना बहुतमद्रव्यनिर्वृत्तत्वादतिसूक्ष्मपरिणामत्वाच्चाहारकशरीरस्याग्रहणयोग्या अनन्ता वर्गणा भवन्ति। एवं तैजसस्य, भाषायाः, आनापानयोः, मनसः, कर्मणश्च यथोत्तरमेकोत्तरप्रदेशवृद्ध्युपेतानां प्रत्येकमनन्तानामयोग्यानां योग्यानां पुनरयोग्यानां वर्गणानां पृथक् पृथक् त्रयमायोजनीयमिति। आह कथं पुनरेकैकस्यौदारिकादेः पृथक् त्रयं त्रयमिदं लभ्यते ? इत्याह - एकिक्कस्साईए, पजंतम्मि य हवंति जोग्गाई। उभया जोग्गाई जओ, तेया मासंतरे पढई।। 637 // एकैकस्यौदारिकवैक्रियादेरादौ पर्यन्ते चायोग्यानि द्रव्याणि भव-न्तीति लभ्यत एव। कुतः? उच्यते-'तेयाभासा दव्वाण अंतरा' इत्यादिवचनाद, यतस्तैजसभाषयोरन्तरे उभयायोग्यानिद्रव्याणिपठति। इदमुक्तं भवतियतस्तैजसस्यान्तेऽयोग्यद्रव्याणि पठति, अतः सर्वस्याप्यौदारिकादेरन्ते तानिलभ्यन्ते, यतश्च भाषाया आदौ तदयोग्यान्यधीते, अतः सर्वस्याप्यौदारिकादेरादौतानिगम्यन्ते; उभयान्तरालवर्तिनां च सर्वेषामुभयायोग्यत्वे तुल्येऽपि यथा-सन्नं तत्तदाभासत्वेन तत्तदयोग्यव्यपदेश इत्युक्तमेवेति गाथा-षट्कार्थः। अथ कांग्रहणवर्गणानामुपर्यन्या वर्गणाः सन्ति, नवा? इत्याहकम्मोवरि धुवेयर, सुण्णेयरवग्गणा अणंताओ। चउधुवणंतरतणुव-ग्गणा य मीसो तहा चित्तो।। 63 / / इयं नियुक्तिगाथा, एतांच भाष्यकारः स्वयमेव विस्तारतो व्याख्यास्यतीति। तथा च भाष्यम् - निश्चं होति धुवाओ, इयरा लोए न होंति वि कयाइ। एकोत्तरवुड्डीए, कयाइ सुण्णंतराओ वि॥६३९ / / जाओ हवंति ताओ, सुण्णंतरवग्गण त्ति भण्णन्ति। निययं निरन्तराओ, होति असुण्णंतराउ त्ति॥ 640 // कर्मणोऽग्रहणप्रायोग्यवर्गणानामुपर्यधिकैकपरमाणूपचितातिसूक्ष्मपरिणामानन्तस्कन्धात्मिकाः प्रथमा ध्रुववर्गणा भवन्ति / ततश्चैकोत्तरवृद्ध्या वर्द्धमानैः प्रत्येकमनन्तैः स्कन्धैर्निष्पन्ना एता अपि ध्रुववर्गणा अनन्ता भवन्ति, ध्रुवा नित्यालोकव्यापितया सर्वकालावस्थायिन्य इति भावः / अन्तदीपकं चेदम् / ततश्चैतासां ध्रुवत्वभणनेन प्रागुक्ता अपि कर्मवर्गणान्ताः सर्वा एव वर्गणा ध्रुवा इत्यवगन्तव्यम्, तासामपि सर्वत्र लोके सदैवाव्यवच्छेदात्। अन्यच-एताश्च ध्रुववर्गणा वक्ष्यमाणाश्चाधुवाद्या सर्वाः अप्यग्रहणवर्गणाः, अतिबहुद्रव्योपचितत्वेनातिसूक्ष्मपरिणामत्वेनच सर्वजीवैरौदारिकादिभावेन कदाचिदप्यग्रहणादिति। इतश्चो मित्थमेवैकोत्तरवृद्धिक्रमेण वर्द्धमाना ध्रुववर्गणाभ्य इतरा अध्रुववर्गणा अनन्ता भवन्ति / एताश्च तथाविधपुद्गलपरिणामवैचित्र्यात्कदाचिल्लोके न भवन्त्यपि। अत एवाध्रुवा एता उच्यन्ते। ततश्च शून्या इतराश्चाशून्या वर्गणा भवन्ति। इह च सूचकत्वात्सूत्रस्याह 'एकोत्तरे' त्यादि एकोत्तरवृद्ध्या कदाचिच्छून्यानि व्यवहितान्यन्तराणियासांताःशून्यान्तरा अपि भवन्ति यास्ताः शून्यान्तरवर्गणा भण्यन्ते / एता होकोत्तरवृद्ध्या निरन्तरमनन्ताः सदैव प्राप्यन्ते, परंकदाचि-देकोत्तरवृद्धिरेतास्वन्तरा:न्तरा त्रुट्यति, नतुनैरन्तर्येण प्राप्यन्त इति भावः। एकोत्तरवृद्ध्या सर्वदेवाशून्यान्यव्यवहितान्यन्तराणि यासांताः अशून्यान्तराः। एता ह्यशून्यान्तर
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________________ वग्गणा 787 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वग्गणा वर्गणा एकोत्तरवृद्धया निरन्तरमेव लोके सदैव प्राप्यन्ते, न पुनरेकोत्तरवृद्धिरेतास्वन्तराले कदापि त्रुट्यतीति भावः। "चउधुवणंतरे' इत्यादि व्याचिख्यासुराह - धुवणंतराइ चत्ता-रिजं धुवाई अणंतराइं च / भेयपरिणामओ जा, सरीरजोग्गत्तणाभिमुहा।। 647 / / खंधदुगदेहजोग्ग-त्तणेण वा देहवग्गणाउत्ति। सुहुमोदरगयबायर-परिमाणो मीसयक्खंधो॥ 642 // ततोऽशून्यान्तरवर्गणानामुपरि ध्रुवानन्तराणि चत्वारि वर्गणाद्रव्याणि भवन्ति, यद्यस्मात्तानि ध्रुवाणि सर्वकालभावीनि, अनन्तराणि च निरन्तरकोत्तरवृद्धिभाजीति / इदमुक्तं भवति-आद्या ध्रुवानन्तरवर्गणा अनन्ता भवन्ति, एवमेतावत्यो द्वितीयाः,तृतीयाः, चतुर्थ्यश्च वाच्याः। ध्रुववर्गणाः प्रागप्युक्ताः, परंताभ्य एता भिन्ना एव न पुनस्तास्वन्तर्भवन्ति, अतिसूक्ष्मपरिणामत्वादहुद्रव्योपचितत्वाच्चेति पृथगुक्ताः / आह-ननु भवत्वेवम्, केवलं यद्येता निरन्तरमेकोत्तरवृद्धिभाजस्तर्हि चातुर्विध्ये किं कारणम् ? सत्यम्, किंतु चतसृणामपि वर्गणानां मध्येष्वेव नैरन्तर्येणेकोत्तरवृद्धिः प्राप्यते, अन्तरालेषु पुनस्तस्यास्युटिसंभवे सत्येव भिन्नवर्गणारम्भः, अन्य-द्वा-किंचिद्वर्णादिपरिणामवैचित्र्यं तद्भेदारम्भे कारणम्, इति बहुश्रुता विदन्तीति / एवं वक्ष्यमाणतनुवर्गणास्वपि वाच्यमिति / एतासां चतसृणां ध्रुवानन्तरवर्गणानामुपरि प्रत्येकमेकोत्तरवृद्धियुक्तानन्तवर्गणात्मिकाश्चतस एव तनुवर्गणा भवन्ति, एताश्च तनूनामौदारिकादिशरीराणां भेदाभेदपरिणामाभ्यां योग्यत्वाभिमुखा इति तनुवर्गणा-देहवर्गणा उच्यन्ते / अथवा-वक्ष्यमाणमिश्रस्कन्धाचित्तस्कन्धद्वयस्य तनुर्देहः शरीरं मूर्तिरिति यावत् तद्योग्यत्वाभिमुखा वर्गणाः / अथ मिश्रस्कन्धस्वरूपं विवरीषुराह- 'सुहुमो' इत्यादि। 'दरगय' त्ति दरगत ईषत्प्राप्तस्तद्योग्यत्वाभिमुख्येन बादरः परिणामो येनाऽसौ दरगतबादरपरिणामः, अनन्ताऽनन्तपरमाणुप्रचितः सूक्ष्मपरिणाम एवेषदादरपरिणामाभिमुखः स्कन्धो मिश्र इत्यर्थः / (विशे०।) ('खंध' शब्दे तृतीयभागे 666 पृष्ठे चित्तमहास्फन्धव-क्तव्यता i) अथ 'विवज्जासओ खेत्ते' एतद्व्याचिख्यासुः क्षेत्रादिवर्गणास्वरूपमाह - एगपएसोगाढा-ण वग्गणेगा पएसवुड्डीए। संखेज्जोगाढाणं, संखेज्जा वग्गणा तत्तो / / 647 // तत्तो संखाईया, संखाईयप्पएसमाणाणं। गंतुमसंखेन्जाओ, जोग्गाओ कम्मुणो भणिया // 648 // तत्तो संखाईया, तस्सेव पुणो हवंति जोग्गाओ। माणसदव्वाईण वि, एवं तिविगप्पमेकेकं / / 646 / / विपर्यासतो-विपर्यासन पश्चान्मुखः क्षेत्रविषयो वर्गणाक्रमो वेदितव्यः, नतुद्रव्यवर्गणावदितिभावः। इदमुक्तं भवति-परमाणूनांद्व्याणुकाधनन्ताणुकपर्यन्तस्कन्धानां चैकाकाशप्रदेशावगाहिनां सर्वेषामप्येका वर्गणा, व्यणुकाद्यनन्ताणुकपर्यन्तस्कन्धानामेव द्विप्रदेशावगाहिनां द्वितीया वर्गणा, त्र्यणुकाद्यनन्ताणुकपर्यन्तरकन्धानामेव त्रिप्रदेशावगाहिनां तृतीया वर्गणा, एवमेकैकप्रदेशवृद्ध्या संख्येयप्रदेशावगाहिनां स्कन्धानां संख्येया वर्गणाः, ततोऽसंख्येयप्रदेशावगाहिनामपि स्कन्धानां प्रदेशवृद्ध्याऽसंख्या वर्गणा गत्वाऽतिलघ्यासंख्यप्रदेशावगाहिस्कन्धानामेव एकै काकाशप्रदेशवृद्ध्या वर्द्धमानाः कर्मणो ग्रहणयोग्या असंख्येया वर्गणास्तीर्थकरैर्भणिताः / ततोऽनन्तरमल्पपरमाणुनिष्पन्नत्वाद्वादरपरिणामत्वेन बह्वाकाशप्रदेशावगाहित्वाच्च तस्यैव कर्मणोऽग्रहणयोग्या एकैकाकाशप्रदेशवृद्ध्या वर्द्धमाना असंख्येया वर्गणा भवन्ति / ततश्चैवमेकैकाकाशप्रदेशावगाहवृद्ध्या वर्द्धमाना मनसो-ऽप्यसंख्येया अग्रहणवर्गणाः पुनरेतावत्य एव तस्यैव ग्रहणवर्गणाः पुनरेतावत्प्रमाणा एव तस्यैवाग्रहणवर्गणा वाच्याः। एवमानापानयोः, भाषायाः, तैजसस्य, आहारकस्य, वैक्रियस्य, औदारिकस्य चा-योग्ययोग्यायोग्यवर्गणानां क्षेत्रतोऽपि प्रतिलोमं त्रयं त्रयं प्रत्येकमायोजनीयमिति / ध्रुवादिवर्गणास्कन्धा अपि प्रत्येकमकुलासंख्येयभागप्रदेशावगाहिनोऽवगन्तव्याः, परं तचिन्तेह न कृता, जीवैः शरीरादौ क्वचिदप्यनुपयुज्यमानत्वेन ध्रुवादिवर्गणानामग्रहणाद् / अथवा-कर्मणोऽग्रहणवर्गणानां मध्ये तासामप्यन्तभावो द्रष्टव्यः / द्रव्यवर्गणाधिकारे तु पृथगेतत्स्वरूपमात्रज्ञापनार्थ विस्तरेण कृता तचिन्तेति मन्तव्यमिति। कालभाववर्गणास्तु समयासमयादिस्थितिमात्रं वर्णादिमानं चाङ्गीकृत्य सामान्येन वक्ष्यन्ते / अतस्ताभिः सर्वोऽपि पुद्गलास्तिकायः संगृह्यते इति भावनीयमिति। तदेवमभिहिताः क्षेत्रवर्गणाः। अथ कालवर्गणाः प्राह - एगा समयठिईणं, संखेशा संखसमयठिइयाणं। होंति असंखेजाओ, तओ असंखेचसमयाणं / / 650 // विवक्षितपरिणामेन य एकैकसमयमात्रस्थितयस्तेषां सर्वेषामप्येका वर्गणा, ते पुनरविशेषेण परमाणवः स्कन्धाश्च मन्तव्याः, एवमेकैकसमयवृझ्या संख्येयसमयस्थितीनां परमाण्वादीनां संख्येया वर्गणाः, असंख्येयसमयस्थितीनां त्वसंख्येया वर्गणा भवन्ति / एवमेताभिः सर्वोऽपि पुदगलास्तिकायः संगृह्यते, एकसमयाद्यसंख्येयसमयान्तायाः स्थितेर्बहिः पुदगलानां स्थितेरेवाभावादिति। ____ अथ भाववर्गणाः प्राह - एगाएगगुणाणं, एगुत्तरवडिया तओ कमसो। संखेज्जगुणाण तओ, संखेला वग्गणा हॉति // 651 // संखाईयगुणाणं, संखाईयाय वग्गणा तत्तो। होति अणंतगुणाणं, दवाणं वग्गणाऽणंता।। 652 / / वण्णरसगन्धफासा,ण होति वीसं समासमेएणं / गुरुलहुअगुरुलहूणं, बायरसुहुमाण दो वग्गा। एकगुणानामेकगुणकृष्णानामित्यर्थः, परमाणूनां स्कन्धानां च सर्वेषामप्येका वर्गणा, कृष्णवर्णगुणद्वययुक्तानां तुपरमाण्वादीनां द्वितीया वर्गणा; कृष्णवर्णगुणत्रययुक्तानां तु तेषां तृतीया वर्गणा / एवमेकैकगुणवृद्ध्या संख्येयकृष्णवर्णगुणानां संख्येया वर्गणाः, असंख्येयकृष्णवर्णगुणानामसंख्येया वर्गणाः, अनन्तकृष्णवर्णगुणानामनन्ता व
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________________ वग्गणा 758- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वग्गणा गणा भवन्ति / एवमेकगुणनीलानाम्, संख्येयगुणनीलानाम्, असंख्येय- द्वितीया वर्गणा, त्रिप्रदेशिकानामनन्तानामपि स्कन्धानां सजातीयत्वात् गुणनीलानाम्, अनन्तगुणनीलानामपि वाच्यम् / एवं कृष्णनील- तृतीया वर्गणा, एवमे-कैकपरमाणुवृद्ध्या संख्येयप्रदेशिकानामनन्तानालोहित-हारिद्र-शुक्ललक्षणाः पञ्च वर्णाः, सुरभीतरौ द्वौ गन्धौ, तिक्त- मपि स्कन्धानां सजातीयसमुदायरूपाः संख्याता गुणाः असंख्यातकटु-कषायाऽऽम्ल-मधुराः पञ्च रसाः, कर्कश-मृदु-गुरु-लधु-शीतो- प्रदेशिकस्कन्धानामेकैकपरमाणुवृद्धानामसंख्येया वर्गणाः, अनन्तष्ण-स्निग्ध-रूक्षास्त्व-ष्टौ स्पर्शाः, एवमेतेषु वर्णगन्धादिगत-विंशति- परमाणुनिष्पन्नस्कन्धानामनन्ता वर्गणाः, अनन्तानन्तप्रादेशिकानां भेदेषु प्रत्येकं सर्वत्रक-गुणानामेका, संख्येयगुणानां संख्येयाः, असंख्ये- स्कन्धानामनन्तानन्तवर्गणाः, सर्वा अप्येता अल्पपरमाणुमयत्वेन यगुणानामसंख्येयाः, अनन्तगुमानामनन्ता वर्गणा वाच्याः / नवरं यो स्थूलपरिमाणतया स्वभावाज्जीवानां ग्रहेनसमागच्छन्तीत्यग्रहणा वर्गणा यत्र वर्णगन्धादिभेदस्तत्र तदभिलापः कार्य इति। तथा गुरुलघुपर्यायाणां एताः सर्वा अप्युच्यन्ते / एताश्च सर्वाः समतिक्रम्य अभव्यानन्तगुणैः बादरपरिणामान्वितवस्तूनामेका वर्गणा, अगुरुलधुपर्यायाणां तु सूक्ष्म सिद्धानन्तभागवर्तिभिः परमाणुभिर्निष्पन्नः स्कन्धरारब्धा ग्रहणप्रायोग्या परिणामपरिणतवस्तूनामेका वर्गणा, एवमेतौ द्वावेव वर्गी भवतः। तदेव जधन्यौदारिकवर्गणा भवन्ति / तत आरभ्यैकैकपरमाणुवृद्धस्कन्धामेताभिर्भाववर्गणाभिः सर्वोऽपि पुद्गलास्तिकायः संगृह्यते, यथोक्त रब्धा औदारिकशरीरयोग्योत्कृष्टवर्गणां यावदेता अपि जघन्योवर्णादिभावेभ्योऽन्यत्र पुद्गलानामभावादिति। विशे०। त्कृष्टमध्यवर्तिन्योऽन्यन्ता वर्गणा भवन्ति / यतो जघन्यायाः सकासम्प्रति प्रदेशबन्धस्यावसरः, ते च प्रदेशाः कर्मवर्गणास्कन्धानां शादुत्कृष्टाया अनन्तभागाधिकत्वं वक्ष्यते, अनन्तभागश्चानन्तपरमाणुसम्बन्धिनो जीवेनात्मसात्क्रियन्ते अतः कर्मवर्गणास्वरूपं वक्तव्यम्। तच्च मयः, तत्रएकोत्तरप्रदेशोपचये सति मध्यवर्तिनीनामानन्त्यं न विरुध्यते। प्राचीनवर्गणास्वरूपे निगदिते ज्ञातुं शकरामतः प्रसङ्गतः शेषवर्गणास्व "तह अग्गहणंतरिय" ति तथा तेनैककपरमाणूपचयरूपेण प्रकारेणारूपमपि निगदनीयम्। शेषाः पुनरौदारिकाधाः, ताश्च ग्रहणप्रायोग्याऽ ग्रहणान्तरिता अग्रहणवर्गणान्तरिता वर्गणा भवन्ति / एतदुक्तं भवतिग्रहणप्रायोग्यभेदाद् द्विधा, अत एकाणुकन्यणुकादिस्कन्धनिष्पन्ना औदारिकशरीरोत्कृष्टवर्गणाभ्यः परत एकपरमाणुसमधिकस्कन्धरूपा अग्रहणवर्गणाद्याः कर्मवर्गणावसाना वर्गणाः सजातीयद्रव्यसमुदायरूपा वर्गणा औदारिकशरीरस्यैव जघन्याऽग्रहणप्रायोग्या, ततो द्विपरमाण्वनिरूपयन्नाह - धिकस्कन्धरूपा द्वितीया अग्रहणप्रायोग्या, एवमेकैकपरमाण्वधिक स्कन्धरूपा वर्गणास्तावद्धाच्या यावदुत्कृष्टा अग्रहणप्रायोग्या वर्गणा सेसम्मि दुहा इग दुग-णुगाइजा अभवणंतगुणियाणु / भवन्ति / जधन्यायाश्च वर्गणायाः सकाशादुत्कृष्टा वर्गणा अनन्तगुणा। खंधाउरलो चिय व-ग्गणाउ तह अगहणंतरिया / / 75 / / गुणकारश्चाभव्यानन्तगुणसिद्धानन्तभागकल्पराशिप्रमाणो द्रष्टव्यः। 'सेसम्मि दुह' त्ति पदम् अनुबन्धबन्धाधिकारे बहुभिः प्रकारैर्व्याख्यात- एतासांचाग्रहणप्रायोग्यतौदारिक प्रति प्रभूतपरमाणुनिष्पन्नत्वात् सूक्ष्ममित्यनुभागबन्धः समर्थितः / अणुकशब्दः प्रत्येकं सम्बध्यते / ततः परिणामत्वाच वेदितव्येति। केवलोऽणुरेवाणुकः-परमाणुरित्यर्थः / एकोऽणुको यत्र स एकाणुः, द्वौ एमेव विउव्वाहा-र-तेयभासाणुपाणमणकम्मे। अणुकौ यत्रसद्व्यणुकः, एकाणुकव्यणुकस्कन्धा आदिर्येषां त्र्यणुकादीनां सुहुमा कम्मॉवगाहो, ऊणूणंगुलअसंखंसो / 76 / / ते एकाणुकद्यणुकादयः।"मयूरव्यंसकेत्यादयः" (3-1-116) इति | एवमेव, वकारलोपः "यावत्तावञ्जीवितवर्त्तमानावटप्रावारकदेवमध्यमपदलोपी समासः / विभक्तिलोपश्च प्राकृतत्वात् / किमवसाना कुलैवमेवेयः"।।८१११२७१॥ इति प्राकृतसूत्रेण, पूर्वोक्तौदारिकशरीरइत्याह-"जाअभवणंते'' त्यादि। यावदित्यव्ययं पर्यवसानार्थ अभव्ये ग्रहणप्रायोग्याग्रहणप्रायोग्यवर्गणान्यायेन वेक्रियाहारकतैजसभाषाऽऽभ्योऽनन्तगुणिताः, उपलक्षणत्वात् सिद्धानामनन्तभागेऽणवो येषां ते ना-पान-मन:-कर्म-विषया वर्गणा भवन्ति / तत्र विधिनानानाप्रकारा अभव्यानन्तगुणिताणवः / गमकत्वात्समासः। स्कन्धाः द्विपरमाण्वादि क्रिया विक्रिया, तथा च तद्धेतुभूतायाः क्रियायाः वेक्रियसमुद्धातकरणरूपाः। अयमर्थः-एकाणुकट्यणुकादयः स्कन्धाः एकैकपरमाणुवृद्ध्या दण्डनिसर्गादिविविधत्वं प्रज्ञप्त्यादिषु निर्दिष्टमेव, औदारिकाद्यपेक्षया तावन्नेया यावदभव्येभ्योऽनन्तगुणैः सिद्धानन्तभागवर्तिभिः परमाणु या विशिष्टाविलक्षणा वा क्रिया विक्रिया, तस्यां भवं वैक्रियं शरीरम, भिर्निष्पन्नास्ते स्कन्धा एवंभूताः। किमित्याह-औदारिकोचितवर्गणाः तथा अपूर्वार्थग्रहणादिनिमित्तमुत्कृष्टतो हस्तप्रमाणं चतुर्दशपूर्वविदाऽऽभवन्ति / तत्रोदाराः स्फारतामात्रसारा वैक्रियादिशरीरपुद्गलापेक्षया ह्रियते-गृह्यते यत्तदाहारकम्, "कृद्हुलम् (5 / 1 / 2) इति कर्मणि स्थूला इत्यर्थः, तैरित्थंभूतैः पुद्गलैर्निष्पन्नमौदारिकशरीरंतस्यौदारि णकः यथा पादहारक इत्यादौ। यद्वा-आह्रियन्ते-गृह्यन्ते सूक्ष्मा जीवादयः कस्य निष्पत्तौ कर्त्तव्यायामुचितायोग्या औदारिकोचिताः, ताश्च ता पदार्थाः केवलिसमीपेऽनेनेति निपातनादाहारकम् / तथा आहारपाकवर्गणाश्च समानजातीयपुद्गलसमूहात्मिका औदारिकोचितवर्गणा कारणभूतास्तेजोनिसर्गहेतवश्चोष्णाः पुद्गलास्तेज इत्युच्यन्ते, भवन्तीत्यक्षरार्थः / भावार्थस्त्वयम्-इह समस्तलोकाकाशप्रदेशेषु ये तेजसा निर्वृत्तं तैजसं शरीरं सूक्ष्मादिलिङ्गगम्यम्, तथा-भाषणं भाया। केचन एकाकिनः परमाणवो विद्यन्ते तत्समुदायः सजातीयत्वादेका तथा आनापानोच्छ्वासनिःश्वासः! तथा-मन्यते-चिन्त्यते वस्त्ववर्गणा, एवं द्विप्रदेशिकानामनन्तानामपि स्कन्धानां सजातीयत्वात् / नेनेति मनः / तथा-कार्मणा नाम कर्मोत्तरप्रकृत्या निर्वृत्तं कार्मणं ज्ञानावर
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________________ वग्गणा 786 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वग्गणा णोयाद्यष्टविधकर्मस्वप्रायोग्यपुद्गलानां गृहीतानां तत्तद्रूपेण परिणामजनकमित्यर्थः। ततो वैक्रियादिनिष्पत्तियोग्याः पुदगलवर्गणा अपि वैक्रियादिशब्दैः प्रोच्यन्ते, यावज्ज्ञानावरणाद्यष्टविधकर्मपरिणामहेतुकं दलिकमपि कार्मणवर्गणेतितता वैक्रियं चाहारकंच तैजसंच भाषा चाssनापानश्च मनश्च कार्मणं चेति समाहारद्वन्द्वस्तस्मिन् वैक्रियाहारकतैजसभाषाऽऽनापानमनः कार्मणे / एता वैक्रियाद्या वर्गणा अग्रहणवर्गणान्तरिता भवन्ति इत्यक्षरार्थः / भावार्थस्त्वयम्-तत्र या पूवमौदारिकं प्रति प्रभूतपरमाणुनिष्पन्नत्वात्सूक्ष्मपरिणामत्वोच्चाग्रहणप्रायोग्या वर्गणा उक्तास्ता एव वैक्रिय प्रतिस्वल्पपरमाणुनिष्पन्नत्वात्स्थूलपरिणामत्वाघाग्रहणप्रायोग्या वर्गणा वेदितव्याः / ततोऽग्रहणप्रायोग्योत्कृष्टवर्गणापेक्षया च एकपरमाण्वधिकस्कन्धरूपा वर्गणा वैक्रियशरीरप्रायोग्या जघन्या वर्गणा, ततो द्विपरमाण्वधिकस्वरूपा द्वितीया वैक्रियशरीरस्य ग्रहणप्रायोग्या वर्गणा, एवमेकैकपरमाण्वधिकस्कन्धरूपा वैक्रियशरीरप्रायोग्या वर्गणास्तावद्वाच्या यावदुत्कृष्टा ग्रहणप्रायोग्या वर्गणा भवति, जघन्यायाश्चोत्कृष्टा अनन्तगुणेति। एवं सर्वत्र वैक्रियशरीरोत्कृष्टवर्गणापेक्षया चैकपरमाण्वधिकस्कन्धरूपा जघन्या अग्रहणप्रायोग्या वर्गणा / ततो द्विपरमाण्वधिकस्कन्धरूपा द्वितीया अग्रहणप्रायोग्या। एवमेकैकपरमाण्वधिकस्कन्धरूपा अग्रहणप्रायोग्यावर्गणास्तावद्वाच्या यावदुत्कृष्टा अग्रहणप्रायोग्या वर्गणाः / एताश्च प्रभूतद्रव्यनिष्पन्नत्वात् सूक्ष्मपरिणामोपेतत्वाच वैक्रियशरीरस्याग्रहणयोग्याः आहारकस्याप्यल्पपरमाणुनिष्पन्नत्वाद्वादरपरिणामोपेतत्वाच्याग्रहणयोग्या, एवमुत्तरत्रापि भावना कार्या / अग्रहणप्रायोग्योत्कृष्टवर्गणापेक्षया चैकपरमाण्यधिकस्कन्धरूपा वर्गणा आहारकशरीरप्रायोग्या जघन्या वर्गणा, जघन्याद्या उत्कृष्टान्ताः / एता अपि यथोत्तर मेकोत्तरपरमाणुवृद्धिमत्स्कन्धारब्धा अनन्ता भवन्ति, ततस्तदुपरि रूपाधिकस्कन्धेरारब्धा आहारकतैजसयोरुक्तादेव हेतोरयोग्या जघन्या अग्रहणवर्गणा, जघन्याद्या उत्कृष्टान्ताः / एता अप्येकोत्तरपरमाणुवृद्धिमत्स्कन्धारब्धा अनन्ता एव मन्तव्याः / तदुपरि च रूपाधिकस्कन्धारब्धा तैजसशरीरनिष्पादनहेतुर्जघन्या तैजसशरीरवर्गणा, जघन्याया उत्कृष्टां यावदेता अप्यकोत्तरवृद्धिमत्स्कन्धारब्धा अनन्ता एव मन्तव्याः / तदुपरि चैकोत्तरपरमाण्वारब्धाः स्कन्धाः प्रागुक्तहेतोरेव तैजसभाषयोरयोग्यत्वादनन्ता अग्रहणवर्गणा वाच्याः / तदुपरि रूपाधिकस्कन्धेरारब्धा जधन्या भाषावर्गणा यां भाषार्थं जीवोऽवलम्बते, यां च गृहीत्वा चतुर्विधभाषात्येन परिणमय्य विसृजतीति भावः।जधन्याया उत्कृष्टां यावदेता अप्येकैकपरमाणुवृद्धिमत्स्कन्धारब्धा अनन्ता ज्ञेयास्तदुपरिच रूपाधिकस्कन्धेराब्धा जघन्या अग्रहण-वर्गणा जघन्यामादौ कृत्वोत्कृष्टां यावदेता अप्येकैकपरमाणुवृद्धिमत्स्कन्धारब्धा अनन्ता अवसेयाः। तदुपरि रूपाधिकस्कन्धैरारब्धा जघन्या आनापानवर्गणा भवति, यां गृहीत्वा आनापानभावं नयति, जघन्याया आरभ्योत्कृष्टां यावदेता अप्येकैकोत्तरवृद्धिमत्स्कन्धारब्धा अनन्ता मन्तव्याः। ततस्तदुपरि पुनरेकैकोत्तरस्कन्धारब्धा जघन्याद्या उत्कृष्टान्ता अनन्ता एवाग्रहणवर्गणा वाच्याः। तदुकृष्टा ग्रहणवर्गणोपरि रूपे प्रक्षिप्ते जघन्या मनोनिष्पत्तिहेतुर्मनोवर्गणा भवति, यां गृहीत्वा जीवः सत्यासत्यादिचतुर्विधमनोयोगभावेन परिणमय्य चिन्तयति, जघन्याद्या उत्कृष्टान्ताः, एता अप्येकैकोत्तरपरमाणुवृद्धिमत्स्कन्धारब्धा अनन्ता अवसेयाः। ततस्तदुपरि एकैकपरमाणुवृद्धिमत्स्कन्धारब्धा जघन्याद्या उत्कृष्टवर्गणान्ता अनन्ता अग्रहणवर्गणाः। तत उत्कृष्टाग्रहणवर्गणोपरि रूपे प्रक्षिप्ते जघन्या ज्ञानावरणादिहेतुभूता कार्मण-वर्गणा भवति जघन्याया उत्कृष्टां यावदेता अप्येकैकोत्तरपरमाणुवृद्धिमत्स्कन्धारब्धा अनन्ता मन्तव्याः / अत्रौदारिकादिवर्गणा आदौ कृत्वा जघन्यमध्यमोत्कृष्टा अग्रहणग्रहणप्रायोग्या वर्गणाः। औदारिकाग्रहणवर्गणाः १औदारिकग्रहणवर्गणाः 2 अग्रहणवर्गणाः 3 वैक्रियग्रहणवर्गणाः 4 अग्रहणवर्गणाः 5 आहारकवर्गणाः 6 अग्रहणवर्गणाः७ तैजसग्रहणवर्गणाः 8 अग्रहणवगणाः 6 भाषावर्गणाः 10 अग्रहणवर्गणाः 11 आनापानवर्गणाः 12 अग्रहणवर्गणाः 13 मनोग्रहणवर्गणाः 14 अग्रहणवर्गणाः 15 कार्मणग्रहणवर्गणाः 16 एवमेता औदारिकाद्याः कार्मणवर्गणावसानावर्गणाः प्ररूपिताः। इत ऊर्द्धवमन्यत्र कर्मप्रकृत्यादिष्वन्या अपिध्रुवाचित्ताद्या वर्गणा निरूपिताः, ताश्चेहानुपयोगित्वेन नोक्तास्ततएवावसेयाः, संक्षेप-रुचिसत्त्वानुग्रहार्थत्वात्प्रस्तुतप्रारम्भस्येति। उक्ता वर्गणाः, एताश्च बहुतरपरमाणुनिचयरूपा अभिहिताः, अतः कियन्मात्रं क्षेत्रंता व्याप्नुवन्तीत्याह-"सुहुमाकम्मे "त्यादि एता औदारिकाद्या वर्गणाः क्रमात क्रमेणोत्तरोत्तरपरिपाट्या सूक्ष्मा ज्ञातव्याः / अयमर्थः-प्रथममग्रहणवर्गणा औदारिकस्य सूक्ष्माः, ततस्तस्यैव ग्रहणवर्गणाः सूक्ष्माः, ततस्तस्यैव अग्रहणवर्गणाः सूक्ष्माः। ततो वैक्रियस्य ग्रहणवर्गणाः सूक्ष्माः, ततस्तस्यैवाग्रहणवर्गणाः सूक्ष्माः। तत आहारकग्रहणवर्गणाः सूक्ष्माः, ततस्तस्यैवाग्रहणवर्गणाः सू-क्ष्माः। ततस्तैजसस्य ग्रहणवर्गणाः सूक्ष्माः, ततस्तदग्रहणवर्गणाः सूक्ष्माः। ततो भाषाग्रहणवर्गणाः सूक्ष्माः, ततस्तदग्रहणवर्गणाः सूक्ष्माः, ततआनापानग्रहणवर्गणाः सूक्ष्माः, ततस्तदग्रहणवर्गणाः सूक्ष्माः। तत आनापानग्रहणवर्गणाः सूक्ष्माः, ततस्तदग्रहणवर्गणाः सूक्ष्माः, ततो मनोग्रहणवर्गणाः सूक्ष्माः, ततस्तदग्रहणवर्गणाः सू-क्ष्माः, ततः कार्मणग्रहणवर्गणाः सूक्ष्मा इति। "अवगाहो ऊणूणं-गुलअसंखंसु' ति अवगाहन्ते अवस्थानं कुर्वन्ति वर्गणा यस्मिन्नसाववगाहोऽवस्थानक्षेत्रम्, स च कियन्मात्र इत्याह-ऊनोनाङ्गुलासंख्येयांशो न्यूनो न्यूनतरोऽङ्गुलस्यासंख्येयांशोऽङ्खलासंख्येयभागो यत्र स तथा / एतदुक्तं भवति पुद्गलद्रव्याणां हि यथा यथा प्रभूतपरमाणुनिचयःसंपद्यते तथा तथा सूक्ष्मसूक्ष्मतरः परिणामः संजायते, तत औदारिकवर्गणाः स्कन्धानामवगाहनाङ्गुलासंख्यभागः, स एव तदग्रहणवर्गणानांन्यूनः। स एव वैक्रियग्रहणवर्गणानांन्यूनः, तदग्रहणवर्गणानां स एव न्यूनः / आहारकग्रहणवर्गणानां स एव न्यूनः, तग्रहणवर्गणानांस एवन्यूनः तैजसग्रहणवर्गणानांसएवन्यूनः,तदग्रहणवर्गणानां स एव न्यूनः। भाषाग्रहणवर्गणानां स एव न्यूनः, तदग्रहणवर्गणानांस एव न्यूनः / आनापानग्रहणवर्गणानां स एव न्यूनः, तद्ग्रहणवर्गणानां स एव न्यूनः / मनोग्रहणवर्गणानांसएवन्यूनः,तग्रहवर्गणानांसएवन्यूनः। कार्मणग्र
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________________ वग्गणा ७९०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वग्गणा हणवर्गणानां स एवाडलासंख्येयभागो न्यूनतर इति / उक्तं वर्गणानां स्वरूपमवगाहक्षेत्रमानं च। अधुनैकादिवृद्ध्या वर्द्धमानानामग्रहणवर्गणानां परिमाणनिरूपणायाहइकिकहिया सिद्धा-णतं सा अंतरेसु अग्गहणा। सय्वत्थ जहनुचिया, नियणंतसाहिया जिट्ठा।। 77 / / एकैकपरमाणुः प्रतिस्कन्धमधिक उत्तरप्रवृद्धो यासु ता एकैकाधिका एकैकपरमाणुवृद्धा इत्यर्थः / अग्रहणवर्गणा भवन्तीति योगः / कियत्य इत्याह-सिद्धानन्तांशाः सिद्धानामनन्तोऽशो भागो यासांताः सिद्धानन्तांशाः सिद्धानन्तभागवर्तिन्यः / उपलक्षणत्वादभव्यानन्तगुणाः / आसामाधारनिरूपणायाह-अन्तरेषु-अन्तरालेष्वौदारिकवैक्रियादिवर्गणामध्येष्वित्यर्थः अग्रहणा-अग्रहणवर्गणाः / एतदुक्तं भवतिनिजनिजजघन्याग्रहणवर्गणैकस्कन्धे ये परमाणवस्तेऽभव्यराशिप्रमाणेनानन्तकेन गुणिता यावन्तो भवन्ति तावत्योऽग्रहणवर्गणा एकैकपरमाणुवृद्ध अन्तरेषु मन्तव्याः। अधुना ग्रहणयोग्यवर्गणासु निजनिजजघन्यवर्गणायाः सकाशात्स्वस्वोत्कृष्टवर्गणायां यावन्मात्राधिकत्वं तदाह- 'सव्वत्थ जहन्नुचिया नियणंतसाहिया जिट्ठा' सर्वत्रसर्वास्वप्यौदारिकवैक्रियाहारकतैजसभाषानापानमनःकार्मणवर्गणासु, जघन्या चासावुचिता च योग्या च जघन्योचिता योग्यजघन्येत्यर्थः / तस्याः सकाशात्प्राकृतत्वात्पञ्चम्येकवचनस्य लुप्। निजेन स्वकीयेनानन्ताशेनानन्तभागेना-धिका समर्गला भवति। काऽसावित्याह-ज्येष्ठा उत्कृष्टा। किमुक्तं भवति औदारिकजघन्यग्रहणवर्गणारम्भकस्कन्धस्यानन्तभागे यावन्तोऽणवस्तत्प्रमाणेन विशेषेणोत्कृष्टवर्गणारम्भक एकैकस्कन्धोऽधिको मन्तव्यः / अत्र एवानन्तभागलब्धपरमाणूनामनन्तत्वेनैकै कपरमाणुवृद्ध्या जायमाना जघन्योत्कृष्टान्तरालवर्तिन्य औदारिकवर्गणा अप्यनन्ताः सिद्धा भवन्ति, एवं वैक्रियाहारकतैजसभाषाऽऽनापानमनःकार्मणवर्गणास्वपि ग्रहणप्रायोग्यासु निजनिजजघन्यवर्गणारम्भकस्कन्धस्यानन्तभागे ये अनन्तपरमाणवस्तावन्मात्रेणानन्तभागेन स्वस्वोत्कृष्टवर्गणारम्भकएकैकः स्कन्धोऽधिको वाच्यः, तस्य चानन्तभागस्यानन्तपरमाणुमयत्वेनैकैकपरमाणुवृद्धाः सर्वग्रहणवर्गणा अप्यनन्ता अवसेयाः, केवलमुत्तरोत्तरवर्गणा स्कन्धानामनन्तगुणपर-- माणूपचितत्वेनानन्तभागोऽप्युत्तरानुप्रवृद्धप्रवृद्धतरप्रवृद्धतमादिभेदेन नानाविधो दृश्य इति। कर्म० 5 कर्म०। क० प्र०। पं० सं०। आ० चू०। आचा०॥ दण्डकक्रमेण वर्गणा उच्यन्ते - एगाणेरइयाणं वग्गणा, एगा असुरकुमाराणं वग्गणा, चउवीसं दंडओ० जाव एगा वेमणियाणं वग्गणा, एगा भवसिद्धियाणं वग्गणा, एगा अभवसिद्धियाणं वग्गणा, एगा भवसिद्धियाणं णेरइयाणं वग्गणाएगा अभवसिद्धियाणं णेरइयाणं वग्गणा, एवं जाव एगा भवसिद्धियाणं वेमाणियाणं वग्गणा, एगा अभवसिद्धियाणं वेमाणियाणं वग्गणा, एगा सम्महिट्ठियाणं वग्गणा, एगा मिच्छद्दिष्ट्ठियाणं वग्गणा, एगा सम्मामिच्छद्दिहियाणं वग्गणा, एगा समद्दिट्ठियाणं णेरइयाणं वग्गणा, एगा मिच्छद्दिट्ठियाणं णेरइयाणं वग्गणा, एगा सम्मामिच्छद्दिट्ठियाणं णेरइयाणं वग्गणा, एवं० जाव थणियकुमाराणं वग्गणा, एगा मिच्छद्दिट्ठियाणं, पुढविकाइयाणं वग्गणा, एवं जाव वणस्सइकाइयाणं, एगा सम्मविट्ठियाणं बेइंदियाणं वग्गणा, एगा मिच्छद्दिट्ठियाणं बेइं-दियाणं वग्गणा, एवं तेइंदियाणं दि, चउरिंदियाणं वि, सेसा जहा नेरइया जाव एगा सम्मामिच्छतिट्ठियाणं वेमाणियाणं वग्गणा, एगा कण्हपक्खियाणं वग्गणा, एगा सुक्कपक्खियाणं वग्गणा, एगा कण्हपक्खियाणं णेरइयाणं वग्गणा, एगा सुक्कप-क्खियाणं णेरइयाणं वग्गणा, एवं चउवीसदंडओ भाणियव्वो / एगा कण्हलेस्साणं वग्गणा, एगा णीललेस्साणं वग्गणा, एवं जाव सुक्क लेस्साणं वग्गणा, एगा कण्हलेसाणं नेरइयाणं वग्ग-णा ०जाव काउलेस्साणं नेरइयाणं वग्गणा, एवं जस्स जति लेस्साओ, भवणवइवाणमंतरपुढविआउवणस्सइकाइयाणं च चत्तारि लेस्साओ, तेउवाउबेइंदियतींदियचउरिंदियाणं तिन्नि लेस्साओ, पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं मणुस्साणं छल्लेस्साओ, जोइसियाणं एगा तेउलेस्सा माणियाणं तिन्नि उवरिमलेस्साओ, एगा कण्हलेसाणं भवसिद्धियाणं वग्गणा, एवं छसु विलेस्सासु दो दो पयाणि भाणियव्वाणि। एगा कण्हले-स्साणं भवसिड़ियाणं नेरइयाणं वग्गणा, एगा कण्हलेसाणं अभवसिद्धियाणं णेरइयाणं वग्गणा, एवं जस्स जति लेस्साओ तस्स तति भाणियव्वाओ जाव वेमाणियाणं / एगा कण्हलेसाणं सम्मद्दिट्टियाणं वग्गणा, एगा कण्हलेस्साणं मिच्छद्दिट्टियाणं वग्गणा, एगा कण्हलेस्साणं सम्मामिच्छहिट्ठियाणं वग्गणा, एवं छसु वि लेसासु जाव वेमाणियाणं जेसिं जति दिट्ठीओ। एगा कण्हलेस्साणं कण्हपक्खियाणं वग्गणा, एगा कण्हलेस्साणं सुक्कपक्खियाणं वग्गणा 0 जाव वेमाणियाणं, जस्स जति लेस्साओ एए अट्ठ चउवीसदंडया। (सू०५१४) तत्र'नेरइयाणं' ति निर्गतम्-अविद्यमानमयम्-इष्टफलं कर्म येभ्यस्ते निरयास्तेषु भवा नैरयिकाः-क्तिष्टसत्त्वविशेषाः, ते च पृथ्वीप्रस्तटनरकावासस्थितिभव्यत्वादिभेदादनेकविधास्तेषां च सर्वेषां वर्गणा वर्ग:-समुदायः, तस्याश्चैकत्वं सर्वत्र नारकत्वादिपर्यायसाम्यादिति। तथा असुराश्च ते नवयौवनतया कुमारा इव कुमाराश्चेत्यसुर
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________________ वग्गणा 761 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वग्गणा कुमारास्तेषामेका वर्गणेति, 'चउवीसदंडउ' त्ति चतुर्विशतिपदप्रतिबद्धो दण्डको वाक्यपद्धतिश्चतुर्विशतिदण्डकः, स इह वाच्य इति शेषः, (स्था०) एतदनुसारेण सूत्राणि वाच्यानि, यावच्चतुर्विशतितमम्। 'एगा वेमाणियाणं वग्गण' त्ति, एष सामान्यदण्डकः 1; ननु नारकसत्तैव दुरुपपादा आस्तां तद्धर्मभूताया वर्गणाया एकत्वमनेकत्वं वेति, तथाहिन सन्ति नारकाः तत्साधकप्रमाणाभावात्, व्योमकुसुमवत्। अत्रोच्यतेप्रमाणाभावादित्यसिद्धो हेतुः, तत्साधकानुमानसद्भावात्, तथाहिविद्यमानभोक्तृकं प्रकृष्टपापकर्मफलम्कर्मफलत्वात्, पुण्यकर्मफलवत्। नच तिर्यड्नरा एव प्रकृष्टपापफलभुजः, तस्यौदारिकशरीरवता वेदयितुमशक्यत्वात, विशिष्टसुरजन्मनिबन्धनप्रकृष्टपुण्यफलवत् / आह च"पावफलस्स पगिट्ठस्स भोइणो कम्मओऽवसेसव्व। संतिधुवं तेऽभिमया, नेरइया अह मई होज्जा // 1 // अचत्थदुक्खिया जे, तिरियनरा नारग त्ति तेऽभिमया। तं नजओ सुरसोक्खप्पगरिससरिसं न तं दुक्खं // 2 // " इति।" अवसेसव्व"त्ति यथा नारकेभ्योऽन्ये तिर्यड्नरा इत्यर्थः, अथ सुराणामपि विवादास्पदीभूतत्वात् विशिष्टसुरजन्मनिबन्धनप्रकृष्टपुण्यफलवत् इत्यसिद्धो दृष्टान्तः / अत्रोच्यते-देव इति सार्थकं पदम्, च्युतव्यु-त्पत्तिमत्, शुद्धपदत्वात्, घटाभिधानवदिति। ततःसन्ति देवा इति प्रत्येतव्यम्। अथ मनुष्येण गुणद्धिसंपन्नेनार्थव भविष्यतिदेवपदमितिन विवक्षितदेवसिद्धिरिति। अत्रोच्यते-यदिदं नरविशेषे देवत्वंतदोपचारिकम, उपचारश्च तथ्यार्थसिद्धौ सत्यां भवति। यथा-निरुपचरितसिंहसद्भावे माणवके सिंहोपचार इति, आह च"देव त्ति सत्थयमिदं, सुद्धत्तणओ घडाभिहाणं व। अह व मती मणुओ चिय, देवो गुणरिद्धिसंपन्नो॥१॥ तनजओ तचत्थे, सिद्धे उवयारओ मया सिद्धी। तद्यत्थ सीहसिद्धे, माणवसीहोवयारो व्व॥२॥" इति। अपिच"देवेसुन संदेहो, जुत्तो जंजोइसा सपञ्चक्खं। दीसंति तक्या वि य, उपघायाणुग्गहा जगओ / / 1 / / आलयमेतं च मई, पुरं च तव्वासिणो तह वि सिद्धा। जे ते देव त्ति मया, न य निलया निच्चपडिसुण्णा / / 2 / / को जाणइव किमेयं, ति होज णिस्संसयं विमाणाई। रयणमयनभोगमणा-दिह जह विजाहरादीणं / / 3 / / " इति, तेषामसुरादिविशेषः पुनराप्तवचनादवसेय इति। अथ पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिकायिकाः कथमिह जीवत्वेन प्रतिपत्तव्याः? उच्छ्वासादिप्राणिधर्माणां तेष्वप्रतीयमानत्वाद्। अत्रोच्यते-आप्तवचनादनुमानतश्च। तत्राप्तवचनमिदमेव। अनुमानंत्विदम्- वनस्पतयो विद्रुमलवणोपलादयः स्वस्वाश्रये वर्तमानाः सात्मकाः, समानजातीयाऽङ्करसद्भावाद्, अर्शाविकाराडरवत् / आह स- "मसंकुरो व्व समाणं, जाईरूवंsकुरोवलंभाओ। तरुगणविदुमलवणोपलादयो सासयावत्था // 1 // " इति, इह समानजातिग्रहणं शृङ्गाङ्कव्यवच्छेदार्थम्, स हि न समान- | जातीयो भवतीति। तथा-सात्मकमम्भो भौम, भूमिखनने स्वाभाविकसम्भवाद्, दर्दुरवत्। अथवा-सात्मकमन्तरिक्षोदकम्, स्वभावतो व्योमसम्भूतस्य पातात्, मत्स्यवत्। आह च-"भूमिक्खयसाभाविय संभवओ दडुरो व्व जलमुत्तं / " (सात्मकत्वेनेति) अहवा मच्छो व सहाववोमसंभूयपायाओ॥ 1 // " इति तथा सात्मको वायुरपरप्रेरिततिर्यगनियतदिग्गतित्वाद् गोवत् / इह चापरप्रेरितग्रहणेन लेष्ट्वादिना व्यभिचारः परिहृतः, एवं तिर्यग्रहणेनोर्ध्वगतिनाधूमेनानियमितग्रहणेन च नियमितगतिना परमाणुनेति / तथा तेजः सात्मकमाहारोपादानात् तवृद्धिशेषोपलब्धेस्तद्विकारदर्शनाच पुरुषवद् / आह च-"अपर-- प्पेरियतिरिया, नियमियदिग्गमणओऽनिलो गोव्व। अनलो आहाराओ, विद्धिविगारोवलंभाओ // १॥इति, अथवा-पृथिव्यप्तेजोवायवो जीवशरीराणि, अभ्रादिविकारवर्जितमूर्तजातीयत्वात्, गवादिशरीरवदिति / अभ्रादिविकारा हि मूर्तजातीयत्वे सत्यपि न जीवतनवस्तेन तत्परिहारो हेतुविशेषणम् / आह च- "तणओ ऽणब्भाइविगारमुत्तजाइत्तओऽनिलंताई। (भूतानिति प्रक्रमः) सत्थासत्थहयाओ, निजीवसजीवरूवाओ॥१॥" इति। वनस्पतीनां विशेषेण सचेतनत्वं भाष्यगाथाभिरभिधीयते - "जम्पजराजीवणमर-णरोहणाहारदाहलामयओ। रोगतिगिच्छाईहि य, णारि व्व सचेयणातरवो // 1 // छिकाप्परोइयाछि-क्कमित्तसंकोयओ कुलिंगि व्व। आसयसंचाराओ, वियत्तं 'वियत्त' ति गणधरामन्त्रणमिति ! वल्लीवियाणाहि // 2 // सम्मादयो व साव-प्पवोहसंकोयणादिओऽभिमया। बउलादयो य सद्दा-इ विसयकालोवलंभावो॥३॥" इति। 'सम्मादओ' ति शम्यादयः, 'विसयकालोवलंभाओ' त्ति विषयाणांगीतसुरागण्डूषकामिनीचरणताडनादीनां कालो वसन्तादिरिति, 'रागाभवसिद्धिये' त्यादि, भविष्यतीति भवा-भाविनी सा सिद्धिःनिर्वृत्तिर्येषां ते मवसिद्धिका-भव्याः, तद्विरीता-स्त्वभवसिद्धिका अभव्या इत्यर्थः / ननु जीवत्वे समाने सति को भव्याभव्ययोर्विशेषः? उच्यते-स्वभावकृतो, द्रव्यत्वेन समानयोर्जीवनभसोरिव / आह च"दवाइत्ते तुल्ले, जीवनभाणं सभावओ भेदो। जीवाजीवाइगओ, जह तह भव्वेयरविसेसो॥ 1 // " इति, आभ्यां विशेषितोऽन्यो दण्डकः 2 // 'एगा सम्मद्दिट्ठियाण' मित्यादि,सम्यग-अविपरीता दृष्टिः-दर्शनं रुचिस्तत्त्वानि प्रति येषां ते सम्यग्दृष्टि काः, ते च मिथ्यात्वमोहनीयक्षयक्षयोपशमेभ्यो भवन्ति, तथा मिथ्याविपर्यासवती जिनाभिहितार्थसार्था श्रद्धानवतीदृष्टिः-दर्शनं श्रद्धानंयेषांतेमिथ्यादृष्टिकाः-मिथ्यात्वमोहनीयकर्मोदयादरुचितजिनवचना इति भावः, उक्तञ्च- 'सूत्रोक्तस्यैकस्याप्यरोचनादक्षरस्य भवति नरः। मिथ्यादृष्टिः सूत्रं, हि नः प्रमाणं जिनाभिहितम्॥ 1 // " इति / तथा सम्यक् मिथ्या च दृष्टिर्येषां ते सम्यग्मिथ्यादृष्टिकाःजिनोक्तभावान्प्रत्युदासीनाः। इहचगम्भीरभवोदधिमध्यविपरिवर्तीजन्तुरनाभोगनिवर्तितेन गिरिसरिदुपलघोलनाकल्पेन यथाप्रवृत्तिकरणेन संपा
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________________ वग्गणा 792 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वग्गणा दितान्तःसागरोपमकोटाकोटीस्थितिकस्य मिथ्यात्यवेदनीयस्य कर्मणः स्थितेरन्तर्मुहूर्तमुदयक्षणादुपर्यतिक्रम्यापूर्वकरणानिवृत्तिकरणसंज्ञिताभ्यां विशुद्धिविशेषाभ्यामन्तर्मुहूर्तकालप्रमाणमन्तरकरणं करोति, तस्मिन् कृते तस्य कर्मणः स्थितिद्वयं भवति, अन्तरकरणादधस्तनी प्रथमस्थितिरन्तमुहूर्त्तमात्रा, तस्मादेवोपरितनी शेषा / तत्र प्रथमस्थितौ मिथ्यात्वदलिकवेदनादसौ मिथ्यादृष्टिः, अन्तर्मुहूर्तेन तु तस्यामपगतायामन्तरकरणप्रथमसमय एवौपशमिकसम्यक्त्यमाप्नोति, मिथ्यात्वदलिकयेदनाऽभावात्। यथा हि-दवानलः पूर्वदग्धेन्धन-मूषरं वा देशमवाप्य विध्मापयति तथा मिथ्यात्ववेदनाग्निरन्तरकरणमवाप्य विध्मापयतीति तदेवं सम्यक्त्वमौषधविशेषकल्पमासाद्य मदनकोद्रवस्थानीयं दर्शनमोहनीयम्, अशुद्ध कर्म त्रिधा भवति-अशुद्धमर्द्धविशुद्ध विशुद्धं चेति / त्रयाणां तेषां पुञ्जानां मध्ये यदाऽर्द्धविशुद्धः पुञ्ज उदेति तदा तदुदयवशादर्द्धविशुद्धमर्हदृष्टतत्त्ववश्रद्धानं भवति जीवस्य, तेन तदाऽसौ सम्यग्मिध्यादृष्टिर्भवति अन्तर्मुहूर्त यावत्तत ऊर्ध्वं सम्यक्त्वपुजं मिथ्यात्वपुजं वा गच्छतीति सम्यग्दृष्टिमिथ्यादृष्टिमिश्रविशेषितोऽन्योदण्डकः, तत्रच नारकादिष्वेकादशसु पदेषु दर्शनत्रयमस्ति। अत उक्तम्- 'एवं जाव थणिए त्यादि पृथिव्यादीनां मिथ्यात्वमेव, तेन तेषां तेनैव व्यपदेशः। उक्तश्च- 'चोइस तससेसया मिच्छत्ति चतुर्दशगुणस्थानकवन्तस्वसाः, स्थावरास्तु मिथ्यादृष्टय एवेत्यर्थः / द्वीन्द्रियादीनां मिभं नास्ति, संझिनामेव तद्भावात्, ततस्तेषु सम्यग्दृष्टिमिथ्यादृष्टितयैव व्यपदेशः / एवं 'तेइंदियाण वि चउरिंदियाण वि' त्ति द्वीन्द्रियवद् व्यपदेशद्वयेन वर्गणैकत्वं वाच्यम्, पञ्चेन्द्रियतिर्यगादीनां दर्शनत्रयमप्यस्ति ततस्त्रिधाऽपि तव्यपदेशः / अत एवोक्तम्-'सेसा जहा नेरइय'त्ति, तथा वाच्या इति शेषः / दण्डकपर्यन्तसूत्रं पुनरिदम्- "एगा सम्मद्दिट्ठियाणं वेमाणियाणं वग्गणा, एवं मिच्छद्दिट्टियाणं एवं सम्मामिच्छादिट्ठियाणं" एतत्पर्यन्तमाह-"जाव एगा सम्मामिच्छे" त्यादि३। 'एगा कण्हपक्खियाणं' इत्यादि कृष्णपक्षिकेतरयोर्लक्षणम्- "जेसिमवड्डो पोग्गलपरियष्टो सेसओ उ संसारो। ते सुक्पक्खिया खलु अहिए पुण किण्हपक्खीआ // 1 // " इति, एतद्विशेषितोऽन्यो दण्डकः // 4 // " एगा कण्हलेसाण''मित्यादि, लिश्यते प्राणी कर्मणा यथा सा लेश्या, यदाह"श्ले-ष इव वर्णबन्धस्य कर्मबन्धस्थितिविधात्र्यः" तथा-"कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यात्, परिणामो य आत्मनः / स्फटिकस्येव तत्रायं, लेश्याशब्दः प्रयुज्यते॥१॥" इति। इयं च शरीरनामकर्मपरिणतिरूपा योगपरिणतिरूपत्वात्, योगस्य च शरीरनामकर्मपरिणतिविशेषत्वात्, यत उक्तं प्रज्ञापनावृत्तिकृता-"योगपरिणामो लेश्या, कथं पुनर्योगपरि- 1 णामो लेश्या ? यस्मात् सयोगिकेवली शुक्ललेश्यापरिणामेन विहृत्यान्तर्मुहूर्ते शेषे योगनिरोधं करोति ततोऽयोगित्वमलेश्यत्वं च प्राप्नोति, अतोऽवगम्यते 'योगपरिणामो लेश्ये' ति, स पुनर्योगः शरीरनामकर्मपरिणतिविशेषः, यस्मादुक्तम्-"कर्म हि कामणस्य कारणमन्येषांच शरीराणामि "ति, तस्मादौदारिकादिशरीरयुक्तस्यात्मनो वीर्यपरिणति- | विशेषः काययोगः 1, तथौदारिकवैक्रियाहारकशरीरव्यापाराहतवाग्द्रव्य-समूहसाचिव्यात्-जीवव्यापारो यः स वाग्योगः 2, तथौदारिकादिशरीरव्यापाराहृतमनोद्रव्यसमूहसाचिव्यात् जीवव्यापारो यः स मनोयोग इति 3, ततो यथैव कायादिकरणयुक्तस्यात्मनो वीर्यपरि-णतियोगी उच्यते-तथैव लेश्यापीति। अन्येतुव्याचक्षते- 'कर्म-निस्यन्दो लेश्ये' ति सा च द्रश्यभावभेदात् द्विधा, तत्र-द्रव्यलेश्या कृष्णादिद्रव्याण्येव, भावलेश्या तु तज्जन्यो जीवपरिणाम इति। इयं च षट्प्रकारा जम्बूफलखादकपुरुषषट्कदृष्टान्ताद् ग्रामघातकचोरपुरुषषट्कदृष्टान्ताद्वा आगमप्रसिद्धादवसेयेति। तत्सूत्राणि सुगमानिनवरं कृष्णवर्णद्रव्यसाचिव्यात्, जाताऽशुभपरिणामरूपा कृष्णा, सा लेश्या येषां ते तथा, एवं शेषाण्यपि पदानि, नवरं नीला ईषत्सुन्दररूपा, एवमिति-अनेनैव क्रमेण यावत्करणात्- 'एगा कावोयलेस्साण' मित्यादि सूत्रत्रयं दृश्यम्, तत्र कपोतस्यपक्षिविशेषस्य वर्णन तुल्यानि यानि द्रव्याणि धूम्राणीत्यर्थः, तत्साहाय्याजाता कापोतलेश्या मनाक् शुभतरा, सालेश्या येषां ते तथा, तेजःअग्निज्वाला तद्वर्णानि यानि द्रव्याणि लोहितानीत्यर्थः, तत्साचिव्याजाता तेजोलेश्या शुभस्वभावा, पद्मगर्भवर्णानि यानि द्रव्याणि पीतानीत्यर्थः तत्साचिव्याजाता पद्मलेश्या शुभतरा, शुक्लवर्णद्रव्यजनिता शुक्ला, अत्यन्तशुभेति / एतासां च विशेषतः स्वरूपं लेश्याध्ययनादवसेयमिति। एवं जस्स जइ ति नारकाणामिव यस्यासुरादेर्या यावत्यो लेश्यास्तदुद्देशेन तद्वर्गणैकत्वं वाच्यम्, 'भवणे' त्यादिना तल्लेश्यापरिमाणमाह। अत्र संग्रहणीगाथाः - "काऊनीला किण्हा, लेसाओ तिन्नि होंति नरएसु। तइयाए काउनीला, नीला किण्हा परिहाए॥१॥ किण्हा नीला काऊ, तेऊ लेसा य भवणवंतरिया। जोइससोहमीसा-ण तेउलेसा मुणेयव्वा // 2 // कप्पे सणंकुमारे, माहिदे चेव बंभलोएय। एएसु पम्हलेसा, तेण परं सुक्कलेसा उ॥३॥ पुढवी आउ वणस्सइ, वायर पत्तेय लेस चत्तारि। गब्भयतिरियनरेसुं, छल्लेसा तिन्नि सेसाणं // 4 // " अयंसामान्योलेश्यादण्डकः 5 / अयमेवभव्याभव्यविशेषणादन्यः, 'एगा कण्हलेसाणं भवसिद्धियाणं वग्गणे त्यादि, 'एवमिति कृष्णलेश्यायामिव' 'छसुवि' त्ति कृष्णया सह षट्सु, अन्यथा अन्या पञ्चैवातिदेश्या भवन्तीति, द्वे द्वे पदे प्रतिलेश्यं भव्याभव्यल-क्षणे वाच्ये, यथा- 'एगा नीललेसाणं भवसिद्धियाणं वग्गणे' त्यादि६, लेश्यादण्डक एव दर्शनत्रय-विशेषितोऽन्यः, 'एगा कण्हलेसाणं सम्मद्दिट्ठियाण मित्यादि, 'जेसिं जइ दिडिओ' त्ति येषां नारकादीनां या यावत्यो दृष्टयः सम्यक्त्वाद्यास्तेषां ता वाच्या इति / तत्र एकेन्द्रियाणां मिथ्यात्वमेव, विकलेन्द्रियाणां सम्यक्त्वमिथ्यात्वे, शेषाणां तिस्रोऽपि दृष्टय इति 7, लेश्यादण्डक एव कृष्णशुक्लपक्षविशिष्टोऽन्यः, 'एगा कण्हलेस्साणं कण्हपक्खियाण मित्यादि, एते 'अट्ठचउवीसदंड्य'त्ति, एतेचैवम्-"ओहो १भव्वाईहि, विसेसिओ रदंसणेहिं३ पक्खे
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________________ वाणा 763 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वग्गणा हिं 4 / लेसाहिं 5 भव्य 6 दसण ७,पक्खेहिं 8 विसिट्ठलेसाहिं // 1 // " इति। इतः सिद्धवर्गणा अभिधीयते-तत्र सिद्धा द्विधाअनन्तरसिद्ध-परम्परसिद्धभेदात्, तत्रानन्तरसिद्धाः पञ्चदशविधाः, तद्वर्गणैकत्वमाह - एगा तित्थसिद्धाणं वग्गणा, एवं०जाव एगा एकसिद्धाणं वग्गणा, एगा अणिकसिद्धाणं वग्गणा, एगा पढमसमयसिद्धाणं वग्गणा, एवं जाव अणंतसमयसिद्धाणं वग्गणा। एगा परमाणु-पोग्गलाणं वग्गणा, एवं जाव एगा अणंतपएसियाणं खंधाणं वग्गणा / एगा एगपएसोगाढाणं पोग्गलाणं वग्गणा, जाव एगा असंखेनपएसोगाढाणं पोग्गलाणं वग्गणा / एगा एगसमय-हितियाणं पोग्गलाणं वग्गणा ०जाव असंखेजसमयहितिआणं पोग्गलाणं वग्गणा, एगा एगगुणकालगाणं पोग्गलाणं वग्गणा ०जाव एगा असंखेज ०एगा अणंतगुणकासयाणं पोग्गलाणं वग्गणा / एवं वण्णा गंधा रसा फासा भाणियव्याजाव एगा अणंतगुणलुक्खाणं पोग्गलाणं वग्गणा / एगा जहन्नपएसियाणं खंधाणं वग्गणा, एगा उमस्सपएसियाणं खंधाणं वग्गणा, एगा अजहन्नुकस्सपएसियाणं खंधाणं वग्गणा, एवं जहन्नोगाहण-याणं उकोसोगाहणगाणं अजहन्नुकोसोगाहणगाणं जहन्नहितियाणं उकस्सहितियाणं अजहन्नुकोसहितियाणं जहन्न-गुणकालगाणं उकोसगुणकालयाणं अजहनुकोसगुणकालगाणं एवं वण्णगंधरसफासाणं वग्गणा भाणियव्या, जाव एगा अदजन्नुकोसगुणलुक्खाणं पोग्गलाणं वग्गणा 1 (सू०५१) 'एगा तित्थे' त्यादिना, तत्र तीर्यतेऽनेनेति तीर्थम्, द्रव्यतो नद्यादीनां समोऽनपायश्च भूभागो भौतादि प्रवचनं वा, द्रव्यतीर्थता त्वस्याप्रधानत्वाद्, अप्रधानत्वं च भावतस्तरणीयस्य संसारसागरस्य तेन तरीतुमशक्यत्वात्,सावद्यत्वादस्येति, भावतीर्थ तुसङ्घः, यतो ज्ञानादिभावेन तद्विपक्षादज्ञानादितो भवाच्च भावभूतात् तारयतीति, आह च"जणाणदसणचरि-त्तभावओ तव्विवक्खभावाओ। भवभावओयतारेइतेण तं भावओ तित्थं ॥१॥"इति, त्रिषु वा-क्रोधाग्निदाहोपशमलोभतृष्णानिरासकर्मामलापनयनलक्षणेषु ज्ञानादिलक्षणेषु वा अर्थेषु तिष्ठतीति त्रिस्थम्, प्राकृतत्वात् तित्थं, आह च-"दाहोवसमादिसुवा, जं तिसु थियमह व दंसणाईसुं ! तो तित्थं सो चिय, उभयं च विसेसणविसेसं॥१॥" इति, 'विशेषणविशेष्य मिति तीर्थ सङ्घ इति, सो वा तीर्थ-मिति / त्रयो वा क्रोधाग्निदाहोपशमादयोऽर्थाः-फलानि यस्य तत् त्र्यर्थम्, 'तित्थंति' पूर्ववत्, आह च-"कोहग्गिदाहसमणादओ व ते चेव तिन्नि जस्सऽत्था / होइ तियत्थं तित्थं, तमत्थसद्दो फलत्योऽयं // 1 // ' अथवा-त्रयो ज्ञानादयोऽर्थाः-वस्तूनि यस्य तत्यर्थम्, आहच-"अहवा सम्मइंसण-नाणचरित्ताइँ तिन्निजस्सs त्था / तं तित्थं पुव्वोदिय-मिहमत्थो वत्थुपज्जाओ॥ १॥"त्ति / तत्र तीर्थे सति सिद्धाः-निवृतास्तीर्थसिद्धाः, ऋषभसेनगणधरादिवत् तेषां वर्गणेति 1, तथा अतीर्थे-तीर्थान्तरे साधुव्यवच्छेदे जातिस्मरणादिना प्राप्तापवर्गमार्गा मरुदेवीवत् सिद्धा अतीर्थसिद्धास्तेषाम् 2. एवं करणात्'एगा तित्थगरसिद्धाणं वग्गणे त्यादि दृश्यम्, तीर्थमुक्तलक्षणं तत्कुर्वन्त्यानुलोम्येन हेतुत्वेन तच्छीलतया वेति तीर्थकराः, आह च"अणुलोमहेउतस्सीलया य जे भावतित्थमेयं तु। कुव्यंति पगासंति उ, ते तित्थगरा हियत्थकरा॥ 1 // " इति, तीर्थकराः सन्तो ये सिद्धास्ते तीर्थकरसिद्धा ऋषभादिवत्, तेषाम् 3, अतीर्थकरसिद्धाः सामान्यकेवलिनः सन्तो ये सिद्धा गौतमादिवत् तेषाम् 4, तथा स्वयम्-आत्मना बुद्धाः-तत्त्वं ज्ञातवन्तः स्वयंबुद्धास्ते सन्तो ये सिद्धास्ते तथा तेषाम् 5, तथा प्रतीत्यैकं किञ्चित् वृषभादिकम् अनित्यतादिभावनाकारणं वस्तु बुद्धाः-बुद्धवन्तः परमार्थमिति प्रत्येकबुद्धास्ते सन्तो ये सिद्धास्ते तथा तेषाम् 6, स्वयम्बुद्धप्रत्येकबुद्धानां च बोध्युपधिश्रुतलिङ्गकृतो विशेषः, तथाहि-स्वयम्बुद्धानां बाह्यनिमित्तमन्तरेणैव बोधिः प्रत्येकबुद्धानां तु तदपेक्षया, करकण्ड्वादीनामिवेति, उपधिः स्वयम्बुद्धानां पात्रादिदशविधः ; तद्यथा-"पत्तं 1 पत्ताबंधो 2, पायट्ठवण 3, च पायकेसरिया 4 / पडलाइ 5 रयत्ताणं, च 6 गोच्छओ७ पायनिजोगो।।१।। तिन्नेव य पच्छागा 10, रयहरणं 11 चेव होइ मुहपोत्ति // 12 // ' त्ति, प्रत्येकबुद्धानां तु नवविधः प्रावरणवज इति, स्वयम्बुद्धानां पूर्वाधीते श्रुते अनियमः, प्रत्येकबुद्धानां तु नियमतो भवत्येव, लिङ्गप्रतिपत्तिः स्वयम्बुद्धानामाचार्यसन्निधावपि भवति, प्रत्येकबुद्धानां तु देवता प्रयच्छतीति। बुद्धबोधिता:-आचार्यादिबोधिताः सन्तो ये सिद्धास्ते बुद्धयोधितसिद्धास्तेषाम् 7, एतेषामेव स्त्रीलिङ्गसिद्धानां 8 पुंलिङ्गसिद्धानां नपुंसकलिङ्गसिद्धानां 10 स्वलिङ्गसिद्धानां रजोहरणाद्यपेक्षया 11 अन्यलिङ्गसिद्धानां परिव्राजकादिलिङ्गसिद्धानां 12 गहिलिङ्गसिद्धानां मरुदेवीप्रभृतीनाम् 13 एकसिद्धानामेकैकस्मिन् समये एकैकसिद्धानाम् 14 अनेकसिद्धानामेकसमये व्यादीनाम् अष्टशतान्तानां सिद्धानामेका वर्गणेति 15 / तत्रानेकसमयसिद्धानां प्ररूपणागाथा - "बत्तीसा अडयाला, सट्टी बावत्तरी य बोधव्या। चुलसीई छन्नउई, दुरहियअट्ठोत्तरसयं च // 1 // " एतद्विवरणम्-यदा एकसमयेन एकादय उत्कर्षेण द्वात्रिंशत् सिध्यन्ति तदा द्वितीयेऽपि समये द्वात्रिंशद्, एवं नैरन्तर्येण अष्टौ समयान् यावत् द्वात्रिंशत् सिध्यन्ति, तत ऊर्ध्वमवश्यमेवान्तरं भवतीति / यदा पुनस्त्र यस्त्रिंशत आरभ्य अष्टचत्वारिंशदन्ताः एकसमयेन सिध्यन्ति तदा निरन्तरं सप्त समयान्यावत् सिध्यन्ति, ततोऽवश्यमेवान्तरं भवतीति। एवं यदा एकोनपञ्चाशतमादिं कृत्वा यावत् षष्टिरेकसमयेन सिध्यन्ति तदा निरन्तरं षट् समयान् सिध्यन्ति, तदुपरि अन्तरंसभयादिर्भवति, एवमन्यत्रापियोज्यम्। यावत् अष्टशतमेकसमयेन यदा सिध्यति तदाऽवश्यमेव समयाद्य
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________________ वग्गणा 794 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 दग्गु न्तरं भवतीति / अन्ये तु व्याचक्षते-अष्टौ समयान् यदा नैरन्तर्येण सिद्धिस्तदा प्रथमसमये जघन्येनैकः सिध्यत्युत्कृष्टतो द्वात्रिंशदिति, द्वितीयसमये जघन्येनैकः उत्कृष्टतोऽष्टचत्वारिंशत्, सर्वत्र जघन्येनैकः समयः, उत्कृष्टतः-"गाथार्थोऽयं भावनीयः 'बत्तीसे' त्यादि। एवमनन्तरसिद्धानां तीर्थादिना भूतभावेन प्रत्यासत्तिव्यपदेश्यत्वेन पञ्चदशविधानां वर्गणैकत्वमुक्तम्, इदानीं परम्परसिद्धानामुच्यते, तत्र- 'अपढमसमयसिद्धाण' मित्यादि, त्रयोदशसूत्री,न प्रथमसमयसिद्धाः अप्रथमसमयसिद्धाः सिद्धत्व-द्वितीयसमयवर्तिनः तेषाम्, 'एवं जाव' त्ति करणाद् 'दुसमय-सिद्धाणं तिचउपचछसत्तट्टनदससंखेज्जासंखेजसमयसिद्धाण' मिति दृश्यम्, तत्र सिद्धत्वस्य तृतीयादिषु समयेषु द्विसमयसिद्धादयः प्रोच्यन्ते, यद्वा-सामान्येनाप्रथमसमयाभिधानं विशेषतो द्विसम-याद्यभिधानमिति, अतस्तेषां वर्गणा, क्वचित् 'पढमसमयसिद्धाणं' ति पाठः, तत्र अनन्तरपरम्परसमयसिद्धलक्षणं भेदमकृत्वा प्रथमसमयसिद्धा अनन्तरसिद्धा एव व्याख्यातव्याः, द्व्यादि-समयसिद्धास्तु यथा श्रुता एवेति। इतो द्रव्यक्षेत्रकालभावानाश्रित्य पुगलवर्गणैकत्वं चिन्त्यतेपूरणगलनधर्माणः पुद्गलाः, तेचस्कन्धा अपिस्युरिति विशेषयति-परमाणयो निष्प्रदेशास्तेच ते पुद्गलाश्चेति विग्रहस्तेषाम्, एवं करणात् 'दुपएसियाणं खंधाणं तिचउ-पंच-छ-सत्त-ट्ठ-नव-दस-संखेजपएसियाणं असंखेजपएसियाण मिति दृश्यमिति। कृता द्रव्यतः पुगलचिन्ता। अतः क्षेत्रतः क्रियते- 'एगा एगपएसे' त्यादि, एकस्मिन् प्रदेशे क्षेत्रस्थावगाढाःअवस्थिता एकप्रदेशावगाढास्तेषाम्, ते च परमाण्वादयोऽनन्तप्रादेशिकस्कन्धान्ताः स्युः, अचिन्त्यत्वात् द्रव्यपरिणामस्य, यथा पारदस्यैकेन कर्षण चारिताः सुवर्णस्य ते सप्ताप्येकीभवन्ति, पुनार्वामिताः प्रयोगतः सप्तैव त इति / 'जाव एगा असंख्येज्जपएसोगाढा णं' ति अनन्तप्रदेशावगाहित्वं तु नास्तिपुद्रलानाम्, लोकलक्षणस्यावगाहक्षेत्रस्याप्यसंख्येयप्रदेशत्वादिति / कालत आह- 'एगा एगसमए' त्यादि। एकं समयं यावत् स्थितिः-परमाणुत्वादिना एकप्रदेशावगाढादित्वेन एकगुणकालदित्येन वाऽवस्थानं येषां ते एकसमयस्थितिकास्तेषामिति / इह चअनन्त-समयस्थितेः पुद्गलानामभावाद्-असंखेजसमयहितीयाण' मित्युक्तमिति / भावतः पुद्गलानाह-एकेन गुणो-गुणनं ताडनं यस्य स एकगुणः, एकगुणः कालोवर्णो येषां ते एकगुणकालकाः, तारतम्येन कृष्णतरकृष्णतमादीनां येभ्यः आरभ्यप्रथममुत्कर्षप्रवृत्तिर्भवतीति भावस्तेषाम्।एवं सर्वाण्यपि भावसूत्राणि षष्ट्यधिकद्वि-शतप्रमाणानि (260) वाच्यानि विंशतेः कृष्णादिभावानां त्रयोदशभिर्गुणनादिति / साम्प्रतं भङ्गयन्तरेण द्रव्यादिविशेषितानां जघन्यादिभेदभिन्नानां स्कन्धानां वर्गणैकत्वमाह- 'एगा जहन्नपएसियाणं' इत्यादि जघन्याः सर्वाल्पाः प्रदेशाः परमाणवस्ते सन्ति येषां ते जघन्यप्रदेशिकाः-व्यणुकादय इत्यर्थः, स्कन्धाः अणुस-मुदयास्तेषाम्, उत्कर्षन्तीत्युत्कर्षाः-उत्कर्षवन्तः उत्कृष्टसंख्याः परमानन्ताः प्रदेशाःअणवस्ते सन्ति येषां तेउत्कर्षप्रदेशिकास्तेषाम्, जघन्याश्च उत्कर्षाश्च जघन्योत्कर्षाः, न तथा ये ते अजघन्योत्कर्षाः, मध्यमा इत्यर्थः, ते प्रदेशाः सन्ति येषां ते अजघन्यो त्कर्षप्रदेशिकास्तेषाम्, एतेषां चानन्तवर्गणत्वेऽप्यजघन्योत्कर्षशब्दव्यपदेश्यत्वादेकवर्गणात्वमिति 'जहन्नोगाहणगाण' ति अवगाहन्ते आसते यस्यां सा अवगाहनाक्षेत्रप्रदेशरूपा सा जघन्या येषां ते स्वार्थिककप्रत्ययाजघन्यावगाहनकास्तेषाम् 'एकप्रदेशावगाढानामित्यर्थः, उत्कविगाहनकानामसंख्यातप्रदेशावगाढानामित्यर्थः, अजघन्योत्कर्षावगाहनकानां संख्येयासंख्येयप्रदेशावगाढानामित्यर्थः / जघन्याजघन्यसंख्या समयापेक्षया स्थितिर्येषां तेजघन्यस्थितिकाः,एकसमयस्थितिका इत्यर्थः, तेषाम्, उत्कर्षा उत्कर्षवत्संख्या समयापेक्षया स्थितिर्येषां ते तथा तेषामसंख्यातसमयस्थितिकानामित्यर्थः / तृतीयं कण्यम्, जघन्येन जघन्यसंख्याविशेषेणैकेनेत्यर्थ गुणो-गुणनं ताडनं यस्य स तथा, तथाविधः कालोवर्णो येषां तेजधन्यगुणकालकास्तेषाम्, एव-मुत्कर्षगुणकालकानामनन्तगुणकालकानामित्यर्थः, तृतीयं कएट्यम्, एवं भावसूत्राणि षष्टिविनीयानीति। स्था० 1 ठा०। प्रज्ञा०। वग्गतव-न०(वर्गतपस् ) यदा घनः चतुःषष्टिपदात्मको घनेनैय-चतुःषष्टिपदात्मकेनैव गुण्यते तदा वर्गो भवति, तदुपलक्षितं तपो वर्गतप उच्यते / तपोभेदे, उत्त०३० अ०। तथा भवति वर्गश्चेतीहापि प्रक्रमावर्ग इति वर्गतपः, तत्र च घन एव घनेन गुणितो वर्गो भवति, ततश्चतुःषष्टिश्चतुःषष्ट्यैव गुणिता जातानिषण्णवत्यधिकानि चत्वारि सहस्राणि एतदुपलक्षितं तपो वर्गतपः। उत्त० 30 अ०॥ वग्गय-(देशी) वार्तायाम्, दे० ना०७ वर्ग 38 गाथा। वग्गवग्ग-पुं०(वर्गवर्ग) वर्गगुणितो वर्गो वर्गवर्गो भवति। वर्गगुणितवर्गे, उत्त० 30 अ०। पृथक्सजातीयसमूह, बृ०१३०३ प्रक०।स्था०।"अणंताहिं वग्गवग्गेहिं" अनन्ताभिरपिवर्गवर्गाभिः-वर्गवगैर्वर्गितमपि, तत्रतद्गुणो वर्गो यथा-द्वयोर्वर्गश्चत्वारः। तस्यापि वर्गो वर्गवर्गः, यथा-षोडश एवमनन्तशो वर्गितमपि / चूर्णिकारस्त्वाह-अनन्तैरपि वर्गवर्गः-खण्ड खण्डैः / औ०। वग्गवग्गतव-न०(वर्गवर्गतपस् ) वर्गवर्गोपलक्षिते तपोभेदे, उत्त० / वर्गवर्गतपः, तुः समुचये पञ्चमं पञ्चसंख्यापूरणमत्र वर्ग एव यदा वर्गेण गुण्यते तदावर्गवर्गो भवति, तथा चचत्वारि सहस्राणि षण्णवत्यधिकानि तावतैव गुणितानि जातैका कोटिः सप्तषष्टिलक्षाः सप्तसप्ततिसहस्राणि द्वे शते षोडशाधिके अङ्कतोऽपि 16777216, एतदुपलक्षितं तपो वर्गवर्गतप इत्युच्यते। उत्त०३० अ०। वग्गसंख्या-स्त्री०(वर्गसंख्या) वः संख्यानं यथा द्वयोवर्गश्चत्वारः "सदृशद्विराशिघात'' इति वचनात्।संख्याभेदे, स्था० 10 ठा०३ उ०। वग्गसीह-पुं०(वर्गसिंह) सप्तदशस्य जिनस्य प्रथमभिक्षादाययके, स०। वग्गु-त्रि०(वल्गु) शोभने, सूत्र० 1 श्रु० 4 अ०२ उ०। आ० म०। शक्र देवेन्द्रलोकपालवैश्रवणस्य स्वनामख्याते विमाने, नपुं०। भ०३ श०७ उ०। (वक्तव्यता'लोगपाल' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 716 पृष्ठे गता।) "दो वग्गू'। स्था० 2 ठा०३ उ० / चक्रपुराख्यपुरीविभूषितविजयक्षेत्रयुगले, स्था०२ ठा०३ उ०। तच्च ज
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________________ वगु 765 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वग्घी म्बूद्वीपे मन्दरस्य पश्चिमायां शीलोदाया उत्तरेऽस्तीति। स्था०८ ठा०३ उ०मधुरे, "ललियं वगुं मंजुमंजुलयं पंसलं कलं महुरं"। पाइ० ना० 58 गाथा। *वाच-स्त्री०।वचने, "वग्गुत्ति वा वय त्ति वा वयणं ति वा एगट्ठा"। आ० 501 अ०। वगुफल-न०(वल्गुफल) शोभने, नारिकेरादिके फले, सूत्र०१ श्रु०४ अ०२ उ०। *वाकफल-न। धर्मकथारूपाया व्याकरणादिव्याख्यानरूपाया वाचो वस्त्रादिलाभरूपे फले, सूत्र०१ श्रु०४ अ०२ उ०। वगणुर-पुं०(वागुर) पुरिमताले नगरे जातिबन्ध्याया भद्रायाः पत्यौ श्रेष्ठिनि, आ० म०१ अ०। वग्गुरा-स्त्री०(वागुरा) मृगबन्धने, विपा०१ श्रु० 2 अ०। भ०।"पुरिसवग्गुरा परिक्खित्ता" वागुरा मृगबन्धनम् / वागुरेव वागुरा समुदायः। ज्ञा० 1 श्रु०५ अ० / आ० चू० / ज्ञा० / औ०। वगुरिय-पुं०(वागुरिक) पाशप्रयोगेण मृगघातके, बृ०१उ०। नर्तकभेदे, पं० चू० / मृगजालजीविनि, व्य०३ उ०। वग्गुली-स्त्री०(वल्गुली) चर्मपक्षिविशेषे, भ० 13 श०६ उ० / स० प्रश्नः / जी०। चर्मजलूकायाम, आचा०१ श्रु०१ अ०६ उ०। वग्गुलीकिचगय-पुं०(वल्गुलीकृत्यगत) वल्गुलीलक्षणं कृत्यं कार्यं गतं प्राप्तं येन स तथा। वल्गुलीरूपतां गते, भ० 13 श०६ उ०। वगुवाइ-त्रि०(वल्गुवादिन् ) वल्गु-शोभनं-वदतीत्येवं शीलो वल्गुवादी। शोभनवादिनि, व्य०८ उ०। वागू-स्त्री०(वाच् ) वाण्याम, औ०। स्था० / विशे०। भ०। वग्गेज-(देशी) प्रचुरे, दे० ना०७ वर्ग 38 गाथा। वग्गोअ-(देशी) नकुले, दे० ना०७ वर्ग 40 गाथा। वग्गोरसमय-(देशी) रूक्षे, दे० ना०७ वर्ग 52 गाथा। वग्गोल-नामधातु(रोमन्थ) उद्गीर्य चर्वणे, "रोमन्थ रोग्गाल-वग्गोलौ" / / 8 / 4 / 43 / / इति रोमन्थयतेर्वग्गोलादेशः / वग्गोलइ रोमंथइ। रोमन्थयते / प्रा० 4 पाद। वग्ध-पुं०(व्याघ्र) "सर्वत्र लवरामचन्द्रे'॥ 8 / 2 / 76 / / इति रलोपः / "द्वितीयतुर्ययोरुपरि पूर्वः।" / / 8 / 2 / 10 // इतिघकारोपरि गकारः / प्रा०। शार्दूले, जी०१ प्रति०। जं० प्रा०प्रश्न० / प्रज्ञा० / नि० चू०। स्था० / आचा० / (वाघ) इति ख्याते सनखपदे जन्ती, प्रज्ञा० 1 पद। "इल्ली पुल्ली वग्यो सङ्कलो पुंडरीओ य' / पाइ० ना० 44 गाथा। वग्धमुह-पुं०(व्याघ्रमुख) गोमुखद्वीपस्य परतोऽन्तरद्वीपे, स्था० 4 ठा० 2 उ० / उत्त० / प्रश्न / प्रज्ञा० / नं०। प्रव०। ('अन्तरदी-व' शब्दे प्रथमभागे 67 पृष्ठे व्याख्योक्ता।) वग्घसीह-पुं०(व्याघ्रसिंह) सप्तदशतीर्थकरस्य कुन्थुनाथस्य प्रथमभिक्षादायके, आ०म०१ अ०। वग्याअ-(देशी) साहाय्ये, विकसिते च। दे० ना०७ वर्ग 86 गाथा। वग्घाडिया-स्त्री०(व्याघ्राटिका) उपहासार्थरुतविशेषे, ज्ञा० 1 श्रु०८ अ०। उद्घट्टककारिण्याम्, बृ०६ उ०। वग्धारिय-(देशी) प्रलम्बिते, सूत्र०२ श्रु०२ अ०। औ०। प्रज्ञा०।जी० / "गलतिसीओदगवग्धारियहत्थमेत्तेणंगलंतेण त्ति भणिय होइ" आव० 4 अ०। ज्ञा०। वग्धारियपाणि-त्रि०(वग्धारियपाणि) प्रलम्बितभुजे, भ०३ श०२ उ०। दशा० / ज्ञा० / अन्त० / पञ्चा० / ज्ञा० / प्रलम्बितभुजद्रये, कल्प०१ अधि०७ क्षण। वग्धारियमल्लदामकलाव-त्रि०(वग्घारियमाल्यदामकलाप) अवल म्बितपुष्पमालासमूहे, रा०। वग्धारियट्टिकाय-पुं०(वग्घारियवृष्टिकाय) अच्छिन्नधारावृष्टौ, कल्प० 3 अधि०६ क्षण वग्घावच-पुं०(व्याघ्रापत्य) स्वनामख्याते व्याघ्रपत्ये, जं०७ वक्ष०। यद्गोत्रे उत्तराषाढनक्षत्रम्। चं० प्र०१० पाहु०। वग्घी-स्त्री०(व्याघ्री) स्त्रीत्वविशिष्ट व्याजघ्रातौ, आ० क० 1 अ०। तं०। प्रज्ञा० / अनेकेषां व्याघ्राणां विकुर्वणालिकायाम् परिव्राजकविद्याविशेषपरिपन्थिन्यां जैन विद्यायाम्, कल्प०२ अधि० 8 क्षण / विशे० / आ० म०। ल० प्र०। व्याघ्रीकल्पमाह - "यः स्यादाराधको जन्तुः, श्रेयस्तत्कीर्तनाद्ध्रुवम्। इत्यालोच्य हृदा किंचिद्, व्याघ्रीकल्पं वदाम्यहम् // 1 // श्रीशत्रुञ्जयनाभेय-चैत्रवप्रस्य कर्हिचित्। प्रतोलीद्वारमावृत्य, काचिद् व्याघ्री समस्थिता // 2 // निरीक्ष्य निश्चलाङ्गी ता-मातङ्कातुरमानसाः / जैनाः श्राद्धा जिनं नन्तुं, बहिस्तो न डूढौकिरे।।३॥ राजन्यसाहसी कोऽपि, तस्याः पार्श्वमुपासृपत्। सातु तं प्रति नाकार्षीत्, हिंसाचेष्टां मनागपि॥ 4 // विश्वस्य बाहुजस्तस्य, कुतोऽप्यानीय तत्पुरः। आमिषं मुमुचे सा च, दृशाऽपि न तदस्पृशत्॥५॥ अथ श्राद्धजनोऽप्येत्य, त्यक्तभीस्तत्पुरः क्रमात्। तरसा सरस भक्ष्यं, पानीयं चोपनीतवान्॥६॥ तदप्यनिच्छतीं दृष्ट्वा, तां दध्यौ जनता हृदि। नूनं जातिस्मरैषाऽत्र, तीर्थेऽनशनमाददे // 7 // 'लाध्यस्तिर्यग्भवोऽप्यस्या-श्चतुर्द्धाहारमुक्तितः / एकाग्रचक्षुषा चैषा, देवमेव निरीक्षते॥८॥ अभ्यच्यं गन्धपुष्पाद्यैः, सार्धाः साधर्मिका धिया। संभावयांबभूवुस्तां, स्फीतसङ्गतिकोत्सवैः॥६॥ निराकारं प्रत्याख्यान, तथा तस्या अचीकथन्। मनसैव श्रद्दधाना, साध्वी चक्रे च तन्मुदा।। 10 // इत्थं सा तीर्थमाहात्म्या-त्समृद्धाच्छुद्धवासना। दिनान्युपोष्य सप्ताष्ट, नष्टपापा ययौ दिवम् // 11 //
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________________ वग्धी 796 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वच्छग चन्दनागुरुभिस्तस्या, वपुः संस्कार्य संज्ञितः। अस्थानविरतिकं वा व्यत्यानेडितम्। अनु० / विशे०॥ प्रत्योल्या दक्षिणे पक्षे, शैली मूर्ति न्यवीविशत् / / 12 / / वचाविप्पय-न०(वल्ककविप्पक) वल्ककस्तृणविशेषस्तस्य विप्पकः तीर्थचूडामणि यात्, सैष श्रीविमलाचलः। कुट्टितत्वग्रूपस्तेन निष्पन्नं वल्ककविप्पकम् / तृणविशेषविप्पकजे, भवेयुर्यत्र तिर्यचो-ऽप्येवमाराधकाग्रिमाः।।१३।। "पंचरयहरणाईपण्णत्ताई। तं जहा-उण्णियरे उट्टिए साणाए वचाविप्पए व्याघ्रीकल्पमिमं कृत्वा, श्रीजिनप्रभसूरयः। मुंजविप्पए।" बृ०२ उ०। पुण्यं यदार्जयस्तेन, श्रीसंघोऽस्तु सुखास्पदम्॥१४॥" वचीसग-पुं०(वर्चीसक) तन्त्रीवाद्यविशेषे, अणु० आचा०। ती०४६ कल्प। "व्याघ्रा तन्नखाकारः कण्टकोऽस्त्यस्या अच् गौ० वच्छ-न०(वक्षस्)"छोऽक्ष्यादौ" // 8 // 2 // 17 // इति संयुक्तस्य छः। डीए / कण्टकारिकायाम, जातौ ङीष् / व्याघ्रयोषिति, वाचा प्रा०। उरसि, ज्ञा०१ श्रु०८ अ०। उपा० / जं०। औ०। स०।"वच्छं वा-त्रि०(वक्र) कुटिले, "कुडिलं वर्कभंगुर।' पाइ० ना० 173 गाथा। उरं"। पाइ० ना०२५१ गाथा! गोपुत्रे, "तण्णओ वच्छो'। पाइ० ना० कलङ्के, देशी०७ वर्ग 30 गाथा। 235 गाथा। वनच्छा-(देशी) प्रमथेषु, दे० ना०७ वर्ग 36 गाथा। *वत्स-पुं०। पुत्रे, डिम्भे, स्था०१० ठा०३ उ०। श्रीऋषभदेवस्य पुत्रवच-धा०(वज्र) गतौ, "व्रज-नृत-मदांचः // 814 / 225 / / इत्यन्त्यस्य शतकान्तर्गते सप्तदशेपुत्रे, कल्प०१अधि०७ क्षण। स्था०॥ तच्छासिते द्विरुक्तश्चः / वचइ। ब्रजति / प्रा०४ पाद। कौशाम्बीनाम नगरीप्रतिबद्धे जनपदे, ती०१० कल्प। प्रव० / प्रश्न०। *का-धागायें,"का राहाहिलङ्घाहिलके-वच-वंफमह-सिह- सूत्र०। विलुम्पाः" / / 814 / 192 / / इति कासतेर्वचादेशः / वचइ। कासते। अथ पूर्वसूत्राल्लब्धेऽपि वत्सविजयदिग्नियमे विचिप्रा०४ पाद। त्रत्वात् सूत्रप्रवृत्तेरित्यन्तरमाह - *वर्चस्-न०। तेजसि, प्रभावे, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। पुरीषे, ध०३ वच्छस्स विजयस्स णिसहे दाहिणणं सीआ उत्तरेणं दाहिणिअधि०। 60 / उत्त० / सूत्र० / गूथे, तं० / आचा०।"वच्चं विट्ठा पुरीसं ल्लसीदामुहवणे पुरथिमेणं तिउडे पचत्थितेणं सुसीमारायउच्चारो।" पाइ० ना० 114 गाथा। गृहस्य समन्ततः स्थाने, यत्र वा हाणीपमाणं तं चेवेति / (सू०१६) वर्चः करोति। गिहस्स समंततो वचं भण्णति। पुरो-हउं वा वच्चं पच्छंतं ति 'वच्छस्स' इत्यादि, वत्सस्य विजयस्य निषधो दक्षिणेन तथा तस्यैव वुत्तं भवति, जंवा करेति, तं वचसण्णाभूमि भण्णति। नि० चू०३ उ०। शीता उत्तरेणेत्यादिस्पष्टम्, न चैवं निषधादयो लक्ष्याः लक्षणं वत्सविजय 'वचसमुच्छिअङ्गा' वर्चः-वर्चःप्रधानानि समुच्छ्रितान्यन्त्राण्यङ्गानि वा इति वाच्यम्, लक्ष्यलक्षणभावस्य कामचारात् / प्रस्तुते च प्रकरणबलात् येषां ते तथा। सूत्र०१श्रु०५ अ०१ उ०। वत्स एव लक्ष्यत इति, सुसीमाराजधानीप्रमाणम्, तदेव-अयोध्या*वाच्य-त्रि०। अभिधेये, स्या०। सम्बन्ध्येव, प्रमाणाभिधानाय राजधान्याः पुनरुपन्यासेनन पुनरुक्तिवयंसि-त्रि०(वर्चस्विन् ) शरीरकलोपेतत्वात् (स०) विशिष्टप्रभावोपेते, दोषः। जं० 4 वक्ष०। जम्बूद्वीपे मन्दरस्य पूर्व सीताया महानद्या दक्षिणे भ०२ श०५ उ०। रूपवति, आचा०२ श्रु०१चू०२ अ०१ उ०। यचो- चक्रवर्तिविजये, स्था०८ ठा०३ उ०। वचनं सौभाग्याधुपेतं यस्यास्ति स वर्चस्वी / ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। दो वच्छा (सू०९२+)। विशिष्टवचनयुक्ते, भ०२श०५ उ०। रा०। मेरोह्नित्वात् वत्सानां द्वित्वम् / स्था० 2 ठा० 3 उ० / स्वनामख्याते वकिमि-पुं०(वर्चस्कृमि) विष्ठालनकृमौ, उदरमध्यस्थविष्ठायामुत्पन्ने ऋषिविशेषे, यो हि प्रसिद्धगोत्रविशेषप्रवर्तको ऽभूत्। कल्प०२ अधि०८ द्वीन्द्रियजन्तुविशेषे, तं०। क्षण / स्था०। वचकुंडी-स्त्री०(वर्चस्कुण्डी) विष्ठाकुण्ड्याम्, तं०। जे वच्छा ते सत्तविहा पण्णत्ता, तं जहा-ते वच्छा ते अग्गिया वचकूव-पुं०(वर्चस्कूप) विष्ठाभूतकूपे, तं०।। ते मित्तिया ते सामलिणो ते सेलयया ते अहिसेणा ते वीयकम्हा। वचग-न०(वर्चक्) दर्भाकारे तृणविशेषे, बृ० 2 उ० / आचा० / तृण- वत्सस्यापत्यानि वत्साः-शय्यंभवादयः, स्था०७ ठा०३ उ०। रूपवाद्यविशेषे, जी०३ प्रति० 4 अधि०।। *वात्स्य-पुं०। वत्सस्यापत्यं वात्स्यः / गर्गादयत्रितियञ्प्रत्ययः / वत्सावघर-न०(व!गृह) पुरीषोत्सर्गस्थाने, सूत्र०१ श्रु०४ अ०२ उ०। पत्ये वत्सगोत्रीये पुरुष, "पभवं कचायणं वंदे वच्छं सिजंभवं तहानं० वघसंघाय-पुं०(वर्चःसंघात) परमपवित्रविष्ठासमूहे, तं०॥ *वृक्ष-पुं०।"वृक्षक्षिप्तयोः रुक्खछूढौ''||८१२।१२७॥ इति रुक्खावचामेलिय-न०(व्यत्यानेडित) अस्थाननिबद्धपठने, स्वमतिचर्चितसूत्रं देशाभावे, वच्छः / चूतादौ, प्रा० / पार्श्वे, दे० ना०७ वर्ग 30 गाथा। प्रक्षिप्य पठने च। अस्थानविरतिसहिते, आ०म०१अ० आव०। आ० "साही विदवी वच्छो महीरुहो पायवो दुमो य तरू'। पाइ० ना०५४ चू० / एकस्मिन्नेव शास्त्रे यान्यस्थाननिबद्धान्येकार्थानि सूत्राण्येकत्र गाथा। स्थाने समानीय पठतो त्यत्यानेडितम्, अथवा-आचारादिसूत्रमध्ये वच्छग-पुं०(वत्सक) क्षुद्रवृक्षभेदे,"एलगदारगसाणं वच्छांवावि कोट्ठए"। स्वमतिचर्चितानि तत्सदृशानि सूत्राणि कृत्वा प्रक्षिपतो व्यत्यामेडितम्। / दश०५ अ०। आ० म०। आव०।
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________________ वच्छगावई 797 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वच्छाणुबंधिया वच्छगावई-स्वी०(वत्सकावती) जम्बूद्वीपे मन्दरस्य पूर्व सीताया महानद्या तस्स पच्छित्ते भण्णति सामण्णेण साहम्मियवच्छल्लं ण करेति तो दक्षिणे स्वनामख्याते विजयक्षेत्रयुगले, जं०४ वक्ष०।"वच्छावई विजए मासलहू। पभंकरा रायहाणी"। जं०४ वक्ष / विसेसयं भण्णतिदो वच्छगावई (सू०९२४) आयरिए य गिलाणे, गुरुगा लहुगा य खमगंपाहुणए। मेरोत्विाद् वत्सावतीद्वित्वम्। स्था०२ ठा०३ उ०। गुरुगो य बालवुले, सेहे य महोदले लहुओ // 30 // वच्छणयरी-स्त्री०(वत्सनगरी) कौशाम्ब्याम, आ०म०१०। आ० चू०। आयरियगिलाणाणं वच्छल्लं ण करेति चउगुरुगा पत्तेयं, खमगस्स वच्छभूमि-स्त्री०(वत्सभूमि) कोशलायाः पूर्वविषये, आ० म० 1 अ०। पाहुणगस्स य वच्छल्लं ण करेति चउलहुगा पत्तेयं बालवुड्डाणं पत्तेय आ० चू०। मासगुरुगो, सेहमहोयराणं पत्तेयं मासलहुगो / वच्छल्ले त्ति दारं गतं / वच्छवाली-स्त्री०(वत्सपाली) गोप्याम्, "तत्थेव वच्छवाली परमन्नं"। नि० चू०१उ०।दृष्टान्तः। वच्छल्ले वइरो दिट्ठतो-भगवं वइरो-वइरसामी आ० म०१ अ०। आव०। उत्तरावहं गओ, तत्थय दुडिभक्खं जायं, पंथा वोच्छिण्णा।ताहे सङ्घोउ वच्छमित्ता-स्त्री०(वत्समित्रा) अधोलोकवासिदिक्कुमारीमहत्तरिकायाम्, वागओ "णित्थारेहि' त्ति ताहे पडविज्जा आवाहिता संघो चडिओ स्था०७ ठा०३ उ०। आ० क०। आ० म०। आव०। जम्बूद्वीपे मन्दरे उप्पतितो, सेज्जायरो य चारीए गतो पासति चिन्तेइ य कोइ विणासो पर्वते नन्दनस्य वनस्य रुचककूटदेव्याम्, स्था०६ ठा०३ उ०। आ० भविस्सति जेण संधो जायति इलएण विहलिछिदित्ता भण्णति भगवं चू० / ऊर्ध्वलोकवासिन्यां दिक्कुमारीमहत्तरिकायाम, जं० 5 वक्ष०। साहम्मिओ त्ति। ताहे भगवया विल-इतो इमं सुत्तं सरंतेण साहम्मिय वच्छल्लम्मि उज्जुत्ता उव्वत्ताय सज्झाते चरणकरणम्मिय तहा तित्थस्स वच्छराय-पुं०(वत्सराज) वत्सदेशमहाराजे, आ० क०१अ०। वसन्त पभावणाए य जहा वइरेण कयं एवं साहम्मियवच्छल्लं कायव्वं / अहवापुरनगरेरुक्मिणीपतेर्जिनदासश्रावकस्य गोपाले, पिं०। णंदिसेणो वच्छल्ले उदाहरणं / नि० चू०१3०1 वच्छल-त्रि०(वत्सल) रक्षके, आव०४ अ०। वत्सलस्तुपुत्रादिस्नेहात्मा। अथाधिकारात्परवात्सल्यकारिणामतिस्तोकतामाह - रतिभेदे, हैम०। भूए अत्थि भविस्सं-ति केइ तेलुकनमिअकमजुअला। वच्छलया-स्त्री०(वत्सलता) वत्सलभावे, अनुरागे, प्रव० 10 द्वार / वात्सल्ये, अनुरागयथावस्थितगुणोत्कीर्तनरूपाचारे, ज्ञा० 1 श्रु०७ जेसिं परहियकरणि-साबद्धलक्खाण वोलिही कालो / / 36 // अ० प्रज्ञा०। आ०म०। हितकारितायाम, स्था०१० ठा०३ उ०। भूते-अतीतकाले 'अत्थि' त्ति सन्ति-विद्यन्ते वर्तमानकाले वच्छलिज-न०(वत्सलीय) श्रीगुप्तान्निर्गतस्य चारणगणस्य प्रथम-कुले, भविष्यन्ति-भविष्यत्काले केचिदतिस्तोकाएव ते पुरुषाः किंभूताः? त्रैलोक्येन-स्वर्गमर्त्यपाताललक्षणेन तन्निवासिप्राणिगणेनेत्यर्थः / नतं कल्प०२ अधि०८ क्षण। क्रमयुगलंयेषां ते त्रैलोक्यनतक्रमयुगलाः ते के ? येषां पर-हितकरणैवच्छल्ल-न०(वात्सल्य) आचार्यग्लानप्राधूर्णकासहबालवृद्धादीनामा क़बद्धलक्षाणाम्, परेषाम्-अन्येषां हितं वात्सल्यं परहितं -परहितस्य हारोपध्यादिना समाधिसम्पादने, जी० 1 प्रति० / व्य० / प्रव० / करणं परहितकरणं तस्मिन् एकमद्वितीयं बद्धं लक्ष वेध्यं तस्यलयहेतुत्वेन साधर्मिकाणां भक्तपानीयैर्भक्तिकरणे, उत्त०२८ अ० दश०। ग०॥ध०। कारणे कार्योपचाराल्लयो यैस्ते परहितकरणैकबद्धलक्षास्तेषां इदाणिं वच्छल्ले त्ति दारं परहितकरणैकबद्धलक्षाणाम् एवंविधानां सताम्, 'बोलिहि' त्ति प्राकृतसाधम्मियवच्छल्लं,आहाराऽऽतीहिँ होइ सय्वत्थ। त्वात् व्यतिचक्राम व्यतिक्रामति व्यतिक्रमिष्यति वा कालः समयादिआएसु गुरुगिलाणे, तवस्सिवालादिसेहे य॥ 26 // लक्षण इति। गीतिच्छन्दः / ग०२ अधि०। समाणधम्मो साहम्मिओ तुल्लधम्मो, सो य साहू साहुणी वा। चसद्दा वच्छवाल-पुं०(वत्सपाल) गोवत्सरक्षके, "स्वाम्यस्थात्कृपया तस्य, खेत्तकालमासज्ज सावगो विघेप्पति, वच्छल्लभावो वच्छल्लं पुत्रादेरि दृष्ट्वा प्रभुमुपागमत् / गोपालवत्सपालाद्या, वृक्षाद्यन्तरिताः स्थिताः / / वेत्यर्थः / कहं केण वा कस्स वा कायव्वं? साहूणं सा-हुणा सव्यथामेण १॥"आ०क०१ अ०1"वच्छी वावच्छवाला अ"पाइ० ना०१०३ एयं कायव्वं आहारादिणा दव्वेण, आहारो आदी जेसिं ताणि इमाणि गाथा। आहारादीणि आदिसद्धातो वत्थ-पत्त-भेस-जोसह-पादसोयाब्भङ्ग- वच्छसुत्त-न०(वक्षःसूत्र) हृदयाभरणभूतसुवर्णसङ्कलके, भ०६ श० णविस्सामणादिसु य एवं ताव सव्वेसिं साहम्मियाणं वच्छल कायव्य, / 33 उ०। इमेसिं तु विसेसिओ आएसो-पाहुणओ गुरू सूरी गिलाणो जरादिगहितो वच्छण-पुं०(उक्षन) वृषभे, "उक्खा वसहा य वच्छणा" पाइ० ना० विमुक्को वा तवस्सी-वि किकृतवकारी वालो, आदिसद्दातो वुड्डो सेहो / 151 गाथा। महोदरो य। सेहो-अभिणव-पव्वइतो / महोदरो-जो बहु भुंजति। स | वच्छाणुबंधिया-स्त्री०(वत्सानुबन्धिका) वत्सः पुत्रस्तदनुबन्धो यस्यां विसेसंति एएसिं आएसादि-आण जहाऽभिहिताणं सह विसेसेण सविसेसं सा वत्सानुबन्धिका / वैरस्वामिमातुः प्रव्रज्यायाम, स्था० 10 ठा०३ सादरं साहिगयरं सा-तिसययरमिति जो एवं वच्छल्लंपवयणेण करेति | उ०पं० भा०। पं० चू०।
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________________ वच्छायण 798 - अभिघानराजेन्द्रः - भाग 6 वजण वच्छायण-पुं०(वात्सायन) वत्सगोत्रापत्ये साहित्यशास्त्राचार्य, स्था० 3 विधजीवसंपातसंभवेन इह-लौकिकपारलौकिकदोषदुष्टत्वात् तथा ठा०३ उ०। बहुबीजं पम्पोटकादि प्रतिबीजं जीवोपमर्दसंभवात्, अनन्तान्यनन्तबच्छावई-स्त्री०(वत्सावती) प्रभङ्कराख्यराजधानीविभूषितविजयक्षेत्र कायिकानि, अनन्तजन्तुसन्ताननिघातननिमित्तत्वात्, तथा संधानमयुगले, जं० 4 वक्ष० / स्था०। स्त्यानकं बिल्वकादीनां जीवसंसक्तिहेतुत्वात्, तथा घोलवटकानि उपलक्षणत्वादामगोरससंपृक्तद्विदलानि च केवलिगम्यसूक्ष्मजीववच्छासुत्त-न०(वक्षःसूत्र) उत्तरासङ्गपरिधानीये, भ०६ श०३३ उ०। संसक्तिसंभवात्, तथा वृन्ताकानि निद्राबाहुल्यमदनोद्दीपनादिदोषवच्छी-स्त्री०(वार्थी) चारुदत्तकन्यायां ब्रह्मदत्तचक्रिभार्यायाम, उत्त० दुष्टत्वात्, तथा स्वयं परेण वा येषां नाम न ज्ञायते तान्यज्ञातनामानि 13 अ०॥ पुष्पाणि फलानि, अज्ञानतो निषिद्धफलप्रवृत्तौ व्रतभङ्गसंभवात्, विषफवच्छीउत्त-पुं०(वात्सीपुत्र) वात्सीपुत्रे, "वच्छीउत्तं जाणह य चंडिलं लेषु प्रवृत्तौ जीवितविनाशात्, तथा तुच्छमसारं फलं मधूकबिल्वादेः, हाविअंच रत्तीअं।" पाइ० ना०६१ गाथा। उपलक्षणत्वाच्च पुष्पमरणिशिग्रुममधूकादेः, पत्रं प्रावृपि तण्डुलिकादेः, वच्छीवा-त्रि०(वत्साजीव) वत्सपालके," वच्छीवा वच्छपाला य!" बहुजीवसंमिश्रत्वात्, यद्वा-तुच्छफलमर्धनिष्पन्नकोमलचवलकशिपाइ० ना० 103 गाथा। म्बादिकम्, तद्भक्षणे हि तथाविधा तृप्तिरपि नोपजायते, दोषाश्च बहवः वन-धा०(त्रस्) उद्वेगे, "त्रसेर्डर-वोज-वजाः।।८।४।१६८ // इति संभवन्ति, तथा चलितरसंकुथितान्नम्, उपलक्षणत्वात् पुष्पितोदनादि, त्रसेर्वजादेशः / प्रा०४ पाद। दिनद्वयातीतं चदधि वर्जनीयम्, जी-वसंसक्त्या प्राणातिपातादिलक्षण दोषसंभवात्, एतानि द्वाविंशति-संख्यानि वर्जनीयानि वस्तूनि कृपा*वज-न० / कुलिशे, "असणी वजं कुलिसं।" पाइ० ना०६६ गाथा। परीतचेतसः सन्तो हेभव्यजनाः! वर्जयज परिहरतेति।प्रव० 4 द्वार। *व्रज-धा० / गतौ, मागध्याम्। "ब्रजेजः // 8 | 4 | 264 // इति *वर्य-त्रि०।"द्य-य्य-याँ जः / / 8 / 2 / 24 / / इति र्यभागस्य जः। जकारः आदेशभूतत्वात् द्वित्वम्। वज्जइ / व्रजति। प्रा०। प्रा० / जं०। प्रधाने, स्था० 7 ठा० 3 उ०। *वज-न०। हीरके, जं०३ वक्ष०ा कुलिशे, पञ्चा० 17 विव०। कीलि *वाध-न०वादनकर्मीभूते ततादौ, स्था०। कायाम्, स० उत्त०। गुरुत्वादधः पातकत्वेन वा वज्रवद्वज्रम्। पापे, सूत्र० चउठिवहे वजे पण्णत्ते / तं जहा-तते वितते घणे सुसिरे 1, 1 श्रु० 4 अ०२ उ०।आचा०। स्था०। षष्ठदेवलोकविमानभेदे, स०। (सू०३७४) *वर्ज-त्रि० / वर्जनीयं वय॑ते इति वर्जम् / पापे, विशे० / आ० म०। 'वजे त्ति वाद्यं तत्र-"ततं वीणादिकं ज्ञेयं, विततं पटहादिकम्। घनंतु अकृत्ये, आव०४ अ०॥ तं०। वर्ज तत् द्विधा लौकिकं, लोकोत्तरिकं च कांस्यतालादि, वंशादि शुषिरं मतम् // 1 // " इति। स्था० 4 ठा०४ (तच परिहार' शब्दे पञ्चमभागे 660 पृष्ठे दर्शितम्।) उ० / आ० म०। कल्प०। आ० चू०। *वयं-त्रि० / वय॑ते विवेकिभिरिति वय॑म् / व्य०१०। कर्मणि, *अवद्य-न०। प्राकृतत्वात् अकारलोपः। संथा०। पापे, बृ०१ उ०२ प्रश्न०१ आश्र० द्वार। प्रक०। वर्जनीयवस्तून्याह - वञ्जकंद-पुं०(वजकन्द) कन्दविशेषे, प्रव०४ द्वार। ध० भ०। पंचुम्बरिचउविगई, वजकर-त्रि०(अवद्यकर) अवयं पापं वज्र वागुरुत्वादधः पातकत्वेन पापमेव हिम 10 विस 11 करगे य 12 सव्वमट्टीय 13 // तत्करणशीलोऽवद्यको वजकरो वा। पापकृति, सूत्र० 1 श्रु०४ अ० रयणीभोयणगं चिय 15, 2 उ०। बहुवीय 15 अणंतसंघाणं 16 // 50 // वजकिरिया-स्त्री०(वर्जक्रिया) आत्मार्थं गृहं निर्वर्त्य साधुम्यो दत्वाऽपञ्चानामुदुम्बराणां समाहारः पञ्चोदुम्बरी, वटपिप्पल्योदुम्बरप्ल न्यद्गृहं निवर्त्य तत्रोषित्वा निवसति। शय्यातरेतद्दत्तगृहवसतौ, आचा० क्षकाकोदुम्बरीफलरूपा समयप्रसिद्धा, सा मशकाकारसूक्ष्मबहुजीव 2 श्रु०१ चू०२ अ०२ उ०। ('कालाइकंतकिरिया' शब्दे तृतीयभागे भृतत्वाद्वर्जनीया, तथा चतस्रो विकृतयो-मद्यमांसमधुनवनीतरूपा 465 पृष्ठे सूत्राणि।) वाः , सद्य एव तत्र तद्वर्णानकजीवसंमूर्छनात्, तथा हिमं शुद्धासंख्या वजकुमार-पुं०(वर्जकुमार) यादववंशस्यान्तिमपुरुषे, स च द्वेषायनेन प्कायरूपत्वात्, तथा विषं मन्त्रोपहतवीर्यमपि उदरान्तर्वर्तिगण्डोल दग्घायां द्वारवत्यामुच्छिन्नप्राये यदुवंशे स्वभार्यायां दृढप्रहारिणं नाम कादिजीवविघातहेतुत्वात् मरणसमये महा-मोहोत्पादकत्वाच्च, तथा पुत्रमजीजनत्। ती० 27 कल्प। करका अप्यसंख्याप्कायिकत्वात्, तथा सर्वापि मृत्तिका दर्दुरादिप- | वजण-न०(वर्जन) त्यजने, आव० 5 अ०। विशे०। प्रव०। वेन्द्रियप्राण्युत्पत्तिनिमित्तत्वात्, सर्वग्रहणं खटिकादि तद्भेदपरिग्रहार्थ- वजणअ-त्रि०(वदितृ) वद-कर्तरितॄन्।"भक्त्यादीनां वोल्लाऽऽदयः / इति तद्भक्षणस्यापि आमाशयादिदोषजनकत्वात्, तथा रजनीभोजनं बहु- | वदस्थानेवजाऽऽदेशः।"तृनः अणअः॥४४४३॥ इतितनःस्थानेअ
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________________ वजणअ 769 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वट्ट ण अआदेशः। वक्तरि, "पडहु वजणउसुणउभसणउ" / प्रा० 4 पादः | वज्जलाढ-पुं०(वज्रलाट) लाटदेशवास्तव्येषु म्लेच्छविशेषेषु, आ०म० वजणाभ-पुं०(वज्रनाभ) अभिनन्दनस्य चतुर्थकुलकरस्य प्रथमभिक्षा- 10 / दायके, स० ति०। वजवित्ति-स्त्री०(वर्यवृत्ति) प्रधानजीविकायाम्, अनु०। स्था०। वजणिज-त्रि०(वर्जनीय) वय॑त इति वर्जनीयम्।परिहरणीये, प्रश्न०४ / वजसामि(ण)-पुं०(वज्रस्वामिन् ) आर्यवजे, नि०पू०१ उ०। आश्र0 द्वार। पापे, विशे०। वजवेढ-पुं०(वजवेष्ट) वज्रकीलियाम्, आ० चू०१०।। वज्जतुंड-त्रि०(वज्रतुण्ड) वज्रवदृढमुखे,"कीलियाओ वज्जतुंडियाओ वज्जा-स्वी०(वजा) 'परिणामिया' शब्दे पञ्चमभागे 617 पृष्ठे उदाहृतस्य विउव्वइ"। आ० म०२ अ०1 काष्ठश्रेष्ठिभार्यायाम, आ० म०१०।"अत्तट्ठकडं दाउं, जईण अण्णं वजधूली-स्त्री०(वधूली) वज्रवत्तीक्ष्णकण्करेणौ, "सामिस्स उवरि करेइ वजाओ / जम्हा तं पुवकयं, वजं ति अओ भवे वजा // 1 // " वजधूली वरिसं वरिसइ"। आ०म०१ अ०। इत्युक्तलक्षणे दोषयुगुपाश्रये, आचा०२ श्रु०१चू०२ अ०२ उ० / ग! वजपरिवजि-त्रि०(वय॑परिवर्जिन् ) वर्जनीयं वय॑मकृत्यं परिगृह्यते / पं०व०। दे० ना०। ('वसहि' शब्दे विशेषं वक्ष्यामि।) तत्परिवर्जी। अप्रमते, आव० 4 अ०। वजायरिय-पुं०(वज्राचार्य) आर्यवज्रस्वामिनि, प्रति०। वजपाणि-पुं०(वज्रपाणि) वज्र वजाभिधानायुधं पाणावस्येतिवज्रपाणिः। | वजि(ण)-पुं०(वजिन्) शक्रेन्द्रे, भ०७ श०६ उ०। प्रज्ञा०२पदा उत्त०। कुलिशकरे, उत्त०२ अ०। आ० म०। वञ्जित्ता-अव्य०(वर्जयित्वा) अपहृत्येत्यर्थे, पं०व०३ द्वार। वजबंध-पुं०(वज्रबन्ध) वज्रवेष्ट, वज्रकीलके, आ० चू०१ अ०। वञ्जिय-त्रि०(वर्जित) रहिते, परित्राणविकले, सूत्र०१श्रु०१ अ०२ उ०। वज्जबहुल-त्रि०(वज्रबहुल) वज्रवद्वजं गुरुत्वात्कर्म तद्बहुलस्तत्वरण- / त्यक्ते, सूत्र०१ श्रु०२ अ०२ उ०। उत्त०। आव०॥ प्रचुरस्तथा। यध्यमानकर्मगुणे, सूत्र०२ श्रु०२ अ०। वजियावग-पुं०। देशी०। इक्षौ, "वजियावगो नाम उच्छू" इति वचनात् / वजभीय-त्रि०(वज्रभीत) वजं-पापं कल्मषमित्यर्थः / तस्माद् भीतो | व्य०१ उ०। वज्रभीतः। असंयमभीते, पं० चू०१ कल्प। आ० चू०।व्य० / आ० म०1 | वजेत्ता-अव्य०(वर्जयितुम् ) मोक्तुमित्यर्थे, नि० चू०२० उ०। प्रश्न। वजेयव्व-त्रि०(वर्जयितव्य) त्याज्ये, सूत्र०१ श्रु०१३ अ०। स्था० / वजभीरु-त्रि०(अवधभीरु) अकारलोपादवयं-पापं तद्भीरुः। पापभीते, __ परिहार्ये, सूत्र०१ श्रु०५ अ01 बृ० 1 उ०२ प्रक०। वज्झ-त्रि०(वध्य) वध्ये,"वजो वद्धा।" पाइ० ना०२३६ गाथा। वजभूमि-स्वी०(वजभूमि) लाटदेशस्ये स्वनामख्याते गर्तकण्टका- | वञ्च-धा०(वञ्च) प्रलम्बने, "वञ्चेर्वेहव-वेलव-जूरवोमच्छाः // 8 | 4| दिप्रधाने नगरे, आ० म०१ अ० आचा०। 63 // " इति वज्रतेरते चत्वार आदेशा भवन्ति / इति वच-तेरादेशवजमाण-त्रि०(वाद्यमान) वादनं कार्यमाणे, "छिप्पतरेण वजमाणेणं" त्रयादेशः / वेहवइ / वेलवइ। जूरवइ / उमच्छइ। वञ्चइ। वञ्चति। प्रा० 4 द्रुततुर्येण वाद्यमाने, विपा०१श्रु०३ अ०। पाद। वजयंत-त्रि०(वर्धयत् ) परित्यजति, सूत्र०१ श्रृ०११ अ० / क्वचिद्य- | वट्ट-त्रि०(वृत्त) "वृत्त प्रवृत्त-मृत्तिका-पतन-कदर्थिते टः।। / 2 / लोपः / "वज्जतो वीयहरियाई" वर्जयन्-परिहरन्। दश०५ अ०॥ 26 / / इति संयुक्तस्य टः। प्रा०। अयोगोलकवत् (अनु०) वर्तुले, ज्ञा०१ वज्जर-धा०(कथ) वाक्प्रबन्धे,"कथेवजर-पज्जरोपालपिसुणसंघ श्रु०१०। स्था०। सूत्र०। विशे०। स्था०। आ० म०1 प्रज्ञा०। भ०। वोल्ल-चव-जम्प-सीस-साहाः // 8 / 4 / 2 // इति कथेर्वज्जरादेशः। अन्तःशुषिररहिते परिमण्डलरूपे,भ०१४ श०७ उ०। अयं चाप्तैर्देशीषु पठितोऽप्यस्माभिर्धात्वादेशीकृतो विविधेषु प्रत्ययेषु एगे वट्टे / (सू० 47) प्रतिष्ठित इति / तथा च-वजरिओ-कथितः, वञ्जरिऊण-कथयित्वा, वृत्तसंस्थानं मोदकवत्, तच्च घनप्रतरभेदाद् द्विधा / पुनः प्रत्येक वजरणं-कथनम्, वजरंतो-कथनम्, वञ्जरिअव्वं-कथयितव्यमिति समविषमप्रदेशावगाढमिति चतुर्धा; स्था० 1 ठा०। जी०। औ०। रा०। रूपसहस्राणि सिध्यन्ति संस्कृतधातुवञ्च प्रत्ययलोपागमादिविधिः। प्रा० जं०। ध० / आचा० / आ० म०। 4 पाद। वट्टे-तेलापूयसंठाणसंठिए, वट्टे-रहचक्कवालसंठाणसंठिए, वजरिसभनारायसंघयण-न०(वर्षभनाराचसंहनन) नाराचम्- वट्टे-पुक्खरकण्णियासंठाणसंठिए, वट्टे-पडिपुण्णचंदसंठाणउभयतो मर्कटबन्धः, ऋषभः-तदुपरिवेष्टनपट्टः, कीलिका अस्थि | संठिए। उभयस्यापि भेदकमस्थि एवं रूपं संहननं यस्य सः तथा / प्रथम- ('जंबूदीवे' शब्दे चतुर्थभागे 1373 पृष्ठे इदं सूत्रं व्याख्यातम् / ) संहनिनि, सू० प्र० 1 पाहु० / आ० चू० विधिप्रतिषेधरूपे वर्तन, षो०१ विव०। समाचारे, आ० म०१ अ०।
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________________ वट्ट ५००-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वडभ - *वर्मन्-न० / मार्गे, 'वट्ट गाहे' इति वर्भ ग्राहयति यानानि मार्गे रजतमयौ, तत्र हैमवते शब्दापाती उत्तरतस्तु ऐरण्यवते विकटापाप्तीति। स्थापयतीत्यर्थः। औ०। 'तत्थ' त्ति तयोर्वृत्तवैतादययोः क्रमेण स्वातिप्रभासौ देवौ वसतः, वट्टअ-पुं०(वर्तक) तित्तिरजातीये, सूत्र० 1 श्रु०२ अ० 1 उ० / बृहत्तरे तद्भवनभावादिति / एवं हरिवर्षे गन्धापाती रम्य-कवर्षे माल्यवत्पर्यायो रक्तपादे (नि० चू०६ उ०।) (वटेर) इति, ख्याते पक्षिणि, आ० म०१ देवौ क्रमेणैवेति। अ०। प्रश्न०। उत्त०। नि० चू०। जत्वादिमयगोलके, ज्ञा०१ श्रु०१८ चतुर्थस्थाने चत्वारि - अ०। सू० प्र० / बालमरणकविशेषे, अणु०॥ सध्ये वि णं वहवेयपव्वया दस जोयणसयाई उड्डं उच्चत्तेणं वटुंत-त्रि०(वर्तमान) विद्यमाने, सूत्र०१ श्रु०३ अ०४ उ०। दस गाउयसयाई उव्वेहेणं सव्वत्थ समा पल्लगसंठाणसंठिया *वर्तयत्-त्रि० / परिवेषयति, स्था० 3 ठा० 3 उ०। दस जोयणसयाई विक्खंभेणं पण्णत्ता। (सू०७२२) वट्टखुर-पुं०(वृत्तखुर) तुरङ्गमे, बृ०३ उ०। अश्वप्रधाने, ओद्य०।। सर्वेऽपि वृत्तवैताढ्यपर्वताः विंशतिः प्रत्येकं पञ्चसु हैमवतैरण्यवतनि० चू०। हरिवर्षरम्यकेष्वेषां शब्दावती विकटावती गन्धावती माल्यवत्पर्यावट्टखेड-पुं०(वृत्तक्ष्वेड) न०। कन्दुकक्रीडायाम्, स०७२ सम०। औ०। याख्यानां भावादिति, वृत्तग्रहणं दीर्घवैताठ्यव्यवच्छेदार्थमिति। स्था० वट्टचणग-पुं०(वृत्तचणक) मसूरधान्ये, स्था० 5 ठा०३ उ०। 10 ठा० 3 उ०। वट्टणा-स्त्री०(वर्तना) वर्ततेऽनवच्छिन्नत्वेन निरन्तरं भवतीति वर्तना। वडावरय-पुं०(वर्तावरक) लोष्ठकप्रधाने, भ०१६ श०३ उ०। कालकार्ये, आत्मधारणे, "वट्टणालक्खणो कालो, जीवो उवओग वट्टि-स्त्री०(वर्ति) गुटिकायाम्, औ०। लक्खणो"। उत्त०२८ अ०। वट्टिजमाणचरय-पुं०(वय॑मानचरक) परिवेष्यमाणचरके, औ०। वट्टभावपरिणय-त्रि०(वृत्तभावपरिणत) वर्तुलाकृतौ, जं०१ वक्ष०ा / वट्टिम-(देशी) अतिरिक्त दे० ना०७ वर्ग 34 गाथा। वट्टमाण-त्रि०(वर्तमान) व्यवस्थिते, स्था०६ ठा०३ उ०। व्याप्रियेमाणे, वट्टिय-त्रि०(वर्तित) वृत्ते, प्रश्न०४ आश्र० द्वार। आचा०। औ०। ज्ञा०। पञ्चा०१६ विव०॥ पं० सू०। तपोऽहं प्रायश्चित्तं वहति, व्य०१ उ०1 बद्धस्वभावानुपचितकण्ठित्वभावे, रा०।। वट्टमाणसुहेसि(ण )-त्रि०(वर्तमानसुखैषिन) वर्त्तमानसुखमेव सु- वट्ठ-न०(वट्ठ) अष्टकमये भाजने, बृ०१ उ०। कमठके, बृ० 1 उ०। खमिह लोकसुखमाधाकर्मिकाधुपभोगजमेषितुं शीलं येषां ते वर्तमान बटुकर-पुं०(वट्टकर) यक्षभेदे, विद्यासिद्धिभेदे, स्त्री० आ० क० 1 अ०। सुखैषिण / समुद्रवायसवत् तत्कालावाप्तसुखलवासक्तचेतस्सु, वट्ठल-त्रि०(वर्तुल) वर्तुले, "पेढालनिअक्कल वटुलाई परिमंडलऽत्थअनालोचिताधाकर्मोपभोगजनितातिकटुकदुःखौघानुभवनेषु, सूत्र०१ म्मि'। पाइ० ना०५४ गाथा। श्रु०१अ०३ उ०। वटेलिखेडग-पुं० [वटेलि(ली)खेटक] अर्बुदगिरिसविधे स्वनामख्याते वट्टमाणी-स्त्री०(वर्तमानी) वार्तायाम्, वर्त्तन्यांच।"कुसलस्स वा वट्टमा ग्रामे, यत्र वटगच्छः प्रथममजनि। व्य०२ उ०।"अथ युगनवनन्दमिते, णीति"। आ० म०१ अ०। वर्षे विक्रमनृपादतिक्रान्ते। पूर्वावनितो विहरन, सोऽर्बुदसुगिरः सविधवट्टलोह-न०(वृत्तलोह) त्रिकुटीत्यभिधाने गोलायसि, औ०। मागात्।। 16 / / तत्र वट्टेलिखेटक-सीमावनि-संस्थवरवटाधः। सुमुहूर्ते वट्टवेयड्डपध्वय-पुं०(वृत्तवैताढ्यपर्वत) वृत्तः पल्याकारत्वात् वैतादयो स्वपदेऽष्टौ, सूरीन् संस्थापयामास ॥२०॥"ग०३ अधि०। नामतो वृत्तवैताळ्यः। स च पर्वतश्चेति वृत्तवैतान्यपर्वतः। स्वनामख्याते वड-पुं०(वट) वृक्षभेदे, प्रज्ञा० 1 पद। प्रा० / औ०। आ० म० / वण्टके, पर्वते, स्था०। विभागे, आ० चू०५ अ०। अनु०। मत्स्यभेदे, प्रज्ञा०१ पद। वटवृक्षाधो जंबूमंदरस्स पव्वयस्स उत्तरदाहिणेण हेमवएरनवएसु वासेसु दीक्षा भवति। बृ०१ उ०२ प्रक०। दो वट्टवेयडपव्वया पन्नत्ता,तं जहा-बहुसमउल्ला अविसेस वटग-न०(वटक) त्रिसरीमये निकृष्टकौशेयसूत्रे, ज्ञा० 1 श्रु०३ अ०। मणाणत्ता जाव सरावाईचेव, वियडावाईचेवातत्थणं दो देवा वडगच्छ-पुं०(वटगच्छ) वट्टेलीखेटकसीमावनिसंस्थवरवटाधः-संस्थामहड्डिया०जावपलियोक्मद्वितिया परिवसंति,तंजहा-साईचेव, पिते वृद्धगच्छे, ग०३ अधि०। ('वट्टेलीखेडग' शब्दो वीक्ष्यः।) पभासे चेव। जंबूमंदरस्स उत्तरदाहिणेणं हरिवासरम्मएसुवासेसु दो वट्टवेयडपटवया पन्नत्ता, तं जहा-बहुसमतुल्ला० जाव वडगर-पुं०(वटकर) मत्स्यभेदे, जी०१ प्रति०। प्रज्ञा०। गंधावाई चेव, मालवंतपरियाए चेव। तत्थ णं दो देवा महड्डिया वडपायव-पुं०(वटपादप) वटनामके वृक्षविशेषे, उत्त० 13 अ०। चेव पलिवओमहिइया परिवसंति, तं जहा-अरुणे चेव, पउमे वडप्पय-पुं०(वडप्पक) काष्ठयन्त्रविशेषे, प्रश्न०३ आश्र० द्वार। चेवा(सू०८७+) वडम-त्रि०(वडभ) मडहकोष्ठ, दशा० 10 अ० / एकपार्श्वहीने, प्रव० 'जंबू' इत्यादि "दो वट्टवेयड्डपव्वय'त्ति द्वौ वृत्तौ पल्याकारत्वात् 110 द्वार / नि० चू० ओध० / बृ०। वामने, विनिर्गतपृथिवीवडभे, वैताढ्यौ नामतः तौ च तौ पर्वतौ चेति विग्रहः, सर्वतः सहस्रपरिमाणौ आचा०१ श्रु०२ अ०३ उ०।
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________________ बडभिया 501 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वण गाथा। पडभियास्त्री० (वटभिका) वकाधः कायायाम, औ०।मडहकोष्ठा धिपत्यां वड्डइ। वर्धते! प्रा०४ पाद। दास्याम्, रा०। वडा पुं० (वर्धकि) सूत्रधारे, स्था० 7 ठा० 3 उ० / सूत्र० / रथादिबडरपुं० (वटर) सूखें, अष्ट०२३ अष्ट०। निर्मापयितरि, स०१४ सम०।नं०1"रहयारा वलइणो" पाइ० ना० बडरक्खपुं०(वटवृक्ष) वटवृक्षे, "नग्गोहं बडरुक्खं" पाइ० ना०२५७ / 103 गाथा। वहरयण न० (वर्धकिरत्न) अत्युत्कृष्ट सूत्राधारे, स्था०७ ठा० 3 उ०। वडवडधा० (विलप) विलपने, "विलपेख-वडवडौ' ||8|4|148|| | वडंतय पुं० (वृद्ध्यन्तक) क्रमशो वृद्धि प्राप्ते विहारे, पं० चू०। "वखंतउंति इति विपूर्वकस्य लपेर्वडवडादेशः। वडवडइ। विलपति। प्रा०४ पाद। जहा भट्टारओ एगागी पव्वज्जइओ पच्छा केवलाना णाइविभूई पत्तो बडवा स्त्री० (वडवा) घोटक्याम्, "तुरंगिआ वडवा" पाइ० ना०२२६ इंदभूइप्पमुहा चोइससमणसाहस्सीसं परिखुडा'। पं० चू०२ कल्प। गाथा। वडणी स्त्री० (वार्धनी) गलन्तिकायाम्, जं०२ वक्ष०। वडवामुहन० (वडवामुख) चतुर्षु महापातालेषु मध्ये प्रथमे महापाताले, वडप्पणन० (वृद्धत्व) त्वस्थाने-प्पणादेशः। महत्वे, "त्वतलोः प्पणः" स्था० 4 ठा०२ उ०। ||814 / 437 / / अपभ्रंशे त्वतलोः प्रत्यययोः प्पण इत्यादेशो भवति / बलया (य) पुं० (मुख) चतुर्षु महापातालेषु मध्ये प्रथमे महापाताल, "वड्डप्पणु परिपाविअइ'' प्रायोऽधिकाराद्-"ववृत्तणहो तणेण'' प्रा० स्था०४ ठा०२ उ०। 4 पाद। वडह-देशी-पक्षिभेदे, दे० ना०७ वर्ग 33 गाथा। वङ्घमाण पुं० (वर्धमान) उत्पत्तेरारभ्य ज्ञानादिभिवर्धते इति वर्द्धमानः / वडार पुं० (वटाचार) वडो वण्टगो वा एगहूँ। आरितो आयरितो वडारो ध०२ अधि०। कल्प०1"वड्डइ नायकुलं तिय, तेण जिणो वद्धमाणो इति / विभागव्यवहारे, नि० चू०२ उ०। आ० चू० ! त्ति ॥ध०२ अधि०। स्वकुलं समृद्धिहेतुतया पितृभ्यां कृतवर्धमानावडाली-देशी-पत्की , दे० ना०७ वर्ग 36 गाथा। भिधाने, पा०। वीरजिनेन्द्रे, अस्यामवस पिण्यां जाते चतुर्विशे तीर्थकरे, पढिसय पुं० (अवतंसक) शेखरके, कर्णपूरे च। अवतंसक इवावतंसकः। सानाआ० चू० ('वीर' शब्देसर्वां वक्तव्यतांवक्ष्यामि) स्वनामख्याते प्रधाने, स० 200 सम०। रा०।और।ज्ञा०। स्था० / श्रेष्ठ, जं०१ वक्ष०। चान्द्रकुलीये, आचार्ये, “चान्द्रे कुले सदनकक्षकल्पे, महाद्रुमो धर्मफल बडिंसा स्त्री० (अवतंस (सि) का) किन्नरनाम्नः किन्नरेन्द्रस्या ग्रम- प्रदानात्। छायान्विताशस्तविशालशाखः, श्रीवर्धमानो मुनिनायकोsहिष्याम्, स्था० 4 ठा० 1 उ०। भ०।। भूत॥१॥"भ०४१श०। द्वाषष्टितमे महाग्रहे, स्था०२ ठा०३ उ०१० वडिया स्त्री० (वटिका) वरी इति ख्याते पदार्थे , प्रज्ञा० 1 पद। प्रव०। | प्र०। कल्प०१ वर्धपट्टिकायाम, औ०। वड्डिय-देशी-कृलतुलायाम, दे० ना०७ वर्ग 36 गाथा। वडिस न० (वडिश) प्रान्तन्यस्तामिषे लोहकीलके, उत्त० 3 अ०। वडिय त्रि० (वर्धित) वृद्धिमुपनीते, भ०७ श०३३ उ०। वडिसामिसन० (वडिशामिष) मत्स्यगलमीसे, द्वा०२३ द्वा०॥ वडियग पुं० (वर्द्धितक) कृत्रिमनपुंसके, यस्य हि आयत्यां राजान्तः वडु पुं० (वटु) ब्राह्मणे, ब्रह्मचारिणि, विशे०। पुरमहल्लकपदप्राप्तयादिनिमित्तं यस्य बालत्वेऽपि छेदं दत्त्वा वृषणौ बडुअन० (वटुक) कमठके, बृ०३ उ०। स्वनामख्याते वाणा रसीराजे, गालितौ भवतः। ग०१ अधि०।०॥ पं० भा०। पं० चू०। आ० म०१ अ०। वण न० (वन) एकजातीयवृक्षसमुदाये, भ० 1 श० 8 उ० / कल्प० / वडुकर पुं० (वटुकर) गुडाकरपुरजाते स्वनामख्याते वाद पराजित- जी० / अनु० ज्ञा०। स्था०। उद्याने, न० "खंडं वणं / " पाइ० ना० परिव्राजकजीवे, आ० क०१ अ०। आ० म०। 266 गाथा / नगरविप्रकृष्ट गहने, सूत्र०१ श्रु०१४ अ०। भ० / ज्ञा०। वडेंसगपुं० (अवतंसक) अवतंसक इवावतंसकाः / शिखरे, ज्ञा०१श्रु० अटव्याम्, सूत्रा०१ श्रु०३ अ०२ उ०। तरुविशेषे, जी०३ प्रति 4 10 / अधि० / वनस्पती, कर्म०४ कर्म०। सलिले, न०"अंबु सलिलं वर्ण वडुत्रि०(वृद्ध)"शीध्रादीनां बहिल्लादयः।८।४।४२२।। इतिवृद्धस्थाने वारि नीरं उदयं दयं पयं तोय'' पाइ० ना०२८ गाथा। वड्डादेशः। प्रा०। महति, आव० 4 अ०। *वण-पुं०। व्रणतिगच्छतीति व्रणः। अनु० / विस्फोटकादिक्षते, जं० बहुअर त्रि० (वृहत्तर) गोणादित्वादूपसिद्धिः। अतिशयेन महत्तरे, प्रा०। २वक्ष०ा दश०। (द्रव्यव्रणभावव्रणयोर्विस्तरः पच्छित्त' शब्दे पञ्चमभागे दे० ना०। 126 पृष्ठे गतः 1) ('काउस्सम्ग' शब्दे तृतीयभागे व्रणचिकित्सायां बडकुमारी स्त्री० (वृद्धकुमारी) विन (ण) यशब्दे उदाहरिष्यमाणे मालिने व्याख्यातोऽयं व्रणः।) (व्रणमालिम्पति अत्र सूत्राणि 'कायवण' शब्दे आत्मसमर्पयति स्त्रीभेदे, नि० चू०१ उ० दश०। कौमार्य वस्थायामेव तृतीय भागे 463 पृष्ठे गतानि।) लाञ्छने, अनु० / व्रण इत्यरत्कद्विष्टेन वार्द्धक्यमनुभवन्त्यां स्त्रियाम्, नि० चू०१ उ०। व्रण लेपादानवद्भोक्तव्यमित्यर्थः / सूचकत्वाद्रुमपुष्पिकाध्ययने, दश० वड पुं० (वृद्ध) वृद्धौ, "क्वथ वर्धा ढः ||841220 // इति धस्य ढः। अ० 1 उ० / प्रहारे, "वणं पहारो'' पाइ० ना० 224 गाथा।
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________________ वणंत 502 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वणप्फ वणंतपुं० (वनान्त) वनविभागे, ज्ञा०१ श्रु०१०। वणकम्मन० (बनकर्मन) वनविषयं कर्म वनकर्म। वनच्छेदनव विक्रयरुपे कर्मते उपभोगपरिभोगव्रतातिचारे, भ०८ श०५ उ०। यच्छिन्नामच्छिनानां च तरुखण्डानां पत्राणां पुष्पाणां फलानां च विक्रयणं वृत्तिकृतेन। प्रव०६ द्वार। यत्रा वा समुदितं वनंक्रीत्वा ततश्छित्वा विक्रीय च तल्लामैन जीवति, ध०र०२ अधि०। आव०। आचा०। छिन्नाछिन्नवनपत्रापुष्प फलकन्दमूलतृण काष्ठकं वा वंशादिविक्रयः कणदलपेषणं वानकच्छादिकरणं च। तस्मिन्, ध०२ अधि० आ० चू० / उपा०। वणकम्मतन० (वनकर्मान्त) यत्र वनकर्म क्रियते तादृशे गृहे, आचा०२ श्रु०१चू०२ अ०२ उ०। वणकरपुं० (व्रणकर)व्रणं देहे क्षतं स्वयं करोति रुधिरादिनिर्गल नार्थमिति व्रणकरः / ब्रणजनके, स्था० 4 ठा० 4 उ०। वणखण्ड पुं० (वनखण्ड) एकजातीयवृक्षसमूहे, भ० 5 श०७ उ० / अनेकजातीयोत्तमवृक्षेषु, स्था०२ ठा० 4 उ० ज०। (वनखण्डवर्णकः लवणसमुद्रवनखण्डवर्णनावसरेऽस्मिन्नेव भागे 604 पृष्ठे गतः।) वणग्गि पुं० (वनाग्नि) वनाग्नौ, "दावौ दवो वणगी।" पाइ० ना० 141 गाथा। वणचरपुं०(वनचर) पुलिन्द्रशवरादिके आरण्यके मनुष्ये, प्रश्न०२ आश्र० द्वार। वणचिंता स्त्री० (व्रणचिन्ता) क्षतनिरूपणे, पञ्चा० 16 विव०। वण्ण न० (वनन) वत्सत्यान्यमातरि योजने, प्रश्न०२ आश्र० द्वार। वणतिगिच्छा स्त्री० (व्रणचिकित्सा) व्रणति गच्छतीति व्रणः, व्रणस्य चिकित्सा / चारित्रापुरुषस्य योऽतिचाररुपो भावव्रणः / दशविधप्रायश्चित्तभेषजेन कायोत्सर्गाध्ययने प्रतिपादतेऽधि कारविशेषे, अनु०। वणतेल्लन० (व्रणतैल) व्रणरोहके तैले, व्य०५ उ०। वणदव पुं० (वनदव) वनाग्नौ, ज्ञा०१ श्रु०१०। आ० चू०। वणपव्वय पुं० (वनपर्वत) वनमध्यपर्वत, आचा०२ श्रु०१चू० 3 अ० | 3 उ०। वणपिसाय पुं० (वनपिशाच) पिशाचभेदे, प्रज्ञा०१पद। वणप्फ (स्स) पुं० (वनस्पति) "बृहस्पति-वनस्पत्योः सो वा'' // 8 / 2 / 66 / / इति संयुक्तस्य सो वा / वणस्सई / वणप्फई। प्रा०। लतादिरुपे एकेन्द्रियजीवशरीरे, प्रज्ञा०१ पद। अथ वनस्पतिकायप्रतिपादनार्थमाहसे किं तं वणस्सइकाइय? वणस्सकाइया दुविहा पण्णत्ता,तं जहा-सुहुमवणस्सइकाइया य, बादरवणस्सकाझ्या य। (सू० -16) से किं तं सुहुमवणस्स्इकाइया? सुहुमवणस्सइकाइया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-पज्जत्तसुहुमवण स्सइ काइया य, अपज्जत्तसुहुमवणस्सइकाइयाय। सेत्तं सुहुमव णस्सइकाइया। (सू०२०) से किं तं बादरवणस्सइकाइया ? बादरवणस्सइकाइया दुविहा पण्णत्ता,तं जहापत्तेयसरीरबादरवणस्सइकाइया य, साहारणसरीरबादरवणस्सइकाइयाय। (सू०-२१) प्रज्ञा० 1 पद। वनस्पतिकायस्तु समस्तलोकप्रत्यक्षपरिस्फुटजीवलिङ्गकलापोपेतः, अतः स एव तावत्प्रतिपाद्यते इत्यनेन संबन्धे नायातस्यास्य चत्वार्यनुयागद्वाराणि वाच्यानि यावन्नामनिष्पन्ने निक्षेपे वनस्पत्युद्देशकः, तत्राच वनस्पतेः स्वभेदकलापप्रति पादनाय पूर्वप्रसिद्धार्थातिद्वेशद्वारेण नियुक्तिकृदाहपुढवीए जे दारा, वणसइकाए वि हुंति ते चेव। नाणत्ती उ विहाणे, परिमाणुवभोगसत्थे य॥१२६|| यानि पृथवीकायसमधिगतये द्वाराण्युक्तानि तान्येव वनस्पती द्रष्टव्यानि नानात्वंतु प्ररूपणापरिमाणोपभोगशस्रेषु चशब्दाल्लक्षणे च द्रष्टव्यमिति। तत्रादौ प्ररूपणास्वरूपविज्ञापनायाह - दुविह वणस्सइजीवा, सुहुमा तह बायरा य लोगम्मि। सुहुमाय सवलोए, दो चेव य बायरविहाणा॥१२७।। वनस्पतयो द्विविधाः-सूक्ष्मा, बादराश्च / सूक्ष्माः सर्वलोकापन्नाश्चााह्याश्चन भवन्त्येकाकारा एव, बादराणां पुन विधाने। के पुनस्ते बादरविधाने इत्यत आह -- पत्तेया साहारणा, बायरजीवा समासओ दुविहा। बारसविहऽणेगविहा, समासओछविहा हुंति॥१२॥ बादराः समासतः द्विविधाः-प्रत्येकाः, साधारणाश्च। तत्र पत्रपुष्पमूलफलस्कन्धादीन् प्रति प्रत्येको जीवो येषां ते प्रत्येक जीवाः, साधारणास्तु परस्परानुविद्धानन्तजीवसंघातरूप शरीरवस्थानाः, तत्र प्रत्येकशरीरा द्वादशविधानाः साधारणा स्त्वनेकभेदाः, सर्वेऽप्येते समासतः षोढा प्रत्येतव्याः। आचा०१ ०१अ०५ उ०। प्रत्येकतरुद्वादशभेदप्रत्यायनायाहसे किं तंपत्तेयसरीरबादरवणस्सइकाइया?, पत्तेयसरी रबादरवणस्सइकाइया दुवालसविहा पण्णत्ता, तं जहा (सू० 22) प्रज्ञा०१पद। रुक्खा गुच्छा गुम्मा, लया य वल्ली य पव्वगा चेव। तणवलयहरियओसहि-जलरुहकुहणा य बोधव्वा // 12 // वृश्च्यन्त इति वृक्षास्ते द्विविधाः-एकास्थिका, बहुबीजकाश्च / तत्रौकास्थिकाः-पिचुमन्दानकोशम्बशालाको लपीलुशल्लक्यादयः, बहुबीजकास्तु उदुम्बरकपित्थास्तिकतिन्दुकबिल्वामलकपनसदाडिममातुलिङ्गादयः, गुच्छास्तुवृन्ता कीकसीजपाऽऽढकीतुलसीकुस्तुम्भरीपिप्पतीनील्यादयः, गुल्मानि तुनवमालिकासेरियकको--
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________________ वणप्फइ 803 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वणप्फइ रिण्टकबन्धुजीवकवाणकरवीरसिन्दुवारविचकिलजातियूथि कादयः, लतास्तुपद्मनागाऽशोकचम्पकचूतवासन्त्यतिमुत्क ककुन्दलताद्याः, वल्लयस्तुकुष्माण्डीकालिङ्गीत्रपुषीतुम्बी वालुकयेलुकीपटोल्यादयः, पर्वगाः पुनः-इक्षुवीरण्शुण्ठशरवेत्रा शतपर्ववंशनलवेणुकादयः, तृणानि तुश्वेतिकाकुशदर्भपर्वका र्जुनसुरभिकुरुविन्दादीनि, बलयानि चतालतमालतकलीशा लसरलाकेतकीकदलीकन्दल्यादीनि, हरितानि-- तन्दुलीयक धुयारुहवस्तुलबदरकमारिपादिकाचिल्लीपालक्यादीनि, औषध्यस्तु -शीलव्रीहिगोधूमयवकलममसूरतिलमुद्रमाष निष्पावक कुलत्थाऽतसीकुसुम्भकोद्रवकग्वादयः, जलरुहा-उदकावकपनकशैवलकलम्बुकापावककशेरुकोत्पलपद्मकुमुदन नलिनपुण्डरीकादयः, कुहुणास्तुभूमिस्फोटकाभिधानाः आयकायकुहुणकुण्हुक्कोद्देहलिकाशलाकासपच्छत्रादयः, एषां हि प्रत्येकजीवानां वृक्षाणां मूलस्कन्धकन्दत्वक्शालप्रवालादि ष्वसंख्येयाः प्रत्येक जीवाः, पत्राणि पुष्पाणि चैकजीवानिमन्त व्यानि, साधारणास्त्वनेकविधाः, तद्यथा-लोहीनिहुस्तुभायि काऽश्वकर्णीसिंहकर्णीशृङ्गवे रमालुकामूलककृष्णकन्दसूरणकन्दकाकोलीक्षीरकाकोलीप्रभृतयः / सर्वेऽप्येते संक्षेपात् षोढा भवन्तीत्युक्तम्। के पुनस्ते भेदा इत्याहअग्गबिया मूलविया, खंधबिया चेव पोरबीया य। बीयरुहा संमुच्छिम-समासओ वणप्फई जीवा।।१३०|| तत्र कोरिण्टकादयोऽग्रबीजाः, कदल्यादयो मूलबीजाः निहुशल्क्यरणिकादयः स्कन्धबीजाः, इक्षुवंशवेत्रादयः, पर्वबीजाः, बीजरुहाः शालिव्रीह्यादयः, सम्मूछेनजाः पद्मिनीश्टङ्गाटकपाठशैवालादयः, एवमेते समासात्तरुजीवाः षोढा कथिताः, नान्ये सन्तीति प्रतिपत्तव्यम्। किंलक्षणः पुनः प्रत्येकतरवो भवन्तीत्यत आहजह सगलसरिसवाणं, सिलेसमिस्साणवत्तिया वट्टी। पत्तेयसरीराणं, तह हॉति सरीरसंघाया॥१३१।। यथेति-द्रष्टान्तोपन्यासार्थः, यथा-सकलसर्षपाणां श्लेषय तीति श्लेषः-सर्जरसादिस्तेन मिश्रितानां वर्तितावलिता वर्तिः तस्याश्च वर्ती प्रत्येकप्रदेशाः क्रमेण सिद्धार्थका स्थिताः, नान्योन्यानुवेधेन, चूर्णिणतास्तु कदाचिदन्योऽन्यानुवेधभाजोऽपि स्युरित्यतः सकलग्रहणम्, यथाऽसौ पर्तिस्तथा प्रत्येकतरु शरीरसंघातः, यथा च सर्षपास्तथा तदधिष्ठायिनो जीवाः, यथा श्लेषविमिश्रितास्तथा रागद्वेषप्रचितकर्मपुरलोदयमिश्रिता जीवाः, पश्चिमार्द्धन गाथाया उपन्यस्तदृष्टान्तेन सह साम्यं प्रति पादितं तथेति शब्दोपादानादिति। अस्मिन्नेवार्थे दृष्टान्तान्तरमाहजह वा तिलसकुलिया, बहुएहि तिलेह मेलिया संती। पत्तेयसरीराणं, तह हुंति सरीरसंघाया॥१३॥ यथा वा तिलशष्कुलिका-तिलप्रधाना पिष्टमयपोलिका बहुभिस्तिलैर्निष्पादिता सती भवति, तथा प्रत्येकशरीराणां तरुणां शरीरसंघाता भवन्तीति द्रष्टव्यमिति। साम्प्रतं प्रत्येकशरीरजीवानामेकानेकाधिष्ठितत्वप्रतिपि पादयिषयाऽऽहनाणाविहसंठाणा,दीसंती एगजीविया पत्ता। खंधा वि एगजीवा, तालसरलनालिएरीणं // 133 // नानाविधम्-भिन्न संस्थानं येषां तानि नानविधसंस्थानानि, पत्राणि यानि चैवंभूतानि दृश्यन्ते तान्येकजीवाधिष्ठितान्यवगन्तव्यानि, तथा स्कन्धा अप्येकजी वाधिष्ठितास्तालसरलनालिकेर्यादीनाम्, नात्रानेकजीवाधिष्ठि तत्वं संभवतीति अवशिष्टानां त्वनेकजीवाधिष्ठितत्वं सामर्थ्या त्प्रतिपादितं भवति। साम्प्रतं प्रत्येकतरुजीवराशिपरिमाणाभिधित्सयाऽऽह - पत्तेयापज्जत्ता, सेठीएँ असंखभागमित्ताते। लोगासंखप्पज-तगाण साहारणाऽणंता॥१३॥ प्रत्येकतरुजीवाः पर्याप्तकाःसंवर्तितचतुरस्त्रीकृतलोकश्रेण्यसंख्येयभागवाकाशप्रदेशराशितुल्यप्रमाणाः, एते च पुन र्वादरतेजस्कायपर्याप्तकराशेरसंख्येयगुणाः, ये पुनरपर्याप्तकाः प्रत्येकतरुजन्तवः ते ह्यसंख्येयानां लोकानां यावन्तः प्रदेशास्तावन्त इति, एतेऽप्यपर्याप्तका बादरतैजस्कायजीवराशेर संख्येयगुणाः, सूक्ष्मास्तुवनस्पतयः प्रत्येकशरीरिणः पर्याप्तका अपर्याप्तका वानसन्त्येव, साधारणास्त्वनन्ता इति विशेषानुपा दानात् साधारणाः सूक्ष्माबादरपर्याप्तका पर्याप्तकभेदेन चतुर्विधा अपि पृथक् पृथगनन्तानां लोकानां यावन्ताः प्रदेशास्तावन्त इति, अयं तु विशेषः-साधारणबादरपर्याप्तकेभ्यो बादरा अपर्याप्तका असंख्येयगुणाः बादरापर्याप्तकेभ्यः सूक्ष्माः, अपर्याप्तका असंख्येयगुणास्तेभ्योऽपि सूक्ष्माः पर्याप्तका असंख्येयगुणा इति! सम्प्रत्येषां तरुणां यो जीवत्वं नेच्छति तं प्रति जीवत्वप्रति पादनेच्छया नियुक्तिकृदाहएएहिं सरीरेहि, पचक्खं ते परूविया जीवा। सेसा आणागिज्झा, चक्खुणों जे नदीसंति॥१३।। एतैः पूर्वप्रतिपादितैस्तशरीरैः प्रत्यक्षप्रमाणविषयैः प्रत्यक्षम्-साक्षात् ते वनस्पतिजीवाः, प्ररूपिताः-प्रसाधिताः, तथा हि-न ह्येतानि शरीराणि जीवव्यापारमन्तरेणैवंविधाकार भाजि भवन्ति, तथा च प्रयोग:जीवशरीराणि वृक्षाः, अक्षाधुपलब्धिभावात्, पाण्यादिसंघातवत्, तथा कदाचित् सचित्ता अपिवृक्षाः, जीवशरीरत्वात्पाण्यादिसंघातवदेव, तथा मन्द विज्ञानसुखादिमन्तस्तरवः, अव्यक्त चेतनानुगतत्वात् सुप्तादि पुरुषवत्, तथा चोत्कम्-- "वृक्षादयोऽक्षाधुपलब्धिभावात्, पाण्यादिसंघातवदेव देहाः। तद्वत्सजीवा अपि देहतायाः, सुप्तदिवत् ज्ञानसुखादिमन्तः॥१॥ शेषा इति-सूक्ष्मास्ते च चक्षुषा नोपलभ्यन्त इत्याज्ञता ग्राह्या इति, आज्ञा च भगवद्वचन मवितथमरत्कद्विष्टप्रणीतमिति श्रद्धातव्यमिति / आचा०१ श्रु०१ अ०५ उ०। (साधारणवनस्पतिकायलक्षणम् 'साहारण' शब्दे वक्ष्यामि) अथ ये बीजात्प्ररोहन्ति वनस्पतयस्तेषां कथमा विवि इत्यत आहजोणिन्मूए बीए, जीवो बक्कमइ सो व अण्णो वा।
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________________ वणप्फ 804 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वणप्फ जो वि य मूले जीवो, सो चिय पत्ते पढमयाए॥१३॥ अत्रा भूतशब्दोऽवस्थावचनः, योन्यवस्थे बीजे योनपरिणा ममजहतीत्यर्थः, बीजस्य हि द्विविधाऽवस्था योन्यवस्था अयोन्यवस्था च, यदा योन्यवस्थां न जहाति बीजमुज्झितं च जन्तुना तदा योनिभूतमुच्यते, योनिस्तु जन्तोरुत्पत्तिस्थानम विनष्टमिति, तस्मिन् बीजे योनिभूते जीवो व्युत्क्रामति उत्पद्यते, स एव पूर्वको बीज जीवोऽन्यो वाऽऽगत्य तत्रोत्पद्यते / एतदुक्तं भवति-यदा जीवेनायुषः क्षयाद्वीजपरित्यागः कृतो भवति, तस्य च यदा बीजस्य क्षित्युदकादिसंयोगस्तदा कदाचित्स एव प्राक्तनो जीवस्तत्रागत्य परिणमते कदाचिदन्य इति। यश्च मूलतया जीवः परिणमते स एव प्रथम पातयाऽ पीति, एकजीवकर्तृक मूलपत्रो इति यावत्, प्रथम पत्रकंचा याऽसौ बीजस्य समुच्छूनावस्था भूजलकालापेक्षा सैवोच्यत इति नियमप्रदर्शनमेतत्, शेषं तु किशलयादि सकलं न मूलजीव परिणामाविर्भावितमेवेत्यवगन्तव्यमिति / यत उत्कम्-"सव्वो वि किसलओखलु, उग्गममाणो अणं तओ भणिओ।" इत्यादि / आचा० 1 श्रु०१ अ०५ उ०। (अनन्तजीवलक्षणम् - 'अणंतजीव' शब्दे प्रथमभागे 263 पृष्ठे उत्कम्।) जे यावण्णे तहप्पगारा, ते समासओ दुविहा पण्णत्ता,तंजहा- | पजत्तगाय अपजत्तगाय, तत्थणं जेते अपहृत्तगातेणं असंपत्ता, तत्थणजे ते पञ्जत्तगा तेसिणं वनादेसेणं गंधाएसेणं रसाएसेणं फासादेसेणं सहस्सग्गसो विहाणाई, संखिजाइं जोणिप्पमुहसयसहस्साइं, पछत्तगणीसाए अपज्जत्तगा वक्कमंति, जत्थ एगो तत्थ सिय संखिज्जा सिय असंखिज्जा सिय अणंता, एएसिणं इमाओ गाहाओ अणुगंतव्वाओ। तं जहा"कंदा य कंदमूला य, रुक्खमुलाइयावरे। गुच्छा य गुम्मवल्ली य, वेणुयावि तण्णाणि य॥१०३|| पउमुप्पलसंघाडे, हठे य सेवालकिण्हए पणए। अवए य कच्छमाणि, कंदुक्केगूणवीसइमे / / 10|| तयछल्लिपवालेसु य, पत्तपुप्फफलेसु य / मूलग्गमज्झबीएसु, जोणी कस्स वि कित्तिया।।१०।।" (सू०२६) "जे यावन्ने तहप्पगारा' इति येऽपि चान्ये अनुत्करुपास्तथा प्रकाराःप्रत्येकरुरूपाः साधारणरूपाश्च, तेऽपिवननवरं यत्रैको बादरपर्याप्तस्तत्र तन्निश्रया अपर्याप्ताः कदाचित्संख्येयाः कदाचिदसंख्येयाः कदाचिदनन्ताः, प्रत्येक तरवः संख्येया असंख्येया वा, साधारणास्तु नियमादनन्ता इति भावः। एतेषां साधारणप्रत्येकतररुपाणां वक्ष्यमाणानामिमाःविशेषप्रतिपादिका वक्ष्यमाणा गाथा अनुगन्तव्याः-प्रतिपत्तव्याः, ता एवाह 'तंजहा तद्यथा कंदाये त्यादिगाथात्रयम, कन्दाः-सूरणकन्दादयः, कन्दमूलानि वृक्षमूलानिचसाधारणयवनस्पतिविशेषाः, मुच्छागुल्माः वल्लयश्च प्रतीताः, वेणुका-वंशास्तृणानि-अर्जुनादीनि. 1103 / / पद्मोत्पलशृङ्गाटकानि-प्रतीतानि दृढो-जलजवनस्पतिविशेषः, सेवालः-प्रसिद्धः कृष्णपनकावक कच्छभाणि कन्दुका:साधारणवनस्पतिविशेषाः / / 104 // एतेषामेकोनविंशतिसंख्यानां त्वगादिषु मध्ये कस्यापि काऽपि योनिः / किमुत्कम्भवति-कस्यापि त्वयोनिः कस्यापि छल्ली यावत्कस्यापि मूलं कस्याप्यग्रं कस्यापि मध्यं कस्यापि बीजमिति / / 10 / / परिमाणमभिधीयते - तत्र प्रथम सूक्ष्मानन्तजीवानां दर्शयितुमाहपत्थेण व कुडवेण व, जह कोइ मिणिज्ज सव्वधण्णाई। एवं मविजमाणा, हवन्ति लोया अणंताओ॥१४॥ प्रस्थकुडवादिना यथा कश्चित्सर्वधान्यानि प्रमिणुयान्मित्वा चान्यत्रा प्रक्षिपेद् एवं यदि नाम कश्चित्साधा रणजीवराशिं लोककुडवेन मित्वाऽन्यत्रा प्रक्षिपेत् तत एवं मीयमाना अनन्ता लोका भवन्तीति। इदानीं बादरनिगोदपरिमाणाभिधित्सयाऽऽह - जे बायरपज्जत्ता, पव्वस्स असंखभागमेत्ताते। सेसा असंखलेया, तिण्णि विसाहारणाऽणंता॥१४५।। ये पर्याप्तकबादरनिगोदास्ते संवर्त्तितचतुरस्त्रीकृतसकल लोकप्रतरासंख्येयभागवर्तिप्रदेशराशिपरिमाणा भवन्ति, एते पुनः प्रत्येकशरीरबादरवनस्पतिपर्याप्तकजीवेभ्योऽसंख्येय गुणाः, शेषास्त्रयोऽपि राशयः प्रत्येकमसंख्येयलोकाकाशप्रदेश परिमाणाः। के पुनस्त्रय इति ? उच्यतेअपर्याप्तकबादरनिगोदा अपर्याप्तकसूक्ष्मनिगोदाः पर्याप्तकसूक्ष्मनिगोदाः। एतेच क्रमशो बहुतरका द्रष्टव्या इति। साधारणजीवास्तेभ्योऽनन्तगुणाः, एतच जीवपरिमाणम्, प्रात्कनं तु राशिचतुष्टयं निगोदपरिमाण मिति। परिमाणद्वारनन्तरमुपभोगद्वारमभिधित्सुराहआहारे उवकरणे, सयणासणजाणजुग्गकरणे य। आवरणपहरणेसु य, सत्थविहाणेसु य बहुसु // 146|| आहारफलपत्राकिशलयमूलकन्दत्वगादिनिर्वर्त्यः, उपकरण व्यजनकटककवलकार्गलादि, शयनम्-खट्टाफलकादि आसनम्आसन्दकादि, यानम्-शिविकादि, युग्यम्-गन्त्रिकादि, आवरणम्फलकादि, प्रहरणम्-लकुटि भुशुण्ड्यादि, शस्त्राविधानानि च बहूनि तन्निर्वानि, शरदात्र खगक्षुरिकादि, गण्डोपयोगित्वादिति। तथा परोऽपि परिभोगाविधिस्तदर्शनायाह - वनस्पतिपरिभोगःआउज्जकहकम्मे, गंधंगे वत्थमल्लजोए य। झावए वियावणेसुय, तेलविहाणेय उज्जोए॥१५७।। आतोद्यानि-पटहभेरीवंशवीणाझल्लादीनि, काष्ठकर्मप्रतिमास्तम्भद्वारशाखादीनि, गन्धाङ्गानि बालकप्रियङ्कपत्रक दमनकत्वक-चन्दनोशीरदेवदार्वादीनि, वस्त्राणि-वल्कयका समयादीनि, माल्या-योगानवमालिकावकुलचम्पकपुन्नागा शोकमालतीविचकिलादयः, ध्मापन-दाहो भस्मसात्करणमिन्धने, वितापनं-शीताभ्यर्हितस्यशीतापनयनाय काष्ठ
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________________ वणप्फइ 805 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वणप्फइ प्रज्वालनात, तैलविधानं-तिलातसीसर्पपेङ्गुदीज्योतिष्मती करजादिभिः, उद्योतो-वर्तितृणचूडाकाष्ठादिभिरिति।। एवमेतान्युपभोगस्थानानि प्रतिपाद्य तुदपसंजिहीर्षुराह -- एएहि कारणेहि, हिंसंति वणस्सई बहू जीवे / सायं गवेसमाणा, परस्स दुक्खं उदीरेंति॥१४॥ एतैर्गाथाद्वयोपात्तैः कारणैः-प्रयोजनैर्हिसन्ति व्यापादयन्ति प्रत्येकसाधारणवनस्पतिजीवान् बहून् वनस्पतिसमारम्भिणः पुरुषाः, किं भूतास्त इति दर्शयति-सात-सुखं तदन्वषिणः परस्य च वनस्पत्याघेकेन्द्रियादे१खं बाधामुत्पादयन्ति। साम्प्रतं शस्त्रमुच्यते-तच द्विधा द्रव्यभावभेदात्द्रव्यशस्वमपि समासविभागभेदात् द्विधैव तत्र समासद्रव्यशस्त्राभिधित्सयाऽऽहकप्पणि-कुहाणि-यसियग-दत्ति-कुद्दालि-वासि फरसूय। सत्थं वणस्सईए, हत्था पाया मुहं अम्गी / / 149ll कल्प्यते-छिद्यते यया सा कल्पनी शस्त्राविशेषः, कुठारी प्रसिद्धैव, अशियगं दानं, दात्रिका-प्रसिद्धा, कुद्दालकवासि परशवश्च, एते वनस्पतेः शस्त्रम्। तथा हस्तपादमुखाग्यश्च इत्येतत्सामान्यशस्त्रमिति। विभागशस्त्रााभिधित्सयाऽऽह --- किंची सकायसत्थं, किंची परकाय तदुभयं किंची। एयं तु दव्वसत्थं, भावे य असंजमो सत्थं // 150|| किंचित् स्वकायशस्त्र लकुटादि, किंचिच्च परकायशस्त्रं पाषाणग्नयादि, तथामयशस्व-दात्रदात्रिकाकुठारादि, एतद् द्रव्यशस्त्रम्, भावशस्त्र पुनरसंयम्। दुष्णणिहितमनोवाक्काय लक्षण इति। सकलभिर्युक्त्यर्थपरिसमाप्तिं प्रचिकटयिषयाऽऽहसेसाइंदाराई, ताइं जाई हवंति पुढवीए। एवं वणस्सईए, निज्जुत्ती कित्तिया एसा // 151 // उत्कव्यतिरित्कशेषाणि तान्येव द्वाराणि यानि पृथिव्यामभि हितानि ततस्तद्वाराभिधानाद्वनस्पतौ नियुक्तिः कीर्तिताव्या वर्णितेति। आचा० १श्रु०१ अ०५ उ०। ('आहार' शब्दे द्वितीयभागे 462 पृष्ठे तदाहारप्रकारः / ) सांप्रतं सूत्रानुगमेऽ स्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुचारणीयम् तचेदम्तंणो करिस्यामि समुट्ठाण, मत्तामइमं, अभयं विदित्ता, तंजेणो करए, एसोवरए, एत्थोवरए, एस अणगारे त्ति पवुबई। (सू०३९) अस्य चानन्तरपरम्परादिसूत्रौः सम्बन्धः प्राग्वद्वाच्यः उक्तं प्राक् 'सातन्वेषिणो हि वनस्पतिजन्तूनां दुःखमुदीरयन्ति, ततश्च तन्मूलमेव दुःखगहने संसारसागरे भ्राम्यन्ति सत्त्वाः इत्येवं विदितकटुकविपाकः समस्तवनस्पतिसत्त्वविपयविमर्दनिवृतिमान्यन्तिकीमात्मनिदर्शयन्नाह तत्-वनस्पतीनां दुःख महं दृष्टप्रत्यपायो न करिष्ये, यदिवा-तद्दुःखोत्पतिनिमित्त भूतं वनस्पतावारम्भं छेदनभेदनादिरूपं नो करिष्ये / मनोवाकायैः तथाऽपरैर्न कारयिष्णे, तथा कुर्वतश्चान्यान्ननुमंस्ये, किं कृत्वेति दर्शयति-सर्वज्ञोपदिष्टमार्गानुसृत्या, सम्यक् प्रव्रज्योत्थानेनोत्थाय समुत्थाय, प्रव्रज्यां प्रतिपद्येत्यर्थः, तदेवं वर्जित सकलसावद्यारम्भकलापः संस्तद्वनवनस्पतिदुःखं तदारम्भंवा नो करिष्यामीति, अनेन च संयमक्रिया दर्शिता, न च क्रियात एव मोक्षावाप्तिः, किं तर्हि ? ज्ञानक्रियाभ्याम्, तदुत्कम्-"नाणं किरियारहियं, किरियामेत्तं चादोऽवि एगन्ता। न समत्था दाउंजे, जम्ममरणदुक्खदाहाई।।१।।" यत एवमतो विशिष्टमोक्ष कारणभूतज्ञानप्रतिपिपादयिषयाऽऽह- 'भत्ता मइम' मत्वाज्ञात्या-अवबुध्य यथावत् जीवान्, मतिरस्यास्तीति मतिमान्मतिमानेवोपदेशा) भवतीत्यतस्तद् द्वारेणैव शिष्यामन्त्राणम्, हे मतिमन् ! प्रवज्यां प्रतिपद्य जीवादिपदार्थाश्च ज्ञात्वा मोक्ष मवाप्नोतीति, सम्यग् ज्ञानपूर्विका हि क्रियाफलवतीति दर्शितं भवति / पुनरौवाह- 'अभयं विदित्ता' अविद्यामानं भयमस्मिन् सत्त्वानामित्यभयः-संयमः, सच सप्तदशविधानस्तंचाभयं सर्वभूतपरिपालनात्मकं संसारसागरान्निहिकं विदित्वा वनस्पत्यारम्भान्निवृत्तिर्विधेयेति। एतदेव दर्शयितुमाह - 'तं जे नो करए' इत्यादि, तं-वनस्पत्यारम्भं यो विदिततदारम्भ कटुकविपाकः नो कुर्यात् तस्य प्रतिविशिष्टेष्टफलावाप्ति नान्यस्यान्धमूढया प्रवर्तमानस्य, अभिलषितविप्रकृष्टस्थान प्राप्तिप्रवृत्तान्धक्रियाव्याघातवदिति मन्तव्यम् ज्ञानमपि क्रियाहीनं न मोक्षाय, गृहान्तर्दह्यमाननिनङ पङ्गुचक्षुर्ज्ञान वदिति, एवं ज्ञात्वा अभ्युपेत्य च तत्परिहाराः कर्त्तव्य इति दर्शितं भवति। एवं यः सम्यग्ज्ञानपूर्विकां निवृत्तिं करोतिएव समस्तारम्भनिवृत्त इति दर्शयति-'एसोवरए ति एष एव सर्वस्मादारम्भावनस्पतिविषयादुपरतो यो यथावज्ज्ञात्वाऽऽ रम्भं न करोतीति, स पुनरेवविधनिवृत्तिमाक्कि शाक्यादिष्वपि संभवत्युतेहैव प्रवचन इति दर्शयति-'एत्थोवरए' त्ति एतस्मिन्नेव जैनेन्द्र प्रवचने परमार्थत उपरतो नान्यत्र / यथा प्रतिज्ञातनिरवद्यानुष्ठायित्वादुपरतव्यपदेशभाग्भवति, नशेषाः शाक्यादयः, तद्विपरीतत्वात् / एष एव च सम्पूर्णानगार व्यपदेशमश्नुते इति दर्शयति- 'एस अणगारे त्ति पवुच्चइ एषो ऽतिक्रान्तसूत्रार्थव्यवस्थितः, अविद्यमानागारोऽनगारः प्रकर्षण उच्यतेप्रोच्यते इति, किं कृतः प्रकर्षः, अनगारव्यपदेशकारण भूतगुणकलापसंबन्धकृतः प्रकर्षः, इतिशब्दोऽनगारव्यपदेश कारणपरिसमाप्तिद्योती, एतावदनगारलक्षणं नान्यदिति। ये पुनः प्रोज्झितपारमार्थिकानगारगुणाः शब्दादीन्विषयानङ्गी कृत्य प्रवर्तन्ते ते तु नापेक्षन्ते वनस्पतीन् जीवान, यतो भूयांसः शब्दादयो गुणाः वनस्पतिभ्य एव निष्पद्यन्ते, शब्दादिगुणेष्वेव वर्तमाना रागद्वेषविषमविषविघूर्णमानलोललोचना नरकादि चतुर्विधगत्यन्तः पातिनो बोद्धव्यास्तदन्तः पातिन एव च शब्दा दिविष्याभिष्वङ्गिणो भवन्तीति। आचा०१ श्रु०१ अ०५ उ०। वणस्सइंन हिंसंति, मणसा वयसॉ कायसा। निविहेण करणजोएणं, संजया सुसमाहिआ॥४०॥ वणस्सइं विहिंसंतो, हिंसई अतयस्सिए।
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________________ वणप्फ 806 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वणप्फइ तसे अविविहे पाणे, चक्खुसे अचकुखसे / / 1|| करोति, कायेन शब्दादिविषयदेश मभिसर्पति, एवं यो ह्यगुप्तो भवति तम्हा एअंविआणिता, दोसं दुग्गइवडणं। सोऽनाज्ञायां वर्तते, न भगवत्प्रणीतवचनानुसारीति यावदिति। वणस्सइसमारंभ, जाव जीवाइ वजए॥४२॥ एवंगुणश्च यत् कुर्यात्तदाह'वणस्सइ' इत्यादि सूत्रायं वनस्पेतरभिलापेन ज्ञेयम्, ततश्चैका- | पुणो पुणो गुणासाए वंकसमायारे। (सू०४३) दशस्थानविधिरप्युत्क एव // 40 // 41 // 42 / / दश०६ अ०२ उ०। ततश्चासावसकृच्छब्दादिगुणलुब्धो न शक्नोत्यात्मानं शब्दादिगृद्धे(अस्यार्थस्य प्रसिद्धये गतप्रत्यागतलक्षणमितरे तरावधारणफलं निवर्तयितुम्, अनिवर्तमानस्य पुनःपुनर्गुणास्वादो भवति, क्रियासातत्येन सूत्रम्--तच्च सव्याख्यं 'गुण' शब्दे चतुर्थ भागे 608 पृष्ठे गतम्।) अत्र शब्दादिगुणानास्वादियतीत्यर्थः, तथा च यादृशो भवति तद्दर्शयति - कश्चियोद्यचञ्चुराह-यो गुणेषु वर्तते स आवर्ते वर्तत इति साधु, यः वक्रः--असंयमः कुटिलो नरका दिगत्याभिमुख्यप्रवणत्वात्समाचरणंपुनरावर्ते वर्तते नासौ नियमत एव गुणेषु वर्तते यस्मात्साधवो वर्तन्त समाचारः अनुष्ठानम्, वक्रः समाचारो यस्यासौ वक्रसमाचारः-असंयआवर्ते न गुणेषु, तदैतत् कथमिति ? अत्रोच्यते-सत्यम् आवर्ते यतयो मानुष्ठायीत्यर्थः, अवश्यमेव शब्दादिविषयाभिलाषी भूतो पमईकारीवर्तन्ते न गुणेषु, किं तु-रागद्वेषपूर्वकं गुणेषु वर्तनमिहाधिक्रियते, तच त्यतो वक्रसमाचारः / प्राक् शब्दादिविषय लवसमास्वादनाद् गृद्धः साधूनां न संभवति तदभावात्, आवर्तोऽपि संसरणरूपो दुःखात्मको न पुनरात्मानमाचारयितुमसमर्थत्वाद पथ्याम्रफलभोजिराजवद्विनाशमाशु संभवति, सामान्यतस्तु संसारान्तः पातित्वं सामान्यशब्दा दिगुणोप संश्रयत इति। लब्धिश्च संभवत्येवातो नोपलब्धिः प्रतिषिध्यते, राग परिणामो द्वेष एवं चासौ नितरां जितः शब्दादिविषयसमास्वादनात् परिणामो वा यस्ता स प्रतिषिध्यते, तथा चोत्कम् - "कन्नसोक्खेहिँ 'खंतपुत्तो व्य' इदमाचरतिसद्देहिं, पेम्मं नाभिनिवेसए'' इत्यादि तथा 'न शक्यं रूपमद्रष्टुं, पमत्ते अगारमावसे। (सू.४४) चक्षुर्गोचरमागतम्। रागद्वेषौ तु यौ तत्र, तौ बुधः परिवर्जयेत् // 1 // " प्रमत्तो विषयविषमूर्छितः अगारं-गृहमावसति, योऽपि द्रव्यलिङ्गकथं पुनर्गुणभूयस्तवं वनस्पतिभ्य इति प्रदर्श्यते वेणुवीणापटहमुकुन्दादी समन्वितः शब्दादिविषप्रमादवान् असावपि विरतिरूप भावलिङ्गनामातोद्यविशेषाणां वतस्पतेरुत्पत्तिः, ततश्चमनोहराः शब्दा निष्पद्यन्ते, रहितत्वात् गृहस्थ एवेति। अन्यतीर्थिकाः पुनःसर्वदा सर्वथाऽन्यथावादिनोऽन्यथाप्राधान्यमत्र वनस्पतेर्विवक्षितम्, अन्यथा तु तन्त्रीचर्मपाण्या दिसंयो कारिण इति दर्शयितुमाह -- गाच्छब्दनिष्पत्तिरिति, रूपं पुनः काष्ठकर्मस्त्रीप्रतिमादिषु गृहतोरण लज्जमाणा पुढो पास, अणगारामो त्ति एगे पवदमाणा जमिणं वेदिकास्तम्भादिष च चक्षु रमणीयम्, गन्धाः अपि हि कर्पूरपाटला विरूवरूवेहिं सत्थेहिं वणस्सइकम्म समारम्भेणं वणस्सइसत्थं लवलीलवङ्गकेतकीसर सचन्दनागुरुकक्कोलकेलाजातीफलपत्रिका समारभमाणा अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिसंति, तत्थ खलु केसरमासीत्वकूप त्रादीनांसुरभयो गन्धेन्द्रियावादकारिणः प्रादुर्भवन्ति, भगवया परिण्णा पवेदिता, इमस्स चैव जीवियस्स परिवंदणमा रसास्तु विंसमृणालमूलकन्दपुष्पफलपत्रकण्टकमञ्जरीत्वगडरकिस णणपूयणाए जातीमरणमोयमाए दुक्खपडिघायहेउं से सयमेव लयारविन्दकेसरादीनां जिह्वेन्द्रियप्रह्लादिनो निष्पद्यन्ते अतिबहव इति, वणस्सइसत्थं समारंभइ अण्णेहिं वा वणस्सइसत्थं समारंभा तथा स्पर्शा पधिनीपत्रकमलदलमृणालवल्कल दुक्लशाटकोपधान वेइ अण्णे वा वणस्सइसत्थं समारंभमाणे समणुजाणइ, तं से तूलिकप्रच्छादनपटादीनां स्पशनेन्द्रियसुखाः प्रादुःष्यन्ति, एवमेतेषु अहियाए तं से अबोहिए से तं संबुज्झमाणे आयाणीयं समुट्ठाण वनस्पतिनिष्पन्नेषु शब्दादिगुणेषु यो वर्तते स आवर्ते वर्तते, यश्च सोचा भगवओ अणगाराणं वा अंतिए इहमेगेसिं णायं भवति / आवर्तवर्ती स रागद्वेषात्मकत्वात् गुणेषु वर्तत इति। स चावर्तो नामादि एस खलु गंथे एस खलु मोहे एस खलु मारे एस खलु णरए भेदाच तुर्दा / नामस्थापने क्षुण्णे, द्रव्यावर्तः। (अत्रास्थापाठ 'आवट्ट' इन्चत्थं गढिए लोए जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं वणस्सइकम्म शब्दे द्वितीय भागे 436 पृष्ठे गतः।) इह च भावावर्तेनाधिकारोन शेषैरिति / समारंभेणं वणस्सइसत्थं समारंभमाणे अण्णे अणेगरूवे पाणे (अथ य एते गुणाः संसारावर्तकारणभूताः शब्दादयो वनस्पतेरभिनिवृत्ता विहिंसंति। (सू० 45) स्ते किं नियतदिग्देशभाजः उत सर्वदिक्षु इति, सूत्राम्-(४१) 'गुण' शब्दे प्राग्वत्ज्ञेयम्, नवरं वनस्पत्यलापो विधेय इति। चतुर्थभागे 108 पृष्ठे गतम्।) साम्प्रतं वनस्पतिजीवास्तित्वे लिङ्गमाहएवं विषयलोकमाख्याय विवक्षितमाह से बेमि इमं पि जाइधम्मयं एवं पि जाइधम्मयं, इमं पि एस लोए वियाहिए एत्थ अगुत्ते अणाणाए। (सू०५२) दुद्धिधम्मयं एयं पि वुद्धिधम्मयं, इमं पि चित्तमंतयं एवं पि 'एष इति' -- रूपरसगन्धस्पर्शशब्दविषयाख्यो लोको व्याख्यातः, / चित्तमंतयं, इमं पिछिण्णं मिलाइ एयं पिछिण्णं मिलाइ, लोक्यते-परिच्छिद्यते इति कृत्वा, एतस्मिंश्च प्रस्तुते शब्दादिगुणलोके इमं पि आहारगं एयं पि आहारगं, इमं पि अणिचयं एवं गुप्तो यो मनोवाकयैर्मनसा द्वेष्टिरज्यते वा, वाचा प्रार्थनं शब्दादीनां / पि अणिचयं, इमं पि असासयं एवं पि असासयं, इमं पि
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________________ वणप्फइ 807 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वणप्फ चओवचइयं एवं पिचओवचइयं, इमं पि विपरिणामधम्मयं एयं | तथैतदपि वनस्पतिशरीरमनित्यं नियतायुष्कत्वात्, तथा हि-अस्य पि विपरिणामधम्मयं / (सू०४६) दशवर्षसहस्राणि उत्कृष्टमायुः / तथा यथेदं मनुष्यशरीर मशाश्वतं'सेवेमी' त्यादि सोऽहम्-उपलब्धतत्त्वो ब्रवीमि, अथवा वनस्पतिचैतन्य प्रतिक्षणमावीचीमरणेन मरणात्तथैतदपि वनस्पति शरीरमिति / तथा प्रत्यक्षप्रमाणसमधिगम्यमानस्वरूपं यत्तदहं ब्रवीमि, यथा प्रतिज्ञातमर्थ यथेदमिष्टानिष्टाहारादिप्राप्तया चयापचयिकं वृद्धिहान्यात्मकं तथैतदपि दर्शयति- 'इमं पिजाइधम्मयं ति' इहोपदेशदानाय सूत्राारम्भस्तद्योग्यश्च इति / तथा यथेदं मनुष्यशरीरं विविधपरिणामः, तत्तद्रोगसंपत्ि पुरुषो भवत्यतस्तस्य सामर्थ्येन संनिहितत्वात्तच्छरीरं प्रत्यक्षासन्नवाचि- पाण्डुत्वोदरवृद्धिशोफकृश त्वाङ्गलिनाशिकाप्रवेशादिरुपो बालादिरुपो नेदमा परामृशति / इदमपि मनुष्यशरीरं, जननं-जातिरुत्पत्तिस्तर्द्ध- वा, तथा--रसायन स्नेहाद्युपयोगाद्विशिष्टकान्तिबलोपचयादिरूपो मकम् / एतदपि वनस्पति शरीरं तद्धर्मकंतत्स्वभावमेव, इतिपूर्वको- विपरिणामः तद्धर्मकम्-तत्स्वभावकं तथैतदपि वनस्पतिशरीरं तथा ऽपिशब्दः सर्वत्र यथाशब्दार्थे, द्वितीयस्तु समुचये व्याख्येयः, ततश्चा- विधरोगोद्भवात्पुष्पपत्रफलत्वगाद्यन्यथा भवनात्, तथा विशिष्ट दौहयमर्थः-यथा मनुष्य शरीरं बालकुमारयुववृद्धतापरिणामविशेषवत् प्रदानेन पुष्पफलाधुपचयाद्विपरिणामधर्मकम् / एवमनन्तरो त्कधर्मचेतनावत् सदाधिष्ठितं प्रस्पष्टचेतनाकमुपलभ्यते, तथेदमपि वनस्पति- कलापसद्भावादसंशयं गृहाणैतत्-सचेतनास्तरव इति। शरीरम्, यतो जातः केतकतरुलिको युवा वृद्धश्च संवृत्त इति, वणस्सई चित्तमंतमक्खाया अणेगजीवा पुढोसत्ता अन्नत्थ अतस्तुल्यत्वादेतदपि जातिधर्मकम्, न च कश्चिद्विशेषोऽस्ति, येन सत्थपरिणएणं॥ सत्यपिजातिधर्मत्वे मनुष्यादिशरीरमेव सचेतनन वनस्पतिशरीरमिति / वनस्पतिश्चित्तवानाख्यातः, इत्याद्यपि द्रष्टवयम् / विशेषस्त्वभिननु च जातिधर्मत्वं केशनखदन्तादिष्व यस्ति अव्यभिचारी च लक्षणं धीयते-सात्मकं जलम्, भूमिखातस्वाभाविक संभवात् दर्दुरवत् / भवत्यस्ति च व्यभिचारः तस्माद युक्तं कल्पयितुं जातिधर्मत्वं | सात्मकोऽग्निः आहारेण वृद्धिदर्शनात, बालकवत् / सात्मकः पवनः, जीवलिङ्गमिति, उच्यते सत्यमस्ति जननमात्रम्, किंतु-मनुष्यशरीर- अपरप्रेरिततिर्यगनियमितादिग्गम नाद्, गोवत्। चेतनास्तरवः सवत्वगप्रसिद्ध-बालकुमारकाधवस्थानामसंभवः केशादिष्वस्ति स्फुटः, पहरणे मरणाद् गर्दभवत्। तस्मादसमञ्जमेतद्, अपि च केशनखं चेतनावत्पदार्थाधिष्ठितशरीरस्थं वनस्पतिजीवविशेषप्रतिपादनायाहजातमित्युच्यते, वर्द्धत इति वा, न पुनस्त्वयैवं तरवोऽपि चेतनावत्प- तंजहा–अम्गबीया १मूलबीया२पोरबीया३खंघबीया।बीयरहा दार्थाधारस्था इष्यन्ते, त्वन्मते भुवोऽचेतनात्वात्तस्मादयुक्तमिति / 5 सम्मुच्छिमा 6 तण-लया-वणस्सइकाइया सबीया अथवा-जातिधर्मत्वादीनि समुदितानि सूत्रोत्कान्येक एव हेतुः, न पृथक् चित्तमंतमक्खाया अणेगजीवापुढोसत्ता अन्नत्थसत्थपरिणएणं / / 6 / / हेतुता, न च समुदायहेतुः केशादिष्वस्ति तस्माददोष इति। तथा यथेदं 'तं जहा-अग्गवीया' इत्यादि तद्यथेत्युपन्यासार्थः, अग्रबीजा इतिमनुष्यशरीरकमनवरतं बालकुमाराद्यवस्थाविशेषैर्वर्द्धते, तथैतदपि अगं बीजं येषां ते अग्रबीजाः कोरिण्टकादयः, एवं मूलं बीजं येषां ते वनस्पतिशरीरमङ्करकिशलयशाखाप्रशास्त्रादिभिर्विशेषैर्वर्द्धते इति। तथा मूलबीजाः उत्पलकन्दादयः, पर्व बीजं येषां ते पर्वबीजाः इक्ष्वादयः यथेदं मनुष्यशरीरं चित्तवदेवं वनस्पति शरीरमपि चित्तवत्। कथम् ?, स्कन्धो बीजं येषांते स्कन्धबीजाःसल्लक्यादयः, तथा बीजाद्रोहन्तीति चेतयति येन तच्चित्तम्-ज्ञानम्, ततश्च यथा मनुष्यशरीरं ज्ञानेनानुगतमेवं बीजरुहाः शाल्यादयः, संमूर्च्छन्तीति संमूर्छिमाः प्रसिद्धबीजाभावेन वनस्पति, शरीरमपि, यतो धात्रीपुन्नागादीनां स्वापविबोधसद्भावः, पृथिवीवर्षादिसमुद्भवास्तथाविधास्तृणादयः / न चैते न संभवन्ति तथाऽधोनिखात द्रविणराशेः स्वप्ररोहणावेष्टनं प्रावृडजलधरनिनाद- दग्धभूमावपि संभवात्, तथा तृणलतावनस्पतिकायिका इति, अत्रा शिशिरवायु संस्पर्शादडरोद्भवः तथा मदमदनसङ्गस्खलगतिविघूर्णमान तृणलता ग्रहणं स्वगतानेकभेदसंदर्शनार्थम्, वनस्पतिकायिकग्रहणं सूक्ष्म लोललोचनविलासिनीसन्नूपुरसुकुमारचरणताडनादशोकतरोः बादराद्यशेषवनस्पतिभेदसंग्रहार्थम्, एतेन पृथिव्यादीनामपि स्वगताः पल्लवकुसुमोद्गमः, तथा सुरभिसुरागण्डूषसेकाद्वकुलस्य स्पष्ट प्ररोहि- भेदाः पृथिवीशर्करादयस्तथाऽवस्था महिकादयः, तथा अङ्गारज्वाकादीनांच हस्तादिसंस्पर्शात्संकोचिकादिका परिस्फुटा क्रियोपलब्धिः / लादयः तथा-झङ्कामण्डलिकादयो भेदाः पृथिवीशर्करादयस्तथाऽवस्था न चैतदभिहिततरुसंबन्धिक्रियाजलं ज्ञानमन्तरेण घटते, तस्मात्सिद्ध ये महिकादयः तथा-अङ्गार ज्वालादयः तथा-झङ्कामण्डलिकादयो चित्तवत्त्वं वनस्पतेरिति / तथा यथेदं छिन्नं म्लायति तथैतदपि छिन्नं भेदाः सूचिता इति / सबीजाश्चित्तवन्त आख्याता इति, एते ह्यनन्तम्लायति, मनुष्य शरीरं हि हस्तादिच्छिन्नं म्लायति-शुष्यति, तथा- रोदिता वनस्पति विशेषाः सबीजाः-स्वस्वनिबन्धनाश्चित्तवन्तः आत्मतरुशरीरमपि पल्लवफलकुसुमादिच्छिन्नं शोषमुपगच्छत् दृष्टम्, ना वन्त आख्याताः कथिताः ! एते च अनेकजीवा इत्यादि ध्रुवगण्डिका चाचेतनानामयं धर्म इति। तथा यथेदं मनुष्यशरीरं स्तन क्षीरव्यञ्ज- पूर्ववत् / सबीजाश्चित्तवन्त आख्याता इत्युत्कम् अत्रच भवत्याशङ्का किं नोदनाद्याहाराभ्यवहारादाहारकं तथैतदपि व नस्पति शरीर भूजला- बीजजीव एव मूलादिजीवो भवत्युतान्यस्तस्मिन्नुत्क्रान्ते उत्पद्यते इति ? द्याहाराभ्यवहारकम्, न चैतदाहारकत्वसमवेततानां दृष्टप्, अतस्तद्भा अस्य व्यपोहायाऽऽहवात्सचेतत्वमिति। तथा यथेदं मनुष्यशरीरमनित्यकं न सर्वदाऽवस्थायि बीए जोणिभूए, जीवो वुक्कमइ सो य अन्नो वा।
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________________ वणप्फ 808 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वणप्फइ जो विय मूले जीवो, सो विय पत्ते पढमयाए॥२३२। बीजे योनिभूते इति-बीजं हि द्विविधं भवति योनिभूतम्, अयोनिभूतं च। अविध्वस्तयोनि, विध्वस्तयोनिचा प्ररोहसमर्थं तदसमर्थं चेत्यर्थः। तत्रा योनिभूतं सचेतनमचेतनं च, अयोनिभूतं तु नियमादचेतनमिति। तत्रा बीज योनिभूते इत्यनेनायोनिभूतस्य व्यवच्छेदमाह-तत्रोत्पत्यसंभवाद, अबीजवादित्यर्थः / योनिभूतेतु योन्यवस्थे बीजे, योनिपरिणा ममत्यजतीत्युत्कं भवति। किमित्याह-जीवो व्युत्क्रामति उत्पद्यते स एव पूर्वको बीजजीवः बीजनाम गोत्रो कर्मणि वेदयित्वा मूलादिनामगोत्रो चोपनिबध्य, अन्यो वा पृथिवीकायि कादिजीव एवमेव, 'योऽपि च मूले जीव' इति य एव मूलतया परिणमते जीवः सोऽपि च पो प्रथमतयेतिस एव प्रथमपत्रतयाऽपि परिणमतइत्येकजीवकर्तृक मूलप्रथमपो इति! आह-यद्येवम्-"सव्वो वि किसलओ खलु, उम्गममाणो अणंतओ भणिओ' इत्यादिकथन विरुध्यते ? इति, उच्यते-इह बीजोजीवोऽन्यो वा बीजमूलत्वेनोत्पद्य तदुच्छनावस्थां करोति, ततस्तदनन्तरभाविनी किशलयावस्थां नियमेनानन्ता जीवाः कुर्वन्ति, पुनश्च तेषु स्थितिक्षणात्परिणतेष्वसावेव मूल जीवोऽनन्तजीवतनुं परिणमय्य स्वशरीरतया तावद्वर्द्धते यावत् प्रथमपत्रामिति न विरोधः। अन्ये तुव्याचक्षते-प्रथमपत्रकमिह याऽसौ बीजस्य समुच्छूनावस्था, नियमप्रदर्शनमेतत्, शेष किसलयादि सकलं नावश्यं मूलजीवपरिणामाविर्भावितामिति मन्तव्यम् / ततश्च-'"सव्वो वि किसलयो खलु, उग्गमाणो अणंतओ भणिओ' इत्याद्यप्यविरुद्धं मूलपअनिर्वर्तनारम्भ काले किसलयत्वाभावादिति गाथार्थः। एतदेवाह भाष्यकार :विद्धत्थाऽविद्धत्था,जोणी जीवाण होइ नायव्या। तत्थ अविद्धत्थाए, वुक्कमई सो य अन्नो वा // 18 // विध्वस्ताऽविध्वस्ता-अप्ररोहप्रदोहसमर्था योनिर्जीवानां भवति ज्ञातव्या, तत्राविध्वस्तायां योनौ व्युत्क्रामति स चान्यो वा, जीव इति / गम्यत इति गाथार्थः। जो पुण मूले जीवो, सो निव्वत्तेइ जा पढमपत्तं / कंदाइजाव बीयं, सेसं अन्ने पकुवंति // 56 // यः पुनर्मूले जीवो बीजगतोऽन्यो वा स निर्वर्त्तयति यावत् प्रथमपत्रं तावदेक एवेति, अत्रापि भावार्थः पूर्ववदेव। कन्दादियावद्वीजं शेषमन्ये प्रकुर्वन्ति, वनस्पतिजीवा एव, व्याख्याद्वय पक्षेऽप्येतदविरोधि, एकतः समुच्छनावस्थाया एव प्रथमपातया विवक्षितत्वात्तदनुकन्दादिभावतः अन्या कन्दा देवनस्पतिभेदत्वात्तस्य च प्रथमपत्रोत्तरकालमेव भावादिति गाथार्थः। अतिदेशमाहसेसं सुत्तप्पासं, काए काए अहम बूया। अज्झयणत्था पंच य, पगरणपयवंजणविसुद्धा // 6 // शेष सूत्रस्पर्शम् उत्कलक्षणं काये कार्य-पृथिव्यादो यथाक्रमम्यथापरिपाटि ब्रूयात अनुयोगधरएव, न केवलं सूत्रास्पर्शमेव, किं तुअध्ययनार्थान् पञ्च च प्रागुपन्यस्तान् जीवाजीवाभिगमादीन् प्रकरणपदव्यञ्जनविशुद्धान ब्रूयात, सूत्राएवं जीवाभिगमः काये काये इत्यनेनैव लब्ध इति पञ्चग्रहणम्, अन्यथा षडिहार्थाधिकारा इति / प्रक्रियतेऽर्थोऽस्मिन्निति प्रकरणम्, अनेकार्थाधिकारवत्कायप्रकरणादि, पदम्सुवन्तादि, कादीनि-व्यञ्जानि, एभिर्विशुद्धान्ब्रूयादिति गाथार्थः / दश० 4 अ०। विशे०। स्था०। दर्श० आचा.। सूत्रका व्य०।०। एवं वनस्पतेश्चैतन्यं प्रदर्श्य तदारम्भे बन्धं तत्परिहाररुपविरत्या सेवनेन च मुनित्वं प्रतिपादयन्नुपसंजिहीर्षुराहएत्थं सत्थं समारंभमाणस्स इचेति आरंभा अपरिण्णता भवंति, एत्थ सत्थं असमारंभमाणस्स इचेते आरंभा परिण्णाया भवंति, तपरिण्णाय मेहावीणेव सयं वणस्सइसत्थं समारंभेजाणेवsण्णेहिं वणस्सइसत्थं समारंभावेजा णेवण्णे वणस्सइसत्थं समारंभंते समणुजाणेजा जस्सेते वणस्सति सत्थसमारंभा परिण्णाया भवंति से हु मुणी परिण्णायकम्मे त्तिबेमि। (सू०१७) 'एत्थसत्थ' मित्यादि एतस्मिन् वनस्पतौ शत्रं द्रव्यभावा ख्यमारभमाणस्येत्येते आरम्भा अपरिज्ञाता अप्रत्याख्याता भवन्ति, एतस्मिंश्च वनस्पतौ शस्त्रमसमारभमाणस्येत्येते आरम्भाः परिज्ञाताः प्रत्याख्याता भवन्तीति पूर्ववचर्चः यावत् स एव मुनिः परिज्ञातकर्मेति ब्रवीमि पूर्ववदिति / आचा०१ श्रु०१ अ०५ उ01 (वनस्पतिकायप्रतिसेवना 'मूलगुणपडिसेवणा' शब्दे अस्मिन्नेव भागे 358 पृष्ठेउत्का।) (वनस्पतयः कंकालं सर्वाल्पाहारकाः इति'आहार' शब्दे द्वितीय भागे 51 पृष्ठउत्कम्।) उत्पलादिजीवानाम् - उप्पल सालु पलासे, कुंभी नाली य पउमकण्णी य। नलिण सिव लोग काला, लंभि य दस दो य एकारे ||5|| 'उप्पले त्यादि, उत्पलार्थः प्रथमउद्देशकः 1, सालु' त्ति-सालूकम्उत्पलकन्दस्तदर्थो द्वितीयः 2, 'पलासे' ति पलाश:-किंशुकस्तदर्थस्तृतीयः 3 'कुंभि' त्ति वनस्पतिविशेष स्तदर्शश्चतुर्थः 4 'नाडी यत्ति नाडीवद्यस्य फलानि सनाडीको-वनस्पतिविशेष एव तदर्थः पञ्चमः 5 'पउम तिपद्यार्थः षष्ठः 6, कण्णी यत्ति कर्णिकार्थः सप्तमः ७'नलिण' त्तिनलिानार्थोऽष्टमः, यद्यपि चोत्पलपद्मनलिनानां नाम कोशे एकार्थतयोच्यते तथाऽपीह रुढे र्विशेषोऽवसेयः, 'सिव' त्ति शिवराजर्षिवक्तव्यतार्थो नवमः 6, 'लोग' त्ति लोकार्थो दशमः 10, 'कालालभिए' त्ति कालार्थ एकादशः 11 आलभिकायां नगर्यां यत्प्ररूपितं तत्प्रतिपादक उद्देशकोऽप्यालाभिक इत्युच्यते, ततोऽसौ द्वादशः, 12 'दस दो य एक्कारित्तिद्वादशोद्देशका एकादशेशते भवन्तीति। तत्र प्रथमोद्देशकद्वार संग्रहगाथा वाचनान्तरे दृष्टास्ताश्चेमाः"उववाओ १परिमाणं 2, अवहारु ३च्चत्त 4 बंध 5 वेदे या 6 /
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________________ वणप्फइ 809 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वणप्फइ उदये 7 उदीरणाए८, लेसाह दिट्ठी य 10 नाणी य 11 // 1 // जोगु 12 वओगे 13 वण्ण 14 र-समाइ 15 ऊसासगे य 16 आहारे 17 / विरई 18 किरिया 16 बंधे 20, सण 21 कसायि 22 त्थि 23 बंधे य 24 / / 2 / / सणिणं 25 दिय 26 अणुबंधे 27, संवेहा 28 हार 26 ठिइ 30 समुग्धाए 31 / चयणं 32 मूलादीसुय, उववाओसव्वजीवाणं॥३॥" एतासांचार्थ उद्देशकार्थाधिगमगम्य इति। आचा०१ श्रु०१ अ०५ उ०। उत्पलजीवानाम् - तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे. जाव एवं वयासी उप्पलेणं मंते ! एगपत्तए किं एगजीवे अणेगजीवे ?, गोयमा ! एगजीवे णो; अणेगजीवे, तेण परं जे अण्णे जीवा उववजंति ते णं णो एगजीवा अणेगजीवा। तेणं भंते ! जीवा कओहिंतो उववजंति, किं णेरइएहिंतो उववजंति, तिरियमणुस्सदेवेहिंतो उववजंति?, गोयमा ! णो णेरइएहिंतो उववजंति, तिरिक्खजोणिएहिंतो वि उववजंति मणुस्सेहिंतो वि उववजंति देवेहिंतो वि उववजंति, एवं उववाओ भाणियव्वो जहा बक्कंतीएवणस्सइकाइयाणं.जाव ईसाणेति 1 // तेणं भंते ! जीवा एगसमएणं केवइया उववजंति?, गोयमा! जहण्णेणं एक्को वा दो वा तिणि वा उक्कोसेणं संखेजा वा असंखेज्जा वा उववजंति 2 // तेणं भंते ! जीवा समए समए अवहीरमाणा 2 केवइकालेणं अवहीरंति?, गोयमा! तेणं असंखेजा समए समए अवहीरमाणा अहीरमाणा असंखेजाहिं उस्सप्पिणीओसप्पिणीहि अवहीरंतिणो चेवणं अवहिया सिया 3 / 'उप्पलेणं भंते एगपत्तए' इत्यादि, उत्पलं-नीलोत्पलादिएकं फां यत्र तदेकपत्रकम्, अथ च एकंचतत्पत्रं चैकपत्रंतदेवैकपत्रकं, तत्र सति, एकपत्रकं चेह किसलयावस्थाया उपरिद्रष्टव्यम्, 'एगजीवे' त्ति / यदा होकपत्रावस्थं तदेवजीवं तद्यदा तु द्वितीयादिपत्रां तेन समारब्धं भवति तदा नैकप त्रावस्था तस्येति बहवो जीवास्तत्रोत्पद्यन्त इति, एतदेवाह'तेण परमि' त्यादि। तेण परं' ति ततः प्रथम पत्रात्परतः। 'जे अण्णे जीवा उववजंति' ति। येऽन्ये प्रथमपत्रव्यतिरिक्ता जीवा जीवाश्रयत्वात् पत्रादयोऽवयवाः उत्पद्यन्ते तेनैकजीवाः-नैकजीवाश्रयाः किं त्वनेकजीवाश्रया इति। अथवा-'तेणे त्यादि। तत एकपत्रात्परतः शेषपत्रादिष्वित्यर्थः, ये अन्ये जीवा उत्पद्यन्तेते नैकजीवानैककाः किं त्वनेकजीवाः-अनेके इत्यर्थः। अपहारबन्धद्वारेतेसिणं भंते ! जीवाणं के महालया सरीरोगाहणा पण्णत्ता, गोयमा! जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइमागं उक्कोसेणं साइरेगं जोअणसहस्सं ४ातेणं भंते ! जीवा णाणावरणिज्जस्स कम्मस्स किं बंधगा अबंधगा?, गोयमा ! णो अबंधगा बंधए बा बंधगा वा एवं. जाव अंतराइयस्स णवरं आउयस्स पुच्छा, गोयमा ! बंधए वा अबंधए वा बंधगा वा अबंधगा वा, अहवा-बंधए य अबंधए य, अहवा-बंधए य अबंधगाय,अहवा-बंधगा य अबंधगे य, अहवा-बंधगा य अबंधगा य 8, एए अट्ठभंगा 5 / 'तेणं भंते ! जीव त्ति ये उत्पले प्रथमपत्राद्यवस्थाया मुत्पद्यन्ते 'जहा वकंतीए' त्ति प्रज्ञापनायाः षष्ठपदे चैवमुपपातः --'जइ तिरिक्खजोणिएहिंतो उध्वजंति' किं एगिंदियतिरिक्ख जोणिएहिंतो उववजंति. जाव पंचिदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जंति ?, गोयमा ! एगिदियतिरिक्खजोणिएहितो वि उववजंति' इत्यादिएवं मनुष्यभेदाः वाच्याः'जइ देवेहिंतो उववजंति किं भवणवासी' त्यादि प्रश्नो निर्वचनं च ईशानान्त देवेभ्य उत्पद्यन्त इत्युपयुज्य वाच्यमिति, तदेतेनोपपात उत्कः / जहन्नेण एक्को वि' त्यादिना तु परिमाणम् / तेणं असंखेज्जा समए' इत्यादिनात्वपहार उत्कः,एवं द्वारयोजना कार्या३। उच्चत्वद्वारे 'साइरेगं जोयणसहस्सई ति तथाविधसमुद्रगोतीर्थ कादाविदमुञ्चत्वमुत्पलस्यावसेयम् 4, बन्धद्वारे-- 'बन्धए बंधयाव' ति। एकपत्रावस्थायां बन्धक एकत्वात्, ह्यादिपत्रावस्थाया ञ्च बन्धका बहुत्वादिति, एवं सर्वकर्मसु, आयुष्के तु तदबन्धा वस्थाऽपि स्यात, तदपेक्षयाच अबन्धकोऽपि अबन्धका अपि च भवन्तीति। एतदेवाह- 'नवरमि' त्यादि इह बन्धकाबन्धका पदयोरकत्वयोगे एकवचनेन द्वौ विकल्पौ, बहुवचनेन च द्वौ, द्विकयोगेतुयथायोगमेकत्वबहुत्वाभ्यां चत्वार इत्येवमष्टौ विकल्पाः। स्थापना१बन्धकः 15 बन्धकोऽबन्धकः 1 2 अबन्धकः 1 6 बन्धकोऽबन्धकाः 3 3 अबन्धकाः 3 8 बन्धकाः अबन्धका 3 एकसंयोगिभङ्गा 4 द्विकसंयोगिभङ्गाः वेदनद्वारेतेणं मंते ! जीवा णाणावरणिज्जस्स कम्मस्स किं वेदगा अवेदगा?, गोयमा ! णो अवेदगा वेदए वा वेदगा वा एवं०जाव अंतराइयस्स,तेणं भंते ! जीवा किं सायावेदगा असायावेदगा? गोयमा ! सायावेदए वा असातावेदए वा अट्ठ भना६॥ ते भदन्त ! जीवा ज्ञानवरणीयस्य कर्मणः किं वेदका अवेदकाः ?, अत्राापि एकपत्रातायामेकवचनान्तता अन्यत्रा तु बहुवचनान्तता, एवं यावदन्तरायस्य, वेदनीये सातासाताभ्यां, ततः परन्तु बहुवचनान्तता, वेदनं चानुक्रमोदितस्योदीरणोदी रितस्य वा कर्मणोऽनुभवः / उदयश्चानुक्रमोदितस्यैवेति वेदकत्वप्ररूपणेऽपि भेदेनोदयित्वप्ररूपणमिति। स्थापना१ सातावेदकः 1 5 सातावेदकोऽसातावेदकः 1 2 असातावेदकः 1 6 सातावेदकोऽसातावेदकाः 3 3 सातावेदकाः 3 7 सातावेदका असातावेदकः 1 4 असातावेदकाः 3 8 सातावेदकाः असातावेदकाः 3 एकसंयोगिभङ्गा 4 द्विकसंयोगिभङ्गाः
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________________ वणप्फइ 810- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वणप्फ तेसिणं भंते ! जीवा णाणावरणिज्जस्स कम्मस्स किं उदई अणुदई ? गोयमा! णो अणुदई, उदई वा उदइणो वा एवं. जाव अंतराइयस्स७ातेणं भंते ! जीवाणाणावरणिज्जस्स कम्मस्स किं उदीरगा अणुदीरगा ? गोयमा ! णो अणुदीरगा उदीरए वा उदीरगा वा एवं 0 जाव अंतराइयस्स णवरं वेदणिज्जा उवएसु अट्ठ भङ्गा। 'नो अणुदीरग' ति तस्यामवस्थायां तेषामनुदीरकत्वस्यास म्भवात्, 'वेयणिज्जाउएसु अट्ठ भङ्ग' त्ति वेदनीये साताऽसातापे क्षयाऽऽयुषि पुनरुदीरकत्वानुदीरकत्वापेक्षयाऽष्टौ भङ्गाः, अनुदीरकत्वं चायुष उदीरणायाः कादाचित्कत्वादिति। लेश्याद्वारे अशीतिर्भङ्गा कथम् - ते णं भंते जीवा किं कण्हलेस्सा नीललेस्सा काउलेस्सा तेउलेस्सा? गोयमा! कण्हलेसे वा० जाव तेउलेसे वा कण्हलेस्सावानीललेस्सा वा काललेस्सा वा तेउलेस्सा वा, अहवाकण्हलेस्से य नीललेस्से य एवं एए दुयासंयोगतियासं जोगचउक्कयसंजोगेणं असीतिभङ्गा भवन्ति / तेणं भंते! जीवा किं सम्मद्दिट्ठीणो सम्मामिच्छादिट्ठी मिच्छादिट्ठीवा मिच्छादिष्टि णो वा 10, ते णं भंते ! जीवा किं नाणी अण्णाणी ? गोयमा! णो णाणी अण्णाणी वा अण्णाण्णिो वा 11 / एककयोगे एकवचनेन चत्वारो बहुवचनेनापि चत्वार एव, द्विकयोगे तु यथायोगमेकवचनबहुवचनाभ्यां चतुर्भङ्गी, चतुर्णां च पदानां षडद्विकयोगास्तेच चतुर्गुणश्चतुविंशतिः, त्रिकयोगे तु त्रयाणां पदानामष्टौ भङ्गाः, चतुर्णां च पदानां चत्वारस्त्रिाक संयोगास्ते चाऽष्टाभिर्गुणिता द्वात्रिंशत्, चतुष्कसंयोगे तुषोडश भङ्गाः, सर्वमीलनेचाशीतिरिति। अत एवोक्तम् - 'गोयमा कण्हलेसे वे इत्यादि। भ०११श०। वर्णाऽऽदिद्वारेतेसि णं भंते ! जीवाणं सरीरगा कइवण्णा कइगंधा कइरसा कइफासा पण्णत्ता ? गोयमा ! पञ्चवण्णा दुगंधा पञ्चरसा अट्ठफासा पण्णत्ता, ते पुण अप्पणा अवण्णा अगंधा अरसा अफासा पण्णत्ता 141 / 15 // 'ते पुण अप्पणा अवण्ण' त्ति शरीराण्येव तेषां पञ्चवर्णादीनि ते पुनरुत्पलजीवाः 'अप्पण' त्ति स्वरूपेण, अवर्णा-वर्णादि वर्जिता अमूर्तत्वात्तेषामिति। उच्छासाऽऽदिद्वारेते णं भन्ते ! जीवा कि उस्सासा निस्सासा णो उस्सास णिस्सासा? गोयमा ! उस्सासए वा 1, णिस्सासए वा 2, णो उस्साणिस्सासए वा 3, उस्सासगावा ४,णिस्सासगावा 5, णो उस्सासणिस्सासगा वा 6, अहवा-उस्सासए य णिस्सासएय, अहवा-उस्सासए य, णो उस्साणिस्सासए य / अहवाणिस्सासए य, णो उस्सासणिस्सासए य 4, अहवा-उस्सासए य, नीसासएय,णा उस्सासणिस्सासएय। अट्ट भंगा एए छथ्वीसं मंगा भवन्ति 26 // 'नो उस्सासनिस्सासए' त्ति अपर्याप्तावस्थायाम् इह च षड् िवशतिभङ्गाः, कथम् ? एककयोगेएक्रवचनान्तास्त्रयः, बहुवचनान्त अपि त्रायः, द्विकयोगे तु यथायोगमेकत्व बाहुत्वाभ्यां तिस्रश्चतुर्भङ्गि इति द्वादश, त्रिकयोगे त्वष्टाविति। अत एवाह - "एते छव्दीसं भङ्गा भवन्तीति'। आहारकद्वारेते णं भंते ! जीवा किं अहारगा अणाहारगा ? गोयमा ! णो अणाहारगा, आहाराए वा अणाहारए वा, एवं अट्ठ भङ्गा १७।ते णं भंते ! जीवा किं विरया अविरया विरयाविरया ? गोयमा ! विरया णो विरयाविरया अविरए वा अविरए वा 181 ते णं भंते ! जीवा किं सकिरिया अकिरिया ? गोयमाणो अकिरिया सकिरिए वा सकिरिया वा 19 तेणं भंते ! जीवा किं सत्तविह बंधगा अट्ठविहबंधगा? गोयमा ! सत्तविहबंधएवा अट्ठविहबंधए वा अट्ट भंगा 20 // 'आहारए य अणाहारए व त्ति विग्रहगतावनाहारकोऽन्यदात्वा हारकस्तत्रा चाष्टौ भङ्गापूर्ववत्। ते णे भंते ! जीवा किं आहारसन्नोवउत्ता भयसन्नोवउत्ता मेहुणसन्नोवउत्ता परिग्गहसन्नोवउत्ता? गोयमा ! आहारसन्नो वउत्ता वा असीती भंगा 21 // तेणं भंते ! जीवा किं कोहकसाई माणकसाई मायाकसाई लोभकसाई ? असीती भंगा 22 / ते णं भंते ! जीवा किं इत्थीवेदगा पुरिसवेदगा नपुंसगवेदगा? गोयमा! नो इत्थीवेदगानो पुरिसवेदगानुपंसगवेदए ना नपुंसग वेदगा वा 23 / ते णं भंते ! जीवा किं इत्थीयेबंधगा पुरिसवेद बंधगा नपुंसगवेदबंधगा? गोयमा! इत्थीवेदबंधएवापुरिसवेद बंधए वा नपुंसगवेयबंधए वा, छव्वीसं भंगा 26 / ___संज्ञाद्वारेते णं भंते ! जीवा किं सण्णी असण्णी ? गोयमा ! णो सण्णी असण्णी वा असण्णिणो वा 25 / ते णं भंते ! जीवा कि सइंदिया अणिं दिया? गोयमा! णो अणिं दिया संइदिए वा सइंदिया वा // 26|| से णं भंते ! उप्पलजीवे त्ति कालओ केव चिरं होइ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं असंखेजं कालं // 27 / / से णं भंते ! उप्पलजीवे पुढवीजीवे पुणरवि उप्पलजीवे त्ति के वतियं काल सेवेजा? केवइयं
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________________ वणप्फइ 811- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वणप्फ कालं गतिरागति करेज्जा ? गोयमा ! भवादेसेणं जहण्णेणं दो भवग्गहणाई उक्कोसेणं असंखेज्जाई भवम्गहणाइं, कालादेसेणं जहण्णेणं दो अंतोमुहुत्ता उक्कोसेणं असंखेनं कालं, एवतियं कालं सेवेजा एवतियं कालं गइरागतिं करेज्जा / (सू०-२८) 'सेणं भंते! उप्पलजीवे' त्ति इत्यादिनोत्पलत्वास्थितिरनुबन्धपर्यायतयोत्का। से णं मंते ! उप्पलजीवे आउजीवे एवं चेव एवं जहा पुढवी जीवे भणिते तहा . जाव वाउजीवे भाणियब्वे / से णं भंते ! उप्पलजीवे से वणस्सइजीवे से पुणरवि उप्पलजीवे त्ति केवइयं कालं सेवेजा केवइयं कालं गइरागतिक (अइ) रेज्जा, गोयमा! भवादेसेणं जहण्णेणं दो भवग्गहणाइं उक्कोसेणं अणंताई भवग्ग हणाई, कालादेसेणं जहण्णेणं दो अंतोमुहुत्ता उक्कोसेणं अणंतं कालं तरुकालं एवतियं कालं सेवेज्जा, एवइयं कालं गतिरागतिं करेज्जा से णं भंते ! उप्पलजीवे बेइंदियजीवे पुणरवि उप्पलजीवे त्ति केवइयं कालं सेवेज्जा केवइयं कालं गइरागतिं कज्जइ? गोयमा ! भवादेसेणं जहण्णेणं दो भवग्गहणाई उक्कोसेणं संखेज्जाइं भवग्गहणाई, कालादेसेणं जहण्णेणं दो अन्तोमुहुत्ता उक्कोसेणं संखेज्जं कालं, एवइयं कालं सेवेजा एवइयं कालं गहरागतिं कज्जइ, एवं तेइंदियजीवे, एवं चरिंदिय जीवे वि, से णं भंते ! उप्पलजीवे पंचिदियतिरिक्खजोणियजीवे पुणरवि उप्पलजीवे त्ति पुच्छा, गोयमा ! भवादेसेणं जहण्णेणं दो भवग्गहणाइं उक्कोसेणं अट्ठ भवग्गहणाई, कालादेसेणं जहण्णेणं दो अंतोमुहुत्ताई उक्कोसेणं पुष्वकोडिमुहुत्ताइं, एवइयं कालं सेवेज्जा एवइयं कालं गइरागतिं करेजा, एवं मणुस्सेण विसमं . जाव एवइयं कालं गइरागतिं करेजा 28 | ते णं भंते ! जीवा किमाहारमाहारें ति? गोयमा ! दव्वओ अणंतपएसियाई दव्वाई, एवं जहा आहारुहेसए वणस्सइकाइयाणं आहारोतहेव० जाव सव्वप्पणयाए आहारमाहारेति णवरं णियमा छरिसिं सेसं तं चेव 29 / तेसिं णं भंते ! जीवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता? गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं दसवासहस्साई 30 / तेसिणं भंते ! जीवाणं कइ समुग्धाया पण्णत्ता ? गोयमा ! तओ समुघाया पण्णत्ता, तं जहा-वेयणसमुग्घाए कसाय समुग्धाए-मारणंतियसमुग्घाए 31 / (सू०४०६) 'से णं भंते, उप्पलजीवे पुढविजीवे' त्ति इत्यादिना तु संवेध स्थितिरुत्का, तत्राच भवादेसेणं ति भवप्रकारेण भवमाश्रित्येत्यर्थः, 'जहण्णेणं दो भवगहणाई' ति एकं पृथिवीकायिकत्वे ततो द्वितीयमुत्पलत्वे ततः परं मनुष्यादिगतिं गच्छेदिति'कालादेसेणं जहण्णेणं दो अंतोसुहुत्त त्ति, / पृथिवीत्वेनान्त मुहूर्त पुनरुत्पलत्वेनान्तर्मुहूर्त्तमित्येवं कालादेशेन जघन्यतो द्वे अन्तर्मुहूर्ते इति। एवंद्वीपन्द्रियादिषु नेयम्। 'उक्कोसेणं अट्ठ भवग्गहणाई' ति चत्वारि पश्चेन्द्रियतिरश्चत्वारि चोत्पलस्ये त्येयमष्टौ भवग्रहणान्युत्कर्षत इति। 'उक्कोसेणं पुव्वक्कोडी मुहुत्त ति चतुर्यु पञ्चेन्द्रियतिर्यम्भवग्रहणेषु चतस्रः पूर्वकोटियः, उत्कृष्टकालस्य विवक्षितत्वेनोत्पलकायोद्धृत्तजीवयोग्योत्कृष्ट पञ्चेन्द्रियतिर्यक् स्थितेग्रहणात् उत्पलजीवितंत्वेतास्वधिकमित्येवमुत्कृष्टतः पूर्वकोटीपृथक्त्वं भवतीति। एवं जहा आहारुद्देसए वणस्सइकाइयाणं' इत्यादि अनेन च यदतिदिष्ट तदिदम-खेत्तओअसंखेजपएसोगाढाइंकालओ अण्णतरकालविइयाई, भावओ वण्णमंताई' इत्यादि, 'सव्वप्पणयाए' त्ति सर्वात्मना 'नवरं नियमा छद्दिसिं' ति पृथिवीकायिकादयः सूक्ष्मतया निष्कुटगतत्वेन स्यादिति स्यात् तिसृषु चतसृषु दिक्षु वेत्यादिनाऽपि प्रकारेणाहारमाहारयन्ति, उत्पलजीवास्तु बादरत्वेन तथाविधनिष्कुटेष्वभावान्नियमात्षट्सु दिक्ष्वाहार यन्तीति। तेणं भंते! जीवा मारणंतियसमुग्घाएणं किं समोहया मरंति असमोहया मरंति ? गोयमा ! समोहया वि मरंति असोमहया विमरंति 32 / (सू०४०८) तेणं भंते ! जीवा अणंतरं उव्वट्टित्ता कहिं गच्छन्ति कहिं उववअंति, किं णेरइएसु उववजंति तिरिक्खजोणिएसु उववज्जति एवं जहा वकंतीए उव्वट्टणाण वणस्सइकाइयाणंतहा भाणियव्वं / अह भंते ! सव्वे पाणा सव्वे भूया सवे जीवा सव्व सत्ता उप्पलमूलत्ताए उप्पलकदत्ताए उप्पलणालत्ताए उप्पलपत्तत्ताए उप्पलके सरत्ताए उप्पलकण्णियत्ताए उप्पलथि भुगत्ताए उप्पण्णपुव्वा ? हंता गोयमा! असतिं अदुवा अणंतखुत्तो सेवं भंते ! मंते ! त्ति / (सू०४०९) 'वकंतीए' त्ति प्रज्ञापनाया षष्ठपदे 'उवट्टणाए' त्ति उद्वर्त्तना धिकारे तत्र चेदमेवं सूत्रम्-"मणुएसु उववजति देवेसु उववजंति मणुएसु उववजंति नो देवेसु उववजंति'""उप्पलके सरत्ताए' त्ति इह केसराणिकर्णिकायाः परितोऽवयवाः 'उप्पल कण्णियत्ताए' त्ति इह तु कर्णिकाबीजकोशः 'उप्पलथिभुग ताए' त्ति॥ थिभुगा च यतः पत्राणि प्रभवन्ति। भ०११ श०१ उ01 सालुए णं भंते ! एगपत्ताए कि एगजीवे अणेगजीवे ? गोयमा ! एगजीवे एवं उप्पलुहेसगवत्तव्वया अपरिसेसा माणियव्वा० जाव अणंतखुत्तो, णवरं सरीरोगाहणा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेनइभागं उक्कोसेणं धणुपुहुत्तं / सेसं तं चेव सेवं भंते ! भंते ! त्ति। (सू०४१०)(म०११श०) पालसेणं भंते! एगपत्ताए किं एगजीवे अणेगजीवे? एवं उप्पलुद्देसगवत्तव्वया अपरिसेसा भाणियव्वा, णवरं
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________________ वणप्फइ 812 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वणप्फई सरीरोगाहणा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजइभागं उक्कोसेणं गाउयमुहुत्तं, देवा एएसु चेव न उववखंति / लेसासु तेणं भंते ! जीवा किं कण्हलेसे वा नीललेसे काउलेसे ? गोयमा ! कण्हलेस्से वानीललेस्से काउलेस्से वा छव्वीसं भङ्गासेसंतं चेव सेवं भंते ! भंते ! त्ति। (सू०-४११) (भ०११ श०३ उ01) कुंभि य णं भंते ! जीवे एगपत्तए किं एगजीवे अणेगजीवे एवं जहा पलासुद्देसए तहा भाणियव्वे, णवरं ठिती जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं वासपुहुत्तं सेसं तं चेव / सेवं मंते ! भंते ! त्ति / (सू० 412) (भ०११ श०४ उ01) नालिए णं भंते ! एगपत्तए किं एगजीवे अणेगजीवे ? एवं कुंभिउद्देसगवत्तव्वया णिरवसेसं भाणियव्वा सेवं भंते ! भंते ! ति। (सू०११३) (भ० 11 श० 5 उ01) पउमे णं भंते ! एगपत्तए किं एगजीवे अणेगजीवे ? एवं उप्पलुद्देसगवत्तव्वया णिरवसेसा भाणियव्वा सेवं भंते! भंते ! त्ति। (सू०४१५) (भ०११श०६ उ०1) कण्णिए णं भंते ! एगपत्ताए कि एगजीवे, अणेगजीवे ? एवं चेव णिरवसेसं भाणियव्वं / सेवं भंते ! भंते ! त्ति / (सू० 411) (भ०११ श०७ उ01) नलिणे णं भंते ! एगपत्ताए किं एगजीवे अणेगजीवे ? एवं चेव णिरवसेसं.जाव अणंतखुत्तो सेवं भंते ! भंते ! त्ति / (सू०४१६) भ०११ श०८ उ०। सालकोद्देशकादयः सप्तोद्देशकाः प्राय उत्पलोद्देशकसमान गमाः, विशेषः पुनर्यो यत्र सता सूत्रसिद्ध एवं, नवरं पलाशो द्देशके यदुत्कम्, 'देवेसुन उववजंति तितस्यायमर्थः-उत्पलोद्देशके कि देवेभ्य उवृत्ता उत्पले उत्पद्यन्त इत्युत्कम्, इह तु पलाशेनोत्पद्यन्ते इति वाच्यम्, अप्रशस्तत्वात्तस्य, यतस्ते प्रशस्तेष्वेवोत्पलादिवनस्पतिषूत्पद्यन्त इति / तथा 'लेसासुत्ति लेश्याद्वारे इदमध्येयमिति वाक्यशेषः, तदेव दर्श्यते-'तेणमि' त्यादि। इयमत्रा भावना-यदा किल तेजो लेश्यायुतो देवो देवभवादुद्वृत्य वनस्पतिषूत्पद्यते तदा तेषु तेजोलेश्या लभ्यते न च पलाशे देवत्वोद्वृत्त उत्पद्यते, पूर्वोत्क युत्केः, एवं चेह तेजोलेश्या न सम्भवति तदभावादाद्या एव तिस्रो लेश्या इह भवन्ति, एतासु च षड्विशतिर्भङ्काः,त्रयाणां पदानामेतावतामेव भावादिति। एतेषु चोद्देशकेषु नानात्व संग्रहार्थास्तिस्रो गाथा :'सालम्मि धणुपुहुत्तं, होइ पलासे य गाउयपुहुत्तं / जोअणसहस्समहियं, अवसेसाणं तु छण्हं पि।।१।। कुम्भीए नालियाए, वासपुहत्तं ठिई उ बोधव्वा / दसवाससहस्साई, अवसेसाणंतु छण्हं वि। कुम्भीए नालियाए, होति पलासे य तिणि लेसाओ। चत्तारि उ लेसाओ, अवसेसाणं तु पञ्चाण्हं / / 3 / / एकादशशते द्वितीयादयोऽष्टमान्ताः शाल्याधुदेशकाः। भ०११ श० 8 उ०॥ सालि कल अयसि वंसे, इक्खू दम्भे य दम्भतुलसीय। अद्वैते दस वग्गा, असीति पुण हॉति उद्देसा // 1 // 'साली त्यादि सूत्रम्, "सालि' त्तिशाल्यादिधान्यविशेष विषयोद्देशकदशकात्मकः प्रथमो वर्गः शालिरेवोच्यते, एवमन्य त्रापीति। उद्देशकदशकं चैवम्-"मूले 1 कंदे 2 खधे ३,तया य साले 5 पवाल 6 पत्तेय 7 / पुप्फे 8 फल : बीए वि य 10, एक्कोक्को होइ उद्देसो" ||1|| इति / 'कल' ति, कलायादिधान्या विषयो द्वितीयः 2, 'अयसि' त्ति अतसीप्रभृतिधान्यविषय स्तृतीयः 3, 'वंसे' त्ति वंशादिपर्वगविशेषविषयश्चतुर्थः / 'इक्खू' ति इक्ष्वादिपर्वगाविशेष विषयः पञ्चमः, 'दब्भे त्ति' दर्भशब्दस्योपलक्षणार्थत्वात् - 'सेढिय-भंडिय-कोतियदब्भे' इत्यादितृणभेदविषयः षष्ठः 6, 'अब्भे' ति वृक्षे समुत्पन्नो विजातीयो वृक्षविशेषोऽध्यवरोहकस्तत्प्रभृतिशाकप्रायवनस्पति विषयः सप्तमः, 'तुलसीय' त्ति तुलसीप्रभृतिवनस्पतिविषयोऽष्टमो वर्गः 8 / 'अद्वेते दसवग्ग' त्ति अष्टावेते अनन्तरोत्का दशानाम्-दशानामुद्देशकानां सम्बन्धिनो वर्गाः-समुदाया दशवर्गाः, अशीतिः पनरुद्देशका भवन्ति, वर्गे वर्गे उद्देशकदशक भावादिति। रायगिहे० जाव एवं वयासी-अह भंते ! साली वीहीगोधूमजव जवाणं एएसि णं भंते ! जीवा मूलत्ताए वक्कमंति, ते णं मंते ! जीवा कओहिंतो उववजंति ? किं णेरइएहिंतो उववजंति ? तिरिक्खजोणिएहिंतो उववअंति? मणुस्सेहितो उववजंति? देवेहिंतो उववजंति ? जहा वर्कतिए तहेव उववाओ णवरं देववनं, ते णं मंते ! जीव एगस मएणं केवइया उववजंति? गोयमा ! जहण्णेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा उक्कोसेणं संखेज्जा वा असंखेज्जावा उववजंति, अवहारो जहा उप्पलुद्देसए। एएसि णं मंते ! जीवाणं के महालया सरीरोगाहणा पण्णत्ता ? गोयमा ! जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जाइमागं उक्कोसेणं धणुहपुहुत्तं / (सू०-६८) 'रायगिहे' त्यादि 'जहा वक्कतिए त्ति' यथा प्रज्ञापनायाः षष्ठपदे तत्र चैवमुत्पादो नो नारकेभ्य उत्पद्यन्ते, किन्तुतिर्य' मनुष्येभ्यः तथा व्युत्क्रान्तिपदेदेवानां वनस्पतिषूत्पत्तिरुत्का इह तु सा न वाच्या मूले देवानामनुत्पत्तेः पुष्पादिष्वेव शुभेषु तेषामुत्पत्तेरत एवोत्कम् - 'नवरं देवज़' ति 'एक्को वे' त्यादि यद्यपि सामान्येन वनस्पतिषु प्रतिसमयमनन्ता उत्पद्यन्त इत्युच्यते तथाऽपीह शाल्यादीनां प्रत्येकशरीरत्वादेकाद्युत्पत्तिर्न विरुद्धति / 'अवहारो जहा उप्पलुद्देसए' ति उत्पलोद्देशकः एकादशशतस्य प्रथमस्तत्रा चापहार एवम् - 'ते णं भंते ! जीवा समये समये अवहीरमाणा 2 केवतिकालेणं अवहीरंति? गोयमा! तेणं असंखेजा समए समए अवहीरमाणा 2 असंखेज्जाहिं उस्सप्पिणीहि अवसप्पिणीहि अवहीरंति नो चेवं णं अवहिया सिय' ति। बन्धका:ते णं भंते ! जीवा णाणावरणिज्जस्स कम्मस्स किं बंधगा अबंधगा? जहा उप्पलु हेसे, एवं वेदे वि उदए
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________________ वणप्फइ ५१३-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वणप्फई वि उदीरणाए वि। तेणं भंते ! जीवा किं कण्हलेस्साणीललेस्सा 1 वर्ग 1 उ01) एवं खंधे वि उद्देसो णेतव्वो। (भ०२१ श०२ काउलेसा छथ्वीसं भंगा दिट्ठी. जाव वेइंदिया जहा उप्पलुद्दसेए, वर्ग 3 उ०।) एवं तयाए वि उद्देसो णेयव्वो। (भ० 21 श०१ ते णं भंते ! साली वीही गोधूमा 0 जाव जवजवगमूलगजीवे वर्ग 4 उ०।) साले वि उद्देसो णेयव्वो। (भ०२१ श०१ वर्ग 5 कालओ के वचिरं होइ ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उ०।) पवाले वि उद्देसो भाणियव्दो / (भ० 21 श०१ वर्ग 6 उकोसेणं असंखेनं कालं / से णं भंते ! साली बीही गोधूमा० उ01) पत्ते वि उद्देसो भाणियव्वो / (भ० 21 श०१ वर्ग 7 जाव जवजवगमूलगजीवे पुढवीजीवे पुणरवि साली वीही० जाव उ०1) एए सत्त वि उद्देसगा अपरिसेसं जहा मूले तहा णेयव्वा जवजवगमूलगजीवे केवइयं काल सेवेजा? केवइयं कालं गति एवं पुप्फे वि उद्देसओ णवरं देवा उववजंति, जहा उप्पलुद्देसे रागतिं करेजा? एवं जहा उप्पलुद्देसए, एएणं अभिलावेणं . चत्तारिलेस्साओ असीतिभंगा ओगाहणा जहण्णेणं अङ्कलस्स जाव मणुस्सजीवे आहारो जहा उप्पलुद्देसे ठिती जहण्णेणं अंतो असंखेजाइभागं उक्कोसेणं अङ्कलपुहत्तं सेसं तं चेव सेवं भंते ! मुहुत्तं उक्कोसेणं वासमुहुत्तं समुग्धाया समोहया य उव्वट्टणा य भंते ! त्ति। (भ० 21 श०१ वर्ग 8 उ०1) जहा पुप्फे एवं फले जहा उप्पलुढेसे। अह भंते ! सव्वपाणा. जाव सव्वसत्ता साली वि उद्देसओ अपिरसेसो भाणियय्वो। (भ०२१ श०१ वर्ग वीही.जाव जवजवगमूलगजीवत्ताए उववण्णपुटवा हंता, गोयमा! उ०1) एवं बीए उद्देसओ एए दस उद्देसगा पढमो वग्गो समत्तो असतिं अदुवा अणंतखुत्तो सेवं भंते ! भंते ! त्ति। (सू०६८५) (सू०-६८६) (भ० 21 श० 1 वर्ग 10 उ०) अह भंते ! 'ते णं भंते ! जीवा नाणावरणिजस्स कम्मस्स कि बंधगा अबंधगा ? कलायमसूरतिलमुग्ग मासनिप्फावकुलत्थआलि संदगसडिणइतः परं युदत्कम्-'जहा उप्पलुद्देसए' त्ति अनेनेदं सूचितम्-'गोयमा! पलिपंथगाणं एएसिणं जे जीवा मुलत्ताए वक्कमति ते णं भंते ! नो अबंधगा बंधए वा बंधगा वा' इत्यादि / एवं वेदोदयोदीरणा अपि | जीवा कओहितोउववज?ि एवं मूलादीया दस उद्देसगा भाणियव्वा वाच्याः / लेश्यासु तु तिसृषु षड्विशति भङ्गाः, एकवचनान्तत्वे जहेव सालीणं णिरवसेसंतंचेव बितिओ वग्गो समत्तो / अह भंते ! बहुवचनान्तत्वे तथा त्रयाणां पदासां त्रिषु द्विकसंयोगेषु प्रत्येकं चतुर्भङ्गी- अयसिकुसुंभकोदवकंगुरालगतुवरिगको-दूसासणसरिसवमूलकाभावाद्वादश एकत्र चत्रिकसंयोगेऽष्टाविति षडिंवशतिरिति। दिट्ठी' गयीबाणं एएसिणं जे जीवा मूलत्ताए वक्कमंति तेणं भंते ! जीवा त्यादि दृष्टिपदा दारभ्य इन्द्रियपदं यावदुत्पलोद्देशकवन्नेयम्, तत्रा दृष्टी कओहिंतो उववजंति? एवं एत्थ विमूलादीया दस उद्देसा जहेव मिथ्या दृष्टयस्ते ज्ञाने अज्ञानिनः, योगे काययोगिनः, उपयोगे द्विविधो | सालीणं णिरवसेसं तहेव भाणियव्वं / तइओ वग्गो समत्तो। अह पयोगाः, एवमन्यदपि।ततएवं वाच्यम्, 'सेणं भंते!' इत्यादिना असंखेजा | भंते ! वंसवेणुकणगकक्कावंसवारुवंसदंडाकुंडाविमानचंडविणुकालमित्येतदन्तेनानुबन्ध उत्कः। अथ कायसंवेधमाह से णमि त्यादि याकल्ला णीणं एएसि णं जीवा मूलत्ताए वक्कमंति एवं एत्थ वि 'एवं जहा उप्पलउद्देसए त्ति अनेन चेदं सूचितम्, गोयमा ! भवादेसेणं | मूलादीया दस उद्देसगा जहेव सालीणं णवरं देवो सम्वत्थ विण जहण्णेणं दो भवग्गह णाई उक्कोसेणं असंखेज्जाइंभवम्गहणाइंकालादेसेणं उववज्जइ, तिण्णि लेस्साओ सव्वत्थ वि छव्वीसं भन्ना। सेसं तं जहण्णेणं दो अंतोमुहुत्ता उक्कोसेणं असंखेनं कालमि' त्यादि 'आहारो चेव। चउत्थो वग्गो समत्तो। अह भंते ! उक्खुइक्खुवाडियावीरजहा उप्पलुद्देए' इति एवं चासौ 'ते णं भंते ! जीवा किमाहार माहरिति / णाइ कडभमाससुंठियसत्तवेत्ततिमिरसयपोरगनलाणं एएसिणंजे गोयमा ! दव्वओ अणंतपएसियाई त्यादि 'समुग्धाये' त्यादि अनेन च जीवा मूलत्ताए वक्कमति एवं जहेव वंसवग्गो तहेव एत्थ वि यत्सूचितं तदर्थलेशोऽयम्-तेषां-जीवनामाद्या स्त्रयः समुद्धातास्तथा मूलादीया दस उद्देसगा णवरं खंधुद्देसे देवो उववजति चत्तारि मारणान्तिकसमुद्धातेन समवहता भियन्तेअसमवहता वा, तथोदवृत्तास्ते लेस्साओ पण्णत्ताओ, सेसंतं चेवं / पंचमो वग्गो समत्तो। अह तिर्यक्षु मनुष्येषु चोत्पद्यन्त इति, भ०२१ श०१ वर्ग 1 उ०। भंते ! सेमियमंडियदन्मकोतियदन्मकुसदभगयोइद (इत) अह भंते ! साली वीही० जाव जवजवाणं एएसिणं जे जीवा लअज्जुण-आसाढगरोहियंसस मुअवक्खीरभूसएरंडकुरुमकुंद कंदत्ताए वकमंति ते णं भंते ! जीवा कओहिंतो उववजंति एवं करवरसुंठविभंगमुह वयणथुरगसिप्पियसुंकलितणाणं / एएसिणं कंदाहिगारेण सो चेव मूलुद्देसो अपरिससो भाणियव्वो० जाव जे जीवा मूलत्ताए वकमंति एवं एत्थ वि दस उद्देसमा णिरवसेसं असतिं अदुवा अणंतखुत्तो सेवं भंते ! भंते ! त्ति। (भ०२१ श० जहेववंसस्साछट्टो वग्गो समत्तो। अह भंते! अब्मरहवोयाणहरि
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________________ वणप्फइ 814- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वणप्फइ तगतंदुलेज्जगतणुवत्थल चोरगमज्जारयाइ चिल्लियालक्कदग पिप्पलियदव्विसोत्थिकसायमंडुक्किमूलगसरिसवअंबिलसाग जीवंतगाणं एएसिणं जे जीवा मूलत्ताए वक्कमंति, एवं एत्थ वि दस उद्देसगा जहेव वंसस्स / सत्तमो वग्गो समत्तो। अह भंते ! तुलसीकण्हदलफणेजा अज्जाचूयणाचोराजीरादमणामरुयाइंदी वरसयपुप्फाणं अजाचूयणाचोराजीरादमणामरुयाइंदीवरसयपु प्फाणं एएसिणं जे जीवा मूलत्ताए वक्कमंति एत्थ विदस उद्देसगा णिरवसेसं जहा वंसाणं / एवं एएसु अवसु वग्गेसु असीति 80 उद्देसगा भवन्ति / (सू० 660) एवं समस्तोऽपि वर्गः सूत्रासिद्ध एवमन्येऽपि, नवरमशीति भङ्गाः, एवं चतसुषु लेश्यास्वेकत्वे 4 बहुत्वे 4 तथा पदचतुष्टये षट्सु द्विकसंयोगेषु प्रत्येकं चतुर्भङ्गिकासद्भावात् 24, तथा चतुर्यु त्रिकसंयोगेषु प्रत्येकमष्टानां सद्भावात् 32, चतुष्कसंयोगेच 16, एवमशीतिरिति। इहचेयमवगाहनाविशेषाभिधायिका वृद्धोत्का गाथा- "मूले कंदे खंधे, ता य साले पवाल-पत्ते य। सत्तसु वि धणुपुहुत्तं, अंगुलिमो पुप्फफलबीए // 1 // " इति। भ०२१ श० 8 वर्ग। तालादिकानाह - "तालेगट्ठियबहुवी-यगा य गुच्छा य गुम्मवल्ली य / छद्दस वग्गा एए, सद्धिं पुण होंति उद्धेसा ।।१।।''रायगिहे . जाव एवं वयासी-अह भंते ! तालतमालतक्कलितेतलिसालिसरलासार गल्लाणं. जाव केयतियकदलचम्हरुक्खगुंदरुक्खहिंगुरुक्ख लवंगरुक्खपूयफलखज्जूरिनालिएरीणं, एएसि णं जे जीवा मूलत्ताए वक्कमति ते णं भंते ! जीवा कओहिंतो उववज्जति? एवं एत्थ वि मूलादीया दस उद्देसगा कायव्वा जहेव सालीणं, णवरं इमं णाणत्तं मूले कंदे खंदे तयाए साले य एएसु पञ्चसु उद्देसएसु देवो ण उववज्जइ तिण्णि लेस्साओ ठिती जण्हणेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं दस वाससहस्साई उवरिल्लेसु पञ्चसु उद्देसएसुदेवो उववजइ, चत्तारिलेस्साओ ठिई जहण्णेणं अंतो मुहुत्तं उक्कोसेणं वासपुहुत्तं ओगाहणा, मूले कंदे धणुहपुहुत्तं / खंधे तया य साले य गाउयपुहुत्तं, पवाले पत्ते धणुपुहुत्तं, पुप्फे हत्थपुहुत्तं, फले बीए य अंगुलपुहुत्तं, सवे सिं जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजइभागं सेसं जहा सालीणं / एवं एए दस उद्देसगा वावीसइमस्स पढमो वग्गो / अह भंते ! णिम्बऽम्बजंबु कोसंबतालअकोल्लपीलुसेलुसल्लइमोयइमालुयचउलपलास करंजपुत्तं जीवगरिहवहेडगहरियगभल्लायउंवरियभरियखीरणि धायइपियालुपूइयणिवायगसेण्हयपासियसीसवअयसिपुण्णागणा | गरुक्खसीवण्णअसोगाणं, एएसिणं जे जीवामूलत्ताएवक्कमंति एवं मूलाऽऽदीयादस उद्देसगा कायव्वा हिरवसेसंजहातालवम्गो। बितिओ वग्गो समत्तो / अह भंते ! अत्थियातिं दुयबोरकविट्ठअंबाडगमाउलिङ्ग बिल्लआमलगफण्सदालिमआस त्थउंबरवडणग्गोहणंदिरुक्खपिप्पलिसतरपिलक्खुरुक्खकाउंव रियकुच्छु भरियदेवदालितिलगलउयछत्तोहासिरीसत्तवण्णदधि वण्णलोद्धवचंदणज्जुणणीवकुडुगकलंबाणं, एएसि णं जे जीवा मूलत्ताए वक्कमंति ते णं भंते ! एवं एत्थ विमूलादीया दस उद्देसगा तालवग्गसरिसा णेयव्वा 0 जाव बीयं, तइओ वग्गो समत्तो। अह मंते ! वातिंगणे अल्लइपोडइएवं जहा पण्णवणाए गाहाणु सारेण णेयव्वं 0 जाव गंजपाडणा वासिअकोल्लाणं, एएसिंणं जे जीवा मूलत्ताए वक्कमति एवं एत्थ वि मूलादिया दस उद्देसगा तालवग्गसरिसा नेयव्वा जाव बीयं ति णिरवसेसं जहा वंसवम्गो चउत्थो वग्गो समत्तो। अह भंते ! सिरियकाणवनालियकोरंटग बंधुजीवगमणोजा जहापण्णवणाए पढमपदे गाहाणुसारेण.जाव णलणीयकुंदमहाजातीणं, एएसिणं जे जीवा मूलत्ताए वक्कमंति एवं एत्थ वि मूलादीया दस उद्देसगा णिरवसेसं जहा सालीणं / पञ्चमो वग्गो समत्तो। अह भंते ! पूसफलीकालिंगीतुंबीतउसी एलावालुंकी एवं पदाणि छिंदियव्वाणि पण्णवणागाहाणुसारेण जहा तालवग्गो० जाव दधिकोल्लईकाकलिसोक्कलि अक्कबोंदीणं, एएसिणं जे जीवा मूलत्ताए वक्कमंति एवं मूलादीया दस उद्देसगा कायव्वा जहा तालवग्गो णवरं फलउद्देसे ओगाहणाए जहण्णेणं अङ्गुलस्स असंखेजइमागं उक्कोसेणं धणुहपुहुत्तं ठिई सव्वत्थ जहण्णेणं अन्तोमुहुत्तं उक्कोसेणं वासपुहुत्तं सेसंतंचेव। छट्ठो वग्गो समत्तो। एवं छसु वि वग्गेसु सट्ठि उद्देसगा भवंति। (सू०६६१) 'ताले त्यादितत्र 'ताले' त्ति तालतमालप्रभृतिवृक्षविशेष विषयोद्देशकदशकात्मकः प्रथमो वर्गः, उद्देशकदशके च मूलकन्दादिविषयभेदात्पूर्ववत् / 'एगट्ठिय' त्ति एकमस्थिकं फलमध्ये येषां ते तथा, ते च - निम्बाऽऽभ्रजम्बूकौशाम्बादयः, ते द्वितीये वाच्याः / 'बहुवीयगा य' त्ति बहूनि वीजानि फलेषु येषां ते तथा, ते च अस्थिकतेन्दुकबदरकपित्थादयो वृक्षविशेषास्ते तृतीये वाच्याः। 'गुच्छा यत्ति गुच्छावृन्ताकी प्रभृतयस्ते चतुर्थे वाच्याः / 'गुम्म' त्ति गुल्माः-सिरियकनवमालिकाकोरण्टकादयस्ते पञ्चमे वाच्याः। 'वल्ली च' त्ति वल्ल्यः-पुष्पफलीकालिङ्गीतुम्बीप्रभृतयः, ताः पृष्ठे वर्ग वाच्या। इत्येवं षष्ठवर्गो वल्लीत्यभिधीयते 'छद्दसवग्गा एए' त्ति षटदशोद्देशकप्रमाणा वर्गा एते अनन्तरोत्काः, अत एव प्रत्येकं दशोद्देशकप्रमाणत्वाद्वर्गाणामिह षष्टिरुद्देशका भवन्तीति। इदं च शतमनन्तरशतवत्सर्वं व्याख्येयम्, यस्तु विशेषः स सूत्रासिद्धः, एवम् इयं चेह वृद्धोत्का गाथा-"पत्तवाले पुप्फे, फले यबीए य होइ उववाओ। रुक्खेसु सुग्गणाणं, पसत्थर सवण्णगंधेसु // 1 // " ति / भ० 22 श०।
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________________ वणप्फइ 515 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वणप्फइ आलुकाऽऽदि शालवृक्षवक्तव्यता"आलुयलोहोअवया, पाढी तह मासवण्णिवल्ली य। एस णं भंते ! सालरुक्खए उण्हाभिहते तण्हाभिहए दवग्गि पञ्चेते दस वग्गा, पण्णत्ता होंति उद्देसा॥१॥" जालाभिहते कालमासे कालं किच्चा कहिं गच्छिहिति कहिं रायगिहे. जाव एवं वयासीअह भंते ! आलुयमूलगसिंगवे उववजिहिइ ? गोयमा ! इहेव रायगिहे णयरे सालरुक्खत्ताए रहालिहरुक्खकंडरियजारच्छीर विरालीकिट्ठिकुंदुकण्डकडड पचायाहिति,से णं तत्थ अचियवंदियपूइयसक्कारिसमाणिये दिव्वे सुमधुपयलमहु सिंगिणिरुहासप्पसुगंधाछिन्नरुहावीयरुहाणं सच्चे सच्चोवाए सण्णिहियपाडिहे लाउल्लोइयमहिए याऽवि एएसिणंजे जीवा मूलत्ताए वक्कमंति एवं मूलादीया दस उद्देसगा भविस्सइ / से णं भंते ! तओहिंतो अणंतरं उय्वट्टित्ता कहिं कायव्वा वंसवग्गसरिसा णवरं परिमाणं जहण्णेणं एक्को वा दो गमिहिति कहिं उववञ्जिहिति, गोयमा!महाविदेहे वासे सिज्झि वा तिण्णि वा उक्कोसेणं संखेजा असंखेजा वा अणंता वा हिड. जाव अंतंकाहिति, एसणं भंते ! साललट्ठियाउण्हामिहया उववजंति अवहारो, गोयमा ! ते णं अणंता समए अवहीरमाणा तण्णाभिहया दवग्गिजालामिहया कालमासे कालं किया जाव 2 अणंताहिं उस्सप्पिणीहिं ओसप्पिणीहिं एवति कालेण कहिं उववजिहिति ? गोयमा! इहेव जम्बुद्दीवे दीवे भारहे वासे अवहीरंति णो चेव णं अवहरिया सियाट्ठिई जहण्णेण वि विज्झगिरिपायमूले महेसरिए णयरीए सामलिरुक्खत्ताए पञ्चाया उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं, सेसं तं चेव पढमो वग्गो समत्तो1 | हिति, साणं तत्थ अचियवंदियपूइय० जाव लाउल्लोइयमहिए अह भंते ! लोहिणीहूथीहूथिवगा अस्सकण्णीसीउंढीमुसंढीणं याऽवि भविस्सइ, से णं भंते ! ततोहिंतो अणंतरं उव्वट्टित्ता एएसिणं जीवा मूल एवं एत्थवि दस उद्देसगा जहेव आलुयव सेसं जहा सालरुक्खस्स० जाव अंतं काहिति / एस णं भंते ! ग्गे णवरं ओगाहणा तालवग्गसरिसा, सेसं तं चेव सेवं मंते ! उंवरलट्ठिया उण्हामिहया तण्हाभिहया दय्वग्गिजालामिहया भंते ! त्ति / वितिओ वग्गो समत्तो / / अह भंते ! आयकायकुहुण कालमासे कालं किचा जाव कहिं उववनिहिति ? गोयमा ! कुंदुरुक्कउव्वेहलियासफासञ्जाछत्तावंसाणियकुमाराणां एएसिणं इहेवजम्बुद्दीवे दीवे मारहे वासे पाडलिपुत्ते णाम णगुरे पाडलि जे जीवा मूलत्ताए एवं एत्थ विमूलादीया दस उद्देसया णिरवसेसं रुक्खत्ताए पच्चायाहिति से णं तत्थ अच्चियवंदिय 0 जाव तं चेव सेवं भंते ! भंते ! ति / तइओ वग्गो समत्तो / अह मंते ! भविस्सइ / से णं भंते ! अणंतरं उट्वट्टित्ता सेसं तं चेव जाव पाढामियवालुंकिमहुररसारायबल्लिपउमामोंढरिहंतिचंडीणं अंतं काहिति। (सू०-५२८) एएसि णं जे जीवा मूलत्ताए वक्कमंति, एवं एत्थ वि मूलादीया 'एस णमि' त्यादि दिव्वे त्ति प्रधानः 'सच्चोवाए' त्ति सत्या वपातःदस उद्देसगा आलुयवग्गसरिसा णवरं ओगाहणा जहा वल्लीणं, सफलसेवः कस्मादेवमित्यत आह-'संनिहियपाडि हेरे त्ति / सन्निहितम् सेसं तं चेव सेवं भंते ! भंते ! त्ति। चउत्थो वग्गो समत्तो। अह -- विहितं प्रातिहार्यम् - प्रतिहारकर्म सान्निध्यं देवेन यस्य स तथा, भंते मासपण्णीमुग्गपण्णीजीवगसरिसव कएणुयकाओलिखी 'साललट्ठिय' त्ति / सालयष्टिका इह च यद्यपि शालवृक्षादायनेके जीवा काकोलिभंगिणेहिं किमिरासिभह मुच्छणंगलइ पओयाकिण्णाप भवन्ति तथापि प्रथम जीवापेक्षं सूत्रत्रायमभिनेतव्यम्, एवंविधप्रश्नाश्च उलपाढेहरेणुयालोहीणं एएसि णं जे जीवा मूलत्ताए व 0 एवं वनस्पतीनां जीवत्वमश्रद्दधानं श्रोतारमपेक्ष्य भगवता गौतमेन कृता एत्थ वि दस उद्देसगा णिरवसेसं आलुयवम्गसरिसा / पञ्चमो इत्यव सेयमिति। भ०१४ श०८ उ०। वग्गो समत्तो। एएसु पञ्चसु वग्गेसुपण्णासं उद्देसगा भाणियव्वा | वणप्फ (स्स) इकाइय पुं०(वनस्पतिकायिक) वनस्पतिर्लता दिरूपः सय्वत्थ देवा ण उववजंति ति तिण्णि लेस्साओ सेव भंते ! स एव कायः शरीरं येषां ते वनस्पतिकायाः, त एव वनस्पतिकायिकाः। भंते ! त्ति। (सू०-६६२) वनस्पतिकशरीरकेषु एकेन्द्रियजीवभेदेषु, प्रज्ञा०१ पद। जी० दश०॥ 'आलुये त्यादितत्रा 'आलुय' त्ति आलुकमूलकादिसाधार णशरीर- स्था०।ग०। स०। वनस्पतिभेदविषयोद्देशकदशकात्मकः प्रथमो वर्गः // लोही ति॥ | वणप्फ (स्स) इकाल पुं० (वनस्पतिकाल) अनन्तोत्सर्पिण्यव लोहीप्रभृत्यनन्तकायिकविषयो द्वितीयः / 'अवइ' त्ति अवककवक- . त्सर्पिणीलक्षणे कालभेदे, आ० म०१ अ०। प्रभृत्यनन्तकायिकभेदविषयस्तृतीयः। 'पाड' त्ति पाठा-मृगवालुङ्की- | वणप्फ (स्स) इगणपुं० (वनस्पतिगण) वनस्पतीनां समुदाये प्रश्न०४ मधुररसादिवनस्पति भेदविषयश्चुर्थः / मासवण्णीमुग्गवण्णी य त्ति आश्र० द्वार। माषपर्णी मुद्गपर्णीपभृतिवल्ली विशेषविषय पञ्चमः तन्नामक एवेति / वणमाला स्त्री० (वनमाला) रत्नादिमये आपदीने आभरण विशेष, स्था० पञ्चैते अनन्तरोत्का दशोद्देशकप्रमाणा वर्गा दशवर्गाः यत एवमतः 5 ठा०३ उ०। (वनमालावर्णकः 'लवणसमुह शब्देऽस्मिन्नेव भागे 615 पञ्चाशदृद्देशका भवन्तीह शत इति / भ० 23 श०। पृष्ठे गतः।)
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________________ वणप्फइ 816 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वणप्फइ वणमालापीडमउलकुंडलसच्छंदविउटिवयाभरणचारुमूस | वणि (ण) त्रि० (प्रणिन्) व्रणोऽस्यास्तीति व्रणी। रौद्रतरे शल्ये, आव० णधरा। 5 अ०। वनमाला - वनमालामयानि आमेलमुकुटकुण्डलानि, आमेल इति- वणिया स्त्री० (वनिता) स्त्रियाम्, उत्त०। आपीडशब्दस्य प्राकृतलक्षणवशात् आपीडः-शेखरकः तथा स्वच्छन्दं पुरिसे नाणाविहेहि, भावेहिं वणंति त्ति वणियाओ। विकुर्वितानि यानि आभरणानि तैर्यत् चारु भूषणं-मण्डनं तद्धरन्तीति "पुरिसे त्ति-पुरुषान् नानाविधैः भावैराभिप्रायविलासादिभिर्वर्णयन्ति वनमालापीडमुकुटकुण्डल स्वच्छन्दविकुर्विताऽऽभरणचारुभूषणधराः। - कामोद्दीपनगुणान् विस्तारयन्तीति वनिताः। तं. / तथा य हारिल:लिहादित्वादच् / जी० 3 प्रति०४ अधि०1 01 जं०। रा०1 औ०। "वातोद्रुतो दहति हुतभुग देहमेकं नराणां, मत्तो नागः कुपितभुजवनस्पतिस्रजि च। स० औ०। द्वादशदेवलोकीयविमानभेदे, नपुं०।स० कश्चैकदेहं तथैव।ज्ञानं शीलं विनयविभवौदार्यविज्ञानदेहान्, सर्वानन् वणमुह न० (व्रणमुख) व्रणाग्रे, "वणमुहकिमिउत्तयंतपगलंतपूय रुहिरं" दहति वनिताऽऽ मुष्मिकानैहिकांश्च / / 1 / / " उत्त. 8 अ०। व्रणमुखानि कृमिभिरुत्तुद्यमानानि ऊर्ध्व व्यथ्यमानानि प्रगलत्पूयरुधि- वणी स्त्री० (वनी) कसिनिष्पादके फलीभेदे, सूत्र० 1 श्रु०१ अ०१ राणि यस्य सः। विपा०१ श्रु०७ अ०। उ० / स्था० / दायकाभिमतजनप्रशंसोपायतो लब्धार्थे, पञ्चा० 13 दणयरय पुं०(वनचरक) शबरादौ, ज्ञा०१ श्रु०१अ०। विव०। वणराइ स्त्री० (वनराजि) एकजातीयानामितरेषां वा तरूणां पङ्क्तौ , | वणीमक पुं० (वनीपक) परेषामात्मदुस्थत्वदर्शनेनाकूल भाषणतोयल्ल अनु० / ज्ञा० / एकजातीयोत्तमवृक्षसमूहे, जी० 3 प्रति० 4 अधि० / भ्यते द्रव्यं सा वनी-प्रतीता, तां पिबति आस्वादयति पातीति वेति प्रज्ञा० / भ० / रा०। वनीपः / स एव वनीपकः। याचके, स्था०५ ठा०३ उ०। पञ्चा,। कृपणे, वणरायपुं० (वनराज) वैक्रमसंवत्सराणि 208 अणहिलपत्तनस्य निवेशके दश०५ अ०॥ वनुया चने, वनुते प्रायोदायकाभिमतेषु श्रमणादिष्वात्मानं चोल्लुकवंशीये राजनि, ती०२५ कल्प। भक्तं दर्शयित्वा पिण्डं याचते। प्रव०६७ द्वार। पिं०। अभीष्टजनप्रशंसने, वणलया स्त्री०(वनलता) अशोकादिलतासु, प्रज्ञा०१पद। जं०1रा०। ग०१ अधि01 जी०। भ०। कल्प०। ज्ञा० / एकशाखेषु तरु विशेषेषु, वणादुम्रविशेषाः प्रथमतो वनीपकस्य भेदान्निरुक्तिं च शब्दस्याहद्रुभाणां चलतात्वमेकशाखाकानां द्रष्टव्यम्, ये हिद्वमाऊगितैकशाखा समणे माहणि किवणे, अतिही साणे य होइ पंचमए। न तु दिग्विदिक्प्रवृत्तबहुशाखास्ते लता इति प्रसिद्धाः। रा०। वणिजायण त्ति वणिमओ, पायप्पाणं वणेउत्ति॥४३॥ वणवास पुं० (वनवास) अरण्यवासे, बृ० / लौकिका हिवानप्रस्था श्रमे वनीपकः पञ्चधा, तद्यथा-श्रमणे श्रमणविषयः ब्राह्मणे कृपणे अतिथौ वर्तमाना वनवासमेव श्रेयसे मन्यन्ते। तत्राप्राशुकादिपरि भोगदोषः / बृ० शुनि च पञ्चमो भवति, तत्र वनीपक इति। वनिरित्ययं धातुर्याचने, वनु 1 उ०३ प्रक०। (सच 'संखडि' शब्दे दर्शयिष्ते!) याचने इति वचनात्। ततो वनुते-प्रायोदायकसम्मते श्रमणादिष्वात्मानं वणवासी स्त्री० (वनवासी) दक्षिणार्द्धभरतक्षेत्रीय नगरीभेदे, "इहेव भक्तं दर्शयित्वा पिण्डं याचते इति 'वणिउ' त्ति वनीपकः औणादिक अद्धभरहे वणवासीनगरीए वासुदेवस्स जेट्ठभाउंजर कुमारपुत्तो जियसत्तू ईपकप्रत्यथः। राया" ग०२ अधि०। संप्रति प्रकारान्तरेण वनीपकशब्दनिरुक्ति प्रतिपादयतिवणविदुग्ग पुं०(वनविदुर्ग) नानाविधवृक्षसमूहे, भ०१श०८ उ०।व्य० / मयमाइ वच्छगं पि व, वणेइ आहारमाइलोभेणं / एकं वनं वनम्, वनविदुर्गः / व्य०६ उ०। सूत्र०। समणेसु माहणेसुय, किविणातिहिसाणभत्तेसु // 44|| वणविरोहपुं०(वनविरोध) लोकोत्तररीत्या द्वादशेमासे, कल्प०१ अधि० मृता-पञ्चत्वमुपगता माता यस्य वत्सकस्य - तर्णकस्य तमिव ६क्षण / जं०। ज्यो०। सू० प्र०। चं० प्र०।। गोपालकोऽन्यस्यां गवि इति शेषः, आहारदिलोभेन भक्तपात्रवस्तुवनसंडपुं० (वनषण्ड) अनेकजानीयोत्तमवृक्षसमुदाये, कल्प०१ अधि० लुब्धतया ब्राह्मणेषु श्रमणेषु कृपणातिथिष्वव भक्तेषु वनति-- भक्तमात्मानं 4 क्षण। अनेकजातीयानामुत्तमानां महीरुहा, णां समूहे, जी०३ प्रति 4 दर्शयतीति वनीपकः। पूर्ववदौणा दिक ईपकप्रत्ययः। अधि० / रा० जी० / अनु० / एकजातीय वृक्षसमूह, ज्ञा०१ श्रु०१ सम्प्रति यावन्तः श्रमणशब्दवाच्यास्तावतो दर्शयित्वातेषु अ० / ज्ञा०। स्था०। वनीपकत्वं यथा भवति तथा दर्शयतिवणसवाई-स्त्री०। कोकिलायाम, 'पियमाहवी परहुआ कलयंठी कोइला निग्गंसकतावस-गेरुयआजीवपंचहा समणा। वणसवाई" पाइ० ना० 42 गाथा। तेसि परिवेसणाए, लोभेण वणिज्जको अप्पं ||5|| वणहत्थि (ण) पुं० (वनहस्तिन्) आरण्यगजे, उत्त० 13 अ०। निम्रन्थाः-साधवः, शाक्या-मायासूनवीयाः-तापसाः वनवासिवः पाखवणाहारपुं० (वनाहार) वन्यघस्तूपभोक्तरि यक्षभेदे, प्रज्ञा०१पद। पिऊनः,गेरुकाः-मायासूनवीयाः-तापसाःवनवासिनःपाखण्डिनः गेरुकाः-गेरुवणाहिवइपुं० (वनाधिपति) यक्षभेदे, प्रज्ञा०१ पद। करञ्जितवाससः पखिाजकाः, आजीवकाः-गोशालाकशिष्या इति पञ्चधा
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________________ वणप्फइ ८१७-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वणप्फइ पञ्चप्रकाराः श्रमणा भवन्ति, एतेषां च यथायोगं गृहिगृहेषु समागतानां परिवेषणे-भोजनप्रदाने क्रियमाणे सति कोऽप्याहारलम्पटः साधुर्लोभेनाहारादिलुब्धतया वनति-शाक्यादिभक्तमात्मानं दर्शयति तद्भत्कगृहिणः पुरत इति सामर्थ्यगम्यम्। इह प्रायः शाक्या गैरुका वा गृहिगृहेषु भुञ्जते ततस्तान् भुञ्जानानधिकृत्य यथा साधुर्वनीपकत्वं कुरुते तथा दर्शयतिमुंजति चित्तकम्म, ठिया व कारुणियदाणरुइणो वा। अभिकामगबहेसु वि, न नस्सई किं पुण जईसु // 446|| एवं नाम निश्चला भगवन्तोऽमी शाक्यादयो भुञ्जते यथा चित्रकर्मलिखिता इव भुञ्जाना लक्ष्यन्ते, तथा परमकारुणिका एते दानरुचयश्च, तत एतेभ्योऽवश्यं भोजनं दातव्यम् / अपि च - कामगर्दभेष्वपि मैथुने गर्दभेष्विवातिप्रसक्तेषु ब्राह्मणेष्विति गम्यते। दत्तं न नश्यति किं पुनरमीषु शाक्यादिषु एतेभ्यो दत्त मतिशयेन बहुफलमिति भावः / तस्माद्दातव्यमेतेभ्यो विशेषतः। अा दोषान् दर्शयतिमिच्छत्तथिरीकरणं, उग्गमदोसा य तेसु वा गच्छे। चडुकार दिन्नदाणा, पच्चत्थिग मा पुणो इंतु // 447|| एवं हि शाक्यादिप्रशंसने लोके मिथ्यात्वं स्थिरीकृतं भवति, तथाहिसाधवोऽप्यमून प्रशंसन्ति तस्मादेतेषां धर्मः सत्य इति। तथा यदि भक्ता भद्रका भवेयुः तत इत्थं साधुप्रशंसामुपलभ्य तद्योग्यमाधाकर्मिकादिसमाचरेयुः। ततस्तलब्धतया कदाचित् साधुवेषमपहाय तेषु शाक्यादिषु गच्छेयुः। तथा लोके चाटुकरणयुते जन्मान्तरेऽप्यदत्तदाना आहारद्यर्थं श्वान इवात्मानं दर्शयन्ति - इत्यवर्णवादः, यदि पुनः शाक्यादयः शाक्यादिभक्ता वा प्रत्यर्थिकाः-प्रत्यनीका भवेयुस्ततः प्रद्वेषतः प्रशंसावचनमवज्ञायेत्थं ब्रूयुः मा पुनस्रा भवन्त आयान्त्विति। ब्राह्मणभक्तानां पुरतो ब्राह्मणप्रशंसारूपं वनीपकत्वं यथा करोति तथा दर्शयतिलोयाणुग्गहकारिसु, भूमीदेवेसु बहुफलं दाणं / अवि नाम बंभबंधुसु, किं पुण छसम्मनिरएसु // 448|| पिण्डप्रदानादिना लोकोपकारिषु भूमिदेवेषु ब्राह्मणेषु अपि नाम ब्रह्मबन्धुष्यपि जातिमात्रब्राह्मणेष्वपि दानं दीयमानं बहुफलं भविष्यतीति भावः। संप्रति कृपणभक्तानां पुरतः कृपणप्रशंसारूपं वनीपकत्वं यथा समाचरति तथा प्रतिपादयतिकिविणेसु दुम्मणेसु य, अबंधवायंकजुंगियंगेसुं। पूयाहिज्जे लोए, दाणपडागं हरइ देंतो |449ll इह लोकः पूजाहार्यः-पूजया हियते-आवय॑ते इति पूजाहार्यः, पूजितपूजको न कोऽपि कृपणादिभ्यो ददाति, ततः कृपणेषु तथा इष्टवियोगादिना दुर्मनस्सु तथा अबान्धवेषु तथा आतङ्कोज्वरादिस्तद्योगादातङ्किनोऽप्यातङ्कास्तेषु, तथा जुङ्गिताङ्गेषुच कर्त्तितहस्तपादाद्य वयवेषु निराकाङ्कतया दददस्मिन् लोके दानपताकां हरति-गृह्यति।। साम्प्रतमतिथिभक्तानां पुरतोऽतिथिप्रशंसारूपं वनीपकत्वं यथा साधुर्विदधाति तथा दर्शयतिपाएण देइ लोगो, उवगारिसु परिचिएसु झुसिए वा। जो पुण अद्धाखिन्नं, अतिहिं पूण्इ तं दाणं / / 450|| इह प्रायेण लोक उपकारिषु, यदा-परिचितेषु यदि वा अध्युषितेआश्रिते ददाति भक्तादि, यः पुनरध्वखिन्नमतिथिं पूजयति तदेव दानं जगति प्रधानमिति शेषः।। अधुना शुनां भक्तानां पुरतः शुनकप्रशंसारूपं वनीपकत्वं कुर्वन् यत्कि तदुपदर्शयतिअवि नाम होज सुलभो, गोणाईणं तणाइ आहारो। छिच्छिक्कारहयाणं,ण हु सुलहो होइ सुणगाणं // 451 / / केलासभवणा एए, आगया गुज्झगा महि। चरंति जक्खरूवेण, पूयाऽपूया हियाऽहिया।।४५२|| अपि नाम गवादीनां तृणादिक आहारो भवेत् सुलभः, छिच्छिकारहतानांत्वमीषांशुनां न तु कदाचनाऽपि भवति सुलभः, तत एतेभ्यो यद्दीयते तदेव बहुफलमिति भावः, अपि च-नैते श्वानः श्वानः एव, किं तु गुह्यका देवविशेषाः कैलास भवनात्-कैलासपर्वतरूपादाश्रयादागत्यमहींपृथिवीं यक्ष रूपेण श्वाकृत्या चरन्ति तत एतेषां पूजाऽपूजा च यथासंख्यं हिता अहिता चेति। संप्रति ब्राह्मणादिविषयवनीपकत्वे दोषानाहएएण मज्झभावो, दिट्ठो लोए पणामहेजम्मि। एक्के के पुवुत्ता, महगपंताइणो दोसा।।४५३।। एतेन-अनेन साधुना 'मज्झ' मदीयो भावो-भक्तत्वलक्षणो दृष्टोऽवगतो लोके--ब्राह्मणादौ, किं विशिष्ट ? इत्याह - प्रणामहार्ये प्रणामः-प्रणमनं तेन, उपलक्षणमेतत् दानादिना च हार्ये-आवर्जनीये, तत एकैकस्मिन् ब्राह्मणादिविषये वनीपकत्वे पूर्वोक्ता भद्रकप्रान्तादयो दोषा भावनीयाः। किमुक्तं भवति-यदिभद्रकस्तर्हि प्रशंसावचनतो वशीकृत आधाकर्मादि कृत्वा प्रयच्छति, अथ प्रान्तस्तर्हि गृहनिष्काशनादि करोति। इह प्राक् 'साणे पुण होइ पंचमए' इत्युत्कम्, तत्रा साणग्रहणं काकादीना मुपलक्षणम्, तेन काकादिष्वपि वनीपकत्वं द्रष्टव्यम्। तथा चाऽऽहएमेव कागमाई, साणग्गहणेण सूझ्या हाति। जो वा जम्मि पसत्तो, वणइ तहिं पुट्ठऽपुट्ठो वा ||15|| एवमेव वनीपकत्यप्ररूपणाविषयत्वेन श्वग्रहणेन काकादयोऽपि सूचिता भवन्ति, ततस्तत्रापि वनीपकत्वं भावनीयम्। एतदेव व्याप्तिपुरस्सरमाह -यो वा यत्र काकादौ पूजकत्वेन प्रसत्कस्ता काकादिस्वरूपं पृष्टोऽपृष्टो वा वनतिप्रशंसाद्वारेण त्मानं भत्कं दर्शयति। सम्प्रति वनीपकत्वं कुर्वतः साधोर्युक्त्या दोषगरीयस्त्वं प्रकटयतिदाणं न होइ अफलं, पत्तमपत्तेसु सन्निजुजंतं / इय विभणिए वि दोसा, पसंसओ किं पुण अपत्ते / / 455 / /
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________________ वणीमग 818- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वण्ण इह पात्रोष्वपात्रेषु वा सन्निपुज्यमानंदानं न भवत्यफलमित्यपि भणिते साइज्जइ॥६३॥ दोषः / अपात्रदानस्य पात्रदानसमतया प्रशंसनेन सम्य क्त्वाती- जे भिक्खू वणियपिंडं, मुंजे अहवा वि जो तु सातिजा। धारसंभवात्। किं पुनरपात्राण्येव साक्षात्प्रशंसतः? तत्र सुतरां महान् सो आणाअणवत्थं, मिच्छत्तविराहणं पावे ||156|| दोषो मिथ्यात्वास्थिरीकरणादिदोषभावादिति। पिं० / व्य० / जीत०। नि० चू० 13 उ० / तर्कुके, प्रश्न०५ संव० द्वार / (वनीपकपिण्ड आचा०। स्था०। ग्रहणनिषेधः 'रायपिंड' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 553 पृष्ठे गतः।) से भिक्खू वा भिक्खुणी वा० जाव समाणे से जं पुण जाणिज्जा / असणं पाणगं वा वि, खाइमं साइमं तहा। असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा बहवे समणा माहणा जंजाणिज्ज सुणिज्जा वा, वणिमट्ठा पगडं इमं // 51|| अतिहिकिवणवणीमए पगणिय पगणिय समुहिस्स पाणाईवा. दश०५ अ०१ उ० (व्याख्यातैषा 'उद्देसिय' शब्दे द्वितीय भागे 820 4 समारब्मजाव नो पडिग्गाहिज्जा / / (सू०-७) पृष्ठे।) स भावभिक्षुर्यावत् गृहपतिकुलं प्रविष्टस्तद्यत् पुनरेवंभूतमश नादि वणे अव्य० (वणे) निश्चयादिषु, प्रा० / “वणे-निश्चयविकल्पानुजानीयात्तद्यथा-बहून श्रमणानुद्दिश्य, ते च पञ्चविधाः-निर्गन्थ- कम्प्यसंभावनेषु" ||8 / 2 / 206|| वणे इति, निश्चयादौ संभावने च शाक्य-तापस-गैरिकाऽऽजीविका इति / ब्राह्मणान् भोजनकालोप- प्रयोक्तव्यम् / 'वणे देमि' निश्चयं ददामि। विकल्पेहोइ वणे न होइ। स्थाय्यपूर्वो वाऽतिथिस्तानीति कृपणा दरिद्रास्तान् वणीमका-- भवति वा न भवति। अनुकम्प्येदासो वणे न मुचइ। दासोऽनुकम्प्यो वने वन्द्रिप्रायास्तानपि श्रमणादीन् बहूनुदिश्य प्रगणस्य प्रगणय्योद्दिशति, नत्यज्यते। संभावने-नऽत्थि वणे जं न देइ विहिपरिणामो। संभाव्यते तद्यथा-द्वित्राः श्रमणाः पञ्चषाः ब्राह्मणा इत्यादिना प्रकारेण श्रमणादीन् / एतदित्यर्थः / प्रा०२ पाद। परिसंख्यातानुद्दिश्य, तथा प्राण्यादीन् समारभ्य यदशनादि संस्कृतं | वण्णपुं० (वर्ण) वर्ण्यते-प्रकाश्यतेऽर्थो अनेनेति वर्णः। अकार ककारादौ, तदासेवितमनासेवितं वाऽप्रासुकमनेषणीयमाधाकर्म, एवं मन्यमानालाभे विशे०। आचा! सतिन प्रतिगृह्णीयादिति। वर्णस्वरूपंतत्र्वर्ण वर्णयन्तिविशोधिकोटिमधिकृत्याऽऽह - अकारादिः पौगालिको वर्ण इति // ll से भिक्खू वा भिक्खूणी वा . जाव पविढे समाणे सेज्जं पण रत्ना०४ परि० / आ० म० / प्रश्न०। ('आगम' शब्दे द्वितीयभागे 71 जाणिज्जा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा बहवे समणा पृष्ठे व्याख्या गता।) निषादपञ्चमादिषु दश०२ अ०। सङ्घा० / वर्ण्यते माहणा अतिथिकिवणवणीमए समुद्दिस्स .जाव चेएइ तं / अलंक्रियते वस्त्वनेनेति वर्णः / अनु० श्यामादौ पुद्गल परिणामे, उत्त०' तहप्पगारं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा अपुरिसंतर 33 अ. / औ०। दशा० / प्रज्ञा० / स च पञ्चधाश्वेतपीतरत्कनील-' कडं वा अवहियाणीहडं अणत्तट्ठियं अपरिभुत्तं अणासेवितं कालभेदात्। प्रव० 276 द्वार / प्रज्ञा०। औ०। अफासुयं अणेसणिज्जं 0 जाव णो पडिगाहेजा, अह पुण एवं पंच वण्णा पण्णत्ता, तं जहा-किण्हा नीला लोहिया हालिहा जाणेजा पुरिसंतरकडं बहियानीहडं अत्तट्ठियं परिमुत्तं आसेवियं / सुक्किला। (सू०३९०) स्था०५ ठा०। फासु एसणिजं जाव०पडियाहिज्जा / (सू०-८) एगे वण्णे (सूत्र)। स भिक्षुर्यत्पुनरशनादि जानीयात्, किंभूतमिति दर्शयति-बहून् स्था० 1 ठा०। उत्त० / भ० / आ० म०। स० / आचा०। श्रमणाब्राह्मणातिथिकृपणवणीमकान् समुद्दिश्य श्रमणाद्यर्थामति यावत्, प्राणतिपातादिः कतिवर्णः कतिगन्ध इत्यादिप्राणादीश्च समारभ्य यावदाहृत्य कश्चिद् गृहस्थो ददाति, रायगिहे० जाव एवं वयासी-अह मंते ! पाणाइवाए मुसावाए तत्तथाप्रकारमशनाद्यपुरुषान्तरकृतम बहिर्निगतमनात्मीकृतमपरि- आदिणणादाणे मेहुणे परिग्गहे एस णं कइवण्णे कगंधे कइरसे भुत्कमनासोवतमप्रासुकमनेषणीयं मन्यमानो लाभे सति न प्रतिगृह्णीयात्। कइफासे पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचवण्णे पंचरसे दुगधे चउफासे इयं च-"जावंतिया भिक्खु"त्ति, एतद्वयत्ययेन ग्राह्यमाह-अथशब्दः पण्णत्ते / अह मंते ! कोहे कोवे रोसे दोसे अक्खमे संजलणे कलहे पूर्वापक्षी, पुनःशब्दो विशेषणार्थः, अथ स भिक्षुः पुनरेवं जानीयात्, चंडिक्के भंडणे विवादे 10 एस णं कइवण्णे 0 जाव कइफासे तद्यथा-पुरुषान्तरकृतम्-अन्यार्थ कृतं बहिर्निर्गतमात्मीकृतंपरिभुक्त- पण्णत्ते? गोयमा!पंचवण्णे पंचरसे दुगन्धे चउफासेपण्णत्ते। अह मासेवितं प्रासुकमेषणीयं च ज्ञात्वा लाभे सति प्रतिगृह्वा यात्, इदमुक्तं भंते ! माणे मदे दप्पे थंभे गव्वे अणुक्कोसे परपरिवाए उक्कासे भवति - अविशोधिकोटिर्यथा तथा न कल्पते, विशोधिकोटिस्तु अवकासे उण्णामे दुण्णामे 12 एस णं कवइवण्णे 04 पण्णत्ते ? पुरुषान्तरकृतात्मीयकृतादिविशिष्टा कल्पत इति आचा०२ श्रु०१ चू० गोयमा! पंचवण्णे जहा कोहे तहेव / अह भंते! माया उवही नियडी १अ०१उ०। वलए गहणे णूमे कक्के कुरुए जिम्हे किदिवसे 10 आयरणयागुहणया जे भिक्खू वा भिक्खुणी वा वणीमपिंडं मुजइ भुजंतं वा | वंचणाया पलिउंचणया सातिजोगे य 15 एस णं कइवण्णे 04
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________________ वण्ण 816 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वण्ण पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचवण्णे जहेव कोहे / अह भंते ! लोभे इच्छा मुच्छा कंखा गेही तण्हा भिज्झा अभिज्झा आसासणया पत्थणया 10, लालप्पणया कामासा भोगासा जीवियासा मरणासा नंदीरागे 16, एस णं कइवण्णे 4 पण्णत्ते ? गोयमा! जहेव कोहे / अह भंते ! पेज्जे दोसे कलहे 0 जाव मिच्छादसण सल्ले एसणं कइवण्णे! जहेवकोहे तहेव चउफासे। (सू०४४६) 'रायगिहे' इत्यादि पाणाइवाए' ति प्राणातिपातजीनतं तजनकं वा चारित्रामोहनीयं कर्मोपचारात् प्राणातिपात एव, एव मुत्तरत्रापि तस्य च पुदलरूपत्वाद्वर्णादयो भवन्तीत्यत उत्कम् - "पंचवण्णे' इत्यादि आह च-"पंचरसपंचवण्णेहि परिणयं दुविहगंधचउफासं। दवियमणंतपएसं, सिद्धेहि अणंतगुणहीणं॥१।।" इति 'चउफासे' ति स्निग्धरूक्षशीतोष्णाख्याश्चत्वारः स्पर्शाः सूक्ष्मपरिणामपरिणतपुद्गलानां भवन्ति, सूक्ष्मपरिणामं च कर्मेति। 'कोहे' त्ति क्रोधपरिणामजनकं कर्म, तत्र क्रोध इति सामान्य नाम कोपादयस्तु तद्विशेषाः, तत्र कोपः क्रोधो दयात् स्वभावाच्चलनमात्रम्, रोषः क्रोधस्यैवानुबन्धो, दोषः आत्मनः परस्य वा दूषणमेतच क्रोधकार्यम्, द्वेषो वाऽप्रीतिमात्रम्, अक्षमा-परकृतापराधस्यासहनम्, संज्वलनो-मुहुर्मुहः क्रोधाऽग्निना ज्वलनम्, कलहोमहता शब्देनान्योन्यसमञ्जसभाषणम्, एतच्च क्रोधकार्यम्, चाण्डिक्यंरौद्राकारकरणम् एतदपि क्रोधकार्यमेव, भण्डनं दण्डादिभिर्युद्धम् एतदपि क्रोधकार्यसेव, विवादो-विप्रतिपत्ति समुत्थवचनानि, इदमपि तत्कार्यमेवेति क्रोधैकार्थाश्चैते शब्दाः / 'भाणेत्ति' मानपरिणाजनक कर्म, तत्र मान इति सामान्य नाम, मदादयस्तु तद्विशेषास्तत्रा मदोहर्षमात्रां, दो-दृप्तता, स्तस्भोऽनम्रता, गर्वः- शौण्डीर्यम्'अत्तुक्कोसे–'त्ति आत्मनः परेभ्यः सकाशाद् गुणैरुत्कर्षणमुत्कृष्टताभिधानम्, परपरिवादः-परेषामपवदनं परिपातो वा गुणेभ्यः परिपातनमिति। 'उक्कासे त्ति। उत्कर्षणमात्मनः परस्य वा मनाक क्रिययोत्कृष्टताकरणम्, उत्कासन वा प्रकाशनमभिमानात्स्वकीयसमृद्धयादेः 'अवकासे, त्ति अपकर्षणमवकर्षणं वा अभिमानादात्मनः परस्य वा क्रियारम्भात् कुतोऽपि व्यावर्त्तनमिति, अप्रकाशो वा अभिमानादेवेति। "उन्नए'' त्ति। उच्छिन्नं नतं पूर्वप्रवृत्तं नमनमभिमानादुन्नतम्, उच्छिन्नो वा नो नीतिरभिमानादेवोन्नयो नयाभाव इत्यर्थः, 'उन्नामे' त्ति प्रणतस्य मदानुप्रवेशादुन्नमनमुन्नामः / 'दुन्नामे' त्ति महाददुष्टं नमनं दुर्नाम इति। इह च स्तम्भादीनि मानकार्याणि मानवाचकाश्चैते ध्वनय इति, 'माय' ति सामान्यमुपध्या दयस्तद्भेदास्तत्र 'उवहि' ति उपधीयते यैनासावुपधिः वञ्चनीयसमीपगमनहेतुरिति भावः 'नियडि' त्ति नितरां करणं निकृतिरादरकरणेन परवञ्चनं पूर्वकृतमायाप्रच्छादनार्थं वा मायान्तर.. करणम् "वलय' 'त्तियेन भावेन वलयमिव वक्रं वचनं चेष्टा वा प्रवर्ततेस भावो वलयम् ‘ग्रहणे' त्ति परव्यामोहनाय यद्ववचनजालं तद् गहनमिव गहनम् ''मे' त्ति परवञ्चनाय निम्नताया निम्नस्थानस्य वा आश्रयण तन्नूमन्ति कक्क त्ति कल्क हिंसादिरूपं पापं तन्निभित्तो यो वञ्चनाभिप्रायः स कल्क मेवोच्यते-'कुरूए ति कुत्सितं यथाभवत्येवं रूपयतिविमोहयति यत्तत्कुरूपं भाण्डादिकर्म मायाविशेष एव 'जिम्हे' ति येन परवञ्चनाभिप्रायेण जेह्ययं क्रियासुमान्द्यमालम्बते, सभावो जैझयमेवेति 'किदिवसे' त्ति यतो मायविशेषज्जमान्तरे अनौव वा भवे किल्विषःकिल्विषिको भवति स किल्विष एवेति / 'आयरणय' ति यतो मायाविशेषादादरणम्-अभ्युपगम कस्यापि वस्तुनः करोति असावादरणम्, ताप्रत्ययस्य च स्वार्थिकत्वादायरणया आचरणं वा परप्रतारणाय विविधक्रिया णामाचरणम्, 'गूढनया' गृहने-गोपायनं स्वरूपस्य 'वञ्चणया' वञ्चनपरस्य प्रतारणम् / 'पलिउंचणया' प्रतिकुञ्चनं सरलतया प्रवृत्तस्य वचनस्य खण्डनम्, 'साइजोगे' ति अविश्रम्भसम्बन्धः सातिशयेन वा द्रव्येण निरतिशयस्य योगस्तत्प्रति रूपकरणमित्यर्थः, मायैकार्था वैते ध्वनय इति 'लोभे' त्ति सामान्यम् इच्छादयस्तद्विशेषाः, तोच्छाअभिलाषमात्रम् 'मुच्छा कंखा गेहे' त्ति मूर्छासंरक्षणानुवन्धः, काङ्क्षा-अप्राप्तार्थाशंसा 'गेहि ति / गृद्धिःप्राप्तार्थेष्वासत्किः / 'तण्ह' क्ति तृष्णा-प्राप्तार्थानामव्ययेच्दा 'भिज्ज' त्ति अभिव्याप्तया विषयाणां ध्यानम्, तदेकाग्रत्वमभिध्या पिधानादिवद्अकारलोपाद्भिध्या 'अभिज्झ'त्ति न भिघ्या अभिध्या, भिध्या सदृशं भावान्तरम्, तत्रा अदृढााभिनिवेशस्तु अभिध्याचित्त लक्षणत्वात्तस्थाः, ध्यानचित्तयोस्त्वयं विशेषः- "जं थिरम ज्झवसाणं, तं झाणं जं चलं तयं चित्तं 'त्ति 'आसासण्य' ति आशासनं मम पुत्रास्य शिष्यस्य वेदमिदं च भूयादित्यादिरूपा आशीः, पत्थणय' त्ति प्रार्थनपरंप्रति इष्टार्थयाञ्चा 'लालप्प णय' त्ति प्रार्थनमेव भृशं लपनतः 'कामास' त्ति शब्दरूपप्राप्ति संभावना, 'भोगास' त्ति गन्धादिप्राप्तिसम्भावना, 'जीवितास' त्ति जीवितव्यप्राप्तिसम्भावना, 'मरणास' ति कस्यांचिदवस्थायां मरणप्राप्तिसम्भावना, इदं च क्वचिन्न दृश्यते 'नन्दिरागे' त्ति समृद्धौ सत्यां रागो-हर्षो नन्दिरागः 'पेजे त्ति प्रेम-पुत्रादिविषयः स्नेहः 'दोसे' त्ति अप्रीतिः, कलहः-इह प्रेमहासादिप्रभवं युद्धं यावत्करणात् 'अठभक्खाणे पेसुन्ने अरइर परपरिवाए मायामोसे' त्ति दृश्यम्। अथोत्कानामेवाष्टादशानां प्राणातिपातादिकानां पापस्थानानां ये विपर्ययास्तेषां स्वरूपाभिधानायाह - अह भंते ! पाणाइवायवे रमणे० जाव परिग्गहवेरमणे कोहविवेगे०जाव मिच्छादसणसल्लविवेगे एस णं कइवण्णे 0 जाव कइफासे पण्णत्ते ? गोयमा! अवण्णे अगंधे अरसे अफासे पण्णत्ते / अह भंते ! उप्पत्तिया वेणझ्या कम्मिया परिणामिया, एसणं कइवण्णा०४ पण्णत्ता,तंचेव०जाव अफ सापण्णत्ता। अह भंते ! उग्गहे ईहा अवाए धारणा एसणं कइवण्णा पण्णत्ता ? एवं चेव 0 जाव अफासा एसणं कइवण्णा पण्णत्ता? एवं चेव० जाव अफासा पण्णत्ता / अह भंते ! उहाणे कम्मे बले वीरिए पुरिसक्कारपरक्कमे एस णं कइवण्णे 04 पण्णत्ते ? तं
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________________ वण्ण 520 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वण्ण चेव० जाव अफासे पण्णत्ता सत्तमे भंते ! उवासंतरे कइवण्णे 4 पण्णत्ते ? एवं चेव जाव अफासे पण्णत्ते / सत्तमे णं भंते ! तणुवाए कइवण्णे ? जहा पाणाइवाए, णवरं अट्ठफासे पण्णत्ते, एवं जहा सत्तमे तणुवाए तहा सत्तमे घणवाए घणोदही पुढवी छट्टे उवासंतरे अवण्णे तणुवाए जाव छट्ठी पुढवी एयाइं अट्ठ फासाई एवं जहा सत्तमाए पुढवीए वत्तय्वया भणिया तहाजाव पढमाए पुढवीए माणियव्वं / जंबुद्दीवे दीवे 0 जाव सयंभुरमणे समुद्दे सोहम्मे कप्पे०जावईसिप्पभारापुढवीणेरइयाऽऽवासा० जाव वेमाणियावासा, एयाण्णि सव्वाणि अट्ठफासाणि / णेरइया णं भंते ! कइवण्णा 0 जाव कइफासा पण्णत्ता ? गोयमा ! वेउध्वियतेयाइं पडुच पंचवण्णा दुगन्धा पंचरसा अट्ठफासा पण्णत्ता, कम्मगं पडुच पंचवण्णा दुगन्धा पंचरसा चउफासा पण्णत्ता। (सू०४५०) 'अहे' त्यादि 'अवण्णे त्ति वधादिविरमणानि जीवोपयोग स्वरूपाणि जीवोपयोगश्चामूर्तो ऽमूर्तत्वाच तस्य वधादिविरमणा नाममूर्तत्वं तस्माचावर्णादित्वमिति। जीवस्वरूपविशेषभेवाधि कृत्याह - "उप्पत्तिय'' त्ति उत्पत्तिरेव प्रयोजनं यस्याः सा औत्पतिकी, ननु क्षयोपशमः प्रयोजनमस्याः? सत्यम, स खल्वन्तरङ्गत्वात्सर्वबुद्धिसाधारण इतिन विवक्ष्यते, न चान्य च्छासकाभ्या सादिकमपेक्षत इति, वेणइय' त्ति विनयो-गुरुशुश्रूषा स कारणमस्यास्तत्प्रधाना वा वैनयिकी, 'कम्मय' त्ति अनाचार्यकं कर्म, साचार्यकं शिल्पम्, कादाचित्कं वा कर्म, शिल्पं तु नित्यव्यापारः, ततश्च कर्मणो जाता कर्मजा, 'पारिणामिय' त्ति परिसमन्तानमनं परिणामः-सुदीर्घकालपूर्वापरावलोकनादिजन्य आत्मधर्मः, सः कारणं यस्याः सा पारिणामिकी बुद्धिरिति वाक्यशेषः, इयमपि वर्णादिरहिता जीवधर्मत्वेनामूर्तत्वात् / जीवधर्माकारादवग्रहा दिसूत्रं कर्मादिसूत्रं च, अमूर्ताधिकारावकाशान्तरसूत्रम्, अमूर्त्तत्वविपर्ययात्तनुवातादिसूत्राणि चाह तत्रच 'सत्तमे णं भंते ! उवासंतरे' त्ति प्रथमद्वितीयपृथिव्योर्यदन्तराले आकाश खण्ड तत्प्रथमतदपेक्षयासप्तमं / सप्तम्या अधस्तात्स्योपरिष्टा त्सप्तमस्तनुवातस्तस्योपरि सप्तमो घनवातस्तस्याप्युपरि सप्तमो घनोदधिस्तस्याप्युपरि सप्तमी पृथिवी, तनुवातादीनां च पञ्चवर्णादित्वं पौद्रलिकत्वेन मूर्त्तत्वाद्, अष्टस्पर्शत्वं च बादर परिणामत्वाद्, अष्टौ स्पर्शाः शीतोष्णस्निग्धरूक्षमृदुकठिन लघुगुरूभेदादिति। नैरयिकादयः कतिवर्णा :णेरइया णं भंते ! कइवण्णा 0 जाव कइफासा पण्णत्ता ? गोयमा ! वेउव्वियतेयाई पडुच्च पंचवण्णा दुगंधा पंचरसा अट्ठ फासा पण्णत्ता, कम्मगंपडुच पंचवण्णा पंचरसा दुगंधा चउफासा पण्णत्ता, जीवं पडुच अवन्ना 0 जाव अफासा पण्णत्ता, एवं 0 जाव थणियकुमारा / पुढवीकाइयपुच्छा गोयमा ! ओरालि यतेयगाई पडुच पंचवण्णा 0 जाव अट्ठफासा पण्णत्ता, कम्मगं पडुच जहा णेरइया णं जीवं पडुच तहेव एवं० जाव चउरिंदिया, णवरं वाउक्काइया ओरालियवेउटिवयतेयगाइं पडुच पंचवण्णा. जाव अट्ठफासा पण्णत्ता, सेसंजहाणेरइया,पंचिदिय तिरिक्ख जोणिया जहा बाउक्काइया। मणुस्साणं पुच्छा, ओरालियवेउव्वियआहारगतेयगाइं पडुब पंचवण्णा 0 जाव अट्ठफासा पण्णत्ता, कम्मगंजीवंच पडुच्च जहाणेरझ्याणं, वाण मंतरजोइसियवेमाणिया जहा णेरइया / धम्मत्थिकाए जाव पोग्गलथिकाए / एए सव्वे अवण्णा णवरं पोग्गलत्थिकाए पंचवण्णे पंचरसे दुगन्धे अट्ठफासे पण्णत्ते, णाणावरणिज्जे० जाव अंतराइए एयाणि.जाव चउफासाणि। जम्बूद्वीपे इत्यत्रा यावत्करणाल्लवणसमुद्रादीनि पदानिवाच्यानि 'जीव वेमाणियावासा' इह यावत्करणादसुर कुमारा वासादिपरिग्रहः, ते च भवनानि नगराणि विमानानि तिर्यग्लोके तन्नगर्यश्चेति। वेउब्वियतेययाई पडुच' त्ति वैक्रियतैजसशरीरे हि बादरपरिणामपुद्रलरूपे ततो बादरत्वात्तयो रकाणामष्ट स्पर्शत्वम्, 'कम्मगं पडुच' त्ति / कार्मणं हि सूक्ष्मपरिणामपुद्गल रूपमतश्चतुः स्पर्शम् ते च शीतोष्णस्निग्धलक्षाः 'धम्मत्थिकाए' इह यावत्करणादेवं दृश्यम्-'अधम्मत्थिकाए आगासथिकाए पोग्गलत्थिकाए अद्धासमए आवलिया मुहुत्ते' इत्यादि। वर्णलेश्यापृच्छ --- कण्हलेस्साणं भंते ! कइवण्णा ? पुच्छा, गोयमा ! दव्वलेस्सं पडुच पंचवण्णाजाव अट्ठफासा पण्णत्ता, भावलेस्सं पडुन अवण्णा 3 एवं जाव सुक्कलेस्सा, सम्मट्ठिी 3 चक्खूदंसणे' आमिणिबोहियणाणे 0 जाव विभंगणाणे, आहारसण्णा 0 जाव परिग्गहसण्णा एयाणि अवण्णाणि 4, ओरालियसरीरे 0 जाद तेयगसरीरे एयाणि अट्ठफासाणि, कम्मग सरीरे चउफासे, मणजोगे वयजोगेय चउफासे, कायजोगे अट्ठफासे सागारोवओगे य अणागारोवओगे य अवण्णा / सव्व दवा णं भंते / कतिवन्ना? पुच्छा, गोयमा! अत्थेगतिया सव्व दष्वा पंचवन्ना० जाव अट्ठफासा पण्णत्ता, अत्थेगतिया सव्व दव्वा पंचवन्ना चउफासा पण्णत्ता, अत्थेगतिया सव्वदष्वा एगगंधा एगवण्णा एगरसा दुफासा पण्णत्ता, अत्थेगतिया सव्व दव्वा अवन्ना 0 जाव अफासा पन्नत्ता, एवं सव्वपएसा वि सव्वपज्जवा वि, तीयद्धा अवन्ना० जाव अफासापण्णत्ता, एवं अणागयद्धा वि, एवं सबद्धा वि। (सू०-४५०) 'दव्वलेसं पडुच' ति / इह द्रव्यलेश्यावर्णः / 'भावलेसं
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________________ वण्ण 821 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वण्ण पडुच' त्ति / भावलेश्या अनन्तरः परिणामः, इह च कृष्णलेश्या दीनि परिग्रहसंज्ञावसानानि अवर्णादीनि जीवपरिणामत्वात्, औदारिकादीनि चत्वारि शरीराणि पञ्चवर्णादिविशेषणानि अष्ट स्पर्शानि च बादरपरिणामपुद्गल रूपत्वात्, सर्वत्र च चतुः स्पर्शत्वे सूक्ष्मपरिणामः कारणम्, अष्टस्पर्शत्वे च बादरपरिणामः कारणं वाच्यमिति / 'सव्वदव्ये' त्ति सर्वद्रव्याणि धर्मास्तिकायादीनि अत्थेगइया सव्वदव्वा पंचवण्णे त्यादि बादरपुदलद्रव्याणि प्रतीत्यो तं सर्व्यद्रव्याणां मध्ये कानिचित्प ञ्चवर्णादीक्ष्माणि प्रतीत्योत्कम् ‘ए-गंधे' त्यादि च परमाणवादि द्रव्याणि प्रतीत्योत्कम्, यदाह परमाणुद्रव्यामाश्रित्य-कारणमेव तदन्त्यं, सूक्ष्मो नित्यश्च भवति परमाणुः / एकरसवर्णगन्धो, द्विस्पर्शः कार्यलिङ्गश्च // 1 // इति, स्पर्शद्वयश्च सूक्ष्मसम्बन्धिनां चतुर्णा स्पर्शानायन्यतरविरुद्धं भवति, तथाहि-स्निग्धोष्णलक्षणं स्निग्धशीतलक्षणं वा रूक्षशीतलक्षणं रूक्षोष्णलक्षणं वेति 'अवण्णे त्यादि च धर्मास्तिकायादिद्रव्या ण्याश्रित्योत्कम्, द्रव्याश्रितत्वात्प्रदेशपर्यवाणां द्रव्यसूत्रानन्तरं तत्सूत्रां तत्र च प्रदेशाः-द्रव्यस्य निर्विभागा अंशाः पर्यवास्तु धर्मास्ते चैवं करणादेवं वाच्याः- 'सव्वपएसाणं भंते ! कइ वण्णा पुच्छा, गोयमा ! अत्थेगइया सव्वपएसा पंचवण्णा 0 जाव अट्ठ फासा' इत्यादि एवं च पर्यवसूत्रमपि, इह च मूर्त्तद्रव्याणां प्रदेशाः पर्यवाश्च मूर्त्तद्रव्यवत्पञ्च वर्णादयः, अमूर्तद्रव्याणां चामूर्तद्रव्य वदवर्णादय इति। अतीताद्धादिायं चामूर्तत्वादवर्णादिकम्। वर्णाधधिकारादेवेदमाहजीवे णं भंते ! गल्भं वक्कममाणे कइवण्णं कइगंधं कइरसं कइफासं परिणामंपरिणमइ? गोयमा! पंचवण्णं दुगंधं पंचरसं अट्ठफासं परिणाम परिणमइ। (सू०४५१) "जीवेणमि' त्यादि परिणामं परिणमइति इति स्परूपं गच्छति कतिवर्णादिना रूपेण परिणामतीत्यर्थः / 'पंचवण्ण' ति गर्भव्युत्क्रमणकाले जीवशरीरस्य पञ्चवर्णादित्वात्-गर्भ व्युत्क्रमणकाले जीवपरिणामस्य पञ्चवर्णादित्वमवसेयमिति ! भ० 12 श० 5 उ०। फाणियगुले णं भंते ! कतिवन्ने कतिगंधे कतिरसे कतिफासे पण्णत्ते ? गोयमा ! एत्थ णं दो नया भवंति, तं जहा-निच्छइय नये य, वावहारियनए य, वावहारियनयस्स गोड्डे फाणियगुले, नेच्छइयनयस्स पंचवन्ने दुगंधे पंचरसे अट्ठफासे पण्णत्ते / भमरे णं भंते ! कतिवन्ने ? पुच्छा, गोयमा ! एत्थ णं दो नया भवंति, तं जहा-निच्छइयनए य, वावहारियनए य, वावहारियनयस्स कालए भमरे नेच्छइयनयस्स पंचवन्ने०जाव अट्टफासे पण्णत्ते। सुयपिच्छे णं भंते ! कतिवन्ने एवं चेव, नवरं वावहारियनयस्स नीलए सुयपिच्छे, नेच्छइयनयस्स पंचवण्णे / सेसं तं चेव, एवं एएणं अभिलावेणं लोहिया भंजिट्ठिया पीतिया हालिद्दासुक्किलए संखे सुम्मिगंधे कोढे दुन्मिगंधे मयगसरीरे तित्ते निंबे कडुया सुंठी कसाए कवितु अंबा अंबिलिया महुरे खंडे कक्खडे वइरे मउए नवणीए गरूए अए लहुए उलुयपत्ते सीए हिमे उसिणे अगणिकाए णिद्धे तेल्ले, छारिया णं मंते ! पुच्छा, गोयमा ! एत्थ दो नया भवंति, तं जहा-निच्छइयनए यं वावहारियनए य, ववहारियनयस्स लुक्खा छारिया नेच्छइयनयस्सपंच वना. जाव अट्ठ फासा पन्नत्ता / (सूत्रा०-६३०) 'फाणिए' त्यादि 'फाणियगुलेणं' ति द्रवगुडः 'गोड्डे' त्ति गौल्यं-गौल्यरसोपेतं मधुररसोपेतमिति यावत्, व्यवहारो हि लोकसंव्यवहारपरत्वात् तदेव तत्राभ्युपगच्छति शेषरसवर्णा दीस्तुसतोऽप्युपेक्षत इति, 'निच्छइयनयस्स' तिनैश्चयिकनय स्यमतेनपञ्चवर्णादिपरमाणुनांतत्रा विद्यमानत्वात् पञ्चवर्णा दिरिति। परमाणुपोग्गले णं भंते ! कतिवने . जाव कतिफासे पन्नते ? गोयमा ! एगवन्ने एगगंधे एगरसे दुफासे पन्नत्ते / दुपएसिए णं भंते ! खंधे कतिवन्ने पुच्छा, गोयमा ! सिय एगवन्ने सिय दुवन्ने सिय एगगंधे सिय दुगंधे सिय एगरसे सिय दुरसे सिय दुफासे सिय तिफासे सियचउफासे पन्नते, एवं तिपएसिए वि, नवरं सिय एगवन्ने सिय दवन्ने सिर तिवन्ने, एवं रसेस वि, सेसं जहा दुपएसियस्स, एवं चउपएसिए विनवरं सिय एगवन्ने०जाव सिय चउपन्ने, एवं रसेसु वि सेसं तं चेव, एवं पंचवएसिए वि, नवरं सिय एगवन्ने जाव सिय पंचवन्ने, एवं रसेसु विगंधफासा तहेव, जहा पंचपएसिओ एवं 0 जाव असंखेज्जपएसिओ। सुहुम परिणए णं भंते ! अणंतपएसिए खंधे कतिवन्ने जहा पंचवएसिए तहेव निरवसेसं। बादरपरिणएणं भंते ! अणंतपएसिए खंधे कतिवन्ने पुच्छा, गोयमा! सिय एगवन्ने०जाव सिय पंचवन्ने सिय एगगंधे सियदुएंधे सिय एगरसे०जाव सिय पंचरसे सिय चउफासे .जाव सिय अट्ठफासे पण्णत्ते / सेवं भंते ! भंते! त्ति। (सू०-६३१) 'परमाणुपोग्गले ण' मित्यादि, इह च वर्णगन्धरसेषु पञ्चद्वौ पञ्च च विकल्पाः 'दुफासे' त्ति स्निग्धरूक्षशीतोष्णस्पर्शानाम न्यतराविरूद्धस्पर्शद्वययुत्क इत्यर्थः, इह च चत्वारो विकल्पाः शीतस्निग्धयोः शीतरूक्षयोः उष्णस्निग्धयोः उष्णरूक्षयोश्च सम्बन्धादीति। 'दुपएसिए ण मि' त्यादि 'सिय एगवन्ने ति द्वयोरपि प्रदेशयोरेकवर्णत्वात्, इह च पञ्च विकल्पाः , 'सिय दुवन्ने त्ति प्रतिप्रदेशं वर्णान्तरभावात, इह च दश विकल्पाः, एवं गन्धादिष्वपि, 'सिय दुफासे त्ति प्रदेशद्वयस्यापि शीतस्निग्धः वादिभावात्, इहापित एव चत्वारो विकल्पाः, 'सिय तिफासे' त्ति इह चत्वारो विकल्पास्तत्र प्रदेशदयस्यापि शीतभावात्, एकस्य च तत्र
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________________ वण्ण 822 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वण्ण स्निधभावागत्, द्वितीयस्य च रूक्षभावादेकः, एवम्' - अनेनैव न्यायेन प्रदेशद्वयस्योष्णभावाद् द्वितीयः, तथा प्रदेशद्वयस्यापि स्निग्धभावात्, तत्रा चैकस्य शीतभावदेकस्य चोष्णभावात्तृतीयः, एवम् अनेनैव न्यायेन प्रदेशद्वयस्य रूक्षभावाचतुर्थ इति, 'सिय चउफासे' ति इह 'देसे सीए | देसे उसिणे देसे निद्धदेसे लक्खे ति वक्ष्यमाणवचनादेकः, एवं त्रिप्रदेशादिष्वपिस्वयमभ्याम् / 'सुहुमपरिणए ण मित्यादि अनन्तप्रदेशिको बादरपरिणामोऽपि स्कन्धो भवति द्वयणुकादिस्तु सूक्ष्मपरिणाम एवेत्यनन्तप्रदेशिकस्कन्धः सूक्ष्म परिणामत्वेन विशेषितस्तत्राद्याश्चत्वारः स्पर्शाः सूक्ष्मेषु बादरेषु चानन्तप्रदेशिकस्कन्धेषु भवन्ति, मृदुकठिनगुरूलघु स्पर्शास्तु बादरेष्वेवेति। भ०१५ श०६ उ०। पभावणा वण्णो भण्णतितं करेति तित्थरस, तित्थं चउवण्णो समणसंघो दुवालसंग वा गणिपिडगं / नि० चू० 1 उ०। (वर्णोच्चारणे लघुत्वगुरूत्वादिविचारः तत्प्रतिपादिका प्राणि धाने त्रिकवर्ण संख्याख्यापनाय गीतिगाथा 'चेझ्यवंदण' शब्दे तृतीयभागे 1321 पृष्ठे गता) तद्व्याख्याचेयम् - क्रमाद्यथाक्रमम् एषु नमस्कार १क्षमाश्रमणे 2 र्यापथिकी 3 शक्रस्तव 4 चैत्यस्तव 5 नामस्तव 6 श्रुतस्तव 7, सिद्धस्तव 8 प्रणिधानेषु नवसु स्थानेषु गुरूवर्णा ज्ञातव्या इति शेषः। 'कियन्त' इत्याह - सप्त 1 त्रयः 2 चतुर्विशतिः 3 त्रयस्त्रिंशत् 4 एकोनत्रिंशत् 5 अष्टाविंशतिः 6 चतुस्त्रिंशत् 7 एकोनत्रिंशत 8, द्वात्रिशत् 6. गुरवो द्विगुणितरूपा नतु संयोगे पूर्वो गुरुरित्यादिलक्षणलक्षिता वर्णा-अक्षराणि / सहा 01 अधि० 3 प्रस्ता.। परमाणुपुद्गलः कतिवर्ण :परमाणुपोग्गले णं भंते ! कतिवन्ने कतिगंधे कतिरसे कति फासे पन्नत्ते ? गोयमा ! एगवन्ने एगगंधे एगरसे दुफासे पन्नते, तं जहा-जइ एगवन्ने सिय कालए, सिय नीलए सिय लोहिए सिय हालिद्दे सिय सुक्किले, जइ एगगंधे सिय सुडिमगंधे सिय दुब्भिगंधे, जइ एगरसे सिय तित्ते सिय कडुए सिय कसाए सिय अंबिले सिय महुरे, जइ दुफासे सिय सीए य निद्धे य 1 सिय सीये य लुक्खे य 2 सिय उसिणे य निद्धे य 3 सिय उसिणे य लुक्खे य / दुपएसिए णं भंते ! खंधे कतिवन्ने ? एवं जहा अट्ठारसमसए छट्ठद्देसए० जाव सिय चउफासे पन्नत्ते, जइ एगवन्ने सिय कालए० जाव सिय सुकिलए जइ दुवन्ने सिय कालए नीलए | य 1 सिय कालए य लोहिए य 2 सिय कालए य हालिद्दए य 3 सिय कालए य सुकिल्लए य 4 सिय नीलए यलोहिए य५ सिय नीलए य हालिद्दए य 6 सिय नीलए य सुकिल्लए य 7 सिय लोहिए य हालिद्दए 8 सिय लोहिए य सुक्किलए यह सिय हालिद्दए य सुकिल्लए य 10 एवं एए दुयासंजोगे दस भंगा। जइ एगगंधे सिय सुब्मिगंधे सिय 1 दुन्मिगंधे य 2 जइ दुगंधे सुन्मिगंधे य दुब्मिगंधे य, रसेसु जहा वन्नेसु जइ दुफासे सिय सीए य निद्ध य एवं जहेव परमाणुपोग्गले 4, जइ तिफासे सव्वे सीए देसे निद्धे देसे लुक्खे 1 सव्वे उसिणे देसे निद्धे लुक्खे 2 सवे निद्ध देसे सीए देसे उसिणे 3 सव्वे लुक्खे देसे सीए देसे उसिणे 4 जइ चउफासे देसे सीए देसे उसिणे देसे निद्धे देसे लुक्खे 1 एए नव भंगा फासेसु / तिपएसिए णं भंते ! खंधे कतिवन्ने जहा अट्ठारसमसए छट्ठदेसे 0 जाव चउफासे पण्णत्ते, जइ एगवन्ने सिय कालए 0 जाव सुकिल्लए 5 जइ दुवन्ने सिय कालए य सिय नीलगे य 1 सिय कालगे नीलगाय 2 सिय कालगा य नीलए य 3 सिय कालए य लोहियए य 1 सिय कालए य लोहियगा य 2 सिय कालगा य लोहिए य 3 एवं हालिद्द ण वि समं भंगा 3 एवं सुकिल्लएण वि समं 3 सिय नीलए य लोहियए य एत्थं पि मंगा 3 एवं हालिबएण वि समं भंगा 3 एवं सुकिल्लेण वि समं मंगा 3 सिय लोहियए य हालिद्दए य भङ्गा 3 एवं सुकिल्लेण विममं 3 सिय हालिद्दए यसक्किल्लए य भंगा 3 एवं सवे ते दस दुयासंजोगा भंगा तीसं भवति, जइ तिवन्ने सिय कालए य नीलए य लोहियए य 1 सिय कालए य नीलए य हालिद्दए य 2 सिय कालए य नीलए य सुकिल्लए य 3 सिय कालए य लोहियए य हालिद्दए य : सिय कालए य लोहियए य सुकिल्लए य 5 सिय कालए य हालिबए य सुकिल्लए य 5 सिय कालए य हालिद्दए य सुकिल्लए य 6 सिय नीलए य लोहियए य हालिदए य 7 सिय नीलए य लोहिए य सुकिल्लए य 8 सिय नीलए य हालिद्दए य सुकिल्लए यह सिय लोहिए य हालिहए य सुकिल्लए य 10 एवं एए दस तियासंजोगा। जइ एगगंधे सिय सुबिभगंधे 1 सिय दुडिभगंधे 2 जइ दुगंधे सिय सुब्मिगंधे य दुब्भि गंधे य भंगा 3 / रसा जहा बना / जइ दुफासे सिय सीए य निद्धे य एवं जहेव दुपएसियस्स तहेव चत्तारि भंगा 4, जइ तिफासे सव्वे सीए देसे निद्धे देसे लुक्खे 1 सवे सीए देसे निद्धे देसा लुक्खा 2 सव्वे सीए देसा निद्धा देसे लुक्खे 3 सवे उसिणे देसे निद्धे देसे लुक्खे 3 एत्थ वि भंगा तिन्नि, सव्वे निद्धे देसे सीए देसे उसिणे मंगा तिन्नि, सव्वे लुक्खे देसे सीए देसे उसिणे मंगा निग्नि एवं 12, जइ चउफासे देसे सीए देसे उसिणे देसे निद्धे देसे लुक्खे 1 देसे सीए देसे उसिणे देसे निद्धे देसा लुक्खा 2 देसे सीए देसे उसिणे देसा निद्धा देसे लुक्खे 3 देसे सीए देसा उसिणा देसे निद्धे देसे लुक्खे / देसे सीए देसे उसिणा देसे निद्धे देसा लुक्खा 5 देसे सीए देसा उसिणा देसा निद्धा देसे लुक्खे 6 देसा सीया देसे उसिणे देसे निद्धे देसे लुक्खे 7 देसा सीया देसे उसिणे देसे निद्धे देसा
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________________ वण्ण 523 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वण्ण लुक्खा देसा सीया देसे उसिणे देसा निद्धा देसे लुक्खे एवं एए तिपएसिए फासेसुपणवीसं भंगा। चउपएसिए णं भंते ! खंधे कतिवन्ने जहा अट्ठारसमसए० जाव सिय चउफासे पन्नत्ते, जइ एगवन्ने सिय कालए य० जाव सुकिल्लए य 5 जइ दुवन्ने सिय कालए य नीलगे य१सिय कालगे य नीलगाय 2 सिय कालगा य नीलगे य 3 सिय कालगा य नीलगा य 4 सिय कालए य लोहियए य एत्थ विचत्तारिभंगा सिय कालएय हालिबएय। सिय कालए य सुकिल्लए य 4 सिय नीलए य लोहियए य 4 सिय नीलए य हालिहए य 4 सिय नीलए य सुकिल्लए य 4 सिय लोहियए य 4 हालिद्दए य 4 सिय लोहथिए य सुक्कलिए य 4 सिय लोहियए य हालिद्दए य 4 सिय लोहियए य सुक्किलए य 4 सिय हालिद्दए य सुक्किलए य 4 एवं एए दस दुयासंजोगा भंगा पुण चत्तालीसं 40, जइ तिवन्ने सिय कालए यनीलए य लोहियए य१सिय कालए नीलए लोहियगाय 2 सिय कालगाय नीलगा य लोहियए य 3 सिय कालगाय नीलए य लोहियए य, एए भंगा 4 एवं कालनील हालिद्दएहिं भंगा : कालनीलसुकिल्लकाललोहियहालिद्द 4 काललोहियसु किल्ल 4 कालहालिहसुकिल्ल 4 नीललोहियहालिद्दगाणं भंगा नीललोहियसुकिल / नीलहालिहसुकिल्ल 4 लोहियहालिद्द सुकिल्लगाणं भंगा / एवं एए दस तियासंजोगा एक्के के संजोए चत्तारि भंगा सवे ते चत्तालीसं भंगा 40, जइ चउवन्ने सिय कालए नीललोहियहालिद्दए य 1 सिय काल नील लोहि सुकिल्लए 2 सिय का० नील० हालि० सुकिल 3 सिय का० लो० हा० सुक्कि०४ सिय नी० लोहि० हा० सु०५ एवमेते चउक्कगसंजोए पंच भंगा, एए सव्वे नउइभंगा। जइ एगगंधे सिय सुब्भिगंधे सिय दुब्भिगंधे य, जइ दुगंधे सिय सुडिभगंधे य सिय दुब्मिगंधे य / रसा जहा वन्ना / जइ दुफासे जहेव परमाणुपोग्गले 4, जइ तिफासे सवे सीए देसे निद्धे देसे लुक्खे 1 सव्वे सीए देसे निद्धे देसा लुक्खा 2 सव्वे सीए देसा निद्धा देसे लुक्खे 3 सव्वे सीए देसा निद्धा देसा लुक्खा 4 सव्वे उसिणे देसे निद्धे देसे लुक्खे एवं भंगा / सवे निद्धे देसे सीए देसे उसिणे 4 सवे लुक्खे देसे सीए देसे उसिणे एए तिफासे सोलस भंगा। जइ चउफासे देसे सीए देसे उसिण देसे निद्धे देसे लुक्खे 1 देसे सीए देसे उसिणे देसे निद्धे देसा लुक्खा 2 देसे सीए देसे उसिणे देसा निद्धा देसे लुक्खे 3 देसे सीए देसे उसिणे देसा निद्धा देसालुक्खा 4 देसे सीए देसाउसिणा देसे निद्धे देसे लुक्खे 5 देसे सीए देसा उसिणा देसे निद्धे देसा लुक्खा 6 देसे सीए देसा उनिणा देसा निद्धा देसे लुक्खे 7 देसे सीए देसा उसिणा देसा निद्धा देसा लुक्ख देसासीया देसे उसिणे देसे निद्धे देसे लुक्खे एवं एए चउफासे सोलस भंगा भाणियव्व जाव देसा सीया देसा उसिणा देसा निद्धा देसा लुक्खा सव्वे एते फासेसु छत्तीसं भंगा। पंचपएसिए णं भंते ! खंधे कतिवन्ने जहा अट्ठारसमसए 0 जाव सिय चउफासे पण्णत्ते, जइ एगवन्ने एगवननदुवन्ना जहेव चउप्पएसिए, जइ तिवन्ने सिय का 0 नीलए लोहियए य 1 सिय काल 0 नीलए लोहिया य 2 सिय काल * नीलगा य 3 लोहिए य 3 सिय कालए नीलगा य लोहियगा य: सिय काल नीलए य लोहियए य 5 सिय कालगा य नीलगे य लोहियगा य 6 सिय कालगाय नीलगाय लोहियए७ सिय कालए नीलए हालिद्दए य एत्थ वि सत्त भंगा 7, एवं कालगनी लगसुक्किलएसु सत्त भंगा, कालगलोहियहालिहेसु 7 कालगलो हियसुकिल्लेसु 7 कालगहालिहसुकिल्लेसु 7 नीलगलो हियहा लिहेसु 7 नीलगलोहियसुकिल्लेसु सत्त भंगा 7 नीलगहालिद्द सुकिलेसु 7 लोहियहालिहसुकिल्लेसु वि सत्त भंगा 7 एवमेते तियासंजोए एए सत्तरि 70 भंगा, जइ चउवन्ने सिय कालए य नीलए लोहियए हालिद्दए य 1 सिय कालए य नीलए य लोहियए य हालियए य हाल्लिद्दगा य 2 सिय कालए य नीलए य लोहियगा य हालिहगे य 3 सिय कालए य नीलगाय लोहियगे य हालिहगे य 5 सिय कालगा य नीलए य लोहियए य हालिदए य 5 एए पंच भंगा, सिय कालए य नीलए य लोहियए य सुकिल्लए य एत्थ वि पंच भंगा, एवं कालगनीलगहालिहसुकिल्लेसु वि पंच भंगा, कालगलोहियहालिहसुकिल्लएसु वि पंच भंगा 5, नीलगलोहियहालिहसुकिल्लेसु विपंच भंगा, एवमेते चउक्कगसंजोएणं पणवीसं भंगा, जइ पंचवन्ने कालए य नीलए लोहियए हालिबए सुकिल्लए सव्वमेते एक्कगदुयगतियगचउक्क पंचयसंजोएणं ईयालं भंगसयं भवति / गंधा जहा चउप्पएसियस्स। रसाजहा वन्ना। फासा जहा चउप्पएसियस्स // छप्पएसिएणं भंते ! खांधे कतिवन्ने ? एवं जहा पंचपएसिए० जाव सि चउफासे पन्नत्ते, जइ एगवन्ने एगवन्नदुवन्ना जहापंचपएसियस्स, जइतिवन्ने सिय कालएयनीलएयलोहियए य एवं जहेवपंचपएसियस्ससत्तभंगा० जाव सियकालगायनीलगा य लोहियए य 7 सिय कालगा य नीलगा य लोहियगा य 8 एए अट्ठभङ्गा एवमेते दस तियासंजोगा एक्कक्कए संजोगे अट्ट भंगा
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________________ वण्ण ५२४-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वण्ण एवं सव्वे वि तियगसंजोगे असीति भंगा, जइ चउवण्णे सिय कालए य नीलए य लोहियए य हालिद्दए य 1 सिय कालए य नीलए य लोहियए य हालिया य 2 सिय कालए य नीलए य लोहिया य हालिहए य 3 सिय कालगे य नीलगे य लोहियगा य हालिबएय: सिय कालगे य नीलगाय लोहियए य हालिबए य 5 सिय कालए य नीलगा य लोहियए य हालिद्दगा य 6 सिय कालगे य नीलगाय लोहियगा य हालिइए य 7 सिय कालगाय नीलए य लोहियए य हालिद्दए य 8 सिय कालगा य नीलए य लोहियए य हालिद्दगा यह सिय कालगाय नीलगेय लोहियगा य हालिहगे य १०सियकालगायनीलगाय लोहियएय हालिहए य 11 एए एक्कारस भंगा। एवमेते पंचचउक्का संजोगा कायव्वा। एकसंजोए एक्कारस भंगा। सव्वे ते चउक्कगसंजोएणं पणपन्नं भंगा। जइपंचवन्ने सिय कालए य नीलए यलोहियएय हालिद्दए य सुकिलए य 1 सिय कालए य नीलए य लोहियए य हालिहए य सुकिल्लगा य 2 सिय कालए य नीलए य लोहियए य हालिद्दगा य सुकिल्लए य 3 सिय कालए य नीलए य लोहियगा य हालिबए य सुकिलए य 4 सिय कालए य नीलगाय लोहियए य हालिद्दए य सुकिल्लए य 6 एवं एए छभंगा भाणियय्वा। एवमेते सव्वे विएक्कगदुयगतियगचउक्कगपंचग संजोगेसु छासीयं भंग सयं भवति। गंधा जहा पंचपएसियस्स। रसा जहा एयस्सेव वन्ना। फासा जहा चउप्पएसियस्स। सत्तपएसिएणं भंते ! खंधे कतिवन्ने०? जहा पंचपएसिएन्जाव सिय चउफासे प०,जइ एगवन्ने-एवं एगवन्नदुवणणतिवन्ना जहा छप्पएसियस्स, जइ चउवन्ने सिय कालए य नीलए य लोहियए य हालिइए य 1 सिय कालए य नीलए य लोहियए य हालिहगा य 2 सिय कालए य नीलए य लोहियगा य हालिबए य 3 एवमेते चउक्कगसंजोगेणं पन्नरस भंगा भाणियव्वा 0 जाव सिय कालगा य नीलगा य लोहियगाय हालिद्दए य 15 एवमेते पंचचउक्कसंजोगा नेयव्वा, एकेके संजोए पन्नरस भंगा। सव्वमेते पंचसत्तरि मंगा भवन्ति। जइ पंचवन्ने-सिय कालए य नीलए य लोहियए य हालिबए य सुकिल्लए य 1 सिय कालए य नीलए य लोहियए य हालिहगे य सुकिल्लगा य 2 सिय कालए य नीलए य लोहियए य हालिद्दगा य सुकिल्लए य 3 सिय कालए य नीलए य लोहियए य हालिद्दगा य सुकिल्लगाय 4 कालए य नीलए य लोहियगाय हालिद्दए य सुकिल्लए य 5 सिय कालए य नीलए य लोहियगा यहालिहगे य सुकिल्लए य 6 सिय कालए य नीलए य लोहियगा य हालिद्दगा य सुकिल्लए य 7 सिय कालए य नीलगा य लोहियगे य हालिबए य सुकिल्लए यसिय कालगे य नीलगा य लोहियाए य हालिहए य सुकिल्लगा य सिय कालगे य नीलगाय लोहियगे य हालिद्दगा य सुकिल्लएय 10 सिय कालए य नीलगा य लोहियगा य हालिद्दए य सुकिल्लए य 11 सिय कालगाय नीलगे य लोहियए य हालिद्दए य सुकिल्लए य 12 सिय कालगा य नीलगे य लोहियगे य हालिहए य सुकिलगाय 13 सिय कालगायनीलए यलोहियएय हालिहगा य सुकिल्लए य 15 सिय कालगा य नीलगाय लोहियगा य हालिद्दए य सुक्किलए 15 सिय कालगाय नीलगाय लोहियए य हालिद्दए य सुकिल्लए य 16 एए सोलस भंगा। एवं सव्वमेते एकदुयगतियगचउक्कगपंचगसंजोगे दो सोलस भंगसया भवंति। गंधा जहा चउप्पएसियस्स, रसा जहा एयस्स चेव वना, फासा जहा चउप्पएसियस्स / / अट्ठपए सियस्स णं भंते ! खंधे पुच्छा, गोयमा ! सिय एगवन्ने जहा सत्त पएसियस्स 0 जाव सिय चउफासे पण्णत्ते, जइ एगवन्ने एवं एगवन्नदुवन्नतिवन्ना जहेव सत्तपएसिए, जइ चउवन्ने-सिय कालए य नीलए य लोहियए य हालिद्दए य १सिय कालए य नीलए य लोहियए य हालिहगा य 2 एवं जहेव सत्तपएसिए 0 जाव सिय कालगा य नीलगा य लोहियगाय हालिद्दगे यं 15 सिय कालगाय नीलगाय लोहियगा य हालिङगाय 16 एए सोलस भंगा, एवमेते पंचचउक्कसंजोगा, एवमेते असीति 80, भंगा जइ पंचवन्ने-सिय कालए य नीलए य लोहियए य हालिद्दए य सुकिल्लए य 1 सिय कालए य नीलगे य लोहियगे य हालिद्दगे य सुकिल्लगाय 2 एवं एएणं कमेणं भंगा उच्चारेयव्वा० जाव सिय कालए य नीलगाय लोहियगा य हालिहंगा य सुकिल्लगे य 15 एसो पन्नरसमो भंगो सिय कालगा य नीलगे य लोहियगे य हालिद्दए य सुकिल्लए य 16 सिय कालगा य नीलगे यलोहियगे य हालिहगेय सुकिल्लगाय 17 सिय कालगा य नीलगे य लोहियगे य हालियगे य हालिदगा य सुकिल्लगा य 16 सिय कालगाय नीलगे यलोहियगा य हालिद्दए य सुकिल्लए य 20 सिय कालगाय नीलगे य लोहियगा य हालिहए य सुक्कि
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________________ वण्ण 825 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वण्ण ल्लगा य 21 सिय कालगाय नीलगे य लोहियगा य हालिद्दगा त्वेक, एव, एवं चैते स्पर्शभङ्गा सर्वेऽपि मीलिता नव ह भवन्तीति। य सुकिल्लए य 22 सिय कालगा य नीलगा य लोहियगे य 'तिपएसिए' इत्यादि, 'सिय कालए' त्ति त्रयाणामपि प्रदेशानां कालहालिद्दए य सुकिल्लए य 23 सिय कालगाय नीलगाय लोहियगे त्वादित्वेनैकवर्णत्वे पञ्च विकल्पाः, द्विवर्णतायां चैकः प्रदेशः कालः, य हालिद्दए य सुकिल्लगा य 25 सिय कालगा य नीलगा य प्रदेशद्वयं तु तथाविधैकप्रदेशा वगाहादिकारणमपेक्ष्यैकत्वेन विवक्षितमिति लोहियगे य हालिदगा य सुकिल्लए य 25 सिय कालगा य स्यान्नील इत्येको भङ्गः, अथवा-स्यात्कालस्तथैव प्रदेशद्वयं तु नीलगा य लोहियगा य हालिद्दए य सुकिल्लए य 26 एए भिन्न प्रदेशावगाहा दिना कारणेन भेदेन विवक्षितमतो नीलकाविति पंचसंजोएणं छव्वीसं 26 भंगा भवंति, एवामेव सपुव्वा वरेणं व्यपदिष्टमिति द्वितीयः, अथवा-द्वौ तथैव कालकावि त्युक्तौ एकस्तु एक्कगदुयगतियगचउक्कगपंचगसंजोएहिं दो एकतीसं भंगसयं नीलक इत्येवं तृतीयः, तदेवमेका द्विकसंयोगे त्रयाणां भावाद्दशसु भवंति, गंधा जहा सत्तपएसियस्स, रसा जहा एयस्स चेव वन्ना, द्विकयोगेषु त्रिंशद्भङ्गा भवन्ति / एते च सूत्रासिद्धा एवेति, त्रिवर्ण तायां फासा जहा चउप्पएसियस्स। नवपएसियस्स पुच्छा, गोयमा! त्वेकवचनस्यैव सम्भवाद्दश त्रिकसंयोगा भवन्तीति, गन्धे त्वेकगन्धत्वे सिय एगवन्ने जहा अट्ठपए सिए० जाव सिय चउफासा पण्णत्ता, द्वौ द्विगन्धतायां त्वेकत्वानेकत्वाभ्यां पूर्ववत्त्रयः, 'जइ दुफासे' इत्यादि जइ एगवन्ने-एगवन्नदुन्नतिवन्नचउवन्नाजहेव अट्ठपएस सियस्स, समुदितस्य प्रदेशत्रायस्य द्विस्पर्शतायां द्विकप्रदेशिकवचत्वारः, जइ पंचवन्ने सिय कालए य नीलए य लोहियए य हालिद्दए य त्रिस्पर्शतायां तु सर्वः शीतः प्रदेशत्रय स्यापि शीतत्वात देशश्च स्निग्धः सुकिल्लए य१सिय कालगे य नीलगे य लोहियाए य हालिद्दए एकप्रदेशात्मको देशश्च रूक्षो द्विप्रदेशात्मको द्वयोरपि तयोरेकप्रदेशावय सुकिल्लगा य 2 एवं परिवाडीए एक्कतीसं भंगा भाणियव्वा, गाहनादिना एकत्वेन विवक्षितत्वात्। एवं सर्वोत्यको भङ्गः? तृतीयएवं एक्कगदुयगतियगचउक्कपंचगंसजोएहिं दो छत्तीसं भंगसया पदस्यानेक वचनान्तत्वे द्वितीयपदस्यानेकवचनान्तत्वे तृतीयः,तदेवं सर्वशीतेन त्रायो भङ्गाः३एवं सर्वरूक्षेणापि 3 तदेवमेतेद्वादश 12, चतुः भवंति, गंधा जहा अट्ठपएसियस्स, रसा जहा एयस्सचेव वना, फासा जहा चउपएसियस्स / दसपएसिएणं भंते ! खंधे पुच्छा, स्पर्शतायांतुदेसे सीए' इत्यादि, एकवचनान्तपदचतुष्टये आधः। स्थापना चेयम् - अन्त्यपदस्यानेक वचनान्तत्वे तु द्वितीयः, स चैवम्-द्वयरूपो गोयमा ! सिय एगवन्ने-जहा नवपएसिए . जाव सिय चउफासे देशः शीत करूपस्तूष्णः पुनः शीतयोरेकः स्निग्धः द्वितीयश्चोष्णः, एतौ पन्नत्ते, जइ एगवन्ने एगवन्नदुवन्नतिवन्नचउ वन्ना जहेव नवपए रूक्षा विति रूक्षपदेऽनेकवचनम्, तृतीयस्त्वनेकवचनान्ततृतीयपदः, स सियस्स, पंचवन्ने वितहेव नवरंबत्तीसतिमो भंगो भन्नति, एवमेते चैवम्-एकरूपो देशः शीतो द्विरूपस्तूष्णः तथा यः शीतो यश्योष्णएक्कगदुयगतियगचउक्कगपंचगसंजोगेसु दोनि सत्ततीसा भंग सया योरेकस्तौ स्निग्धौ इत्येवं स्निग्धपदेऽनेकवचनं यश्चैक उष्णः स रूक्ष भवंति, गंधा जहा नवपएसियस्स, रसा जहा एयस्स चेव वन्ना, इति, चतुर्थस्तवनेकवचनान्तद्वितीयपदः, स चैवम्-स्निग्धरूपस्य फासा० जाव चउप्पएसियस्स। जहा दसपएसिओ एवं संखेज द्वयस्यैकः शीतो यश्चतस्यैव द्वितीयोऽ नयश्चैको रूक्षः एतावुष्णावित्युपएसिओ वि, एवं असंखेजपएसिओ सुहुमपरिणओ वि ष्णपदेऽनेकवचनम्, स्निग्ध तु, द्वयोरेकप्रदेशाश्रितत्वादेकवचनं रूक्षे अणंतपएसिओ वि एवं चेव।। (सू०-६६८) त्वेकत्वादेवेति, पञ्चमस्तु द्वितीयचतुर्थपदयोरनेककवचनान्ततया, स 'परमाणु' इत्यादि, 'एगवन्ने ति कालादिवर्णानामन्यतरयो गात, एवं चैवम् एकः शीतः स्निग्धश्च अन्यौ च पृथग्व्यवस्थितावुष्णौ चेत्युष्णगन्धादिष्वपि वाच्यम्, 'दुफासे' त्ति शीतोष्णसिग्ध रूक्षाणामन्यतर रूक्षयोरनेक वचनम्, षष्ठस्तु द्वितीयतृतीयपदयोरनेकवचनान्तत्वे, स स्याविरूध्यस्य द्वितयस्य योगाद द्विस्पर्शः, ता च विकल्पाश्चत्वारः, चैवम्-एकः शीतो रूक्षश्च अन्यौ च पृथग्व्यवस्थितायुष्णौ चनान्ताद्यपदः, शीतस्य सिग्धेन रूक्षेण च क्रमेण योगाद् द्वौ, एवमुष्णस्यापि द्वाविति स चैवम्-स्निग्धरूपस्य द्वयस्यैकोऽन्यश्चैक एतौ द्वौ शीतावित्यनेकचत्वारः, शेषास्तुस्पर्शा बादराणामेव भवन्ति। 'दुपएसिएणं' मित्यादि, वचनान्तत्वमाद्यस्य, अष्टमः पुननेकवचनान्तादिमान्तिमपदः, स द्विप्रदेशिकस्यै कवर्णता प्रदेशद्वयस्याप्येकवर्णपरिणामात्, तत्रा च चैवम्-पृथकस्थितयोः शीतत्वरूक्षत्वे चैकस्य वोष्णत्वे स्निग्धत्वे च, कालादिभेदेन पञ्च विकल्पाः, द्विवर्णता तु प्रतिप्रदेशं वर्णभेदात्, तत्राच नवमस्त्वनेक वचनान्तत्वे आद्यतृतीययोः, सचैवंद्वयोर्भिन्नदेशस्थयोः द्विकसंयोगजाता दश विकल्पाः सूत्रसिद्धा एव, एवं गन्धरसेष्वपि, नवरं शीतत्वे स्निग्धत्वे च एकस्य चोष्णरूक्षत्वे चेति, 'पणवीसं भंग' त्ति, गन्धे एकत्वे द्वौद्रिकसंयोगे त्वेकः, रसेष्वेकत्वे पञ्च द्वित्वे तुदश, स्पर्शेषु द्वित्रिचतुः स्पर्शसम्बन्धिनां चतुर्द्वादशनवानां मीलनात् पञ्चविंशतिद्विस्पर्शतायां चत्वारः प्रागुक्ताः, 'जइ तिफासे' इत्यादि 'सव्वेसीए' त्ति भङ्गा भवन्ति / 'चउपएसिए ण' मित्यादि' सिय कालए य नीलए प्रदेशद्वयमपि शीतम् 1, तस्यैव द्वयस्य देश एक इत्यर्थः सिग्धः 2 देशश्च य'त्ति द्वौ द्वावेकपरिणामपरिणताविति कृत्वा स्यात्कालको नीलरूक्षः 3 इत्येको भङ्गकः, एवमन्येऽपि त्रायः सूत्रसिद्धा एव, चतुः स्पर्श | कञ्चेति प्रथमः, अन्त्ययोरनेकत्वपरिणामे सति द्वितीयः आद्यस्तृतीयः
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________________ নৃU 926 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वण्ण उभयोश्चतुर्थः, स्थापना चेयम्-FREE एवं दशसु द्विकयोगेषु प्रत्येकं चतुर्भङ्गीभावाचत्वारिंशद्भङ्गाः। जइ तिवन्ने' इत्यादि तत्र प्रथमः कालको द्वितीयो नीलकः अन्त्योश्चैकपरिणामत्या ल्लोहितकः 111 / इत्येकः तृतीयस्यानेकपरिणामतयाऽनेक वचनान्तत्वे द्वितीयः 112, एवं द्वितीयस्थाने-कतायां तृतीयः 121 आद्यस्यानेकत्वे चतुर्थः 211 एवमेते चत्वारः एकत्रा त्रिकसंयोगे, दशसु चैतेषु चत्वारिंशदिति। 'जइ चउवन्ने' इत्यादि, इहपञ्चानां वर्णानां पञ्च चतुस्कसंयोगा भवन्ति, ते च सूत्रासिद्धा एव, 'सव्ये नउई भंग' त्ति एकद्वित्रि-चतुर्वर्णेषु पञ्चत्वारिंशत् 2 पञ्चानां भङ्ग कानां भावान्नवतिस्ते स्युरिति / 'जइ एगगंधे' इत्यादि प्राग्वत् / 'जइ तिफासे' इत्यादि, 'सव्वे सीए' त्ति चतुर्णामपि प्रदेशानां शीतपरिणामत्वात् 1 'देसेनिद्धे ति चतुर्णा मध्ये द्वयोरेकपरिणामयोः स्निग्धत्वात् २'देसे लुक्खे त्ति तथैव द्वयो रूक्षत्वात् 3 इत्येकः द्वितीयस्तु तथैव नवरं भिन्नपरिणामतयाऽनेकवचनान्ततृतीयपदः तृतीयस्त्वनेक वचनान्तद्वितीयपदः, चतुर्थः पुनस्तथैवानेकवचनान्तद्वितीय तृतीयपद इत्येते सर्वशीतेन चत्वारः, एवं सर्वोष्णेन सर्वस्निग्धेन सर्वलक्षणेत्यवं षोडश। 'जइ चउफासे' इत्यादि ता 'देसे सीए' रिएकाकारप्रदेशद्वयलक्षणो देशः शीतः तथा भूत एवान्यो देश उष्णः, तथा य एव शीतः स एव स्निग्धः यश्चोष्ण सरूक्ष इत्येकः, चतुर्थपदस्य प्रागिवानेकवचनान्तत्वे द्वितीयः तृतीयस्य च तृतीयः, तृतीयचतुर्थयोरनेकवचनान्तत्वे चतुर्थः, एवमेते षोडश, आनयनोपायगाथा चेयमेषाम्- "अंत लहुयस्स हेट्ठा, गुरुयं ठावेह सेसमुवरिसमं। अंतं लहुएहि पुणो, पूरेञ्जा भंगपत्थारे॥१॥ स्थापना चेयम् - 11 11 12 1121 11 22 11 |11 12 12 12 21 12 22 12 11 21/12 21/21 21 22 21 |11 22/12 2221 22 22 22 'छत्तीसं भंग' त्ति द्वित्रिचतुःस्पर्शेषु चतुःषोडश षोडज्ञानां भावादिति। इह वृद्धगाथे"वीसइमसउद्देसे, चउप्पएसाइएचउप्फासे। एगबहुवयणमीसा, बीयाईया कहं भंगा ? ||1||" एकवचनबहुवचनमिश्रा द्वितीयतृतीयादयः कथं भङ्गका भवन्ति ? यत्रीव पदे एकवचनं प्रागुक्तं तत्रौव बहुवचन बहुवचने त्वेकवचनम्, एतच्चन भवतीति कृत्वा विरोध उद्भावितः। अत्रोत्तरम् - "देसो देसावमया, दव्वक्खेत्तवसओ विवक्खाए। संघायभेयतदुभय-भावाओ वा वयणफले / / 1 // " अयमर्थः-देशो देशा वेत्ययं निर्देशो न दुष्टः एकानेकवर्णादि धर्मयुत्कद्रव्यवशेनैकानेकावगाहक्षेत्रावशेन वादेशस्यैकत्वाने कत्वाविवक्षणात्। अथवा--भणनप्रस्तावे सङ्घातविशेषभावेन भेदावशेषभावेन वा तस्यैकत्यानेकत्वविवक्षणदिवेति पञ्च प्रदेशिके-'जइ तिवन्ने' त्यादि, त्रिषु पदेष्वष्टौ भङ्गाः केवलमिह सप्तैव ग्राह्याः, पञ्चप्रदेशिकेऽष्टमस्यासम्भवात्, एवं च दशसु त्रिकसंयोगेषु सप्ततिरिति। 'जइ चउवन्ने' इत्यादि, चतुर्णा पदानां षोडश भङ्गास्तेषु चेह पञ्च सम्भविनस्ते च सूत्रासिद्धा एव, पञ्चसुवर्णेषुपञ्च चतुष्कसंयोगाभवन्ति, तेषु चैषां प्रत्येक भावात्पञ्चविंशतिरिति, 'ईयालं भंगसयं' ति पञ्चप्रदेशिके एकद्वित्रिचतुःपञ्चवर्णसंयोगजानां पञ्चचत्वारिंशत्सप्ततिपञ्चविंशत्येकसंख्याना भङ्गानां मीलनादेकोत्तरचत्वा रिंशदधिकं भङ्ग कशंत भवतीति / 'छप्पएसिए ण' मित्यादि, इह सर्वं पञ्चप्रदेशिकस्येव, नवरं वर्णत्रयेऽष्टौ भगावाच्याः, अष्ट मस्याप्यत्र सम्भवात्, एवं च दशसु त्रिकसंयोगेष्वशीति भङ्गका भवन्तीति, चतुर्वणे तु पूर्वोत्कानां षोडशानां भङ्ग काना मष्टदशान्तिमत्रयर्जितानां शेषा एकादश भवन्ति, तेषां च पञ्चसु चतुष्कसंयोगेषु प्रत्येकं भावात्पञ्चपञ्चाशदिति। 'जइ पंचवन्ने' इत्यादी षड् भङ्गाः, 'छासीयं भंगसय ति एकादि संयोगसम्भवानां पञ्चचत्वारिशदशीतिपञ्चाधिकपञ्चाशतषट् संख्याभङ्ग कानां मीलनात् षडुत्तराशीत्यधिकं भङ्गकशतं भवति / 'सत्तपएसिय' इत्यादि, इह चतुर्वर्णत्वे पूर्वोत्कानांषोडशा नामन्तिमवर्जाः शेषाः पञ्चदशभवन्ति, एषांच पञ्चसु चतुष्क संयोगेषु प्रत्येकं भावात्पञ्चसप्ततिरिति। 'जइपंचवन्ने' इत्यादि, इह पञ्चानां पदानां द्वारिंशद्भङ्गाभवन्ति, तेषु चेहा द्यानां षोडशानामष्टमद्वादशान्त्यत्रायवर्जिताः शेषा उत्तरेषां च षोडशानामाद्यास्त्रयः पञ्चमनवमौ चेत्येवं सर्वेऽपिषोडश संभवन्तीति, 'दो सोलाभंगसर्य'ति एकद्वित्रिचतुःपञ्चक संयोगजाना पञ्चचत्वारिंशदशीतिपञ्चाधिकसप्ततिषोडश संख्यानां भङ्ग कानां मीलनाद् द्वे शते षोडशोत्तरे स्यातामिति / अट्ठपएसिए' इत्यादि, इह चतुर्वर्णत्वे पूर्वोत्काः षोडशापि भङ्गा भवन्ति, तेषां च प्रत्येकं पञ्चसु चतुष्कसंयोगेषु भावादशीति भङ्गका भवन्ति, पञ्चवर्णत्वे तु द्वात्रिंशतो भङ्गानां षोडश चतुर्विशाष्टाविंशाष्टाविंशान्त्यत्रयवर्जाः शेषाः षडविंशतिर्भङ्गका भवन्तीत्यर्थः, दो इक्कतीसाई ति पूर्वोत्कानांपञ्चचत्वारिंश दशीत्यशीतिषडुत्तरविंशतिसंख्यानां भङ्ग कानां मीलनाद्वे शते एकत्रिंशदुत्तरे भवति इति / नवपएसियस्से' त्यादि, इहपञ्च वर्णत्वे द्वात्रिंशतो भड़कानामन्त्य एव न भवन्ति, शेषं तु पूर्वो त्कानुसारेण भावनीयमिति। बायरपरिणएणं मंते ! अणंतपएसिए खंधे कतिवन्ने, एवं जहा अट्ठारसमसए० जाव सिय अट्ठफासे पन्नते, वन्नगंघरसा जहा दसपएसियस्स,जइचउफासे सब्वे कक्खडे सव्वे गरुए सव्वे सीए सव्वे निद्धे 1 सव्वे कक्खडे सव्वे गरुए सव्वे सीए सव्वे लुक्खे 2 सव्वे कक्खडे सव्वे गरुए सव्वे उसिणे सव्वे निद्धे 3 सव्वे कक्खडे सव्वे गरुए सवे सीए सवे लुक्खे 4 सब्वे कक्खडे सव्वे लहुए सव्वे सीए सव्वे लुक्खे 5 सव्वे कक्खडे सव्वे लहुए सव्वे सीए सव्वे लुक्खे 6 सव्वे कक्खडे सव्वे लहुए सव्वे उसिणे सव्वे निद्धे 7 सव्वे कक्खडे सव्वे लहुए सव्वे
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________________ वण्ण 827- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वण्ण उसिणे सव्वे लुक्खे सव्वे मउए सव्वे गरुए सव्वे सीए सव्वे निद्धे सव्वे मउए सव्वे गरुए सव्वे सीए सव्वे लुक्खे 10 सव्वे मउए सव्वे गरुए सव्वे उसिणे सव्वे निद्धे 11 सव्वे मउए सव्वे गरुए सव्वे उसिणे सव्ये लुक्खे 12 सव्वे मउए सव्वे लहुए सव्वे सीए सव्वे निद्धे 13 सव्वे मउए सव्वे लहुए सव्वे सीए सव्वे लुक्खे 14 सव्वे मउए सव्वे लहुए सव्वे उसिणे सव्वे निद्धे 15 सव्वे मउए सम्वे लहुए सवे उसिणे सव्वे लुक्खे 16 एएसोलस भंगा / / जइ पंचफासे सव्वे कक्खडे सध्वे गरुए सव्ये सीए देसे निद्धे देसे लुक्खे 1 सव्वे कक्खड़े सव्वे गरुए सव्वे सीए देसे निद्धे देसा लुक्खा 2 सव्वे कक्खडे सव्वे गरुए सव्वे सीए देसा निद्धा देसे लुक्खे 3 सव्वे कक्खडे सव्वे गरुए सव्वे सीए देसा निद्धा देसा लुक्खा 4 सव्वे कक्खडे सव्वे गरुए सव्वे उसिणे देसे निद्धे देसे लुक्खे 4 सव्ये कक्खडे सव्वे लहुए सव्वे सीए देसे निद्धे देसे लुक्खे 4 सव्वे कक्खडे सव्वे लहुए सव्वे उसिणे देसे निद्धे देसे लुक्खे / 4 / एवं एए कक्खडेणं सोलस भंगा। सवे मउए सव्वे गरुए सव्वे सीए देसे निद्धे देसे लुक्खे 4 एवं मउएणा वि सोलस भंगा, एवं बत्तीसं मंगा। सव्वे कक्खड़े सव्वे गरुए सव्वे निद्धे देसे सीए देसे उसिणे 4 सव्वे कक्खडे सव्वे गरुए सव्वे लुक्खे देसे सीए देसे उसिणे 4 एए बत्तीसं भंगा, / सव्वे कक्खडे सव्वे सीए सव्वे निद्धे देसे गरुए देसे लहुए एत्थ वि बत्तीसं भंगा 4, सव्वे गरुए सव्वे सीए सव्वे निद्धे देसे कक्खडे देसे मउए एत्थऽवि बत्तीसं भंगा, एवं सव्वे ते पंचफासे अट्ठावीसं भंगसयं भवति / जइ छफासे सव्वे कक्खडे सव्वे गरुए देसे सीए देसे उसिणे देसे निद्धे देसे लुक्खे 1 सव्वे कक्खडे सव्वे गरुए देसे सीए देसे उसिणे देसे निद्धे देसा लुक्खा 2 एवं० / जाव सव्वे कक्खड़े सव्वे गरुए देसा सीया देसा उसिणा देसा निद्धा देसा लुक्खा 16 एए सोलस भंगा। सव्वे कक्खडे सव्वे लहुए देसे सीए देसे उसिणे देसे निद्धे देसे लुक्खे एत्थऽवि सोलस भंगा, सव्वे मउए सव्वे लहुए देसे सीए देसे उसिणे देसे निद्धे देसे लुक्खे एत्थ वि सोलस भंगा, एए चउसद्धिं भंगा, सव्वे कक्खडे सव्वे निद्धे देसे गरुए देसे लहुए देसे निद्धे देसे लुक्खे एत्थ वि चउसट्टि भंगा, सव्वे कक्खडे सव्वे निद्धे देसे गरुए देसे लहुए देसे सीए देसे उसिणे 1,0 जाव सव्वे मउए सवे लुक्खे देसा गरुया देसा लहुया देसा सीया देसा उसिणा | 16 एएचउसद्धिं भंगा, सव्दे गरुए सव्वे सीए देसे कक्खडे देसे मउए देसे निद्धे देसे लुक्खे एवं जाव सव्ये लहुए सव्ये उसिणे देसा कक्खडा देसा निद्धा देसामउया देसालुक्खा एएचउसर्व्हि भंगा, सव्वे गरुए सव्वे निद्धे देसे कक्खडे देसे मउए देसे सीए देसे उसिणे 0 जाव सव्वे लहुए सव्वे लुक्खे देसा कक्खडा देसा मउया देसा सीया देसा उसिणा एए चउसर्टि भंगा, सव्वे सीए सव्वे निद्धे देसे कक्खडे देसे मउए देसे गरुए देसे लहुए. जाव सव्वे उसिणे सव्वे लुक्खे देसा कक्खडा देसा मउया देसा गरुया देसा लहुया एए चउसद्धिं भंगा, सव्वे ते छफासे तिन्नि चउरासीयं भंगसया भवंति 384 | जइ सत्तफासे सव्वे कक्खडे देसे गरुए देसे लहुए देसे सीए देसे उसिणे देसे निद्धे देसे लुक्खे 1 सव्वे कक्खडे देसे गरुए देसे लहुए देसे सीए देसे उसिणे देसा निद्धा देसा लुक्खा 4 सव्वे कक्खडे देसे गरुए देसे लहुए देसे सीए देसा उसिणा देसे निद्धे देसालुक्खा 4 सव्वे कक्खडे देसे गरुए देसे लहुए देसा सीया देसे उसिणे देसे निद्धे देसे लुक्खे 4 सव्वे देसे सोलस भंगा भाणियव्वा, सव्वे कक्खडे देसे गरुए देसा लहुया देसे सीए देसे उसिणे देसे निद्धे देसे लुक्खे एवं गरुएणं एगत्तेणं लहुएणं पुहुत्तेणं एते वि सोलस भंगा, सव्वे कक्खडे देसा गरुया देसे लहुए देसे सीए देसे उसिणे देसे निवे देसे लुक्खे एए वि सोलस भंगा भाणियव्वा, सव्वे कक्खडे देसा गरुया देसा लहुया देसे सीए देसे उसिणे देसे निद्धे देसे लुक्खे एए वि सोलस भंगा भाणियव्वा, एवमेते धउसद्धि भंगा कक्खडेणं समं, सव्वे मउए देसे गरुए देसे लहुए देसे सीए देसे उसिणे देसे निद्धे देसे लुक्खे / एवं मउएण वि समं चउसर्व्हि भंगा भाणियव्वा, सव्वे गुरुए देसे कक्खड़े देसे मउए देसे सीए देसे उसिणे देसे निद्धे देसे लुक्खे एवं गरुएण वि समं चउसडिं भंगा कायव्वा, सव्वे लहुए देसे कक्खडे देसे मउए देसे सीए देसे उसिणे देसे निद्धे देसे लुक्खे एवं लहुएण वि समं चउसर्टि भंगा कायव्वा, सव्ये सीए देसे कक्खडे देसे मउए देसे गरुए देसे लहुए देसे निद्धे देसे लुक्खे एवं सीतेण वि समं चउसद्धिं भंगा कायव्वा, सव्वे उसिणे देसे कक्खडे देसे मउए देसे गरुए देसे लहुए देसे निद्धे देसे लुक्खे एवं उसिणेण वि समं चउसद्धिं भंगा कायव्वा, सव्वे निद्धे देसे कक्खडे देसे मउए देसे गरुए देसे लहुए देसे सीए देसे उसिणे एवं निद्धेण वि चउसर्हि भंगा कायव्वा, सटवे लुक्खे देसे कक्खडे देसे मउए देसे गरुए देसे लहुए देसे सीए देसे उसिणे एवं लुक्खेण वि समं चउस -
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________________ वण्ण 828 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वण्ण ढि भंगा कायव्वा 0 जाव सव्वे लुक्खे देसा कक्खडा देसा मउया देसा गुरुया देसा लहुया देसा सीया देसा उसिणा, एवं सत्तफासे पंचवारसुत्तरा भंगसया भवंति / जइ अट्ठफासे देसे कक्खडे देसे मउए देसे गुरुए देसे लहुए देसे सीए देसे उसिणे देसे निद्धे देसे लुक्खे 4 देसे कक्खडे देसे मउए देसे गुरुए देसे लहुए देसे सीए देसा उसिणा देसे निद्धे देसे लुक्खे / देसे कक्खडे देसे मउए देसे गुरुए देसे लहुए देसा सीया देसे उसिणे देसे निद्धे देसे लुक्खे 4 देसे कक्खडे देसे मउए देसे गुरुए देसे लहुए देसा सीया देसा उसिणा देसे निद्धे देसे लुक्खे / एए चत्तारिचउक्का सोलस भंगा, देसे कक्खडे देसे मउए देसे गुरुए देसा लहुया देसे सीए देसे उसिणे देसे निद्धे देसे लुक्खे / एवं एते गुरुएणं एगत्तेणं (लहुएणं) पुहत्तएणं सोलस भंगा कायव्वा। देसे मउए देसा गुरुया देसे लहुए देसे सीए देसे उसिणे देसे णिद्धे देसे लुक्खे / एए विसोलस भंगा कायव्वा / देसे कक्खडे देसे मउए देसा गुरुया देसा लहुया देसे सीए देसे उसिणे देसे निद्धे देसे लुक्खे एते वि सोलस भंगा कायय्वा / सव्वेऽवि ते चउसद्धिं भंगा कक्खडमउएहिं एगत्तएहिं, ताहे कक्खडेणं एगत्तएणं मउएणं पुहत्तेणं एते चेव चउसहि भंगा कायव्वा / ताहे कक्खडेणं पुहत्तएणं मउएणं एगत्तएणं चउसहि भंगा कायव्वा, ताहे एताहे चेव दोहिं विपुहत्ताह चउसढि भंगा कायय्वा . जाव देसा कक्खडा देसा मउया देसा गुरुया देसा लहुया देसा सीया देसा उसिणा देसा निद्धा देसा लुक्खा एसो अपच्छिमो भंगो, सव्वेते अट्ठफासे दो छप्पन्ना भंगसया भवंति / एवं एते बादर परिणाए अणंत पएसिए खंधे सव्वेसु संजोएसु बारस छन्नउया भंगसया भवंति। (सू०-६६९) 'बायरपरिणए ण' मित्यादि, सर्व एव कर्कशो गुरुः शीतः स्निग्धश्च एकदैवाविरुद्धानां स्पर्शानां सम्भवादित्येको भङ्ग चतुर्थपदव्यत्यये द्वितीयः, एवमेते एकादिपदव्यभिचारेण षोडश भङ्गाः / 'पंचफासे' इत्यादि, कर्कश गुरुशीतैः स्निग्धरूक्षयोरे कत्वानेकत्वकृता चतुर्भङ्गी लब्धा, एषैव च कर्कशगुरुष्णैर्लभ्यत इत्येवमष्टौ, एते चाष्टौ कशगुरुभ्याम्, एवमन्ये च कर्कशलघुभ्याम्, एवमेते षोडश कर्कशपदेन लब्धा एतानेव च मृदुपदं लभते इत्येवं द्वात्रिंशत्, इयं चद्वात्रिंशत् स्निग्धरूक्षयोरेकत्यादिना लब्धा, अन्या च द्वात्रिंशत् शीतोष्ण योरन्या च गुरुलघ्वोरन्या च कर्कशमृद्वोरित्येवं सर्व एवैते मीलिता अष्टाविंशत्युत्तरं भङ्ग कशतं भवतीति। 'छफासे' इत्यादि, तत्र सर्वकक्कशो 1 गुरुश्च 2 देशश्च शीत 3 उष्णः 4 स्निग्धो 5 रूक्षश्चे 6 ति। इह च देशशीतादीनां चतुर्णा पदाना मेकत्वादिना षोडश भङ्गाः, एते च सर्वकर्कशगुरुभ्यां लब्धाः, एत एव कर्कशलघुभ्यां लभ्यन्ते तदेवं द्वात्रिंशत्। इयं च सर्व कर्कशपदेन लब्धा इयमेव च सर्वमृदुना लभ्यत इति चतुःषष्टि भङ्गाः। इयं च चतुःषष्टिः सर्वकर्कशगुरुलक्षणेन द्विकसंयोगेन सविपर्ययेण लब्धा, तदेवमन्योऽप्येवंविधो द्विकसंयोगस्तां लभते, कर्कशगुरुशीतस्निग्धलक्षणानां च चतुर्णा पदानां षड् द्विकसंयोगास्तदेवं चतुःषष्टिः षड्भिर्दिकसंयोगैर्गुणितास्त्रीणि शतानि चतुरशीत्यधिकानि भवन्तीति / अत एवोत्कम्- 'सव्वे वेते छफासे' इत्यादि। 'जइ सत्तफासे' इत्यादि, इहाद्यं कक्केशाख्यं पदं स्कन्धव्यापकत्वाद्विपक्षरहितं शेषाणि तुगुर्वादीनि षट् स्कन्धदेशाश्रितत्वात् सविपक्षाणीत्येवं सप्त स्पर्शीः / एषां च गुर्वादीनां षण्णांपदानामेकत्वानेकत्वाभ्यां चतुःषष्टिर्भङ्गका भवन्ति, तेच सर्वशब्दविशेषितेनादिन्यस्तेन कर्कशपदेन लब्धाः / एवं मृदुपदेनापीत्येवमष्टाविशत्यधिकं शतम्, एवं गुरु लघुभ्यां शेषैः षभिः सह 128, शीतोष्णाभ्यामप्येवमेव 128, एवं स्निग्धरूक्षाभ्यामपि 128, तदेवमष्टाविंशत्युत्तरशतस्य चतुर्भिर्गुणेन पञ्च शतानि द्वादशोत्तरणि भवन्तीति / अत एवाह-एवं सत्तफासे पंच बार सुत्तरा भंगसया भवंती' ति। 'अट्ठफासे' इत्यादि, चतुर्णा कशादिपदानां सविपर्ययाणामाश्रयणादष्टौ स्पर्शाः। एते च बादरस्कन्धस्य द्विधा विकल्पितस्यैकत्र देशे चत्वारो विरुद्धास्तु द्वितीये इति, एषु चैकत्वानेकत्वाभ्यां भङ्गका भवन्ति।तत्र च रूक्षपदेनैकवचनान्तेन बहुवचनान्तेन द्वौ, एतौ च स्निग्धैकवचनेन लब्धावेतावेव स्निग्धबहुवचनं लभेते, एते चत्वारः, एते च सूत्रपुस्तके चतुष्ककेन सूचिताः। तथैतेष्वेवाष्टासुपदेषूष्णपदेन बहुवचनान्तेनोत्कचतुर्भङ्गी युक्ते नान्ये चत्वारः 4, एवं शीतपदेन बहुवचनान्तेनैव 4, तथा शीतोष्णपदाभ्यां बहुवचनान्ताभ्यामेत एव 4 एवं चैते 16, तथा लघुपदेन बहुवचनान्तेनैत एव 4, तथा लघुशीतपदाभ्यां बहुवचनान्ताभ्यामेत एव 4, एवं लघूष्णपदाभ्याम् 4, एवं लघु शीतोष्णपदैरिति 4, एवमेतेऽपि षोडश 16, एतदेव दर्शयति- 'एवं गुरुएणं एगत्तएण मित्यादि, तथा कर्कशादिनैकवचनान्तेन गुरुपदेन चबहुवचनान्तेनैतएव, तथा गुरुष्णाभ्यां बहुवचनान्ताभ्यामेत एव 4, एवं गुरुशीताभ्याम् 4, एवं गुरुशीतोष्णैः 4, एवं चैते षोडश, तथा गुरुलघुभ्यां बहुवचनान्ताभ्यामेत एव 4, एवं गुरुलघूष्णैः 4, एवं गुरुलघुशीतैः 4, एवं गुरुलघुशीतोष्णैः 4, एतेऽपि षोडश, सर्वेऽप्यादिति एते चतुः षष्टिः 'कक्खडमउ एहिं एगत्तेहिं ति कर्कशमृदुपदाभ्यामेकवचनद्भ्यां चतुःषष्टिरेते भङ्गालब्धा इत्यर्थः, 'ताहे तितदनन्तरम् 'कक्खडेणं एगत्तएणं' ति कर्कशपदेनैकत्वगेन एकवचनान्तेनेत्यर्थः 'मउएणं पुहत्तएणं ति मृदुकपदेन पृथक्तवगेननाकेवचनान्तेनेत्यर्थः 'एते चेव' ति एत एव पूर्वोत्कक्रमाचतुःषष्टिर्भङ्गकाः कर्तव्या इति, 'ताहे कक्खडेण' मित्यादि, ताहे' त्तिततः कर्कशपदेन बहुवचनान्तेन मृदुपदेन चैकवचनान्तेन चतुः-षष्टिर्भङ्गकाः पूर्वोत्कक्रमेणैव कर्तव्याः, ततश्चैतानेव कर्कशमृदुपदाभ्यां बहुवचनान्ताभ्यां पूर्ववचतुष्षष्टिभङ्गा कर्त्तव्याः एताश्चादितश्च तसश्चतुःषष्टयो मीलिता द्वे शते षट् पञ्चाशादधिके स्यातामिति, एतदेवाह - 'सव्वे त अट्ठफासे, दो छप्पन्ना भंगसया भवंति' त्ति।
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________________ वण्ण 526 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वण्ण देसे एतेषां च सुखतरप्रतिपत्तये यन्त्रकामिदम् -- कालो वर्णकाल इत्यादि स्वधियाऽभ्यूह्य वाच्यामिति // 2073 / / अथ भाष्यम्देसे | देसे | देसे | देसे | देसे | देसे | देसे पजायकालभेओ, वण्णो कालो ति वण्णकालोऽयं / फक्ख म. नणु एस नामउ चिय, कालो नानियमतो तस्स // 2074 / / योऽयं कालः कृष्णो वर्णः य वर्णश्चासौ कालश्च वर्णकाल इति भण्यते। सच कथंभूतः? पर्यायकालभेदः / इदमुत्कं भवति-यथा द्रव्यस्य कलन कालो द्रव्यकालः प्रागुक्तः, तथा पर्यायाणां कलनं कालः पर्यायकाल 256 / 128 | 64 | 32 | 16 इत्यपि द्रष्टव्यम् / ततश्च कृष्णवर्णस्य द्रव्यपर्यायत्वादयं वर्णकालः पर्यायकालभेद एव मन्तव्यः / ननु यदि पर्यायकालोऽपि कश्चिदस्ति, 'बारसछन्नउया भंगसया भवंति त्ति बादरस्कन्धे चतुरादिकाः स्पर्शा तर्हि 'दव्वे अद्ध अहाउय' इत्यादौ किमयं नोपन्यस्तः? सत्यम्, किन्तुभवन्ति। तत्र च चतुःस्पर्शादिषु क्रमेण षोडशानामष्टाविंशत्युत्तरशतस्य द्रव्यात्पर्यायाणां कथञ्चिदभिन्नत्वाद् द्रव्यकालभणनद्वारेणै वोत्कत्वाद् चतुरशीत्यधिकशतत्रास्य द्वादशोत्तरशतपञ्चकस्य षट्पञ्चाशदधिक न पृथगत्रायमुक्तः। अथवा-तद्भेदभूतास्याऽस्य वर्णकालस्याभिधानात् शतद्वयस्य च भावाद्यथोक्तंमानं भवतीति। भ०२० 205 उ०। वण्येते सोऽप्यभिहित एव द्रष्टव्यः / अत्राह-नन्वेष कृष्णो वर्णो नामत एव कालो अलंक्रियते शरीरमनेनेति वर्णः / पं० सं०३ द्वार / शरीरच्छवौ, जं०३ भण्यते, ततश्च नामकाल एवायं किमितीहोपन्यस्तः ? इति भावः / वक्ष० / प्रज्ञा० / गौरत्वादौ, उत्त० 20 अ० / वर्णनं वर्णः / श्लाघने, अत्रोत्तरमाह-नानिय मतस्तस्येति, तस्य कालनाम्नः संकेतवशाद् प्रश्न०२ सम्ब० द्वार। प्रव० / अर्द्धदिग्व्यापिनि साधुवादे। भ०१५ श० / गोरेऽपि विधीय मानत्वादनियतत्वम्, अतोऽन्यस्माद् व्यवच्छिद्य वर्ण यशसि, स्था०३ ठा०३ उ०। नि० चू० / सर्वदिग्व्यापिनि साधुवादे, एव यः कालः स इह वर्णकालोऽभिधीयते, नान्यत्, इत्येतावता नाम स्था०१० ठा०३ उ०। नि० चू०।युत्कतालक्षणे, ज्ञा०१ श्रु०६ अ०| कालादस्य भेदः / विशे०1 ब्राह्मणत्वादौ, सूत्र०१ श्रु०१ अ०३ उ०। (ब्राह्मणत्वादिजातिप्रकाराः वण्णगपेसिया स्त्री०(वर्णकपेषिका) चन्दनपेषिकायाम्, भ०१६ श० 'बंभ' शब्देपञ्चमभागे 1258 पृष्ठे उत्काः / ) श्रमणादिषु, श्रमणः श्रमणी ३उ०। श्रावकः श्राविका चेति, वन्दने, ध०३अधि०। संयमे, मोक्षे च। आचा० १श्रु० 8 अ०८ उ०। ('विमाण' शब्दे विमानवर्णानि वक्ष्यन्ते।) वण्णगुणप्पमाण न० (वर्णगुणप्रमाण) स्वनामख्याते प्रमाणभेदे, अनु०। (अत्रा सूत्राम्-'पमाण' शब्दे, पञ्चमभागे 472 पृष्ठे गतम्।) वण्णअ(ग) न० (वर्णक) वर्णरूपे, बृ० 1 उ०२ प्रक० / विलेपने, औ०। आ० म०। चन्दने वर्णनके, विपा०१ श्रु०१०। ज्ञा०। कम्पिल्लकादो, वण्णचउक्क न० (वर्णचतुष्क) वर्णेनोपलक्षितं चतुष्कं वर्णचतुष्कम्। वर्णगन्धरसस्पर्शचतुष्टये, कर्म०५ कर्म०। आचा०२ श्रु०१चू०२ अ०१ उ०1वण्णओजो सुगंधो चंदणादि। निक चू०१ उ०। हिङ्गुलकतैलादौ, वण्णो पुण हिंगुलादी तेल्लमादी। नि० वण्ण न० (वर्णन) सद्भूतगुणोत्कीत्तने, द्वा० 26 द्वा०। वण्ण स्त्री० (वर्णना) प्ररूपणायाम्, विशे० चू०१४ उ०। वण्णंतर न० (वर्णान्तर) अपान्तरालेषु नवसु वर्णेषु, आचा० 1 श्रु०१ वण्णाम न० (वर्णनामन्) वर्ण्यते अलंक्रियते शरीरमनेनेति वर्णः / स च अ० 1 उ०। ('बंभ' शब्दे पञ्चमभागे 1257 पृष्ठे दर्शितम्।) पञ्चप्रकार:-श्वेतपीतरत्कनीलकृष्णभेदात्। तन्निबन्धनं नाम। नामवण्णकर न० (वर्णकर) एकदिग्व्यापिनि साधुवादकरे, तं० / वपुषि कर्मभेदे, तच्च पञ्चधा-तत्र यदुदयवशाजन्तुशरीरे श्वेतवणप्रादुर्भाव यथा गौरत्वादिवर्णकरे, तं०। वलाकादीनाम् तत् श्वेतवर्णनाम, एवं शेषाण्यपि वर्णनामानि वण्णकर न० (वर्णकरण) विशिष्टेषु भोजनादिषु विशिष्टवर्णापादने, सूत्रा० भावनीयानि। पं० सं०३ द्वार। स०। कर्म०। श्रा० / वर्णरूपेऽर्थे , अनु० / १श्रु०१ अ० 1 उ०। (अत्रा सूत्राम्-'गुण्णाम' शब्दे तृतीयभागे 928 पृष्ठे गतम्।) वण्णकाल पुं० (वर्णकाल) वर्णश्चासौ कालश्च वर्णकालः / कालभेदे, | वण्णणिव्वत्ति स्त्री० (वर्णनिर्वृत्ति) वर्णसंसिद्धौ, भ०१६ श०८ उ०। विशे० (वर्णनिवृत्तिसूत्रम् 'णिव्वत्ति' शब्दे चतुर्थभागे 2120 पृष्ठे गतम्।) अथ नियुक्तिकृद् वर्णकालमाह वण्णपज्जवपुं०(वर्णपर्यव) तत्तदन्यतमुत्पद्यमानवर्णविशेषे, जी०३ प्रति० पचण्हं वण्णाणं, जो खलु वन्नेण कालओ वण्णो। 4 अधि०। सो होइ वण्णकालो, वणिज्जइ जो व जं कालं // 2073|| वण्णपणगन० (वर्णपञ्चक) वर्णोपलक्षिते पञ्चावयवे समुदाये, क० प्र० शुल्कादीनां पञ्चानां वर्णनां मध्ये यो वर्णेन-छायया कृष्ण एव वर्णः स 5 प्रक० भवति वर्णकालः। अथवा-यः कोऽपिंजीवादिपदार्थो यत्कालं यस्मिन् | वर्णपरिणय त्रि०(वर्णपरिणत) वर्णतः परिणतो वर्णपरिणतः। वणभाजि, काले वर्ण्यते-प्ररूप्यते स वर्णनं-वर्णस्तत्प्रधानकालो वर्णकालः। / प्रज्ञा०१ पद। यदिवा-शुक्लादिवर्ण एव वर्ण्यते या काले सशुक्लादिवर्णप्ररूपणस्य | वण्णपरिणाम पुं० (वर्णपरिणाम) पञ्चानां श्वेतादीनां वर्णानां
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________________ वण्णपरिणाम 530- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वण्हिपुंगव परिणतिः। द्रव्यादिसंयोगपरिणतौ, सूत्र०१श्रु०१अ० १उ०। स्था०। वर्णवादिनं प्रति आचार्यदीनां गुणग्राहकं प्रति बृहयिता प्रशंसाकर्तृवण्णफरिसजुत्त त्रि० (वर्णस्पर्शयुक्त) प्रधानवर्णस्पर्श, भ०६ श०३३ उ०। हर्षवृद्धिकरो भवति यथा - "जो जाणइ जस्स गुणं, सो लोए तस्स वण्णमंत त्रि० (वर्णवत्) प्रशंसायामतिशायने वा मतुष् / प्रशस्त वणे, आयरं कुणइ।' तथा-गुणिनि गुणज्ञो रमते, नागुणशीलस्य गुणिनि अतिशयितवर्णे च। स्था० 4 ठा० 4 उ०। सूत्रा०। आचा०। परितोषः / अतिरेति वनात् कमलं, न दर्दुरस्त्वेकवासेऽपि // 1 // तथावण्णय - देशी-श्रीखण्डे, दे० ना०७ वर्ग 37 गाथा। 'गुणिनि गुणज्ञे रमते, इतरः............. कस्तु वराकः। सरसिजपरि वण्णवाइ (ण) त्रि० (वर्णवादिन) श्लाघावादिनि, व्य०१ उ०। 'मलरसिको, मधुपयुवा नतु वर्कः कार्कः।।१।।" इत्यादिभिः, आत्मनः वण्णवाय पुं०(वर्णवाद) श्लाघायाम्, पञ्चा०६ विव० / गुणग्रहणे, ध०३ स्वयं वृद्धा आचार्यादयस्तेषां सेवी इशिताकारैः तथा विधं ज्ञात्वा कारकः / अधि० / प्रव०। (अधर्मस्य वर्णवादो न कर्त्तव्य इति 'अहम्म' शब्दे 'सेत्तमि' त्यादि व्यक्तम् / दशा० 4 अ०। प्रथमभागे 662 पृष्ठे उत्कम्।) वण्णादेसि (ण)-पुं० (वदिशिन) वण्यते प्रशस्यते येन स वर्णः / पंचहिं ठाणेहिंजीवा सुलभबोधित्ताए कम्मंपगरेंति, तंजहा-अरहंताणं वन्नं साधुकारादेशिनि वणाभिलाषिणि, आचा० 1 श्रु० 5 अ० 3 उ०। वदमाणे. जाव विवक्कतवबंभचेराणं देवाणं वनं वदमाणे। (सू०-४२६) / वण्णवास पुं० (वर्णावास) वर्णः-श्लाघा यथावस्थितस्वरूप कीर्तन अर्हतां वर्णवादो यथा- "जियरागदोसमोहा, सव्वन्नूतिय सनाहकय- तस्यावासो-निवासो ग्रन्थपद्धतिरूपोवर्णवासः। वर्णक निवेशे, जी०३ पूया। अचंतसच्चवयणा, सिवगइगमणा जयंति जिणा ||1||" इति प्रति० 4 अधि० / आ० म०रा०। प्रति० / भ०। अर्हत्प्रणीत्तधर्मवर्णो यथा-"वत्थुपयासणसूरी, अइसयरयणाण सायरो वर्णकय्यास-पुं० / वर्णकविस्तरे, भ०१४ श०६ उ०। जयइ / सव्वजयजीव बंधुर - बंधू दुविहोऽवि जिणधम्मो ||1||" | दण्णिय त्रि० (वर्णित) प्ररूपिते, उत्त०५ अ०। उपदिष्ट, आव०१०। आचार्यवर्णवादो यथा-'तेसिं नमो तेसिं नमो, भावेण पुणो वि तेसिँचेव कथिते, दश० 10 अ० / व्याख्याते, विशे०। नि० चू०। सूत्रा० / अनु० / नमो। अणुवकयपर हियरया, जे नाणं देंति भव्वाणं // 1 // " चतुर्वर्ण- स्था०। आचा०। श्रमणसंघवर्णो यथा-''एयम्मि पूइयम्मिय, नत्थि तयंजन पूइयं होइ। वण्णेऊण स्त्री० (वर्णयित्वा) व्याख्यायेत्यर्थे , व्य० 3 उ०। भुवणे विपूअणिज्जो, न गुणी संघाउ जं अन्नो // 1 // देववर्णवादो यथा- | वण्णेतुं अव्य० (वर्णयितुम्) प्रतिपादयितुमित्यर्थे, आ० म०१ अ०। "देवाण अहो सील, विसयविसमोहिया वि जिणभवणे। अच्छरसाहिं पि वण्हि पुं० (वृष्णि) "सूक्ष्म----ष्ण-स्न-इ-ह-क्ष्णां ग्रह : " समं, हासाई जेण न करिति / / 1 / / " स्था०५ ठा०२ उ०। // 875 / / इति संयुक्तस्य ष्णभागस्य णकाराक्रान्तो हकारः। प्रा० / वण्णवीसइ स्त्री० (वर्णविंशति) वर्णेनोपलक्षिता विंशतिरिति / वर्णाः 5 |. अन्धकवृष्णिनराधिपे, पा०। गन्धौ 2 रसाः 5 स्पर्शाः 8 इत्येवं विंशतौ, कर्म०५ कर्मः / (वर्णादीनां | बहि - पुं० / अभ्यन्तरदक्षिणायाः कृष्णराजेवैरोचनाविमानवा सिनि भेदाः स्वस्वस्थाने) लोकान्तिकदेवे, स्था० 8 ठा० 3 उ० / अग्नौ, ज्ञा०। आ० म०। प्रव० / वण्णसंजलणास्त्री० (वर्णसंज्वलना) तीर्थकरादीनां सद्भूत गुणोत्की- "धूमद्धओ हुअवहो विहावसू पावओ सिही वण्ही" पाइ० ना० 6 गाथा। तनायाम्, दश०६ अ०१ उ०१ वहिदसास्त्री० (वृष्णिदशा)"नाम्न्युत्तरपदस्यवे'तिलक्षण वशादादिसाम्प्रतंवर्णसंज्वलनतां पिपृच्छिषुरिदमाह पदस्यान्धकशब्दरूपस्य लोपः / ततोऽयं परिपूर्णः शब्दः अन्धकसे किं तं वण्णसंजलणता ? वण्णसंजलणता चउट्विहा वृष्णिदशा इति, अयं चान्वर्थः-अन्धकवृष्णिनरा धिपकुलेये जातास्तेपण्णत्ता, तंजहा-आह-मव्वाणं वण्णवायी भवति, अवण्णवातिं ऽपि अन्धकवृष्णयः, तेषां दशाः अवस्था श्चरितगतिसिद्धिगमनलक्षणा पडिहणित्ता भवति, वण्णवातिं अणुबंहिता भवति, आयवुड्डसेवी यासु ग्रन्थपद्धतिषु वर्ण्यन्ते ता अन्धवृष्णिदशाः, अथवा अन्धकयाऽवि भवति। सेत्तं वण्णसंजलणता। वृष्णिवक्तव्यताप्रतिपादिका दशाः अध्ययनानि अन्धकवृष्णिदशाः, 'से कि तमित्यादि, प्रश्नसूत्रव्यत्कम्, आचार्य आह-वर्णसंज्वलनता आह च चूर्णिणकृत्-"अंधकवण्हिणोजे कुले अन्धसद्दलोवाओ वण्हिणो चतुर्विधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-यथा भव्यानां वर्णवादा भवति 1 अवर्णवादिनं भणिया, तेसिं चरियं गती सिज्झणा य जत्थ भणिया ता वहिदासाओ, प्रतिहन्ता भवति 2 वर्णवादिनम् अनुबृहयिता भवति 3 आत्मवृद्धसेवी दस त्ति अवस्था अज्झयणा वा' इति।नं० / अन्धकवृष्णिनराधि पवक्तचापि भवति 4, तत्रा यथा भव्यानामग्रे आचार्यस्य गुणजात्यादयस्तेषां व्यताप्रतिपादके ग्रन्थविशेषे, पा०। निरयावलिकाश्रुत स्कन्धान्तर्गते वर्णवादी प्रशंसाकथको भवति 1, अवर्णवादी आचार्यदीनामयशोवादी स्वनामख्याते पञ्चमवर्गे , नि०। यो भवति तं प्रतिहन्ता भवति युक्तयादिभिस्तं निषेधयिता इत्यर्थः 2, | वहिपुंगव पुं० (वृष्णिपुङ्गव) यदुप्रधाने, ज्ञा० 1 श्रु० 16
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________________ वहिपुंगव 531 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वत्तव्वया अ०।"भवणाओ णिग्गओ वहिपुंगवो" वृष्णिपुंगवो नेमिकुमारः। उत्त० पचक्खेसु न जुत्तो, तुह भूमि-जला-ऽनलेसु संदेहो। 22 अ०। अनिलाऽऽगासेसु भवे सोऽवि न जुत्तोऽणुमाणाओ॥१७४८|| वतन न० (वदन)"तदोस्तः॥८।४।३०७।। इति पैशाच्यां दस्य तः। तस्माद् भूमि-जल-वहिषु प्रत्यक्षेषु तव सौम्य ! संशयो न युत्कः, मुखे, प्रा० 4 पाद। यथा स्वस्वरूपे। तथा अनिलोऽपि प्रत्यक्ष एव, गुण प्रत्यक्षत्वात्, घटवत्, वति स्त्री० (वाच्) द्रव्यश्रुते, भ०१६ श०३ उ०। ततस्तत्रापि न संशयो युत्कः / भवतु वा, अनिलाऽऽकाशयोरप्रत्यक्षत्वेन वतिमिस्स त्रि०(व्यतिमिश्र) सम्मिलिते, "वतिमिस्संह रत्था' आचा० संशयः, तथाऽप्यसौ न युत्कः, अनुमानसिद्धत्वात्तयोरिति॥१७४८॥ २श्रु०१ चू० 1103 उ०। तत्रानिलविषयं तावदनुमानमाह - वतु- देशी-निवहे, दे० ना० 7 वर्ग 32 गाथा। अस्थि अदिस्सपाइय, फरिससगॉईणं गुणी गुणत्तणओ। वत्त त्रि० (व्यक्त) प्रकटे, द्वा०११ द्वा०! प्रति०। स्फुटे, विशे०। आ० | रूवस्स घडो व्व गुणी, जो तेसिं सोऽनिलो नाम // 1746 / / म० / स्पष्टे, जी०१ प्रति० / सूत्र० / अभिव्यत्कार्थे, प्रतिपादि तार्थे, यएतेऽदृश्येन केनाप्यापादिता जनिताः स्पर्शादयस्ते विद्यमानगुणिनः, षो०१ विव० / अक्षरस्वरस्फुटकरणत्वात्। (स्था०७ ठा०३ उ०।) गुणत्वात्, आदिशब्दच्छब्दस्वास्थ्यकम्पा गृह्यन्ते, एतेऽपि हि स्फुटार्थे सूत्रादौ, अनु० / पञ्चमहाभूतं प्रति सन्दिहाने श्रीवीरजि वायुप्रभवाद् वायुगुणा एव / इह ये गुणास्ते विद्यमानगुणिनो दृष्टाः, यथा नेन्द्रसमीपे प्रवजिते स्वनामख्याते चतुर्थे गणधरे विशे०। घटरूपादयः, यश्चैषां स्पर्शशब्द स्वास्थ्यकम्पानां गुणी स वायुः, अथ चतुर्थस्य व्यक्तगणधरस्य वक्तव्यतामभिधित्सुराह तस्मादस्त्यसाविति / / 1746 // ते पव्वइए सोउं, वियत्तु आगच्छई जिणसगासं। आकाशसाधकमनुमानमाह - वचामिण वंदामि, वंदित्ता पजुवासामि॥१६८७।। अत्थि वसुहाइभाणं, तोयस्स घडो व्व मुत्तिमत्ताओ। एवं विचिन्त्य व्यक्तनामा द्विजोपाध्यायः समागतो भगवतः समीपम्, जं भूयाणं माणं, तं वोमं वत्त ! सुव्वत्तं / / 1750 / / अस्ति वसुधा–जला-ऽनल-वायूनां भाजनमाधारः, मूर्ति मत्वात्, ततो भगवता किं कृतम् ? इत्याह तोयस्यघटवत्, यच तेषां भाजनं तदायुष्मन् ! व्यक्त ! सुव्यक्तं व्योमेति। आभट्ठो य जिणेणं, जाइ-जरा-मरणविप्पमुक्केणं / यदिच-साध्यैकदेशतां दृष्टान्तस्य कश्चित्, प्रेरयति, तदेत्थं प्रयोगःनामेण य गोत्तेणय, सवण्णू सव्वदरिसीणं // 1688 // विद्यमानभाजना पृथिवीमूर्त त्वात्, तोयवत् / तथा आपः, तेजोवत् / व्याख्या पूर्ववदिति॥१६५६॥ तेजश्च, वायुवत्, वायुश्च, पृथिवीवदिति // 1750 // विशे०। अथ भाष्यम् * वृत्त त्रि० अतिक्रान्ते, दश०१ अ०। प्रव०। भूएसु तुज्झ संका, सुविणय-माओवमाइँ होज त्ति / * व्याप्त त्रि० पूर्णे, आ० म०१ अ०। नवियारिजंताई, भयंतिजं सव्वहा जुत्तिं / / 1690 // वत्तक्खा स्त्री० (व्यक्त्यख्या) एकस्यार्हतः प्रतिष्ठायाम्, ध०२ अधि०। भूयाइसंसयाओ, जीवाइसु का कह त्ति ते बुद्धी। वत्तणन०(वर्तन) पालने, सूत्र०१श्रु०७ अ०।अन्यत्रापातने, आचा० तं सव्वसुण्णसंकी, मन्नसि मायोवमं लोयं // 1661|| २श्रु०३ चू० आयुष्मन् ! व्यक्त ! भूतेषु भवतः संदेहः, यतः स्वप्नोपमानि मायोपमानि वत्तणय न० (वर्तनक) बालानामधीयानानां वार्ताकरणे, विशे०। वैतानि भवेयुरिति त्वं मन्यसे / यथा हि स्वप्रेकिल काश्चेनिः स्वोऽपि वत्तणा स्त्री० (वर्तना) नवपुराणादिना रूपेणाभवने, विशे० / पं० चू० / निजगृहाङ्गणे गजघटा-तुरगनिवह - मणि कनकराश्यादिकमभूतमपि प्राग्गृहीतस्यैव सूत्रादेरस्थिरस्य गुणने, आ०म०१ अ०। आ० चू०। पश्यति, मायायां चेन्द्रजाल विलसितरूपायामविद्यमानमपि कनक वत्तणी स्त्री० (वर्तनी) मार्गे, विशे०। मणि-मौकिकरजत-भाजनाऽऽराम-पुष्प-फलादिकं दृश्यते, तथैता वत्तणुवत्त न० (वृत्तानुवृत्त) वृत्तिमतिक्रान्तमनुवर्तमानेन ज्ञायत इति न्यपि भूतान्येवं विधान्येवेति मन्यसे,यद्-यस्माद् विचार्यमाणान्येतानि वृत्तानुवृत्तम् / वर्तमानहेतुके भूतानुमाने, दश० 1 अ०। सवथैव न काञ्चिद् युक्तिं भजन्ते-सहन्ते। भूतेषु यं संशये जीव-पुण्य- | वत्तद्ध (देशी ) सुन्दरे बहुशिक्षिते च, दे० ना०७ वर्ग 85 गाथा पापादिषु किल का वार्ता, भूतविका राधिष्ठानत्वात् तेषाम् ? इति तव | वत्तव त्रि० (वक्तव्य) कथयितव्ये, सूत्रा०१ श्रु०६ अ०॥ विशे०। प्रज्ञा० / बुद्धिः / तस्मात् सर्वस्यापि भूत-जीवादिवस्तु स्त्वदभिप्रायेणाभावात् प्रश्न०। सर्वशून्यताशङ्कील्वं निरवशेषमपि लोकं मायोपमं स्वप्रेन्द्रजालतुल्यं | वत्तव्यया स्त्री० (वक्तव्यता) अध्ययनादिषु प्रत्यवयवं यथा सम्भवं मन्यस इति // 1660 / 1661 / / विशे. / (युत्किश्चात्रा व्यत्कचेतोगता | प्रतिनियतार्थकथने। 'भाव' शब्दे पञ्चमभागे 461 पृष्ठे व्यत्कीकृता।) अनुवत्कव्यताद्वारं निरूपयितुमाह - तदेवं युक्तिभिः शून्तामपाकृत्य भगवान् व्यक्तं शिक्षयन्नाह - से किं तं वत्तय्वया ? वत्तटवया तिविहा पण्णत्ता,तं जहा
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________________ वत्तव्वया 532- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वत्तव्वया ससमयवत्तव्वया, परसमयवत्तव्वया, ससमयपरसमयवत्तव्वया। से किं तं ससमयवत्तव्वया ? 2 जत्थ णं ससमए आधविजइ पण्णविजइ परूविज्जइ दंसिज्जइ निदंसिज्जइ उवदंसिजइ सेतं ससमयवत्तव्वया / से किं तं परसमयवत्तव्वया ? परसमयवत्त व्वया जत्थ णं परसमए आघविजइ 0 जाव उवदंसिजइ, सेतं परसमयवत्तव्वया।से किं तं ससमयपरसमयवत्तव्वया ? ससमयपरसमयवत्तव्वया? ससमयपरसमयवत्तव्वया जत्थणं ससमए परसमए आधविजइ० जाव उवदंसिज्जइ, सेतं ससमय परसमयवत्तव्वया / (सू०-१५१) 'से किं तं वत्तव्वया' इत्यादि, तत्राध्ययनादिषु प्रत्यवयवं यथासम्भवं प्रतिनियतार्थकथनं वक्तव्यता इयं च त्रिविधा स्वसमयादिभेदात्, तत्र यस्यां णमिति वाक्यालङ्कारे स्वसमयः-स्वसिद्धान्तः आख्यायते यथा पञ्च अस्तिकायाः, तद्यथा-धर्मास्तिकाय इत्यादि, तथा प्रज्ञाप्यते यथा गतिलक्षणो धर्मास्तिकाय इत्यादि, तथा-प्ररूप्यते यथास एवासंख्यातप्रदेशात्मकादिस्वरूपः, तथा दर्शाते दृष्टान्तद्वारेण यथा मत्स्यानां गत्युपष्टम्भकंजलमित्यादि, तथा निर्दिश्यते उपनयद्वारेण यथातथैवैषोऽपि जीवपुद्रलानां गत्युपष्टम्भक इत्यादि, तदेवं दिग्मात्रप्रदर्शनेन व्याख्यातमिदम्, सूत्राविरोधतोऽन्यथाऽपि व्याख्येयमिति। सेयं स्वसमयवक्तव्यता / परसमयवक्तव्यता तु यस्यां परसमय आख्यायत इत्यादि, यथा सूत्रकृताङ्गप्रथमाध्ययने"सन्ति पञ्च महब्भूया, इहमेगेसि आहिया। पुढवी आऊ तेऊ (य), वाऊ आगासपञ्चमा।।१।। एए पञ्च महब्भूया, तेब्भो एगो त्ति आहिया। अह तेसिं विणासेणं, विणासो होइ देहिणो // 2 // " इत्यादि, अस्य च श्लोकद्वयस्य सूत्रकृदवृत्तिकारलिखित एवायं भावार्थः / एकेषां नास्तिकानां स्वकीयाप्तेन आहितान्याख्याता नि इह लोके सन्तिविद्यन्ते पञ्च समस्तलोके व्यापकत्वान्महाभूतानि तान्येवाह - पृथिवीत्यादि पञ्चभूतव्यतिरिक्तजीवनिषेधार्थमाह - 'एए पंचे' त्यादि एतानि-अनन्तरोक्तानि पृथिव्यादानि यानि पञ्च महाभूतानि 'तेभ्य' इतितेभ्यः कायाकारपरिणतेभ्यः एक:-कश्चित्किञ्चिद्रूपो भूताव्यतिरिक्तः आत्मा भवति, नतु भूतव्य तिरिक्तः परलोकयायीत्येवं ते 'आहिय' त्ति आख्यातवन्तः। अथ तेषां भूतानां विनाशेन देहिनो-जीवस्य विनाशा भवति तदव्यतिरिक्तवात्देवेत्येवं लोकायतभतप्रतिपादरनपरत्वात् पर समयवक्तव्यतेयमुच्यते-आख्यायते इत्यादि।पदानांतु विभागः पूर्वोक्त नुसारेण स्वबुद्धया कार्यः / सेयं परसमयवक्तव्यता / स्वसमयपरसमयवक्तव्यता पुनया स्वसमयः परसमयश्च आख्यायते, यथा-- "आगारमावसन्ता वा, आरण्णा वावि पव्वया। इमं दरिसणमावन्ना, सव्वदुक्खा विमुचई॥१॥" इत्यादि, व्याख्याआगारं-गृहं तत्राऽऽवसन्ता गृहस्था इत्यर्थः, आरण्या वातापसादयः 'पव्वइय' त्ति प्रद्रजिताश्चशाक्यादयः इदम्-अस्मदीयं मतमापन्ना --- आश्रिताः सर्वदुःखेभ्यो विमुच्यन्त इत्येवं यदासाख्यादयः प्रतिपादयन्ति | तदेवं परसमयवक्तव्यता, यदा तु जैनास्तदा स्वसमयवक्तव्यता, ततश्चासौ स्वसमयपरसमयवक्तव्यतोच्यते। अथवक्तव्यतामेव नयैर्विचारयन्नाहइयाणिं को णओ कं वत्तव्वयं इच्छइ ? तत्थ णेगम संगहवद हारा तिविहं वत्तव्वयं इच्छंति, तंजहा-ससमयवत्तव्वयं परसमयवत्तव्वयं ससमयपरसमयवत्तव्वयं, उजुसुओ दुविहं वत्तय्वयं इच्छइ, तं जहा-ससमयवत्तव्वयं परसमयवत्तव्वयं,तत्थणंजा साससमयवत्तव्वयासाससमयं पविट्ठा,जासा परसमयवत्तव्वया सा परसमयं पविट्ठा, तम्हा दुविहा वत्तव्वया, नत्थि तिविहा वत्तव्वया, तिणि सद्दणया एग ससमयक्त्तव्वयं इच्छंति, नत्थि परसमय वत्तव्वया, कम्हा ? जम्हा परसमए अणढे अहेऊ असन्मावे अकिरिए उम्मग्गे अणुवरसे मिच्छादसणमिति कट्ट, तम्हा सव्वा ससमयवत्तव्वया, णत्थि परसमयवत्तव्वया णत्थि ससमयपरसमयदत्तव्वया। सेतं वत्तवया। (सू०-१५१) 'इयाणिं को नओ' इत्यादि, अत्रा नैगमव्यवहारौ त्रिविधामपि वक्तव्यतामिच्छतः, नैगमस्यानेकगमत्वाद् व्यवहार (पर) स्य तु लोकव्यवहारपरत्वाल्लोके च सर्वप्रकाराणां रूढत्वादिति भावः / ऋजुसूत्रस्तु विशुद्धतरत्वादनाद्यामेव द्विविधां वक्तव्यतामिच्छति, स्वपरसमयवक्तव्यतानभ्युपगमे युक्तिमाह'तत्थ णं जा सा' इत्यादि, तृतीयव्यक्तव्यताभेदेयाऽसौ स्वसमयवक्तव्यतागीयतेसा स्वसमयं प्रविष्टा, कोऽर्थः ? प्रथमे वक्तव्यताभेदे अन्तर्भूता इत्यर्थः / या तु परसमय वक्तव्यता सा परसमयं प्रविष्टा / इदमत्र हृदयम्-द्वितीये वक्तव्यताभेदे अन्तविता इत्यर्थः, ततश्चोभयरूपवक्तव्यतायाः प्रस्तुतनयमतेऽसत्वात् द्विविधैव वक्तव्यता न त्रिविधेति भावः / संग्रहस्तु सामान्यवादिनैगमान्तर्गतत्वेन विवक्षितत्वात् सूत्रागतिवैचित्र्यादा न पृथगुक्त इति / त्रयः शब्दनयाः-- शब्दसमभिरूढवंभूताः शुद्धतमत्वादेकां स्व समयवक्तव्यतामिच्छन्ति, नास्ति परसमयवक्तव्यता इति मन्यन्ते, कस्मादित्याह -- यस्मात्परसमयोऽनर्थः, इत्यादि। इत्थं चेह योजना कार्यानास्ति परसमयवक्तव्यता, परसमय स्यानर्थत्वादित्यादि, अनर्थत्वं परसमयस्य नास्येवात्मेयनर्थ प्रतिपादकत्वाद, आत्मनो नास्तित्वस्य चानर्थत्वमात्माभावे तत्प्रतिषेधानुपपत्तेः। उक्तंच-"जो चिंतेइ सरीरे, नत्थि अहं स एव होइ जीवो ति।नहुजीवम्मि असंते, संसयउप्पायओ अण्णो॥१॥" इत्याद्यन्यदप्यभ्यूह्यम् / अहेतुत्त्वं च परसमयस्य हेत्वाभासबलेन प्रवृत्तेः, यथा नास्त्येवात्मा अत्यन्तानुपलब्धेः / हेत्वाभासश्चायं ज्ञानादेस्तद्गुणस्योपलब्धेः, उक्तं च - 'नाणाईणं गुणाणं, अणुभवओ होइ जंतुणो सत्ता। जहरूवाइ गुणाणं, उवलंभाओधडाईणं // 1 // " इत्यादि प्रागेवोक्तमिति। असद्धावत्वंचैकान्तक्षणभङ्गासद्भूतार्थाभिधायकत्वाद, एकान्तक्षण भङ्गादेश्चासद्भूतत्वं युक्तिविरोधात्तथाहि- "धम्मा धम्मुवएसो, कयाकयं परभवाइगमणं च। सव्या वि हु लोयठिइँ, नघडइ एगंतखिणयम्मि॥१॥" इत्यादि, अक्रियात्वंचैकान्तशून्यताप्रतिपादनात, सर्वशून्यतायांच क्रियावतोऽभावेन क्रियया असंभवाद्, उक्तंच-'सव्वं सुन्नति जयं, पडियन्नंजेहि तेऽवि
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________________ वत्तव्वया 833 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वत्ति क्त्तव्वा / सुन्नाभिहाणकिरिया, कत्तुरभावेण कह घडई // 1 // " इत्यादि, उन्मार्गत्वं परस्परविरोधस्थाण्वाद्याकुलत्वात्, तथाहि-"न हिंस्यात्सर्वभूतानि, स्थावराणि चराणि च / आत्मवत्सर्वं भूतानि, यः पश्यति स धार्मिकः॥१॥" इत्याद्य भिधाय पुनरपि - 'षट् सहस्राणि युज्यन्ते, पशूनां मध्यमेऽहनि। अश्वमेधस्य वचनान्यूनानि पशुभिस्विभिः // 1 // " इत्यादि, प्रतिपादयन्तीति अनुपदेशित्वं चैकान्तक्षण भङ्गादिवादिनामहितेऽपि प्रवर्तकत्वात्तदुत्कम्-"सर्व क्षणिक मित्येतद, ज्ञात्वा को न प्रवर्तते। विषयादौ विपाको मे, न भावीति विनिश्चयाद् / / 1 / / " इत्यादि, यतश्चैवं ततो मिथ्या दर्शनम्, इति ततश्च मिथ्यादर्शनमिति कृत्वा नास्ति परसमय वक्तव्यतेति वर्तते, एवं सांख्यादिसमयानामप्यनर्थत्वादि योजना स्वबुद्ध्या कार्येति / तस्मात्सर्वा स्वसमयवक्तव्यतैव, लोके प्रसिद्धानापिपरसमयान् स्यात्पदलाच्छननिरपेक्षतया दुर्नयत्वादसत्वेनैते नयाः प्रतिपद्यन्त इति भावः / स्यात्पदलाच्छनसापेक्षतायां तु स्वसमयवक्तव्यतान्तर्भाव एव / प्रोक्तं च महामतिना'नयास्तव स्यात्पदलाच्छिताइमे, रसो पदिग्धा इव लोहधातवः / भवन्त्यभिप्रेतगुणा यत स्ततो, भवन्त मार्याः प्रणता हितैषिणः / / 1 / / " इत्यादि, सेयं वक्तव्यतेति निगमनम्। अनु०।व्य० आ० म०नि० चू०। वत्ता स्त्री० (वार्ता) "तस्याऽधूर्तादौ" / / 8 / 2 / 30 / / इति तस्य तो धूर्तादित्वात् पर्युदस्तः / प्रा० / न० / वृति-अण् / आरोग्ये, निरामये, वृत्तिशीले च। त्रि०। दुर्गावाम्, कृषिकर्मणि, वृत्तौ, जनश्रुतौ, कालकर्तृके, भूतनाशने च / स्वी० / अस्मिन् महामोहमये कटाहे, सूर्याग्रिना रात्रिभेदेनन्धनेनामासर्तुदर्वी परिघट्टनेन भूतानि कालः पचतीति वार्ता // 1 // इति भारतम् / वाच. / दिव्यगन्धानुभवे वार्ता-गन्धसंवित्तिः वृत्तिशब्देन तान्त्रिक्या परिभाषया घ्राणेन्द्रियमुच्यते, वर्तमाने गन्धविषये प्रवर्त्तत इति कृत्वा वृत्तौ-घाणेन्द्रिये भवा वार्ता यत्प्रकर्षादिव्यो गन्धोऽनुभूयते। द्वा०२६ द्वा० सूत्रवलनके, तं०। वृत्तान्ते, 'वुत्तंतोय उअंतो, वत्ता य पउत्तिं नामाई। पाइ० ना०६६ गाथा। वकृ-त्रि०। व्याख्यातरि, विपा०२ श्रु०१ अ०। वत्तार - देशी-गर्विते, दे० ना० वर्ग 41 गाथा। वत्ति स्त्री० (व्यक्ति) भावे; विशे०। भेदे, भेदो-विशेष इत्यनान्तरम्। स्था० 10 ठा० 3 उ० सामान्याश्रये वस्तुनि, आ०म०१ अ० सम्म०। वृत्ति-स्त्री०। वर्त्तने, स्था० 4 ठा० १उ०। सूत्र०। उल्का-स्त्री०।अभिहितायाम्, "असमिक्खा वत्ती कता" सूत्रा०१० 3 अ०३ उ०। वर्ति-स्त्री०। दशायाम, भ०८ श०६ उ०। वत्तिअ त्रि० (वर्तित)"र्तस्याधूदिौ" ||8:2 / 30 / / इति धूर्ता दिपर्युदासान्न टः / प्रा०। पुजीकृते, आव० 4 अ०। धूल्यास्थगित च। विशे०। वार्तिक-न०। वृत्तेः सूत्राविवरणस्य व्याख्यानं भाष्यम् वार्तिकम्। सूत्राविवरणे, विशे०। अथ वार्तिकस्वरूपमाहवित्तीए वक्खाणं, वत्तियमिह सव्वपज्जवेहि वा। वित्तीओ वा जायं, जम्मि वजह वत्तए सुत्ते॥१४२२।। वृत्तेः सूत्राविवरणस्यव्याख्यानं भाष्यं वार्तिकमुच्यते। यथेदमेव विशेषावश्यकम् / अथवा-उत्कृष्टश्रुतवतो गणधरादे भगवतः सर्वपर्यायैर्यद् व्याख्यानं तद्वार्तिकम्। वृत्तेर्वा सूत्राविवरणाद्यदायातं सूत्रार्थानुकथनरूपं तद्वार्तिकम्, यदि वा-यस्मिन्सूत्रे यथा वर्तते सूत्रस्यैवोपरि गुरुपार-- म्पर्येणायातं व्याख्यानं तद्वार्तिकमिति। एवं च सति यस्य संबन्धि व्याख्यानं वार्तिकमुच्यते, तदाहउकोसयसुयनाणी, निच्छयओ वत्तियं वियाणाइ। जो वा जुगप्पहाणो, तओ व जो गिण्हए सम्वं / / 1523 / / उत्कृष्टश्रुतज्ञान्येव निश्चयनयमतेन तावद्वार्तिकं कर्तुं विजानाति, नान्यः / यो वा यस्मिन् युगे प्रधानो भद्रबाहुस्वाम्या दिर्भवति, ततो वा युगप्रधानाद्यः स्थूलभद्रस्वाम्यादिः सर्वं श्रुतं गृह्णति स वार्तिककृदिति। विशे० / आव०। आ० म०। आ० चू०। बृ०॥ तं०। संप्रति मखदृष्टान्तोपेतं वार्तिकगारमाहसामाइयस्स अत्थं, पुष्वधर समत्तमो विमासेइ। चउरो खलु मंखसुया, वत्तीकरणम्मि आहरणे // 202 / / यः सामायिकस्यार्थं पूर्वधरश्चतुर्दशपूर्वधारी सन् समस्तम इति पादपूरणे विभाषते यतः परं किमपि न वत्कव्यमस्ति स व्यक्तिको वार्त्तिककर इत्येकार्थः, तस्मिंश्च व्यक्तिकरणे चत्वारः खलु मखपुत्रा आहरणानि। तान्येवाहफलमिकेगे होहिं, बिइओ तइओय वाइयत्येणं / तिन्नि वि अकुडुंबभरा, तिगजोगचउत्थ भरईय / / 203 / / चत्वारो मङ्खास्तेषामेकः फलकं गृहीत्वा हिण्डते न गाथा उच्चरति नापि वाचकमप्यर्थं भाषते सन किंचिल्लभते, द्वितीयोन फलकं गृह्णति केवलं गाथाः पठन् हिण्डते सोऽपि न किंचिल्लभते, तृतीयो न फलक गृह्णतिन गाथा उच्चरति परं वाचकमप्यर्थं भाषते सोऽपि न किंचिल्लभते, चतुर्थस्तु फलकं गृहीत्वा गाथाः पठंश्च तासामर्थं च भाषमाणो हिण्डतेस सर्वत्रा लभते / आद्यास्त्रयः कुटुम्बाभराश्चतुर्थसिकयोगे त्रिकयोग संप्रयुक्तः कुटुम्बभरः, एष दृष्टान्तः, अयमर्थोपन यः व्यक्तावपि चत्वारो भङ्गा एकस्य सूत्रमायाति नार्थः, द्वितीयस्यार्थो न सूत्राम, तृतीयस्य सूत्रमप्यायाति अर्थोऽपि चतुर्थस्य न सूत्र नाप्यर्थः / अत्रा द्वावाद्यौ चतुर्थश्चाद्यत्रिमङ्क पुरुषवत्न मोक्ष लक्षणस्वकार्यप्रसाधकाः, तृतीयस्तु चतुर्थमवत् आत्मनो मोक्षप्रसाधकः। आह संप्रति कीदृशो व्यक्तिकारक इत्यत आहजे जम्मि युगे पवरा, तेसि सगासम्मि जेण उग्गहि। परिवाडीण पमाणं, वुच्छं वित्तीकरो सखलु // 204| ये यस्मिन् युगे प्रवराः-प्रधानास्तेषां सकाशे-समीपे येन ग्रहणा धारणासमर्थेनावगृहीतं कतिभिः परिपाटीभिरित्यत
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________________ वत्ति 535 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वत्थ - - आह परिपाटीनां परिमाणमग्रे वक्ष्ये स खलु तदा व्यक्तिकरः / 601 उ०१ प्रक०। वत्तिअयर पुं० (वार्तिककर) प्रज्ञातिशयवत्तया व्याख्यानादधिकं भाष-- माणे, विशे०। व्यत्तिकर-पुं०। निरवशेषैरपि व्याख्याप्रकारैयाख्येयप्रतिपादनकृति, विशे०। वत्तिणी स्त्री० (वर्तिनी) मार्गे,"मग्गो पंथो सरणी अद्धाणं वत्तिणी पहो पयवी"। पाइ० ना०५२ गाथा! वत्तिपइहा स्त्री० (व्यक्तिप्रतिष्ठा ) यस्तीर्थकृद्यदा किल तस्य तदाद्येति समयविद इत्युक्तलक्षणे वर्तमानतीर्थकरप्रतिष्ठापने, जी०१ प्रति० षो०। वत्तिय त्रि०(बर्तित) वृत्तीभूते, "तए णं साली पत्तिया वत्तिया गम्भिया पणूआ' 'वत्तिय त्ति ब्रीहीणां पत्राणि मध्यशलाका परिवेष्टनेन नालरूपतया वृत्तानि भवन्ति, तद्वत्ततयाजातवृत्तत्वाद्वर्तिताः,शाखादीनां वा समतया वृत्तीभूताः सन्तो वर्तिता अभिधीयन्ते। ज्ञा०१ श्रु०७ अ०। वत्तियामय न० (वार्तिकामृत) स्वनामख्याते अध्यात्मग्रन्थे वित्तात्पुत्रः प्रियः पुत्रात्पिण्डाः पिण्डात्तथेन्द्रियम / इन्द्रियेभ्यः परः प्राणः, प्राणादात्मा परः स्मृतः," इति तत्रात्यं वचनम्। ती०। वत्ती-देशी-सीनि, देना० 7 वर्ग 31 गाथा। वत्तुल त्रि० (वर्तुल) वृत्ते, स्था०४ ठा०२ उ०। वत्तेत त्रि० (वर्तयत्) श्लक्ष्णतां नयति, भ०८ श०७ उ०॥ वत्थ न० (वक्षस्) हृदये,। "हारविराइयरइयवत्था" हारेण विराजमाने, रचितं-शोभितं वक्षो यस्य स हारविराजमानरचित वक्षाः। रा०। वन-न०ावस्तेऽनेनेतिवस्त्रम्।वाससि, स्था०६ ठा०३ उ०। साटकादौ, उत्त० 2 अ०। चीनांशुकादौ, सूत्रा०१ श्रु०३ अ०२ उ०। आ० म०। अम्बरे, सूत्रा० 1 श्रु०४ अ०२ उ०।"वत्थगन्ध मलंकारो इत्थीओ सयणाणिय" अनु०॥ दश०। (1) एषणासमितिर्वस्त्रगता प्रतिपाद्यते, इत्यनेन सम्बन्धेना यातस्याध्ययनस्य चत्वार्यनुयोगद्वाराणि उपक्रमा दीनि भवन्ति, तत्रोपक्रमान्तर्गतोऽध्ययनार्थाधिकारो वस्त्रैषणा प्रतिपाद्येति, उद्देशार्थाधिकारदर्शनार्थं तु नियुक्तिकार आह-- पढमे गहणं बीए, धरणं पगयं तु दव्ववत्थेणं / एमेव होइ पायं, भावे पायं तु गुणधारी // 315 / / प्रथमे उद्देशके वस्त्राग्रहणविधिः प्रतिपादितः, द्वितीये तु धरणविधिरिति ।नामनिष्पन्न तु निक्षेपेवस्वैषणेति, तत्र वस्त्रास्य नामादिश्चतुर्विधो निक्षेपः, तत्रापिनामस्थापने क्षुण्णे! द्रव्यवस्त्रा त्रिधा, तद्यथा-एकेन्द्रियनिष्पन्नं कासिकादि, विकलेन्द्रियनिष्पन्न चीनांशुकादि, पञ्चेन्द्रियनिष्पन्नं कम्बलरत्नाद् / भाववस्त्र त्वष्टादशशीलाङ्गसहस्राणीति। इह तु द्रव्यवस्त्रोणाधिकारः, तदाह नियुक्तिकारः- 'पगयं तु दव्वत्थेणं' ति। वस्त्रस्येव पाास्यापि निक्षेप इति गान्यमानोऽत्रौव पात्रस्यापि निक्षेपातिनिर्देशं नियुत्किकारो गाथापश्चार्द्धनाह - ‘एवमेव' इति वस्त्राव त्पात्रास्यापि चतुर्विधो निक्षेपः, तत्रा द्रव्यपात्रमेकेन्द्रियादिनिष्पन्नम्, भावपात्र साधुरेव गुणधारीति। आचा०२ श्रु०१ चू०५ अ० 1 उ०। अथ भूयोऽपि परः प्रेरयति-- किं लक्खणेण अम्हं, सव्वणियत्ताण पावविरयाणं। लक्खणमिच्छंति गिही, धणधन्ने कोसपरिवडी॥२७६|| अस्माकं सर्वस्माद्धनधान्याद्यभावात्तत्परिग्रहान्निवृत्तानां पापात्प्राणातिपातादिनिवृत्तानां कि वस्त्रादिलक्षणेनान्वेषितेन किञ्चिदित्यर्थः, ये तुगृहिणः सारम्भाः संपरिग्रहास्तै न धन धान्याद्यभावान्न किमपि वृद्धिं प्रापणीयमश्नुवन्ति। परस्याभिप्रायं सूरिराह - लक्खणहीणो उवही, उवहणतीणाणदंसचरित्ते। तम्हा लक्खणजुत्तो, गच्छे दमएण दिलुतो // 277 / / लक्षणैः-प्रशस्तवर्णसंस्थानादिभिहीन उपधिः साधूनां ज्ञानदर्शनचारात्राण्युपहन्ति, तस्माल्लक्षणयुक्तोऽसौ धारयि तव्यः, तेन हि धार्यमाणेन गच्छे महती ज्ञानादिस्फीतिरूप जायते। तथा चात्रा द्रमकेण दृष्टान्तः। बृ.३ उ.। (पुंसां वस्त्रद्वयं स्त्रीणां च वस्त्रायं विना देवपूजादिन कल्पते इति 'चेइय' शब्दे तृतीयभागे 1267 पृष्ठ गतम्।) (2) वस्त्राणि जङ्गिकादिनिकम्पति निग्गंथाण वाणिग्गंथीण वा तओ वत्थाइंधारित्तए वा परिहरित्ततेवा, तंजहा-जंगिते भंगिते खोमिते। (सू०-१७०) स्था०३ ठा०३ उ०। कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंधीण व पञ्च वत्थाई धारित्तए वा परिहारित्तए वा, तजहा-जंगिए भङ्गिए साणए पोत्तिए तिरीड पट्टए णामं पंचमए। (सू०-४४६) स्था० 5 ठा०३ उ०। अथास्य सूत्रस्य कः संबन्धं इत्याहउवगरणं वि य पगयं, तस्स विभागो उ बितियचरिमम्मि।। आहारों वा वुत्तो, इदाणि उवहिस्स अधिकारो॥६१॥ पूर्वसूत्रे तावदुपकरणमेव कृतम्, अतस्तस्योपकरणस्य विभागो विशेषप्ररूपणं द्वितीयोद्देशकस्य चरमे अन्तिमे सूत्राद्वये क्रियते / अथवापूर्वसूत्रेषु सप्रपञ्चमाहार-उत्काः इदानीं त्वस्मिन् सूत्रो उपधेरधिकारो यादृश उपधिर्ग्रहीतुंकल्पते ताइक् प्रतिपाद्यते इति भावः। ताई विरूवरूवाइ, देति वत्थाणि ताणि वा घेत्तुं / सेसे जतीण देखा, तत्थ इमे पंच कप्पंति // 6 // अथवा-तानि परिधानप्रावरणकम्बलादीनि - रूपाणि वस्त्राणिा यदा सागारिकप्रातिहारिकतया ददाति तदा गृहीत्वा पूज्यकलाचार्यादि-विशेषाणि भक्तोद्वरितानि यतीनां दद्यात्, तत्रा तेषु दीयमानेषु अमूनि पञ्च वस्त्रााणि कल्पन्ते अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य (सू०४४६) व्याख्या कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा इमानि पञ्च वस्त्राणि धारयितुं वा परिग्रहे धर्तुं परिभोक्तुं तद्यथाजङ्गमाः-त्रसास्तदवयव निष्पन्नत्वाजाङ्गभिकम्, सूत्रे प्राकृतत्वात्मकारलोपः। भङ्गा अतसी तन्मयं भाङ्गिकम्, सनकसूत्रमयं-सानकम, पोतकम्
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________________ वत्ति 835 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वत्थ . कासिकम् तिरीडो-वृक्षविशेषस्तस्य यः पट्टो वल्कलक्षणं तन्निष्पन्नं तिरीडपट्टकं नाम पञ्चकम्। एष सूत्रसंक्षेपार्थः। अथ विस्तरार्थं भाष्यकारो विभणियुराहजंगमजायं जंगिय, तं पुण विगलिंदियं व पंचिदी। एकेकं पिय एत्तो, होति विभागेण गविहं // 6 // जङ्गमेभ्यो जातं जाङ्गिकम्, तत्पुनः विकलेन्द्रियनिष्पन्न पञ्चेन्द्रियं वा अनयोर्मध्ये एकैकमपि विभागेन विद्यमानमनेक विधं भवति। तद्यथापट्ट सुवन्नमलए, अंसुगचीणंसुके य विगलिंदी। उण्णोट्टियमियलोमे, कुतवे किट्टेअ पंचिदी॥६॥ 'पट्ट' ति पट्टसूाजम् 'सुवन्न' त्ति सुवर्णवर्ण सूत्रं केषां चित् कृमीणां भवति, तन्निष्पन्नं सुवर्णसूत्रजम्, मलयोनाम देशस्तत्सभवं मलयजम्, अंशुकः-लक्ष्णपट्टः तन्निष्पन्न मंशुकम्, चीनांशुको नाम कोशिकरोमाणि तस्माद्यातं चीनां शुकम्, यद्वा-चीनो नाम जनपदस्तत्रा श्लक्ष्णतरः पट्टस्तस्माद्यातं चीनांशुकम् / एतानि विकलेन्द्रियनिष्पन्नानि / तथा और्णिकम्, औष्ट्रकम् उष्ट्ररोमजं चेति प्रतीतानि / कुतपोजिणं किट्ट तेषामेवा रोमादीनामवयवस्तन्निष्पन्नं वस्त्रा मपि किट्टम् एतानि पञ्चेन्द्रियनिष्पन्नानि द्रष्टव्यानि। अथ भाङ्गिकादीनि चत्वार्यप्येकगाथया व्याचष्टेअतसीवंसीमादिए, भनियं साणकं तु सणवक्के / पोत्तय कप्पासमयं, तिरीडरुक्खा तिरीडपट्टो॥६॥ अतसीमयं वा 'सि' त्ति वंशकरीलस्य मध्याद्यन्निष्पद्यते पट्टा एवमादिकं, भाङ्गिकम् यत्पुनः सनवृक्षवल्कात् जातं तद्वस्त्रं सानकम्, 'पोतकं कासिमयम्, तिरीडवृक्षवल्काजातं तिरीडा पट्टकम्। पञ्च परूवेऊणं, पत्तेयं गेण्हमाणसंतम्मि। कप्पासिगा य दोणि उ, उण्णिय एक्को य परिभोगे॥६६|| एवं पञ्च वस्त्राणि प्ररूप्य सम्प्रति ग्रहणविधिभिधीयते प्रत्येकमेकैकस्य साधोः प्रयोग्याणि वस्त्राणिं गृहृतः सविद्यमाने लाभे द्वौ कल्पी कार्यासिकौ, एकस्त्वौर्णिक इत्येवं यत्राः कल्पाः ग्रहीतव्याः, परिभोगश्यामीषां वक्ष्यमाणविधिना विधातव्यः। यथा पुरातनगाथा। अथैनामेव विवृणोतिएकोन्नि सोत्ति दुनी, तिण्णि विगेणिहज ओण्णिए लहुओ। पाउरमाणा चेवं, अंतो मज्झे व जति ओण्णि // 67 / / एक ओर्णिकः कल्पो, द्वौ वा सौत्रिको प्रत्येक ग्रहीतव्यौ। अथ श्रीनपि कल्पते, सौत्रिकानौर्णिकान् वा गृह्णाति ततो मासलघु, प्रावृण्वन्नपि यद्येकमौणिकं प्रावृणोति तत एवमेव मास लघु, अन्तश्च शरीरनन्तरितं मध्ये तावद् द्वयोः सौत्रिकयोमध्ये भागे यद्यौर्णिकं प्रावृणोति तदापि मासलघु। इदमेव भावयतिअभिंतरं च बाहिं, बाहिं अभिंतरं करेमाणे / परिभोगविवचासे, आवजइ मासियं लहुयं // 6 // अभ्यन्तरपरिभोग्यं सौत्रिकं कल्पं बहि कुर्वन् प्रावृण्वन् बहिः परिभोग्य चौर्णिकमभ्यन्तरं कुर्वन् परिभोगव्यत्यासं करोतितत्र चापद्यतेमासिक लघुकम्। अतः सौत्रिकमन्तः प्रावृणुयात् और्णिणकं तुबहिः, एष विधिपरिभोग उच्यते अथ विधीयमाने गुणानुपदर्शयतिछप्पझ्यपणगरक्खा, भूसा उज्झायणा य परिहरिया। सीतत्ताणं च कतं,खोम्मिय अम्भितरेणं व // 6 // और्णिके ह्यन्तः परिभुज्यमाने षट्पादिकाः संगच्छेरन्, ततः सौत्रिकमन्तः प्रावृण्वता षट् पदिका रक्षिता भवन्ति, और्णिकं चान्तः परिभुज्यमानं मलीमासं भवति, ता च पनकः संसज्यते, अतो विधिपरिभोगेपनकस्यापि रक्षा कृता भवति, सौत्रिकेण च बहिः प्रावृत्तेन विभूषा न भवेत्, तथा वस्त्रमहर्निश मपि परिभुज्यमानं न मलीमसम्भवति, कन्दली तु परिभुज्यमाना मलीमसा जायते, मलीमसतया चदुर्गन्धा। अतो विधिपरिभोगे'उज्झायणा' दुर्गन्धतः साऽपि परिहृता, सौत्रिककल्पगर्भया च कम्बलिकया प्राब्रियमाणया शीतत्राणं कृतं स्यात्, एतेन कारणकलापेन क्षौमिकं कासिकं वस्त्रमभ्यन्तरे प्रावरणीयम्। अथ कासिकं न प्राप्यते ततः किं कर्तव्यमित्याहकप्पासियस्स असती, वागयपट्टे य कोसिवारे य। असती य उण्णियस्स, वागतकोसेयपट्टे य॥७॥ कासिकस्याभावे - वल्कजम्, तस्याभावे पट्टवस्त्रम्, तद प्राप्ती कौशिकवस्त्रमपि ग्रहीतव्यम्, अथौर्णिकं न प्राप्यते तत और्णिकस्य स्थाने प्रथमं वल्कजम्, ततः-कौशेयम्, ततः पट्टमपि ग्राह्यम्, यद्वा--- पट्टशब्दे नात्र तिरीटपत्रकमुच्यते। चशब्दादतसौवंशमयमपि ग्रहीतव्यम्। अथ प्रावरणे गणनाविधिमाह - ण उण्णिय पाउरते तु एकं, दोण्णी जतो खोम्मिय उणियं च। दो सुत्ति अंतो बहि उण्णिती तो, दुगाहि ओण्णी व बहिं परेणं / / 71 / / और्णिक कल्पमेकं न प्रावृणुते अर्थादापन्नं सौत्रिकमपि प्रावृणुयात्, यदा तुद्वौ कल्पौ प्रावृणोति तदा क्षौमिकमन्तः, द्वितीयं पुनरौर्णिकं बहिः प्रावृणुयात्। त्रिषु कल्पेषु प्रावरी तुमिष्टषु द्वौ सौत्रिकावन्तः एकं चौर्णिक बहिः प्रावृणुयात्, अथौर्णिकान् द्वयादीनपि प्रावरीतुमिच्छति, ततो त्रिप्रभृतयोऽप्यौर्णिका बहिः सौत्रिकात्परतः प्रावरणीयाः / अथ वस्त्रग्रहणे विधिमाहपञ्चण्डं वत्थाणं, परिवामिगए य होइ गहणं तु। उप्परिवाडीगहणे, पच्छित्ते, मग्गणा होइ॥७२।। पञ्चानां जङ्गिकादीनां वस्त्राणां परिपाट्या ग्रहणं कर्तव्यम्, परिपाटी नाम कासकमौर्णिकं च, तदभावे वल्कजपट्टका दिकमित्यादिरनन्तरोक्तः क्रमः, तमुल्लङ्ध्योत्परिपाट्या ग्रहणे प्रायश्चित्तस्य मार्गणा भवति, तद्यथा-जघन्यमुपधिमुत्परिपाट्या गृह्णाति पञ्च रात्रिन्दिवानि, मध्यमे मासलघु उत्कृष्ट चतुर्गुरूकम्।
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________________ वत्थ 836 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वत्थ एतदेव भावयतेअलंभकम्मस्त तु अप्पकम्म, भावेय तस्सावि तु जं सकम्भ एवं अकाउंचउरो उमासो, भवंति वत्थे परिवाडिहीणे 73 / तच्छेदनसीवनसन्धानादेरेकमपि परिकर्म यत्र न भवति, तद्यथाकृतम्। यस्य तुदशिका वा केवलं छेत्तव्या, सन्धानं वा द्वयोः खण्डयोर्विधेयम्, बुनने वा केवलं छेत्तव्या, सन्धानं वा द्वयोः खण्डयोर्विधेयम्, बुननं वा कर्तव्यम्, तदल्पपरिकर्म / यत् बहुधा छिद्यमानं संधीयमानतयाप्रमाणप्राप्तं भवति, यद्वा बहुधा सीवितव्यम्, तद्वस्त्रं बहुकर्मोच्यते,ता प्रथमं यथा कृतं मार्गयितव्यम्, तस्याभावे यत्सत्कर्म तस्याप्यभावे बहुपरि कर्माकम् / अथैवंविधं योगमकृत्वा प्रथममेवाल्पपरिकर्म बहु परिकर्म वा गृण्हाति ततश्चत्वारो मासा लघवः / तुशब्दो विशेषणे / तल्लब्धश्चायमर्थः-उत्कृष्टवस्त्रां यथाकृतादिविपर्या सग्रहणे चतुर्लघवः, मध्यमस्य विपर्यासे मासिकम्, जघन्यस्य व्यत्यासे पञ्चकम्, एवं परिपाटीहीने यथोत्कग्रहणक्रमरहिते वस्त्रे गृहमाणे प्रायश्चित्तम्। अथ द्वितीयपदमाहअद्धाणमाईसु उ कारणेसुं, कुज्जा अलंभम्मि उ उकम्मं पि। गेलनमादीसु विवज्जियं वा, ऽसती य कुज्जा खलु खुम्मियस्स। अध्वा-विप्रकृष्टो मार्गस्तं प्रपन्नानां ततोवा निर्गतानां दुर्लभ वस्त्रं भवेत् एवमादिषु कारणेषु वस्त्रस्यालाभे उत्क्रममपि कुर्यात्, ग्लानत्वानात्मवशतादिषु कारणेषु विपर्ययमपि कुर्यात्, अन्तः परिभोग्य बहिः परिभोग्य वा अन्तः प्रावृणुयादिति भावः। क्षौमिकस्य वा कल्पस्याभाव खल्वेकमाणिक प्रावृणुयात्। बृ०२ उ०। पं० भा०ा पं० चू० / से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अभिकंखेज्जा वत्थं एसित्तए, से जं पुण वत्थं जाणेजा, तं जहा-जंगियं वा भंगियं वा साणियं वा पोत्तयं वा खोमियं वा तूलकडं वा, तहप्पगारंवत्थं वा जे णिग्गंथे तरूणे जुगवं बलवं अप्पायं के थिरसंघयणे से एगंवत्थं धारेखा, णो बितियं / जा णिग्गंथी सा चत्तारि संघाडीओ धारेला / एवं दुहत्थवित्थारं, दो तिहत्थवित्थाराओ, एगं चउहत्थ वित्थारं, तहप्पगारेहिं वत्थेहिं असंधिजमाणेहिं / अह पच्छा एगमेगं संसीविजा। (सू०-१४१) स भिक्षुरभिकाझे द्वस्त्रमन्तेष्टुं ता यत् पुनरेवंभूतं वस्त्रं जानीयत्तद्यथा'जंगियं' ति जङ्गमोष्ट्राधूर्णानिष्पन्नम्, तथा भनियं' ति नानाभङ्गिकविकलेन्द्रियलालानिष्पन्नम्, तथा-'साणयं तिशण्डवल्कलनिष्पनम्, 'पोत्तगं' ति ताड्यादिपत्रा सङ्घातनिष्पन्नम्, 'खोमियं' ति कासिकम् 'तूलकडं' ति अर्कादितूलनिष्पन्नम्, एवं तथाप्रकारमन्यदपि वस्त्र धारयेदित्यु त्तरेण संबन्धः / येन साधुना यावन्ति धारणीयानि तदर्शयति-तत्रयस्तरूणो निर्ग्रन्थः-साधुर्योवनेवर्तते, बलवान, समर्थः अल्पातङ्क:-अरोगी स्थिरसंहननः--दृढकायः दृढधृतिश्च, स एवंभूतः साधुरेकं वस्त्रम्-प्रावरणं त्वकत्राणार्थं धारयेन्नो द्वितीयमिति। यदपरमाचार्यादिकृते विभर्ति तस्य स्वयं परिभोगन कुरुते। यः पुनरियो दुर्बलो वृद्धो वा यावदल्पसंहननः स यथासमाधि ह्यादिकमपि धारयेदिति, जिनकल्पिकस्तुयथा प्रतिज्ञमेव धारयेतन तत्रापवादोऽस्ति। या पुननिन्थी साचतस्त्रः सङ्घाटिका धारयेत्, तद्यथा-एकां द्विहस्तपरिमाणं या प्रतिश्रये तिष्ठन्ती प्रावृणोति, द्वे त्रिहस्तपरिमाणे, तौका मुजवला भिक्षाकाले प्रावृणोति, अपरांबहिभूमिगमनावर इति, तथा अपरांचतुर्हस्तविस्तरां समवसरणादौ सर्वशरीरप्रच्छादि का प्रावृणोति, तस्याश्च यथाकृतायां अलाभे अथपश्चादेक मेकेन सार्द्ध सीव्येदिति। आचा०२ श्रु०१चू०५ अ०१उ०। (3) सम्प्रतिवस्त्रकल्पिकमभिधित्सुराहनामं ठवणा वत्थं, दव्वे भावे य होइ नायव्वं / एसो खलु वत्थस्स उ, निक्खेवो चउविहो होइ॥६०६॥ वस्त्रंखलुचतुर्विधम्, तद्यथा-नामवस्त्रम्, स्थापनावस्त्रम्, द्रव्यवस्त्रम्, भाववस्त्रं च। एष खलु वस्त्रस्य निक्षेपश्चतुर्विधो भवति। तत्र नामस्थापने प्रतीते। द्रव्यवस्त्रमाहदव्वे तिविहं एगिं-दियविगलपचिंदिएहि निष्फन्न।य सीलंगाई भावे, दव्वे पगयं तदट्ठाए।।६१०। द्रव्यवस्वं त्रिविधम्, तद्यथा-एकेन्द्रियनिष्पन्नं विकलेन्द्रिय निष्पन्नं पञ्चेन्द्रियनिष्पन्नं च। तत्रौकेन्द्रियनिष्पन्न कार्पासिकादि, विकलेन्द्रियनिष्पन्नं कौशेयकादि, पञ्चेन्द्रिय निष्पन्नमौर्णिकौष्ट्रिकादि भावेभाववस्त्रमष्टादशशीलाङ्ग सहस्राणि। अथ कान्यष्टादशशीलाङ्गसहस्राणीति ? उच्यतेकरणे जाग सण्णा-इंदियभोमादिसमणधम्मे य। सीलंगसहस्साणं, एता उ भवे समुप्पत्ती। अस्या अक्षरगमनिका करणं त्रिविधम्, तद्यथा-करणम्, कारापणम्, अनुमोदनं च / त्रिविधो योगो-मनोयोगो, वाग्योगोः, काययोगश्च / संज्ञाश्चतस्त्रः, तद्यथा-आहारसंज्ञा भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा, परिग्रहसंज्ञा च। इन्द्रियाणि पञ्च, तद्यथा-श्रोत्रेन्द्रियम्, चक्षुरिन्द्रियम्, घ्राणेन्द्रियम्, जिह्वेन्द्रियम्, स्पर्शनेन्द्रियम्। भोमादी' ति भौमः पृथिवी कायविषयसमारम्भः आदिशब्दाद् अप्कायसमारम्भः तेजस्कायसमारम्भः वायुकायसमारम्भः द्वीन्द्रियसमारम्भ स्त्रीन्द्रियसभारम्भश्चतुरिन्द्रियसमारम्भः पञ्चेन्द्रियसमारम्भो जीवकायसमारम्भश्च / श्रमणधर्मोऽपि दशधा क्षान्तिमार्दव मार्जवमलोभतातपः सत्यसंयमस्त्यागोऽकिञ्चनता ब्रह्मचर्य ञ्चाणतैः स्थानैरष्टादशानां शीलाङ्गसहस्राणामुत्पत्तिस्तद्यथा - "नकरेइ सयं साहू, मणसा आहारसन्नउवउत्तो। सोइंदियसंवरणो, पुढविजिएखंति सम्पन्नो॥१॥न करेइ सयंसाहू, मणसा आहारसन्नउवउत्तो। सोइंदियसंवरणो, पुढविजिएखंति सम्पन्नो॥१॥नकरेइ सयंसाहू, मणसा आहारसन्नउवउत्तो। सो इंदियसंवर णो, पुढविजिए मद्दवपवत्तं / 2 / " एवं तावद्वक्तव्यं यावद्दशम्यां गाथायां 'बंभचेरगए' इति, एते दशभङ्गाः पृथिवी कायसमारम्भपरिहारेण लब्धाः / एवमप्कायादिपरिहारेणापि प्रत्येकं दश दश लभ्यन्ते इति सङ्कलनया जातं शतम् / एतच श्रोत्रेन्द्रियेण लब्धमेवं शैवेरपि इन्द्रियैः प्रत्येकं शतं लभ्यते, इति जातानि पञ्च शतानि। एतानि चाहारसंज्ञोपयुत्केन लब्धानि, एवं शेषाभिरपि संज्ञाभिः प्रत्येकं पञ्चशता
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________________ वत्थ 837- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वत्थ नीति सर्वसंख्यया जाते द्वे सहस्रे / एते च न करोतीत्यनेन पदेन लब्धे। एवम्-'न, कारवेइ इत्यनेन 'नो अणु मन्नइ' इत्यनेन च प्रत्येकं लभ्येते इति, सर्वमीलने जातानिषट् सहस्राणि, तानि लब्धानि मनोयोगेन एवं वाग्यागेन काययोगेना पीते सर्वसंख्यया जातान्यष्टादशसहस्राणि / एतैरष्टादशभिः शीलाङ्गसहसैनित्यप्रावृताः साधवोऽवतिष्ठन्ते।तत एतानि भाववस्त्रम्। 'दव्वे पगइ मित्यादी अत्र द्रव्यवसेणाधिकारो यतस्तत् द्रव्यवस्त्रं तदर्थायभाववस्त्राय भवति भाववस्त्रस्योप ग्रहं करोतीत्यर्थः। (४)ततः प्रकृतमत्र द्रव्यवस्त्रेणपुणरवि दवे तिविहं, जहण्णगं मज्झिमं च उक्कोसं। एककं तत्थ तिहा, अहाकडऽप्पं सपरिकम्मं // 611 / / यत् द्रव्यवस्त्रमेकेन्द्रियादिनिष्पन्नतया त्रिविधमुक्तं तत्पुनर पि प्रत्येक त्रिधा,तद्यथा-जघन्यं मध्यममुत्कृटंचाता कार्या सिकम्-जघन्यम्मुखपोत्तिकादि, मध्यमम्-पढलकादि, उत्कृष्टम्-कल्पादि,एवं शेषे अपि कौशेयकादिके यथायोग भावनीये / एतेषामेकैकं त्रिधा-त्रिप्रकारम्, तद्यथा-यथाकृत मल्पपरिकर्म, सपरिकर्म च। एषामुत्पादने यथोत्कविध्यकरणे प्रायश्चित्तमाहचाउम्मसक्कोसे, मासियमज्झे य पञ्च य जहन्ने। वोचत्थगहणकरणे, तत्थ वि सट्ठाण पच्छित्तं // 612 / / उत्कृष्ट-उत्कृष्टवस्त्रविषये विपर्यस्तग्रहणे च - विपर्यासन ग्रहणे प्रायश्चित्तं चतुर्मासाः, मध्यमे मासिकम्, जघन्ये पञ्चरात्रिनं दिवानि / इयमत्र भावना-उत्कृष्टस्य यथाकृतस्य वस्त्रस्योत्पादनाय निर्गतस्तस्य विषये योगमकृत्वा यद्यल्पपरिकर्मोत्कृष्ट गृह्णाति तदा तस्य प्रायश्चित्तं चतुर्लधु, यदा किल यथाकृतं योगे कृतेऽपिन लभ्यते तदाऽल्पपरिकर्म ग्रहीतव्यं नान्यदा न तु विपर्यय इत्युक्तरूपं प्रायश्चित्तम्। यथोत्कृष्टमेव सपरिकर्म गृह्णाति तदाऽपि चतुर्लघु। अथ यथाकृतमुत्कृष्ट वस्त्रं कृतेऽपि न लब्धं तत उत्कृष्टस्याल्परिकर्मणो मार्गणं कर्त्तव्यमेव, तत्करणाय निर्गतस्तस्य योगमकृत्वा सपरिकर्मोत्कृष्ट वस्त्र माददानस्य चतुर्लधु, एव मुत्कृष्टविषये त्रीणि चतुर्लधुकानि। तथा मध्यमस्य वस्त्रस्योपादनाय निर्गतस्तस्य योगमकृत्वाऽल्पपरिकर्म मध्यमं गृह्णाति तदा मासलघु / अथ सपरिकर्म मध्यमं गृह्णाति तदाऽपि मासलघु, यदा यथाकृतं न लभ्यते तदाल्पऽपरिकर्म मध्यमं याचनीयमिति वचनतो यथाकृतेऽस्य योगे कृतेऽस्यालाभे अल्पपरिकर्मण उत्पादनाय निर्गतस्यस्य विषये योगमकृत्वा यदि सपरिकर्म मध्यमं गृह्णाति तदाऽपि मासलधु, एवं मध्यमविषये त्रीणि मासिकानि। तथा जघन्यस्य यथाकृतस्योत्पादनाय निर्गतस्तस्य योगमकृत्वाऽल्पपरिकर्म जघन्यं गृह्याति तदा रात्रिन्द्रियवपञ्चकम्, अथ सपरिकर्म जधन्यमाददाति तदापि पञ्चकम्, यदाऽनुयोगे कृतेऽपि यथा कृतं न लभ्यते तदाऽल्पपरिकर्म मार्गयितव्यमिति तस्योत्पादनाय निर्गतस्तद्विषये योगमकृत्वा सपरिकर्म गृह्वानस्य पञ्चकमेवंजघन्यविषये त्रीणि पञ्चकानि। एतन्त्र प्रायश्चित्तमधिकस्य विषये योगाकरणे, योगेतु कृते लाभाभावत स्तथा ग्रहणेऽपि दोषाभावः / तथाहि-यथाकृताय | निर्गतस्तच्च योगे कृतेऽपि न लब्धं ततोऽल्पपरिकर्मापि गृह्णन्, शुद्धः, अल्पपरिकर्मणोवा निर्गतस्तस्य योगे कृतेऽप्यलभ्यमानः सपरिकर्म गृह्णन् शुद्धः न केवलमेतत्, विपर्यस्तग्रहणे प्रायश्चित्तं किं कृत्वोत्कृष्टादिविपर्यस्तग्रहणे स्वस्थानमपि, तद्यथा-उत्कृष्ट स्योत्पादनाय निर्गतो मध्यम गृह्णाति मासिकम्, जघन्यं गृह्णाति रात्रिन्दिवपञ्चकम्, मध्यमस्य निर्गत उत्कृष्टं गृह्णाति चतुर्लघुजघन्यं गृह्णाति पञ्चकम्। जघन्यस्य निर्गत उत्कृष्ट गुह्वाति मासलघु / सर्वत्र चाज्ञादयो दोषाः / तदेवं ग्रहणे प्रायश्चित्तं स्वस्थानमुक्तम्। एवं करणेऽपि-उत्कृष्टादिकरणेऽपि स्वस्थान प्रायश्चितमवसातव्यम्। तद्यथा-उत्कृष्ट वस्त्रं छित्वा सीवित्वा चमध्यमकं करोति मासलघु, जघन्यं करोति रात्रिंदिवपञ्चकम्। जघन्यं सीवित्वा छित्त्वा वा उत्कृष्ट करोति चतुर्लघु मध्यमं करोति मासिकम् / यत एवं स्वस्थान प्रायश्चितं ततो विपर्यस्तग्रहणकरणे न विधेये। बृ० 1 उ० 1 प्रक०। साम्प्रतं वस्त्रकल्पिको भाव्यते, तत्रापि गाथाचतुष्टयं श्रीमलयगिरिणैव व्याख्या तमितः प्रभृति विव्रियते / तत्रा यदुत्कमनन्तरगाथायाम् - "वोच्चत्थगहणकरणे तत्थ वि सहाणपच्छित्तं" ति। तदेव भावयतिजोगमकाउमहागडे,जो गिण्हइ दोन्नि तेसु वा चरिमं / लहुगा उ तिन्नि मज्झ-म्मि मासिआ अंतिमे पंच // 613 // योगम्-व्यापारमुद्यममकृत्वा यथाकृते-यथाकृतवस्त्रविषयं साधुः द्वे अल्पपरिकर्मसपरिकर्मणी गृह्णाति, तद्यथा-यथा कृत स्यार्थाय निर्गतस्तस्य योगमकृत्वा प्रथममेवाल्पपरिकर्मस सपरिकर्मणोर्योगमकृत्वा प्रथममत एव तयोरल्पपरिकर्मस परिकर्मणोर्मध्ये चरमम् अन्त्यं सपरिकर्म गृह्णाति, तस्यैतेषु त्रिषु स्थानेषु उत्कृष्टमध्यजघन्यान्यधिकृत्य यथाक्रमं प्रायश्चित्तम्, तद्यथा-उत्कृष्ट त्रिषु स्थानेषु कायश्चतुर्लघवः, मध्यमे त्रीणि मासिकानि, अन्तिमे जघन्ये त्रीणि पञ्चरात्रि न्दिवानि। अत्र च भावना पूर्वगाथायां कृतेति न भूयो भाव्यते। उत्कं यथाकृतादिविपर्यासग्रहणे प्रायश्चित्तम्। संप्रत्युत्कृष्टादिविषये विपर्यासेन ग्रहणे च तदाहएगयरनिग्गओ वा, अन्नं गिहिज्ज तत्थ सट्ठाणं। छित्तूण सीविऊणं, जं कुणइ तगंण जं छिंदे // 614|| जघन्यादीनामेकतरस्यार्थाय निर्गतो वाशब्दो वैपरीत्ये स च प्रकारान्तरद्योतेन / अन्यत् येन न प्रयोजनं तत् गृण्हीयात्ततः स्वस्थाने प्रायश्चित्तम्, तद्यथा--उत्कृष्टस्य निर्गतो मध्यमं गृह्णाति मासिकम्, जघन्यं गृह्णाति पञ्चकम्।मध्यमस्य निर्गतः उत्कृष्ट गृह्णाति चतुर्लघु, जघन्यं गृह्णाति पञ्चकम् / जघन्यस्य निर्गत उत्कृष्ट गृह्णाति चतुर्लघु, मध्यमं गृह्णाति मासलघु / तथा आज्ञाभङ्गादयश्च दोषाः / यत्तेन विवक्षितवस्त्रेण कार्य तस्यान्येनाप्रतिपूरणम्, जघन्येन प्रयोजनेसमापतिते मध्यमो त्कृष्टायोगुह्यमाणयोरतिरिक्तोपकरणदोषस्तथोत्कृष्टादिकं छित्त्वा सीवित्वा वा यन्मध्यमादिकंकरोति, गतंतन्निष्पन्नप्रायश्चित्तम्।पुनर्यच्छिनत्ति तन्निप्पन्नम्। तथाहि-उत्कृष्ट छित्त्वा मध्यमं करोतिमासलघु, जघन्यं करोति पञ्चकम्।
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________________ वत्थ ५३५-अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वत्थ मध्यमानि छित्त्वा सीवित्वा च उत्कृष्टं करोति-चतुर्लधु, जघन्यं करोति पञ्चकम्। जघन्यानि सीवित्वा उत्कृष्टं करोति चतुर्लघु, मध्यमं करोति मासलघु इति / एवं यत्करोति तन्निष्पन्नमेव प्रायश्चित्तमापद्यते न पुनः छिद्यमानसीव्यमानवसनिष्पन्नम्-अन्येऽप्याज्ञाभङ्गादयो दोषाः द्रष्टव्याः, न वरं विराधना द्विधा-संयमविराधना, आत्मविराधना च / संयमविराधना-वने छिद्यमाने सीव्यमाने वा तद्गता षटपदिकादयो विनाशमापद्यन्ते। आत्मविराधना-हस्तोपघातादिका। तथा यावद्वस्त्र छिद्यते सीव्यते वा तावत्सूत्रार्थपरिमन्थ इत्यादयो दोषा अभ्यूह्य वक्तव्याः। यत एवं दोषजालमुपढौकते ततः करणाभावे छेदनसीवनादि न कर्त्तव्यम् / कारणे तु यतनया कुर्वाणः शुद्धः / बृ०१ उ०१ प्रक०। (5) कियडूरं गवेषणायां वस्त्रस्य गन्तव्यम्से भिक्खू वा भिक्खूणी वा परं अद्धजोयणमेराए वत्थपडियाए णो अभिसंधारिज गमणाए। (सू०-१४२) से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण अस्सिं पडियाए एणं साहम्मियं समुद्दिस्स पाणाई जहा पिंडेसणाए भाणियव्वं / / एवं बहवे साहम्मिया एणं साहम्मिणिं / बहवे साहम्मिणीओ बहवे समणमाहण० तहेव पुरिसंतर कडाजहा पिंडसणाए। (सू०-१४३) 'से' इत्यादि स भिक्षुर्वस्त्रार्थमड़योजनात् परतो गमनाय मनो न विदध्यादिति सूत्राद्वयमाधाकर्मिकोद्देशेन पिण्डैषणाव न्नेयमिति। आचा० 2 श्रु०१ चू०५ अ० 1 उ०। (6) अथ वस्त्रस्य गवेषणे कति प्रतिमा गच्छवासिनां कति गच्छ निर्गतानामित्यत आहउद्दिद्वपेहि अन्तर, उज्झियधम्मे चउत्थए होइ। चउपडिमा गच्छजिण, दोण्हग्गहभिग्गहण्णयरं॥६१५।। इहयद्वस्वं गुरुसमक्षमुद्दिष्ट-प्रतिज्ञातं यथा-अमुकंजघन्य मध्यममुत्कृष्ट वा आनेप्य तदेव गृहिभ्यो याचमानस्योद्दिष्ट वस्त्रमिति प्रथमा। तथा'पेहि त्ति प्रेक्षा-आलोकनम् तत्पुरस्सरं यद्वस्त्र याच्यते तत्प्रेक्षावस्त्रम्, तथाऽभिनवं वस्त्रयुगलं परिधाय प्रावृत्त्य च पुरातन स्थापयितुकामो न तावदद्यापि स्थापयति इत्यत्रान्तरा-अपान्तराले यद्याच्यते तदन्तरावस्त्रम्, तथा उज्झियं' उज्झितं परित्याग इत्यर्थः, धर्मशब्दश्च यद्यपि "धर्मोपमेयोपमापुण्यस्वभावाचारधनवसु सत्सङ्गेऽर्हत्यहिंसादौन्यायोपनिषदोरपी" ति वचनादनेकैष्वर्थेषु रूढः, तथा पही-प्रकृतत्वात् स्वभावार्थो द्रष्टव्यः। तत उज्झितमेव धर्मः स्वभावो यस्यतदुज्झितधर्म परित्यागार्ह मित्यर्थः, एतच वस्वैषणासूत्रकप्रमाण्याचतर्थमेव चतुर्थक भवति, एताश्चतस्त्रः प्रतिमाप्रतिपत्तयोः-वस्त्रस्य ग्रहणप्रकारा इत्यर्थः / 'गच्छ' ति सूचकत्वात्सूत्रस्य गच्छवासिनामेताश्च तस्रोऽपि भवन्ति, जिणे' त्ति जिनकल्पिकानां यावजीवं द्वयो रूपरितनयोः आार्यादया ग्रहण स्वीकार आग्रहो द्वयोरेवैतर्यो ग्रहणं नाधस्तनयोर्द्वयोरित्यर्थः / तत्राप्यन्तरस्यामभिग्रहः, किमुक्तं भवति-यदा तृतीयस्या ग्रहणं न तदा चतुर्थ्याम्, यदा चतुर्थ्यां न तदा तृतीयस्यामिति नियुक्तिगाथासमासार्थः। अथैनामेव विवृणोतिउद्दिट्ठतिगेगयरं, पेहा पुण ददु एरिसं भणइ। अन्ननियत्थच्छुरिए, इतरऽवणिंतो उतइयाए॥६१६|| उद्दिष्ट-गुरुसमक्षं प्रतिज्ञातं यत् जघन्यमध्यमोत्कृष्टलक्षण स्य त्रिकस्यैकेन्द्रियविकलेन्द्रियपञ्चेन्द्रियनिष्पन्नवस्वत्रिकस्य वा एकतर तदेव वादृष्टं सन्धाव्यमानमुद्दिष्टमिति भाविता प्रथमा प्रतिमा / अथ द्वितीया भाव्यते-'पेहा पुण' त्ति प्रेक्षावस्त्रं यदि पुनरिदम्, यथा कोऽपि साधुः कस्याप्यागारिणः सत्कं वस्त्रं दृष्टवा भणति यादृशमेतद्वस्त्रं दृश्यते तादृशमिदं मे प्रयच्छति भणन् तदेव वस्त्रं हस्तप्रान्तेन दर्शयति तत् प्रेक्षायोत्तरीयवस्त्र युगलद्वारेण प्ररूपणा कर्तव्या, तथा-श्रीमदाचाराने द्वितीये श्रुतस्कन्धे प्रथम अध्ययने प्रमोद्देशके सूत्रामिदम् - "अहावरा तच्चा पडिमा से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण वत्थं जाणेज्जा, तं जहा-अंतरिज्जगं वा उत्तरिज्जगं वा" अथ किमिदमन्तरीयं किं वा उत्तरीयम् ? उच्यते-अन्तरीयं नाम निवसनं परिधानमित्यर्थः, उत्तरीयं नाम प्रावरणं प्रच्छदपटीत्यर्थः, अथवा-अन्तरीयं यच्छय्यायामधस्तनं वस्त्रमास्तीर्यते, उत्तरीयं पुनः यत्तदुपरि प्रस्तीर्यते तस्मिन्नन्त रीयोत्तरीयवस्त्रयुगले-अन्यस्मिन्नभिनवे नियच्छति निवसिते परिहिते वृत्ते वा इत्यर्थः, द्वितीयव्याख्याना पेक्षया शय्याया उपरि 'अच्छुरिय' त्ति अस्तीर्णे इतरत् पुराणमन्तरीयोत्तरी युगलम् अपनयतश्चानयितुमना इत्यत्रान्तरा यन्मार्ग्यते तदन्तरावस्त्रमिति तृतीया प्रतिमा। संप्रति चतुर्थी व्याख्यानयतिदव्वाई उज्झियद-व्वओ उ मूलं मए न घेत्तव्वं / दोहि वि भावनिसिद्ध, तमुज्झिओ भट्ठणो भट्ट / / 617 / / इह चतुर्थी प्रतिमा उज्झितधर्मवस्त्रं गवेषणीयंतचतुर्दा द्रव्यो ज्झितम्, आदिशब्दात्क्षेत्रकालभावोज्झितपरिग्रहः। तत्र द्रव्यो ज्झितम्, यथाकेनचिदगारिणा प्रतिज्ञातं मया स्थूलवस्त्रं न ग्रहीतव्यम्, अन्यदा तस्य तदेव केनापि वयस्यादिनोपढौकितम्, सचब्रूते-पर्याप्तमेतेन नाहं गृह्णामि, इतरोऽपि ब्रूते-ममाप्यलमेतेन नाहमात्मना दत्तं पुनः स्वीकरोमि इत्येवं द्वाभ्यामपि दायकग्राहकाभ्यां भावतः परमार्थतोऽपि स्पृष्ट परित्यत्कममुष्मिन् देशकाले यदि जिनकल्पिकादिसाधुरव भाषितमनवभाषितं वा लभते तदा द्रव्योज्झितं ज्ञातव्यम्। इह चावभाषितं-याचितम्, अनवभाषितं वस्त्रं विना याचनेन स्वयमेव ताभ्यां प्रदत्तम्। अथ क्षेत्रोज्झितमाह - अमुगिच्चगं न मुंजे, उवणीयं तं च केणई तस्स। जं उज्झे कप्पडिया, सदेसबहुवत्थदेसे वा // 618 // 'अमुगिचगं' अमुकदेशोद्भवं वस्वं न भुजे-नपरिधानप्रावरणोपभोगमानयामि, तथाऽज्ञातविषयांद्भवं वस्त्रं मया न परिभोक्त व्यमिति केनचित्प्रतिज्ञा कृता भवेत्, अथ कदाचित्तस्य 'तं च' ति चशब्दस्यावधारणार्थत्वात्त देवापनीतमुपढौकितं केनचित्ततः पूर्वोक्तनीत्या ताभ्यामुभाभ्यामपि परित्यक्त क्षेत्र प्रधान्यविवक्षया क्षेत्रोज्झितं ज्ञात
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________________ वत्थ 536 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वत्थ व्यम्, 'जं तुज्झे कप्पडिय' त्ति वाशब्दः प्रकारान्तरोपदर्शने। प्रकारान्तरेण क्षेत्रोज्झितं प्ररूप्यते इत्यर्थः / यद्वग्रजातमुज्झेयु:-परित्यजेयुः कार्पटिकाः स्वदेशं प्रति व्यावृत्त्या गच्छन्तः स्वदेशाद्वा देशान्तरं प्रस्थिता अपान्तराले बहुपापामरण्यानीं मत्वा किं तस्कराणां हेतोर्निरर्थक वस्त्रभारं वहाम इति कृत्वा यदुज्झन्ति, यद्वा बहुवस्त्रे वस्त्रपचुरे देशे ऽन्यत्सुन्दरतरंवस्वंलब्ध्वा पुरातनंपरिहरेयुः एतत्सर्यमपि क्षेत्रोज्झितम्। कालोज्झितमाह - कासाइमाइ जं पु-स्वकालजोग्गं तदन्नहिं उण्हे। होहि वि एस्सइ काले, अजोग्गयमणागयं उज्झे // 616 / / कषायेण रत्का काषायी गन्धकषायिकेत्यर्थः,सा हिस्वभावतएवातिशीतला ग्रीष्मर्तुभरेऽपि सकलसंतापनिर्वापणी शास्त्रेषु पठ्यते, यत उत्कम्-"सरसो चंदणपको, अग्घइ सरसाइ गंधकासाई। पाडुलिसिरीससमधिय-पियाइंकाले निदाहम्मि" आदिग्रहणेतशीतकालोचितवस्त्रपरिग्रहः। ततश्च काषाय्यादिकं द्वयं वस्त्र पूर्वस्मिन् ग्रीष्मादौ काले योग्यमुपयोगि तदन्यस्मिन् वर्षाकालादावुज्झेत-परित्यजेत् / इयमत्र भावना-गन्धकाषाय्यादिकं शीतवीर्यादिष्वपि भावना कार्या / अथ प्रकारान्तरेणैतदेवाह- 'होहि व' इत्यादि 'भव' इत्यादि भविष्यति वा गन्धकाषायिकामेव एष्यति-आगामिनि काले वर्षादावयोग्यमित्यभि-- संधायानागतं वर्षाकालादगिव उज्झेत दपि कालोज्झितम् / भावोज्झितमाह - लखूण अन्नवत्थे, पोराणि य ते उदेइ अन्नस्स। सो वि अनिच्छद ताई, भावुज्झिमेवमाईयं / / 620 / / कोऽपिकस्यापिपाचे लब्ध्वा-प्राप्य अन्यान्मपि अभिनवानिवस्त्राणि ततः स पुराणानि अन्यस्य कस्यचिद्ददाति सोऽपि च तानि दीयमानानि जीर्णानीति कृत्वा नेच्छति तदेतत् भावं जीर्णतापर्यायमाश्रित्योज्झितं भावोज्झितमेव मादिकं ज्ञातव्यम्। तदेवं समर्थिता तुरीयाऽपि प्रतिमा। गच्छवासिनश्चतसृभिः प्रतिमाभिर्वस्वं गवेषयन्तीत्युक्तम्। (7) तत्र परः प्रश्नयति-कया समाचाया ते गवेषयन्ति? इति उच्यतेजं जस्स नत्थि वत्थं, सो उ निवेदेइ तं पवत्तिस्स। सो विगुरुणं साहइ, निवेइ वावारए वाऽवि // 621|| तद्वर्षाकल्पान्ते कल्पादिकषायस्य साधो स्ति-न विद्यते वस्त्रं स तद्विवक्षितवस्त्राभावस्वरूपं निवेदयति प्रवर्तिनः-प्रर्वतकाभिधानस्य तृतीयपदस्थगीतार्थस्य, स हि सकलस्यापि गच्छस्य चिन्तानियुक्तः, सर्वेऽपि साधवः स्वं स्वं प्रयोजनं तस्याग्रे निवेदयन्ति / ततः सोऽपि प्रवर्तको गुरूणामाचार्याणां 'साहइ' त्ति कथयति-विज्ञपयतीत्यर्थः, यथा--भट्टारकाः ? नास्त्यमुकस्य साधोरमुकं वस्त्रमितिगच्छे चेयं सामाचारी यदुताभिग्रहीकाणामस्माभिः सकलस्यापि गच्छस्य वस्त्राणि वा पात्राणि वा पूरणीयानि, अपरेण वा येन प्रयोजनमिति प्रतिपन्नाभिग्रहाः। तेषामाचार्यो निवेदयति, यथा आर्याः। नास्त्यमुकस्यामुकंवस्त्र तेऽप्यनु- | ग्रहोऽप्यस्माकमित्या भिधाय स्वाभिग्रहपरिपालनाय स्वयमेवोत्पादयन्ति। अथ न संप्रत्याभिग्रहिकाः ततः स यदि वस्वार्थ साधुः स्वयमसमर्थः उत्पादयितुंततोऽन्यं वस्त्रोत्पादनसमर्थ गुरवो व्यापारयेयुः, यथावस्त्राणि गवेषया वाशब्दः पक्षान्तरद्योतने, अपिः संभावनायाम्। तत्राभिग्रहिकेण व्यापारितेन वा केन विधिना वस्त्रमुत्पाद यितव्यम् ? उच्यतेभिक्खं चिय हिंडता, उप्यायंतऽसइ बिइअ-पढमासु। एवं पि अलग्मते, संघाडेक्केकवावारे॥६२२।। सूत्रपौरुषीमर्थपौरुषीं च कृत्वा भिक्षामेव हिण्डमाना वस्त्र मुत्पादयन्ति / अथ भिक्षामटन्तो न लभेरन् ततः-असति-अलाभे, द्वितीयस्यां पौरुष्यामर्थग्रहणं हापयित्वा तस्यामप्यभावे प्रथमायां सूत्रपौरुष्यामुत्पादयन्ति / अथैकः पर्यटन्न लभेत बहूनां वा साधूनामुत्पादनीयानि ततः कोविधि रित्याह-एवमेव सूत्रपौरुषीहापनेऽप्ये कसंघाटकेनालभ्यमाने बहूनां चोत्पादयितव्ये संघाटकमेकैकं व्यापारयेत्, तेऽपि तथैव याचन्ते 'भिक्खं चिअहिंडता' इत्यादि। अथ तथापि न प्राप्नुयु स्ततो वृन्दसाध्यानि कार्याणीति वचनात् वृन्देन पर्यटन्ति। आह चएवं पि अलब्मते, मुत्तूण गणिं तु सेसगा हिंडे। गुरुगमणे गुरुओह-मभियोगे सेहहीला य॥६२३॥ एवमपि बहुभिः संघाटकैरप्यलभ्यमाने गणिनमाचार्यमेकं मुक्तवा शेषः सर्वेऽपि वृन्देन हिण्डन्ते, यदि गुरवः स्वयमेवपर्यटन्ति तदा तेषां गुरुणां गमने चत्वारो गुरुकाः 'ओहमि' त्ति यदमी आचार्या अपि सन्त एवमितरभिक्षुवत्पर्यटन्ति नूनमेतेषा माचार्यकमपीदृशमेवेति महतां गुरुणामपभ्राजनाभवेत्। तथा काचिदविरतिका सर्वाङ्गीणलावण्यश्रियाऽलंकृतमाचार्य मवलोक्य मदनपरवशा सती 'अभियोग' त्ति कार्मणं कुर्यात्, अन्यतीर्थिका वा आचार्याणां प्रतापमसहमाना विषप्रयोगं प्रयुजीरन् अवभाषितेषु शिष्माणामाचार्यविषया हीलास्यात्, दृष्टवा आचार्याणां लब्धीः स्वयमपि याचमानाः श्रीवराण्यपिन लभन्तेयस्मादेते दोषास्तस्मादाचार्यैर्न पर्यटनीयम्, शेषाः सर्वेऽपि पर्यटन्तिसवे वा गीयत्था, मीसा व जहन्न एकगीयत्थो। इक्कस्स वि असईए, करिति तो कप्पियं एवं / / 624|| तेच वृन्देन पर्यटन्तः सर्वेऽपिगीतार्थाः केचनागीतार्थाःन प्राप्यन्तेतदा जघन्यत एको गीतार्थः सर्वेषामगीतार्थानामग्रणी भूय पर्यटति, अथ नास्त्याचार्य मुक्तवा परः कोऽपि गीतार्थस्तत एकस्याऽपि गीतार्थस्याऽ. सत्यभावे यः प्रगल्भः सलब्धिकश्च तमेकं वस्वैषणमुत्सर्गापवादसहित कथयित्वा कल्पिकं कुर्वन्ति गुरव इति। अथ तैः केन विधिना गन्तव्यम् ? उच्यतेआवस्स सोहिअखलं-तसमगउस्सग्ग दंडगन भूमी। पुच्छा देवपलंभे न, किं पमाणं धुवं दाहि // 625 / / इह समयपरिभाषया कायिकी संज्ञा व्युत्सर्जनमवश्यं किं --
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________________ वत्थ ५५०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वत्थ यत इति व्युत्पत्तेयवश्यकमभिधीयते; तस्य शोधिः-शोधिने कार्य वस्त्राणामुत्पादनाय गतानां भविष्यति नवेति प्रथममेधाववश्यक शोधनीयमित्यर्थः, अखलंत' त्ति उत्तिष्ठतां पादयोः शिरसि वा स्खलनं यथा न भवति तथो-स्थातव्यम्।यद्वा गुरु-वचनमस्खलद्भिरविकुट्टयद्वित्थातव्यम् सममिति सर्वैरपि समकमुत्थानं कर्त्तव्यं न पुनरेके उत्थिताः प्रतीक्षन्ते, अन्येऽद्याप्यु पविष्टाः / अथवा समकं सर्वैरुपयोगसम्बन्धी कायोत्सर्गः कर्तव्यः, दण्डकाः कायोत्सर्गादारभ्य यावन्नाद्यापि प्रथमलाभस्तावन्न भूमौस्थापयितव्याः। अपरे पुनर्यावदावृत्त्य न प्रतिश्रयमागताः तावदिति ब्रुवते / पृच्छति शिष्यः, किं निमित्तं कायोत्सर्गः क्रियते किं देवतांराधनार्थं यदसावाराधिता सती वस्त्राण्युत्पादयति ? आहोश्वित् तत्कायोत्सर्गप्रभावादेव वस्त्राणां भूयान् लाभो भूयादिति लाभनिमित्तम् / अत्र सूरिः प्रत्युत्तरयति- 'न' त्ति न भवति तदेवताराधननिमित्तं किंतूपयोगनिमित्तम्, उपयोजनमुपयोगाश्चिन्ता विमर्श इत्यनर्थान्तरम् / स च गणना प्रमाणेन प्रमाणप्रमाणेन या, किंप्रमाणं वस्त्रं ग्रहीतव्यं को वा याचितः सन् ध्रुवमवश्यं दास्यति यो ज्ञायते निश्चितमेष दास्यति स एव प्रथमं याच्यते। (8) अथ प्रथमं कायोत्सर्गः केनोत्सारणीयः? इति उच्यतेरायणिओ उस्सारे, तस्सऽसतोमो वि गीतों लद्धीओ। अगीतो विसलद्धिओ, मग्गइ इअरे परिच्छंति // 626|| यो रात्रिको रत्नाधिकः सोऽपि यदि सलब्धिकस्तदा स एव प्रथम कार्योत्सर्गमुत्सारयति, तस्य रत्नाधिकस्य सलब्धि कस्य असतिअभावे अवमोऽपिपर्यायलघुरपि गीतार्थो यः सलब्धिकः स प्रथम पारयत्ति / अथ नास्ति गीतार्थः सलब्धिकस्तत आह-अगीतार्थोऽपि यः सलब्धिकः स प्रथमं पारयति, स एव वाऽग्रणीत्वं कुर्वन् वस्त्राणि मार्गयति इतरे गीतार्थाः परीक्षन्ते-किं कल्पतं न वेत्येवं पृष्ठतो लगा वस्यैषणा-विधि विचारयन्तीत्यर्थः। (E) अनन्तरोदितसामाचारीवैपरीत्यकरणे प्रायश्चित्तमाहउस्सग्गाई वितह,खलंत अण्णोण्णओ य लहुओ उ। उग्गमविप्परिणामो, ओभावणसावगं न तओ॥६२७।। उत्सर्गः-कायोत्सर्गस्तमादिं कृत्वा सर्वेषु पदेषु समाचारी वितथा कुर्वाणस्य लघुमासः गयश्चित्तम्, तद्यथा- कायोत्सर्ग न कुर्वन्ति, आवश्यकं न शोधयन्ति, यमकसमकं कायोत्सर्ग न कुर्वन्ति, दण्डकं भूमौ लगयन्ति, पृथक् पृथक् गुरूणामादेशं मार्गयन्ति, 'इच्छाकारेण संदिसहे तिन भणन्ति, आचार्याः 'लाभो' तिन भणन्ति, साधवः 'किं गिण्हामो त्ति न भणन्ति, आचार्या 'जहगहियं पुव्वसाहूहिं' तिन भणंति, साधवः 'जस्स य जोग' न भणन्ति, एतेषु सर्वेषु असमाचारीनिष्पन्न मासलघु, आवश्यिकीं न कुर्वन्ति, लघुरात्रिन्दिवपञ्चकम् / 'खलंत' त्ति स्खलन्तः उत्तिष्ठन्ति गुरुवचनं वा स्खलयन्ति मासलघु। अण्णेण्ण उ' ति अन्योन्यतश्च व्रजन्ति न परस्परामवङ्कया ऋजुश्रेण्या तत्रापि लघुको मासः, इत्थं सामाचारी सम्पूर्णां कृत्वा निर्गताः श्रावकमवभाषन्ते मासलघु / ये तस्मिन्नवभाष्यमाणे बहवो दोषास्तानेवाह- 'उग्गम' इत्यादि, कोऽपि श्रावकः साधुभिर्वस्त्रं याचितः। स चिन्तयति - अहो अमी महात्मानस्तावद्यतस्ततः कारणं विना न वस्त्राणि याचन्ते, न वा गृहन्ति, मद्भाग्यसंभारप्रेरिता एव सन्तोषपोषित वपुषोऽपि मामित्थं याचन्ते तत्प्रयच्छामि यथेच्छममीषां वस्त्राणि, मम पुनरन्यान्यपि भविष्यन्तीति विभाव्य सर्वाण्यपि हर्षप्रकर्षारूढः प्रदद्यात् / ततोऽभिनववस्त्रनिर्मापणक्रयणादि-नोग्दमदोषा भवेयुः, विपरिणामो वा नवधर्मणः कस्यचिदुपास कस्य स्यात्, यथा हुं-ज्ञातममीषां श्रमणानां रहस्यम्--य एतेषामुपासको भवति तमेवमेव याञ्चाभिरुद्ध जयन्तीति ततश्चाधर्म प्रतिपद्यते / यद्वा-'ओहावणा' अप्रभाजना भवेत् / इयमत्र भावनातस्य-श्रावकस्य कदाचिद्वस्त्राणि न भवेयुः, तदा मिथ्यादृष्टयो अबीरन् - अहो अमीषां प्रतिबोधप्रसादः, यदेतद्योग्यान्यप्येतदीयोपासका वस्त्राणि न संपाद्यन्ते। लोको वा ब्रूयात्-यद्येतेषां स्वकीया अपि श्रावका नप्रयच्छन्ति तदाऽन्यः को नाम दास्यतीति ततः श्रावकं नावभाषेत। दाउंच उड्डुरुस्से, फासुचरियं तु सेसयं देइ। भावियकुलओभासण, नीणिइ कस्से य किं आसी॥६२८|| स श्रावकी लोकलज्जया तदानीं दत्त्वा च 'उड्डुरुस्से त्ति प्रद्वेषं यायात्, किमेतैरेतदपि न ज्ञातं श्रावकस्य यत् वस्त्रादि स्वाधीना तदयाचितमेव ददाति किं तेन याचितेन, अतः परं न गच्छाम्यमीषां सकाशमिति / यत एतेदोषास्ततः श्रावकं नाव-भाषेतेतिपूर्वगाथाया-अन्त्यपदेन संबन्धः। यस्मादुपास-कस्येषा समाचारी यत्प्राशुकमेषणीयमुद्ररितमधिकं वस्त्रं तत् स्वयमेवायाचितोऽपि निमन्त्र्य ददाति तेन तं मुक्त्वा यान्यान्यानि भावितानि साधुसंसर्गवासितानि सम्यक्त्वाद्य-व्युत्पन्नमतीनि यथा भद्रकाणि कुलानितेष्वेव भाषणं कर्त्तव्यम्। कथमिति चेदुच्यते-तत्रायः प्रमाणभूतः पुरुषस्तं स्वधर्म लाभयित्या बुवते, श्रावक ! साधवस्तव सकाशमागताः सन्ति प्रयोजनमस्माकमीद्दशैर्वस्त्रैरिति, यदि पुनर्धस्यस्त्वं श्लाध्यं ते जन्मजीवितमनय॑म् सुपात्राय वस्त्रपात्रादिदानमिति तद्गुण- विकत्थनवस्त्रदानफलोत्कीर्तनादि करोति, तदा मासलघु। ततः सयाच्यमान एवं ब्रूयात अहो मे धन्यता यस्य गृहाङ्गणं जङ्गमा इव कल्पपादपा अमी भगवन्तः स्वपादपल्लवैः पवित्रितवन्तः इत्यभिधाय स्वयमन्येन वा गृहमध्यावस्त्र-मानयेत, आनाययेद्रा, तत्तस्मिन् 'नीणिइ' ति आनीते पृछयते-कस्यैतद्वस्त्रम्, किंवा आसीत्। उपलक्षणत्वात् किं भविष्यति। क च स्थापितमासीत्। यदि कस्यैतदिति न पृच्छन्ति तदा मासिकम्। बृ०१ उ०१ प्रक० / प्रति०।। (10) सांप्रतं वस्त्रग्रहणाभिग्रहविशेषमधिकृत्याहइचे इयाई आयतणाई उवाइक म्म अहा भिक्खू जाणे जा चउहिं पडिमाहिं वत्थं एसित्तए, तत्थ खलु इमा पढमा पडिमा, से भिक्खू वा भिक्खुणी वा उहिसिय वत्थं जाएज्जा, तं जहा-जङ्गियं वा भङ्गियं वा साणयं
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________________ वत्थ 841 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वत्थ तत्रा मूलगुणकृतं वा स्यादुत्तरगुणकृतं वा / अथ के मूलगुणाः ? के चोत्तरगुणाः? इत्याहतणविणणसंजयट्ठा, मूलगुणा उत्तरा उ पजण्णया। गुरुगा गुरुगा लहुगा, विसेसिया चरमए सुद्धो // 631 / / इह संयतार्थ वस्त्रनिष्पत्तिहेतोयत्तननं तानपरिकर्म वितननं च वितानपरिकर्म क्रियते एतैर्मूलगुणा मन्तव्याः, उत्तराउत्तर-गुणरूपा आयतनता यद्वस्वं निष्पन्नं सत्खलिकां प्राप्यते उपलक्षणमिदं तेन यन्मोटयित्वा सलेपा प्रक्षिप्यते तदादयो धानवधूपनादयश्च वस्त्रस्योत्तरगुणा द्रष्टव्याः / अत्र चतुर्भङ्गीतननवितनने संयतार्थे, आयतनमपि संयतार्थम्, १तननवितनने संयतार्थम्, आयतनं स्वार्थम् 2, तननवितनने स्वार्थे आयतनं संयतार्थम् 3, तननवितनने स्वार्थे आयतनमपि स्वार्थम् 4, अत्रायेषु गुरुका लघुकाश्च तपः कालाभ्यां विशेषिताः प्रायश्चित्तम, तद्यथा-प्रथमे भङ्ग चत्वारो गुरुका-स्तपसा कालेनच गुरवः, द्वितीयेऽपि चतुर्गुरुकाः, तपसा गुरवः, कालेन लघवः तृतीये चत्वारो लघुकाः, कालेन गुरव-- स्तपसा लघवः, चरमे-चतुर्थे भङ्गे द्वयोरपि मूलोत्तरगुणयोः स्वार्थत्वात् वा पोत्तयं वा खोमियं वा तूलकमंवा तहप्पगारं वत्थं सयं वाणं जाणेज्जा परो वाणं देज्जा फासुयं एसणीयं लाभे संते पडिग्गहेजा पढमा पडिमा ||1|| अहावरा दोचा पडिमा-से भिक्खू वा मिक्खुणी वा पेहाए वत्थं जाणेजा, तं जहा-गाहावती वा 0 जाव कम्मकरी वा से पुटवामेव आलोएज्जा आउसो त्ति वा भगिणीति वा दाहिसि मे एत्तो अण्णतरं वत्थं? तहप्पगारंवत्थं सयं वा णं जाणेजा परो वा से देखा 0 जाव फासुयं एसणीयं लाभे संते पडिग्गहेजादोचा पडिमा॥शा अहावरातचा पडिमा से मिक्खू वा भिक्खुणी वा सेजं पुण वत्थं जाणेजा, तं जहाअंतरिनगंवा उत्तरितगंवा तहप्पगारंवत्थं सर्यवाणं जाणेजा० जाव पडिग्गहेजा तथा पडिमा / / 3 / / अहावरा चउत्था पडिमासे भिक्खू वा भिक्खुणी वा उज्झियधम्मियं वत्थं जाएजा जं चण्णे बहवे समणमाहणा अतिहिकिवणवणीमगा णावखंति तहप्पगारं उज्झियधम्मियं वत्थं सयं वा णं जाणेजा परो वा से देजा फासुयं जाव पडिग्गहेजा चउत्था पडिमा।|| इयाणं चउण्हं पडिमाणं जहा पिंडेसणाए। (सू०-१४६) 'इच्चेइयाई' इत्यादि इत्येतानि-पूर्वोत्कानि वक्ष्यमाणनि वा यतनान्यतिक्रम्याथ भिक्षुश्चतसृभिः प्रतिमाभिर्वक्ष्यमाणैर भिग्रहविशेषैर्वस्वमन्वेष्ट जानीयात्, तद्यथा-उद्दिष्ट-प्राक सङ्कल्पितं वस्त्रं यासिष्ये, प्रथमा प्रतिमा 1, तथा प्रेक्षितं दृष्ट सद्वस्त्रं याचिष्ये नापरमिति द्वितीया 2, तथान्तरपरिभोगेन उत्तरायपरिभोगेन वा शय्यातरेण परिभुक्तप्रायं वस्त्र ग्रहीष्यामीति तृतीया 3, तथा तदेवोत्सृष्टधार्मिकं वस्त्रं ग्रहीष्यामीति चतुर्थी प्रतिमेति 4 / सूत्रचतुष्टयसमुदायार्थाः / आसां चतसृणां प्रतिमानां शेषा विधिः पिण्डैषणावन्नेय इति। आचा०२ श्रु०१चू० 5 अ०१ उ०। (11) अथ को दोषो यद्येवं न परिपृच्छयते? उच्यतेकस्स त्तिऽपुच्छियम्मि, उग्गमपक्खेवगाइणो दोसा। किं आसिऽपुच्छियम्मि, पच्छाकम्मं पवहणं च // 626 / / कस्य सम्बन्धीत्येवमपृष्ट उद्गमदोषाः प्रक्षेपकादयश्च दोषा भवेयुः / आदिग्रहणान्निक्षेपकपरिग्रहः / किमासीदित्यपृष्ट पश्चात्कर्मदोषाः प्रवहनदोषा वा संभवेत्। एतचोत्तरत्रा भावयिष्यते। अथ कस्येति पृच्छायामविधीयमानायां कथमुद्गदोषाभवेयुः ? उच्यतेकीस न नाहिह तुम्मे, तुब्मट्ठकयं व कीयधोयाई। अमुण्ण व तुम्मटुं, ठवियं गेहे न गिण्हह से / / 630 // कस्येदमिति पृष्टः कोऽपि ब्रूयात्, कस्मान्न ज्ञास्यथ यूयम् ? ज्ञास्यथैव, तथाप्यस्मान् पृच्छथ पृच्छतांच कथयाम्, युष्मदर्थमेव क्रीतमेतद्वस्त्रम्। बाशब्द उत्तरापेक्षया विकल्पार्थः युष्मदर्थमेव क्रीतं धौतमादिग्रहणाद्धूपितवासितादिग्रहः / अमुकेन वा युष्मदर्थमस्मद्गृहे स्थापितंयतः (से) तस्यामुकस्य गेहे न गृहीथ यूथमिति। अथ यदुत्कम्-'तुब्भट्टकय' ति अथ प्रक्षेपकादयो दोषाः कथं भवेयुः? इत्यत आहसमणे समणी सावग, साविगों संबंधि इडिमामाए। राया तेणे व वक्खेव, एअ निक्खेवगं जाणे // 632 // षष्ठीसप्तम्योरर्थ प्रत्यभेदात् श्रमणस्य श्रमण्याः श्रावकस्य श्राविकायाः संबन्धिन ऋद्धिमतो मामकसत्काया भार्याया राज्ञः स्तेनस्य च संबन्धी प्रक्षेपको भवति। प्रक्षेपणं प्रक्षेपकः"नाम्नि पुंसि वे"तिभावेणकप्रत्ययः, यथा अरोचनम् अरोचक इत्यादि। निक्षेपकमप्येतेष्वेव च स्थानेषु जानीयादिति संग्रह-गाथासमासार्थः। __ सांप्रतमेनामेव व्याख्यानयतिलिंगत्थेसु अकप्पं, सावगनीएसु उग्गमासंका। इड्डि अपवेससाविग, इडिस्सच उग्गमासंका॥६३३|| एमेव मामगस्स वि, सड्डी भजाउ अन्नहिं ठवए। निवतप्पिंडविवञ्जी, मा होञ्ज तदाहडं तेणे // 634 / / ये श्रमणश्रमणीजना लिङ्गमात्रधारिणस्ते उदग्मादिभिर्दो षैरशुद्धानि वस्त्राणि गृह्णन्ति / स्वयमेव वा तन्तुवायैर्वाययन्ति लिङ्गतः प्रवचनतोऽपि साधर्मि:-काश्च ते इति, तेषु लिङ्गेषु अकल्पनीयमिति हेतोः साधवो न गृह्णन्ति, ततस्ते लिङ्गस्था संविग्नबहुमानिनः सन्तो वस्त्राण्यन्यत्र यथा भद्रककुलादौ प्रक्षिपेयुः, यदि साधवो वस्त्राणि गवेषयेयुः तदा प्रदद्ध्वमिति कृत्वा, यथा श्रावकेषु उपलक्षणत्वात् श्राविकासु निजकेषु संबन्धिषु भ्रातृभगिनीत्यादिषु उदग्मदोषाशङ्कया साधवो न गृह्णीयुरिति, तेऽपि तथैवान्या स्थापयेयुः, ऋद्धिमतः श्रेष्ठिसार्थवाहादेगुहे यतस्ततः प्रवेशो लभ्यते तस्य पत्नी श्राविका सा भक्तिवशादन्यत्र प्रक्षिपेत्, यता-सऋद्धिमान्पाषण्डिनांश्रमणानांवा पुण्यार्थ वस्त्राणि दद्यात्,
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________________ वत्थ 542- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वत्थ तेषु साधूनामुद्रमाशङ्का, ततो निमन्त्रिता अपिन स्वीकुर्युः / तेन सोऽपि दानश्रद्धालुस्तथैवान्यत्रा प्रक्षिपेत्, एवमेव ऋद्धिमत्प्रकारेणैव मामकस्यापि प्रान्तत्वेनेालुत्वेन वा कस्यापि स्वगृहे प्रवेशं न ददातीत्येवंलक्षणस्य भार्या श्राद्धिभरप्रेरिता सती तथैवान्यस्मिन् गृहे स्थापयेत्, नृपो-राजा सोऽप्यन्यत्रा स्वपुरुषैः प्रक्षेपयेत्यतस्तस्य राज्ञः पिण्डमाहारवस्त्रादिलक्षणं वर्जितुं शीलं येषां ते तत्पिण्डविवर्जिनः साधवः। / किमुक्तं भवति-कोऽपि राजा स्वभावत एव एकः श्रावको वा ततः साधवोऽत्यर्थमभ्यर्थिता अपि न कल्पते राजपिण्ड इति हेतोर्यदा न गृहन्ति तदा स यथा तथा पुण्यमुपार्जयामीति विचिन्त्यान्यत्रा वस्त्राणि स्थापयेत्। स्तेनस्यापि वस्त्रंन गृह्णन्ति, मा भूत् तदाहृतंतदीयं वस्त्रमिति ततः सोऽपि भद्राको ‘मदीयं न स्वीकुर्वन्ती त्यन्यत्रा प्रक्षिपेत्। उपसंहारमाहएए उ अधिप्पंते, अन्नहि संनिक्खिवेंति समणट्ठा। निक्खेवओ वि एवं, छिन्नमछिन्नो उकालेणं // 635 // एते श्रमणादयोऽनन्तरोत्काकारणैरगृह्यमाणे वस्त्रेऽन्यस्मिन् भावितकुलादौ श्रमणार्थ-साधूनामर्थाय सान्नक्षिपन्ति इत्युक्तः प्रक्षेपकः। / सम्प्रात निक्षेपकः प्ररूप्यते। अथ प्रक्षेपकनिक्षपकयोः कः प्रतिविशेषः ? उच्यते साधूनामेवार्थाय या वस्त्रस्य स्थापनास प्रक्षेपकः, यत्पुनः प्रथम स्वार्थ निक्षिप्य पश्चात् साधूनामनुज्ञाप्यते स निक्षेपकः / सो प्येवं प्रक्षेपवद्दष्टव्यः / इयमत्रा भावना-यथा प्रक्षेपकः श्रमणादि-स्थानेषु भावितः तथा निक्षेपकोऽपि भावनीयः। यस्तु विशेषस्तं दर्शयति-'छिन्नं' इत्यादि स निक्षेपकः कालेन छिन्नो वा स्यादच्छिन्नो वा, छिन्नो नाम निर्धारितः यदि वयं देशान्तरंगताः सन्त एतावतः कालादग्नि प्रत्यागच्छामः ततो युष्माभिरमूनि वस्त्राणि श्रमणेभ्यः प्रदातव्यानीति / अच्छिन्नः पुनः प्रतिनिय-तकालविवक्षारहितः। __ अत्र अथमाहअमुगं कालमाणगए, दिजह समणाण कप्पइच्छिणे। पुण समकालं कप्पइ, वियगदोसा अईअम्मि॥६३६|| देशान्तरं जिगमिषुः कोऽपि कस्यापि गृहे किञ्चिद्वस्त्रजात-निक्षेप्तुकामो ब्रूते, अमुकं विवक्षितं कालं मय्यनागते यूयं मदीयं वस्त्रं श्रयणेभ्यो दद्यात इत्यभिधाय निक्षेपकं निक्षिप्य गतोऽसौ देशान्तरं नायातस्तावतः कालावधे अर्वाक् ततः कल्पते तद्व-स्त्रम्, एवं विधिच्छिन्ने निक्षेपके किं | सर्वदैव नेत्याह-पूर्णस्या-वधः समकाल कल्पतेन परतः। कुत इति? आह-स्थापनैव स्थापितकं तस्य दोषा अतीते विवक्षितकालावधी भवन्ति अच्छिन्ने तु यदा प्रयच्छन्ति तदा कल्पते। अथ साधुनिक्षिप्तवस्त्रविधिमाहअसिवाइकारणेहिं, पुण्णेऽईए मणुण्णनिक्खेवे। परिभुंजंति ठविंति व, छडंति व ते गए नाउं॥६३७।। अशिवम्-व्यन्तरकृतोपद्रवविशेषः, आदिग्रहणाद् अवमौदर्यादिपरिग्रहः, तैरशिवादिभिः कारणैः पूर्णेऽतीते वा काले मनोज्ञाः-सांभोगि कास्तेषां निक्षेपकेयद्वस्त्रजातं तत्परिभुञ्जते। इयमत्र भावना--साम्भोगि-- कसाधुभिरशिवादिभिः कारणैर्देशान्तरं व्रजद्भिग्लानादिप्रतिबन्धस्थितानांसाधूनां समीपे यद्वस्त्रजातं निक्षिप्तं तत्पूणे अतीतेकाले यद्यात्मनो वस्त्राणामसर्वतो वास्तव्यसाधवः परिभुञ्जतेन तत्र कश्चित् स्थापनादिदोषः / अथ नास्ति वस्त्राणामसत्ता गृहीतानि वा ये प्रयोजनतस्तथैव स्थापयन्ति, अथ ज्ञायते यथा ते ततोऽपि वयं सामान्यं देशंगताततस्तान् गतान् ज्ञात्वा छडुन्ति परिष्ठा-पयन्तीत्यर्थः / तदेवं कस्येति पृष्टे प्रक्षेपकादयो दोषाः सुनिर्णीता भवन्तीत्यावेदितम्। (12) अथ कस्येति पृष्ट यो यादृशमाशङ्कावचनं ब्रूयात तदेतदभिधित्सुराह-- दमए दूभगे भट्टे, समणच्छन्ने अतेणए। न य नाम न वत्तट्वं, पुढे रुठे जहा वयणं // 638 / / द्रमके-दरिद्रे दुर्भगे-ऽनिष्टे भ्रष्टे राज्यच्युते 'समणच्छन्ने' त्ति भावप्रधानत्वात् श्रमणशब्दस्य श्रामण्येन श्रमणयेषेण छन्ने आच्छादिते गार्हस्थ्यैस्तेनके-चौरे प्रथमं कस्येति पृष्ट ततः स्वहृदयसमुत्थया शङ्कया रुष्ट कषायिते तस्य समाधानविधानार्थं न च नाम न वक्तव्यं किंतु वत्कव्यमेव वचनस्यानतिक्रमेण यथावचनं यथायोगमाशङ्कापनोदकं वाक्यमित्यर्थः, तच्च यथावसरं पुरस्ताद्वक्ष्यते। तत्र प्रथमं द्रमकद्वारं विवृणोतिकिं दमओ हं तं ते, दमगस्स वि किं मे चीवरा नत्थि। दमएण विकायव्वो, धम्मो मा परिसं पावे // 636 / / कस्येति पृष्ट कोऽपिब्रूयात्-भदन्त ! भवद्भिः किमहं द्रमकः संभावितो यैनेव पृच्छत, यद्वा यद्यप्यहं द्रमकस्तथापि किं मे चीवराण्यपिन सन्ति किंतु सन्त्येव / किञ्च-द्रमकेणापि धर्मः कर्त्तव्यः, कुतः इत्याह - मा ईदृशं दारिद्रोपद्रवलक्षणं दुःखं भूयः प्राप्नुयामिति कृत्वा तस्य पुरतः साधुभिरभिधातव्यम्, भद्र ! न वयं भवन्तं द्रमकं भणित्वा कस्येति पृच्छामः, किन्तु सार्वज्ञोऽस्माकमयमुपदेशः, यतः-कदाचित्तव स्वजनमित्रादीनां सकिमदं भवेत्, यथायस्य तथाविधस्याभावेऽप्रीतिकं कुर्युः, अभिनवं वा वस्त्रं संमूछयेयुः क्रीणीयुर्वा। अस्माकं तु तृतीयव्रतातिचारः, यथा श्रमणादिभिः स्तेनपर्यन्तैरिदमस्मदर्थं स्थापितं भवेदित्यादयो दोषाः कस्येति पृच्छया परिहर्तु शक्यन्ते। इत्युक्ते यदि स ब्रूयात् ममैवैतन्नान्य-स्येति तदा निर्दोष मत्वा गृह्यते एवं दुर्भगादिष्वपि पदेषु यथा-योगमुपयुज्य भावना कार्या। दुर्भगद्वारमाहजइ रनो भजाए, व दूभगा दूभगो व जइ पइणो। किं दूभगा मि तुज्झ वि, वत्था विव दूभगा किं मे // 640 / / दुर्भगो ब्रूयात्-यद्यहं राज्ञो, भार्याया वा दुर्भगो द्वेष्यस्तत्किंयुष्माकमपि दुर्भगः, याद वा-कााचदविरतिका दात्रीतदा ब्रूयात यद्यहं पत्युदुर्भगा तत्किं युष्माकमपि दुभगा, वस्त्राण्यपि वा किममूनि मे दुर्भगाणि, यदेवं दीयमानान्यपि कस्य सत्कानीति पृच्छन्ते।
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________________ वत्थ 843 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वत्थ अथ भ्रष्टश्रमणच्छन्नद्वारद्वयमाहजइ रज्जाओ भट्ठो, किं चीरेहिं पि पिच्छ एयाणिं। अच्छिमहं साभरगा, मा हिरेजत्ति पव्वइओ // 641 / / राजपदच्युतः प्राह-यद्यहं राज्याद्दष्टः तत् किं चीरेभ्योऽपि, नैवेत्यर्थः / पश्यत-अवलोकयत एतानि मद्गृहे भूयांसिवासांसीति ब्रुवन् हस्तसंज्ञया दर्शयति। श्रमणः पृच्छन्नोऽथाह-सन्ति मम पावं बहवः 'साभरग' त्ति देशीवचनम्, रूपकास्तेऽवमा राजकुलादिना हियेरन्नित्यहं प्रव्रजितः-- शाक्यतापसपरिव्राजकाजीवकाख्यानं श्रमणानामन्यतमः संवृत्त इत्यर्थः / / अथ स्तेनको यद् ब्रूयात्, तदाहअच्छिमे घरे वि वत्था, नाहं वत्थाई साहु चोरेमि। सुद मुणिअं व तुब्मे, किं पुच्छह किं च हं तेणो // 642 / / सन्ति मे मम गृहे वस्त्राणि अत एव हे साधो ! नाहं वस्त्राणि चोरयामि, यद्वा-सुष्टु शोभनं मुणितम्-परिज्ञातं युष्माभिः, यथाऽहं स्तेनः / को नाम साधून मुक्त्वाऽपरो ज्ञास्यति, तदहं सत्यं स्तेनः, न पुनः साधूनामर्थाय चोरयामि। अथवा-यूयं किं पृच्छथ, यस्य वा तस्य वा भवतु यूयं गृहीत। यदाकिमहं स्तेनो येन यूयं कस्येति पृच्छथ। अत्रापि समाधानं प्राग्वत्। अथ कस्येति पृच्छति-प्रवृद्धामेव द्वारान्तरप्रतिपादिकामिमां गाथामाह - इत्थी-पुरिस-नपुंसग, धाई-सुण्हा य होइ बोधव्वा / बाले अवुड्डजुगले, तालायर-सावए तेणे॥६४३॥ स्त्रीपुरुपनपुंसकधात्रीस्नुषा च भवति बोद्धव्या ततो बाल-युगलं वृद्धयुगलं तालाभिश्चरन्तीति तालाचरा-नटाः सेवकः स्तेनश्च प्रतीतः, इति द्वारगाथासमानार्थः। व्यासार्थं प्रतिद्वारं बिभणिषुराहतिविहित्थी थेरेहि, भणंति मा होज तुज्झ जायाणं। मज्झिमया पइदेवर-कण्णं मा थेरमाईणं // 644|| त्रिविधा स्त्री, तद्यथा-स्थविरा, मध्यमा, कन्या च। तत्रा स्थविरादिस्त्री भणन्ति-मा भूयाजातानां-पुत्राणां सत्कमिदं वस्त्रं तेन वयं कस्येति पृच्छाम, इति योजना सर्वत्रा कर्त्तव्या / मध्यमा भण्यन्ते मा भूत्तव पतिदेवरयोः सत्कम्, कन्यां-कुमारी भणन्ति, मा भूतव स्थविरः-पिता भ्राता प्रतीतः तयोरिति। एमेव य पुरिसाण वि, पंडगपडिसेविसानि आणं ते। सामियकुलस्स धाई, सुण्हं जह मज्झिमा इत्थी // 645 / / एवमेव च यथा स्त्रीणा तथा पुरुषाणामपि स्थविरमध्यमत रुणभेदस्वैविध्यं द्रष्टव्यम्। स्थविरघुरुषो भण्यते, मा तव पुत्राणां कलत्रास्य वा सत्कं वस्वं भवेत् / मध्यमोऽभिधीयते, मा भूत्तव भ्रातृणां पत्न्या वा संबन्धि / तरुण उच्यते मा तव पितुतुि तृणां चास्वाधीनं भवेत्, पण्डको नपुंसकः 'पडिसेवित्ति अकारप्रश्लेषादप्रतिसेवी तृतीयवेदोदयरहितोऽसंल्किष्ट इत्यर्थः, तस्य ग्रहीतुं कल्पते। स चाभिधीयते माते निजानां सम्बन्धिनामिदं वस्त्रं भवेत् यः पुनस्तृतीयवेदोदयो भुक्तस्य हस्तात् गृहतां चत्वारो लघुकाः आज्ञाभङ्गादय आत्मपरोभयमुत्थाश्च दोषाः। या धात्री साऽभिधीयते, मा ते स्वामिकुलस्य स्वामिनो गृहस्य सत्कं भवेत् / स्नुषा-वधू भणन्ति, यथा मध्यमा स्वी भाणिता मा ते पत्युर्देवरस्य वा सम्बन्धि भवेत्। दोण्हं पि अजुयलाणं, जहारिहं पुच्छिऊण जइ बहुणो। गिण्हंति तओ तेसिं, मुच्छा सुद्धे अणुन्नायं // 646|| इह द्वे युगले नाम बालयुगलं वृद्धयुगलं च। बालयुगलं बालो बालिकाः, वृद्धयुगलं वृद्धो वृद्धा वा तयोर्द्वयोरपि युगलयोर्यथार्ह-यथायोग्यं स्वरूपं पृष्ट्वा प्रत्ययिकपुरुषमुखेन च निश्चित्य यदि प्रभवस्ते बालादयस्ततो गृह्णन्ति तेषां हस्तात्। अथन प्रभवस्तदा यत्पितृपुत्रादिप्रभुस्तस्य समीपे यथाऽऽपृच्छ्य किं गृह्यतांन वेति तथा शुद्धं गृह्यतां निर्विकल्पमित्यनुमत्या निःसन्दिग्धे कृते ग्रहणमनुज्ञातम्। तूपति देते मा ते, कुसीलते तेसु तूरिए माते। एमेव भोगिसेवग, तेणा उचउदिवहो इणमो॥६४७|| तूर्यपतिर्नटमहत्तरस्तास्मन् ददति भण्यते, मा ते कुशीलवानां सत्कं भवेत्, तेषु कुशीलेषु ददत्सुमा युष्माकं तूर्यिकस्य तूर्यपतेर्भवेत्, एवमेवतूर्यपतिकुशीलेषूत्क प्रकारेणैव भोगिकसैवयोरपि वाच्यम्, यदि सेवकोददाति तदा वक्तव्यम्, मा ते भोगिकस्य स्वामिनः स्वाधीनं भवेत्। भोगिके दातरि वाच्यम्, मा युष्माकं सेवकस्य सम्बन्धि भवतु / स्तेन स्वरूपमाह-स्तेनः पुनश्चतुर्विधोऽय वक्ष्यमाणलक्षणः। चातुर्विध्यमेवाहसग्गामपरग्गामे, सदेस परदेस होइ उड्डाओ। मूलं छेओ छम्मा समेव गुरुगा य चत्तारि॥६४८|| यस्मिन् ग्रामे साधवः स्थिताः सन्ति स स्वग्रामस्तस्मिन यः स्तैन्य करोति स स्वग्रामस्तेनः, तदपेक्षया अपरस्मिन् ग्रामे स्तैन्यं कुर्वन् परग्रामस्तेनः / स्वदेशे-विवक्षितसाधुविहारविषयभूते विषये चौर्य स्वदेशस्तेनः, तदपेक्षया अपरत्र देशे चौरिकां विदधानः परदेशस्तेनः। एतेषु गृह्णतामुड्डाहः प्रवचना-लाघवं भवति, अहो अमीलुब्धशिरामणयस्तपस्विनो यदेवं स्तेनाहतानि वस्त्राणि गृह्णानाः राजविरुद्धमपि तथाऽपेक्षन्ते इति / तेषु प्रायश्चित्तमाह - 'मूलमि' त्यादि स्यग्रामस्तेने गृह्णतां मूलम्, परग्रामस्तेने छेदः, स्वदेशस्तेने षण्मास गुरुकाः, पर-दशस्तेने चत्वारो गुरुकाः, यथाक्रमदूरतरमस्तैन्यदोषत्वादिति भावः / तदेवं व्याख्याता 'इत्थीपुरिस' इत्यादिद्वारगाथा! तद्व-याख्याने च समर्थितं कस्येति पृच्छाद्वारम्। अथ किमासीदिति पृच्छाद्वारमाहएवं पुच्छा सुद्धे, किं आसि इमं तु जंतु परिभुत्तं / किं होहिइ त्ति अह तं, कत्थासि अपुच्छणे लहुगा // 646 // एवं-अमुना प्रकारेण कस्येति पृच्छया शुद्धे निदोषे निर्णीत सति यत्परिभुत्कम भुत्कपूर्वतत्पृच्छयते, किमिदं वस्त्रमासीत्युष्माकंकीदृशमुपयोगमागतवदित्यर्थः, यत्पुनरिह अपरिभुक्तंतत्पृच्छयते, किमेतद्भविष्यतीति'क
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________________ वत्थ 854 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वत्थ स्थासि' त्ति क पेटायां-मञ्जूषायामपरस्मिन् वा स्थाने इदमासीत्, तत्र यदि पेटायां किं पृथिव्यादिषु सकायेषु पेटा प्रतिष्ठिता अप्रतिष्ठिता वा, इत्याधुपयुज्य वाच्यम्-कस्येदं किमासीत्, कुत्रासीत्, किं भविष्यतीत्यप्रच्छने चतसृणामपि पृच्छानामकरणे प्रत्येकं चत्वारो लघुकाः। तत्रा किमासीदिति पृष्ट ते गृहस्था अभिदध्यु:निचनियंसण-मजण-छणुस्सवे रायदारिए चेव। सुत्तत्थजाणिएणं, चउपरियट्टे तओ गहणं॥६५०|| नित्यनिवसनं नित्योपभोग्यमेतदासीत् मज्जनकं नाम स्नानान्तरं यत्परिधीयते धौतवस्त्रमित्यर्थः तदासीत् / तथा क्षणः-प्रतिनियतः कौमुदीशक्रमहार्दिकः, उत्सवः-पुनरनियतो नामकरणचूडाकरणपाणिग्रहणदिकः / अथवा-यत्र पकान्नविशेषः क्रियते स क्षणः, या तुपक्वान्नं विनाऽपरो भत्क विशेषः स उत्सवः। क्षणे उत्सवे च परिभुज्यते यत्तत्क्षणोत्सविकं तद्वाऽऽसीत्। तथा राजामात्यमहतमादिभवनेषु गच्छदभिर्यत् परिभुज्यते तदराजद्वारिकं तद्वाऽऽसीत्। तौवमुत्के सूत्रार्थज्ञेन गीतार्थेन चतुर्णानित्यनिवसनीयादीनां परिवर्तनानां वस्त्रयुगलानां समाहारश्चतु: परिवर्तनं यथा दृश्यं परिवर्तनमेकतरं वा वस्त्रं ददाति तादृशे अन्यस्मिन् व्याप्रियमाणे सति ततो ग्रहणं कर्तव्यम्। एतदेव भावयतिचिनियंसणियं ति य, अण्णस्सइ पच्छकम्म वहणाई। अत्थि व हंते धिप्पइ, इयरफुसद्धो य गए ययी // 651 // यदि गृहस्थो ब्रूयात् नित्यनिवसनीयमिदमासीत् ततो यदि तस्यापरं नित्यनिवसनीयमस्ति ततः कल्पते, यतोऽन्यस्य नित्यनिवसनीयस्यासत्यभावे पश्चात्कर्मवहनादयो दोषा भवन्ति, पश्चात्-विवक्षितवस्त्रग्रहणानन्तरं कर्माभिनववस्त्रस्य कारापणं-पश्चात्कर्म, वहनं नामअव्याप्रियमाणं वस्त्रं तद्बह-मानकं क्रियते, आदिग्रहणात्-क्रीतकृतप्रामित्यादयो दोषाः, अतो यद्यपरं नित्यनिवसनीयमिति तदपि यदि 'वहमानं व्याप्रियमाणं तदा गृह्यात्। कुत इत्याह-इतरस्मिन् अवहमाने स्प-शनाधौतप्रक्षालनादयो दोषाः / इयमत्र भावना-यद् वहमानं तस्योपभोगार्थमप्कायेनोपस्पर्शनं कुर्यात्, धावनं वा विदध्यात्, तस्य परिभोगप्रारम्भमुद्दिश्य प्रक्षालनं वा कुर्यात्, आदिग्रहणात्-धूपनवासनादीनि वा विदधीत। यत एवं ततोऽन्यस्मिन् वहमाने ग्रहीतव्यम्। अपरिभुत्कमधिकृत्य किमेतद् भविष्यतीति पृष्टः सन्नेचं ब्रूयातहोहिइ व नियंसणियं, अण्णासइगहणपच्छकम्माई। अत्थिन वेविउ गिण्हइ, तहि तुल्लपवाहणा दोसा // 652 / / वाशब्दः परिभुत्कापरिभुत्कस्य पक्षान्तरद्योतकः, भविष्यति नित्यनिवसनीयमेतदित्यभिहिते यद्यपरं तादृशं नास्ति ततोऽन्यस्य तादृशस्यासति ग्रहणे एव पश्चात्कर्मादयो दोषाः। अथास्त्यन्यत् तादृशं ततः कल्पते, तच यद्यपि नवम-वहमानकं तथापि गृह्णाति, कुत इत्याह - तुल्कस्ता प्रवहना दोषाः। किमुक्तं भवति-यदि साधवो गृहन्ति न गृहन्ति वा तथापि स गृहीतयोरपरिभुत्कवस्त्रयोरेकतरमात्मप्रयोगेणैव प्रवहयिष्यति ततः साधूनां गृह्ण तामपि न कश्चिदोष इति। एमेव मजणाई, पुच्छा सुद्धे तु सव्वओ पेहा। मणिमाई दाइंति वि, असिह सेहस्सुवादाणं // 653|| एवमेव यथा नित्यनिवसनीयमभिहितं तथा मजनिकक्षणोत्सविकराजद्वारिकाण्यभिधातव्यानि, यदा पृच्छया शुद्धमिति निर्धारितं तदा सर्वतः-समन्तात् प्रेक्षेत-निभालयेत्, प्रेक्ष्यमाणे च यदि मण्यादिकं-- मणिहिरण्यसुवर्णादिकं किञ्चिदर्थजातमुपनिबद्धमुपलभ्यते तदा भण्यन्ते गृहस्थाः। यथा-निरीक्षध्वं समन्तादपि वस्त्रमिदम्, यदि निरीक्षमाणैस्तैः स्वयमेव दृष्टं तदालष्टम, नो चेत् ततः साधवो 'दाइंति'त्ति दर्शयन्ति इदं यौष्माकीणं किमप्युपनिबद्धमस्ति। आहैवमभिधीयमाने कथमधिकरणे दोषो न भवतीत्युच्यते, अल्पीयानेवायं दोषः, अशिष्ट-अकथिते पुनः शैक्षस्यावधावितुकामस्य तत् द्रव्यमुपादानं भवेत् गृहीतत्वात् प्रव्रजेदित्यर्थः आगारिणो वा महान्तमुड्डाहं कुर्युः, यथा वस्त्रेण सार्द्ध स्तनितमस्मद्रव्यमेभिः श्रमणैः, तत एवं प्रभूततरो दोषो मा भूदिति कथ्यते। उपसंहरन्नाहएवं तु गविट्ठेसुं, आयरिया दिति जस्स जं नत्थि। समभागेसु कएसुव, जह राइणिया भवे बीओ।।६५४|| एवमुत्कप्रकारेणैव वस्त्रेषु गवेषितेषु यथासंभवं लब्धेषु च गुरुणां समीपमागम्य यथावदालोच्य वस्त्राणि विधिवद्दर्शयति, ततः आचार्या यस्य साधोर्यजघन्यं मध्यमम् उत्कृष्टं वा वस्त्रं नास्ति तस्मै तहदतीति प्रथमः प्रकारः। पश्चार्धे द्वितीयस्सः समेषुतुल्येषु भागेषु कृतेषु साधूनां संख्यामनुमाय प्रेमाशङ्कतया वस्त्रेषु विभङ्गेष्विति भावः / वाशब्दः प्रकारान्तर द्योतेन यथा रत्नाधिकः तस्मै प्रथमं दीयते इत्ययं भवेत् द्वितीयो दानप्रकारः, इत्युक्तो वस्वकल्पिकः / बृ० 1 उ०१ प्रक० / नि० चू०। दर्श०। पं०भा०। पं० चू०। (13) साम्प्रतमुत्तरगुणानधिकृत्याहसे भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण वत्थं जाणेज्जा असंजए भिक्खुपडियाए कीयं वा धोयं वा रत्तं वा घट्ट वा मटुं वा संमटुं सम्पूधमित्तं वा तहप्पगारं वत्थं अपुरिसंतरकडं० जाव णो पडिग्गाहेजा अह पुण एवं जाणेजा पुरिसंतरकडं 0 जाव पडिग्गाहेजा। (सू०-१४४) 'से' इत्यादि, साधुप्रतिज्ञया-साधुमुद्दिश्य गृहस्थेन क्रीतधौतादिकं वस्त्रमपुरुषान्तरकृतं न प्रतिगृह्णीयात्, पुरुषान्तरस्वीकृततुगृह्णीयादिति पिण्डार्थः। आचा०२ श्रु०१चू०५ अ०१उ०।याञ्चावस्वं निमन्त्रणावस्त्रं वा याचेत इति / (''निग्गंथा णं च गाहावइकुलं" 36 इत्यादि सूत्रम्-'उवहि' शब्दे द्वितीयभागे 1078 पृष्ठेसामान्यतो व्याख्यातम्।)
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________________ बत्थ . 945 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वत्थ अथ विस्तरार्थं बिभणिषुराहदुविहं च होइ वत्थं, जायगवत्थं निमंतणाए य। णिमतणवत्थं ठप्पं, जायणवत्थं तु वोच्छामि // 651|| द्विविधं भवति वस्त्रं याञ्चावस्त्रम्, निमन्त्रणावस्त्रं च। तत्रा निमन्त्रणावस्त्र स्थाप्यम्, पश्चादभिधास्यते इत्यर्थः, याञ्चावस्त्रं पुनः साम्प्रतमेव वक्ष्यामि। यथाप्रतिज्ञातमेव निर्वाहयतिनाम ठवणावत्थं, दय्ववत्थं च भाववत्थं च। एसो खलु वत्थस्स, निक्खेवो चउविहो होइ॥६५२॥ इत्यादिका–“एवं तु गविद्येसुं, आयरिया देंति जस्सर्जनत्थिासमभागेसु कएसुव, अह राइणिया' भवे बीओ॥१॥" इति पर्यन्ताः षट्चत्वारिशग्दाथाः पीठिकायां वस्त्रकल्पिकद्वारे तथैवात्र दृष्टव्याः। उपसंहारन्नाहएयं जायणवत्थं, भणियं एत्तो निमंतणं वोच्छं। पच्छा दुगपरिसुद्धं, पुणरवि पुच्छेजिमा मेरा / / 653 / / एतद्याञ्चावस्त्रं भणितम्, इत ऊर्ध्वं निमन्त्रणावस्त्रं वक्ष्यामि, तच तथा--कस्यैतद्वस्त्रं किं वा नित्यनिवसनीयादि-कमिद्मासीदिति पृच्छाद्वयेन परिशुद्धं भवति, तदा पुनरपि तृतीयया पृच्छया पृच्छेत्। तत्राचेयं वक्ष्यमाणा मर्यादासामाचारी। तामेवाहविउसग्गजोगसंघा-डए य नाइअकुले तिविहपुच्छा। कस्स इमं किञ्च इम, कस्स व कज्जे लहुगआणा / / 654 // व्युत्सर्गो नाम-उपयोगसंबन्धिकायोत्सर्गः,तं कृत्वा यस्य च योग इति भणित्वा संघाटकेन भिक्षार्थ निर्गतस्ततो भोगिककुले उपलक्षणत्वादन्यत्रापि यथा प्रधाने कुल प्रविष्टः कयाचिदीश्वरया महतासंभ्रमेण भत्कपानेन प्रतिलाभ्य वस्त्रेण निमन्त्रितः, तत्र त्रिविधा पृच्छा प्रयोत्कव्या, तद्यथा कस्य सत्वमिदं वस्त्रम्, किं चेदमासीत्, अनेन पृच्छाद्वयेनपरिशुद्धं यथा भवति तथा राष्टव्यम्। कस्य वा कार्यस्य हेतोः प्रयच्छसीति यद्येवं न पृच्छति ततश्चत्द रो लघवः, आज्ञादयश्च दोषाः। तानभिधित्सुराह - मिच्छत्त सोच संका, विराहणा भोइए तर्हि गए वा। चउत्थं च वेटलंव, वत्थगदाहणं च ववहारो॥६५॥ भोगिन्या दीयमानं वस्त्रं, यदि केन कार्येण प्रयच्छसीति न पृच्छयते तदा भोगिको मिथ्यात्वं गच्छेत्। अथासौ देशान्तरं गतस्तत आगतश्य महत्तरादिमुखात् श्रुत्वा शङ्का भवति, भोगिके तत्रा स्थिते गते वा देशान्तरप्राप्ते पश्चादपेते सति विराधना वक्ष्यमाणा भवति।सा वाऽविरतिका चतुर्थ वा-मैथुनमवभाषेत, वैण्टलं-वशीकरणादिप्रायोग्य पृच्छेत्, ततश्च वक्तव्य वैण्टलमहनजानामि उपलक्षणत्वाच्चतुर्थ च सेवितु न कल्पते। ततो यदि सा वस्त्र याचेत तदा दानं कर्त्तव्यं भूयोऽपि तस्या एव तद्वरनं समर्पणीयमिति भावः। अथ तद्वस्त्रं छिन्नं वा प्राघूर्णकादीनां दत्तं वा भवेत्, सा व तदेव वस्त्रं मागयेत्, तदा राजकुलं गत्या व्यवहारः, कर्तव्य इति द्वारगाथासमासार्थः। - अथैनामेव विवरीषुराहवत्थम्मि नीणियम्मि, किं दलसि अपुच्छिऊण जइ गेण्हे। अन्नस्स भोयगस्सव, संका घडिया णु किं पुट्विं // 656 / / वस्त्रे भोगिन्या निष्काशिते सति यदि किमर्थं ददासीत्यपृष्ट च गृह्णाति तदा भोत्कुस्तदीयस्यैव भर्तुः अन्यस्य वा श्वशुरदेवरादेराशङ्का भवति, किं मन्ये एतौ परस्परं पूर्वमेव घटितौ यदेवं तूष्णीकौ दानग्रहणे कुरुतः। अथवा-किमेषा मैथुनार्थिनी भूत्वा वस्त्रमस्मै प्रयच्छन्ति, ततो वैण्टलार्थिनीति। मिच्छत्तं गच्छेजा, दिजंतं ददु भोइओ तीसे। वोच्छेयपदोसं वा, एगमणेमाण सो कुज्जा / / 657|| तद्वस्त्रं दीयमानं दृष्ट्वा तस्याः सम्बन्धी भोजको भर्ता मिथ्यात्वं गच्छेद वा यन्निस्सारं प्रवचनममीषामित्यादिप्रतिपन्नमिथ्यात्वश्च तस्य वा एकस्य साधोरनेकेषांवा साधूनां तद्-द्रव्यान्यद्रव्यवच्छेदं कुर्यात्, प्रद्वेषं वा गच्छेत्। एमेव पउच्छं-तो, इयम्मि तुसिणीयदाणगहणे तु। महतरगादीकहिए, एगतरपदोसवोच्छेदो॥६५८|| मेहुणसंकमसंके, गुरुगा मूलं च वेंटले लहुगा। संकमसंके गुरुगा, सविसेसतरापउछम्मि॥६५॥ एवमेव योषिति देशान्तरगतेऽपि भोगिके दोषा वक्तव्याः, तथा तेनभोगिकेन देशान्तरं गच्छता ये महत्तरकाः स्थापिता-स्तैरादिशब्दान्महत्तारिकया यक्षरिकया कर्मकरेण वा तयोर-विरतिकासंयतयोस्तूष्णीकदानग्रहणे दृष्टवा भोगिकस्य पूर्वं समागतस्य कथितम्, ततश्च स एकतरस्य अविरतिकायाः संयतस्यवा उपरि प्रद्वेषं गच्छेत्, प्रद्विष्टश्चाविरतिकां संयतं वा हन्यान्निष्काशयेद्वा वध्नीयाद्वा, विमानयेद्वा, व्यवच्छेदमेकस्यानेकेषां वा कुर्यात् / अत्रा मैथुनशङ्कायां चत्वारो गुरुकाः, निःशङ्किते मूलम्, वेण्टलशङ्कायां चत्वारोलघुकाः, निःशङ्कित्ते चत्वारोगुरवः सविशेषतराश्च दोषाः प्रोषिते भोगिके भवन्ति। ते च यथास्थानं प्रागेवोत्काः। एवं ता गेण्हते, गहिए दोसा पुणो इमे होति। घरगयमुवस्सए वा, ओभासइ पुच्छए वावि॥६६०।। एवं तावद् गृह्णतो दोषा उत्काः, गृहीते पुनर्वस्त्रे एते वक्ष्यमाणा दोषा भवन्ति, तस्मिन् गृहे यदा स एव साधुरन्यस्मिन् दिवसे गतो भवति, सा च अविरतिका तस्य साधोरुपाश्रये आगता भवति, तदा मैथुनमवभाषते। त्वं ममोद् भ्रामको भवः, वेण्टलं वा सा पृच्छति, कथय किमपि तादृशं वशीकरणं येन भोगिको मे वशी भवति। इदमेव स्पष्टयतिपृच्छाहीणं गहियं, आगमणं पुच्छणा निमित्तस्स। छिण्णं पिहुदायव्वं, ववहारो लब्भए तत्थ // 661 / / ग्रहणकाले केन कार्येण में प्रयच्छसीत्येवं पृच्छया हीनं वा
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________________ वत्थ 546- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वत्थ वस्त्रं गृहीतम्, गृहीते च तस्याः संयतप्रतिश्रये आगमनम्, आगता च सा पुत्रो मे भविष्यति नवेत्यादिकं निमित्तं पृच्छति, येन वाढं भोगिकस्यातिरुचिता भवामि तत्किमप्युपदिश / ततः साधुना वक्तव्यं न कल्पते कल्पते मैथुनं प्रतिसेवितुंसाधुवा विरलं निमित्तं वा नाहं जानामि, एवमुत्के यदि सा वस्त्रं भूयोऽपि मार्गयेत् ततः प्रतिदातव्यम् / अथ तेन वस्त्रेण छित्त्वा पाठाबन्धादिकं किमपि परं कृतं तन्निश्छन्नमपि तदा दातव्यम्। अथ न छिन्नं गृह्णाति ब्रवीति च मम सकलमेव प्रयच्छततो राजकुलं गत्वा व्यवहारे प्रारब्धे कारणिका अभिधातव्याः। यथा केनचिद् वृक्षस्वामिना वृक्षो विक्रीतः, क्रयकेण च मूल्यं दत्त्वा च स गृहं नीतः, ततो विक्रयकः पश्चात्तापितो भणति प्रतिग्रहणं मूल्यं प्रत्यपर्य मदीयं वृक्षम् / क्रयिकः प्राह-मया स वृक्षश्छित्त्वा पृथक काष्ठानि कृतः / अथ कथं तमेव व्रक्षमखण्डमहं ते समपयामि; एवं विवदमानौ तौ राजकुलमुपस्थितौ। ततः कथयत कारणिकाः किं स क्रयिको युष्माभि वृक्षं दाप्यते, अथवा काष्ठानि दाप्यन्ते। ततः काष्ठान्येव न पूर्वावस्थं वृक्षमिति व्यवहारो लभ्यते। पाहुण एणऽण्णेण्ण व, णीयं बहि हॉइइ हयं व डझं वा। तहिं य अणुसडाई, अन्नं वा दट्ठमोत्तूणं // 662 / / अथ वस्त्रं प्राघूणणकेनान्येन वा साधुनाऽन्यत्र नीतं भवेत् स्तेनेन वा हृतं प्रदीपनकेन वा साधुनाऽन्यत्र नीतं भवेत् स्तेनेन वा हृतं प्रदीपनकेन वादग्धम्, ता चानुशिष्ट्यादिकं कर्तव्यम्, अनुशिष्टिमि सद्भावकथनपुरस्सरप्रज्ञापना। तथाप्यनुपरतायां धर्मकथा कर्तव्या, विद्यया मन्त्रेण वा निराकरणीया। तदभावेन्यद्वस्त्रं तस्या दातव्यम्। परिदग्धं वस्त्रं मुक्ता दग्धे हृते वा न किंचिद्दीयते इति भावः / यदि सा राजकुलमुपतिष्ठते ततस्त्रापि व्यवहारो लभ्यते, दत्तादानम् नीश्वर इति। अथ दानकाले साधुना पृष्टं किं निमित्तं ददासि, तत्र सा तूष्णीका स्थितानबहिश्चेष्टया तथाविधः कोऽपि भाव उपदर्शितः परं ग्रहणानन्तर काचिदुपाश्रयमागत्य वेण्टलं पृच्छति चतुर्थमवभाषते। तथा तत्राभिधातव्यम् - न विजाणामों निमित्तं, न य मे कप्पइ पउंजिइं गिहिणो। परदारदोसकहणं, तं मम माया य भगिणी य / / 663|| वयं निमित्तं न जानीमः, न वाऽस्माकं जानतामपि गृहिणां पुरतो निमित्तं प्रयोक्तुं कल्पते, ततः संयमादिकृतिप्रसङ्गात्।या चतुर्थमवभाषते तस्याः परदारदोषकथनं क्रियते। यथा-परपुरुषपरदारप्रसत्कयोः स्त्रीपुंसयोरिहैव भवेद्दण्डनतर्जनताडनादयः / परभवेनरकगतौ गतानां तथाऽयः पुत्तलिकालिङ्गमादाय तत उवृत्तानां तिर्यग्मनुष्य भवग्रहणं भूयोऽपि नपुंसकत्व भाग्यप्रभृतयो वा। एकस्स व एकस्स व, कज्जे दिजंत गेण्हई जो उ। ते चेव तत्थ दोसा, बालम्मिय भावसंबंधो॥६६॥ एकस्य वापूर्वसम्बन्धस्य एकस्य वा-पश्चात्सम्बन्धस्य कार्ये दीयमानं वस्त्रं यः साधुर्गृह्णाति तस्य ते एव शङ्कादयः प्रागुक्ता दोषा वालेवालविषये-भावसम्बन्धो वक्ष्यमाणो भवतीति समासार्थः / अथैनामेव गाथां विवृणोति अहसा पुट्ठा-ण वत्थ बन्धेण वा सरिसमाह। संकाइया उतत्थ वि, कडगा य बहुमहिलियाणं // 665|| अथ-सा दात्री पृष्टा सती पूर्वसंबन्धेन यादृशो मम भ्राता तादृश एव त्वं वर्तसे, पश्चात्सम्बधेन तु श्वशुर इव भर्तृवत्सिद्धस्वं विलोक्यसे अतोऽहं भवतो वस्त्रं प्रयच्छामि इत्याहएव-मभ्यन्तरेण सम्बन्धकार्येण दीयमानं यदि गृह्णाति तदा एवं शङ्कादयो दोषाः, यदि तस्या अविरतिकाया वालमपत्यं किमपि विद्यते तदा स साधुस्तया सह सम्बन्धभावेन प्रतिपन्नः सन् चिन्तयति - इदं मे भागिनेयम् / अथ भर्तृतया प्रतिपन्नस्ततश्चिन्तयति-इदं मे पुत्रभाण्डम्, एवमादिको भावे बन्धो भवति, ततश्च प्रतिगमनादयो दोषाः / किञ्च-महिलिकाना बहुभिक्षणकानि कैतवानि भवन्ति, तेन देवरादिग्रहणेपायेन सम्बन्धमानीय चारित्रात् परिभ्रंशयन्तीति भावः। यत एवमतःएयद्दोसविमुकं, वत्थग्गहणं तु होइ कायव्वं / खमउ ति दुव्वलो त्तिय, धम्मो त्तिय होति निहोसं // 666|| एतैरनन्तरोक्तैर्दोषेर्विमुक्तं वस्त्रग्रहणं साधुना कर्तव्यं भवति, कथमित्याह - 'खमउ' त्ति इत्यादि, यदि सा दात्री पृष्टा सती ब्रूयात क्षपकस्तपस्वी त्वम्, अथवा दुर्बलोऽसि क्षपकतया स्वभावेन ततस्ते प्रयच्छामि, यतस्तपस्विने दीयमाने धर्मो भवतीति कृत्वा ददामि, एवं ब्रुवति दायकेन तद्वस्त्रं लभ्यमानं निर्दोष भवति। किञ्चआरम्भनियत्ताणं, अकिणंताणं अकारविंताणं / धम्मट्ठा दायव्वं, गिहिहि धम्मे य कयमणाणं / / 667 / / आरम्भ-षटकायमईस्तस्मान्निववृत्तानां अक्रीणतांवस्त्रा-दिक्रयमकुर्वाणानाम् अकारयताम् आरम्भक्रयकारणे परम-व्यापारयताम् एवंविधानां धर्मे-श्रुतचारित्रभेदभिन्ने कृतमनसां-साधूनां गृहिभि:सर्वारम्भप्रवृत्तैर्धर्मार्थ कुशलानुबन्धिपुण्योपार्जनार्थं वस्त्रपाठादिकं यथायोग्यं दातव्यमिति बुद्ध्या यत्रोपसाकादिर्वस्त्रेणपनिमन्त्रायति तस्य ग्रहीतव्यमिति प्रक्रमः। तदेवं वस्त्रमुत्पन्नं यावद्गुरुणां समीपे न गम्यते तावत्कस्यावग्रहे भवतीति। उच्यतेसंघाडए पविडे, रायणिए तह य ओमराइणिए। जं लब्मति पायोग्गं, राइणिए उग्गहो होइ / / 668 / / उपयोगे कायोत्सर्ग कृत्वा भिक्षार्थं संघाटकः प्रविष्टः तौको रात्निको द्वितीयोऽवमरालिकः / ता च यत्प्रायोग्यं संधाटकेन लभ्यते तद्यायदाचार्यपादमूलं न गम्यते तावत्सर्वं रात्निकस्यज्येष्ठार्यस्यावग्रहो भवति, ज्येष्ठार्यस्तस्य स्वामी इति भावः। अथ यदुत्कम् "कप्पइ से सागारकडं गहा य दोपि उग्गहं अणुन्नवित्ता परिहारंपरिहरित्तए"त्तितदेतत्। यथा केचिदाचार्यदेशीयाः स्वच्छन्दबुद्ध्या व्याचक्षते तथा प्रतिपादयतिदोचं पि उग्गहो त्तिय, केह गिहत्थेसु दोचमिच्छंति। सावय गुरुणो नयॉमो, अणिच्छे पच्छा हरिस्सामो॥६६६||
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________________ वत्थ ८४७-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वत्थ द्वितीयमपि वारमवग्रहोऽनुज्ञापितव्य इति सूत्रो युदत्कं केचिदाचार्या गृहस्थादिष्विमं द्वितीयमवग्रहमिच्छन्ति, कथमित्याह 'सावय' इत्यादि यः श्रावको वस्त्रं ददाति स वक्तव्यो हे श्रावक! कथम् ? एतद्वस्त्रं गृहीत्वा गुरूणांसमीपेतावन्नयामः यद्याचार्या एते ग्रहीष्यन्ति ततो भूयोऽप्यागम्य / भवतः समीपे द्वितीयं वारमवग्रहमनुज्ञापयिष्याम इति, आचार्या वस्त्रं न ग्रहीष्यन्ति ततस्तेषां वस्त्रस्यानिच्छायां भवेत् एवेदं प्रत्याहरिष्यामः। इहरा परिद्ववणिया, तस्य व पच्चप्पिणंति अहिगरणं / गिहिगहणे अहियरणं, सो वा दट्टण वोच्छेदं // 670|| इतरथा यद्येवंन विधीयतेततो दर्शितमपि वस्त्रं यदा आचार्यान गृहीयुस्तदा परिष्ठापनिकादोषः, अथ न परिष्ठा-पयन्ति ततोऽप्रातिहारिकं गृहीत्वा भूयस्तस्यैव गृहस्थस्य प्रत्यर्पयतां परिभोगधावनादिकमधिकरणमुपजायते। अथ तत्परिष्ठापितं वस्त्रं कोऽपि गृही गृह्णाति ततोऽप्यधिकरणमेव, सवा दाता तद्वस्त्रं परिष्ठापितमन्यगृहस्थगृहीतं वा दृष्टवा तद्-द्रव्यान्यद्रव्यव्यवच्छेदम्, एकस्यानेकेषां वा साधूनां कुर्यात्। __अथ सूरिः परोक्तं दूषयन्नाह - चोयग ! गुरुपडिसिद्धे, तहिं पउच्छे धरिज दिन्नंसु / धारणपण्णे अहिगरणं, गेण्हज्ज सयं व पडिणीतं / / 671 / / हे नोदक ! एवं क्रियमाणे तेएव प्रागुत्कदोषा भवन्ति। तथाहि-तद्वस्त्रमानीय गुरूणामर्पितं तेन चाचार्याणां न प्रयोजनं ततस्तैः प्रतिषिद्धम्, तब वस्त्रं यावत्तस्य दायकस्य प्रत्यर्प्यते तावदसौ ग्रामान्तरं प्रोषितः / प्रोषितेच तस्मिन् यदि तद्वस्वं धारयति-परिभुड्ते इत्यर्थः, तदा अदत्तादानम्, अथ तस्य सत्कं भणित्वाधारयति तदाऽधिकरणम्, आत्मार्थिनं कृत्वाधारयति अथाप्यधिकरणम्। अतिरिक्तोपकरण स्यापरिभोग्यतया अधिकरणत्वात् / अथ तद्वस्त्रम् उज्झति-परिष्ठापयतीत्यर्थः तथाऽपि गृहिगृहीतोऽधिकरणं परिष्ठापनादोषाः, अथवा-प्रतिनीतं तद्वस्त्रं स्वयमेवात्मना गृह्वीयात्, न प्रतिदद्यादिति भावः। तस्मादेष नयुत्को द्वितीयावग्रहः / बृ०१ उ०३ प्रक०। (14) धौतस्य प्रतापनविधिमधिकृत्याहसे मिक्खू वा भिक्खुणी वा अभिकंखिज्ज वत्थं आयावित्तए वा पयावित्तए वा तहप्पगारं वत्थं नो अणंतरहियाए 0 जाव पुढवीए संताणए आयावित्तए वा पयावित्तए वा / से भिक्खू वा मिक्खुणी वा अभिकंखिज्ज वत्थं आयावित्तए वा पयावित्तए वा तहप्पगार वत्थं थूणंसि वा गिहेलुगंसि वा उसुयालंसि वा कामजलंसि वा अन्नयरे तहप्पगारे अंतलिक्खजाए दुब्बद्धे दुन्निक्खित्ते अणिकंपे चलाचले नो आयावित्तए वा नो पयावित्तए वा, से भिक्खू वा भिक्खुरी वा अभिकंखिज्ज वत्थं आयावित्तए वापयावित्तए वा तहप्पगारं वत्थं कुकियंसि वा भित्तंसि वा सिलंसि वा लेलुंसि वा अन्नयरे वा तहप्पगारं अंतलिक्खजाए 0 जाव नो आयाविज वा पायाविज्ज वा / / से मिक्खू वा भिक्खुणी वा वत्थं आयावित्तए वापयावित्तए वा तहप्पगारंवत्थं खंधसि वा मंचंसि वा मालंसि वा पासायंसि वा हम्मियतलंसि वा अन्नयरे वा तहप्पगारं अंतलिक्खजाए नो आयाविज्ज वा नो पयाविज वा।। से भिक्खू वा भिक्खुणी वा तमायाए एगतमवकमिला 2 अहे झामथंडिलंसि वा 0 जाव अन्नयरंसि वा तहप्पगारंसि थंडिल्लंसि पडिले हिय 2 पमज्जिय 2 तओ संजयामेव वत्थं आयाविज वा पयाविज वा एवं खलु० तस्स भिक्खुस्स वा 2 सामग्गियं वत्थेसणाए (सू०-१४८)त्ति बेमि॥ स भिक्षुरव्यवहितायां भूमौ वस्त्रं नाताफ्येदिति / किञ्चस भिक्षुर्यद्यभिकाजयेद्वस्वमातापयितुंततःस्थूणादौ चलाचले स्थूणादिवस्त्रपतनभयानातापयेत्, तत्र गिहेलुकः-उम्बरः उसुयालं-उदूरखलम् कामजलंस्नानपीठमिति। स भिक्षुर्भिनिशिलादौ पतनादिभयाद्वस्त्रं नातापयेदिति। स भिक्षुः स्कन्धमञ्चकप्रासादादावन्तरिक्षजाते वस्त्र पतनादिभयादेव नातापयेदिति / यथा चातापयेत्तथा चाह-स भिक्षुस्तद्वस्वमादाय स्थण्डिलादि प्रत्युपेक्ष्य चक्षुषा प्रमृज्य च रजोहरणादिना तत आतापनादिकं कुर्यादिति, एततस्य भिक्षोः सामग्यमिति। आचा०२ श्रु०१चू० 5 अ०१ उ०। (15) धरणविधिरभिधीयते, इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यादयो "द्देशकस्यादिसूत्रम् - से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अहेसणिज्जाइं वत्थाई जाइजा अहापरिग्गहियाइं वत्थाई घारिज्जा नो धोइज्जा नो रएज्जा नो धोयरइत्ताई वत्थाई धारिज अपलिउंचमाणो गामंतरेसु 0 ओमचेलिए, एवं खलु वत्थधारिस्स सामग्मियं / / से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइकुलं पविसिउकामे सव्वं चीवरमायाए गाहावइकुलं निक्खमिज्ज वा पविसिज वा, एवं बहियविहारभूमि वा वियारभूमिं वा गामाणुगामं वा दूइजिज्जा, अह पुण एवं जाणेज्जा तिव्वदेसियं वा वासं वासमाणं पेहाए जहा पिंडेसणाए नवरं सव्वं चीवरमायाए। (सू०-१५६) स भिक्षुः यथैषणीयानि-अपरिकर्माणि वस्त्राणि याचेत तथा परिगृहीतानिच धारयेत्, नतत्र किञ्चित्कुर्यादिति दर्शयति, तद्यथा-नतद्वस्त्रं गृहीतं सत् प्रक्षालयेत् नापि रञ्जयेत्, तथा नापि वाकुशिकतया धौतरत्कानिधारयेत्, तथाभूतानि नगृहीयादित्यर्थः, तथाभूताधौतारस्कवस्त्रधारी च ग्रामान्तरे गच्छन् 'अपलिउंचमाणो' त्ति अगोपयन् सुखेनैव गच्छेद, यतोऽसौ-अवमचेलिक:-असारवस्त्रधारी, इत्येतत्तस्य भिक्षोर्वस्वधारिणः सामायं-सम्पूर्णो भिक्षुभावः यदेवंभूतवस्त्रधारणमिति। एतच्च सूत्रां जिनकल्पिकोद्देशन द्रष्टव्यं, वस्त्रधारित्वविशेषणाद् गच्छान्ततिऽपि चाविरुद्धमिति। किञ्च-'से' इत्यादि पिण्डैषणावन्नेयम्, नवरं तत्र सर्वमुपधिम्, अत्र तु सर्वं चीवरमादायेति विशेषः।
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________________ वत्थ 548 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वत्थ (16) इदानीं प्रातिहारिकोपहतवस्त्रविधिमधिकृत्याह - से एगइओ मुहुत्तगं मुहुत्तगं पाडिहारियं वत्थं जाइज्जा० जाव एगाहेण वा दुयाहेण वा तियाहेण वा चउयाहेण वा पंचाहेण वा विप्पवसिय विप्पवसिय उवागच्छिज्जा, नो तह वत्थं अप्पणी गिहिज्जा, नो अन्नमन्नस्स दिजा, नो पामिचं कुज्जा, नो वत्थेण वत्थ परिणामं करिजा, नो परं उदसंकमित्ता एवं वइजाआउ. समणा ! अमिकंखसि वत्थं धारित्तए वा परिहरित्तए वा? थिरं वा संतं नो पलिच्छिंदिय पलिच्छिंदिय परिद्वविजा, तहप्पगारं वत्थं ससंधियं वत्थं तस्स चेव निसिरिजानो णं साइजिज्जा। से एगइओ एयप्पगारं निग्धोसं सुच्चा निसम्म जे भयंतारो तहप्पगाराणि वत्थाणि ससंधियाणि मुहुत्तगं मुहुत्तगं० जाव एगाहेण वा दुयाहेण वा तियाहेण वा चउयाहेण वा पंचाहेण वा विप्पवसिय 2 उवागच्छंति, तह० वत्थाणि नो अप्पणा गिण्हति नो अन्नमन्नस्स दलयंतितं चेव० जाव नो साइजंति, बहुवयणेण भाणियव्वं, से हंता अहमपि मुहत्तगं पाडिहारियं वत्थं जाइज्जा० जाव एगाहेण वा दुयाहेण वा तियाहेण वा चउयाहेण वा पंचाहेण वा विप्पवसिय विप्पवसिय उवागच्छिस्सामि, अवियाई एयं ममेव सिया, माइट्ठाणं संफासे नो एवं करिना।। (सू.-१५०) स-कश्चित्साधुरपरं साधुंमुहूतादिकालोद्देशेन प्रतिहारिकं वस्त्रयाचेत्, याचित्वा चैकाक्येव ग्रामान्तरादौ गतः-तत्रा चासावेकाहं यावत्पञ्चाई वोषित्वाऽऽगतः, तस्य चैका, कित्वात्स्वपतोवस्त्रमुपहतम्, तच्च तथाविधं वस्त्रं तस्य समपर्यतोऽपि वस्त्रस्वामी न गृह्णीयात्, नापि गृहीत्वाऽन्यस्मै दद्यात्, नाप्युच्छिन्नं दद्याद्, यथा गृहाणेदम्, त्वं पुनः- कतिभिरहोमिममान्यद्दद्याः, नापि तदैव वस्त्रेण परिवर्तयेत्, न चापरं साधुमुपसंक्रम्यैतद्वदेत्, तद्यथा आयुष्मन् ! श्रमण ! अभिकासि इच्छस्येवंभूतं वस्त्र धारयितुं परिभोक्तुं चेति ? यदि पुनरेकाकी कश्चिदग्च्छेत्तस्य तदुपहतं वस्त्रं समर्पयेत् न स्थिरं-दृढं सत् परिच्छिद्य परिच्छिद्यखण्डशः खण्डशः कृत्वा परिष्ठापयेत्- त्यजेत्, तथाप्रकारं वस्त्रं 'ससंधियं ति उपहतं स्वतोवस्त्र-स्वामी नास्वादयेत्-न परिभुञ्जीत, अपितुतस्यैवोपहन्तुः समर्पयेत्, अन्यस्मै वैकाकिनो गन्तुः समर्पयेदिति / एवं बहुवचनेनापि नेयमिति / किञ्च-सः-भिक्षुः एकः-कश्चिदेवं साध्वाचारमवगम्य ततोऽहमपि प्रातिहारिक वस्त्रं मुहूर्तादिकालमुद्दिश्य याचित्वाऽन्य काहादिना वासेनोपहनिष्यामि, ततस्तद्वस्त्रं ममैवं भविष्यतीत्येवं मातृस्थानं संस्पृशेत्, न चैतत्कुर्यादिति। तथासे भिक्खू वा भिक्खुणीवानो वण्णमंताई वत्थाई विव-प्रणाई करिजा, विवण्णाईनवण्णमंताई करिज्जा, अन्नं वा वत्थं लभिस्सामि त्ति कट्ट नो अन्नमन्नस्स दिखा, ना पामिचं कुज्जा, नो वत्थेण वत्थपरिणामं कुञ्जा, नो परं ऊवसंकमित्तु एवं वदेजा, आऊसो ! समभिकंखसि मे वत्थं धारित्तए वा ? परिहरित्तए वा? थिरं वा संतं नो पलिच्छिंदिय पलिच्छिंदिय परिवविञ्जा, जहा मेयं वत्थं पावगं परो मन्नइ, परं च णं अदत्तहारी पडिपहे पेहाए तस्स वत्थस्स नियाणाय नो तेसिं भीओ उम्मग्गेणं गच्छिज्जा० जाव अप्पुस्सए, तओ संजयामेव गामाणुगामं दुइजिजा। से भिक्खु वा० गामाणुगाामं दूइज्जमाणे अंतरा से विहं सिया, से जं पुण विहं जाणिज्जा इमंसि खलु विहंसि बहवे आमोसगा वत्थपडियाए संपिंडिया गच्छेज्जा, णो तेसिं भीओ उम्मग्गेणं गच्छेखा० जाव गामाणुगामं दूइजेजा।। से मि० दूइज्जमाणे अंतरा से आमोसगा पडियागच्छेजा, ते णं आमोसगा एवं वदेजाआउसं०! आहरेयं वत्थं देहि णिक्खिवाहि जहा रियाए णाणत्तं वत्थपडियाए, एयं खलु . सया जइजासि। (सू.- 151) स भिक्षुर्वर्णवन्ति वस्त्राणि चौरादिभयान्नो विगतवर्णानि कुर्यात्, उत्सर्गस्ताद्दशानि च ग्राह्याण्येव, गृहीतानां वा परिकर्म न विधेयमिति तात्पर्यार्थः। तथा विवर्णानि न शोभनवर्णानि कुर्यादित्यादि सुगममिति / नवरं 'विहं ति अटवीप्रायः पन्थाः / तथा तस्य भिक्षोः पथि यदि आमोषकाः-चौरा वस्त्रग्रहणप्रतिज्ञया समागच्छेयुरित्यादिपूर्वोक्तयावदेतत्तस्य भिक्षोः सामग्यमिति। आचा. 2 श्रु.१चू. 5 अ०२ उ०। याञ्चावस्त्रं निमन्त्रणावस्त्रं वा ज्ञात्वा पृथग्वा धरेत्जे भिक्खू वा मिक्खुणी वा जायणावत्थं वा णिमंतणावत्थं वा अजाणिय अपुच्छिय अगवेसिय पडिग्गाहेइ पडिग्गाहंतं वा साइजह || जायणावत्थं जं मग्गिजति, कस्सेयं ति अपुच्छिय, कस्सट्ठा कडं ति अगवेसिय, णिचणियंसणं जं दिया रातो य परिहरिज्जति मज्झिउ तिण्हातो जं परिहेति, देवघरपवेसंवा करेंतोतं मजणजयं। जत्थ एकेण विसेसो कजतिसो छणो, जत्थसामण्ण-भत्तविसेसो कजति सोऊसवो। अहवा छणो चेव ऊसवो छणोसवो तम्मि जं परिहिज्जति तत्थ णं सचियरायकुलंपविसंतोजंपरिहेतितंरायदारियं एवं वत्थंजो अपुच्छ्यि अगवेसिय गेण्हति तस्स चउलहु, आगादिया य दोसा। एस सुत्तत्थो। नि० चू०१५ उ०। (17) निर्ग्रन्थीनां वस्त्रग्रहणम् - निग्गंथिं च णं बहिया वियारभूमि वा विहारभूमि वा निक्खंते समाणं, के इ वत्थेण वा पडिग्गहेण वा केवलेण वा पायपुंछणेण वा उवनिमंतेजा कप्पई से सागारकडं ग
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________________ वत्थ 846 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वत्थ हाय आयरियपायमूले ठवित्ता दोचं पिउग्गहमणुनवेत्ता परिहारं 'अभियोगे' त्ति कोऽप्युदारशरीरां संयती दृष्टवा तस्याः वशीकरणपरिहरित्तए||४|| मभियोगं कुर्यात् ततश्चारित्रविराधना, अत्र च पट्टकेन दृष्टान्तः / यत अथ भाष्यम् एषमत संयतीनां गणधरेण वस्त्राणि दातव्यानि, तदापि वस्त्रदानं सप्त बहिया व निग्गयाणं, जायणवत्थं तहेव जयणाए। दिवसानि परीक्ष्य परीक्षां कृत्वा यतनया वक्ष्यमाणया कर्तव्यमित संग्रहनिमंतणे वत्थं तहेव, सुद्धमसुद्धं च खमगादी॥६७२॥ गाथासमासार्थः। बहिर्विचारभूमौ-वा संज्ञासु विहारभूमौ च स्वाध्याय--भूमिकायां अथ विस्तसर्थमाहनिर्गतानां याञ्चावस्वं न चैव यतनया ग्रहीतुं कल्पते यथा भिक्षाचर्या- पगईपेलवसन्ना, लोमिइ जेण तेण वा इत्थी। यामुत्कं निमन्त्रणे वस्त्रमपि तथवशुद्धमशुद्धं च वक्तव्यम्। शुद्धं नाम यत् अविय हु मोहो दिप्पइ, सुइरं तासिं सरीरेसु // 676|| क्षपक इति वा धर्म इति वा कृत्या दीयते, अशुद्धं यचतुर्थेन वा वेण्टलादि- प्रकृत्या-स्वभावेनैव स्त्री प्रायः 'पेलवसन्ना' तुच्छधृतियला ततो येन कार्येण वा दीयते। वा वस्त्रादिना लोभ्यते, अपि च ताः स्वभावेनैव बहु-मोहा भवन्ति निग्गंथिं चणंगाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुप्पविलु केइ अतस्तासांपुरुषैः सहसंलापं कुर्वतीनांदारंगृहृतीनांखैरस्वेच्छ्या शरीरेषु वत्थेण वा पडिगहेण वा कंबलेण वा पायपुंछणेण वा उव- | मोहो दीप्यते। अभिजोगं वा तस्या विद्याभिमन्त्रितवस्त्र प्रदानव्याजेन निमंतेजा, कप्पइसे सागारकडं गहाय पवित्तिणीपायमूले ठवेत्ता कुयात, अभियोगिता च सती चारित्रं विराधयेत्। दोचं पिउग्गहं अणुनवित्तापरिहारंपरिहरित्तए॥४१॥ निम्गन्थिं तथा चात्र दृष्टान्तमाहच णं बहिया वियारभूमि वा विहारभूमि वा निक्खंति समाणिं वियरिंग सोबारामें , ससरक्खे पुप्फदाणपट्टकया। केह वत्थेण वा पडिग्गहेण वा कंबलेण वा पायपुंछणेण वा उव- निसि वेल दारपिट्टण, पुच्छा गामेण निच्छुभणं // 677 / / निमंतेज्जा कप्पइ से सागारकडं गहाय पवित्तिणीपायमूले ठवेत्ता एगत्थ गामे वियरियो सो स आरामसभीवे ठितो, ततो य इत्थिजणो दोचं पि उग्गहमणुग्नवित्ता परिहारं परिहरित्तए॥४२॥ पाणियं वहइ। तम्मि आरामे एगोससरक्खोसो वियरियो ओरालं अविरइयं अस्य सूत्रादयस्यापि व्याख्या प्राग्वत्। दटुं तीए विजाभिमंतियाणि पुप्फाणि देइ / तीए धरं गंतुं नीसापट्टए अथ भाष्यविस्तर: ताणि ठवियाणि, सतो ते पुप्फा पट्टगं आविसिउं अड्डरत्तवेलाए घरद्वार निग्गन्थिवत्थगहणे, चउरोमासाहवन्तिऽणुग्घाया। पिटेति। ततो आगारो निग्गओपेच्छइपट्टांसमुप्फतेण आगारी पुच्छिन्ता। मिच्छत्ते संकाई, पसजणा जाव चरिमपदं॥६७३|| तीए सम्भावो कहिओ,तेण वि गामस्स कहियं, गामेण सो ससरक्खो निर्ग्रन्थीनां गृहस्थेभ्यो वस्त्रग्रहणं कुर्वतीनां चत्वारो मासा अनुद्धाताः निच्छूढो। अथाक्षरगमनिकाविदरिकः वापिकामञ्चारारामसमीपे ततः प्रायश्चित्तम्, ताश्च वस्त्रं गृह्णतीर्दष्टवा कश्चिदभिनवश्राद्धो मिथ्यात्वं सरजस्को वाटिकातटे काञ्चि-विरतिकां दृष्ट्वा विद्याभिमन्त्रितपुष्पदानं गच्छेत्, प्रसञ्जना नामभोलिका घटिकादिप्रसङ्गपरम्परा, तत्र चरमपदं करोति,तया चगृहे गत्वा तानि पट्टके कृतानि, ततो निशिरात्रौ वेलायापाराञ्चिकं यावत्प्रायश्चित्तम्। मर्द्धरात्रौ गृहद्वारस्य पिट्टनं तैः कृतम्, ततस्तेन तस्याः पृच्छा कृतासद्भावे इदमेव भावयति च कथिते ग्रामस्य कथयित्वा तेन निष्काशनं सरजस्कस्य कृतम्, यत पुरिसेहिंतो वत्थं, गिण्हंति दिस्स संकमादीया। एते दोषा अतो निर्ग्रन्थीभिरात्मना गृहस्थेभ्यो वस्त्राणि न ग्रहीतव्यानि ओभासांचउत्थे, पडिसिद्धे करेज उडाहं // 674 // किं तु गणधरेपा तासां दातव्यानि। पुरुषेभ्यः सकाशाद्वस्त्रं गृह्णन्ती निर्ग्रन्थीं दृष्ट्वा शङ्कादयो दोषाः, किमेषा (18) कः पुनरत्र विधिरित्यत आहभाटिंगृह्णाति एवं शङ्कायां चतुर्गुरु, भोजिकायाः कथितेषड्लघु, घटिकस्य सत्त दिवसे ठवेत्ता, थेरपरिच्छाऽपरिच्छणे गुरुगा। कथने षड्गुरु, ज्ञातीनां कथने छेदः, आरक्षिकेण श्रुते मूलम्, श्रेष्ठिसार्थ- देइगणीगणिणीए, गुरुगा सय दाण अद्धाणे // 678|| वाहपुरोहितश्रुते अनवस्थाप्यम्, अमाप्यनृपतिभं श्रुते पाराञ्चिकम्, स संयतीप्रायोग्यमुपधिमुत्पाद्य सप्त दिवसान् स्थापयति-परिवासयति, वा गृहस्थो वस्त्राणि दत्त्वा चतुर्थविषयमेव भाषणं चरेत, तया प्रतिषिद्धे ततः कल्पं कृत्वा स्थविरो धर्मश्रद्धावान् प्रवार्यते, यदि नास्ति कोऽपि उड्डाहं कुर्यात्, एषा मदीयां भाटि गृहीत्वा संप्रति मदुक्तं न करोति। विकारः सुन्दरम्। एवं परीक्षा कर्तव्या, यद्यपरीक्ष्य प्रयच्छतिततश्चत्वारो कि चान्यत् गुरवः, एवंपरीक्षितो गणी-गणधरोगणिन्याः-प्रवर्तिन्याः प्रयच्छति, साऽपि लोभे अ आमिओगे, विराहणापट्टएण दिटुंतो। गणिनी संयतीनां यथाक्रमंददाति। अथाचार्य आत्मना प्रयच्छतिततश्चदायव्वो गणहरेणं, तं पिपरिच्छित्तु जयणाए॥६७५|| तुर्लधुकमा काचिन्मन्दधर्माब्रूयात् एतस्याः सुन्दरतरंदत्तं न मम, यस्मा'लोभे य' ति येन वा तेन वा वस्त्रादिना स्त्रीमुखेनवैव प्रलोभ्यते | दियमस्याभीष्टा, एवं स्वयं दाने विधीयमाने आचार्यस्थास्थाने स्थापनंभ तीप्रायोपविरो मायद्यान
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________________ वत्थे 850- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वत्थ वति यत एवमतः प्रवर्तिन्या तासां दातव्यम्। नोदकः प्राह यद्येवं तर्हि सूत्रां निरर्थकं तत्रा निर्ग्रन्थ्या वस्त्रग्रहणस्यानुज्ञातत्वात्। आचार्यः प्राहअसइ समणाण चोयग, जायनिमंतणे वत्थ तह चेव। जायंतिघरे असई,विमिस्सिया मोत्ति सेठाणे॥६७६।। हे नोदक ! निरर्थकं न भवति किं तु श्रमणानामसति यदा स्थविरा निर्गन्थ्यो वस्त्राणि गृह्णन्ति तद्विषयमेतत्सूत्राम्, यथा याञ्चावस्त्रे निमन्त्रणावस्त्रे च तथैव सर्वोऽपि विधिद्रष्टव्यः, ताश्च प्रथमतः स्थविराः एव केवलायाचन्ते,तासामसतितरुणीविमिश्रिताः। स्थविराः परमितानि स्थानानि मुक्तवा। तान्येव दर्शयतिकावालिए य भिक्खू, सुइवादी कुचिए अवेसित्थी। वाणियगतरुण संस-8 मेहुणे भोयए चेव // 680 // माता पिया य भगिणी, भाउगसम्बन्धिणो अतह सन्नी। भावितकुलेसु गहणं, असई पडिलोमजयणाए॥६८१।। कापालिकोऽस्थिरजस्कः भिक्षुकः-सौगतःशुचिवादी-दकसौकरिकः कूर्चिका-फूर्चधराः वेश्यास्त्रीवणिजकाश्च प्रतीताः तरुणो युवा संसृष्टः- | पूर्वपरिचित उद्भ्रामकः। मैथुनो-मातुलपुत्रः भोक्ता भर्ताः माता, पिता, भगिनि, भ्राता, एते चत्वारोऽपि प्रसिद्धाः। संबन्धी-सामान्यतः सज्ञातिकः संज्ञी-श्रावकः एतान् कापालिकादीन् मुक्तवा यानि भावितानि यथा प्रधानानि मध्यस्थानानि कुलानि तेषु संयतीभिर्वस्त्रग्रहणं कर्तव्यम् / अथ भावितकुलानिन प्राप्यन्ते ततस्तेषामभावे प्रतिलोम-- प्रतिक्रमणे प्रतिषिद्धस्थानेष्वेव यतनया यथा वक्ष्यमाणा दोषान भवन्ति तथा गृहीयादिति सङ्ग्रहगाथाद्वय-समासार्थः। अथैतदेव प्रतिपदं भावयतिअट्ठी विजा कुच्छित-भिक्खु निरुद्धओ लज्जएऽण्णत्थ। दगसोगरिय कुचिय-सुयरा त्तिय बंभचारित्ता // 652|| 'अट्ठिः त्ति सरजस्काः ते विभूत्या मन्त्रेण वा संयतीनां वस्त्रदानव्याजेनाभियोगं कुर्युः, अपि च ते कुत्सिता भवन्ति ये तु भिक्षुकाः सौगतास्ते प्रायो निरुद्धवस्त्राः। ये अन्यत्र च द्वयक्षरिकादिषु गच्छन्तो लज्जन्ते, गाथायां प्राकृतत्वात् एकवचननिर्देशः / एवं दकसौकरिका परिव्राजकाः कूर्चिकाश्य कूर्चधरा वक्तव्याः ते चोभयेऽप्येवं मन्यन्ते, एताः श्रमण्यो ब्रह्म-चारित्वादप्रसवाः अप्रसवत्वात् शुचयः-पवित्रा एता इति। अन्नट्ठवणजुन्ना, अनिओगो जाव रुविणी गणिया। भाइगचोरियदिनं, दटुं समणीसु उड्डाहो // 683 // या जीपणा गणिकासा स्वयं स्थापयितुमसमर्था रुपवतीं संयती दृष्टवा अन्यस्थापनार्थमपरगणिकास्थापनार्थम् अभियोगयेत्, या वा रूपवती गणिका साऽप्येवमेवाभियोगे कुर्यात्, तेषां यो भातुलपुत्रास्तेन संभोगिकाया वस्त्रं चौरिकया संयत्या दत्तं तच्च तया प्रावृत्तं दृष्टवा सा भोगिनी बहुजनमध्ये उड्डाहं कुर्यात्, एषा मे गृहभङ्गं करोति। देसियवाणियलोभा, सइ दिनेण उवरि पिहोहिंति / तरणुन्मामग भोयग, संकादी आतयसमुत्था॥६८४।। देशिको देशान्तरायातो वाणिजश्चिन्तयति साक्षादेकवार दत्तेन दानेन मतेयं चिरमपि भविष्यति इति विचिन्त्य लोभाद्भयांसि वस्त्राणि दत्त्वा प्रलोभयेत्, यस्तु सुरूपः स विकारबहुल उत्कटमोहश्च भवति, संसृष्टपूर्व उद्भ्रामकः भोत्का-प्रात्कनो भर्ता एव तेषां हस्तादादीयमाने वस्त्रे शङ्कादय आत्मसमुत्थाश्च दोषा भवन्ति / दाहामो णि य कस्सइ, निययो मो होहिई सहाओऽण्णे। सन्त्री वि संनियाणं,दाहिह इति विप्परीणामो॥६५५।। पितामातृप्रभृतयो निजकाश्च जनाश्चिन्तयन्ति कस्याप्येनां वयं दास्यामः, सोऽस्माकं सहायो भविष्यति, यस्तुसंज्ञी आवकः सोऽपप्येषा मे धर्मसहायो भविष्यति अन्यच्च संयतानाम् एषा विपुल भक्तपानं मदीये गृहे वर्तमानादास्यति, एवं चिन्तयित्वा विपरिणम्यचोन्निष्क्रमणं कारयेत्, यत एवमत एतानि स्थानानि वज्जयित्वा यानि भावितकुलानि तेषु ग्रहीतव्यम्, भावितकुलानामभावे प्रतिषिद्धस्थानेष्वेव पश्चानुपूर्व्या गृह्णीयात् / प्रथमं यः सभोगिकः श्रावकस्तस्य सकाशाद् ग्रहीतव्यम्, तस्याभावे अभोगिकश्रावकहस्तादपि, एवं प्रतिप्रक्रमेण तावद्वक्तव्यं यावद्विक्षुकाणामभावे कापालिकानां सकाशादपि यतनया वस्त्रग्रहणं कर्तव्यम्। यतनामेवाह -- मगंति थिविरियाओ, लद्धं पि य थेरिया उ गेण्हति। 'आगारदह्रतरुणी-ण व दंते तं न गिण्हति // 656|| या स्थविरा धर्मश्रद्धा वयो वृद्धा गीतार्थाश्च ता वस्त्राणि मार्गयन्ति, लब्धमपि च वस्त्रदायकसकाशात् स्थविरा गृह्णाति / अथासौ दाता काणाक्षिप्रभृतीनां आकारान् करोति, स्थविरया वा हस्ते प्रसारिते ख्याति तव ददामि एतस्यास्तरुण्याः प्रयच्छामीति एवमाकारान् दृष्टवा तरुणीनां वा ददतं दायकं विज्ञाय तद्वस्त्रं न गृह्णन्ति। एवमादिदोषाविप्रमुक्तं वस्त्रामुत्पाद्य वसतिमाप्तानामयं विधिः। सत्त दिवसे ठवित्ता, कप्पे कते थेरिया परिच्छंति। सुद्धस्स होइ धरणा, असुहे छेत्तं परिहवणा // 687|| सप्त दिवसान वस्त्रं स्थापयन्तियद्यस्थापयित्वा परिभुञ्जतेतदा चत्वारो गुरुव आज्ञादयश्च दोषाः / यत एवं ततः स्थापयित्वा कल्पंप्रक्षालनं कुर्वन्ति, कृते च कालस्थविराः तद्वस्त्रं प्रावृत्य परीक्षन्ते, यदि शुद्धं ततस्तस्यधारणम्, अथा-शुद्धमशुद्धभावोत्पादकं तद्वस्त्रं ततस्तच्छित्त्वा परिष्ठापनं कर्तव्यम्। (16) वस्त्रोत्पादनानिर्गतानां निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां च सामान्यतो लाभालाभादिनिमित्तपरिज्ञानोपायमाह - जं पुण पढमं वत्थं, चउकोणा तस्स होंति लाभाय / वितिरिच्छंताममे य, गरहिया चउगुरूआणा॥६५८|| यत्पुनः प्रथमं वस्त्रं लभ्यते तस्य ये चत्वारः कोणकास्ते वक्ष्यमाणाञ्जनखञ्जनले पादिचिह्नोपलक्षिता यदि भवन्ति उपलक्षणमिदं तेन यो चञ्चलमध्यभागौ तावपि लाभाय यौतु वितिरिश्चीनौ क ण्र्ण पट्टिकानां अन्त्यो विभागौ यचैतयो
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________________ वत्थ 851 - अभिघानराजेन्द्रः - भाग 6 वत्थ मध्यवर्ती विभागः एते त्रयोऽप्यञ्चनलेपादिचिहोपलक्षिता गर्हिताःअप्रशस्ताः, एतेषु चात्मविराधनासद्भावाच्चतुर्गुरुकम्, आज्ञा च भगवतां विराधिता भवति। अमुमेवार्थमन्याचार्यपरिपाट्याऽभिधायोच्यतेनवभागकए वत्थे, चउसु वि कोणेसु होइ वत्थस्स। लाभो विणासमन्ने, अन्ते मज्झे यजाणहि॥६८६।। इह यतो वस्त्र मार्यते ततः प्रथमतस्त्रयो भागाः कल्पन्ते भूयाऽप्येकैको भागस्त्रिधा विभज्यते, एवं नवभागीकृते वस्त्रे ये चत्वारः कोणकाः अपिशब्दात्-कोणकमध्यवर्तिनौ द्वौ भागौ तेषु वस्त्रस्याञ्जनलेपादिसम्भवे लाभो भवति, ये पुनरन्ये वस्त्रमध्यवर्त्तिनस्त्रयो भागास्तद्यथाद्वावन्त्यविभागौ, एकः सर्वमध्यवर्तिविभागस्तेषु विनाशं ग्लानत्वादिकं जानीहि। अथ यैश्चिइस्तेषु लाभो विनाशो वा अनुमीयते तानेवाह -- अंजणखंजणकद्दमलित्ते,मूसगभक्खिअग्गिविदद्धे। तुन्नियकुट्टियपज्जवलीढे, होइ विभागो सुहो असुहो // 660|| अञ्जन-सौवीराअनादि खञ्जनं-दीपमलः कईमः-पङ्कस्तैर्लिप्त खरण्टिते तथा मूषिकैरुपलक्षणत्वात् कंसारिकादिभिश्च भक्षिते अग्रिना वा विशेषेण दग्धे तथा तुम्नकारेण तुन्निते स्वकलाकौशलतः पूरिते छिद्रे कुट्टिते रजः कुट्टनेन पतितच्छिद्रे पर्यवैः पुराणादिभिः पर्यायीढे जीणे अतिजीर्णतया कुत्सितवर्णान्तरादिसंयुक्ते स्फुटित इत्यर्थः / एवं विधे वस्त्रे गृहीते सति शुभोऽशुभो वा विपाकपरिणामो भवति। तत्रा ये शुभविभागास्तेषु शुभो विपाकः, ये त्वशुभास्तेष्वशुभ इति। .. (20) अथ नवानामपि भागानां स्वामिनः प्रतिपादयतिचउरो य दिव्विया भा-गा माणुसा दुवे भाया य। असुरा य दुवे भागा, मज्झे वत्थस्स रक्खसओ // 661 // चत्वारः कोणका दिव्या-देवसंबन्धिनो भागाः, द्वावञ्चल-मध्यभागी मानुपौ-मनुष्यस्वामिकौ, द्वौ भागौ च कर्णपट्टिकामध्यलक्षणावासुरावसुरसम्बन्धिनौ, सर्वमध्यगतः पुनरेको भागो राक्षसस्वामिक इति। अर्थतेषु विभागेषु शुभाशुभफलमाहदिव्वेसु उत्तमो लाभो, माणुस्सेसुस मज्झिमो। आसुरेसु य गेलग्नं, मज्झे मरणमाइसे // 66 // दिव्येषु विभागेषु यद्यञ्जनादिभिर्दूषितं वस्त्रं तदा तस्मिन् गृहीते साधूनामुत्तमो वस्त्रपात्रादीनां लाभो भवति, मानुषभागयोरञ्जनादिदूषिते वस्त्रे मध्यमो लाभः, आसुरभागयोरञ्जनादिदूषितयोग्लनित्वम् ाक्षसभागे पुनरञ्जनादियुक्ते यतीनां मरणमादिशेदिति। जं किंचि होइ वत्थं, पमाणवं रुइकर थिरं निद्धं / परदोसे निरुवहतं, तारिसगं खु भवे धन्नं // 663|| यत्किंचिद्वस्वं प्रमाणवत्-सूत्रोत्कप्रमाणोपेतं स एवान्यत्रास्थूलमन्यत्र लक्षणं रुचिकारकं स्थिरं-दृढं स्निग्ध सरजाभिः पञ्चभि पदस्त्रिंशद्भङ्गा भवन्ति एष नवमो भङ्गो गृहीतः। परदोषा आसुराराक्षसभागेष्वञ्जनप्रभृतयस्तौर्निरुपहतं वर्जितम्, यद्वा-परो दायकस्तस्य दोषा क्रीतकृतत्वादयस्तै विवर्जितं तादृशं वस्त्रं खुरवधारणे, धन्यं ज्ञानादिधनप्रापक लक्षणोपेतमित्यर्थः / बृ० 1 उ०३ प्रक० / नि० चू० / ग०। अनलमध्रुवमलक्षणम् -- से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण वत्थं जाणेज्जा अप्पंड०जाव संताणगं अणलं अथिरं अधुवं अधारणिज्जं रोइज्जतं ण रुचइ तहप्पगारं वत्थं अफासुयं० जावपडिगाहेजा से भिक्खूवा भिक्खुणीवासेजं पुण वत्थं जाणेज्जा अप्पंडं 0 जाव संतागणं अलं थिरं धुवं धारणिज्जं रोइज्जतं रुबइ तहप्पगारंवत्थं फासुयं जाव पडिगाहेजा। (सू०-१४७) 'से भिक्खू' इत्यादि, स भिक्षुर्यत् पुनरेवंभूतं वस्त्रं जानीयात्, तद्यथाअल्पाण्डं यावदल्पसंतानकं किंतु अनलम्-अभीष्टकार्यासमर्थ हीनादित्वात्, तथा अस्थिरंजीर्णम् अधुवम् स्वल्पकालानुज्ञापनात्, तथा अधारणीयम्-अप्रशस्तप्रदेशखञ्जनादिकलङ्कातत्वात्, तथा चोत्कम् "चत्तारि देविया भागा, दो य भागा य माणुसा / असुरा ये दुवे भागा, मज्झंवत्थस्स रक्खसो॥१॥ देविएसुत्तमो लाभो, माणुसेसुयमज्झिमो। आसुरेसु अगेलण्णा, मरणंजाण रक्खेसु॥२॥"किञ्च-"लक्खणहीणो उवही, उवहणई णाणदंसण-चरितं" इत्यादि, तदेवंभूतमप्रायोग्य रोच्यमानं प्रशस्यमानंदीयमानमपि वादात्रान रोचते-साधवे न कल्पत इत्यर्थः / एतेषां चानलादीनां चतुण्णां पदानां षोडश भङ्गा भवन्ति, तत्राद्याः पञ्चदश अशुद्धाः शुद्धस्त्वेकः षोडशस्तमधिकृत्य सूत्रामाहस भिक्षुर्यत् पुनरेवंभूतं वस्त्रं चतुष्पदविशुद्धं जानीयात् तच लाभे सति गृहीयादिति पिण्डार्थः / आचा०२ श्रु०१चू०५ अ० 130 / (21) पर्युषणायाःचातुर्मास्ये वस्त्रग्रहणम् - नो कप्पइ निग्गन्थाणं वा निम्गंथीणं वा पढमसमोसरणुदेसपत्ताइंचेलाई पडिग्गाहित्तए।॥१७॥ कप्पइ निगंथाणं वा निग्गंथीणं वादोचसमोसरणुदेसपत्ताइंचेलाइंपडिग्गाहित्तए।।१८|| अथास्य सूत्रस्य कः सम्बन्ध इत्याहदिटुं वत्थग्गगहणं, न य वुत्तो तस्स गहणकालो उ। ओसरणम्मि, अगझं, तेण समोसरणसुत्तं तु / / 546|| . पूर्वसूत्रो वस्त्रग्रहणं दृष्ट न च तस्य ग्रहणकाल उत्कः, कदा कल्पते कदा च नेति, अता वर्षाकालाख्ये प्रथमे 'ओसरणे' समवसरणे अग्राह्यं तद्वस्त्रम्, द्वितीये तुऋतुबद्घाख्ये ग्राह्यमिति निरूपणाय इदं समवसरणसूत्रमारभ्यते। अहवा विसओवधिओ, सेहो दव्वं तु एसमक्खायं / तं काले खित्तम्मि सोपधिकं शैक्षलक्षणं अगझं च // 547 / / अथवा पूर्वसूत्रे सोपधिकं शैक्षलक्षणं द्रव्यमेतदाख्यातम्, तद् द्रव्यं कुत्र काले क्षेत्रो ग्राह्यम्, कुत्रा वा अग्राह्यमित्यधुना प्रतिपाद्यते। अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य (सूत्र०-१७-१८)व्याख्या-"नोकप्पइ'त्ति आर्षत्वादेकवचनम्, नोकल्पतेनिन्थानांनिन्थिीनांवा प्रथमसमवसरणेवर्षाकालेउद्देशः
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________________ वत्थ 152- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वत्थ क्षेत्रकालविभागस्तं-प्राप्तानि प्रथमसमवसरणोद्देशप्राप्तानि, चेत्यानिवस्त्राणि प्रतिगृहीतुम, किमुक्तं भवति-इह साधवो यत्रा वर्षावासं चिकीर्षवस्तत्क्षेत्रां यावताऽपि प्राप्नुवन्ति प्राप्ता वा परं नाद्याप्याषाढपूर्णिमा लगतितावत् कल्पन्तेवस्त्राणि परिग्रहीतुम्।अथवर्षावासप्रायोग्य क्षेत्र प्राप्ताः आषाढपूर्णिमा च संजाता तत इत्यन्तं क्षेत्राकालविभागं प्राप्तानि तु कल्पन्ते-इति सूत्रसंक्षेपार्थः। ____ साम्प्रतं विस्तरार्थमभिधित्सुः प्रेर्यमुत्थापयन्नाह - पठमंसि समोसरणे, उद्देसकडं ण कप्पती जस्स। तस्सव किं कप्पंती, उग्गमदोसा उ अवसेंसा॥५४८|| इह परः प्रस्तुतसूत्रस्योपरि परम्पराघातमनन्तरोक्तमर्थम-नवबुद्धयमानः प्रेरयति / नतु च सूत्रो 'उद्देसपत्ताई' ति यत्पदं तस्यायमर्थः / उद्देशनमुद्देशः औद्देशिकाख्यो द्वितीय उदग्मदोषस्तं प्राप्तानि वस्त्राणि न कल्पन्ते, एतचनयुज्यते, यतो यस्य साधोः प्रथमसमवसरणे उद्देशकृतं वस्त्रादि न कल्पते तस्य च शेषाः कर्मादयः पञ्चदशोदग्मदोषाः किं कल्पन्ते ? यदेवमुद्देशकृतमेव प्रतिषिध्यते। पर एव सूरीणामभिप्रायमाशङ्क्य परिहरतिउद्देसग्गहणेण व, उग्गमदोसा उसवे जति गहिता। उप्पादणादिसेसा, तम्हा कप्पंति किं दोसा ||4|| अथैकग्रहणे तज्जातीयग्रहणामतिन्यायादुद्देशग्रहणेन सर्वेऽप्यदुग्मदोषा गृहीताः। एवं तर्हि उत्पादनादयः शेषा दोषाः किं कल्पन्ते येनोदग्मदोषा एव गृह्यन्ते। पर एवाचार्य शिक्षयमाण इदमाहअहवा उहिस्सकता, एसणदोसा विहोति गहिता तु। आदीयंतग्गहणे, गहिया उप्पादणा वितहिं // 54 // अथवा यस्मादोषणादोष अपि साधूनुद्दिश्य-प्रणिधाय कृताः, अत उद्देशग्रहणेन तेऽपि गृहीताः / एवं चाद्यस्योदग्मदोषकलापस्यान्यस्य चैषणादोषजालस्य ग्रहणे उत्पादना दोषा अपि गृहीता अत्रा मन्तव्याः। आद्यन्तग्रहणे मध्यस्यापि ग्रहण-मिति न्यायात्। अतोवाचत्वारिंशदपि दोषान कल्पन्ते इति सिद्धम्। एवमाचार्यस्याकृत्यमाशङ्कय दूषणान्तरमाह -- एए अतस्स दोसा, उडुबद्धे जं च कप्पते घेत्तुं / कोई भणिज दोसु वि, ण कम्पत्ति सुत्तं तु सूएति // 551 / / / यथैवं सामाक्षिप्ता द्वाचत्वारिंशदपि दोषाः प्रथमसमव-सरणे प्रतिषिद्धास्तर्हि ऋतुबद्धाख्ये द्वितीयसमवसरणे एते सर्वेऽपि दोषास्तस्य साधोः कल्पन्ते? यथाऽनौव सूत्रो अभिहितम्-कल्पन्ते द्वितीयसमवसरणे उद्देशप्राप्तानि चेलानि प्रतिग्रहीतुमतोऽपि ज्ञाप्यते द्वितीयसमवसरणे द्वाचत्वारिंशद्दोषदुष्टमपि कल्पते, एवं कश्चित्परो भणेत्। तत्र सूरिराहद्वयोरपि समवसरणयोर्न कल्पते / योऽपि परः प्राह यद्ययं द्वितीयेऽपि समवसरणे प्रतिषेधयथ तन्न युज्यते / यतः श्रुतं सूत्रामेव कल्पते इति ब्रुवाणमनुज्ञां सूत्रयति। अपि वा एवं सुत्तविरोधो, दोचम्मिय कप्पतीतिजं मणितं / सुत्तणिवातो जम्मि तु, तं पुण वोच्छं समासेणं / / 552 / / एवं भवतां सूत्रोण समं विरोधः प्राप्रोति, यतः सूत्रे द्वितीये समवसरणे कल्पत इति भणितम् / अथ गुरुराह-सर्वमप्येतदाकाशकसुममिव लक्ष्यते। सूत्राभिप्रायमनवबुध्यैव यथा प्रलपनात्। कः पुनः सूत्राभिप्राय इति चेदत आह-यस्मिन्नर्थे सूत्रास्य निपतोऽवतारस्तं शृणु समासेनसंक्षेपेण वक्ष्येऽहम्समा सरणे उद्देसे, छविधिपत्ताण दोण्ह पडिसेधो। अप्पत्ताण उगहणं, उवधिस्स उसातिरेगस्स।।५५३|| प्रथमसमवसरणज्येष्ठवग्रहोवर्षावासइतिचैकार्थम, द्वितीयसमवसरणम्। ऋतुबद्ध इति चैकार्थम्, तत्र यउद्देशस्तद्विषयः षविधो निक्षेपः कर्तव्यः। 'पत्ताण दुण्ह पडिसेहो' त्ति आर्षत्वाद्विभक्तिव्यत्ययः, द्वाभ्यां-क्षेत्रकालाभ्यां प्राप्तनां वस्त्रादिग्रहणे प्रतिषेधो भवति, अप्राप्तानां तु सातिरेकस्योपधेर्ग्रहणं भवतीति नियुक्तिगाथासमासार्थः। (अथ विस्तरार्थ 'उदेस' शब्दे द्वितीयभागे 765 पृष्ठे गतः।) तत्रा क्षेत्रोद्देशेन कालोद्देशेन वाऽधिकारः। शेषास्त विनेयव्युत्पादनार्थमुच्चारितार्थसदृशा इति कृत्वा प्ररुपिताः, तदत्र परेण यदुदग्मौद्देशिकं प्रतिपादितं तत्राधिकृतमिति स्थितम् अथ प्राप्तनामिति पदं व्याख्याति-- खित्तेण य कालेण य, पत्तापत्ताण हुँति चउमङ्गो। दोहि विपत्तो ततिओ, पढमो बितिओ य एक्कणं // 557|| क्षेत्रोण कालेण च प्राप्तनां चतुर्भङ्गी भवति। क्षेत्रोण प्राप्ता न कालेन 1, कालेन प्राप्ता न क्षेत्रेण 2, क्षेत्रोण कालेन च 3, प्राप्ताः, नापि क्षेत्रण नापि कालेन 4, अत्रा तृतीयो भङ्गो द्वाभ्यामपि क्षेत्रकालाभ्यां प्राप्तः / चतुर्थः पुनरुभाभ्यामप्यप्राप्तः। अथामूनेव भङ्गान् भावयतिवासखित्तपुरोक्खड-उडुबद्धठियाणखेत्तओ पत्तो। अद्धाणमादिएहिं,दुल्लभखित्ते चवीओ उ॥५५८|| वर्षाक्षेत्रो पुरस्कृतं प्रथमत ऋतुबद्धकाले स्थितानां क्षेत्रतः प्राप्ता इति प्रथमो भङ्गो भवति। इयमत्रा भावना-ऋतुबद्धे चरमो मासकल्पो यत्र कृतः। अन्यच वर्षावासप्रायोग्य क्षेत्रं नास्तिततस्तत्रैववर्षावासं कर्तुकाम आषाढपूर्णिमामद्याप्यप्राप्नुवन्तः प्राप्ता न काल इत्याद्यो भङ्गो भवति, अध्वप्रतिपन्नतादिभिः कारणैर्दुर्लभ वा वर्षावासप्रायोग्ये क्षेत्रे अपान्तराल एव आषाढ-पूर्णिमा संजाता एवं द्वितीयो भङ्गो भवति। आसाढपुण्णिमाए, ठिया उदोहिं पिहोंति पत्ताउ। तत्थेव य पडिसिज्झइ, गहणं ण उसेसभनेसु // 55 वर्षाक्षेत्र आषाढपूर्णिमायां ये स्थिता ते द्वाभ्यामपि क्षेत्रकालाभ्यां प्राप्ता भवन्ति, आषाढपूर्णिमामासप्राप्तनामन्तरा अध्वनि वर्तमानानाम ऋतुबद्धे मासकल्पे भवा अन्यत्रा क्षेत्रे स्थितानां चतुर्थो भङ्गो भवति। अथ ततत्रैव तृतीयभङ्ग एववस्त्रादीनांग्रहणंप्रतिषिध्यते, नशेषेषु-प्रथमद्वितीयचतुर्थभनेषु एकत्तरेण द्वाभ्यांवा अप्राप्तत्वात्। एतेन 'दोहपडिसेहो त्ति व्याख्यातम्।अ
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________________ वत्थ 553- अमिधानराजेन्द्रः- भाग 6 वत्थ थ'अप्पत्ताणउगहणंउवहिस्ससाइरंगस्से तिपश्चार्द्ध व्याचिख्यासुराहदुण्डं जा उवगरणा, णिप्फज्जति जं व होति वासासु / अग्गहणम्मि विलहुगा, तत्थ वि आणादिणो दोसा // 560 // इह वर्षाकालक्षेत्राकालाभ्यामप्राप्तौ सातिरेक उपधिग्रहीतव्यः। कियत्प्रमाण इति चेदुच्यते-द्वयोर्जनयोः संबन्धिना यावतोपकरणेन एकस्य साधोर्योग्यः परिपूर्णः प्रत्यवतारोऽतिरिक्तो निष्पद्यते, येन वर्षासु वर्षाकल्पादिकमुप-युज्यते तदात्मनो योग्यं द्विगुणं भवति, इयत्प्रमाणं ग्रहीतव्यम् / इदमुक्तं भवति-एकैकसाधुरद्धतृतीयान् प्रत्यवतारान् गृहाति, किं कारणं कदाचिदध्वनिर्गताः साधवो विविक्ता आगच्छेयुः, ततो द्वौ साधू एकस्य साधोः संपूर्ण प्रत्यवतारं प्रयच्छतः, तयोश्चात्मनः प्रत्येकं द्विगुणाः प्रत्यवतारास्तिष्ठन्ति। यद्येवं न गृहन्ति ततश्चतुर्लधुकाः तत्राप्याज्ञादयो दोषा भवन्ति। बृ०३ उ०। (वर्षासु अतिरिक्तोपकरणग्रहणकारणोपदर्शनद्दष्टान्तः 'उवहि' शब्दे द्वितीयभागे 1065 पृष्ठे गतः।) / (22) अथ निर्गतानां सामाचारीमुपदर्शयतिपुण्णम्मिणिग्गयाणं, साहम्मियखेत्तवजिते गहणं / संविग्गाण सकासं, इयरे गहियम्मि गेण्हति // 568|| पूणे-वर्षावासावग्रहे निर्गतानां यव साधर्मिकैर्वर्षवासः कृतस्तत् क्षेत्रों वर्तयित्वा अन्येषु ग्रामनगरादिषूपकरणस्य ग्रहणं भवति / ये संविनाः सांभोगिका असांभोगिका वा तेषां यद्वर्षा क्षेत्रतत्सक्रोशयोजनं परित्यज्य गृह्णन्ति, इतरे पार्श्वस्थादयस्तेषां वर्षावासक्षेत्र तत्र तैर्गहीते उपकरणे पश्चात् संविना गृह्णन्ति। तेषां च क्षेत्र मासद्वयं न परिहियते। कुत इति चेदुच्यतेवासासु वि गिण्हंति, णेव य णियमेव इतर विहरंती। तेहि इ सुद्धमसुद्धे, गहिए गिण्हंति जं सेसं // 56 // इतरे-पार्श्वस्थादयो वर्षास्वपि वस्त्राणि गृह्णन्ति,नच नियमेनैव चतुर्मासानन्तरं ते विहरन्ति, अतस्तैः शुद्धेऽपि अशुद्धेऽपि वा उपकरणे गृहीते यच्छुद्धं वस्त्रादिक श्राद्धाः प्रयच्छन्ति तन्मासद्वयमध्येऽपि गृह्णन्ति / सक्खेत्ते परक्खेत्ते वा, दो मासा परिहरेउ गेण्हंति। जं कारणं ण णिग्गय, तं पि बहिज्झोसियं जाणे // 600 / / स्वक्षेत्र-यत्रात्मना वर्षाकल्पः कृतः परक्षेत्रं यत्रापरसंविना वर्षाकल्पं स्थिताः, तत्रा स्वक्षेत्रो यत्रापरसंविग्ना वर्षाकल्पं स्थिताः, तत्र स्वक्षेत्रो वा द्वौ मासौ परिहत्य तृतीये मासि गृहन्ति / अथ चतुर्मासानन्तरं कर्दमादिभिः कारणैर्न निर्गतास्ततो यावन्तं कालं कारणमपेक्ष्य न निर्गतास्तमपि कालं बहिझोषितम्-बहिः क्षिप्तं जानीयात्-गणयेत् / तावन्तमपि कालं बहिर्निर्गता इव मन्तव्या इति भावः। कैः पुनः कारणैर्न निर्गता इत्याहचिक्खल्लवासअसिवा-दिएसु जहि कारणेसु उवणेति। / दिन्ते पडिसोधित्ता,गेण्हंति उदोसु पुण्णेसं॥६०१।। चिक्खल्लः-कदमस्तदाकुला : प्रतिषिध्य द्वयोस्तु मासयोर्नोपरमते, अशिवदुर्भिक्षादीनि वा बहिरुपस्थितानि एवमादिभिः कारणैः पदं न निर्गच्छति, तत्रा यदि केचिद्वस्त्रादिना निमन्त्रयन्ति तदा लान् ददतः प्रतिषिध्य द्वयोस्तु मासयोः पूर्णयोर्वस्त्रादिकं गृह्णन्ति। कुत इत्याह - भावो उणिगतेहिं, वोच्छिज्जइ देति ताइ अण्णस्स। अत्तट्टेति व ताई, एमेव य कारणमिणतो॥६०२।। ये साधव इह क्षेत्रे वर्षावासं स्थितास्तेषां वस्त्राणि दास्यामः इत्येवं यः श्राद्धानां भावः स निर्गतेषु साधुषु व्यवच्छिद्यते / यानि वस्त्राणि दातुं संकल्पितानि अन्यस्य–पार्श्वस्थादेः प्रयच्छन्ति,स्वयमेव वाऽऽत्मार्थयन्ति - परिभुञ्जत इत्यर्थः / अथ चतुर्मासानन्तरं कारणमपेक्ष्य न निर्गच्छन्ति, ततो मासद्वयमध्ये श्राद्धानामभ्यर्थनायामप्यगृह्णानेष्वेव मेव भावो व्यवच्छिद्यते, ततो द्वौ मासौ परिहृन्य ग्रहीतव्यम्, कारणे मासद्वयमध्येऽपि गृह्णीयात्। तदेव दर्शयतिगच्छे सबालवुढे, असती परिहरदिवङ्गमासंतु। पणतीसा पणवीसा,पण्णरस दसेव एकं च // 603|| सबालवृद्धे गच्छे वस्त्राभावेशीतं सोदुमसमर्थे सार्द्धमासं परिहरवर्जय, परिहृत्य च ततः सार्द्धगृह्णीयात्। अथ सार्द्धमासमपि परिहतुनशत्किस्ततः ततः पञ्चविंशति दिनानि-तथाऽप्यसंस्तरणे पञ्चदश दिनानि, तथाप्यशत्कौ दश दिवसान, तथाऽप्यसामर्थ्य एकमपि दिनं परिहरेदिति संग्रहगाथासमासार्थः। अथैनामेव विवृणोतिबालासहवुङ्कअतरं-तखमगसेहाउलम्मि गच्छम्मि। सीतं अविसहमाणे, गेण्हंति इमाएँ जयणाए॥६०४॥ पन्नरस दस य पञ्च व, दिणाणि परिहरिय गेण्ड एग वा। अहवा एकेकदिणं,अउणट्ठिदिणाइ आरम्भ // 606|| अगाढे कारणे पञ्चभिर्दिवसैरुनो द्वौ मासौ परिहृत्य वस्त्रं ग्रहीतव्यम्, तथा तावन्तं कालं यावद्वालवृद्धादयः शीतेन परिताप्यमाना न संस्तरन्ति, ततो दशदिवसोनौ द्वौ मासौ परिहृत्य वस्त्रं ग्राह्यम् / एवं सार्द्धमासं दशदिवसाधिकं वा मासपञ्चविंशति दिनानि दश दिनानि पञ्च वा दिनानीति यथाक्रमं परिहृत्य वस्त्रं गृह्णीयात्, अथ पञ्च दिवसानपि वस्त्राभावे बालवृद्धादयो नात्मानं निर्वाहयितुर्माशास्ततश्चत्वारि त्रीणि द्वे यावदेकमपिदिनं परिहृत्यग्रहीतव्यम्। अथ एकैव दिनहानिर्द्रष्टव्या, तद्यथायत्रवर्षावासंस्थितास्तत्रषष्टिर्दिनानिपरिहत्यउत्सर्गतोवस्त्रग्रहणंकर्तव्यम् / कारणे पुनरेकोनषष्टिर्दिनान्यारभ्यैकैकदिनं हापयता तावद्वत्कव्यं या
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________________ वत्थ 654 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वत्थ वदेकमपि दिनंपरिहत्य वस्त्रग्रहण कार्यम्। व्याख्यातं प्रथमस-मवसरणसूत्रम् / बृ०३ उ०! जे भिक्खू पढमसमोसरणुद्देसपत्ताइंचीवराइं पडिग्गाहेइ पडिग्गाहंत वा साइज्जइ // 53 // नि० चू०१० उ०। (23) ऋतुबद्ध वस्त्रग्रहणमिति द्वितीयसमवसरणसूत्रां व्याख्याति- | विइयम्मि समोसरणे, मासा उकोसगा दुवे हॉति। ओमंथगपरिहाणी, पञ्च य पञ्चेव य जहण्णे // 607 / / द्वितीयं समवरणं नाम ऋतुबद्धकालस्तत्र मासकल्पेन स्थिता वस्त्रादिकमुपकरणमुत्पादयन्ति, मासकल्पानन्तरं च तत्रा द्रौ मासावुत्कर्षतः परिहर्तव्यौ भवतः। कारणे तु तथैवासुखपरिहाराय पञ्च दिनानिहापयता सावन्नेयं यावत् जघन्यत एकं दिनं परिहर्तव्यम्। अमुमेवार्थं स्फुटतरमाहअपरिहरंतस्सेते, दोसा ते चैव कारणे गहणं / बालवुड्डाउले गच्छं, अगती दस पञ्च एको य॥६०८|| यत्रा क्षेत्रो मासकल्पः कृतस्तत्र द्वौ मारायपरिहारतस्त एव दोषा मन्तव्याः, ये वर्षावासे मासद्वयमपि परिहरत उत्काः , कारण तु ग्रहणं कर्तव्यम्। कथमित्याह-बालवृद्धाकुले गच्छेवस्त्राभावेपञ्चकपरिहाण्या एकैकपरिहाण्या वा तावद्वत्कव्यं यावद्दश वा पञ्च वा एको वा दिवसः परिहर्तव्यः। यत्रा संविनासकल्पे वर्षाकल्पः कृतस्तत्रा मासद्वयादुपरि पञ्चसु दिवसेष्वपूर्णेषु अन्येषां न कल्पते किंचिदपि ग्रहीतुम्। यो गृह्णाति तस्य दोषानुपदर्शयतिकरणाणुपालयाणं, भगवतो आणं पडिच्छमाणाणं / जो अंतरा उगेण्हति, तहाणारोवणमदत्तं // 606 / कारणस्य-पिण्डविशुद्ध्यादेः अनु-पश्चात् पूर्वऋषिपरंपरा क्रमेण पालकाः कारणानुपालकास्तेषां करणस्य च चरणावि-नाभावित्वाचरणानुपालकानामित्यपि द्रष्टव्यम्, एतेन शीतल-विहारतादोषस्तेषां परिहतो भवति। भगवतोवर्द्धमानस्वामिनोया आज्ञा तांतथेति प्रतिपत्त्या प्रतीच्छताम्, अनेन यथाच्छन्दतादोषास्तेषां नास्तीत्युक्तं भवति, एवंविधानां साधूनां क्षेत्रामन्तरा तैरगृहीते उपकरणे यो वस्त्रादि गृह्णाति, तस्य ततस्थानारोपण प्रायश्चित्तम्। तद्यथा-उत्कृष्ट चतुर्लघः, मध्यमे मासिकम्, जघन्ये पञ्चकम्। सूत्रादेशेन वा साधर्गिकस्तैन्यामिति कृत्वा अनवस्थाप्यम्, 'अदत्तं' ति भगवता नानुज्ञातमिति कृत्वा तीर्थकरदत्तमपि न भवति। उवरिं पञ्चमपुण्णे, गहणमदत्तं गत त्ति गेण्हति / अणपुच्छा दुप्पुच्छा, तं पुण्णगत त्ति गेण्हति॥६१०॥ परक्षेत्रो द्वयोसियोरुपरिपञ्चसु दिनेषु अपूर्णेषु यदि ग्रहणं करोति तदा अदत्तादानदोषः प्रसज्यते / अथ जानन्ति गता अन्यदेशं क्षेत्रस्वामिनः ततोऽपूर्णेष्वपि पञ्चरात्रिंदिवसेषु गृहन्ति। अथ शङ्कितं ततो न गृह्णन्ति / अथ ते परदेशं न गतास्ततो यद्यनापृच्छया वा वस्त्रं गृह्णन्ति ततस्तथैवादत्तादा-नदोषं प्राप्नुवन्ति / यत एवमतस्तद्वस्त्रादिकमुपकरणं गता | निःशङ्कितमन्यदेशं क्षेत्रिका इति विज्ञाय पूर्णे मासद्वये गृह्णन्ति / अत्रानापृच्छा नाम क्षेत्राकैर्वस्त्रग्रहणं कृतं नवेति न पृच्छति / दुष्पृच्छा पुनरविधिना प्रच्छनम्। सा चेयम्गोवालवच्छवाला, कासगआदेस बालवुड्डाय। अविधी विधी तु सावग, महत्तरधुवम्मि लिंगत्था // 611 / / ये गोपालवत्सपालकर्षकाः प्रभाते निर्गताः सन्तो भूयः ग्राम प्रविशन्ति तत्रादेशाः प्राघूर्णिका अन्यग्रामादायाता ये बालवृद्धादयोऽत्यन्तमुग्धा विस्मरणशीलाश्च तान् पृच्छति, किं श्रमणैः कृतं वस्त्रग्रहणं भवति ? एषा अविधिपृच्छा / विधि-पृच्छा पुनरियम्-श्रावका वा महत्तरा वा पृच्छनीयाः / येषु साधूनां वस्त्रग्रहणसंभवो भवति, ये वा धुवकर्मिका लोहकाररथकारादयो ये वा लिङ्गधारिणस्तान् पृच्छति, वस्त्रादिग्रहणं साधुभिः कृतं न वेति। परक्षेत्रो वस्त्रग़ातिधिमभिधित्सुराहगंतूण पुच्छिऊण य, तेसिं वयणे गवेसणा होति / तेसागतेसु सुद्धे-सु जत्तियं सेस अग्गहणं // 612 / / क्षेत्रस्वामिनां समीपे गत्वा गिधिवदापृच्छय तेषां साधूनां वचने अनुज्ञायां तदीये क्षेत्रो गवेषणा कर्तव्या भवति। अथन ज्ञायते ते कुत्रापि गता अमीभिः साधुभिस्तत्र वस्त्रग्रहणं कियदपि कृतम्, तेच क्षेत्रस्वामिन आगताः। ततस्तेषु शुद्धेषु विधिना आगतेषु यावद्वस्त्रादि गृहीतं तावत्तेषां प्रत्यर्पयितव्यम्। इदमेव सविशेषमाह -- उप्पन्नकारणा गं-तु पुच्छिउँ तेहि देण्ह गेण्हंति। तेसागतेसु सुद्धे-सु जत्तियं सेस अग्गहणं // 613|| बालवृद्ध शैक्षादीनां शीतपरितापनालक्षणे वस्त्रग्रहणकारणे उत्पन्ने स्वक्षेत्र वस्त्रदुर्लभता सम्यग् निश्चित्य परक्षेत्रे वस्त्र-ग्रहणं कर्तुं कामाः क्षेत्रास्वामिनामन्तिके गत्वा पृष्टवा च तैर्दत्तमभ्यनुज्ञातं यावत्प्रमाणं वस्त्रादि तावदेवं गृह्णन्ति, नातिरित्कम्। अथ न ज्ञायन्ते कुत्रापि गतास्ततो विधिपृच्छया उपकरणे गृहीते यदिते क्षेत्रकाः शुद्धाः सभागच्छेयुः, ततः शुद्धेषु तेष्वागतेषुततो यावद्गृहीतं तावत्तेषां प्रत्यर्पयन्ति शेषस्य च ग्रहणम्। कथं पुनस्ते क्षेत्रिका आगताः शुद्धा अशुद्धा वा भवन्तीत्युच्यतेपडिजम्गति गिलाणं, ओसहहेऊहिँ अहव कज्जेहिं। एतेहि होति सुद्धा, अह संखडिमादि तह चेव // 614|| क्षेत्रिका मासद्वये पूर्णेऽपि अमीभिः कारणैर्न समागन्तुं शक्नुयुः / ग्लानं प्रति जाग्रतः स्थिताः, ग्लानस्य वा औषधमगदं तन्मीलनहेतोः स्थिताः, कुलगणसङ्घकार्येषुवा व्यापृताः, एवमादिभिः कारणैरनागच्छन्तःशुद्धाः। अथ संखडिनिमित्तं स्थिता जिकादिषु वा प्रतिवध्यमाना आगताः ततः तथैव मासद्वयं यावत्तदीयं क्षेत्राम, उपरि तु पञ्चरात्रां न ते प्रभवस्ततो यत्तैस्ता क्षेत्र गृहीतं तद्गृहीतसेवन क्षेत्रिकाणाम्।
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________________ वत्थ 855 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वत्थ 17|| प्रायश्चित्तम्, अमूनि तु विशुद्धकारणानि याचेत-उत्कर्षणापकर्षणरहितान्यपरिकर्माणि प्रार्थये दिति / तत्रा तेणमयसावयभया, वासेण गदीऍ वा विरुद्धाणं / "उद्विद्य 1 पहे 2 अंतर 3 उज्झियधम्मा 4 य‘चतम्रो वस्वैषणा भवन्ति, दायय्वमदंताणं, चउगुरु तिविहं च णवमं च // 615|| तत्र चाध-स्तन्योद्वारग्रहः, इतरयोस्तुग्रहः, तत्राप्यन्यतरस्यामभिग्रह स्तेनभयाद्वा श्वापदभयाद्वा वर्षेण वा नद्या वा निरुद्धानां चिरादागमनम- इति, याञ्चावाप्तानि च वस्त्राणि यथापरिगृहीतानि धारयेत्, न तत्रोत्कभूत्ततोयद् गृहीतंततेषांगतानां दातव्यम्, अथन ददति ततश्चतुर्गुरुकम्, र्षणधावनादिकं परिकर्म कुर्याद् / एतदेव दर्शयितुमाह-नो धावेत्उपकरणनिष्पन्नं वा त्रिविधं पञ्च-कमासिकं चतुर्लघुकलक्षणम्, नरम प्रासुकोदकेनापि न प्रक्षालयेत्, गच्छवासिनो ह्यप्राप्तवर्षादौ ग्लानाववा सूत्रादेशेनानवस्थाप्यम्। स्थायां वा प्रासुकोदकेन यतनया धावनमनुज्ञातम्, न तु जिनकल्पिकपरदेसगते णाउं, सयं व सेज्जातरं व पुच्छित्ता। स्येति, तथा-न धौतरत्कानि वस्त्राणि धारयेत्, पूर्वं धौतानि पश्चामेण्हति असढभावा, पुण्णेसु तु दोसु मासेसु // 616 // द्रत्कानीति, तथा ग्रामान्तरेषु गच्छन् वस्त्राण्यगोपयन् व्रजेद्। एतदुक्तं स्वयमपि क्षेत्रिकान् परदेशगतान निश्चित्य द्वयोसियोः पूर्णयोर.. भवति-तथा-भूतान्यसावन्तप्रान्तानि विभर्ति वानि गोपनीयानि न शठभावाः शुद्धपरिणामा गृह्णन्ति। भवन्ति, तदेवमसाववमचेलिकः, अवमं च तच्चेलं चावमचेलं प्रमाणतः विइयपदमणाभोगे, सुद्धा देंता अदेंत ते चेव। परिमाणतो मूल्यतश्च, तद्यस्यास्त्यसाववमचेलिक इत्येतत्पूर्वोत्कम्, आउट्टिया गिलाणा, दिनति यं सेस अग्गहणं / / 617 // खुः-अवधारणे / एतदेव वस्त्रधारिणः सामण्यं भवति-एषैव त्रिकल्पाद्वितीयपदमत्रोच्यते / अनाभोगे नाम किमत्र साधवो वर्षा कल्पं त्मिका द्वादशप्रकारौधिकोपध्यात्मिका वा सामग्री भवति नापरेति। कृतवन्तो नवेतिन सम्यक् परिज्ञातम्! ततः परक्षेत्रेऽपि गृहीयुः, पश्चात् (24) शीतापगमे तान्यपि वस्त्राणि त्याज्यानीत्येतद्दर्शयितुमाहज्ञाते क्षेत्रिकाणां प्रयच्छन्तः शुद्धाः / अथ अप्रयच्छतां त एव दोषाः / अह पुण एवं जाणिज्जा-उवाइकं ते खलु हेमंते गिम्हे अथाकुट्टिकया अभोगेन गृहीतं परं म्लानादीनामर्थं ततो गवत्तेषामु- पडि वन्ने अहापरिजुनाई वत्थाई परिदृविज्ञा, अदुवा पयुज्यते तावद् गृहन्ति, शेषमतिरिक्तं न गृह्णन्ति। बृ० 3 उ०। तिरुत्तरे अदुवा ओनले अदुग एगसाडे अदुवा एगसाडे जे भिक्खू तिहिं वत्थेहिं परिखुसिए पायचउत्थेहिं तस्स णं नो | अदुवा अचेले / (सू०२१२) एवं भवइ-चउत्थं वत्थंजाइस्सामि, से अहेसणिजाई वत्थाई यदि तानि वस्त्राण्यपरहेमन्तस्थितिसहिष्णू नि तत उभयकालं जाइजा अहापरिग्गहियाइं वत्थाई धारिआ, नो धोइजा नो प्रत्युपेक्षयन् विभर्ति, यदि पुनर्जीर्णदश्यानि जीर्णानीति जानीयात् ततः रएज्जा, नो धोयरत्ताइंवत्थाइंधारिजा, अपलिओवमाणे गामंत- परित्यजति, इत्यनेन सूत्रेण दर्शयति / अथ पुनरेवं जानीयाद्यथाऽरेसु ओमचेलिए, एयं खु वत्थधारिस्स सामग्गियं / (सू०-२११) पक्रान्तः खल्वयं हेमन्तो ग्रीष्मः प्रतिपन्नः, अपाता शीतपीडा, यथा इह प्रतिमाप्रतिपन्नो जिनकल्पिको वा अच्छिद्रपाणिः, तस्य हि परिजीणीन्येतानि वस्त्राणि, एवमवगम्य ततः परिष्ठापयेत् परित्यजेदिति। पात्रनिर्योगसमन्वितं पात्रं कल्पत्रयं चायमेवौघोपधिर्भवति नौपग्रहिकः, यदि पुनः सर्वाण्यपि न जीर्णानि ततो यद्यजीर्णं तत्तत्परिष्ठापयेत्, तत्र शिशिरादौ क्षौमिकं कल्पद्वयंसार्द्धहस्तद्वयायामविष्कर्म तृतीय- परिष्ठाप्य च निस्सङ्गो विहरेत् / यदि पुनरतिक्रान्तेऽपि शिशरे क्षेत्रकास्त्वौर्णिकः, स च सत्यपि शीते नापरमाकायतीत्येतद्दर्शयति-यो भिक्षुः पुरुषगुणाद्भवेच्छीतं ततः किं कर्त्तव्यमित्याह - अपगते शीते वस्त्राणि त्रिभिर्वस्त्रैः पर्युषितेव्यवस्थितः, तत्र शीते पतत्येकं क्षौमिकं प्रावृणोति, त्याज्यानि। अथवा क्षेत्रादिगुणाद्धिमकणिनि वाते वाति सत्यात्मपरिततोऽपि शीतासहिष्णुतया द्वितीयं क्षौमिकम्, पुनरपि अतिशीततया तुलनार्थ शीतपरीक्षार्थच सान्तरोत्तरो भवेत्-सान्तरमुत्तरम्-प्रावरणीयं क्षौमिककल्पद्वयोपर्याणिकमिति, सर्वथौणिकस्य बाह्याच्छादनता यस्य स तथा, क्वचित्पावृणोति क्वचित्पार्श्ववर्ती विभर्ति शीताशङ्कया विधया / किम्भूतैस्त्रिभिर्वस्वैरिति दर्शयति-पात्रचतुर्थः-पतन्तमाहार माद्यापि परित्यजति। अथवा-शनैः शनैः शीतेऽपगच्छति सति द्वितीयपातीति पात्राम, तद्भहणेन च पात्रनिर्योगः सप्तप्रकारोऽपि गृहीतः, तेन मपि कल्पं परित्यजेत् तत एकशाटकः संवृत्तः, अथवा-आत्यन्तिके विना तद्न्गहणाभावात्। स चायम्- "पत्तंपत्ताबंधोपायट्ठवणं च पायके- शीताभावेतदपि परित्यजेदतोऽचेलो भवति, असौ मुखवस्त्रिकारजोहसरिआ। पडलाइ रयत्ताणं पात्रां कल्पत्रायं रजोहरणम् 1 मुखवस्त्रिका 2 रणमात्रोपधिः। चेत्येवं द्वादशधोपधिः, तस्यैवम्भूतस्य भिक्षोः 'णं' इति वाक्यालङ्कारे किमर्थमसावेकैकं वस्त्रं परित्यजेदित्याहनैवं भवति, नायमध्यवसायो भवति, तद्यथा-न ममास्मिन् काले कल्प- लावियं आगममाणे,तवेसेअभिसमन्नागए भवइ। (सू०-२१३) त्रायेण सम्यक्शीतापनोदो भवत्यतश्चतुर्थं वस्त्रमहंयाचिष्ये, अध्यव- लघाभावो लाघवं लाघवं विद्यते यस्यासौ लाघविक (स्त) सायनिषेधे च तद्याचनं दूरोत्सादितमेव / यदि पुनः कल्पत्रयं न विद्यते मात्मानमागमयन् -आपादयन् वस्त्रपरित्यागं कुर्यात्, शीतकालश्चापतितस्ततोऽसौ जिनकल्पिकादिर्यथैषणीयानि वस्त्राणि शरीरोप-करणकर्मणि वा लाघवमागमयन् वस्त्रपरित्यागं कु
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________________ वत्थ 856 - अमिधानराजेन्द्रः- भाग 6 वत्थ र्यादिति। तस्य चैवम्भूतस्य किं स्यादित्याह--से' तस्य वस्त्रपरित्यागं कुर्वतः साधोस्तपोऽभिसमन्वागतं भवति, कायल्केशस्य तपोभेदत्वात्, उत्कंच-"पंचहि ठाणेहिं समणाणं निगंथाणं अचेलगत्ते पसत्थे भवति, तंजहा-अप्पा पडिलेहा 1 वेसासिएरूवे 2 तवे अणुमए 3 लाघवेपसत्थे 4 विउले इंदियनिगहे 5" / एतच भगवता प्रवेदितमिति दर्शयितुमाह - जमेयं भगवया पेवइयं तमेव अभिसमिचा सव्वओ सव्वत्ताए सम्मत्तमेव सममिजाणिज्जा। (सू०-२१५) यदेतद्भगवता-वीरवर्द्धमानस्वामिना प्रवेदितं तदेवाभिसमेत्य-ज्ञात्वा सर्वतः- सर्वैः प्रकारैः सर्वात्मतया सम्यक्त्वमेव समत्वं वा-सचेलाचेलावस्थयोस्तुल्यतां समभिजानीयात् आसेवनापरिज्ञया आसेवेतेति। आचा०१ श्रु०८ अ०४ उ०। (25) अचार्यानुज्ञया निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां वस्त्रग्रहणम्कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंधीण वा अहाराइणियाए चेलाई पडिम्गाहित्तए॥१६॥ अस्य सम्बन्धमाहदिटुं वत्थग्गहणं, तेसिं परिभायणे इमं सत्तं / अविणय असंविभागा, अधिकरणादीसुणेवं तु // 618 / / द्वितीयसमवसरणे दृष्ट तावद्वस्त्रग्रहणं संप्रति तेषां-वस्त्राणां परिभाजने-- विभज्य प्रदाने यो विधिस्तदभिधायकमिदं सूत्रमारभ्यते। इत्थं विभज्य प्रदाने किं प्रयोजनमिति चेदत आह-एवं यथा रत्नाधिकं वस्त्राणां विभज्य दाने अविनयोऽसंविभागोऽधिकरणादयश्च दोषा न भवन्तीत्यनेन सम्बन्धेनाया तस्यास्य (16 सूत्रस्य) व्याख्या कल्पन्ते निर्ग्रन्थीनां निर्ग्रन्थीनां वा यथारात्निकं यो यो रात्निको भवेत् रत्नैरधिकस्तदनतिक्रमेण चेलानि प्रतिग्रहीतुमिति सूत्रार्थः।। अथ नियुक्तिविस्तर:संघाडए एक-त्तो हिंडंति वंदएण जयणाए। साधारणऽणापुच्छा, अदत्तं ताइकाओ भागा॥६१६॥ संघाटकेनैकतः-एकस्यां दिशि साधवो वस्त्रग्रहणार्थ हिण्डन्ते, अथ संघाटकेन न प्राप्यते ततो वृन्देनापियतनया पर्यटन्ति। अथ साधारणं बहूनामचार्याणां सामान्यं तत् यदि तत्रापरेषामाचार्याणामनापृच्छया गृहन्ति तदा 'अदत्तं' ति साधर्मिकस्तैन्यं भवति / अतस्तानापृच्छय गृहीत्वा च तेषां वस्त्राणमेकत-एकसदृशा भागाः कर्तव्याः न विसदृशा इति ग्रहणगाथासमासार्थः। साम्प्रतमेनामेव विवणोतिनिस्साधारणखेत्ते, हिंडंतो चेव गीतसंघाडो। उप्पादयते वत्थे,असती तिगमादिवंसेणं // 620 // निस्साधारणे एकाचार्यप्रतिबद्धे क्षेत्रो गीतार्थसङ्घाटको भिक्षां हिण्डमान एव वस्त्राण्युत्पादयति, अथ संघाटकेन हिण्डमाना न प्राप्नुवन्ति तत्तत्त्रिकादिवृन्देन त्रिचतुः- पञ्चादिसाधु-समूहेनपर्यटन्त उत्पादयन्ति। साधारणक्षेत्र पुनरयं विधि: दुगमादी सामण्णे, अणुपुच्छा तिविह सोधि णवमं वा। संभोइयसामन्ने, तह चेवजहेक्कगच्छम्मि॥६२१॥ द्विकादीनां-द्वित्रिप्रभृतीनामाचार्याणां सामान्य क्षेत्रो तेषा-मनापृच्छया गृहन्तस्विविधा शोधिः-प्रायश्चित्तम्, जघन्ये पञ्चकम्, मध्यमे मासि-- कम्, उत्कृष्ट चतुर्लघवः नवमंवा सूत्रा-देशेनानवस्थाप्यम्। ते चाऽऽचार्याः परस्परं सांभोगिका स्ततः,सामान्ये क्षेत्रे वस्वग्रहणे तथैव विधिर-- वसातव्यः / एकस्मिन् गच्छे संघाटकादिक्रमेण अनन्तरगाथायामुक्तः। असांभोगिकेषु विधिमाहअमणुण्ण कुलविरेगो, साही पडिवसह मूलगामे वा। अहवा जो जं लाभी, ठायंति जहा समाधीए॥६२२॥ अमनोज्ञा-असांभोगिकास्तैः सह यत् क्षेत्रं साधारणं तत्र कुलादीनां विरेको-विभजनं कर्तव्यम्, यथा-एतेषु कुलेषु युष्माभिर्वस्त्राणि ग्रहीतव्यानि, एतेषु पुनरस्माभिः / यद्वाअस्यां साहिकायां गृहपत्किरूपायां भवद्भिः, अस्यां पुनरस्माभिः / अथवा-प्रतिवृषभग्रामेषु यूयं ग्रहीष्यथ, वयं भूलग्रामे ग्रहीष्यामः / मूलग्रामे वा यूयम्, वयं प्रतिवृषभग्रामेषु, अथवा-यो यद्वस्त्रं कुलादौ पर्यटन् लाभी-लप्स्यते, तेन तस्य ग्रहणं कर्तव्यम् / एतेषामन्यतमेन प्रकारेण व्यवस्था स्थापयित्वा यथा समाधिना तत्र तिष्ठन्ति। एवं साधारणाऽसाधारणे क्षेत्रो वस्त्राणि गृहीत्वा किं कर्तव्यमित्याहवत्थेहिं आणिंते-हि तिज रातिणिं तिहिं वसभा। अदाणे गुरुणो लहु-गासेसे लहु इमे होति // 623 / / / वस्त्रेषु समानीतेषु ये वृषभास्ते यथारत्नाधिकंतत्र वस्त्राणि प्रयच्छन्ति / यदितत्र गुरूणां प्रथमतो वस्त्रदानं न कुर्वन्ति तदा चतुर्लघुकः,शेषाणां यथा रत्नाधिकं विभज्य न प्रयच्छन्ति लघुमासः। ते च रत्नाधिका इमे वक्ष्यमाणा भवन्तिा तत्रा गुरूणां यादृशानि वस्त्राणि दीयन्ते। तदेतत्प्रति पादयतिविदुक्खमा जे मणोऽणुकूला, जे यो व जुखंति असंथरंतो। गुरुस्ससाणुग्गहमप्पिणित्ता, ____ भायंति सेसाणि उझंझहीणा // 624 // साधुभिर्यथाविधि गृहीत्वा भूयांसि वासांसि वृषभाणां समर्पितानि, ततो वृषभा 'विदु' त्ति विदित्वा सुन्दरा सुन्दरताविभाग विज्ञाय यानि क्षमाणिदृढानि यानि च मनोऽनुकूलानि गुरूणां मनसोऽभिरुचितानि यानि वा संस्तरन्तिगच्छे गुरुपरिभुत्कान्यपि शेषसाधूनामुपयुज्यन्ते, तानि गुरुः सानुग्रहम-सविशेषं यथा भवति एवमर्पयित्वा शेषाणि वस्वाणि झञ्झाकलहस्तेन हीना-विरहिताः सन्तो यथारत्नाधिक परिभाजयन्ति। अथ तानेव रत्नाधिकानाहउवसंपज गिलाणे, परिनसुतसोयअत्थवयजाती। तवभासालद्धीए, ओमे दुविहस्स अरिहाओ // 625 / /
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________________ वत्थ 857 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वत्थ 'उवसंपज्ज ति यस्तत्र प्रथमतया उपसंपदं प्रतिपद्यते। ग्लानो-मन्दः / सच द्विधा आगाढोऽनागाढश्च। यस्तुपरिमितोपधिः 'सुत' त्ति बहुश्रुतः 'सोयअत्थ ति यो व्याख्यानमण्डल्या उत्थितानां सूत्रार्थश्रोतव्ये ज्येष्ठतया व्यवहियते 'जाइ'त्ति जातिस्थविरः षष्टिवर्षपर्यायः 'तव' त्ति तपस्वी 'भास' ति य आभाषिकः स्वदेशभाषायामभिज्ञः 'लद्धीए' त्ति यस्यलब्ध्या वस्त्राणिलभ्यन्ते, एतेषामुपसंपद्यमानादीनां यथाक्रमं दत्त्वा ततोयो यः पर्यायरत्नाधिकः ससप्रथमं गृहति'ओमि त्ति अवमरात्निकः पश्चाद् गृहाति। एते यथाक्रम द्विविधिस्य उपधेरौपग्राहकोपधेश्च ग्रहणे अर्हाः-योग्या मन्तव्याः। एएसि परूवणया, जाय विणा तेहि होति परिहाणी। अहवा एक्कक्कस्य उ, अद्धोक्कतिक्कमो होति // 626|| एतेषामुपसंपद्यमानादीनां प्ररूपणा-व्याख्या कर्तव्या, साचानन्तरमेव कृता / यद्येतेषां यथाक्रमं वृषभान प्रयच्छन्ति ततो या तेषां तैर्वस्वैर्विना परिहाणिः संयमविराधनादिका भवति तन्निष्पन्नं प्रायश्चित्तम्। अथवाएकैकस्यौपसंपद्यमानादेः प्रत्येकं ग्लानादिविषयोऽयमर्धापक्रन्तिक्रमो भवति। तद्यथाउवसंपज्जगिलाणो, अगिलाणो वाऽविदोण्णि वि गिलाणे। तत्थ वि य जो परित्तो, एस गमो सेसगेसं पि॥६२७॥ उपसंपद्यमानो द्विविधः-- ग्लानोऽग्लानश्च / तत्र यो ग्लान स्तस्य दातव्यम्। अथ द्वावपि ग्लानावग्लानौवा, ततो यस्तत्र परीत्तोपधिस्तस्मै दातव्यमेवमेष गमः-प्रकारः शेषेष्वपि बहुश्रुतादिपदेषु मन्तव्यः। तद्यथाद्वावपि परीत्तोपधी अपरीत्तोपधी वा ततो यो बहुश्रुतस्तस्मै देयम्। अथ | द्वावपि बहुश्रुतौ ततो यश्चिन्तनिकाकारकस्तस्मै दातव्यम्। अथद्वावपि चिन्तनिकाकारको ततो यस्तत्रा जातिस्थाविरस्तस्य दातव्यम् / अथ द्वावपि जातिस्थविरौ ततो यस्तपस्वी तस्य दातव्यम् / अथोभावपि तपस्विनौ ततो यो भाषिकस्तस्मै दातव्यम् / अथ द्वावप्यभाषिको भाषिकौ वा ततो यो लब्धिमान् तस्मै प्रदातव्यम्। प्रकारान्तरेण यथारत्नाधिकपरिपाटिमाह --- आयरिएय गिलाणे, परित्त-पूया-पवत्ति-थेर-गणी। सुत-भासा-लद्धिवओ, ओमे परियागरातिणिए।।६२८|| आचार्यस्य पूर्व विशिष्टानि वस्त्राणि दत्त्वा ततो ग्लानस्य दातव्यानि, ततः परीत्तोपधेस्ततः 'पूर्य' त्ति चूर्ण्यभिप्रायेण पूजनार्हस्य उपाध्यायस्य, बृहद्भाष्याभिप्रायेण तु पूजनार्हस्य गुरुसंबन्धिपितृत्व्यादेः, ततः प्रवर्तिनस्तदनन्तरं स्थविरस्य, ततो 'गणि' त्ति गणावच्छेदकस्य, ततः श्रुतसम्पन्नस्य, ततो भाषिकस्य, ततोलब्धिमतः, यथाक्रमं दातव्यम्। अर्धापक्रान्तिचारणिका प्राग्वत् कर्तव्या। तदनन्तरं योयः पर्यायरात्निकः तस्य प्रथमम्, अवमरात्निकस्य तु पश्चाद् यथाक्रमं दातव्यम् / एवं | तावत्संघाटकेनानीतानां विधिरुक्तः। ___ अथ वृन्देनानीतानां यो विधिस्तभिधित्सुराहणेगेहिं आणियाणं, परित्त परियाग खुभिय पिंडेता। आवलिया मण्डलिया, लुद्धस्स य संमता अक्खा / / 629 / / अनेकैः साधुभिरानीतानां, वस्त्राणां पारभाजनविधिरुच्यते, आचार्यादिक्रमेण परीत्तोपधीनां यावत् दत्त्वा ततो ये पर्यायरात्निकास्तेषामहिण्डमानानामपि प्रथमतो दातव्यम्। तत्रा च यैस्तानि वस्त्राणि समानीतानि ते पिण्डित्वा-संभूय क्षुभितं क्षोभे कुर्वीरन् कलहमिति यावत्, ब्रुवीरन्। "आवलिकया मण्डलिकया वा' विभजनं विधीयतां, "लुद्धस्स य संमता अक्ख' त्ति कस्यापि पुनर्लुब्धस्य अक्षान्पातयित्वा वस्त्रविभजनभिमतमेष संग्रहगाथासंक्षेपार्थः / साम्प्रतमेनामेव विवरीषुराहगेण्हंतु पुजा गुरवो जदिलं, सवं भणामऽम्ह वि एयदिटुं, अणुण्णसंवट्टियऽकझसङ्गा, गिण्हन्ति जं अत्तिन तं सहामो॥६३०॥ अहिण्डमानानां वस्त्रेषु दीयमानेषु ये वस्त्राणामानेतारस्ते बुवीरन् / 'जदिट्ठ' मनोऽनुकूलं वस्त्रं गुरवो गृह्णन्ति तत्ते सकलगच्छस्वामितया पूज्या इति कृत्या गृह्णन्तु। यद्गुरूणामुत्कृष्ट वस्तु दीयते तत्.सत्यमवितथमिति वयमपि भणामः / न केवलं वचसैव भणामः, किंतुमनसाऽप्यस्माकमेतदिष्टमेव। परमनुष्णेनभिक्षापरिभ्रमणाभावादुष्णलमनाभावेन सवर्तितानिवर्तुलीभूतानि अत एवाकळशानि अङ्गानि पाणिपादपृष्ठोदरप्रभृतीनि येषां ते अनुष्णसंवर्तिताऽकर्कशाङ्गा, एवंविधाः सन्तो यदन्ये अहिण्डमानाः प्रथमं गृह्णन्ति न तद्वयं सहामहे। आगंतुगमादीणं, जइ दायव्वाइँ तो किणं अम्हे। कम्हारभिक्खुयाणं, गाहिजामेण गइमसिग्घा / / 631 // आगन्तुका-उपसंपत्तारस्तेषामादिशब्दाद्-ग्लानादीनां च यदि दातव्यानि वस्त्राणि ततः 'किण' त्ति केन कारणेन वयं कर्मकारभिक्षुकाणां देवद्रोणीवाहकभिक्षुविशेषाणां गतिमश्लाघ्या-निन्दनीयां ग्राह्यामहे / किमुक्तं भवति-यदि नामास्मदा-नीतानां वस्त्राणामेते आगन्तुकादयः स्वामिभावं भजन्ते, ततः कि मेवं वयं देवद्राणीवाहकभिक्षुकवन्मुधैव वस्त्राद्यानयनकर्म कार्यामहे इति वस्त्राण्यानेतारश्चिन्तयेयुः। ततःविविचमाणे अहवा विरके, खोभं विदित्ता बहुगाण तत्थ। ओमेण कारिंति गुरुटिवरेगं, विमज्झिमो जो व तहिं पटू य / / 632 // एवं विविच्यमाने, अथवा-विरक्ते उपकरणे बहूनामनन्तरोत्कं क्षोभं विदित्वा यस्तत्रावमः सर्वेषामपि पर्यायलधुर्यो वा दिमध्यमोऽपि तत्र वस्त्रविभजने पटुः कुशलस्तेन गुरवो विभजनं कारयन्ति।
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________________ वत्थ ५५८-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वत्थ अथ कोऽपि लुब्ध एव कमप्यपरितुष्यन् ब्रूयात-आवलिकया मण्डलिकया वा वस्त्राणि विभज्यतां ततः को विधिरित्याहआवलियाएँ जतिह, तं दाऊणं गुरूण तो सेसं। गेण्हंति कमेण जओ, उप्परिवाडिं न पूर्येति / / 633 / / भंडलियाण विसेसो, गुरुगहिते सेसगा जहावुलु। भागे समे करेत्ता, गेण्हंति अणंतरं उभओ // 634|| आवलिका नाम ऋज्वायतश्रेण्या वस्त्राणां व्यवस्थापनं तया समभागीकृत्य वस्त्रेषु स्थापितेषु यदिष्ट वस्त्रं तत् गुरूणां दत्त्वा शेषाणि यथारत्नादिकं गृह्णन्ति यावदावलिका निष्ठामुपगच्छति / उत्परिपाट्या ग्रहणं न पूजयन्ति - न प्रशंसन्ति तीर्थकरादय इति गम्यते। मण्डलिकायामप्येवमेव नवरं तेषां विशेषोऽयमुपदर्श्यते-पूर्वं गुरुभिर्गृहीते ततः शेषाः यथावृद्धयो यः पर्यायवृद्धस्तदनतिक्रमेण समान् भागान् कृत्वा उभयोरप्याया-तलक्षणयोरनन्तरमव्यवहितं वस्त्राणि गृह्णन्ति / इयमत्र भावना -मण्डलिकया वस्त्रेषु स्थापितेषु प्रथममाचार्येण गृहीते ततो यः शेषाणां मध्ये रत्नाधिकः समण्डलिकायाधुरि स्थापितं वस्त्रं गृह्णाति। अवमरात्निकस्तुपर्यन्तस्थापितं सर्वान्तिमम्। ततोऽपि योऽवमपर्यायस्साधुभिस्स्थापितः स तदनन्तरंगृह्णाति, तदपेक्षया लघुतरपर्यन्तापावादुपान्त्यं गृह्णाति एवं तावद् गृह्णन्ति यावन्मण्डलिका निष्ठिता भवति / एवमपि विभज्यमाने कोऽपि लोभाभिभूतमानसो ब्रूयात् अक्षान् पातयित्वा यद्यस्य भागे समायाति तत्तस्य दीयताम्, एवं ब्रुवाणोऽसौ प्रज्ञापयितव्यः / कथमिति चेदुच्यतेजइ ताव दलंति गालिणो, धम्माऽधम्माविसेसबाहिला। बहुसंजयविंदमज्झके, उवकलणेऽसि किमेव मुच्छित्तो // 63|| यदितावदगारिणो धर्माधर्मविशेषबाह्या अपि मूच्छा परित्यज्य साधूनामिव चात्मीयानि वस्त्राणि दलन्ति-प्रयच्छन्ति ततो बहुसंयतवृन्दमध्यके-प्रभूतसाधुजनमध्यविभागेत्वमेवैकोपकरणे किमेवं सम्यक्परिज्ञातजिनवचनोऽपि भूछिं-तोऽसि। नैतद्भवतो युज्यत इति भावः। एवमप्युत्को यद्यसौ नोपशाम्यति ततो वक्तव्यम्अओ ! तुमं चेव करेहि मागे, ततोऽणुघिच्छामा जहकमेणं / गिण्हाहि वा जंतुह एत्थ इट्ट, विणासधम्मीसु हि किं ममत्तं // 636 // आर्य ! त्वमेव समान् भागान् कुरु ततो यथाक्रमेण वयं ग्रहीष्यामः, यदा-गृहाणं यत्तवामीषां वस्त्राणां मध्ये इष्टमभिरुचितम, विनाशधर्मीणि हि विनश्वरस्वभावानि वस्त्रादीनि वस्तूनि अतः किं नाम तेषु ममत्वं विधीयते। एवमप्युत्को यदि नोपरतः ततः को विधिरित्याहतह वि अवियस्स दाउं, विगिचणोवट्ठिए खरंटणया। अक्खेसु होति गुरुगा, लहुगा सेसेसु ठाणेसुं॥६३७॥ तथाऽप्यस्थितस्य तस्य तदभीष्ट वस्त्रं दत्त्वा विवेचन कर्त्तव्यम्। निर्गच्छ मदीयात् गच्छादिति भणनीयमिति भावः। ततो यदि भूयोऽप्युपतिष्ठते, मिथ्या मे दुष्कृतं न पुनरेवं विधास्यामीति, ततः खरण्टनी वक्ष्यमाणा कर्तव्या, प्रायश्चित्तं च दातव्यम्। किमित्याह-अक्षेषु गुरुका भवन्ति। यो ब्रवीति अक्षान् पातयित्वा विभजत तस्य चतुर्गुरुकम्। शेषेषु स्थानेषु क्षोभकरणावलिकामण्डलिका-विभाजनलक्षणेषु चतुर्लधुकम् / अथ खरण्टनामुपदर्शयतिहिरनदारं पसुपेसवगं, जदाच उज्झित्तु दमे ठितोऽसि। किलेसलहेसु इमेसु गिद्धी, जुत्तान कुत्तां तव खिंसणेवं // 638|| हिरण्यं-सुवर्णं दाराश्च-कलत्रं हिरण्यदारं, पशवश्चगोमहिषी प्रभृतयः प्रेक्षाश्च कर्मकरास्तेषां वर्गः-समूहस्तमेवमादिकं परिग्रहमुज्झित्वातृणवत् परित्यज्य यदा किल त्वमेवंविधे दमे संयमे स्थितोऽसि, तदा साम्प्रतमेतेषुवस्त्रेषुल्केशलब्धेषु-प्रभूतगृहपरिभ्रमणादिप्रयासप्राप्तेषु तव गृद्धिः कर्तुन युत्का, एवं खिंसना तस्य कर्त्तव्या। सम्मं विदित्ता समुवडियंतु, थेरासि तं चेव कदाइ देजा। अन्नेसि गाहे बहुदोसले वा, __ छोदूण तत्थेव करिति भाए।।६३९।। वत्थेव गए कोई, वत्थं लद्धं निवेयध गुरुणो। . देहि तुम चिय हणिओ, भाएइ णिगइ णिमो सो य // 640|| सम्यग् पुनः करणेन समुपस्थितं तं विदित्वास्थविरा:सूरयः कदाचित्तस्यैव तद्वस्त्रं दधुः। अथान्येषामपिबहूनां तद्वस्त्रग्रहणे ग्राहो मोहनिर्बन्धः 'बहुदोसले वा' प्रभूतदोष वानसौ यतः बहुभिः सह द्वेषवान् विरोधविधायी स बहुद्वेषवानिति, ततस्यस्य दीयमाने अन्येषा महदप्रीतिकमुपजायते, एवंविधं कारणं विचिन्त्य तत्रौव तेषु वस्त्रेषु मध्ये प्रक्षिप्य एकसदृशान् भागान् कुर्वन्ति।ततो यथा रत्नाधिकं गृह्णन्ति। एवं तावदनेके-षामानीतानां वस्त्राणां परिभाजने विधिरुक्तः। अथ क्षपकेणानीतानां तेषामेव विधिमभिधित्सुराहखमए लभ्रूण अंबले, दाउंगुरुएय सांवलित्तए। वेइ गुलुं एमेव सेसए, देह जईणं गुलूहिँ दुबई // 641 / / सयमेव य देहि अंबले, तव जे लोयइ इत्थ संजए। इय छंदिय पेसिउंतहिं, खमओ देइ निसीलअंबले॥६४२।। कोऽपि क्षपकः कुत्रापि भावितकुलादौ अम्बराणि लब्ध्वा यानि वरिष्ठानि-सर्वप्रधानानि वासांसि तानि दत्वा ततो गुरुं ब्र
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________________ वत्थ 556 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वत्थ वीति-एवमेव शेषाण्यपि मदानीतानि वस्त्राणि यतीनां प्रयच्छत, ततो गुरुभिरसावुच्यते-स्वयमेवामूनि अम्बराणि देहि / यस्तवात्रा संयतो रोचते वस्त्रदानयोग्यतया रुचिगोचरीभवति, इत्यमुना प्रकारेण वन्दित:-- प्रार्थितः पूर्वं छन्दितो यस्य रोचते, तस्मै दातव्यानीत्येवमनुज्ञातच्छन्दः / ततः प्रेषितो-मुक्कलितः सन् स क्षपकस्तत्रावसरे ऋषीणामम्यराणि प्रयच्छति / इह सर्वत्रापि लकारादेशो 'रसेलशौ' / / 8 / 4 / 288 / इति मागधाभाषालक्षणवशात्। ततश्चखमएण आणियाणं, दिज्जंतेगस्स वारणे वयणं / गहणं तुमं न याणसि, तिविदिय पुच्छा ततो कहणं // 653 / / / क्षपकेणनीतानां तेनैव दीयमानानां वस्त्राणां कस्थपिल्लुब्धस्य वारणे वचनम्, एवममीषां रत्नाधिकानां दीयमानानि मा यावन्न समागमिष्यन्तीति बुझ्या वस्त्रग्राहक साधून मा आर्या गृहीध्वमित्येयं कोऽपि निवारितवानि ति भावः / ततः क्षपक प्राह-किं मदीयानि वस्त्राणि न ग्राह्यन्ते। इतरः प्राह-ग्रहणमेव यावत् त्वं न जानीयाः। क्षपको ब्रवीतिजानमि इत्थम् / इतरो भणति-यद्येवं ततः कीदृशम्, क्षपक आह - 'वंदित्ता विन पुच्छा' येनाहं कथयामि ततस्तेन क्षपको वन्दित्वा पृष्टः सन् कथयितुमारब्धवान् / 603 उ०। (इतोऽग्रे एतद्वत्कव्यता 'गहण' शब्दे तृतीयभागे 856 पृष्ठे गता।) निग्रन्थ्या प्रवर्तिनीनिश्रया चैलानि ग्रहीतव्यानि-- निग्गंथीए गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुपविट्ठाए चेलट्टे समुप्पजेजा, नो से कप्पइ अप्पणो नीसाए चेलाई पडिग्गाहित्ताए, कप्पइसे पवित्तिणीनीसाए चेलं पडिग्गाहित्तए॥१३॥ णो जत्थ पवित्तिणी समाणी सियाजे तत्थ समाणो आयरिए वा उवज्झाए वा पवत्तिणी वा थेरे वा गणी वा गणधरे वा गणावच्छेइए वा कप्पइसे तन्नीसाए चेलाई पडिग्गाहित्तए|१४|| अथास्य (14) सूत्रस्य कः सम्बन्ध इत्याहनियमा सचेल इत्थी, वातिजति संयमा विणा तेणं। उग्गहणमाइ चेला, ण गेण्हणा तेण जोगा य॥४६१॥ नियमाद्-अवश्यतया स्त्री-निर्ग्रन्थी सचेला भवति, तत-स्तेन चेलेन विना सा संयमाचालयते, इत्यनन्तरसूत्रे उत्कम्, तेन कारणेनावग्रहानन्तकादीना चेलानां ग्रहणे विधिरभिधीयते। अयं योगः प्रकृतसूत्रास्य सम्बन्धः। अथवा-- चेलेहि विणा दोसं,णाउंमा ताणि अप्पणा गेहे। तत्थ वि ते बिय दोसा, तव्वारणकारणासुत्तं // 462|| चेलैर्विना भिक्षामटन्त्याः संयत्याः महान् दोषो भवतीति ज्ञात्वा मा तानि चेलानि आत्मना गृह्णीयात् / कुत इत्याह-तत्राप्यात्मना चेलग्रहणेऽपि त एव दोषा भवन्ति ये पूर्व चेलस्याग्रहणे प्रागुत्काः / अतस्तद्वारणकारणात् स्वयं ग्रहण-प्रातषधार्थमिदं सूत्रामारभ्यते। इदमेव सोपयुक्तिकमाहसयगहणं पडिसेहति, चेलग्गहणं तु सव्वसो ताति। संडासातिरो वण्ही,ण उहति कुरुए य कियाई // 463 / / स्वयं ग्रहणमत्रसूत्रे सूत्रकृत्प्रतिषेधयतिन पुनः सर्वथा तासां संयतीनां चेलग्रहणम्। यतः संदशकेन तिरोहितो वहिर्गृह्यमाणो नदहति। कृत्यानि च धान्यपाकादीनि कार्याणि कुरुते, एवं सयंतीनामपि साधुभिस्तिरोहितं चेलग्रहणं न दुष्यति, कार्य च संयमपालनात्मकं करोति। अत इदमारभ्यते / अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य (सूत्रस्य-१३-१४) व्याख्यानिर्ग्रन्थ्या गृहपतिकुलं पिण्डपातप्रतिज्ञया अनुप्रविष्टायाः चेलेनार्थः प्रयोजनं चेलार्थः। स समुत्पद्येतान से' तस्याः कल्पते आत्मनो निश्रया चेलं प्रतिग्रहीतुं किं तु कल्पते 'से' तस्याः प्रवर्तिनीनिश्रया चेलं प्रतिग्रहीतुम्। अथन तत्र प्रवर्तिनी समाणी' सन्निहिता ततो यस्तत्राचार्यो वा उपाध्यायो वा प्रवर्तको वा स्थविरे वा गणी वा गणधरो वा गणावच्छेदको वा सन्निहितो वा भवेत्, गणीगणाधिपतिराचार्योगणधरः संयतः-परिवर्तकः। शेषाः सर्वेऽपि प्रतीताः। एतेषां निश्रया यं वा अभ्यङ्गीकृतार्थः साधुः पुरः कृत्वा विहरति। तन्निश्रया कल्पते 'से' तस्याश्चेलं प्रतिग्रहीतुमिति सूत्रासंक्षेपार्थः। अथ विस्तरार्थं भाष्यकारो बिभणिषुराहचेलट्ठ पुटवभणिते, पडिसेहो कारणे जहा महणं / णवरं पुण णाणत्तं,णीसागहणं णऽणीसाए ||464|| ' चेलार्थ पूर्व-प्रथमोद्देशके "निग्गन्थीणं केइ वत्थेण वा पाएण वा निमंतिज्ञा'' इत्यादिसूत्रो यथा भणितो यथा च तत्र संयतानां स्वयं वस्त्रग्रहणप्रतिषेधो यथा च कारणे ग्रहणमुक्तं तथैवात्रापि वक्तव्यम्। नवरं केवलं पुनरत्र नानात्वं विशेषः, वस्त्रग्रहणं ताभिर्निश्रया कर्त्तव्यं न पुनरनिश्रया। निश्रयोप-संज्ञानकादिना वस्त्रं दीयमानं प्रवर्तिन्या निवेदयति / प्रवर्तिनी गणधरस्य निवेदयति, ततो गणधरः स्वयमागत्य परीक्ष्य शुद्धं कृत्वा गृह्णाति / अथ नास्ति तत्र प्रवर्तिनी ततस्तद्वस्त्रं वर्णेन रूपेण चिन्हेन चोपलक्ष्य गणधरस्य कथयति, स चागत्य स्वयं गृह्णाति / एतन्निश्राग्रहणमुच्यते। आयरिओ गणिणीए, पवत्तिणी भिक्खुणीण कत्थेति। गुरुगा लहुगा लहुगो, तासिं अप्पडिसुणंतीणं // 46 // आचार्य एतत् सूत्रां गणिन्या न कथयति चत्वारो गुरवः / प्रवर्तिनी भिक्षुणीनां न कथयति चत्वारो लघवः, तासां भिक्षुणीनामप्रतिशृण्वन्तीनां मासलघु। ___ अथ स्वयं वस्त्रग्रहणे दोषानाहमिच्छत्ते संकादी, विराहणा लोभ आभियोगे य। तुच्छा ण सहति गारव-भंडण अट्ठाण ठवणं च / / 466|| पुरुषेण संयत्या वस्त्रं दीयमानं दृष्ट्वा अभिनवधर्माणो मिथ्यात्वं गच्छेयुः / दुर्दष्टधर्माणोऽमी इतिशङ्कादयश्च दोषाभवन्ति। विराधनाच संयमात्मविषया। लोभे हिस्तोकेनापि वस्त्रादिप्रदानेन स्त्री लोभ्यते। आभियोगे ति आभियो
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________________ वत्थ 860- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वत्थ गिकवस्त्रप्रदानेन कश्चित्कार्मणं कुर्यात्, स्त्री च प्रायेण तुच्छा भवति, तुच्छत्वेन च गौरवं लब्धिमाहात्म्यं न सहते। ततश्च भण्डनं कलहोऽस्थानस्थापनं च भवतीति संग्रहगाथासमासार्थः। अथैनामेव विवरीषुराह -- इत्थी वि ताव देंती, संकिजइ किं ण केणऽवि पउत्ता। किं पुण पुरिसोदेतो, परिजुण्णाई पि जुण्णाए // 467 // स्त्री-अविरतिका साऽपि वस्त्र संयत्याः प्रयच्छन्तीशङ्कयते, किं केनापि प्रयुत्का सती प्रयच्छति उत स्वयमेव धर्मार्थमिति, किं पुनः पुरुषः परिजीर्णान्यपि वस्त्राणि जीर्णाया अपि आर्यि कायाः प्रयच्छन्ससुतरां शङ्कयत इति भावः। तत्रा शङ्कायां चतुर्गुरु, चतुर्थार्थमेवेति निःशङ्किते मूलम्, एवं मिथ्यात्वं शङ्कादयश्च दोषा भवेयुः। विराधना चसंयमात्मविषया अभ्यूह्य वक्तव्या। (26) लोभद्वारमभियोगद्वारं चाहणामिजइ थोवेणं, जचसुवण्णं च सारणी वावि। अभियोगिययवत्थेणं, कडिजइ पट्टए जातं // 468|| यथा जात्यं सुवर्ण सारणी वा कुल्या स्तोकेनापि प्रत्यनेन नाम्यते तथा संयत्यपि स्तोकेनापि वस्वादिप्रदानेन मान्यते।यद्वा-तद्वस्त्रं केनापि विद्यामन्त्रादिबलेनाभियोगिकं वशीकरणकर्म कृतमस्ति, ततस्तेन स आकृष्यते येन कार्मणं कृतं तदभिमुखं नीयते / पट्टकेन वाऽा जातंदृष्टान्तो भवति, सच यथा प्रथमोद्देशके। अथ गौरवादिद्वारद्वयं युगपदाहवत्थेहि वचमाणी, दाएंती बावि उयह वत्थे में। मच्छरियाओ बेंती, घिरत्थु वत्थाण तो तुझं // 466 / / हिंडयमाणसछंदा, णेव सयं गेण्हिमो ण पभवामो। ण य जं जणो वियाणति, कम्मं जाणामों तं काउं॥४७०|| काचिदार्यिका तुच्छतया गौरवमसहिष्णुर्वस्त्रेभ्यो व्रजन्ती आत्मानं ख्यापयति-अहमीद्दशानि ईदृशानि वस्त्राणि गृहीत्वा समागमिष्यामि। यद्वा-स्वयमानीतानि वस्वाणि दर्शयन्तीब्रूयात्, 'उयह पश्यत मदीयानि वस्त्राणि इति। तत इतराः संयत्यो मत्सरिता ब्रुवते। धिगस्तु भवदीवानि वस्त्राणि भवन्ती च यदेवमात्मानं कथयसि।अपिच-यथा यूयं स्वच्छन्दाः पर्यटथ, नतथा वयं हिण्डामः। नैवचस्वयं गृह्णीमः। नचात्मानंप्रभवामःप्रकर्षण श्लाघामहे / न च यत् कुण्डलादिकं कर्म कर्तुं युष्मादृशो जनो जानाति तद्वयं कर्तु जानीमः। जम्हा य एवमादी, दोसा तेसिं तु गिण्हमाणीणं / तम्हातासि णिसिद्धं, वत्थग्गहणं अणीसाए।।४७१॥ यस्मादेवमादयो दोषास्तासां गृह्णतीनां भवन्ति, तस्मात्ता-सामनिश्रया वस्त्रग्रहणं निषिद्धम्। परः प्राऽऽहसुत्तं निरत्थगं खलु कारणियं तं च कारणमिणं तु / असती पाउग्गे वा, मन्नक्खोवाइ जतणाए / / 472 / / यदि संयतीनामनिश्रया वस्त्रग्रहणं न कल्पते / ततः सूत्र निरर्थक प्रायोति / सूरिराह -- कारणिकं सूत्रम्, तच कारणमिदम्-न सन्ति संयतीनां वस्त्राणि, सन्ति वा परं न प्रायोग्याणि / 'मन्नक्खो वा' - महादौर्मनस्यं संज्ञातकादीनां संयतीभिर्वस्त्रे अगृह्यमाण भवति। तोयं यतना। तामेवाभिधित्सुराह - तरुणीय पव्वमाणी, नियएहि णिमंतणा य वत्थेहिं। पडिसेहणणिबंधे, लक्खण गुरुणो णिवेदेज्जा // 473|| कस्याप्याचार्यस्य पावें महर्द्धिकानां बहुजनपाक्षिकाणां प्रव्रज्या समजनि। ताश्च कियन्तमपि कालमन्यस्मिन् देशे विहृत्य सूरिभिः सार्द्ध तत्रैव समायाताः। ततो निजकैः-- संज्ञातिकैस्तासां वस्पैनिमन्त्रणा कृता, ततो न कल्पते अस्माकं वस्त्रग्रहणं कर्तुमिति प्रतिषेधः कर्तव्य। अथ गाढतरं निर्बन्धं कुर्वन्ति, तदैतद्वक्तव्यम्-अस्माकंगुरव एव वस्त्रलक्षणं जानन्ति, ततो गुरूणां निवदेयाम् इत्यनुज्ञाते तेषां निवेदयेयुः। __ इदमेव व्याख्यातिथेरा पडिच्छंति कथेमु तेसिं, जाणेति ते दिस्स अजुग्गजोग्गं / पिच्छामु ता तस्स पमाणवण्णे, तो णं कधेस्सामु तहा गुरूणं // 47 // सागाऽकडे लहुगो, गुरुगो पुण होति चिंधsकरणम्मि। गणिणी असिहॅ लहुगा, गुरुगा पुण आयनीसाए।।४७५|| स्थविरा--आचार्या अस्मत्प्रायोग्यं वस्त्र परीक्षन्ते अतः कथयामस्तेषाम, ज्ञास्यन्ति तद् दृष्टव वस्त्रमयोग्यं योग्यं वा वय परं तावदिदानी तस्य वस्त्रस्य प्रमाणं वर्णं च पश्यामः। ततो 'ण' मिति तद्वस्त्रं तथा तेन प्रमाणवर्णादिना प्रकारेण गुरूणां कथयिष्यामः। एवं यद्वस्त्र साकारत्वेन यथाऽवस्थापितं तत् साकारकृतम् , तच्च यदिन कुर्वन्ति ततो मासलघु, साकारकृतं कृत्वा प्रमाणवण्णाभ्यां चिहं न कुर्वन्ति ततो मासगुरु, यदि गणिन्या तद्वस्त्रप्रमाणादि न कथयन्ति ततश्चतुर्लघवः / अथ आत्मनिश्रया स्वयमेव गृह्णन्ति ततश्चतुर्गुरवः। अथगृहस्था एवं ब्रूयु:जइ भे रोयति गेण्हध, ण वयं गणिणिं गुरुंच जाणामो। इय विभणिया वि गणिणे, कथेंतिण य तं पडिच्छंति / / 476|| यदि 'भे भवतीनां रोचते ततो गृह्णीध्वमेतद्वस्त्रं न वयं गणिनी-प्रवर्तिनी गुरुं वाऽऽचार्य जानीमः, इत्यपि भणिताः सन्त्यः गणिन्यः सूरिणः कथयन्तिन पुनस्तद्वस्त्रं प्रतीच्छन्ति। सूरिभिश्च संयतीमुखाद्वस्त्रवृत्तान्तं श्रुत्वा इत्थं वक्तव्यम्कतरो मे णत्थुवधी, जा दिज्ज भणाहमो विसूरितो। पुवुप्पण्णो दिज्जति, तस्सऽसतीए इमा जयणा / / 477 / / भणत-प्रतिपादयत वर्षाकल्पान्तरकल्पादीनां मध्यात्कतरो 'भे' भवतीनां नास्त्युपधिर्यः साम्प्रतं दीयताम् / मा यूय
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________________ वत्थ 561 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वत्थ मुपधिना विसूरयथ-खेदमुग्रहथ, इत्युक्तवा यस्या उपधेरभावस्तां निवेदयन्ति। यदि पूर्वोत्पन्नो वर्तते ततो दीयते। अथ पूर्वोत्पन्नो नास्ति ततस्तस्थाभावे इयं यतना --- नाऊण यं परितं, वावारे तत्थ लद्धिसम्प। गन्धड्डे परिभुत्ते, कप्पकते दाणगहणं वा / / 478|| परीत्तं-स्तोकमभावोपलक्षणं चेदम्, ततोऽयमर्थः-परीत्तं नाम न संयतीना वस्त्राणि इति ज्ञात्वा ये तत्र लब्धिसम्पन्नाः साधवस्तान् व्यापारयेत् / यथा-आर्याः ! संयतीनां प्रायोग्याणि वस्त्राणि गवेषयत, ततस्ते वस्त्राणि गृहीत्वा गुरूणां समर्पयन्ति / तानि च गन्धाख्यानिपरिभुत्कानि भवेयुः, ततः कल्पे कृते सति दानं ग्रहणं वा कर्त्तव्यम्। किमुक्तं भवति-तानि वस्त्राणि प्रक्षाल्य सप्त दिवसानि स्थापयित्वा यदि नास्ति कोऽपि विकार उद्भुतस्ततो गणधरणे प्रवर्त्तिन्या दातव्यानि।। प्रवर्तिनीहस्ताच संयतीभिग्रहीतव्यानि इति संग्रहगाथासमासार्थः / साम्प्रतमेनामेव विवृणोति-- गुरुस्स आणाऍ गवेसिऊणं, वावारिता ते अह छंदिया वा। दुधा पमाणेण जहोइयाई, गुरूणमासंसु णिवेदयंति॥४७॥ ये व्यापरिता गुरुभिर्वस्त्रग्रहणाय प्रवर्तिताः, ये वा यथाच्छन्दिका अव्यापारिता एव गुरूणां पुरतो भणन्ति वयं वस्त्राणि गवेषयिष्यामः, आभिग्रहिका इति भावः। ते द्वयेऽपि गुरोराज्ञया वस्त्राणि द्विधाप्रमाणेनवर्णेन प्रमाणेन च यथा भगवद्भिस्तीर्थ-करैरुदितानि-भणितानि तथा गवेषयित्वा गुरूणां पादयोः पुरतस्तान्निवेदयन्ति-निक्षिपन्तीत्यर्थः। ततश्चगंधड्ड अपरिमुत्ते, विसोधिउं दें ति किमु अपडिपक्खे। गणिणी य णिवेदेजा, चतुगुरु सयदाणअट्ठाण / / 480 / / यानि गन्धाढ्यानि तानि यद्यप्यपरिभुक्तानितथापि धावित्या प्रक्ष्याल्य संयतीनां ददाति, किमुत्ति किं पुनः अप्रतिपक्षाणि परिभुक्तनीत्यर्थः, तानि सुतरां प्रक्षालनीयानीतिभावः। उपलक्षणमिदम्, तेन यद्यपि तानि गन्धाढ्यानितथापिधावनीयान्येव, धावयित्वा च सप्त दिवसानि स्थापयित्वा स्थविरः प्रावरणं कार्यते, यदि नास्ति कोऽप्यभियोगविकार-- स्ततो गणधरा गणिन्याः प्रवर्त्तिन्यास्तानि निवेदयेत् - अर्पयेदित्यर्थः / सा च संयतीनां ददाति। अथ गणधरः स्वयं तासां ददाति ततश्चतुर्गुरु, अस्थाने च शेषसंयतीभिः स्थाप्यते / शुद्धभावनाऽपि हि यदि काचिदार्थिकाविशेषो लभ्यते तथापि काचिदपरा संयती ता निरूपणाभिः प्रपातनया शङ्कां करोति,किं पुनः स्वयं वस्त्रप्रदाने। अपि चइहरह वि ताव मेहा, माणं भजति पणइणिजणस्स। किं पुण वलागसुरवा, विजुपजोदिया संता॥४१॥ इतरथाऽपि च बलाकासुरवापादिविशेषमन्तरेणापि तावन्मेघा गगनमण्डलमापूर्य गर्जयन्तः प्रणयिनीजनस्य मानवतीलोकस्य मानं भञ्जन्ति / किं पुनर्वलाकासुरवाः विद्युत्प्रद्योतिताः सन्तः, एवंविधाः सुतरां मानमुन्मूलयन्ति / एवमप्यतिप्रौढा-समर्थां वाऽहमिति कृत्वा अस्माकं मानभङ्गं पुराऽपि करोति। साम्प्रतंतुगुरुभिः स्वयं पूजितः सन् करोत्य-विशेषतः करिष्यतीतिशेषासाध्यश्चिन्तयेयुः। दुल्लभवत्थे वसिया, आसण्णणियाण वा वि णिबंधं / पुच्छंतजं थेरा, वत्थपमाणं च वण्णं च // 45 // अथ स देशो दुर्लभवस्त्रो भवेत् ततो ये व्यापारितास्तैरपि न लब्धानि वस्त्राणि, अथवा-यैर्निजैः सज्ञातिकस्ता निमन्त्रि-तास्ते समासन्नाः अतीव प्रत्यासन्नाः-अतीव प्रत्यासन्नसंबन्धास्ततो न तन्निर्बन्धोऽप्रमाणीकर्तुं शक्यते, एवमादौ कारणे समुत्पन्ने आचार्या आर्या-प्रवर्तिनी वस्त्रस्य प्रमाणं वर्ण न पृच्छन्ति, कीदृशैर्वस्वैयूयं निमन्त्रिताः, किंवा तेषां प्रमाणम्। ततः संयत्योबुवतेसेयं च सिंधवण्णं, अहवा महलं च ततियगं वत्थं / तस्सेव होति गहणं, विवज्जए भाव जाणित्ता 483|| एक वस्त्रं श्वेतं-शरदिन्दुसुधावदातम्, द्वितीयं सैन्धववर्णपाण्डुरम्। अथवाशब्दो वर्णप्रकारान्तरताद्योतकः / तृतीयं परिमलितत्वान्मलिनम्, प्रमाणमपिच तस्य वस्त्रस्य ईदृशम-स्तीति ताभिरुत्के गुरुभिस्तत्र गत्वा तस्यै वस्त्रस्य ग्रहणं कर्त्तव्यम्। अथ ते गृहस्थास्तत्र गतानामाचार्याणामन्यानि वस्त्राणि दर्शयन्तितत एवं विपर्यये भावं भद्रकप्रान्तगतमभिप्रायं ज्ञात्वा ग्रहणं कर्त्तव्यं न था। इदमेव स्पष्टयन्नाहपुव्वगता ते पडिच्छह, अम्हे विय पस्सुता तहिं गंतुं। गुरुआगमणकर्धेता, णीणावेंता गते तम्मि॥४८४|| सूरयः प्रवर्तिनीं भणन्ति-यूयं तत्रा पूर्वगताः प्रतीक्षत वयमपि युष्माकामनुमार्गत एवागच्छामः। ततस्तास्तत्रा गृहस्थकुले गत्वा गुरूणामागमनं कथयन्ति। ततस्तास्मिन् गुरावा-गते संयत्यो भणन्ति-निष्काशयत तानि वस्त्राणि यैर्वयं निमन्त्रिताः, एवमुक्ते यदि तान्येव दर्शयन्ति ततो गृह्णन्ति। ___ अथान्यानि ततः सूरिभिरिदं वक्तव्यम्अन्नं इदं ति पुट्ठा, भणंति किह तुज्झ तारिसं देमो। इति भद्दे पंतेसु तु, भणंति सीसं ण तं एतं // 48 // येन भवद्भिः संयत्यो निमन्त्रिता नेदं तद्वस्त्रम्, किंतु प्रमाणेन वर्णेन वा अन्यादृशत्वेन अन्यदिदमिति पृष्टाः सन्तो ते गृहस्था यदि भद्रकास्तत इदं भणन्ति-कथं वयं युष्माकं स्वयमेवागतानां तादृशं सामान्य वर्णादियुक्तं प्रयच्छामिः, इदंतुततो विशिष्टतरवण्र्णादिगुणोपेतम्, अत इदं गृहीत् इति भद्रका ब्रूयुः। ये तु प्रान्तास्तेषु सूरयः शीर्ष धूनयन्ति। इदं वचनं बुवते येन संयत्या निमन्त्रितास्तदिदं वस्त्रं न भवति। एवमुक्ते ते चिन्तयेयु:बहु जाणिया ण सक्का, तं वेउं तेसि जाणिओ भावं / णिच्छंति महएस तु, पहभावेसु गेण्हति // 416||
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________________ वत्थ ५६२-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वत्थ अथ अधिभिराचार्यहु-प्रभूतं ज्ञाता-उपलक्षिता वयम्, यदेते आभियोगिकानिवस्त्राणि प्रयच्छन्तीति अतो न शक्या अमी वञ्चयितुम्, इत्यादिकं तेषां भावम्-अभिप्रायं मुखविकारादिभिराकारैत्विा नेच्छन्ति। भद्रकेषु तु प्रहष्टभावेषु गृह्णन्ति। ___ भद्रकेष्वेव विशेषमुपदर्शयतिन वि एवं तं वत्थं, जंतं अजाण णीणियं भे ति। तुझे इमं पडिच्छय,तं चिय एताण दाहामो // 47 // नाप्येतद्द्वस्त्रं यत्तदार्यिकाणामर्थाय निष्काशितं भवद्भिरित्युत्के यदि गृहस्था ब्रुवन्तितावदिदं वस्त्रं प्रतीच्छते। एतासांतु वयं तदेव दास्यामः / ततो वक्तव्यम्अण्णेण म्हे ण कजं, एतद्वा चेव गेण्हिमो अम्हे। जति ताणि वि देंति दुवे, णीणेति दुवे विगेण्हति // 456|| अन्येन-वस्त्रेण अस्माकं न कार्यम्, एतासामेवार्थाय वयं सम्प्रति गृह्णीमः, इत्युक्ते यदि तान्यपि प्रात्कनानि वस्त्राणि आनयन्ति ततो द्वयान्यपि प्रात्कनपश्चात्तनानि गृहन्ति। ताणि वि उवस्सयम्मि, सत्त दिणे ठविय कप्प काऊणं। थेरा परिच्छिऊणं, विहिणा अपेंति तेणेव ||4|| तान्यापि वस्त्राणि गृहीत्वा उपाश्रये आनीय सप्त दिनानिस्थापयित्वा कल्पं कृत्वा स्थविरप्रावरणद्वारेण परीक्ष्य यदि नास्ति कोऽप्यभियोगविकारस्ततः स्थविरा आचार्यास्तेनैव विधिना संयतीनामर्पयन्ति / एवमाचार्यनिश्रया ग्रहणमुत्कम्। अथोपाध्यायनिश्रया तदेवाऽऽहआयरिय उवज्झाए, पवत्ति थेरे गणी गणहरे य। गणवच्छेइयणीसा, पवत्तिणीतत्थ आणेइ||४|| आचार्यस्याभावे उपाध्यायस्य प्रवर्तिनः स्थविरस्य गणिनो गणधरस्य गणावच्छेदिनो वा निश्रया वस्त्रग्रहणं कर्तव्यम् / एतेषामभावे प्रवर्तिनी तत्रा गृहस्थकुले गत्वा स्वयमानयति। इदमेव व्याख्यानयतिआयरिएऽसाधीणे,साहीणे वाऽविवाउलगिलाणे। एकिकगपरिहाणी, एमादीकारणेहिं तु ||461|| यदि तत्राचार्योऽस्वाधीनः स्वाधीनो वा परं व्याकुलः, कुलादिकार्येषु व्यापृतः, ग्लानो वा तत उपाध्यायनिश्रया ग्रहणं विधेयम्। तत्रापि स एव विधिः / अथोपाध्यायः अस्वाधिनो व्याकुलो वा तत एकैकपरिहाण्या तावन्नेयं यावत् प्रवर्तिनीनिश्रयाऽपि ग्रहीतव्यम् / एवमादिभिः कारणैः संयतीनां वस्त्रग्रहणं भवतीति। सुत्तणिवाते थेरा, गहणं तु पवत्तिणीऍ नीसाए। तरुणीण य अग्गहणं, पवत्तिणी तत्थ आणेति|४|| अत्र पुनः सूत्रनिपात इत्थं मन्तव्यः / आचार्यादीनां गणावच्छेदकान्तानामभावे प्रवर्त्तिन्या निश्रया स्थविरा आर्यिकाः स्वयं वस्त्रग्रहणं कुर्वन्ति, तरुणीनां तु सर्वथैव वस्त्रस्याग्रहणम्। उत्सर्गतः प्रवर्तिनी स्वयं तत्र गत्वा आनयति। इदमेव भावयति साचजयाऽऽरिया तत्थ न होज कोई, छंदेज णीया तरुणी जया य। पवत्तिणी गंतु सयं तु गेण्हे, आसंकभीया तरुणिं न ने ति||३|| यदा तत्राचार्यादीनां मध्यात्कोऽपि गीतार्थः साधुन भवति, यदा च निजकाः तत्रा स्वयं गत्वा गृह्णाति, आशङ्काभीता च प्रत्यपायशङ्कया चकिता तरुणी नात्मना तं नयति। असतीपवत्तिणीए, आयरियादीवजं वणीसाए। आगाढकारणम्मि उ, गिहिणीसाए वसंतीणं // 464|| अथ नास्ति प्रवर्तिनी ततआचार्योपाध्यायादीन्यं वा सामान्यसाधुमपि निश्रयं-निश्रां कृत्वा विहरति, तन्निश्रया ग्रहणं कर्तव्यम् / आगाढे तु कारणे गृहिनिश्रया वसन्तीनां स्वयमपि ग्रहणं भवतीति वाक्यशेषः। इदमेव सविशेषमाह-- असतिय पवत्तिणीए, अभिसेगादी विवज्जणीसाए। गेण्हंति थेरिया पुण, दुगमादी दोण्ह वी असती ||4|| प्रवर्तिन्या अभावे अभिषेकागणावच्छेदिकाप्रभृतयो या गीतार्थाः संयत्यस्ताः स्वयं गत्वा गृह्णन्ति / 'विवज्जनीसाए' ति विपर्ययो नाम अभिषेकादयोऽपि न सन्ति ततः परस्परनिश्रया स्थविरा आर्यिका गृह्णन्ति ।ताश्च द्विकादयो द्वित्रिप्रभृतिसंख्याकाः पर्यटन्ति। अथ द्वे अपि न भवतस्ततो वक्ष्यमाण-विधिना गृहीतव्यम्। कथं पुनर्द्वयोरप्यभाव इत्याशङ्कयाहदुन्भूइमाईसु उ कारणेसुं. गिहत्थनीसा वइणी वसंती। जे नालबद्धा तह भाविया वा, निघोससन्नी व तहिं वसेजा||६|| दुर्भूतिरशिवम् आदिशब्दादवमौदर्यादिपरिग्रहः, तेषु कारणेषु ग्रहस्थनिश्रया एकाकिनी व्रतिनी वसन्तीये नालबद्धास्तस्याः ये सज्ञातका ये वा अनालबद्धा अपि भाविताः साधुसामाचारीपरिकर्मितमतयो यथा भद्रका ये वा निर्दोषा हास्य-कन्दादिदूषणरहिताः संझिनस्तेषां गृहे वसेत्, तत्रा च स्थितां भिक्षां पर्यटन्तीं यदा कोऽपि वस्त्रेण निमन्त्रायेत् तदा वक्तव्यम्। सज्जायरो व सण्णी, व जाणती वत्थलक्खणं अम्हं। तेण परिच्छियमेत्तं, तदणुण्णातं परिग्घेत्तुं / / 467|| शय्यातरो वा संज्ञी वा अस्माकं प्रायोग्यस्य वस्त्रस्य लक्षणं जानाति, अतस्तेन परीक्षितं तदनुज्ञातं च सदहमिदं परिग्रहीष्यामि। पंतो दहण गतं, संकाए अवणयं करेज्जाहि। अण्णासिंवा दिण्णं, वइतं णीयं व हसिता वा 498|| ततः संयत्या समानीतंशय्यातरं संज्ञिनंवा दृष्टवा प्रान्तः शङ्कया अपनयं वस्वस्यैकान्ते स्थापनं कुर्यात्, यद्वाब्रूयात अन्यासां संयतीनां दत्तं ब्रजिकां चानीतम्, हसेद्वा।
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________________ वत्थ 863 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वत्थ अथवातुझेऽवि कहं विमुहे, काहामो तेण दाम से अन्नं / इति पंते वजणता, महेसु तथैव गेण्हंति well युष्मानपि कथं विमुखान् करिष्यामः, अतस्तस्याः-अपरस्याः संयत्या अन्यद्वस्वं दास्यामः / इदंतुयूयं गृहीत् इति ब्रुवाणे प्रान्ते वर्जनं कर्त्तव्यम्, नतदीयं वस्त्रं ग्रहीतव्यमिति भावः। भद्रेषु तथैव पूर्वोत्कप्रकारेण गृह्णन्ति। अंबा वि हॉति सित्ता, पियरो विय तप्पिया वदे महो। धम्मो यम्हे भविस्सति, तुज्झं व पियं अतो अण्णं // 500 / भद्रकः इत्थं वदेत्-आम्रा अपि सित्का भवन्ति, पितरोऽपि च तर्पिता भवन्तिा एवमस्माकं धर्मो भविष्यति, युष्माकं च प्रियः, अतोऽन्यद्वस्त्रं दास्याम इत्युक्ते गृह्यते। अथ ये चतुर्थावभाषणनिमित्तं प्रयच्छन्ति ते कथं ज्ञातव्या इत्याहवेबकुचला य दिट्ठी, अण्णोण्णणिरक्खियं खलति वाया। दिण्णं मुहवेवण्णं, णयाणुरागोऽनु कारीणं / / 501 / / ये कारिणश्चतुर्थनिमित्तं वस्त्रदायिनस्तेषां शरीरे वेपथुः- कम्पश्चला च दृष्टिर्भवति / अन्योन्यनिरीक्षितं कम्पो नाम मां जानातीति बुद्ध्या अन्योन्यस्य च संमुखं निरीक्षन्ते इति भावः वाक् च तेषां स्खलति ज्ञाते वदन्ति प्रायः तेषां दैन्यं मुखवैवर्ण्य चोपजायते न च तेषां वस्त्रं ददानानामनुरागो दृष्टाहृष्टतालक्षणो भवति / बृ० 3 उ०। (27) विभूषाद्वारमाहउडाहडाजे हरिया हडीए, परेहि धोयाइय याउ वत्थे। भूसानिमित्तं खलु ते करते, उग्धातिमा वत्थ सवित्थराओ॥३०८|| प्रथमोद्देशके हृताहृतिकासूत्रम्, परैः स्तेनैः हृतानि धौतानि पटानि यानि वस्त्रे उदाहृतानि तानि यद्यात्मनो विभूषितास्ततश्चत्वार उद्घातिमा मासा भवन्तिा इयमत्र भावनाविभूषानिमित्तं यद्यात्मीयं वस्त्रं प्रक्षालयति रजतिधृतिपृष्ट वा करोति पटवा–सनादिना वा वासयति, तदा चतुर्लधुकं सविस्तरग्रहणादधौतानि पटानि कुर्वतोया आत्मविराधना तन्निष्पन्नमपि प्रायश्चित्तम्। किमर्थं पुनर्विभूषामासेवते इत्याहमलेण घत्थं बहुणा उ वत्थं, उज्झाइओऽहं दिमिणा भवामि / हं तस्स धोवम्मि करेमि तत्ति, वरं न जोगो मलिणाण जोगो॥३०॥ इदं मदीयं वस्त्रं बहुना मलेन ग्रस्तमापूरितमतोऽहम् ‘उज्झा-इओ' विरूपो भवामि-तैश्चाहं विरूप उपलभ्ये।तत-स्तस्य धौतव्ये तप्तिमहं करोमि, ये भागा सूत्रादिनाशुष्यन्ति, तदानयानीत्यर्थः। कुत इत्याहवरं मे वस्त्रेण सहनयोगः, परिमालतवस्त्राणां योगोन वरम्। मलिनवस्त्रप्रावरणादप्रावरणमेवाश्रया इति भावः। कारणे तु वस्त्र धावन्नपि शुद्धः। / परःप्राह मनु वस्त्रधावने विभूषा भवति।साच साधूनां कर्तुं न कल्पते। 'विभूसा इत्थिसंसग्ग' इत्यादिवचनात्। सूरिराहकाम विभूसा खलु लोभदोसो, तहा वितं पाउणओन दोसो। माहीलणिजो इमिणा भवस्सिं। पुस्विडिमाई इय संजई वि॥३१०॥ कामम्-अनुमतमेतत् / खलुरवधारणे यैषा विभूषा सा लोभदोष एव तथापितथाभूतं कारणे कृत्वा प्रावृण्वतोनदोषः। कस्येत्याह-यः पूर्व राजादिक ऋद्धिमानासीत् स तादृशीम् ऋद्धिं विहाय प्रव्रजितः सन् चिन्तयति, अमुना मलल्किन्नवाससा अमुष्य जनस्य इह लोकप्रतिबद्धस्य हीलनीयो भविष्यामि। यथा-नून केनापि देवादिना शापतप्तोऽयं यदेवं तादृशीं विभूतिं विहाय साम्प्रतमीदृशीमवस्थां प्राप्तः / आदिशब्दाद्-आचार्यादिरप्येवमेतदशुचिभूतं वस्त्रं प्रावृणोति संयत्यपि ऋद्धिमत् प्रव्रजिता नित्यं पांसुरापटप्रावृत्ता तिष्ठति पर्यटति वा। शुचिभूतं वस्त्र प्रावृण्वतस्तस्य कथं रागो भवतीत्याहन तस्स वत्थाइसु कोइ भंगो, रखं तणं चेव जदं तु तेणं। जो सोउ उज्झाइय वत्थजोगो, तंगारवा सो नवए ति मोतुं // 311 / / योऽसौ ऋद्धिमान् प्रव्रजितस्तस्य वस्त्रादिषु कोऽपि स्वल्पोऽपि भङ्गोरागो नास्ति, यतस्तेन महात्मना राज्यं तृणमिव परित्याचम्। यः पुनरसौ 'उज्झाइ' विरूपोऽहममुना मलेन विलीने वाससि इत्येवमभिप्रायेण धौतादिगुणोपेतस्य वस्त्रस्य योगत्वमसौ विभूषादि यः संयतो 'गारव' त्ति ऋद्धो गौरवान्न मोक्तुं शक्नोति अतस्तत्प्रायश्चित्तमुत्कामिति भावः / गतं विभूषाद्वारम्। भूर्णीद्वारमाह- . __ महद्धणे अप्पधणे व वत्थे, मुच्छिनतीजो अविवित्तभावो। संतं पि नो भुंजति मा हु झिजे, वारेति वन्नं कसिणा दुगाओ॥३१॥ महाधने-महामूल्ये अल्पधने वा-अल्पमूल्ये वस्त्रे पात्रो विविक्तभावे विवेकविकलाशयः मूठति-मूर्छा करोति / कथमेतज्झायते इत्याहस्वयमपि तत्प्रधानं वस्त्रं न परिभुड्के मा क्षीयतां न परिभुज्यमानं सत् परिजीर्यतामिति कृत्वा अन्यं परिभुञ्जानं च वारयति। तस्य प्रायश्चित्तं कृत्वाः सम्पूर्णाः 'दुगादो' त्ति चत्वारोमासाः। चतुर्गुरुकमित्यर्थः। अथ किमर्थं वस्त्रेषु मूछ करोतीत्याहदेसिल्लगं वन्नजुयं मणुनं, चिरंतणं दोइ सिणेहओ वा। लब्धं च अन्नं पि इमप्पभावा, मुच्छिज्जई एय मिसं कुसत्तो॥३१३|| देशल्लग-देशविशेषोद्भवं वर्णवुतं वर्णोपेतं स्वदेशीय परदेशी
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________________ वत्थ 864 - अभिधानराजेन्द्रः- भाग 6 वत्थ यं वा श्लक्षणं स्थूलं वा यन्मनसो रुच्यते तन्मनोज्ञ चिरन्तनं नाम यदाचार्यपरंपरागतम् ‘दोइ' ति निपातो विकल्पार्थो येन वा तत्प्रदत्तं तस्योपरि महान् स्नेहो, यद्वा-अमुना वस्त्रेण तिष्ठता अहमन्यदपि वस्त्रमेतत्प्रभावादेव लप्स्ये एवमेतैः कारणैः भृशमत्यर्थ कुसत्त्वस्तुच्छवृत्तिबलो मूर्छति मूर्छा तस्य न विवक्षितं वस्त्रं परिभुत्के / उत्को वस्त्रविषयो विधिः / बृ०३ उ०॥ जे मिक्खू वत्थस्स परं तिण्हं पडियाणियाणं देयइ देयाणं देयंत वा साइजइ ||vell जे भिक्खू वत्थेणं परं तिण्हं देंति देंतस्स मासगुरुं पच्छित्तं, दिट्ठा एगा पडियाणिया या कारणे पसंगा बहुई उदाहिति तेणिमं सुत्तं भण्णति। पडियाणियाणि तिण्हं, परेण वत्थम्मि देंति जे भिक्खू / पंचण्हं अण्णतरे, सो पावति आणमादीणि // 272 / / कारणे-जाव तिण्णि ताव देया, तिण्हं परतो चउत्था ण देया। जंगियादि पञ्च किण्हवण्णति वा पंच देंतस्स आणादयो दोसा, कारणतो पुण तिण्हं परतो वि दिजा। किं कारणं उच्यते -- "संतासंतसतीए, दुब्बलहीणे अलब्भमाणे वा / / 273 / / " असि० // 27 // " 'सच्छण्णे० // 275 // एताउ गाहाउ "संतासं 180 एह० // 276 // " गाहाजे मिक्खू अविहीए वत्थं सिवई सिव्वंतं वा साइजइ // 10 // दिट्ठा पडियाणिया सा असिव्विया ण भवति एवं सिव्वणं दिटुं. तं पुण काए विहीए, एतेणाभिसंबंधेणिमं सुत्तं-जे भिक्खू अविहीए, वत्थं सिव्वति तस्स मासगुरुं पच्छित्तं। पंचविधम्मि वि वत्थे, दुविधा खलु सिव्वणा तुणातव्वा। अविधोए सिव्वणया, अविधी पुण तत्थिमा होति॥२७७।। दुविहा सिव्वणा-अविधिसिव्वणा, विधिसिव्वणाय। तत्थ अविहिसिव्वणा इमागग्गरदंडिवञ्जित, जालेगसराकसादुखील एका य। गोमुत्तिगा य अविधी, विहिझसकंटायिसरडोय॥२७८|| गग्गरसिव्वणी जहा-संजतीणं, डंडिसिव्वणी जहा गारत्थाणं, जालगसिव्वणी जहा-वरक्खाइसु, एगसरा जहा संजतीणं, पयालणी कसासिप्यणी / णभंगे वा दिजति, दुक्खीला संधिज्जते उ तओ खीला देति, एगखीला एगत्तो देति, गोमुत्ता संधिचंतेइओ एक्कसि वत्थं विंधइ एसा अविधि,विधी झसंकटा सा संधणे भवति एक्कतो वा उक्कुइते संभवति विसरिया। सरडो भण्णतिएगो एगतरीए, अविधिविधीएसु जो उसीवेजा। पंचण्हं एगतरं, सो पावति आणमाईणि // 27 // चउरो ता गाहाओ, अत्थ वि कमेण भविचाउ। दुब्बल दुल्लह वत्थे, अविधिविधीसिव्वणं कुजा॥२८०।। सुत्तत्थपालमंथो जे च पडिलेहाण मज्झति संजमविराह-णा, कारणे पुण विधीए पुच्छा अविधीए वि सीवेजा। जे भिक्खू वत्थस्स परं तिण्हं फालियगंठियाण करेइ करतं वा साइजइ॥५१॥ जे भिक्खू वत्थे एगमपि फालिगंथि देति दास्स मासगुरुं पच्छित्तं / पचण्हं अण्णतरे, वत्थे जो फालियं छियं देखा। सीवणगंधे मगधी, सो पावति आणमाईणि॥२८१।। गहणं तु अधाकडए, तस्सऽसतीए उ अप्पपरिकम्मे। तस्स सइ सपरिकम्मे, गहणं तु अफालिए होति // 22 // तस्स सति फालितम्मि, गहणं जं एगगंठिणा वज्झी। तस्स सति दुगतिगं पी, तस्स सती तिण्ह वि परेणं // 23 // कंठा। जे भिक्खू वत्थस्स परं तिण्हं फालियगंठियाण करेइ करतं वासाइजइ॥५२॥ जे भिक्खूवत्थे तिण्ह परं दे (ति) तस्स मासगुरुं आणा-दिणो दोसा। जे भिक्खू वत्थं अविहीए गंठइ गंठंतं वा साइज्जइ / / 13 / / तिण्ह परं फालियाणं, वत्थं जो फालियं तु संसिवे / पचण्हं एगयरे, सो पावति आणमादीणि // 28 // संतासंत." ताओ चेव गाहाओ सव्वाओ कंठाओ वस्त्र-मतञ्जातं न गृहन्ति। जे मिक्खूवत्थं अतिक्षायाएणगाहति गाहंतवासा इज्जइ॥५४|| तं पुण गहणं दुविधं, तज्जातं चेव तह अतजातं / तं एकेक तजा-तंति चतुरो अतज्जातं / / 28 / / जंगमादि एक्कके सामण्णजातीयं एकेक तज्जायं, असामण्ण्णं चउरो अतज्जाता वण्णतो वा तज्जातमतज्जातं तं। जंजारिसयं वत्थं, वत्थं वण्णेण जारिस होति / तारिसतजातेणं, गहणेणं तंगहेतव्वं / / 296|| कंठा। बितियपदमणप्पज्झे,गहेज अवि कोऽविचेव अप्पज्झे। जाणंते वा वि पुणो, असती सरिसस्स दोरस्स // 287|| खित्तादिचित्तो अणप्पवसो सेहो वा अवि कोविओ जाणओ वा गीयत्थो, असति सरिसदोरस्स अतजाएणं गहेजा / नि० चू०१ उ०। (रात्री वस्त्रग्रहणम् उवहि' शब्दे द्वितीयभागे 1072 पृष्ठे निषिद्धम्।) अथातिरित्कहीनद्वारमाह - पेहाऽपेहा दोसा, मारो अहिकरणमेव अतिरित्ते। एए भवंति दोसा, कजविवत्तीय हीणम्मि॥३०॥ अतिरिक्तमुपधिंयदिप्रत्युपेक्षतेतदासूत्रार्थयोर्महान्परिमन्थः। अथन प्रत्युपेक्षतेततउपधिनिष्पन्नम्, एवंप्रेक्षाप्रेक्षयोरपिदोषाः, भारश्चमहान्मार्गेगच्छता भवति / अपरिभोग्वस्य चोपधिधारणे मन्थातिरिक्तदोषा भवन्ति / अथ हीनं
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________________ वत्थ 865 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वत्थ यथोत्कप्रमाणन् न्यूनमुपकरणं भवति ततः कार्यस्य विपत्तिर्यत्तेन कल्पादिना कार्यं तन्न सिध्यतीति भावः। अथ परिकर्मणि द्वारमाहपरिकम्मणि चउभंगो, कारणविहि वितिओं कारणे अविही निकारणम्मिय विधी, चउत्था निकारणे अविही॥३०६|| परिकर्मणायां चतुर्भङ्गी, गाथायां पुंस्त्वं प्राकृतत्वात् सा चेयम् कारणे विधिना परिकर्मणमित्येको भङ्गः, कारणे विधिने-ति द्वितीयः, निष्कारणे विधिनेति तृतीयः, निष्कारणेऽविधिनेति चतुर्थः। कारणेऽणुन्नविहिणा, सुद्धो सेसेसु मासिका तिनि। तवकालेसु विसिट्ठा, अग्ने गुरुगाय दोहिं पि॥३०७।। कारणे विधिना परिकर्मणमनुज्ञातम्, अत एवायं प्रथमो भङ्ग शुद्धः / शेषेषु त्रिषु भङ्गेषु त्रीणि मासिकानि भवन्ति नचरं तपः कालयोर्विशिष्टानि / तत्रा द्वितीयभङ्गे काले गुरुकम्, तृतीये तपोगुरुकम् अन्ते-चतुर्थभड़े द्वाभ्यामपि तपः कालाभ्यां गुरुकम्। अथच गर्गरसीवनादिकमविधिपरिकर्मणं मन्तव्यम्, एकसराद्विसराझषकण्टकवेसवेनिकाविधिपरिकर्मणमनुज्ञातनम्। बृ० 3 उ०। अतिरेकगृहीतं वस्त्रं धरतिजे भिक्खू अइरेगगहियं वत्थं परं दिवमासाउ धारेइ धारतं वा साइजइ॥५ जे भिक्खू अतिरेगगहितं वत्थं पर दिवड्डमासातो धरेजा तस्स आणाइ, (दोसा) मासगुरुंच से पच्छित्त। अवलक्खणेगगहितं, दुगतिगअतिरेगगंठिगहियं वा। जो वत्थं परियट्टति, परं दिवङ्घाउ मासाउ॥२२८|| कंठा। जो धरेति। सो आणाअणवत्थं, मिच्छत्ताविराधणं तहा दुविधं / पावति जम्हा तेणं, अण्णं वत्थं विमग्गेजा // 28 // कंठा। अवलक्खणस्स इमे दोसा। दुऽवलक्खणे उ अवधी, उवहणती णाणदंसणचरित्ते। तम्हाण धरैतव्वो, कारणं विमग्गणे य इमा // 290 / कारणे पुण धरेयव्यो, इमाए विहीए। सलक्खणो उवधी मग्गियव्यो। अवलक्खणेगगहिते, सुत्तत्थकरेंति मग्गणं कुब्जा। दुगतिगबंधे सुत्तं, तिण्हुवरिंदो वि वजेज्जा / / 291|| दुगतिगगहिते सुत्तं करेति अत्थं वजेति, चउरो दिसुगहितेसु सुत्तत्थेदो वि वज्जित्ता मग्गति। इदाणी अहाकडप्पबहुपरिकम्माणं कालो भवतिचत्तारि अधाकडए, दो मासा होति अप्पपरिकम्मे। तेण परऽवि मग्गेज्जा, दिवड्डमासंसपरिकम्मं // 262|| एवं वि मग्गमाणो, जदि वत्थं तारिणवि लभेजा। तं चेव ण कटेजा, जाव ण्णऽण्णं लभति वत्थं / / 293 // गाहा पूर्ववत्। नि० चू०१उ०। कृत्स्त्रवस्त्रं धरतिजे मिक्खू कसिणाई वत्थाई धरेइ धरंतं वा साइजह // 22 // | जे भिक्खू अभिट्ठाई वत्थाई धरेइ धरतं वा साइडइ / / 23 / / सदसं प्रमाणातिरिक्तं कृत्स्नं भवति एष सूत्रार्थः / नि० चू०२ उ०। (28) कृत्स्नवस्त्रनिषेधमाहनो कप्पइ निग्गंथाण वा निगंथीण वा कसिणाई वत्थाई धारित्तए वा परिहरित्तए वा ||7|| कप्पइ निग्गन्थाण वा निग्गंधीण वा अकसिणाई वत्थाई धारित्तए वापरिहरित्तए वा||| अस्य (सूत्राद्वयस्य) सम्बन्धमाहपडिसिद्धं खलु कसिणं, सम्मं वत्थकसिणं पि नेच्छामो। अववादियं तु चम्म,णवत्थमिति जोगणाणत्तं // 203|| प्रतिषिद्धं खल्वनन्तरसूत्र चर्मकृत्स्नं यथा चैतन्न कल्पते तथा वस्त्रकृत्स्नमपि नेच्छामः प्रतिग्रहीतुम्, यद्वापूर्वसूत्रो चर्म अपवादिकमुत्कम् इदं तु वस्त्रं नापवादिकं किं तु सदैव साधुभिः परिभुज्यमानत्वेनौत्सर्गिकम्, अत इदं प्रतिपक्षतया सूत्रमारभ्यते इति योगसंबन्धस्य नानात्वं प्रकारान्तरतेत्यर्थः। अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य (सूत्रद्वयस्य 7-8) व्याख्या- 'नो कप्पईत्ति / आर्षत्वादेकचनम्। नो कल्पन्ते निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां कृत्स्नानि-सकलरूपाणि वस्त्राणि धारयितुं वापरिग्रहे धतु परिभोक्तुम, अकृत्स्नानि तु कल्पन्ते धर्तुं परिभोत्कुमित्येतत्सूत्रसंक्षेपार्थः। अथ नियुत्किगाथाभाष्यविस्तरःकसिणस्स उपत्थस्स, णिक्खेवो छविहो उ कायव्वो। नामंठवणा दविए, खेत्ते काले य मावे य॥२०४|| कृत्स्नवस्त्रस्य निक्षेपः षविधः कर्त्तव्यः / तद्यथा--नाम-कृत्स्नं स्थापनाकृत्स्नं द्रव्यकृत्स्नं क्षेत्रकृत्स्नं कालकृत्स्नंभावकृत्स्नं चेति। ते चनामस्थापने गतार्थे। द्रव्यकृत्स्नमाहदुविहं तु दव्वकसिणं, सकलं कसिणं पमाणकसिणं च। एतेसिं दोण्हं पी, पत्तेयपरूवणं वोच्छ / / 20 / / द्विविधं-द्विप्रकारं द्रव्यकृत्स्नम्, तद्यथा-सकलकृत्स्नं प्रमाणकृत्स्नं चेति। एतयोर्द्वयोरपि प्रत्येकं पृथक् 2 प्ररूपणां वक्ष्ये। प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयतिघणमसिणं णिरुवयं, जंवत्थं लग्भते सदसियागं। एयं तु सकलकसिणं, जहण्णगं मज्झिमुक्कोसं // 206|| धनं तन्तुभिः सान्द्रं मसृणं-सुकुमारस्पर्श निरुपहतमञ्जनादिदोषरहितम्, एवंविधं यद्वस्त्रं सदशाकं लभ्यते, एतत् सकलकृस्नमुच्यते। तच जघन्यं मध्यममुत्कृष्ट वा ज्ञातव्यम्। जघन्यं-मुखपोत्तिकादि, मध्यम पटलकादि, उत्कृष्टं कल्पादि। वित्थारायामेणं, जंवत्थं लब्मए समतिरेग। एवं पमाणकसिणं, जहण्णयं मज्झिमुक्कोसं // 207 / / विस्तारश्च-विस्तीर्णत्वम् आयामश्च-दैयम्, विस्तारायामम्। द्वन्द्वैकवद्भावः, तेन यद्वस्त्रं यच्चोत्कप्रमाणतासमतिरिक्तं लभ्यते एतत्प्रमाणकृत्स्नं भण्यते। तच्च जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदात् त्रिविधं प्राग्वद्रष्टव्यम्।
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________________ वत्थ ५६६-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वत्थ क्षेत्रकृत्समाहजंवत्थं जम्मि देस-म्मि दुल्लहं अचियं व जं जत्थ। तं खित्तजुयं कसिणं, जहण्णयं मज्झिमुक्कोसं // 208|| यद्वस्त्रं यस्मिन् देशे दुर्लभं यत्र यदर्चितम् सुमहाघ यथा पूर्वदेशजं वस्त्र लाटविषयं प्राप्य महायँ तत्-क्षेत्रयुतं कृत्स्व-मुच्यते क्षेत्रकृत्समित्यर्थः / तदपि जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदात्त्रिाविधम्। कालकृत्समाह -- जं वत्थं जम्मि काल-म्मि अम्गितं दुल्लभं व जं जत्थ। / तं कालजुतं कसिणं, जहण्णयं मज्झिमुक्कोसं // 206 / / यद्वस्त्रं यस्मिन् काले अर्चितं बहुमूल्यं यच्च यत्र दुर्लभम्, यथा-ग्रीष्मे काषायिकादि शिशिरे प्रावारादिवर्षासु कुङमखचितादि तदेतत्कालकृत्स्रम्, एतदपि जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदानिाविधम्। भावकृत्समाह-- दुविहं च भावकसिणं, वण्णजुतं चेव होति मोल्लजुयं / वण्णजुयं पञ्चविहं,तिविहं पुण होइ मुल्लजुतं / / 210 // द्विविधं च भावकृत्स्वं तद्यथा-वर्णयुतं, मूल्ययुतं च / वर्णतो मूल्यतश्चेत्यर्थः। तत्र वर्णयुतंपञ्चविधम् कृत्यादिवर्णभेदात्। पञ्चधा--- पञ्चप्रकारम्, मूल्ययुतं पुनस्त्रिविधं जघन्याभेदान्त्रिाप्रकारम्। इदमेव स्पष्टयतिपञ्चण्हं वण्णाणं, अण्णतराएण जंतु वण्णड्डं। तं वण्णजुयं कसिणं, जहन्नयं मज्झिमुक्कोसं // 211|| पञ्चानां कृत्स्रादीनां वर्णानामन्यतरेपा वर्णेन यदाढयं-समृद्धंतद्वर्णयुतं कृत्समुच्यते। इदमपिजघन्य मध्यममुत्कृष्ट चेति।मूल्ययुतंसभेदमप्युपरि वक्ष्यते। अथानन्तरोत्ककृत्सेषु प्रायश्चित्तमाहचाउम्मासुक्कोसे, मासो मज्झे य पञ्च य जहण्णे। तिविहम्मि विवत्थम्मि, तिविधा आरोवणा भणिया।।२१२॥ उत्कृष्ट कल्पादौ कृत्से चतुर्लघवः, मध्यमे पटलकादौ लघुमासः। जघन्ये मुखविस्त्रकादौ पञ्चरात्रिन्दिवानि। एवं त्रिविधेऽपि कृत्ये वस्त्रे यथाक्रम त्रिविधा आरोपणा भणिता। दुव्वाइतिविहकसिणे, एसा आरोवणा भवे तिविहा। एसेव वण्णकसिणे, चउरो लहुगा च तिविधे वि॥२१३| एषा च त्रिविधाऽप्यारोपणा द्रव्यादौ त्रिविधकृत्ये काल-कृत्से चेत्यर्थः / एषैव व वर्णकृत्येऽपि मन्तव्या अथवा वर्ण-कृत्सेजघन्यादिभेदान्त्रिविधे चतुर्लधुकमेव, नवरंतपः काल-विशेषोऽत्रा क्रियते, उत्कृष्ट यच्चतुर्लघुतत्तपसा कालेन च गुरुकम्, मध्यमेतदेव तपोगुरुकम्, जधन्ये कालगुरुकम्। यद्वा-उत्कृष्ट द्वाभ्यां गुरुकम्, मध्यमे अन्यतगुरुकम्। अथ मूल्ययुतं व्याख्यानयतिमुल्ले जुयं पितिविहं, जहण्णगं मज्झिमंच उक्कोसं। जहण्णेऽहारसगं, सत्तसहस्संच उक्कोसं।२१४|| मूल्ययुतमपि कृत्स्वं त्रिविधंजघन्य मध्यममुत्कृष्टंचायस्य रूपकाणामष्टादशकमूल्यं तत् जघन्यम्, शतसहस्ररूपकमूल्यमुत्कृष्टम्, शेषमष्टोदशकावं शतसहस्रादर्वाक् मूल्यलभ्यं सर्वमपि मध्यमम्। अथ किं नाम तद्रूपकभेदप्रमाणं निरुप्यत इत्याहदो सामरगादादि-व्वगातु सो उत्तरापथे एको। दो उत्तरापहा उण, पाडलिपुत्ते हवति एक्को // 215 / / द्वीपं नाम सुराष्ट्राया दक्षिणस्यां दिशि समुद्रमवगाह्य यद् वर्तते तदीयौ द्वौ साभरको स उत्तरापथे एको रूपको भवति, द्वावुत्तरापथरूपको पाटलिपुत्रक एको रूपको भवति अथवादो दक्खिणावहाओ, कंचीएलओ सद्गुणो य। एगो कुसुमणगरगो, तेण पमाणं इमं होति // 216|| दक्षिणापथे द्वौ रूपको काञ्चीपुर्यान्ध्रविषयप्रतिबद्ध्योः एको नेलको रूपको द्विगुणितः सन् कुसुमनगरसत्करूपको भवति / कुसुमनगरं पाटलिपुत्रमभिधीयते तेन च रूपकेण इदमनन्तरोत्कमष्टादशकादिप्रमाणं प्रतिपत्तव्यं भवति। ___ अथ मूलवृद्ध्या प्रायश्चित्तवृद्धिमुपदर्शयतिअट्ठारसवीसाया, अगुणा पण्णासं पंच य सयाइंच। एगणगं सहस्सं, दस पण्णासं सतसहस्सं // 217|| चत्तारि छचलहुगुरु, छेदो मूलं च होइ बोधव्वं / अणवठ्ठप्पो यतहा, पावति पारंचियं ठाणं // 21 // अष्टादशरूपकमूल्यं वस्त्रं गृह्णाति चत्वारो लघवः / विंशति-रूपमूल्ये चत्वारो गुरवः, एकोनपञ्चाशनमूल्येषड्लघवः, पञ्चशतमूले षड्गुरवः, एकोनसहस्रमूल्ये अनवस्थाप्यम्, शतसहस्रमूल्ये पाराञ्चिकं स्थानं प्राप्नोति। प्रकारान्तरेणात्रैव प्रायश्चित्तमाह - अट्ठारस वीसाया, सइसढाइअपंचयसयाई। सहस्सं दससहस्सा, पण्णसतधा सतसहस्सं॥२१९॥ लहुगो लहुगा गुरुगा, छम्मासा होति लहुग गुरुगाय। छेदो मूलं च तहा, अणवठ्ठप्पो य पारंची॥२२०।। अष्टादशरूपकमूल्ये वस्त्रे गृह्यमाणे लघुमासः, विंशतिमूल्ये चतुर्लघवः, शतमूल्ये चतुर्लघवः, अर्द्धतृतीयशतमूल्ये षड्-लघवः, पञ्चशतमूल्ये षड्गुरवः, सहसमूल्ये छेदः, दससह-समूल्ये मूलम्, पञ्चशतसहस्रमूल्ये च अनवस्थाप्यम्, शत-सहस्रमूल्ये पाराञ्चिकम्। अथवाअट्ठारस वीसाया, पण्णासतधाय सयसहस्संच। पण्णा पञ्चसहस्सा, तत्तोय भवेसयसहस्सा।।२२१॥ चउगुरुगा छल्लहुगुरु, छेदो मूलं च होति बोधव्वं / अणवठ्ठप्पा यतहा, पावति पारंचियं ठाणं // 222|| अष्टादशरूपकमूल्ये चतुर्गुरवः, विंशतिमूल्येषगुरुकः, शतमूल्ये छेदः, सहस्रमूल्ये मूलम्, पञ्चाशत्सहस्रमूल्ये अनवस्थाप्यम्, शतसहस्रमूल्ये पाराञ्चिकम्।
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________________ वत्थ 867 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वत्थ प्रकारान्तरेण भावकृत्स्नमुपदर्शयतिअहवा रागसहगतो, वत्थं धारेति दोससहितो वा। एवं तु भावकसिणं, तिविहं परिणामणिप्फण्णं // 223 / अथवा-अहो रमणीयं वस्त्रमित्येवं रागसहगतो, यद्वाअहो मे मलिनंकुथितं वस्त्रमित्येवं द्वेषसहितो यद्वस्त्र धारयति / तदेतद्भवकृत्स्नं मन्तव्यम् / इदं च परिणामनिष्पन्नं त्रिविधम, तद्यथा-जघन्येन रागद्वेषपरिणामेन जघन्यम, मध्यमेन मध्य-ममुत्कृष्टनोत्कृष्टम्। अथ द्रव्यादिकृत्स्नेषु दोषानाहभारो भय परियावण, मारण अहिगरण दव्वकसिणम्मि। पडिलेहणाएँ लोवो, मणसंतावो उवायाणं // 224|| प्रमाणातिरिक्तं वस्त्रं वहत आत्मन एव भारो भवति, अध्व-प्रपन्नानां सकलकृत्स्नादौ स्तेनेभ्यो भयं भवेत्, ते च साधूनां बन्धनादिरूपं परितापनं मारणं वा कृत्वा तादृशं वस्वमपहरेयुः / अविरतकैश्च गृहीते अधिकरणं भवेत् / एते द्रव्यकृत्स्ने गृह्यमाणे दोषास्तथा क्षेत्रकालकृत्स्नोपधिं मा सागारिकोऽद्राक्षीदिति कृत्वा यदि न प्रत्युपेक्षन्ते तत उपधिनिष्पन्नं तीर्थकृता चाज्ञाया लोपः कृतो भवति / अथ प्रत्युपेक्षन्ते ततस्ते तादृशं वस्त्रं दृष्ट्वा हरेयुः / पन्थानं वा बद्धवा तिष्ठेयुः / हृते च महान्मनः संतापो भवति। यद्वा-तत्कृत्स्नवस्त्रं शैक्षस्योत्प्रव्रजितुकाम-- स्योपादानं भवति तदपहृत्योत्प्रव्रजेदित्यर्थः / गहणं च गोमिएहिं, परितावणधोवकम्मबंधो य। अन्ने वि तत्थ रुंभइ, तेण कते वा अहव अन्ने // 22 // कृत्स्नवस्त्रनिमित्तं गौल्मिकैः शुल्कपालग्रहणं प्राप्नुवन्ति कुतोंडमीषामीदृशानि वस्त्राणि, नूनं कस्यापि गृहादपहृतानीति कृत्वा ते च गृहीत्वा बन्धनादिभिः परितापनां कुर्वन्ति। तत-स्तानि वस्त्राण्यपहृत्य प्रावृणवन्ति / मलिनीभूतानि च तानि धावन्ति / तत्र कर्मबन्धसद्भावो यावत्तस्मात् स्थानान् न प्रतिक्रामति / यद्वा-'परितावणधोवकम्मबंधो य' त्ति प्रमाणा-तिरिक्तवस्त्राणि धावनकाले महता प्रयासेन धाव्यन्ते तत्र परितापनादयो दोषाः प्राभृतेन च पानकेन च वस्त्रधावनेऽनुपदेशः कोऽपि तया कर्मबन्धो भवति / तथा गौल्मिका अन्यान् वा साधून निरुन्धन्ति, सर्वेषामपि ईदृशानिवस्त्राणि सन्तीति कृत्वा त एव गौल्मिका अपरमार्गेण गत्वा स्तेनका भवन्ति / अथवा तैः प्रेरिताः सन्तोऽन्ये अपहरन्ति। भावकसिणम्मि दोसा, ते चेव नवरि तेणदिलुतो। देसीगिलाण जावो-गहो उदव्वम्मि बितियपयं // 226 / / भावकृत्स्नेऽपि वर्णयुतमूल्यलक्षणे त एव भारभयपरितापनादयो दोषाः, नवरं केवलमत्रा स्तेनदृष्टान्तो भवति, स चानन्तरमेव वक्ष्यते। कारणे तु प्राप्ते कृत्स्नमपि गृह्णीयात् / कथमित्याह 'देसी'-इत्यादि। देशविशेष ग्लानं वा प्रतीत्य सकलकृत्स्नं प्रमाणकृत्स्नं वा गृह्णीयात् / आचार्या वा कुलादिकार्येषु निर्गतास्ततो जावोग्णहो' ति यावत्तेषां समीपे वस्त्रस्याग्रहो नानुज्ञापितः तावत्तस्य दशिका न छिद्यन्ते / इत्येवमा द्रव्यकृत्स्ने द्वितीयपदं मन्तव्यमिति संग्रहगाथा-सभासार्थः / अथैनामेव विवरीषुः स्तेनदृष्टान्तमाहउवसामिओ नरिंदो, कंबलरयणेहिं छंदए गच्छं। णिबंधे एगगहणं, णिववयणे पाउतो णेति / / 227 / / णीलोगो य णिसिज्ज, रत्तिं तेणागमो गुरुग्गहणं। दंसणमपत्ति पत्ति, सिव्वावणवायरो से णं // 228|| "एगेणं आयरिएणं धम्मकहालद्धिसंपत्तेणं राया उवसामिश्रो।से सव्यं गच्छं कंबलरयणेहिं पडिलाभिउं, उवट्टिओ। आय-रिएहिं निसिद्धो, न वट्टइ एयारिसं मुल्लकसिणं गिहिउं ति / तहा वि अतिनिबंधेण एग गहियं / राया भणइ-पाउया हट्ट-मग्गेणं गच्छ तहा कयं। तेणगेण दिहा। तेहिं वसहिं आगंतुं सेजाओ कयाओ। सो तेणओ रत्तिं आगंतुं आयरियाणं उवरि छुरियं कड्डिऊण भणइ-देहि मे तं वत्थं अन्नहा मारिस्सामि। ते भणन्ति-इमाणि खण्डाणि अस्थि, सो भणइ-सीवित्ता मे देह अन्नहा ओवदविस्सामि / तेहिं सीवित्ता दिन्नं / " अथ गाथादयस्याक्षरार्थः-- केनचिदाचार्येणोपशामितो नरेन्द्रः / कम्बलररत्नैर्गच्छं छन्दयतिनिमन्त्रयते। तत आचार्या महति निर्बन्धे एकस्य कम्बलवस्त्रस्य ग्रहणं कृत्वा नृपवचनात्तेन प्रावृत्तो निर्गच्छति। ततस्तेन 'नीलोको'-अवलोकन कृत्वा आचार्यश्च वसतिमागम्य कम्बलरत्नेन निषद्या कृता / रात्रौ स्तेनस्यागमः / गुरोश्च तेन छुरिकामाकृप्य ग्रहणं कृत्वा भणितम् प्रयच्छत मम तत्कम्बलरत्नम्, सूरिभिरुत्कम् खण्डितं तदस्माभिः / स प्राहदर्शय / ततस्तत्राप्रत्ययविप्रत्ययमकुर्वाणे खण्डानां दर्शनम् / रोषाच तेन भूयः सीवनं कारयित्वा कम्बलरत्नंगृहीतम्, यत एवमादयः कृत्स्ने दोषाः अतो द्रव्यतः स्थूलमदशाकं यथोक्तप्रमाणोपेतम्, क्षेत्रतः कालतश्च सर्वजनभोग्यं भावतो वर्णहीनमल्पमूल्यं च वस्त्रं ग्रहीतव्यम्। अथ द्वितीयपदं विभावयिषुः संग्रहगाथोक्तं देशीपदं व्याख्यानयतिपरे न दोचा गरिहा बलो य, थूणाइएसं विहरिज एवं। भोगातिरित्तारमडाविभूसा,कप्पियामिछवदसा उतत्था२२९॥ "परेदोच' त्ति चौरभयं तद्या नास्ति यत्रा च तथाविधे वस्त्रे प्राब्रियमाणे लोके गर्दा नोपजायते। तत्रा स्थूणादिविषयेष्वेवं कृत्स्नमपि वस्त्रं प्रावृत्य विहरेत् / परं तस्य दशाः छेत्तव्याः-न इत्याह- 'भोग' त्ति तासां दशानां सुषिरतया परिभोगः कर्तुं न कल्पते। अतिरिक्तश्चोपधिर्भवति प्रत्युपेक्षमाणे च दशिकाभिरारभटा दोषा विभूषा च सदशाके वस्त्रे प्राब्रियमाणे भवति इत्येवमेभिः कारणैस्ता वस्त्रे दशाः कल्पयेत्-छिन्द्यात्। कारणतो ने छिन्द्यादपीवि दर्शयतिपासंगतेसु बढेसुं, दढं होहि ति तेण तु / णातिदिग्धदसं वा वि, णतं छिंदिज देसओ // 230|| किं चिद्वस्त्र प्रथमत एव दुर्बलं ततः पाश्वन्तेिषु दशिकाभिर्बद्धेषु दृढं चिरकालवहनकृतं भविष्यतीति कृत्वा तेन कारणेन दशिकास्तस्य न कल्पयते / यद्वा-देशतः सिन्ध्वा
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________________ वत्थ 868 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वत्थ दिदेशमाश्रित्य यत्र तद्दीर्घदशाकं वस्त्रं तन्न छिन्द्यात्। तस्य दशिका न कर्तयितव्या इति भावः। अथग्लानद्वारं व्याचष्टेअसंफुरगिलाणऽहा, तेण माणाधियं सिया। सदसं वेज्जकजे वा, विसकुंभट्ठयानि वा // 230|| असंस्फुरो नाम–लानो यः क्षीणबलतया संकुचितपादः स्वप्तुं न शक्रति, तस्य प्रमाणयुतं वस्त्रं प्राव्रियमाणं कसति, एतदर्थ मानाधिकमपिप्रमाणातिरिक्तमपि वस्त्रं स्यात्। यद्वाग्लानचिकित्सको यो वैद्यस्तकार्येतस्य दानार्थम् / अथवा-दीर्घजातीयेन कश्चिद्दष्टो भवति, ततस्तस्य विद्याकार्ये विद्यायां प्रयुज्यमानायाम् अपमार्जनाय सदशवस्त्रमपजायते। विषकुम्भः-स्फाटिकाविशेषस्तस्यापमार्जनाय सदशवस्त्रं ग्रहीतव्यम्। अथ यावदवग्रहद्वारमाहअविभत्ताण छिमंति, लाभो छिचिजमा खलु। पारदोचाववादस्स, पडिपक्खो व होल उ॥२३१।। आचार्याः कुलादिकार्येषु निर्गतास्ततो यावदद्यापि तैः प्र-तिनिवृत्य वस्त्राणि न विभक्तानि तावत्तानि प्रमाणातिरिक्तान्यपि न छिद्यन्ते, मा खलु लाभः छिद्येत-मा भूयो वस्त्रलाभव्यवच्छेदो भवेदिति भावः। तथा न'पारदुचा' इत्यादिना स्थूणादौ विषये यत्कृत्स्नेवस्त्राणां प्रावरणमनुज्ञातमेष 'पारदोचापवादो' भण्यते / यत्तु तेषां कृत्स्ववस्त्राणां दशाः परिभोगातिरिक्तादि-दोषपरिहारार्थ छेत्तव्या इत्युक्तम् एष तस्यपारदोचापवादस्य प्रतिपक्ष उच्यते / स चात्र यावदवग्रहद्वारे भवेत्। अविभक्तनामपि तेषां वस्त्राणां दशिका छेत्तव्या इति भावः। अथवा यत्रअववादाववादोवा, एत्थ जुबइ कारणे। सच्छाणं वा समन्भेति, अच्छिचं जं उदाहरं / / 23 / / अपवादापवादो वा अत्र कारणे युज्यते / किमुक्तं भवति-स्थूणाविषयादिप्रतीत्य यत्कृत्स्त्रं वस्त्रं न कल्पते, एवं तावदपवादः / यचु तत्र दशिका छेतव्या इत्युक्तम्, एष भूयोऽपितत्रा-पवादे उत्सर्गो मन्तव्यः। अयमप्यापाद्यते यदा तत्पान्तेिषु दशिकाभिर्बद्धेषु दृढं भविष्यतीति मत्वा, सिन्धुविषये वा नाति-दीर्घदशाकस्य वस्त्रस्य यद्दशा अपि न छिद्यन्ते, एतेनापवादने य उत्सर्गः सोऽपि अपवादापवाद उच्यते, सोऽप्यत्र घटते। एवं चस्वस्थानंवा कृत्रत्वमेव तद्वस्त्रमभ्येति-प्राप्रोति यद-च्छेद्यमच्छेदनीयमुदाहतमुक्तम् / इयमत्र भावना-प्रमाणातिरिक्तं दशिकाश्च यस्य न छिद्यन्ते तत्कृत्स्रमेव ज्ञातव्यं नाकृत्स्रमिति / गतं द्रव्यकृत्प्रे द्वितीयपदम्। अथ भावकृत्ने द्वितीयपदमाहदेसीगिलाणजावो-गहो उ भावम्मि होति बितियपदं। तम्माविते य तत्तो, ओमादि उपग्गहहावा।।२३३।। देशीग्लानं यावदवग्रहविषयं भावविषयं भावकृत्ये द्वितीय-यपदं भवति / ततस्तदनन्तरं तैविकृत्ौहवासे भावित-स्तद्भावितस्ताद्विषयं द्वितीयपदम्। सोऽपि भावकृत्सानि परिभुङक्ते इत्यर्थः / अवमौदर्यादिषु वा गच्छस्योपग्रहणार्थ तानि धारयेदिति संग्रहगाथासमासार्थः / अथैनामेव विवृणोतिदेसीगिलाण जावो-गहो उ दव्वकसिणम्मिजं वुत्तं / तह चेव होति भावे, तं पुण सदसं व अदसंव।।२३४|| देशीग्लानं यावदवग्रहद्वारेषु यदेव द्रव्यकृत्सं द्वितीयपदमुक्तं तदेव भावकृत्स्रेऽपि वर्णादो बहुमूल्ये वा वस्त्रे मन्तव्यम् / नवरं न पुनः सदशमदर्श वा भवेत, उभयमप्यपवादपदेन ग्राह्यमिति भावः। अथ क्षेत्राकृत्समपवदतिनेपालतामलित्तीय, सिन्धुसोवीरमादिसु। सवलोकोवमोबाई, धरिज कसिणाइ वि॥२३५।। नेपालविषये तामलिप्त्यां सिन्धुसौवीरादिषु च विषयेषु सर्वलोकोपभोज्यानि कृत्लान्यपि च वस्त्राणि धारयेत्। कुत इत्याह-- आइन्नता ण चोरादी, भयं व य गारवो। उज्झाइवत्थवं चेव, सिंधुमादिसु गरहितो॥२३६|| नेपालादौ देशे सर्वलोकेनापि तागवस्त्राणामाचीपर्णता नच तत्र चौरादिभयम्, नैव च गौरवमहो अहमीद्रशानि वस्त्राणि प्रावृणोमीत्येवं लक्षणमपि 'उज्झाइवत्थवं' विरूपं यद्वस्त्रं तद्वान् सिन्धुसौवीरकादिषु गर्हितो भवति। अतस्ता कृत्सान्यपि परिभोक्तव्यानि। अथ कालकृत्समपवदति-- नीलकम्बलमादित्तु, उण्णिय होति अचियं / सिसिरे तं पिधारेज्झा, सीतंजण्णेण रुज्झति॥२३७।। नीलकम्बलादिकमौर्णिणकं महाराष्ट्रविषये अर्चितं महार्वे भवति, तदपि तत्र प्राप्तः शिशिरे-शीतले धारयेत् / प्रावृणुयादित्यर्थः / शीतं यतो नान्येन वस्त्रेण निरुध्यते। अथ तद्भावितपदं व्याख्यातिनलमइ खरेहि निहें, अरतिं च करेंति से दिवसतो वि। उज्झाइयं वमन्नति, सूलेहिं अभावितो जाव // 238|| खरैः-स्थूलतया कठिनस्पर्शश्चीवरैराजादिः प्रव्रजितः कश्चिन्निद्रांन लभते, तानि च तस्य दिवसतोऽप्यरतिं कुर्वन्ति उज्झाइयं वा जुगुप्सां मन्यते तैस्ततः स्थूलैर्यावदद्याप्यभावितस्ताक्त्तस्य भावकृत्सवस्त्रमनुज्ञातम्। अवमादिषु गच्छस्योपग्रहार्थमिति भावयतिओमासिवदुहेसुं, सीमढेऊण तं असंथरणे। गच्छो नित्थारिणति, जाव पुणो होति संथरणं / / 236 // अवमौदर्याशिवराजद्विष्टषु भक्तपानाहारे गच्छस्यासंस्तरणं भवेत्ततः शतसहस्रमूल्यं वस्त्र ‘सीमठेऊणं' ति चूर्णिणकार वचनात्, विक्रीय गच्छो निस्तार्यते, यावत्पुनरपि संस्तरणं भवति। विशेषचूण्णी तु'सीमढेऊण' इत्यस्य स्थाने 'ओवक्कमट्ठाव' ति पाठसूत्रोपक्रमः / कालगगनं तदर्थम्, किमुक्तं भवति-कस्यापि साधोरतर्कितं कालगमनं
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________________ वत्थ 866 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वत्थ भवेत्। तस्याच्छादनार्थ भावकृत्स्नं वाद्यं वस्त्र प्रागेव ग्रहीतव्यम। अथवा द्रव्यकृत्स्नं भावकृत्स्नं चेति द्विविधमेवेह कृत्स्नं कथमिति चेदुच्यतेमाणाहियं दसाहिय, दुवे वि निपंडित दय्वकसिणम्मि। तस्सेव य जो वन्नो, मुल्लं व गुणो य तं भावे // 240 / / क्षेत्राकृत्स्ने कालकृत्स्ने च यन्मानाधिकं-यथोत्कप्रमाणाति रिक्तं यच्च दशाधिकं--सदशाकं वस्त्रम्, एते द्वे अपि द्रव्य-कृत्स्ने निपततः, यस्तु तस्यैव वस्त्रस्य वर्णः-कृष्णत्वादिको, यच्च मूल्यमष्टादशरूपकादि, यश्च गुणो मृदुत्यादि, तदेतत्सर्वमपि भावकृत्स्ने अवतरित। (26) न कल्पन्ते अभिन्नानि वस्त्राणिनो कप्पइ निग्गन्थाण वा निग्गंथीण वा अभिन्नाई वत्थाई धारित्तए वा परिहरित्तए वादा नो कल्पन्ते, निर्ग्रन्थानां वा निर्गन्थीनां वा अभिन्नानि अच्छिन्नानि वस्त्राणि धारयितुं वा परिहर्तुं वेति। भाष्यम्अकसिणभिन्नमभिण्णं, व होज मिन्नं तु अकसिणे भइत। / कसिणाकसिणे य तहा, मिन्नममिन्ने य चउभङ्गो // 241 / / यत्पूर्वसूत्रो अकृत्स्नमुक्तं तद्भिन्नमभिन्नं वा स्यात् / अभिन्न-मपि अकृत्स्ने भक्तं विकल्पितम् अकृत्स्नंवा भवतीत्यर्थः / अत एव कृत्स्नाकृत्स्नपदाभ्यां-भिन्नाभिन्नपदाभ्यां चतुर्भङ्गी / गाथायां पुंस्त्वनिर्देशः प्राकृतत्वात्, सा चेयम्-कृत्स्नभिन्नम् 1. कृत्स्नं भिन्नम् 2, अकृत्स्नमभिन्नम् 3, अकृत्स्नं भिन्नम् 4, तत्राद्यभङ्गे कृत्स्नपदेन द्रव्यक्षेत्राद्यविशिष्ट सामान्यतः कृत्स्नं गृहीतमभिन्नपदेन त सकलम्। आह च बृहद्भाष्यकृतदव्वाई अविसिह, कसिणग्गहणेण होइ गहियं तु। गहणेण अमिन्नस्स उ, सगलग्गहणं कयं होइ॥२५२।। एवं द्वितीयभने द्रव्यक्षेत्राकृत्स्रमसकलं गृहीतम, तृतीयभङ्गे तु क्षेत्राकालभावैरकृत्स्नं परं सकलं, चतुर्थभने क्षेत्राादिभिरकृत्स्नमसकलम्। अत्र विधिगतं दिशन्नाह - तम्मि वि सो चेव गमो, उस्सग्गववादतो जजा कसिणो। भिण्णग्गहणं तम्हा, असतीय सयं पि मिंदिजा // 243 / / तस्मिन्नप्यभिन्ने स एवोत्सर्गतः, अपवादतश्चगमः-प्रकारः तथा कृत्स्ने | भणितः / तथाहि-कृत्स्रवद् द्रव्याभिन्नमपि चतुर्दा / तत्रा द्रव्याभिन्नं गणनया प्रमाणतश्चातिरिक्तम्, क्षेत्राभिन्नं यद्यस्मिन् क्षेत्रे महाय॑म्, कालाभिन्नं यद्यस्मिन् काले अर्चितम्, भावाभिन्नं तथैव वर्णयुतं मूल्ययुतं च, यावत्कृत्स्ने आरोपणा सैवाभिन्नेऽपि द्रष्टव्या, परमिदं चतुर्ध्वपि द्रव्यादिषु सकलमेव प्रतिपत्तव्यमायत् एवं तस्माद्भिन्नस्य वस्त्रस्य ग्रहणं कर्त्तव्यम् / अथ भिन्नं न प्राप्यते ततः स्वयमपि भिन्द्यात्, यावताप्रमाणेनातिरिक्तं तावच्छित्वा प्रमाणयुक्तं कुर्यादिति भावः। परः प्राहयति पूर्वसूवोत्क एव गम इहापिसूत्रो वक्तव्यः। ततःपुणरत्तदोस एवं, पिट्ठस्से व पीसणं णिरत्थं तु। कारणमवेक्खति सुत्तं, दुविहपमाणं इमं सुत्ते // 244|| पुनरुत्कदोष एवं प्राप्नोति-एतच पुनर्भणनं पिष्टस्यैव पेषणं निरर्थक परिफल्गुप्रायमेव पश्याम्यहम्, अतो नेदं सूत्रमारम्भणीयमिति भावः। सूरिराह-सूत्रामिदं कारणमपेक्षते। किं पुन-स्तत्कारणमपेक्षते ? इह सूत्र वस्त्राणां द्विविधं प्रमाणम्-गणनालक्षणं प्रमाणप्रमाणम, नियम्यते -कियन्ति किं प्रमाणानि वा तानि ग्रहीतव्यानि इत्येवं निरूप्यत इत्यर्थः / तम्हाउ मिंदियव्वं, केई पण्हेहि अहव तह चेव। लोगंते पाणादी, विराधणा तेसि पडिघाता॥२४ यस्मादभिन्नस्य धारणे पूर्वसूत्रोक्ता दोषाः तस्मात्प्रमाणातिरिक्तं वस्त्र भेत्तव्यं-छेदनीयम्, न तदवस्थं धारयितव्यम्। अथवाऽत्रा केचिन्नोदकाः प्रेरयन्ति-वस्त्रे छिद्यमाने यानि पक्ष्माणयुड्डीयन्ते तैलो कान्तं यावद्भच्छद्भिर्बहूनां प्राणादीनां त्रसप्राणिप्रभृतीनां सूक्ष्मजन्तूनां विराधना भवति, अतो 'तह चेव' त्ति यथालब्धं तथैवाधितिष्ठेत् / एवं वदतां तेषां नोदकानां प्रतिघातो-निराकरणं विधेयमिति पुरातनगाथासमासार्थः / अथैनामेव विवरीषुः परः प्रेर्यमेव प्रपञ्चयन्नाहसद्दो तहिं मुच्छति छेदणावा, घावंति ते दो वि सुजाव लोगो। वत्थस्स देहस्स य जो विकंपो, ततो विहातादि भरिति लोगं // 256|| ओ आर्य! तत्रा वस्त्रे छिद्यमाने शब्दः संमूर्छति / छेदनका वा सुपक्ष्मावयवा उड्डीयन्ते। एते च द्वयेऽपि निर्गता लोकान्तं यावत्प्राप्नुवन्तिा तथा वस्वस्य देहस्यचयो विकम्पश्चलनंततोऽपि विनिर्गतावातादयः प्रसरन्तः सकलमपि लोकमापूरयन्ति। अहिच्छसी जंति न ते उदूरं, संखोमिता ते अवरे वयंति। उड्डअधोयाऽविचउद्दिसिंपि, पूरिति लोगं तु खणेण सव्वं // 257|| अथाचार्य ! त्वमित्थं मन्यसे ते च वस्त्रच्छेदनसमुत्थाः शब्दपक्ष्मवातादिपुद्गला न दूर-लोकान्तं यान्ति तर्हि तैः संक्षोभिताश्चालिताः सन्तोऽपरेव्रजन्ति, एवमपरापरपुद्गलप्रेरिताः पुद्रलाः प्रसरन्तःक्षणेनोलमधस्तिर्यक् वनेष्वपि दिक्षु सर्वमपि लोकमापूर्यन्ते। यत एवमतःविनाय आरंभमिणं सदोस, तम्हा जहा लद्धमचिट्ठिहिज्जा। वुत्तं स एओ खलु जावदेही, __ण होति अंतंतकरी तु ताव // 248|| इममनन्तरोक्तं सर्वलोकपूर्णात्मकमारम्भं सदोषं सूक्ष्म-जीव विराधनया सावद्यं विज्ञाय तस्मात्कारणाद्यथालब्धं वस्त्रम्
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________________ वत्थ ८७०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वत्थ - धितिष्ठेत् / न छेदनादिकं कुर्यात्, यत उत्कम् भणितं व्याख्याप्रज्ञप्ती यावदयं देही-जीवः स्वयं संक्रम्य चेष्टावानित्यर्थः तावदसौ कर्मणो भवस्य वा अन्तकारी न भवति। तथा च तदा–लापक:-"जाव णं एस जीवो सयं संकमिय एयइ वेयइ चलइ फंदइ घडइ वज्झइ दीरइ तं तं भावं परिणमइतावणं तस्स जीवस्स अंतेकिरियान भवति अर्थत्थंभणिष्यथ एवं तर्हि भिक्षादिनिमित्तमपि चेष्टा न विधेया इति। नैवम्-यतःजाओ विचिट्ठाइरियाझ्याओ. संपस्सहेतहि विण्णा नदेहो। संचिट्ठए नेवमछिनमाणे वत्थम्मि संजायइ देहनासो // 246 // याश्चापि चेष्टा ईर्यादिकाः संपश्यत ततः तत्करणमीर्या भिक्षा भूम्यादौ गमनम्, आदिशब्दाद्-भोजनशयनादयो गृह्यन्ते एताभिर्विना देहः पौगलिकत्यान्न सन्तिष्ठते-न निर्वहति / देह-मन्तरेण च संयमस्यापि व्यवच्छेदः प्राप्रोति। वस्त्रे पुनरच्छिद्यमाने नैवं देहनाशः संजायते अतोन तच्छेदनीयम्। किंचजहा जहा अप्पतरासें जोगा, तहा तहा अप्पतरो से बंधो। निरुद्धजोगिस्स व जो ण होति, अछिहपोतस्सय अम्बुणोधे // 250 / / यथा यथा से तस्स जीवस्य अल्पतरा योगास्तथा तथा 'से' तस्या- | ल्पतरो बन्धो भवति, यो वा निरुद्धयोगी-शैलेश्यवस्थायां सर्वथां मनोवाक्कायव्यापारविरहितः तस्य कर्मबन्धो न भवति / दृष्टान्तमाहअच्छिद्रपोतस्येव, अम्बुधिना, यथा किलनिश्छद्रप्रवहणं सलिलसंचयसंपूर्णेऽपि जलधौ वर्तमानं स्वल्पमपि जलं नास्रवंति एवं निरुद्धयोग्यापजन्तुकर्मवर्गणा-पुद्गलैरञ्जनचूर्णसमुद्रकवन्निरन्तरमिवैतेऽपि लोके वर्तमानाः स्वल्पीयोऽपि कर्म नोपाददते। अतःकर्मबन्धस्य योगान्यवय-- व्यतिरेकानुविधायितया तत्परिजिहीर्षणा वस्रछेदनादिव्यापारो न विधेयः। इत्थं परेण स्वपक्षे स्थापिते सति सूरिराहआरंभमिट्ठो जति आसवा। गुत्तीय सेआय तधा तु साधु ! मा फंद वारेहि व छिन्नमाणं, पतिण्णहाणी वअणोवघातो॥२५१।। 'आरम्भमिट्ठो' मकारोऽलाक्षणिकः हे नोदक! यथाऽऽरम्भस्तथा- | ऽऽश्रवाय-कर्मोपादानाय इष्टः-अभिप्रेतःगुप्तिश्चतत्परिहाररूपा श्रेयसे- / कर्मानुपादानायाभिप्रेता, तथा च सति हे साधो ! मा स्पन्दं मा वा वस्त्र छिद्यमानं वारय / किमुक्तं भवति-यदि वस्त्रच्छेदनमारम्भतया भवता कर्मबन्धानिबन्धनमप्युपगम्यते, ततो येयं वस्त्रच्छेदप्रतिषेधाय हस्तस्पन्दनादिका चेष्टा क्रिया तया वा तत्प्रतिषेधको ध्वनिरुच्चार्यते ताव-- प्यारम्भतया भवतान कर्तव्यौ, अतोमदुत्कोपदेशादन्यथा-चेत्करोपि ततस्ते प्रतिज्ञाहानिः-स्ववचनविरोधलक्षणं दूषणमापद्यते इत्यर्थः / अथ ब्रवीथाः योऽयं मया वस्त्रच्छेदनप्रतिषेधको ध्वनिरुच्चार्यते स आरम्भप्रतिषेधकत्वात् निर्दोष इति। अत्रोच्यतेअदोसवंते जति एस सहो, अण्णो वि कण्हाण भवे अदोसो। अथिच्छया तुज्झ सदोस एको, एवं सती कस्स भवे न सिद्धी // 252|| यद्येष त्वदीयः शब्दोऽदोषवान् ततोऽन्योऽपि वस्त्रच्छेदनादिसमुत्थः शब्दः कस्माददोषो न भवेत्। तस्याऽपि प्रमाणातिरिक्तपरिभोगविभूषादिदोषपरिहारहेतुत्वात्, अथेच्छया-स्वाभिप्रायेण चैको वस्त्रच्छेदन शब्दः सदोषः अपरस्तु निर्दोषः। एवं सति कस्य तत्स्वपक्षसिद्धिर्भवेत, सर्वस्यापि वा गाढं वच-नमात्रेण भवत इव स्वाऽभिप्रेतार्थसिद्धिर्भवेदिति भावः। ततश्चास्माभिरप्येवं वत्कुंवाशक्यम्।योऽयं वस्त्रच्छेदनसमुत्थः शब्दः स निर्दोषः शब्दत्वात् भवत्परिकल्पितनिर्दोषशब्दवदिति। किंच - तं छिंदओ होप्न सतिं तु दोसो, खोहादितं चेव जतो करेति। जे पीह तो होति दिणे दिणे तु, संपावणंते य णिवुज्झ ते वि॥२५३|| यतस्तदेव वस्त्रं छिद्यमानं पुद्गलानां क्षोभादि करोति, अतस्तद्वस्त्र छिन्दतः सकृदेकवारं दोषो भवति। अच्छिद्यमाने तु वस्त्र प्रमाणातिरिक्त तत्प्रत्युपेक्षमाणस्य ये भूमिलोलनादयः अप्रत्युपेक्षणादोषारते दिने दिने भवन्ति। येचतद्वस्वसंप्रावृत्ते विभूषादयो बहवोदोषास्तानपि। विबुध्यस्व अक्षिणी निमील्य सम्यक् निरूपयेति भावः / आह-यदि वस्त्रछेदेन युष्मन्मतेनापि सकृद्दोषः संभवति, ततः परिहियतामसौ गृहस्थैः स्वयोगेनैताद्भिन्नं वस्त्रम्, तदेव गृह्यताम्। उच्यतेघेतव्वगं भिन्नमहिच्छितं ते, जा मग्गतो हाणिसुतादिताव / अप्पेस दोसो गुणभूतिजुत्तो, पमाणमेवं तु जतो करेंति // 25 // अथ ते तवेष्ट मतम् / यथा-चिरमपि गवेष्य भिन्नं ग्रहीतव्यम्, तत उच्यते-यावभिन्नं वस्त्र मार्गयति तावत्तस्य सूत्रादौ सूत्रमार्थपौरुष्यादौ हानिर्भवति। अपि च य एष वस्त्रच्छेदनलक्षणो दोषः स प्रत्युपेक्षणाशुद्धिविभूषापरिहारप्रभृतीनां गुणानां भूत्या-संपदा युक्तो बहुगुणकलित इति भावः। कुत इत्याह-यतः प्रमाणमेव वस्त्रस्य तदानीं साधवः कुर्वन्ति, न पुनस्तत्राधिकं किमपि सूत्रार्थव्याघातादिकं दूषणमस्तीति। अथ जाया विविधा 'इरियाझ्या उ' इत्यादि परोक्तं परिहरन्नाह - आहारणीहारविहीसु जोगो,
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________________ वत्थ 71 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वत्थ सव्वो अदोसाय जहा व तस्स। विया व सस्सम्मिवसस्सियस्स, भंडस्स एवं परिकम्मणं तु // 25 // यथा यत्तस्य प्रयत्नपरस्य साधोराहानीहारादिविधिविषयः सर्वोऽपि योगो भवन्मतेनाप्यदोषाय भवति, तथा भाण्डस्योपकरणस्य परिकर्मणमपिछेदनादिकमेव यतनया क्रियमाणं निर्दोषं दृष्टव्यम्। दृष्टान्तमाह'विया य सस्सम्मि व सस्सियस्स' ति सस्थेन चरतीति सास्थिकःकृषीबलस्तद्-विषयं परिकर्मणं निन्दणनादिकं हिताय भवति, तथेदमपि भाण्डपरिकर्मणः, तथाचोत्कम्-यद्वत्, सस्यहितार्थ सस्याकीर्णेऽपि विचरतः क्षेत्रोया भवति सस्यपीडा यत्नवतःसाऽल्पदोषाय तथा जीवहितार्थ जीवाकीर्णेऽपि वि चरतो लोके या भवति जीवपीडा यत्नवतः साऽल्पदोषाय। किंचअप्पेव सिद्धतमजाणमाणो, तं हिसयं भाससि जोगवंतं। दवेण भावेण य संविभत्ता, चत्तारि भनाखलु हिंसगत्ते / / 256|| अपीत्यभ्युचये। अस्त्यन्यदपि वक्तव्यमिति भावः / यदेव योगवन्तं-- वस्त्रच्छेदनादिव्यापारावन्तं जीवहिंसक त्वं भाषासि स्थापयसि सम्यक् सिद्धान्तमजानान एवं प्रलपसि, सिद्धान्ते योगमात्राप्रत्ययादेव हिंसोपवर्ण्यते / अप्रमत्तसंयतादीनां सयोगिकेवलिपर्यन्तानां योगमतामपि तद्भावात् / कथं तर्हि सा प्रवचनैः प्ररूप्यत-इत्याह, द्रव्येण भावेन च सुविभक्तश्चत्वारो भङ्गाः खलु हिंसकत्वे भवन्ति / तथाहि - द्रव्यतो नामैका हिंसानभावतः, भावतो नामैका हिंसा न द्रव्यतः, एका द्रव्यतोऽपि भावतोऽपि, एका न द्रव्यतो नापि भावतः। अथैनामेप यथाक्रमं भावनां कुर्वन्नाहआहब हिंसा समितस्स जाउ, सादध्वतो होति ण भावतो उ। भावे न हिंसा तु असंजतस्स, जं वाऽवि सत्तेण सदावचेति॥२५७।। संपत्ति तस्सेव जदा भविज्जा, __ सा दय्वहिंसा खलु भावतोय। अज्झत्थसुद्धस्स जदा ण होजा, वधे ण जोगो दुहतोऽप्यहिंसा॥२५८|| समितस्येर्यासमितावुपयुक्तस्य या तु आहन्च कदाचिदपि हिंसा भवेत् सा द्रव्यतो हिंसा / इयं च प्रमादयोगाभावात्तत्वतोऽहिंसैव मन्तव्या, 'प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसे' ति वचनाद्भावेन भावतो वा हिंसा न तु द्रव्यतः, सा असंयतस्य-प्राणातिपातादेरनिवृत्तस्योपलक्षणत्वात् संयतस्य वा अनुपयुक्तगमनादि कुर्वतो यानपि सत्त्वानसौ सदैव नहन्ति तानप्याश्रित्य मन्तव्या। 'जे विजंति नियमा तेसिं पि हिंसओ सो उ' इति वचनात् तु तस्यैव प्राणिव्यपरोपणसंप्राप्तिर्भवति तदा सा द्रव्यतो हिंसा प्रतिपत्तव्या। यस्य पुनरात्मनः चेतः प्रणिधानेन शुद्ध-उपयुक्तगमनागमनादिक्रियाकारीत्यर्थः, तस्य यदा वधेन-प्राणव्यपरोपणेनेह योगः-सम्बन्धो न भवति तदा द्विधाऽपि द्रव्यतो भावतोऽपि हिंसा न भवतीविभावः। तदेवं भगवत्प्रणीते प्रवचने हिंसाविषयाश्चत्वारो भङ्गाः उपवर्ण्यन्ते। अत्र चाद्यभङ्गे हिंसायां व्याप्रियमाणकाययोगेऽपि भावत उपयुक्तं तथा भगवद्भिरहिंसक एवोक्तः, ततो यदुत्कं भवताच अछेदनव्यापारं कुर्वतो हिंसा भवतीति तत्प्रवचनरहस्यानभिज्ञतासूचकमिति! किंचरागो य दोसो य तहेव मोहो, ते बंधुहेतु तु तओ विजाणं / णाणत्तगंतेसि जधाय होति, जाणाहि बन्धस्स तथा विसेसं // 25 // रागश्चाभिष्वङ्गलक्षणः, द्वेषाश्चाप्रीतिकरूपकः, तथैव मोहो ऽज्ञानलक्षणः। एतान् त्रीनपि बन्धहेतून् जानीहि नानात्वंविशेषो यथा तेषां रागादीनां भवति तथा कर्मबन्धस्यापि विशेषं जानीहि। इदमेव बिभावयिषुरिदमाहतिब्वे मंदे णायमनाते, भावाधिकरणविरिए य। जह दीसतिणाणत्तं, तह जाण सुकम्मबंधेऽवि // 260 / / हिंसादिपापं कुर्वतो रागादिपरिणामस्तीव्रो वा भवेत् मन्दोवा 'नायमनाय'त्तिएको हिंसादिफलविपाकव्यपाये वा जीवे जीवतया ज्ञाते हिंसादि करोति, अपरस्तु न जानाति परमेवमेव जानन् हिनस्ति / तथा भाव औदयिकादिः अधिकरणं-निवर्त्त--नादिरूपं प्रागुक्तम् वीर्य-देहबलं बालपण्डितादिसमर्थ्य वा, एवं तीव्रमन्दादिकं नानात्वम्, यथा-रागादिषु दृश्यते तथा कर्मबन्धेऽपि नानात्वं जानीहि इति द्वारगाथासमासार्थः / अथैनामेव विवरीषुराहतिव्वेह होति तिय्वो, रागादीएहि उपचओ कम्मे। मंदेहि होति मंदो, मज्झिमपरिणामतो मज्झो // 261|| विदधानस्य यदि तीव्राः संल्किष्टपरिणामा रागादयो भवन्ति ततस्तीव्रकर्मण्युपचयो भवति, यदाभूत एव मन्दः-प्रतनुपरिणामस्तदा कर्मोपचयोऽपिमन्दो भवति, यदा तेषां मध्यमपरिणामोनातितीव्रोन वातिमन्द इत्यर्थः, तदा मध्यमः कर्मो-पचयो भवति। अथ ज्ञानाऽज्ञानद्वारमाहजाणं करेतित एको, हिंसमजाणं पुणो अविरतोय। तत्थ वि बंधविसेसो, महंतरं देसितो समए / / 262 / / इह द्वादविरतो तौकस्तं जानन हिंसां करोति, विचिन्त्येत्यर्थः / अपरः पुनरजानन्। तत्रापि तयोरपि बन्धविशेषो 'महंतर'त्ति महत्ता अन्तरेण देशितः समये-सिद्धान्ते / तथाहि यो जानन् जीवहिंसा करोति स तीव्रानुभवं बहुतरं पापकर्मो-पचिनोति, इतरस्तुमन्दतरविपाकमल्पतरं तदेवोपादत्ते।
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________________ वत्थ 572- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वत्थ विरतो पुण जो जाणं, कुणति अजाणं च अप्पमत्तोय। तत्थ वि अज्झत्तसमा, संजायति णिज्जराण चओ॥२६२।। यः पुनर्विरतः- प्राणातिपातादेर्निवृत्तः स जानानोऽपि स–दोषामिदमित्यवबुध्यमानोऽपि गीतार्थतया द्रव्यक्षेत्राद्यागाढेषु प्रलम्बादिग्रहणेन हिंसां करोति / यद्वा-न जानाति परम्, अप्रमत्तो-विकथादिप्रमादरहितः, उपयुक्तः सन् यत्कदाचित्प्राण्युपघातं करोति, ताप्यध्यात्मसमा चित्तप्रणिधानतुल्या निर्जरा संजायते / यस्य यादृशः तीव्रो मन्दो मध्यमोवा शुभा-ध्यवसायस्तस्य तादृश्येव कर्मनिर्जरा भवतीति भावः / 'न चओ' त्ति न पुनश्चयः कर्मबन्धः सूक्ष्मो भवति प्रथमस्य भगवदाज्ञया यतनया प्रवर्त्तमानत्वात्, द्वितीयस्य तुप्रमादरहि-तस्याजानतः कथं प्राण्युपघातनं, तद्भावाऽदुष्टत्वात्। अथ भावद्वारमाह-- एगो खओवसमिए, वट्टति भावेऽपरो उ ओदइए। तत्थ विबंधविसेसो,संजायति भावणाणत्तं // 263|| एकः कोऽपि क्षायोपशमिके भावे वर्तते अपरश्चौदयिके तत्रापि बन्धविशेषः संजायते भावनानात्वात्। तथाहि-य औदयिके भावे वर्त्तते यतीव्रतरं कर्मोपचिनोति, यस्तु क्षायोपशमिके समन्दतरमिति। एमेव ओवसमिए,खओवसमिए तहेव खइए य। बंधाऽबंधविसेसो,ण तुल्लबंधाय जे बन्धा // 26 // एवमेवौपशमिके-क्षायौपशमिके तथैव क्षायिके च भावे बन्धाबन्धविशेषाः सम्यगुपयुज्य वक्तव्याः / येऽपि बन्धिनः- कर्मबन्धका जीवास्तेऽपि नातुल्यबन्धकाः, किंतु-प्रकृकर्मबन्धका जीवास्तेऽपि नातुल्यबन्धकाः, किंतु-प्रकृतिस्थित्यनुभावप्रदेशैः परस्परविसदृशकर्मबन्धकाः। अथाधिकरणद्वारमाह - अहिकरणं पुवुत्तं, चउव्विहं तं समासओ दुविधं / णिव्वत्तणया एया, संयोगे चेवणेगविधं // 26 // अधिकरणं पूर्व-प्रथमोद्देशके यथा निर्वर्तनानिक्षेपणासंयोजनानिसर्जनाभेदाच्चतुर्विधमुक्तं तथैव ज्ञातव्यम्, नवरं तदधिकरणं समासतो द्विविधं भवति। तद्यथा-निर्वर्तनायां संयोगे चैव, संयोजनायां च पुनरेकैकमनेकविधं भवति। तत्र निर्वर्तनाधिकरणमनेकविधमुपदर्शयतिएगो करेति परसुं, णिव्यत्तेति णखछेदनं अवरो। कुंतकखग्गे या वज्जे, आरियसूई अ अवरो तु // 266|| एको लोहाकारः प -कुठारं करोति / अपरस्तु लोहकार आरिकां सूची वा करोति। तत्र यः कुठारकुन्तकरणकादीनि करोति स तीव्रकर्मबन्धभाक्, यस्तुनखछेदनारिकासूचीनिर्वर्त्तयतिसस्वल्पकर्मबन्धक इति। सूईसुपि विसेसे, कारणसूईस सिव्वणीसंच। संगामियपरियाणिय, एमेव यजाणमादीसं // 267 / / सूचीष्वपि विशेषो विद्यते, एकाः कारणसूच्यः अपराः सीवमसूच्यः / तत्र याः परव्यपरोपणादिकारणमुद्दिश्य कारयित्वा परस्य नखमूलादौ कुठ्यन्ते ताः कारणसूच्य उच्यन्ते, तासु विधीयमानासु महान् कर्मबन्धो भवति। यास्तु वस्त्रसीवनार्थं क्रियन्तेतासुस्वल्पतरः कर्मबन्धः / एवमेव च यानादिष्वपि वक्तव्यम् / तथाहि-किमपि यानं सांग्रामिकं भवति, यत्रा-रूढः संग्रामः क्रियते, अपरं तु पारियानिकम् / परियान-गमनं तत्प्रयोजनमस्येति पारियानिकम्, उद्यानदौ यस्मिन्नारूढैगम्यते। तत्र सांग्रामिकयानादीनि कुर्वतो महान् कर्मबन्धः। पारियानिकानि तुकुर्वाणस्याल्पतरः। आह-यदि नामाधिकरणं नैकविधं तत्तस्मिन्निमित्तः कर्मबन्धविशेषः कथमुपपद्यते? यावता परिणामवैचित्र्यप्रत्यय एवासाविष्यत इत्याहकारगकरेंतगाणं, अधिकरणं चेव तं तहा कुणति। जह परिणामविसेसो, संजायति तेसु वत्थूसु // 268|| उपकाराय कुर्वन्नसौ तदधिकरणमेव तथा तेन रूपेण करोति-बुद्धिमुपजनयति, यथा तेषु पशुनस्वच्छेदनादिषु वस्तुषु कार्यभाणेषु च परिणामविशेषः संल्किष्टासंल्किष्टरूपमध्यवसा यवैचित्र्यं संजायते, यथा कारयाम्यहमिदं पशुकुन्तवाणकादिकं ततोऽनेन तत्राध्यासितं बधमेव, यत् वस्त्रादेर्पाहणं पुराणस्य-प्रागगृहीतस्य चोलपट्टकादेः कूपरादिना ग्रहणं पुराणग्रहणम्, तच द्विधा-उपस्थापनाग्रहणमुपस्थितिग्रहणं च / तत्रोपस्थापनायां विधीयमानायां हस्तिदन्ताऽऽकारहस्तादिभिर्यद् रजोहरणादि गृह्यति तदुपस्थानाग्रहणम्, द्वितीयम्-उपधिस्थापितस्याच्छेदोपस्थापनीयचारित्रां प्रापितस्य यदुपधिधारणं परिभोगो वा तदुपस्थितिग्रहणम्। एनामेव गाथां व्याख्यानयतिओहोवहियोवगहियं, अभिनवगहणं तु होइ अचित्तं / इयरस्स वि होइ दुहा, गहणं तु पुराणउवहिस्स // 266 / / अचित्तस्य वस्त्रपात्रादेरभिनवग्रहणं द्विधा-ओघोपधिविधेयम्, औपग्रहिकोपधिविधेयं च / इतरस्यापि पुराणोपधिग्रहणं द्विधा-उपस्थापनाग्रहणमुपस्थितग्रहणं चेत्यर्थः।। अथवा अभिनवग्रहणमिदमनेकविधम् - जायणनिमतणुवस्सय, परियावन्नं परिदृवियनहूँ। पम्हहपडियगहियं, अभिनवगहणं अणेगविहं // 270 / / याञ्चा-अवभाषणं निमन्त्रणा गृहस्थानामभ्यर्चनापुरस्सरं यद्वस्त्रावग्रहणं यश्चोपाश्रये पर्यापन्नस्योपपध्यादिभिर्विस्मृत्य परित्यक्तस्य वस्त्रादेर्ग्रहणं यच्च परिष्ठापितस्य भूयः कारणे ग्रहणं तथा नष्टहारियं 'पम्हट्ठ'-विस्मृतं पतितं हस्तात्परिभ्रष्टं गृहीतं प्रत्यनीकेन बालदाच्छिद्य स्वीकृतम्, एतेषां पुनर्लब्धानां यद्ग्रहणमेवमादिकमनेकविधमभिनवग्रहणं मन्तव्यम्। अथवा याञ्चानिमन्त्रणाग्रहणयोर्विधिमतिदिशन्नाह -- जो चेव गमो हेट्ठा, उस्सग्गाई उ वण्णिओ गहणे। दुविहोवहिम्मि सो चिय, कास त्तिय किं न कीस त्ति // 271 / / यएव गमः-प्रकारोऽधस्तात्पीठिकायाम्, उत्सर्गादिः-कायोसाईदिको वस्त्रग्रहणविषयो वर्णितः स एवात्र द्विविधोपधेरौपधिकौपग्रहिकलक्षणस्य ग्रहणे कस्य सत्कमेतद्वस्त्रपात्रादिकं वा पूर्वमासीद्भविष्यति वा कस्माद्वा प्रयच्छसीति पृच्छाायपरिशुद्धो द्रष्टव्यः / उपाश्रयपर्यापन्नवस्वादिग्रहणविषयस्तु विधिरिहैवोद्देशके पुरस्तादभिधास्यते
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________________ वत्थ 873 - अभिधानराजेन्द्रः- भाग 6 वत्थ परिष्ठापनादेस्तु यथा कारणतो भूयोऽपि ग्रहणं क्रियते तथा व्यवहाराध्ययने भणिष्यते। गतमभिनवग्रहणम्। अथ पुराणग्रहणमुपस्थापितग्रहणं च वस्त्राद्यं तावदाहकोप्परपट्टगगहणं, वामकरनामियाए मुहपोत्ती। रयहरणहत्थिवंतु-नएहि हत्थेहुवट्ठाणं // 272 / / कूपराभ्यां चोलपट्टकस्य ग्रहणं कृत्वा वामकरसत्कया अनामिकया मुखपोत्तिकं गृहीत्वा रजोहरणं हस्तिदन्तोन्नताभ्यां हस्ताभ्यामादाय उपस्थापनं कर्तव्यं-शैक्षस्य व्रतस्थापना विधेयेत्यर्थः। अथोपस्थापितग्रहणमाहउवठावियस्स गहणं, अहभावे चेव तह य परिभोगे। एकेक पायादी, नेयव्वं आणुपुटवीए॥२७३।। उपस्थापितस्य यदुपकरणग्रहणं तत् द्विधा यथाभावः परिभोगश्च, अनेन च द्विविधेनापि ग्रहणेन एकैकं पात्रादिकमानुपूर्व्या-परिपाट्या नेतव्यम्। इदमेव भावयतिपडिसामियं तु इच्छा, पायाई एस हों ति जहभावो। सद्दष्वपाणमिक्खा, निल्लेवण पायपरिभोगे / / 275|| यत्पात्रादिकं प्रतिस्वामिकं विवक्षितसाधुलक्षणेन स्वामि-प्रतिगृहीतं सत् आस्ताम् तदानीं परिभुज्यते एष यथा-भावो भवति, स्वपरिग्रहे धारणीयमित्यर्थः। परिभोगो नाम यत्पात्रादि यस्यां वेलायां परिभुज्यते ता सत् शोभनमाचार्यादिप्रायोग्यं यद् द्रव्यं यच्च पानकं भैक्षं चात्मनो योग्यं तत्रा गृह्यते, निर्लेपनं च आचमनं तेन विधीयते एष पात्रस्य परिभोगः / इह च पात्रा-शब्देन प्रतिगृहे मात्रक वा गृहीतम्। तथापाणिदयासीयमत्थुय, मपज्जचिलिमिलिनिसिन कालगते। गेलनमज्जअमहु, च्छेअणसागारिए भोगो॥२७५।। वर्षाकल्पादिकं प्राणिदयार्थमकायादिजीवरक्षानिमित्तं परिभोगे वैरिणं व्यापाद्यात्मनः सुखमुत्पादयिष्यामीत्यादि, अतस्तत्त्वतः परिणामवैचित्र्यप्रत्यय एवात्रापि कर्मबन्धविशेष इति न किंचिदनुपपन्नम् / उत्कं निर्वर्तनाधिकरणम्। अथ संयोजनाधिकरणमाह - संयोजना य कूडं, हलं पडं ओसहे य अण्णोण्णे / भोयणविहिं च अण्णे, तत्थ विणाणत्तगं बहुहा / / 276 / / कश्चिल्लुब्धको मृगादीनां बन्धनाय कूटं रजवादिकमासं-योजयति। अपरो हालिकादिक्षेत्राकर्षणाय हलं युगादिना योजयति / अन्यस्तु पट पटान्तरेण सह सीवनप्रयोगेण संयुनत्कि। कश्चित्तु वैद्यादिरोषधानि हरीतकीपिप्पलीप्रभृतीनि विधिं शालिदालिघृतशालनकादिकं संयुनक्ति / तत्रापि कर्मबन्ध-विशेषस्य बहुधा नानात्वं प्रतिपत्तव्यम्, तथाहि-यः कूट संयो-जयति तस्य संल्किष्टपरिणामतया तीव्रतरः कर्मबन्धस्तदपेक्षया हलं संयोजयतः स्वल्पतरः, पटं संयोजयतः स्वल्पतमः इत्यादि स्वबुद्ध्या सम्यगुपयुज्य वक्तव्यम्। अथ निर्वर्तनासंयोजने द्वे अपि यत्रा सम्भवतः तान्युपदर्शयतिनिव्वत्तणा य संजो-जणाय सगडाइएसु अ भवंति। आसञ्जत्तरकरणं, णिवत्ती मूलकरणं तु // 227 // निवर्त्तना च संयोजनाच शकटादिषु द्वे अपि भवतः। तथाहि-शकटाङ्गानां द्विचक्रप्रभृतीनां या प्रथमतो घटना सा निर्वर्तना, पुनस्तेषामेव निवर्तितानामेकत्र संघातना सा संयोजना। अत्र चोत्तरकरणं संयोजनारूपामुत्तरक्रियामासाद्यप्रतीत्य निर्वृत्तिः-प्रथमतो निवर्त्तना मूलकरणं प्रतिपत्तव्यम् / गतमधिकरणद्वारम्। अथ वीर्यद्वारमाहदेहबलं खलु विरियं,बलसरिसो चेव होति परिणामो। आसज्ज देहविरियं, छट्ठाणगया तु सव्वत्तो॥२७८|| यद्देहबलं संहननजनितं शरीरसामर्थ्यं तत् खलु वीर्य मन्तव्यम्, तस्य च बलस्य सदृश एव प्राणिनां परिणामो भवति, तथाहि-यः सेवार्तसंहननो जघन्यबलो जीवस्तस्य परिणामःशुभोऽशुभोवा मन्द एव भवति नतीव्रः, ततः शुभाशुभकर्मबन्धोऽपि तस्य स्वल्पतर एव / अत एवास्योर्ध्वगतौ कल्पचतुष्टयादूर्ध्वमधोगतौ नरकपृथ्वीद्वयादध उपपाते भवतीति प्रवचने प्रतिपाद्यते, एवं कीलिकासंहननेष्वपि भावना कार्या / इदं च देहवर्षमासाधप्राप्य षट्स्थानगताः सर्वतः सर्वेष्वपि संहननेषु प्राणिनः परस्पर भवन्ति। तथाहि-सेवासंहननेषु ये सर्वजघन्यबलास्तदपेक्षया अपरेऽनन्तभागवृद्ध्या असंख्यातभागवृद्ध्या संख्यातभागवृद्ध्या अनन्तगुणवृद्ध्या असंख्यात- गुणवृद्ध्या संख्यातगुणवृझ्या वा भवन्ति, एवं कीलिकादिष्वपि। यतः षट्स्थानपतिताःप्राणिनः अतो देहबलवैचित्र्येण परिणामवैचित्र्यात् कर्मबन्धोऽपि विचित्रो भवतीति स्थितम्। बलद्वारमेव प्रकारान्तरेण व्याचष्टेअथवा बालाऽऽदीयं,तिविहं विरियं समासतो होति। बंधविसेसो तिण्ह वि, पंडियबंधी अबंधी वा // 276 / / अथवा–वीर्यं बालादिभेदात् त्रिविधम्, तत्र बालस्यासंयतस्य प्राणातिपाताद्यसंयमकरणे यद्वीर्यं तद्वालवीर्यम्, बालपण्डितस्य देशविरतस्य संयमासंयमविषयं वीर्य बालपण्डित–वीर्यम, पण्डितस्य सर्वविरतस्य सर्वसंयमविषयं वीर्य पण्डित-वीर्यम्, एतलिाविधं वीर्य सभासतो भवति, एषां त्रयाणामपि बन्धविशेषस्तद्यथा-बालवीर्यवान् प्रभूततरं कर्म बध्नाति, बालपण्डितवीर्यवान् अल्पतरम्, पण्डितवीर्यवान् अल्पतमम्। सच पण्डितो द्विधा-बन्धः, अबन्धो वा / प्रमादादीनां कर्म-बन्धहेतूनां क्वापि कियतां सद्भावादवश्यं बध्नातीति बन्धी, "णिन् चावश्यकाधमये' इति णिन् प्रत्ययः / न बन्धी अबन्धी, तत्र प्रमत्तसंयतमादौ कृत्वा सयोगिकेवलिनं यावत् बन्धकः, अयोगिकेवली तु नियमादबन्धकः / गतं वीर्यद्वारम्। __ अथोपसंहरन्नाहतम्हाण सव्वजीवा, उबंधणइ णेव बंधणा तुल्ला। अधिकिच संपरायं,इरियावहिबंधगा तुल्ला॥२०॥
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________________ वत्थ 874 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वत्थ यत एवं तस्मान्न सर्वेऽपि जीवा बन्धकाः, येऽपि बन्धकास्तेषामपि सम्परायं कषायप्रत्ययं कर्माऽधिकृत्य बन्धनं नैवतुल्यं रागादिवैचित्र्यतः कर्मबन्धविशेषस्यान्तरमेव प्रसाधितत्वात्, ये तूपशान्तमोहक्षीणमोहाः सयोगिकेवलिन ऐर्यापथस्य योगमात्राप्रत्ययस्य कर्मणो बन्धकास्ते परस्परंतुल्याः एकस्येव सातवेदनाकस्य द्विसमयस्थितिकस्य सर्वेषामपि बन्धनादेवं नयोगप्रत्ययकर्मबन्धस्याल्पबहुत्वविशेषः-किन्तु, रागादितीव्रमन्दताप्रत्ययः, ततो वस्त्रच्छेदनं विधिना कुर्वतां न कश्चिद्घोषः। अपिचसंजमहेऊ जोगो, पउंजमाणो अदोसवं होई। जह आरोग्गनिमित्तं, गंडच्छेदो व विजस्स॥२८१॥ संयमः-प्रत्युपेक्षणादिशुद्धिरूपस्तद्धेतोर्योगोवस्त्रछेदनादिव्यापारः प्रयुज्यमानोऽदोषवान् भवति, यथा आरोग्यानिमित्तं रोगिणो रोगव्यपनयनार्थं वैद्यस्य गण्डच्छेदोऽदुष्ट इति। परः प्राऽऽहयद्येवं ततो यथाऽहं भणामि तथा वस्त्र छिद्यताम्। कथमिति चेदुच्यतेभिन्नमिति माउगंत-म्मि केइ अहिकरणगहियपडिसेहो। एवं खु मिन्जमाणं, अलक्खणं होइ उ च / / 282|| इह वस्त्रं यतो व्ययते तदादिभूतत्त्वान् मात्रिकेव मात्रिका अन्तश्चेइ दशान्त उच्यते मात्रिका चान्तश्च मात्रिकान्तं द्वन्द्वैकवद्भावः, तस्मिन् भिन्ने छिन्ने सति वस्त्रं यद्यपि स्तेनैरपहियेत तथापि तैर्गृहीते सति नाधिकरणं भवति, उभयपार्श्वयोः छिन्नत्वेन परिभोगाभावादित्यभिप्रायः, एवं केचिदा-चार्यदेशीया भणन्ति तेषामेवं वदतां प्रतिषेधः कर्तव्यः, कथम् ? इत्याह - एवम्-अमुना प्रकारेण खुरवधृतार्थे अवधारितोऽयमर्थः-परमेवं भिद्यमानं वस्त्रमलक्षणं भवति। भूयोऽपि परः प्राह-तद्येवंततऊर्ध्वं कृत्वातद्वस्वं द्विधा छिद्यताम्।सूरिराह-एवमप्यलक्षणदोषाश्चापरे बहवो भवन्ति, अतो नैवं छेदनीयमिति संग्रहगाथासमासार्थः। ____ अथैनामेव विवृणोतिउमओ पासिं छिज्जउ, मा दसिया उक्किरिज एगत्तो। अहिगरणं णेवं खलु, उड्ड फालो व मज्झम्मि॥२८३|| परःप्राऽऽह:-उभयपार्श्वयोर्वस्त्र छिद्यतां किं कारणमिति चेदत् आहयद्येकपार्श्वतः छिद्यते तदा कदाचिते स्तेनैरपहियेत ततस्तत्रैकतः छिन्ने दशिका उत्किरेयुः, उत्कीर्य च तद्वस्तं विक्रीणन्तः सदशाकतया प्रभूतं मूल्यं प्राप्नुयुः, स्वयं वा तत्परिभुञ्जीरन्, ततो द्वयोरपि पार्श्वयोः छेदनीयम्। एवं विधीयमाने अधिकरणं न भवति। अथ नैवं भवतां विचारचर्याय संगच्छतेततो मध्ये गृहीत्वा ऊर्ध्वफालो विधीयताम्-ऊर्ध्व द्विधा फाल्यतामिति भावः। अथ सूरिः प्रथमं परोत्कमाद्यप्रकारामङ्गीकृत्य परिहरन्नाह - भन्नइ दुहओ मिन्ने, उमओ दसियाई किण्ह जायंति। कप्पासए करेंतिव, अदसाणि व किं ण भुजंते // 284|| भण्यते अत्रोत्तरम्-त्वदुत्कनीत्या द्विधा छिन्ने वस्त्रे किमुत्कीर्यमाणा उभयतो दशिका नजायन्ते एव। अथवा-तेनो-भयतः छिन्नेन वाससा तैः स्तेनाः कासकान् कुर्वन्ति / अथवा ते किमदशिकानि वस्त्राणि न भुञ्जते, यैनेवमुच्यते उभयतश्छेत्तव्यमिति। अथ द्वितीयं प्रकारमङ्गीकृत्य परिहरनाहउडंफालानि करेंति, अणिहुताउ दुब्बलं च तं होति। कजंतं च ण पुस्सति, असिव्वसिव्वतं दोसा य॥२८५|| इह अनिभृता नाम त्रिदण्डिनस्त एव प्राय ऊज़ फालानि वस्त्राणि वसितुं प्रावरितुंवा कुर्वन्ति नान्ये, तथा तदूर्ध्वफालितं वस्त्रं दुर्बलत्वादेव चतद्विवक्षितं कार्य प्रावरणादिकंन पुष्यति-न पूरयति परिभुज्यमानमचिरादेव स्फटतीति भावः / स्फटितं च यदि न सीव्यते ततो बहुतरं स्फटति। ततश्च वस्त्राभावे यन्त्राणग्रहणादयो दोषास्तान प्राप्नुवन्ति, अथ सीव्यते ततः सूत्रार्थपरिमन्थाऽऽदयो दोषाः। अपिचछिन्नम्मि माउगते, अलक्खणं मज्झफालियं चेव। गुणबुड्डा जगहियं, न करेइ गुणं अलंभेणं // 286|| ज्ञानादीनामुपघातो भवति, न पुनः कोऽपि गुणः। अतो गुणबुद्ध्या यद्वस्त्रं गृहीतं सत्तमेव गुणं न करोति,अलं तेन वस्त्रेण, नतद्ग्रहीतुमुचितमिति भावः / बृ० 3 उ०। तथा चात्रा द्रमकेण दृष्टान्तः क्रियते, तमेवाहथाइणि वलवा वरिसं, दमओ पालेति तस्स भाएणं / चेडीघडण निकायण, उवविठ्ठदुमग्गभेसणया॥२८॥ दुण्ह वितेसिंगहणं, अलम्मि अस्सेहि अस्सिगं भणइ। वडभावुयधूया-पयाणकुलएण ओवम्मं / / 290 / / इह पारसविषये कस्यचिद्गृहे प्रभूताः प्रतिवर्षप्रसविन्यो वडवाः सन्ति, तत एव च तुरङ्गमा अपि तस्य बहवः समजायन्ता तेन चाश्वस्वामिना एतावदश्वसमूहमध्ये त्वया वर्षान्ते अश्व-द्वयमस्मत्तो ग्राह्यमित्युक्तवा कश्चिद्रमकोऽश्ववडवारक्षणार्थ भृतः, तस्य बडवास्वामिदुहित्र्या सार्द्ध संगतिरभूत, भृतिकाले चसमायाते तेनाश्वरक्षकेण सातदुहिता पृष्टा, कथय अमीषां मध्ये किमपि लक्षणयुक्तमश्वद्वयं येन तद् गृह्णामि, ततस्तयाऽभिहितोऽसौ सर्वेष्वश्वेयु अरण्ये वृक्षच्छायायां विसृष्टषूपविष्टषु चर्ममयः कुतुपः पाषाणखण्डानां भृत्वा वृक्षशिखरमारुह्य ततः स चर्मकुतुपः खण्डखण्डकुर्वन्नधस्तने मोक्तव्यः, पटहश्चतदातोवादनीयः, एवंकृतेयोन त्रस्यतेतस्यखुरकेणचर्ममयेणपाषाणखण्डभृतेन पृष्ठतोवाह्यमानेन सर्वानपि वाहय, यौशेषाश्ववाहनिकातोऽधिकं निर्वहतः तोद्वावपि गृहाणेति, तेन सर्व तथैव कृतम् मूल्यकाले च तेनाश्वस्वामी याचित्तो ममामुकावश्वौ देहि / तुरङ्गमस्वामी तु समस्तलक्षणयुत्काविमावश्वाविति कृत्व ब्रवीति शेषान्द्वी त्रीन्सर्वान्वा गृहाणेति किमताभ्यां करिष्यसि ? सोऽपितदश्वद्वयवर्जमपरं कथमपि नेच्छति ततश्चाश्वस्वामिना स्वभार्याऽभिहिता प्रदीयतामस्मै स्वपुत्रिका, येनगृहजामातृत्वप्रतिपन्नोनसलक्षणावश्चौगृहीत्वाऽन्यत्र व्रज
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________________ वत्थ 875 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वत्थ ति।सा चहीनोऽसावितिनेच्छत्यमुमर्थम्। ततोऽश्वस्वामी भार्यावबोधाय बर्द्धकिसुतं दृष्टान्तीकरोति / यथा केनापि वर्द्धकिना भागिनेयः स्वसुतां दत्त्वा गृहजामाता कृतः / स च किमपि व्यवसायं न करोति, ततो वर्द्धकिदुहित्र्या प्रेरितः किमिति पुरुषव्रतरहितः परदत्तमुपजीवस्तिष्ठसि? विधेहि किं चित्कर्मान्तरमिति। ततः कुठारं गृहीत्वा काष्ठाकर्तनार्थमटवीं गतः, स्वाभिलषितकाष्ठाप्राप्तयभावाच प्रतिदिवसं रिक्तएव निवर्त्तते, षष्ठे च मासे लब्धं कृष्णचित्रककाष्ठम्, घटितस्ततः कुलकः कलसिकाचतुर्थांशरूपो धान्यमानविशेषः / ततः प्रेषिता स्वभार्या द्रव्यलक्षेण यो गृह्णाति तस्मै प्रदातव्य इत्युक्तवा, हट्टमार्गे विक्रयार्थं सा च तन्मूल्यलक्ष याचमाना लोकैरुपहस्यते। समायातश्च तत्र कश्चिद्बुद्धिमान वणिक, परिभावितंच तेन स्वचेतसि नूनमत्र कारणेन भवितव्यम्, यदेवमियमस्य काष्ठस्य मूल्यं लक्ष याचते, ततो यावत्तेन धान्यं मिमीते तावन्न कथंचित्क्षीयते अतो धान्याद्यक्षयनिमित्तं लक्षमपि दत्त्वा गृहीत-स्तेन कुलकः / ततः प्रभृति तेन सल्लक्षणजामातृकेण गृहे धृतेन सर्वमपि वर्द्धकिकुटुम्बं धनधान्यादिना वृद्धिमुपययौ / तथा त्वमपि निजदुहितर यद्यस्मै प्रयच्छसिततोऽनेन अस्मद्गृहे तिष्ठता समस्तलक्षणोपेतमश्वद्वयमपि तिष्ठति, ततोऽश्वद्वय-माहात्म्येन च सर्वाः संपदः करस्था एवास्माकं भवन्तीत्यादि बहुविधमुक्तवा दापिता तस्मै दुहिता / अथ गाथाद्वयस्याक्षरार्थ :- स्थापिन्यो नाम घडवाः ता उच्यन्ते या वर्षे वर्षे विजनयन्ते ताश्च वर्षमेकं कश्चिद्रमकः पालयति, उपलक्षणमिदं तेनाश्वानपि पालयतीत्यादि द्रष्टव्यम्, कथम् पालयति ? इत्याहतस्याधिपतेमिन चेतनभूताश्च द्वयलक्षणेन ततश्च वडवं पालयति चेटिका समं घटना, तया च य निकारितः एवंविधलक्षणोपेतमेवाऽश्वद्वयं ग्रहीतव्यं नान्यदिति, किं पुनस्तलक्षणमित्याह-उपविष्टष्वश्वेषु द्रुममारुह्य घोषणा कर्त्तव्या यौ न त्रयस्यस्तो लक्षणयुक्तौ, ततो भृतिकाले द्वयोरपि तयोः स-लक्षणयोरसौ ग्रहणं करोति, अलं मे परैरश्वैः इदमेवच द्वयं समर्पयेत्येवमाविश्वकमश्वस्वामिनं भणति, स च स्वकार्यावबोधाय बर्द्धकैः-रथकारस्य भावुको भागिनेयस्तस्य यद्वर्द्धकिना दुहितुः प्रदान ततः स्वभार्याया प्रेरितेन कृष्णचित्रकाष्ठमानीय यत् कुलकोद्घाटितस्तेनोपलक्षितमौपम्यं दृष्टान्तवान् / एवं गच्छति लक्षणयुत्केनोपधिना ज्ञानादीनां वृद्धिरुपजायते / ततश्च स्थितमेतत्-विधिनेव तथा वस्त्रं छेदनीयं यथा प्रमाणयुक्तं भवति। बृ०३ उ०। (अथ प्रमाणादिस्वरूपनिरूपणद्वार - गाथा उवहि' शब्दे द्वितीयभागे 1060 पृष्ठे गता।) महाधनवस्त्राणि - से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जाइं पुण वत्थाई जाणिज्जा विरुवरुवाई महद्धणमुल्लाई, ते जहा-आइणगाणि वा सहिणाणि वा सहिणकल्लाणाणि वा आयाणि वा कायाणि वा खोमियाणि वा दुगुल्लाणि वा पट्टाणि वा मलयाणि वा पशुम्नाणि वा अंसुयाणि वा चीणंऽसुयाणि वा देसरागाणि वा अमिलाणि वा गज्जफलाणि वा फालियाणि वा कोयवाणि वा कंबलगाणि वा पावराणिवा, अन्नयराणि वा तहप्पगाराइं वत्थाई महग्घगुल्लाई लाभे सन्ते नो पडिगाहिज्जा / (सू०-१४५) स भिक्षुर्यानि पुनर्महाधनमूल्यानि जानीयात्, तद्यथा-आजिनानिमूषकादिचर्मनिष्पन्नानि श्लक्ष्णानि-सूक्ष्माणि च तानि वर्णच्छव्यादिभिश्व कल्याणानि-शोभनानि वा सूक्ष्मकल्याणानि, 'आयाणि' त्ति क्वचिद्देशविशेषे अजाः सूक्ष्मरोम-वत्यो भवन्ति तत्पक्ष्मनिष्पन्नानि आजकानि भवन्ति, तथा क्वचिद्देशे इन्द्रतीलवर्णः कर्पासो भवति तेन निष्पन्नानि काय-कानि, क्षौमिकम् - सामान्यकासिकम्, दुकूलम् गौडविषय-विशिष्ट कासिकम्, पट्टसूत्रानिष्पन्नानि पट्टानिमलयानिमलयजसूत्रोत्पन्नानि पन्नुन्नं ति वल्कलतन्तु-निष्पन्नम् अंशुकचीनांशुकादीनि नानादेशेषु प्रसिद्धाभिधानानि, तानि च महार्घमूल्यानीति कृत्वा ऐहिकामुष्मिकापायभयाल्लाभे सतिन प्रतिगृह्णीयादिति। आचा० 2 श्रु०१० 5 अ० 130 / कल्पन्ते निर्ग्रन्थानां भिन्नानि वस्त्राणि --- कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा भिन्नाइं वत्थाई धारि-त्तए वा परिहरित्तए वा / / 10 / / अस्य व्याख्या प्राग्वत्। आह किमेतेन सूत्रण प्रयोजनं पूर्वसूत्रो णैव गतार्थत्वात् ? उच्यतेअन्नो गडोय भणितो, उवधिविभणगाय आदिसुत्तेसु / सो पुण विभञ्जमाणे, उवरि स एगो गडो होति // 392|| अन्यकृतोऽयं जिनकल्पिकानामयं स्थविरजिनकल्पि-कानामयमार्यिकाणामित्येवमविशेषित एवोपधिविभाग आदि-सूत्रेषु अनन्तरोक्तेषु भणितः, स पुनरुपधिविभागो जिनकल्पि-कादिविभागो भज्यमानोऽ-- स्मिन् प्रस्तुते उपरिसूत्रो व्याकृतः स्फुटो भवति। अत इदं सूत्रभारभ्यते। तमेवोपधिविभागं प्रचिकटयिषुराहचोइससपण्णवीसो, ओहो व धुवग्गहो अणेगविधो। संथारपट्टमादी, उमयोपक्खम्मिणेयव्वो // 363|| इह जिनकल्पिकानामौधिक एवोपधिर्भवति नौपग्रहिकः, स्थविरकल्पिकानां तु द्विविधोऽपि भवति, तत्रौधोपिधर्द्विधा चतुर्दशविधः पञ्चविंशतिविधः, चतुर्दशविधः साधूनां, पञ्चविंशतिविधस्तु साध्वीनाम्, उपग्रहोपधिः पुनरनेकविधः। स च संस्तारपट्टादिके उभयपक्षेसाधुसाध्वीजनलक्षणे ज्ञातव्यः। तत्रा स्थविरकल्पिकानां चतुर्दशविध ओघोविधः प्रागनन्तर-सूत्रा एवोक्तः / बृ० 3 उ०। ('उवहि' शब्दे द्वितीयभागे 1068 पृष्ठे प्रथम प्रव्रजतो वस्त्रग्रहणं प्रतिपादितम्।) जुगुप्सापरीषहं प्रत्यधिकं वस्त्रं धरेत्तिहिं ठाणेहिं वत्थं धरेज्जा, तं जहा-हिरिवत्तियं दुगंछावत्तियं परीसहवत्तियं / (सू०-१७१) 'तिही त्यादि, ह्वीः लज्जा संयमो वा प्रत्ययो निमित्तं यस्य धारणस्य तत्तथा, जुगुप्साप्रवचनखिंसा विकृताङ्गदर्शनेनमाभूदित्येवंप्रत्ययोयत्रतत्तथा, एवंपरी
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________________ वत्थ 576 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वत्थ षहाः-शीतोष्णदंशमशकाऽऽदयः, प्रत्ययो या तत्तथा / स्था०३ णिग्धोसं तहेव, णवरं मा एयं तुमं वत्थं सीओदगवियडेण वा ठा०३ उ०। उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेहि वा पच्छोलेहि वा, अभि(३०) गृहपतिकुले वस्त्रग्रहणसामाचारी-- कंखसि सेसं तहेवजाव णो पडिगाहेजा। (सू०-१५६) सियाणं एताए एसणाए एसमाणं परो वइजा-आउसंतोसमणा! | "सिया ण' मित्यादि, तथा स्यात्पर एवं वदेत्, यथा-स्नानादिना इजाहि तुर्म मासेण वा दसराएण वा पंचराएण वा सुते सुततरे सुगन्धद्रव्येणाघर्षणादिकां क्रियां कृत्वा दास्यामि, तदेतन्निशम्य प्रतिषेधं वा तो ते वयं आउसो अण्णयरं वत्थं दाहामो, एयप्प-गारं विदध्याद, अथ प्रतिषिद्धेऽप्येवं कुर्यात्त-तोन परिगृह्णीयादिति। एवमुदणिग्धोसं सुबा णिसम्म से पुटवामेव आलोइजा, आउसो त्ति वा कादिना धावनादिसूत्रमपि। भइणि त्ति वा णो खलु मे कप्पति एयप्पगारं संगारंपडिसुणेत्तए, से णं परो णेत्ता आउसो त्ति वा भइणीति आहरेति तं वत्थं अभिकंखसि मे दातुं इयाणिमेव दलयाहि से णेवं वदंतं परो कंदाणि वा०जाव हरियाणिवा विसोहित्ता समणस्सणं दाहामो, वइजा-आउसंतो समणा ! अणुगच्छाहि तो ते वयं अण्णयरं एयप्पगार णिग्धोसं सोचा णिसम्म 0 जाव भइणीति वा एयाणि वत्थं दाहामो से पुवामेव आलोइज्जा आउसो त्ति वा भइणि त्ति तुमं कंदाणिवा जाव विसोहेहि, णो खलु मे कप्पति, एयप्पवा, णो खलु मे कप्पइ एयप्पजारे संगारवयणे परिसुणेत्तए गारे वत्थे पडिग्गाहित्तए, से सेवं वदंतस्य परो जाव०विसोहिअभिकंखसि मे दातुं इयाणिमेव दलयाहि से सेवं वदंतं परो त्ता दलएजा, तहप्पगारं वत्थं अफासुंय०जावणोपडिग्गाहेजा। णेत्ता वइला आउसो त्ति वा भइणि त्ति वा आहारे तं वत्थं (सू०-१४६) समणस्सदाहामो अवियाई वयंपच्छा वि अप्पणो सयट्ठाएपाणाई 'सेण' मित्यादि, सपरोवदेद्याचितःसन्यथा कन्दादीनि वस्त्रादपनीय ०४समारंभ समुहिस्स० जाव वेएस्सामो, एयप्पगारंणिग्धोसं दास्यामीति अत्रापि पूर्ववन्निषेधादिकश्चर्च इति। सोचा णिसम्मतहप्पगारंवत्थं अफासुयं०जावणोपडिगाहेज। किञ्च(सू०-१४६) सिया से परो णेत्ता वत्थं णिसिरज्जा, से पुवामेव आलोइजा 'सिया ण' मित्यादि स्यात्-कदाचित् णमिति वाक्यालङ्कारे, एतयाऽ- आउसो त्ति वा भइणीति वा तुम चेवणं संतियं वत्थं अंतो अंतेणं नन्तरोक्तया वस्त्रैषणया वस्त्रमन्वेषन्तं साधुं परो वदेद्यथा-आयुष्मन् / पडिले हिस्सामि, केवलीयाआयाणमेयं वत्थं तेण बद्धे सिया श्रमण ! त्वं मासादौ गते समागच्छ ततोऽहं वस्त्रादिकं दास्यामि, इत्येवं कुंडले वा गुणे वा हिरण्णे वासुवण्णे वा मणी वा०जाव रयणातस्य न शृणुयाच्छेषं सुगमम्, यावदिदानीमेव ददस्वेति एवं वदन्तं साधु वली वा पाणे वा बीए वा हरिए वा अह भिक्खू णं पुटवो-वदिट्ठा परो ब्रूयाद्यथा अनुगच्छ तावत् पुनः स्तोकवेलायां समागताय दास्यामी- 04 जंपुवामेव वत्थं अंतो अंतेण पडिलेहिज्जा। (सू०-१४६) त्येतदपि न प्रतिशृणुयाद्वदेचेदानीमेव ददस्वेति तदेवं पुनरपि वदन्तं साधु स्यात्परो याचितः सन् कदाचिद्वस्त्रं निसृजेद्दद्यात्, तं च ददमानमेवं परो गृहस्थो नेता अपरं भगिन्यादिकमाहूय वदेत्, यथा-आनयैतद्वस्त्रं ब्रूयाद्यथा त्वदीयमेवाहं वस्त्रमन्तोपान्तेन प्रत्युपेक्षिष्ये, नैवाप्रत्युपेक्षितं येन श्रमणाय दीयते वयं पुनरात्मार्थं भूतोपमर्दनापरं करिष्याम इत्येत- गृहीयाद्यतः केवली ब्रूयात-कर्मोपादा-नमेतत्तिकमिति यतस्ता त्प्रकारं वस्त्रं पश्चात्कर्मभयाल्लाभे सति न प्रतिगृह्णीयादिति। किंचित्कुण्डलादिकमाभरणाजातं बद्धं भवेत, सचित्तं वा किंचिद्भवेत् सिया णं परो णेत्ता वएज्जा आउसो त्ति वा भइणी ति वा आहर अतः साधूनां पूर्वोपदिष्ट मेतत्प्रतिज्ञादिकं यद्वस्त्रं प्रत्युपेक्ष्य गृह्णीयादिति। एयं वत्थं सिणाणेण वा 04 जाव आघंसित्ता वा पघंसित्ता वा किञ्च-साण्डं सपरिकर्म वस्त्रम्समणस्स ण दास्सामो, एयप्पगारं णिग्धोसं सोचा णिसम्म से से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण वत्थं जाणेज्जा सअंडं. पुव्वामेव आलोएज्जा आउसो त्ति वा भइणीति वा मा एयं तुमं जाव ससंताणगं तहप्पगारंवत्थं अफासुयं०जावणो पडिग्गावत्थं सिणाणेव वा.जाव पघंसाहिवा, अभिकंखसि मे दातुं हेला / (सू०-१४७) एमेव दलयाहि, से सेवं वदंतस्स परो सिणाणेण वा जाव _ 'से' इत्यादि, स भिक्षुर्यत् पुनः साण्डादिकं वस्त्र जानीयात्तन्न पघंसित्ता दलएज्जा तहप्पगारं वत्थं अफासुयं 0 जाव णो प्रतिगृह्णीयादिति। आचा० 2 श्रु० 1 चू० 5 अ० 130 / पडिगाहेजा। से णं परो णेत्ता वदेज्जा आउसो त्ति वा भइणीति वा ___ गृहपतिकुलं सर्वचीवरमादाय गोचरचर्यायै गच्छेत् एकेन वस्त्रेण आहर एतं वत्थं सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा परिव्युषितः स्यात्उच्छोलेता वा पधोवेत्ता वा समणस्स णं दाहामो, एयप्पगारं जे भिक्खू एगेणं वत्थेणं परिसिए पायवितिएणं, तस्स
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________________ वत्थ 877- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वत्थ णो एवं भवति दितियं वत्थं जाइस्सामि से अहेसणिज्जं वत्थं जाएजा अहापरिग्गहियं वत्थं धारेज्जा 0 जाव गिम्हे पडिवण्णे अहापरिजुण्णं वत्थं परिवेज्जा परिहविजित्ता अदुवा एगसाडे अदुवा अचेले लाघवियं आगममाणे० जावसमत्तमेव समभिजाणीया। (सू०-२१८) आचा०१ श्रु०८ अ०६उ०। (31) इदानीं परिभोग उच्यतेअभंतरं च बाहिं, बाहिं अभितरं करेमाणो। परिभोग विवचासे, आवञ्जति मासियं लहुयं / / 261 / / बाहिं दो पाउणमाणस्स कप्पासियमभंतरे परिभुजति, उणियं बाहिं परि जति, एस विहिपरिभोगो। अविहिपरिभोगो पुण कप्पासियं बाहिं उणियंअंतो एसपरिभोगविवच्चासो।असमायारिणिप्पणंचसेमासलघुयं। एक पाउरमाणो, तु खोमियं उण्णिए लहू मासो। दोण्णि य पाउरमाणे, अंते खोमी बहिं उण्णी // 262 / / एवं खोमियं पाउणति, उण्णियमेगं ण पाउणिज्जति / अह पाउणति मासलहुंच से पायच्छित्तं। पच्छद्धं कंठ।खोमियस्स अंतो उण्णियस्सय बहिं परिभोगे इमो गुणो। छप्पइय पणगरक्खा, भूसा उज्झातिया य पडिगज्झा। सीतत्ताणं च कतं, तेण तु खोमण बाहिरतो // 263|| कप्पासिएण छप्पतियाणभवन्ति, इतरहा बहूभवन्ति। मलीमसे उल्ली भवति, सा विहिपरिभोगेण रक्खिता भवति / बाहिं खोमिएण पाउएण विभूसा भवति, विधिपरिभोगेणं सावि परिहिया / वत्थं मलक्खमंण / कंबली मलीमसाय। कंबली दुग्गंधा विहिपरिभोगेण सावि उज्झातियापरिहरिया पडिगज्झा, कंबलीति सीयत्ताणं कयं भवति। एतेहिं कारणेहिं खोमण बाहिं पाउणिज्जति त्ति विकप्पतं पुणो वि एकेकत्ति एयरस इम वक्खाणं। जं बहुधा छेज्जं तं, पमाणवं होति संधिज्जं तं वा। 'सिव्वंतं जं बहुहा, तं वत्थं सपरिकम्मं तु // 264|| जं बहुहा छिजं तंवा पमाणपत्तं भवति, बहुहा वाजं सिव्यि-यव्वं तंवत्थं बहुपरिकम्म। जं छेदेणेगेणं, पमाणवं होति छिज्जमाणं तु। संधणसिव्वणरहितं,तं वत्थं अप्परिकम्मं // 265|| जं एगच्छेदेण पमाणवं भवति, दसा उ वा परिच्छिंदियव्वा तं अप्पपरिकम्म। संधणं दोण्ह खंधाणं सिव्वणं, उक्कयइयं तुणणाति। जंणेव छिदियव्वं, संधेयवं ण सीवियध्वं च। तं होति अधाकडयं, जहण्णयं मज्झिमुक्कोसं // 266|| जं पुण छिंदणसिव्वणसंधणरहितं तं अहाकडं बहुपरिकम्मादि एक्केक जहण्णमज्झिममुक्कोसयं भवति। पढमे पंचविधम्मि वि, दुविहा पडिताणिता मुणेयव्वा / तज्जातमतज्जाता, चतुरो तज्जाति इतरेगा।।२६७।। इह पन्नवणं प्रति बहुपरिकम्म, तं. च जंगभंगादी पंचविधं / तत्थ कारणमासज्ज गहिते दुविधं पडियाणि य देज्जा, तमतञ्जायजंगियस्स भंगियादिचउरो अतजाता, जंगिय असमाण-जातितणओएगा तज्जाया, एवं सेसाणामविचउरोऽतज्जाया। इतराएगातजाता। अहवा-एक्कक्कं वत्थं वण्णओ पंचविधं, तत्थ समाणवज्जा तज्जाया, चउरो अतज्जाता। एतेसामण्णतरे, वत्थे पडियाणियं तु जो देखा। तज्जातमतज्जातं, सो पावति आणमादीणि॥२६॥ एतेसिं जंगियादिवत्थाणं किण्हादिवत्थाणं वा अण्णतरे तजाततमतज्जातं जो पडियाणियं देति सो आणादि पावति / तम्हा आणादिदोसपरिहरणत्थं अहाकडं घेत्तव्यं अहाकडस्स सता "संतासंतसती" गाहा / / 266 / "आसिच्छिण्णा एतेण'' // 270 / / संतासंतसतीए, कप्पति पडियाणिता तु तजाता। असती तज्जाताए, पडियाणियमेत्तरं देजा।।२७१।। संतासंतसतिमादिकारणेहिं कप्पति तज्जायापडियाणिया दाउं, असति तज्जाते इतरा अतज्जाता साऽवि दायव्वा / नि० चू० 1 उ०। (अन्ययूथिकपार्श्वस्थादिभ्यो वस्त्राणि ददातीति 'दाण' शब्दे चतुर्थभागे 246 पृष्ठे गतम्।) (मृतसाध्वर्थं वस्त्रपरिष्ठाना 'साहु' शब्दे वक्ष्यते।) (वस्त्र यतना यथा विकलेन्द्रिया न हन्येरन्, इति 'मूलगुणपडिसेवणा' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 363 पृष्ठे उत्कम्।) नवस्त्राणि धावेत्से भिक्खू वा भिक्खुणी दा णो णवए मे वत्थे त्ति कट्ट णो बहुदेसिएण सिणाणेव वा 0 जाव पघंसेज वा / से भिक्खू वा भिक्खुणी वाणो णवए मे वत्थे ति कट्टणो बहुदेसिएण सीतोदगवियडेणवा०जाव पधोएडा।से भिक्खूवा मिक्खुणीवादुभिगंधे मे वत्थे ति कट्ट णो बहुदेसिएण सिणाणेण वा तहेव बहुसीतोदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा आलावओ। (सू०१४७) 'से' इत्यादि स भिक्षुर्नवम् - अभिनवं वस्त्रं मम नास्तीति कृत्वा ततो बहुदेश्येन ईषद्बहुना स्नानादिकेन सुगन्धिद्रव्येणाधृष्य-प्रघृष्य यानो शोभनत्वमापादयेदिति / तथा- 'से' इत्यादि स भिक्षुर्नवम्-अभिनव वस्त्रं मम नास्तीति कृत्वा ततस्तस्यैव (नो) नैव शीतोदकेन बहुशो न धावनादि कुर्यादिति / अपि च - 'से' इत्यादि स भिक्षुर्यद्यपि मलोपचितत्वात् दुर्गन्धिवस्त्रं स्यात् तथापितदपनयनार्थं सुगन्धिद्रव्योदकादिनानो धावनादिकुर्यात्, गच्छनिर्गतः-तदन्तर्गतस्तुयतनया प्रासुकोदकादिना लोकोपघातसंसक्तिभयान्मलापनयनं कुर्यादपीति। आचा० 2 श्रु०१ चू० 5 अ० 1 उ० / (मलिनाना वस्त्राणां धावनमाचार्यस्य कल्पत इति 'अइसय' शब्दे प्रथमभागे 28 पृष्ठे उक्तम् / ) (वर्षादौ वस्त्रधावनप्रकारः 'धावण' शब्दे चतुर्थभागे 2751 पृष्ठे उक्तः।)
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________________ वत्थ 878 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वत्थपडिमा वस्त्रग्रहणे कारणमाह (7) कया समाचार्या वस्त्रं गवेषणीयम्। तिहिं ठाणेहिं वत्थं धरेखा, तं जहा-हिरिवत्तियं दुगंछावत्तियं () प्रथमं कायोत्सर्गः केनोत्सारणीयः। परीसहवत्तियं / (E) सामाचारीवैपरीत्यकरणे प्रायश्चित्तम् / 'तिही' त्यादि, हीर्लज्जा संयमो वा प्रत्ययो निमित्तं यस्य धारणस्य (10) वस्त्रग्रहणाभिग्रहविशेषाः। तत्तथा, जुगुप्सा प्रवचनखिंसा विकृताङ्गदर्शनेन मा भूदित्येवं प्रत्ययो (11) कस्य संबन्धीत्येवमपृष्ट उद्गमादिदोषाः। यत्र तत्तथा, एवं परीषहाः शीतोष्णदंशमशकादयः प्रत्ययो यत्र तत्तथा। (12) कस्येति पृष्ट आशङ्कनादिग्ररूपणा / आह च (13) वस्त्रविषये उत्तरगुणानधिकृत्य प्ररूपणा। "वेउविपाउडे वा-इए य ही खद्ध पजणणे चेव। (14) धौतवस्त्रस्य प्रतापनाविधिः। एसिं अणुग्णहट्ठा, लिंगुदयट्ठा य पट्टो उ॥१॥" (15) वस्वधरणविधिः। "वे उव्वियं" त्ति विकृते तथा अप्रावृत्ते वस्त्राभावे सति वातिके च (16) निर्ग्रन्थीनां वस्त्रग्रहणम्। उच्छूनत्वभाजने हियां सत्यां खद्धे बृहत्प्रमाणे प्रजनने-मेहने 'लिंगुदय?' (18) संयतीप्रायोग्यमुपधिमुत्पाद्य परीक्षणम् / त्ति / स्त्रीदर्शने लिङ्गोदयरक्षार्थमित्यर्थः / तथा "तणगहणानलसेवा, (16) वस्त्रोत्पादनानिर्गताना लाभालाभपरिज्ञानम् / निवारणधम्मसुक्कझाणट्ठा / दिटुं कप्पपपहाणं, गिलाणमरणट्ठया चेव'' (20) पयुर्षणायाः चातुर्मास्ये वस्त्रग्रहणम्। // 1 // इति। स्था०३ ठा०। (वस्त्रप्रत्युपेक्षणा 'पडिलेहणा' शब्दे पञ्चम- (22) निर्गतानां सामाचारी। भागे 344 पृष्ठे उत्का।) (अवग्रहानन्तकम् 'उवहि' शब्दे द्वितीय भागे (23) ऋतुबद्धे वस्त्राऽग्रहणम्। 1063 पृष्ठे उत्कम्।) (वस्त्रस्यपुद्गलोपचये साद्यनादिचतुर्भङ्ग 'उवचय' (24) शीतापगमे तान्यपि वस्त्राणि त्याज्यानि / शब्दे द्वितीयभागे 881 पृष्ठे गता।) जिनकल्पिकानामेकावतारित्वप्रघो- (25) आचार्यानुज्ञया निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां वस्त्रग्रहणम्। षस्सत्योऽसत्यो वा ? तथा तेषामेव वस्त्राभावे नाग्नयदर्शनाभावसूचकाक्ष- (26) लोभद्वारमभियोगद्वारं च / राणिं भवन्ति तानि प्रसाधानीति ? प्रश्नः, अत्रोत्तरम्-जिनकल्पिका- (27) कृत्स्नवस्त्रनिषेधः। नामेकावतारित्वप्रघोषमाश्रित्य तथा च तेषां वस्त्राभावे नाप्रयदर्शनाभाव- (26) अभिन्नवस्त्रग्रहणप्रतिषेधः / माश्रित्याक्षराणि तुशास्त्रे दृष्टानि न स्मरन्तीति।।४।। सेन० 1 उल्ला० / (30) गृहपतिकुले वस्त्रग्रहणसामाचारी। यथाऽऽहारे हस्तशतादूर्ध्वमानीतमभ्याहृतं भवति, वस्त्रादिषु तथैवान्यथा (31) वस्त्रपरिभोगविधिः। वेति ? प्रश्नः, अत्रोत्तरम्-' आइन्नं तुकोसं, हत्थसयातो घरे उ तिन्नि | वत्थकप्पिय पुं० (वस्त्रकल्पिक) वस्वग्रहणसामाचारीज्ञातरि, बृ० 1 उ० तहिं।' इत्यादि पिण्डविशुद्धयादिगाथानुसारेण वस्वैषणायामपि ज्ञेयम्, / १प्रक०। (तविधिः 'वत्थ' शब्देऽनुपदमेव उत्कः।) य एवाहारदोषास्त एव वस्त्रदोषा इति // 152 / / सेन०३ उल्ला०। ] वत्थक्खेड्ड न० (वस्त्रखेल) खेलशब्दस्य खेड्डादेशः / वस्वकीडायाम्, शरीरोद्वर्तनमले तथा स्नानपानीये तथा परिस्वेदपिण्डीकृतवस्त्रादिषु च तत्परिज्ञानरूपे कलाभेदे, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। जं०। सम्मूञ्छिमपञ्चेन्द्रिया उत्पद्यन्ते न वा इति ? प्रश्नः, अत्रोत्तरम्- वत्थगंध पुं० (वस्त्रगन्ध) वस्त्रं-चीनांशुकादि-गन्धाः काष्ठपुट-कादायो प्रज्ञापनासूत्रमध्ये-'सव्वेसु चेव असुइट्टाणेसु वा समुच्छिममणुस्सा वस्त्राणि चगन्धाश्च वस्त्रागन्धम्, समाहारद्वन्द्वः / वस्त्रगन्धोभये, "वत्थसमुच्छिंति' इत्येतचतुर्दशालापकवृत्तिमध्येऽन्यानि यानि मनुष्यसंसर्गा- "गंधमलंकारमित्थीओ सयणाणि य।" सूत्र 1 श्रु०३ अ०२ उ०। दशुचिस्थानानि सन्ति तेषु सम्मूर्छिममनुष्या उत्पद्यमानाः कथिता- वत्थग्गहण न० (वस्वग्रहण) वस्त्रैषणायाम्, प्रव० 125 द्वार। (तच 'वत्थ' स्सन्ति, एतदनुसारेण भवल्लिखितस्थानेष्वपिउत्पद्यमानास्सम्भाव्यन्त शब्देऽनुपदमेव प्रत्यपादि।) इति // 17 // सेन०४ उल्ला० तथाअम्बडश्रावकेणादत्तवारि प्रत्याख्या- वत्थण्णयाणुसारि (ण) पुं० (वस्त्वन्वयानुसारिन्) वस्तुनो धूमादेरवन्यः तमिति दत्तवारि तु वस्त्रपूतपायि किं वाऽन्यथेति ? प्रश्नः, अत्रोत्तरम्- कार्येऽनुगमो वस्त्वन्वयस्तमनुसरति अनुयातीत्येवं शीलो वस्त्ववयाऔपपातिकोपाङ्गानुसारेणाम्बडो वस्त्रपूतं वारि पीतवानिति / / 475 / / नुसारी। वस्तूनामन्वयं साक्षात्कुर्वाणे, अने० 3 अधिक। सेन०३ उल्ला०। वत्थधारि (ण) पुं० (वस्त्रधारिन्) सचेले, "इचेयं खुवत्थधारिस्स विषयसूची सामग्गिय" आचा०१ श्रु०८ अ०५ उ०। (1) एषणासमितिर्वस्त्रगता तत्रानुयोगद्वारवक्तव्यता। वत्थधोवगपुं० (वस्वधावक) वस्त्रप्रक्षालके रजके, सूत्रा०१ श्रु० 4 अ० (2) वस्त्राणि जङ्गिकादीनि। २उ०। (3) वस्त्राकल्पिकाऽभिधानम् ! वत्थधोवण न० (वस्त्रधावन्) वासः क्षालने, प्रश्न० 1 आश्र० द्वार / द्रव्यवस्ववक्तव्यता। ('धावन' शब्दे चतुर्थभागे 2751 पृष्ठे दर्शितं वस्त्राणां धावनम्।) (5) वस्त्रगवेषणायां कियडूरं गन्तव्यम् / वत्थपडिमा स्त्री० (वस्त्रप्रतिमा) अभिग्रहविशेषे, स्था०। वस्त्रगवेषणे प्रतिमाः। चत्तारिवत्थ पडिमाओ पन्नत्ताओ। (6) वस्त
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________________ वत्थपडिमा 876 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वत्थु वस्त्रग्रहणविषये प्रतिज्ञाः-काप्पासिकादीत्येवमुद्दिष्टं वस्त्रं याचिष्ये इति तव्यः, णित्वाद्-वृद्धिः / वासिनि, "तत्थ य वारवतीए वत्थव्वस्स चेव प्रथमा, प्रेक्षितं वस्त्रं याचिष्ये नापरमिति द्वितीय, तथोत्तरपरिभोगेन अन्नस्स रण्णो," आ० म०१ अ०। उत्तरीयपरिभोगेन वा शय्यातरेण परिभुक्तप्रायं वस्त्रं ग्रहीष्यामीति | वत्थाणी-स्त्री०। वल्लीभेदे, प्रज्ञा०१पद। तृतीया, तथा तदेवोत्सृष्टधर्मिकं ग्रहीष्यामीति चतुर्थी। स्था० 4 ठा०। | वत्थामिल न० (अम्लातवस्त्र) यानि शीघ्रं नम्लायन्ति तेषु वस्त्रेषु, नि० वत्थपडिया स्त्री० (वस्त्रप्रतिज्ञा) वस्त्रग्रहणप्रतिज्ञाने, "बहवे आमोसगा चू०२ उ०। वत्थपडियाए संपिंडिया' आचा०१ श्रु०३ अ०२ उ०। वत्थि स्त्री० वस्ति हतौ, भ०1 वत्थपणग न० (वस्त्रपञ्चक) अप्रत्युपेक्ष्य-दुष्प्रत्युपेक्ष्य-लक्षणे, द्विधा / वत्थी णं भंते ! वाउकाएणं फुडे, वाउकाए वत्थिणा फुडे ? वस्त्रपञ्चके, पा०। गोयमा ! वत्थी वाउकाएणं फुडे णो वाउकाए वत्थिणा फुडे / "अप्पडिलेहिय दूसे, तूली उवहाणगं च नायव्वं / (सू०-६५४) गंडुवहाणासिङ्गिणि, मसूरए चेव पोत्तमए।।६।। "वत्थी' त्यादि, वस्तिईतिः वायुकायेन स्पृष्टो-व्याप्तः सामस्त्येन परित पल्हविकोयविपावा, रनवयए तह दाढिगालीय। एव भावात्। भ०१८श०१० उ०। चर्ममय्यां खल्याम, ओघ० उपस्थे, दुप्पडिलेहिय दूसे, एयंबीयं भवे पणगं॥७॥ गुदे च / आचा० 1 श्रु०१ अ०१ उ० / "वत्थी अवाणां'' पाइ० ना० पल्हविहत्थुत्थरणं, कोयवओ रूवपूरिओ पडओ। 225 गाथा। दढगालि धोयपोत्ती, सेसपसिद्धा भवे भेया / / 8 / " वत्थिकम्म न० (वस्तितकर्म) चर्मवेष्टनप्रयोगेण शिरः प्रभृतीनां अत्रा वृद्धसम्प्रदायः- "हत्थुत्थरणं खरडं, 1, कोयविओ चूरडिया स्नेहपूरणे, विपा०१श्रु०१ अ०।गुदे वस्त्यादिक्षेपणे, ज्ञा०१ श्रु०१३ (बूरट्ठिया)२, पावा रोसलोमपडओ ३नवऑजीणं 4 दढगालीधोयपोत्ती अ०। पुटकेनाधिष्ठाने, स्नेहदाने, दश०३ अ०। अनुवासने, सूत्रा० 1 सदसवत्थं ति भणिय होइ॥५॥" पा०ा स्था०। श्रु० अ० शलाकानिवेशनस्थाने, औ०। वत्थपरिवट्टपुं० (वस्त्रपरिवर्त) वस्त्रपरिवर्तने, विपा०१ श्रु०१०। | वत्थिणिरोह पुं० (वस्तिनिरोध) उपस्थसंयमे, आचा०१ श्रु०१ अ० वत्थपाउरणन० (वस्त्रप्रावरण) और्णादो महामूल्ये वस्त्रे, नि० चू०८ उ०। / 130 / वत्थपूसमित्त पुं० (वस्त्रपुष्यमित्रा) दशपुरनगरे आर्यरक्षितसूरेः | वत्थिपुड न० (वस्तिपुटक) उदरान्तर्वर्तिनि प्रदेशे, नि०१श्रु०१ वर्ग स्वनामख्याते शिष्ये, विशे०। "वत्थपुस्समित्तस्स पुण एसेव लद्धी, | 1 अ०। वत्थेसु उप्पाइयव्वएसु, दव्वतो वत्थं, खेत्ततोवइदिसे महुराए वा, कालतो / वत्थिप्पएसपुं०(वस्तिप्रदेश) गुह्यप्रदेशे, जं०२ वक्ष०। वासासुसीतकालेवा, भावओ जहा एका काविरंडा, तीए दुक्खदुक्खेण, वस्थिभाय पुं० (वस्तिभाग) नाभेरधो मूत्राधारस्थाने, वाच० / छुहाए भरतीए कत्तिऊण एक्का पोत्ती वुणाविया, कल्लं नियं सेहाति ___ "मणिरयणं, छत्तरयणं वत्थिभाए ठवेइ," स्था०१अ०। परिमाणओ सव्वस्स गच्छस्स उप्पाएति।" आव० 1 अ०। वत्थिय पुं० (वास्त्रिक) वस्त्रं शिल्पमस्येति वास्त्रिकः / वस्त्र-निर्माणोवत्थीभोगपुं० (वस्त्रभोग) देवदूष्यक्षीरोदकादिवस्त्राणां परिभोगे, औ०। पयोगिनि, अनु०। जीवाजीवरूपे, आ० म०१ अ०।। वत्थव न० (वास्तव) वस्त्वेव वास्तवम् / सत्यभूते पदार्थे, वाच.। / वत्थु न० (वस्तु) वसतीति वस्तु। द्रव्ये, ज्ञा० 1 श्रु० 1 अ० / विशे० / वस्तोरिदम वास्तवम् / वस्त्वनन्यतत्त्वे, "अवास्तवविकल्पैः सा, आव० औ० स्था०ा पदार्थे ,अष्ट०१अष्ट०। (उत्पाद-व्ययध्रौव्यरहिते पूरिताब्धिरिवोर्मिभिः / " अष्ट०१ अष्ट वस्तु न संभवतीति 'ओहि' शब्दे तृतीयभागे 146 पृष्ठे चिन्तितम् / ) वत्थविजास्त्री० (वस्त्रविद्या) वस्त्रविषयायां विद्यायाम, यया परिजपितेन अथवा-त्रिविधं वस्तु-ग्राह्यं, हेयम्, उपेक्षणीयं चेति। तत्र क्षान्त्यादयो वस्त्रेण वा प्रमृज्यमानः आतुरः प्रगुणो भवति। व्य०५ उ०। ग्राह्याः, क्रोधादयो हेयाः / अतो निग्रहीतव्यास्त इत्येवमर्थमित्थमुपवत्थविले वणमल्लाइ पुं० (वस्त्रविलेपनमाल्यादि) वासोऽनुले- न्यस्ता इति स्यात्साधु सर्वमेवैतगाथासूत्रमिति। ओघ०। वसन्त्यस्मिन् पनपुष्पप्रमृतौ, पञ्चा०६ विव०। गुणा इति। विशे० आचार्यादिपुरुषरूपेषु नमस्कारर्हेषु, विशे०। स्था० वत्थविहि पुं० (वस्त्रविधि) वस्त्रस्य परिधानीयादिरूपस्य न वकोणदै- 6 ठा०३ उ०। नि० चू० आ० चू०।आ०म०। पूर्वान्तर्गतेषु अध्ययनविकादिमागयथास्थानविशेषादिविज्ञाने, जं०२ वक्ष० 1 ज्ञा० / औ०। स्थानीयेषु ग्रन्थविशेषेषु, नं० / स्था० / अनु० / कर्म० / स०। वसतः वस्त्रप्रकारे, स०२ सम०।"तयाणंतरं च णं वत्थ-विहिपरिमाणं करेइ साध्यधर्मसाधनधर्मो अत्रेति वस्तु। प्रकरणात् पक्षे, स्था० 10 ठा०३ णण्णत्थ एगेण खोमयजुय लेणं अदसेसं वत्थविहिं पञ्चक्खामि' उपा० उ० / वस्तुनि, "भावो वत्थु पयत्थो" | पाइ० ना० 155 गाथा / 1 अ० "वत्थुसहावो एसो अचिंतचिंतामणीमहाभागे। थोऊण तित्थयरे, सेवणे वत्थव्व त्रि० (वास्तव्य) वसतीति वास्तव्यः / वसेस्तव्यक्ततरि णिचेति | जह तहेहं पि॥१॥" (6 श्लोक-टी०) हा०१अष्ट०।
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________________ वत्थु ८८०-अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वद्धमाण * वस्तु-न०। वसन्त्यास्मिन्निति वास्तु, उत्त०३ अ० / गृहे, उपा०१ वत्थुसचन० (वस्तुसत्य) परमार्थसत्ये, षो०१६ विव० / अ० व्य०। प्रज्ञा०नि० चू०। उत्त०। ध० आव०। सूत्रा०।वास्त्वपि वत्थुसमास पुं० (वस्तुसमास) वस्तुसंज्ञकानां पूर्वान्तर्वर्त्यधिकार सेतुकेतुभेदात् द्विधा-भूमिगृहं सेतु, प्रासादगृहादिकं केतु / तत्रा द्वयादिसंयोगे, कर्म०१ कर्म०। नरेन्द्राध्यासितः सप्तभूमादिरावासविशेष:-प्रासादः, गृह-शेषजना- | वत्थूल पुं० (वस्तूल) गुच्छवनस्पतिकायभेदे, प्रज्ञा०१पद। हरितवनधिष्ठितमेकभूमादिकम्, आदिग्रहणात-कुटीमण्डकापवरादिकं परिगृह्यते। स्पतिभेदे, प्रज्ञा० 1 पद। नि० चू०। तिविहं च भवे वत्थु, खायं तह उचियं च उभयं च / वत्थेसणा स्त्री० (वस्त्रैषणा) वस्त्रगतैषणासमिती, सा च आचाराङ्गस्य भूमिघरं पासाओ, संबद्धघरं भवे उभयं // द्वितीयश्रुतस्कन्धे पञ्चमाध्ययने प्रतिपादिता, तत्रद्वा उद्देशकौ, प्रथमोअथवा-वास्तु त्रिविधं भवेत्, तद्यथा-खातंच, उच्छ्रितं च, उभयं च; देशके तावत् वस्त्रग्रहणविधिः प्रतिपादितो द्वितीये तु धरणविधिरिति; खातोच्छ्रितमित्यर्थः। त्रिविधमपि क्रमेणोदाहर-ति'भूमिघर' मित्यादि, तदध्ययनमपि वस्त्रैषणेति। आचा०२ श्रु०१५०५ अ०१ उ०। खातं-भूमिगृहमुच्छ्रितं-प्रासादः, उपलक्षणदन्यदप्येकभूमिद्विभूमादिकं वदमाण त्रि० (वदत्) वाक्यं ब्रुवाणे, प्रज्ञा०११ पद। गृहमुच्छ्रितम्, यत्पुनः प्रासादगृहादिकं भूमिगृहेण संबद्धं तद्भवेदुभयं वदित्ता अव्य० (वदित्वा) उक्तत्वेत्यर्थे, सूत्रा०१ श्रु०४ अ०१उ०। खातोच्छ्रितम् / बृ०१ उ०२ प्रक० / आचा०।"गृहमध्ये हस्तमितं, बद्दलयन० (वार्दलक) वाः-पानीयं तस्य दलानिवार्दलानि वार्दलान्येव खातं परिपूरितं पुनः श्वभ्रमायधूनमनिष्टं तत्समे समंधान्यमधिकं तत् वार्दलकानि। मेघेषु, रा०ास्था०। आ० म०। आव०। ||1|| जं०३ वक्ष०। वदलियाभत्त न० (वार्दलिकाभक्त) वाईलिका-मेधाडम्बरं तब्दीयमानं वत्थुकुरुडन० (वस्तुकुरुट)शटिापटितगृहे, तद्धि उत्कटमिवितत कृत्वा भक्तम्। दुर्दिने दीयमाने भक्ते, वादलिकायां हिवृष्टया भिक्षाभ्रमणाऽक्षमो वास्तुकुरुटमुच्यते। बृ०१ उ०२ प्रक०। भिक्षुको भवतीति गृहीतमर्थं विशेषतो भक्तं दानाय निरूपयतीति। स्था० वत्थुगयबोह पुं० (वस्तुगतबोध) जीवाजीवादिपदार्थस्वरूपगतबोधे, ठा०३ उ०। औ०। दर्श०३ तत्त्व। वद्धमाण पुं० (वर्द्धमान) राधमाने, वर्धमानः सुभूपोऽथ यौवनाभिमुखोवत्थुजीवगपुं० (वस्तुजीवक) गुल्मवनस्पतिभेदे, प्रज्ञा०१पद। ऽभवत्, आ० क० 1 अ० / उत्पत्तेरारभ्य ज्ञानाऽऽदिभिर्वर्धत इति वत्थुणाण न० (वस्तुज्ञान) किमिदं राजाऽमात्यादि सभासदादि वा वस्तु वर्द्धमानः, उत्पन्ने वा यस्मिन् ज्ञातकुलं विशेषेण धनेन धान्येन च वर्द्धत दारुणमदारुणं भद्रकमभद्रकं चेति निरूपणे, उत्त०१ अ०। इति वर्द्धमानः / आव०२ अ० श्रीवीर-जिनेन्द्र, "द्वादशे चाहि वत्थुत्त न० (वस्तुत्व) जातिव्याक्तिरूपे गुणभेदे, द्रव्या० 11 अध्या०। नामास्य, वर्धमान इति व्यधात् / जन्मतोऽपि यतः सौख्यं, राज्याचं (वस्तुतत्वं चतथा जातिव्यक्तिरूपत्वामिति 'गुण' शब्दे तृतीयभागे६११ सर्वमैधत॥१॥" आ०क०१०। पं०व०।कल्प०। आ० म०। आo पृष्ठे गतम्।) चू०। स०। (सर्वा वक्तव्यताऽस्य 'वीर' शब्दे वक्ष्यते) "यद्भाषितार्थलववत्थुदोस पुं० (वस्तुदोष) वस्तु-प्रकरणात् पक्षस्तस्य दोषः / प्रत्यक्ष- माप्य दुरापमाशु, श्रीगौतमप्रभृतयः शमिनामधीशाः / सूक्ष्मार्थसार्थनिराकृतत्वादिके पक्षदोषे, यथा-श्रावणः शब्दः शब्दे हि श्रावणत्वं परमार्थविदो बभूवुः, श्रीवर्द्धमानविभुरस्तुसवः शिवाय / / 1 / / " कर्म०४ प्रत्यक्षनिराकृतमिति। स्था० 10 ठा०३ उ०॥ कर्म० / "यो विश्वविश्वभविनां भवबीजभूतं. कर्माप्रपञ्चमवलोक्य वत्थुल पुं० (वस्तुल) स्वनामख्याते शाकभेदे, स्था० 3 ठा० 1 उ०। कृपापरीतः। तस्य क्षयाय निजगादसुदर्शनादिरत्नत्रयं सजयतु प्रभुवर्द्धआचा० / सच गुच्छवनस्पतिषु परिगण्यते। प्रज्ञा० 1 पद। मानः।।१।।" कर्म०५ कर्म०।"जयति सकलकर्मल्केशसम्पर्कमुक्तवत्थुविज्ञा स्त्री० (वास्तुविद्या) प्रासादादिलक्षणाभिधायिशास्त्रे, उत्त०॥ स्फुरितविनतविप्रज्ञानसम्भारलस्मीः। प्रतिविहतकुतीर्थाशेषमार्ग"कुटिला भूमिजाश्चैव, वैनीका द्वन्द्वजास्तथा। प्रवादः, शिवपदमधिरूढो वर्द्धमानो जिनेन्द्रः ।।१॥"पं० सं०५ द्वार। लतिनो नागराश्चैव, प्रासादाः क्षितिमण्डनाः // 1 // "अशेषकर्माशतमः समूहक्षयाय भास्वानिवदीप्ततेजाः। प्रकाशिताशेषसूत्काः पदविभागेन, कर्ममार्गेण सुन्दराः। जगत्स्वरूपः, प्रभुः स जीयाज्जिनवर्द्धमानः॥१॥" कर्म० 5 कर्म०। फलावाप्तिकरा लोके, भङ्गभेदयुता विभोः / / 2 / / "दिनेशवद्ध्यानकरप्रतापैरनन्तकालप्रचितं समन्तात्।योऽशोषयत्कअण्डकैस्तु विविक्तास्ते, निर्गमश्चाररूपकैः। मविपाकपडू, देवः सुदेवोऽस्तु सवर्द्धमानः / ' कर्म० 1 कर्म०। चित्रापौर्विचित्रौश्च, विविधाकाररूपकैः ||3|" अशेषकर्मद्रुमदाहदावं, समस्तविज्ञानजगत्स्वभावम्। विधूतनिः शेषकुइत्यादि / उत्त० 15 अ० / स्था० / आव० / वास्तुनो गृहभूमेर्विद्या | तीर्थमानं, प्रणौमि देवं जिनवर्द्धमानम्। पं० सं०१द्वार। अस्थामवसर्पिवास्तुविद्या / वास्तुशास्त्रप्रसिद्ध गुणदोष-विज्ञानरूपे कलाभेदे, जं०२ ण्यांजाते चतुर्विशे तीर्थकरे, स० / सिद्धये वर्द्धमानः स्तात्, ताम्रा वक्ष। यन्नखमण्डली। प्रत्यूहशलभप्लोषे, दीप्रदीपाङ्करायते। रत्ना० 1 परि० / वत्थसंत त्रि० (वस्तुसत्) परमार्थतो विद्यमाने, ध० 1 अधि०। स्फुरद्वागंशुविध्वस्त-मोहोन्धतमसोदयम्। वर्द्धमानार्कमभ्यर्च्य, यतेस
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________________ वद्धमाण 881 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वद्धमाणय म्मतिवृत्तये / सम्म०१ काण्ड। "जो देवाण वि देवो, जं देवा पंजली नमसंति / तं देवदेवमहियं, सिरसा वंदेमहावीरं // 1 // " ल०।" नमः श्रीवर्द्धमानाय, वर्द्धमानाय पर्ययैः / उक्ताचार-प्रपञ्चाय, निष्प्रपञ्चाय तायिने।।१॥" आचा०२ श्रु०१चू०२ अ०१उ०।"इक्को विनमुक्कारो, जिणवरवसहस्स वद्धमाणस्य। संसारसागराओ, तारेइ नरं वा नारिं वा ||1 // " आव० 5 अ० / स्कन्धारोपितपुरुष, भ०६ श०३३ उ०। कल्प० / त्रि० / कृताभिमाने, औ०। नपुं०। अनन्तजिनतीर्थकरस्य प्रथमभिक्षाालाभस्थाने, आ० म०१ अ०।। वद्धमाणगणि पुं० (वर्द्धमानगणिन) कुमारविहारप्रशस्तिग्रन्थ-कर्त्तरि हेमचन्द्रचार्यशिष्ये, जै० इ०॥ वद्धमाणय न० (वर्द्धमानक) वर्द्धम इति वर्द्धमानं तदेव वर्द्धमानकम, संज्ञायां कन्प्रत्ययः / बहुबहुतरे बन्धनप्रक्षेपादभिवर्धमानज्वलनज्वालाकलाप इव पूर्वावस्थातो यथायोगं प्रशस्तप्रशस्ततराध्यवसायिनो वर्धमाने अवधिज्ञाने, एतत्किलाङ्गुलासंख्येयभागादिविषयमुत्पद्य पुनर्वृद्धिविषयविस्तरेणात्मिकां याति, यावदलोके लोकप्रमाणान्यसंख्येयानि खण्डानीति। कर्म०। कर्म०१ कर्म०। से किं तंवद्धमाणयं ओहिनाणं? वड्डमाणयं ओहिनाणं पसत्थेसु अज्झवसाणट्ठाणेसु वट्टमाणस्स वड्डमाण चरित्तस्स विसुज्झमाणस्स विसुज्झमाणचरित्तस्ससव्वओ समंता ओही वड्डइ। "जावहअतिसमयाहा-रगस्स सुहमस्स पणगजीवस्स। ओगाहणा जहन्ना, ओहीखित्तं जहन्नं तु // 4 // सव्वबहुअगणिजीवा, निरंतरं जत्तियं भरिलंसु। खित्तं सव्वदिसागं, परमोही-खेत्तनिहिट्ठो॥॥ अंगुलमावलिआणं,भागमंसणिज दोसु संखिज्जा। अंगुलमावलिअंतो, आवलिआ अंगुलपुहत्तं / / 10 / / हत्थम्मि मुहुत्तंतो, दिवसंतो गाउअम्मि बोद्धव्वो। जोयणदिवसपुहुत्तं, पक्खंतो पन्नवीसाओ॥११॥ भरहम्मि अदूमासो, जंबुद्दीवम्मि साहिओ मासो। वासंच मणुअलोए, वासपुहुत्तं च रुअगम्मि।।५२|| संखिज्जम्मि उकाले, दीवसमुद्दा वि हुंति संखिजा। कालम्मि असंखिजे,दीवसमुद्दा उ भइअव्वा // 53 // काले चउण्ह वुड्डी, कालो भइअव्वुखित्तवुड्डीए। वुड्डीऍ दव्वपज्जव-भइअव्वा खित्तकालाय॥५४|| सुहुमो अ होइ कालो, तत्तो सुहुमयरं हवइ खित्तं / अंगुलसेढीमित्ते,ओसप्पिणिओ असंखिजा॥५५॥" सेत्तं वङ्घमाणयं ओहिनाणं / / (सू०-१२) अथ किं वर्द्धमानकवधिज्ञानम् ? सूरिराह-वर्द्धमानकमवधिज्ञानं प्रशस्तेष्वध्यवसायस्थानेषु वर्तमानस्य, इह सामान्यतो द्रव्यलेश्योपरिञ्जतं चित्तमध्यवसायस्थानमुच्यते, तच्चानवस्थितम्, तत्तलेश्याद्रव्यसाचिव्ये विशेषसम्भवात्, ततो बहुवचनमुक्तम् 'प्रशस्तेष्वि' ति, अनेन चाप्रशस्तकृष्णादि-द्रव्यलेश्योपरञ्जितव्यवच्छेदमाह-प्रशस्ते ष्यध्यवसायेषु वर्तमानस्येति। किमुक्तं भवति? प्रशस्ताध्यवसायस्थानकलि-तस्य सर्वतः समन्तादवधिः परिवर्द्धते, इति सम्बन्धः। अने-- नाविरतसम्यग्दृष्टरपि परिवर्द्धमानकोऽवधिर्भवतीत्याख्यायते, तथा'वद्धमाणचरित्तस्स'--प्रशस्तेष्वध्यवसायस्थानेषु वर्द्धमानचरित्रस्य, एतेन देशविरतसर्वविरतयोवर्धमानकमवधिमभिधत्ते / वर्धमानकश्यावधिरुत्तेरोत्तरां विशुद्धिमासादयतो भवति नान्यथा, तत आहविशुद्धमानस्य-तदावरणकमलक-लङ्कविगमत, उत्तरोत्तरविशुद्धिमासादयतः, अनेनाविरत सम्यग्दृष्टवर्द्धमानकावधेः शुद्धिजन्यत्वमाह, तथा-- 'विशुद्ध्यमानचरित्रस्यच, 'इदंच विशेषणं देशविरतसर्वविरतयोर्वेदितव्यम् सर्वतः-सर्वासु दिक्षु समन्तादवधिः परिवर्द्धते / स च कस्यापि सर्वजघन्यादारभ्य प्रवर्द्धते / ततः प्रथमतः सर्वजधन्यमवधिप्रतिपादयति-सिमयाहारकस्य आहारयति / आहारं गृह्वातीत्याहारकः, त्रयः समयाः समयाः समाहृतास्त्रिसमयम्, त्रिसमयमाहारकस्त्रिसमयाहारकः।'नामनाम्नैकार्थेसमासो बहुल' मितिसमासः, तस्य त्रिसमयाहारकस्य सूक्ष्मस्य-सूक्ष्मनामकर्मोदयवर्त्तिनः, पनकजीवस्य-- पनकश्चासौ जीवश्च पनकजीवश्च,पनकजीवो वनस्पतिविशेषः, तस्य 'यावती यावत्परिमाणा अवगाहन्ते क्षेत्रंयस्यां स्थिता जन्तवः साऽवगाहनातुनरित्यर्थः, जघन्या-त्रिसमयाहारकशेषसूक्ष्मपनकजीवापेक्षया सर्वस्तोका, एतावत्परिमाणमवधेर्जघन्यं क्षेत्रम्, तुशब्द एवकारार्थः, स चावधारणे, तस्य चैवं प्रयोगः जधन्यमवधिक्षेत्रमेतावदेवेति / अत्र चायं सम्प्रदायः- यः किल योजनसहस्रपरिमाणायामो मत्स्यः स्वशरीरबायैकदेश एवोत्पद्यमानं प्रथमसमये सकलनिजशरीरसम्बद्धमात्मप्रदेशानामायाम संहृत्याङ्गुलासंख्येयभागबाहल्यं स्वदेहविष्कम्भायामविस्तारं प्रतरं करोति, तमपि द्वितीयसमये संहृत्याङ्गुलासंख्येयभागबाहल्यविष्कम्भां मत्स्यदेहविष्कम्भायाममात्माप्रदेशानां सूचिं विरचयति, ततस्तृतीसमये तामपि संहृत्याङ्गुलासंख्येयभाग-मात्र एव स्वशरीरबहिः प्रदेशे सूक्ष्मपरिणामफ्नकरूपतयोत्पद्यते, तस्योपपातसमयादारभ्य तृतीय समये वर्तमानस्य यावत्प्रमाणं शरीरं भवति तावत्परिमाणं जघन्यमवधेः क्षेत्रमालम्बनवस्तुभाजनमवसेयम्, उक्तंच"योजनसहस्रमानो, मत्स्यो मृत्वा स्वकायदेशे यः। उत्पद्यते हि पनकः, सूक्ष्मत्वेनेह सग्राह्यः॥१॥ संहृत्य चाद्यसमये, स ह्यायामं करोति च प्रतरम्। संख्यातीताख्याङ्गुल-विभागबाहल्यमानं तु / / 2 / / स्वकतनुपृथुत्वमात्र, दीर्घत्वेनापि जीवसामर्थ्यात्। तमपि द्वितीयसमये, संहृत्य करोत्यसौ सूचिम्॥३॥ संख्यातीताख्याङ्गुल-विभागविष्कम्भमाननिर्दिष्टाम् / निजतनुपृथुत्वदीर्घा, तृतीयसमये तु संहृत्य।।४।। उत्पद्यतेचपनकः,स्वदेहदेशे ससूक्ष्मपरिणामः। समयायेण तस्या-वगाहना यावती भवति / / 5 / / तावज्जधन्यमवधे-रालम्बनवस्तुभाजनं क्षेत्रम्। इदमित्थमेव मुनिगण-सुसम्प्रदायात् समवसेयम्॥६॥"
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________________ वद्धमाणय ८५२-अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वद्धमाणय आह-किमिति योजनसहस्रायामो मत्स्यः? किं वा तस्य तृतीयसमये / निर्देशः अजितस्वामिकाल एव प्रायः सर्वबहवोऽनलजीवा अस्यामवस्वदेहदेशे सूक्ष्मपनकत्वेनोत्पादः? किंवा त्रिसमयाहार-कत्वंपरिगृह्यते? सर्पिण्यां सम्भवन्तिस्मेतिख्यापनार्थम्। इदं चानन्तरोदितं क्षेत्रमेकदिउच्यते-इह योजनसहस्रायामो मत्स्यः, स किल त्रिभिः समयैरात्मानं क्कमपि भवति तत आह सर्वदिक्कम् , अनेन सूचिभ्रमणप्रमितत्वं क्षेत्रस्य संक्षिपतिमहतः प्रयत्नविशेषात, महा-प्रयत्नविशेषारूढश्चोत्पत्तिदेशेऽ- सूचयति, परमश्चासाववधिश्च परमावधिः, एतावदनन्तरोदितं सर्वबह्ववगाहनामारभमाणोऽतीव सूक्ष्ममारभते, ततो महामत्स्यस्य ग्रहणम् / नलजीवसूचीपरिक्षेपप्रमितं क्षेत्रमङ्गीकृत्य निर्दिष्टः-प्रतिपादितो गणधसूक्ष्मपनकश्चान्यजीवापेक्षया सूक्ष्मतमाऽवगाहनो भवति, ततः सूक्ष्मपन- रादिभिः क्षेत्रनिर्दिष्टः, एतावत्क्षेत्रं परमावधेर्भवतीत्यर्थः / किमुक्त कग्रहणम्। तथा उत्पत्तिसमये द्वितीयसमये चातिसूक्ष्मो भवति, चतुर्था- भवति ?-सर्व-बह्वग्निजीवा निरन्तरं यावत् क्षेत्रं सूचीभ्रमणेन सर्वदिक्क दिषु च समयेष्वतिस्थूरः त्रिसमयाहारकस्तुयोग्यः ततः त्रिसमयाहारक- भूतवन्तः एतावति क्षेत्रे यान्यवस्थितानि द्रव्याणि तत्परिच्छेदसामर्थ्यग्रहणम्। उक्तंच युक्तः परमावधिः क्षेत्रमधिकृत्य निर्दिष्टो गणधरादिभिः। अयमिह सम्प्र" मच्छो महल्लकाओ, संखेत्तो जो उतीहिं समएहिं। दायः-सर्वबह्वग्निजीवाः प्रायोजितस्वामितीर्थकृत्काले प्राप्यन्ते, स किर पयत्तविसेसे-ण सण्हमोगाहणं कुणइ // 1 // तदारम्भकमनुष्यबाहुल्यसम्भवात् , सूक्ष्माश्वोत्कृष्टपदवर्तिनः तत्रैव सण्हयराऽसण्हयरो, सुहुमो पणओ जहन्नदेहोय। विवक्ष्यन्ते, ततश्च सर्वबह्वोऽनलजीवा भवन्ति, तेषां स्वबुद्ध्या षोढाऽस बहुविसेसविसिट्टो, सण्हयरो सव्वदेहेसु॥२॥ वस्थानं परिकल्प्यते। एकैकक्षेत्रप्रदेशे एकैकजीवावगाहनया सर्वतश्चतुरस्रो पढमवीएऽतिसहो, जायइ धूलो चउत्थयाईसुं। घन इति प्रथमम् , स एव घनो जीवैः स्वावगाहनादिभिरिति द्वितीयम् , तइयसमयम्मि जोगो, गहिओ तो तिसमयहारो।। 3 // " एवं प्रतरोऽपि विभेदः, श्रेणिरपि द्विधा, तत्राद्या पश्चप्रकारा अनादेशाः, अन्ये तु व्याचक्षते- 'त्रिसमयाहारकस्ये ' ति आयामप्रतसिंहरणे तेषु क्षेत्रस्याल्पी-यस्तया प्राप्यमाणत्वात्, षष्ठस्तु प्रकारः सूत्रादेशः, उक्तंच-" एकेकागासपए-सजीवस्यणाऍसावगाहे याचउरंसंघणपयर, समयद्वयं तृतीयश्च समयः सूचीसंहरणोत्पत्तिदेशागमनविषयः, एवं त्रयः सेढी छठ्ठोसुयादेसो॥१॥"ततश्चासौ श्रेणिः स्वावगाहना-संस्थापितसमया विग्रहगत्यभावाचैतेषु त्रिष्वपि समयेष्वाहारकः, तत उत्पादसमय सकलानलजीवावलीरूपा अवधिज्ञानिनः सर्वासु दिक्षु शरीरपर्यन्तेन एव त्रिसमयाहारकः सूक्ष्मपनकजीवो जघन्या-वगाहनश्च। ततः तच्छ भ्राम्यते, सा च भ्राभ्यमाणा असंख्येयान्लोकमात्रान् क्षेत्रविभागानलोके रीरमानं जघन्यमवर्धः क्षेत्रम् , तचायुक्तम्, यतस्त्रिसमयाऽऽहारकस्येति व्याप्नोति, एतावत्क्षेत्रमवधेरुत्कृष्टमिति। उक्तं च-" निययावगाहणाविशेषणं पनकस्य, न च मत्स्याया-मप्रतरसंहरणसमयौ पनकभवस्य गणि-जीवसरीरावलीसम-तेणं / भामिज्जइ ओहिनाणि, देहपजंतओ सा सम्बन्धिनौ, किन्तु-मत्स्य-भवस्य,तत उत्पादसमयादारभ्य त्रिसम य॥१॥ अइगंतूण-मलोगे, लोगागासप्पमाणमेत्ताई। ठाइ असंखेजाई, याहारकस्येति द्रष्टव्यम् , नान्यथा / एतावत्प्रमाणं जघन्य क्षेत्रमवधेः इहमोहिक्खे-त्तमुक्कोस।।२॥"इदं च सामर्थ्यमात्रमुपवर्ण्यते, एतावति तेजसभाषाप्रायोग्यवर्गणापान्तरालवर्त्तिद्रव्यमालम्बते तेयाभासादव्या क्षेत्रे यदि द्रष्टव्यं भवति तहिं पश्यति, यावता तन्न विद्यते, अलोके रूणमंतरा एत्थ लहइ पट्ठवओ' इति वचनात् , तदपि चालम्ब्यमानं द्रव्यं पिद्रव्याणामसम्भवात्, रूपिद्रव्यविषयश्वावधिः, केवलमयं विशेषो यावदद्विधा-गुरुलघु, अगुरुलघुच। तत्र तैजसप्रत्यासन्नं गुरुलघु, भाषाप्रत्या द्यापि परिपूर्णमपि लोकं पश्यति तावदिह स्कन्धानेव पश्यति, तदासन्नं चागुरुलघु, तद्गतांश्च पर्यायान् चतुःसंख्यानेव, व-पर्णगन्धर पुनरलोके प्रसरमवधिरधिरोहति तदा यथा यथाऽभिवृद्धिमासादयति तथा सस्पर्शलक्षणान् पश्यति न शेषान् / यत आह-"दव्वाइँ अंगुलावलि तथालोके सूक्ष्मान् सूक्ष्मतरान्स्कन्धान पश्यति, यावदन्ते परमाणुमपि। संखेजातीतभागविसयाई। पेच्छइचउग्गुणाई,जहन्नओ मुत्तिमंताई॥१ उक्तं च-" सामत्थमेत्तमुत्तं, दट्ठव्वं जइ हवेज पेच्छेना। न उतंतत्थऽत्थि // " अत्र ' जघन्यत इति जघन्यावधिज्ञानी / तदेवं जघन्यमवधेः जओ, सो रूविनिबंधणो भणिओ॥ 1 // वटुंतो पुण बाहिं, लोगत्थं चेव क्षेत्रमभिधाय साम्प्रतमुत्कृष्टमभिधातु-काम आह-यतः ऊर्ध्वमन्य पासईदव्वं। सुहुमयरंसुहुमयरं, परमोही जाव परमाणु॥२॥"परमावधिएकोऽपि जीवो न कदाचनापि प्राप्यते सर्वबहवः, सर्वबहवश्व ते अग्नि कलिलश्च नियमादन्तर्मुहूर्त्तमात्रेण केवलालोकलक्ष्मीमालिङ्गति। उक्तंचजीवाश्च सूक्ष्मबादररूपाः, सर्वब-बग्निजीवाः, कदा सर्वबह्वग्निजीवा 'परमोहिन्नाणठिओ, केवलमंतो मुहुत्तमेत्ते-णं'। एवं तावजघन्यमुत्कृष्टं इति चेद, उच्यते, यदा सर्वासु कर्मभूमिषु निव्याधातमग्निकायसमार चावधिक्षेत्रमुक्तम्। सम्प्रति मध्यमप्रतिपिपादयिषुरेतावत्क्षेत्रोपलम्भेएतावम्भकाः सर्वबहवो मनुष्याः, ते च प्रायोऽजितस्वामितीर्थकरकाले कालोपलम्भः, एतावत्कालोपलम्भे चैतावत्क्षेत्रोपलम्भ इत्यस्यार्थस्य प्राप्यन्ते, यदा चोत्कृष्टपदवर्तिनः सूक्ष्मानलजीवाः तदा सर्वबह्वग्नि प्रकटनार्थंगाथाचतुष्टयमाह-अड्डलमिह क्षेत्राधिकारात्प्रमाणाङ्गुलमभि-गृह्यते, जीवाः / उक्तं च- " अव्वाधाए सव्वासु, कम्मभूमिसु जया तयारम्भा। अन्ये त्वाः-अवध्यधिकारादुत्सेधालमिति। आवलिका असंख्येयसव्वबहवो मणुस्सा, होतिऽजियजिणिंदकालम्मि॥१॥ उक्कोसिया य समयात्मिका, अडलं चावलिका चाङ्गुलावलिके तयोरङ्गलावलिक्योर्भागसुहुमा, जया तया सव्वबहुअगणिजीवा / " इति, ' निरन्तरमिति ' मसंख्येयमसंख्येयं पश्यत्यवधिज्ञानी, इदमुक्तंभवति-क्षेत्रतोऽजलासंख्येयक्रियाविशेषणं यावत्परिमाणं क्षेत्रं भृतवन्तः, भृतवन्त इति च भूतकाल- | भागमात्रं पश्यन्कालत आवलिकाया असंख्येयमेव भागमतीतमनागतंच
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________________ बद्धमाणय 853 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वद्धमाणय पश्यति। उक्तंच-'खेत्तमसंखेजंगुलभागं पासंतमेवकालेणं आवलियाए लक्षणे अवधेर्विषये सति तस्यैव संख्येयकालपरिच्छेदकस्यावधेः मागं, तीयमणायं च जाणाइ // 1 // ' आवलिका-याश्चासंख्येयं भागं क्षेत्रतया परिच्छेद्या द्वीप-समुद्राः भाज्या-विकल्पनीया भवन्ति, कस्यपश्यन् क्षेत्रातोऽङ्गुलासंख्येयभागं पश्यति, एवं सर्वत्रापि क्षेत्रकालयोः / चिदसंख्येयाः कस्यचित्संख्येयाः कस्यचिदेकदेश इत्यर्थः, यदा इह परस्परं योजना कर्तव्या। क्षेत्रकालदर्शनंचोपचारेण द्रष्टव्यम्, नसाक्षात्। मनुष्यस्यासंख्येयकालविषयोऽवधिरुत्पद्यते तदानीमसंख्येया द्वीप-- न खलु क्षेत्र कालं वा साक्षादवधिज्ञानी पश्यति, तयोरमूर्त्तत्वात्, समुद्रास्तस्य विषयः, यदा पुनर्बहिर्टापे समुद्रे वा वर्तमानस्य कस्यचित् रूपिद्रव्यविषयश्चावधिः, ततएतदुक्तं भवति-क्षेत्रकाले चयानि द्रव्याणि तिरश्चोऽसंख्येयकालविषयोऽवधिरुत्पद्यते तर्हि तस्य संख्येया तेषां च द्रव्याणां ये पर्यायास्तान् पश्यतीति / उक्तं च -- ''तत्थेव य जे द्वीपसमुद्राः, अथवा यस्य मनुष्यस्य संख्येय-कालविषयोबाह्यद्वीपसदव्वा, तेसिं चिय जे हवंति पज्जाया / इय खेत्ते कालम्मि य, जोएजा मुद्रालम्बनो बाह्यवधिरुत्पद्यते तस्य संख्येया द्वीपाः, यदा पुनः दव्वपञ्जाए॥१॥"एवं सर्वत्रापि भावनीयम्। क्रियाच गाथाचतुष्टये स्वय- स्वयम्भूरमणे द्वीपे समुद्रे वा कस्य-चित्तिरश्चोऽवधिरसंख्येयकालविषया मेवयोजनीया / तथा द्वयोरङ्गुलावलिकयोः संख्येयौ भागौ पश्यति, जायते तदानीं तस्य स्वयम्भूरमणस्य द्वीपस्य समुद्रस्य वा एकदेशो अडुलस्य संरयोगभागं पश्यन आवलिकाया अणि संख्येयमेठ भागं विषयः, स्वयम्भूरमणविषयमनुष्यबाह्यावधेर्वा तदेकदेशो विषयः / पश्यतीत्यर्थः। तथा अङ्गुलम्-अङ्कुलमात्र क्षेत्रां पश्यन् आवलिकान्तः- क्षेत्रापरिमाणं पुनर्योजनापेक्षया सर्वत्रापि जम्बूद्वीपादारभ्यासंख्येयद्वीकिञ्चिदू-नामावलिकां पश्यति, आवलिकां चेत् कालतः पश्यतितार्ह पसमुद्रपारमाणनवसेयम् / तदेवं यथा क्षेत्रवृद्धौ कालवृद्धिः च यथा क्षेत्रतोऽङ्गुलपृथक्त्वम्-अडपृथकक्त्वपरिमाणं क्षेत्रां पश्यति। उक्तं च क्षेत्रावृद्धिः तथा प्रतिपादितम्। सम्प्रति द्रव्यक्षेत्रकालभावानां मध्ये यद् - "संखेजंगुलभागे, आवलियाए वि मुणइतइभाग। अंगुलमिह पेच्छंतो, वृद्धौ यस्य वृद्धिरुपजायतेत यस्य च न तदभिधित्सुराह-काले अवधिआवलियंतो मुणइ कालं / / 1 / / आवलियं मुणमाणो, संपुन्नं खेत्तमंगुल- गोचरे वर्द्धमाने चतुर्णा-द्रव्यक्षेत्राकालभावानां वृद्धिर्भवति तथा क्षेत्रास्य पुहुत्त" मिति, पृथक्त्वं द्विप्रभृतिः आनवभ्य इति, तथा हस्ते-हस्तमात्रे वृद्धिः क्षेत्रवृद्धिस्तस्यां सत्यां कालो भजनीयो-विकल्पनीयाः, कदाचिक्षेत्रो ज्ञायमाने कालतो मुहूर्तान्तः पश्यति, अन्तर्मुहूर्तप्रमाणं कालं द्वर्द्धते कदाचिन्न / क्षेत्र ह्यत्यन्तसूक्ष्मे, कालस्तु तदपेक्षया परिस्थूरः / पश्यतीत्यर्थः। तथा कालतो दिवसान्तः-किञ्चिदूनं दिवसंपश्यन् क्षेत्रतो ततो यदि प्रभूता क्षेत्रवृद्धिस्ततो वर्द्धते शेषकालं नेति, द्रव्यपर्यायौ तु गव्यूते-गव्यूतविषयो द्रष्टव्यः, तथा योजनं--योजनमात्र क्षेत्रां पश्यन् नियमतो वर्द्धते। आह च भाष्यकृत्-"काले पवड्डमाणे, सव्वे दव्वादओ कालतो दिवसपृथक्त्वं पश्यति, दिवसपृथक्त्वमानं कालं पश्यतीत्यर्थः / पवड्डेति। खेते कालो भइओ, वडंति उदव्यपञ्जाया॥१॥' तथा द्रव्यं च तथा पक्षान्तः किञ्चिदूनं पक्षं पश्यन् क्षेत्रतः पञ्चविंशतियोजनानि पर्यायश्च द्रव्यपर्यायौ तयोवृद्धौ सत्याम्, सूत्रो विभक्तिलोपः प्राकृतशैल्या, पश्यति, भरते-सकलभरतप्रमाण-क्षेत्रावधौ कालतोऽर्द्धमास उक्तः, भजनीयावेव क्षेत्रकालो, तुशब्द एक्कारार्थः, स च भिन्नक्रमस्तथैव च भरतप्रमाणं क्षेत्रं पश्यन् कालतोऽतीतमनागतं चार्द्धमासं पश्यतीत्यर्थः, योजितः। विकल्पश्चायं कदाचित्तयोवृद्धिर्भवति कदाचिन्न, यतो द्रव्यं एवं जम्बूद्वीपविषयेऽवधौ साधिकौ मासः कालतो विषयत्वेन बोद्धव्यः। क्षेत्रादपि सूक्ष्मम्, एकस्मिन्नपि नभः प्रदेशऽनन्तस्कन्धावगाहनात्, तथा मनुष्यलोकेमनुष्यलोकप्रमाणक्षेत्राविषयेऽवधौ वर्ष संवत्सस्मतीत- द्रव्यादपि सूक्ष्मः पर्यायः एकस्मिन्नपि द्रव्येऽनन्तपर्यायसम्भवात्, ततो मनागतं च पश्यति, तथा रुचकाख्येरुचकाख्यबाह्यद्वी--पप्रमाणक्षेत्र- द्रव्यपर्यायवृद्धौ क्षेत्रकालौ भजनीयावेव भवतः, द्रव्ये च वर्धमाने पर्याया विषयेऽवधौ वर्षपृथक्त्वं पश्यति। तथा संख्यायत इति संख्येयः, सच नियमतोवर्धन्ते, प्रतिद्रव्यं संख्येयानामसंख्येयानां चावधिमा परिच्छेदवर्षमात्रोऽपि भवति, ततः तुशब्दो विशेषणार्थः, किं विशिनष्टि? संख्येय- सम्भवात्, पर्यायतो वर्द्धमाने द्रव्यं भाज्यम्, एकस्मिन्नपि द्रव्ये पर्यायकालो वर्षसहस्रात् परो वेदितव्यः, तस्मिन् संख्येये कालेऽवधिगोचरे विषयावधिवृद्धिसम्भवात् / आह च भाष्यकृत्-'भयणाए खेत्तकाला, सति क्षेत्रतः तस्यैवावधेर्गोचरतया द्वीपाश्च समुद्राश्च द्वीपसमुद्राः तेऽपि परिवढतेसु दव्वभावसुं। दव्वे वड्डइ भावो, भावे दव्वं तु भयणिज्जं ! // 1 // " संख्येया भवन्ति, अपिशब्दात्-महानेकोऽपि महतएकदेशोऽपि। किमुक्तं अत्राह-ननु जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदभिन्नयो अवधिज्ञानसम्बन्धिनोः भवति ? संख्येये कालेऽवधिना परिच्छिद्यमाने क्षेत्रमप्यत्रात्य-प्रज्ञाप- क्षेत्रकालयोरङ्गुलावलिकाऽसंख्येयभागादिरूपयोः परस्परं समयप्रदेशकापेक्षया संख्येयद्वीपसमुद्रपरिमाणं परिच्छेद्यं भवति, ततो यदि नामात्रा- संख्ययोः किं तुल्यत्वमुत हीनाधिकत्त्वम् ? उच्यते-हीनाधिकत्वम्, त्यस्यावधिरुत्पद्यते तर्हि जम्बूद्वीपादारभ्य संख्येया द्वीपसमुद्रास्तस्य तथाहि-आवलिकाया असंख्येयभागे जघन्यावधिविषये यावन्तः परिच्छेद्याः। अथवा बाह्ये द्वीपे समुद्रे वा संख्येययोजनविस्तृते कस्यापि समयाः तदपेक्षया अङ्गुलस्यासंख्येयभागे जघन्यावधिविषय एव ये नमः तिरश्चः संख्येय-कालविषयोऽवधिरुत्पद्यते तदा स यथोक्तक्षेत्रपरिमाणं प्रदेशास्तेअसंख्येयगुणाः, एवं सर्वत्रापि अवधिविषयात् कालादसंख्येयतमेवैकं द्वीपं समुद्रं वा पश्यति, यदि पुनरसंख्येययोजनविस्तृते स्वय- गुणत्वमवधिविषयस्य क्षेत्रस्यावगन्तव्यम्। उक्तं च--"सव्वमसंखेज्जगुणं, म्भूरमणादिके द्वीपे समुद्रे वा संख्येयकालविषयोऽवधिः कस्याप्युत्पद्यते कालाओ खेत्तमोहिविसयं तु / अवरोप्परसंबद्धं, समयपएसप्पतदानीं स प्रागुक्तपरिमाणं तस्य द्वीपस्य समुद्रस्य वा एकदशं पश्यति, माणेणं // 1 // अथ क्षेत्रस्येत्थं कालादसंख्येयगुणता कथमवसीयते ? इहत्यमनुष्यबाह्यवधिरिव कश्चित्, तथा कालेऽसंख्येय पल्योपमादि- उच्यते-सूत्राप्रमाणतयात्, तदेव सूत्राा दर्शयति-सूक्ष्मः श्लक्ष्णोभ
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________________ वद्धमाणय ८८४-अभिधानराजेन्द्रः- भाग 6 वभियारि वति कालः, चशब्दो वाक्यभेदक्रमोपदर्शनार्थः, यथा सूक्ष्मस्तावत्कालो / क्षेत्रोऽस्यामवसर्पिण्यामेकादशचक्रिणो जयस्य मातरि, स०। आव०॥ भवति यस्मादुत्पलपत्रशतभेदे प्रतिपत्रमसंख्येयाः समयाः प्रतिपाद्यन्ते / वप्पगावई स्त्री० (वप्रकावती) जम्बूद्वीपे शीतोदाया महानद्या उत्तरे ततः सूक्ष्मः कालः, तस्मादपि कालात् सूक्ष्मतरं क्षेत्रं भवति, यस्माद- समुद्रप्रत्यासन्ने विजये वर्तमानायां नद्याम, स्था०६ ठा०३ उ०। कुलमानो क्षेत्रे-प्रमाणाडलैकमात्र श्रेणिरूपे नमः खण्डै प्रतिप्रदेशं | दो वप्पगावई। स्था०२ ठा०३ उ०॥ : समयगणनया असंख्येया अवसर्पिणयस्तीर्थकृद्भिराख्याताः / इदमुक्तं | वप्पद्दार न० (वप्रद्वार) द्वारविशेषे, सेन० / तथा-समवसरणे तृतीयभवति-प्रमाणाङ्कुलैकमात्र एकैकप्रदेशश्रेणिरूपे नमः खण्डेयावन्तोऽ- वप्रद्वारेषु द्वारपालमाश्रित्य-"प्रतिवप्रं प्रतिद्वारं, तुम्बरुप्रमुखाः सुराः। संख्येयास्ववसर्पिणीषु समयाः तावत्प्रमाणाः प्रदेशा वर्तन्ते, ततः दण्डिनो हि प्रतीहाराः, स्फारशृङ्गारिणोऽभवन्॥१॥'' इति वृद्धश्रीशत्रुसर्वत्रापि कालादसंख्येयगुणं क्षेत्र, क्षेत्रादपि चानन्तगुणं द्रव्यं, द्रव्यादपि जयमाहात्म्ये / तथा-"द्वारेषु रौप्यवप्रस्य, प्रत्येकं तुम्बरुः स्थितः। चावधिविषयाः पर्यायाः संख्येयगुणा असंख्येयगुणा वा / उक्तं च - नृमुण्डमाली खटवाङ्गी, जटामुकुटभूषितः॥१॥" इति श्रीशान्तिनाथ"खेत्तपएसेहिंतो, दव्वमणंतगुणितंपएसेहि। दव्वेहिंतोभावो, संखगुणोऽ- चारित्रो / तथा-"अन्यवप्रे प्रतिद्वारं, तस्थौ, द्वास्थस्तु तुम्बरुः / संखगुणिओवा॥१॥"तदेतद्वर्द्धमानकवमवधिज्ञानम्।नं०शरावसंपुटे, खटावङ्गी नृशिरः स्त्रग्वी, जटामुकुटमण्डितः॥१॥" इति हैमवीरचरित्रो। रा०।०। आ० म०। ओघ०। पुरुषारूढे पुरुषे, इत्यन्ये। स्वस्तिक- तथा--"तइयबहिसुरा तुम्बुरु, खटुंगि कवालि जडॉमउडधारी / पञ्चके, इत्यन्ये। ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। प्रासादविशेषे, इत्यन्ये। भ०६ पुव्वाइदारवाला, तुम्बरुदेवो अपडिहारो॥१॥" इति 'थुणिमो केवलिश०३३ उ०। अस्थिकग्रामे, "तस्स पुण अट्ठियगामस्स पढमवद्धमाणयं वत्थं' इति स्तोत्रो इति मतान्तराणि दृश्यन्ते, तेन नवीनप्रारब्धसमवति नाम होत्था," आ० म०१ अ०। आ० चू०। स्वनामख्याते नगरे, सरणे किंनामानः किमायुधाश्च प्रतीहारा विधीयन्ते? तथा प्रतिद्वारमेको तत्र हि अञ्जूरित्यभिधाना कन्या विजयराजपरिणीतायोनिशूलेन कृच्छू द्वौ वेति व्यक्त्या प्रसाद्यमिति ? प्रश्नः अत्रोत्तरंनवीनप्रारब्धसमवसरणे जीवित्वा नरकं गता। स्था० 10 ठा० 3 उ० / द्विषष्टिमे महाग्रहे, स्था०। प्रसाद्यमिति ? प्रश्नः, अत्रोत्तरंनवीनप्रारब्धसमवसरणे समवसरणदो वद्धमाणगा (सू०) स्था०२ ठा०३ उ०। स्तोत्रानुसारेण प्रतीहाररूपाणि विधेयानि, प्रतिद्वारं च "बीए देवी वद्धमाणसूरि पुं० (वर्द्धमानसूरि) चान्द्रकुलीये स्वनामख्याते विदुषि, जुअला'' इति पदस्योपलक्षणपरत्वेन प्रतीहाररूपद्वयं समानाऽऽयुधं "यस्मिन्नतीते श्रुतसंयमश्रियावप्राप्नुवत्यावपरंतथाविधम्। स्वस्याश्रयं भवतीति समवसीयत इति // 30 // सेन०१उल्ला०। संवसतोऽतिदुःस्थिते, श्रीवर्द्धमानः स यतीश्वरोऽभवत्॥१॥" पञ्चा० | वप्पहपुं० (वप्रहृष्ट) स्वनामख्याते सूरी, अनेन मथुराया अन्तिमो राजा 16 विव०। अयमाचार्यः विक्रमसंवत् 1058 अबुर्दगिरौ विमलशाहकृत- प्रतिबोधितः। कलाकलितः शिलास्तम्भश्च कारितः। ती०६ कल्प० / जिनायतने प्रतिष्ठाकारयत्, प्रथममयं चैत्यवासी जिनचन्द्रसूरि शिष्य | क्प्पा स्त्री० (वप्रा) भरते वर्षेऽस्यामवसपिण्यामेकविंशजनिनमेर्मातरि, आसीत्। जै० इ०। स०। ति० आव०। प्रव०। वड्डमाणास्त्री० (वर्द्धमाना) चतसृणां शाश्वतजिनप्रतिमाना-मन्यतमस्यां | वप्पि (ण) पुं० (वप्रिन) केदारे, रा०।ज्ञा०। प्रश्ना "केआरो वप्पिणं शाश्वतजिनप्रतिमायाम्, रा०। ती०। वप्पो"। पाइ० ना० 131 गाथा। क्षेत्रे, मुषिते च / दे० ना०७ वर्ग 85 वडवइत्ताअव्य० (वर्द्धयित्वा) ज्यादिशब्दवर्द्धस्वेत्याधुक्तवेत्यर्थे, "जएणं / गाथा। विजएणं वद्धाति" जयने वर्धापयते-जयत्वं देव! विजयस्वत्वंदेदेत्येवं / वप्पिय त्रि० (वाप्रिक) पैतृके, "पुत्ते जाए कवणु गुणु, अवगुणु कवणु वर्धापयन्तीत्यर्थः। रा०। विपा०! मुएण / जा वप्पी की मुँहडी, चंपिज्जइ अवरेण // 1 // " जातेन पुत्रेण को वपुन० (वपुष) शरीरे, स०। गुणः, मृतेन पुत्रोण कोऽवगुणः / येन पुत्रेण स नेति गम्यते, या पैतृकी वप्प पुं० समुन्नते भूभागे, आचा०२ श्रु०१चू० 1 अ०५ उ० जलभृते / भूमिः परेणाक्रम्यते। प्रा० दु०४ पाद। केदारे, नि० चू० 20 उ०। जी०। जं०। प्रश्न०1"केआरो वप्पिणं | वप्पीडिअ-देशी-क्षेत्र, दे० ना०७ वर्ग 48 गाथा। वप्पो"। पाइ० ना०१३१ गाथा। पितरि, दश०७ अ०। तटे, ज्ञा०१ / वप्फ पुं० (वाष्प) "वाष्ये होऽश्रुणि" ||8/2170|| इत्यनश्रुवा-चके न श्रु० 4 अ०। "रोहो वप्पो य तडो"। पाइ० ना० 131 गाथा। स्था०। हकारादेशः / ऊष्मणि, प्रा०२पाद। तादृप्रेक्षावचमत्कारजनके, द्वा०३द्वा०।जम्बूद्वीपे मन्दरस्यपश्चिमायां वफड पुं०(वराक) हीने, श्रेष्ठे, "प्रिय एवहिं करे सेल्लुकरि, छडहिं शीतोदाया महानद्या उत्तरस्यां चक्रवर्तिविजये, स्था० 8 ठा०३ उ०। तुहुँकरवालु / जं कावलिअवप्फडा, लेहिं अभग्गु कवालु / / 1 / / प्रा० दोवप्पा।स्था०२ ठा०३ उ०ावप्यो विजयो विजयारायहाणी 4 पाद। चंदे वक्खारपव्वए। वभियारपुं० (व्यभिचार) विकल्पे, व्याहृती, भजनायाम्, अनियते, विशे०। वप्रो विजयो विजया राजधानी चन्द्रो वक्षस्कारपर्वतः। जं०४ वक्ष०। / वभियारि (ण) त्रि० (व्यभिचारिन्) नियमभञ्जके, जारे, व्य०६ उ०। वप्पगास्त्री० (वप्रका) धर्मजिननिष्क्रमणोद्याने, आ०म०१ अ०। भरत- | स्वैरिणि, व्य०७ उ०।
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________________ वमण 885 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वय वमण न० (वमन) मदनफलादिना (दश० 3 अ०।) छर्दने, ओघ० / ठाण वुप्पतियं दुक्खं, अभिभूतो वेदणाए तिव्वाए। आचा०। विपा०1 उदिरणे, उत्त०पाई 15 अ० ऊर्ध्वविरेके, सूत्रा०१ अदीणोय अव्वहितो,तं दुक्खहियासए सम्मं 1174|| श्रु० 6 अ० / त्यजने, उत्त० 11 अ० / स्था० / वमनविरेचने करोति। अव्वोच्छित्तिनिमित्तं,जीवट्ठाए समाहिहेउं वा। नि० चू०। वमणविरेयणमादी, जयणाए आदिते भिक्खू / / 7 / / जे भिक्खू वमणं करेइ करतं वा साइज्जइ // 37 // दोहि गाहातो ततिए उद्देसकगमेण पूर्ववत्। नि० चू०१३ उ०। जे भिक्खू विरेयणं करेइ करतं वा साइजह // 38|| वमाल धा० (पुज्जि) णयन्तः / चयने, "पुजेरारोल-वमालौ" जे भिक्खू वमणविरेयणं करेइ करंतं वा साइज्जइ // 39 // // 84/102 / / इति पुजेर्ण्यन्तस्य वमालादेशः / वमालइ / पुञ्जयति। उड्डहरेण वमणं, अहोदरेण विरेयो। प्रा० / कलकले, "रोलो रावो वयलो हलबोलो कलयलो वमालो य" गाहा पाइ० ना०३४ गाथा वमणं विरेयणं वा, जे भिक्खू आइए अणट्ठाए। वमालइ-देशी-पुञ्जयति, दे० ना०७ वर्ग 46 गाथा। सो आणाअणवत्थं, मिच्छत्तविराहणं पावे // 70 / / वम्फ धा० (काङ्क्ष) पृच्छायाम, खादने च / “धातवोऽर्थान्तरेऽपि" णिप्पयोयणं अणट्ठा चउलहुं च पच्छित्तं पायेति / समतिरित्ते तत्थ ||64 / 256 / / इत्यन्तर्गणसूत्रोण काशतेर्वम्फादेशः। प्राकृते–वम्फइ। पदग्गहणं इमीए गाहाए। अस्यार्थः-पृच्छति, खादति वा / प्रा० / "दलिवल्योर्विसट्टवम्फौः" गाहा // 84 / 176 / / इति वलेवम्फादेशः / वम्फइ / वलइ / वलते। प्रा०1 वमणं विरेयणं वा, अब्भंगो बोलणं सिणाणं वा। "वर्गेऽन्त्यो वा'' ||1 / 30 // इति चानुस्वारः / वम्फइ। वफइ। प्रा० नेहादि तप्पणरसा-वायणं नत्थिच वत्थीवा॥७१|| १पाद। अब्भंगो तेल्लादिणा फासुगेण देसे, उच्छोलणं। सव्वगातस्स सिणाणं, | वम्मन० (वर्मन) वृणोति-आच्छादयति शरीरकमितिवर्मा। अश्वतनुत्राणे, वण्णवलादिणिमित्तं घयादिणेहपाणं तप्पणं, आदिग्ग-हणातो-अब्भंगो उत्त०४ अ०। तथ्पणं च / वयत्थमाणं एगमणेगदव्वेहि रसायणं, णासाऽरसादिरोगणा- वम्मधारि (ण) त्रि०(वर्मधारिन्) वर्म सन्नाहं धरतीति! सन्नाह--धारके, सणात्थं णासकरणं, नत्थं कडिवायआरसविणाणत्थं च अपाणबारेण | उत्त०४ अ०॥ वत्थिणा तेल्लादि-पदत्थाणं वत्थिकम्म! किं चान्यत्-विविधा णं दव्वाणं वम्महपुं० (मन्मथ) "मन्मथे वः" // 81 / 242 / / इति मन्मथे मस्य वः। एगाणे-गयुत्ताणं वीरियविवागफलं णेगविहं जाणेऊण दव्वाणं अब्भव- प्रा०। "न्मो मः" / / 8 / 261 // इति मस्य न्मः / कामदेवे, "मयरद्धओ हारं करेति। जतो वन्नति। अणंगो, रइणाहो वम्महो कुसुमवाणो। कंदप्पो पंचसरो, मयणो संकप्पवण्णरसगाहा जोणीय।" पाइ० ना०७ गाथा। वण्णरसरूवमेहा-वगपलिततपणासणट्ठावा। वम्मीअन० (वल्मीक) वल्मीके, "रप्फा-वम्मीअ-वामलूराय" पाइ० दीहाउ तदहा वा, थूलकिसठ्ठावतं कुन्जा // 72 / ना०१७१ गाथा। सरीरेसु वन्नया भवति महुरसरो पडिपुणेदिओ रूववं माहात्म्यधार- वम्मिय त्रि० (वर्मित ) वर्मीकृते, औ० / सन्नद्धे, रा० / अङ्गरक्षी कृते, णाजुत्तो भवति। चंगा गंडे भवन्ति सुकुचियगत्ता वलीपलितयाणयणा- ज्ञा०१श्रु०२ अ01 सणट्ठा उवउज्जंति, दव्वे, अहवा-दीहाउ भवामि त्ति तदहा वोवयुजंति, | वल्मीक न० पृथ्वीविकाररूपे स्तूभे, सूत्र०२ श्रु०१अ०। थूलो वा किसोवा भवामि किसो वाथूलो वा भवामीति एतदट्ठा तविध- वम्मीसर-देशी-कामे, दे० ना०७ वर्ग 42 गाथा। दव्वोवयोग करेति। एवमादि करेंतस्स आणादिया दोसा। वयन० (वचस्) वचने, विशे० आचा०। उत्त० स्था०। ज्ञा०। प्रव०। इमे य दोसा *व्रज पुं०। गोकुले, भ०११श०११ उ०। ज्ञा०। उपा०। 60 ओध० उभयधरणम्मि दोसा, अह करणे कयो य जंच उड्डाओ। व्रत न० नियमे, हा० 13 अष्ट०। नि०। व्रते, उपा०२ अ०। आचा०। पत्थण्णमग्गणं पिय, अगिलाणगिलाणकरणे य // 73|| स्थूलप्राणातिपातविरमणे, स्था०४ ठा०। ग०। "सव्वाओ पाणाइउभए तिं वमणं विरेयणं / अतीव वमणे मरेज्ज, अह उभयं धरेति तो वायाओ वेरमणं 1, सव्वाओ मुसावायाओवेरमणं 2, सव्वाओअदिण्णाउड्डुणिरोहे कोढो, वचनिरोहे य सुखेनैव मरणं। अध अतिवेगेण अत्थंडि- दाणाओ वेरमणं 3, सव्वाओ मेहुणाओ वेरमणं 4, सव्वाओ परिम्गहाओ लादिसु छड्डुणा णिसिरिणं वा एत्थ कार्याविराहणा / जं च अप्पाणं वेरमणं 5" इति व्रतानि।ग०१ अधि०। महाव्रतेषु, कल्प०१अधि०१ अगिलाणं गिलाणं करेतितण्णिप्फणं, चत्ततसरीरा वि सरीरकामं करेति, क्षण / तं0 1 मूलगुणेषु, स०। प्रव०॥ त्ति उड्डाहो / तम्मि कते पत्थं अण्णं मग्गियव्वं पथ्यभोजनमित्यर्थः, पञ्चायामचतुर्यामवक्तव्यता। तत्र व्रतद्वारमाहअहवा-पत्थणं करेंतेहिं अप्पसागारितो पडिस्सतो मग्गियव्यो। पंचायामो धम्मो, पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिणस्स। इमं बितियपदं। गाहा मज्झिमगाण जिणाणं, चाउजामो भवें धम्मो // 323 //
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________________ वमण 886 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वय पञ्च यामो व्रतानिया सपञ्चयामः, "दीर्घहस्वौ मिथोवृत्तावि"ति प्राकृतलक्षणवशाच्चकारस्य दीर्घत्वम्। एवंविधो धर्मः पूर्वस्य चपश्चिमस्य च जिनस्य, मध्यमकानां जिनानां पुनश्चतुर्यामो धर्मो भवति, मैथुनव्रतस्य परिग्रहवत एवान्तर्भावविवक्षणात्। कुत एचमिति चेद् ? उच्यतेपुरिमाण दुव्विसोझे, चरिमाणं दुरणुपालओ कप्पो। मज्झिमगाण जिणाणं, सविसुज्झ सुअणुपालो य॥३२॥ पूर्वेषां साधूनां दुर्विशोध्यः कल्पचरमाणां पश्चिमानां दुरनुपाल्यः, मध्यमकानां तु जिनानां तु तीर्थे साधूनां सुषिशोध्यः सुखानुपाल्यश्च भवति। इयमत्र भावनापूर्वे साधव ऋजु-जडास्ततः परिग्रहद्रत एवान्तभविं विवक्षित्वा यदि मैथुनव्रतं साक्षान्नोपदिश्यते ततस्ते जडतया नेदमबबुध्यते, यथा-मैथुनमपि परिहर्त्तव्यम्, यथा तु पृथक् परिस्फुट मैथुनं प्रतिषिध्यते ततः पर्यवस्यतिपरिहरतिच, पश्चिमस्था वक्रा जडास्ततो मैथुने साक्षादप्रतिषिद्धे परिग्रहान्तस्तदन्तर्भावं जानन्तोऽपि वक्रतया परपरिगृहीतायाः स्त्रियाः प्रतिसेवनां कुर्वीरन्, पृष्टाश्चब्रुवीरन्, नैवास्माकं परिग्रह इति, ततएतेषां पूर्वपश्चिमानंपञ्चयामोधर्मो भगवता ऋषभस्वामिना वर्द्धमानस्वामिना चस्थापितः। ये तुमध्यमाः साधवस्ते ऋजुप्रज्ञास्ततः परिग्रहे प्रतिषिद्धे प्राज्ञत्वेनोपदेशमात्राादप्यशेषहेयोपादेयविशेषात्पुनः पटीयस्तया चिन्तयेयुः, नापरिगृहीता स्त्री परिभुज्यते, अतो मैथुनमपि न वर्तते सेवितुम्, एवं मैथुनपरिग्रहे अन्तर्भाव्य तथैव परिहरन्ति। ततस्तेषां चतुर्यामो धर्मो मध्यमजिनैरुक्त इति। अमुमेवार्थ समर्थयन्नाह - जडुत्तणेण हंदि, आइक्खविभागउवणता दुक्खं / सुहसमुइयदंताण य, तितिक्खअणुसासणा दुक्खं // 325 // सर्वेषांसाधूनां जडतया 'हंदी' त्युपदर्शन, वस्तुतत्वस्याख्यानं दुःखं कृच्छ्रेण महता वचनादौ प्रयासेन कर्तुं शक्यमित्यर्थः / एवमाख्यातेऽपि वस्तुतत्तवे विभागः-पार्थक्येन व्यवस्थापनं महता कष्टन कर्तु शक्यते, विभक्तेऽपि वस्तुतत्वे उपनयो हेतुदृष्टान्तैः प्रतीतावारोपणं कर्तु दुःशकयम्, ते च प्रथमतीर्थकरसाधवः सुखसमुदिताः कालस्य स्निग्धतया शीतोष्णादीनां तथाविधदुःखहेतूनामभावात् / सुखेन सम्पूर्णा--स्ततस्तेत भिक्षापरीषहादेरधिसहनं तेषां दुःखं दुष्करम्। तथा दाता एकान्तेनोपशान्तास्ते ततः क्वचित्प्रमादस्खलितादौ शिष्यमाणानामनुशासनाऽपि कर्तु दुःशका। मिच्छत्तभावियाणं, दुवियट्टगतीण वामसीलाणं / आइक्खिउ विभइउं, उवणाउंवा वि दुक्खं तु // 326 / / दुक्खेहि भनिताणं, तणुधितिअवभत्तओ य दुतिलिक्खं / / एमेव दुरणुसासं, ताणुक्कडओ य चरिमाणं // 327|| ये तु चरमतीर्थकरसाधवस्ते प्रायेण मिथ्यात्वभाविता दुर्विदग्धमतयो वा अशीलाच, ततस्तेषामपि च श्रुतत्वमाख्यातुं दुःखं दुःखतरम्। तथा कालस्य रूक्षतया च दुःखैर्विविधाधिव्याधिप्रभृतिभिः शारीरमानसैर्भसिंतानामत्यन्तमुपतापितानां तनुः शरीरं धृतिः मानसोपष्टभस्त द्विषयाऽबलत्वं बलाभावस्ततः कारणात् दुस्तितिक्षं तेषां परीषहादिक भवति / एवमेव मानस्याहंकारस्योपलक्षणत्वात् क्रोधादेश्चोत्कटतया दुरनुशासं चरमाणां भवति / उत्कटकषायतया दुःखेनानुशासनां ते प्रतिपद्यन्ते इत्यर्थः / अत एषां पूर्वेषां च पञ्चयामो धर्म इति प्रक्रम:एए चेव य दुट्ठा-सुप्पन्नुज्जुत्तणेण मज्झाणं / सुहदुहउभयबलाण य, विमिस्सभावा भवे सुगमा ||328|| एतन्मन्ये ध्याख्यानादीनि स्थानानि मध्यमानां सुगंमानि-सुकराणि भवेयुरिति सम्बन्धः / कुतः ? इत्याह- सुप्राज्ञऋजुत्वेन प्राज्ञतया ऋजुतया चेत्यर्थः, स्वल्पप्रयत्नेनैव प्रज्ञापनीयास्ते, तत आख्यातविभजनोपनयनानिसुकराणि 'सुहिदुहि' ति कालस्य स्निग्धरूक्षतया सुखदुःखे उभे अपि तेषां भवतः / तथा 'उभयबलाणय' त्ति शारीरं मानसिकंवा उभयमपि बलं तेषां भवति। विमिस्समाव' त्ति नैकान्तेनोपशान्ता, न वा उत्कटकषायास्ते ततो विमिअभावात् अनुशासनमपि सुकरमेव तेषां भवति। ततश्चतुर्यामस्तेषां धर्म इति। गतं व्रतद्वारम्।बृ० 6 उ०। प्राणातिपातादिनिवृत्तिलक्षणेषु, आव०१ अ०। पं० भा०। पं० चू० / प्रव० / पञ्चा० / व्रतानियमा इति भागवताः / द्वा०८ द्वा०। "अहिंसा-सत्यमस्तेयं, ब्रह्माऽकिञ्चन्यमेव च। महाव्रतानिषष्ठं च, व्रतं रात्रौ च भोजनम् " ||1|| ध०३ अधि० / महा०। तिविहं तिविहेण समणेहिं, सव्वसावजमुज्झियं / जावञ्जीवं वयं घोरं, पडिवञ्जिय मोक्खसाहणं॥ दुविहेगविहं वा थूलसावजुमुज्झियं / उद्विकालियं तु, वयं देसे ण संवसे / / महा०२ अ०। "वरं प्रवेष्ट ज्वलितं हुताशनं, नचापि भग्रं चिरसञ्चित-व्रतम्। वरं हि मृत्युः परिशुद्धकर्मणां, न शीलवृत्तस्खलितस्य जीवितम् // 1 // " आ० चू०४ अ० बृ०॥ तवसंजमं वएसु य, नियमो दंडनायगो। तमेव खंडमाणस्स, ण वएणोवसंजमे / / 1 / / महा०६ अ०। * वयस न० पुं० "स्नम-दाम-शिरो नभः // 8132 / / इति वा पुंस्त्वम् / देहावस्थाविशेषे, आ० म०१ अ०। तओ वया पण्णत्ता,तं जहा-पढमे वए मज्झिमे वए, पच्छिमे वए। (सू०-१५५) 'तओ वए' इत्यादि स्फुटम्, किन्तु प्राणिनां कालकृतावस्था वय उच्यते, तत् त्रिधा बालामध्यमवृद्धत्वमेदादिति। वय उपलक्षणं चेदम्"आषोडशाद्भवेदालो, यावत् क्षीरान्नवर्तकः / मध्यमः सप्ततिं यावत्, परतो वृद्ध उच्यते॥१॥" इति, शेषं प्राग्वत्। स्था०३ ठा० 3 उ०।०। प्रश्न। तिहिं वएहिं आया केवलिपण्णत्तं धम्मं लभेजा, सवणयाए, तं जहा-पढमे वए मज्झिमे वए, पच्छिमे वए, एसो चेव गमो यव्वो० जाव केवलणाणं ति। (सू०- 155) स्था० 3 ठा० 3 उ०। कुमारयौवनमध्यवृद्धत्वे, आचा०१ श्रु०२ अ०१ उ० / पञ्चा०। आव०। सूत्रा०।ज्ञा०रा०।
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________________ वय 857- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वयछक्क * व्यय पुं०।लब्धस्य प्रणाशे, नि० चू०१ उ०। व्ययं चायोचित्तं कुर्यात्, यतः- "पादमायान्निधिं कुर्यात्, पादं वित्ताय कल्पयेत्। धर्मोपभोगयोः पादं, पादं भर्तव्यपोषणे ||1|| केचित्त्वाहुः- "आयादर्द्ध नियुञ्जीत, धर्मे समधिकं ततः। शेषेण शेषं कुर्वीत, यत्नतस्तुच्छमैहिकम् // 1 // " निर्द्रव्यसद्रव्ययोरयं विभाग इत्येके / ध०२ अधि०। * वाक्य न० वचने, “पच्छा वयमुयाहरे" दश०७ अ०२ उ०। बयंत त्रि० (वदत्) ब्रुवाणे, "वादांश्च प्रतिवादांश्च, वदन्तो निश्चितांस्तथा। तत्वान्तं नैव गच्छन्ति, तिलपीडकवगतौ" ||1|| द्वा०२३ द्वा०। वयंस पुं० (वयस्य) स्वी०।"वक्रादावन्तः" / / 1 / 26 / / इति मध्येऽनुस्वारः। प्रा०मित्रे, आ०म०१ अ०।"पियवयंसो हिरमाणणिजो, "प्रा०२ पाद। "मित्तो सही वयंसो"। पाइ० ना० 100 गाथा। बयंसि (ण) पुं०(वचस्विन्) वचनं सौभाग्याधुपेतं यस्यास्तिस वचस्वी। ज्ञा०१ श्रु०१ अ०नि०। वक्रादित्वादनुस्वारः / वचनसौभाग्योपेते, नि०१ श्रु०१ वर्ग 1 अ०। बयगुत्तत्रि०(वचोगुप्त) वचनगुप्तया गुप्ते, उत्त०१२ अ०। निरूढवाक्प्रसरे, उत्त० पाई०१२ अ०॥ वयगुत्ति स्त्री० (वाग्गुप्ति) "सच्चा तहेव मोसा य, सच्चा मोसा तहेव य। चउत्थी असचमोसा उ, वयगुत्तीचउव्विहा॥१॥ (उत्त० छ०२४ अ०1) इति चतुर्विधे वचोगोपने, नि० चू०१७०। वयग्गाम पुं० (व्रजग्राम) गोकुले, "ततो सामी वयग्गामं गोउलं पत्तो, तत्थ य दिवसं छणो सव्वत्थ परमन्नं उवक्खडियं'' आ० चू०१ अ०। आ०म०। बयछक्क न० (व्रतषट्क) प्राणातिपातादीनां रात्रिभोजनविरतिषष्ठानां व्रतानां षट्के, दश०६ अ०। आव०। दर्श०। अधुना द्वितीयस्थानविधिमाह - अप्पगट्ठा परहा वा, कोहा वा जइ वा भया। हिंसगं न मुसं बूआ, नो वि अन्नं वयावए ||11|| मुसावाओ उलोगम्मि, सय्वसाहूहि गरहिओ। अविस्सासो अभूआणं, तम्हा मोसं विवज्जए॥१२॥ 'अप्पगढ़' त्ति सूत्रम्, आत्मार्थम्-आत्मनिमित्तमग्लान एव ग्लानोऽहं ममानेन कार्यमित्यादि, परार्थं वा-परनिमित्तं वा एवमेव, तथा क्रोधाद्वा त्वं दास इत्यादि, एकग्रहणे तज्जातीय-ग्रहणमिति, मानाद्वा अबहुश्रुत एवाहं बहुतश्रुत इत्यादि, मायातो भिक्षाटनपरिजिहीर्षया पादपीडा ममेत्यादि, लोभाच्छोभनतरान्नलाभे सति प्रान्तस्यैषणीयत्वेऽप्यनेषणीयामिदमित्यादि, यदि वा-भयात्-किञ्चिद्वितथं कृत्वा प्रायश्चित्तभयान्न कृत-मित्यादि, एवं हास्यादिष्वपि वाच्यम्, अतएवाह-- हिंसक-परपीडाकारि सर्वमेव न मृषा ब्रूयात स्वयम्, नाप्यन्यं वादयेत् एकग्रहणे तज्जातीयग्रहणात् अवतोऽप्यन्यान्न समनुजानीयादिति सूत्रार्थः | ||1|| किमित्येतदेवमित्याह- 'मुसावाउ' त्ति सूत्रम्, मृषावादो हि लोके सर्वस्मिन्नेव सर्वसाधुभिः गर्हितो-निन्दितः, सर्वव्रतापकारित्वात् प्रतिज्ञातपालनात्। अविश्वासश्च-अविश्वसनीयश्च भूतानां मृषावादी भवति, यस्मादेवं तस्मान्मृषावादं विवर्जयेदिति सूत्रार्थः / / 12 / उत्को द्वितीयस्थान विधिः। साम्प्रतं तृतीयस्थानविधिमाह - चित्तमंतमचित्तं वा, अप्पं वा जइ वा बहुं / दंतसोहणमित्तं पि-उग्गहंसि अजाइया॥१३॥ तं अप्पणा न गिण्हंति, नोऽवि गिण्हावए परं। अन्नं वा गिण्हमाणं पि, नाणुजाणंति संजया||१४|| 'चित्तमंत' ति सूत्रम्, 'चित्तवद्-द्विपदादि वा अचित्तवद्वाहिरण्यादि, अल्पं वा मूल्यतः प्रमाणतश्च, यदिवा बहुमूल्य-प्रमाणाभ्यामेव, किं बहुना ? दन्तशोधनमात्रमपि तथाविधं तृणादि अवग्रहे यस्य तत्तमयाचित्वा न गृहन्ति साधवः कदाचि-नेति सूत्रार्थः॥१३॥ एतदेवाह-'तं' तिसूत्रं, तत्-चित्तवदादिआत्मनानगृह्णन्ति विरतत्वात्, नापि ग्राहयन्ति परं विरतत्वादेव, तथा अन्यं वा गृह्णन्तमपि स्वयमेव नानुजानन्तिनानुमन्यन्ते संयता इति सूत्रार्थः / / 14|| दशक 6 अ० 2 उ०। (व्रतषट्कमध्यगतो मैथुनविषयः 'मेहुण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 426 पृष्ठे गतः।) प्रतिपादित तृतीयस्थानविधिः। इदानी पञ्चमस्थानविधिमाह -- बिमुन्म इमं लोणं, तिल्लं सप्पिं च फाणिअं। नते संनिहिमिच्छंति, नायपुत्तवओरया / / 17 / / लोहस्सेस अणुप्फासे, मन्ने अन्नयरामवि। जे सिया सन्निहिं कामे, गिही पव्वइएन से // 18 // जं पि वत्थं व पायं वा, कंबलं पायपुंछणं / तं पि संजमलबहा, धारंति परिहरंति अ||१६|| न सो परिग्गहो वुत्तो, नायपुत्तेण ताइणा। मुच्छापरिग्गहो वुत्तो, इअवुत्तं महेसिणा // 20 // सव्वत्थुवहिणा बुद्धा, संरक्षणपरिग्गहे। अवि अप्पणोऽवि देहम्मि, नायरंतिममाइयं // 21 // 'बिड' त्ति सूत्रम्, बिडं-गोमूत्रादिपक्कम्, उद्भेद्यं-सामुद्रादि, यद्वा-बिडंप्रासुकम्, उद्भेद्यम्-अप्रासुकमपि एवं द्विप्रकारं लवणम्।तथा तैलं सर्पिश्च फाणितम्, तत्र तैलं-प्रतीतम्, सर्पितम्, फाणितंद्रवगुडः, एतल्लक्षणाद्येवं प्रकारमन्यचन ते साधवः संनिधिं कुर्वन्ति-पर्युषितं स्थापय-- नित, ज्ञातपुत्रवचोरताः-भगवद्वर्धमानवचसि निः-सङ्गताप्रतिपादनपरैः सत्का इति सूत्रार्थः / / 17 / / संनिधिदोषमाह -- 'लोभस्स' त्ति सूत्रम्, लोभस्य--चारित्रविनकारिणश्चतुर्थकषायस्य 'एस अणुप्फास' त्ति एषोऽनुस्पर्शः- एषोऽनुभावो यदेतत्संनिधिकरणमिति, यतश्चैवमतो मन्ये-मन्यन्ते, प्राकृतशैल्या एकवचनम्, एवमाहुस्तीर्थकरगणधराः अन्यतरामपि स्तोकामपियः स्यात्-यः कदाचित्संनिधिं कामयते-सेवते, गृही-गृहस्थोऽसौ भावतः प्रव्रजितो नेति, दुर्गतिनिमित्तानुष्ठानप्रवृत्तेः, संनिधीयते नरकादिष्वात्माऽनयेतिसंनिधिः। इतिशब्दार्थात् प्रव्रजितस्यच
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________________ वय 888 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वयछक्क दुर्गतिगमनाभावादिति सूत्रार्थः / / 18 / आह-यद्येवं वस्त्रादि धारयतां सम्बन्धः, गुणा अष्टादशसु स्थानेषु अखण्डास्फुटिताः कर्तव्याः, तत्र साधूनां कथमसंनिधिरित्यत आह- 'जंपि' त्ति सूत्रम्, यदप्यागमोक्तं / विधिमाह-'तत्थिम' ति सूत्रम्। तत्र-अष्टादशविधे स्थानगणे व्रतषट्के वस्त्रं वा-चोलपट्टकादि, पात्रां वा-अलाबुकादि, कम्बलं-वर्षाकल्पादि, वा अनासेवनाद्वारेण इर्द-वक्ष्यमाणलक्षणं प्रथम स्थान महावीरेण - पादपुच्छन-रजोहरणम्, तदपि 'संयमलज्जार्थ' मिति पात्रादि, तद्व्य- भगवता अपश्चिम-तीथकरेण देशितं-कथितं यदुताहिंसेति / इयं च तिरेकेण पुरुषमात्रोण गृहस्थभाजने सति संयमपालनाभावात् लज्जार्थं सामान्यतः प्रभूतैर्देशितेत्यत आह-निपुणा आधाकर्माद्यपरिभोगतः वस्त्रम्, तद्व्यतिरे-केणाङ्गनादौ विशिष्ट श्रुतपरिणत्यादिरहितस्य कृत-कारितादिपरिहारेण सूक्ष्मा, न आगमद्वारेण देशिता अपि तु दृष्ट-- निर्लज्जतोपपत्तेः, अथवा-संयम एव लज्जा तदर्थं सर्वमेतद्वस्त्रादि साक्षाद्धर्मसाधकत्वेनोपलब्धा, किमितीयमेव निपुणेत्यत आह-यतोऽधारयन्ति, पुष्टालम्बनविधानेन परिहरन्ति च परिभुञ्जतेच मूर्छारहिता स्यामेव महावीरदेशितायां सर्वभूतेषु सर्वभूतविषयः संयमो, नान्यत्र, इति सूत्रार्थः / / 16 / यतश्चैवमतः-'नसो' त्तिसूत्रम्, नासौ निरभिष्व उद्दिश्यकृतादिभोगविधानादिति सूत्रार्थः / / 8 // एतदेव स्पष्टयन्नाह - ङ्गस्य वस्त्रधारणादिलक्षणः परिग्रह उक्तो बन्धहेतुत्वाभावात्, केन ? 'जावंति' सूत्रम्, यतो हि भागवत्याज्ञा यावन्तः केचन लोके, प्राणिन'ज्ञानपुत्रोण' ज्ञात-उदारक्षत्रियः सिद्धार्थः, तत्पुत्रोण-वर्धमानेन स्रसाद्वीन्द्रियादयः, अथवा-स्थावराः-पृथिव्यादयः तान् जानन् त्रात्रास्वपरित्राणसमर्थन, अपितु-मूर्छा असत्स्वपि वस्त्रादिष्वभिष्वङ्ग रागाधभिभूतो व्यापादनबुद्ध्यो अजानन्वा प्रमादपारतन्त्र्येण न हन्यात् परिग्रह उत्को बन्धहेतुत्वात्, अर्थतस्तीर्थकरेण, ततोऽवधार्य इति स्वयम्, नापिघातयेदन्यैः 'एकग्रहणे तज्जातीयग्रहणात्' घतोऽप्यन्यान्न एवमुत्को महर्षिणा-गणधरेण, सूत्रो सेजंभव आहे' तिसूत्रार्थः॥२०॥ समुजानीयाद्, अतो निपुणा दृष्टति सूत्रार्थः / / 6 / / अहिंसैव कथं आह-वस्वाद्यभावभाविन्यपि मूर्छा कथं वस्त्रादिभावे साधूनां न साध्वीत्येतदाह --'सव्ये तिसूत्रम्, सर्वे जीवा अपिदुःखितादिभेदभिन्ना इच्छन्ति जीवितुं न मर्तु प्राणवल्लभत्वात्, यस्मादेवं तस्मात्प्राणवधं भवष्यिति ? उच्यते-सम्यग्बोधेन तद्वीजभूताबोधोपघाताद, आह च घोर रौद्रं दुःखहेतुत्वाद् निर्ग्रन्थाः-साधवो वर्जयन्ति भावतः / णमिति 'सव्वत्थ तिसूत्रम्, सर्वत्रा-उचिते क्षेत्र काले च उपधिना-आगमोक्तेन वाक्यालङ्कार इति सूत्रार्थः / / 10 // दश०६ अ०२ उ०। वस्त्रादिना सहापि बुद्धा-यथावद्वितव-स्तुतत्वाः साधवः-संरक्षण वयजुय त्रि० (व्रतजुत) महाव्रताणुव्रतादिसमन्विते, कर्म०१ कर्म०। परिग्रहाः इति, संरक्षणाय षण्णां जीवनिकायानां वस्त्रादिपरिग्रहे सत्यपि वयजोग पुं० (वाग्योग) निसृज्यमानभाषापुद्रलसमूहरूपे (विशे०) नाचरन्तिममत्वम्-आत्मीयाभिधानं, वस्तुतत्वावबोधात्, तिष्ठतुताव वाग्व्यापारे, सूत्र०२ श्रु०४ अ०। औ०। ('जोग' शब्दे चतुर्थभागे दन्यत्, ततश्च देहवदपरिग्रह एव तदिति सूत्रार्थः // 21 // उक्तः पञ्चम 1615 पृष्ठे अस्य वक्तव्यता उक्ता।) स्थानविधिः। (षष्ठस्थानविधिस्तु 'राइभोयण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 510 वयट्ठवणा स्त्री० (व्रतस्थापना) हिंसानृतास्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्योविरतयो पृष्ठे दर्शितः।) उक्तं व्रतषट्कम् / दश०६ अ०२ उ०। व्रतानि तेषु स्थापना / सामायिकसंयतस्योपस्थापनायाम, पं०व०॥ वयछकं कायछकं, अकप्पो गिहिभायणं / ननु व्रतानां स्थापनेति न युक्तं तत्र तेषामारोप्यमाणत्वाद्, उच्यतेपलियंकनिसेलाय, सिणाणं सोहवअणं // 26 // सामान्येन व्रतानामनादित्वात्तेषु तस्योपस्थाप्यमानत्वादित्थमप्यदोष व्रतषट्कं-प्राणातिपातनिवृत्त्यादीनि रात्रिभोजनविरतिषष्ठानि षड् / एव / पं० व०१ द्वार। (सा च 'उवट्ठवणा' शब्दे द्वितीयभागे 883 पृष्ठे व्रतानि, कायषट्कं - पृथिव्यादयः षड्जीविनिकायाः अकल्पः प्रत्यापादि।) शिक्षकस्थापनाकल्पादिर्वक्ष्यमाणः गृहिभाजन-गृहसम्बन्धि कांस्य वयणन०(वचन) भणने,स्था०३ ठा०३ उ०1अनु०॥ वाक्याक्रियायाम, भाजनादि प्रतीतं पर्यङ्कशयनविशेषः प्रतीतः / निषद्या च - गृहे प्रव०२द्वार। रा०। प्रश्न०।"वगुत्ति वा वय त्ति वा वयण त्ति वा एगट्ठा" एकानेकरूपा स्नान-दशेसर्वभेदभिन्नं शाभावर्जन-विभूषापरित्यागः, आ० चू०१०॥ वर्जनमितिच प्रत्येकमभिसंबध्यते, शोभावर्जनं स्नानवर्जनामित्यादीति वचनभेदानाहगाथार्थः। तिविहे वयणे पण्णत्ते,तं जहा-तय्वयणे, तदन्नवयणे, णोअतत्थिमं पढमं ठाणं, महावीरेण देसि। वयणे। (सू.-१७५) अहिंसा निउणा दिट्ठा, सव्वभूएसुसंजयो ||8|| 'तिविहे' त्यादि, अयमस्य गमनिका तस्य विवक्षितार्थस्य घटादेवजावंति लोए पाणा, तसा अदुवथावरा। चनभणनंतद्रवचनं घटापेक्षया घटवचनात्। तस्माद्विवक्षितधटादेरन्यः ते जाणयमजाणं वा, न हणे णो विधायए || पटादिस्तस्य वचनं तदन्यवचनं घटापेक्षया पटवचनवत्। नोअवचनम् - सवे जीवाऽवि इच्छंति, जीविउंन मरिजिउं। अभणननिवृत्तिर्वचनमा डित्थादिवदिति / अथवा-स-शब्दव्युत्पत्तितम्हा पाणिवह धोरं, निग्गंथा वनयंतिणं // 10 // निमित्तधर्मविशिष्टोऽर्थोऽनेनोच्यते इति तद्वचनंयथार्थ-नामेत्यर्थः,ज्वलनसूत्रस्पर्शनियुक्तिः, अधुना सूत्रान्तरं व्याख्यायते / अस्य चायमभि- तपनादिवत्। तथा तस्माच्छन्दव्युत्पत्ति-निमित्तधर्मविशिष्टोऽर्थ उच्यते अ--
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________________ वयण 886 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वयणपज्जाय नेनेति तदन्यवचनमयथार्थमित्यर्थः, मण्डपादिवत् / उभयव्यतिरिक्त नोअवचनम्, निरर्थकमित्यर्थो डित्थादिवत्। अथवा-तस्याचादिर्वधनं तद्वचनम्, तद्व्यतिरिक्तवचनं तदन्यवचनम्, अविवक्षितप्रणेतृविशेषम्, नोअवचनम्-वचनमात्रमित्यर्थः / त्रिविधवचनप्रतिषेधस्त्ववचनम् / स्था०३ ठा०३ उ०। आ०म०) एकद्विबहुवचनानितिविहे वयणे पण्णत्ते, तं जहा-एगवयणे दुवयणे बहुवयणे / (सू०-१९३४) 'तिविहे' त्यादि, एकोऽर्थ उच्यतेऽनेनोक्तिर्वेति वचनमेकस्यार्थस्य वचनमेकवचनमेवमितरेऽपि। अत्र क्रमेणोदाहरणानि-देवः, देवौ, देवाः, वचनाधिकारे। स्था०३ ठा०४ उ०। आ०म०। स्त्रीपुंनपुंसकवचनानिअहवा तिविहे वयणे पण्णत्ते, तं जहा- इत्थिवयणे पुंवयणे णपुंसगवयणे / (सू० 1934) 'अहवे' त्यादि सुबोधम्। उदाहरणानि तु स्त्रीवचनादीनां नदी, नदः, कुण्डमित्यादि। स्था०३ ठा०४उ० ('सामाइय' शब्देतद्गतवचनविचारं वक्ष्यामि।) अतीतानागतप्रत्युत्पन्नवचनानिअहवा तिविहे वयणे पण्णत्ते, तं जहा-तीतवयणे पड़प्पन्नवयणे अणागयवयणे / (सू०१९३४) अतीतादीनां कृतवान् करोति करिष्यति, वचनं हि जीवपर्यायस्तदधिकारात्तत्पर्यायान्तराणि / त्रिस्थानकेऽवतारयन्नाह-'तिविहे त्यादि (स्पष्टम्।) स्था०३ ठा०४ उ०। (बहूनि वचनानि भासा' शब्दे पञ्चमभागे 1550 पृष्ठे विशेषतः प्रतिपादितानि / ) (कथं भाषा भाषणीयेति 'अस्थिवाय' शब्दे प्रथमभागे 523 पृष्ठे गतम्।) (पञ्चत्रिंशत्सत्यवचनातिशयाः 'अइसेस' शब्दे प्रथमभागे 32 पृष्ठे दर्शिताः।) अभियोगपूर्वक आदेशे, भ०३ श०१ उ०। राजादेशे, औ० आभाषितस्य इच्छाकारभणने, गृहीतमौनव्रतस्य वचनविषये केनाप्याभाषणे कृते तस्योत्तरभणने, व्य०३ उ० (उच्यते इति वचनम्।वचनं त्रिधा मधुरकटुरूक्षभेदादित्यादि / (ध०१अधि01) 'भरह' शब्दे पञ्चमभागे 1420 पृष्ठे गतम्।) आगमे, ध०१अधि० ज्ञा०ा वक्तव्ये,जं०३ वक्ष०ा भाषापरिणामापन्ने प्रतिपादने, सूत्र०१ श्रु०११ अ०। पुद्गल द्रव्यसमूहे, कर्म०४ कर्म। *वदन-न०। करणे ल्युट्। मुखे, ज्ञा०१ श्रु०१ अ० स्था०। "सारय ससंकसोमवयणा''प्रज्ञा०१ पद। विपा०ा प्रश्न वयणकप्प-पुं०(वचनकल्प) वचनवक्तव्यताप्रतिबद्धे कल्पे, प०भा०। ' ...........................एतो वोच्छं वयणकप्पं। आहारउवहिसेज्जा, तिकरणसोहीऍ जाहें परितंतो। पग्रहितविहारातो, तो चेव तिविसयपडिबद्धो। को तिविसेसं बुज्झति, पसत्थठाणा अहं परिभट्ठो। अंधत्तेणं को वी,ण बुज्झए मंदधम्मत्ता। दव्वे मावे अंधो, दव्वे चक्खूहि भावें ओसण्हो। सविग्गतणं रोयति, ण तियाइ पहाणमिच्छंतो। जत्तो चउट्विहारा, तं चेव पसंसते सुलभबोही। ओराण्हविहारं पुण, पसंसएदीहसंसारी। आहारोवहिसेजा, णीयावासो वितिकरणविसोही। तह भावम्मि विकेई, इमं पहाणं ति घोसंति। णीणा विवहारम्मि वि, जदि कुणती णिग्गहं कसायाणं। तस्स हु भवते सिद्धी, अवितहसुत्ते भणियमेवं / बहुमोहे विहु पुट्विं, विहरित्ता, संवुडे कुणति कालं। सो सिज्झति अवि य इमे, पुरिसञ्जाता भवे चउरो। णाणेणं संपण्णो,णाणचरितेण एत्थ चउभंगो। णाणं चेव पहाणो, एवं भासंति णिद्धम्मा। तम्हा तु न एत्ताई, कुजा आलंबणाइमतिमंतो। कुलाहि य सत्थाई, इमाई आलंबणाई तु०। तित्थगराण चरितं, कसिणगं पारगाणं च।' जो जाणति सहहती, ओसण्हं सोणरो एति। धुवसिज्झितव्वगम्मि वि, तित्थगरो जदितवम्मि उञ्जमति। किं पुण तवउज्जोगो, अवसेसेहिं न कायथ्वो? चोइसपुट्विं कसिणं-गपारगा तेसि जो उ उलोगो। तं जो जाणति सो खलु, संदिग्गविहारसदहतो। एमादी आलंबण, काउं संविग्गगं तु रोएति। को पुण सण्हतरोए-ति भण्णति इमो तु सुत्तत्थं / तदुभए अकरजोगि-ओसण्णं रोयओ अओ होज्जा। अहवा दुग्गहियत्थो, अहवा वी मंदधम्मत्ता। अण्णाणी कडजोगी, दुग्गहियत्थो तुजेण अववादो। गहिओ ण वि उस्सग्गो, गहिते वा मंदधम्मो तु। सो रोए उस्सपणे, इति एसो वण्णिओ वयणकप्पो। पं०भा०५ कल्प। वयणखंति-स्त्री०(वचनक्षान्ति) वचनक्षान्तौ, षो० "श्रुतमयमात्रापोहाचिन्तामयभावनामये भवतः। ज्ञाने परे यथार्ह , गुरुभक्तिविधानसल्लिङ्गे" षो० 10 विव०। ('णाण' शब्दे चतुर्थभागे 1681 पृष्ठे व्याख्यातम्।) वयणजोग-पुं०(वचनयोग) उच्यते इति वचनं भाषापरिणामापन्नः पुद्गलद्रव्यसमूह इत्यर्थः / तेन वचनेन सह करणभूतेन योगो वचनविषयो वा योगः ! वाग्व्यापारे, कर्म०४ कर्म०। वयणत्तिय-न०(वचनत्रिक) एको द्वौ बहव इत्येकत्वाद्यभिधाय-कशब्दत्रये, विशे०। प्रश्न वयणपजाय-पुं० (वचनपर्याय) वचनरूपा वस्तुनः पर्याया वचनपर्यायाः / ये शब्दाः सर्व वस्तु सम्पूर्ण प्रतिपादयन्ति /
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________________ वयणपज्जाय ८९०-अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वयणविभत्ति तेषु, सर्वेषामपि वस्तूनामभिलाषवाचकेषु शब्देषु, विशे०। वयणप्पभूय-त्रि०(वचनप्रभूत) वचनैर्नयभेदाः प्रभूता वचनप्रभूताः / अल्पाक्षरेषु, उत्त०१३ अ० वयणभिण्ण-न०(वचनभिन्न) यत्र वचनव्यत्ययो भवति तादृशे सूत्रदोषे, यथा-वृक्षा ऋतौ पुष्पिता इत्यादि। अनु०॥ विशे० आ०म०। वयणमाला-स्वी०(वदनमाला) मुखपुजे, जं०२ वक्षा वचनमाला-स्त्री०। उक्तिसमूहे,"वयणसहस्सेहिं अभिथुणिज्ज-माणे," जं०२ वक्ष। वयणमित्त-न०(वचनमात्र) निर्हेतुके केवलवचने, यथा कश्चिद्यथेचछ्या कश्चित् प्रदेश लोकमध्यतया जनेभ्यः प्ररूपयति / अनु०। विशे०। आ०म०। बृ०॥ वयणरुद्द-त्रि०(वदनरौद्र) वदनेन भीषणे, प्रश्न०३ आश्र० द्वार। वयणविगप्प-पुं०(वचनविकल्प) भाषणभेदे, स्था०७ ठा०३उ०। सत्तविहे वयणविकप्पे पण्णत्ते, तं जहा-अणालावे उल्लावे अणुल्लावे संलावे पलावे विप्पलावे। (सू०-५८४) 'सत्तविहे' त्यादि, सप्तविधो वचनस्य-भाषणस्य विकल्पोभेदो वचनविकल्पः प्रज्ञप्तस्तद्यथा-आङ् ईषदर्थत्वादीषल्लपनमालापो नत्रः कुत्सार्थत्वादशीलेत्यादिवत् कुत्सित आलापोऽनालाप इति, उल्लापःकाका वर्णनम् / “काका वर्णनमुल्लाप' इति वचनात् स एव कुत्सितोऽनुल्लापः क्वचित्पुनरनुलाप इति पाठस्तत्रानुलापः, पौनःपुन्यभाषणम्, "अनुलापो मुहुषि" ति वचनात्, संलापः परस्परभाषणम्, "संलापो भाषणं मिथ' इति वचनात्, "प्रलापो-निरर्थकवचनम्, "प्रलापोऽनर्थकं वच" इति वचनात्, स एव विविधो विप्रलाप इति। एतेषांचवचनविकल्पानां मध्ये केचिद्विकल्या विनेयार्था अपि स्युरिति॥ स्था०७ ठा०३उ०। वयणविभत्ति-स्त्री०(वचनविभक्ति) उच्यते एकत्वद्वित्वबहुत्वलक्षणोऽर्थो यैस्तानि वचनानि, विभज्यते कर्तृत्वादिलक्षणोऽर्थो यया सा विभक्तिर्वचनानां विभक्तिर्वचनविभक्तिः। प्रथमादिषु व्याकरणपरिभाषितेषु प्रत्ययेषु, स्था०। अट्ठविधा वयणविभत्ती पण्णत्ता, तं जहा"णिद्देसे पढमा होइ, बिइया उवदेसणे। तइया करणम्मि कया, चउत्थी संपदावणे // 1 // पंचमीतु अवायाणे,छट्ठी सस्सामिवायण। सत्तमी सन्निहाणत्थे, अट्ठमी आमंतणे भवे // 2 // तत्थ पढमा विमत्ती, निद्देसे सो इमो अहं वत्ती। बितिया उण उवएसे, भण कुण व इमं व तं बत्ती // 3 // तइया करणम्मि कया,णीयं च कयं च तेण व मए वा। हंदि णमो साहाए, हवइचउत्थी पयाणम्मिा अवणे गिण्हसु तत्तो, इओ त्ति वा पंचमी अवादाणे / छट्ठीतस्स इमस्सव, गयस्स वा सामिसंबंधे // 5 // हवइ पुण सत्तमीयं, इयम्मि आधारकालभावे य। आमंतणे भवे अ-ट्ठमी उजह हे३ जुवाण त्ति // 6 // (सू०-६०९) उच्यन्त इति वचनानि-वस्तुवाचीनि विभज्यते प्रकटीक्रियते अर्थोऽनयेति विभक्तिः, वचनानां विभक्तिर्वचनविभक्तिः, नाख्यातविभक्तिरपि तुनाम विभक्तिः, प्रथमादिकेति भावः / साथाष्टविधा तीर्थकरगणधरैः प्रज्ञप्ता, का पुनरियमित्याशङ्कय यस्मिन्नर्थे या विधीयते तत्सहितामष्टविधामपि विभक्तिं दर्शयितुमाह- 'तद्यथे' त्यादि 'निः' इत्यादि श्लोकद्वयं निगदसिद्धम् , नवर–लिङ्गार्थमात्रप्रतिपादनं निर्देशः तत्र सिऔ-जसिति प्रथमा विभक्तिर्भवति। अन्यतरक्रियायाः प्रवर्तनेच्छोत्पादनमुपदेशस्तस्मिन् अम्-औ-शस्-इति द्वितीया विभक्तिर्भवति, उपलक्षणमात्रं चेदम्, कटं करोतीत्यादिषूपदेशमन्तरेणापि द्वितीयाविधानाद, एवमन्य-त्रापि यथासम्भवं वाच्यम्। विवक्षितक्रियासाधकतमं करणं तस्मिँ-स्तृतीया कृता-विहिता।सम्प्रदीयते यस्मै तद्गवादिदानविषयभूतं सम्प्रदानं तस्मिँश्चतुर्थी विहिता / अपादीयते वियुज्यते यस्मात् तद्वियुज्यमानावधिभूतमपादानं तत्र पञ्चमी विहिता, स्वम्आत्मीयं सचित्तादि स्वामी-राजादिः तयोर्वचने तत्सम्बन्धप्रतिपादने षष्ठी विहितेत्यर्थः / संनिधीयते-आधीयते यस्मिँस्तत्सन्निधानम्आधारस्तदेवार्थस्तस्मिन् सप्तमी विहिता। अष्टमी सम्बुद्धिः-आमन्त्रणी भवेद्, आमन्त्रणार्थे विधीयत इत्यर्थः / एवमेवार्थसोदाहरणमाह-'तत्थ पढमे त्यादिगाथाश्चतस्रोगतार्था एव, नवरं प्रथमा विभक्तिर्निर्देशे, क्व? यथेत्याह-'सो' त्ति स तथा 'इमो' त्ति अयं 'अहं' ति अहं वाशब्द उदाहरणान्तरसूचकः। उपदेशे द्वितीया, क्व? यथेत्याह-भण कुरुवा, किं तदित्याह-इद-प्रत्यक्षं तद्वा परोक्षमिति / तृतीया करणे, क्व? यथेत्याह-भणितं वा कृतं वा, केनेत्याह-तेन वा मया वेति, अत्र यद्यापकर्तरि तृतीया प्रतीयते, तथापि विवक्षाधीनत्वात् कारकप्रवृत्तेस्तेन मया वा कृत्वा भणितं कृतं वा, देवदत्तेनेति गम्यत इति, एवं करणविवक्षाऽपि न दुष्यतीति लक्षयामः, तत्त्वं तु बहुश्रुता विदन्तीति / 'हंदि नमो साहाए' इत्यादि, हन्दीत्युपदशने, नमो देवेभ्यः स्वाहा अनये इत्यादिषु सम्प्रदाने चतुर्था भवतीत्येके। अन्ये तूपाध्यायाय गां ददातीत्यादिष्वेव सम्प्रदाने चतुर्थीमिच्छन्ति। अपनय गृहाण एत-स्मादितो वेत्येवमपादाने पञ्चमी। तस्यास्य गतस्य, कस्य?-भृत्यादेरिति गम्यते, इत्येवं स्वस्वामिसम्बन्धे षष्ठी। तद्वस्तुबदरा-दिकमस्मिन कुण्डादौ तिष्ठतीति गम्यते, इत्येवमाधारे सप्तमी भवति / तथा 'कालभावे अ'त्ति कालभावयोश्वयं द्रष्टव्या, तत्र काले यथा-मधौ रमते, भावे तु चारित्रेऽवतिष्ठते। आमन्त्रणे भवेदष्टमी, यथा-हे३युवन्निति, वृद्धवैयाकरणदर्शनेन चेयमष्टमी गम्यते। ऐदंयुगीनानां त्वसौ प्रथमैवेति मन्तव्यमिति। अनु०॥ विशेषं दर्शयतिवचनविभक्तिस्वरूपमाह- 'अट्ठविहा वयणविभत्ती' त्यादि, उच्यते एकत्वद्वित्वबहुत्वलक्षणोऽर्थो यैस्तानि वचनानि,
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________________ वयणविभत्ति 861 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वयदुग्गह विभज्यते कर्तृत्वकर्मत्वादिलक्षणोऽर्थो यया सा विभक्तिः, वचनात्मिका उत्सर्गादिभेदभिन्नमजानानः यद्यपि न भाषते किञ्चित् मौनेनैवास्ते, न विभक्तिर्वचनविभक्तिः, 'सु-औ-जसि' त्यादि, "निदेसे सिलोगो" | चैव वाग्गुप्ततां प्राप्तः, तथाऽप्यसौ अवाग्गुप्त एवेति गाथार्थः / दश०७ निर्देशनं निर्देश:-कर्मादिकारकशक्तिभिरनधिकस्य लिङ्गार्थमात्रस्य अ०२ उम प्रतिपादनं तत्र प्रथमा भवति, यथा-स वा अयं वाऽऽस्ते अहं वा आसे१, वयणविभत्तिकुसल-पुं०(वचनविभक्तिकुशल) वाच्येतरवचनप्रकारातथा-उपदिश्यत इत्युप-देशनम्-उपदेशक्रियाया व्याप्यमुपलक्षणत्वा- भिज्ञे, दश) दस्य; क्रियाया यद्व्याप्यं तत् कर्मेत्यर्थस्तत्र द्वितीया, यथा-भण इमं वयणविभत्तीकुसल-स्स संजमम्मी समुज्जुयमइस्स। श्लोकम, कुरु वा तम्, ददाति तम्, याति ग्रामम् 2, तथा-क्रियते येन दुम्मासिएण हुन्जहु, विराहणा तत्थ जइअवं // 28 // तत्करण-क्रियां प्रति साधकतमं करोमीति वा करणः-कर्ता "कृत्य वचनविभक्तिकुशलस्य वाच्येतरवचनप्रकाराभिज्ञस्य न केवलल्युटो बहुलम्" (पा०३-३-११३) इति वचनादिति,तत्र करणे तृतीया मित्थंभूतस्यापि तु संयमे समुद्यतमतेः-अहिंसायां प्रवृत्तचित्तस्येत्यर्थः, कृता-विहिता, यथा--नीतं सस्यमनेन शकटेन, कृतं कुण्डं मयेति 3, तस्याप्येवंभूतस्य कथंचिदुर्भाषितेन कृतेन भवेत् विराधना-परलोकतथा- 'संपदावणे' त्ति सत्कृत्य प्रदाप्यते यस्मै उपलक्षणत्वात् संप्रदीयते पीडा, अतः तत्र-दुर्भाषितवाक्यपरिज्ञाने यतितव्यं-प्रयत्नः कार्य इति वा यस्मै स सम्प्रदापनं सम्प्रदानं वा तत्र चतुर्थी, यथा-भिक्षवे भिक्षा गाथार्थः / दश०७ अ०२ उ०। ('वइगुत्त' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 758 पृष्ठे दापयति ददाति वेति, सम्प्रदापनस्योपलक्षणत्वादेव नमःस्वस्तिस्वाहा विशेषो गतः।) स्वधाऽलेवषड्युक्ताच चतुर्थी भवति, नमः शाखायै वैरादिकायै, नमः वयणसंथव-पुं०(वचनसंस्तव) वचनमात्रहेतुके परिचये, नि०चू०२ उ०। प्रभृतियोगोऽपि कैश्चित्सम्प्रदानमभ्युपगम्यते इति चतुर्थी 4, ‘पञ्चमी' वयणसंपया-स्त्री०(वचनसंपद्) गणिसंपर्दोदे, प्रव०॥ ति लोकः, अपादीयते अपायतो-विश्लेषत-आमर्यादया दीयते 'दो वचनसंपञ्चतुर्दा, तद्यथाअवखण्डने' इति वचनात् खण्ड्यते-भिद्यते आदीयते वा गृह्यते यस्मात्तदपादानमवधिमात्रमित्यर्थः, तत्र पञ्चमी भवति, यथा-अपनय वाइमहुरत्तऽमीसिय-फुडवयणो संपया य वयणे त्ति // 548 / / ततो गृहाद्धान्यमितो वा कुशूलाद् गृहाणेति 5, 'छट्ठी सस्सामिवायणे' 'वाइमहुरत्तऽमिस्सिय, फुडवयणो संपया य वयणे' ति, वादी मधुरत्ति स्वं च स्वामी च स्वस्वामिनौ तयोर्वचन-प्रतिपादनं तत्र स्वस्वामि वचनः, अमिश्रितवचनः, स्फुटवचनश्चेत्येषा वचने-वचनविषया संपद्, वचनेस्वस्वामिसम्बन्धे इत्यर्थः, षष्ठी भवति, यथा-तस्यास्य वागतस्य तत्र-वदनं वादः, सोऽति शायी वा विद्यते यस्य स वादी आदेयवचन वाऽयं भृत्यः। इत्यर्थः। तथा-प्रकृष्टार्थप्रतिपादकमपरुष सुखरतागम्भीरतादिगुणोपेत'वायणे' त्ति इह प्राकृतत्वाद् दीर्घत्वम्, 6, सन्निधीयते क्रिया अस्मि मत एव श्रोतृजनमनः प्रीणकं वचनं यस्य स मधुरवचनः, तथानिति सन्निधानम्आधारस्तदेवार्थः सन्निधानार्थस्तत्र सप्तमी, विषयोप रागद्वेषादिभिरमिश्रितमकलुषं वचनं यस्य सोऽमिश्रितवचनः, स्फुटम्लक्षणत्वाचास्य काले भावे क्रियाविशेषणे च। तत्र सन्निधाने तद्भक्तमिह सर्वजनसुबोधं वचनं यस्य स स्फुटवचनः। अन्यत्र तु आदेयवचनता पात्रे, तत्सप्तच्छदवनमिह शरदिपुष्पति, पुष्पनक्रिया शरदा विशेषिता, मधुरवचनता अमिश्रित-वचनता असंदिग्धवचनता चेति पठ्यते, अर्थः तत्कुटुम्बकमिह गवि दुह्यमानायां गतम्, इह गमनक्रिया गोदोहनभावेन प्राग्वद् / प्रव०६४ द्वार।दश०। उत्ता स्था०ा व्या विशेषितेति७, अष्टम्यामन्त्रणी भवेदिति, 'सु-औ-जसि' ति, वयणाणुओग-पुं०(वचनानुयोग) धर्मकथानुयोगादिरूपे अनुयोगभेदे, प्रथमाऽपीयं विभक्तिरामन्त्रण-लक्षणस्यार्थस्य कर्मकरणादिवत् आचा। लिङ्गार्थमात्रातिरिक्तस्य प्रतिपादकत्वेनाष्टम्युक्ता। यथा-हे 3 युवन्निति वयणाणुट्ठाण-न०(वचनानुष्ठान) वचनस्मरणनियतसत्प्रवृत्तिकत्वे, ध०१ श्लोकद्वयार्थः। उदाहरणगाथास्तुव्याख्यातानुसारेण भावनीयाः, 'तत्थ' अधि०। (अस्य स्वरूपम्-'अणुट्ठाण' शब्दे प्रथमभागे 377 पृष्ठे गतम्।) गाहा 'तइया' गाहा; इह 'हंदी' त्युपदर्शने ‘पयाणम्मि' त्ति सम्प्रदाने, वयणाभिघाय-पुं०(वचनाभिघात) खरादिवचनप्रहारे, दश०६अ01 'अवणे' गाहा 'अवणे' त्ति अपनयेत्यर्थः इदं चानुयोगद्वारानुसारेण | वयणिज्ज-त्रि०(वचनीय) बालवचनैर्गी ,आचा०१ श्रु०६ अ०४उ० व्याख्यातम्। आदर्शषु तु अमणे, इति दृश्यते, तत्र च स्त्र्यामन्त्रणतया वयणिरोह-पुं०(वाड्निरोध) अकुशलवाचोऽकरणे, आव० ४अ० गमनीयम्, हे 3 अमनस्के! इत्यर्थः / / स्था०८ ठा०३ उ०। वयणिज्जविगप्प-पुं०(वचनीयविकल्प) अभिलप्यस्य प्रति पादके वयणविभक्तिअकुसल-पुं०(वचनविभक्त्यकुशल) वाच्येतर प्रकारान- अभिधानभेदे, सम्म०१ काण्ड। भिज्ञे, दशा वयदंड-पुं०(वाग्दण्ड) दुष्प्रयुक्तवाचि, स० ३समा वयणविभत्तिअकुसलो, वओगयं बहुविहं अयाणंतो। वयदुग्गह-पुं०(व्रतदुर्ग्रह) व्रतानामसम्यगङ्गीकारे, "विषान्नतृप्तिसदृशम्। जह विन भासह किंची, न चेव वयगुत्तयं पत्तो / / 26011 तद्यतो व्रतदुर्ग्रहः / उक्तः शास्त्रेषु शस्त्राऽग्निव्यालदुर्ग्रहसन्निभ३"॥ द्वा० धचनविभक्त्यकुशलो-वाच्येतरप्रकारानभिज्ञः वाग्गतं बहुविधम्- | 12 द्वा०।
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________________ वयसमिय ८९२-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वयसमिइ वयसमिय-त्रि०(वयःसमित) वाचा समिते, अकुशलवानिवृत्ते, सूत्र० वयदुप्पणिहाण-न०(वाग्दुष्प्रणिधान) कृतसामायिकस्य निष्ठुरसावध२ श्रु०२ अ०। वाक्प्रयोगे,आव०६ अ०। वयसुहया-स्त्री०(वचःसुखता) वाचि सुखं यस्याऽसौ वाक्सुखस्तस्य वयधर-पुं०(व्रतधर) भरतक्षेत्रजपद्मप्रभतीर्थकरसमकालिके ऐरवत. भावो वाक्सुखता। सर्वेषां श्रोत्रमनःप्रसादकारिण्यां वाचि, प्रज्ञा० 23 पद। षष्ठजिने, प्रव०७ द्वार। व्रतधारिशब्दोऽप्यत्र यथा- "पउमप्पभो भरहे वयस्स-पुं०(व्यस्स) समानवयसि गाढतरस्नेहविषये, जी० ३प्रति०४ __ वयधारिजिणो य एरवयवासे," तिला सका अधिवा "वयस्याश्चिन्तयामासुः, स्नेहः सत्योऽनयोर्न वा," आ० क० / वयपडिमा-स्त्री०(व्रतप्रतिमा) "दंसणपडिमाजुत्तो, यततो णुव्वऍनिरइ१अ० यारे। अणुकंपाइगुणजुतो, जीवो इह होइ वयपडिमा॥१॥" इत्युक्तलक्षणे वया-स्त्री०(वचा) उग्रायाम्, ल०प्र०! उपासकप्रतिमाभेदे, उपा०१ अ० / वयाइ-पुं०(वयआदिक) कालकृता वस्थाप्रभृतिषु वयोवैलक्षण्यरूप- | वयपडिवत्ति-स्त्री०(व्रतप्रतिपत्ति) अणुव्रतादीनामङ्गीकरणे, पञ्चा०१ सौभाग्यैश्वर्यादिषु, पञ्चा०६ विव० विवा वयी-स्त्री०(वाचा) वचनं वाक्, वाग्योगे। स्था०१ ठा०। वयपत्त-त्रि०(वयःप्राप्र) यौवनं प्राप्ते, पिंग एगा वई। (सू०२०) वयपरिणाम-पुं०(वयःपरिणाम) वृद्धत्वे, "वयपरिणामोयजरा।" पाइ० 'एगा वइ' ति वचनम्-वाक् योगः-औदारिकवैक्रियाहारकशरी- ना० 107 गाथा। रव्यापाराहृतवागद्रव्यसमूहसाचिव्याज्जीवव्यापारो, वाग्योग इति भावः। वयपुण्ण-न०(वाक्पुण्य) वाचा तीर्थकरादिप्रशंसनलभ्ये पुण्ये, स्था०६ इयं च सत्यादिभेदादनेकाऽप्येकैव, सर्ववाचां वचनसामान्येऽन्तर्भावा ठा०३उ०। दिति। स्था०१ ठा० वयप्पहाण-पुं०(व्रतप्रधान) व्रतं यतित्वं प्रधानमुत्तमं शाक्यादियतिवर-त्रि०(वर) प्रधाने, उत्त०१अ०। ज्ञा०। स्था०। कल्प०। सूत्र०ा अनु०॥ त्वापेक्षया निर्ग्रन्थयतित्वात्, येषां व्रतेन वा प्रधाना येते तथा। निर्ग्रन्थआ०म० जी०। प्रज्ञा०। औ०। उत्तमे, प्रज्ञा० 1 पद। श्रेष्ठ, सूत्र०२ श्रु०२ श्रमणेषु, औ०। अ०। सू०प्र०ा रा०ा आव०। ज्ञा० नं0 "वरकुंड-लुज्जोइयाणणे"--- वयभंग-पुं०(व्रतभङ्ग) नियमभङ्गे, पञ्चा०५ विव०। आव० "वरमम्गिम्मि वराभ्यां कुण्डलाभ्यामुद्योतितं भास्वरीकृतमाननं येषां ते वरकुण्ड पवेसो, वरं विसुद्धेण कम्मणा मरणं / मा गहियव्ययभंगो, माजीअं खलु लोद्योतिताननाः। जी०४ प्रति०२ उ०। वरिष्ठे, आ००२अ०। भव्ये, असीलस्स॥१॥" कल्प०१ अधि०१क्षण। "वरं मे अप्पा दंतो, संजमेण तवेण य।" उत्त०१ अ० परिणेतरि, क्यमंत-त्रि०(व्रतवत्) रात्रिभोजनविरमणषष्ठपञ्चममहाव्रतधारिणि, ज्ञा०२ श्रु०१ वर्ग 1 अ० जारे, जामातरिच पुंगाकुडकुमे, मनागभीष्ट, ना भावे अप-अच्वा / इच्छायाम, याचने, आवरणे, वेष्टने चावाचा आचा०२ श्रु०१ चू०१ अ०६ उ० वरअ-पुं०(वराक) दीने,"दीणो वरओ।" पाइ० ना० 261 गाथा। वयमाण-त्रि०(वदत्) वाचंब्रुवति, सूत्र०१ श्रु०२ अ०२ उ०) वरइअ-(देशी) धान्यविशेषे, देवना०७ वर्ग 46 गाथा। * व्रजत्-त्रि०! गच्छति, "आपरिमाणमवंतं वयमाणे"अवर्णमश्लावरइत्त-(देशी) अभिनववरे, दे०ना०७ वर्ग 44 गाथा! घामवावा वदन-व्रजन कुर्वन्नित्यर्थः। स्था०६ ठा०३ उ०। वरउप्फ-(देशी) मृते, दे०ना०७ वर्ग 47 गाथा। वयर-पुं०(वदर) "वोर" इति प्रसिद्ध वृक्षभेदे, आचा०१ श्रु०१ अ०५ उ०ा आ०म०। वरंक-पुं०(वराङ्क) प्रधानलक्षणे, औ०। वरंकुर-पुं०(वराकुर) कर्मधारयसमासः प्रथममुद्भिद्यमानेऽङ्कुरे, वयरी-स्त्री०(वैरी) कोटिककाकन्दिकाभ्यां निर्गतस्य कोटिक-गणस्य जी०३ प्रति०४ अधि०। बहुव्रीहिः समासः! त्रि०ा वराङ्कुरोपेते, रा०) तृतीयशाखायाम्, कल्प०२ अधि०८ क्षण। वरंग-न०(वराङ्ग) गण्डे, जी०३ प्रति०४ अधि०। वयल-पुं० (देशी) कलकले, "रोलो रावो वयलो हलबोलो कलयलो वरंड-(देशी) प्राकारे, देवना०७ वर्ग 86 गाथा। वमालो य' पाइ० ना० 34 गाथा। विकसने, दे० ना०७ वर्ग 84 गाथा। वरंतिया-स्त्री०(वरान्तिका) श्रेष्ठदिशि, यस्यां दिशि तीर्थकर-केवलि वयली-स्त्री०(देशी) निद्रायाम, करनारलतायां च। 'पोअइआय वयली मनःपर्यायज्ञानावधिज्ञानिचतुर्दशपूर्वधरादयो यावत् युगप्रधाना या" पाइ० ना० 148 गाथा। विहरन्ति / आ०म०१० वयविणय-पुं०(वाग्विनय) वाचो विनयाhषु कुशलप्रवृत्तौ, स्था० 7 वरकडग-पुं०(वरकटक) वरकङ्कणे, कल्प०१ अधि०१क्षण। "वरकड ठा०३ उ01 गतुडियथंभियभुयं" वरैः-प्रधानैः कटकैः-वलयैः तुट-कैश्च बाह्वाभरणैः वयसंकिलेस-पुं०(वचःसंक्लेश) संक्लेशभेदे, स्था०५ ठा० २उ०। स्तम्भित इव भुजो यस्य स तथा। कल्प०१ अधि०३ क्षण। | वयसमिइ-स्त्री०(वचःसमिति)वचोऽकुशलत्वनिरोधे, स्था० १०टा०३ उ०।
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________________ वरकणग 863 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वरदत्त वरकणग-न०(वरकनक) जात्यसुवर्णे, जी०३ प्रति०४ अधि० वरं- | वरगंधिय-त्रि०(वरगन्धिक) वरो गन्धो वरगन्धः सोऽस्यास्तीति प्रधानं सुवर्णम् वरसुवर्णम्। पीतसुवणे, जं०१ वक्ष रा० वरगन्धिकम्। ततोऽनेकस्वरादितीकप्रत्ययः। सुगन्धयुक्ते, सू०प्र०२० वरकणगणिघस-पुं०(वरकनकनिघर्ष) वरकनकस्य जात्यसुवर्णस्य यः पाहु० चं०प्र०। कषपट्टको निघर्षः / स वरकनकनिघर्षः / पीतसुवर्णस्य कषपट्टके | वरगवेसिय-त्रि०(वरगवेषित) ग्रामनगरादिषु प्रमाणीकृतेन ग्रामरेखायाम्, जी०३ प्रति०४अधिo महत्तरादिना गवेषिते, नि०चू० वरकणगथूमियाग-न०(वरकनकस्तूपिकाक) वरकनका वरकनकमयी जे भिक्खू वरगवेसियपडिग्गहयं धरेइ धरतं वा साइजइ। स्तूपिका-शिखरं यस्य तत् वरकनकस्तूपिकाकम् / स्वर्णमयशिखरे, नि०चू०२ उ० जी०३ प्रति०४ अधिo राol ('पत्त' शब्दे पञ्चमभागे 403 पृष्ठे व्याख्यातम्।) वरकमल-पुं०(वरकमल) प्रधानहरिणे, श्रेष्ठकमले च! जं०२ वक्षा वरचंदणवंदिय-त्रि०(वरचन्दवन्दित) वरचन्दनं वन्दितं ललाटे निवेशित वरकमलगभ-पुं०(वरकमलगर्भ) श्रेष्ठकमलमध्यभागे, वरकमलस्य येनेति। चन्दनलिप्तमस्तके, भ०६ श० 33 उ०| प्रधानहरिणस्य गर्भ इव गर्भो जठरसंभूतत्वसाधर्म्यात्, वरकमलगर्भः। वरचंपय-पुं०(वरचम्पक) राजचम्पके, जं०३ वक्षा कस्तूरिकायाम्, ज्ञा०१ श्रु०८ अ० वरचम्म-न०(वरचर्मन्) प्रधानचर्मविशेषे, प्रश्न०३ आश्र० द्वार। वरकमलगभगोरी-स्त्री०(वरकमलगर्भगौरी) वरकमलगर्भः- कस्तू वरचार-पुं०(वरचार) पाण्डवसमकालिके मथुराराजे, "छठ्दूयं महुरानरिका तद्वत् गौरी-अवदाता वरकमलगर्भगौरी श्यामवर्णकत्वात्कस्तू यरेतत्थ णं तुमं वरचारं करमल० जाव समोरयह।'' ज्ञा०१ श्रु०७ अ०॥ रिकायाः। श्यामच्छायायाम्, ज्ञा०१ श्रु०८ अ०। वरचीणपट्ट-न०(वरचीनपट्ट) दुकूलवृक्षवल्कवृक्षस्यैव यान्यभ्यन्तरवरकमलगम्भवण्णा-स्त्री०(वरकमलगर्भवर्णा) श्यामवर्णायाम, ज्ञा०१ हीरतया निष्पाद्यन्ते सूक्ष्मतराणि भवन्ति तानि चीनदेशोत्पन्नानि वा श्रु०८ अ०। चीनान्युच्यन्ते पट्टसूत्रमयानि पट्टानि। वस्त्रभेदेषु,प्रश्न०४ आश्र० द्वार। वरकमलपइट्ठाण-त्रि०(वरकमलप्रतिष्ठान) वरं--प्रधानंयत्कमलंतत्प्रति वरजोह-पुं०(वरयोध) प्रधानयोधे, "निच्छियवरजोहजुद्धसमा य" ध्यनमाधारो येषां ते वरकमलप्रतिष्ठानाः, उत्तमकमलाहि-तेषु, रा० प्रश्न०४ आश्र० द्वार। वरकम्म-न०(वरकर्मन) विवाहसमये वरपक्षीये कर्मणि, भगवत ऋषभस्य वरकर्म देवेन्द्रोऽकार्षीत्, द्वयोर्वरमहिलकयोर्नन्दासुमङ्गलयोर्वधूकर्मदे वरट्ट-पुं०(वरट्ट) धान्यविशेषे, प्रव० 154 द्वार। प्रज्ञा०। व्योऽकार्युः। आ०म० 1 अ०। वरडी-(देशी) तैलाट्याम्, देशभ्रमरे, देवना०७ वर्ग 84 गाथा। वरकलस-पुं०(वरकलश) माङ्गल्ये प्रवरघटे, आ०चू०१अ० वरण-न०(वरण) ग्रहणे, ज्ञा०१ श्रु०८ अ० वरकहा-स्त्री०(वरकथा) परिणेतृकथायाम्, प्रश्न०४ संव० द्वार। वरणा-स्त्री०(वरणा) वाणारस्या नगाः समीपेनद्याम्, ती०३७ कल्प। वरकुसुमदाम-न०(वरकु सुमदामन्) प्रधानपुष्पमालावलौ, पञ्चा०४ वैराटनगरप्रतिबद्धे जनपदे, वत्सदेशराजधान्यांच। स्त्री०॥ सूत्र०१ श्रु० विव० "वरकुसुमदामुज्जलं" वराश्च ताः कुसुमदाममालाश्च वरकुसुममा 5 अ०१ उ०। लास्ताभिरुज्ज्वलं देदीप्यमानत्वाद् वरकुसुमदाममालोज्ज्वलम् / वरतरुणीसंपउत्त-त्रि०(वरतरुणीसंप्रयुक्त) सुरमणीसंप्रयुक्ते, विपा०२ जी०३ प्रति०४ अधि०। श्रु०१ अ० वरकोउय-न०(वरकौतुक) श्रेष्ठकुतूहले, "वरकोउयमंगलोवयारकय- | वरतालियंट-न०(वरतालवृन्त) व्यजनविशेषे, प्रश्न०४ आश्र० द्वार। संतिकम्म" वराणि यानि कौतुकानि भूतिरक्षादीनि मङ्गलानि च वरतुरग-पुं०(वरतुरग) जात्याश्वे, जं०२ वक्ष०ा रा०ा औ०। सिद्धार्थकादीनितद्रूप उपचारः- पूजा तेन कृतं शान्तिकर्मदुरितोपश- वरत्ता-स्त्री०(वरत्रा) रज्जवाम्, "रजू वरत्ताय" पाइ० ना० 210 गाथा। मक्रिया यस्य सः। भ०११श०११ उ०। वरदरिसि(ण)-पुं०(वरदर्शिन) चरमव्यभिचारित्वेन वस्तुस्वरूपं द्रष्टुं शीलं वरग-पुं०(वरक) वरट्टे, धान्यविशेषे, जं०२ वक्ष० भ०। मण्या- येषां तेवरदर्शिनः। सम्यग्ज्ञानदर्शनवत्सु, उत्त०२८ अ०। क्षायिकदर्शिनि, दिमहामूल्ये, आचा०१ श्रु०७ अ०७ उ०। स०३० सम० वरगंध-पुं०(वरगन्ध) प्रधानवासे, सका औ०। प्रज्ञा०) वरदत्त(दिन)-पुं०(वरदत्त) अरिष्टनेमेः प्रथमगणधरे, प्रव०८ द्वार। आ० वरगंधपुप्फदाण-न०(वरगन्धपुष्पदान) सुगन्धिकुसुमानां प्रधान- | म०। कल्प० स० नि०। आ०चू०(अरिट्ठणेमि' शब्दे प्रथमभागे 765 वासानां पुष्पाणां वितरणे, पञ्चा०२ विव०। पृष्ठे कथोक्ता। साकेतमित्रनन्दिनः पुत्रे, विपा०|
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________________ वरदत्त 895 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वररुड तद्वक्तव्यता चेयम् वरपोय-पुं०(वरपोत) वोहित्थे, प्रश्न०४ आश्र0 द्वार। जइणं दसमस्स उक्खेवओ एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं वरप्पसना-स्त्री०(वरप्रसन्ना) सुराविशेषे, जी०३ प्रति०४ अधिका समएणं सायं णामे णयरे होत्था, उत्तरकुरुउजाणे पासमियो वरफलग-न०(वरफलक) प्रधानफलके, प्रश्न०३ आश्र० द्वार। जक्खो मित्तणंदी राया, सिरिकता देवी वरदत्ते कुमारे वीर वरफलिह-न०(वरस्फटिक) प्रवलार्गलायाम, प्रश्न०३ आश्र० द्वार। सेणपामोक्खा णं पंच देवी सया तित्थगरागमणं सावगधम्म वरबोहि-स्त्री०(वरवोधि) विशिष्टसमयग्दर्शनलाभे, हा० ३अष्टा पुटवभवो पुच्छा, मणुस्साउए निबद्धे सयदुबारे णयरे विमल वरबोहिलाभ-पुं०(वरबोधिलाभ) वरः-प्रधानोऽप्रतिपातित्वाद् वाहणे राया धम्मरुई णामं अणगारं एजमाणं पासति पासित्ता बोधिलाभः-सम्यग्दर्शनावाप्तिर्यस्य स वरबोधिलाभकः। अप्रति-पातिपडिलाभिए समाणे मणुस्साउए निबद्ध इहं उप्पण्णे सेस जहा सम्यग्दर्शिनि, "वरबोहिलामओ सो, सव्वुत्तमपुप्फसंजुओ भगवं" सुबाहुस्स कुमारस्स चिंता० जाव पव्वजा, कप्पंतरीओ०जाव पञ्चा०७ विवश सव्वट्ठसिद्धे, तओ महाविदेहे०जाव सिज्झिहिति बुज्झिहिति० सव्वदुक्खाण अंतं करेति एवं खलु जंबू ! समणेणं०जावसंपत्तेणं वरबोहिलाभपरूवणा-स्त्री०(वरबोधिलाभप्ररूपणा) वरस्य तीर्थकरसुहविवागाणं दसमस्स अज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते, सेवं लक्षणफलकारणतया शेषबोधिलाभेभ्योऽतिशायिनो बोधिलाभस्य भंते ! सेवं भंते ! त्ति। (सू०३४)। विपा०२ 01 अ०। प्ररूपणा-प्रज्ञापना, अथवा-वरस्य-द्रव्यलाभव्यतिरेकिणः पारमार्थि कस्य बोधिलाभस्य प्ररूपणातीर्थकरत्वस्यफलतो हेतुतश्च प्ररूपणायाम्, वरदाम-न०(वरदामन्) स्वनामख्यातेजलतीर्थे, तच भारते वर्षे दक्षिणस्यामैरवते तत्रत्यापेक्षया दक्षिणस्यां विजयक्षेत्रेषु मध्यमभागेषु इत्येवं धा हेतुतः स्वरूपतः फलतश्चेति तत्र हेतुतस्तावदाह-तथा भव्यत्वाचतुस्विंशविजयक्षेत्रयुगलानि। जं०६ वक्षा आ०म०/ दितोऽसाविति / भव्यत्वं नाम सिद्धिगमनयोग्यत्वभनादिपरिणामिभाव आत्मस्वतत्त्वमेव। तथा भव्यत्वं तु भव्यत्वस्य फलदानाभिमुख्यकारि वरधणु-पुं०(वरधनुष) ब्रह्मदत्तराजमन्त्रिणो धनुम्निः सुते, येन ब्रह्मदत्तमातृव्यभिचारो ब्रह्मदत्तं प्रति कथितः। उत्त०१३ अ०। आ००। वसन्तादिवद्वनस्पतिविशेषस्य कालः कालसद्भावेऽपिन्यूनाधिकव्यपोहेन नियतकार्यकारिणी नियतिः, अपचीयमानसंक्लेशनानाशुभाशयआ०म०। आ०चूल। व्य०('परिणामिया' शब्दे पञ्चम-भागे 618 पृष्ठे अस्य वृत्तमुक्तम्।) संवेदन-हेतुः कुशलानुबन्धिकर्मसमुपचितपुण्यसंभारो महाकल्याणावरधम्मतित्थमग्ग-पुं०(वरधर्मतीर्थमार्ग) धर्मस्य जिनोक्तरूपस्य तीर्थ-- शयः प्रधानपरिज्ञानवान्प्ररूप्यमाणार्थपरिज्ञानकुशलः पुरुषः ततस्तथा पवित्रकरणस्थानकं तस्य मार्गा-ज्ञानदर्शनचारित्ररूपः, वरश्वासौ भव्यत्वमादौ येषां ते तथा, तेभ्यः असौ वरबोधिलाभः प्रादुरस्ति, स्वरूपं धर्मतीर्थमार्गश्चेति तथा / मोक्षमार्गे, तं०। चजीवादिपदार्थश्रद्धानमस्य। ध०१ अधिक। वरधम्मसिरी-पुं०(वरधर्मश्री) अतीतायां चतुर्विंशतिकायाम वरभवण-न०(वरभवन) सामान्यतो विशिष्टगृहे, जी०३ प्रति०४ अधिन न्तिमतीर्थकरे, महा। औ०। "वरभवणविसिट्ठसंठाणसंठिए'' वरभवनविशिष्टसंस्थानतेणं कालेणं जा अतीता अन्ना चउव्वीसिगा तीए जारिसो अह संस्थिताः। वरभवनं सामान्यतो विशिष्ट गृहं तस्येव यत् विशिष्टं संस्थानं य (श्रीदीरः) तारिसोचेव सत्तरयणीपमाणेणं जगच्छेरय-भूओ तेन संस्थिताः। जी०३ प्रति०४ अधि० देविंदवंदियएवरधम्मसिरी नामचरिमतित्थंकरो अहेसिामहा। | वरमउड-न०(वरमुकुट) प्रवरशेखरे, प्रश्न०४ आश्र० द्वार। वरधूव-पुं०(वरधूप) प्रधानधूपे, पञ्चा०४ विव०। वरमल्लधर-त्रि०(वरमाल्यधर) वराभरणधारिणि, सू०प्र०२० पाहु०। परपट्टण-गवरपतन) प्रधानपत्तन, आंगवरवस्त्रात्पात स्थान, ज्ञा०१ (क्लाहित युग परमाहवा प्रधान सारमेये, ज०ि३ प्रति०४ आध०। श्रु०१०॥ औ०। जंग वरपायव-पुं०(परपादप) प्रधानद्रुमे, प्रश्न०५ संव०द्वार। वरमुत्तम-त्रि०(वरमोत्तम) वरा श्रेष्ठामा लक्ष्मीस्तया उत्तमम्। सुश्रीके, वरपुंडक-पुं०(परपौण्ड्रक) विशिष्ट पुण्ड्रदेशोद्भवे, जी०३ प्रति०४ अधि० कल्प०२ अधि०८ क्षण! वरपुरिस-पुं०(वरपुरुष) वासुदेवे, जी०३ प्रति०४ अधि० / 0 / रा०। वरमुरय-पुं०(वरमुरज) महामर्दले, प्रश्न०५ संव० द्वार। आ०म०। प्रज्ञा० वरराइ-पुं०(वररुचि) नवमनन्दसमकालिके काव्यकर्तरि, आ०क० वरपुरिसवसण-न०(वरपुरुषवसन) वरपुरुषो वासुदेवस्तस्य वसनम्। ४अ०('थूलभद्द' शब्दे चतुर्थभागे 2416 पृष्ठे कथोक्ता।) वररुचिकृतं वासुदेववस्त्रे, तय किल पीतमेव भवतीति, पीतोपमायां वर्ण्यते, प्राकृतव्याकरणमपि अस्ति, तथा चाह स्वाप्राकृतलक्षणे-'इजेराः आ०म०१ अ० जी०। राग पादपूरणे // 62 / 217 / / इति लेखात् / आ०म०१०।
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________________ वरला 895 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वरुण वरला-स्त्री०(वरला) हंस्याम्, "वरलाओ हंसीओ।" पाइ० ना० 125 / (वर्णवादे गुरुप्रत्यनीकवाराहमिहिरसम्बन्धो 'भद्दबाहु' शब्दे पञ्चमभागे गाथा। 1366 पृष्ठे गतः।) वरवइरविग्गहिय-पुं०(वरवज्रविग्रहिक) वरवज्रस्येव ग्रह आकृतिर्यस्य J वराहरुहिर-न०(वराहरुधिर) वराहः शूकरस्तस्य रुधिरम् - शूकर स स्वार्थिकप्रत्यये वरवज्रविग्रहिकः / मध्यक्षामे, भ०२ श०८ उन शोणितम्, तद्धि अतिशोणितं भवति। अतिलोहिते वराहरक्ते, रा०॥ वरवण्ण-पुं०(वरवण) प्रधानचन्दने, औला वराही-स्वी०(वराही) परिव्राजकसम्बन्धिन्यां वराहविकुर्वणात्मिकायां वरवराह-पुं०(वरवराह) श्रेष्ठशूकरे, तंग विद्यायाम्, आ०क०१ अ० आ०म०ा विशेला कल्प०। वरवरिया-स्त्री०(वरवरिका) समयपरिभाषया, वरं याचध्वंवरयाचध्वमि- | वरिष्ठ-न०(वरिष्ठ) प्रधाने, औ० आचा०। त्येवं घोषणायाम्, आ०म०१अाआवा ('महादाण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे | वरिम्ह-न०(वर्मन्) काये, द्वा०२६ द्वा०। 161 पृष्ठे स्वरूपमस्याः प्रतिपादितम्। वरिय-त्रि०(वर्य) "स्याद्-भव्य-चैत्य-चौर्यसमेषु यात्" ||12|107 / / वरवारण-पुं०(वरवारण) प्रधानगजेन्द्र तं०। औ०। प्रश्न० जी०। / इति संयुक्तस्य यात्पूर्व इकारः। प्रा०। प्रधाने, सूत्र०२ श्रु०२ अ०३उ० "वरवारणमत्ततुल्लविक्कमविलासियगई" अस्य व्याख्याअत्रापि मत्त- वरिस-धा०(वृष) वर्षणे,"वृषादीनामरिः" ||84/235 // वृष' इत्येवं शब्दस्य विशेष्यात् परनिपातः प्राकृतत्वात्। मत्तो-मदोन्मत्तो यो वरः-- प्रकाराणां धातूनामृवर्णस्यारि इत्यादेशो भवति / वरिसइ / वर्षति / प्रधानो भद्रजातिको वारणो हस्ती तस्य तुल्यः सदृशो विक्रमः-पराक्रमो प्रा०४पाद। विलासिता-विलासः संजातोऽस्या विलासिता तारकादिदर्शनादित | *वर्ष-ना"श-र्ष-तप्त-वजे वा" / / 8 / 2 / 105 // इति संयुक्तस्याप्रत्ययः / विलासवती गतिर्गमनं येषां ते वरवारणमत्ततुल्यविक्रम- न्त्यव्यञ्जनात्पूर्व इकारः। वरिसं। प्रा० / "वत्स संवत्सर संवदित्यादि विलासितगतयः। जी०३ प्रति०२० पर्यायाः" है। वत्सरे, उत्त०७अ०| वरवाराणी-स्वी०(वरवारुणी) वरा चासौ वारुणी वरवारुणी / जी०३ / वरिसकण्ह-पुं०(वर्षकृष्ण) काश्यपगोत्रावान्तरगोत्रप्रवर्तक ऋषिभेदे, प्रति०४ अधि० उत्तमवारुणीनामके मदिराभेदे, जी०३ प्रति०४ अधिका तद्गोत्रपुरुषेषु च।स्था०८ ठा० ३उ०। प्रश्न वरिसगंथि-स्त्री०(वर्षग्रन्थि) जन्मदिनोत्सवे, यत्र वर्षं वर्ष प्रति-संख्यावरसमाहि-पुं०(वरसमाधि) परमस्वास्थ्यरूपे भावसमाधौ, ध०२ ज्ञापनार्थ ग्रन्थिबन्धः क्रियते। ज्ञा० 1 श्रु०८ अ०) अधि०ा लग परिसघर-पुं०(वर्षधर) वर्द्धितकीकरणेन नपुंसकीकृते अन्तः-पुरमवरसासण-न०(वरशासन) अनुत्तरे शासने, क०प्र०१० प्रक०। हल्लके, भ०६श०३३ उ० के०प्र०ा औ०। वरसिट्ठ-न०(वरसिष्ट) शक्रलोकपालस्य वरशिष्टस्य विमाने भ०३ श०७ | वरिसा-स्त्री०(वर्षा) "श-ब-तप्त-वज्र वा" ||105 // इतीकारः। उ०। (वक्तव्यता 'लोगपाल' शब्देऽस्मिन्नेव भागे गता।) प्रा० श्रावणभाद्रपदमासयोः, स्था०६ठा०३ उ०। वरसीधु-न०(वरसीधु) वरंचतत्सीधुवरसीधु, जी०३ प्रति०४ अधिo | वरिसारत्त-पुं०(वर्षा रात्र) भाद्रपदाश्वयुग्मासद्वयरूपे ऋतुभेदे, ज्ञा०१ श्रु० मदिराविशेषे, जी०३प्रति०४अधिका १अ स्था० / सू० प्र०। चं० प्र०। आ०म०। वरहाड-धा०(निस) बहिर्देशसंयोगानुकूल व्यापारे, "निस्सरेणीहर- वरिह-पुं०(वह) "ह-श्री-ही-कृत्स्न-क्रिया-दिष्ट्यादिष्वित्" नील-धाड-वरहाडाः" ||8476 / इति निस्सरतेवरहाडादेशः / ||8 / 2 / 104 / / इति संयुक्तस्यान्त्यव्यञ्जनात्पूर्व इकारः। मयूरकलापे, वरहाडइ। निस्सरति। प्रा०४ पाद। प्रा०२ पाद। . वरहिण-पुं०(वर्हिण) मयूरे, जी०१ प्रति०नि०चूला जलारा०ा प्रश्न०। वरुट-पं०(वरुण्ट) विच्छिके, शिल्पविशेषोपजीवके, प्रज्ञा० 16 पद। आचा०ा प्रज्ञा०1 अनुन स्थान वराग-पुं०(वराक) तपस्विनि प्रश्न०१ आश्र० द्वार / तं०। दुःख- वरुण-पुं०(वरुण) स्वनामख्याते नागनप्लके, भ०५ श०६ उ01 मोक्षार्थमभ्युद्यते, सूत्र०१ श्रु०१अ०१उ०। अपुष्टधर्मिणि, दशा० 6 अ०| ('रहमुसल' शब्दे 500 पृष्ठे वक्तव्यता।) शक्रस्य पश्चिमदिग्लोकपाले, अशक्ते, यः सर्वथाऽशक्तः पङ्गुप्रायः सवराक उच्यते, बृ०१ उ०२ प्रक०) (वक्तव्यता'लोगपाल' शब्देऽस्मिन्नेव भागे७१७ पृष्ठे गता।) (वरुणस्य आ०म० शताञ्जलं विमानं वरुणकायिका वरुणदेवकायिका नागकुमारा नागवराडय-न०(वराटक) दक्षिणापथीये जनपदविशेषे, दर्श०२ तत्त्व। कुमार्य उदधिकुमारा उदधिकुमार्यः स्तनित-कुमाराः स्तनितकुमार्यश्च कपर्दक / उत्त०३६ अ० जी०। प्रज्ञा०। आव०। अनु०ा आ०म०। पिं०। वशे तिष्ठन्तीति 'लोगपाल' शब्दे७१७ पृष्ठे उक्तम्।) शतभिषजो नक्षत्रस्य वराह-पुं०(वराह) शूकरे, औ०। जं० रा प्रव०ाजी01 प्रज्ञा०। "कोलो देवयोः, स्था०। किडी वराहो"। पाइ० ना० 127 गाथा। दो वरुणा / स्था०२ठा०३७० वराहमिहिर-पुं०(वराहमिहिर) भद्रबाहुस्वामिभ्रातरि, वाराह्याः संहि- जं० / अनु० / चमरस्य पश्चिमदिक्पालो वरुणः / स्था० 4 तायाः कारके स्वनामख्याते द्विजे, कल्प० 2 अधि० 8 क्षण / ग01 | ठा० 1 उ० / वलेरुत्तरदिक्पालो वरुणः, ईशानस्य पश्चिमदिकूपः
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________________ वरुण ८९६-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वरुणप्पभ एवं यावदच्युतस्यास्था० 4 ठा०१ उ०। दक्षिणयोः कृष्णराज्योर्मध्ये शुभंकरे विमाने,लोकान्तिकदेवेच स्था०५ ठा०३ उ०। भO! आ०म० ज्ञा०। श्रीमुनिसुव्रतस्य शासनयक्षे, स च चतुर्मुखस्त्रिनेत्रः असितवर्णो वृषभवाहनो जटामुकुटभूषितोऽष्टभुजो बीजपूरकगदावाणशक्तियुक्तदक्षिणकरकमलचतुष्कोनकुलपद्मधनुःपरशुयुजवामपाणिचतुष्टयश्च / प्रव०२६ द्वार। भोगपुरवास्तव्ये स्वनामख्याते श्रावके,ध०र०। . तद्वर्णनं चैवम्"धरमलयजतरव इव, प्रासादा यत्र भोगिजनकलिताः। सततं संतापहरा, भोगपुरं नाम त्रिदशपुरम्॥१॥ वरुणस्तत्र महेभ्यः, सर्वेभ्यः पुरजनेभ्य आढ्यतरः। गमसंगमसुभगागम-निगदितविधिविशदपदपथिकः // 21 // तस्य च नितान्तकान्ता, श्रीकान्ता संज्ञिताऽभवत्कान्ता। तनयः सुलसः सुलस-द्विनयादिगुणाम्भसः कलशः॥३॥ अथ नगरे भवचक्रे, चक्रेश्वरशक्रचक्रबलदलनः। निवसति वसतिर्दुस्तर-तरतमसां मोहभूभर्ता // 4 // सहसा सोऽन्येधुरभू-चिन्ताचयचुम्बितः समासीनः। अथ रागकेशरी स्मा-ह विस्मितस्तात ! ननु किमिदम्? ||5|| यत्त्वयि कुपिते शप्ते व विद्यया खेचरी त्रिलोकीयम्। चिन्तासन्तानाव-र्तगर्तपरिवर्तिनी भवति॥६॥ कृतनिखिलशत्रुबलभर-शातस्तातस्तु वहति यचिन्ताम्। तत् किमपि महचित्रं, मोहोऽथ जगाद हे 3 वत्स! |7|| चारित्रधर्मनामा, वामात्मा ननु सदागमोऽप्यस्ति। उद्दामसदागमदुष्ट-दुष्टसाहाय्यदुर्ललितः // 8 // रागःप्राह विरुपक-मसाधुना किमधुनाऽमुना चक्रे। मोहः स्माह न सम्प्रति, वत्स! कृतं किन्तु कर्ताऽसौ Ill भोगपुरेऽस्तिसदागम-वचनैकरुचिः शुचिर्वरुण इभ्यः। तस्य तनूजः सुलसः,प्रज्ञाविज्ञानकुलभवनम्॥१०॥ तं यदि सदागमोऽयं, व्युद्ग्राहयिता निजे मते दुष्टः। निश्चितमस्मत्कन्दा-निष्कन्दयिता स एव तदा ||11|| रागोऽभ्यधादहं लघु, कुदृष्टिरागेण निजकरूपेण / तमधिष्ठाय विधास्ये, वशंवदंतातपादानाम् / / 12 / / मोहो जगाद तुष्टः, साधूक्तं साधुवच तव भवतु। कुशलं पथ्यनुजोऽयं, द्वेषगजेन्द्रः सहायस्ते॥१३॥ पित्रा तावित्युक्ता-वुफ्सुलसं जग्मतुस्तदा तत्र। नगरे कश्चिन्चरकः, सुदुस्तपंतप्यते हि तपः॥१४॥ तंनन्तुं भूरिमुदा-ऽऽगच्छन्तं वीक्ष्य पुरजनं सर्वम्। सुलसः कौतुकितमना-स्तं गत्वा प्रतिपपातोच्चैः / / 15 / / लब्धावसरेणाथो, कुदृष्टिरागेण सुदृढमधितष्ठे। तममन्यत तत्त्वधिया, गुरुमिव देवमिव जनकमिव // 16|| प्रतिदिवसमसमभक्ति-स्तं प्रणमति नौति पर्युपास्ते च। कृतकृत्यं मन्वानः, परिहृतसकलान्यकर्त्तव्यः।।१७।। अथ विज्ञाय सदागम-निषिद्धविधिलालसं सुतं सुलसम्। वरुणः स्फूर्जत्करुण-स्तम्प्रति हितमिति निगदतिस्म||१८|| रागादिवीरविजयी, कृतसुरसेवः सदा जिनो देवः। शक्त्या जिनगदितागम-विधिकरणपरः स साधुगुरुः / / 16| गतसकलदूषणगणं, विलसन्निःशेषभूषणं परमम्। आगमतत्त्वं नित्यं, यस्य गृहे ज्ञायते वत्स ! // 20 // स हि कथमयथातथ–दर्शिदर्शिते पापकुञ्जरनिकुञ्ज। आगमविधिविपरीते, तत्त्वाभ्यासेऽपि रज्येत? // 21 // किंवत्स! सरसविसिनी-विसविसरोत्पन्नसततसौहित्यः। कादम्बो हि कदम्बे, लिम्बं वाऽऽलम्बतेक्वापि? // 22 // जलमुविमुक्तमुक्ता-फलनिर्मलसलिलविन्दुपानचणः / कस्मलनवलनीरं, वप्पीहोऽपीहते किं नु? // 23 // बहुनिष्कृत्रिमपवित्रम-फलभरसारं विलोक्य सहकारम् / चेतोऽपि दधीत कदापि, किं शुक्रः किंशुकसतृष्णम्? // 24 // दुस्तपतपसः कर्तु-भर्तुः समतांसदापि जैनमुनेः। कोऽन्यत्र मुनौ सुमनाः, स्वमनः कुर्वीत वीततमाः? // 25 / / अथ विहितसन्निधानो, द्वेषगजेन्द्रेण सुलस इत्यूचे। किं तात ! पातकादपि, न विभेषि महात्मनो निन्दन्? // 26 // मासक्षपणविधाता, निर्दोषसमस्ततत्त्वविज्ञाता। अमुना मुनिना सदृशः, कोऽन्यः सकलेऽपि भूमितले // 27 // अहह गुणिष्वपि राग, निवारयन् धारयन् मनो मलिनम्। का जगति गतिस्तव पाप-भाविनी भाव्यकल्याण ! // 28 // श्रुत्वैवं विच्छायो, वरुणो ह्यरुणोदये प्रदीप इव। दध्यौ धिग् धिग् विलसित-मसममिदं दृष्टिरागस्य // 26 // अपि कामस्नेहाख्यौ, रागौ भव्याङ्गिना सुखनिवार्यो। विदुषाऽपिदुरुच्छेदः, पापीयान् दृष्टिरागस्तु॥३०॥ कलिकालविलसितं त-नवाऽकूनुलं पचेलिमं कर्म। यदपेक्षते जनोऽयं, सदागमार्थेऽपि मूढमनाः // 31 // किं वातकी जनोऽयं, पिशाचकी वाऽथवा किमुन्मत्तः? आगमविधिं विना यत्, कुरुतेऽन्यत्रापि तत्त्वधियम्॥३२।। भविनो भवे भवेयुः, कथमेते दुःखमागलितमतयः? तीर्थाधिनाथगदितो, यदि न स्यादागमो भगवान् // 33 // प्रवितानयेन तनयेन, किमधुना किममुनाऽपि विभवेन? श्रीमन्तमागममहं, सेविष्ये सङ्ग निर्मुक्तः॥३४|| एवं ध्यात्वा वरुणः,स्वधनं पात्रे ददौ प्रविव्रजिषुः / तत्र तदानीमागा-धर्मवसुमि मुनिराजः॥३५|| इभ्यस्तन्नमनार्थं, प्रययौ नत्वा गुरून् समयविधिना। निषसाद यथास्थानक-मथसूरिर्देशनां चक्रे॥३६॥"ध०२०२अधि० 6 लक्ष०ा चतुःकरप्रमाणदेवावासैककरदेवालयनिर्मापके मधुपुरवास्तव्ये श्रावके, उत्त० अ० अहोरात्रस्य पञ्चदशे मुहूर्ते, सू०प्र०१०पाहु०॥ द० प०। ज्यो०। पुष्कलावतीविजये पुष्कलावतिनगरेऽतिकृपणे सार्थवाहे, दर्श०१ तत्त्व। वरुणकाइय-पुं०(वरुणकायिक) शक्रलोकपालस्य वरुणस्याभियोग्येषु देवेषु, भ०३ श०७ उ01 वरुणणई-स्त्री०(वरुणनदी) कालिञ्जयटव्यां स्वनामख्यातायां नद्याम्, कालिजराटव्यां वरुणनदीतीरे ऋषभजिनभवनम्। सडा०१प्रस्ता० १अधि। वरुणदेवकाइय-पुं०(वरुणदेवकायिक) स्वनामख्यातेषु शक्रलोक.. पालस्य वरुणस्याभियोगिकदेवेषु, भ०७ श०३ उ०। वरुणदेवा-स्त्री०(वरुणदेवा) मेतार्यस्य वीरदशमगणधरस्य मातरि, आ०म०१ अाआ०चून वरुणप्पभ-पुं०(वरुणप्रभ) वरुणद्वीपदेवे, सू०प्र० 16 पाहु०॥ द्वी०। शक्रादिलोकपालस्य वरुणस्य उत्पातपर्वते,स्था०१०ठा०३उ०।
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________________ वरुणप्पभा 897- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वरुणवर वरुणप्पभा-स्त्री०(वरुणप्रभा) वरुणप्रभद्वीपस्य दक्षिणराजधान्याम्, द्वी०। (अत्रत्या गाथाः 'रायहाणी' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 556 पृष्ठे गताः।) वरुणवर-पुं०(वरुणवर) पुष्करोदसमुद्रस्य सर्वतो द्वीपे, जी०। पुक्खरोदे णं समुद्दे वरुणवरे णामं दीवे वट्टे वलयागारे०जाव चिट्ठति, तहेव समचकवालसंठिते केवइयं चकवालविक्खंभेणं केवइयं परिक्खेवेणं? पण्णत्ता, गोयमा ! संखेजाइंजोयणसयसहस्साइं चकवालविक्खंभेणं संखेजाइंजोयणसयसहस्साई परिक्खेवेणं पण्णत्ते, पउमवरवेइया वणसंडवण्णओ दारंतरं पदेसा जीवा तहेव सव्वं / (सू०-१८०) 'पुक्खरोदेण' मिति पूर्ववत्, समुद्रं वरुणवरो नाम द्वीपो वृत्तो बलयाकारसंस्थानसंस्थितः सर्वतः समन्तात्संपरिक्षेप्य तिष्ठति / अत्रापि पुष्करोदसमुद्रवत्, चक्रवालविष्कम्भपरिक्षेपवेदिकावनखण्डद्वारतदन्तरप्रदेशजीवोपपातवक्तव्यता वक्तव्या। संप्रति नामान्वर्थभिधित्सुराहसे केणऽटेणं भंते ! एवं वुबइ वरुणवरे दीवे वरुणवरे दीवे? गोयमा ! वारुणवरे णं दीवे तत्थ तत्थ देसे तहिं तहिं बहवे खुड्डा खुडियाओ० जाव विलपंतियाओ अच्छाओ पत्तेयं पत्तेयं पउमवरवेइयापरिक्खेवेणं वणसंडपरिक्खेवेणं वारुणिवरोदगपडिहत्थाओ पासाइयाओ, तासुणं खुड्डाखुड्डियासु० जाव विलपंतियासुं बहवे उप्पायपव्वया०जाव खडहडगा सव्वफलिहामया अच्छा, तहेव वरुणवरुणप्पभा एत्थ दो देवा महिडिया०जाव परिवति, से तेणउद्वेणंजाव णिचे। जोइसं सव्वं संखेज्जगुणं०जाव तारागणकोडिकोडीओ। (सू०-१८०) 'से केणतुण' मित्यादि, अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते वरुणवरो द्वीपो वरुणवरोद्वीपः? भगवानाह-गौतम ! वरुणवरस्य द्वीपस्य तत्रतत्र देशे तस्य तस्य देशस्य तत्र तत्र प्रदेश बहवो 'खुड्डाखुड्डि-याओ० जाव विलपंतिओ' यावत्करणात्- 'पुष्करिणीओ गुंजालियाओ दीहियाओ सराओ सरपंतियाओ सरसरपंतियाओ० जाव महुररसणिचयाओ' 'विलपंतीओ अच्छाओ' इति, यावत्करणात्--"सण्हाओ रयणमयकुलाओसमतीराओ वइरामयपासाणाओ तवणिज्जतलाओसुवण्णसुज्झरययवालुयाओ वेरुलियमणिफालियपडलपच्चोयडाओ सुहोयाराओ सुहत्ताराओ नाणामणितित्थसुबद्धाओवाउकोणाओ आणुपुव्वसुजायवप्पगंभीरसीयलजलाओ संछन्नपत्तडिभसमुणालाओ बहुउप्पलकुमुयनलिणसुभगसोगंधियाओपुंडरीयसयपत्तसहस्सपत्तकेसरफुल्लोवचियाओ छप्पयपरिभुजमाणकमलाओ अच्छविमलसलिलपडिपुन्नाओ पडिहस्थगभर्मतमच्छकच्छभअणेगसउणगणमिहुणविचरियसदुण्णइयमहुरसरनाइयाओ'' अस्य व्याख्यानं प्राग्वत्। वारुणिवरोद-गपडिहत्थाओ' इत्यादि, वारुणिवरे च वरवारुणीव यत् उदकं तेन ‘पडिहत्थाओ' प्रतिपूर्णाः 'पत्तेयं पत्तेयं पउमवरवेइयापरिक्खित्ताओ पासाइयाओ दरिसणिजाओ अभिरूवाओ पडिरूवाओ' इति पाठसिद्धम् 'तिसोवाणतोरणा' इति तासां त्रिसोपानानि तोरणानि च प्रत्येकं वक्तव्यानि तानि चैवम्- "तासि णं खुड्डाखुड्डियाणं वावीणं पुक्खरिणीणं दीहियाणं गुंजालियाणं सरसियाणं सरपंतियाणं सरसरपंतियाणं विलपंतियाणं पत्तेयं पत्तेयं चउद्दिशिं चत्तारि तिसोवाणपडिरूवगा पण्णत्ता, तेसि णं तिसोवाणपडिरूवगाणं इमे एयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, तं जहावइरामया नेमा रिट्ठामया पइट्ठाणा वेरुलियामया खंभा सुवण्णरुप्पमया फलगा वइरामया संधी लोहियक्खमइओ सूईओ नाणा मणिमया अवलम्बणा अवलंबणवाहाओ पासाईया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा, तेसि णं तिसोवाणपडिरूवगाणं पुरतो पत्तेयं पत्तेयं तोरणा पन्नत्ता, ते णं तोरणा नाणामणिमया नाणामणिमयेसु खंभेसु उवनिविट्ठा विविहमुत्ततरोवचिया विविहतारारूवोववेया ईहामिगउसभतुरगनरविहगवालगकिन्नररुरुसरभचमरकुंजरवणलयपउमलयभत्तिचित्ता खंभुग्गयवरवेइयापरिगयाभिरामा विजाहरजमलजुयलजंतजुत्ता विव अचीसहस्समालिणीया रूवगसहस्सकलिया भिसमाणा भिडिभ-समाणा चक्खुल्लोयणलेसा सुहफासा सस्सिरीया पासाईया दूरि-सणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा, तेसि णं तोरणाणं उवरि अट्ठमंगलगा पन्नत्ता, तं जहा-सोत्थियसिरिवच्छनंदियावत्तवद्धमाणगभद्दासणकलसमच्छदप्पणा सव्वरयणामया अच्छा०जाव पडिरूवा। तेसि णं तोरणाणं उवरि बहवे किण्हचामरज्झया नीलचामरज्झया लोहियचाभरज्झया हालिबचामरज्झया सुकिल्लचाभरज्झया अच्छा सण्हा रुप्पपट्टा वइरामयदंडा जलयामलगन्धिया सुरम्मा पासाईया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा तेसि णं तोरणाणं उवरि बहवे छत्ताइछत्ता पड़ागाइपड़ागा घंटाजुयला उप्पलहत्थमा कुमुयहत्थमा नलिणहत्थगा सुभगहत्थगा सोगंधियहत्थगा पोंडरीय-हत्थगा महापोंडरीयहत्थगा सतपत्तहत्थगा सहस्स पत्तहत्थगा सयसहस्सपत्तहत्थगा सव्वरयणामया अच्छा सण्हा लण्हा घट्ठा मट्ठा नीरया निम्मला निप्पंका निक्कंकडच्छाया सप्पभा सस्सिरीया सउज्जोया पासाईया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा' अस्य व्याख्या पूर्ववत् / "तासि णं खुड्डाखुड्डियाणं वावीणं पुक्खरिणीणं० जाव विलपंतियाणं तत्थ तत्थ देसे तर्हि तहिं बहवे उप्पायपव्वगा निययपव्वगा जगतीपव्वयगा दारुपव्ययगा मंडवगा दगमंडवगा दकमालगा दगपासाया उसडगा खडखडगा अंदोलगा पक्खंदोलगा सव्वरयणामया अच्छा०जाव पडिरूवा" इत्यपि प्राग्वत्। "तेसुणं पव्वयगेसु०जावपक्खंदोलगेसुबहवे हंसासणाई उन्नयासणाई पणयासणाई दीहासणाई भद्दासणाई पक्खासणाई मगरासणाईपउमासणाईसीहासणाई दिसासोवत्थियासणाइंसव्वफालियामयाइं अच्छाइं०जाव पडिरूवाइं वरुणवरस्सणं दीवस्स तत्थ तत्थ देसे तहिं तहिं बहवे आलीघरगा मालीघरगा के इयघरगा अच्छणघरगा पेच्छणघरगा मज्जणघरगा मंडणघरगा पसाहणघरगा गत्तघरगा मोहणघरगा चित्तघरगा मालघरगा जालघरगा कुसुमघरगा सव्वफालियामया अच्छा०जाव पडिरूवा। तेसुणं आलीघरएसु०जाव कुसुमघरएसु बह
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________________ वरुणवर ८९८-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वरुणोद वे हंसासणाई० जाव दिसासोवत्थियासणाई सव्वफालियामयाई अच्छाइं० जावपडिरूवाई, वरुणवरेणं दीवे तत्थ तत्थ देसे तहिं तहिं बहवे जातिमंडवगा जूहियामंडवगा मल्लियामंडवगा नवमालियामंडवगा वासंतियमंडवगा दहिवासइमंडवगा सूरुल्लियामंडवगा तंबोल्लमंवगा अप्फायामंडवगा अइमुत्तमंडवगा मुद्दियामंडवगा मालुयामंडवगा सा (सो) मलयामंडवगा सव्वफालिहामया अच्छा० जाव पडिरूवा, तेसु णं जाइमंडवेसु०जाव सा (सो) मलयामंडवेसु बहवे पुढविसिलापट्टगापन्नता, अप्पे-गझ्या हंसासणसंठिया अप्पेगइया कोंचासणसंठिया०जाव अप्पे-गइया दिसासो वत्थियासणसंठिया अप्पेगइया वरसयणविसिट्ठसंठाणसंठिया सव्वफालिहामया अच्छा० जाव पडिरूवा। तत्थ णं बहवे वाणमंतरा देवा देवीओ य आसयंति संयति चिट्ठति निसीयंतितुयट्टति रमंतिललंति कीलंति पुरा पोराणाणं सुचि–ण्णाणं सुप्परक्ताणं सुभाणं कडाणं कम्माणं कल्लाणाणं फलवित्तिविसेसे पच्चणुब्भवमाणा विहरंति" एतत्सर्वं प्राग्वत् व्याख्येयम्, नवरं पुस्तकेष्वन्यथा अन्यथा पाठ इति यथावस्थित--पाठप्रतिपत्त्यर्थं सूत्रमपि लिखितमस्ति, तावदेवं यस्मादरवारुणीवाऽत्र वाप्यादिषु उदकं तस्मादेष द्वीपो वरुणवरः। अन्यच वरुण-वरुणप्रभौचात्र वरुणवरे द्वीपे द्वौ देवौ महर्द्धिको यावत्पल्योपम-स्थितिको परिवसतस्तस्मादरुणवरो वरुणदेवप्रधानः, तथा-चाह-'से एएणतुण' मित्यादि चन्द्रादिसंख्याप्रतिपादनार्थमाह 'वरुणवरेणं दीवे कइ चंदा पभासिंसु' इत्यादिपावसिद्धम् सर्वत्र संख्येयतयाऽभिधानात्। जी०३ प्रति०२ उ०। अनु०॥ सू०प्र०। च०प्र०) वरुणा-स्त्री०(वरुणा) अच्छजनपदप्रधाननगर्याम्, वरुणा अच्छा यू वरुणा-नगरी, अच्छो–देशः। अन्ये तु-वरुणा अच्छा पुरीत्याहुः। प्रव० 275 द्वार। वरुणोद-पुं०(वरुणोद) वरुणवरद्वीपस्याभितः समुद्रे, जी०। वरुणवरं णं दीवं वारुणोदे णामं समुद्दे वट्ट वलया० जाव चिट्ठति, समचकवाल०विसमतहेव सवं भाणियव्वं विक्खंभपरिक्खेवो संखेडाई जोयणसहस्साइंदारंतरं च परमवरवणसंडे पएसा जीवा अत्थो गोयमा ! वारुणोदस्स णं समुहस्स उदये से जहानामएचंदप्पभाए वामणिसिलागाइवावरसीधुवरवारुणीइवा पत्तासवेइवा पुष्फासवेइवाचोयासवेइवा फलासवेइ वा महुमेरएइ वा जातिप्पसन्नाइवा खजूरसारेइ वा मुहियासारेइ वा कापिसायणाइवा सुपकक्खोयरसेइवापभूतसंभारसं चिता पोसमाससतभिसयजोगोवचिता निरुवहतविसिदिण्णकालोवयारा सुधोता उकोसगअट्ठपिटपुट्ठा मुखइंतवरकिमदिण्णकद्दमां कोपसन्ना अच्छा वरवाराणी अतिरसा जंबूफलपुट्ठवण्णा सुजाता इसी उट्टावलंबिणी अहियमहुरपेठाईसासिरत्त णेत्ता कोमलकवोलकरणी०जाव आसादिता विसदिता अणिहुयसंलावकरणहरिसपीतिजण-णी संतो सततबिब्बोकहावविम्भमविलासवेल्लहलगमणकरणी विरणअहियसत्तजणणी य होति संगामदेसकाले कयरणसमरपसरकरणी कठियाणविजुपयतिहिययाणमउयकरणी य होति उववेसिता समाणा गतिं खलावेतिय सयलम्मि विसुभासवुप्पालिया समरभग्गवणोसहयारसुरभिरसदीविया सुगंधा आसायणिज्जा विस्सायणिक्षा पणिजादप्पणिञ्जामयणिज्जा सविंदियगातपल्हातणिज्जा आसला मांसला पेसला(ईसी ओढावलंबिणी ईसी तंबच्छि करणी ईसी वोच्छेया कडुआ) वण्णेणं उववेता गंधेणं उववेया रसेणं उववेया फासेणं उववेया भवे एयारूवे सिया? गोयमा! नो तिणढे समढे वरुणोदस्स णं समुदस्स उदये एतो इतरे जाव उदए। से एएणडेणं एवं बुचति० तत्थ णं वारुणिवारुणकंता देवा महिडिया जाव परिवति, से एएणऽटेणं०जाव णिचे, सवं जोतिससंखेशकणणायव्वं वारुणवरेणं दीवे कह चंदा पभासिंसु वापभासंति वा पभासिस्संति वा (सू०-१८०) 'वरुणवरं णं दीव' मित्यादि वरुणवरमिति पूर्ववत्, वरुणोदः-समुद्रो वृत्तो-वलयाकारसंस्थानसंस्थितः सर्वतः- समन्तात् संपरिक्षिप्य तिष्ठति, यथैव पुष्करोदसमुद्रस्य वक्तव्यता तथैवास्यापि यावजीवोपपातसूत्रद्वयम् / संप्रति नामनिबन्धनमभिधित्सुराह-'से केणटेण' मित्यादि, अथ केनार्थेन भदन्त! एवमुच्यते-वरुणोदः-समुद्रो वरुणोदः समुद्र? इति, भगवानाह-गौतम ! वरुणोदस्य-समुद्रस्योदकम, सा लोकप्रसिद्धा यथा नाम चन्द्रप्रभेति वा-चन्द्रस्येव प्रभा-आकारो यस्याः सा चन्द्रप्रभा-सुराविशेषः, इतिशब्द उपमाभूतवस्तुपरिसमाप्तिद्योतकः, वाशब्दः समुच्चये, एवमन्यत्रापि, मणिशलाकेव मणिशलाका, वरं च तत् सीधूच वरसीधू, वरा चासौ वारुणीव वरवारुणी, धातकीपत्ररस-सार आसवः पत्रासवः, एवं पुष्पासवः फलासवश्च परिभावनीयः, चोयोगन्धद्रव्यंतत्सार आसवः चोयासवः,मधुमेरकौलोकादव-सातव्यौमद्यविशेषौ जातिपुष्पवासिता प्रसन्ना जातिप्रसन्ना, मूलदलखर्जूरसार आसवः खर्जूरसारः, मृद्रीकाद्राक्षा तत्सारनिष्पन्न आसवोमृद्वीकासारः, कापिशयनं मद्यविशेषः सुपकः-सुपरिपाकागतोयःक्षोदरस इक्षुरसस्त-निष्पन्न आसवः सुपक्वेक्षुरसः,अष्टवारपिष्टप्रदाननिष्पन्ना अष्टपिष्टनिष्ठिताजम्बूफलकालिवरप्रसन्ना सुराविशेषः, उत्कर्षेण मदं प्राप्ता उत्कर्षमदप्राप्ता आसला-- आस्वादनीया मांसला-बहला पेसला-मनोज्ञा ईषत् ओष्ठमवलम्बते ततः परमतिप्रकृष्टास्वादगुणरसोपेतत्वात्, झटिति परतः प्रयाति ईषदोष्ठावलम्बिनी, तथा ईषत्ताम्राक्षिकरणी, तथा ईषत्-मनाक् व्यवच्छेदेपानोत्तर-कालंकटुकातीक्ष्णेति भावः, एलाधुपबृह-कद्रव्यसमायोगात्, तथा वर्णनातिशायिना एवं गन्धेन स्पर्शन उपपेता आस्वादनीया–महतामप्यास्वादयितुयोग्या, विस्वादनीया विशेषतआस्वादयितुंयोग्या अतिपरमास्वा
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________________ वय 899 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वयछक्क दनीयरसोपेतत्वात, दीपयति जाठराग्निमिति दीपनीया, "कृद् बहुल' | बलग्गह-देशी-आरोहणे, दे० ना०७ वर्ग 46 गाथा। पाइ० ना०। इति वचनात् कर्तर्यनीयप्रत्ययः, एवं मदयतीति मदनीया मन्मथजननी वलग्गंगणी-देशी-वृतिवाचके, दे० ना०७ वर्ग 43 गाथा। बृंहयतीति बृहणीया धातूपचयकारितत्वात् सर्वेन्द्रियाणि गात्रं च अवलम त्रि. आरूढे, "वलग्गं आरूढं"। पाइ० ना० 247 गाथा। प्रह्लादयतीति सर्वेन्द्रियगात्र प्रह्लादनीया! एवमुक्ते गौतम आह-भगवन्! वलमय-देशी-शीघ्र, दे० ना०७ वर्ग 46 गाथा। भवेदेतद्रूपं वरुणोदक-समुद्रस्योदकम् ? भगवानाह-मायमर्थः समर्थः वलयन० (वलक) वलयानि-पृथिवीनां वेष्टनानि। घनोदधि-घनवातवरुणोदस्य णमिति यस्मादर्थे निपातानामनेकार्थत्वात्, समुद्रस्योदकम्। तनुवातलक्षणे, स्था० 2 ठा०४ उ०। क्षेत्रे, गृहे च। दे० ना०७ वर्ग०५५ इतः पूर्वस्मात् सुरादिविशेषसमूहादिष्टतरमेव कान्ततरमेव प्रियतरमेव गाथा। मनोज्ञतरमेव मनआपतरमेव आस्वादेन प्रज्ञप्तम्, ततो वारुणीवोदकं वलयणी-देशी-वृत्तिवाचके, दे० ना०७ वर्ग 43 गाथा। यस्यासौ वारुणोदः, तथा वारुणिवारुण-कान्तौ चात्रावारुणोदे समुद्रे वलयबाहु पुं० (वलयबाहु) चूडकाख्ये भुजाभरणे, दे० ना०७ वर्ग 52 / यथाक्रमं पूर्वापरार्धाधिपती महर्द्धिको देवो यावत्पल्योपमस्थितिको गाथा। पाइ० ना०। परिवसतः, ततो वारुणेरुणकान्तस्य च संबन्धि उदकं यत्रासौ | वलयवाडी-देशी-वृतिवाचके, दे० ना०७ वर्ग 43 गाथा। वारुणोदः पृषोदरादित्वादिष्टरूपनिष्पत्तिः। तथा चाह - ‘से एएणद्वेण' वलयमरण न० (वलन्मरण) मरणभेदे, उत्त० पाई०५ अ०। मित्याद्युपसंहारवाक्यम्, चन्द्रादिसूत्र प्राग्वत्। जी०३ प्रति०२ उ०। (व्याख्या 'मरण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 109 पृष्ठे गता।) सू०प्र०। द्वी०। जं०। स्था०। वली स्त्री० (वली) द्वितीये असुरकुमारे, स्था०२ ठा०३ उ०। वरुणोववाय पुं० (वरुणोपपात) वरुणो नाम देवस्तत्स-मयनिबद्धो वलविअ-देशी-शीघ्रार्थे, दे० ना०७ वर्ग 48 गाथा। ग्रन्थस्तदुपपातहेतुर्वरुणोपपातः। संक्षेपिकदशानां सप्तमेऽध्ययने, स्था०। वलुण पुं० (वरुण) हरिद्रादित्वात् रस्य लः / पश्चिमदिकपाले, प्रा०१ वरुणोववाए (सू०-७५५) पाद। यदा तदध्ययनमुपयुक्तः सन् श्रमणः परिवर्तयति तदाऽसौ वरुणो देवः वल्लई स्त्री० (वल्लकी) वीणायाम, "विवंचिआ वल्लई वीणा।'' पाइ० स्वसमयनिबद्धत्वाचलितासनः सम्भृमोद्धान्तलोचनः प्रयुक्तावधिस्तद् ना० 122 गाथा। गवि, दे० ना०७ वर्ग 36 गाथा। विज्ञाय कृष्टोऽवपतति, अवपत्य च तदा तस्य श्रमणस्य पुरतः स्थित्वा- वल्लर न० (वल्लर) गहने, "गुविलं कलिलं च वल्लरं गहनं''। पाइ० ऽन्तर्हितः शृण्वंस्तिष्ठति, समाप्ते च भणति सुस्वाध्यायितमिति वरं ना० 141 गाथा / अरण्यक्षेत्रे, "वल्लरं अरनछित्तं" / पाइ० ना० वृणीष्वेति। ततोऽसाविहलोकनिष्पिपासः प्रतिवदति न मे वरेणार्थ इति 143 गाथा। अरण्यादौ, दे० ना०७ वर्ग 86 गाथा। ततोऽसौ वरुणो देवः प्रदक्षिणां कृत्वा प्रतिगच्छति। स्था० 10 ठा०३ वल्लरी स्त्री० (वल्लरी) मञ्जर्याम्, "वल्लीउ वल्लरीओ" पाइ० ना० उ०पा०। व्या 136 गाथा। वरहिणी स्त्री० (वरुथिनी) सेनायाम्, "सेणा वरुहिणी वाहिणी अणीअं | वल्लव पुं० (वल्लव) गोपाले, "गोवाला वल्लवा गोवा"। पाइ० ना० चमू सिन्नं" पाइ० ना०३४ गाथा। 104 गाथा। वरेण्ण त्रि० (वरेण्य) प्रधानतरे, तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गः। जै० गा०। वल्लाओ-देशी- श्येने, नकुले च। दे० ना०७ वर्ग 84 गाथा। वरोट्टिया स्त्री० (वरोट्टिका) ब्राह्मया लिपेरन्यतमे लेख्यविधाने, प्रज्ञा० | वल्ली स्त्री० (वल्ली) मञ्जर्याम्, "वल्लीउ वल्लरीओ"। पाइ० ना० 1 पद। आ० म०। स०। 138 गाथा। कृतानन्तवनस्पतिप्रत्याख्यानिनां भूमिकूष्माण्डंतापादिवरोरु त्रि०(वरोरु) वरः प्रधानऊरुर्विशालश्च यस्य सः। प्रधानोरुयुजिं, व्यतिरेकेण शुष्कं वाऽऽर्द्र वा कल्पने, किं वाआद्धविध्युक्तसंस्कृकल्प०१ अधि०२ क्षण। ताकवदकल्प्यम् ? यतस्तद्वल्लीपत्राण्येवोy दृश्यन्ते फलानि भूमिवल-देशी-आरोपणे, ग्रहणे च ! दे० ना०७ वर्ग 86 गाथा। गतान्येवेति प्रश्नः, अत्र्योत्तरम्-भूमिकूष्माण्डं सम्यक्तया शुष्क वलअंगी-देशी-वृतिमत्याम्, दे० ना०७ वर्ग 43 गाथा। सदनन्तवनस्पतिप्रत्याख्या-निनामौषधादिकारणे ग्रहीतुं कल्पत इति वलंगणआ-देशी-वृतिमत्याम्, दे० ना०७ वर्ग 43 गाथा। व्यवहारोदृश्यते, परंतदातपं विना सम्पूर्णतया शुष्कं न भवतीतितत्स्ववलक्ख त्रि० (वलक्ष) श्वेते, "सेअंसिअंवलक्खं, अवदायं पंड्डु धवलं / रूपविदो विदुरिति ॥५२।सेन०१ उल्ला०। च" पाइ० ना०६२ गाथा। वव न० (वव) ज्योतिषप्रसिद्ध अध्रुवकरणभेदे, उत्त० 4 अ० / विशे० / वलगय त्रि०(अवलगक) पश्चाल्लगित्वा वार्ताश्रावके, "प्रान्तग्रामे क्वचि- जं०आ० चू० आ० म०। प्रव०। कश्चि–देकोऽवलगकः पुमान् “आ० क०१०। ववगमपुं०(व्यपगम) व्यवच्छेदने, आ०म०२ अ०। वलंग्गधा० (आरुह) उच्चैर्गमने, “आरुहेश्चङ-वलग्गौ' ||14 / 206 / / ववगय त्रि० (व्यपगत) अविद्यमाने, सूत्र० 1 श्रु० 3 अ० 4 इति आयूर्वकस्य रुहधातोर्वलम्गादेशः / वलम्गइ। आरुहइ। आरोहति / उ० / "ववगयइड्डिसक्कारा" व्यपगता ऋद्धिर्विभवैश्वर्यं सत्कारश्च प्रा०४ पाद। सेव्यता-लक्षणो येभ्यस्ते तथा / जं० 2 वक्ष० / औ० /
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________________ ववगय ६००-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 ववसाय "ववगयखीरदहिणवणीयसप्पितेल्लगुललोणमहुमज्जमंसपरिचत्तकयाहाराओ" त्ति / औ० / ('आराहगा' शब्दे द्वितीयभागे 376 पृष्ठे व्याख्यातमेतत्।) ववगयगहचंदसूरनक्खत्तजोइसियपहा। व्यपगत :- परिभ्रष्टो ग्रहचन्द्रसूरनक्षत्रारूपाणामुपलक्षणमेतत्तारा- | रूपाणां च ज्योतिष्काणां पन्थाः-मार्गो येभ्यस्ते व्यपगतग्रहचन्द्रसूर्यनक्षत्राज्योतिष्कपथाः। प्रज्ञा०२ पद। "ववगयचुयचावियचत्तदेह जीवविप्पजद' अनु० / ('आवस्सय' शब्दे द्वितीयभागे 448 पृष्ठ व्याख्यातमेतत्।) "ववगयचुयचइय-चत्तदेह" भ०७ श० 1 उ० / ('आहार' शब्दे द्वितीयभागे 523 पृष्ठे व्याख्यातमेतत्।) ववगयजरामरणभया'' जरा-वयोहानिलक्षणा मरणं प्राणत्यागरूपं भयम् इहलोकादिभेदात्सप्त-प्रकारम्, उक्तं च - "इहपरलोगादाणं, अकम्हआजीवमरण-मसिलोए'' इति, विशेषतोऽपुनर्भावत्यागरूपतया, अपगतानिभ्रष्टानि जरामरणभयानि येभ्यस्ते तथा तान्। प्रज्ञा०१ पद। 'ववगय दुभिक्खदोसमारि" व्यपगतं दुर्भिक्षं दोषमारिश्च यत्र तत् व्यपगतदुर्भिक्षदोषमारि। रा०। "ववगयपेमरागदोसमोहे" / व्यपगतम्- नष्टम् प्रेम च-अभिष्वङ्गलक्षणं रागश्च-विषयानुरागलक्षणो द्वेषश्च अनिष्टेsप्रीतिरूपो मोहश्च अज्ञानरूपो वा यस्य स तथा। औ01"ववगयमालावण्णगविलेवणं' भ०७ श०१ उ०। ('आहार' शब्दे द्वितीयभागे 523 पृष्ठे व्याख्यातमेतत्।) ववट्ठावण न० (व्यवस्थापन) निक्षेपे, अनु०। ववण न० (वपन) तूल, "पलहा वपण तूली रूवो'। पाइ० ना० 255 | गाथा। ववर्णयदोहलास्त्री० (व्यपनीतदोहदा) सर्वथाऽसदोहदायाम, यस्याः सर्वे दोहदाः पूरिताः। कल्प० 1 अधि० 4 क्षण। ववत्था स्त्री० (व्यवस्था) मर्यादायाम, बृ० 6 उ० / स्था०। स्थितिः समयो व्यवस्था मर्यादेत्यनर्थान्तरम्। आ० चू०२ अ०। स्था०। ववदेस पुं० (व्यपदेश) प्रतिपादने, सूत्रा०१ श्रु० 15 अ० / आचा०। तात्स्थ्यात्तव्यपदेशो, यथा-मञ्चाः क्रोशन्ति। आ० म०१ अ०। ववरोवण न० (व्यपरोपण) विनाशने, ध० 3 अधि०। प्रच्यावने, आचा० 2 श्रु०१ चू० 2 अ० 1 उ०। ववरोविता स्त्री० (व्यपरोपयिता) भंशयितीरे, स्था० 4 ठा० 4 उ०।। ववरोविय त्रि० (व्यपरोपित) मारिते, ध०२ अधि०। "जीवियाओ ववरोविया'' आ० म०१ अ०। ववसायि (ण) त्रि०(व्यवसायिन) अनलसे उद्योगवति, व्य०३ उ०। / ववसाय पुं० (व्यवसाय) दुष्करणाध्यक्साये, पा०।०। व्यापारे, उत्त० 3 अ०। विशिष्टोऽवसायो-निर्णयः / न०। निश्चये, प्रश्न०१ संव० द्वार। | सूत्र० / इच्छायाम, बृ० 1 उ०२ प्रक० / आ० म० / विशेषनिश्चये, विशे०रा०ा आ० चू०। अनुष्ठानोत्साहे. स०। सद्व्यापारे, औ०। व्यवसायभेदानाहतिविहे ववसाये पण्णत्ते, तं जहा-धम्मिए ववसाये, अहम्मिए ववसाये, धम्मियाघम्मिए ववसाये / अहवा-तिविहे ववसाये पण्णत्ते, तं जहा-पञ्चक्खे पञ्चइए आणुगामिए।। (सू०-१८५) व्यवसायो-वस्तुनिर्णयः पुरुषार्थसिद्धर्थमनुष्ठानं वा, स च व्यवसायिनां धार्मिकाऽ१धार्मिक 2 धार्मिकाऽधार्मिकाणां 3 - संयतासंयतदेशसंयतलक्षणानां सम्बन्धित्वादभेदेनोच्य-मानस्त्रिधा भवतीति संयमाऽसंयमदेशसंयमलक्षणविषयभेदाद्वा 4, व्यवसायो-निश्चयः सच प्रत्यक्षोऽवधिमनः पर्यायकेवलाख्यः प्रत्ययात्-इन्द्रियानिन्द्रियलक्षणानिमित्ताज्जातः प्रात्ययिकः, साध्यम् अग्नयादिकमनुगच्छति साध्याभावे न भवति योधूमादिहेतुः सोऽनुगामी, ततो जातमानुगामिकम् -अनुमानं तद्रूपो व्यवसाय आनुगामिक एवेति / अथवा--प्रत्यक्षःस्वयंदर्शनलक्षणः प्रात्ययिकः--आप्तवचनप्रभवः तृतीयस्तथैवेति 5 / अहवा-तिविहे ववसाये पण्णत्ते, तं जहा-इहलोइए परलोइए इहलोइयपरलोइए 6 / इहलोइए ववसाये तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-लोइए वेइए सामइए 7, लोइए ववसाये तिविहे पन्नत्ते, तं जहा-अत्थे धम्मे कामे। वेइए ववसाएतिविहे पन्नत्ते,तं जहारिउटवेए जउटवेए सामवेए / सामइए ववसाए तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-णाणे दंसणे चरित्ते॥१०॥ (सू०-१८५) इह लोके भव ऐहलौकिकः, य इह भवे वर्तमानस्य विप्रयोऽनुष्ठानं वास ऐहलौकिको व्यवसाय इति भावः / यस्तु परलोके भविष्यति स पारलौकिकः, यस्त्विह परा च स ऐहलौकिक-पारलौकिक इति 6 / लौकिकः-सामान्यलोकाश्रयो निश्चयोऽनुष्ठानं वा, वेदाश्रितो वैदिकः, समयः-सांख्यादीनां सिद्धान्तस्तदाश्रितस्तु सामयिकः 7 / लौकिकादयो व्यवसायाः प्रत्येकं त्रिविधास्ते च प्रतीता एव, नवरम्-अर्थधर्मकामविषयो निर्णयो यथा-"अर्थस्य मूलं निकृतिः क्षमा च, धर्मस्य दानं च दया दमश्च / कामस्य वित्तं च वपुर्वयश्च, मोक्षस्य सर्वोपरमः क्रियासु // 1 // " इत्यादिरूपस्तदर्थमनुष्ठानं वा अर्थादिरेव व्यवसाय उच्यत इति 8 / ऋग्वेदाद्याहितो निर्णयो व्यापारो ऋग्वेदादिरेवेति 6 / ज्ञानादीनिं सामायिको व्यवसायः, तत्र ज्ञान व्यवसाय एव पर्यायशब्दत्वात् तस्येति प्रतिपादितमेव / चारित्रामपि समभावलक्षणो व्यवसाय एव, बोधस्वभावस्यात्मनः परिणतिविशेषत्वात्। यचोच्यते-"सचरणमणुट्ठाणं, विहिपडिसेहाणुगं तत्थ' त्ति तत्र तद्वाह्यचारित्रापेक्षमवगन्तव्यमिति। अथवाज्ञानादौ विषये यो व्यवसायो बोधोऽनुष्ठानं वा स विषयभेदालिाविध इतिसामायिकता चास्य सम्यग्मिथ्याशब्दलाञ्छितस्य ज्ञानादि
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________________ ववसाय 101 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 ववहरियव्व नयस्य सर्वसमयेष्वपि भावादिति॥१०॥ स्था०३ ठा०३ उ०। ववसायसभा-स्त्री०(व्यवसायसभा) व्यवसायनिबन्धनभूता सभा व्यवसायसभा / रा०ा व्यवसायार्थसभायाम्, यत्र पुस्तकवाचनतो व्यवसायं-तत्त्वनिश्चयं करोति देवेन्द्रादिः / स्था०५ ठा०३ उ०। तीसे णं अलंकारियसभाए उत्तरपुरत्थिमे णं महेगा ववसायसभा पण्णत्ता, जहा ववसायसभा०जाव सीहासणं सपरिवारमणिपेढिया। रा० ववसिय-न०(व्यवसित) भावेक्तः।व्यवसाये, ज्ञा०१श्रु० १०सौधर्मे, कल्प०१ अघि०३ क्षण / कर्तरि क्तः / त्रि०। अभ्युपगत-व ति, व्य० | ३उन ववहरण-न०(व्यवहरण) व्यवहारे, व्यवहियत इति व्यवहरणम् / बहुलवचनात् कर्मण्यनट् / व्यवहरणीये, द्रव्यादौ, व्य०१ उ०) ववहरियव्व-त्रि०(व्यवहर्त्तव्य) व्यवहा निष्पाद्ये कार्ये, व्य०। (भाष्यम्)ववहरियव्वं कर्ज, कुम्भादितियस्स जह सिद्धी।२। व्यवहारेण-हेतु (करण) भूतेन व्यवहरन्कर्ता यन्निष्पादयति कार्यं तद् व्यवहर्तव्यमित्युच्यते, तथा चाह-"ववहरियव्वं कज्ज'' यत्कार्य कर्तव्यं व्यवहारेण तद् व्यवहर्तव्यं, व्यवहर्त्तव्यकार्ययोगात् पुरुषा अपि व्यवहर्त्तव्याः, ततः प्रागुक्तम्-"ववहरियव्वा यजे जहा पुरिसा" इति। अथ कथं व्यवहारग्रहणेन व्यवहारी व्यवहर्त्तव्यश्च सूच्यते , न खलु देवदत्तग्रहणे यज्ञदत्तस्य सूचा भवतीति / तत आह-'कुम्भादितियस्स जह सिक्री'कुम्भ आदिरेषामिति कुम्भादयस्तेषां त्रिकं कुम्भादित्रिकम्, तस्य यथा सिद्धिः, कुम्भ ग्रहणेन तथा कुम्भ इत्युक्ते सकृतकः इति तस्य कर्ता कुलालः, करणं मृचक्रादि सामर्थ्यात् सूच्यते (तन्यते), कृतकस्यासतः कर्तृकरणव्यतिरेकेणासंभवात्। एवमत्रापि, व्यवहार इत्युक्ते व्यवहारी, व्यवहर्त्तव्यश्च सूच्यते। करणस्यापि सकर्मकक्रिया साधकतमरूपस्य कर्मकर्तृव्यतिरेकेणासंभवादिति त्रितयसिद्धिः। तदेवमेकग्रहणे सामर्थ्यादितरस्यद्वयस्य ग्रहणं भवतीत्येतत्सामान्येन सनिदर्शनमुक्तम्। सम्प्रति करणग्रहणेऽवश्यं कर्तृकर्मग्रहणं भवतीत्यर्थे निदर्शनमाहनाणं नाणी नेयं, अन्ना वि य मग्गणा भवे तितए। विविहं वा विहिणा वा, ववहरणं चेव ववहारो॥३॥ मार्गणा भवति। तामेवाह-'नाणं नाणी नेयं' इति / तत्र ज्ञायते वस्तु परिच्छिद्यते अनेनेति ज्ञानम्, तत्र यथा ज्ञानमित्युक्ते ज्ञानिनो ज्ञानक्रिया कर्तुज्ञेयस्य च--ज्ञानक्रियाविषयस्य परिच्छेद्यस्य सिद्धिर्भवति / तद्वितयसिकिद्धमन्तरेण ज्ञानस्य ज्ञानत्वस्यैवासंभवादेवमत्रापि व्यवहारग्रहणेन व्यवहारी व्यवहर्तव्यश्च सूच्यते इति; भवति त्रितयस्याप्युपक्षेपः / एका तावन्मार्गणा त्रितयविषया-कुम्मादित्रिकसिद्धिदृष्टान्तेन प्रागभिहिता। वाशब्दः प्रकारान्तरे। अथवा-इयमन्या त्रितयविषया। तदेवं संक्षेपतो व्यवहारादिपदत्रयस्य प्ररूपणा कृता।व्य०१३०१प्रका (आभवंते य पच्छित्ते, ववहरियव्वं समासतो दुविहं" / व्य०१० उ०। इति ववहार' शब्दे व्याकरिष्यते) निक्षेपः-संप्रति व्यवहर्तव्याः-ते च नामादिभेदाचतुर्दा। तद्यथा-नामव्यवहर्तव्याः, स्थापनाव्यवहर्त-वया, द्रव्यव्य-वहर्तव्या, भावव्यवहर्तव्याश्च। तत्र नामस्थापने प्रतीते। द्रव्यव्य-- वहर्त्तव्याः अपि द्विधा-आगमतो, नोआगमतश्चातत्राऽऽगमतो व्यवहर्तव्यशब्दार्थज्ञास्ते चानुपयुक्ता नोआगमतोऽपि त्रिधा-ज्ञशरीरभव्यशरीररूपाः प्रसीताः। तद्व्यतिरिक्तास्तु द्विधा-लौकिकाः, लोकोत्तरिकाश्च / भावव्यवहर्त्तव्या द्विधा-आगम-नो-आगमभेदात्। तत्र आगमतो व्यवहर्त्तव्यपदार्थज्ञाः सूत्रे चोपयुक्ताः, नोआगमतो, लौकिका लोकोत्तरिकाश्च / तत्रलौकिकद्रव्यभावव्यवहर्त्तव्यप्रतिपादनार्थमाहलोए चोराईया, दव्वे भावे विसोहिकामाओ। जायमयसूतकादिसु, निजूढापायकहयाओ॥१७॥ लोके-लोकविषया व्यवहर्त्तव्या द्विधा, तद्यथा-द्रव्यव्यवहर्त्तव्याः, भावव्यवहर्तव्याश्च / तत्र द्रव्ये-द्रव्यव्यवहर्तव्याः -चौरादयः, चौराःतस्कराः,आदिशब्दात्-पारदारिकघातकहेरिकादिपरिग्रहः। ते हि चौर्यादिकं कृत्वाऽपिन सम्यक् प्रतिपद्यन्ते। बलात् प्रतिपाद्यमानाः, अपि न भावतो विशोधिमिच्छन्ति, ततस्ते द्रव्यव्यवहर्त्तव्याः। भावे-भावविषया व्यवहर्त्तव्या विशोधिकामा एव / तुशब्दस्य एव-कारार्थत्वात् विशोधौ कामोऽभिलाषा येषां ते विशोधिकामाः, कथमस्माकमेतत्कुकर्मविषया विशुद्धिर्भविष्यतीति विशुद्धिप्रत्यभ्युद्गतभावाव्यवहर्तव्या इति भावः। न केवलं द्रव्यव्यवहत-व्याश्चौरादयः, किं तु- 'जायमयसूयगाइसु निजूढा' इत्यादि सूतकशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते। जातसूतके नाम जन्मानन्तरंदशाहानियावत्, मृतकसूतकं नाम-मृतानन्तरं दश दिवसान् यावत्। तत्रजातकसूतके मृतकसूतके वा आदिशब्दात्-तदन्येषु तथाविधेषु शूद्रगृहादिषु ये कृतभोजनाः सन्तोधिग्जातीयैर्नियूंढा असंभाष्याः कृतास्तथा ये पातकहताश्चपातकेन ब्रह्महत्या-लक्षणेन मातापित्रादिघातलक्षणेन वाहताः पातकहताः। एते हि द्वयेऽपि यदानस्वदोष प्रतिपद्यन्ते, प्रतिपद्यमाना वा नसम्यगा-लोचयन्ति; किन्तु-व्याजान्तरेण कथयन्ति तदा द्रव्यव्यवहर्त्तव्याद्रष्टव्याः। तथाहि-"एगो धिजाइतो उरालाएण्हुसाए चंडालीए वा अज्झोववण्णो, ततोतं काएण फासेत्ता पायच्छित्तनिमित्तं चतुव्वेयमुवट्ठितो भणइ-सुमिणे पहुसं चंडालिं वा गतोमि'' त्ति। एवमादयोऽपि द्रव्यव्यवहर्तव्याः। तथा चाहफासेऊण अगम्म, भणाइ सुमिणे गओ अगम्मं ति। एमादिलोयदवे, उज्जूपुण होइ भावम्मि||१८|| स्पृष्ट्वा कायेनेति गम्यते। अगम्यां-स्नुषां चाण्डाल्यादिकां वा स्त्रियमिति शेषः। भणति प्रायश्चित्तनिमित्तं चतुर्वेदमुपस्थितः सन्, यथा-स्वप्नेगतोऽगम्यामिति,एवमादयः। आदिशब्दात्-अपेयम्-सुरादिकं पीत्वा प्रायश्चित्तनिमित्तं चतुर्वेदमुपस्थितोब्रूते-स्वप्ने अपेयपानं कृतवानहमित्यादिपरिग्रहः। 'लोयदव्व' ति लौकिका द्रव्यव्यवहर्त्तव्याः ‘उज्जू पुण होइ भावम्मि' अत्र सामान्यविवक्षाया-मेकवचनम्। ततोऽयमर्थः-तएव जातमृतसूतकादिनियूंढादय ऋजवः सन्तोयदासम्यगालोचयन्तितदा भावे-भावविषयालौ---
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________________ ववहरियव्व 902 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 ववहरियव्व किका व्यवहर्त्तव्याः भवन्ति। उक्ता लौकिकद्रव्यभावव्यवहर्त्तव्याः। जिनाऽज्ञामवलम्ब्यैव यथाऽस्यामवस्थायां दीर्घसंयमस्फातिनिमित्तसम्प्रति लोकोत्तरिकद्रव्यभावव्यवहर्तव्यप्रतिपादनार्थमाह मकृत्यप्रतिसेवायामपि प्रवर्तितव्यमिति ततो न कश्चिद्दोषः / अपि चपरपचएण सोही, दवुत्तरिओ उ होइ एमादी। भगवन्तो वीतरागा न मिथ्या कदा-चनापि ब्रुक्ते वीतरागतया तेषां गीतो व अगीतो वा, सब्भाव उवडिओ मावे // 16 // मिथ्यावचनकारणाभावात्। उक्तंच-"रागाद्वा द्वेषाद्वा, मोहाद्वा वाक्ययस्य शोधिः परप्रत्ययेन, पर आचार्यादिकः स एव प्रत्ययः कारणं मुच्यते ह्यनृतम्।यस्य तु नैते दोषा-स्तस्याऽनृतकारणं किं स्यात्॥१॥" परप्रत्ययस्तेन, किमुक्तं भवति-नूनमहं प्रतिसेवमान आचार्येण भगवता वा यतनयाऽपि कारणे प्रतिसेविनो भावव्यवहर्त्तव्या उक्ताः, उपाध्यायेन अन्येन वा साधुना ज्ञातोऽस्मि, ततः सम्यगालोचया तद्यदि भगवद्वचनात् द्वितीयभङ्गवर्तिनोऽपि भावव्यवहर्त्तव्यास्ततः प्रथममीत्येवं परप्रत्ययेन यस्य शोधिः / प्रतिपत्तिरेवमादिः, आदि-शब्दात् भङ्गवर्तिनः सुतरां भावव्यवहत्तव्या भवेयुः। यो गुरु दोषं सेवित्वा अल्पं कथयति, स्वकृतं वाऽन्यकृतं ब्रवीति तदादि तथा चाहपरिग्रहः / लोकोत्तरिको द्रव्यव्यवहर्तव्यो भवति / भावे-भावविषयः, आहब कारणम्मि, सेवंतो अजयणं सिया कुना। पुनर्लोकोत्तरिको व्यवहर्तव्यो गीतो वा गीतार्थोवा,अगीतो वेति अगीतार्थो एसो वि होइ भावे, किं पुण जयणाएँ सेवंते // 21 // वा प्रायश्चित्तप्रतिपत्त्यर्थसद्भावेनोपस्थितः, सच वक्ष्यमाणगुणैरुपेतः सन् आहश्च कदाचिदनन्यगत्या कारणे-अशिवादिलक्षणे अकृत्यं सेवमानः भवतीति। स्यात्कदाचिदयतनां कुर्यात्-अयतनया प्रतिसेवितेति भावः / एषोऽपि तानेव गुणानुपदर्शयति भगवद्वचनाद्वा भवति भावे व्यवहर्त्तव्यः, किं पुनर्य-तनया प्रतिसेवमानः अवंके अकुडिले यावि, कारणपडिसेवि तह य आहब। प्रथमभङ्गवर्ती, ससुतरां भवेद्भावे व्यवहर्त्तव्य इत्यर्थः। न केवलं प्रथमपियधम्मे य बहुसुए, बिइयं उवदेसपच्छित्तं // 20 // भगवर्ती वा भगवद्वचनाद्भावे व्यवहर्तव्यः, किंतु-तृतीयभङ्गवर्त्यपि। वक्र:-असंयतः न वक्रोऽवक्रः, संयतो-विरत इत्यर्थः / अकुटिलः तथा चाहअमायी, चशब्दादक्रोधी अमानी-अलोभी चेति परिग्रहः / अपिः पडिसेवियम्मि सोहिं, काहं आलंबणं कुणइ जो उ। पदार्थसंभावने, स चामून पदार्थान् संभावयति। कारणे समापतिते सति सेवंतो वि अकिचं, ववहरियव्वो स खलु भावे // 22 // नामैको यतनया प्रतिसेवते इत्येको भङ्गः१, कारणे अयतनयेति द्वितीयः कारणमन्तरेणापि यतनया प्रतिसेविते अकृत्ये पश्चात् शोधिं चयश्चित्तमहं 2. अकारणे यतनयेति तृतीयः३, अकारणे अयतनयेति चतुर्थः / अत्र करिष्यामीत्येवंरूपमालम्बनं यः करोति / किमुक्तं भवति–एवंरूपेणाप्रथमो भङ्गःशुद्ध इति तत्प्रतिपादनार्थमाह-कारणप्रतिसेवीति, कारणे लम्बनेनाकृत्ये यः प्रवृत्तिं चिकीर्षति स तथा-रूपमालम्बनं कृत्वा अशिवादिलक्षणे विशुद्धेनालम्दनेन बहुशो विचार्य शुल्कादिपरिशुद्धि प्रतिसेवमानोऽप्यकृत्यं खलु निश्चितं भावे व्यवहर्त्तव्यः अन्तःकरणविलाभाकाङ्-क्षिवणिग्दृष्टान्तेनाकृत्यं यतनया प्रतिसेवते इत्येवंशीलः शुक्रिपुरस्सरं यतनया प्रवर्त्तमानत्वेन भावतो व्यवहारयोग्यत्वात्। किमुक्त कारण--प्रति सेवी 'तह य आहचे 'ति। तथाचेति समुच्चये, कारणेऽप्य भवति- अकारणे यतनयेति तृतीयभङ्गवर्त्यपि भगवद्वधनादावव्यकृत्यप्रतिसेवी, न यदा तदावा किंतु आहन्य' कदाचिदन्यथा दीर्घसंयम वहर्त्तव्यो वेदितव्य इति / तदेवं चतुर्भङ्गिकायामाद्यभङ्गत्रयवर्तिनो स्फातिमनुपलक्षमाणः / अथवा-आहचेति कदाचि-दकारणेऽपि भावव्यवहर्तव्या उक्ताः। प्रतिसेवी 'पियधम्मे य बहुसुए' इति आद्यन्तयोहणे मध्यस्यापि ग्रहणमितिन्यायात्। प्रियधर्मा-दृढधसिंविग्नौऽवद्यभीत: सूत्रार्थत संप्रति चतुर्भङ्गिकामनपेक्ष्यान्यथैव भावव्यवहर्तव्यलक्षदुभयविद इत्यपि द्रष्टव्यम्। एते सर्वेऽपि व्यवहर्त्तव्याः। 'बिइयं ति, अत्र णमाहद्वितीयं मतान्तरं केचिदाहुरवक्रादीना-मपिप्रतिपक्षा व्यवहर्तव्या इति। अहवा कजाऽकजे,जताऽजतो वा वि सेविउं साहू। 'उपदेसपच्छित्तं' इह द्विविधः साधुर्गीतार्थः, अगीतार्थश्च। तत्रयो गीतार्थः सब्भावसमाउट्टो, ववहरियव्वो हवइ भावे // 23 // स गीतार्थत्वादेवाना-भाव्यं न गृह्णातीति न तस्यापदेशः / यः पुनर- अथवेति-प्रकारान्तरे, तच्च प्रकारान्तरमिदम् / प्राक् चतुर्भङ्गिका गीतार्थस्तस्यानाभाव्यं गृह्णातीति उपदेशो दीयते, यथान युक्तं तवाना- प्ररूप्य भावव्यवहर्तव्या उक्ताः, संप्रति तु तामनपेक्ष्यैव भावव्यवहर्तभवत् ग्रहीतुम्, यदि पुनरनाभवत् ग्रहीष्यसि ततस्तन्निमित्तं प्रायश्चित्तं व्योऽभिधीयते। कथमिति चेदत आह-'कज्जाकज्जे' - कार्ये अशिवादिभविष्यति इत्युपदेशदानम्। तत एवमुपदेशे दत्ते सतिदानचयश्चित्तं दीयते, निस्तरणलक्षणे-प्रयोजने, अकार्ये-तथाविध-पुष्टप्रयोजनाभावे इति गाथासमासार्थः / अत्र शिष्यः प्राह-कारणसेवी भावव्यवहर्तव्य "जयाजयो व' त्ति / यतमानो वा अयतमानो वा साधुरकृत्यं सेवित्वा उक्तः, स कथमुपपद्यते?, प्रतिषिद्धं हि यतनयाऽपि सेवमानो जिनाss- सद्भावेन पुनरकरणलक्षणया तात्विक्या वृत्त्या समावृत्तोऽकृत्यकरणात् ज्ञाप्रद्वेषकारी ननु स दुष्टभाव इति, कथं भावव्यवहर्त्तव्यः / नैष दोषो प्रत्यावृत्तः सन् गुरोः समीपे य आलोचय-तीति शेषः, स भावे भवति जिनाऽऽज्ञाप्रद्वेषकारित्वाभावात्सति कारणे प्रतिसेवायामपि वर्तते। | व्यवहर्त्तव्यः, भावतोऽकृत्यकरणतः प्रत्यावृत्तत्वात्।
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________________ ववहरियव्व १०३-अभिधानराजेन्द्रः- भाग 6 ववहरियव्व संप्रति प्राक् प्ररूपितायां चतुर्भङ्गिकायां यश्चतुर्थो भङ्ग-- स्तत्प्ररूपणार्थमाहनिकारणपडिसेवी, क निबंधसो व्व अणवेक्खो। देसंवा सध्वं वा, गूहिस्सं दव्यतो एस // 24 // यो निष्कारणे-कारणमन्तरेण प्रतिसेवी अकृत्यप्रतिसेवनशीलः। 'कज्जे निधसो' ति। अत्र अपिशब्दोऽनुक्तोऽपि गम्यते सामर्थ्यात् / ततोऽयमर्थः-कार्येऽपि तथाविधे समुत्पन्ने 'निद्धधसो' देशीवचनमेतत्। अकृत्यं प्रतिसेवमानो नाधिकृतारम्भविराध्यभानप्राण्यनुकम्पापर इत्यर्थः / चः-समुच्चये, स भिन्नक्रमोऽनपेक्ष्यश्चेत्येवंयोजनीयः। न विद्यते अपेक्षा-वैरानुबन्धो मे विराध्यमानजन्तुभिः सह भविष्यति संसारो वा दीर्घतर इत्येवंरूपा यस्यासावनपेक्षः, हा दुष्ट कृतं मयेति पश्चादनुतापरहित इति भावः। तथा यः प्रतिसेवित्वा देशं गृहिष्यामि न सर्वमिति भावः। 'सव्वं व' त्ति सर्वं वा गूहिष्यामिन किंचिदालोचयिष्यामीत्यर्थः; इति चिन्तयति, चिन्तयित्वा च तथैव करोति। एष द्रव्यतो व्यवहतथ्यो वेदितव्यः। किं वा नेत्यत आहसो विहु ववहरियव्वो, अणवत्था वारणं तदने य। घडगारतुलसीलो, अणुवरओसन्नमज्झत्थी॥२५॥ सोऽप्यनन्तरोक्तस्वरूपो द्रव्यव्यवहर्त्तव्य एव, किं कारणमत आह'अणवत्थावारणं तदन्ने य' इति। तस्मिन्- व्यवहियमाणे अनवस्थावारणं भवति, तदन्ये च निषिद्धा जायन्ते। किमुक्तं भवति-सोऽप्यनवस्थया मा पुनः। पुनरकृत्यं कार्षीत्। तदन्ये च तं तथा प्रवर्त्तमानं दृष्ट्वा मा तथा प्रवृत्तिं कार्युरिति / स च व्यवहर्तुमिष्यमाणः पूर्वमेव वक्तव्यो, यथाआलोचय महाभाग ! स्वकृतम-पराधमनालोचिताप्रतिक्रान्तो दीर्घसंसारभागभवतीति। एवं च भणिते यो ज्ञायते-प्रतिपत्स्यते शिक्षावचनं प्रतिपद्य वा अकृत्य-करणात् विरतो, विरम्य च न भूयः प्रतिसेवीति / यस्तु तथा भण्यमानोऽपि न सम्यगकृत्यकरणादुपरमते सोऽनुपरतो घटकारतुल्यशीलः-कुम्भकारसदृशस्वभावोऽवसन्नमध्ये द्रष्टव्यो नतु व्यवहर्त्तव्यः। अथ कोऽसौ कुम्भकारो यत्सदृशस्वभावःसन्त्रव्यवहर्तव्यः, उच्यते- "कुंभगारसालाए साहू ठिया, तत्थ आयरिएण साहू वुत्ता। अञ्जो ! एएसु कुंम्भगारभायणेसु अप्पमादी भवेज्जाह, मा भंजिहह। तत्थ पमादी चेल्लगो कुंभगारभायणं भंजिऊण मिच्छादुक्कडं करेइ / एवमभिक्खणं दिणे दिणे / तओ सो कुंभगारो सट्ठो तं चेलं कियाडियाए घेत्तुं सीसे खजुकं दाउं खडुक्को नाम टोलओ' मिच्छामि दुक्कडं भणइसीसो भणइ-किं मम निरवराह पिट्टेसिं? कुम्भगारो भणइ-माणगाणि तए भग्गाणि / चेल्लओ भणइ-मिच्छा दुक्कडं कया कुंभगारो भणइ-मए वि मिच्छादुक्कड़ कयं / नऽत्थि कम्मबंधो मम तव पहारं देंतस्स / एसो कुंभगारमिच्छादुक्कडसरिसमिच्छादुक्कडो अव्यवहरियव्यो" तदेवंतहय आहचेति व्याख्यातम्। संप्रति 'पियधम्मो य बहुस्सुए' इत्यस्य व्याख्यानमाहपियधम्मो जाव सुयं, ववहारं नाउ जे समक्खाया। सव्वे वि जहा दिहा, ववहरियव्वाय ते हुंति॥२६॥ इहाद्यन्तग्रहणे मध्यस्यापि ग्रहणमितिन्यायात प्रियधम्मंबहुश्रुत-ग्रहणे तदन्तरालवर्तिनामपि दृढधर्मादीनां ग्रहणम् / ततः प्रियधर्मण आरभ्य यावत् श्रुतं सूत्रार्थतदुभयविद इति पदम, तावत् ये व्यवहारज्ञा व्यवहारपरिच्छेदकर्तारः प्राक् समाख्यातास्ते सर्वेऽपि यथो-द्दिष्टा-यथोक्तस्वरूपा व्यवहर्त्तव्या-भावव्यवहर्तव्या भवन्ति, प्रत्येतव्या इतिशेषः / प्रियधर्मादितया सूत्रार्थतदुभयविदः, याव-तेषां प्रज्ञापनीयत्वादिति। व्यवहारप्रायश्चित्तव्यवहार आभवत्सचित्तादिव्यवहारश्च, तत्र द्विविधेऽपि व्यवहारे व्यवहर्तव्यः, प्रायो गीतार्थेन सह नागीतार्थेन। तथा चाऽऽहअम्गीएणं सद्धि, ववहरियव्वं न चेव पुरिसेणं। जम्हा सो ववहारे, कयम्मि सम्मन सहहई // 27 // यः स्वयं व्यवहारमवबुध्यते प्रतिपाद्यमानो वा प्रतिपद्यते व्यवहारं स गीतार्थः इतरस्त्वगीतार्थः / तत्रागीतेन अगीतार्थेन सार्द्धनैव पुरुषेण व्यवहर्त्तव्यम, कस्माद्? इत्याह-यस्मात्सोऽगीतार्थो व्यवहारे यथोचिते कृतेऽपि न सम्यक् श्रद्धत्ते-नपरिपूर्ण व्यवहारं कृतंतथेतिकृतं प्रतिपद्यते इति। तस्माद् गीतार्थेन सह व्यवहर्त्तव्यम्। यत आहदुविहम्मि वि ववहार, गीयत्थी पट्टविनई जंतु। तं सम्म पडिवजह, गीयत्थम्मी गुणा चेव // 28 // द्विविधेऽपि प्रायश्चित्तलक्षणे आभवत्सचित्तादिव्यवहारलक्षणे च व्यवहारे गीतार्थो यत्प्रत्यापद्यते पाठान्तरम्-'पण्णविज्जइ' प्रज्ञाप्यते तत्सम्यक् प्रतिपद्यते गीतार्थत्वात्तथा चाह- 'गीयत्थम्मी गुणाचेव' गीतार्थे गुणा एव नागुणाः, अगुणवतो गीतार्थत्वायोगात्। यथा च गीतार्थः सम्प्रतिपद्यमानः सम्यक् प्रतिपद्यते तथा प्रतिपादयन्नाहसचित्ताऽऽदुप्पो, गीयत्था सइ दुवेण्ह गीयाणं। एगयरे उनियत्ते,सम्मं ववहारसहहणा // 29 // गीओ अणाइयंतो, छिंद तुमं चेव छंदितो संतो। कहमंतरम्मिठविओ, तित्थयराणंतरं संघं ||30|| "दोन्नि जणा गीयत्था विणओवसंपयाए विहरंति, तेसिं सचित्ताई किंचि उप्पन्न, तन्निमित्तं ववहारो जाओ। एगो भणइ-ममाऽऽभवइ,बीओ भणइममाऽऽभवइ, तस्ययसमीपे अन्नो गीयत्थो नऽस्थि, जस्ससगासे गच्छंति। ततोएगणबीओभणितो अजो! तुमचेवमर्मपमाणंभणाहि,कस्साऽऽभवइ? तओ सो एवं निउत्तो चिंतेइ-तित्थयराणंतरे संघे अहं ठवितो ता कहमहं तित्थयराणंतरंसंघमइक्वमामित्ति। भणइ-तुमंचेवाऽऽभवतिनममंति।" एष भावार्थः, अक्षरयोजना त्वेवम्-सचित्ताधुत्पन्ने आदिशब्दादचित्तमिश्रपरिग्रहः / समासश्च कर्मधारयस्ततोऽयमर्थः, सचित्ते शिष्ये अचित्ते वस्त्रादौ मिश्रे सोपकरणे शिष्ये उत्पन्ने सति द्वयोर्गीतार्थयोः परस्परं विवदमानयोः अन्यस्मिन्समीपे व्यवहारपरिछेदकर्तरि गीतार्थेअसति, कथमप्येक्तरस्मिन्गीतार्थतया निवृते-विवादात्प्रत्यावृत्ते प्रागुक्तनीत्या व्य१-'अगीएण' इति युक्तम्,छदोऽनुरोधात् पुस्तकानुरोधाच तथेति।
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________________ ववहरियव्व 104 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 ववहार वहारश्रद्धानं भवति, सम्यग्व्यवहारप्रतिपत्तिरुपजायते / कथम्? इत्याह-'गीओ अणाइयंतो' इत्यादि, गीतो-गीतार्थोऽनतिक्रामन् यद्विवादादनतिक्रामन् द्वितीयेन गीतार्थेन सचित्ताधुत्पादनसह-वर्त्तिना व्यवहारमभुं त्वमेव छिन्धि नत्वमगीतार्थो, नापि युक्तम-युक्तं वा त्वं न जानासि इत्येवं छन्दितो-निमन्त्रितः सन् चिन्तयति-अहमनेनास्मिन् व्यवहारे प्रमाणीकुर्वता तीर्थकरानन्तरसंघ-मध्यवर्ती स्थापितः, संघश्च भगवदाज्ञानिवर्तितया यथावस्थितार्थवक्ता अन्यथा तीर्थकरानन्तरत्वायोगात्। तद्यदिलोभादितया कथमपिव्यवहारं विलोप्स्यामि; ततो मयैव तीर्थकरानन्तरः सत्संघोत्तारितः कृतो भवेत, तत एवं तद्व्यवहारविलोपनेन कथमहं तीर्थकरानन्तरं संघमन्तरे स्थापयामि अन्तरयामीति चिन्तयित्वा सोऽवादीत--तवैवेदमाऽऽभवति न ममेति। तस्माद् द्विविधोऽपि व्यवहारो गीतार्थेन सह कर्त्तव्यो नाऽगीतार्थेन।गीतार्थश्च प्रियधमत्वादिगुणोपेत इति प्रियधर्मादयो भावा व्यवहर्त्तव्याः / ननु ये प्रियधर्मादयस्ते प्रियधर्मत्वादिगुणैरेवाकल्प्यं न किमपि प्रतिसेविष्यन्ते इति कथं व्यवहव्या निर्दिश्यन्ते? व्यवहारहेत्वकल्प्यप्रतिसेवनासम्भवात्। नैष दोषः, प्रमादयशतस्तेषामपि कदाचिद-कल्प्यप्रतिसेवनापत्तेः / अन्यच प्रमादाभावेऽपि कदाचिदशिवायुत्पत्तौ गुरुलाघवं पर्यालोच्य दीर्घसंयमस्फातिनिमित्तमकल्प्यमपि प्रतिसेवन्ते, ततो भवति तेषामपि व्यवहारयोग्यतेतिव्यवहर्तव्या निर्दिष्टाः। अथ ये प्रियधर्मादिगुणोपेताअपिप्रमादिनस्ते कथं व्यवह्रियन्ते, प्रमादितया तेषां व्यवहारयोग्यताया अभावात्। तत आहपियधम्मे दढधम्मे, संविग्गे चेव जे उ पडिवक्खा। ते विहु ववहरियव्वा, किं पुण जे तेसि पडिवक्खा // 31 // प्रियधर्मा दृढधर्मसंविग्नौ च ये प्रतिपक्षा अप्रियधर्मः अदृढधर्मः असंविग्नश्च तेऽप्यनवस्थावारणाय तदन्यनिषेधाय हु-निश्चितं व्यवहर्त्तव्या भगवद्भिरुक्ताः, किं पुनर्ये तेषामप्रिय धर्मादीनां प्रतिपक्षाः प्रियधर्मदृढधर्मसंविग्नाः ते सुतरां व्यवहर्तव्याः, प्रियधर्मादितया तेषां भावतो / व्यवहारप्रवृत्तेः। तदेवं 'पियधम्मेय बहुस्सुए' इत्येतद्व्याख्यातम्। सम्प्रति बितिय' मित्यवयवं व्याचिख्यासुराहबिइय मुवएसअवंका-इयाणं जे होति ते उ पडिवक्खा। ते विहुववहरियव्वा, पायच्छित्ताऽऽभवंते य॥३२॥ द्वितीय उपदेश आदेशो मकारोऽलाक्षणिकः, द्वितीयम्- मतान्तरमित्यर्थः, अवादीनां ये भवन्ति प्रतिपक्षाः वक्रः-कुटिलो निष्कारणप्रतिसेवी, तथा सततप्रतिसेवनशीलोऽप्रियधर्मा याक्दबहुश्रुतस्तेऽप केचित् व्यवहारयोग्यतया अपरे अनवस्थावारणाय तदन्यनिषेधाय आभवति प्रायश्चित्ते व्यवहर्त्तव्याः। सम्प्रति 'उपदेसपच्छित्त' मित्येतद्व्याचिख्यासुराहउवएसो उ अगीए,दिजइ बिइओ उसोधिववहारो। गहिए वि अणाभव्वे, दिज्जइ विययं तु पच्छित्तं // 33|| साधुर्द्विविधो-गीतार्थः, अगीतार्थश्च / तत्र यो गीतार्थः स स्वयमेव जानीते, जानानस्य च नोपदेशः / यस्त्वगीतार्थः-स युक्तायुक्तपरिज्ञानविकलतया अनाभाव्यमपि गृह्णाति, ततस्तस्मै अगीतार्थाय उपदेशो दीयते, यथा-नयुक्तंतवानाभाव्यंग्रहीतुम्, यो ह्यनाभाव्यं गृह्णाति तस्य तन्निमित्तं प्रायश्चित्तमाभवति / एवमुद्दिश्य तस्यानाभाव्यग्रहणप्रवृत्तिनिमित्तं दानप्रायश्चित्तं दीयते, प्रथमत उपदेश इति आभाव्य ग्रहणप्रवृत्तिनिमित्तं दानप्रायश्चित्तं दीयते / तथा चाह-- 'बिइओ उ सोहिववहारो' शोधिः-प्रायश्चित्तम्, अनाभाव्यं गृह्णाति प्रथमत उपदेश आदीयते, द्वितीयः शोधि-दानव्यवहारः तदेतदनाभाव्यं गृह्णन्तं प्रत्युक्तम् / सम्प्रति गृहीता-नाभाव्यं प्रत्याह- 'गहिए वी' त्यादि, अपिशब्दः समुचये, न केवलमनाभाव्ये गृह्यमाणे किंतुगृहीतेऽप्यनाभाव्ये दीयते, प्रथमतः उपदेश इति गम्यम्, तदनन्तरं सूत्रमुचार्य प्रायश्चित्तं यथावस्थितं कथयित्वा एतत्तवाऽऽभवति प्रायश्चित्तमिति प्रथमं ततो दानप्रायश्चित्तं दीयते इति द्वितीयम्। व्य० 170 / ववहार-पुं०(व्यवहार) व्यवहियते यद्यस्य प्रायश्चित्तमाभवति स तद्दानविषयीक्रियतेऽनेनेति व्यवहारः। "ऋतो भावात् समश्च हलः" इति करणे घञ्प्रत्ययः। व्य०१उ०। कथंचिदापन्नदोष-व्यपोहाय प्रायश्चित्तलक्षणे, दश०३अ० स्था०। प्रायश्चित्तसमाचारे, पञ्चा०१६ विव०ा व्यवहियन्ते जीवादयोऽनेनेतिव्यवहारः। अथवा-व्यवहरणं व्यवहारः मुमुक्षुप्रवृत्तिनिवृत्तिरूपेऽर्थे तत्कारणे, ज्ञानविशेषे च। प्रव० 125 द्वार / व्यवहारप्ररूपणा कर्तव्या, तत्र व्यवहारग्रहणेन व्यवहारी व्यवहर्त्तव्यं चेति द्वितयं सूचितमेव तद्व्यतिरेकेण व्यवहारस्यासंभवात्, नखलु करणं सकर्मकक्रियासाधकतमरूपं कर्म कतीरं च विना वचित्सम्भवदुपलब्धम् / व्य०१ उ०। (1) व्यवहारे व्यवहर्त्तव्यम्, ततो यथा व्यवहारस्य प्ररूपणा कर्त्तव्या, तथा व्यवहारिव्यवहर्त्तव्ययोरपीति त्रयाणामपि प्ररूपणां चिकीर्षुः, भाष्यकृदेतदाहववहारो ववहारी, ववहरियव्वा य जे जहा पुरिसा। एएसिं तु पयाणं, पत्तेयपरूवणं दुच्छं // 1 // व्यवहार-उक्तशब्दार्थः व्यवहरतीत्येवंशीलो व्यवहारीव्यवहार--क्रिया प्रवर्तकः। प्रायश्चित्तदायीति यावत् / तथा ये पुरुषाः पुरुष-ग्रहणं पुरुषोत्तमो धर्म इति ख्यापनार्थम्, अन्यथा स्त्रियोऽपि द्रष्टव्यास्तासामपि प्रायश्चित्तदानविषयतया प्रतिपादयिष्यमाणत्वात् यथा ये वक्ष्यमाणेन प्रकारेण व्यवहर्त्तव्याः-व्यवहारक्रिया-विषयीकर्तव्याः / पाठान्तरम्-'जे जहा काले' अस्यायमर्थः--ये यथा यस्मिन्काले व्यवहर्तव्यास्तद्यथा-यदा आगमव्यवहारिणः सन्ति, तदा तदुपदेशेनैव व्यवहर्त्तव्यास्तेषु व्यवच्छिन्नेषु श्रुतज्ञानव्यवहार्युपदेशेन तदैव चाज्ञयाऽपि तदैव धारणया तदैव तु जीतव्यवहारेणापि व्यवहर्त्तव्या इति / एतेषां व्यवहारव्यवहारिव्यवहर्तव्यरूपाणां त्रयाणां पदानाम्, तुर्विशेषणे सचैतद्विशिनष्टिः,संक्षेपतो विस्तरतश्च / प्रत्येकमिति प्रत्येकशब्दः यथेत्यादिना अव्ययीभावः। एकैकस्येत्यर्थः, प्ररूपणां व्याख्यां वक्ष्ये। तत्र संक्षेपप्ररूपणार्थमिदमाहववहारी खलु कत्ता, ववहारो होइ करणभूतो उ। ववहरियव्वं कजं, कुंभादितियस्स जह सिद्धी // 2 // 'ववहारी खलु कत्त' त्ति व्यवहारस्य का; व्यवहारस्य
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________________ ववहार 905 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 ववहार छेत्ता अभिधीयते इति शेषः / व्यवहारः पुनर्भवति करणभूतः / व्य-- पुरुषो विवादनिर्णयाय एकस्माद्धरति अन्यस्मै प्रयच्छति, तस्मात्तद्वहारच्छेदक्रिया प्रति करणत्वं प्राप्तः तुशब्दः पुनरर्थे व्यवहितसम्ब--- व्यापारो वपनहरणात्मकत्वात् व्यवहार इति। एतावता समुदायार्थकथनं न्धश्च,सच यथास्थानं योजित एव / स च व्यवहारः करणभूतः पञ्चधा- कृतम्, स च व्यवहारो विधिव्यवहारोऽविधिव्यवहारश्च। तत्रापि अविधिआगमः, श्रुतम्, आज्ञा, धारणा,जीतश्च। आह च चूर्णि-कृत्- 'पञ्चविधी व्यवहारपरित्यागेन विधिव्यवहार एव कर्त्तव्य इति प्रतिपादनार्थमाहव्यवहारः करण' मितितेन चपञ्चविधेन व्यवहारेण करणभूतेन व्यवहरन् 'अहिगारो एत्थ उ विहीए' अत्र-एतस्मिन शास्त्रे अधिकारः-प्रयोजन कर्ता यन्निष्पादयति कार्यम् तद्व्यवहर्त्तव्य-मित्युच्यते / व्य०१ उ०। व्यवहारेण विधिनैव-विधिपूर्वकणैव तुशब्द एवकारार्थो भिन्नक्रमश्च, प्रथमतो व्यवहारपदस्य निरुक्तं वक्तु काम इदमाह--'विविहं वा' इत्यादि, नाविधिना अविधे-मोक्षप्रतिपन्थित्वात् / तदेवमुक्तं व्यवहारशब्दस्य विविधं तत्तद्योग्यतानुसारेण विचित्र विधिना वा सर्वज्ञोक्तेन प्रकारेण वपनं निर्वचनम्। तच क्रियामात्रमपेक्ष्योक्तमधिकृतग्रन्थयोजनायां तु करणतपःप्रभृत्यनुष्ठान-विशेषस्य दानम्- 'ट्रवप्'-बीजतन्तुसंताने इति व्युत्पत्तिरा-श्रयणीया। विधिना उप्यते ह्रियते च येन स व्यवहार इति। वचनात्। हरणम-तीचारदोषाजातस्याअथवा-संभूय द्वित्र्यादिसाधूनां / (2) संप्रति व्यवहारस्य नामादिभेददर्शनार्थमाहक्वचित्प्रयोजने प्रवृत्तौ यत् यस्मिन्नाभवति,तस्यतस्मिन्वपनमितरस्माच ववहारम्मि चउक्कं, दवे पत्तादि लोइयादी वा। हरणमिति व्यवहारः किमुक्तं भवति-विविधो विधिना वा हारो व्यवहारः नोआगमतो पणगं, भावे एगऽट्टिया तस्स।।६।। "पृषोदरादय" इति विवापशब्दयोर्व्यव आदेशः। व्यवहारे-व्यवहारविषये चतुष्कम्। किमुक्तं भवति-चतुर्दा व्यवहारः। सम्प्रति वपनहरणशब्दयोरर्थं वक्तुकामस्तकार्थिकान्याह-- तद्यथा-मामव्यवहारः, स्थापनाव्यवहारो, द्रव्यव्यवहारो, भावव्यवहारश्च। ववणं ति रोवणं ति य, पकिरणपडिसाडणा य एगटुं / तत्रनामस्थापने सुप्रतीते, द्रव्यव्यवहारो द्विधा-आगमतो, नोआगमतश्च हारो त्ति य हरणं ति य, एगटुं हीरएव वत्ति || आगमतोव्यवहारपदार्थज्ञाता, तत्र चानुपयुक्तो नोआगमतस्त्रिधाज्ञशरी रभव्यशरीरतद्व्यतिरिक्तभेदात्, तत्र ज्ञशरीरभव्वशरीरव्यवहारौ गतौ, टुवप्-बीजतन्तुसन्ताने,उप्यते,वपनं इतिशब्दः शब्दस्वरूपपरिसमाप्तिद्योतकः, एवमुत्तरेऽपि। रोपणमिति रुह-जन्मनि, रोहति कश्चित्तमन्यः ज्ञशरीरभव्यशरीरयोरन्यत्रा-नेकशोऽभिहितत्वात् तद्व्यतिरिक्तमाह-. 'दव्वे पत्तादि लोइयादी वा' द्रव्ये-द्रव्यविषये व्यवहारो नोआगमतो प्रयुक्त प्रयोक्तृव्यापारे णिच् रुहे: 'पो वा' इति हकारस्य पकारः / ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तः पत्रादिः,आधाराधेययोरभेदविवक्षणादयं रोप्यते इति रोपणं भावे अनट्, वा समुच्चये पकिरणे' ति। कृविक्षेपे,प्रपूर्वः निर्देशः / ततोऽयमर्थः-ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तो द्रव्यव्यवहारः प्रशब्दोऽत्र दाने,प्रदातुं कीर्यते-विक्षिप्यते इति प्रकिरणम् 'परिसाडणा खल्वेष एव ग्रन्थः पुस्तकपत्रलिखितः, आदिशब्दात्-काष्ठसंपुटफलय' इति, शट्रुजायाम्परिपूर्वः परिशटति परिभृशयति, तमन्यः प्रयुक्ते कपट्टिकादिपरिग्रहः / तत्राप्येतद्ग्रन्थस्य लेखनसम्भवात्लौकिकादिपूर्ववत् णिच् / परिशाट्यते इति परिशाटनानि वेत्यादि अनट्प्रत्ययः,आप्। वेति / यदि वा-ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तो द्रव्यव्यवहारस्त्रिविधः, चः समुच्चये। 'एगट्ठ' मिति एतत् शब्दचतुष्टयमेकार्थम्, एकार्थप्रवृत्ताः तद्यथा-लौकिकः कुप्रावचनिको, लोकोत्तरिकश्च / तत्र लौकिको यथापरस्परमेते पर्याया इति भावः। तेन यदुक्तं भवति-रोपणामिति प्रकरण आनन्दपुरे खङ्गादावुद्गीर्णरूपकाणामशीतिसहस्रं दण्डो, मारितेऽपि मिति परिशाटनेति वा तदुक्तं भवति, वपनमिति। एतावता वपनशब्दस्य तावानेवा प्रहारे तु पतिते यदि कथमपिन मृतस्तर्हि रूपकपञ्चको दण्डः, प्रदानलक्षणोऽर्थः समर्थितः। 'हारो त्ति वे' त्यादि। हरणं हारः, हृति उत्कृष्ट तु कलहे प्रवृत्ते अर्द्धत्रयोदशरूपको दण्डः। कुप्रावचनिको यथाहरणम्, हियते इति वा एकार्थाःत्रयोऽप्येते शब्दा एकार्थिका इत्यर्थः / यत्कर्म यो न करोति न ततः कर्मणस्तस्य किंचिदिति। लोकोत्तरिको तदेव वापशब्दस्य हारशब्दस्य च प्रत्येकमर्थोऽभिहितः। यथा-एते पाण्डुरपटप्रावरणा जिनानामनाज्ञया स्वच्छन्दं व्यवहरन्तः सम्प्रति तयोरेव समुदितयोरथं जिज्ञापयिषुरिदमाह परस्परमशनपानादिप्रदानरूपं व्यवहारं कुर्वन्तिा भावव्यवहारो द्विधाअत्थी पचत्थीणं, हाउं एकस्स ववइ बिइयस्स। आगमतो, नोआगमतश्च / आगमतो व्यवहारपदार्थज्ञाता तत्र चोपयुक्तः एएण उ ववहारो, अहिगारो एत्थ उ विहीए।।५।। "उपयोगो भावनिक्षेप' इति वचनात्। नोआगमतः पञ्चविधो व्यहारः। अर्थी याचको यः परस्मान्मयेदं लभ्यमिति याचते। प्रत्यर्थी अर्थिनः तथा चाह-'नोआगमतो पणगं' 'भावे' इति भावे विचार्यमाणे नोआगमतो प्रतिकूलः / किमुक्तं भवति-यः परस्य गृहीत्वा न किमपि तस्मै प्रयच्छति, व्यवहारो व्यवहारपञ्चकम्-आगमः श्रुतम् आज्ञा धारणा जीतमिति / तयोरर्थिप्रत्यर्थिनोर्विवदमानयोर्व्यवहारार्थं स्थेयपुरुषमुपस्थितयोः स नोशब्दो देशवचनः,तस्य पञ्चविधस्यापि नोआगमतो भावव्यवहारस्यव्यवहारपरिच्छेदकुशलो व्यवहारविधापन-समर्थश्चस्थेयो यस्मात् 'हाउं सामान्येन एकार्थिकान्यमूनि। एकस्स' ति। सूत्रे षष्ठी पञ्चम्यर्थे प्राकृतत्वात्। प्राकृते हिविभक्तिव्य तान्येवाहत्ययोऽपि भवति। यदाह पाणिनिःस्वचकृतलक्षणे-व्यत्ययोऽप्यासामिति। सुत्ते अत्थे जीए, कप्पे मग्गे तहेव नाए य। यस्य यन्नाऽऽभवति तस्मात् तत् हृत्वा आदाय यस्याऽऽभवति तस्मै | तत्तोय इच्छियव्वे, आयरिए चेव ववहारो ||7|| द्वितीयाय वपतिप्रयच्छति एएण उ ववहारो' इति एतेनअनन्तरोदितेन | तत्तदर्थसूचनात् सूत्रम् औणादिकी शब्दव्युत्पत्तिः, तच पूकारणेन सस्थेयव्यापारो व्यवहारः। किमुक्तं भवति-यस्मादेषस्थेय- | र्वाणि छेदसूत्राणि वा / तथा अर्थ्यते-प्रार्थ्यते मोक्षमभिल
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________________ ववहार 106- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 ववहार - षद्भिरित्यर्थः,सूत्रस्याभिधेयम् / तथा जीतं नाम प्रभूतानेकगीतार्थकृता मर्यादा तत्प्रतिपादको ग्रन्थोऽप्युपचारात्जीतम्। तथा कल्पन्ते समर्था भवन्ति संयमाध्वनि प्रवर्त्तमाना अनेनेति कल्पः। मृजूष्-- शुद्धौ, मृजन्ति शुद्धीभवन्त्यनेनातिचारकल्मषप्रक्षालनादिति मार्गः "उभयत्र व्यञ्जनात्धञ्" इतिघञ्प्रत्ययः। तथा इण-गती, निपूर्वान्नितरामीयते गम्यते मोक्षोऽनेनेति न्यायः, तथा सवैरपि मुमुक्षुभिरीष्यते प्राप्तुमिष्यते इतीप्सितव्यः, आचर्यते स्म बृहत्पुरुषैरप्याचरितम् / व्यवहार इति पूर्ववत्, उक्तान्येकार्थिकानि।। सम्प्रत्यत्रैवाक्षेपपरिहारावभिधित्सुराहएगट्ठिया अभिहिया, न य ववहारपणयं इहं दिई / भण्णइ एत्थेव तयं, दट्ठव्वं अंतगयमेव // 8 // नन्वभिहितान्येकार्थिकानि परमेतेष्वेकार्थिकेषु व्यवहारपञ्चकमागमश्रुताज्ञाधारणाजीतलक्षणं न दृष्टम्-नोपात्तं जीतस्यैव केवलस्योपत्तत्वात्, अत्र सूरिराह-भण्यते-अत्रोत्तरं दीयते। अत्रैव-एतेष्वेव एकार्थिकषु तत्-व्यवहारपञ्चकमन्तर्गतमेव द्रष्टव्यम्। कथमित्याहआगमसुया उसुत्तेण, सूइया अत्थतो उतिचउत्था। बहुजणमाइग्नं पुण, जीवं उचिगं ति एगटुं सूत्रेण-सूत्रशब्देन सूचिते आगमश्रुते-आगमश्रुतव्यवहारौ, तथाहिआगमव्यवहारिणः षट् / तद्यथा-केवलज्ञानी मनः पर्यायज्ञानी अवधिज्ञानी चतुर्दशपूर्वी दशपूर्वी नवपूर्वी च / श्रुतव्य-वहारिणोऽप्यशेषपूर्वधरा एकादशाङ्गधारिणः कल्पव्यवहारादिसूत्रार्थतदुभयविदश्च / ततो भवति सूत्रग्रहणेनागमश्रुतव्यवहारयोग्रहणं चतुर्दशपूर्वादीनां कल्पव्यवहारादिच्छेदग्रन्थानामपि च सूत्रात्मकत्वात्। तथा अर्थतःअर्थशब्देन सूचितौ त्रिचतुर्थी-तृतीयचतुर्थावाज्ञाधारणालक्षणौ व्यवहारौ। व्य०१उ०। (आज्ञाव्यवहारः 'आणा' शब्दे द्वितीयभागे 122 पृष्ठे गतः।) (धारणाव्यवहारः 'धारणाववहार' शब्दे चतुर्थभागे 2746 पृष्ठे गतः। जीतव्यवहा-रश्च'जीयववहार' शब्दे चतुर्थभागे 1513 पृष्ठे गतः।) (3) व्यवहारा धारणादयःकइविहे णं मंते ! ववहारे पण्णते ? गोयमा! पंचविहे ववहारे पण्णत्ते, तं जहा-आगमे,सुए,आणा, धारणा, जीए। जहा से तत्थ आगमे सिया आगमेणं ववहारं पट्ठवेला णो य से तत्थ आगमे सिया। जहा से तत्थ सुए सिया सुएणं ववहारं पट्टवेजा, णो वा से तत्थ सुए सिया। जहा से तत्थ आणा सिया आणाए ववहारं पट्ठवेजा, णो य से तत्थ आणा सिया / जहा से तत्थ धारणा सिया धारणाएणं ववहारं पट्टवेया,णोय से तत्थ धारणा सिया।जहा से तत्थजीए सियाजीएणं ववहारं पट्टवेखा, इचेएहिं पंचहिं जा ववहारं पट्टवेजा, तं जहा-आगमेणं सुएणं आणाए धारणाए जीएणं / जहा जहा से आगमे सुए आणा धारणा जीए तहा तहा ववहारं पट्टवेजा। से किमाइ भंते ! आगमवलिया समणा णिग्गंथा इचेयं पंचविहं ववहारं जहा जहा जहिं जहिं तहा तहातहिं तहिं अणिस्सिओवसितं सम्मं ववहारमाणे समणे णिग्गंथे आणाए आराहए भवइ / (सू०-३५०) 'कइविहे ण' मित्यादि, व्यवहरणं व्यवहारो-मुमुक्षुप्रवृत्तिनिवृत्ति-रूपः इह तु तन्निबन्धनत्वात् ज्ञानविशेषोऽपि व्यवहारः, तत्र आगम्यन्ते परिच्छिद्यन्ते अर्था अनेनेत्यागमः-केवलमनः पर्यायावधिपूर्वचतुर्दशकदशकनवकरूपः, तथाश्रुतं-शेषामाचारप्रकल्पादिनवादिपूर्वाणां च श्रुतत्वेऽप्यतीन्द्रियार्थेषु विशिष्टज्ञानहेतुत्वेन सातिशयत्वादागमव्यपदेशः केवलवदिति, तथा आज्ञायद्गीतार्थस्य पुरतो गूढार्थपदैर्देशान्तरस्थगीतार्थनिवेदनायातीचारालोचनमितरस्यापि तथैव शुद्धिदानम् / तथा धारणागीतार्थसंविग्नेन द्रव्याद्यपेक्षया यत्रापराधे यथा या विशुद्धि कृता तामवधार्य यदगुप्तमेवालोचनदानस्तत्रैव तथैव तामेव प्रयुक्त इति वैयावृत्त्यकरादेर्वा गच्छोपग्रहकारिणोऽशेषानुचितस्य प्रायश्चित्त-पदानां प्रदर्शितानां धरणमिति, तथा जीतं-द्रव्यक्षेत्रकालभावपुरुषप्रतिसेवानुवृत्त्या संहननधृत्यादिपरिहाणिमवेक्ष्य यत्चयश्चित्तदानं, यो वा यत्र गच्छे सूत्रातिरिक्तः कारणतः प्रायश्चित्तव्यवहारः प्रवर्तितो बहुभिरन्यैश्वानुवर्तित इति / आगमादीनां व्यापारणे उत्सर्गापवादावाह- 'जहे' त्यादि,यथेति यथाप्रकारः केवलादीनामन्यतमः 'से' तस्य व्यवहर्तुः स चोक्तलक्षणो व्यवहारस्तत्र तेषु पञ्चसु व्यवहारेषु मध्ये तस्मिन् वा प्रायश्चित्तदानादिव्यवहारकाले व्यवहर्तव्ये वा वस्तुनि विषये आगमः-- केवलादिः-स्याद्भवेत् तादृशेनेति शेषः। आगमेन व्यवहारं प्रायश्चित्तदाना दिकं प्रस्थापयेत्-प्रवर्तयेत् न शेषैः आगमेऽपि षड्डिधे केवलेनाबन्ध्यबोधत्वात्तस्य तदभावे मनः पर्यायेण एवं प्रधानतराभावे इतरेणेति। अथ नो-नैव चशब्दो-यदिशब्दार्थः, 'से' तस्य स वा तत्र व्यवहर्तव्यादावागमः स्यात् यथा-यत्प्रकारम् 'से' तस्य तत्र व्यवहर्त्तव्यादौ श्रुतं स्यात्,तादृशेन श्रुतेन व्यवहारं प्रस्थापयेदिति, 'इचेएहिं' इत्यादि निगमनम्, सामान्येन-'जहा जहा से' इत्यादितु विशेष-निगमनमिति, एतैर्व्यवहर्तुः फलं प्रश्नद्वारेणाह-'से किमित्यादि, अथ किं हे भदन्त ! भट्टारका आहुः-प्रतिपादयन्ति ? ये आगम-बलिकाः-उक्तज्ञानविशेषबलवन्तः श्रमणा-निर्ग्रन्थाः केवलि-प्रभृतयः 'इयेयं' ति इत्येतद् वक्ष्यमाणम्, अथवा-इत्येवमिति एवं प्रत्यक्षं पञ्चविधं व्यवहारं प्रायश्चित्तदानादिरूपम् ‘सम्म ववहरमाणे' त्ति सम्बध्यते,व्यवहरन् प्रवर्त्तयन्नित्यर्थः, कथम् ? 'सम्म' ति-सम्यक् तदेव कथम् ? इत्याहयदा यदायस्मिन्यस्मिन्नवसरे यत्र यत्र प्रयोजनेवा क्षेत्रे वायोय उचितस्तं तमिति शेषः तदा तदा काले तस्मिस्तस्मिन्प्रयोजनादौ, कथम्भूतम् ? इत्याह-('अणिस्सिओवसितं' इत्यादिसूत्रावयवम् 'अणिस्सिओवस्सिय' शब्दे प्रथमभागे 338 पृष्ठ व्याख्यातम्) आज्ञाया जिनोपदेशस्या-राधको भवतीति, हन्त ! आहुरेवेति गुरुवचनं गम्यमिति। अन्ये तु-'से किमाहु भंते ' इत्याद्येवं व्याख्यान्ति-अथ किमाहुर्भदन्त ! आगमबलिकाः श्रमणा निर्ग्रन्थाः पञ्चविधव्यहारस्य फलमिति शेषः। भ० ८श०८ उ०॥
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________________ ववहार 907 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 ववहार पंचविहे ववहारे पण्णत्ते,तं जहा-आगमे१,सुए 2, आणा 3, | धारणा ,जीए 5 / (सू०-४२१४) स्था०५ ठा०२उ०। अस्य सम्बन्धप्रतिपादनार्थमाहबहुआगमितो पडिम, पडिवज्जइ आगमो इमो वि खलु / सव्वं व पवयणं पव-णीया ववहारविसयत्थं | vell खलियस्स वि पडिमाए, ववहारो को त्ति सो इमं सुत्तं / ववहारविहिण्णू वा, पडिवज्जइ सुत्तसंबंधो / / 5 / / अनन्तरसूत्रे प्रतिमाभिहितानां च प्रतिमां प्रतिपद्यते बडागमिकः, अयमपि पञ्चविधोऽपि व्यवहारः खल्वागमस्तत आगमप्रस्तावात्प्रतिमासूत्रादनन्तरं व्यवहारसूत्रमवादि। 'सव्वं वे' त्यादिवाशब्दः संबन्धस्य प्रकारान्तरोपदर्शने सर्वप्रवचनं प्रावधनिकश्च व्यवहार-विषयस्थं व्यवहारविषयान्तर्गमतोऽवश्यं व्यवहारो वक्तव्य इति व्यवहारसूत्रम् / अथवा-प्रतिमायां स्थितस्य प्रतिमायाः स्खलितस्य को व्यवहारः किं कर्तव्यमिति प्रश्नमाशङ्कय स व्यवहारः पञ्चविध इत्यादिकमिदं सूत्रमुपन्यस्तम्। यदि वा--अनन्तरसूत्रे प्रतिमाः प्रतिपद्यते इत्युक्तं ताश्च प्रतिपद्यते व्यवहारो विधिज्ञो नेतर इति प्रतिमासूत्रादनन्तरं व्यवहारसूत्रस्य संबन्धः। सूत्राक्षरसस्कारः सुप्रतीतो विशेषव्याख्यांतुभाष्यकृरकरिष्यति। व्य०१० उ० जहा से तत्थ आगमे सिया आगमेण ववहारं पट्टवेखा। (सू०-४२१) स्था०५ ठा०॥ अस्य व्याख्यामाहसो पुण पंचविगप्पो, आगम सुय आण धारणा जीते। सेतम्मि ववहरते, उप्परिवाडी भवे गुरुगा / / 51 // सः-पुनर्व्यवहारः पञ्चविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-आगमः श्रुतम् आज्ञा धारणा जीतमिति / तत्र सति आगमादौ व्यवहारे यदि उत्परिपाट्या-- उत्क्रमेण व्यवहरति तदा प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः। इयमत्र भावनाआगमे विद्यमाने यद्यन्येन सूत्रादिना व्यवहरति तदा चतुर्गुरुकम्। यदा पुनरागमो न विद्यते तदा श्रुतेन व्यवहर्तव्यम्। श्रुते वर्तमाने यद्याज्ञादिभिर्व्यवहरति तदा चतुर्गुरुकं प्रायश्चित्तम् / यदा तु श्रुतमपि न विद्यते तदाऽऽज्ञया व्यवहर्त्तव्यम् / आज्ञायां विद्यमानायां यदि धारणया प्रस्थापयति तदा चतुर्गुरुकम्। आज्ञाया अभावे धारणया व्यवहर्त्तव्यम्। यदि पुनर्धारणायां सत्यां जीतेन व्यवहरति तदा चतुर्गुरुकम्। धारणाया अभावे जीतेन व्यवहर्तव्यमिति। तत्र 'सेतत्थ आगमे सिया' इत्यादिकस्य (स्थानाङ्ग 4214) सूत्रावयवस्यायमर्थः-तत्र तस्मिन्व्यवहारपञ्चमध्ये 'से' तस्य साधोरागमः स्यात्तर्हि आगमेन व्यवहारं प्रस्थापयेत्थ्यवहारो न शेषः सूत्रादिभिः। एतदेवाहआगमववहारी आ-गमेण ववहरेइ सोंन अन्नेणं। न हि सूरस्स पगासं, दीवपगासो विसेसेइ॥५२॥ स आगमव्यवहारी आगमेन व्यवहरति। नान्येन-श्रुतादिना तस्य ततो हीनत्वादेतदेव प्रतिवस्तूपमयादर्शयति-न हि सूर्यस्य प्रकाशंदीपप्रकाशो विशेषयति-न सूर्यप्रकाशात् दीपप्रकाशोऽधिकतरः, किंतु-हीन इत्यर्थः / एवमिहापि यादृशो विषय आगमस्य न तादृशः शेषाणां व्यवहाराणामिति / आह-यस्मिन् काले गौतमादिभिरिदं सूत्रं कृतम् / 'ववहारे पंचविहे पन्नत्ते' इत्यादि तदा आगमो विद्यते, ततः किं कारणमाज्ञादयोऽपि सूत्रे निबद्धाः। अत्राहसुत्तमण्णायविससं,खेत्तं कालंच पप्प ववहारो। होहिंति न आइल्ला, जो तित्थं जाव जीतो उ॥५३|| सूत्रमज्ञातविषयं भविष्यति स तादृशः कालो यस्मिन्नागमो व्युच्छेत्स्यति, ततः शेषैर्व्यवहारैर्व्यवहर्त्तव्यम्, तत्रापि व्यवहारः। क्षेत्रं कालं च प्राप्य यो यथासंभवति तेन तथा व्यवहरणीयम्। किमुक्तं भवति-यस्मिन् २काले यो यो व्यवहारो व्यवच्छिन्नः अव्यवच्छिन्नो वा तदा तदा प्रागुक्तेन क्रमेण व्यवहर्त्तव्यम्। तथा यत्र यत्र क्षेत्रे युगप्रधानैराचार्या या व्यवस्था कृता तया अनिश्रोपश्रितं व्यवहर्त्तव्यम्। अन्यचआद्याश्चत्वारो व्यवहारा न यावत्तीर्थ च भविष्यन्ति जीतस्तु व्यवहारो यावत्तीर्थं तावद्भवितेति जीतोपादानम्। व्य०१० उ० ("आणाए अणाणाए आराहेइ" इत्यस्य व्याख्यानम्-'आणा' शब्दे द्वितीयभागे 123 पृष्ठे गतम्।) सांप्रतमाराधनामाहआराहणा उतिविहा, उकोसा मज्झिमा जहण्णा उ। एग दुग तिग जहन्नं, दुतिगह भवा उ उकोसा / / 55|| आराधना त्रिविधा-उत्कृष्टा, मध्यमा, जघन्या च। तत्रोत्कृष्टाऽऽराधनायाः फलमेको भवः, मध्यमाया द्वौ भवौ, जघन्यायास्त्रयो भवाः / अथवा-यदि तद्भवे मोक्षाभावः तदा उत्कृष्टाऽऽराधनायाः फलं जघन्य संसरणं द्वौ भवौ, मध्यमायास्त्रयो भवाः, जघन्याया उत्कृष्टा अष्टौ भवाः। तदेवं भाष्यकृता सूत्रव्याख्या कृता। संप्रति नियुक्तिविस्तरःजेण य ववहरइ मुणी, जंपिय ववहरइ सो वि ववहारो। ववहारो तर्हि व ठप्पो, ववहरियव्वं तु वुच्छामि // 56|| येन मुनिर्व्यवहरतिस आगमादिव्यवहारः, व्यवहियतेऽनेनेतिव्यवहारः इति व्युत्पत्तेर्यदपि च व्यवहर्त्तव्यं मुनिर्व्यवहरति। सोऽपि व्यवहारः कर्मणि घञ्। समापन्नान् तत्र योव्यवहारः करणपक्षरूपः सस्थाप्यः पश्चाद्वक्ष्यत इति भावः / व्यवहर्त्तव्यं तु वक्ष्यामि। प्रतिज्ञातमेव निवार्हयतिआमवंते य पच्छित्ते, ववहरियव्वं समासतो दुविहं। दोसु विपणगं पणगं, आभवणाए अहीगारो // 17 // व्यवहर्त्तव्यं समासतो द्विविधम्, तद्यथा-आभवत, प्रायश्चित्तं च / तत्र द्वयोरपि आभवति प्रायश्चित्ते च प्रत्येकं पञ्चकम्, तत्राधिकारः प्रयोजनमिदानीमाभवनया एष द्वारगाथासंक्षेपार्थः / साम्प्रतमेनामेव व्याचिख्यासुराह। तत्र प्रथमतः 'दोसु विपणगं पणग' मित्यस्य व्याख्यानमाहखेत्तेसु य सुहदुक्खे, मग्गे विणए य पंचहा होइ। सचित्ते अचित्ते,खेत्ते काले य भावे य॥५८||
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________________ ववहार ९०८-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 ववहार आभवत्पञ्चधा--पञ्चप्रकारं भवति / तद्यथा--क्षेत्रे श्रुते सुखदुःखे चत्वारो गुरुकाः, अचित्ते उपधिनिष्पन्नम्, सपुनरभिधारयन् यैः सचित्तैः मार्गे विनये च। प्रायश्चित्तमपि पञ्चधा, तद्यथा-सचित्ते अचित्ते क्षेत्रे काले / सोऽभिधार्यते तेषां मध्ये किं लभते इत्याह-"छम्मासं चेव वल्लिदुग' भावे च / एष प्रतिद्वारगाथासमासार्थः / व्य० 10 उ० [तत्र क्षेत्रे मिति नालवद्धानि निर्मिश्राणि लभते 1 मिश्रंच २एवं रूपं निर्मिश्रतावदाभवद्व्यवहारः 'खेत्त' शब्दे तृतीयभागे 758 पृष्ठे गतः।] लक्षण चालद्विकं लभते। अधुना श्रुतद्वारमाह ____ साम्प्रतमेनामेव गाथां विवृण्वन्नाहदुविहा सुतोवसंपय-अभिधारेते तहा पढ़ते य। अभिधांते पढंते वा, छिन्नाए ठाति अंतए। एकेकाऽविय दुविहा, अणंतरपरंपरा चेव // 126|| मंडलीए उसट्ठाणं, वयतो न उमज्झिामे // 130|| द्विविधा श्रुतसंपत्, तद्यथा-अभिधारयति, पठतिचा एकैका द्विविधा- अभिधारयति पठति वा यो लाभः स छिन्नायामुपसंपदि अन्तकेपर्यन्ते अनन्तरा, परम्परा च / तत्राभिधारयत्यनन्तरा नाम-एकः साधुः तिष्ठति सर्वेषां लाभस्तत्र विश्राम्यतीत्यर्थः / मण्डल्यां तु यो लाभः स कंचिदाचार्यमभिधारयति / योऽसावभिधार्यमाणः सन् कञ्चिदन्यमभि- स्वस्थानलभते व्याख्यातुरुपतिष्ठत इत्यर्थः,नतुमध्यमे मण्डलीमध्यसंधारयति परंपरा नाम एकः साधुः कश्चिदाचार्यमभिसंधारयति वर्तिनि। सोऽप्यभिधार्यमाणोऽन्यमभिधारयति, सोऽप्यन्यम्, सोऽप्यन्यमेवम कस्मादित्याहनियतं परिमाणम्। जो उ मज्झिलए जाति, नियमा सो उ अंतिमं / तदेवाह पावते निन्मभूमिं तु, पाणीयं च पलोठियं / / 131 // एत्थं सुतं अहीहम्मि, सुत्तवं सोय अन्नहिं। यो मण्डलीमध्यवर्तिनिलाभो याति सोऽपि नियमादन्तिम व्याख्यातवचंतो सो भिधारेतो, सो वि अन्नत्तमेव वा।।१२७।। लक्षणं प्राप्नोति, निम्नभूपानीयं प्रलोठितम्। दोण्हं अन्नतरा होति, तिगमादी परम्परा। पूर्व षट् निर्मिश्राण्ययुक्तानि तानि सम्प्रति दर्शयति-- सट्ठाणं पुणरेतस्स, केवलं तु निवेयणा / / 128|| माया पिया य भाया, भगिणी पुत्तो तहेव धूया य। अत्र अस्य पार्श्वे श्रुतमध्येष्ये इति कश्चिदभिधारयन् व्रजति, सोऽपि एसा अणंतराखलु, निम्मिस्सा होति वल्ली उ॥१३२।। श्रुतवान् अन्यत्राभिधारयन् व्रजति, सोऽप्यन्यम्। यदि वा–तमेवाभि- माता पिता भ्राता भगिनी पुत्रो दुहिता च, एषा खलु अनन्तरा निर्मिश्रा धारयति / तत्र द्वयोरनन्तरा श्रुतोपसंपद्भवति त्रिकादीनां तु परम्परा भवति वल्ली। स्वस्थानं पुरागच्छतः केवलं तस्याभिधारितस्य निवेदना कर्तव्या। सेसाण उ वल्लीणं, परलाभो होइ दोन्नि चउरो वा। यथाऽहं स्वस्थानं गमिष्यामीति। एवं परंपराए, विभासतत्तो य जा परतो // 133 / / [4] साम्प्रतमनन्तरायां परम्परायां वाऽभिधारणायामाभ शेषाणां तु वल्लीनायो लाभो भवतिद्वे-पुत्र-दुहितरौ, यदिवा--चत्वारि-- वन्तमाह मातापितृभ्रातृभगिनीरूपाणि स समस्तोऽपि परलाभोऽभिधारितस्य अछिन्नोवसंपयाए, गमणं सट्ठाण जत्थ वा छिनं / लाभ इत्यर्थः / एवं परम्परायामपि विभाषा कर्तव्या। ततोऽपि याः परतो मग्गण कहण परंपर, छम्मासं चेव वल्लिदुगं // 129 / / वल्ली तस्य या परतः ताः सर्वा अपिपरलाभः। व्य०१० उ०। (मिश्रवल्ली अच्छिन्नोपसम्पदमभिधार्यमाणो यदन्यं वाऽभिधारयति तस्य हि लाभो 'मिस्सवल्ली' शब्देऽस्मिन्नेव भागे गता।) न छिद्यते / तस्मादभिन्नोपसंपदि योऽभिधारयता लाभः स स्वस्थानं दुविहो अभिधारतो, दिट्ठमदिट्ठोय होति नायवो। गच्छति,योऽभिधारितस्तस्यान्येनाच्छिन्नः सन् गच्छतीत्यर्थः / अथ अभिधारेजंतगसं-तएहिंऽदिट्ठोय अन्नेहिं।।१३६|| छिन्ना उपसंपत् तत आदित आरभ्य यत्र सर्वेषां लाभो गच्छति अभिधारयन् द्विविधो द्रष्टव्यस्तद्यथा-दृष्टोऽदृष्टश्च / तत्र दृष्टोऽभिइहाभिधारयन् योऽभिधारितस्तं प्रति संप्रस्थितः स चापान्तराले धार्यमाणसत्कैः साधुभिरन्यैर्वा, अदृष्टो-न केनापि दृष्टः / यदन्यमभिधारयति आत्मीये वा गच्छेप्रतिनिवर्तते, तदा यदभिधारयता सचित्ते अंतरालद्धे , जो उ गच्छति अन्नहिं। पथि लब्धं सचित्तं तदभिधारितस्य स्वयं वा गत्वा समर्पयति, अन्यस्य जो तं पेसे सयं वावि, नेइ तत्थ अदोसवं / / 137|| वा हस्ते प्रेषयति। अथ नार्पयति स्वयमन्यप्रेरणेन वा तत्राह-'मग्गणे' त्यादि, तत्र 'कहणपरम्पर' त्ति यैः स दृष्ट आगच्छन् तैर्यः पूर्वमभि सचित्ते अन्तरा पथिलब्धे यः अभिधारयन अन्यत्र गच्छति, स्वगच्छं धारितस्तस्य परम्परकेणाख्यातम् / यथा-युष्मानभिधारयत / तेन वा प्रतिनिवर्तते, तत्र यस्तत् सचित्तं लब्धमभिधारितस्य प्रेषयति, स्वयं संप्रस्थितेन सचित्तं लब्धम्, ततः युष्माकं तेन न प्रेषितम् 'मग्गण' त्ति स वा नयति, सोऽदोषवान्। चैतत् श्रुत्वा तं मार्गयति, व गतो भवेन्मम सचित्तहारीति मृगयमाणैश्च जो उ लद्धं वए अण्णं, सगणं पेसवेइ वा। स्नानादि-समवसरणे दृष्टः पृष्टश्च। यथा--अमुककाले अस्मानभिधारयता दिहो व अदिह्रो वा, मायती होति दोण्हि वि॥१३८|| समागच्छता सचित्तं लब्धं तन्मह्यं देहि, यदि न ददाति तदा बलात् यस्तुसचित्तं लब्ध्वा अन्यमाचार्य व्रजति, स्वगणवातत्सचित्तंप्रेषयति / व्यवहारेण दाप्यते। मायानिष्पन्नश्च तस्य गुरुको मासः प्रायश्चित्तम्। सचित्ते | दृष्टोऽदृष्टो वा सन्तौ दृष्टादृष्टरूपौ द्वावपि मायिनौ भवतः।
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________________ ववहार 906 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 ववहार पहाणाइएसु तं दिस्सा, पुच्छा सिट्टे हरंति से गुरुगो। गुरुगा चेव अचित्ते, तिविहं पुण सम्म तग्गहणा / / 136 / / परम्परया कथमपि श्रुतं यथा अमुकोऽस्मानभिधायं समागच्छन् अन्तरा पथि सचित्तं लब्धवान् परं सोऽन्यत्र गतः, स्वगणं वा गतवान्, ततस्तं मृगयमाणैस्तैः स्नानादिभिः समवसरणेषु तं दृष्ट्वा पृच्छा कृता, यथात्वममुककालेऽस्माकमभिधार्य समागच्छन्नन्तरा सचित्तमुत्पादितवान्? तेन च यथावस्थितं शिष्ट, ततः स तस्य सकाशात् तत्सचित्तं हरति / अथ स न ददाति तर्हि बलात् व्यवहारेण दाप्यते, मायाप्रत्ययश्च तस्य गुरुको मासः प्रायश्चित्तम्। अचित्तापहरणे चत्वारो गुरुकाः, अचित्ते पुनस्त्रिविधे जघन्योपधिनिष्पन्नं मध्यमोपधिनिष्पन्नमुत्कृष्टोपधिनिष्पन्नं च। अत्रैवान्यकर्तृकं किंचिद्विशेषसूचकं गाथाद्वयम्दुविहो अभिधारेतो, दिट्ठमदिहो व होइ नायव्यो। अभिधारिजंतगसं-तिएहिं दिट्टो व अन्नेहिं / / 140 / / दिट्ठो माइ अमाई, एवमदिह्रो वि होइ दुविहो उ। अमाई उ अप्पिणती, मायी उन अप्पिणे जो उ॥१४१।। आद्यगाथाव्याख्यानं प्राग्वत् / दृष्टो द्विविधः-मायी, अमायी च / एवमदृष्टोऽपि द्विविधो भवति मायी, अमायी च / तत्र अमायी लब्धं सचित्तादिकमर्पयति, यस्तुमायी सनार्पयति,ततः स बलात् व्यवहारेण दाप्यते। शेषं तथैव। एवं ता जीवंते, अभिधारेंतो उ एइ जो साहू। कालगते एयम्मि उ, इणमन्नो होइ ववहारो॥१४२॥ एवं तावत् जीवत्यभिधार्यमाणे योऽभिधारयन् साधुरागच्छति तस्य व्यवहारः, कालगते पुनरेतस्मिन्नभिधार्यमाणे अयमन्यो भवति व्यवहारः। तमेवाहअप्पत्ते कालगते, सुद्धमसुद्धे अदेंत देंते य / पुटिव पच्छा निग्गय, संतमसंतेसु ते बलिया // 143|| कश्चिदाचार्यमभिधारयन् संप्रस्थितस्तत्रयं गच्छमभिधार्य संप्रस्थितस्तमप्राप्ते एव स आचार्यः कालगतः, अत्र च त्रयः प्रकाराः-"पुव्वं पच्छा निग्गय" ति / यदैवाभिधारयन् निर्गतस्तदैव कालगत आचार्यः 1, अथवा-पूर्वमभिधारयन् निर्गतः पश्चादाचार्यः कालगतः 2, यदि वा--- पूर्वमाचार्यः कालगतः स पश्चादभिधारयन् निर्गतः३। अत्र प्रथमे प्रकारे यत्तेनाभिधारयता पथि सचित्तादि लब्धं तत्कालगताचार्यशिष्याणामाभवति / द्वितीये प्रकारे लब्धे अलब्धे वा सचित्तादिके यापरताः स्थविरास्तदाऽपि तत्सचित्तादि तच्छिष्याणामाभवति / तृतीये प्रकारे अभिधारयता दूरादागच्छता तावन्न ज्ञानं यावत्तं गच्छं प्राप्तस्ततो यन्निमित्तं स तत्रागतस्तत् श्रुतं यदितस्य शिष्यस्यास्ति तदा सतत् श्रुतं तस्मै दातुमिच्छति ततः कालगताचार्यस्य लभते शिष्याः सचित्तादिकम्। यद्यपि सोऽभिधारको विपरिणतो न गृह्णाति शिष्यस्य सकाशात् श्रुतं ग्रहीतुं तत्रापि कालगताचार्याणामेव तत्सचित्तादि आभवति / अथ तत् श्रुतं नास्ति, नवाददाति, तदा न लभते कालगताचार्यशिष्यः सचित्तादिकम् / आह- किं कारणं तृतीयेऽपि प्रकारे काल-गताचार्यशिष्याणामेवाऽऽभवतीत्यत आहे- 'बलिय' त्ति बलवती श्रुताज्ञा, तत् श्रुतं तदवस्थमेव यन्निमित्तं तेनाभिधारितम् 'सुद्धम-सुद्धअदेंतदेंते य' इति यत् कालगताचार्यस्य शिष्याणामाभवति तद्यद्यभिधारको ददाति, तदा शुद्धः- अप्रायश्चित्तीत्यर्थः। अथ न ददाति तदा अशुद्ध- प्रायश्चित्तभाग भवतीत्यर्थः / तत्र सचित्तस्यादाने प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः, आदेशान्तरेणानवस्थाप्यम् / अचित्तं उपधिनिमित्तं योऽपि चानाभाव्य न दत्ते तस्याप्येमेव प्रायश्चितम्। संप्रति 'पुव्वि पच्छा निग्गत संतमसंते' इत्यस्य किंचिद्व्याख्यानमाहलद्धे उवरया थेरा, तस्स सिस्साण सो भवे। मए विलभते सीसो, जइसे अस्थि देइ वा // 14 // तत्र प्रथमे प्रकारेऽभिहितं प्राक्, तथैव द्वितीये प्रकारे लब्धेउपलक्षणमेतत् अलब्धे वा सचित्ते स्थविरा उपरतास्ततः स सचित्तादिको लाभस्तस्य शिष्याणामाभवति। तृतीये पुनः प्रकारे मृतेऽप्यभिधारिते लभते शिष्यो यदि 'से' तस्य श्रुतमस्ति, ददाति वा / अथवा-नास्ति, नददातिवा, तदा न लभते। एतावता 'संतमसंते' इत्यपि व्याख्यातम्। उपसंहारमाहएवं नाणे तह दं-सणे य सुत्तत्थ तदुभए चेव। वत्तणसंधणगहणे, नव नव भेया य एकेके ||15|| एवमुक्तप्रकारेण ज्ञाननिमित्तमभिधार्यमाणे यद् आभवति तत् भणितम्, तथा तेनैव प्रकारेण दर्शनऽपि दर्शनप्रभावकशास्त्राणामप्यर्थायाभिधार्यमाणे आभवत्प्रतिपत्तव्यम्। तत्र ज्ञानार्थ दर्शनार्थ वा योऽभिधार्यते स 'सुत्तत्थ तदुभए चेव' त्ति सूत्रार्थतया अर्थार्थतया तदुभयार्थतया च / तत्रच सूत्रार्थतया अभिधारणं तद्वर्तनार्थतयासंधानार्थतया ग्रहणार्थतया च / तत्र पूर्वगृहीतस्य पुनरुज्ज्वालनं वर्तना, विस्मृतस्याऽपान्तराले त्रुटितस्य पुनःसंधानकरणं संधना। अपूर्वस्य ग्रहणं ग्रहणमिति। एवं त्रयो भेदाः-सूत्रार्थतया अर्थार्थतया। तदुभयार्थतया च प्रत्येक द्रष्टव्या : / सर्वसंख्यया ज्ञाने दर्शन च प्रत्येक नवनव भेदाः। तथा चाह-'नव नव भेया य एक्कक्के / (5) संप्रति चरणार्थमभिधारयन्तमधिकृत्याह--- पासत्थमगीयत्था, उवसंपखंति जे उचरणऽहा। सुत्तोवसंपयाए, जो लाभो सो उतेसिं तु॥१४६|| येपार्श्वस्थादयोऽगीतार्थाश्चरणार्थमुपसंपद्यन्तेतेषांचरणो-पसंपन्निमित्त कमप्यभिधारयन्समागच्छतां श्रुतोपसंपदि चान्तरायो लाभो भवति स स तेषामभिधार्यमाणानां भवति। नालबद्धद्धिकं तु तेषामभिधारयतामिति / गीयत्था ससहाया, असमत्ता जंतु लहति सुहदुक्खी। सुत्तत्थ अतकेंतासमत्तकप्पी उन दलंति||१७|| ये पुनः पार्श्वस्थादयो गीतार्थाः ससहायाः संभोगनिमित्तमालोचनां दास्याम इत्यभिधारयन्तः सूत्रार्थान् अतर्क यन्तोऽनपेक्षमाणा आगच्छन्तोऽन्तरा यं लभन्ते सचित्तमचित्तं
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________________ ववहार ११०-अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 ववहार वायेऽपि च गीतार्था असमाप्ता-असमाप्तकल्पा आगच्छन्तोलभन्ते यच एकाकी एकाकिदोषपरिवर्जनार्थमुपसंपत्तुकामो लभते ये च समाप्तकल्पिकास्तेषामेवाऽऽभवति / न तु येषां समीपं प्रस्थिताः तेषामेवंनिर्ग्रन्थीनामपि द्रष्टव्यम्। अभिधारिजंत अप्पत्ते, एस वुत्तो गमो खलु / पढ़ते उ विहिं वुच्छं, सो य पाठो इमो भवे // 148|| एषः-अनन्तरोदितः खलुगमः-प्रकारोऽभिधार्यमाणे अप्राप्ते उक्तः, अत ऊर्ध्वं तु प्राप्ते सति पठति विधिं वक्ष्यामि / स च पाठोऽयं वक्ष्यमाणो भवति। तमेवाहधम्मकहा सुत्ते य, कालिएँ तह दिहिवाएँ अत्थे य। उपसंपयसंजोगे, दुगमाइ जहुत्तरं बलिया॥१४॥ धर्मकथायां सूत्रे कालिकेतथा दृष्टिवादे अर्थे चपाठार्थमुपसंपद्भवति। तत्र सूत्रतोऽर्थतश्च सूत्रार्थयोश्च स्वस्थाने द्विकादिसंयोगे यथोत्तरं बलिका-बलवन्तः, सूत्रचिन्तायां परम्परसूत्रं पाठयन्, अर्थचिन्तायां परम्परमर्थ व्याख्यानयन्, सूत्रार्थयोरेव परस्पर-चिन्तायामर्थप्रदाता बलीयानिति भावः। आवलियमंडलिकमो, पुवुत्तो छिण्णऽछिण्णभेदेणं / एसा सुओवसंपय, एत्तो सुहदुक्खसंपयं वोच्छं।।१५०।। या सा श्रुतोपसंपत्परम्पराप्ता आवलिका ज्ञातव्या,यात्वनन्तरा सा मण्डली, सा च अच्छिन्ना कथमिति चेदुच्यते-यस्मादभिधारकस्य लाभोऽन्येन छिन्नः सन्नभिधार्यमाणं मार्गयति, ततोऽच्छिन्नलाभयोगात् सा उपसंपदच्छिन्नेत्युच्यते / या चावलिका सा छिन्ना यतस्तस्यां यो लाभ आदित आरभ्य परम्परया छिद्यमानोऽन्तिमेऽभिधार्येऽन्यमनभिधारयति-विश्राम्यति ततः सा छिन्नोपसपत् / एवं छिन्नाच्छिन्नभेदेनावलिकामण्डलिकाक्रमः पठत्यपि पूर्वोक्त दृष्टव्यः, तदेवमुक्तैषा श्रुतोपसंपत् अतऊर्ध्वंसुखदुःखोपसंपदं वक्ष्ये। तामेवाहअभिधारो उववण्णो, दुविहो सुहदुक्खितो मुणेयव्यो। तस्स उकिं आभवती, सचित्ताऽचित्तलाभस्स / / 151 // सुखदुःखितो द्विविधो ज्ञातव्यस्तद्यथा-अभिधारयतीत्यभिधारोऽभिधारयन्, उपपन्न-सुखदुःखोपसंपदं प्राप्तः। तस्य द्विविध-स्यापि सचित्ताचित्तलाभस्य वा मध्ये किमाभवतीति च वक्तव्यम्। __अथकः सुखदुःखोपसंपदमुपपद्यते। इत्यत आहसहायगो तस्स उनऽत्थि कोती, सुत्तं च तक्केइन सो परत्तो। एगाणिए दोसगणं विदित्ता, सो गच्छमन्भेइ समत्तकप्पं // 15 // तस्य सहायकः कोऽपि न विद्यते, न च परस्मात् सूत्रमपेक्षते स्वयं सूत्रार्थपरिपूर्णत्वात्। केवलमेकाकी सदोषगणं विदित्वास गच्छंसमाप्तकल्पमभ्येति-अभ्युपगच्छति। तत्रोपसंपन्नमधिकृत्याऽऽभवद्व्यवहारमाहखेत्ते सुहदुक्खीओ,अभिधारेंताई दोण्णि वी लभति। पुरपच्छसंथुयाई, हेठिल्लाणं च जो लाभो // 153|| सुखी-सुखदुःखोपसंपदमुपसंपन्नः क्षेत्रे-परक्षत्रेऽपि एतदर्थमेव क्षेत्रग्रहणमन्यथैतन्निरर्थकं स्यात्। द्वयान्यपि पूर्वसंस्तुतानिपश्चात्संस्तुतानि वाऽभिधार्यन्ते लभते ये च तेन दीक्षिताः तेषामधस्तनानां यो लाभः सोऽपि तस्याऽऽभवति। संप्रति क्षेत्रे इत्यस्य विवरणमाहपरखेत्तम्मि वि लब्भति, सो देंतेण गहणखेत्तस्स। जस्स वि उवसंपन्ना, सो विय सेन गिण्हए ताई॥१५४|| मातापितृप्रभृतीनि श्वश्रूश्वशुरप्रभृतीनि च यदि तं सुखदुःखोपसंपन्नमभिधारयन्त्युपतिष्ठन्ते व्रतग्रहणाय परक्षेत्रेऽपि लभते इति प्रतिपत्तिः स्यादित्येवं लक्षणेन कारणेन क्षेत्रस्य ग्रहणं कृतमन्यथा न कमप्यर्थपुष्णाति, यस्यापिसमीपेस उपसंपन्नः सोऽपितानिन गृह्णाति सूत्रादेशतोऽनाभाव्यत्वात्। परखेत्ते वसमाणो, अतिकमंतो वनलभति असण्णी। छंदण पुष्वसण्णी, गाहियसम्मादि सो लभई / / 15 / / परक्षेत्रे तिष्ठन् व्यतिक्रामन् वा यस्तस्यसुखदुःखोपसंपन्नस्य उपतिष्ठते स यदि असंज्ञी-अविदितपूर्वस्तदा तमसंज्ञिनं न लभते केवलं स क्षेत्रिकस्याऽऽभवति / यः पुनः पूर्वसंज्ञीपूर्वविदितस्वरूपस्तं पूर्वसंज्ञिनं छन्देन लभते, यदि स वल्लीसंबन्धो भवति, तं च सुखदुःखितमभिधारयति तदा लभते / अथ तं नाभिधारयति, अभिधारयन्नपि च वल्लीसंबन्धो न भवति ततो यस्य समीपे सुखदुःखोपसंपदं जिघृक्षुः संप्रस्थितस्तस्याऽऽभवति। 'गाहियसम्मादि सो लभते' इति। यदिस सुखदुःखेन सम्यक्त्वं ग्राहित आदिशब्देन मद्यमांसविरतिंवा ततः पश्चात् प्रव्रज्यापरिणामपरिणतःसयद्यपि वल्लीद्विकसम्बन्धो न भवति, तथापि यदितस्य सुखदुःखितस्य समीपे उपतिष्ठते तदा सतं लभते। एतदेव सविशेषमभिधित्सुराहसुहदुक्खिएण जइ, परखेत्तुवसामितो तहिं कोई। वेति अभिनिक्खमामि, सो ऊ खेत्तिस्स आभवइ॥१५६|| तेन सुखदुःखितेन यदितत्रपरक्षेत्रे कोऽप्युपशामितः सम्यक्त्वं ग्राहितो, भवति, तत्कालमेव च ब्रूते अभिनिष्क्रमामिप्रव्रज्यां प्रतिपद्ये तदा स क्षेत्रिणः क्षेत्रिकस्याऽऽभवतिन तु सुखदुःखितस्य। अह पुण गहितो दसण, ताहे सो होति उवसमेतस्स। कम्हा जम्हा सावऍ, तिण्णिवरिसाणि पुष्वदिसा / / 157 / / अथपुनदर्शनं सम्यक्त्वं तेन सुखदुःखितेन पूर्वं ग्राहितस्ततः स तस्य उपशमयतः सद्देशनया प्रतिबोधितः, स आभवति / कस्मादिति चेदत आह-यस्मात् श्रावके त्रीणि वर्षाणि पूर्वदिक् भवति--पूर्वासन्नता भवति। एएण कारणेणं, सम्महिट्ठीतुन लभइ खेत्ती। एसो उवसम्पन्नो, अभिधारेंतो इमो होइ॥१५८|| एतेन कारणेन सम्यग्दृष्टिं पूर्वग्राहितसम्यग्दर्शनं क्षेत्रिको न लभते एष सुखदुःखोपसंपदमुपसम्पन्न उक्तः।
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________________ ववहार 111- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 ववहार साम्प्रतमभिधारयन्वक्तव्यः सोऽयं वक्ष्यमाणो भवति। तमेवाहमग्गणकहणपरम्पर-अभिधारे तेण मंडली छिन्ना। एवं खलु सुहदुक्खे, सचित्तादी उ मग्गण कया॥१५६|| सुखदुःखनिमित्तमन्यं गच्छमुपसंपद्यमानस्य मार्गणा भवति / कुत्र स गच्छो विद्यतेगवेषयन् गच्छति, ततः केनापितस्य कथनं भवति, यथाअमुकस्थाने स गच्छेऽस्तीति / ततस्तेनाभिधारयता परम्परा आवली छिन्ना, अनन्तरा मण्डली अच्छिन्ना प्रागिव परिभाव्या। परिभाव्य च यद्यस्याऽऽभवति तत्तस्मै दातव्यम् / इयमत्र भावना-आवलिकायां मण्डल्यां वा वल्लीत्रिकमभिधारयत आभवति, शेषं तुयत्सलभते तत्तेनाभिधारितस्य न भवति / तदपि च परम्परया व्रजदन्तिमस्याभिधार्यमाणस्य विश्राम्यति मण्डल्यामन्येनाच्छिद्यमानो लाभोऽनन्तरस्याभिधार्यमाणस्योपतिष्ठते, एवमुक्तेन प्रकारेण सुखदुःखे-सुखदुःखोपसंपदमभिजिघृक्षोरभिधारयतः सचित्तादौ मार्गणा कृता। सम्प्रति प्रकारान्तरेण सुखदुःखोपसंदमुपसंपन्ने अभिधारयति सचित्तादौ मार्गणां करोति। जइ से अस्थि सहाया, जइ वा वि करेंति तस्स तं किचं। सो लभते तं इहरा, पुण तेसिमणुन्नाणसाहारं // 160 // यदि 'से' तस्य-सुखदुःखोपसम्पन्नस्य सहायाः सन्ति, यदिवा तएव येषां समीपे उपसंपन्नास्तस्य तत्कृत्यं वैयावृत्त्यादिकुर्वन्ति तदा यत्तस्योपतिष्ठतेतं लभते इतरथा पुनस्तेषां समनोज्ञानां साम्भोगिकानां साधारणं तद्भवति। अप्पुण्णकप्पियाजे उ, अन्नोनमभिधारए। अन्नोन्नस्स य लाभो उ, तेसिंसाहारणो भवे // 16 // अपूर्णकल्पिका नाम गीतार्था असहाया ये अपूर्णकल्पिका अन्योन्यमभिधारयन्तिअन्योन्यस्य सुखदुःखोपसंपदं प्रतिपद्यन्ते, तेषां यो लाभः सोऽन्योन्यस्य-परस्परस्य साधारणो भवति। जाव एकेकगो पुनो, तावतंसारवेइ उ। कुलादिथेरगाणं व, ति जो वाऽवि सम्मतो॥१६॥ यावत्तेषामेकैकस्य पूर्णो गच्छो भवति। किमुक्तं भवतियावदेकैकस्य प्रत्येकं गच्छो नोपजायते / तावत्तमभ्युपपन्नगच्छमेकतरे सारयन्ति येषामवग्रहे वर्तते। अथतेसारयन्तः परिताम्यन्ति तदा कुलस्थविराणाम् आदिशब्दात्-गणस्थविराणां संघस्थविराणां वा तान् ददति अर्पयन्ति। योवा कोऽपि तेषां सम्मतस्तस्य समर्पयन्ति / गता सुखदुःखोपसंपत्। (6) संप्रति मार्गोपसंपद्वक्तव्या। तथा चाहसुहदुक्खे उवसंपय, एसा खलु वण्णिया समासेणं। अह एत्तो उवसंपय, मग्गोग्गहवजिए वुच्छं।।१६३।। एषा-अनन्तरोदिता खलु उपसंपद्वर्णिता समासेन सुखदुःखे, अथानन्तरमत ऊर्द्धव, मार्गे अवग्रहवर्जित वक्ष्ये–मार्गोपसंपदं वक्ष्ये इत्यर्थः। अत्र चेयं व्युत्पत्तिः-मार्गे देशनायोपसंपत् मार्गोपसंपत्। मग्गोवसंपयाए, गीयत्थेणं परिग्गहीयस्स। अगीयस्सावि लाभो, का पुण उवसंपया मग्गे // 164|| मार्गोपसंपदि प्रतिपन्नायागीतार्थस्यापि सतो गीतार्थेन परिगृहीतस्य लाभो भवति, अन्यथा अगीतार्थस्य न किञ्चिदाभवतीति वचनान्न कोऽपि लाभः स्यात्। ___ का पुनरुपसंपत् मार्गे? इति चेदत आह-- जह कोई मग्गन्न, अन्नं देसं तु वचती साहू। उवसंपन्जइ उ तगं, तत्थऽण्णो गंतुकामो उ॥१६५।। यथेतिमार्गोपसंपत्प्रदर्शने, यथा-कश्चित्साधुर्गिज्ञोऽन्यं देशं व्रजति, तत्र देशे अन्यो गन्तुकामस्तं साधुमुपसंपद्यते, अहमपि युष्माभिः सह समागमिष्यामि! अथ कीदृशो मार्गोपदर्शननिमित्त मुपसंपद्यते, तत आहअव्वत्तो अविहाडो,अदिट्ठदे सो अभासिगो वाऽवि। एगमणेगे उवसं-पयाए चउभंगों जा पंथो॥१६६|| अव्यक्तो-वयसा अविहाड:-अप्रगल्भः अदृष्टदेशोऽदृष्टपूर्वदेशान्तरः भाषिको देशभाषापरिज्ञानविकलः सा चोपसंपत् एकस्याने कस्य च। अत्र चतुर्भङ्गी, तद्यथा-एकमेकः संपद्यते 1, एकमनेकः२, अनेकमेकः 3, अनेकमनेकः 4, सा चोसंपत्तावत् यावत्पन्थाः। किमुक्तं भवतियावत्पन्थानं व्रजति ततो वा प्रत्यागच्छतीति। एतदेव सविशेषमभिधित्सुराहगयागते गयनियते, फिडिय गविढे तहेव अविगिटे / उन्मामगसन्नायग-नियट्टअदिट्ठभासीय॥१६७।। अव्यक्तोऽविहाडोऽदेशिकोऽभाषिको वा अन्य साधुमुपसंपद्यते, अस्मान् अमुकप्रदेशे नयत। अथवा-यत्र तेषां गन्तव्यं तत्र ये विवक्षितसाधोरन्ये व्यक्तविहाडादयो गन्तुकामास्तान् ब्रुवते, वयं युष्माभिः सह समागमिष्यामस्तत्र यत्र गन्तुकामाः। ततो यदि प्रत्यागच्छन्ति ततः गतागतमित्युच्यते / तस्मिन्मार्गोपसंपत् 'गयनियते' इति / अनुपसंपन्ना एवात्मीयेन व्यक्तविहाडादिना समं गतास्तस्य च कालगततया प्रतिभग्नत्वादिनावा कारणेन प्रत्यागन्तव्यं नाऽऽभवत्ततः प्रत्यागच्छन्तंसुसाधुमुपसंपद्यन्ते / एषा गतनिवृत्ते मार्गोपसंपत् / तथा 'फिडियगविढे तहेव अविगिट्टे' इति स्फिटितो नाम नष्टः, कथं नष्टस्तत आह-'अब्भामगे त्यादि उद्भ्रामकः भिक्षाचर्यया अदृष्टपूर्वविषये गतस्ततोनजानाति कुतो गन्तव्यमिति स्फिटितः / अथास्य ज्ञातयो गवेषमाणाः समागतास्ततस्तस्मात् स्थानाददृष्टपूर्वे विषये नष्टः, ततः स्फिटितः / तथा अभाषकोऽदृष्टपूर्वे विषये पृष्ठतो लग्नो यातिपरं मिलितुं न शक्नोति, स च दृष्ट्वाऽपि प्रतिप्रच्छनीयं देशभाषामजानन्न प्रतिपृच्छतिततो यथावत् परिभ्रष्टो नश्यति, स च नष्टो गवेषणीयः / तत्र स्फिटिते गवेषिते तथैव चागवेषिते अभावेन मार्गणा कर्तव्या। तत्र तदेव गवेषयतां वा अगवेषयतां वा भवनमनाभवनमाह-- उवणट्ठ अन्नपंथे, ण वा गयं अगवेसंते न लभंति। अगवेहोतिपरिणते, गवेसमाणा खलु लभंति // 168|| उपेत्य-स्वज्ञातिकान् दृष्टा नष्टः उपनष्टः, अन्येन वा यथा स विवक्षिते स्थाने गतो भविष्यतीत्येवं संकल्पा ये __ मार्गोपदर्शनायोप-संपन्नास्ते यदि तं न गवेषयन्ति तदा ते अग--
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________________ ववहार 112 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 . ववहार वेषयन्तस्तस्य सत्कं न किंचिल्लभन्ते। यदि पुनरद्यापि न गवेषित इति ववहारेण उहाउं,पुणरवि दाणं नवरमासो।।१७२॥ परिणते चेतसि प्रयत्नं विधाय गवेषयन्ति तदा तस्याऽदर्शनेऽपि खलु यत्ते आगन्तुका वास्तव्या वा सचित्तं लभन्ते उपलक्षणमेतद-चित्तं वा तत्सत्कं लभन्ते। तस्मिन् लब्धे अन्योन्यस्य निवेदना कर्त्तव्या। यथैतत् मया सचित्तमचित्त अथोपसंपद्यमानानां किमाभवति किं वा नेत्यत आह वा लब्धं यूयं प्रतिगृह्णीत, एवं निवेदने कृते द्वितीया न गृह्णन्ति परं अम्मापितिसंबद्धा, मित्ताय वयंसगा यजे तस्स। सामाचारी एषेत्यवश्यं निवेदनं कर्तव्यम्, अनिवेदने प्रायश्चित्तं लधुको दिट्ठा भट्ठा य तहा, मग्गुवसंपन्नतो लभति॥१६॥ मासः / एतदेव सविशेषमाह 'ववहारेण उ' इत्यादि न निवेदयति तदा व्रजन्तः-प्रत्यागच्छन्तो वा यत्ते उपसंपद्यमानाः सचित्तादिक- / असमाचारीप्रतिषेधनार्थ व्यवहारे-णागमप्रसिद्धेन तत् हृत्वा मासलघु मुत्पादयन्ति तत्सर्वं मार्गोपदेशकस्य-नेतुराभवति, ये पुनर्माता- प्रायश्चित्तं दत्त्वा तस्यैव पुनः प्रतियच्छन्ति। पितृसंबद्धाः-नालबद्धवल्लीद्विकमिति भावः 1 मित्राणि-वयस्या दृष्टा सम्प्रति 'जायमनाए' इत्यस्य व्याख्यानमाहभाषिताश्च ये तमभिधारयन्ति तान् मार्गापसंपदं प्रतिपन्नो लभते। तदेवं नाए व अनाए वा, होइ परिच्छाविही जहा हेट्ठा। गता मार्गोपसंपत्। अपरिच्छणम्मि गुरुगा, जो उपरिच्छाएँ अविसुद्धो॥१७३|| (7) संप्रति विनयोपसंपदमाह ज्ञाते अज्ञाते वा भवति द्रव्यादिभिः परीक्षाविधिर्यथाऽधस्तादविणओवसंपयातो, पुच्छण साहण अपुच्छगहणे य / णितस्तथा कर्तव्यः। यदिपुनरपरीक्ष्योपसंपद्यतेयोऽपिच गच्छः परीक्षानायमनाए दोन्नि वि, नमंति पक्किलसाली वा // 17 // यामविशुद्ध प्रमादीति कृत्वा तमपि ये उपसंपद्यन्ते तेषां प्रत्येक प्रायश्चित्तं अत ऊर्ध्वं विनयोपसंपद्, वक्तव्या इति शेषः। सा चैवम्-कारणतो वा चत्वारो गुरुकाः। केचिदिहरन्तोऽकारणतो वा केचिदिहरन्तोऽदृष्टपूर्वं देश गताः। तैस्ति संप्रति 'दोन्नि विनमंती' त्यत्र मतान्तरमाहध्यानां सांभोगिकानां समीपे प्रच्छनं कर्तव्यम्। यथा-कानि मासप्रायो- केई भणंति ओमा, नियमेण निवेइ इच्छ इयरस्स / ग्याणि क्षेत्राणि, कानि वर्षावासप्रायोग्याणि, एवं पृष्टरपि साधनं-कर्थन तं तु न जुञ्जइ जम्हा, पकिल्लगसालिदिहतो // 17 // कर्तव्यम् / अन्यथा वक्ष्यमाणप्रायश्चित्तम् / अशक्तरथ तथैवागन्तुका न केचित् बुवते नियमेनावमोऽवमरत्नाधिको न निवेदयति इतरस्य पृच्छन्ति तदा तेषामपि प्रायश्चित्तम्। 'गहणे य'त्ति सचित्तादिकस्य ग्रहणे रत्नाधिकस्य इच्छा यदि प्रतिभासते ततो निवेदयतिनो चेन्नेति, तच्च न सति परस्परं निवेदनं कर्त्तव्यम्, यथैतत्सचित्तमचित्तं वा लब्धम्, यूयं युज्यते यत्पक्वशालिदृष्टान्तः उपन्यस्तः,सचोभयनमन-सूचक इति। गृह्णीतेति अनिवेदने असमाचारी। तथा 'नयमनाए' त्ति ते आगन्तुका सम्प्रतिद्वयोर्नमनमाहवास्तव्याश्च परस्परं जानन्ति, तथा यतन्ते न प्रमादिनः 'अनाए' तिन जानन्ति, कियन्तस्ते, किं वा-प्रमादिनस्तत्र ज्ञाता न ज्ञाता वा द्रव्या वंदणा लोयणा चेव, तहेव य निवेयणा। दिभिः परीक्ष्योपसंपद्येरन् नान्यथा 'दुन्नि वि नमंति' त्ति / ते च सेहेण ओयरत्तम्मि, इयरो एत्थ पुटवतो / / 17 / / परीक्षापूर्वकमुपसंपद्यमाना द्वयोरपि परस्परं नमन्ति। किमुक्तं भवति शैक्षण अवमरत्नाधिकेन वन्दने-आलोचनायां तथैव च निवेदने रत्नाधिकस्य प्रथमतोऽवमरत्नाधिके नालोचना दातव्या, पश्चात् सचित्तादेः कृते पश्चात् इतरो रत्नाधिकस्तस्य पुरतो वन्दन-मालोचनां रत्नाधिकस्य। अत्र पक्वशालयो दृष्टान्ताः। यथा-पक्काः शालयः परस्परं निवेदनं च करोति। नमन्ति तथाऽत्रापीति भावः। संप्रतिक्षेत्र_तसुखदुःखमार्गविनयोपसंपत्सुयदाभाव्यं तदुपदर्श यति-- सांप्रतमेनामेव गाथां विवरीषुः प्रथमतः 'पुच्छण साहण अपुच्छ' त्ति सुयसुहदुक्खे खेत्ते, मग्गे विणओवसंपयाए य। व्याख्यानार्थमाह वावीसपुथ्वसंथुएँ, वयंस दिहाय भट्टे य॥१७६|| कारणमकारणे वा, अदिट्ठदेसं गया विहरमाणा। श्रुतोपसंपदि उपसंपद्यमानो द्वाविंशतिं लभते / तद्यथा-षट् अमि.--- पुच्छा विहारखेत्ते, अपुच्छलहुगोय जंवा वि॥१७१।। श्रवल्ल्यां माता पिता भ्राता भगिनी पुत्रो दुहिता इत्येवं रूपां, षोडश कारणे-अशिवादिलक्षणे अकारणे-विहारप्रत्यये सुखविहारो भविष्य- मिश्रवल्ल्यां तद्यथा-मातुर्माता पिता भ्राता भगिनी, एवं पितुरपि तीति बद्ध्याविहरन्तो यथा-सुखमक्लेशेन सूत्रार्थान् कुर्वन्तोऽदृष्टपूर्व भ्रात्रादीनां चतुर्णा प्रत्येकं द्वौ द्वौ / तद्यथा-पुत्रो दुहिता च सुख-- देशं गताः, तत्र चतेषां सां भोगिकाः सन्ति ततस्तै-रागन्तुकैस्ते वास्तव्याः दुःखोपसंपदिपूर्व संस्तुतान् मातापितृसंबद्धान्, उपलक्षणमेतत् मित्रवसांभोगिकाः 'पुच्छा विहारखेत्त' ति मासकल्पप्रायोग्याणि वर्षाकल्प- यस्यप्रभृतीनि च क्षेत्रोपसंपदि। वयस्यान् इदमप्युपलक्षणं पूर्वसंस्तुतान् प्रायोग्याणि वा विहारक्षेत्राणि प्रष्टव्यास्तानि च तैः कथयितव्यानि। यदि पश्चात्संस्तुतान् नालबद्धवल्लीद्विकं च लभते, मार्गापसंपदि दृष्टान् न पृच्छन्ति, पृष्टा वा यदि ते न कथयन्ति, तदा द्वयानामपि प्रत्येक भाषितान् चशब्दात्-वल्लीद्विकं मित्राणि च विनयोपसंपदि सर्वान् लभते प्रायश्चित्तं लघुको मासः / यच्च पृच्छामन्तरेण वा स्तेनश्वापदादिभ्योऽनर्थ नवरं निवेदयति। साधवः प्राप्नुवन्ति तन्निष्पन्नमपि तेषां द्वयानामपि प्रायश्चित्तम्। एतदेवाहअधुना 'गहणे य' इत्यस्य व्याख्यानमाह खेत्ते मित्तादीया, सुतोवसंपन्नओ उछल्लभते। सचित्तम्मि उ लद्धे, अण्णोण्ण स्स वि अणिवेयणे लहुयो। अम्मापिउसंबद्धो, सुहदुक्खि इयरो वि दिलुतो / / 177 //
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________________ ववहार ११३-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 ववहार क्षेत्रे उपसंपद्यमानो मित्रादीन् लभते, आदिशब्दात-पूर्वपश्चात्सं- | स्तुतान् नालवल्लीद्विकमाहारं मात्रकत्रिकं संस्तारं वसतिं चेति परिग्रहः, श्रुतोपपन्नो लभते, षट् मात्रादिकान् मिश्रां च वल्लिं मातृपितृसंबद्धा सुखदुःखी-सुखदुःखोपसंपन्नोमातापितृसंबद्धान्लभते। वयस्यादींश्च, इतरो-मार्गोपसंपन्नो दृष्टान् दृष्टाऽऽभाषितान्, उपलक्षणमेतत्-वल्लिद्विकं मित्राणि च लभते / विनयोपसंपन्नस्याभाव्यं सुप्रतीतमिति न व्याख्यातम्। इचेयं पंचविहं, जिणाण आणाएँ कुणइ सहाणे। पावइ धुवमाराहं,तव्विवरीए विवद्यासं॥१७८|| इत्येवं पञ्चविध क्षेत्रश्रुतादिभेदतः पञ्चप्रकारमाभवद्व्यवहारं स्वस्थाने-- आत्मीये स्थाने यथा क्षेत्रोपसंपदि यत् उपसंपद्यमानस्य वाऽऽभवति तत्तथैव व्यवहरति / एवं शेषेष्वपि स्थानेषु वक्तव्यं जिनानामाज्ञया करोति-परिपालयति स ध्रुवमन्ते आराधनां प्राप्नोति जिनाज्ञया परिपालितत्वात् / तद्विपरीते आभवव्य-वहारविषयासकारी विपर्यासं प्राप्नोति नाराधनामन्तकाले चमोतीति भावः। इच्चेसो पञ्चविहो, ववहारो आमवंतितो नाम। पच्छित्ते ववहारं, सुण वच्छ ! समासतो वोच्छं / / 17 / इत्येष आभवतिको नाम व्यवहारः पञ्चविध उक्तः / व्य०१०उ०। पं० भा०नि० चूला व्य०। (प्रायश्चित्तव्यवहारः पच्छित्तं' शब्दे पञ्चमभागे 186 पृष्ठे उक्तः।) प्रतिज्ञातमेव करोतिपंचविहो ववहारो, दुग्गतिभयतारगेहिँ पन्नत्तो। आगम सुय आयरणा, कप्प य जीए य पञ्चमए / / 164|| येन व्यवयिते स व्यवहारो-दुर्गतिभयतारकैर्दुर्गतिभयविध्वंसकैः पञ्चविधः प्रज्ञप्तः। तद्यथा-आगमः श्रुतमाचरणा कल्पोजीतं च पञ्चमः / व्य० 10 उ०। (आगमव्यवहारः 'आगमक्वहार' शब्दे द्वितीयभागे 52 पृष्ठे दर्शितः।) नवरं परिशिष्टोऽत्र-एतदेव गाथाद्वयं व्याचिख्यासुराहअट्ठायारवमादी, वय छक्कादी हवंति अहरस। दसविहपायच्छित्ते, आलोयण दोसदसहिं वा॥३१७।। अष्टौ-स्थानानि आचारवत्त्वादीनि, तानि च प्रागभिहितानि चाऽऽलोचनार्हत्वनिबन्धनानि / तथा चोक्तं स्थानाङ्गे-'अट्ठहिं जति सम्पन्ने भवति, तो आलोयणारिहो, तं जहा-आयारव' मित्यादि अष्टादश स्थानानि व्रतषट्कादीनि भवन्ति, पुनरष्टादश-ग्रहणमेतेषु ये अपराधास्तेषु प्रायश्चित्तविधिपरिज्ञानप्रतिपत्त्यर्थं दश स्थानानि 'दसविधमालोयणपडिक्कमणे" त्यादिरूपंप्रायश्चित्तम्। आलोचनादोषेषु दशसु आ (अ) कम्पयिता इत्यादिरूपेषु / तथाछहि काएहिं वतेहिं, गुणेहिं आलोयणाए दसहिं वा। छट्ठाणावडिएहि,छहिँ चेव जे उ अपरोक्खा // 318|| षभिरिति कायेषु व्रतेषु वा तथा आलोचनायाः संबन्धेषु गुणेषु दशसु जातिसंपन्नप्रभृतिषु, उक्तं च स्थानाङ्गे-'दसहिं ठाणेहिं सम्पन्ने अरिहइ अत्तदोसमालोइत्तए, तं जहा-जाति संपन्ने कुलसंपन्ने' इत्यादि तथा षट्सुस्थानेष्वितिषट्स्थानपतितेषु स्थानेषु ये अपरोक्षाः साक्षाद्वेदितारः। कियन्ति षट्स्थाने पतितानि-स्थानानीत्यत आहसंखादीया ठाणा, छर्हि ठाणेहि पडियाणा ठाणाणं / जे संजया सरागा, सेसा एक्कम्मि ठाणम्मि॥३१॥ षट्सु स्थानेष्वनन्तभागवृद्धानन्तगुणवृद्धासंख्यातभागवृद्धासंख्यातगुणवृद्धसंख्यातभागवृद्धसंख्यातगुणवृद्धेषु यानि पतितानि स्थानानि तेषां सम्बन्धिनो ये सरागाः संयतास्ते वेदितव्याः, षट्स्थानपतितेषु स्थानेषु सरागमसंयता वर्तन्ते इति भावः / तेषां च तानि षट् स्थानानि पतितानि स्थानानि संयमस्थानानि संख्यातीतानि असंख्येयालोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि। अत एव सरागसंयतानां केषांचित् वर्द्धते, केषांचित् हीयते, केषाचित् वर्द्धते हीयते च / ये तु शेषा वीतरागसंयतास्ते एकस्मिन् स्थाने। तथाहि-न तेषां चारित्रंर्द्धते, नापि हानिमुपगच्छति कषायाणामभावत्किं त्ववस्थितमेकमेव परमप्रकर्षप्राप्त संयमस्थानमिति एतेषां वस्तूनां ये साक्षाद्वेदिनस्ते आगमव्यवहारिणः / तथा चाहएआगमववहारी, पण्णत्ता रागदोसनीहूया। आणाएँ जिणिंदाणं,जे ववहारं ववहरंति // 320 // रागद्वेषनिभृता-रागद्वेषव्यापाररहिता आगमव्यवहारिणः प्रज्ञप्ताः। जिनेन्द्राणामाज्ञया व्यवहारं व्यवहरन्ति। एवं भणिते भणती, ते वोच्छिन्ना उ संपयं इहई। तेसु अवोच्छिन्नेसु, नऽस्थि विसुद्धी चरित्तस्स // 321 / / देंता विन दीसंति, न वि य करेंतो उ संपयं केइ / तित्थं च नाणदसण, निमवगा चेव वोच्छिन्ना // 322 / / एवं-प्रागुक्तेन प्रकारेण भणिते चोदको भणति- व्यवच्छिन्ना खल्विह भरतक्षेत्रे साम्प्रतमागमव्यहारिणस्तेषु च व्यवच्छिन्नेषु चारित्रस्य विशुद्धिर्नास्ति, सम्यक्परिज्ञानाभावतो यथावस्थित-शुद्धिदायकाभावात्। अन्यच्च मासिकं पाक्षिकमित्यादि प्रायश्चित्तं ददतोऽपि न केचित् दृश्यन्ते, नापि केचित्तथारूपं प्रायश्चित्तं कुर्वन्तस्ततोददतां कुर्वतां चाभावे सम्प्रति तीर्थज्ञानदर्शनं ज्ञानदर्शनात्मकमनुवर्तते, नतुचारित्रात्मकम्, यतश्चारित्रस्य पर्यन्तसमये निर्यापका एव यथा वस्थितशोधिप्रदानत उत्तरोत्तरचारित्रनिर्वाहका एव व्यवच्छिन्नाः। संप्रत्येतदेव विभावयिषुः प्रथमतश्चारित्रस्य शुद्धिर्नास्तीति भावयतिचोहसपुवघराणं, वोच्छेदो केवलीण वुच्छेए। केसिंचिय आदेसो, पायच्छित्तं पि वोच्छिन्नं / / 323 / / केवलिनांव्यवच्छेदे सति तदनन्तरंस्तोकेन कालेन चतुर्दशपूर्वधराणामपि व्यवच्छेदो भवति,ततः शोधिदायकाभावान्नास्ति शुद्धिश्चरित्रस्य। अन्यच केषांचिदयमादेशो, यथा-चयश्चित्तमपि व्यवच्छिन्नम्। एतदेव भावयतिजंजत्तिएण सुज्झइ, पावं तस्स तह देंति पच्छित्तं /
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________________ ववहार 114 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 ववहार जिणचोहसपुव्वधरा, तट्विवरीया जहिच्छाए।।३२४॥ जिनाः-केवलिप्रभृतयश्चतुर्दशपूर्वधरा यत्पापं यस्य यावता प्रायश्चित्तेन | शुद्ध्यति, तस्य तावन्मात्रं प्रायश्चित्तं ददति / ये तु तद्विपरीताःकल्पव्यवहारनिशीथधरास्ते आगमव्यवहाराभावात् यदृच्छया प्रायश्चित्तं दधुः कदाचिन्न्यूनं, कदाचिदधिकं वा। ततः परमार्थतः सम्प्रति चयश्चित्तं घ्यवच्छिन्नं तद्व्यवच्छेदे निर्यापका अपि चारित्रस्य व्यवच्छिन्नाः। एतदेव स्पष्टयतिपारगमपारगं वा, जाणंते जस्स जंच करणिज्जं / देइ तहा पञ्चक्खी, घुणक्खरसमो उपारोक्खी // 325 / / / एष-संवरीतुकामः पारगामी भविष्यति, एष नेति, पारगमपारगं वा प्रत्यक्षागमव्यवहारिणः सम्यग् जानते। यच यस्य करणीयं कर्तुं शक्यं तस्य तज्ज्ञात्वा तदेव तथा ददति, तथा ते पाराऽपार-गादिज्ञानं समस्थितास्तादृशमुपायमुपदिशन्ति, येन स पारगामी भवति, यतश्चाराधक उपजायते। यस्तुपरोक्षी-परोक्षज्ञानीस धुणाक्षरसमः। किमुक्तं भवतिघुणाक्षरवत् यदृच्छया ततः कदाचित्पापशुद्धिर्नावश्यमिति। अन्यच तस्य परोक्षज्ञानिनः प्रायश्चित्तं ददतो महत्प्रायश्चित्तंपापम्। तथा चाहजा उ ऊणाहिते दाणे, वुत्ता मग्गविराहणा। ण सुज्झे इति दिंतो उ, असुद्धो कं च सोहए॥३२६|| स हि परोक्षज्ञानी यदृच्छया व्यवहरन् कदाचिदूनमधिकं वा प्रायश्चित्तं दद्यात् / ततो य ऊनाधिकं प्रायश्चित्तदाने मार्गविराधना-मोक्षपथसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रविराधना जिनरुक्ता, तया स दाता न शुद्ध्यति। स्वयमशुद्धश्च कथमन्यं शोधयेदिति भावः / अथ सोऽपि सूत्रबलेन प्रायश्चित्तं ददाति तत्कथं न शोधयति, तदप्यसम्यक् सूत्रस्याप्यपरिज्ञानात्। तथाचाहअत्थं पडुच्च सुत्तं, अणागयं तं तु किंचि आमुसति। अत्थो वि कोइ सुत्तं, अणागयं चेव आमुसति // 327|| अर्थं प्रतीत्य किंचित्सूत्रमनागतमेव आमृशति, किंचित्पुनः सूत्रं स्वस्थानं गतं वा अर्थमामृशति / विचित्रा सूत्रस्य प्रवृत्तिरिति वचनादर्थोऽपि कश्चित्सूत्रमनागतमेवामृशति। एतच्च सम्यग्जानाति चतुर्दशपूर्वधरो नान्ये / ततः संप्रति सूत्रार्थस्यापरिज्ञानान्न तत्प्रायश्चित्तदानशुद्धिस्तदभावाच्च निर्यापकाणामप्यशुकि। संप्रति 'देंतावि नदीसंति' इत्यादिव्याख्यानार्थमाहदेता विन दीसंति,मास चउमासिया उसोहिंतु। कुणमाणे य वि सोहिं,न पासिमो जो वितं देजा।।३२८|| मासिकी चातुर्मासिकीम्,उपलक्षणमेतत् पश्चमासिकीमपि वा शोधिं सम्प्रति केचित् ददतोऽपि न दृश्यन्ते, नापि काञ्चित् तां मासिकी वा कुर्वाणान् संप्रति पश्यामः। सोहीए य अभावे, देंताण करेंतगाण य अभावे। वट्टइ संपइ कालं, तित्थं सम्मत्तनाणेहिं // 329 // उक्तप्रकारेण शोधेरभावे शोधिं ददतां-कुर्वतामभावः। संप्रति काले तीर्थ वर्तते सम्यक्त्वज्ञानाभ्याम्।। एवं तु चोइयम्मी, आयरितो भणइन हु तुमे णायं / पच्छित्तं कहियं तु,किं धरती किं च वोच्छिन्नं // 330 / / एवम्-उक्तेन प्रकारेण चोदिते-प्रवे कृते सति आचार्यो ब्रूते, न हु-नैव त्वया ज्ञातम्, यथा-प्रायश्चित्तं प्रथमतः उक्तम्, किंवा संप्रति प्रायश्चित्तस्य धरते विद्यते किंवा व्यवच्छिन्नम्। व्य०१०301 तत्र प्रथमतः सापेक्षेण दातव्यम्संघयणधितीहीणा, असंतविभवेहिं होति तुल्लाओ। निरवेक्खो जइतेसिं, देति ततो ते विणस्संति॥३६॥ ये पुनघृतिसंहननाभ्यां हीनास्ते असद्विभवस्तुल्यास्तेषां यदि निरपेक्षः सन् यन्निरवशेष प्रायश्चित्तं ददाति, ततस्ते विनश्यन्ति / तथाहि-ते तत्प्रायश्चित्तं निरवशेषं वोढुमशक्नुवन्तस्तपसा कृशी-कृता जीवितादपगच्छेयुः। ते तेण परिचत्ता, लिङ्गविवेगं तु का वचंति। - तित्थुच्छेदो अप्पा, एगाणि य तेण गच्छो य॥३६३।। यदि ते प्रायश्चित्तभग्ना लिङ्ग विवेकं कृत्वा व्रजन्ति, ततस्तेऽनेननिरविशेषप्रायश्चित्तदात्रा परित्यक्ताः। यथैवमेकः एवमन्येऽप्येवमपरेऽपि / ततः सर्वसाधुव्यपगमतस्तीर्थस्योच्छेदस्तथा तेनाचार्येण निरविशेष प्रायश्चित्तं साधूनां ददता प्रायश्चित्तभग्नभयात्साधूनामपगमत आत्मा एकाकीकृतः / एकाकिना यावत्यक्तश्वशब्दात्-गच्छोऽपित्यक्तः। तथाहिसाधूनामपगमे बालवृद्धालानादीनामुपग्रहे न कोऽपि वर्तते / ततस्तेऽपि तेन तत्त्वतः परित्यक्ताः। तथा अवधाविताः सन्तो ये दीर्घकालं संसारमाहिण्डिष्यन्तेसोऽपितन्निमित्त इति तस्य महत्पापम्। तदेवं निरपेक्षस्य दोष उक्तः। सम्प्रति सापेक्षस्य गुणमाहसावेक्खों पवयणम्मि, अणवत्थपसंगवारणाकुसलो। चारित्तरक्खणट्ठा, अव्वोच्छित्तीय उ विसुज्झो॥३६४।। यः पुनराचार्यः प्रवचने सापेक्षः अनवस्थाप्रसङ्गवारणाकुशलः स चारित्रस्य रक्षार्थं भवति। तीर्थस्य चाव्यवच्छेदस्तथोपायेन शोधयति इत्यर्थः। उपायमेवाहकालाणगमावन्ने, अतरते जहकमेण काउंजे। दस कारेंति चउत्थे, तहुगुणाऽऽयंबिलतवे वा॥३६५।। एकासणपुरिमड्डा, निव्विगती चेव विगुणविगुणाओ। पत्तेया बहुदाणं, करेइ वा सन्निकालं तु // 366 / / पञ्च अभक्तार्थाः, पञ्च आचाम्लानि,पञ्च एकाशनकानि पञ्च पूर्वार्द्धानि पञ्च निर्विकृतिकानि एतत्पञ्चकल्याणकम्, तत् शिष्टापन्ना यथाक्रमेण च कर्तुमशक्नुवन्तस्तान्दश चतुथान्कारयन्ति, तथाऽप्यशक्नुवन्तस्तद्विगुणा आचाम्लतपः कारयन्ति, विंशति-मायामाम्लानि कारयन्तीत्यर्थः / एवमेकाशने पूर्वार्द्धनिर्विकृतिर्द्विगुणाः कारयन्ति / किमुक्तं भवति-विंशत्यायामाम्ले करणाशक्ती अशीतिपूर्वार्द्धानि कार
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________________ ववहार 115 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6, ववहार यन्ति / तत्राप्यशक्तौ षष्टिशतं निर्विकृतिकानां कारयन्ति / एतत्पञ्चसु कल्याणेष्वेकैकं कल्याणं प्रत्येकमव्यवस्थित्य कर्तुमसहस्यासमर्थस्य दातुमुक्तम्। अथवायमन्यो विकल्पः। करेति वा सन्निकासं' सन्निकाशंसन्निभं वा कारयन्ति / इयमत्र भावना-यत्तत्पञ्चकल्याणमापन्नः, तन्मध्यादाद्यं द्वितीयं तृतीयं वा कल्याणकतरं यथाक्रमेण वहति / शेषमायामाम्लादिभिः प्रदर्शयति। पुनरन्यथाऽनुग्रहप्रकारमाहचउ तिय दुग कल्लाणं, एग कल्लाणगं च कारेंती। जं जो उ तरति तस्स, देंती असहस्स भासेंति॥३६७॥ यदिवा पञ्चकल्याणकमुक्तस्वरूपं यथाक्रमेण व्यवच्छित्या कर्तुमशक्नुवन्तं चतुःकल्याणकं कारयन्ति। तदप्यशक्नुवन्तं विकल्याणकं तत्राऽप्यसमर्थतया द्विकल्याणकं तत्राप्यशक्नुवन्तमेकं कल्याणकं कारयन्तिः किं बहुना, यत्तपः कर्तुं शक्नोति तस्य तद्वदन्ति नाधिकमावाधासंभवात् / अथैकमपि कल्याणं कर्तुं न शक्नोति, तदा तस्य सर्व भाषयित्वा एकभक्तार्थं दीयते / अथवा- एकमायामाम्लम्, यदि वाएकमेकाशनकम्, अथवा-एकं पूर्वाकम्, अथवानिर्विकृतिकम्, अथ न किंचिद्ददति तदा अनवस्था-प्रसङ्गः।। एतदेव स्पष्टयति--- एवं सदयं दिनति, जेणं सो संजमे थिरो होति / नय सव्वहान दिजति, अणवत्थपसंगदोसातो॥३६८|| एवममुना प्रकारेण सदयं-सानुकम्पं दीयते प्रायश्चित्तम्, येन स संयमे स्थिरो भवति न च सर्वथा न दीयते अनवस्थाप्रसङ्गदोषात् / अत्र दृष्टान्तो-बालकतिलस्तेनकद्वयेन ''एगो पिठ्तो अङ्गोअलिं काऊण रमंतो तिलरासिम्मि निमज्जितो, बाल त्ति काऊण न केण वारितो, तिला सरीरम्मि लग्गा / ततो सो सलीलो घरमागतो। जणणीए तिला दिजए। कोडिया गहिया य। ततो तिललोभेण पुणो अंगोअलिं-काऊण दारगं पेसइ कालेण तिलोवतिण्णो वेइ, ततो सो पसंगदोसेण तेणो जातो। रायपुरिसेहिं गहितो मारितो माउदो-सेण / बालो वि पसंतो णो जातो त्ति माऊएथणछेयाइमवराह पाविय वेति।तो कप्पट्ठगोतहेव अङ्गोअलिं काऊण रमंतो तिल-रासिम्मि निमज्जितो। माऊए वारितो मा पुणो एवं कुज्जा, तिला य पक्खोडेऊण तिलरासिम्मिय पक्खिता। सो कालंतरेण जीवियभोगाण अभोगी जातो नेव जणणी थणछेयादियमवराह पत्ता।" एतदेवाहदिट्ठतो तेणऍणं, पसंगदोसेण जह वह पत्तो। पावंति अणंताई, मरणाइ अवारियपसङ्गा॥३६६।। अनवस्थाप्रसङ्गदोषे दृष्टान्तः, स्तेनकेन-बालकेन तिलापहारिणा यथा / स प्रसङ्गदोषात् वधं प्राप्तस्तथा साधवोऽप्यनिवारितप्रसङ्गा अनन्तानि मरणानि प्राप्रुवन्ति। निब्भच्छणाएँ बितिया,वारेंतो जीवियाण य अभागी। नेव य थणछेयादी, पत्ता जणणीय अवराहं // 370 / / इय अणिवारियदोसा, संसारे दुक्खसागरमुवे ति। विणियत्तपसङ्गाखलु, करेंति संसारवोच्छेयं / / 371 / / द्वितीयया बालकस्तिलान् शरीरे लग्नानादाय समागतो निर्भर्त्सनया वारितः, ततःसजीवितानाजीवितसुखानामाभागीजातो, नैवच जननी स्तनच्छेदादिकमपराधं प्राप्ता ! इत्येवममुना दृष्टान्तद्वयगतेन प्रकारेण अनिवारिता दोषाः संसारे दुःखसागरमुपयन्ति। विनिवृत्तप्रसङ्गाः पुनः खलु कुर्वन्ति संसारव्यवच्छेदम्। एवं धरती सोही, देंत करेंता वि एवं दीसंति। जंपिय दंसणनाणेहि, जातिं तित्थंति तं सुणसु // 372 / / एवम्-अमुना प्रकारेण धरते विद्यते शोधिः / तदा ददतः कुर्वतश्व शोधिमेवमुक्तप्रकारेण दृश्यते। यदिप चोक्तं दर्शनज्ञानाभ्यां तीर्थं जानाति तदप्ययुक्तं यथा भवति तथा शृणुत ! व्य० 10 उ०। (यथा लघुस्वकव्यवहारः अहालहुस्सय' शब्दे प्रथमभागे८७० पृष्ठे गतः) (श्रुतव्यहारः 'सुयववहार' शब्दे वक्ष्यते) (आज्ञाव्यवहारः 'आणा' शब्दे द्वितीयभागे 123 पृष्ठे उक्तः) सम्प्रति द्विकादिपदजातस्य व्याख्यानं किंचित्तदेव दर्शयतिदुविहं ति दप्पकप्पे, तिविहं नाणाइणं तु अट्ठाए। दवे खेत्ते काले, मावे य चउटिवह एयं // 604 // तिविहो अतीतकाले, पचुप्पन्ने वि सेवियं जंतु। सेविस्संवा एस्से, पागडभावो विगडभावो॥६०५।। द्विविधां शोधिं करोति दर्प-दर्पविषयां कल्पेकल्पविषयां, त्रिविधांज्ञान-दर्शन-चारित्राणामर्थायातिचारविशुद्धिलाभाय करोति। प्रशस्तेद्रव्ये प्रशस्ते क्षेत्रे प्रशस्ते काले प्रशस्ते भावे एतचतुर्विधं विशोधनं द्रष्टव्यम् / तथा त्रिविधे-अतीते, प्रत्युत्पन्ने चकाले यत्सेवितं यत् एष्यति काले सेविष्येऽहमित्यध्यवसितं यश्च चटितभावः प्रकटभाव आलोचयति। किं पुण आलोएई, अतियारं सो इमो य अतियारो। वयछक्कादीयो खलु, नायव्वो आणुपुष्वीए॥६०६|| किं पुनस्तदालोचयति / सूरिराह- अतीचारम्, पुनरतीचारोऽयं वक्ष्यमाणो व्रतषट्कादिको-व्रतषट्काविषयः खल्वानुपूर्व्या ज्ञातव्यः। तमेव दर्शयतिवयछक्ककायछक्कं, अकप्पो गिहिभायणं / पलियंकणिसेजा य, सिणाणं सोभवजणं // 607 / / व्रतषट्कं-प्राणातिपातनिवृत्त्यादि रात्रिभोजनविरमणपर्यन्तं कायषट्कं--पृथिव्याद्यकल्पपिण्डादिको, गृहिभाजन-काश्य-पात्र्यादि पल्यङ्कः-प्रतीतो निषद्या-गोचरप्रविष्टस्य निषदनम् / अस्नानं देशतः सर्वतो वा स्नानस्य वर्जनं, शोभावर्जन-भूषापरित्यागः, एतत् विधेयं प्रायः प्रतिषेध्यतया यत् यथोक्तं नाचरितं तत् आलोचयति। तं पुण होना सेविय दप्पेणं अहव होज कप्पेणं / दप्पेण दसविहं तु, इणमो वोच्छं समासेणं // 608 / / तत्पुनर्विरुद्धसेवितं दर्पण, अथवा कल्पनातत्रयदर्पण सेवितं तदिदं वक्ष्यमाणं दशविधं तावत् समासेन वक्ष्ये।
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________________ ववहार 616 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 ववहार प्रतिज्ञातमेव करोतिदप्प अकप्पनिरालं-व चियत्ते अप्पसत्थ वीसत्थे। अपरिच्छि अकडजोगी, अणाणुतावीय णिस्संको॥६०६॥ दान्निष्कारणधावनबलने वीरयुद्धादिकरणम् 1, अकल्पः-अपरिणतपृथ्वीकायादिग्रहणमगीतार्थानीतोपधिशय्याहाराद्युपभोगश्च 2 / निरालम्बो-ज्ञानाद्यालम्बनरहितप्रतिसेवनाकः३। 'चियत्ते' तिपदैकदेशे पदसमुदायोपचारात्यक्तकृत्यः संस्तरन्नपि सन्नकृत्यप्रतिसेवी त्यक्तचारित्र इत्यर्थः 4, अप्रशस्तो-बलवा -दिनिमित्तं प्रतिसेवी 5, विश्वस्तः-स्वपक्षतः परपक्षतो वा निर्भयं प्राणातिपातादिसेवी 6, अपरीक्षी युक्ताऽयुक्तः-परीक्षाविकलः 7 अकृतयोगी-अगीतार्थः त्रीन् वारान् कल्पमेषणीय वा परिभाव्य प्रथमवेलायामपि यतस्ततोऽकल्पान्वेषणीयमपि ग्राही 8, अननु-तापी-अपवादपदेन कायानामुपद्रवेऽपि कृते पश्चात् अनुतापरहितः 6, निःशङ्कोनिर्दयः इहपरलोकशङ्कारहित इत्यर्थः। 'एयं दप्पेण भवे, इणमन्नं कप्पियं मुणेयध्वं / चउवीसइअभिहाणं, तमहं वुच्छं समासेणं // 610 / / एतदनन्तरोक्तेन प्रकारेण सेवितं दर्पण भवति ! इदमन्यत्-कल्पिकं चतुर्विंशतिविधानं ज्ञातव्यं तदहं समासेन वक्ष्ये। तदेवाहदंसणणाणचरिते,तवपवयणसमितिगुत्तिहेउंवा। साहम्मिय वच्छल्ले, ण वा वि कुलतो गणस्सेव // 611 // संघस्सायरियस्सय, असहस्स गिलाण बालवुडस्स। उदयग्गिचोरसावय,भयकत्तारो वतीसवणो // 612 / / दर्शने दर्शनप्रभावकं शास्त्रग्रहणं कुर्वन्नसंस्तरणे 1, ज्ञानेसूत्रमर्थ वा अधीयमानोऽसंस्तरणे 2, चारित्रे-अनेषणादोषतः स्वीदोषतो वा चारित्ररक्षणाय ततः स्थानादन्यत्र गमने 3, तपसि-विकृष्टत-पोनिमित्तं धृतपानादि, विष्णुकुमारादिवद् वैक्रियविकुर्वणादि४,प्रवचने-द्वादशाङ्गे गणिपिटकादौ ग्रहणादि 5, समितौ वीर्यसमि-त्यादिरक्षणनिमित्तं चक्षुः सावद्यचिकित्साकरणादि 6, गुप्तौ-भावितकारणतो विकटपाने कृते मनोगुप्त्यादिरक्षणनिमित्तम-कल्प्यादि७, साधर्मिमकवात्सल्यनिमित्तम् 8, कुलतः कार्यनिमित्तम् 6, एवं गणकार्यनिमित्तम् 10, सङ्घकार्यनिमित्तम्, 11, आचार्यनिमित्तम् 12, असहनिमित्तम् १३,ग्लाननिमित्तम् 14, प्रतिषिद्धबालदीक्षितसमाधिनिमित्तम् 15, प्रतिषिद्धक्दीक्षितसमाधिनिमित्तम् 16, उदके-जलप्लवे 17, अग्नौ-दवाग्न्यादौ 18, चौरे-शरीरोपकरणापहारिणि 16, श्वापदे-सिंहव्याघ्रादावापतति यवृक्षारोहणादि२०, तथा भयेम्लेच्छादिसमुत्थे 21, कान्तारे-अwमानभक्तपाने अध्वनि २२,आपदि-द्रव्याद्यापत्सु 23, व्यसनं-मद्यपानगीतगानादिविषये पूर्वाभ्यासतः प्रवृत्तिः 24, तत्र यद्यतनया प्रतिसेवते सकल्पः। एतदेवाह एयनतरागाठे, सणनाणे चरण सालंवे। परिसेविसं कयाई, होइ समत्थो पसत्थेसु // 613 / / एतेषामन्तरोदितानामन्यतरस्मिन् आगाढे समुत्थिते दर्शनज्ञानचरणसालम्बे प्रतिसेव्याकल्प्यप्रतिसेवनां कृत्वा कदाचित्प्रशस्तेषु शुभेषु प्रयोजनेषु कर्तव्येषु समर्थो भवति। ततः एषा कल्पिका प्रतिसेवना। ठावेउ दप्पकप्पे, हेहादप्पस्स दसपए ठावे। कप्पाधो चउवीसति, तेसिमहऽट्ठारस पयाइं॥६१४॥ प्रथमतो दर्पकल्पौ स्थापयित्वा तदनन्तरं दर्पस्याधस्तात् दादीनि पदानि स्थाप्य-कल्पस्याधो दर्शनादीनि चतुर्विंशतिपदानि तेषां दशचतुविंशतिपदानामधो व्रतषट्कादीन्यष्टादशपदानि स्थापयेत्। (8) संप्रत्यालोचनाक्रममाहपढमस्स य कजस्स य, पढमेण पएण सेवियं जंतु। पढमे छके अभं-तरं तु पढमं भवे ठाणं // 615 / / इह प्रथमं कार्य दर्पलक्षणं तस्य प्रथमतः स्थापितत्त्वात्तस्य प्रथमकार्यस्य सम्बन्धिना प्रथमेन पदेन-दर्पलक्षणेन यत्सेवितम्, कथंभूतमित्याह-प्रथमे षट्के व्रतषट्करूपे अभ्यन्तरमन्तर्गतम्। तत्कतरदित्याह-प्रथम-प्राणातिपातलक्षणं भवेत्स्थानम्। एवं मृषावादे अदत्तादाने मैथुने परिग्रहे रात्रिभोजने च वक्तव्यम् / पाठोऽप्येवमुच्चारणीयः। पढमस्स य कज्जस्स य, पढमेण पएण सेवियं जंतु। पढमे छके अभिं-तरं तु बीयं भवे ठाणं // 616 / / एवं तइयं भवे ठाणं,जाव छटुं भवे ठाणं। एतदेव कथयन्नाहपढमस्सय कञ्जस्स य,पढमेण पएण सेवियं जंतु। पढमे छक्के अभिं-तरं तु सेसेसु वि परसु // 617 / / अक्षरगमनिका चग्वत् / नवरं 'सेसेसु वि पएसु' इति आद्यं पादत्रयममुश्शता शेषेष्वपि मृषावादादिषु पदेषु 'विइयं भवे ठाणं, तइयं भवे ठाण' मित्यादि पदसंचारतो वक्तव्यम्। पढमस्स य कजस्स य,पढमेण पएण सेवियं जंतु / बिइए छक्के अमि-तरं तु पढमं भवे ठाणं // 618|| प्रथमस्य कार्यस्य दर्पलक्षणस्य प्रथमेन पदेन दर्परूपेण यत् 'सेवियं जंतु' सेवितं द्वितीये षटले कायषले अभ्यन्तरमन्तर्गतंतत्कतरदित्याहप्रथमं पृथिवीकायलक्षणं भवेत्स्थानम्। एवमप्काये तेजस्काये। वायुकाये वनस्पतिकाये त्रसकाये च यथाक्रमं 'बिइयं भवे ठाणं, तइयं भवे ठाणमि' त्यादिपदसंचारतः पूर्वक्रमेण पञ्चगाथा वक्तव्याः। एतदेवाहपढमस्स य कज्जस्स य, पढमेण पएण सेवियं जंतु। बिइए छक्के अन्मि-तरं तु सेसेसु वि पएसु // 616 / / इयमपि प्राग्वत्। नवरं 'सेसेसु विपएसु' इति शेषेष्वप्यप्कायादिपदेषु। पढमस्स य कज्जस्स य, पढमेण पएण सेवियं जंतु। तइए छक्के अन्भिं-तरं तु पढमे भवे ठाणं / / 620 / /
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________________ ववहार 617- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 ववहार प्रथमस्य कार्यस्यदर्पलक्षणस्य प्रथमेन पदेन दर्परूपेण यत्सेवितम्, कथंभूतमित्याह-तृतीये षट्के-अकल्पगृहिभाजनादिलक्षणे अभ्यन्तरमन्तर्गतम्, कतरदित्याह-प्रथमकल्पलक्षणं भवेत्स्थानम् एवं गृहिभाजने पल्यङ्ग्रे निषद्यायां स्नाने शोभायां च यथाक्रमं च 'बिइयं भवे ठाणमि' त्यादिपदसंचारतः पञ्च गाथा वक्तव्याः। तथा चाहपढमस्स य कज्जस्स य, पढमेण पएण सेवियं जंतु। तइयं छक्के अन्मि-तरं तु सेसेसु वि पएसु // 621 / / अक्षरगमनिका प्राग्वत् / तदेवं प्रथमस्य कार्यस्य प्रथमं पदं दर्पलक्षणममुञ्चता अष्टादशपदानि एवमकल्पादिभिरपि द्वितीयादिभिः पदैः संचारणीयानि / पाठोऽप्येवम्-- "पढमस्स य कजस्स य, बीएण पएण सेवियंजंतु। पढमे छक्के अभंतरंतु पढमं भवेठाणमि'' त्यादिसर्वसंख्याभङ्गानामशीतिशतम् / / 180 // तदेवं प्रथम दर्परूपं विशुद्धमिदानी द्वितीय कल्पपदमधिकृत्याहबिइयस्स य कज्जस्स य,पढमेण पएण सेवियं जंतु। पढमे छक्के अन्भि-तरं तु पढमे भवे ठाणं // 622 // द्वितीयस्य कार्यस्य कल्पलक्षणस्य सम्बन्धिना प्रथमेन पदेन दर्शनलक्षणेन यत्सेवितम्, कथंभूतमित्याह--प्रथमे षट्के उभयषट्करूपे अभ्यन्तरमन्तर्गतं कतरत्तदित्याह-प्रथम-प्राणातिपात-लक्षणं भवेत् स्थानम्, एवं मृषावादे अदत्तादाने मैथुने परिग्रहेरात्रिभोजनेच पूर्वप्रकारेण यथाक्रमं पञ्च गाथा वक्तव्याः। तथा चाहबीयस्स य कज्जस्सय, पढमेण पएण सेवियं जंतु। पढमे छक्के अभिं-तरं तु सेसेसु वि परसु // 623|| अक्षरगमनिका प्राग्वत्। __द्वितीयं षट्कं कामरूपमधिकृत्याहबिइयस्स य कप्जस्स य, पढमेण पएण सेवियं जंतु। बिइये छक्के अन्मि-तरं तु पढमं भवे ठाणं // 624 // अत्र प्रथम स्थानं पृथिवीकायलक्षणमेवमप्काये अनिकाये दायुकाये वनस्पतिकाये त्रसकाये प्रागुक्तप्रकारेण पञ्च गाथा वक्तव्याः। तथा चाह-- बिइयस्स य कज्जस्स य, पढमेण पएण सेवियं जंतुं। . बिइए छक्के अभिं-तरं तु सेसेसु वि पएसु // 625 / / प्राग्वत्॥ तृतीयमकल्पादिषट्कमधिकृत्याहबिइयस्सय कज्जस्स य, पढमेण पएण सेवियं जंतु। तइए छके अभि-तरं तु पढमं भवे ठाणं // 626|| अत्र प्रथम स्थानं कल्पलक्षणमेवं गृहिभाजने पल्यङ्के निषद्यायां स्नाने शोभायां च प्रागुक्तप्रकारेण पञ्च गाथा वक्तव्याः। एतदेव सूचयति--- बिइयस्स य कन्जस्स य, पढमेण पएण सेवियं जं तुं। तइइए छक्के अभि-तरं तु सेसेसु वि पएसु // 627 // व्याख्या प्राग्वत् / तदेवं द्वितीयस्य कार्यस्य कल्पलक्षणस्य प्रथम दर्शनरूपं पदममुञ्चता अष्टादशपदानि संचारितान्येवं ज्ञानादिलक्षगर्द्वितीयादिभिरपि पदैस्त्रयोविंशतिसंख्याकैः प्रत्येकमष्टादश पदानि संचारयितव्यानि, सर्वसंख्यया भङ्गानां द्वात्रिंशदधिकानिचत्वारिशतानि 432, अष्टादशानां चतुर्विंशत्या गुणने एतावत्याः संख्याया भावात्। संप्रति 'पढमस्सय कजस्सय' इत्यादिपदव्याख्या नार्थमाहपठम कजं नाम, निकारण दप्पओ पढमपयं। पढमे छक्के पढम,पाणॉइवाए मुणेयध्वो // 628|| अत्र निष्कारणं नाम दर्पः,प्रथमं पदंदर्पिको दर्पः। शेषं सुगमम्एवं तु मुसावादो, अदिन्नमेहुणपरिग्गहो चेव।। बिइछके पुठवादी, तइये छके अकप्पादी॥६२६॥ एवमुक्तप्रकारेण मृषावादोऽदत्तमदत्तादानं मैथुन परिग्रहश्चशब्दात्रात्रिभोजनं च। संचारणं-द्वितीयेषट्के क्रमेण पृथिव्यादयः संचारणीयास्तृतीये षट्के अकल्पादयः।। निकारणदप्पेणं, अट्ठारस चारियाइँ एयाई। एवमकप्पादीसु वि, एकेका हॉति अद्वरस / / 630 // एवं निष्कारणस्यदर्पलक्षणस्य कार्यस्य संबन्धिना प्रथमेन पदेन दर्पण एतानि व्रतषट्कप्रभृतीन्यष्टादश पदानि संचारितानि / एवम-कल्पादिष्वपि नवसु पदेषु एकैकस्मिन् प्रत्येकमष्टादश पदानि संचारितव्यानि भवन्ति / बिइयं कचं कारण-पढमपयं तत्थ दंसणनिमित्तं / पढम छक्कवयाइं, तत्थ वि पढमं तु पाणवहो / / 631 // द्वितीयं कार्य नाम कारणं कल्प इत्यर्थः। तत्र प्रथमं पदं दर्शन-निमित्तं प्रथमंषट्कं-व्रतानि, तत्र प्रथमं पदं-प्राणवधः। दंसणममुयंतेणं, पुष्वकमेणं तु चारणीयाई। अट्ठारस ठाणाई, एवं णाणाइ एकेको // 632 / / दर्शनं-तद्दर्शनपदं प्रथमममुञ्चता पूर्वक्रमेणाष्टादश स्थानानि चारणीयानि, एवं ज्ञानादिरेकैको भेदः संचारयितव्यः। चउवीसऽद्वारसगा, एवं एए हवंति कप्पम्मि। दस हॉति अकप्पम्मि, सव्वसमासेण मुण संखं // 633 / / एवमुक्तेन प्रकारेण कल्पे चतुर्विशतिरष्टादशका भवन्ति। चत्वारिशतानि द्वात्रिंशानि४३२। भङ्गानां भवन्तीतिभावः। अकल्पे दर्पदश अष्टादशका भवन्ति / अशीतिः शतम्-१८०1 भङ्गानां भवन्तीति भावः। एतां कल्पे दर्पच समासेन च संख्यां जानीहि। सोऊण तस्स पडिसे-वणं तु आलोयणाकमविहिं च / आगमपुरिसज्जायं, परियागबलं च खेत्तं च // 6341 // श्रुत्वा तस्यालोचनकस्य प्रतिसेवनाम, अलोचनाक्रमविधिं चआलोचनाक्रमपरिपाटी चावधार्य तथा तस्ययावानागमोऽस्ति तावन्तमागमम्, तथा पुरुषजातमष्टमादिभिर्भावितमभावितंवा, पर्यायं गृहस्थपर्यायो यावानासीत्,यावांश्चतस्य व्रतपर्यायः तावन्तमुभयंपर्यायम, बलं-शारीरकं
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________________ ववहार ६१८-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 ववहार तस्य तथा यादृशं तत्क्षेत्रमेतत् सर्वमालोचकाचार्यकथनतः स्वतो दर्शनतश्चावधार्य स्वदेशं गच्छति। तथा चाहआहारेउं सवं, सो गंतूणं गुरूसगासम्मि। तेसि निवेदेइतहा, जहाणुपुटिव गतं सव्वं // 635|| स आलोचनाचार्यप्रेषितः सर्वमनन्तरोदितम्, आसमन्तात् धारयित्वा पुनरपि स्वदेशागमनेन गुरुसकाशं गत्वा तेषां गुरूणां सर्वं तथा निवेदयति, यथा--आनुपूर्व्या परिपाट्या गतम् अवधारितम्। व्य० 10 उ०। (अत्रप्रायश्चित्तं 'पच्छित्त' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 135 पृष्ठे गतम्।) (धारणाव्यवहारो धारणाववहार' शब्दे चतुर्थभागे 2748 पृष्ठे गतः।) उपसंहारमाहजीएणं ववहारं, सुण वोच्छे जहक्कम वच्छ!॥६६०|| साम्प्रतंजीतव्यवहारं यथाक्रमं वक्ष्येतंच वत्स! वक्ष्यमाणं शृणु। तथा चाहवत्तऽणुवत्तपवत्तो, बहुसो अणुवत्तिओ महजणेणं। एसो उ जीयकप्पो,पंचमओ होइ ववहारो॥६६१॥ यो व्यवहारोवृत्तः-एकवारं प्रवृत्तः, अनुवृत्तो-भूयो भूयः प्रवृत्तो, वारद्वयं प्रवृत्त इति भावः / तथा बहुशोऽनेकवारं प्रवृत्तः महाजनेन चानुवर्तितः, एष पञ्चमको जीतकल्पो व्यवहारो भवति। वृत्तादिपदानां व्याख्यानमाहवत्तो नामं एकसि, अणुवत्तो जो पुणो बितियवारं। तइयं वार पदत्तो, परिग्गहीतो महजणेणं // 662 / / (एक्कसि) एकमेकवारं यः प्रवृत्तः स वृत्तो नाम, यः पुनर्द्वितीय-- वारं,प्रवृत्तः सोऽनुवृत्तः, तृतीयवारं वृत्तः प्रवृत्तोऽनुवृत्तः प्रवृत्तोऽनुवर्तितः स परिगृहीतो महाजनेन। अत्र परस्य प्रश्रमाहचोदेती वोच्छिन्ने, सिद्धपहे तइयम्मि पुरिसजुगे। वोच्छिन्ने तिविहे सं-जमम्मि जीएण ववहारो॥६६३|| परश्वोदयति-किं तृतीये पुरुषयुगे जम्बूस्वामिनाम्नि सिद्धिपथे व्यवच्छिन्ने च त्रिविध संयमे परिहारविशुद्धिप्रभृतिके जीतेन व्यवहारः। अत्र केचिदुत्तरगाहुःसंघयणं संठाणं, च पढमगं जो य पुष्वउवओगो। ववहारचउकं पिय, चोइसपुष्वम्मि वोच्छिन्नं // 66 // प्रथमसंहननम्-वज्रर्षभनाराचं, प्रथमसंस्थानम्-समचतुरदस्रं यश्चान्तमुहूर्तेन चतुर्दशानामपि पूर्वाणामुपयोगोऽनुप्रेक्षणं यच्चादिमम् आगमश्रुताज्ञाधारणालक्षणं व्यवहारे चतुष्कमेतत्सर्वं चतुदशपूर्विणि--चतुर्दशपूर्वधरे व्यवच्छिन्नम्। एतन्निराकुर्वन् भाष्यकृदाहआहाऽऽयरियो एवं, ववहारचउजे उवोच्छिन्न / चउदसपुष्वधरम्मि, घोसंती तेसिमणुधाया॥६६॥ एवं परेणोत्तरे कृते आचार्य आह-ये एवं-प्रागुक्तप्रकारेण व्यवहारचतुष्कं / चतुर्दशपूर्वघरे व्यवच्छिन्नं घोषयन्ति, तेषां प्रायश्चित्तं चत्वासे मासा अनुद्धाता गुरुका मिथ्यावादित्वात्। मिथ्यावादित्वमेव प्रचिकटयिषुरिदमाहजे भावा जहि यं पुण,चोहसपुव्वम्मि जंबुनामे य। वोच्छिन्ना ते इणमो, सुणसु समासेण सीसंतो॥६६६|| ये भावा यस्मिन् चतुर्दशपूविर्णि ये जम्बूनाम्नि व्यवच्छिन्नास्तान् समासेन शिष्यमाणान् इमान् शृणुत। तानेवाहमणपरमोहिपुलाए, आहारगखवगउवसमे कप्पे। संजमतियकेवलिसि-ज्झणा य जंबुम्मि वोच्छिन्ना॥६६७।। मनःपर्यायज्ञानिनः-परभावधयः पुलाकोलब्धिपुलाकः आहारकशरीरलब्धिमान् क्षपकः-क्षपक श्रेणिरुपशमे-उपशम-श्रेणिः कल्पोजिनकल्पः संयमत्रिकं शुद्धपरिहारविशुद्धिसूक्ष्मसं-पराययथाख्यातलक्षणं केवलिनः सिद्धिगमनमेते भावा जम्बूस्वामिनि व्यवच्छिन्नाः, इह 'केवलि' ग्रहणेन 'सिज्झणा' ग्रहणेन वा गते यत् उभयोपादानंततः यः केवली स नियमात् सिध्यति, यश्च सिध्यति स नियमात्केवली सन्निति व्याख्यापनार्थम्। संघयणं संठाणं, च पढमगं जो य पुष्व उवओगो। एते तिन्नि वि अत्था, चोहसपुस्विम्मि वोच्छिन्ना।।६६८|| प्रथमं संहननं, प्रथमं संस्थानं, यश्चान्तहिर्तिकः समस्तपूर्वविषय उपयोगः, एते त्रयोऽप्यर्था नजम्बूस्वामिनितृतीये पूर्वयुगे व्यवच्छिन्नाः, किंतु-चतुर्दशपूर्विणि भद्रबाहौ। व्यवहारचतुष्कं पुनः पश्चादप्यनुवृत्तम्। यत आहकेवलमणपज्जवना-णिणो य तत्तो य ओहिनाणजिणा। चोइस दस नवपुथ्वी, आगमववहारिणो धीरा॥६६६|| सुत्तेण ववहरंते, कप्पय्ववहारधारिणो धीरा। अत्थधर ववहरंते, आणाए धारणे य पथा॥६७०।। ववहारचउकस्स, चोइसपुस्विम्मि छेदों जं भणियं / तं ते मिच्छा जम्हा, सुत्तं अत्थो य धरए उ॥६७१।। केवलिनो मनःपर्यायज्ञानिनोऽवधिज्ञानिनश्चतुर्दशपूर्विणो दशपूर्विणः नवपूर्विणश्च, एते षट् धीरा आगमव्यवहारिणः / ये पुनः कल्पव्यवहारधारिणो धीरास्ते सूत्रेण-कल्पव्यवहारगतेन व्यवहरन्ति। ये पुनः छेदश्रुतस्यार्थधेरास्ते अनया धारणया च व्यवहरन्ति, छेदश्रुतस्य च सूत्रमर्थश्चाद्यापि धरतो विद्यन्ते दशपूर्वधराः। अपि च-आगमव्यवहारिणस्ततो व्यवहारचतुष्कस्य चतुर्दशपूर्विणि व्यवच्छेद इति यद्भणितं तत् मिथ्या। अन्यचतित्थुग्गाली एत्थं, वत्तव्वा होइ आणुपुटवीए। जे जस्स आगमस्स, वुच्छेदो जहि विणिहिट्ठो // 672 / / तेषां मिथ्यावादित्वप्रकटनायाह-यो यस्यां यस्यागमस्य वा यत्र व्यवच्छेदो विनिर्दिष्टः सा तीर्थोद्गालिरत्रानुपूर्व्याक्रमेण वक्तव्या, येन विशेषतस्तेषां प्रत्यय उपजायेत / व्य० 10 उ० /
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________________ ववहार 616- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 ववहार (को जीतव्यवहारं प्रयुञ्जीत इति 'जीयववहार' शब्देचतुर्थभागे 1514 पृष्ठे उक्तम्।) निगमनम्एवं जहोवदिट्ठ-स्स धीरविओ देसिओ पसत्थस्स। नीसंदो ववहार-स्स को इकहिओ समासेणं // 66 // एवम्-उक्तेन प्रकारेण पञ्चविधस्य धीरैः तीर्थकरगणधरैर्यथाक्रमतः / सूत्रतश्च देशितो विदः-चतुर्दशपूर्वधरास्तैः प्रशस्तः-प्रशंसितस्तस्य निष्पन्दः कोऽपि कथितः समासेन विस्तरेणाऽभिधातुमशक्यत्वात्। तथा चाहको वित्थरेण वुत्तू-ण समत्तो णिरवसेसिए एत्थ। ववहारे जस्स मुहे, हवेज जीहासयसहस्सं // 661 // किं पुण गुणोदएसो, ववहारस्स उ विओ पसत्थस्स। एसो भे परिकहिओ, दुवालसंगस्स णवणीयं / / 662 // यस्य मुखे जिवाशतसहस्रं जिहालक्षं भवेत्, सोऽपि को नाम व्यवहारेव्यवहारसूत्रस्य निरवशेषितान् गुणान वक्तुं समर्थो नैव कश्चित्, किंत्वेष व्यवहारस्य-व्यवहारसूत्रस्य किञ्चित् प्रशस्तस्य-चतुर्दशपूर्वधरभद्रबाहुस्वामिना दत्तस्यगुणोपदेशो-गुणोत्पादननिमित्तमुपदेशो, (भे) भवतां कथितः। किं विशिष्ट इत्याह-दशाङ्गस्य नवतीतमिव सारमित्यर्थः / व्य० १०उन सङ्घ व्यवहारो यथाऽऽचार्येण कर्तव्यस्तदाहकिह पुण कज्जमकचं, करेन्ज आहारमादिसंगहितो। जह कम्मि वि नगरम्मि, उप्पण्णं संघकजंतु // 303|| कथं पुनराहारादिसंगृहीतः सन् कार्यमुपलक्षणमेतत् अकार्यमपि करोति। अत्र सूरिर्निदर्शनमाह--यथा-कस्मिश्चिन्नगरे किमपि सङ्घकार्य मुत्पन्नं सचित्तादिनिमित्तं वास्तव्यसङ्घस्य व्यवहारोजात इत्यर्थः। स च वास्तव्यसंड्रेन छेत्तुं न शक्यते। बहुसुयपरिवारो य, आगतो तत्थ कोइ आयरितो। तेहि य नागरगेहिं, सो उ नियुत्तो उ ववहारे // 30 // अन्यदा कोऽप्याचार्यो बहुश्रुतो बहुपरिवारस्तत्र नगरे समागतः, सच तैनागरकैः-नगरवास्तव्येन सङ्घनेत्यर्थः। नियुक्तो व्यवहारे बहुश्रुतस्त्वम्, अत एव व्यवहारं छिन्धि। नायेण छिन्ने ववहारे, कुलगणसंघेण कीरइ पमाणं / तो सेविसं पवत्ता, आहारादीहि कन्जी य॥३०॥ एवमुक्ते तेन न्यायेन श्रुतोपदेशेन व्यवहारश्छिन्नः। ततः कुल-गणसंधेन सप्रमाणं क्रियते। एष बहुश्रुतोनचश्रुतोत्तीर्णं किमपि वदति, तस्माद्यदेष भाषते तत्प्रमाणमिति, एवं च प्रमाणीकृते तस्मिन् श्रावकसिद्धपुत्रादयः कार्यिकादयस्तत्कार्यार्थिन सन्त-स्तमाहारादिभिः सेवितुं प्रवृत्ताः सच तान्याहारादीनि दीयमानानि गृह्णाति / तो छिंदिउं पउत्तो, निस्साए तत्थ सो उ ववहारं। पञ्चत्थीहिं नायं, जह छिंदइ एस निस्साए // 306 / / ततः आहारादिग्रहणानन्तरं सतत्र नगरे व्यवहारं निश्रयापक्षपातेनं छेतुं / प्रवृत्तः, ततो ये आहारादिकं न दत्तवन्तस्ते तस्य प्रत्यर्थिनस्तैः प्रत्यर्थिभितिम् , यथा एष व्यवहारं निश्रया छिनत्ति। को णु हु हवेज अन्नो, जो नाएणं नएज ववहारं / अह अन्नय समवाओ, घुट्टो आयो य तत्थ विऊ॥३०७|| ततस्ते प्रत्यर्थिनश्चिन्तयन्ति। को 'नु' 'हु' निश्चितं भवेदन्यो गीतार्थो यो न्यायेन व्यवहारं नयेत् / अथान्यदा सचित्तादिव्यवहारच्छेदनार्थ संघसमवायो घुष्टो-घोषितः,संघसमवायघोषणां श्रुत्वा तथा संघसमवायविदः विद्वान् सूत्रार्थतदुभयकुशलोऽन्यः प्राघूर्णकः कोऽपि समागतः। (E) इह समवायघोषणामाकर्ण्य धूलीधूसरैरपि वादे अवश्यमागन्तव्यमन्यथा प्रायश्चित्तमित्येतदधुना प्रतिपादयतिघुटुम्मि संघकज्जे, धूलीजंघो विजो न एजाहि। कुलगणसँघसमवाए, लग्गति गुरुगे चउम्मासे // 30 // जं काहिंति अकलं, तं पावइ बले अगच्छंतो। अण्णाइ ताव तो हा-ण मादि जंकुन्ज तं पावे // 306 / / घुष्टे-घोषिते संघकार्ये-संघसमवाये धूलीजङ्घोऽपि आस्तामन्य इत्यपिशब्दार्थः। धूल्या धूसरे जड़े यस्य स धूलीजङ्घः,शाकपार्थिवादिदर्शनान्मध्यपदलोपी समासः। सङ्घसमवायघोषणामाकर्ण्य प्राघूर्णकेनापि पादलग्नायामपि धूलावप्रमत्ततया त्वरितमवश्यमागन्तव्यमिति ज्ञापनार्थम् / धूलीजनोऽपीत्युपादाने सति बले यो न आगच्छेत्, कुलसमवाये गणसमवाये सङ्घसमवाये वा गुरुके चतुर्मासे लगति; तस्य गुरुकाश्चत्वारो मासाः प्रायश्चित्तमिति भावः। न केवलमेतत्, किं त्वदन्यदपि। तथा चाह- 'जं काहि' इत्यादि, सति बले आगच्छन् व्यवहारोच्छेदाकार्यकरणतो वान्यैरन्यथा छिन्ने व्यवहारे यत् अकार्य ते व्यवहारार्थिनः करिष्यन्ति तत्प्राप्रोति, तन्निमित्तमपि प्रायश्चित्तं तस्यापद्यते इत्यर्थः / अन्यदपि चापमानवशतो यदवधावनादि कुर्यात्तदपि प्राप्नोति। तम्हा उ संघसहे, धुढे गंतव्व धूलिजंघेणं / धूलीजंघनिमित्तं, ववहारो उठितो सम्मं // 310 / / यत एवमनागमने दोषास्तस्मात्सघशब्दे घुष्ट-घोषिते धूलीजङ्घनाप्यवश्यं सति बले गन्तव्यम्। यतः कदाचित्धूलीजङ्घनिमित्तं व्यवहारः सम्यगुत्थितो भवेत्, यथा-प्राघूर्णको गीतार्थो धूलीजङ्घः समागतः सन् यद् भणिष्यति तत्प्रमाणमिति। तेण य सुयं जहेसो, तेलघयादीहिँ संगहीतो उ। कजाई नेति तहिं, माई पावोवजीवी उ॥३११॥ तेन चधूलीजङ्ग्रेनाऽऽगच्छतैव कस्यापि पार्श्वेश्रुतम्, यथैष-वास्तव्यो व्यवहारच्छेता तैलघृतादिभिः संगृहीतः सन्मायी अभीक्ष्णं मायाप्रतिसेवी पापोपजीवी कोण्टलाधुपजीवी वितथ-मुत्सूत्रं कार्याणि नयति। सो आगतो उसंतो, वितहं दळूण तत्थ ववहारं। समएण निवारेई, कीस इमं कीरइ अकजं // 312 / / एवं श्रुत्वा समागतः सन् तूष्णीकस्तावदास्ते यावत्सूत्रेण निर्दिश्यमानं व्यवहारं पश्यति, तंचतथाभूतं वितथं व्यवहारं दृष्ट्वा समयेन-सिद्धान्तेन निवारयति, यदकस्मादिदपकार्ये क्रियते।
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________________ ववहार 120- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 ववहार न केवलमेवं निवारयति, किंत्वेतदपि वक्तिनिद्धमहुरं निवायं, विणीयमविजाणएस जंपतो। सचित्तखेत्तमीसे, अत्थधर निहोडणा विहिणा॥३१३।। सचित्तनिमित्तव्यवहारे 'खेत्त' ति क्षेत्रनिमित्ते व्यवहारे ये दुर्व्यवहारिणस्तेषां प्रतिदिवसनिमित्तम् ‘अविजाणएसु' त्ति येऽपि च साधवो न जानन्ति, यथा-घृताद्यनुवृत्ता वितथमेते व्यवहरन्ति, तेष्वपि विजानत्सु विज्ञाननिमित्तमेवं जल्पति-अहो स्निग्धो व्यवहारः। किमुक्तं भवतितैलघृतादिसंगृहीता एवमेते अन्यथा व्यवहरन्तीति। अथ गुडशर्करादिभिर्गृहीता वितथव्यवहारिणः, ततो-जल्पति-अहो मधुरो व्यवहारः / यदि पुनरुपाश्रयो निर्वातो लब्धः, शीतप्रावरणानि वेति वितथं व्यवहरन्ति, तत आह-निर्वातो व्यवहारु / अथ कृतिकर्मविनयादिभिः संगृहीतास्ततो ब्रूते-अहो विनी तो व्यवहारः / एवं स्निग्धमधुरनिवातविनीतव्यवहारं जल्पन् सोऽर्थधरस्तेषां दुर्व्यवहारिणां विधिना सूत्रोपदेशेन निहोडणां-निवारणं करोति। एयं चेव य सुत्तं, उच्चारेउं दिसं अवहरंति। अप्पावराह आउ-ट्ट दाण इयरे उजा जीयं // 31 // एवं निहोडणं कृत्वा एतदेवाधिकृतं सूत्रं-सप्तसूत्रात्मकमुच्चार्य दिशमाचार्यत्वादिकमपहरन्ति-उद्दालयन्ति। अथ सोऽल्पापराधः प्रत्यावृत्तश्च तदा 'दाण' त्ति तस्य दिक् पुनर्दीयते 'इयरे उ' इति सप्तमी षष्ठ्यर्थे, इतरस्य त्वनावृत्तस्य आवृत्तस्य वा बहुदोषस्य यावज्जीवमाचार्यत्वादिकं न दीयते। एवं ताव बहूसुं, मज्झत्थेसुं तु सो उ ववहरति। अह होज बली इयरे, ठावेइ उ तत्थिमं वयणं // 315 / / एवमनन्तरोदितेन प्रकारेण तावद्वहुषु मध्यस्थेषु सत्सु सोऽर्थधरो व्यहरति / अथ भवेयुरितरे दुर्व्यवहारिणो बहुत्वेन बलीयांसः, ततस्तत्रान्यथा व्यवहारच्छेदे क्रियमाणे इदं वक्ष्यमाणं ब्रूते। तदेवाहरागेण व दोसेण व, पक्खग्गहणेण एकमेक्कस्स। कजम्मि कीरमाणे, किं अच्छति संघमज्झत्थो // 316 / / / रागेण वा एकस्य पक्षस्य ग्रहणेन द्वेषेण वा-एकस्य पक्षस्या-ग्रहणेन, द्वेषेण वा कार्ये क्रियमाणे वितथे व्यवहारे छिद्यमाने किं संघो मध्यस्थस्तिष्ठति। रागेण व दोसेण व, पक्खग्गहणे ण एकमेकस्स। कन्जम्मि कीरमाणे, अण्णो विभणाउ ता किंचि // 317 / / रागेण वा एकस्य पक्षस्य ग्रहणेन द्वेषेण वा पक्षाऽग्रहणेन कार्य क्रियमाणे ततस्तस्मात् किंचिदन्योऽपि भणतु। बलवंतेसेवं वा,मणाति अण्णो विलभति को एत्थ। वत्तुं जुत्तमजुत्तं, उयाहु न वि लब्भतेऽण्णस्स // 318| बलवत्सु दुर्व्यवहारिष्वेवं वक्ष्यमाणरीत्या भणति, तामेवाह- अत्र अस्मिन् संघसमवाये युक्तमयुक्तं वा वक्तुमन्योऽपि कश्चित् लभते उताहो अन्यस्य वक्तुंन लभ्यते, अन्यो न लभते इत्यर्थः।। जति बैंति लब्भते तु, बूहि तुम जंतु जाणसी जुत्तं / तो अणुमाणेऊणं, बेंति तहिं नायतो सो उ॥३१॥ यदि बुवते लभते अन्योऽपि नावक्तुमतः त्वमपि यजानासि वक्तुं तत् ब्रूहि / ततः एवमुक्ते तां पर्षदमनुमान्य सम्यक् क्षमयित्वा तत्र न्यायतः सबूते। कथमनुमात्येतदनुमानप्रकारमाहसंघो महाणुभावो, अहं तु वेदेसिओ इहं भयवं। संधसमिति न जाणे, तो भे सव्वं खमावेमि॥३२०।। संघो महाननुभावः अचिन्त्यशक्तिरस्येति महानुभावः / अहं च वैदेशिको-विदेशवर्ती , इह-अस्मिन् स्थाने 'संघसमिति' भागवतीं सङ्घमर्यादां न जाने, ततो युक्तमयुक्तं वा वक्तुं सर्व भे' भवतः क्षमयामि। यतःदेसे देसे ठवणा, अण्णो अण्णत्थ होइ समितीणं। गीयत्थहोइण्णा, अदेसिओ तं न जाणामि॥३२१।। समितीनां-संघमर्यादानां स्थापना गीतार्थराचीपर्णा, अत्र जगति देशे अन्या भवति। ततोऽहमदेशिक इहता-संघमर्यादां-स्थापनांन जानामि, ततः क्षमयत। श्रुतोपदेशेनाहमपि किंचिद्वक्ष्येअणुमाणेउं संघं, परिसग्गहणं करेइ तो पच्छा। किह पुण गेण्हइ परिसं, इमेणुवारण सो कुसलो // 322 / / एवं सङ्घमनुमान्य सम्यक् क्षमयित्वा ततः पश्चात्पर्षद्ग्रहणं करोति / शिष्यःचह-कथं पुनः पर्षदं गृह्णाति / सूरिराह- कुशली-दक्षोऽनेनोपायेन गृह्णाति समीचीनामसमीचीनां वा जानाति। तमेवोपायमाहपरिसा ववहारीया, मज्झत्था राग-दोस-नीहूया। जइ होति दो विपक्खा , ववहरिउं तो सुहं होइ॥३२३|| पर्षन्नाम व्यवहाराों द्वावपि पक्षौ तौ ब्रूते, यदि द्वावपि पक्षी मध्यस्थौ भवतः, मध्यस्थता-रागद्वेषाऽकरणतो भवति तत आह-निभृतौनिर्व्यापारौ रागद्वेषौ ययोस्तौ रागद्वेषनिभृतौ,क्तान्तस्य पाक्षिकः परनिपातःसुखादिदर्शनात्। ततः सुखंव्यवहतुव्यवहरणं भवति। एवं पर्षद्ग्रहणं कृत्वा ये दुर्व्यवहारिणस्तान्निक्षिपन्निदमाहओसन्नचरणकरणे, सचव्यवहारयादुसद्दहिया। चरणकरणं जहंतो, सबव्ववहारयं जहइ // 32 // अवसन्ने शिथिलतां गते चरणकरणे व्रतश्रमणधर्मादिपिण्ड-विशोधिसमित्यादिरूपे यस्य सोऽवसन्नचरणकरणः तस्मिन्सत्यव्यवहारता यथावस्थितव्यवहारकारिता दुःश्रक्या यतश्चरणकरणं जहत्-त्यजन् सत्यव्यवहारतामपि जहाति। जइयाऽणेणं चत्तं, अप्पणतो नाणदंसणचरितं / ताहे तत्थ परेसुं, अणुकंपा नऽत्थि जीवेसुं // 32 // यदाऽनेनात्मनः संबनिध ज्ञानदर्शनचारित्रं त्यक्तम्, तदा तस्य परेषु जीवेष्वनुकम्पा नास्ति, यस्य ह्यात्मनो दुर्गतौ प्रपततो नानुकम्पा तस्य कथं परेष्वनुकम्पा भवेदिति भावः। भवसयसहस्सलद्धं, जिणवयणं भावतो जहंतस्स। जस्सन जायं दुक्खं,न तस्स दुक्खं परे दुहिते // 326|| यस्य भवशतसहस्रः कथमपि लब्धं जिनवचनं भावतः परमार्थतो जहतः त्यजतो दुःखं न जातम्, न तस्य परे दुः
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________________ ववहार 121 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 ववहार खित दुःखम : यस्य ह्यात्मन्यपि दुःखिते न पीडा, तस्य परे दुःखिते कथं स्यादिति भावः। आयारे वट्टतो, आयारपरूवणो असंकीओ। आयारपरिभट्ठो, सुद्धचरणदेसणे भइतो॥३२७|| आचारे वर्तमानः खल्वाचारप्ररूपणा अशङ्कयोऽ-शङ्कनीयो भवतिायः पुनरोचारफरेभ्रष्टः स शुद्धचरणदेशने-यथावस्थितचरण-प्ररूपणासु भक्ता-विकल्पितः, शुद्धचरणप्ररूपणां करोति वा नवेत्यर्थः / एवं दुर्यवहारिणामाक्षेपे कृते ते ब्रूयुर्वयमप्रमाणीकृता युष्माभिः। ततः स गीतार्थः प्राहतित्थयरे भगवंते, जगजीववियाणए तिलोयगुरू। जो ण करेइ पमाणं, न सो पमाणं सुयहराणं // 328|| तीर्थकरान भगवतो जगजीवविज्ञायकान्सर्वज्ञानित्यर्थः, त्रिलोकगुरुन् यो न करोति प्रमाण न स प्रमाणं श्रुतधराणाम्। तित्थयरे भगवन्ते, जगजीववियाणए तिलोयगुरू। जो उ करेइ पमाणं, सो उ पमाणं सुयहराणं / / 326 / / तीर्थकरान भगवतो जगजीवविज्ञायकान् त्रिलोकगुरून्सर्वज्ञानित्यर्थः, यस्तु करोति प्रमाण स प्रमाणं श्रुतधराणाम् / एवं धूलीजङ्घन दुर्व्यवहारिषूपालब्धषु ते ब्रूयुः, एवं संघमप्रमाणीकुरुथ यूयमिति। ततः प्राहसंघो गुणसंधातो, संघायविमोयगो य कम्माणं / रागद्दोसविमुक्को, होइ समो सव्वजीवाणं / / 330 / / रघो नाम-गुणाना मूलगुणानामुत्तरगुणानां च संघातः-संघातात्मकः, गुणसंघातात्मकत्वादेव च कर्मणांज्ञानाऽऽवरणीयादीनां संघाताद्विमाचयति प्राणिन इति संघातविमोचकः / रागद्वेषविमुक्तः- आहारादिक ददत्सु रागाऽकारी, तद्विपरीतेषु द्वेषाकारीत्यर्थः / अत एव भवति समः सर्वजीवानान, सइत्थंभूतो नाप्रमाणीकर्तुशक्यते श्रुतोपदेशेन व्यवहरणात्। कि चान्यत्परिणामियबुद्धीए, उववेतो होइ समणसंघो उ। कज्जे निच्छियकारी, सुपरिच्छियकारगो संघो॥३३१।। पारिणामिकी चासौ बुद्धिश्च पारिणामिकबुकिस्तया उपेतो–युक्तो भवति श्रमणसंघः। तथा कार्ये दुर्गेऽपि समापतिते यत् श्रुतोपदेशबलेन सम्यनिश्चितं तकरणशीलः कार्ये निश्चितकारी, तथा सुष्ठ देशकालपुरुषोचिन्येन श्रुविलेन च सुपरीक्षितं तस्य कारकः संघो, नयथाकथंचनकारी। किह सुपरिच्छियकारी, एक्कसि दो तिण्णि वावि पेसविए। न वि उक्खियए सहसा, को जाणइ नागतो केणं // 332 / / कथं-केन प्रकारेण सुपरीक्षितकारी। उच्यते-इहार्थिना संघप्रधानस्य समीपे संघसमवायो निमन्त्रितस्तेन चाज्ञप्तः संघमेलापककारी, संघस्त्वया मेलनीयः तत्र च प्रत्यर्थी कुतश्चित्कारणान्नागच्छति / ततो मानुषः प्रेषणीयः, संघस्त्वां शब्दयति। स नागतस्ततो द्वितीयमपि वारं मानुषं प्रेषयति। तथापि नागच्छति, तत्रा--परिणामका बुवते-उद्घाट्यतामषः / गीतार्थास्त्वाहुः-पुनःप्रेष्यतां गीतार्थ मानुष्यम्, केन कारणेन नागच्छति / किं परिभवेन, उतभयेन। तत्र यदि भयेन नाऽऽगच्छति ततो | वक्तव्यम्-मा भैषी स्त्वम्, परित्राणकारी खलु भगवान् श्रमणसंघ इति: अथ परिभर्वन तत उद्धाठ्यते। एवं सुपरीक्षितकारी। तथा चाह. एव द्वी श्रीन वारान मानुषे प्रेषितेऽपितमनागच्छन्तं सहसा संघो न क्षिपति-न संघबाह्यं करोति / येन एवं पर्यालोचयति। को जानातिन ज्ञायते इत्यर्थः / केन कारणेन नागत इति। नाऊण परिभवेणं, नागच्छन्ते ततो य निज्जुहणा। आउट्टे ववहारो, एवं सुविनिच्छकारी अ॥३३३।। परिभवेण नागच्छतीति ज्ञात्वा तस्मिन्ननागच्छति ततः संघान्नि!हणा-- निष्कासनं कर्त्तव्यम् / अथ शठतामपि कृत्वा स प्रत्यावर्तते / प्रत्यावृत्तश्च संघ प्रसादयति / ततस्तस्मिन्नावृत्ते व्यवहारो दातव्यः। एवं सुविनिश्चितकारी संघः। यस्तु भीतो नागच्छतितं प्रति इदं वत्तव्यम्आसासो विस्सासो,सीयघरसमोय होइमा भाहि। अम्मापित्तिसमाणो, संघो सरणं तु सव्वेसिं॥३३४|| आश्वासयतीति आश्वासो भीतानामाश्वासनकारी-भगवान् श्रमणसंघः। विश्वासयतीति विश्वासो व्यवहारे वञ्चनायाः अकर्ता, सर्वत्र रामतया शीतगृहेण समः शीतगृहसमः / तथा मातापितृभ्यां समानो मातापितृसमानः-पुत्रेषु मातापितराविव व्यवहारादिष्वविषमदर्शी, तथा सर्वेषां प्राणिनां शरणं भगवान्संघः तस्मात् मा भैषीस्त्वमिति / इदं च परिभावयन संघो व्यवहारं न करोति। सीसो पडिच्छतो वा, आयरितो वा न सुग्गइं नेई। जे सचकरणजोगा, ते संसारा विमोएंति॥३३५।। शिष्यः-स्वदीक्षितः प्रतीच्छकः-परगणवर्ती सूत्रार्थतदुभयग्राहकः, अचार्यो वाचनाचार्यादिको न सुगति नयति-किंतु ये सत्यकरणयोगा:संयमानुगतमनोवाकायव्यापारास्ते संसाराद्वि-मोचयन्ति। सीसो पडिच्छओ वा, आयरिओ वा वि ऍते इह लोए। जे सच्चकरणजोगा, ते संसारा विमोएंति / / 336|| शिष्यः प्रतीच्छको वा आचार्यो वा एते सर्वेऽपि इह लोके परलोके पुनः ये सत्यकरणयोगास्ते संसाराद्विमोचयन्ति। सीसो पडिच्छओवा, कुलगणसंघो न सुग्गतिं नेति। जे सच्चकरणजोगा, ते संसारा विमोएंति॥३३७।। शिष्यः प्रतीच्छको वा कुलं वा गणो वा संघो या न सुगतिं नयति, कि तु-ये सत्यकरणयोगास्ते संसाराद्विमोचयन्ति। सीसो पडिच्छओ वा, कुलगणसंघो व ऍते इह लोए। जे सचकरणजोगा, ते संसारा विमोएंति // 338 // सुगमा। शीतगृहसमः संघ इत्युक्तम्, तत्र शीतगृहसमतां व्या ख्यानयतिसीसे कुलव्वए वा, गणव्वएँ संघवए य समदरिसी। ववहारसंथवेसु य, सो सीयघरोवमो संघो।।३३६।। शिष्ये -स्वदीक्षते 'कुलवए' ति स्वकु लसम्बन्धिनि गणसंबधिनि संघसंबन्धिनि च जाते व्यवहारे समदर्शी। कि मुक्त भवति शिष्याणां कुलगणसंघसंबन्धिनां च परस्परं व्यवहारे जाते
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________________ ववहार 622 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 ववहार समदर्शी तथा संस्तवेषुपूर्वसंस्तुतेषु-पश्चात्संस्तुतेषु चान्यः समं व्यवहारे जाते समदर्शी, अतः स संघः शीतगृहोपमः, यथा शीत-गृहमाश्रितानां स्वपरविशेषाकरणतः परितापहारी, तथा व्यवहारार्थमागतानां संघोऽपि स्वपरविशेषाकरणतः परितापहारीति भावः। (10) संप्रति संघशब्दस्य व्युत्पत्तिमाहगिहिसंघायं जहिउं, संयमसंघाययं उवगएणं / णाणचरणसंधायं, संघायंते हवइ संघो।।३४०।। गृहिणा-संसारिणा मातापित्रादीनां संघातं हित्वापरित्यज्य संयमसंघातमुपगतः सन्, णमिति वाक्यालङ्कारयो ज्ञानचरण-संघातं संघातयति-आत्मनि स्थितं करोति, स ज्ञानचरणे संघातयन् भवति संघः। संघातयतीति संघ इति व्युत्पत्तेविपरीतस्तु संघो न भवति। नाणचरणसंघायं,रागद्दोसेहिँ जो विसंघाए। अबुहो गिहिसंघायम्मि, अप्पाणं मेलितो नसो संघो||३४१।। यो ज्ञानचरणसंघातं रागद्वेषैरनेकैर्व्यक्त्यपेक्षया बहुवचन विसंघातयति, विघटयति सोऽबुधोमू| गृहिसंघाते आत्मानं संघातयति मेलयति स परमार्थतो न संघः / ज्ञानचरणसंघातनलक्षणप्रवृत्तिनिमित्ताभावात्। तस्यापापरूपं फलमाहणाणचरणसंघायं, रागहोसेहि जो विसंघाए। सो भमिही संसारे, चउरंगतं अणवदग्गं / / 342 / / यो ज्ञानचरणसंघातं रागद्वेषैः विसंघातयति-विघटयति चतुर्षु अंगेषुनारकतिर्यनरामरगतिरूपेष्वन्तः पर्यन्तो यस्य स चतुरङ्गान्तः, तम् 'अणवदग्गं' कालतोऽपरिमाणं भविष्यति तस्य च संसारं परिभमतो वितथव्यवहारकारितयोन्मार्गदेशनया च तीर्थकराऽऽशातनया बोधिरपि भवान्तरे दर्लभा। तथा चाह.. दुक्खेण लहइ बोहिं, बुद्धो वि य न लब्भति चरित्तं तु / उम्मग्गदेसणाए, तित्थकरासायणाए य॥३४३।। वितथं हि व्यवहारं कुर्वता तेनोन्मार्गादशिना तीर्थकरश्चा-शातितः, ततः उन्मार्गदशनया तीर्थकराशातनया च संसार परिभ्रमन् दुःखेन लभते बोधिम्, बुद्धोऽपि च न लभते चारित्रम्। कस्मान्न लभते इत्याहउम्मग्गदेसणाए, संतस्स य छायणाए मग्गस्स। बंघति कम्मरयमलं, जरमरणाणंतकं घोरं // 344 / / उन्मार्गदशनया सन्तो मार्गस्याच्छादनया-स्थगनेन बध्नाति कर्म। किं विशिष्टमित्याह-रज इव रजः संक्रमणोद्वर्तनापवर्तनादियोग्यम्, मल इव मलो निधत्तनिकाचितावस्थाम्, तथा जरा-मरणान्यनन्तानि यस्मात्तत जरामरणानन्तकम् / प्राकृतत्वाद्वि-शेषणस्य परानपातो मकारोऽलाक्षणिकः / अत एव धोर-रौद्रमतो न लभते बोधिम्, नापि चारित्रमिति। कीदृशेन पुनर्व्यवहारश्छेत्तव्यस्तत आहपंचविहं उपसंपय, नाऊणं खेत्तकालपव्वजं / तो संघमज्झगारे, ववहरियव्वं अणिस्साए।।३४५।। यत एवं वितथव्यवहारकरणे दोषास्ततस्तस्मात पञ्चविधा ज्ञानदर्शनचारित्रतपोवैयावृत्यभेदतः पञ्चप्रकारामुपसंपदं क्षेत्र काल प्रव्रज्यां च ज्ञात्वा संघमध्ये व्यवहर्त्तव्यम, किमुक्त भवति-यः पञ्चविधायामुपसंपदि आभवन्तमनाभवन्तं जानाति, यश्च क्षेत्र-मक्षेत्र वा बुधरते क्षेत्रेऽपि च क्षेत्रिकस्य यदा-भवति तज्जानाति तथा क्षेत्रे यावन्तं कलमवग्रहो - नुव्रजति तावन्तं कालमवबुध्यते, तथा प्रवाजयितुं यो जानाति प्रवाजितोऽपि केनापि तस्य यत् आभवति यच नाभवति तत् जानाति तेन संघमध्ये अनिश्रया आहारप्रदायिषु स्वकुलसम्बन्ध्यादि रागावरणत इतरेषामद्वेषाकरणतो व्यवहर्तव्यम्। अत्रधरस्याशङ्कामाहउस्सुत्तँ ववहरंतो, उ वारितो नेव होइ ववहारो। वेति जइ बहुसुएहिं, वुत्तो तत्तो भणइ इणमो // 346|| उत्सूत्र--सूत्रोत्तीर्ण व्यवहरतो बहुश्रुतस्य बहुश्रुतैः कृतव्यवहारो नैवान्यैवरितस्ततः स प्रमाणमिति यदि ब्रूते, तत इदं भण्यते--द्विविधाः खलु व्यवहारच्छेदकाः। तद्यथा-प्रशंसनीया अप्रशंसनीयाश्च / तथा चोभयानेव सनिदर्शनमभिधित्सुराह-- तगराए नगरीए, एयायरियस्स पासें निप्फण्णा। सोलस सीसा तेसिं, सव्ववहारीउ अट्ठ इमे // 347 / / तगराया नगभिकस्याचार्यस्य पार्थेषोडश शिष्या निष्पन्नास्तेषां च मध्येऽष्टौ व्यवहारिणः, अष्टौ चाव्यहारिणः / तत्र व्यवहारिगोटा-विमे। तानेवाहमा कित्ते कंकडुयं, कुणिमं पक्कुत्तरं च चव्वायं / बहिरं च गुंठसमणं, अंबिलसमणं च निद्धम्मं // 348 / / मा कीर्त्तय-प्रशंसय व्यवहारिणम्, कं क्रमित्याह-कङ्कटकम् 1, कुगपंकुनपनखम् 2. पक्वम् 3. उत्तरम् 4, चार्वाकम् 5, बधिरम् 6. गुण्ठसमानंलाटमायाविसमानम् 7, अम्लसमान च निर्माणम् / तत्र कडूटुकं कुणपंच प्रतिपादयतिकंकडुओ विव मासो, सिद्धिं न उवेइ जस्स ववहारो। कुणिमणहो द न सुज्झति, दुच्छेज्जो जस्स ववहारो॥३४६।। यस्य व्यवहारः काङ्कटुकः माष इव न सिद्धिमुपयाति, सकाङ्कटकथ्यवहारयोगात् काटुकः। यस्य पुनर्व्यवहारो दुश्छेद्यो नच छिन्नोऽपि सर्वथा निरवशेषः शयति। तथा कुणपे-मासे सूक्ष्मा नखो-नखावयवः यस्य स कुणपनखावयवतुल्यव्यवहारकरणयोगात् कुणपः / त्य०३ उ०। (पक्वव्याख्या 'पक्क' शब्दे पञ्चमभागे 66 पृष्ठे गता।) (उत्तरचार्वाकबधिरव्याख्या 'उत्तर' शब्दे द्वितीयभागे 757 पृष्ठे गता।) गुण्ठसमानव्याख्या 'गुठसमाण' शब्दे तृतीयभागे 604 पृष्ठे गता।) ये। वचनेषूक्तेषु परस्य शरीरं विडविडायते तानि अम्लानि, अम्लैः पुरुषैश्च रचनैर्व्यवहारं न सिद्धिंनयति / सोऽम्लवचनयोगादम्ल इति / उपसंहारमाहएए अकजकारी, तगराए आसितम्मि उ जुगम्मि। जेहिं कया ववहारा, खोडिज्जंतऽण्णरज्जेसुं // 355 / /
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________________ ववहार 123 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 ववहार एते अनन्तरोक्तस्वरूपा अष्टौ कार्यकारिणो दुर्व्यवहारिणस्तस्मिन् गुणे तस्मिन्विवक्षिते काले तगरायामासीरन् यैः कृता व्यवहारा अन्येषु राज्येषु क्षोभ्यन्ते। दुर्व्यवहारिणामिह परलोके च फलमाह-- इहलोए य अकित्ती, परलोए दुग्गती धुवा तेसिं। अणॉणाए जिणिंदाणं, जे ववहारं ववहरंति॥३५६।। ये जिनेन्द्रणामनाज्ञया व्यवहार व्यवहरन्ति, तेषामिहलोकं अकीर्तिः, परलोके धुता दुर्गतिः। तेण न बहुस्सुतो वी, होइ पमाणं अणायकारी उ। नाएण ववहरंतो, होइ पमाणं जहा उ इमे // 357 / / यत एवं दुर्व्यहारिण इहलोके अपकीर्तिः परलोके दुर्गतिस्तेन-कारणेन बहुश्रुतोऽप्यन्यायकारी न भवति प्रमाणम्। न्यायेन पुनर्व्यवहरन भवति प्रमगणम, यथा-इम-वक्ष्यमाणाः तगरायां तस्यैवाऽऽचार्यस्याप्टी शिष्याः। तानेवाहकित्तेहि पूसमित्तं, वीरं सिवकोट्टगं च अज्जासं। अरहन्नग-धम्मत्तग-खंदिल-गोविंद-दत्तं च // 358|| कीर्त्तय-प्रशंसय सुव्यवहारकारितया पुष्पमित्रम् 1, वीरम् 2, शिवकोष्टकम् 3 आर्याशम् 4, अर्हन्तकम् 5, धन्विगम् 6. स्कन्दिलम यन्द्रदनचर एते उ कनकारी, तगराए आसि तम्मि उ जुगम्मि। जेहिं कया ववहारा, अक्खोभा अण्णरजेसु // 356 / / अनन्तरोदिताः तस्मिन् युगे तस्मिन्काले कार्यकारिणः सुव्यवहारिणः तगरायामासीरन्, यैः कृता व्यवहारा अक्षोभ्या वाच्या अन्यराज्येषु / (1) सुव्यवहारिणामिह परलोके च फलमाहइह लोगम्मि य कित्ती, परलोगे सोगती धुवा तेसिं। आणाएँ जिणिंदाणं, जे ववहारं ववहरंति॥३६०।। ये जिनेन्द्राणामाज्ञया व्यवहार व्यवहरन्ति, तेषामिह लोके कीर्तिः परलोके सुगातेः धुवा। केरिसगो ववहारी, आयरियस्स य जुगप्पहाणस्स। जेण सकासोग्गहियं, परिवाडीहिं तिहिं असेसं // 361 / / कीदृशो ननु व्यवहारी भवति ? एवं शिष्येण प्रश्ने कृते सूरिराह-येन युगप्रधानस्याचार्यस्य सकाशे-समीपे तिसृभिः परिपाटीभिरशेषं श्रुतं व्यवहारिकम वगृहीतम् ता एव परिपाटीराहसूय(ग)परायणं पढम, बिइयं पडुब्भेदितं / तइयं च निरवसेसं, जति सुज्झति गाहगे।।३६२।। प्रथम सूचकपारायणम् / अर्थपरिसमाप्त्या पदच्छेदेन सूत्रोचारणसंहितेति भावार्थः / द्वितीयं-पदोद्भेदकम्-पारायणं पदविभागपदार्थमात्रकथनपरम्, विग्रहफला द्वितीया परिपाटीति भावः। तृतीयं पारायगम्-निरवशेष चालनाप्रत्यवस्थानात्मिका तृतीया परिपाटीत्यर्थः / एवं श्रुते यदि शङ्का भवति तर्हि ग्राहकः-आचार्यः शोधयतिपरीक्षते इत्यर्थः। / कथमिति चेदुच्यते-तिसृभिः परिपाटीभिः श्रुतेऽपि व्यवहारादिके ग्रन्थे सूरिणा स विचारणीयः / किं सम्यक् गृहीतं न वा / गृहीतेऽपि पुनः परीक्षणीयः / किं व्यवहारी अव्यवहारी वा / तत्र यदि व्यवहारी तर्हि योग्यः / अथाऽव्यवहारी अयोग्यः। अथवा-ग्राहको नाम शिष्यः स यदि तिसृभिः परिपाटीभिः शुद्ध्यति भावतो निःशेषसूत्रार्थपारगोभवति, ततः सव्यवहारीक्रियते। एतदेवव्याख्यानद्वयं विवरीषुराहगाहगों आयरिओ उ, पुच्छइ सो जाणि विसमठाणाणि। जइ निव्वहती तहियं, तस्स हिययं तु तो सुज्झे // 363 / / ग्राहकः आचार्यः ग्राहयतीति ग्राहक इति व्युत्पत्तेः, स यानि विषमाणि स्थानानि पृच्छति, तत्र यदि निर्वहति / किमुक्तं भवति-तस्य हृदयं सम्यगभिप्राय जानाति ततः शुद्ध्यति व्यवहर्तु व्यवहारकरणयोग्यः। द्वितीय व्याख्यानमाहअहव गाहगो सीसो, तिहिं परिवाडीहिँ जेण निस्सेसे / गहियं गुणियं अवधा-रियं च सो होइ ववहारी॥३६४।। अथवा ग्राहको नाम शिष्यः, गृह्णातीति ग्राहकः, इति व्युत्पत्तेर्येन तिसृभिः परिपाटीभिर्निर्विशेष व्यवहारादिकं गृहीतं प्रथमतः, पश्चाद् गुणितमनेकवारमभ्यस्तीकृतम,अवधारितं तात्पर्यग्रहणतो हृदये विश्रामित स व्यवहारी। पारायणे सम्मत्ते, थिरपरिवाडी पुणो उ संविग्गे। जो निग्गओ वितिण्णो, गुरूहिँ सो होइ ववहारी॥३६५।। पारायणे सूचकादिलक्षणे त्रिविधे समाप्तेऽपि पुनर्यः संविने संविनसमीपे स्थिरपरिपाटिरभूद, यश्च गुरुभिर्वितीर्णोऽनुज्ञातः सन् निर्गतो विहारक्रमेण स भवति व्यवहारीन शेषः। तथा चाहपडिणीय--मंदधम्मो, जो निग्गतों अप्पणो सकम्मेहिं / नहु सो होइ पमाणं, असमत्तो देसनिग्गमणे // 366 / / आत्मनः परेषां च प्रतिकूलः-प्रत्यनीकः, धर्मे मन्दो मन्दधर्मः, राजदन्तादिदर्शनात् धर्मशब्दस्य परनिपातः, संयमे शिथिल इत्यर्थः / तथा यःआत्मनः स्वकर्मभिः स्वव्यापारैर्निर्गतो विहारक्रमेण न तु गुरुभिरनुज्ञातः, स (नहु) नैव भवति प्रमाण-मसमाप्तश्च भवति देशनिर्गमनेन देशेषु विहारक्रमकरणे। आयरियादेसाधा-रिएण अत्थेण गुणियखरिएण। सो संघमज्झयारे, ववहरियव्वं अणिस्साणं // 367 / / यत एव विक्षेपदोषास्तस्मात् संघमध्यकारे कारशब्दोऽत्र रूपमात्रे संधमध्ये व्यवहर्तव्यम्, अर्थेन किं विशिष्टनेत्याह- आचार्यादेशात्आचार्यकथनादवधारितेन संप्रदायागतत्वमावेदितम्, तथा-गुणितेनअनेकशः परावर्तितेन अक्षरितेन कस्य लक्षणतः स्थिरतया अवस्थितसारेण / एवंभूतेनाप्यर्थेन व्यवहर्त्तव्यमनिश्रया रागद्वेषाकरणेन नान्यथा, अर्थस्य तत्त्वतः अक्षरितत्वानुपपत्तेः। आयरिय अणाएसो, धारिऍण सच्छंदबुद्धिरइएणं / सचित्तखेतमीसे, जो ववहरते ण सोधण्णो // 368||
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________________ ववहार 624 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 ववहार यः सचित्तव्यवहारे क्षेत्रव्यवहारे मिश्रव्यवहारे च प्रागुक्तरूपेऽर्थे न व्यवहरति आचार्यानादेशात्धारितेन आचार्योपदेशमृते धारितेन, कथमित्याह-स्वच्छन्दबुद्धिरचितेनस्वेच्छया निजबुद्धिकलितेन न स धन्यःश्रेयानिति। यतःसो अभिमुहेइ लुद्धो, संसार कडिल्लगम्मि अप्पाणं / उम्मग्गदेसणाए, तित्थयराऽऽसायणाएय।।३६६।। स उन्मार्गदशनया तीर्थकराणामाशातनया चात्मानं संसारगहनेऽभिमुखयति-अभिमुख करोति, पातयतीत्यर्थः / तस्मान्न स धन्यः। अधुना अस्यैव प्रायश्चित्तमाह-- उम्मग्गदेसणाए, संतस्स य छायणाए मग्गस्स। ववहरिउमसक्कं ते , मासा चत्तारि भारीया।।३७०।। उन्मार्गदेशनया-सतो मार्गस्याछादनया च व्यवहरन् गीतार्थः प्रतिषेधितोऽप्रतिषेधितश्च व्यवहरितुमशक्नुवति प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुका मासाः। गारवरहिएण तहिं, ववहरियव्वं तु संघमज्झम्मि। को पुण गारवों इणमो, परिवारादी मुणेयव्वो // 371 / / तत्रापि गौरवरहितेनसंघमध्ये व्यवहर्तव्यम् / किं पुनर्गारवमिति चेत्, सरिराह-इदं वक्ष्यमाण परिवारादिकं-परिवारादिविषयं ज्ञातव्यम्। व्य० 3 उ०। (गौरवव्याख्या 'गोरव' शब्दे तृतीयभागे 871 पृष्ठे गता।) बहुपरिवार-महड्डि, निक्खंतो वावि धम्मकह-वादी। जइ गारवेण जंपि-जइ अगीतो भणइ इणमो // 373 / / बहुपरिवारो 1, महर्द्धिको वा निष्क्रान्तो 2, धर्मकथावान् 3, वादी 4, उपलक्षणमेतत् / क्षपको नैमित्तिको विद्यावान् रात्निको वा यदि गौरवेणागीतार्थः सन् जल्पेत्-यूयमस्मानेव प्रमाणीकुरुतेति, तर्हि स इदं वक्ष्यमाणं भण्यते। तदेवाह-- जत्थ उ परिवारेणं, पओयणं तत्थ भणिहह तुज्झे / इड्डीमंतेसु तहा, धम्मकहा वायकज्जे वा // 374 / / पवयणकज्जे खममो, नेमित्ती चेव विञ्जसिद्ध य। रायणिए वंदणयं, जहिँ दायव्वं तहिं भणेज्जा।।३७५।। परिवारगौरववानिद भण्यते यत्र संघस्य प्रेषणादिके कार्य समुत्पन्ने परिवारेण प्रयोजन भविष्यति, तत्र यूयं भणिष्यथ, तत्र प्रमाणीकरिष्यध्ये यूयम्, नात्र प्रस्तुते व्यवहार इति भावः। तथा ऋद्धिमत्सु वक्तव्यम् / धर्मकथावान् धर्मकथाप्रयोजने, वादी वादकार्ये / इयमत्र भावनाऋद्धिगौरवोपे तो महर्द्धिक एवमुच्यते- यदि लोकेन कृत्यं भविष्यति, तदा त्वां प्रमाणीकृत्य त्वत्पार्ध्वात् लोकोऽनुवर्तयिष्यते। धर्मकथावान् भण्यते-यदि राजादीनां धर्मः कथयितव्यो भविष्यति, तदा युष्मान्वयमभ्यर्थयिष्यामो यथा-कथय कथानकं संप्रति राजादीनामिति। वादी भण्यते गदा परवादी कश्चनाप्युत्थास्यति, तदा त्वद्व्यपरोधः करिष्यते। यथा-निगृह्णीत कथमप्येन वादिनमिति। तथा क्षपको नैमित्तिको विद्या सिद्धो वा प्रवचनकार्ये उपालम्भनीयः / यथा क्षपकः, यदा संघस्य कृत्य देवतया प्रयोजन भविष्यति, तदा त्वया कायोत्सर्ग कारयित्वा सा आकम्पयिष्यते / नैमित्तिको भण्यते-यदि संघस्य निमित्तेन प्रयोजन भविष्यति, तदा त्वामभ्यर्थयिष्यसे। विद्यासिद्धो भण्यते यदा संघस्य कार्य विद्यया साधनीयं भविष्यति, तदा त्वत्पावत्सिाधयिष्यते / रात्निको-रत्नाधिकः पुनरेव भण्यते-यत्र पाक्षिकादिवन्दनकं दातव्यं भविष्यति, तत्र यूयं भणिष्यथ किमि दानीमायासं कुरुथेति। एतच्च स तान् प्रति प्राहनहु गारवेण सक्का, ववहरिउं संघमज्झयारम्मि। नासेइ अगीयत्थो, अप्पाणं चेव कजं तु / / 376 / / (न हु) नैव संघमध्ये गौरवेण शक्यं व्यवहर्त्तव्यमन्यैर्जिनाराधकैगीतार्थनिवारणात, केवलं सोऽगीतार्थतया दुर्व्यवहारं कुर्वन् आत्मीयमेव कार्य नाशयति। उत्सूत्रप्ररूपणातोऽबोधिफलनिविकर्मबन्धगत्। तथा चाहनासेइ अगीयत्थो,चउरंगं सव्वलोयसारंग। नट्टम्मि उ चउरंगे, न हु सुलभं होइ चउरंगं / / 377 / / अगीतार्थो गौरवेण यो व्यवहरन् अबोधिफलकर्मबन्धनात्, चतुप्रणामङ्गानां समाहारश्वतुरङ्गं मानुषत्वम्, श्रुतिः श्रद्धा संयम् च वीर्यमित्येवरूपम्, कथंभूतमित्याह- सर्वस्मिन्नपि लोके सारमङ्गं स्वरूप यस्य तत्सर्वलोकसाराङ्गं नाशयति / नष्टे च तस्मिन् चतुरङ्गे न हु-नैव भूयो भवति सुलभ चतुरङ्गम्, निविडकर्मणाऽवक्पिरे संसारे क्षिप्तत्वात्। थिरपरिवाडीएहिं, संविग्गेहिं अणिस्सियकरहिं। कन्जेसु जंपियव्वं, अणुओगियगंधहत्थीहिं॥३७८|| स्थिराः सूत्रार्थपरिपाट्यो येषां ते स्थिरपरिपाटीकास्तैः, संविगैः मोक्षाभिलाषिभिः अनिश्रितकरैः-रागद्वेषपरिहारतो यथावस्थित-व्यवहारकारिभिरानुयोगिकगन्धहस्तिभिः-अनुयोगधरप्रकाण्डैः कार्येषु जल्पितव्य न शैषैरिति। एतदेव भावयतिएयगुणसंपउत्तो, ववहरई संघमज्झयारम्मि। एयगुणविप्पमुक्के, आसायणों सुमहती होति / / 376 / / एतैरन्तरगाथयोक्तः स्थिरपरिपाटीकत्वादिभिर्गुणैः संप्रयुक्तः एतद्गुणसंप्रयुक्तः संधमध्ये व्यवहरति। एतद्गुणविप्रमुक्ते पुनर्व्यवहरति सुमहती आशातना भवति न केवलमाशातना, व्रतलोपश्च / व्य०३ उ०। (अत्रावशिष्टम् उद्देस' शब्दे द्वितीयभागे 811 पृष्ठगतम् ) विधिवद् व्यवहरणाद् व्यवहारः। यदि वा विधिवद्वपनात् हरणाच व्यवहारः / यस्य नाऽऽभवति तस्य हापयति, यस्याऽऽभवति तस्मै ददाति / व्यवहाराध्ययनवत्तेति व्यवहार इत्यर्थः। उक्तं च- "अत्थि य पञ्चत्थीण, हाउं एक्कस्स उवति बीयस्स। एएण उ ववहारो, अहिगारो एत्थ उवहीए'' बृ०१ उ०१ प्रक० एतदर्थप्रतिपादकच्छेदश्रुतविशेषे, आ०चू० 4 अातत्र दशोद्देशकाः 'प्रणमत नेमिजिनेश्वर-मखिलप्रत्यूहतिमिररविविम्बन्। दर्शनपथमवतीर्ण , शशिवद् दृष्टेः प्रसत्तिकरम् / / 1 / /
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________________ ववहार 925 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 ववहार नन्चा गुरुपदकमलं, व्यवहारमहं विचित्रनिपुणार्थम्। विवृणोनि यथाशक्ति, प्रबोधहेतोर्जडमतीनाम् / / 2 / / विषमपदविवरणेन, व्यवहर्त्तव्यो व्यधायि साधूनाम्। येन्नय व्यवहारः, श्रीचूर्णिकृते नमस्तस्मै / / 3 / / भाष्य कचेदं विषमार्थगर्भ, क चाहमेषोऽल्पमतिप्रकर्षः। स्थापि सम्यग्गुरुपर्युपास्ति-प्रसादतो जातदृढप्रतिज्ञः॥४॥" उक्तंकल्पाध्ययनम, इदानी व्यवहाराध्ययनमुच्यते तस्य चायमभिसम्बन्धः-कल्पाध्ययने आभवत्प्रायश्चित्तमुक्त, न तु दान-प्रायश्चित्तम्। दानव्यवहारे तु दानप्रायश्चित्तमालोचनाविधिश्वाभिधास्यते,तदनेन सम्बन्धेनायातस्यास्यव्यवहाराध्ययनस्य व्याख्या प्रस्तूयते।व्य०१उ०। "देशक इव निर्दिष्टी, विषमस्थानेषु तत्त्वमार्गस्य। विदुषामतिप्रशस्यो, जयति श्रीचूर्णिकारोऽसौ / / 1 / / विषमोऽपि व्यवहारो, व्यधायि सुगमो गुरूपदेशेन। यदवापि चात्र पुण्यं तेन जनः स्यात्सुगतिभागी॥२॥ दुर्योधातपकष्ट-व्यपगमलब्धैकविमलकीर्तिभरः / टीकामिमामकार्षी-मलयगिरिः पेशलवचोभिः / / 3 / / व्यवहारस्य भगवतो, यथास्थितार्थप्रदर्शन दक्षम्। विवरणमिदं समाप्त, श्रमणगणानाममृतभूतम् / / 4 / / " इति श्रीमलयगिरिविरचिता व्यवहारटीका समाप्ता। व्य० 10 उ०। आव०ा पा०। कल्पव्यवहारयोर्भदमाह-- कप्पम्मि वि पच्छित्तं, ववहारम्मि वि तहेव पच्छित्तं। कप्पव्वहाराणं, को णु विसेसो त्ति चोएइ॥१५२।। ननु कल्पेऽपि प्रायश्चित्तमुक्तम्, व्यवहारेऽपि च तदेव प्रायश्चित्तमभिधीयते, ततः कल्पव्यवहारयोः को नु विशेषो; नैव कश्चनापीति भावः / 'नु' शब्दस्याक्षेपद्यातकत्वादिति, चोदयति-प्रश्नयति शिष्यः, अपि वाऽभिधानतोऽपि कल्पव्यवहारयोर्विशेषानुपपत्तिः। तथा चाहजो अवितहववहारी,सो नियमा वट्टए उ कप्पम्मि। इय वि हु नत्थि विसेसो, अज्झयणाणं दुवेण्हं पि।।१५३।। यो नाम साधुरवितथव्यवहारी-अवितथव्यवहारकारी स नियमादवश्यंभावेन वर्तते एव तुरेवकारार्थः कल्पे-आचारे, आचारवर्तिन एव / यथोक्ताविस्थव्यवहारकारित्वात् / यश्च वर्तते कल्पे-आचारे स नियमादवितथव्यवहारकारी, अवितथव्यवहारकारिण एवाचारे वृत्ति - संभवात्। इत्थं च परस्परमविनाभावित्वम्, कल्पव्यवहारशब्दयोरेकार्थित्वात् / तथाहि-- कल्पो, व्यवहार आचार इत्यनन्तिरमिति। 'इय विहु इति, इत्यपि-एवमपि अर्थगत्याभिधानाभेदतोऽपि आस्तां प्रागुक्तप्रकारेणाभिधेयाभेद इत्यपिशब्दार्थः / हु:-निश्चित्तम्, द्वयोरपि कल्पव्यवहारयोरध्यय-नयोऽस्ति विशेषः / एवं परेणाभिधेयाभेदतोऽभिधानाभेदतश्चैक्ये प्रतिपादित सूरिरभिध्ययभेदं दर्शयन ''कप्पारीवर्ण ति" अवयवं व्याख्यानयतिकप्पम्मि कप्पिया खलु, मूलगुणा चेव उत्तरगुणा य / ववहारे ववहरिया, पायच्छित्ताऽऽभवंते य॥१५४।। कल्पे-कल्पाध्ययने कल्पितान्येव-प्ररूपितान्येव, खलुशब्दस्यैवकारार्थत्वात्। ननु दानव्यवहारे प्रवर्तितानि कानीत्याह-"मूलगुणा चैव उत्तरगुणा य" इति विषयेण विषयिणो लक्षणात, मूलगुणापराधप्रायश्चितानि उत्तरगुणापराधप्रायश्चित्तानि व्यवहारे-व्यवहाराध्ययने पुनर्व्यवहृतानि दानव्यवहारविषयीकृतानि / किमुक्तं भवति-कल्पाध्ययने मूलगुणापराधे वा उत्तरगुणापराधे वा आभवति प्रायश्चित्तान्युक्तानि, यस्मिँस्तु व्यवहाराध्ययने तेषामाभवतां प्रायश्चित्तानां दानमुक्तमिति / यानि चकल्पाध्ययने आभवन्तिप्रायश्चित्तानि नोक्तानितानि व्यवहारेऽभिधीयन्ते तेषां दानं च। किंचअविसेसियं च कप्पे, इहइं तु विसेसियं इमं चउहा। पडिसेवण-संजोयण--आरोवण-कुंचियं चेव / / 15 / / चः समुचये, अन्यचेत्यर्थः, कल्पे-कल्पाध्ययने प्रायश्चित्तमविशेषितं विशेषरहितमुक्तम् ‘इहई तु' ति इः पादपूरणे, सानुस्वारता पूर्ववत्। तुःपुनरर्थे , इह व्यवहाराध्ययने पुनरिद प्रायश्चित्तं चतुर्भाचतुर्भिः प्रकारैर्विशेषितम् / तानेव प्रकारानाह- प्रतिसेवनं संयोजनमारोपण कुशनमिति प्रतिकुञ्चनम् / एतानि अनन्तरमेव सप्रपञ्च व्याख्यातानीति न भूयो व्याख्यायन्ते। तदेवमभिधेया-भेदतो नास्ति विशेष इति यदुक्तं तदसिद्धमिति प्रतिपादितमभिधेयभेदस्य दर्शितत्वात्। यत्पुनरुच्यते-अभिधानाभेदतो नास्ति विशेष इति तदनैकान्तिकमिति दर्शयतिनाणत्तं दिस्सए अत्थे, अभिन्ने वंजणम्मि वि! वंजणस्स य भेदम्मि, कोइ अत्थो न मिज्जए / / 156|| भिद्यते-प्रकटीक्रियतेऽर्थोऽनेन, प्रदीपेनेवघट इवेति व्यञ्जनम्–शब्दस्तस्मिन्, अपिशब्दो भिन्नक्रमः, स चैवं योजनीयोऽभिन्नेऽपि-एकरूपेऽपि अर्थे-अर्थविषये नानात्वं दृश्यते / यथा-सैन्धव इत्युक्ते तत् तत्प्रस्तावादिना अश्वलवणवस्वाद्यर्थ नानात्वम्, तथा व्यञ्जनस्य शब्दस्य भेदेऽपि चशब्दोऽपिशब्दार्थो भिन्नक्रमश्चेत्यत्र संबध्यते / कश्चिदर्थो न भिद्यते। यथा खव्योम-आकाशमिति। करमादेवं शब्दाऽभेदेऽपि अर्थनानात्वमिति--चेत? उच्यते-शब्दार्थयोर्भेदाभेदविषये चतुर्भङ्गी कार्या भवति / तथाहि अर्थस्याप्यभेदः शब्दस्याप्यभेद इति प्रथमो भङ्गः / अर्थस्याभेदः शब्दस्य भेद इति द्वितीयः, अर्थस्य भेदः शब्दस्याभेद इति तृतीयः, अर्थस्य भेदः शब्दस्य भेद इति चतुर्थः / एतेष्वेव चतुर्यु भङ्गकेषुक्रमेणोदाहरणान्युपदर्शयतिपढमो इंदो इंदो-त्ति बिइयओ होइ इंदसक्को त्ति। तइओ गोपसुरस्सि--णो त्ति चरिमो घडपडो त्ति // 157 / /
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________________ ववहार 626 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 ववहारकप्प प्रथमा भनोऽर्थाभेदशब्दाभेद इत्येवंरूपः, यथा-इन्द्र इन्द्र इति। तथा आव०६ अ०। उपा० विविधं विधिवद्वा व्यवहरणमनेकार्थत्वादाचरणं ह्येकनापि इन्द्र इत्युक्त द्वितीयेनापि इन्द्र इति। अत्र च द्वयोरपि शब्दयोः / व्यवहारः / यतिकर्तव्यताया, उत्त०१ अ० / व्यवह्रियतऽङ्गीक्रियते स्वरूपाभदोऽर्थाभेदश्च / द्वितीयोऽभिदः शब्दस्य भेद इत्येवरूपः, यथा- धर्मार्थिभिरि ति व्यवहारः / विशेषेणा-पहरति पापभिति व्यवहारः / इन्द्रः शक्र इति / अत्र हि शब्दस्य नानात्वगर्थस्त्वभिन्न एव,द्वयोरपि प्राणातिपाताद्याश्रवनिवारके, साध्वाचारे, उत्त० ५अ०। गीतार्थचरिते, एकार्थिकत्वात्। तृतीयोऽर्थस्य भेदः शब्दस्याभेद इत्येवलक्षणाः, यथा- ध०२ अधि०। व्यवहरण व्यवयिते वा विशेषेण वा सामान्यमहियतेभूपशुरश्मिषु पुरुषभेदेन कालभेदेन वा प्रयुज्यमाना गोशब्दाः। अत्र हि निराक्रियतेऽनेनेति लोकव्यवहारपरो व्यवहारः / विशेषमात्राभ्युपगमपरे गौरिति सर्वत्राप्यभिन्न रूपमर्थस्तु भिन्न इति / चरमो यथा-घटः पट: (स्था०३ ठा० 330 / विशे० अनु०।) नयविशेषे, द्वा०१७ द्वा०। प्रश्न इति / अत्र हि द्वयोरपि शब्दयो रूपभेदोऽप्यस्ति अर्थभेदोऽपि ततः व्यवहारवत् / मतुब्लोपाद् व्यवहारवान् / ध०२ अधि०। स्था०। उपपद्यते। शब्दाभेदेऽपि अर्थनानात्वम्, अर्थाभेदेऽपि शब्दनानात्वम्, आगमश्रुता-ज्ञाधारणाजीतलक्षणानां पञ्चानामुक्तरूपाणां व्यवहाराणां तेन यदुच्यते अभिधानाभेदतो नास्ति विशेष इति, तदनेकान्तिकम- ज्ञातरि, स्था०८ ठा० ३उ० पदर्शितम् भूपशुरश्मिवाचिना गोशब्दानामभिधानाभेदेऽप्यर्थविशेष विषयाःदर्शनात्, स चार्थविशेषोऽत्राप्यस्ति / यच्चोक्तं प्राक् अभिधानाभेदे इति (1) व्यवहारे व्यवहर्तव्यम्। यदुक्तं तत्प्रत्यक्षविरुद्धम्, व्यञ्जनभेदस्य साक्षादुपलभ्यमानत्वात्, तथा (2) व्यवहारस्य नामादिभेदनिदर्शनम्। होकत्र कल्प इति अपरत्र व्यवहार इति / अथाऽर्थगत्याऽभिधानाभेद (3) व्यवहारा धारणाऽऽदयः / उच्यते न स्वरूपतः, तदप्यसत्, अर्थविशेषस्याप्युभयत्र भावात। (4) आभवद्व्यवहारनिरूपणम्। तथा चाह (5) चरणार्थमभिधारयन्तमधिकृत्य वर्णनम् / वंजणेण य नाणत्तं, अत्थतो य विकप्पियं / (6) व्यवहारे मार्गोपसंपद्वर्णनम्। दिस्सए कप्पनामस्स, ववहारस्स तहेव य॥१५॥ (7) व्यवहारे विनयोपसंपवर्णनम्। कल्पनाम्नोऽध्ययनस्य, तथैव च व्यवहारस्य-व्यवहाराध्ययनस्य (8) व्यवहारे आलोचनाक्रमः / दृश्यते, व्यञ्जनेन-व्यञ्जनभेदेन नानात्वं प्रत्यक्षत एव पृथग्विभिन्नाना व्यञ्जनानामुपलभ्यमानत्वात्। तथा अर्थतोऽर्थमाश्रित्य अस्ति नाना (6) समवायघोषणामाकर्ण्य धूलीधूसरैरपि वादेऽवश्यमागन्तव्यम्। त्वम्, अविकल्पितं-निश्चितं प्रायश्चित्तभेदानां प्रतिसेवनासंयोजनादीनां (10) व्यवहारे संघशब्दव्युत्पत्तिनिदर्शनम्। प्रायश्चित्तार्हपुरुषे जातानां च कल्याध्ययनानामुक्तानामिह व्यवहारेऽ (11) सुव्यवहारिणामिह परलोके च फलम्। भिधानात्। तदेवम्-'अज्झयणेण विसेसो' इति द्वारं व्याख्यातम् / व्य० |ववहारउत्त-त्रि०(व्यवहारोक्त) छेदग्रन्थभणिते, "भणिओ नो तकरण, 1 उ०। बृ० / स्वकार्यनिर्णयार्थ राजकुलादौ न्यायकारणे, आतु०॥ तहा य ववहारउत्तं च / जी०१ प्रति०। विविधाभिधायकत्वेन (स०) व्यवहरणं व्यवहारः। स्नानपानदहनपचना- | ववहारज्झाण-न०(व्यवहारध्यान) व्यवहारः स्वकार्यनिर्णयार्थ राजदिकायां क्रियायाम, द्वा०८द्वा०। 'ववहारस्स परमनिपुणस्स' अत्र परम कुलादौ न्यायकारणं तस्य ध्यानम्। पुत्रधनार्थ देशान्तराऽऽयातसार्थग्रहण मोक्षाङ्गत्वान्निपण ग्रहणं त्वव्यंसकत्वात्, न खल्वयं व्यवहारो वाहपल्यो:-सपल्योरिव दुनि, आतु मन्दादिप्रणीतव्यवहार इव व्यंसकः 'सव्व पइन्ना खु ववहारा' इति | ववहारकप्प-पु०(व्यवहारकल्प) प्रायश्चित्तदानसामाचार्याम्, पं० भा०) वचनात् / आ०म०१ अ० मिश्रकव्यवहारश्रेणीव्यवहारादी, पाटीगणित- ववहारकप्पमहुणा, गुरूवएसेण वोच्छामि।। प्रसिद्ध संख्यानभेदे, स्था० 10 ला०३ उ०। सूत्र०। व्यवहरण व्यवहारः। ववहार कोऽवि मिक्खू, सच्चित्तणिवायणिद्धमहुरेहिं। लोकस्यैहिकामुष्मिकयोः कार्ययोः प्रवृत्ति-निवृत्तिलक्षणेऽर्थे, 'एएहि ववहरती ववहारं, वितहं सो संधमज्झम्मि। दोहि ठाणेहि ववहारो न विआइ''इति। सूत्र०२ श्रु०५ अ०॥ ('अणायार' कोऽपि बहुस्सुयभिक्खू, अपुव्वणगरम्मि किंचि ववहारं / शब्दे 1 भागे 316 पृष्ठे व्याख्यातम्।) 'अभव्वस्स ववहारोण विजइ'' णाएणं छिंदित्ता, वत्थव्वेहिं पमाणकतो।। आचा० अकम्मरस' इत्यादि,न विद्यते कर्म अष्टप्रकारमस्येत्यकर्मा अह पच्छा सञ्चित्तं, खुड्डादी तस्स केणवी दिण्ह / तस्य 'व्य-वहारो न विद्यते नासौ नारकतिर्यग्नरामरपर्याप्तकापर्याप्तकबाल-कुमारादिसंसारिव्यपदेशभाग भवति। यश्च सकारा नारका वसही पाउरणं वा, वरण्हपक्खं ववहरे तु / / दिव्यपदेशन व्यपदिश्यते / आचा०१ श्रु०३ अ०१ उ०। अन्योन्यदा घततेल्लादी णिकं, खंडगुलादीहिँ वावि संगहितो। नग्रहणादौ विवादे, स्था०४ ठा०१ उका व्यवहारो नामविसंवादे सति अचालिएहि ताहे, ववहरए पक्खवाएणं / / राजकुलकरणे गत्वा निजनिजभाषालेखापनलक्षणः कार्यपरिच्छेनार्थ दुट्ठववहारिए तं, को तु णिसिहिज्जतो वदे संघो। वा पणमुक्तिलक्षणः / आ० म० अ०। पण्यविनिमये, सूत्र०१ श्रु० एतट्ठा संघमेलो, कीरति इणमो य संपत्तो।। १२अ० / विविधमवहरणम्- (उत्त०७ अ०। सूत्र०) व्यवहारः। निक्षेपे, अण्हो तहिं तु गीओ, संघसमित्ती य तिहि वाराओ।
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________________ ववहारकप्प 127 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 ववहारकप्प उच्चारे सिद्धपुत्तो, तत्थ य मेरा इमा होति / / घुट्ठम्मि संघसद्दे, धूलीजंघो विजोण एजाहि। कुलगणसंघसमाए, णग्गति गुरुओ चउम्मासो। जं काहिंति अकजं, तं पावति सति बिले अगच्छन्तो। अण्हाई याव ओहा-वणादि तेसिं वजं कुजा / / सोऊण संघसद, धूलीजंघे वि होति आगमणं / धूलीजंघनिमित्तं, ववहारो उवहितो होति।। सोऊण संघसई,धूलीजंधो उ आगतो संतो। वितहं ववहरमाणे, साहू समएण वारेइ।। णिद्धं महुरनिवादं, कितिकम्म विजाणएसु जंपतो। सञ्चित्तखेत्तमीसे, अत्थधरणिहोडदिसहरणं / / भिक्खू य मुसावादी, ववहारे तइयगम्मि उद्देसे। सुत्तं उच्चारेति, य अह बहुपक्खो इमं होति।। रागेण व दोसेण व, पक्खग्गहणम्मि एक्कमेकस्स। कजम्मि कीरमाणे, किं अच्छति संघमज्झत्थो। रागेण व दोसेण व, पक्खग्गहणेण एकमेकस्स। कञ्जम्मि कीरमाणे, अण्हेव भणेतु ता कोइ।। कुलगणसंघट्ठवण, इह ण याणामि देसिओ मि अहं / अण्हेण विता केण वि, कप्पति इह जंपितुं किंचि / / संघेण अणुण्णहाए, अह जंपति सो तहिं गुणसमिद्धो। ववहारनीतिकुसलो, अणुजाणतो तयं संघं / / संघो महाणुभावो, अहं च वेदेसिओ इहं भंते ! / संघसमिति ण जाणे, तुन्भे सव्वं खमावेमि।। देसे देसे ठवणा, अण्हं अण्णत्थ होति समिति य। गीतत्थेहाचिण्णा, तं देसीओ ण जाणामि॥ अणुमाणेत्ता एवं, ताहें अणुण्हाएँ जंपए इणमो। परिसा ववहारीण य, इमे गुणे तू समासेणं / / परिसा ववहारीया, मज्झत्था रागदोसनिहुया य। जदि होंति दो हि पक्खा , ववहरितुं तो सुहं होति / / वुत्ते वत्थधरेणं,जदि तु ववहारिणो तु जंपेज्जा। नूणं तुम्हे मण्हह, मज्झं सचिक्कवयणं ति / / सेसा तु मुसावादी, सव्वपरिभट्ठगा तु किं सव्वे। भण्हति सुणेह एत्थं, भूतत्थमिमं समासेणं / / ओसण्हचरणकरणे, सव्वव्ववहारता दुसद्दहिया। चरणकरणं जहंतो, सव्ववहारितं पिजहे / / जइया अणेण चत्तं अप्पणओ णाणदंसणचरित्तं / तइया तस्स परेसु, अणुकंपा णऽत्थि जीवेसुं / / भवसतसहस्सदुलहं, जिणवयणं भावतो जहंतस्स। जस्स ण जातं दुक्खं, ण तस्स दुक्खं परे दुहिते // आधारे वट्टतो, आयारपरूवणे असंकीओ। आयारपरिभट्ठो, सुद्धचरणदेसणे भइओ / / तित्थगरे भगवंते, जगजीववियाणए तिलोयगुरू। जो ण करेइ पमाणं, ण सो पमाणं सुतधराणं / / तित्थगरे भगवंते, जगजीववियाणए तिलोयगुरू / जो तू करे पमाणं, सो उपमाणं सुतधराणं / / संघो गुणसंघातो, संघातविणयओ य कम्माणं / रागद्दोसविमुक्को,होति समो सव्वसाहूणं / / परिणामियबुद्धीए, उववेओ होति समणसंघो तु। कजे णिच्छितकारी, सुपरिच्छितकारओ संघो। एक्कासि दु तेव तिहि व, पेसविएणं ति परिभवेणं तु। आणानिक्कमणिज्जू-हणा तु आउट्टदवहारो।। आसासो वीसासो, सीतघरसमो य होति मा भायी। अम्मापित्तिसमाणो, संघो सरणं तु सव्वेसिं / / सीसो पडिच्छओ वा, आयरिओ वा ण सोग्गतिं णेति। जे सचकरणजोगा, ते संसारा विमोएंति॥ सीसो पडिच्छओ वा, कुलगणसंघो ण सोग्गतिं णेति। जे सच्चकरणजोगा, ते संसारा विमोएंति।। सीसो पडिच्छओ वा, कुलगणसंघो व एते इह लोए। जे सचकरणजोगा, ते संसारा विमोएंति / / सीसे कुलव्वए वा, गणव्वरें व संघवए व समदरिसी। ववहारसंथवेसु य, सो सीतघरोवमो संघो।। गिहिसंघातं जहिलं, संजमसंघाययं उवगएणं / णाणचरणसंघातं,संधाएंतो भवति संघो।। णाणचरणसंघातं, रागद्दोसेहि जो विसंघाते। सो संघाए अबुहो, गिहिसंघातम्मि अप्पाणं॥ णाणचरणसंघातं, रागद्दोसेहि जो विसंघाते। सो भमिही संसार, चतुरंतं तं अणवदग्गं / / दुक्खेण लभति बोहिं, बुद्धो वि य न लभति चरित्तं तु। उम्मग्गदेसणाए, तित्थगराऽऽसायणाएय।। उम्मग्गदेसणाए, संतस्स य छायणाए मग्गस्स। बंधति कम्मरयमलं, जरमरणमणंतगं घोरं / / पंचविहं उवसंपद, णाऊणं खेत्तकालपव्वज्ज। तो संघमज्झकारे, ववहरियव्वं अणिस्साए।। णिदरिसणं तत्थ इमं, तगराणगरीऐं सोलसायरिया। अण्हो य नायकारी, वत्थव्यवहार अट्ठ इमे / / मा कित्ते कंकडुयं, कुणिमं पक्कुत्तरं च चव्वायं / बहिरं च गुंठसमणं, अंबिलसमणं च णिद्धम्म / / कंकडुओ विव मासो, सिद्धिं ण उवेति जस्स ववहारो। कुणिमणहो व ण सुज्झति, दुच्छिज्जो एव बितियस्स। पकुल्ला व भयातो, कजं पिन सेसगं उदीरेति।
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________________ ववहारकप्प 128 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 ववहारकप्प पादेण आह गुत्तिय, उत्तरसो वाहणेणं ति।। रोभंथयते कलं,चव्वादी नीरसं ववसणेति। कहिते कजे संते, बहिरो व भणति ण सुतं मे / / मरहट्ठलाडपुच्छा, केसरिया लाडगुंठसाहिस्सं। पावारभंडिाभणं, दसियागणणं पुणो दाणं / / गुंठाहि एवमादी-हिं हरति मोहे तु तं तु ववहारं / अंबफरसेहिं अप्पो, ण णेति सिद्धिं च ववहारो॥ एते अकजकारी,तगराए आसि तम्मि तु जुगम्मि। जेहिं कता ववहारा, खोडिजंतऽण्णरज्जेसुं / / इहलोगम्मि अकित्ती, परलोग दुग्गती धुवा तेसिं। आणाएँ जिणिंदाण, जे ववहारं ववहरंति / / कित्तेह पूसमित्तं, धीरं सिवकोटुतिं च अज्जासं। अरहण्णधम्मराहग-खंदिल-गोविंददत्तं च।। एते सुकन्जकारी, तगराए आसि तम्मि तु जुगम्मि। जेहिं कता ववहारा, अक्खोब्भा अण्हरज्जेसुं / / इहलोगम्मि य कित्ती, परलोगे सुग्गती धुवा तेसिं। आणाएँ जिणिंदाण, जे ववहारं ववहारंति।। तहियं पुण के रिसए, ण जंपियव्वं तु होति समणेणं / भण्हति सुणसुं इणमो, जारिसएणं तु वोत्तव्वं / / पारायणे समत्ते, थिरपरिवाडी पुणो य संवेग्गे। जो णिग्गतो विदिन्ने,गुरूहिं सो होति ववहारी।। मूगपारायणं पढम, बीयं पदुब्भेतिमं / ततियं च णिरवसेस, जदि सुज्झति गाहगो॥ सुत्तत्थो खलु पढमो, बीओ निजुत्तिमीसओ भणिओ। ततिओ य निरवसेसो, एस विही होइ अणुओगो॥ पडिणीय-मंदधम्मो, जो णिग्गओं अप्पणो सकम्मे हिं। ण हु होति सो पमाणं, असमत्तो देसणिग्गमणे / / आयारियादेसा धा-रिएण सत्थेण गुणितसरिएण। तो संघमज्झयारे, ववहरियव्वं अणिस्साए। आयरियअणादेसा, धारिऍण सच्छंदबुद्धिरचिएणं। सचित्तखित्तमीसे, जो ववहरतीण सो धन्नो / सो अभिमुहेति लुद्धो, संसार कडिल्लगम्मि अप्पाणं / उम्मग्गदेसणाए, तित्थगराऽऽसायणाएय।। उम्मग्गदेसणाए, संतस्स य छायणाएँ मग्गस्स। उम्मग्गदेसगस्स, मासा चत्तारि भारीया।। परिदार वुड्डधम्मक-ह वादिखमगे तहेव णेमित्ती। विज्जाराइणियाइ-त्ति गारवा अट्टहा होति।। एमादिगारवेहिं, अकोविया जे तु तत्थ भासेजा। ते वत्तव्वा इणमो, ण तुज्झ भागे इह वोत्तुं / बहुपरिवारो भण्हति, जय परिवारेण होज कजं तु / तह परिवार देजसु,बुड्डो पुण भण्णई इणमो॥ लोगेण जत्थ समयं, ववहारगयं तु तत्थ होजाहि। तत्थ तुम जपेजसु, धम्मकही भण्हति इमं तु / / जहियं धम्मकहाए, कजं तहियं तुम भणेजासि। वादी जत्थ तु वादी,पओयणं तत्थ भासेजा।। खमगो भण्हति इणमो,देवयकज्जं जहिं भवेज्जाहिं। असिवादिकारणेहिं, तत्थ तुमं तं करेजासि / / विजासिद्धो भण्हति, विजाए जत्थ संघकजम्मि। कजं होज करेज्जसु, वाइणिओ भण्हति इमं तु / / वेले कितिकम्मस्स तु, अणुवस॒ताण वंदणं अम्हं। कुजाहि तुममिमं तु, इह पुण गीयस्स विसओ तु / / ण हु गारवेण सक्का, ववहरितुं संघमज्झयारम्मि। णासेति अगीयत्थो, अप्पाणं चेव कजं च / / णासेइ अगीयत्थो, चउरंगं सव्वलोगसारंग। णहम्मि य चउरंगे, ण हु सुलभं होति चउरंगं / / थिरपरिवाडीहिँ बहु-स्सुएहि संवेगणिस्सियकरहिं। कजम्मि भासियव्वं, अणुओयधरेहिं गंधहत्थीहिं / / मायाी य मुसावादी, बितियं बितियं वयं चलावेति। मायी य पावजीवी, असुतीलित्ते कणगदंडे / / आभवते पच्छित्ते, ववहारों समासतो भवे दुविहो। दोसु य पणगं पणगं, आभवंते अहीकारो।। सचित्तो अचित्तो, य मीसओ खेत्तकालनिप्फण्हो। पञ्चविहो ववहारो,, आभवंतो तु णायव्वो।। सेहम्मि तु सचित्तो, अच्चित्तो हवति वत्थमादीओ। मीसो सभंडगाणं, सत्तम्मितु गाममादीहिं / / णगरादि अखित्ते पुण,वसहीए तत्थ मग्गणा होति / काले उडुवासासु य, आभवणा होति णायव्वा / / अहवा भवंतमण्हो, उवसंपयखेत्तकालपव्वज्जा। णाऊण संघमज्झे, ववहरियव्वं अणिस्साणं / / सुतसुहदुक्खे खेत्ते, मग्गे विणएण पंचहा होति। सव्वे वि य एयाओ, सुयणाणमणुप्पवत्तीओ। जत्थ तु सुतोवसंपद, तत्थ तु सव्वा हवंति एयाओ। अहवा सुतोवदिट्ठा,ण तु सेच्छाए ऽऽहवंते य॥ गुरुसीसपडिच्छाणं, तिण्हं वि को कस्स किं उवकरेति। वेयावचगमागम-काले चित्तादिदव्वे य।। सीसो आयरियस्स तु, वेयावचं तु कुणति जज्जीयं / जहिँ गच्छति तहिँ वञ्चति,पेसेइ व जत्थ तहिँ जाति। कचं समाणइत्ता, एती लद्धिं च सव्वमप्पेति। कायव्वुवग्गहो तू, णाणादीएहिं गुरुणाऽवि।। दव्वे सचित्तादी, लाभा सीसस्स जो तहिं होति। सोऽवि य जावजीवं, सव्वो गुरुणो तु आभवति / /
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________________ ववहारकप्प 926 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 ववहारकप्प दारं-कुणती पाडिच्छो वितु, वेयावचं तु असणमादीहिं। बच्चइ वइमाणेणं कालेणं रोयती जाव / / गेण्हइ वा जाव सुतं, ता कुणती सव्वमेव पाडिच्छो। एत्तो दवे पुच्छं,जं आभवती तु पाडिच्छे / / जं होति णाणबद्धं, अभिसंधारे तगं तगं एति। संदेसदिण्हगं वा, णामे विवे य काले य॥ वल्ली अणंतरसंतर-अणंतरा छज्जणा इमे होति / माया पिया य माता, भगिणी पुत्तो य धूया य॥ मातुम्माया य पिता, भाता भगिणी य एव पितुणो वि। भाओ भगिणीणवचा, धूता पुत्ताण वि तहेव // परंपरवल्लि एसा, जदि वारेति पडिच्छगस्सेव। अहणो अभिवारेंति, सुतगुरुणो तो उ आभव्वा / / संगारो पुव्वकओ,पच्छापाडिच्छओ तु सो जाओ। तेण निवेदेयव्वं, उवहिता पुटव सेहा मे // एवतिएहि दिणेहि, तुज्झसगासं अवस्स एहामो। संगारो एव कतो, बिंबाणि य चेसि चिंचे।।। कालेण य बिंबेहि य, अविसंवादीहिं तस्स गुरुनिहरा। कालम्मि विसंवदिए, सुच्छिञ्जति किण्ह आओसि॥ सिंगारयदिवसेहिं, यदि गेलण्हादी वयि तु तो तु। तस्सेव अह तु भावो, विपरिणतो पच्छ पुणों जातो।। तो होति गुरुस्सेव तु, एवं सुतसंपदाए भणितं तु / दारं-सुहदुक्खुवसंपण्हे, एत्तो लाभ पवजामि। वट्टसु मम सुहदुक्खे, अहमवि तुब्मं तु एवमुपसंपे। पुरपच्छसंथुयाउ, सो लभती जे य बावीसं // दारं-सुहदुक्खसंपदेसा, एत्तो खेत्तोवसंपदं वोच्छं। खेत्तोग्गहो सकोसं, वाघाए वा अकोसं तु॥ पत्ते उग्गहसारण, वासावासे तहेव उडुबद्ध। सव्वदिसासु सकोसं, णिव्वाघातेण पत्ते उ॥ अडविजलतेणसावद-वाघाते एगदुगतिचउसुंवा। होज्जा अकोसों उग्गहों, अहुणा साहारणं वोच्छं। साहारणे होजाही, पडिलेहणपुथ्वपच्छणिगमेणं। पुव्वा पच्छा य परे, आयरिए वसह अजासु॥ दुगमादी गच्छाणं, पडिलेहगणिग्गताण समगं तु। पत्ता खेत्तं एसो, पढमगभंगो मुणेयव्यो॥ समगं णिग्गयएक्के, पच्छा पत्ता य बितियओ भंगो। पच्छा णिग्गयपुटवं, पविट्ठ पच्छा य दुण्णे वि।। पढमगभंगे जो खलु, पुटिव तु अणुण्हवेति ते खेत्ती। समगं पुणों ऽणुण्हविए, सामण्हं होति दोण्हं पि॥ बितीयभंगे दप्पेण, पुटिव पत्ता उ जदिणऽणुण्हवते। इयरेसिं असढाण य, अणुण्हवंताण खेत्तं तु॥ पुरणिग्गता कहं पुण, पच्छा पत्ता उते हवेचाहि। गेलण्हखमग पारण, वाघातो अंतर हवेला।। गेलण्हें वाउलाणं तु, खेत्तमन्नस्स णोदए। णिसिद्धो खमओ चेव, तेण तस्स ण लग्मती॥ अंतर वाधाएणं, पच्छा पत्ताण पुचि जे पत्ता। असोहि अणुण्हवितं, पुटिव पत्ता ण तं खेत्तं / / अह समगमणुण्हविए, कातु पमादं पि तो उ साहारं / एवं तु बितियभंगो, अहुणा तइयम्मि वोच्छामि। पच्छा विपत्थियाणं, सभावसिग्धगतिणो भवे खेत्तं / एमेव य आसण्णे, दूरद्धाणं व एयाणं / / भंगे चउत्थभंगी, पुव्वाणुहाएँ असदभावाणं / पढमगभंगसरिच्छा, आभवणा तत्थ णायवा।। पुष्वगहिओ वि उग्गहों, होति गिलाणहताए जहियव्यो। अह होज्जा संथरणं, कालक्खेवो दुपक्खे वि॥ पुष्वद्वितकेत्तीणं, जदि आगच्छे गिलाणइत्तऽहे। जदि दोण्ह असंथरणं, ते णिग्गमो खेतियाणं तु // अह दोण्हें वि संथरणं, दोण्ह वि अच्छंति जा गिलाणो उ। एते य दोण्हि पक्खा, अहवा समणा य समणीओ।। गेलण्ण उवहि किया, भत्तोवहिलद्धिता विहिग्गहितं / पेलंती परखेतं,साहम्मियतेणिया तिविहा॥ उवही नियडी माया, गिलाणणिस्साए विजमाणे वि। छडेतु एंति खेत्ते, भत्तोवहिलुद्धताए उ॥ लब्भंति सुंदराई, गिलाणणियडिऍ एंति तो तत्थ। इतरे वि गिलाणो त्तिय, काउ तओणे ति खेत्ताओ। तेसिं तु णिग्गएK, सचित्तादी उतिविह जंगण्हे। तं तेसि होति तेण्ड, पच्छित्तं चेव तिविहं तु॥ जे पुण असंथरंता, एंति तहिं तेसिमा भवे मेरा। आयरिऍ वसभअजा-मचे वोच्छं समासेणं / अच्छंति संथरे सवे, वसभाणीति ऽसंथरे। जत्थ तुल्ला भवे दो वि, तत्थिमा होति मग्गणा / / णिप्पण्हा तरुणे सेहे,मुंगितपादच्छिणासकरकण्हा। एते व संजतीणं, णवरं वुड्डीसुणाणत्तं // परिवारअणिप्फण्हो, अच्छति णिप्फण्हतो तु णिग्गच्छे। अच्छंति बुडतरुणा, य णिति सेहे असेहिण्डोणीति॥ अच्छंति जुंगिया तु, गिति अरे तुह व जुंगिता दोऽवि / तत्थऽऽइला अच्छे, अच्छे समणीण तरुणीओ।
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________________ ववहारकप्प 630 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 ववहारकप्प समणाण य समणीण य, अच्छंतिय संजतीओं णियमेणं। जेण बहुपञ्चवाता, अणुकंपा तेण समणीणं / / संथारभत्तसंतुट्ठा, तस्स लोमम्मि अप्पइ। जुंगियमादीएसु य, वयं तक्खेत्तीण ते जेसिं। दुयमादी गच्छाणं, खेत्ते साहारणम्मि वसियवे। अप्पत्तियपडिसेह-ट्ठताए मेरा इमा तत्थ / / अत्थी बहुवसभगामा, कुदेसनगरो व मासु ववहारा। बहुमबुग्गहकरा, सीमच्छेदेण वसियव्वं // आयरियउवज्झाया, दुहि तिहि सेही तु पंचओ गच्छे। एवं तिगिच्छतिण्ही, उदुबद्धे संथरे जत्थ / / वासा( तिचउ जुत्ता, आयरिय उवज्झ सत्तओ गच्छो। एव तिगिच्छा तिहि तु,वासासुं संथरे जत्थ॥ कालदुयम्मि वि एयं, जहण्हयं होति वासखेत्ते तु। बत्तीसं तु सहस्सा, गच्छो उक्कोस उसमम्मि। बहुगच्छुवग्गहकरा, एत्तियमेत्ताण जत्थ संथरणं। ऊणाअणुवग्गहिता, सीमच्छेदं अतो वोच्छं / / तुज्झत्तो महयाहिं,तुज्झ सचित्तं ममेतरं वाऽवि। आगंतुयवत्थव्वा, थीपुरिसकुलेसु व विवेगो। सेसे सकोसजोयण-मूलणिबंधं अणुस्सुयंतेण / सचित्ते अचित्ते, मीसे विय दिनकालम्मि॥ संसेति निसाहरणं, मूलखेत्ते अणुस्सुयं नाणं। होति सकोसं जोयण-दिसि विदिसासुंतु सव्वत्तो।। एवं खेत्तउ एसो, काले उदुवढे होति मासो तु / वासासुचउम्मासो, एवति कालो विदिण्हो तु॥ एवति कालविदिण्ड, पुण्णे णिकारणम्मि तेण परं। . ण तु उग्गहो विदिण्हो, मोत्तूणं कारणमिमेहिं / / असिवादिकारणेहिं, दुविहतिरेगे वि उग्गहो होति। जा कारणं तु छिण्हं, तेण परं उग्गहो ण भवे / जदि होति खेत्तकप्पो, असती खेत्तं ण होज बहुगा वि। खेत्तेण य कालेण य, सव्वस्स वि उम्गहोणगरे।। सलिलं भे खेत्ताणं, जोग्गाणं जो तु जत्थ संथरति। सो तहिं तं संवेक्खे, खेत्ताण सती पुणो बहूबीए॥ गच्छतु गामादीसु, जहियं तू संथरंति तहि अत्थे। सव्वेसिं तहिँ उग्गहा, साहारणे होति जह णगरे / एसा खेत्तुवसंपद, पुरपच्छा संथुए लभति एत्थ। तह मेत्तवयं साया, जं जं लंभे सुतोवेसपण्णो / दारं-सग्गोवसंपदाए, मग्गं देसेति जाव सो तस्स। लभती दिट्ट भट्ठा-दि जो य लाभो पुरिल्लाणं / / दारं-बिणओवसंपदा पुण, कुव्वति वीयं तु जो उराइणिए। सव्वं तस्साऽऽभवती, जो उ उवट्ठायतीतस्स॥ उवसंपद इन्चेसा, पंचविहा वण्णिता समासेणं। खेत्तम्मि परक्खेत्ते, णिक्खमिओ जो तु होजाहि / / काले उदुवासं वा, वसिऊणं णिग्गताण जो अण्हो। पढमबितियदिवसेसुं, णिक्खामे कालओ एसो।। इच्चेसो पंचविहो, ववहारो आमवंतिओ णामं / पच्छित्तव्ववहारो, जह दसमुढेस ववहारे // पं०मा०५ कल्प। इयाणिं ववहारकप्पो-गाहा भिक्खू य मुसावाई एयाओ गाहाओववहारे सिद्धाओ,किंचि उल्लोय से तंभण्हइ। कोइ बहुस्सुओ आयरिओ एग नगरंगओ, तेण समंववहारोछिन्नो। सो तत्थ प्रमाणीकृतो। ताहे सो सव्वाणि णियायाणि काउमारद्धो / सचित्तेत्ति खुड्डओ वा से केणइ दिने निवाया वसही दिण्हा, महुराणि वा खंडाई केणई दिन्नाणि / तेण सो वितहं ववहरिउमारद्धो। गाहा-सोऊणं कुलसदंगणसदंवा सोऊणं कहं पुण आणा विजइ, संघसमवाओवा आण-तो, इहरा वा मिलिएसुसमिति तिन्नि वेला उच्चारिजइ / गाहा-- 'सोऊण संघसद धूली' तत्र कश्चिद्भूलीजंघो तत्थेव नगरियाओ बहियाए पडिक्कमइ / तहेव तेण आगंतव्वं, कले निच्छियकारी सुपरिच्छियकारओ त्ति / एक्कसिं पायड्डीए नएज सो पचत्थी बिइए विजं किंचि कारणं नऽत्थि, तइए वा ताहे सक्खिणोघेत्तूण प्रत्या-चक्षीत एसणागच्छइत्ति। कोइ भणिज्जा-एस संघमेरं भंजइ, किं किजंते नएइ। उग्घाडिज्जाउ। तत्थ निच्छियकारी संघो भणइ, न जुज्जइ किं कारणं न एइ पुच्छिज्जउ। अज्यो! जइकारणं दीवेइ, जंनिमित्तं नएइ ताहे न उग्घाडिज्जइ। अह परिभवेण न एइ ताहे तिहि वारा उच्चारिजइ। एस अज्जो! नागच्छइ उवग्गहववहारी जाओ।भणउ-वच्छ! कोइ किंचि ताहे उग्धाडिज्जइ एस निच्छियकारी संघो / एवं जाव न हुगारवेण सक्का तत्थ भणिज्जइ कोइ-तुम उस्सुत्तं मंतेसि / सो भणइ-अम्हे ओमराइणिया, अण्णो भणइ-अम्हे लोगाओ सक्कारसम्माणं लभामो तुभं न लभामो उल्लावेउ। अन्नो भणइ-अहं प्रावचनी धर्मकही वादी वा एवमादी। तत्थ राइणिओ भण्णइ-जया वंदणए पओयणं तया उवहाएजसि, परिवारइतो भण्हइ-जया किंचि परिवारेण कजं तया तुमं परिवार देजासि, तवस्सी भण्हइ-तुमंजया किंचि पभावेयव्वं देवया वा आकंपेयव्वा तया उवट्ठाएजासि। जो भणइ-लोगाओ हं सक्कारं लभामि, तो तुब्भं सगासे नलभामि। ववहारं तुल्लावेउं सो वि भण्हइ-जया लोए किंचि पओजणं तया उवट्ठाएजासि। जो वादी सो भण्हइ-तुमं वादकाले सज्जो भवेजासि / इह-गीयत्थमउज्झत्थाणं विसओ, अरहंतेहिं भणियं जं तं कायव्वं / जेसिं पारायणं समत्तं, जेय थिर-पडिवाडी पुणोसंविग्गा गुरूहि य विइण्णा सो ववहारी। जेण मूर्य हुंकारं वा जावपरिनिट्ठ सेत्तमे एतेहिं भाणियव्वं। संघसमाए जेहिय"सुत्तत्त्थोखलु पढभो, बिइओ निजुत्तिमीसओ भणिओ।
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________________ ववहारकप्प 631 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 ववहारकप्प तइओ य निरवसेसो, एस विही होइ अणुओगे।।१।। "तेपमाणा ववहारे जे पठणीयादओते अप्पमाणा / सेसंगाहासिद्ध / तगराए एगस्स आयरियस्स सोलस सीसा। तत्थऽह ववहारी अट्ट अव्यवहारी। गाहा-मा किं ते कंकडुयं कंकडुयभूओ नाम वल्लाइणं अग्गिणा विन सिज्झइ, एवं तस्स यवहारो कंकडुयभूओ न सिज्झइ। कुणिमो नाम जहा कुलिमनहो घडिज्जतो विनिम्मलत्तं नजाइ। एवं तस्स वि ववहारो कुलिमनहभूओ निम्मलत्तं न जाइ / पक्को नाम जहा महिसो पाणीए ओइन्नो, एवं सोऽवि महिसो विव आडुयालं करेइ / उत्तरो नाम ववहारो छिण्हे उत्तरं भणइ। चव्वाइ नाम ववहारं वचंतो अच्छदावधिरो नामछिन्ने ववहारे भणइ मया न चेव सुयं / लाडगुंठसमणो नाम लाडगुंठाहिं ववहारं ववहरइ। अंबिलसमाणो नाम अंधं ववहारं करेइ / एसेव निद्धम्मो / एए सव्वे ववहारी तगराए / गाहासिद्धं इह लोए य अकित्ती' गाहा सिद्ध / इमे ववहारी पूसमित्ताइगाहासिद्ध। सो पुण दुविहो ववहारो-आभवणे य, पायच्छित्ते याआभवणे तावपंचविहो, पायच्छित्ते विपञ्चविहो। सचित्ते ताव सेहाइ, अचित्तं से वत्थाइ / मीसे सभंडोवकरणे सेहे। खेत्तं वसहिमाइ काले उउवासासु / अहवा-आभवणाइपंचविहा गाहा पंचविहं उवसंपयं नाउं खेत्ताइकालं पवज्जेंतो संघमज्झयारे ववहरियव्वं / अणिस्साणं गाहा सुयसुहदुक्खाई ण सा पंचविहा, सा पुण उवसंपया सुयाई पंचविहा, सव्वावेयाओ उवसंपयाओ सुयनाणे परूविज्जंति। अहवा-सुयनाणे वा अणुपविसंति। अहवा-सुओवसम्पत्तस्स सव्वाऽविउवसंपयाओभवन्ति। सो पुण सुयं गेण्हंतिको सीसो वा, होज्जा पडिच्छओ वा। गाहा दोन्निय सीसायरिया तेसु पुण सीसपडिच्छएसु किं केण कायव्वमायरियस्स सीसेण ताव वेयावच्चं आहाराइ गुरुणो कायव्वाणि आयरिएण वि तस्स सुत्तत्थाणि दायव्वाणि।जहिं वा गुरुणो गच्छन्ति पेसन्ति वा तर्हिगंतव्वंऽजेण। केचिरं कालं? जावजीवाए आगए उढेइ, जइ किञ्चि सचित्ताइइम पिगुरुणो चेवा इयाणि पडिच्छएण किं कायव्वं? वेयावचंतहेव गुरुणो वा तस्स गमणे तहेव दो वि काले० जाव रोयइ०जाव पढइ०जाव इयाणिं पडिच्छगलाभो सचित्ताइदव्ये। तत्थ गाहा जं होइनालबद्ध,पडिच्छगस्स जइतं चेव अभिधारयति मायापियभायभगिणीधीयपुत्तो वा ताहे तस्सेवा अह आयरियं अभिधारेंति तो आयरियस्स। अहवा-संगारदिण्णयं जइ एताणि निवेएइ गुरुणो जहा मम सेहाणि बद्धिएल्लयाणिजावन चेव तुभं पाया अभिधारेमि ताणि एहिति। अमुयं अमुयं विधिं अमुयकाले आगया तस्सेव / अह कालविसंवाओ वा ताहे भणंति। कीस नागओऽसि / सिङ्गारकाले जइ किञ्चि कारणं निवेएइ गेलण्हाइ तस्सेव ते / अह विपरिणयभावो आसिज्जइ, सङ्गारकालस्सऽडभंतरे पुणो वि पवजापरिणामो उप्पण्णो पडिच्छियस्सेव / अह सङ्गारकाले अइक्कते पच्छाभावे उप्पन्नो ताहे आयरियाणं / एवं पडिच्छयस्स सेसं सुयगुरुणोवसंपया सकोसं जोयणं आयरियस्सोग्गह वाघायरहिए वाघाओ, अडविजलसावयतेणएहिं एएणं वाघाएण अक्कोस पि होज्जा। अण्हयरीसु दिसासु एवं वासउउबद्धे। एवं ताव एगस्स खेत्तियस्स जइ पुण बहुगा होज्जा, | एगम्मि खेत्ते संनिवइया एत्थ मग्गणा। अन्तरे पत्ता नाम गाहा। गेलण्हमग्गखेत्तोग्गहो पुण वासावासेसु आसाढसुद्धदसमीए खेत्तपडिलेहिया पयट्ठयव्वा / तेहि य पयट्ठिएहिं खेत्तं पहिलेहियं, विहिणा अण्णुहवेत्ता / सारूवियसिद्धपुत्तसन्निभद्दमहत्तरगंडण्हावियधुवकम्भिय-अक्कराइणोवम्मिय वाह जा अण्ह एवं खेत्तं रुचियं अम्हे एहामोजे अन्ने पव्वइगाएजा तेसिं कहिज्जाइ, जहा एवं पव्वइएहिं पडिलेहियं तेसिं खेत्तं, जे अम्हे तेसिंठियाण वा अट्ठियाण वा एंतिते खेत्तोवसंपन्नया। ते.खेत्ते पडिलेहेतुं आगया आयरियसगासे, तेसिं आयरियाणं आलोइये जहा सुंदरं, खेत्तं गच्छपाउग्गं, तं च अन्नेण पाहुणएण सुयं सोगंतूण अप्पणो आयरियाणं कहेइ-अमुयाणं पव्वइएहिं पडिलेहियं, तत्थ गच्छामो || आयरिया सामत्थेति गंतव्ये भिन्नए सो निम्मायहं वचामो मासलहुं, पच्छिया मासगुरुं, पंथे चउलहुं, पत्ताणं चउगुरुं। तत्थ गया सचित्ताइ दव्वं गेहंति, सचित्ते-सेहाइ, चउगुरुं / अचित्ते उवहिनिप्फण्हं / अहवा-सचित्ते अणवट्ठप्पो, पच्छा आगएहिं निच्छुब्भंति / वलो मोठीए कुलाइथेरेहि निच्छुब्भंति चउगुरुयं दाऊण / अहवा-खेत्तपडिलेहया पत्थिया अमुयखेत्तं बच्चामो, अन्नेसिं आयरियाणं पव्वझ्यगा।तंचेव खेत्तं पडिलेहेङ पत्थिया ण पुण जाणंति, जहा अण्णे तत्थ पधाविया, दो वि समं पत्ता। दोहिं वि विहिणा सारूवियाइ अणुण्हविया दोण्ह वि सामण्हं खेत्तं / अह एग खेत्तं पत्त त्ति काऊणं नाणुण्हति / अन्नेहिं समं पत्तेहिं पच्छा वा आगएहिं विहिया सारूवियाइ अणुण्हविया, तेसिं खेत्तं, जेहिं पुष्यमणुण्हवियं खेत्तं / अह तेहिं समं पत्तेहिं तेसिं एगो गिलाणो जाओ तेण नाणुण्हवियं सामण्हं खेत्तं। अहवा-खमगपारणए वाउलएहिं नाणुण्हवियं अण्हं खेत्तं / अहवा-कुलाइकज्जेहिं वावडेहिं नाणुण्ह-वियं सामण्हं, पुव्वं पच्छा वा पत्ता हुंतु। अहवा-दोहिं वग्गेहिं समीहियं खेत्तं वग्गेति दोण्हं आयरियाणं / तत्थेगो असढमावो सिग्घगई तेहिं पत्तेहिं अणुण्हविया सारूविया इतेसिंखेत्तं / अहवा-एगे आसन्ने, एगेसिंदूरमद्धवाणं। जे पढमं पत्ता विहिणाय अणुण्हवियं, अहवा-पुव्वं पच्छा वा आगयाणं आयरिया सुत्तत्थविसारदा जप्पसरीराते, अण्हे आयरिया दढसरीराजप्पसरीराण खेत्तमणुजाणन्ति। अहवा-समं पिपत्ताणं जेसिं गिलाणो तेसिं अणुण्हवइ खेत्तं आइ-गहणेणं अन्ना सा विसारया वा विदेसिया था जुंगा वा समं पि उग्गहिए तेसिं अणुण्हवइखेत्तं / गाहा-पुन्बुग्गहिओ विग्गहो त्ति पुव्वट्ठिया खेत्तिया, अन्ने य तत्थ आगया गिलाणाइपत्ता, तत्थागयाणं वा जाओ गिलाणो ताहे ते पुवट्ठिया वचंति / अह दोण्ह वि संथरणं होज्जा ताहे दोहिम्मि अच्छ्यिव्यं / अहवा-साहू साहुणीओ वा तत्थ वि साहू अच्छति साहुणिओ अच्छंति / गाहा गिलाणोवहिजे पुण गिलाण त्ति नियडिं काऊण अण्हाण वि गिलाणपाओग्गाणि खेताणिछड्डिऊणएंतिभत्ताइलोभेण परखेत्तं पेलंति, तेयपुवटिया गिलाणो त्ति काऊणतंति। ताहे इयरेसिंजंसचित्ताइ उप्पज्जइतंचेव जीवंति।साहम्मियतेणिया दुविहा सचित्तमचित्तं वा। किचन वि य पुवडिये वि भण्डमच्छरियत्तणं कायव्वं / गाहा अस्थि हु वसभग्गामा जम्हा अस्थि वसभग्गामहायणपाउग्गमा तत्थ महानिज्जरापेहीहि होयव्वं / न होइ अदृझाइयव्वा नगरेवा बहवेसाहूवसंति। सव्वत्थसकोसंमण्डलं, जत्थ
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________________ ववहारकप्प 932 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 ववहारणय खेत्तो मूलनिबंधं अणुमुयंतेणं सचित्ताचित्तमीसएण य अब्भणुण्हाया, | ववहारक्खेवणी-स्त्री०(व्यवहारक्षेपणी) कथाभेदे, स्था०४ ठा०। कालम्मि उउवासासुंवा अक्खेत्ते वसहीएमग्गणा, गाहा-जइ होइ, जइ ('अक्रोवणी' शब्दे प्रथमभागे 152 पृष्ठे व्याख्या गता।) पुण संपहाणाणि खेत्ताणि मासकप्पपाउग्गाणि न होति, ताहे एगम्मि चेव | ववहारचूलिका-स्त्री०(व्यवहारचूलिका) स्वनामख्याते ग्रन्थावयवखेत्ते बहुया वि अच्छंति, तत्थ सव्वेसि पि समं ठियाणं उग्गहो भवइ / विशेषे,सेन० / व्यवहारचूलिका किंकर्तृकेति? प्रश्नः, अत्रोत्तरम्-सा जहा-नगरेतगरिनगरे वसहीएउग्गहोखेत्तंन होइ, नगरंजत्थवा इंदहाणं, अमुककर्तृकेति ज्ञातं नास्तीति / / 101 / / सेन० 1 उल्ला०। जत्थ वा राया एस खेत्तोव-संपया। माओवसंपयाएगाहामाया पिया जइ | ववहारणय-पुं०(व्यवहारनय) संग्रहेण गोचरीकृतानामर्थानां विधिपूर्वकछ ण्हालबद्धाणि तं चेव अभिधारेंताणि एंति लभइ / गाहा-सुहदुक्खि- मवहरणं येनाभिसन्धिना क्रियते स व्यवहारः / व्यवहरणं व्यवहरतीति यस्स सुहदुक्खिओ मायापिइपक्खे अभिधारेता य सासुससुरपक्खे य वा व्यवहियते वा अपलप्यतेसामान्यमनेन विशेषान्वाऽऽश्रित्य व्यवहारपुव्वुट्ठिो सव्वे वि लभइ।खेत्तोवसंपयाए मायापियाइ०जाव मित्तवयंसे परो व्यवहारः। स एव नयः। विशेषप्रतिपादनपरे नयभेदे, स्था०७ठा०३ वि लभइ / मग्गोवसंपयाए गाहा मग्गोवसंपयाए पुण जे मग्गे निजंति उ०। श्रा० आ०चूला विशेअथव्यवहारनयमाह-व्यवहरणं व्यवहारः। देसिएणतेमाया पियाइ०जावसहदेसिए विलभइ। जइतेसिं उवटुंतिते यदिवाविशेषतोऽवहियते-निराक्रियते सामान्यमनेनेति व्यवहारः सेसं जो दिसिओ सो लहइ जाव देसेइ / जइ य नढे मूढे च गवसइ विशेषप्रतिपादनपरो व्यवहारनय इत्यर्थः। आ० म०१ अ० विणओवसंपयाए, णवरि विणयं उवचारार्थं दर्शयति-विणओवसंपया ववहरणं ववहरए, सतेण ववहीरए व सामन्नं / नामदेसिया पव्वइया,अन्नविसयंजंति,लाडविसयाइ, तत्थपुव्वट्ठियाण ववहारपरो वजओ, विसेसओ तेण ववहारो॥२२१२|| आयरियाणं गीयत्थसंविग्गाणं अप्पं निवे-एंति / जहा–अम्ह खेत्ताणि व्यवहरणं व्यवहारः, व्यवहरतिसइतिवाव्यवहारः, विशेषतोऽवहियते-- दरिसेह। ते दरिसयंति, तेसिं अणा-पुच्छाए अपुव्वेसु खेत्तेसु नटुंति। निराक्रियते सामान्यं येनेति व्यवहारः,लोके व्यवहारपरो वा विशेषतो तत्थ य ठिया जं पव्वावेंतितं तेसिं। पुवट्ठियाणं निवेदयंति एस विणयो- यस्मात्तेन व्यवहार इति। वसंपया। गीयत्थसंविग्गा परोप्परं संवच्छरियचाउम्मासिएसु आलोयणा- अयं च न यदुक्तसूक्तिका प्रतिपद्यते "वचइ विणिच्छियत्थं, ववहारो विणयं पउंजंति, न पुण किंचि तक्कयंति परस्परतः / केइ पुण भणन्ति सव्वदव्वेसु" ति (गाथा०२१८३) अस्य व्याख्यामाह-- जाव आलोचयतिताव जलभइसचित्ताइ सुत्तनालबद्धसेसं जस्सालोएइ •सदिति भणियम्मि गच्छा, विणिच्छयं सदिति किं तदनं ति। तस्साऽऽ-भवइ। पायच्छिते ववहारोदसमे उद्देसे व्यवहारस्य वक्ष्यामः। होज विसेसेहिंतो,संववहारादवेतं जं॥२२१३|| सव्वासु वि उवसंपयासु मायापियाइना लबद्धाणि सो लभइ। जस्स वा सदिति भणितेसति विनिश्चयमसौगच्छति, विचार्य विशेषानेव वस्तुत्वेन ओबद्धति सो लभइ। अन्नो वि एस ववहारकप्पो। पं०चू०५ कल्प। व्यवस्थापयतीत्यर्थः / तथा होवमयं विचारयति-ननु सदिति यदुच्यते ववहारकुदिहि-स्त्री०(व्यवहारकुदृष्टि) अनादिमत्यां वितथा-गोचरायां तद्धटपटादिविशेषेभ्यः किमन्यन्नाम यत्संव्यवहारादप्यपेतं व्यवहारे न विद्यापराभिधानायां कुव्यवहारवासनायाम्, "व्यवहार-कुदृष्टयोचै-- वचिदुपयुज्यते, वार्तामात्रप्रसिद्धंसामान्य नास्त्येव क्वापि तदित्यर्थः / रिष्टानिष्टषु वस्तुषु / कल्पितेषु विवेकेन, तत्त्वधीः समतोच्यते" |द्वा० अपिच१८ द्वारा उवलंभव्यवहारा, भावाओ निव्विसेसभावाओ। ववहारकुसल-पुं०(व्यवहारकुशल) देशादिव्यवहारानुरूपझे, ध००। / तंनऽस्थि खपुष्पं पिव, संति विसेसा सपचक्खं // 2214 // सम्प्रति व्यवहारकुशल इति षष्ठं भेदं विवरीषुर्गाथोत्तरार्द्धमाह- नास्ति सामान्यम्, उपलम्भव्यवहाराभावात्-उपलब्धिलक्षणप्राप्तदेसद्धादणुरूवं, जाणइ गीयत्थववहारं // 54|| स्यानुलब्धेरित्यर्थः / तथा निर्विशेषभावात्-विशेषव्यतिरिक्तत्वात्, देशः-सुस्थितदुस्थितादिः, अद्धा-कालः-सुभिक्षदुर्भिक्षादिः, खपुष्वत्। विशेषास्तु सन्ति स्वप्रत्यक्षत्वाद्धटादिवदिति। आदिशब्दात्-सुलभदुर्लभादिद्रव्यम्, प्रहृष्टालाना दिभावश्च परिगृह्यते, उपचयहेतुमाहतेषामनुरूपं जानाति गीतार्थव्यवहारं यो यत्र देशे काले भावे वा, वर्तमा- जं च विसेसेहिं चिय, संववहारो वि कीरए सक्खं / नैर्गीतार्थरुत्सर्गापवादवेदिभिर्गुरुलाघवपरिज्ञाननिपुणैराथरितो व्यवहा- जम्हा सम्मत्तं चिय, फुडं तदत्थंतरमभावो / / 2215 / / रस्तन्न दूषयतीति भावः / एवंविधव्यवहार-कौशलं षष्ठं कौशलं भवति, यस्माच जलाऽऽहरणव्रणपिण्डिप्रदानादिको लोकव्यवहारोघटनिम्ब-- एतचोपलक्षणं ज्ञानादित्रयप्रभृति सर्वभावेष्वपि यः कुशलः स प्रवचन- पत्रादिविशेषैरेव साक्षाक्रियमाणो दृश्यते, न सामान्येन / तन्मात्रमेव कुशलः, अभयकुमारवत्।ध०र० २अधि०६ लक्ष०ा (अभयकुमारकथा च-विशेषमात्रं यस्मात्स्फुटमुपलभ्यत इति शेषः, तस्मात्तदर्थान्तरभूतं च'अभयकुमार' शब्दे प्रथमभागे 704 पृष्ठे गता।) सामान्यमभाव एष नतु भाव इति।
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________________ यवहारणय 633 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 ववहारणय किंचअन्नमणन्नं व मयं, सामन्नं जइ विसेसओऽणन्नं ! तम्मत्तमन्नमहवा, नऽत्थितयं निव्विसेसं ति।।२२१६|| विशेषेभ्यः सामान्यमन्यद् अनन्यद्वा मतं भवतः? यदि विशेषेभ्यस्तदनन्यद्-अभिन्नम्, तर्हि तन्मात्रं-विशेषमात्रमेव तदिति। अथान्यद्विविशेषेभ्यो भिन्न सामान्य तर्हि नास्त्येव तन्निविशेषत्वात् खरशृङ्गवदिति। यदुक्तम्-'"चूओ वणस्सइचिये'' त्यादि 10 तद्विपक्षमाहतह चूयाइविरहिओ, अन्नो को सो वणस्सई नाम। अवणस्सइ चिय तओ, घडोव्व चूयादभावाओ / / 2217 // तथा चूताऽऽदिविरहितः चूतनिम्बकदम्बजम्बूप्रभृतिविशेषेभ्योऽन्यः को नाम वनस्पतियः सामान्यत्वेन गीयते? अथास्ति चूताऽऽदिभ्योऽपरः कोऽपि वनस्पतिः। ननु यद्येवम्, तर्हि ततोऽन्यः कोऽसाववनस्पतिरेव चूताद्यभावरूपत्वाद्घटादिवदिति। तदेवं "वच्चइ विणिच्छियत्थं" (2183) इत्येतद्व्याख्यायो पसंहरन्नाहतो ववहारो गच्छइ, विणिच्छियं को वणस्सई चूओ। होम बउलाइरूवो, तह सव्वदव्वभेएसु // 2218|| ततस्तस्मादुक्तन्यानेन विचार्य विगतसामान्यानां विशेषाणां निश्चयो विनिश्चयस्तं गच्छति-स्वीकरोति व्यवहारनयः। कथं विचार्य? इत्याहको नाम वनस्पतिर्भवेत्? इति चिन्तायां चूतो बकुलादिर्वाऽसौ भवेन्नतु तदतिरिक्तवृक्षत्वसामान्यम् / तथा तेनैव प्रकारेण सर्वेष्वपि द्रव्यभेदेषु वक्तव्यम्-गोतुरगरथादयो विशेषा एव गोत्वादिसामान्य न पुनरन्यदित्येवं सर्वत्र वाच्यमित्यर्थ इति। अथवा अन्यथा विनिश्चयशब्दार्थ व्याचिख्यासुराहअहिगो चओ त्ति वा नि-च्छओ त्ति सामन्नमस्स ववहारो। वचइ विणिच्छियत्थं,जाइ वि सामन्नभावं ति॥२२१६।। वा-अथवा अधिकश्चयो निश्चयः, यथा अधिको दाघो निदाघः, स च निश्चयोऽत्र सामान्यम् / अस्य सामान्यस्य व्यवहारनयो व्रजतियाति / किमर्थम्? विनिश्चयार्थम् / कोऽर्थः? विसामान्यभावविसामान्यभावार्थ तदभावाय यतत इत्यर्थः। अथवा-लोकव्यवहारो विनिश्चयस्तदर्थ व्रजति व्यवहार इति दर्शयतिभमराइ पंचवण्णाइँ, निच्छए जत्थ वा जणवयस्स। अत्थे विणिच्छओ सो, विणिच्छयत्थो त्ति सो गज्झो॥ बहुतरउत्तियतंचिय, गमेइ संते वि सेसए मुयए। सववहारपरतया, ववहारो लोगमिच्छंतो // 2221 / / वा-अथवा निश्चये-निश्चयनयमते विचिन्त्यमाने भ्रमरादेः पञ्चवर्णद्विगन्ध-पञ्चरसाऽ-ष्टस्पर्शत्वे सत्यपि यत्र कृष्णवण्णादावर्थ जनपदस्य निश्चयो भवति स विनिश्चयार्थस्तं व्रजति व्यवहारनय इति प्रकृतम्। कोऽर्थः? सत्स्वपि वर्ण-गन्ध-रस-स्पशेषु यो यत्र जनपदस्य ग्राह्यस्तमेव व्यवहारनयो गमयति, मन्यते, प्ररूपयति च / सतोऽपि शेषान् / वर्णादीन्मुञ्चति / कुतः? स एव बहुतरः स्पष्ट इति कृत्वा। किं कुर्वन्? लोकव्यवहारमिच्छन्, कया? व्यवहारपरतया-व्यवहारप्रधानतयेति / तदेवमभिहितो व्यवहार-नयः / विशे० / स्या०) द्रव्या० / आ०म० (व्यवहारनयव्याख्या 'णय' शब्दे चतुर्थभागे 1856 पृष्ठे गता।) व्यवहारं लक्षयतिउपचारेण बहुलो, विस्तृतार्थश्च लौकिकः। यो बोधो व्यवहाराख्यो, नयोऽयं लक्षितो बुधैः // 25|| 'सानारेणे ति उपचारेण-गौण्या वृत्त्या बहुलो बाहुल्येन व्यवहारकारी विस्तृतार्था-नानाव्यक्तिकशब्दसंकेतग्रहणप्रवणः, लौकिकः-शब्दतदुपजीविप्रमाणतिरिक्तप्रमाणपक्षपाती यो बोधः सोऽयं व्यवहाराख्यो नयः बुधैर्लक्षितः, उपचारबहुलाद्यध्यवसाय-वृत्तिनयत्वव्याप्यजातिमत्त्व लक्षणं तेन नाननुगम इत्यर्थः, "लौकिकसम उपचारप्रायो विस्तरतोर्थो व्यवहार'' इति तत्त्वार्थभाष्यमनुरुध्येत्थं लक्षितम् / 'वच्चइ विणिच्छिअत्थं, ववहारो सब्दव्वेसु त्ति नियुक्तिप्रतीकपर्यालोचनायां तु विनिश्चितार्थप्रापकत्वमस्य लक्षणं लभ्यते। विनिश्चितार्थप्राप्तिश्चास्य सामान्या न तूपगमे सति विशेषाभ्युपगमात्, अत एव विशेषेणावह्रियतेनिराक्रियते सामान्यमनेनेति (निरुक्) युक्त्युपपत्तिः। जलाहरणाधुपयोगिनो घटादिविशेषानेवायमङ्गीकरोति, न तु सामान्यं तस्यार्थक्रियाऽहेतुत्वात, न हि गां बधानेत्युक्ते कश्चिद्गोत्वं बद्धमध्यवस्यत्यनुगतव्यवहारश्चानपोहादिनाऽप्युपपत्स्यते, अखण्डाभावनिवेशाच नाऽन्योन्याश्रयोऽस्तु वा सर्वत्र शब्दानुगमादेवानुगतत्वव्यवहारः, कारणत्वव्याप्त्यादावित्थमेवाभ्युपगमादित्यादिकं प्रपञ्चितमन्यत्र / उपचारबाहुल्यं विवृणोतिदह्यते गिरिरध्वाऽसौ, याति श्रवति कुण्डिका। इत्यादिरुपचारोऽस्मिन्, बाहुल्येनोपलभ्यते॥२६|| 'दह्यत' इति, असौ गिरिदह्यते, अत्र गिरिपदस्य गिरिस्थतृणादौ लक्षणा, भूयो दग्धत्वप्रतीतिः प्रयोजनम् / असावध्वा याति, अत्राध्वपदस्याध्वनि गच्छति पुरुषसमुदाये लक्षणा, नैरन्तर्यप्रतीतिः प्रयोजनम् / कुण्डिका स्रवतीत्यत्र कुण्डिकापदस्य कुण्डिकास्थ-जले लक्षणा, निविडत्वप्रतीतिः प्रयोजनम् ।सर्वत्रोद्देश्यप्रतीतिर्लक्ष्यार्थे मुख्याभिदाध्यवसायात्माकव्यञ्जनामहिम्नाव्युत्पत्ति-ममिम्ना वेति विवेचितमन्यत्रेत्यादिरुपचारो गौणोऽस्मिन् व्यवहार-नये बाहुल्येनेतरनयापेक्षया भूम्नोपलभ्यते। विस्तृतार्थं विवृणोतिविस्तृतार्थो विशेषस्य, प्राधान्यादेष लौकिकः। पञ्चवर्णादिभृङ्गादौ, श्यामत्वादिविनिययात्॥२७॥ . "विस्तृतार्थ'' इति विशेषय प्राधान्यादेष विस्तृतार्थः, तत्प्राधान्यं च व्यक्तिष्वेवोपयुक्ततया संकेताश्रयणादिना बोध्यम्। तथा वस्तुतः पञ्चवर्णावयवारब्धशरीरत्वेन पञ्चवर्णादिमतिभृङ्गादौश्यामत्वादेरेव विनिश्चयादेष लौकिकः / यथा हि लोको निश्चयतः पञ्चवर्णेऽपि भ्रमरे कृष्णवपूर्णत्वमेवाङ्गीकरीति, तथाऽयमपीत्यस्यलोकिकसमत्वमितिनयविदः।न
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________________ ववहारणय 134 -अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 ववहारभावकुसल च कृष्णो भ्रमर इत्यत्र विद्यमानेतरवर्णप्रतिषेधाद्भ्रान्तत्वमनुभूतत्वे- पूर्वाभ्यस्तकरणानां तथा भव्यत्वपरिपाकवतां भरतादीनां कदाचिद्विनेतराविवक्षणात्, तद्व्युदासेऽतात्पर्यादुद्भूतवर्ण विवक्षायाएवाभिलापा- रतिपरिणामोत्पादेऽपि तं प्रति व्यवहारस्य न हेतुताक्षतिः, द्वारस्यान्यत दिव्यवहारहेतुत्वात्, कृष्णादिपदस्योद्भूतकृष्णादिपरत्वाद्वा अतात्पर्यज्ञ एव सिद्धेः,स्वप्रयोज्यद्वारसम्बन्धेनैव च हेतुत्वाद्। अभव्यानांचबाह्याप्रत्येतस्याबोधत्वेनाप्रामाण्येऽपितात्पर्य प्रति प्रामाण्याल्लोकव्यवहा-. व्यवहारसत्त्वेऽपि विरतिपरिणामानुत्पादो न दोषाय, अन्तरकरणाऽराऽनुकूलविवक्षाप्रयुक्तत्वेन च भावसत्यत्वाविरोधात्,अतएव पीतोभ्रमर सत्त्वात्, सामग्या एव कार्यजनकत्वाद्। अविवेकमूलव्यभिचारदर्शनस्य इतिन व्यवहारतोभावसत्यं लोकव्यवहाराननुकूलत्वात्, नापि निश्चयतः विवेकिनामविश्वासाऽजनकत्वात्, तादृशाविश्वासस्य महानर्थनिमित्तपञ्चवर्णपर्याप्तिमति पञ्चवर्णप्रकारत्वाभावेनावधारणाक्षमत्वादित्य- त्वादिति भावः / यत उक्तभावश्यके-"पत्तेअबुद्धकरणे, चरणं नासंति सत्यमेवेति दिग्॥२७॥ जिणवरिदाणं / आहच्च भावकहणे, पंचहिँ ठाणेहिं पासत्था // 1 // " ननु कृष्णो भ्रमर इति वाक्यवत्पञ्चवर्णो भ्रमर इति वाक्यमपि कथं 'पंचहिं' ति प्राणातिपादादिभिरिति , तस्माद्यवहारनयादेशाच्चैत्यन? व्यवहारनयानुरोधितस्यापि लोकव्यवहारानुकूलत्वादागमबोधि- वन्दनादिरुपवर्ण्यमानो युक्तएव, व्यवहारनिश्चययोर्द्वयोरेवतुल्यताया एव तार्थेऽपि व्युत्पन्नलोकस्य व्यवहारदर्शनात, लोकबाधितार्थबोधकवा- सूत्रे भणनात् / तदुक्तम्-"जइ जिणमयं पवजह, ता मा ववहारनिच्छए क्यस्याव्यवहारकत्वे च आत्मा न रूपवानित्यादिवाक्यस्याप्यव्यव- मुअहावयहारणउच्छए, तित्थुच्छेओजओऽवस्सं॥१॥'' व्यवहारप्रवृत्त्या हारकत्वापातात्तस्याप्यात्मगौरवत्त्वादिबोधकलोकप्रमाणबाधितार्थ- हि चैत्यवन्दनादिविधिना प्रव्रजितोऽहमित्यादिलक्षणया शुभपरि-णामो बोधकत्वाद, भ्रान्तलोकाबाधितार्थबोधकत्वं चोभयत्र तुल्यं प्रत्यक्ष- भवति, ततः कर्मक्षयोपशमादिः,ततश्च निश्चयनयसम्मतो विरतिपरिणाम नियतैव व्यवहारिविषयता, न त्वागमादिनियतेति तु व्यवहारदुर्नयस्य इति द्वयोरपि तुल्यत्यम्। न च निश्चयव्यवहारकार्ययोर्मुक्तिलक्षणं कार्य चार्वाकमतप्रवर्तकस्य मतम्, न तु व्यवहारनयस्य जैनदर्शनस्पर्शिन प्रति साक्षात्परंपराकारणतयाऽभ्यर्हितत्वाऽनभ्यर्हितत्वाभ्यां विशेषः, इत्याशङ्कायामाह निश्चयकार्यस्य व्यापारतया व्यवहारकार्यस्य साक्षाद्धेतुताया अविरोधाद, पञ्चवर्णामिलापेऽपि, श्रुतव्युत्पत्तिशालिनाम्। अभ्यर्हितत्वाक्षतेः,वदन्ति हि तान्त्रिकाः- 'न हि व्यापारेण व्यापारिन तद्वोधे विषयता, परांशे व्यावहारिकी / / 28|| णोऽन्यथासिद्धि' रिति, न चासति विरतिपरिणामे चैत्यवन्दनादि'पञ्चे' ति पञ्चवर्णो भ्रमरः इति शब्दाभिलापेऽपि श्रुतव्युत्पत्तिशालिनां विधिसंपादने मृषावादोऽपि गुरोर्भगवदाज्ञासंपादनेन त्वं प्रव्रजितोऽसीतत्तन्नयाभिप्रायप्रयुक्तः शब्दस्तत्र नयीयविषयतयैव शाब्दबोधक इति त्यादिव्यवहारसत्यवचनस्याऽक्षतत्वात्, एतदकरणे तीर्थोच्छेदादयो सिद्धान्तसिद्धकार्यकारणभावग्रहवतां तद्रोधे उक्ताभिलापजन्यशाब्द- दोषाः, परिणामस्य सिद्ध्यसिद्धिभ्यां व्याघातात्। आहत्य भरतादिभावबोधेपरांशे कृष्णेतरवण्णाशे व्यावहारिकी विषयता नाऽस्ति। तथा च- कथनं चाऽशास्त्रार्थम्। ध०३ अधि०। पं०सू०। श्रा०। बृ०। पञ्चवर्णो भ्रमर इतिशाब्दबोधे कृष्णांशे व्यावहारिक्या संबलिता, इतरांशे ववहारो विहु बलवं, जं छउमत्थं पि वंदई अरहा। च शुद्धा नैश्चयिकी विषयता / अदृष्टार्थे सर्वत्र संबलनसंभवेऽपि जा होइ अणाभिण्णो, जाणतो धम्मयं एयं // 26 // लोकप्रसिद्ध(द्धार्थानु) नयवादस्थले क्वचिदेव संबलनाऽभ्युपगमादिति व्यवहारोऽपि आस्तां निश्चय इत्यपिशब्दार्थः / हु:-निश्चितं बलवान्। न कश्चिद्दोष इति भावनीयम् / नयो०। सूत्र०। स्या०। (व्यवहारभेदाः यद्- यस्माच्छद्यस्थमपि-स्वगुरुप्रभृतिकं वन्दते अरहा-केवली। 'णय' शब्दे चतुर्थभागे 1864 पृष्ठे गताः।) कियन्तं कालमित्यादि, यावदसौ 'अणाभिन्नो' त्ति केवलितया अनभिदवहियनयपगडी, सुद्धा संगहपरूवणा विसओ। ज्ञानो भवति, तावदेनं व्यवहारनयं बलवत्-बलवत्त्वलक्षणं धर्मातो पडिरूवे पुण वयण-त्थनिच्छओ तस्स ववहारो॥ जानन् छद्मस्थमपि वन्दते इति / बृ०३ उ० (असद्-भूतव्यवहारः, सम्म०१ काण्ड। ('दव्यट्ठिय' शब्दे चतुर्थभागे 2467 पृष्ठे व्याख्या- सद्भूतव्यवहारश्च 'उवणय' शब्दे द्वितीयभागे 865 पृष्ठे वर्णितः / 'णय' तैषा।) व्यवहारोऽपि प्रमाणम् / ननु विरतिपरिणामो भावतः प्रव्रज्येति शब्दे चतुर्थभागे 1892 पृष्ठे विशेषतः प्रतिपादित एषः।) जिनोपदेशः, तत्रैव निर्भरः कर्तव्यः किमनेन चैत्यवन्दनादिक्रियाक- ववहारपरमाणु-पुं०(व्यवहारपरमाणु) व्यवहारंगते परमाणौ, सेन०। लापेन? श्रूयते-तमन्तरेणापि भरतादीनां विरति-परिणामः, अन्यथा- अनन्तसूक्ष्मपरमाणुभिरेको व्यवहारपरमाणुर्जायते, अष्टव्यवहारपरकेवलानुत्पत्तिप्रसङ्गात्। न च संपादितेऽपि तस्मिन् तत्परिणामो भवति, 'माणुभिरेका उत्श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका जायते / 482 सेन० 3 उल्ला०। अभव्यानामप्यनेन विधिना प्रव्रज्या ग्रहणश्रवणात्, इत्यन्वयव्यतिरे- ('त्रसरेणु' शब्दे चतुर्थभागे 2218 पृष्ठेऽत्रत्यविस्तरो गतः।) कव्यभिचाराभ्यां न युक्तं चैत्यवन्दनादि, इति चेन्मैवम्, प्रायो विरति- | ववहारभणिय-त्रि०(व्यवहारभणित) छेदग्रन्थोक्ते, जी०१ प्रतिका परिणामहेतुत्वेन तदुपादानात्, न ह्येतावद्विधिसंपत्तिमानकार्य प्रायः ववहारभावकुसल-पुं०(व्यवहारभावकुशल) व्यवहारश्च भावश्च व्यवहारसेवमानो दृश्यते, तेन कार्येण कारणमनुमीयते इति। न चोक्तव्यभिचारो भावौतत्र कुशलः। व्यवहारे भावेच कुशले, दर्श०ा व्यवहारश्च भावश्च व्यवदोषः तस्य कादाचि-त्कत्वात्,तथा च कदाचिद्दण्ड विनाऽपि हस्तादि हारभावौ तस्मिन् कुशला व्यवहारभावकुशलाः। तत्र व्यवहारोधार्थनैव चक्रभ्रमणाद्धटोत्पादेऽपि घटं प्रति दण्डस्येव व्यवहारं विनाऽपि कामलोकरूपश्चतुर्विधः, धर्मकुशलो हि कुतीर्थसंसर्ग न करोति कुती
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________________ ववहारभावकुसल 935 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 ववहारि र्थिविम्बविक्रयं न करोति / अर्थकुशलः-पुनरर्थोपार्जनं हस्तलाघ- उस च यथावच्छुद्धिसमर्थो भवति। ध०२ अधि० भ०। वादिपरित्यागेन करोति।) दर्श०। (कामकुशलव्याख्या 'कामकुशल' | ववहारसच्च-न०(व्यवहारसत्य) व्यवहारेण सत्यं व्यवहारसत्यम् / शब्दे तृतीयभागे 433 पृष्ठे गता।) लोककुशलता पुनर्यदुत्तमलोकसंपर्कः सत्यभेदे,यथा दृह्यते गिरिर्गलतिभाजनम्, अयञ्च गिरिगततृणा-दिदाहे क्रियते, राजाऽमात्यादेर्वा यत्सदा सद्भावावसरमुपचरति। दश० 3 तत्त्व। व्यवहारःप्रवर्तते,उदके च गलिते सतीति।स्था०१० ठा०३ उ०। ववहाररासि-पुं०(व्यवहारराशि) व्यवहाररूपे राशौ, सेना "जइआ ववहारसचा-स्त्री०(व्यवहारसत्या) व्यवहारतो लोकविवक्षातः सत्या होही पुच्छा, जिणाण मग्गम्मि उत्तरं तइआ। इक्कस्स निगोअस्स य, व्यवहारसत्या / लोकव्यवहारमपेक्ष्य साधोरपि तथा ब्रुवतो भाषायाम्, अणंतभागो असिद्धिगओ॥१॥" इत्येतद्वचः किं बादरनिगोदापेक्षिक- प्रज्ञा०११ पद। ध०। मुत सूक्ष्मनिगोदापेक्षिकम्? सूक्ष्मनिगोदापेक्षायामपि सांव्यवहारिक.. ववहारसत्थ-न०(व्यवहारशास्त्र) लोकव्यवहारप्रतिपादके शास्त्रे, सूक्ष्मनिगोदापेक्षिकत्वे व्यवहारराशिमनुप्राप्ता अपि केचनजीवा नमुक्ति "नमार्त्तप्रोषतायातः,सचेलो भुक्तभूषितः। नैव स्नायादनुव्रज्य, बन्धून् कदाचिद्यास्यन्तीतिमहत्यनुपपत्तिः कथं निरस्यति? प्रश्नः, अत्रोत्तरम्- कृत्वा च मङ्गलम्" ||1|| इत्यादि। ध०२ अधि०| एकस्य निगोदस्यानन्ततमो भागो मोक्षं गत इति सामान्येनोक्तमस्ति, न | ववहारसम्मत्त-न०(व्यवहारसम्यक्त्व) ज्ञानश्रद्धाचरणैः सप्तषष्टि-- तु सूक्ष्मनि-गोदस्य बादरनिगोदस्य वेति विवेकेन, परमुभयथाऽपि न भेदशीलनेच व्यवहारमात्रतः सम्यक्त्वे, ध०२ अधिक। कश्चिद्विरोधः, यतो व्यवहारराशिं प्राप्ताः सर्वे जीवा मोक्षे यान्तीति नियमो ववहारसुद्धि-स्त्री०(व्यवहारशुद्धि) व्यवहारस्य शुद्धिः व्यवहार-शुद्धिः नास्ति, तथा च सति श्रीमदुद्भाविताऽनुपपत्तिरप्यनवकाशेति // 74|| व्यवहारशुद्ध्यैव च सर्वोऽपिधर्मः सफलः, यदाहसेन०१ उल्ला०।"सिज्झंतिजत्तिआ किर, इह संववहारजीवरासीओ। "ववहारसुद्धि धम्मस्स, मूलं सव्वन्नुभासए। जंति अणाइवणस्सइरासीओतत्तिआ तम्मि"त्ति||१|| इति वचनानु- दवहारेणं तुसुद्धेणं, अत्थसुद्धी तओ भवे / / 1 / / सारेण यावन्तः सिध्यन्ति तावन्त एव जीवा अनादिनिगोदाव्यवहारराशी सुद्धणं चेव अत्थेणं, आहारो होइ सुद्धओ! यान्त्येवं सत्यनादिसंसारमाश्रित्य विचारे यावन्तः सिद्धाः तावन्त एव आहारेणं तु सुद्धेणं, देहसुद्धो जओ भवे।।२।। सदैव व्यवहारिणोऽपि मृग्यन्ते नाधिकाः, परम्- "जइआहोही पुच्छा, सुद्धेणं चेव देहेणं,धम्मजुग्गो अजायइ। जिणाणमग्गम्मि दंसणं तइआ / इक्कस्स निगोअस्स य, अणंतभागो अ जंजं कुणइ किचं तु, तं तं से सफलं भवे // 3 // सिद्धिगओ॥१॥" एतदनुसारेणैकस्य सूक्ष्मबादरान्यतरनिगोदस्यान अण्णहा अफलं होइ, जंजं किच्चं तु सो करे। न्ततमो भागः सिद्धिगतस्तथैव व्यवहारिणोऽप्येकस्य निगोदस्यानन्ततम ववहारसुद्धिरहिओ, धम्मं खिंसावए जओ ||4|| एव भागे युज्यन्ते दृश्यन्ते च- "जीवाः सर्वे व्यवहार्यव्यवहारितया धम्मखिंसं कुणंताणं, अप्पणो अपरस्सय! द्विधा / सूक्ष्मनिगोदा एवान्त्यास्तेऽन्येऽपि व्यवहारिणः।।१।।" इत्येतद् अबोही परमा होइ, इअसुत्ते वि भासि॥५॥ व्यवहारिलक्षणानुसारेण बादरनिगोदादौ सिद्धेभ्योऽनन्तानन्तगुणास्तस्मान्न ज्ञायन्ते सिद्धभ्यो व्यवहारिजीवा अधिकावा तुल्या वेति सम्यक् तम्हा सव्वपयत्तेणं,तं तं कुज्जा वियक्खणो। प्रसाद्यमिति? प्रश्नः, अत्रोत्तरम्-सिद्धा निगोदस्यानन्ततमे भागे उक्ताः, जेण धम्मस्स खिंसंतु, न करे अबुहो जणो॥६॥" निगोदाश्च द्विधा-सूक्ष्मा बादराश्च, यावन्तः सिध्यन्ति तावन्तः सूक्ष्मनि अतो व्यवहारशुद्ध्यै सम्यगुपक्रम्य इत्युक्तलक्षणे शुद्धिस्वरूपे, ध०२ गोदेभ्यो व्यवहारराशौ समायान्ति, तथा चकथं सिद्धजीवानां व्यवहार अधि। राशिजीवानां च तुल्यता, 'सिज्झंति जत्तिये' त्यादिगाथार्थोऽपि ववहाराऽऽभास-पुं०(व्यवहाराभास) अयथार्थे व्यवहरे, योऽपारव्यवहारराशेस्तत्तद्ग्रन्थानुसारेणानादितया प्रतिभासात्तदनुरोधेनैव मार्थिकद्रव्यपर्यायप्रविभागमभिप्रैति / स्था०२ ठा०३ उ० (अस्य भावनीय इति॥२१०॥ सेन०२ उल्ला०। (केचन निगोदजीवा लघुकी - | स्वरूपम् ‘णयाभास' शब्दे चतुर्थभागे 1603 पृष्ठे दर्शितम्।) भूय व्यवहारराशौ समायान्तीति णिगोयजीव' शब्दे चतुर्थभागे 2032 ववहारि(ण)-त्रि०(व्यवहारिन्) व्यवहारः पण्यक्रयविक्रयलक्षणो विद्यते पृष्ठे प्रतिपादितम् / ) व्यवहारराशिं प्राप्तो जीवः पुनः सूक्ष्मनिगोदमध्ये / यस्य सः। सांयात्रिके, सूत्र०१ श्रु०११ अ०व्यवहारस्य कर्तरि, व्यवहायाति न वा? इति प्रश्नः, अत्रोत्तरम् स जीवः सूक्ष्मनिगोदे याति, परं रच्छेत्तरि, व्य०१उ० घ्यावहारिक एवोच्यते इति॥११८|| सेन०४ उल्ला०। संप्रति व्यवहारिण(ण) इति द्वितीयं द्वारमभिधित्सुराहववहारवं-त्रि०(व्यवहारवत्) आगमश्रुताज्ञाधारणजीतलक्षणानां पञ्चाना- दव्वम्मि लोइया खलु, लंचिल्ला भावतो उ मज्झत्या। मुक्तरूपाणां व्यवहाराणां ज्ञातरि, स्था०८ ठा०३ उ०। व्यवहियतेऽ- उत्तरदव्वअगीया, गीया वा लंचपक्खेहिं / / 13 / / पराधजातं प्रायश्चित्तप्रदानतो येन स व्यवहारः।आगमादिकः पञ्चप्रकारः, व्यवहारिणश्चतु , तद्यथा-नामव्यवहारिणः, स्थापनासोऽस्यास्तीति व्यवहारवान्।यः सम्यगामादिव्यवहारंजानाति, ज्ञात्वा व्यवहारिणः, द्रव्यव्यवहारिणो, भावव्यवहारिणश्च / तत्र नामचसम्यक् प्रायश्चित्तदानतो व्यवहरति सव्यवहारवानिति भावः। व्य०१ स्थापने सुज्ञाने / द्रव्यव्यवहारिणो द्विधा- आगमतो, नो
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________________ ववहारि 636 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 ववहारि आगमतश्च / तत्र-आगमतो व्यवहारिशब्दार्थज्ञाः तेचानुपयुक्ताः, नोआगमतस्विविधाः-ज्ञशरीरभव्यशरीरतद्व्यतिरिक्तभेदात् / तत्र ज्ञशरीरभव्यशरीरद्रव्यव्यवहारिणः प्रतीताः। तद्व्यतिरिक्ता द्विविधाः-लौकिकाः / लोकोत्तरिकाश्च / भावव्यवहारिणोऽपि द्विविधाः-आगमतो, नोआगमतश्च / आगमतो व्यवहारिशब्दार्थज्ञाः, तत्रैवोपयुक्ताः, नोआगमतो द्विधालौकिका, लोकोत्तरिकाश्च। तत्र पूर्वार्द्धन नोआगमतो द्रव्यभावलौकिकव्यवहारिणः प्रतिपाद-यतिद्रव्ये विचार्यमाणे नोआगमतो-ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्ता लौकिका व्यवहारिणः / "खलु लंचिल्ला' इति लञ्चा उत्कोच इत्यनर्थान्तरम्, तद्वन्तः। किमुक्तं भवति-परलचामुपजीव्य ये सापेक्षाः सन्तो व्यवहारपरिच्छेदकारिणस्ते द्रव्यतो लौकिकाः व्यवहारिणः / 'भावतो उ मज्झत्था' इति / भावतः पुनः-नोआगमतो लौकिकाः व्यवहारिणो-मध्मस्था-मध्ये-रागद्वेषयोरपान्तराले तिष्ठन्तीतिमध्यस्थाः। ये परलञ्चोपचारन्तरेणारक्तद्विष्टाः सन्तोन्यायैकनिष्ठतया व्यवहारपरिच्छेत्तारस्ते नोआगमतो लौकिका भावव्यवहारिण इति भावः / अधुना लोकोत्तरिकान् नोआगमतो द्रव्यव्यवहारिणः प्रतिपादयति-'उत्तरदव्यअगीया' इत्यादि। उत्तरे--लोकोत्तरे द्रव्ये विचार्यमाणा नोआगमतो द्रव्यव्यवहारिणः, अगीता-अगीतार्थाः, ते हि यथावस्थितंव्यवहारंन कर्तुमवबुध्यन्ते। ततस्तद्व्यवहारोऽद्रव्यव्यवहार एव, भावस्य यथावस्थितपरिज्ञानलक्षणस्याभावात्। द्रव्यशब्दोऽत्राप्रधानवाची, अप्रधानव्यवहा-रिणस्ते इत्यर्थः। 'गीया वा लंचपक्खेहिं' इति / यदि वा-गीतार्था अपि सन्तो ये परलञ्चामुपजीव्य व्यवहारं परिच्छिन्दन्ति, तेऽपि द्रव्यव्यवहारिणः / अथवा-वित्तादिलञ्चया गीतार्था अपि ये ममायं भ्राता ममायं निजक इति पक्षण-पक्षपातेन व्यवहारकारिणस्तेऽपि द्रव्यव्यवहारिणः, माध्यस्थ्यस्वरूपस्य भावस्यासंभवात्। सम्प्रति नोआगमतो लोकोत्तरिकान् भावव्यव हारिणः प्राहपियधम्मादधम्मा, संविम्गा चेव ऽवमभीरू य। सुत्तत्थतदुभयविऊ,ऽणिस्सियववहारकारीय॥१४॥ प्रियो धर्मो येषां ते प्रियधर्माणः, धर्मे दृढा दृढधर्माः, राजदन्ताऽऽदित्वात् दृढशब्दस्यय पूर्वनिपातः / अत्र चतुर्भङ्गिका-प्रियधर्माणो नामैके नो दृढधा इति प्रथमो भङ्गः। नो प्रियधर्माणो दृढधश्चेिति तृतीयः। अन्ये नो प्रियधर्माणोनो दृढधर्मा इतिचतुर्थः / अत्र तृतीयो भङ्गोऽधिकृतो न शेषा इति प्रतिपत्त्यर्थं विशेषणान्तरमाह-संविग्नाः-संविना नामउत्त्रस्तास्ते च द्विधा-द्रव्यतो, भावतश्च / द्रव्यतः संविना मृगास्तेषां यतस्ततो वा विभ्यता प्रायः सदैवोत्त्रस्तमानसत्वात्। भावसंविग्ना ये संसारादुत्त्रस्त मानसतया सदैव पूर्वरात्रादिष्वेतचिन्तयन्ति-"किं मे कडं किं च ममऽस्थि सेसं, किं सक्कणिज्जं न समायरामि' इत्यादि, अत्र भावसंविगैरधिकारः / भावसंविनप्रतिपत्त्यर्थमेव विशेषणान्तरमाह'ऽवज्जभीरू' अवयं-पापं तस्य भीरवः / ये च अवद्यभीरवस्ते भावसंविना एवेति भवन्ति। अवद्यभीरुग्रहणेन भावसंविनप्रतिपत्तिः। एतांश्च यथोक्तविशेषणेन विशिनष्टि / अपि गीतार्थत्वमृते भावव्यवहारकारिणो भवन्तीति गीतार्थ (त्व) प्रतिपत्त्यर्थमाह-सुत्तत्थतदुभयविऊ'-सूत्रं च अर्थश्च तदुभयं चेति। तच्च तत्-सूत्रार्थलक्षणम्, उभयं च, तदुभयम्। सूत्रार्थतदुभयानि विदन्तीति सूत्रार्थतदुभयविदः / किमुक्तं भवतिसूत्रचिन्तायां सूत्रम्, अर्थचिन्तायामर्थ तदुभयचिन्तायांतदुभयं ये विदन्ति ते सूत्रार्थतदुभयविदः। इह सूत्रार्थवेदने चतुर्भङ्गी, सूत्रविदो नामैके नार्थविदः१।नो सूत्रविदोऽर्थविदः२।अपरे-सूत्रविदोऽपि अर्थविदोऽपि 3 / अन्ये नो सूत्र-विदो नाप्यर्थविदः 4 / अत्र तृतीयभङ्गेनाधिकारः, तत्रापि सूत्रवेलायां सूत्रविद्भिरर्थवेलायामर्थविद्भिस्तदुभयवेलायांतदुभयविद्भिरिति सूत्रार्थतदुभयग्रहणम् / 'अणिस्सियववहारकारी य' इति निश्रारागः निश्रा संजाता अस्येति निश्रितः, न निश्रितोऽनिश्रितः, स चासौ व्यवहारश्च अनिश्रितव्यवहारस्तत्करणशीला अनिश्रितव्यवहारकारिणः, न रागेण व्यवहारकारिण इति भावः एकग्रहणे तज्जातीयस्याऽपि ग्रहणमितिन्यायादनुपश्रितव्यवहाराकारिण इत्यपि द्रष्टव्यम्। तत्र उपश्रा नाम-द्वेषः, उपश्रा संजाता अस्येति उपश्रितः,न उपश्रितोऽनुपश्रितः स चासौ व्यवहारश्च तत्करण-शीला अनुपश्रितव्यवहारकारिणः, न द्वेषण व्यवहारकारिण इत्यर्थः। अथवा-एषोऽनुवर्तितः सन मह्यमाहारादिकमानीय दास्यतीत्य-पेक्षया, निश्रा-एष मदीयः शिष्यः, यदि वाप्रतीच्छकः, अथवा-मदीयं मात्रादिकुलमेतत् मदीया वा एते श्रावका इत्यपेक्षया उपश्रा। शेषं तथैव। अनिश्रितव्यवहारकारिण इति / किमुक्त भवति-लञ्चोपचारनिरपेक्षव्यवहारकारिणः न रागेण व्यवहारकारिणः। किमुक्तं भवति-पक्षपातनिरपेक्षव्यवहारपरिच्छेत्तार इति। अथ प्रियधर्मदृढधर्मसंविग्नसूत्रार्थतदुभयविद्ग्रहणे किं फल-मित्यत आह। पियधम्म दढधम्मे य, पचओ होइ गीयसंविग्गो। रागो उ होइ निस्सा, उवस्सिती दोससंजुत्तो॥१५॥ प्रियधर्मणि दृढधर्मे ,चः समुच्चये, भिन्नक्रमश्च / गीते-गीतार्थे सूत्रार्थतदुभयविदि संविने च प्रायश्चित्तं ददति प्रत्ययोविश्वासो भवति। यथाऽयं प्रियधर्मा दृढधर्मः गीतार्थः सं विनश्चेति नान्यथा प्रायश्चित्तव्यवहारकारीति प्रियधर्मादि पदानामुपन्यासः। तथा अनिश्रितव्यवहारकारिण इत्यत्र यो निश्राशब्दस्तदर्थमाचष्ट-रागस्तु भवति निश्रा, अनुपश्रितव्यवहारकारिण इत्यत्रोपश्रितशब्दस्य व्याख्यानमाह- उपश्रितो द्वेषसंयुक्तः, उपश्रा-द्वेष इत्यनर्थान्तरमिति भावः। द्वितीयं व्याख्यानं निश्री-पश्राशब्दयोर्दर्शयतिअहवा आहारादी, दाहिइ मज्झंतु एस निस्साओ। सीसो पडिच्छओ वा, होइ उवस्सा कुलादी वा // 16|| अथवेति-व्याख्यानान्तरोपदर्शने, एषोऽनुवर्तितः सन् महामाहारादिकं दास्यतीत्येषा अपेक्षा लञ्चोपजीवनस्वभावा, निश्रा, तथाएष मे शिष्य एष मे प्रतीच्छक इदं मे मातृकुलम्, इदं मे पितृकुलम् आदिशब्दाद्- इमे मम सहदेशनिवासिनः भक्ता वा इमे सदैव ममेत्यपेक्षाभ्युपगमस्वरूपा भवत्यु पश्रा, अस्यां हि व्यवहारिणो भवन्ति। 'गीया वा लंचपक्रोहिं' इति वचनात्तत एवायं प्रतिषेधः। उक्ता व्यवहा
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________________ ववहारि 637 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसण रिणः / व्य०१उ०। जीत० (अष्टौ व्यवहारिणः अष्टावव्यवहारिणश्व मृते, औ०। 'ववहार' शब्दे पृष्ठेऽनुपदमेव दर्शिताः) वसट्टमरण-न०(वशार्त्तमरण) विषयपारतन्त्र्यतया दुःखमरणे, भ०२ ववहिअ-(देशी) मत्ते, देवना०७ वर्ग 41 गाथा। श०१ उ०ा स्था०। ज्ञा० स०ा उत्त०। प्रव०नि००। (व्याख्या 'मरण' ववहिय-न०(व्यवहित) शून्ये, विशे०। यत्र प्रकृतं मुक्त्वा अप्रकृतं शब्देऽस्मिन्नेव भागे 106 पृष्ट गता।) व्यासतोऽभिधाय पुनः प्रकृतमुच्यते तादृशे सूत्रदोषे, विशे०। अनु०॥ वसण-न०(वसन) वर्तने, आ०म० अ०। आवासे, जं० २वक्ष०ा व्यवहितं नाम-अन्तर्हितम्, यत्र प्रकृतमुत्सृज्याप्रकृतं विस्तरतो-- चीनकादौ वरत्रे, पं० भा०५ कल्प० वस्त्रे, "चैलं वासं वसणं च, अंसुअं ऽभिधाय पुनः प्रकृतमधिक्रियते। यथा-हेतुकथामधिकृत्य सुप्तिङन्त- अम्बरं यत्थं"। पाइ०ना०६६ गाथा। परिधाने, ज्ञा०१ श्रु०१६ अ० पदलक्षणप्रपञ्चमर्थशास्त्र वाऽभिधाय पुनर्हेतुवचनम् / आ० म०१ अ०। प्रज्ञा० नि०चू। ववहियकप्पणा-स्त्री०(व्यवहितकल्पना) साकाङ्क्षाणां व्यवहितानां पदाना *वृषण-पुं० / अण्डे, औ०। विपा०। पोत्रके, उपा०२ अ०॥ सान्निध्यकल्पनालक्षणे व्याख्यानाङ्गे, आचा०१ श्रु०१अ०५ उ०) *व्यसन-न०। आयति, [आव० ४अ०] दुःखे, धूतादिषु, दर्श०४ तत्त्व। ववीलय-पुं०(अपव्रीडक) अपव्रीडयति-लां मोचयतीति अपव्रीडकः। अथव्यसनसप्तकमाहआलोचकं लज्जयाऽतीचारान् गोपायन्तं यो विचित्र-मधुरादिवचन- इत्थी जूयं मजं, मिगयावसणं तहा वयणफरुया य। प्रयोगैस्तथा कथञ्चनापि वक्ति, यथास लज्जामपहाय सम्यगालोचयति दंडफरुसत्तमत्थस्स, दूसणं सत्त वसणाई॥१३४|| तादृशे आलोचना , व्य०१उ० यद्राजा अन्तःपुरस्त्रीषु नित्यमासक्तस्तिष्ठति तत् स्त्रीव्यसनम्, यद्यूतं वस-त्रि०(वश) पारतन्त्र्ये, ज्ञा० 1 श्रु०८ अ० अस्वायत्ततायाम्, सूत्र०१ विनोदेनानवरतं दीव्यति तत् द्यूतव्यसनम्, यत्पुनर्मद्यपानकेन नित्यं श्रु०४ अ०१उ०। ज्ञा०ा औ० स० प्रश्र० बले, ज्ञा०।१श्रु०१७ अ०। मूर्छित इवास्ते तन्मद्यव्यसनम्, यत्तु मृगया आखेटकस्तत्रानेकेषां मृगादिसामर्थ्य, षो०१५ विव० भ०। औ०। जन्तूनां वधं करोति तन्मृगयाव्यसनम्, एतेषु चतुर्पु व्यासक्तो राज्य*वस-पुं०। वसतीति वसः अच् प्रत्यये रूपम्। वासिनि, जै०गा। कार्याणि न शीलयति / तथा यत् खरपरुष-वचनैः सर्वानपि जनान्नि*वृष-पुं०। वृषभे, कर्म०१ कर्म। विशेषमाक्रोशति तद्वचनपरुषताव्यसनम, अत्र वचनदोषेण दुरधिगमनीयो वसंत-पुं०(वसन्त) लोकोत्तररीत्या नवमे मासे, सू०प्र० 10 पाहु०। भवति। यत्पुनरपराधे स्वल्पे वाऽपराधे अत्युग्रदण्डं निवर्तयति तद्दण्डपाकल्प०ा स्था०ा ऋतुभेदे, सच चैत्रफाल्गुनौ। ज्ञा०१ श्रु०१अ०। (इति रुष्यव्यसनम् / अथच-पौरजानपदानामत्युग्रदण्डभयेन नश्यतां क्रमेण जैनमतम् / ) चैत्रवैशाखाविति लोके, चं०प्र० 12 पाहु०। सू०प्र०। चप्रजायाः अभावे कीदृश राज्यमिति।अर्थोत्पत्तिहेतवो येषामाद्युपायप्रश्न० / भ०1 अनु०। वसन्तऋतौ, "सुरही महू वसंतो।" पाइ० ना० चतुष्टयप्रभृतयः प्रकारास्तेषां यदूषणं तदथर्दूषणव्यसनम्, अत्र 126 गाथा। चार्थोत्पत्तिहेतून् दूषयते न तथाविधोऽर्थ उत्पद्यते, अर्थोत्पत्त्यभावे वसंतउर-न०(वसन्तपुर) मगधजनपदे स्वनामख्याते नगरे, यत्र समाधि- चाचिरादेव कोशः परिहीयते, परिहीनकोशस्य विनष्टमेव राज्यम्। एतानि को नाम कुटुम्बी प्रतिवसति / सूत्र०२ श्रु०६ अ०। आव०। विशे०। सप्त व्यसनानि / बृ० 1 उ०। ज्ञा०। ध००। दुःखे, पाइ० ना० 170 आ०म० / दर्श०। आ० क०।ज्यो०। आ० चू० गाथा / राजाद्युपप्लवे, ज्ञा०१ श्रु०२ अ०। 'वसणं पुण वाइत्तगीतादि' वसंतणिव-पुं०(वसन्तनृप) विडम्बप्रायचैत्रमासपरिहासकृतराजे, पो० / वसणं णाम तम्मि वसतीति वसणं / तस्स वा वसे वट्टतीति वसणं / 12 विवश नि०चू०१ उ०। व्यसनेन सामायिकलाभो भवति। आ०म०। आ०क०। वसंतमास-पुं०(वसन्तमास) फाल्गुनमासे, चं०प्र० 10 पाहु०। व्यसने द्वौ भ्रातराबुदाहरणम्वसंतय-पुं०(वसन्तक) उज्जयिन्यां प्रद्योतनृपतेर्हस्तिवाहके, आ००४ "कुतोऽपि शकटेन द्वौ, भ्रातरौ गच्छतः पथि। अ०।अम्बष्ठे, "एष प्रयाति सार्थः, काञ्चनमाला वसन्तकश्चैव / भद्रवती चक्रे मण्डलनी रथ्या-स्थितां दृष्ट्वाऽवदन्महान् // 1 // घोषवति, वासवदत्ता उदयनश्च / / 1 / / " आ० चू० 4 अ०। आव०॥ शकटं टालयेतस्त्वं,पापो नाटालयल्लघुः। ('सेणिय' शब्दे कथा वक्ष्यते) ऊचे चास्यां विपन्नायां, भ्रातः? किं भावि सूतकम् // 2 // वसंतसिरी-स्त्री०(वसन्तश्री) विराटदेशे धराधरनगरे वसन्तसेनगृहपते- श्रुत्वा सा सज्ञिनी तत्र, चक्रच्छिन्ना मृता तदा। र्भार्यायाम, दर्श०२ तत्त्व। (रागेतदुदाहरणं दर्शनशुद्धिग्रन्थादावुक्तम्।) कुरुदेशे श्रीनिवेशे, हस्तिनागपुरे परे।।३।। वसट्ट-त्रि०(वशात) वशेनेन्द्रियपारतन्त्र्येण ऋता:-पीडिताः वशार्ताः। कुले क्वापिबभूव स्त्री, तां धनः श्रेष्ठ्युपायत। वशं वा-विषयपारतन्त्र्यमृताः-प्राप्ताः वशार्ताः / ज्ञा०१ श्रु०१७ अ०। बृहच्छाकटिकस्यात्मा, पूर्व तस्याः सुतोऽभवत्॥४॥ कर्मायत्तेषु, सूत्र० 1 श्रु०३ अ०१ उ०॥ जीवितादप्यभीष्टं तं, परां पुष्टिं निनाय सा। वसट्टमयग-पुं०(यशार्त्तमृतक) वशेनेन्द्रियपारतन्त्र्येण ऋत:-पीडितो द्वितीयोऽप्युदरे तस्याः, समुत्पन्नः स्वकर्मणा // 5 // वर्शातः, वशं वा-विषयपारतन्त्र्यमृतः -प्राप्ता वशातः / वशार्ततया | निविष्ट इव पाषाणो नाभीष्टो गर्भगोऽपि सः।
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________________ वसण 938- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि - प्राज्यैः पातनभैषज्यैः, स कृतैरपि नाऽपतत्॥६॥ वसभकरण-न०(वृषभकरण) वृषभमुद्दिश्य यत्र किञ्चित् क्रियते तादृशे जातश्च वैरिवद् दृष्ट्वा, दास्याश्छर्दितुमर्पितः। स्थाने, आचा०२ श्रु०२ चू०३ अ०॥ स दृष्ट्वाऽऽनीय पित्रातु, दास्याः कस्याश्चिदर्पितः / / 7 / / वसभक्खेत्त-न०(वृषभक्षेत्र) वर्षासु साऽऽचार्यगणावच्छेदकगच्छ-- अविज्ञातं जनन्या तं,जनकोऽवर्द्धयत्सुतम्। त्रयावासभूते क्षेत्रे, नि०चू०१७ उ० (तत्र वृषभक्षेत्रं द्विविधमिति, 'खेत्त' महीयान् राजललितो, गङ्गदत्तस्तु कन्यसः / / 8 / / शब्दे तृतीयभागे७६२ पृष्ठे गतम्।) सुखादिकादिकं ज्यायान, यत्किंचिल्लभते ततः। वसभग्गाम-पुं०(वृषभग्राम) तादृशे वृषभावासे, समयपरिभाषिते ग्रामे, विश्राणयति तस्यापि, भागं भ्रातुः कनीयसः / / 6 / / वर्षासु एकविंशतिर्जना उपलक्षणत्वादृतुबद्धे पञ्चदश जना यत्र जधन्येन तं विज्ञाय कुतोऽप्यम्बा, दृष्टा हन्ति यथा तथा। संस्तरन्ति स वृषभग्राम उच्यते। उत्कर्षतस्तु द्वयोरपिकालयोत्रिंश त्सहस्रसंख्याको गच्छो यत्र संस्तरति।०३ उ०। (गाथा 'उग्गह' शब्दे अन्यदेन्द्रमहे जाते, भुजाने स्वजने जने||१०|| द्वितीयभागे७१३ पृष्ठे गता।) पित्राऽऽनीय निवेश्याऽध-स्तुल्यं यावत्स भोज्यते। वसम(ह)वाहण-पुं०(वृषभवाहन) गोवाहने ईशानेन्द्रे, जं०२ वक्ष० सा तावत्प्रेक्ष्य वृत्ताऽथ, केशेष्वाकर्षति स्म तम् / / 11 / / वसभ(ह)वीहि-स्त्री०(वृषभवीथि) ज्योतिषप्रसिद्धेशुक्रादिमहाग्रहाणां चपेटाद्यैस्ताडयित्वा-शक्षिपच्छन्दनिकान्तरे। सञ्चरणयोग्ये आकाशमार्गे ,स्था०६ ठा०३ उ०। नीत्वाऽन्यत्रादत्सोऽथ, स्नानं तातेन कारितः / / 12 / / वसमा(हाणुगत्त-न०(वृषभानुगत्व) वृषभस्य स्वस्थानानुगतकल्पे, तदा च तत्र भिक्षार्थ मेकःसाधुःसमाययौ। सत्वे,नि०यू०२३० श्रेष्ठी पप्रच्छतं मातुः, पुत्रोऽनिष्टःप्रभो? भवेत्।।१३।। वसमाणुजाय-पुं०(वृषभानुजात) अनुजातशब्दः सदृशवचनोवृषभस्यामुनिरुवाच नुजातः-सदृशो वृषभानुजातः। वृषभाकारेण चन्द्रसूर्य-नक्षत्राणि यस्मिन् यं दृष्ट्वा वर्द्धते कोपः, स्नेहश्च परिहीयते। योगे एव तिष्ठन्ति, तादृशे योगे, सू०प्र०१२ पाहु०॥ स विज्ञेयो मनुष्येण, एष मे पूर्ववैरिकः // 14|| वसभी-स्त्री०(वृषभी) अभिषेकायाम, नि०चू० 15 उ०/ यं दृष्ट्वा वर्द्धते स्नेहः, क्रोधश्च परिहीयते। वसमुद्ध-(देशी) काके, देवना०७वर्ग 46 गाथा। स विज्ञेयो मनुष्येण,एष मे पूर्दबान्धवः।।१५।। वसमाण-त्रि०(वसत्) मासकल्पविहारिणि, आचा०२श्रु०१चू०१ अ०४ ततः श्रेष्ठी तमाहैवं, दीक्षस्वामुंसुतं मम! उ०। नि०चू०वसमाणे उडुबद्धिए अट्टमासे वासावासं व णवमए य नीतस्तेन गुरूपान्तं, गुरुभिः सोऽथ दीक्षितः॥१६॥ णवविहविहारेतो वसमाणो भण्णति। नि०चू०२उ०। वास्तव्ये, आचा०२ समागत्य ततः सद्यः,पार्श्वे तस्यैव सद्गुरोः। श्रु०१ चू०१ अ०११ उ०। ज्यायानपि प्रवद्राज, भ्रातृस्नेहानुरागतः // 17|| वसल-(देशी) दीर्घ, देवना०७ वर्ग 33 गाथा। जातौ साधू ततस्तौ द्रौ, तपोनिष्ठौ क्रियापरौ। वसवत्ति-त्रि०(वशवर्तिन) आत्मवशं वर्तितुं शीलमस्येति वशवर्ती / कृशयन्तौ भवं स्वंच, व्यदुषातामनिश्रया!|१५|| वशेन्द्रिये, सूत्र०१ श्रु०१अ०३ उ०। इतस्तपःप्रभावेन, भूयांसं भाविजन्मनि। वसह-पुं०(वृषभ) वृषभे, "उक्खा वसहाय वच्छाणा" पाइ०ना०१५१ जगदानन्दन इति, निदानं विदधे लघुः / / 16 / / गाथा। गत्वाऽथ त्रिदिवं पश्चा-निदानी वसुदेवसूः। वसहि-स्त्री०(वसति) "वितस्ति-वसति-भरत-कातर-मातुलिड्ने नवमो वासुदेवोऽभू-द्रलदेवोऽपरः पुनः॥२०॥" हः" ||1214|| इति तस्यहःचा प्रश्ना निवासे, अनु०। स्थाने, आ०क०१अ01 आव०ा आ०म०) स्था० १ठा आवासस्थाने, ज्ञा०१ श्रु०१५अ० निलये,ग्रामे,जीता वसणपत्त-त्रि०(व्यसनप्राप्त) इन्द्रियपरायत्तताक्रोडीकृतत्वेनोन्मादं वा उपाश्रये, बृ०२ उ० (तत्रोपाश्रय-निक्षेपः उवस्सय' शब्दे द्वितीयभागे प्राप्ते,दर्श०३ तत्त्व। अनु० 1047 पृष्ठे उक्तः।) वसणभूय-त्रि०(व्यसनभूत) आपद्भूते, भ०३श०७ उ०। (1) इह यथा याद्गुपाश्रय आश्रयणीयस्तथोच्यतेवसणविणास-पुं०(वृषणविनाश) वक्तिकरणे,स०) सर्वोऽपि शय्याविषयः, इत्युद्देशार्थाधिकारप्रतिपादनाय वसणसेल-पुं०(व्यसनशैल) कष्टपर्वते, अष्ट०२२ अष्टO1 . नियुक्तिकृदाहवसणि(ण)-त्रि०(व्यसनिन्) सप्टानां व्यसनानामन्यतरेण व्यसनेन युक्ते, सव्वे विय सिजविसो-हिकारगा तह वि अस्थि उ विसेसो। बृ० १उ०२ प्रक०। उद्देसे उद्देसे, वुच्छामि समासओ किंचि॥३०२।। वसधि-स्त्री०(वसति) वसन्ति साधवोऽस्यामिति वसतिः। उपाश्रये, बृ०२ सर्वेऽपि-त्रयोऽप्युद्देशका यद्यपि शय्याविशुद्धिकारकास्तथाऽपि उ०। आचा प्रत्येकमस्ति विशेषस्तमहं लेशतो वक्ष्य इति। वसभ(ह)-पुं०(वृषभ) वृषम् पुण्यं तेनभातीति, वृषभः। संथालागीतार्थे, एतदेवाहबृ०३ उ०। आव० कल्पनागृहीतवसतिनिवासिनि यतिजने, ध०३ उग्गमदोसा पढमि-ल्लुयम्मि संसत्तपञ्चवाया १य। अधि०। उपाध्यायो वृषभानुग इति कृत्वा वृषभ इत्युच्यते बृ०१३०२ | बीयम्मि सोअवाई, बहुविहसिज्जाविवेगो 2 य॥३०३।। प्रक०। महायूथाधिपे, व्य०३ उ० गवि, जं०२ वक्ष०ा तत्र प्रथमोद्देशके वसतेरुद्गमदोषा आधाक दियस्तथा
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________________ वसहि 936 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि गृहस्थादिसंसक्तप्रत्यपायाश्च चिन्त्यन्ते, तथा द्वितीयोद्देशके शौचवादि- | दोषा बहुप्रकाराः शय्याविवेकश्चत्यागश्चप्रतिपाद्यत इत्ययमर्थाधिकारः। तइए जयंतछलणा, सज्झायस्सऽणुवरोहि जइयव्वं / समविसमाईएसु य, समणेणं निज्जरवाए 3 // 30 // तृतीयोद्देशके यतमानस्योद्रमादिदोषपरिहारिणः साधोर्या छलना स्यात् तत्परिहारे यतितव्यम् / तथा स्वाध्यायानुपरोधिनी समविषमादौ प्रतिश्रये साधुना निर्जरार्थिना स्था तव्यमित्ययमर्थाधिकारः / आचा० २श्रु०१चू०२ अ०१उ० (2) साण्ड सपरिकर्माणमुपाश्रयं न मार्गयेत्। से भिक्खु वा भिक्खुणी वा अभिकंखिज्जा उवस्सयं एसित्तए अणुपविसित्ता गामवाजाव रायहाणिं वा, से जं पुण उवस्सयं जाणिज्जा, सअंडंजाव ससंताणयं तहप्पगारे उवस्सए नो ठाणं वा सिजं वा निसीहियं वा चेइज्जा / / से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण उवस्सयं जाणिज्जा अप्पंडं०जाव अप्पसंताणयं तहप्पगारे उवस्सएपडिलेहित्ता पमजित्ता ताओ संजयामेव ठाणं वा०३ चेइज्जा। (सू०६५४) स भिक्षुः उपाश्रयम्-वसतिमेषितुं यद्यभिकाक्षेत्ततो ग्रामादिकमनुप्रविशेत, तत्र च प्रविश्य साधुयोग्यं प्रतिश्रयमन्वेषयेत्, तत्र च यदि साण्डादिकमुपाश्रयं जानीयात्ततस्तत्र स्थानादिकं न विद-ध्यादिति दर्शयति सुगमम्, न वरम्, स्थान-कायोत्सर्गःशय्या-संस्तारकः निषीधिकास्वध्यायभूमिः 'णो चेइज' त्ति नो चेतयेत्-नो कुर्यादित्यर्थः / एतद्विपरीते तु प्रत्युपेक्ष्य स्थानादीनि कुर्यादिति। (3) सम्प्रति प्रतिश्रयगतानुद्रमादिदोषान् बिभणिषुराह-- से जं पुण उवस्सयं जाणेज्जा अस्सि पडियाए एणं साहम्मियं समुहिस्स पाणाइं०४ समारम्भ समुहिस्स कीयं पामिचं अच्छिचं अणिसट्टे अमिहडं आहटु चेएइ, तहप्पगारे उवस्सए पुरिसंतरकडे वा अपुरिसंतरकडे वाजाव अणासेविते वा णो ठाणं वाचेइजा एवं बहवे साहम्मिया एगं साहिम्मिणं बहवे साहम्मिणीओ।।से भिक्खू वा भिक्खुण वा से जं पुण उवस्सयं जाणेजा बहवे समणमाहणअतिहिकिविणवणीमए पगणिय 2 समुहिस्स तं चेव भाणियव्वं // से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण उवस्सयं जाणेज्जा बहवे समणमाहणअतिहिकिवणवणीमए पगणिय 2 अस्सि पडियाए एगं साहम्मियं ससुहिस्स पाणाइ ४०जाव चेतेइ, तहप्पगारे उवस्सए अपुरिसंतरकडे ३०जाव अणासेविए णो ठाणं वा०३चेइज्जा०,३ अह पुणेवं जाणेजा पुरिसंतरकडे जाव सेविए पडिलेहित्ता पमज्जित्ता तओ संजयामेव चेतेजा। (सू०६४४) सः-भावभिक्षुर्यत् पुनरेवंभूतं प्रतिश्रयं जानीयात्, तद्यथा-'अस्सि पडियाए' त्ति एतत्प्रतिज्ञया एतान् साधून प्रतिज्ञायोतिश्य प्राण्युपमदर्ने साधुप्रतिश्रयं क्वचिच्छ्राद्धः कुर्यादिति / एतदेव दर्शयति--एकं साधर्मिकं साधुमहत्प्रणीतधर्मानुष्ठायिनं सम्यगुद्दिश्य-प्रतिज्ञाय प्राणिनः समारभ्य प्रतिश्रयार्थमुपमर्च प्रतिश्रयं कुर्यात, तथा--तमेव साधु सम्यगुद्दिश्य क्रीतं मूल्येनावाप्तम्, तथा--'पामिच्च' ति अन्यस्मादुच्छिन्नं गृहीतम् 'आच्छेज्ज' त्ति आच्छेद्यमिति भृत्यादेबलादाच्छिद्य गृहीतम्। अनिसृष्टं स्वामिनाऽनुत्सङ्कलितम्।अभ्याहृतम्-निष्पन्नमेवान्यतः समानीतम्। एवं भूतं प्रतिश्रयम् / आहृत्य-उपेत्य 'चेएइ' त्ति साधवे ददाति तथा प्रकारे चोपाश्रये पुरुषान्तरकृतादौ स्थानादिन विदध्यादिति। एवं बहुवचनसूत्रमपि नेयम् / तथा साध्वीसूत्रमप्येकवचनबहुवचनाभ्यां नेयमिति। आचा०२ श्रु०१चू०२ अ०१ उ०। (5) औद्देशिकी शय्यां न गृह्णीयात्जे भिक्खू उद्दिसियं सेज्जं अणुपविसति अणुपविसंतं वा साइजइ॥६३॥ उद्दिश्य कृता औद्देसिका उवागच्छति प्रविसति तस्स मासलहुँ। गाहाओहेण विभागेण य, दुविहा उद्देसिया भवे सिज्जा। ओहेणेव तियाणं, वारसभेदे विभागम्मि॥११८|| ओही संखेवो अविसेसियं समणाणं वा माहणाणं वाण णिदिसति, एवं वा अविसेसेति, पञ्चण्हं वाजणाण अत्ताए कता, पविट्ठाजा भवन्ति ताहे जो अणेगेण णातिकतो पविसति तस्स कप्पति। एसा हुउद्देसिया। वारसभेया विभागे भवन्तिजामातियमंडवओ, रसवति रसालआवणगिहादी। परिभोगमपरिभोगे, चउण्हऽट्ठा कोइ संकप्पे // 11 // जामातियणिमित्तं कायमाणं मंडवो कतो आसी, भत्ते वा रसवती कता आसी, रहवाएवा साला कता आसी, ववहरणट्ठा वा आवणो कतो आसी, अप्पणो वा गिहं कतं आसी, अप्पणा परिभूतं अपरिभूतं वा अप्पणो णिरुवभोजि भूयं ण भुंजंति।। इमेसिं चउण्ह / गाहाउद्देसगा समुद्दे-सगा य आदेस तह समादेसा। एमेव कामचउरो, कम्मम्मि वि होति चत्तारि॥१२०॥ एयस्स इमं वक्खाणं / गाहाजावंतियमुद्देसा,पासंडाणं भवे समुद्देसा। समणाण नु आदेसा, निग्गंथाणं समादेसा॥१२१|| आचंडाला जावंतियं उद्देस भण्णति, सामण्णेणं पासंडीण समुद्देस भण्णति, समणा णिगंथसक्कतावसगेरुयआजीवा एतेसिं उद्दिढ आदेसं भण्णति। णिगंथा-साहू, तेसिं उद्दिष्टुं समादेसं भण्णति। कडेतिएते थेव चतुरो भंगा। इमं विसेसलक्खणं / गाहासडितपडिताण करणं, कुडुकडादीण संजतऽट्ठाए। एमादि कडं कम्म, तुभं जं पुणो कुणति / / 12 / / कुडकडातीणं सडियं संजयट्ठा करोति, कुडकडातीणं पडियं संजयट्ठा करेति, कुड्डकडातीणं खंडपडियंसंजयट्ठा करेति आदिग्गहणेणं छावणथू
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________________ वसहि 640- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि णादियाण एवमादी कडं भण्णति। कस्स पुव्वकयं भंजित्ता तेणेव दारुणा चोक्खतरं अण्णं करेंति तं कम्म भण्णति। गाहाउद्देसियम्मि लहुगो, पत्तेयं होति चउसु ठाणेसुं। एमेव कमे गुरुओ, कम्मादिगलहुगतिसु गुरुगा / / 123 / / उद्देसे मासलहुं / विभागुद्देसे चउसु वि भंगेसु मासलहुं / तवकालविसिट्ठकडे चउसु वि भेदेसु मासगुरुं तवकालविसेसियं / कम्मे जावंतियभेदे चउलहुयं। सेसेसु तिसुचउगुरुं। गाहा सुत्तणिवातो ओहे, आदिविभागे य चउसु विपदेसुं। एते सामण्णतरा, पविसंताणादिणो दोसा॥१२४|| असिवे ओमोयरिए, रायपदुढे भए व गेलण्णे। अद्धाणरोहए वा, जयणाए कप्पती वसितुं // 12 // जयणा जाहे पणगहाणीए मासलहुं पत्ता। नि०चू०५उ01 .... (5) संयतार्थमसंयतः प्रतिश्रयं कुर्यात् से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण असंजए भिक्खुपडिण्णाए कंडइए वा उकंविए वा छपणे वा लित्ते वा घट्टे वा मढे वा सम्मट्टे वा संपधूमिते वा तहप्पगारे उवस्सए अपुरिसंतरकडे० जाव अणासेविए णो ठाणं वा सेज वा णिसीहिं वा चेतेला, अह पुण एवं जाणेज्जा पुरिसंतरकडेजाव आसेविए पडिलेहित्ता पमञ्जित्ता तओ संजयामेव०जाव चेतेजा। (सू०६४+) 'से भिक्खू वे' त्यादि(सूत्रद्वयं) पिण्डैषणानुसारेण नेयं सुगमंच।तथा'से' इत्यादि स-भिक्षुर्यदि पुनरेवंभूतं प्रतिश्रयं जानीयात्, तद्यथाभिक्षुप्रतिज्ञया असंयतो-गृहस्थः प्रतिश्रयं कुर्यात्, सचैवंभूतः स्यात्तद्यथा-कण्टकितः- काष्ठादिभिःकुड्यादौ संस्कृतः, 'उक्विए' त्ति वंशादिकम्बाभिरवबद्धः, 'छन्ने व' त्ति दर्भादिभिश्छादितः, लिप्तोगोमयादिना, धृष्टः--सुधादिखरपिण्डेन, मृष्टः स एव लेपनकादिना समीकृतः, संसृष्टः-भूमिकम्मादिना संस्कृतः, संप्रधूपितः-दुर्गन्धापनयनार्थ धूपादिना धूपितः। तदेवंभूते प्रतिश्रये अपुरुषान्तरस्वीकृते यावदनासेविते स्थानादिन कुर्यात्, पुरुषान्तरकृतासेवितादौ प्रत्युपेक्ष्य स्थानादि कुर्यादिति। (6) प्रतिकर्मजे मिक्खू वा भिक्खुणी वा सपरिकम्म से जं अणुपविसति अणुपविसंतं वा साइजइ // 65 // सह परिकम्मेण सपरिकम्मा मूलगुणउत्तरगुणपरिकर्मयस्यास्तीत्यर्थः, तस्स मासलहुं आणाझ्या य दोसा। नि० चू० 5 उ० अथ कतिविधं मूलकरणमुत्तरकरणं वा शोधनीयमत आहसत्तेव य मूलगुणे, सोही सत्तेव उत्तरगुणेसुं। संसत्तम्मि य छकं, लहु गुरु लहुगा चरिम जाव / / 585|| सप्तव-सप्तप्रकारैव शोधिर्मूलगुणेषु / गाथायामेकवचनमार्षत्वात्, सप्तैव-सप्तप्रकारैवोत्तरगुणेषु शोधिः। किमुक्तं भवति-मूलकरणं सप्तभेदं शोधनीयं वसतेः साधुभिः उत्तरकरणमपि साविधमिति। तथा संसक्तेउपाश्रये षट्कं पृथिव्यप्तेजोवनस्पतित्रसकायसागारिकलक्षणं शोधनीयम् / किमुक्तं भवति-यथोक्तरूपेण षट्केन संसक्तायामपि न स्थातव्यम्, यदि तिष्ठति ततो लघु गुरु लघुका यावचरम पाराञ्चितं तावत्प्रायश्चित्तम् / तद्यथा-पृथिव्यादिभिः कायैः संसक्तायां तिष्ठति चत्वारो लघुकाः, हरितैरनन्तैश्चत्वारो गुरुकाः, प्रत्येकबीजैः पञ्च रात्रिन्दिवानि लघुकानि, अनन्तबीजैस्तान्येव गुरुकाणि, मित्रैरनन्तैर्मासगुरु, बीजः प्रत्येकैरनन्तैश्च मित्रैः सचित्तैरिव त्रसैः संसक्तायां चतुर्गुरु। एवं तिष्ठतः प्रायश्चित्तम्, अथ तिष्ठन् पृथिवीकायादिसंघट्टनादि करोति तदा लघुकगुरुकादि प्रायश्चित्तम् / 'छक्कायचउसु लहुगा' इत्यादिगाथया प्रागुक्तप्रकारेणाभिहितं तावदवसेयं यावच्चरमं पाराश्चितमिति! साविधं मूलकरणं शोधनीयमित्युक्तमतः सप्त मूलभेदानाह-- पट्टीवंसो दो धा-रणाउ चत्तारि मूलवेलीतो। मूलगुणेहि उवहया, जा सा आहाकडा वसही // 18 // उपरितनस्तिर्यक्तया पृष्ठवंशः द्वौ मूलधारणौययोरुपरिपृष्ठवंशस्तिर्यनिपात्यते, चतसश्च मूलवेलयः / उभयोः धारणयोरुभयतो द्विद्विवेलिसंभवात् / एते वसतेः सप्त मूलभेदाः / एतैर्मूलगुणैः सप्तभिरुपहता या वसतिः सा आधाकृता भवति, साधूनाधाय संप्रधार्य कृता आधाकृता, पृषोदरादित्वादिष्टरूपनिष्पत्तिः / उत्तरकरणं पुनरिदं सज्जवधम्। वंसगकडणोकडणं, छावणलेवणदुवारभूमी य। सप्परिकम्मा वसही, एसा मूलोत्तरगुणेसुं॥५६०|| वंशका ये वेलीनामुपरि स्थाप्यन्ते,पृष्ठवंशस्योपरितिर्यक्, कटनम्कटादिभिः समन्ततः पाश्वानामाच्छादनम्, उत्कण्टनम्-उपरि कण्टिकानां बन्धनम्, छादनंदर्भादिभिराच्छादनम्, लेपनं-कुड्यानां कर्दमेन गोमयेन च लेपप्रदानम्। 'दुवारि ति संयतनिमित्तभन्यतो वसतेफ़्रीकरणम्, 'भूमि' त्ति समभूमिकरणम् / एतत्सप्त-विधमुत्तरकरणम्। एषा सपरिकर्मा वसतिर्मूलगुणैरुत्तरगुणैश्च / एषा नियमेनाविशोधि-कोटिः, अन्येऽपि चोत्तरगुणा वसतेर्विद्यन्ते / कृता विशोधिकोटिः। के तेऽन्ये उत्तरगुणा इत्यत आहदूमिय-धूमिय-वासिय,उज्जोविय-वलिकडा-अवन्ना-या सित्ता संमट्ठा विय, विसोहिकोडीकया वसही॥५६१|| दूमिया-नाम सुकुमारलेपेन सुकुमारीकृतकुड्या सेटिकया धवलीकृतकुड्या वा, धूपिता-अगु(ग)रुप्रभृतिभिः,वासिता पटवासकुसुमादिभिः,उयोतिता--अन्धकारेऽग्निकायेन कृतोद्योता, बलिकृता-यत्र संयतनिमित्तं बलिविधानं कृतम् / अवन्ना नाम-यत्र भूमिरुपलिप्ता सिक्ता-आवर्षणकरणतः,सम्भृष्टा सम्मार्जन्या संयतनिमित्तम्। एवमुत्तरगुणैः कृता वसतिर्विशोधिकोटिर्भवति। __ अत्रैव प्रायश्चित्तविधिमाहअप्फासुएण देसे, सव्वे वादूमियादिचउलहुगा। अफासुयधूमजोती,देसम्मि विचउलहू हॉति / / 512 //
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________________ वसहि 141 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि सेसेसु फासुएणं, देसे लहुसथ्वहिं भवे लहुगा। संमजणसाहाँकुसा-दिछिन्नमत्तं तु सचित्तं // 563|| यत्र देशतः सर्वतो वा अप्रासुकेन दूमितादि आदिशब्दात्समस्तान्यपि पदानि गृहीतानि, तत्र तिष्ठतः प्रत्येकं प्रायश्चित्तं चत्वारो लघुकाः / यत्र पुनरगुरुप्रभृतिभिधूपनमन्धकारेऽग्रिकायेन उद्द्योतनं तत्र नियमादप्राशुकसचित्तोऽग्निकाय इति देशेऽपि चत्वारो लघुकाः, किमुत सर्वतः। शेषेष्वपि तमुद्द्योतितं च मुक्त्वा अन्येषु दूमितवासितबलीकृतवातासिक्तमृष्टरूपेषु भेदेषु प्राशुकेन देशतः- करणे मासलघु, सर्वतश्चत्वारो लघवः। तथासंमार्जने तत्र सचित्तशाखाकुशादिछिन्नमात्रंतत्यदिदेशतः सर्वतो वा सम्माय॑ते तदा चतुर्लघु। मूलुत्तर चउभङ्गो,पढमे बिइए य गुरुगसविसेसा। तइयम्मि होइ भयणा, अत्तट्टकडो चरिमसुद्धो // 66 // मूलगुणाः-पृष्ठवंशादयस्तेषु मूलोत्तरगुणेषु चतुर्भङ्गी। गाथायां पुंस्त्वं प्राकृतत्वात्, मूलगुणा अपि पृष्ठवंशादयः / संयतनिमित्तं मूलोत्तरगुणा अप्यविशोधिकोटिगता वंशकादयः संयतनिमित्तमिति प्रथमो भङ्गः, अत्र प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः, द्वाभ्यां गुरवस्तद्यथा--तपसा कालेन च / मूलगुणाः संयतार्थम्, उत्तरगुणाः-अविशोधिकोटिगताः स्वार्थमिति द्वितीयः। अत्र चत्वारो गुरुकास्तपोगुरवः काललघुकाः। 'तइयम्मि होति भयण' ति मूलगुणाः स्वार्थमुत्तरगुणाः संयतार्थमिति तृतीयो भङ्गः / तस्मिन् भजना सा चेयम-ये अत्रोत्तरगुणास्ते यद्यविशोधिकोटिगतास्तदा चतुर्गुरवस्तपोलघवः कालगुरवः / अथ विशोधिकोटिगतास्तत अप्राशुकने देशे सर्वस्मिन् चापरिकर्मणि चत्वारो लघवः। प्राशुकेन देशतो मासलघु, सर्वत्र चत्वारो लघुकाः। आत्मार्थ मूलगुणा आत्मार्थमेव चोत्तरगुणा इत्येवमात्मार्थकृतश्चरमभङ्गःशुद्धः / तदेवं द्विविधकरणोपघातेति द्वारं व्याख्यातम्। बृ०१उ०१प्रक०ा नि००। उपायकारणा अण्णे य इमे-- संठावणलिंपणता, भूमीकम्मे दुवारसंथारे। थिग्गलकरणे पडिपुं-छणे य दगणिग्गमे चेव / / 153|| संकमकरणे य तहा, दगवातविलाणहोतपिहणे य। उच्छेव संधिकामा, ओवग्घा चउ उवस्स तस्सेते // 15 // दारगाहाद्वयं चत्तारि दारगाहाए वक्खाणेति। गाहासडितपडिताण करणं, संठवणालिंपभूमिकुलियाणं / संकोचणवित्थरणं, पडुच कालं तु दारस्स / / 15 / / अवयवाणंसंडणं, एगदेसखंडस्स पडणं एतेसिं संठवणालिंपभूमिकुलियाणं कुड्डं भूमिए विसमाए समीकरणं, भूमिपरकम्मे सीतकालं पडुच वित्थिण्णदुवारा संकुडा कजति णिवायऽट्ठा, गिम्हं पडुच संकुडादुवारादिसाला वत्थिण्णा कजति पवायट्ठा। गाहातज्जातमतजता, संथारा थिग्गला तु वातऽहा। पडिपुच्छणातु तेसिं, वासा सिसिरे णिवातट्ठा / / 156|| संथारा तज्जया उवट्टगा करेंति, अतज्जाया कविया करेंति, 'थिग्गल' त्ति गिम्हे वातागमट्ठा गवक्खादिछिड्डे करेंति, यासासु व सिसिरेसु वा णिवातट्ठा तेसिं चेव पडिपुच्छणा। गाहादगणिग्गमों पुवुत्तो,पुवुत्तो संकमो य दगवातो। तिण्ह परेणं लहुगा, वसिमे मूलं चउगुरू देसे // 157|| मूसगविलाण पिहणं, करेइ उच्छेवों संधिकम्मं पि। ऍग दुगतिग चउलहुगा, वाराओ जाव वा हो ति।।१५८|| दगणिग्गमो दगवीणिया साय बितियउद्देसगे पुव्वुत्ता, संकमो पयमग्गो सो वि तत्थेव पुव्वुत्तो, दगवातो सीतघरा साय उज्झंखणी भण्णति, मूसगातिकयविलाणं पिहणं करेंति / परिपेलवत्थाति तेणोचगलणं उत्थेवो, कडगस्स य संधी असंवुडा तीए संवुडकरणं संधिकम्मं एवं कुडुस्स वि इमं पच्छित्तं / एकं थिग्गलं करेंति मासलहुं, दोसु दो मासा, तिसु तिण्णिमासा / तिण्ह परेण चउलहुगा। पडिपुच्छणे वि एवं चेव / उच्छेवं जति वारा लिंपति साहरति भंडगं वा उड्डति, तति चउलहुगा। अण्णे भणंति-भासलहुंदवगाते संधिकम्मे य एतेसुचउरोलहुगा। वसिमे मूलं, अवसिमे चउगुरुं,देसे त्ति संठवणलिंपणभूमिकम्मे य अफासुएण देसेसव्वे वाचउलहुं। एतेसुचेवफासुएण देसे सव्वे वा चउलहुं, एतेसुचेव फासुएण देसे मासलहुं, सव्वे चउलहुं। संथारदुवारे चउलहुँ। उदगवाहसंकमेसु मासलहुं। पच्छा एते मूलुत्तरदोसा केवतिकालं परिहरियव्वा। उत्तरमाह। गाहाकामं तदुविपरीतो, केह पदा होंति आवरणजोग्गा। सव्वाणुवाइ केई ,केई तकालुवट्ठाई // 15 // काममवधृतार्थे द्रष्टव्यः, किमवधृतं यथा वक्ष्यति 'उदुविवरीय' त्ति / पूर्वाय व्याख्या गाहाहेमंतकडा वासा, सिसिरे कप्पंति अत्तपरिभुत्ता। तहिवसे केइण तु, केई तकालठाणाइ॥१६०|| उत्तगुरणोवघाता हेमंतजोग्गा जे कया ते गिम्हे अजोगेति काउंकप्पंति, गिम्हे जे कता पवातऽट्ठा ते सिसिरवासासु अजोग्गेति काउं कप्पेंति। केति दूमितादि गिहिहिं अत्तट्ठिया परिभुत्ता तक्कालं चेव कप्पंति। सव्वाणुवातिके इति सव्वकालं अणुजतंति / तद्देस-भावेन कदाचिकल्पंतितेसमूलगुणा इत्यर्थः / केई तक्कालट्ठाण' त्ति अस्य व्याख्याअत्तट्ठिया परिभुत्ता तद्दिवसं केइ गिहीहिं अत्तट्ठियपरिभुत्ता तदिवसं चेव साधूण कप्पंति / अहवा-तं कालं तउड बजेउ अन्नकाले उवट्ठायंतिण उक्केति त्ति मूलगुणा गतार्थम्। गाहासुत्तणिवाओ एत्थं, विसोहि कोडीय णिवयई णियमा। एए सामण्णयरं, परिवसंताणाइणो दोसा।।१६१।। दुवमितादि एसु सुत्तणिवातो भवे कारणे। गाहाअसिवे ओमोयरिए, रायपदुट्टे भए व आगाढे।
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________________ वसहि 642- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि गेलण्णउत्तमढे,चरित्तऽमज्झाइए असती॥१६२॥ उत्तमट्ठपडिवण्णओ साहू अण्णा य वसही ण लब्भति, जा य लब्भति सा उत्तमट्ठपडिवण्णाण पाउग्गा न भवति,चरित्तदोसो वा अण्णासुक्सहीसु असिवमत्थि, अण्णा वसही वाहिं च असिवा तेण गच्छंति,अण्णं वा मासकप्पपाउरगं खेत्तंणऽस्थि। गाहाआलंबणे विसुद्धे, सत्तदुर्ग परिहरिज्ज जतणाए। आसज्जतु परिभोग, जतणा पडिसेवणं कमेणं // 163|| आलंबणं कारणं विशुद्धे स्पष्ट कारणेत्यर्थः। 'सत्तदुगं' मूलगुणा पट्ठि- | वंशादि सत्त, उत्तरगुणा विवंसगादि सत्त एतो व सत्तगा। परिहरणा णाम परिभुज्जे जयणाए एगगपरिहाणीए। जहा मासलहुगादिपत्तो कारणं पुण आसज्ज पङिसेहिय वसहीसु परिभोग काउकामो अप्पबहुयजयणाए पणगपरिहाणीए जाहे चउगुरुं पत्तो ताहे इमं अप्पबहुए य। गाहाएगा मूलगुणेहिँ तु, अविसुद्धा इत्थिसारियो बितिया। तुल्ला दो पुण वसही, कारणे कहि तत्थ वसितव्वं / / 164|| एगा मूलगुणेहिं असुद्धा, अवरा सुद्धा इत्थिपडिबद्धा। दोसुय चउगुरूं, कहिं ठाओ एत्थ भण्णति।। गाहाकम्मपसंगडणवत्था, अणुण्णदोसा व ते य समतीता। कितिकरणभुत्तमुत्ते, संकातिपरीयणेगविधा / / 16 / / आहाकम्मिया सज्जपरिभोगे आहाकम्मपसङ्गो कतो भवति। परिभुंजति त्ति पुणो करेति एवं पसङ्गः। एगेण आयरिएण एपा आहाकम्मा सेज्जा परिभुत्ता, अण्णे वि परिभुज्जंति त्ति अणवत्था कता भवति। परिभुंजतेण य पाणिवहे अणुण्णा कया भवति। एते उक्ता दोषाः। एते साम्प्रतं अतिक्रान्ता भवन्ति / इत्तरीणाम-इत्थीपडिबद्धाए भुत्तभोगीण कितिकरणं, अभुत्तमादीण कोउपडिगमणादी दोसा। गिहीणयसंकाएते एत्थ ठिया णूणं पडिसे-वंति। संकिते वा णिस्संकिए मूलं / इत्थि सागारिए एवं अणेगे दोसा भवन्ति। तम्हा आहाकम्मए ठायंति। गाहाअथवा गुरुस्स दोसा, कम्मे इत्तरिऍ होति सम्वेसिं। जतिणो तवोवणेसुं, वसंति लोए य परिवातो।।१६६।। आहाकम्मवसहीए गुरुस्स चेव पच्छित्तं; ण सेसाणं / जतो भणितंकस्सेयं पच्छित्तं गणिणो इत्तरीए इत्थीसोगारियाए सव्वसाहूण संति मरणादिया दोसा। लोगे य परिवातो। साहू तवोवणे वसंति / अतिशयवचनम्। गाहा-- अथवा पुरिसाइण्णा, णातायारे यपुरिस बालासु। पटवुडासु य नातिसु,णंगं वजिज्जए ऑहाकम्मं // 167 / / जा इत्थी सागारी य सा पुरिसाइण्णा-पुरिसबहुला इत्यर्थः / ते वि पुरिसा णाताधारा-सीलवंतः। इत्थिया वाविसीलवती उभए पुरिसा ते। अथवा ताओ इत्थियाओ बालाअपत्तजोव्वणा अतीव वुड्डा / अथवा तरुणीओ वि तेसिं साहूणं णालबद्धा / अङ्गं माओ एरिसो आहाकम्म वजिज्जति ण इति सागारियं / यतश्चैवं / गाहातम्हा सव्वाऽणुण्णा, सव्वणिसेहोयणऽत्थि समयम्मि। आयव्वयं तुलेजा, लामाकंखिज्ज वाणियओ॥१६॥ तस्मात्कारणादेकस्य वस्तुनःसर्वथा-सर्वत्र सर्वकालमनुज्ञेतिन भवति, नापि प्रतिषेधः। किंतु आयव्ययं तुलयेत्। यत्र बहुतर-गुणप्राप्तिस्तद्भजन्ते वाणिजवत्। गाहादव्वपडिबद्ध एवं, जावंतियमाइगासु भइयव्वा। अप्याण अप्पकालं, हेट्ठाओ मा अणुच्चम्मि॥१६॥ एवं दव्वपडिबद्धसिज्जा जावंतियमातिसु सेज्जासु अप्पबहुत्तेण भइयव्वा / जत्थ अप्पतरा दोसा तत्थ ठायव्वा / अहवा अप्पा ते साहू अप्पंच कालं अच्छिओकामताहोदव्यपडिबद्धाएठायंतिनजावंतियासु / नि० चू०५ उ० मूलोत्तरगुणशद्धिमाहसे भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण उवस्सयं जाणेजा, असंजए भिक्खुपडियाए खुडियाओ दुवारियाओ,महल्लियाओ कुज्जा, जहा पिंडेसणाए०जाव संथारगं संथारेज्जा, बहिया वा णिणक्खु तहप्पगारे उवस्सए अपुरिसंतरकडे नो ठाणं०३ अह पुणेवं पुरिसंतरकडेजाव आसेविए पडिलेहित्ता पमज्जित्ता तओ संजयामेव० जाव चेइज्जा। (सू०-६५४) स भिक्षुर्य पुनरेवंभूतं प्रतिश्रयं जानीयात्तद्यथा-असंयतो-गृहस्थः साधुप्रतिज्ञय लघुद्वारं प्रतिश्रयं महाद्वारंविदध्यात्, तत्रैवंभूते पुरुषान्तरस्वीकृतादौ स्थानादि न विदध्यात्, पुरुषान्तरस्वीकृतासेवितादौ तु विदध्यादिति। अत्र सूत्रद्वयेऽप्युत्तरगुणा अभिहिताः, एतद्दोषदुष्टाऽपि (वसतिः) पुरुषान्तरस्वीकृतादिका कल्पते, मूल-गुणदुष्टातुपुरुषान्तरस्वीकृताऽपिन कल्पते। ते चामी मूलगुण-दोषा:-'पट्ठी वंसो दो धारणाउ चत्तारिमूलवेलीओ' एतैः पृष्ठवंशादिभिः साधुप्रतिज्ञया या वसतिः क्रियते सा मूलगुणदृष्टा। आचा०२ श्र० १चू० 210130 / (अविधिप्रमार्जने दोषाः 'पडिलेहणा' शब्दे पञ्चमभागे 354 पृष्ठे दर्शिताः।) 'अइरित्ताए चउप्पत्ता सद्देति दारं' प्राप्तम्, अस्य व्याख्याजुत्तप्पमाणअतिरे-गहीणमाणादि तिविधसंधातु। अप्फुण्णमाणफुण्णा, संबाधा चेव णायव्वा / / 53|| वसही तिविहा जुत्तप्पमाणा, अतिरित्तप्पमाणा, जा साधूहि संथारगप्पमाणं गेण्हमाणेहिं अप्फुण्णा वावित्ति वुत्तं भवति सा जुत्तप्पमाणा, जा अमाणफुण्णा सा अतिरेगा, जत्थ संबाहाए ठायंति सा हीणप्पमाणा णायव्या। तीसुं वि वज्जवीसुं, जुत्तपमाणा य कप्पती ठाउं।
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________________ वसहि 943 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि तस्स असतिहीणाए, अतिरेगाए य तस्स सती॥५४॥ एतासु तिसु विवजंतीसु पढमं जुत्तप्पमाणाए ठायव्वं / तस्साऽसति हीणप्पमाणाए, तस्स असति अतिरेगप्पमाणाए ठायव्वं / तत्थ जुत्तप्पमाणाए हीणप्पमाणाए य सहस्स असंभवो, अइरित्तप्पमाणाएसद्दसंभवो। जतो भण्णतिअतिरित्ताएँ ठिताणं, इत्थी पुरिसाय विसयधम्मट्ठी। उज्चुगमणुज्जुगावा, एज्जाही तत्थिमे उज्जू // 15|| पुरिसित्थीआगमणे, आवरणे आणमादिणो दोसा। उप्पजंती जम्हा, तम्हा तु णिवारए ते उ॥५६|| अइरित्तप्पमाणाए ठिताणं इत्थीपुरिसो य विसयधम्मट्ठी तत्थागच्छेज्जा, स्त्रीपरिभोगार्थीत्यर्थः / सो पुण पुरिसो दुविहो-उज्जू, अणुजू व,आगच्छेज्जा मायावी अमायावित्ति वुत्तं भवति। अतिरित्तवसहिट्ठिताणं जइ इत्थी पुरिसो य आगच्छेजइ तो इमा सामायारी / पुरिसित्थी। गाहा / अइरित्तवसहीए, जइ इत्थी पुरिसोय आगच्छंति तो वारेयव्वा। अह ण वारेति तो चउगुरुं आणादिणो य दोसा भवन्ति / तम्हा दोसपरिहरणत्थं ता णि वारेयव्वाणि। तत्थिमो ‘उजु' ति अस्य व्याख्याअम्हे मो आदेसा, रत्तिं वत्था पभाएं गच्छामो। एसाय मज्झ मजा, पुट्ठोऽपुट्ठो व सो उज्जू / / 57 / / जो सो इत्थिसहितो पुरिसो आगओ एवं भणेजा अम्हे मो आदेसा, पाहुण त्ति वुत्तं भवति। इह वसहीए रत्तिं वसिउं पभाए गच्छिस्सामो। एसा य इत्थिया मज्झं भज्जा भवति, एवं पुच्छितो वा अपुच्छिओ वा कहेला सह रात्रौ विरहिते अप्पगासे वसिउंन युजतेत्यर्थ। इय अणुलोमेण तेसिं, चउकभयणा अणिच्छमाणेहिं। णिग्गमणपुटवदिहे, ठाणं रुक्खस्स वा हेट्ठा // 60 / / इय-एवं अणुलोमेण अणुण्णवणाएण वण्णति तेसिं कीरइ पण्णविजंता वि जति णेच्छंति णिग्गंतुं तदा चउक्कभयणाचउभंगो कजति / पुरिसो भद्दगो इत्थी विभदिया। एवं चउभंगो जंतत्थ भद्दतरं तं अणुलोमिज्जति। जइ निगच्छति तो रमणिज्जं / अहं बितियततियभंगेसु एगतरग्गाहतो अणिग्गंताणं,चउत्थं उभयतो अभद्रत्वात् अणिग्गच्छंताणं णिम्गमण वा साहूणं, पुव्यदिढे त्तिजं पुव्वदिट्ठसुण्णघराति तत्थ ठायंति। सुण्णघराऽभावओ गामबहिया रुक्खहेट्ठा वि ठायंति, ण य तत्थ इत्थिसंसत्ताए चिट्ठति। अह बहिया इमे दोसापुढवी-ओस सजोती, हरिततसा-तेणउवधि-वासंवा। सावयसरीरतेणग, फरसादी जाव ववहारे॥६१।। बहिया गामस्स रुक्खहेट्ठाओ आगासेवा सचित्तपुढवीओसा वा पडति, अण्णा वा सजोतिया वसही अस्थि, हरियकाओ वा तस्स वाधणा, तहा वितेसुठायंति,ण तेहिं सह वसंते। अहवा-बहिता उवहितेणा, वासंवा पडति, सीहादिसावयभयं वा, सरीरतेणा वा अस्थि, अण्णाय णत्थि वसही, ताहेण बहिया वसंति तत्थेव वसंति। फरुसवयणेहिं णिट्ठरा वेति जा ववहारो वितेण समंण कजति। एवं वा विहाति। अम्हे दाणि विसहिमो, इङ्किमपुत्तबलेवं ण सहेजा। णीहि अणंते बंधणे, उवद्विते सिरिघराहरणं // 6 // साहू भणंति-अम्हे खमासीला इदाणी विविहं विशिष्टं वा सहेमो विसहिमो / जो तत्थ आगारवं साहू सो दाइजति / इमो साहू कुमारपव्वतितो साहस्सजोहीवा मा ते पंतो वट्टइ इड्डिपुत्तो वा राजादीत्यर्थः। बलवं-सहस्रयोधी असहमाणो रोसा बलाणीणेहि ति। ततोवरं सयंचेव णिग्गतो जति णिग्गतो तो लट्ठ / अह ण णीति तो सव्वे वा साहू एगो वा बलवंतं बंधति। इत्थी विजइतडफडेति तो सा वि वज्जति। उवट्ठिएति गोसे मुक्काणि राउले करणे उवट्टिताणि। तत्थ कारणियाण ववहारो दिजति / सिरिघराहरणदिट्ठतेण-जइ रण्णो सिरिघररयणा अवहरंतो चोरो गहितो तो से तुज्झे के दंड पयत्थह ? ते भणंतिसिरसे घेप्पति, सूलाएवा भिज्जइ। साहू भणति-अम्ह विएस रयणावहारं अव्वावातिओ मुहो मुक्को बंधणेणा केई भणंति के तुज्झ रतणा? साहू भणंति-णाणादी। कहं तेसिं अवहारो ? अणायारपडिसेवणातो अवध्यानगमनेनेत्यर्थः / गतो उज्जू। इदाणी अणुल्लू भण्णतिअम्हे मो आएसा, ममेस, भगिणी तु वदति तु अणुजू। वसिया गच्छीहामो, रत्तिं आरद्धनिच्छुभणं // 63|| ताए घंधसालाए ठिताणं स इत्थी पुरिसो आगतो भणति-अम्हे मो आदेसा पाहुणा / एषा म स्त्री भगिनीन भार्या एवं ब्रवीति अणुज्जू / इह वसित्ता रत्ति पभाए गमिस्सामो / एवं सो अणुकूलत्थं से णट्ठिओ अहवा इमो उज्जूअण्णो वि होति उज्जू, सम्भावेणेव तस्स सा भगिणी। तं पि हु भणंति चित्ते, इत्थी वजा किमु सचेट्ठा / / 58|| अण्णो त्ति अणेण पगारेण उज्जूभवति-सो वि पुच्छिओ वा अपुच्छिओ वा भणति / एस मे इत्थिगा भगिणी भवति / सा य तत्थ परमत्थेणेव भगिणी सभाएणेत्ति वुत्तं भवति / तं पिहु त्ति तदिति तं भगिनीवादिनं बुवन्ति-अम्हं चित्तकम्मे वि लिहिया इत्थी वजणिज्जा किं पुण जा सचेयणा / तो तुमवि उवागच्छाहि। अपिः पदार्थसंभावने। किं संभावयति यदि भगिनोवादिनं एवं ब्रवीति किमिति भार्यावादिनं हुर्यस्मादित्यर्थः। / म भज्जावादी भण्णति। ण वट्टए अम्हं सह निहत्थेहिं वसिउं! किंचवंभवतीए पुरतो, किह मोहिह पत्तमादिसरिसाणं / ण वि भइणीई जुज्जति, रत्तिं विहरम्मि संवासो // 56 // बंभव्वतं धरैतिजे ते बंभव्वती। ताण पुरओ अग्गउत्ति वुत्तं भवति। कह केणप्पगारेण मोहिह-अणायारंपडिसेविस्सहा प्रायसो पिता पुत्रस्याग्रतो न अनाचार सेवते भाउं वा। अहवा आदि त्ति आदि-सदाओ भाउं माउं पिउं वा। एवं तुमं पि पुत्तमादिसरिसाणं पुरतो कहं अणायारं पडिसेवसीत्यर्थः / जो णिवादी सो एवं पण्णविनति-ण वित्ति पच्छद्धं, भगिन्या पाय
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________________ वसहि 644 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि रत्तिं आरद्धेति रत्तिं सो इत्थियं पडिसेविउमारद्धो, तो वारिज्जति। तह वि अट्ठायमाणे णिच्छुभणं पूर्ववत्। णिच्छुभंतो वा रुट्ठो। आवरितो कम्मेहि, सत्तू इव उडिओ थरथरंतो। मुंचति अ में डियाओ, एकेक मे ति णिग्गमणं // 64 / / आवरिओ-प्रच्छादितः, क्रियत इति कर्म-ज्ञानावरणादि, अहितं करोति, कर्मणा प्रच्छादितत्वात्। कथं जेन सो साहूणं उवरिं सत्तू इव उद्वितोरोसेण थरथरतो-कंपयन्तेत्यर्थः। वावित-जोगेणं मुंचतिभेंडिया-- उक्कोडिओ पोक्काउ त्ति वुत्तं भवति 'भे'-युष्माकं एकैकं व्यापादयामीत्यर्थः। एवं तम्मि विरुद्धेणिग्गमणं तह चेव उ,णिद्दोससदोसणिग्गमे जतणा। सज्झाए झाणे वा, आवरणे सहकरणे य॥६५॥ णिग्गमओणंताओवसहीओ तह चेवजहा पुव्वं भणियं। जतितेबहिया णिद्दोसं अह सदोसं अतो अणिग्गमा तत्थेवऽच्छंता जयणाए अच्छंति। का जयणा ?सज्झाए पच्छद्धं पूर्ववत् कंठं / एवं पि जयंताणं कस्सवि कामोदओ भवेज्जा / ओइण्णे य इमं कुना। कोऊहलं व गमणं, सिंगारे कुडछिडकरणे या दिहे परिणयकरणे, भिक्खुणे मूलं दुवे इतरे // 66|| लहुओ लहुया गुरुगा, छलहु छग्गुरुयमेव छेदो य। करकम्मस्स तु करणे, भिक्खुणों मूलं दुवे तत्थ // 67 / / दो विगाहाओ जुगवं गच्छंति। कोऊहलं से उप्पण्णं कहमणायारं सेवंति त्ति। एत्थ मासलहू! अह से अभिप्पाओ उप्पज्जति, आसण्णे गंतुं सुणेति अचलमाणस्स मासगुरुं गमणं ति पदभेदे कए चउलहुअं। सिंगारसद्दे कुडकडतरे सुणेमाणस्स चउगुरुं। करणादि कुड्डुछिडुकरणे छलहुं / तेण छिड्डण अणायारं सेवमाणा दिवा छग्गुरुं। करकम्मं करेमि त्ति परिणते छेदो / आरूढत्तो करकम्मं करेउं मूलं भिक्खुणो भवति / दुवे त्ति अत्तिसेगायरिया तेसिं इयरे त्ति अणवट्ठ-पारंचिया अंतपायच्छित्ता भवंति / हेट्टा एक्ककं हुस्सति।अहवा-कोउआदिसु सत्तसुपदेसुमासगुरूं विवञ्जित्ता, मासलहुगादि जहासंखं देया 1 सेसं तहेव कंठ। सीसो पुच्छति कहं साहू जयमाणो एवं अज्जेति। भण्णतिवडपादवउम्मूलण-तिक्खमिव विज्जले वि वचंतो। सद्देहि हीरमाणो, कम्मस्स समजणं कुणति // 6 // जहा वडपादपो अणेगमूलपडिबद्धो वि णदीसलिलवेगेणं उम्मूलिज्जति, एवं साहू वि / णदीपूरेण वा तिक्खेण कयपयत्तो वि जहा हरिजति / विगतं जलं विज्जलं सिढिलकर्दमेत्यर्थः, तत्थ कयपयत्तो वि वचंतो पडति, एवं साहू वि सद्देहिं पच्छद्धविसयसद्देहिं भावे हीरमाणे कम्मोवज्जणं करोति। तत एक अतिरित्तवसहीए त्तिगतं। नि०चू०१ उ०। (7) पिण्डादिषु वसतिदोषानाहउवस्सयस्स अंतोवगडाए पिंडए वालोयए वा खीरं वा दहिवा सप्पिं वा नवणीए वा तेल्ले वा फाणियं वा पूर्व वा सकुली वा सिहि (ह) रिणी वा उक्खिन्नाणि वा विक्खिन्नाणि विइकिन्नाणि वा विप्पइन्नाणि वा, नो कप्पइ निग्गन्थाण वा निग्गंथीण वा अहालंदमवि वत्थए।।८|| अथाऽस्य सूत्रस्य कः सम्बन्ध इत्याहदेहोवहीण डाहो, तदन्नसंघट्टणा य जोतिम्मि। संगालचरणडाहो, एसो पिंडस्सुवग्घाओ।।१८२२॥ तेन शैक्षेण अन्येन वा श्वगवादिना ज्योतिषः संघट्टने कृते देहस्य वा उपधेर्वा दाहो भवतीति पूर्वसूत्रे उक्तम्, अत्रापि पिण्डादि-युक्तोपाश्रये स्थितस्य साङ्गारं सरागं 'रागेण सइंगाले' ति वचनात्। पिण्डादिकं समुद्विशतश्वरणस्य दाहो भवतीत्येष पिण्डसूत्रस्य पूर्वसूत्रेण वा सहोपोद्धातःसंम्बन्धः,अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य (8) सूत्रस्य व्याख्या-उपाश्रयस्यान्तर्वगडायां पिण्डको वा लोच-को वा क्षीरं वा दधि वा नवनीतं वा सप्पिर्वा तैलं वा फाणितं वा पूपो वा शष्कुलिका वा शिखरिणी वा एतानि उत्क्षिप्तानि वा व्यतिकीर्णानि वा विकीर्णानि वा भवेयुः नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा यथालन्दमपि वस्तुमिति सूत्रार्थः। (पिण्डविषयः 'पिंड' शब्दे पञ्चमभागे 110 पृष्ठे गतः1) अथ भाष्यम्पूवो अ उल्लखलं, वुट्टगुलो फाणियं तु दविओ वा। सकुलियाई सुकं, तु खज्जगं सूयि सव्वं / / 183|| पूपः-खाद्यकविशेषः, तद्ग्रहणेन लपनश्रीप्रभृतिकं सर्वमप्या-खाद्यकं गृहीतम्। वुट्टगुलो त्ति' आर्द्रगुडः द्रविकपिण्डगुड एवपानीये तद्भावितः, एतदुभयमपि फाणितमुच्यते, शष्कुलिग्रहणेन मोदकादिकं सर्वमपि शुष्कखाद्यकं सूचितम्। जा दहिसरम्मि गालिय, गुलेण चउजायसुगयसंभारा। कूरम्मि छुन्भमाणी, बंधति सिहरं सिहिरिणी उ||१४|| दध्ना शरे गालितेनगुडेन या निष्पन्ना अपरं च चतुर्जातकसुकृतसंभारा एलात्वक्तमालपत्रनागकेशराख्यैश्चतुर्भिर्गन्धद्रव्यैराधिक्येनोपजनितवासा कूरमध्ये प्रक्षिप्यमाणा शिखरं बध्नाति सा शिखरिणीत्युच्यते, उत्क्षिप्तादिपदव्याख्या प्राग्वत्। __ अर्थतेषु तिष्ठतां प्रायश्चित्तमाहपिंडाई आइन्ने, निग्गन्थाणं न कप्पई वासो। चउरो य अणुग्घाया, तत्थ वि आणाइणो दोसा / / 18 / / पिण्डादिभिः शिखरिणीपर्यन्तैराकीपणे प्रतिश्रये निर्ग्रन्थानामुपलक्षणत्वानिर्ग्रन्थीनां च न कल्पते वासः / अथ तिष्ठन्ति ततश्चत्यारोऽनुद्धाता मासाः, तत्राप्याज्ञादयो दोषा मन्तव्याः। चउरो विसेसिया वा,दोण्ह वि वग्गाण ठायमाणाणं / अहवा चउगुरुगाई, नायव्वाछेयपजंता॥१८६|| अथवा द्वयोरपि निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीवर्गयोस्तत्र तिष्ठतोश्चतुर्गुरुकास्तपःकालविशेषिताः। तद्यथा-भिक्षोश्चतुर्गुरुकं तपसा कालेनच, लघुवृषभस्य कालगुरु , उपाध्यायस्य तपोगुरु, आचार्यस्य तपसा कालेन गुरुकम्। एवं भिक्षुणीप्रभृतीनामपि मन्तव्यम् / अथवा-चतुर्गुरुकमादौ कृत्वा छेदपर्यन्ता चतुण्णमपि यथाक्रमंशोधितिव्या।
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________________ वसहि 945 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि अह पुण एवं जाणेज्जा णो उक्खिन्नाइं० 4 रासिकडाणि वा पुंजकडाणि वा कुलियकडाणि वा मितिकडाणि वा लंछियाणि वा मुद्रियाणि वा पिहियाणि वा कप्पइ निगन्थाण वा निगन्थीण वा हेमंतगिम्हासु वत्थए। अस्य व्याख्या प्राग्वत्, नवरं यत्र पिण्डादीनि राशीकृतादिरूपाणि तत्र गीतार्थानां कल्पते ऋतुबद्ध स्तुमिति सूत्रदयम्। अत्र 'पुंजो उ होइ बद्धो, सो चेव वईसि आयओ रासी' इत्यादि भाष्यगाथा-पिण्डाद्यभिलापेन प्राग्वन्मन्तव्यम्, यावत्-'का सा य इच्छा समुप्पन्ने' त्ति। __कीदृशी पुनरिच्छा समुत्पन्नेत्युच्यतेअणुभूया पिंडरसा, नवरं मुत्तूणमेसि पिंडाणं। . काहामो कोउहलं, तहेव सेसा वि भणियव्वा // 187 / / अनुभूतास्तावदन्येषां पिण्डानां रसाः, नवरमेतेषां पिण्डानां रसान् मुक्त्वा अतः करिष्यामः-पूरयिष्यामः कौतूहलमिति विचिन्त्य प्रसुप्तेष्वशेषसाधुषु तानि भोज्यानि भुङ्क्ते, शेषाण्यपि क्षीरादीनि 'अनुभूया खाररसा' इत्याधभिलापेन तथैव भणित-व्यानि यावत् द्वितीयपदे तत्रापि प्रतिश्रयेऽपि स्थिताः अगीतार्थाः साधुषु भिक्षाचर्यादिनिर्गतेषु सूरयः सागारिकमित्थं ब्रुवते। तेल्लगुलखंडमच्छं-डियाण महुपाणसकराईणं / दिट्ठ मए संनिचया, अन्ने देसे कुटुंबीणं ||18|| तैलगुडखण्डमत्स्यण्डिकानां मधुपानशर्करादीनां संनिचया अन्यस्मिन् | देशे कुटुम्बिनां गेहेषु दृष्टाः। शेषं सर्वमपि पिण्डाभिलापेन प्राग्वदवसातव्यम्। अह पुण एवं जाणिज्जा नो रासिकडाइं०जाव नो भित्तिकडाई कोहाउत्ताणि वा पल्लाउत्ताणि वा मंचाउत्ताणि वा मालाउत्ताणि वा कुंभिउत्ताणि वा करभिउत्ताणि वा ओलित्ताणि वा विलित्ताणि वालंछियाणि वा मुद्रियाणि वा पिहियाणि वा कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गन्थीण वा वासावासं वत्थए।॥१०॥ अस्य व्याख्या प्राग्वन्नवरं कुम्भी-मुखाकारा कोष्ठिका,करभीघटसंस्थानसंस्थिता तयोरागुप्तानि प्रक्षिप्य रक्षितानि कुम्भ्यागुप्तानि वा। अस्य भाष्यम्कुंभीकरहीऍ तहा, पल्ले माले तहेव मंचे य। उल्लित्तपिहियमुद्दिय,एरिसए ण कप्पती वासो॥१८॥ यत्रोपश्रये कुम्भ्यां वा करभ्यां वा पल्ये वा माले वा चशब्दोक्तकोष्ठे वा प्रक्षिप्तानि पिण्डप्रभृतानि भवन्ति, तानि चावलिप्तानि पिहितानि मुद्रितानि वा भवेयुः ईदृशे न कल्पते वस्तुम्। तथा चाहउडुबद्धम्मि अतीते, वासावासे उवट्ठिए संते। ठांयंतगाण गुरुया, कस्स अगीतत्थसुत्तं तु / / 16 / / ऋतुबद्धे काले व्यतीते वर्षावासे चोपस्थिते यद्यपि सूत्रेण तत्रोपाश्रये स्थातुमनुज्ञातं तथापिन कल्पते, यदि तिष्ठन्ति ततश्चतुर्गुरुकाः। शिष्यः पृच्छात-कस्य पुनरेतत्प्रायश्चित्तम् / सूरिराह-अगीतार्थस्य / सूत्रं पुनः गीतार्थमधिकृत्य प्रवृत्तम् / शेष पिण्डाभिलापेन तथैव वक्तव्यम्। नो कप्पइ निग्गन्थीणं अहे आगमणगिहंसि वा वियडगिहंसि वा वंसीमूलंसि वा रुक्खमूलंसि वा अम्भावगासियंसि वा वत्थए।॥११॥ इह निर्ग्रन्थनिन्थीनां सामान्यतः सदोषा उपाश्रया उक्ताः / अथ केवलानामेव निर्ग्रन्थीनामभिधीयत इत्यनेन संबन्धेनायातस्यास्य व्याख्या अथशब्दः इहेति शब्दार्थे पथिकादीनामागमेनोपेतं तदर्थ वा गृहमागमनगृहम्, विवृतमनावृतं गृहं विवृतगृहम्, वंशीमूलं नाम गृहादहिः स्थितमलिन्दकादिकम्, वृक्षमूलं तु वृक्षेऽप्यसहकारादेर्मूलमधोभागः / अभावकाशमुच्यते एतेषु प्रतिश्रयेषु निर्ग्रन्थीनां वस्तुं न कल्पते इति सूत्रसंक्षेपार्थः॥११॥ अथ भाष्यविस्तारःआगमणे वियडगिहे, वंसीमूले य रक्खमम्मासे। . ठायंतगाण गुरुगा, तत्थ वि आणादिणो दोसा ||161 // आगमनगृहे विवृतगृहे वंशीमूले वृक्षमूले अभ्रावकाशे च तिष्ठन्तीनां निर्ग्रन्थीनां चत्वारो गुरुकाः, तत्राप्याज्ञादयो दोषा मन्तव्याः। अथवाआगमगिहादिएसुं, मिक्खुणिमादीण ठायमाणीणं / गुरुगादी जा छेदो, विसेसितं चउगुरू तासिं // 192|| आगमनगृहादीनां भिक्षुण्यादीनां तिष्ठन्तीनां चतुर्गुरुकमादौ कृत्वा छेदं यावत्प्रायश्चित्तम्। तद्यथा-भिक्षुण्याश्चतुर्गुरुकम्, अभिषेकायाः षड्लघुकम्, गणावच्छेदिन्याः षड्गुरुकम्, प्रवर्तिन्याः छेदः / यद्वा-आसां चतसृणामपि तपःकालविशेषितं चतुर्गुरुकं भवति / तत्र भिक्षुण्यास्तपसा कालेन लघुकम्, अभिषेकायाः कालेन गुरुकम्, गणावच्छेदिन्यास्तपसा गुरुकम्, प्रवर्तिन्यास्तपसा कालेन च गुरुकम्। अथागमनगृहं व्याचष्टेआगंतुऽगारत्थजणो जहिं तु, संठाति जं वा गमणम्मि तेसिं। तं आगमो गंतु विदू वदंति, सभाय वा देउलमादियं वा ||3|| आगन्तुकः पथिकादिरगारस्थजनो यत्रागत्य संतिष्ठते,यच तेषां पथिकादीनामागमने वर्तते तदागमौकः आगमनगृहं विद्वांसः-श्रुतधरा वदन्ति। तच्च सभा वा देवकुलादिकं वा मन्तव्यम्। तत्र तिष्ठन्तीनां दोषानाह। आगमणगिहे अजा, जणेण परिवारिया अणलेणं। दतुं कुलप्पसूता, संजमकामा विरजंति // 19 // आगमनगृहे स्थिता आर्या अनार्येण जनेन च परिवारित्ता दृष्ट्वा कुलप्रसूताः स्त्रियः संयमकामाः प्रव्रज्यां ग्रहीतुमनसो विरज्यन्ते।
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________________ वसहि 146 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि कथमित्याहउबस्सए एरिसए ठियाणं, ण सीलभारा सगला भवंति। को दाणि हंसेण किणेज काकं, एवं नियत्तंति कुलप्पसूया // 165 / / ईदृशे उपाश्रये स्थितानामार्यिकाणं शीलं-ब्रह्मचर्य तत्प्रधान-भाराः संयमयोगधराः लक्षणाः सकलाः सम्पूर्णा न भवन्ति, किंतु-खण्डितविराधिताः / अस्माकं च सुसंवृतगृहमध्यमध्यासयन्तीनां प्रत्यपायाभावान्निष्कलङ्क शीलमनुपालयन्तीनां हंसकल्पो गृहवासः / एवंविधेतु तरुणादिप्रत्युपायबहुले प्रतिश्रये तिष्ठन्तीनां या प्रव्रज्या सा बहुदोषमलीमसतया काककल्पा / अत इदानीं हंसेन काकं कः क्रीणीयात्, एवं विचिन्त्य कुलप्रसूताः स्त्रियः प्रव्रज्याग्रहणानिवर्तन्ते। अथात्रैव विशेषदोषानभिधित्सुराहकाइयपडिलेहसज्झा-य मुंजणे वियारमेव गेलण्णे / साणादी उवगरणे, तरुणादी जे भणियदोसा / / 196|| कायिक्यां-प्रत्युपेक्षणायां स्वाध्याये भोजने विचारे ग्लानत्वे च दोषा भवन्ति। श्वानादिना चोपकरणान्यपह्रियन्ते, तरुणादयश्च ये पूर्वमुद्देशके भणितास्ते अत्र मन्तव्या इति नियुक्तिगाथासमासार्थः। अथ व्यासार्थ प्रतिद्वारं बिभणिषुराह-- मोयस्त वायस्स य सनिरोहे, गेलण्णणीसद्धमसण्णिरोहे। पलोट्टणे घाणससद्दमत्ते, आतोभयत्था य भवंति कीवे। . यद्यागमनगृहे स्थिताः सागारिकमिति कृत्वा मोकस्य वातस्य वा संनिरोधं कुर्वन्ति,ततो ग्लानं लानत्वं भवति, अथ न तयोःसंनिरोधं कुर्वते ततो निसृष्टा-निर्लज्जा भवेयुः। अथ मात्रके कायिकी व्युत्सृजन्ति, ततो मात्रकस्य प्रलोचनायां दुरभिगन्ध-घ्राणिः समुच्छलितमात्रके चशब्दः श्रवणमागच्छति, तंच श्रुत्वा सागारिका उड्डाहं कुर्वन्ति, आत्मपरोभयसमुत्थाश्च तत्र दोषाः। आत्मसमुत्था दोषा नाम-संयती स्वयं क्षुभ्येत, परसमुत्थास्तु-'कीव' त्ति शब्दक्लीवः संयत्याः कायिकीशब्दं श्रुत्वा क्षुभ्येता उभयसमुत्था द्वावपि क्षुभ्येते। पेहेंति उड्डाह पवंच तेणों, अपेहणे सोहनिहोवहिस्स। कीरंत कीरंतमुवेयदोसा, ण ऐति मिक्खस्स निरुद्धमग्गा। यदि संयत्यः सागारिकेऽपि पश्यति स्वकीयमुपकरणं प्रत्युपेक्षन्ते तत उड्डाहो भवति, प्रपञ्चे वा ते सागारिकाः कुर्वन्ति / तथैव स्वकीयं वस्तु प्रत्युपेक्षेत इत्यर्थः / स्तेना वा तं सारोपधिप्रत्युपेक्षमाणं दृष्ट्वा हरेयुः / अथैत-दोषभयान्न प्रत्युपेक्षन्ते ततस्विविधोपधेः प्रायश्चित्तम्। तद्यथा-- जधन्ये, पञ्चकम्, मध्यमे मासलघु, उत्कृष्ट चतुर्लघु, श्रुते स्वाध्यायमाने सागारिका आलापका नामयत्तथैवोद्धट्टयेयुः। अथ स्वाध्यायो न क्रियते ततः सूत्रार्थनाशादयो दोषाः / तथा सागारिकैर्निष्क्रमणप्रवेशस्थानोपविष्टर्निरुद्धमार्गाः सत्योन भैक्षाय निर्गच्छन्ति-निर्गन्तुंशक्नुवन्तीतिभावः। दुक्खं च मुंजंति सचिंतितेसु. तत्क न देंते य अति दोसा। मुंजंति गुत्ता अविकारियाओ, ___ कुलुग्गया किं पुण जा अतोया ||16|| सागारिकेषु तत्र सदा-नित्यमेव स्थितेषु संयत्यो दुःखं भुञ्जते। अथ तेषां मध्यात् कश्चिद्रमकप्रायस्तर्कयति आहारयाश्चां करोति, ततो यदि दीयते तदा असंयतपोषणादधिकरणम्, अथ न दीयते ततोऽसौ प्रद्वेष गच्छेत् / प्रद्विष्टश्च प्रतापनमुड्डाहमभ्याख्यानप्रदानं वा कुर्यात्, एवमुभयथाऽपि दोषाः / किं च-कुलोद्गताः स्त्रियो गुप्ता:- एकान्ते स्थिता अविकारिण्यश्च भुञ्जते, किंपुनर्या अतोयाः शीतोदकविरहिताः संयत्यः काजिकेनाचमनकारिण्य इत्यर्थः, ताभिस्तु सततमेकान्ते भूत्वा भोक्तव्यमिति। वियारभोम्मे बहि दोसजालं, णिसहबीभच्छकता य अंतो। कीरति किच्चे य गिलाणदोसा, कालादिपत्तीय तधोसहस्स // 200 / / यदि सागारिकमिति मत्वा विचारभूमौ बहिर्गच्छन्ति, ततो दोषजालं मासकल्पकृताभिहितंदूषणनिकुरम्बंढौकते। अथैतद्दोष-भयादन्तः संज्ञा व्युत्सृजेयुः ततः सागारि कैलॊके व्युत्सृजन्त्यो निसृष्टा निर्लज्जाबीभत्साश्च गण्यन्ते, तत्कृताश्च उड्डाहादयो दोषाः ग्लानायाश्च संयत्याः कृत्ये, अकल्प्यपथ्यौषधप्रदानादौ क्रियमाणे सागारिका वदेयुः,एतदमूषामकल्पनीयं परमेतदपि प्रतिसेवन्तेनूनं सर्वमप्यलीकमासामित्यादयो दोषाः / अथ सागारिकमिति मत्वा न क्रियते ततः औषधस्य कालातिपत्तिः / स्यात्, कालातिक्रमेण चौषधे दीयमाने ग्लानः परितापमश्नुयात् / हरंति भाणाइ सुणादिया य, सुयंति भीया व वसंति णिच्चं। णिचाउले तत्थ णिरुद्धचारे, गग्गया होति कओ सझाओ॥२०१॥ तत्रागमनगृहे शुनकादयः प्रविश्य भाजनादिकं हरन्ति / ततो नित्यमहोरात्रमपि तत्र श्वानादिभयभीताः शेरते वा वसन्ति वा, नित्याकुलेच सदैव सागारिकैराकीणे अतएव निरुद्धचारेगमा गमरहितेतत्र एकाग्रता न भवति कुतः स्वाध्यायोऽमूषां भविष्यति। तरुणावेसित्थिविवा-ह रायमाईसु होइ सइकरणं। इच्छमणिच्छे तरुणा, तेणा ताओ य उवहिं वा / / 202 / / महतादिछः विधीयमाने राजानो वा निर्गच्छन्तः प्रविशन्तो विलोक्यन्ते, ततः स्मृतिकरणकौतुकेभुक्ताऽभुक्तानांजायते।तथायदितरुणेनच भाषणानि इच्छति ततोव्रतविराधना। अथ नेच्छति ततस्तेउडाहं कुर्युः / स्तेना वा ताः
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________________ वसहि 647- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि संयतीरपहरेयुः उपधिं या वस्त्रादिक हरेयुः / तदेवं व्याख्याता 'काइयपडिलेह' इत्यादिका नियुक्तिगाथा। अथागमनगृह एव दोषान्तराण्याहओभावणा कुलघरे, ठाणं वेसित्थिखंडरक्खाणं। उद्घासणे पवयणे, चरित्तभासुंडणा सज्जो // 203 / / धूर्ते : परिवारितासुतासु कुलगृहस्थापभ्राजना स्यात्। अन्यच तदागमनगृहं वेश्यास्त्रीणां खण्डरक्षाणां च हिण्डिकानां स्थाने वर्तेत, तत्र स्थितानां उद्धर्षणा-प्रवचनविषया हीला, चारित्रस्य च भ्रंशना, सद्य:शीघ्रं भवति। तथा तरुणादीन् दृष्ट्वा कस्याश्चिद्दश कामावस्था भवेयुः। तेच सप्रायश्चित्ता अमीचिंताइ दतुमिच्छइ, दीहंणीससति तह जरे डाहे। भत्तारोयग मुच्छा, जडता उम्मत्त मरणे य॥२०॥ मासो लहुओ गुरुओ,चउरो लहुगा य होति गुरुगाय। छम्मासा लहु गुरुगा, छेदो मूलं तह दुगं च // 205 / / द्वे अपि प्राग्व्याख्याते। उक्ता आगमनगृहे दोषाः। अथ विवृतगृहवंशीमूलयोर्दोषानाह-- एए चेव य दोसा, सविसेसतरा हवंति विगडगिहे। वसीमूलट्ठाणे, पडिबद्धा जे भणियदोसा।।२०६|| एते एवागमनगृहोक्ता दोषाः सविशेषतरा विवृतगृहे तिष्ठन्तीनां भवन्ति। वंशीमूलस्थाने तु ते दोषा द्रष्टव्याः ये द्रव्यतो भावतश्च प्रतिबद्ध प्रतिश्रये अप्काये यन्त्रप्रयोजनादय आत्मपरोभय-समुत्थाश्च दोषाः प्रथमोद्देशके भणिताः। अथैनामेव गाथां व्याख्यानयतिअवाउडं जंतु चउहिसिं पि, तीसुं दुगुच्छा वि तहेक्कतो वा, अहे भवे तं वियडं गिहं तु, उड्ढ अमालं व अछन्नगंवा॥२०७।। विवृतगृहं द्विधा-अधोविवृतम् ऊर्ध्वविवृतं च / यत्पार्श्वतश्चतसृषु वा दिक्षुद्वयोर्वा दिशोरेकस्यां वा दिशि अपावृतं-कुड्यरहितं परमु-परिच्छन्नं तदधोविवृतगृहं भवेत्यत्पुनरमालम्-मालरहितम् अच्छन्नं वा आच्छाद्यरहितम् परंपार्श्वतः कुड्ययुक्तं तदूर्ध्वविवृतं भवति। अवाउडे तेणसुणा उवें ति, गोणादि णिस्संकमभिहवंति।। तेणादिया (तो चिलिए) तत्थ विते य दोसा, कडादिकम्मं तु सजीवघातं // 20 // तत्र-विवृतगृहे अपावृते-कुड्याद्यभावादनिरुद्धचारे स्तेनशुनका उपयान्ति, ततश्चोपकरणादयो दोषाः, गवादयश्च शृङ्गाद्यभिघातं निःशङ्कमभिद्रवन्ति / अथ तत्र पार्श्वतश्चिलिमिलिका दीयते ततः 'चिलिए' त्ति सूचनात् सूत्रमिति कृत्वा चिलिमिलिकायाः स्तेनादयो दोषाः / तमपहृत्यगच्छेयुरिति भावः / कडाइ' ति अथ कटं कीलितं वा कारायत्वा तत्र स्थापयन्ति तत आधाकर्मदोषनिष्पन्नं प्रायश्चित्तम् / सजीवघातमिति, कटादौ निष्पाद्यमाने येषां जीवानामुपघातो भवति तन्निष्पन्नं पृथक् प्रायश्चित्तम् / अथवंशीमूलं व्याचष्टेजो ओवणे वीय बहिं घरस्स, अलिंदओ वा अवसारिगावा। गेहस्स पासे पुरपिट्टओवा, तं वंसिमूलं कुसला वदंति / / 20 / / यो गृहा बहिराग्रवर्तिस्थण्डिकारूपः अलिन्दको वा अपसारिकापटोलिका कुत्रेत्याह-गेहस्य पार्श्वे वा पुरतो वा पृष्ठतो वा तवंशी (मूलं) नाम गृहं कुशलास्तीर्थकरादयो वदन्ति, अत्र तिष्ठन्तीनांपूर्वोक्ता दोषाः। ___ अथ वृक्षमूलाभ्रावकाशयोर्दोषानाहअहिं व दारुकादी, सउणगनिहारपुप्फफलमादी। एवं तु रुक्खमूले, अमावासम्मि गिण्हा य // 210|| अस्थि वा दारुकं वा आदिशब्दात्-पत्राणि पतेयुः,एषु यथायोगमात्मसंयमविराधना मन्तव्या, एवं वृक्षमूले वृक्षस्याधोवर्तिनि वा गृहे तिष्ठन्तीनां दोषाः / अभावकाशे तु 'गिण्हा' अवश्यायो भवेत, आदिशब्दात्-सचित्तरजःप्रपातादिपरग्रहः अवश्यायेनाभिभूतानां विसूचिकादिरात्मविनाशनादि।यत एतेदोषाः अतोनागमनगृहादिषु स्थातव्यम्। भवेत्कारणं येन तत्रापि स्थीयते। किमित्याहअद्धाणनिम्गयादी,तिक्खुत्तो मग्गिऊण असतीय। वाडगआगमणगिहे, इयरम्मिय णिग्गहसमत्थे // 211 / / अध्वनिर्गतादयस्त्रिकृत्वो निर्दोषां वसतिमार्गयित्वा यदिन प्राप्नुवन्ति, ततो वाटकस्य मध्यवर्ति यदागमनगृहं देवकुलादिकं तत्र वसन्ति / कथमित्याह- इतरः--शय्यातरः स यदि निग्रह- समर्थो-जितेन्द्रियः प्रत्यनीकनिवारणक्षमश्च भवति तदा तत्र तिष्ठन्ति नान्यथा। अथेदमेव स्फुटतरमाहजंदेउलादी तु णिवेसणस्स, ___मज्झम्मि गुत्तं सुपुरोहडं च। अदुट्ठगम्म ण य दुमज्झे, अदूरगेहं तहि यं वसंति // 21 // निवेशनवाटकमध्ये यदेवकुलादिगुप्तवृत्त्या फलद्विकेन चाधृतं सुपुरोहडं-रमणीयसंयतीप्रायोग्यविचारभूमिकम, अदुष्टानां-शिष्टजनाना--- गम्यमाश्रयो न च दुष्टजनमध्ये तद्वर्तते, अदूरगेहम्-प्रत्यासन्नप्रातिवेश्मिकगृहं तत्र प्रथमतो वसन्ति। जुवाणगा जे सविगारगाय, पुत्तादओ तुज्झ इहं वसंति। मा ते वि अम्हं इह संपयंतु, इच्छंति सत्ते य वसंति तत्थ // 213|| एवमुक्ते यद्यसाविच्छति प्रतिश्टणोति, यदिच स्वयं शक्तः तन्निवारणक्षणः ततस्तत्र वसन्ति। भोइयकुले व गुत्ते, दुजणवजे वसंति उपउत्थे। महतरगादिसुगुत्ते, वंसीमूलम्मि ठायन्ति // 21 // दुर्जनप्रवेशरहिते, यदि लिङ्गकादि तत्र वसन्ति स च भोजिकस्य-ग्रामस्वामिनः कुले च गुप्ते-वृत्त्यादिफलह
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________________ वसहि 148 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि केन च सुसंवृते दुर्जनवर्जे -दुःशीलजनप्रवेशरहिते यदिलिङ्गकादि तत्र वसन्ति, स च भोजिको यदि प्रोषितस्तदा महत्तरकादिभिः-प्रधानपुरुषैस्तद्गृहं यदि सुगुप्तं सुरक्षितं भवति तव एवंविधे वंशीमूलगृहे तिष्ठन्ति। तस्सऽसति उडवियडे, वसंति कडगादिछायणं उवरि। तस्सऽसति पासवियडे, कडगादी पंतवत्थेहिं // 21 // तस्य यथोक्तगुणोपेतस्य वंशीमूलगृहस्याभावे ऊर्ध्वं विवृतगृहे उपरि कटादिकं प्रक्षिप्य तिष्ठन्ति, आदिशब्दाद्-वस्त्रचिलिमिलिकया वाऽऽच्छादनं कुर्वन्ति। तस्याभावे पार्श्वविवृते इत्यर्थः, तत्र च किलिञ्चादि. भिश्चिलिमिलिकां कृत्वा पार्श्वतः प्रच्छादयेत्। अथ कटादयो न प्राप्यन्ते ततः प्रान्तवस्त्रैः-परिजीपणचीवरैः पावाणि छादयितव्यानि। विहं पवन्ना घणरुक्खहेट्ठा, - वसंति उस्सावनिरक्खणहा। तस्सासती अब्भगवासिए वि, सुवंति चिट्ठति व ओण्णिछन्ना॥२१६|| अथ विहम्-अध्वानं प्रपन्नास्ताःसंयत्यस्तत्र चाऽधो विवृतमपि गृहं न प्राप्यते ततो धनो-बहुलो निश्छिद्रो यो वृक्षो वटादिस्तस्या-धस्तादवश्यायस्य-अन्तरिक्षस्थस्याप्कायस्यावनेश्च सचित्त-पृथिवीकायस्य रक्षणार्थ वसन्ति, तस्याप्यभावे अभ्रावकाशकेऽप्याकाशे और्णिककल्पच्छन्नाः स्वपन्ति वा तिष्ठन्ति वा। (8) वर्षावासयोग्यां वसतिमाहसे भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण उवस्सयं जाणेज्जा असंजए भिक्खुपडियाए उदगप्पसूयाणि कंदाणिवामूलाणिवा पत्ताणि वा पुप्फाणि वा फलाणि वा बीयाणि वा हरियाणि वा ठाणाओ ठाणं साहरइ बहिया वाणिण्णक्खू तहप्पगारे उवस्सए अपुरिसंतरकडे०जाव णो ठाणं वा०३ चेइज्जा, अह पुण एवं जाणेजा पुरिसंतरकडं चेइज्जा / / (सू०-६५४) स भिक्षुर्यत्पुनरेवंभूतं प्रतिश्रयं जानीयात्तद्यथा-गृहस्थः साधुप्रतिज्ञया उदकप्रसूतानि कन्दादीनि स्थानान्तरं संक्रामयति बहिर्वा 'णिण्णक्खु' त्ति-निस्सारयति, तथाभूते प्रतिश्रये पुरुषान्तरास्वीकृते स्थानादि न कुर्यात्, पुरुषान्तरस्वीकृते तु कुर्यादिति। आचा०२ श्रु०१ चू०४ अ०१उ०। अह पुण एवं जाणिज्जा नो रासिकडाई नो पुंजकडाइं नो भित्तिकडाइंनो कुलियकडाईकोहाउत्ताणि वा पल्लाउत्ताणि वा मंचाउत्ताणिवामालाउत्ताणि वा ओलित्ताणि वा विलित्ताणि वा पिहियाणि वा लंछियाणि वा मुछियाणि वा कप्पइ निग्गन्थाण वा निग्गंथीण वा वासावासंवत्थए / |3|| अथ पुनरेवं जानीयात् नो राशीकृतानि नो भित्तिकृतानि नो कुलियाकृतानि कोष्ठागुप्तानि वा मञ्चागुप्तानि वा मालागुप्तानि वा अवलिप्तानि वा लिप्तानि वा पिहितानि वा लाञ्छितानि वा मुद्रितानि वा तत्र कोष्ठेकुसूले आगुप्तानि प्रक्षिप्तानि रक्षितानि कोष्ठागुप्तानि एवमुत्तरत्रापि भावनीयम्, नवरं प्रलम्बं शकटकादिकृतो धान्य-राशिविशेषः, मञ्चः-- स्थूणानामुपरिस्थापितवंशकटकादिमयो लोकप्रसिद्धः मालकोगृहस्योपरितनो भागः अवलिप्तानि-द्वारदेशे पिधानेन सह गोयमादिना कृतलेपानि लिप्सानि-मृत्तिकया सर्वतः खरण्टितानि पिहितानि स्थगितानि लाञ्छितानिरेखाक्षरादिभिः कृतलाञ्छनानि मुद्रितानिमृत्तिकादिमुद्रायुक्तानि एवंविधेषुधान्येषुन कल्पते निर्ग्रन्थानां वा वर्षावासं वस्तुमिति सूत्रार्थः / अथ भाष्यम्कोहाउत्ता य जहिं, पल्ले माले तहेव मंचे य। उलित्तपिहियमुद्विय, एरिसएणकप्पती वासो॥१०२।। यत्रोपाश्रये कोष्ठागुप्तानि पल्लयागुप्तानि मालागुप्तानि मञ्चागुप्तानि अवलिप्तानि पिहितानि मुद्रितानि उपलक्षणत्वालिप्तानि लाञ्छितानि वाधान्यानिसंभवन्ति ईदृशे न कल्पते वासः। अथ सूत्रस्यैव विषमपदानि व्याचष्टेछगणादी ओलित्ता, लित्ता मट्टियकता तु ते चेव। कोट्ठियमादी पिहिता, लित्ता वा पल्लकडपल्ला॥१०३|| ओलिंपिऊण जहि अ-क्खए कया लंछियं तयं विति। जहियं मुद्दा पडिया, होति तगं मुद्दियं धण्णं / / 104 // द्वारदेशे छगणादिना लिप्तानि-अवलिप्तानि यानि तु मृत्तिकया खरण्टितानि तानि लिप्तानि कोष्ठकादीनि, यानि द्वारदेशे स्थगितानि तानि पिहितानि, पल्यकटपल्यानि तु लिप्तानि भवन्ति / इह पल्यकटपल्यमुच्चतरं भवतीति विशेषः / अवलिप्य यत्र धान्ये अक्षराणि कृतानि तल्लाञ्छितमिति ब्रुवते, यत्र तु धान्ये मुद्रा पतिता तन्मुद्रितं भवति / उडुबद्धम्मि अतीए, वासावासे उवहिते संते। ठायंतगाण लहुगा, कासअगीअत्थसुत्तं तु।।१०।। ऋतुबद्ध काले अतीते वर्षावासे उपस्थिते सति यदि कोष्ठागुप्तादिधान्ययुक्त प्रतिश्रये तिष्ठन्ति तदा चतुर्लघवः, कस्य पुनरेतत्प्रायश्चित्तम् ? सूरिराह-अगीतार्थस्य सूत्रं तु कल्पते कोष्ठागुप्तादिधान्येषु वर्षावासे वस्तुमिति लक्षणं गीतार्थविषयं मन्तव्यमिति वाक्यशेषः। इत ऊर्ध्वम् - "णत्थि०" इत्यादिकाः गाथापूर्वोक्ताः एतावदध्येतव्याः यावत् "तत्तत्थ०णाणा देसी०" इति / कीदृशी पुनरिच्छा तस्य समुद्भूतेत्युच्यतेअणुभूता धन्नरसा, नवरं मोत्तूण गंधसालीणं। काहामि कोउहल्लं, थेरी पउरं घणं भणियं / / 110 / / अनुभूतास्तावत् सर्वेषामपि धान्यानां रसाः, नवरं गन्धशालीनां रसं मुक्त्वा ते अद्यापि नास्वादिता इति भावः / अतः करिष्यामि-पूरयिष्यामि कौतूहलमिति विचिन्त्य तेन कोष्ठपल्ल्यादिशालीनाकृष्य स्थविराया अग्रे प्रचुरं धान्यपाकं कुरुष्वेति वचो भणितम् / इदमेव स्पष्टयतिइहरा कहासु सुणिमो,इमे हु ते कलमसालिणो सुरभी। णस्थि अगीतत्थो वा,गीयो वा कोऽपि वण्णिओ सुत्ते। जा पुण एगागुपणा, सा सेच्छा कारणं किंवा / / 106 / / एयारिसम्मि वासो, ण कप्पति जति वि सुत्तऽणुण्णाओ। अव्वोगडो तुभणितो आयरिउ उवेहती अत्थं // 107|| जंजह सुत्ते भणितं, तथेवं जंजति विआलणा णत्थि।। किंकालियाणुयोगो, दिह्रो दिठ्ठिप्पहाणेहिं॥१०८।। (ताओचेवगाहाओ)जावतेतत्थ सणि-गहिता संथारगाजहिच्छाए। णाणादेसी साधू, कासइइच्छा समुप्पण्णा ! 106 //
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________________ वसहि E56 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि थोवे विणऽस्थि तत्तो, को य रसो अण्णमण्णाणं // 111|| | इतरथा यदि तावत्पूर्वं वयं गन्धशालीन् कथासु वातन्तिरेषु शृणुम इमे / तुप्रत्यक्षमुपलभ्यमानाः ते कथान्तरश्रुताः कलमशालयः सुरभयः, तथा स्तोकोऽप्यत्र कलमशालौ ममास्तुतृप्तिकश्च रसाऽऽस्वादोऽन्योन्यमिश्रितानाममीषाम्, इत्थं विचिन्त्य पल्यात्तान् शालीनाकृष्य स्थविरायाः समर्पयति,साऽप्युपस्कृत्य तस्य संयतस्य दत्त्वा शेषमात्मना भुङ्क्ते ततोऽसौ लब्धाऽऽस्वादो दिवसे दिवसे एवमेव विदधाति। ततः किमभूदित्याहनिग्घोलिय तप्पल्लं, कज्जे सागारियस्स अतिगमणं / सागारिओ विसनो, भीतो पुण पासए कूरं / / 112|| तेन संयतेनैवं शालीनपहरता तत्पल्यं निर्घालितम्, रिक्तीकृतम्, ततः क्वचिदात्मीयकार्ये सागारिकस्य तत्रातिगमनं प्रवेशो भवेत, ततः / सागारिकः पल्यं रिक्तीकृतं दृष्ट्वा विषण्णो विषादमुपगतवान् भीतश्च / किमु स्तेनादयोऽत्र प्रविष्टा भवेयुरिति शङ्कया तत्र परिभ्रमन् शालकूरमानीतं पश्यति। सो मणइ कतो लद्धो, एसो अम्हं खु लद्धिसम्पन्नो। ओभावणं च कुस्खा, धिरत्थु ते एरिसो लामो // 113|| ससागारिको भणति-कुत एष शालिकूरोलब्धः, ततः साधव-स्तदीयं वृत्तान्तमजानाना ब्रुवते एष साधुरस्माकंलब्धिसम्पन्नः, अतः प्रतिदिनमीदृशं शालिकूरमानयति। ततः सागारिकस्तं साधुंब्रूते-धिगस्तुमुण्ड ! तवेदृशं लाभं येन प्रतिदिवसं शालीनपहृत्यास्माकं पल्यं रिक्तीकृतमिति, अपभ्राजनं वा असौ लोकमध्ये कुर्यात् / यथा स्तेनका अमी अत्र च भद्रकप्रान्तकृता दोषा भवन्ति। भद्रकस्तावदिदमभिदध्यात्इहरह वि ताव अम्हं, भिक्खुं व पलिं व गिण्हइ न किंचि। इण्डिं खु तारिओ मि, ठवेमि अन्ने विजा धन्नो // 11 // उक्तार्था / यस्तु प्रान्तो भवति स ब्रूयात्, अहो धर्मकम्बुक ! प्रविष्टा अमी लोकं मुष्णन्तीत्यादि। अत्र "लहुगा अणुग्गहम्मी, अप्पत्तिय धम्मकंबुए गुरुगा''। इत्यारभ्य"सेज्जायरो य भण्णइ, अन्नं धन्नं पुणो वि होइ इणमो / एसो अणुम्गहो मे, जा साहु न दुक्खिओ कोइ ! // 1 // " इति पर्यन्ता गाथास्तदवस्था एवात्र द्रष्टव्याः! उवस्सयस्स अंतोवगडाए सुरावियडकुंभेवा सोवीरयवियडकुंभे वा उवनिक्खित्ते सिया, नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गथीण वा अहालंदमवि वत्थए हुरत्था य उवस्सयं पडिलेहमाणे नोलभेज्जा, एवं से कप्पइएगरायं वादुरायं वा वत्थए हुरत्थए, नो से कप्पइपरं एगरायाओ वा वत्थए दुरायाओ वा वत्थए। जे तत्थ एगरायाओ वा दुरायाओ वा परं वसेज्जा सेसंतरा छेए वा परिहारे वा एवमुदकादिसूत्राण्युचारणीयानि। अथामीषां कः संबन्ध इत्याह एगंत उवस्सऍहिं, वाघाया तेसि हॉति अशोन्ना। साहारणपत्तेगा, जा पिंडो एस संबन्धो // 11 // इहोपाश्रये प्रकृतमधिकारो वर्तते, तेषां चोपाश्रयाणां व्याघातदोषाः। अन्योन्ये अपरापरे वा ये विकटोदकप्रतिबद्धतादयो भवन्ति तेषु च यत्राल्पतरा दोषा भवन्ति तत्र स्थातव्यमिति ज्ञापनार्थं साधारणसूत्रप्रत्येकसूत्राणां समारम्भः क्रियते। 'जा पिंडो त्ति उवस्सय, अंतोवगडाए पिंडएवा वि' इत्यादिकं वक्ष्यमाणं पिण्डसूत्रं यावदेष सम्बन्धोमन्तव्यः, साधारणसूत्राणि नाम यत्रैकसूत्रे द्वयादिप्रभृतीनि बहूनि पदानि भवन्ति, प्रत्येकसूत्राणि तु यत्रैकसूत्रे एकमेव पदं ततश्चात्र विकटसूत्रमुदकसूत्र पिण्डसूत्रमित्येतानि त्रीणि साधारणसूत्राणि प्रदीपसूत्रं ज्योतिः-सूत्रं च प्रत्येकसूत्रे एष पञ्चानामपि सूत्राणां सम्बन्धः सामान्यत उक्तः। अथ विशेषतः संबन्धमाह- . सालिच्छूहि वि कीरइ, विगडं मुत्तति सितोदयं पिवति। आहारिमम्मि दोसा,जह तह पेजेवि जोगो यं // 116|| शालिभिरिक्षुभिर्वा विकटं क्रियते, अतो धान्यसूत्रानन्तरमिदं विकटसूत्रमारभ्यतेशालिकूरादिकमाहारं भुक्त्वा तृषितो भवेत, तृषितश्चोदकं पिवतीत्युदकसूत्रं निरूपणीयम् / यद्वा-आहारिमे तिलादौ भुक्ते सति यथा दोषा भवन्ति तथा पेयेऽपि मद्यादौ पीयमाने दोषा भवन्त्येवेति तत्प्रतिश्रयेऽपि न स्थातव्यमित्यनेन संबन्धेनायातस्यास्य सूत्रस्य(४) व्याख्या। सुराकाष्ठपिष्टनिष्पन्नम्, सौवीरकविकटं तु पिष्टवर्जगुंडादिद्रव्यैर्निष्पन्नम्। ततस्सुराविकट-कुम्भो सौवीरविकटकुम्भो वा यत्रोपाश्रयस्यान्तर्वगडायाम्-उपनिक्षिप्तः स्यात्तत्र नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा यथालन्दकमपि कालं वस्तुम्। 'हुरत्थाय' ति देशीपदं बहिराभिधायकम् / चशब्दो वाक्यभेदद्योतकः / ततोऽयमर्थः-अथ बहिरन्योपाश्रयं प्रत्यु-पेक्षमाणो नोलभेत ततएवं (से)-तस्य साधोः कल्पते एकरात्रंवा द्विरात्रं वा तत्र वस्तुम्। यस्तत्रैकरात्राद्वा द्विरात्राद्वा परम्-ऊर्ध्व वसति (से) तस्य संयतस्य स्वान्तरा स्वस्वकृतं यदन्तरं त्रिरात्रादिकालावस्थारूपं तस्मात् छेदो वा पञ्चरात्रिन्दिवादिः,परिहारो वा मासलघुकादिस्तपोविशेषो भवतीति सूत्रार्थः। अथ विस्तरार्थभाष्यकृद्विभणिषुराहदेसीभासाइकयं, जा बहिया सा भवे हुरत्थाओ। बंधणुलोमेण कयं, परिहारो होइ पुटवं तु // 117 // 'हुरत्थे' त्ति यत्पदं तद्देशीभाषया कृतं निबद्धं बहिराभिधायकम् / ततो यो विवक्षितोपाश्रयादहिर्वर्तिनी वगडासा'हुरत्थेति' शब्देनोच्यते। अथपरः प्राह-परिहारस्तावत्तपोविशेष उच्यते, छेदस्तुपर्यायच्छेदरूपः तत्सूत्रम्-‘से संतरा परिहारे वा छेए वा' इति पठितुमुचितं किमर्थंव्यत्यासेन पाठ इत्याशङ्कयाह-बन्धानुलोम्येन सूत्रे परिहारपदात् पूर्व छेदपदं कृतम्। किमुक्तं भवति-एवंविधो हिपाठः सुललितपदविन्यासतया सुश्लिष्टो भवतीति कृत्वा सूत्रकृता प्रथमं छेदपदमुपन्यस्तम्। अहवा वारिवंतो, निकारणओ वि तिण्ह वि परेणं / छेयं चिय आवले, छेयमओ पुष्यमाहंसु॥११५||
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________________ वसहि 650- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि अथ यदि तत्र विकटयुक्तोपाश्रये गुर्वादिना वार्यमाणो निष्कारणं तावद्दर्पतस्तिष्ठति त्रयाणां चाहोरात्राणां परतस्तिष्ठति, तदा छेदाख्यमेव प्रायश्चित्तमसावापद्यते। तच्छेदपदं पूर्व प्रथममुक्तवन्तो भगवन्तो भद्रबाहुस्वामिनः। ___ अथ सुरासौवीरकपदं व्याचष्टेपितॄण सुरा होति, सोवीरं पिट्ठदजियं जाण / ठायंतगाण लहुगा, कास अगीयत्थसुत्तं तु // 116 / / ब्रीह्यादिना सम्बन्धिना पिष्टेन यद्विकटंभवति सा सुरा, यत्तु पिष्टवर्जितं द्राक्षाखर्जूरादिभिर्द्रव्यैर्निस्पाद्यतेतन्मयंसौवीरकविकटंजानीयात्। एतद् द्विविधमपि यत्रोपनिक्षिप्तं भवति तत्रापाश्रये तिष्ठतां चतुर्लघुकाः,कस्य पुनरेतत्प्रायश्चित्तमित्याह-अगीतार्थस्य सूत्रंतु-"कप्पइ एगरायंवा दुरायं वा वत्थए'' इत्यादिलक्षणं गीतार्थविषयं मन्तव्यम्। इत ऊर्ध्वं "नऽत्थि अगीयत्थो व" इत्यादिकाः "का स इच्छा समुप्पन्ना" इति पर्यन्ता गाथास्तदवस्था एवात्र द्रष्टव्याः। अथ कीदृशी तस्येच्छा समुत्पन्नेत्याहअणुभूआ मज्जरसा, णवरि मुत्तूणमेसि मज्जाणं / काहामि कोउहल्लं, पासुत्तेसुं समारद्धो // 120 // अनुभूता मया बहवो मद्यरसाः परममीषां मद्यानां रसान् मुक्त्या अतः करिष्यामि कौतूहलमिति विचिन्त्य प्रसुप्तेषु साधुषु समारब्धोऽसौ तद्भाजनमुद्धाट्य विकटपानं कर्तु, ततश्च-- इहरा कधासु सुणिमो, इमं खु संकाविसायणं मजं / पीते विजायति सती, तज्जुसिताणं किमु अपीते // 12 // इतरथा अद्यदिनात्पूर्वं कथास्वेवं शृणुमः परमिदं तत्कथान्तरश्रुतकातिशायिनं मद्यम्,एवं तन्मय-जुषितं-सेवितं यैस्ते तज्जुषिताः, गृहवासे विकटपायिन इत्यर्थः। तेषां पीतेऽपि विकटे स्मृतिरुपजाते। किं पुनरपीते। विगयम्मि कोउहल्ले, बहुवयविराहण त्ति पडिगमणं। वेहाणस ओहाणे, गिलाणसोहाणवा दिह्रो।।१२२।। गतार्था / उड्डाहं च करिजा, विप्परिणामो पहज सेहस्स। गिण्हतेणं तेणं,खंडियविद्धे व भिन्ने वा / / 133 / / शैक्षस्तं संयतं विकटपानं कुर्वाणं दृष्ट्वा लोकस्य पुरत उड्डाहं कुर्यात्, | विपरिमाणो वा शैक्षस्य भवेत्। विपरिणतश्च सम्यग्दर्शनं चारित्रं लिङ्ग वा परित्यजेत, तथा तेन संयतेन विकटभाजनं गृह्णता वाशब्दात्-मुञ्चता वा तद्भाजनं खण्डितम्-एकदेशभग्रम्,विद्धवा-पतितछिद्रम, भिन्नं वाद्विधा कृतं भवेत् / इत ऊर्ध्वं 'फेडियमुद्दा तेणं' इत्यारभ्य "अम्हे ठिएल्लगंथिय, अहापवत्तं, वहह तुडभे' इतिपर्यन्तंगाथाकदम्बंतथैवाध्येतव्यम्, नवरं मद्याभिलापः कर्त्तव्यः : ततश्चआमं ति अब्भुवगए, भिक्खवियाराइनिग्गयामएस। भणइ गुरू सागॉरियं, कहि मनं जाणणट्ठाए।।१२५|| यदि शय्यातरेणापि अभ्युपेतम्, यूयं निश्चिन्तास्तिष्ठत वयं यथा प्रवृत्तं व्यापारं चिन्तयाम इति / ततो गुरुराचार्यो भिक्षाविचाभूम्यादिनिर्गतेषु अगीतार्थसागारिक भणति कुत्र मद्यमस्तीत्येवं परिज्ञा-नार्थम्। किं भणतीत्याहगोडीणं पिट्ठीणं, वंसीणं चेव फलसुराणं च / दिटुं मएँ संनिचया, अन्ने देसे कुटुंबीणं // 125|| गौडीनां-गुडनिष्पन्नानां पिष्टीनां-ब्रीह्यादिधान्यक्षोदनिष्पन्नानां वंशीनां-वंशकरीलकनिष्पन्नानां फलसुराणां च तालफलद्राक्षाखर्जूरादिनिष्पन्नानाम् एवंविधानां सुराणां संनिचया अन्यस्मिन् देशे मया कुटुम्बिनां गेहेषु दृष्टाः, "एवं च भणियमित्त-म्मि निकारणे सो भणइ बेहिच्छं। अत्थिमहं संनिचया, पिच्छह नाणाविहे मज्झ'' इत्यादिका, दारं 'न होइ इत्ती' इति पर्यन्ता गाथाः प्राग्वदत्र सव्याख्याना द्रष्टव्याः। अथात्रैव विशेषतो यतना कर्त्तव्यातामभिधित्सुराहगहियम्मि व जा जयणा, गेलने अधव तेण गंधेणं / सागारियादिगहणं,णायव्वं लिङ्ग भेयाइ॥१२६|| शैक्षकेऽपि विकटे गृहीते पीते सतिया यतना सा वक्तव्या। ग्लानत्वे वा वैद्योपदेशेन विकटं गृहीतव्यम् / अथवा-तेन विकटसंबन्धिना गन्धेन कस्यापि गृहवासे विकटभावितस्याध्युपपातो भवेत्, ततः सागारिकः शय्यातरआदिशब्दात्-श्रावको वा यो मातापितृ-समानस्ततो विकटस्य ग्रहणं कर्त्तव्यम्, यदि स्वलिङ्गेन न प्राप्यते उड्डाहो वा भवति ततो लिङ्गभेदादिकमपि नेतव्यं कर्तव्यमिति यावदेष नियुक्तिगाथासमासार्थः। अथैनामेव विवरीषुराहपीयं जहा होज्ज वि गोविएणं, तत्थाणइंताण रसं छुभंति। भिन्ने उगोणादिपए करें ति, तेसिं पवेसस्स तु संभवम्मि।१२७ यदि कदाचित् कोविदेन शैक्षकेण शेषसाधुषु प्रसुप्तेषु तद्विकट पीतं भवेत्तदा गीतास्तित्र विकटभाजने रसमिक्षुरसादिकमानीय प्रक्षिपन्ति / अथ कथमपि तद्भाजनं गृह्यमाणं मुच्यमानं वा भिन्नम्, ततो भिन्ने सति तस्मिन् गवादीनां पदानि प्रतिश्रयप्राङ्गणे प्रविशन्ति निर्गच्छन्ति च कुर्वन्तिआलिखन्तीत्यर्थः / येन सागारिको जानीते, यथा-गवादिना प्रविश्य भनमिदं भाजनमिति / परं यदि तेषां गवादीनां तत्र प्रवेशः संभवति, अन्यथा हि सागारिकः प्रद्वेष जायात्। एवं तावदमी इत्थं कर्मकारिणः, अपरं च तदपहवनायेत्थं प्रपञ्चमुपरचयन्ति / धिगमीषां पाखण्डिनां धर्ममिति। छिंधिं तु पीए जउणा ठवेति, मुद्दा जहा चिट्ठइ अक्खुणासे। जाणम्मि दिहम्मि भणंति पुट्ठा, नूणं परिस्संदति भाणमेयं // 128|| विकटे पीते तद्भाजनं द्वारदेशे वस्त्रादिना तद्वत् जतुनालाक्षया स्थगयन्ति, तथा-'से' तस्य भाजनस्य मुद्रा क्षता ति
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________________ वसहि ६५१-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि ष्ठति। अथ सागारिकस्तद्भाजनस्यन्दनं दृष्ट्वा पृच्छति किमर्थमिदंस्यन्दनमवलोक्यते, एवं पृष्टाः सन्तो भणन्ति-नूनं भाजनमिदं परिस्यन्दति। सवम्मिपीए अहवाबहुम्मि, संजोगयादी ठवयंति अन्नं। अन्नव्वमग्गी उ छुहंति तत्थ, गीयं कयं वा गिहिलिङ्गमाई // 126| सर्वस्मिन्नथवा-बहुके विकटे पीते सति ये संयोगपातिनो तन्नि- / व्यत्तियोग्यद्रव्यसंयोगवेदिनस्ते तथाविधानि द्रव्याणि संयोज्य विकटं स्थापयन्ति। अथन सन्ति संयोगपातिनस्ततोऽन्यत् विकटं मार्गयित्या तत्र प्रक्षिपन्ति, तच प्रथमतः शुद्धम्। तदभावे पञ्चक-परिहाण्या चतुर्लघुकं प्राप्तेन क्रीतकृतमपि ग्रहीतव्यम् / यदि स्वलिङ्गेन गृह्णतामुड्डाहो भवति, नवा तेन प्राप्यते ततो गृहिलिङ्गम्। आदिशब्दाद्-अन्यतीर्थकलिङ्ग वा कर्तव्यम्। अथ 'गेलन्ने अअहव तेण गंधेणं' इत्यादि पदानि व्याख्यातितम्भावियट्ठा व गिलाणए वा, पुराणसागारियसावए वा। वीसं भणीआण कुलाण भावा, गिण्हति रूवस्स विवजिएणं // 130 // तेन विकटेन पूर्व भावितस्तद्भावितः,सतत्र विकटे नाध्यापयितुंभवति, ग्लानो वा कश्चित्तेनैवोपयुक्तेन प्रगुणी भवति, नान्यथा। ततस्तदर्थ पुराणस्य--पश्चात्कृतस्य सकाशात्तद्भयेन वा पितृसमानो यः सागारिकस्तस्य हस्तात्तदप्राप्तौ प्रतिपन्नाणुव्रतस्य मातापितृ-समानस्य श्रावकस्य वा पाचद् िग्रहीतव्यम् / अमीषामभावे, यदा-भद्रकान्यपि यानि विश्रम्भणीयानि कुलानि नोड्डाहकारीणीत्यर्थः। तेषु ग्रहीतव्यम्, तेषामप्यभावे यदि स्वलिङ्गेन गृह्णाति ततः प्रवचनोपधातो भवेत्। अतो रूपस्य विपर्ययेण गृह्णन्ति लिङ्गविवेकं कृत्वा विकटमुत्पादयन्तीतिभावः। अचाउरं वा वि समिक्खिऊणं, खिप्पं तओ घेत्तु दलित्तु तस्स। अन्नं रसंवा वितहिं छुभंति, संगं व सेतं हवयंति तत्तो / / 131|| अत्यातुरंवातंग्लानं समीक्ष्य क्षिप्रं-शीघ्रंततः प्रतिश्रयवर्तिनो विकटभाजनाद् गृहीत्वा तस्य ग्लानस्य दत्त्वा गीताथोस्तत्रान्यं वारयन्ति प्रक्षिपन्ति, ततश्च 'से' तस्यग्लानस्यतं विकटविषयं संहापयन्ति कार्ये तिष्ठति सति विकटप्रसङ्ग निवारयन्तीति भावः। गता स्वपक्षयतना। अथ परपक्षयतनामाहपरपक्खितम्मि दारं, पिधे ति जयणाएँ दो वि वारेति। तह विय अटॉयमाणे, उवेह पट्टावसाहंति॥१३॥ इत्यादिका मद्याभिलाषविशेषिता गाथाः सर्वा अपि तथैवाऽत्र वक्तव्याः। उवस्सयस्स अंतोवगडाए सीओदगवियडकुंभे वा उसिणोदगवियडकुंभे वा उवनिक्खत्ते सिया, नो कप्पइ निग्गन्थाण वा निग्गन्थीण वा अहालंदमवि वत्थर हुरत्था य उवस्सयं पडिलेहमाणे नो लभेज्जा एवं से कप्पइ एगरायं वा दुरायं वा वत्थए नो से कप्पइ परं एगरायाओ वा दुरायाओ वा वत्थए, जे तत्थ एगरायाओ वा दुरायाओ वापरं वसेना सेसंतरा छेए वा परिहारे वा।।शा अस्य संबन्धमाहछोदूण दगं पिज्जइ, गालिंति दगं व छोढुणं वंतुं / पातुं मुहं व धोवइ, तेणऽहिकारो सजीवं वा।।१३३|| यतो दक-पानीयं प्रक्षिप्य विकटं पीयते, ततो विकटसूत्रानन्तर-- मुदकसूत्रम्, यता-दकं प्रक्षिप्य तद्विकटं गालयन्ति / अथवा-विकटं पीत्वा तजनितदौर्गन्ध्यव्यपगमार्थ उदकेन मुखं धावन्ति, तेन कारणेन विकटानन्तरम् उदकाधिकारः प्रारभ्यते। यद्वा-तद्विकट निर्जीवं वा भवेत् इत्यनेकैस्संबन्धैरायातस्यास्य (5) व्याख्या प्राग्वत्, नवरं विकृतंशीतोष्णादिशस्त्रेण विकारप्रापितं प्राशुकीकृतमित्यर्थः शीतोदकं च तद्विकृतं च शीतोदकविकृतमा तस्य कुतो घटः, एवमुष्णोदक विकृतकुम्भोऽपि। अथ भाष्यम्सीतोदे उसिणोदे,फासुगमप्फासुगे चउम्भङ्गी। ठायंतगाण लहुगा, कास अगीतत्थसुत्तं तु॥१३॥ शीतोदकोष्णोदकमप्राशुकप्राशुकयोश्चतुर्भङ्गी भवति / गाथायां प्राकृतत्वात् पुंस्त्वनिर्देशः, तद्यथा-शीतोदकं प्राशुकम्१,शीतोदकमचशुकम् 2, उष्णोदकं प्राशुकम्३, उष्णोदकमग्राशुकम् 4, तत्र प्रथमभङ्गे उष्णोदकमेव शीतीभूतं तन्दुलधावनादिकं वा, द्वितीयभङ्गे शीतोदकमेव स्वभावस्थम् / तृतीयभने उष्णोद-कमुवृत्तत्रिदण्डम् / चतुर्थभने तप्तोदकादिकं मन्तव्यम्। एवंविधो-दकप्रतिबद्धेप्रतिश्रये तिष्ठतां चतुर्लघुकाः, एवमविशेषेणोक्तावप्ययं विशेषः-प्रथमतृतीययोलघु, द्वितीयचतुर्थभङ्गयोश्चतुर्लघु आहचनिशीथचूर्णिकृत्-'पढमतइयभंगे ठायंतस्स मासलहुँ, बितियचउत्थेसुचउलहुं,' आह–कस्य पुनरेतत्प्रायश्चित्तम्, गुरुराह--अगीतार्थस्य सूत्रं पुनरनुज्ञाविषयं गीतार्थमधिकृत्य प्रवृत्तमित्युपस्कारः इत ऊर्ध्वम् 'नत्थि अगीयत्थो वा' इत्यारभ्य 'का स इच्छा समुप्पन्ना' इति पर्यन्तं भाष्यमुदकाभिलाषविशेषितं वक्तव्यम्। कीदृशी पुनरिच्छा तस्य समुत्पन्ना? उच्यते-- अणुभूया उदगरसा, नवरं मुत्तुं इमेसि उदगाणं / काहामि कोउहलं, या सुत्तेसुं समारद्धो॥१३५|| अनुभूता मया उदकानां रसाः, नवरं मुक्त्वा अमीषामुदकानां रसान्, अतः करिष्याम्यहमेतद्विषयं कूतूहलं सफलमिति विचिन्त्य प्रसुप्तेषु शेषेषु * साधुषु समारब्धमुदकपात कर्तुम्।
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________________ वसहि 152 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि कानि पुनस्तान्युदकानीत्याहधारोदए महासलि-लाजले संभारिते व दव्वेहि। तण्हा य तस्स व सती, दिवा व राओ व उप्पछे // 136|| धारोदकं नाम--गिरिनिकरजलम्, यथा-उज्जयन्तादौ, आन्तरिक्ष वा, महासलिला--गङ्गाप्रभृतयो महानद्यस्तासां जलं महासलिलाजलम्, द्रव्यैः-कर्पूरपाटलादिभिः संभारितं-वासितं द्रव्यसंभारितम् / एष पानीयेषु तृष्णयाऽपि तस्याभिलाषो भवति, पूर्वानुभूतेषु तु दिवा वा रात्री वा स्मृतिः संस्मरणसुत्पद्यते। ततश्चोदकमपि पिवन्नात्मनो हृदयस्य प्रत्यक्षमिदमाहइतरा कहासु सुणिमो, इमं खुतं विमलसीतलं तोयं / विगयस्स विणऽस्थि रसो, इति सेवे धारतोयादी॥१३७।। इतरथा कथान्तरेषु शृणुमः, परमध विमलशीतलं तत्कथाऽन्तरश्रुतं तत्तोयमास्वादितम्, यचोष्णोदकादिकं विकृतंव्यपगतजीवमुदकं पिवामः तस्यापि शस्त्रोपहतत्वेनान्यथाभूतस्य रसो नास्तीतिमत्वा धारतोयादिकं जलं सेवते। विगतम्मि कोउतम्मि, छहवयविराहण त्ति पडिगमणं। वेहाणसओहाणा, गिलाणसेहेण वा दिछो॥१३८|| विगते उदकपानकौतुके स संयतः षष्ठव्रतविराधना मया कृतेति मत्वा प्रतिगमनं वा वैहायसं वा मरणम् "ओहावण त्ति' अवधावनं कुरुते। ग्लानेन वा शैक्षेण वा स दृष्टो भवेत्। ततश्चतण्हाइओ गिलाणो,तं दल पिवेज जा विराहणया। एमेव सेहमादी, पियंति अप्पचओवासिं॥१३६|| ग्लानस्तृष्णायितस्तंसंयतमुदकमापिबन्तं दृष्ट्वा पानीयं पिबेत्। तेन वा पथ्यतया तस्यानागाढपरितापादिका विराधना, तन्निष्पन्नम्। एवमेव च शैक्षादयोऽप्यपरिणतास्तदुदकमापिबन्ति, अप्रत्ययो वा अमीषां भवेत्। यथैतन्मृषा तथाऽन्यदपि, सर्वममीषामुन्मत्तप्रलपितमिति "उड्डाहं च करिज्जा, विप्परिणामो व हुज सेहस्स। गिण्हतेण व तेणं, खंडियबद्धे च भिन्ने वा' इत्यारभ्य "उदकासन्नो य छणूसवो कर्ज पि य तारिसेण उदगेण / तेणाण य आगमणं, अच्छह तुण्हिक्कया ते वा" इति पर्यन्ता गाथा गतार्थाः। अथयैः कारणैः स्तेना उदकमपहरन्ति तानिदर्शयतिऊसवछणेसु संभा-रियं दगं तिसिय रोगियट्ठाए। दोहलकुतूहलेण व, हरंति पडिवेसियाई य॥१५॥ उत्सवाः क्षणाश्च पूर्वोक्ताः तेषु प्रत्यासन्नेषु स्तेना उदकं हरेयुः। यद्वा-- तृषिताः सन्तः सूर्यपानार्थं संभारितं दर्पूरपाठादिवासितं चतुर्थमूलं पञ्चमूलकृतं वा तदुदकमपहरन्ति / यद्वा-रोगी कश्चित्तेषामस्ति, तस्य तत्पानीयं पथ्यं तदर्थम्, अथवा-गर्भिण्यास्ता--दृशमुदकपाने तु दोहदं समुत्पन्नम्, यदि वा-कुतूहलं तेषामुदपादि कीदृशोऽस्य पानीयस्य रसः, एवमेभिः कारणैः प्रतिवेश्मिकादयः स्तेना अपहरेयुः। गहियं च तेहिं उदकं, चित्तूण गया जहिंसि गंतव्वं / सागारिओ व भणई, सउणीवियरक्खई तिण्हं ||11|| उक्तार्था। दगमायणाणि दट्टु,सजनं बहियं दगं च परिसडियं। केण इमं तेणेहि, असिडे मद्देयर इमे उ॥१४॥ सागारिको दकभाजनानि स्वजनं चाज्ञाजनमपहृतं दकं वा परिशटितं दृष्टा पृच्छति-केनेदं जलमपहृतम् ? साधवो ब्रुक्ते-स्तेनैः। ततोऽसौ भूयः प्रश्रयति के पुनः स्तेनाः? ततो यदि नाम्ना वर्णेन वा तान् कथयन्ति ततस्तेषां बन्धनादयो दोषाः / अथ न कथयन्ति ततोऽशिष्ट अकथिते भद्रकप्रान्तकृता इमे दोषाः। लहुगा अणुग्गहम्मी, गुरुगा अप्पत्तियं च कायव्वा / लहुगुरू संकुणंते, छम्मासा करभरे छेओ / / 143 / / इतऊर्ध्वम् "आमन्ति अब्भुवगए, भिक्खवियाराइ निग्गयमएसुं। भणइ गुरू सागारिय, कत्थ दगं जाणणट्ठाए।" इति पर्यन्तं गाथा-कदम्बकं प्राग्वत्। कथं पुनः सूरयः सागारिकं प्रश्रयन्तीत्याहचउमूल पंचमूलं, तलोदगं तावतिलयतोयाणं / दिलु मऍ सण्णिचया, अन्नयदेसे कुटुंबीणं / / 144|| चतुर्मूलं नाम-चतुर्भिः सुरभिमूलैर्भावितमेवं यत्पञ्चभिर्मूलै वितं तत्पञ्चमूलम्, तलोदकानि यत्र तोसलिविषये तलतोयानि राजगृहादौ एवंविधानामुदकानां संनिचया मयाऽन्यस्मिन् देशे कुटुम्बिनां गेहेषु दृष्टाः, "एवं च भणियमन्नम्मिकारणे सो भणाइ आयरिए! अस्थिमहं संनिचया, पच्छह नाणाविहे उदए" इत आरभ्य "जाणता विययतणं, मवन्नरूवेण सा होति" इति पर्यन्तंभाष्यंतथैवात्र वक्तव्यं नवरमुदकाभिलापः कर्तव्यः। ज्योतिःसूत्रम्उवस्सयस्स अन्तोवगडाए सवराईए जोई झियाएजा, मो कप्पइ निग्गंथाण वा गिग्गन्थीण वा अहालंदमविवत्थए हुरत्थाय उवस्सयं पडिलेहमाणे नो लभेजा, एवं से कप्पइ एगरायं वा दुरायं वा वत्थए नो से कप्पइ परं एगरायाओ वा दुरायाओ वा वत्थए।जे तत्थ एगरायाओवादुरायाओवापरंवसेलासेसंतरा छए वा परिहारे वा // 6 // एवं प्रदीपसूत्रमप्युच्चारणीयम्। अथास्य सूत्रद्वयस्य कः सम्बन्ध इत्याह-- उदगाणंतरमग्गी, सो उपईवो व होज जोई वा। पडिवक्खेणं व गयं, समागमो एस सुत्ताणं ||15|| प्रवचने ह्यप्कायप्ररूपणानन्तरं अग्निकायःप्ररूप्यते, अतोऽत्राप्युदकसूत्रानन्तरमग्निसूत्रमारभ्यते / स चाग्निः प्रदीपो वा स्यात्, ज्योतिर्वा / 'पडिवक्खणेवगय तिभावप्रधानत्वान्निर्देशस्य, पक्षतयावाइदंसूत्रमागतम्। किमुक्तं भवति-अप्कायस्यानिकायः शस्त्रम्,अग्निकायस्याप्कायः, अत एतौ
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________________ वसहि 953 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि परस्परं प्रतिपक्षी, प्रतिपक्षत्वेन वा अप्कायानन्तरं साम्प्रतमग्निः प्ररूपणीयः, एष समागमसम्बन्धो द्वयोरपि सूत्रयोर्मन्तव्यः, इत्यनेन संबन्धेनायातस्य प्रथमसूत्रस्य (6) तावत् व्याख्या / सा च प्राग्वत्, नवरं सार्वरात्रिकं ज्योतिरग्निर्यत्रोपाश्रये ध्मापयेत्धातूनामनेकार्थत्वात् प्रज्वलेत्, तत्र साधुसाध्वीनां वस्तुंन कल्पते। अथ भाष्यविस्तरःदेसीभासाएँ कयं, जा बहिया सा मवे हुरत्थाओ। वंधणुलोमेण कयं, छेए परिहारपुथ्वं तु // 145|| अहव ण वारिजंतो, निकारणओ व तिण्हं व परेणं। छेयं चिय आवजे, छेयमओ पुव्वमाहंसु // 146|| गाथाद्वयमपि गतार्थम्। ज्योतिःस्वरूपं निरूपयतिदुविहो य होइ जोई, असव्वराई यसवराई या वायतगाणं लहुगा, कास अगीयत्थ सुत्तं तु // 17 // ज्योतिरनिकाय उद्दीप्तम्, तत् द्विविधम्-असार्वरात्रिकं कियतीमपि रात्रियत्प्रज्वलति, तद्विपरितसार्वरात्रिकमुभयोरपि तिष्ठतां चतुर्लघुकाः। अथ कस्य पुनरेतत्प्रायश्चित्तम्? उच्यते-अगीतार्थस्य,सूत्रं तु गीतार्थप्रवृत्तमिति उर्ध्वम्- 'नस्थि अगीयत्थो वा' इत्यारभ्य 'रमणिज्ज भिक्खगामो, छाय, तह जोइसालाए' इति पर्यन्तं भाष्यं तथैवात्र वक्तव्यम्। अथ तत्र स्थितानां दोषानुपदर्शयतिउवगरणे पडिलेहा, पमञ्जणा वा सपोरिसि मणे य। निक्खमणे य पवेसे, आपडणे चेव पडणे य / / 148 // वसतौ स्थितानामुपकरणप्रत्युपेक्षणे वसतेःप्रमार्जने आवश्यकस्य सूत्रार्थपौरुष्योर्वा करणे, 'मणे य' त्ति मनसा रागद्वेषगमने, निष्क्रमणे च प्रवेशे चङ्क्रमणे नैषेधिक्यावश्यिक्योः करणे अपनयेनैव गच्छता अणुष्वप्कायादिषु स्खलने पतनेच प्रतीते, एतेषुया तेजस्कायस्यात्मनो वा विराधना तन्निष्पन्नं प्रायश्चित्तम् / अथैत-दोषभयात्प्रतिलेखनाप्रमार्जनादि न करोति ततोऽपि प्रायश्चित्तम्। किं पुनस्तदित्यत आहपणगं लहुओ गुरुया, चउरो मासा य चउसु ठाणेसु। लहुगा गुरुगाय मणे, सेसेसु वि होति चउलहुगा // 146 / / यदिज्योतिःशालायां स्थिताः अग्निसंघट्टो मा भूदिति कृत्वा घस्त्राद्युपकरणं न प्रत्युपेक्षन्ते ततो जघन्ये पञ्चकम्, मध्यमे मासलघु, उत्कृष्ट चतुरो लघवः / वसतिं न प्रमार्जयन्ति, यद्वा-निर्गच्छन्तः प्रविशन्तो वाऽग्निविराधनाभयान्न प्रमार्जयन्ति उभयत्रापि मासलघु। आवश्यकं न कुर्वन्ति चतुर्लघु,सूत्रपौरुषीं न कुर्वन्ति मासलघु। अर्थपौरुषीं न कुर्वन्ति मासगुरु। अथैतदोषभयादुपकरणप्रत्युपेक्षणां वसतिप्रमार्जनामावश्यकसूत्रार्थपौरुष्यौ न कुर्वन्ति तत एतेषु चतुर्ध्वपि स्थानेषु प्रत्येकं चत्वारो मासलघवः / यस्तु शोभनं समजनि यदेवं प्रकाशे स्थाने स्थिता इत्येवं रागं करोति, यस्य वा सुप्रदेश निद्रा न गच्छति स यदि तत्र द्वेषं करोति तत एवं मनसा रागद्वेषकरणे यथाक्रमं चतुर्गुरवश्चतुर्लघवश्च / शेषेष्वप्यावश्यिकीनैषेधिकीकरणादिषु स्थानेषु प्रत्येकमग्निविराधनानिष्पन्न | चतुर्लघु। अमुमेवार्थ स्फुटतरमाहपेहपमजणवासग, अग्गी ताणिं अकुव्वओ जा (परि) हाणी। पोरिसिभंगे सजोई, होति मणओ रतिमरतिं वा // 150|| उपकरणप्रत्युप्रेक्षां वसतिप्रमर्जनां वासय त्ति आकारलोपादावश्यक च यदिति तदनिविराधनानिष्पन्नं चतुर्लघु, आकारलोपात् तद्दोषभयादेतानि न करोति ततः संयमपरिहाणिस्तन्निष्पन्नं सूत्रपौराषीभङ्गेमासलघु, अर्थपौरुषीभङ्गे मासगुरु, 'अभंगि' तितथाकरणे अग्निविराधना। अथसज्योतिरुपाश्रय इति मनसि रतिर्भवति तदा चतुर्गुरु, अरतिर्भवति तदा चतुर्लघु। जइ उस्सग्गे न कुणइ,तइ मासा सव्व अकरणे चउलहुगा। वंदणथुई अकरणे, मासो संडासकाईसुं // 151 / / आवश्यके यावतः कायोत्सर्गान् न करोति तावन्तो लधुमासाः। अथ सर्वमप्यावश्यकं न करोति, ततश्चतुर्लघु ! अथ वन्दनकं न ददाति स्तुतिमङ्गलं वा न करोति, ततो यावन्ति वन्दनकानि यावतीः स्तुतीर्वा न प्रयच्छति तावन्ति मासलघूनि / अथ यदि ददाति ततश्चतुर्लधु, उपवेशनसंडाशकंन प्रमार्जयतिमासलघु, अथ प्रमार्जयति ततश्चतुर्लघु। अथ निष्क्रमणादिपदेषु प्रायश्चित्तमाह। आवस्सिगानिसीहग-पमज-आसन-अकरणें इमं तु। पणगं पणगं लहु लहु, आवडणे लघुगजं वण्णं // 15 // निष्क्रामन्तो यद्यावश्विकीं न कुर्वन्ति पञ्चकम्, प्रविशन्तो नैषेधिकी न कुर्वन्ति पञ्चकम्, निर्गमप्रवेशौ कुर्वाणा न प्रमार्जयन्ति मासलघु / आवश्यकशब्दस्याकरणे मासलघु / आपतनम् यद्भूमिसंप्राप्तस्य वा जानुकूपराभ्यां प्रस्खलनम्, सर्वगात्रेण भूमौ प्रणतः द्वयोरपि चत्वारो लघुमासाः, यचापतितः यदि चात्मविराधनादि-कमापद्यते तन्निष्पन्नम्। अथवा-यचान्यदनौ प्रतापनादि करोति तदत्र द्रष्टव्यम्। तदेव दर्शयतिसेहस्स विसीयणया, ओसकविसकअन्नहिं नयणं। विज्झविऊण तुअट्टण, अहवाऽवि भवे पलीवणया॥१५३|| शैक्षस्य शीतार्तस्य चाशातना स्यात्, अग्नौ प्रताप्य स विगत-शीतमात्मानं कुर्यादितिभावः। अत्रच यावतो वारान्हस्तौ पादौ वा प्रतापयन् परावर्तयति तावन्ति चतुर्लधूनि / तथा विष्वकर्ण-शीघ्रविध्मापनार्थ ज्वलदुल्गुकानामपकर्षणम्। अवष्वष्कणंतु-तेषामेव प्रज्वलनार्थमुदीरणम्, अन्यत्र नयनं नाम शयनस्थानाभावादनेः स्थानान्तरसंक्रमणम्, तथा प्रदीपनकभयादग्निं क्षारेण धूल्या वा विध्माप्यत्वग्वर्त्तनम, एतेषु प्रत्येकं चतुर्लघुकम्। अथवा-प्रतापयतःप्रमादतः प्रदीपनकं भवेत, तत्रेदं प्रायश्चित्तम्गाउअदुगुणा दुगुणं, वत्तीसं जोयणाइ चरिमपदं। चत्तारि छच लहु गुरु, छेओ मूलं तह दुगं च / / 15 / /
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________________ वसहि 954 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि गव्यूतादारभ्य द्विगुणाद् द्विगुणवृद्ध्या द्वात्रिंशद्योजनलक्षणं चरमपदं त्यर्थः / पचनशाला नाम-यत्र पाकस्थाने वर्षासु भाजनानि पच्यन्ते, यावदिदं प्रायश्चित्तम् / यद्येकं गव्यूतं दह्यते ततश्चत्वारो लघुमासाः, इन्धनशाला तु-यत्र तृणकरीषकचवरास्तिष्ठन्ति, व्यावरणशाला नाम-- अर्द्धयोजनं दह्यते चत्वारो गुरुमासाः, योजनं दह्यते षड् मासलघवः, बहुमते विषये ग्राममध्ये शाला क्रियते, तत्र अग्निकुण्डं स्वयं वरहेतोर्नियोजनद्वये षण्मासा गुरवः, चतुर्षु योजनेषुछेदः, अष्टसुमूलम्, षोडशसु त्यमेव ज्वलति, तत्र च बहवश्चेटकाः। एका चस्वयंवरा चेटिका प्रक्षिप्यन्ते-- अनवस्थाप्यम्, द्वात्रिंशद्योजनेषु दग्धेषु पाराञ्चिकम्। प्रवेश्यन्ते इत्यर्थः / यस्तेषां मध्ये तस्यैव प्रतिभाति तमसौ वृति, एषा तथा व्यावरणशाला। एतासु तिष्ठतां चत्वारो लघुकाः। गोणे य साणमाई, वरणे लहुगा य ज व अहिगरणं / नवरम्लहुगा आवरणम्मि, खंभतणाइं पलीवेजा ||15|| इन्धनसाला गुरुगा, आदित्ते तत्थ नासिओ दुक्खं / तत्र प्रविशतो गोश्वा (ना) दीन् यदि वारयन्ति तदा चतुर्लधुकाः, एते दुविहविराहणझुसिरे, सेसा अगणी य सागरिए॥१६१।। वारिताः सन्तो हरितकायादिविराधनारूपमधिकरणं कुर्वन्ति तन्निष्पन्नम्। इन्धनशालायां तिष्ठतां चत्वारो गुरुकाः कुत इत्याह-तत्र तृणअथ न वारयन्ति ततोऽपि चतुर्लघवः, प्रविष्टाश्च प्रज्वलदिन्धनचालनेन करीषादावादीप्ते-प्रदीप्ते सति नष्टं दुःखं दुष्करं सुचिरं च तत् तृणादि स्तम्भतृणादीनि प्रदीपयेयुः, तत्रापि गव्यूतादारभ्य द्विगुणाद्विगुणवृद्ध्या भवति / ततस्तत्र द्विधा विराधना, संयमात्मविषया, शेषासुपणितद्वात्रिंशद्योजनेषु पाराश्चिकम्। यतएतेदोषाः अतोनज्योतिः-शालायां शालादिषु भाजनविक्रयक्रयिकादिभाजनेन सागारिकः पचनशालायां स्थातव्यम्। भवेत्कारणं येन तत्रापि तिष्ठेयुः। पुनरग्निदोषो भवति। किं पुनस्तदिति चेदुच्यते एतासु द्वितीयपदे तिष्ठतां विधिमाहअद्धाण निग्गयाई, तिक्खुत्तो मग्गिऊण असतीए। पढमं तु भंडसाला, तहि सागरि नऽस्थि उभयकालं पि। गीयस्था जयणाए, वसंति तो अगणिसालाए।।१५६।। कम्मापणि निसि नत्थी, सेसकमणिंधणिं जाव।।१६।। अध्वा-महदरण्यम् ततो निर्गताः,आदिशब्दाद्-अशिवावमौदर्यादिषु शुद्धोपाश्रयालाभे प्रथमं भाण्डशालायां तिष्ठन्ति, यतस्तत्रोभयवर्तमाना विकालवेलायां ग्रामं प्राप्तास्त्रिकृत्वः-त्रीन्वारान् शुद्धां वसति कालेऽपि दिवारात्रौ सागारिको नास्ति, तदभावे कर्मशालायाम, मार्गयन्ति, यदि न प्राप्यते ततो गीतार्था यतनया अग्निशालायां वसन्ति। तदप्राप्तौ आपणिशालायामपि यतस्तत्र निशिरात्रौ सागारिको नास्ति। एतदेव स्पष्टयति तदभावे शेषासु पचनशालादिषु क्रमेण स्थातव्यं यावदिन्धनशाला। तद्यथा-प्रथमं पचनशालायाम्, ततो व्यावरणशालायाम्, तत इन्धनअद्धाण निग्गयाई, तिण्हं असई य फरुससालाए। शालायामपि। गीयत्था जयणाए, वसंति तो पचणसालाए।।१५७|| तत्र स्थितानां यतनामाहअध्वनिर्गतादयस्तिसृणां-पणितशालाभाण्डशालाकर्मशालानाम ते तत्थ संनिविट्ठा, गहिया संथारगा विहीपुट्वं / न्यतरस्याः परुषशालाया(कुम्भकारशाला) अभावे ततो गीतार्था य जागरमाणावसंति, सपक्खजयणाएँ गीयत्था॥१६३।। तनया पचनशालायां-भाजनपाकशालायां वसन्ति। इह शालात्रयग्रहणादन्याऽपि कुम्भकारशालाः तेसाधवस्तत्रोपाश्रये संनिविष्टाः सन्तः स्वाध्यायं कुर्वन्ति, विधिपूर्वम्, यथा रत्नाधिकम्, संस्तारकास्तैस्तत्र गृहीताः, ततश्च, गीतार्थाः स्वपक्षसूचितास्तासांस्वरूपमुपदर्शयितुमाह यतनां कुर्वाणाः जाग्रतः सन्तो वसन्ति तिष्ठन्तीत्यर्थः। पणिए य भंडसाला, कम्मपयणे य वावरणसालाए। कथमित्याहइंधणसाला गुरुगा, सेसासु वि हॉति चउलहुगा / / 158|| पासे तणाण सोहण, अहिसकोसक अन्नहिं नयणं। पणितशालाभाण्डशाला कर्मशाला पचनशालाव्यावरणशाला इन्धन संवरणालिंपणया,छुकारणवारणा कड्डी।।१६५|| शाला चेति। अत्र निष्कारणे इन्धनशालायां तिष्ठतां चतुर्गुरुकाः, शेषासु अग्रे पार्वे यदि तृणानि भवन्ति ततस्तेषांशोधना कर्त्तव्या, श्वापदभये पणितशालाप्रभृतिषु चतुर्लधुकाः। अनाक्रान्तिकस्तेनसंभवे अग्नेरभिष्वष्कणं कुर्वन्ति, यदितत्रोत्क्रान्तिकअथैतासामेवव्याख्यानमाह स्तेनानां संभवस्तदा तमग्निमवष्वष्कयन्ति, स्वप्तुकामा वातमन्यन्नयन्ति कोलालियावणो खलु, पणिसाला भंडसालॉजहि भंडं। बहिः संक्रामयन्तीत्यर्थः। कृते कार्य क्षारेण मल्लकेन वा तस्याग्रे संवरणकुंभारघडीकम्मे, पयणे वासासु आवासो।।१५।। माच्छादनं कर्तव्यम्। ततो यथायुष्कमनुपाल्य स्वयमेव विध्मापयति, तोसलिए वग्धरणा, अग्गीकुंड तहिं जलति निच। प्रदीपनकभयान्न च स्तम्भस्य छगणादिना लेपनं कर्त्तव्यम्। श्वा वा गौर्वा तत्थ सयंवरहेतुं, चेडाचेडी य बुज्झंति॥१६०।। यदितत्र प्रविशति ततो वा ढौकते तदा छुक्कारयति छिच्छिक्कारः कर्तव्यः / (पणितशालाव्याख्यानम् ‘पणियसाला' शब्दे पञ्चमभागे 380 पृष्ठे अथ तथापि न तिष्ठन्ति ततो निवारणा तेषां कर्त्तव्या।सहसा च दीपनके गतम् / ) भाण्डशाला यत्र घटकरकादि भाण्डजातं संगो पितमास्ते, लने कटाहैराकर्षणं कर्त्तव्यम् / यद्वा तत्प्रदीपनकं धूल्यादिना विध्याकर्मशाला-कुम्भकारघटी, यत्र कुम्भकारो घटादि भाजनादि करोती- | पवितव्यम्।
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________________ वसहि 955 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि अथोपकरणप्रत्युपेक्षणादिषु द्वारेषु यतनामाहकडओघाचिलिमिणिं वा, असता सभए व बाहिँ जं अंतं। ठाणासती भयम्मिव, विज्झाएँगणिम्मि पेहंति॥१६॥ / अनरन्तरं वंशमयः कटो वस्त्रमयी वा चिलिमिलिका न दातव्या, ततः प्रत्युपेक्षणाप्रमार्जनादीनि सर्वाण्यपि पदानि कुर्वन्ति, कटक-चिलिमिलिकयोरभावे प्रतिश्रयाद्वहिरुपकरणं प्रत्युपेक्षणीयम् / अथ बहिः सभयं-स्तेनभययुक्तंततोयदन्त्यं परिजीर्णमुपकरणं तदहिः प्रत्युपेक्षन्ते, सारोपकरणं तु विध्माते ज्योतिषि प्रत्युपेक्षितव्यम् / अथ बहिः स्थानं नास्ति; यद्वा-अन्त्योपकरणस्यापि तत्रापहरणभयं ततः सर्वमप्युपधिं विध्मातेऽग्नौ प्रत्युपेक्षन्ते। जिंताण पमजंती, मूगावांस तु वंदणगहीणं / / पोरिसि बाहि मणेण व, सेहाण य दिति अणुसहि // 166|| निर्गच्छन्तः प्रविशन्तो वा तत्र प्रमार्जयन्ति आवश्यकमपि मूकं वाग्योगविरहितं वन्दनहीनंच कुर्वते। सूत्रार्थपौरुष्यौ बहिर्विदधति, बहिःस्थानाभावे मनसैव सूत्रमर्थ वा उपेक्षन्ते, ते च शैक्षा ज्योतिः प्रकाशे रागमुपगच्छन्ति। तेषां गीतार्था अनुशिष्टिं प्रयच्छन्ति। कथमित्याहनाणुजोया साहू, दव्वुञ्जोवम्मि मा हु गज्झित्था। जस्स विन एइ निद्दा, निमीलिओ वा सुवइ गिम्हे // 167|| ज्ञानोद्योता:-सकलजीवादिपदार्थसार्थप्रकाशकज्ञानलक्षणभावोद्योतकलिताः साधवो भवन्ति,अतो द्रव्योद्योतकेऽपि पद-पदार्थप्रकाशे ज्योतिःप्रभृतिके मा गृध्यत-रागमुपगच्छत। यस्य वा साधोः सप्रकाशे निद्रा न गच्छति साकल्पयेन प्रावृतः स्वपिति, ग्रीष्मकाले प्रावृतस्य घर्मो भवति, ततो निमीलितलोचनः खपिति। अथ स्वकावश्यकं वन्दनकहीनमिति पदं व्याचष्टेआवास बाहि असई, वंदणविगडणजयणथुतिहीणं / पोरिसि बाहिं अंतो, चिलिमिलि कातूण व झरंति॥१६८|| आवश्यकं बहिः कुर्वन्ति, अथ बहिः स्थानं नास्ति ततो यो यत्र स्थितः स तत्रैव स्थितः मनसैव च करोति-द्वादशावर्त वन्दनकं प्रयच्छति / विकटनामालोचनां यतनया वर्षाकल्पप्रावृतानि श्रेष्ठा एव कुर्वन्ति, स्तुतिहीनं नामस्तुतिमङ्गलं मनसैव कुर्वन्ति / अथ 'पोरिसिवाहिं ति पदं व्याख्यायते-सूत्रार्थपौरुष्यौ बहिः कुर्वन्ति। अथबहिःस्थानं नास्ति, ततः प्रतिश्रयस्याभ्यन्तरेऽपि चिलिमिलिकां कृत्वा क्षरन्ति-स्वाध्यायं कुर्वन्ति। 'वा' विकल्पो-पदर्शने,चिलिमिलिकाया अभावे मनसैव सूत्रम) वाऽनुप्रेक्षन्ते इत्यर्थः। मूगा विसंति निती, चउसगमाई कुओ वि अछि।ता। सेहा य जोइदूरे, जयंति य जा धरइ जोई / / 16 / / मूकाः-ये तूष्णीकाः प्रविशन्ति निर्गच्छन्ति, वा नषेधिकीमा वश्यिकीं च मनसैव कुर्वन्तीत्यर्थः / उत्फुल्लकमलातपादिशब्दादग्निशकटिकां वा क्वचिदप्यस्पृशन्तः / तथा निर्गच्छन्ति व प्रविशन्ति, यथा आपतनपतने न भवतः / ये च शैक्षा अगीतार्थाश्च निर्धाणस्ते ज्योतिषो दूरे | स्थापयितव्याः / गीतार्थवृषभाश्च तावत्-जाग्रति यावत् ज्योतिरग्निः ध्रियते, न विध्मायतीति भावः।मा शैक्षादयः प्रतापयेयुरिति कृत्वा मनसैव। अद्धाणाई अइनि-दपिल्लओ गीओ उसमिओ सुवइ। सावयभय उस्सके,तेणभये होइ भयणाओ॥१७०।। अध्वादिपरिश्रान्तोऽतिनिद्राप्रेरितो वा गीतार्थस्तमग्निमपसl स्वपिति, सिंहव्याघ्रादिश्वापदभये यतनया तान्युल्मकान्युत्सर्पयति। स्तेनभये तु भजना भवति / यद्याक्रान्तिकस्तेनास्तेतो मा ज्योतिः प्रज्वलदवलोक्य गमनं कार्युरिति कृत्वा तमग्निमपसर्पयति / अथ नाक्रान्तिकास्ततो ज्वलन्तमग्निं दृष्ट्वा जागृत्यमी इति बुद्ध्या ते नाभिद्रवन्ति, अतस्तेषु तमग्निमुत्सर्पयतीति। अद्धाणविवित्ता वा, परकड असती सयं तु जालेति। सूलाई व तवेलं, कयकजा छार अक्कमणं // 171 / / अध्वनि विविक्ताः-मुषिताः परकृतमन्यप्रज्वालितमग्नि सेवन्ते, अथ परकृतो न प्राप्यते ततः स्वयमात्मनेव ज्वालयन्ति शीतार्तास्तत्रेन्धनं प्रक्षिपन्तीत्युक्तं भवति / शूलमादिशब्दाद्विसूचिका वा तापयितुम्, परकृताभावे स्वयं ज्वालयन्ति कृतकार्या निष्ठिते क्षारेणाक्रमणं कुर्वन्ति मा प्रदीपनकं भविष्यतीति कृत्वा। सावयभयआणिंति व,सोउमणा वावि बाहि नीणिति। बाहिं पलीवणभया, छारे तस्स त्ति निव्वावे // 172 / / श्वापदभयेऽन्यस्मात् स्थानादग्निमनियन्ति। स्वप्नुमनसो वा तस्मात् स्थानात् बहिर्नयन्ति / अथ बहिः प्रदीपनकभयान्न नयन्ति ततस्तत्र स्थितमेव क्षारेण छादयन्ति, तथा क्षारस्याऽभावे निर्वापयन्ति-विध्मापयन्तीत्यर्थः। सूत्रम्उवस्सयस्स अंतो वगडाए सव्वराईएपईवे दीपेशा, नो कप्पइ निग्गन्थाण वा निग्गन्थीण वा अहालंदमवि वत्थए हुरत्था य उवस्सयं पडिलेहमाणे नो लभेजा, एवं से कप्पइ एगरायं वा दुरायं वा वत्थए, नो से कप्पइपरं एगरायाओ वा दुरायाओ वा वत्थएजे तत्थ एगरायाओ वा दुरायाओ वा परं वसेज्जा सेसंतरा छए वा परिहारे वा // 7 // अस्य व्याख्यानं ज्योतिःसूत्रवन्मन्तव्यम्। अथ भाष्यम्देसीभासाएँ कयं, जा बहिया भवे हुरत्थाओ। बंधणुलोमेण कयं, छेया परिहारपुष्वं तु // 173 / / अहव ण वारिजंतो, निक्कारणओ व तिण्ह व परेणं / छेयं चिय आवजे, छेयमओ पुटवमाहंसु // 174|| गाथाद्वयमपि गतार्थम्। दुविहो य होइ दीवो, असव्वराई य सव्वराई य। ठायंते लहु लहुगा, कास अगीयत्थसुत्तं तु / / 175|| द्विविधश्च भवति दीपः, तद्यथा-सार्वरात्रिकः, असार्वरात्रिकः / तत्र सार्वरात्रिकप्रदीपयुक्तायां तु चत्वारो लघवः।
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________________ वसहि ९५६-अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि कस्य पुनरेतत्चतुर्लघुप्रायश्चित्तम्, सूरिराह-अगीतार्थस्य। इत ऊर्ध्वम् "नऽत्थि अगीयत्थो वा" इत्यारभ्य "गच्छन्ति पईवसालाए" इति पर्यन्तं भाष्यं प्राग्वदन वक्तव्यम्। अथ तत्रावस्थितानां दोषानाहउवगरणे पडिलेह, प्पमजणा वा सपोरिसि मणे य। निक्खमणे य पवेसे, आवमणे चेव पडणे य॥१७६|| पणगं लहुओ लहुगा,चउरो लहुगा य चउसु ठाणेसु।। लहुगा गुरुगाय मणे, सेसेसु वि हॉति चउलहुगा||१७७|| द्वे अपि गाथे व्याख्याते। मानद्वारे विशेषमाहगुरुगाय पगासम्मि, लहुगाते चेव अप्पगासम्मि। सातम्मि हॉति गुरुगा, अस्साए हॉतिचउलहुगा / / 178|| प्रदीपस्य प्रकाशे अभिरोच्यमाने चत्वारो गुरुकाः, अप्रकाशे चत्वारो लघुकाः। एतदेवोत्तरार्द्धन व्याचष्टे-सातं सुखं रतिरित्येकोऽर्थः / यदि प्रकाशे रतिं मन्यते तदा चत्वारो गुरवः / अथाऽसौ तमरतिं मन्यते ततश्चत्वारो लघुकाः। पडिमाए झुसियाए, उड्डाहो तणाणि वा भवे हेद्वा। साणाइ चलणलोले, खंभ-तणाई पलीवेजा।।१७।। देवकुलादौ प्रदीपेशालायां या स्कन्दमुकुन्दादिप्रतिमा तस्यां प्रदीपेन झुषिताया-दग्धायामुडाहो भवेत्, अमीभिःश्रमणकैः प्रत्यनीकतया स्कन्दादिप्रतिमा दग्घेति। अथाधस्ताद्वा संस्तारको तृणानि भवेयुः तानि दोरन्, शुनादिनाचरणैः पातितस्ततः प्रदीपस्य चततः स्थानादवरोहणं विधेयम् / अथ शृखलादीपोऽसौ न ततः स्थानादवतारयितुं शक्यते ततो लोलाया अवसर्पणमुत्सर्पणं वा कुर्यात् श्वगवादीनां "छुच्छुत्कारणं"छुच्छुदिति प्रतिषेधकरणेन वारणं वा दण्डादिदर्शनेन अपकर्षणं वा वर्तेर्वा कर्त्तव्यम्। ___ अथावसर्पणमुत्सर्पणंच व्याख्यानयति-- संकलदीवे वत्ति उ, उव्वत्ते पीडएवमा डझे। रूएण व तं नेह,घेत्तूण दिवा विगिंचिंति॥१०॥ शृङ्खलादीपे स्थानान्तरं संक्रामयितुमशक्तवर्तिमुद्वर्तयेद्वा निपीडयेद्रा, मा दह्यतां मा प्रदीप्यतामिति कृत्वा, रूतेन वा तं प्रदीपवर्त्तिनं स्नेहतैलं गृहीत्वा ततो दिवा विगिञ्चन्ते-परिष्ठापयन्ति। हेहा तणाण सोहण, ओसक्कभिसक अन्नहिं नयणं / आगाठे कारणम्मि, ओसकभिसक्कणं कुख्खा // 11 // प्रदीपस्याधस्तात् तृणानां शोधनं कर्त्तव्यम् / यद्वा-तं प्रदीपभवसर्पयति वा अभिसर्पयति / अथवा-नयन्ति-संक्रामयन्तीत्यर्थः / एतचावसर्पणमभिसर्पणं वा आगाढकारणे समुत्पन्ने गीतार्थः कुर्यात्, न अनागाढे। मझे व देउलाई, बाहिं ठवियाण होइ अतिगमणं। जे तत्थ सेहदोसा, ते इह आगाजयणाए॥१५॥ ते साधवो विकाले संप्राप्ताः सन्तः संप्रदीपे देवकुले स्थिता भवेयुः। यद्वा-ग्रामादिमध्ये देवकुलम्, आदिशब्दात्-प्रपासभादिकं वा। तच्च दिवा सागारिकाकुलं तत्र प्रभातेऽपि समागता दिवा बहिः स्थित्वा सन्ध्यायां तत्र प्रविशन्ति / यद्वा-बहिः स्थितानां स्तेनश्वापदादिभयमत्र रात्री भवतीति श्रुत्वा समस्त्येति गमनं प्रवेशो भवति। तत्र च सप्रपायां वसतौ स्थितेर्ये पूर्व शिष्यविषयाः प्रतापनादयो दोषा उक्ताः ते इहागाढे कारणे यतनया परिहर्तव्याः / यदि प्रमादतः प्रदीपनकं भवेत, तत्र को विधिरित्याहअन्नाए तुसिणीया, नाए दट्ठूण सविउलं बोलं। बाहिं देउल सद्दो, समागयाणं खरंटोय॥१८३|| यदि केनापि न ज्ञातम्, यथा-संयताःस्थिताः सन्ति ततः तूष्णीका भूत्वा पलायन्ते। अथ ज्ञातं संयता अत्र स्थिताः सन्तीति, ततः प्रदीप्तं दृष्टा महता शब्देन 'सविउलं' बोलं कुर्वन्ति यावद्भूयान जनो मिलितः। ततो बहुजनस्य पुरतः भणन्ति पश्यत पश्यत केनापि पापेन प्रदीपनक कृतमिति / यदा-देवकुलाहिर्निर्गत्य तथैव शब्दो-बोलः क्रियते। समागतानां लोकानां खरण्टना कर्तव्या, तेन युष्माभिरेवैतत्प्रदीपितं येनैते श्रमणा दह्यन्ताम्, अस्माकं चोपकरणं सर्वमप्यत्र दग्धम् / एवं खरण्टिताः सन्तोन किंचिदुल्लपन्ति। बृ०२ उ०। (8) अथ वसतौ पीठादिसञ्चालननिषेधमाह-- से भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेजं पुण उवस्सयं जाणेजा, असंजए भिक्खुपडियाए पीढं वा फलगंवा णिस्सेणिं वा उदूखलं वा ठाणाओ ठाणं साहरइ बहिया वा निण्णक्खू तह-प्पगारे उवस्सए अपुरिसंतरकडे जाव णो ठाणं वा चेइछा, अह पुण एवं जाणेजा पुरिसंतरकडे जाव चेइज्जा / (सू०६५४) एवमचित्तनिःसारणसूत्रमपि नेयम्, अत्र च त्रसादिविराधना स्यादिति भावः। आचा०२ श्रु०१चू०२ अ०१ उ०) __साधूनामपि आगमनादिगृहेषु स्थातुं न कल्पते इत्याहकप्पइ निगन्थाणं अहे आगमणगिहंसि वा विगडगिहंसिवा वंसीमूलंसिवारुक्खमूलंसिवा अब्भावगासंसि वा वत्थए।१२। अस्य व्याख्या चग्वत्। अथ भाष्यम्एसेव गमो नियमा, णिग्गंथाणं पिणवरि चउलहुगा। णवरिं पुणणाणत्तं, अभागासम्मिततियादी॥२१७।। एष एव-निर्ग्रन्थीसूत्रोक्तो गम आगमनगृहादिविषये नियमान्निग्रन्थानामपि भवति, नवरं प्रायश्चित्तं चतुर्लधुकाः, शेषं तु सर्वमपि दोषजालं तथैव वक्तव्यम्।नवरं पुनरत्र द्वितीयपदे तिष्ठतां नानात्वम्। किमित्याहजिका गोकुलं तस्यां ग्लानार्थं गताः सन्ति, आदिशब्दादध्वनि वा वर्तमाना अभ्रावकाशे वसेयुः, उत्सर्गतस्तु निर्ग्रन्थानामप्यागमनगृहादिषु स्थातुंन कल्पते। आह-सूत्रेणानु-ज्ञातमवस्थानमतस्तेन सह विरोधः प्राप्नोति।
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________________ वसहि 957- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि सूरिराहसुत्तनिवाओं पुराणं, आगमें भोइयजणे व रक्खंते। आराम अहे विगडे, वसीमूले च णिडोसे // 218|| पुराणं-चिरन्तनं यदागमनगृहं तत्र सागारिकः संप्रति कोऽपि नागच्छति,यद्वा-तत्रागमनगृहे स्थितानां भोजिकोग्रामस्वामी जनमुपागच्छन्तंरक्षति। ईदृशे सूत्रनिपातः-सूत्रविस्तारो मन्तव्यः। यथाय आरामो नवमालिकागुल्मादिभिर्गुप्तस्तत्राधो विवृते सूत्रमवतरति / वंशीमूलमपि यन्निर्दोषं तत्र सूत्रावतारः। अथैनामेव नियुक्तिगाथां भाष्यकारः स्पष्टयतिअभुजमाणी उसमा पवावा, गामेगपासम्मिण याऽणुपंथे। पभू निवारेति जणं उवेतं, ___ण कुप्पती सो य तहिं व ठंति // 216 // सभा प्रपा वा या अपरिभुज्यमाना ग्रामस्यैकपार्श्वे भवति,(न च) नैवानुपन्थे-मार्गाभ्यां / यद्वा-भुज्यमानायामपि यत्र स्थितानां प्रभुमिस्वामी सम्यग्दृष्टिर्भद्रको वा जनमुपयान्तं निवारयति, सच जनो वार्यमाणः साधूनां ग्रामस्वामिनो वान कुप्यति, तत्र ईदृशे आगमनगृहेऽपि तिष्ठन्ति। गुम्मेहि आगम्म घरम्मि गुत्ते, वईएँ तुंगाएँ व एगदारे। तहेव गुत्ते छइतम्मि ठंति, जत्थ लोगो बहु सण्णिलेति // 220 // गुल्मैनवमालिकाकोरण्टकादिभिर्गुप्तैर्वृत्त्या वा तुङ्गया उच्चैस्तरया / परिक्षिप्ते एकद्वारे आरामगृहे अधो गुप्तेऽप्युपरिच्छादिते स्थगिते तिष्ठन्ति, परं यत्र बहुqयान् लोको न सनिलीयते न समायाति। जं वंसिमूलं ण मुहं च तेण, पिहिदुवारंण तओ व छिंडी। सुणे ति सई ण परोप्परस्स, ण काइयं णेव य दिहिवाता // 221 / / यवंशीमूलम् अलिन्दकादि तेन मूलगृहेण सहान्यतो न मुखं पृढग द्वारं च / अत एव ततस्तदभिमुखा छिण्डिकान भवति। यत्र च परस्परं संयता अविरतिकाश्च शब्दं न शृण्वन्ति, नचैकत्र कायिकी कुर्वते, नैव च परस्परं दृष्टिपातः, केवलं मूलगृहेण महद्रव्य(हाट्ट)तः प्रतिबद्धं न वाप्काययोजनादयो दोषाः। एवंविधे कल्पते वस्तुम्। असई य सक्खमूले, जे दोसा तेहिं वजिया ठंति। अद्धाणमब्भवासे, गेलण्णागाढवइगादी॥२२२ एतेषामागमनगृहादीनामभावे ये पूर्वमस्थिदारुकादयो दोषा उक्तास्तैवर्जितं वृक्षमूले तिष्ठन्ति तथा अध्वानं प्रतिपन्ना अपर-प्रतिश्रयाभावे | आगाढ़े वा ग्लानत्वे जिकादौ संप्राप्ता अभ्रावकाशे वसन्ति। अथ मूले तिष्ठतां विशेष दर्शयतिकडं कुणते सति मंडवस्स, कडासती पोत्तिमतेणगम्मि। सद्दो व उग्गो धणुतामणा य, सोट्टादि पाडि त्तिय पुटवलग्गे // 223 // यत्र वृक्षमूले अधस्तान्मण्डपो भवति ततः प्रथमतः स्थातव्यं तदभावे कटं कुर्वन्ति। कटचिलिमिलिकां ददतीति भावः / अथ कटोन प्राप्यते ततः पोतं-वस्त्रं चिलिमिलिकां कुर्वन्ति, यदि स्तेनभयं न स्यात्। अथ स्तेनभयं तत्र वर्तते सागारिका ब्रुवते श्रमणक ! पटमण्डपं न कुर्विति, ततः शब्दः कर्तव्यः पक्षिणां छिच्छिका इत्यादिना शब्देन निवारणं कार्यमिति भावः। उपयोगो वा दातव्यः, धनुषैर्वा पाषाणैर्वा पक्षिणामुत्त्रासनां कुर्वन्ति-भयमुपजनयन्तीत्यर्थः / सोट्टा नाम शुष्ककाष्ठानि तानि च आदिशब्दादिष्टकादीनि च पूर्वलग्नानिपातयन्ति। एषा वृक्षमूले तिष्ठतां यतना भणिता! अथाभावकाशे तिष्ठतां प्रतिपाद्यते। आगाढे ग्लानत्वे दुग्धादिना प्रयोजनं चेत् तत्राभ्रावकाशे वसनं संभवेत्। कथमित्याहविसोहिकोडी हवई तु गामे, चिरं व कजं ति वयंति घोसं। अन्मासगामा सति तत्थ गंतुं. पडालिरुक्खाऽसतिए अछण्णे // 224|| यदा स्वग्रामे शुक्दुग्धादिन प्राप्यते तदा स्वग्राम एव च यै विशोधिकोटिदोषास्तान् पञ्चकादिप्रायश्चित्तक्रमेण दापयित्वा दुग्धादिकं गृह्णन्ति / अथ तथापि न लभ्यते चिरं वा प्रभूतदिवसात् तेन ग्लानस्य कार्यमिति कृत्वा घोषकुलं व्रजन्ति / कथमित्याह-अभ्यासे गोकुलप्रत्यासन्ने ग्रामे स्थित्वा गोकुलाद् दुग्धादिकमानेतव्यम्। अथ नास्ति प्रत्यासन्नग्रामस्तत्र व्रजिकायां गत्वा पाटलिकायां तिष्ठन्ति, तस्या अभावे वृक्षमूले तस्याप्यभावे अच्छन्ने अभ्रावकाशेऽपि तिष्ठन्ति बृ०२उण (१०)स्कन्धादिषु अन्तरिक्षे वसतिमाहसे भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण उवस्सयं जाणेजा, तं जहा-खंधसि वा मंचंसि वा मालंसि वा पासायंसि वा हम्मियतलंसि वा अन्नयरंसि वा तहप्पगारंसि अंतलिक्खजायंसि णण्णत्थ, आगाढागाढे हिं कारणेहिं ठाणं वा (नो) चेतेजा। से आहब चेतिए सिया णो तत्थ सीतोदगवियडे ण वा उसिणोद-गवियडेण वा हत्थाणि वा पायाणि वा अच्छीणि वा दंताणि वा मुहं वा उच्छोलेज वा पधोएग्ज वा, णो तत्थ ऊसढं पगरेज्जा, तं जहा-उच्चारं वा पासवणं वा खेलं वा सिंघाणं वा वंतं वा पित्तं वापूर्व वा सोणियं वा अण्णयरंवासरीरावयवं वा, केवली बूया-आयाणमेयं, से तत्थ उसढं पगरेमाणे पयलेज वा पवडेज्ज वा,से तत्थ पयलमाणे वा पवडमाणे वा हत्थं वाजाव सीसं वा अण्ण यरं वा कार्यसि वा इंदियजायं लभेजा, पाणाणि वा हु
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________________ वसहि 658- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि अभिहणेज वा जाव ववरोवेज वा, अह भिक्खु णं पुथ्वोवट्ठिाहुजंतहप्पगारे उवस्सए अंतलिक्खजाए नो ठाणंसिवा०३ चेतेजा। (सू०-६६) स भिक्षुर्यत्पुनरेवंभूतमुपाश्रयं जानीयात्, तद्यथा-स्कन्धः- एकस्य स्तम्भस्योपर्याश्रयः, मञ्चमालौ-प्रतीती, प्रासादौ-द्वितीयभूमिका, हऱ्यातलम्-भूमिगृहम्, अन्यस्मिन् वा तथाप्रकारे प्रतिश्रये स्थानादिन विदध्याद, अन्यत्र तथाविधप्रयोजनादिति, स चैवंभूतः प्रतिश्रयस्तथाविधप्रयोजने सति यद्याहृत्य-उपेत्त्य गृहीतः स्यात्तदानीं यत्तत्र विधेयं तदर्शयति-न तत्र शीतोदकानिहस्तादिधावनं विदध्यात्, तथा नच तत्र व्यवस्थित उत्सृष्टम्--उत्सर्जनं त्यागमुच्चारादेः कुर्यात्, केवली ब्रूयात्कर्मोपादान-मेतद् आत्मसंयमविराधनातः / एतदेव दर्शयति-सतत्र त्यागं कुर्वन्निपतेद्वा पतंश्चान्यतरं शरीरावयवमिन्द्रियं वा विनाशयेत्। तथा प्राणिनश्चाभिहन्यात्, यावज्जीविताद् व्यपरोपयेत्-प्रच्यावयेदिति। अथ भिक्षूणां पूर्वोपदिष्टमेतत् प्रतिज्ञादिकं यत्तथाभूतेऽन्तरिक्षजाते प्रतिश्रये स्थानादिन विधेयमिति। आचा०२ श्रु०१चू०२ अ०१ उ०) (11) अथ निर्ग्रन्थीनां सागारिकवसतौ निषेधमतिदिशन्नाहएसेव कमो नियमा, निग्गन्थीणं पि होइ नायव्वो। पुरिसपडिमा उतासिं,साणम्मिय जंच अणुरागो॥४०८|| एष एव-द्रव्यभावसागारिकविषयःक्रमो निर्गन्थीनामपि भवतिज्ञातव्यः / नवरं दिव्यद्वारे तासांपुरुषप्रतिमाद्रष्टव्याः,मनुष्यद्वारे मनुजपुरुषाः, तैरश्चद्वारि तिर्यक्पुरुषा इति तिरश्चो वा श्वानविषयो येष्वनुरागो बभूव / तद् दृष्टान्तो भवति 'जहा एगा अविरइया अवाउडा काइयं वोसिरती विरहे साणेण दिट्ठा / सो य साणो पछि लोलिंतो वा दूणिं करेंतो अलीणो। सा अगारी चिंतेइ पेच्छामि ताव एस किं करेइ ति / तस्स पुरतो सागारियं अभिमुहं काउंजाणुएहिं हत्थेहिय अहोमुही ठिया। तेण सा पडिसेविया / ताए अगारीए तत्थेव साणो अणगारो जातो। एवं मिगछगलवानरादी विअगारि अभिलसंति यत एते दोषास्ततः सागारिके प्रतिश्रये न वस्तव्यम्। अथ द्वितीयपदमाहअद्धाण निग्गयादी, तिक्खुत्तो मग्गिऊण असईए। गीयत्था जयणाए, वसंति तो दव्वसागरिए||४०६|| अध्वनिर्गतादयस्त्रिकृत्वः-त्रीन्वारान् निर्दोषां वसति मार्गयित्वा यदि न लभते ततोऽन्यस्यां वसतौ-असत्यां गीतार्था यतनया द्रव्यसागारिकोपाश्रये वसन्ति। यतनामेवाहजहि अप्पतरा दोसा, आहरणादीण दूरतोय मिगा। चिलिमिलि निसि जागरणं,गीए सज्झायझाणादी॥४१०॥ यत्ररूपाभरणादौ अल्पतरा दोषाः तत्र तिष्ठन्ति,मृगा इव मृगा अज्ञत्वादगीतार्थाः स्नानाभरणादीनां दूरतः कुर्वन्ति। चिलिमिलिकां च रूपादीनामपान्तराले बध्नन्ति / निशि-रात्रौ तत्र जागरणं कर्त्तव्यम्, मा स्तेनादिराभरणादिकमपहरेदिति कृत्वा गीतशब्दे च श्रूयमाणे महता शब्देन स्वाध्यायं कुर्वन्ति / ध्यानलब्धिसम्पन्नो वा ध्यानं ध्यायति / आदिशब्दादप्राप्तनाटके वा विधीयमाने तदभिमुखमवलोकन्ते। भावसागारिके द्वितीयपदमाहअद्धाण निग्गयादी, वासे सावयमए व तेणभए। आयरिया तिविहे वी, वासति जयणाएगीयत्था // 411 // अध्वनिर्गतादयो ग्रामादीनामन्तः शुक्ष वसतिमलभमाना बहिरप्युद्यानादौ वसन्ति / अथ बहिर्वसताविमे दोषाः 'वासति' ति वर्षति-पतति सिंहव्याघ्रादीनां वा श्वापदानां भयम्, स्तेनानां वा शरीरोपधिहराणां भयम्, ततो ग्रामादेरन्तर्भावसागारिके जधन्य-मध्यमोत्कृष्टभेदे (प्राजापत्यादिपरिगृहीतभेदाद्वा) त्रिविधेऽपि वसन्ति / तत्र च प्रतिमा वस्त्रादिभिरावृताः क्रियन्ते, मनुष्यतिर्यक्-स्त्रियश्च कटकचिलिमिलिकामपान्तराले दत्त्वा यथा न विलोक्यन्ते तथा आवृताः सन्तो गीतार्था यतनया वसन्ति / बृ० 130 3 प्रका सस्त्रीके उपाश्रये निषेधमाहसे भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण उवस्सयं जाणेज्जा सइत्थियं सखुडं सपसुभत्तपाणं तहप्पगारे सागारिए उवस्स-ए णो ठाणं वा०३ चेतेजा / आयाणमेयं भिक्खुस्स गाहा–वइकुलेण सद्धिं संवसमाणस्स अलसगे वा विसूइया वा छड्डी वा उवाहिज्जा अण्णयरे वा से दुक्खे रोयातंके समुप्पप्पजेजा, असंजए करुणपडियाए तं मिक्खुस्स गायं तेल्लेण वा घएण वा णवणीएण वा वसाए वा अन्मंगिज वा मक्खिज्ज वा सिणाणेण वा कक्केण वालोद्धेण वा वण्णेण वाचुण्णेण वा पउमेणवा आघंसेज वा पघंसेजवा उव्वलेज वा उव्वट्टेज वा सीओदग-वियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेज वा पक्खालिज्ज वा सिणावेज वा सिंचेज वा दारुणा वा दारुणं परिणाम कल अगणिकायं उजालेज वा पज्जालेजवा उजालित्ता कायं आया-वेज वापयावेज वा,अह भिक्खू णं पुटवोवदिट्ठा एस पतिण्णा जं तहप्पगारे सागारिए उवस्सए णो ठाणं वा०३ चेतेति। (सू०-६७) 'सेभिक्खू' वेत्यादि, स भिक्षुर्यत्पुनरेवंभूतमुपाश्रयं जानीयात्, तद्यथायत्र स्त्रियं तिष्ठन्ती जानीयात्, तथा-'सखुड्डु' त्ति सबालम्, यदिवा-सह क्षुदैरवबद्धः सिंहश्वमाज्जारादिभिर्यो वर्तते, तथा पशवश्च भक्तपाने चायदि वा-पशूनां भक्तपाने तद्युक्तम्, तथा- प्रकारे सागारिके गृहस्थाः कलप्रतिश्रये स्थानादिनकात, यतस्तत्रामी दोषाः तद्यथा-आदानम
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________________ वसहि 656 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि कम्मोपादानमेतद् भिक्षोर्गृहपतिकुटुम्बेन सह संवसतो यतस्तत्र भोजनादिक्रिया निःशङ्का न संभवति।व्याधिविशेषो वा कश्चित् संभवदिति दर्शयति- 'अलसगे' त्ति हस्तपादादिस्तम्भः श्ययथुर्वा, विशूचिकाछर्दी प्रतीते, एते व्याधयस्तं साधुमुद्राधेरन्, अन्य-तरद्वा दुःखं रोगोज्वरादिः आतङ्कः-सद्यः प्राणहारी शूलादिस्तत्र समुत्पद्येत, तं च तथाभूतं रोगातङ्कपीडितं दृष्ट्वा असंयतः कारुण्येन भक्त्या वा तद्भिक्षुगात्रं तैलादिना अभ्यङ्ग्यात्, तथा ईषन्मक्ष-येद्वा / पुनश्चस्नान-सुगन्धिद्रव्यसमुदयः, कल्कःकषाय-द्रव्यक्वाथः, लोध्र-प्रतीतम्, वर्णकः--कम्पिलकादिः, चूर्णो यवादीनां पद्मकं प्रतीतम्, इत्यादिना द्रव्येण ईषत्पुनः पुनर्वा घर्षयेत्, दृष्ट्वा चाभ्यङ्गापनयनार्थमुद्रतयेत्। ततश्व शीतोदकेन वा उष्णोदकेन वा 'उच्छोलेज' त्ति ईषदुच्छोलनं विदध्यात्, प्रक्षालयेत् पुनः पुनःस्नानं वा-सोत्तमाकं कुर्यात्सिञ्चेद्वेति, तथा दारुणा वा दारूणां परिणामं कृत्वासंघर्ष कृत्वा अग्निमुज्ज्वालयेत्प्रज्वालयेद्वा। तथा च कृत्वा साधुकायमातापयेत्-सकृत् प्रतापयेत् पुनः पुनः। अथ-साधूनां पूर्वोपदिष्टमेतत् प्रतिज्ञादिकं यत्तथाभूते सागारिके प्रतिश्रये स्थानादिकं न कुर्यादिति। आयाणमेयं भिक्खुस्स सागारिए उवस्सए संवसमाणस्स इड खलु गाहावई वा०जाव कम्मकरी वा अण्णमण्णं अकोसंति वा | पचंति वा संभंति वा उद्दति वा, अह मिक्खू णं उचावयं मणं णियंछेजा, एते खलु अण्णमण्णं अकोसंतु वा मा वा अक्कोसंतु जाव मा वा उद्दवेंतु, अह भिक्खू णं पुटवोवदिवा० 4, जं तहप्पगारे सागारिए तवस्सए णो ठाणं वा०३ चेइज्जा (सू०६८) आयाणमेयं मिक्खुस्स गाहावईहिं सद्धिं संवस-माणस्स, इह खलु गाहा-वई अप्पणो सअट्ठाए अगणिकायं उज्जालेज्ज वा पज्जालेज वा विज्झवेज वा / अह भिक्खू उच्चावयं मणं णियंछिज्जा, एते खलु अगणिकायं उज्जालेंतु वा मावा उज्जालेंतु, पज्जालेंतु वा मा वा पञ्जालेंतु, विज्झर्वेतु वा मा वा विज्झाविंतु अह भिक्खू णं पुथ्वोवविठ्ठा०४ जंतहप्पगारे उक्स्सए णो ठाणं वा०३ चेतेजा। (सू०-६९) आयाणभेयं भिक्खुस्स गाहावईहिं सद्धिं संवसमाणस्स इह खलु गाहावतिस्स कुंडले वा गुणे वा मणी वा मोत्तिए वा हिरण्णेसु वा सुवण्णेसु वा कडगाणि वा तुडिगाणि वा तिसरगाणि वा पालंबाणि वा हारे वा अद्धहारे वा एगावली वा कणगावली वा मुत्तावली वारयणावली वा तरुणीयं वा कुमारि अलंकियवि-भूसियं पेहाए, अह मिक्खू उचावयमणं णियच्छेन्जा एरिसिया वाणो वा एरिसिया इय वाणं बूया इति वा णं मणं साएजा / अह भिक्खू णं पुव्वोवदिट्ठा०४ जं तहप्पगारे उवस्सए नो ठाणं वा०३ चेतेजा। (सू०-७०) 'आयाण' मित्यादि कर्मोपादानमेतद्भिक्षोः ससागारिके प्रतिश्रये वसतः, यतस्तत्र बहवः प्रत्यपायाः संभवन्ति / तानेव दर्शयति-इह इत्थंभूते | प्रतिश्रये गृहपत्यादयः परस्परत आक्रोशादिकाः क्रियाः कुर्यः, तथा च कुर्वतो दृष्ट्वा स साधुः कदाचिदुच्चावचं मनःकुर्यात्, तत्रोचनाममैवं कुर्वन्तु, अवचं नाम-कुर्वन्त्विति, शेष सुगमंमिति। 'आयाण' मित्यादि, एतदपि गृहपत्यादिभिः स्वार्थमग्निसमारम्भे क्रियमाणे भिक्षोरुचावचमनः संभवप्रतिपादकं सूत्रं सुगमम्। अपिच-'आयाण' मित्यादि गृहस्थैः सह संवसतो भिक्षोरेतेच वक्ष्यमाणदोषाः। तद्यथा-अलंकारजातंदृष्ट्वा कन्यकां वा अलंकृतां समुपलक्ष्य ईदृशी वा तादृशी वा शोभना अशोभना वा मद्भार्या सदृशी वा तथाऽलङ्कारो वा शोभनोऽशोभन इत्यादिकां वाचं ब्रूयात्, तथोच्चावचंशोभनाशोभनादौ मनः कुर्यादिति समुदायार्थः / तत्र गुणोरसना, हिरण्यम्-दीनारादिद्रव्यजातम्, त्रुटितानि-मृणालिकाः प्रालम्बः आप्रदीपन आभरणविशेषः। शेषं सुगभम्। आचा०२ श्रु०१चू० २अ०१उ01 तत्र रुग्णस्य साधोः प्रतिक्रियामाहअन्नट्ठपगडं लयणं, मइज सयणासणं / उच्चारभूमिसम्पन्नं, इत्थीपसुविवज्जियं // 12 // अन्यार्थ प्रकृतम्-न साधुनिमित्तमेव निर्वर्तितम् लयनम्-स्थानं वसतिरूपं भजेत्-सेवेत, तथा शयनाशनमित्यन्यार्थ प्रकृतं संस्तारपीठकादि सेवेतेत्यर्थः / एतदेव विशेष्यते उच्चारभूमिसम्पन्नम्उच्चारप्रश्रवणादिभूमियुक्तम्, तद्रहिते असकृत्-तदर्थ निर्गमनादिदोषात्, तथा स्त्रीपशुविवर्जितमित्येकग्रहणे तज्जातीय-ग्रहणात् स्त्रीपशुपण्डकविवर्जितम्-स्त्र्याद्यालोकनादिरहितमिति सूत्रार्थः। तदित्थभूतं लयनं सेवमानस्य धर्मकथाविधिमाहविवित्ताय भवे सिञ्जा, नारीणं न लवे कहं। गिहिसंथवं न कुजा, कुज्जा साहूहि संथवं // 53 // विविक्ता च तदन्यसाधुभी रहिता च, चशब्दात्- तथाविधमुजङ्गप्रायैकपुरुषयुताच भवेत् शय्या-गसतिः यदि ततो नारीणाम्-स्त्रीणां न कथयेत्कथांशङ्कादिदोषप्रसङ्गात, औचित्ये विज्ञाय पुरुषाणां तुकथमेत् / अविविक्तायां नारीणामपीति, तथा गृहि-संस्तवम् गृहिपरिचयं न कुर्यात् तत्स्नेहादिदोषसंभवात् / कुर्यात् साधुभिः सह संस्तवम्-परिचयं कल्याणमित्रयोगेन--कुशलपक्ष-वृद्धिभाव इति सूत्रार्थः / दश०८ अ०२ उ० गृहपतिगृहे न वसेद्यत्र मैथुनार्थं गृहिण्योऽभिका यु:आयाणभेयं भिक्खुस्सगाहावईहिं सद्धिं संवसमाणस्स, इह खलु गाहावतिणीओ वा गाहावइधूयाओ वा गाहावइसुण्हाओ वा गाहावइधाईओवा गाहावइदासीओवागाहावइकम्मकरी-ओवा तासिंच णं एवं वुत्तपुव्वं भवति, जे इमे भवंति समणा भगवंतो० जाव उवरता मेहुणाओ धम्माओ, णो खलु एएसिं कप्पइ मेहुणधम्म परियारणाए आउट्टित्तए० जाव खलु एएहिं सद्धिं मेहुणधम्म परियारणाए आउट्टाविजा। पुत्तं खलु सालभिजाओ
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________________ वसहि 660- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि यरिंस तेयस्सि वचस्सि जसस्सि संपराइयं आलोयणदरिसणिज्जं एयप्पगारं णिग्घोसं सोचा णिसम्म तासिं च णं अण्णयरीसहितं तवस्सि भिक्खुं मेहुणधम्मपडियारणाए आउट्टावेजा, अह मिक्खू णं पुथ्वोवदिहा जंतहप्पगारे सागारिए उवस्सएणो ठाणं वा०३ चेतेन्जा एवं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खु-णीए वा सामग्गिय / (सू०-७१) 'आयाणं' मित्यादि पूर्वोक्ने गृहे वसतौ भिक्षोरमी दोषाः, तद्यथागृहपतिभार्यादय एवमालोचयेयुर्यथैते श्रमणा मैथुनादुपरतास्तदेतेभ्यो यदि पुत्रो भवेत्ततोऽसौ ओजस्वीबलवान् तेजस्वी-दीप्तिमान् वर्चस्वीरूपवान् यशस्वीकीर्तिमानित्येवं संप्रधा> तासां च मध्ये एवंभूतं शब्दं काचित् पुत्रश्रद्धालुः श्रुत्वा तं साधुं मैथुनधर्मम् 'पडियारणाए' त्ति आसेवनार्थम्-'आउट्टावेज्ज' त्ति अभिमुखं कुर्याद, अत एतद्दोषभयात् साधूनां पूर्वोपदिष्टमेतत्प्रतिज्ञादिकम्, यत्तथाभूते प्रतिश्रये स्थानादिन कार्यमित्येतत्तस्य भिक्षोभिक्षुण्या वा सामर यंसम्पूर्णो भिक्षुभाव इति / आचा०२ श्रु०१चू०२अ० २उ०। 'जत्थ एए बहवो इत्थीयो य पुरिसा य पण्हावेंति०' इत्यादि अस्य संबन्धप्रतिपादनार्थमाहएनागिपस्स दोसा, के त्तिय भवती उसुत्तसंबंधो। कारणनिवासिणो वा, दुविहा सेविस्स पच्छित्तं // 356|| एकाकिनो दोषाः के इति शिष्यस्य प्रश्नावकाशमाशङ्कयाधिकृत-- सूत्रस्योपनिपातः, एष भवति सूत्रस्य संबन्धः / अथवा-कारणनिवासिनो द्विविधासेविन:--सचित्तासेविनः, अचित्तासेविनश्च किं प्रायश्चित्तमिति परप्रश्नभुपजीव्य प्रायश्चित्तप्रतिपादनाय सूत्रद्वयमा--हेति संवन्धः / अनेन संबन्धेनायातस्यास्य व्याख्या यत्र-यस्मिन्प्रदेशे प्रत्यक्षतउपलभ्यमानाः स्त्रियः पुरुषाश्च प्रश्नुवन्ति मैथुनकर्मप्रारभन्ते, मैथुनकर्म दृष्टा कश्चिदुदीर्णमोहः स श्रमणो निर्ग्रन्थोऽन्यतरस्मिन्नचित्ते हस्तकमाधुचिते युगच्छिद्रनलिकादौ श्रोत्रवति शुक्र पुद्गलान् निर्घातयन्-शुक्रपुद्गलनिर्घाताय हस्तकर्म-प्रवेशनाप्रसक्तो भवति, स च तथाप्रसक्त आपद्यते अनुद्धातिकं मासिकं परिहारस्थानं प्रायश्चित्तस्थानम् / तथा यौते बहवः स्त्रियः पुरुषाश्च प्रश्नुवन्ति-मैथुनकर्म प्रारभन्ते तत्र तत् दृष्ट्वा कश्चित् श्रमणोनिग्रन्थोऽन्यतमस्मिन्नचित्ते प्रतिमादौ श्रोत्रवति शुक्रपुद्गलान् निर्धातयन् मैथुनप्रतिसेवनाप्रसक्तो भवति। स च तथाप्रसक्त आपद्यते चातुर्मासिकमनुद्धातिकं गुरुक परिहारस्थानमित्येष सूत्रसंक्षेपार्थः। अधुना भाष्यविस्तरः-- बाहिं वक्खारठिए, महिलादागम अवारणे गुरुगा। वारण वासे पेलण, मुदए पडिसेवणा भणिया॥३५७|| बहिर्वक्षस्कारे अपरके स्थिते त्वदोषयति तत्र निवेशनादौवा कृतसंकेता स्त्री सस्त्रीको वा पुरुषः सभागच्छेत्, समागच्छन् वारयितव्यः / अवारणे प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः। धारणे' त्यादि तव यथावारण तथा वक्तव्यम्। अथ बहिर्वर्षे गाढं पतिते उपलक्षण-मेतत्स्तेनाः स्वापदानि वा बहिर्विधन्ते तेनते, ननिर्गच्छन्ति तदा तेष्वनिर्गच्छत्स्वधिकृत्य सूत्रस्यावकाशः। तथा साधोः स्त्रिया प्रेरणा क्रियते तदा प्रेरणायां तथा उदये-वेदोदये सूत्रे प्रतिसेवना भणिता। किमुक्तं भवति- प्रेरणायामुदये वाऽधिकृतसूत्रस्योपनिपातः। तत्र वारणप्रतिपादनार्थमाहपडिसेहो पुवुत्तो, उज्जुमणज्जु तहेव मिहुणे च / वत्थम्मि निग्गमे विय, जहिं व सुत्तस्स पारंभो // 358|| वारणं प्रतिषेधः सच कल्पाध्ययने चतुर्थोद्देशके पूर्वमुक्तः।तथा तस्मिन् मिथुने ऋजु किं वा अनृजु इत्याद्यपि यद्वक्तव्यम् तत्त-त्रैवाभिहितम् / तथा सस्त्रीकस्य पुरुषस्य यथा वसतिनिर्गमो भवति यथा वा अनिर्गम एतदपि तत्रैव व्याख्यातम्। "जहिं वसुत्तस्सपारंभो" इत्येतत्पश्चाद्व्या ख्यास्यते। गतं व्यवहरणद्वारम्। अधुना उदये प्रतिसेवनेति व्याचिख्यासुस्तान् प्रतिसेव मानान् दृष्ट्वा कोऽपि वेदोदयवशात् येषु स्थानेषु प्रतिसेवनामारभते तानि स्थानानि प्रतिपादयतिजुगछिडनालिगादिसु, पढमगजामादिसेवणा सोही। मूलादी कप्पम्मि य,पुवुत्ता पंचमे जामे // 356 / / युगच्छिद्रे नालिकायामादिशब्दात्तथाविधान्यवस्तुपरिग्रहः / तेषु युगच्छिद्रनलिकादिषु प्रथमयाने सेवने प्रथमयामादावासेवनाथांशोधि लादिका पूर्व कल्पाध्ययने उक्ता सा चैवम्- यदि रात्रेः प्रथमे यामे युगच्छिद्रेण नलिकायां करकर्म करोति तदा प्रायश्चित्तं मूलम्, द्वितीये यामे छेदः, तृतीये यामे षट्गुरु, चतुर्थे यामे चतुर्गुरु, प्रभाते दिवसस्य प्रथमे यामे रात्रिगतप्रथमयामापेक्षया पञ्चमे यामे मासगुरुः। तथा चाहपञ्चमे या भवति सूत्रम्। पञ्चयामविषयमधिकृतसूत्रमिति भावः। एतेन यदुक्तं प्राक् यत्र च सूत्रस्य प्रारम्भस्तद्वक्ष्ये इति, तद्भावितम्। सम्प्रति द्वितीयसूत्रव्याख्याार्थमाहदुविहच्चापडिमेयर-सन्निहितेतरअचित्तसचित्ते। बाहिं व देउलादिसु, सोहीतेसिं तु पुट्युत्ता॥३६०।। अर्चा द्विविधा / तद्यथा-सचित्ता, अचित्ता च / तत्र अचित्ता द्विविधाप्रतिमा, इतरा च / इतरा नाम स्त्रीशरीरं निर्जीवम् / एकैका पुनर्द्विधा-- संन्निहिता, असंनिहिता च / एतेषुप्रतिसेवनायां प्रथमे रात्रेर्यामे मूलम्, द्वितीये छेदः, तृतीये षड्गुरु, चतुर्थेचतुर्गुरु, पञ्चमेऽपि चतुर्गुरु। सचित्तास्त्रीशरीरम् / तत्राग्रे विधिर्वक्ष्यते / तत्र ग्रामादीनामन्तरुक्तम्, बहिरधिकृत्याह-बहिर्देवकुलादिषु प्रतिमादिकमचित्तमासेवमानस्य करकम वा कुर्वतस्तेषां भावानां शोधिः पूर्वोक्ता-अनन्तरोक्ता द्रष्टव्या ! करफर्म कुर्वतः पञ्चमे यामे मासगुरु, प्रतिमाद्यचित्तासेवने चतुर्गुरु इत्यर्थः। संप्रति या प्रेरणा पूर्वमुक्ता तां भावयतिसंकेय दित्त एसो, संकेतं वच्चे हिं अपेच्छन्ती। पेलेज व तं कुलडा, पुत्तहा देज एवं वा // 361 / /
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________________ वसहि 161 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि साधु कायिक्यादिनिमित्तं निर्गच्छन्तं दृष्ट्वा सा कुलटा चिन्तयेत्, स एष व्यङ्गनं कृत्वा-सतं कृत्वा अन्यं वेतालोत्थान-दोषप्रसज्जनात्ततोऽस्मिन् आगतो येन मम सङ्केतो दत्तः। एवं चिन्तयित्वातंसाधुंगृह्णीयात्, साधुश्च निर्जीव लेश्ये-संक्लेश्ये सूत्रविचार इत्यर्थः / गीतार्थो यतोऽरक्तद्विष्टः तत्तथाग्रहणमास्वादयेत्। तथा च सति धर्मविराधना ! अथवा-तं दत्त- सन् निलीयेत् शुक्रपुद्गलान्निष्का शयेत्। व्य०६ उ०॥ संकेतं पुरुषमप्रेक्षमाणा तं कायिक्यादिविनिर्गतं साधुं प्रेरयेत्, तत्रापि (12) स्त्रीपुंससागारिकोपाश्रये वस्तुंकल्पतेन वेत्याहधर्मविराधना / यदि वा कापि महिला तस्य साधोः रूपं रमणीयं दृष्टवा नो कप्पइ निग्गंथाणं इत्थिसागारिए उक्स्सए वत्थए।।२७।। ईदृशो मम पुत्रो भूयादिति पुत्रार्था सती साधुमाददीत,यदि नेच्छति कप्पइ निग्गंथाणं पुरिससागारिए उवस्सए वत्थए।॥२८|| ततोऽहमुड्डाहं करिष्यामि,ततो धर्मविराधना। नो कप्पइ निग्गंथीणं पुरिससागारिए उवस्सए वत्थए।॥२६ अत्रैव प्रायश्चित्तविधिमाह कप्पइ निग्गंथीणं इत्थिसागारिए उवस्सए वत्थए।३०।। जह सेव पढमजामे, मूलं सेसेसु गुरुग सव्वत्थ। अस्य सूत्रचतुष्टयस्य संबन्धमाहअहवा दिव्वाईयं, सचित्तं होइनायव्वं // 36 // अविसिटुं सागॉरियं, वुत्तं तं पुण विभागतो इणमो। यदि प्रागुक्तप्रेरणावशात् स्त्रियं रात्रेः प्रथमयामे सेवते तदा प्रायश्चित्तं मूलम्, द्वितीये यामे छेदः, तृतीये षशुरुकाः, चतुर्थे चत्वारो गुरुकाः, मझे पुरिससगारं, आदीयंते य इत्थीसु / / 16|| पूर्वसूत्रे अविशिष्टं स्त्रीपुरुषविशेषरहितं सागारिकमुक्तम्, अधुना पुनः मचित्तं व्याख्यातम्। अथवा अन्यथा सचित्तमचित्तम्। तथा चाह-सचित्तं तदेव सागारिकं विभागतः--स्त्रीपुरुषविशेषात्, अस्मिन् सूत्र-चतुष्टये दिव्यादिकं भवति-ज्ञातव्यम्, दिव्यं तैर्यग्योनं मानुषं च। अभिधीयते। अत्र चमध्यवर्तिसूत्रद्वये पुरुषसागारिक आदिसूत्रे अन्त्यसूत्रे च स्त्रीसागारिकमाश्रित्य विधिरभिधीयते, इत्यनेन संबन्धेनायातस्यास्य तदेव प्रतिपिपादयिषुराह-- जंसाऽसु तिघा तितयं, ता दिव्वं पासवं च संगीयं / (27-28-26-30) सूत्रचतुष्टयस्य व्याख्या-नो कल्पते निर्ग्रन्थानां स्त्रीसागारिके उपाश्रये वस्तुम्।।२७|| कल्पते निर्ग्रन्थानां पुरुषसागारिके जह वुत्तं उवहाणं,न तं न पुण्णं इहावण्णं // 363 / / उपाश्रये वस्तुम् / / 28|| नो कल्पते निर्ग्रन्थीनां पुरुषसागारिके उपाश्रये असवः-प्राणाः सह असवो यस्य येन वा तत् सासु-स-चित्त-मित्यर्थः। वस्तुम्॥२६॥ कल्पते निर्गन्थीनां स्त्रीसागारिके उपाश्रये वस्तुमिति सूत्रयत्तु साऽसु-सचित्तं तत्त्रिधा-त्रिप्रकारं भवति-दिव्यम्, मानुषम्, पाशवं चतुष्टयाक्षरार्थः। चातत्रमानुषं त्रितयंसचित्तम्, तद्यथा-जधन्य-मध्यममुत्कृष्टं च। तत्र अथ भाष्यकारो विस्तरार्थं बिभणिषुराहजघन्यं प्राकृतम् मध्यमं कौटुम्बम्, उत्कृष्टं दाण्डिमम्। यथा त्रिविधं मानुषं दिव्यमपि जघन्यादिभेदभिन्नं त्रिधा, पाशवमपि च त्रिधा जघन्यादिभेदतः। इत्थीसागॉरिय उव-स्सयम्मि सव्वे व इत्थिया होइ। संगीतं व्याख्यातं यथा कल्पाध्ययने तथाऽत्रापिव्याख्येयम्। तथा चोक्त देवी मणुय तिरिच्छी, सा चेव पसनणा तत्थ // 17 // मत्रोपधानं प्रायश्चित्तम्, तदपि न तत् पूर्णमिहापन्नं न वक्तव्यम्, किंतु- स्त्रीसागारिके उपाश्रये वस्तुंन कल्पते, साचानन्तरसूत्रे या दैवी मानुषी वक्तव्यम् द्वयोर्नओः प्रकृत्यर्थावगमनात्। तिरश्ची च प्रतिपादितासैवात्रापि द्रष्टव्या। सैवच प्रसज्जना मिथ्यात्वशङ्का अत्रैवापवादमाह भोजिकादिरूपा, तत्र च प्रायश्चित्तमपि तदेव मन्तव्यम् / बितियपदे तेगिच्छं, निव्वीइयमाइयं अतिकते। अत्र परः प्राहताहे इमेण विहिणा, जयणाए तत्थ सेवेला // 364 / / जइ सचेव य इत्थी, सोही पसजणा य सबेव। चिकित्सां निर्विकृतिकादिकां प्रागुक्तामतिक्रान्ते अस्थानेशब्द- सुत्तं तु किमारद्धं, नोदक सुण कारणं इत्थ / / 415|| श्रवणतो हस्तकर्मकरणतोवा अनुपशाम्यतिवेदोदये ततो द्वितीय-पदेन- यदि सैव स्त्री सैव शोधिः-प्रायश्चित्तं सैव प्रसज्जना तर्हि किमर्थमिदंअपवादपदनेन अनेन वक्ष्यमाणेन विधिनायतनया सेवेत। स्त्रीसागारिकसूत्रमारब्धम्, पुनरुक्तदोषदुष्टत्वान्नेदमारब्धुं युज्यते इति तमेव विधिमाह भावः। सूरिराह-नोदक! कारणमत्रास्ते येनेदं सूत्रमारब्धम्, तत्र अवहितः खलखिलमदिट्ठविसया, विसत्त अच्वंग वंगणं काउं। शृणु निशमय! ताहे इमम्मि लेसे, गीयत्थ जतो निलीएला / / 365|| पुटवभणियं तु पुनरवि, जं भन्नइ तत्थ कारणं अत्थि। खलं प्रतीतं यत्र सजीवस्यापि सेवने वैराग्यमुपजायते, किं पुन- पडिसेहोऽणुण्णातो, कॉरण विसेसोवलंभो वा // 41 निर्जीवस्य सेवने / तत्र निर्जीवप्रतिपादनार्थमाह-खिलं-निर्जीव- तुशब्दोऽपिशब्दार्थे, पूर्व भणितमपि यद्भण्यते तत्र कारणमस्ति / मित्यर्थः / तत्कथं सेवेत इत्यत आह- अदृष्टविषं यथा भवत्येवं सेवेत किमित्याह-'पडिसेहो त्ति ये पूर्वमनुज्ञां कुर्वत्ता अर्था उक्तास्त एव भूयः रात्रौ सेवेतेति भावः / पुनः कथमित्याह-विसत्त्वं-विगताः सत्त्वा यत्र तत् प्रतिषेधद्वारेण भणितमपि यदण्यते 'अणुत्त' त्ति ये अर्थाः पूर्व प्रतिषेधं विसत्त्वं विगतजनमित्यर्थः / अव्यङ्गं नाम यस्य क्षतं न विद्यते तस्य / कुर्वता भणितास्तेषामेवानुज्ञां कुर्वन् यद्भूयोऽपि दर्शयति-तथा कार
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________________ वसहि 962 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि णं निमित्तं तदर्शनार्थं भूयोऽपि दर्शयति, स एवार्थो भणनीयः। अथवापूर्वसामान्येन यः प्रतिपादितोऽर्थस्तस्यैव विशेषोपलम्भार्थप्राग्भणितमपि प्रतिपादनीयम् / एवं प्रागुक्तभणने चत्वारि कारणानि सन्तीति। आह-यद्येवंततः प्रस्तुते किमायातमित्याहओहे सव्वनिसेहो, सरिसाणुना विभागसुत्तेसु / जयणाहेउं भेदो, तह मज्झत्थादओ यावि॥२०॥ ओघसूत्रे सर्वस्यापि सागारिकस्य निबन्धः कृतः , इह तु विभाग--सूत्रेषु सदृशानुज्ञा क्रियते। यथा पुरुषाणां पुरुषसागारिके स्त्रीणां स्त्रीसागारिके वस्तुं कल्पत तथा यतनया यथा पुरुषेषु स्त्रीषु वा कर्तव्या तदर्शनहेतोविभागसूत्राणां भेदः / मध्यस्थादयो वा स्त्री-पुरुषाणा भेदा अर्थतो दर्शयिष्यन्त इति विभागसूत्राणां पृथगारम्भः क्रियते। अथ द्वितीयसूत्रे विशेषोपलम्भं दर्शयन्नाहसागारिय उवस्सयम्मि, चउरो लहगाय दोस आणादि। ते विय पुरिसा दुविहा, सविकारा निस्विकाराय // 421 / / कल्पते निर्गन्थानां पुरुषसागारिके उपाश्रये वस्तुमित्येवं यद्यपि सूत्रानुज्ञात तथाऽप्युत्सर्गतो न कल्पते, यदि वसन्ति ततः चत्वारो लघुकाः, आज्ञादयश्च दोषाः / तेऽपि च पुरुषाः द्विविधाः-सविकारा, निर्विकाराश्च। तत्र सविकारान् व्याख्यानयतिरूवं आमरणविही, वत्थालङ्कारभोयणे गंधे / आओग्जनिट्ठ नाडग, गीए अमणोहरे सुणिया / / 422|| रूपम् उद्वर्तनस्नाननखदन्तकेशसंस्थापनादिना स्वशरीरे जनयन्ति। आभरणविधिं मणिकनकादिमयनानाभरणभेदान् वस्त्राणि च चीनांशुकादीनि परिदधते। अलङ्कारेण वा केशमाल्यादिना आत्मानमलं कुर्वन्ति। भोजनं वा महता विस्तरा भुञ्जते, चन्दनकर्पूरादिभिः कोष्ठपुटपाकादिभिर्गन्धैरात्मानमीलिम्पन्ति, वासयन्ति वा। ततविततादिकं चतुर्विधमातोद्यं पादयन्ति, नृत्तं वा कुर्वन्ति। नाटकं नाटयन्ति / मधुरध्यनिना वा गीतमुच्चरन्ति। एते सविकारा उच्यन्ते। एतेषां कृत्वादीनि मनोहराणि दृष्ट्वा गीतादि-शब्दांश्च श्रुत्वा-निशम्यं तत्समुत्था दोषाः। एतेषु तिष्ठतः प्रायश्चित्तमाहएकेकम्मि उठाणे चउरो मासा हवंति उग्धाया। आणादिणो य दोसेण विराधणा संयमाताए // 426|| लघव इत्यर्थः, आज्ञादयश्च दोषाः / विराधना च संयमे, आत्मनि च द्रष्टव्या। एवं ता सविकारे, निव्विकारे य इमे भवे दोसा। संसटेण विबुद्धे अहिगरणं सुत्तपरिहाणी॥४२४|| एवं सविकारेषु पुरुषेषु दोषा उक्ताः, निर्विकारेषु पुरुषेषु अमी दोषा भवेयुः / साधूनां स्वाध्यायसक्तेनावश्यकीनषेधिकीसंबन्धिनी वा शब्देन विबुद्धास्ते पुरुषाः साधुभिः सहाधिकारणमसंखकं कुर्युः / तत्रात्मविराधना सूत्रपरिहाणिश्च भवति। १-पुरिसागारिय उवस्सयन्मि,लहूगा य दोष आणदि / संयमविराधना त्वियम्आऊ जोवण वणिए, अगणिकुडुम्बी कुकम्म कुम्मरिए। तेणे मालागरे, उन्भामगें पंथिए जंते // 425|| (एषा गाथा पडिबद्धसिञ्जा' शब्दे पञ्चमभागे 327 पृष्ठ व्याख्याता।) नोदकः प्राहएवं सुत्तं अफलं,सुत्तनिवाओ उ असइ वसहीए। गीयत्था जयणाए, वसंति तो दव्वसागरिए॥४२६|| यद्येवं पुरुषेष्वपि निर्ग्रन्थानां वस्तुं न कल्पते तर्हि सूत्रम् 'कल्पते पुरुषसागारिके वस्तुमि' त्येवं लक्षणम्, अफलं प्राप्नोति, पुनः सूत्रनिपातो विशुक्यां वसतावसत्यां मन्तव्यः। तथा च यद्यसागारिका वसतिर्न प्राप्यते ततो गीतार्था यतनया द्रव्यसागारिके वसन्ति, पुरुषसागारिके इत्यर्थः। ते विय पुरिसा दुविहा, सन्नी अस्सन्निणो य बोधव्वा / मम्झत्थाऽऽभरणपिया, कंदप्पा काहिया चेव // 27 // तेऽपि च पुरुषा द्विविधाः-संज्ञिनः, असंज्ञिनश्च / संज्ञानाम-देवगुरुधर्मतत्त्वानां यथा तत्परिज्ञानम्, सा विद्यते येषां ते संज्ञिन; श्रावका इत्यर्थः / तद्विपरीता असंज्ञिनः; अश्रावका इत्यर्थः / एते प्रत्येक चतुर्विधाः-मध्यस्थाः आभरणप्रिया कान्दर्पिकाः काथि-काश्च / एतान्व्याचष्टआभरणपिए जाणसु, अलंकरिते उ केसमादीणि / सइरहसियप्पललिया, सरीरकुइणो य कंदप्पा // 428|| अक्खाइया उ अक्खा-णाइं गीयाई छलियकवाई। कहयंता य कहाओ, तिसमुत्था काहिया होंति // 526|| एएसिं तिण्हं पिय, जे उ विगारा ण बाहिरा पुरिसा। वेरगरुई निहुया, निसग्ग हिरिमं तु मज्झत्था / / 430|| केशादीनि माल्यादिभिरलङ्कारैरलंकुर्वतः पुरुषान् आभरणप्रियान् जानीहि / ये तु स्मेरहसितप्रललिताः स्वेच्छयापरस्परमट्टहासादिना हसन्ति, द्यूतदोलनादिना च क्रीडन्ति ये च शरीरको कुचिकाः, विविधव्यङ्गचेष्टाकारिणस्ते कान्दर्पिकाः / तथा आख्यायिकास्तरङ्कवतीसलयवतीप्रभृतयः आख्यानकानिधूर्ताख्या-नकादीनि गीतानि ध्रुवकादिछन्दोनिबद्धानि गीतपदानि,तथा ललितानिशृङ्गारकाख्यानि कथा-वासुदेवचरितचेटककथाः दन्तकथा याः किंवदन्तीत्युत्पन्ना इत्येतत्समुत्था धर्मकामार्थत्र-यवक्तव्यताप्रभवाः संकीर्णकथा इत्यर्थः, एता आख्यायिकादीनि कथयन्तः कथिका उच्यन्ते / एतेषामाभरणप्रियादीनां त्रयाणामपि संबन्धिनो ये विकारास्तेभ्यो बाह्या बहिर्वर्तिनो ये पुरुषा वैराग्य-रचयः केवलवैराग्यश्रद्धालवो न शृङ्गारादिरसप्रियाः, निवृत्ताः करणेन्द्रियेष्वसंलीनाः,निसर्गेण-स्वभावेनैव हीमन्तः-सलज्जा ईदृशा मध्यस्था ज्ञातव्याः। पुनरप्यमीषां प्रत्येक भेदानाहएकेका ते तिविहा, थेरा तह मज्झिमा य तरुणा य। एवं सन्नी वारस, वारस अस्सनिणो होति॥३१॥
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________________ वसहि 963 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि एकैके मध्यस्थादयस्त्रिविधाः स्थविराः तथा मध्यमाश्च तरुणाचा ततो मध्यमस्थादयश्चत्वारः स्थविरादिभेदत्रयेण गुण्यन्तेजाता द्वादशभेदाः। एवं संज्ञिनः श्रावकाचतेद्वादशविधाः,असंज्ञिनोऽपि द्वादशविधा भवन्ति। एतेष्वेव प्रायश्चित्तमाहकाहीया तरणेसुं, चउसु विचउगुरुग ठायमाणस्स। सेसेसुंचउलहुगा, समणाणं पुरिसवग्गम्मि॥४३२।। संज्ञिनामसंज्ञिनां च यः काथिकस्तरुणः एतौ द्वौ भेदी ये वक्ष्यमाणा नपुंसकाः पुरुषनेपथ्याः तेषामपि संज्ञिनामसंज्ञिनां चेकैकाधिकस्तरुणः, एते चत्वारो भेदाः। एतेषु चतुर्षु तिष्ठतां प्रत्येकं चत्वारो गुरुकाः। शेषेषु तिष्ठतां प्रत्येकं चतुर्लघु। एतत्प्रायश्चित्तं श्रमणानां पुरुषवर्गे भणितम्। कारणे पुनस्तिष्ठतां विधिमाहसन्नीसु पढमवग्गे, असती अस्सन्नि पढमवग्गम्मि। तेण परं सन्नीसु, कम्मेण,अस्सन्निसुंचेव // 433|| वसतौ निर्दोषायामसत्यां संज्ञिषु ये प्रथमवर्गे मध्यस्थाः पुरुषास्ते तत्र तिष्ठन्ति, तत्रापि, प्रथम स्थविरेषु, तेषामभावे मध्यमेषु, तदलाभे तरुणेष्वपि / अथ संज्ञिनां प्रथमवर्गो न स्थाप्यते ततोऽसंज्ञिनामपि प्रथमवर्गस्थविरमध्यमतरुणेषु यथाक्रमं तिष्ठन्ति। ततः परमेतेषामभावे द्वितीयादिवर्गेषु क्रमेण तिष्ठन्ति। द्वितीयवर्गो नाम-आभरणप्रियाः तेषु प्रथम संज्ञिषु स्थविरमध्यमतरुणेषु एतेष्वेवा-संज्ञिषु तदभावे संज्ञिनां तृतीयवर्गे कान्दर्पिकपुरुषेषु, तेषामलाभे असंज्ञिनांतृतीयवर्गस्थविरादिषु यथाक्रमं स्थातव्यम्। एवं एकेकतिगं,वोचत्थ कमेण होइ नायव्वं / मुत्तूण चरिम सन्नि, एमेव नपुंसएहिं पि॥४३४|| एवं मध्यस्थादिषु एकैकस्मिन् त्रिकं विपर्यस्तक्रमेण। प्रथम स्थविरेषु, ततो मध्यमेषु, ततस्तरुणेषु इत्येवं लक्षणेन ज्ञातव्यं परं मुक्त्वा चरम संज्ञिनम्। किमुक्तं भवति-चरमो भेदः काथिकस्तत्र संज्ञिनि प्रथमतस्त्रिकं न वारयितव्यं किंतु द्विकम्। तद्यथा-यदा तृतीयवर्गो न प्राप्यते तदाचतुर्थवर्गे प्रथमसंज्ञिषु काथिकस्थविरेषु, तदलाभेकाथिकमध्यमेषु, तदप्राप्तावसंज्ञिषु काथिकस्थविरेषु, तदभावेकाथिकमध्यमेषु तिष्ठन्ति / अथ तेऽपि न प्राप्यन्ते ततः संशिषुकाथिकतरुणेषु,तदभावे असंशिष्वपि काथिकतरुणेषु तिष्ठन्ति।तत्रोभयेऽपि प्रज्ञापनया यथा कथां न कथयन्ति एवं पुरुषेषुस्थातव्ये विधिरुक्तः / एवमेव च नपुंसकेष्वपि वक्तव्यः। (बृ०) / (तत्रत्यविधिः ‘णपुंसग' शब्दे चतुर्थभागे 1806 पृष्ठे दृष्टव्यः) एतेषु प्रायश्चित्तमाहजह चेव य पुरिसेसुं, सोही तह चेव पुरिसवेसेसुं। तेरासिएसु सुविहिय, पडिसेवगअपडिसेवीसुं।४३७।। यथैव पुरुषेषुशोधिरुपवर्णिता, तथैव पुरुषवेषेष्वपि त्रिराशिके नपुंसकेषु सुविहितप्रतिसेविकेषु वा शोधिं जानीहीत्युपस्कारः / सा चेयम्पुरुषनपुंसकानां ये काथिकास्तरुणास्तेषु चत्वारो गुरवः, शेषेषु भेदेषु चतुर्लघुकाः / कारणे पुनरध्वनिर्गतादीनां वसतेरलाभे तिष्ठतां तथैव पुरुषनपुंसकेष्वपि यतनाक्रमो यथा पुरुषेषु प्रतिपादितः। जह कारणे पुरिसेसुं, तह कारणे इत्थियासु वि वसिञ्जा। अद्धाण वास सावय, तेणेसु व कारणे वसती॥४३८|| यथा कारणे पुरुषेषु पुरुषवेषनपुंसकेषु वा वसन्ति तथा स्त्रीषु स्त्रीवेषधारिषु वा नपुंसकेषु कारणे वसेयुः। किं पुनस्तत्कारणमित्याह-अध्वानं प्रतिपन्नास्ततो निर्गता या शुद्धामल्पतरदोषदुष्टां वा वसतिं न लभन्ते तत उद्यानादौ तिष्ठन्ति। अथ वर्ष पतति, बहिर्वा श्वापदभयं शरीरोपधिस्तेनभयं वा तत ईदृशे कारण स्त्री-सागारिके, तदभावे स्त्रीवेषधारिषु नपुंसकेषु पूर्वोक्तक्रमेण वसन्ति। निष्कारणे तु तत्र तिष्ठतामिदं प्रायश्चित्तम्काहीया तरुणेसुं,चउसु वि मूलं तु ठायमाणाणं / सेसासु विचउगुरुगा, समणाणं इत्थिवग्गम्मि॥३६॥ स्त्रीषु स्त्रीवेषधारिषुच नपुंसकेषु याश्चतस्रः काथिकतरुण्यस्तासु तिष्ठता निर्ग्रन्थानां मूलम्, शेषासु संज्ञिनीषु असंज्ञिनीषु वा स्त्रीषु चतुर्गुरुकाः, एवं श्रमणानां स्त्रीवर्गे तिष्ठतां प्रायश्चित्तमुक्तम्। जह चेव य इत्थीसुं, सोही तह चेव पुस्सिवेसेसुं। तेरासिएसु विहिया, ते पुण नियमा उपडिसेवी ||4|| यथैव श्रमणानां स्त्रीषु तिष्ठतांशोधिरभिहिता तथैव स्त्रीवेषेषु त्रैराशिकेषु सुविहितशोधिमवबुध्यस्वेत्युपस्कारः। ते पुनः स्त्रीनपुंसका नियमात्प्रतिसेविनः / प्रतिसेवनाकारापणशीला इति। अथ कारणे तिष्ठतां यतनामाहएमेव हॉति इत्थी, वारस सन्नी तहेव अस्सन्नी। सन्नीण पठमवग्गो, असइ असन्नीण पढमम्मि॥४४१|| एवमेव-पुरुषवत् स्त्रियः स्त्रीवेषधारिणश्चनपुंसका मध्यस्थादिभिश्च भेदैः द्वादशसंज्ञिनो द्वादश वा असंज्ञिनः प्रत्येकं भवन्ति, तत्र प्रथमसंज्ञिनां प्रथमवर्गे मध्यस्थस्त्रीलक्षणे तदभावे असंज्ञिानां प्रथमवर्गे स्थविरादिक्रमेण स्थातव्यम्। एवं एकेकतिगं, वोचत्थ कमेण होइ नायव्वं / मोत्तूण चरिमसन्नि, एमेव नपुंसएहिं पि॥४४२|| एवमेकैकस्मिन्नाभरणप्रियादौ वर्ग त्रिकं तरुण्यादिभेदत्रयं विपर्यस्तक्रमेण नेतव्यम्। प्रथम स्थविरासुततो मध्यमासुततस्तरुणीषु परं मुक्त्वा चरमा काथिकाख्यां संज्ञिनीम्। तत्र हि प्रथम संज्ञिनीषु स्थविरासु, ततो मध्यमासु, तदलाभे असंज्ञिनीषु स्थविरामध्यमासु, ततः संज्ञिनीषु स्थविरामध्यमासु, ततः संज्ञिनीषुतरुणीषु, तदप्राप्तौ संज्ञिनीषु तरुणीषु, तदप्राप्तावसंझिनीषुतरुणीषु तिष्ठन्ति। एवमेव स्त्रीवेषधारिषु नपुंसकेष्वपि द्रष्टव्यम्।भावितं निर्ग्रन्थसूत्रद्वयम्। __संप्रति निर्ग्रन्थीसूत्रद्वयं भावयतिएसेव कमो नियमा, गिरगंथीणं पि होइनायब्दो। जह तेसि इत्थियाओ, तह तासि पुमा मुणेयव्वा // 453|| एष च क्रमो-नियमो निर्ग्रन्थीनामपि भवति ज्ञातव्यः / परं यथा तेषां निर्ग्रन्थानां स्त्रियो गुरुकतरा ज्ञातव्याः। काहीया तरुणीसुं, चउसु वि चउगुरुग ठायमाणीणं / सेसासु विचउलहुगा, समणीणं इत्थिवग्गम्मि||४||
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________________ वसहि 165 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि स्त्रीवेषनपुंसकानां मध्ये काथिकतरुणीषु चतसृष्वपि तिष्ठन्तीनां चतुर्गुरुकाः शेषास्वपि द्वाविंशतिसंख्याकासु स्त्रीषु द्वाविंशतौ च स्त्रीनपुंसकेषु चतुर्लघुकाः। एवं श्रमणीनां स्त्रीवर्गे प्रायश्चित्तं ज्ञातव्यम्। काहीया तरुणेसुं,चउसु वि मूलं तु ठायमाणीणं। सेसेसुं चउगुरुगा, समणीणं पुरिसवग्गम्मि||५|| पुरुषाणां पुरुषनपुंसकानां च संजयसंज्ञिनां ये चत्वारः काथिकास्तरुणास्तेषु तिष्ठन्तीनां निर्ग्रन्थीनां मूलम्, शेषेषुपुरुषेषु पुरुषनपुंसकेषु प्रत्येकं चत्वारो गुरुकाः। एवं श्रमणीनां पुरुषवर्गे प्रायश्चित्तं मन्तव्यम्। अथ परप्रायश्चित्तदोषमाहथेराइएस अहवा, पंचग पण्णरसमासलहुओ उ। छेदो मज्झत्थादिसु, काहियतरुणीसुधउलहुओ।।४४६|| सन्नी य असन्नीणं, पुरिसनपुंसेसु एस साहूणं / एएसु वि इत्थीसु, गुरुओ समणीण विवरीओ|७|| अथवा स्थविरादिषु त्रिषु पदेषु पञ्चकपञ्चदशको मासलघुः छेदो दातव्यः। तद्यथा-मध्यस्थेषु स्थविरेषु तिष्ठन्ति लघुपञ्चकछेदः, मध्येषुमध्यमेषु लघुपञ्चदशकः, मध्यस्थेषु तरुणेषु लघुमासिकच्छेदः / एवमाभरणप्रियेषु कान्दर्पिकेषु च त्रिविधेष्वपि मन्तव्यम्। काथिका अपि ये स्थविरा मध्यमाश्च तेष्वेवमेवावसातव्यम्। विशेषं चूर्णिकृत्पुनराह'काहीण घरं पनरस राइंदियाणि लहुओ छेदो, मज्झिमे मासलहुओ छेदे' ति ये तु काथिकास्तरुणास्तेषु चतुर्लघुमासिकच्छेदः, एवं पुरुषनपुंसका वा ये संज्ञिनस्तेषां समुदितानां ये अष्टचत्वारिंशत्संख्याका भेदास्तेषु यथोक्तक्रमेणैषु पञ्चकच्छेदः साधूनां भवति! स्त्रीषु स्त्रीनपुंसकेषु चैतेष्वेव मध्यस्थस्थविरादिभेदेषु साधूनामेष एव छेदो गुरुकः कर्त्तव्यः / तद्यथा- गुरुपञ्चको गुरुपञ्चदशको गुरुमासिको गुरुचतुर्मासिकश्चेति / श्रमणीनां पुनरेष एव छेदो विपरीतो दातव्यः, किमुक्तं भवति-श्रमणीनां स्त्रीवर्गे तिष्ठन्तीनां लघुपञ्चकादिच्छेदः / पुरुषवर्गे तु गुरुपञ्चकादिकः। शेषं सर्वमपि प्राग्वद्रष्टव्यम्। बृ०१ उ०३ प्रका (13) इहापि वसतिदोषविशेषप्रतिपादनायाहगाहावती णामेगे सुतिसमायारा भवंति, से भिक्खू य असिणाणए मोयसमायारे से तग्गंधे दुग्गंधे पडिकूले पडिलोमे यावि भवति, जं पुट्वं कम्मं तं पच्छा कम्मंजपच्छाकम्मंतं पुरेकम्म, तं भिक्खुपडियाए वट्टमाणा करेजा वा णो करेखा वा / अह भिक्खू णं पुख्दोवदिद्वा०४ जंतहप्पगारे उवस्सए णो ठाणं वा चेतेजा। (सू०-७२) एके–केचन गृहपतयः शुचिः समाचारो येषां ते तथा, ते च भागवतादिभक्ता भवन्ति, भोगिनो वा चन्दनागुरुकुकुमकपूरादिसे-विनः, भिक्षुश्चाऽस्नानतया तथा कार्यवशात् 'मोय' त्ति कायिका तत्समाचरणात्स भिक्षुस्तद्गन्धो भवति, तथा च दुर्गन्धः, एवंभूतच तेषां गृहस्थानां प्रतिकूलो नानुकूलः अनभिमतः, तथा प्रतिलोमस्तद्गन्धाद्विपरीत- | गन्धो भवति, एकार्थिको चेतावतिशयानभिमतत्वाख्यापनार्थावुपात्ताविति, तथा ते गृहस्थाः साधुप्रतिज्ञया यत्तत्र भोजनस्वाध्यायभूमौ स्नानादिकं पूर्व कृतवन्तस्तत्तेषामुपरोधात्पश्चात् कुर्वन्ति,यदा-पश्चात् कृतवन्तस्तत्पूर्व कुर्वन्तिाएव-मवसर्पणोत्सर्पणक्रियया साधूनामधिकरणसंभवः / यदिवा-ते गृहस्थाः साधूपरोधात्प्राप्तकालमपि भोजनादिकं न कुर्युः, ततश्चा-न्तरायमनः पीडादिदोषसंभवः / अथवा त एव साधवो गृहस्थोप-रोधाद्यत् पूर्वं कर्म प्रत्युपेक्षणादिकं तत्पश्चात् कुर्युः, विपरीतं वा कालातिक्रमेण कुर्युर्न कुर्युर्वा / अथ भिक्षूणां पूर्वोपदिष्टमेतत्प्रतिज्ञादिकं यत्तथाविधे प्रतिश्रये स्थानादिकं न कार्यमिति (प्रतिबद्धशय्यायाः सर्वो विषयः पडिबद्धसिज्जा' शब्दे पञ्चमभागे 326 पृष्ठे गतः।) तत्र गृहपतिना भोजनं संस्कृतं स्यात्तदा दोषमाहआयाणमेयं भिक्खुस्सगाहावईहिं सद्धिं संवसमाणस्स इह खलु गाहावइस्स अप्पणो सयट्ठाए विरूवरूवे भोयणजाए उवक्खडिए सिया, अह पच्छा, भिक्खुपडियाए असणं वा पाणं वा खाइम वा साइमं वा उवक्खडेज वा उवकरेज वा, तं च भिक्खू अभिकंखेशा भोत्तए वा पायए वा वियट्टित्तए वा। अह भिक्खूणं पुय्वोवदिहा०४ाजंणो तहप्पगारे उवस्सए ठाणं वा चेतेजा। (सू०-७३) कर्मोपादानमेतद्भिक्षोर्यद् गृहस्थावबद्ध प्रतिश्रये स्थानमिति, तद्यथा'गाहावइस्स अप्पणो' त्ति तृतीयार्थे षष्ठी, गृहपतिना आत्मना स्वार्थ विरूपरूपो नानाप्रकार आहारः संस्कृतः स्याद् / अथ-अनन्तरं पश्चात्साधूनुद्दिश्याशनादिपाकं वा कुर्यादुपकरणादि वा ढौकयेत्तं च तथाभूतमाहारं साधु क्तुं पातुं वाऽभिकाङ्केत्, “वियट्टित्तए व' त्ति तत्रैवाहारगृद्ध्या विवर्तितुमासितुमाकाङ्केत्, शेषं पूर्ववदिति / एवं काष्ठाग्निप्रज्वालनसूत्रमपि नेयम्। तद्यथा यत्र गृहपतिः काष्ठं भिन्देत् अग्निं वा प्रज्वालयेत्तदाहआयाणमेयं भिक्खुस्स गाहावइणा सद्धिं संवसमाणस्स इह खलु गाहावइस्स अप्पणो सयहाए विरूवरूवाई दारुयाई मिन्नपुव्वाई भवंति,अह पच्छा भिक्खुपडियाए विरूवरूवाई दारुयाई भिंदेज वा किणेज वा पामिचेज्ज वा दारुणा वा दारुपरिणामं कटु अगणिकायं उज्जालेज वा पञ्जालेज वा तत्थ भिक्खू अभिकंखिज्जा आयावित्तए वा पयावित्तए वा वियट्टित्तए वा, अह भिक्खू वा भिक्खुणी वाजंनो तहप्पगारे उवस्सए णो ठाणं चेतेजा। (सू०७४) आचा०२ श्रु०१चू०२ अ०२०। अप्रावृत्तद्वारे निषेधमाह-- नो कप्पइ निग्गंथीणं अवंगुयदुवारिए उवस्सए वत्थए / एगं पत्थारं अंतो किचाएगं पत्थारं बाहिं किच्चा ओहाडिय चिलिमिलियागंसि एव ण्हं कप्पइ वत्थए // 14 //
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________________ वसहि 965 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि अस्य सूत्रस्य संबन्धमाहपडिसिद्धविवक्खेसुं, उवस्सएहिं तु संवसंतीणं। बम्हवतगुत्ति पगए, वारेतितेसु वि अगुत्तिं / / 16 / / पूर्वसूत्रे प्रतिषिद्धानामापणगृहादीनां विपक्षा ये उपाश्रयाः कल्पनीया इत्यर्थः, तेषु संवसन्तीनां ब्रह्मचर्यगुप्तिः प्रकृता , तदर्थं तेषु वस्तव्यमिति भावः। अतस्तस्याः प्रकृतेप्रक्रमे तेष्वप्यप्रतिषिद्धेषु प्रतिश्रयेषु अप्रावृतद्वारतद्रूपामगुप्तिं वारयन्ति भगवन्तो भद्रबाहुस्वामिनः इत्यनेनसम्बन्धेनायातस्यास्य (14 सूत्रस्य) व्याख्या-नो कल्पते निर्गन्थीनां साध्वीनां अप्रावृतद्वारके-उद्घाट-द्वारे उपाश्रये वस्तुमित्येवं यदोपाश्रयालाभे च तत्रापि वसन्तीति तदा इत्थं विधिविधेयः। तद्यथा-एक प्रस्तरंकटमन्तः प्रतिश्रयाभ्यन्तरे कृत्वा एकं प्रस्तरं बहिः कृत्वा, ततश्चिमिलि-कयैवावघाटिते पिहितेऽपिद्वारे सूत्रेच अवघाटितशब्दस्य पूर्वनिपातः प्राकृतत्वात् एवमनन्तरोक्तेन णमिति वाक्यालङ्कारे कल्पते वस्तुमिति सूत्रसंक्षेपार्थः। विस्तरार्थतुभाष्यकृदाहदारे अवंगुयम्मी, निग्गन्थीणं न कप्पए वासो। चउगुरु आयरियाई, तत्थ वि आणाइणो दोसा / / 196|| अप्रावृते-उद्घाटिते द्वारे निर्ग्रन्थीनां न कल्पते वासः / अत्र चैवं सूत्रमाचायः प्रवर्तिन्या न कथयति चतुर्गुरु, प्रवर्तिनी संयतीनां न कथयति चतुर्गुरु, आर्यिका यदि न प्रतिशृण्वन्ति तदा तासां मासलघु / तत्राप्यकथनेऽश्रवणे चाज्ञादयो दोषा द्रष्टव्याः। दारे अवंगुयम्मि, भिक्खुणिमादीण संवसंतीणं / गुरुगा दोहि विसिहा, चउगुरुगादी व छेदंता / / 197|| द्वारे अप्रावृते भिक्षुण्यादीना संवसन्तीनां द्वाभ्यां तपः-कालाभ्यां विशिष्टाः चतुर्गुरुकाः, तद्यथा-भिक्षुण्याश्चतुर्गुरुकं तपसा कालेन चलघु, अभिषेकायास्तदेव कालगुरु, तपोलघुगणावच्छेदे तपोगुरु काललधु, प्रवर्तिन्या द्वाभ्यामपि गुरुकं चतुर्गुरुकादयो वा छेदान्ता भवन्ति। तद्यथाभिक्षुण्या अप्रावृते द्वारे वसन्त्याश्चतुर्गुरुकम्, अभिषेकायाः षड्लधुकम्। गणावच्छेदिन्याः षड्गुरुकम्, प्रवर्तिन्याः छेद इति। अत्र दोषानाहतरुणा वेसित्थीओ, विवाहमादीसु होइ सइकरणं / इच्छमणिच्छे तरुणा, तेणा ताओ व उवहिं वा॥१९८|| अस्य व्याख्या अनन्तरसूत्रवत् द्रष्टव्या। तत्र गमनिकामानं तूच्यते-- तत्राप्रावृतद्वारे उपाश्रये तिष्ठन्तीनां संयतीनां तरुणान् वेश्यास्त्रियो वृद्धविवाहनृपतिप्रवेशादिषु वा दृष्ट्वा स्मृतिकरणमुपलक्षणत्वात्कौतुकनिदानगमनं वा भवेत्,तरुणान् वा अवभाषमाणान् यदि सा प्रतिसेवितुमिच्छति ततो व्रतविराधना / अथ नेच्छति ततो बलादपि ते संयतीं गृह्णीयुः,तथा स्तेनास्ता वा संयतीरपहरेयुः, उपधिं वा तासामपहरेयुः, इति। किंच अन्ने वि होंति दोसा,सावयतेणे य मेहुणट्ठी या वइणीसु अगारीसुय दोचं संछोभणादीया।।१९६॥ अन्येऽप्यभ्यधिका दोषा भवान्त, तत्राप्रावृतद्वारे श्वापदो वा स्तेना था चशब्दात्--श्वानो वा प्रविशेयुः, तैश्च यद्विराधनां प्राप्नुवन्ति तन्निष्पन्न प्रायश्चित्तम् / मैथुनार्थी-उद्भ्रामकः प्रविशेत्, स बलादप्युदारशरीरां संयती गृह्णीयात् / व्रतिनीषु वा मध्ये काचिद्यतिनी मोहयेत्, कस्यापि गृहिणः पार्श्वे दूतीः प्रक्षेपयेत्। गृही वा कश्चित्तस्याः संयत्याः प्रसुप्तायाः सुप्तेषु साध्वीषु रात्रौ काञ्चिदगारिणीं प्रेष्यदौत्यं कारयेत्। आगारीषु वा मध्ये काचित्संक्षोभणं परावर्त कुर्यात्। संयतीसत्कानि वस्त्राणि प्रावृत्य शयीतसंयती तुतदीयानि वस्त्राणि प्रावृत्यागारस्य सकाशं गच्छेदित्यर्थः, यस्मादेवमादयोदोषास्तस्मात्अप्रावृतद्वारेप्रतिश्रयेसाध्वीभिर्नस्थातव्यम्। द्वितीये पदे तिष्ठतां किं कर्तव्यमित्याह-- पत्थारो अंतो बहि, अंतो बंधाहिँ चिलिमिलि उवरि। परिहारिदारमूले,मत्तगसुघडं च जयणाए॥२००।। प्रस्तार्यत इति प्रस्तारः कटः सचतयोःस्थानयोर्विधातव्यः। तद्यथाप्रस्तारः द्विधा-अन्तः, बहिश्च। अन्तरे अभ्यन्तरप्रस्तारे-'बन्धाहित्ति बधान नियन्त्रय चिलिमिलिषु परिविधिना कायिकीषु योजनीया। प्रतीहारी द्वारमूले तिष्ठति, मात्रविसर्जन स्वपनं च यतनया कर्त्तव्यमिति नियुक्तिगाथासमासार्थः। अथ विस्तरार्थमाहअसई य कवाडस्स, विदलकडादीउ दो कता उमओ। फरुसुद्वियस्स सरिसो, बाहिरकडयम्मि बंधो उ॥२०१।। यदि द्वारं कपाटसहितं भवति, ततः सुन्दरमेव / अथ नास्ति ततः कपाटस्यासति प्रस्तारः क्रियते / प्रस्तारः कटः स च द्विदलकः। यदि द्विदलं वंशदलं तन्मयः कटो द्विदलकटः आदिशब्दात्-शरकटः परिगृह्यते, ईदृशौ द्वौकटौद्वारस्योभयतः क्रियेते। एकोऽभ्यन्तरे, द्वितीयो बहिरित्यर्थः। ततः स्फरकस्य या मुष्टिर्ग्रहणस्थानं तस्य सदृशो बन्धो बाह्यकटे अभ्यन्तरतो दातव्यः। सच बन्धःकिम्मयः कर्तव्य इत्याह-- सुत्ताइरनुबंधो, दुच्छिा अभिंतरिलकडयम्मि। हेहा मजमे उवरिं, तिग्निं वि दो वा भवे बंधा // 202|| सूत्रस्यादिशब्दाद्-वल्कलस्य वा ऊण्र्णाया वायो रज्जर्दवरकः परिस्थूणे दृढश्च, तस्य बन्धा बाह्यकटके स्फरमुष्टिकसदृशो दातव्यः, अभ्यन्तरकटे च द्वे छिद्रे कर्तव्ये कथमित्यत आह- 'हेट्ठा मज्झे उवरि' त्ति मध्ये स्फरकमुष्टरनुश्रेण्यामेवाधस्तादुपरि छिद्रद्वयं कर्तव्यम्। ततो बाह्यकटकस्फुरकमुष्टिदवरको दृढं प्रवेश्य पश्चादभ्यन्तरकटस्य द्वयोरपि छिद्रयोः प्रवेश्य ततोऽभ्यन्तरेण निष्कास्य निविडं बन्धनीयः। ईदृशौ द्वौ वा त्रयो वा बन्धा बध्यन्ते / अभ्यन्तर-प्रस्तारस्य चोपरि चिलीमिली बध्यते, सा च तन्निबध्नाति गोपयति, तथा चते बन्धा बध्यन्ते, यथा प्रतिहारी मुक्त्वा अन्या काचिन्न जानाति।
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________________ वसहि 166 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि आह-सा प्रतिहारी कीदृग्गुणान्विता __ स्थापनीयेत्युच्यते-- कारण उवचिया खलु, पडिहारी संजईण गीयत्था। परिणयमुत्तकुलीणा, अभीर वायामियसरीरा / / 203 / / कायेनोचिता-न कृशशरीरा गीतार्था-सम्यगधिगतसूत्रार्था परिणता वयसा बुद्ध्या वा 'भुत्तं' त्ति भुक्तभोगिनी कुलीनाविशुद्धकुलोत्पन्नाअभीरु:-कुतश्चिदपि स्तेनोभ्रामकादेर्विविधां बिभीषिकां दर्शयतो न बिभेति 'वायामियसरीर' ति व्यायामादण्डशरीरा; समर्थदेहा इत्यर्थः, ईदृशी खलु संयतीनां प्रतिहारी स्थापयितव्या। ___ सा च किं करोतीत्याहआवासगं करित्ता, परिहारी दंडहत्थदारम्मि। तिनिउ अप्पडिचरित्रं, कालं घेत्तूण य पवेए॥२७॥ आवश्यकं-प्रतिक्रमणं कृत्वा प्रतिहारी दण्डकहस्ता अत्रद्वारे तिष्ठति। ततश्च 'तिन्नि उ' त्ति तिस्रः संयत्यः कालप्रत्युपेक्षणार्थं निर्गच्छन्ति 'अप्पडिचरियं' ति प्रादोषिककालं यथा साधवः प्रतिजागरितं गृह्णन्ति ततस्तथा नेति गृहीत्वा च कालं ततः प्रवर्त्तिन्या निवेदवन्ति, निवेद्य च स्वाध्याये प्रस्थापिते सर्वा अपि स्वाध्यायं कुर्वते। कथमित्याहओहाडिय दाराओ, पोरिसि काऊण पठमए जाने। पडिहारि अग्गदारे, गणिणीउ उवस्सयमुहम्मि / / 20 / / अवघाटितं-चिलिमिलिकया पिहितं द्वारम्-अग्रद्वारं यासां ता अवघाटितद्वाराः, सर्वा अपि प्रथमे यामे सूत्रपौरुषीं कृत्वा ततो मध्ये प्रविशन्तीति वाक्यशेषः, पौरुषीं कुर्वाणानां च प्रतिहारे अग्रद्वारे तिष्ठति गणिनी तु-प्रवर्तिनी तूपाश्रयस्य मुखेमूलद्वारे स्थिता स्वाध्यायं करोति। उभयविसुद्धाइयरा, पविसंतीओ पवित्तिणी छिवइ। सीसे गंडे वच्छे, पुच्छइ नामंच काऽसि त्ति॥२०६|| उभयं-संज्ञा, कायिकी च / तद्विशुद्धं व्युत्सृष्टं याभिस्ता उभयविशुद्धाः, आहिताग्न्यादेः आकृतिगणत्वात् पूर्वापरनिपातव्यत्ययः, इतराः संयत्यो यदा प्रविशन्तिततः प्रवर्तिनी किमेषा संयती उभयविशुद्धा न वेति परिज्ञानार्थ शीर्ष-शिरसि गण्डे-कपोले वक्षसि-हृदये एवं त्रिषु स्थानेषु परिस्पृशति / नाम च पृच्छति, का किं नामाऽसि त्वमिति / यावत्तत्र प्रवेशसमये विलम्बते यस्मिंश्च प्रस्तावे निर्गच्छति सा वक्तव्या। किं तुज्झ इकियाए, धम्मो दारं न होइ एतो उ। न य निठुरं पि भन्नइ, मा जियलजत्तर्ण हुशा / / 207 / / किं तवैकस्या एव धर्मा यदेवं निर्गच्छसि, विलम्वसे वा। द्वारभितो न भवति। एवमन्यव्यपदेशेन सा वक्तव्या। नच निष्ठुरं स्फुटमेव भण्यते।मा 'जियलज्जत्तणं' ति जितलज्जत्वं निर्लज्जानामेतदिति हेतोः। ततश्चसव्वासु पविट्ठासु,पडिहारी पविस्सि बंधएदारं। मज्झे य ठाइ गणिणी, सेसाओ चक्कवालेणं // 208| सर्वासु संयतीषु प्रविष्ठासु प्रतिहारी प्रविश्य द्वारं पूर्वोक्तविधिना बध्नाति,मध्ये च-मध्यभागे गणिनीप्रवर्तिनी तिष्ठति; संस्तारं प्रसृणातीत्यर्थः / शेषास्तु संयत्यश्चक्रवालेन मण्डलिकया प्रवर्तिनी परिवार्य संस्तृणन्ति, यथा परस्परं सुप्तानां न संघट्टो भवति। आह-किमर्थं न संघट्टः क्रियते। उच्यते-- सइकरण कोउहल्ला, फासे कलहो य तेण तं मोत्तुं / कडितरुणी कडितरुणी, अभिक्खछिवणा य जयणाए।।२०।। स्पर्श अन्योन्य संघट्टने भुक्तभुक्तानां स्मृतिकरणकौतूहले भवतः। कलहश्च असंखड भवति, यथा अहं त्वया हस्तेन वा पादेन वा संघट्टिता, अनेन हेतुना तं स्पर्श मुक्त्वा काचित् स्थविरा सा प्रथमतः संस्तारकं करोति, ततस्तदनन्तरिता तरुणी, पुनस्स्थविरा, पुनरपितरुणी इत्येवं संस्तारकप्रस्तरणविधिः। यतनया च यथा तासांस्मृतिकरणादिनोपजायते तथा अभीक्ष्णं पुनः पुनः स्पर्शना प्रवर्तितन्या कर्तव्या। प्रतिहारी च द्वारमूले संस्तारयति। कथमित्यत आहतणुनिहा पडिहारी, गोविय घेत्तं च सुबइ तं द्वारं। जग्गंति वारएणव,नाउं आमोस दुस्सीलो // 210 / / तन्वी स्तोका निद्रा यस्याः सा तथा एवंविधा प्रतिहारी तथा ग्रन्थि गोपयित्वा स्वपिति; यथाऽन्याः संयत्यो न जानन्त्युद्धाटितम् / हस्तेन वा तद्दवरकप्रान्तं गृहीत्वा स्वपिति / अथ तत्रामोषाः स्तेना दुःशीला अभिपतन्ति; ततस्तान् ज्ञात्वा वारकेण जाग्रति। अथ मात्रकेयतनामाहकुडमुह डगलेसु काउं, मत्तगं इट्टगाइदुरुढाओ। लाल सराव पलालं व, छोटुभायं तु मा सद्दो // 211 // कूढमुखेष्वकण्डकेषु डगलेषु वा मात्रं कृत्वा स्थापयित्वा, तस्य मात्रकस्योपरि शरावंमल्लकं स्थाप्यते। तस्य चमूर्ध्नि छिद्रं क्रियते, तत्र छिद्रे वस्त्रमयी लाला--लम्बमानचीरिका पलालं वा प्रक्षिप्यते / मा मोकं व्युत्सृजन्तीनां शब्दो भवत्विति कृत्वा तत उभयपार्श्वत इष्टिकाः क्रियन्ते, आदिशब्दात्-पीठिकादिपरिग्रहः। तत्रारूढाः सत्यो रात्रौ मात्रकमेवं व्युत्सृजन्ति। अथ स्वपनयतनामाहसोऊण दोनि जामे, चरिमे उज्झित्तु मोयमंतं तु। कालपडिलेहयातो, ओहाडियचिलिमिली तम्मि।।२१२|| सुप्त्वा द्वौ यामौ-प्रहरौ चरमे यामे उत्थाय मोकमात्रकभुज्झित्वा-- परिष्ठाप्य ततः कालं वैरात्रिकं प्राभातिकं च प्रत्युपेक्ष्य स्वाध्यायो यतनया क्रियते / तस्मिश्च चरमे यामे अवघाटितचिलिमिलिकं चिलिमिलिकया अवघाटितं-पिहितं द्वारं भवति, शेषमुत्कटद्वयम-पनीयते इति भावः। ताश्च कालं गृहीत्वा न प्रतिजाग्रति, कुत इत्याहसंकापदं तह भयं, दुविहा तेणा य मेहणऽट्ठीय।
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________________ वसहि 967- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि देहविइ दुव्वलओ, कालमओ ताण जग्गंति // 213|| यदिताः प्रतिश्रयेद्वारे स्थित्वा कालं प्रतिजागृपुस्ततः सागारिकमनसि आशङ्कापदं भवति किमेषा कंचिदुभ्रामकं प्रतीक्षिते यदेवमेषा प्रविष्टा जागर्तीति / तथा भय च तासामल्पसत्त्वतयोपजायते। द्विविधाश्च स्तेनाः-शरीरस्तेनोपधिस्तेनभेदात्, तत्रागच्छेयुः ते संयतीमुपछि वा अपहरेयुः। मैथुनार्थिनो वा संयतीमुप-सर्पयुः / देहेन-शरीरेण धृत्याच मानसावष्टम्भेन दुर्वलास्ताः, अतः ताः संयत्यः कालं न जाग्रति न प्रतिचरन्ति। किंचकम्मेहि मोहियाणं, अभिद्दवंताण कोऽथि जा भणइ। संकापदंव होजा, सागारियतेणए वाऽवि॥२१॥ यदि कर्मभिर्मोहिता घनकर्मकर्कशतया समुदीर्णमोहाःकेचन पापीयांसः शीलाच्च्यावयितुमभिद्रवेयुः, ततः को विधिरित्यत आह-तेषामभिद्रवतां संयती कोऽयमिति ब्रूते, ततःतस्याः चतुर्गुरुकाः प्रायश्चित्तम्, आज्ञादयश्च दोषाः, शङ्कापदं वा सागारिकस्य, अपिशब्दान्मैथुनार्थिनो वा भवन्ति। इदमेव भावयतिअन्नोऽवि नूणमभिपडइ, एत्थ वीसत्थया तदट्ठीणं। सागारि सेजगा वा, सइत्थिगा वा उसंकेला।।२१।। तदर्थिनो नाम तद्विवक्षितं स्तैन्यं मैथुनं वा सेवितुं ये समायातास्तेषां संयतीमुखात् क इति वचनं श्रुत्वा शङ्कादय उपजायन्ते नूनमन्योऽपि कश्चिदत्रोद्घामकोऽभिपतति, येनैवमेषा क इति प्रश्नयति / ततश्च तेषां तत्र प्रविशतां विश्वस्तता भवतिन भयमुत्पद्यते। ये सागारिकशय्यातरसिद्धका वा प्रातिवेश्मिकास्ते एकका वा सस्त्रीका वा शङ्का कुर्युः किमन्य एतासां संयतीनां दत्तसंकेतः कोऽप्युभ्रामकोऽत्रायाति। तेणियरं वसगारो, गिण्ह मारेज सो व सागरियं / पडिसेह छोभझामण, काहिंतीय प्पदोसंच॥२१६।। अथवा कइति वचनं श्रुत्वा सागारिकउत्थाय स्तेनम् इतरं वा मैथुनार्थिन गृह्णीयात्, मारयेद्वा / स या स्तेनो मैथुनार्थी वा सागारिकं मारयेत् / सागारिकेच मारिते तदीयाः संज्ञातकाः प्रतिषेधनं द्रव्यान्यद्रव्यव्यवच्छेदं कुर्युः / स्तेनादयश्च शय्यातरेण गृहीतसंयतीनां 'छोभ' त्ति अभ्याख्यानं दद्युः, अस्माकं भाटिरेताभिर्गृहीता आसीत्, 'झामण' त्ति दुष्टा वा सन्तःशय्यातरगृहं संयतीनां वा प्रतिश्रयं प्रदीपयेयुः। प्रद्वेषतोवा यदन्यदर्पिते करिष्यन्ति तन्निष्पन्नमापद्यते। प्रायश्चित्तम्। कथं पुनस्तर्हि तद्द्वक्तव्यमित्याहसंकियमसंकियं वा, उभयढि णच्चवें ति अहिलित्तं / छुत्ति हमित्ति अणाहा, नत्थितें माया पिया वा वि॥२१७॥ उभयं-स्तैन्यं, मैथुनंचा तदर्थनं शङ्कितं वा ज्ञात्वा अवगम्य अभिलीयमानमायान्तमेवं बुवते 'छु' ति 'हडि' त्ति अनुकरणशब्दावेतौ 'छुरि' ति वा वक्तव्यमित्यर्थः / यद्वा ते अनाथ ! निःस्वामिक! किं ते नास्ति माता वा पिता वा यदेतस्यां वेलायां पर्यटसीति। मंजंतुवस्सयं णो, छिन्नाला जरग्गवा सगोरहगा। नऽत्थि इहं तुह चारी, णस्ससु किं खाहिसि अहन्ना // 215|| भञ्जन्ति--विध्वंसन्ते नः-अस्माकमुपाश्रयं-छिन्नालास्तथा-विधा दुष्टजातीया जरद्वा जीर्णवलीवः सगोरथकाः अतोनास्त्यत्र त्वद्योग्या चारिः, नश्य-पलायस्व त्वं किमत्र खादयसि / अधन्य ! हे निर्भाग्य ! प्राकृतत्वात् गाथायां दीर्घत्वम्, एतेनान्या-पदेशभङ्गया तस्य प्रविशतः प्रतिषेधः कृतो भवति! द्वितीयपदमाहअद्धाणनिग्गयादी, तिक्खुत्तो मग्गिऊण असईए। दव्वस्सव असईए, ताओ व अपच्छिमा पिंडी॥२१॥ अध्वनिर्गतादयः संयत्यः / त्रिकृत्वः-त्रीन् वारान् वसतिं मार्गयित्वा असत्यलभ्यमाने गुप्तद्वारे उपाश्रये अप्रावृतद्वारेऽपि वसन्ति / तत्र यदि कपाटमवाप्यते ततः सुन्दरमेव। अथ न प्राप्यते ततो द्रव्यस्य कपाटस्थासति कण्टकादिकमप्यानीय पिधातव्यं यावदपश्चिमा-सर्वान्तिमा यतना 'ताओ व त्ति ताः सर्वा अपि 'पिंडि' ति पिण्डीभूय परस्परं करबन्धं कृत्वा दण्डकव्यग्रहस्ता-स्तिष्ठन्तीति। एनामेव नियुक्तिगाथा व्याचष्टेअन्नत्तो व कवाडं, कंडिय दंडेहि चिलिमिली बाहिं। कठिया पिंडि भवंति, सभए काऊण णोण्णकरवंधा / / 220 / / भूयः-परस्परं करबन्धं कपाटयुक्तस्य द्वारस्याभाव अन्यतोऽपि कपाट याचित्वा द्वारं पिधातव्यम्। अथयाच्यमानमपि तन्न लब्धं ततो वंशकटो याचितव्यः। तस्य अलाभेकण्टिका कण्टकशिखाः,तासामप्राप्तो दण्डकैस्तिरश्चीनी चिलिमिलिका क्रियते / तावद्दण्डानामभावे वस्त्रचिलिमिलिका बध्यते / बहिरिमूले किलिका स्थविरा-क्रियते। अथ कोऽपि तत्रे तासामभिद्रवणं करोति, ततस्तादृशसमयोपसर्गे सति अन्योन्यं करबन्धं कृत्वा पिण्डीभवन्ति। अंतो हवंति तरुणी, सह दंडे हिते य तालिंति। अह तत्थ होंति वसभा, वारिंति गिही व ते होउ।।२२१।। अन्तर्मध्येयाःतरुण्यो अगृहीतदण्डकहस्तास्तिष्ठन्ति बहिस्तुस्थविराः ताश्चोभया अपि शब्दं बृहद्ध्वनिना बोलं कुर्वते, येन भूयान् लोको मिलति / ताश्च स्तेनमैथुयनार्थिन उपद्रवतो दण्डकैः प्रताडयन्ति। अथ तत्र वृषभाः सन्निहिताः ततस्ते गृहिणो निवारयन्ति। निग्गंथ दारपिहणे, लहुओ मासो उदोसु आणादी। अइगमणे निग्गमणे, संघट्टणमाइपलिमंथो // 222| निर्ग्रन्था यदि द्वारपिधानं कुर्वन्ति ततो लघुको मासः प्रायश्चित्तम् आज्ञादयश्च दोषाः / विराधना त्वियम्- कोऽपि साधुः निर्गमनं प्रवेशं करोति, अन्येन च साधुना द्वारपिधानाय कपाट प्रेरित तेन च तस्य शिरसोऽभिघाते परितापादिकाग्लालारोपणा / एवं निर्गमनेऽपि केनचि-दहिः स्थितेन पश्चान्मुखे कपाटे प्रेरितेशीर्ष भिद्यते। तत्र स जन्तूनां संघट्टनमादिशब्दात-परितापनमपद्रावणं वा द्वारे
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________________ वसहि 668 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि पिधीयमाने अपाद्रियमाणे वा भवेत् / परिमन्थश्च सूत्रार्थव्याघातो भूयो भूयः पिदधतामपावृण्वतां च भवति। एतामेव नियुक्तिगाथा व्याख्यानयतिघरकोइलिया सप्पो, व संचाराई य होति हेतवरि। ढवित्तवंगुरिते, अभिघातो जिंतयंताणं // 223|| द्वारस्याधस्तादुपरि वा गृहकोकिला वा सर्पो वा संचारिमा वा कीटिका कुन्थुकं सारिकादयो जीवा भवेयुः, आदिशब्दात्-कोकिलादयस्तत्र भवेयुः, स्यात्-कदाचित्कारणे पुष्टालम्बने पिदध्यादपि द्वारम्, जिनाःजिनकल्पिका ज्ञायकास्तस्य कारणस्य सम्यग्वेत्तारः,परं द्वारं न पिदधति। शिष्यः चहसति कारणे पिहेजा, जिन जाण गच्छे इच्छिमो नाउं। आगाढकारणम्मि तु, कप्पति जयणाएतं पिहितुं // 22 // गच्छे...गच्छवासिनां सामाचार्याः विधिं ज्ञातुं सूरिराह-आगाद प्रत्यनीकस्तेनादिरूपं यत्कारणं तत्रयतनया वक्ष्यमाणलक्षणया गच्छवासिनां द्वारं स्थगितुं कल्पते। एष नियुक्तिगाथासमासार्थः। अथैनामेव विवृणोतिजाणंति जिणा कझं, पत्तं पि तु तं न वेंति सर्वति। थेरा वि उजाणंति, अणागयं केइ पत्तं तु / / 22 / / जिनाः-जिनकल्पिकास्तकार्यमनागतमेव जानन्ति,येन द्वारं पिधीयते / तच्च प्रत्यनीकस्तेनादिकं वक्ष्यमाणलक्षणं तस्मिश्च प्राप्तेऽपि तत्-द्वारपिधानं न भगवन्तो निषेवन्ते निरपवादानुष्ठान-परत्वात् / स्थविरा अपिस्थविरकल्पिकाः सातिशयश्रुतज्ञानाश्च प्रयोगबलेन केचिदनागतमेव जानन्ति / केचित्तु निरतिशयाः प्राप्तमेव तत्कार्य जानन्ति, ज्ञात्वा च यतनया तत्परिहरन्ति। अहवा जिणप्पमाणा, कारणसेवी अदोसवं होइ। थेरा वि जाणग चिय, कारणजयणाए सेवंता // 226 / / अथवा-'जिणप्पमाण' ति पदमन्यथा व्याख्यायते-जिनः-तीर्थकरः प्रामाण्यात् कारणे द्वारपिधानसेवी अदोषवान् भवति / जिनानां हि भगवतामियमाज्ञाकारणे यतनया द्वारं पिधातव्यम्। सेवमानाः स्थविरकल्पिका अपि ज्ञायका एव-सम्यग विधिज्ञा एव / आह-किं तत्कारणं येन द्वारं पिधीयते। उच्यतेपडिणीयतेणसावय, उम्भामगगोणसाणसुणगादी। सीयं दुरद्धियासं,दीहा पक्खीच सागरिए॥२२७॥ उद्घाटितेद्वारे प्रत्यनीकः प्रविश्य आहननमपद्रावणं वा कुर्यात्, स्तेनाः शरीरस्तेना वा प्रविशेयुः / एवं श्वापदाः-सिंहव्याघ्रादयः उद्भ्रामकाःपारदारिका गोबलीवर्दाः श्वानप्रायाः, ततएते वा प्रविशेयुः 'साणे' त्तिअनात्मवशः क्षिप्तचित्तादिः स द्वारे अपिहिते सति निर्गच्छेत् / शीतं दुरधिसहं हिमकणानुषक्तं निपतेत्। दीर्धा वा सर्पाः पक्षिणो वा काककपोतप्रभृतयः प्रविशेयुः। सागारिको वा कश्चित् प्रतिश्रयमुद्धाटकद्वारं दृष्ट्वा प्रविश्य शयीत वा विश्रामं वा गृह्णीयात्। एकशम्मि उठाणे, चउरो मासा हवंति उग्घाया। आणाइणो यदोसा, विराहणा संजमाऽऽयाए॥२२८|| द्वारमस्थगयतामनन्तरोक्ता एकैकस्मिन् प्रत्यनीकप्रवेशादौ स्थाने चत्वारोमासा उद्धाताः प्रायश्चित्तं भवति। आज्ञादयश्चात्र दोषाः, विराधना च संयमात्मविषया भावनीया। यदुक्त चत्वारो मासा उद्धाता इति तदेव तबाहुल्यमङ्गीकृत्य द्रष्टव्यम्। अतोऽपवदन्नाहअहिसावयपचत्थिसु, गुरुगासेसेसु हाँति चउलहुगा। तणगोले लहुगुरुगा, आणाइविराहणा दुविहा॥२२६।। अहिषु श्वापदेषु स्तेनेषु चतुर्गुरुकाः, उपधिस्तेनेषु चतुर्लघुकाः आज्ञादयश्च दोषाः / विराधना च द्विविधा-संयमविराधना, आत्म--- विराधना च। तत्र संयमविराधनास्तेनैरूपधावपहृतेद्वारे अपिहिते सत्युपाश्रयं प्रविशत्सूपहते तृणग्रहणमग्निसेवनं वा कुर्वन्ति, सागारिकादयो वा तथा ये गोलकल्पाः प्रविष्टाः सन्तो निषदनादि कुर्वाणा बहूना प्राणजातीयानामुपमद कुर्युः। आत्मविराधना तुप्रत्यनीकादिषु परिस्फुटैवेति। आह ज्ञातमस्माभिः द्वारमपिधानकारणम्। परं का पुनः यतनेति नाद्यापि वयं जानीमः। उच्यतेउवओगं हेतुवरिं, काऊण वएत वंगुरंते अ। पेहा जत्थ न सुज्झइ, पमधि तत्थ सारिति / / 230 / / नेत्रादिभिरिन्द्रियैरधस्तादुपरि चोपयोगं कृत्वा द्वारं स्थगयन्ति वा आपवृण्वन्ति वा / यत्र चान्धकारे प्रेक्षा-चक्षुषा निरीक्षणं न शुद्ध्यति ततो रजोहरणेन दारुदण्डकेन वा रजन्यां प्रमृज्य सारयन्ति, द्वारं स्थगयन्तीत्यर्थः / उपलक्षत्वादुद्धाटयन्तीत्यपि द्रष्टव्यम्। बृ०१उ०। उपाश्रयस्यान्तः शाल्यादीनि यत्र भवन्ति तत्र दोषमाहउवस्सयस्सअन्तोवगडाए सालीणि वा वीहीणि वा मुग्गाणि वा मासाणि वा तिलाणि वा कुलत्थाणि वा गोधूमाणि वा जवाणि वा जवजवाणि वा उक्खिन्नाणि वा विक्खिन्नाणि वा विइगिण्णाणि वा विप्पइण्णाणि वा नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंधाण वा अहालंदमवि वत्थए||१|| अथास्य सूत्रस्यसंबन्धमाहएरिसए खेत्तम्मि, उवस्सए केरिसम्मिवसितव्वं / पुव्वुत्तदोसरहिते, बितियादिजहेण संबन्धो ||1|| ईदृशे प्रथमोद्देशकान्त्यस्तत्र वर्णिते आर्यक्षेत्रे विहरद्भिरुपाश्रये कीदृशे वस्तव्यमिति चिन्तायामनेन सूत्रेणोपवर्ण्यते। पूर्वमाद्योद्देशके ये उपाश्रयस्य दोषाः सागारिकत्वादय उक्तास्तै रहितो जीवादिपरित्यक्तश्च यत्र उपाश्रयस्तत्र वस्तव्यमित्येष पूर्वसूत्रेण सहास्य संबन्धः। अहवा पढमे सुत्त-म्मि पलंबा वणिया ण भोत्तव्वा। तेसिं चिय रक्खडा, तस्सऽहवासंनिवारेंति॥२॥
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________________ वसहि 169- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि अथवेति संबन्धस्य प्रकारान्तरताद्योतके प्रथमोद्देशके प्रथमे प्रलम्बसूत्रे विस्तरेण प्रलम्बान्युपवर्णितानि तानि न भोक्तव्या-नीति प्रतिषिद्धानि, / अतो द्वितीयोद्देशकेऽपि प्रथमसूत्रे तेषामेव प्रलम्बानां रक्षार्थ तै/जाख्यैः प्रलम्बैः सह वा समवस्थानं निवारयतिअवि य अणन्तरसुत्ते, उवस्सतो अधिकते णिसी जत्थ। समणाण न निग्गंतुं, कप्पति अह तेण जोगो उ॥३॥ अपि चेत्यभ्युच्चये, न केवलं पूर्वोक्तं सम्बन्धद्वयं तृतीयोऽपि सबन्धोऽस्तीति भावः / पूर्वसूत्रस्याधस्तादनन्तरसूत्रे-"नो कप्पइ निग्गन्थस्स एगामियस्सराओ वा वियाले वा" इत्यादिलक्षण उपाश्रयः, यत्रैकाकिनां निशि-रात्रौ विचारभूम्याद्यर्थं न निर्गन्तुं कल्पते। अथायं तेन सूत्रेण सह योगः-संबन्धः, इत्यनेकैः संबन्धैराथातस्यास्य व्याख्या-उपाश्रयस्य या अन्तर्वगडा-वगडाया अभ्यन्तरम्, तच प्रतिश्रयमध्यं वा स्यात्, प्राङ्गणं वा। 'तओ सालीनि व' त्ति शालिबीजानि वा व्रीहिबीजानि वा। एवं मुद्माषातिलकुलत्थगोधूमयवयवयवैरपि तद्रीजान्युच्यन्ते / यव-- यवा-यवविशेषास्तगीजानिवा। एतानि बीजानियत्रोपाश्रये उत्क्षिप्तानि वा विक्षिप्तानि वा व्यतिकीर्णानि वा विप्रकीर्णानि वा तत्र नो कल्पते तदा निन्थानां वा यथालन्दमपि वस्तुम् / इह- यथालन्दं विधाजधन्यम्, मध्यमम्, उत्कृष्टं च / यावता काले-नोदकाो हस्तः शुष्यति तज्जघन्यम्, पञ्चरात्रिन्दिवात्तूत्कृष्टम्, तयोरपान्तराले सर्वमपि मध्यमम् / अत्रजघन्यमध्यमयोः सूत्रावतारः।अपिशब्दः संभावनायाम्, जघन्यमपि मध्यममपि यथा-लन्दं नो कल्पते वस्तुम्, किं पुनः उत्कृष्टमिति भावः। अत्र चोत्क्षिप्तादीनि पदानि भाष्यगाथयैव व्याख्यास्यन्ते इत्यभिप्रायेण च व्याख्यातानीतिसूत्रसंक्षेपार्थः। बृ०२ उ०) अथ कोऽसावुपाश्रयो यस्यैषा वगडा वर्णिता। उच्यतेवलया कोट्ठागारा, हेहा भूमी य होइ रमणिया। बीएहिँ विप्पमुक्को, उवस्सओ एरिसो होइ॥८|| वलयानि-कटपल्ल्यादीनि कोष्ठागाराणि च सुप्रतीतानि यत्र भवन्ति, अधस्ताच तत्र भूमिर्भवति रमणीया-बीजाद्यभावेन प्रशस्या, ईदृश उपाश्रयो बीजैर्विप्रमुक्तो भवति। इदमेव व्याख्यानयतिकडपल्लाणं सण्णा, तणपल्लाणं च देसीतों वलिया। णिप्पडिसाणिमभुजं-तगाय कयभूमिकम्मंता ||6 देशीतो देशीभाषामाश्रित्य कटपल्ल्यानां तृणपल्यानां च वलया-नीति संज्ञा तेषां मालेषु बद्धेषु धान्यानि क्रियन्ते,तानिच यत्र निष्परिशायीनि परिशाटरहितानि अभुज्यमानानि अव्यापार्यमाणानि / तथा कृतं भूमिकर्म-छगणलेपनादिकर्म अन्तेषु प्रान्त-प्रदेशेषु येषु तानि कृतभूमिकर्मान्तानि, अधस्ताच भूमिकाबीजादिविप्रमुक्तानि,ईदृशे प्रतिश्रये वस्तुंकल्पते। अथ कोष्ठागाराणि व्याचष्टेचाउस्सालघरेसुय, जत्थोवरि कोहएसु धण्णाई। ण्णिचट्ठइतमभोगा, तेसु निवासं निवारेइ // 10 // अथव-चतुःशालादिगृहेषु यत्रोपाश्रयेष्वपवरकेषु वा इष्टिकादि-मयेसु वा काष्ठकेषु वा मृत्तिकामयेषु वा धान्यानि नित्यस्थगितानि तानि सदा पिहितानि अभोग्यानिपरिभोगरहितानि तिष्ठन्ति / तत्र ये शेषा अपवारकाः-कोष्ठकास्तेषु निवासं निवारयति। व पुनस्तर्हि वस्तुन कल्पते इत्याह-- सालीहिं बीहीहि, तिलकुलत्थेहिं विप्पकिन्नेहि। आइण्णे वितिकिपणे, अहलंदंण कप्पती वासो // 11 // शालिभिः ब्रीहिभिः तिलैः कुलत्थैरुपलक्षणत्वात् मुद्माषादिभिश्व विप्रकीर्णंय॑तिकीर्णरुपलक्षणत्वाद्विकीणश्च संकुले उपाश्रये निर्ग्रन्थानां निर्गन्थीनां च यथालन्दमपि कालं न कल्पते वासः। एषा श्रीभद्रबाहुस्वामिकृता गाथा, अनया सूत्रपदानि संगृहीतानि आकीर्णग्रहणेन च उत्क्षिप्तपदम्, विकीर्णग्रहणे तु विक्षिप्तपदं गृहीतं मन्तव्यम्। अत्र परः प्राह-ननुजातिवाचकाः शब्दास्तेचात्र शालि-रित्यादिपदैरेकवचननिर्देशेन व्यवह्रियमाणा उपलभ्यन्ते ततः कि–मयमत्र शालिभिब्रीहिभिरित्यादिबहुवचननिर्देशः कृतः। उच्यतेसालीहिं बीहीहिद,इति उत्ते होति एतदुत्तं तु। सालीमादीयाणं,होति पगारा बहुविहा उ॥१२॥ शालिभिर्वा ब्रीहिभिर्वा इत्युक्ते एवं बहुवचननिर्देशे कृते एतदुक्तमभिहितं भवति,शाल्यादीनां धान्यानां बहुविधाः- बहुप्रकारा भवन्तितद्यथा--कलमशालिमहाशालिरित्यादि। उत्क्षिप्तादिपदानां व्याख्यानमाहउक्खित्तमिन्नरासी, विक्खिण्णा तेसि होति संबंधो। वितिकिण्णो सम्मेलो, विवइण्णे संघडं जाण // 13 // उत्क्षिप्तानि नाम येषां धान्यानां राशयो भिन्नाः, विक्षिप्तानि नाम ते एव धान्यराशयो भिन्नाः, परमेकतः संबुद्धाः,अत एवाह-विक्षिप्तपदे व्याख्यायमाने तेषां भिन्नराशीनां संबन्धो भवति / व्यतिकीर्णानि तु सर्वाण्यपि धान्यान्येकतः संमिलितानि। आह च-व्यतिकीर्णपदे तेषां धान्यानां संमीलको भवति / विप्रकीर्णानि तु सर्वतः संस्तृतानि पुष्पप्रकरवत्। यतएवाह-विप्रकीर्णपदे संस्कृतं विप्रकीर्ण जानीयात्। अथात्र बीजाकीर्णे प्रतिश्रये तिष्ठन्तीति प्रायश्चित्तमाहबीयाई आइले, लहुओ मासो उ गायमाणस्स। आणादिणो य दोसा, विराधना संजमाऽऽताए।।१४|| 'बीयाइ'त्ति आदिशब्दः-स्वगतानेकभेदसूचकः, ततश्च-बीजैः शाल्यादिभेदादनेकप्रकारैराकीर्णे उपाश्रये तिष्ठत आचार्या-देलधुमासः प्रायश्चित्तम् / अयं च तपःकालविशेषितः / तद्यथा-आचार्यस्य तपसा कालेन च गुरुकः, उपाध्यायस्य तपसा गुरुकः, वृषभस्य कालेन गुरुको, भिक्षोस्तपसा कालेनचलघुकः, एतत्प्रत्येकबीजविषयं प्रायश्चित्तमुक्तम् / अनन्तबीजेष्वप्येवमेव नवरं मासलधुस्थाने मासगुरुकम्। संयतीनामपि प्रवर्तिनीगणावच्छेदिन्यमिषेका भिक्षुणीनामेवमेव वक्तव्यम् आज्ञादयश्च दोषा भवन्ति। तथा विराधना संयमे, आत्मनि च मन्तव्या।
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________________ वसहि 970- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि इयं द्विधाऽपि पुरस्तादभिधास्यते। प्रकारान्तरेण प्रायश्चित्तमाहउक्खित्तमाइएसुं. थिराथिरें हिं तु ठायमाणस्स। पणगादी जा भिन्नो, विसेसितो भिक्खुमाईणं // 15 // साहारणम्मि गुरुगा, दसादिगं मासें ठाति समणीणं / मासो विसेसितो वा, लहुओ साहारणो गुरुगा||१६|| उत्क्षिप्तादिषु स्थिरास्थिरभेदभिन्नेषु तिष्ठतां भिक्षुप्रभृतीनां पञ्चकादारभ्य भिन्नमांसं यावत्तपःकालविशेषितं प्रायश्चित्तम् तद्यथाउत्क्षिप्तेषु स्थिरसंहननिषु लघवः रात्रिन्दिवानि, विक्षिप्तेषु स्थिरेषु तिष्ठतो लघु दश रात्रिन्दिवानि, अस्थिरेषु लघु पञ्चदश रात्रिन्दिवानि, व्यतिकीर्णेषु स्थिरेषु तिष्ठतो लघु पञ्चदश रात्रिन्दिवानि, अस्थिरेषु लघु विंशती रात्रिन्दिवानि, विप्रकीर्णेषु स्थिरेषु लघु विंशती रात्रिन्दिवानि, अस्थिरेषु लघु पञ्चविंशती रात्रिन्दिवानि, एतत्सर्वमपि प्रायश्चित्तं भिक्षोस्तपसा कालेन च लघुकम्। वृषभस्य कालेन गुरुकम्, उपाध्यायस्य तपसा गुरुकम्, आचार्यस्य तपसा कालेन चगुरुकम्। एतत्प्रत्येकबीजविषयप्रायश्चित्तमुक्तम् / साधारणबीजेषु त्वेतदेव गुरुकं कर्त्तव्यम्। गुरुपञ्चकादारम्य गुरुपञ्चविंशतिकान्तमित्यर्थः / श्रमणीनां तुलघुदशरात्रिन्दिवेभ्यः प्रारब्धं लघुमासे तिष्ठति। तत्रापि भिक्षुण्या उभयलधुकम्, अभिषेकायाः कालगुरुकम्, गणावच्छेदिन्यास्तपोगुरुकम्, प्रवर्तिन्या उभयगुरुकम् / एवं प्रत्येकबीजविषयमुक्तम्, अनन्तबीजेषु तु ए-- तद्गुरुदशरात्रिंदिवेभ्यः प्रारब्धं गुरुमासान्तं वक्तव्यम् / अथवा-- भिक्षुप्रभृतीनां चतुर्णामप्यविशेषेणोण्र्णादिषु चतुर्ध्वपि तपः- कालविशेषिते मासगुरुकः, उत्कीर्णेषु तपसा कालेन च लघुकः, विकीर्णेषु कालेन गुरुकः,व्यतिकीर्णेषु तपसा गुरुकः, अनन्त--बीजेष्वप्युत्कीपर्णादिष्वेवं तपःकालविशेषितं मासगुरुकम्। द्विविधा च विराधनासंयमात्मविषया मन्तव्या तत्र संयमविराधना निर्गच्छन् वा प्रविशन् वा बीजानां सङ्घट्टनं परितापनमपद्रावणं वा कुर्यात् / ये च तदाश्रिताः प्राणिनस्तेषामपि सङ्घट्टनादिकं कुर्यात्। तन्निष्पन्नं प्रायश्चित्तम्। अथात्मविराधनां भावयतिसालि जव अच्छि सालुग,निस्सरणं मासमुग्गमादीसुं। सुस्सू गुज्झकुतूहल-विप्पइरण मास निस्सरणं // 17|| तत्र स्थितानां साधूनां शालियवाः शालूकाश्चाक्ष्णोः प्रविशन्तीति प्रविष्टश्चक्षुषी अनागाढस्य वा अगाढस्य वा परिताप्येते। तथा माषादिषु विप्रकीर्णेषु गमनागमने विराधना निस्सरणे प्रस्खलनं भवति, ततश्च हस्तभङ्गादयो दोषाः। अत्र दृष्टान्तः-“एगो अगारो चिंतेइ-जइ सुस्सूगाए गुज्झोरगाइ पच्छामि,ताहे मासा आगमण-निग्गमणपहे विप्पकिन्ना, सा तत्थ क्यन्ती फिसलिया। गलियव-सणाइषडिया।' इदमेवाह सुस्सू' इत्यादि श्वश्रूसंबन्धि यद्गुह्यं तदवलोकने यत् कुतूहलं तद्रशान्माषाणां विप्रकिरणं तत्तस्याः श्वश्र्वाः निस्सरणे प्रस्खलनमभवत् / एवं तत्र स्थितानां साधूनामप्यात्मविराधना भवेत्। द्वितीयपदमाह बिइयपयकारणम्मि,पुटिव वसभा पमज जतणाए। विक्खिरणम्मि वि लहुआ, तत्थ वि आणादिणो दोसा।।१८|| द्वितीयपदे-कारणे अध्वनिर्गमनादौ शुद्धोपाश्रयालाभे वा विप्रकीर्णे उपाश्रये तिष्ठन्ति। कथमित्याह-पूर्व वृषभा दण्डप्रोञ्छनकं गृहीत्वा तत्र गत्वा यतनया यथा तेषां बीजानां परितापनादि न भवति तथा प्रमृज्य ततः सबालवृद्धमपि गच्छमानीय यथालन्दं तिष्ठन्ति। यदि प्रमार्जनायां विविधानां बीजानां विकरणमितस्ततो विक्षेपणं कुर्वते तदा लघुमासः प्रायश्चित्तम्, तत्राऽप्यविधिप्रमार्जने आज्ञादयो दोषाः / अथैतदेव स्पष्टयतिगीया पुरा गंतु समिक्खियम्मि, थिरे य मज्झे तु महाथिरे वा। साहटुमेगं तु वसंति लण्ड, उक्कोसयं जाणिय कारणं वा // 16 // केचिदध्वनिर्गतादयः साधवो विवक्षितग्रामं प्राप्ताः,तत्र चगीतार्थाः पुरतो गत्वा त्रिकृत्वः शुद्धां वसतिं समीक्षन्ते-प्रत्युपेक्षन्ते। यदि तथा समीक्षिते न प्राप्यते तदा शाल्यादिबीजेषूत्कीर्णेषु प्रथमं स्थिरसंहननिनः तिष्ठन्ति / तदभावे अस्थिरसंहननिनः तिष्ठन्ति / तानि च बीजानि यतनया प्रमृज्य एकान्ते संहरन्ति-संस्थापयन्ति, संहृत्य चतत्रजधन्यं वा मध्यमं वा यथालन्दं वसन्ति / कारणं वा अध्वपरिश्रमादिकं ज्ञात्वा उत्कृष्टमपि यथालन्दं वसन्ति। अत्र पाठान्तरम्- 'साहटुमेगं तु त्ति तानि बीजानि संहृत्य तत एकमिति जघन्यं यथालन्दं वसन्ति / शेष प्राग्वत्। उत्कीर्णानामभावे विकीर्णेषु तेषामभावे व्यतिकीर्णेषु, तदप्राप्ती विप्रकीर्णेष्वपि तिष्ठन्ति। तत्रापि प्रथमं प्रत्येकेषु , ततः साधारणेष्वपि अधः क्रमेण तिष्ठन्ति / ततो मासलघु संयतीनामप्येवमेव द्वितीयपदं मन्तव्यम्। अह पुण एवं जाणिज्जा, नो उक्खित्ताइं नो विक्खित्ताई नो विकिन्नाइं नो विप्पकिन्नाई रासीकडाणि वा पुंजकडाणि वा मित्तिकडाणि वा कुलियकडाणि वा लंछियाणि वा मुहियाणि वा पिहिताणि वा, कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा हेमंतगिण्हासु वत्थए||२|| अथ पुनरेवं जानीयात्, तानि शाल्यादीनि बीजानि तत्रो पाश्रये नोत्क्षिप्तानि नो विक्षिप्तानि नो विकीर्णानि नो विप्रकीर्णानि किं तु राशीकृतानि वा पुञ्जीकृतानि वा भित्तीकृतानि वा कुलिका-कृतानि वा लाञ्छितानि वा मुद्रितानि वा पिहितानि वा तत एवं कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा हेमन्तग्रीष्मेषु वस्तुम्, इति सूत्राक्षरार्थः / अत्र भाष्यम्रासीकडा य पुंजे, कुलियकडा पिहितमुहिया चेव। ठायंतगाण लहुगा, कास अगीतत्थसुत्तं तु // 20|| यत्रो पाश्रये राशीकृतानि कुलिकाकृतानि पिहितानि मुद्रितानि चशब्दाद्-भित्तीकृतानि लाञ्छितानि च बीजानि तत्रतिष्ठतां च चतुर्गुरुकाः / कस्य पुनरेतत्प्रायश्चित्तम्, उच्यते-अ
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________________ वसहि 971 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि गीतार्थस्या सूत्रंतुपुनः गीतार्थविषयं द्रष्टव्यमिति वाक्यशेषः। वृ०२० / (अथ राशीकृतादिपदानां व्याख्यानं 'रासि' शब्देऽस्मिन्नेव भागे गतम्।) अतःअगीयस्सन कप्पइ, तिविहं जयणं तु सो न जाणाइ। अण्णुण्णाए जयणं, सपक्खपरपक्खजयणं च ||4|| अगीतार्थस्य प्रस्तुतसूत्रविषयभूतं वस्तुंन कल्पते, यतोऽसौ त्रिविधां यतनांनजानीते। तद्यथा-अनुज्ञापनायतनाम्, स्वपक्षयतनाम, परपक्षयतनां चेति। तिस्रोऽप्येता वक्ष्यमाणस्वरूपाः। परः प्राह-अगीतार्थेनापि तावत्सूत्रमधीतम्, अतः कथमसौ न जानीते ? उच्यते--इह सर्वेषामप्यागमानामर्थपरिज्ञानमाचार्य-सहायकादेवोपजायते, नयथाकथंचिद्, उक्तं च- "सत्स्वपि फलेषु यद्वन्, न ददाति फलान्यकम्पितो वृक्षः। तद्वत्सूत्रमबुद्धेरकम्पितं नार्थवद्भवति॥१॥"। इहमेवाहनिउणो खलु सुत्तत्थो, ण हुसको अपडिबोधितो णाउं। ते सुणह तत्थ दोसे,जे तेसि तर्हि वसंताणं ||5|| निपुणः--सूक्ष्मःखलु सूत्रस्यार्थो भवति, अतएव नशास्त्रस्य वाऽऽचार्यणाप्रतिबोधितः सम्यग् परिज्ञातम्, अतोगीतार्थः सूत्रमात्रेण पठितेन न यतनामवबुध्यते अथ तेषामगीतार्थाना तत्र बीजाकीर्णोपाश्रये वसतां ये दोषा भवन्ति तान् शृणुत। अॅगीयत्था खलु साहू-णवरि दोसे गुणे अजाणंता। रमणिअभिक्खगामो, ठायंतऽह धण्णसालाए।।४६|| अगीतार्थाः खलु केचन साधवः साधुक्रियासु यताः नवरं केवलं सदोषाया निर्दोषाया वा वसतेरनुज्ञापने दोषान् गुणान् अजानन्तः क्वापि ग्रामे भैक्षं प्रभूतं लब्ध्वा भिक्षया रमणीयोऽयं ग्राम इति कृत्वा अथानन्तरं धान्यशालायां तिष्ठति। इदमेव स्पष्टतरमाहरमणिज्ज भिक्खगामी, ठायामो तहेव वसहिझोसेहि। धण्णधराणुण्णवणा, जति रक्खह देसु तो भंते // 47 // कश्चिदगाताथः गच्छे ग्रामानुग्रामिकं विरहन् कमाप ग्रामं संप्राप्तः। तत्र बहिः-देवकुलादौ स्थित्वा भिक्षार्थं पर्यटन प्रभूतमिष्टं भैक्षं लब्धदान, ततस्तैः साधुभिः परस्परमुक्त रमणीयोऽयं ग्रामः, अत इहैव मासकल्प तिष्ठामः। परं वसतिरद्यापिनगवेषितो, अतस्तं'झोसेहि त्ति देशीवचनत्वाद्वेषयत। ततस्तैर्वसतिं प्रत्युपेक्षमाणैः कस्याप्यगारिणो धान्यगृहं दृष्टम् / ततस्तस्यानुज्ञापना कृता / गृहपतिःप्राह-यदि तदन्तर्मदीयं धान्यगृहं तस्करगवादिभिरपह्रियमाणं रक्षत ततोऽहं प्रयच्छाम, नान्यथा। अपिच• वसही रक्खणविग्गा, कम्मं न करेमों व पवसामो। णिटिवतो होहि तुम, अम्हे रत्तिं पि जग्गामो॥४८|| वयमस्या वसतेन्यिशालारूपाया रक्षणे विग्नाः सन्तः कृष्यादिकं | कर्मापि न कुर्महे, न च सुहृदादिभिरामन्त्रिताः क्वापि विवाहादौ कार्ये ग्रामान्तरे प्रवसामः। ततस्ते अगीतार्था वसत्यनुज्ञापनाविधिमजानन्तो ब्रुवन्ति, निश्चिन्तस्त्वमत्रार्थे भव, वयं रात्रिमपि प्रहरकेण जागरिष्यामः। जोतिसणिमित्तमादी, छंदं गणियं च अम्ह साधेत्था। अक्खरमादी डिंभे,गाधिस्स व अजतणा सुणणा ||46 // ज्योतिषनिमित्तम्, आदिशब्दादन्यदपि गन्धर्वविद्यादिकम्, तथा छन्दःशास्त्रम्, गणितशास्त्र वा यद्यस्माकं कथयिष्यथ / अक्षराणि वा-- लिपिविज्ञानम्, तत आदिशब्दाव्याकरणादिकं वा यद्यस्माकम्, डिम्भानिबालकानि ग्राहयिष्यथ, ततस्तिष्ठन्तु भवन्तः / इत्येवं वसतिस्वामिनोक्ते सति यदि ते अगीतार्थाः तत्प्रतिशृण्वन्ति, आमम् कथयिष्यामो ग्राहयिष्यामो वा इत्यनुमन्यन्ते, ततोऽनुज्ञापनया अयतना कृता भवति। तत्र चामी दोषाःअण्णुण्णवण अजतणा, एए सागारिए घरे चेव। तेसिं पियवीयत्तं,सागारियवज्जियं जातं // 10 // एवमयतना अनुज्ञापनया, तत्र तेषु स्थितेषु सागारिकश्चिन्तयति, एते साधवस्तावन्मदीयंधान्यगृह रक्षन्ति। अतः अस्मादहं स्वजनादिकार्येण गच्छामीति परिभाव्य कुत्रचिद्ग्रामादौ प्रवसति। प्रोषिते च तस्मिन् गृह एव वा निश्चिन्ततयाधान्यानांव्यापारमवहमाने तेषामपि संयतानां प्रीतिक भवति। साधुः सागारिकवर्जितं जातम्। अस्या एव गाथायाः पूर्वार्द्ध व्याचष्टेतेसु ठिएसु पउत्थो, अत्यंतो वाऽविण वहती तत्तिं / जति वियपरिसितुकामो,तह वियण व एति अतिगंतुं // 11 // तेषु-संयतेषुस सागारिको निश्चिन्ततया प्रोषितो गृहे वा तिष्ठन् धान्यानां तप्तिं व्यापारं नवहति। यदा-धान्यंसंलाभयितुं यद्यप्यसौ तत्र प्रवेष्टकामः तथापि न गन्तुंन प्रवेष्टुं शक्नोति। कुत इति चेदुच्यतेसंथारएहि य तहिं, समंततो आमिकिण्ण विइकिण्णं / सागारितो ण एती, दोसे य तहिं ण जाणाति॥५२॥ संस्तारकैस्तत्रोपाश्रये समन्ततः आभिकीर्ण परिपाट्या प्रसृतैर्मालितम्, व्यतिकीर्ण तैरेवानुपूर्व्या प्रभूतैव्याप्तं दृष्ट्वा सागारिको नैति-न आगच्छति, ततो ये तत्र धान्यपरिशटनादयो दोषास्तानसौ नजानीते। गता अनुज्ञापनया अयतना। अथ संयतलक्षणविषयां यतनामाहते तत्थ सण्णिविट्ठा, गेहिय संथारगा जहिच्छाए। णाणादेसी साधू, कासइ चिंता समुप्पण्णा // 53 // ते अगीतास्तत्रापाश्रये सन्निविष्टाः-स्थिताः यदृच्छया च तैस्तत्र संस्तारका गृहीताः,नगणावच्छेदकेन, यथा रत्नादिकं प्रदत्ता इति भावः / नानादेशीयाश्च तत्र साधवस्तेषांमध्ये 'कासइत्ति कस्यचिच्छन्दधर्मणः चिन्ता समुत्पन्ना।
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________________ वसहि 972- अभिधानराजेन्द्रः- भाग 6 वसहि यथाऽऽहअणुहूया धण्णरसा, णवरं मोत्तूण सेडगतिलाणं / काहामि कोउहलं, पासुत्तेसुं समारो॥१४॥ अनुभूतास्तावदपरेषां धान्यानां रसाः, नवरं 'सेडगतिला णं' ति | श्वेतकतिलानारसं मुक्त्वा,अतएव तद्विषयं कौतुकमभिलाषं करिष्यामि, पूरयिष्यामीत्यर्थः / एवं विचिन्त्य शेषसाधुषु प्रसुप्तेषु समारब्धवाँस्तान् तिलान् भक्षयितुम्। ततश्चविगयम्मि कोउहल्ले, छट्ठय्वतविराहण त्ति पडिगमणं। वेहाणस ओहाणे, गिलाण सेहेण वा दिहो / / 5 / / विगते-व्यतीते सति कौतुके षष्ठव्रतस्य विराधना मा भूत्, एक व्रतभड्ने च सर्वव्रतभङ्ग इति कृत्वा प्रतिगमनं-भूयोऽपि गृहवासा-श्रयणं कुर्यात्। वैहायसंविरमणमभ्युपगच्छेत्, अवधावनं संविनविहारं कुर्वीत पार्श्वस्थादिविहारमाद्रियेत इत्यर्थः 1 अथवा-स संयतस्तिलभक्षणं विदधानो ग्लानो वा शैक्षेण वा दृष्टो भवेत्। ततश्चदठूण वा गिलाणो, खुधितो मुंजेज जा विराधणता। एमेव सेहमादी,मुंजे अप्पचयो वासिं // 56| तंसाधुंतिलान् भक्षयन्तं दृष्ट्वा ग्लानः क्षुधितःसन्तान् तिलान् भुञ्जीत, ततश्चापथ्यसेवनतया तस्य परितापनादि का विराधना, तन्निष्पन्नं प्रायश्चित्तम् / एवमेव शैक्षादयोऽऽपि तं तिलान भुञ्जानं दृष्ट्वा तथैव भुञ्जीरन् / अप्रत्ययो वा तेषां भवेत्, यथैतन्मृषा तथाऽन्यदप्यमीषामेवंविधमिति। उड्डाहं च करेजा, विप्परिणामो व होम सेहस्स। गेण्हतेण व तेणं, सय्यो मुंजो समारद्धो // 17 // स शैक्षस्तं तिलान् भक्षयन्तं विलोक्य परापरजनेभ्यः कथयन् उड्डाहं कुर्यात्, विपरिणामो वा शैक्षस्य भवेत, विपरिणतश्च सम्यक्त्वं चारित्रं लिङ्ग वा परित्यजेत्। तेन च साधुना गृह्णता भक्षयता सर्वोऽपि तिलपुञ्जः खादितुं समारब्धः। ततश्च-- फेडिय मुद्दा तेणं, कब्जे सागारियस्स अतिगमणं / केण इभं तेणेहि, तेणाणं आगमो कत्तो // 18|| तिलपुञ्जस्य या छगणलेपादिना मुद्रा कृताऽसीत् सा तेन तिलान् भक्षयता स्फेटिता-अपनीता, तत्र क्वचित्कार्ये सागारिकस्यशय्यातरस्यातिगमनं प्रवेशो भवेत्। दृष्टश्च तेन खण्डितस्तिलपुञ्जः। ततः पृष्ट केनेदं धान्यं विलुप्तम् ? साधवो भणन्ति स्तेनैः / सागारिकः प्राहस्तेनानामागमनं कुतो मद्गृहे संजातो येनास्माभिर्न ज्ञात इति / तेन सागारिकेण चेतसि निश्चितम्-नूनमेतैरेव भुक्तमिदं धान्यमिति / स च भद्रको वा स्यात्, प्रान्तो वा। भद्रकस्तावदिदं ब्रूयात्इहरह वि ताव अम्हं, मिक्खं व बलिं च गिण्हहण किचिं।। एहि खु तारिओ मी, गिण्हह छंदेण जो अट्ठो |16 इतरथाऽपि च अस्माकं गृहे भिक्षां वा बलिं वा देवतानिवेदनमुद्ररितं न गृह्णीथ, अत इदानीं संसारसागरात्तारितोऽस्म्यहम्,अन्येनापि येन भवतामर्थःप्रयोजनंतद्भगवन्तः छन्देनस्वेच्छया गृह्णीध्वम्। लहुगा अणुग्गहम्मि य, अप्पत्तिग धम्मकंचुए गुरुगा। कडुगफरसं भणंते, छम्मासा करभरे छेदो॥६०॥ यद्येवं भद्रकोऽनुग्रहं मन्यते तदा चतुर्लघवः। अथ प्रान्तोऽसौ ततोऽप्रीतिकं कुर्यात् एते धर्मकञ्चुकप्रविष्टा लोकं मुष्णन्ति एवम-प्रीतिके चतुर्गुरवः। अथासौ कटुकपरुषम्-चौरस्त्वं धिग् मुण्ड! दुरात्मन्नित्यादि वचनं भणन्ति तदा षड्गुरवः / अथैवं ब्रूयात्-आहारे करभरभग्गैरस्माभिरिदानीं श्रमणकरो वोढव्यः तदा छेदः प्रायश्चित्तम्। मूलं सइमएसु, अणवठ्ठप्पो तिए चउके य। रत्थामहापहेसु य,पावति पारंचियं ठाणं // 61 / / 'सइज्झका' नाम सहवासिनः प्रातिवेश्मिका इत्यर्थः, तैः परिज्ञातं यथा श्रमणैर्धान्यं स्तैन्येन भक्षितं ततो मूलम् / अथत्रिकेषु वा चतुष्केषु वा साधूनां स्तेनवादः प्रसरमुपगतः ततोऽनवस्थाप्यम्। अथ रथ्यासु पथि वा स्तैन्यापयशः समुच्छलितं ततः पाराञ्चिकं स्थान प्रायश्चित्तं प्राप्नोति। अथ कटुकपरुषकरभरपदानि व्याचष्टचोरि त्ति कडुय दुम्मु-डितो त्ति फरुसं हओ त्ति पव्वइओ। समणकरो वोढव्यो, जातो म्हेकरभरहताणं // 6 // चौरस्त्वमित्यादिवचनं कटुकम्,यत्तु दुर्मुण्ड इति वा हतोऽसि प्रव्राजित इति वा वचनं तत्परुष मन्तव्यम्, तथा स शय्यातरो ब्रूयात्-अस्माकं करभरहतानां संप्रति श्रमणानां करो वोढव्यः संजातः। एषा स्वपक्षविषया अयतनाऽभिहिता। अथ परपक्षविषयामयतनामाहपरपक्खम्मि अजयणा, दारे उ अवंगुतम्मि चउलहुगा। पिहणो वि हॉति लहुगा, जं ते तसपाणघातो य॥६३|| मनुष्यगवादयो ये असंयतास्ते परपक्षास्तद्विषया अयतना भाव्यते। इह कोलिकादि जीवविराधनाभयाद्यदि द्वारमपावृतं करोति; न स्थगयतीत्यर्थः ततश्चतुर्लघवः / अथ द्वारस्य पिधानं कुर्वन्ति तदाऽपि चतुर्लघु। यन्त्रे'च' तदाकारके वा संचारिमाणामुद्देहिकादीनां त्रसप्राणिघातो भवति तन्निष्पन्नं प्रायश्चित्तम्। गोणे य साणमादी, वारणलहुगा य जंच अधिकरणं / खरए य तेणए य,गुरुगाय पदेसओ जं च // 6 // अपिहितेद्वारेगौः प्रविष्टोधान्यं भक्षयेत्, श्वानो वा आदिशब्दान्मार्जारो वा प्रविश्य धान्यं विकिरेत्, 'वारण' त्ति तेच यदि वार्यन्तेतदाचतुर्लघवः, तेच वारिताः प्रतिनिवृत्त्य व्रजन्तो हरितमर्दनारूपं यदधिकरणं कुर्वन्ति तन्निष्पन्नं चयश्चित्तम् / चशब्दादन्तरायं च तेषां कृतं भवति / तथा शय्यातरस्य यद् व्यक्षरकम्-दासदासीरूपम्, ये च स्तेनका धान्यं हर्तुकामा ते यदिवार्यन्तेतदाचतुर्गुरुकाः, तेच वारिताः प्रद्वेषतोयदभ्याख्यानपरितापनादिकं करिष्यन्ति तन्निष्पन्नं प्रायश्चित्तम्।
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________________ वसहि 973 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि तेसि आवारणे लहुगा, गोसे सागारियस्स सिट्टम्मि। लहुगा य जंच रुट्ठो,ऽसिढे संकापदं जं च // 6 // अथैतद्दोषभयात्तेषां व्यक्षरकादीनां वारणं न करोति, तदा चतुर्लघवः ते वारिताः सन्तः प्रविश्य धान्यं भक्षयेयुरपहरेयुर्वा ततो यदि गोसेप्रत्यूषे सागारिकस्य कथयन्ति यथाऽमुकेन रात्रौ धान्यमपहृतंततश्चतुर्लघुकानि। शिष्टे कथिते सति स रुष्टः सन् यद्यक्षरकादीनां परितापनादि यतो बन्धनघातनं च विशेषतः करिष्यति तन्निष्पन्नं प्रायश्चित्तम् / न कथयन्ति ततश्चतुर्लधुकाः। तच साधूनामुपरि शङ्कापदंशय्यातरः करोति नूनमेतैरपहृतं यदेवं न कथयन्ति तत्र चतुर्लघु। निःशङ्किते चतुर्गुरु। गवादीनां वारणे दोषानुपदर्शयतितिरियनिवारण अभिहणण-मारणं जीवधात णासंतो। खरिया छोभविसागणि-खरएयं तावणादीया।।६६|| गवादीनां तिरश्चां निवारणे शृङ्गादिना संयतानामभिघातो मारणं वा भवेत्, तेन च निवारिता नश्यन्तो जीवानामभिहननं विनाशनं च कुर्युः। द्वयक्षरिका च निवारिता संयतानां क्षोभमभ्याख्यानं दद्यात; एष श्रमणो मां प्रार्थयते, विषं वा दद्यात्,वसतिं वा अग्निा प्रज्वालयेत्। यक्षरको वा प्रद्विष्टः प्रतापनादिकं कुर्यात्। अथ स्तेनका येन कारणेन धान्यमपहरन्ति तदाहआसन्नो य छाणोसॅवों, कझं पि य तारिसेण धण्णेणं। तेणाण य आगमणं, अच्छह तुहिकका तेणा॥६७॥ क्षणकः दैवसिक उत्सवः बहुदैवसिको वा, क्षणयुक्त उत्सवः क्षणोत्सवः शाकपार्थिवादित्वान्मध्यपदलोपी समासः, क्षण उत्सव इत्यर्थः / स स्तनानां प्रत्यासन्नो वर्तते / तत्र च तेषां तादृशेन धान्येन कार्यमस्ति। ततस्तेनानामागमनम्, ततश्च गीतार्थाः भणन्ति, भदन्त ! स्तेनाः समायाताः सन्ति अतस्तूष्णीकास्तिष्ठत। न कल्पते साधूनामेवं ज्ञातुम् अयं चोरक इति। अथवा-संयतैः स्तेना आयाताः सन्तीत्युक्तेस्तेना ब्रुवतेसंयताः! तूष्णीकास्तिष्ठत अन्यथा युष्मान्, अपद्रावयिष्यामः। एवमुक्तास्तैः किं कर्तव्यमित्याहगहियं च तेहि धण्णं, घेत्तूण गता जहिंसि गंतव्यं / सागारिओ य भणती, सउणी वि ति रक्खती णेङ॥६८|| गृहीतं च तैः स्तेनकैन्यिम्, गृहीत्वा च ते गतास्तत्रस्थाने यत्र तेषां गन्तव्यम् / सागारिकश्चात्मीयकार्येण प्रभाते समागतो मुद्रा-भेदं दृष्ट्वा भणति-भगवन् ! शकुनिकाऽपि पक्षिण्यपि तावदात्मनो नीडमाश्रयं रक्षति, भवद्भिः पुनरेतदपि न रक्षितमिति भावः। रासी ऊणे दटुंसव्वं णीतं व धण्णखेरि वा। केण इमं तेणहिं, ऽसिटे भद्देतर इमं तु // 6 // सन् सागारिकस्तत्र धान्यरासी ऊनान्-तुच्छान् दृष्ट्वा सर्व धान्य नीतमपहृतं विलोक्य,यद्वा-धान्यस्य खेरि परिशाटिंदृष्ट्वा पृच्छतिकेनेदमपहृतम् ? साधवो ब्रुवते-स्तेनै : / स भूयः पृच्छति, के पुनः / स्तेनाः ? ततो यदि नाम्ना वर्णेन वयसा वा निर्दिश्य कथयन्ति ततः स्तेनानां ग्रहणाकर्षणादयो दोषाः / अशिष्ट-अकथिते एतैरेव हृतमिति शङ्कास्यात्, तत्र भद्रकेतरदोषा भवन्ति। यद्यसौ सागारिको भद्रकः तदा अनुग्रहं मन्येत / अथेतरःप्रान्तस्ततोऽ-प्रीतिकादयो दोषाः। तेषु च भद्रकप्रान्तदोषेष्विदं प्रायश्चित्तम्लहुगा अणुग्गहम्मि, गुरुगा अप्पत्तियम्मि कायव्वा। कडुगफरुसं भणन्ते, छम्मासा करभरे छेदो॥७०।। मूलं सएज्झएसु, अणवठ्ठप्पो तिए चउके य। रत्थामहापहेसु य, पावति पारंचियं ठाणं // 7 // गाथादयस्य व्याख्या प्राग्वत्। एगमणेगे छेदो, दियरातो विणास गरहमादीया। जंपाविहिति विद्धाणि-गतादी वसधि अलभमाणा // 72 // सागारिकः प्रद्विष्टः सन्नेकेषां तेषामेवानेकेषांवा-सर्वसाधूनां वा, यद्वाएकस्य द्रव्यस्यानेकेषां वा तद्रव्यान्यद्रव्याणां व्यवच्छेदं विदध्यात्। अथवा--दिवा निष्काशयति चतुर्लघु, रात्री निष्काशयति चतुर्गुरु, निष्काशिताश्च स्तेनश्वापदादिभिर्विनाशं लोकादा गर्हामासादयन्ति, एते स्तेना इति कृत्वा निष्काशिताः। आदि-ग्रहणेन ग्रहणाकर्षणादयो दोषाः / यच व्यध्वम्- अध्वतो विनिर्गताः, आदिशब्दाद्-अशिवादिनिर्गता वा तदीयदोषेण वसतिमलभमाना आत्मविराधनादिकं प्राप्स्यन्ति तन्निष्पनम् / एते अगीतार्थानां दोषा उक्ताः। अथ गीतार्थानधिकृत्य विधिमाहगीयत्थेसु वि एवं, णिकारणा कारणे अजतणाए। कारणे कडजोगिस्स,कप्पति तिविहाएँ जतणाए।७३|| गीतार्था अपि यदि निष्कारणं धान्यशालायां तिष्ठन्ति, कारणे वा स्थिता यतनां न कुर्वन्ति, ततस्तेष्वप्येवमेव दोषाः / अथ कृतयोगी गीतार्थः कारणे तिष्ठतितदातस्य त्रिविधया यतनया अनुज्ञापनादिविषयया वक्ष्यमाणया तत्र स्थातुं कल्पते। इदमेव स्पष्टतरमाह-- निकारणम्मि दोसा, पडिबंधे कारणम्मि निहोसा। ते चेव अजतणाए, पुणो वि सो लग्गती दोसे / / 74|| धान्यप्रतिबद्धे गृहे निष्कारणे तिष्ठतामेते दोषा मन्तव्याः। कारणे तु यतनया तिष्ठन्तो निर्दोषाः। अथ कारणे स्थितो यतनिर्दोषकरोति ततस्ते एव पूर्वोक्ता दोषाः लगन्ति। किं पुनस्तत्कारणमित्याहअद्धाण निग्गतादी,तिक्खुत्तो मग्गिऊण असतीए। गीतत्था जतणाए, वसंति तो घण्णसालाए।।७५|| अध्वनिर्गतादयस्त्रिकृत्वःत्रीन्वारान विशुद्धां वसतिमार्गयित्वा यदि न प्राप्नुवन्ति तदा गीतार्था यतनया धान्यशालायां वसन्ति। तामेव यतनामाहतुसधन्नाई जहि यं, णिप्पडिपरिसाडियाइँ वा होति। तेसुं पढमंठायति,तेसऽसतीदंतख सु॥७६||
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________________ वसहि 674 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि येषूपाश्रयेषु तुषधान्यानि ब्रीहियवादीनि निष्परितानि परिशटितानि वा भवन्ति, तेषु प्रथमतस्तिष्ठन्ति / तेषामभावे यत्रदन्तखाद्यानि तिलादीनि धान्यानि तत्र तिष्ठन्ति,तिष्ठतां यदि वसतिस्वामी ब्रूयात्यद्यस्मद्रालकानां वैद्यज्योतिषादिकमक्षरादिविज्ञानं वा कथयिष्यथ गृहादिकं च रक्षिष्यथ ततो वसतिं प्रयच्छाम इति। तत्र साधुभिर्वक्तव्यम्न वि जोइस ण गणियं,ण अक्खरे ण वि य किंचि रक्खामो। अप्पस्सगा असुणगा, भायणखंभोवमा वसिमो॥७७|| वयं नापि ज्योतिषं न गणितं नाक्षराणि शिक्षयामः, न वा जानीमः,नापि किंचिद् गृहादिकं रक्षामः, किंतु-भाजनस्तम्भोपमा वसामः / यथा भवतां भाजनं स्तम्भकुड्यादीनि सौख्यदौस्थ्यव्यापारं न वहन्ति; एवं वयमपि भवद्भिर्मन्तव्याः। अत एव गृहे कस्यापि कार्यस्याधिपत्तिं पश्यन्तोऽप्यपश्यकाः / यदा च कोऽपि ब्रूयात्--इदं शय्यातरस्य कथयत, तदा वयं शुण्वन्तोऽप्यश्रोतारो मन्तव्याः। यद्येवमभ्युपगच्छन्ति तदा स्थातव्यम्, अत एवाह--- निकारणम्मि एवं, कारणे दुलमे भणंतिम वसभा। अम्हे वि तेलगचिय, यधापवत्तं च इह तुज्झे॥७८|| निष्कारणे भावे एवं तिष्ठन्ति। अथ अशिवादौ कारणे शुद्धा वसतिदुर्लभा ततो धान्यशालायां तिष्ठन्ति, इत्थं साधारणवचनं वृषभाः भणन्ति,वयं तावदत्र स्थिताः, एवं यूयमपि यथाप्रवृत्तं दिवसदैवसिकं व्यापार वहथ। एषा गता अनुज्ञापना यतना। अथ स्वपक्षयतनामाहआम ति अन्भुवगते, भिक्खवियारादिणिग्गतमियेसु / भणति गुरू सागरियं,णाउंजे कज किं धन्नं // 79 // आममित्यनुमतार्थद्योतकम्, एवं यदि सागारिकेणानुमतं मम निष्प्रत्युपकारिणो भूत्वा यूयं तिष्ठत, ततस्तत्र स्थातव्यम्। स्थितानां च तत्रायं विधिः-ये सर्वेऽपि मृगा अगीतार्था भिक्षायां विचारभूम्यादौ वा निर्गता भवन्ति; तदा गुरुराचार्यः सागारिकमन्यव्यपदेशेन भणति, किमर्थमित्याह-तत्र किं धान्यं वर्तत इति ज्ञातुम्। 'जे' इति पादपूरणे। सालीणं बीहीणं, तिलकुलत्थाण मुम्गमासाणं। दिट्ठ मए सण्णिचया, अण्णे देसे कुटुंबीणं ||8|| शालीनां ब्रीहीणां तिलकुलत्थानां-मुद्रानां माषाणां च सन्निचया अन्यस्मिन् देशे कुटुम्बिना गृहेषु मया दृष्टाः / एवं च भणिय मित्त-म्मि कारणे सो भणामि आयरियं / अस्थि महं सण्णिचया,पेच्छह णाणविहे घण्णे // 1 // एवं चाऽऽचार्येण भणितमात्रेऽपि स सागारिकः कथनकारणे क्रमप्राप्ते सत्याचार्य भणति, भगवन् ! सन्ति मेबहवः सन्निचयाः, पश्यत-मानादिधान्यानि। एवं ब्रुवन् हस्तसंज्ञया निर्दिशति, यथा अत्र शालयः सन्ति, अत्र गोधूमाः, अत्र तिला इत्यादि। उवलक्खिया य धण्णा, संथाराणं जहाविधिग्गहणं। जो जस्स उ पाउग्गो,सो तस्स तहिं तु दायय्वो।।२ आचार्येणोपलक्षितानि तानिधान्यानि, ततः संस्तारकाणां यथाविधियथारत्नाधिकं ग्रहणे प्राप्तेऽपि तत्र स भूयऔत्पत्तिकीं सामाचारी स्थापयति, कथमित्याह-यो यस्य शैक्षग्लाना-देगीतादिर्वाधान्यस्य दूरे अदूरे वा यत्र संस्तारकप्रायोग्यः स तस्य तत्रावकाशे दातव्यः। निक्खमपदेसवजण,दूरे य अभाविया तु धण्णाणं / घण्णंतेण परिणता, चिलिमिलि दिवरत्तसुण्णं तु // 8 // यत्र सागारिको धान्यग्रहणार्थं निष्क्रामति प्रविशति वा तमवकाशं वर्जयित्वा साधुभिरासितव्यम्, ये वा पुनरभाविताः-अगीतार्थास्ते धान्यानां दूरे स्थाप्यन्ते, परिणताः-धर्मश्रद्धालयः स्थिरचेतसश्च ते धान्यान्तेन पार्श्वेन क्रियन्ते, धान्यानां वाऽपान्तराले चिलिमि-लिका दातव्या। गीतार्थपरिणामकैश्च दिवा च रात्रौ चाशून्यं कर्त्तव्यम्। ते तत्थ सण्णिविट्ठा, गहिया संथारगा विहीपुव्वं / जागरमाण वसंती,सपक्खजतणाएँ गीयत्था|४|| ते साधवस्तत्रोपाश्रये सन्निविष्टा सन्तः स्वाध्यायादिकं कुर्वन्तीति वाक्यशेषः / तैश्च संस्तारकविधिपूर्वं यथा पूर्वोक्ता दोषा न भवन्ति तथा गृहीताःगृहीतार्थाः स्वपक्षयतनायै स्वपक्षविषयरक्षार्थ जाग्रतः-सजागरा वसन्ति-स्वपन्ति। ठाणं वा ठयंती, णिसज्ज अहवा सजागर सुवंति। बहुसो अभिद्दवंते, वयणमिणं वायणं देमि / / 8 / / यथा दृढसंहननास्तेस्थानं तिष्ठन्ति; कायोत्सर्ग कुर्वन्तीत्यर्थः। अथवा-- 'निसिज्ज' त्ति निषण्णास्ते सूत्रार्थमनुप्रेक्ष्यमाणास्तिष्ठन्ति, यश्व शैक्षादिपरिणतस्तेषां धान्यराशीनां समीपे व्रजति तत्र गुरवो वृषभा वा सजागराः स्वपन्तस्तथा काशितादिशब्दं कुर्वन्ति, यथाऽसौ प्रतिनिवर्तते / अथासौ बहुशो भूयोऽपि द्रवति ततो गुरुभिः सामान्यत इदं वचनं वक्तव्यम्- आर्याः ! उत्तिष्ठत येन युष्मभ्यं वाचनां प्रयच्छामि, यद्वातमेव साधु भणन्ति। आर्य! तुभ्यमहं वाचनां प्रयच्छामि। फिडियं धण्णढेि वा, जतणा वारेति न उ फुडं बॅति / माणं सोही अण्णो, णिच्छंको होज गमणादी॥१६॥ फिट्टन्ति दिग्मूढतया द्वारात्परिभ्रष्टं धान्यार्थिनं वा धान्यभक्षणेऽभिलाषिणं साधुं यतनया वारयन्ति, न पुनस्तस्य संमुखं स्फुट रूक्षवचनं ब्रुवते। कुत इत्याह-मां स्फुटमभिधीयमानमन्यः श्रोष्यति स च श्रुत्वा अन्येषां कथयेत्ततश्च परम्परया सर्वैरपि साधुभिति-निःशङ्कोनिर्लजो भवेत्, यद्वा-ज्ञातोऽस्म्यहमिति लज्जया गमनवैहासादीनि विदध्यात्। कथं पुनरियन्ति इत्याहदारं न होइ एत्तो, णिद्दामत्ताणि पुंछ अच्छीणि। भण जंच संकियं ते, गिण्हइ वेरत्तियं भंते // 17 // यःस्फिटितो धान्यार्थी वा साधुः स वक्तव्यः / आर्य ! यत्र भवान् गच्छसि, इतो द्वारं न भवति, निद्राप्रमत्ते वाऽ--
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________________ वसहि 975 - अभिधानराजेन्द्रः- भाग 6 वसहि क्षिणी प्रोञ्छ हस्तेन परिस्पृशोन्मीलयेत्यर्थः / यच किमपि ते सूत्रे-ऽर्थे | स्तेनेभ्यः सकाशादीजानां रक्षणार्थ गीतार्थाः उच्चशब्देनेदं वचनं ब्रवते। वा शङ्कितं तदस्माकमग्रे भण, ते निःशङ्कितं कुर्महे / अन्ये साधवो किं तदित्याहवक्तव्याः, भवन्त ! आर्या ! गृह्णोध्वं वैरात्रिकालं येन स्वाध्यायः क्रियते। जागरह णरा निचं, जागरमाणस्स बढते वुड्डी। गता स्वपक्षयतना। जो सुवति ण सो धण्णो, जो जग्गति सो सया धण्णो ||4|| अथ परपक्षयतनामाह भो नराः! नित्यं जाग्रत-जाग्रतस्तिष्ठत यतो जाग्रतो बुद्धिः सूत्रार्थानुपरपक्खम्मि वि दारं,पिहंति जतणाए दो वि वारेति। पेक्षादिना वर्द्धते / अत एव यः स्वपिति नासौ धन्यो ज्ञानादिधनार्हः / तहऽवि य अठायमाणे,उवेहपुट्ठा व साहिति||८|| यस्तु जागर्ति स सदा धन्यः। परपक्षे-गोश्वानमार्जारादौ प्रतिश्रयं प्रविशति यतनया द्वारं पिदधते। सीतंति सुवंताणं,अत्था पुरुसाण लोगसारत्था। अथ द्वारं पिधातव्यं न भवति ततो द्वावपि-तिर्यग्मनुष्यौ, दासो दासी तम्हा जागरमाणा, विधुणध पोराणयं कम्मं ||5|| वा, स्त्रीपुरुषौ वा, आक्रान्तिकानाक्रान्तिको स्तेनौ वा, प्रविशन्तौ स्वपतां पुरुषाणामर्था ज्ञानादयो लोकसारार्थाः त्रैलोक्यप्रधान-- निवारयन्ति यदि तथापि न तिष्ठन्ति-धान्यग्रहान्नोपरमन्ते तत उपेक्षा प्रयोजनभूताः सीदन्ति-हानिमुपगच्छन्ति / यत एवं तस्मात् जाग्रतः कुर्वन्ति, तूष्णीकास्तिष्ठन्तीति भावः / सागारिकेण च केनेदं धान्य सन्तः पुरातनकर्म विधूनयत। मानीतमिति पृष्टाः सन्तः कथयन्ति; अमुकेनामुकया था, इति संग्रह विसुरति सुतस्स सुतं, संकितखलियं भवे पमत्तस्स। गाथासमासार्थः। जागरमाणस्स सुतं, थिरपरिचितमप्पमत्तस्स / / 66|| अथैनामेव विवरीषुराह स्वपतो-निद्रायमाणस्य श्रुतमाचाराङ्गादिकं 'विसुरति विस्मरति, पेहियमपजियाणं, उवओगं काउ सणिय ठक्केंति। प्रमत्तस्य-विकथादिप्रमादनिमग्नस्य शङ्कितं किमत्र प्रदेशे इदमालाप्यतिरियणर दोन्नि एते, खरखरिपुंथी णिसिद्वितरो॥८६॥ मिदमर्थमिदं वा भवत्युत नेति, संशयक्रोडीकृतम्, स्खलितं वा भवति, चक्षुषा प्रत्युपेक्ष्य, रजोहरणेन प्रमृज्य, शनैर्यथा जीवानां विराधना न न परावर्तयतः शीघ्रमागच्छति, किंतु-संस्मरणेनेति भावः / जग्रतस्तु स्यात्तथा द्वारं ढक्कयन्ति स्थगयन्ति / अथ तदानीम-चक्षुर्विषयं तत्र विकथादिप्रमादेनाप्रमत्तस्य श्रुतं स्थिरपरिचितं भवति / स्थिरं नाम-- श्रोत्रादिभिरिन्द्रियैरुपयोगं कृत्वा द्वारपिधानं कुर्वन्ति / तथा द्वौ नाम- नितान्तमविस्मरणधर्माकम्, परिचितं नामपरावर्त्यमानं क्रमेणोत्क्रमेण तिर्यड्नरौ, अथवा-खरो-दासःखरिका-दासी एते, यद्वा-पुरुषः स्त्री, वा समागच्छति, श्रुतं वा समाप्तिं याति। अथवा-निसृष्ट इतरश्चानिसृष्टः, निसृष्टो नाम यस्य शय्यातरेण नालस्सेण समं सुक्खं, न विज्जा सह निद्दया। प्रवेशोऽनुज्ञातः। न वेरग्गं ममत्तेणं, नारंभेण दयालुया ||7|| गेण्हतेसु य दोसु वि, वयणमिणं तत्थ वेति गीयत्था। नालस्येन समं सौख्यम्, वैराग्यं न ममत्वेन, साऽऽरम्भेण नदयालुतेति। अहुगं णेसि च धण्णं, किं पगतं होहिती कल्लं ||10|| अपि चस्त्रीपुरुषादिरूपयोः द्वयोरपि धान्यं गृह्णानयोगीतार्था इदं वचनं ब्रुवते जागरिया धम्मीणं, अहम्मियाणंच सुन्नया सेया। भो भद्र ! पिधानमद्य धान्यं नयसि किं कल्ये प्रकृत-प्रकरणं भविष्यति। वत्थाहि व भगिणीए, अकहिंसु जिणो जयंतीए॥१८|| नीसहेसु उवेह, सत्येण वनासिताउ तुण्हिक्का। धाम्मिकाणां जागरिका श्रेयसी, अधार्मिकाणां तु सुप्तता श्रेयसी। एवं बहुसो भणंति महिलं,जह तं वयणं सुणइ अण्णो ||11|| विधवाधिपस्य शतानीकनृपतेर्भगिन्या जयन्तीनामिकाया जिनो निसृष्टा आक्रान्तिकस्तेना ये बलादपि हरन्ति; तेषु समागतेषु उपेक्षा वद्धमानस्वामी कथितवान्। अत्र कथानकम्- "वच्छा जणवए कोलंबीकुर्वन्ति,तूष्णीकास्तिष्ठन्ति। अन्यथाखङ्गादिना शस्त्रेण नाशिताः सन्ति / नयरीए सयाणीओ राया। तस्स जयंती नाम भगिणी परमसाविया / महिला वा भणन्ति यथा तद्वचनम् अन्योऽपि शृणोति। अन्नया तत्थ भगवं वद्धमाणसामी समोसड्ढो।जयंती हट्ठा निग्गया भगवंतं इदमेव व्यक्तीकरोति वंदित्ता पुच्छइ-सुत्तया भंते ! मया जागरिया वा / भगवया वागरियं / साहूणं वसहीए, रत्तिं महिला ण कप्पती गंती। जयंतो ! धम्मियाणं जागरिया मया, न सुत्तया। अधम्मियाणं तु सुत्तया बहुगं व णेसि धण्णं,किं पाहुणगा विकालो य ||2|| मया, न जागरिया एवं पन्नत्तीए आलावगा भणिया" (ते च 'जयंती' साधूनां वसतौ रात्रौ महिला-स्त्रीन कल्पते, संप्रति आगच्छन्तीत्वंच शब्दे 4 भागे दर्शिताः) बड्विदं धान्यं गृह्णासि। किं प्राघूर्णकाः समायाताः, तेनेदानीं ग्रहीतुमवसर किंचइति / विकालश्च संप्रति वर्तते। सुयइ य अयगरभूओ, सुतं च से नासई अमयभूयं / तेणेसु णिसट्टेसुं, पुवावररत्तिमल्लियंतेसुं। होहिइ णोणम्भूओ, नहम्मि सुए अमयभूए | तेण बियरक्खणट्ठा, वयणमिणं में ति गीयत्था ||3|| स खलु अजगरभूतः सन्निश्चिन्तो-निर्भरःस्वपिति नान्यः / निसृष्टेषु-आक्रन्तिकेषु स्तेनेषु पूर्वरात्रमपररात्रं वा तत्रालीयमानेषु / तस्यैवं स्वपतः श्रुतमप्यमृतभूतं माधुर्यादिभिर्गुणैः सुधा
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________________ वसहि 676 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि सहोदरं नश्यति, नष्टे च श्रुतेऽमृतभूते गोभूतो-बलीवईकल्पोऽसौ भविष्यति,एवमादीनि वाक्यानि गीतार्थास्तत्र महता शब्देनोद्घोषयन्ति। / यद्येवमुपरताः स्तेनास्ततोलष्टम्। अथ नोपरतास्ततः किं कर्तव्यमिति आहतासेतूणं ऽवहिते, अवेति ऽपहिते व गोसें साहति। जाणंता विय तेणं, साहति ण वण्णरूवेणं / / 10 / / यद्याक्रान्तिस्तेनैः साधून खङ्गादिशस्त्रेण त्रासयित्वा धान्यभपहृतम्, अनाक्रान्तिकस्तेनाः समागच्छन्तः संयतैख़ताः एवं तैरप्यपहृते गोसेप्रभाते शय्यातरस्य कथयन्ति, यथा-स्तेनैर्धान्यमपहृतम् / अथाऽसौ भूयः प्रश्नयेत्, के पुनः स्तेनाः? ततो यद्यपि वर्णरूपादिभिर्जानन्ति तथापि न कथयन्ति, मा भूवन् ग्रहणाकर्षणादयस्तेषामुपद्रवाः अथ वर्णादिभिरकथितेषु तेषु साधवस्तैन्यार्थकारितया शङ्कयन्ते ततो यतनया कथयितव्याः। इदमेव भावयतिसुण सावग जंवत्तं, तेणाणं संजयाण इह अज। तेणेहि पविट्ठहिं,जाहे नीएकसिंघनं // 10 // हे श्रावक ! श्रृणुस्तेनानां संयतानां चेहाद्य यद्वृत्तम्। यदा किल स्तेनैः प्रविष्टैरते कोष्ठान धान्यं नीतं--बहिर्निष्काशितम्।। ताहे उवगरणाणिय, भिन्नाणि हियाणि चेव अन्नाणि। हरिओवही वि जाहे, तेणा न लभंति ते पसरं / / 102 // गहियाउहप्पहरणा,जाघ वधाए समुट्ठिया अम्ह। नऽत्थि अकम्म त्ति ततो, एतेसि ठिता सुतुण्हिका।।१०३|| तत उपकरणान्यप्यस्य संबन्धीनि तैः कानिचिद्भिन्नानि अन्यानि पुनरपहतानि। ततो हृतोपधयोऽपिस्तेना यदा द्वितीयं वारं धान्यं हर्तुकामा अप्यस्माकं पार्श्वतः प्रसरं न लभन्ते तदा गृहीतायुधप्रहरणा अस्माकं वधाय ते समुत्थिताः, अभिहितं च तैः-श्रमणास्तूष्णीमावमास्थाय प्रसरत यूयम्, अन्यथा सर्वानुपद्रावयिष्याम इति, ततश्चिन्तितमस्माभिस्त्यिमीषां पापकर्मकारिणामकर्मेति। ततो वयमेते सुतूष्णीकाः स्थिताः। एवमाचार्येणोक्ते सतिशय्यातरः किमुक्तवानित्याहसेज्जायरो य भण्णति, अण्णं धण्णं पुणो वि होहिंति। एसो अणुग्गहो मे, जं साधू ण दुक्खविओं कोवि।।१०।। शय्यातरःसूरीन् भणति-भगवन्नस्माकमन्यदपि धान्यं पुनरपि भविष्यति, परमेष महाननुग्रहो मे संवृत्तः, यत् कोऽपि युष्मदीयसाधुः स्तेनैर्न दुःखापित इति। बृ०२० (14) तृणादिपुजेषु वसतिदोषाभिधित्सयाऽऽहसे भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण उवस्सयं जाणेज्जा, तं | जहा-तणपुंजेसु वा पलालपुंजेसु वा०सयंडे०जाव ससंताणए तहप्पगारे उवस्सए णो ठाणं वा०३ चेतेशा / से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण उवस्सयं जाणेला तणपुंजेसु वा पलालपुंजेसु वा अप्पंडेहिं जाव चेतेजा। (सू०-७६) एतद्विपरीतं सूत्रमपि सुगमम्, नवरमल्पशब्दोऽभाववाची। आचा०२ श्रु०१ चू०२ अ०२ उ०। से तेणेसु वा तणपुंजेसु वा पलालेसु वा पलालपुंजेसु वा अप्पंडेसु अप्पाणेसु अप्पबीएसु अप्पहरिएसु अप्पोस्साएसु अप्पुत्तिंगपणगदगमट्टियामकडासंताणएसु अहसवणमायाए नो कप्पइ निग्गंधाण वा निग्गंथीण वा तहप्पगारे उवस्सए हेमंतगिण्हासु वत्थए // 28 // से तणेसु वा ०जाव संताणएसु उप्पि सवणमायाए कप्पड़ निग्गंथाणं वा निग्गंथीण वा तहप्पगारे उवस्सए हेमंतगिम्हास वत्थए।।२९॥ से तणेसु वान्जाव संताणएसु अहेरयणिमुकमउडे नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा तहप्पगारे उवस्सए वासावासं, वत्थए।॥३०॥ से तणेसु वाजाव संताणएसु उपि रयणिमुकमउडे कप्पइ निग्गंथाणवा निग्गंधीण वातहप्पगारे उवस्सए वासावासंवत्थए त्तिबेमि॥३१॥ सूत्रचतुष्टयस्य संबन्धमाहअद्धाणातो निलयं, उवें ति तहियं तु दो इमे सुत्ता। तत्थ वि उडुम्मि पढम, उडुम्मि दूइज्जणा जेणं // 718|| पूर्वसूत्रे अध्वा प्रकृतस्तत उत्तीर्णा निलयम्-उपाश्रयमुपागच्छन्ति। तद्विषये च ऋतुबद्धवर्षावासयोः प्रत्येकमिमे द्वे सूत्रे आरभ्येते। तत्रापि प्रथमं सूत्रद्वयमृतुबद्धविषयम, द्वितीय वर्षावासविषयम, कुत इत्याहऋतुवद्धे येन कारणेन 'दूइज्जणा'-विहारो भवति, न वर्षावासे। पूर्वसूत्रे च विहारोऽधिकृतः, अतः संबन्धानुलोम्येन पूर्वमृतुबद्धसूत्रद्वयम्, ततो वर्षावाससूत्रद्वयमिति! अहवा अद्धाणविही, वुत्तो वसहीविहिं इमं भणई। साऽविय पुष्वं वुत्ता, इह उपमाणं दुविहकाले // 756|| अथवा अध्वविधिः पूर्वसूत्रे उक्तः इदंतु प्रस्तुतसूत्रे वसतिविधि भणति। साऽपिच वसतिः पूर्व प्रथमोद्देशकादिष्वनेकशः प्रोक्ता, इह तु द्विविधेऽपिऋतुबद्धवर्षावासलक्षणे काले तस्याः प्रमाणमुच्यते। अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य व्याख्या-अथ तु तृणेषु वा तृणपुजेषु वा पलालेषु वा पलालपुजेषु वा अल्पाण्डेषु वा अल्पप्राणेषु अल्पबीजेषु अल्पहरितेषु अल्पावश्यायेषु अल्पोत्तिङ्गपनकदगमृतिकामर्कटसंतानकेषु इहाण्डकानि पिपीलिकादीनाम् प्राणाद्वीन्द्रियादयः, बीजमनङ्कुरितम्, तदेवाकुरोदिन्नं हरितम् अवश्यायः-स्नेहः,उत्तिङ्ग:-कीटिकानगरम्, पनकः-पञ्चवर्णसङ्करोऽनकुरो वा अनन्तवनस्पतिविशेषः, दकमृत्तिकासचित्तो मिश्रो वा कर्दमः, मर्कटक:-कालिकस्तस्यसंतानकंजालकम्। अल्पशब्दश्चेह सर्वत्र
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________________ वसहि 677 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि भाववचनः, ततोऽण्डरहितेषु प्राणरहितेषु इत्यादि मन्तव्यम् / आह'सवणमायाए' त्ति अधः श्रवणमात्रया श्रवणयोरधस्ताद्यत्रछ्देन तृणादीनि भवन्ति, तथाप्रकारे उपाश्रये नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा हेमन्तग्रीष्मेषु वस्तुम्। अष्टावृतुबद्धमासानित्यर्थः। एवं प्रतिषेधसूत्रमभिधाय प्रपञ्चितज्ञविनेयानुग्रहार्थं विधिसूत्रमाह-अथ तृणे वा यावदल्पसंतानकेषु उपरि श्रवणमात्रया युक्तेषु तथा-विधोपाश्रयेषु कल्पते हेमन्तग्रीष्मेषु वस्तुम् / एवमृतुबद्धसूत्रद्वयं व्याख्यातम्।। अथ वर्षावाससूत्रद्वयं व्याख्यायते-अथ तृणेषु वा तृणपुञ्जेषुवा यावदल्पसंतानकेषु अधोरयणि मुक्कमउडेसुत्ति। अञ्जलिमुकुलितंबाहुद्भयमुच्छ्रितं मुकुट उच्यते, सच हस्तद्वय-प्रमाणः / यदाह-बृहद्भाष्यकृत्- 'मउडो पुण दोरयणी, पमाणतो हों इ मुणेयव्वो' रत्निभ्यां हस्ताभ्यां मुक्ताभ्यां यो निर्मितो मुकुटः स रत्निमुक्तमुकुटः। एतावत्प्रमाणमधस्तादुपरिचयत्रान्तरालं न प्राप्यते तेष्वधोरत्निमुक्तमुकुटेषु तृणादिषु न कल्पते वर्षावासे वस्तुम्, अथ तृणेषुवा यावदल्पसन्तानके उपरि रत्निमुक्तमुकुटेषु यथोक्तप्रमाणेषु मुकुटोपरिवर्तिषु संस्तारके निविष्टस्य साधोरर्द्धतृतीयहस्ताद्यपान्तरालयुक्तष्वित्यर्थः। ईदृश्यां वसतौ कल्पते वर्षावासे वस्तुमिति। सूत्रचतुष्टयार्थः। अथ भाष्यकारः प्रथमसूत्रं विवरीषुराहतणगहणा रण्णतणा, सामागादी उसूइया सव्दे / सालीमाति पलाला, पुंजा पुण मंडवेसु कता // 760 / / तृणग्रहणादारण्यकानि श्यामाकादीनि सर्वाण्यपि तृणानि सूचितानि, पलालग्रहणेन शाल्यादीनि पलालानि गृहीतानि, पुजाः पुनस्तृणानां पलालानां वोपरिमण्डपेषु कृता भवन्ति। येषु हि देशेषुस्वल्पानि तृणानि तेषु पुञ्जरूपतया तानि मण्डपेषु संगृह्यन्त। अधस्ताद्भूमौ स्थापितानि मा विनश्येयुरिति कृत्वा। पुंजा उ जहिं देसे, अप्पप्पाणा य हॉति एमादी। अप्प तिग पंच सत्त य, एएणं वुचती सुत्तं // 761 / / एवं यत्र देशे मण्डपेषु पुजीकृता भवन्ति तत्र विवक्षितायां वसतौ ते पुजा अल्पप्राणा अल्पबीजा एवमादिविशेषेण युक्ता भवेयुः / अत्र कस्याप्येवं बुद्धिः स्यात् / अल्पाः प्राणास्त्रयः पञ्च सप्त वा मन्तव्याः। अत आह-नैतेन परोक्तेनाभिचयेण सूत्रं व्रजति, किं तर्हि अल्पशब्दोऽत्राभाववाचको द्रष्टव्यः। प्राणादयस्तेषु न सन्तीति भावः। अत्र परः चहवत्तवा उ अपाणा, वंधणुलोमेणिमं कयं सुत्तं / पाणादिमादिएK,वंते सट्ठाणपच्छित्तं // 762 / / यद्यभावार्थोऽल्पशब्दस्तत एवं सूत्रालापकाः वक्तव्याः- "अप्पाणेसु अबीएसु अहरिएसु" इत्यादि।गुरुराह-बन्धानुलोम्येनेत्थं सूत्रं कृतम्। 'अप्पपाणेसु' इत्यादि / एवंविधो हि पाठः सुललितः--सुखेनैवोच्चरितुं शक्यते। यदि पुनः द्वे त्रयः पञ्च वा द्वीन्द्रियादयः प्राणिन आदिशब्दात्अण्डादीनि वा यत्र भवन्ति तत्र तिष्ठन्ति; ततस्तेषां विराधनायां स्वस्था नप्रायश्चित्तं द्रष्टव्यम्। कथं पुनरल्पशब्दोऽभावे वर्तते, अत आहथोवम्मि अभावम्मिय, विणिओगो होति अप्पसहस्स। थोवे उ अप्पमाणे, अप्पासी अप्पनिहोय॥७६३|| स्तोके अभावे च अल्पशब्दस्य विनियोगो-व्यापारो भवति, तत्र स्तोकार्थवाचको यथा-अल्पमानः अल्पासी अल्पनिद्रोऽयम्। अभाववाचको यथानिस्सत्तस्स उ लोए, अमिहाणं होइ अप्पसत्तो त्ति। लोउत्तरे विसेसो,अप्पाहारा तुअर्टेजा // 764 // यः किल निःसत्त्वः पुरुषस्तस्य लोके अल्पसत्त्वोऽयमित्यभिधानं भवति, लोकोत्तरेऽप्ययं विशेषः समस्ति, यथा-अल्पाहारो भवेत, अल्पवत्त्वग्वर्तयेत्। अभावे दृश्यते यथा-अल्पातङ्कः-नीरोग इत्यर्थः। अथ बीजादियुक्तेषु तिष्ठतां प्रायश्चित्तमाह-- बियमट्टियासु लहुया, हरिए लहुगा व होति गुरुगावा। पाणुत्तिंगदएसुं, लहुगा पणए गुरू चउरो // 765|| बीजमृत्तिकायुक्तेषु तृणेषु तिष्ठतां चतुर्लधु, हरितेषु प्रत्येकेषु चतुर्लघु, अनन्तेषु चतुर्गुरु, प्राणेषु द्वीन्द्रियादिषु उत्तिङ्गोदकयोश्चतुर्लघु, पनके चतुर्गुरवः / उक्तः सूत्रार्थः। अथ नियुक्तिविस्तरःसवणपमाणा वसही, अघिट्टते चउलहुंच आणादी। मिच्छअवाउडपडिले-हया यसाणा य बाले य 766| श्रवणप्रमाणा वसतिः, कर्णयोरधस्तात् तृणादियुक्ता या भवति, तस्यामधः श्रवणमात्रयां तिष्ठतश्चतुर्लधु, आज्ञादयश्च दोषाः, मिथ्यात्वं च भवति। कथमिति चेदित्याह-येषां साधूनां सागारिकमपावृतं वैक्रिय वा तान् प्रविशतो दृष्ट्वा लोको ब्रूयात्, अहो हीप्रच्छादनमपि तीर्थकरेण नानुज्ञातम्, लज्जामयश्च पुरुष-स्त्रियोर-लङ्कारः। स नूनमसर्वज्ञ एवासौ, एवं मिथ्यात्वगमनं भवेत्। 'पडिलेह' ति उपर्युत्प्रेक्षिते शीर्षमास्फुटति। तत्र प्राणविराधना-निष्पन्नम्, अवनतानां च प्रविशतां निर्गच्छता वा कटी पृष्ठं वा वातेन गृह्यते। अवनतस्य च प्रविशतः सागारिकं लम्बमानं पृष्ठतः श्वानो मार्जारो वा त्रोटयेत् 'बाले यत्ति उपरिशीर्षे आस्फिटिते सो वृश्चिको वा दशेत्। यत एते दोषाः अतोऽधः--श्रवणमात्रायां वसतौ, नस्थातव्यम्। द्वितीयपदे तिष्ठेयुरपिसवणपमाणा वसही, खेत्ते ठायतें बाहि वोसग्गो। पाणादिमादिएसं.वित्थिनाऽऽगाउजतणाए।।७६७॥ पुरेषु क्षेत्रेष्वशिवादीनि भवेयुस्ततः क्षेत्राभावे अधः श्रवणमात्रायामप्यल्पप्राणादियुक्तायां तिष्ठतामियं यतना। वसतेर्बहिरावश्यकं कुर्वन्ति। अन्योऽपि यो व्युत्सर्गः कायोत्सर्गः स बहिष्क्रियते। द्वितीयपदे स प्राणेषु आदिशब्दाद्-बीजादिष्वपि वसतौ विद्यमानेषु पुनस्तत्र यतनया वि
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________________ वसहि ६७८-अभिधानराजेन्द्रः- भाग 6 वसहि . स्तीर्णायां तिष्ठन्ति। सा येष्ववकाशेषु संसक्ता तान् क्षारेण लक्षयन्ति। कुटमुखेन वा हरितादिकं स्थगयन्ति / दगमृत्तिकाबी-जादीन्येकान्ते वृषभाः स्थापयन्ति। एवमागाढे कारणे स्थितानां यतना विज्ञेया। वेउव्व वाउडाणं, वुत्ताजयणा णिसिजकप्पो वा। उवओगणितइंते, हुछिंदणा णामणा वाऽवि // 765|| ये विकुर्विताः-प्रावृतसागारिकास्तेषां प्रथमोद्देशकोक्ता यतना अवधारणीया, प्रविशन्तो निर्गच्छन्तश्च पृष्ठतो निषद्यां कल्पं वा कुर्वन्ति। श्वानादीनामुपयोगं ददाना नित्यं निर्गच्छन्ति प्रविशन्ति च / यान्युपरि तृणान्यवलम्बन्ते तेषां प्रमाय॑ छेदनं नामनं वा कुर्वन्ति ! व्याख्यातम् ऋतुबद्धसूत्रद्वयम्। . अथवर्षावाससूत्रद्वयं विवृणोतिअंजलिमलिकयाओ,दोन्नि विबाहू समुच्छिया मउडो। / हेहा उवरिं व भवे, मुकं तु तओ पमाणाओ // 766 / / अञ्जली मुकुलीकृतौ द्वावपि बाहू समुच्छ्रितो मुकुट उच्यते। मुक्तमुकुट पुनस्ततः प्रमाणात्तावत्तमङ्गीकृत्य संस्तारकनिविष्टस्याध उपरि च यत्रान्तरालं प्राप्यते ईदृश्यामुपरि रत्निमुक्तमुकुटायां वसतौ वर्षाकाले स्थातव्यम्। कुत इति चेदुच्यतेहत्थो लंबइ हत्थं, भूमीओ सप्पों हत्थमुट्ठति। सप्पस्स य हत्थस्स य, जह हत्थो अंतरा होई // 770 / / फलकादौ संस्तारकस्तत्तस्य हस्तौ, हस्ताभ्यामेकम् अधो लम्बते, भूमितश्च सर्पो हस्तमुत्तिष्ठति, ततः सर्पस्य च यथा हस्तोऽन्तरा भवति तथा कर्तव्यम्। यथामाला लंबति हत्थं, सप्पो संथारए निविट्ठस्स। सप्पस्सय सीसस्स य,जह हत्थो अंतरा होइ॥७७१।। फलकादौ संस्तारके निविष्टस्य मालासर्पो हस्तो लम्बते, ततः सर्पस्य शीर्षस्य च यथा हस्तोऽन्तराभवति तथा विधेयम्। ईदृक्प्रमाण उपाश्रयो ग्रहीतव्य इत्यर्थः। काउस्सगं तु ठिए, मालो जइ हवइ दोसु रयणीसु / कप्पइ वासावासो, इयतणपुंजेसु सव्वेसु // 772|| कायोत्सर्गस्थितस्य मालो यदि द्वयो रत्न्योरुपरि भवति तदा कल्पते तस्यां वसतौ वर्षावासः कर्तुम्।अयमेव सर्वेष्वपितृणपुजेषु विधिर्द्रष्टव्यः / उप्पि तु मुक्कमउडे, अहिरंते चउलहुं च आणाई। मिच्छत्ते बालाई, बीयं आगाढसंविग्गो // 773|| अत उपरि मुक्तमुकुटे प्रतिश्रये स्थातव्यम्। अथाऽधो मुक्तमुकटे तिष्ठन्ति ततश्चतुर्लघु / आज्ञादयो मिथ्यात्वं व्यालादयश्च दोषाः पूर्वसूत्रोक्ता भवन्ति / द्वितीयपदमप्यागाढे कारणे तत्रैव मन्तव्यम्।यत्रच तिष्ठन् संविग्न एव भवति। अत्रेय यतना दीहाइजाईसु उ विजबंधं, कुव्वंति उल्लोयकडं च पोत्तिं। कप्पासई एखलु सेसगाणं, मुत्तुं जहण्णेण गुरुस्स कुजा // 774 / / दीर्घजातीयादिषु वसतौ विद्यमानेषु तेषां विद्यया बन्धं कुर्वन्ति, विद्याया अभावे उपरिष्टादुल्लोचं कुर्वन्ति, उल्लोचाभावे कटम्, कटाऽभावे पोत्तिचिलिमिलिकां सर्वसाधूनामुपरि कुर्वन्ति। अथ तावन्तः कल्पाःन विद्यन्ते ततः शेषाणां मुक्त्वा जघन्येनगुरोरुपरिष्टादुल्लोचं कुर्यात् / बृ०४ उ०। (15) अभीक्ष्णं साधर्मिमकेष्ववपतत्सु वसेत्। से आगंतागारेसु वा आरामागारेसु वा गाहावइकुलेसु वा परियावसहेसु वा अभिक्खणं साहम्मिएहिं उवयमाणेहिं णो उवएला। (सू०-७७) 'से' इत्यादि यत्र ग्रामादेर्बहिरागत्याऽऽगत्य पथिकादयस्तिष्ठन्ति तान्यागन्तागाराणि, तथा आराममध्यगृहाण्यारामागाराणि,पर्यावसथा-मठाः, इत्यादिषु प्रतिश्रयेष्वभीक्ष्णम्-अनवरतं साधम्भिकैःअपरसाधुभिरवपतद्भिः आगच्छद्भिर्मासादिविहारिभिश्छईितेषु नावपतेत्-नागच्छेत् / तेषु मासकल्पादि न कुर्यादिति / आचा०२ श्रु०१ चू०२ अ०२ उ० अधुना संसक्तद्वारमाहपुढविदगअगणिहरिय-तसपाणसगारियादिसंसत्ता। बंभव्वय आदसण, विराहगा पञ्चवाया उ॥५६॥ पृथिव्या उदकेनाग्निना हरितकेन त्रसप्राणैः सागारिकादिभिश्च, सागारिकः-शय्यातरः / आदिशब्दादन्यस्त्रीपुरुषगृहस्थैः सम्मिश्रा संसक्ता, तथा प्रत्यपाययति प्रत्यपाये पातयतीति प्रत्यपाया, ब्रह्मव्रतादीनां दर्शनस्य सम्यक्त्वस्य विराधिका, यत्रब्रह्मव्रतादीनां विराधनोपजायते सा सप्रत्यपाया; शय्या इत्यर्थः / अत्रोभयत्रापि प्रायश्चित्तविधिमाहकाएसुतु संसत्ते, सचित्तमीसेसु होइ सहाणं / सागारियसंसत्ते, लहुगा गुरुगाय जे जत्थ ||16|| कायैः-पृथिवीकायादिभिः सचित्तैर्मित्रैश्च संसक्त उपाश्रये तिष्ठतः प्रायश्चित्तं स्वस्थान-स्वस्थाननिष्पन्नं भवति / तद्यथा-सचित्तैःपृथिवीकायादिभिः संसक्तचतुर्लघु, हरितैरनन्तैश्चतुर्गुरु,प्रत्येक बीजैः रात्रिंदिवपञ्चकं लघु, अनन्तबीजैर्गुरुकम्, मित्रैः पृथिव्या-दिभिर्मासलघु, हरितैरनन्तैर्मित्रैर्मासगुरु, बीजैरनन्तैश्च मित्रैः सचित्तैश्च त्रसकायैश्चत्वारो गुरुकाः। 'सागारिये' त्यादि पश्चिमार्द्धम्, निर्गन्थानां पुरुषसंसक्ते उपाश्रये तिष्ठतां चत्वारो लघुकाः, स्त्री-संसक्ते चत्वारो गुरुकाः / निर्गन्थीनां स्त्रीभिः संसक्त चतुर्लघु, पुरुषसंसक्ते चतुर्गुरु, ये च यत्राज्ञाभंङ्गादयो दोषास्ते च तत्र सप्रायश्चित्तं वक्तव्याः। गुरुगा बंभावाए, आयाए चेव दंसणे लहुगा। आणादिणो विराहण, भवंति एक्केक्कगपयाउ॥५६६|| ब्रह्मापाये-ब्रह्मप्रत्यपाये आत्मनि-चैव आत्मप्रत्यपाये गु
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________________ वसहि 676 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि काश्चत्वारो गुरवः। दर्शन-दर्शनप्रत्यपाये चत्वारो लघवः। आज्ञादयश्चआज्ञाभङ्गादयो विराधना एकैकपदात् भवन्ति-ज्ञातव्याः। द्विविधकरणोपघातादिषु सर्वेष्वपि पदेषु यथायोगमाज्ञाभङ्गादयो विराधना सप्रायश्चित्ता योजनीया इत्यर्थः। अथ के ब्रह्मप्रत्यपाया, आत्मप्रत्यपाया, दर्शनप्रत्यपाया वा?, तत आहतिरियमणुयित्थियातो, बंभावातो उतिविहपडिमातो। अहिविलचलंतकुड्डा-दिएवमादी उ आयाए||५६७|| आगाढमिच्छदिट्ठी, सव्वातिहि-मरुगबहुजणवाणे। पासंडाय बहुविहा, एसा खलु दंसणावाया / / 568|| यत्र तिर्यकस्त्रियो मनुष्यस्त्रियो वा, यदि वा-यत्र त्रिविधा प्रतिमातिर्यक्स्त्रीप्रतिमा मनुष्यस्त्रीप्रतिमा देवस्त्रीप्रतिमा वा सा ब्रह्मप्रत्यपाया। तस्यां स्थितानां ब्रह्मव्रतविनाशसंभवात्। यत्र पुनरहि-विलानिचलन्तिचलानि कुड्यानि आदिशब्दाच्चलवेलीधारणादिपरिग्रहः, एवमादिका आत्मनि, आत्मप्रत्यपाया। तथा यत्रागा-दमिथ्यादृष्टियत्र च सर्वेऽतिथयः समागच्छन्ति सर्वमित्यर्थः, यत्र मरुकावटुकास्तिष्ठन्ति वटुशाला इति भावः, यच्च बहूनामागन्तुकानां जनानां स्थानं वैदेशिककुटीत्यर्थः, यत्र बहुविधाः पाषण्डाः-एवंरूपा वसतिः खलु दर्शनापाया दर्शनप्रत्यपाया। संप्रति शय्याविधिद्वारमाहकालातिकंता वा, ठाण अभिकंतअणमिकता य। वज्जा य महावज्जा, सावज महप्पकिरिया य॥५९ll शय्या नवप्रकारा भवन्ति, तद्यथा-कालातिक्रान्ता 1 उपस्थापना 2 अभिक्रान्ता 3 अनभिक्रान्ता 4 वा 5 महावा 6 सावद्या७ महासावद्या८अल्पक्रियाहच। तत्र कालातिक्रान्तादिषु प्रायश्चित्तविधिमाहकालातीते लहुगो,चउरो लहुगा य चउसु ठाणेसुं। गुरुगा तिसु जमलपया, अप्पकिरियाएँ शुद्धो उ।।६००।। ऋतुबद्धे काले कालातिक्रान्ते तिष्ठति मासलघु, वर्षाकाले चत्वारो लघवः, चतुषु स्थानेषु उपस्थानायामभिक्रान्तायामनभिक्रान्तायां वायां चेत्यर्थः तिष्ठतः प्रत्येकं चत्वारो लघुकाः, तथा-त्रिषु स्थानेषु महावयायां सावद्यायां महासावद्यायां चेत्यर्थः प्रत्येक चत्वारो गुरवः / परं तपः-- कालविशेषिताः, तद्यथा-महावायां चत्वारो गुरुकाः तपोगुरवः, सावद्यायां तपोगुरवः महासावद्यायांतपसा कालेन च गुरवः / 'जमलपया' इति तपः कालयोः संज्ञा / ततोऽयमर्थः / त्रिषु स्थानेषु गुरुका यमलपदा-यमलपदवन्तस्तपः कालविशेषिता द्रष्टव्याः / अल्पक्रियायां तु तिष्ठन् शुद्धः। सांप्रतमेतासामेव कालातिक्रान्तादीनां व्याख्यानम-- भिधित्सुराहउदुवासा समतीता, कालातीया उसाभवे सेजा। सव्वे च उवट्ठाणा,दुगुणादुगुणं अवजेत्ता॥६०१।। ऋतुबद्ध काले वर्षाकाले च यत्र स्थितास्तस्याभृतुबद्धे काले मासे पूर्णे वर्षाकाले चतुर्मासे पूणे-यत्र तिष्ठति सा कालातिक्रान्ता वसतिः / 'सव्वे' त्यादि, या कालमर्यादाऽवन्तरमुक्ता ऋतुबद्धे मासे वर्षासुचत्वारो मासा इति। तामेव द्विगुणां द्विगुणामवर्जयित्वा यत्र भूयः समागत्य तिष्ठन्ति सा उपस्थाना। किमुक्तं भवति ऋतुबक्काले द्वौ मासौ वर्षास्वष्टमासान् अपरिहत्य यदि पुनरागच्छन्ति तस्यां वसतौ ततः सा उपस्थाना भवति। उप-सामीप्येन स्थानमवस्थानं यस्यां सा उपस्थानेति व्युत्पत्तेः, अन्ये पुनरिदमा-चक्षते-यस्यां वसतौ वर्षावासं स्थिताः तस्यां द्वौ वर्षारात्रावन्यत्र कृत्वा यदि समागच्छन्ति ततः सा उपस्थाना भवति / अर्वाक् तिष्ठतां पुनरुपस्थापना। जावंतिया उसेज्जा, अन्नेहिं सेविया अभिकंता। अन्नेहि अपरिभुत्ता, अणमिकता उपविसेया॥६०२।। शय्या--आचाण्डालेभ्यो यावन्तिकी, सा यदाऽन्यैश्चरकादिभिः पाषण्डस्थैर्गृहस्थैर्वा निषेविता, पश्चात् संयतास्तिष्ठन्ति सा अभिक्रान्ता, सैव यावन्तिकी अन्यैः पाषण्डस्थैर्गृहस्थैर्वा अपरिभुक्ता तस्यां यदि संयताः प्रविशन्ति, ततः सा अनभिक्रान्ता। अत्तऽट्ठ कडं दाउं, जतीण अन्नं करेंति वजाउ। जम्हा तं पुव्वकयं, वजेंति ततो भवे वजा / / 603 / / आत्मार्थकृतां वसतियतिभ्यो दत्त्वा पुनरन्यामात्मार्थ कुर्वन्ति यदिततः सा यतिभ्यो दत्ता वा भवति / कया व्युत्पत्त्येत्यत आह-यस्मात्तां पूर्वकृतां वसतिं गृहस्था वर्जयन्ति यतिभ्यः किल दतत्वात्, ततो वय॑ते इति वा भवति सा पूर्वकृतेति। पासंडकारणा खलु, आरम्भो अभिणवो महावज्जा। समणऽट्ठा सावज्जा, महासावज्जा उसाहूणं // 604 // यत्र बहूना श्रमणब्राह्मणप्रभृतीनां पाषण्डिनां कारणात्कारणेन खल्वारम्भोऽभिनवः क्रियते सा महावा / श्रमणार्थापञ्चानां श्रमणानामर्थाय कृता सावद्या / या पुनरमीषामेव साधूनामर्थाय कृता सा महासावद्या। बृ०१ उ०१ प्रक०। (अल्पक्रियास्वरूपम् 'अप्पकिरिया' शब्दे प्रथमभागे 612 पृष्ठे व्याख्यातम्।) (16) साम्प्रतं कालतिक्रान्तवसतिदोषमाहसे आगंतागारेसु वा०५ जे भयंतारो उडुबद्धियं वा वासावासियं वा कप्पं उवायणित्ता तत्थेव भुजो संवसंति अयमाउसो ! कालातिकतकिरियाऽवि भवति। (सू०-७८४) तेष्वागन्तागारादिषु ये भगवन्त ऋतुबद्धमिति शीतोष्णकालयोसिकल्पमुपनीय अतिबाह्य वर्षासु वा चतुरोमासानतिवाह्य तत्रैव पुनः कारणमन्तरेणासत अयमायुष्मन् ! कालातिक्रमदोषः संभवति। तथाच स्त्र्यादिप्रतिबन्धस्नेहादुद्गमादिदोषसंभवा वेत्यतस्तथा स्थानं न कल्पत इति। (उपस्थानदोषाः 'कालाइक्कतकिरिया' शब्दे तृतीयभागे 464 पृष्ठे गताः) ___ अथ प्राभृतिकद्वारं बिभावयिषुराहपाहुडिया वि य दुविहा, बायर-सुहुमा य होइ नायव्वा / एकेका वि य एत्तो, पंचविहा होइनायव्वा / / 837||
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________________ वसहि 980- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि (अस्या व्याख्या पाहुडिया' शब्दे पञ्चमभागे६१४ पृष्ठे गता।) ___ तत्र बादरां पञ्चविधामपि तावदाह'विद्धंसणछावणले वण, भूमिकम्मे पडुन पाहुडिया। उस्सकण अहिसक्कण, देसे सव्वे य नायव्वा॥३८॥ विध्वंसनं वसतेभञ्जनंछादनं-दर्भादिभिराच्छादनं लेपनं-कुड्यानां कर्दमेन गोभयेनचलेपप्रदानं भूमिकर्म-समविषमाया भूमेः परिकर्मणम्, 'पडुच' त्ति प्रतीत्य करणं--त्रिशालगृहं कर्तुकामः साधून्प्रतीत्य चतुःशालं करोति, आत्मीयं वा गृहं साधूनां दत्त्वा आत्मार्थमपरं कारयतीत्यादि। एषा पञ्चविधाऽपि बादरप्राभृतिका प्रत्येक द्विधा-अवष्वष्कणतः, अभिष्वष्कणतश्च / अवष्वष्कणं नाम विवक्षितविध्वंसनादिकालस्य ह्रासकरणमर्वाक्करणमित्यर्थः, अभिष्वकणं तस्यैव विवक्षितकालस्य संवद्धनंपरतः करण-मित्यर्थः। पुनरेकैके विध्वंसनादयो द्विधा-देशतः, सर्वतश्च ज्ञातव्याः। तत्रदेशतः सर्वतोवा विध्वंसनमभिष्वष्कणतो भाव्यते। केनचिद् गृहपतिना चिन्तितम् यथेदं गृहं ज्येष्ठमासे भक्त्वा ततोऽभिनवं करिष्याम इति, इतश्च ज्येष्ठमासे तत्र साधवो मास-कल्पेन स्थिताः ततोऽसौ चिन्तयतिअच्छंतु ताव समणा, गएसुमंतूण एत्थ काहामो। ओभासितेण संते, न एति जा भंतुणं कुणिमो // 536 / इदानीं तावदासताम्-तिष्ठन्तु श्रमणाः / गतेषु पश्चादाषाढमासे भड्क्त्वा करिष्याम इत्येतदभिष्वष्कणम् / अथावष्वष्कणमाह-'ओभासिएण' इत्यादि, क्षेत्रप्रत्युपेक्षकैरवभाषिते प्रदत्ते चोपाश्रये सतिगृहपतिश्चिन्तयति ज्येष्ठमासे तावदत्र साधवः स्थास्यन्तेततो यावत्ते नागच्छन्तितावद्वैशाखे मासे भक्त्वा कुर्म इति, एतदवष्वष्कणम्। भाविते विध्वंसनपदम्। अथछादनादीन्यतिदिशन्नाहएसो व कमो नियमा, छज्जे लेवे य भूमिकम्मे य। तेसाल-चाउसालं, पडुच करणं जई निस्सा ||4|| एष वा अवष्वष्कणतश्च क्रमो नियमात् मन्तव्यः, व इत्याह-'छज्जे' छादने लेपे-लिम्पने भूमिकर्मणि च / तिष्ठन्तु तावदिदानीं श्रमणाः, पश्चागतेषु सत्सु गृहं छादयिष्यामो भूमिं वा परिकर्मयिष्याम इति, एतदभिष्वष्कणम् / एतान्येव छादनादीनियद्यनागतमेव करोति तदा चावष्वष्कणं भाव्यते। तेसाल' इत्यादि, त्रिशालं गृहं कर्तुकामोयतीनां निश्रया तान् प्रतीत्येति भावः चतुःशालं यत्करो ति तत्प्रतीत्य कारणमुच्यते। वैशाखमासि स्नानादिकं जिनचैत्येषु भाविताः, ततस्ते चिन्तयन्ति अनागतमेव गृहं कुर्मो येन तत्र साधवो वैशाखमासिम्नानादिषु समये हि स्थास्यन्ति एवं साधून प्रतीत्य कालमवष्वष्कयेयुः एतदवष्वष्कणतः प्रतीत्य करणमुक्तम्। ___अथाभिष्वष्कणतस्तदेवाहएमेव य पहाणाइसु, सीयलकज्जऽg कोइ उस्सक्को। मंगलबुडी सो पुण, गएसु तहि यं वसिउकामो॥५२॥ एवमेवावष्वष्कणवत्कोऽपि श्राव शीतकाले गृहं कर्तुकामश्चिन्तयतिवैशाखमासि स्नानं रथयात्रा चेह भविष्यति, तत्र च साधवः- समागमिष्यन्ति, तच तदानीमेव यत्कृतं नवगृहं शीतलं भवति / शीतले च तस्मिन् साधवः सुखमाशिष्यन्ते; अतः स्नानादिप्रत्यासन्न एव समये करिष्यामीति साधून प्रतीत्य स्नानादिषु शीतलकायार्थ यत्कोऽप्यवष्वष्कते एतदभिष्वष्कणतः प्रतीत्य करणा, सपुनरवष्वष्कणमभिष्वष्कणं वा मंगलबुद्ध्या करोति, यथा--पूर्व साधवो मदीयं नवगृहं यदि परिभुञ्जते ततः पवित्रं भवतीति, गतेषु च तेषु तत्र नवगृहे स्वयमेव वस्तुकाम इति। अथात्रैव प्रायश्चित्तमाहसव्वम्मि उचउलहुया, देसम्मी वायराऍ लहुओउ। सव्वम्मि मासियं खलु, देसे भिन्ने य सुहुमाए।।८४३।। बादरायां प्राभृतिकायामनन्तरोक्तायामेव सर्वतः करिष्यमाणायां कृतायां वा तिष्ठति चत्वारो लघवः / देशतः करिष्यमाणायां कृतायां वा तिष्ठतिमासलघु। सूक्ष्मायां वा प्राभृतिकायां वक्ष्यमाणयां भवति विधास्यमानायां विहितायां वा तिष्ठति मासलघु। देशतस्तस्यामेव भिन्नमासः। सा पुनः सूक्ष्मप्राभृतिका पञ्चविधा। तामेवाहसंमञ्जणावरिसणा, उवलेवणसुहुमदीवए चेव। उस्सकणाहिसकण-देसे सव्वे य नायव्वा // 4 // संमार्जन बहुरिकया प्रमार्जनम् आवर्षणम् उदकेन छटकप्रदानम्, उपलेपनं--छगणमृत्तिकया भूमिकाया लेपनम् / 'सुहमे' त्ति सूक्ष्माणि समयभाषया पुष्पाण्युच्यन्ते। तथा च दशवैकालिकनियुक्तौ पुष्पाणामेकार्थिकानि- ''पुप्फा य कुसुमा चेव, फुल्ला य कुसुमादि य। सुमणा चेय सुहुमा य, सुहुमाकाइया वि य // 1 // " ततश्च पुष्याणां प्रकररचनेत्यर्थः / "दीवएचेव" ति दीपकप्रज्वालनम्। एतानि पूर्वमात्मार्थं क्रियमाणान्येव विद्यन्ते, नवरं साधून प्रतीत्य देशतः सर्वतो वा यदवष्वष्कणमभिष्वष्कणं वा क्रियते सा सूक्ष्मप्राभृतिका ज्ञातव्या। अथास्या एवावष्वष्कणाभिष्वष्कणे भावयतिजाव न मंडलिवेला, ताव पवजामों होइ उस्सक्का। उतुताव पढिलं,उस्सक्कण एव सव्वत्थ।।८५५|| यावन्मण्डलीवेला स्वाध्यायमण्डलीकालो नोपढौ क ते तावत्प्रमार्जयाम इत्येवं विचिन्त्यानागतमेव यदि प्रमार्ज अथवा पुटवघरं दाऊण व, जईण अन्नं करिति समाए। काउमणा वा अन्नं, हाणाइसु कालमोसक्के // 541|| पूर्वगृहं स्वार्थ पूर्वकृतं यद् ग्रहीतव्यं यतीनां दत्त्वा वाशब्दः प्रकारान्तरतायां स्वार्थमन्यदभिनवं यदगारिणां कुवन्ति तदा प्रतीत्य करणम्। अथवा--केऽपिश्राद्धाः स्वार्थमन्यद् गृहं ज्येष्ठमासे कर्तुमनसः परं तत्र
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________________ वसहि 181- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि यन्ति तदा अवष्वष्कणं भवति / अथ साधवः स्वाध्यायं कुर्वाणास्तदानीं मण्डल्यामुपविष्टाः सन्ति, ततश्चिन्तयन्तिउत्तिष्ठन्तु तावदमी पठित्वा, ततः पश्चातप्रमार्जयिष्याम इति विचिन्त्य तथैव यदि कुर्वते तदा अभिष्वष्कणं भवति / एवमेवावष्वष्कणमभिष्वष्कणं च सर्वत्र घर्षणोपलेपनादावपि भावनीयम्। सा पुनः सूक्ष्मप्राभृतिका द्विविधाछिन्नमछिन्ना काले, पुणो य नियया य अनियया चेव / निद्दिमनिविद्या, पाहुडिया अट्ठ भङ्गाउ॥८४६|| काले-कालतः छिन्ना अच्छिन्ना वा; छिन्नकालिका अच्छिन्नकालिका चेत्यर्थः, यस्यामुपलेपनादिच्छिन्ने प्रतिनियते मासादौ काले क्रियतेसा छिन्नकालिका। यातुयदा तदा वा क्रियतेसा अच्छिन्नकालिका पुनरेकैका द्विधा नियता अनियता चैव / नियता नाम-या पूर्वाह्लादावेव वेलायाम् अवश्यमेव वा क्रियते। विपरीता-अनियता-पुनरेकैका द्विविधा-निर्दिष्टा, अनिर्दिष्टा च / तत्र यः प्राभृतिकाकारकः स निर्दिष्टः इन्द्रदत्तादिनाम्नोपलक्षितः तेन क्रियमाणा प्राभृतिकाऽपि निर्दिष्टा / तद्विपरिता अनिर्दिष्टा। अत्र च त्रिभिः पदैरष्टौ भङ्गा भवन्ति। तद्यथा-छिन्नकालिका नियता निर्दिष्टा, छिन्नकालिका अनियता अनिर्दिष्टा इत्यादि। अथ छिन्नकालिका व्याख्यानयतिमासे पक्खे व दसरा-तए य पणएगदिवसे य / वाघाइम-पाहुडिया, होइ पवाया निवाया य॥५४७|| या प्राभृतिका मासे-मासस्यान्ते-पक्षे पक्षस्यान्ते दशरात्रे दशानामहोरात्राणां पर्यन्ते पञ्चके-पञ्चरात्रिंदिवान्ते एकदिवसे एकान्तरिते दिने चशब्दान्निरन्तरं दिने दिने इत्यर्थः / एवं प्रतिनियते काले या क्रियते सा छिन्नकालिका, या तु पक्षस्य कस्मिंश्विदिवसे विधीयते सा अच्छिन्नकलिकेति। व्याघातिमप्राभृतिका नाम या सूत्रार्थपौरुषीवेलायां क्रियते सा भवति प्रवाता, निवाता चेति / प्रवाता नाम या ग्रीष्मकाले अपराहे उपलेपनादिकरणेन धर्म नाशयति। यातु शीतकाले पूर्वाह्न उपलेपनकरणेन रात्रौ व्यपगत-शीतेह जायते सा निवाता भण्यते। अथ कस्यां प्राभृतिकायां वस्तुं कल्पते कस्यां च नेत्यत आहपुटवण्हे अवरण्हे, सूरम्मि अणुग्गए व अत्थमिए। मज्झन्तिएव वसही, सेसं कालं पडिकुट्ठा // 548|| पूर्वाह्न अनुद्गते सूर्ये अपराहो-अस्तमितेमध्याह्ने था-मध्या-हवेलायां सूत्रार्थपौरुष्यामनुत्थितेषु इत्यर्थ एतेषु कालेषु यस्यां प्राभृतिका क्रियते सा वसतिरनुज्ञाता सूत्रार्थव्याघाताभावात् 'सेसं कालं' ति सप्तम्यर्थे द्वितीया। शेषे उद्गतसूर्यादी कालेयस्यां प्राभृतिका विधीयते सा प्रतिकुष्टा न कल्पते तस्यां वस्तुम, सूत्रार्थव्याघातसंभवात्। अथ निर्दिष्टानिर्दिष्टप्राभृतिके भावयति पुरिसजाओ अमुगो,पाहुडियाकारओ उनिदिहा। सेसा उ अनिहिट्ठा, पाहुडिया होइनायव्वा // 4 // अमुकः-पुरुषो जातः-पुरुषकारः प्रभृतिकाकारक इन्द्रदत्तादिनाम्ना यस्यां निर्दिष्टः, सा निर्दिष्टा, शेषा तु सर्वाऽप्यनिर्दिष्टा प्राभृतिका भवतिज्ञातव्या। अथ पूर्वोक्तं भङ्गाष्टकविषयं विधिमाहकाऊण मासकप्पं, वपंति जा कीरई उमासस्स। साखलु निवाघाया, तं वेलारेण निंताणं // 850|| इह प्रथम भङ्गे या मासस्यान्ते क्रिया इति कृत्वा छिन्नकालिका, तत्राप्यपराल एव विधीयमानत्वान्नियता अमुकपुरुषकर्तृत्वेन च निर्दिष्टा / तस्यां कृतायां प्रथमतः प्रविष्टास्ततो मासकल्पं कृत्वा यदि व्रजन्ति, कथमित्याह- 'तंवेलारेण निताणं' ति तस्याः प्राभृतिकाकरणवेलाया अर्वाक् निर्गच्छतां सा प्राभृतिका नियाघाता मन्तव्या सूत्रार्थध्याघाताभावात्, कल्पते तस्यां वस्तुमिति भावः। शेषा द्वितीयादयो भङ्गाः क्वापि कथंचित् सव्याघाता इति कृत्वा तेषु न कल्पते। अथ प्रवातानिवातेति च पदद्वयं भावयतिअवरण्हें गिम्हकरणे, पवार्यों सा जेण नासई घम्म / पुटवण्हे जा सिसिरे, निव्वाय निव्वाय सा रत्तिं // 851 // ग्रीष्मे अपराहे यदुपलेपनस्य करणं सा प्रवाता कुत इत्याह-येन सा रात्रौ नाशयति-व्यपनयति धर्म ग्रीष्मर्तुसंभावनायाम् / या शिशिरे-- शीतकाले पूर्वाह्न उपलेपनकरणेन दिवसस्य चतुर्भिः प्रहारैर्निवाताशुष्का इत्यर्थः सा रात्रौ निवाता भवति। एतयोः कारणतोऽवस्थातुं कल्पत इति। अथ नियाघातिमा भङ्गयन्तरेणाहपुटवण्हेऽपट्टविए, अवरण्हे उठ्ठिएसुय पसत्था। मज्झण्हनिम्गएसुय, मंडलिसुतपेहवाघाया ॥८५सा या पूर्वाहे अप्रस्थापितेसतिस्वाध्याये, अपराहे पुनः समुद्दिश्योत्थितेषु साधुषु, मध्याहेतु भिक्षापर्यटनार्थ विगतेषु या प्राभृतिका क्रियतेप्रशस्ता सा / कुत इत्याह- 'मंडलि सुयपेह' ति येन सूत्रमण्डल्यामुपकरणप्रेक्षणायाश्च ‘वाघाय' त्ति अकारप्रश्लेषादव्याघाता-न व्याघातविधायिनी, अत एषा प्रशस्ता प्ररूपिता / बादरा सूक्ष्मा च पश्चविधा प्राभृतिका एवंविधया सहितायां वसतौ न स्थातव्यम्। अथ नास्ति तथाविधा अप्राभृतिका वसतिः / ततः कारणतः सप्राभृतिकायामपि तिष्ठतां यतनामाहतं वेलसारवंती,पाहुडियाकारगं च पुच्छंति। मोत्तूण चरिमभंग, जयंति एमेव सेसेसं // 53 // यस्यां वेलायां प्राभृतिकाकारकं च पुरुषं पृच्छन्ति कस्यां वेलायां भवान सम्मार्जनादि करिष्यतीति एवं चरमम्
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________________ वसहि ९५२-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि अष्टम भङ्ग मुक्त्वा शेषेषु सप्तस्याऽपि भङ्गेषु यतन्ते यतनां कुर्वन्ति। चरिमे वि होइ जयणा, वसंति आउत्तउवहिणो निचं / दक्खे य वसहिपाले, ठवंति थेरा पुणित्थीसु / / 5 / / चरमेऽप्यष्टमे भङ्गे अच्छिन्नकलिका अनियता अनिर्दिष्टा चेत्येवंलक्षणे आगाढे कारणे तिष्ठतां भवति यतना। कथमित्याह-नित्यमायुक्तोपधयो वसन्ति, उपधौ आयुक्ताः सावधाना आयुक्तोपधयः राजदन्तादेराकृतिगणत्वाद् व्यत्यासेन पूर्वपरनिपातः। मागोमयादिना कोऽप्युपधिगण्ठं मे प्राभृतिकाकरणव्याजेनापहरेदिति सम्यगुपधिविषयमवधानं ददतीत्यर्थः / दक्षांश्च वसतिपालान् स्थापयन्ति / यदि च तत्प्रायतिकाकारिणः पुरुषा न स्त्रियस्तत-स्तरुणा वसतिपाताः स्थापयितव्याः 'थेरा पुणित्थीसु' त्ति यदि स्त्रियस्ततो ये स्थविरा:-परिपाकप्राप्तब्रह्मचर्यास्ते वसतौ स्थापनीया इति / गतं प्राभृतिकाद्वारम् / बृ०१ उ०२ प्रका जे भिक्खू सपाहुहिडं सेलं अणुपविसइ अणुपविसंतं वा साइजइ॥६॥ जम्मि वसहीए ठियाणं कम्मपाहुडियाणं भवति सा सपाहुडिया छावणलेवणादिकरणमित्यर्थः / नि० चू०५ उ०। (17) तथाविधकार्यवशाचरककार्पटिकादिभिः सह संवासे विधिमाहसे भिक्खू वा मिक्खुणी वा से जं पुण उवस्सयं जाणेज्जा खुड्डियाओ खुडदुवारियाओ णिययाओ संनिरुद्धियाओ भवंति तहप्पगारे उवस्सए राओ वा वियाले वा णिक्खममाणे वा पविसमाणे वा पुरा हत्थेण पच्छा पाएण ततो संजतामेव णिक्खमेज वा पविसेज वा,केवली बूया-आयाणमेयं जे तत्थ समणाण वा माहणाण वा छत्तए वा मत्तएवा दंडए वा लट्ठिया वा मिसिया वा नालिया वा चिलं वा चिलिमिली वा चम्मए वा चम्मकोसए वा चम्मच्छेदणए वा दुब्बद्धे दुण्णिक्खित्ते अणिकंपे चलाचले। (सू०५८+) स भिक्षुर्यत् पुनरेवंभूतं प्रतिश्रयं जानीयात्, तद्यथा-क्षुद्रिका लघ्वयस्तथा क्षुद्रद्वारा नीचा उच्चस्त्वरहिताः सन्निरुद्धाः-गृहस्थाकुला वसतयो भवन्ति, ताश्चैवं भवन्तितस्यांसाधुवसतौ शय्यातरेणान्येषामपि कतिपयदिवसस्थापिनां चरकादीनामवकाशो दत्तो भवेत् तेषां वा पूर्वस्थितानां पश्चात् साधूनामुपाश्रयो दत्तो भवेत्। तत्र-(आचा०२ श्रु०१ चू०२ अ०३उ०।) रात्रौ न प्रविशेत्जत्थऽत्थमिए अणाउले, समविसमाइंमुणीऽहियासए। चरगा अदुवा वि भेरवा, अदुवा तत्थ सरीसिवा सिया ||14|| तथा भिक्षुर्यत्रैवास्तमुपौत सविता तत्रैव कायोत्सर्गादिना तिष्ठतीति यत्रास्तमितः, यथाऽनाकुलः-समुद्रवन्नकादिभिः परिषहोपसर्गरक्षुभ्यन् समविषमाणि-शयनासनादीन्यनुकूलप्रतिकूलानि मुनिः यथावस्थिसंसारस्वभाववेत्ता सम्यग् अरक्तद्विष्टतयाऽधिसहेत, तत्र च शून्यगृहादौ व्यवस्थितस्य तस्य चरन्तीतिचरकादंशमशकादयः,अथवाऽपि-भैरवाभयानका रक्ष शिवादयः, अथवा-तत्र सरीसृपाः स्युः-भवेयुः, तत्कृतांश्च परीष-हान् सम्यक् अधिसहेतेति॥१४॥ सूत्र०१ श्रु०२ अ०२उ०। रात्रौ वसतौ गमनविधिमाहभिक्खू य राओ वा वियाले वा णिक्खममाणे वा पविसमाणे वा पयलेज वा पवडेज वा से तत्थ पयलमाणे वा पवडमाणे वा हत्थं वा पायं वा जाव इंदियवायं वा लूसेज वा पाणाणि वा०४ अमिहणेन्ज, जाव ववरोवेज वा अह मिक्खूणं पुटवोवदिहा०४ जं तहप्पगारे उवस्सए पुरा हत्थेणं पच्छा पायेणं ततो संजयामेव णिक्खमेज वा पविसेज वा। (सू०-८८) तत्र कार्यवशाद्वसता रात्र्यादौ निर्गच्छता प्रविशता वा, यथा चरकाधुपकरणोपघातो न भवति तदवयवोपघातो वा तथा पुरो हस्तकरणादिकया गमनागमनादिक्रियया यतितव्यम्, शेष कण्ठ्यं नवरं चिलिमिलिः यमनिका चर्मकोशः-पार्णित्रं खल्लकादिः। आचा०२ श्रु०१ चू०२ अ०३ उ०। (रात्री वसतिप्रवेशे आहारकल्पना 'राइभोयण' शब्दे अस्मिन्नेव भागे 537 पृष्ठे उक्ता।) (वसतिमधिकृत्य भोजनविधिः 'गोयरचरिया' शब्दे तृतीयभागे 1003 पृष्ठे गतः।) इदानीं वसतियाञ्चाविधिमधिकृत्याह-- से आगंतागारेसु वा अणुवीय उवस्सयं जाइजा जे तत्थ ईसरे जे तत्थ समहिट्ठाए ते उवस्सयं अणुण्णविज्जा काम खलु आउसो ! अहालंदं अहापरिन्नातं वसिस्सामोजाव आउसंतो० जाव आउसंतस्स उवस्सते जाव साहम्मियाइंततो उवस्सय गिहिस्सामो तेण परं विहरिस्सामो। (सू०-८६) स भिक्षुरागन्तागारादीनि गृहाणि पूर्वोक्तानि तेषु प्रविश्यानुविचिन्त्य च किंभूतोऽयं प्रतिश्रयः? कश्चात्रेश्वरः? इत्येवं पर्यालोच्य च प्रतिश्रयं याचेत, यस्तत्रेश्वरो गृहस्वामी यो वा तत्र समधिष्ठाता-प्रभुर्नियुक्तस्तानुपाश्रयमनुज्ञापयेत्। तद्यथा-कामम्, तवेच्छया आयुष्मन् ! त्वया यथा परिज्ञा प्रतिश्रयं कालतो भूभागतश्च तथैवाधिवत्स्यामः, एवमुक्तः स कदाचिद् गृहस्थ एवं ब्रूयात् यथा-कियत्कालं भवतामत्रावस्थानमित्येवं गृहस्थेन पृष्टः साधुर्वसति-प्रत्युपेक्षक एतद् ब्रूयात, यथा कारणमन्तरेण ऋतुबद्धे मासमेकं वर्षासु चतुरो मासानवस्थानमिति / एवमुक्तः कदाचित्परो ब्रूयान्तावन्तं कालं ममाऽत्रावस्थानं वसतिर्वा, तत्र साधुः तथा भूतकारणसद्भावे एवं ब्रूयात्-यावत्कालमिहायुष्मन्तआसते, यावद्वा-भवत उपाश्रयः तावत्कालमेवोपाश्रयं ग्रहीष्यामस्ततः परेण विहरिष्याम इत्युत्तरेण सम्बन्धः / साधुप्रमाणप्रश्ने चोत्तरं दद्यात्, यथासमुद्रसंस्थानीयासूरयोनास्तिपरिमाणम्, यतस्तत्रकार्यार्थिनः केचनागच्छन्ति
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________________ वसहि 953 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि अपरे कृतकार्या गच्छन्ति अतो यावन्तः साधम्मिकाः समागमिष्यन्ति तावतामयमाश्रयः साधुपरिमाणं न कथनीयमिति भावार्थः। आचा०२ श्रु०१ चू०२ अ०३उ०। (बहुषु सागारिकेषु एकं सागारिकं कुर्यात् इति 'सागारिय' शब्दे वक्ष्यते।) सागारिकस्य नामगोत्रे जानीयात् से भिक्खू वा भिक्खुणी वा जस्सुवस्सए संवसेज्जा तस्स पुवामेव णाम गोत्तं जाणेज्जा,तओ पच्छा तस्स गिहे णिमंतेमाणस्स वा अणिमंतेमाणस्स वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा अफासुयं०जावणो पडिग्गाहेज्जा / (सू०-९०) सुगमं नवरं साधूनां सामाचार्येषा, यदुत शय्यातरस्य नामगोत्रादि ज्ञातव्यम्, तत्परिज्ञानाच्च सुखेनैव; प्राघूर्णकादयो भिक्षामटन्तः शय्यातरगृहप्रवेशं परिहरिष्यन्तीति। आचा०२ श्रु०१चू०२अ०३उ०। सागारिकस्य निश्रया अनिश्रया वा निवसेत्कप्पइ निग्गंथीणं सागारियनिस्साए वत्थए॥२३॥ कप्पइ निम्गंथाणं सागारियनिस्साए वा अनिस्साए वा वत्थए।॥२४॥ अत्र भाष्यम्-कल्पते निर्ग्रन्थानां सागारिकनिश्रयैव वस्तुमिति। साहू निस्समनिस्सा,कारणे निस्सा अकारणेऽणिस्सा। निकारणम्मि लहुगा, कारणें गुरुगा अनिस्साए // 317|| साधवः सागारिकस्य निश्रया अनिश्रया वा वसन्ति / तत्र कारणे निश्रया,अकारणे त्वनिश्रया वस्तव्यम्। यदि निष्कारणे सागारिकनिश्रया वसन्ति ततश्चत्वारो लघुकाः। अथ कारणे अनिश्रया वसन्ति ततश्चत्वारो गुरुकाः। अथ निष्कारणे सागारिकनिश्रया तिष्ठतां दोषमाहउठेति निवेसिंते, मुंजण-पेहासु सारिमोए अ। सज्झायबंभगुत्ती, असंगता तित्थऽवण्णे य॥३१८|| कोऽपि साधुरुत्तिष्ठन् वा निविशमानोवा अपावृतो भवेत्। तं दृष्टा पुरुषाः स्त्रियो वा हसन्ति, उडुञ्चकान् वा कुर्वन्ति / भोजन-समुद्देशनं तत्र मण्डल्यांतुम्बकेषु वा समुद्दिशतो दृष्ट्वा ब्रवीरन्-अहो अमी अशुचय इति, प्रेक्षा-प्रत्युपेक्षणा तस्यां विधीयमानायां ते सागारिका उड्डञ्चकान् कुर्युः, 'मोय' त्ति निशि मोकेनाचमने कायिकीव्युत्सर्जने च उड्डाहं कुर्युः, स्वाध्यायमधीयमानं परावर्तमानं वा श्रुत्वा कणाहतेनागच्छन्तीनां स्त्रीणां चाङ्गप्रत्ययादौविलोकमाने ब्रह्मचर्यस्याऽगुप्तिर्भवेत्, 'असंगय' त्ति यैः किलाऽसंगताः प्रतिपन्नाः स्त्रीरहिते प्रतिश्रये स्थातव्यमित्येतदप्येते न जानन्ति, तीर्थस्य वाऽवर्णो भवति-सर्वेऽप्येते एतादृशा इति। यत एते दोषा अत उत्सर्गतः सागारिकस्या निश्रया वस्तव्यम्, कारणे तुनिश्रया परिकल्पते वस्तुम्। तचेदम्तेणा सावय-मसगा, कारणनिकारणे व अहिगरणं / एएहि कारणेहिं, वसंति निस्सा अनिस्सा वा॥३१९।। स्तेनाः श्वापदा वा यत्रोपद्रवन्ति तत्र ये गृहस्थाः परित्राणं कुर्वते तत / तन्निश्रया वस्तव्यम्, मशका वाऽन्यत्राभिद्रवन्ति ततो निश्रयाऽपि | यस्तव्यम्, निष्कारणे तु निश्रया वसतामप्काये यत्र वाहनादिकमधिकरणं भवेत्, एतैः कारणैर्निश्रया अनिश्रया वा यथायोग वसन्तीति / बृ०१ उ०३प्रका कः ससागारिक उपाश्रय इत्याहसे भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण उवस्सयं जाणेज्जा ससागारियं सागणियं सउदयं णो पण्णस्स णिक्खमणपवेसणाए०जाव अणुचिंताए तहप्पगारे उवस्सए णो ठाणं वा०३ चेतेजा। (सू०-६१) स भिक्षुर्यत्पुरेवंभूतं प्रतिश्रयं जानीयात् तद्यथा--ससागारिकं साऽग्निकं सोदकम्,तत्र स्वाध्यायादिकते स्थानादिन विधेयमिति। आचा०२श्रु० १चू०२अ०३उ०॥ सागारिकोपाश्रये वस्तुंकल्पतेनो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा सागारिए उवस्सए वत्थए॥२५॥ अस्यसम्बन्धमाहनिस्स त्ति अइपसंगे-ण साहु सागारियम्मि उवसिञ्जा। ते चेव निस्सदोसा, सागारिय नि (व)स्सओ मा हु॥३२०।। निग्रन्थीनां सागारिकनिश्रयैव निर्ग्रन्थानामपि कारणे निश्रया वस्तुं कल्पते इत्युक्ते अतिप्रसङ्गेन दोषेण सागारिकेऽपि प्रतिश्रये वसेयुः। कुत इत्याह- सागारिकोपाश्रये निवसन्तो मा तपःस्वस्थाननिवेशनादिविषया निश्रादोषा मयेयुः, अतः सागारिकसूत्रं प्रारभ्यते इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य (25) व्याख्या-नो कल्पते निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीना वा सागारिके, सागारिकं द्रव्यतो भावतश्च स वक्ष्यमाणलक्षणं तदत्रास्तीति व्युत्पत्तेरभ्रादित्वादप्रत्यये सागारिकः / ईदृशे उपाश्रये वस्तुमिति सूत्रसंक्षेपार्थः। अथनियुक्तिविस्तरःसागारियनिक्खेवो, चउदिवहो होइ आणुपुथ्वीए। नामंठवणा दविए, भावे यचउव्विहो भेओ॥३२१॥ सागारिकपदस्य निक्षेपश्चतुर्विधः आनुपूर्व्या भवति। तद्यथा-नाम्नि, स्थापनायां द्रव्ये, भावे, च, इत्येष चतुर्विघो भेदः / तत्र नामस्थापने गतार्थे। द्रव्यतो नोआगमतो ज्ञशरीरव्यतिरिक्तं द्रव्यसांगारिकमाहरूवं आभरणविही, वत्थालंकारभोयणे गंधे। आउज्ज नट्ट नाडग-गीए सयणे य दवम्मि॥३२२॥ रूपम् आभरणविधिः वस्त्रालंकारो भोजनं गन्धः आतोद्यं नृतं नाटकं गीतं शयनीयं च; एतद् द्रव्यसागारिकम्। तत्र रूपपदं व्याख्यायतेजं कट्ठकम्ममाई-सरू सहाणे तं भवे दव्वं / जीवाजीवविमुकं, विसरिसरूवं तु भावम्मि॥३२३॥ यत्काष्ठकमणि वा लेपकर्मणि वा पुरुषरूपं वा निर्मित तत् स्वस्थाने द्रव्यसागारिकं भवेत् / स्वस्थानं नाम नि
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________________ वसहि १५५-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि ग्रन्थानां पुरुषरूपं निर्गन्थीनां तु स्त्रीरूपम्, यत्तु विसदृशरूपं तद्भावसागारिकम् / निर्ग्रन्थीनां तु स्त्रीरूपं निर्गन्थानां तु पुरुषरूपं भावस्य सागारिकमित्यर्थः / यद्वा-जीवविप्रमुक्तम्- पुरुषशरीरं स्त्रीशरीरं वा। तदपि स्वस्थाने द्रव्यसागारिकम्, परस्थाने तु भावसागारिकमिति अथ 'आभरणविही' त्यादिव्याख्यायते-आभरणं-कटकादितस्य विधिर्भदा आभरणविधिः,वस्त्रमेवालङ्कारोवस्त्रालङ्कारः। यदि वा वस्त्राणिचीनांशुकादीनि; अलङ्कारो द्विधा-केशालङ्कारो माल्यालङ्कारभेदात्। भोजनम्-अशनपानखाद्य-स्वाद्यभेदाच्चतुर्विधम्, गन्धः-कोष्टपुटपाकादिः, आतोद्यं चतुर्विधम्-ततम्, विततम्, घनम्, शुषिरम्। "ततं-वीणाप्रभृतिक, विततंमुरजादिकम् / घनं तु-कांस्यतालादि,वंशादि-शुषिरं मतम्" // 1 // नृत्तमपि चतुर्विधम्--आचितम्,रिभितम्,आरभडम् भसोलम् / एते चत्वारोऽपि भेदा अनादिशास्त्रप्रसिद्धाः / नाटकम्अभिनयविशेषः। अथवानय़ होइ अगीयं,गीयजुयं नाडयं तु नायव्वं / / आभरणादी पुरिसो-वभोगदव्वं तु सहाणे // 324 / इह अगीत-गीतविरहितं नाट्यं भवति, यत् पुनर्गीतयुक्तं तन्नाटकं ज्ञातव्यम् / गीतं चतुर्दा- तन्त्रीसमम्, तालसमम् ग्रहसमम्, लयसमं चेति / शयनम्-पल्यङ्कादि, यत्तदाभरणादिकं यत्पुरुषोपभोग्यं तत् स्वस्थाने द्रव्यसागारिक निर्ग्रन्थानामिति भावः। अन्नंच भोजन-गन्धातोद्यशयनानिद्वयोरपि स्त्रीपुरुषपक्षयोः साधारणत्वाद्रव्य-सागारिकमेव, शेषाणि तु साधुसाध्वीनां स्वस्थानयोग्यानि द्रव्य-सागारिकम्, परस्थानयोग्यानि तु भावसागारिकम्। एतेषु प्रायश्चित्तमाहएकेक्कम्मि य ठाणे, भोयणवजाण चउलहू हुंति। चउगुरुगमोअणम्मिवि,तत्थ वि आणाइणो दोसा // 32 // एकैकस्मिन्-रूपाभरणादौ द्रव्ये सागारिकभोजनवर्जे तिष्ठतां चतुर्लघवः / भोजनसागारिके चतुर्गुरवः, केषांचिन्मतेनाभरणवस्त्रयोरपि चतुर्गुरवः तत्राप्याज्ञादयो दोषाः। तनाको जाणइ को किर सो, कस्य य माहप्पया समत्थत्ते। घिइदुब्बला उ केई, देवेति तओ अगारिजणं // 326 / / को जानाति नानादेशीयानां साधूनां मध्ये कः कीदृशः कीदृक्परिणामः कस्य वा कीदृशी महात्मता-महाप्रभावता, समर्थत्वे-सामर्थ्य लोभनिग्रहब्रह्मव्रतपरिपालनं वा प्रतीत्य विद्यते, परचेतोवृत्तीनां निरतिशयैरनुपलक्ष्यत्वात्। भूयो ये केचित् धृतिदुर्बलास्ते तत्र रूपाभरणादिभिराक्षिप्ताचित्ताः-परित्यक्तसंयम-धुरा अगारीजनं 'देवेति' गछन्ति परिभुञ्जते इत्यर्थः। तथाके इत्थ भुत्तभोगी, अभुत्तभोगी य केऽपि निक्खंता। रमणिज्ज लोइयंतिय,अम्हं पेतारिसा आसी॥३२७।। केचिदत्र गच्छमध्ये भुक्तभोगिनः केचिदभुक्तभोगिनः तेषां चोभयेषा | मित्येवं भावः समुत्पद्यते-रमणीयमिदं लौकिकं चरितं यत्रैवं वस्त्राभरणानि परिधीयन्ते, विविधखाद्यकादीनि यथेच्छं भुञ्जते / अस्माकमपि गृहाश्रमे स्थितानामेतादृशा भोगा आसीरन्। इदमेव व्यनक्तिएरिसओ उवभोगे, अम्ह वि आसिप्पइण्ह ओयल्ला। दुक्कर करेमि भुत्ते,कोउगमियरस्स दळूणं // 328|| ईदृश एवगन्धमाल्यताम्बूलाद्युपभोगः पूर्वमस्माकमप्यासीत्, 'यह' इति निपातः पादपूरणे / इदानीं तु वयं उज्जला:-प्रावल्येन मलिनशरीराः अलब्धसुखास्वादाश्च दुष्करं केशश्मश्रुलुश्चन-भूमिशयनादि कुर्महे,इत्थं भुक्तभोगी चिन्तयति,इतरोऽभुक्तभोगी तस्य रूपाभरणादिकं दृष्ट्वा कौतुकं भवेत्। को दोष इत्यत आहसतिकोउगेण दुन्नि वि, परिहेज लइज्ज या वि आभरणं / अन्नेसिं उवभोगं, करिज वाएज वुड्डाहो / / 229|| स्मृतिश्च कौतुकं चेति द्वन्द्वैकवद्भावः, तेन स्मृतिकौतुकेन द्वावपि भुक्ताऽभुक्तभोगिनौ वस्त्राणि या परिदधीयाताम्, आभरणं या स्वशरीरे गृह्णीयाताम्, अन्येषां वा गन्धशयनीयासनादीनामुपभोगं कुर्वाताम्, आतोद्यवादयेतामसंयतो वा असंयतमलंकृतविभूषितं दृष्ट्वा लोकमध्ये उड्डाहं कुर्यात्। किञ्चतचित्ता तल्लेसा, मिक्खा-सज्झायमुक्कतत्तीया। विकहाविस्सुतियमणा, गमणस्स अ उस्सुईभूया // 330|| तदेव-स्त्रीरूपादिचिन्तनात्मकं चित्तं येषां ते तचित्ता, लेश्या-नामतदङ्गपरिभोगाव्यवसायः, साचलेश्या येषां तेतल्लेश्याः, भिक्षास्वाध्याययोर्भुक्ततप्तिर्व्यापारो येषां ते भिक्षास्वाध्यायभुक्ततप्तिकाः, तथा संयमाराधनीया वाग्योगप्रवृत्तिः सा कथा तद्विपक्षगता विकथा, विश्रोतसिका नाम-स्त्रीरूपादिस्मरण-जनिता बिन्दुविप्लुतिःतयोर्मनो येषां ते विकथाविश्रोतसिकमनसः। एवंविधास्ते केचिद्गमनेधावने उत्सुका भवन्ति, केचिच उत्सुकीभूता उत्प्रव्रजिता इत्यर्थः / तत्र विकथा कथं भवतीत्याहसुल कयं आभरणं, विणासियं न वि य जाणसि तुमं पि। मुच्छुड्डाहो गंधे, विसुत्तिया गीयसद्देसुं॥३३१।। एकः साधुर्ब्रवीति-सुष्टु-शोभनं कृतमिदमाभरणम, द्वितीयः प्राहविनाशितमेतत्,त्वमप्यविशेषज्ञो न जानासि / एवमुत्तरप्रत्युत्तरिका कुर्वतोस्तयोरसंथडमुपजायते। मूर्छा वा तत्र रूपादौ कोऽपि कुर्यात्। तथा वाऽसौ सपरिग्रहो भवति 'उड्डाहो गंधे' त्ति चन्दनादिगन्धेनात्मनं यदि कोऽपि विलिम्पति पटवासादिभिर्वा वासयति ततः उड्डाहो भवति, नूनं कामिनोऽमी अन्यथा कथमित्थमात्मानं मण्डयन्तीति। आतोद्यगीतशब्देषु श्रूयमाणेषु विश्रोतसिका जायते। अपिचनिचं पिदवकरणं, अवहियहिययस्स गीयसद्देहिं। पडिलेहणसज्झाए, आवासगभुंजते रत्ती॥३३२
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________________ वसहि 985 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि नित्यमपि-सर्वकालं गीतादिशब्दैरपहतहृदयस्य प्रत्युपेक्षणायां स्वाध्याये आवश्यके भोजने वैरात्रिके उपलक्षणत्वात्प्राभातिकादिषु च द्रव्यकरणमेव भवति, न भावकरणम्। भावकरणव्यापारेषुते सादितुमारद्धा,संजमजोगेसु वसहिदोसेणं। गलति जतू तप्पंतं,एस चरित्तं मुणेतव्वं // 333|| जतु-लाक्षा यथा अग्निना तप्यमानं गलति, एवं रागाग्निना तप्यामानं चारित्रमपि गलतीति ज्ञातव्यम्। उनिक्खंता केई, पुणो वि संमेलणाएँ दोसेण / वचंति संभरंता, भंतूण चरित्तपागारं / / 334|| तस्यां वसतौ स्त्रीपुरुषादिसंमेलनाया दोषेण केचिन्मन्दभाग्या उन्निष्क्रान्ता-उत्प्रव्रजितास्ततश्चारित्रमेव प्राकारोयत्र नगररक्षार्थक्षमत्याच्चारित्रच्चकारम् भक्त्वा तान्येव स्त्रीरूपादीनि संस्मरन्तः पुनरपि गृहवासंव्रजन्ति। ततः किमभूदित्याहएगम्मि दोसुतीसुं, चउहा चिंतेसु तत्थ आयरिओ। मूलं अणवट्टप्पो, पावइ पारंचियं ठाणं // 335 / / यद्येक उन्निष्क्रामति ततो मूलम्, द्वयोरवधावतोः अनवस्थाप्यम्। तेषु अवधावमानेषु तत्राचार्यः पाराश्चिकं स्थान प्राप्नोति, यस्यथा वशेन तत्र स्थितास्तस्येदं प्रायश्चित्तमिति। गतं द्रव्यसागारिकम् / अथ भावसागारिकमाहअट्ठारसविहऽबंभ,भावा ओरालियं च दिवं च। मणवयणकायगच्छण, भावम्मि य रूवसंजुत्तं // 336 / / अष्टादशविधमब्रह्म भवति। तस्य चौदारिकदिव्यलक्षणौ द्वौ मूलभेदौ। तत्रौदारिक नवविधम्-औदारिकान् कामभोगान्मनसा गच्छति, मनसा गमयति, गच्छन्तमन्यं मनसैवानुजानीते / एवं वाचाऽपि त्रयो भेदाः प्राप्यन्ते, कायेनापि त्रयः। एतैस्त्रिभिस्त्रिकैर्नवभेदा भवन्ति। एवं दिव्येऽप्यब्रह्मणि नवभेदा लभ्यन्ते / एवमेव तदष्टादशविधमब्रह्म सागारिक भवति।अथवा-रूपं वा संयुक्तं वा रूपसहगतं यदब्रह्म भावोत्पत्तिकारणं तदपि भावसागारिकम्। एतदेव स्पष्टयतिअहवा अबंभजुत्तो, भावे रूवाउ सहगयाओ वा। भूसणजीवजुयं वा, सहगय तय्वज्जियं रूवं // 337 / / अथवा-यतो रूपाद्वा अब्रह्मरूपो भाव उत्पद्यते तदपि कारणे कार्योपचारात् भावसागारिकम् / यथा- 'नडलोदकं पादरोग' इति, तत्र यत् स्त्रीशरीरं भूषणसंयुक्तम्, अभूषितंवायज्जीवयुक्तंतद्रूप-सहगतंमन्तव्यम्। . यत्पुनः स्त्रीशरीरमेव तद्वर्जितं भूषणविरहितं जीवयुक्तं वा तद्रूपमुच्यते। तं पुण रूपं तिविहं, दिव्वं माणुस्सयं तिरिक्खं च / पायावत्थकुटुंबिय, दंडिय पारिग्गहं चेव // 338 / / तत्पुनरनन्तरोक्तं रूपंतत् त्रिविधम् दिव्यम्, मानुष्यम्, तैरश्वचा पुनरकैकं त्रिधा-प्राजापत्यपरिगृहीतम्, कौटुम्बिकपरिगृहीतम्, दण्डिकपरिगृहीतं चेति। प्राजापत्याः प्राकृतलोका उच्यन्ते। एवं त्रिविधमपि प्रत्येक त्रिधा, जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदात्। तत्र दिव्यस्यजघन्यादिभेदत्रयमाहवाणंतरिय जहन्नं, भवणवई जोइसं व मज्झिमगं / वेमाणिय उकोसं,पणयं पुण ताण पडिमासु // 339| दिव्येषु यद्वाणव्यन्तरिक रूपं तज्जघन्यम्, भवनपतिज्योतिष्कयोर्मध्यमम्, वैमानिकरूपम् उत्कृष्टम् / तत्र च तेषां वाणव्यन्तरादीनां याः प्रतिमास्ताभिः प्रकृतमधिकारः, सागारिकोपाश्रयस्य प्रस्तुतत्वात्, तत्र च प्रतिमानामिव सद्भावात्। प्रकारान्तरेण दिव्यप्रतिमानां जघन्यादिभेदानाहकडे पोत्थे चित्ते, जहन्नयं मज्झिमं च दंतम्मि। सेलम्मि य उक्कोसं,जंवा रूवातु निप्फ॥३४०॥ या दिव्यप्रतिमा काष्ठकर्मणि वा पुस्तककर्मणि वा चित्रकर्मणि वा क्रियते तञ्चघन्यं दिव्यरूपम्।या तुहस्तिदन्ते क्रियतेतन्मध्यमम्, चपुन,शैले वाशब्दात्-मणिप्रभृतिषु च या क्रियते,तदुत्कृष्टम्। यद्वा-रूपान्निष्पन्नं जघन्यादिकंतद्रष्टव्यम्।यद्रव्यप्रतिमा विरूपातजघन्यं दिव्यरूपम्। यातुमध्यमरूपा तन्मध्यमम्।या पुनःसुरूपातदुत्कृष्टम्।अत्र चायतप्रतिमायुते उपाश्रये तिष्ठतश्चत्वारो लधुकाः चयश्चित्तम्। अथात्रैव विभागतः प्रायश्चित्तमाहठाणपरिसेवणाए, तिविहे वा दुविहमेव पच्छित्तं। लहुगा तिन्नि वि सिट्ठा,अपरिगहें ठायमाणस्स // 351 / / त्रिविधेऽपिजघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदभिन्ने दिव्ये प्रतिमायुते तिष्ठतो द्विविध प्रायश्चित्तम्, स्थानं, निष्पन्नं च / तत्र निष्पन्नमिदम्-दिव्ये प्रतिमायुते परिगृहीते तिष्ठतस्त्रयश्चतुर्लघुकास्तपःकालविशिष्टाः। तद्यथा-जघन्ये चत्वारो लघुकास्तपसा कालेन चलघुकाः, मध्यमे त एव कालगुरुकाः उत्कृष्ट त एव तपोगुरुकाः। अथ परिगृहीते प्रायश्चित्तमाहचत्तारि य उग्घाया, पढमे बिइयम्मि ते अणुग्घाया। छम्मासा उग्घाया, उक्कोसे ठायमाणस्स॥३४२।। पायावचपरिग्गहें, दोहि वि लहु हुंति एतें पच्छित्ता। कालागुरु कोडुबे, दंडियपारिग्गहे तवसा // 33 // प्रथम-जघन्यं तत्र तिष्ठतश्चत्वार उद्धाता मासाः, लधवो मासा इत्यर्थः, द्वितीयं-मध्यमंतत्रतएव चत्वारोमासा अनुद्धाता गुरुका इत्यर्थः , उत्कृष्ट तु तिष्ठतः षड्मासा उद्धाताः षड्लघव इत्यर्थः। एतानि च प्रायश्चित्तानि घजापत्यपरिगृहीते द्वाभ्यामपि तपः कालाभ्यां लघुकानि द्रष्टव्यानि। कौटुम्बिकपरिगृहीतेवा एतान्येव कालगुरुकाणि, दण्डिकपरिगृहीतेएतान्येव तपसा गुरुकाणि / इदं च यस्माजघन्यादिविभागेन निर्दिष्ट संनिहिताऽसंनिहितभेदेनन विशेषितंतस्मादेतद्दोषविभागप्रायश्चित्तमभिधीयते। अथ विभाग पचारात् भाम, अभूषितात जीवयुक्त
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________________ वसहि 186- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि प्रायश्चित्तं निरूपयितव्यम्, तत्र चैतान्येव जघन्यमध्यमोत्कृष्टानि संनिहिताऽसंनिहितभेदाभ्यां विशेषमाणानि षट् स्थानानि भवन्ति। एतेषु प्रायश्चित्तमाहचत्तारि य उग्घाता, पढमे विइयम्मि तो अणुग्घाया। तइयम्मि अणुग्घाया, चउत्थ छम्मास उग्घाता॥३४४|| पंचमगम्मि वि एवं, छटे छम्मास हों तिऽणुग्घाया। संनिहिएऽसंनिहिए, एस विही हाणमाणस्स॥३४॥ प्रथमं नाम-जघन्यमसंनिहितम्, द्वितीयं जघन्यं संनिहितम्, तृतीयं मध्यममसंनिहितम्, चतुर्थ मध्यमं संनिहितम्, पञ्चममुत्कृष्टमसंनिहितम्, षष्ठमुत्कृष्ट संनिहितम्। अत्राऽयमुचारणविधिः / जघन्यके असंनिहिते प्राजापत्यपरिगृहीते तिष्ठति चत्वार उद्धातामासाः, संनिहिते तिष्ठति त एव चत्वारो मासा अनुद्धाताः। मध्यमके असंनिहिते चत्वारो मासा अनुद्धाताः,संनिहिते षण्मासा अनुद्धाताः। एषोऽसंनिहिते सन्निहित च तिष्ठतः प्रायश्चित्तविधिरुतः। ___अथ प्राजापत्यादिविशेषत एवमेव विशेषयतिपढमिल्लुगम्मि ठाणे, दोहि वि लहुगा तवेण कालेणं / बिइयम्मि अकालगुरू, तवगुरुगा होन्ति तइयम्मि॥३४६|| प्रथमे स्थाने-प्राजापत्यपरिगृहीते एतानि प्रायश्चित्तानि द्वाभ्यामपि लघुकानि,तद्यथा-तपसा कालेन च / द्वितीये कौटुम्बिके परिगृहीते तान्येव कालगुरुकाणि, तृतीये दण्डिकपरिगृहीते एतान्येव तपोगुरुकाणि। स्थानप्रायश्चित्तमेव प्रकारान्तरेणाहअहवा भिक्खुस्सेयं, जहन्नगाइम्मि ठाणपच्छित्तं / गणिणो उवरि छेदो, मूलायरिए पयं हसति // 347 // अथवा यदेतज्जन्यादौ चतुर्लघुकादारभ्य षड्गुरुकावसानं स्थानप्रायश्चित्तमुक्तम्, तद्भिक्षोरेव द्रष्टव्यम्, गणी-उपाध्यायस्तस्य षड्गुरुकादुपरिछेदाख्यं प्रायश्चित्तपदं वर्द्धते। एकं पदं चतुर्लघुकाख्यमधो हसति चतुर्गुरुकादारभ्य छेदं तिष्ठतीत्यर्थः / आचार्यस्य षड्-लघुकादारब्धं मूलं यावत्प्रायश्चित्तम्, अत्राप्येकं पदमुपरि वर्द्धते, अधस्तादेकं पदं हसतीति / गतं स्थानप्रायश्चित्तम्। अथ प्रतिसेवनाप्रायश्चित्तमाहचत्तारि छच्च लहु गुरु, छम्मासितो छेदो लहु गुरुगा य। मूलं जहन्नगम्मिय, सेवंति पसज्जणं मोत्तुं // 348|| प्राजापत्यपरिगृहीते जघन्ये असन्निहिते-अदृष्ट प्रतिसेवमाने चत्वारो लघवः, दृष्ट चत्वारो गुरवः / संनिहिते अदृष्ट चतुर्लघवः, कौटुम्बिकपरिगृहीते जघन्ये असंनिहिते अदृष्ट प्रतिसेविते लघुषाण्मासिकच्छेदः, दृष्ट पाण्मासिकच्छेदः / संनिहिते अदृष्ट गुरुषाण्मासिकच्छेदः, दृष्ट मूलम्। एतज्जघन्यं दिव्यप्रतिमारूपं सेवमानस्य प्रायश्चित्तं भणितम् / प्रसज्जना नाम दृष्टे सति भोजिकाघाटिकादीनां ग्रहणाकर्षणप्रभृतीनां वा दोषाणां परंपरया प्रसङ्गः, तंमुक्त्वा एतत्प्रायश्चित्तम, तन्निष्पन्नं तु पृथगापद्यते। अथ मध्यमे प्रायश्चित्तमाहचउगुरुग छच्च लहुगुरु, छम्मासिओं छेदो लहुओ गुरुगो / मूलं अणवट्ठप्पो, मज्झिमपसज्जणं मोत्तुं // 346 / / मध्यमे प्राजापत्यपरिगृहीते असंनिहिते अदृष्ट प्रतिसेविते चतुर्गुरवः, संनिहिते अदृष्ट षड्लघवः / दृष्ट षड्गुरवः। कौटुम्बिक-परगृहीते असंनिहिते अदृष्टे षड्गुरवः। सन्निहिते दृष्ट लघुषाण्मासिकच्छेदः, दृष्ट गुरुषा मासिकच्छेदः / दण्डिकपरिगृहीते असंनिहिते अदृष्ट गुरुषाण्मासिकच्छेदः, दृष्ट मूलम्, सन्निहिते दृष्ट अनवस्थाप्यम् / एतन्मध्यमके प्रसज्जनां मुक्त्वा प्रायश्चित्तं द्रष्टव्यम्। उत्कृष्टविषयमाहतव छेदो लहु गुरुगो, छम्मासितो मूलसेवमाणस्स। अणवट्ठो पारंचिय,उक्कोसें पसज्जणं मोत्तुं // 350 / / उत्कृष्ट-प्राकृतपरिगृहीते असंनिहिते अदृष्ट प्रतिसेवितेलघुषाण्मासिक तपः, दृष्ट गुरुषाण्मासिकं तपः। संनिहिते अदृष्ट गुरुषाण्मासिकं तपः,दृष्ट लघुषाण्मासिकच्छेदः / कौटुम्बिकपरिगृहीते असंनिहिते अदृष्ट लघुषाप्रमासिकच्छेदः, दृष्ट गुरुषाण्मासिकच्छेदः, संनिहिते दृष्ट मूलम्, दण्डिकपरिगृहीते असंनिहिते अदृष्ट मूलम,दृष्ट अनवस्थाप्यम्, दृष्ट पाराशिकम्। एवमुत्कृष्ट दिव्यप्रतिमारूपां प्रसज्जनां मुक्त्वा प्रायश्चित्तमवसातव्यम्। अथ यथाचारणिकाया अभिलाषः कर्तव्यस्तथा भाष्यकृदुपदर्शयतिपायावचपरिग्गहें, जहन्नसंनिहियए असंनिहिए। दिहादिट्टे सेवइ, एसाऽऽलावो उसव्वत्थ।।३५१|| प्राजापत्यपरिगृहीते जघन्ये असंनिहिते संनिहिते अदृष्ट च सेवते, गाथायाम्-असंनिहिता दृष्टपादयोर्बन्धानुलोम्यात्पश्चान्निर्देशः / एष ईदृश आलापः-उच्चारणविधिः सर्वत्र कौटुम्बिकपरिगृहीतादौ मध्यमादौ च कर्त्तव्यः। अत्र नोदक आहजम्हा पढमे मूलं, बिइए अणवट्ठों तइऍ पारंची। तम्हा ठायंतस्स य, मूलं अणवट्ठ पारंची // 352 / / यस्मात् प्रथमे-जधन्ये प्रतिसेवमानस्य चतुर्लघुकादारब्धं मूलं यावत्प्रायश्चित्तं भवति, द्वितीये-मध्यमे चतुर्गुरुकमादौ कृत्वा अनवस्थाप्यम, तृतीये उत्कृष्ट लघुकादारब्धं पाराश्चिकं यावद्भवति, तस्मात्तिष्ठत एव स्थाननिष्पन्नानि / जघन्यमध्यमोत्कृष्ट तु यथाक्रमं मूलानवस्थाप्यपाराश्चिकानि भवन्तु। सूरिराहपडिसेवणा य एवं, पसज्जणा होइ तत्थ एकके। चरिमपए चरिमपदं, तं पिय आणाइनिप्फन्नं // 353 / / जघन्यादि प्रतिसेवनायामेवं मूलानवस्थाप्यपाराञ्चिकं यावद्भवति। यचाज्ञादिदोषनिष्पन्नं चतुर्गुरुकंतदपि द्रष्टव्यमिति संग्रहगाथासमासार्थः।
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________________ वसहि 987- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि अथैनामेव विवरीषुराहजइ पुण सध्वो विहितो, सेविजा होज चरिमपच्छित्तं / तम्हा पसंगरहियं, सेवइ तं न सेसाई // 354|| पुनःशब्दो-विशेषणे, किं विशिनष्टि यद्येष नियमो भवेत् तस्मात् प्रसङ्गरहितं यत् स्थान सेवते तन्निष्पन्नमेव प्रायश्चित्तं भवति, न शेषाणि मूलादीनि। अथ "चरमपदे चरमपद" मिति पदं भावयतिअदिट्ठाओ दिलु, चरमं तहि संकमाइ जा चरिमं। अहव ण चरिमारोवण, ततो विपुण पादए चरिमं // 355|| अदृष्टपदाद् दृष्टपदं चरमम्, तत्र चरमपदे शङ्का भोजिकाघाटिकादिक्रमेण चरमपदंपाराञ्चिकं यावत् प्राप्नोति। आह-यदि दृष्टं ततः कथं शङ्का ननु निःशङ्कितमेव, उच्यते-दूरेण गच्छतो दृष्टेऽपि पदार्थे सम्यगविभावितेशङ्का भवति।अथवा-या यत्र चरमारोपणा यथा जघन्ये चरममूलम, मध्यमे चरममनवस्थाप्यम्, उत्कृष्ट चरमं पाराञ्चिकम्, तत्तत्र चरमपदम्, ततोऽपि चरमपदात् शङ्कादिभिः पदैश्चरमं पाराञ्चिकं पुनः प्राप्नोति। अहवा आणाइविरा-हणाइ एक्किक्किया उ चरिमपदं। पावइतेण उ नियमो, पच्छित्तिहरा अइपसको // 356 // अथवा आज्ञाऽनवस्थामिम्यात्वविराधनापदानां मध्ये यद्विराधनापदं तचरमम्, सा च विराधना द्विधा--आत्मनि,संयमे च। तस्या एकैकस्याः सकाशाच्चरमपदं--पाराञ्चिकं प्राप्नोति। तत्र प्रतिमायाः स्वामी तेन दृष्ट्वा प्रतापितस्यात्मविराधनायां परितापनादिक्रमेण पाराश्चिकम्, संयमविराधनायां तु तस्याः प्रतिमायाः हस्ताद्यवयवे भग्ने यतः संस्थाप्यमाने सति 'छक्काय चउसुलहुगा' इत्यादिक्रमेण पाराश्चिकम्, यत एवं प्रसङ्गः ततो बहुविधं प्रायश्चित्तम्। तेनायं नियमतस्तिष्ठतः स्थानप्रायश्चित्तमेवन प्रतिसेवनाप्रायश्चित्तम्, इतरथा अतिप्रसङ्गो भवति। कथमिति चेदुच्यतेनऽस्थि खलु अपच्छित्ती, एवं ण य दाणि कोइ मुश्चेजा। कारि-अकारिय-समया, एवं सइरागदोसाय॥३५७|| यद्यप्रतिसेवमानस्यापि मूलादीनि भवन्ति तत एवं नास्ति कोऽप्यप्रायश्चित्ती, नचेदानी कश्चित्कर्मबन्धान्मुच्यताम् / यः प्रतिसेवते तस्य कारिणः अकारिणश्च समता भवति, एवं प्रायश्चित्तदाने सति रागद्वेषौ प्राप्नुत इति। नयेऽपि चाज्ञादिनिष्पन्नमिति पदं व्याख्यानयतिपुरिमादी आणाए, अणवत्थ परंपराएँ थिरिकरणं / मिछत्ते संकादी, पसज्जणा जाव चरिमपदं // 658|| अपराधपदे वर्तमानस्तीर्थकृतामाज्ञाभङ्गं करोति तत्र चतुर्गुरु। अत्र च मौर्यर्मयूरपोषकवंशोद्भवैः, आदिशब्दादपरैश्चज्ञासारै राजभिर्दृष्टान्तः / ततश्च काले अनवस्थाप्यं वर्तते, तत्र चतुर्लधु, अनवस्थातश्च परंपरया स्थिरीकरणं तदेवापराधपदमन्योऽपि करोतीत्यर्थः / तदा वासौ देशतो मिथ्यात्वमासेवते तत्र चतुर्लघु / अपराधपदे च वर्तमानो विराधनायां साक्षादेव वर्तते, परस्य च शङ्गादिकं जनयति। यथैतन्मृषातथाऽन्यदपि सर्वममीषां मृषैव / प्रसज्जना चात्र भोजिकादिरूपा तत्र चरमपाराश्चिकं यावत्प्रायश्चित्तं भवति / बृ०१ उ०३प्रकला अथानवस्थामिथ्यात्वविराधनापदानि व्याचष्टअणवत्थाऐं पसंगो, मिच्छत्ते संकमाइया दोसा। दुविहा विराहणा पुण,तहियं पुण संजमे इणमो॥३६२ यद्येष बहुश्रुतोऽप्येवं सागारिके प्रतिश्रये स्थितः, ततः किमित्याहकिमपि न तिष्ठामीत्येवमनवस्थाप्यम्, अन्यस्यापि प्रसङ्गो भवति, मिथ्यात्वे शङ्कादयो दोषाः। शङ्का नाम किं मन्ये यथावादिनस्तथाकारिणोऽमी न भवन्ति / आदि शब्दाद-विरत्यादिधर्म प्रतिपद्यमानानां विपरिणाम इत्यादिदोषपरिग्रहः। विराधना द्विविधा-संयमे, आत्मनि च। तत्र संयमविषया तावदियम्अणट्ठदंडो विकहा, वक्खेव विसोत्तियाएँ सइकरणं / आलिंगणादिदोसा,ऽसंनिहिए ठायमाणस्स॥३६३।। अर्थः-प्रयोजनं तदभावोऽनर्थः तेन दण्डोऽनर्थदण्डः, स च द्रव्यतो यदकारणे राजकुले दण्ड्यते, भावतस्तु निष्कारणं ज्ञानांदीनां हानिः, सा सागारिके प्रतिश्रये स्थितानां भवति। विकथावक्ष्यमाणरूपा, व्याक्षेपो नाम-तां प्रतिमा प्रेक्षमाणस्य द्वितीय-साधुना च सहोल्लापं कुर्वतः सूत्रार्थपरिमन्थः / विश्रोतसिका द्विधा द्रव्यतः सारणी पानीयं वहमानं तृणादिकचवरस्थानीयया चित्तविप्लुत्या निरुद्ध सति चारित्रस्य विनाशो जायते सा विश्रोतसिकेत्युच्यते,तया स्मृतिकरणं भुक्तभोगिनां कौतुकम्, आलिङ्गनादयश्च दोषा भवन्ति। एते असंनिहितेप्रतिमारूपे तिष्ठतो दोषाः। अथ विकथापदं विवृणोतिसुठुकया अह पडिमा,विणासिया न वि य जाणसि तुमं पि। इय विकहा अहिगरणं, आलिंगणे भंगें भद्धितरा // 36 // एकःसाधुः ब्रवीति-सुष्ठुकृतेयं प्रतिमा,द्वितीयः प्राह-विनाशितेयं नापि चजानासि त्वमपि, इत्येवं विकथा / ततश्चोत्तरप्रत्युत्तरिकां कुर्वतोस्तयोरधिकरणं भवति। अथ कोऽप्युदीर्णमोहस्तां प्रतिमामालिङ्गेत्, तत आलिङ्गने प्रतिमाया हस्तपादादिभङ्गो भवेत्, सपरिग्रहायाश्च प्रतिभायां भद्रकेतरदोषाः, भद्रका हस्तपादादिभने सजाते सति पुनः संस्थापनं विदध्यात्, प्रान्तः आकर्षग्रहणादीनि कुर्यात् / एते असंनिहिते दोषा उक्ताः / संनिहितेऽपित एव वक्तव्याः। ___एते चान्येऽधिकाःवीमंसा पडिणीय-ट्ठया व भोगित्थिणीच संनिहिया। काणच्छी उकंपण, आलावनिमंतणपलोभे य॥३६५।। संनिहिता सा त्रिभिः कारणैः साधुं प्रलोभयेत्, विमृश्यावा, प्रत्यनीकार्थतया वा, भोगार्थितया वा, विमर्शो नाम किमेष साधुः शक्यः क्षोभयितुं नवेति, जिज्ञासा च-या प्रतिमामनुप्रविश्य काणाक्षिकं वा उत्कम्पनं वा स्तनादीनां विदधीत, आलापं वा कुर्यात्।
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________________ वसहि 988 - अभिघानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि काणच्छिमाइएहिं,खोभिय-ओद्धाइयस्स भद्दाओ। कटकमई कुर्यात् / यद्वा यस्तस्याचार्यो गच्छः कुलगणसंघो वा तस्य नासह इतरो मोहं, सुवण्णकारेण दिटुंतो // 366 / / प्रस्तारोविनाशः क्रियते। यदा काणाक्षिप्रभृतिभिराकारैः क्षोभितपदा गृह्णास्येनामित्यभिप्रा- | तथायेणोद्धावितस्तस्य सा देवता यदि भद्रा ततो नश्यति। इतरः साधुस्तस्यां गहणे गुरुगा मासा, कङ्कणे छेदो य होइ ववहारे। दर्शनीभूतायां मोहं गच्छति, संमूढश्च तां द्रष्टुमिच्छति। हा कुत्र गताऽसि, पच्छाकडम्मि मूलं, कड्डण विरूवणे नवमं // 371 / / देहि सकृदात्मीयदर्शनमित्यादिप्रलापांश्च करोति। अत्रच सुवर्णकारेण उट्ठावण निव्दिसए, एगमणेगे पदोसपारंची। चम्पानगरीवास्तव्येनानङ्गसेनाख्येन दृष्टान्तः। स चावश्यकादिग्रन्थेषु अणवट्टप्पो दोसु य, दोसु य पारंचिओ होइ॥३७२।। प्रसिद्धः / (सच 'दसउर' शब्दे चतुर्थभागे 2477 पृष्ठे गतः।) स साधुः प्रतिसेवमानो यदि देवकुलस्वामिना गृहीतः ततो ग्रहणे चत्वारो प्रत्यनीकार्थतयेति व्याचष्टे गुरुकाः, अथ हस्ते वा वस्त्रे वा गृहीत्वा राजकुलाभिमुखमाकृष्टस्तत वीमंसा पडिणीया, विद्द(द)रिसणखित्तमादिणो दोसा। आकर्षण षड्लघवः, तेन साधुना प्रत्याकर्षितस्ततः षण्मासा गुरवः, असंपत्ति संपत्ती, लग्गस्सय कडणादीणि // 367 / / व्यवहारे प्रारब्धे छेदः, पश्चात्कृते पराजिते मूलम्, उड्डहने-रासभारोप्रत्यनीकात् विमर्शात् काणाक्षिप्रभृतिभिराकारैः क्षोभयित्वा यदाऽसौ हणादिके विरूपणे वा-नासिकादिकर्तनेन विरूपणाकरणे नवमम्उत्थापितस्तदा 'असंपत्ति' त्ति यावदसौ हस्तादिना नैव गृह्णाति, अनवस्थाप्यम्, एकस्मिन्ननेकेषु वा साधुषु प्रद्वेषतोऽपदावणे कृते निर्विषये तावद्विदर्शनं-विवक्षितं रूपं दर्शयति अथवा-विदर्शनं नाम अलग्नमेव वा आज्ञप्ते प्रतिसेवके आचार्ये वा पाराश्चिकम् / एवं च द्वयोरुड्डाहनलोको लग्नं पश्यति। यदा-सा तस्य साधोः क्षिप्तचित्तादिदोषान् कुर्यात, विरूपणयोरनवस्थाप्यः, द्वयोस्तु अपद्रावणनिर्विषयतायां द्वयोः अथवा-परिभोगसंपत्तिं कृत्वा तत्रैव तस्य सागारिकं लापयेत्, श्वा (ना) पाराञ्चिको भवतीति। दिवत् लग्नस्य च तस्य लेप्यकस्वामी अन्यो वा दृष्टा ग्रहणाकर्षणादीनि अथवा प्रद्विष्टः सन्नेवं कुर्यात्कुर्यात्। एयस्स नऽस्थि दोसो, अपरिक्खियदिक्खगस्स अह दोसो। एतदेव व्याचष्ट इति पंतो निट्विसए, उद्दवणविरूवणं व करे // 373 / / पंता उ असंपत्ती, इमेव मारिज खेत्तमादीय। एतस्य प्रतिसेवकसाधो स्तिदोषः किंतु एनमपरीक्षितंयो दीक्षितवान् संपत्ती य विलाए, तु कणादीणि कारेज्जा / / 368 / / तस्यैव दोष इति विचिन्त्य प्रान्त आचार्य निर्विषयं कुर्यात्, अपद्रावयेद् प्रान्तः पुनरसंपत्त्यामेव यावदद्याप्यसौ हस्तादिनान गृह्णातितावन्मा- | वा, कर्णनासानयनाद्युत्पाटनेन विरूपणं वा कुर्यात्। रयेद्वा, क्षिप्तचित्तम्, आदिशब्दाद्यक्षाविष्टं वा कुर्यात् / संपत्त्यामपि __ अथासंनिहिते एते दोषाःसांगारिकं लापयित्वा ग्रहणाऽऽकर्षणादीनि कारयेत्। तत्थेव य पडिबंधो, अदिगमणाइ वा अणितीए। अथ भोगार्थिनीपदं विवृणोति एए अन्ने य तहिं, दोसा पुण हों ति संनिहिए // 374 / / भोगस्थि विगए कोउ कम्मि खित्ताइदित्तचित्तं वा। तत्रैव-तस्यामेव देवतायां संयतस्य प्रतिबन्धो भवेत्, अथवा-सा दठूण व सेवंतं, देउलसामी करेज्ज इमं // 366 / / व्यन्तरी विगतकौतुका सती नागच्छति, ततस्तस्यामनायान्त्यां स भोगार्थिनी देवता काणेक्षिकादिभिराकार रूपैः प्रलोभ्य क्षुभितेन सह प्रतिगमनादीनि कुर्यात्। एते चैवमादयो दोषा लेप्यकस्वामिना अदृष्टऽपि भोगान् भुक्त्वा, विगते भोगविषये कौतुके, मा अपरया सह भोगान् संनिहिते प्रतिमारूपे भवन्ति। भुतामिति कृत्वा तं क्षिप्तचित्तं वा यक्षाविष्टं दृप्तचित्तं वा कुर्यात्। अथवा ताश्च संनिहिताः प्रतिमा ईदृश्यो भवेयुः। तां देवतां सेवमानं तं साधुं दृष्ट्वा देवकुलस्वामी यथा भावेनेदं कुर्यात्-- कट्ठ पुच्छे चित्ते, दंतकम्मे य सेलकम्मे य / तं चेव निट्ठवेई, बंधण निच्छुभण कडगमद्दो य। दिटिप्पत्ते रूवे,खित्तचित्तस्स मंसणया॥३७५।। आयरिए गच्छम्मिय, कुलगणसंधे य पत्थारो॥३७०।। काष्ठमयी पुच्छमयी चित्रमयी दन्तकर्ममयी शैलकर्ममयी प्रतिमा भवेत्। तमेव साधुंक्रुद्धः सन्देवकुलस्वामी निष्ठापयति-मारयतीत्यर्थः। यदि किं पुनस्तासामाश्रयस्थाने प्रतिसेवने वा। वा-प्रचुरोऽसौ ततः स्वयमेव तं साधुं बध्नीयात् / अप्रचुरेऽपि प्रभुणा तासां पुनः संनिहितदेवतानामिमे प्रकाराःबन्धापयेत्, अथवा- वसतेः-ग्रामान्नगराद्देशाद्राज्यादा निष्क्राशयेत्, सुहविनवणा सुहा, सुहविनवणा य होति दुहमोया। कटकः-स्कन्धावारः स यथा परविषये तीर्णः कस्याप्येकस्य राज्ञः दुहविन्नप्पा य सुहा, दुहविन्नप्पा य दुहमोया // 376|| प्रद्वेषेण निरपराधान्यपि ग्रामनगरादीनि सर्वाणि मृढाति एवमेकेन साधुना विज्ञपना नाम-प्रार्थना प्रतिसेवना वा, सा सुखेन यासां कार्य कृतं दृष्ट्वा यो यत्र दृश्यते सतत्रबालवृद्धादिरपि सर्वो मार्यते, एवंविधं | ताः, सुखविज्ञपनाः, सुखेन मोच्यन्त इति सुखमोचाः सुपरित्या
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________________ वसहि 986 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि ज्या इत्यर्थः, एष प्रथमो भङ्गः। सुखविज्ञपनादुःखमोचा इति द्वितीयः, दुःखविज्ञप्या सुखमोचा इतितृतीयः। दुःखविज्ञप्या दुःखमोचा चतुर्थः। तत्र प्रथमभङ्गे दृष्टान्तमाहसोपारयम्मि नगरे, रन्ना किर मग्गितो उ निगमकरो। अकरो त्ति मरणधम्मा, बालतवे धुत्तसंजोगो // 377 / / पंचसय भोइ अगणी, अपरिग्गह सालिभंजि सिंदूरे। तुह मज्झ धुत्तपुत्ता, दिअवने विज्जखीलणया॥३७८|| "सोपारयं नगरं, तत्थ निगमा अकरा परिवति / ताण य पंच कुटुंबसयाणि।तत्थ राया मंतिणा बुग्गाहितो तेण निगमा करं मम्गिता। ते पुत्ताण पुत्तियं करो एस भविस्सइ त्ति काउंन दिति। रन्ना भणिया-जइ नदेह तो इमम्मि गेहे अग्गिपवेसंकरेह। ततो ते सव्वे अग्गिं पविट्टा तेसिं नेगमाणं पंच महिलासयाई, ताणि वि अम्गि पविट्ठाणि / ताओ अतीए अकामनिज्जराए पंच वि सयाओ वाणमंत-रियाओ जायाओ तेहि य निगमेहिं तम्मि चेव नगरे देवलं कारियं अत्थि। तत्थ पंच सालिभंजिया सता, ततो ताहिं देवताहिं परिग्गहियाओ ताओ अ देवताओ। न कोई अप्पड्डिओ वि देवो इच्छइ। ताहे धुत्तेहिं समं संपलग्गाओ। तेधुत्ता तस्स बंधेण भंडणं काउं माढत्ता, एसा मज्झन तुझं,इतरो वि भणेइ-मज्झं न तुज्झं। जाय जेण धुत्तेणं सह अच्छइ सा तस्स सव्वं पुव्वभवं कहेइ। ततो ते भणंति-अरे अमुकनामया एसा तुझं माया भगिणी वा, इयाणिं अमुगेण सम संपलग्गा। ता य एगम्मि पीइंन बंधंति, जोजो पडिहाइ तेण सह अच्छंति। तं च सोउंतासिं पुव्वभविएहिं पुत्ताइएहिं अम्हे एस अयसो त्ति काउं विजावाइएण खीलावियाउ त्ति।" गाथाक्षरयोजना-सोपारके नगरे राज्ञा किल मार्गितो निगमानां-वणिग्विशेषाणां समीपे करः। तैश्चाकर इत्यपूर्वकरोमा भूदिति कृत्वा मरणधर्मो व्यवसितः तासां च भोजिकामहेला पञ्च शतानि अग्रिप्रवेशलक्षणेनबालतपसा देवता अपरिगृहीताः संजाताः, धूर्तश्च सह संयोगः / कथमित्याह- सिन्दूर-सिन्दूरारुणं यद्देवकुलं तत्र शालिभञ्जिकानां पञ्चशतानिताभिर्देवताभिः परिगृहीतानि / तत्र स्थिताश्च धूर्तेः समं संप्रलग्नाः 'तुह मज्झे त्ति नेयं तव ममेयमित्येवं तेधूर्ताः कलहायितवन्तः, ततस्तासांपूर्वभववृत्तान्तं श्रुत्वा अवण्णोऽयमस्माकमिति कृत्वा पुत्रादिभिर्विद्याप्रयोगेण तासां कीलना कारितेति। उक्तः प्रथमो भङ्गः। अथ शेषभङ्गत्रयं भावयतिबिइयम्मि रयणदेवय, तइए भङ्गम्मि सुइगविजाओ। गौरीगंधारीइं, दुहविण्णप्पा य दुहमोया // 376 / / द्वितीये भङ्गे रत्नदेवतानिदर्शनम्, साह्यल्पर्द्धिकत्वात् कामाऽऽतुरत्वाच सुखविज्ञपना सर्वसुखसंपादकतया च दुःखमोचा। तृतीये भङ्गे शुचयो विद्यादेव्यस्ताः शुचितया महर्द्धिकतया च दुःख-विज्ञपना, उग्रतया नित्यमत्यन्ताप्रमत्तैराराधनीयत्वात् पर्यन्ते सापायत्वाच्च सुखमोचाः / चतुर्थे पक्षेगौरीगान्धारीप्रभृतयो मातङ्गविद्यादिदेवता द्रष्टव्याः तथाहिताः साधनकाले लोकगर्हिततया दुःखविज्ञप्याःया ह्यभीष्टसंचपकतया दुःखमोचाः, इति भाविताश्चत्वारो भङ्गाः। अथ प्राजापत्यादित्रिविधपरिगृहीतेषु गुरुलाघवमाह-- तिण्ह वि कतरो गुरुतो, पागइकोडुबिदंडिए चेव / साहसअपरिक्खमए, इयरे पडिपक्खिपभुराया // 30 // शिष्यः पृच्छति-त्रयाणां प्राजापत्यकौटुम्बिकदण्डिकौ तौ प्राकृतकस्य प्रतिपक्षभूतौ। किमुक्तं भवति-तौन साहसिकौ तावप्यपरीक्षितकारिणौ, भयं च तयोर्भवति। अत्राचार्यःचह-दण्डिककौटुम्बिकौ गुरुतरौ, प्राकृते लधुतरः। यतो राजा उपलक्षणत्वात्कौटुम्बिकप्रभुः प्रभुत्वाच स एकस्य रुष्टः संघस्य प्रस्तारं कुर्यादिति। अथ कौटुम्बिकदण्डिानां यद्भयमुत्पद्यते तद्दर्शयन् परः स्वपक्षंद्रढयन्नाह-- ईसरियत्ता रजा, व भंसए मधु पहरणा रिसओ। ते य समिक्खियकारी, अण्णावि ते सिंबहू अस्थि // 31 // ऐश्वर्यवत्ता मृत्युः प्रहरणाश्चापायुधयुताः कोपिताः सन्तो मामेते भ्रंशयेयुरिति, कौटुम्बिकः चिन्तयेत्-राजानुगाअमीराज्यात्ध्वंशयेयुरिति चिन्तयति / ते च राजादयः समीक्षितकारिणो नाविमृश्य कार्य कुर्वन्ति / अन्यच तेषामन्या अपि बहवः प्रतिमाः सन्ति / अतस्तस्यामेकस्यामेव तेषां नाऽऽदरः। एवं परेण स्वपक्षे भाविते सति सूरिराहपत्थारदोसकारी, निवावराहो य बडुजणे फुसई। पागइओ पुण तस्सव, निवस्सव भया न पडिकुजा // 32 // प्रस्तार:-कटकमईः एकस्य रुष्टः सर्वमपि यत्र व्यापादयतीत्यर्थः, तद्दोषकारी राजा, नृपापयराधश्च बहुजनान् स्पृशति, जनमध्ये प्रकटीभवति इति भावः / एवं कौटुम्बिकस्याऽपि द्रष्टव्यम् / अत एतौ द्वावपि गुरुतरौ,प्राकृतकापराधस्तु बहुजनंनस्पृशति। अपिच--प्राकृतकस्तस्य वा-संयतस्य नृपस्य वा भयान्न प्रतिकुर्यात्- न प्रत्यपकारं करोति। अविय हु कम्म होणी, न य गुत्तीओ सि नेव दारट्ठा। तेण कयं पिन नजइ, इतरेत्थ पुणो धुवा दोसा // 383 // अपि चेत्यभ्युच्चये, प्राकृतकः क्षेत्रखलादिकर्मभिरक्षणिकस्ततस्तासां प्रतिमानामुदन्तं न वहति, न च तत्संबन्धिनीषु देव-द्रोणीषु गुप्तिरात्यन्तिकी रक्षा, न वा द्वारस्था-द्वारपालास्ततः कृतमपि प्रतिमाप्रतिसेवनं जायते, इतरत्रतुदण्डिककौटुम्बिकेषु पुनर्बुवा-अवश्यंभाविनः प्रस्तारादया दोषाः द्वारपालादिरक्षासद्भावात्; अतएव तेषां प्रतिमासुपूर्व प्रभूततरं प्रायश्चित्तमुक्तम्। न केवलं प्रतिमासु, किं तु स्त्रीष्वपि तदीयासु गुरुतरं प्रायश्चित्तं भवतीति प्रसङ्गतो दर्शयितुमाहरनो य इत्थियाए, संपत्ती कारणम्मि पारंची। अमचि अणवठ्ठप्पो, मूलं पुण पागयजणम्मि॥३४॥ राज्ञः स्त्रियामग्र महिष्यां यन्मै थुनसम्पत्तिलक्षणं तत्र
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________________ वसहि 880- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि पाराश्चिको भवति / अमात्यायामनवस्थाप्यम्, प्राकृतजनस्त्रियां पुनर्मूलम्। शिष्यः प्राहतुल्ले मेहुणभावे, नाणत्तारोवणा तु कीस कया। जेण निवे पत्थारो, रागो वि य वत्थुमासज्जा / / 385 / / दण्डिकादिपरिगृहीतासु प्रतिमासु स्त्रीषु वा तुल्ये मैथुनभावे कस्मादारोपणायाः-प्रायश्चित्तस्य नानात्वं विशदृशता कृता / सूरिराह-येनकारणेन नृपे-राज्ञि प्रस्तार:-कटकमर्दो भवति, अतस्तत्राधिकतरं प्रायिश्चत्तम्। तदपेक्षया कुटुम्बिके प्राकृते च यथाक्रमं स्वल्पा स्वल्पतरा दोषाः, ततस्तयोः प्रायश्चित्तमपिहीनं हीनतरम्। रागोऽपि च वस्तु आसाद्य भवति / यादृशं जघन्यं मध्य-ममुत्कृष्ट वा वस्तु रागोऽपि तत्र तादृशो भवतीति भावः। इदमेव भावयतिजइ भागा तति मत्ता, रागादीणं तहा वओकम्मे। रागाइविहुरया वि हु, पायं वत्थूण विहुरत्ता / / 386|| रागादीनां मात्रा जघन्यादिरूपासु त्रिषु यावत्संख्याकेषु भागेषु गतास्थिता कर्मण्यपि-ज्ञानावरणादौ च यो बन्धः स तथैव दृष्टव्यः। अथ रागतया मात्रानानात्वं कथं भवतीत्याह-रागादीनां विधुरताऽपि मात्रावैषम्यमपि प्रायो वस्तूनां स्त्रीप्रभृतीनां विधुरत्वात् सुन्दरसुन्दरतरसुन्दरतमविभागाद्भवति / प्रायोग्रहणं कस्यापि कदाचिद्वस्तु वैसदृश्यमन्तरेणापि रागादिवैसदृश्यं भवतीति ज्ञापनार्थम्, यतश्चैवमतो युक्तियुक्त दण्डिकपरिगृहीतासु स्त्रीषु प्रतिमासु वा प्रायश्चित्तनानात्वम् / तदेवमुक्त दिव्यप्रतिमायुतम्, अथ दिव्यस्यैव देहयुतस्यावसरस्तत्सचित्तं न संभवति, जीवस्तस्य-दिव्यशरीरस्य तत्क्षणादेव विध्वंसनात् / यत्तु सचित्तदेवीशरीररूपं देहयुतं तत्र स्थानप्रायश्चित्तं यथा प्रतिमायुते / प्रतिसेवनाप्रायश्चित्तं तुयथा मनुष्यस्त्रीषु भणिष्यते गतं दिव्यरूपम्। अथ मानुष्यरूपमाहमाणुस्सयं पितिविहं, जहन्नगं मज्झिमं च उक्कोसं। पायावचकुडुंबिय, दंडियपारिग्गहं चेव // 387 / / मानुष्यकमपि रूपं त्रिविधम्-जघन्यं मध्यममुत्कृष्टं च / पुनरेकैकं त्रिविधम् प्राजापत्यपरिगृहीतं कौटुम्बिकपरिगृहीतम्, दण्डिकपरिगृहीतं चेति। तत्रोत्कृष्टादिविभागमाहउक्कोस माउभजा, मज्झं पुण भगिणिधूतमादीयं / खरियादी य जहन्नं, पगयं सजिऍतरे देहे // 388|| इह गृहिणो मातरं भार्यां वा नान्यस्य कस्यापि प्रयच्छन्ति, अतो माता भार्या चोत्कृष्ट मानुष्यरूपम् / यास्तु भगिनीदुहितृपौत्र्यादयो अन्यस्मै स्वाभिरुचिताय दीयन्तेताः पुनर्मध्यमम्। खरिकादासीतदादयः इतरत् जघन्यम, एतत्त्रयमपि प्रत्येकं द्विधा-प्रतिमायुतं-देहयुतं च। प्रतिमायुतं दिव्यवद्वक्तव्यम्, देहयुतेन तु सजीवेन इतरेण वा अजीवेन प्रकृतमधिकारस्तद्विषयं प्रायश्चित्तं तावदाहपढमिल्लुगम्मि ठाणे, चउरो मासा हवंतऽणुग्घाया। छम्मासाऽणुग्घाया, बिइए तइए भवे छेदो॥३६॥ प्रथम नाम-जघन्यं मानुष्यरूपं तत्र प्राजापत्ये परिगृहीतादौ भेदत्रयेऽपि तिष्ठतश्चत्वारोऽनुद्धाता मासाः, गुरवइत्यर्थः / द्वितीयं-मध्यमं तत्रापि त्रिष्वपि भेदेषु षण्मासा अनुद्धाताः, तृतीयमुत्कृष्ट तत्र भेदत्रयेऽपि तिष्ठतश्छेदः। अथ कीदृशश्छेद इति ज्ञापनार्थमाहपढमस्स तइयठाणे, छम्मासुग्घाइओ भवे छेदो। चउमासो छम्मासो, बिइए तइए अणुग्घाओ॥३६०|| प्रथम-प्राजापत्यपरिगृहीतम् / तस्य यत्तृतीयं स्थानमुकृष्टमित्यर्थः, तत्रषाण्मासिकः छेदः। द्वितीय कौटुम्बिकपरिगृहीतं तस्य तृतीये स्थाने चतुर्गुरुकच्छेदः,तृतीयं दण्डिकपरिगृहीतं तत्रापि यत् तृतीयं स्थानं तत्र षाण्मासिकउद्धातच्छेदः। पढमिल्लुगम्मि तवॉरिह, दोहि विलहु हो ति एतें पच्छित्ता। दिइयम्मि य कालगुरू, तवगुरुगा होति तइयम्मि॥३६॥ प्रथम-प्राजापत्यपरिगृहीतं तत्र जघन्यमध्यमयोर्ये तपोऽहे प्रायश्चित्ते चतुर्गुरू, तेद्वाभ्यामपि तपःकालाभ्यां लघुके कर्तव्ये, द्वितीये कौटुम्थिकपरिगृहीतेतेएव कालगुरुके, तृतीये दण्डिकपरिगृहीतेतेएव तपसा गुरुके, कालेन लघुके। उत्कृष्टमुक्तं स्थानप्रायश्चित्तम्। अथ प्रतिसेवनामाहचउगुरुगा छग्गुरुगा,छेदो मूलं जहन्नए होइ। छग्गुरुगछेअमूलं,अणवठ्ठप्पो य पारंची // 392 / / (एवं दिट्ठमदिढे, सेवंते पसज्जणं मोत्तुं / ) प्राजापत्यपरिगृहीतं जघन्यम् अदृष्टं प्रतिसेवते चत्वारो गुरवः, दृष्ट षण्मासा गुरवः / कौटुम्बिकपरिगृहीतं जधन्यमदृष्ट प्रतिसेवते षण्मासा गुरवः, दृष्ट छेदः / दण्डिकपरिगृहीते उत्कृष्ट अदृष्ट मूलम, दृष्ट अनवस्थाप्यम्, दण्डिकपरिगृहीते उत्कृष्ट अदृष्ट, अनवस्थाप्यम दृष्ट पाराश्चिकम्। दृष्टादृष्ट प्रतिसेवमानस्य प्रसज्जना शङ्का भोजिकादिलक्षणं मुक्त्वा प्रायश्चित्तं मन्तव्यम्। अत्र नोदकः प्राहजम्हा पढमे मूलं, बिइए अणवट्ठों तइएँ पारंची। तम्हा ठायंतस्स य, मूलं अणवट्ठ पारंची॥३६३।। अत्राचार्यः परिहारमाहपडिसेवणाय एवं,पसज्जणा तत्थ दोइ एकके। चरिमपदे चरिमपदं, तं पिय आणाइनिष्फन्नं // 364|| अनयोाख्या प्राग्वत्। ते चेव तत्थ दोसा, मोरियआणाए जे भणियपुटिव। आलिंगणाइ मोत्तुं, माणुस्से सेवमाणस्स॥३६५।। त एवानवस्थामिथ्यात्वादयस्तत्र मानुष्यकस्त्रीरूपे दोषा ये पूर्व 'मूरियाइ आणाए' इत्यादि गाथायां भणिताः, नवरं दिव्यप्रतिमाया आलिङ्गने ये भङ्गदोषा भद्रकप्रान्तकृता उक्तास्तान्मुक्त्वा शेषाः सर्वेऽपि मानुष्यक सेवमानस्य भणितव्याः।
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________________ वसहि 161 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि इदमेव स्पष्टतरमाहआलिंगते हत्था-इ भंजणे जे उ पच्छकम्माऽऽदी। ते इह नऽत्थि इमे पुण, नखादिविच्छेयणे सूया // 396|| लेप्यप्रतिमामालिङ्गमानस्य तस्य प्रतिमाया हस्तपादाद्यवयवभङ्गे सति ये पश्चात्कर्मादयो दोषाःउक्तास्ते इहमानुष्यके देहे युते न भवन्ति / इमे पुनर्दोषः अत्र भवन्ति-सा स्त्री कामातुरतया तं साधु नखैर्विच्छिद्यात्, आदिशब्दान्तिक्षतानि वा कुर्यात्,तैश्च तस्य श्रावकस्य स्वपक्षण वा परपक्षेण वा तथा क्रियते।यदेतस्य वपुषिनखदन्तक्षतानि दृश्यन्ते, तदेष निश्चितं प्रतिसेवक इति। अथ मानुषीषु चतुरो विकल्पान् दर्शयतिसुहविन्नप्पा सुहमो-इयाय सुहविन्न(प्पा)पाय दुहमोया। दुहविन्नप्पा य सुहा, दुहविन्नप्पा य दुहमोया // 367|| सुखविज्ञप्याः सुखमोच्याः१,सुखविज्ञप्या दुःखमोच्याः२, दुखविज्ञप्याः सुखमोच्या 3, दुःखविज्ञप्या दुःखमोच्याश्चेति / चतुर्वपि भङ्गेषु यथाक्रमममूनि निदर्शनानिखरिया महिड्डिगणिया, अंतेपुरिया य रायमाया य। उभयं सुहविन्नवणा, सुहमोयाँ दो हिं पि दुहमोया // 368 / / | खरिका-द्यक्षरिका सा सर्वजनसाध्यतया सुखविज्ञप्या, परिफल्गुसुखलवास्वादनहेतुत्वाच सुखमोच्या १,या तुमहर्द्धिका गणिका साऽपि साधारणस्त्रीत्वेनैव सुखविज्ञप्या, यौवनरूपविभ्रमादिभावयुक्तत्वेन दुःखमोच्या २,या पुनरन्तः-पुरिका सा वर्षधरादिरक्षापालकैर्दुष्प्रापतया दुःखविज्ञप्या प्रत्यपायबहुलतया च सुखमोच्या ३,यातुराज्ञः संबन्धिनी माता सा सुरक्षिततया सर्वस्यापि च गुरुस्थाने पूजनीयतया च दुःखविज्ञप्या, प्राप्ताच सती सर्वसौख्यसंपत्तिकारिणी, प्राणांश्च तत्र राज्ञा विधीयमानान् प्रत्यपायान् रक्षितुं शक्नोतीति दुःखविमोच्या 4 / उभयमिति प्रथमा सुखविज्ञाप्या सुखमोच्या 1, 'सुहविन्नवण' त्ति द्वितीया सुखविज्ञप्या परं दुःखमोच्या 2, 'सुहमोय' त्ति तृतीया सुखभोचा परं दुःखविज्ञप्या 3, चतुर्थी द्वाभ्यामपि दुःखादुःखविज्ञप्या दुःखमोच्या चेति। अथाऽऽक्षेपपरिहारौ प्राहतिण्ह वि कयरो गुरुओ, पागयकोंडंविदंडिए चेव। साहस असमिक्खभए, इयरे पडिपक्खपभुराया // 36 // ईसरियत्ता रजा, व मंसए मच्चु पहरणारिसओ। ते य समिक्खियकारी,अन्ना वितेसिं बहू अस्थि / / 400 / पत्थारदोसकारी, निवावराहो य बहुजणे फुसई। पागइओ पुण तस्सव, निवस्सव भया न पडिकुन्जा11०१।। अवि य हु कम्महोणी,नय गुत्तीओ सि नेव दारट्ठा। तेण कयं पिन नजइ, इतरत्थ पुणो धुवा दोसा // 402 / / तुल्ले मेहुणभावे, नाणत्ताऽऽरोवणा उ कीस कया। जेण निवे पत्थारो, रागो विय वत्थुमासज्ज / / 403|| इदं गाथापञ्चकमपि दिग्द्वारवद् द्रष्टव्यम् / गतं मानुष्यकम् / तैरश्चमाहतेरिच्छगं पितिविहं, जहन्नयं मज्झिमंच उक्कोसं। पायावच कुडुंबिय, दंडियपारिग्गहं चेव ||4|| तैरश्चमपि रूपं त्रिविधम्-जघन्यम्, मध्यमम्, उत्कृष्टश्च / पुनरेकैकं त्रिधा-प्राजापत्यं, कौटुम्बिकं,दण्डिकपरिगृहीतंञ्चेति। तत्रअइयाऽमिला जहन्ना, खरमहिसी मज्झिमा वलवमादी। गोणिकरेणुकोसा, पगयं सजिएतरे देहो // 40 // अजिकाः-छगलिकाः, अमिला:-पटकाः, एता जघन्या जघन्य तैरश्वरूपमित्यर्थः। एवं खरमहिषीवडवाऽऽदयो मध्यमाः, गावः प्रतीताः, करेणवो-हस्तिन्यस्ता उत्कृष्टा उत्कृष्ट तिर्यग्रूपम्, एतत्त्रयमपि द्विधाप्रतिमायुतं,देहयुतं च / इह सजीवेनेतरेणाजीवेन देहयुतेन प्रकृतम्, तद्विषयं प्रायश्चित्तमभिधास्यते इत्यर्थः। तत्र स्थानप्रायश्चित्तमाहचत्तारि य उग्घाया, जहन्नए मज्झिमे अणुग्घाया। छम्मासा उग्घाया, उक्कोसे ठायमाणस्स।।४०६|| प्राजापत्यपरिगृहीतादौ जघन्यके तैरश्चदेहयुते तिष्ठति चत्वार उद्धाताः। मध्यमे तिष्ठति चत्वारोऽनुद्धाताः, उत्कृष्ट तिष्ठतः षण्मासा उद्धाताः। पढमिल्लुगम्मि ठाणे, दोहि वि लहुगा तवेण कालेणं / बिइयम्मि उकालगुरू, तवगुरुगो होति तइयम्मि||४०७।। तान्येव गुरुकाणि तृतीयं दण्डिकपरिगृहीते गुरुकाणि / गतं स्थानप्रायश्चित्तम्। अथ प्रतिसेवनाप्रायश्चित्तमाहचउरो लहुगा गुरुगा, छेदो मूलं जहन्नए होई। चउगुरुगछेदमूलं, अणवठ्ठप्पो य मज्झिमए / / 408|| छेदो मूलं च तहा, अणवठ्ठप्पो य होइ पारंची। एवं दिट्ठमदिढे, सेवंते पसज्जणं मोत्तुं // 40 // प्राजापत्यपरिगृहीते जघन्ये दृष्ट प्रतिसेवने चत्वारो लघवः, कौटुम्बिकपरिगृहीते जघन्ये अदृष्ट चत्वारो गुरवः, दण्डिकपरिगृहीते जघन्ये अदृष्टे छेदः, दृष्ट मूलम् / प्राजापत्यपरिगृहीते मध्यमे अदृष्ट चत्वारो गुरवः, दृष्ट छेदः। कौटुम्बिकपरिगृहीते मध्यमे अदृष्ट छेदः, मूलम्। दण्डिकपरिगृहीते मध्यमे अदृष्ट मूलम्, दृष्ट अनवस्थाप्यम् / प्राजापत्यपरिगृहीते उत्कृष्ट अदृष्ट छेदः, दृष्ट मूलम्। कौटुम्बिकपरिगृहीते उत्कृष्ट अदृष्ट मूलम्, दृष्ट अनवस्थाप्यम्। दण्डिकपरिगृहीते उत्कृष्ट अनवस्थाप्यम् दृष्ट पाराश्चिकम् एवं दृष्टादृष्टयोः प्रसज्जनां शङ्कां भोजिकादिरूपां मुक्त्वा प्रायश्चित्तं ज्ञातव्यम्। अत्र प्रागुक्तमेवाक्षेपपरिहारप्रतिबद्धं गाथाद्वयमाहजम्हा पढमे मूलं,बिइए अणवढे तइएँ पारंची। तम्हा ठायंतस्स य, मूलं अणवट्ठ पारंची॥४१०।। पडिसेवणाऐं एवं, पसजणा तत्थ होइ इकिके। चरिमपदे चरिमपदं,तं पिय आणाइनिप्फनं / / 411 //
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________________ वसहि ९९२-अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि गतार्थम्। ते चेव तत्थ दोसा, मोरियआणाए जे भणियपुटिव। आलावणाएँ मोत्तुं, तेरिच्छे सेवमाणस्स // 412 / / मौर्यदृष्टान्तद्वारेण या भगवतामाज्ञा बलीयसी प्रसाधिता तस्या भङ्गे ये दोषाः पूर्वं दिव्यद्वारेण मनुष्यद्वारेण च भणिताः,तेऽपि तथैवात्र द्रष्टव्याः, परम् आलापनादीन् मुक्त्वा शेषास्तत्र तैरश्चे देहयुते सेवमानस्य भवन्ति। एतदेवालापनादिपदं व्याचष्टेजह हासखेड्डआगार, विन्भमा हो ति मणुयइत्थीसुं। आलावगा बहुविहा,तह नऽस्थितिरिक्खइत्थीसं॥४१३|| यथा मनुष्यस्त्रीषु हास्यक्रीडा आकारविभ्रमालापाश्च बहुविधा भवन्ति तथा तिर्यक्रत्रीषु अभावात् मनुष्यस्त्रीभ्यः तिर्यक्रस्त्रीणां विशेषः / अथ चतुर्भङ्गीमाहसुहविन्नप्पा सुहमो-इयाय सुहविन्नप्पॉ दुहमोया। दुहविन्नप्पा य सुहा, दुहविन्नप्पा य दुहमोया // 41 // गतार्था। अत्रोदाहरणानिअमिलाई उभयसुहा, अरहण्णगभाइमक्कडि दुमोया। गोणाइ तइयभङ्गे, उभयदुहा सीहिवग्धीओ॥४१५॥ अमिलाः-पटकास्ता आदिशब्दाद्-अजाखरिकादयश्च तिर्यक् स्त्रिय उभयसुखाः-तत्रातिप्रत्ययापत्त्या सुखविज्ञप्याः,लोकगर्हितत्वेन तुच्छसुखास्वादहेतुत्वाच सुखमोच्याः / 'अरहन्नगभाइ-मकडि' त्ति अरहन्नकस्य भ्रातृजाया तदनुरागात् मृत्वा या मर्कटी जाता, तदादयस्तिरश्च्यो दुःखमोच्याः,परं सुखविज्ञप्याः / (अरहन्नकदृष्टान्तश्च 'अरहण्णग' शब्दादवसातव्यः)२। तृतीयभङ्गे तु-गोमहिष्यादयः, ते स्वपक्षेऽपि दुःखेन सङ्गमं कारयन्ति किं पुनः परपक्षे मनुजेषु, ततो दुःखविज्ञपनाः। लोकजुगुप्सितश्च तासु संगम इति कृत्वा सुखमोच्याः३, यास्तु सिंहव्याघ्रीप्रभृतयस्ता उभयदुःखास्तत्र जीवितान्तकारिणीत्वाद् दुःखविज्ञपना, अनुरक्ताश्च सत्यः प्रतिबन्धवन्धुरतया दुःखमोच्याः / / अत्र नोदकः प्रश्नयति-को नाम प्रकृतोऽप्येतास्तिरश्ची, लोक-- जुगुप्सिताःप्रतिसेवेत विशेषतो जिनवचनपरिगलितमतिरित्यत्रोच्यतेजइ ताव णरवईसुं,मेहुणभावं तु पावए पुरिसो। जीवियदोचं जहि यं, किं पुण सेसासु जाईसु // 416|| यदि तावत् नरपतिपत्नीषु पुरुषो मैथुनभावं प्राप्नोति यत्र जीवितदोचं' ति जीवितभयं प्रायः जीवने संदेहो यासु भवतीत्यर्थः, किं पुनः शेषासु खरिकादिजातिषु / तथा चात्र दृष्टान्तः- "एका सीरिसी रिउकाले मेहुणचा साजाइपुरिसं अलभमाणी पंथेवहतं इक्कं पुरिसं चित्तुंगुहं पविठ्ठा / बाहुं काउमाढत्ता, सा य तेण पडिसेविता। तत्थ तसिंदोण्ह वि संसाराणुभावतो अणुरागो जातो। गुहाए ठियस्स सा दिणे दिणे पोग्गलं आणेउ देइ, सो वितं पडिसेवइ। किमंग ! पुण जासुजीवियभयं नऽत्थितासुन पडिसेवियव्यं" इति। यच्चोक्तम्-'विशेषतोजिनवचनपरिगलितबुद्धिरिति तदप्ययुक्तम्, ततः किमेषोऽपि श्लोको भवतो न कर्णकोटरमध्यमध्यासिष्ट-"मात्रा स्वस्रा दुहित्रा वा, न विविक्तासनो भवेत्। बलवानिन्द्रियग्रामः, पण्डितोऽप्यत्र मुह्यति" ||1|| उक्तं तैरवं रूपम्। तदुक्ती चसमर्थितंभावसागारिकम् एवं निर्ग्रन्थानामु-तम्। बृ०१उ०३प्रक०। (18) गृहमध्यान्मार्गवत्युपाश्रये न निवसेत्से भिक्खू वा मिक्खुणी वा से जं पुण जाणेजा गाहावइकुलस्स मज्झं मज्झेणं गंतुं पंथए पडिबद्धं वा नो पन्नस्स०जाव चिंताए तह० उध्वस्सए नो ठाणं चेइज्जा। (सू०-६२) 'से' इत्यादि यस्योपाश्रयस्य गृहस्थगृहमध्येन पन्थास्तत्र बहुपापसंभवान्न स्थातव्यमिति / तथा गृहपतिकुलस्य मध्येन निर्गमप्रवेशे वस्तुम्। आचा०२ श्रु०२ चू०२ अ०३ उ०। कप्पइ निग्गंथाणं गाहावइकु लस्स मज्झं मज्झेणं गंतुं वत्थए।॥३॥ अस्य व्याख्या प्राग्वत्। अथ भाष्यम्एसेव गमो नियमा, निग्गंथीणं पि नवरि चउलहुगा। नवरं पुण नाणत्तं,सालाए छिंडिमझे य॥५२०॥ एष एव निर्ग्रन्थसूत्रोक्तक्रमो निर्ग्रन्थीनामपि ज्ञातव्यः, नवरं तासां तत्र तिष्ठन्तीनां चतुर्लधुकं प्रायश्चित्तम्, वैक्रियापावृतादर्शविषयाश्च दोषा भवन्ति। शेषं सर्वमपि प्राग्वद्रष्टव्यम्, नवरं पुनर्नानात्वं विशेषः, शालायां छिण्डिकायां मध्ये त्रिष्वपि वक्तव्यम्। तत्र शालायां तावदाहसालाए कम्मकरा, उडुंचयगीयसयउवसहणं। घरखामणं च दाणं, बहुसो गमणं च संबंधो // 531 / / शालायां स्थितानामार्यिकाणां कर्मकरा उड्डुचकान कुर्युः। यथा यादृशी इयमार्यिका तादृशी मम शालिका मातुलदुहिता वा विदधते गीतेन वा ते कर्मकरादयः / प्रपञ्चन्ते यथा- 'चंदा सुखंति पडपंडरयं सुधंति,रज्जा ऍति तरुणाण मणं हरंति' इत्यादि उपहसनं वा कश्चित्करोति। ततश्च भिक्षार्थं गृहं गतायास्तस्याःक्षामणं दानं चवस्त्रपात्रादेर्गमनंच बहु तस्याः समीपे करोति। ततश्चैवं संबन्धस्तयोः परस्परं घटनं भवति। अथ पुनरेवोपहसनादीनि गाथात्रयेण भावयति-- पाणसमा तुज्झ मया, इमाय सरिसी सरिव्वया तीसे। संखे खीरनिसेओ, जुज्जइ तत्तेण तत्तं च // 532 // सो तत्थ तीऍ अन्ना-हि वावि निब्मथिओ गओ गेहं। खामितो किल सुदिओ, अक्खुन्नइ अग्गहत्थेहिं // 533 / / पाएसु चेडरूवे,पाडेत्तु भणाइ एस भे माता। जं इच्छइ तं दिज व, तुम पि साइज जायाई // 53 //
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________________ वसहि 663 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि तत्र शालादौ कांचिदुदाररूपां संयती दृष्ट्वा कश्चित् पुरुषःस्वसुहृदं वक्ति पत्नी सा तव मृता, अपरा च तथा-विधा न विलोक्यते, इयं तु संयती समागता भिक्षार्थम्, तस्याः सदृशी सदृगृपा सदृग्वयाः, अतस्तवाऽनया सह सम्बन्धो-विधीयमानः क्षीरनीरयोरिव तथा च लोहमपरेणापि तप्तेन सह संयोज्यमानमिव युज्यते, सुश्लिष्टी--भवति एवं बुवाणोऽसौ तया संयत्या अन्याभिर्वा संयतीभिढिं निर्भत्सितः सन्स वयस्योऽपि स्वगेहं गतः। अन्यदाच स तदीय-वयस्यः संयती भिक्षार्थं स्वगृहमागतां शठतया मुदितः सुष्ठु अतीवावृतः प्रयत्नपरः किल काङ्कामयन्निव अग्रहस्तैराक्षुभति / तस्याः पादौ विलगतीत्यर्थः / चेटरूपाणि च प्राक्तनपत्न्याः संबन्धीनि तस्याः संयत्याः पादयोः पातयित्वा भणति-एषा (भे) भवतां माता यत्किमपीयमिच्छति तत्सर्वमाहारादिजातमस्यै दातव्यम्, संयतीमपि भणति-एतत्त्वदीयं गृहम्, अमूनि च भवत्याः संबन्धीनि जातान्यपत्यानि। अतस्त्वमेतानि सर्वाणि सङ्गोपयेः एवमुक्त्वा वस्त्रान्नपानादीनिबहुशस्तस्याः प्रयच्छति। सा च स्त्रीस्वभावतया तुच्छेनाप्याहारादिना वशीक्रियत इत्यतो भूयो भूयस्तदीयगृहे गमनाऽगमनं कुर्वत्यास्तस्यास्तेन सह सम्बन्धो भवति, यत एते दोषा अतोन तत्र स्थातव्यम्। __ आह-यद्येवं ततः सूत्रापार्थक्यम्, नैवम्सुत्तनिवाओ पासे-ण गंतु बिइयपऍकारणज्जाए। सालाएँ मज्झ छिंडी, सागारियनिग्गहसमत्थे / / 535 // यत्र पार्चेन गत्वा निर्गमप्रवेशः क्रियते तत्र निर्ग्रन्थीभिर्द्वितीयपदेअध्वनिर्गमनादौ कारणजाते वास्तव्यमित्येवमत्र सूत्रनिपातः। तत्र च शालायां वा मध्ये वा छिण्डिकायां वा यदि सागारिको निग्रहसमर्थो जितेन्द्रियस्तरुणादीनां वा संयतीरुपसर्पयतां खरण्टनादिना शिक्षाकरणदक्षो भवति ततस्तत्र स्थातव्यम्। एतदेवव्याख्यातुमाहपासेण गंतु पासे, वजंतु तहि यं न होइ पच्छित्तं / मज्झेण वज्ज गंतुं, पिह उच्चारं घरं गुत्तं / / 536 / / दुज्जणवजा साला, सागार अवत्तत्तणगजुयावा। एमेव मज्झ छिंडी, नियसावगसज्जण जणे वा / / 537 / / यत्रपार्थेन गत्वा निर्गम्यते प्रविश्यते वा,यद्वा गृहं गृहपतिकुलस्य मध्येन गत्वा प्रविश्यते,तद्यदि पृथक्त्वामकायिकाभूमिकागुप्तं च कुड्यकपाटादिभिः सुसंवृतं ततस्तत्रापि प्रायश्चित्तं न भवति, तत्र यदिशालायां स्थातव्यं स्यात्तदा सा दुर्जनवर्जा-दुःशीलरहिता, यद्वा-सगारिकस्य संबन्धिनो ये अव्यक्ता अद्याप्यपरिणतवयसो भ्रूणका बालकास्तैर्युता या शाला तस्यां स्थातव्यम्, एवमेव चतुःशालकादिगृहमध्ये छिण्डिकायां वा यत्र निजकास्ता सामेव संयतीनां नालवद्धाः पितृभ्रात्रादयः श्रावका वा मातापितृसमाना जिनवचनभाविता भवन्ति, यानि वा सज्जनानां स्वभावत-एवसुशीलानां तथा भद्रकाणां गृहाणि तत्र स्थातव्यम्। बृ०१ | उ०३प्रक०। ('अहिगरण' शब्देऽपि प्रथमभागे ५७१पृष्ठेउक्तोऽयं विषयः) (16) यत्र गृहपतिजनाः कलहं कुर्वन्ति गात्राभ्यङ्गंवा कुर्वन्ति तत्र निषेधमाहसे भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण उवस्सयं जाणेशा इह खलु गाहावई वा०जाव कम्मकरीओ वा अण्णमण्णं अकोसंति वाजाव उद्दवंति वाणो पण्णस्सजाव सेवं नया तहप्प-गारे उवस्सए णो ठाणं वा०३ चेतेजा। (सू०-६३) से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण उवस्सयं जाणेजा इह खलु गाहावई वा० जाव कम्मकरीओ वा अण्णमण्णस्य गायं तेल्लेण वा घएण वा णवणीएण वा वसाए वा अन्भंगति वा मक्खेंति वा णो पण्णस्स०जाव चिंताए तहप्पगारे उवस्सए णो ठाणं वा०३ चेतेजा। (सू०-९४६) से मिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण उवस्सयं जाणेज्जा, इह खलु गाहावई वा०जाव कम्मकरीओ वा अण्णमण्णस्स गायंसि णाणेण वा कोण वा लोद्देण वा वण्णेण वा चुण्णेण वा पउमेण वा आघसंति वा पघंसंति वा उव्वले ति वा उध्वट्टिति वाणो पण्णस्स णिक्खमणपवेसे० जाव णो ठाणं वा०३ चेतेजा। (सू०-६५) से भिक्खू वा मिक्खुणी वा से जं पुण उवस्सयं जाणेज्जा इह खलु गाहावती वा०जाव कम्मकरीओ वा अण्णमण्णस्स गायं सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलिंति वा पहोवेति वा सिंचंति वा सिणार्वेति वा णो पण्णस्स० जाव णो ठाणं वा०३ चेतेज्जा। (सू०-९६) से भिक्खू वा भिक्खुणी वा इह खलु गाहावई वा० जाव कम्म करीओ वाणिगिणा ठिया णिगिणा उल्लीणा मेहुणधम्म विण्णवेति रहस्सियं वा मंतं मंतेति, णो पण्णस्स० जाव णो ठाणं वा०३ चेतेजा। (सू०-९७) से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण उवस्सयं जाणेज्जा आइ-पसंलेखंजाव पण्णस्स णो ठाणं वा०३ चेतेजा। (सू०-१५) 'से' इत्यादि, सुगमम, नवरं यत्र प्रातिवेशिकाः प्रत्यहं कलहायमानास्तिष्ठन्ति तत्र स्वाध्यायाधुपरोधान्न स्थेयमिति / एवं तैलाद्यभ्यङ्ग कल्काद्युद्वर्तनोदकप्रक्षालनसूत्रमपि नेयमिति। किञ्च-इहे त्यादि यत्र प्रातिवेशिकस्त्रियः 'णिगिण' त्ति, मुक्तपरिधाना आसते, तथोपलीनाः-प्रच्छन्ना मैथुनधर्मविषयं किञ्चिद्रहस्यं रात्रिसंभोगं परस्परं कथयन्ति / अपरं वा रहस्यमकार्यसंबद्धं मन्नयन्त्रं मन्त्रयन्ते,तथाभूते प्रतिश्रये न स्थानादि विधेयम् / यतस्तत्र स्वाध्यायक्षितिचित्तविप्लुत्यादयो दोषाः समुपजायन्त इति / अपि च- 'से' इत्यादि, कण्ठ्यम्, नवरं तत्रायं दोषः चित्तभित्तिदर्शनात् स्वाध्यायक्षितिः, तथाविधचित्रस्थस्त्र्यादिदर्शनात् पूर्वक्रीडिता--क्रीडितस्मरणकौतुकादिसंभव इति। आचा०२ श्रु०१चू०२अ० 330 (20) अभिनिर्वगडायां वासमाहसे गामंसि वा० जाव रायहाणिंसि वा अभिनिव्वगडा
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________________ वसहि 995 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि ए अभिनिद्वाराए अभिनिक्खमणप्पवेसाए कप्पइ निग्गन्थाण य निग्गंथीण य एगओ वत्थए।।११। ' अथ ग्रामे वा यावद्राजधान्या वा अभिनिवगडाके निपातानामनेकार्थत्वादभीत्यनेकानीनि नियता वगडाः परिक्षेपाअभिनिशब्दौ पृथग् द्योतको दृष्टव्यौ, ततश्च पृथगनेकावगडा यत्रतदभिनिवगडा-कम्, तत्र। एवमभिनिद्वारके अभिनिष्क्रमणप्रवेशके च कल्पते निर्ग्रन्थनां निर्ग्रन्थीनां चएकतो वस्तुमिति सूत्रार्थः। अत्र भाष्यम्एयघोसविमुक्के, विच्छिन्नवियारथंडिलविसुद्धे। . अभिनिव्वगडदुवारे, वसंति जयणाएँ गीयत्था॥१६३॥ एतैः प्रथमसूत्रोक्तदोषैर्विमुक्ते विस्तीर्णे महाक्षेत्रे विचारस्थण्डिलविशुद्धे यत्र भिक्षाचर्या संज्ञाभूमिश्च परस्परमपश्यतां भवति, तत्रै-वंविधे अभिनिवगडाके-अभिनिद्वारे संयतीक्षेत्रे यतनया गीतार्था वसन्ति। कथमित्याहपिह गोअरउच्चारा,जे अब्भासेऽवि हॉति उनिओआ। वीसुं वीसुंवुत्तो, वासो तत्थोभयस्सावि॥१६॥ ये अभ्यासे मूलक्षेत्रप्रत्यासत्तौ नियोगा-ग्रामा भवन्ति तेऽपि साधुसाध्वीनां पृथग्गोचरचर्याकाः पृथगुचारभूमिकाश्च परस्परं भवन्ति, आस्तां मूलग्राम इत्यपिशब्दार्थः / उभयस्यापि च संयतानां संयतीनां तत्र पृथक् पृथगुपाश्रये वासः प्रोक्त इति। अत्र नोदकः प्रेरयन्नाहतं नऽत्थि गामनगरं, जत्थियरीओ न संति इयरे वा। पुणरवि भणामोंऽरण्णे, वसाउ जइ मेलणे दोसा / / 16 / / ग्रामाश्च नगराणि चेति ग्रामनगरम्,यत्रेतराः पार्श्वस्थादिसंयत्यः, इतरे पार्श्वस्थादयो न सन्ति ततः पुनरपि वयंभणामः, यथा अरण्ये उष्यतांवासः क्रियताम्, यदि मीलनायामेवंविधा दोषाः। सूरिराहदिलुतो पुरिसपुरे, मुरुडदूतण होइ कायय्वो। जह तस्स ते असउणा, तह तस्सितरा मुणेयय्वा॥१६६।। दृष्टान्तोऽत्र-पुरुषपुरे रक्तपटदर्शनाकीर्णे मुरुण्डदूतेन भवति-कर्तव्यः / यथा तस्य मुरुण्डदूतस्य ते रक्तपटा अशकुना न भवन्ति, तथा तस्य साधोरितराः पार्श्वस्थादयो भणितव्याः, ता दोषकारिण्यो न भवन्तीत्यर्थः। इदमेव भावयतिपाडलि मुरुडदूते, पुरिसपुरे सचिवमेलणा वासो। भिक्खू असउण तइए, दिणम्मि रनो सचिवपुच्छा / / 167 / / पाटलिपुरे नगरे मुरुण्डो नाम राजा, तदीयदूतस्यपुरुषपुरे नगरे गमनम्, तत्र सचिवेन सह मीलनम्, तेन च तस्यावासो दापितः, ततो राजानं द्रष्टुमागच्छन्तो भिक्षवो रक्तपटा अशकुना भवन्तीति कृत्वा स दूतो न राजभवनं प्रविशति। ततस्तृतीये दिने राजसचिवपार्श्वे पृच्छा-किमिति दूतो नाद्यापि प्रविशति। - निग्गमणं च अमचे, सब्भावाइक्खिए भणइ दूयं / अंतो बहिं च रत्था, नऽरहिंति इह पवेसणया // 168|| अमात्यस्य राजभवनान्निर्गमनम्, ततो दूतस्यावासे गत्वासचियो मिलितः, पृष्टश्च तेन दूतः। किं न त्वं प्रविशसि राजभवनम्?,स प्राहअहं प्रथमे दिवसे प्रस्थितः परं तत्र दण्डिकान् दृष्ट्वा प्रति-निवृत्तः, अपशकुना एते इति कृत्वा / ततो द्वितीये तृतीयेऽपि दिवसे प्रस्थितः, तत्रापि तथैव प्रतिनिवृत्तः। एवं सद्भावे आख्याते कथिते सतिदूतममात्यो भणति एते इह रथ्याया अन्तर्बहिर्वा नापशकुनत्वमर्हन्ति, ततः प्रवेशना दूतस्य राजभवने कृता / एवमसंयताः किमपि पार्श्वस्थादयः संयत्यश्च रथ्यादौ दृश्यमाना न दोषकारिणो भवन्ति। अपि चजह चेव अगारीणं, विवक्खबुद्धी जईसु पुटवुत्ता। तह चेव य इयरीणं, विवक्खबुद्धी सुविहिएसु // 16 // यथैवागारीणं वस्त्राभरणादिविभूषितानां पूर्वम् ‘आगन्तुगदव्वविभूसिए' इत्यादिना यतिषु विपक्षबुद्धिरुक्ता तथैवेतराणां पार्श्वस्थादिसंयतीनां हस्तपादधावनाविभूषितविग्रहाणां सुविहितेषु स्नानादिविभूषारहितेषु विपक्षबुद्धिर्भवतीति द्रष्टव्यम्। आपणगृहादिषु निर्ग्रन्थीनां नवसतिः कल्पतेनो कप्पइ निग्गन्थीणं आवणगिहंसिवा रत्थामुहंसिवा सिंघाड गंसिवातियंसिवा चउकसि वा चच्चरंसिवा अंतरा-वर्णसिवा वत्थए॥१२॥ अथास्य संबन्धमाहएयारिसखेत्तेसुं, निग्गन्थीणं तु संवसंतीणं / केरिसयम्मिन कप्पइ, वसिऊण उवस्सए जोगो // 17 // एतादृशेषु पृथग्वगडाकेषु-पृथग्द्वारेषु वा क्षेत्रे निर्ग्रन्थीनां च संयतीनां कीदृशे उपाश्रये वस्तुं न कल्पते इत्यनेन सूत्रेण चिन्त्यते एष योगःसंबन्धः / प्रकारान्तरेण संबन्धमाहदिट्ठमुयस्सवगहणं, तत्थुजाणं न कप्पइ इमेहिं। वुत्ता सपक्खओ वा, दोसा परपक्खिया इणमो॥१७१।। दृष्टम् अनन्तरसूत्रे उपाश्रयग्रहणम्, तत्राणाममीषु प्रतिश्रयेषु वस्तुंन कल्पते, इत्यनेन सूत्रेण प्रतिपाद्यते। उक्ता वा स्वपक्षतः स्वपक्षमाश्रित्य संयतानां संयतीनां च परस्परं दोषाः, इदानीं तु परपाक्षिकाः-गृहस्थाख्यपरपक्षप्रभवा दोषा व्यावय॑न्ते, इत्यनेकैः संबन्धैरायातस्यास्य (12) सूत्रस्य व्याख्यानो कल्पते निर्ग्रन्थीनां-साध्वीनामापणगृहे वा रयामुखेवा शृङ्गाटके वाचतुष्के वा चत्वारे वा अन्तरापणे वा वस्तुमिति सूत्रसंक्षेपार्थः। अथ विस्तरार्थं प्रतिपदमभिधि सुः प्रायश्चित्तमाहआवणगिहरत्थाए, तिए चउकंतरावणे तिविहे।
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________________ वसहि 665 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि ठायंतिगाण गुरुगा, तत्थ वि आणाइणो दोसा / / 172 / / न्याः षड्गुरुकादारब्धं प्रायश्चित्तं दशमे पर्यवस्यति, एतचापत्तिमङ्गीआपणगृहे रथ्यामुखे त्रिके चतुष्के अन्तरापणे त्रिविधे-त्रिप्रकारे कृत्योक्तम, अन्यथा सर्वासामपि मूलमेव भवति। परतः संयतीनां प्रायवक्ष्यमाणस्वरूपे तिष्ठन्तीनां संयतीनां प्रत्येकं चत्वारो गुरुकाः श्चित्तस्यैवाभावात्। - प्रायश्चित्तम्, तत्राप्याज्ञादयो दोषा द्रष्टव्याः। सव्वेसु व चउगुरुगा, भिक्खुणिमाईण वाइमा सोही। आपणगृहादीनां व्याख्यानमाह चउगुरुविसेसिया खलु, गुरुगा विव छेदनिट्ठवणा ||17|| जं आवणमज्झम्मी, जंच गिहं आवणा य दुविहं वि। अथवा सर्वेष्वपि-आपणगृहादिषु स्थानेषु चतुर्गुरुकाऽविशेषितं प्रायतं होइ आवणगिहं, रत्थामुहरत्थपासम्मि॥१७३|| श्चित्तम् / अयं च प्रकारःप्रागुक्तोऽपि संग्रहार्थमिह भूयोऽप्युक्त इति न यद् गृहमापणमध्ये समन्तादापणैः परिक्षिप्तं तदापणगृहम्, यद्वा-मध्ये पुनरुक्तता। यदि वा-भिक्षुणीप्रभृतीनामियं शोधिर्द्रष्टव्या / तद्यथागृहम् 'दुविहं वित्तिद्वाभ्यामपिच पाश्चाभ्यां यस्यापणे भवतः तदापणगृहं चतुर्गुरुकास्तपः कालाभ्यां विशेषिताः / तत्र भिक्षुण्याश्चतुर्गुरुकम् भवति। तथा रथ्यामुखंरथ्यायाः पार्वे भवति। तब त्रिविधम्। उभयलघु। अभिषेकायास्तदेव तपसा लघुकालेन गुरुकम्। गणावच्छे दिन्याः, कालेन लघु, तपसा गुरु / प्रवर्तिन्याः कालेन चतुर्गुरुकम् / तद्यथा यदि वा चतुर्गुरुकादारभ्य छेदे निष्ठापना कर्तव्या / तद्यथा-भिक्षुण्याः तं पुण रत्थमुहं वा, बाहिमुहं वा उभयतो मुहं वा। सर्वेष्वपि स्थानेषु चतुर्गुरुकम्, अभिषेकायाः षड्लघुकम्, गणावच्छेअहवा जत्तो पवहइ, रत्था रत्थामुहं तं तु // 17 // दिन्याः षड्गुरुकम्, प्रवर्त्तिन्याः छेदः / यत्पुनर्गृह रथ्यायाः पार्श्वे वर्तमान रथ्याया अभिमुखंवा भवेत, बहिर्मुखं ___ अथात्रैव दोषानुपदर्शयितुंद्वारगाथामाहवा रथ्या तस्य पृष्ठतो वर्तत इत्यर्थः, उभयतो मुखं वा-यस्यैकं द्वारं तरुणा वेसित्थिविवा-हरायमादीसु होइ सइकरणं / रथ्यायाः पराङ्मुखम्, एकं तु रथ्याया अभिमुख-मित्यर्थः अथवा इच्छमणिच्छे तरुण, तेणा उवहिं व ताओ वा / / 17 / / यतो-गृहात्र थ्या प्रवहति तद्थ्यामुखमुच्यते। आपणगृहादिषु स्थितानां साध्वीनां तरुणान् वेश्यास्त्रीविवाहं च दृष्टा सिंघाडगं तियं खलु, चउरत्थसमागमो चउकं तु। राजादीनां दर्शने भुक्तयोगानां स्मृतिकरणं भवति, इतरासां कौतुकम्। छण्हं रत्थाण जहिं,पवहो तं चचरं बेंति // 175|| तरुणांश्च प्रार्थयमानान्यदीच्छन्तिततः संयमविराधना। अथ नेच्छन्ति शृङ्गाटकं नाम यत्त्रिकं-रथ्यात्रयमीलनस्थानम्, क्वचित्तु सूत्रादर्श तत उड्डाहादिकं कुर्युः, स्तेनाश्च तत्रोपधिं वातावा--आर्थिकाः अपहरेयु'तियंसि' वा इत्यपि पदं दृश्यते। तत्रैवं व्याख्याशृङ्गाटकं-शृङ्गाटकाकारं रिति द्वारगाथासमासार्थः। त्रिकोणस्थानम, त्रिकरथ्यात्रयमीलकः, चतुष्कं तु चतसृणां रथ्यानां अथ विस्तरार्थं प्रतिपदमाहसम्यग्गमः। तथा तत्र षण्णां रथ्यानां प्रवहोनिर्गमत्वं चत्वरं ब्रवते तीर्थ चउहाऽलंकारविउ-दिवए तहिं दिस्ससललिए तरुणो। करगणधराः। लडहपयंपितपहसित-विलासगतिणंगविहकिडे॥१८०।। अह अंतरावणो पुण, वीही सा एगओ व दुहओ वा। चतुर्धा-वस्त्रपुष्पगन्धाभरणाचतुर्विधो योऽलङ्कारस्तेनार्चितानतत्थ गिहँ अंतरावण, गिहं तु सयमावणो चेव / / 176 / / लंकृतान् तरुणान्तत्रापणगृहादिषु दृष्ट्वा मोहादयो भवन्तीति वाक्यशेषः / अथेत्यानन्तर्ये, अन्तरापणो नाम-वीथी हट्टमार्ग इत्यर्थः / सा एकतो कथंभूतान्?, सललितान् ललितं नाम, हस्तपादाङ्ग-विन्यासविशेषः / वा-एकपार्चेन 'दुहओ वि' ति द्वाभ्यां वा पाश्चाभ्यां भवेत, तत्र यद् गृहं उक्तं च- "हस्तपादाङ्ग विन्यासोभूनेत्रौष्ठ-प्रयोजितः / सुकुमारो तदन्तरापणगृहम् / यता-गृहं स्वयमेवापणस्तदन्तरापणः / किमुक्त विधानेन, ललितं तत्प्रकीर्तितम्॥१॥" तेन सहितान्, तथा लडभमभवति यत्रैकेन द्वारेण व्यवयिते द्वितीयेन तु गृहं तदन्तरापणगृहम्, न्योन्यं प्रजल्पितं-प्रकृष्टवचनं, प्रसहितं-हास्यम् विलासस्य, "स्थानाएतेषु प्रतिश्रयेषुसंयतीनांन कल्पतेस्थातुम्। अथ तिष्ठन्तितदा प्रागुक्तमेव सनगमनानां, हस्तभूनेत्रकर्मणां चैव। उत्पद्यते विशेषो, यः श्लिष्टः सतु चतुर्गुरुकाख्यं प्रायश्चित्तं प्राप्नुवन्ति। विलासः स्यात् // 1 // " इत्येवंलक्षणा गतिश्च सुललितपदन्यासरूपा अथात्रैव प्रकारान्तरेण प्रायश्चित्तमाह अनेकविधा, बहूमा दोलनादिकाः क्रीडा येषां ते तथाविधास्तान्। आवणरत्थगिहे वा, तिगाइसुनंतरावणुजाणे / अथ वेश्यास्त्रीद्वारमाहचउगुरुगा छलहुगा, छग्गुरुगा छेयमूलं च / / 177 / / दिलु विउव्वियाओ, कुलडा धुत्तेहि संपरिवुडाओ। आपगृहे तिष्ठन्तीनां चतुर्गुरुकाः,रथ्यागृहे तिष्ठन्तीनां षड्लघवः विव्वोयपहसियाओ, आलिङ्गणमाइसंमोहो॥१८१॥ 'तिगाइ तित्रिकेषु चत्वरेषु तिष्ठन्तीनां षड्लघवः 'सुन्न' त्ति अपरिगृहीते- | विकुर्विता-अलंकृताःकुलटाः-स्वैरिण्यो; वेश्यास्त्रिय इत्यर्थः, शून्यगृहे अन्तरापणे वा छेदः / उद्याने तिष्ठन्तीनां मूलम् / एवं भिक्षुणी- धूर्ते : सङ्गैः संपरिवृताः-समंततो वेष्टिताः, विवोकविषयमुक्तम् / गणावच्छेदिन्याः षड्लघुकादारब्धं नवमे तिष्ठति, प्रवर्ति- | प्रहसिताः-विव्वो को नाम-"इष्टानामर्थानां, प्राप्तावभिमा
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________________ वसहि 196 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि नगर्वसंभूतः। स्त्रीणामनादरकृतो, विव्वोको नाम विज्ञेयः / / 1!" प्रहसितं-हास्याभिधानो रसविशेषः अस्य च लक्षणमिदम्-"हास्यो हास्यप्रकृतिः, हासो विकृताङ्गवेषचेष्टाभ्यः / भवति परस्थाभ्यः स च, | भूम्ना स्त्रीनीचबालगतः॥१॥" ते विव्वोक-प्रहसिते विद्येते यासांता विव्वोकप्रहसितवत्यः / गाथायां प्राकृतत्वान्मतुप्रत्ययलोपः। एवंविधा आपणगता दृष्ट्वा तासां चालिङ्गनादिकाश्चेष्टाः क्रियमाणा निरीक्ष्य मोहः समुद्दीप्स्यते। अथ विवाहद्वारमाहतत्थ चउरंतमादी, इन्भविवाहेसु वित्थरा रइया। भूसियसयणसमागम, रहआसादीय निव्वहणे // 18 // तत्राऽऽपणगृहादौ स्थितानां संयतीनामिभ्यविवाहेषु ये चतुरन्तादयो विस्तरा रचिताः,चतुरन्ता नामचतुरिका आदिशब्दाद्वन्दनकलशतोरणादिपरिग्रहः, तथा यस्तत्र भूषितानांवस्त्रादिभिरलंकृतानां स्वजनानां समागमः,यच रथेन वा अश्वेन वा आदिशब्दात्-शिविकया वा निर्वहणं वध्वाः सर्वा श्वशुरगृहे नयनंतद्दर्शने भुक्तभोगिनीनां स्मृतिकरणम्, अभुक्तभोगिनीनां तु कौतुकमुपजायते, ततः प्रतिगमनादयो दोषाः। अथ राजद्वारमाहबलसमुदयेण महया, छत्तसिया वियणिमंगलिपुरोगा। दीसंति रायमादी, तत्थ ऑनिंताय निंताय // 15 // महता बलसमुदयेन आनयन्तः प्रविशन्तो निर्गच्छन्तो राजादयो राजेश्वरतलवरप्रभृतयस्तत्रदृश्यन्ते, कथंभूताः?, 'छत्तसिय' ति प्राकृते पूर्वापरनिपातस्यान्तवत्त्वात्सितंश्वेतं छत्रं येषां ते सित-छत्राः "वियणि'. त्ति बालवीजनिका मङ्गलानिदर्पणपताकादीनि एतानि पुरोगाणिपुरतो गानि येषां राजादीनां ते तथा। द्वारगाथायां 'रायमाईसु' त्ति यदादिग्रहणं कृतम्। तल्लब्धमर्थमाहते नक्खि बालिमुह वा-सिजंघिणो दिस्स अट्ठिया णट्ठि। होसुंणे एरिसगा,न य पन्ना एरिसा इतरी॥१८॥ तान्-पुरुषान्नखिबालिमुखवासिजडिनो दृष्ट्वा भुक्तभोगिन्योऽब्रुवन्'णे' अस्माकमपीदृशाः पतय इति स्मृतिम्, इतरास्तु-अभुक्तभोगिन्यो नास्माभिरीदृशाः पूर्वं प्राप्ता इत्येवं कौतुकं कुर्युः। तत्र नखाः करजा विद्यन्ते येषां ते नखिनः प्रशंसायामत्र मत्वर्थीयः, यथा रूपवतीति / विशेषणानामन्यथानुपपत्त्या ताम्रोत्तुङ्गत्वादिगुणोपेताः विशिष्टा एव नखाः, तद्वन्तः। प्रशंसायामत्र मत्वर्थीयः, यथा-रूपवती कन्येत्यादिषु एवं बालाः केशास्ते श्यामलनिचित-कुञ्चितादिगुणोपेता येषां ते बालिनः, मुखवासः-कर्पूरादिभिर्मुखस्य सौरभ्यापादनं तदस्तियेषां ते मुखवासिनः, जडिनो-वर्तुल-स्थूलजङ्घायुगलकलिताः,एते अर्थिनी-- मैथुनाभिलाषिणः,अनर्थिनो वा यथाभावेन समागच्छेयुः, तांश्च दृष्ट्वा भुक्ताऽभुक्तसमुत्था दोषा भवन्ति। तानेव भावयतिएयारिसए मोत्तुं, एरिसए विवाहिताएँ सइभुत्ते। इयरीण कोउहलं,निदाणगमणादयो सज्ज्वं // 195|| एतादृशान् मुक्त्वाऽस्माभिर्दीक्षा गृहीता, ईदृशैर्वा सह विवाहिता वयमपि पूर्वमिति स्मृतिकरणं भुक्तभोगिनीनाम्, इतरासामभुक्त-भोगिनीनांपुनः कौतूहलं-कौतुकं भवेत् / ततश्चोभयासामपि सद्यो निदानगमनादयो दोषाः / निदानम् अस्मात्-तपोनियमादिप्रभावाद्भवान्तरे ईदृशमेव पुरुष लभेयेति लक्षणम्,गमनं-स्वगृहं प्रति भूयः प्रत्यावर्तनम्। अपि चआयाणनिरुद्धाओ, अकम्मसुकुमालविग्गहरीओ। तेसिं पि होइ दर्छ, वइणीओ समुन्मवो मोहो // 156|| आदानानि-इन्द्रियाणि निरुद्धानि याभिस्ता निरुद्धादानाः गाथायां व्यत्यासेन पूर्वापरनिपातः प्राकृतत्वात् / अकर्मणा-कर्मकरणाभावेन सुकुमार-कोमलं विग्रहं शरीरं धारयन्तीति अकर्मसुकुमारविग्रहधराः एवंभूता व्रतिनीः दृष्ट्वा तेषामपि नखिबालिप्रभृतीनां मोहस्य समुद्भवो भवति। अथ 'इच्छमणिच्छे तरुण' त्ति पदं विवृणोतिसंजमविराहणा खलु, इच्छाए ऽणिच्छियं बहिं गेण्हे। तेणोवहिनिप्फन्ना, सोही मूलाइ जा चरिमं // 17 // 'यदि तत्रापणगृहादौ तरुणानवभाषमाणान् इच्छति ततः संयमविराधना, अथ नेच्छति ततो बलादपि संयती बहिर्ग्रहीयुः, 'तेणा उवहिं व ताओ वा' इति पदं व्याख्यायते-"तेणोबहि-निप्फन्ना" इत्यादि शून्यगृहादिषु स्थितानां साध्वीनां स्तेना यधुपधिमपहरेयुः तत उपधिनिष्पन्ना शोधिः, तद्यथा-जघन्यमुपधि-मपहरन्ति पञ्चकम्, मध्यमपहरन्ति मासिकम्, उत्कृष्टमपहरन्ति अनवस्थाप्यम्, तिस्रोऽपहरन्ति पाराञ्चिकम्। अपिचओभावणा कुलघरे, ठाणं वेसित्थिखंडरक्खाणं / उद्धंसणा पवयणे,चरित्तभासुंडणा सजो // 188|| चारित्रिकाणां स्थानं तदापणगृहादि भवेत्। तत उद्धर्षणा प्रवचनस्य, तथा सद्यश्चारित्रात्प्रभ्रंशना चोपजायते / एषा द्वारगाथा / अथेयमेव व्याख्यायते-तत्र कुलगृहस्यापभ्राजना भाव्यते, आपण गृहादौ स्थिताः ताः दृष्ट्वा कश्चित्तदीयज्ञातीनामन्तिके गत्वा ब्रूयात्। किमित्यत आहससिपाया वि ससंका, जासिं गायाणि संनिसेविंसु। कुलफंसणिओ ता मे, दोन्नि विपक्खे विघंसेति // 18 // यासां-युष्मदीयसुतास्नुषादीनां प्रयत्नेन संरक्षमाणानां गात्राणि शशिपादा अपि-चन्द्रमरीचयोऽपिसशङ्काश्चकिताइव संनिषेवितवन्तः, ताश्चेदानीमेवमापणगृहादौ वसन्त्यः 'भे' भवतां कुलस्य पांशवः-कुलमालिन्यकारिण्यो द्वावपि पक्षौ-पैतृकश्वशुरलक्षणौ विघर्षयन्तिविनाशयन्तीत्यर्थः / एवं कुलगृहस्यापभ्राजना भवति। अथ 'स्थानं वेश्यास्त्रीषण्डरक्षाणा' मिति द्वारमाहछिन्नाइबाहिराणं,तं ठाणं जत्थ ता परिवसंति। इय सोउं दळूण व, सयं तु ता गेहमाणेति / / 19 / /
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________________ वसहि 697 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि यत्र ताः श्रमण्यः परिवसन्ति तत्र यदि छिन्नादिबाह्यानां स्थानम् छिन्ना अथ 'अंतो दुहिं वाहिं तिपदत्रयं व्याचष्टेछिन्नाला आदिशब्दाद्वेश्याखण्डरतविटद्यूतकारादयो ये बाह्या विशिष्ट- अंतोमुहस्त असई, उभयमुहे तस्स बाहिरं पिहए। जनबहिर्वर्त्तिनस्तेषां स्थाने यदि तिष्ठन्ति ततस्तदीयाः सज्ञातिका इत्येवं तस्सऽसति बाहिरमुहे,सइ ठइए थेरिया बारिहं // 196|| वृत्तान्तं श्रुत्वा दृष्ट्वा वा ता:-संबन्धिसंयतीः स्व-स्वकं गृहमानयन्ति। पूर्वमन्तर्मुखे रथ्यामुखगृहे स्थातव्यम, अन्तर्मुखस्याऽसति उभयमुखे अलमनया प्रव्रज्यया यत्रैवंविधे स्थाने वासो विधीयते। तस्य च यदहिरिं रथ्याभिमुखं तत्पिदधति-कटादिना स्थगयन्ति / अथोद्धर्षणाप्रवचने इति द्वारमाह द्वितीयेन द्वारेण निर्गमप्रवेशौ कुर्वन्ति। तस्योभयमुखस्याभावे बहिर्मुखेपेच्छह गरहियवासा, वइणीओ तदोवणा किर सियाओ। रथ्याभिमुखद्वारे तिष्ठन्ति, तत्रचद्वारं सदा स्थगितमेव कुर्वन्ति, स्थविरकिं मन्ने एरिसओ, धम्मोऽयं सत्थु गरिहाय // 191|| साध्व्यश्च तत्र 'बाहिं' ति बहिरि-प्रत्यासन्नास्तिष्ठन्ति। साधूणं पि य गरहा, तप्पक्खीणं च दुजणो हसइ। अथ सामान्यत आपणगृहादिविधिमाहअभिमुह पुणरावत्ती, वचंति कुलप्पसूयाओ||१९|| जत्थप्पयरा दोसा,जत्थ य जयणं तरंति काउंजे। ताश्चापणगृहे दृष्ट्वा कश्चिद्भूयात्-पश्यत लोकाः! यदेवं गर्हितवासाः- निचमविजंतिताणं,जंतितवासो तहिं वुत्तो ||197 // शिष्टजनजुगुप्सिते स्थाने स्थिता वतिन्यस्तपोवनं किल श्रिताः ! किं यत्राल्पतराः पूर्वोक्ता दोषास्तेषां दोषाणां परिहरणे यत्र यतनां कर्तु मन्ये एतत्तीर्थकृता ईदृशोऽयं धर्मो दृष्ट इत्येवं शास्तुः-तीर्थकरस्य गर्दा शक्नुवन्ति, तत्रापणगृहादौ तिष्ठन्तीत्याशयः तत्र च स्थितानां तासां भवति / साधूनामपि च गर्दा जायते-अहो सदाचारबहिर्मुखा अभी ये नित्यं यन्त्रितानामपि यन्त्रितवासः प्रोक्तः / किमुक्तं भवति- यद्यपि स्वकीयाः संयतीरस्मिन्नस्थाने स्थापयन्ति, तथा ये तत्पाक्षिकाः- संयत्यः प्रायोग्योपकरणप्रावरणादिना ताः सर्वदैव सुयन्त्रितास्तथापि साधुपक्षबहुमानिनः श्रावकास्तेषां च पुरतो दुर्जनोमिथ्यादृष्टिर्लोको तत्रापणगृहादौ विशेषतो यथोक्तयतनया यन्त्रणा कर्तव्या। हसति, याश्च प्रव्रज्यायामभिमुखास्तासां पुनरावृत्तिर्विपरिणामो वा का पुनर्यतनेति चेदुच्यतेभवति, कुलप्रसूताश्च याः प्रव्रजितास्तास्तादृशस्थानावस्थानेन बोलेन झायकरणं, ठाणं वत्थु च पप्प भइयं तु / अभाविताः सत्यो भूयो गृहाणि व्रजन्ति। वंदेण इंति निति च, अविणीयनिहोडणा चेव // 198|| अथ चारित्रभ्रंशनाद्वारमाह बोलेन-समुदायशब्देन स्वाध्यायकरणं येन पूर्वोक्ता दोषान भवन्ति, तरुणादीये दटूटुं, सइकरणसमुन्मवेहिं दोसेहिं। स्थानं वा वस्तु वा प्राप्य भाज्यम् / स्वाध्यायकरणं न कर्त्तव्यमित्यर्थः, पडिगमणादी वसिया, चरित्तभासुंडणा वाऽवि॥१६३|| वृन्देन च कायिकीसंज्ञाव्युत्सर्जनार्थमतियन्ति निर्यन्ति वा / अविनीतां च तरुणादीन् दृष्ट्वा स्मृतिकरणसमुद्भवैरुपलक्षणत्वात्कौतुक-समुद्भवैःदोषैः दुःशीलानांतरुणादीनां निवेदना कर्तव्या, नतत्र प्रवेष्टुं दातव्यमिति भावः। प्रतिगमनादीनि वा पदानि तासां स्युभवेयुः / आदि-शब्दादन्यतीर्थ- एएसिं असईए,सुन्ने बहिरक्खियाउ वसहेहिं। कगमनादिपरिग्रहः / स्वलिङ्गे वा स्थिताः तरुणादिभिः प्रतिसेवनायाः तेसऽसती गिहिनीसा, वइगाइसु भोइएनाउं // 19 // चारित्रभ्रंशना भवेत्। एते आपणगृहे तिष्ठन्तीनां दोषा द्रष्टव्याः। एतेषामापणगृहादीनामसति अप्रतिपन्नादयो व्रतिन्यो वृषभैः-समर्थअथ रथ्यामुखादिषु तानतिदिशन्नाह साधुभिर्बहिः समन्ततोरक्षिताः सत्यः शून्ये उपाश्रये वसेयुः। अथवृषभा एए चेव य दोसा, सविसेसतरा हवंति सेसेस। न भवन्ति, ततस्तेषामभावे गृहिणामगारिणां निश्रया भृत्यादिभिः रत्थामुहमदीसुं, थिराथिरेहिं थिरे अहिया॥१६॥ सुगुप्तशून्येऽपि प्रतिश्रये वसन्ति। कथमित्याह-ग्रामाधिपस्य-ग्रामस्वाएत एव तरुणादयो दोषाः शेषेषु-रथ्यामुखशृङ्गाटकत्रिकादिष्वपि मिनो ज्ञातं-विदितं कृत्वा वयमत्र भवदीय-बाहुच्छायापरिगृहीताः भवन्ति, नवरं सविशेषतरा उत्तरोत्तरेषु द्रष्टव्याः याददुद्यानम् / ते च स्थिताः स्म, अतो भवता अस्माकं सारा करणीयेति। तरुणादयो द्विधा-स्थिराः, अस्थिराश्च / स्थिरा नामयेषां तत्रैव गृहाणि, कप्पइ निग्गंथाणं आपणगिहंसि वा०जाव अंतरावणंसि वा अस्थिरायेषामन्यत्र गृहाणि। तत्रच स्थिरे अधिकतरा दोषाः प्रतिपत्तव्याः। वत्थए।।१३|| द्वितीयपदे तिष्ठेयुरपि। कथमित्याह अत्र भाष्यम्अद्धाण-णिग्गयादी, तिक्खुत्तो मग्गिऊण असईए। एसेव कमो नियमा, निग्गंथाणं विनवरि चउलहुगा। रत्थामुहे चउक्के, आवण अंतो दुहिं वाहिं / / 195|| सुत्तनिवातो अंतो-मुहम्मि तह चेव जयणाए।।२०।। उपलक्षणत्वात्शृङ्गाटकादीनामपि ग्रहणम्, ततोऽयमर्थः-रथ्यामुख- एष एव क्रमो नियमान्निग्रन्थानामपि भवति, तेषामप्यापणगृहादिषु वसता स्याभावे आपणगृहे स्थातव्यम्, तदप्राप्तौ शृङ्गाटके, वा, तस्याप्यसत्त्वे पूर्वोक्ता दोषा भवन्तीति भावः / नवरं चतुर्लघुकाः प्रायश्चित्तम्। आह यद्येवं चतुष्के, तस्यालाभे चत्वरे, तदप्राप्तौ अन्तरापणेऽपि स्थातव्यमिति। | तर्हि सूत्रंनिरर्थकम्। तत्रसाधूनामापणगृहादिषुवस्तुमनुज्ञातत्वात, नैवंकार
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________________ वसहि ९९८-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि णिकसूत्रम्, यद्यन्यत्रोपाश्रयो न प्राप्यते ततोऽन्तर्मुखे रथ्यामुखे गृहे स्थातव्यम्। अत्रसूत्रनिपातः-सूत्रमवतरतितस्याऽभावे आपणगृहादिषु शेषेष्वपि तिष्ठद्भिस्तथैव-तेनैव विधिनायतनया स्थातव्यम्। बृ० 130 ३प्रका (21) वर्षासुयादृशे उपाश्रये वसेत्तदाहसे भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण जाणेजा गाम वा०जाव रायहाणिं वा इमंसि खलु गामंसि वाजाव रायहाणिंसि वा णो महती विहारभूमी णो महती वियारभूमी णो सुलभे पीढफलगसेज्जासंथारए णो सुलभे फासुए उंछे अहेसणिजे जत्थ बहवे समणमाहणअतिहिकिवणवणीमगा उवागया उवागमिस्संति य अचाइण्णा वित्तीणो पण्णस्स णिक्खमणपवेसाएजाव धम्माडणुओगचिंत्ताए सेवं णचा तहप्पगारं गामं वा णगरं वा०जाव रायहाणिं वाणो वासावासं उवल्लिएजा! से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण जाणेजा गामवाजावरायहाणिं वा० इमंसिखलु गामंसि वा०जाव महती विहारभूमी महती वियारभूमीसुलभे जत्थ पीठे० . सुलभे फासुए उंछे अहेसणिज्जे णो जत्थ बहवे समणजाव उवागया उवागमिस्संतिवाअप्पाइण्णा वित्ती०जाव रायहाणिं वाततो संजयामेववासावासं उबलिएज्जा / (सू०-११२) स भिक्षुर्यत्पुनरेवं राजधान्यादिकं जानीयात्, तद्यथा-अस्मिन् ग्रामे यावदाजधान्यां वा न विद्यते महती विहारभूमिः- स्वाध्याय-भूमिः, तथा विचारभूमिः-बहिर्गमनभूमिः, तथा नैवात्र सुलभानि पीठफलकशय्यासंस्तारकादीनि, तथा न सुलभः प्रासुकः पिण्डपातः 'उछे' त्ति एषणीयः। एतदेव दर्शयति। अहेसणिज्जे' त्तियथाऽसावुद्रमादिदोषरहित एषणीयो भवति तथाभूतो दुर्लभ इति / यत्र च ग्रामनगरादौ बहवः श्रमणब्राह्मणकृपणवणीमगादय उपागताः अपरे चोपागमिष्यन्ति, एवं च तत्राऽत्याकीर्णा वृत्तिः, वर्त्तनं-वृत्तिः, सा च भिक्षाटनस्वाध्यायध्यानबहिर्गमनकार्येषु जनसकुलत्वादाकीर्णा भवति, ततश्चन प्राज्ञस्य तत्र निष्क्रमणप्रवेशौ यावचिन्तनादिकाः क्रिया निरुपद्रवाः सम्भवन्ति। स साधुरेवं ज्ञात्वा न तत्र वर्षाकालं विदध्यादिति। एवं च व्यत्ययसूत्रमपि व्यत्ययेन नेयमिति। आचा०२ श्रु०१चू०३ अ०१उ०) वर्षावासे वसतिरशून्या कर्तव्या। सम्प्रति वर्षा कालविषयाणि प्रपञ्चयतिनियमा होइ असुण्णा, वसही नयणे य वणिया दोसा। दुस्संचरबहुपाणे,वासावासे विउच्छेदो // 21 // वर्षावासे-वर्षाकाले नियमावसतिरशून्या कर्त्तव्या, किं कारणमिति चेत्,उच्यते-वर्षासूपकरणं सह नीयते। अथ भिक्षादिगच्छन्नयति तर्हि वर्षप्रपातेन तिम्यते। तथा चाह-"उपकरणस्यसह नयने पूर्व कल्पाध्ययने तेमनादयो दोषा वर्णिताः" / अन्यच्च शून्यायां वसतौ कृताया गवादिभिर्भजनं भटादिभिर्वा रोधनं भवेत्। तथा च सत्यन्यस्यां वसतौ गन्तव्यम्, तस्या अलाभेऽन्यद् ग्रामान्तरं गमनीयम्, यत्र च दुस्संचरा मार्गाः सलिलहरितादिभिरात्मविराधना संयमविराधना भवेत् / तथा बहुप्राणा मार्गा द्वित्रिचतुः पञ्चेन्द्रियाणामनेकजातीयान / पूच्छनात, तथा शय्यातरेण शून्यां वसतिमालोक्याऽदाक्षिण्या एते काऽप्यनापृछ्य गता इति प्रद्वेषतस्तेषां सर्वेषां वा तद्रव्यस्यान्यद्रव्यस्य वा व्युच्छेदः क्रियेत / इमे दोषास्तस्मात् शून्या वसतिः कदापि न कर्तव्येति, जघन्यतोऽप्याचार्यस्योपाध्यायस्य चात्मतृतीयस्य वर्षाकाले विहारः, अन्यथा प्रायश्चित्तम्। तथा चाहवासाण दोण्ह लहुया, आणादिविराहणावसहिमादी। संथारग उवगरणे, गेलने सल्लमरणे य / / 2 / / यदि पुनः जनौ वर्षाकाले वसतस्तदा चयश्चित्तं चत्वारो लघुका आज्ञादयश्च दोषाः। तथा विराधना वसत्यादेः आदिशब्दादात्म-संयमप्रवचनपरिग्रहः। तथा संस्तारकविषये उपकरणविषये च भूयांसो दोषाः तथा द्वयोर्जनयोविहरतोरेकः कथञ्चनापि ग्लानो जायेत,ततो ग्लानं वसतौ मुक्त्वा अपरो भिक्षादिनिमित्तं बहिर्गतः, ये पश्चात् ग्लानस्य दोषा द्वितीयोद्देशकेऽभिहिताः। यच सशल्यस्य सतो मरणं तदेतत्सर्वमत्रापि द्रष्टव्यम्। एष द्वारगाथासंक्षेपार्थः! सांप्रतमेनामेव विवरीषुः प्रथमतो विराधना वसत्यादे-- रिति विवृण्वन्नाहसुण्णं मुत्तुं वसहि, भिक्खादीकारणा उ जइ दो वि। वचंति ततो दोसा,गोणाईया हवंति इमे / / 23 / / यदि द्वावपि शून्यां वसतिं मुक्त्वा भिक्षादिकारणतो व्रजतस्तत इमे वक्ष्यमाणा दोषा गवादिका गवादिनिमित्ता भवन्ति। तानेदाहगोणे साणे छगले, सूगरमहिसे तहेव परिकम्मे / मिच्छत्तवडुगमादी, अच्छन्ते सलिंगमादीणि॥२५॥ गौः श्वा छगलः शूकरो महिषो वा शून्यां वसतिमवबुध्य प्रविशेत् तथा परिकर्म गृहस्थः कुर्यात्,यदि वा-मिथ्यात्वोपहता वटुकादयः प्रविशेयुः, अथैको गच्छत्येकः पश्चात्तिष्ठति ततः एकस्मिन्पश्चात्तिष्ठति स्वलिगादीनि-स्वलिङ्गप्रतिसेवनादय आत्मपरोभयसमुत्था बहवो दोषाः / एषाऽपि द्वारगाथा। तत्र गवादिद्वारव्याख्यानार्थमाहगोणादिए पविटे, धाडतमधाडने भवे लाया। अहिगरणवसहि मंगा, तह पवयणे संजमे दोसा // 25 // गवादिके-गोश्वछगलशूक्ररादिके प्रविष्ट यदि तान् गवादीन् धाटयति ततस्तत्प्रायोऽयोगोलकल्पास्तिर्यञ्च इति तद्धाटनेन भवति प्रायश्चित्तं चत्वारो लघुकाः, तथा ते गवादयो निर्धाटिताः सन्तो हरितादीनि खादेयुस्ततोऽधिकरणदोषसंभवः / 'अधाडणे' त्ति अथ न नि टयति तर्हि वसतिभङ्गः, तथा प्रवचने संयमे च दोषाः, प्रवचन
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________________ वसहि 888 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि विराधना,उपलक्षणमेतत्, आत्मविराधना चेत्यर्थः / तथाहि-यदि श्वादयो बालमृतकलेवरादि भक्षयन्तस्तिष्ठन्ति तदा महती प्रवचनस्य कुत्सेति प्रवचनविराधना / शूकरप्रभृतयश्च निष्काश्यमानाः कदाचित् संमुखा अपि बलेरन्तत आत्मविराधना श्वाऽऽदयश्च तिष्ठन्तो मारिमूषिकादिकमुपहन्युरिति संयमविराधना / तदेवं 'गोणे साणे' त्यादि व्याख्यातम्। अधुना परिकम्म' त्ति व्याख्यानयतिदुक्खं ठिएसु वसही, परिकम्मं कीरइ त्ति इति नाउं। मिक्खादिनिग्गएसुं, सअट्ठ मीसुं विमं कुजा // 26 // ते गृहस्थाः परिभावयन्ति-स्थितेषु साधुषु दुःखं महता कष्टन वसतेः परिकर्म क्रियते स्वाध्यायभङ्गादिदोषभावात्, गतेषु तुन कश्चिद्दोष इति ज्ञात्वापरिभाव्य भिक्षादिनिमित्तं निर्गतेषु साधुषु सवृत्तिस्वार्थं स्ववसतिबलिष्ठताकरणार्थ मिश्र वा संयता अपि सुखेन स्वाध्यायादिकं च कुर्युरिति स्वार्थ संयमनिमित्तं च इदं वक्ष्यमाणं परिकर्म कुर्युः। तदेवाहउच्छेव विलच्छगणे, भूमीकम्मे समजणाऽऽमच्चे। कुड्डाण लिंपणं दू-मणंच एयं तु परिकम्मं // 27 // उच्छेवो नाम-यत्र पतितुमारब्धं तत्रान्यस्येष्टकादेः संस्थापनं विलस्थगनं कोलादिकृतविलेष्विष्टकोपलादिप्रक्षिप्योपरि गोमयमृत्तिकादिना पिधानम्, भूमिकर्म नाम विषमाणि भूमिस्थानानि भक्त्वा सन्मार्जन्या सन्मार्जनम्, आमर्जनंमृद्गोमयादिना लिम्पनम्, तथाकुड्यानां लेपनं कुड्यानामेव च 'दूमणं तिधवलनम् एतत्परिकर्म कुर्युः। अत्रैव प्रायश्चित्तविधिमाहजइ ढकतो छेवा, तइमास विलेसु गुरुग सुद्धसुं। पंचिंदिय उद्दाते, एगदुगतिगे उ मूलादी॥२८|| 'यति' यावन्त उच्छेवा ढक्विताः-समारचिताः 'तति' तावन्तो लघुमासाः प्रायश्चित्तम्। विलेषु शुद्धेषु पञ्चेन्द्रियजीवरहितेषु स्थगितेषु 'गुरुग' तिचत्वारो गुरुमासाः। अथ पञ्चेन्द्रियव्याघातो विलस्थगने अभूत् तत एकद्वित्रिषु व्याहतेषु यथाक्रम मूलादि,एकस्मिन् पश्चेन्द्रियेऽपद्राविते मूलम्, द्वयोरनयस्थाप्यम, त्रिषु-त्रिप्र-भृतिषु पाराञ्चिकमिति ! भूमीकम्मादीसुं, फासुग देसे उ होइ मासलहुं / सव्वम्मि लहुग सफा सुगेण देसम्मि सवे य // 26 भूमिकादिषु-भूमिकर्मसन्मार्जनमार्जनकुङ्यलेपनधवलनेषु देशतः प्राशुकेषु कृतेषु प्रत्येक प्रायश्चित्तं भवति मासलघु / सर्वस्मिन् उपाश्रये प्राशुकेषुकृतेषु प्रत्येकचत्वारोलघुकाः। अप्राशुकेनापि जलादिना देशतः सर्वतो वा भूमिकादिषु कृतेषु प्रत्येकं चत्वारो लघुकाः / ___सम्प्रति शय्यातरमधिकृत्य प्रायश्चित्तविधिमाह-- सोचा गय त्ति लहुगा, अप्पत्तिय गुरुग जं च वोच्छेदो। वडुचारणभडमरणे, पाहुणनिक्कयणा सुण्णे // 30 // शय्यातरो यदि शून्यां वसतिमालोक्य कस्यापि पार्श्वे पृष्ट्वा श्रुत्वा च तद्वच एतजानाति यथा गताः साधव इति न चाप्रीतिरुत्पन्नातदा प्रायश्चित्तं चत्वारोलघुकाः। अथाप्रीतिकं करोति यथा अदाक्षिण्या एते अनापृच्छया गता इति तर्हि 'गुरुग' ति चत्वारो गुरुका मासाः / अथैकानेकभेदेन तद्रव्यान्यद्रव्यव्यवच्छेदस्तदा तन्निमित्तमपि चतुर्गुरुकं प्रायश्चित्तम्। अधुना 'मिच्छत्तवडुगमादीनि' व्याख्यानयति-'वटुचारणे' त्यादि वुटुकाः-द्विजातयः चारणाः-वैतालिकविशेषाः-भटाः-प्रतीताः, ते गताः क्वापि साधव इति विज्ञाय तस्मिन् शून्ये उपाश्रये आवसेयुः, तत्र कलहादिप्रसङ्गः। तथा शून्यां वसतिमालोक्य कश्चित्तिर्यड् मनुष्यो वा समागत्य म्रियेत तत्रच राजग्रहादिदोषसंभवः। तथा केचित् शय्यातरस्य प्राघूर्णकाः शून्येयं वसतिरिति कृत्वाशय्यातरानुज्ञया तत्र तिष्ठेयुनचते निष्काशयितुं शक्यन्ते, निष्काशिते निष्काशनेवा प्रद्वेषादिप्रवृत्तिः, तथा तिरश्ची मानुषी वा प्रसवितुकामा शून्यां वसतिं दृष्ट्वा तत्रागत्य प्रसुवीत, तस्या निष्काशने-आश्रयत्याजने संयमविराधनादयो दोषाः। यथोक्ताः प्राक् एते शून्ये क्रियमाणे दोषाः। सम्प्रति 'अच्छंते सति लिङ्गमादीणि' इति व्याख्यानयतिअह चिट्ठति तत्थेगो, एगो हिंडइ उभयहा दोसा। सल्लिंगसेवणादी, आतुत्थपरे उभयतो य॥३१|| अथ तत्रैकस्तिष्ठति एको हिण्डते तत उभयथा-उभयेन प्रकारेण यस्तिष्ठति गवादयश्च हिण्डन्तेतद्गताश्चेत्यर्थः, स्वलिङ्गसेवनादयो दोषाः / स्वलिङ्गसेवना-संयतीप्रतिसेवना आदिशब्दात्-परलिङ्ग सेवना गृहिलिङ्गसेवना चपरिगृह्यते। कथंभूता इत्याह-आत्मनोत्थाः आत्मनैव संयत्यादिकं कदाचित्प्रार्थयते इत्यर्थः / तथा परे परतः संयत्यादिकृतक्षोभनात्, उभयतःस्वतः परतश्चसमुत्थाः / यदुक्तं प्राक् 'सोचा गयत्ति लहुगा' इत्यादि गाथापूर्वार्द्ध तद्व्याख्यानार्थमाहसुण्णे सागरि दलु, संथारे पुच्छ कत्थ समणाओ। सोउं गय त्ति लहुगा, अप्पत्तियछेदें चउगुरुगा॥३२॥ संस्तरन्ति साधवोऽस्मिन्निति संस्तारः-उपाश्रयः सागारिकः-शय्यातरः,सप्तमी प्राकृतत्वात् द्वितीयार्थे , ततोऽयमर्थः-शून्यं संस्तारमुपाश्रयं सागारिको दृष्ट्वा पृच्छेत्-कुत्र गताः श्रमणा इति, तत्र प्रतिवचः श्रुत्वा गता इति ज्ञाते अप्रीत्यकरणे प्रायश्चित्तं चत्वारो लधुकाः। अप्रीतिके समुत्पन्ने छेदेतद्रव्यान्यद्रव्यव्यवच्छेदे चत्वारो गुरुकाः। तदेवं विराधना वसत्यादेरिति व्याख्यातम्। संप्रति 'संथारगउवगरणे' इति व्याख्यानयतिकप्पट्ठगसंथारे, खेलण लहुगो तुवट्टि गुरुगो उ। नयणे डहणे चउलहु, एते उ महल्लए वुच्छं // 33|| संस्तारे-उपाश्रये यदि 'कप्पट्ठग' त्ति बालकः खेलति-क्रीडति ततः खेलने प्रायश्चित्तं लघुको मासः। अथ त्वग्वर्तनं कुर्यातर्हि त्वग्वर्तनकृतो गुरुको मासः। अथ स बालकस्तत्र स्थितस्तेन नीयते प्रदीपपकेन वा लग्नेन दाते, तदा चतुर्लघु / अत ऊर्ध्व महति त्वग्वर्तनादि कुर्वति प्रायश्चित्तं वक्ष्ये।
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________________ वसहि १०००-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयतितुवट्टनयणडहणे, लहुगा गुरुगा हवंतऽणायारे। अह उवहण्णति उवहे, त्ति घेत्तूणं हिण्ड मासलहुं // 3 // उल्ले लहुग गिलाणा-दिगा य सुण्णे ठवेंति चउलहुगा। अणरक्खितोवहम्मति, वहिते पावेंति जं जत्थ // 3 // महान् पुरुषः शून्यमुपाश्रयं दृष्ट्वा तत्र त्वरवर्तनं करोति।यदिवा-उपकरणं नमति, दहति वा। तदा त्वग्वर्तने नयने दहने वा प्रत्येकं प्रायश्चित्तं चत्वारो लघुकाः / अथानाचारं करोति तत्रापि चत्वारो गुरुकाः। अथवा-उपकरणेति व्याख्यानार्थमाह- 'अहेत्यादि' अथ उपहन्यते उपधिरिति मत्वा तं सह नीत्वा भिक्षार्थं हिण्डते तदा प्रायश्चित्तं मासलधु / अथ कथमपि सह नीतं वर्षेणार्द्राक्रियते तदा चत्वारो लघुकाः। अथ तस्मिन्नुपाश्रये शूनये सति ग्लानादिकान् आदिशब्दात्-प्राघूर्णकपरिग्रहः, गृहस्थाः स्थापयन्ति तदाऽपि चत्वारो लघुकाः। अथोपधिं सह ननयति तदाऽसौ अरक्षितः सन् उपहन्यते, तस्करैर्वाऽपहियते। तदपहारे च जधन्यमध्यमोत्कृष्टा-पहारनिमित्तं प्रायश्चित्तम् / हृते च तस्मिन्नुपकरणे यत् अनेषणादिक यत्रोपकरणविषये तौ सेवाते तन्निमित्तमपि प्रायश्चित्तं तौ प्राप्नुतः। संम्प्रति 'गेलण्णे सल्लमरणे य' इतिद्वारद्वयमाह-- गेलण्णमरणसल्ला, बितिउद्देसम्मि वणिया पुटिव। ते चेव निरवसेसा,नवरं इह इंतु वितियपयं // 36 // ग्लान्यम् 'मरणसल्ल' त्ति सशल्यमरणमेते द्वे अपि पूर्व-द्वितीयोद्देशके प्रथमसूत्रे ये दोषतया सविस्तरं वर्णिते ते एव निरवशेषे अत्रापि वक्तव्ये, नवरंतत्र द्वितीयपदमपवादपदं नोक्तमिहतु'इकारः पादपूरणे, तदुच्यते। तदेवाहअसिवादिकारणेहिं,अहवा फिडिया उखेत्तसंकमणे। तत्तियमेत्ता य भवे, दोण्हं वासासु जयण इमा॥३७॥ अशिवादिभिः कारणैः द्वावपि वर्षासु विहरतः / अथवा-एकस्मात् क्षेत्रादन्यस्मिन् क्षेत्रे संक्रमणे कथमपि मार्गतः स्फिटितौ-परिभ्रष्टावेकत्र वर्षासु विहरतः / उपलक्षणमेतत्तेनैतदपि द्रष्टव्यम्-अशिवादिकारणतो गणे स्फोटं कृत्वैकाकिनोजाताः, संकेतवशाच क्वचिद्वर्षासुद्वौ मिलिताविति 'तत्तियमेत्ता उ भवे' इति शेषाः प्रतिभग्ना मृता वा, अवशिष्टौ तावन्मात्रावेवदावेव भवतस्तिष्ठतः, एवं द्वौ वर्षासु भवतः। ततस्तयोश्च द्वयोर्वर्षासु इयं वक्ष्यमाणा यतना। तामेवाह-- एगो रक्खतिवसहिं, भिक्खवियारादि बितियओ जाति।। संथरमाणेऽसंथर,निहोत्थुवरि ठविंतुबहिं // 3 // एको वसतिं रक्षति, द्वितीयो भिक्षाविचारादौ-भिक्षायां विचारेबर्हिभूमावादिशब्दादन्यस्मिन्वा प्रयाति। एवं यतना तदा भवति यदा तौ संस्तरतः / 'असंथरे' त्ति अथैकाकिनो भिक्षाया अलाभादन्यतो वा कुतश्चित्कारणात् न संस्तरतस्तदा असंस्तरे द्वावपि सह हिण्डेते। तत्रेयं यतना-यदि वसतौ निःस्थ्य-निर्भयं तदा उपधिमुपरि वसतेः स्थापयतोबध्नीतः, यथा न कोऽपि पश्यतीति, एवंभूतां च यतनां कुर्वन्तौन प्रायश्चित्तविषयौ। अथन कुरुतस्तदा यत् आपद्यते प्रायश्चित्तं तत् प्राप्नुत इति। सुत्तेणं वुद्धारो, कारणियं तं तु होति सुत्तं ति। कप्पो त्ति अणुण्णातो, वासाणं के रिसे खेत्ते // 36 // यत एवं दोषास्ततो द्वयोर्विहारो वर्षासु साक्षात् पञ्चमेन सूत्रेण प्रतिषिद्धस्त्रयाणां तु विहारस्योद्धारः, अनुज्ञातः सूत्रेण व षष्ठेन कृतः, सोऽप्युत्सर्गतो न कल्पते,ततस्तत्सूत्रं कारणिकमशिवादिकारण-निष्पन्नं भवतीति वेदितव्यम् / अथ कीदृशे क्षेत्रे, वर्षासु गाथायां षष्ठी सप्तम्यर्थे प्राकृतत्वात्। त्रयाणां विहारः कल्पतः इत्यनेन पदेनाऽनुज्ञातः / सूरिराहमहती वियारभूमी, विहारभूमी य सुलभवित्तीय। सुलमा वसही य जहिं, जहण्णयं वासखेत्तं तु // 40 // यत्र महती विचारभूमिः-पुरीषोत्सर्गभूमिर्यत्र च महती विहारभूमिः-- भिक्षानिमित्तं भ्रमणभूमिर्यत्र च वृत्तिर्भिक्षावृत्तिः सुलभा, वसतिश्च यत्र सुलभा तत् जघन्यं वर्षायोग्य क्षेत्रम् उत्कृष्टं त्रयोदशगुणोपेतम्।व्य०४ उ०॥ अधुना पञ्चकं व्याख्यानयतिसंगहुवग्गहनिजर-सुयपनवजायमध्ववच्छित्ती। पणगमिणं पुटवुत्तं,जे वायहि तावलंभादी।।५८|| यत् पञ्चकं पूर्वमुक्तं तदिदम् / तद्यथा-संग्रह उपग्रहः निर्जरा श्रुतपर्यवजातमव्यवच्छित्तिश्च तत्र संग्रहः शिष्यादेः तथा च श्रुते शिष्यादयः संगृह्यन्ते,उपग्रहः- उपष्टम्भः स च श्रुतज्ञानादिप्रदानतः, निर्जराज्ञानावरणादिकर्मविनिर्जरणम्, श्रुतपर्यवजातं-प्रभूता प्रभूततरा श्रुतज्ञानपर्यायवृद्धिरव्यवच्छित्तिस्तीर्थस्य, ये चात्महितोपलम्भादय आत्महितोपलम्भः परहितोपलम्भ उभयहितोपलम्भश्च एकाग्यं बहुमानं चति तद्वा पञ्चकं प्रतिपत्तव्यम्। एवं ठियाण पालो, आयरितो सेसें मासियं लहुयं / कप्पहिनीलकेसी, आयसमुत्था परे उभये / / 5 एवं त्रयोदशदोषविमुक्ते त्रयोदशभिर्गुणैरुपेते क्षेत्रे कारणवशतस्त्रयाणां वर्षासु स्थितानां द्वयोभिक्षार्थं विनिर्गमे तृतीयः पश्चात्पालोवसतिपालः आचार्यः स्थापनीयः। अथान्यं स्थापयति तत आह-शेषे तु आचार्यव्यतिरिक्त वसतिपाले स्थाप्यमाने प्रायश्चित्तं मासिकं लधु। तथा यदि तरुणं श्रमणं च वसतिपालं पश्चात्स्थापयति तत इमे स्वलिङ्गासेवनादिका दोषाः, तथा आत्मसमुत्थाः, (परे) परसमुत्थाः, उभयस्मिन्-उभयसमुत्थाः। कस्या इवेत्याह- 'कप्पट्टनीलकेसी' ति कल्पस्थिता बालिका नीलकेशी-कृष्णकेशी तरुणीत्यर्थः / ततो विशेषणसमासः तस्या इव, विभक्तिलोपश्च प्राकृतत्वात्। इयमत्र भावनायथा तरुणी बालिका तरूणानां महतां च प्रार्थनीया भवति। एवं तरुणो--
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________________ वसहि 1001 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 . वसहि ऽपि तरुणीनां महतीनां च प्रार्थनीयः, तस्मिन्पश्चात्स्थाप्यमाने स्वलिङ्गगृहलिङ्गसेवनविषया आत्मसमुत्थाः परसमुत्था उभयसमुत्थाश्च मैथुनदोषाःसंभवन्ति। एतदेवाहतरुणे वसहीपाले, कप्पट्टिसलिंगमादिआउभया। दोसा उपसजंती, अकप्पिए दोसिमे अण्णे // 60 // तरुणे वसतिपाले सति कप्पट्टि त्ति तरुण्या बालिकाया इव स्वलिङ्गादिकाः-स्वलिङ्गासेवनगृहिलिङ्गासेवनरूपाः 'आउभया' इति आत्मसमुत्था उभयसमुत्था उपलक्षणमेतत् परसमुत्थाश्चदोषास्तस्य प्रसन्जन्ति। अकल्पिके च बालादाविमे दोषास्तानेवाहबलिधम्मकहा किडा, पमञ्जणा वरिसणाय पाहुडिया। खंधार अगणिभंगे, मालवतेणा य णातीय // 61|| साधवः कदाचित्कारणवसतः सप्राभृतिकायांवसतौ स्थिता भवेयुः,तत्र यदि बालादिः वसतिपालः क्रियते तदा बलिदोषः। तथाहि-तत्र बलिकारकाः स्वभावेन वा गच्छेयुःकैतवेन वा। तत्रापि ये कैतवेन ते प्रथमत एवोपकरणहरणनिमित्तमागच्छन्ति, किं त्वागतानां बलिं कुर्वतां बालमेकाकिनं दृष्ट्वा हरणबुद्धिरुपजायते ततोऽपहरन्ति / अथवा-बाले विक्षिप्यमाणे उपकरणं कूरेण खरण्ट्यते, ततो बालो जल्पति–बहिरुपकरणं निष्काशयामि, एव-मुक्त्वा सकलमप्युपकरणमादाय बहिर्निर्गतस्तदेतदभ्यन्तरे ते उपधिमपहरन्ति / ये तु कौतुकेन समागच्छन्ति ते उपधिमपहर्तुकामा ब्रुवते-क्षुल्लक ! बलिरेष समागच्छति ततस्त्वं बहिनिर्गच्छ, एवं तं बालं बहिर्निष्काश्योपधिमपहरन्ति / अथवा-ब्रूयुरिदं वयं बलिं करिष्यामस्ततस्त्वं बहिस्तिष्ठ अन्यथा-कूरेण खरण्टना भविष्यति / एवमुक्ते बहिर्निर्गत बाले उपधिमपहरन्ति / अथवेदमाचक्षते-उपधिमभ्यन्तरागहिरपनय, यावदलिं विदध्महे, स च बालस्तत्कार्यमजानानः समस्तमुपकरणमेकवारं ग्रहीतुमशक्नुवन् स्तोकं गृहीत्वा बहिः संस्थाप्य यावदन्यस्य ग्रहणाय मध्ये प्रविशति तावत्तेधूर्ता अपहरन्ति / 'धम्मकह' त्ति धर्मकथाश्रवणाय केचित् स्वभावतः आगच्छेयुः, अपरे कैतवेन।समागत्य चेत्ब्रुवते-कथय क्षुल्लक ! अस्माकं धर्मकथाम्, स च तत्त्वमजानानः कथामारभते। ततः कथाप्रमत्ते केचित् तथैवोपविष्टाः शृण्वन्त्यपरे तूपधिमपहरन्ति / 'किड्ड' ति। क्रीडानिमित्तमपि केचित्स्वभावतः समागच्छन्त्यपरे कैतवेन। तेषु च समागतेषुस बालकः स्वयं वा क्रीडति, तान्वा क्रीडतः पश्यति,ततःक्रीडया व्याक्षिप्तस्य सतोऽपहरन्ति / पमज्जणावरिसणा य' त्तियएव बलाबुक्तो गमः स एव प्रमार्जने वर्षणे च वेदितव्यः / 'पाहुडिया' इति प्राभृतिका इति भिक्षा अर्चनिका च। तत्र केचित् कैतवेन स्वभावेन वा वदन्ति-क्षुल्लक ! गृहाण भिक्षाम्, अथवा-बहिर्निहियावद्वयमर्चनिका कुर्मः, ततो यावद्भिक्षार्थ याति, बहिर्वा निर्गच्छति,तावदपहरन्ति / 'खंधार' त्ति / अपरे कैतवेन स्वभावेन वा वदेयुः, यथा एष राज्ञा सह स्कन्धावारः समागच्छति। तत्र | स्वभावेन ततो नश्यति, सनश्यन् बालस्तैरपव्हियते। कैतवेन सभागच्छन्तो बुवते-क्षुल्लक ! पलाय-स्व स्कन्धावारः समागच्छति, ततः स नश्यति इतरेऽपहरन्ति। अगणि' त्ति प्रदीपनकं लग्रम्, परतः स्वभावेन श्रुत्वा स्वयं वाऽवलोक्य स बालक उपधिलोभादा न स्वयं वसतेबहिनिगच्छति, नापि किंचिदुपकरणं निष्काशयति, ततस्तस्य बालकस्योपकरणस्य च विनाशः। यदि वा-उपकरणनिष्काशनाय मध्ये प्रविष्टो गुप्तः सन् बालको दह्यते। कैतवेन केचित् ब्रूयुर्मन्दभाग्य! नश्य प्रदीपनकं लग्नं वर्तते, एवमुक्ते स उपकरणं बहिनिष्काशयितुमारभते,ततोऽपहरन्ति। "भङ्गे मालवतेण' त्ति। मालवाम्लेच्छविशेषाः शरीरापहारिणः स्तेनाःउपकरणहारिणस्तैर्भङ्गे, स बालको भयतो जनेन सार्द्ध नश्यति न च सारमुपधिं गृह्णाति। यदि वा--उपधिप्रतिबद्धः सन् सवसतावेव तिष्ठेत्ततः स मालवैरपन्हियते, स्तेनैर्वा उपकरणमिति / अथवा केचित् कैतवेन ब्रूयुर्मालवाः स्तेना वा क्षुल्लक ! समापतितास्तस्मात्पलायस्व जनेन सार्द्धमिति, एवमुक्ते स बालकस्तत्त्वमजानानो नश्यति, इतरे उपकरणमपहरन्ति / 'नाति' त्ति ज्ञातयः स्वजनास्ते समागतास्तरेकाकी दृष्टस्ततो नीयते, अन्ये चोपधिमपहरन्ति / अथवा अन्येन केनचिदागच्छन्तो दृष्टास्तेन कथितम्-क्षुल्लक! तव ज्ञातयः समागच्छन्ति, ततः स पलायते इतरश्वोपकरणमपहरति / अथवा-कोऽपि धूर्तः कैतवेन ब्रूयात्-क्षुल्लक ! व ते निजकाः? क्षुल्लकः प्राह-अमुके ग्रामे नगरे वा। सोऽन्यस्मै कथयति, ततस्तेषां सजातीयानां नाम चिहान्यवगम्य तस्य क्षुल्लकस्य समीपमागत्य भणति-अमुकस्य त्वं निजकः, क्षुल्लकः प्राहकथं त्वं जानासि ? ततः स तन्माता-पित्रादीनां वर्णादि कथयति। ततः क्षुल्लकस्य प्रत्यय उपजायते।ततो वक्ति-सत्यमहं तेषां निजकः। तंतस्तं धूर्तो ब्रूते-आगता-स्तव निमित्तम्, मया अमुकप्रदेशे दृष्टा इति / ततः स पलायते इतरे हरन्त्युपकरणम्। एवं यथा बाले अकल्पिके दोषास्तथा अव्यक्ते निद्राप्रमत्ते कथाप्रमत्ते वा कल्पिके वेदितव्याः। तम्हा पालेइ गुरू, पुव्वं काउं सरीरचिंतं तु। इहरा आयुवहीणं,विराहणा धरतमधरते // 6 // ये तरुणे बालकादौ वा कल्पिके वसतिपाले स्थितेऽनन्तरोक्ता दोषा आचार्ये ते न भवन्ति, तस्मात् गुरुराचार्यो वसतिपालं कथयति, कथमिति चेदत आह--पूर्वं शरीरचिन्तां कृत्वा; संज्ञाभूमिं गत्वा इत्यर्थः / अथ शरीरचिन्तां न करोति ततः प्रायश्चित्तं मासलघु। 'इहरा' इत्यादि। इतरथा-शरीरचिन्ताया अकरणे यदि संज्ञांधारयतितत आत्मविराधना मरणं ग्लानत्वं चावश्यं तन्निरोधाद् भवति। अथ न याति किं तु मात्रके व्युत्सृजति ततः श्राद्धादी-नामागतानां गन्धागमन उड्डाहः / अथ बहिर्याति तत्रोपधि-विराधनातस्करापहाररूपा।ये चैकाकिनो दोषास्ते च भवति / एष संस्तरणे विधिरुक्तः / असंस्तरणे पुनराचार्या वसतिं प्रलोकमानस्तस्मिन्नेव वाटके प्रत्यासन्नेषु गृहेषु भिक्षार्थ हिण्डते। तथा चाहजइ संघाडो तिण्ह वि, पद्धत्तंऽऽणेइ तो गुरू न नीति।
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________________ वसहि 1002 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि अह नेवाऽऽणे ताहे, वसहीएऽऽलोगहिंड था॥६३|| यदि संघाटः-साधुयुग्मंत्रयाणामपिआत्मद्विकस्यगुरोश्चेत्यर्थः, पर्याप्तपरिपूर्णमानयति ततो गुरुर्भिक्षार्थन नीति' त्ति निर्गच्छति। अथ नैव त्रयाणां पर्याप्तमानयत्यलाभादशक्तेर्वा तदा वसतेरालोको यथा भवत्येवमाचार्यस्य प्रत्यासन्नेषु गृहेषु हिण्डनम्। किंयत्पुनस्तत्र गृह्णातीति चेदत आहआसण्णेसु गेण्हइ, जत्तियमेत्तेण होइ पज्जत्तं / जावइएण य ऊणं, इयराणीयं तु तं गेण्हे // 64|| तस्मिन्नेव वाटके प्रत्यासन्नेषु गृहेषु गृह्णाति। तावन्मानं यावन्मात्रेण पर्याप्त भुञ्जते, किं त्वल्पम् / तथा च सर्वेषां परिपूर्णं भवति / अथ तावन्न लभ्यते तर्हि यावता ऊनं तत् इतराभ्यामानीतं गृह्णाति। ते नच त्रयोऽपि परिपूर्णं भुञ्जते, किं त्वल्पम्। तथा चाहसवे अप्पाहारा, भवंति गेल्लण्णमादिदोसभया। एवं जयंति तहियं, वासावासे वंसताउ॥६॥ म्लानादिदोषभयात्सर्वेऽपि तेऽल्पाहारा भवन्ति, एवं तत्र वर्षावासेवर्षायोग्ये क्षेत्रे वसन्तो यतन्ते। व्य०४ उ०। सम्प्रति शय्याकल्पिकमाहदुविहा हवंति सेज्जा, दव्वे भावे यदव्वखातादी। साहूहिँ परिग्गहिया, सच्चेव य भावओ सेना // 552 / द्विविधा भवति शय्या-द्रव्यतो भावतच, तत्र द्रव्य तः खातादयः, खातमुच्छ्रितं च। एताः द्रव्यशय्याः साधुभिः परिगृहीताः भावतः शय्या भवन्ति। रक्खणगहणे तु तहा,सेज्जाकप्पो उ होइ दुविहो उ। सुन्ने बालगिलाणे, अव्वत्तारोवणा भणिया।।५५३|| शय्यायां कल्पाः; शय्याकल्पिक इत्यर्थः। स द्विविधस्तस्याभावशय्यायाः रक्षणे, ग्रहणे वा। तत्र रक्षणो प्रोच्यते-वसतिर्नियमतस्तावत् रक्षयितव्या। यदि पुनर्मिक्षादिप्रयोजनतो गच्छन्तःशून्यायां वसतौ बालं ग्लानमव्यक्तं वा वसतिपालं स्थापयन्ति तदा आरोपणाप्रायश्चित्तम्। भणितमेवोपदर्शयतिपढमम्मि य चतुलहुयं, सेसेसुं मासियं मुणेयव्वं / दोहिं गुरु इकेणं, चउत्थपऐं दोहि वी लहुयं // 15 // प्रथममिह गाथाक्रमप्रामण्यात् शून्यमुच्यते। यदिशून्यां वसतिं कुर्वन्ति तदाऽऽरोपणाचत्वारो लघुकाः द्वाभ्यां गुरवः। तद्यथा-तपोगुरुकाः, कालगुरुकाश्च / अथ बालं स्थापयन्ति तदा मासलधु। ग्लानं स्थापयन्ति मासलधु, तपोलघुकालगुरु। चतुर्थपदे-अव्यक्तस्थापनलक्षणे मासलघुद्धाभ्यामपिलधुकम्। तद्यथा-तपसा,कालेन च ( उक्ताऽऽरोपणा / साम्प्रतमेतेष्वेव दोषा वक्तव्यास्तत्र प्रथमंतावत् शून्ये दोषानाह मिच्छत्तवडुगचारण, भाडगमरणं तिरिक्खमणुयाणं। आदेस वालनिके-यणे य सुन्ने भवे दोसा॥५५५|| शून्यायां कदाचित् शय्यातरस्य मिथ्यात्वगमनं वुटुकप्रवेशो भाटप्रवेशस्तिरश्वां मनुष्याणां वा तत्र मरणम् आदेशाः प्राघूर्णकास्तत्प्रवेशो व्यालप्रवेशः / एते शून्ये उपाश्रये कृते दोषो भवन्ति / तथा निकेतने प्रभूतायास्तिरश्चया वा निष्काशने दोषाः। तत्र प्रथमं मिथ्यात्वद्वारमाहसोया पत्तिमपत्तिय, अकयं नु अदक्खिणा दुविह छेदो। भरियभरागमनिच्छुभ, गरिहान लभंति वन्नत्था / / 556 / / भेदो य मासकप्पे, जह लंमें विहादि पाव तेयन्नं / बहितुत्थ निसागमणे,गरिहविणासाइ सविवेसा॥५५७।। ते साधवो भिक्षादिनिमित्तं सर्वमात्मीयं भाण्डमादाय शून्यां च वसतिं कृत्वा गताः, शय्यातरश्चागतो दृष्टा तेन शून्या-वसतिः। पृष्ट कस्यापि पार्वे व गताः साधवः? गृहमानुषैरुक्तम्-दृश्यते शून्या वसतिः, तस्मादवश्यमन्यत्र गताः। इदं तेषां वचः श्रुत्वा यदि प्रीति-कमुपजायते, यथा हि-गता नामति, तदारोपणाचत्वारो लघुकाः। अथ तस्याप्रीतिकमुत्पद्यते तदा अकृतज्ञा एते एवमप्युपचारं न जानन्ति यथा आपृच्छ्य गन्तव्यम्, अथवा-अदाक्षिण्याः निस्नेहास्ततो नापृच्छ्य गता इति तदा चतुर्गुरुकम् / तथा द्विविधश्छेदः / तथाहि-स प्रद्विष्टस्तेषामन्येषां वा साधूनां तद्रव्यस्य-वसतिलक्षणस्य अन्यद्रव्याणां वा-भक्तपानादीनां व्यवच्छेदं कुर्यात् 'भरियभरागमनिच्छुभ' त्ति ततः स कषायितः शय्यातरः, यदा ते साधवो भरितभाजनभरेणावनमन्त आगच्छन्तितदा स्थानं न दद्यात्। तत्रयदि दिवा निष्काशयति तदा चत्वारोलघवः, तथा तैभरितैर्भाजनैः सहान्यां वसतिं याचमाना आगाढादिपरितापनामाप्नुवन्ति, तेषां प्रायश्चित्तं चतुर्लघु, तथा-जनमध्ये गर्हामाप्नुवन्ति-किं यूयमकाण्डे एवं निष्काशितास्ततो न भव्या एते इत्यन्यत्रापि ते वसतिन लभन्ते। अन्यत्र च वसतिमलभमाना ग्रामादौ व्रजन्ति, ततो मासकल्पभेदः / तत्र च विहारक्रमे या विराधना तन्निष्पन्नाऽपि तेषामारोपणा। तथाऽन्ये साधवो विहारादिनिर्गतास्तत्र समागतास्तत्र चान्या वसतिर्न विद्यते, सचशय्यातरस्तेषां दोषेणान्येषामपि न ददाति, ततो विहारगता वसतेरलाभे यत्ते श्वापदस्तेनादिभ्योऽनर्थमाप्नुवन्ति तन्निष्पन्नमपि तेषां प्रायश्चित्तम्। एवं तावत् कृतभिक्षाटनमात्राणामुक्ता दोषाः / अथ बहिरेव भुक्त्वा रात्रावागतावसतिनलभन्तेतदाऽऽरोपणाचतुर्गुरु, सविशेषतराश्च गर्हादयो दोषा विनाशश्च श्वापदादिभ्यः। अथवा-शय्यातरः प्रथमं सम्यग्दृष्टिभूतः पश्चादनापृच्छया गता इति भावविपरिणामतो मिथ्यात्वं यायात्। गतं मिथ्यात्वद्वारम्। अधुना वटुकद्वारमाहसुन्नं दखें वडुगा, ओंभासिते ठाउ जइ गया समणा। आगमपवेस संखड-सागारिदिनं तिरियदियाणं // 55 // संमिचेण व अच्छह, अलियं न करेमऽहं तु अप्पाणं / उबुचणाऽहिगरणं, उभयपदोसंच निच्छूटा।।५५६।।
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________________ वसहि १००३-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि सागॉरियसंजयाणं, निच्छूढा तेण अगणिमाईहिं। जं काहिंति पदुट्ठा, उभयस्स वि ते तमावजे // 560 // शून्या वसतिं दृष्ट्वा वटुकाश्च सागारिकमवभाषन्ते याचन्ते अस्माकमुपाश्रयं प्रयच्छत। शय्यातरो ब्रूते-तत्र श्रमणास्तिष्ठन्ति। वटुकैरुक्तम्गतास्ते। शय्यातरःप्राह-तर्हि तिष्ठत यूयं यदि गताः श्रमणाः। ते स्थिताः, आगताः साधवः / प्रवेष्टुं प्रवृत्ता वसतौ. वटुकैर्निवारिताः, मात्र प्रविशथ, वयमग्रे तिष्ठामः। ततोऽसंखडं कलहः परस्परमुपजायते। वटुका बुवते वसतिरस्माकं स्वामिना दत्ता, किमत्र युष्माकम्, इतरेऽपि वदन्ति-- स्वामिनैवास्माकमपि वसतिरदायि / ततःसाधवः शय्यातरसकाश गच्छन्ति। स ब्रूते-यूयमनापृच्छ्य शून्यं कृत्वा गताः, मया ज्ञातंगता यूयं येन शून्या कृता दृश्यते वसतिः, अतो मया द्विजानां वटुकानां दत्ता वसति-रिति। तस्मात् संवृत्येन परस्परं संचिन्त्य यूयं वटुकाश्चैकत्र स्थाने तिष्ठत नाहमात्मानमलीकं करोमि। तत्र यदि संवृत्येन तिष्ठन्ति तत्र पठतां प्रतिलेखनां च कुर्वतां संयतभाषाभिश्च उड्डुञ्चकान्-देशीपदमेतत् उपहासान कुर्युस्ततोऽधिकरणमसंखडम्। अथवा शय्यातरो भद्रकस्ततस्तान वटुकान् निष्काशयेत्, तथा च सत्यधिकरणं संयतप्रयोगेण वयं निष्कासितास्तस्मात् ज्ञातव्यं संयतानाम् / अथवा-निच्छूढानिष्काशिताः सन्त उभयेषामपि सागारिकस्य संयतानां चोपरि प्रद्वेष गच्छेयुः,ततस्ते एवं निक्षिप्ता-निष्काशिताः सन्तः प्रद्विष्टास्तेन प्रयोगतोऽग्न्यादिप्रक्षेपश्चोभयस्यापि सागारिकस्य संयतानां च यदनर्थजातं करिष्यन्ति तदपि-तन्निष्पन्नमपि प्रायश्चित्तं ते--संयताः शून्यवसतिकारिण आपद्यन्ते। गतं वटुकद्वारम्। इदानीं चारणद्वार-भाटद्वारं चाहएमेव चारणभडे, चारणउडुचगा उ अहिगतरा। निच्छूढाच पदोसं, तेणाऽगणिमाइ जह वडुया // 561|| एवमेव-वटुकगतेनैव प्रकारेण चारणे, भाटेच दोषा वक्तत्र्याः, किमुक्तं भवति-ये वटुकेषु दोषा उक्तास्ते चारणे भाटे च प्रत्येकमवसातव्याः। नवरं चारणा वटुकेभ्योऽधिकतराः, यतस्ते उड्डुञ्चका याचकाः / इयमत्र भावना-ते चारणाःप्रपञ्चबहुलास्ततः संयतान् प्रपञ्च्य तेभ्यो याचन्ते, ततस्तैः सहै कनिवासेऽधिकतरा दोषा तथा चारणा भाटाश्च निष्काशिताः प्रद्वेषमापन्नास्तेनाग्न्यादिभिरुभयेषामप्यनर्थ कुर्युः, यथा वटुका इति। इदानी तिर्यग्मरणद्वारं मनुष्यमरणद्वारमादेशद्वारं-- चाऽऽहछडुणिका उड्डाहो, घाणारिस सुत्तअत्थवोच्छेदे। इति उभयमरणदोसा, आएस जहा वडुगमाई / / 562 / / शून्यां वसतिं दृष्ट्वा गवादिस्तिर्यङ् अनाथमनुष्यो वा प्रविश्या-नियेत, तंयदिगृहस्थैरसंयतैः परिष्ठापयन्तितदाछदने-परिष्ठापनेषण्णांकायानां पृथिव्यादीनां विराधना / अथात्मना परिष्ठा-पयन्ति तदा प्रवचनस्योड्डाहः उचिता एतेऽस्य कर्मण इति। अथवा–कोऽप्येवं शङ्केत यथा / एतैरेवायं मारितः। अथवा-जुगुप्सा भवेत् अशुवयोऽमी यतो मृतमाकर्षयन्ति / अथैतदोषभयान्न ते स्वयं परिष्ठापयन्ति नाप्यन्यैस्त्याजयन्ति, तर्हि मृतकगन्धेन संयतानां नासाांसि जायेरन्।तथा अस्वाध्यायिकमिति कृत्वा सूत्रपौरुषीं न कुर्वन्ति मासलघु / अर्थपौरुषीं न कुर्वन्ति मासगुरु। सूत्रपौरुषीमर्थपौरुषीमकुर्वतां यदि सूत्रं नश्यति तदा चतुर्लधु, अर्थो नश्यति चतुर्गुरु।अवर्णश्च लोकेषूपजायते-ग्राममध्येऽपि वसन्तः श्मशाने तिष्ठनि / इतिः-उपप्रदर्शने / एवमुभयस्य तिरश्चो मनुष्यस्य वामरणदोषागतं तिर्यग्मनुष्यमरणम्, अधुना आदेशद्वारमाह'आदेस जहा वडुगमादीय' आदेशाः प्राघूर्णकास्ते केचनशय्या-तरस्य समागताः, शून्या च वसतिं दृष्ट्वा शय्यातरेण तत्र मुक्ताः , ततो वटुकचारणभटेषु ये दोषास्ते अत्रापि योजनीयाः / गतमादेशद्वारम् / अधुना व्यालद्वारं निकेतनद्वारं चाहअहिगरणमारणाणी, णियम्मि अच्छंतें बालियातवहो। तिरितीय जहा बाले, सूतिमणुस्सीऍ उड्डाहो // 563 / / व्यालो नाम-सर्पः शून्यं दृष्ट्वा वसतौ प्रविशेत् / तप्तः आगताः सन्तः श्रमणा यदि तं निष्काशयन्ति तदाऽधिकरणं हरितकायादीनां मध्येन तस्य गमनात् / अथवा-स निष्काश्यमानः प्रद्वेषगमनतो दशेत, ततो मरणम्। अथवा-निष्काशने जनसंमी-लनतः ससर्पो लोकेन मार्येत। अथैतद्दोषभीता नतं सर्प निष्काशयन्ति ततस्तस्मिन् व्याले तिष्ठति आत्मविराधना तेन भक्षणात्, एतेच व्यालेदोषाः। अथ निकेतने तानाह 'तिरतीय' इत्यादि, यदि तिर्यकत्री प्रसूता निष्काश्यते ततः सा यथा व्यालस्तथैव नियमत इतस्ततो गच्छन्ती हरितकायादीन् व्यापादयेत्। बालकानां च तत्संबन्धिनां तां विना, तया वाऽऽनीयमानानां मरणसंभवः / अथैतद्दोषभयात्सा न निष्काश्यते, तदा सा तिष्ठन्तीयदा तदा वा साधूनामनर्थ कुर्यात्, तत आत्मविराधना / अथ प्रसूता मानुषी निष्काश्यते, तथा एतेषामियमिति प्रवचनोड्डाहः। साऽपि च निष्काश्यमाना कायान् विराधयेत् / लोको वा ब्रूयात्-निरनुकम्पा एते, यद् बालसहितामिमां निष्काशयन्ति / सा च निष्काश्यमाना प्रद्वेषतः साधूनांमालं (कलस्) दद्यात्, चेटरूपं वा मारयेत्। छडे व जइ गया, उज्झमणुज्झंति हाँति दोसा उ। एवं ता सुन्नाए, बाले ठविते इमे दोसा / / 56|| अथवा-सा तत्र प्रसूता सतीतंचेटरूपं त्यक्त्वा गच्छेत्, ततस्तं यदि उज्झन्ति--परित्यजन्ति तदा निरनुकम्पतादोषः। अथ नोज्झन्ति तदा उड्डाहः / एवमेते तावत्शून्यायां वसतौ दोषाः। बाले स्थाप्यमाने पुनरिमेबलिधम्मकहा किड्डा,पमज्जणा वरिसणा य पाहुडिया। खंधार अगणिभने, मालवतेणा य नाती य॥१६५।। बलिद्वारं धर्मकथाद्वारं क्रीडाद्वारं प्रमार्जनाद्वारम् आवर्षणाद्वारं प्राभृतिकाद्वारं स्कन्धावारे यद् द्वारमग्निद्वारं मङ्गद्वारं मालवस्तेनद्वारं ज्ञातिद्वारञ्च एतैदरिबोल रक्षके स्थाप्यमाने दोषा वक्तव्याः /
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________________ वसहि 1005 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि तत्र प्रथमं बलिद्वारमधिकृत्य दोषानाहसाभावियतन्नीसा-ऐं आगया भंडगं अवहरंति। नीणेमि त्ति व बाहिं, जा पविसइत्ता हरंतऽन्ने // 566 / / साधवः कदाचनापि कारणवशतः सप्राभृतिकायां शय्यायां स्थिताः। सप्राभृतिका नाम-सार्वजनिका यत्रागत्य बलिः प्रक्षिप्यते। तत्र ये बलिकारकास्ते द्विधा तत्र समागच्छेयुः। तद्यथा-स्वभावेन वा उपकरणं वा हरिष्यामीति कैतवेन वा। तत्र ये बलिकारकाः स्वाभाविका नोपकरणहरणप्रवृत्तास्ते तन्निश्रया-बलि-निश्रया आगताः सन्तो बलिं कुर्वन्तो बालमेकाकिनं दृष्ट्वा संजातहरणबुद्धयो भाण्डकमपहरन्ति / अथवाबलिना प्रक्षिप्यमाणेनोपकरणं लेपयुक्तं क्रियते,ततः स बालो वक्ति बहिर्नयाम्युपकरणम्, येन न लेपयुक्तं क्रियते / ततः स बालो यावरहर्निर्गतः प्रविशतितावदन्तरेऽपहरन्त्युपकरणमन्ये। स्वभावत इतिगतम्। कैतवमधिकृत्याऽऽहएमेव कइयवा ते, निच्छूट तं हरंति से उवहिं। बाहिं च तुमं अच्छसु, अवणेहुवहिं व जा कुणिमो // 167|| एवमेव-अनेनैव प्रकारेण कैतवात्ते समागता उपधिमपहरेयुः। तथाहिकेचन धूर्ताः उपधिं हतुकामाः कैतवात्समागत्य छुल्लकं ब्रुवते- क्षुल्लक! एष बलिः समागच्छति, ततस्त्वं बहिर्निर्गच्छ, एवं तं बनिनिष्काश्य तस्योपधिमपहरन्ति / अथ ते चैवं वदन्ति वयं बलिं करिष्यामः ततो यावद्वयं बलिं कुर्मस्तावत् त्वं बहिस्तिष्ठ, अन्यथा कूरेण खरण्टयिष्यते, एवं तं निष्काश्य तस्योपधिमपहरन्ति / यदि वा-ते एवं ब्रूयुः यावद्वयं बलिं कुर्मः तावदभ्यन्तरादात्मीयमुपधिमुपनय, सच बालस्तत्कार्यमजानन् एकवारं च सर्वमुपकरणं नेतुमशक्नुवन् स्तोकं गृहीत्वा निर्गत्य बहिः स्थापयित्वा यावदभ्यन्तरे प्रविशति तावत्तदुपकरणमभ्यन्तरस्थित धूर्तरपहियते। तदेवं बलिद्वारं गतम्। अधुना धर्मकथाद्वारमाहकितएण सभावेण व, कहापमत्ते हरंति से अने। किड्डातिसयं रिंखा, पासातिव तहेव किडुदुर्ग // 568|| केचन पुरुषाः धर्म शृणुम इति कैतवेन वा स्वभावेन वा सभागच्छेयुः, तत्र स्वभावतः आगतानां बालकमेकाकिनं दृष्ट्वा हरणबुद्धिरुपजायते,इतरे तु प्रथमत एव हरणबुद्ध्यैव समागताः। ते क्षुल्लकं ब्रुवतेकथय धर्मकथामस्माकमिति। ततः स कथां कथयितुं प्रवृत्तः, प्रबन्धेन च कथयति। कथाप्रमत्ते केचिदग्रत उपविष्टाः शृण्वन्त्यन्ये तस्योपकरणमपहरन्ति / गतं धर्मकथाद्वारम् / क्रीडा-द्वारमाह-'किड्डा' इत्यादि क्रीडायामपि द्विकं वक्तव्यम्। किमुक्तं भवति-क्रीडानिमित्तमपि केचन स्वभावत आगच्छेयुः कैतवेन वा। स्वभावतोऽप्यागतानां बालमेकाकिनं दृष्ट्वा हरणबुद्धिरुल्लसति / तत्र स स्वयं बाल क्रीडति गोलादिना / अथ कदाचित्स क्षुल्लको ब्रूयात्-नवर्ततेऽस्माकं क्रीडा। ततस्ते वदन्ति यद्येवं तर्हि रिखाः कुरु, कः कियतो वारान रिवति,एवं स बालो रिखाः करोति। अथब्रूते-नकल्पन्ते संयतानां रिला अपि कर्तुमिति। ततस्ते वदन्ति-यद्येवमस्मान् क्रीडतः पश्य। ततः सकौतुकेन कीडतः पश्यति। एवं स्वयं क्रीडया रिखाभिर्वा पश्यन् वा क्रीडाप्रमत्त उपजायले।सतस्तथैवान्ये तेन सह क्रीडन्त्यन्ये हरन्त्युपकरणमिति। संप्रति मार्जनद्वारमावर्षणद्वारं च युगपदाहजो चेव बलिए गमो, पमजणा वरिसणे विसो चेव। य एवं बलिद्वारे गमः स एव प्रमाजने आवर्षणे च द्रष्टव्यः। किमुक्तं भवति-प्रमार्जननिमित्तमावर्षणनिमित्तं वा केचित् स्वभावेनापरे कैतवेन समागच्छन्ति, समागत्य चबलिद्वारोक्तेन प्रकारेणोपकरणमपहरन्तीति। इदानीं प्राभृतिकाद्वारमाहपाहुडियं वा गेण्हस,परिसाडणियं च जा कुणिमो // 56 // प्राभृतिका-भिक्षाऽपि भण्यते, अर्चनिकाऽपि। तत्र उभयमप्यधिकृत्य दोषानाह-कैतवेन स्वभावेन वा केचन ब्रूयुः, क्षुल्लक ! भिक्षां गृहाण / अथवा-द्वारे निर्गच्छ, यावद्वयं परिसाटनिकामचनिकां कुर्मः, एवमुक्तः सयावत् भिक्षामाददाति बहिर्वा निर्गच्छति तावत्तस्योपकरणं हरन्तीति / गतं प्राभृतिकाद्वारम्। ___ अधुना स्कन्धावारद्वारमग्निद्वारं चाह--- खंधारभया नासति, एस व एति त्ति कइयवेणेस। अगणिभया व पलायति, नस्ससु अगणी व एसेति॥५७०।। कोऽपि स्वभावतः स्कन्धावारभयानश्यति, ब्रूते च-एषसराजकः स्कन्धावारः समागच्छति / स च तथा स्वभावतो नश्यन् बालमेकाकिनं दृष्ट्वाऽपहरेत्, कैतवेन ब्रूते-एष क्षुल्लकः! स्कन्धावारः समायाति, तस्माल्लघु पलायस्व / ततः स बालो नश्यति, इतरे उपधिमुपहरन्ति / अग्निभयादपि कोऽपि स्वभावतः पलायते, स च पलायमानो वक्ति वह्निरा गच्छति नश्यतामिति / केचित्पुनः कैतवेन ब्रूयुः-मन्दभाग्याः नश्यत नश्यताग्निः समागच्छति। ततः किमित्याहउवहीलोभभया वा, अगणिभया वाण किंचि नीणेइ। गुत्तो व सयं डज्झइ, उवहिं च विणा उजा हाणी // 571 / / उपधिलोभाद्-उपधिर्मध्ये तिष्ठति, तं मुक्त्वा कथमहं यामि मा कश्चिदपहरेदित्युपधेर्लोभतोऽग्निभयाद्वा स बालो बहिर्न निर्गच्छति, नच तत्र बहिः किञ्चिन्निष्काशयति, ततः कथमप्यग्निसमागमने स मध्ये गुप्तः सन् स्वयं दह्यते कैतवेनाग्न्यागमं कथयित्वा बालं विप्रलम्भ्योपधिपमहरन्ति / उपधिं च विना या हानिस्तां साधवः प्राप्नुवन्ति / गतं स्कन्धावारद्वारमग्निद्वारं च। सम्प्रति मालवद्वारं स्तेनद्वारं चाहमालवतेणा पडिया, इयरे वा नासती जणेण समं। नय गेण्हइ सारूवहि, तप्पडिबद्धो व हीरेला // 572 / / मालवा एव स्तेनाः, मालवग्रहणेन द्वारगाथायां सूचिताः, इतरे-अन्ये स्तेनाः स्तेनग्रहणेन ! के चित्तु कै तवेन स्वभा
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________________ वसहि 1005 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि वेन च ब्रूयुर्मालवस्तेना इतरस्तेना वा पतिताः। तत्र ये कैतवेन ब्रुवते ते ग्लानेऽपि। नवरं यस्तस्यात्मसमुत्थो दोषःस्वयं क्रीडात्मकः कथादोषो पत्तनस्य ग्रामस्य चाभङ्गे जाते उपधिमपहरन्ति / स्वभावेन कथने स भयेन पलायनदोषश्च स न भवति, किंतु-स वारयितुं समर्थो न वा तं बालो भयान्न सारमुपधिं गृह्णाति / अग्रहणे च तदभावे महती हानिः / कोऽपि गणयति ग्लानत्वात् / अन्यच्च-क्षुधापिपासया अन्यया वा अथवा-सतस्मिन् उपधौ प्रतिबद्धःसन्मालवस्तेनैरितरैर्वा सोपधिर- वेदनया परिताप्यमानः सन् कूजेत्। ततोलोको ब्रूयात्-अहो निरनुकम्पाः पहियेत। गतं मालवद्वारं, स्तेनद्वारं, च। साधवो यदमुत्यक्त्वा हिण्डन्ते। अपथ्यं वा लोकानीतमकल्पिकं संप्रति संप्रति ज्ञातिद्वारमाह सेवेतेति तथा अव्यक्तो नामअगीतः-अगीतार्थः स रक्षणकल्पे परोक्षः। सन्नायगेहि नीते, एति व नीय त्ति नहेंज उवहिं। किमुक्तं भवति-स स्वाभाविके कैतवे वा कथमुपकरणं रक्षणीयमिति न कहिँनीय त्ति कइतवे, कहिए अन्नस्स सो कहई / / 573|| जानाति / न वा स्वाभाविकेषु ग्लानत्वादिषु केन प्रकारेणात्मा चिंधेहि आगमे उ,सो विय साहेइ तुह निया पत्ता। निस्तारयित-व्यः कथं वा उपकरणमतः प्रागुक्तं ग्लानोऽव्यक्तश्चैतानि नटे उवहिग्गहणं, तेहि वहं पेसितो हरति / / 574|| पदानि न रक्षति / योऽपि व्यक्तः सोऽपि यदि निद्रालुर्भवति "तरङ्गवत्या" ("तरङ्गवती" ग्रन्थः।) दिकथाकथनव्यसनी वा तदा स्वज्ञातिकाः-स्वभावत आगतास्तैरेकाकी दृष्टः क्षुल्लकः, तैर्नीतेऽन्ये न रक्षति प्रमादबहुलत्वात्। पश्चादुपधिमपहरेयुस्ततस्तन्निष्पन्नं तेषां साधूनां प्रायश्चित्तम् / अथवाअन्येन केनापि ते स्वज्ञातयः आगच्छन्तो दृष्टाः, तेनागत्य क्षुल्लकस्य तम्हा य खलु अबाले, अगिलाणे वत्तमपमत्ते य। कथितम्-निजकास्तव समागच्छन्तीति। ततः स पलायितः। तस्मि कप्पइ य वसहिपालो, धिइमं तह वीरियसमत्थो / / 577 / / नष्टे यमुपछि जघन्यं मध्यममुत्कृष्टं वाऽपहरन्ति; तन्निष्पन्नं तेषां यस्माद्रालादीनामेते दोषास्तस्माद्यः खल्वबालोऽग्लानो व्यक्तो प्रायश्चित्तम् / एवं तावत् स्वभावतः सज्ञातीनामा-गमनदोषा उक्ताः / निद्राकथादिभिरप्रमत्तः। पुनः कथंभूत इत्याह-धृतिमान्यः तृषा क्षुधया अधुना कैतवेन तदागमनकथनतो दोषानाह-कोऽपि कैतवेनागत्य धूर्ता वा परितापितोऽपि न शून्यां वसतिं कृत्वा भक्तपानाय गच्छति स इति ब्रूते-क्षुल्लक ! क ते निजकाः सन्ति? तेन कथितममुके ग्रामे नगरे वा। भावः। वीर्यसम्पन्नोबलवान् यःस्तेनानां पततो निरोद्धं समर्थोऽग्न्यादितेनान्यस्य धूर्तस्य कथितम्। मा स्वयमहं ब्रुवाणो लक्ष्ये इति सोऽप्यन्यो संभवे तूपधिमात्मानं च निस्तारयति ईदृशः कल्पते वसतिपालः। धूर्तस्तेषां स्वज्ञातीनां चिह्नानि नामानि चावगम्य तस्य क्षुल्लकस्य अथ कियन्त ईदृशा वसतिपालाः स्थापयितव्यास्तत आहसमीपमागच्छति। आगत्य ब्रूते-स त्वममुकानां निजकः। क्षुल्लको वक्ति सति लंभम्मि अणियया, पणगं वजतो व होति अच्छित्ति। त्वं जानासि / इतरो ब्रूते-किं न जानामि। ते मातरममुकनामिकां पितरं जहण्णेणें गुरु चिट्ठइ, तस्संदिह्रो विमा जयणा / / 578|| चामुक-मीदृशेन वर्णेन रूपेण वा / एवं संवादे कृते स क्षुल्लको वदति, सति भिक्षालाभे अनियता वसतिपालाः स्थापयितव्याः। अयमत्र सत्यमहं तेषां निजकः। ततः स धूर्तो भाषते-ते निजकास्तव कृते भावः यत्रैकः संघाटको भैक्षस्य प्रचुरस्य लाभतोऽन्येषां त्रयाणां चतुण्णा समागताः, मया अमुकप्रदेशे दृष्टाः / सम्प्रति अन्ये प्रविशन्ति वदन्ति च। चात्मनश्च पर्याप्तमानयति तत्र यावद्भिस्तिष्ठद्भिर्गच्छस्य पर्याप्तं भवति वयं तमात्मीयं नेष्याम इति। ततः स पलायते, इतरे उपधिमुपहरन्ति / तावन्तस्तिष्ठन्ति। अथवा--आचार्यादयः पञ्च तिष्ठन्ति यैर्गच्छः समस्तोअथवा-वक्ति-तैरहं तथोदन्तवाहकः प्रेषितस्ततः स विश्वासं गच्छति, ऽपि संगृहीतो वर्तते। अथवा–यो ज्ञायते एष सूत्रार्थग्रहणधारणसमर्थोऽव्यविश्वस्तस्तस्य चोपधिमपहरेत् / तवानयननिमित्तमहं तैः प्रेषितः, वच्छित्तिं करिष्यति स आचार्यस्य सहायोऽस्ति। अथैवमपि न निस्तरन्ति एवमुक्ते स बालः पलायते, इतरे तूपधिमपहरन्ति। ततो जघन्यतो गुसरेक-स्तिष्ठति शेषाः सर्वे हिण्डन्ते आचार्योऽपि एते पदे न रक्खति, बालगिलाणे तहेव अव्वत्ते। कुलादिकार्येषु निर्गच्छति, ततो य आचार्येण संदिष्टो मयि निर्गते निद्दाकहापमत्ते, वत्ते वि य ए भवे भिक्खू // 575|| सर्वमतस्य पुरत आलोचनादि कार्य स तिष्ठति। ततो यत्र तानि बलिएतानि बलिप्रभृतीनि पदानि-स्थानानि बालो न रक्षति स्वाभाविकेषु प्रभृतीनि पदानि स्वभावतः कैतवेन वा प्राप्तानि भवन्ति तत्र तेन कैतवेषु स्थानेषु बालो विप्रतार्यत इति भावः। तथा ग्लानोऽव्यक्तो वा वसतिपालेनैयं यतना कर्त्तव्या। गीतार्थः / यद्वा-व्यक्तो गीतार्थोऽप च-यो भवेद्भिक्षुर्निद्राकथाप्रमत्तः तत्र बलिपाते तावदाहसोऽप्येतानि पदानिन रक्षति। कथा:-तरङ्गवत्यादयो द्रष्टव्याः। अ(पु) पुत्वमतिहिकरणे,गाहाण य अण्णभंडगंछिविमो। ग्लानद्वारम्, व्यक्तद्वारं चाधिकृत्यैतदेव विशेषयन्नाह-- भणइ व अठायमाणो, जन्नासइ तुज्झतं उवरि / / 576 / / एमेव गिलाणे वा, सयकिड्डाकहापलायणे मोत्तुं / साधवो हि कारणेन सप्राभृतिकायामपि शय्यायां स्थिता भवेयुः। अव्वत्तो तु अगीतो, रक्खणकप्पे परोक्खो उ॥५७६|| साधूनां चेयं समाचारी-ऋतुबद्धे काले बद्ध उपधिस्तिष्ठति वर्षाबद्धः एवमेव-अनेनैव प्रकारेणं ग्लानेऽपि दोषा वक्तव्याः,'नवरं स्वयं तत्र सप्राभृतिकायां वसतौ वर्षास्वपि समस्तंभाण्डकमेकयोगं प्रकुर्वन्ति, क्रीडाकथापलायनानि मुक्त्वा / इयमत्र भावना-ये बाले दोषास्ते / ततो यदि बलिकाराः समागच्छन्ति तथापि न कश्चिद् दोषः / अथ
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________________ वसहि १००६-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि तेकथमपहरणं कर्तुकामा ज्ञातव्याः? उच्यते-अपूर्वान् दृष्ट्वा ये स्वाभाविकास्ते प्रतिदिवसमागच्छन्तः परिचिताः, ये त्वपूर्वास्ते हर्तुकामा विज्ञेयाः। ये वा अतिथौ-विशिष्टतिथ्यभावे बलिकरणाय समागतास्तेऽपि हतुकामा द्रष्टव्यास्तेऽपि यदि ब्रूयुर्निर्गच्छत, वयं बलिं करिष्यामस्तदा गाथा वक्तव्या। "न विलोणं लोणिजइ, न वि तुप्पिज्जइघयं च तेल्लं च / किह नाम लोडगं भे, धम्मम्मि ठविजए वट्टो॥१॥ अन्नं भंडेहि चणं, चणकुट्टा जत्थ ते वहइचंचू। भंगुरचणवुग्गहिते, मे खदिरा वइरसारा य॥२॥" ततो जानते अयं प्रत्यभिज्ञाता इति। अथवा वक्तव्यंयेषामेत-दुपकरणं ते भैक्षस्यानयनाय गताः वयं त्वन्यभाण्डकमन्येषामुप-करणं नस्पृशामः ततो यदि न तिष्ठन्ति तदा भूयो भणति-शृणुत अस्माभिर्वारिता यूयं न तिष्ठथ ततो यदव नश्यतितत् युष्माकमुपरि, एवमुक्ते ते तिष्ठन्ति। कारणे सपाहुडियाए, वासा वि करिति एगमायोग। सन्नाविय दिहावा, भणाइ जा सारवेमुवहिं / / 580 // कारणे सप्राभृतिकायां वसतौ स्थिता वर्षास्वपि समस्तस्यापि भाण्डकस्यैकमायोगं कुर्वन्ति, ततो न किञ्चित्पलायते। तत्र ये कैतवेन बलिकारकाः समागच्छन्ति तेषु यतनाविधिरुक्तः। सम्प्रति स्वाभाविकेष्वाह-'सन्नाविये' त्यादि, ये शय्यातरेणान्येन वा बलिकाराः संज्ञापिता दृष्टा वा स्वयमन्यदा बलिं कुर्वाणास्तान् प्रति भणति-वसतिपालास्तावत् प्रतीक्षध्वं यावदुपछि सारयामिएव-मुक्ते प्रतीक्षन्ते।। अपवरए कोणे वा, काऊण भणाति मा हुलेवाडे / बहुपेलणसारविए, तहेवजं नासती तुज्झं // 581|| ततो वसतिपालो यदि कश्चिदस्त्यपवरकस्तत्र तदुपकरणं प्रक्षिपति। अथ नास्त्यपवरकस्ततः एकस्मिन् कोणे सर्वमुपकरणं स्थिरीकरोति, भणति च। शनैलिविधानं कुरुतमा उपकरणं कूरसिक्थैः खरण्टयथा अथ ते बहवोऽगाराः उन्मत्तकाः सहसैव प्रविष्टा नैव सार्यमाणमुपछि प्रतीक्षन्ते ततस्तथैव वक्तव्यं यथोक्तं प्राक्, यथा-यदत्र नश्यति तद् युष्माकमुपरीति। धर्मकथाद्वारयतनामाहनऽत्थि कहालद्धी मे, पुष्वं दिट्ठो व वेति गेलण्णं / दाणादि असंकाण व, आउज्जंतो परिकहेइ॥५८२२॥ यदि ते कैतवेन स्वभावेन वा समागत्य धर्मकथामापृच्छन्ति, तदा वक्तव्यम्-नास्ति मे कथालब्धिः। अथधर्म कथयन् स पूर्व दृष्टः, ततो वदति लानत्वं शिरो मे दुःखयति, गलको वेति। अथ ते धर्मकथाप्रष्टारो दानश्रद्धाः, आदिशब्दादभिगमश्च सम्यक्त्वादयश्च, सम्यग ज्ञातारो वर्तन्ते; ततस्तेषां दानादिश्रावकाणामशङ्कानां-शङ्काया अविषयाणां द्वारमूले स्थित्वा आयोजयन् भाण्डकविषयमुपयोगंददानः परिकथयति, मा कथाप्रमत्ते मयि कोऽपि हरेदिति हेतोः। सम्प्रति क्रीडाद्वारयतनामाह दलृ पिणेनें लभामो, मा किडह मा हरिजिहं को वि। . संमजणा वरिसणे, पाहुडिया चेव बलिसरिसा // 583|| यदि केचित्तत्र कैतवेन स्वभावेन वाऽऽगत्य क्रीडन्ति तदा तान् प्रति वक्तव्यम्-वयमाचार्यादिपार्श्वतोद्रष्टुमपि क्रीडतो नलभामहे, तस्मादत्र मा क्रीडत एव। तच्चैवमुच्यते मा कश्चिद्धरेदिति कृत्वा प्रमार्जने आवर्षणे प्राभृतिकायां च यथा बलिद्वारे तथा यतना कर्तव्या। खमणं निमंति ते उ, खंधारे कइयवे इमं भणति। किण्णे निरागसाणं, गुत्तिकरा काहिई राया ||15|| भिक्षां यदि कोऽपि निमन्त्रयति तदा वक्तव्यम्-ममाद्य क्षपणमिति / कैतवे च स्कन्धावारे इदं भणति- किं नः--अस्माकं निरागसाम्निरपराधानां गुप्तिकरो-रक्षाकरो राजा करिष्यति। यत्र तु स्वाभाविकः स्कन्धावारः समागच्छति। तत्रेयं भावनापमुऽणुप्पभुं निवेयण, देंति व पेल्लंति जाव नाणेमि / तह विय अठायमाणे, पासे जं वा तरति नेउं / / 5 / / प्रभुः नाम-राजा अनुप्रभुः-सेनाधिपतिप्रभृतिकस्तं गत्या धर्म लाभयति, विविक्तमस्माकमुपाश्रयं कुरुत / ततः स मनुष्यान् ददाति प्रेरयति समस्तानपि लोकानुपाश्रयप्रविष्टानिति / अथ स्कन्धावारो न व्रजति, किंतु-तथैव स्थितवान्, तत्र यदि कोऽपि वसति स्थाननिमित्तं प्रेरयेद्, अत्रापि प्रभोरनुप्रभोर्वा निवेदनं कर्त्तव्यं येन स वारयति / अथ प्रभुरनुप्रभुर्वा न वारयति अस्त्राधीना वा तेपुरुषास्ततो ब्रूतेयावदुपकरणं नयामि तावत्प्रतीक्षस्व / ततः कल्पं विस्तार्य सर्वमुपकरणं तत्र प्रक्षिप्योपरि बध्वा निष्काशयति / अथ प्रभूतमुपकरणं न शक्नोति सर्वमेकवारं नेतुं तदा त्रिषु चतुर्पु वा कल्पेषु बवा कोल्लुकपरंपरकेण महाराष्ट्रप्रसिद्धकोल्लुकचक्रपरं-परन्यायेन निष्काशयति / अथ ते हरन्त्युपकरणं ततो यत्पाचे सारं भाण्डमक्षादि, यद्वा-नेतुं शक्नोति तन्नयति। सम्प्रति स्वाभाविकोऽग्नौ यतनामाहकोल्लुपरंपरसंकलि, आगासं नेइ वायपडिलोमं / अच्छुल्लूढा जलणे, अक्खाई सारभंडं तु // 186|| चलने प्रवर्द्धमाने सर्वमुपकरणमेकवारमशक्नुवन् कल्पेषु चतुषु पञ्चसु वा बध्नाति, बवा च कोल्लुकचक्रन्यायेन परंपरया 'संकलि' त्ति तान् पोट्टलकान्दवरकेण संकलय्य यत्र न तृणादिसंभवस्तत आकाशं तदपि वा प्रतिलोमं तत्र नयति / अथ ज्वलनेनातिप्रसरता ते अच्छुल्लूढाः स्वस्थानं त्याजितास्ततो यत्सारं भाण्डमक्षादि तनिष्काशयति / मालवस्तेनेषु यतनामाहअसरीरतेण भंगे, पवलाए जणे उजं तरति नेउं। न वि धूमो न वि बोलो, न दवति जणो कइयवेसं // 587 // अशरीरस्ते नभने ये शरीरं नापहरन्ति तैः स्तेनैर्भङ्गे प्रपलायमाने जने यन्नेतुं शक्नोति तन्नयति, यदि पुनः कैतवेन
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________________ वसहि १००७-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि केचन युवते-अग्निः समुच्छलितः, स्तेना वा द्विविधाः समापतिताः, तदा ते वक्तव्याः-नवैधूमो दृश्यते, 'न वि बोलो' त्ति नापि जनस्य प्रपलायमानस्य बोलस्तस्मान्न द्रवति जनो दग्धः कैत-वेष्विति। स्वज्ञातिद्वारे यतनामाहअण्णकुलगोत्तकहणं, पत्तेसु विभीयपरिसों पेल्लेइ / पुव्वं अभीइपरिसे, भणाति लज्जाएँ न भणामि।।५५८|| जा ताव ठवेमि वए, पत्ते कुड्डादिछेयसंगारो। मासिं हीरे उवहिं, अच्छह जासिं निवेएमि॥१८६|| यदि केचन स्वज्ञातय आगता वर्तन्ते, न च ते तं प्रत्यभिजानते तदा अन्यकुलगोत्रकथनं कर्तव्यम्, अन्यत् कुलमन्यच्च गोत्रमात्मनः कथयति, अथ ते सम्यग्ज्ञातारः समागतास्तत्र यदि ते भीतपर्षदस्तदा तान् प्रेरयति-ईदृशास्तादृशा यूयं बन्धयामि युष्मान् राजकुलेनेति। अथैवमुक्तास्तेन विभ्यति तर्हि तान् अभीतपर्षदोवक्ति ममाप्येतत् अभिप्रेतमुन्निष्क्रमणं परं लज्जया न भणामि युष्मान, यथाऽहमुन्निष्क्रमामीति, न वाशक्नोमि लज्जया युष्माकं समीपमागन्तुम्, तद्भव्यं कृतयद्यूयमागताः किंतु तिष्ठत क्षणमात्रं यावदागच्छन्ति साधवः। ततस्तेषां समीपे व्रतानि निक्षिपामि,मा वा तेषां भट्टारकाणामुपकरणं शून्ये उपाश्रये केनापि ह्रियते / यावच तेषां निवेदयामि यथाऽहं गमिष्यामीति; तावत्तिष्ठत / एवं केनोपा-येन तावत्तिष्ठन्ति यावत् साधवः प्राप्ता भवन्ति, ततः उपाश्रयकुज्यस्य छिद्रंपातयित्वा नश्यति,सङ्केतंच करोति-अमुकस्थाने मां गवेषयत आगत्य वा मम मिलितव्यमिति।। खंधारादी णाउं, इयरेऽवि तर्हि दुयं सममिएंति। अप्पाहेइ व तेसिं, अमुगं कजं दुयं एध / / 560 // इतरेऽपि भिक्षार्थमटन्तः साधवः स्कन्धावारमग्निमाभवस्तेनपतनं वा / ज्ञात्वा द्रुतम्-सत्वरं समभियान्ति-समागच्छन्ति, स वा वसतिपालो भिक्षार्थ गतानां सदृशं कथयति, यथा-अमुकं कार्यमापतितमिति हरत मा गच्छत। गतं रक्षणद्वारम्। इदानीं ग्रहणकल्पिकमाहदुविहकरणोवघाया, संसत्तापच्चवायसिज्जविही। जो जाणति परिहरिलं, सो गहणे कप्पितो होति / / 591|| क्सतेर्द्विविधं करणम्-मूलकरणमुत्तरकरणं च / तेन द्विविधन करणेनोपघातो यस्याः सा द्विविधकरणोपघाता; मूलकरणोपहता, उत्तरकरणोपहता चेत्यर्थः / तथा पृथिव्युदकतेजोहरितत्रसप्राणसागारिकसंयुक्ता- संसक्ता ब्रह्मव्रतादिविराधनाकारिणी प्रत्यवाया, तथा विधिविधानं भेदः प्रकार इत्यनर्थान्तरम्,शय्याया विधिर्वक्ष्यमाणेन च शय्याया भेदः एतैर्मूलकरणादिदोषैर्यः सम्यक् परिहत्तुं जानाति स शय्याग्रहणे कल्पिको भवति / बृ०१ उ०१ प्रक०। नि० चू०। (परचक्रवेष्टितग्रामे वसतिद्वारम् उवरोह' शब्दे द्वितीय-भागे 108 पृष्ठे गतम्।) का कियन्तं कालं वसेदित्याह-ऋतुबद्ध एकं मासम् से गामंसिवानगरंसि वाखेडंसिवा कव्वडंसिवा मडंबंसिवा पट्टणंसि वा आगरंसि वा दोणमुहंसि वा निगमंसि वा रायहाणिंसि वा आसमंसि वा संनिवेसंसिवा संवाहंसि वाघोसंसि वा अंसियंसि वा पुडभेयणंसि वा सपरिक्खेवंसि वा अबाहिरियंसिवा कप्पइ निग्गंथाणं हेमंतगिम्हासु एगं मासं वत्थए।।६ एवमग्रेतनमपि सूत्रत्रयमुच्चारणीयं तच्च यथास्थान-मेवोच्चारयिष्यते। अथास्य सूत्रचतुष्टयस्य कः संबन्ध इत्याहवुत्तो खलु आहारो, इयाणि वसहीविहिं तु वन्नेइ। सो व कत्थुवभुजइ, आहारो एस संबंधो // 28 // उक्तः खल्वनन्तरसूत्रे आहारः, इदानीं त्वस्मिन् सूत्रे वसतेर्विधिं भगवान् भद्रबाहुस्वामी वर्णयति / यथा स आहारो गृहीतः सन् क ग्रामादौ उपभुज्यते इति निरूपणार्थमिदमारभ्यते, एष द्वितीयप्रकारेण संबन्धः। भूयोऽपि संबन्धमाहतेसु सपरिग्गहेसुं,खेत्तेसुं साहुविरहिएK वा। किचिरकालं कप्पड़, वसिउं अहवा विकप्पो उ॥२८२|| तेषु-क्षेत्रेषु सपरिग्रहेषु-साधुपरिगृहीतेषु साधुविरहितेषुवा कियन्तंकालं निर्ग्रन्थानां वा निर्गन्थीनां वा वस्तुं कल्पते इत्यस्मिन् सूत्रे चिन्त्यते। अयं सम्बन्धस्याऽपरो विकल्प इत्यमीभिः संबन्धै-रायातस्यास्य(६) व्याख्या-अत्र च-संहितादिक्रमेण प्रतिसूत्रं व्याख्याने महद्ग्रन्थगौरवमिति कृत्वा पदार्थादिमात्रमेवाभिधास्यते ! संहितादिर्वस्तु पूर्ववत् वक्तव्य इति। 'से' शब्दो मागधदेशीयप्रसिद्धः; अथशब्दार्थे , 'अथ' शब्दश्च प्रक्रियादिष्वर्थेषु वर्तते, यत उक्तम्-अथ प्रक्रियाप्रश्रानन्तर्यमङ्गलोपन्यासप्रतिवचनसमुच्चयेष्विति इहोपन्यासार्थे द्रष्टव्यः। ततश्च यथा साधूनामेकत्र क्षेत्रे वस्तुंकल्पते; तथा उपन्यस्यते इत्यर्थः / ग्रामे वा नगरे वा खेटे वा खवटे वा मडम्बे वा पत्तने वा आकरे वा द्रोणमुखे वा निगमे वा राजधान्यां वा आश्रमे वा संनिवेशे वा संवाधे वा घोषे वा अंशिकायां वा पुटभेदेन वा सपरिक्षेपेवृत्त्यादिरूपपरिक्षेपयुक्ते अबाहिरिके-बहिवा बाहिरिका 'अध्यात्मादिभ्यः इकणि' ति इकण् प्रत्ययः, प्राकारबहिवर्तिनी गृहपद्धतिरित्यर्थः / न विद्यते बाहिरिका यत्र तदबाहिरिकं तस्मिन्, कल्पते निर्ग्रन्थानां हेमन्तग्रीष्मेषु ऋतुबद्धकालसंबन्धिषु अष्टसु मासेष्वित्यर्थः,एकं मास वस्तुमनवस्थातुम् / वाशब्दाः सर्वेऽपि विकल्पार्थाः स्वगतानेकभेदसूचका वा द्रष्टव्याः। इति सूत्रसमासार्थः / वृ०१३०२ प्रक०। (त्रिंशदहोरात्रमानमेकमृतुमासं कल्पते वस्तुमिति 'मासकप्प' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 267 पृष्ठे गतम्।) (अयं हि ऋतुबद्धविहारोमासकल्प इत्युच्यते, सच जिनकल्पिकानां जिणकप्पिय' शब्दे चतुर्थभागे 1463 पृष्ठे गतम्।) (गच्छवासिनां स्थविरकल्पिकानां वसतिद्वारम् 'जिण-कप्प' शब्दे चतुर्थभागे 1474 पृष्ठे गतम्।) मासस्योपरिन वस्तव्यम्। अथोपरि दोषा अपवादश्चेति द्वारद्वयमाहमासस्सुवरि वसति, प्पायच्छित्तं च हों ति दोसाय।
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________________ वसहि १००८-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि बिइय पदं च गिलाणे, वसही भिक्खं च जयणाए॥१२११॥ मासस्योपलक्षणत्वाचतुर्णां वा मासानामुपरि यदिवसति तदा प्रायश्चित्तं दोषाश्च भवन्ति। द्वितीयपदंचग्लाने ग्लानार्थम्, उपलक्षणत्वादशिवादिभिश्च कारणैर्मासस्योर्ध्वमप्यवस्थानलक्षणं भवति। तत्रच वसतिभैक्षं च यतनया ग्रहीतकम्। अथैनामेव विवरीषुः प्रायश्चितापत्तिस्थानानितावदाहपरिसाडिमपरिसाडी, संथाराहारदुविहउवहिम्मि। डगलगसरक्खमलग-मत्तगमादीण पच्छित्तं // 1212 // ओगासे संथारे, वीयारुचारवसहिगामे य। मास चउम्मासाधिग-वसमाणे होइमा सोही॥१२१३।। संस्तारको द्विधा-परिसाटी, अपरिसाटी चा परिसाटीफलकादिरूपः / एवं द्विविधमपि संस्तारकं यत्र मासकल्पं वासंवा कृतवान् तत्रैव ग्रामादौ गृह्णतः, एवमाहारमपितेष्वेव कुलेषु गृह्णतः औधिकौपग्रहिकभेदात् द्विविधो य उपधिस्तस्मिश्च तत्रैव गृह्यमाणे, डगलकानि-पुनः प्रोञ्छनलेष्टुकः सरजस्कः क्षारः मल्लकमात्रे प्रतीते तेषामादिशब्दात्-काष्ठकिलिञ्चादीनां च तत्रैव ग्रहणे प्रायश्चित्तं भवति / तथा अवकाशः-प्रतिश्रयैकदेशः संस्तारः-संस्तारभूमिः एतैः पूर्वपरिभुक्तां चैव परिभुक्ते, विचारःप्रश्रवणम् उच्चारः-संज्ञा एतौ तत्रैव स्थण्डिलमाचरति वसतिं प्राक परिभुक्तां परिभुङ्क्ते ग्रामस्योपरि ममत्वं करोति। यद्वा-अवकाशादिषु सर्वेष्वपि ममत्वं करोति, यथा-ऋतुबद्ध मासाधिकम्, वर्षामासे चतुर्मासाधिकं वसति। एतेषु स्थानेष्वियं वक्ष्यमाणा शोधिः। तामेवाऽऽहउक्कोसोवहिफलए, वासातीए य होति चउलहुगा। डगलगसरक्खमल्लग-पणगं सेसेसु लहुओ उ॥१२१४|| उत्कृष्ट वर्षाकल्पादौ फलके च-तत्रैव गृह्यमाणे वर्षाकाले च चत्वारो लघवः, डगलकसरजस्कमल्लकेषु उपलक्षणत्वात् काष्ठकिलिचादौ च रात्रिंदिवपञ्चकम्, शेषेषुपरिसाटीसंस्तारकादिषु सर्वेष्वपि लघुको मासः। ___ अथ मासाद्युपरि तिष्ठतो दोषानाहसंवासें इत्थिदोसा, उम्गमदोसा व नेह तो कुल्ला। चमढण गिलाण दुल्लम-वारत्तिसिभासियाऽऽहरणं // 1215 / / ऋतुबद्धेवर्षावासे वा यथोक्तकालावधेरुपरिसंवासे-एकत्राव-स्थाने संदर्शनसंभाषणादिना स्त्रीविषया आत्मपरोभयसमुत्था दोषा भवेयुः। प्रभूतकालावस्थानतश्च साधूनामुपरि भद्रकगृहिणां गाढतरः स्नेह उपजायते / ततश्च ते स्नेहत उद्गमदोषान् आधाकादीन् कुर्युः / ये तु प्रान्ताः गृहपतयस्ते ब्रूयुः कियचिरमस्माभिरमीषामद्यापि दातव्यं तिष्ठतीति अतिचमढणया च क्षेत्रं नीरसं भवति, ततो ग्लानस्य उपलक्षणत्वादाचार्यादीनां च प्रायोग्यं दुर्लभं भवेत्। अत्र च वारत्तकमहर्षेः कृतस्वल्पमात्रगृहं संगम्य प्रद्योतनृपेणोपहसि-तस्योदाहरणम्। अत एव तेन भगवता ऋषिमाषितेषु यत्सप्तविंश-मध्ययनं विरचितं तत्रादावेवेद मुपदेशसूत्रमभाणि-''न चिरंजॅण संवसे मुणी, संवासेण सिणेहु वडई। भिक्खुस्स अणिचचारिणो, आयटे कम्मा दुहायई / / 1 / / " इति गतमुपरिदोषा इति द्वारम्। अथ द्वितीयपदं भावयतिबहुदोसे वतिरित्तं, जइलब्मइ वेज ओसहाणि जहिं। चउभागतिभागत्ते, जयंतणिजे अलंभे वा / / 1216 / / ग्लाननिमित्तमतिरिक्तमपि कालं वसेत् / अथोद्गमादिभिर्दोषैर्बहुदोष तत्क्षेत्रंतत उत्पाट्यग्लानं बहिर्गन्तव्यम्, यदि वैद्यौषधानितत्र लभ्यन्ते। अथ ग्लानो बहिर्गन्तुं नेच्छति, वैद्यौषधानि वा बहिर्न लभ्यन्ते ततोऽनिच्छति अलाभे वा तत्रैव ग्रामे चतुर्भागीकृते त्रिभागीकृतेऽर्कीकृते वा वसतौ भिक्षायां च यतन्ते / इह च यद्यत्युत्सर्गतस्तं ग्राममष्टौ भागान् कृत्वा जायन्ते तथा चात्र संस्तरन्ति, ततः सप्त भागान् एवं यावदेकं भागमपि कृत्वा यतन्ते इति पुरस्ताद्वक्ष्यते / तथापि चतुर्भागत्रिभागार्द्धग्रहणं तुलादण्डमध्यग्रहणन्यायेनाष्टभागादीनामपि ग्रहणार्थम्। प्रकारान्तरेण द्वितीयपदमाह-- ओमाऽसिवदुहेसुं, चउभागान करिति अच्छंता। पोरुसिमाई वुड्डी, करिति तवसो असंथरणे // 1217 / / अवमाऽशिवयराजद्विष्टेषु बहिः संजातेषु तत्रैवातिरिक्तमपि कालं तिष्ठन्ति यावद्भहिः सुभिक्षादीनि न जायन्ते / तच क्षेत्रं यदि लघुतरं ततस्तत्र तिष्ठन्तोऽसंस्तरणे सति चतुर्भागादिरचनां न कुर्वन्ति, किंतुतत्र पौरुष्यादितपसो वृद्धिं कुर्वन्ति / तद्यथा-ये पौरुषीप्रत्याख्यानिनस्ते पूर्वार्द्ध प्रत्याचक्षते, ये पूर्वार्द्धप्रत्याख्यातारस्ते एकाशनं प्रत्याख्यान्तीत्यादि। अथ एनामेव स्पष्टयतिमासे मासे वसही, तणडगलादी य अन्ने गिण्हंति। भिक्खायरियवियारा, जहिट्ठिया तत्थ नऽन्नासु॥१२१८|| मासे मासे वसतिरन्या, तृणडगलादीनि च पूर्वपरिभुक्तानि परित्यज्याऽन्यानि गृह्णाति, यस्मिश्च भागेमासकल्पं स्थितास्तत्रैव भागे तस्मिन्मासे भिक्षाचर्या विचारभूमिं च गच्छन्ति, नान्यासुभिक्षाविचारभूमिषु / अथ भागकरणस्यैव विधिमाहअट्ठाइजाव इकं, करिति भागं असंथरे गाम। अट्ठा इच्चिय वसही, जयंतिजामूलवसही उ॥१२१६॥ कदाचिदष्टौ ऋतुबद्धमासान्ग्लानकार्येण स्थातव्यं भवेत्, अतो ग्राममष्टौ भागान् कुर्वन्ति ततः प्रथमेऽष्टभागे वसतितृणडगलादीनि च गृह्णन्ति,मास च यावत्प्रथम एवाष्टभागे भिक्षाचयाँ विचारभूमिगमनं च कुर्वन्ति / ततो यदि मध्ये मासे सम्पूर्णे ग्लानः प्रगुणीभूतस्तदैव निर्गन्तव्यम् / अथ न प्रगुणीभूतस्ततः पूणे मासे द्वितीयेऽष्टभागे तिष्ठन्ति, तत्राप्येष एव विधिमन्तव्यः। एवं तृतीयमष्टभागभादौ कृत्वा अष्टभागं यावत् द्रष्टव्यम्। अथाष्टभिर्भागैर्विभक्ते ग्रामं न संस्तरति ततः सप्त भागान् कृत्वा यथैव यतन्ते। एवमप्यसंस्तरणे षट्भागानादौ कृत्वा यावदेकमपि भागं कुर्वन्ति
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________________ वसहि 1006 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि एवं वसतीरपि प्रथमतः पृथक् पृथक् मासकल्पप्रायोग्या अष्टौ गृह्णाति, तदभावे सप्त षट् पञ्चादिक्रमेण यतन्तेयावत्तस्यामेवमूलवसतौ तिष्ठन्ति। अथात्रैव भङ्गकानाहइत्थं पुण संजोगा, एकिक्कस्स उ अलंभे लंभे य। णेगविहाणं गुणिया, तुल्लातुल्लेसु ठाणेसु // 1220 / / अत्र पुनः प्रक्रमेण एकैकस्य वसतिभागस्य वा अलाभे लाभे च यानि तुल्यानि तुल्यानि समानसंख्याकानि तेषु विधानेनचारिकाविधिना गुणिताः सन्तोऽनेके बहवः संयोगाभङ्गका भवन्ति / चारणिकाक्रमश्वायम्-अष्टौ व सतयोऽष्टौ भिक्षाचर्याः 1, अष्टौ वसतयः सप्त भिक्षाचर्याः 2. एवं षट् भिक्षाचर्याः 3, पञ्च भिक्षाचर्याः 4, चतस्रो भिक्षाचर्याः 5, तिस्रो भिक्षाचर्याः 6, द्वे भिक्षाचर्ये 7, एका भिक्षाचर्या 8, एवं सप्त वसतयोऽष्टौ भिक्षाचर्याः१, सप्त वसतयः सप्त भिक्षाचर्याः 2, इत्यादि चारणिकया सप्तादि-संख्यास्वपि वसतिविषयासु प्रत्येकमष्टावष्टौ भङ्गकाः प्राप्यन्ते। सर्वसंख्यया लब्धा भङ्गकानां चतुःषष्टिरिति / अर्थतेष्वेव भङ्गकेषु विधिमाहएक्काइ वि वसहीए, ठिया उभिक्खाचरिया, पतंति। वसहीसु विजयणेवं, अवि एक्काए विचरियाए॥१२२१।। येषु भङ्गकेष्वेकैव वसतिः प्राप्यते तेष्वेकस्यामपि वसतौ स्थिता भिक्षाचर्यायां प्रयतन्ते। प्रथममष्टौ भागान् ग्रामं विभज्य भिक्षां पर्यटन्ति, असंस्तरणे यावदेकमपि भागंकृत्वेति भावः अपिशब्दोद्वयादिसंख्यकासु वसतिषु तिष्ठन्तः सुतरां भिक्षाचर्यायांप्रयतन्ते इति सूचनार्थः। यत्रत्वकैव भिक्षाचर्या प्राप्यते तत्रैकस्यामपि भिक्षाचर्यायां पर्यटन्ते / एवमेव वसतिष्वपि यतना कर्तव्या। बृ०१ उ०२ प्रक०। (22) हेमन्तग्रीष्मयोः मासौ वस्तुंकल्पते--- से गामंसि वा०जाव रायहाणिसि वा सपरिक्खेवंसि सबाहिरियंसि कप्पइ निग्गन्थाणं हेमंतगिम्हासु दो मासे वत्थए, अंतो इक मासं बाहिं एगं मासं। अंतो वसमाणाणं अंतो भिक्खायरिया बाहिं, वसमाणाणं बाहिं भिक्खायरिया||७|| अस्य संबन्धो, व्याख्या च प्राग्वत्। नवरं सबाहिरिके प्राकारबहि-- वतिगृहपद्धतिरूपया बाहिरिकया सहिते कल्पते निर्ग्रन्थानां हेमन्तग्रीष्मेषु द्वौ मासौ वस्तुम् / कथमित्याह- अन्तः-प्राकाराभ्यन्तेर एक मासम्, बहिर्बाहिरिकायामप्येकं मासम्, अन्तर्वसतामन्तर्भिक्षाचर्या, बहिर्वसतां बहिर्भिक्षाचर्येति। अथ भाष्यविस्तरःएसेव कमो नियमा, सपरिक्खेवे यसबाहिरियम्मि। नवरं पुण नाणत्तं, अंतो मासो बहिं मासो॥१२२२।। एष एव-प्रथमसूत्रोक्तः क्रमः सपरिक्षेपे-सबाहिरिकेऽपि ग्रामादौ नियमाद्वक्तव्यः, नवरं पुनः नानात्वविशेषोऽयम् अन्तः-प्रकाराभ्यन्तरे मासो बहिरपि मासः, इत्येवं मासयमृतुबद्धे स्थातव्यम्। पुण्णम्मि अंतों मासे, बहिया संकमण तं पि तह चेव / नवरं पुण नाणत्तं, तणेसु तह चेव फलएसु॥१२२३।। अभ्यन्तरे मासकल्पे पूर्ण बाहिरिकायां संक्रमणं कर्तव्यम् / तदपि संक्रमणं तथैव-पूर्वसूत्रवत् द्रष्टव्यम्, नवरं पुनरत्र नानात्वं तृणेषु तथा फलकेषु / तत्र यदि बाहिरिकायामेव तृणफलकानि प्राप्यन्ते ततस्तत्रैव ग्रहीतव्यानि / अथ तत्र तानि न लभ्यन्ते ततोऽन्यं ग्रामं व्रजन्तु। अथ तत्राशिवादीनि कारणानि ततो अभ्यन्तराण्येव तृणफलकानि बाहिरि.. कायां नेतव्यानि। तत्र विधिमाहअन्नउवस्सयगमणे, अणॉपुच्छा नउत्थि किंचि नेयव्यं / जइ नेइ अणापुच्छा, तत्थ उदोसा इमे हॉति / / 1225|| द्वितीये मासकल्पेबाहिरिकायामन्यमुपाश्रयं गच्छद्भिरनापृच्छया नास्ति किञ्चित्तृणफलकादि नेतव्यम् / यद्यनापृच्छया नयति ततस्त्विमे दोषा भवन्ति। ताईतणफलगाई,तेणाहडगाई अप्पणो वाऽवि। निजत्तयगहियाई, सिट्ठाइं तह असिहाई।।१२२५।। तृणफलकानि येन साधूनां दत्तानि तस्य स्तेनाहृतानि वाभवेयुः, आत्मसंबन्धीनि वा भाति च प्रतिश्रयान्तरं नियमानि प्राप्यमाणानि गृहीतानि वा नीतानि सन्ति निशिष्टानि वा भवेयुः। शिष्टाशिष्टपदं व्याख्यानयतिकस्सेते तणफलगा,सिहे अमुगस्स तस्स गहणादी। गिण्डहवा सो भीओ, पचंगिरलोगमुडाहो // 1226|| स्तेनाहृतानि तृणफलकान्यनापृच्छय नीयमानानि पूर्वस्वामिना राजपुरुषैर्वा दृष्टानि। ततः साधुः पृष्टः कस्यैतानि? साधुः प्राह-अमुकस्य गृहपतेरिति,शिष्टे-कथिते सति तस्य ग्रहणाकर्षणादयो दोषा भवन्ति। तथाऽसौ साधुर्भातः सन् निनुते-अपलपति; न कथयतीत्यर्थः , ततोऽशिष्टे साधोःप्रत्यङ्गिरादोषो भवति- तृण-फलकदायकगृहपतेः संबन्धी चौर्यकरणलक्षणो दोषः स परकीयोऽप्यात्मनि लगतीत्यर्थः / लोके चोड्डाहो भवति-अहो साधवोऽपि परद्रव्यमपहरन्ति। अत्र अत्रैव प्रायश्चित्तमाहनयणे दिटे सिट्टे, गिहण ववहारमेव ववहरिए। लहुगा लहुया गुरुगा, छम्मासा छेय मूल दुर्ग / / 1227 / / स्तेनाहततृणानामपृच्छया बाहिरिकायां नयनं करोति लघुको मासः। अथ तानि नीयमानानि राजपुरुषैर्दृष्टानि ततश्चत्वारो लघुकाः। तैः पृष्ट साधुना शिष्ट-कथितं यथाऽमुकस्यैते ततश्चत्वारो गुरुकाः। अथ गृही राजपुरुषैर्गृहीतस्तथाऽपि चत्वारो गुरुकाः। अथासौ तै राजकुलाभिमुखमाकर्षितस्ततः षण्मासा लघवः। अथ राजकुलाभिमुखमाकर्षितस्तान् स गृहस्थः प्रतिलोममाकर्षति ततः षड् गुरुकाः। अथ राजकुलं नीत्वा व्यवहारं कारितस्ततः छेदः। व्यवहते सति यदि स गृहस्थः पश्चात्कृतस्ततो मूलम्। बहुलोकसमक्षमुद्दग्धे,हस्तपादाद्यवयवं व्यङ्गितेवा कृते
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________________ वसहि १०१०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि अनवस्थाप्यम् / अपद्राविते निर्विषये वा कृते पाराञ्चिकम्, सर्वत्र संयतस्यैतत् प्रायश्चित्तम्। अथ 'निण्हव' पदं व्याख्यातिअहवा वि असिट्ठम्मी, एसेव उ तेण संकमे लहुगा। नीसंकियम्मि गुरुगा, एगमणेगे य गहणादी॥१२२८|| अथवा मम कथिते सत्येष तृणफलकदाता ग्रहणाकर्षणादि प्राप्यते इति मत्वा यदि न कथयति ततोऽशिष्ट-अकथिते एष एव स्तेनः संभाव्यते इत्येवं शङ्किते चतुर्लघुकाः, निःशङ्कित्ते चत्वारो गुरवः / ततश्च तस्यैव एकस्यानेकेषां वा साधूनां ग्रहणादयो दोषा भवन्ति। तद्यथानयणे दिढे गहिए, कडणववहारमेव ववहरिए। उड्डहणे य वियंगण, उद्दवणे चेव निविसए॥१२२९|| लहुओ लहुया गुरुगा,छल्लहु छग्गुरुगछेयमूलं च / अणवठ्ठप्पो दोसु य, दोसु य पारंचिओ होइ॥१२३०।। तृणानि प्रतिश्रयान्तरमनापृच्छया नयति लघुको मासः। राजपुरुषैदृष्टषु चत्वारो लघवः / ततः पृष्ट साधुना च निहनुते साधोहणं कुर्वति चत्वारो गुरवः / राजपुरुषैस्त्वं चौर इत्युक्त्वा राजकुलाभिमुखमाकृष्ट षण्मासा लघवः / अथ ते राजकुलाभिमुखमाकर्षन्ति, साधुश्च तान् प्रतीपमाकर्षति, एवं कर्षणाकर्षणे षण्मासा गुरवः। व्यवहारे प्रारब्धे छेदः व्यवहृते यदि संयतः पश्चात्कृतस्ततो मूलम्। उड्डहनव्यङ्गनयोर्द्वयोरनवस्थाप्यः / अपद्रावणनिर्विषयाज्ञापनयोर्द्वयोः पाराञ्चिकम् इति। आह-कथं पुनस्तृणानिस्तेनाहृतानि संभवन्तीत्युच्यतेदंतपुरे आहरणं, तेनाहडुवच्चगादिसु तणेसु। छावणमीराकरणे, अत्थिरफलगं व चंपादि।।१२३१॥ आवश्यके योगसंग्रहेषु'दन्तपुरदन्तवक्के इत्यस्यां गाथायां यदाहरणंनिदर्शनमुक्तम्, तत्र यथा दन्ताः केनापि नगृहीतव्या इति राजाऽऽज्ञया प्रतिषिद्धत्वाद्धनमित्रसार्थवाहमित्रेण दृढमित्रेण दर्भपूलकैराच्छाद्य प्रच्छन्नमानीताः स्तेनाहृताः संवृताः, एवं राज्ञा प्रतिषिद्धानि संभवन्ति तृणान्यपि स्तेनाहृतानीति / तैश्च वस्त्रकादिभिस्तृणैग्लानादीनां छादनं प्रतिश्रयस्य वा मीराकरणं विधीयते / मीराकरणं नामकटरादेराच्छादनम्। उपलक्षणमेतत्,तेन प्रस्तरणार्थमपि तृणानि गृह्यन्ते। फलकं तु प्रस्तरणार्थ मीराकरणार्थ वा तचास्थिरफलकं चम्पकपत्रादि मन्तव्यम्। अस्थिरफलकं नाम-उपविशतां यदधो याति तथैवंविधं चम्पकपत्रादि। अस्तेनाहृततृणानां नयने दोषानाहअत्तेणाहड नयणे, लहुओ लहुया य होति सिम्मि। अप्पत्तियम्मि गुरुगा, वोच्छेदपसज्जमा सेसे // 123 // अस्तेनाहतानां तृणानामनापृच्छ्य बहिर्नयने लघुको मासः। अपरेण केनापि तस्य शिष्ट-कथितं त्वदीयानि तृणानि संयतै_हिरिकायां नीतानि, तदा चतुर्लघु। कथिते यद्यसावनुग्रहं मन्यते ततोऽपि चतुर्लघु। अथाप्रीतिकं करोति तदा चतुर्गुरु / व्यवच्छेदं वा तद्रव्यस्य तस्य साधोभूयः प्रदाने कुर्यात्, पसज्जणा सेसे' त्ति शेषाणामन्येषामप्यशनपानकादिद्रव्याणामपरेषां वा साधूनां प्रसज्जनांदानव्यवच्छेदं कुर्यात्। एसेव गमो नियमा, फलएसु वि होइ आणुपुटवीए। नवरं पुण नाणत्तं, चउरो मासा जहन्नपदे / / 1233 / / एष एव गमः-प्रकारः फलकेष्वपि भवत्यानुपूर्व्या, यस्तृणेषु 'नयणे दिखे सिट्टे' इत्यादिना भणितः,नवरं पुनरत्र नानात्वं चत्वारोमासाः। जघन्यपदं नाम-यत्र तृणेषु लघुमासिकमापद्यते तत्रानापृच्छया बहिर्नयनमिति द्रष्टव्यम्, तत्र फलकेषु चतुर्लधु। अथ मासद्वयादूर्ध्वमवस्थाने दोषान् द्वितीयपदं चाह-- दोहि उवरिं वसती, पायच्छित्तं च होति दोसाय। बितियपदं च गिलाणे, वसही भिक्खं च जयणाए / / 1234|| सबाहिरिके क्षेत्रेद्वयोसियोरुपरियदिवसतिततः प्रायश्चित्तं प्रागुक्तमेव मासलघुकाख्यम्, दोषाश्चत एवावसातव्याः, ये अबाहिरिके क्षेत्रे संवासे इत्यादिना उक्ताः। द्वितीयपदं च ग्लानविषयं तदेव वक्तव्यम्, तत्र च तिष्ठतां वसतिभिक्षं च यतनया ग्रहीतव्यम्। बृ०१३०१ प्रक०। (ग्रामादिषु निर्ग्रन्थानां द्वौ मासौ वस्तुं न कल्पते इति ससूत्रो भाष्यविस्तरः, 'णिग्गन्थी' शब्दे चतुर्थभागे २०४६पृष्ठे गतः! (२३)एकवगडायामेकपरिक्षेपायां वसतौ निषेधमाहसे गामंसि वा०जाव रागहाणिसि वा एगवगडाए एगदुवाराए एगनिक्खमणपदेसाए नो कप्पइ निग्गन्थाण य निग्गन्थीण य एगयओ वत्थए।।१०।। ___ अथास्य सूत्रस्य कः संबन्ध इत्याहगामनगराइएसुं,तेसु उखेत्तेसु कत्थ वसियव्वं / जत्थन वसंति समणी, अब्भासे निग्गमपहे वा // 1 // ग्रामनगरादिषु तेषु-पूर्वसूत्रोक्तेषु क्षेत्रेषु कुत्र वस्तव्यमिति चिन्तायामनेन सूत्रेण प्रतिपाद्यते। यत्राभ्यासे स्वनिश्रयाऽऽसन्ने निर्गमपथे वा निर्गमद्वारे श्रमण्यो न वसन्ति तत्र वस्तव्यमिति। अथ प्रकारान्तरेण सम्बन्धमाहअहवा निग्गंधीओ,दलु ठिया तेसु गाममाईसु। मा पिलिजिहि कोई, तेणिमसुत्तं समुदियं तु // 2 // अथवा-निर्गन्थीस्तेषु ग्रामादिषु स्थिता दृष्ट्वा मा कश्चिदाचार्यादिस्तत्रागत्य प्रेरयेन्निष्काशयेदित्यनेन कारणेनइदंसूत्रंसमुदितंसमायातमनेनसम्बन्धेनायातस्यास्य (१०)व्याख्या अथवा-ग्रामेवायावद्राजधान्यांवा, यावत्करणात
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________________ वसहि 1011 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि नगरे वा खेटे वा इत्यादिपदपरिग्रहः / एकवगडाके-एकद्वारके एकनिष्क्रमणप्रवेशके च क्षेत्रे नो कल्पते निर्ग्रन्थानां निग्रन्थीनां च एकतो मिलितानां वस्तुम्-अवस्थातुमिति सूत्रसंक्षेपार्थः। विस्तरार्थ तुभाष्यकृदाहवगडाउ परिक्खेवो, पुवुत्तो सो उदय्वमाईसुं। दारं गामस्स मुहं, सो चेव य निग्गमपवेसो // 3 // वगडा नाम-ग्रामादेः सम्बधी परिक्षेपः, स पुनः परिक्षेपोद्रव्यादिको द्रव्यक्षेत्रकालभावभेदभिन्नः / यथा-पूर्व 'पासणिट्ठनमट्ठिगखेडगकडगकंटिगा पवेदव्वं' इत्यादिना मासकल्प प्रकृते उक्तस्तथैवात्रापि द्रष्टव्यः।द्वारं नाम-ग्रामस्य मुखं ग्रामप्रवेश इत्यर्थः, स एव च निर्मिणोपलक्षितः प्रवेशो निर्गमप्रवेशोऽभिधीयते। इत्थं सूत्रे व्याख्याते सति शिष्यः प्राहदारस्स वा वि गहणं,कायव्वं अहव निग्गमपहस्स। जइ एगट्ठा दुन्नि वि, एगयरं बूहि मा दो वि॥४॥ यदि तदेव द्वारं स एव च निर्गमप्रवेशतस्ततो हे आचार्य ! द्वारस्य वा ग्रहणं कर्तव्यम्, अथ निमप्रवेशपथपदस्य यदि नाम द्वे अपि पदे स्त एकार्थे; ततएकनगरमेकद्वारपदम् एकनिष्क्रमणप्रवेशपदंवा सूत्रे ब्रूहिभणेत्यर्थःमा द्वे अपि। एवं शिष्येणोक्ते सूरिराहएगवगडेगदारा, एगमणेगा अणेगएगा य। चरिमो अणेगवगडा, अणेगदारा य भंगो उ / / 5 / / इह वगडाद्वारयोश्चत्वारो भङ्गाः। तद्यथा-एका वगडा एकं द्वारम्, यथा-- पर्वतादिपरिक्षिप्ते क्वचिद्ग्रामादौ 11 एका वगडा अनेकानिद्वाराणि, यथाप्राकरादिपरिक्षिप्ते चतुरिनगरादौ २।अनेका वगडा एकं द्वारम्, यथापद्मसरः प्रभृतिपरिक्षिप्ते बहुवा(पा)टके ग्रामादौ 3 / अनेका वगडा अनेकानि द्वाराणि, यथा-युष्मी प्रकीर्णगृहे ग्रामादौ चतुर्थो भङ्गः 4 / यदि नामैवं चत्वारो भङ्गास्ततः प्रस्तुते किमायातमित्याहतइयं पडुच भङ्ग, पउमसराईहिं संपरिक्खित्ते / अन्नोन्नदुवाराण वि, हवेज एगं तु निक्खमणं // 6|| अत्र भङ्गचतुष्टये तृतीयं भङ्ग प्रतीत्य एकद्वारग्रहणमेक निष्क्रमणप्रवेशग्रहणं च सूत्रे कृतम्, कुत इत्याह-पद्मसरसा, आदिशब्दात्-गर्तपर्वतेन वा संपरिक्षिप्ते ग्रामादौ अन्यान्यद्वारकाणामपि वा (पा)टकानामेकमेव निष्क्रमणं भवेत्। तिसृषु दिक्षु पद्मसरः प्रभृतिव्याघातसंभवादेकस्यामेव दिशि निष्क्रमणप्रवेशौ भवतः। ततः किमित्याहतत्थ विय होंति दोसा, वीयारगयाण अह व पंथम्मि। संकादीए दोसे, एगवियाराण वोच्छिहिति // 7 // तत्रापि च-तृतीये भङ्गे पृथक्पाटकेषु स्थितानामपि किं पुनः प्रथमभङ्गे द्वितीयभङ्गे वा स्थितानामित्यादि-अपिशब्दार्थः / विचारगतानांसंज्ञाभूमौ संप्राप्तानाम्, अथवा-तस्यां च पथिमार्गे गच्छतां दोषाः शङ्कादयो भवन्ति, तांश्च शङ्कादीन् दोषान् एक-विचाराणामेकसंज्ञाभूमिकानां निर्ग्रन्थानां च सूरिः स्वयमेव नियुक्तिगाथाभिर्यधावसर-- मुत्तरत्र वक्ष्यति-भणिष्यति। तत्र प्रथमभङ्गे तावदोषानुपदिदर्शयिषुराहएगवगडं पडुया,दोण्ह वि वग्गाण गरहितो वासो। जइ वसइ जाणओ तु,तत्थ उ दोसा इमे हाँति // // एकवगडमुपलक्षणत्वादेकद्वारं च क्षेत्रं प्रतीत्य द्वयोरपि वर्गयोः - साधुसाध्वीलक्षणयोरेकत्र वासो गर्हितोनिन्दितो; न कल्पते इत्यर्थः / यदिज्ञापकः-संयत्योऽत्र संगता इति जानानस्तत्रागत्य वसतितत इमे-- वक्ष्यमाणादोषा भवन्ति। इदमेव सविशेषमाहएगवगडेगदारे, एगयरहियम्मि जो तहिं ठाइ। गुरुगा जइ वि य दोसा, न होज पुट्ठो तह वि सो उl एकवगडे एकद्वारेच क्षेत्रे यत्र पूर्वमेकतरःसंयतवर्गः संयतीवर्गो वा स्थिती वर्त्तते तत्र य आचार्यादिः प्रवर्त्तिन्यादि पश्चादागत्य तिष्ठतितस्य चत्वारो गुरुकाः / यद्यपि च तत्र दोषा वक्ष्यमाणा न भवेयुस्तथाऽप्यसौ भावतस्तैः स्पृष्टो मन्तव्यः। तत्र पूर्वस्थितसंयतीवर्ग क्षेत्रमङ्गीकृत्य तावदाहसोऊण य समुदाणं, गच्छं आणेतु देउले ठाति। ठाइयंतगाण गुरुगा, तत्थ विआणाइणो दोसा।।१०।। श्रुत्वा च समुदानं भैक्षं सुलभप्रायोग्यं द्रव्यं ततो गच्छमानीय देवकुले उपलक्षणत्वादपरस्मिन् वा सभाशून्यगृहादौ तिष्ठति, तत्र च तिष्ठतामाचार्यादीनां चत्वारो गुरुकाः, तत्राप्याज्ञादयो दोषा द्रष्टव्याः! एनामेव नियुक्तिगाथां व्याख्यानयतिफागपइपेसविया, दुविहोवहिकअनिग्गया वाऽवि। उवसंपनिउकामा, अतिकमाणा च ते साहू।११।। संजइभावियखेत्ते, समुदाणेऊण बहुगुणं नच्चा। संपुग्नमासकप्पं, खिंति गणिं पुट्टपुट्ठावा॥१२॥ केचन स्वसाधवः केनापि स्पर्द्धकपतिना क्षेत्रप्रत्युपेक्षणार्थं प्रेषिताः, यद्वा-द्विविधः-औधिकौपग्रहिकभेदभिन्नो य उपधिस्तस्योत्पादनार्थं कार्येषुवा कुलगणसङ्घसंबन्धिषु निर्गताः, उपसंपत्तु-कामा वा--उपसंपदं जिघृक्षवः, अध्वानं वा अतिक्रामन्तस्तत्र ते साधवः प्राप्ता एते स्पर्द्धकपतिप्रेक्षितादयः संयतीभावित क्षेत्रे समुदायं नीत्वा भैक्षं पर्यट्य प्रचुरप्रायोग्यलाभेन बहुगुणं तत्क्षेत्रं ज्ञात्वा गुरूणां समीपमायाताः संपूर्णमासकल्पं गणिनमाचार्य पृष्टा वा ब्रुवते। कुत इत्याहतुज्झ वि पुण्णो कप्पो,नय खेत्तं पेहियं म्हि जंजोग / जं पि य रुइयं तुज्झं, न तं बहुगुणं जह इमं तु // 13|| क्षमाश्रमणाः ! युष्माकमपि मासकल्पाः पूर्णा वर्तन्ते न च तत् क्षेत्र प्रत्युपेक्षितं यद्भवतां योग्यमनुकूलम्। यदपि च क्षेत्रंयुष्माकं रुचितमभिप्रेतं नतद्रहुगुणं यथेदमस्मत्प्रत्युपेक्षितं क्षेत्रम्।
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________________ वसहि 1012- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि मा परमएगोऽत्थ नवरि दोसो, संपइ सो वियन बाहए किंचि। नयसो भावो विनइ, अदोसवं जो अनिययस्स ||14|| नवरमेक एवात्र दोषो विद्यते,परं सोऽपि मां प्रति मदीयेनाभिप्रायेण न किञ्चिद्राधते, न चाऽसौ भावः पदार्थो जगति विद्यते योऽनियतस्यअनिश्चितस्यानुद्यमवतो पुरुषस्य अदोषवान् भवति, किं तु--सर्वोऽपि दोषवान् इति भावः। अहव ण किं सिटेणं,सिट्टे काहिहें न वा वि एवं ति। खुडमुहा संति इहं,जे कोविजा जिणवयं पि॥१५॥ अथवा-किमस्माकमनेनार्थेन शिष्टेन-कथितेन कार्य; न किञ्चिदित्यर्थः, यतो यूयं शिष्ट सति करिष्यथ वा न वा एनमस्मदभिप्रेतमर्थमिति वयं न विद्मः / कुत इत्याह- क्षौद्रमुखामधुमुखा; मधुरभाषिण इत्यर्थः,सन्ति-विद्यन्ते इह-अस्मिन्नर्थे भवतां वल्लभेश्वराः, ये जिनवाचमपि कोपयेयुः-अन्यथा कुर्युः / आस्तां तावदस्मदादिवचनमित्यपिशब्दार्थः। इह सपरिहास निबंध पुच्छिओ वेइ तत्थ समणीओ। बलियपरिगहियाओ,होह दढा तत्थ य वयामो॥१६॥ इत्येवं सपरिहासे तेनोक्ते आचार्यो महता निबन्धेन पृष्टः / कथय भद्र! कीदृशस्तत्र दोषो विद्यते, ततःसब्रवीति-तत्र श्रमण्यो बलिना बलवता आचार्यादिना परिगृहीता विद्यन्ते, परंतथापि वयं दृढा भवन्तः, कामपि शङ्कां कुरुध्वम्। अत्रार्थे सर्वमप्यहं भणिष्यामि, अतस्तत्र व्रजामो वयम्। एवं भणतः प्रायश्चित्तमाहभिक्खू साहइ सोउं, व भणइ जइ वावि तहिं मासो। लहुगा गुरुगा वसमे, गणिस्स एमेव वेहाए।।१७।। यदि भिक्षुरनन्तरोक्तवचनं कथयति, श्रुत्वा वा भिक्षुरेवं भणति वाढं व्रजामः तत्र वयम्, ततो मासलघु प्रायश्चित्तम् / अथ वृषभ उपाध्यायम् एवं ब्रवीति,प्रतिशृणोति वा ततस्तस्य चत्वारो लघवः। गणिन आचार्यस्य इत्थं भणतः प्रतिशृण्वतो वा चत्वारो गुरुकाः / एवमेवोपेक्षायामपि द्रष्टव्यम् / किमुक्तं भवति-इत्थं तेनोक्ते व्रजामो वयमिति वा प्रतिश्रुते यदि भिक्षुरुपेक्षां करोति तदा तस्य लघुमासिकम्। वृषभस्योपेक्षमाणस्य चतुर्लघु। आचार्यस्योपेक्षां कुर्वाणस्य चतुर्गुरु! अथवासामत्थण परिवत्थो, गहणे पयभेदपंथसीमाए। गामे वसहिपवेसे, मासादी भिक्खुणो मूलं ||18|| भिक्षुस्तत्र गन्तव्यं न वेति 'सामत्थणं' पर्यालोचनं करोति मासलघु 'परिवत्थि' त्ति देशीशब्दोऽयं निर्णये वर्तते / ततो गन्तव्य मेव तत्रेति निर्णय करोतिमासगुरु, 'गहणे' ति निर्णीय यदुपधिंगृह्णातिततश्चतुर्लघु, पदभेदं कुर्वतश्चतुर्गुरुकम्, पथि व्रजतः षड्-लघुकम्, ग्रामसीमायां मासच्छेदः, वसतौ प्रवेशं कुर्वतो मूलम्। एवं भिक्षोलघुमासादारभ्य मूलं यावत्प्रायश्चित्तमुक्तम्। गणिआयरिए सपदं,अहवा अविसेसिया भवे गुरुगा। भिक्खूमाइ चउण्हं,जइ पुच्छसि तो सुणसु दोसे // 19 // गणिन उपाध्यायस्य मासगुरुकादारभ्य स्वपदमनवस्थाप्यं यावत्, आचार्यस्य चतुर्लघुकादारभ्य स्वपदं पाराञ्चिकं यावत्प्रायश्चित्तं मन्तव्यम् / अथवा-भिक्षुवृषभोपाध्यायाचार्याणां चतुर्णामपि तपःकालविशेषिताश्चतुर्गुरुकाः। तद्यथा-भिक्षोभ्यामपि लघवः तपसा कालेन, वृषभस्य कालेन गुरवस्तपसा लघवः, उपाध्यायस्य तपसा गुरवः कालेन लघवः, आचार्यस्य तपसा कालेन च द्वाभ्यामपि गुरवः। अथ केषां तत्र तिष्ठतांदोषा इति यदि पृच्छसि ततः शृणुनिशमय दोषान् मयाऽभिधीयमानान्। तानेवाभिधित्सुराहअन्नतरस्स निओगा, सवेसि अणुप्पिएण वातेतु। देउले सभासुन्ने, निओयपमुहे ठिया गंतुं // 20 // अन्यतरस्य भिक्षोः भिक्षुभावे नियोगान् सर्वेषां-साधूनामनुप्रियेण अनुपात्यते आचार्यास्तत्र गत्वा देवकुले वा सभायां वा शून्यगृहे वा नियोगस्य मुखे प्रवेशे एव स्थिताः, ततो निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां चोभयेषां परस्परदर्शनेन बहवो दोषा भवन्ति। (अत्र चाग्निदृष्टान्तः सूरिभिर्वर्णितः सच अग्गि' शब्दे प्रथमभागे 175 पृष्ठे गतः।) अथ 'किं पुण तासिं तयं नऽत्थि' त्ति पदं भावयन् शिष्येण प्रश्नं कारयतिलुक्खमरसुण्हमनिका-मभोयिणं देहभूसविरयाणं / सज्झायपेहमादिसु, वावारेसुं कओ मोहो॥३१॥ रूक्षम-निःस्नेहम् 'अरसुण्ह' त्तिनञ् प्रत्येकमभिसंबध्यते अरसम्हिङ्ग्वादिभिरसंस्कृतम् अनुष्ण-शीतलम् अनिकामपरिमितं भक्तं भोक्तुं शीलमेषां ते रूक्षाऽरसाऽनुष्णाऽनिकामभोजिनस्तेषाम्, मकारावलाक्षणिकौ / तथा देहभूषायाः-स्नानादिरूपायाः विरतानांप्रतिनिवृत्तानां स्वाध्यायः-पठनादिरूपः प्रेक्षा प्रतयुपेक्षणा तयोरादिशब्दाद्वैयावृत्त्यादिषु च व्यापारेषु व्यापृतानां साधुसाध्वीजनानां कुतो मोहःपुरुषवेदाधुदयरूपः संभवति। अथ प्रतिवचनमाहनियणाइ लूणमहण, वावारे बहुविहे दिया काउं। सुक्खसुढिया विरतिं, किसीबला किं न मोहंति॥३१॥ "नियणं' ति निदानं निद्राणमित्यर्थः / आदिशब्द उत्तरत्र योक्ष्यते / लवनं मर्दनं च प्रतीतम्, एवमादीन् बहुविधान् व्यापारान् दिवा कृत्वा शुष्काः स्नानाद्यभावेन शीतोष्णादिभिश्वपरिम्लानाः 'सुदिआ'-श्रान्ता एवंविधा अपि कृषीवलाः, किमिति--परिप्रश्ने, भवानेवात्र पृच्छ्यते, कथय--किं ते रात्रौ न मुह्यन्ति? नमोहमुपगच्छन्ति; मुह्यन्त्येवेति भावः। जइ ताव तेसि मोहो, उप्पजइ पेसणेहि सहियाणं / अव्वावासुहीणं,न भविस्सइ किह णु विरयाणं // 32 // यदि च तेषां-कृषीवलानां प्रेषणैः व्यापारैः सहितानां मोह उत्पद्यते ततो विरतानां संयतानामव्यापारसुखिनां तथाविधव्यापारहिततया सुखिना कथं नुनाम न मोहोदयो भविष्यति।
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________________ वसहि 1013- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि अथाऽत्रैव पराभिप्रायमाशक्य परिहरतिकोई तत्थ भणिज्जा, उप्पन्ने रंभिउं समत्थो त्ति। सो य प न वि होई, पुरिसो व घरं पलीवेंतो // 33 // कश्चित्तत्रानन्तरोक्तेऽर्थे ब्रूयात् यद्यपि मोह उत्पद्यते तथाऽप्यहमुत्पश्रेऽपि मोहे आत्मानं निरोर्बुसमर्थ इति। गुरुराह-सपुनरेवं वक्तातादृशे अक्सरे न निरोढुं प्रभुः-समर्थो भवति, पुरुष इवगृहं प्रदीपयत्। अथैनामेव नियुक्तिगाथा व्याख्यानयतिकामं अखीणवेदा, ण होइ उदओ जहा वदह तुम्झे। तं पुण जिणासु उदयं, मावणतवणाणवावारा॥३४॥ उप्पत्तिकारणाणं, सब्भावं वी जहा कसायाणं / ण हु णिग्गहो णिसेओ, एमेव इमं पिपासामो॥३५।। वयं भावनातपोज्ञानव्यापारान्-भावनास्तु कलेवरश्वेतच्छत्रचिन्तनादिकाः,तपश्चतुर्थादिकं ज्ञानव्यापारः सूत्रार्थचिन्तनात्मकः। अपि च"चउहिं ठाणेहिं कोहुप्पत्ती सिया, तं जहा-खेत्तं पडुच, वत्थु पडुच, सरीरंपडुच, उवहिं पडुच्च।" इत्यादिना स्थानाङ्गादौ प्रज्ञप्तानां कषायोत्पत्तिकारणानां क्षेत्रवस्त्वादीनां सद्भावेऽपि यथा कषायाणां निग्रहो न श्रेयान्? अपि तु श्रेयानेव एवमेव इदमपि प्रस्तुतं पश्यामः, मोहोदयकारणानां सद्भावेऽपि तन्निग्रहं करिष्याम इति भावः। अत्र सूरिः परिहारमाहपहरणजाणसमग्गो, सावरणो वि हु छलिज्जई जोहो। बालेन य न छलिज्जइ, ओसहहत्थो न किं गाहो // 36|| प्रहरणं--खङ्गादि यानं-हस्त्यादि ताभ्यां समग्रः-सम्पूर्णः, तथा सावरणः-सन्नाहसहितः, अपिशब्दाद्-युद्धकौशलादिगुण-युक्तोऽपि, यथा योधः समरशिरसि प्रविष्टः प्रयत्नं कुर्वाणोऽपियोधान्तरेण छल्यते; छल लब्ध्वा हन्यते इत्यर्थः। यद्वा-ग्राह:-सर्पग्राहको गारुडिकादिरौषधहस्तोऽपि किं व्यालेन-दुष्टसर्पण न छल्यते-छल्यत एव, एवं यद्यपि भवान् भावनातपोज्ञानव्यापारयुक्तस्तथाऽपि स्त्रीणां संदर्शनादिकं कुर्वन् मोहोदयेन छल्यत एवेति! अपिचउदयघडे विकरगए, किमोगमादीवितं न उज्जलई। अइइद्धो विन सक्का, विनिव्ववेउं कुडजलेणं // 37 / / उदकघटे करतलेऽपि-हस्तस्थितेऽपि ओको-गृहम् आदीपितम्प्रज्वलितं सन्नोज्ज्वलति-न दीप्यते / अथासावतीद्धोऽविदितोऽग्निस्ततः कुटजलेन प्रक्षिप्तेनापि नासौ निर्वापयितुं शक्यते, एवं यद्यपि व्यापारादिकं जलघटकल्पं स्वाधीनं तथापि मोहोदयाग्निना प्रज्वलितं चारित्रगृहं न प्रदीप्यते, अतिप्रबलो वा मोहो यत्प्रदीप्यते ततो घटजलकल्पेन बहुनाऽपि ज्ञानव्यापारादिना नासौ विध्मापयितुं शक्य इति। किंचरीढा संपत्ती वि हु, न खमा संदेहियम्मि अत्थम्मि। नायकए पुण अत्थे, जावि विवत्तीस निहोसा॥३५|| संयतीक्षेत्रे गतानां मोहोदयनिरोधादिको यः संदेहितः-संशया स्पदीभूतोऽर्थस्तस्मिन्नीढया यदृच्छया घुणाक्षरन्यायेन संपत्तिरपि न क्षमा-नश्रेयसी,यःपुनःसाध्वीरहितक्षेत्रगतसनादिकोऽर्थः पूर्वं ज्ञातोनिर्दोषत्वेन निण्णीतस्ततः कृतः कर्तुमारब्धो ज्ञातकृत-स्तस्मिन्नेवंविधे अर्थेऽपि कुतोऽपि वैगुण्यतो विपत्तिर्भवति साऽपि निर्दोषा मन्तव्या। अथ परः प्राहदूरेण संजईओ, असंजईआहि उवहिमाहारो। जइ मेलणाए दोसो, तम्हा रत्तम्मि वसियव्वं // 39 // संयत्यो दूरेण पृथक्क्षेत्रादौ वसन्त्यः परिहर्तुशक्यन्तेयास्तुअसंयत्यःअविरतिकास्ताः परिहर्तुमशक्याः, यतस्ताम्य उपधि-राहारश्च लभ्यते, ततो यदि मीलनायाः संसर्गस्य दोषः संयतिक्षेत्रे तिष्ठतां भवति ततः साधुभिररण्ये गत्वा वस्तव्यम्। सूरिराहरण्णे वितिरिक्खीतो, परिन्नदोसा असंततीयाऽवि। लज्जाय कूलबालो गुणमगुणं किं च सगडाली।।४०।। अरण्येऽपि वसन् तिरश्च्यः स्त्रियो-हरिणीप्रभृतयो दोषानुपजनयन्ति, तथा परिज्ञाभक्तप्रत्याख्यानं तद्दोषश्च भवति तथाहि-तत्राहाराद्यभावत्परिज्ञा भक्तप्रत्याख्यानं कर्त्तव्यम् / तत्र प्रथमत एव कर्तुं न युज्यते विरतिसहितस्य जीवितस्य दुष्प्राप्यत्वात्, न च तदानीं कर्तुं शक्यते, कुर्वतामप्यार्त्तध्यानसंभवात्कुदेवगमनप्रत्यबोधिदुर्लभत्वादयो दोषाः, असंततिश्च-प्रज्ञानाद्यभावान्न शिष्यप्रशिष्यादिसंतान उपजायते, यद्वा'असंतइए' ति सर्वथैव स्त्रीणां ममतायां वनवासमङ्गीकृत्य यत्किल ब्रह्मचर्य धार्यते तन्न बहुफलं भवति। 'थंभा कोहो अणाभोगा, अणापुच्छा असंतई' इति वचनप्रामाण्येन सदोषत्वात् / नचात्रारण्य, जनाकुलं वा प्रमाणम्, यतः कूलबालकोऽटव्यामपि वसन् के गुणं लब्धवान, साकटालिः-स्थूलभद्रः स्वामी जनमध्ये गणिकायाः गृहेऽपि तिष्ठन् कम् अगुणं लब्धवान्; न कमपीति भावः। किंचकस्सइ विवित्तवासो, विराहणा दुग्मए अभेदो वा। जह सगडालिमणो वा, तह बितिओ किं न रंभिंसु // 41 // कस्यचिद्विविक्ते-पशुपण्डकविरहितेऽपि वासे वसतः प्रबलवेदोदयाद्विराधना ब्रह्मचर्यस्य भवति / कस्यापि पुनर्दुर्भये स्त्र्यादिसंशक्तप्रतिश्रयवासेऽपि वेदनीयमोहनीयक्षयोपशमप्रबलत्वेनाभेदो-न ब्रह्मचर्यविलोपो भवति। वाशब्दः प्रकारान्तरद्योतनार्थः / आह यद्येवं तर्हि कर्मोदयक्षयक्षयोपशमादिरेव प्रमाणं न स्त्रीसंसर्गादि, नैवम्कर्मणामुदयक्षयक्षयोपशमादयोऽपि प्रायस्तथाविधद्रव्यक्षेत्रादिसहकारिकारणसाचिव्यादेव तथा तथा समुपजायन्ते नान्यथा यथा वा शाकटालिः-स्थूलभद्रस्वामी स्वकीयं मनः स्त्रीसंसर्गेऽपि निरुद्धवार तथा द्वितीयः सिंहगुहावासी किं न निरुद्धवान्, येन स्त्रीसंसर्गार मप्रमाणं गीयते। यतश्चैवमतःहोजन वावि पभुत्तं, दोसायतणेसु वट्टमाणस्स
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________________ वसहि 1014 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि चूयफलदोसदरिसी, चूयच्छायं पि वजेइ // 4 // भवेद्वान वा दोषायतनेषु-ब्रह्मविराधनादिदोषस्थानेषु वर्तमानस्य मनो निरोद्धं प्रभुत्वं-सामर्थ्य तथापि दोषायतनानि दूरतः परिहरणीयानि। दृष्टान्तश्चात्र चूतफलदोषदर्शीचूतच्छायामपि वर्जयति / "जहा एगो रायपुत्तो अंबगपित्तस्स अंबगेहिं अइखइएहिं वाही उढिओ / सो वेजेहिं जाप्पकतो अंबगा य पडिसिद्धा। सो अन्नया पारद्धिं गओ, अंबच्छायाए वीसमइ। अमचेणं पुण पडिसिद्धो, तह वि ठाइ, ताहे तेण वारिजंतेण वि तं फलं गहियं / भणइ अमचं--न खाइज्जं को दोसो गहिए त्ति / तेण पसंगदोसेण खइयं, विणट्ठो य। एस दिट्ठतो। अयमत्थोवणओ-जहा तस्स रायपुत्तस्स विजेहिं अंबगा अपत्थ त्ति काउंपडिसिद्धा तहा भगवया वि साहूणं अचंत-पडिसेवा इह परत्थ य अपत्थ त्ति काउं पडिसिद्धा तप्परिहरणो वाओ य इत्थीपसुपंडगसंसत्ताए वसहीए संजईखेत्ते यन ठायव्यं, इचाइ उवइट्ठो।जो तेसुठाइ सो नियमा पसङ्गदोसेण विणस्सइ, चरित्तरजस्स य अणभोगी भवइ, जहा सो रायपुत्तो / अन्नो पसत्थो रायपुत्तो सो चूतफलदोसदरिसी चूयच्छायं पि परिहरतो इह लोइयाणं कामभोगाणं भोगी जातो। एवं जो साहू तित्थयरपडि-सेवादोसदरिसी इत्थिसंसत्ताओ वसहीओसंजईखेत्तं च परिहरइसो नियमा इह परत्थय सव्वसुक्खाणं आभोगी भवइ त्ति"। अथ 'दूरेण संजईओ' इत्यादि यत्परेणाक्षिप्त तदेतत्परिजिहीर्षुराहइत्थीणं परिवाडी, कायव्वा होइ आणुपुष्वीए। परिवाडीए गमणं,दोसाय सपक्खमुप्पन्ना ||3|| स्त्रीणाम्-एकखुरादीनां परिपाटी--पद्धतिरानुपूर्व्या कर्तव्या भवतिप्ररूपणीयेत्यर्थः / ततः परिपाट्या यथा तासु गमनं भवतीति तथा वाच्यम्, दोषाश्च स्वपक्ष उत्पन्ना भवन्ति वक्तव्यमिति नियुक्तिगाथासंक्षेपार्थः। अथैनामेव गाथां व्याख्यानयतिएगखुरदुखुरगंडी,सणक्खइत्थीस चैव परिवाडी। बद्धाण चरतीणं, जत्थ भवे वग्गवग्गेसु // 4|| तत्थऽन्नतरो मुक्को-सजाइमेव परिधावई पुरिसो। पासगए वि विवक्खे, चरइ सपक्खं अवेक्खंतो ||4|| एकखुरा-वडवादयः द्विखुरा-गोमहिष्यादयः गण्डपदाहस्तिन्यादयः सनखपदाः--शुनीप्रभृतयः एतासुषष्ठीसप्तम्योरर्थ प्रत्यभेदादेतासां स्त्रीणां वर्गे वर्गे पृथक् सजातीयसमूहरूपेषु बद्धानां वा चरन्तीनां वा यत्र क्वापिकुटीवाटकादौ परिपाटी भवेत्, तत्राश्व-गोहस्तिशुनकादीनामन्यतमः पुरुषो युक्तःसन्दूरस्थितामपि स्वजातीयामेव बडवादिकां परिधावति। विपक्षे तु विजातीये-गवादिपक्षे पार्श्वगतेऽपि प्रत्यासन्नस्थितेऽपि स्वपक्षमप्रेक्षमाणश्च रति,नपुनर्विपक्षमनुधावतीति भावः। एवं श्रमणोऽपि स्वपक्ष इति कृत्वा विश्वस्तमनाः संयतीभिः सह सङ्गं करोति। यतःआगंतुयदव्वविभू-सियं च ओरालियं सरीरंतु। असमंजसो उतम्हा, गारिस्थिसमागमो जइणो॥४६|| आगन्तुकद्रव्यैर्वस्त्राभरणादिभिर्विभूषितमलंकृतं चशब्दादुद्वर्त्तनस्नानादिपरिकर्मयुक्तं च यस्मादगारस्त्रीणामौदारिकं शरीरमन्यादृशमिव प्रतिभाति, तस्मादसमञ्जसो-विसदृशस्ताभिः सह यतेः-- साधोर्मलीमसशरीरस्य समागमोमीलकः / अपिचअविभूसिओ तवस्सी, निकामोऽकिंचणो मयसमाणो। इय गारीणं समणे, लज्जा भयसंथवो न रहो।।४७|| अविभूषितो-विभूषारहितः एष तथा तपस्वी-तपः क्षीणदेहो निष्कामःशुभरसगन्धाधुपभोगरहितः,अकिञ्चनो-निष्परिग्रहः, ततो मृतसमानः शवकल्प एष इत्येवं सागारीणां श्रमणे अवज्ञा भवति / श्रमणस्य पुनरगारीभिः सह विपक्षतया लज्जा / यचागारीभ्यो भयं तेन ताभिः सह न संस्तवः परिचयो नवा रह एकान्त इति! स्वपक्षे तुकथमित्याहनिब्मयता य सिणेहो, वीसत्थत्तं परोप्परनिरोहो। दाणकरणं पि जुज्जइ, लग्गइ तत्तं च तत्तं च // 58| संयतस्य संयत्यां निर्भयता; न भयमुत्पद्यते, स्नेहश्चोभयोरपि भवति स्वपक्षत्वात्, विश्वस्तत्वं च विश्वासः परस्परगुह्यगोपन-विषयःप्रत्यय इत्यर्थः, परस्परमुभयोरपि निरोधोवस्तिनिग्रहात्मकः, तथा दानकरणमपिवस्वपात्रादिलक्षणं संयती प्रति तस्य युज्यते; संभवतीत्यर्थः। ततो यथा तप्तं च तं लोहं लगति-संबध्यते तथा संयतीसंयतौ द्वावपि निरोधसंतप्तौ रहो लब्ध्वा लगत इति / आह-दृष्टास्तावत्स्वपक्षपरपक्षसमुत्था दोषाः परमेते कुत्र भवन्तीति निरूप्यताम् / उच्यतेवीयार भिक्खचरिया, विहारजइचेइवंदणादीसुं। कजेसु संपरित्ता,ण हॉति दोसा इमे दिस्स||४|| एकवगडे-एकद्वारे च ग्रामादौ विचारभूमिभिक्षाचर्याविहारभूमियतिचैत्यवन्दनादिषु कार्येषु प्रतिश्रयान्निर्गतानां रथ्यादौ सम्पतितानां मिलितानाम् अन्योन्यं दृष्ट्वा एते दोषा भवन्ति। दूरम्मि दिहि लहुओ,अमुगो अमुगि तिचउलहू हॉति। किइकम्मम्मि य गुरुगा, मिच्छत्तपसजणा सेसे // 50 // यदि दूरेऽपि संयतः संयत्या दृष्टः, संयती वा संयतेन यदि दृष्टा तदा लघुको मासः, प्रत्यासन्नप्रदेशे समायातं संयतस्य सम्यगुपलक्ष्यते संयती यद्यस्तुकोऽयं ज्येष्ठार्य! ब्रूते, संयतोवासंयतीमुपलक्ष्य अमुका संयतीति ब्रवीति तदा चत्वारोलघवः। अथ सा कृतिकर्मवन्दनं करोति तदा चत्वारो गुरुकाः, ये चाभिनवधर्माणस्ते तथा वन्दमानामुपलभ्यमिथ्यात्वं गच्छेयुः / शेषेभोजिकाघाटिकादौ शङ्कां कुर्वाणे सति प्रसज्जनाप्रायश्चित्तस्य वृद्धिर्द्रष्टव्या। तामेवाहदिढे संका भोइय, घाडियणाईयगामबहिया य। चत्तारि छच लहुगुरु, छेदो मूलं तह दुगं च // 51 // संयतस्य संयत्या कृतिकर्म क्रियमाणं केनचिद् दृष्टं दृष्टे सति
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________________ वसहि 1015 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि - तस्य शङ्का वक्ष्यमाणा संजायते ततश्चत्वारो गुरवः। अथ भोजिकायाभार्यायाः कथयति ततश्चतुर्लघुकाः, घाटिकोमित्रं तस्याग्रतः कथने च चतुर्गुरवः, ज्ञातीनांस्वजनानां कथने षट्लघवः, ग्रामस्य कथयतिछेदः, ग्रामबहिर्निर्गत्य कथयति मूलम्, गामसीमायां कथने अनवस्थाप्यम्, सीमानमतिक्रम्य कथयति पाराश्चिकम्। कीदृशी पुनः शङ्का भवतीत्याहकुवियं नु पसादेंती, आओ सीसेण जायए विरह। आओ तलपन्नविया, पडिच्छई उत्तिमंगेणं // 12 // नुरिति वितर्के,किमेषा संयती एवं वन्दमाना कुपितं सन्तमेनं संयतं / प्रसादयति, आहोस्वित् शीर्षणमस्तकेन रह एकान्तं याचते, उताहो तेन साधुना तलेन वण्डकादिकरणेन प्रज्ञापिता सती प्रार्थनाम् उत्तमाङ्गेन प्रतीच्छति। इइ संकाए गुरुगा, मूलं पुण होइ निव्विसंके तु। सोही वासन्नतरे, लहुगतरी गुरुगतरी इयरे // 53 // इति एवं शङ्कायां चत्वारो गुरुकाः,अथ निर्विशङ्क-कुपित-प्रसादार्थमेव वन्दनकं करोति मन्यते ततो द्वयोरपि मूलम्, भोजिकादिश्च यो यस्य संबन्धेनाऽऽसन्नतरस्तत्र शोधिलघुकतरा, इतर-स्मिन् पाटिकज्ञात्यादौ संबन्धेन दूरतरे गुरुकतरा। अथ किमिति ज्ञातीनां प्रथमं न कथयतीत्याहविस्ससइभोइमित्ता-इएसुतो नायओ भवे पच्छा। जह जह बहुजणनायं,करेइतह वड्कए सोही // 54|| भोजिकमित्रादिषु शरीरमात्रभिन्नेषु न किमपि गोपनीयमस्तीति कृत्वा यतोऽसौ विश्वसिति ततो ज्ञातीन्-स्वजनान् पश्चाज्ज्ञापयति,यथा यथा चासौ बहुजनज्ञानं करोति तथा तथा शोधिः-प्रायश्चित्तं वर्द्धते। अथासौ ज्ञाप्यमानो जनः प्रतिषेधयति ततः प्रायश्चित्तमप्युपरमते। तथा चाऽऽहपडिसेहो जम्मि पदे, पायच्छित्तं तु ठाइ पुरिमपए। निस्संकियम्मि मूलं,मिच्छत्तपसजणा सेसे // 5|| तेन पुरुषेण भोजिकाया आख्यातम्-मया संयती संयतं शीर्षप्रणामेनावभाषमाणा दृष्टा ततः सा प्रतिषेधयति न भवत्येवम् एवमसमञ्जसभाव इति, ततः प्रायश्चित्तमप्युपरतम् / अथासौ तया न प्रतिषिद्धस्ततः प्रायश्चित्तं वर्द्धते, एवं घाटिकादिष्वपि वक्तव्यम्, ततो यस्मिन् भोजिकादौ पदे प्रतिषेधस्ततः पूर्वपदे शङ्कादौ प्रायश्चित्तं तिष्ठति, नोर्ध्वं वर्द्धत। तथा कुपितप्रसादनाद्यर्थमेव करोतीति निःशङ्किते मूलम्। एवं मिथ्यात्वं शेषस्य च भोजिकादिविषयप्रायश्चित्तस्य प्रसज्जना भवति। कथं पुनर्भोजिकादयः प्रतिषेधयन्तीत्याहकिइकम्मं तीऍ कयं,मा संक असंकणिअचित्ताई। न वि भूतं न भविस्सइ, एरिसगं संजमधरेसुं // 56 // कृतिकर्म-वन्दनकं तया संयत्या कृतंमा आशङ्कअशङ्कनीयचित्ता अमूः संक्लिष्टाः नापि भूतम् / अपिशब्दान्न भवति, न च भविष्यति ईदृशं भवत्परिकल्पितं कुपितप्रसादनादिकमसमञ्जसचेष्टितं संयमधरेषुसाधुसाध्वीजनेषु / एवं विचारभूमौ गच्छतां दोषा उक्ताः। अथ भिक्षाचर्यायां तानेवाऽऽहपढमवितियातुरो वा,सइ कालतवस्सिमुच्छसंतो वा। रत्थामुहाइपविसं-निंतो व जणेण दीसिज्जा / / 57 // 'रत्थामुहाईत्ति तस्मिन्ग्रामे-रथ्यामुखे आदिशब्दादन्यत्र च तथाविधे स्थाने देवकुलं वा शून्यगृहं वा भवेत्, तत्र प्रथमपरीषहातुरःप्रथमालिकार्थम्, द्वितीयपरीषहातुरश्चद्रवपानार्थं प्रविशेत्, यद्वा-यावन्न सत्कालो भिक्षाया आदेशकालो भवति तावदत्रैवोपविष्टस्तिष्ठामि / अथवा-तपस्वीपक्षकः स विश्रामग्रहणार्थम्, यद्वा-अत्युष्णेन कस्यापि मूर्छा समुत्पन्नातस्या अपनयनार्थम्, यद्वाभिक्षाटनेन श्रान्तोऽहमतोऽत्र विश्राम गृह्णामि; एवमेंतैः कारणैस्तत्र प्रविशेत् / स च प्रविशन् ततो निर्गच्छन् वा जनेन दृश्यते, संयत्यपि तत्रैतैरेव कारणैः प्रविशेत्। साऽपि प्रविशन्ती जनेन दृष्टा स्यात्। अत्र चतुर्भङ्गीमाहसंजयों दिवो तह सं-जई य दोण्णि वि तहेव संपत्ती। रत्थामुहे व होजा, सुन्नघरे देउले वाऽवि // 18 // संयतस्तत्र जनेन दृष्टो न संयती 1, संयती दृष्टा न संयतः२, संयतः संयती च द्वावपि दृष्टौः३, तथा द्वावपि न दृष्टौ४,'तहेव संपत्ती ति यैः कारणैःप्रथमद्वितीयपरीषहाऽऽतुरतादिभिः संयतः प्रविष्टस्तैरेव संयत्या अपि तत्र संप्राप्तिरभूत्। एवमनन्तरोक्तचतुर्भङ्गया रथ्यामुखे शून्यगृहे वा देवकुले वा दर्शनं स्यात्। ततः किमित्याहवइणी पुटवपविट्ठा, जेणायं पविसते जई एत्थ। एमेव भवति संका, वइणिं दठूण पविसंतिं // 16 . संयतं तत्र प्रविशन्तं दृष्ट्वा शङ्कते नूनं व्रतिनी पूर्वप्रविष्टा वर्तते, येनाऽयं यतिस्त्र प्रविशति। एवमेव व्रतिनीं प्रविशन्तीं दृष्ट्वा शङ्का भवति,नूनं संयतः प्रविष्टोऽत्र येनेयं प्रविशति। उमयं वा दुदुवारे, दळं संगारउ तिमन्नंति।। ते पुण जइ अन्नोन्नं, पासंता तत्थ न विसंता / / 60|| द्विद्वारे वा देवकुले उभयं संयतः संयती प्रविशेत,तत्रैकेन द्वारेण संयतः प्रविष्टो द्वितीयेन तुसंयती। तौ च तथा दृष्ट्वा संगार:-संकेतोऽत्रानयोरिति मन्यमानः तौचसंयतीसंयतौयद्यन्योन्यमद्रक्ष्यताम्ततस्तत्र नावेक्ष्यतांप्रवेशं नाकरिष्यताम्। इत्थं प्रवेशे चतुर्भङ्गी दर्शिता। अथ निर्गभनेऽपि तामतिदिशन्नाह। एमेव ततो णिते,भला चत्तारि हाँति नायव्या। चरिमो तुल्लो दोसु वि, अदिहभावेण तो सत्त // 61|| एवमेव-प्रवेशवत् ततः शून्यगृहादेर्निर्गच्छतोरपि तयोश्चत्वारो भङ्गा भवन्ति-ज्ञातव्याः, तद्यथा-संयतो निर्गच्छन् दृष्टो न संयती१, संयती निर्गच्छन्ती दृष्टा न संयतः 2 संयतःसंयत्यपि द्वावपि दृष्टौ३, द्वावपि न दृष्टौ 4, अत्रच द्वयोरपि प्रवेशनिर्गमयोश्वरमः-चतुर्थो भङ्गस्तुल्यः। कुत इत्याह- अदृष्टभावेन द्वयोरपि संयतसंयत्योरदृष्टत्वेन, ततश्च द्वाभ्यामप्येक एव गण्यते / एवं सप्त भङ्गा भवन्ति। एतेषु दोषानाहएक्ककम्मिय भने, दिट्ठाईया य गहणमाईया।
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________________ वसहि 1016 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि सत्तमभने मासो, आउभयादीय सविसेसा॥६॥ एकैकस्मिन् भङ्गे दृष्ट सति शङ्काभोजिकादयो दोषा भवन्ति। तत्र शङ्का नाम-किचित् श्रमणार्थमत्र प्रविशन्ती उतप्रतिसेवनार्थमिति तत्र चतुर्गुरु, स्वप्रतिसेवीति निःशङ्किते मूलम् शेषभोजिकानिवेदनादि प्रायश्चित्तं प्राग्वग्द्रष्टव्यम्। तथा उभयोरपि राजपुरुषैः तत्र प्रवेशे दृष्ट सतिग्रहणाकर्षणादयो दोषाः, सप्तमे भङ्गेमासलघु,तत्र चात्मोभयादिसमुत्थाः सविशेषा दोषाः / तथाहि-तत्रोभयोरप्यदृष्टादन्योन्यदर्शने द्वयोरेकतरस्य वा चित्तभेदः संभवेत्, केनाप्यावां प्रविशन्तौ न दृष्टाविति कृत्वा तत्रैकान्ते घटनं भवेत, आदिशब्दाच्चतुर्थव्रतं विराधितमावाभ्यामिति मत्वा वैहायसमरणावधावनादीनि कुर्वाताम्। अथ प्रवेशविषयेषु भङ्गकेषु पञ्चभिरादेशैः प्राय श्चित्तमभिधित्सुः प्रथमादेशतस्तावदाहचरिमे पढमे बिइए,तइए भने य हो इमा सोही। मासो लहुओ गुरुओ,चउलहुगुरुगाय भिक्खुस्स॥६३|| चरमो नाम यत्र द्वे अपि न दृष्ट, प्रथमो यत्र संयत एव दृष्टः, द्वितीयो यत्र द्वे अपि दृष्ट 4, एतेषु भङ्गेषु यथाक्रमं भिक्षोरियंशोधिर्मन्तव्या। तद्यथामासो लघुकः,मासो गुरुकः, चतुर्लघुकाः, चतुर्गुरुकाः। वसभे य उवज्झाए, आयरिऍ एगठाणपरिवुड्डी। मासगुरुं आरम्भा,नायव्वाजाव छेदो उ॥६॥ वृषभस्योपाध्यायस्य आचार्यस्य चतुर्गुरुकादारब्धं छेदान्तं द्रष्टव्यम्, एष प्रथमक आदेशः। अथ द्वितीय उच्यते-- अहवा चरिमे लहुओ, चउगुरुगं सेसएसु भङ्गेसु। भिक्खुस्स दोहि विलहू,कालतवे दोहि वी गुरुगा / / 6 / / अथवा-चरमे भङ्गे लघुको मासः, शेषेषु त्रिष्वपि भङ्गेषु प्रत्येक चतुर्गुरुकम्, एतानि प्रायश्चित्तानि भिक्षोयमपि तपसा कालेन च लघुकानि, वृषभस्य कालगुरुकाणि उपाध्यायस्य तपोगुरूणि, आचार्यस्योभयगुरूणि, एष द्वितीयआदेशः। अथ तृतीय उच्यतेमासो विसेसिओवा, तइया देसम्मि होइ भिक्खुस्स। गुरुगो लहुगा गुरुगा, विसेसियो सेसगाणं तु // 66|| 'वा' इति-अथवा, तृतीयादेशे चतुर्ध्वपि भङ्गेषु लघुमासस्तपः-- कालविशेषितो भिक्षोभवति। तद्यथा-चतुर्भङ्गेषुद्वाभ्यामपितपः कालाभ्यां लघुकं गुरुमासिकम्, प्रथमे तदेव तपसा लघुकं कालेन गुरुकम्, द्वितीये कालेन लघुकम्तपसागुरुकम्, तृतीये द्वाभ्यामपितपःकालभ्यां गुरुकम्,शेषाणां वृषभोपाध्यायाऽऽचार्याणां यथाक्रमं गुरुको मासः / चत्वारो गुरुकाश्चतुर्ध्वपि भङ्गेष्वेवमेव तपःकालविशेषिताः प्रायश्चित्तम्, एष तृतीय आदेशः। अथ चतुर्थमाहअहवा चउगुरुगा चिय, विसेसिया हुँति भिक्खुमाईणं / मासाइजाव गुरुगा, अविसेसा हुंति सव्वेसिं॥६७॥ अथवा-चतुर्गुरुका एव भिक्षुप्रभृतीनां चतुण्णामपि तपः-कालविशेषिता भवन्ति / तद्यथा-भिक्षोभ्यामपि तपः कालाभ्यां लघवः, वृषभस्य तपोलघवः कालगुरवः, उपाध्यायस्य तपोगुरुकाः काललघुकाः, आचार्यस्य द्वाभ्यामपितपः कालाभ्यांगुरवः / एष चतुर्थ आदेशः / अथ पञ्चमममाह- 'मासाइ जाव' इत्यादि, यद्वा मासादारभ्य चतुर्गुरु यावदविशेषितानितपः कालविशेषरहितानि भिक्षुवृषभादीनां प्रायश्चितानि। तद्यथा-भिक्षोसिलघु, वृषभस्यमासगुरु, उपाध्यायस्य चतुर्लघुकम्, आचार्यस्य चतुर्गुरुकम्। एतानि च प्रायश्चित्तानि सर्वेषां भङ्गचतुष्टयेऽपि तपकालाभ्यामविशेषितानीति पञ्चम आदेशः। एवं तावत्प्रवेशप्रत्यये पञ्चपदेषु प्रायश्चित्तमुक्तम्। अथ तत्र प्रविष्टानां ये दोषाः संभवन्ति तत्प्रत्ययं प्रायश्चित्तमाहदिह्रोभासपडिस्सुय-संथारतुयदृचलणउक्खेवे। फासणपडिसेवणया, चउलहुगाई उजाचरिमं // 6 // एवं प्रविष्टयोः संयतसंयत्योः परस्परं दृष्ट-दर्शने सति चतुर्लघवः, ततः संयतः संयती वा यद्यवभाषते ततश्चत्वारो गुरवः, अवभाषिते सति यदि प्रतिशृणोति तदा षट् लघवः,संस्तारके कृते षट् गुरवः, त्वग्वर्त्तने कृते छेदः, चलनंपादस्तस्योत्क्षेपे मूलम्, स्पर्शने अनवस्थाप्यम, प्रतिसेवने पाराञ्चिकम्, एवं प्रविष्टानां प्रायश्चित्तमुक्तम्। ___ अथ नैगमविषयमाहपविसंते जा सोही, चउसु विभागेसु वनिया एसा। निक्खममाणे सचिय, सविसेसा होइ भनेसु॥६६॥ संयतीसंयतयोः प्रविशतोर्या शोधिश्चतुर्वपि भङ्गेषु पञ्चभिरादेशैरेषा अनन्तरमेव वर्णिणता सैव शून्यगृहादेर्निष्कामतोरपि सविशेषा चतुर्ध्वपि भङ्गेषु भवति / एवं तावद् ग्रामादेर्बहिर्वजन्तीनाम् अन्तर्विचारभूमी गच्छन्तीनां भिक्षाचर्यायां च दोषाः प्रतिपादिताः। अधुना ग्रामादेर्बहिर्विचारभुवं गच्छन्तीनां दोषानुपदर्शयितुमाहअंतो वियार असई, अवियत्त सगार दुजणवते वा। बाहिं तु वयंतीणं, अपत्तपत्ताणिमे दोसा / / 7 / / अन्तर्दामादेरभ्यन्तरे विचारभूमेरभावे, अप्रीतिकं वा सागारिकःशय्यातरस्तत्र व्युत्सर्जने कुर्यात्, दुर्जनवृतं वा-दुःशीलजनपरिवृतं तत्पुरोहडम्, ततो ग्रामादेर्बहिर्वजन्तीनामन्यं स्थण्डिलमप्राप्तानां वा इमते दोषाः। वीयाराभिमुहीओ, साहुंदठूण संनियत्ताओ। लहुओ लहुया गुरुगा, छम्मासा छेयमूलदुर्ग // 71 / / विचारभूमेरभिमुखं गच्छन्त्यः साधुंतत्र यान्तं दृष्ट्वा यदि संनिवर्तते तदा लघुको मासः, संनिवृत्ताः सत्यः संज्ञांधारयन्त्यो यद्यनागाढं परिताप्यन्ते तदा चतुर्लधवः, आगाढपरितापनायां चतुर्गुरवः। महादुःखेषड्लघवः,मू
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________________ वसहि. 1017 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि छायां षड्गुरवः, कृच्छ्रप्राणे छेदः, कृच्छ्रोच्छासे मूलम्, समुद्धाते अनवस्थाप्याम, कालगमने पाराञ्चिकम्। एनामेव गाथा व्याख्यानयतिएसो वितत्थ वचइ, नियत्तिमो आगयंसि गच्छामो। लहुओ उ होइ मासो, परितावणमाइ जा चरिमं // 72 // एषोऽपिसंयतस्तत्र स्थण्डिले व्रजति अतो निवर्तामहे वयम्, आगते प्रतिनिवृत्ते सति गमिष्याम इति कृत्वा यदि संयत्यो निवर्तन्ते तदा लघुमासः। अथ संज्ञानिरोधनादनागाढपरितापनादिकं चरमपाराञ्चिकं यावत्प्रायश्चित्तम्। गड्डाकुडंगगहणे,गिरिदरिउजाण अपरिभोगे वा। पविसंते य पविटे, निते य इमा भवे सोही // 73|| अथतान्साधून दृष्टायदिगर्तायां कुडङ्गे वंशजालिकायां गहने-बहुवृक्षनिकुड) गिरिकन्दर्यापर्वतकन्दरायाम, उद्याने वा अपरिभोगे प्रविशेयुः, ततः प्रविशन्तीषुप्रविष्टासु निर्गच्छन्तीषु चेयं शोधिः साधूनां भवति। दूरम्मि दिढे लहुओ, अमुई अमुओ त्ति चउगुरू होति। ते चेव सत्त भङ्गा, वीयारगए कुडंगम्मि // 7 // यदि दूरे संयत्या संयतः, संयतेन वा संयती दृष्टा ततो लघुको मासः, अथ अमुका संयती अमुको वा अयं ज्येष्ठार्यः तिष्ठति तदा चतुर्गुरवो भवन्ति / तत्र च कुडङ्गे यदि कोऽपि संयतो विचारार्थं गतः पूर्व प्रविष्टो वर्ततेतदात एव सप्त भङ्गाः। तद्यथा-संयतः प्रविशन् दृष्टोन संयती 1, संयती प्रविशन्ती दृष्टान संयतः 2, द्वावपि दृष्टौ 3, द्वावपिन दृष्टौ 4 / एवं निर्गमनेऽपि चतुर्भङ्गी, नवरं चतुर्थो भङ्गः प्रवेशनिर्गमयोरुभयोरपितुल्य इति कृत्वा द्वाभ्यामप्येक एव गण्यते इति सप्त भङ्गा भवन्ति / एतेषु च प्रायश्चित्तं प्रागिव द्रष्टव्यम्। अथ तत्र ग्रामद्वारे स्थितेषु तेषु यत्तासां संयतीनां नि-- रोधो भवति तदुत्थदोषदर्शनाय दृष्टान्तमाहआभीराणं गामो, गामदारे य देउलं रम्म / आगमणभोइयस्स य, ठाइ पुणो भोइओ तहि यं / / 7 / / आभीराणां कश्चिद्ग्रामस्तस्य च ग्रामस्य द्वारे देवकुलं रम्यम्। अन्यदा च भोगिकस्य ग्रामस्वामिनस्तत्रागमनम्, ततस्तद्देवकुले भोगिकस्तिष्ठति। महिलाजणो य दुहितो, निक्खमण पवेसणं च सिं दुक्खं / सामत्थणा य तेसिं, गोमाहिससंनिरोधो य॥७६।। ततस्तेषामाभीराणां महिलाजनो दुःखितोऽभूत, निष्क्रमणं प्रवेशनं च तासां विचारादौ गच्छन्तीनां दुःखंदुष्करमभवत्। ततस्तेषां सामत्थण' त्ति पर्यालोचनमभूत, यथा-महिलाजनस्यातीव बाधा वर्तते / अथ एनं / भोगिकमुपायेनान्यत्र स्थापयाम इति ततस्तैर्गोमाहिषस्यगोमहिषीसंग्रहस्य स्ववर्त्मवियोजनस्य ग्रामादहिर्नीत्वाग्रामद्वारबन्धने रात्री संनिरोधः कृत इति। इदमेव स्फुटतरमाहविगुरुध्वियोंदीणं,खरकम्मीणं तु लज्जमाणीओ। मंजंति अणंतीओ, गोवाडपुरोहडे महिला॥७७|| इति ते गोणीहि समं, घिइमलभता उबंधिउंदारं। गामस्स विवच्छाओ, बाहिं ठावेसु गावीओ11७८|| विकुर्विता-वस्त्रादिभिरलंकृता बोन्दिः-शरीरं येषां ते विकुर्वितबोन्दयस्तेषामेवंविधानां भोगिकसंबन्धिनां खरकर्मिकाणां लज्जमानाः सत्यो महेला बहिरनिर्गच्छन्त्यो गोवाटकपुरोहडं निभञ्जन्ति; पुरीषव्युत्सर्गादिवा विनाशयन्तीत्यर्थः, इत्येवं विचार्य तेआभीराधृतिमलभमाना गोभिरात्मना सार्द्ध संचारिताभिः सह बहिर्निर्गतग्रामस्य द्वारे बडा विवत्साःवत्सरहिताः केवला एव गाः उपलक्षणत्वान्महिषीश्च ग्रामस्य बहिः स्थापितवन्तः / ताश्च तत्र स्थिताः स्ववत्सवियोजिता महता शब्देन सकलामपि रात्रिं विस्वरमारटितवत्यः, वत्सका अपि ग्रामं निःस्थिताः तथैव शब्दायितवन्तः। ततः किमभूदित्याहवच्छगगोणीसद्दे-ण असुवणं भोइए अहणि पुच्छा। सन्मावे परिकहिए, अन्नम्मि ठिओ निरुवरोहे ||7|| तेषां वत्सकानां गवां च यः शब्दो विस्वरारटनलक्षणस्तेन भोगिकस्यास्वपनं-निद्रान संयातेत्यर्थः / ततः अहनि-दिवसे उगते सति तेन पृच्छा कृता।यथा-किमेवं रात्रौ गोमहिषं विस्वरसमारटत्। तैराभीरैस्ततः सर्वोऽपि सद्भावः परिकथितः / ततोऽसौ भोगिकोऽन्यस्मिन् देवकुले निरुपरोधेनियाघाते गत्वा स्थित इति। अत्रोपनयमाहएवं चिय निरवेक्खा, वइणीण ठिया निओगपमुहम्मि। जातासि विराधणया, निरोधमादीतमावज्जे ||8|| एवमेव भोगिकवत्केचिन्निरपेक्षाः-संयतातिना सम्बन्धी यो नियोगो ग्रामः क्षेत्रमित्यर्थः, तस्य प्रमुख निर्गमप्रवेशद्वारे स्थितास्तैर्या तासां निरोधादिका विराधना आदिशब्दादनागाढपरितापनादिका तामापद्यते तन्निष्पन्नं तेषां प्रायश्चित्तं भवतीति भावः।। अहवण थेरा पत्ता, दलृ निकारणट्ठियं तं तु। भोइयनायं काउं, आउट्टविसोहिनिच्छुमणा // 1 // 'अहवण' त्ति अखण्डमव्ययपदमथवेत्यस्यार्थे। अथवा-स्थविराःकुलस्थविरादयस्तत्र क्षेत्रे प्राप्तमाचार्यादिकं ग्रामद्वार एव स्थितं दृष्ट्वा पृच्छन्ति, आर्य! किमत्र संयतीक्षेत्रे च भवानीदृशे प्रदेशे स्थितः? इति। ततो निर्वचने प्रदत्ते यदि निष्कारणिकस्ततो भोगिकज्ञानमन्तरोक्तं कुर्वन्ति। यथा--तेन महिलाजनेन महान् क्लेशराशिरनुबभूवे एवमेतामिरपि संयतीभिर्वा भवता अत्र स्थितेन महद् दुःखमनुभवनीयम्। एवमुक्ते यद्यावृत्तः प्रतिनिवृत्तस्ततो विशोधिं प्रायश्चित्तं देशतः क्षेत्रान्निष्काशना कर्तव्या। एवं ता दप्पेणं,पुट्ठो व भणिज्ज कारणठिओऽमि। तह यं तु इमा जयणा, किं कर्ज का य जयणा उ॥२॥ एवं तावद्दर्पणाकुट्टिकया स्थितानां दोषा उक्ताः / अथ कुलादिस्थविरैः पृष्टो भणेत्-कारणे स्थितोऽस्म्यहम्, ततः पुष्टकारणसद्भावेन प्रायश्चित्तम्, ननिष्काशना। तत्रतुकारणे स्थितानाभियंवक्ष्यमाणायतना।
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________________ वसहि १०१८-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि शिष्यः प्राह-किं पुनः कार्य-कारणम् ? का वा यतना? उच्यतेअद्धाणनिग्गयाई, अम्गुज्जाणे भवे पवेसो य। पुन्नो ऊणे व भवे, गमणं खमणं च सव्वासिं ||3|| अधुना येऽध्वनिर्गता वसिमं प्राप्तास्ते,आदिशब्दादशिवादिका-रणेषु वर्तमानाः संयतीक्षेत्रे प्राप्तास्तत्र बाह्योद्याने स्थिता गीतार्थाः संयतीप्रतिश्रये प्रहेयाः, तैश्च विधिना तत्र प्रवेशः कर्तव्यः / संयतीनां च मासकल्पः पूर्ण ऊनो वा भवेत्, यदि पूर्णस्ततो गमनं कर्तव्यम्। अथ न्यूनस्ततः सर्वासामपि क्षपणं भवतीति नियुक्तिगाथासमासार्थः। अथ विस्तरार्थमाहउव्वाया वेला वा, दूरट्ठियमाइणो य परगामे। इय थेराओ सिजं, विसंतणावाहपुच्छा य॥४॥ अध्वनिर्गतादयः साधवः संयतीक्षेत्रे प्राप्ताः सन्तो यदिनतावद्भिक्षाया देशकालस्ततो यः पुरोवर्ती ग्रामस्तत्र गत्वा भैक्षं गृह्णन्तु अथते उदाताःअतीव परिश्रान्ताः, वेला वा तदानीमतिक्रामति, परग्रामे वादूरोत्थितादयो दोषाः, तत्र दूर-दूरवर्ती सग्रामो न तदानीं गन्तुं शक्यते, उत्थितो वा उद्वसीभूतोऽसौ आदि-शब्दात्-क्षुल्लको वा अभिनववासितो वा भाराक्रान्तो वा इत्यादि-परिग्रहः, इति विचिन्त्य अग्रोद्याने स्थित्वा यः स्थविरोगीतार्थः स आत्मद्वितीयः संयतीप्रतिश्रये प्रेक्ष्यते / स च तत्र गत्वा बहिरेक-पार्श्वे स्थित्वा नैषेधिकीं करोति। यदि ताभिः श्रुतं ततः सुन्दरम् / अथ न श्रुतं ततः शय्यातराणां निवेद्यते, ता आर्यिकाणां निवेदयन्ति। निवेदिते यदि सर्वा अप्यार्यिका वृन्देन निर्गच्छन्ति ततश्चत्वारो गुरवः / अथ प्रवर्तिनी प्रौढाभ्यांवयः परिणताभ्यामार्यिकाभ्यां सहितानिर्गत्यानुजानीतेति भणति ततस्तौ साधू आशिय्यांसाध्वीप्रतिश्रयं प्रविशतः। ततश्च ताभिः कृतिकर्मणि विहिते सगीतार्थः साधुरधोमुखमवलोकमानः आचार्यवचनेन तासामनाबाधपृच्छां करोतिकचिदुत्सर्पन्तीनां संयमयोगा निराबाधं भवतीनाम् ? ग्लाना वा न काचिद्वर्तते? ___ एवं पृष्टा किं कुर्वन्तीत्याहअमुगत्थ गमिस्सामो, पुट्ठाऽपुट्ठा वई यवोत्तूणं / इह मिक्खं काहामो, ठवणाइघरे परिकहेह ||5|| स्थविराः-गीतार्थाः पृष्टाः अपृष्टा वा अमुकत्र वयं गमिष्यामः इत्युक्त्वा इदं भणन्ति-वयमिह ग्रामे भिक्षां करिष्यामः ततः स्थापनादिगृहाणि परिकथयत। आदिशब्दो मात्रादिगृहसूचकः / ततस्तेषु कथितेषु यो विधिः कर्त्तव्यस्तमाहसामायारिकडा खलु, होइ अवडा य एगसाही य। सीउण्हं पढमादी, पुरतो समगं व जयणाए॥८६|| हे आर्याः ! कृतसामाचारीका यूयमुत नेति? तासां समीपे प्रष्ट व्यम्, 'अवड्डे' त्ति एकस्मिन्मासार्द्ध संयताः पर्यटन्ति, द्वितीयस्मिन् संयत्यः। / 'एगसाही य' त्ति एकस्यां साहीकायां गृहपङक्तयां साधवः पर्यटन्ति, द्वितीयस्यां साध्वय इति। यद्वा-शीतम् उष्णं वा यथायोगं गृह्णन्ति। तथा 'पढमाइ' त्ति प्रथमालिकाः आदिशब्दात्-पानकस्य वा पानं शून्यगृहादिस्थानानि वर्जयित्वा कुर्वन्ति। संयतीनां पुरतः प्रथमं समकं वा यतनया पर्यटन्ति, एष नियुक्तिगाथासमासार्थः। अथ विस्तरार्थं प्रतिपदमाहकडमकडं ति य मेरा, कडमेरा मित्तियं ति जइ पुट्ठा। ताहे भणंति थेरा, साहह किह गिहिमो भिक्खं / / 7 / / स्थविरैस्ताः वक्तव्याः, आर्याः! युष्माकं मर्यादां-सामाचारिकाविधि जानीम इत्यर्थः / ततः स्थविरा भणन्ति कथयत कथं भिक्षां गृह्णीमो वयम्। ताति अम्ह पुण्णो, मासो वच्चामों अहव खमणं णे। संपत्थियाओं अम्हे, पविसह वा जा वयं नीमो ||8|| ता आर्यिका ब्रुवते-पूर्णोऽस्माकं मासकल्पः अतः सूत्रार्थपौरुष्यौ कृत्वा व्रजामो वयम्-ग्रामान्तरं व्रजिष्याम इति साधवो यथासुखं पर्यटन्तु। अथवा-न पूर्णास्तथाऽपि क्षपणमद्य 'णे' अस्माकं सर्वासामपि ततः पर्यटत यूयम्। अथन क्षपणं ततस्ता ब्रूयुः-संप्रस्थिता वयं भिक्षाटनार्थ यूयं पश्चात् पर्यटत। अथवा--प्रविशतभिक्षामवतरत यूयं निर्गच्छाम इति। यदाच तासांक्षपणं भवति तदाब्रूयुःवित्थिओ य पुरोहडा,अन्तोभूमी य णे वियारस्स। सागारिओ य सन्नी, कुणइ उ सारक्खणं अम्हं विस्तीर्ण 'पुरोहडं' वर्तते / गाथायां प्राकृतत्वात्पुंस्त्वनिर्देशः 'णे' अस्माकमन्ताममध्ये विचारभूमिरस्ति, यश्चास्माकं सामायिकः स संज्ञीश्रावकस्ततः संरक्षणमस्माकं करोति बहिर्विचारभुवं गन्तुं न ददातीत्यर्थः। एवं संयतीभिरुक्ते, साधवस्तत्र यथासुखं पर्यटन्ति। अथ ताभिः पूर्व क्षपणं न कृतं ततो यदि सुभिक्षं वर्तते प्रचुरं च प्राप्यते ततः संयत्यःक्षपणं कुर्वन्तु। अपिच-यद्यपिताभ्यां साधुभ्यो भक्तपानं प्रदत्तुं न कल्पते तथाऽप्येवं कुर्वन्तीति ताभिः प्राधूयं कृतं भवति / अथ न शक्नुवन्ति क्षपणं कर्तुं ततः संयत्यः प्रागेव पर्यटन्त्यो दोषान्नं गृह्णन्ति, संयता भिक्षाया देशकाले पर्यटन्त उष्णं गृह्णन्तिा अथ संयतीनांदोषान्नमकारकं ततः संयता दोषान्नमितराः पुनरुष्णं गृह्णन्ति। उमयस्स अकारत-म्मिदोसिणे अहव तस्स असईए। संथरि भणंति तुम्हे, अडिएसु वयं अडीहामो ||6|| उभयस्य-संयतीसंयतवर्गस्य दोषान्ने अकारके, अथवा-तस्य दोषान्नस्यासत्यभावे संस्तरणे सति संयत्यो भणन्तियूयं तावदटत, ततो युष्मासु अटितेषु वयमटिष्यामः! अथैकएव तत्र देशकालस्ततः क्रमेण पर्यटने वेलाया अतिक्रमो भवति; ततः किं कर्तव्यमित्याहतुज्झे गिण्हह मिक्खं, इमम्मि पउरण्णपाणगामद्धे / वागडसाहीएवा, अम्हे सेसेसु घेच्छामो ||1|| संयत्यो ब्रुवते यूयं गृह्णीत भिक्षामस्मिन् प्रचुरान्नपानस्य ग्रामस्थाढ़े, अस्मिस्तु ग्रामार्द्ध वयं ग्रहीष्यामः। यदि वा–अस्मिन् पाटकेऽस्यां वा साहिकायां यूयं गृहीत, वयं शेषेषु ग्रहीष्याम इति।
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________________ वसहि 1016 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि ओलीनिवेसणे वा, वजिंतु अडंति जत्थ य पविट्ठा।। नयवंदणं न नमणं, न य संभासो नविय दिट्ठी॥१२॥ 'ओलि' त्ति ग्रामगृहाणामेका पक्तिः निवेशनम्- एकनिर्गमनप्रवेशानि व्यादीनि गृहाणि, ततो यस्यां पङ्क्ती निवेशने वा संयत्यः पर्यटन्तितां वर्जयित्वा अन्यस्यां पङ्क्तौ अन्यस्मिन् वा निवेशने संयता भिक्षामटन्ति / अथ लघुतरोऽसौ ग्रामस्ततः पङ्क्त्यादिविभागो न शक्यते कर्तुं ततो यत्र गृहादौ प्रविष्टा रथ्यायांवा गच्छन्त एकत्र मिलन्ति तत्र च नैव वन्दनं कृतिकर्मन वा नमनं शिरःप्रणाममात्रं न च संभाष:परस्पराऽऽलापो नापि च दृष्टिसंमुखमवलोकनमाप्नुवन्ति, पूर्वोक्तशङ्कादिदोषप्रसङ्गात् इति। पुष्वभणिए य ठाणे, सुम्नोगादी चरंति वजेता। पढमबिइयातुरा वा, जयणा आइन्नधुवकम्मी ||3|| पूर्वभणितानि च शङ्काविषयभूतानि शून्यौकः-शून्यगृहं तदादीनि स्थानानि दूरेण वर्जयन्तश्चरन्ति, प्रथमद्वितीयपरीषहातुराश्च यतनया जनाकीर्णे धुवकर्मिका वा काष्ठसूत्रधारादयो यत्रयन्ति तत्र प्रथमालिकां-- द्रवपानं वाकुर्वन्ति। एवं संयतीक्षेत्रे साधूनामागतानां विधिरुक्तः। अथ उभयेषु पूर्वस्थितेषूभयेषामेवागमने विधिमाहदोन्नि वि ससंजईया, एगग्गामम्मि कारणेण ठिया। तासिंच तुच्छयाए, असंखडं तत्थिया जयणा ||4|| द्वये अपि वास्तव्या आगन्तुकाश्च साधवो यदि ससंयतीका एकस्मिन् ग्रामे कारणेन स्थिताः, तासांचसंयतीनां तुच्छतया यद्यसंखडमुपजायते तत्रेयं वक्ष्यमाणा यतना। आह-तिष्ठतुतावद्यतना कथं पुनस्तासामसंखडमुत्पन्नभूतमितितावद्वयं जिज्ञासामहे, ताभिर्वास्तव्यसंयतीभिरागन्तुकसंयत्यः पृष्टाः-आर्याः? किं यूयं यदृच्छया भक्तपानलमध्ये नवेति? ताः प्राहुः-- चुण्णाइविंटलकए, गरहियसंथवकए य तुज्झाहिं। ताई अजाणंतीओ, फव्वीहामो कहं अम्हे ||5|| चूणे-वशीकरणादिफलं द्रव्यसंयोगरूपं तेनादिशब्दाज्ज्योतिषनिमित्तादिना च विण्टलेन कृते-भाषिते तथा गर्हितः पूर्वपश्चात्सं-- बन्धरूपो यः संस्तवः-परिचयस्तेन वा कृते--भावितेयुष्माभिः क्षेत्रे यानि चूर्णादीनि कर्तुमजानानाः कथं वयमत्र 'फव्वीहामो' त्ति देशीपदत्वात् यदृच्छया भक्तपानं लभामहे। वास्तव्यसंयत्यः प्रतिब्रुवते-- सेणाणुमाणेण परं जणोऽयं, ___ठावेह दोसेसु गुणेसु चेव। पावस्स लोगो पडिहाइ पावो, कलाणकारिस्सय साहुकारी॥६६|| स्वेन-स्वकीयेनानुमानेन परमन्यमात्मव्यतिरिक्तमयं प्रत्यक्षोलभ्यमानो जनो दोषेषु गुणेषु च स्थापयति,अविद्यमानानामपि तेषां तत्राध्यारोपं करोतीति भावः / एतदेव व्यक्तीकरोति पापस्य-पापकर्मकारिणो जनस्य लोकः-सर्वोऽपि पापः प्रतिभाति, कल्याणकारिणः पुनः सर्वोऽपि साधुकारी। ततश्चनूणं न तं वट्टइ जं पुरा भे, इमम्मि खेत्ते जइभावियम्मि। अवेयवचाण जतो करेहा, अम्हाववायं अइपंडियाओ ||7|| नून-निश्चितं यत् कुण्डलविण्टलं पुरा भे' भवत्यः कृतवत्यस्तदत्र क्षेत्रे यतिभाविते न वर्तते कर्तुम् / कुत एतज्ज्ञायते? यद्वयं कुण्डल-वेण्टलं कृतवत्य इति चेदत आह-अपेतवाच्यानां वचनीयतारहितानां यत एवं यूयमिति पण्डिता अतीव दुर्विदग्धाः, अस्माकमपवादमसद्दोषोद्धोषणं कुरुथा इत्थमसंखड उत्पन्ने किं कर्तव्यमित्याहतत्थेव अणुवसंते, गणिणीते कहिंति तह वि हु अठंते। गणहारीण कहें ति, सगाण गंतूण गणिणीओ // 8 // यदि तत्रैव परस्परमुपशान्तं तदसंखडं ततः सुन्दरमेव।अथनोपशान्तं ततो गणिन्याः-स्वस्याः स्वस्याः प्रवर्तिन्याः कथयन्ति, यदि न कथयन्ति ततश्चतुर्गुरवः / ततस्ते प्रवर्तिन्यौ मधुरया गिरा प्रज्ञायोपशमयतः। तथाऽप्यतिष्ठति-अनुपरते द्वे अपि गणिन्यौ गत्वा स्वेषां स्वेषां गणधारिणां कथयतः, यदि न कथयतः ततश्चत्वारो गुरुकाः / ततः प्रवर्त्तिन्या कथिते गणधरेण किं विधेयमित्यत आहउप्पन्ने अहिगरणे, गणहारिनिवेदणं तु कायव्वं / जइ अप्पणा भणेजा, चाउम्मासा भदे गुरुगा IIEI अधिकरणे उत्पन्ने सति प्रवर्तिनीमुखादाकर्ण्य तेन गणधरेण द्वितीयस्य गणधारिणो निवेदनं कर्तव्यम्। यदि सगणधर आत्मनैवगत्वा द्वितीयगणधरसत्कां व्रतिनी भणेत्-उपालभेत ततश्चतुर्मासा गुरुका भवेयुः। इदमेव सविशेषमाहवतिणी वतिणं वयणी, व परगुरुं परगुरुंच जइ वइणिं। जंपइ तीसु वि गुरुगा, तम्हा सुगुरूण साहेजा।।१०।। यदि व्रतिनी व्रतिनी जल्पति-उपालभते, व्रतिनी वा यदि परगुरुमन्यसंयतीगणधरं जल्पति, परगुरुर्वा यदि व्रतिनी जल्पति, तत एतेषु त्रिष्वपि चतुर्गुरुकाः / तस्मात् स्वगुरूणां कथयेत् / उपलक्षणत्वात् स्वव्रतिनी चोपालभेत। अथ परवतिनीमुपालभमानस्य को दोषःस्यादित्यत्रोच्यतेजाणामि दूमियं भे, अंगं अरुअम्मि जत्थ अर्कता। को वा एअन्न मुणइ, वारहिह कित्तिया वाऽवि // 101 / / सा परव्रतिनी भण्यमाना ब्रूयात्-जानाम्यहं यदूनं भवतामङ्गम्, यत्र यस्मिनङ्गे अरुषि-व्रणे युष्मदीयसंयती प्रति ब्रुवाणया मया यूयमाक्रान्ता स्थ, को वा एतमर्थं नजानाति कियतो वा अवतो निवारयिष्यथा यद्यहं वारिता सती न जल्पिष्यामि तर्हि अन्येऽपि जल्पिष्यन्तीति। अपिचनिग्गंधं न विवायति, अलाहि किं वाऽवि तेण भणिएणं /
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________________ वसहि 1020- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि छ एत्तुं व पभायं, न वि सका पडसएणाऽवि // 10 // न हि निर्गन्धो वायुति कं तु यादृशस्य वनखण्डादेर्मध्येन समायाति तादृग्गन्धसहित एव,एवं भवतामप्यस्या उपरि य ईदृशः पक्षपातः सन निःसम्बन्ध इति भावः। अथवा-'अलाहि' अलमनेन वनेनाभिहितेन मर्मानुवेधित्वात्, किंवा तेन भणितेन कार्यम्, यतः-प्रभातं संजातं सन्न पटशतेनापि छादयितुं शक्यम् / इत्थं तन्मुखान्निर्गते असद्भूतार्थेऽपि दूषणे जले पतिते इव तैलबिन्दौ सर्वतः प्रसर्पति, सूरीणां महान् छायाघातो जायते। सच तत्त्वत आत्मकृत एवैतद्दृष्टान्तमाहमज्झत्थं अच्छंतं, सीहं गंतूण जो विबोहेइ। अप्पवहाए होई,वेयालो चेव दुज्जुत्तो // 103|| मध्यस्थमुदासीनं तिष्ठन्तं सिंहं गत्वा-उपेत्य यः कश्चिद्विबोध-यति-- विशेषेण पाणिप्रहारादिना बोधयति, स विबोधितः सन् तस्यात्मवधाय भवति, वेताल इव वा-दुष्प्रयुक्तो यथा साधकमेवोपहन्ति एवमियमप्याचार्येण प्रबोधिता सती तस्यैव छायाघातमुपजनयति। यतश्चैवमतःउप्पन्ने अहिगरणे, गणहारि पवित्तिणी निवारेइ। अह तत्थ न वारेई, चाउम्मासा मवे गुरुगा।।१०।। उत्पन्ने अधिकरणे गणधारी प्रवर्तिनी निवारयति, अथ तत्र गणधारी न वारयति ततश्चतुर्मासा गुरुका भवेयुः / ततो गणधरौ द्वावपि मिलित्वा संयतीप्रतिश्रयं गत्वा प्रवर्तिनी पुरतः कृत्वा स्वस्वसंयतीरुपशमयतः। तत्र वास्तव्यसंयत्य इत्थमुपशाम्यन्ते-- पाहुन्नं ताण कयं, असंखडं देहतो अलज्जाओ। पुवट्ठिय इय अजा, उवालभताऽणुसासंति।।१०।। प्राघूर्ण्यम्-आतिथेयंतासामागन्तुकसंयतीनांशोभनं कृतं यदेवमलज्जाः सत्योऽसंखडं दत्थ-कुरुध्वम्, पूर्वस्थिता आचार्याः, स्वकीया आर्या उपालभमाना इत्येवमनुशासते। आगन्तुकसंयतीनामुपशमनोपायः पुनरयम्एगं तासिं खेत्तं, मलेह बिइयं असंखडं देह। आगंतुय इय दोस, सिंचिंति तिक्खाइमहुरेहि / / 106|| एक तावत्तासां वास्तव्यसंयतीसत्कं क्षेत्रं मलयथ-विनाशयथ, द्वितीयं पुनरसंखडं दत्थ-कुरुध्वम्। आगन्तुका आचार्या इत्येवंदोषमधिकरणलक्षणं तीक्ष्णमधुरादिभिर्वचनैः 'सिंचिंति' त्ति विध्मापयन्ति-उपशमयन्तीति यावत्। ततश्चअबराह तुलेतूणं, पुष्ववरद्धं च गणधरा मिलिया। बोहित्तुमसागरिए,दिति विसोहिं खमावेउं / / 107 / / द्वावपि गणधारौ मिलितौ अपराधंतोलयित्वा यस्या यावान् अपराधस्तं परस्परसंवादेन सम्यक् निश्चित्य; या पूर्वापराद्धापूर्वमपराद्धं यया सा, तथा असागारिके एकान्ते बोधयित्वा ततो द्वितीयां तस्याः पश्चात् क्षमापयेत्। यः क्षमापयित्वा स चोभयोरपि यथोचितां विशोधि-प्रायश्चित्तं प्रयच्छति इति, गतः प्रथमो भङ्गः / ___ अथ द्वितीयं भङ्गं बिभावयिषुराहअभिनिदुवारनिक्खम-ण पवेसे एगवगडिते चेव। जं इत्थं नाणत्तं, तमहं वोच्छं समासेणं // 108|| द्वितीयभङ्गो-यद्ग्रामादिकमभिनिद्वारम्-अनेकद्वारम्, अत एवाभिनिष्क्रमणप्रवेश परमेकवगडम्, तत्र त एव दोषा भवन्ति, ये प्रथमभङ्गे प्रोक्ताः / यत्पुनरत्र द्वितीयभङ्गे नानात्वं तदहं वक्ष्ये समासेन। प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयतितह चैव अन्नहा वा-वि आगया ठंति संजईखेत्ते। भोइयनाए भयणा, सेसं तं चेविमं वण्णं / / 10 / / तथैव "सोऊण य समुदाणं, गच्छं आणित्त देउले ठाइ'' इत्यादिना प्रथमभङ्गोक्तप्रकारेणैव, अन्यथा वा संयतीक्षेत्रे आगताः सन्तस्ति, तत्र च स्थितानां तेषां भङ्गिकज्ञाते भजना कार्या / यदि संयतीनां विचारभूम्यादिमार्ग स्थिताः ततो भवति भोगिकज्ञातम् / अन्यथा तदनुमतं भवतीति भावः। शेषं सर्वमपि प्रायश्चित्तादितदेव प्रथमभङ्गोक्तं ज्ञातव्यम्। इदं चान्यदभ्यधिकमभिधीयतेएगाव होज साही, दाराणि व होज सपडिजुत्ताणि। पासे व मग्गतो वा, उच्चे नीए व धम्मकहा।।११०॥ तत्रानेकद्वारेएकवगडे ग्रामादौ साधुसाध्वीप्रतिश्रययोरेका वा साहिकागृहपक्तिर्भवत्, द्वाराणि परस्परं सप्रतिमुखानि भवेयुः। अथवासाध्वीप्रतिश्रयस्य पार्श्वतो वा मार्गतो वा उचे वा नीचे वा स्थाने स्थिता भवेयुः, तत्रावस्थितानां धर्मकथा कोऽप्यशुभेन भावेन कुर्यादिति द्वारगाथासंक्षेपार्थः। अथ विस्तरार्थमाहवह अंतरियाणं खलु, दोण्ह वि वग्गाण गरहिओ वासो। आलावे संलावे, चरित्तसंभेइणी विकहा॥१११॥ एकस्यां साहिकायां वृत्त्या अन्तरितयोः संयतसंयतीरूपयोरपि वर्गयोरेकत्र वासो गर्हितो-निन्दितस्तीर्थकरैः प्रतिकृष्ट इत्यर्थः, यतस्तत्र संयतसंयत्योः कायिक्यादिव्युत्सर्जनार्थ निर्गतयोः परस्परमालापेसकृज्जल्पे संलापे-पुनः पुनः संभाषणे संजाते सति चारित्रसंभेदिनी विकथा वक्ष्यमाणरीत्या भवेत्। __ अथैकसाहिकायामेव दोषानाहउभयेगतरहाए, व निग्गया दट्ठु एकमेकं तु। संकानिरोहमादी, पबंध आतोभया वाऽऽसु॥११२|| उभयं संज्ञाकायिकीरूपं तस्य एकतरस्य वा व्युत्सर्जनार्थं निर्गतयोः संयतीसंयतयोरेकैकं दृष्ट्वा शङ्का भवति। तथाहि-संयतः कायिक्यादिव्युत्सर्जनार्थं निर्गतः संयतीं दृष्ट्वा प्रतिनिवृत्तः, पुनरपि कायिकीसंज्ञाभ्यामु-द्राध्यमानो निर्गतः, ततः संयती तं दृष्ट्वा शङ्कां करोतिनूनमेष मां कामयते / एवं संयतस्यापि संयती प्रविशन्ती निर्गच्छन्ती च दृष्ट्वा शङ्का भवति। अथवा-लोकस्य शङ्का भवति यथैष एषा वा यदेवं पौनःपुन्येन प्रविशति निर्गच्छतिवा तन्नूनमे-नामेनं वा अभिलषतीति, निरोधो वा कायिकीसंज्ञयोर्भवत्, आदिशब्दाद्-अनागाढपरितापनादिपरिग्रहः / कथाप्रबन्धो वा वक्ष्यमाणो भवेत्। ततश्चात्मसमुत्थेन उभ--
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________________ वसहि 1021 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि यसमुत्थेन वा, वाशब्दात्--परसमुत्थेन वा दोषेण आशुक्षिप्रं संयम- ___ ग्रीष्मकाले 'धम्मम्मि' त्ति विभक्तिव्यत्ययात् धर्मेणोद्भाध्यमानः संयतः विराधनाऽपि भवेत्। प्रवातार्थबहिर्निर्गच्छति, संयत्यप्येवमेव निर्गच्छति। ततोद्वावपि परस्पर कुमारप्रव्रजितस्य वेत्थं कौतुकमुपजायते दृष्ट्वा लज्जया भूयः प्रविशतः। ततः संयतः प्रविष्ट इति कृत्या भूयोऽपि पस्सामि ताव छिदं, वन्नपमाणं पिताव से दच्छं। निर्गच्छति, एवं संयतोऽपि तत एवं द्वितीयं तृतीयं वा वारं निर्गच्छतोः इति छिड्डेहि कुमारा, लोएंति कोउहल्लेणं // 113|| प्रविशतोश्च शङ्का भवति / नूनमेष एषा वा मामभिधारयति, एकाग्रया च दृष्ट्या निरीक्षणेऽधिका शङ्का भवति। पश्यामि तावत्कमपि छिद्रं येन वणं -गौरत्वादि प्रमाणं वाशरीरोच्छ्रयरूपं 'से' तस्याः विवक्षितसंयत्याः सत्कं तावदहं द्रक्ष्यामि, इति वीसत्थऽवाउडन्नो-नसणे होइ लज्जवोच्छेदो। कृत्वा छिद्रैः कुमारा-अभुक्तभोगिनिः कुतूहले-ना ऽवलोकन्ते / ते चेव तत्थ दोसा, आलावुल्लावमादीया।।११९।। ततस्तेषां प्रतिगमनादयो दोषाः। अभिमुखद्वारप्रयुक्तयोरुपाश्रययोः विश्वस्तौ सन्तौ संयतीसंयतौ __ कथाप्रबन्धं व्याख्यानयति कदाचिदपावृतौ भवतः, तत एवमन्योऽन्यं-परस्परं दर्शने लज्जाया व्यवच्छेदो भवति / ततश्च तत्रालापोल्लापचारित्रविरोधिविकथादयो दुब्बलपुच्छेगयरे, खमणं किं तत्ति मोहमेसज्जं / दोषास्त एव मन्तव्याः / गतं द्वाराणि वा सप्रतिमुखानीति द्वारम्। तह वि य वारियवामो, बलियतरं बाहए मोहो॥११४|| अथ पार्श्वतो मार्गतो वेतिद्वारं भावयतिएकतरः संयतः संयती वा दुर्बलो भवेत्, तत्र संयतं संयती पृच्छति एमेव य एकतरे, ठियाण पासम्मि मग्गओ वाऽवि। किमेवं दुर्बलोऽसि ? सब्रूते-क्षपणं करोमि। तत्र संयती प्राह-किं किमर्थ धिइअंतरएगनिवे-सणे य दोसा उ पुटवुत्ता / / 120 / / तत्क्षपणं ज्येष्ठार्य ! क्रियते? संयतः प्राह-मोह-भैषज्यं-मोहचिकित्सनार्थमौषधमिदमासेव्यते। तथाऽप्यसौ मोहो वारितः सः न वारितः एवमेव संयतीप्रतिश्रयस्यैकतरस्मिन् पार्श्वे मार्गतो वापृष्ठतः स्थितानां प्रतीक्षते। वारितवामो-बलिकतरमतिशयेन मां बाधते। वृत्त्यन्तरे एकस्मिन् वा निवेशने पाटके स्थितानां दोषाः पूर्वोक्ता एवाला पसंलापादयो मन्तव्याः। / संयती प्रतिवक्ति अथोचनीचद्वारं भावयतिमूलतिगिच्छं न कुणह, न हु तण्हा छिज्जए विणा तोयं / उच्चे नीचे व ठिआ, दळूण परोप्परं दुवग्गाऽवि। अम्हे वि वेयणाओ,खझ्या एआन वि पसंतो।।११५|| संका वा सइकरणं, चरित्त(भामुंडणा इति पुस्तके 'भासुंडी' इति मूलचिकित्सां यूयं न कुरुथ, न हि तृष्णा तोयम्-उदके विना छिद्यते, देशी शब्दामुरोधाद भासुंडणेति युक्तः।)मासुंडणा चयई / / 21 / / अस्माभिरप्येता एवंविधाः क्षपणप्रतीका वेदनाः खादिताः-असकृदा उच्चे नीचे वा स्थाने स्थितौ द्वावपि वर्गौ साधुसाध्वीलक्षणौ भवेताम्, सेविताः परं तथाऽप्यसौ मोहो न प्रशान्तः। तत्र साधुः साध्वी वा परस्परं दृष्ट्वा कि मेष मामभिधार-यतीति शङ्कां वा मोहग्गिआहुतिनिमा-हि एहि वायाहि अहियवायाहिं। कुर्यात, स्मृतिकरणं वा भुक्तभोगिनाम, चारित्रस्य वा भ्रंशना-ब्रह्मधंतं पि धिइसमत्था, चलंति किमु दुब्बलधिईया॥११६|| व्रतविराधना वा भवेत्। 'चयइ तिसर्वथैव वा संयमत्यजति-अवधावनं मोहाग्नेराहुतिनिभाभिघृतादिप्रक्षेपकल्पाभिः, इत्येतादृग्भिर्वाग्भिः कुर्यादित्यर्थः। अधिकमित्यर्थः, अहिते वा नरकादौ पातयन्तीति अधिकपाता अहित इदमेवोच्चनीचपदद्वयं व्याचष्टेपाता वा ताभिरेवंविधाभिः 'धंत' पित्ति अतिशयेनापि ये धृतिसमर्थाः माले सुभावओवा, उच्चम्मि ठिओ निरिक्खई हेहूं। तेऽपि चलन्ति-क्षुभ्यन्ति; किं पुनऽतिदुर्बलास्तथा-विधमानसा वेडो व निवत्तो वा, तत्थ इमं होइ पच्छित्तं / / 12 / / वष्टम्भविकलाः, एवं संयतीमपि दुर्बलां प्रतीत्येदमेव वक्तव्यम्। गतमेक कदाचित्ते संयता माले-द्वितीयभूमिकादौ स्वभावतो वाउचे- देवसाहिकेति द्वारम्। कुलादौ स्थिता भवेयुः, संयत्यस्तु तद्विपरीते नीचे ततोऽसौ तत्र 'ठिउ' अथ सप्रतिमुखानि द्वाराणीति द्वारमाह त्ति ऊर्ध्वस्थितः 'वेट्ठोव' त्ति उपविष्टः 'निवत्तो वत्ति निवृत्तस्त्वग्वर्तित सपडिदुवार उवस्सएँ, निग्गथीणं न कप्पए वासो। इत्यर्थः। दठूण एकमेकं, चरित्तभासुंडणा सञ्जो।।११७।। यदि संयतीमधस्तान्निरीक्ष्यते तत्रेदं प्रायश्चित्तं भवतिसप्रतिद्वारे-अभिमुखद्वारयुक्ते निर्ग्रन्थीनामुपाश्रये विद्यमाने साधूनां संतर निरंतरं वा, निरिक्खमाणा सई पकामं वा। नकल्पते वासः, यदि वसन्ति ततस्तत्राभिमुखद्वारयो-रुपाश्रययोरेकै कालतवेहि विसिट्ठो,भिन्नो मासो तुवट्टम्मि।।१२३|| कमन्योन्यं दृष्ट्वा चारित्रभ्रंशना संयतीसंयतयोः सद्यः-तत्क्षणादेवो सान्तरं नाम-यद्विण्टिकाया हस्तादिना उच्चो भूत्वा शिरः शरीरं पजायते। वा उच्चैस्तरं कृत्वा पश्यति, निरन्तरं विण्टिकादिकं विना स्वभावस्थ किंच एव प्रेक्षते तत्रत्वग्वर्तिनः सननिरन्तरं सकृदेकं वारं संयती निरीक्षते, घम्मम्मि पवायट्ठा, णिता दटुं, परोप्परं दो वि। ततो भिन्नमासो, द्वाभ्यामपि तपःकालाभ्यां लघुः / त्वग्वर्तित एव लज्जा विसंति निति य,संका य निरिक्खणे अहियं // 11 // | निरन्तरं प्रकाममसकृत्प्रेक्षते भिन्नो मासः कालगुरुः तपोलघुः / अथ
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________________ वसहि 1022 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि स्वभावस्थः प्रेक्षमाणस्तां न पश्यन्ति ततः सान्तरं विण्टिकामन्यद्वा किंश्चिदुच्छीर्षके कृत्वा सकृत्पश्यति भिन्नो मासः तपोगुरुः काललधुः। सान्तरमेव प्रकाशं प्रेक्षते भिन्नो मासो द्वाभ्यामपि तपःकालाभ्यां गुरुकः / एवं त्वग्वर्तनं कुर्वाणस्य भणितम्।। एसेव गुरु निविट्ठो, ठियम्मि मासो लहू उभिक्खुस्स। एकेकठाणवुडं, चउगुरु अंतं च आयरिए॥१२॥ निविष्टो नाम-निषण्णस्तस्यापि प्रेक्षमाणस्य एष एव निरन्तरसान्तरादिकोऽभिलाषो वर्त्तते वक्तव्यः, नवरं प्रायश्चित्तं स एव भिन्नमासो गुरुकश्चतुर्ध्वपि स्थानेषु तपःकालविशेषितस्तथैव कार्यः। स्थितो नाम ऊर्द्धस्थितस्तस्याऽप्येष एवाभिलाषो नवरं प्रायश्चित्तं लघुमासस्तपःकालविशेषितः / एवं भिक्षोः प्रायश्चित्तमुक्तम्। वृषभोपाध्यायाचार्याणां यथाक्रममेकैकस्थानवृद्धिः कर्तव्या, यावदाचार्यस्य चतुर्गुरुकम् / तद्यथा-- वृषभस्य गुरुभिन्नमासादारब्धं गुरुमासे, उपाध्यायस्य मासगुरुकादारब्धं चतुर्लघुके, आचार्यस्य गुरुमासिकादारब्धं चतुर्गुरुके निष्ठामुपयातीति। एष प्रथम आदेशः। अथ द्वितीयमाहदोहि वि रहियसकाम,पकाम दोहिं पिपेक्खई जो उ।। चउरो य अणुग्धाया,दोहि वि चरिमस्स दोहि गुरू // 125 / / 'दोहि वि' ति द्वाभ्यामपि नयनाभ्यां यन्निरीक्षते तद्रहितम, यदेकेन लोचनेन निरीक्षतेतदरहितम्, एतदुभयमपि प्रत्येक द्विधा सकाम, प्रकामं च। तत्र सकाममेकशः, तथा 'दोहिं पि पिक्खई जो उ' त्ति द्वाभ्यामपि रहितारहिताभ्यां सकामप्रकामाभ्यां वा यः प्रेक्षते तस्य चत्वारो मासा अनुद्घाताः,द्वाभ्यामपि तपःकालाभ्यां विशेषिताः प्रायश्चित्तम् / चरमस्य-चतुर्थभङ्गवर्तिनो द्वाभ्यामपितपःकालाभ्यां गुरुकाः कर्तव्याः / एष पुरातनगाथासमासार्थः। अथास्या एव भाष्यकृव्याख्यामाहपायठिओ दोहि नयणेहि,पेच्छई रहिय मोत्त एकेणं। तं पुण सई सकामं, निरंतरं होई तु पकामं // 126|| पादाभ्यांतुस्थितो द्वाभ्यां नयनाभ्यां यत्प्रेक्षतेतदरहितम्, यत्पुनरेकेन नयनेन मुक्त्वापरित्यज्य निरीक्षते तद्रहितम् / यत्पुना रहितमपि सकृदेक्वारं निरीक्षणं तत्सकामम्, निरन्तरमनेकशस्तदेव प्रकामं भवति। अहवण समतलपादो,दोहि वि रहियं तु अग्गपाएहिं। इट्टालादी वि रहियं, एकेकसकामग पकामं / / 127|| 'अहवण' त्ति अथवा-समतलपादो यन्निरीक्षते तदरहितम्, यत्पुनरग्रपादाभ्यामपिस्थितो निरीक्षतेतद्रहितम्। अथवा यदट्टाललेष्टुकाधारूढः पश्यति तदरहितम्, तदपरं रहितं च / एक्कक्कं प्रकाममन्त्यम् / अहवण उच्चावेलं, करवेंटियपीढगादिसुं काउं। ताओ वावि पमोत्तुं, रहिउं वेट्ठो पुण निसिज्जं // 128 // अथवा यदि संयता नीचैः प्रदेशे स्थिताः संयत्यस्तूचैस्ततः शिरः शरीरं वा उच्चयित्वा-उच्चैःकृत्य यन्निरीक्षते, यद्वाकरे-हस्ते विण्टिकायां पीठिकादिषु वा शीर्षं कृत्वा यन्निरीक्षते तद्रहितम्, अथवा-यतय उचैः / स्थिता यतिन्यस्तुनीचैः ततः करादिषु पूर्वन्यस्ते शिरसि अत्युच्चत्वादनवलोकमानो यत्तानि करविण्टकादीनि प्रमुच्य-उत्सार्य पश्यति तद्रहितम्, एतत्त्वग्वर्तनं कुर्वतो रहितमुक्तम्। 'विट्ठो पुण निसिजंति' उपविष्टः पुनर्निषद्यां मुक्त्वा यत् पश्यति तद्रहितम्। तद्विपरीतं त्रिष्वपि स्थानेष्वरहितंद्रष्टव्यम्। दिट्ठीसंबधो वा,दोण्ह वि रहियं तु अनतरगत्ते। अप्पो दोसो रहिए, गुरुकतरो उभयसंबंधे // 126 / / अथवा-द्वयोरपि-संयतसंयत्योः यो दृष्ट दृष्ट्योः सम्बन्धस्तदर-हितम्। यत्पुनरन्यतरगावनिरीक्षणं तद्रहितम्।अत्रचाल्पतरो दोषः, रहिते एकतरदृष्टिसंबन्धः, अरहिते तु उभयदृष्टिसम्बन्धः, तत्र गुरुकतरा दोषाः / अत्र प्रायश्चित्तमाहदोहि वि रहिय अरहिए, एकेक सकामए पकामे अ। गुरुगा दोहि वि लहुगा, लहुगुरुगतवेण दोहिं पि।।१३०॥ द्वाभ्यामपि नयनाभ्यां निरीक्षणमित्यादिकं यदनेकविधमरहितं भणितमः तत्र सकामेचत्वारो गुरवः, द्वाभ्यामपि तपःकालाभ्यां लघवः / तत्रैव प्रकामे चत्वारो गुरवः तपोलघुकाः / रहिते तु सकामे चतुर्गुरुकाः तपसा गुरवः / तत्र प्रकामे चतुर्गुरवो द्वाभ्यामपि गुरवः। यत्तु दृष्टिसंबन्धरूपमरहितमन्यतरगात्रनिरीक्षणरूपं तु रहितं व्याख्यातम्, तत्र चैवं प्रायश्चित्तयोजनम्-रहिते सकामेचतुर्गुरु, उभये लघुकम्, प्रकामे चतुर्गुरु कालगुरुकम् / अरहिते सकामे चतुर्गुरु तपोगुरुकम्, अरहिते प्रकामे चतुर्गुरु उभयगुरुकम्। एकेका उपयाओ, साहीमाईसु ठायमाणाणं। निकारणट्ठियाणं, सव्वत्थ वि अविहिए दोसा॥१३१|| अरहितसकामप्रकामनिरीक्षणानामेकैकस्मात्पदात्साहिकायामादिशब्दात्-सप्रतिमुखद्वारेषु पुरतो वा मार्गतो वा उच्चे वा नीचे वा सर्वत्रापि निष्कारणे तिष्ठतां कारणे वा अविधिना अयतनया स्थितानाममी दोषा भवेयुः। दिवा अवाउडाऽहं, मयलज्जाथद्ध होज खित्तावा। पडिगमणादी व करे, नित्थक्काओव आउभया / / 132 / / काचित्संयती विचारभूमौ प्राप्तासंयतमागच्छन्तं दृष्ट्वा चिन्तयेत्-अहो अहम् ज्येष्ठार्येणापवृता दृष्टा, ततःसा भयेनलज्जयावास्तब्धाक्षिप्तचित्ता वा भवेत्। यद्वा-काश्चिदपावृता दृष्टाः कथममीषां पुरतः स्थास्याम इति कृत्वा प्रतिगमनादीनि कुर्युः। अथवा दृष्टं यद् द्रष्टव्यमिति निःसंधाय 'नित्थक्का' निर्लज्जा भवेयुः, ततश्वात्मसमुत्थाउभयसमुत्थाश्च दोषा भवन्ति। यदि वातासिं कक्खंतरगु-ज्झदेसकुचउदरऊरुमादीए। निग्गहिय इंदियस्स वि, दळु मोहो समुज्जलति॥१३३|| तासां कक्षान्तरगुह्यदेशकुचोदरोरुप्रभृतीन् अवयवान् दृष्ट्वा निगृहीतेन्द्रियस्यापि मोहः, समुज्ज्वलति किं पुनरितरस्येति। ततश्चामी दश कामावस्था उत्पद्यन्ते। चिंतेइ १दतुमिच्छइ२, दीहंणीससइ३तह जरो दाहो /
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________________ वसहि 1023- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि भत्तअरोयगमुच्छा७,उम्मत्तोपनजाणईमरणं 10 // 13 // चिन्ता नाम शोकः१, ततो द्रष्टुमिच्छति२,दीर्घ निःश्वसिति 3, तथा ज्वरो ४,दाहः५, भक्तस्यारोचकः 6, मूर्जा 7, उन्मत्तः संजायते८, न जानाति किंचिदपि , मरणमुपजायते 10 // एनामेव गाथां विवृणोतिपढमे सोयति वेगे, दट्टुं तं इच्छती बिइयवेगे। नीससइतइयवेगे, आरुहइ जरो चउत्थम्मि।।१३।। डज्झइ पंचमवेगे, छटे भत्तं न रोयए वेगे। सत्तमगम्मि य मुच्छा, अट्ठमए होइ उम्मत्तो॥१३६।। नवमे न मुणइ किंचि, दसमे पाणेहि मुचइ मणूसो। एएसिंपच्छित्तं, वोच्छामि अहाणुपुटवीए॥१३७॥ प्रथमे शोचति वेगे-हा कथं तया सह संगतिर्भविष्यतीति चिन्तयतीत्यर्थः 1, द्रष्टुं तां पूर्वदृष्टां पुनरपीच्छति द्वितीये वेगे २,निःश्वसिति, तृतीयवेगे दीर्घान्निःश्वासान् मुञ्चति 3, आरोहते ज्वरश्चतुर्थे 4, दह्यते अङ्ग पञ्चमवेगे 5, षष्ठे भक्तं न रोचते वेगे 6, सप्तमे वेगे मूर्छा ७,अष्टमे उन्मत्तो भवति नवमे न जानानि किञ्चि-दपीति निश्चेष्टो भवतीत्यर्थः६,दशमे वेगे प्राणैर्मुच्यते मनुष्यः। एतेषां दशानामपि वेगानां प्रायश्चित्तं यथाऽनुपूर्व्या वक्ष्ये-अभिधास्ये। तदेवाहमासो लहुओ गुरुओ, चउरो मासा हवंति लहु गुरुगा। छम्मासो लहु गुरुगा, छेदो मूलं तह दुगं च / / 138|| प्रथमेलघुको मासः, द्वितीये गुरुकः, तृतीयेचतुर्लघवः, चतुर्थे चतुर्गुरवः, पञ्चमेषड्लघवः,षष्ठे षड्गुरवः सप्तमे छेदः, अष्टमे मूलम्, नवमे अनवस्थाप्यम्, दशमे पाराशिकम्। एकम्मि दोसु तीसुव, ओहावितेसु तत्थ आयरिओ। मूलं अणवट्ठप्पो, पावइ पारंचियं ठाणं / / 139 / / अथ मोहोदयेनैकः अवधावति उत्प्रव्रजतिततः आचार्यो मूलं प्राप्नोति, द्वयोरवधावतोरनवस्थाप्यो भवति। त्रिषु अवधावमानेषु पाराश्चिकं स्थानं प्राप्नोति / गतमुच्चनीचद्वारम्। अथ धर्मकथाद्वारमाहधम्मकहासुणणाए, अणुरागो भिक्खसंपयाणे य। संगारे पडिसुणणा, मोक्खरहे चेव खंडीए॥१४०॥ धर्मकथायाः श्रवणेन संयत्या अनुरागः संजायते, ततः स्निग्धमधुरभैक्षस्य संप्रदानं संयताय कारयति / ततः शृङ्गारस्य-संकेतस्य प्रतिश्रवणं करोति / कः पुनः संकेत इति आह- 'मोक्खरहे चेव' त्ति अमुष्मिन् देशे रथो हिण्डिष्यते, तत्रास्माकं रक्ष्यमाणानां मोक्षो भविष्यति 'खण्डी ए' त्ति खण्डी छिण्डिका तस्या-वा द्वारमुद्धाट रात्रौ भविता दीर्घस्यालाक्षणिकत्वात् खण्डितं श्रामण्यस्यखण्डनाः तयोः प्रतिसेवमानयोर्जायते। एष संग्रहगाथा-समासार्थः / अथैनामेव विवरीषुराहअसुभेण अहाभावे-ण वा वि रत्तिं निसंतपडिसंते। वत्तेइ किन्नरो इव, कोई पुच्छा पभायम्मि // 141 / / कोऽपि साधुरशुभेन वा यथाभावेन वा रात्रौ निशान्ते प्रतिनिशान्ते अन्यत्र भ्रमणादुपरमेत, यद्वा-निशान्तेषु स्वेषु गृहेषु प्रतिश्रान्ते-विश्रान्ते जने किन्नर इव मधुरया गिरा धर्मकथां कांचित्परिवर्तयति तदाकर्ण्य संयत्यः प्रभाते पृच्छन्ति। यथा-- कतरो सो जेण निसिं, कन्ना णे पूरिया व अमयस्स। सो मि अहं अज्जावो, आसि पुरा सुस्सरो किं वा // 152|| कतरोऽसौ येन माधुर्येण निशि रात्रौ कर्णाः 'णे' अस्माकम् अमृतस्य पूरिता इव कृताः। स प्राह-सोऽहमस्मि / आर्याः! पुरा पूर्वमहं सुस्वर आसम, तदपेक्षया किंचिदसौस्वर्यमिदानीं मम विद्यते। यतःरुक्खासणेण भम्गो, कंठो मे उच्चसद्दपडओ य। संथुयकुलम्मिनेह, दावेमि कए पुणो पुच्छा॥१५३॥ रूक्षाशनेन स्नेहरहितभोजनेन उच्चशब्देन पठतश्च मे कण्ठो भग्नः, ततो नेदानी तथा सुस्वर इति, ततस्तदीयसौस्वर्येणातीवा-नुरञ्जिता काऽपि संयती प्राह-संस्तुते भाविते कुले स्नेहं घृतादिकमहं दापयिष्यामि, येन भवतां स्वरपाटवमुपजायते, ततस्तथा कृते सति पुनस्तथाऽपि तं दुर्बलं दृष्ट्वा पृच्छा कृता, यथा-ज्येष्ठार्य! क्रिमेवं दुर्बलो दृश्यसे। एवं च कुर्वतोस्तयोः किंभवति-(बृ०) इति पेज' शब्दे पञ्चमभागे 1000 पृष्ठे प्रतिपादितम् / ) ततश्च स तया दुर्बल इति पृष्टो ब्रूयात्जह जह करेसि नेह, तह तह नेहो में वट्टइ तुमम्मि। तेण नडिओ मि यलियं,जं पुच्छसि दुव्बलतरो त्ति / / 14 / / यथा यथा करोषि संपादयसि स्नेहं तथा तथा 'मे' मम त्वयि स्नेहो वर्द्धते, तेन च स्नेहेननटितो-विडम्बितोऽस्म्यहं यत्त्वं पृच्छसि दुर्बलतर इति तदेतेन हेतुना दुर्बलोऽहम्। एवमुक्तेसा ब्रूयात्अमुगदिणे मोक्खरहो, होहिइ दारं व बोज्झिहिइ रत्तिं / तहयाणे पूरिस्सइ, उभयस्स वि इच्छियं एयं // 146|| अमुष्मिन् दिने रथो-रथयात्रा भविता, तस्यां साधुसाध्वीजनेषु गतेषु अस्माकं रक्ष्यमाणानां मोक्षो भविष्यति। द्वारं वा छिण्डिकया अमुकस्यां रात्रौ वक्ष्यते वहमानकं भविष्यति / तदा ‘णे' आवयोरुभयस्यापि यथेप्सितमेतत्पूरिष्यते। एवं संकेतं प्रतिश्रुत्य प्रतिसेवनां कुर्वतोस्तयोः श्रामण्यस्य खण्डनं भवति। ततश्च भावतोऽहमिति कृत्वा यद्यवधावति। ततःएगम्मि दोसु तीसुं, उवहावंतेसु तत्थ आयरिओ। मूलं अणवठ्ठप्पो, पावइ पारंचियं ठाणं / / 147 / / एकस्मिन्नवधावति मूलम्, द्वयोरनवस्थाप्यम्, त्रिषु पाराञ्चिकमाचार्यः प्राप्नोति। द्वितीयपदे एतेष्वपि स्थानेषु तिष्ठेत्। कथमित्याहअद्धाणनिग्गयाई, तिक्खुत्तो मग्गिऊण पडिलोमं / गीयत्था जयणाए, वसंतिते अभिदुवाराए।।१४८|| अध्वनो निर्गता आदिशब्दाद्-अशिवादिषु वर्तमाना सहसै--
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________________ वसहि 1025 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि - वैकवगडाकमनेकद्वारं संयतीक्षेत्रं प्राप्ताः, ततस्तत्र त्रिकृत्वस्त्रीन् वारान् निरुपहतां वसतिं मार्गयित्वा यदि न प्राप्नुवन्ति ततः प्रतिलोमंप्रतीपक्रमणे गीतार्था यतनया अभिद्वारे संयतीक्षेत्रे वसन्ति / के पुनः प्रतिक्रमन्त इति चेदुच्यते-यानि पूर्वमेकसाहिकादीनि धर्मकथापर्यन्तानि द्वाराण्युक्तानि तेषु प्रथमतो यस्यां धर्मकथा-शब्दः साध्वीभिः श्रूयते तस्यां वसतौ वास्तव्यम्। तत्र चेयं यतनासिंगार वज्जबोले, अह एगो विजपाढणुचं वा। सवादीनिबंधे, कहिए विनते परिकहिंति // 14 // धर्मकथा परिवर्तयन्तः शृङ्गाररसवयं बोलेनच–वृन्दशब्देन परिवर्तयन्ति, यथैकस्य कस्यापि व्यक्तस्वरो नोपलक्ष्यते / अन्येन सह गुणयतस्तस्य न संचरति / तत एकोऽपि विद्यापाठने गुणयति, स्वरवर्जितमिति भावः / तदप्यनुचं नोचैस्तरेण शब्देन। अथ सुस्वरोऽयमिति ज्ञात्वा श्राद्धादय आदिशब्दाद्यथा भद्रकादयो वा निर्बन्धं कुर्युः, यथास्वरेण धर्मे कथितेऽपि मधुरस्वरेण धर्मे उक्तेऽपि प्रभाते संयतीनां न ते साधवः परिकथयन्ति / यथा-अमुकेनेत्थं धर्मः कथित इति। ईदृशवसतेरलाभे उच्चे वा नीचे व स्थातव्यम्। तत्रेयं यतनाकड उच्च चिलिमिली वा, तत्तो थेरा य उच्चनीए वा। पासे ततो न उभयं, मत्तगजयणाउला सद्दा।।१५०।। प्रविशन्तो निर्गच्छन्तो वा यस्मिन्पार्चे परस्परं पश्यन्ति तत्र कटको - वंशादिमयो घनो दीयते / अथ कटको न प्राप्यते तदा चिलिमिली-- वस्त्रमयी दातव्या। स्थविराश्च ततस्तस्मिन्पार्श्वे तिष्ठन्ति, संयतीनां तु क्षुल्लिकाः एव उक्ता उच्चनीचे यतना। अथो-चनीचमपि न लभ्यते ततो यत्र संयतीवसतेःपार्श्वतो वा मार्गतो वा प्रतिश्रयस्तत्र स्थातव्यम्। तत्र च तिष्ठतामियं यतना- 'पासे ततो न उभयं ति कायिक्यादिव्युत्सर्जनार्थ निर्गच्छन्तो यत्र परस्परं पश्येयुस्ततस्तस्यां दिशि नोभयम्-न संज्ञां न वा कायिकी व्युत्सृजन्ति / तादृशस्य स्थण्डिलस्याप्राप्तौ मात्रकेषु यतनया व्युत्सृजन्ति। अथवा-आकुलाः सशब्दाश्च कायिक्यादि पुरं द्रजन्ति। तदभावे सप्रतिमुखद्वारे तिष्ठन्ति। तत्र चेयं यतनापिहदारकरणअभिमुह-चिलिमिलिवेलाससद्दबहु निति। साहीए अन्नदिसिं निंती न य काइयं तत्तो / / 151|| यत्र द्वाराणि परस्परमभिमुखानि तत्रान्यस्यां दिशि पृथक् द्वारं कुर्वन्ति, अथन लभ्यते अन्यस्यां दिशिद्वारं कर्तुं ततोद्वारे चिलिमिली नित्यबद्धा स्थापनीया, कटको वा अपान्तराले दातव्यः / कायिक्याः संज्ञायाश्च वेलां परस्परं स्थापयित्वा असदृशवेलाायां निर्गच्छन्ति, सशब्दाश्च कासितादिशब्द-स्वागम-सूचकंच कुर्वन्तो बहवो निर्यान्ति निर्गच्छन्ति / यत्रैका साहिका तत्रान्यस्यां दिशि यस्य द्वारं तत्र प्रतिश्रये तिष्ठन्ति / यतश्च संयतीनां प्रतिश्रयस्ततः कायिकीभूमिं नव्रजन्ति। एवं संज्ञाभूम्या मपि द्रष्टव्यम्। कियद्वाऽत्र भणिष्यतेजत्थ ऽप्पतरा दोसा, जत्थ य जयणं तरंति काउंजे। तत्थ वसंति जयंता, अणुलोमं किंचि पडिलोमं // 152 / / यत्रोपाश्रये अल्पतराः पूर्वोक्ता दोषा भवन्ति, यत्र च यतनां यथोक्तां कर्तुतरन्ति-शक्नुवन्ति 'जे' इति पादपूरणे,तत्रानुलोमंवा किमप्येकसाहिकादिकं स्थानंप्रतीत्ययथोक्तनीत्या यतमाना वसन्ति नात्र कोऽपि प्रतिनियमः, किंतु-गीतार्थेनाल्पबहुत्ववेदिना भवितव्यमिति भावः। कथं पुनरल्पतरा दोषा भवन्तीत्युच्यतेआयसमणीण नाउं, कडिकप्पट्टी समाणयं वनो। बहुपाडिवेसिजयणं, खमयरगं पारिसोहेइ॥१५३|| आत्मनः श्रमणीनांचस्वभाव दृढधर्मत्वादिकं ज्ञात्वा तथा यति-तव्यम्, 'किडिकप्पट्ट' ति स्थविरश्रमण्यः क्षुल्लकाश्चोभयपार्श्वतः कर्त्तव्याः / वयसा समानां च संयती संदर्शनादौ दूरतो वर्जयेत्। यच गृहं बहुप्रातिवेशिकजनमीदृशे प्रतिश्रये अवस्थानं क्षमतरमतिशयेन युक्तम्। विजने तु विश्वस्ततया बहवो दोषा भवेयुरिति / गतो द्वितीयो भङ्गः। अथ तृतीयभङ्गमाहपउमसर वियरगो वा, वाघातो तम्मि अभिनवगडाए। तम्मि वि सो चेव गमो, नवरं पुण देउले मेलो // 15 // तृतीयभङ्गो नाम-अनेकवगडाकमेकनिष्क्रमणप्रवेशं ग्रामादि, तत्र वा ऽभिनिवगडाके अनेकवगडे एकद्वारे च क्षेत्रे पद्मसरोवा विदरको वा गों वा व्याघातो भवेत्। येनानेके निष्क्रमणप्रवेशा न भवन्ति तस्मिन्नपि स एव गमः--प्रकारः सर्वोऽपि ज्ञातव्यः, नवरं केवलं पुनर्देवकुले मीलको भवति। कथमित्यत आहअंतोवियार असई, अजाण हविज्जों तइयमङ्गम्मि। संकिट्ठगवीयारे, व होज दोसा इमं नायं // 155 / / अनेकवगडाके एकनिष्क्रमणप्रवेशे चग्रामादौ स्थितेषु साधुषु आर्यिकाणामन्तस्तृतीयभङ्गे आयाता संलोकाख्ये विचारभूमेरसत्ता भवेत्, ततो बहिर्निर्गच्छन्तीनां संक्लिष्टविचारभूमेर्दोषा भवेयुः, संक्लिष्टविचारभूमि म एकद्वारतया अन्या संज्ञाभूमिर्न विद्यते, ततः संयता अपि तत्रैवायान्ति / आसन्ने वा परस्परं संज्ञाभूमी, ततश्च निर्गमने प्रवेशे वा देवकुले मेलको भवेत्। इदं चात्र ज्ञातम्। दृष्टान्त उच्यतेवासस्स य आगमणं, महिला कुडणंतमेव स्तही। देउलकोणे व तहा, संपत्ती मेलणं होजा / / 156 / / कस्याश्चिन्महिलायाः कुसुम्भरक्तवस्त्रयुगलाभिवसनायाः प्रावृषि घटं गृहीत्वा जलाहरणार्थं निर्गताया वर्षस्य-वृष्टरागमनम्, ततोऽसौ महिला रक्तार्थिनी रञ्जनं-रक्तं कुसुम्भराग इत्यर्थः तदर्थिनी, मे वर्षोदकेन पतता कुसुम्भरागो मा विलीयतामिति कृत्वा कुटे-घटे अन
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________________ वसहि 1025 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि न्तके च वस्त्रे द्वे अपि प्रक्षिप्य स्वयमपावृतीभूय काऽपि देवकुले प्रविष्टा! तस्य च कोणके यावदसौ प्रविशति तावत्तत्र कश्चिदगारः पूर्वप्रविष्टः आसीत्,तेन सा अपावृता दृष्टा, जातश्च तस्य मोहोदयः। ततस्तेन सा युक्ता, दृष्टा च तदन्यैः पुरुषैः / एवं तथा संप्राप्त्या तथाविधवर्षपतनादि- | समायोगेनैकस्या एव विचारभूमेः प्रतिनिवृत्तयोः संयतीसंयतयोरेकत्र देवकुलादौ वर्षाऽऽर्द्रवस्त्राणि परित्यक्त-वतोर्मीलनं भवेदिति। अथ तस्यागारस्य किं संवृत्तमित्याह--- गहिओ सोय वराओ, बद्धो अवओडओ दवदवस्स। संपाविओ रायकुलं,उप्पत्ती चेव कजस्स / / 157 / / गृहीतश्च स वराको राजपुरुषैश्च बद्धश्च अवकोटके आनीतः, कृकाटिकापश्चान्मुखीकृतबाहुयुगलो दवदवस्स त्ति शीघ्रं संप्रापितश्च राजकुलमयम् / तत्र च प्रस्तुतकार्यस्योत्पत्तिः कारणिकैः पृष्टा, तेन चागारेण यथावस्थितं सर्वमपि तत्पुरतो विज्ञप्तम्। ततश्चजाणंता वि य इत्थि, दोसवइंतीऍ नाइवग्गस्स। पञ्चयहेउ सचिदा, करेंति आसेण दिलुतं // 158 / / नहि महत्यपि वृष्ट्याधुपद्रवे स्त्रिया निरावरणत्वं शिष्टानामनुमतमिति कृत्वा स्त्रियं दोषवतीं जानन्तोऽपि तस्याः संबन्धी यो ज्ञातिवर्गःस्वजनसमुदायस्तस्य प्रत्ययहेतोः सचिवाः कारणिकाः अश्वेन दृष्टान्त कुर्वन्ति। तमेवाऽऽहचम्मिय-कवइय-वलवा, अंगणमज्झे तहेव आसो य।। वलवाए अगुंठणणं, कलस्स य छंदणं भणियं / / 156|| चर्म-लघुस्तनुत्राणविशेषस्तदस्याः संजातमिति चम्मिता, एवं कवचिताऽपि, नवरं कवचत्वं महांस्तनुत्राणविशेषः एवंविधा काचिदडवा कस्यचिन्नृपत्यादेरङ्गणमध्ये तिष्ठति / अश्वस्तथैव तत्र तां दृष्ट्वा प्रधावितोऽपि चर्मितकवचितां न प्रतिसेवितुं शक्नोति / यदा तु तस्या वडवाया अपावरणंचमदिरपनयनं क्रियते तदासुखेनैव प्रतिसेवितुमिष्टा। एवमियमपि यद्यपावृता नाऽभविष्यत् तदा नानेनाऽसौ प्रत्यसेविष्यत् इत्यत इयमेवापराधिनीति तैः कारणिकैः कार्यस्यव्यवहारस्य छन्दनंपरिच्छेदकारिक्चो भणितमिति। एवं खु लोइयाणं, महिला अवराहि न पुण सो पुरिसो। इह पुण दोण्ह वि दोसो, सविसेसो संजए होइ॥१६०।। एवम्-अमुना प्रकारेण खुरवधारणे,लौकिकानां महिला अपराधिनी संवृत्ता; न पुनरसौ पुरुषः / इह पुनरस्माकं लोकोत्तरे व्यवस्थितानां द्वयोरपिसंयतीसंयतयोर्दोषः। अपिच-सविशेषः-समधिको दोषः संयते भवति। कुत इति चेदुच्यतेपुरिसुत्तरिओ धम्मो, पुरिसे य धिई ससत्तया चेव। पेलव परज्झ इत्थी, फुफुगपेसी य दिटुंतो॥१६१|| पुरुषोत्तरः-पुरुषप्रधानो यतः पारमेश्वरोधर्मः, पुरुषे च धृतिर्मानसस्य स्वलक्षणसमवत्ता च सत्त्वसंपन्नता भवति, तत-स्तस्य प्रतिसेवमानस्य सविशेषो दोषः। स्त्री तु पेलवा-निः-सत्त्वा 'परज्झ' त्ति परवशा। अत्र फुम्फुकेन पेश्या च दृष्टान्तः / यथा-फुम्फुकः-करीषाग्निििलतः सन्नुद्दीप्यते, एवं स्त्रीवेदोऽपि / यथा च पेशी सर्वस्याप्यभिलषणीया एवमियमपि, अतो न तस्याः समधिको दोष इति। आह-यदि संयतीनामन्तस्तृतीयभङ्गे विचारभूमि भवेत्ततः किं न वर्तते स्थातुम्? उच्यतेजइ वि य होज वियारो, अंतो अमाण तइयभाम्मि। तत्थ वि विकिंचणादी, विनिग्गयाणंतु ते दोसा।।१६२|| यद्यप्यार्याणामन्तस्तृतीयभङ्गे आपातासंलोकलक्षणे विचारो भवेत्, तथापि विवेचना-उद्वरितभक्तपानादिपरिष्ठापनिका तत्प्रभृतिषु कार्येषु विनिर्गतानां साधुसाध्वीनां परस्परं मिलि तानामेकद्वारे क्षेत्रे त एव पूर्वोक्ता दोषा भवेयुः / अतस्तत्रापिन वर्तते स्थातुम्। उपसंहरन्नाहएए तिन्नि वि मका, पढमे सुत्तम्मिजे समक्खाया। जो पुण चरिमो भङ्गो,सो विइए होति सुत्तम्मि॥१६३|| एका वगडा एकं द्वारम्, एका वगडा अनेकानि द्वाराणि, अनेका वगडा एकं द्वारम्,एते त्रयोऽपि भङ्गा ये समाख्यातास्ते प्रथमे वगडासूत्रे प्रत्येतव्याः / तच्च प्रागेव व्याख्यातम्।यःपुनश्चरमोभङ्ग:-अनेका वगडा अनेकानि द्वाराणीतिलक्षणः स द्वितीये वगडासूत्रे द्रष्टव्यः / बृ०१ उ०३ प्रक०। से गामंसि वाजाव संनिवेसंसि वा एगवगडाए एगदुवा राए एगनिक्खमणपवेसाए णो कप्पति बहूणं अगडसुयाणं एगयउवणए अत्थियाइए जे केइ आयारपकप्पधरे णऽत्थि आइण्हं केहछेदे वा परिहारे वा। गऽथि आइण्हं केइ आयारकप्पधरे सवेसिंतेसिं तप्पत्तियं छेदे वा पहारे वा| "से गामंसिवा नगरंसिवा" इत्यादि। अत्र सम्बन्धप्रतिपादनार्थमाहकप्पति गणिणो वासो,बहिया एगस्स अतिपसंगण। मा अगडसुया वीसु.वसेज अह सुत्तसंबंधो // 264 / / कल्पते गणिनो-गणावच्छेदिनो वासो बहिरेकस्यैकाकिनः, इति श्रुत्वा मा अतिप्रसङ्गेन-अकृतश्रुता अपि विष्वक् वसेयुः, ततस्तेषां विष्वग् वासप्रतिषेधार्थमिदं सूत्रम्,इत्येष सूत्रसम्बन्धः / अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य (4) व्याख्या-'से' शब्दोऽथशब्दार्थः। ग्रामे वा नगरे वा यावत्करणात्-'खेडंसि वा कव्वडंसिवा'' इत्यादि परिग्रहः। राजधान्यां वा 'एगवडाएवा' एका वगडा परिक्षेपो यस्याः सा, एकवगडा तस्यां तथा एकस्मिन्प्रदेशे निष्क्रमणप्रवेशौ यस्यां सा एक-निष्क्रमणप्रवेशा तस्यां न कल्पते बहूनामकृतश्रुतानाम-गीतार्थानामित्यर्थः / एकतः एकस्यां वसती वस्तुम, अस्ति चात्र एतेषां मध्ये आचारप्रकल्पधरस्तर्हि नास्त्यमीषां कश्चित्छेदः परिहारोवा। वाशब्दादन्यदपि प्रायश्चित्तम्। अथ नास्तिकश्चिदत्रस्तेषां मध्ये आचारप्रकल्पधरस्त QAI
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________________ वसहि १०२६-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि हि 'तेसिं' तेषामन्तरातस्मात्स्थानादिप्रतिक्रमणलक्षणात्छेदः परिहारो वा एष सूत्रसंक्षेपार्थः। __ अधुना भाष्यविस्तरःएगम्मिवीअसंते, न कप्पती कप्पतीय संतम्मि। उउबद्धे वासासु य, गीयत्थो देसिए चेव॥२६॥ एतेषांबहूनामकृतश्रुतानामेकतो वसतामेकस्मिन्नपिगीतार्थे असत्यविद्यमाने ऋतुबद्धे वर्षासु च वस्तुंन कल्पते। यदि वसतिततः ऋतुबद्धे काले प्रायश्चित्तं मासलघु, वर्षाकाले चतुर्लघुकम् / अथैकोऽप्यस्ति गीतार्थस्तर्हि तस्मिन् ऋतुबद्धेवर्षासुच वस्तुंकल्पते; नतत्र प्रायश्चित्तमिति भावः / किं कारणं गीतार्थेन सह संवसतां न प्रायश्चित्तमत आहगीतार्थोद्देशक एव भवति। इयभत्र भावना-यथा केचित् पुरुषा अटव्यां विप्रनष्टाः केनचिद्देशकेन दृष्टास्ते भणिता माइतो व्रजन्तोऽटवीं प्रविशतअहं भवतो निस्तारयामि / ततस्ते ऋजुकेन पथा नगरं प्रापिताः, एवं गीतार्थोऽपि मोक्षपथविप्रनष्टानां मोक्षपथप्रदर्शक इति तेन सह संवसतां कालद्वयेऽपि नास्ति प्रायश्चित्तमिति। सम्प्रति परस्य प्रश्रावकाशमाशङ्कमान इदमाहकिह पुण होज बहूणं, अगडसुयाणं तु एगतो वासो। होजाहि कक्खडम्मी, खेत्ते अरसादिचइयाणं // 26 / / कथं-केन कारणेन पुनर्बहूनामकृतश्रुतानामेकत्र वासो भवेत्? सूरिराह-कर्कशे क्षेत्रे अरसादित्याजितानां भवेदेकत्रवासः। तथाहि-ते साधवो महति गच्छे वर्तमाना नगरे रूक्षरसविरसादिभिराहारैर्निर्भत्सिताः सम्प्रधारयन्ति, कियचिरं वयं रूक्षाहारैर्योग संस्तरणं कर्तुं शक्नुमस्तस्मात् गच्छामः एवं चिन्तयित्वा गच्छादपक्रमन्ति। एवमेतेषामकृतश्रुतानांबहूनामेकत्र वासः। चझ्याण य सामत्थं, संघयणजुयाणमाउलाणं पि। . उउवासे लहुलहुगा, सुत्तमगीयाणमाणादी॥२६॥ अरसविरसादिभिराहरैस्त्याजितानामाकुलानां संहननयुतानामपि अपिशब्दो भिन्नक्रमत्वादत्र योजितः, एवं सामत्थं सामर्थ्यपर्यालोचनं भवति। यथा कियन्तं कालं वयं रूक्षाहाराः स्थास्यामस्तस्मादपक्रमामो गच्छादिति। एवं चिन्तयत्विा यदि ऋतुबद्धे काले वसन्ति तदा प्रायश्चित्तं मासलघु, वर्षाकाले चतुर्लघुकम् / यतनाऽगीतार्थानां विषयेऽधिकृतं सूत्रं न केवलमधिकृतं प्रायश्चित्तम्। किं त्वाज्ञादयश्च / तानेव मिथ्यात्वादीन् दोषान् द्वारगाथया संजिघृक्षुराहमिच्छत्तसोहिसागा-रियाइगेलण्ण अहव कालगए। अद्धाणओमसंभम भए य रुद्ध य ओसरिए॥२६६|| तेषामगीतार्थानां मतिभेदादिना मिथ्यात्वं स्यात्, तथा शोधिस्तैर्न ज्ञायते, तथाससागारिकायां वसतौये दोषाः परिहास्तेिषामपरिज्ञानम्। अथवा-लानत्वे, अथवा-कालगते अध्वनिमार्गे 'अवमे' अवमौदर्ये अग्न्यादिसम्भ्रमे बोधिकम्लेच्छस्तेनभये अकालवर्षेण रुद्ध तथा अपसृते पथि गच्छतां कस्मिंश्चित् मन्दगतित्वात् स्फिटिते या यतना तां न जानन्ति, एष द्वारगाथा-संक्षेपार्थः / व्य०६ उ०। (अत्र मिथ्यात्वद्वारम् | "मिच्छत्त' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 274 पृष्ठे गतम्।) अधुना शोधिद्वारं सागारिकद्वारं चाऽऽहआवण्णमणावण्णे, सोहिं न मुणंति ऊणमहियं वा। जे वसहीए दोसा, परिहरंति न ते अयाणंतो॥२६॥ अकृतश्रुता आलोचिते परेण एष प्रायश्चित्तं प्राप्तो नवेति न जानन्ति, आजनन्तश्चापन्नेऽनापन्ने वा प्रायश्चित्तं-शोधिं नैव ददति / यदि वाऊनामधिकां वा ददति / गतं शोधिद्वारम्। अधुना सागारिकद्वारमाह-ये च वसतौ दोषास्तानजानन्तोऽकृतश्रुतानपरिहरन्ति। सम्प्रतिग्लानत्वादिद्वारचतुष्टयमाहगेलने वोचत्थं, करेंति नयमयविधिं वियाणंति। अद्धाणमडंति सया,जतणा णयणो व ओमे वि॥२६॥ ग्लानत्वेऽज्ञानतो विपर्यासं कुर्वन्ति, अनागाढे आगाढकृतमुभयत्रापि प्रायश्चित्तं चतुर्गुरुकम् / गतं ग्लानद्वारम् / अथकालगत-द्वारमाह-न च मृतस्य विधि बन्धनच्छेदनादिकं परिष्ठापनाविधिं वा न जानन्ति मृतस्योपधिरुपहत इतित्यज्यते। सम्प्रत्यध्वद्वार-माह-अध्वानं पन्थानमजानन्तः सदासर्वकालं रात्रौ दिवसे वाऽटन्ति न च कारणतो रात्रावपि गमने यतनां जानन्तीति भावः। सम्भ्रमादिद्वारकदम्बकमाहअगणादिसंभमेसु य, बोहिगमेच्छादिएसु य भयेसु / रायडुट्ठाईसुय, विराहगा जयणऽयाणंता / / 270 / / अग्न्यादिसम्भ्रमेषु तथा बोधिकाः स्तेना म्लेच्छाः प्रतीता आदिशब्दात्-परचक्रादिपरिग्रहस्तदादिकेषु भयेषु राजद्विष्टादिषु च भयेषु, राजद्विष्ट-राजप्रद्वेष आशिब्दादशिवादिपरिग्रहः, तथा भिक्षाचर्यां गते अकालवर्षतो नदीपूरेणावरुद्ध पथि सह व्रजतां मन्दगतित्वादपसते यतनामजानन्तः संयमात्मविराधका भवन्ति। तथासंभमनदिरुद्धस्स वि, उन्निक्खंतस्स अहव फिडियस्स। ओसरियसहायस्सव, छड्डे उवहिं उवहतो ति॥२७१।। अग्न्यादिसंभ्रमवशादेकाकिनस्तथा नदीनिरुद्धस्य उन्निष्क्रान्तस्य अथवा-मन्दगतित्वात्सार्थस्फिटितस्य-अपसृतसहायस्य च-अपगतसहायस्य उपधिरुपहत इति कृत्वा छर्दयति-त्यजति अब-हुश्रुतः। एएण कारणेणं,अगडसुयाणं बहूण विण कप्पो। बितिपएं य रायदुद्दे, असिवोमगुरूण संदेसे // 272 / / एतेनानन्तरोदितेन कारणेनाकृतश्रुतानां बहूनामप्येकत्र वासो न कल्पते। द्वितीयपदे-अपवादपदे पुनः कल्पते / वेत्याह-राजद्विष्ट अवमौदर्ये गुरूणां संदेशे च / तथाहि- राजप्रद्वेषवशादेकाकी आत्मद्वितीयः आत्मतृतीयो वा भवेद, एवमशिवेऽवमौदर्य च भावनीयम्। तथा गुरोः संदेशवशादागाढकारणे गीतार्थानामभावे अगीतार्था अपिव्रजन्तीति। तह नाणादीणट्ठा, एएसिंगीतों दिज एकेको। असतीएगागी वा,फिडिया वा जावन मिलंति॥२७३||
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________________ वसहि 1027- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि तथा ज्ञानाद्यर्थाय-ज्ञाननिमित्तं दर्शननिमित्तं चारित्रनिमित्तं वैयावृत्त्यनिमित्तकरणं चलितानां तेषां गीतार्थानामभावे अगीतार्था अपि गच्छन्ति। स्पर्द्धकपतौ वा कालगते आचार्यसमीपमथ सार्थात्मन्दगतितया स्फिटिता यावन्नाधापि मिलन्ति तावदेकत्र बहूनामकृतश्रुतानामपि वासो न विरुध्यते। एगाहिगमट्ठाणे,व अन्तरा तत्थ होज वाघाते। तेणच्छेज्जा तत्थ वि, सेहस्स नियल्लगा बेति // 274 / / तत्तो वि पलाविजइ, गीयत्थविइज्जइंतु दाऊणं / असतीए संगारो,कीरइ अमुगत्थ मिलियध्वं // 27 // कोऽपि साधुः गीतार्थाभावे आचार्येण क्वचित्प्रयोजने प्रेषितो भणितश्वाचैव प्रत्यागन्तव्यमिति / एवमेकाहिगमे' एकदिनगमागमे अध्वनि अन्तराले तत्र व्याधातो भवेत्, तेन कारणेन स यत्र प्रेषितस्तत्रैवासीत्न प्रत्यागच्छति / अथवा-तस्य स्वज्ञातय उत्प्रव्राजननिमित्तमाचार्यसमीपमागताः अपश्यन्तः सर्वतः समन्तात् निरीक्षन्ते, निरीक्षमाणाव तत्र गता यत्र स गतस्तिष्ठति। ततो येषां समीपे स प्रेषितस्तत्साधुभितिम्, यथा-शैक्षस्य निजकाः समायातास्तिष्ठन्ति / ते च ब्रुवतेवयमात्मीयमुत्प्रव्राजयिष्यामस्ततोऽपि स्थानात् द्वितीयं गीतार्थ दत्त्वा पलायते दूरम्, यत्र तन्निजकानांगतिविषयो नास्ति / असति गीतार्थे अगीतार्थोऽपि सहायो दीयते। तेषां च संकेतः क्रियते, यथा-अमुकप्रदेशे मिलितव्यम्। अगीतार्थस्यापि सहायस्याभावे एकाक्यपि प्रेष्यते,तत्रापि संकेतः कर्तव्यः / एवमेकाकिनस्त्रिप्रभृतीनां बाहूनामृतुबद्ध वर्षासु च वासो भवति। रायहुट्ठादीसुद, सवेसुंचेव होइ संगारो। नाणादिव ओसरणे, गीयत्थविइज्जगं मग्गो // 276 / / असती एगाणीउ, निबंधे वा बहूण अगीयॉणं। सामायारीकहणं,मा बहिभावं निरंभंति // 277 / / राजद्विष्टादिषु-राजद्विष्टाशिवावमौदार्यसम्भ्रमादिषु सर्वेषु भवति संकेतः कर्त्तव्यः। तथा स्नानादिनिमित्तंजिनप्रतिमास्नानरथ-निर्याणादिनिमित्तं समवसरणं-भूयः सामाचार्यादीनां मिलनं भविष्यतीति समवसरणे श्रुते कोऽप्याचार्यसमीपमागत्य द्वितीयं गीतार्थ मार्गयति, तस्य द्वितीयो गीतार्थो दातव्यः / असति- अविद्यमाने गीतार्थे, अविद्यमाने तावद् द्विधा-सद्भावेनासद्भावेन वा। सद्भावो नाम-सन्ति गीतार्थाः परं ग्लानादिप्रयोजनव्यापृताः, असद्भावो मूलत एव गीतार्था न सन्ति। तत्र सद्भावेन असद्भावेन वा अविद्यमानेगीतार्थेस प्रतिषेधनीयो यथा नास्ति द्वितीयो गीतार्थः। अथ स निर्बन्धं करोति तर्हि एकाकी प्रेष्यते। यदिवाबहवोऽगीतार्थाः सहाया दीयन्ते / बहूनामपि ज्ञानदर्शनादिनिमित्त गमनेच्छाभावात् / तेषां च बहूनामगीतार्थानां या पथि सामाचारी या च समवसरणे प्रविष्टानां तस्याः कथनम् / अथ कस्मात्ते निर्बन्धेऽपि कृते उत्कल्यन्ते तत आह-मा निरुध्यमाना बहिर्भावं व्रजेयुरिति कृत्वा। / सूत्रम्से गामंसि वा० जाव सन्निवसंसि वा अभिणिव्वगडाए अभि- / 'णिदुवाराए अभिणिक्खमणपवेसणमाणाए णो कप्पति बर्ण अकडसुयाणं एगयओ वत्थए। अत्थि या इ ण्हं केइ आयारपकप्पधरे जे तत्तियं रयणिं संवसति णऽत्थि या इत्थ केइ छए वा परिहारे वा, णऽत्थिया इत्थ केइ आयारकप्पधरे जे तत्तियं रातिं संवसति सव्वेसिंतेसिंतप्पत्तियं छए वा परिहारे वा / / 5 / / 'से गामंसि वा' इत्यादि अथास्य सूत्रस्य कः सम्बन्ध इत्यत आहअण्णग्गामे वासं,णाऊण निवारियं अगीयाणं। सग्गामे मा वीसुं,वसेज्ज अगडा अयं लेसो॥२७८|| अन्यस्मिन् ग्रामे अगीतार्थानां वासं निवारितं ज्ञात्वा मा स्वग्रामे विष्वगपि वासः कल्पते इति मन्यमाना अकृताअकृतश्रुताः स्वग्रामे. विष्वक्वसेयुः, अतस्तन्निषेधार्थमिदंसूत्रमित्ययं सूत्रसम्बन्धलेशः। अथवाऽयमन्यः सम्बन्धःअगडसुया वाऽहिकया, समागमो एस होइदोहंपि। सच्छंदणिस्सियावा,निस्सयजयणाविहं भणिया।॥२७॥ अनन्तरसूत्रे अकृतश्रुता अधिकृताः, अस्मिन्नपि सूत्रेतएवा कृतश्रुताः प्रोच्यन्ते इत्येष द्वयोरपि सूत्रयोः समागमः-सम्पर्कः। अथवा-अधस्तनानन्तरसूत्रेस्वच्छन्दतोऽनिश्रिता उक्ताः अस्मिन्पुनः गीतार्थनिश्रितानां यतना भणिता। अनेन सम्बन्धेना-यातस्यास्य(५ सूत्रस्य) व्याख्या"से गामंसि वा" इत्यादि पूर्ववत् / नवरम् 'अभिनिव्वगडाए' अभिप्रत्येकंनियतो वगडः परिक्षेपो यस्यां सा अभिनिर्वगडा तस्यां पृथक् परिक्षेपायामित्यर्थः। तथा अभि प्रत्येकं नियतं द्वारं यस्याः सा तथा तस्याम्, तथा अभिप्रत्येक निष्क्रमणप्रवेशौ निष्क्रमणप्रवेशस्थानंयस्याः सा तथा तस्याम्,वसतौ बहूनामकृतश्रुतानामेकतो वस्तुम्, अस्तिवाऽत्र प्रकल्पधरो यस्तृतीयां रजनीं गत्वा तैः समं वसति, तर्हि तेषामापन्नःसमापन्नो नास्ति कश्चिच्छेदः परिहारोवा। नास्ति कश्चिदाचारप्रकल्पधरो यस्तृतीयां रजनिंगत्वातैः समंवसति, तर्हि तेषां सर्वेषामपितत्प्रत्ययमगीतार्थेन सह सम्बन्धनप्रत्ययः छेदः परिहारो वा, एष सूत्रसंक्षेपार्थः। अधुना भाष्यविस्तरःगामे उवस्सए वा, अभिनिव्वगडाएँ दोसते चेव। नवरं पुण नाणत्तं, तइयदिवसें गीयसंवसणा // 280 / / ग्रामे वा एकस्मिन्नुपाश्रये विष्वक् अभिनिर्वगडायां पृथक् परिक्षेपायामुपलक्षणमेतत्पृथग्द्वारायां पृथनिष्क्रमणप्रवेशायां येऽनन्तर-सूत्रे मिथ्यात्वादयो दोषा उक्तास्त एवान्यूनातिरिक्ता द्रष्टव्याः। नवरं पुनर्नानात्वमिदमस्मिन् सूत्रे यदि गीतार्था निश्रया वसन्ति तर्हि तृतीयदिवसे गीतसंवसनम्-गीतार्थेन सहसंवसनं कर्तव्यम्, आचार्यस्तृतीयदिवसे तेषां शोधिनिमित्तं गातार्थमेकं प्रेषयति / एवं च तेषां नास्ति प्रायश्चित्तम्। अत्र पर आहएवं पि भवे दोसो, दोसुं दिवसेसु जे भणियपुर्टिव /
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________________ वसहि 1028- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि कारणियं पुण वसही, असती भिक्खोभये जयणा // 281|| ननु यदि तृतीये दिवसे गीतार्थेन सह संवसनमेवमपि ये पूर्व भणिता मिथ्यात्वादयो दोषास्ते द्वयोर्दिवसयोर्भवन्ति / आचार्य आह-सत्यमेतत्केवलमिदं सूत्रं कारणिकंकारणवशप्रवृत्तमतो न दोषः। किं पुनस्तत्कारणमत आह–'वसहि असती' इत्यादि, वसतिरेकत्र सर्वेषां न विद्यते, यदिवाभिक्षा सर्वेषामेकत्र न भवति, अथवा-उभयमेकत्र सर्वेषां न सम्भवति, तत एतेषां त्रयाणां कारणानामन्य-तमेन कारणेनपृथक्पृथक् वसन्ति / तत्र च यतना कर्तव्या। यतनया च संवसतांन प्रायश्चित्तम्। तामेव यतनामाहसंकिट्ठा वसहीए, निवेसणस्संतें अन्नवसहीए। असतीय वाडगं तो, तस्सऽसती होज दूरे वा // 22 // स्वग्रामे संक्लिष्टायामातिसङ्कटयां वसतौ सर्वेषामेकत्र स्थानं न भवति तदा एकनिवेशनस्यान्तः पृथगन्यसां वसतौ स्थातव्यम्। असत्येकनिवेशनस्यान्तः-अन्यस्या वसतेरभावे वाटकस्यान्तः पृथगन्यस्यां वसतौ वसन्ति। अथवाटकस्याप्यन्तः पृथगन्या वसतिर्न लभ्यते, तदा वाटकबहिर्हस्तशताभ्यन्तरे पृथगन्या वसतिर्गवेषणीया, तस्य हस्तशतस्याभ्यन्तरे वसतेरभावे दूरेऽपि वसतिरन्या स्यात्। तत्र हस्तशताभ्यन्तरं यावत् यतनामाह--- वीसं पि वसंताणं, दोण्णि वि आवासगासह गुरूहिं। दूरे पोरिसिभंगे, उग्घाडऽऽगंतु विगडेंति॥२८३|| निवेशनवाटकहस्तशताभ्यन्तरे (वीसुं) विष्वगपिवसतामेष विधिर्दिवसे दिवसे द्वे अप्यावश्यके-प्राभातिकप्रतिक्रमणलक्षणे सह गुरुभिः कर्त्तव्ये। भिक्षामप्यटित्वा ततः संनिवृत्ता आचार्यस्य समीपे समागत्याऽऽलोचयन्ति। अथ हस्तशतस्य बहिर्वसतिर्लब्धातर्हिगुरुसमीपेचतुर्थपौरुष्यामालोचनां कृत्वा वैकालिकमावश्यकं स्वकीयायां वसतौ कुर्वन्ति। ततः प्रातरप्यावश्यकं तत्र कृत्वा गुरुसमीपमागत्य प्रत्याख्यानं गृह्णन्ति। 'दूरे' इत्यादियदि पुर्नदूरे अन्यस्मिन्ग्रामे स्थिता भवेयुस्ततोयदिगुरुसकाशमागच्छतां पौरुषीभङ्गस्तत उद्घाटायां पौरुष्यामागत्याचार्यसमीपे आलोचयन्ति,प्रत्याख्यानं न गृह्णन्ति पूर्वार्द्धकम् / एतत् दूरे स्थितानामविशेषेणोक्तम्। अधुना विशेषमभिधित्सुराहगीयसहाया उ गया, आलोयण तस्स सो वि य गुरूणं। अगडा पुण पत्तेयं, आलोएंती गुरुसगासे // 24 // तत्र यदि तेषां दूरे स्थितानां कोऽपि गीतार्थाः सहायोऽस्ति तर्हि ते गीतसहायाः-- गीतार्थसहाया दूरे गताः सन्तस्तस्य गीतार्थस्य पुरतः आलोचयन्ति। स पुनर्गीतार्थ उद्घाटायां पौरुष्यां गुरूणां समीपमागत्य विकटयति। अथ नास्ति कोऽपि तेषां गीतार्थः सहायस्तर्हि ते केवला अकृताः-अकृतश्रुता उद्घाटायां पौरुष्यां गुरुसकाशे समागत्य प्रत्येकमालोचयन्ति। एताण य जंताण य, पोरिसिभङ्गो तओं गुरुं वयंति। थेरे अंजगमम्मि व, मज्झण्हे वाऽवि आलोए॥२८५।। यदि दूरे वसतिर्लब्धा उद् घाटायां च पौरुष्यामागच्छतां गच्छतां च पौरुषीभङ्गस्ततो गुरवः स्वयं तेषामकृतश्रुतानां समीपं व्रजन्ति / आचार्यो वृद्धत्वेन चागन्तुं न शक्तस्ततः स्थविरे अजङ्गमे आचार्ये ते अकृतश्रुता मध्याङ्गे गुरुसमीपमागत्यालोचयन्ति। एवं पिदुल्लहाए, पडिवसहठिया न एंति पतिदिवसं। समणुण्णदढधिईया, अतरुणे य बहिं विसज्जेन्ति // 286 / / एवमपि-अनेनापि दुर्लभायां वसतौ दूरे प्रतिवृषभस्थिता न प्रतिदिवस गुरुसमीपमागच्छन्ति, अर्थादापन्ने द्वितीये दिवसे आलोचका आगच्छन्ति। अथ कीदृशास्ते प्रतिवृषभा यानाचार्यः प्रेषयति, तत आह-'समणुण्णे' त्यादि, समनोज्ञा नाम येषां परस्परं प्रीतिस्तान् समनोज्ञान् दृढधृतीन् अतरुणान्मध्यमवयसो बहिः प्रतिवृषभानाचार्या विसर्जयन्ति / तदेवं वसत्यलाभो यतनोक्ता। सम्प्रति भिक्षाया अलाभे यतनामाहदुल्लममिक्खे जतिउं, सग्गामुन्मामपल्लियासुंच। अतिखेयपोरिसिवहे, न वाऽवि ठायंति तो वीसुं // 287 / / दुर्लभे भैक्षे यदि स्वग्रामे उद्ग्रामकभिक्षाचरप्रत्यासन्नग्रामे पल्लिकादिषु चयतन्ते,तथापि-यतित्वाऽपिनास्ति संस्तरणम्। अथवा अतिशयेनमहता कालक्षेपेण यदि पर्याप्तं कथमपि लभ्यते पौरुषीबधेनद्वितीयचतुर्थपौरुषीभङ्गेन ततो विष्वक्-अन्यक्षेत्रेऽपि गीतार्थाभावेनाकृतश्रुता अपि तिष्ठन्ति, तेच विष्वक्-क्षेत्रेषु तथा तिष्ठन्ति यथा आचार्ये स्पर्द्धकेन सह त्रीणि स्पर्द्धकानि भवन्ति। उभयस्स अलंभम्मि वि, गीताऽसति वीसु ठंति अगडसुया। दुसु तिसु वा ठाणेसुं, पतिदिवसाऽऽलोऐं आयरितो // 288|| उभयस्य-वसतेभैक्षस्य वाऽलाभे गीतार्थस्याभावे अकृतश्रुता अपि विष्वक् तिष्ठन्ति / कथमित्याह-दिषु त्रिषु वा स्थानेषु आचार्यस्थानेन तत्सहोत्कर्षतस्त्रिषु स्थानेषु इत्यर्थः, तत्र भिक्षाऽलाभे उभयालाभे वा विष्वक् स्थितानां प्रतिदिवसमाचार्यस्तेषामन्तिकं गत्वा तानालोकते, प्रतिपृच्छादिदानेन तेषां सारं करोतीत्यर्थः। किंकारणमाचार्येण प्रतिदिवसं तेषां समीपे गन्तव्यमत आहसइरीभवन्ति अणवे-क्खणाएँ जह भिन्नवाहणा लोए। पडिपुच्छ सोहि-वोतण, तम्हा उगुरू सया वयई // 26 // भिन्नप्रवहणाः स्वैरिणो भवन्ति, एवं तेऽपि स्वैरिणो जायन्ते / तस्मात् प्रतिपृच्छा शोधित्वदानाय गुरुः सदा तेषामन्तिकं व्रजति। तस्य पुनराचार्यस्य तेषां समीपं व्रजतस्तैर्यत्कर्तव्यं तदाहतण्हाइयस्स पाणं,जोग्गाहारं व नेति पचो (व्यो)णिं / किमिकमंच करेंति, मा जुन्नरहो व सीएजा॥२९॥ येषां समीपमाचार्यो गच्छति ते आचार्यस्य-'पच्चो(व्वो)णिं' सन्मुखं तृष्णायितस्य-अतिशयतृषितस्य योग्यं पानंपानीयं योग्यमाहारं च प्रथमालिकानिमित्तं नयन्ति / कृतिकर्म
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________________ वसहि 1026 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि च विश्रामणां कुर्वन्ति, मा अन्यथा जीर्णरथ इव स सीदेत्। अथ तस्याचार्यस्य नित्यसहायो न विद्यते, तत आहअसती निचसहाए, गेण्हइ पारंपरेण अण्णोण्णे। ते चिय अण्णेहि सम, तं मलेउं नियत्तंते // 291 // असति-अविद्यमाने नित्यसहाये-अवस्थितसहाये यः सकलदिवसमाचार्येण सह हिण्डते, ततः पारंपर्येणान्यानन्यान् सहायान् गृह्णाति / तद्यथा-एके साधवस्तावन्नयन्ति यावत् द्वितीयं स्फड़कम्, ततस्ते तैः समं मेलयित्वा प्रतिनिवर्तन्ते। ततोऽप्यन्ये साधवस्तावन्नयन्ति यावत्तृतीयं स्पर्द्धकम्, ततस्तेऽपि तैः सह मेलयित्वा प्रतिनिवर्तन्ते। तानि च स्पर्द्धकान्याचार्यस्य स्पर्द्धकेन सह त्रीणि स्पर्द्धकानि भवन्ति। अथ कथमाचार्य एकदिवसेन त्रयाणामकृतश्रु तस्पर्द्धकानां शोधिं करोति। तत आह-- एगत्थ वसितो संतो, तेसिंदाऊण पोरिसिं / मज्झण्हे बितियं गंतुं, भोत्तुं तत्थावरं वए / / 292| आत्मीये स्पर्द्धके उषितः सन् आश्चार्यः सूत्रपौरुषीं दत्त्या मध्याह्ने द्वितीय स्पर्द्धकं गच्छति, तत्र गत्वा भुक्त्वा ' शोधिं च कृत्वा तदनन्तरमपरं तृतीयं स्पर्द्धकं व्रजति। तत आलोचनादिशोधिं कृत्वा तत्रैव वसति। एवमेगेण दिवसेण, सोहिं कुणति तिण्ह वि। पडिपुच्छणं च बलवं, आह सुत्तमवत्थयं / / 293|| एवमेकेन दिवसेनाचार्यस्त्रयाणामपि स्पर्द्धकानांशोधिं करोति, यदिस प्रतिपृच्छां-प्रत्येकं पृच्छां सारा कर्तुं गन्तुं बलवान् / अत्र परः प्राहयद्येवं तर्हि 'तइयं रयाणं संवसति' त्ति तदिदानीमपार्थकमवकाशाभावात्सुत्तनिवातो थेरे, कलाव काउं तिहेण वा सोहिं। बितियपयं च गिलाणे, कलाव काऊण आगमणं // 264|| आचार्यः प्राह अधिकृतस्य सूत्रस्य निपातोऽवकाशः स्थविरे। तथाहियद्याचार्यः-स्थविरतया दुर्बलत्वेन वा प्रतिदिवसं त्रिषु स्पर्द्धकेषु शोधिं कर्तुं न शक्नोति तत एकैकस्मिन् स्पर्द्धके तृतीयां रात्रि वसति। तथा चाह- आचार्यस्य प्रतिदिवसमनागमने व्यहेण चाऽपराधान् कलापं कृत्वापिण्डयित्वा शोधिमाचार्यस्य समीपे कुर्वन्ति। तथाहि-एकस्मिन् स्पर्द्धके उषित्वा तत्र पौरुषी दत्त्वा द्वितीये स्पर्द्धक समायाति, तत्रैव वसति।तत्र वसतौ तत्रत्याः साधवो ये अपराधा अभूवन ते एकत्र पिण्डयित्वा आचार्यस्य पुरत आलोचयन्ति / आचार्यस्तु शोधिं ददात्यप्रमादार्थ चोपदेशं प्रयच्छति / अत्रापि द्वितीयपदमाह-द्वितीयपदम्अपवादपदं ग्लाने सत्याचार्य अपराधान् कलापं कृत्वा;पिण्डयित्वा इत्यर्थः, स्पर्द्धकसाधूनामागमनमाचार्यसमीपे / इयमत्र भावनायद्याचार्यो ग्लानत्वेनातिवृद्धत्वेनाऽजङ्गमः स्वयं न शक्नोति तेषांसमीपं गन्तुंतदा इतरस्पर्द्धकद्वयसाधवो यथा मयूरः स्वपिच्छान् कलापयति-- एकत्र पिण्डयति एवमपराधानेकत्र पिण्डयित्वा हृदये सम्यगवधार्य गुरुसमीपमागत्यालोचयन्ति आलोचितेषु चतेषु अपराधेषु यदिप्रायश्चित्तं दातव्यं भवति तदा प्रायश्चित्तमाचार्यो दत्त्वा प्रमादाभावार्थमुपदेशं च दत्त्वा विसर्जयति। एतदेव सविस्तरमाहएवं अगडसुयाणं, वीसु ठियाणं तु तीसु गामेसु / लहुया असंथरंतो, तेसि अणिताण वी लहुतो // 265|| सर्वेषां यद्याचार्येण समं नास्ति क्षेत्रं यत्र वसतिः संस्तरणं च भवति / अथवा-अस्ति वसतिः संस्तरणं न विद्यते, यदिवा-अस्ति संस्तरणन पुनर्वसतिः,एवमैतेः कारणैस्त्रिषु ग्रामेषु विष्वस्तिथा अकृतश्रुतास्तेषामसंस्तरणम्, तथापि स्थितानां यद्याचार्यो द्वयोरितरयोः स्पर्द्धकयोः प्रतिदिवसं सारां न करोति, तदा प्रायश्चित्तं चत्वारो लघुकाः। स्पर्द्धकसाधवो यद्याचार्यमनागच्छन्तं न गवेषयन्ति तदा तेषामप्यनागच्छता मासलघु। एगदिणं एकेके, तिट्ठाणत्थाण दुव्बलो वसति। अह सो अजंगमो चिय, ताहे इयरे तहिं एंति // 296|| अथ ग्लानत्वेन वृद्धत्वेन दुर्बलतया न प्रतिदिवसं त्रिषु स्पर्द्धकेष्वागन्तुं शक्नोति तदा स दुर्बल आचार्यस्त्रिस्थानं, स्थानं स्पर्द्धकानामेकैकस्मिन् स्पर्द्धके एकैकं दिनं वसति। यथा च वसति तथा प्रागेवोक्तम्। अथ स आचार्योऽतिवृद्धत्वेन ग्लानत्वेनाजङ्गमो जातस्तत इतरे स्पर्द्धकद्वयसाधवस्तत्राचार्यसमीपे आगच्छन्ति, तेषामपि विधिमूलगाथायामुक्तः। अथवा तत्रान्यः प्रकारस्तमेवाऽऽहएइ व पडिच्छए वा, मेहावि कलाव काउमवराधे। अतिदूरे पण परए, पक्खे मासे परतरे वा॥२६७|| यस्तेषां स्पर्द्धकसाधूना, मध्ये कोऽपि साधुर्मेधावी ससर्वेषां साधूनामपराधान् हृदये धारयितुमलं तेन स्पर्द्धकसाधव आलोचयन्ति। तद्यथास तेषामपराधपदानि कलापं कृत्वा हृदये संपिण्ड्याचार्यसमीपमागत्यालोचयति / तान्याचार्यः श्रुत्वा यद्यापन्नाः प्रायश्चित्तम् / ततो यत्र येनापन्नं प्रायश्चित्तं तमेनमित्थं वाहयेदिति भणित्वा प्रेषयति / सोऽपि च साधुस्तेषां तत्कथयति प्रायश्चित्तं च तेऽपि साधवस्तद्वहन्ति। 'पडिच्छए व' त्ति अथवा-आचार्य आत्मीयात् स्पर्द्धकात् विनिर्गत्य येन प्रदेशेन इतरे स्पर्द्धका वाऽऽगच्छन्तस्तस्मिन् प्रदेशे अन्तरा प्रतीक्षमाणस्तिष्ठति तत्र स्पर्द्धकसाधव आगच्छन्ति / एको वा मेधावी अत्राप्यालोचनादिकं तथैव 'अइदूरे इत्यादि यद्यतिदूरे स्थितास्तदा पञ्चमे पञ्चमे दिवसे, यदि वा-पक्षेण पक्षण, अथवा-मासेन मासेन, परतरे देति परतरेण वा द्वयर्द्धमासादिना समागच्छन्ति। आगत्य धाचार्यादिसमीपेशोधिं कुर्वन्ति। से गामंसि वाजाव संनिवेसंसि वा अभिणिदुवाराए अभिणिक्खमणपवेसाए णो कप्पति बहुसुयस्स वभागमस्स एगागियस्स भिक्खुस्स वत्थए, किंमग! पुण अप्पागमस्य अप्पसुयस्स भिक्खुस्स॥६॥ 'से गामंसिवा' इत्यादि। अत्र सम्बन्धप्रतिपादनार्थमाहअगडसुयाण न कप्पड़, वीसुमा अइपसंगतो सुयवं। एगागितो वसेडा,निकायणं चेव पुरिमाणं // 26 // अनन्तरसूत्रे अकृतश्रुतानां न कल्पते विष्वग् वास इति श्रुत्वा माऽतिप्रसङ्गतः श्रुतवान् एकाकी वसे दित्येवमर्थमि
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________________ वसहि 1030- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि दंसूत्रम्।तथा निकाचनंच नियमश्च पूर्वाणामकृतश्रुतानां कृतमनेन सूत्रेण। / तथाहि-यदि कृतश्रुतस्यापि न कल्पते एकाकिनो वासः किमङ्ग ! पुनरकृतश्रुतस्य तस्य सुतरामेकाकिनो न कल्पते वास इत्येष सूत्रसम्बन्धः / अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य (सूत्रस्य६) व्याख्या अथ ग्रामे वा नगरे वा यावद्राजधान्यां वा अभिनिर्वगडायामभिनिराियामभिनिष्क्रमणप्रवेशायामेतेषां त्रयाणामपिपदानां व्याख्यानंपूर्ववत्।नकल्पते बहुश्रुतस्य सूत्रापेक्षया एकाकिनो भिक्षोर्वस्तुम, किमङ्ग! पुनरल्पागमस्याल्पश्रुतस्येति सूत्रक्षेपार्थः। सम्प्रति भाष्यविस्तरःअंतो वा बाहिवा, अभिनिव्वगडाएँ ठायमाणस्स। गीयत्थे मासलहुं, गुरुतो मासो अगीयत्थो / / 29ll अन्तरुपाश्रयस्याभिनिर्वगडायां-पृथक्परिक्षेपायां वसतौ यथाएकस्यां वलभ्यां विष्वक् अपवरके बहिरुपाश्रयस्याभिनिर्वगडायामन्यस्मिन् प्रतिश्रये यदि गीतार्थो भिक्षुर्वसति तदा तस्य तत्र तिष्ठतो गीतार्थस्य प्रायश्चित्तं मासलघु अगीतार्थस्य गुरुको मासः। सांप्रतमन्तर्बहिर्वा गृहस्य या अभिनिर्वगडा तस्याः प्रकारमाहअंतो निवेसणस्स, सोही मादी वजाव सग्गामो। घरवगडाए सुत्तं, एमेव य सेसवगडासु // 300 / / निवेशनस्य गृहस्यान्तरभिनिर्वगडा, अथवा-निवेशनादरहिरन्या वसतिरभिनिर्वगडा तस्यां मुख्यतो द्रष्टव्यम् एवमेव शेषवगडासु निवेशनाद्वहिरभिनिर्वगडाप्रकारेषु च / तच्च गीतार्थानामगीतार्थानां भिक्षणामेकाकिनां वसतां प्रायश्चित्तम्। तदेव प्रागुक्तं न केवलं प्रायश्चित्तं किं त्वन्येऽपि च दोषाः। तथा चाहआणादिणो य दोसा, विराहणा होइ संजमायाए। लज्जाभया उगारव, धम्मसठरक्खाचउद्धा अ॥३०१।। अन्तर्निवेशनस्याभिनिर्वगडायां वसतौ तिष्ठत आज्ञादयो दोषाः, तथा संयमविराधना आत्मविराधना च ! एते यथा प्राक् चतुर्थपञ्चमातिशये भाविते तथा भावनीये। यदि पुनरनभिनिर्वडायां वसतौ वसति तदा पापं कर्तुमिच्छतो लज्जातो भयतो गौरवतो धर्मश्रद्धातो वा रक्षा चतुर्विधा स्यात्। किमुक्तं भवति-अनभिनिर्वगडायां वसतौ वसन् संयमविराधनारूपमात्मविराधनारूपं वा पापं लज्जादिभ्यो न कुर्यादपि। तत्र प्रथमतो लज्जाद्वारं भावयतिलज्जणिजो उहोहामि, लखए वा समायरं। कुलागमतवस्सी वा, सपक्खपरपक्खतो // 302 // यद्यहं हस्तकाद्यन्यता पापं समाचरिष्यामि लज्जनीयो भविष्यामि, लज्जितश्च कथं कुलस्य गणस्य सङ्घस्य आगमज्ञस्य वा तपस्विनो वा स्वपक्षस्य श्रावकादेः परपक्षस्य वा-परतीर्थिकादिरूपस्य मुखं दर्शयिष्यामि / अथवा--तत्पापमाचरन् कुलागमज्ञतपस्विस्वपक्षपरपक्षेभ्यो लजते / यथाऽहमेवमाचरन् कथमात्मीयं मुखं तेषां दर्शयिष्यामि एवं लज्जातः पापं न करोति। सम्प्रति भयद्वारभावनार्थमाहअसिलोगस्स वा वाया, जो ऽतिसंकति कम्मसं। तहा वि साहु तं जम्हा, जसो वण्णो य संजमो // 303 / / अश्लोकस्य वा-अवर्णस्य वा वादात्-प्रवादात् यः कर्मअशुभासेवनारूपमतिशयेन शक्यते-अपकीर्त्यपवादभयान्न कुरुते इत्यर्थस्तथापि तस्यतत् अशुभकामानाचरणं साधुयस्मात्तेन यशोऽभिकाशितम्, 'यशो वर्णः संयम इत्येकार्थम्।' 'जसो त्ति वा संजमो त्ति वा वण्णो त्ति वा एगट्ठ' मिति वचनात्। ततः परमार्थतः संयमोपेक्षित इति तदनाचरणं श्रेयः। सम्प्रतियशः संयम इत्येकार्थतया भगवदूचनमुपदर्शयतिजसं समुवजीवंति, जे नरा वित्तमत्तणो। अलेस्सा तत्थ सिझंति, सलेस्सा उ विभासिया // 340 / / ये नरा-मनुष्या वृत्तमात्मन इच्छन्ति ते यशः समुपजीवन्तिसंयममुपजीवन्ति, इत्येतद्व्याख्याप्रज्ञप्तौ राशियुग्मशते भणितम्।तथा च तद्ग्रन्थः-"मणुस्सा णं भंते किं आयजसं उवजीवंति'' आत्मसंयममित्यर्थः। "आयअजसं उवजीवंति'' आत्माऽसंयम-मित्यादि, एवं यशःसंयमा वेकार्थावुक्तौ। तत्र ये अलेश्याः-शैसे-शीप्रतिपन्नास्ते नियमात् सिध्यन्ति, सलेश्याः पुनर्विभाषिता--विकल्पिताः केचित्सिध्यन्ति केचिन्न सिध्यन्तीत्यर्थः। तत्रये भव्यास्ते सिध्यन्ति, तत्राहमशुभं कर्म समाचरन्नभव्यो भविष्यामीति भयतो नाशुभकर्म समासेवते। दाहिंति य गुरू दंड, जइ नाहिंति तत्ततो। तंच वोढुं न चाइस्सं, घायमादी य लोगतो // 30 // यदि परस्त्र्यादिकं सेविष्ये ततो यदि गुरवस्तत्त्वतो ज्ञास्यन्ति तदा दण्डं-प्रायश्चित्तमुग्रं दास्यन्ति, तथोग्रं प्रायश्चित्तं वोढुमहं न शक्ष्ये, नापि लोकतः-परयुवतिभादिलक्षणात् घातादिकं-घात-वधादिकं सोढुं शक्ष्ये, इति भयतो नासेवते अशुभं कर्म / गतं भयद्वारम्। अधुना गौरवद्वारमाहजोऽहं सइरकहासुंपि,चकामि, गुरुसन्निहो। सोऽहं कहमुपासिस्सं,तमणायारदूसितो॥३०६|| योऽहं स्वैरकथास्वपि गुरुसन्निधौ गौरवेण चकास्मि सोऽहमना--- चारदूषितस्तं गुरुं कथमुपासिस्ये, अनाचारदूषिततया तथारूपगौरवाऽसम्भवात्। लोए लोउत्तरे चेव, गुरवो मज्झ संमता। मा हु मज्झावराहेण, होज तेसिं लहुत्तया // 307 / / मम गुरवो लोके लोकोत्तरेऽपि च संमतास्ततो ममापराधेन मा तेषां लघुता भूयात्। तथामाणणिजो उसबस्स, न मे कोई न पूयए।
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________________ वसहि 1031- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि तणाण लहुतरो होऽहं, इति वजेति पावगं // 305|| अहं सर्वस्यापि माननीयः, न मां कश्चिन्न पूजयति, यदि पुनरधुना पापमाचरिष्यामि ततस्तृणेभ्योऽपि लघुतरो भविष्यामीति हेतोः पापंमैथुनासेवनादिकं वर्जयति। गतं गौरवद्वारम्। अधुना धर्मश्रद्धाद्वारमाहआयसक्खियमेवेहं, पावगं परिवञ्जए। अप्पेव दुट्ठसंकप्पं, रक्खा सा खलु धम्मतो // 306 यः पापकमात्मसाक्षिकमेव विवर्जयति स परमार्थतो धर्माधिकारीत्येवं मन्यमानस्य, अपिः-सम्भावनायाम्, दुष्टसंकल्पस्य रक्षा मूलत एवानुत्थानमुत्थितस्य विफलीकरणं वा सा खलु धर्मतो भवति। (व्य०) (धर्मश्रद्धाया महत्फलतोपदर्शनम्'धम्मसढा' शब्दे चतुर्थभागे 2733 पृष्ठे गतम् / ) तदेवमनभिनिर्वगडायां वसतौ वसतो लज्जादीनि संयमविराधनारक्षकाण्युक्तानि अभिनिर्वगडायां पुनर्वसतः शुभोऽशुभो वा मनःपरिणाम उपजायते। तथा चाहमणपरिणामो वीयी, सुभासुभो कंटएण दिटुंतो। खिप्प करणं जह लं-खियव्वं तहियं इमं होइ॥३११|| यथा गङ्गादीनां नदीनां वातेनानन्तरानन्तरमनेका वीचय उत्पद्यन्ते एवंजीवस्यान्योन्यमनःपरिणाम उपजायते, स च द्विधा-शुभः,अशुभश्च / अत्र दृष्टान्तः-कण्टकेन वृश्चिकलागूलेन। यथा वा-लटिकायाः क्षिप्रं करणं तथैवमिदं भवति। एवं जीवस्य शुभोऽशुभश्च परिणामः क्षणेनोपजायते क्षणेनैवापैति इत्यर्थः।। अथ कथं मनसोऽवस्थानमत आह-- परिणामाणऽवत्थाणं, सति मोहे उदेहिणं। तस्सेव उ अमावेणं,जायते एगभावया॥३१२।। मनःपरिणामानामनवस्थानं देहिना-प्राणिनां सति-विद्यमाने मोहे भवति, तस्यैव तु मोहस्याभावेन जायते एकभावता-मनःपरिणामस्य एकरूपता, तदेवं मनःपरिणामो वीचिरूपो व्याख्यातः। इदानीं शुभाशुभपरिणामप्रतिपादनार्थमाहजहाऽवविजए मोहो, सुद्धलेसस्स झाइणो। तहेव परिणामो वि, विसुद्धो परिवड्डए॥३१३॥ यथा शुद्धलेश्याकस्य ध्यायिनो-धर्मध्यायिनः शुक्लध्यायिना वा / मोहोऽपचीयते तथैव विशुद्धपरिणामो विवर्द्धते। उक्तः शुभपरिणामः। अशुभपरिणामप्रतिपादनार्थमाहजहा य कम्मिणो कम्म, मोहणिचं उदिजइ। तहेव संकिलिट्ठो से, परिणामो विवडति॥३१४|| यथा च कम्मिणः संक्लिष्टलेश्यास्थानवर्तिन आर्त्तध्यायिनो; रौद्रध्यायिनश्चैत्यर्थः, कर्म-मोहनीयं कषायनोकषायरूपमुदीयते, तथैव 'से' तस्य संक्लिष्टपरिणामो विवर्द्धते। सम्प्रति शुभाशुभपरिणामविवर्त्तनं दृष्टान्तेन भावयति जहा य अम्बुनाहम्मि, अणुबद्धपरंपरा। वीई उप्पज्जए एवं, परिणामो सुभोऽसुभो॥३१॥ यथा अम्बुनाथे-समुद्रे अनुबद्धपरम्परा वीचिरुत्पद्यते, एवं जीवस्य परिणामः शुभोऽशुभश्चानुबद्धपरम्पराक उपजायते। शुभाशुभपरिणामवैचित्र्यमेव दृष्टान्तेन बिभावयि पुःकण्टकदृष्टान्ते प्रागुपन्यस्तं भावयतिकण्हागामी जहा चित्ता, कण्टकं वावि चित्तियं / तहेव परिणामस्स, विचित्ता कालकण्डया॥३१६|| कृष्णागामी-कृष्णाशृगाला, यथा-सा कृष्णादिभी रेखा-भिश्चित्राविचित्रवर्णा भवति, वृश्चिकस्य- महाविषस्य लागूलः कण्टक उच्यते। यथा स कृष्णादिरेखाभिश्चित्रितो नानाप्रकारो भवति तथैव परिणामस्य विचित्राणि कालभेदेन कण्टकान्यसंख्ये-यस्थानात्मकानि भवन्ति। अथ कथं शुभादशुभे अशुभाता शुभे परिणामे याति, तत्र लटिकादृष्टान्तमाह-- लंखिया वा जहा खिप्पं, उप्पतित्ता समोयइ। परिणामो तहा दुविहो, खिप्पं एति अवेति य॥३१७॥ यथा वालविका क्षिप्रमुतप्लुत्य, क्षिप्रमेव समवपतति, तथा परिणामो द्विविधः--शुभोऽशुभश्च क्षिप्रमागच्छति अपैति च। एवं शुभादशुभे अशुभादा शुभे परिणामे गमनं कियन्ति संख्ययाऽध्यवसायस्थानानीति चेदत आह.. लेस्साठाणे उ एकक्के, ठाणासंखमतिथिया। किलिडेणेतरेणं वा, जे उ भावेण खुदती॥३१८|| एकैकस्मिन् लेश्यास्थाने संख्यामतिक्रान्तानि संख्यातीतानि स्थानानि-परिणामस्थानानि भवन्ति,यानि क्लिष्टनसंक्लिष्टन इतरेणविशुद्धेन भावेन खुन्दति-आस्कन्दति प्राप्नोतीत्यर्थः। अथ कः संक्लिष्टः, को वा इतरोभाव इति चेत्? उच्यते-इह कृष्णलेश्यापरिणामो विशुद्धस्तस्मान्नीललेश्यामपरिणामो विशुद्धस्तस्मादपि कापोतलेश्यापरिणामो विशुद्धस्तस्मादपि तेजोलेश्यापरिणामो विशुद्धः, तस्मादपि पद्मलेश्यामपरिणामो विशुद्धः, ततोऽपि शुक्ललेश्यामपरिणामः / तथा शुक्ललेश्यापरिणामः क्लिष्टः, तस्मादपि पद्मलेश्यापरिणामः क्लिष्टः, तस्मात्तेजोलेश्यापरिणामः क्लिष्टः, तस्मादपिकापोतलेश्यापरि-णामः, क्लिष्टः, ततोऽपिनीललश्यापरिणामस्तस्मादपिकृष्णलयापरिणामः। उक्त चं-क्रमशः स्थितासु लेश्यागतासु जीवस्य भावपरिणतिषु / अवपतनोत्पतनाद्वा, संक्लेशाद्वा विशोध्यादा। प्रत्येकैकस्मिन् लेश्यास्थाने परिणामसंख्यातीतत्वं भावयतिभवसंघयणंचेव, ठितिं वाऽऽसजदेहिणं। परिणामस्स जाणिमा, विवढी जस्स जत्तिया // 316 / / भव एव संहननं भवसंहननं दृढभवं देहभवं चाधिकृत्येत्यर्थः / तथा स्थितिं च जघन्यादिभेदभिन्नमाश्रित्य देहिनां नारकादीनां यस्य-परिणामस्य कृष्णलेश्यादिरूपस्य यावती वृद्धिस्त
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________________ वसहि 1032 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि स्य तावती जानीयात्। तथाहि-नारकाणां देवतानां जघन्यायां स्थिती कृष्णलेश्यापरिणामा नानाजीवापेक्षया तरतमभेदेन चिन्त्यमाना असंख्येयाः, एवं समयाधिकायामपि जघन्यस्थितौ, द्विसमयाधिकायामपि जघन्यस्थितावेवं तावद्वाच्यं यावदुत्कृष्टं स्थितिस्थानम् / एवं कृष्णलेश्यायां परिणामा असंख्येया भवन्ति। एवं नीललेश्यागतस्य विशुद्धस्य भावस्य फलमाहविसुज्झंतेण भावेण, मोहो समवचिज्जइ। मोहस्याऽवचए यावि, भावसुद्धी वियाहिया॥३२०|| विशुध्यता भावेन लेश्यागतेन मोहो-मोहनीयं कर्म समपचीयतेहानिमुपगच्छति / मोहस्यापचये चापि भावविशुद्धिर्जीवस्य परिणामविशुद्धिाख्याता-प्रतिपादिता यथा कालक्षेपमृते केवलश्रिया लाभो भवति। अथ मोहनीयं कर्म उदयप्राप्तं शुभपरिणामेन क्षपयितुं शक्यते किं वा न शक्यते इति ब्रूमः। तथा चाहउक्कढंतं जहा तोयं, सीयलेण उ छिलए। गदो वा अगदेणं तु, देरगणं तहोदओ॥३२१॥ यथा उत्कथ्यमानं तोयं शीतलेन तोयेन क्षीयते, गदोवा अगदेन, तथा मोहनीयस्योदयो वैराग्येण क्षीयते। तदेवमुक्तं प्रसक्तानुप्रसक्तम्। अधुना प्रकृते योजनमाहअसुभोदयनिष्फण्णा, संभवंति बहुविहा। दोसा एगाणियस्सेवं, इमे अन्ने वियाहिया // 322 // अशुभोदयेन-अशुभकर्मोदयेन निष्पन्ना अन्तरुपाश्रयस्याभिनिवगडायां वसतावेवमेकाकिनो बहुविधा दोषाः, तदेवमन्तरुपाश्रयस्याभिनिर्वगडायां दोषा उक्ताः / संप्रति बहिरुपाश्रयस्याभिनिर्वगडायां दोषानाह-इमे वक्ष्यमाणा अन्ये दोषा एकाकिनो व्याख्याताः-प्रतिपादिताः। तानेव द्वारगाथया संजिघृक्षुराहमिच्छत्तसोहिसागा-रियादिगेलण्णखद्धपडिणीए। बहिपेल्लणित्थिवाले, रोगे तह सल्लमरणे य॥३२३।। एकाकिनो मिथ्यात्वगमनम्, तथा शोधेरभावः, तथा सागारिक-प्रवेशो वसतौ आदिशब्दाच-चलत् कुड्यां वसतौ कुड्यादि-पतनत आत्मविराधनेति परिग्रहः,तथा ग्लानत्वे प्रतिजागरणाभावः, तथा एकाकिनो मन्दाग्नेर्निवारकाभावात् प्रचुरभक्षणसम्भवस्तथा च ग्लानत्वादिभावः, तथा एकाकी प्रत्यनीकस्य गम्यो भवति, तथा उद्भ्रामका दण्डपाशादयो मरणमित्येष द्वारगार्था-संक्षेपार्थः। साम्प्रतमेनामेव विवरीषुः प्रथमतो मिथ्यात्वद्वारं शोधिद्वारं चाऽऽहओगाढस्स सहायं तु, पण्णवेति कुतित्थिया। समावण्णो विसोहिं च, कस्स पासे करिस्सइ॥३२॥ ओगाढमप्यसहायं कुतीर्थिकाः प्रज्ञापयन्त्यतो मिथ्यात्वगमनम्, तथा समापन्नः प्रायश्चित्तं कस्य पार्श्वे शोधिं करिष्यति नैव कस्यचित्पावें ततः शोध्यभावः। सम्प्रति सागारिकद्वारं ग्लानद्वारं चाहमया आमोसगादीणं, सेजं वयति सारियं / असहायस्स गेलण्णे, को से किचं करिस्सइ / / 325|| आमोषकादीनां भयात्तस्मिन्नेकाकिनि सति शून्यां शय्यां वसतिं दृष्ट्वा तां सागारिको व्रजति, द्वारगाथायामादिशब्दस्य व्याख्यानं तत्रैव कृतम्। तथा असहायस्य 'से' तस्यग्लानत्वे सति कः कृत्यं करिष्यति। खद्धाप्रत्यनीकप्रेरणद्वाराण्याहमंदग्गी मुंजए खद्धं,ऊसढं ति निरंकुसो। एगो पदुद्वगम्मो य, पेल्ले उन्मामया वणं // 326|| एकाकी निवारकाभावाद् निरङ्कुशः 'ऊसद' ति उत्कृष्टमिति कृत्वा मन्दाग्निः प्रचुरं भुङ्क्ते / ततो ग्लानत्वादिदोषसम्भवः, तथा एकःअसहायः प्रदुष्टस्य-प्रत्यनीकस्य गम्यो भवति।तथा उद्यामका नगरादिरक्षका एकाकिनममुं चौरादिरिति कृत्वा नगरादेर्बहिः प्रेरयेयुः। . अधुना स्त्रीद्वारमाहवभिचारिम्मि परिणते, निंति दळूण समणवसहीतो। पंतावणादगारो, उड्डाहो पतुसएमादी॥३२७॥ या व्यभिचारी नाम जारस्तस्मिन् परिणते सा स्त्रा केनापि कारणेन संयतवसतिंगता भवेत्।ततः श्रमणवसतेस्तां निर्गच्छन्तीं दृष्ट्वा अगार:तस्या भर्ता अन्यो वा निजको वाऽनिजको वा तस्यामाशक्तःप्रता (प्रान्ता)पनादि-मारणादि कुर्यात् / तथा च सति प्रवचनस्य उड्डाहः। प्रतापनाद्यभावे तस्यदर्शनस्य वा सकलस्योपरि प्रदेष उपजायते, तथा चसति तस्यान्यस्य वा भक्तपानादिव्यवच्छेद इत्यादयो दोषाः। सम्प्रति व्यालद्वारं रोगद्वारं चाहबालेण वा वि दहस्स, से को कुणइ मेसजं। दीहरोगे विवद्धिं व, गतो किं सो करिस्सइ // 328|| व्यालने सप्पादिना दष्टस्य 'से' तस्यको भेषजं करोति नैव कश्चिदेकाकित्वात्, तथा दीर्घरोगे कृत्याऽकरणतो विवृद्धिं गतः स पश्चात्किं करिष्यति नैव किंचित्केवलं मरिष्यतीत्यर्थः / शल्यमरणद्वारमाहसल्लुद्धरणविसोही, मए य दोसा बहुस्सुएवाऽवि। गृहिणा बलीवर्दाभ्यां मल्लेन, राजकुलेन वा निष्काश्यते। तथा वा लोकनिन्दाप्रवृत्ते प्रवचनव्याघातः। 'सविसेसा अप्पसुए' इति अल्पश्रुते एकाकिनि सविशेषादोषाः। तथाहि-बहुश्रुत आलोचना भावे सिद्धानामन्तिकेआलेचयति, अल्पश्रुतस्त्वमुं विधिंन जानातीति सशल्य एव म्रियते। यदि पुना साम्प्रतमनामवावराषुः प्रथमतामथ्यात्वद्वार शोधिद्वारं चाऽऽहओगाढस्स सहायं तु, पण्णवेति कुतित्थिया। न्दाप्रवृत्ते प्रवचनव्याधातः। 'सविसेसा अप्पसुए' इति अल्पश्रुते एकाकिनि सविशेषादोषाः। तथाहि बहुश्रुत आलोचना भावेसिद्धानामन्तिके आलेवयति, अल्पश्रुतस्त्वमुं विधिंनजानातीति सशल्य एव म्रियते। यदिपुना
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________________ वसहि 1033 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि वपि बहुश्रुता(ऽल्पश्रुता)वभिनिर्वगडायां वसतौ परस्परं सम्भूय वसत- स्तदा द्वावपि तौ परस्परं रक्षयतः। अधुना 'सविसेसा अप्पसुए' इत्येतद् व्याख्यानयति-- अप्पेव जिणसिद्धेसु, आलोएंतो बहुस्सुतो। अगीतो तमजाणतो, ससल्लो जाति दुग्गतिं / / 330 // अप्येवमेवमपि एकाक्यपीत्यर्थः / बहुश्रुतो जिनेषु अर्हत्सु सिद्धेषु मनसि संप्रधारितेषु तेषां पुरत आलोचयिष्यति, अगीतोऽबहुश्रुतः पुनस्तं विधिमजानन् सशल्यो मृत्वा याति दुर्गतिमतः सविशेषोऽल्पश्रुते। सम्प्रति 'रक्खन्ति परोप्परं दोऽवि' त्ति व्याख्यानार्थमाहसीहो रक्खइ तिणिसे, तिणिसेहि व रक्खितो तहा सीहो। एवण्णमण्णसहिया, बिइयमद्धाणमादीसुं॥३३१।। सिंहो रक्षति तिनिशान्, तिनिशवृक्षगुहां तिनिशैरपैति, ति निशवृक्षगुहयाऽपि सिंहो रक्ष्यते, एवमभिनिर्वगडायां वसतौ वसन्तावन्योन्यसहितौ परस्परं रक्षयतः / अत्रैवापवादमाह-द्वितीयपदम्-अपवादपदमध्वानं प्रतिपन्नकारणेनैकाकी अन्य-सम्भोगिकादीनां पार्श्वस्थादीनां वा वसतेर्विष्वक् अपवरके निवेशनादिषु वा वसेत् / आदिशब्दादशिवादिगृहीतो वा विष्वक् तिष्ठेत्। से गामंसि वा० जाव संनिवेसंसि वा एगवगडाए एगदुवाराए एगनिक्खमणपवेसाए कप्पति बहुस्सुयस्स बन्भागमस्स एगाणियस्स भिक्खुस्स वत्थए उमओ कालं भिक्खुभावं पडिजागरमाणस्स ||7|| 'से गामंसि वा जाव रायहाणिंसि वा' इत्यादि अस्य सूत्रस्य सम्बन्धप्रतिपादनार्थमाहकारणतो वसमाणो, गीतोऽगीओ व होति निहोसो। पुव्वं च वणिया खलु, कारणवासिस्स जयणाउ॥३३२॥ कारणतो गीतार्थोऽगीतार्थो वा यतनया वसन् निर्दोषो भवति / सा च यतना कारणत एकाकिनो वसनशीलस्य पूर्वमुक्ता / एतदर्थख्यापनार्थमिदं सूत्रम्। अधुना सूत्रत एव सम्बन्धमाहसुत्तेणेद उसुत्तं, जोइज्जइ कारणं तु आसज्ज। संबंधधराव्वरए, कप्पइ वसिउंबहुसुयस्स॥३३३।। सूत्रेणैव सूत्रं योज्यते-सम्बध्यते, तद्यथा-अनन्तरसूत्रेणै काकिनो बहुश्रुतस्य वासो निषिद्धोऽनेन तु सूत्रेणेदं प्रतिपाद्यते-कारणमाश्रित्याध्वप्रतिपत्त्यादिकं सम्बन्धगृहोदरके बहुश्रुतस्य वस्तुं कल्पते, इत्येष सूत्रसम्बन्धः। अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य (7) व्याख्या-अथ ग्रामे वा नगरे वा यावद् राजधान्यामेकवगडायामेकपरिक्षेपायामेकद्वारायामेकनिष्क्रमणप्रवेशायां वसतौ बहुश्रुतस्य बढागमस्य भिक्षोर्वस्तुं कल्पते, केवलमुभयकालं भिक्षुभावं प्रति-जाग्रतोभिक्षुभावश्चारित्रं तस्याऽविराधनार्थ या समाचारी तां कुर्वत इत्येष सूत्रसंक्षेपार्थः। अधुना भाष्यनियुक्तिविस्तरस्तत्र भिक्षुभावम् 'पडिजा गरमाणस्से' ति व्याख्यानार्थमाह भाष्यकृत् चरणं तु भिक्खुभावो, सामायारीऍ जा तदहाए। पडिजागरणं तम्हा, उभओ कालं अहोरत्तं / / 334 / / भिक्षोर्यथावस्थितस्य भावो भिक्षुभावः-चरणं तदर्थं तस्य चारित्रस्याविराधनार्थ या सामाचारी तस्याः प्रतिजागरणंनाम करणम्, उभयकालमहि रात्रौ च आचार्योऽपि तस्यैवं भिक्षुभावं प्रतिजाग्रतो गोसे रात्रिक पृच्छति / दिवसेऽपि भक्तपानादिचिन्तां करोति,विकाले च दैवसिकं पृच्छति, सुखेन वृत्तस्तव दिवस इति, एवमुभयकालमाचार्यस्तं प्रतिजागर्ति। सम्प्रति नियुक्तिविस्तरःवक्खारे कारणम्मि, निकारणे पुव्ववणिया दोसा। किं पुण हुजा कारण, तहोसाई मुणेयव्वा // 33 // वक्षारो नाम एकस्यां बलभ्यामभिनिर्वगडो विष्वक् अपवरकस्तस्मिन् कारणे सति वसति, एतद्विषयमिदं सूत्रम्। यदि पुनः कारणमृते विष्वगपवरके वसति तदापूर्ववर्णिता मिथ्यात्वादयो दोषाः / किं पुनर्भवेत्तत्कारणं यद्वशात् पृथक् अपवरके तिष्ठति, तत आह त्वग्दोषादीनित्वग्दोषक्षयव्याध्यादीनि कारणानि ज्ञातव्यानि। तथाहि-त्वग्दोषादिकमाचार्यो यदि निष्काशयति तदा तस्य प्राययश्चित्तं चतुर्गुरुकम्, तस्मान्नस नियूहयितव्यः किंतु-पृथगपवरके स्थितः परिपालनीयः। सचत्वग्दोषोद्वाभ्यां प्रकारा-भ्यां भवति। (व्य०) (एतद्विषया गाथा 'तदोस' शब्दे चतुर्थभागे 218 पृष्ठे गता) तद् व्याख्या चेयम्-द्विविधस्त्वग्दोषस्तद्यथास्यन्दमानः, अस्यन्दमानश्च / तत्रास्यन्दनः-अस्रावणश्चित्रप्रसुप्तिमण्डलप्रसुतिश्च। यस्तुस्यन्दमानःसकृमीन प्रस्यन्दते, पूतंवा रसिकांवा। तत्र स्यन्दमाने त्वग्दोषे इयं वक्ष्यमाणा यतना। तामेवाहसंदंते वक्खारो, अंतो बाहिं च सारणा तिण्णि। जत्थ विसीदेज ततो, णाणादी उग्गमादी वा // 337 // स्यन्दमाने त्वग्दोषेऽन्तरस्यां वलभ्यां विष्वगपवरके, तस्याभावे एकस्मिन्निवेशने अन्यस्यां वसतौ स्थाप्यते / तत्र च वसतस्तिस्रः सारणा:-साराः कर्तव्याः / यत्र सको विसीदेत् / कास्तास्तिस्रः सारा इत्याह-ज्ञानादौ-ज्ञाने, दर्शने, चारित्रे च / अथवा-उद्मादौ-उद्रमे उत्पादनायामेषणायां वा। अथवा अन्यथा तिस्रः सारास्ता एवाहअहवा भत्ते पाणे, सामायारीऐं वा विसीयंतं। एएसुतिसु सारे, तिनि वि काले गुरू पुच्छे // 338|| अथवेति प्रकारान्तरे भक्ते पाने सामाचार्यां च, एतेषु त्रिषु स्थानेषु सीदन्तं सारयत्याचार्यः / यदिवा-तिस्रः सारा नाम त्रीनपि कालान् गुरुः पृच्छति। कथमित्याहगोसे केरिसयन्ति य, कयमकयं वाऽवि किं ति आवासं। मिक्खं लद्धमलद्धं, किं देअउ वातें मज्झण्हे // 339 / / पेहियमपेहियं वा, वट्टइ ते केरिसं व अवरण्हे। निज्जूहणम्मि गुरुगा, अविही परियट्टणे वाऽवि॥३०॥
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________________ वसहि 1034 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि गोसे-प्रातः इदं पृच्छति कीदृशंतेशरीरमिति, तथा त्वया किमावश्यक कृतमकृतं वा / तथा मध्याह्न पृच्छति-भैक्षं त्वया लब्धमलब्धं वा तव दीयतामिति। तथा अपराह्ने पृच्छति-किं तवोपकरणं केनापि त्वया वा प्रेक्षितं किं वा न प्रेक्षितं कीदृशं वा ते शरीरमिति / यदि पुनरेवं सारांन करोति किं त्वेवमेव परित्यजति, तदा गुरोः प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः। अनि!हणेऽपि यद्यविधिना परिवर्तन-परिपालनं कारयति तदाऽपि चतुर्गुरुकं प्रायश्चित्तम्। आणादिणो य दोसा, विराहणा हो इमेहि ठाणेहिं। पासवणफासलाला, सेए मरुएण दिढतो // 341 / / न केवलं प्रायश्चित्तं किं त्वाज्ञादयो दोषाः, तथा एभिर्वक्ष्यमाणैः स्थानैर्विराधना साधूनामात्मविराधना भवति / कैः स्थानैरित्याहप्रश्रवणेन तस्यस्यन्देनलालयास्वेदेन-प्रस्वेदेन, तथाहि-स्यन्दमानत्वग्दोषवतः प्रश्रवणस्पर्शनेनापि व्याधिरन्यत्र संक्रामति। तथा गात्रस्पर्शनेन, यदिवा-तेन व्याधितेन ये परि-भुक्ताः पीठफलकादयस्तान् यद्यव्याधिनःपरिभुञ्जते तदा व्याधिः संक्रामति, तथा लालया सह भोजने व्याधिः संक्रामति तस्य प्रस्वेदेन यदि कोऽपि स्पृश्यते तदा तस्यापिव्याधिः सञ्चरति। अत्र दृष्टान्तोमरुकेण सेडुकब्राह्मणेन तत्कथानकं चावश्यके प्रबन्धतः कथितमिति। ततोऽवधार्यम्। साम्प्रतमेतदेव पश्चार्ट्स व्याचिख्यासुः प्रथमतः प्रश्रवणे यतनामाहपासवणअन्न असती, भूतीए लक्खमा हु दूसियं मोयं / चलणतलेसु कमेजा, एमेव य निक्खमपवेसो // 342 / / तस्य–स्यन्दमानत्वग्दोषवतःपृथक् कायकीभूमिः कर्त्तव्या, अन्यस्या विष्वक् प्रश्रवणभूमेरसति-अभावे एकस्या एव कायिक्या भूमेस्तस्य योग्यं पृथक् अवकाशं भूत्यालक्षयति वृषभः।यथासाधवस्तंपरिहरन्ति। तथा चाह-मा कोऽपि त्वग्दोषव्याधितस्य दूषितं मोकंप्रश्रवणं पादैराक्रमेत् / आक्रमणे को दोष इत्यत आह / आक्रान्ते तस्य प्रश्रवणे चरणतलेषु-पादतलेषु त्वग्दोषव्याधिः संक्रामति, तथा तस्यत्वग्दोषव्याधितस्य येनावकाशेन निष्क्रमणं प्रवेशो वा तमवकाशं भूत्या लक्षयति, येन साधवस्तमपि परिहरन्ति / अपरिहरणे अनन्तरोदित एव दोषः। निती द सो काउ तली कमेसुं, संथारतो दूरे असंदणेऽवी। मा फासदोसेण कमेन तेसिं, तथिकवत्थादिपरीहरंति॥३५३।। स स्यन्दमानत्वग्दोषी क्रमयोः पादयोस्तलिके-उपानही कृत्वा निर्गच्छति प्रविशतिया। योऽप्यस्यन्दमानत्वग्दोषी तस्यापि कायिकीभूमिर्विष्वक् क्रियतेनपुनः पृथग्भूमिर्निर्गमप्रवेशस्थानम्। सम्प्रतिस्यन्दमानस्यास्यन्दमानस्य चस्पर्शविषयां साधारणां यतनामाह-अस्यन्दनेऽपित्वग्दोषे आस्तां स्यन्दमाने इत्यपि शब्दार्थः। संस्तरको दूरे क्रियते, मा स्पर्शदोषेण तेषां शेषसाधूनांच्याधिः संकमेदिति हेतोः, तथा न केवलं दूरे संस्तारकः क्रियत; किंतु-तेन त्वग्दोषवता यत्स्पृष्ट वस्त्रादितत्परि हरन्ति पूर्वोक्तादेव दोषात्। तदेवं प्रश्रवणयतना स्पर्शयतना च सप्रपचोक्ता। सम्प्रति लालास्वेदयतनामाहन य भुंजते गद्धा, लालादोसेण संकमति वाही। सेदो से वञ्जिज्जइ, जल्लपडलंतरप्पो य॥३४॥ नचएकार्थे--एकस्मिन्पात्रे तेन त्वग्दोषवता सह साधयो भुञ्जते, कुत इत्याह-यतो लालादोषेण संक्रामति व्याधिः। तथा 'से' तस्यत्वग्दोषवतः स्वेदः-प्रस्वेदो वय॑ते, तथा जल्लः शरीरमलस्तथा तत्सत्कानि पात्रपटलानि, तथा आन्तरकल्पश्च परि-िहयते व्याधिसंक्रमभयात्। तथा चाहएएहि कमइ वाही, एत्थं खलु सेडुएण दिटुंतो। कुट्ठखयकच्छुयसिवं, नयणामयकामलादीया॥३४॥ एतैर्जल्लादिभिर्व्याधिः-त्वग्दोषव्याधिः संक्रामति। अत्र दृष्टान्तः खलु सेडुकेन, तत एतानि परिन्हियन्ते। किं नाम त्वग्दोष एव उतान्यस्मिन्नपि रोगे, तत आह-कुष्ठेषु क्षयव्याधौ कच्छ्वाम्--पामायाम् अशिवे-शीतलिकायां नयनामये-नयनरागे; काम-लादौ-एषा अनन्तरोदिता प्रश्रवणादिविषया यतना द्रष्टव्या। एसों जयणा बहुस्सुय, अबहुस्सुय न कीरते तु वक्खारो। ठाति एगया से, अपरीभोगम्मि उजतीणं // 346 // एषा--अनन्तरोदिता यतनाबहुश्रुतेद्रष्टव्या, अबहुश्रुतेऽप्येवम्, नवरंस संबद्भगृहापवरके स्थाप्यते, भिन्नस्तु वक्षारः--अपवरको न क्रियते, सम्बद्धगृहापवरकाभावे वसतेरेकस्मिन् यतीनामपरिभोग्येतंस्थापयन्ति, अपान्तराले कटो दीयते, कटाभावे भूत्या अन्तरं क्रियते। अथ किं कारणमबहुश्रुतो बहिर्न क्रियते, तत आहविवजितो उज्झविवज्जएहिं, मा बाहि भावं, अबहुस्सुतो उ। कट्ठाए भूती व तिरो करेंति, मा एक्कमेकं सहसा फुसेजा // 347|| उज्झविवर्जकैरहं विवर्जितः-परिहृत इत्येवमबहुश्रुतो मा बहिर्भावमुपयासीदिति भिन्ने अपवरके न स्थाप्यते, किंतुवसतेरेकस्मिन् प्रदेशे, तत्रापि काष्ठादिना फलकादिरूपेण, तदभावात् भूत्या वा अन्तरं कुर्वन्ति / मा एकैकेन त्वग्दोषेण साधवः सहसा स्पृशेयुः / अस्यन्दमानत्वग्दोषे विधिविशेषमाह-- अगलंते न वक्खारो, लालासेयादि वजण तहेव। उस्सासमाससयणा-सणादिहिं होंति संकंतं // 358|| अगलति-अस्यन्दमाने त्वग्दोषे पृथग वक्षारः-अपवरको नलालास्वेदादीनामादिशब्दादुच्छासभाषाशयनासनादिपरिग्रहः, वर्जनं तथैव यथा प्रागभिहितं गलति त्वग्दोषे / तस्मादुच्छासादीनां वजनमत आहे-- उच्छासभाषाशयनासनादिभिरादिशब्दात्-पीठ-फलकादिपरिग्रहः संक्रान्तिाधर्भवति।
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________________ वसहि 1035 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि अगलंतमत्तसेवी, असतीए कप्पे काउ भुजंति। एसा जयणा उ भवे, सवेसिंतेसि नायव्वा / / 355|| यदि कायिकीभूमिर्न विद्यते, बहिश्च सागारिकस्तथा शेषसाधूनामरोगाणां मात्रकमगलन्-अस्यन्दमानत्वग्दोषवान्सेवेत / किमुक्तं भवति-कायिकी तस्मिन्मात्रे व्युत्सृजति, ततः कृते कल्पेऽरोगास्तस्मिन् व्युत्सृजन्ति। यदि पुनरकृते कल्पे व्युत्सृजन्ति तदा प्रायश्चित्तं चतुर्गुरुकम्। एषा यतना सर्वेषां गलत्त्वदोषिणामन्येषां च क्षयव्याध्याद्युपेतानाज्ञातव्या। व्य०६उ०। (उदकतीरेवस्तुंन कल्पते इति'दगतीर' शब्दे चतुर्थभागे 2442 पृष्ठे व्याख्यातम्) . (24) शीतोदकशय्यामनुप्रविशतिजे भिक्ख सीओदगसेचं अणुपविसइ अणुपविसंतं वा साइजह // 2 // सह उदयेण सउदया, उपेत्य गच्छति उपागच्छति। साइजणी दुविधाअणुमोयणा, कारावणा य तिसु वि। मुत्तूण जलपडलं, धरति भाणं से काइयाइगते। सीए व दाउकप्पं, उवरिमधो तं परिहरंति ||346 / / यदि स त्वग्दोषव्याध्युपेतः कायिक्या व्युत्सर्गाय व्रजति, भाजनं च तस्य धारयितव्यं भवति तदा 'से' तस्य कायिक्यागतस्य मुक्त्वा स्फेटयित्वा जल्लपटलं भाजनमलखरण्टितं पटलमन्ये साधवो धरन्ति यावत्स आयाति। अथ सत्वग्दोषीग्लानः शीते पतति नाऽऽत्मीयैर्वस्त्रैः कम्बलेन च संस्तरति, तदा तस्य कल्पं वस्त्रं प्रावरणाय दीयते। सोऽपि च त्वग्दोषी आत्मीयानां वस्त्रकल्पानामुपरि प्रावृणोति, तच्च समर्पित वस्त्रमधौतं परिहरन्ति / यदा तु तद्वस्त्रमात्मना प्रावरीतुकामास्तदा प्रक्षाल्य प्रावृण्वन्ति। असहुस्सुव्वत्तणादीणि, कुव्वतो छिकु जत्तियं / खेयमकुव्वंत धोइजा, मट्टियादीहि तत्तियं / / 350 // असहस्य-त्वक् दोषव्याधितस्यागाढं ग्लानीभूतस्योद्वर्त्तनादि-- 'उद्वर्तनमुपविष्टीकरणमि' त्यादि कुर्वतो यावत्स्पृष्टं त्वग्दोषगात्रादिना तावत् खेदमकुर्वन् मृत्तिकादिभिरुघृष्य प्रक्षालयेत्। असती मोयमहीए, कयकप्पऽगलंत मत्तए निसिरे। तेणेव य कयकप्पे, इतरे निसिरंति जयणाए // 351|| मोकमह्याः-प्रश्रवणभूमेरभावे अगलत्यस्राविणि कृतकल्पे मात्रके व्युत्सृजतिप्रश्रवणम्, अन्ये साधवोऽन्यस्मिन्मात्रके। पृथग्-मात्रकाभावे तेनैवयत्रत्वग्दोषी व्युत्सृष्टवान्तत्रैव कृतकल्पेमात्रकेइतरे साधवोयतनया यथा कायिक्या मात्रस्य च शरीरावयवस्पर्शो न भवति तथा कायिकी निसृजन्ति। एसा जयणा उ तहिं, कालगते पुण इमो विही होई। अंतरकप्पं जल्लप-डलं च अगलंति उज्झंति // 352 / / एषा-अनन्तरोदिता यतना तत्रगलत्यगलति वा त्वग्दोषवति कालगते पुनस्त्वग्दोषवति विधिरयं वक्ष्यमाणो भवति तत्र प्रथम तोऽगलत्याहआन्तरं कल्पं भाजनस्य जल्लपटलमुपरितनवस्वमेते द्वे अपि वस्खे उज्झन्ति-परिष्ठापयन्ति। किं कारणमत आहधोया विन निहोसा, तेण छति ते दुवे। सेसगं तु कए कप्पे, सव्वं से परिभुजइ॥३५३|| प्रक्षालिते अपि ते वस्त्रे न निर्दोषे तेन छड्येते-परिष्ठाप्येते शेषकं तु सर्वमपि 'से' तस्य कृते कल्पे परिभुज्यते दोषाभावात्। गलति त्वग्दोषे विधिमाहसंदंतस्स वि किंचण, असतीए मोत्तुभायणुकोसं / लेवट्टगमवणित्ता, अण्णमयं धोविउं लिंपे // 354|| स्यन्दमानस्यापि-स्यन्दमानत्वग्दोषवतो यत्किञ्चनास्ति तत्सर्व परिष्ठाप्यते, केवलं यदि भाजनं नास्ति सति वा भाजने यदि तद्-भाजनं सलक्षणं तदा तदेकभाजनमुत्कृष्ट मुक्त्वा शेषं परिष्ठाप्यते। तत्रापि लेपमट्टकं चापनीय उष्णोदकादिभिः प्रक्षाल्यान्यमयमिव कृत्वा पुनः लिम्पेत्, ततः परिभुञ्जीत। अह सउदगा उ सेञ्जा, जत्थुदगं जाय दगसमीवम्मि। एयासिं पत्तेयं, दोण्हं पिपरूवणं वोच्छं // 12 // अथेत्ययं निपातः सागारिकस्यानन्तरभेदप्रर्शने, निपतति जत्थ गदं ति पाणियधरे प्रवादिजाए वा सेजाए दगसमीवे सा चिट्ठइ तओ तत्थ जत्थ उदगंतं ताव परूवेमि। जत्थणाणाविहा उदया अच्छति अमी। गाहासीतोदे उसिणोदे, फासुगमफासुगे य चउमङ्गा। सीतोदगंफासुयं, सीतोदगं अफासुयं, उसिणोदगं फासुयं, उसिणोदगं अफासुयं। पढमभंगे उसिणोदगं सीतीभूतं चउलोदगाति वा। बितियभंगे सच्चित्तोदगं चेव, ततियभंगे उसिणोदगं, उव्वत्तं भंडं चउत्थभंगे ता वा उदगाणि पढमततियभंगे ठायंतस्स मासलहुं, बितियचउत्थेसुचउलहुँ। एयं कस्स पच्छित्तं / आयरिओ भणइ-एयं अगीयस्स पच्छित्तं / फासुगस्स इमं वक्खाणं / गाहासीतितरफासु चउहा, दव्वे संघहमीसग खेत्ते। कालतो पोरिसिपरा, तवणादी परिणतं भावे॥१३१।। जं सीतोदगं फासुयं इयरं तिजं उण्होदगंफासुयंतं चउव्विहं-दव्वओ खेत्तओकालओ भावओयादव्वओजंगोरससंसट्टे भायणे छूढं सीतोदगं तं, तेण गोरससंसडेण परिणामियं दव्वतो फासुयं / खेत्तओ जं कूवतलागाइसु ठियं मधुरं लवणेण मीसिज्जति, लवणेणं वा मधुरेण वा। कालतो जं इंधणे छूढे पहरमेत्तेण फासुयं भवति। भावओ जं वण्णं रसं गंध फरिसविप्परिणयं / भावतो जं फासुयं वुत्तं तत्थ जो अगीयत्थो भिक्खू ठाति तस्स एवं पच्छित्तं / निचू०१६ उ०। सचित्तकर्मणि उपाश्रये नवसेत्नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंधीण वा सचित्तकम्मे उवस्सए वत्थए।२०।। कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अचित्तकम्मे उवस्सए वत्थए।॥२१॥
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________________ वसहि 1036 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि अस्य सूत्रस्य संबन्धमाहपढमचउत्थवयाणं, अतिचारो होज दगसमीवम्मि। इह विय हुन्ज चउत्थे, सचित्तकम्मे स संबंधो // 26 // प्रथमचतुर्थव्रतयोरप्कायपानस्त्रीपशुसंसर्गादिभिरतिचारो दकसमीपे तिष्ठतां भवेदिति कृत्वा तत्र न तिष्ठतीत्युक्तम् / इहापि च सचित्रकर्मणि प्रतिश्रये तिष्ठतां चतुर्थव्रतस्यातिचारो भवेदिति कृत्वा तत्र न तिष्ठतीत्यनेने प्रतिपाद्यते एष संबन्धः। प्रकारान्तरेण तमेवाहनो कप्पइ जागरिया, चिट्ठणमाईपया य दगतीरे। चित्तगयमाणसाणं,जागरिकाया कुतो अहवा / / 29|| नो कल्पते जागरिका-धर्मध्यानं स्थानं-स्थाननिषीदनादीनि दकतीरे कर्तुमित्युक्तम्, इह तु चित्रगतमानसानां कुतो जागरिका-स्वाध्यायौ संभवत इत्ययम्, अथवा-द्वितीयसंबन्धः। अनेन संबन्धद्वयेनायातस्यास्य व्याख्या-नो कल्पते निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां वा सचित्रकर्मणिचित्रकर्मणा संयुक्ते उपाश्रये वस्तुम्, कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा अचित्रकर्मणि उपाश्रये वस्तुमिति सूत्रार्थः।।२०-२१॥ अथ भाष्यविस्तरमाहनिद्दोससदोसे वा, सचित्तकम्मे उदोस आणादी। सइकरणं विकहा वा, बिइयं असतीऍ वसहीए।।२६४|| निर्दोषे वा सदोषे वा सचित्रकर्मणि प्रतिश्रये तिष्ठतामाज्ञादयो दोषाः, यत्र तादृशे वा चित्रकर्मखचिते वेश्मनि पूर्वभोगान् बुभुजिरे, तेषां स्मृतिकरणमुपलक्षणत्वादितरेषां कौतुकमुपजायते / विकथा वा तत्र वक्ष्यमाणलक्षणाभवेत्। द्वितीयपदं चान्यवसतावसत्यां तत्रापि वसेत्। अथैनामेव नियुक्तिगाथां व्याख्याति-- तरुगिरिनदीसमुद्दो, भवणा वल्ली लया विताणाय। निघोसचित्तकम्म, पुण्णकलससोत्थियादीय॥२६|| तरवः--सहकारादयो गिरयो-हिमवदादयो नद्यो-गङ्गासिन्धु-प्रभृतयः समुद्रो-लवणोदादिकः भवनानि-गृहाणि वल्लयो नाग-वल्ल्यादयः लता-माधवीचम्पकलतादयः तासां वितान-निकुरम्बं तथा पूर्णकलशस्वस्तिकादयश्च ये माङ्गलिकाः पदार्थाः, एतेषां रूपाणि यत्रालिखितानि तचित्रकर्म निर्दोषं ज्ञातव्यम्। अथसदोषमाहतिरियमणुयदेवीणं, जत्थ य देहा भवंति भित्तिकया। सविकार निव्विकारा, सदोसचित्तं हवइ एयं // 266|| तिर्यगमनुजदेवीनामिति तिरश्चीनां मानुषीणां देवीनां चेत्यर्थः, एतासां देहाः सविकारा वा यत्र भित्तौ कृता-आलिखिता भवन्ति एतचित्रकर्म सदोष भवति। अथात्रैव तिष्ठतां प्रायश्चित्तमाहलहुगुरु चउण्ह मासो, विसेसितो गुरुगों आदि छलहुगो। चउलहुगादी छम्गुरु, उभयस्स वि दुविहचित्तम्मि॥२७॥ निर्दोषे चित्रकर्मणि तिष्ठतां चतुर्णामपि तपःकालविशेषितोलघुमासः। तद्यथा-आचार्यस्य द्वाभ्यामपि तपः कालाभ्यां गुरुकः। उपाध्यायस्य तपोगुरुकः काललघुकः, वृषभस्य कालगुरुकः तपोलघुकः, क्षिभोर्दाभ्यामपिलधुकः। निर्ग्रन्थीनामपि निर्दोषे चित्रकर्मणि तिष्ठन्तीनां प्रवर्तिनीगणावच्छेदिन्यभिषेकाभिक्षुणीनामेवं तपःकालविशेषितो गुरुको मासः। निग्रन्थाःसदोषे चित्रकर्मणि यदि तिष्ठन्ति तदा गुरुको मासः आदौ क्रियते, षड् लघुकश्च पर्यन्ते। तद्यथा-भिक्षोसिगुरुकम्, वृषभस्य चतुर्लघुकम्, उपाध्यायस्य चतुर्गुरुकम्, आचार्यस्य षड्लघुकम्। निर्ग्रन्थीनां तु सदोषे चित्रकर्मणि तिष्ठन्तीनां चतुर्लघुकमादौ कृत्वा षड्गुरुकान्तं प्रायश्चित्तम्। तद्यथा-भिक्षुण्याश्चतुर्लघुकम्, अभिषेकायाश्चतुर्गुरुकम्, गणा वच्छेदिन्याः षड्लघुकम्, प्रवर्तिन्याः षड्गुरुकम् / एवमुभयस्यापिनिर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थीवर्गस्य द्विविधे चित्रकर्मणि प्रायश्चित्तं ज्ञातव्यम्। अथ विकथापदं व्याख्यानयतिदिटुं अन्नत्थ मए, चित्तं तं सोभणं न एयं ति। इति विकहापलिमंथो, सज्झायादीण कलहोय // 298|| तत्र चित्रकर्म दृष्ट्वा कश्चित्साधुइँयात्-मया पूर्वमन्यत्र चित्रकं दृष्टं तच शोभनं वर्णकरेखादिशुद्ध्या रमणीयम्, न पुनरेतत् प्रत्यक्षोपलभ्यमानम्। तदाकर्ण्यद्वितीयस्साधु—यात्-मुग्धबुद्धे ! किं जानीते इत्थम्इदमेव रमणीयम् इत्येवम् विकथा संजायत / ततश्च स्वाध्यायादीनां परिमन्थः कलहश्चोभयोरप्युत्तरप्रत्युत्तरिकां कुर्वतोरुत्पद्यते / यत एते दोषास्तस्मान्न स्थातव्यम्। द्वितीयपदं वसतावसत्यामिति द्वारं भावयतिअद्धाण निग्गयाई, तिपरिरया असइ अन्नवसहीए। तरुणे करिति दूरे, निच्चावरिए य ते रूवे // 299l अध्वनिर्गतादयस्त्रीन् परिरयान्परिभ्रमणेन कृत्वा यदियुक्तानिरुपहता वसतिर्न प्राप्यते ततः सचित्रकर्मक उपाश्रये तिष्ठन्ति। तत्र च प्रथमं निर्दोष पश्चात् सदोषेऽपि ये च तरुणास्तान् चित्रकर्मणो दूरतः कुर्वन्ति, तानि च रूपाणि नित्याश्रितानि सदैव चिलिमिलिकया प्रच्छादितानि कुर्वन्ति। नापावृतानि तानि स्थापयतीत्यर्थः / बृ० 1 उ०३प्रक०। (25) यत्र राजा तिष्ठति तत्रोपाश्रये न वसेत्जे भिक्खू अहपुण एवं जाणेजा-इह जक्खतिए परिवुसिएजे भिक्खू ताए गिहाएताए विहाराएताए पएसाएताओ वासंतराय विहारं वा करेइ, सज्झायं वा करेइ, असणं वा पाणं वा खाइम वा साइमं वा आहारेइ, उच्चारं वा पासवणं वा परिद्ववेइ अण्णयरं वाअणायरियं असमणपउग्गकहं कहेइ कहतं वा साइजइ॥१२॥ अथेत्ययं निपात उक्तः / पिण्डः वसहिविसेसिणो पुणसद्दो यथा वक्ष्यमाण एवं जाणेजा 'ज्ञा' अवबोधने, इहभूप्रदेशे अधेति वर्तमानदिने 'परितुसे' पर्युसिते वसेदित्यर्थः / जे भिक्खू तस्मिन् गृहे निकृष्टतरो अपवरकादिप्रदेशः तस्मिन्नपि निकृष्टतरः खद्धा स्थानं अवकाशःविहारादिपकरेज्ज तस्स-ह। गाहाराया उज्जहि उसिते, तेसु पएसेसु बितियदिवसादी। जे भिक्खू-विहरेज्जा, अहवा वि करेन्ज सज्झायं // 61 / /
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________________ वसहि 1037 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि असणादी वाऽऽहारे, उच्चारादीणि वोसिरेखावा। सो आणाअणवत्थं, मिच्छत्तविराधणं पावे // 62 / / आणादिणो दोसा तस्मिन् गृहे यस्मिन राजा स्थितः आगेण्हा इति आसीत्ततो राया उच्चरियाओ रक्खिजति तत्थ गहणादयो दोसा। अह उचारपासवणे परिद्ववेति ताहे तमेव छन्नो विज्जति। गाहापम्हट्ठ अवहितो वा, संका अभिचारुगंध किं कुणति / इति अभिनवदुच्छम्मि, चिरखुच्छ विऽपत्तआणादी॥६३|| तत्थ किंचि पम्हुई। पम्हुट्ठणाम-पडियं वीसरियं वा किंचि होद्धा अण्णेण वि अवहरिते संकिजति / पम्हुट्ठस्स हरणबुद्धिए इंदियट्ठिया उच्चाटणवसीकरणाणि एस एत्थ ठितो अभिचारुअंकरेति। अहिणवपवुच्छे एते दोसा, चिरपवुच्छे अपत्तियं गहणादिया दोसु वि। गाहाअहवा सचित्तकम्मे, दळूणो कारिते तु ते दिखे। अत्थाणी वासहरे, णु वणो संवाहितो वधइं॥६॥ तासु सचित्तकम्मासु वसहीसु अणारिसो भावो समुप्पज्जति, एत्थ अत्थाणि मंडा वा एत्थ सेवासंघरं एत्थ णिवण्णो एत्थ सावधितो एवमादिहाणा दिट्ठ। गाहामुत्ताऽमुत्ताण तहि, हवंति मोहुम्भवेण दोसाओ। पडिगमणादी जम्हा, एए उय विवजेजा।।६।। भुत्तभोगीणं तं सुमरिउं मोहब्भवो भवे / इतरेसिं काउंणेण कारणेण। गाहाबितियपदमणप्पज्झे, उस्सण्णाईन संभमा एसा। जयणा अणुण्णवेत्ता, करेज विहारमादीणि॥६६|| अणवज्जो सव्वाणि वि करेज ! उस्सण्णं णाम तत्थ कोतिचारं वहित; प्रभूतमित्यर्थः / अइण्णं स च लोगो आयरति अन्नवसहीए अभावे अग्गिमादिसंभमेवा वोहिगमादिभए वा जयणाएतप्पडियरगे अणुण्णवेत्ता विहारमादीणि करेति। नि०चू०६ उ०] (26) निर्ग्रन्थीभिः अनिश्रया सागारिकोपाश्रये न वस्तव्यम्नो कप्पइ निग्गन्थीणं सागारियअनिस्साए वत्थए॥२२॥ अस्य सूत्रस्य संबन्धमाहएरिसदोसविमुक्क-म्मि आलए संजईणनीसाए। कप्पइ जईण भइतो, वासो अह सुत्तसंबंधो // 26 // ईदृशैरनन्तरोक्तैर्दोषैर्विप्रमुक्तोय आलयः-उपाश्रयस्तस्मिन् संयतीनां सागारिकनिश्रया परिगृहीतानां वासः कल्पते / यतीनां तु भक्तोविकल्पितो; निश्रया वा अनिश्रया वा तेषां वासः कल्पत इत्यर्थः / एतेन द्वितीयसूत्रस्यापि वक्ष्यमाणस्य संबन्धः प्रति-पादितः। अथैष सूत्रसंबन्ध इत्यनेन संबन्धेनायातस्यास्य (22) व्याख्या-नो कल्पते निर्ग्रन्थीनां सागारिकानिश्रया-शय्यातरेण अपरिगृहीतानां वस्तुम, कल्पते निर्ग्रन्थीनां सागारिकनिश्रया परिगृहीतानां वस्तुम्। एष सूत्रसंक्षेपार्थः / अथ भाष्यकारो विस्तरार्थं बिभणिषुराहसागारियं अनीसा, निग्गंथीणं न कप्पए वासो। चउगुरु आयरियादी,दोसा ते चेव तरुणादी॥३००।। सागारिकः-शय्यातरस्तस्य निश्रां कृत्वा, किमुक्तं भवति-शय्यातरस्य या निश्रा-मया युष्माकं चिन्ता करणीया भवतीति, कुतोऽपि न भेत्तव्यमित्यभ्युपगमस्तामन्तरेण निर्ग्रन्थीनां न कल्पते वासः। अत एवैतत्सूत्रम्। आचार्यो यदि प्रवर्तिन्या नकथयति ततश्चात्वरो गुरुकाः, सा न प्रतिशृणोति तदा चत्वारो गुरुकाः, आचार्यमुखाद्वा आकर्ण्य सा संयतीनां न कथयति तदा चतुर्गुरुकाः। यति ता न प्रतिशृण्वन्ति तदा तासां लघुको मासः / तत्र वा परिगृहीते उपाश्रये वसन्तीनां ते एव तरुणादयः-'तरुणा वेसित्थि विवाह' इत्यादयो दोषाः। सागारियं अनिस्सा, भिक्खुणमादीण संवसंतीणं। गुरुगा दोहि विसिहा, चउगुरुगा चेव छेदंता॥३०१।। सागारिकस्यानिश्रया भिक्षुण्यादीनां संवसन्तीनां द्वाभ्यां तपःकालाभ्यां विशिष्टाश्चतुर्गुरुकाः,तत्र भिक्षुण्यास्तपसा कालेन चलघुकाः, अभिषेकायाः कालेन गुरुकाः, गणावच्छेदिन्याः तपसा गुरुकाः, प्रवर्तिन्यास्तपसा कालेन च गुरुकाः। अथवा-चतुर्गुकादीनिछेदान्तानि प्रायश्चित्तानि / तद्यथा-भिक्षुण्याश्चतुर्गुकम्, अभिषेकायाः षड्गुरुकम्, गणावच्छेदिन्याः षड्गुरुकम्, प्रवर्तिन्याश्छेद इति, आज्ञादयश्च दोषाः। अपिचकंपइ वातेण लया, अणिस्सिया णिस्सिया तु अक्खोभा। इय समणी अक्खोभा, सॉगारिनिस्सेयरा भइया॥३०२॥ लता-वल्ली अनिश्रिता-वृक्षाद्यालम्बनरहिता वातेन प्रेर्यमाणा सती कम्पते, निश्रिता तु-सालम्बना अक्षोभ्या-वातेन चालयितुमशक्या। 'इय' एवं श्रमणी सागारिकनिश्रिता सती अक्षोभ्या, इतरा अनिश्रिता भक्ता-विकल्पिता। यदिसास्वयं धृतिबल-युक्ता तदा तरुणादीनामक्षोभ्या, धृतिदुर्बला तु क्षोभनीयेति भावः। आह-श्रमणीनखल्वाचार्यप्रवर्तिनीनिश्राविरहिता कदाऽपि भवति अतः किमर्थ तस्याः सागारिकनिश्रयेत्युच्यते। दोहि विपक्खेहि सुसं-वुयाण तहवि गिहिनीसमिच्छंति। वहुसंगहिया अजा, होति थिरा इंदलट्ठीव // 303 / / द्वाभ्यामप्याचार्यप्रवर्तिनीलक्षणाभ्यां यद्यप्यार्याः सुसंवृतास्तथापि सांग्रहिणः सागारिकस्य निश्रामिच्छन्ति भगवन्तः कुत इत्याह-बहुसंगहीता-बहुभिराचार्यादिभिश्चिन्तकैः परिगृहीता आर्या स्थिरा भवन्ति, इन्द्रयष्टिरिव / यथा खल्विद्रयष्टिर्बट्टीभिः इन्द्रकुमारिकाभिर्बद्धा सती निष्कम्पा भवति एवमियमपि।। किंचपत्थेतो विय संकइ, पत्थिजंतो वि संकती बलिखो। सेणा बहूय सोभइ, बलवइगुत्ता तहऽऽजाऽवि॥३०४||
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________________ वसहि 1038 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि प्रार्थयन्नप्या तरुणादिजनः शङ्कते-बिभेतीत्यर्थः, तथा प्रार्थ्यमानोऽपि संयतीजनो बलिनः-समर्थस्य शय्यातरस्य शङ्कते / अपि चयथा सेनाबलिना--सेनानायकेन यथा या बधूर्वलवता श्वशुरपक्षण गुप्तारक्षिता शोभते तथा आर्याऽपि बलवता शय्यातरेण परिगृहीता सती विराजते। अमुमेवार्थं व्यतिरेकभनयाद्रढयतिसुण्णाएँ सुसंघाया, दुब्बलगोवा य कस्सन वितका। इय दुब्बलनिस्सा नि-स्सियाउ अजा वितकाओ॥३०६|| शून्या-रक्षपालविरहिता दुर्बलगोपा वा-असमर्थरक्षपाल-परिगृहीताः पशुसङ्घाता-गवादिपशुवर्गाः कस्यते विता -अभिलषणीयान भवन्ति, इत्यमुना प्रकारेण दुर्बलशय्यातर-निश्रिता सर्वथैव अनिश्रिता वा आर्याः सर्वस्यापि विताः -प्रार्थनीया भवन्ति। अइया कुलपुत्तगभो-इयाउ पक्कन्नमेव सुन्नम्मि। इच्छमणिच्छे तरुणा, तेणा उवहिं व ताओवा॥३०॥ अजिका-छगलिका, कुलपुत्रकाणां च भोजिका महिला पक्वान्नंमोदकशैवादि यथैतानि शून्ये वर्तमानानि सर्वस्यापि स्पृहणीयानि भवन्ति, एवं श्रमण्योऽपि / तथा तरुणान् प्रार्थयमानान् यदि इच्छन्ति ततो ब्रह्मव्रतभङ्गः। अथ नेच्छन्ति ततस्ते बलादपि तासां ग्रहणं कुर्युः। स्तेना उपधिं वा ता वा संयतीरपहरेयुः। उच्छुयघतगुलगोरस-एलालुगमाउलिङ्गफलमादी। पुप्फविही गंधविही, आभरणविही य वत्थविही॥३०८|| इक्षुघृतगोरसाःप्रतीता:एलालुकानि चिटिकानि मातुलिङ्ग-फलानि- | बीजपूराणि आदिशब्दादाम्रादिपरिग्रहः। तथा पुष्पविधिश्चम्पकादिकापुष्पजातिःगन्धाः-कोष्ठपुटपाकादयस्तेषां विधिः-प्रकारो गन्धविधिः, एवमाभरणविधिर्वस्त्रविधिश्च / एते इक्षुप्रभृतयः,शून्या दुर्बलपरिगृहीता वा यथा सर्वस्यापि स्पृहणीयास्तथा संयत्योऽप्यनिश्रिता दुर्बलसागारिकनिश्रिता वा तरुणादीनां स्पृहणीयाः / अतोऽनिश्रया दुर्बलनिश्रया वा न स्थातव्यम्। भवेत्। कारणं येनानिश्रयाऽपि तिष्ठेयुः। कथमिति चेदुच्यते-- अद्धाण निग्गयादी, तिक्खुत्तो मग्गिऊण असईए। संथरणं वसभा वा, ताओ य अपच्छिमा पिंडी॥३०॥ अध्वनो निर्गता आदिशब्दादमूनि वहमानका अध्वशीर्षे प्राप्ता वा त्रिकृत्वः परिगृहीता वसतिर्गियितव्या। यदिन प्राप्यतेततः सागारिकस्याऽनिश्रयाऽपि तिष्ठेयुः / तत्र संस्तरणं-कपाटं तदन्यतो मार्गयित्वा दातव्यम् / अथकपाटन प्राप्तं ततो वृषभा गृही (पिण्डी) भूय यः कश्चित्तरुणादिः संयतीरुपद्रवति तं प्रहरणादिभिर्निवारयन्ति / अथ वृषभा न सन्ति ततस्ता एव संयत्यो दण्डकव्यग्रहस्ताः पिण्डीभूय तिष्ठन्ति / यस्तत्रोपद्रवं चिकीर्षति तं दण्डकमुद्दिश्य निवारयन्ति, बोलं च महता शब्देन कुर्वन्ति। एषा अपश्चिमा यतनेति। अथवाभोइयमहतरगाई, समागयं ता भणंति गामंतु / निवगुत्ताणं वसही, दिजउदोसा उभे उवरिं॥३१॥ तत्र ग्रामादौ यो भोगिको महत्तसेवा, आदिशब्दादन्यो वा प्रमाणभूतस्तम्, अथवा-ग्राममेकत्र सभादौ समागतं मिलितं दृष्ट्वा साधवो भणन्तिनृपो-राजा तेनगुप्तारक्षिताः सन्तो वयं तं-व्रताचारंपरिपालयामः, अतो नृपगुप्तानामस्माकं कथमप्येतद्दीयताम्, अन्यथा ये शून्ये प्रतिश्रये तिष्ठन्तीनां तरुणस्तेनाद्युपद्रवदोषा भवेयुः ते सर्वेऽपि युष्माकमुपरि भविष्यन्ति, एवमुक्ते ते भोगिकादयः संयतीप्रायोग्यां परिगृहीतां वसतिं दापयन्ति स्वयं वा प्रयच्छन्ति। अथ ये वृषभा बहिःप्रहरणादिव्यग्रहस्तास्तिष्ठन्ति ते ईदृशाः कर्त्तव्या इति दर्शयतिकयकरणा थिरसत्ता,गीया संबंधिणो थिरसरीरा। जियनिहिंदियदक्खा, तब्भूमा परिणयवया य॥३११|| कृतकरणा-धनुर्वेदकृताभ्यासाःस्थिरसत्त्वा-निश्चलमान-सावष्टम्भाः गीता:-सूत्रार्थे विहितसंबन्धिनस्तासामेवसंयतीनां नालबद्धाःभ्रात्रादिसंबन्धयुक्ता इत्यर्थः, स्थिरशरीराः-शारीर-बलोपेता जितावशीकृता निद्रा इन्द्रियाणि यैस्ते जितनिद्रेन्द्रियाः दक्षाः-कुशलाःतद्भौमाः तस्यामेव भूमौ भवास्तद्भूमिवास्तव्यलोकपरिचिता इत्यर्थः, परिणतवयसश्च-अतिक्रान्तयौवना मध्य-मवयःप्राप्ताः एवंविधा वृषभास्तत्र स्थापयितव्या इति। बृ०१ उ०३ प्रक०। कारणे अकारणे वा निन्थैनिन्थीनां वसतौन वस्तव्यम्नो कप्पइ निग्गन्थाणं, निग्गन्थीणं उवस्सए आसइत्तए वा चिट्ठित्तए वा निसीइत्तए वा तुअट्टित्तए वा पयलाइत्तए वा निहाइत्तए वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा आहारं आहारित्तए उच्चारं वा पासवणं वा खेलं वा सिंघाणं वा परिववित्तए सज्झायं वा करित्तए झाणं वा झाइत्तए काउस्सगं वा ठाणं वा ठाइत्तए॥१॥ अथास्य सूत्रद्वयोक्तानि निर्ग्रन्थीप्रायोग्याणि वस्त्राणि गृहीत्वा गणधरो निर्ग्रन्थीवर्तापकः प्रवर्त्तिन्यास्तानि वस्त्राणि स्वयमेव 'पणामेउ' ति अर्पयितुं व्रतिनीनां वसतिंव्रजति।अतस्तद्विषयो विधिरनेन सूत्रेण प्रतिपाद्यते। प्रकारान्तरेण संबन्धमाहवत्थाणि एवमादी-णि गणधरो गिण्हितुं सयं चेव। वबतिवतिणीवसहि,पवत्तिणीए पणावेतुं|१|| बीएहिं संसत्तो वितियस्सादिम्मि इह तु इत्थीहिं। बितिए उवस्सगावा, पगता इह इंपि सो चेव // 2 // द्वितीयोद्देशकस्यादिसूत्रे बीजैः संसक्त उपाश्रयो भणितः। इह तु तृतीयोद्देशकस्यादिसूत्रे स्त्रीभिः संसक्त उच्यते। यथा द्वितीये उद्देशके बहुषु सूत्रेषूपाश्रया प्रकृताः येषु साधूनां वस्तुंन कल्पते अत इहाप्यादिसूत्रे स एवोपाश्रयः। अत्रोच्यतेतत्थ अकारणगमणं,पडुच्च सुत्तं इमं समुदियं तु / कज्जेण वा गते तु-उवट्टणादीणि वारेति // 3 //
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________________ वसहि 1036 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि तत्र-निर्गन्थीनामुपाश्रये अकारणं-वक्ष्यमाणकारणकलापं वि ना यद्गमनं यत्प्रतीत्य इदं सूत्रं समुदितं समायातं तदनेन प्रतिषिध्यते इति भावः। अथ कार्येण तत्र गताः, ततो गते-गमने पुनः संजाते त्वग्वर्तनादीनि कर्तु वारयति अनेन संबन्धेनायातस्यास्य (1) व्याख्या-नो कल्पते निर्ग्रन्थानां, निर्ग्रन्थीनामुपाश्रये स्थातुं वा निषत्तुं वा त्वग्वर्तयितुं वा निद्रायितुं वा प्रचलायितुं वा अशनं वा पानं वा खादिमं वा स्वादिम वा चतुर्विधमप्याहारमाहर्तुम्, उच्चारं वा प्रश्रवणं वा खेलं वा सिंधाणं वा परिष्ठापयितुम, स्वाध्यायं वा कर्तुम, ध्यानं वाध्यातुम, कायोत्सर्ग वा स्थातुमिति सूत्रसंक्षेपार्थः। अथ विस्तरार्थ भाष्यकृद्विभणिषुराहआपुच्छमणापुच्छा, व अकजे चउगुरुं तु वचंते। आपुच्छियपडिसिद्धे, सुद्धालग्गा उवेहंती ||4|| स्थविराणामापृच्छया अनापृच्छया वा यद्यकार्ये निर्ग्रन्थीनामुपाश्रयं व्रजति ततश्चतुर्गुरुकम्। स्थविरा आपृष्टाः सन्तो यदि प्रतिषेधं कुर्वन्तिमा व्रज नैव वर्तते निष्कारणं निर्ग्रन्थीनामुपाश्रयं गन्तुम, एवं प्रतिषिद्धे स्थविरा शुद्धः-न प्रायश्चित्तभाजः / अथ स्थविरा उपेक्षन्ते ततस्तेऽपि लग्नाः- चतुर्गुरुकमापन्ना इत्यर्थः। अथवाचउरो गुरुगा लहुगा, मासो गुरुगो य होति लहुगो य। आयरिए अमिसेगे, मिक्खुम्मिय गीतगीतत्थे॥॥ आचार्यों यदि निष्कारणं निर्ग्रन्थीप्रतिश्रयं गच्छति ततश्चत्वारो गुरवः। अभिषेको व्रजति चत्वारो लघवः, गीतार्थभिक्षुर्वजति गुरुको मासः, अगीतार्थभिक्षुर्ब्रजति लघुको मासः। यद्वागमणे दूरे संकिय, णिस्संकभिलावकक्खसतिकरणं / ओभासणपडिसुणणे, संपत्तारोवणा भणिता॥६॥ निष्कारणं संयतीनामुपाश्रये गच्छति तत्रगतो दूरेस्थितः संयतीः पश्यति 1. एतास्ता इति 2, कतरा पुनरियमित्येवं शङ्कां करोति 3, अमुका वा इयमिति निःशवितं जानाति 4, संयतीभिः सममिभिलापं करोति 5, कक्षान्तरादीनि विलोकयति 6, स्मृतिकरणमीदृशीमम स्यादिति लक्षणं करोति७, तामवभाषते, अथ भाषिता सतीसा प्रतिशृणोतिह,संपत्तिं तया सह करोति १०,एतेषु दशसुस्थानेष्वारोपणा वक्ष्यमाणा भणिता। अथात्र स्मृतिकरणपदंव्याचष्टेभावम्मि उ संबन्धो, सतिकरणं एरिसाव सा आसी। अहवाणं इणमटुं, पणएमि सती भवइ एसा।।७।। भावे-भावतःप्रतिसेवनाभिप्रायेण तया सह यः संबन्धःक्रियते यादृशी त्वम्-ईदृशी सा मद्भार्या आसीत्, एतत् स्मृतिकरणमुच्यते ! अथवैता संयतीमहममुमर्थ-प्रतिसेवनालक्षणं प्रणयामि-प्रार्थयामीत्येषा स्मृतिरुच्यते। अथवा अनन्तरोक्तेषु दशसु स्थानेषु प्रायश्चित्तमाह-- चउरो य अणुग्घाया, लहुगो लहुगा य हॉति गुरुगा य। छम्मासा लहु गुरुगा, छेदो मूलं तह दुगं च // 8 // संयतीप्रतिश्रयगमने चत्वारो अनुद्धाता मासाः, दूरदर्शन मासलघु, शङ्कायां चतुर्लधवः, निःशङ्कितेचतुर्गुरवः, आलापेषण्मासा गुरवः, स्मृतिकरणे छेदः, अवभाषणे मूलम्, प्रतिश्रवणे अनवस्थाप्यम्, संपत्त्यां पाराश्चिकम्। एवं तावदोघतः अनवस्थाप्यम्, संपत्त्यां पाराञ्चिकम्। एवं तावदोघतः प्रायश्चित्तमुक्तम्। अथ विभागतस्तदेव दर्शयितुमाहणिकारणगमणम्मि, बहवे दोसा य पचवाया य। जिणथेरपडिकुट्ठा, तेसिंचाऽऽरोवणा इणमो || निष्कारणगमने बहवो दोषाश्च प्रत्यपायाश्च भवन्ति। तत्र दोषा आत्मपरोभयसमुत्थाः, पारलौकिकाः प्रत्यपायाश्च / भोगिनी घाटितया इह लौकिकाः, तत्रोभयेऽपि जिनैस्तीर्थकृद्भिः स्थविरैश्च गणधरादिभिः प्रतिकुष्टाः, यथाऽमी भवन्ति तथा न विधेयमित्युपदिष्टमिति भावः / तेषां च दोषाणामियं वक्ष्यमाणा आरोपणा-प्रायश्चित्तम्। तचैतेषु सूत्रोक्तपदेषु भवति। चिट्ठित्तु णिसीइत्ता, तुयट्टणिहाय पयलसज्झाए। झाणाऽऽहारविहारे, पच्छित्ते मग्गणा होइ॥१०॥ स्थातुं निषत्तुं च त्वग्वर्तनं निद्रां-प्रचलां स्वाध्यायं ध्यानम् आहारं वा कर्तुं विहारं चंक्रमणमुपलक्षणत्वादुच्चारप्रश्रवणे कायोत्सर्ग वा कर्तुन कल्पते। अथ करोति ततः प्रायश्चित्तस्य मार्गणा भवति। इदमेव प्रकटयतिएतेसिं तु पयाणं, पत्तेयपरूवणा विभागो य। जो एत्थं आवण्णो-ऽणावण्णो वाऽवि जो एत्थं // 11 // एतेषां स्थापनादीनां प्रत्येकं प्ररूपणा विभागश्च दोषाणां विभाषालक्षणः कर्तव्यः। कथमित्याह-योऽत्र दोषजालेप्रायश्चित्तजाले वा आपन्नो यो वा अनापन्नस्तदेतद्वक्तव्यम्। यथाप्रतिज्ञातमेव निर्वाहयतिनिक्कारणमविहीए, णिकारणओ तहेव य विहीए। कारणओ अविहीए, कारणतो चेव य विहीए॥१२॥ आदिभयणाण तिण्हं, अण्णतरीए उसंजतीसेज्जं / जे भिक्खू पविसेजा, सो पावति आणमादीणि||१३|| साध्वीप्रतिश्रये प्रविशतां चत्वारोभङ्गाः। तद्यथा-निष्कारणे अविधिना साध्वीप्रतिश्रये, निष्कारणं विधिना, कारणतोऽविधिना, कारणतो विधिना प्रविशति। अत्रादिभजनानामाद्यानां त्रयाणां भङ्गानामन्यतरया भजनयाभङ्ग केन संयतीनां शय्यां-वसतिं यो भिक्षुः प्रविशति स आज्ञादीनि दूषणानि प्राप्नोति। तत्र प्रथमभङ्गव्याख्यानार्थमाह-- निकारणम्मि गुरुगा, तीसु वि ठाणेसु मासियं गुरुगं / चउलहुय दार मूले, अतिगयमित्ते गुरू पुच्छा॥१४॥ त्रीणि स्थानानि नाम अग्रद्वारमध्यासन्नलक्षणानि एतेषु नैषेधिकीमकुर्वतस्त्रीणि मासगुरुकानि भवन्ति। यदिद्वारमूले-द्वारसमीपे बहिस्तिष्ठतिततः चतुर्लघवः / अथैकमपि पदमुपाश्रय मध्ये अतिगतं प्रविष्टस्तदा अतिगतमात्रे चतुर्गुरुकः पृच्छति-नोदकः पृच्छां करोति। ता
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________________ वसहि १०४०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि कथमित्याहपाणाइवायमादी, असेवतों केण होति गुरुगा उ। कीस उण बाहि लहुगा, अंतो गुय चोदग ! मुणेहि // 15 // प्राणातिपातादिकमपराधमसेवमानस्य केन कारणेन चतुर्गुरुका भवन्ति? कस्माद्वा बहिारमूले चतुर्लघुकाः? कस्माच्चान्तः प्रविष्टमात्रस्य चतुर्गुरुकम्? आचार्य आह-हेनोदक! शृणुनिशमय अत्र कारणं येनैवं प्रायश्चित्तं दीयते। किं तदित्याहवीसत्थाय गिलाणा, खवियवियारे य भिक्खसज्झाए। पालीऍ होइ भेदो, अप्पाण परे तदुभए य॥१६|| काचिदार्यिका तत्र विश्वस्ता-अपावृतशरीरा भवेत्, सासंक्षोभमुपेयात्। ग्लाना क्षपिका वा संयतसंक्षोभेण न भुञ्जीत् / विचारभूमौ भिक्षायां स्वाध्यायभूमौ वा प्रस्थितानां तासां व्याघातो भवेत्। पाली नामसंयममहातडागस्यानतिक्रमलक्षणः सेतुः तस्या आत्मपरोभयसमुत्थो भेदो भवति। यद्वा-पालीति-वसति-पालिका भण्यते, सार्द्ध संलापादिकुर्वतः आत्मसमुत्थपर-समुत्थोभयसमुत्थो वा भेदो भवतीति द्वारगाथासमासार्थः। साम्प्रतमेनामेव विवृणोतिकाई सुहवीसत्था, दरजेमिय अवाउडाय पयलाति। अतिगतमेत्ते य तहिं, संकियपयलाइया थद्धा / / 17 / / काचिदार्यिका वसतेरन्तः स्थिता सुखविश्वस्ता आत्मसुखेनापावृतशरीरा तिष्ठति। दरजिमिता वा-अर्द्धभुक्ता दरं निवसना काचिदास्ते, अपावृतनिषण्णा वा काचित् प्रचलायते, ततस्तस्मिन् संयते अकस्मादतिगतमात्रे प्रविष्टमात्र एव दृष्टाऽहमनेनापावृतेति शङ्किताशङ्काऽऽकुलासती प्रपलायते; सहसैवनपश्यतीत्यर्थः। प्रपलायिता सती संक्षोभतः स्तब्धगात्रा सा भवेत्। अथेदमेव व्याचष्टेवीरलसउणवित्ता-सियं जहा सउणिवंदयं दुण्णं। वचंतिय णिरवेक्खं, दिसि विदिसाओ विवजंति||१८|| वीरलशकुनाहो लावकः तेन समागच्छता वित्रसितं सद्यथा शकुनिकानाम्-पक्षिणीनां वृन्दं 'वुण्णं' विषण्णं सन्निरपेक्षपुत्र भाण्डाद्यपेक्षारहितम् दिशो विदिशश्वाविभज्यमानं व्रजतिसहसैव पलायते। एष दृष्टान्तः। अयमर्थोपनयःतम्मिय अतिगतमत्ते, वित्तत्थाओ जहेव ता सउणी। गिण्हंति य संघाडिं, रयहरणेयाऽवि मग्गंति // 16 // तस्मिन् संयतेऽतिगतमात्र एव यथैव ताः शकुनिकास्तथैव ता अपि संयत्यो विवस्ता भवन्ति / ततश्च काचिदपावृतगात्रा त्वरित प्रावृणोति। अन्याः काश्चन संघाटिका गृह्णति / यास्तु संयतं दृष्ट्वा रजोहरणं मुक्त्वा नष्टाः ताः पश्चात् सुस्थीभूताः सत्यो रजोहरणानि मार्गयन्ति इति। यत्तु नोदकेनोक्तं प्राणातिपातादिकमसेवमानस्य कस्माच्चतुर्गुरुकं दीयते तदेतत्परिहरन्नाहछकायाण विराहण, पक्खुलणं खाणुकंटए विलिया। थद्धाय पेच्छिउं भा–व भेओं दोसा उ वीसत्थे // 20 // ताः संयत्यः कुम्भकारशालादौ स्थिता भवेयुः / तत्र च निरपेक्षा नश्यन्त्यो मृत्तिकादीनां पृथिवीकायम्, उदकुम्भप्रलोठनेनाप्कायम्, उल्मुकघट्टनेनाग्निकायम्, यत्राग्निस्तत्र नियमादायुरिति कृत्वा वायुकायम, बीजहरितमर्दनेन वनस्पतिम्, कुन्थुकीटिकादिमर्दनेन त्रसकायं च विराधयेयुः / एषा षट्कायविराधना, सा च तत्त्वतस्तेन एव साधुना कृता / प्रस्खलनं नाम-अधस्तादुपरि वा स्फालनम्, यदा-तासां नश्यन्तीनां भवेत्, स्थाणुना वा कण्टकेन वा पादयोरुपघातः स्यात्। 'विलिया' ब्रीडिया अकस्मात्तद्दर्शनालज्जिता सती काचित् वैहायसोदन्धनादि कुर्यात् / भयातिरेकता वा तथा भवेत्। तां च तथाभूतां दृष्ट्वा भावभेदो भवति / सात्विकभा–वप्रभवोऽयमस्य शरीरे स्तम्भ इत्येवमितराः संयत्यश्चिन्तयेयुरिति भावः। एवमादयो दोषा विश्वस्तार्यिकाविषया मन्तव्याः। गतं विश्वस्ताद्वारम्। अथ म्लानाद्वारमाहकालाइमक्कमदाणे, गाढतरं होज णेव पउणेजा। संखोमेण णिरोधो, मुच्छा मरणंच असमाही॥२१॥ ग्लाना संयतीतस्य संक्षोभेण न भुक्ते। प्रतिचरिका वा तदर्थ भिक्षांन गच्छति, ततः कालातिक्रमेण तस्या भक्तपानप्रदाने माढतरं ग्लानत्वं भवेत्, क्षपिकया वा सान प्रगुणी भवेत्। अथवा तदीयसंक्षोभेण तस्या वातकर्मणः कायिक्याः संज्ञाबाधा भवेत् / ततस्तद्राधया मूर्छा संजायेत। निरोधेन वा मरणमाप्नुयात् / असमाधिर्वा तस्या भवेत्, तत्रानागाढपरितापनादिनिष्पन्नं प्रायश्चित्तम् / अथ क्षपिकाद्वारमाह-- पारणगपट्ठिया आ-णीयं वऽविगडियदंसित ण मुंजे। अचियत्तअंतराए, परियाव असज्झवयणे य||२|| क्षपिका-चतुर्थादितपःकर्मकारिणी पारणकार्थं प्रस्थिताऽपि जेष्ठार्य आगत इति मत्वा निवर्तते / तथा च क्षपिकया पारणकमानीतं परमविकटितमनालोचितमदर्शितंच, अनालोकितं सा नभुङ्क्त इति कृत्वा प्रवर्तिनीं प्रतिपालयन्ती तिष्ठति। ततश्च तस्या अप्रीति-कमन्तरायोऽनागाढमामाद वा परितापो भवेत्, असत्यवचनं वा सा ब्रूयात्, अहो अयमस्मत्कार्याणां कीलक इव सांप्रतमुपस्थित इति। विचारद्वारमाहनोलेऊण ण सका, अंतो वा होजणऽत्थि वीयारो। संते वाण य वत्तति,णिक्खमणविणासगरिहाय॥२३|| स साधुभरमूले उपविष्टत्वान्नोदयितुं-लङ्घयितुं न शक्यते / तासां च संयतीनामन्तर्विचारभूमि स्ति, अस्ति वा परं तस्यां संज्ञा न वर्तते, शय्यातरेण वा सा नाऽनुज्ञाता तस्यां व्युत्सर्जन निष्काश-नमसौ कुर्यात्, निष्काशिता च श्वापदादिभिर्विना
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________________ वसहि 1041 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि शं लोकाच गर्हामासादयति, तन्निष्पन्नं तस्य–संयतस्य प्रायश्चित्तम्। अथ भिक्षाद्वारमाहसइकालफेडणाए-सणादि पेल्लंत पेलणा हाणी। संका अभाविएसुय, कुलेसुदोसा चरंतीणं // 24|| संयत्यो भिक्षायां प्रस्थिताः, स च साधुः समायातः। ततस्तस्या दाक्षिण्येन तावत् स्थितो यावद्भिक्षाया सत्कालदेशकालः स्फिटितः। ततोऽवेलायां भिक्षामटन्त्य एषणाशुद्धेः आदिशब्दादुद्गमोत्पादनाशुद्धेश्व प्रेरणं कुर्युः / अथन प्रेरयेयुः ततश्च आत्मनोहानिः-परितापो महादुःखादिना भवेत्। अभावितकुलेषु वा अकालचरन्तीनां शङ्कादयो दोषा भवेयुः। शङ्का मैथुनार्थविषया, आदिशब्दागोजिकादिपरिग्रहः / अथस्वाध्यायद्वारमाहसज्झाए वाघातो विहारभूमिं च पत्थियणियत्ता। अकरणणासारोवण-सुत्तत्थ विणा य जे दोसा।।२५।। ज्येष्ठार्य आगत इति कृत्वा ताः पठनं परावर्तनं वा न कुर्वन्ति, एवं स्वाध्यायव्याघातो भवेत् / वसतौ वा अस्वाध्यायिके जाते विहारभूमि स्वाध्यायभुवं प्रस्थिताः, भूयस्तत्र संयतमागतं दृष्ट्वा निवृत्ताः। अतः 'अकरणे ति सूत्रपौरुषीं न कुर्वन्ति मासलघु, अर्थपौरुषीं न कुर्वन्ति मासगुरु, सूत्रार्थनाशनिष्पन्ना चाऽरोपणा ! सा चेयम्-सूत्रं नाशयति चतुर्लघु, अर्थ नाशयति चतुर्गुरु, सूत्रार्थाभ्यांच विनाये दोषाश्चरणकरणहान्यादयस्तन्निष्पन्नं सर्वमपि संयतस्य प्रायश्चित्तम्। पालीभेदद्वारमाहसंजममहातडाग-स्सणाणवेरगसुपडिपुनस्स। सुद्धपरिणामजुत्तो, तस्स उ अणइकमो पाली // 26|| संयमः-पञ्चाश्रवादिविरमणात्मकः स एव महद्-विस्तीर्णं यत्तडागं तस्य ज्ञानवैराग्यसुप्रतिपूर्णस्य; ज्ञानमाचारादि श्रुतं तत्समुत्थं यद्वैराग्यं प्रतिसमयाविशुध्यमानभवनिर्वेदः तेन जलस्थानीयेन तु अतीव प्रतिपूर्णस्य यः सुद्धपरिणामयुक्तस्तस्यानतिक्रमः स पालिरित्युच्यते। तस्य भेदः कथं भवतीत्याहसंजमआभिमुहस्सव, विसुद्धपरिणामभावजुत्तस्स। विकहादिसमुप्पन्नो, तस्स उ भेदो मुणेयव्वो // 27 // संयमाभिमुखस्य विशुद्धपरिणामभावयुक्तस्य पालिस्थानीयस्यानतिक्रमस्य यो विकथादिसमुत्पन्नो मिथः कथादिकरणसमुद्भूतो भेदोविनाशः स इह पालिभेदो ज्ञातव्यः / स चात्मपरोभयसमुत्थो भवेत्। अहवा पालयतीति, उवस्सयं तेण होति सा पाली। तीसे जायति भेदो, अप्पाण परोभयसमुत्थो॥२८॥ अथवा या तत्र उपाश्रयं पालयति सा 'सत्यभामा भामे' ति न्यायात् पाली भण्यते; तस्या एकाकिन्यास्तं संयतं दृष्ट्वा आत्मसमुत्थः परसमुत्थ उभयसमुत्थो वा भेदो जायते। कथमिति चेदुच्यते मोहतिगिच्छाखमणं, करेमि अहमवि य बोहि पुच्छा य। मरणं वा अवियत्ता, अहमवि एमेव संबंधो // 29 // स संयतस्तं संयतीप्रतिश्रयं गतो यावदेका वसतिपालिका तिष्ठति। ततस्तेन सा पृष्टा-आर्य ! किमिति भवती भिक्षांनावतीर्णा? सा प्राहअद्य मम क्षपणम्,। स प्रश्नयति-किं निमित्तम्, सा प्रतिब्रूते-मोहचिकित्सार्थम् / तयाऽपि स संयत एवमेव पृष्टो ब्रवीति-अहमपि मोहचिकित्सार्थ क्षपणं करोमि। ततस्तेन पृच्छा कृता-आर्ये ! भवत्या कथं बोधिरासादिता? सा प्राह-- मरणं मदीयभर्तुरजनिष्ट, तस्य वा अहमप्रीतिका-द्वेष्या पूर्वमभूवम् अतः प्रव्रजिता। ततस्तया सोऽप्येवमेव पृष्टः प्राह-अहमप्येवमेवाभीष्टकलत्र-वियोगादिना प्राब्राजिषम् / एवं भिन्नकथासद्भावकथनैर्भावसंबन्धो भवति। इदमेव स्फुटतरमाहओमाणस्स वदोसा, तस्स व गमणेण सग्गलोगस्स। महतरियपभावेण य, लद्धा मे संयम बोही // 30 // अपमानं नाम सापत्न्यतया यद्भर्ता मामवनततया पश्यति स्म तस्य दोषादहं प्राब्राजिषम्। अथवा-मदीयो भर्ता मय्येकान्तानुरक्त आसीत्, अतस्तस्य स्वर्गलोकस्य गमनेन तथा महत्तरिकया यन्मानवरते धर्माख्यानकानि कथितानि तत्प्रभावेण च लब्धा संयमबोधिः-संयम प्रतिपनवतीत्यर्थः। यद्वापदूमिताऽम्हि घरासे, तेण हतासेण तो ठिया धम्मे / सिटुं एय रहस्स,ण कहिलइ जं अणत्तस्स // 31 // प्रदूमिता-प्रकर्षण क्लेशिता अस्मि अहं 'घरासे' गृहवासे प्राकृतत्वाद्वाशब्दलोपः, तेन हताशेन--कुपतिना, ततः स्थिताऽहमेवंविधे धर्मे, इदं च रहस्यमिदानी मया भवते शिष्टन कथ्यते। रिक्खस्स वा विदोसो, अलक्खणो से अभागधिजो णु। नय निग्गुणामि अजो ! तुज्झ वि याणाहि य विसेसं // 32 / / मम पाणिग्रहणदिवसे यद् ऋक्षम्-नक्षत्रंतस्य वा कोऽपि दोष आसीत्, तेन स तादृशो निस्नेहोऽलक्षणोऽभागधेयश्च मम भर्ता अभवत्, न चाहं निर्गुणा-गुणविकला, यद्वा-आर्या ! यूयमपि जानीथ मदीयं विशेषम्सगुणतानिर्गुणताविभागम्। एवमुक्ते संयतो ब्रूयात्इट्ठकलत्तविओगे, अन्नम्मिय तारिसे अविजंते। महतरयपभावेण य, अहमवि एमेव संबंधो // 33 // इष्टकलत्रस्य वियोगे संजाते अन्यस्मिश्च तादृशे कलत्रे अविद्यमाने महत्तरक-आचार्योमम धर्ममाख्याति स्म, ततस्तत्प्रभावेणाह-मपि प्रव्रजितः 'एमेव' त्ति यथा तया सविकारमात्मीयं चरितमाख्यातं तथा संयतोऽप्येवमेव कथयति एवं तयोः परस्परं भावसंबन्धो भवति। किं चान्यत्किं पिक्खह सारिक्खं, मोहं मे णेति मज्झवि तहेव /
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________________ वसहि 1042- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि उच्चगगतामि मतों सा, इहराण विपत्तिअंतोऽमि॥३४॥ संयतस्तां संयतां निश्चलया दृष्ट्या निरीक्षते, ततः सा ब्रवीति-किमेवं पश्यथ? स प्राह मदीयभोगिन्या सह यद्भवत्याः सर्वथैव सादृश्यं तन्मां मोहं नयति; किमेषा सैवेति; विभ्रमं जनयतीत्यर्थः। सा ब्रवीति-ममापि त्वं तथैव मोहं जनयसि। स प्राह-किं करोमि ममोत्सङ्गे गता स्थिता सा मृता, इतरथा यदि परोक्षं सा मृताऽभविष्यत् ततो देवानामपि वचनेन प्रत्ययं नागमिष्यम्, यथा त्वं सा मम पत्नी न भवसीति। इय संदसणसंभा-सणेहि भिन्नकधविरहजाएहिं। सेज्जातरादिपासण-वोच्छेदे दुधम्मत्ति॥३५॥ इत्येवं यत्परस्परं संदर्शनम्, यच संभाषणम्-किमिति त्वमद्य न गतेत्यादि पृच्छारूपं ताभ्याम् ; तथा यास्तया सह भिन्नकथायस्य विरह एकान्ते योगः, एतैश्चारित्रस्य भेद उपजायते तथा शय्यातर आदिशब्दादन्यो वा तत्परिजनादिस्तयोः तथाविधं चेष्टितं पश्यति, सतद्रव्यान्यद्रव्ययोर्व्यवच्छेदं कुर्यात्। दुष्टधर्माण एते इत्येवं विपरिणाममुपगच्छेत्। अथासौ तया सह संपत्तिं गच्छति, ततो नरकायुर्बध्नाति / तीर्थकृतां सङ्घस्य च महतीमाशातनां विधाय बोधिलाभप्रतिबन्धकं कर्मजालमुपचिनोति / उक्तं च- "लिङ्गेण लिङ्गणीए, संपत्तिं जइ निगच्छई मूढो। निरयाऊय निबंधइ, आसायणया अबोही य" इत्याहपयलाणिहतुअट्टे, अच्छिट्ठिम्मिचमढणे मूलं / पासवणे सचित्ते, संकादुच्छम्मि उड्डाहो // 36|| प्रचला नाम-निषण्णस्य सुप्तजागरावस्था, निद्रायणं तुनिषण्णस्यैव स्पप्नम्, त्वग्वर्त्तनं-संस्तारकं प्रस्तीर्यशयनम्,अक्षिच-मढनं-चक्षुषोर्मलनम् / एतानि कुर्वणो यद्यपि सागारिकादिना न दृष्टः तथापि चतुर्गुरु, दृष्टतुशङ्कायां चतुर्गुरु। निःशङ्कितेमूलम्, प्रश्रवणं संयतीनां कायिकीभूमौ करोति चतुर्लघु सचित्ते' संयत्याः कायिकी व्युत्सृजन्त्या योनौ संयतनिसृष्टं शुक्रं बीजमवगाहते ततो मूलम्, 'संकावुत्थम्मि' त्ति तं संयतं तत्र कायिकी व्युत्सृजन्तं दृष्ट्वा सागारिकादिः शङ्का कुर्यात्, किमेष श्रमणको रजन्यामत्रैवोषितः? ततो महानुड्डाहः प्रवचनस्य भवतीति। एषा पुरातनगाथा। अथास्या एव व्याख्यानमाहपयलाणिहतुवट्टे, अच्छीणं चमढणम्मिचउगुरुगा। दिढे वि य संकाए, गुरुगा सेसेसु वि पदेसु // 37 / / प्रचलां निद्रां त्वग्वर्तनम् अक्षिचमढनं च कुर्वाणं यदि परो न पश्यति ततश्चतुर्गुरुकाः, दृष्टऽपि प्रचलादौ शङ्कायां चतुर्गुरुकाः, निःशीङ्कतेमूलम्, शेषेष्वपि अशिवादिसमुद्देशनस्वाध्यायपारणादिषु पूर्वोक्तप्रदेशेषु पारणादिष्वदृष्टषु चत्वारोगुरवः। दृष्टेष्वपिशङ्कयां चतुर्गुरु, निःशङ्कितेमूलम्। का पुनः शङ्का भवेदिति चेदुच्यतेसज्झाएण णु खिण्णो, आउं अण्णेण जेण पयलाति। संकाएँ हॉति गुरुगा, मूलं पुण होति णिस्संके // 38|| नुरिति वितर्के, किमेष संयतः स्वाध्यायजागरेण खिन्नः,आहोस्विदन्येन सागारिकप्रसङ्गेन रात्रौ स्विन्नः। येनैवं प्रचलायते एवं शङ्कायां चतुर्गुरुकाः। निःशङ्कितेतु मूलं भवति। अन्नत्थ मोयगुरुओ, संजतिवोसिरणभूमिए गुरुगा। जोणोगाहणबीए, केऽयी धाराए मूलं तु // 36 // संयती कायिकां भूमिं विमुच्यान्यत्र मोकस्य व्युत्सर्जने मासगुरु, अथ संयतीव्युत्सर्जनभूमौ व्युत्सजति ततश्चतुर्गुरु, उभयत्र च कदाचिद् दृष्टिक्लीवस्यान्यस्य वा बीजनिसर्गो भवेत् तच बीजं संयतीधाराहतं सदूर्ध्वमुद्धावितं योनाववगाहते तत्र संयतस्य मूलम्, होडितायां च तस्यामुड्डाहादयो दोषाः। केचिदाचार्या ब्रुवते धारया स्पृष्टमात्र एव बीजे मूलं भवति, यत एते दोषाः अतो निष्कारणं संयतीवसतिमविधिना न प्रविशेत्। गतः प्रथमो भङ्गः। द्वितीयभङ्गमाहनिकारणे विधीए, दोसा ते चेव जे भणियपूटिव / वीसत्थाई सुत्तं, गेलनाई उवरिमाओ||१०|| निष्कारणे विधिनाऽपि नैषेधिकीत्रयकरणरूपेण प्रवेशे त एव दोषाः, ये पूर्व प्रथमभङ्गे सप्रपञ्चमुक्ताः, नवरं विश्वस्ताविषया ये दोषा उक्ताः, आदिशब्दात्तेषामेवानेकभेदसूचकः तान् मुक्त्वा ये ग्लानादिविषया उपरितना दोषास्ते द्वितीयभङ्गे संभवन्ति, विश्वस्ता दोषास्तुनषेधिकीत्रयकरणे न संभवन्तीति भावः / निकारणे विधीए, तिहाणे गुरुगों जेण पडिकुटुं। कारणगमणे सुद्धो, णवरं अविधीऍ मासतियं // 41 // निष्कारणे विधिनाऽपि प्रविशन् यस्त्रिषु स्थानेषु नैषेधिकीं प्रयुङ्क्ते तस्यापि मासगुरुकम्।कुत इत्याह-येन प्रतिक्रुष्टं भगवता निष्कारणमाबिकासतौ गमनम्। अथ तृतीयभङ्गमाह-'कारणे' इत्यादि कारणे यः संयतीवसतौ गच्छति सशुद्धः, नवरमविधिना असमाचार्या प्रवेशनिष्पन्नं त्रिषु स्थानेषु यदि नैषेधिकीत्रयं न करोति ततो मासलघुत्रयम्, द्वयोः स्थानयोन करोति मासलघुद्वयम्, एकस्मिन् स्थाने न करोति एकं मासलघुकम्। कारणतो अविधीए, दोसा ते चेव ये भणियपुव्वं / कारणविधी सुद्धो, इच्छं तं कारणं किं तु ||4|| कारणतो विधिना प्रविशतो दोषास्तएव भवन्ति,ये विश्वस्तादिविषयाः पूर्व भणिता इति। कारणे तु विधिना त्रिषु स्थानेषु नैषेधिकीत्रयं कृत्वा प्रविशन्शुद्धः / शिष्यः पृच्छति- इच्छाम्यहं ज्ञातुं किं तत् कारणं येन तत्र गम्यते। सूरिराहगम्मइ कारणजाए,पाहुणए गणहरे महिड्डीए। पच्छादणा य सेहे, असहुस्स चउक्कभयणा उ॥४३|| गम्यते संयतीनां प्रतिश्रये कारणजाते उपाश्रयम्, संस्तारकप्रदानादिके प्राघूर्णको वा साधुः संयतीनामबोधपच्छानिमित्तं गच्छेत्, गणधरो वा मूर्छाविसूचिकादौ संयतीनामागाढे कारणे समुत्पन्ने दिवा रात्रौ वा गच्छेत् / महर्द्धिको वा राजामात्यादिः प्रव्रजितः संयतीनां तेजोगौरवादिजननार्थं यायात्, सेहि' त्ति शैक्षस्य राज पुत्रप्रव्रजितादिरमात्यादिभिरुन्निष्क्रामयितुमारब्धस्य प्रच्छादना संयतीप्रतिश्रये ज्ञात्वा कर्तव्या। काचिद्वा संयती ग्लाना तस्याश्चिकित्सा
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________________ वसहि 1043 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि कर्तव्या। तत्र असहिष्णुसाधोश्चतुष्कभजना भवति, चतुर्भङ्गीत्यर्थः। सा चेयम्-साध्वी सहिष्णुः साधुरपि सहिष्णुः, साध्वी सहिष्णुः साधुरसहिष्णुः, साध्वी असहिष्णुः साधुः सहिष्णुः। साध्वी साधुश्च द्वावप्यसहिष्णू / एष द्वारगाथासंक्षेपार्थः। अथ विस्तरार्थमभिधित्सुः प्रथमदारमङ्गीकृत्याऽऽहउवस्सए य संथारे, उवहीसंघपाहुणे। सेहहवणुद्देसे, अणुना भंडणा गणे॥४४॥ अणप्पज्झ अगणिआऊ, वीआरे पुत्तसंगमे। संलेहणवोसिरणे, वोसट्टे निहिए तिऽहं // 15 // उपाश्रयस्य संस्तारकस्योपधेर्वा प्रदानार्थ संयतीप्रतिश्रयं गच्छेत्, काश्चिद्वा संयत्यः परीषहपराजितास्तासामवधारणा भवति-विमुखा वर्तन्ते, तासां स्थितीकरणा) संघः प्राघूर्णो गच्छेत्, इह कुलस्थविरा गणस्थविरः संघस्थविरोवा संघस्य गौरवार्हतया प्राघूर्ण उच्यते। शैक्षस्य वा उपस्थापना कुलानां वा स्थापनां कुर्तुं तत्र व्रजेत् / वसतावस्वाध्यायिके श्रुतस्योद्देशमनुज्ञांवा कर्तुं तत्र गच्छेत्। भण्डनं कलहः तदा तासां परस्परं समुत्पन्नम्, तदुपशमनार्थं गन्तव्यम्। 'गणे' त्ति प्रवर्तिन्यां कालगतायां गणार्पणार्थं गच्छेत् / अणप्पज्झ'त्ति देशीपदमनात्मवशवाचकः ततश्चात्मवशाया यक्षाविष्टादिरूपाया आर्यिकाया मन्त्रतन्त्रादिप्रयोगेणात्मवशतां कर्तुं गच्छेत् / अग्निना वा संयतीवसतिर्दग्धा, अप्कायपूरेण वाप्लाविता, विचारभूमौ वा गच्छन्तीनां तासां सोपसर्गे, 'पुत्ते' त्ति उपलक्षणत्वात् पुत्रं पिता भ्राता वा तासां कालगतो भवेत् 'संगमे' त्ति पुत्रभ्रात्रादिरेव तासां संज्ञातकश्चिरादागतो भवेत्, तस्य यः संगमो-- मीलकस्तदर्थम्, तथा संलेखनं भक्तप्रत्याख्यानाय परिकर्मणं काचिदार्यिका करोति, व्युत्सर्जनं वा-भक्तप्रत्याख्यानम् कर्तुकामा काचिद् व्युत्सृजते व्युत्सृष्टं वा कयाचिद्भक्तं प्रत्याख्यातम्-अनशनं प्रतिपन्नमित्यर्थः, एतेषु कारणेषु गच्छेत्। अथ काचित् निष्ठिता कालगता, ततः शेषसंयतीनां शोकापनयनार्थत्र्यहं त्रीन् दिवसान् यावदुपर्यपि सूरिणा गन्तव्यमिति श्लोकद्वयसंक्षेपार्थः। ___ अथैतदेव प्रतिपदं बिभावयिषुराहअज्जाणं पडिकुटुं, वसहीसंथारगाण गहणं तु। ओभासिउ दाउंवा,वर्चचा गणहरो तेणं॥४६|| आर्याणां स्वयं वसतेःसंस्तारकाणां च ग्रहणं भगवता प्रतिक्रुष्ट- | प्रतिषिद्धम् अतो वसतिमवभाषितुंगणधरो गच्छति, संस्तारकांश्च तासां प्रायोग्यमुत्पाद्य तान् प्रदातुं गणधरस्तत्र व्रजेत्। __ अथोपधिद्वारमाहपडियं पम्हटुं वा, पलावियं अवहियं च उग्गमियं / उवहिं भाएतुंजे, दाएजं वा विवओज्जा / / 47 / / भिक्षादौ पर्यटन्तीनां तासामुपधिः पतितः स्वाध्यायभूमौ वा गतानां 'पम्हुटुं' ति विस्मृतः / उदकेन वा प्लावितः, स्तेनैर्वाऽपहृतः। स च भूयोऽपि साधुभिर्लब्धः, अपूर्वो वा उपधिस्तैरुद्गमित उत्पादितः / अतस्तमुपधिं भाजयितुंवा दातुंवा गणधरो व्रजेत् / तत्र पतितविस्मृतादेरुपकरणस्य यस्याः सत्कंतस्याएव यद्विभज्य समर्पणं तद्भाजनमुच्यते, यत्पुनरपूर्वं उपधिरुत्पाद्य तासां दीयते तद्दानम् / प्रवर्त्तिन्या अभावे शेषसंयतीनां विभज्य समर्पणं विभजनम्, यत्तु प्रवर्तिन्या हस्ते समर्प्यते तद्दानम्। ___ अथ संघप्राघूर्णद्वारमाहओहाणाभिमुहीणं, थिरकरणं काउ अभियाणं तु। गच्छेजा पाहुणओ, संघकुलथेरगणथेरो॥४८|| अवधावनाभिमुखाना परीषहपराजितानामार्यिकाणां स्थिरीकरणं कर्तुं प्राघूर्णको गच्छेत्। कः पुनः प्राघूर्णक इत्याह-संघस्थविरः कुलस्थविरो वा उपलक्षणमिदम् तेनान्योऽपि यः स्थिरीकरणलब्धिसम्पन्नः स गच्छति। अथ शैक्षद्वारमाहअन्नत्थ अप्पसत्था, होज पसत्था य अधिगोवसए। एएण कारणेणं, गच्छेज्ज उवट्ठवेचं जे ||49ll अन्यत्र विधीयमाना उपस्थापना क्षाराङ्गारे कचवराद्य-प्रशस्तद्रव्ययुक्तत्वादप्रशस्ता भवेत्। आर्यिकोपाश्रये प्रशस्ता एतेन कारणेन शैक्षमुपस्थापयितुं 'जे' इति पादपूरणे, आर्यिकावसतिं गच्छेत्। स्थापनाद्वारमाहठवणकुलाइ ठवेडं, तासिं ठवियाणि वा णिवेदेउं / परिहरि ठवियाणि य, ठवणादियणं व वोत्तुंजे // 10 // दानश्रद्धादीनि स्थापनाकुलानि तासां समक्ष स्थापयितुम्, यद्रातानि स्ववसतौ स्थापितानि परंतासां निवेदयितुममुकममुकं च कुलं स्थापितमित्येवं ज्ञापयितुम् इदानी वा तानि कुलानिस्थापितानिततः परिहतुन निर्वेष्टव्यानीत्येवं निवारयितुम, येषु जन्मसूतकमृतसूतकादियुक्तेषु कुलेषु पूर्वमित्वरस्थापना कृता तेषु विवक्षितावधिपरिपूर्त्यनन्तरं भूयोऽप्यादानंग्रहणं कुरुत इत्याज्ञावचनं वक्तुंगन्तव्यम्। अथोद्देशानुज्ञाद्वारमाहवसहीएसज्झाए, गोरवभयसद्धमंगले चेव। उहेसादी काउं, वाएवं वा विगच्छेज्जा ||11|| वसतावस्वाध्यायिके जातेसंयतीवसतिमुद्देशमनुज्ञा वा कर्तुं गच्छेत्, अथवा-यद्याचार्यः स्वयं तासामुद्देशादिकं करोति ततस्ता आधार्यविषयं यद्गौरवं यच्च तदीयं भयं ताभ्यां शीघ्रं तदङ्ग श्रुतस्कन्धादिकमधीयते, आचार्येण वा स्वयमुद्दिष्ट तासां महती श्रद्धोपजायते प्रशस्तद्रव्यादिगुणयुक्तत्वाच तत्रोद्देशादौ विधीयमाने मङ्गलं भवेत्। एतैः कारणैरुद्देशादिकं कर्तुं तत्र गच्छेत् / प्रतिवाचिन्यां वा कालगतायामन्या काचित्तासां वाचनादात्री न विद्यते ततो गणधरो वाचयितुं गच्छेत्। भण्डनद्वारमाहउप्पन्ने अहिगरणे, ठिउं सवेउं तहिं पसत्थं तु। अच्छंतिखउरियाउं,संजम सार ठवेजे // 5 // अधिकरणे उत्पन्ने सति ताः संयमस्य सारं सर्वस्वभूतमुपशमं पार्श्वे स्थापयित्वा 'जे' इति प्राग्वत् / 'खउरियाउ' त्ति कलुषित-चेतसः परस्परमालपन्त्यस्तिष्ठन्ति, ततस्ता युपश
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________________ वसहि 1054 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि मयितुं तत्रैव-संयतीवसतौ गणधरस्यान्यस्य वा तथाविधोपशमनलब्धिसम्पन्नस्य गमनं प्रशस्तं भवति। गणद्वारमाहजइ कालगया गणिनी, नऽत्थि उ अन्नाउ गणहरसमत्था। एतेण कारणेणं, गणचिंताए वि गच्छेज्जा॥५३| यदि गणिनी कालगता, नास्ति चाऽन्या संयती गणधरोद्वहनसमर्था / अत-एतेन कारणेन गणचिन्ताकरणार्थमपि गच्छेत्। अथानात्मवशाद्वारमाहअज्जं जक्खाइटुं, खित्तचित्तं च दित्तचित्तं वा। उम्मातप्पत्तं वा, काउंगच्छेज्ज अप्पज्झं // 5 // यक्षेणाविष्टा-गृहीता यक्षाविष्टा अपमानतया क्षिप्तं नष्टं चित्तं यस्याः सा क्षिप्तचित्ता, या तु हर्षातिरेकेणापहृतचित्ता सा दीप्तचित्ता भण्यते, या तु मोहनीयकम्र्मोदयेन चित्तस्तब्धतामुपगता सा उन्मादप्राप्ता, ईदृशीमायाँ विज्ञायाचार्या मन्त्रेण वा 'अप्पज्झं' ति आत्मवशांस्वचित्तां कर्तुं संयतीवसतियायात्-गच्छेत्। __ अनिद्वारमाहजह अगणिना उ वसही, दड्डा डज्झई डज्झिहिति व त्ति। नाऊण व सोऊण व, उवघेत्तुं जे व जाएज्जा / / 5 / / यद्यग्निना संयतीवसतिर्दग्धा, दह्यते वा संप्रति काले, अथवा--प्रत्यासन्नाग्निप्रदीपनदर्शनेन धक्ष्यते इति ज्ञात्वा वा स्वयम्, श्रुत्वा वापरमुखेनाकर्ण्य तां वसतिमुपग्रहीतुं-संस्थापयितुं निर्वापयितुं वा 'जे' इति पादपूरणे, संयतीवसतिं यायात्-गच्छेत्। __ अथाप्कायद्वारमाहनइपूरेण व वसही, वुज्झइ बूढावं वुज्झिहिति व ति। उदगभरियं व सोचा, उवधेत्तुं तं तु वचेजा / / 56|| नदीपूरेण प्रसरता वसतिः साम्प्रतमुह्यते-नीयते, व्यूढा वानीता, वक्ष्यते वा--नेष्यते उदकेन वा वसतिर्वृता / एवं श्रुत्वा तां वसतिमुप-ग्रहीतुमुल्लोचनादिकं कर्तुं व्रजेत्। विचारद्वारमाहघोडेहि व धुत्तेहि व,अहवा वि जती वियारभूमीए। जयणाए व करेउं, संठवणाए व वञ्चिज्जा / / 57|| घोटैश्वाश्वधूतैर्वा वसत्याः पुरोवगडेगच्छन्त्यस्ता उपसर्ग्यन्ते ततस्तेषां सानुनयनिवारणार्थं गच्छेत् / अथ संयतीनां विचारभूमौ ते समागच्छन्ति तन्निवारणार्थ गच्छेत्। अथवा-यतनया तासां कायिकीभूमिविचारभूमि वा कर्तु पूर्वकृता या वा संस्थापनानिमित्तं व्रजेत्। पुत्रद्वारमाहपुत्तो वा भाया वा, भगिणी वा होज ताण कालगया। अजाए दुखियाए, अणुसट्ठीए विगच्छेज्जा / / 58|| पुत्रो वा भ्राता वा भगिनी वा तासां कालगता, भवेत्, ततो या तत्रार्यिका दुःखिताशोकसागरावगाढा भवति तस्याअनुशिष्ट्यर्थमपि सूरिः स्वयमेव गच्छेत्। तस्याश्चेयमनुशिष्टिातव्यातेलोक्कदेवमहिया, तित्थयरा नीरया गया सिद्धि। थेरा वि गया केई, चरणगुणपभावया धीरा ||59l येऽपि तावत्प्रैलोक्यदेवमहिता-भुवनत्रयवासिभिः सुरासुरैरभ्य-- र्चितास्तीर्थकरास्तेऽपि भगवन्तो नीरजस्सकलकर्मनिर्मुक्ता गताः-- प्राप्ताःसिद्धिम्, तथा स्थविरा अपि ऋषभसेनगौतमादयः केचिच्चरमदेहधारिणो गताः सिद्धिम्, कथंभूताः? चरणगुणानां मूलोत्तरगुणरूपाणां स्वगमेनैव चराणां नान्येषांवोपदेशद्वारेण प्रभावकाः-प्रकर्षण स्फातितार-- श्वरणगुणप्रभावकाः धीराः-परीषहोपसर्गरक्षोभ्याः, यद्येवंविधा अपि महापुरुषाः कालगतास्ततश्शेषजनस्य मरणे किमाश्चर्यमिति भावः। तथाबंभीय सुंदरी या, अन्ना वि य जाउलोगजेट्ठाओ। ताओ विय कालगया, किं पुण सेसाउ अजाओ॥६०|| ब्राह्मी सुन्दरी च अन्या अपि च या लोकज्येष्ठा आर्यचन्दनामृगावतीप्रभृतय आर्यिकास्ता अपि कालगताः, किं पुनः शेषा आर्यिकाः। ततःनहु होइ सोइयव्वो, जो कालगओ दढो चरित्तम्मि। सो होइ सोतियव्वो, जो संजमदुबलो विहरे // 61|| (नहु) नैवाऽसौ साधुसाध्वीजनः शोचितव्यो भवति। यश्चारित्रे दृढोनिष्प्रकम्पः सन् भक्तप्रत्याख्यानादिविधिना कालगतः,किं तु–श्रावकः शोचनीयो भवति यः पृथिव्याधुपमईनानेषणीयं पिण्डादिग्रहणं वा कुर्वन् संयमेन दुर्बलो विहरति। (बृ०) (आज्ञाया विषयः 'आणा' शब्दे द्वितीयभागे 118 पृष्ठे गतः।) अथ संगमद्वारमाहपुत्तो पिया व भाया, अजाणं आगतो तहिं कोई। घित्तूण गणहरो तं, वचति तो संजतीवसहिं॥६३|| पुत्रः पिता वा भ्राता वा आर्याणां संबग्धी चिरप्रोषितस्तत्र कश्चिदागतो भवेत्, ततस्तं गृहीत्वा गणधरः संयतीवसतिं व्रजति। येन तासांतस्मिन् संज्ञातकसाधौ दृष्टे समाधिरुपजायते। अथसंलेखनव्युत्सृष्टद्वाराणि युगपदाहसंलिहियं पि य तिविहं, वोसिरियव्वं च तिविह वोसह। कालगये त्तिय सोचा, सरीरमहिमाइ गच्छेज्जा / / 6 / / इह संलेखितम् अपिशब्दात्-संलेख्यमानं वस्तु त्रिधाआहारः शरीरमुपकरणं वा / यद्वा-उपधिः शरीरं कषायाश्चेति / व्युत्सृष्टव्यमप्येवमेव त्रिविधम्, अनशनप्रतिपत्तिकाले एतदेव त्रयं व्युत्सर्जनीयमिति भावः / एवं निसृष्टमपि त्रिविधमेषु त्रिष्वपि तस्याः स्थिरीकरणार्थं सूरिणा गन्तव्यम्। यावत् कालगता सा संयतीति वार्ता श्रुता तां च श्रुत्वा तस्याः शरीरमहिमार्थं गणधरः स्वयमेव गतः। जाहे विय कालगया, ताहे वि य दुन्नि तिनि वा दिवसे। गच्छेज्ज संजईणं, णणुसहि गणहरो दाउं॥६॥ यदाऽपि च प्रवर्तिनीप्रभृतिका महानिनादसंयती कालगता भवति तदा द्वौ त्रीन् वा दिवसान् संयतीनामनुशिष्टिं प्रदातुं गणधरो गच्छेत् / गतं गम्यते कारणजाते इति मूलद्वारम्। अथ प्राघूर्णकद्वारमाहअप्पबितिऽप्पततिया, पाहुणया आगया सउवचारा। सिज्जायरमामाए, पडिकुठुद्देसिए पुच्छा॥६६॥ ताउनयनिवारणा वसत्याः पुनाव चिया
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________________ वसहि 1045 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि प्राघूर्णकाः साधव आत्मद्वितीया आत्मतृतीया वा तत्रागताः। तैश्च तत्र श्रुतंयथाऽत्र संयत्यस्तिष्ठन्तिाततस्ते तासां वसतिसोपचाराः प्रविशन्ति। सोपचारा नाम-त्रिषु स्थानेषु प्रयुक्तनैषेधिकीशब्दाः, यदा-संयतीभिर्येषां वक्ष्यमाण उपचारः प्रयुक्तस्ते सोपचारा उच्यन्ते, तेषु समागतेषु प्रवर्तिनी यदि स्थविरा तत आत्मद्वितीया निर्गच्छति / अथ तरुणी तत आत्मतृतीया, या चतत्र स्थविरा पुरतस्तिष्ठतिततः साधवः शय्यातरकुलं मामककुलं प्रतिक्रुष्टकूलानि वा रजकादिसंबन्धीनि, औद्देशिकंच येषु कुलेषु क्रियते तानि प्रष्टुं प्रवर्त्तिन्याः समीपे गच्छन्ति। अथोपचारं व्याख्यातिआसंदग कट्ठमओ, मिसिया वा पीढगं व कट्ठमयं। तक्खणलंभे असई, पडिहारिगपेहभोगण्णे // 67|| यदि साधुषु समागतेषु तत्क्षणादेव काष्ठमय आसन्दकोऽशुषिरादिगुणोपेतः प्राप्यते, वृषिका वा काष्ठमयं वा पीढकं लभ्यते, ततस्तदानीमेव तद्ग्रहीतव्यम्।अथ तत्क्षणादेवासन्दकादिन लभ्यते ततो गतं प्रातिहारिकं गृहीत्वा स्थापयन्ति 'पेह' त्ति तद्योभयसंध्यं प्रत्यपेक्षते 'भोगण्णे' त्ति अकारप्रश्लेषादन्यान्यानामसंयतीजनस्य प्रातिहारिकस्य भोगं न करोति / ततस्ते तत्रोपविष्टाः संयतीनां निरावाधादिवार्ता पृष्ठा शय्यातरकुलादीनि पृच्छन्ति। अथ केन विधिना ते पृच्छन्ति, केन वा विधिना तास्तेषां दर्शयन्तीत्युच्यतेवाहॉए अंगुलीऍ व, लट्ठीऍ व उज्जु ठिओ संतो। न पुच्छेज न दाएज, पचावाया भवे तत्थ // 68|| शय्यातरादिकुलं पृच्छन् दर्शयन् वा बाहया बाहुप्रसार्य एवम् अगुल्या वायष्ट्या वा गृहस्य ऋजुकं संमुखं स्थितः सन्न पृच्छेत्, न वा दर्शयेत्। कुत इत्याह-- यतस्तत्रैव पृच्छ्यमाने दर्श्यमाने वा प्रत्यपाया बहवो भवन्तीति। तानेवाहतेणेहि अगणिणा वा, जीवियववरोवणं व पडिणीए। खरए खरिया सुण्हा, नट्टे वट्टक्खरे संका ||6|| बाहादिकं प्रसार्य साधुना यद् गृहं पृष्टं संयत्या वादर्शितम्: ततः स्तेनैः किञ्चिदपहृतं भवेत्, अग्रिना वा तद् गृहं दग्धम्, प्रत्यनीकेन वा तस्मिन् गृहे कस्यापि जीवव्यपरोपणं कृतम्, ढ्यक्षरको वाट्यक्षरिका वा केनचिदपहृता स्नुषा वा केनचिद्भूर्तेन सह पलायिता, वृत्तखुरोवा प्रधानस्तुरङ्गमो नष्टो भवेत्, ततः साधुसाध्वीविषया शङ्का भवेत् / नूनमेतैरेवापहृतम्, दग्धमित्यादि / ततो नाऽविधिना पृच्छेत् / तत्र वासिनस्ते साधवो न हसन्ति, नवा कन्दर्प कुर्वन्ति। किंतुसेजायराण धम्म, कहिंति अजाण देंति अणुसद्धि। धम्मम्मि य कहियम्मि य, सव्वे संवेगमावन्ना // 7 // शय्यातराणां धर्म कथयन्ति / आर्याणां वा उद्यतानां स्थिरीकरणार्थ सीदन्तीनां पुनरुद्यमनार्थमनुशिष्टिं प्रयच्छन्ति। धर्मे च कथिते सर्वे श्राद्धाः संयत्यश्च संवेगमापन्ना भवन्ति, आत्मनश्च निर्जरा भवति। प्राघुणकद्वारमेव प्रकारान्तरेण व्याचष्टअन्नो वि अ आएसो, पाहुणगअभासिया उ तेणमए। चिलिमिलिअंतरिया खलु, चाउस्साले वसेऽजाणं // 71|| अयमन्योऽपर आदेशः प्राघुणकद्वारे समस्ति, ते प्राघुणका आभाषिका द्रविडादिदेशोद्भवाः ततस्तत्र तेषामुपाश्रयो दुर्लभः / अतस्तदर्थे संयत्यो वसतिंमार्गयन्तिायदिताभिरपि गवेषयन्तीभिर्न लब्धा ततो वृक्षमूलादि बहिर्वसन्ति। अथ बहिः स्तेनभयं ततो यत्रार्याः स्थिताः सन्ति तच तुः शालं भवेत् 'तत्रान्यस्यां शालायां साधवश्विलिमिलिकया अन्तरिता वसेयुः। चतुःशालस्याऽभावे विधिमाहकुडुतरस्स असती, कडओ पोत्तं च अंतरे थेरा। तेसंऽतरिया खुड्डी, समणीण वि मग्गणा एवं // 72 // अन्यस्या वसतेरभावे संयताः संयत्यश्चैकस्मिन् गृहे वसन्ति, कुड्यान्तरस्याभावे कटकोऽपान्तराले दीयते / कटकस्याभावे पोतंवस्त्रं तन्मयी चिलिमिलिका तस्याः स्तेनभयम्, ततो यस्मिन्पार्श्वे संयत्यस्तस्याः प्रथमं स्वविरास्तेरैन्तरिताः क्षुल्लकास्ततो मध्यमास्ततस्तरुणा इति, एवं श्रमणीनामपि मार्गणा कर्त्तव्या। तद्यथास्थविरसाधूनामासन्ने क्षुलिकास्ततः स्थविरास्ततो मध्यमास्ततो दृढाऽऽसन्ने तरुण्यः स्थाप्यन्ते। तत्र स्थितानां विधिमाहअन्नाए आभोग, नाऍ ससई करेंति सज्झायं। अव्वुग्धायाव सुवे, अच्छंति व अन्नहिं दिवसं 173|| यदितत्र जनेनाज्ञाताः स्थितास्ततोरात्रावभोगमुपयोगं कुर्वते; तूष्णीका आसते इत्यर्थः। अथ ज्ञातास्ततः सशब्दं महताशब्देन युक्तंस्वाध्यायं कुर्वन्ति / अथ ते चोद्वाताः-परिश्रान्तास्ततः स्वपन्ति / कारणमचैकद्वित्रीन् वा दिवसान्तत्रैव यदि स्थास्नवस्ततो दिवसमन्यत्रोद्यानादिषु स्थित्वा रात्रौ तत्र वसन्ति। कारणाभावे तु तत्रैकरात्रादुषित्वा प्रभाते व्रजन्तिसमणी समणपविटे, निसंतउल्लावकारणे गुरुगा। पयलानिद्दतुवट्टे, अच्छीमलणे गिही मूलं // 7 // श्रमणीजने श्रमणजने च कायिकी कृत्वा प्रविष्ट सति यद्येकोऽनेको वा एक एवानेकाभिर्वा संयतीभिः समं निशान्ते निः संचरवेलाया मुल्लापकं कारणे-आगाढकारणाभावे कुर्वन्ति ततश्चतुर्गुरुकम् / तथाऽन्यत्रोद्यानादिषु श्वापदस्तेनादिभयाद्वाऽपि तत्रैव तिष्ठन्ति, यदि प्रचलायन्ते, निद्रायन्ते, त्वग्वर्तयन्ति वा अक्षिणी मलयन्ति, तत्र चतुर्गुरुकम्। अथ गृही प्रचलादि विदधानंतं दृष्ट्वा शङ्कां करोति-किमेष स्वाध्यायजागरणेन खिन्नः प्रचलायते उत सागारिकजागरेणेत्यादि, ततश्चतुर्गुरुः, निःशङ्किते मूलम्। उचारं पासवणं वा, अन्नहिं मत्तएसु वज्जयंति। अहिपविठ्ठावा, अदिट्ट णिते ततो भयिता / / 7 / / उच्चारं प्रश्रवणं वा यदि बाहीक भूमिं विमुच्यान्यत्र प्रकुर्वन्ति, मात्रकेषु वा कृत्वा बहिः परिष्ठापनायागतास्तत्र यदि
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________________ वसहि 1046 - अभिघानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि गृहिभिर्दृष्टाः प्रविष्टास्ततो भक्ता-विकल्पिताः। दृष्टा वा अदृष्टा वा निर्गच्छन्तीति भावः। तत्थऽण्णत्थ व दिवसं, अच्छंता परिहरंति निहाई। जयणाएव सुवंति, उभयं पिय मग्गए वसहिं // 76|| तत्र रजन्यामुषित्वादिकं च ततस्तत्र वा संयतीवसतावन्यत्र वा उद्यानादिषु तिष्ठन्ति, निद्राप्रचलादिकं परिहरन्ति / यवनिकान्तरिता यतनया स्वपन्ति, यथा सागारिको न पश्यति / यदि तत्र कियन्तमपि कालं स्थातुकामास्तत उभयमपि साधवः साध्वयश्चान्यां वसति मार्गयन्ति, लब्धायां तत्र साधवस्तिष्ठन्ति। गतं प्रा (घूर्ण)घुणकद्वारम्। अथ गणधरद्वारमाहअहिणा विमूहका वा, सहसा डाहो व होज सासो वा। जति आगाढं अजा-ण होइगमणं गणहरस्स / / 77|| अहिना सर्पण काचिदार्यिका दष्टा, अतिमात्रे वा भुक्ते विसूचिका कस्याश्चिदजनिष्ट, सहसाऽपि तेनाग्निना वा दाहो दाहज्यरो वा भवेत्, श्वासो वा कस्याश्चिदकस्मादजनि। एवमादिकं यद्यागाद कार्यमार्याणां भवति ततो दिवा रात्रौ वा गणधरस्य गमनमनुज्ञातम्। अथवापडिणीयमेच्छमालव-गयगोणामहिसतेणगाई वा। आसन्ने उवसग्गे, कप्पइ गमणं गणहरस्स७८|| प्रत्यनीकम्लेच्छमालवस्तेनगजगोमहिषस्तेनकादयो वा संयती-. नामुपसर्ग कर्तुमारब्धाः। यद्वा न तावदेवोपसर्गयन्ति, परं तेषामासन्न उपसर्गो वर्तते तत्क्षणादेवभावीत्यर्थः। ततः कल्पते गणधरस्य वा सामान्यस्य वा समर्थस्य वा तन्निवारणार्थं गमनम्। गतंगणधरद्वारम्। __अथ महर्द्धिकद्वारमाहरायाऽमच्चे सेट्ठी, पुरोहिओ सत्थवाहपुत्ते य। गामउडे रहउडे, जे य गणहरे महिड्डीए ||7|| राजा-पृथिवीपतिः अमात्यो मन्त्री, अष्टादशानां प्रकृतीनां महत्तरः श्रेष्ठी, पौरजनपदयुक्तस्य राज्ञो होमादिना अशिवायुपद्रवप्रशमकः पुरोहितः, यस्तु क्रयाणकजातं गृहीत्वा लोभार्थमन्यदेशं व्रजन् सार्थ वाहयति योगक्षेमचिन्तया पालयति ससार्थवाहः, पुत्रशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते-राजा राजपुत्र इत्यादि, तथा ग्रामकूटो-ग्राममहत्तरः, राष्ट्रकूटो-राष्ट्रमहत्तरः, एते प्रव्रजिता इह गृह्यन्ते। यश्च गणधरो राजादिबहुमतो विद्याऽतिशयसंपन्नो वा एते सर्वेऽपि महर्द्धिका उच्यन्ते। एतेषां संयतीवसतिं गच्छताममी गुणा भवन्तिअजाण तेयजणाणं, दुजणसचकारया य गोरवया। तम्हा समणुण्णायं, गणहरगमणं महड्डीए।।८०|| आर्याणां तेजोजननं महात्म्योत्पादनं दुर्जनानां च सचमत्कारतासाशङ्कता भवति, न किंचित् प्रत्यनीकत्वं कुर्वन्तीत्यर्थः। लोके चार्याणां गौरवमुपजायते, तस्मात् गणधरस्य महर्द्धिकस्य च राजप्रव्रजितादेगमनमार्थिकाप्रतिश्रये समनुज्ञातम् / ताश्चार्यिकास्तान् राजादिदीक्षितान् दृष्ट्वा इत्थं चिन्तयन्तिसंतविमवा जइ तवं, करेंति अवज्झिऊण इडीओ। सीयंतथिरीकरणं, तित्थविवड्डी य वण्णो य|१|| यदि राजादिः संपदः अपोह्य-परित्यज्य तपः कुर्वन्ति ततो वयम् संपदं प्रार्थ्यमानाः किमेवं प्रमादमनास्तिष्ठाम इत्येवं सीदन्तीनामार्यिकाणां स्थिरीकरणं कृतं भवति। स्थिरीकरणे च क्रियमाणे तीर्थस्य वृद्धिस्तीर्थवृद्धो प्रवचनस्य वर्णोयशः-प्रवादप्रभाविता भवति।गतं महर्द्धिकद्वारम्। प्रच्छादना च शैक्ष इति द्वारमाहवीसुं(भी)भूतो राया, लक्खणजुत्तो न विज्जती कुमरो। पडिणीएहिं कहिए, आहावंती दवदवस्स // 2 // कस्यापि नृपतेस्त्रयः पुत्राः सम्यग्दर्शनलब्धबुद्धयो दीक्षां कक्षीकृतवन्तः। कालान्तरेण च सराजा विष्वग्भूतः-शरीरात् पृथग्भूतः कालगत इत्यर्थः। ततोऽमात्यादयो वयमराजकाः सन्तो नार्थभाज इति परिभाव्य राज्यलक्षणोपेतं कुमारं प्रयत्नेन गवेषितवन्तः, परं न विद्यतेकोऽपिलक्षणयुक्त कुमारः। ततः कथितं प्रत्यनीकैः स्ववचनिकादिभिर्यथा ये अस्यैवनृपतेः पुत्राः सन्ति ते साधवो विहरमाणा इहैवोद्याने संप्राप्ताः / ततस्ते अमात्यादयः सम्यग् ज्ञात्वा छत्रचामरखङ्गादिकं राजार्ह वस्तु गृहीत्वा द्रुतं द्रुतमाधावन्ति साधूनां समीपमागच्छन्ति। अथ प्रत्यनीकाः केन कारणेन कथयन्तीत्युच्यतेअइसिंजणम्मि वण्णो, आयती इड्डिमंतपूया य। रायसुयदिक्खिएणं, तित्थविवडीयलद्धीय // 3 // अमुनाराजसुतेन दीक्षितेन अमीषां श्रमणानामतीवजनेलोके वर्णवादः प्रवादो विजृम्भते, यथाऽहो अमीषामेव धर्मः प्रतिपत्तव्यः योदृशाः प्रव्रजन्ति / आयतिश्च संततिरमीषामेतेनाविच्छिन्ना भविष्यति / ऋद्धिमन्तश्च श्रेष्ठ्यादय एतत्प्रभावेणामीषां पूजां कुर्वन्ति। तथा राजसुतोऽत्र प्रव्रजित इति कृत्वा अपि बहवः प्रव्रजिष्यन्तीति तीर्थवृद्धिलब्धिश्चाहारवस्त्रादीनां प्रचुरा भवति। उत्प्रव्रजितेन पुनरमुना वण्णीदयो न भविष्यन्तीति बुद्ध्या प्रत्यनीकाः कथयन्ति। ततस्तानमात्यादीनुत्प्रव्रजनार्थमागच्छतः श्रुत्वा ते राजपुत्राः किं कुर्वन्तीत्याहदठूण य रायिडिं, परीसहपराइतो तहिं कोऽई। आपुच्छह आयरिए, सम्मत्ते अप्पमादो हु॥४॥ तां राजसमृद्धिमागच्छन्तीं दृष्ट्वा तत्र कोऽपि राजपुत्रः परीषह-पराजितः संस्तानाचार्यानापृच्छति-भगवन् ! अशक्तोऽहं प्रव्रज्यामनुपालयितुम् / ततः आचार्या भणन्ति-सौम्य ! सम्यक्त्वे भगवता हुनिश्चितमप्रमादः कर्तव्यः। नाऊण य माणुस्सं, दुल्लभं जीवितं च निस्सारं। संघस्स चेतियाण य, वच्छलत्तं करेजाहि ||5|| ज्ञात्वा मानुष्यं मनुष्यभवं सुदुर्लभं जीवितं च निःसारंमत्वा संघस्य चैत्यानां च वत्सलत्वं भक्तिं कुर्यादिति। द्वितीयः पुनराहकिं काहिंति ममेते, पडलग्गतणंत मे जटा इडी। को वाऽनिट्टफलेसुं, विभवेसु बलेसु र जा // 86|| किं करिष्यन्ति ममेते अमात्यादयः, पटलतृणमिव मया
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________________ वसहि 1047- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि राज्यऋद्धिर्जटाः-परित्यक्ताः, अपिच राज्यादिविभयानां भुक्तानां ध्रुवं नरकपातः फलम्। बलश्चामीषां संध्याभ्ररागवत्, अतः को वाऽनिष्टफलमिच्छेत् फलेषु अबलेषु च विभवेषु रज्येत्-रागमनुबनीयात् / एवमुक्त्वा प्रकट एव प्रदेशे स्थितः सर्वानुपसर्गानभिभूय स संयममनुपालयति। यस्तु तृतीयः स किं करोतीत्याहतइओ संजमअट्ठी, आयरिए पणमिऊण तिविहेणं / गेलने नियडीए,अजाणग उवस्सगमतीति / / 7 / / तृतीयोराजपुत्रः संयमार्थी, सगुरुभिरभिहितः-आर्य! संयती-प्रतिश्रये निलीयस्व।स प्राह-इच्छाम्यहं भगवद्वचनम्, निस्तारयत मांयेन केनापि प्रकारेणास्मादुपसर्गसमुद्रात्। एवमुक्तः स आचार्यान् त्रिविधेन मनोवाक्कायकर्मणा प्रणम्य निकृत्याग्लानत्वं कृत्वा आर्याणामुपाश्रयं प्रविशति। अंतद्धाणा असई, जइमं मूलो य अंविलीबीए। पीसित्ता देंति मुहे, अप्पगासं ठवेंति य विरेगो॥५८|| यद्यन्तर्धानकरणेऽञ्जनमन्त्रादि विद्यते ततःसोऽन्तर्हितः कृत्वा तत्रैव स्थाप्यते / अथ नास्त्यन्त नकरणं ततः संयतीनेपथ्यं कारयित्वा तद्वसति नेतव्यः। यदितस्यश्मश्रुकूर्च विद्यतेततोलोचः क्रियते, अम्लिनीबीजादि च पिष्ट्वा तस्य मुखे ददति; तैर्मुखमालिम्पन्तीत्यर्थः। अप्रकाशे चप्रदेशे संयतीवसतौ तं स्थापयन्ति। विरेकश्व विरेचनकारकौषधप्रयोगेण क्रियते। संथारकुसंघाडी, अमणुण्णे पाणए य परिसेओ। घंसणपीसणओसह, अधितिखरकम्मिमा बोलं / / 86 संस्तारके स संयतः शाय्यते, मलिना त्रुटिता च कुसंघाटी सप्रावरणा कार्यते, अतोऽन्यद् दुर्गन्धिपानकं तेन तस्यपरितः क्रियते। तथा काश्चन संयत्यस्तु चन्दनस्य घर्षणम्, अन्यास्तु पेषणमोषधस्य कुर्वन्ति, अपराः पुनः करतलपर्यस्तमुखा भूमिगतदृष्टयोऽधृतिं कुर्वाणास्तिष्ठस्ति।खरकमिकेषु च राज-पुरुषेषु च समागतेषु भणन्ति-मा बोलं कुरुत, एषा प्रवर्तिनीलाना न युष्मदीयं बोलं सहते, एवमसौ तत्र संयतीवेषेण तिष्ठन् सर्वाण्यपि स्थाननिषदनादीनि पदानि कुर्यात्। गतं प्रच्छादना वा शैक्ष' इति द्वारम्। अथासष्णिोश्चतुष्कभजनेति द्वारं बिभावयिषुराहदोण्हि वि सहू भवंती, सो व सहू सा च होज उ असहू। दोण्हं पि उ असहूणं, तिगिच्छजयणाए कायव्वा IIEOIl यस्या ग्लानसाध्वयाश्चिकित्सा क्रियते, यश्च यस्याः प्रतिवारकः तौ द्वावपि सहिष्णू भवतः एष प्रथमो भङ्गः। 'सोवसहुत्तिसाध्वी सहिष्णुः सच साधुरसहिष्णुरिति द्वितीयः। "साच होज्ज उ असहु"त्तिसा साध्वी असहिष्णुः साधुः सहिष्णुः एष तृतीयः। सध्वी साधुश्च द्वावप्यसहिष्णू इति चतुर्थः। एतेषु चतुर्षु भङ्गेषु यतनया चिकित्सा कर्त्तव्या। तत्र प्रथमभङ्ग तावद्भावयतिसोऊणं ओगिलाणिं,पंथे गामे व मिक्खवेलाए। जइ तुरियं नागच्छद, लग्गइ गुरुइ चउम्मासे ||1|| श्रुत्वा ग्लानां संयती पथिवा परिभ्रमन्ग्रामे वा तिष्ठन् भिक्षावेलायां वा पर्यटन् यदि त्वरितं ग्लानासमीपं नागच्छति ततश्चतुरो मासान् गुरुकान् लगतिप्राप्नोति, अतो ग्लनां श्रुत्वा निर्जरामभिलषता सर्वेणाप्याक्षेपेण तस्याः समीपं गन्तव्यम्,कथं पुनस्तस्याः श्रवणं भवति? उच्यते-यत्र ग्रामे ग्लाना विद्यते तस्य बहिरदूरसमीपे व्यतिव्रजन्तं गृहस्थः कोऽपि ब्रूते-युष्माभिरस्याः प्रतिजागरणं न क्रियते ? साधुराह-सुष्ठ क्रियते, गृही साधुना सह ब्रवीति। यद्येवं ततःलोलंती छगमुत्ते, सोउं घेत्तुं दवं तु आगच्छे। तूरंतो तं वसहि, णिवेयणं छायणज्जाए |2|| एकाकिनी संयती छगणमूत्रे आत्मीय एव पुरीषप्रश्रवणे लोलन्ती विलुठन्ती अत्र ग्रामे तिष्ठति, एवं श्रुत्वा तत एव द्रवं पानकं गृहीत्वा त्वरभाणः संयतीवसतिमागच्छति / ततो बहिः स्थित्वा शय्यातरीपादिार्यिकाया निवेदनं कारयति / यथा-बहिः साधुरागतोऽस्तीति। सा च शय्यातरी तस्या आर्यिकाया दुर्निवसितगात्राणां छादनं कुर्यात् / अथ सा न करोति तत आत्मनाऽपि यतनया तां छादयति। ततः साधुस्तस्या इत्थं स्थिरीकरणं करोतिआसासो वीसासो, मा भाहि ति थिरीकरणता से। धुविउंव चीरकरणं, तीसऽऽप्पण बाहि कप्पो य / / 63|| आश्वासो नाम-धीरा भव, अहं ते सर्वमपि वैयावृत्त्यं करिष्ये। विश्वासस्तु त्वं मम माता भगिनी दुहिता वा, अतो मा भैषीः, एवं वयोऽनुरूपमविरुद्धं वचनं ब्रवीति / इत्थं तस्याः स्थिरीकरणं कृत्वा छगणमूत्रलुलितां तां धावित्वा तस्या एवौपग्रहिकाणि चीवराणि, तेषामभावे आत्मीयान्यपि संस्तारके आस्तृणोति, तां वा परिधापयति / ततः खरण्टितचीवराणां प्रतिश्रद्धया बहिः कल्पो दातव्यः। भूमेरपि तस्या उपलेपनं कर्त्तव्यम्। अथ प्रवेशविधि विशेषत आहएएहि कारणेहि, पविसंते ऊ णिसीहिया तिन्नि। ठिच्चा णं कायव्वा, अंतरदूरे पवेसे य॥१५ एतैग्लानत्वादिभिः कारणेः संयतीवसतौ प्रविशता तिस्रो नैषेधिक्यः कर्तव्याः। कथमित्याह-स्थित्वा प्रथमनैषेधिकीकरणानन्तरं कियन्तमपि कालं प्रतीक्ष्य द्वितीया नैषेधिकी, ततो द्वितीयानन्तरं तृतीयाऽप्येवमेव कर्तव्या। प्रथमानैषधिकी दूरे-अग्रद्वारे द्वितीया अन्तरे-मध्यभागे, तृतीया प्रवेशे मूलद्वारे विधातव्या। ततःपडिहारिए पवेसो, तक्कजसमाणणा य जयणाए। गेलण्ण चिट्ठणादी, परिहरमाणो जतो खिप्पं / / 5 / / शय्यातराभिः प्रातिहारिक आर्यया ज्ञापिते सति प्रवेशः कर्तव्यः, प्रविष्टन च तस्य--विवक्षितस्य ग्लानकार्यस्य पूर्वोक्तया वक्ष्यमाणया यतनया संमानना कर्तव्या / एवं ग्लानत्वे तत्र स्थानादीनि पदानि कुर्यात् / तथा ग्लानकृत्यान्युत्सर्गतोऽशुद्धं परिहरन् करोति। अथ शुद्धं न प्राप्यते ततो 'जउ' त्ति अनागाढे पञ्चकहान्या यतमानः करोति 'खिप्पं ति आगाढे क्षिप्रमेव करोति।
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________________ वसहि 1048 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि अथवा--आत्मपरोभयसमुत्थदोषान् परिहरमाणो ग्लानकृत्यं करोति। कुत इत्याह- 'जतो खिप्पं' ति यत आत्मसमुत्थादिदोषानपरिहरतः क्षिप्रमेव संयमविराधना भवति। कीदृशः पुनस्तां प्रतिजागर्तीत्युच्यतेपियधम्मो दधम्मो, मिसवादी अप्पकोउहल्लोय। अजंगिलाणयं खलु, पडिजग्गति एरिसो साहू |5|| प्रिय इष्टो धो यस्य स प्रियधर्मा, धर्मे दृढो-निश्चलो दृढ धर्मा राजदन्तादित्यात् दृढशब्दस्य पूर्वनिपातः, मितं-परिमिताक्षरं वक्तुं शीलमस्येति मितवादी, अल्पशब्दस्यहाभाववचनत्वादल्पम्-अविद्यमानं कौतूहलं स्वीरूपदर्शनादिषु यस्य सोऽल्पकौतूहलः / ईदृशः साधुरार्या ग्लानां प्रतिजागर्ति। सो परिणामविहिण्ण, इंदियदारेहि संदरियदारो। जं किंचि दुन्भिगंध, सयमेव विगिचणं कुणति // 96|| स वैयावृत्त्यकरो वर्णगन्धादिभिः शुभा अपि भावा भूयोप्य-शुभा भवन्ति; अशुभा अपि च संस्कारविशेषतो विश्रसया वा शुभा जायन्ते इत्येवंपुद्गलानां परिणामविधिं जानातीतिपरिणामविधिज्ञः। तथेन्द्रियद्वारेभ्यः संवृतद्वारः इह 'गम्ययपः कर्माधारे' // 2 // 27 // इत्यनेन पञ्चमी / ततोऽयमर्थः- इन्द्रियरूपाणि द्वाराण्यधिकृत्य संवृतद्वारो न पुनर्बाह्यद्वाराणि। ईदृशः साधुर्यत्किचिदार्यिकायाः संज्ञादिकं दुरभिगन्धं तस्य स्वयमेव विवेचनं स्फेटनं परिष्ठापनं वा करोति। संवृतद्वारपदस्य सफलं वा करणार्थमाहगुरुझंगवदणकक्खो -राअंतरे तह थणंतरे दटुं। संहरति ततो दिहि, न य बंधति दिहिए दिहिं ||17|| गुह्याङ्गस्य वदनस्य कक्षयोरूर्वोश्च यान्यन्तराणि-अवकाशास्तानि, तथा स्तनान्तराणि च दृष्ट्वा संहरति-भास्करादिव ततो दृष्टि निवर्त्तयति! नच नैवार्यिकायां दृष्टौ दष्टिं बध्नाति-मीलयतीत्यर्थः। अथ यत्किचित् दुरभिगन्धमित्यादिव्याचष्टेउचारे पासवणे,खेले सिंघाडए विगिंचणया। उव्वत्तणपरियत्तण, णंतगणिल्लेवणसरीरो॥९८|| उचारस्य प्रश्रवणस्य खेलस्य सिंधाणस्य च विवेचनं करोति। उद्वर्तनं नाम तस्या उत्तानायाः पार्श्वतः करणम्, ततः इतरस्यां दिशि स्थापनं परिवर्तनं तदपि करोति, नन्तकंवस्त्र तथा शरीरंच यदि संज्ञया मूत्रेण वा लिप्तं ततस्तदपि निर्लेपयितव्यम्। किरियातीतं णाउं, जं इच्छति एसणाएँ तं तत्थ। सद्धावणा परिण्णा, पडियरणकहा णमोकारो || क्रियायां क्रियमाणायामपि या न प्रगुणीभवति सा क्रियातीता, तां ज्ञात्वा सा प्रष्टव्याकेन भवत्या समाधिरुत्पद्यते? ततोयद्रव्यमिच्छतितदेषणया शुद्ध शुद्धस्यालाभे पञ्चकहानियतनयाऽपि गृहीत्वा दातव्यम्। ततः सा तथा श्रद्धाप्यते; यथा परिज्ञाय स्वयमनशनं प्रतिपद्यते। अनशनप्रतिपन्नायाश्च सर्वप्रयत्नेन प्रतिचरणं धर्मकथा च तथा कर्त्तव्या; यथा सम्यगुत्तमार्थमाराधयति / नमस्कारश्च तस्या मरणवेलायां दातव्य इति। क्रियासाध्याया विधिमाहदव्वं तु जाणियव्वं, समाधिकारं तु जस्स जं होति / णायम्मिय दवम्मिय, गवेसणा तस्स कायव्वा / / 10 / / यस्य रोगस्य यद्रव्यं यस्या वा ग्लानाया यत् समाधिकारकं तत्प्रथमत एव ज्ञातव्यम्। ज्ञाते च तस्मिन् द्रव्ये सर्वप्रयत्नेन तस्य गवेषणा कर्तव्या। सयमेव दिहपाढी, करेति पुच्छति अजाणओ वेशं / दीवणदव्वादिम्मिय, उवदेसे वादिजालंभे॥१०१।। वैद्यकशास्वरूपो दृष्टः पाठो येन स एवंविधः स्वयमेव चिकित्सां करोति, अथवा-वैद्यकशास्त्राभिप्रायं न जानाति, ततो वैद्यं पृच्छति,तस्य च वैद्यस्य दीपनं करोति / यथाऽहं कारणत एकाकी संजातः, अतो मा अपशकुनं गृह्णीध्वम्। ततो वैद्येन द्रव्यक्षेत्रकालभावभेदाच्चतुर्विधे उपदेशे दत्ते सति ब्रवीति। यदि वयमेतन्न लभामहे ततः किं प्रयच्छामः ! एवं पृष्ट भूयो द्रव्यान्तरे उपदिष्ट ब्रूते यद्येतदपि न लभामहे ततः किं कर्तव्यम्एवं तावत् पृच्छति; यावद्यस्य ध्रुवो लाभः तदुपदेशे च पृच्छा तिष्ठति; उपरमत इत्यर्थः। अथ रात्रौ विधिमाहअब्भासे व वसेज्जा, संबद्धं उवस्सयस्स वा दारे। आगाढे गेलण्णे, उवस्सए चिलिमिलिविभत्ते॥१०॥ संयतीप्रतिश्रयस्याभ्यासे-समीपे यदसंबद्धमन्यद् गृहं तत्र वसेत्, तस्याभावे संबद्धेऽप्यन्यगृहे, तदभावे उपाश्रयस्य वा द्वारे / अथ गाढं ग्लानकार्य भवति तत उपाश्रयेऽपि चिलिमिलिकाविभक्ते सति। किमर्थपुनरुपाश्रयस्यान्तर्वसतीत्याहउव्वत्तण परियत्तण, उभयविर्गिचट्ठपाणगट्ठावा। तक्करभयभीरक्खण, णमुकारट्ठा वसे तत्थ // 103|| तस्या उद्नंवा कर्तुम् उभयस्य वा कायिकीसंज्ञालक्षणस्य विवेचयनार्थम्, तृषार्ताया वा रात्रौ पानकदानार्थम्, यद्वा-तत्रतस्करभयम्; सा चसंयती स्वभावेनैव भीरुः ततो भयरक्षणार्थम, अथेति-अथवा मरणवेलायाः प्रत्यासन्नत्वे नमस्कारदानार्थं वा तत्र वसेत्। धिइबलजुत्तोऽविमुणी,सेज्जातरसण्णिसजिगादिजुतो। वसति परपचयहा, सलाहणट्ठाय अवराणं // 104|| यद्यपि समुनिः सहिष्णुत्वाद्धृतिबलयुक्तस्तथापि शय्यातरेण संज्ञिना वा श्रावकेण सिद्धकेन वा सहवासिना युक्तः-सहितः संयतीप्रतिश्रयं वसति, शय्यातरादिकमित्थं भणति न वर्तते ममैकाकिनः संयतीप्रतिश्रये रात्रौ वस्तुम्, अतो मम द्वितीयेन भवता भवितव्यम् / अथ किमर्थमेवं करोतीति चेदित्याह-परप्रत्ययार्थम्-परेषामगारिणां प्रतीत्युत्पादननिमित्तम्, यथा-नैष विरुद्धाभिप्रायेणात्र वसति अपरेषां वा साधूनां श्लाघार्थम्-धन्या अभी येषामेवंविधः सुदृढो धर्म इति। सो निजराए वट्टति, कुणति य वअणं अणंतणाणीणं / सपितिओ कहेती, परिवटेगागि वसमाणे / / 10 / / स साधुरेव कुर्वन् विपुलायां निर्जरायां वर्तते / आज्ञां
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________________ वसहि 1046 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि तत्र वाऽनन्तज्ञानिना-तीर्थकृतां करोति, सद्वितीयो वसन्तस्य-द्वितीयस्य धर्म कथयति। अथैकाकी वसति ततः सर्वामपि रात्रि परिवर्तयति। पडिजग्गिया य खिप्पं, दोण्ह सहूणं तिगिच्छजतणाए। तत्थेव गणहरो अ, अण्हहि जयणाइ तो णेइ / / 106 / / एवं तेन साधुना प्रतिजागरिता सा क्षिप्रं शीघ्रं प्रगुणीभवेत्, इत्थं द्वयोः सहिष्णोर्यतनया चिकित्साकरणमुक्तम्। तां च प्रगुणीभूतां गृहीत्या यदि तस्या गणधरस्तत्रैवासन्ने समस्ति ततस्तं गाढं खरण्टयित्वा तस्य समर्पयति। अथान्यत्र दूरदेशे ततः सार्थेन सह तां तत्र प्रस्थापयति, स्वयं वा यतनया तत्र नयति। कथमित्याहनिकारणे चमढणा, कारण गिण्हेति अहव अप्पाहे। गमणऽत्थि मिस्ससंबं-घि वञ्जिते असति एमागी।।१०७।। यदि सा ग्लाना संयती निष्कारणं गणादतिक्रम्यकाकिनीभूता ततस्तां चमढयति; निर्भर्त्सयतीत्यर्थः / अथ कारणिकी ततस्तां स्वयं नयति, येषां वा आचार्याणां सा संयती तेषां संदिशति / यथा-युष्माकं संयती साम्प्रतमन्न तिष्ठति, अस्या आनयनकृते संघाटकः प्रहेयः। यदा पुनः स स्वयं नयति। तदा इयं यतना। 'गमणित्थि' इत्यादिस्त्रीसार्थेन संबन्धिना समंप्रथमतोनयति, ततः स्त्रीसार्थेनैवासंबन्धिना, ततः पुरुषमिश्राभिरपि स्त्रीभिः, प्रथमं संबन्धिपुरुषयुक्ताभिरपि, ततः पुरुषैरेव केवलैः, प्रथम सबन्धिभिस्ततोऽसंबन्धिभिरपि समं नयति / एषां प्रकाराणामभावे स साधुरेककोऽपि तां नयति। तत्र चात्मना पुरतो गच्छति, संयतीन नासन्ने नातिदूरे पृष्ठतः स्थिता आगच्छति। ततः प्रथमो भङ्गः। ___ अथ द्वितीयभङ्गं बिभावयिषुराहनविय समत्थो सय्वो, हवेज एतारिसम्मि कजम्मि। कायव्वों पुरिसकारो, समाहिसंधारणहाए।।१०८॥ साध्वी सहिष्णुःसाधुरसहिष्णुरित्ययं भङ्गो भाव्यते / नापि च नैव सर्वोऽपि साधुरेतादृशे स्त्रियाः स्पर्शादावपि मनोनिग्रहात्मतके कार्ये समर्थो भवेत्। ततः किंसाग्लानासती तेन परित्यक्तव्या? नेत्याहज्ञानदर्शनचारित्राणां यः समाधिरन्योन्याविरोधिनैकत्रा-वस्थानं तस्य संधारणार्थ तथा साधुना पुरुषकारः कर्त्तव्यः यथा तस्याः चिकित्सा क्रियते, आत्मनश्च शीलखण्डना न भवति।। सपुनः साधुः कथमसहिष्णुर्भवतीत्युच्यतेसोऊण य पासित्ता, संलावणं संलावणं तहेव फासेणं / एतेहि असहमाणे, तिगिच्छजयणाइ कायव्वा / / 10 / / स्त्रियाःशब्दं श्रुत्वा रूपं वा तदीयं दृष्टा तया सार्द्ध वा यः संलापो वा तस्याः स्पर्शस्तेन वा तस्य मोहोद्भवे सति एतैः प्रकारैरसहमानइन्द्रियनिग्रहं कर्तुमक्षमो यस्तेन यतनया चिकित्सा कर्तव्या। तद्यथाप्रथम सा ग्लाना प्रष्टव्या, आर्ये ! भवति ! किं सहिष्णुर-सहिष्णुः? सा गीतार्था वा भवेदगीतार्था वा? अविकोविया उपुट्ठा, भणाइ किं मंन पाससी णियए। छगमुत्ते लोलंतिं. तो पुच्छसि किं सहू असहु॥११०॥ अविकोविदा--अगीतार्था पृष्टा इदं भणंति-किं मां न पश्यसि? निजके छगणे-मूत्रे लोलन्तीम्, तत एवं पृच्छसि-किं सहिष्णुर-सहिष्णुरिति। साधुराहपासामि णाम एतं, देहाऽवत्थं तु भगिणि जा तुझं। पुच्छामि घितिबलं ते, मा बंभविराहणा होजा||१११॥ नामेति-कोमलामन्त्रणे, भगिनि! पश्याम्यहमेतां दोहवस्थांया साम्प्रतं तववर्तते। परमहं ते-तवधृतिबलं पृच्छामि माममतव च ब्रह्मव्रतविराधना भवेदिति कृत्वा। ततःसाध्वी ब्रूतेइहरा विताव सद्धे, रूवाणि य बहुविहाणि पुरिसाणं। सोऊण व दठूण द, ण मणक्खोमो महं को वि॥११॥ इतरथाऽपि-नीरोगाया अपि मम तावत्पुरुषाणां गीतादीन श्रुत्वा, रूपाणि च बहुविधानि विशिष्टनेपथ्यालंकृतानि दृष्ट्वा कोऽपि न मनागपि मनःक्षोभो भवति। किं चसंलवमाणी दियए, णयामि विगतिंण संफुसित्ताणं हहा वि किं तु सहि, तं पुण णियगं धितिं जाण / / 113 // अहं सकलमपि दिवसं पुरुषेण सह संलपन्ती विकृतं-विकारं न यामि, न वा पुरुषहस्ताद्यवयवसंस्पृशाऽपि विकारं गच्छामि, तदेवं हृष्टाऽपि नीरोगाऽप्यहमेवं सहिष्णुः, किं पुनरिदानी ग्लानावस्थां प्राप्ता। त्वं पुनर्निजकामात्मीयां धृति जानीहि / एवमुक्ते स किं करोतीत्याहसो मग्गति साहम्मि, सण्णियहा महगं वि सूइंच। देति य से वेदणगं, भत्तं पाणं च पाउम्गं / / 115| सोऽसहिष्णुः साधुस्तत्रान्यत्र वा ग्रामे साधर्मिी संयती मार्गयति। तत्र प्रथम संविनां गीतार्थां, तदभावे संविग्नामगीतार्थाम, तदलाभे पार्श्वस्थां गीतार्थाम, तदप्राप्तौ पार्श्वस्थामगीतार्थाम् / अथ संयती न प्राप्यते ततः संज्ञिनीश्राविकाम, तामपि प्रथमं गृहीताणुव्रताम्, ततो दर्शनश्राविकामपि तदप्राप्तौ यथा भद्रिकामपि गवेषयति / तदलाभे सूतिकांनवप्रसूतस्त्रीं सूतीकर्मकारिणी मार्गयति / सा च धर्मकथया प्रज्ञाप्यते, यथा-मुधिकयैव संयत्या वैयावृत्त्यं करोति। अथासौ मुधिकया नेच्छति ततो वेतनमपि तस्यै भक्तपानं वा प्रायोग्यं ददाति। एयासिं असतीए,ण कहेति जहा अहं खु मितं असहू। सद्दाही जयणं पुण, करेमु एसा खलु जिणाणा // 11 // एतासामनन्तरोक्तस्त्रीणामभावे ससाधुस्तस्यां सुरतो नैवं कथयति, यथाऽहमसहिष्णुरस्मि, पराभवंश्च चेतसि निश्चिनोति, यथा शब्दादिविषयां यतनां कुर्मः / एषा खलु निश्चितं जिनानामाज्ञा।
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________________ वसहि 1050- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसहि यतनामेवाह दुःखमनुभूय भवत्या वैराग्यमपि न संजातम् / मयाऽपि साधम्मिकेति सद्दम्मि हत्थवत्था-दिएहि दिष्टिम्मि चिलिमिलिंतरितो। कृत्वा भवती चिकित्साकरणेन प्रगुणीकृता इतरथा मृता अभविष्यत्। संलावम्मि परमुहो, गोवालगकंचुओ फासे / / 117 // एवं सुष्ठ-अतीव ज्ञापिता सा आत्मानम आत्मनो निरभिलाषमित्यर्थः। यद्यसौ साधुः शब्दे असहिष्णुः ततस्तां ग्लानां भणति-मा वचनेन मां ततश्च चर--संप्रति निःशङ्का तपःकर्म। एवं तांशासित्वा स साधुरावश्यकीं व्यापारय, किंतु हस्तेन वा वस्त्रेण वा अगुल्या वा संज्ञां कुर्याः। यस्तु चेतयति; गमनं करोतीत्यर्थः। दृष्टिक्लीवः स सर्वमपि वैयावृत्त्यं चिलिमिलिकया अन्तरितं करोति / अथ द्वितीयपदमाहअथासौ संलापक्लीवस्ततोऽवश्यसंलपनीये पराङ्मुख संलापं करोति / बिइयपयमणप्पज्झे, पविसे य वि कोविए व अप्पज्झे। स्पर्शक्लीवस्तुगोपालककञ्चुकमात्मानं प्रावृत्त्य तस्याः सर्वमुद्वर्तनादि तेण गणियाउ संभम, बोहिगतेणेसु जाणमवि // 123 / / कृत्यं करोति। गतो द्वितीय-भङ्गः। द्वितीयपदे संयतीवसतौ अनात्मवशः क्षिप्तचित्तादिको नैषेधिकीअथतृतीयचतुर्थभङ्गयोरतिदेशमाह त्रयकरणमन्तरेणापि प्रविशेत्। आत्मवशो वा योऽपि कोविदः शैक्षः सोऽएसेव गमो नियमा, निग्गन्थीए वि होति असहए। प्यविधिना प्रविशेत् / यदा-स्तेनाग्न्यप्कायसंभ्रमेषु बोधिकस्तेनेषु वा दोण्हं पिउ असहूणं, तिगिच्छजयणाएँ कायव्वा // 11 // जानन्नपि गीतार्थोऽपि सहसा प्रविशेत् / बृ०३ उ०। एष एव द्वितीयभङ्गोक्तो गमः-प्रकारो नियमानिन्थ्यामप्यसहिष्णौ जे भिक्खू णिग्गंथीणं उवस्सयंसि अविहीए पविसइ पविसंतं कर्तव्यः; नवरं या शब्दादियतना सा चात्मना कर्तव्या, संयत्या च वा साइजह॥२॥ कारयितव्या / द्वयोरपि च संयतीसंयतयोः सहिष्ण्वोर्यतनया द्वितीय णिग्गंथाणं णिग्गंथीउवस्सओ वसही तं जो अविधीए पविसति तस्स तृतीयभङ्गोक्तया चिकित्सा कर्तव्या! मासलहुं आणादिया दोषा भवन्ति। नि०चू० ४उ०) ___ प्रगुणीभूता च काचिदिदं ब्रूयात् (26) निर्ग्रन्थानां वसतौ निर्ग्रन्थीभिर्न गन्तव्यम्आयंकविप्पमुक्का, हट्ठा बलिगाय निव्वुता संती। नो कप्पइ निग्गन्थीणं-निग्गन्थाणं उवस्सयंसि चिट्ठित्तए वा० अञ्जा भणेज्ज काई,जेट्ठजो वीसमामो वा // 116|| जाव कांउस्सग्गं वा ठाणं वा ठाइत्तए // 2 // अस्य संबन्धमाहआतङ्केनरोगेण विप्रमुक्ता सती हृष्टा संजाता, तथा बलिका-उपचितमांसशोणिता निर्वृत्ता-स्वस्थीभूतेन्द्रिया एवंविधा सती काचिदार्यिका पडिवक्खेणं जोगो, तासिं पिण कप्पती जतीणिलयं। ब्रूयात्-ज्येष्ठार्य! चिरसंयमभाराक्रान्तावावाम्, अतएनमसारंपरित्यज्य णिकारणगमणादी, जं जुज्जति तत्थ तंणेयं // 12 // यथासुखं किं चित्कालं तावद्विश्राम्यावः-विश्राम गृह्णीवः। 'पडिवक्खेणं' ति भावप्रधानत्वान्निद्देशस्य प्रनिपक्षतया निर्ग्रन्थानां किंच निर्ग्रन्थ्युपाश्रये गमनादिकं कर्तुं न कल्पते, तथा तासामापि निम्रन्थीनां यतिनिलयेनिग्रन्थोपाश्रये निष्कारणे गमनादिकं कर्तुं न कल्पते, तदर्थदिटुं परामुहं च, रहस्सगुज्झं च एकमेकस्स। प्रतिपादनार्थमिदं सूत्रमारभ्यते। अत्र च यत्प्रायश्चित्तदोषजालादि पूर्वतं वीसमामों अम्हे, पच्छा वि तवं चरिस्सामो।।१२०|| सूत्रोक्तं यत्र निष्कारणगमनादौयुज्यतेतत्र तत्स्वयं बुद्ध्याऽभ्यूह्य ज्ञातरहस्यमेकान्तयोग्यं यद् गुह्यं तन्मदीयं भवता, मयाऽपि भवदीय व्यम्। अनेन संबन्धेनाया तस्यास्य (2) व्याख्या प्राग्वत्। मुद्वर्तनपरिवर्तनादिक्रियासु, बहुश एकैकस्य दृष्ट परामृष्टं च / तत्तस्मात् अथ भाष्यम्विश्राम्यावः किंचित्कालम् / पश्चात्पश्चिमे काले तपश्चरिष्यावः। एसेव गमो नियमा, पण्णवणरूवणासु अजाणं। तं सोचासो भगवं, संविग्गोऽवजभीरुदढधम्मो। पडिजम्गती गिलाणं,साहुंजतणाए अजाऽवि॥१२५|| अपरिमियसत्तजुत्तो, णिकंपो मंदरो चेव / / 121 / / एष एव पूर्वसूत्रोक्तो गमो नियमात् प्रज्ञापनाप्ररूपणयोराणामपि तत्तस्या आर्यिकायाः वचनं श्रुत्वा स भगवान् संविनो मोक्षाभिलाषी मन्तव्यः। प्रज्ञापनानिष्कारणे अविधिना प्रविशतीत्याद्युल्लेखेन, चतुर्भड्अवयं-पापंततो भीरुश्चकितः, दृढधर्माचारित्रे स्थिरः, अपरिमितमिय ग्याऽसौ सामान्यतः कथनं प्ररूपणा प्रथममेकैकभङ्गकस्य प्ररूपणा / तारहितं यत् सत्त्वं धृतिबलं तेन युक्तः अत एव निष्कम्पो मन्दर इव तथा साधुग्लानमार्याऽपि यतनया तथैव प्रतिजागर्ति। नवरम्मेरुगिरिरिव, यथाहि-मन्दरो वायुना न कम्प्यते एवं परिभोगनिमन्त्रण सा मग्गइ साधम्मिअ, सण्णि जहा भहसंवरादी वा। वायुना स भगवान्न कम्पितवान्। देति य सें वेदयाणं, मत्तं पाणं च पायोग्गं / / 126|| किंतु द्वितीयतृतीयचतुर्थभङ्गेषु सा संयती साधर्मिकं साधुं मार्गयति, तदप्राप्ती उद्धंसिया य तेणं, सुठ्ठ विजाणाविता य अप्पाणं। संज्ञितं श्रावकम् तदलाभेयथाभद्रकम, तदभावे संवरंस्नातिकाशोधनम्, चरसुतवं निस्संका, उवासिअंसो उचिंतेइ॥१२२॥ आदिशब्दादन्यमपि तथाविधं मार्गयति। यदि वा-असौ मुधिकया नेच्छति उद्धर्षिता-खरण्टिता गाढं तेन भगवती सासंयती,यथा-निधर्मे! ईदृशं / ततस्तस्यवेतनंकमपि ददाति, भक्तंपानंच तस्यग्लानस्य प्रायोग्यमुत्पा
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________________ वसहि 1051 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसट्टि दयति। बृ०३उ०। पं०भा०ा पं०चू०। अनन्तरहितायां पृथिव्यां स्थानादीनि न कुर्यात् / नि०चू०१३ उ०। (अभिनिषद्यागमनम्--'अभिणिसज्जा' शब्दे प्रथमभागे७१८ पृष्ठे व्याख्यातम्।)-(उपसंपद्यमानेन कथं वस्तव्यम् इति 'उवसंपया' शब्दे द्वितीयभागे 663 पृष्ठे उक्तम्।)-- (आचार्योपाध्याययोर्वसतेरन्तः एकाकी वस्तुं कल्पते इति 'अइसय' शब्दे प्रथमभागे 26 पृष्ठे व्युत्पादितम्।)-('जिणकप्पिय' शब्दे चतुर्थभागे 1481 पृष्ठ जिनकल्पिकानां वसतिः।)-("णितियवास' शब्दे चतुर्थभागे 2067 पृष्ठे नित्यवास-निषेध उक्तः।)-(वृद्धावासः उवसपया' शब्दे द्वितीयभागे 668 पृष्ठे गतः।) (27) श्रावकस्य वसतिमाहनिवसेज तत्थ सद्धो, साहूर्ण जत्थ होइ संपाओ। चेइयहराइँ जम्मि, तयण्णसाहम्मिया चेव // 41 // निवसेद्-आवसेत्तत्र-नगरादौ श्राद्धः-श्रावकःसाधूनां-यतीनां यत्र नगरादौ भवति-जायते संपात-आगमनम, तथा चैत्यगृहाणि प्रतीतानि, यस्मिन् नगरादौ भवन्तीति गम्यते। तथा तस्मादधिकृतश्रावकादन्येअपरे ये साधम्मिकाः समानधम्मिकास्ते तदन्य-साधर्मिकाः श्रावकाः, चशब्दः समुच्चये, एवकारोऽवधारणे, तस्य चतत्रैवेत्येवं संबन्धो दृश्यः / अथैवंविधे स्थाने निवसतः किं फलमिति चेदुच्यते-गुणानां वृद्धिः। तथा चोक्तम्-साधुसंपातादिपुरस्काराय"साहूण वंदणेणं, नासति पावं असंकिया भावा / फासुयदाणे निज्जर, उवग्गहो नाणमाईणं / / 1 / / भिच्छादसणगहणं, सम्मद्देसणविसुद्धिहेउंच। चियवंदणाइविहिणा, पन्नत्तं वीयरागेहिं // 2 // साहम्मियथिरकरणे, वच्छलं सासणस्स सारो त्ति। मग्गसहायतणओ, तहा अणासोयधम्माओ // 3 // " इति गाथार्थः / / 3 / / पञ्चा०१ विव०। (कस्यां वा वसतौ स्वाध्याय इति 'सज्झाय' शब्दे वक्ष्यते / ) गृहे 'भवणं घर आवासो, निलयो वसही निहेलणं अगारं'। पाइ० ना०४६ गाथा। वसतिस्वामिनि देवलोकंगते कः शय्यातरः स्यादिति? प्रश्नः, अत्रोरम्-स्वामित्वेन तचिन्ताकारी स एव शय्यातरो भवतीति॥७७॥ सेन०२ उल्ला०। साधुभिर्वसतिप्रमार्जनानन्तरं श्राद्धाः प्रतिलेखनां कुर्वन्ति, तदा पुनरपि श्राद्धानां वसतिप्रमार्जनं मृग्यते न वेति? प्रश्नः, अत्रोत्तरम्-यतिभिर्वसतिप्रमार्जनानन्तरं श्राद्धानां प्रतिलेखनाकरणे काजकोद्धरणं कृतं बिलोक्यत इति ||11|| सेन०३ उल्ला०। विषयसूची(१) कीदृशी वसतिराश्रयणीया। (2) साण्डा वसतिर्न मार्गयितव्या। (3) प्रतिश्रयगता उद्गमादिदोषाः ! (4) औद्देशिकी शय्यां न गृह्णीयात् / (5) संयतार्थमसंयतः प्रतिश्रयं कुर्यात्। (6) प्रतिकर्म / (कतिप्रकारा शोधिः) (7) पिण्डादिषु वसतिदोषाः। (8) वर्षावासयोग्या वसतिः। (E) वसतौ पीठादिसञ्चालननिषेधः / (10) स्कन्धादिषु अन्तरिक्षे वसतिः। (11) निर्ग्रन्थीनां सागारिकवसतौ निषेधः। (12) स्त्रीपुंससागारिकोपाश्रये वस्तुं कल्पते न वा। (13) वसतिदोषविशेषप्रतिपादनम्। (14) तृणादिपुजेषु वसतिदोषाभिधानम्। (15) अभीक्ष्णं साधुष्ववपतत्सुन वसेत्। (16) कालातिक्रान्तवसतिदोषः।। (17) तथाविधकार्यवशाचरककार्पटिकादिभिः सह संवासे विधिः। (18) गृहमध्यान्मार्गवत्युपाश्रये न निवसेत्। (19) यत्र गृहपतिजनाः कलहंगात्राभ्यङ्गं वा कुर्वन्तितत्र वासनिषेधः। (20) अभिनिर्वगडायां वासविधिः। (21) वर्षासुकीदृशे उपाश्रये वसेत्। (22) हेमन्तग्रीष्मयो मासौ वस्तुंकल्पेते। (23) एकवगडायामेकपरिक्षेपायां वसतौ वासनिषेधः। (24) शीतोदकशय्यायां प्रवेशनिषेधः। (25) यत्र राजा तिष्ठति तस्यां वसतौ नवसेत्। (26) निर्ग्रन्थानां वसतौ निम्रन्थीभिर्न गन्तव्यम्। (27) श्रावकस्य वसतिः। वसहिदाणफल-न०(वसतिदानफल) वसतिदानफले, बृ०॥ वसहिफलं धम्मकहा, कहणमलद्धीउ सीसवावारे। पच्छा अइंति वसहिं,तत्थ य भुओ इमा मेरा // 740 // धर्मकथां कुर्वन्तः सूरयो वसतिफलं कथयन्ति यथा"रयणगिरिसिहरसरिसे, जंबूणयपवरवेइअक्खलिए। मुत्ताजालगपयरग-खिंखिणिवरसोभितविडंगे / / 1 / / वेरुलियपयरविहुम-खंभसहस्सोवसोभिअमुदारं। साहूण वसहिदाणा, लभते एयारिसे भवणे // 2 // " इत्यादि / 601 उ०२ प्रक वसहिपाल-पुं०(वसतिपाल)वसतिरक्षके, ओघा (भिक्षागतानांसाधूनां यो वसतिरक्षपाल आस्ते तेन किं कर्तव्यमिति भोयण' शब्दे पञ्चमभागे 1616 पृष्ठे गतम्।) (आचार्योवसतिपालत्वेनस्थापनीय इति वसति' शब्दे एवोक्तम्।) वसा-स्त्री०(वसा) शरीरस्नेहे, प्रश्न०१ आश्र० द्वार / शरीरावयवे, सका अस्थिमध्यरसे स्था०४ ठा०१ उ०। वसार्थं व्याघ्रमकरादयो मार्यन्ते। आचा०१ श्रु०१अ०६ उ० वसिअ-त्रि०(वसित) वसते, 'कुत्थो वसिओ' पाइना० 225 गाथा। वसिउ-अव्य०(उषित्वा) स्थित्वेत्यर्थे, बृ०१ उ०२ प्रक०। वसिउं-अव्य०(वसितुम्) धातूनामनेकार्थत्वात् बन्धितुमित्यर्थे, तं०। वसिट्ठ-पुं०(वशिष्ठ) स्वनामख्याते वाशिष्ठमूलगोत्रप्रवर्तके महर्षों , यद्गोत्रे आर्यसुहस्तिषष्ठगणधरा आसन् / स्था०७ठा०३ उ० आ०म०ा पार्श्वनाथस्य तृतीये गणधरे, स्था० 8 ठा०३ उकल्पा आ०म० औत्तराहाणां द्वीपकुमाराणामिन्द्रे, स्था०२ ठा०३उ० भ० स०)
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________________ वसित्त 1052 - अभिघानराजेन्द्रः - भाग 6 वसुआ वसित्त-न०(वशित्व) सिद्धिभेदे, यतः सर्वाण्येव भूतानि वचनं नाति तथाहिक्रामन्तिाद्वा०२६द्वान "अत्थिह नगरी तगरा, नगरी य महिव्य सुकणया सुपहा। वसित्ता-अव्य०(उषित्वा) वासं कृत्वेत्यर्थे , 'गिहवासमझे वसित्ता'। सययं पुव्वाभासी, आसी सिट्ठी वसूतत्थ।।१।। आचा०१ श्रु०४ अ०४० पयडियगुरुजणविणया, सेणी सिद्धो य तस्स दो तणया। वसिम-पुं०(वसिम) जनावासभूते जनपदे, बृ०१ उ०३ प्रक०। पयइपसंता भद्दा, पियंवया धम्मतिसिया य / / 2 / / वसिया-स्त्री०(वशिता) आत्मायत्ततायाम, दा०१८ द्वा०। सेणो सुविधम्म, पव्वइओ सीलचंदगुरुमूले। वसीकय-त्रि०(वशीकृत) पराजिते, आचा०१श्रु०२अ०४उ०। चरणकरणेसु नवरं, पभायसीलो दढं जाओ / / 3 / / वसीकरण-न०(वशीकरण) वश्यताकारके प्रयोगे, विपा०१ श्रु०२ अ01 वुड्डपिउपालणत्थं, अगहियदिक्खो गिहम्मि निवसंतो। कल्पना नि० चूल। ज्ञा०। “सरुषि नतिः स्तुतिवचनं, तदभिमते प्रेम सिद्धो पुण सुद्धमई, अणवरयं चिंतए एवं / / 4 / / तद्भिषि द्वेषः / दानमुपकारकीर्तन-ममन्त्रमूलं वशीकरणम् / / 1 / / " कइया अदभआरं-भकारणं चइयगेहवासमियं। स्था०३ठा०३ उ०। गिहिस्सं परमसुहि-कहेउसव्वन्नुणो दिक्खं // 5 // वसीकरणसुत्त-न०(वशीकरणसूत्र) अवशा वशाः क्रियन्ते येन तत्। कइया सव्वं संग, अंगम्मि विनिप्पिहो अह चइउं। दोरके, नि०चूण मिगचारियं चरिस्सं, सुहगुरुपयसेवणासत्तो।।६।। जे भिक्खू सणकप्पासाउवाउण्णकप्पासा उवा वोडकप्पा कइया पहाण उवाहा–ण संगयं सयलदोसपरिमुक्कं / साउवा आलसिकप्पासाउवा वसीकरणसुत्ताईसाइज्जइ॥७१|| आयारप्पमुहमहं, आगमसत्थं पढिस्सामि / / 7 / / सणो-वणस्सतिजाती तस्स वा गोकव्वणिज्जो कप्पासो भण्णति, समिईगुत्तिपहाणं, पालिस्सं दुद्धरं कया चरणं। 'उण्ण' ति एलाडाण गड्डुरा भण्णति तस्स रोमा कव्वणिज्जा कप्पासो कइया उवसमलच्छी, वच्छेरमिही मम जहिच्छं।।८।। भण्णति / अहवा-उण्णा एव कप्पासो पोंडा वमणी तस्स फलं; तस्स गुरुतरउज्जलतवचरण करणजलणम्मि खिवियअप्पाणं। पम्हा कव्वणिज्जा कप्पासो भण्णति। अवसावास कीरति जेणं वसीक नीसे समलविमुक्कं; कणगं व कया करिस्सामि।।६।। रणसुत्तयं सो पुण दोरो वा स कीरइ, उवकरणं वज्झति त्ति वुत्तं भवति। संलिहियदव्वभावो, कइया इह परभवेसु निरविक्खो। गाहा आराहणमाराहिय, पाणच्चायं करिस्सामि / / 10 / / वसिकरणसुत्तगस्स, अंछणयं वट्टणं व जो कुज्जा / इय सुमणोरहगुरुरह-आरूढमणो गमेइ सो कालं। बंधणसिव्वणहेतुं, सो पावति आणमादीणि||l अन्नदिणे सेणमुणी,सिद्धं दळं समणुपत्तो।।११।। सञ्चित्ताचित्तदव्वा जेण वसीकीरंति तं वसीकरणसुत्तयं जो करेति, जिणसुयभावियमइणा, उप्पलदलकोमलाइवाणीए। अंछणयं णाम-पण्हपसिरणं वट्टणं णाम-दो तंतए जुत्तो वलेति, जहा--- दाउं चोयणमज्जु-नमेगहिं दो वि उवविठ्ठा // 12|| सिव्वणदोरो सक्कारदोरवलणं वा वट्टणं पण्हाए वा भङ्गो वट्टणं उवकर अह कम्मविहाणाओ, विवाइया दो वि असणिवाएण। णातिबंधणहेउं, वट्टस्स वा सिव्वणहेउं / सो आणाती दोसे पावति। नि०चू०३ उ०॥ अचंतदुक्खिओ तो, जाओ जणओ परियणो य॥१३॥ वसीकारसण्णा-स्त्री०(वशीकारसंज्ञा) ममैवैते वश्या नाहमेतेषां वश्य तत्थऽन्नया महप्पा, जुगंधरो केवली समोसरिओ। पुट्ठो गईविसेसं, वसुणा सो निययपुत्ताणं // 14|| इत्येवं विमर्शायां बुद्धौ, "दृष्टानुअविकविषयवैतृषायस्य वशीकारसंज्ञा वैराग्यम्' द्वा० 11 द्वा० केवलिणा सिद्धंसे,सिद्धो सोहम्मकप्पमणुपत्तो। वसु-न०(वसु) द्रव्ये, संयमेच।आचा०१ श्रु०८ अ०८ उ०। सूत्र०ा "दुव्व सेणो पुणो महिड्डी, वंतरदेवो समुप्पन्नो // 15 / / सुमुणी अणाणाए तुच्छए" आचा०१ श्रु०२ अ०६ उ०। सूत्र०ा द्रव्या०। कारणमिह सामन्ने, सुद्धे सिद्धस्स आसि करणिच्छा। वसुनि, द्रव्याभावभेदाद् द्विधा-द्रव्यवसूनिमरकतेन्द्रनीलवज्रादीनि, इयरेण उ सामन्नं, गहियं पि न पालियं सम्मं॥१६॥ भाववसूनि सम्यक्त्वादीनि आचा० १श्रु०१अ०१ उ०।सूत्रका "वसुवा इय सोउ गेहवासे, विरत्तचित्तो बहूजणो जाओ। अणुवसु वा जाणित्तु धम्म" वसुद्रव्यं तद्भूतः कषायकालिकादिमला- भवियपडिबोहहेउं, गुरू वि अन्नत्थ विहरित्था।।१७।। पगमाद्, वीतराग इत्यर्थः, साधौ, 'वीतरागोवसु यो जिनो वा संयतो- सिद्धस्य वृत्तमेवं,निशम्य भव्याः शुभेन भावेन। ऽथवा' / आचा०१ श्रु०६ अ०२ उ०) जीवप्रादेशिकाचार्यस्य निह्नवस्य प्रतिमुक्तप्रतिबन्धा, गेहे मन्दादरा भवत॥१८॥ तिष्यगुप्तस्य गुरौ, चतुर्दशपूर्विणि साधौ, स्था०७ ठा०३ उ०। आ०म० ध०र०२ अधि०कृत्तिकादिकस्य द्वाविंशतितमस्य ग्रहस्याधिपतौ उत्त०। विशे० आ० क०आ० चूका देवे, प्रश्न०३ आश्र द्वार। धनिष्ठान- देवे, स्था०। क्षत्रस्य वसवो देवताः। सू०प्र०१० पाहु०। अनु०।ज्योमल्लीपूर्वभव- दो वसू / स्था०२ ठा०३ उ० जीवस्य महाबलस्य बालवयस्ये, ज्ञा०१ श्रु०८ अ तगरानगरीवास्तव्ये स्वनामख्यातायामीशानाग्रमहिष्याम्, स्था०४ ठा०२ उ०। ती०। स्वनामख्याते श्रेष्ठिनि, ध००। वसुश्रेष्ठिसुतसिद्धवत्। | वसुआ - धा० (उद्वा) ऊर्ध्ववाने, ''उदातेरोरुम्मा-वसुआ"
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________________ वसुआ 1053 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वसूवरिचर ||4|11|| इत्युत्पूर्वस्य वातेर्वसुआ इत्यादेशः / वसुआइ। उद्वाति। रोहिणीदेवक्योरेव ग्रहणं कृतम्, तयो रोहिणीदेवक्योर्द्वयोर्की पुत्रौ प्रा०४ पाद। अभूताम्। द्वौ पुत्रौ कौ? रामकेशवौ कीदृशौ तौ अतीष्टौमातापित्रोरधिकवसुआइ-(देशी) उदातौ, देवना०७ वर्ग 46 गाथा। वल्लभौ। उत्त०२२ अ० (वसुदेवहिण्ड्यां कथा) (संधाचारेच)। वसुआय-त्रि०(उद्धात) 'म्लाने, पथ्वाअंवसुआयं, सुसिवायं मिलाण- | वसुदेवहिंडी-(देशी) स्वनामख्याते ग्रन्थे, वृक्षा ऽत्थे' पाइन्ना०८३ गाथा। वसुपुज्ज-पुं०(वसुपूज्य) वासुपूज्यजिनपितरि, सा आ० चू०। आव०| वसुंधरा-स्त्री०(वसुन्धरा) चमरस्य असुरेन्द्रस्याग्रमहिष्याम, स्था०४ प्रव०॥ ठा० १उ० भ०। ईशानागमहिष्याम्, स्था०५ ठा०२ उ०ा भ०। ज्ञा०। वसुभूइ-पुं०(वसुभूति) पाटलिपुरे जिनकल्पं प्रतिपन्नस्य महागिरेः शिष्ये, नवमचक्रिणोऽग्रमहिष्याम्, स०। पृथिव्याम्, "नेयं कुलक्रमायाता,शासने __ आ०चू० 410 / आ०म० आव०) लिखिता न हि / खड्गेनाकृष्य भुञ्जीत, वीरभोग्या वसुन्धरा / / 1 // " वसुमई-स्त्री०(वसुमती) चम्पाराजस्य दधिवाहनस्य धारिणीदेव्यां आ०म०१अ० "वसुन्धर व्व सव्व-फासविसहे" पृथिवीवत् शीतात- जातायां पुत्र्याम्, आ०० 1 अ०। आ० म०। कल्प०। (सैव चन्दपाद्यनेकविधस्पर्शक्षमः। ज्ञा०१ श्रु०५ अ०। जम्बूद्वीपे मन्दरस्य दक्षिणे नानाम्नी धीरजिनेन्द्रप्रवर्तिनी बभूवेति 'अजचन्दणा' शब्दे प्रथम-भागे रुचकपर्वते वैडूर्यकूटवासिन्यां दिक्कुमार्याम्, स्था०१ ठा०ातीला जयन्ती 206 पृष्ठे कथोक्ता।) भीमराक्षसेन्द्रस्य द्वितीयाग्रमहिष्याम्, स्था०४ नामपुरीवास्तव्यवसुदत्तगृहपतिभार्यायाम्, ('भालोवहड' शब्दे अस्मि ठा०। वसुंधरायाम्, 'वसुहा वसुंधरा वसुमईभही मेइणी धराधरिणी।' पाइo नेय भागे 257 पृष्ठे कथा।) पृथिव्याम,"वसुहा वसुंधरा वसुमई मही ना० 26 गाथा। मेइणी धरा धरिणी।" पाइ० ना० 26 गाथा। वसुमं-त्रि०(वसुमत्) वसूनि द्रव्यभावभेदाद् द्विधा, द्रव्यवसूनिमरकवसुंधरी-स्त्री०(वसुन्धरी) जीवानुशासनवृत्तिकरणोपष्टम्भकस्यदोहट्टि तेन्द्रनीलवज्रादीनि, भाववसूनि-सम्यक्त्वादीनि, तानियस्य यस्मिन्वा वसतिवासिनः श्रीजासकश्रावकस्य भार्यायाम, जी०१ प्रतिका सन्ति स वसुमान् / द्रव्यवति, आचा० 1 श्रु० 1107 उ०। संयमवति मूलोत्तरगुणानां सम्यग्विधायिनि, सूत्र०१ श्रु०१३ अ० निवृत्तारम्भे, वसुगुत्ता-स्त्री०(वसुगुप्ता) उत्तरपाश्चात्यरतिकरपर्वतस्य दक्षिणदिव्यव आचा०१ श्रु०५ अ०३ उ०। सूत्रा स्थितरत्नोचयापुरीवास्तव्यायामीशानेन्द्रस्याग्रमहिष्याम, स्था०४ वसुमित्त-पुं०(वसुमित्र) ब्रह्मदत्तचक्रवर्तिश्वशुरे, येन कूटव्यतिकरे पुस्तीठा०२ उ० भ०। (अस्याः पूर्वोत्तरजन्मकथा 'अग्गमहिसी' शब्दे प्रथम नामकन्या दत्ता। उत्त०१३ अ०। भागे 171 पृष्ठे गता) वसुमित्ता-स्त्री०(वसुमित्रा) अधोलोकवास्तव्यायां दिक्कुमाय्याम, तिला वसुदत्त-पुं०(वसुदत्त) सुरभिपुरे शुभमतेः प्रियमित्रस्य समरकेतोः पितरि उत्तरपश्चिमरतिकरपर्वते पश्चिमायां सर्वरत्नानाम्न्यां राजधान्यामधिसार्थवाहे,दर्श०३तत्त्व जयन्तीनामपुरीवास्तव्ये गृहपतौ वसुन्धरापतौ, ष्ठितायामीशानेन्द्रस्याग्रहिष्याम्, स्था०३ ठा०३ उ० भ० ती०। पिं० सोमदत्तभार्यायां बृहस्पतिदत्तमातरि, स्त्रीला विपा०२श्रु०१०। वसुया-स्त्री०(वसुका) उत्तरपश्चिमरतिकरपर्वते पूर्वदिक्रस्थरत्नाख्योपवसुदेव-पुं०(वसुदेव) कृष्णस्य नवमवासुदेवस्य पितरि, स०। अन्त०] यधिष्ठितायामीशानेन्द्रस्याग्रहिष्याम्, स्था०३ ठा०३ उ०। भला ति०। आ० का स्थाoआव०। उत्ता वसुल-पुं०(वृषल) शूद्रे, आचा०२ श्रु०१चू० 4 अ०१ उ०। कस्मिंश्चिद्देशे सोरियपुरम्मि नयरे, आसि राया महिड्डिए। गौरवार्थे पुरुषामन्त्रणे 'वसुले तिप्रयुज्यते।ज्ञा०१ श्रु०६ असा 'वसुल वसुदेवेति नामेणं, रायलक्खणसंजुए|१|| त्ति पुरिसं नेवमालवे' वसुल इति पुरुषं नैवमालपेत्। दश०७ अ०॥ सौर्यपुरे नाम्नि नगरे वसुदेव इति नाम्ना राजा आसीत्। यद्यपि सौर्यपुरे | वसुवम्मण-पुं०(वसुवर्मन) ऋषभदेवस्य षट्षष्टितमे पुत्रे, कल्प०१अधि० समुद्रविजयप्रमुखा दश दशार्हाः दश भ्रातरो विद्यन्ते तेषु दशसु लघुतिा ७क्षण। वसुदेवोऽस्ति, तथापि वासुदेवपुत्रो विष्णुरभूत् तेन वसुदेवस्यैव वर्णनं वसुसरि-पुं०(वसुसूरि) तिष्यगुप्तस्य जीवप्रादेशिकाचार्यस्य गुरौ, विशे० कृतम्। कीदृशो वसुदेवो महर्द्धिकः-छत्रचामरादिविभूतियुक्तः, पुनः वसुहा-स्त्री०(वसुधा) पृथ्व्याम्, विशे०। प्रश्न पाइन्ना०२६ गाथा। कीदृशः राजलक्षणसंयुतः हस्तपादयोस्तलेषु राज्ञो लक्षणानि चक्रस्व वसुहारा-स्त्री०(वसुधारा) वसु-द्रव्यं तस्य धारा सततपातजनिता स्तिकाकुशवजध्वजछत्रचामरादिभिः सहितः। अथवा-औदार्यधैर्य वसुधारा। देवैः कृतायां स्वर्णदीनाराणां वृष्टी, उत्त०१२ अ० सुवर्णवृष्टी, गाम्भीर्यादिसहितः। आ०० १अ०। आ०म०। कल्प०। हिरण्यप्रपातरूपायाम् (आ०म० तस्स भञ्जा दुवे आसि, रोहिणी देवई तहा। 10) धारायाम्, भ०१५ श०। आ०म०ा तीर्थकरजन्मादिष्वाकाशाद् तासिंदोण्हं पि दो पुत्ता, इट्ठा रामकेसवा / / 2 / / द्रव्यवृष्टौ, भ०३ श०७ उ० स० तस्य वसुदेवस्य द्वे भार्ये आस्ताम्-रोहिणी तथा देवकी / यद्यपि | वसूवरिचर-पुं० (वसूपरिचर) उपरिचरे वसुराजे, जी०। वसुदेवस्य द्वासप्ततिसहस्रं द्वाराः आसन्, तथाप्यत्र उभयोरेव कार्यात् | वसूराजा उपरिचरः, स हि देवताधिष्ठिताकाशस्फटिकसिं
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________________ वसूवरिचर 1054 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वाइय हासनोपविष्टः सन्नाकाशस्फटिकमयस्य सिंहासनस्यादर्शनतो लोकेष्वेवं | सूत्र०१ श्रु०१६ अा व्यवस्थायाम, प्रति०। प्रसिद्धिमगमत्, सत्यवादी किलैष वसुराजः न प्राणात्ययेऽप्यलीकं | म्ल-धा० / हर्षक्षये, "म्ले -पव्वायौ' / / 8 / 4 / 18 / / इति म्लैधातोर्वा भाषते, ततः सत्त्वावर्जितदेवताकृतप्रातिहार्य एवमुपर्याकाशे चरतीति। | इत्यादेशः। वाइ। म्लायति, प्रा०४ पाद! स चान्यदा हिंस्रवेदार्थप्ररूपकस्य पर्वतकस्य पक्षमभिगृह्य सम्यगदृष्ट- | वाइ(ण)-पुं०(वादिन) वादिप्रतिवादिसभ्यसभापतिरूपायां चतुरङ्गायां नारदस्य पक्षमनभिगृह्णन्नलीकवादित्वात् प्रकुपितदेवताचपेटाहतः पर्षदि प्रतिक्षेपपूर्वकं स्वपक्षस्थापनार्थमवश्यं वदतीति वादी। निरुपमसिंहासनात् परिभ्रष्टो रौद्रध्यानमधिरूढः सप्तमपृथिव्याम प्रतिष्ठाननर वादिलब्धिसम्पन्नत्वेन वावदूकवादिवृन्दारकवृन्दैरप्यमन्दीकृतवाग्विकमयासीत्। जी०३ प्रति०१ अधि०२ उ० भवे, प्रव०१४८ द्वार।धा परेणाजेये मन्त्रवादिनि, धातुवादिनि, स्था० वसोवगय-त्रि०(दशोपगत) वशमुपगते, वश्ये, सूत्र०१श्रु०५ अ०२ उ०। 6 ठा०३ उ०ा प्रव०। (कस्य तीर्थकृतः कियन्तो वादिन इति 'तित्थयर' वह-पुं०(व्यथ) व्यथयतीति व्यथः। लकुटादिप्रहारे, सूत्र०१श्रु०५अ०२ शब्दे चतुर्थभागे 2302 पृष्ठे उक्तम्।) तीर्थिक, स्था० 4 ठा०४ उ०। उ०॥ दण्डकादिधाते, उत्त०१ अ०| प्रश्रा सूत्र०। (केचिद्वादिन एवं माद्यन्ति-'गता गौडदेशोद्भवादूरदेशम्,' वहंत-त्रि०(वहत्) योगवाहिनि, बृ०१ उ०२ प्रकला नि० चूला परिभोगं इत्यादिश्लोका इंदभूइ' शब्दे द्वितीयभागे 544 पृष्ठ गताः।) "वाइप्पमाकुर्वति, नि० चू०६ उ० यकुसलारायदुवारे विलद्धमाहप्पो' संथाला वादिनिग्रहणार्थ पारिहारिवहग-त्रि०(व्यथक) चपेटादिना ताडके, जं०२ वक्ष। कस्य गमनं पारिहारिक' शब्दे पञ्चमभागे 660 पृष्ठे दर्शितम्।) वहड-(देशी) दम्यवत्से, देवना०७वर्ग०३७ गाथा। वाइंगणी-स्त्री०(वृन्ताकी) वैगन' इति प्रसिद्ध शाके, आव०४अ० वहढोल-(देशी) वात्यायाम्, दे०ना०७ वर्ग०४२ गाथा। वाइत्त-न०(वादित्र) वाद्ये, कल्प०१ अधि०७ क्षण। औ०। वहण-न०(वहन) यानपोते, प्रश्न०१ आश्र0 द्वार। पोओ वहणं' पाइ० वाइत्तए-अव्य०(वाचयितुम्) सूत्रपाठयितुम्, अथवा-श्रावयितु-मित्यर्थे, ना०६८ गाथा / ग्रहणे, यस्य श्राद्धस्य प्रथमोपधानस्य वहनानन्तरं / बृ०४ उ० द्वादशाब्दानि जातानि सन्ति, द्वितीयस्य तु किञ्चिन्यूनानि,स प्रथम- | वाइद्ध-त्रि०(व्यादिग्ध) विशिष्टद्रव्योपदिग्धे, वक्रे, (इतिवृद्धा) भ० 16 मेवोपधानं पुनर्वहत्युतद्वे अपीति? प्रश्नः, अत्रोत्तरम्-यदि मनः स्थाने | श० 4 उ०ा विपर्यस्तरत्नमालावदनेकप्रकारे, आव०४ अ० आ००। तिष्ठति तदा प्रथम द्वितीयं च परावृत्त्य वहति, तदशक्तौ तु यस्य द्वादश वाइद्धक्खर-न०(व्याविद्धाक्षर) विपर्यस्तरत्नमालागतरत्नानीव विद्धानि वर्षाणि तत्परावृत्त्य वहतीति।।१।। सेन०१ उल्ला०। विपर्यस्तान्यक्षराणि यत्र तत्तथा। असंग्रथिते, अनु०। विशे०। वहपरीसह-पुं०(वधपरीषह) त्रयोदशे परीषहे, आव०४ अ०। (अस्य | वाइम-न०(वातव्य) कुविन्दैर्वस्तुविनिर्मितेऽश्वादिके, दश०२अ० स्वरूपं परीसह' शब्दे पञ्चमभागे गतम्।) वाइय-त्रि०(वाचिक) उक्तिर्वाक् तया निर्वृतो वाचिकः / विशेला वाक्वहमाण-त्रि०(वहमान) नद्यादिश्रोतोवर्तिव्याप्रियमाणे, औ०। प्रयोजनमस्य वाचिकः। ध०२ अधि०। वाकृते, आव०४अा आ०म०। वहिय-त्रि०(व्यथित) पीडिते, आ०म०१ अन आ०चूला दुर्वचनादिके,सूत्र०२ श्रु० 2 अ०"जेणं मुंचइ स वाइओ वहिलग-पुं०(वहिलक) करभीवेसरबलीवर्दप्रभृतौ,बृ०१३०३ प्रक०। जोगो" येन संरम्भेण वाग्द्रव्याणि मुञ्चति स वाचिकः। विशे० / मद्ये, नि००। नपुं०. बृ०५ उ० नि००। वहुण्णी-(देशी) ज्येष्ठभार्यायाम, दे०ना०७ वर्ग 41 गाथा। *वाचित-त्रि० / आक्षेपपरिहारपूर्वकतया सम्यग्गुरुपादान्तिके वहोल-(देशी) लघुजलप्रवाहे, देवना०७ वर्ग 46 गाथा। निर्णीतार्थीकृते, व्य०३ उ०। पाठिते, शिक्षा ग्राहिते, आचा०१ श्रु०६ वा-अव्य०(वा) विकल्पे, ज्ञा०१ श्रु०२ अाव्या नि० चूठा बृका उत्त०। अ०३ उ० प्रश्र०ा कर्म०। स्था०। पञ्चा० / औ०। रा०। उत्तरपक्षापेक्षया विकल्पे, *वातिक-पुं०। वातोऽस्यास्तीति वातिकः। स्वनिमित्ततोऽन्यथा वा आचा०१ श्रु०१ अ०१उ०। रा०ापूर्वविकल्पापेक्षया समुच्चये, चं०प्र० स्तब्धे मेहने सति स्त्रीसेवनायामकृतायां वेदं धारयितुमसमर्थ, ध०३ 1 पाहु०। व्य०। सम्म०) जीतका दशा०। विभाषायाम, आव०४ अ०1 अधि०। वातिको न प्रव्राजनीयः / बृ०४ उ०। व्या पक्षान्तरद्योतने, आचा०१ श्रु०८ अ०१उ०। सू०प्र०ा अथवाऽर्थे , अथवातिकं व्याचष्टेविशेला व्यवस्थायाम्, प्रति०। इवार्थे, विशे०। अप्यर्थे, कल्प०१ अधि० उदएण वा वियस्स, सविकारंजान तस्स संपत्ती। 6 क्षण / आ०म०। पातनासूचने, विशे०। अवधारणे, स्था०८ ठा०१ तबनिय असंथुडिए, दिलुतो होइ अलभते // उ०ा समुच्चये, विपा० 1 श्रु०२ अ० सू०प्र०। रा० ज०। उपमायाम्, यदा सनिमित्तेनानिमित्तेण वा मोहोदयेन सागारिकंसविकारं कथयितुं नं०। स्या०। वा विकल्पोपमानयोः, व्य०१ उ० उपमानान्तरापेक्षया भवति, तदान शक्नोति वेगंधारयितुंयावन्न प्रतिसेवनस्य संप्राप्तिर्भवति, समुच्चये, जं०१ वक्षा पादपूरणे, उत्त०२८ अ०नि००। आनन्तर्ये, एष वातिकउच्यते।अत्रचसयनिकेनासंस्तृताया अमार्याःप्रतिसेवनदृष्टा--
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________________ वाइय 1055 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वाइसमोसरण न्तो भवति-"एगो तचनिओ जलयरभावारूढो तस्थ तस्स पुरओ अहाभावेण अगारी असंवुडा निविट्ठा / तस्स य तचनियस्स तं द? सागारियं वद्धतेण वेयउक्कडयाए असहमाणेण जणपुरओ पडिगाहिया अगारी। तं च पुरिसा हंतुमारद्धा, तहा वि तेण न मुक्का जाहे से बीरियो सग्गो जाओ ताहे मुक्का / " अयमप्यलभमानो-ऽप्राप्नुवन् निरुद्धवेदो नपुंसकतया परिणमति। उक्तो वातिकः / बृ० ४उ०। स्था०। नि०चू० पं० भा०। पं० चूला वीतरागोद्भवे, तं०। उच्छूनत्वभाजने, विशेष स्थान वातरोगिणि, वातिक इव वातिकः। अयन्त्रिते, प्रश्र०३ आश्र० द्वार। *वादित-त्रि०। शब्दत्वेन कृते, स्था०२ ठा०३ उ०ा पटहा- दिवादने, प्रश्न० 4 संब०द्वार। वाद्यकलायाम्, साचततवितत-शुषिरधनवाद्यानां चतुःपञ्चत्र्येकप्रकारतया त्रयोदशधा / स०७२ सम० प्रश्न०। औ०। "सुठुगाइयं सुठुवाइयं सुठु नचियं" आव०४अ०। वाइल-पुं०(वातिल) पालकग्रामवास्तव्ये वाणिजके, ततो सामी पालयं नाम गामं गतो तत्थ याइलो नाम वाणिययो सोऽसिंगहीत्वा तत्र वीरस्वामिन प्रति प्रधावित इति स्वशिर एव चिच्छेद। आ० चू०१ अण आ०म० वाइसमोसरण-न०(वादिसमवसरण) वादिनस्तीर्थकाः समवसरन्त्य वतरन्ति एष्विति समवसरणानि / विविधमतमीलकास्तेषां समवसरणानि वादिसमवसरणानि। क्रियावाद्यादिषु वादिमीलकेषु, स्था०। चत्तारि वाइसमोसरणा पण्णत्ता / तं जहा-किरियावाई, अकिरियावाई, अण्णाणिअवाई, वेणइयवाई। णेरइयाणं चत्तारि वाइसमोसरणा पण्णत्ता। तं जहा-किरियावाई०जाव वेणइयवाई। एवमसुरकुमाराण वि०जाव थणियकुमारणं एवं विगलिंदियवज्जंजाव वेमाणियाणं // 345|| वादिनः-तीर्थिकाः गमवसरन्ति-अवतरन्त्येष्विति समवसरणानि विविधमतमीलकास्तेषां समवसरणानि वादिसमवसरणानि, क्रियांजीवाजीवादिरर्थोऽस्तीत्येवंरूपां वदन्तीति क्रियावादिन आस्तिका इत्यर्थः, तेषां यत्समवसरणं तत्त एवोच्यन्तै अभेदादिति, तन्निषेधादक्रियावादिनोनास्तिका इत्यर्थः, अज्ञानमभ्युपगमद्वारेण येषामस्ति ते अज्ञानिकाः त एव वादिनोऽज्ञानिकवादिनः; अज्ञानमेव श्रेय इत्येवं प्रतिज्ञा इत्यर्थः, विनय एव वैनयिकं तदेव निः- श्रेयसायेत्येवं वादिनो वैनयिकवादिन इति, एतद्भेदसङ्ख्या चेयम्- "असियसयं किरियाणं, अकिरियवाईण होइ चुलसीइ / अन्नाणियसत्तट्ठी, वेणझ्याणं चबत्तीसा // 1 // " इति, तत्राशीत्यधिकं शतं क्रियावादिनां भवति / इदं चामुनोपायेनावगन्तव्यम्--जीवऽजीवाऽऽश्रवसंवरबन्धनिर्जराऽपुण्यापुण्यमोक्षाख्यान् नव पदार्थान् विरचय्य परिपाट्या जीवपदार्थस्याधः स्वपरभेदावुपन्यसनीयौ, तयोरधो नित्यानित्यभेदौ, तयोरप्यधः कालेश्वरात्मनियतिस्वभावभेदाः पञ्चन्यसनीयाः, पुनश्चेत्थं विकल्पाः कर्तव्याःअस्तिजीवः स्वतो नित्यः कालत इत्येको विकल्पः, विकल्पार्थश्वायम् विद्यते खल्ययमात्मा स्वेन रूपेण न परापेक्षया ह्रस्वत्वदीर्घत्वे इव नित्यश्च कालवादिनः, उक्तेनैवाभिलापेन द्वितीयो विकल्प ईश्व-रकारणिनः, तृतीयो विल्प आत्मवादिनः 'पुरुष एवेद' मित्यादि प्रतिपत्तुरिति, चतुर्थों नियतिवादिनः, नियतिश्च पदार्थानामवश्यन्तया यद्यथाभवने प्रयोजनकम्त पञ्चमः स्वभाववादिनः- एवं स्वत इत्यजहता लब्धाः पञ्च विकल्पाः / परतः इत्यनेनापि पञ्चैव लभ्यन्ते, तत्र परत इत्यस्यायमर्थःइह सर्वपदार्थानां पररूपापेक्षः स्वरूपपरिच्छेदो यथा ह्रस्वत्वाद्यपेक्षो दीर्घत्वादि-परिच्छेदः, एवमेव चात्मनः स्तम्भकुम्भादीन् समीक्ष्य तद्व्यतिरिक्ते हि वस्तुन्यात्मबुद्धिः प्रवर्तत इत्यतो यदात्मनः स्वरूप तत्परतः एवावधार्यते न स्वत इति / नित्यत्वापरित्यागेन चैते दश विकल्पाः, एवमनित्यत्वेनापि दशैव, एवं विंशतिर्जीवपदार्थेन लब्धाः अजीवादिष्वप्यष्टस्वेवमेव प्रतिपदं विंशतिर्विकल्पानामतोविंशतिर्नवगुणा शतमशीत्युत्तर क्रियावादिनामिति। एते च विकल्पा एकैकशोनलभ्यन्ते शीलाङ्गवदिति। तथा अक्रियावादिनांतु चतुरशीतिर्द्रष्टव्याः, एवञ्चेयम्पुण्याऽपुण्यविवर्जितपदार्थसप्तकन्यासस्तथैव जीवस्याधः स्वपररूपविकल्पद्वयोपन्यासः असत्त्वादात्मनो नित्यानित्यभेदौ न स्तः, कालादीनां तु पञ्चानां षष्ठी यदृच्छा न्यस्यते / इयं चानभिसन्धिपूर्विकाऽर्थप्राप्तिरितिपश्चाद्विकल्पाभिलापः-नास्तिजीवः स्वतः कालतः इत्येको विकल्पः, एवमीश्वरादिभिरपि यदृच्छावसानैः सर्वेषड् विकल्पाः, तथा नास्ति जीवः परतः कालत इति षडेव विकल्पा इत्येकत्र द्वादश, एवमजीवादिष्वपि षट्सु प्रत्येकं द्वादश विकल्पाः,एवञ्च द्वादश सप्तगुणाश्चतुरशीतिर्विकल्पाः नास्तिकानामिति / अज्ञानिकानां तु सप्तषष्टिर्भवति, इयं चामुनोपायेन द्रष्टव्या-तत्र जीवाजीवादीन् नव पदार्थान् पूर्ववत् व्यवस्थाप्य पर्यन्ते चोत्पत्तिमुपन्यस्याधः सप्त सदादय उपन्यसनीयाः, सत्त्व 1 मसत्त्वं 2 सदसत्त्वं 3 अवाच्यत्त्वं 4 सद्वाच्यत्वं 5 असदवाच्यत्वं 6 सदवाच्यत्व ७मिति, तत एते नव सप्तकाः त्रिषष्टिः, उत्पत्तेस्तु चत्वार एवाद्या विकल्पाः, तद्यथा-सत्त्व 1 मसत्त्वं 2 सदसदत्त्व 3 मवाच्यत्वं 4 चेति, त्रिषष्टिमध्ये क्षिप्ताः सप्तषष्टिर्भवन्ति, विकल्पाभिलापश्चैवम्-को जानाति जीवःसन्निति किं वा तेन ज्ञातेनेत्येको विकल्पः, एवमसदादयोऽपि वाच्याः, तथा सती भावोत्पतिरिति को जानाति, किं वा-अनया ज्ञातया? एवमसती सदसती अवक्तव्या चेति, सत्त्वादिसप्तभङ्गयाश्चायमर्थः-स्वरूपमात्रापेक्षया वस्तुनः सत्त्वं 1 पररूपमात्रापेक्षया त्वसत्त्वम् 2 तथा एकस्य घटादिद्रव्यदेशस्य ग्रीवादेः सद्भावपर्यायण ग्रीवात्वादिनाऽऽदिष्टस्य सत्त्वात्, तथा घटादिद्रव्यदेशस्यैवापरस्य बुध्नादेरसद्भावपर्यायेण वृत्तत्वादिना परगतपर्यायेणैवादिष्ट-- स्यासत्त्वावस्तुनः सदसत्त्वम् 3 तथा सकलस्यैवाखण्डितस्यघटादिवस्तुनोऽर्थान्तरभूतैः पटादिपर्यायनिजैश्चोर्ध्वकुण्डलोष्ठायतवृत्तग्रीवादिभिर्युगपद्विवक्षितस्य सत्त्वेनाऽसत्त्वेन वा वक्तुमशक्यत्वात् तस्य घटादेद्रव्यस्याऽवक्तव्यत्वम् 4, तथा घटादिद्रव्यस्यैकदेशस्य सद्भावपर्यायैरादिटस्य सत्त्वादपरस्य स्वपरपर्यायैर्युगपदादिष्टतया सत्त्वेनासत्त्वेन वावक्तुमश
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________________ वाइसमोसरण 1056 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वाइसमोसरण क्यत्वात् घटादिद्रव्यस्य सदवक्तव्यमिति ५,तथा तस्यैव घटादिद्रव्य- ___ कण्हपक्खिया णं मंते ! जीवा किं किरियावादी पुच्छा, गोयमा! स्यैकदेशस्य परपर्यायैरादिष्टस्यासत्त्वादपरदेशस्य स्वपरपर्यायैर्युगपदा- णो किरियावादी अकिरियावादी अण्णाणियवादी विवेणइयवादी दिष्टत्वेनतथैव वक्तुमशक्यत्वात्तस्य घटादेरसदवक्तव्यत्वम् 6, तथा- वि सुक्कपक्खिया जहा सलेस्सा, सम्मदिट्ठी जहा अलेस्सा, घटादिद्रव्यस्यैकदेशस्य स्वपर्यायैरादिष्टत्वेनसत्त्वादपरस्य परपर्यायैरा- मिच्छादिट्ठी जहा कण्हपक्खिया। सम्मामिच्छादिट्ठीणं पुच्छा, दिष्टतया असत्त्वादन्यस्य स्वपरपर्यायैर्युगपदादिष्टस्यतथैव वक्तुमशक्य- गोयमा ! णो किरियावादी णो अकिरियावादी अण्णाणियवादी त्वेनावक्तव्यत्वात् तस्यघटादिद्रव्यस्य सदसदवक्तव्यत्वमिति७, इह वि वेणइयवादी वि, णाणी० जाव केवलणाणी जहा अलेस्से, च प्रथमद्वितीयचतुर्था अखण्डवस्त्वाश्रिताः शेषाश्चत्वारो वस्तुदेशाश्रिता अण्णाणी०जाव विभंगणा-णी जहा कण्हपक्खिया। आहारदर्शिताः, तथाऽन्यैस्तृतीयोऽपि विकल्पोऽखण्डवस्त्वाश्रित एवोक्तः। सन्नोवउत्ता० जाव परिग्गह-सण्णोवउत्ता जहा सलेस्सा, णो तथाहि-अखण्डस्य वस्तुनःस्वपर्यायैः परपर्यायैश्च विवक्षितस्य सदस- सण्णोवउत्ता जहा अलेस्सा / सवेदगा०जावणपुंसगवेदगा जहा त्वमिति, अतएवाभिहितमाचारटीकायाम्-- 'इह धोत्पत्तिमङ्गीकृत्योत्त- सलेस्सा। अवेदगा जहा अलेस्सा। सकसायी०जावलोभकसाई रविकल्पत्रयं न सम्भवति, पदार्थावयवापेक्षत्वात् तस्योत्पत्तेश्चावयवा- जहा सलेस्सा, अकसायी जहा अलेस्सा, सयोगी०जाव भावादिति," एवमज्ञानिकानां सप्तषष्टिर्भवतीति / वैनयिकानां च कायजोगी जहासलेस्सा, अजोगी जहा अलेस्सा सागारोवउत्ता द्वात्रिंशत्, सा चैवमवसेयासुरनृपतियतिज्ञातिस्थविराधममातृपितृणां अणागारोवउत्ता जहा सलेस्सा। (सू०५२४४) प्रत्येकं कायेन वाचा मनसा दानेन च देशकालोपपन्नेन विनयः कार्य 'जीवा ण' मित्यादि / तत्र जीवाश्चतुर्विधा अपि, तथा स्वभावत्वात्। इत्येते चत्वारो भेदाः सुरादिष्वष्टासु स्थानेषु भवन्ति, ते चैकत्र मीलिता 'अलेस्सा ण' मित्यादि, अलेश्या अयोगिनः सिद्धाश्च; तेच क्रियावादिन द्वात्रिंशदिति। सर्वसंख्या पुनरेतेषां त्रीणि शतानि त्रिषष्ट्यधिकानीति। एव क्रियावादहेतुभूतयथावस्थितद्रव्यपर्यायरूपार्थपरिच्छेदयुक्तत्वाद्, उक्तञ्च पूज्यैः इह च यानि सम्यग्दृष्टिस्थानानि अलेश्यत्वसम्यग्दर्शनज्ञानिनोऽ"आस्तिक्मतमात्माद्या, नित्यानित्यात्मका नव पदार्थाः / सज्ज्ञोपयुक्तत्वावेदकत्वादीनि तानि नियमात्क्रियावादे क्षिप्यन्ते, कालनियतिस्वभावे-श्वरात्मकृतकाः स्वपरसंस्थाः।।१।। मिथ्यादृष्टि स्थानानि तु मिथ्यात्वाज्ञानादीनि शेषसमवसरणत्रये, कालयदृच्छानियती-श्वरस्वभावात्मनश्चतुरशीतिः। 'सम्मामिच्छादिट्ठी ण' मित्यादि, सम्यग्मिथ्यादृष्टयो हि साधरणनास्तिकवादिगणमतं,न सन्ति सप्त स्वपरसंस्थाः // 2 // परिणामत्वान्नो आस्तिका नापि नास्तिकाः, किंतु-अज्ञानविनयवादिन अज्ञानिकवादिमतं, नव जीवादीन् सदादिसप्तविधान्। एव स्युरिति। भ०३ श०१ उ०। भावोत्पत्तिं सदसद्, द्वैधाऽवाच्याञ्च को वेत्ति ? // 3|| नैरयिकादीनाम् णेरइया णं भंते! किं किरियावादी पुच्छा, गोयमा! किरियावैनयिकमतं विनय-श्वेतोवाक्कायदानतः कार्यः। वादी वि०जाव वेणइयववादी विसलेस्सा णं भंते ! णेरड्या किं सुरनृपतियतिज्ञाति-स्थविराधममातृपितृषु सदा॥४॥" किरियावादी एवं चेव, एवं जाव काउलेस्सा कण्हपक्खिया इति / एतान्येव समवरणानिचतुर्विशतिदण्डके निरूपयन्नाह–'नेरइ किरियाविवज्जिया / एवं एएणं कमेणं जच्चेव जीवाणं वत्तव्वया याण' मित्यादि सुगमम्, नवरं नारकादिपञ्चेद्रियाणां समनस्कत्वाच सचेव णेरइया णं वत्तव्वया वि०जाव अणागारोवउत्ता, णवरं जं त्वार्यप्येतानि सम्भवन्ति, 'विगलेन्दियवज' ति एकद्वित्रिचतुरिन्द्रि अस्थि तं भाणियव्वं सेसं ण भण्णइ / जहाणेरइया एवं जाव याणाममनस्कत्वान्न सम्भवन्ति तानीति। स्था० 4 ठा० 4 उ०। थणियकुमारा। पुढवीकाइया णं भंते ! किं किरियावादी पुच्छा, ___ जीवाः किं क्रियावादिनोऽक्रियायावादिनः गोयमा ! णो किरियावादी अकिरियावादी वि अण्णा-णियवादी जीवाणं भंते ! किं किरियावादी अकिरियावादी अण्णाणिय- | विणो वेणइयवादी। एवं पुढवीकाइयाणं अत्थितत्थ सव्वत्थ वादी वेणइयवादी? गोयमा ! जीवा किरियावादी वि अकिरि- वि एयाइं दो मज्झिलाइं समोसरणाइं जाव अणागारोवउत्ता यावादी वि अण्णाणियवादी वि वेणइयवादी वि। सलेस्सा णं वि एवं०जाव चउरिदियाणं सव्वट्ठाणेसु एयाइंचेव मज्झिल्लगाई भंते ! जीवा किं किरियावादी पुच्छा,गोयमा! किरियावादी वि दो समोसरणाई, सम्मत्तणाणेहि वि एयाणि चेव मज्झिल्लगाई अकिरियावादी विअन्नाणियवादी विवेणइयवादी वि, एवं० जाव दो समोसरणाई। पंचिंदियतिरिक्खजोणिया जहा जीवा णवरं सुक्कलेस्सा। अलेस्सा णं मंते! जीवा पुच्छा, गोयमा! किरिया- जं अत्थि तं भाणियव्वं मणुस्सा जहा जीवा तहेव णिरवसेसं वादी णो अकिरियावादीनो अण्णाणियवादीणो वेण-इयवादी। वाणमंतरजोइसियवेमाणियाजहा असुरकुमारा। (सू०५२५४)
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________________ वाइसमोसरण 1057 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वाइसमोसरण 'पुढविकाइया ण' मित्यादि / 'नो किरियावाइ' त्ति मिथ्यादृष्टि- वउत्ताअणागारोवउत्ताजहा सलेस्सा एवं गैरइया विभाणियव्वा, त्वात्तेषामक्रियावादिनोऽज्ञानिकवादिनश्च ते भवन्ति, वादाभावेऽपि णवरं णायव्वं जं अत्थि। एवं असुरकुमारा वि० जाव थणियतद्वादयोग्यजीवपरिणामसद्भावाद्वैनयिकवादिनस्तु तेन भवन्ति, तथा- | कुमारा | पुढवीकाइया सव्वट्ठाणेसु वि मज्झिल्लेसु दोसु वि विधपरिणामादिति / 'पुढवीकाइया णं जं अत्थी' त्यादि, पृथिवी- | समवसरणेसु भवसिद्धिया वि अभवसिद्धिया वि एवं० जाव कायिकानां यदस्ति सलेश्यकृष्णनीलकापोततेलोलेश्यकृष्णपाक्षि- वणस्सइकाइया / बेइंदियतेइंदियचउरिंदिया एवं चेव णवरं कत्वादि, तत्र सर्वत्रापि मध्यमं समवसरणद्वयं वाच्यमिति / एवं०जाव सम्मत्ते ओहियणाणे आमिणिबोहियणाणे सुयणाणे एएसु चेव चउरिदिया ण' मित्यादिननुद्वीन्द्रियादीनांसासादन-भावेनसम्यक्त्वं- / दोसु मज्झिमेसु समोसरणेसु भवसिद्धिया णो अभवसिद्धिया, ज्ञानं चेष्यते तत्र क्रियावादित्वं युक्तं तत्स्वभावत्वादित्याशङ्कयाह-- सेसं तं चेव पंचिंदियतिरिक्खजोणिया जहा जेरइया णवरं 'सम्मत्तनाणेहि वी' त्यादि। क्रियावादविनयवादौ हि विशिष्टतरे सम्य- नायव्वं जं अस्थि / मणुस्सा जहा ओहिया जीवा वाणक्त्वादिपरिणामे स्यातां न सासादनरूपे इति भावः / 'जं अत्थि तं मंतरजोइसियवेमाणिया जहा असरकमारा। सेवं भंते ! भंते ! भाणियव्वं' ति पञ्चेन्द्रियतिरश्चामलेश्याकषायित्वादि न प्रष्टव्यम- त्ति॥ (सू०५२५) भ०३० 2010 संभवादितिभावः। जीवादिषु पञ्चविंशतौ पदेषु यद्यत्र समवसरणमस्ति अणंतरोववनगाणं भंते ! णेरड्या किं किरियावादी पुच्छा, तत्तत्रोक्तम् / भ० 30 श०१ उ०। (एतेषामायुर्बन्धनिरूपणम् 'आउ' गोयमा! किरियावादी वि०जाव वेणइयवादी वि, सलेस्सा णं शब्दे द्वितीयभागे 16 पृष्ठे गतम्।) भंते ! अणंतरोववनगा णेरइया किं किरियावादी एवं चेव, एवं किरियावादी णं भंते ! जीवा किं भवसिद्धिया अभवसिद्धिया? जहेव पढमुद्देसे णेरड्या णं वत्तव्वया तहेव इह वि भाणियव्वा गोयमा ! भवसिद्धिया णो अभवसिद्धिया / अकिरियावादी णं णवरं जं जस्स अत्थि अणंतरोववण्णगाणं णेरइयाणं तं तस्स भंते ! जीवा किं भवसिद्धिया पुच्छा, गोयमा! भवसिद्धिया वि माणियव्वं / एवं सव्वजीवाणंजाव वेमाणियाणं णवरं अणंतअभवसिद्धिया वि / एवं अण्णाणियवादी वि वेणइयवादी वि।। रोववण्णगाणं जं जहिं अत्थितं माणियव्वं / (सू०५२६) सलेस्साणं भंते ! जीवा किरियावादी किं भव० पुच्छा, गोयमा ! किरियावादीणं मंते! अणंरोववण्णगाणेरड्या किं भवसिद्धिया भवसिद्धिया नो अभवसिद्धिया। सलेस्सा णं मंते ! जीवा अभवसिद्धिया? गोयमा ! भवसिद्धिया णो अभवसिद्धिया अकिरियावादी किं भव० पुच्छा, गोयमा ! भवसिद्धिया वि अकिरियावादीणं पुच्छा गोयमा! भवसिद्धिया वि अभवसिद्धिया अभवसिद्धिया वि, एवं अन्नाणियवादी वि वेणइयवादी वि जहा वि। एवं अण्णाणियवादी वि। वेणइयवादी वि। सलेस्सा णं सलेस्सा, एवं जाव सुकलेस्सा, अलेस्सा णं भंते ! जीवा मंते ! किरियावादी अणंतरोववण्णगाणेरड्या किं भवसिद्धिया किरियावादी किं भव० पुच्छा, गोयमा ! भवसिद्धिया नो अभ- अभवसिद्धिया? गोयमा! भवसिद्धिया, नो अभवसिद्धिया। एवं वसिद्धिया, एवं एएणं अमिलावणं कण्हपक्खिया तिसु वि एएणं अभिलावणं जहेव ओहिए उद्देसएणेरझ्याणं वत्तव्वया भणिया समोसरणेसु भयणाए सुक्कपक्खिया चउसु वि समोसरणेसु / तहेव इह वि भाणियव्वा जाव अणागारोवउत्त त्ति / एवं जाव भवसिद्धिया णो अभवसिद्धिया सम्मट्ठिी जहा अलेस्सा। वेमाणियाणं णवरं जंजस्स अस्थि तं तस्स भाणियव्वं इमं से मिच्छादिट्ठी जहा कण्हपक्खिया। सम्मामिच्छादिट्ठी दोसु वि लक्खणे जे किरियावादी सुकपक्खिया सम्मामिच्छा-दिडिया एए समोसरणेसु जहा अलेस्सा / णाणी० जाव केवलणाणी भव- सव्वे भवसिद्धिया णो अभवसिद्धिया सेसा सव्वे भवसिद्धिया वि सिद्धिया णो अभवसिद्धिया, अण्णाणी०जाव विभंगणाणी जहा अभवसिद्धिया वि सेवं भंते ! भंते ! त्ति। (सू०८२६+ ) / कण्हपक्खिया सण्हासु चउसु वि जहा सलेस्सा णो सण्णोव परम्परोपपन्नकानां नैरयिकादीनाम्उत्ता जहा सम्मादिट्ठी / सवेदगाजाव णपुंसगवेदगा जहा परंपरोववण्णगा णं भंते ! णेरड्या किरियावादी एवं सलेस्सा, अवेदगा जहा सम्मदिट्ठीसकसाईजावलोभकसाई जहे व ओहिओ उद्देसओ तहे व परंपरोववण्णएस वि जहा सलेस्सा / अकसाई जहा सम्मादिही सजोगी०जाव णेरइयादिओ तहेव णिरवसेसं भाणियध्वं तहेव तियदंडकायजोगी जहा सलेस्सा,अजोगीजहा सम्मादिट्ठी। सागारो- | गसंगहिओ सेवं मंते ! भंते त्तिजाव विहरइ। (सू०५२७)।
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________________ वाइसमोसरण 1058 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वाउकाइय एवं एएणं कमेणं जचेवबंधिसए उद्देसगाणं परिवाडी सचेव इह | वाउका(का)इय-पुं०(वायुकायिक) वायुः-पवनःस एव कायो येषां ते पिजाव अवरिमो उद्देसो णवरं अणंतरा चत्तारि वि एकगमगा वायुकायाः वायुकाया एव वायुकायिकाः। प्रज्ञा०१पद / जी०। दश०। परंपरा चत्तारि वि एकगमएणं एवं चरिमा वि अचरिमा वि / एवं वायुशरीरत्वेन परिगृहीतेषु एकेन्द्रियजीवभेदेषु, स०६ समा वायुकाया चेव णवरं अलेस्स केवली अजोगीण भण्णइ सेसं तहेव सेवं / लक्षणादिभितीरैयाख्यायन्ते। भंते ! भंते ? ति। एए एक्कारस वि उद्देसगा (सू०५२८) तत्र वायोः स्वरूपनिरूपणाय कतिचिद् द्वाराएवं द्वितीयादय एकादशान्ता उद्देशका व्याख्येयाः,नवरं द्वितीयोद्देशके __ तिदेशगां नियुक्तिकृद्गाथामाहइमं ‘से लक्खणं' ति 'से' भव्यत्वस्येदं लक्षणं क्रियावादी शुक्लपाक्षिकः वाउस्स वि दाराई, ताई जाई हवंति पुढवीए। सम्यग्मिथ्यादृष्टिश्च भव्य एव भवतिनाभव्यः, शेषास्तुभव्या अभव्याश्चेति / णाणत्ती उ विहाणे, परिमाणुवभोगसत्थे य॥१६॥ अलेश्यसम्यग्दृष्टिज्ञान्यवेदाकषाययोगिनां भव्यत्वं प्रसिद्धमेवेति नोक्त वातीति वायुस्तस्य वायोरपि तान्येव द्वाराणि यानि पृथिव्यां प्रतिपादिमिति।तृतीयोद्देशके तु"तियदंडगसगहिओ'त्ति इह दण्डकत्रयं नैरयिका तानि, नानात्वम्-भेदः, तच विधानपरिमाणोपभोगशस्त्रेषुचशब्दाल्लक्षणे दिपदेषु क्रियावाद्यादिप्ररूपणादण्डकः १,आयुर्बन्धदण्डको 2, भव्या च द्रष्टव्यमिति। भव्यदण्डक 3 श्वेत्येवमितिएकादशोद्देशके तु-'अलेस्सो केवला अजोगी य न भण्णइ' त्ति / अचरमाणामलेश्यत्वादीनामसम्भवादिति / भ०३ तत्र विधानप्रतिपादनायाऽऽहश०२ उ०। दुविहा उवाउजीवा, सुहुमा तह बायरा उलोगम्मि। वाईकरण-न०(वाजीकरण) अवाजिनो वाजिनः करणम् वाजीकरणम्। सुहुमाय सव्वलोए,पंचेव य बायरविहाणा // 16 // रेतोवृद्ध्या अश्वस्येव करणे, विपा०।१ श्रु०७ अ० तद्धि अल्पक्षीण- वायुरेव जीवा वायुजीवाः, ते च द्विविधाः-सूक्ष्मबादरनामकर्मोदयात् विशुष्करेतसामाप्यायनप्रसादोपजनननिमित्तं प्रहर्षजननार्थम् / स्था० सूक्ष्मा बादराश्च। तत्र सूक्ष्माः सकललोकव्यापितया अवतिष्ठन्ते दत्तकपठा०३ उ० पाटसकलवातायनद्वारगेहान्तधूमवत् व्याप्त्या स्थिताःबादरभेदास्तु वाउ-पुं०(पायु) अपाने, स्था०६ ठा०३ उ०। पञ्चैवानन्तरगाथया वक्ष्यमाणा इति। *वायु-पुं०। पवने, आव०४ अ० चलनलक्षणे, सूत्र०१श्रु०१ अ०१ बादरभेदप्रतिपादनायाऽऽहउ०। स्पर्शतन्मात्रजे महाभूते, वायुत्वयुक्ते, स चानुष्णशीतस्पर्श- उक्कलिया मंडलिया, गुंजा घणवायसुद्धवाया य / संख्यापरिमाणाऽपृथक्त्वसंयोगविभागपरत्वाऽपरत्ववेगाख्येन- बायरवाउविहाणा, पंचविहावणिया एए॥१६६।। वभिगुणैगुणवान्। सूत्र०१ श्रु०१अ०१ उ०। वायुरात्मेति केचित्। प्रश्न०१ स्थित्वा स्थित्वोत्कलिकाभिर्यो वाति स उत्कलिकावातः, मण्डलिआश्र० द्वार। स्वातिनक्षत्रस्य देवे, सू०प्र०१० पाहु०। अनु० ज० कावातस्तु वातोलीरूपः, गुञ्जा-भम्भा तद्वत् गुञ्जन या वाति स दो वाऊ / स्था०२ ठा०३ उ०। गुञ्जावातः, घनवातोऽत्यन्तघनः पृथिव्याद्याधारतया व्यवस्थितो वायुकायिकजीवे, अनु० / स्था०। प्रव०। ध० सम्म०। उत्त०॥ हिमपटलकल्पो मन्दस्तिमितः शीतकालादिषु शुद्धवातः ये त्वन्ये वायुकुमारे, भ०१श०१ उ० शक्रस्याश्वानीकाधिपतौ, स्था०५ ठा०१ प्रज्ञापनादौ प्राच्यादिवाता अभिहितास्तेषा-मेष्वेव यथायोगमन्तर्भावो उ०। अहोरात्रस्य चतुर्थे मुहूर्ते, ज्यो०२ पाहु०। कल्पासा जं०। द्रष्टव्य इति एवमित्येते बादरवायुविधानानि-भेदाः पञ्चविधाःवाउकम्म-न०(वायुकर्मन) अपानवायुनिसर्गे, तं०। पञ्चप्रकारा व्यावर्णिता इति। आचा०१ श्रु०१अ०७ उ०) वाउकुमार-पुं०(वायुकुमार) भवनपतिदेवभेदे, प्रज्ञा०१पद। ('परिहार वायुकायिकप्रतिपादनार्थमाहविसुद्धिय' शब्दे चतुर्थभागे 665 पृष्ठे तत्स्थानादिवक्तव्यता 1) से किं तं वाउ(का)काइया? वाउकाइया दुविहा पण्णत्ता। तं (अन्तक्रियादिविषयका दण्डकाच"अंतकिरियाऽऽ" दिशब्देषु।) जहा-सुहुमवाउकाइया य, बादरवाउकाइया य / से किं तं चउविहा वायुकुमारा पण्णत्ता।तं जहा-काले महाकाले वेलंबे सुहुमवाउकाइया? सुहुमवाउकाइया दुविहा पण्णत्ता। तं जहापभंजणे। (सू०२२६) भ०३ श०१ उ०) पज्जत्तगसुहुमवाउकाइया य, अपज्जत्तगसुहुमवाउकाइयाय। सेत्तं वायुकुमाराणं भंते ! सव्वे समाहारा एवं चेव सेवं भंते ! भंते ! सुहुमवाउकाइया / से किं तं बादरवाउकाइया? बादरवात्ति। स्था०२ठा० 220 / उकाइया अणेगविहा पण्णत्ता, तं जहा-पाईणवाए पडीणवाए वाउकुमाराइआहवण-न०(वायुकुमाराद्याह्नान) वायुकुमारमेधकुमारा- दाहिणवाए उदीणवाए उडावाए अहोवाए तिरियवाए विदिसीदीनामागमप्रसिद्धदेवविशेषाणां संशब्दने, पञ्चा० रविव०। वाए वाउन्मामे वाउकलिया वायमंडलिया उक्कलियावाए मंडवाउकलिया-स्त्री०(वातोत्कलिका) समुद्रस्येव वातस्योत्कलिकायाम्, लियावाए गुंजावाए झंझावाए संवट्टवाए घणवाएतणुवाए सुद्धवाए जी०१ प्रति० भ० जे यावन्ने तहप्पगारा ते समासओ दुविहा पण्णत्ता / तं जहा
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________________ वाउक्काइय 1056 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 दाउकाइय पछत्तगा य, अपजत्तगा य / तत्थ णं जे ते अपज्जत्तगा ते णं असंपत्ता। तत्थणं जे ते पज्जत्तगा एतेसिणं वण्णादेसेणं गंधादेसेणं रसादेसेणं फासादेसेणं सहस्सग्गसो विहाणाइं संखिजाई जोणिप्पमुहसयसहस्साईपज्जत्तगणिस्साए अपनत्तया वक्कमंति, जत्थ एगो तत्थ नियमा असंखेजा। सेत्तं बादरवाउकाइया। सेत्तं वाउकाइया। (सू०१८) प्रतीत नवरं पाईणवाए' इति यः प्राच्या दिशः समागच्छति वातः स प्राचीनवातः, एवं प्रतीचीनवातो दक्षिणवात उदीचीनवातश्च वक्तव्यः, ऊर्द्धमुद्गच्छन्योवाति वातस्सऊर्ध्ववातः, एवमधोवा-ततिर्यगवातावपि परिभावनीयौ / विदिग्वातोयो विदिग्भ्यो वाति, वातोभ्रामःअनवस्थितवातः वातोत्कलिकाः-समुद्रस्येव वा-तोत्कलिकाः वातमण्डली-वातोली उत्कलिकावातः-उत्कलिकाभिः प्रचुरतराभिःसम्मिश्रितो यो वातः मण्डलिकावातो--मण्डलिकाभिर्मूलत आरभ्य प्रचुरतराभिः समुत्थो यो वातः, गुञ्जावातो-योगुञ्जन् शब्दं कुर्वन् वाति, झञ्झावातः-सवृष्टिरशुभनिष्ठुर इत्यन्ये, संवर्तकवातः-तृणादिसंवर्तनस्वभावः, घनवातो-घन-परिणामो रत्नप्रभापृथिव्याद्यधोवर्ती, तनुवातो-विरलपरिणामोधनवातस्याधः स्थायी, शुद्धवातो-मन्दस्तिमितो वस्तिदृत्यादिगत इत्यन्ये। तेसमासतो' इत्यादि प्राग्वत्, अत्रापि संखेयानि योनिप्रमुखाणि शतसहस्राणि सप्तावसेयानि / प्रज्ञा०१ पद। अचित्तवायुकायिकमाहपंचविहा अचित्ता वाउकाइया पन्नत्ता। तं जहा-अकंते धंते पीलिए सरीराणुगए समुच्छिमे। (सू०४४४) आक्रान्ते पादादिना भूतलादौ यो भवति स आक्रान्तः, यस्तु ध्माते दृत्यादौसध्मातः,जलार्द्रवस्त्रे निष्पीड्यमाने पीडितः उद्गारोच्छ्रासादिःशरीरानुगतः, व्यजनादिजन्यः सम्मूञ्छिमः, एते च पूर्वमचेतनास्ततः सचेतना अपि भवन्तीति: स्था०५ ठा०३ उ०। __ सम्प्रति वायुकायपिण्डमाहवाउकाओ तिविहो,सचित्तो मीसओ य अचित्तो। सचित्तो पुण दुविहो, निच्छयववहारओ चेव // 38 // वायुकायस्त्रिविधस्तद्यथा-सचित्तो मिश्रोऽचित्तश्च / सचित्तः पुनर्द्विधानिश्चयतो व्यवहारतश्च। एतदेव निश्चयव्यवहाराभ्यां सचित्तस्य द्वैविध्यमचित्तं चाऽऽहसवलय घणतणुवाया, अइहिमअइदुहिणे य निच्छयओ। ववहारपाइणाई, अकंताई य अचित्तो॥३९॥ सह वलयैर्वर्तन्ते इति सवलयाः, ये 'घणतणुवाय' ति वात शब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते, घनवातास्तनुवाताश्च। किमुक्तं भवति? ये नरकपृथिवीनां पार्श्वेषु धनवातास्तनुवातावावलयाकारेण व्यवस्थिता वलयशब्दवाच्याः। ये च नरकपृथवीनामेवोधस्तात् धनवातास्तनुवाताश्चातथा 'अइहिम अइदुद्दिणे य' त्ति अतिशयेन हिमे निपतति, अतिशयेन च दुर्द्धिने मेघतिमिरे मेधैर्गगनमण्डलस्याच्छादने ये वायवः एष सर्वोऽपि वायुकायो निश्चयतः सचित्तः, अतिहिमातिदुर्द्धिनाभावे तु यः प्राचीनादिवातः पूर्वादिदिग्वातः स व्यवहारतः सचित्तः / यस्तु आक्रान्तादिकः आक्रान्तः पङ्कादिसमुत्थप्रभृतिकः पञ्चप्रकारो वक्ष्यमाणस्वरूपः सोऽचित्त इति। आक्रान्तादिस्वरूपमेवाऽऽहअकंतघंतघाणे, देहाणुगए य पीलियाइसुय। अच्चित्तावाउकाओ, मणिओ कम्मट्ठमहणेहिं / / 40|| आक्रान्ते-पादेनाक्रान्ते कर्दमादौ यो वातश्चिदिति शब्दं कुर्वन् समुच्छलति, यश्चाध्माते मुखवातभृते दृत्यादौ वर्तते, यो वा घाणेतिलपीडनयन्त्रे तिलपीडनवशात् सशब्दं विनिर्गच्छन्नुपलभ्यते, यश्च देहानुगतः शरीराश्रित उच्छ्वास निःश्वासवातनिसर्गरूपः, पीलितं-सजलं निश्चोत्यमानं वस्त्रादिआदिशब्दात्तालवृन्तादिपरिग्रहः तेषु च यः संभवति वातःएष पञ्चप्रकारोऽपि वातः कर्माष्टकमथनैरचित्तः प्रतिपादितः। संप्रति मिश्र वायुकार्य प्रतिपिपादयिषुर्दृत्यादिस्थस्याचित्तवातकायस्य जले स्थितस्यक्षेत्रमाश्रित्य स्थलस्थितस्य च काल माश्रित्याचित्तादिविभागमाहहत्थसयमेगगंता, दइओ अपित्तवीयए मीसो। तइयम्मि उ सचित्तो, वत्थी पुण पोरिसिदिणेसु // 41|| इह ऊर्ध्वमपाटितेनापनीतमस्तकेन निकर्षितचन्तिर्वर्तिसर्वास्थ्यादिकचवरेणापरचर्ममयस्थिग्गलकस्थगितापानच्छिद्रेण संकीर्णमुखीकृतग्रीवान्तर्विवरेणाजापश्वोरन्यतरस्य शरीरेण निष्पन्नश्चम्ममयः प्रसेवकः कोत्थलकापरपर्यायो दृतिः / स चाचित्तमुखवातभृतः सन् दवरकेण गाढबद्धमुखो नद्यादिजले प्लाव्यमानः क्षेत्रतो हस्तशतमेकं यावत् गन्ता तावत् स दृतिर्दृतिस्थो वातकायोऽचित्तः प्रथमे च हस्तशतेऽतिक्रान्ते सति द्वितीये प्रविशन् मिश्रोभवति, सच मिश्रस्तावद्भवति यावद् द्वितीयहस्तशतपयन्तः, ततो द्वितीये हस्तशतेऽतिक्रान्ते तृतीये प्रविशन् सचित्तो भवति / तत ऊर्ध्वं सचित्त एव / अथवा-एकस्मिन्नेव हस्तशते गमनेनागम-नेन च पुनर्गमनेन च क्रमेणाचित्तत्वादिकमवगन्तव्यम् / यदि वा-हस्तशतगमनकालं परिभाव्यैकस्मिन्नपि स्थाने जलमध्यस्थित-स्योक्तक्रमेणाचित्तत्वादिकं परिभावनीयम्। दृतिग्रहणं चोपलक्षणं तेन वस्तावप्येवं द्रष्टव्यम् / वस्तिश्व दृतिवत् स्वरूपतो भावनीयः, नवरमपरचममयस्थिग्गलकस्यगितग्रीवान्तर्विवरोऽतिविवृतमुखीकृतपाश्चात्यप्रवेशः स विज्ञेयः, तथा 'वत्थिपुण पारसि दिणेसु' त्ति / स्थले स्निग्धं रूक्षं च कालमाश्रित्य वस्तिर्वस्तिस्थितो वातः उपलक्षणमेतत् / तेन दृतिस्थोऽपि वातः स्थलस्थः स्निग्धं रूक्षं च कालमधिकृत्य यथाक्रमं पौरुषीषु दिनेषु चाचित्तादिरूपो वेदितव्यः। एनमेवगाथावयवं भाष्यकृद् गाथाचतुष्टयेन व्याख्यानयतिनिद्धेयरो य कालो, एगंतसिणिद्धमज्झिमजहन्नो। लुक्खो वि होइ तिविहो,जहन्नमज्झो य उक्कोसो॥१२॥
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________________ वाउक्काइय १०६०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वाउक्काइय एगतसिणिद्धम्मी, पोरिसिमेगं अचेयणो होई। न यथाऽन्येषां वायुः स्पर्शवानेवेति प्रयोगार्थश्च गाथया प्रदर्शितः। बिझ्याए संमीसो,तइयाइसचेयणो वत्थी॥१३॥ प्रयोगश्चायम्-चेतनावान् वायुः अपरप्रेरिततिर्यगनियमितगतिमत्त्वात् मज्झिमनिद्धे दो पो-रिसी उ अचित्त मीसओ। गवाश्वादिवत, तिर्यगेव गमननियमाभावादनियमितविशेषणोपादानाच चउत्थीए सचित्तो,पवणो दइयाइमज्झगओ||१४|| परमाणुनानेकान्तिकासंभवस्तस्य नियमितगतिमत्त्वात्, 'जीवपुद्गलयोः अनुश्रेणिगति' रिति / (तत्त्वा०अ०२सू०२७) वचनात, एवमेष वायुः पोरिसितिगमचित्तो, निद्धजहन्नम्मि मीसगचउत्थी। घनशुद्धवातादिभेदोऽशस्त्रोपहतश्चेतनावानवगन्तव्य इति।आचा० 1 श्रु० सचित्तपंचमीए, एवं लुक्खे वि दिणवुड्डी॥१६॥ १अ०७ उ० व्या विशे०। सूत्र०। इह कालः सामान्यतो द्विविधः, तद्यथा-स्निग्धो रूक्षश्च। तत्रयः सजलः परिमाणद्वारमाहसशीतश्च स स्निग्धः, उष्णोरूक्षः, स्निग्धोऽपि त्रिधा तद्यथा-एकान्त जे बायरपज्जत्ता, पयरस्स असंखभागमित्ताते। स्निग्धो मध्यमोजघन्यश्च। तत्र एकान्तस्निग्धः अतिस्निग्धः। रूक्षोऽपि सेसा तिण्णि विरासी, वीसंलोया असंखेज्जा॥१६८|| त्रिधा-तद्यथा-जघन्यो मध्यमः उत्कृष्टः। उत्कृष्टो नाम अतिशयेन ये बादरपर्याप्तका वायवस्ते संवर्तितलोकप्रतरासंख्येयभागवर्तिरूक्षः, तत्र एकान्तस्निग्धकाले वस्तिगतो वायुकायः, उपलक्षणमेतत्, प्रदेशराशिपरिमाणाः, शेषास्त्रयोऽपि राशयो विष्वक् पृथगसंख्येयतेन द्रतिस्थोऽपि एकां पौरुषीं यावद-चेतनो भवति / द्वितीयस्यास्तु लोकाकाशप्रदेशपरिमाणा भवन्ति / विशेषश्चायमत्रावगन्तव्यः बादरापौरुष्याः प्रारम्भेऽपि मिश्रः, स च तावद्यावत्परिपूर्णा द्वितीया पौरुषी, प्कायपर्याप्तकेभ्यो बादरवायुपर्याप्तका असंख्येयगुणाः, बादराप्कायातृतीयस्यां तुपौरुष्यामादित एव सचित्तः, ततऊर्ध्वं सचित्त एव। मध्यमे पर्याप्तकेभ्यो बादरवायुकायापर्याप्तका असंख्येयगुणाः, सूक्ष्माप्कायापतु स्निग्धकाले द्वे पौरुष्यौ यावदचित्तस्तृतीयस्यां तु पौरुष्यां मिश्रः यप्तिकेभ्यः सूक्ष्मवाय्वपर्याप्तका विशेषाधिकाः, सूक्ष्माप्कायपर्याप्तकेभ्यः चतुर्थ्यां सचेतनः। जघन्ये च स्निग्धकाले दृत्यादिमध्यगतो वायुः सूक्ष्मवायुपर्याप्तका विशेषाधिकाः। पौरुषीत्रिकं याव-दचित्तः, चतुर्थपौरुष्यां मिश्रः, पञ्चम्यां तु सचेतनः। उपभोगद्वारमाहएवं रूक्षेऽपि द्रष्टव्यम्, केवलं तत्र दिनवृद्धिः कर्त्तव्या / सा चैवम् वियणधमणाभिधारण, उस्सिचणफुसणआणु पाणू य। जघन्यरूक्षकाले वसत्यादिगतः पवनो दिनमेकमचित्तो द्वितीये दिने वायरवाउकाए, उवभोगगुणा मणुस्साणं // 16 // मिश्रस्तृतीये सचित्तः, मध्यमरूक्षकाले दिनद्वयमचित्तस्तृतीयदिने मिश्र व्यजनभस्वाऽऽध्माताभिधारणोसिञ्चनफूत्कारप्राणापानादिभिर्बादरश्वतुर्थदिने सचेतनः, उत्कृष्टरूक्षकाले दिनत्रयमचित्तश्चतुर्थदिने मिश्रः वायुकायेनोपभोग एव गुण उपभोगगुणो मनुष्याणामिति। आचा०१ श्रु० पञ्चमदिने सचित्तः। 1 अ०७ उ०। (वायुकायपरिभोगः 'महव्वय' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 183 संप्रत्यचित्तवायुकायप्रयोजनमाह-- पृष्ठे गतः।) दइएण वत्थिणा वा, पओयणं होज वाउणा मुणिणो। तत्सेवनिषेधमधिकृत्याऽऽहगेलन्नम्भिव होजा, सचित्तमीसे परिहरेजा // 42 // अनिलस्स समारंभ, बुद्धा मन्नंति तारिसं। दृतिना-दृतिस्थेन वस्तिना-वस्तिस्थेन वेति-समुच्चये न द्याद्युत्तारे सावज्जबहुलं चेयं, नेयं ताईहि सेवियं // 36|| प्रयोजनं भवेद्वायुना मुनेः, अनेन जलस्थो वायुह्यते। अथवा ग्लानत्वे 'अणिलस्स' त्ति अनिलस्य-वायोः समारम्भं तालवृन्तादिभिः करणं मन्दत्वे सति वायुना प्रयोजनं भवति / कापि हि रोगे दृत्यादिना संगृह्य बुद्धास्तीर्थकरा मन्यन्ते-जानन्ति तादृशं जाततेजः समारम्भसदृशं वातोऽपानादौ प्रक्षिप्यते, अनेन स्थलस्थो गृहीतः / सचित्तमिश्री तु सावद्यबहुलं पापभूयिष्ठं चैतमिति कृत्वा सर्वकालमेव नैनं त्रातृभिःयत्नतः परिहरेत्। जलमध्ये त्वशक्ये परिहारे प्रायश्चित्तं पश्चादभिगृह्णीयात्। सुसाधुभिः सेवितम्-आचरितं मन्यन्ते वृद्धा एवेति सूत्रार्थः। तदेवमुक्तो वायुकायपिण्डः। पिं०। एतदेव स्पष्टयतिलक्षणद्वाराभिधित्सयाऽऽह तालअंटेण पत्तेणं, साहाबिहुयणेण वा। जह देवस्स सरीरं, अंतद्वाणं व अंजणादीसुं। न ते विइउमिच्छंति, वेयावेऊण वा परं॥३७।। एवोवम आदेसो, वाए संते विरूवम्मि||१६७।। 'तालयंटेण' त्ति सूत्रम्, तालवृन्तेन पत्रेण शाखाविधूननेन वेत्यमीषां यथा देवस्य शरीरं चक्षुषाऽनुपलभ्यमानमपि विद्यते, चेतनावच्चा- स्वरूपं यथा षड्जीवनिकायिकायाम्, न ते-साधवो बीजितुमिच्छध्यवसीयते, देवाः स्वशक्तिप्रभावात्तथाभूतं रूपं कुर्वन्ति यच्चक्षुषा न्त्यात्मानमात्मना, नापि बीजयन्ति परैरात्मानं तालवृन्तादिभिरेव, नोपलभ्यते, नचैतद्वक्तुं शक्यते-नास्त्यचेतनं चेति, तद्वायुरपि चक्षुषो नापि बीजयन्तं परमनुमन्यन्त इति सूत्रार्थः। विषयो न भवति, अस्ति च चित्तवांश्चेति, यथा वाऽन्तर्धानमञ्जनविद्या उपकरणात्तद्विराधनेत्येतदपि परिहरन्नाहमन्त्रैर्भवति मनुष्याणां न च नास्तित्वमचेतनत्वं चेति, एतदुपमानं जंपि वत्थं व पायं वा, कंबलं पायपुंछणं। वायावपि भवति, आदेशो-व्यपदेशोऽ-सत्यपि रूपइति। अत्र चासच्छब्दो न ते वायमुईरंति, जयं परिहरंति य॥३८|| नाभाववचनः, किन्तु असत् रूपं वायोरिति' चक्षुग्रीह्यं तद्रूपं न भवति, 'जं पि' त्ति, सूत्रम् यदपि वस्त्रं वा पात्रं वा कम्बलं वा पादसूक्ष्मपरिमाणात् परमाणोरिव / रूपरसगन्धस्पर्शात्मकश्च वायुरिष्यते, | पुञ्छनम् अमीषां पूर्वोक्तं धर्मोपकरणं तेनापि न ते वातमुदीरय
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________________ वाउकाइय १०६१-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वाउक्काइय न्ति अयतप्रत्युपेक्षणादिक्रियया, किं तु-यतं परिहरन्ति परिभोगपरिहारेण धारणापरिहारेण चेति सूत्रार्थः। यत एवं सुसाधुवर्जितोऽनिलसमारम्भःतम्हा एयं वियाणित्ता, दोसं दुग्गइवडणं। वाउकायसमारंभ,जावजीवाइवजए॥३६॥ 'तम्ह' त्ति सूत्रम्, व्याख्या पूर्ववत्। दश०६ अ०२ उ०ा शस्त्रद्वाराभिधित्सयाऽऽह-तत्र शस्त्रं द्रव्यभावभेदाद् द्विविधम् / द्रव्यशस्त्राभिधित्सयाऽऽहवियणे य तालवेंटे, सुप्पसिए पत्तचेलकण्णे य / अभिधारणा य बाहिं, गंधडग्गी वाउसत्थाई॥१७॥ व्यजनं तालवृन्तं सूर्पसितपत्रचेलकर्णादयः द्रव्यशस्त्रमिति, तत्र सितमिति चामरं प्रस्विन्नो यदहिरवतिष्ठते वातागमनमार्गेसाऽभिधारणा। तथा गन्धाश्चन्दनोशीरादीनाम्, अग्निः-ज्वाला प्रतापश्च, तथा प्रतिपक्षवातश्च शीतोष्णादिकः, प्रतिपक्षवायुग्रहणेन स्वकायादिशस्त्र सूचितमिति, एवं भावशस्त्रमपिदुष्प्रणिहितमनोवाकायलक्षणमवगन्तव्यमिति / आचा०५ श्रु०१ अ०७उ01 वायुकायविधिमाहतालअंटेण पत्तेणं, साहाए विहुणेण वा। न बीइज्ज अप्पणो कायं, बाहिरं वा वि पुग्गलं / / / 'तालअंटेण' त्ति सूत्रम्, तालवृन्तेन--व्यजनविशेषेण पत्रेण पद्मिनीपत्रादिनाशाखयावृक्षडालरूपया विधूननेन वा व्यजनेन वा, किमित्याहन बीजयेत् आत्मनः कायं; स्वशरीरमित्यर्थः, बाह्यं वापि पुद्गलम् उष्णोदकादीति सूत्रार्थः। दश०५ अ०२ उ०। अधुना सकलनिर्युक्त्यर्थोपसंजिहीर्षुराहसेसाई दाराई, ताईजाई हवंति पुढवीए। एवं वाउद्देसे, निज्जुत्ती कित्तिया एसा / / 171 / / शेषाण्युक्तव्यतिरिक्तानि तान्येव द्वाराणिपृथिवीसमधिगमे यान्यभिहितानीति, एवं सकलद्वारकलापव्यावर्णनाद्वायुकायोद्देशके नियुक्तिः कीर्तितैषाऽवगन्तव्येति / गतो नामनिष्पन्नो निक्षेपः। साम्प्रतं सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयम्। तच्चेदम्पहु एजस्स दुगुंछणाए। (सू०५५) अस्य चायमभिसंबन्धः, इहानन्तरोद्देशके पर्यन्तसूत्रे त्रसकायपरिज्ञानं तदारम्भवर्जनं च मुनित्वकारणमभिहितम्, इहापि तदेव द्वयं वायुकायविषयं मुनित्वकारणमेवोच्यते, तथा परम्परसूत्र-संबन्धः 'इहमेगेसिंणो णायं भवइ' ति किं तत् ज्ञातं भवति 'पहुएजस्स दुगुंछणाए' त्ति तथा आदिसूत्रसंबन्धश्च 'सुयं मे आउसंतेण' मित्यादि, किं तत् श्रुतम्, यत् प्रागुपदिष्ट तथैतच- 'पहू एजस्स दुगुंछणाए' त्ति। 'दुगुंछण' त्ति जुगुप्सा, प्रभवंतीति प्रभुः-समर्थः-योग्यो वा, कस्य वस्तुनः समर्थ इति, 'एज़' कम्पने एजयतीत्येजोवायुः कम्पनशीलत्वात्तस्यैजस्य जुगुप्सानिन्दा, तदासेवनपरिहारो निवृत्तिरिति यावत्, तस्याः-तद्विषये प्रभुर्भवति वायुकायसमारम्भनिवृत्तौ शक्तो भवतीति यावत् , पाठान्तरं वा-'पहु य एगस्स दुगुंछणाए' उद्रेकावस्थावर्तनेनैकेन गुणेन स्पर्शाख्ये-नोपलक्षित इत्येको-वायुस्तस्यैकस्यैकगुणोपलक्षितस्य वायोर्जुगुप्सायां प्रभुः चशब्दात् श्रद्धाने च प्रभुर्भवतीति, अर्थात्-यदि श्रद्धाय जीवतया जुगुप्सते ततो योऽसौ वायुकायसमारम्भनिवृत्तौ प्रभुरुक्तस्तं दर्शयति आयंकदंसी अहियंसि णचा,जे अज्झत्थं जाणइ से बहिया जाणइ, जे बहिया जाणइ से अज्झत्थं जाणइ एतं तुलमन्नेसिं। (सू०५६) (आयंकदंसीत्यादिपदव्याख्या 'आतंकदंसि'शब्दे द्वितीयभागे 154 पृष्ठे कृता। तदधिकमिह प्रदर्श्यते)-अतोय आतङ्कदर्शी भवति। विमलविवेकभावात् स वायुसमारम्भस्य जुगुप्सायां प्रभुः हिताहितप्राप्तिपरिहारानुष्ठानप्रवृत्तेः, तदन्यैवंविधपुरुषवदिति वायुकायसमारम्भनिवृत्तेः कारणमाह.. 'जे अज्झत्थमि' त्यादि आत्मानमधिकृत्य यद्वर्तते तदध्यात्मं तच्च सुखदुःखादि, तद्यो जानातिअवबुध्यते स्वरूपतोऽवगच्छतीत्यर्थः / स बहिरपि प्राणिगणं वायुकायादिकं जानाति, तथैषोऽपि हि सुखाभिलाषी दुःखाच्चोद्विजते, यथा-मयि दुःखभापतितमतिकटुकमसद्वेधकर्मोदयादशुभफलं स्वानुभवसिद्धम्; एवं यो वेत्ति स्वात्मनि सुखं च सद्वेद्यकर्मोदयात् शुभफलमेवं च योऽवगच्छति स खल्वध्यात्म जानाति, एवं च योऽध्यात्मवेदी स बहिर्व्यवस्थितवायुकायादिप्राणिगणस्यापि नानाविधोपक्रमजनितं स्वपरसमुत्थं च शरीरमनः समाश्रयं दुःखं सुखं वा वेत्ति स्वप्रत्यक्षतया परत्राप्यनुमीयते। यस्यपुनः स्वात्मन्येव विज्ञानमेवंविधं न समस्ति कुतस्तस्य बहिर्व्यवस्थितवायुकायादिष्वपेक्षा? यश्च बहिर्जानाति सोऽध्यात्म यथावदवैतीतरेतराव्यभिचारादिति / परात्मपरिज्ञानाच्च यद्विधेयं तद्दर्शयितुमाह- 'एतं तुलमन्नेसिमि' त्यादि एतां तुला यथोक्तलक्षणामन्वेषयेद्-- गवेषयेदिति / का पुनरसौ तुला? यथाऽऽत्मानं सर्वथा सुखाभिलाषितया रक्षसि तथाऽपरमपि रक्ष / यथा परं तथात्मान... मित्येतां तुला तुलितस्वपरसुखदुःखानुभवोऽन्वेषयेत्; एवं कुर्यादित्यर्थः / उक्तं च- 'कद्वेण कंटएण व,पाए विद्धस्स वेयणट्टस्स / जह होइ अनिव्वाणी, सव्वत्थ जिएसु तं जाण / / 1 / / ' तथा "मरिष्यामीति यद् दुःखं, पुरुषस्योपजायते / शक्यस्तेनानुमानेन, परोऽपि परिरक्षितुम् // 1 // " अतश्च यथाऽभिहिततुलातुलितस्वपरा नराः स्थावरजङ्गमजन्तुसंघातरक्षणायैव प्रवर्तन्ते। कथमिति दर्शयतिइह संतिगया दविया, णावकखंति जीविठं। (सू०५७) 'इहे' त्यादि इह-एतस्मिन् दयैकरसे-जिनप्रवचने शमनं शान्तिः-- उपशमः प्रशमसंवेगनिर्वेदानुकम्पास्तिक्याभिव्यक्तिलक्षणसम्यग्दर्शनज्ञानचरणकलापः शान्तिरुच्यते, निराबाधमोक्षाख्यशान्तिप्राप्तिकारणत्वात्, तामेवंविधां शान्ति गताः-प्राप्ताः शान्तिगताःशान्तौ वा स्थिताः शान्तिगताः, द्रविका नाम-रागद्वेषविनिर्मुक्ताः द्रवः-संयमः सप्तदशविधानःकर्मकाठिन्यद्र-वणकारित्वाद् विलयहेतुत्वात्; सयेषां विद्यते ते द्रविकाः नाऽव-काशति-न वाञ्छन्ति; नाऽभिलषन्तीत्यर्थः,
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________________ वाउक्काइय 1062- अभिधानराजेन्द्रः- भाग 6 वाउक्काइय किं नावकासन्ति? जीवितुं--प्राणान् धारयितुं केनोपायेन जीवितुं नाभिकाङ्गन्ति; वायुजीवोपमर्दनेनेत्यर्थः / शेषपृथिव्यादिजीवकायसंरक्षणं तु पूर्वोक्तमेव / समुदायार्थस्त्वयम्-इहैव जैने प्रवचने यः संयमस्तव्यवस्थिता एवोन्मूलितातितुङ्गरागद्वेषद्रुमाः प्रभूतोपमर्दनिष्पन्नसुखजीविकानिरभिलाषाः साधवो नान्यत्रैवंविधक्रियावबोधाभावादिति। एवं व्यवस्थिते सतिलजमाणे पुढोपास अणगारामो त्ति एगे पवयमाणा जमिणं विरूवरूवेहिं सत्येहिं वाउकम्मसमारंभेणं वाउसत्थं समारम्भमाणे अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसति / तत्थ खलु भगवया परिण्णा पवेइया इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदणमाणपूयणाए जाईमरणमोयणाए दुक्खपडिघायहेउं से सयमेव वाउसत्थं समारंभति, अण्णेहिं वा वाउसत्थं समारंभावेइ अण्णे वाउसत्थं समारंभंते समणुजाणति तं से अहियाए तं से अबोहीए से त्तं संबुज्झमाणे आयाणीयं समुहाए सोया भगवओ अणगाराणं अंतिए इहमेगेसिं णायं भवति-एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे एस खलु णिरए इचत्थं गडिए लोए जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं वाउकम्मसमारंभेणं वाउसत्थं समारंभमाणे अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसति / (सू०५८) से बेमि-- संति संपाइमा पाणा आहच संपयंति य फरिसं च खलु पुट्ठा एगे संघायमावजंतिजे तत्थसंघायमावजंति, ते तत्थ परियावअंति जे तत्थ परियावचंतिते तत्थ उहायंति, एत्थ सत्थं समारंभमाणस्स तेचेइ आरम्भा अपरिण्णाया भवंति / एत्थ सत्थं असामरंभमाणस्स इयेते आरंभा परिणाया भवंतितं परिणाय मेहावी व सयं वाउसत्थं समारंभेजा णेवऽण्णेहिं वाउसत्थं समारंभावेजा जेवण्णे वाउसत्थं समारंभंते समणुजाणेज्जा जस्सेते वाउसत्थसमारभा परिणाया भवंति से हु मुणी परिण्णायकम्मे त्ति बेमि / (सू०५६) 'लज्जमाणा पुढो पासे' त्यादिपूर्ववन्नेयं यावत्-'सेहुमुणीपरिण्णायकम्मे त्ति बेमि'। संप्रति षड्जीवनिकायविषयवधकारिणामपायदिदर्शयिषया तन्निवृत्तिकारिणां च संपूर्णमु निभावप्रदर्शनाय सूत्राणि प्रक्रम्यन्तेएत्थं पि जाणे उवादीयमाणा जे आयारे ण रमंति आरंभमाणा विणयं वयंति छंदोवणीया अज्झोववण्णा आरंभसत्ता पकरंति संगं / (सू०-६०) . एतस्मिन्नपि प्रस्तुते वायुकाये अपिशब्दात्-पृथिव्यादिषु च समाश्रितमारम्भं ये कुर्वन्तितेउपादीयन्ते; कर्मणा बध्यन्त इत्यर्थः, एतस्मिन् जीवनिकाये वधप्रवृत्ताः शेषनिकायवधजनितेन कर्मणा बध्यते, किमिति? यतो न होकजीवनिकायविषय आरम्भः शेषजीवनिकायोपमर्दमन्तरेण कर्तुं शक्यत इत्यतस्त्वमेवं जानीहि, श्रोतुरनेन परामर्शः। अत्रच द्वितीयार्थे प्रथमा, ततश्चैवमन्वयो लगयितव्यः--पृथिव्याद्यारम्भिणः शेषकायारम्भकर्मणा उपादीयमानान् जानीहि, के पुनः पृथिव्याद्यारम्भिणः। शेषकायारम्भकर्मणोपादीयन्ते? इत्याह- 'जे आयारेण रमं ति' ये-ह्यविदितपरमार्था ज्ञानदर्शनचरणतपोवीर्याख्ये पञ्चप्रकाराचारे न रमन्ते-न धृतिं कुर्वन्ति, तदधृत्या च पृथिव्याधारम्भिणः, तान् कर्मभिरुपादीयमानान् जानीहि / के पुनराचारे न रमन्ते? शाक्यदिगम्बरपार्श्वस्थादयः, किमिति? यत आह-आरम्भमाणा अपि पृथिव्यादीन् जीवान् विनयं संयममेव भाषन्ते कर्माष्टकविनयनाद्विनयः संयमः, शाक्यादयो हि वयमपि विनयव्यवस्थिताः इत्येवं भाषन्ते, न च पृथिव्यादिजीवाभ्युपगमं कुर्वन्ति, तदभ्युपगमे वा तदाश्रितारम्भित्वात् ज्ञानाद्याचारविकलत्वेन नष्टशीला इति। किं पुनः कारणम्? येनैवं ते दुष्टशीला अपि विनयव्यवस्थितमात्मानं भाषन्ते इत्यत आह'छंदोवणीया अज्झोववण्णा' छन्दः-स्वाभिप्रायः इच्छामात्रमनालोचितपूर्वापरं विषयाभिलाषो वा तेन छन्दसोपनीताः-प्रापिता आरम्भमार्गमविनीता अपि विनयं भाषन्ते, अधिकमत्यर्थमुपपन्नाः, तच्चित्तास्तदात्मकाः अध्युपपन्नाः; विषयपरिभोगायत्तजीविता इत्यर्थः, ये एवं विषयाशाकर्षितचेतसस्ते किं कुर्युरित्याह-'आरम्भसत्ता पकरन्तिसंग' आरम्भणमारम्भः सावद्यानुष्ठानं तस्मिन् सक्तास्तत्पराः प्रकर्षण कुर्वन्ति, सज्यन्ते येन संसारे जीवाः स सङ्गः अष्टविधं कर्म विषयसङ्गो वा तं सङ्गं प्रकुर्वन्ति, सङ्गाच्च पुनरपि संसारः आजवं-जवीभावरूपः (पुनः पुनस्तत्रैवोत्पत्तिः।) एवं प्रकारमपायमवाप्नोति षट्जीवनिकायघातकारीति। अथ यो निवृत्तस्तदारम्भात् स किंविशिष्टो भवतीत्यत आह-- से वसुमं सव्वसमण्णागयपण्णाणेणं अप्पाणेणं अकरणिज्जं पावं कम्मणो अण्णेसिंतं परिण्णाय मेहावी णेव सयं छज्जीवनिकायसत्थं समारंभेजा जेवण्णेहिं छजीवनिकायसत्थं समारम्भावेज्जा णेवण्णे छजीवनिकायसत्थं समारंभंते समणुजाणेज्जा, जस्सेते छग्जीवनिकायसत्थसमारंभा परिण्णाया मवंति से मुणी परिण्णायकम्मे त्ति बेमि। (सू०-६१) 'से' इति पृथिव्युद्देशकाद्यभिहितनिवृत्तिगुणभाक् षड्जीवनिकायहनननिवृत्तो वसुमान्-वसूनि द्रव्यभावभेदाद् द्विधा द्रव्यवसूनिमरकतेन्द्रनीलवजादीनि भाववसूनिसम्यक्त्वादीनि तानि यस्य यस्मिन्-वा सन्ति स वसुमान; द्रव्यवानित्यर्थः, इह च भाववसुभिर्वसुमत्त्वमङ्गीक्रियते, प्रज्ञायन्ते यैस्तानि प्रज्ञानानि यथावस्थितविषयग्राहीणि ज्ञानानि सर्वाणि समन्वागतानि प्रज्ञानानि यस्यात्मनः स सर्वसमन्वागतप्रज्ञानः सर्वावबोधविशेषानुगतः सर्वेन्द्रिय-ज्ञानैः पटुभिर्यथावस्थितविषयग्राहिभिरविपरीतैरनुगत इति यावत्, तेन सर्वसमन्वागतप्रज्ञानेनात्मना। अथवा-सर्वेषुद्रव्यपर्यायेषु सम्यगनुगतं प्रज्ञानं यस्यात्मनः स सर्वसमन्वागतप्रज्ञानः, आत्मा भगवद्वचनप्रामाण्यादेवमेतत् द्रव्यपर्यायजातं नान्यथेति सामान्यविशेषपरिच्छेदान्निश्चिताशेषज्ञेयप्रपञ्चस्वरूपः सर्वसमन्वागतप्रज्ञान आत्मे
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________________ वाउक्काइय 1063 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वाउट्य त्युच्यते, अथवा-शुभाशुभफलसकलकलापपरिज्ञानान्नरकतिर्य-- मुख्यवृत्त्या पुञ्जणिकया वायुकरणं ज्ञातं नास्ति, परं गुर्वादीनां गनरामरमोक्षसुखस्वरूपपरिज्ञानाचापरितुष्यन्ननैकान्तिकादिगु- मक्षिकोड्डायनार्थ वायुकरणे लाभोऽस्ति न त्वलाभः, यतो मक्षिकोड्डायनं णयुक्ते संसारसुखे मोक्षानुष्ठानमाविष्कुर्वन् सर्वसमन्वागतप्रज्ञान गुरुभक्तिरेवेति // 146 / सेन०४ उल्ला० . आत्माऽभिधीयते, तेनैवंविधेनात्मना अकरणीयमकर्तव्यमिहपरलोक- वाउका(का)य-पुं०(वायुकाय) प्रचण्डवाते, स्था०३ ठा०३उ०। विरुद्धत्वादकार्यमिति मत्वा नान्वेषयेत्--नतदुपादानाय यत्नं कुर्यादि- वाउकारणं भंते ! वाउयाए चेव अणेगसयसहस्सखुत्तो उद्दाइत्ता त्यर्थः / किं पुनः तदकरणीयं नान्वेषणीयमिति? उच्यते-पापकर्म / उदाइत्ता तत्थेव भुजो भुलो पच्चायाति? हंता गोयमा! ०जाव (आचा०) (तद्व्याख्या 'पावकम्म' शब्दे पञ्चमभागे 877 पृष्ठे गता।) पचायाति / से भंते ! किं पुढे उद्दाति अपुढे उहाति? गोयमा! एतदेवाह-'तं परिणाय मेहावी' त्यादि तत्पापमष्टादशप्रकारं परिः- पुढे उद्दाइ नो अपुढे उद्दाइ। से भंते ! किं ससरीरी निक्खमइ समन्तात् ज्ञात्वा मेधावी मर्यादावान् नैव स्वयं षड्जीवनिकायशस्त्रं असरीरी निक्खमइ? गोयमा ! सिय ससरीरी निक्खमइ सिय स्वकायपरकायादिभेदं समारभेत नैवान्यैः समारम्भयेत्, न चान्यान् असरीरी निक्खमइ। से केणऽटेणं भंते ! एवं उच्चइ सिय समारभमाणान्समनुजानीयात्, एवं यस्यैते सुपरीक्ष्यकारिणः षड्जीव- ससरीरी निक्खमइ सिय असरीरी निक्खमइ? गोयमा ! निकायशस्वसमारम्भाः तद्विषयाः पापकर्माविशेषाः परिज्ञाता ज्ञपरिज्ञया वाउकायस्स णं चत्तारि सरीरया पण्णत्ता, तं जहा-ओरालिए प्रत्याख्यानपरिज्ञया चसएंव मुनिः प्रत्याख्यातकर्मत्वात्, प्रत्याख्या- वेउव्विए तेयए कम्मए, ओरालियवेउवियाई विप्प-जहाय ताशेषपापागमत्वात्, तदन्यैवंविधपुरुषवदिति। इतिशब्दोऽध्ययनपरि- तेयकम्मएहिं निक्खमति, से तेणऽटेणं गोयमा! एवं दुच्चइसमाप्तिप्रदर्शनाय ब्रवीमीति सुधर्मा स्वाम्याह-स्वमनीषिकाव्यावृत्तये सिय ससरीरी सिय असरीरी निक्खमइ। (सू०५६) भगवतोऽपनीतघ नघातिकर्मचतुष्टयस्य समासादिताशेषपदार्था- 'वाउकाए णं भंते!' इति अयंच प्रश्रो वायुकायप्रस्तावादिहितोऽन्यथा विर्भावकदिव्यज्ञानस्य प्रणताशेषगीर्वाणाधिपतेश्चतुस्त्रिशदतिशय- पृथिवीकायिकादीनामपि मृत्वा स्वकाये उत्पादोऽस्त्येव सर्वेषामेषां समन्वितस्य श्रीवर्द्धमानस्वामिनः उपदेशात्सर्वमेतदाख्यातंयदतिक्रान्तं कायस्थितेरसंख्याततयाऽनन्ततया चोक्तत्वात्। यदाह-"असंखोमयेति। आचा० १श्रु० ११०७उ०। ('मूलगुणपडिसेवणा' शब्देऽस्मिन्नेव सप्पिणीउस्सप्पिणीउ एगिदियाण उ चउण्हं / ता चेव ऊ अणंता, भागे 356 पृष्ठे एतस्य दर्पिकाकल्पिका च प्रतिसेवनोक्ता।) वणस्सईए उ बोद्धव्वा // 1 // " तत्र वायुकायो वायुकाय एवानेकशतवायुकायिकानां शरीरभेदानाह सहस्रकृत्वः 'उद्दाइत्त' ति अपहृत्यमृत्वा 'तत्थेव' त्ति वायुकाय एव तेसिणं भंते ! जीवाणं कति सरीरगा पन्नत्ता, गोयमा ! चत्तारि 'पच्चायाइ' त्ति 'प्रत्याजायते उत्पद्यते। पुढे उद्दाइ'त्तिस्पृष्टः स्वकायसरीरगा पन्नत्ता, तं जहा-ओरालिते वेउव्विते तेयए कम्मए शस्त्रेण परकायशस्त्रेण वा अपद्रवतिम्रियते 'नो अपुढे' त्ति सोपक्रमासरीरगा पडागसंठिया, चत्तारि समुग्घाया पण्णत्ता, तं जहा- पेक्षमिदं 'निक्खमइ' त्ति स्वकलेवरान्निःसरति, 'सिय ससरीरी' ति वेयणासमुग्घाते कसायसमुग्धाते मारणंतियसमुग्घाए वेउवि- स्यात्- कथञ्चित् 'ओरालिय-वेउव्वियाइं विप्पजहाये' त्यादि अयमर्थःयसमुग्धाते आहारो णिव्वा घाएणं छद्दिसिं वाघायं पडच सिय औदारिकवैक्रियापेक्षया अशरीरी तैजसकार्मणापेक्षया तु सशरीरी तिदिसिं सियचउद्दिसिं सिय पंचदिसिं उववातो देवमणुयनेर- निष्क्रामतीति / वायुकायस्य पुनस्तत्रैवोत्पत्तिर्भवतीत्युक्तम् / भ०२ इएसु णऽत्थि, ठिती जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं तिग्नि श०१ उ० वाससहस्साइंसेसंतं चेव एगगतिया दुअगतिया परित्ता असं- वाउक्खित्त-त्रि०(वातोत्क्षिप्त) समीरणोत्पाटिते, पिं०। खेला पण्णत्ता समणाउसो ! सेत्तं बायरवाउकाइया / सेत्तं | वाउचारण-पुं०(वायुचारण) पवनेष्वनेकदिग्मुखोन्मुखेषु प्रतिलोमानुवाउकाइया। (सू०-२६४) लोमवर्तितत्प्रदेशावलीमुपादाय गतिमत्स्खलितचरणविन्यासमातथा शरीरादिद्वारकलापचिन्तायां शरीरद्वारे चत्वारि शरीराणि स्कन्दति चारणभेदे, ग०२ अधि०| औदारिकवैक्रियतैजसकार्मणानि चत्वारः समुद्घाताः--वैक्रिय- | वाउजीव-पुं०(वायुजीव) वायुकायिकजीवे, "दुविहा वाउजीवासुहमा य, वेदनाकषायमारणान्तिकरूपाः स्थितिद्वारे जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त बायरा य" उत्त०३ अ०ा आचा०। वक्तव्यमुत्कर्षतस्त्रीणि वर्षसहस्राणि, आहारो नियाघातेन षड्दिशि वाउत्तरवडिंसग-न०(वायूत्तरावतंसक) तृतीये देवलोकविमाने, स०५ व्याघातं प्रतीत्य स्यात् त्रिदिशि स्याश्चतुर्दिशि स्यात् पञ्चदिशि लोकनि- समा ष्कुटादावपि बादरवातकायस्य संभवात्, शेष सूक्ष्मवातकायवत् उप- | वाउय-त्रि० (वातोद्भूत) वायुकम्पिते, चं० प्र० 18 पाहु०। संहारमाह-सेत्तं वाउकाइया' इति उक्ता वायुकायिकाः। जी०१प्रति०। "वाउद्भूयविजयवे जयंती-" वातोद्भूता-विजयसूचिका पुञ्जणिकया वायुकरणे लाभोऽलाभो वा? इति प्रश्नः, अत्रोत्तरम्- वैजयन्ती पार्श्वतो लघुपताकाद्वययुक्तःपताकाविशेषो वातो
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________________ वाउदय 1065 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वाउभूइ द्भूतविजयवैजयन्ती। भ०६ श०३३ उ०। सू०प्र०। रा०ाजी01 वाउप्पइया-स्त्री०(वातोत्पतिका) पक्षिजातिभेदे, प्रश्न०१ आश्र० द्वार। वाउप्पवेस-पुं०(वायुप्रवेश) गवाक्षे, और वाउन्भाम-पुं०(वातोद्भ्राम) अनवस्थितवाते, जी०१ प्रति०। प्रज्ञा०। वृष्ट्यव्यभिचारिणि प्रदक्षिणं दिक्षु भ्रमति प्रशस्ते वाते, अनु०। वाउभक्खि(ण)-पुं०(वायुभक्षिन्) वायुमात्रभक्षकेवानप्रस्थे, नि०। औ० वाउभूइ-पुं०(वायुभूति) गौतमगोत्रे इन्द्रभूतेतरि वीरजिनस्य तृतीये गणधरे, स०१ सम० आ०म०। अथ तृतीयगणधरस्य वायुभूतेर्वक्तव्यतामभिधित्सुराह-- ते पव्वइए सोउं,तइओ आगच्छई जिणसगासं। वचामी वंदामी, वंदित्ता पज्जुवासामि।।१६४५।। ताविन्द्रभूत्य-ग्निभूती प्रव्रजितौ श्रुत्वा तृतीयो-वायुभूतिनामा द्विजोपाध्यो जिनसकाशमागच्छति, सातिशयनिजबन्धुद्वयनिष्क्रमणाकर्णनाज्झगिति विगलिताभिमानो भगवति संजातसर्वज्ञप्रत्ययः सन्नेवमवधार्याऽऽगतः-व्रजामितत्राहमपि वन्दे भगवन्तं श्रीमन्महावीरम्, वन्दित्वा च पर्युपासेपर्युपास्ति करोमि तस्य भगवत इति। अपरञ्च किं विकल्प्य समागतोऽसौ इत्याहसीसत्तेणोवगया, संपयमिंदग्गिभूइणो जस्स। तिहुयणकयप्पणामो, स महाभागोऽभिगमणिलो / / 1646 / तदभिगमण वंदणो-वासणाइणा होञ्ज पूयपावोऽहं। वोच्छिण्णसंसओवा, वोत्तुं पत्तो जिणसगासे॥१६४७।। पूतपापो-विशुद्धपापः; अपगतपाप इत्यर्थः, शेषं सुगमम्। ततः किम्? इत्याहआभट्ठो य जिणेणं, जाइजरामरणविप्पमुक्केणं / नामेण य गोत्तेण य, सव्वण्णू सव्वदरिसीणं / / 1648|| व्याख्या पूर्ववदिति, इत्थं सगौरवं साञ्जसमाभाषितोऽपि भगवता सकलत्रैलोक्यातिशायिनीं तस्य रूपादिसमृद्धिमभिवीक्ष्य क्षोभादसमर्थों हृद्गतसंशयं प्रष्टुं विस्मयात् तूष्णीमाश्रितः पुनरपि उक्तः। किम्? इत्याहतज्जीव तस्सरीरं, ति संसओ न वि य पुच्छसे किंचि / वेयपयाण य अत्थं,नयाणसी तेसिमो अत्थो॥१६४६॥ हे आयुष्मन्! वायु भूते! 'तदेवं वस्तुजीवस्तदेव च शरीरम्न पुनरन्यत्' इत्येवंभूतस्तव संशयो वर्त्तते, नाऽपिचतदपनोदार्थ किञ्चिद्मां पृच्छसि / ननुयज्ञवाटान्निर्गच्छता त्वयाऽभिहित-मासीत्-'बोच्छिण्णसंसओवा' इति, तत् किमिति न किञ्चित् पृच्छसि? अयं च संशयस्तव विरुद्धवेदषदश्रवणनिबन्धनो वर्तते। तेषां च वेदपदानामर्थं त्वं न जानासि, तेन संशयं कुरुषे। तेषां चायं वक्ष्यमाणलक्षणोऽर्थ इति। यथा च वायुभूतेरयं संशयस्तथा विशेषत एव भाष्यकारो भावयन्नाहवसुहाइभूय समुदय, संभूया चेयण त्ति ते संका। पत्तेयमदिवाऽवि हु, मजंगमउ व्व समुदाये // 1650 / / जह महंगेसु मओ, दीसुमदिट्ठोऽवि समुदए होउं। कालंतरे विणस्सइ, तह भूयगणम्मि चेयण्णं / / 1651 / / वसुधा-पृथ्वी, आदिशब्दादप्तेजोवायुपरिग्रहः, वसुधादय एव भवन्तीति कृत्वा भूतानि वसुधादिभूतानि, तेषां समुदयः-परस्परमीलनपरिणतिर्वसुधादिभूतसमुदयः, तस्मात् प्रागसती संभूता संजाता चेतनेत्येवंभूता तव शङ्का। सा चचेतनापृथिव्यादिभूतेषु प्रत्येकावस्थायामदृष्टाऽपि धातकीकुसुमगुडोदकादिषु मद्याङ्गेषु मद इव तत्समुदाये संभूतेति प्रत्यक्षत एव दृश्यते। तदेवमन्वयद्वारेण चेतनाया भूतसमुदायधर्मता दर्शिता / अथ व्यतिरेकद्वारेण तस्यास्तां दर्शयितुमाह-- 'जह मजंगेसु' इत्यादि, यथा च मद्याङ्गेषु मदभावः प्रत्येकावस्थायामदृष्टोऽपि तत्समुदाये भूत्वा ततः कियन्तमपि कालं स्थित्वा कालान्तरे तथाविधसामग्रीवशात् कुतश्चित् विनश्यति, तथा भूतगणेऽपि प्रत्येकमसञ्चैतन्य भूत्वा ततः कालान्तरे विनश्यति / ततोऽन्वयव्यतिरेकाभ्यां निश्चीयते-- भूतधर्म एव चैतन्यम्। इदमत्र हृदयम्-यत् समुदायिषु प्रत्येकं नोपलभ्यते तत्समुदाये चोपलभ्यते तत्समुदायमात्रधर्म एव, यथा-मद्यागसमुदायधर्मो मदः / स हि मद्याङ्गेषु विष्वग्नोपलभ्यते, तत्समुदाये चोपलभ्यते, अतस्तद्धर्मः, एवं चेतनाऽपि भूतसमुदाये भवति, पृथग् न भवति, अतस्तद्धर्मः। धर्मधर्मिणोश्चाभेद एव भेदेघटपटयोरिवधर्मिधर्मभावाप्रसङ्गात् / तस्मात् स एव जीवस्तदेव च शरीरम् / वाक्यान्तरेषु पुनः शरीराद् भिन्नः श्रूयते जीवः, तद्यथा-'न हि वै सशरीरस्य प्रियाऽप्रिययोरपहतिरस्ति, अशरीरं वा वसन्तं प्रियाप्रिये न स्पृशतः' इत्यादि। ततस्तव संशय इति। अत्रोत्तरमाहपत्तेयमभावाओ, न रेणुतेलं व समुदये चेया। मज्जंगेसु तु मओ, वीसुं पिन सव्वसो नऽत्थि / / 1652 / / 'न समुदये चेय त्ति' न भूतसमुदायमात्रप्रभवा चेतना, 'पत्तेयभावाउ' त्ति भूतप्रत्येकावस्थायां; तस्या अंशतोऽपि सर्वथाऽनुपलब्धेरित्यर्थः / किं यथा किं प्रभवं न भवति? इत्याह-न रेणुतेल्लं व ति यथा प्रत्येक सर्वथाऽनुपलम्भाद्; रेणुकणसमुदाय-प्रभवं तैलं न भवतीत्यर्थः / प्रयोगः-ययेषु पृथगवस्थायां सर्वथा नोपलभ्यते तत् तेषां समुदायेऽपि न भवति, यथा-सिकताकण-समुदाये तैलम्। यत्तु तेषां समुदाये भवति न तस्य पृथग्व्यवस्थि तेषु सर्वथाऽनुपलम्भः, यथैकैकतिलावस्थायां तैलस्य सर्वथा नोपलभ्यतेच भूतेषु प्रत्येकावस्थायां चेतना, तस्माद्नासौ तत्समुदायमात्रप्रभवा, किन्त्वर्थापत्तेरेवान्यत् किमपिजीवलक्षणं कारणान्तरं भूतसमुदायातिरिक्तं तत्र संघट्टितम्, यत इयं प्रभवतीति प्रतिपत्तव्यम् / आह-प्रत्येकावस्थायां सर्वथाऽनुपलम्भात् इत्यनै-कान्तिकोऽयं हेतुः, प्रत्येकावस्थायां सर्वथानुपलब्धस्यापि मदस्य मद्याङ्गसमु
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________________ वाउभूइ 1065 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वाउभूइ दाये दर्शनात्, इत्याशङ्कयाह- 'मजंगेसु' इत्यादि धातकीकुसुमादिसु मद्याङ्गेषु पुनर्विष्वक् पृथगन सर्वथा मदो नास्ति, अपितु-या चयावती च मदमात्रा पृथगपि तेष्वस्त्येवेत्यर्थः / ततो नानैकान्ति-कता हेतोरिति। भूतेष्वप्येवं भविष्यतीति चेत्, नैतदेवं कुतः? इत्याहभमिधणि वितण्हयाई, पत्तेयं पि हु जहा मयंगेसु। तह जइ भूएसु भवे, चेया तो समुदये होज्जा / / 1653 / / यथा प्रत्येकावस्थायां धातकीकुसुमेषु या च यावती चभ्रमिश्चित्तभ्रमापादनशक्तिरस्ति, गुडद्राक्षे क्षुरसादिषु पुनर्धाणिरतृप्तिजननशक्तिरस्ति, उदके तु वितृष्णताकरणशक्तिरस्ति आदिशब्दादन्येष्वपि मद्यानेष्वन्याऽपि यथासंभवं शक्तिर्वाच्या तथा-तेनैव प्रकारेण व्यस्तेष्वपि पृथिव्यादिभूतेषु यदि काचिचैतन्यशक्तिरभविष्यत, तदा तत्समुदाये संपूर्णा स्पष्टा चेतना स्यात्न चैतदस्ति, तस्माद्नभूतसमुदायमात्रप्रभवेयमिति। ननुयदि प्रत्येकावस्थायां मद्याङ्गेषु सर्वथैव मदशक्तिर्नस्यात् तदा किं दूषणं स्यात्? इत्याहजइ वा सव्वाभावो,वीसुं तो किं तदंगनियमोऽयं / तस्समुदयनियमो वा, अनेसु वि तो हवेज्जाहि॥१६५४॥ यदि च मद्याङ्गेषु पृथगवस्थायां सर्वथैव मदशक्त्यभावः तर्हि कोऽयं तदङ्गनियमः कोऽयं धातकीकुसुमादीनां मद्याङ्गतानियमः तत्समुदायनियमा वा, किमिति मद्यार्थी धातकीकुसुमादीन्येवान्वेषयति, तत्समुदायं किमिति नियमेन मीलयति? इत्यर्थः, नन्वन्येष्वपि च भस्माश्मगोममादिषु समुदितेषु मद्यं भवेदिति। अथ मद्याङ्गेषु प्रत्येकावस्थायामपि मदशक्तिसद्भावं साधि तमाकर्ण्य कदाचित् पर एवं ब्रूयात्। किम् ? इत्याहभूयाणं पत्तेयं, पिचेयणा समुदए दरिसणाओ। जह मजंगेसु मओ, मइ त्ति हेऊन सिद्धोऽयं / / 1655|| स्यात् परस्य मतिः-साधूक्तं यत्-पृथगपि मद्याङ्गेषु किञ्चिद्मदसामर्थ्यमस्तीति / एतदेव हि मम भूतेषु व्यस्तावस्थायां चैतन्यास्तित्वसिद्धावुदाहरणं भविष्यतितथाहि-व्यस्तेष्वपि भूतेषु चैतन्यमस्ति, तत्समुदाये तद्दर्शनात्, मद्याङ्गेषु मदवदिति / यथा मद्याङ्गेषु मदः पृथगल्पत्वाद्नातिस्पष्टः, तत्समुदाये त्वभिव्यक्ति मेति, तथा भूतेष्वपि पृथगवस्थायामणीयसी चेतना, तत्समुदाये तुभूयसीयमिति। अत्रोत्तरमाह- 'हेऊ न सिद्धोऽयमि' ति चेतनाया भूतसमुदाये दर्शनात्, इत्यसिद्धोऽयं हेतुरित्यर्थः / आत्मनो भूतसमुदायान्तर्गतत्वेनचेतनायास्तद्धर्मत्वात्, आत्माभावेचतत्समुदायेऽपितदसिद्धरसिद्धोऽयं हेतुरिति भावः, यदि हि भूतसमुदायमात्रधर्मश्चेतना भवेत्तदा मृतशरीरेऽप्युपलभ्येत, वायोस्तदानीं तत्राभावात्, तदनुपलम्भ इति चेत्, नैवम् नलिकादि-प्रयोगतस्तत्प्रक्षेपेऽपि तदनुपलब्धेः, तेजस्तदानीं तत्र नास्तीति चेत; न तत्प्रक्षेपेऽपि तदनुपलम्भात् / विशिष्ठतेजोवाय्वाभावादनुपलम्भ इति चेत्, किं नामात्मसत्त्वं विहायान्यत्तद्वैशिष्ट्यम्? ननु संज्ञान्तरेणात्मसत्त्वमेव त्वयाऽपि प्रतिपादितं स्यादिति। अथ परस्योत्तरमाशङ्कय प्रतिविधातुमाहनणु पञ्चक्खविरोहो, गोयम ! तं नाणुमाणभावाओ। तुह पच्चक्खविरोहो, पत्तेयं भूयचेय त्ति॥१६५६|| ननुप्रत्यक्षविरूपमेवेदम्-यत् भूतसमुदाये सत्युपलभ्यमानाऽपि चेतना न तत्समुदायस्येत्यभिधीयते, न हि घटे रूपादय उपलभ्यमाना न घटस्येति वक्तुमुचितम्, तदयुक्तम्, यतोनभूजलसमुदायमात्रे उपलभ्यमाना अपि हरितादयस्तन्मात्रप्रभवा इति शक्यते वक्तुम् / तद्बीजसाधकानुमानेन बाध्यतेऽसावुपलम्भ इति चेत् तदेतदिहापि समानम्, एतदेवाह-'गोयमेत्यादि' वायुभूतेरपीन्द्रभूतिसोदर्यभ्रातृत्वेन समानगोत्रत्वाद् गौतम इत्येवमामन्त्रणम्, यत्त्वं ब्रूषे-तदेतद् न भूतसमुदायातिरिक्तात्मसाधकानुमानसद्भावात्, ततस्तेनैवत्वत्प्रत्यक्षस्य बाधितत्वादिति भावः / प्रत्युत तवैव प्रत्यक्षविरोधः, किं कुर्वतः? इत्याह'पत्तेयं भूयचेय त्ति बुवतः इति शेषः / प्रत्येकावस्थायां पृथिव्यादिभूतेषु चैतन्याभावस्यैव दर्शनात्, तदस्तित्वं प्रत्यक्षेणैव बाध्यत इति प्रत्येक भूतेषु चेतना इति ब्रुवतस्तवैव प्रत्यक्षविरोध इत्यर्थः / किं पुनस्तदात्मसाधकमनुमानम्? इत्याह-- भूइंदियोवलद्धा-णुसरणओ तेहि भिन्नरूवस्स। चेया पंचगवक्खो-वलद्धपुरिसस्स वा सरओ॥१६५७।। तेभ्यो भूतेन्द्रियेभ्यो भिन्नरूपस्य कस्यापि धर्मश्चेतनेतिप्रतिज्ञा, भूतेन्द्रियोपलब्धार्थानुस्मरणादिति हेतुः / यथा पञ्चभिर्गवाक्षरुपलब्धानर्थाननुस्मरतस्तदतिरिक्तस्य कस्यापि देवदत्तादेः पुरुषस्य चेतनेति दृष्टान्तः।अयमत्रतात्पर्यार्थः इह यएको यैरनेकैरुपलब्धानर्थाननुस्मरति स तेभ्यो भेदवान् दृष्टः, यथा पञ्चभिर्गवाक्षरुपलब्धानथनिनुस्मरन् देवदत्तः यश्च यस्माद् भूतेन्द्रियात्मकसमुदायाद् भिन्नो न भवति,किं तर्हि? अनन्यः, नायमेकोऽनेकोपलब्धानामर्थानामनुस्मर्ता, यथाशब्दादिग्राहकमनोविज्ञानविशेषः, तैरुपलभ्यानुस्मरतोऽपि च तदनतिरिक्तत्वे देवदत्तस्यापि गवाक्षमात्रप्रसङ्गो बाधकं प्रमाणम्। इन्द्रियाण्येवोपलभन्ते, न पुनस्तैरन्य उपलभत इति चेत्; तदुपरमेऽपि तदुपलब्धार्थाननुस्मरणात्, तद्व्यापारेच कदाचिदनुपलम्भात् इत्यनन्तरमेव वक्ष्यमाणत्वादिति। अनुमानान्तरमप्यात्मसिद्धये प्राहतदुवरमे विसरणओ, तत्वावारे वि नोवलंभाओ। इंदियभिन्नस्स मई, पंचगवक्खाणुभविणो व्व // 1658 / / इन्द्रियेभ्यो भिन्नस्यैवं कस्यापीयं घटादिज्ञानलक्षणा मतिरिति प्रतिज्ञा / तदुपरमेऽपि अन्धत्ववाधिधिवस्थायामिन्द्रियव्या-पाराभावेऽपि, तद्द्वारेणोपलब्धानामर्थानामनुस्मरणादिति हेतुः। अथवा-अस्यामेव प्रतिज्ञायां तद्व्यापारेऽपि इन्द्रियव्यापृतावपि कदाचिदनुपयुक्तावस्थायाम्, वस्त्वनुपलम्भादित्यपरो हेतुः। यदि हीन्द्रियाण्येव द्रष्टणि भवेयुः, तर्हि किमिति विस्फारिताक्षस्यापि प्रगुणश्रोत्रादीन्द्रियवर्गस्यापि योग्यदेशस्थितानामपि रूपशब्दादिवस्तूनामनुपयुक्तस्य अन्यमनस्कस्य शून्यचित्तस्योपलम्भो न भवति? ततो ज्ञायते-इन्द्रिय-ग्रामव्यतिरिक्तस्यैव कस्यचिदयमुपलम्भः,यथा पञ्चभिर्गवाक्षोषिदादिवस्तून्यनुभवि
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________________ वाउमूह 1066 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वाउमूह तुर्दर्शकस्येति दृष्टान्तः / अत्रापि प्रयोगाभ्यां तात्पर्यमुपदर्शाते, तद्यथा- मात्रमेवैतत्,न ह्यतीन्द्रि येष्वर्थेष्वेकान्तेनैव युक्त्यन्वेषणपरैर्भाव्यम् / इह यो यदुपरमेऽपि यैरुपलब्धानामर्थानामनुस्मर्तास तेभ्यो व्यतिरिक्तो / विशे०। (परभववक्तव्यता 'परभव' शब्दे पञ्चमभागे 530 पृष्ठे गता।) दृष्टः, यथा गवाक्षरुपलब्धानामर्थानां गवाक्षोपरमेऽपि देवदत्तः, अनुस्म- इदानीमिहभवमङ्गीकृत्याऽऽह-अथवा-क्षणिकत्वमभ्युरति चायमात्मान्धवधिरत्वादिकालेऽपीन्द्रियोपलब्धानर्थान, अतः स . पगम्योक्तम्, अधुना तत् क्षणिकमेव न भवतीत्याहतेभ्योऽन्तिरमिति। तथा इन्द्रियेभ्यो व्यतिरिक्त आत्मा, तद्व्यापारे नय सव्वहेव खणि, नाणं पुटवोवलद्धसरणाओ। ऽप्यनुपलम्भात,इह यो यद्व्यापारेऽपि वैरुपलभ्यानर्थान् नोपलभते खणिओन सरह भूयं, जह जम्माणंतरविनट्ठो॥१६७३।। स तेभ्यो भिन्नो दृष्टः, यथा स्थगितगवा क्षोऽप्यन्यमनस्कतयाऽनुप नच सर्वथैव क्षणिकं ज्ञानं वक्तुंयुज्यते। कथञ्चित्तु क्षणिकतां भगवानयुक्तोऽपश्यं-स्तेभ्यो देवदत्त इति। पीच्छत्येव, इति सर्वथैव इत्युक्तम् / कस्मात्पुनर्ज्ञानं न क्षणिकम्? अपरमपि भूतेन्द्रियव्यतिरिक्तात्मसाधकमनुमानमाह इत्याह-पूर्वोपलब्धस्य बालकालाद्यनुभूतस्यार्थस्य वृद्धत्वाद्यउवलब्भन्नेण विगा-रगहणओ तदहिओ धुवं अत्थि। वस्थायामपि स्मरणदर्शनात् / न चैतदेकान्तक्षणिकत्वे सत्युपद्यते, पुवावरबातायण-गहणविगाराइपुरिसो व्य / / 1656 // कुतः? इत्याह-'खणिओ' इत्यादियः क्षणिको नायंभूतमतीतं स्मरति, इह ध्रुवं-निश्चितं तदधिकस्तेभ्य-इन्द्रियेभ्यः समधिकोभिन्नः समस्ति यथाजन्मानन्तरविनष्टः, एकान्तक्षणिकं चेष्यते ज्ञानम्, अतः स्मरणाजीवः, अन्येनोपलभ्यान्येन विकारग्रहणात्, इह योऽन्येनोपलभ्यान्येन भावप्रसङ्ग इति। विकारं प्रतिपद्यते सतस्मा भिन्नो दृष्टः, यथा प्रवरप्रासादोपरितनस्ततः क्षणिकज्ञानपक्षे दूषणान्तरमप्याहपदपरिपाटीं कुर्वाणाः पूर्ववातायनेन रमणीमवलोक्यापरवातायनेन जस्सेगमेगबंधण-मेगतेण खणियं य विण्णाणं। समागतायास्तस्याः करादिना कुचस्पर्शादिविकारमुपदर्शयन् देवदत्तः, सव्वखणियविण्णाणं, तस्साजुत्तं कदाचिदवि / / 1674 // तथा चायमात्मा चक्षुषाऽम्लीकामनन्तं दृष्ट्वा रसनेन हल्लासलालास्रावा यस्य वादिनो बौद्धस्य 'एकविज्ञानसन्ततयः सत्त्वाः' इति वचनाऽऽदिविकारं प्रतिपद्यते, तस्मात्तयोभिन्न इति। अथवा ग्रहणशब्दमिहा देकमेवाऽसहायं ज्ञानं तस्य' सर्वमपि वस्तु क्षणिकम्' इत्येवंभूतं विज्ञानं ऽऽदानपर्यायं कृत्वाऽन्यथाऽनुमानं विधीयते-इन्द्रियेभ्यो व्यतिरिक्त कदाचिदपि न युक्तमिति संबन्धः / इष्यते च सर्वक्षणिकताविज्ञानं आत्मा, अन्येनोपलभ्यान्येन ग्रहणात्, इह य आदेयं घटादिकमर्थम सौगतैः, 'यत् सत् तत् सर्वं क्षणिकम्' तथा,-'क्षणिकाः सर्वसंस्काराः' न्येनोपलभ्यान्येन गृह्णाति स ताभ्यां भेदवान् दृष्टः, यथा पूर्ववातायनेन इत्यादिवचनात्। एतच्च क्षणिकताग्राह-कज्ञानस्यैकत्वेन संभत्येव, यदि घटादिकमुपलभ्यापरवातायनेन गृह्णानस्ताभ्यां देवदत्तः, गृह्णाति च हि त्रिलोकीतलगतैः सर्वैरपि क्षणिकैःपदार्थः पुरः स्थित्वा तदेकं विज्ञानं चक्षुषोपलब्धं घटादिकमर्थं हस्तादिना जीवः, ततस्ताभ्यां भिन्न इति। जन्येत तदा तदेतज्जानीयात्-यदुत-'क्षणिकाः सर्वेऽप्यमी पदार्थाः' अथान्यदनुमानम् इति / न चैवं सर्वैरपि तैस्तजन्यते / कुतः ? इत्याह-'एगबंधणं' ति सर्वेदिओवलद्धा-णुसरणओ तदहिओऽणुमंतव्यो। यस्मादेकमेव प्रतिनियतं बन्धनं-निबन्धनमालम्बनं यस्य तदेकबन्धनं जह पंचमिन्नविना-णपुरिसविनाणसंपन्नो // 1660 / / ज्ञानम्, अतःकथमशेषवस्तुस्तोमव्यापिनी क्षणिकतामवबुध्येत? अपि सर्वेन्द्रियोपलब्धार्थानुस्मरणतः कारणात् तदधिकोऽस्तिजीवः। च-एकालम्बनत्वेऽपि यद्यशेषपदार्थविषयाणामपि ज्ञानानां युगपदृष्टान्तमाह-यथा पञ्च च ते भिन्नविज्ञानाश्च पञ्चभिन्न विज्ञानाः, इच्छा- दुत्पत्तिरिष्यते, आत्मा च तदर्थानुस्मर्ता, तदा स्यादशेषपदार्थक्षवशात् प्रत्येकं स्पर्श-रस-गन्ध-रूप-शब्दोपयोगवन्त इत्यर्थः, पञ्च- णिकतापरिज्ञानम्। न चाशेषार्थग्राहकानेकज्ञानानां युगपदुत्पत्तिरिष्यते। भिन्नविज्ञानाश्च ते पुरुषाश्च पञ्चभिन्न विज्ञानपुरुषास्तेषां यानि स्पर्शादि- किच-तदेकमप्येकार्थविषयमपि च विज्ञानं सर्वपदार्थगतां क्षणिकविषयाणि विज्ञानानि तैः सम्पन्नस्तद्वेत्ता यः षष्ठः पुरुषस्तेभ्यः पञ्चभ्यो तामज्ञास्यदेव यद्युत्पत्त्यनन्तरध्वंसि नाभविष्यत् / अविनाशित्वे हि भिन्नः / इदमत्र तात्पर्यम्-य इह यैरुपलब्धानामर्थानामेकोऽनुस्मर्ता स तदवस्थिततयोपविष्ट सदन्यमन्यं चार्थमुत्पत्त्यनन्तरमुपरमन्तं दृष्ट्वा तेभ्यो भिन्नो दृष्टः, यथेच्छाऽनुविधायिशब्दादिभिन्नजातीयविज्ञान- सर्वमेवास्मदर्जमस्मत्सजातीयवर्ज च वस्तु क्षणिकमेव' इत्यवबुध्येत, पुरुषपञ्चकात् तदशेषविज्ञानाऽभिज्ञः पुमान,इच्छानुविधायिशब्दादि- न चैतदस्ति / कुतः? इत्याह- ‘एगंतेण खणियं चे' ति यस्य च भिन्नजातीयविज्ञानेन्द्रियपञ्चकाशेषविज्ञानवेत्ता चायमेक आत्मा, तस्मा- बौद्धस्यैकान्तेन क्षणिक क्षणध्वंस्येव विज्ञानम्, न पुनश्चिरावस्थायि, तस्य दिन्द्रियपञ्चकाद् भिन्न एवेति / शब्दादिभिन्नविज्ञानपुरुषपञ्चकस्येव कथं सर्ववस्तुगतक्षणिकतापरिज्ञानं स्यात्? तस्मादक्षणिकमेव प्रमातृपृथगिन्द्रियाणामुपलब्धिप्रसङ्गतोऽनिष्टापादनात, विरुद्धोऽयं हेतुरिति ज्ञानमेष्टव्यम्। तच्च गुणत्वादनुरूपंगुणिनमात्मानमन्तरेण न संभवति। चेन्न; इच्छानुविधायिविशेषणात्, इच्छायाश्चेन्द्रियाणामसम्भवात्, सह- अतः सिद्धः शरीराव्यतिरिक्त आत्मेति। कारिकारणतयोपलब्धिकारणमात्रताया इन्द्रियष्वपि सद्भावात्, उक्तगाथोक्तमेव कञ्चिदर्थं भावयतिउपचारतस्तेषामप्युपलब्धेरविरोधाददोषः / किन-प्रतिपत्त्युपाय- जं सविसयनिययं चिय, जम्माणंतरहयं च तं किह णु /
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________________ वाउभूइ 1067 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वाउभूइ नाहिति सुबहुयविण्णा-ण विसयखयभंगयाईणि॥१६७५|| यत् स्वविषयमात्रनियतं जन्मानन्तरहतं च प्रमातृविज्ञानम् तत्कथं सुबहुविज्ञानविषयगतान्क्षणभङ्गनिरात्मकत्व-सुखिदुःखितादीन् धर्मान् ज्ञास्यति? न कथञ्चिदित्यर्थः। अत्र परमतमाशय परिहरन्नाहगिहिज सव्वभंग,जइ य मई सविसयाऽणुमाणाओ। तं पिन जओऽणुमाणं, जुत्तं सत्ताइसिद्धीओ॥१६७६|| यदि च परस्यैवंभूता मतिः स्यात्, यदुत-एकमपि -एकालम्बनमपि क्षणिकमपि च प्रमातृविज्ञानं सर्ववस्तुगतक्षणभङ्ग गृह्णीयात्। कुतः? इत्याह-स्वविषयानुमानात् / एतदुक्तं भवति-यस्मादय-मस्मद्विषयः क्षणिकः, अहं च क्षणनश्वररूपंततो विज्ञानसाम्यादन्यान्यपि विज्ञानानि क्षणिकानिविषयसाम्याच्चान्येऽपि विषयाः सर्वेऽपि क्षणिकाः, इत्येवं स्वं चविषयाश्च स्वविषयास्तदनुमानात् सर्वस्यापि सर्वस्यापि वस्तुस्तोमस्य क्षणिकत्वादि गृह्यते / अत्र दूषणमाह-- 'तं पीत्यादि' तदपि न युक्तं न घटमानकम् / कुतः ? इत्याह-यतस्तत् स्वविषयानुमानमन्येषां विज्ञानानामन्य-विषयाणां च पक्षीकृतानां सत्तादिप्रसिद्धावेव युज्यते। नहि सत्येनाप्यप्रसिद्ध धर्मिणि क्षणिकतादिधर्मः साध्यमानोविभ्राजते। को हि नाम शब्दादिष्वादावेव सत्त्वेनाप्रतीतेषु कृतकत्वादिनाऽनित्यत्वादिधर्मान् साधयति, 'तत्र पक्षः प्रसिद्धो धर्मी' इत्यादिवचनात्? न चेदेकमेकालम्बनं क्षणिकं च ज्ञानमेतद् वोढुं शक्नोति; यदुतअन्यज्ञानानि सन्ति, तद्विषयाश्च विद्यन्ते, तेषांच विषयाणां स्वविषयज्ञानजननस्वभावादय एवंभूता धर्माः सन्तीति एतदपरिज्ञाने च कथमेतेषां क्षणिकतां साधयिष्यति,धर्मिण एवाप्रसिद्धः? स्यादेतत्, स्वविषयानुमानादेवान्यविज्ञानादिसत्ताऽपि सेत्स्य-त्येव, तथा हि-यथाऽहमस्मि तथाऽन्यान्यपि ज्ञानानि सन्ति, यथा च मद्विषयो विद्यते, एवमन्येऽपि ज्ञानविषया विद्यन्तएव, यथा चाहं मद्विषयश्च क्षणिकः, एवमन्यज्ञानानि तद्विषयाश्च क्षणिका एवेति, एवं सर्वेषां सत्त्वं क्षणिकता च स्वविषयानुमानादेव सेत्स्यतीति। एतदप्ययुक्तम्, यतः सर्वक्षणिकताग्राहकं ज्ञानं क्षणनश्वरत्वाज्जन्मानन्तरं 'मृतइवाहमस्मि, क्षणिकंच' इत्येवमात्मानमपि नावबुध्यते, अन्यपरिज्ञानं तु तस्य दूरोत्सारितमेव / किञ्च-तत् स्वविषयमात्रस्यापि क्षणिकतां नावगच्छति, समानकालमेव द्वयोरपि विनष्टत्वात्। यदि हि स्वविषयं विनश्यन्तं दृष्ट्वा तद्गतक्ष-णिकतां निश्चित्य स्वयं पश्चात् कालान्तरेतद् विनश्येत्, तदा स्यात् तस्य स्वविषयक्षणिकताप्रतिपत्तिः, न चैतदस्ति, ज्ञानस्य विषयस्यच निजनिजक्षणंजनयित्वा समानकालमेव विनाशाभ्युपगमात्। न चस्वसंवेदनप्रत्यक्षेण, इन्द्रियप्रत्यक्षेण वा क्षणिकता गृह्यत इति सौगतैरिष्यते, अनुमानगम्यत्वेन तस्यास्तैरभ्युपगमादिति। अत्र परस्योत्तरमाशङ्कय निराचिकीर्षुराहजाणेज्जा वासणा उ, सा वि हु वासित्त-वासणिजाणं। जुत्ता समेब दोण्हं, न उ जम्माणंतरहयस्स।।१६७७|| स्यादेतत् पूर्वपूर्वविज्ञानक्षणैरुत्तरोत्तरविज्ञानक्षणानामेवंभूता वासना जन्यते, ययाऽन्यविज्ञान-तद्विषयाणां सत्त्वक्षणिकतादीन धर्मानेकमेकालम्बनं क्षणिकमपि च विज्ञानं जानाति, अतः सर्वक्षणिकताज्ञानं सौगतानां च विरुध्यते तदप्ययुक्तम्, यतः साऽपि वासना वासकवासनीययोर्द्वयोरपि समेत्य संयुज्य विद्यमानयोरेव युक्ता, न तु जन्मानन्तरमेव हतस्य विनष्टस्य वास्य-वासकयोश्च संयोगेनावस्थाने क्षणिकताहानिप्रसङ्गः। किञ्च-साऽपि वासना क्षणिका,अक्षणिका वा? क्षणिकत्वे कथं तद्वशात् सर्वक्ष-णिकतापरिज्ञानम्? अक्षणिकत्वे तु प्रतिज्ञाहानिरिति / तदेवं परपक्षे दूषयित्वा, सांप्रतं स्वपक्षमुप दिदशयिपुरुषसंहरन्नाहबहुविण्णाणप्पभवो, जुगवमणेगत्थयाऽहवेगस्स। विण्णाणा वत्था वा,पडुच वित्तीविधाओवा॥१६७।। विण्णाणखणविणासे,दोसाइचादयो पसनंति। न उठियसंभूयच्चुय-विण्णाणमयम्मि जीवम्मि।।१६७६।। तदेवं विज्ञानस्य प्रतिक्षणं विनाशेऽभ्युपगम्यमाने इत्यादयो दोषाः प्रसजन्ति, के पुनस्ते दोषाः? इत्याह-'बहुविण्णाणे' त्यादि इत्येवं संबन्धः / क्षणनश्वरविज्ञानवादिना भुवनत्रयान्तर्वर्तिसर्वार्थग्रहणार्थं युगपदेव बहूनां ज्ञानानां प्रभवउत्पादोऽभ्युपगन्तव्यः, तदाश्रयभूतश्च तदृष्टानामनामनुस्मर्ताऽवस्थित आत्माऽभ्यु-पगन्तव्यः, अन्यथा-यत् सत् तत् सर्वं क्षणिकम्, क्षणिकाः सर्वे संस्काराः, 'निरात्मानः सर्वे भावाः' इत्यादि सर्वक्षणिकतादि-विज्ञानं नोपपद्येत, तदभ्युपगमे च स्वमतत्यागप्रसक्तिः / अथवा-क्षणिकं विज्ञानमिच्छतैकस्यापि विज्ञानस्य युगपदनेकार्थता-सर्वभवनान्तर्गतार्थग्राहिताऽभ्युपगन्तव्या,येन सर्वक्षणिकतादि-विज्ञानमुपपद्यते, न चैतदिष्यते, दृश्यते वा 'विण्णाणावत्था व' त्ति, यदिवा-अवस्थानम्-अवस्था, विज्ञानस्यावस्था विज्ञानावस्थाऽभ्युपगन्तव्या भवति / इदमुक्तं भवतिविज्ञानस्यानल्पकल्पाग्रशोऽवस्थानमेष्टव्यम्, येन तत्सर्वदा समासीनमन्यान्यवस्तु-विनश्वरतां वीक्षमाणां सर्वक्षणिकतामवगच्छेदिति सर्व प्रागेवोक्तमेव। एवं चाभ्युपगमे विज्ञानसंज्ञामात्रविशिष्ट आत्मैवाभ्युपगतो भवति। अथैतद्बहुविज्ञानप्रभावादिकं नेष्यते तर्हि प्रतीत्य वृत्ति-विधातः प्राप्नोति, इदमत्र हृदयम्-कारणं प्रतीत्याश्रित्य कार्यस्य वृत्तिः-प्रवृत्तिरुत्पत्तिरिति यावत्, नपुनः कारण कार्यावस्थायां कश्चिदप्यन्वेति, इत्येवं सौगतैरभ्युपगम्यते। इत्थं चाभ्युपगम्यमानेऽतीतस्मरणादिसमस्तव्यवहारोच्छेदप्रसङ्गः। एवं हि व्यवहारप्रवृत्तिः स्याद्, यद्यतीतानेकसंकेतादिज्ञानाश्रयस्तत्तद्विज्ञानरूपेण परिणामादन्वयी आत्माऽभ्युपगम्यते। तथाऽभ्युपगमे च सति प्रतीत्य वृत्त्यभ्युपगमविघातः स्यादिति / ननु यदि विज्ञानस्य क्षणविनाश एते दोषाः प्रसजन्ति, तर्हि क्वामी दोषान भवन्ति? इत्याह-'न उ ठिये' त्यादि न त्वस्मदभ्युपगते जीवेऽभ्युपगम्यमान एते दोषाः प्रसजन्ति / कथंभूते जीवे? स्थितसंभूतच्युतविज्ञानमये कथञ्चित् द्रव्यरूपतया स्थितम्, कथञ्चित्तूतरपर्यायेणसंभूतम्, कथञ्चित्पुनः पूर्वपर्यायण च्युतंविनष्टं यविज्ञान; तन्मय इत्यर्थः। तस्मादमुमेवोत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं
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________________ वाउभूइ १०६८-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वाकवासि शरीरादर्थान्तरभूतमस्मदभ्युपगतमात्मानं समस्तव्यवहारसिद्धये प्रति- विज्ञानघनाख्यः पुरुष एवायं भूतेभ्योऽर्थान्तरमित्यादिव्याख्या पूर्ववदेव। पद्यस्वेति। अत एव प्रागुक्तम्-शरीरतया परिणतो भूतसंघातोऽयं विद्यमानकर्तृकः, नन्वेवंभूतस्यात्मनः कथं भूतानि ज्ञानानि प्रवर्तन्ते, कस्माच हेतो- आदिमत्प्रतिनियताकारत्वात्घटवद्, यश्चतत्कर्तास तदतिरिक्तो जीवः स्तानि जायन्ते? इत्याह-- इति। भूतातिरिक्तात्मप्रतिपादकानि च वेदवाक्यानि तवापि प्रतीतान्येव / तस्स विचित्तावरण-क्खओवसमजाइचित्तरूवाई। तद्यथा- "सत्येन लभ्यस्तपसा ह्येष ब्रह्मचर्येण नित्यं ज्योतिर्मयो खणियाणि य कालंतर-वित्तिणियमइविहाणाई॥१६८०॥ विशुद्धोऽयं पश्यन्तिधीरायतयः संयतात्मानः" इत्यादि। तदेवं सर्वेषामतेर्मतिज्ञानस्य विधानानि-नानाभेदरूपाणि तस्य यथोक्तरूप- मपि वेदवाक्यानां भूतातिरिक्तस्य जीवस्य प्रतिपादकत्वाद् भूतेभ्योस्यात्मनः प्रवर्तन्ते। कथंभूतानि? इत्याह-विचित्रो योऽसौ मतिज्ञाना-- ऽतिरिक्तं जीवं प्रतिपद्यस्वेति। वरणक्षयोपशमस्ततो जातानि अत एव स्वकारणभूतक्षयोपशम- एवं भगवता संशयेऽपनीते सति वायुभूतिः किं कृत्वान्? इत्याहवैचित्र्याद् विचित्ररूपाणि तथापर्यायरूपतया क्षणिकानि, द्रव्यरूपतया छिन्नम्मि संसयम्मि, जिणेण जरामरणविप्पमुक्केणं / तु नित्यत्वात् कालान्तरवृत्तीनिा उपलक्षणं चमतिविधानानि, श्रुताऽ- सो समणो पटवइओ, पंचहिं सह खंडियसएहिं / / 1656|| वधिमनःपर्यायविधानान्यपि यथासंख्यं श्रुताऽवधिमनःपर्यायज्ञाना व्याख्या पूर्ववत्। विशे० वरणक्षयोपशमवैचित्र्याद् विचित्ररूपाणि यथासंभवं तस्य द्रष्टव्यानि। वाउय-त्रि०(व्यापृत) व्यापारवति,ज्ञा०१श्रु०८ अ० औ०) केवलं ज्ञानं त्वेकमेवाविकल्पं केवल-ज्ञानावरणक्षयादेव द्रष्टव्यमिति। वाउरिय-पुं०(वागुरिक) वागुरा-मृगबन्धनं तया चरन्तीति वागुरिकाः। एतदेवाऽऽह मृगव्याधे, अनु०। आ०म० / स्था०। निचो संताणो सिं, सव्वावरणपरिसंखए जंच। वाउल-त्रि०(वातूल) 'उ<-हनूमत्कण्डूय-वातूले ||8/11121|| इत्यूत केवलमुदियं केवल-भावेणाणंतमविगप्पं / / 1681|| उत्त्वम् / वाउलो / प्रा०ा वातशब्दात् अस्त्यर्थे ऊलच् / वातरोगयुक्ते 'सिं' ति एतेषां च मतिज्ञानादिविधानानामविशेषितज्ञानमात्ररूप उन्मत्ते,समूहार्थेऊलच्। वातसमूह,पुं०ावाचा सन्तानो नित्योऽव्यवच्छिन्नरूपः, केवलज्ञानं त्वविकल्पं भेदरहितमुदित वाउलग्ग-न०(व्याकुलाग्र) सेवायाम्, "निचं वियवाउलगं कुणंति" - माख्यातं भगवद्भिः। यतः सर्वस्यापि निजावरणस्य क्षय एव तदुपजायते। 'नित्यं वाउलग्गति' सेवां कुर्वन्ति विदधति। जीवा० 26 अधि०। अतोऽविकल्पं केवलभावेनानन्तकालावस्थायित्वात्, अनन्तार्थविषय वाउलणा-स्त्री०(व्याकुलना) धर्मकथादिभिराचार्यस्य समयक्षेपे, व्य० त्वाचानन्तमिति। विशे०।पुनर्वा-युभूतिः संदिहानः-अनुपलब्धिविषयं 4 उ01 प्रश्नं कृतवान् स च 'अणुव-लद्धि' शब्दे प्रथमभागे 411 पृष्ठे दर्शितः।) वाउलिय-त्रि०(व्याकुलित) आकुलीभूते, बृ०३ उ० प्र०) अतोऽस्य कर्मानुगतस्य संसारिणो जीवस्यामूर्तत्वाद् नभस इव, कार्मणस्य तु सौक्ष्म्यात् परमाणोरिव सतोऽनुपलब्धिः, नासतः / कथं वाउलियसलिला-स्त्री०(व्याकुलितशलिला) विलोलितजलायाम, पुनरेतज्ज्ञायते-नासत आत्मनोऽनुपलब्धिः, किन्तु-सतः? इति चेत्। प्रश्न०३ आश्र० द्वार। उच्यते अनुमानैस्तत्सत्त्वस्य साधितत्वादिति। वाउली-स्त्री०(वातोलि) वात्यायाम, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। आचा० वेदोक्तद्वारेणाऽपि देहव्यतिरिक्तमात्मानं साधयितुमाह वाउल्ल-त्रि०(व्याकुल) "सेवादौ वा" ||8||6|| इति वा लस्य द्वित्वम् / देहाणण्णे व जिए, जमग्गिहोत्ताइ सम्गकामस्स। प्रा० असमञ्जसे, भ०७ श०६ उ०ा क्षुब्धे,प्रश्र०३ आश्र0 द्वार। वेयविहियं विहण्णइ, दाणाइफलं च लोयम्मि // 1685|| *वातूल-त्रि० / वातरोगयुक्ते, 'वाउल्लो जम्बुल्लो मुहुलो बहुजं पिरो य शरीरमात्रे जीवे सति गौतम ! यत् स्वर्गकामस्य वेदविहितमग्नि | वायालो।' पाइ०ना०६६ गाथा। होत्राद्यनुष्ठानंत विहन्यते, देहस्य वह्निनाऽत्रैवभस्मीकरणात्, जीवाभावे वाउल्लिया-स्त्री०(व्याकुलिका) रूपके, अनु०। कस्यासौ स्वर्गो भवेत्? इति भावः / दानादिफलं चानुभवितुरभावात् वाउसत्थ-न०(वायुशस्त्र) वायव्ये शस्त्रे, सूत्र० १श्रु०८ अ०२३०। कस्य भवेत् ? इति। विरुद्धवेदपदश्रवणनिबन्धनश्चैष वायुभूते वशरीर- वाउसिय-न०(वाकुश्य) वकुशत्वे, कश्मलचारित्रत्वे ग्लानत्यादिकारणं योर्भेदाभेदविषयः संशयः। विनाऽपि हस्तपादादिक्षालनशीलत्वे, जीता अतो वेदपदार्थकथनद्वारेणापि तमपाकुर्वन्नाह *वाकुशिक-पुं०। विभूषणशीले, औ०। विण्णाणघणाईणं, वेयपयाणं तमत्थमविदंतो। वाओस-त्रि०(व्याक्रोश) उबुद्धे, विशे० देहाणण्णं मन्नसि, ताणं च पयाणमयमत्थो॥१६६५।। | वाकवासि(ण)-पुं०(वल्कवासिन्) वल्कवाससि वानप्रस्थे, औ०।
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________________ वाकहण 1066 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वाघाय वाकहण-न०(व्याकथन) धर्मकथायाम, आ०म०१अ०) वागरणी-स्त्री०(व्याकरणी) प्रतिपादिकायाम्, स्था०४ ठा०१ उ०। वाग-पुं०(वल्क) शणादिवृक्षत्वचि, बृ०१ उ01 वागरमाण-त्रि०(व्यागृणत्) व्याकुर्वति, स्था०३ ठा० 430 / वागजोगजुत्त-त्रि०(वाग्योगयुक्त) प्राणवायुना सर्वक्रियासु प्रवर्तिते, वागरित्ता-अव्य०(व्याकृत्य) प्रतिपाद्येत्यर्थे 'स०५५सम०। प्रश्न०२ आश्र० द्वार। वागलवत्थनिवसिय-त्रि०(वल्कलवस्त्रनिवसित) वल्कलं वल्कलस्तवागड-त्रि०(व्याकृत) लोकप्रतीतशब्दार्थे, संथा०। स्येदं वाल्कलं; तद् वस्त्रं निवसितं येन स वाल्कलवस्त्र-निवसितः / *व्यापृत-त्रिका व्यापारसक्ते, वहमानके, बृ०३ उ०। परिहितवाल्कलवस्त्रे, भ० 11 श०६ उ०! वागपणिहि-पुं०(वाक्प्रणिधि) वागनियमे, दश०५ अ०२ उ०। वागुरा-स्त्री०(वागुरा) मृगबन्धने, सूत्र०२ श्रु०२ अ० प्रतिका मृगवागमई-स्त्री०(वल्कमयी) वल्केषु कृतायाम्, वल्कमयेन वस्त्रेण दोरकेण | बन्धपाशे, प्रति०। अनु०। उपानद्विशेषे, यया पादयोरङ्गुलीश्छा-- वल्कलेन कृतायां चिलिमिल्याम्, नि० चू० 1 उ०। दयित्वा उपर्यपि छादयति। बृ०३ उ०। वागय-न०(वल्कज) वल्कनिष्पन्ने अतसीशणदुकूलादौ, पं०चू०१ | वागुरिय-पुं०(वागुरिक) वागुरया-मृगादिबन्धनरज्ज्वाचरति वागुरिकः / कल्प प्रति०। लुब्धके, सूत्र०२ श्रु०२ अ० स्था०ा प्रश्ना मृगधातके, बृ०१ वागरण-न०(व्याकरण) व्याक्रिये प्रश्नान्तरमुत्तरतयाऽभिधीयते निर्णाय उ०३ प्रका कत्वेन यत्तत्तथा / स० परप्रनितार्थोत्तररूपे (औ०) निर्वचने, स्था० वाघाइम-न०(व्याधातिम) व्याहननं व्याघातः-पर्वतादिस्खलनम्, तेन १ठा०उ०ा आ०म० भ० ज्ञा०। उपा०ानं० पृष्टाऽपृष्टार्थकथने, कल्प०३ निर्वृत्तं व्याघातिमम्।"भावादिमः" // 64 / 21 // इतीमप्रत्ययः / चं० अधि०६ क्षण। पा०ा यथाऽवस्थितार्थ-प्रज्ञापने, आचा०१ श्रु०५१०६ प्र०१८ पाहु०। पर्वतादिकारणिके,सू०प्र०२८ पाहु०। सितव्याघ्रादिकृते उ०ा उपदेशे, आचा०१ श्रु०१अ०१3०। (पाणिनीयव्याकरणे एव नाग्रह मरणभेदे, "वाघाइयमाएसो, अबरद्धो होज्ज अण्णतरणंतो। सलिमहिइति 'पाणिणि' शब्दे पञ्चमभागे 846 पृष्ठे उक्तम.) (यथा समवसर- सीयएहओ, एयं बाघाइयं मरणं'' आचा० १श्रु०८ अ०/ णेऽनेकेषां प्रश्रानां युगपदुत्तरं भगवान् ददाति तथोपरिष्टात् 'समोसरण' | वाघाय-पुं०(व्याधात) व्याहनं व्याघातः। स्खलने, सू० प्र० 17 पाहु०। शब्दे वक्ष्यते) व्याक्रियन्तेलौकिकाः वैदिकाःसामयिकाश्च शब्दा अनेनेति चं०प्र०ा पञ्चा०। विलोपे, व्य०१० उ०॥ संहारणे, नं० विनाशे, आचा० व्याकरणम् / शब्दशास्त्रे, तच प्रथममृषभदेवेन शक्रेन्द्र प्रति कथित- १श्रु०६अ०५ उ० परिमन्थे, बृ०४ उ० प्रज्ञा-पनाद्वितीयपदेबादराग्नेमिति ऐन्द्रं व्याकरणं जातम्। आ०म०१ अ० प्रश्नका व्याकरणा-निच रधिकारे-'वाघायं पडुचपञ्चसुमहाविदेहेसु एतत्पदव्याख्याने व्याघातो विंशतिः-ऐन्द्र जैनेन्द्र सिद्धहेमचन्द्र 3 चान्द्रपाणिनी-य५ सारस्वत नामातिस्निग्धोऽतिरूक्षो वा कालः, तस्मिन्सति अग्निव्यवच्छेदात्, ततो 6 शाकटायन७ वामन विश्रान्त बुद्धिसागर 10 सरस्वतीकण्ठाभरण , यदा पञ्चसु भरतेषु पञ्चस्वैरवतेषु सुषमसुषमा सुषमदुःषमा वर्तते 11 विद्याधर १२कलापक 13 भीमसेन 14 शैव 15 गौड 16 नन्दि 17 तदाऽतिस्निग्धः कालो दुष्षमदुष्षमायां चातिरूक्ष इत्यग्निव्यवच्छेद जयोत्पल 18 मुष्टिव्याकरण 16 जय-देवाभिधानानि 20 / कल्प०१ इत्युक्तमस्ति, अत्र च प्रथमारके तृतीयारके च बादराग्रिनिषेधो भणितो अधि०१क्षण आ०चू०आव०। आ०म० औof नि०। अष्टौऐन्द्रादीनि न द्वितीयारके, तेन द्वितीयारकेऽग्निर्भवति न वा? किञ्च सुषमदुष्माव्याकरणानिन केवलं पाणिनीये एवाग्रहः कार्यः। आव०२अाव्याकरणं यामत्राग्निनिषेधः प्रोक्तः, अगणिस्स यउट्ठाणं' इत्यादिना चाग्निसंभवः संस्कृतशब्द-व्याकरणं प्राकृतशब्दव्याकरणं प्रश्नव्याकरणं च / / प्रोचे, तदेतत्कथं सङ्गच्छते? किश्न-उत्सर्पिण्यां द्वितीयारके कियति अन्यच्च ये केचन अबुद्धा धर्म प्रत्यविज्ञातपरमार्था व्याकरणशुष्कत- गते बादराऽग्निरुत्पस्यते? कियति गते च तस्मिन् नीति-प्रवृत्तिस्तत्प्रकादिपरिज्ञानेन जातावलेपाः पण्डितमानिनोऽपिपरमार्थवस्तुतत्त्वानव- वर्त्तकश्च को भविष्यतीति? प्रश्नः, अत्रोत्तरम्-प्रज्ञापनेत्यत्र प्रज्ञापनाबोधादबुद्धा इत्युक्तम्, न च व्याकरणपरिज्ञानमात्रेण सम्यक्त्वव्यति- पुस्तकपाठानुसारेण प्रथमद्वितीयतृतीयारकेषु कालस्यातिस्निग्धता रेकेण तत्त्वावबोधो भवतीति, तथा चोक्तम्-"शास्त्रावगाहपरिधट्टन- प्रोक्ताऽस्तीति का शङ्का? तथा तृतीयारकेऽतिस्निग्धातायामुक्तातत्परोऽपि, नैवाबुधः समभिगच्छति वस्तुतत्त्वम् / नानाप्रकाररसभा- यामपितत्प्रान्ते'अगणिस्स यउहाणं' इत्यादिभणनंतु अल्पस्या विवक्षवगताऽपि दर्वी, स्वाद रसस्य सुचिरादपि नैव वेत्ति॥१॥" सूत्र०१ श्रु० णान्न वाधाविधायि, तथोत्सर्पिण्या द्वितीयारकस्यादौ पुष्करसंवर्तादि८ अ० प्रश्ने सति निर्वचनतापादमाने पदार्थे, "समणे णं भगवं महावीरे पञ्चमेघवर्षणे बादरवनस्पतिप्रादुर्भवने विलनिर्गतमनुष्यासादिनिएगदिवसेणं एगनिसिजाए चउवनाई वागरणाई वागरित्था" 'वागरित्थ' वृत्तिरूपा नीतिर्विहिताग्रामादिनिवेशाश्चादिग्रहणादग्न्यादिसम्भवेपाकादित्ति व्याकृतवान् / तानि चाप्रतीतानि। स०५४ सम०। निवर्त्तनंच प्रागजातजातिस्मरणात्प्रथमकुलकराद्विमलवाहना द्वितीयारक
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________________ वाघाय 1070- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वाणमंतर स्य प्रान्ते प्रवृत्तमिति हैमवीरचरित्रे प्रोक्तमस्ति॥२६२|| सेन०३ उल्ला०। परीताः 'संखधमग' त्ति 'शंख ध्मात्वा ये 'जम' ति यद्यन्यः कोऽपि वाघायरूव-त्रि०(व्याघातरूप) परिक्षयस्वभावे, सूत्र०१श्रु०११ अ० नाऽऽगच्छतीति 'कूलधम्मग' त्ति ये कूले स्थित्वा शब्दं कृत्वा भुञ्जते वाघारियपाणि-त्रि०(व्याधारितपाणि) लम्बितभुजे, अवलम्बितबाही, 'मियलुद्धय' त्ति प्रतीता एव 'हत्थितावस' त्ति ये हस्तिनं मारयित्वा प्रव०६७ द्वार। तेनैव बहुकालं भोजनतो यापयन्ति 'उडुंडग' त्ति ऊर्धीकृतदण्डा ये वाघुण्णिय-त्रि०(व्याघूर्णित) चञ्चले, ज्ञा० १श्रु० 110 सञ्चरन्ति "दिसापेक्खिणो' त्ति उदकेन दिशः प्रोक्ष्य ये फलपुष्पादिवाघल-पुं०(व्याघ्र) विक्रमवत्सराणामष्टमनवमशतकेषु जाते क्षत्रिय समुचिन्वन्ति 'वाकवासिणो ' त्ति वल्कलवाससः 'चेलवासिणो' त्ति जातिविशेषे, "अणहिल्लपट्टनगरे भीमदेवानन्तरं वाघेला अत्तए लूणप्प व्यक्तम्, पाठान्तरे 'पेलवासिणो' ति समुद्रवेलासन्निधिवासिनः सायवीरघवलवीसलदेवसारंगदेवकण्णदेवा नरिंदा संजाया, ततो 'जलवासिणो' त्तिये जलनिमग्ना एवासतेशेषाः प्रतीताः नवरं जलाभि सेयकविणगाया' इति ये अस्नात्वा न भुञ्जते स्नानाद्वा पाण्डुरीभूतगात्रा अल्लावुद्दीणसुरत्ताणाण आणा पयट्टा" ती०२५ कल्पा इति वृद्धाः / (पाठान्तरे) जलाभिषेककठिनं गात्रं भूताः प्राप्ता येते तथा वाड-न०(वाट) वृत्यादिपरिक्षिप्तगृहसमूहे, उत्त० 34 अ०। कण्टक 'इंगालसोल्लियं' ति अङ्गारैरिव पक्वम् ‘कंडुसोल्लिय' ति कन्दुपक्वमिवेति वाटिकायाम्, उत्त० 22 अ० आचा०। प्रश्न० / पाटकेति संज्ञाप्रसिद्धे, 'पलिओवमवाससयसहस्समब्भहियं ति मकारस्य प्राकृतप्रभवत्वानि०चू०३उ०। द्वर्षशतसहस्राभ्यधिकमित्यर्थः। अथवा-पल्योपमं वर्षशतसहस्रमभ्यवाडधाणग-न०(वाटधानक) स्वनामख्याते लघुनगरे, “दधि-वाहन धिकं च पल्योपभादित्येवं गमनिकः / 'पव्वझ्या समण' त्ति निर्ग्रन्था पुत्रेण, राज्ञा च करकण्डुना। वाटधानकवास्तव्याश्चाण्डाला ब्राह्मणी इत्यर्थः 'कंदप्पिय' त्ति कन्दपिकाःनानाविध-हासकारिणः 'कुकुइय' कृताः॥१॥" इति तत्रत्याश्चाण्डालाः करकण्डुना ब्राह्मणी-कृताः। त्ति कुकुचेन कुत्सितावस्पन्देन चरन्तीति कौकुचिकाः, ये हि भूनयनआ०क० 4 अग वदनकरचरणादिभिर्भाण्डा इव तथा चेष्टन्ते यथा स्वयमहसन्तएव परान् वाढ-न०(वाढ) अत्यर्थे , 'वाढन्ति भाणिऊणं' वाढमित्यभिधायात्यर्थं हासयन्तीति 'मोहरिय'त्ति मुखरा नानाविधा असम्बन्धाभिधायिनस्त करोम्यादेशं शिरसि स्वाम्यादेशमित्युक्त्वा। आ०म०१ अ०। उत्त०। एव मौखरिकाः 'गीयरइपिय' त्ति गीतेन या रती रमणं क्रीडा सा प्रिया वाढंकार -पुं०(वाढंकार) एतन्नान्यथेति कथने, विशे० नं०। आ०म० येषां गीतरतयो वा लोकाः प्रिया येषां ते तथा-'सामण्णपरियाग' ति वाण-पुं०(वाण) वण-घञ्। मार्गणे, प्रश्र०४ आश्र० द्वार। शरे, गवां स्तने, श्रामण्यपर्याय; साधुत्वमित्यर्थः / पाउणंति त्ति प्रापयन्ति; पूरयन्तीदैत्यभेदे, केवले, वह्निकाण्डावयवे, भद्रमुञ्चे राज्ञि, कादम्बरीग्रन्थकारके त्यर्थः // 11 // औ०। कविभेदे च नीलझिण्ट्याम् / स्त्री०। वाच०। आचा०] "अयसिकुसुमेइ वाणमंतर-पुं०(व्यन्तर) देवभेदे, प्रज्ञा०१पदाअन्तरं नामअव-काशः, वा वाणकुसुमेइ वा' प्रज्ञा०१० पद 4 उ०। तचेहाश्रयरूपं द्रष्टव्यम्, विविधं भवननगरावासरूपमन्तरं येषां ते *वान-त्रि०। वनेषु भवे, स० 800 सम० भ०। आव०! व्यन्तराः / तत्र भवनानि रत्नप्रभायाः प्रथमे रत्नकाण्डे उपर्यधश्च प्रत्येक दाणपत्थ-पुं०(वानप्रस्थ) वनेऽटव्यां प्रस्था-प्रस्थानमवस्थानं वा योजनशतमपहाय शेषेऽष्टयोजनशतप्रमाणे मध्य-भागे भवन्ति, वनप्रस्था। साऽस्ति येषाम, तस्यां वा भवा वानप्रस्थाः। वने भवा वाना नगराण्यपि तिर्यग्लोके / तत्र तिर्यग्लोके यथा-जम्बूद्वीपद्वाराधिपतेप्रस्था वा स्थितिः / वाना प्रस्था येषां ते वानप्रस्थाः / वनतापसेषु, विजयदेवस्यान्यस्मिन् जम्बूद्वीपे द्वादशयोजनसहस्रप्रमाणा नगरी, लोकप्रसिद्धतृतीयाश्रमवर्तिषु, नि०१ श्रु०३ वर्ग३ अ० "वानप्पत्थ आवासाः त्रिष्वपि लोकेषु तत्र ऊर्ध्वलोके पण्डकवनादाविति, अथवात्ति' वने-अटच्या प्रस्था-प्रस्थानं गमनमवस्थानं वा वनप्रस्था सा विगतमन्तरं मनुष्येभ्यो येषां ते व्यन्तराः, तथाहि मनुष्यानपि चक्रवर्तिअस्ति येषां तस्यां वा भवा वानप्रस्थाः। ब्रह्मचारी गृहस्थश्च, वानप्रस्थो वासुदेवप्रभृतीन् भृत्यवदुपचरन्ति केचिढ्यन्तरा इति मनुष्येभ्यो विगतायतिस्तथा' इत्येवंभूततृतीयाश्रमवर्तिनः 'होत्तिय' ति अग्रिहोत्रिकाः न्तराः, यदि वा-विविधमन्तरं शैलान्तरं कन्दरान्तरं वनान्तरं वा 'पोत्तियं' ति वस्त्रधारिणः 'कोत्तिय' त्ति भूमिशायिनः 'जन्नुइ' त्ति आश्रयरूपं येषां तेव्यन्तराः, प्राकृतत्वाच्च सूत्रेवाणमन्तरा इति पाठः। यज्ञयाजिनः 'सड्डई' त्ति श्राद्धाः 'थालइ'त्ति गृहीतभाण्डाः। 'हुबउट्ट' यदि वानमन्तरा इति पदसंस्कारः; तत्रेयं व्युत्पत्तिः–वनानामन्तराणि त्ति कुण्डिकाश्रमणाः 'दन्तुक्खलिय' त्ति फलभोजिनः 'उम्मजक' त्ति वनान्तराणि तेषु भवा वानमन्तराः। पृषोदरादित्वादुभयपदपदान्तरालउन्मजनमात्रेण ये स्नान्ति। 'संमज्जग' त्ति यन्मज्जनस्यैवासकृत्करणेन वर्तिमकारागमः। प्रज्ञा०१ पद: ये स्नान्ति 'निममज्जक' त्ति स्नानार्थं निमग्ना एव ये क्षणं तिष्ठन्ति जीवे णं भंते ! असंजए अविरए अप्पडिहयपच्चक्खाय'संपक्खल' ति मृत्तिकादिघर्षपूर्वकं येऽङ्ग क्षालयन्ति 'दक्खिणकूलग' पाव-कम्मे इओ चुए पेच्चा देवे सिया ? गोयमा ! अत्थेत्ति थैर्गङ्गाया दक्षिणकूल एव वस्तव्यम्, 'उत्तरकूलग' ति उक्तवि- | गइए देवे सिया अत्थेगइए नो देवे सिया / से केणटेणं
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________________ वाणमंतर 1071 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वाणमंतर जावइओ चुए पेच्चा अत्थेगइए देवे सिया, अत्थेगइए नो देवे सिया ? गोयमा ! जे इमे जीवा गामाऽऽगरनगरनिगमरायहाणिखेडकब्बडमडंबदोणमुहपट्टणसमसन्निवेसेसु अकामतण्डाए अकामछुहाए अकामबंभचेरवासेणं अकामसीतातवदंसमसगअण्हाणगसेयजल्लमलपंकपरिदाहेणं अप्पतरं वा भुजतरं वा कालं अप्पाणं परिकिलेसंति अप्पाणं परिकिलेसित्ता कालमासे कालं किच्चा अन्नयरेसु वाणमंतरेसुदेवलोगेसु देवत्ताए उववतारो भवंति। केरिसाणं भंते ! तेसिं वाणमंतराणं देवाणं देवलोगा पण्णत्ता ? गोयमा / से जहानामए इह मणुस्सलोगम्मि असोगवणेइ वा सत्तवण्णवणेइ वा चंपयवणेइ वा चूयवणेइ वा तिलगवणेइ वा लाउयवणेइ वा निग्गोहवणेइ वा छत्तोववणेइवा असणवणेइ वा सणवणेइ वा अयसिवणेइ वा कुसुंभवणेइ वा सिद्धत्थवणेइ वा बंधुजीवगवणेइ वा णिचं कुसुमियमाइय-- लवइयथवइयगुलइयगोच्छियजमलियजुवलियविणमियपणमियसुविभत्तपिंडिमंजरिवडेंसगधरे सिरीए अतीवर उवसोभेमाणे 2 चिट्ठइ, एवामेव तेसिं वाणमंतराणं देवाणं देवलोगा जहन्नेणं दसवाससहस्सद्वितीएहिं उक्कोसेणं पलिओवमट्टितीएहिं बहूहिँ वाणमंतरेहिं देवेहिं तद्देवीहि य आइण्णा वितिकिण्णा उवत्थडा संथडाफुडाअवगाढगाढसिरीए अतीव अतीव उवसोभेमाणा चिटुंति, एरिसगाणं गोयमा! तेसिं वाण-मंतराणं देवाणं देवलोगा पण्णत्ता, से तेणऽटेणं गोयमा! एवं वुच्चइ जीवे णं असंजए०जाव देवे सिया ! सेवं भंते ! भंते ! त्ति, भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदति नमसति वंदित्ता नमंसित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरति / (सू०१९) 'जीवेण' मित्यादिव्यक्तं,नवरम् 'असंजए' त्ति असा, धुः संयमरहितो वा, अविरए, त्ति प्राणातिपातादिविरतिरहितः विशेषेण वा तपसि रतो यो न भवति सोऽविरतः, अप्पडिहए' त्यादि, प्रतिहतंनिराकृतमतीतकालकृतं निन्दादिकरणेन प्रत्याख्यातंच वर्जितमनागतकालविषयं पापकर्मप्राणातिपातादि येनस प्रतिहतप्रत्याख्यातपापकर्मा तन्निषेधादप्रतिहतप्रत्याख्यातपापकर्मा, अनेनातीतानागतपापकर्मनिषेध उक्तः / असंयतोऽविरतश्चेत्यनेन वर्तमानपापासंवरणमभिहितम्, अथवा-(न) नैव प्रतिहतं, तपोविधानेन मरणकालाद् आरात्क्षपितंप्रत्याख्यातं च मरणकालेऽप्याश्रवनिरोधेन पापकर्म येन स तथा; अथवा-(न)नैव प्रतिहतंसम्यग्दर्शनप्रतिपत्तितः प्रत्याख्यातं च सर्वविरत्यङ्गीकरणतः पापकर्म-ज्ञानावरणाद्यशुभं कर्म येन स तथा, 'इओ' ति इतः-प्रज्ञापकप्रत्यक्षात्तिर्यग्भवान्मनुष्यभवादाच्युतो-मृतः 'पेद्य' त्ति जन्मान्तरे देवः स्यात्? इति प्रश्नः, 'जे इमे जीवे' त्ति ये इमे | प्रत्यक्षासन्नाः पञ्चेन्द्रियतिर्यचो मनुष्या वा 'गामे' त्यादि ग्रामादिष्वधिकरणभूतेषु, तत्र ग्रामोजनपदप्रायजनाश्रितः स्थानविशेषः' आकरोलोहाद्युत्पत्तिस्थानं नकर-कररहितं निगमो--वणिग्-जनप्रधानं स्थानं राजधानी--यत्र राजा स्वयं वसति खेटे-धूलि-प्राकारं कर्बट-कुनगरं मडम्बंसर्वतो दूरवर्तिसन्निवेशान्तरं द्रोण-मुख-जलपथस्थलपथोपेतं पत्तनं-विविधदेशागतपण्यस्थानं, तच्च द्विधा जलपत्तनं स्थलपत्तनंचेति, रत्नभूमिरित्यन्ये, आश्रमं तापसादिस्थानं सन्निवेशो-घोषादिः,एषां द्वन्द्वस्ततस्तेषु, अथवा-ग्रामादयो ये सन्निवेशास्ते तथा तेषु 'अकामतण्हाए' त्ति अकामानांनिर्जराधनभिलाषिणां सतां तृष्णातृड् अकामतृष्णा तया, एवमकामक्षुधा, 'अकामबंभचेरवासेणं' ति अकामानां निर्जराद्यनभिलाषिणां सताम् अकामो निरभिप्रायो ब्रह्मचर्येण स्त्र्यादिपरिभोगाभावमात्रलक्षणेन वासोरात्रौ शयनमकामब्रह्मचर्यवासः अतस्तेन, 'अकामअण्हाणगसेयजल्लमलपंकपरिदाहेणं' ति अकामा येऽस्नानकादयस्तेभ्यो यः परिदाहः स तथा तेन, तत्र स्वेदः--प्रस्वेद याति च लगति चेति जल्लो-रजोमानं मलः-कठिनीभूतं रज एव पङ्कोमल एव स्वेदनार्दीभूत इति, 'अप्पतरो वा भुञ्जतरो वा कालं' ति प्राकृतत्वेन विभक्तिविपरिणामादल्पतरं वा भूयस्तरं वा बहुतरं कालं यावत् वाशब्दौ देवत्वं प्रत्यल्पेतरकालयोः समताऽभिधानार्थों, केवलं देवत्वे सामान्यतः सत्यपि अल्पतरकालमकामनिर्जरावतामविशिष्ट तत्स्याद् इतरेषां तु विशिष्टमिति, अप्पाणं परिकिलेसंति' त्ति विवाधयन्ति, 'कालमासे' त्ति कालोमरणं तस्य मासः-प्रक्रमादवसरः कालमासस्तत्र 'कालं किच्च' त्ति मृत्वा 'वाणमंतरेसु' त्ति वनान्तरेषुवन-विशेषेषु भवा अवर्णागमकरणाद्वानमन्तराः, अन्ये त्याहुः-वनेषु भवा वानास्ते च ते व्यन्तराश्चेति वानव्यन्तरास्तेषामेते वानमन्तरा वानव्यन्तरा वाऽतस्तेषु देवलोकेषु-देवाश्रयेषु देवत्ताए उववत्तारो भवति' त्ति ये इमे इत्यत्र यच्छब्दोपादानात्ते देवतयोपपत्तारोभवन्तीतिद्रष्ट-व्यम्। 'तेसिं ति ये देवलोकेष्वकामनिर्जरावन्तो देवतयोत्पद्यन्ते तेषामिति से जहाभए ति से' त्ति अथ' यथा येन प्रकारेण नामेति संभावने, वाक्यालङ्गारे वा 'ए' इत्यामन्त्रणार्थोऽलङ्कारार्थ एव 'इहं' ति इह मर्त्यलोके 'असोगवणेइव' त्ति अशोकवनम्, इतिशब्द उपप्रदर्शने, अनुस्वारलोपः सन्धिश्च प्राकृतत्वात्, ‘वा' इति विकल्पार्थः, अथवा-- 'असोगवणे' इत्यत्र प्रथमैकवचनकृत एकारः इवशब्दस्तुवाक्यालङ्कारे, अशोकादयस्तुप्रसिद्धा एव नवरं 'सत्तवन्न' ति सप्तपर्णः-सप्तच्छदइत्यर्थः, कुसुमिय' त्ति संजातकुसुमं 'माइय' तिमयूरितसंजातपुष्पविशेषमित्यर्थः,'लवइय' तिलवकितसंजातपल्लवलवमड्कुरवदित्यर्थः। 'थवइय' त्तिस्तवकितं संजातपुष्पस्तवकमित्यर्थः, 'गुलइय'त्तिसञ्जातगुल्मकं,गुल्मंचलतासमूहः 'गुच्छ्यि' ति संजातगुच्छम, गुच्छश्च पत्रसमूहः, यद्यपिचस्तवकगुच्छ्योरविशेषोना
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________________ वाणमंतर 1072- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वाणारसी मकोशेऽधीतस्तथापीह पुष्पपत्रकृतो विशेषो भावनीयः। जमलिय' त्ति तिरियमसंखेजा भोमेजा नगरावाससयसहस्सा पण्णत्ता, ते णं यमलतया समश्रेणितया तत्तरूणां व्यवस्थितत्वात् सञ्जातयमलत्वेन भोमेजा नगरा बाहिं वट्टा अंतो चउरंसा एवं जहा-भवण-वासीणं यमलितम् "जुवलिय' त्ति युगलतया तत्तरूणां सञ्जातत्वेन युगलितम्। तहेव णेयवा, णवरं पडागमालाउला सुरम्मा पासाईया 'विणमिय' ति विशेषेणपुष्पफलभरेण नमितमिति कृत्वा विनमितम्। दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा। (सू-१५०x) स०) वाण'पणमिय' त्ति तेनैव नमयितुमारब्धत्वात, प्रणमितं प्रशब्दस्यादि- मंतराणं भंते ! सव्वे समाहारा एवं जहा सोलसमसए दीवकुमाकर्मार्थत्वादिति' तथा सुविभक्ताः अतिविभक्ताः सुनिष्पन्नतया रुद्देसएन्जाव अप्पिट्ठियत्तिसेवं भंते ! ति। (सू०-६६१) भ० पिण्ड्योलुम्ब्यो मञ्जयश्च प्रतीताः ता एवावतंसकाः- शेखरकास्तान १९श०१० उ०॥ धारयति यत्तत्सुविभक्तपिण्डीमञ्जर्यवतंसकधरम्, ततः कुसुमितादीनां | वाणमंतरी-स्त्री०(वाणव्यन्तरी) व्यन्तरदेवस्त्रियाम, जी०। कर्मधारय इति। 'सिरीए' त्ति। श्रियावनलक्ष्म्या 'उवसोभमाणे 2 त्ति, से किं तं वाणमंतरदेवित्थियाओ? वाणमंतरदेवित्थियाओ इह द्विवचनम् आभीक्ष्ण्ये-भृशत्वे इत्यर्थः / 'आइण्ण' त्ति क्वचित्प्रदेशे अट्ठविधाओ पण्णत्ताओ।तं जहा-पिसायवाणमंतरदेवित्थिदेवानां देवीनां च वृन्दैरात्मीयात्मीया वा समर्यादानुल्लङ्घनेन व्याप्ता, याओ०जावसेत्तं वाणमंतरदेवित्थियाओ। (सू०-१५)जी०२ आशब्दोऽत्र मर्यादावृत्तिः, तथा क्वचित्तु-'विइण्ण' त्ति, तैरेववृन्दैनि प्रति जावाससीमोल्लङ्घनेन व्याप्ताः, विशब्दो विशेषवाची, 'उवत्थड' त्ति | वाणर-पुं०(वानर) मर्कटे, प्रश्न०१आश्र० द्वार। आ० चू०। अनु०। प्रव०॥ उपस्तीर्णा उपशब्दः सामीप्यार्थः स्तृञ् चाच्छादनार्थः, ततश्चोत्पत- पाइ० ना०ा "सो वाणरजूहवई कंतारे सुविहियाणुकंपाए" आव०४ द्विनिपतद्भिश्चानवरतक्रीडासक्तैरुपर्युपरिच्छादिताः, "संथड' त्ति अ० आ० का संस्तीर्णाः संशब्दः परस्परसंश्लेषार्थः, ततश्च क्वचित्तैरेव क्रीडमानैरन्यो- वाणह-स्त्री०(उपानह) मोचके, पादत्राणे, ध०२अधिol न्यस्पर्द्धया समन्ततश्वलद्भिराच्छादिता इति, 'फुड' त्ति स्पृष्टा आसन- वाणारसी-स्त्री०(वाराणसी)"करेणु-वाराणस्यो रणोयत्ययः" शयनरमणपरिभोगद्वारेण परिभुक्ताः , स्फुटा वा सप्रकाशा व्यन्तरसुर-- |8 / 2 / 116|| इति रस्थानेणः। प्रा०। काशीजनपदराजधान्याम्, स्था० निकरकिरणविसरनिराकृतान्धकारतया। 'अवगाढगाढ' त्ति / गाढं- १०ठा०३ उ०1 सूत्राज्ञा०। आव०। प्रज्ञा०। अन्ता प्रकका विपाती वाढमवगाढास्तैरेव सकलक्रीडास्थानपरिभोगनिहित-मनोभिरधोऽपि "नत्वा तत्त्वाख्यायिनं श्रीसुपार्श्व, श्रीपावं च ध्वंसिताशेषविघ्नम्। व्याप्ताः, गाढावगाढा इति वाच्ये प्राकृतत्वादवगाढगाढाः, इह च वाराणस्यास्तीर्थरत्नस्य कल्पं, जल्पामस्सत्कल्पनापोढकल्पम्।।१।।" देवत्वयोग्यस्य जीवस्याभिधानेन तदयोग्यः सामथ्यदिवसीयत एवेति। अस्त्यत्रैव दक्षिणे भरतार्द्ध मध्यमखण्डे काशीजनपदालंकृतिरुत्तर'अत्थेगइए नो देवे सिए' इत्येतस्यादावुक्तस्य पक्षस्य निर्वचनं कृतं वाहिन्या त्रिदशवाहिन्याऽलंकृतघनकनकरत्नसमृद्धा वाराणसी नाम द्रष्टव्यमिति, अथोद्देशकनिगमनार्थमाह- 'सेवं भंते ! भंते' त्ति यन्मया नगरी, गरीयसामद्भुतानां निधानम्। वारणा नाम्नी सरित् असिनाम्नी पृष्टं तद्भगवद्भिः प्रतिपादितं तदेवमित्थमेव भदन्त ! नान्यथा, अनेन च / द्वे अपि सरितावस्यां गङ्गामनुप्रविष्टे इति वारणासीति तदुक्तं भगद्वचने बहुमानंदर्शयति। द्विर्वचनं चेह भक्तिसंभ्रमकृतमिति। एवं कृत्वा नामास्याः प्रसिद्धम्, अस्यांसप्तमो जिनसत्तमः श्रीमान्सुपार्श्व ऐक्ष्वाकुप्रभगवान् गौतमः श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति चेति / भ०१ तिष्ठमहीपतिमहिष्याः पृथ्वीदेव्याः कुक्षाववतीर्य जन्मसुपादितत्रिभुवनश०१ उ०। पञ्चा० चं० प्र०। उत्त० जनवादितयशः पटहः स्वस्तिकलाञ्छितद्विशतधनुरुच्छ्रायः काञ्चनअथ व्यन्तरभेदानां नामान्याह च्छायकायः क्रमेण प्राज्यराज्यश्रियमनुभूय भूयः सांवत्सरिकं दानं प्रदाय सहस्राऽऽनवणे दीक्षां च कक्षीकृत्य विहृत्य छद्मस्थावस्थया नवमासी पिसाय 1 भूया २जक्खाय 3. रक्खसा किन्नराय५ किंपुरिसा केवलममलमासाद्य संमेतगिरिमेत्य निर्वृतः। त्रयोविंशश्वजिनेशः श्रीपार्श्वनाथ ६।महोरगाय७गन्धव्वा 8, अट्टहा वाणमन्तरा / / 208|| ऐक्ष्वाकाश्वसेनसू नुर्वामाकुक्षिसंभवः पन्नगलक्ष्मो नवकरोच्छ्रायो व्यन्तरा अष्टविधाः पिशाचापभूतारयक्षाश्च३पुना राक्षसाः 4 किन्नराक्ष५ नीलच्छविवपुस्तारान्तजन्माऽऽश्रमपदोद्याने कौमार एवोपात्तचारित्रभावः किंपुरुषाः६ महोरणाः 7 गन्धर्वाः८ एवमष्टप्रकारा व्यन्तरा ज्ञेयाः। उत्त० केवलमुत्पाद्य तस्मिन्नेव शैलेशीमवाप्य सिद्धः, अस्यामेव कुमारकाले 36 अ० भगवानेष एव मणिकर्णिणकायां पञ्चाग्नितपस्तप्यमानात्कमठऋषेरायतिव्यन्तराणां स्थानान्याह भाविनीं विपदमात्मनो विदितवानप्यन्तर्दारुणज्वलनज्वालाभिरर्द्धदग्धकेवइयाणं भंते! वाणमंतराऽऽवासापण्णत्ता? गोयमा! इमीसे दन्दशूकं जनन्या जनानां च संदर्य कुपथमथनमकार्षीत् / अस्यां णं रयणप्पभाए पुढवीए रयणामयस्स कंडस्स जोयणसहस्स- काश्यपगोत्रौ चतुर्वेदौ षट्कर्मकर्मठौ समृद्धौ यमलभ्रातरौ जयघोषवाहलस्स उवरि एगंजोयणसयं ओगाहेत्ता हेहाचेगंजोयणसयं विजयघोषाभिधानौ द्विजवरावभूताम्, एकदाजयः स्नातुंगङ्गामगात, तत्र वजेत्ता मज्झे अट्ठसु जोयणसएसु एत्थ णं वाणमंतराणं देवाणं / प्रदाकुना ग्रस्यमानंभेकमेकमालोक्यतत्सर्प चकुललेनोत्क्षिप्य भूमौपातित
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________________ वाणारसी १०७३-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वाणारसी मद्राक्षोत्। सर्पमाक्रम्य स्थितं कुललं तमेव चण्डग्रासैः खादन्तं सर्प च कुललवशगतमपि विकुणिमण्डूकभक्षणं वीक्ष्य प्रतिबुद्धः प्रव्रज्याक्रमादेकरात्रिकी प्रतिमां प्रपद्य विहरन् पुनरिमां नगरीमगात्। मासक्षपणपारणके यज्ञपाटकं प्रविष्टस्तत्र विप्रैर्भक्ष्यमादित्सुभिः प्रतिषिद्धस्ततः श्रुत्वाऽभिहितचर्यामुपदिश्य भ्रातरं विप्रांश्च प्रत्यबूबुधद् विरक्तो विजयघोषः प्रावाजीद द्वावपि मोक्ष प्रापतुः। ती०। (नन्दाभिधाननाविकवृत्तम् 'णंद' शब्दे चतुर्थभागे 1748 पृष्ठे गतम्।) अस्यां संवाहननरपतिः सातिरेककन्यासहरीः सन्नपि परनृपतिपृतनावेष्टितायां पुरि राज्यलक्ष्मी गर्भस्थोऽप्यङ्गवीरस्वातवान्, अस्यां मातङ्गऋषिर्वलनामा मृतगङ्गातीरलब्धजन्मा तिन्दुकोद्याने स्थितवान् गण्डीतिन्दुकं च यक्षं गुणगणैर्हतहृदयमकार्षीत् / कौशिलिकनृपदुहिता च भद्रा मलक्लिन्नाङ्गं तमृषिं विलोक्य निष्ठ्यूतवती / ततस्तेन यक्षेणाधिष्ठिताङ्गी तेनैव मुखे वपुषि संक्रम्य परिणीता त्यक्ता च मुनिना, ततो रुद्रदेवेन यज्ञपत्नी कृता। मासक्षपणपारणे च भिक्षार्थमुपागतो मातङ्गमुनिर्द्विजातिभिरुपहस्य कदर्थ्यमानः तत्प्रेक्ष्य भद्रयोपलक्ष्य बोधितास्तं क्षमयामासुाह्मणाः प्रत्यलाभयंश्च भक्ताद्यैः, विदधे विबुधैर्गन्धोदकवृष्टिः पुष्पवृष्टिर्दुन्दुभिवादनं वसुधारापातश्च / अस्याम्- "वाणारसीऍ कोट्टएँ, पासे गोचारिभद्दासणे य / णंदसिरीपउमद्दहरायगिहे सो चिए वीरे॥१॥ वाणारसी य नगरी, अणगारे धम्मघोसधम्मजसे। मासस्सय पारणए गोआलगंगा य अणुकंपा // 2 // " एतदावश्यकनियुक्तौ संविधानकद्वयमजनि। ती०४२ कल्प० / (नन्दश्रीवार्ता 'णंदसरी' शब्दे चतुर्थभागे 1751 पृष्ठे गता।) अत्रैवपुर्यां धर्मघोषधर्मयशसौद्वावप्यनगारौ वर्षारात्रावस्थाताम, तौ मास 2 क्षपणेनास्ताम्, अन्यदा चतुर्थपारणके तृतीयपौरुष्यां विहाराय प्रस्थितौ शारदातपेना” तृषितौ गङ्गामुत्तरन्तौ मनसाऽपि नाम्भ पेक्षतामनेषणीयमिति देवता तद्गुणावर्जिता गोकुलं विकुऱ्या गङ्गातीर्णीतौ दध्योदनादिभिरुपन्यमन्त्रयत्। तौ दत्तोपयोगी ज्ञातवन्तौ यथेयं मायेति प्रत्यषेधताम्, पुरः प्रस्थितयोरनुकम्पया वार्दलं व्यकार्षीत् देवता, तौ चायां भूमौ शीतलवाताप्यायितौ ग्रामं प्राप्य शुद्धोञ्छमादिषातामिति / श्रीमदयोध्यायामिक्ष्वाकुवंश्यः श्रीहरिश्चन्द्रो महानरेन्द्रस्त्रिशकुपुत्र उशीनरनृपसुतायाः सुतारादेव्या रोहिताश्वेनचपुत्रेण सहितः सुखमनुभवंश्चिरमशात्काश्यपीम्। एकदा सौधर्माधिपतिर्दिविदेवेन्द्रपरिषदितस्य सत्त्ववर्णनामकरोत्, तदश्रद्दधानावुभौ गीर्वाणौ चन्द्रचूडमणिप्रभनामानौ वसुन्धरामवतीर्णी / तयोरेको वनवराहरूपं विकृत्यायोध्यापरिसरस्थितशक्रावतारचैत्याश्रमं ससंभ्रमं भक्तुं प्रववृते / अन्येषुः सदसि सिंहासनस्थितो हरिश्चन्द्रमहीन्द्रस्तमाश्रमोपप्लवं शूकरोपज्ञं श्रुत्वा तत्र गत्वा वाणप्रहारेण तं वराह प्रहतवान्। तस्मिश्च शरेऽन्तर्हिते गर्हितेतरवरितः स यावत्तं प्रदेशमविशत्तावत्तत्र हरिणीं स्ववाणप्रहतां तस्याः स्फुरन्तंच गलितं गर्भ निभाल्य कपिञ्जलकुन्तलमित्राभ्यां सह पर्यालोच्य भ्रूणनं स्वमशोचयत्। प्रायश्चित्तग्रहणार्थं कुलपतिकन्यकानुमत (माम्ल) मकार्षीत् / व्यवहारार्थं च ततोऽनेनपापीयसा मन्मृगी हता | तन्मरणे च मम मातुश्च मरणं भविष्यतीति निशम्य कुपिताः, कुलपतिनृपतयः, ततस्तत्पदोर्निपत्य नरपतिरलपत्-प्रभो! सकलामपि वसुधां प्रतिगृह्य मामेतस्मात् एनसो मोचय, तयोश्च मरणनिवारणाय हेमलक्षं दास्यामीति तेनाप्यामिति प्रतिपन्ने सति कौटिल्यमृषि सह कृत्वा नृपः स्वपुरीमागात, ततो वसुभूतेर्मन्त्रिणः कुन्तलस्य च सुहृदस्तत्स्वरूपमावेद्य कोशादेकलक्षमानाययत्, ततः स्मिल्वा तापसः सागारको व्याकरोदस्मभ्यं जलधिमेखलामखिलामिला त्वमदाः ततोऽस्मदीयमेव वस्त्वस्मभ्यमेवं दीयत इति कोऽयं न्यायः / अथ वसुभूतिः किमपि ब्रुवाणः कुलपतिनाशापादपारिकारः,कुन्तलस्तुशृगालः, तौ चवन-मध्येऽवसताम् / राजा च मासमवधि मार्गयित्वा रोहिताश्वमङ्गुलौ लगयित्वा सुतारया सह काशी प्रति प्राचलत्, क्रमादिमां पुरीं प्राप्य संस्थायां स्थितः, तत्र शिरसि तृणं दत्त्वा वज्रहृदयविप्रहस्ते देवी कुमारं च हेमसहयैर्विचिक्राय। सा तत्र खण्डनपेषणादिकर्माणि निर्ममे। दारकश्च समित्पत्रपुष्पफलाद्याजहार!राज्ञीचिन्ताध्वान्तचेताः सकुलपतिः कनकं मार्गयितुमगाद् / दत्तं तस्मै राज्ञीकाञ्च-नसहस्रषट्कम् कुलपतौ स्तोकमिति कुप्यत्यङ्गारकोऽवोचत्, भोः! किमर्थं पत्नीमपत्यं च विक्रीणीथाः अत्रत्यचन्द्रशेखरं नरेश्वरं किं न याचसे वसु लक्षम् / राज्ञोक्तम्-अस्मत्कुलेनेदं सिद्ध्यति, डोंबडस्यापि वेश्मनि कर्मकरणमुररीकृत्य दास्यामि तव काञ्चनमिति, ततः कर्म कर्तुं प्रवृत्तश्चण्डालेन श्मशानरक्षणे नियुक्तः, ततः परं यथा ताभ्याममराभ्यामकारि मारिःपुर्याम्, यथा भूपादेशानीतमान्त्रिकेण राक्षसीप्रवादमारोऽप्य सुतारा मण्डलमानीय रासभमारोपिता, यथा सुतः पावके दत्तझम्पोऽपिनदग्धः, संस्कार कर्तुमानीतः, तस्याः करमयाचिष्ट नृपतिः। यथाच सत्त्वपरीक्षानिर्वाणप्रमुदितप्रकटितनिजरूपः त्रिदशकृतपुष्पवृष्टिजयरध्वनिः सर्वजनैः प्रशंशितः सात्त्विकशिरोमणिः इति, यथा च बर्हिर्मुखसुखाद्वराहादिपुष्पवृष्टिपर्यन्तं दिव्यमायाविलसितमवबुध्य यावच्चेतसि चमत्कृतस्तावत् स्पपुर्या सदसि सिंहासनस्थं परिवारमपश्यत्, तद्देवीकुमारविक्रयादिदिव्यपुष्पवर्षावसानं श्रीहरिश्चन्द्रस्य चरित्रं सत्त्वपरिक्षानिकषोऽस्यामेव पुर्यामजनि / जनजनितविस्मयं यच्च काशीमाहात्म्ये प्रथमगुणस्थानीयैरभिधीयते यद्वाराणस्यां कलियुगप्रवेशोनास्ति, तथात्र प्राप्तनिधनाः कीटपतङ्गभ्रमरादयः कृतानेकचतुर्विधहत्यादिपाप्मानोऽपि मनुष्यादयो वा शिवसायुज्यामियतीत्यादि युक्तिरिक्तं तदस्मदादिभिः श्रद्धातुमपि दुःशकम्, किं पुनः कल्पे जल्पितुमित्त्युपेक्षणीयमेवैतत्, धातुवादर सवादखन्यवादमन्त्रविद्याविधुराः शब्दानुशासनतर्कनाटकालङ्कारद्योतितचूडामणिनिमित्तशास्त्रसाहित्यादिविद्यानिपुणा निश्चलपुरुषा अस्यां परिव्राजकेषु जटाधरेषु योगिषु ब्राह्मणादिचातुर्वर्ण्यवचनैकरसिकमनासि प्रीणयन्ति चतुर्दिगन्तदेशान्तरवास्तव्याश्चास्यां जना दृश्यन्ते सकलकलापरिकलनकौतूहलिनः / वाराणसी चेयं संप्रति चतुर्द्धा विभक्ता दृश्यते। तद्यथा-देववाराणसी यत्र विश्वनाथप्रासादः तन्मध्ये वाऽऽश्मनं जैनं चतुर्विंशतिपट्ट पूजारूपमद्यापि विद्यते, द्विती
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________________ वाणारसी 1074 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वात या राजधानी वाराणसी-यत्राद्यत्वे यवनाः, तृतीया मदनवाराणसी, चतुर्थी विजयवाराणसीति / लौकिकानि च तीर्थानि अस्यां क इव परिसंख्यातुमीश्वरः अन्तर्वणं दन्तखातं तडागं निकषा श्रीपार्श्वनाथस्य चैत्यमनेकप्रतिमाविभूषितमास्ते,अस्याममलपरिमलभराकृष्टभ्रमरकुलसंकुलानि सरसीसुनानाजातीयानि कमलानि, अस्यां च प्रतिपदमकुतोभयाः संचरिष्णवो न वाध्यन्ते शाखामृगा मूकधूर्ताश्च / अस्याः क्रोशत्रितये धर्मध्यानसंनिवेशो यत्र बोधिसत्त्वस्योचैस्तरशिखरचुम्बितगगनमायतनम्। अस्याश्च सार्द्धयोजनद्वयात्परतश्चन्द्रावती नाम नगरी; यस्यां श्रीचन्द्रप्रभोर्गर्भावतारादिकल्याणकचतुष्टयमखिलभुवनजनतुष्टिकरमजनिष्ट / "गङ्गोदकेन च जिनद्वयजन्मना च, प्राकाशि काशिनगरी न गरीयसी कैः / तस्या इति व्यधित कल्पमनल्पभूतेः, श्रीमान् जिनप्रभ इति प्रथितो मुनीद्रः / / 1 / / " श्रीवाराणसीकल्पः। ती० 37 कल्प०। वाणिअय-पुं०(वणिज) वणिजे, 'आवणिआ वाणिअया।' पाइ० ना० 105 गाथा। वाणिज-न०(वाणिज्य) पञ्चसु वणिग्व्यापारेषु, ध०। वाणिज्यान्याहवाणिज्याका दन्तलाक्षा-रसकेशविषाश्रिताः॥१२॥ अथोत्तरार्द्धन पञ्च वाणिज्यान्याह-वाणिज्याका' इत्यादि, अत्राश्रितशब्दः प्रत्येक योज्यस्ततो दन्ताश्रितोदन्तविषया वाणिज्याकावाणिज्य; दन्तक्रयविक्रय इत्यर्थः / एवं लाक्षावाणिज्यारसवणिज्याकेशवणिज्याविषवणिज्यास्वपि तत्र दन्ता हस्तिनां, तेषामुपलक्षणत्वादन्येषामपि त्रसजीवावयवानां घूकादिनखहंसादिरोमचर्मचमरङ्गशङ्खशुक्तिकपर्दकस्तूरीपोहीसकादीनां वणिज्या चात्राकरे ग्रहणरूपा द्रष्टव्या, यत्पूर्वमेव पुलिन्दानां मूल्यं ददाति, दन्तादीन् मे यूयं ददतेति, ततस्ते हस्त्यादीन् घ्नन्त्यचिरादसौ वाणिजक एष्यतीति, पूर्वानीतांस्तु क्रीणातीति, त्रसहिंसा स्पष्टैवास्मिन् वाणिज्ये, अनाकरे तु दन्तादीनां ग्रहणे विक्रयेचन दोषः, यदाहुः-"दन्तकेशनखास्थित्वग्-रोम्णो ग्रहणमाकरे। साङ्गस्य वणिज्यार्थ, दन्तवाणिज्यमुच्यते॥१॥" ॥६॥धo| वाणी-स्त्री०(वानी) वने भवायाम्, नि०१ श्रु०३ वर्ग३ अ० वाणीर-पुं०(वानीर) वानीरे, "वंजुलो वेडसो य वाणीरो।" पाइ० ना० 144 गाथा। वात(ता)(य)-पुं०(वात) वायुकायिके, पं०सं०१द्वार ! जी०। भ०। वातानाहरायगिहे णगरे०जाव एवं वयासी-अत्थि णं भंते ! ईसिं पुरे / वाया पत्था वाया मंदा वाया महावाया वायंति? हंता अस्थि, | अस्थि णं भंते ! पुरच्छिमे णं ईसिं पुरे वाया पत्था वाया मंदा वाया महावाया वायंति, हंता अस्थि / एवं पञ्चत्थिमे णं दाहिणे णं उत्तरेणं उत्तरपुरच्छिमेणं पुरच्छिमदाहिणेणं दाहिणपच्छिमेणं पच्छिमउत्तरेणं / जया णं भंते ! पुरच्छिमेणं ईसिं पुरे वाया पत्था वाया मंदा वाया महावाया वायंति तयाणं पञ्चत्थिमेणं विईसिं पुरे वाया, जया णं पच्चत्थिमेणं ईसिं पुरे वाया तयाणं पुरच्छिमेण वि? हंता, गोयमा ! जया णं पुरच्छिमेणं तया णं पचत्थिमेण वि ईसिं जया णं पच्चत्थिमेण वि ईसिं तया णं पुरच्छिमेण वि ईसिं,एवं दिसासु विदिसासु / अत्थि णं भंते ! दीविच्चया ईसिं? हंता अत्थि। अत्थिणं भंते ! समुहया ईसिं? हंता अत्थि। जयाणं भंते ! दीविचया ईसिं तयाणं सा सामुद्दया वि ईसिं, जया णं सामुद्दयाईसिं तया णं दीविच्चया वि ईसिं? णो इणढे समढे। से केणऽतुणं भंते! एवं वुचति जया णं दीविच्चया ईसिंणो णं तया सामुद्दया ईसिं जया णं सामुद्दया ईसिं णो णं तया दीविच्चयाईसिं? गोयमा! तेसिणं वायाणं अन्नमन्नस्स विवच्चासेणं लवणे समुद्दे वेलं नातिक्कमइ से तेणटेणं० जाव वाया वायंति / अस्थि णं भंते ! ईसिं पुरे वाया पत्था वाया मंदा वाया महावाया वायंति? हंता अत्थि। कया णं भंते ! ईसिं०जाव वायंति? गोयमा! जया णं वाउयाए अहारियं रियंति तयाणं ईसिंजाव वायं वायंति। अत्थिणं भंते ! ईसिं? हंता अत्थि, कया णं भंते ! ईसिं पुरे वाया पत्था०? गोयमा ! जयाणं वाउयाए उत्तरकिरियं रियइतयाणं ईसिं०जाव वायंति। अस्थि णं भंते ! ईसिं? हंता अस्थि / कया णं भंते! ईसिं पुरे वाया पत्था वाया? गोयमा! जया णं वायकुमारा वायकुमारीओ वाअप्पणो वा परस्स दातदुभयस्स वा अट्ठाए वाउकायं उदीरेंति तया णं ईसिं पुरे वाया जाव वायंति, वाउकाए णं भंते ! वायकाय चेव आणमंति पाणमंति जहा खंदए तहा चत्तारि आलावगा नेयव्या अणेगसयसहस्स०पुढे उद्दाति वा,ससरीरी निक्खमति / / (सू० 180) 'रायगिहे, इत्यादि, अत्थि' त्ति अस्त्ययमों-यदुत-वातावान्तीति योगः, कीदृशाः? इत्याह- 'ईसिं पुरे वायं ' ति मनाक् तत्रेह वाताः 'पत्था वाय' त्ति पथ्या वनस्पत्यादिहिता वायवः ‘मंदा वाय' ति मन्दाः शनैः संचारिणो; महावाता इत्यर्थः 'महावाय? ति उद्दण्डवाता; अनल्पाः इत्यर्थः 'पुरच्छिमे णं' ति सुमेरोः पूर्वस्यां दिशीत्यर्थः, एवमेतानि दिगविदिगपेक्षयाऽष्टौ सूत्राणि / उक्तं दिग्-भेदेन वातानां वानम्; अथ दिशामेव परस्परोपनिबन्धेन तदाह-'जयाण' मित्यादि, इह च द्वे दिक् सूत्रे द्वे विदिक्सूत्रे इति। अथ प्रकारान्तरेण वातस्वरूपनिरूपणसूत्रम्, तत्र 'दिविचग' त्ति, द्वैष्या द्वीपसम्बन्धिनः 'सामुद्दय' त्ति, समुद्रस्यै
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________________ वात 1075 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वाद ते सामुद्रिकाः, 'अन्नयन्नविवच्चासेणं' ति अन्योऽन्यव्यत्यासेन यदेके | वात(य)कण्ह-पुं०(वातकृष्ण) वत्सगोत्रान्तर्गतेऽवान्तरगोत्र-प्रवर्तक ईषत्पुरोवातादिविशेषेण वान्ति तदेतरे न तथाविधा वान्तीत्यर्थः / 'वेलं - ऋषी, स्था०७ ठा०३ उ०। नाइकमइ' ति, तथाविधवातद्रव्यसामर्थ्याद्वैलायास्तथास्वभाव- | वात(य)केत-न०(वातकेत) चतुर्थदेवलोकविमाने,स०५ सम० त्वाचेति / अथ वातानां वाने प्रकारान्तरेण वातस्वरूपत्रयं सूत्रत्रयेण वात(य)कूड-न०(वातकूट) स्वनामख्याते चतुर्थे देवलोकस्थे विमाने, दर्शयन्नाह-अस्थि ण' मित्यादि, इह च प्रथमवाक्यं प्रस्तावनार्थमिति स०५ समन नपुनरुक्तमित्याशङ्कनीयम्, 'अहारियं रियंति' त्ति, रीतं रीतिः; स्वभाव वात(य)क्खंध-पुं०(वातस्कन्ध) घनवाततनुवातेषु, स्था०२ठा० ४उ०) इत्यर्थः तस्यानतिक्रमेण यथा-रीतं रीयतेगच्छति, यदा स्वाभाविक्या | वात(य)णिसम्ग-पुं०(वातनिसर्ग) अधिष्ठानेन पवननिर्गमे,ला आव० गत्या गच्छतीत्यर्थः , 'उत्तराकिरिय' ति, वायुकायस्य हि मूलशरीर- आचान मौदारिकमुत्तरं तु वैक्रियमत उत्तरा-उत्तरशरीराश्रया क्रिया गतिलक्षणा वात(य)पइट्ठिय-त्रि०(वातप्रतिष्ठित) वातोपरिस्थिते, "वायपइट्ठिए यत्र गमने तदुत्तरक्रियम, तद्यथा-भवतीत्येवं रीयते-गच्छति, इह चैक- उदही" वातप्रतिष्ठित उदधिर्घनोदधिस्तनुवातोपरि स्थितत्वात्। भ० सूत्रेणैव वायुवानकारणत्रयस्य वक्तुं शक्यत्वे यत्सूत्रत्रयकरणं तद्विचित्र- १श०६ उ०ा स्था० त्वात् सूत्रगतेरिति मन्तव्यम् / वाचनान्तरे त्वाद्यं कारणं महावात- वात(य)परिगय-त्रि०(वातपरिगत) देहगतवायुप्रेरिते, वातपरिगते वा देहे वर्जितानाम, द्वितीयं तुमन्दवातवर्जितानाम्, तृतीयं तु चतुर्णा-मप्युक्त- सति बाह्यवातेन चोत्क्षिप्त इति। स्था०१ठा० ३उ०। मिति / भ०५ श०२ उ०। आ० चू०। "एत्थ अट्ठ वाया वण्णेयव्वा, तं वात(य)पलिक्खोभ-पुं०(वातपरिक्षोभ) वातोऽत्रवात्वा तद्वद्वातमिश्रजहा-पादीणवाए पदीईणवाए उदीणवाएदाहिणवाए, जो उत्तरपुरत्थिमे त्वात् परिक्षोभहेतुत्वात्स वातपरिक्षोभ इति / भ०६ श०५ उ०। णं वातो सो सत्तासुयो, जो दाहिणपुव्वे णं सो तुंगारो, जो दहिणावरेणं कृष्णराजौ, स्था०८ ठा०३उ०। सो बीयावो, अवरुत्तरे णं गज्जभो। एवमेते अट्ठ वाया अण्णेवि दिसासु | वात(य)फलहि-पुं०(वातपरिध) परिहननात् परिघोऽर्गला परिघ इव अट्ठ, तं जहा-उत्तरसत्तासु य पुरिमसत्तासुओ य तहा पुरिमतुंगारो परिघः। तमस्काये, स्था०४ ठा०२ उ०। वातोऽत्र वात्या तद्द्वातदाहिणतुंगारो तहा दाहिणवायवो अवरबीयावायाहिं / अवरगज्जभो मिश्रत्वात्परिघश्च दुर्लङ्घत्वात्सवातपरिघः। भ०६ श०५ उ०ा कृष्णराजौ, उत्तरगज्जभो य।'' इयमत्र भावना, अत्र चत्वारः शुद्धदिग्वातास्तद्यथा- स्था०५ ठा०३ उ० प्राचीनवातः प्रतीचीनवातः उदीचीनवातो दक्षिणवातश्च। तत्र यः प्राच्या वात(य)फलिहक्खोभ-पुं०(वातपरिघक्षोभ) वातं परिघवत् क्षोभवति दिशः समागच्छति स प्राचीनवातः, एवं शेषदिग्वातभावनाऽपि कार्या, हेतुमागं करोतीति वातपरिघक्षोभः। वात एव वा परिधस्तं क्षोभयति यः चत्वारः शुद्धविदिग्वातास्तद्यथा -उत्तरपूर्वस्यांसक्तासुको दक्षिणपूर्वस्यां स तथा परिघवद्वातक्षोभकारके, स्था०४ ठा०२ उ०) तुङ्गारो दक्षिणापरस्यां बीजापः अपरोत्तरस्यां गर्जाभः। एवमष्टौ शुद्धदि- वात(य)मंडलिया-स्त्री०(वातमण्डलिका) वातोल्याम्, जी०१प्रति०। विदिग्वाताः, अष्टावन्ये दिग्विदिगपान्तरालवर्तिनः। तद्यथा-उत्तरस्या प्रज्ञा० भ०! उत्तरपूर्वस्याश्चापान्तराले उत्तरसक्तासुकः उत्तरपूर्वस्याश्वापान्तराले | वात(य)मंडली-स्त्री०(वातमण्डली) मण्डलेनोर्द्धप्रवृत्ते वायौ, स्था०४ पूर्वसक्तासुकः पूर्वस्या दक्षिणपूर्वस्याश्चापान्तराले पूर्वतुङ्गारः | ___ठा०१ उ01 दक्षिणपूर्वस्या दक्षिणस्याश्चान्तरा दक्षिणतुङ्गारः दक्षिणस्या दक्षिणा- | वाता(या)इद्ध-त्रि०(वाताविद्ध) वातप्रेरिते, उपा०७ अ०) उत्ता परस्याश्च दक्षिणबीजापः / दक्षिणापरस्या अपरस्याश्चापरबीजापः / "वायावद्धिव्व हडो, अद्विअप्पा भविस्ससि'' ||6|| दश० २अ०। अपरस्या अपरोत्तरस्याश्चापरगर्जाभः / अपरोत्तरस्या उत्तरस्याश्चापा- नि०चू न्तराले उत्तरगर्जाभः / एवमेते षोडशः सप्तदश उत्कालिकावातः। आ० वातावि-०(वातापि) हर्षादगस्त्यमभ्यासादनतो विनष्ट स्वनामख्यातेम०१ अ01"आगासपइडिया वाया" वातो घनवाततनुवातलक्षणः / ___ऽसुरे, ध०१अधिo स्था०३ ठा०२ उ०।"पारुष्यसङ्कोचनतोदशूलश्यामत्वभङ्गव्यथचेष्ट- वाता(या)हयग-त्रि०(वाताहतक) वायुनेषच्छोषमानीते, उचा०७ अ०| भङ्गाः / सुसत्त्वशीतत्वखरत्वशेषाः, कर्माणि वायोः प्रवदन्ति तज्ज्ञाः वातिक-पुं०(वातिक) वातोऽस्यास्तीति वातिकः / सनिमित्ततो॥१॥" स्था०४ ठा०४ उ० ऽन्यथामेहने स्तब्धे सति स्त्रीसेवायामकृतायां वेदं धारयितुमशक्ते वात(य)इ-त्रि०(वातकिन्) वातो रोगविशेषोऽस्यास्तीति वातकी, नपुंसकभेदे, प्रव० 106 द्वार। विकटे, बृ०५ उ०। उच्छ्रितत्वे, स्था०३ वातंकीव वातकी / वातूले, "सवातकी नाथ ! पिशाचकी वा'" स्या०। ठा०३ उ० वात(य)कंटग-पुं०(वातकण्डक) बहिश्चित्रिते उपरिगपिच्छिले मध्ये | वातलिय-पं०(वातलिक) नास्तिके.दश०१० जलशून्ये करके, आ०म०१अ० जी०। जंग राण | वाद(य)-पुं० (वाद) वदनं वादः / विशे० / स्था० ।नं० / स०।
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________________ वाद 1076 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वाद वार्तायाम्, बृ०१उ०३प्रक० / विकत्थने, स्था०६ ठा०३ उ०ा स्वदर्शनस्थापनलक्षणे; (संथा०1) पूर्वपक्षे, अष्ट० 5 अष्ट०। द्वा० अङ्गीकारे, सूत्र०१ श्रु०१अ०४ उसमभ्युपगम्यपञ्चावयवेन त्र्यवयवेन वा वाक्येन छलजातिविरहिते भूतान्वेषणपरे समर्थने, स०१२ सम०। सूत्रा प्रमाणनयतत्त्वं व्यवस्थाप्य संप्रति तत्प्रयोगभूमिभूतं वस्तुनिर्णयाभिप्रायोपक्रमं वादं वदन्तिविरुद्धयोधर्मयोरेकधर्मव्यवच्छेदेन स्वीकृत्य तत्तदन्यधर्मव्यवस्थापनार्थ साधनदूषणवचनं वादः।।१।। विरुद्धयोरेकत्र प्रमाणेनाऽनुपपद्यमानोपलम्भयोधर्मयोर्मध्यादिति निर्धारणे षष्ठी सप्तमी वा / विरुद्धावेव हि धर्मावेकान्तनित्यत्वकथश्चिन्नित्यत्वादी वादं प्रयोजयतः, न पुनरितरौ तद्यथा-पर्यायवद् द्रव्यं गुणवच्च, विरोधश्चैकाधिकरणत्वैककालत्वयोरेव सतोः संभवति / अनित्या बुद्धिर्नित्य आत्मेति भिन्नाधिकरणयोः पूर्व निष्क्रियम् , इदानीं क्रियावद् द्रव्यमिति भिन्नकालयोश्च तयोः प्रमाणेन प्रतीतौ विरोधासंभवात्। अयमेव हि विरोधो यत्प्रमाणेनाऽनुपलम्भनं नाम, अन्यथाऽपि तस्याभ्युपगमे सर्वत्र तदनुषङ्ग-प्रसङ्गात् इति विरुद्धत्वान्यथानुपपत्तेरेकाधिकरणत्वैककालत्वयोरवगतौ। यद्न्यायभाष्ये- "वस्तुधमविकाधिकरणौ विरुद्धावेककालावनवसितौ" इति तयोरुपादानम्, तत् पुनरुक्तम्, अपुष्टार्थं वा / यदप्यत्रैवानवसिताविति, तदप्यव्यापकम्, यतो वीतरागविषयवादकथायामनवसितत्वसद्भावेऽपि जिगीषुर्गोचरवादकथायां तदसद्भावात् / वीतरागवादो ह्यन्यतरसन्देहादपि प्रवर्तते। जिगीषुगोचरः पुनर्वादोन नाम निर्णयमन्तरेण प्रवर्तितुमुत्सहते। तथाहिवादी शब्दादौ नित्यत्वं स्वयं प्रमाणेन प्रतीत्यैव प्रवर्तमानोऽसमानप्रतिपक्षप्रतिक्षेपमनोरथोऽहमहमिकयाऽनुमानमुपन्यस्यति, प्रतिवाद्यपि तत्रैव धर्मिणि प्रतिपन्नानित्यत्वधर्मस्तथैव दूषणमुदीरयतीति व नाम वादकथाप्रारम्भात् प्रागनवसायस्यावकाशः? ततोऽयं सूत्रार्थ:यावेकाधिकरणावेककालौ च धर्मो विरुध्येते, तयोर्मध्यादेकस्य सर्वथा नित्यत्त्वस्य कथंचिन्नित्यत्वस्य वा, व्यवच्छेदेन निरासेन, स्वीकृततदन्यधर्मस्य कथंचिन्नित्यत्वस्य सर्वथा नित्यत्वस्य वा, व्यवस्थापनार्थ वादिनः प्रतिवादिनश्च साधनदूषणवचनं वाद इत्यभिधीयते। सामर्थ्याच्च स्वपक्षविषयं साधनम्, परपक्षविषयं तु दूषणम्, साधनदूषणवचने च प्रमाणरूपे एव संभवतः, तदितरयोस्तयोस्तदाऽऽभासत्वात् न च ताभ्यां वस्तु साधयितुं दूषयितुं वा शक्यमिति / ननुयस्मिन्नेव धर्मिण्येकतरधर्मनिरासेन तदितरधर्मव्यवस्थापनार्थं वादिनः साधनवचनम्, कथं तस्मिन्नेव प्रतिवादिनस्तद्विपरीतंदूषणवचनमुचितं स्यात्? व्याघातात्, इति चेत्, तदसत्, स्वाभिप्रायानुसारेण वादिप्रतिवादिभ्यां तथा साधनदूषणवचने विरोधाभावात् / पूर्वं हि तावद् वादी स्वाभिप्रायेण साधनमभिधत्ते,पश्चात् प्रतिवाद्यपि स्वाभिप्रायेण दूषणमुद्भावयति / न खल्वत्र साधनं दूषणं चैकत्रैव धर्मिणि तात्त्विकमस्तीति न विवक्षितम्, किन्तु-स्वस्वाभिप्रायानुसरणेन वादिप्रतिवादिनी ते तथा प्रयुञ्जाते, इति तथैवोक्ते // 1 // अङ्गनियमभेदप्रदर्शनार्थ वादे प्रारम्भकभेदौ वदन्ति-- प्रारम्भकश्चात्र जिगीषुः, तत्त्वनिर्णिनीषुश्च / / 2 / / तत्र जिगीषुः प्रसह्य प्रथमं च वादमारभते. प्रथममेव च तत्त्वनिर्णिनीषुः, इति द्वावप्येतौ प्रारम्भको भवतः / तत्र जिगीषोः-"सारङ्गमातङ्गतुरङ्गयूथाः, पलाय्यतामाशु वनादमुष्मात्। साटोपकोपस्फुटकेसरश्रीमृगाधिराजोऽयमुपेयिवान् यत् // 1 // " इत्यादिविचित्रपदोत्तम्भनम्। अयि ! कपटनाटकपटो ! सितपट ! किमेतान् मन्दमेधसस्तपस्विनः शिष्यानलीकतुण्डताण्डवाडम्बरप्रचण्डपाण्डित्याविष्कारेण विप्रतारयसि? क जीवः? न प्रमाणदृष्टमदृष्टम्, दवीयसी परलोकवार्तेति साक्षादाक्षेपोवा, न विद्यते निरवद्यविद्यावदातस्तव सदसि कश्चिदपि विपश्चि.. दित्यादिना भूपतेः समुत्तेजनंच, इत्यादिर्वादारम्भः। तत्त्वनिर्णिनीषोस्तु सब्रह्मचारिन् ! शब्दः किं कथञ्चिद् नित्यः स्याद् नित्य एव वेति संशयोपक्रमो वा, कथञ्चिद् नित्य एव शब्द इति निर्णयोपक्रमो वा इत्यादिरूपः / वचनव्यक्ती सूत्रेष्वतन्त्रे, क्वचिदेकस्मिन्नपि प्रौढ़े प्रतिवादिनि बहवोऽपि संभूय विवदेरन् जिगीषवः, पर्यनुयुञ्जीरंश्च तत्त्वनिर्णिनीषवः, सच प्रौढतयैवतांस्तावतोऽप्यभ्युपैति, प्रत्याख्यातिच, तत्त्वं चाचष्टे / क्वचिदेकमपि तत्त्वनिर्णिनीषु बहवोऽपि तथाविधाः प्रतिबोधयेयुः। इत्यनेकवादिकृतः,स्त्रीकृतश्च वादारम्भः संगृह्यते॥२॥ तत्र जिगीषोः स्वरूपमाहुःस्वीकृतधर्मव्यवस्थापनार्थ साधनदूषणाभ्यां परं पराजेतुमिच्छुर्जिगीषुः // 3 // स्वीकृतो धर्मः शब्दादेः कथञ्चिद् नित्यत्वादियः तस्य व्यवस्थापनार्थम्, यत्सामर्थ्यात्तस्यैव साधनं परपक्षस्य च दूषणम्, ताभ्यां कृत्वा परं पराजेतुमिच्छुर्जिगीषुरित्यर्थः / एतेन यौगिकोऽप्ययं जिगीषुशब्दो वादाधिकारिनिरूपणप्रकरणे योगरूढ इति प्रदर्शितम् // 3 / / (तत्त्वनिर्णिनीषोः स्वरूपं "तत्तणिण्णिणीसु" शब्दे चतुर्थभागे 2181 पृष्ठगतम्।) वादिप्रतिवादिनोर्हस्तिप्रतिहस्तिन्यायेन प्रसिद्धेर्यावद् वादिनः, तावद् वैव प्रतिवादिभिरपि भवितव्यम्? इत्याहुः-- एतेन प्रत्यारम्भकोऽपि व्याख्यातः || आरम्भकं प्रति प्रतीपं चाऽऽरभमाणः प्रत्यारम्भकः,सोऽयमेतेन प्रारम्भकभेदप्रभेदप्ररूपणेन व्याख्यातः / प्रदर्शितभेदप्रभेदः सहृदयैः स्वयमवगन्तव्यः / एवं च प्रत्यारम्भकस्यापिजिगीषुप्रभृतयश्चत्वारः प्रकाराभवन्ति / तत्र यद्यप्येकैकशः प्रारम्भकस्य प्रत्यारम्भकेण साधू वादेषोडशभेदाः प्रादुभवन्ति, तथापि जिगीषोः स्वात्मनितत्त्वनिर्णिनीषुणा, स्वात्मनितत्त्वनिर्णिनीषोर्जिगीषुणा, स्वात्मनि तत्त्वनिर्णिनीषोः स्वात्मनि तत्त्वनिर्णिनीषुणा च, केवलिनश्च केवलिना सह वादोन संभवत्येव, इति चतुरो भेदान् पातयित्वा द्वादशैवतेऽत्रगण्यन्ते। तद्यथा-वादीजिगीषुः, प्रतिवादीतुजिगीषुः स्वात्मनि तत्त्वं निर्णिनीषुर्न, पस्त्र तत्त्वनिर्णिनीषुः क्षायोपशमिकज्ञानशाली, केव
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________________ वाद 1077 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वाद ततील ली च / तथा वादी स्वात्मनि तत्त्वनिर्णिनीषुः प्रतिवादी तु जिगीषुर्न स्वात्मनि तत्त्वनिर्णिनीषुर्न परत्र तत्त्वनिर्णिनीषुः क्षायोपशमिकज्ञानशाली, केवली च। तथा वादी परत्र तत्त्वनिर्णिनीषुः क्षायोपशमिकज्ञानशाली प्रतिवादी तु जिगीषुः, स्वात्मनि तत्त्वनिर्णिनीषुः, परत्र तत्त्वनिर्णिनीषुः क्षायोपशमिकज्ञानशाली, केवली च / तथा वादी पत्र तत्त्वनिर्णिनीषुः केवली च प्रतिवादीतुजिगीषुः, स्वात्मनितत्त्वनिर्णिनीषुः,परत्र तत्त्वनिर्णिनीषुः क्षायोपशमिकज्ञानशाली, केवलीचना एवमेते चत्वारश्वतुष्का षोडश नजुपलक्षितेषु चतुर्युपातितेषुद्वादशभवन्ति-"अङ्गनैयत्यनिश्चित्य, वादे वादफलार्थिभिः / द्वादशैवाऽवसातव्या, एते भेदा मनस्विभिः"। अङ्गनियममेव निवेदयन्तितत्र प्रथमे प्रथमतृतीयतुरीयाणां चतुरङ्ग एव, अन्यतमस्याऽप्यङ्गस्यापाये जयपराजयव्यवस्थादिदौस्थ्यापत्तेः।।१०|| उक्तेभ्यश्चतुभ्यः प्रारम्भकेभ्यः प्रथमे जिगीषौ प्रारम्भके सतिप्रथमस्य जिगीषोरेव, तृतीयस्य परत्र तत्त्वनिर्णिनीषुभेदस्य क्षायोपशमिकज्ञानशालिनः तद्भेदस्यैव, तुरीयस्य केवलिनश्च प्रत्यारम्भकस्य प्रतिवादिनश्चतुरङ्ग एव प्रकरणाद् वादो भवति / वादिप्रतिवादिरूपयोरगयोरभावे वादस्यानुत्थानोपहततैव, इति तयोरयत्नसिद्धत्वेऽप्यपराङ्गद्वयस्यावश्यम्भावप्रदर्शनार्थ चतुरङ्गत्वं विधीयते / प्रसिद्धं च सिद्धांशमिश्रितस्याऽप्यसिद्धस्यांशस्य विधानम् / यथा-शब्दे हि समुच्चारिते यावनर्थः प्रतीयते तावति शब्दस्याभिधैव व्यापार इति, निःशेषच्युतचन्दनम्-इत्यादौ वाच्य एवैकोऽर्थ इति प्रत्यवस्थितं प्रति द्वावेतावों-वाच्यः,प्रतीयमानश्चेत्येवंरूपतया वाच्यस्य सिद्धत्वेऽपि प्रतीयमानपार्थक्यसिद्धयर्थं द्वित्वविधानम्। तत्र वादिप्रतिवादिनोरभावे वाद एव न संभवति, दूरे जय-पराजयव्यवस्था; इति स्वतः सिद्धावेव तौ। तत्र च वादिवत् प्रतिवाद्यपि चेजिगीषुः, तदानीमुभाभ्यामपि परस्परस्य शाठ्यक-लहादेर्जयपराजयव्यवस्थाविलोपकारिणो निवारणार्थलाभाद्यर्थ वाऽपराङ्गद्वयमप्यवश्यमपेक्षणीयम्! अथतृतीयस्तुरीयो वाऽसौ स्यात्, तथाऽप्यनेन जिगीषोर्वादिनः शाठ्यकलहाद्यपोहाय, जिगीषुणा च प्रारम्भकेण लाभपूजाख्यात्यादिहेतवे तदपेक्ष्यत एवेति सिद्धैव चतुरङ्गता / स्वात्मनि तत्त्वनिर्णिनीषुस्तु जिगीषु प्रति वादितां प्रतिवादितां च न प्रतिपद्यते, स्वयं तत्त्वनिर्णयानभिमाने परावबोधार्थ प्रवृत्तेरभावात् तस्मात् तत्त्वनिर्णयासम्भवाच्च; इति नायमिहोत्तरत्र च निर्दिश्यते // 10 // अनयैव नीत्या जिगीषुमिव स्वात्मनि तत्त्वनिर्णिनीषुमपि प्रत्यस्य वादिता प्रतिवादिता वा न सङ्गच्छत इति पारिशेष्यात् तृतीयतुरीययोरेवास्मिन्वादः सम्भवतीति। तृतीयस्य तावदङ्गनियममभिदधतेद्वितीये तृतीयस्य कदाचिद् व्यङ्गः, कदाचित् व्यङ्गः // 11 // स्वात्मनि तत्त्वनिर्णिनीषौ वादिनि समुपस्थिते सति तृतीयस्य परत्र तत्त्वनिर्णिनीषोः क्षायोपशमिकज्ञानशालिनः प्रतिवादिनः कदाचिद् व्यङ्गो वादो भवति, यदा जयपराजयादिनिरपेक्षयाऽपेक्षितस्तत्त्वाव बोधो वादिनि प्रतिवादिना कर्तुं पार्यते, तदानीमितरस्य सभ्यसभापतिरूपस्याऽङ्गद्वयस्यानुपयोगात्। न ह्यनयोः स्वपरोपकारायैव प्रवृत्तयोः शाठ्यकलहादिलाभादिकामभावाः सम्भवन्तियदा पुनरुत्ताम्यताऽपि क्षायोपशमिकज्ञानशालिना प्रतिवादिना न कथंचित्तत्त्वनिर्णयः कर्तु शक्यते, तदा तन्निर्णयार्थमुभाभ्यामपि सभ्यानामपेक्ष्यमाणत्वात् कलहलाभाद्यभिप्रायाभावेन सभापतेरनपेक्षणीयत्वात् त्र्यङ्गः॥१॥ द्वितीय एव वादिनिचतुर्थस्याङ्गनियममाहुःतत्रैव द्व्यङ्गस्तुरीयस्य // 12 // तत्रैव द्वितीये स्वात्मनि तत्त्वनिर्णिनीषौ वादिनि, तुरीयस्य परस्त्र तत्त्वनिर्णिनीषोः केवलिनः प्रतिवादिनः, द्व्यङ्ग एव वादः, तत्त्वनिर्णायकत्वाभावासंभवेन सभ्यानामभिहितदिशा सभापतेश्चाऽनपेक्षणात् // 12 // तृतीयेऽङ्गनियममाहुःतृतीये प्रथमादीनां यथायोगं पूर्ववत्॥१३॥ परत्र तत्त्वनिर्णिनीषौ क्षायोपशमिकज्ञानशालिनि वादिनि, निवेदितस्वरूपाणां प्रथमद्वितीयतृतीयतुरीयाणां प्रतिवादिनाम्, उक्तयुक्त्यैव प्रथमस्य चतुरङ्गः, द्वितीयतृतीययोः कदाचिद्व्यङ्गः, कदाचित् त्र्यङ्गः, तुरीयस्य तु व्यङ्ग एव वादो भवति। निःसीमा हि मोहहतकस्य महिमा, इति कश्चिदात्मानं निर्णीततत्त्वमिव मन्यमानः समग्रपदार्थपरमार्थदर्शिनि केवलिन्यपि तन्निर्णयोपजननार्थं प्रवर्तत इति न कदाचिदसम्भावना, भगवांस्तु केवली प्रवलकृपापीयूषपूरपूरितान्तः करणतया तमप्यवबोधयतीति को नाम नानुमन्यते? // 13 // परोपकारैकपरायणस्य भगवतः केवलिनः संभवन्त्यपि परत्र तत्त्वनिर्णिनीषा न केवलकलावलोकितसकलवस्तुतया कृतकृत्ये केवलिनि विलसितुमुत्सहत इति प्रथमादीनां त्रयाणामेवाङ्गनियममाहुःतुरीये प्रथमादीनामेवम् // 14 // परत्र तत्त्वनिर्णिनीषौ केवलिनि वादिनि, प्रथमद्वितीयतृतीयानामेवमिति पूर्ववत् / प्रथमस्य चतुरङ्गः, द्वितीयतृतीययोस्तु व्यङ्ग एव वादो भवतीत्यर्थः, "प्रारम्भकापेक्षतया यदेव मङ्गव्यवस्था लभते प्रतिष्ठाम्। संचिन्त्य तस्मादमुमादरेण, प्रत्यारभेतप्रतिभाप्रगल्भः॥१॥" ||14|| चतुरङ्गो वाद इत्युक्तम्, कानि पुनश्चत्वार्यङ्गानि? इत्याहुःवादिप्रतिवादिसभ्यसभापतयश्चत्वार्यानि।।१५।। स्पष्टम्॥१५॥ अर्थतेषां लक्षणं कर्मच कीर्तयन्तिप्रारम्भकप्रत्यारम्भकावेव मल्लप्रतिमल्लन्यायेन वादिप्रतिवादिनौ ||16|| यौ तौ प्रारम्भकप्रत्यारम्भको पूर्वमुक्तौ, तावेव परस्परं वादिप्रतिवादिनौ व्यपदिश्यते, यथा-दौ नियुध्यमानौ मलप्रतिमल्लाविति॥१६॥ प्रमाणतः स्वपक्षस्थापनप्रतिपक्षप्रतिक्षेपावनयोः कर्म // 17 // वादिना प्रतिवादिना च स्वपक्षस्थापनं परपक्षप्रतिक्षे पश्च
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________________ वाद 1078- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वाद द्वितयमपि कर्तव्यम्, एकतरस्यापि विरहे तत्त्वनिर्णयानुत्पत्तेः / अत एव स्वपक्षेत्यादिद्विवचनेनोपक्रम्यापि कर्मेत्येकवचनम्, यथेन्धनध्मानाधिश्रयणादीनामन्यतमस्याप्यपाये विक्लित्तेरनिष्पत्तेः सर्वेषामपि पाक इत्येकतया व्यपदेश इति / स्वपक्षस्थापनपरपक्षप्रतिक्षेपयोः समासेन निर्देशः क्वचिदेकप्रयत्ननिष्पन्नताप्रत्यायनार्थम् / यदा हि निवृत्तायां प्रथमकक्षायां प्राप्तावसरायां च द्वितीय-कक्षायां प्रतिवादी न किञ्चिद् वदति, तदानीं प्रथमकक्षायां स्वदर्शनानुसारेण सत्प्रमाणोपक्रमत्वे स्वपक्षस्थापनमेव परपक्षप्रतिक्षेपः, यदावा-विरुद्धत्वादिकमुद्भावयेत्, तदा परपक्षप्रतिक्षेप एव स्वपक्षसिद्धिः; इति समासेऽपि तुल्यकक्षताप्रदर्शनार्थमितरेतर-योगद्वन्द्वः। यथा स्वपक्षः स्थाप्यते तथा परपक्षः प्रतिक्षेप्यः, यथा चायं प्रतिक्षिप्यते तथा स्वपक्षः स्थाप्यः, न तु सर्वत्र पारिशेष्यात् परितोषिणा भवितव्यम्। 'मानेन पक्षप्रतिपक्षयोःक्रमात्, प्रसाधनक्षेपणकेलिकर्मठौ। वादेऽत्र मल्लप्रतिमल्लनीतितो, वदन्ति वादिप्रतिवादिनौ बुधाः // 1 // " ||17|| वादिप्रतिवादिसिद्धान्ततत्त्वनदीष्णत्वधारणाबाहुश्रुत्यप्रतिभाक्षान्तिमाध्यस्थ्यैरुभयाभिमताः सम्याः॥१८॥ नदीष्ण इति-कुशलः, प्राधान्यख्यापनार्थं वादिप्रतिवादिसिद्धान्ततत्त्वनदीष्णत्वस्य प्रथमं निर्देशः। न चैतद् बहुश्रुतत्वे सत्यवश्यंभावि, तस्यान्यथाऽपि भावात, अवश्यापेक्षणीयं चैतत्, इतरथा वादिप्रतिवादिप्रतिपादितसाधनदूषणेषु सिद्धान्तसिद्धत्वादिगुणानां तद्वाधितत्वादिदोषाणां चावधारयितुमशक्यत्वात्। सत्यप्येतस्मिन् धारणामन्तरेण न स्वावसरे गुणदोषावबोधकत्वमिति धारणाया अभिधानम् / कदाचिद् वादिप्रतिवादिभ्यां स्वात्मनः प्रौढताप्रसिद्धये स्वस्वसिद्धान्ताप्रतिपादितयोरपि व्याकरणादिप्रसिद्धयोः प्रसङ्गतः प्रयुक्तोद्भावितयोर्विशेषलक्षणच्युतसंस्कारादिगुणदोषयोः परिज्ञानार्थ बाहुश्रुत्योपादानम् / ताभ्यामेव स्वस्वप्रतिभयोत्प्रेक्षितयोस्तत्तद्गुणदोषयोनिर्णयार्थ प्रतिभायाः प्रतिपादनम्। वादिप्रतिवादिनोर्मध्ये यस्य दोषोऽनुमन्यतेस यदि कश्चिद् कदाचित् परुषमप्यभिदधीत, तथापि नैते सभासदः कोपपिशाचस्य प्रवेशं सहन्ते, तत्त्वावगमव्याघातप्रसङ्गादिति क्षान्तेरुक्तिः। तत्त्वं विदन्तोऽपि पक्षपातेन गुणदोषौ विपरीतावपि प्रतिपादयेयुरिति माध्यस्थ्यवचनम्। एभिःषभिर्गुणैरुभयोः प्रकरणात् वादिप्रतिवादिनोरभिप्रेताः सभ्या भवन्ति।सभ्या इति बहुवचनं त्रिचतुरादयोऽमी प्रायेण कर्तव्या इति ज्ञापनार्थम्, तदभावेऽपि द्वावेको वाऽसौ विधेयः // 18 // वादिप्रतिवादिनोर्यथायोगं वादस्थानककथाविशेषाङ्गीकारणाऽग्रवादोत्तरवादिनिर्देशः, साधकबाधकोक्तिगुणदोषाऽवधारणम् यथाऽवसरं तत्त्वप्रकाशनेन कथाविरमणम, यथासंभवं सभायां कथाफलकथनं चैषां कर्माणि // 16 // यत्र स्वयमस्वीकृतप्रतिनियतवादस्थानको वादिप्रतिवादिनौ समुपतिष्ठेते, तत्र सभ्यास्तौ प्रतिनियतं वादस्थानकं सर्वानुवादेन दूष्यानुवादेन | वा वर्गपरिहारेण वा वक्तव्यमित्यादियोऽसौ कथाविशेषस्तंचाङ्गीकारयन्ति अस्याग्रवादोऽस्य चोत्तरवाद इति च निर्दिशन्ति, वादिप्रतिवादिभ्यामभिहितयोः साधकबाधकयोर्गुणं दोषं चावधारयन्ति / यदैकतरेण प्रतिपादितमपि तत्त्वं मोहादभिनिवेशाद् वाऽन्यतरोऽनङ्गीकुर्वाण: कथायां न विरमति, यदावाद्वावपि तत्त्वपराङ्मुखमुदीरयन्तौन विरमतः, तदा तत्त्वप्रकाशनेन तौ विरमयन्ति / यथायोगं च कथायाः फलं जयपराजयादिकमुद्धोषयन्ति, तैः खलूद्धोषितं तन्निर्विवादतामवगाहते। "सिद्धान्तद्वयवेदिनः प्रतिभया प्रेम्णा समालिङ्गितास्तत्तच्छास्त्रसमृद्धिबन्धुर-धियो निष्पक्षपातोदयाः। क्षान्त्या धारणयाचरञ्जितहृदो बाद द्वयोः संमताः, सभ्याः शम्भुशिरोनदीशुचिशुभैर्लभ्यास्त एते बुधैः||१॥" |16 // प्रज्ञाश्चर्यक्षमामाध्यस्थ्यसंपन्नः सभापतिः॥२०॥ यद्यप्युक्तलक्षणानां सभ्यानां शाठ्यं न संभवति, तथापि वादिनः प्रतिवादिनो वा जिगीषोस्तत् संभवत्येवेति सभ्यानपि प्रति विप्रतिपत्तौ विधीयमानायां नाऽप्राज्ञः सभापतिस्तत्र तत्समयोचितं तथा तथा विवेक्तुमलम्, न चासौ सभ्यैरपि बोधयितुं शक्यते, स्वाधिष्ठितवसुन्धरायामस्फुरिताऽऽश्वर्यो न स कलहं व्यपोहितु-मुत्सहते, उत्पन्नकोपा हि पार्थिवा यदि न तत्फलमुपदर्शययुः, तदा निदर्शनमकिंचित्कराणां स्युः, इति सफले तेषां कोपे वादोपमर्द एव भवेदिति / कृतपक्षपाते च सभापतौ सभ्या अपि भीतभीता इवैकतः किल कलङ्कः, अन्यतश्चालम्बितपक्षपातः प्रतापप्रज्ञाधिपतिः सभापतिरिति 'इतस्तटमितो व्याघ्रः' इति नयेन कामपि कष्टां दशामाविशेयुः, न पुनः परमार्थं प्रथयितुं प्रभवेयुः, इत्युक्तं प्रज्ञाऽऽज्ञैश्वर्यक्षमामाध्यस्थ्यसंपन्न इति॥२०॥ वादिसम्याऽभिहिताऽवधारणकलहव्यपोहाऽऽदिकं चास्य कर्म // 21 // वादिभ्यां सभ्यैश्वाभिहितस्याऽर्थस्याऽवधारणम्, वादिनोः कलहव्यापोहो यो येन जीयते स तस्य शिष्य इत्यादेवादिप्रतिवादिभ्यां प्रतिज्ञातस्यार्थस्य कारणा, पारितोषिकवितरणादिकंच सभापतेः कर्म / "विवेकवाचस्पतिरुच्छ्रिताज्ञः, क्षमान्वितः संहृतपक्षपातः। सभापतिः प्रस्तुतवादिसभ्यैरभ्यर्थ्यते वाद-समर्थनार्थम्॥१॥" // 21 // अथ जिगीषुवादे कियत्करं वादिप्रतिवादिभ्यां वक्तव्यमिति निर्णेतुमाहुःसजिगीषुकेऽस्मिन् यावत्सम्यापेक्षं स्फूर्ती वक्तव्यम् / / 22 / / सह जिगीषुणा जिगीषुभ्यां जिगीषुभिर्वा वर्तते योऽसौ तथा तस्मिन् वादे, वादिप्रतिवादिगतायाः स्वपक्षसिद्धिपरपक्षप्रतिक्षेप-विषयायाः शक्तेरशक्तेश्च परीक्षणार्थ यावत् तत्र भवन्तः सभ्याः किलाऽपेक्षन्ते, तावत् कक्षाद्वयत्रयादिस्फूर्ती सत्यां वादिप्रतिवादिभ्यां वक्तव्यम् / ते चवाच्यौचित्यपरतन्त्रतया कदाचित्क्वचित् कियदप्यपेक्षन्ते इति नास्ति कश्चित् कक्षानियमः / इह हि जिगीषुतरतया यः कश्चिद् विपश्चित् प्रागेव पराक्षेपपुरः सरं वादसंग्रामसीम्नि प्रवर्तते, तस्य स्वयमेव वादवि
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________________ वाद 1076 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वाद शेषपरिग्रहे तदपरिग्रहे सभ्यस्तत्समर्पणे वाऽग्रवादेऽधिकारः; तेन सभ्यसभापतिसमक्षमक्षोभेण प्रतिवादिनमुद्दिश्याऽवश्यं स्वसिद्धान्तबुद्धिवैभवानुसारितया साधुसाधनं स्वपक्षसिद्धयेऽभिधानीयम्। अथ क्षोभादेः कुतोऽपि प्रागेवाऽसौ वक्तुमशक्तो भवेत् तदानीं दूरीकृतसमस्तमत्सरविकारैः सभासारैरुभयोरपि वस्तुव्यवस्थापनदूषणशक्तिपरीक्षणार्थं तदितरस्याग्रे वादेऽभिषेकः कार्यः। अथवादिनस्तूष्णीम्भावादेव पराजितत्वेन कथापरिसमाप्तेः किमित-रस्याग्रवादाभिषेकेण? इति चेत् / स्यादेतत्,यदि प्रतिवादिनोऽपि पक्षो न भवेत, सति तु तस्मिन् वादीव तमसमर्थयमानोऽसौ न जयति, नापि जीयते, प्रौढिप्रदर्शनार्थं तु तद्गृहीतमुक्तभग्रवादमङ्गीकुर्वाणः श्लाघ्यो भवेत् ! उभावप्यनङ्गीकुर्वाणी तु भगवन्तरेण वादमेव निराकुरुत इति तयोः सभ्यैः सभाबहिर्भाव एवाऽऽदेष्टव्यः। तत्र वादीस्वपक्षविधिमुखेन वा, परपक्षप्रतिषेधमुखेन वा साधनमभिदधीत, यथा-जीवच्छशरीरंसात्मकं प्राणादिमत्त्वान्यथानुपपत्तेरिति, नेदं निरात्मकं तत एवेति। अत्र च यद्यप्यर्थान्तराद्यभिधानेऽपि वस्तुनः साधनदूषणयोरसंभवाद्न कथोपरमः, तथापि परार्थानुमाने वक्तुर्गुणदोषा अपि परीक्ष्यन्त इति न्यायात् स्वात्मनोऽश्लाघ्यत्वविधाताय यावदेवावदातं तावदेवाभिधातव्यम्। अन्यथा शब्दानित्यत्वं साधयितुकामस्य 'प्रागेव नाभिप्रदेशात् प्रयत्नप्रेरितो यायुः प्राणो नामोर्ध्वमाक्रामन्नुरः प्रभृतीनां स्थानानामन्यतमस्मिन् स्थाने प्रयत्ने विधार्यते, स विधार्यमाणः स्थानमभिहन्ति,तस्मात् स्थानाध्यनिरुत्पद्यते' इत्यादि-शिक्षासूत्रोपदिष्टशब्दोत्पत्तिस्थानादिनिरूपणां कर्णकोटरप्रवेश-प्रक्रियां च प्रकाश्य य एवंविधः शब्दः सोऽनित्यः कृतकत्यादिति हेतुमुपन्यस्य पुनः पटकुटादिदृष्टान्तमुत्पत्त्यादिमुखेन वर्णयतः प्रथमकक्षैवन समाप्येत, कुतः प्रतिवादिनोऽवकाशः? किञ्च-- परप्रतिपत्तये वचनमुच्चार्यत इति यावदेव परेणाऽऽकासितम्, तावदेव युक्तं वक्तुम्। लोकेऽपि वादिनोः करणावतीर्णयोरेकः स्वकीयकुलादिवर्णनां कुर्वाणः पराक्रियते, प्रकृतानुगतमेवोच्यतामिति चानुशिष्यते। किं पुनस्तदवदातम्? इति चेत्, यस्मिन्नभिहिते न भवति मनागपि सचेतसां चेतसि क्लेशलेशः; एते हि महात्मनो निष्प्रतिमप्रतिभाप्रेयसीपरिशीलनसुकुमारहृदयाः स्वल्पेनाप्यन्तिरादिसंकीर्तनेन प्रकृतार्थप्रतिपत्तौ विघ्नायमानेन ननामन क्लिश्यन्ति। तेन स्वस्वदर्शनानुसारेण साधनं दूषणं चाऽर्थान्तरन्यूनक्लिष्टतादिदोषाऽकलुषितं वक्तव्यम् / तत्रार्थान्तरं प्रागेवाऽभ्यधायिन्यूनं तु नैयायिकस्य चतुरवयवाद्यनुमानमुपन्यस्यतः। क्लिष्टं यथायत् कृतकं, कृतकश्चायं, यथा घटः तस्मादनित्यस्तत्तदनित्यम्, कृतकत्वाच्छब्दोऽनित्य इत्यादिव्यवहितसंबन्धम्। नेयार्थ यथा-शब्दोऽनित्यो द्विकत्वादिति, द्वौ ककारौ यत्रेति द्विकशब्देन कृतकशब्दो लक्ष्यते, तेन कृतकत्वादित्यर्थः / व्याकरणसंस्कारहीनं यथा-शब्दोऽनित्यः कृतकत्वस्मादिति / असमर्थ यथा अयं हेतुर्न स्वसाध्यगमक इत्यर्थेनाऽसौ स्वसाध्यघातक इति / अश्लीलं यथा- | नोदनार्थे चकारादिपदम्। निरर्थकं यथा-शब्दो वै अनित्यः कृतकत्वात् खल्विति। अपरामृष्टविधेयांशं यथा-अनित्यशब्दः कृतकत्वादिति, अत्र हि शब्दस्याऽनित्यत्वं साध्यं प्राधान्यात् पृथग निर्देश्यम्, न तु समासे गुणीभावकालुष्यकलङ्कितमिति / पृथग निर्देशेऽपि पूर्वमनुवाद्यस्य शब्दस्य निर्देशः शस्यतरः, समानाधिकरणतायां तदनुविधेयस्या-- नित्यत्वस्याऽलब्धास्पदस्य तस्य विधातुमशक्यत्वादित्यादि / तदेवमादिवदन वादी समाश्लिष्यते नियतमश्लाघ्यतया / प्रतिवादिनातु स्वस्यानुषङ्गि कश्लाघ्यत्वसिद्धये तत्प्रकाश्य साधनदूषणे यत्नवता भाव्यम्, न तु तावतैव स्वात्मनि विजयश्रीपरिरम्भः संभावनीयः / प्रकटिततीर्थान्तरीयकलङ्कोऽकलङ्कोऽपि प्राह-- वादन्याये दोषमात्रेण यदि पराजयप्राप्तिः पुनरुक्तवच्छुतिदुष्टार्थदुष्टकल्पनादुष्टादयोऽलकारदोषाः पराजयाय कल्पेरन्निति ननु वादी साधनमभिधाय कण्टकोद्धारं कुर्वीत वा, न वा? कामचार इत्याचक्ष्महे / तत्राऽकरणे तावद् न गुणो न दोषः / तथाहि- स्वप्रौढेरप्रदर्शनाद् न गुणः, परानुदावितस्यैव दूषणस्यानुद्धाराचन दोषः, उद्भावितं हि दूषणमनुद्धरन् दुष्ये। अथ कथं नदोषः? यतः सत्यपि हेतोः सामर्थ्य तदप्रतिपादानात् सन्देहे प्रारब्धासिद्धिः, इत्यवश्यकरणीयं दूषणोद्धरणमिति चेत् कस्यायं सन्दे-हः? वादिनः, प्रतिवादिनः सभ्यानां वा / न तावद् वादिनः, तस्या-सत्यपि सामर्थ्य तन्निर्णयाभिमानेनैव प्रवृत्तः, किं पुनः सति प्रतिवादिसभ्यसन्देहापोहाय तु सामर्थ्य प्रमाणेनैव प्रदर्शनीयम् ? तत्रापिप्रमाणान्तरेण सामर्थ्यांप्रदर्शने सन्देहः,प्रदर्शने तु तत्रापि प्रमाणान्तरेण तत्प्रदर्शनेनाऽनवस्था। अथ यथा स्वार्थानुमाने हेतोः साध्यमध्यवसीयते? हेतोश्च प्रत्यक्षादिभिः प्रतिपत्तिः,नचाऽनवस्था, तथा परार्थानुमानेऽपीति चेत्, तर्हि यथा प्रत्यक्षादेः कस्यचिदभ्यासदशायां स्वतः सिद्धप्रमाणतयाऽसनपेक्षितसामर्थ्यप्रदशनस्यापिगमकत्वम्, एवमन्ततो गत्वा कस्यचित् परार्थानुमानस्यापि तथैव तदवश्यमभ्युपेयम् इति गतं सामर्थ्यप्रदर्शननियमेन। अथ यत्रानभ्यासदशायां परतःप्रामाण्यसिद्धि, तत्रतत्प्रदर्शनीयमेवेति चेत्, यदि न प्रदर्श्यते किं स्यात्? 'ननूक्तमेवसन्देहात् प्रारब्धासिद्धिः, इति चेत् / तर्हि यथा सदपि सामर्थ्यमप्रदर्शितं न प्रतिवादिना प्रतीयते, तद्वत् सन्देहोऽपि प्रतिवादिगतोऽप्रदर्शितः कथं वादिना प्रतीयेत? स्वबुद्ध्योत्प्रेक्ष्यत इतिचेत्, इतरेणापि यदितत्सामर्थ्य स्वबुद्ध्यैवोत्प्रेक्ष्येत, तदा किं क्षुण्णं स्यात्? अथ वादिनः साधनसमर्थनशक्तिं परीक्षितुं न तदुत्प्रेक्ष्यते तर्हि प्रतिवादिनो दूषण-शक्तिं परीक्षितुमितरेणापि न सन्देहः स्वयमुत्प्रेक्ष्यते / अय द्वितीयकक्षायां दूषणान्तरवत्सन्देहमपि प्रदर्शयन् स्फोस्यत्येवदूषणशक्तिंप्रतिवादी, इति चेद्। तर्हि वाद्यपि तृतीयकक्षायां दूषणान्तरवत्सन्देहमपि व्यपोहमानः किं न समर्थ-नशक्तिं व्यक्तीकरोति? किञ्च केनचित् प्रकारेण सामर्थ्यप्रदर्शनात् कस्यचित् सन्देहस्यापोहेऽपितस्य प्रकारान्तरेण संभवतोऽनपोहे कथं प्रारब्धसिद्धिः? विप्रतिपत्तेरिव सन्देहस्यापि ह्यपरिमिताः प्रकाराः, इति
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________________ वाद 1080- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वाद कियन्तस्ते स्वयमेवाऽऽशयाऽऽशक्य शक्याः पराकर्तुम्? न च प्रदर्शितेऽपि सामर्थ्य स्वपक्षकपक्षपातिनोऽस्य विश्रम्भः संभवति, येन प्रारब्धमवबुध्येत। दृश्यन्ते हि साधनमिव तत्समर्थनमपि कदर्थयन्तः प्रतिवादिनः, इति साधनमभिधाय सामर्थ्याऽप्रदर्शनेऽपि दोषाभावात् स्थितमेतदकरणे न गुणो न दोष इति। करणे तुयदेव सन्देहस्य विवादस्य वा भवेदास्पदम्, तस्यैवोद्धारं कुर्वाणः समलंक्रियते प्रौढतागुणेन, यदुद्धरेत् तत्सन्दिग्धमेव विवादापन्नमेव चोद्धरेदित्येवमवधार्यते, न तु यावत् सन्दिग्धं विवादापन्नं वा तावत् सर्वमुद्धरेदेव; असंख्याता हि सन्देहविवादयोर्भेदाः, कस्तान कात्स्न्येन ज्ञातुं निराकर्तुवा शक्नुयात्? इति यावत्तेभ्यः प्रसिद्धिः प्रतिभा वा भगवति प्रदर्शयति,तावदुद्धरणीयम्, तद-धिकोद्धारकरणे तु कदर्थ्यते सिद्धसाधनाभिधानादिदोषेण / सिद्धमपि साधयंश्च कदा नामायं वावदूको विरमेदिति सत्यं व्याकुलाःस्मः, एकेन प्रमाणेन समर्थितस्यापि हेतोः पुनः समर्थनाय प्रमाणान्तरोपन्यासप्रसङ्गात्, साध्यादेरप्येवम्, इतिनकाञ्चिदमुष्य सीमानमालोकयामः। तेन सिद्धस्य समर्थनमनर्थकत्वाद् न कर्तव्यम्। 'सिद्धसाध्यसमुच्चारणे सिद्धं साध्यायोपदिश्यते' इति न्यायात् साध्यसिद्धये त्यभिधानमस्यावश्पमुपेयम् अपरथा ह्यसिद्धमसिद्धेन साधयतः किं नाम न सिद्धयेत्? यत्र तु सिद्धत्वेननोपन्यस्तस्यापि सिद्धत्वं सन्दिग्धं विवादाधिरूढं वा भवेत्, तत्र तत्समर्थनं सार्थकमेव / ततः स्थितमेतद् यो यत् सिद्धमभ्युपैति, तंप्रतिनतत्साधनीयमिति। बौद्धो हि मीमांसकं प्रत्यनित्यः शब्दः सत्त्वात्, इत्यभिधायोभयसिद्धस्यार्थक्रियाकारित्वरूपस्य सत्त्वस्यासिद्धत्वमुद्धरन्न कमप्यर्थं पुष्णाति, केवलं सिद्धमेवार्थ समर्थयमानो न सचेतसामादरास्पदम् / अनैकान्तिकत्वं पुनराशक्योधरनधिरोपयति सरसे सभ्यचेतसि स्वप्रौढिवल्लरीम्।तदिह यथाकश्चित् चिकित्सकः कुतश्चित् पूर्वरूपादेः संभाव्यमानोत्पत्तिं दोष चिकित्सति, अन्यः कश्चिदुत्पन्नमेव, कश्चित्त्वसंभाव्यमानोत्पत्तितयाऽनुत्पन्नतया व निश्चिताभावम् , इत्येते त्रयोऽपि यथोत्तरमुत्तममध्यमाधमाः, तवाद्यप्येकः कथञ्चिदाशक्यमानोद्भावनं दोषं समुद्धरति, अपरः परोद्भावितम्, अन्यस्त्वनाशक्यमानोद्भावनमनुद्भावितं चेति, एतेऽपि त्रयो यथोत्तरमुत्तममध्यमाधमा इति परमार्थः ।"स्वपक्षसिद्धये वादी, साधनं प्रागुदीरयेत् / यदि प्रौदिः प्रिया तत्र, दोषामपि तदुद्धरेत्॥१॥" इति, संग्रहश्लोकः। द्वितीय कक्षायांतुप्रतिवादिना स्वात्मनो निर्दोषत्वसिद्धये वादिवदवदात-मेव वक्तव्यम्। द्वयं च विधेयम्-परपक्षप्रतिक्षेपः, स्वपक्षसिद्धश्च / तत्र कदाचिद्वयमप्येतदेकेनैव प्रयत्नेन निवर्त्यते, यथा नित्यः शब्दः कृतकत्वात् , इत्यादौ विरुद्धोद्भावने,परप्रहरणेनैव परप्राणव्यपरोपणात्मरक्षणप्राय चैतत् प्रौढतारूपप्रियसखीसमन्वितामेव विजयश्रियमनुषञ्जयति। असिद्धतायुद्भावने तु स्वपक्षसिद्धये साधनान्तरमनित्यः शब्दः सत्त्वादित्युपाददानः केवलामेव तामवलम्बते। तदप्यनुपाद- | दानस्त्वसिद्धताधुद्भावनभूतं श्लाध्यतामात्रमेव प्राप्नोति, न तु प्रियतमा विजयश्रियम् / यदुदयनोऽप्युपादिशत्- वादिवचनार्थमवगम्याऽनूद्य दूषयित्वा प्रतिवादी स्वपक्षे स्थापनां प्रयुञ्जीत, अप्रयुञ्जानस्तु दूषितपरपक्षोऽपिन विजयी श्लाघ्यस्तु स्यात्, आत्मानमरक्षन् परधातीव वीर इति। तद्यदीच्छेत् प्रौढतान्वितां विजयश्रियम्, तत्राऽप्रयत्नोपनतां तयोः प्राणभूतां हेतोविरुद्धतामवधीरयेत्, निपुणतरमन्विष्य सति संभवे तामेव प्रसाधयेत् / न च विरुद्धत्वमुद्भाव्य स्वपक्षसिद्धये साधनान्तरमभिदधीत, व्यर्थत्वस्य प्रसक्तेः। एवं तृतीयकक्षास्थितेन वादिना विरुद्धत्वे परिहते चतुर्थकक्षायामपि प्रतिवादी तत् परिहारोद्धारमेव विदधीत, न तुदूषणान्तरमुद्भाव्य स्वपक्षं साधयेत्, कथाविरामाभावप्रसङ्गात्। नित्यः शब्दः कृतकत्वात्, इत्यादौ हि कृतकत्वस्य विरुद्धत्वमुद्भावयता प्रतिवादिना नियतं तस्यैवाऽनित्यत्वसिद्धौ साधनत्वमध्यवसितम्, अत एव न तदाऽसौ साधनान्तरमारचयति। स चेदयं चतुर्थकक्षायां तत्परिहारोद्धारमनवधारयन् प्रकारान्तरेण परपक्षं प्रतिक्षिपेत्, स्वपक्षं च साधयेत्, तदानीं वादिना तदूषणे कृते स पुनरन्यथा समर्थयेत्, इत्येवमनवस्था। किञ्च-एवं चेत् प्रतिवादी विरुद्धत्वोद्भावनमुखेनाऽनित्यत्वसिद्धौ स्वीकृतमपि कृतकत्वं हेतुं परिहत्य सत्त्वादिरूपं हेत्वन्तरमुररीकुर्यात्, तदा वाद्यपि नित्यत्वसिद्धौ तमुपात्तं परित्यज्य प्रत्यभिज्ञायमानत्वादि साधनान्तरमभिदधानः कथं वार्येत? अनिवारणे तु सैवानवस्था सुस्थाप्यते। तदिदमिह रहस्यम्-उपक्रान्तं साधनं दूषणं वा परित्यज्य नापरं तदुदीरयेदिति ! विरुद्धत्वोद्भावनवत् प्रत्यक्षेण पक्षबाधोद्भावनेऽप्येकप्रयत्ननिर्वयें एव परपक्षप्रतिक्षेपस्वपक्षसिद्धी / कदाचिद् भिन्नप्रयत्ननिर्व] एते संभवतः, तत्र चायमेव क्रमः -प्रथम परपक्षप्रतिक्षेपः, तदनुस्वपक्षसिद्धिरिति। यथा-नित्यःशब्दश्चाक्षुषत्वात्, प्रमेयत्वाद्वा, इत्युक्तेऽसिद्धत्वानैकान्तिकत्वाभ्यां परपक्ष प्रतिक्षिपेत्, अनित्यः शब्दः कृतकत्वात्, इत्यादिना च प्रमाणेन स्वपक्षं साधयेत्। ननुन परं निगृह्य स्वपक्षसिद्धये साधनमभिधानाहम्, पराजितेन साधु विवादाभावात्, न खलुलोकेऽपि कृतान्तवक्त्रान्तरसंचारिणा सह रणो दृष्टः श्रुतो वेति। तत् किमिदानी द्वयोर्जिगीषतोः क्वचिद्देशे राज्याभिषेकाय स्वीकृतविभिन्नराजबीजयोरेकश्चदन्यतरं निहन्यात, तदा स्वीकृतं राजबीजं न तत्राभिषिञ्चेत्? तदर्थमेव ह्यसौ परं निहतवान् अकलङ्कोऽप्यभ्यधात्-"विरुद्ध हेतुमुद्भाव्य, वादिनंजयतीतरः। आभासान्तरमुदाव्य, पक्षसिद्धिमपेक्षते" / / 1 / / इति / परपक्षंच दूषयन्थावता दोषविषयः प्रतीयते, तावदनुवदेत् निराश्रयस्य दोषस्य प्रत्येतुमशक्यत्वात्। न च सर्व दोषविषयमेकदैवाऽनुवदेत् एवं हि युगपद्दोषाभिधानस्य कर्तुमशक्यत्वात्, क्रमेण दोषवचनेकार्ये,ततोनिर्धार्यपुनः प्रकृतदोषविषयःप्रदर्शनीयः, अप्रदर्शितेतस्मिन्दोषस्य वक्तुमशक्यत्वात्, तथा च द्विरनुवादः स्यात्, तत्र चप्राक्तनंसर्वानुभाषणव्यर्थमेवभवेदिति। अनुवादश्चाऽनित्यः शब्दः कृतकवा
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________________ वाद 1081- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वाद दियुक्ते कृतकत्वादित्यसिद्धो हेतुः, कृतकत्वमसिद्धम्, असिद्धोऽयं हेतुरित्येवमादिभिः प्रकारैरनेकधा संभवति / अथ दूषणमेकमनेकं वा कर्तियेत्, किमत्र तत्त्वम्? पर्षदजिज्ञासायामेकमेव, तस्मादेव परपक्षप्रतिक्षेपस्य सिद्धेर्द्वितीयादिदोषाभिधानस्य वैयर्थ्यात्, तजिज्ञासायां च संभवे यावत्स्फूर्त्यनकमपि प्रौढिप्रसिद्धेः, इति ब्रूमः "दूषणं परपक्षस्य, स्वपक्षस्य च साधनम् / प्रतिवादी द्वयं कुर्याद्, भिन्नाभिन्नप्रयत्नतः" ||1|| इति संग्रहश्लोकः। तृतीयकक्षायां तुवादी द्वितीयकक्षास्थितप्रतिवादिप्रदर्शितदूषणमदूषणं कुर्यात्, अप्रमाणयेच्च प्रमाणम्, अनयोरन्यतरस्येव करणे वादाभासाप्रसङ्गात्। उदयनोऽप्याहनापि प्रतिपक्षसाधनमनिवर्त्य प्रथमस्य साधनत्यावस्थितिः, शङ्कितप्रतिपक्षत्वादिति, अदूषयंस्तु रक्षितस्वपक्षोऽपि न विजयी, श्लाघ्यस्तु स्याद्, वञ्चितपरप्रहार इव तमप्रहरमाण इति चेति। न च प्रथमं प्रमाणं दूषितत्वात् परित्यज्य परोदीरितं च प्रमाणं दूषयित्वा स्वपक्षसिद्धये प्रमाणान्त्रमाद्रियेत्, कथाविरामाभावप्रसङ्गादित्युक्तमेव / अत एव स्वसाधनस्य दूषणानुद्धारे परसाधने विरुद्धत्वोद्भावनेऽपि न जयव्यवस्था; तदुद्धारे तु तदुद्भावनं सुतरां विजयायेति को नाम नानुमन्यते? सोऽयं सर्वविजयेभ्यः श्लाघ्यते विजयो यत्परोऽङ्गीकृतपक्षं परित्यज्य स्वपक्षाराधनं कार्यत इति। वादी तृतीयकक्षायां प्रतिवादिप्रदर्शितं दूषणं दूषयेत; पूर्व प्रमाणं चाप्रमाणयेदिति। एवं चतुर्थपञ्चमकक्षादावपि स्वयमेव विचारणीयम्॥२२॥ अथ तत्त्वनिर्णिनीषुवादे कियत्कक्षं वादिप्रतिवादिभ्यां वक्तव्यमिति निर्णेतुमाहः उभयोस्तत्त्वनिर्णिनीषुत्वे यावत् तत्त्वनिर्णयं यावत्स्फूर्ति च वाच्यम्॥२३॥ एकः स्वात्मनि तत्त्वनिर्णिनीषुः परश्च परत्र, द्वौ वा परस्परम्, इत्येवं द्वावपि यदा तत्त्वनिर्णिनीषू भवतस्तदा यावता तत्त्वस्य निर्णयो भवति, तावत् ताभ्यां स्फूर्ती सत्यां वक्तव्यम् ; अनिर्णये वायावत् स्फुरति तावद् वक्तव्यम्। एवं च स्थितमेतत्-- "स्वं स्वंदर्शनमाश्रित्य, सम्यक्साधनदूषणैः। जिगीषोर्निर्णिनीर्षो, वाद एकः कथाः भवेत्॥१॥ भङ्गः कथात्रयस्याऽत्र, निग्रहस्थाननिर्णयः / श्रीमद्रत्नाकरग्रन्थाद्, धीधनैरवधार्यताम् // 2 // " यतः"प्रमेयरत्नकोटीभिः, पूर्णो रत्नाकरो महान्। तत्रावतारमात्रेण,वृत्तेरस्याः कृतार्थता / / 1 / / प्रमाणे च प्रमेये च,बालानां बुद्धिसिद्धये। किञ्चिद्वचनचातुर्य-चापलायेयमादधे // 2 // न्यायमार्गादतिक्रान्तं, किञ्चिदत्र मतिभ्रमात्। यदुक्तं तार्किकैः शोध्यं, तत् कुर्वाणैः कृपां मयि // 3 // आशावासः समयसमिधां संचयैश्चीयमाने, स्त्रीनिर्वाणोचितशुचिवचश्चातुरीचित्रभानौ। प्राजापत्यं प्रथयति तथा सिद्धराजे जयश्रीर्यस्योद्वाहं व्यधित स सदानन्दतादेवसूरिः॥४॥ प्रज्ञातः पदवेदिभिः स्फुटदृशा संभावितस्तार्किकैः, कुर्वाणः प्रमदाद् महाकविकथां सिद्धान्तमार्गाध्वगः। दुर्वाद्यकुशदेवसूरिचरणाम्भोजद्वयीषट्पदः, श्रीरत्नप्रभसूरिरल्पतरधीरेतां व्यधाद् वृत्तिकाम् // 5 // वृत्तिः पञ्च सहस्राणि,येनेयं परिपठ्यते। भारती भारती चाऽस्य, प्रसर्पन्ति प्रजल्पतः॥६॥" रत्ना०८ परिश शुष्कवादादिवादस्वरूपनिरूपणायाऽऽहशुष्कवादो विवादश्च, धर्मवादस्तथा परः। इत्येष त्रिविधो वादः, कीर्तितः परमर्षिभिः / / 1 / / शुष्क एव शुष्को-नीरसः; गलतालुशोषमात्रफल इत्यर्थः, स चासौ वादश्च कमपि विप्रतिपत्तिविषयमाश्रित्य प्रतिवादिना सह वदनं शुष्कवादः। तथा विरूपोजयप्राप्तावपि परलोकादिबधको वादो विवादः, चशब्द उक्तसमुच्चये, तथा धर्मप्रधानो वादो धर्मवादः, तथा तेनात्यन्तमाध्यस्थ्यादिना धर्महेमकषादिपरीक्षालक्षणेन वा प्रकारेण समुचयार्थो वा तथा शब्दः, परः-प्रधानोऽपरो वा उक्तवादाभ्यामन्यः इत्यनेन प्रकारेण एषोऽनन्तरोक्तास्तिस्रो विधा:-प्रकारा यस्य स त्रिविधः, कीर्तितः-- संशब्दितः परमर्षिभिः-प्रधान मुनिभिरिति // 1 // आद्यवादस्वरूपमाहअत्यन्तमानिना सार्द्ध, कूरचित्तेन च दृढम्। धर्मदिष्टेन मूढेन, शुष्कवादस्तपस्विनः / / 2 / / अत्यन्तम्--अत्यर्थं मानी-गर्दी अत्यन्तमानी तेन स हि जितोऽपि परगुणं न मन्यते सार्द्ध-सह क्रूरचित्तेन--संक्लिष्टाध्यवसायेन स हि जितो वैरी स्यात्, चशब्दः समुच्चये, तथा दृढमत्यर्थं धर्मोजिनाख्यातः श्रुतचारित्ररूपस्तस्यैव दुर्गतौ प्रपतताधरण-समर्थत्वात्तस्य द्विष्टो-द्वेषवान् धर्मद्विष्टः; तेन स हि निराकृतोऽपिधर्म न प्रतिपद्यतेऽतो व्यर्थः प्रयासः स्यात्, तथा-मूढेन-युक्ता-युक्तविशेषानभिज्ञेन स हि वादेऽनधिकृत एव प्रतिवादिना यो वादः स इति गम्यते। किमित्याह- शुष्कवादोऽनर्थकवादो भवतीतिगम्यम्। कस्येत्याह-तपस्विनः-साधोः तपस्विग्रहणं चेह तस्य सदैवोचितप्रवृत्तिकतया योग्यत्वेन शास्त्रेऽधिकारित्वोपदर्शनार्थ-मितरस्य चान्यथात्वेनतत्रानधिकारितोपदर्शनार्थ च। अथवाहे तपस्विनः ! इति। अथ कथमस्य शुष्कवादत्वम्? अनर्थवर्द्धनत्वादिति ब्रूमः, विजयेऽभिभवे तपस्विना कृते सति अस्यात्यन्ताभिमानादिदोषयुक्तस्य प्रतिवादिनः अतिपतनमतिपातः-मरणं स एव आदिर्यस्य चित्तनाशादिदोषवृन्दस्य तदतिपातादि भवतीति गम्यते। स हि विजितो मानात्, म्रियेत चित्तनाशवैरानुबन्धाशुभकर्मबन्धसंसारपरिभ्रमणादिकं वाऽऽप्नुयात् / अथवा-साधोरेव वैरानुबन्धात् सामर्थ्य सत्यतिपातं शासनोच्छेदादि वा कुर्यादिति भावना। तथा लाघवं महात्म्यं हानिर्भवतीति गम्यम्। हा० 12 अष्ट
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________________ वाद 1082- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वाद धर्मव्यवस्थातो वादः प्रादुर्भवतीति तत्स्वरूपमिहोच्यतेशुष्कवादो विवादश्च, धर्मवादस्तथाऽपरः। कीर्तितस्त्रिविधो वाद, इत्येवं तत्त्वदर्शिभिः||१|| शुष्केति-स्पष्टः॥१॥ परानर्थो लघुत्वं वा, विजये च पराजये। यत्रोक्तौ सह दुष्टेन, शुष्कवादः स कीर्तितः / / 2 / / परेति-यत्र दुष्टनात्यन्तमानक्रोधोपेतचित्तेन सहोक्तौ सत्याम्। विजये सति परस्य-प्रतिवादिनः परः-प्रकृष्टो वाऽनर्थोमरणचित्तनाशवैरानुबन्धसंसारपरिभ्रमणरूपः साध्वतिपातनशासनोच्छेदादिरूपो वा। पराजये च सति लघुत्वं वा''जितो जैनोऽतोऽसारं जैनशासनम्" इत्येवमवर्णवादलक्षणं भवति। स शुष्कवादो गलतालुशोषमात्रफलत्वात् कीर्तितः // 2 // छलजातिप्रधानोक्ति-दुस्थितेनार्थिना सह। विवादोऽत्रापि विजया-लाभो वा विघ्नकारिता ||3|| छलेति-दुःस्थितेन दरिद्रेण। अर्थिना लाभख्यातादिप्रयोजनिना सह। छलमन्याभिप्रायेणोक्तस्य शब्दस्याभिप्रायान्तरेण दूषणम्, जातिश्चासदुत्तरम्; ताभ्यां प्रधानोक्तिः विवादोविरुद्धो वादः अत्रापि-विवादेऽपि विजयालाभः परस्यापि छलजात्याद्युद्भावनपरत्वात्। वा अथवा विघ्नकारिता अत्यन्ताप्रमादितया छलादिपरिहारेऽपि प्रतिवादिनोऽर्थिनः पराभूतस्य लाभख्यात्यादिविघातध्रौव्यात्। बाधतेच परापायनिमित्तता तपस्विनः परलोकसाधनमिति। नात्रोभयथाऽपि फलमिति भावः // 3 // ज्ञातस्वशास्त्रतत्त्वेन, मध्यस्थेनाऽघभीरुणा। कथाबन्धस्तत्त्वधिया, धर्मवादः प्रकीर्तितः॥४॥ ज्ञातेति-ज्ञातं स्वशास्त्रस्याभ्युपगतदर्शनस्य तत्त्वं येन, एवंभूतो हि स्वदर्शनं दूषितमदूषितंवा जानीते। मध्यस्थेन-आत्यन्तिक-स्वदर्शनानुरागपरदर्शनद्वेषरहितेन, एवंभूतस्य हि सुप्रतिपादं तत्त्वं भवति। तथा अघभीरुणापातकभयशीलेन, एवंभूतो ह्यसमञ्जसवक्ता न भवतीति। सहेति गम्यते तत्त्वधिया-तत्त्वबुद्ध्या / यः कथाबन्धः स धर्मवादोधर्मप्रधानो वादः प्रकीर्तितः // 4 // वादिनो धर्मबोधादि, विजयेऽस्य महत्फलम्। आत्मनो मोहनाशश्च, प्रकटस्तत्पराजये // 5 // वादिन इति वादिनो विजये सति। अस्य-प्रागुक्तविशेषणविशिष्टस्य | प्रतिवादिनो धर्मः श्रुतचारित्रलक्षणस्तस्य बोधः प्रतिपत्तिस्तदादि / आदिना अद्वेषपक्षपातावर्णवादादिग्रहः / महदुत्कृष्ट फलं भवति / ततः प्रतिवादिनः सकाशात् पराजये चात्मनोऽधिकृतसाधोः मोहस्यातत्त्वादौ तत्त्वाद्यध्यवसायलक्षणस्य नाशश्च प्रकट इत्युभयथाऽपि फलवानयमिति भावः // 5 // अयमेव विधेयस्त-तत्त्वज्ञेन तपस्विना। देशाद्यपेक्षयान्योऽपि, विज्ञाय गुरुलाघवम्।।६।। अयमेवेति-तत्तस्मात् तत्त्वज्ञेन तपस्विना / अयमेव-धर्मवाद एव विधेयः / अपवादमाह-देशो-नगरग्रामजनपदादिः, आदिना कालराजसभ्यप्रतिवाद्यादिग्रहः, तदपेक्षया-तदाश्रयणेन गुरुलाघवंदोषगुणयोरल्पबहुत्वं विज्ञाय अन्योऽपि विवादः कार्यः / / 6 / / अत्र ज्ञातं हि भगवान्, यत्स नाऽभाव्यपर्षदि। दिदेश धर्ममुचिते,देशेऽन्यत्र दिदेशच // 7 // अत्रेति-अत्र देशाद्यपेक्षायां ज्ञातमुदाहरणं हि भगवान् श्रीवर्ध-मानस्वामी / यत् स न अभाव्यपर्षदि प्रथमसमवसरणेऽयोग्यसदसि धर्म दिदेश, अन्यत्र चोचिते प्रति बोध्यजनकलिते देशे धर्म दिदेश / / 7 / / विषयो धर्मवादस्य, धर्मसाधनलक्षणः। स्वतन्त्रसिद्धः प्रकृतो-पयुक्तोऽसद्ग्रहव्यये // 6 // विषय इति-धर्मवादस्य विषयो धर्मसाधनलक्षणः स्वतन्त्रसिद्धः। सांख्यादीनां षष्टितन्त्रादिशास्त्रसिद्धः। असद्ग्रहस्याशोभनपक्षपातस्य व्यये सति, प्रकृतोपयुक्तः प्रस्तुतमोक्षसाधकः / धर्मवादेनेवासद्ग्रहनिवृत्त्या मार्गाभिमुखभावादिति भावः / / 8 // यथाऽहिंसादयः पञ्च-व्रतधर्मयमादिभिः। पदैः कुशलधर्माधैः, कथ्यन्ते स्वस्वदर्शने ||6|| यथेति यथाऽहिंसादयः, आदिनासूनृतास्तेयब्रह्मापरिग्रहपरिग्रहः, पञ्च स्वस्वदर्शने व्रतधर्मयमादिभिः, तथा कुशलधर्माद्यैः पदैः कथ्यन्ते। तत्र महाव्रतपदेनैतानि जैनैरभिधीयन्ते। व्रतपदेन च भागवतैः, यदाहुस्ते"पञ्च व्रतानि पञ्चोपव्रतानि' व्रतानियमाः, उपव्रतानि नियमाः" इति। धर्मपदेन तु पाशुपतैः, यतस्ते दश धर्मानाहुः- "अहिंसा सत्यवचनमस्तैन्यं चाप्यकल्पना / ब्रह्मचर्यं तथाऽक्रोधो, ह्यार्जवं शौचमेव च।।१।। सन्तोषो गुरुशुश्रूषा, इत्येते दश कीर्तिताः"। 10 सांख्यासमतानुसारिभिश्च यमपदेनाभिधीयन्ते-"पञ्च यमाः पञ्च नियमाः" तत्र यमाः-- "तत्र यमाः-" "अहिंसा सत्यमस्तैन्यं ब्रह्मचर्यमव्यवहारश्चेति," नियमास्तु-"अक्रोधो गुरुशुश्रूषा, शौचमाहारलाघवम्। अप्रमादश्चेति' कुशलधर्मपदेन च बौद्धरभिधीयन्ते, यदाहुस्ते-"दशाऽ= कुशलानि, तद्यथा-हिंसा स्तेयान्यथाकामं, पैशून्यं परुषानृतम् / संभिन्नालापंव्यापादमभिध्या दृग्विपर्ययम्॥१|| पापकर्मेति दशधा, कायवाङ्मानसैस्त्यजेत् / इति" अत्र चान्यथाकामः-पारदार्यम्, संभिन्नालापोऽसंबद्धभाषणम्, व्यापादः-परपीडाचिन्तनम्, अभिध्याधनादिष्वसन्तोषः परिग्रह इति यावत्, दृग्विपर्ययोमिथ्याभिनिवेशः, एतद्विपर्ययाच दश कुशलधर्मा भवन्तीति / आदिपदाच ब्रह्मादिपदग्रहः / एतान्येव वैदिकादिभिर्ब्रह्मादिपदेनाभिधीयन्ते इति // 6 // मुख्यवृत्त्या व युज्यन्ते,न वैतानिक दर्शने। विचार्यमेतन्निपुणे-रव्यग्रेणान्तरात्मना / / 10 / / मुख्येति एतानि-अहिंसादीनिक्वदर्शनेयुज्यन्ते, कवा दर्शनेनयुज्यन्ते, एतन्मुख्यवृत्त्याऽनुपचारेण निपुणैर्धर्मविचारनिष्णातैर्विचारणीयम् नान्यदस्त्वन्तरविचारणेधर्मवादाभावप्रसङ्गात्।अव्यग्रेणस्वशास्त्रनीतिप्रणिधाना
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________________ वाद 1083 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वाद दव्याक्षिप्तेन अन्तरात्मना-मनसा शास्त्रान्तरनीत्या ोकशावस्त्रोक्तप्रकाराणामहिंसादीनामप्रयुज्यमानता स्फुटमेव प्रतीयत इति स्वतन्त्रनीतिप्रणिधानेनैव विषयव्यवस्था विचार्यमाणा फलवतीति भावः॥१०॥ नतु स्वतन्त्रनीत्याऽपि धर्मसाधनविचारणे प्रमाणप्रमेयादिलक्षणप्रणयने परतन्त्रादिविचारणमप्यावश्यकमिति व्यग्रताऽनुपरमे कदा प्रस्तुतवि चारावसर इत्यत आहप्रमाणलक्षणादेस्तु, नोपयोगोऽत्र कश्चन। तन्निश्चयेऽनवस्थाना-दन्यथार्थस्थितेर्यतः॥११॥ प्रमाणेति-प्रमाण-प्रत्यक्षादि तस्य लक्षणं-स्वपराभासिज्ञानत्वादि; तदादेः, आदिना प्रमेयलक्षणादिग्रहः। तस्यत्वधर्मसाधनविषये कश्चनोपयोगो नास्ति / अयमभिप्रायः-प्रमाणलक्षणेन निश्चितमेव प्रमाणमर्थग्राहकमिति तदुपयोग इति।नचायंयुक्तः, यतस्तल्लक्षणं निश्चितमनिश्चितं वा स्यात्? आद्ये किमधिकृतप्रमाणेन? प्रमाणान्तरेण वा? यदि तेनैव तदेतरेतराश्रयः, अधिकृतप्रमाणाल्लक्षणनिश्चयः तन्निश्चयाच्चाधिकृतप्रमाणनिश्चय इति। यदि च प्रमाणान्तरेण तन्निश्चयस्तदाह- तन्निश्चये प्रमाणान्तरेण तल्लक्षणनिश्चयेऽनवस्थानात्तन्निश्चायकप्रमाणेऽपि प्रमाणान्तरापेक्षाऽविरामात् / यदि च प्रमाणान्तरेणानिश्चितमेव लक्षणं प्रमाणनिश्चये उपयुज्यते इतीष्यते, तदाह- अन्यथाऽन्यतोऽनिश्चितस्य लक्षणस्योपयोगेऽर्थस्थितेरन्यतोऽनिश्चितेनैव प्रमाणेनार्थसिद्धेः। तदुक्तं हरिभद्राचार्येण- "प्रमाणेन विनिश्चित्य, तदुच्येतनवा ननु। अलक्षितात्कथंयुक्ता, न्यायतोऽस्य विनिश्चितिः॥१॥ सत्यांचास्यां तदुक्त्या किं, तद्वद्विषयनिश्चितेः / तत एवाविनिश्चित्य, तस्योक्ति (वा) ान्ध्यमेव हि // 2 // " इत्थमत्र प्रमाणलक्षणादेरनुपयोगः समर्थितः / इममेव सिद्धसेनसंमत्या दृढयन्नाह-यत इति यत आह वादी; सिद्धसेन इत्यर्थः // 11 // प्रसिद्धानि प्रमाणानि, व्यवहारश्च तत्कृतः। प्रमाणलक्षणस्योक्ती, ज्ञायते न प्रयोजनम् // 12|| प्रसिद्धानीति-प्रसिद्धानि लोके स्वत एव रूढानि, न तु प्रमाणलक्षणप्रणेतृवचनप्रसाधनीयानि। प्रमाणानि-प्रत्यक्षादीनि / तथा व्यवहरणंव्यवहारः स्नानपानदहनपचनादिका क्रिया। चशब्दः प्रसिद्धत्वसमुच्चयार्थः / तत्कृतः प्रमाणप्रसाध्यः प्रमाणलक्षणप्रवीणानामपि गोपालवालाबलादीनां तथा व्यवहारदर्शनात्, ततश्च प्रमाणलक्षणस्याविसंवादिज्ञानं प्रमाणमित्यादेरुक्तौ प्रतिपादने ज्ञायते-उपलभ्यते 'न'-नैव प्रयोजनंफलं वर्तते। नेति वक्तव्ये 'ज्ञायते नेति' यदुक्तमाचार्येण तदतिवचनपारुष्यपरिहारार्थम् / यस्त्वत्रायमुदयनस्योपालम्भः ये तु प्रमाणमेव सर्वस्य व्यवस्थापकम्, न तु लक्षणम्, तदपेक्षायामनवस्थेत्याहुस्तेषाम्"निन्दामि च पिवामि चेति" न्यायापातः / यतो व्याप्त्यतिव्याप्तिपरि- | हारेण तत्तदर्थव्यवस्थापकं तत्तद्व्यवहारव्यवस्थापकं च प्रमाणमुपाददते तदेवतुलक्षणम्। अनुवादः स इतिचेदस्माकमप्यनुवाद एव, न ह्यलौकिकमिह किंचिदुच्यते। न चाऽनवस्था वैद्यके रोगादिलक्षणवद्व्याकरणादौ शब्दादिवच व्यवस्थोपपत्तेः, तत्रापि संमुग्धव्यवहारमाश्रित्य लक्षणैरेव व्युत्पादनादिति / सत्वत्र न शोभते,यतो वयं प्रमाणस्यार्थव्यवस्थापकत्वे व्यवहाव्यवस्थापकत्वे वा लक्षणं न प्रयोजकमिति ब्रूमो नतु सर्वत्रैव तदप्रयोजकमिति। समानासमानजातीयव्यवच्छेदस्य तदर्थस्य तत्रतत्र व्यवस्थितत्वात्। सामान्यतो व्युत्पन्नस्य तच्छास्त्रादधिकृतविशेषप्रतीतिपर्यवसानेनानवस्थाभावात्, केवलं केवलव्यतिरेक्येव लक्षणमिति नादरः, प्रमेयत्वादेरपि पदार्थलक्षणत्वव्यवस्थितेः इत्यन्यत्र विस्तरः। वस्तुतो धर्मवादे लक्षणस्य नोपयोगः, स्वतन्त्रसिद्धाहिंसादीनां तादृशधर्मान्तरसंशयजिज्ञासाविचारद्वारकतत्त्वज्ञानेनासद्गृहनिवृत्तेः / अन्यथैवोपपत्तेरितरभिन्नत्वेन ज्ञानस्यतत्साध्यस्यात्रानुपयोगात्संमुग्धज्ञानेनैव कार्यसिद्धिरित्यत्र तात्पर्यम्। नन्वर्थनिश्चयार्थमेव लक्षणोपयोगः, तेन ज्ञानप्रामाण्यसंशयनिवृत्ती तन्मूलार्थसंशयनिवृत्त्याऽर्थनिश्चयसिद्धेः इत्याशङ्कायामाहनचार्थसंशयापत्तिः, प्रमाणेऽतत्त्वशङ्कया। तत्राप्येतविच्छेदा-द्धत्वभावस्य साम्यतः||१३|| नचेति-नच प्रमाणेऽतत्त्वशङ्कयाऽप्रामाण्यशङ्क्तया अर्थसंशयापत्तिः, लक्षणं विनेति गम्यम् / तत्रापि-प्रमाणलक्षणेऽपि / एतदविच्छेदादप्रामाण्यशङ्कायाः स्वरसोत्थापिताया अनुपरमात् / हेत्वभावस्य शङ्काकारणाभावस्य साम्यतः तुल्यत्वात्। प्रमाणलक्षण इव प्रमाणेऽपि शङ्काकारणाभावे, शङ्काया अनुत्पत्तेरित्यर्थः। अहिंसादिधर्मसाधनग्राहकं हि प्रमाणं परेषां षष्टितन्त्रादिकं स्वस्वशास्त्रमेव / तत्र चाहिंसादिग्रहणांशे सर्वतन्त्रप्रसिद्धत्वेन न कदापि संशयस्तद्विशेषांशे तु भवन्नयमनुकूल एव, नचैकांशे शङ्कितप्रामाण्यज्ञानमितरांशस्याप्यनिश्चायकमिति युक्तम्, घटपटसमूहालम्बनात्। घटाशे प्रामाण्यसंशये पटस्याप्यनिश्चयापत्तेरित्याशयवानाहअर्थयाथात्म्यशङ्कातु, तत्त्वज्ञानोपयोगिनी। शुद्धार्थस्थापकत्वं च, तन्त्रं सद्दर्शनग्रहे||१४|| अर्थेति-अर्थस्याहिंसादेर्याथात्म्यस्य स्वतन्त्रप्रसिद्धनित्याश्रयवृत्तित्वादेः शङ्का तु विचारप्रवृत्त्या तत्त्वज्ञानोपयोगिनी / ततश्च प्रतीयमानं शुद्धार्थस्यसर्वथाशुद्धविषयस्य व्यवस्थापकत्वं (स्थापकत्व) प्रमितिजनकत्वम् / सद्दर्शनस्य शोभनागमस्य ग्रहेस्वीकारे तन्त्रप्रयोजकम् तद्ग्रहे च तत एव धर्मसाधनोपलम्भात् किं लक्षणेनेति भावः। तत्रात्मा नित्य एवेति, येषामेकान्तदर्शनम्। हिंसादयः कथं तेषां, कथमप्यात्मनोऽव्ययात्।।१५।। तत्रेति-तत्र धर्मसाधने विचारणीये आत्मा नित्य एव इति येषां सांख्यादीनामेकान्तदर्शनं तेषां हिंसादयः कथं मुख्यवृत्त्या युज्यन्त इति शेषः / कथमपि खण्डितश--
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________________ वाद 1054 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वाद रीरावयवैकपरिणामेनापि आत्मनोऽव्ययादखण्डनात् / न हि बुद्धिगतदुःखोत्पादरूपा हिंसा सांख्यानामात्मनि प्रतिबिम्बोदयेनानुपचरिता संभवति / न या नैयायिकानां स्वभिन्नदुःखरूपगुणरूपा सा, आत्मनि समवायेन प्रतिबिम्बसमवाययोरेव काल्पनिकत्वात् / न च कथमपि . स्वपर्यायविनाशाभावे हिंसाव्यवहारः कल्पनाशतेनाप्युपपादयितुं शक्यत इति। तदिदमाह-"निष्क्रियोऽसौ ततो हन्ति, हन्यते वा नजातुचित्। कंचित्केनचिदित्येवं, न हिंसाऽस्योपपद्यते'' ||1|| मनोयोगविशेषस्य, ध्वंसो मरणमात्मनः। हिंसा तच्चेन्न तत्त्वस्य, सिद्धेरर्थसमाजतः // 16 // मन-इतिमनोयोगेविशेषस्य स्मृत्यजनकज्ञानजनकमनः-संयोगस्य ध्वंस-आत्मनो मरणं तद्धिंसा / इयं ह्यात्मनोऽव्ययेऽप्युपपत्स्यते, अतिसान्निध्यादेव हि शरीरखण्डनादात्माऽपि खण्डित इति लोकानामभिमानो नायं विशेषदर्शिभिरादरणीय इति चेन्न, तत्त्वस्योक्तध्वंसत्वस्य अर्थसमाजतोऽर्थवशादेव सिद्धेः। स्मृतिहेत्वभावादेव स्मृत्यजननाचरममनः संयोगस्यापि संयोगान्तरवदेव नाशात्। तथा चनेयं हिंसा केनचित् कृतास्यादिति सुस्थितमतेव सकलं जगत् स्यात्। आत्मन एकान्तनित्यत्वाभ्युपगमे दूषणान्तरमाहशरीरेणाऽपि संबन्धो, नित्यत्वेऽस्य न संभवी। विभुत्वेन च संसारः, कल्पितः स्यादसंशयम्॥१७॥ शरीरेणापीति-नित्यत्वे सति अस्य आत्मनः शरीरेणापि सम संबन्धो न संभवी। नित्यस्य हि शरीरसंबन्धः पूर्वरूपस्य त्यागे वा स्यादत्यागे वा? आद्ये स्वभावत्यागस्यानित्यलक्षणत्वान्नित्यत्वहानिः / अन्त्ये च पूर्व स्वभावविरोधाच्छरीरासंबन्ध एवेति। विभुत्वेन चाभ्युपगम्यमानेन हेतुना संसारोऽसंशयं कल्पितःस्यात्, सर्वगतस्य परलोकगमनरूपमुख्यसंसारपदार्थानुपपत्तेः। अथवा-विभुत्वे च संसारो न स्यात्, स्याचेदसंशयं कल्पितः स्यादिति योजनीयम्। तदिदमुक्तम्-- "शरीरेणापि संबन्धो, नात एवास्य सङ्गतः।तथा सर्वगतत्वाच्च, संसारश्चाप्यकल्पितः||१||" परः शङ्कतेअदृष्टादेहसंयोगः,स्यादन्यतरकर्मजः। इत्थं जन्मोपपत्तिश्च, न तद्योगाविवेचनात्॥१८|| अदृष्टादिति-अदृष्टात् प्राग्जन्मकृतकर्मणो लब्धवृत्तिकात्ा देहसंयोगोऽन्यतरकर्मजः स्यात् / आत्मनो विभुत्वेनोभयकर्माभावेऽपि देहस्य मूर्तत्वेनान्यतरकर्मसंभवादिति / इत्थं जन्मनः संसारस्योपपत्तिः ऊर्ध्वलोकादौ शरीरसंबन्धादेवोर्ध्वलोकगमनादिव्यपदेशोपपत्तेः। / इत्थमपि विभुत्वाव्ययात् पूर्वशरीरत्यागोत्तरशरीरोपादानैकस्वभावत्वाच न नित्यत्वहानिः, एकत्र ज्ञाने नीलपीतोभयाकारवदेकत्रोक्तैकस्वाभाव्याविरोधात, कार्यक्रमस्य च सामग्यायत्तत्वादित्याशयः / सिद्धान्तयति-न तद्योगस्य-शरीरसंयोगस्याविवेचनात्। तथाहिकिमयमात्मशरीरयोभिन्नो वा स्यादभिन्नो वा? आद्ये तत्संबन्धभेदा दिकल्पनायामनवस्था / अन्त्ये च धर्मिद्वयातिरिक्तसंबन्धाभावेऽतिप्रसङ्ग इति। आत्मक्रियां विना च स्या-न्मिताणुग्रहणं कथम् / कथं संयोगभेदादि-कल्पना चापि युज्यते // 16 // आत्मेति-आत्मनो यावत्स्वप्रदेशैरेक क्षेत्रावगाढपुद्गलग्रहणव्यापाररूपां क्रियां विना च मिताणूनांनियतशरीरारम्भकपरमाणूनां ग्रहणं कथं स्यात्? संबद्धत्वाविशेषे हि लोकस्थाः सर्व एव ते गृह्येरन् न वा केचिदपि अविशेषात् / अदृष्टविशेषान्मिताणुग्रहोपपत्तिर्भविष्यतीति चेन्नअदृष्टपुण्यपापरूपे साकर्याज्जातिरूपस्य विशेषस्यासिद्धेः। मिताणुग्रहार्थस्य विशेषस्य जातिरूपस्यादृष्टकल्पमापेक्षया क्रियावत्त्वरूपस्यात्मन्येव कल्पयितुंयुक्तत्वात्। तत्संकोचविकोचादिकल्पनागौरवस्योत्तरकालिकत्वेनाबाधकत्वाच्छरीरावच्छिन्नपरिणामानुभवस्य सार्वजनीनत्वेन प्रामाणिकत्वाचेति भावः। तथा आत्मनः क्रियां विना नियतशरीरानुप्रवेशानभ्युपगमे सर्वेषां शरीराणां संयोगाविशेषेण सर्वभोगावच्छेदकत्वापत्तिभिया तदात्मभोगे तदीयादृष्टविशेषप्रयोज्यसंयोगभेदादिकल्पनाऽपि कथं युज्यते? अनन्तसंयोगभेदादिकल्पने गौरवात् / अवच्छेदकतया तदात्मवृत्तिजन्यगुणत्वावच्छिन्नं प्रति तादात्म्येन तच्छरीरत्वेन हेतुत्वे तु बाल्यादिभेदेन शरीरभेदाद् व्यभिचारः / अविच्छन्नत्वसंबन्धेन तद्व्यक्तिविशिष्टे तद्व्यक्तित्वेन हेतुत्वे तु सुतरां गौरवमिति न किंचिदेतदधिकं लतायाम्। अनित्यैकान्तपक्षेऽपि, हिंसादीनामसंभवः। नाशहेतोरयोगेन, क्षणिकत्वस्य साधनात् // 20 // अनित्येति-अनित्यैकान्तपक्षेऽपि क्षणिकज्ञानसन्तानरूपात्माभ्युपगमेऽपि हिंसादीनामसंभवो मुख्यवृत्त्याऽयोगः। नाशहेतोरयोगेनक्षयकारणस्यायुज्यमानत्वेनक्षणिकत्वस्यक्षणक्षयित्वस्य साधनात्। इयं हि परेषां व्यवस्थानाशहेतुभिर्घटादे शस्ततो भिन्नोऽभिन्नो वा विधीयेत? आये घटादेस्तादवस्थ्यम, अन्त्येचघटादिरेव कृतः स्यात् इति स्वभावत एवोदयानन्तरं विनाशिनो भावा इति / इत्थं च हिंसा न केनाचित्क्रियत इत्यनुपप्लवं जगत्स्यादिति भावः। ननुजनक एव हिंसकः स्यादतो न दोष इत्यत्र जनकः किं सन्तानस्य क्षणस्य वा इति विकल्प्याद्ये दोषमाहन च सन्तानभेदस्य, जनको हिंसको मतः। सांवृतत्वादजन्यत्वा-दावत्वनियतं हि तत्॥२१॥ न चेति-नच सन्तानभेदस्य हिंस्यमानशूकरक्षणसन्तानच्छेदेनोत्पत्स्यमानमनुष्यादिक्षणसन्तानस्य जनको लुब्धकादिर्हिसको भवेत्, तद्विसदृशसन्तानोत्पादकत्वेनैव तद्धिंसकत्वव्यवहारोपपत्तेरिति वाच्यम्, सांवृतत्वात् काल्पनिकत्वात् सन्तानभेदस्य। अजन्यत्वात् लुब्धकाद्यसाध्यत्वात् / तद्धि जन्यत्वं हि भावत्वनियतं सत्त्वव्याप्तम्, सांवृतं च खरविषाणादिवदसदेवेति भावः। द्वितीये त्वाहनरादिक्षणहेतुच, शूकरादेन हिंसकः।
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________________ वाद 1085 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वाद शूकरान्त्यक्षणेनैव, व्यभिचारप्रसङ्गतः।।२।। नरादीति-नरादिक्षणहेतुश्च लुब्धकादिः शूकरादेर्हिसको न भवति, शूकरान्त्यक्षणेनैव व्यभिचारस्य हिंसकत्वातिव्याप्तिलक्षणस्य प्रसङ्गतः। म्रियमाणशूकरान्त्यक्षणोऽपि ह्युपादानभावेन नरादिक्षणहेतुरिति लुब्धकवत् सोऽपि स्वहिंसकः स्यादिति भावः। ___ इष्टापत्तौ व्यभिचारपरिहारे त्वाहअनन्तरक्षणोत्पादे, बुद्धलुब्धकयोस्तुला। नैवं तद्विरितिःछापि, ततःशास्त्राद्यसङ्गतिः // 23 // अनन्तरेति-अनन्तरक्षणोत्पादे स्वाव्यवहितोत्तरविसदृशक्षणोत्पादे हिंसकत्वप्रयोजकेऽभ्युपगम्यमाने इति गम्यम् / बुद्धलुब्धकयोस्तुला साम्यमापद्येत, बुद्धलुब्धकयोरनन्तरक्षणोत्पादकत्वाविशेषात् / एवमुक्तप्रकारेण तद्विरतिहिंसाविरतिःकापि न स्यात्। ततः शास्त्रादीनामहिंसाप्रतिपादकशास्त्रादीमसङ्गतिः स्यात् / न चैतदिष्टं परस्य"सत्तेऽस्स संति दंडाना, सव्वेसिं जीवितं पियं। अत्तानं उपमं कत्ता, नेव हन्ने न घातये / / 1 / / " इत्याद्यागमस्य परैरभ्युपगमात्। घटन्ते न विनाऽहिंसां, सत्यादीन्यपि तत्त्वतः। एतस्या वृत्तिभूतानि, तानि यद्भगवाजगौ // 24 // घटन्त इति अहिंसां विना सत्यादीन्यपि न घटन्ते / यत एतस्या अहिंसाया वृत्तिभूतानि तानि सत्यदीनि भगवान जगौ सर्वज्ञो गदितवान्। नच सत्यादिपालनीयाभावे वृत्तौ विद्वान् यतत इति। ननु हन्मीतिसंकल्प एव हिंसा, तद्योगादेव च हिंसकत्वं तदभावाचाहिंसायास्ततश्च तद्वृत्तिभूतसत्यादीनां नानुपपत्तिरिति चेन्न, हन्मीति संकल्पक्षणस्यैव सर्वथाsनन्वये कालान्तरभाविफलजनकत्वानुपपत्तेः, कथंचिदन्वये चास्मत्सिद्धान्तप्रवेशापाताचेत्यधिकमन्यत्र। मौनीन्द्रे च प्रवचने, युज्यते सर्वमेव हि। नित्यानित्य स्फुटं देहा-द्विन्नाभिन्ने तथात्मनि // 25 // मौनीन्द्र इति-मौनीन्द्रे-वीतरागप्रतिपादिते च प्रवचने सर्वमेव हि हिंसाऽहिंसादिकं युज्यते। नित्याऽनित्ये तथा स्फुट प्रत्यक्षं देहाद्भिन्नाऽभिन्ने आत्मनि सति / तथाहि-आत्मत्वेन नित्यत्वमात्मनः प्रतीयते, अन्यथा परलोकाद्यभावप्रसङ्गात्। मनुष्यादिना चानित्यत्वम्, अन्यथा मनुष्यभावानुच्छेदप्रसङ्गात् / धर्मिग्राहकमानेन तत्र नित्यत्वसिद्धावनित्यत्वधियः शरीरादिविषयकत्यमेवास्त्विति चेन्न धर्मिग्राहकमानेन लक्षण्यकलितस्यैव तस्य सिद्धेर्घटाद्युपादानस्यैव ज्ञानाद्युपादानस्य पूर्वोत्तरपर्यायनाशोत्पादान्वितध्रुवत्वनियतत्वात्। यथा च भ्रान्तत्वाभ्रान्तत्वे परमार्थसंव्यवहारापेक्षया परेषां न ज्ञानस्य विरुद्धे, यथा चैकत्र संयोगतदभावौ, तथा द्रव्यतो नित्यत्वं पर्यायतश्चानित्यत्वं नास्माकं विरुद्धम्। अनपेक्षितविशिष्टरूपं हि द्रव्यम्, अपेक्षितविशिष्टरूपं च पर्याय इति / तथा शरीरजीवयोर्मूर्ताऽमूर्त्तत्वाभ्यां भेदः, देहकण्टकादिस्पर्श वेदनोत्पत्तेश्चाभेद इति / तदुक्तम्- "जीवसरीराणं पि हु, भेआभेओ तहोवलंभाओ / मुत्तामुत्तत्तणओ, छिक्कम्मि य वेयणओ अ // 1 // " न चेदेवं ब्राह्मणो नष्टो ब्राह्मणो जानातीत्यादिव्यवहारानुपपत्तिः विना ब्राहाणस्य व्यासज्यवृत्तित्वमित्यादिकमुपपादितमन्यत्र। पीडाकर्तृत्वतो देह-व्यापत्त्या दुष्टभावतः। त्रिधा हिंसाऽगमप्रोक्ता, न हीथमपहेतुका // 26 // पीडेति-पीडाकर्तृत्वतः पीडायां स्वतन्त्रव्यापृतत्वात् / देहस्य व्यापत्तिर्विनाशस्तया कथंचित्तद्व्यापत्तिसिद्धिरिति भावः / दुष्टभावतो हन्मीति संक्लेशात्। त्रिधा जिनप्रोक्ता हिंसा। इत्थ-मुक्तरूपात्माभ्युपगमे न ह्यपहेतुकाहेतुरहिता भवति। अत्रैव प्रकारान्तरेणासंभवं दूषयितुमुपन्यस्यति-- हन्तुर्जाग्रति को दोषो, हिंसनीयस्य कर्मणि। प्रसक्तिस्तदभावे चाऽ-न्यत्रापीति मुधा वचः // 27 // हन्तुरिति-हिंसनीयस्य कर्मणि हिंसानिमित्तादृष्ट जाग्रतिलब्धवृत्तिके सति हन्तुः को दोषः? स्वकर्मणैव प्राणिनोहतत्वात्, तत्कर्मप्रेरितस्य च हन्तुरस्वतन्त्रत्वेनादुष्टत्वव्यवहारात्। तदभावे च-हिंसनीयकर्मविपाकाभावे च अन्यत्राप्यहिंसनीयेऽपि प्राणिनि प्रसक्तिः हिंसापत्तिरिति हिंसाऽसंभवप्रतिपादकं वचो मुधाऽनर्थकम्। हिंस्यकर्मविपाके य-दुष्टाशयनिमित्तता। हिंसकत्वं न तेनेदं, वैद्यस्य स्याद्रिपोरिव / / 28|| हिंस्येति-हिंस्यस्य प्राणिनः कर्मविपाके सति यद्यस्मात् दुष्टाशयेन हन्मीति संक्लेशेन निमित्तता प्रधानहेतुकर्मोदयसाध्यां हिंसां प्रति निमित्तभावो हिंसकत्वम् तेन कारणेनेदं हिंसकत्वं रिपोरिव वैद्यस्य न स्यात्, तस्य हिंसा प्रति निमित्तभावेऽपि दुष्टाशयाऽनात्तत्वात् / तदिदमाह-"हिंस्यकर्मविपाकेऽपि, निमित्तत्वनियोगतः / हिंसकस्य भवेदेषा, दुष्टादुष्टानुबन्धतः।।१॥" परप्रेरितस्यापिचाभिमरादेरिव दुष्टत्वं व्यपदिश्यत एव। हिंस्यकर्मनिर्जरणसहायत्वेऽपि च तथाविधाऽऽशयामावान्न हिंसकस्य वैयावृत्त्यकरत्वव्यपदेश इति द्रष्टव्यम्। इत्थं सदुपदेशादे-स्तन्निवृत्तिरपि स्फुटा। सोपक्रमस्य पापस्य, नाशात्स्वाशयवृद्धितः // 26 // इत्थमिति-इत्थं परिणामिन्यात्मनि हिंसोपपत्तौ सतांज्ञान-गुरूणामुपदेशादेः, आदिना अभ्युत्थानादिपरिग्रहः। तदाह-"अब्भुट्ठाणे विणए, परक्कमे साहुसेवणाए या संम्मदसणलंभो, विरयाविरईइ विरईए।।१॥" सोपक्रमस्यापर्वतनीयस्यपापस्य चारित्रमोहनीयस्य नाशात्। तन्निवृत्तिरपिहिंसानिवृत्तिरपि स्फुटाप्रकटा स्वाशयस्य शुभाशयस्य न कमपि हन्मीत्याकारस्य वृद्धितोऽनुबन्धात्। तथारुचिप्रवृत्त्या च, व्यज्यते कर्म तादृशम् / संशयं जानता ज्ञातः, संसार इति हि श्रुतिः॥३०॥ तथारुचीति-तथारुच्या सदाचारश्रद्धया प्रवृत्त्या च / ता
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________________ वाद 1056 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वादग्गंथ दृशं स्वप्रयत्नोपक्रमणीयं कर्मव्यज्यते। प्रवृत्तिरेवोपक्रमणीयकर्मानिश्च- बोधनमुत्तरप्रदानम् श्रोतुः सूक्ष्मोक्तिः-सूक्ष्मजीवादिभावकथनम् यादुपायसंशये कथं स्यादिति चेदर्थानर्थसंशययोःप्रवृत्तिनिवृत्त्यङ्गत्वा- आचारादयः-क्रमेणाचारव्यवहारप्रज्ञप्तिदृष्टिवादा अभिधीयन्ते / परे दित्याशयवानाह-संशयमानर्थगतं जानता हेयोपादेयनिवृत्ति- आचार्या आचारादीन् ग्रन्थान् जगुः, तैराचाराद्यभिधानादिति भावः। प्रवृत्तिभ्यां परमार्थतः संसारो ज्ञात इति हि स्थितिः-प्रेक्षावतां मर्यादा। एतैः प्रज्ञापितः श्रोता, चित्रस्थ इव जायते। तथा चाचारसूत्रम्- "संसयं परिजाणतो संसारे परिन्नाते भवति, संसयं दिव्यास्ववन हि क्वापि, मोघाः स्युः सुधियां गिरः // 7 // अपरिजाणतो संसारे अपरिन्नाते भवतीति''। एतैरिति-व्यक्तः। अपवर्गतरोर्बीजं, मुख्या हिंसेयमुच्यते। विद्या क्रिया तपो वीय, तथा समितिगुप्तयः। सत्यादीनि व्रतान्यत्र,जायन्ते पल्लवानवाः // 31 // आक्षेपणीकल्पवल्ल्या , मकरन्द उदाहृतः॥८॥ अपवर्गेति-स्पष्टः। विद्येति-विद्या-ज्ञानमत्यन्तापकारिभावतमोभेदकम्। क्रियाचारित्रम्, विषयो धर्मवादस्य, निरस्य मतिकर्दमम्।। तपः-अनशनादि वीर्य-कर्मशत्रुविजयानुकूलः पराक्रमः तथा समितयः-- संशोध्यःस्वाशयादित्थं, परमानन्दमिच्छता॥३२॥ ईर्यासमित्याद्याः गुप्तयोमनोगुप्त्याद्याः / आक्षेपणीकल्पवल्ल्या विषय इति-मतिकर्दममादावेव प्रमाणलक्षणप्रणयनादिप्रपञ्चम्। मकरन्दोरस उदाहृतः। विद्यादिबहुमानजनने-नैवेयं फलवतीति भावः। वादनिरूपणानन्तरं तत्सजातीया कथा निरूप्यते द्वा०६ द्वारा अर्थकामकथा धर्म-कथा मिश्रकथा तथा। वादं कृत्वा कस्यापि मतं न दूषयेत्कथा चतुर्विधा तत्र, प्रथमा यत्र वर्ण्यते / / 1 / / वायं विविहं समेच लोए. सहिए खेयाणुगए य कोवियप्पा। अर्थेति-अर्थकथा कामकथा धर्मकथा तथा मिश्रकथा एवं चतुर्विधा कथा। तत्र प्रथमाऽर्थकथा सा, यत्र यस्यां वर्ण्यते-प्रतिपाद्यते। पन्ने अभिभूय सव्वदंसी, विद्या शिल्पमुपायबा-निर्वेदश्चापि संचयः। उवसंते अविहेडए स भिक्खू / / 16 / / यः पुनर्लोक विविधं वादसमेत्य 'अविहेट्ठको' भवेत् कस्यचिरोधको न दक्षत्वं साममेदव, दण्डो दानं च यत्नतः॥२॥ भवेत् कस्यचित् पक्षपातं न कुर्यात् / लोके हि बहूनि दर्शनानि सन्ति ते विद्येति-विद्यादयोऽर्थोपाया यत्र वर्ण्यन्ते साऽर्थकथेति भावः। परस्परं वादं कुर्वन्ति-अन्योन्यं मतं दूषयन्ति, मुण्डा जटाधारिभिः नना रूपं वयश्च वेषश्च, दाक्षिण्यं चापि शिक्षितम्। वस्त्रधारिभिर्गृहस्थाः वनवासिभिः इत्यादि; स्वस्वमताभिशयवचनरूपं दृष्टं श्रुतं चानुभूतं, द्वितीयायां च संस्तवः॥३॥ वादं कृत्वा कस्यापि बाधां न कुर्यात् इत्यर्थः / कीदृशो यः? सहितोरूपमिति- रूपं सुन्दरम्, वयश्चोदग्रम, वेषश्चोज्ज्वलः, दाक्षिण्यं च- ज्ञानदर्शनचारित्रसहितः, पुनः कीदृशः? खेदानुगतः खेदयति मन्दीमार्दवम्, शिक्षितमपि विषयेषु, दृष्टमद्भुतदर्शनमाश्रित्य, श्रुतं चानुभूतंच, करोति कर्म अनेनेति खेदः-संयमस्तेन अनुगतः खेदानुगतः सप्तदशविधसंस्तवश्वपरिचयश्च, द्वितीयायां-कामकथायाम् / रूपादिवर्णनप्रधाना संयमरतः, पुनः कीदृशः? कोविदात्मा कोविदोलब्धशास्त्रपरमार्थ आत्मा कामकथेत्यर्थः। यस्येति कोविदात्मा, पुनः कीदृशः? प्राज्ञः-प्रकर्षण अन्येभ्यः तृतीया क्षेपणी चैका, तथा विक्षेपणी परा। आधिक्येन जानातीति प्राज्ञः खारबुद्धिमान् / पुनः कीदृशः? अभिभूय अन्या संवेजनी निर्व-जनी चेति चतुर्विधा // 4 // सर्वदर्शी अभिभूयपरीषहान् जित्वा रागद्वेषौ निवार्य सर्वजन्तुगणम् तृतीयेति-तृतीया धर्मकथा च एका आक्षेपणी, तथा परा विक्षेपणी, आत्मसदृशं पश्यतीत्येवं शीलः सर्वदर्शी, पुनः कीदृशः? उपशान्तः अन्या संवेजनी, च पुनर्निर्वेजनी इति चतुर्विधा / कषायरहितः स्यात्, स भिक्षुरित्युच्यते। उत्त०१५ अ०) "सम्मट्ठिी किरिया वादी मिच्छा य सेसगा वाई। जहिऊण मिच्छवायं, सेवह वायं आचारान्यवहाराच, प्रज्ञप्तेदृष्टिवादतः। इमं तत्थ।।१॥" सूत्र० १७०१२अ०। "जोजहवायं नकुणइ, मिच्छट्टिी आद्या चतुर्विधा श्रोतु-चित्ताक्षेपस्य कारणम् / / 5 / / तओ हु को अन्नो। वद्धेई मिच्छत्तं, परस्स संकजणेमाणे / / 1666 / / " आचारादिति-आचारं व्यवहारं प्रज्ञप्तिं दृष्टिवादं चाश्रित्य आद्या क्षेपणी पं०व०५ द्वार। जी०। (वादार्थं परिहारकल्पस्थितस्य गमनं परिहार' चतुर्विधा। श्रोतुः चिताक्षेपस्यतत्त्वप्रतिपत्त्याभिमुखलक्षणस्य अपूर्वशम शब्दे पञ्चमभागे 674 पृष्ठे गतम्।) (वादलब्धिसंपन्नःसाधुर्गृहिवेषं विधाय रसवर्णिकास्वादलक्षणस्य वा कारणम्॥ नास्तिकवादिराजं पदाक्रम्य गच्छतीति 'पुरिसजाय' शब्दे पञ्चम-- क्रिया दोषव्यपोहच, सन्दिग्धे साधुबोधनम्। भागे१०३६ पृष्ठे उक्तम्।) (आत्मानं पुरुषं क्षेत्रं वस्तु विदित्वा ज्ञात्वा श्रोतुः सूक्ष्मोक्तिराचारा-दयो ग्रन्थान परे जगुः / / 6 / / वादं प्रयुङ्क्ते इति 'पओगमई' शब्दे पञ्चमभागे 47 पृष्ठे उक्तम्।) क्रियेति-क्रिया-लोचास्नानादिका दोषव्यपोहश्च-कथं चिदापन्नदोष- | वाद(य)ग्गंथ-पुं०(वादग्रन्थ) परपक्षनिराकरणेन स्वपक्ष-प्रतिष्ठापने शुद्ध्यर्थप्रायश्चित्तलक्षणः संदिग्धे-संशयापन्नेऽर्थे साधुमधुरालापपूर्वम् | तर्कप्रकरणे, यो०वि०
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________________ वादपचारंभग 1057- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वायग वाद(य)पचारंभग-पुं०(वादप्रत्यारम्भक) वादारम्भकं प्रति प्रतीपमार- वामप्पमाण-न०(वामप्रमाण) प्रसारितभुजयुगलमाने, औ०। जं० भमाणे, रत्ना० 8 परि०। वामरत्थ-पुं०(वामरथ्य) वामस्थाख्यय॑पत्ये, जं०७ वक्षा वादारंभग-पुं०(वादारम्भक) तत्त्वनिर्णिनीषुजिगीषुरूपे वादमात्रारम्भके, वामरत्थापण-पुं०(वामरथ्यापन) वामरथर्षियुवापत्त्ये, यद्गोत्रेऽभिरत्ना०८ परि० जिदादिगणनया द्वाविंशं नक्षत्रम्। जं०७ वक्षः। वादि(ण)-पुं०(वादिन) वादलब्धिसम्पन्ने, नि०चू० १उ०। (परवादिनिग्रहे वामलूर-पुं०(वामलूर) वल्मीके, "रप्फा वम्मीअ वामलूरा य'' पाइo क्रियमाणे गुणदर्शनम् 'अणुजाण' शब्दे प्रथमभागे 374 पृष्ठे उक्तम्।) ना० 171 गाथा। वाबाहा-स्त्री०(व्याबाधा) विविधा आबाधा व्याबाधा। आ०म० अ० वामलोअणा-स्त्री०(वामलोचना) रमण्याम, "रामा रमणी सीमंतिणी प्रकृष्टपीडायाम, भ०८ श०३ उ०। प्रज्ञा०| बहू वामलोअणा विलया।" पाइ० ना० 12 गाथा। वाम-न०(वाम) वा-मन् / धने, वास्तुके च। मनोहरे, प्रतिकूले, सव्य- | वामवट्ट-पुं०(वामवर्त) प्रतिकूलतया वर्तमाने, ध्य०३ उ०। भागस्थे, अधमे च। त्रि० सव्यदेहे, न०। कामदेवे, महादेवे, तन्त्रोक्ते वामवर्त्तद्वारमाहवेदाचारविरुद्ध मद्यादिपानरूपाचारे च। पुं० वाच० "प्रतिकूले, वाम, एहि भणिओ उ वचइ, क्चसु भणिओ दुतं समल्लियइ। पईव पचत्थिणो वामा।" पाइ०ना० 154 गाथा। जं जह भण्णति तं तह, अकरेंतो वामवट्टो उ॥७७८|| *व्याम-पुं० / व्यामीयते परिच्छिद्यते रज्ज्वाधनेनेति व्यामः / बहुल- यः शिष्य एहि-आगच्छेति भणितः सन् व्रजति, व्रजेति भणितः सन् वचनात् डजिति डच्प्रत्ययः। तिर्यग्बाहुद्यप्रसारणप्रमाणे, रा०ा जंग द्रुतं शीघ्र समालीयते, एवमन्यदपि कार्यं यद्यथा भण्यते तत्तथा अकुर्वाणो जी०। स्था०। वामवर्त्त उच्यते / बृ०१ उ०१ प्रक०। नि०चूला वामपार्श्ववर्तिनि, त्रिका वामण-न०(वामन) मडहकोष्ठे संस्थानभेदे, यत्र हि पाणिपादशिरोग्रीवं स्था०४ ठा०२ उ०। यथोक्तप्रमाणोपेतत्वात्पुनः शेष कोष्ठं तन्मडहं न्यूनाधिकप्रमाणं भवति। वामा-स्त्री०(वामा) योषिति, पाइ०ना० / पार्श्वजिनमातरि वाराणसीस्था०६ ठा०३ उ०। अनु० जी० सं०। नि० चूला यत्र तु हिहिलकायं राजस्याश्वसेनस्य भार्यायाम, कल्प०१ अधि०६ क्षण / स०ा प्रव०। हस्तपादादिकं यथोक्तप्रमाणोपेतमुर-उदरादिकं मडहं प्रमाणरहितं वामेगकुंडलधर-पुं०(वामैककुण्डलधर) वामे कर्णे एकमेव कुण्डलं भवति / कर्म०६ कर्म० भ०। कालानौचित्येनातिहस्व देहे, प्रश्न०१ धारयन्ति येते तथा / वामकर्णमात्रेण कुण्डलधरे दक्षिणे करणे आभरआश्रद्वार। पुं० स्वर्वशरीरे, प्रश्न०५ संव० द्वारा रा०नि०ा आचा०। | णान्तरधारिणि, औ०। जी०।। वैयाकरणभेदे, यद्रचितं व्याकणशास्त्रं विंशतेर्व्याकरणानामन्यतमम्। | वामोह-पुं०(व्यामोह) मूढतायाम्, पञ्चा०५ विव०। स्था०। कल्प०१ अघि०५क्षण। पार्श्वनाथस्य शासनयक्षे मतान्तरेण गजमुख- वाय-पुं०(वात) वायौ, जी०३ प्रति०४ अधिo नामके, स चौरगफणामण्डितशिराः श्यामवर्णः कूर्मवाहनश्चतुर्भुजो वाद-पुं०। पूर्वपक्षे, अष्ट० 5 अष्टका बीजपुर-कोरगयुक्तदक्षिणपाणिद्वयो नकुलभुजगयुक्तवामपाणियुगश्च / *व्याज-न०। कपटे,द्वा०१८ द्वा०। प्रव० 27 द्वार। *म्लान-त्रिकाम्लाने, “पव्वायं वसुआयं सुसिवायं मिलाणऽत्थे।" वामणअ-पुं०(वामनक) वामनके, "खव्वो हस्सोय वामणओ।" पाइ० | पाइ० ना०८३ गाथा। ना०१०६ गाथा। वायंत-त्रि०(वादयत्) वाद्यं कुर्वति, "गायंता वायंता नचंता" औ०। वामणिज-न०(वामनीय) गुणदोषं वा संसर्गान्तरेण वमति। संसर्गजे, स्था० / वायंतियववहार-पुं०(वागन्तिकव्यवहार) वागेवान्तःपरिसमाप्ति१० ठा०३ उग गिन्तिकस्तत्र भवो वागन्तिकः स चासौ व्यवहारश्चेति। वाड्मात्रनियवामणिया-स्त्री०(वामनिका) अत्यन्तहस्वदेहायां ह्रस्वोन्नतहृदय- मिते व्यवहारे, व्य० 4 उ०। कोषायां वा स्त्रियाम, औ०। भ०। दशा वायग-पुं०(वाचक) पूर्वगतं श्रुतं सूत्रमन्यच विनेयान् वाचयतीति वाचकः / वामदेवसूरि-पुं०(वामदेवसूरि) नेमिचन्द्रसूरिकृतपञ्चसंग्रहस्य दीपिका- पूर्वगतश्रुतधारिणि, बृ०६ उ०। वाचकःपूर्वधरोऽभिधीयते स च श्रीमानुनाम्न्याष्टीकायाः कर्तरि, जै० इ०। मास्वातिनामा महातार्किकः प्रकरणपञ्चशतीकर्ता चाचार्योऽभवत्। वामद्दण-न०(व्यामर्दन) परस्परेण बाह्वाद्यङ्गमोटने, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। पञ्चा० 6 विव०। उपाध्याये, विशे० आ०म०। (अथ स्वाभिमतकल्पना औ०। भग सामान्यविशेषोभयात्मकवाच्यवाचकभावसमर्थनपुरःसरं तीर्थान्त
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________________ वायग 1085- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वायणा रीयप्रकल्पिततदेकान्तगोचरवाच्यवाचकभावनिरासद्वारेण तेषां प्रभावैभवाऽभावनिरूपणम् ‘आगम' शब्दे द्वितीयभागे 66 पृष्ठे गतम्।) वायगवर-पुं०(वाचकवर) वाचकप्रधाने, प्रज्ञा०१ पद। वायगवरवंस-पुं०(वाचकवरवंश) वाचकवराः-प्रधानवाचकास्तेषां वंशः-प्रवाहो वाचकवरवंशः। पूर्वधाराणां क्रमभाविपुरुषपूर्वप्रवाहे, नं०1 "वायगवरवंसाओ, तेवीसइमेण धीरपुरिसेणं / दुद्धरधरेण मुणिणा, पुव्वसुयसमिद्धबुद्धीणं // 1 // " प्रज्ञा०१ पद। वायज्झयण-न०(वाताध्ययन) द्विगृद्धिदशानांप्रथमेऽध्ययने, स्था०१० ठा०३ उ०। वायड-त्रि०(व्याकृत) प्रकटार्थे , ध०३ अधि० *प्रावृत-त्रि०। अनावृते, विशे। ती०। वायडाग-पुं०(वाग्डाक) मुकुलिसर्पभेदे,प्रज्ञा०१ पद। वायद्धि-स्त्री०(वागृद्धि) वाक्संपत्तौ, आ०म० १अ०। वायण(णा)संपया-स्त्री०(वाचनासंपद्) गणिसंपर्दोदे, व्या संप्रति वाचनासंपदं चतुःप्रकारामाहवायणमेया चउरो, विजियोद्देसणसमुदिसणयाय। परिनिव्वयप्पियावा,निजवणाचेव अत्थस्स॥२६१॥ वाचनाया भेदाश्चत्वारस्तद्यथा--विचिन्त्य सम्यक् योग्यतां परिनिश्चित्योद्देशनम्१, विचिन्त्यैव समुद्देशसमुद्देशनता च२, तथा परिनिर्वाप्य वाचयति 3, अर्थस्य निर्यापना / तत्र विचिन्त्योद्देशनमाहतेणेव गुणेणं तु, वायइयव्वा परिक्खिउं सीसा। उदिसति वियाणेउं,जंजस्स जोग्ग तंतस्स // 26 // अयमस्या वाचनाया योग्योऽयमयोग्य इति। तेनैव वाचनाविषयेण गुणेन शिष्याः परीक्ष्य वाचयितव्या नान्यथा / ततो यत् यस्य योग्यं तत्तस्य विज्ञाय उद्दिशति। अत्रैव प्रकारान्तरमाहअपरीणामगमादी, वियाणिउं अभायणे नवाएति। जह आममट्टियघडे, अंबेव ण छुब्मती खीरं // 263 / / अपरिणामकादीन् आदिशब्दादतिपरिणामिकपरिग्रहः छेदसूत्राणामभाजनानि विज्ञाय न वाचयति-नोद्दिशतीत्यर्थः / यथा आमे-अपक्के मृत्तिकाघटे,पक्वे वा अम्ले न क्षीरं क्षिप्यते। जइ छुन्भती विणस्सइ, नस्सइ वा एवमपरिणामादि। नोदिसे छेयसुत्तं,समुद्दिसे वाऽवितंचेव॥२६५|| यद्यम्ले क्षीरं क्षिप्यते तदा विनश्यति, यदि वा-आममृत्तिकाघटे घटस्य भङ्गतो नश्यति। एवमपरिणामादौ छेदसूत्रं विनश्यति नश्यति वा-ततो नोद्दिशति, एषा विचिन्त्योद्देशनता, समुद्दिशेदपि तदेव योग्यं नान्यत् एषा विचिन्त्य समुद्देशनता। परिनिव्वविया वाए, जत्तियमेत्तं तु तरइ ओघेत्तुं। जागहदिटुंतेणं, परिचिते तावतमुद्दिसति॥२६५।। परिनिर्वाप्य वाचयति, किमुक्तं भवति-जाहकदृष्टान्तेन यावन्. मात्रमवग्रहीतुं शक्नोति तावन्मात्रमग्रेतनपरिचिते उद्दिशति एषा परिनिर्वाप्य वाचनता / व्य० 10 उ०। (अर्थस्य निर्यापणा 'अत्थणिज्जवणा' शब्दे प्रथमभागे 506 पृष्ठे गता।) से किं तं वायणासंपदा? वायणासंपया चउविधा पण्णत्ता,तं जहा-विजयं उदिसति विजयं वाएति परिणिव्वावियं वाएइ अत्थणिज्जवए यावि भवति / सेत्तं वायणासंपदा। 'से किं त' मित्यादि, कण्ठ्यम् / गुरुराह-'वायणे' त्यादि वचना संपञ्चतुर्धा प्रज्ञप्ता / विदित्वोदिशति 1, विदित्वा समुद्दिशति 2, परिनिर्वाप्य वाचयति 3, अर्थनिर्यापकश्चापि भवति४, तत्र विधित्वोदिशति यथा योगविधिक्रमेण सम्यग् योगेनाधीष्वैवमुद्दिशति 1, समुद्दिशति वा यथा- योगसामाचार्यव स्थिरपरिचितम् कुर्विदमिति। वदतीति, अन्यथा अपारिणामिकादावपक्वघटनिहितजलोदाहरणेन दोषसंभवात्, अथवा-आमभाजने वा निक्षिप्तं क्षीरं विनश्यतिएवमयोग्यदत्तं सूत्रं विनश्यतीति 2, परितः-सर्वप्रकारं निर्वापयति, निरो निदिग्धादिभृशार्थदर्शनात् भृशं गमयते, पूर्वदत्तालापकादिसर्वात्मना स्वात्मनि परिणमयतः शिष्यस्य सूत्रगताशेषविशेषग्रहणकालं प्रतीक्ष्य शक्त्यनुरूपप्रदानेन प्रयोजकत्वमनुभूय परिनिर्वाप्यवाचयति-सूत्रं प्रददाति 3, अर्थः-सूत्राभिधेयं वस्तुतस्य निरितिभृशं यापना निर्वाहणा पूर्वापरसांगत्येन स्वयं ज्ञानतोऽन्येषां च कथनतो निर्गमयति निर्यापयतीति निर्यापकः / चापिशब्दौ विचारादिद्योतको 4, 'सेत्त' मित्यादि सुगमम् / दशा०४ अ०। उत्त० स्था०। ध००/ वायणा-स्त्री०(वाचना) वाचनं वाचना। गुरुभ्यः श्रवणे, अधिगमे, विशे० स्था०। गुरुप्रदत्तेनैव सूत्रस्य परिपाटीरूपे,विशे०। गुरुसमीपे सूत्राक्षराणां ग्रहणे, उत्त०२६ अ० वाचनाफलम्वायणाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ? वायणाए णं णिज्जरं जणयइ। सुयस्स य अणासायणयाए वट्टइ, सुयस्स अणासायणयाए वट्टमाणे तित्थधम्म अवलम्बइ, तित्थधम्म अवलम्बमाणे महानिज्जरे महापजवसाणे भवइ / / (सू०-१९) हे पूज्या वाचनया वाचयतीति वाचना–पाठना तया जीवः किं जनयति? गुरुराह-हे शिष्य ! वाचनया-सिद्धान्तवाचनेन निर्जरां कर्मशाटनं जनयति, तथा पुनः श्रुतस्य अनाशातनायां प्रवर्तते, तत्र च प्रवर्त्तमानो जीवस्तीर्थो गणधरस्तस्यधर्माः आचारः श्रुतप्रदानरूपस्तीर्थधर्मास्तम् अवलम्बते, ततस्तीर्थधर्मम् अवलम्बमानस्तीर्थधर्मम् आश्रयन् महानिर्जरो भवति / महती निर्जरा यस्य स महानिर्जरोमहाकर्मविध्वंसको भवति / पुनर्महापर्यवसानः महत्-प्रशस्यं मुक्त्यवाप्त्या
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________________ वायणा 1016 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वायणा पर्यवसानम्-अन्तः कर्मणो भवस्य वा यस्य स महापर्यवसानश्च भवति, मुक्तिर्भवतीति हार्दम्। उत्त० 26 अ० अनुयोगे, बृ०३ उ०। विनयाय निर्जरायै सूत्रादिदाने, आव०४ अाधा शिष्याध्ययने, अनु० स्था०| दश०। स० सूत्रस्यार्थस्य वा प्रदाने,न०। आ०म० स०। (गृहीतसामाचारीकाणां सूत्रार्थवाचनादातव्या इति जिणकप्प' शब्दे चतुर्थभागे 1466 पृष्ठे उक्तम्।) वाचनादानग्रहणविधिरेवम्"उवविसइ उवज्झाओ, सीसा विअरंति वंदणं तस्स। सो तेसि सव्वसमयं, वायइ सामाइअप्पमुहं / / 1 / / सोगाहणाइकुसलो, विअरइ वयरु व्ववायणं तेसिं। सीसा वि तह सुणंति अ,जह सीसा सीहगिरिगुरुणो // 2 // " तथाऽन्यत्रापि"पर्यस्तिकामवष्टम्भं, तथा पादप्रसारणम्। वर्जयेद्विकथां हास्य-मधीयन् गुरुसन्निधौ // 3 // " इति प्रच्छनाविधिस्त्वेवम्"आसणगओन पुच्छिज्जा, सिजागओ कयाऽविणो। आगम्मुकुडओ संतो, पुच्छिज्जा पंजलीउडो॥४॥" ध०३अधिक तओ नो कप्पंति वाइत्तए, तं जहा-अविणीए विगइपडिबद्ध अविओसवियपाहुडे ॥५॥तओ कप्पंतिवाइत्तए।तंजहा-विणीए नो विगइपडिबद्धे विओसवियपाहुडे / / 6 / / त्रयो नो कल्पन्ते वाचयितुं सूत्रं पाठयितुमर्थ वा श्रावयितुम् तद्यथा-- अविनीतः--सूत्रार्थदातुर्वन्दनादिविनयरहितः / विकृतिप्रतिबद्धोघृतादिरसविशेषगृद्धोऽनुपधानकारीति भावः / अव्यवशमितम्-अनुपशान्तं प्राभृतमिव प्राभृतैरेकपालकौशलकं तीव्रक्रोधलक्षणं यस्यासौ अव्यवशमितप्राभृतः। एतद्विपरितास्तु त्रयोऽपि कल्पन्ते वाचयितुम् / तद्यथा-विनीतो नाविकृतिप्रतिबद्धो व्यवशमितप्राभृतश्चेति सूत्रार्थः। अथ नियुक्तिविस्तरःविगई अविणीऍ लहुगा, पाहुडगुरुगाय दोस आणादी। सो य इयरे य चत्ता,बितियं अद्धाणमादीसु॥३१५।। विकृतिप्रतिबद्धमविनीतं च वाचयतश्चतुर्लघुका आज्ञादयश्च दोषाः। स च इतरे च साधवः परित्यक्ता भवन्ति / तत्र स तावत् विनयम-कुर्वन् ज्ञानाचारं विराधयतीति कृत्वा परित्यक्तः / इतरे च तमविनीतं दृष्ट्वा विनयं न कुर्वन्तीति परित्यक्ताः / द्वितीयपदमत्र भवति / अध्वादिषु वर्तमानानां योऽविनीतादिरभ्युपग्रहं करोति स वाचनीयः। एषा नियुक्तिगाथा। एनामेव भाष्यकृद्विवृणोतिअविनीयमादियाणं, तिण्ह विभयणाउ अट्ठिया होति। पढमे भंगे सुत्तं, पढम बितियं तु चरिमम्मि // 316 / / अविनीतादीनां त्रयाणामपि पदानामष्टिका भजना भवति–अष्टभगीत्यर्थः / यथा अविनीतो विकृतिबद्धोऽव्यवशमितप्राभृतः१, अविनी तोऽपि विकृतिप्रतिबद्धो व्यवशमितप्राभृतः 2 इत्यादि यावदष्टमो भङ्गो विनीतो विकृत्यप्रतिबद्धो व्यवशमितप्राभृतश्चेति / अत्र च प्रथमे भने प्रथमसूत्रं निपपति, चरमे-अष्टमे द्वितीयं सूत्रमिति। अथ त्रयाणामपि वाचने यथाक्रमंदोषानाह-- इहराऽवि ताव थंभति, अविणीतो लंभितो किमु सुतेणं। मा णटो णस्सिहिति,खए वखारावसेउत्तं // 317 / / इतरथाऽपि श्रुतपदानमन्तरेणापि तावद् अविनीतः स्तभ्यते स्तब्धो भवति / किं पुनः श्रुतेन लम्भितः सन् महिमानमिति शेषः। अतः स्वयं नष्टोऽसावज्ञातेऽपि मां नाशयिष्यतीति क्षते वा क्षारावसेको मा भूदिति कृत्वा नाऽसौ वाचनीयः। अपिचगोजूहस्स पडागा, सयं पयातस्स वडयति वेगं। दोसोदयप्पसवणं,ण होइण णिदाणतुल्लं च // 315|| इह गोपालको गवामग्रतो भूत्वा एव पताकां दर्शयति तदा शीघ्रतरं गच्छन्तीति श्रुतम्, ततो गोवर्गस्य स्वयं प्रयातस्य यथा पताका वेगं वर्द्धयति तथा दुर्विनीतस्यापि शुभप्रदानमधिकतरं दुर्विनयं वर्धयति / तथा दोषाणां-रोगाणामुदयेशमनमौषधंन दीयते, यतश्च निदानादुच्छ्रितो व्याधिस्तत्तुल्यं-तत्सदृशमपि वस्तु रोगवृद्धिभयान्न दीयते,यदादोषोदये दीयमानं शमनं न निदानतुल्यं भवति, किंतु-भवत्येव, ततोन दातव्यम् / एवमस्यापि दुर्विनयदोषतरे वर्तमानस्य श्रुतौषधमहितमिति कृत्वा न देयम्। विणया धीता विजा, ति फलं इह परे य लोगम्मि। न फलंति विणयहीणा, सस्साणि व तोयहीणाई॥३१६।। विनयेनाधीता विद्या इह परत्र च लोके फलं ददति / जनत्वजननयशःप्रवादलाभादिकमैहिकम्, निःश्रेयसादिकं चामुष्मिकं फलं ढोकयन्तीति हृदयम्। विनयहीनास्तुता अधीतानफलन्ति, सस्यानीव तोयहीनानि; यथा-जलमन्तरेण धान्यानि न फलन्ति। अथ विकृतिप्रतिबद्धमाहरसलोलुयता कोई, विगतिं ण मुयति दढो वि देहेणं / अन्मंगेण व सगडं,ण चलइ कोई विणा तीए॥३२०।। रसलोलुपतया कश्चिद्धेहेन दृढोऽपि विकृतिनमुञ्चति, सवाचयितुमयोग्यः। कश्चित्पुनरभ्यङ्गेन विना यथा शकटंन चलति तथा तया विकृत्या विना निवोढुंन शक्नोति, तस्यगुरूणामनुज्ञया विधिनागृह्णतोवाचनादातव्येति। किंचउस्सगं एगस्स वि, ओगाहिमगस्स कारणा कुणति। गिण्हति व पडिग्गहए, विगतिं चरमे विसांता॥३२१।। योगं वहमानः कश्चिदेकस्याप्यवगाहिमस्य कारणात्कायोत्सर्ग करोति, प्रतिग्रहे वा विकृतिं गृह्णाति, चरमेनाप्यमुनाप्युपायेन मे विकृतिविसजयितारः। एवं मायां कुर्वत. किं भवतीत्याहअतवे न होति जोगो, ण य फलए इच्छियं फलं विजा।
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________________ वायणा 1090- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वायणा अविफलति विउलमगुणं, साहणहीणा जहा विजा॥३२२।। अतपाः-स्तपसा विहीनो योगः-श्रुतस्योद्देशनादिव्यापारो न भवति। न च तपसा विना गह्यमाणा विद्या-श्रुतज्ञानरूपा ईप्स्तिंमनोऽभिप्रेतं फलं फलति, अपीत्यभ्युच्चये, प्रत्युत विपुलमगुणमनर्थं फलति। यथा साधनहीना विद्या / यस्याः प्रज्ञप्तिप्रभृतिकाया विद्याया उपवासादिको यः साधनोपचारः सा तमन्तरेण गृह्यमाणा भवतीति भावः। अथाव्यवशमितप्राभृतं व्याचष्टे अप्पे वि पारमाणिं, अवराधे श्यति खामियं तं च / बहुसो उदीरयंतो, अविओसिय पाहुडो सखलु // 323 // अल्पेऽपि परुषभाषणादावपराधे पारमाणिं परमं क्रोधसमुद्धातं यो वज्रति तच क्षामितमपि यो बहुशः उदीरयति, स खल्वव्यवशमितप्राभृत उच्यते। अस्य वाचनादोषानाहदुविधो उ परिचाओ, इह चोदणकलहदेवयच्छलक्षणा। परलोगम्मिय अफलं, खेत्तम्मि व ऊसरे बीजं // 32 // दुर्विनीतादेरपात्रस्य वाचनादाने द्विविधः परित्याग इहपरलोकभेदाद्भवति। तत्रेहलोकपरित्यागो नाम सयदि सारणादिना प्रेर्यते, तदा कलह करोति / अपात्रवाचनेन च प्रमत्तं प्रान्तदेवता छलयेत्, परलोके तु परित्यागः, श्रुतदानम् अफलं-सुगतिबोधिलाभादिकं पारत्रिकफलं न प्रापयति, ऊषर इव क्षेत्रे बीजमुप्तं यथा निष्फलं भवति। 'सा य इयरे य चत्ता' इति पदं व्याख्यातिवाइजति अपत्ता, हणुदाणुवयं पि परिसहो मो। इय एस परिचाओ, इहपरलोगेऽणवत्था य॥३२॥ मनोवत् ज्ञानाचारविराधकतया संसारं परिभ्रमतीति परित्यक्तः, इतरेऽपि साधवस्तानवाच्यमानान् दृष्टा चिन्तयन्ति-अहो अपात्राण्यपि यदि वाच्यन्ते 'हणुदाणि' ति। ततः सांप्रतं वयमपीदृशा भवामः 'इय त्ति' एवं तेषामपि दुर्विनयादौ प्रवर्त्तमानानामिहपरलोके परित्यागः कृतो भवति / अनवस्था चैवं भवति-न कोऽपि विनयादिकं करोतीत्यर्थः। अथ द्वितीयपदमध्वादिषु भवतीति यदुक्तं तद्व्याचष्टेअद्धाणओमादिउवग्गहम्मि, वाए अपत्तं पितु वट्टमाणं। पुच्छिज्जमाणम्मि व संथरेवी, अण्णासतीए वितुतं पिवाए॥३२६|| अध्वनि अवमौदर्ये आदिशब्दाद्राजद्विष्टादिषु भक्तपानादिना गच्छस्योपग्रहे वर्तमानमपात्रमपि दुर्विनीतादिकं लब्धिसम्पन्नं वाचयेत् / अथवा-किमप्यपूर्व श्रुतं तस्य समस्ति यद् पुनश्च शिष्यो न प्राप्नोति, तच्चान्यत्रासंक्रम्यमाणं व्यवच्छिद्यते।ततः संस्तरणेऽपि अपात्रं वाचयेत्। यद्वा-नास्ति तस्यान्यः कोऽपि शिष्यस्ततोऽन्यस्याभावे मा सूत्रार्थो विस्मरतामिति कृत्वा तमप्यपात्रं श्रुतं वाचयेत्। बृ०४ उ०। स्था०ा व्य०। वाचनीया अवाचनीयाःचत्तारि वायणिज्जा पण्णत्ता,तं जहा-अविणीए विगइपडिबद्ध अविओसवियपाहुडे मायी। चत्तारिवातणिज्जापण्णत्ता,तं जहाविणीते अविगतिपडिबद्धे वितोसवितपाहुडे अमाती। (सू० 326) स्था०४ ठा०३ उ०। अव्यक्तं वाचयतिजे भिक्खू अश्वत्तं वाएइ वायंतं वा साइज ||19|| जे भिक्खू अव्वत्तं ण वाएति ण वायंतं वा साइजइ॥२०॥ गाहाअध्वंजणजातो खलु, अव्वत्तो सोलसह वारेणं / तविवरीतो वत्तो, वातति परेण आणादी॥२०॥ जाव कक्खादिसु रोमसंभवो ण भवति ताव अव्वत्तो तस्स भवे वत्तो। अहवा जाव सोलसवरिसो ताव अव्वत्तो परतो वत्तो। जइ अव्वत्तं वाएइ इयरंति अन्नं न वाएति तो आणादिया दोसा चउलहुं च। अव्वत्ते इमो अववादो। गाहानाऊण य वोच्छेयं, पुव्वगते कालियाऽणुयोगे य। सुत्तत्थजाणएणं, दव्वं खेत्तं च कालं च / / 206|| पूर्ववत्। अववादे वत्तो इमेहिं कारणेहिं "दव्वं खेत्तं' गाहा-पूर्ववत्। जे भिक्खू अपत्तं वाएइ वायंतं वा साइजह॥२१॥ जे भिक्खू पत्तं ण वाएइण वायंतं वा साइजइ // 22 // इत्यादि अप्राप्त एयस्स अत्थो अपात्रसूत्रे गत एव। आदिद्वैभावेतितहा वि इहं असुण्णत्थं भण्णति अव्वत्तसुत्तस्स अप्राप्तसूत्रे भाणियव्वे। गाहापरियाएण सुत्तेण, सुत्तेण य वत्तमवत्ते य। सुत्तं अवत्तं वायंते, वत्तमवाएंति आणादी॥२०७।। परियाओ दुविहो-जम्मणओ, पव्वज्जाए या जम्मणओ सोल-सण्हं वरिसाणं अपत्तो अव्वत्तो, पव्वज्जाए तिवरिसाण अपवजस्स अव्वत्तो। जो वा जस्स सुत्तस्स काले वुत्तोतं अपावेतो अव्वत्तो, सुएण-आवस्सगेण अणवीपदस्स वेयालिए अव्वत्तो दसवेयालिए अणधीते उत्तरज्झयणाण अव्वत्तो। एवं सर्ववयपरियायसुत्तेचउ-भंगोकायव्यो। पढमभंगो दोसुवि वत्तो, बितिओ सुएणं अव्वत्तो, ततिओ वएण अव्यत्तो, चरिमो दोहि वि अव्वत्तो वाएंतस्स पढम--भंगिलं अवाएंतस्स आणादिया य दोसा चउलहुंच। अप्राप्तोऽपि वाएइ इमेहिं कारणेहिं / गाहानाउण य वोच्छेदं, पुटवगए कालियाणुयोगे य। एतेहि कारणेहिं, अव्वत्तं चाऽविवाएज्जा / / 208|| पूर्ववत् / प्राप्तं पि न वाएति इमेहिं कारणेहिं।
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________________ वायणा १०११-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वायणा गाहादव्वं खेत्तं कालं, भावं पुरिसंतहा समासज्ज / एएहि कारणेहिं,सविपक्खा वाऽविवाएज्जा / / 206 / / "आमे घड़े निहत्तं जहा जलं तं घडं विणासेइ" पूर्ववत्। अव्वत्ते अप्राप्ते छेदसुत्तं वाएज्जमाणे इदं दोसदसगं उठाणं आमे घडे' गाधा णिहितंपक्खित्तं सिद्ध कहियं अप्पा आहारत्ता जत्थतं अप्पाहारं; अप्पधारणसामर्थ्यमित्यर्थः / नि० चू० 16 उ०। जे भिक्खू हेट्ठिलाइंसमोसरणाइं अवाएत्ता उवरिमसुयं वाएइ वायंतं वा साइजइ।।१७।। गाहाआवासगमादीयं, सुत्ताणं जाव विंदुसाराओ। उकमओ वादें तो, पावति आणाइणो दोसे // 151 / / जं जस्स आदीए तं तस्स हिट्ठिलं, जं जस्स उवरितं तस्स उवरिल्लं जहा दसवेयालियस्संग हेछिल्लं उत्तरज्झयणाण दसवेयालियं हेछिल्लं एवं णेयं जाव बिंदुसारेति। गाहासुत्तत्थ तदुभयाणं, ओसरणं अहव भावमादीणं / तं पुण नियमा अंगं, सुयखंधा अहव अज्झयणं / / 152 // समोसरणं णाम मेलओ सो य सुत्तत्थाणं / अहवा-जवादिणवपदभावाणं / अहवा-दव्वखेत्तकालभावाए एत्थ समोसढा सव्वे अच्छित्ति वुत्तं भवति, तं समोसरणं भण्णति / तं पुण किं होज? उच्यते--अंगं सुयखंधो अज्झयणं उद्देसगो। अंगं जहा-आयारोतं अवागत्ता सूयगडंग वाएति। सुयखंधो जहा आवस्सयं तं अवाएत्ता दसवेयालियसुयक्खंध वाएति / अज्झयणं जहा-सामाइयं अवा-एत्ता चउवीसत्थयं वाएति। अहवा-सत्थपरिणं अवाएता लोग-विजयं वाएति / उद्देसगेसु जहा सत्थपरिण्णए पढम सामन्नदेसयं अवाएता पुढविक्काउद्देसयं बितियं वाएति / एवं सुत्तेसु वि दडव्वं / अहवा-दोसु सुअक्खंधेसु जहा बंभचेरे अवाएत्ता आयारंगे वाएति। सव्वत्थ कमतो एवं तस्स आणादिया दोसा चउलहुगा य। अत्थे चउगुरू भण्णति, पंतदेवया छलेज्ज। इमे य दोसाउवरि सुयमसहहणं, हेट्टिलेहि य अभावितमतिस्स। ण य णिव्वहती पुच्छो, गेण्हति हाणीय अण्णेसिं // 15 // हेछिल्ला-उस्सग्गसुत्ता तेहिं अभावियस्स उवरिल्ला-अववातसुया ते ण सद्दहति अतिपरिणामगो भवति। पच्छा वा उस्सगंण रोवेइ अतिक्कमेयं ति काउं तं ण गेण्हति अण्णं उवरिं गेण्हति / एवं आदिसुत्तस्स हाणी नासमित्यर्थः। आदिसुयवज्जितो उवरिसु अट्ठाणेण पयत्तेण बहुस्सुतो भण्णति / पुच्छिज्जमाणो य पुच्छं ण णिव्वहति, जारिसो एस अयाणगो तारिसा अण्णं वि एवं अण्णेसिं पि अवण्णो भवति। जम्हा एवमादी दोसा तम्हा परिवाडीए दायव्वा इमो अववातो। गाहा काऊण य वोच्छेदं,पुटवगतिकालियाऽणुजोगे य। सुत्तत्थ तदुभए वा, उक्कमओ वा विवाएजा।।१५।। पियधम्मदढधम्मस्स निसग्गमतो परिणामगस्स संविग्गसमभावस्स विणीयविणयस्स परममेहाविणो एरिसस्स कालियसुत्ते पुव्वंगं एवमवोच्छिज्जओ त्ति उक्कमेऽवि देजा। नव ब्रह्मचर्याण्यवाच्य उपरितनं श्रुतं वाचयतिजे भिक्खू णव बंभचेराई अवाएत्ता उवरिमं सुयं वाएइ वाएंतं वा साइज्जइ॥१६|| णवबंभचेरग्गहणेणं सव्वो आयारो गहितो।अहवा-सव्यो चरणाणुओगो तं अवाएत्ता उत्तमसुत्तं वाएति तस्स आणादिया य दोसा तं चलहुंच। किं पुण तं उत्तमसुत्तं? उच्यते। गाहाछेयसुत्तं असुयं, अहवा वि यं दिहिवाओ भण्णइ। ओवा तं हि य सुत्ते, वणिजइचउण्ह अणुओगो।।१५।। गाहापुव्वद्धं कंठं। अहवा-बंभचेरादिआयारं अवाएत्ता धम्माणु-ओगं इसिभासीयादिवाएति। अहवा-सूरप्पण्णत्तिमाइंगणियाणु-ओगंवाएति एवं उक्कमोच्चारणियाए सव्वो वि भासियव्यो / एवं सुत्ते अत्थे वि चरणाणुओगस्स अत्थं अकहेत्ता धम्मादियाणं अत्थं कहेति। आदेसओ वा चउगुरुंछेदे सुयं / कम्हा उत्तमसुत्तं भण्णति? जम्हा तत्थसपायच्छितो विधी भण्णति, जम्हा य तेण चरणविसुद्धी करेति तम्हा तं उत्तमसुत्तं दिहिवाओ। कम्हा सुत्ते सुत्ते चउरो अणुओगा दंसिज्जंति। उक्तं च-- "अबुहत्ते'' गाहा कंठ्या, णवरं वोच्छिण्णंति एगसुत्ते चउण्हमणुओगाणं जा कहणविधी सा पुहत्त-करणाण वोच्छिण्णाण संपयं पक्त्तइ णज्जइ वा। अहवा-तेसिं अत्थाण कहणसरूवेण एगसुत्ते व वत्थाणं वोच्छिण्णं पृथक्स्था -पितमित्यर्थः / केण पुहत्तीकयं? उच्यते-बलबुद्धिमेहाधारणाहा–णीणाओविज्झ"दुव्वलियपूसमित्तं च पडुच्च देविंदे' गाहा कंठ्या। के पुण ते चउरो अणुओगा? उच्यन्ते / गाहाकालियसुयं च इसिभा-सियाइँ चेव सूरपण्णत्ती। जुगमासज्ज विभत्तो,अणुओगो तो कओ चउहा।।१५६|| कंध्या। अहवा किं कारणंणय वज्जितो चरणाणुओगो पढमंदारठवियं। - उच्यते ! गाहानयवजिओ वि हु अलं, दुक्खक्खयकारओ सुविहियाणं। चरणकरणाणुओगो, तेण कयमिणं पढमदारं / / 157|| कण्ठ्या। शिष्याह-कालियसुयं आयारादिएकारस अंगातत्थ य कप्पं आयार तग्गता जे पुण अंगबाहिरा छेयसुयज्झयणा ते कत्थ अणुओगे वत्तव्वा ? उच्यते। गाहाजं च महाकप्पसुयं, जाणिय सेसाणि छेदसुत्ताणि। चरणकरणाणुयोगो, त्ति कालियछेदो उवगयाणि // 158||
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________________ वायणा 1012- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वायणा आवस्सयं दसवेयालियं च एत्थ वत्तव्वं चरणधम्मगाणिम्मगाणि य / दवियाण सुत्तत्तणुओगे कमट्ठ वि कारणं। गाहा-- अवुहत्ते विउकरणं, पढमं वणिज्जते ततो धम्मो। गणितदिवियाणि वि ततो, सो चेव गमो पुहत्ते वा ||15|| कंठ्या। तेसु पुण जुगवं वणिजमाणेसु इमा विही। गाहाएक्के कम्मि उ सुत्ते, चउण्हं दोवाण आसितु विभागा। दारे दारे य नया, गाहगगेण्हंतरा एया॥१६०।। सुत्ते सुत्ते चउरो दार त्ति अणुओगा पुणो एक्केको, अणुओगेण एहिं / चिंतिज्जति, तयण्णयग्गाहगंपडुच्च गिण्हतगंवा संखेववित्थरेहिं दट्ठव्वा। जति गाहा। गोणं एवं तुसमत्थोगेण्हतगो विसमत्थोतोसव्वएहिं वित्थरेण विभासियव्वं / बितियभंगे गेण्हतगवसेण णातव्या बितियभंगे जत्तियं वुत्तुं समत्थो ततियं भासति, चरिमे दोण्णि विजं सुत्ताणुरूवं अपुहत्ते पुहत्ते वा ते चउरो अणुओगा कहं वि भासिज्जंति। उच्यते / गाहासमतत्ति होति चरणं, समभावम्मिय ठितस्स धम्मो उ। काले तिकालविसयं,ठविए वि गुणोऽणुदध्वत्ता।।१६१|| तुलाधरणं च-समभावकरणं चरणसमभावट्ठियस्स णियमा विसुद्धिसरूवो धम्मो भवति, काले णियमा तिकालविसयं चरणं / जम्हा समयखेत्तकालविरहितं ण किंचि अस्थि अहवा-तिकालविसयं ति यं चत्थि कायव्वा, जहा धुवाणित्तिया सासती तहा चरणं भुवि च भवति भविस्सति य / दवाणुओगे चरणं चिंता किं दव्यो गुणो त्ति दव्वहिताभिप्पारण चरणं दव्वं पञ्जवहिताभिप्पारण चरणं गुणो। अहवा-पढमतो सामाइयगुणे पडिवत्तितो पुव्वमेव चरणं लब्भति चरणद्वितस्स धम्माणुओगो लब्भति चरणधम्मट्ठियस्स गणियाणुओगो दिज्जति, ततोऽतिअणुओगभावितस्स थिरमतिस्स दव्वाणुओगो य एहिं विधीहिं दंसिज्जति। इदं च वर्ण्यते। गाहाएत्थं पुण एक्कक्के, दोयम्मि गुणा य होत वायाए। गुणदोसदिट्ठसारो, णियतति सुहं पवत्ततिया॥१६२|| एत्थ त्ति एतेसिं अणुओगाणयऽत्थकहणे 'पुण' विशेषणे,किं विशेषेति? एक्कक्के अणुओगे गुणा दरिसिजेति, अवायति दोसा य। कहं? उच्यतेपडिसिद्धं आयरंतस्स विहियं अकरेंतस्स य इहपरलोइया दोसा, पडिसिद्ध वजेंतस्स विहियं करेंतस्स इहपर-लोइया गुणा चरणाणुवचयभवणं गुणसारो चरणविघातो कम्मु-वचओ भवणवंदो संसारो / एवं गुणदोसदिवसारो दोसु ठाणेसु सुहं णिवतति, गुणट्ठाणेसुय सुहं पवत्तते। अहवा--णयवादेसु एगंतगहे दिट्ठदोसो सुहं णिवत्तति अणेगंतगाहे य दिगुणो सुहं पवत्तति अतो भण्णइ। गाहाअपुहत्ते व कहें ते, पुहत्ते व कमेण वायंतम्भि। पुव्वभणिता उदोसा, वोच्छेदादी मुणेयव्वा / / 163 / / अणुओगाणं अपुहत्तकाले पुहत्तं विणा कारणेण कायव्वं, पुहत्तेण कारणेण उक्कमकरणंण कायव्वं। अहवा-करेति पडिसिद्धंतो इमातो आदिसुत्ते जे वोच्छेदादिया दोसा वुत्ता ते भवंति। गाहाआयारे अणहीए, चउण्ह दाराण अण्णतरगं वा। जे भिक्खू वाएती, सो पावति आणमादीणि // 16 // सुयकडादिचरणाणुओगे दट्ठव्वो। सेसं कंठं। गाहाणाऊण य वोच्छेयं,पुव्वगइकालियाणुजोगे य। सुत्तत्थजाणएणं, अविहियविहिएय होयव्वं / / 16 / / पूर्ववत्कंठ्या। जे भिक्खू अव्वत्तं वाएइ वायंतं वा साइजइ // 16 // जे भिक्खू अव्वत्तं ण वाएति ण वायंतं वा साइजइ॥२०॥ अपात्रमयोग्यमभाजनमित्यर्थः, तप्पडिपक्खो पत्तं / जे भिक्खू अप्पत्तं वाएइ वायंतं वा साइज्जइ // 21 // जे भिक्खू पत्तं ण वाएइ ण वायंतं वा साइज्जइ / / 22 / / अप्राप्त क्रमादनधृतश्रुतमित्यर्थः। तप्पडिपक्खोपत्तं। आणादी चउलहुं वाएइ चउरो वि सुत्ता एगट्ठा वक्खाणिज्जंति। नि०चू० 16 उ०। (तत्र 'अणुओग' शब्दे प्रथमभागे 343 पृष्ठे अनुयोगश्रवण-पात्रीभूता बहुश्रुतादयः परिगणिताः स्वस्वस्थाने व्याख्याताः।) अत्र तिम्रोव्याख्यास्तद्यथा प्राप्तमिवानुयोगं श्रोतुमर्हति नाप्राप्तमिति प्रथमा, पात्र एवानुयोगश्रवणं कारयितव्यो नापात्र इति द्वितीया, व्यक्तएवानुयोगंश्रावणीयो नाव्यक्त इति तृतीया, अस्यां च तृतीयव्याख्यायां "वत्तोय" त्ति पाठो द्रष्टव्यः। अथाधस्तनमेव व्याचिख्यासुराहतितिणिए चलचित्ते, गाणंगणिए अदुव्बलचरिते। आयरियपारिभासी, वामाव? य पीसूणे // 766 / / आदी अदिट्ठभावे, अकडसमायारिए तरुणधम्मे। गवियपइन्ननिण्हइ, छेयसुए वजए अत्थं // 767 / / तिन्तिणिकश्चलचित्तो गाणंगणिकश्च दुर्बलचारित्र आचार्यपरिभाषी आचार्यपरिभावी वा वामावर्त्तश्च पिशुनश्च 'आदी अदिट्ठभावे' त्ति आदौ आवश्यकादिशास्त्रेषु वर्तमाना अदृष्टा भावा येन स आद्यदृष्टभावस्तथा अकृतसामाचारीकस्तरुणधर्मा च गर्वितः यः 'पइण्ण' त्ति प्रकीर्णप्रश्नः प्रकीर्णविधश्च निण्हइ' त्ति गुरुनिह्नवी एतेषां छेदश्रुतविषयमर्थं वर्जयेत् नदद्यादित्यर्थः / (तितिणिकादयः स्वस्वस्थाने व्याख्याताः।) (अत्रच तिन्तिणिकचलचित्तगाणंगणिकदुर्बलचरित्राचार्यपरिभाषितवामावर्तपिशुनाकृतसामाचारीकगर्वितप्रकीर्णनिह्नविन एकादशाऽपात्रभूताःशिष्याः। आदिमोऽदृष्टभावः अप्राप्ततरुणधर्मा पुनरव्यक्तः। अथैषां सूत्रार्थप्रदाने प्रायश्चित्तमाह-- अव्वत्ते य अपत्ते,लहुगा लहुगा यहोति अप्पत्ते।
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________________ वायणा 1063 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वायणा लहुगा यदव्वतितिणि,रसतितिणि होति चउगुरुगा / / 763|| अव्यक्तस्तरुणधर्मा तस्य तथा 'अपत्ते' त्ति अपात्राणामेकादशसंख्याकानां सूत्रार्थों यदि ददाति तदा चत्वारो लघुकाः 'लहुगा य होति अप्पत्ते' त्ति अप्राप्त आद्यदृष्टभावस्तस्मै ददाति चत्वारो लधुकाः। अत्रैव विशेषमाह-'लहुगा य दव्य' इत्यादि। द्रव्यतिन्तिणिकस्य ददाति चत्वारो लघवः रसतिन्तिणिकस्य ददाति चत्वारो गुरवः, उपधिशय्यातिन्तिणिकयोर्ददानस्य चत्वारो लघवः / इत्यनुक्तमन्यत्रावसातव्यं निशीथचूर्णावुक्तत्वात्अंतो बहिं च गुरुगा, आयरियगिलाणबालबिइयपयं। आयरियपारिभासि-स्स हाँति चउरो अणुग्घाया||७६४|| आहारोपधिशय्याविषयामन्तर्बहिश्च संयोजनां कुर्वतश्चत्वारो गुरवः, आचार्यग्लानबालादीनामर्थाय द्वितीयपदं भवति; एतदर्थ संयोजनामपि कुर्वन् शुद्ध इत्यर्थः / आचार्यपरिभाषिणः पुनश्चत्वारो गुरवोऽनुद्धाताः प्रायश्चित्तम्। अथोपसंहरनाहतम्हा न कहेयव्वं, आयरिएणं तु पवयणरहस्सं। खेत्तं कालं पुरिसं नाऊण पगासए गुत्तं // 765|| आचार्येण वचनरहस्यमपवादं न कथयितव्यम्, कथं पुनः कथयितव्यमित्याह-क्षेत्रमध्वादिकं प्रवेष्टव्यं ज्ञात्वा प्रथमतोऽध्यकल्पादिकं प्रवचनरहस्यभूतमपरिणतानामपि कथयितव्यमन्यथा तेषां मार्गे गच्छता संयमात्मविराधना स्यात्, एवं कालमपि दुर्भिक्षादिकमागमिष्यन्तमागतं वा ज्ञात्वा यथायोगमपरिणतानामपि राहसिकश्रुतार्थ प्रकाशयेत्, पुरुष वा परिणामलक्षणमुपलक्षणत्वाद् भावं वा ग्लानवृद्धासहिष्णुप्रभृतीनामुपग्रहणकरणादिलक्षणं ज्ञात्या प्रकाशयेत्, गुह्यछेदश्रुतरहस्यमितिव्याख्यातं 'पत्तेय' त्ति द्वारम्। तथा अनुज्ञातद्वारमाहचउभंगोऽनुन्नाए, अणणुण्णाते य पढमतो सुद्धो। सेसाणं मासलहु, अविणयमाई मवे दोसा // 766|| अत्रानुज्ञाताननुज्ञातपदाभ्यां चतुर्भड़ी कार्या। तद्यथा-अनुज्ञातमनुज्ञातो वाचयतीति प्रथमः। अस्य भावना-कश्चित् प्रातीच्छिको गच्छान्तरादागत्य सूत्राध्ययनार्थमुपसंपन्नः, स चाचार्यरनुज्ञातः, आर्य! उपाध्यायस्य सकाशेऽधीष्वेति। ततः स उपाध्यायस्य समीपे गत्वाब्रूते-भगवन् ! गुरुभिरहमादिष्टो भवतां पादमूले पठनार्थमिति / तत उपाध्यायेनागत्य आचार्याः पृच्छनीयाः यथा-क्षमाश्रमणाः! पाठयाम्यहममुकं साधुमिति? ततो गुरुभिर्वाढमित्युक्ते स उपाध्यायेन पाठनीयः। एवं कुर्वन्ननुज्ञातो वाचयतेत्यभिधीयते, एष प्रथमो भङ्गः शुद्धः / अनुज्ञातमननुज्ञात इति द्वितीयः। तद्भावना-स साधुराचार्यभणितः, पठोपाध्यायान्तिके। स तथैवमादिष्टः पठितुमुपस्थित उपाध्यायसन्निधौ, स उपाध्यायो यद्या चार्यानपृष्टा तंपाठयति तत उपाध्यायस्य भासलघु। अननुज्ञात-मनुज्ञात इति तृतीयः / अत्र चाचार्यरुपाध्ययस्तस्य साधोः शृण्वतः सन्दिष्टः, आर्य ! पाठयेर, साधुमिति; न पुनरितरः संदिष्टस्ततः स उपस्थितः सन्नुपाध्यायेन प्रश्नीयः। सौम्य ! क्षमाश्रमणैः सन्दिष्टस्त्वंनवेति? ब्रूयात् सः, मया युष्माकमादेशो दीयमानः श्रुतो न पुनरहं सन्दिष्ट इत्युक्ते यधुपाध्यायः पाठयति तदाद्वयोरप्यध्याप्याऽध्यापकयोसिलधु, अथ न पाठयति तत उपाध्यायः शुद्धः। अननुज्ञातमननुज्ञातो वाचयतीति चतुर्थो भङ्गः / अत्रचोपाध्यायोऽप्यननुज्ञातः, शिष्योऽप्यननुज्ञात इति कृत्वा द्वयोरपि मासलघु / अत एवाह-शेषेषु-प्रथमभङ्गव्यतिरिक्तेषु भङ्गेषु मासलघु, गाथायां प्राकृतत्वात्सप्तम्यर्थे षष्ठी। अविनयादयश्च दोषा भवन्ति। आदि-शब्दादनवस्था अन्येषामपि यदृच्छयाऽध्ययनाध्यापनलक्षणादयो दोषाः परिगृह्यन्ते / गतमनुज्ञातद्वारम् / बृ० १3०१प्रक०। (परिणा-मकाति परिणामकद्वाराणि स्वस्वस्थानयोरुक्तानि।) अव्यक्तवाचने प्रायश्चित्तम्सामन्नं पुण सुत्ते, मयमायामं चउत्थमत्थम्मि। अप्पत्ताऽपत्ताऽव-त्तवायणुद्देसणाइसुय।।२५।। अपात्रः अयोग्यस्तिन्तिणिकश्चलचित्तः गाणंगणिकादि, अव्यक्तोवयसा लघुः, श्रुतेन वाऽयल्पश्रुतः। एतेषामप्राप्तापा-त्राव्यक्तानां श्रुतं पाठरूपं यो ददाति, तद्देशमुद्देशानुज्ञा वा करोति, तस्यापि चतुर्थम् / चशब्दोऽनुक्तसमुच्चये, तेन प्राप्तपात्रव्यक्तानां च यो वाचनां न ददाति उद्देशादींश्च न करोति तस्यापि चतुर्थमि-त्यर्थः / जीता पञ्चभिः प्रकारैर्वाचयेत्पंचहि ठाणेहिं सुत्तं वाएला,तं जहा-संगहट्टयाए उवग्गहणट्ठयाए निज्जरठ्ठयाए सुत्ते वा मे पज्जवयाए भविस्सइ सुत्तस्स वा अय्वोच्छित्तियट्टयाए / / (सू०४६८) 'पंचही त्यादिसुगमम्, नवरं सुत्तं श्रुतं सूत्रमात्रं वा वाचयेत्-पाठयेत्, तत्र संग्रहः-शिष्याणां श्रुतोपादानं स एवार्थः-प्रयोजनं तस्मै संग्रहार्थाय, संग्रह एव वाऽर्थो यस्य स संग्रहार्थस्तद्भावस्तत्ता तया संग्रहार्थतया श्रुतसंग्रहो भवत्वेषामिति प्रयोजनेनेति भावः। अथवैत एव मया संगृहीता भवन्ति शिष्यीकृता भवन्तीति संग्रहार्थतया, तत्- संग्रहायेति भावः, एवमुपग्रहार्थायोपग्रहार्थतया वा एवं ह्येते भक्तपानवस्वाधुत्पादनसमर्थतयोपष्टम्भिता भवन्विति भावः। निर्जरार्थाय निर्जरणमेवं कर्मणां भवत्विति, श्रुतं वा ग्रन्थो मे मम वाचयत इति गम्यते, पर्यवजातं जातिविशेष स्फुटतया भविष्यतीति, अव्यवच्छित्या नयनंश्रुतस्य कालान्तरप्रापणम् अव्यवच्छित्तिनयः, स एवार्थस्तस्मै इति। स्था०५ ठा०३ उ०। (अस्वाध्याये न वाचयितव्यमिति 'असज्झाइय' शब्दे प्रथमभागे 833 पृष्ठे गतम्।) (वाचनायां विनयादिप्रकाराः 'आयारपकप्प' शब्दे द्वितीयभागे 355 पृष्ठे गताः ।)(गृहस्थेभ्योऽन्ययूथिकेभ्यो न वाचना देयेति 'अण्णउत्थिय' शब्दे प्रथमभागे 472 पृष्ठे उक्तम्।)
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________________ वायणा 1064 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वायणा प्रवर्त्तिन्यां मृतायां संयतीनां वाचनाकप्पति निग्गंथीणं वितिगिट्टे काले सज्झायं करेत्तए निग्गंथनिस्साए॥११॥ कल्पते निर्ग्रन्थीनां निर्ग्रन्थनिश्रया व्यतिकृष्टऽपि काले स्वाध्यायं कर्तुमिति सूत्रार्थः। अधुना भाष्यप्रपञ्चः, तत्र प्रथमतः पूर्व पक्षस्यावकाशं दर्शयतिकप्पइ जइ निस्साए, वितिगिटे संयतीण सज्झाओ। इति सुत्तेणुद्धारे, कयम्मि उ कमागतं भणइ // 212|| कल्पते यतिनिश्रया व्यतिकृष्ट काले संयतीनांस्वाध्याय इति सूत्रेणोद्धारे कृते परः क्रमागतं परिपाट्यागतमिदं भणति। किं तदित्याहपुव्वं वन्नेऊणं, संजोगविसं च जायरूवं च। आरोवणं च गुरुई, नहु लब्भा वायणं दाउं॥२१३| पूर्व संयोगविषजातरूपं च विषं; सहजविषं चेत्यर्थः, आरोपणा च-- प्रायश्चित्तं चतुर्थी वर्णयित्वा यत्संप्रति वाचनां ददत अन्तर्भूतण्यर्थत्वात् दापयतां दापयितुं (न हु) नैव लभ्यम्। एवं परेण पूर्वपक्षे कृते सूरिराहकारणियं खलु सुत्तं, असति पवाएंतियाए वाएज्जा। पाढेण विणा तासिं, हाणी चरणस्स होजाहि // 21 // इदं खलु सूत्रं कारणिकं कारणेन निवृत्तम्, तदेव कारणमाह-असत्यभावे प्रवाचयन्त्याः -प्रवर्तिन्या वाचयेत् संयतीः, अन्यथा पाठेन विना तासां चरणस्य हानिर्भवेत्। यदि भवति ततः को दोष इत्यत आहजातो पव्वइयातो, सग्गं मुक्खं च मन्नमाणीतो। जइ नऽस्थि नाणचरणं, दिक्खा हु निरस्थिया तासिं // 215 / / याः स्वर्ग मोक्षं च मृगयमाणाः प्रव्राजितास्तासां यदि ज्ञानं चरणं च नास्ति ततो (हु)निश्चितं दीक्षा निरर्थिका। कथं निरर्थिकेत्यत आहसव्वजगुजोयकर, नाणं नाणेण नज्जए चरणं / नाणम्मि असंतम्मी, अञ्जा किह नाहिति विसोहिं / / 216|| सर्वस्यापि जगतः उद्योतकरं ज्ञानम्, ज्ञानेन च जायते चरणम्, ततो ज्ञाने असत्यार्यिका विशोधिकार्य किं ज्ञास्यति? नैव ज्ञास्यतीति भावः। ततो विशुद्धयभावात् चरणाभावस्तथा चाह-- नाणम्मि असंतम्मि, चरित्तं पि न विज्जए। चरित्तम्मि असंतम्मि, तित्थे नो सचरित्तया॥२१७॥ ज्ञाने असतिप्रागुक्तयुक्तेश्चारित्रमपिन विद्यते, असति चारित्रे सकले तीर्थे नार्यिकाणां सचारित्रता। अचरित्तयाए तित्थस्स, निव्वाणं नाभिगच्छद। असती निव्वाणस्सय, दिक्खा होति निरत्थगा॥२१८|| संयतीरधिकृत्य तीर्थस्याचारित्रतया संयती निर्वाणं काऽपि नगच्छति, निर्वाणस्य चाभावे दीक्षा निरर्थिका। तम्हा इच्छावेती, एतासिंनाणदंसणचरितं / णाणेणं चरणेणं, काहिति अंतं भवसयाणं // 21 // यतो निर्वाणाभावे दीक्षा निरर्थिका, अथवा-तासां निर्वाणाय भगवता दीक्षाऽनुज्ञाता, तस्मादेतासांदीक्षाबलादपि ज्ञानदर्शनचारित्रं समाहारत्यादेकवचनमिच्छापयति, यतो 'अन्तं' विनाशं भवशतानां करिष्यन्त्यार्यिकाः, यतो निवीणं लभ्यते ज्ञानचरणेन नान्यथा। नाणस्स दंसणस्सय, चारित्तस्स य महाणुभावस्स। तिण्हं पिरहखणऽहा,दोसविमुक्को पवाएज्जा॥२२०।। ज्ञानस्य दर्शनस्य चारित्रस्य च कथंभूतस्यैकैकस्येत्यत आह-महान् अनुभावः प्रभावो यस्य तत्तथा तस्य, एतेषां त्रयाणां रक्षणाय दोषविमुक्तोवक्ष्यमाणदोषविप्रमुक्तः प्रवाचयेत्। अप्पसत्थेण भावेण, वाएंतो दोसवं भवे। केरिसो अप्पसत्थो उ, इमो सो इ पवुचती // 221 / / अप्रशस्तेन भावेन वाचयन् दोषवान् भवति,न प्रशस्तेन। अथ कीदृशः सोऽप्रशस्तो भावः? सूरिराह- सोऽप्रशस्तो भावोऽयं प्रोच्यते। तमेवाहपरिवारहेउमण्ण-ट्ठयाए वभियारकज्जहेउवा। अगारा य बहुविहा, असंवुडादी उदोसाय॥२२२।। परिवारो मे भूयादिति हेतोरन्नाऽर्थतया वा; अन्नं पानं वा ममाऽऽनीय दास्यतीत्येतदर्थं वा इत्यर्थः, व्यभिचारार्थ वा अन्येषां वा-एतदतिरिक्तानां कार्याणां हेतोः, अथ अगाराणि-गृहाणि बहुविधानि असंवृतादीनि मे संपादयिष्यतीत्येतदर्थं यदि वाचयति तदा सः अप्रशस्तो भाव इति तस्य दोषाः / गणिणी कालगयाए, बहिया य ण विजए जया अण्णा। संता वि मंदधम्मा, मज्जायाए पवाएज्जा॥२२३।। गणिन्यां-प्रवर्तिन्यां कालगतायांतत्रान्यत्र वा बहिर्यदा अन्या प्रव्राजिका न विद्यते, अथास्ति परं सत्यपि सा मन्दधा ततः साधुर्मर्यादया प्रवाचयति। तामेव मर्यादामाहआगाठजोगवाहिणी, पकप्पो वा वि होज असमत्तो। सुत्ततो अत्थओ यावि, कालगया य पवत्तिणी॥२२॥ आगाढयोगवाहिनी काऽपि संयती, यदि वा--कस्याश्चित्संयत्याः प्रकल्पो-निशीथाध्ययनं सूत्रतोऽर्थतश्चासमाप्तो भवेत्-वर्तते, अत्रान्तरे च प्रवर्तिनी कालगता। अण्णा य सगच्छम्मी, जइ नऽत्थि पवाइया। अण्णगच्छा मणुण्णं तु, आणयंति ततो तहिं // 225 / / अन्या स्वगच्छे यदि प्रवाचिका न विद्यते, ततोऽन्यगच्छात्-मनोज्ञासांभोगिकीं तत्रार्यिकां वसतावानयन्ति। सा तत्थ निम्मवे एकं, तारिसीए असंभवे /
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________________ वायणा 1065 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वायणा उग्गहधारणॉकुसलं, ता य नयंति अन्नत्थ।।२२६।। सा-मनोज्ञा समानीता सती तत्र एकामार्यिका निर्मापयति / अथ तादृशी-मनोज्ञा न विद्यते तत आह तादृश्यभावे ततोऽवग्रहधारणाकुशलामन्यत्राऽसांभोगिके गच्छान्तरे नयन्ति। तत्र संयतानां संयतीनां च परीक्षा कर्तव्या। तथा चाऽऽहसंविग्गमसंविग्गा, परिच्छियव्वायदो वि वग्गाओ। अपरिच्छणम्मि गुरुगा, परिच्छ इमेहि ठाणेहिं / / 227|| द्वावपि संयतसंयतीरूपौ वगा संविनावसंविग्नाविति वा परीक्षितव्यौ, यदिनपरीक्षन्तेततो द्वयोर्वर्गयोरपरीक्षणे प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः।सा च परीक्षा एभिर्वक्ष्यमाणैः स्थानैः कर्तव्या। तान्येवाहवचंति ताव एंती, भत्तं गेण्हति ताव जं देंति। कंदप्पतरुणवाउस, अकालऽभीयाय सच्छंदा।।२२।। संयताः संयतीनामुपाश्रये निष्कारणं व्रजन्ति ता अपि वा संयत्यः संयतानामुपाश्रयं निष्कारणमागच्छन्ति, तथा भक्तं पानं वा संयतानां पार्वे संयत्यो यथा कथंचन गृह्णन्ति, तावासंयत्यः संयतानां प्रयच्छन्ति, तथा परस्परं तरुणास्तरुण्यश्च कन्दर्पकथां कथयन्ति, तथा संयताः संयत्यश्च वाकुशं भावं विभ्रति, तथा द्वावपि वर्गावकाले चरतः, तथा संयता आचार्यान् न विभ्यति, आर्यिकाः प्रवर्त्तिन्याः, तथा संयताः संयत्यश्व स्वच्छन्दाः-आत्मन इच्छया; यान्ति आयान्ति वा इत्यर्थः / अट्ठमी पक्खिए मोत्तुं, वायणाकालमेवय। पुवुत्ते कारणे वाऽवि, गमणं होइ अकारणे // 226 / / अष्टमी पाक्षिकं तथा वाचनाकालं तथा पूर्वोक्ता 'निगम्मति कारणजाए' इत्यादिना ग्रन्थेनयानि कल्पेऽभिहितानि तानि मुक्त्वा शेषकालं यद्भवति गमनं तदकारणं; निष्कारणमित्यर्थः, एतेन ता वा संयत्यो निष्कारणमायान्तीति व्याख्यातम्। थेरा सामायारिं, अज्जा पुच्छंति ता परिकहेंति। आलोयणसच्छंदं, वेंटलगेलग्नपाहुणिया।।२३०।। स्थविरा-आचार्या आत्मीया आर्यिका वास्तव्यानामार्यिकाणां समाचारी पृच्छन्ति, तथा कीदृशी वास्तव्यानामार्यिकाणां सामाचारीति एवं पृष्टाः सत्यस्ताः परिकथयन्ति, या यत्र गतास्तास्ततः प्रत्यागता नालोचयन्ति, नापि दैवसिकं रात्रिकं पाक्षिकं वाऽतीचारमालोचयन्ति। यथा स्वच्छन्दं वर्तते, नाचार्योपाध्याय-प्रवर्तिनीनां वश्यायत्ता। तथा वेण्टलानि प्रयुञ्जन्ति,न च ग्लानायाः प्रतितपयन्ति , नापि प्राघूर्णकानां वात्सल्यं विदधति। चित्तलए सविकारा, बहुसो उच्छोलणं च कप्पट्टी। थलिघोडवेससाला, जंत-वर-काहिय-निसेजा।।२३१|| तथा चित्रलानि वस्त्राणि परिदधति, तथा सविकारा गतौ उल्लापे च विकारसहिताः, तथा बहुशोऽनेकप्रकारं मुखनयनकक्षाहस्तपादादी नामुच्छोलनं--प्रक्षालनं कुर्वन्ति, तथा कल्पस्थानिडिम्भरूपाणि रमयन्ति, मण्डयन्ति। ममीकुर्वन्ति वा। तथास्थाल्यो-देवद्रोण्यस्तासु भिक्षार्थं व्रजन्ति। तत्रघोटाडङ्गरास्ते निरुद्धा बलादपि गृह्णन्तिास्थल्यां वा समवसृतः प्रत्यासन्ने य उपाश्रयस्तत्र वसन्ति, वेश्यागृहाणि वा हिण्डन्ते, तत्पाटके वा वसतौ तिष्ठन्ति, शाला-अश्वशाला वा तासु हिण्डन्ते, तासां वा समीपे उपाश्रये तिष्ठन्ति, यन्त्राणि-इक्षुयन्त्रतैलयन्त्रादिगृहाणि तानि हिण्डन्ते, तन्मध्ये वा उपाश्रये वसन्ति। तथा व्रजे गोकुले वाव्रजन्ति, काथिकादिकत्वंवा कुर्वन्ति, गृहनिषद्यां बाधन्ते। एष द्वारगाथाद्वयसमासार्थः। साम्प्रतमेतदेव विवरीषुः प्रथमत आलोचनद्वारं स्वच्छन्दद्वारशाहजाजत्त गया सा उ, नाऽलोए दिवसपक्खियं वाऽवि। सच्छन्दाता वयणे, महतरियाए न ठायंति॥२३२|| या यत्र गता सा ततः प्रत्यागता नाऽलोचयति, नापि काचन दैवसिकं पाक्षिकमपिशब्दात्-रात्रिकं वाऽतीचारमालोचयति / तथा स्वच्छन्दाः सर्वा अपि वर्तन्तेन महत्तरिकाया उपलक्षणमेतत्तत्रा-न्याचार्योपाध्याययोर्वचने न तिऽन्ति। अधुना वेण्टलादिद्वारचतुष्टयमाहवेंटलगाणि पउंज-ति गिलाणा याविण पडितप्प॑ति। आगाऽणागाढं, करें तिरुणागाढे आगाढं // 233|| अजयणाए व कुव्वंति, पाहुणगादि अवच्छला। चित्तलाणि नियंति, चित्तारयहरणातहा।।२३।। वेण्टलानि-खिटिकाचप्पुटिकादीनि प्रयुञ्जत, नापिग्लालान् प्रतितप्प्यन्ति-प्रतिचरन्ति। यदि वा--आगाढे अनागाढं कुर्वन्ति, अनागाढे वा आगाढमयतनया कुर्वन्ति / तथा प्राघूर्णिकायामवत्सलास्तथा चित्रलानि-विचित्ररेखोपेतानि वस्त्राणि निवसते-परिदधति, चित्राणि वा नानाप्रकाराणि रजोहरणानि धारयन्ति। __संप्रति सविकारद्वारमाहगइविन्भमादिएहिं, आगारविगार तह पदंसेंति। जह किडगाण वि मोहो, समुदीरति किं तु तरुणाणं // 23 // गतिविभ्रमादिभिः आकारविकारांस्तथा प्रदर्शयन्ति यथा किटकानामपि-वृद्धानामपि मोहः समुदीर्यते किं पुनस्तरुणानामतिबहुशः। उच्छोलद्वारं कल्पस्थद्वारंचाहबहुसो उच्छोलंती, मुहनयणे हत्थपायकक्खादी। गेण्हण मंडण रामण, भोयंति-वा ता कप्पटे // 236|| मुखनयनानि हस्तपादकक्षादिक च बहुशो–ऽनेकवारमुच्छोल-यन्तिप्रक्षालयन्ति, तथा गृहस्थबालकानां ग्रहणं कुर्वन्ति, मण्डनं वा रामणं वा क्रीडनं, यदि वा ताः कल्पस्थान्-गृहस्थदारकान् भोजयन्ति। स्थलीघोटद्वारं, वेश्याद्वारं चाहथलिघोडादिट्ठाणे, वयंतिते वाऽवि तत्थ समुर्वे ति। वेसित्थीसंसग्गी, उवसंतो वा समीवम्मि॥२३७।।
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________________ वायणा 1096 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वायणा स्थलीधोटादिस्थाने; अत्रादिशब्दस्तेषामेव देवडङ्गराणामनेक- संयतवर्गे संयतीवर्गे वा एकैकस्मिन्नसंविग्रे एतेन द्वितीय तृतीयभङ्गो भेदख्यापनार्थः, ता व्रजन्ति, ते वा स्थलीघोटा देवडङ्गराऽपरपर्यायास्त- गृहीतव्यौ, अथवा-द्वयोरपि संयतसंयतीवर्गयोर-संविग्नयोरनेन प्रथमो त्रार्यिकोपाश्रये स्थलीसमीपे समुपयन्ति-गच्छन्ति, तथा वेश्यास्त्रीसंसर्गः भङ्गो गृहीतः, निक्षेपणे प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुका भवन्ति,नवरं तपःकालसदैव तासाम्, यदि वा-वेश्यागृहसमीपे तासामुपाश्रयः। विशेषिताः,प्रथमभङ्गे द्वाभ्यामपि विशेषिताः। अथ पुनः शुद्धेऽपि चतुर्थे संप्रति शालायन्त्रकाथिकत्वद्वाराण्याह भङ्गे इमे वक्ष्यमाणा दोषास्तर्हि तत्रापि क्षेपणे चत्वारो गुरुकाः / तह चेव हत्थिसाला, घोडगसालाण चेव आसन्ने। सम्प्रति तानेव दोषानाहजंति तह जंतसाला,काहीयत्तं व कुट्वंति॥२३८|| तरुणा सिद्धपुत्तादी,पविसंति नियल्लगाण निस्साए। तथा चैव हस्तिशालानां घोटकशालानां चासन्ने प्रदेशे हिण्डन्ते, यदि महतरियों न निवारे ति,जदि वियपडिसेविते किंचि॥२५३।। वा-तासां प्रत्यासन्ने उपाश्रये वसन्ति, तथा इक्ष्वादियन्त्र-शाला तरुणाः सिद्धपुत्रादयो निजकानामात्मीयानामार्यिकाणां निश्रयागच्छन्ति, तत्समीपे वा वसन्तिा व्रजद्वारं सुगमत्वान्न विवृतम्। काथिकत्वं वन्दनव्याजेन प्रविशन्ति, प्रवेशे च तत्रैव चिरकालमवतिष्ठन्ते; तान् वा कुर्वन्ति। महतरिका यदि न निवारयन्ति, येऽपि च तत्र वसतौ कांचिदार्यिकामासंप्रति स्थलीघोटद्वारे दोषमाह त्मीयां प्रतिसेवन्ते-पर्युपासन्तेपर्युपासीनाश्च चिरकालं तिष्ठन्ति तानपि थलिघोडादिनिरुद्धा, पसज्ज गहणं करेज तरुणीणं। न निवारयन्ति। यदि संका य होइ तहऽवि य, गोयरें किमु पाडिवेसेहिं // 23 // निक्खेवणे तत्थ गुरुगा, अह पुण होजा हु सा समुज्जुत्ता। स्थलीघोटादयोऽनेकप्रकारा देवडङ्गरा निरुद्धाः कृताः सन्तस्त चरणगुणेसुं निययं, वियक्खणा सीलसंपन्ना / / 244|| रुणीनां प्रसह्य बलात्कारेण ग्रहणं कुर्युस्ततो गोचरेऽपितत्र गतानांशङ्का तत्रापि निक्षेपणे प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः / अथ पुनः सा महत्तरिका भवति, किं पुनस्तैः प्रातिवेशिकैस्तेषु प्रातिवेश्मिकेषु सुतरां शङ्का / एवं चरणगुणेषु नियतं विचक्षणा शीलसंपन्ना सती समुद्युक्ताअयुक्तं समस्तहस्तिशालादिष्वपि दोषविभाषा यथायोगं कर्तव्या। मपि वारयति। काथिकद्वारमेव सविस्तरं गृहनिषद्या तथा__बाधनाद्वारं चाह समा सीसपडिच्छीणं, चोयणासु अणालसा। सज्झायहुक्कजोगा, धम्मकहा विकहपेसणगिहीणं। गणिणी गुणसंपन्ना, ऽपसज्मपुरिसाणुगा॥२४५।। गिहिनिसिजं च बाहं-ति संथवं वा करेंती उ॥२४०|| शिष्याणां प्रातीच्छिकानां च समा, तथा चोदनासुशिक्षणासु अनलसास्वाध्यायेन मुक्तो योगो-व्यापारो यासांताः स्वाध्यायमुक्तयोगास्त- कृतोद्यमा 'गणिणी'-महत्तरिका गुणसंपन्ना तथा अप्रसह्यः--अप्रधृष्यो थाभूताः सत्यो गृहिणांधर्मकथानामाख्याने विकथानांच-स्त्रीकथादीनां यः पुरुषस्तदनुगता-तदनुसारिणी। करणे प्रेरणे च नानारूपे गृहिणामुधुक्ताः / तथा गृहनिषाद्यां बाधन्ते; संविग्गा भीयपरिसाय, उग्गदंडाय कारणे। गृहनिषद्यामुपविशन्तीत्यर्थः। संस्तवं वा--परिचयंवा गृहस्थैः सह कुर्वन्ति, सज्झायज्झाणजुत्ताय, संगहे य विसारया।।२४६|| उपलक्षणमेतत्, वस्त्राण्यन्नपानं वा गृहस्थानां ताः संयत्यो ददति, संविग्ना-सामाचार्यां सम्यगुक्ता, तथा भीता पर्षद् यस्याः सा अविरताश्च मण्डयन्ति, मण्डनोपदेशं वा तासां प्रयच्छन्ति। मण्डनकानि भीतपर्षत्, यतः कारणे उग्रदण्डा, तथा स्वाध्यायध्याने युक्ता संग्रहे च वा ददतीति। विशारदा। एवं तु ताहि सिट्टे, निक्खिवियव्वाउताउ कहियंति। विकथाविसोत्तियादीहिं, वजिया जाय निच्चयो। दोसु वि संविग्गेसुं, निक्खिवियव्वा भवे ताउ॥२४१॥ एयग्गुणोववेयाए, तीए पासम्मि निक्खिवे // 247 / / एवमुक्तेन प्रकारेण ताभिः-संयतीभिः शिष्टे-कथिते ताः क्व या च नित्यशः-सर्वकालं विकथाविश्रोतसिकादिभिः आदिशब्दात्निक्षिप्तव्याः? सूरिराह- द्वयोरपि संयतसंयतीवर्गयोः संविनयोस्ता ऋद्धिगौरवादिपरिग्रहः वर्जिता, एतद्गुणोपपेताया-स्तस्याः पार्वे भवन्ति निक्षेपप्तव्याः / अत्र संयतसंयतीवर्गयोः संविग्नासंविग्नभेदा- निक्षिपेत्। चत्वारो भङ्गाः, तद्यथा-संयताः सीदन्ति संयत्योऽपि सीदन्तीति प्रथमो एयारिसाए असती, वाएजाहि ततो सयं। भङ्गाः, संयताः सीदन्ति न संयत्य इति द्वितीयः,संयता नसीदन्ति किन्तु वायएंते इमा तत्थ, विही उ परिकित्तिया / / 248|| संयत्यः सीदन्तीति तृतीयः, न संयताः सीदन्तिनापि संयत्य इतिचतुर्थः / एतादृश्या गणिन्या अभावे स्वयं वाचयेत्। तस्मिश्च वाचयत्ययं वक्ष्यमाणो तत्र'दोसु वि संविग्गेसुं' इति चतुर्थो भङ्गो गृहीतः, शेषेषु भङ्गेषु निक्षेपणं विधिः परिकीर्तित। स्त्रीत्वं गाथायां प्राकृतत्वात्। प्रतिषिद्धम्। माया भगिणी धूया, मेहावी उज्जुया य आणत्ती। तथा च तत्र प्रायश्चित्तमाह एयासिं असईए, सेसा वाएग्जिमा मोत्तुं / / 246 / / संजतसंजतिवग्गे,संविग्गकेक अहव दोसुं तु। मातरं भगिनीं दुहितरं वा, कथंभूतामित्याह-मेधाविनीनिक्खेवणे हॉति गुरुगा, अह पुण सुद्धे वि मे दोसा / / 252 / / | प्रज्ञावतीम् ऋजुकामकुटिलाम् आज्ञप्ताम्-यदुपदिश्यते त
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________________ वायणा 1097 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वायणा स्यै तथैव कारिकां वाचयेदिति योगः / एतासामसत्यभावे शेषा अपि अस्वजना वाचयेत् इमा वक्ष्यमाणा मुक्त्वा। ता एवाहतरुणी-पुराण-भोइय, मेहुणियं पुटवहसियवभिचारिं। एतासु होति दोसा, तम्हा य न वायए ताओ॥२५०।। तरुणीं पुराणां--पश्चात्कृतव्रतां पुनरभ्युपगतदीक्षां भोग्यांवेश्यां मैथुनिकीभार्या यया सह पूर्व हसितमासीत्व्यभिचारिणीपूर्वावस्थायां स्वैरिणीम् एतासु यस्माद्वाच्यमावासु पूर्वाभ्यासेनात्मपरसमुत्था दोषा भवन्ति तस्मात्ता न वाचयेत्। अत्रैव विशेषमाहवजकुड्डसमं चित्तं, जइ होज्जा वि दोण्ह वि। तहाऽवि संकितो होइ, एयातो वाययंतए / / 251 / / यद्यपि द्वयोरपि वाच्यवाचकयोश्चित्तं वज्रकुड्यसमंतथाऽप्येता वाचयन् शङ्कितः-शङ्खागोचरो भवति। तत एतासां वर्जनम्। पुव्वं तु किटिं असती-एमज्झिमें दोसरहिय वाएति। गणहरों अण्णयरो वा, विपरिणतो तस्स असतीए॥२५२।। पूर्वं तावत् किटी वृद्धा वाचयेत्, तस्यामसत्यां दोषरहितो गणधरो मध्यमा वाचयेत् / अथ गणधरः प्रयोजनान्तरेण व्याकुलस्तत-स्तस्य गणधरस्यासत्यभावे परिणतोऽन्यतरो वाऽपि वाचयेत्। तरुणेसु सयं वाए, दोसऽन्नयरेण वावि जुत्तेसु। विहिणा उ इमेणं तु, दव्वादीएण उजतंतो // 253 / / अथान्यतरः परिणतो न विद्यते, किंतु-सर्वेऽपि तरुणा वृद्धा अन्यतरेण दोषेण सविकारत्वादिना युक्तास्ततस्तरुणेषु शेषेषु वृद्धेषु चान्यतरेण दोषेण युक्तेषु सत्स्वनेन-वक्ष्यमाणेन विधिना गणधरः स्वयं वाचयेत्। किं विशिष्ट इत्याह-द्रव्यादिना यतमानः। तामेव द्रव्यादियतनामभिधित्सुराहदव्वे खेत्ते काले, मंडलिदिट्ठी तहा पसंगो य। एएसु जयणं वुच्छं, आणुपुटिव समासतो॥२५४|| द्रव्ये क्षेत्रे काले मण्डल्यां तथा दृष्टिप्रसङ्गे एवमेतेषु स्थानेषु यतनामानुपूर्व्या समासतो वक्ष्ये। तत्र प्रथमतो द्रव्ययतनामाहजं खलु पुलागदव्वं, तट्विवरीयं दुवे वि भुंजंति। पुटवुत्ता खलु दोसा, तत्थ निरोधे निसग्गे य॥२५५।। यत् खलु पुलाकम्--असारं द्रव्यं तद्विपरीतं द्वावपि; वाच्यो, वाचयिता चेत्यर्थः भुजाते, अन्यथा तत्र व्याख्यानमण्डल्यां मूत्रादिनिरोधे निसर्गे वा पूर्वोक्ताः खलु दोषाः,उक्ता द्रव्ययतना। क्षेत्रयतनामाहसुन्नघरे पच्छन्ने, उज्जाणे देउले सभाऽऽरामे। उभयवसहिं च मोत्तुं, वाएज्ज असंकणिज्जेसु / / 256 / / शून्यगृहाणि प्रच्छन्नान-विविक्तान् प्रदेशान्, तथा उद्यानानि देव- | कुलानि सभा आरामाश्च, तथा उभयवसति-संयतीवसतिं संयतवसतिं च मुक्त्वा शेषेष्वशङ्कनीयेषु स्थानेषु वाचयेत्। उभयनिजे वयणीए, सण्णि यहाभद्द तह य धुवकम्मी। आसण्णे सति अजा-णुवस्सए अप्पणो वाऽवि॥२५७।। उभयस्य-संयत्याः संयतस्य च निजे-स्वजने आसन्ने सति, यदिवावृतिन्या निजे, अथवा-संज्ञिनि श्रावके, यदि वायथाभद्रके, अथवाध्रुवकर्मणि-लोहकारादौ प्रत्यासन्ने सति वाचयेत् / अथान्यदर्शनीयं स्थानं न विद्यते, ततः अन्यस्य स्थानस्य असति आर्याणामुपाश्रये, अथवा आत्मन उपाचये,यत्र शय्यातरस्य संलोको भवति तत्र स्थितो वाचयति।गतं क्षेत्रद्वारम्। अधुना कालयतनाद्वारमाहजइ अस्थि वावणं दितो, अदाउं ताहे गच्छइ। अह तत्थि ताहे दाऊण, सुत्तइत्ताण पोरिसिं // 25 // यदि साधूनां सूत्रस्यार्थस्यच वाचनादाता समस्तिततः आचार्यों वाचनां साधूनामदत्त्वा गच्छति / प्रातरेव साध्वीनाम-शङ्कनीये स्थाने वाचनां दातुं गच्छतीति भावः। अथार्थपौरुषीदाता समस्ति न सूत्रपौरुषीदाता तदा सूत्रयतां संयतानां सूत्रपौरुषीं दत्त्वा गच्छति। अह विजइ ताहे जाहि, तो जाइ पढमाएँ उ। असतीए दोण्ह वी दाणे,इमा उ जयणा तहिं / / 256 // अथ सूत्रस्य दाता विद्यते नार्थस्य, साधवश्चार्थवन्तो हिअर्थाथिनोऽपि सन्ति ततः प्रथमपौरुष्यां संयतीनां वाचनाप्रदानाय गच्छति। द्वितीयस्यां तुपौरुष्यामागत्य संयतानामर्थ ददाति। अथ संयतानां सूत्रस्य अर्थस्य वा प्रदाता अन्यो न विद्यते, तदाऽन्यस्यासत्यभावे द्वयानामपि संयतानां संयतीनांचात्मन उपाश्रये एकस्मिन्तेन वाचना देया,तत्र द्वयानां वाचनादाने इयं वक्ष्यमाणा यतना। अत्र मण्डलीयतनाद्वारमापतितं तदेवाऽऽहकडिऽणंतरितो वाए,दीसंति जणेण दोऽविजह वग्गा। बंधंति मंडलिं ते,उ एकतो वाऽवि एकत्तो // 260|| ते संयताःसंयत्यश्च मण्डली बध्नन्ति। तद्यथा-एकतः संयतमण्डली, एकतः संयतीमण्डली, अपान्तराले चसंयतीनां व्यवधानाय कटो दीयते। तत्रापि प्रच्छन्ने प्रदेशे स्थिताः शङ्कादयो दोषा उक्तास्ते अत्रापि स्युस्तत आह-यत्र द्वावपि वर्गी संयतसंयतीसमुदायरूपावुपविष्टौ जनेन दृश्येते तत्र स्थितःकटेनान्तरितो वाचयति। एवं सति यो गुणस्तमाहलोगे वि पचतो खलु,वंदणमादीसु होति वीसत्था। दुग्गूढादी दोसा, विगारदोसायनो एवं // 261|| एवं क्रियमाणे सति लोकेऽपिशुद्धशीलसमाचारविषयः प्रत्यय उपजायते। येऽपिचवन्दनादिषु कार्येषु समागच्छन्ति तेऽपि द्वावपि वर्गी तथोपविष्टौ दृष्ट्वा विश्वस्ता भवन्तिा एवं च सतिये दुर्गुढादयः प्रच्छन्नप्रदेशादिभाविनो दोषाः, ये च परस्परं संयतसंयतीनां विकारदोषास्ते न भवन्ति / अथ कटोन विद्यते तदा वस्त्रेण चिलिमिली क्रियते।
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________________ वायणा १०९८-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वायामित्त तथा चाह तस्मिन्, अध्यापनाचार्ये, आव०४ अ०| आ०चू० ! चिलिमिलिछेदे ठायइ, जह पासइ दोण्ह वी य वायंतो। वायणिय-त्रि०(वाचनीय) पाठनीये, स्था०३ ठा०४ उ०। दिट्ठीसंबंधादी, इमे य तहिमं न वाएजा / / 262 / / वायप्पभ-न०(वातप्रभ) चतुर्थे देवलोकस्थे विमानभेदे, स०५ सम०। प्रवाचयन गणधरश्चिलिमिल्या उपलक्षणमेतत्, कटस्य च छेदे पर्यन्ते वायमहण्णव-पुं०(वादमहार्णव) वेदान्तग्रन्थविशेषे,स्या०। तिष्ठति; यथा द्वावपि संयतसंयतीवर्गों पश्यति। तत्र ये संयताः संयतीनां वायरह-न०(वातरुह) अनन्तजीववनस्पतिभेदे, प्रज्ञा०१ पद। दृष्टीदृष्ट्याऽऽत्मीयया संबधन्ति ते दृष्टिसंबन्धा उच्यन्ते। आदिशब्दा- वायला-स्त्री०[ वात(य)ला ] सातवाहननृपति-सहचरवीरजन्मभुवि, न्मैथुनकादिपरिग्रहस्तानिमान् वक्ष्यमाणान्न वाचयेत्।। ती०३२ कल्पा सविकारा मेहुणादी, जया वि घितिदुब्बला। वायलेस-न०(वातलेश्य) चतुर्थदेवलोकीये विमानभेदे,स०५ सम०) अण्णेण वायए ते उ,निसिं च पडिपुंछणं / / 263|| वायव-त्रि०(वायव) वायुरस्यास्तीति वायवः / वातिके, "जाइ-बहिरे ये दृष्टा सविकारा ये च मैथुनिकादयो मैथुनिकोभर्ता आदि-शब्दा- जाइपंगुले हुंडेय वायवे णऽत्थिणं तस्सदारगस्स हत्था।" उपा०१ अ०) त्पुराणादिपरिग्रहः, ये चापि धृत्या दुर्बलास्तान् अन्येनोपाध्यायादिना वायवन्न-न०(वातवर्ण) चतुर्थदेवलोकविमाने, स०५ सम०। वाचयेत्। निशि रात्रौ वा तेषां सन्दिग्धस्थानप्रतिप्रच्छनम्। वायव्वा-स्त्री०(वायव्या) पश्चिमोत्तरविदिशि,स्था० १०ठा०३ उ०। विशे०। अहऽपणे य पवायंते, पढंति सव्वे तहिं अदोसिल्ला। वायस-पुं०(वायस) काके, आचा०१ श्रु० अ०४ उ० प्रश्न० / जी०। अणिसन्नथेरिसहिया,थेरसहाओ पवाएंतो॥२६॥ प्रज्ञा ज्ञा०ा अनु० भामेइ तहा दिठिं, चलचित्तो वायसुव्व उस्सग्गे'। अथान्य उपाध्यायादिः प्रवाचयन्न विद्यते तदा अस्मिन्नसति वाचयति, आव०५ अ०। दृष्टिं भ्रमयति चलचित्तो वायस इव इतस्ततो नयनसर्वे तत्र पठन्ति। ततो दोषवन्तस्तत्राऽपि संयत्यः पठयन्त्यः अनिषण्णा- गोलकभ्रमणं दिग्निरीक्षणं वा कुरुते उत्सर्गे इत्येवं लक्षणे कायोत्सर्गदोषे, अनुपविष्टा ऊर्दू स्थिता इत्यर्थः; येन परस्परं दृष्टिसंबन्धो न भवति, प्रव०४ द्वार। तथा स्थविराः सहिताः प्रवाचयन्नपि स्थविरसहायः प्रवाचयति येन वायसंजय-पुं०(वाक्संयत) अकुशलवाग्निरोधात्कुशलवाग्नि-रोधेन तत्सहायः सर्वानपि निभालयति। संयमवति,दश० 10 अ० संयत्योऽनिषण्णाः पठन्तीत्युक्तं तत्रापवादमाह वायसपरिमंडल-न०(वायसपरिमण्डल) वायसादीनां पक्षिणां यत्र जा दुब्बला होज्ज चिरं सझातो, स्थानादिकं स्वराश्रयेणाशुभफलं चिन्त्यते तादृशे निमित्तशास्त्रे, सूत्र० ताहे निसण्णा ण य उच्चसद्दा। २श्रु०२० पलंबसंघाडि न उज्जला य, वाया-स्त्री०(वाच) वचने, स्था० 10 ठा०३ उ०ा इदमित्थं करोमीअणुन्नया वासतिरंजली य॥२६५।। त्यात्मके वचसि, उत्त०१ अ० स्था०। विशे०। या शरीरेण दुर्बला भवति-वर्त्तते चिरं स्वाध्यायः कर्त्तव्यः तदा वाक्करणमाहनिषण्णा---उपविष्टा सती पठति, न च उच्चशब्देन; बृहता शब्देना- वयणं वागुचए वा,ऽणए त्ति वाय त्ति दव्वओ साय। लापकमुद्धोषयतीत्यर्थः / तथा संघाटिः प्रलम्बा पादगुल्फपर्यन्ता तज्जोग्गपोग्गलाजे, गहिया तप्परिणया भावो // 3526|| क्रियते नोज्ज्वला, तथा अनुन्नता पठति। किमुक्तं भवति-नोर्ध्वमुखा वचनं वागुच्यते वा अनयेति वाक्, सा च द्रव्यतो द्रव्यवाग् एतद्योग्या सती अन्यस्यान्यस्य मुखं विप्रेक्षमाणा पठति / तथा वासो-वस्त्रं तेन भावयोग्या भाषावर्गणाभ्यो गृहीताः पुद्गला इति / ये तु तत्परिणतातिरोहिताञ्जलिरालापकं गुरोः समीपे याचते। भाषात्वेन परिणता उच्यमानाः पुद्गलाः सा भावो भाववागिति। विशे० एयविहिविप्पमुक्को, संजतिवग्गं तु जो पवाएज्जा। सरस्वत्याम्, 'वाणी वाया भणिईसरस्सई भारई गिरा भासा।' पाइ०ना० मज्जायाऽतिकतं, तमणायारं वियाणाहि॥२६६।। 51 गाथा। एतेनानन्तरोदितेन विधिना विप्रमुक्तो यः संयतीवर्गं प्रवाचयेत् तं | वायामिओग-पुं०(वागभियोग) वाचाऽभियोगो वागभियोगः वचसा प्रेरणे, मर्यादातिक्रान्तमनाचारसहितं विजानीयात्। व्य०७ उ०। सूत्र०२ श्रु०६ अ० वायणाकप्प-पुं०(वाचनाकल्प) वाचनाग्रहणसामाचार्याम्-पं०भा०१ वायाम-पुं०(व्यायाम) व्यापारे, स्था०१ ठा०२ उ०ा यथा-लकुटभ्रामणम्। कल्प० पं००। नि०चू०१ उ०। वायणापडिसुणणा-स्त्री०(वाचनाप्रतिश्रवणा) सूत्रदानस्य श्रवणे, पञ्चा० | वायामण-न०(व्यायामन) व्यायामकरणे,जी०३ प्रति०१ अधि० 12 विव०॥ वायामित्त-न०(वाद्यात्र) केवलवाचि,"वायामित्तेण जत्थ, भट्टचरित्तस्स वायणारिय-पुं०(वाचनाचार्य) उपाध्यायादिसन्दिष्टोय उद्देशादि करोति | निम्यहं विहिणा। बहुलद्धिजुयस्स वि, कीरइगुरुशा तयङ्गच्छं' ग०२ अघि
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________________ वायायण 1069 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वारिज्जमाण वायायण-पुं०(वातायन) गवाक्षे,'वायायणो गवक्खो' पाइ० ना०११६ | विसं पविखवावेइ। जाणि य मिट्ठपाणियाणि वावितलागाईणि तेसुय, जे गाथा। यरुक्खापुप्फफलोवगाताणि विविसेण संजो-एऊग युवकतो, इयरो वायाल-त्रि०(वाचाल) वाचाले, "वाउल्लो जंबुल्लो मुहुलो बहुजंपिरो य राया आगओ,सो तं विसभावियं जाणिऊण घोसावेइ खंधावारे-जो वायालो" पाइन्ना०६६ गाथा। एयाणि भक्खभोजाणितलागाईसुय मिट्ठाणिपाणियाणि एएसुय रुक्खेसु वार-न०(वार) दिने,आदित्यादिवारे, "तिथिरि च नक्षत्रं योगः करणमेव पुप्फफलाणि मिहाणि उवभुंजइ सो मरइ। जाणि एयाणि खारकडुयाणि च / पञ्चाङ्गम्"। द०प०। पङ्कप्रभायां नरकपृथिव्यामभिक्रान्तनरके, दुणापाणियाणि उवभुंजेह जेतं घोसणं सुणित्ता विरया ते जीविया इयरे मता, एसा दव्ववारणा / भाववारणाए दितृतस्स उवणओ-एवमेव स्था०६ठा०३ उ० रायत्थाणी-एहिं तित्थगरेहिं विसन्नपाणसरिसा विसय त्ति काऊण वारग-०(वारक) लघुघटरूपे, आ०म०१अ०। गडुके, उपा०७अ०।क्रमे, वारिया / तेसु जे पसत्ता ते बहूणि जम्मणमरणाणि पाविहिंति, इयरे व्य०१ उ०। परिपाट्याम्, निचू०१ उ० "अज्जाण वारओ पुण, संसाराओ उत्तरंति''||४||आव०४ अ० अकृत्यप्रतिसेवनां कुर्वतां मज्झिमओ होइ अइरित्ता" आर्याणामप्येवमेवान्तरं तासां जनमध्य प्रतिषेधने, बृ०१ उ०२ प्रक० एवोपाश्रयस्थानुज्ञातत्यात्, ससागारिकेवसन्तीनां प्रश्रवणव्युत्सर्जनान वारदत्त-पुं०(वारदत्त) राजगृहे नगरे स्वनामख्यातेराज्ञि, (सच वीरान्तिके न्तरमुदकस्पर्शनार्थं वारको मध्यमोपधावतिरिक्तो भवति। बृ० ३उ०। प्रव्रज्य द्वादश वर्षाणि संयम परिपाल्य विपुले पर्वते सिद्ध इति, षष्ठे वर्गे अनु० आ० कला ('णिग्गंथी' शब्दे चतुर्थभागे 2046 पृष्ठे उक्तं तासां नवमेऽध्ययने सूचितम्।) अन्ता वारकग्रहणम्।) नपुं०। गुप्तिगृहे, व्य०४ उ०। त्रि०ा अशुद्धपाठनिषेधके, वारधावण-न०(वारधावन) गड्यटधावने, दश०५ अ०१ उ०। नि० कल्पका औ०। ज्ञान वारबाण-पुं०(वारबाण) कञ्चुके, "कुप्पासो कंचुअओ गिधुलोवारबाणो वारगजग्गण-न०(वारकजागरण) वारकेण क्रमेण जागरणम्, एके जाग्रति य" पाइ०ना०६८ गाथा। अन्ये स्वपन्ति तदन्तरंतेजाग्रत्यन्ये स्वपन्ति इत्येवंरूपे क्रमिकजागरणे, वारसवय-न०(द्वादशव्रत) व्रतभेदे, द्वादशव्रतपौषधिकानां ‘चत्तारि व्य०४० अट्ठदस' सत्कपौषधिकानां चालोचनाप्रायश्चित्तप्रदानमुपधानानुवारण-न०(वारण) निषेधने, आ०म० 1 अ० व्या गजे, "दोघट्टोदन्ति सारेणान्यथा वेति? प्रश्नः, अत्रोत्तरम्-द्वादशव्रतपौषधिकादीनां प्रायवारणो" पाइ० ना० 10 गाथा। श्चित्तप्रदानं सामान्यतो जीवघातादौ यादृगापतति तदनुसारेण न वारणमअ-पुं०(वारणमद) हस्तिमदे,'वारणमओ दाण' पाइ० ना० 203 तूपधानाधुनुसारेणेति सम्भाव्यत इति॥२५।। सेन०१ उल्ला०। गाथा। वारसावत्त-पुं०(द्वादशावर्त) सूत्राभिधानगर्भे कायव्यापारविशेषे, आव० वारणा-स्त्री०(वारणा) वृञ् वरणे इत्यस्यण्यन्तस्य ल्युटि, वारणा भवति / 3 अ० अश्वलक्षणविशेषे च, द्वादशावर्ताश्च इमे वराहोक्ताः - "ये वारणं-वारणा। निषेधनायाम्, आव०। प्रपाणगलकर्णसंस्थिताः, पृष्ठमध्यनयनोपरिस्थिताः / ओष्ठ-सक्थिसा चनामादिभेदतः षोढा भवति। तथा चाह भुजकुक्षिपार्श्वगास्ते ललाटसहिताः सुशोभनाः॥१॥" जं०३ वक्षा नाम ठवणा दविए, खित्ते काले तहेव भावे अ। वाराह-त्रि०(वाराह) वाराहसम्बन्धिनि नवमतीर्थकरप्रथमशिष्ये, स०। एसो उ वारणाए, निक्खेवो छविहो होइ॥१२३७।। षष्ठबलदेवपूर्वभवजीवे, स०) तत्र नामस्थापने गतार्थे , द्रव्यवारणा तापसादीनां हलकृष्टादिपरि- | वाराही-स्त्री०(वाराही) वराहमिहिरनिर्मितज्योतिःशास्त्रसंहितायाम, भोगवारणा अनुपयुक्तस्य सम्यग्दृष्टा देशनायाम्, उपयुक्तस्य वा (तत्करणमुक्तम् ‘भद्दबाहु'शब्दे पञ्चमभागे 1370 पृष्ठे।) निहवस्यापथ्यस्य वा रोगिण इति इयं चोदनारूपा, क्षेत्रवारणा तु यत्र | वारि-स्त्री०(वारि) गजबन्धने, आ०क०१ अ आवाका नग जले, क्षेत्रे व्यावय॑ते-क्रियते वा क्षेत्रस्य वाऽनार्यस्येति, कालवारणा यस्मि- "अंबु सलिलं वर्ण वारि नीर उदयं दयं पयं तोयं'' पाइ० ना० 28 न्च्यावर्ण्यते-क्रियते वा कालस्य वा विकालादेः वर्षासुवा विहारस्येति, गाथा।''वार्यर्गलाभङ्ग इव प्रवृत्तः" इति रघुः। वाचि, सरस्वत्याम्, भाववारणेदानीम् वा सा च द्विविधा-प्रशस्ता, अप्रशस्ताचा प्रशस्ताः स्त्री०। वाचा प्रमादवारणा, अप्रशस्ता-संयमादिवारणा। अथवौघत एवोपयुक्तस्य वारिअ-त्रि०(वारित) प्रतिषिद्धि, "पडिसिद्धो वारिओ' पाइ० ना०२६३ सम्यग्दृष्टरिति तये-हाधिकारः, प्रतिक्रमणपर्यायता चास्याः स्फुटा। गाथा। आव०४ अ०। आ० चू०। कुसंसर्गाद्यकृत्यस्य निषेधने, ध०२ अधिol दारिखल-पुं०(वारिखल) प्रव्राजके,बृ०१ उ० 4 प्रक०। गला दृष्टान्तः-"इयाणिं वारणाए विसभोयणतलाएण दिलुतो-जहा एगो | वारिज-(देशी) विवाहे. दे०ना० 55 गाथा। राया परचक्कागमं अदूरागयं च जाणेत्ता गामेसुदुद्धदधिभक्खभोज्जाइसु वारिजमाण-त्रि०(वार्यमाण) निवर्त्यमाने,भ०१५ श०।
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________________ वारिज्जय ११००-अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वालुयप्पमा वारिज्जय-न०(देशी) विवाहे, 'वारिज्जयं विवाहो'।पाइ० ना० 154 गाथा। वारिधाराचारण-पुं०(वारिधाराचारण) प्रावृषेण्यादिजलधाराविनिर्गत वारिधारावलम्बनेन प्राणिपीडामन्तरेण याति चारणभेदे, ग०२ अधिका वारिप्पवेसण-न०(वारिप्रवेशन) जले प्रक्षेपे, प्रश्न०१ आश्र० द्वार। वारिभद्दग-पुं०(वारिभद्रक) अब्भक्षे, शैवलाशिनि, नित्यं स्नानपानादि धावनाभिरतेवा। सूत्र०१ श्रु०७ अाभागवतविशेषे, सूत्र०१श्रु०७ अ०। वारिय-त्रि०(वारित) अहितान्निवारिते. पा०। ध० आo1 म०। नि० चू०। *वारयित्वा-अव्य० प्रतिषिध्येत्यर्थे, सूत्र०१ श्रु०६ अ०॥ वारिवसह-पुं०(वारिवृषभ) वहने, आव०५ अ०। वारिसिय-न०(वार्षिक) वर्षोद्भवे, आव०५ अ० धo। अथ वार्षिककृत्यानि यथा संघार्चनादीनि बहुविधानियतः श्राद्धविधावेकादशद्वारैः प्रतिपादितानि / गाथोत्तरार्द्धम्- "पइवरिसं संघचण 1, साहम्मिअभत्तिर जत्ततिगं 3 // 1 / / जिणगिहण्हवणं 4 जिणधण-वुड्डी 5 महपूय 6 धम्मजागरिया 7 / सुअपूआ 8 उज्जवणंह, तह तित्थपहावणा सोही ॥२॥"ध०२ अधिo वारिसेण-पुं०(वारिषेण) वसुदेवस्य धारिण्यां जाते पुत्रे, (स चारिष्टनेमेरन्तिके प्रव्रज्य षोडशवर्षाणि श्रामण्यं परिपाल्य शत्रुञ्जये सिद्ध इति अन्तकृद्दशानां चतुर्थे वर्गपञ्चमे अध्ययने सूचितम्) अन्त०। श्रेणिकस्य धारिण्यां जाते पुत्रे, (स च वीर-स्वामीनोऽन्तिके प्रव्रज्य पञ्च वर्षाणि श्रामण्यं परिपाल्य मृत्वा सर्वार्थसिद्धे उपपद्य महाविदेहे सेत्स्यतीति अनुत्तरोपपातिके प्रथमे वर्ग पञ्चमे अध्ययने सूचितम्।) अणु। भरतक्षेत्र जवीरजिनसमकालिके एरवतजे चतुविशेीर्थकरे, ति०। वारिसेणा-स्त्री०(वारिषेणा) देवकुरुषु विद्युत्प्रभवक्षस्कारपर्वतस्य कनककूटवास्तव्यायां दिकुमार्याम्, स्था०६ ठा०३ उ०। अधोलोक- वास्तव्यायां दिक्कुमार्याम्, स्था०८ ठा०३ उ०। ऊर्ध्वलोकवासिन्यां दिक्कुमार्याम्, आक० 1 अ०। जंगा तिला आ० चू०। जम्बूमन्दरस्योत्तरे रक्तावतीनदीसङ्गतायां महानद्याम्, स्था०५ ठा०३ उ०। शास्वतजिनप्रतिमायाम्, रा०ा तीन वारिहि-पुं०(वारिधि) समुद्रे, अष्ट० 26 अष्ट। वारी-स्त्री०(वारी) गजबन्धिन्याम्, "वारी करिधरणट्ठाणं'' पाइ० ना० 267 गाथा। वारुण-पुं०(वारुण) वरुणदेवस्वामिके अस्त्रादौ, सूत्र०१ श्रु०८ अ०। आर्द्रानक्षत्रस्वामिनि, अनु०॥ अहोरात्रस्य पञ्चदशे मुहूर्ते, जं०७ वक्ष०ा ज्यो०। कल्प०चं०प्र० वारुणिप्पभ-पुं०(वारुणीप्रभ) वरुणोदसमुद्रदेवे, स्था०४ ठा०४ उ०। सू०प्र०) वारुणी-स्त्री०(वारुणी) वरुणो देवता यस्याः सा वरुणी। भ०१०श०१ उ०। स्था०। विशे०। वरुणदैवत्यायां पश्चिमदिशि, आ०म० अ०1. उत्तररुचकपर्वतस्य रत्नसञ्चयकूटवास्तव्यायां दिक्कुमार्याम्, आ० क० १अ० / आ००। आ० म०। स्था०। नवमतीर्थकरप्रवर्तिन्याम्, ति०। प्रव०ा तथा कायोत्सर्गस्थितो निष्पद्यमानसुरेव बुडबुडाशब्दमव्यक्तरवं करोतीति वारुणीदोषः / वारुणीमत्तस्येव घूर्णमानस्य स्थानं वारुणीदोष इत्यन्ये / प्रव०५ द्वार / व्यक्तस्य वीरगणधरस्य मातरि,आ० चू०१ अ०। आ० म०) मदिरायाम, उत्त० 34 अ० स्था०। "कायंबरी पसन्ना हाला तह वारुणी मइरा।" पाइ० ना०६४ गाथा। वारुणोद-पुं०(वारुणोद) वारुणी-सुरा, तया समानं वारुणम्।वारुणमुदकं यस्मिन्स वारुणोदकः। लवणादिगणनया चतुर्थे समुद्रे, स्था०४ ठा०४ उ०। रा०ा ('वरुणोद' शब्दे अस्मिन्नेव भागे पृष्ठे वक्तव्यतोक्ता।) वारेऊण-अव्य०(वारयित्वा) प्रतिषिध्येत्यर्थे , "वारेऊण न कप्पइ, जिणाण थेराण उ गिहीणं" नि० चू० 1 उ०। वाल-पुं०(व्याल) दुष्टसर्प,बृ०१ उ०३ प्रक० श्वापदभुजङ्गे. ज्ञा०१ श्रु० 10 / आव० व्या आ० म० भ०॥ तं०। दुष्टगजे, व्यालाः सर्पा दुष्टगजाश्वोच्यन्ते। विशेऔ० आoकाजी०। भाराका जंगव्या कल्पा *वाल-पुं०। केशे केसा चिहुरा सिरोरुहा वाला'। पाइ० ना० 106 गाथा। वालअ-पुं०(वालक) अर्भके, "हिरिबेरो वालओ' पाइ० ना० 215 गाथा। वालग्गाहि(ण)-पुं०(व्यालग्राहिन्) सर्पग्रहणशीले, आव० 40 वालवि(ण)-पुं०(व्यालपिन्) व्यालान्-भुजङ्गान् पान्तीति व्यालपास्ते विद्यन्ते येषान्ते व्यालपिनः। सर्पवधबन्धाधुपजीविषु, प्रश्न०२ आश्र० द्वार। वालसतसंकणिज्ज-त्रि०(व्यालशतशङ्कनीय) भुजगादिभिर्भयङ्करे, प्रश्न०३ आश्र० द्वार। वालहि-पुं०(वालधि) लाङ्ले, लंगूलं वालही छिप्प' पाइ० ना० 128 गाथा। वालाइरक्खा-स्त्री०(व्यालादिरक्षा) श्वापदभुजगादिभ्यो गजादि-भ्यश्च व्यापाद्यमानस्य त्राणे, पञ्चा०२ विव० वालिअय-त्रि०(वालितक) भविष्यति काले, 'वालिअयं परिअत्तियं' / पाइ० ना० 265 गाथा! वालुंक-न०(वालुङ्क) वालुके, 'सीलुटुं चिडिभडं च वालुकं' पाइ० ना० 172 गाथा। वालुयप्पमा-स्त्री०(वालुकाप्रभा) तृतीयपृथिव्याम्-जी०। बालुयप्पभाए णं मंते ! पुढवीए अट्ठावीसुत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उवरिं के वइयं ओगाहित्ता, हेहा के वइयं वजित्ता, मज्झे केवइए, के वझ्या निरयावाससयसहस्सा पण्णत्ता? गोयमा ! वालुयप्पभाए पुढवीए अट्ठावीसुत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उवरि एग जोयणसहस्सं ओ
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________________ वालुयप्पभा ११०१-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वास गाहित्ता हेर्ट एगं जोयणसहस्सं वञ्जित्ता, मज्झे छट्वीसुत्तरे 'अजाणू' / या तु संशयवतः सा विचिकित्सेति / 'परियावज्जण ति' जोयणसयसहस्से / एत्थ णं वालुयप्पभा पुढविनेरइयाणं पर्यापादनं पर्यापत्तिरासेवेति यावत्, साऽप्येवमेवेति। 'जाण त्ति' ज्ञः स पण्णरस निरयावाससयसहस्सा भवन्तीति मक्खायं / जी०३ च ज्ञानात्स्यादित्युक्तमत्।स्था०३ ठा० 4 उ0) आचा०ा विजातीयेभ्यः प्रति०१ उo सर्वथा व्यवच्छेदे,स्याका वाव-अव्य० (वाव) वाशब्दार्थे, आ०म० अ०। 'वावि त्ति' वा निवाओ वावम्फ-धा०(कृ०) श्रमकरणे, 'श्रमे वावम्फः // 8/468 // श्रमविषयस्य वासद्दत्थो। वाव इत्ययं शब्दो निपातः, सच वाशब्दार्थः- 'अशरीरं वाव कृयो 'वावम्फ' इत्यादेशो भवतीति वावम्फादेशः / वावम्फइ / श्रमं सन्तं प्रियाप्रिये न स्पृशतः' / विशे०। करोति! प्रा०४ पाद। वावग-त्रि०(व्यापक) व्याप्तिकर्तरि, तत्सत्त्वेऽवश्यं वर्तमाने आधारभेदे, वावरणसाला-स्त्री०(व्यावरणशाला) यत्राग्निकुण्डस्वयंवरहेतो–र्नित्यमेव यथा-तिलेषु विद्यते तैलम्। आ०म०१० ज्वलति। एवंभूतायां शालायाम, बृ०२ उ०। (विशेषोऽत्र 'वसहि' शब्दे 654 गतम्।) वावट्टिय-त्रि०(ध्यावर्तित) पुजीकृते,ध०२ अधि०। वावहारिय-पुं०(व्यावहारिक) व्यवहारनिष्पन्ने,स०६५सम०। वावड-त्रि०(व्यापृत)"प्रत्यादौडः" ||1 / 206|| इति तस्य डः प्रा०। वावादिय-त्रि०(व्यापादित) मारिते, स्था०४ ठा०३ उ०॥ व्यापारिते, संघा०१ अघि०१प्रस्ता०नि० चूल आ०म०। व्यापारयुक्ते वहमानके, बृ०३ उ०। वावाय-पुं०(व्यापाद) परपीडायाम्, द्वा०८ द्वा० वावार-पुं०(व्यापार) करणे, आ०म०१ अ०। आवला आ०चूला *व्याकृत-त्रि०। स्पष्टे, प्रकटार्थे , दश०७अ०॥ वावारिय-त्रि०(व्यापारित) नियुक्ते, उत्त०८ अ०। *व्यापद्-स्त्री०। उपद्रवे, व्य०१ उ०। वाविद्ध-त्रि०(व्याविद्ध) विपर्यस्तरत्नमालागतरत्न इव विपर्यस्ते, वावडया-(देशी) अक्षणिकायाम, 'वावडया अक्खणिआ' पाइ० ना० आ०म०१ अ०। निरुद्धे, 'वावि (दिद्धेसोया' गर्भ न धरति व्यादिग्धं 161 गाथा। व्याविद्धं वा वातादिव्या विद्यमानमप्युपहतशक्तिकं श्रोत उक्तरूपं वावण्ण-त्रि०(व्यापन्न) विनष्टे, प्रज्ञा० 1 पद / प्रश्न० / विशरारुभूते, यस्याः सा व्यादिग्धश्रोता च्याविद्धश्रोता वा गर्भ न धरति।स्था०५ ठा०२ प्रश्न० 5 संव० द्वार / प्रज्ञा०। शकुनिशृगालादिभक्षणद्वीभत्सतां गते, उ०। आ०म०॥ ज्ञा०१ श्रु०१२ अ०॥ वाविय-त्रि०(व्यापृत) विविक्ते, विशे०। स्था०। वावण्णदंसण-पुं०(व्यापन्नदर्शन) व्यापन्नं विनष्ट दर्शनं येषान्ते व्यापन्न वाविया-स्त्री०(वाविता) सकृद्धान्यवपनवत्याम, स्था०४ ठा०४ उ०) दर्शनाः। निहवादिषु, ज्ञा०१ श्रु०१२ अध०) वावी-स्त्री०(वापी) चतुरस्राकारे जलाशयविशेषे, स्था०४ ठा०३ उ०। वावण्णसोया-स्त्री०(व्यापन्नश्रोतस्) व्यापन्न-विनष्टं रोगतः श्रोतोगर्भा अनु०। ज्ञा०ा औ० भ०। नि००। प्रज्ञा० जी०। जं० रा०ा प्रज्ञा०। शयच्छिद्रलक्षणं यस्याः सा तथा। नष्टगर्भाशयच्छिद्रे, स्था०५ ठा०२ उf पुष्करावर्ते जलाशयविशेषे, प्रश्न०१ आश्र० द्वार / (वापीनां वर्णकः वावत्त-त्रि०(व्यावृत्त) शुभव्यापारवति, स्था०५ ठा०१ उ०। 'पुक्खरिणी' शब्दे पञ्चमभागे 666 पृष्ठे उक्तः।) वावत्ति-स्वी०(व्यापत्ति) व्यावर्त्तनं व्यावृत्तिः। कुतोऽपि हिंसाधवद्यानिवृत्तौ, | वास-न०(वर्ष) वत्ससंवत्सरसंबदित्यादिपर्यायाः। हैम०। 'लुप्त-यर-व स्थान श ष-सां श-ष-सां-दीर्घः' // 8:1 / 43 // इति रलोपे दीर्घः / प्रा०) तिविहा वावत्ती पण्णत्ता,तं जहा-जाणू अजाणू वितिगिच्छा। भरतादिक्षेत्रे, स्था०२ ठा०४ उ०। एवमज्झोववज्जणा परियावज्जणा। (सू०२१८) वर्षाणि आह'तिविहेत्यादि' व्यावर्तन-व्यावृत्तिः / कुतोऽपि हिंसाद्यवद्यानिवृत्ति- जंबूमंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं तओवासा पन्नत्ता, तंजहारित्यर्थः, सा च ज्ञस्य हिंसादेर्हेतुस्वरूपफलविदुषो ज्ञानपूर्विका व्यावृत्तिः भरहे हेमवए हरिवासे। जंबूमंदरस्स उत्तरेणं तओवासा पण्णत्ता, सा तदभेदात् 'जाणु' त्ति गदिता। या त्वज्ञस्या-ज्ञानात् सा 'अजाणू' तंजहा-रम्मगवासे हेरन्नवए एरवए। स्था०२ ठा०४ उ०) इत्यभिहिता / या तु विचिकित्सातः-- संशयात् सा निमित्तनिमित्तिनोर (धातकीखण्डे द्वौ वर्षो 'धायइसंडदीवं' शब्दे चतुर्थभागे 2743 भेदाद्विचिकित्सेत्यभिहिता / व्यावृत्तिरित्यनेनानन्तरं चारित्रमुक्तं पृष्ठादारभ्य व्याख्यातो।) तद्विपक्षश्वाशुभाध्यवसायानुष्ठाने इति, तयोरधुना भेदानतिदेशत आह- जंबूदीवे दीवे छ वासा पण्णत्ता , तंजहा-भरहे एरवए हेमवए एवमित्यादि सूत्रे / एवमिति व्यावृत्तिरिव त्रिधा "अज्झोववजण ति" हेरण्णवए हरिवासे रम्मगवासे। (सू०५२२४) स्था०६ठा०३ उ०। अध्युपपादनं क्वचिदिन्द्रियार्थे अभ्युपपत्तिरभिष्वङ्ग इत्यर्थः; तत्र जानतो जंबदीवेणं भंते ! दीवे कति वासा पण्णत्ता? गोयमा! सत्त विषयजन्यमनर्थ या तत्राध्युपपत्तिः सा 'जाणू' / यात्वजानतः सा वासा पण्णता, तं जहा-भरहे१ एरवए 2 हेमवए 3 हेरण्णवए
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________________ वास 1102 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वासंतियामउल हरिवासए 5 रम्मगवासे 6 महाविदेहे 7 / जं०६ वक्षण जम्बूद्वीपस्य दक्षिणे भागे भरतमाहिमवतस्तस्यैवोत्तरे भागे ऐरवतं जम्बूद्वीपे सप्त वर्षाणि 'जंबूदीव' शब्दे चतुर्थभागे 1372 पृष्ठे प्रतिपादि- शिखरिणः परत इति एवमिति-भरतैरवतवत् एतेनाभिलापेन "जंबुद्दीवे तानि।) दीवे मन्दरसे' त्यादिना उधारणेनापरं सूत्रद्वयं वाच्यम्, तयोश्चायं विशेषः। धातकीखण्डे सप्त वर्षाणि-- - "हेमवएचे त्यादि, तत्र हैमवतंदक्षिणतः हिमवन्महाहिमवतोर्मध्ये हैरण्यधायइखंडदीवपुरच्छिमद्धे णं सत्तं वासा पण्णत्ता, तं जहा वतमुत्तरतः रुक्मिशिखरिणोरन्तः हरिवर्ष दक्षिणतो महाहिमवन्निषधभरहे०जाव महाविदेहे। (सू०-५५५+) स्था०७ ठा०३ उ०॥ योरन्तः रम्यकवर्षश्चोत्तरतो नीलरुक्मिणोरन्तरिति।स्था०२ ठा०३ उ०॥ क्षेत्रप्रकरणमाह पुष्करवरद्वीपे द्वितीये वर्षे, स्था०२ ठा०३ उ०) जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरदाहिणणं दो वासा ('पुक्खरवरदीव' शब्दे पञ्चमभागे६६६ पृष्ठे गताएतद्वक्तव्यता।) पण्णत्ता, तं जहा-बहुसमतुल्ला अविसेसमणाणत्ता अन्नमन्नं *वर्ष-पुं०। वृष्टी, विशे०नि० चू०। स्था०। वर्षोऽल्पतरोवृष्टिस्तुमहतीति णाइवदृति आयामविक्खंभसंठाणपरिणाहेणं,तंजहा-भरहे चेव तयोर्भेदः / भ०३श०७ उ०। जलसमूहे, ज्ञा०१ श्रु०१ अ० आचा० एरवए चेव एवमेएणं अहिलावेणं नेयव्वं, हेमवए चेव हेरनवते ध०। मेघे, भ०१६श०८ उ० चेव हरिवासे चेव रम्मयवासे चेव। (सू०-८६४) पुरुषो वर्षो वर्षति सुगमं चैतत्, नवरमिह जम्बूद्वीपप्रकरणं परिपूर्णचन्द्रमण्डलाकारं पुरिसे णं भंते ! वासं वासतिनो वासतीति?, हत्थं वा पायं वा जम्बूद्वीप तन्मध्ये मेरुम् उत्तरदक्षिणतः क्रमेण वर्षाणि च स्थापयित्वा, बाहुं वा ऊरं वा आउट्टावेमाणे वा पसारेमाणे वा कइ किरिए? तद्यथा--''भरहं हेमवयं ति य, हरिवासं ति य महाविदेहं ति / रम्मय गोयमा ! जाव च णं से पुरिसे वासं वासइ वासं णो वासतीति एरन्नवयं, एरवयं चेव वासाई' ति / तथा वर्षान्तरेषु वर्षधरपर्वातान् हत्थं वाजाव ऊरं वा आउट्टावेति वा पसारेति वा ताव च णं कल्पयित्वा, तद्यथा..."हिमवंत 1 महाहिमवंत-२, पव्वया निसढनील- से पुरिसे काइयाए० जाव पंचहि किरियाहि पुढे / (सू०-५८५) वंताय 4 / रूपो 5 सिहरी 6 एए वा सहरगिरी मुणेयव्व" ति॥१॥ सर्वमेवं 'पुरिसेण' मित्यादि वासंवासई वर्षो-मेधो वर्षति नो वा वर्षो वर्षतीति बोद्धव्यमिति। मन्दरस्य मेरोरुत्तरा च दक्षिणा च उत्तरदक्षिणे तयोरुत्तर- ज्ञापनार्थमिति शेषः। अचक्षुरालोके हि वृष्टिराकाशे हस्तादिप्रसारणादेव दक्षिणयोरिति / वाक्ये उत्तरदक्षिणेनेति स्याद् एनप्रत्ययविधानादिति, गम्यत इति कृत्वा हस्तादिकमाकुण्टयेद्वा, प्रसारयेद्वाऽऽदित एवेति // द्वे वर्षे -क्षेत्रे प्रज्ञप्ते जिनैः। समतुल्यशब्दः सदृशार्थः / अत्यन्तंसमतुल्ये भ०१६ श०८ उ०। प्रावृट्काले, सूत्र० 1 श्रु० 4 अ०२ उ० प्रव०। बहुसमतुल्ये प्रमाणतः अविशेषे अविशेषलक्षणे नग-नगर-नद्यादि- द्वादशमासात्मके कालभेदे, दर्श०५ तत्त्व। कृतविशेषरहिते अनानात्वे अवसर्पिण्यादिकृतायुरादिभावभेदवर्जिते। *व्यास-पुं० विस्तरे, रत्ना०७ परि०ा स्था०। कृष्णद्वैपापने, आव०२ किमुक्तं भवतीत्याह-अन्योन्यं-परस्परन्नातिवर्तेते, इतरेतरंन लवयेते अ० द्वीन्द्रियजीवभेदे, प्रज्ञा०१ पद। जी०। इत्यर्थः / कैरित्याह-आयामेन-दैर्येण विष्कम्भेनपृथुत्वेन संस्थानेन- | वास-पुं० समवस्थाने, सूत्र०१श्रु०७ अ० अधिष्टाने, स्था०५ ठा०२ आरोपितज्याधनुराकारेण परिणाहेन-परिधिनेति, इह चद्वन्दैकवद्भावः उ० "तत्थन कप्पइ वासो, आहाराजत्थ नऽस्थिपंच इमे। राया वेज्जो कार्य इति / अथवा-बहुसमतुल्ये आयामतः / तथाहि-भरतपर्यन्त- धणियं, न वेइया रूवजक्खा य॥१॥" व्य०१ उ०1"सुचिरतरमुषित्वा श्रेणीयम्, "चोद्दस यसहस्साई, सयाइँचत्तारिएगसयराई। भरहद्भुत्तर- बान्धवैर्दिप्रयोगः, सुचिरमपि हि रत्वा नास्ति भोगेषु तृप्तिः / सुचिरमपि जीवा, छच कला ऊणिया किंचि"||१|| कला च योजनस्यैकोन- सुपुष्टं याति नाशं शरीरं, सुचिरमपि विचिन्त्यो धर्म एकः सहायः विंशतितमो भाग इति 144716/16 / ऐरवतेऽप्येवम्। तथा अविशेषो // 1 // " सुगन्धिसरद्रव्यनिष्पन्ने कृत्रिपाकृत्रिमभेदभिन्ने गन्धे, दर्श०१ विष्कम्भतस्त-थाहि-"पंचसए छव्वीसे, छच कलावित्थडं भरहवासं | तत्त्व / सुगन्धद्रव्यनिष्पन्ने शुष्कपेषंपिष्ट गन्धे, पिं०। ध० पौषधिकः ति, 526 9/16 अयमेव चैरवतस्यापीति, अनानात्वे संस्थानतः पट्टपट्टिकालिखितप्रतिमां वासेन पूजयतिनवा? इति प्रश्नः, अत्रोत्तरम्अन्यो-न्येनातिवर्तेते, परिणाहतः परिणाहश्च ज्याधनुः पृष्ठयोर्यत्प्रमाणं पौषधिकः कारणं विना पट्टादिकं न पूजयतीति ज्ञेयमिति॥३४१|| सेन० तत्र ज्याप्रमाणमुक्तम्, धनुः पृष्ठप्रमाणं त्विदम्-''चोद्दस य सहस्साई. 3 उल्ला पंचेव सयाइँ अट्ठवीसाइं। एगारस य कलाओ, धणुपुटुं उत्तरद्धस्स''। *वासस्-ना वस्त्रे, "चेलं वासं वसणं च अंसुअं अम्बरं वत्थं।" पाइ० यथा भरतस्यैरवतस्यापितथैवेति 14528 11/16 एकार्थिकानि | ना०६६ गाथा। चैतानि पदानि, भृशार्थत्वाच्च न पुनरुक्ततेति। उक्तञ्च-"अनुवादादर- | वासंतिया-स्त्री०(वासन्तिका) पुष्पप्रधाने वृक्षविशेषे, जं०१ वक्ष०ा प्रश्रा वीप्साभृशार्थविनियोगहेत्वसूयासु। ईष-त्संभ्रमविस्मय-गणनास्मरणे | आचा०। ज्ञा०। प्रज्ञा०। आ०म०। औ०।। नपुनरुक्तमिति॥" तद्यथा-भरहे चेवेत्यादि। उत्तरदाहिणेणं तिएतस्य | वासंतियामउल-न०(वासंतिकामुकुल) वासन्तिकाकोरके, प्रश्न०१ पाठस्य यथासंख्यन्याया-नाश्रयणात् यथा सत्यन्यायाश्रयणाच्च / आश्र०द्वार।
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________________ वासंतियामंडव 1103 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वासक्खेव वासंतियामंडव-पुं०(वासन्तिकामण्डप) वासन्तिकालताम ये मण्डपे, जी०४ प्रति वासकोडि-स्त्री०(वर्षकोटि) शतलक्षभिर्वगुणिते संख्याभेदे, स्था०२ ठा०४ उ०। वासकोडाकोडि-स्त्री०(वर्षकोटिकोटि) वर्षकोटिभिर्गुणितायां वर्षकोटौ, ज्ञा०१ श्रु०६ अOF वासक्खेव-पुं०(वासक्षेप) गन्धघूर्णस्य शिरसि क्षेपे, महा। वासक्षेपमन्त्रःएताहे गोयमा ! इमाए चेव विजाए अहिमंतियाओ सत्त गंधमुट्ठीओ तस्सुत्तमंगे "नित्थारगपारगो भवेनासि" त्ति उचारेमाणेणं गुरुणा घेत्तवाओ। अउम् (ॐ णमो अरहओभगवओ महइ महावीरवमाणसामिस्स सिज्झउ मे भगवई महइ महाविज्जा वीरे वीरे महावीरे जयवीरे सेणदीरे वट्माणवीरे जए विजए जयंते अपराजिए अणीहए (ॐहीं स्वाहा) णमओ भगवओ अरहओ सइज्झउ म्ए भगवती महावि जज आ, वईर एवईर ए मह आई रए वद्धम् आणव्हर एजय अंत् ए, अपर् आइए, स्व् आह आ / उपचारो चउत्थभत्तेणं साहिग्जइ, एयाए विग्जाए सव्वगओ नित्थारगपारगो होइ, उवट्ठावणाए वा, गणिस्स अणुनाए वा सत्त वारा परिजवेयव्वा नित्थारग-पारगो होइ। उत्तिमट्ठपडिवन्ने (उट्ठिविणाए इत्यपि पाठः / ) वा अभिमंतिनइ आराहगो भवइ, विग्यविणायगा उवसमंति, सूरो संगामे पविसंतो अपराजिओ भवइ, कप्पसम्मतिए मंगलवहणीखेमवहणी हवइ। तहा साहू समणोवासगसद्धिगा सेसा सेसा सतसाहम्मियजणं चउविहेणं पि समणसंघेणं नित्थारगपारगो भवेजा। धन्नोसि पुग्नोसि सलक्खो सि तुमं ति उचारेमाणेणं गंधमुट्ठीओ घेत्तव्वा ओ। तओ जगगुरूणं जिणिंदाणं पूयगा दसाओगंधट्ठाऽमिलाणसियमल्लदामंगहाय सहत्थेणोभयखंधे समारोवयमाणेणं गुरुणा णीसंदेहमेवं माणियव्वं / जहा भो भो जम्मंतरसंचियगुरुगुरुपुनपन्भारसुलद्धसुविठत्त सुसहलमणुयजम्मदेवाणुप्पिया!खइयं च णरयगइदारं तुझं ति अबंधगो य अयसअकित्तीनीयगोत्तकम्मविसेसाणं,तुम ति भवंतरगयस्सवि उण दुलहो तुन्म पंच नमोक्कारो भाविजम्मंतरेसु, पंचनमुक्कारपभावओ य जत्थ जत्थोववज्जेजा तत्थ तत्थुत्तमा जाई, उत्तमं च कुलरूवारोग्गसंपयं ति एयं ते निच्छइओ भवेजा। (महा०३अ०) अउम् (ॐ णमो कुहबुद्धीणं ॐ णमोपयाणुसारीणं ॐ णमो संभिन्न सुईणं ॐ णमोखीरासबलद्धीणं, ॐणमोसव्वोस-हिलद्धीणंॐ णमोअक्खीणमहालकणं ॐ णमो भगवओ अरहओ महइ महावीरवद्धमाणधम्मतित्थंकरस्स ॐ णमो सव्वधम्मतित्थ-यराणं, ॐ णमो सव्वसिद्धाणं ॐ णमो सव्यसाहूणं, ॐ णमो भगवतो मइनाणस्स ॐ णमो भगवओ सुयनाणस्स ॐ णमो भगवओ ओहिनाणस्स ॐ णमो भगवओ मणपज्जवनाणस्स ॐ णमो भगवओ केवलनाणस्सॐ णमो भगवतीए सुयदेवयाए तिज्झउमे एयाहिवा विजा, ॐ णमो भगवओ ॐ णमो वं (ॐ णमो पं) आउअभिवत्तीसलक्खणं सम्मदंसणं ॐ णमो अट्ठारससीलंगसह-स्साहिटियस्स णीसम गेण्हइ णियाणणीसल णिसयसलगत्तेणं सरण्णसव्वदुक्खणिम्महणपरमनिव्वुइकरस्सणंपवयणस्सपरमपवित्तुत्तमस्सेति।) णअम्ओ उअउद्धईण्अम्, अउम् अम्ओ प्अय् आण्उसआरईणअम्, अउम् अम्ओ सअम्भइण्ण-सउईण्अम्, अउम् णअम्ओ खईरआसवलदईणअम्, अउम् अम्ओ सव्दओसहिलद्धईणअम्, अउम् अम्ओ अक्खई-अम् अहआणसलद्धईण्अम्, अउम् अम्ओ भगवओ अरहओ महइ महावीरवद्धमाणधम्मतित्थंकरस्स, अउम् णमओ सव्वधम्मतित्थंकराणं, अउम्णम् ओ सव्वसिद्धाणं अउम्णम् ओ सय्वसाहूणं अउम्णम्ओ भगवतो मइणआणस्स, अउम् णमओ भगवओ सुयणआणस्स, अउम् णम् ओ भगवओ ओह्हणआणस्स अउम् णमओ भगवतो, मणपज-वणआणस्स अउम् णम्ओ भगवओ केवलणाणस्स, अउम्णम्ओ भगवतीए सुयद्एवय्आए, सिज्झउमे एय् आहिवा विजा, अउम् णम्ओ भगवओ णम्ओ अम, अउम् ण्अमओ णम्ओ ओ औ अभिवत्तीसलक्खणं सम्मदंसणं, अउम् णम् अgआरसअसईल्अंगसहस्साहिट्ठियस्स, णईस अम गेण्हइ, ण्इआण-ईसल ण इसयसल्ल गत्तूण सअण्ण सव्वदुक्खणिम्महणपरमणिटबुइकरस्स णं पवयणस्स | एसा विजा सिद्धतिएहिं अक्खरेहिं लिहिया / एसा य सिद्धतिया लिवी, अमुणियसमय-सब्भावाणं सुयघरेहिं ण पण्णवेयव्वा, तह य कुसीलाणं च ||4|| इमाए पवरविद्याए सम्वहाउ अताणगं / अहिमंतेऊणसो विजा,खंतोदंतोजिइंदिओ॥५०॥ महा०१० तथा-श्रीवीरजन्मनि गुलपय॑टिकादिभोजनं लात्वाऽऽगच्छन्ति तदुपरि यतीनां वासक्षेपः कृतः शुद्ध्यति न वा इति? प्रश्नः अत्रोत्तरम्श्रीवीरजन्मनि गुलपप्पटिकादिभोज्योपरिसुविहितानांवासक्षेपपरम्परा नास्तीति / / 130|| सेन० 3 उल्ला०। तथा-प्रतिष्ठाधिकारे साधूनां वासक्षेपाक्षराणि क्व सन्ति? यदि च सन्ति तदा प्रतिष्ठावत्प्रतिदिनं ते वासक्षेपपूजां कथं न कुर्वन्ति? इति प्रश्नः, अत्रोत्तरम्-पञ्चचत्वारिंशदागमानां मध्ये आवश्यकबृहदवृत्तौ गणधरपदप्रतिष्ठाधिकारे साधूनां वासक्षेपाक्षराणि सन्ति, प्रतिदिनं वासक्षेपपूजाक्षराणि तुसाधूनां कुत्रापि नसन्तीति तद्विधानं कुतस्त्यमिति / / 247 / / सेन० 3 उल्ला०।
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________________ वासग 1104 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वासधर वासग-पुं०(वासक) 'वासृ' शब्दकुत्सायाम् / वासन्तीति वासकाः। भाषालब्धिसंपन्नेषु द्वीन्द्रियादिषु, आचा०१ श्रु०६ अ०१ उ०। वासग्ग-त्रि०(वर्षगत) आर्ष वा तथा रूपम् / वर्षलक्षणे कालपरिणा- | ममाश्रिते, उत्त०२ अ० वासघरय-न०(वासगृहक) शयनगृहे, कल्प०१ अधि०२ क्षण / ज्ञा०। नि००। वासणा-स्त्री०(वासना) अविच्युत्याहिते संस्कारे, आ०म०१ अ०) नं०] (वासना सौगतानां कर्मेति 'कम्म' शब्दे तृतीयभागे 247 पृष्ठे प्रतिक्षिप्तम्।) वासत्ताण-न०(वर्षत्राण) छत्रेधा "वासत्ताणे पणगं, चिलिमिलिपणगं दुगं च संथारे / दंडाई पणगं पुण, मत्तगतिगपायले-हणिआ॥१॥" वर्षात्राणे पञ्चकम्, तद्यथा-कम्बलमयं१ सूत्रमयं 2 तालपत्रसूची 3 लासपत्रकुटशीर्षकं 4 छत्रकं 5 चेति। इमानि च लोकप्रसिद्धप्रमाणानीति / ध०३ अधि०॥ वासघ(ह)र-पुं०(वर्षधर) वर्धितकरणेन नपुंसकीकृते अन्तः पुरमहल्लके, दशा०१ अ० वर्ष-क्षेत्रदिशेष धारयते-व्यवस्थापयते इति / हिमवदादिषु, अनु०। स्था०। वर्षधरौ समौदो वासहरपव्वया पण्णत्ता / तं जहा-बहुसमउल्ला, अविसेसमणाणत्ता। अन्नमन्त्रणाइवटुंति आयामविक्खंभुचत्तोव्वेहसंठाणपरिणाहेणं / तं जहा-चुलहिमवंते चेव, सिहरी चेव, एवं महाहिमवंते चेव, रुप्पी चेव, एवं णिसढे चेव, णीलबंते चेव। (सू०-८०) 'ज' इत्यादि वर्ष क्षेत्रविशेष धारयतो व्यवस्थापयत इति वर्षधरौ / 'चुल्ल' त्ति महदपेक्षया लघुर्हिमवान् चुल्लहिमवान, भरतानन्तरः शिखरी पुनर्यत्परमैरवतः, तौ च पूर्वापरतो लवणसमुद्रावबद्धावा-यामतश्च "चउवीस सहस्साइं,नव यसएजोयणाणवत्तीसं। चुलहिमवंतजीवा, आयामेणं कलवंच" ||1|| एवं शिखरिणोऽपिा तथा भरतद्विगुणविस्तारौ योजनशतोच्छ्रायौ, पञ्चविंशतियोजनान्यवगाढौ आयतचतुरस्रसंस्थानसंस्थितौ, परिणाहस्तुतयोः "पणयालीस सहस्सा, सयमेगन्नव य वारस कलाओ। अद्धं कलाएँ हिमवं-त परिरओ सिहरिणो चेव" त्ति ||1|| एवमिति यथा हिमवच्छिखरिणौ 'जंबूदीवे' त्यादिनाऽभिलापेनोक्तौ एवं महाहिमवदादयोऽपीति। तत्र महाहिमवान्लध्वपेक्षया ; सचदक्षिणतः, रुक्मी चोत्तरतः / एवमेव निषधनीलवन्तौ नवरभेतेषामायामादयो विशेषतः क्षेत्रसमासादवसेयाः। किञ्चित्तु तगाथाभिरेवोच्यते''पंचसएछव्वीसे, छच कलावित्थडम्भरहवासं। दससयवावन्नहिया, वारस य कलाओ हिमवंते॥१॥ हेमवए पंचऽहिया, इगवीससयाओ पंच य कलाओ। दसहियवायालसया, दस य कलाओ महाहिमवे // 2 // हरिवासे इगवीसा, चुलसीइसया कला य एक्का य। सोलससहस्स अट्ठय, वायाला दो कला निसढे // 3 // तेत्तीसंच सहस्सा, छच्च सया जोयणाण चुलसीया। चउरो य कला सकला, महाविदेहस्स विक्खंभो // 4 // जोयणसयमुविद्धो, कणगमया सिहरिचुल्लहिमवंता। रुप्पिमहाहिमवंता, दुसउच्चारुप्पकणगमया // 5 // चत्तारि जोयणसए,उव्विद्धा निसढनीलवंताय। निसहो तवणिज्जमओ, वेरुलिओ नीलवंतगिरी // 6 // उस्सेहचउब्भागो, ओगाहो पायसो नगवराणं। वट्टपरिही उतिगुणो, किचूणछभायजुतो त्ति // 7 // " चतुरस्रपरिधिस्तु आयामविष्कम्भद्विगुण इति / स्था०२ ठा०३ उ०। जम्बूद्वीपे मन्दरस्योत्तरतो दक्षिणतश्च त्रयोवर्षधराः। स्था०। जंबूमंदरस्स दाहिणेणं तओवासहरपव्वया पण्णत्ता,तं जहाचुलहिमवंते महाहिमवंते निसढे / जंबूमंदरस्स उत्तरेणं तओ वासहरपव्वया पण्णत्ता,तं जहा-णीलवंते रुप्पी सिहरी। (सू०१९७४)स्था०३ ठा०४ उ० संग्रहेण षट्जंबूदीवे छ वासहरपव्वया पण्णत्ता, तं जहा-चुलहिमवंते 1 महाहिमवंते 2 निसढे 3 नीलवंते 4 रुप्पी५ सिहरी ६।(सू०५२२+) स्था०६ठा०३ उ०। सप्त वर्षधराःजंबूदीवे सत्त वासहरपव्वया पण्णत्ता, तं जहा-चुलहिमवंते महाहिमवंते निसः नीलवंते रूपी सिहरी मंदरे / (सू०-७x) स०७ समस्था (क्षुद्रहिमवदादीनां व्याख्या स्वस्वस्थाने) एषां धनुःपृष्ठेचत्वम्महाहिमवंतरुप्पीणं वासहरपव्वयाणं जीवाणं धणुपिट्ठ सत्तावन्नं जोयणसहस्साई दोनिय तेणउए जोयणसए दस य एगूणवीसइभाए जोयणस्स परिक्खेवणं / / (सू०-५७) "जीवाणं धणुपिट्ठान्त" मण्डलं खण्डाकारं क्षेत्रं इहसूत्रे संवादगाथार्द्धम् "सत्तावन्न सहस्सा धणुपिट्ठतेणउय दुसय दस कल" ति॥ स०५७ समoll सम्वे विणं णिसहनीलवंता वासहरपव्वया चत्तारि चत्तारि जोयणसयाई उडं उच्चत्तेणं चत्तारि गाउयसयाई उठवेहेणं पण्णत्ता। (सू०-१०६४)स०३०० सम० ___ सम्प्रति वर्षधराणां विस्तारप्रतिपादनार्थमाहमरहेरवयप्पमिई, दुगुणादुगुणो उ होइ विक्खंभो। वासा वासहराणं, जावइ वासं विदेहेत्ति // 178|| भरतैरवतप्रभृतीनाम्, किमुक्तं भवति-जम्बूद्वीपस्य दक्षिणपार्चे भरतादीनामुत्तराभिमुखानाम् उत्तरपाचे, ऐरवतादीनांदक्षिणाभिमुखानां वर्षाणां वर्षधराणां च विष्कम्भं पूर्वस्मात् द्विगुणो द्विगुणस्तावदवसेयो यावदुभयेषां वर्ष 'विदेहाई' ति इयमत्र भावनाभरतैरवतापेक्षया द्विगुणविष्कम्भौ क्षुल्लहिमवचशिखरिणी, ताभ्यामपि द्विगुणविष्कम्भौ हैमवतहरण्यवती, ताभ्यामपि द्विगुणविष्कम्भौ महाहिमवद्क्मिपर्वती, ताभ्यामपि हरिवर्षरम्यकवर्षे द्विगुणविष्कम्भे, ततो निषधनी
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________________ वासधर 1105 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वासपूयाफल लवन्तौ द्विगुणविष्कम्भौ, ताभ्यामपि द्विगुणविष्कम्मं महाविदेहाभिधं वर्षमिति / ज्यो० 10 पाहुन समयखित्तेणं मंदरवज्जा एगूणसत्तरि वासा वासघरपव्वया पण्णत्ता,तं जहा-पणतीसंवासातीसं वासहरा चत्तारि उसयारा। (सू०-६६x) स० वासघरकूड-पुं०(वर्षधरकूट) वर्षधरपर्तसम्बन्धिनि शिखरे, सव्वे विणं वासहरकूडापंच पंच जोयणसयाई उद्धं उच्चत्तेणं होत्था / मूले पंच पंच जोयणसयाई विक्खंभेणं पण्णत्ता / (सू०-१०८) अथैकोनसप्ततिस्थानके किञ्चिलिख्यते–'समये' त्यादि, मन्दरव र्जा-मेरुवर्जा:वर्षाणि च-भरतादिक्षेत्राणि वर्षधरपर्वताश्चहिमवदादयस्तत्सीमाकारिणो वर्षधरपर्वताः समुदिताः, एकोनसप्ततिः प्रज्ञप्ताः, कथं? पञ्चसुमेरुषु प्रतिबद्धानि सप्त भरतहैमवतादीनि पञ्चत्रिंशद्वर्षाणि, तथा प्रतिमेरुषट्षट् हिमवदादयो वर्षधरास्त्रिंशत्तथा चत्वार एवैतेषु प्रकारा इति सर्वसंख्ययैकोनसप्ततिरिति। स०६८ सम०। वासध(ह)रपव्वय-पुं०(वर्षधरपर्वत) क्षुद्रहिमवदादिषु, जं०३ वक्षा स्था०। (एतद्वक्तव्यता 'वासधर' शब्दे।) वासध(ह)रसंठिय-पुं०(वर्षधरसंस्थित) हिमवदादिवर्षधरपर्खताकारे, भ०८ श०२ उ० वासपूजा-स्त्री०(वासपूजा) प्रत्यहं तीर्थकरपूजने, त्रिकालपूजाकरणे प्रभाते मालादिनिर्माल्यमपास्य सर्वस्नानेन वासपूजा क्रियतेऽन्यथा वेति? प्रश्नः, अत्रोत्तरम्-प्रभाते पुष्पमालादिनिर्माल्यमनपास्य श्राद्धा वासपूजां कुर्वन्तो दृश्यन्ते, सर्वस्नानकरणेऽप्येकान्तो ज्ञातो नास्ति, हस्तपादप्रक्षालनेन शुद्धयतीति // 167 / / सेन०४ उल्लाका वासपूयाफल-न०(वासपूजाफल) तीर्थकरपूजायाः माहात्म्यप्रदर्शने, दर्शा "अत्थि इहेव भारहे खित्तमज्झयारम्मितारहारनीहारवं उज्जलविजाहरनिवासनयरसोहियउभयमेहलाकलावो अणेगदेवदाणवनरिदवासभूमी चउद्दिसे पि भरहखेत्तमाणदंडोव्व विरायमाणो वेयड्डो नाम नगवरो / तत्थ दाहिणसेढिवरविलग्गमेहलावररयणभूयं देवनयरं व गयणंगणगामिनरनारिनियरोवसोहियं हत्थिणाउरं नाम नयरं / तत्थ दरियारिदप्पविमद्दणो कोयंडदंडो व्व सरासणनिवासो तोणीरमज्झं व अणेगमगणोवसेविज्जमाणपय-कमलो सजीवचावं वसत्तुसंताससंपायगो जियसत्तू नाम राया। तस्स णं रइ व्द इट्ठा सव्वलोयाणं सद्दाइ समुद्द व्व आवासो विसयगामाणं मयणकंदली नाम भज्जा, रई व अणंगस्स, सई व संकदणस्स अइहा राइणो / तीए सह विसयसुहमणुहवंतस्स अणेगमणो-रहसयसमायरिसियासयलसुहोदयसमप्पियवसंतो सुहसमुप्पायगा जाया मयणावली नाम कन्नगा। कारावियं च पुत्तजम्मेव अणेगविप्पोसयसयलकलाकलावकुसला पत्ताय सयलजणनयणाभिराम जोव्वर्ण / जाओ य चिंतावरो राया / जाओ "जाया जणयइ दुहियं, वरकाले जोव्वणे य पीमायं / दुहिया दुहसयहेऊ, सया वि नामेण वि कहेइ / / 1 / / " तओ चिंतासागरमवगाहमाणमवलोइऊण रायाणं भणियं मइसागरमंतिणा-सचिंतो व्य लक्खिज्जइ सामी एयमाय-णिऊण अदिन्नपडिवियणेण वि अइदीहं नीससिऊण पडियं नरवइणा 'माणी पियाविउत्तो, सुकई सुयणे सुयतु उ पिसुणो। कन्नापिऊ दरिद्दो, एए चिंताउरा होंति // 1 // " मंतिणा भणियं-देव ! किमेएण निरत्थएण चिंतासमुद्दमवगाहणेण, करेउ सामी दुहियाए सयवरमंडवो,मेलिज्जंतु सयलविज्जाहरभूगोयरनरसेहरकुमारा / दंसिज्जति पत्तेयं पत्तेयं सयलकलाकुसलपरमुत्तमगुणण्णवण्णणापुण्णा / एवं कए सामिस्स मणसमीहियं होहि। एवं ति पडिवजिऊण नरवइणा काराविओ चित्तशालिभंजिउवसोहियाणेगमणिरयणथंभसयसमसिओ पहाणमंचाइमंचकलिओ विचित्तचित्तभित्तिनयणाभिरामो फालिहामयसिलासयसंबद्धपरमरमणिज्जकुट्टिमतलोसयंवरमंडवो।तओआहूय उभयसेणिनिवासिणो सयलविज्जाहरकुमारा भूमिगोयरनरवइणो। कयमुचियकरणिज्जा निरूपियं मयणावलीएसयंवरमंडवेसमंगलदिवसं, ततोपच्छ्यदियहे य विविहनेवत्थियसरीरा नाणामणिकणगरयणविहूसियंगी चारु चामीयरचिंचइयपेरंवहयलालोवमण्हाणपरिहियसियसदसवसणा पहाणनारिकरयधरियउइंडपुंडरीया सरयभगब्भसुब्भससरलसुकुमालकंचणनिचयचारुचमरोवसोहियउभयपासिल्ला पहाणपरियणाणुगम्ममाणा। समागया मयणावली रंगमंडवे। ततो दविखणसुइणा परमविणीएण सयलकला कलावकुसलेण सव्वनरनाहविनायकुलनायगुणगणाइवुत्तन्तेण रइवल्लहकंचुइणा पहाणकंचणमयमणिरयणचिंचइयलीलालट्ठिहत्थेण भणिया। जहा सामि! एस णं गयणवल्लहपुराहियो वेयड्डगिरिसिहरसंठियउत्तरसेढिसयलविजाहररायनेयो सिंगारसिरिसेहरो नाम, सूरो चायं कयकोउओ। एसपुण सियमंदिरनयरसामी नररयणचूलो नाम पंडियपयंडचंडपा--संडखंडणो, एयं पुण पुरोवत्तीणं देवदिट्ठीए पसायं करेह रहनेउर-चक्कपुरवरभुत्तारं अणंगरहं जाणाहि। एवं परिवाडीए सव्वे विदंसिया राइणो। एवं तस्सव पुन्नेहिं परिपेरिया ते सुरपुरनिवासिणो सिंहर-हराइणो सयलसुहपरंपर व्व पक्खित्ता कंठम्मि वरमाला / जाओ बहलकोलाहलो, संजायं महाविभूईए पाणिग्गहणं, जाओय परोप्परं दढाणुराओ, उवभुंजइराइणो समीहियाई मणुयलोयसुहाई।अह अन्नया सुहंसंदोहामयमज्झगयाए केणइपुव्वदुक्कयकम्मपरिणइवसेण जाया अइसयदुरभिगंधा नियपरियणस्स नयरलोयस्स वि उव्वेयणिज्जा राइणो अइइट्ठा ठाणओ तीए पुण काराविओ महाडईए पुण सा उम्मुक्का तत्थ करेइ नासाबंधपुव्वयं परियणो सरीरट्टिई / खंतियदुरट्ठिया चेव रायनिउत्ता नरामयणावली विपासायसिहरसंठिया विजाहरिव्व पन्भट्ठविज्जारहंगधरणि व्व संभावियरयणिसमागमारायहंसि व्व उल्लूरियसरससरोवरसारतामरसविसरा परमदुहिया अच्चंतउव्विग्गमाणसा सोयसायरमज्झगया चिन्ताभरनिटभरा जाणुवरिउक्खियकरयलविणिहितवामकवोला विचिंतयंती नियकम्मपरिणइकडयविवागं चिट्ठइ / अहऽन्नयाए रयणीए पढमजामे समागयं सुयजुवाण मिहुणयं ठियं पच्चासन्नगवक्खंतरे / कहंतरे य भणिओ नि यसुईए, सामि ! कहेह किंचि कहाणयं / नजाइ निविण्णोवगयाणं रयणी, सुएण भणियंपिए! चरियं कप्पियं वा कहेमि। सुईए भणियं-लोयणाणंदणानि सुयाई चेव तुम्ह पाए पसायतु / अणेगहा समइविगप्पियाई कप्पियाइं च
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________________ वासपूयाफल 1106 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वासपूयाफल रियं परममुणिविवन्नियं सद्धम्मबुद्धिजणगं कहेह / जइ एवं ता सुंदरि! सुणेहि सावहाणा / ततो चिंतियं मयणावलीए-अज्ज णं सोयसाय-- रनिवडियाए एवं सोहणं समुत्तरणं, ता मोत्तूण सयलचिंतं निसुणेमि सावहाणा होऊण। अत्थि इहेव वेयड्डनगरे दाहिणसेढिए हत्थि-णाउरं नाम नयरं / तत्थ नमिरविजाहरसिरसेहररइअमंदारमालावलीए पयकमलो जयसुरो नाम नरवई। तस्सणं सुहमई व्व सयल-सुहसंपायगा सुहमई भजा। अन्नया तीए गड्भाणुभावओ चेव जाओ तित्थजत्ताकरणपरिणामो / लज्जाए न कहियं भत्तुणो / जायखाम-कवोला पुच्छिया य नरवइणा सुंदरि ! कीस तुम अकंडे चेव असंभावणिज्जसरीरा जाया। किमत्थि कोइमए आणावडिच्छए तुब्भवमाणकारी, तओ इसि हसिऊण लज्जाए मुहं परावत्तिऊण अहो-मुहीए सुहमईए भणियं-पिय ! न मम तुभ पयप सायओ सुविणेऽवि कोऽवि अवमाणं करेइ ता किमेरिसं। ततो लजं पमुत्तूण अइनिब्बंधं कहिये-जइ अट्ठावयपव्वयाइसुसयं चेव गंतूण सुगंधेहिं वह-लपरिमलपासियसयलदिसिमुहेहिं कोट्ठपुडपायमएहिं वासेहिं चुन्नेहिं पहाणपुप्फागुरुमाइएहिं पूर्व करेमि। राइणा भणियं-पिए ! पूरेमि मणोरहे। विउव्वियं तक्खणमेव अणेगकिंकिणीजालमालोवसोहियं पलवंतमुत्ताहालाउलं मणिकणगरयणखंभसमूसियं गगणतलावलीयं सियचहुलविजयवेजयंतीविहुयदिसिवउज्जमुहमंडलं पहाणरमणिअविमाणसमारोविऊण ववगओ चेवराया अट्ठावयपव्वयं, कयं परमसुरहिदव्वमीसजलेहिं पडुपडहगीयवाइयरवपूरिज्जमाणगगणंगणगिरिकंदरविवरं विहीए मजणं। पच्छा विरझ्या पूया पहाणमुचकुंदमंदारासोयवउलपारियायकन्नियारचंपयाईकुसुमागंदामोयवासियदिसिविदिसिएहिं सुसिणिद्धगंधलुद्धचंचलचंचरीया उसुहमईसह भत्तुणा पडिपुन्नमणोरहा अचंतरसियहियया, ताव आच्छाइया सेससरसक्उलासोयकयंबसहयारमंजरीबहुलामोओ तिरिक्खाण वि नासियाविवरसंतावसंपायगो अग्घाइओ असुहा गंधो, ततो ठइया नासिया, निच्छूढं हुं हुं ति भणंतीए पुच्छिओय नियदइओ। सामि! कस्सेरिसो गंधो अइदूसहो तिरिक्खाण वि।खेयराहिवेण वि अवलोइऊण वणंतराणि कहियं-पिए! मा एवं दुगुंछं करेह, पेक्खणं एयं महप्पाणं पुरतो सुद्धसिले काउस्सग्गट्ठियं उद्घबाहुं सूरियाभिमुहं चत्तसयलसंगं निप्पिवासं चत्तकलत्तपुत्तसहिसयणजणबंधवसिणेहचारं आइच्चकरतावियमललित्तसरीरसवियजलाविलं देवदाणवनरिंदवंदवंदियपयकमलं पणाममित्तोवयारजणजणियपावसंतावोवसम। आउमाहीलेहपयं महातवस्सि अहीलणिज्ज सया सीलसुयधरं पिए ! एरिसा चेव सवणा हवंति, जओ-'मलमइलजुन्नवसणा, अन्हाणदंतवणविगहविणिमुक्का। छज्जीवधायविरया, जे ते तारंति उभयं पि।' ताए भणियं-सामिया एवमेयं, तहाविजइफासुओदएणं परिमिएणं अंगपक्खालणं मणुन्नायं होज्जा को दोसो हुँतो। तओ भणियं रन्ना-पिए! मा एवं पजंपसु महादोसो सरीरसोहणन्हाणस्सा जओ-"सिंगारसंगमेयं, पढमं जं सूसणं रूरीरस्स / न्हाणं तंबोला विव, यति लोए विवि-हाउ ||१॥"एवमेयं तहावि करेह मे मणसमाहि।धोएमोफासुओदएणं, करेमो पवरगंधेहि पूओवयारं। तओ भणियं सुईए-अजउत्त! किं सा नसाविया जा एवंविहाणं पि महामुणीणं दुगुंछं करेइ, सिद्धंतरहस्संन याणइ। सुएण भणियं-एसासाविगा परंमोहपसारा अविभायसिद्धंतभावा जहाभद्दगा। ततो आणीयं फासुयमुदयं, पकखालियं सरीरं मुणिवरस्स, आलिंपिओ ससरगोसीसचंदणेणं, पक्खित्ता य समत्थसरीरोवरि वासियसयलनहंगणाचुन्नगंधा, वंदिओ य भत्तिब्भरनिटभरंगाए सह पिययमेणं गयाइ जहचियं चेइयाणं वंदणत्थं, अभिवंदिऊण यनंदीसराइंसुचेझ्याणि जा विलग्गइ अट्ठावयं पलोएइ मुणिदिसा हुत्तं ता पेच्छइ तं मुणिवरं ! ततो ससंकाए पुच्छिओराया। सामियं ! कहिं सो महामुणी, रन्ना वि अइनिउणं पलोयंतेण वणंतराणि दिह्रो सिणिद्धगंधलुद्धमुद्धालिमालुम्मालियसयलदेहमंडलो दवदड्डथाणुसरिसो। ततो दंसिओ राइणा पिए! पेच्छह एवं भयवंतं उवसम्गिजंतं गंधलुद्धमहुयरेहि। ततोसुहमई विसायमावन्ना। पेच्छह मएमंदभायाए भत्ती कया; नवरं अणत्थो जाओ, परं अहो मुणिणो धीरया, अहो खंती, अहो मेरुगिरिस्सेव निप्पकंपया, तो गंतूण निवारेमि उवसगंति। ओइन्नाइंगयणयलाओ निद्धाडिया सव्वेवि महुयरा। मुणिणो वि निचलमणोवाकायस्स झाणंतरियाए वट्टमाणस्स धाइयघाइकम्मचउक्कस्स निरावरणं कसिणं पडिपुन्नं लोयावभासयं केवलाणं समुप्पन्न। समागया य चउनिकाया देवा, कुणंति केवलिमहिम, सिंचंति चउदिसिं सुरहिप्रधोदगसित्तभूमीए दिव्वं दसद्धवन्नं कुसुमवरिसविरइयचारुचामीकरकमलं, उवविठ्ठो य भयवं / तत्थ वंदिओ सदेवमणुयासुराए परिसाए, जयसूरेणावि खेयराहिवेण सह पियाए वंदिऊण परमविणएण भणियं-भयवं ! मरसिज्जाहि जमेत्थावरद्धमम्हेहिं अन्नाणमोहमोहियमणेहिं / भयवया भणियं-महाभाग ! को तुम्हेत्थावरद्धो नियकम्मपरिणइवसेणं चेव पाणिणं सुहदुक्खाई परिणमंति तं सव्वहा न खेओ कायव्यो। जओ-"समसत्तुमित्त-चित्ता, चरित्तिणो चत्तपुत्तसुहिसयणा। कम्मक्खयमुज्जुत्ता,अवर-द्धे वि हुन कुप्पं ति॥१॥" भयवं ! एवमेयं सच जहा चेव मुणिणो हवंतितहा विउक्सग्गकारणंजया वयं, कया तीसे महतिमहालि-याएपरिसाएधम्मदेसणा, तयावसाणे जयसूरिखेयराहिवो सह जायाए गओ सट्ठाणं, भुंजइ मणिच्छियाई भोगाई सुहमई पडिपुन्नडोहला उचियसमए सव्वलक्खणधरं सुरूवं सुकुमालपाणिपायं दारगं पसूया। पइट्टियं नाम कल्लाणगो, ततो तस्स रज्जधुरापरिपालणसमत्थस्स दाऊणं रज्जं पव्वइओ सह जायाए जयसूरनरवई। काऊणं उग्गं तओकम्मं पालिऊण जहाविहीए परमसामन्नं गतो देवलोगं सह सुहमईए, पुणो सुईए भणियं,सुय ! कहेह किं सुहमई पुणो पाविस्सइ, सुरण भणियं-पिए! सा संपयं देवलोगा चुया इहेव सुरपुराहिवस्स भज्जा जाया, गंधपूयापभावेण अइइट्ठा राइणोपरं संपइ उप्पणं तं मुणिदुगुंछाजणियं कम्म, जाया तप्पभावेण अइ-दुग्गंधा सव्वलोयदुगुंछणिज्जाततो मुक्का / एसा एयम्मि पासाए / सुईए भणियं-अइपाणवल्लह ! दुक्खिया अहं एयाए महाभागाए दुक्खेणं। ता कहेह कियचिरं अइविपुन्नाए एत्थ अत्थेयव्वं? सुएणं भणियं-सामिणि ! एया पुव्वभवे चेव मुणिणो पुणो २खमावणाए थोवमेत्तं कयंता जइसंपर्यसत्तदिणे तित्थेस
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________________ वासपूयाफल 1107 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वासपूयाफल राणं परमविसिवसुगंधेहि गंधपूयं करेइ ता सव्वहा निज्जरेइ / जाएइ अइबहुअब्भत्थणाहिं कहकह वि विसज्जिया भयवया वि पव्वाविया पुव्यावत्थसरीरा। एयकहावसाणे सा मयणावली हद्वतुट्ठा पासाइं पलोएइ महाविभूईए। इओ राइणा-पविट्ठो य नियनगरे निराणंदो वाहजातान पेच्छइतं अइइट्ट सुयमिहुणयं। तओ सहस त्ति चित्ताइया-किमेयं लुल्लोलरेलियकवोलो संसार-सायरं विचिंतयंतो / मयणावली वि सुमिणयं? किवा मणवियप्पो?, किंवा देवेण पच्छन्नरूवेण पडिबोहिया? दुक्करतवचरणरया विहरइ सह अजाहिं अब्भुजयविहारेणं / देवो वि एवंविहणाणावियप्पेहिं सुहं सुहेणं वाहिया रयणी / ततो हट्टतुट्ठाए अहाउयक्खएणं चविऊण विमाणाउ समुप्पन्नो खेयरसुओ, जातो य जिणाययणेसु काराविया पूया विसिठ्ठपुप्फेहि, विसेसओ सुविगंधगंधेहिं / सयलकलाकलावसीमाआयारो जोव्वणगुणरयणाणं संपुनपुन्नोदहिलाततो जिणपूयाण्हाण-मंतुत्थ पिसाउ व्व खणेण देहाउ पणट्ठो असुहो वनजलनियरस्सा अन्नया तेण गयणंगणगामिणा दिव्वविमाणारूढेण दिट्ठा गंधो / जाया सहा-वसरीरा पच्चाविओ राया पासपरिवत्तिणा जणेणं / मयणावली भज्जा नियपडिसयस्स दुवारदेसे काउसग्गगया। त तहाविअमयरससि-त्तिणो व परमतोसमावन्नेणं दिन्नं परमपारिओसियं, गतो हमवि दटूण पुटवभवब्भासओ ठूणं जायअणुराओ परो दंसेइ, सयं चेव नवरई मयणावलीपासे / हरिसभरेणं निब्भरेणं सयं चेव अइदुल्लहा भूमिगोयराणं नियविजाहररिद्धी, पयडेइ अणुरायं, दंसेइ समारोविया जक्खासणे, समाणीया महाविभूईए नियमंदिरे, काराविओ मयणवियारे, करेइ अणुकूलोवसग्गे, भणेइ महुर--वयणेहिं, कीस णं तुमं नयर-महूसवो। एवं पमोयभरनिब्भरस्स रन्नो निवेइयं उज्जाणपालेण किसोयरि ! कज्जेण विणा सुहोइयसिरी-सकुसुमं व सुकुमालयलं, लावन्नस्स निहाणं, सव्वविलासाणं अइदुल्लहं, अकयसुकयाणं जहा देव ! अमरतेयमुणिणो सयललोयालोयपयासगं समुप्पन्नं केवलं नियसरीरं। एयाए खरकक्कसकट्ठकि-रियाए हीणदरिददुहियजणोइयाए नाणं, समागया सुरासुरकिन्नरनरनियरा संपयं देवो पमाण। ततो भणियं नीओपासिकीएममाणुरायपर-स्स पत्थणापवत्तस्स किंकरजमुवगयस्स मयणावलीए-सामिय! गच्छामो मुणिवंदणत्थं। जओ-तप्पायपसायओ पडिवयणं न देसि? सुणसु य अहं खेयरकुमारो मेयंको नामा चलिओ य चेव संपजंति सयलसभीहियाई तुट्टति कम्मनिय-लाई, पणस्संति रयणमालाए वरकन्नगाए विवाहणनिमित्तं / दिठा तुमं नायणियगमणसयलसंसया, एवं ति पडिवजिऊण गतो महा-विभूईए / वंदिओ य विग्धकरा अंबर-तलगएण। ता सुंदरि! आरुहसु दिव्ववरविमाणं, भुंजसु सबहुमाणं सह जायाए / उवविट्ठो तयंतिए कहावसाणे भणियं मए समंदाणवोवमे भोए। होउणं एयाए कट्टकिरियाए इहलोए फलं, एवं मयणावलीए-भयवं! किंतंसुमिणयं? किंवा दाणवेण वा केणइ अणुकंपाए जाव बहु भणिया वि पडिवयणं न देइ तओ पुणो वि भणिया, चारुअहं मूढमणा पडिवोहिया सुयमिहुण--रूवेण! मुणिणा भणियं--भद्दे ! सो पेहिणि ! कीस अकन्नसुयं करेसि? जइ वि तुम सिवसुहसाहणुज्जुया हुवेमाणिओ देवो तुझ्भ पुव्वभ-वभत्ता तित्थकरसयासाओ सव्वमवितह तहावि यमाणुकंपाए एहि, आरुह विमाणं / पिए ! जहा निययदसणेणं वियाणिऊणं तुब्भ दुक्खसायरनिवडियाए पडियाएपडिबोहणत्थमागओ। आणंदियाई लोयणाई, एवं कामग्गिजलियजालतीसं पतितं मे सरीरं पुणो वि मयणावलीए भणियं-भयवं ! कहिं पुण सो संपयं महप्पा मह सरलसुकुमारसंगनीरनिवहेणं निव्वाहेह, एवं अणेगवाडु-सयाणि हियय-निव्वुइकरो, मुणिणा भणियं-एस चेव तुह पुरओ चिट्ठइ मणिरयण- कुणतस्स वि निचलसुक्कज्झाणोवगयाए तयावरणिज्ज-कम्मक्खओवभूसणोवसोहियसरीरो / तओ उठ्ठिऊण मयणावलीए अभिवंदिओ, समेणं समुप्पन्नं सव्वहा निरावरणं केवलं नाणं / ततो समागया देवा, भणिओय। सागयं अणुवयारपरहियकरणिकरसियस्स साहम्मि-यस्स जाओ दिवोज्जोओ कया सव्वायरेणं केवलिमहिमा, विम्हिओ तं तारिसं केणाहं पुणो तुब्भ पच्चुवयारं करिस्स। देवेण भणियं-सुध-मकरण- धम्ममाहप्पंपेच्छिऊणं, चिंतियं च चिट्ठामि ताव किमेत्थमन्नं भवइ, ततो लालसे! जइतुमंअचंतपच्चुवयारकरणतण्हालुयतोहंइओय सत्तमदिणे आरूढो मयणावलीए अजाए भद्द? परिचय संसारवाससमारंभ, परिहरसु चविऊण खेयराहिवसुओ भविस्सं, तुम मम गिहेहिं चेव जाहिसि अओ किपागफलसरिच्छा विसया,तापडिवज्जसुपुव्वखेयराहिव भवपरिचालियं पडिबोहेयव्वो। तीए भणियं धन्नाहं जइ मम एरिसी सत्ती होही। ततोगतो समणधम्म ततो कहिओ सव्वो वि पुव्वभवपबंधो, संभरियं च सुरो सट्ठाणे, रयणावलीय नायवुत्तता अणुहूयदुक्खसंदोहसंवेगपराइण्णा सुरभवबोहिपत्थणावयणं, ततो संभरिया जाया पडिवन्नं च समं नियदइयं भणिउ-माढता। जहा-सयलसमीहियसंपायगहियाणंददायग! मयणावलीए वयणं / गहिया सुगुरुसगासे दिक्खा, परिवालिया जहोवअजउत्त ! नायं ते भवसरूवं, अवगओ चेवऽस्स वि दुव्विलसियस्स इट्ठा, काऊणं सयलमलविणासं जाव सव्वदुक्खपहीणो परिनिव्वुडो कम्मुणो विवागो। जइएवंतानाह! विसञ्जह समीहियसंपायग! हिययाणं- "जयसूर-सुहमईए, विजाहरचरियमुत्तमंनाउं। भो भविया? होह सया, ददायग! अजउत्त ! नाम करेमि परमपव्वज्ज, मुक्का चेव मए आसि मज्झे समुज्जुया वासपूयाए॥१॥"1वासपूयाकहाणयं सम्मत्त / दर्श०२ तत्त्व। सुहकम्मपरिणइपरिपेरिएण। ततो राइणा ईसिं हसिऊण भणियं-तहा वासयंत-त्रि०(वासयत्) सुरभिं कुर्वति, कल्प०१ अधि०३ क्षण। वि पुणरागयं रयणं को परिचयइ / मयणावलीए भणियं-सामिय ! मा वासर-पुं०(वासर) दिवसे, "अहो दिणा वासरा दिआ दिअहा।" पाइ० पडिबंधं करेह / जओ दारुणो मोहपसरो, दुरंतो विसयाहिलासो, ना० 157 गाथा। अणिवारणिज्जपसरो मच्चू, अलंघणिज्जो दिव्वपरिणामो, संझब्भराय- | वासरेणु-पुं०(वासरेणु) वासके रजसि, औ०। सरिसं तारुण्णं, तडितचंचलाउ लच्छीउ, जुबईसहावसरिसो विसय- वासव-पुं० (वासव) इन्द्रे, को० / आ० चू० ! अष्ट / परिणामो / ता नाह ! विसज्जिह ममं किमेत्थ पडिबंधकारणं / ततो | वैताढ्ये पर्वते, तोरणामिधे पुरे दृढशक्तेः खेचरस्य पुत्र्याः क
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________________ वासव १०५-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वासीचंदणकप्प नकमालायाः पतित्वार्थं युद्धमृते खेचरे, उत्त० 6 अ० कनककूट- वासावासिय-त्रि०(वर्षावार्षिक) वर्षास्वन्यत्र स्थिते, आचा० "से पुराधिपतौ राज्ञि, यस्य कमला कमलसेना सुलोचना नाम्न्यः तिस्रो आगंतारेसु वा 4 ये भवंतारो उउवहियं वा वासावासियं वा कप्पं दुहितरः। ध०र० 1 अधि०। इन्द्रे, "अखंडलो सुरवई. पुरंदरो वासवो उवातिणावेत्ता"।आचा०२ श्रु०२ चू०२ अ०२ उ०। सुणासीरो'' पाइ० ना० 23 गाथा। वासिउकाम-त्रि०(वर्षितुकाम) वर्षणकामे, स्था०३ ठा०३ उ०। वासवदत्त-पुं०(वासवदत्त) विजयपुरराजे कृष्णदेवीपतौ, विपा०२ श्रु०३ [ वासिक-त्रि०(वार्षिक) वर्षाकालसम्बन्धिनि,चं०प्र०१२पाहु०। अo वासिकच्छत्त-न०(वार्षिकच्छत्र) वार्षिकाणि-वर्षाकाले पानीयरवासवदत्ता-स्त्री०(वासवदत्ता) प्रद्योतस्य दुहितरि अङ्गारवत्या आत्म- क्षणार्थ यानि कृतानि तानि वार्षिकाणि; तानि च छत्राणि / वर्षाजायाम्, आ० चू०४ अ०। आ० कo! आव०। (तद्वक्तव्यता 'सेणिय' कालिकजलनिवारणछत्रेषु, जी०३ प्रति०४ अधिकाराला शब्दे वक्ष्यते।) वासवदत्ताचरितनिबद्ध नाटकभेदे, आ० म० 1 अ०) वासिक्कतव-न०(वार्षिकतपस्) वर्षाकालिके तपसि, तथा वार्षिकतपः वासवसुअ-पुं०(वासवसुत) जयन्ते, "वासवसुआ जयंतो" पाइ० ना० कियता कालेन पूर्ण भवतीति? प्रश्नः, अत्रोत्तरम्-एत-दालोचनातपः 15 गाथा। अशीत्यधिकशतोपवस्त्रप्रमाणमेकवर्षे पूर्ण भवति, तत्तपः उपवासावासवारो-(देशी) तुरगे, देवना०७ वर्ग 56 गाथा। चामाम्लैकाशनकरीत्या क्रियते, परमेकान्तरोपवासा न कर्त्तव्याः, वासवालो-(देशी) शुनि, दे०ना०७ वर्ग 60 गाथा। पुनस्तिथेवृद्धिर्हानिर्भवति तदोपवस्त्रमेकाशनकं वा कर्त्तव्यम्, वाससंठिय-त्रि०(वर्षसंस्थित) भारतादिवर्षाकारे, भ०७ श०२ उ०। परमाचामाम्लं नायाति ततः पर्वदिने उपवस्त्रमेव समायाति / तथा वाससय-न०(वर्षशत) शतसंख्येषुवर्षेषु, "वीसं जुगाई वाससयं" भ०६ विंशत्यधिकशता चामाम्लानि तेषां षष्ट्युपवासा-नि भवन्तीत्यनया श०७उ०। विंशत्या युगैर्वर्षशतम्। नं०। कर्म अनु०॥ जं०। रीत्या अशीत्यधिकशतोपवस्त्रैर्वार्षिकं तपः पूर्णं भवति, एकाशनकानि वाससयसहस्स-न०(वर्षशतसहस्र) वर्षलक्षे, "सयं वास-सहस्साणं त्वधिकान्यतोट्यशनकान्यपि करोति तथापि तपः पूर्ण भवतीति॥७०|| वाससयसहस्स" भ०६ श०७ उादशभिवर्षशतैः परिमिते कालविशेषे, सेन०४ उल्ला०। अनु०। भला "दस वाससयाई वाससहस्सं' भ०१ श०५ उ०। वासिठ्ठ-पुं०(वाशिष्ठ) वाशिष्ठगोत्रे, चं० प्र० 10 पाहु०। आचा०। जं०। वाससयाउ(क)य-पुं०(वर्षशतायुष्क) वर्षशतमायुर्यत्र काले मनुष्याणां आ० म०। 'मंडियपुत्ते वासिठ्ठगोत्रे' कल्प०२ अधि०८ क्षण। स्था०। स वर्षशतायुष्कः कालस्तत्र यः पुरुषः सोऽप्युपचाराद्वर्षशतायुष्कः। जे वासिट्ठा ते सत्तविहा पण्णत्ता, तं जहा-ते वासिट्ठा ते ऐदंयुगीने शतायुषि पुरुष, स्था० 10 ठा०३ उ०। उंजायणा ते जोरकण्हा ते वग्घावचा ते कोडिन्ना ते सण्णी ते वासहय-वि०(वर्षहत) अवदृष्ट, "ऊअटुं वासहयं" पाइ० ना० 167 पारासरा। (सू०-५५१४) स्था०७ ठा०३ उ०। गाथा। वासिट्ठिया-स्त्री०(वाशिष्ठिका) ऋषिगुप्ताद् वाशिष्ठसगोत्रान्निर्गतस्य वासा-स्त्री०(वर्षा) वृष्टी, बृ०१ उ०२ प्रक०। वर्षाकाले, नि०चू०१ उ०। मानवगणस्य तृतीयशाखायाम्, कल्प०२ अधि०८ क्षण। वासारत्त-पुं०(वर्षारात्र)वर्षाकाले,संथा०।बृ०॥वर्षा एव वासोवर्षावासः। वासित्ता-त्रि०(वर्षितृ) प्रवर्षणकारिणि,स्था०४ ठा०४ उ०। स द्विधा-प्रावृट्.वर्षारात्रश्च / तत्र श्रावणभाद्रपदमासौ प्रावृडुच्यते, वासिय-त्रि०(वासित) पटवासकुसुमादिभिरपनीत दुर्गन्धभावे, ग०२ आश्विनकार्तिकौ तु वर्षारात्रः, आह च चूर्णिकृत्-''पाउसो-सावणो अधि० बृ०ाभाविते, आव०४ अस्था०। समुत्पन्नशब्दपरिणामे द्रव्ये, भद्दवओ अ, यासारत्तोअस्सोओ कत्तिओ अत्थि" बृ०१ उ०३ प्रका विशे० आ०म० आश्वयुजादौ, भ०६ श०३३ उ० भाद्रपदाश्वयुजलक्षणे द्वितीये ऋतौ, *वृष्ट-त्रि०वर्षितुमारब्धे, ज्ञा०१ श्रु०१अासुरभीकृते, कल्प०१अधि० ज्ञा०१ श्रु० अ०। अनु०। ज्यो० वर्षाऋतौ, 'वासारत्तोय घणसमओ' २क्षण। पाइ० ना०१५६ गाथा। वासी-स्त्री०(वासी) 'वसुला' इति ख्याते लोहकारोपकरणविशेषे, हा० वासावास-स्त्री०(वर्षावर्षा) वर्षासु वर्षाकाले वर्षा-वृष्टिः वर्षावर्षा / 26 अष्टा आचा०। ज्ञा०। वर्षाकालिकवृष्टी, स्था०५ ठा०२ उ०। वासीचंदणकप्प-पुं०(वासीचन्दनकल्प) उपकार्यनुपकारिणोरपिमध्यस्थे, *वर्षावास-पुं० वर्षासु आवासोऽवस्थानं वर्षावासः।स्था०५ ठा०२ आव०५ अ०। वासीव वासी-अपकारकारी तां चन्दनमिव दुष्कृतं उ०। आचा०। कल्प०। दशा०। व्य० वर्षा-वर्षाकालस्त स्मिन्वासः। तक्षणहेतुतयोपकारकत्वेन कल्पयन्ति मन्यन्तेवासीचन्दनकल्पाः।हा० / पर्युषणायाम, नि० चू० 10 उ०। चतुसिके, कल्प०३ अधि०६ क्षण। यदाह- "यो मामपकरोत्येष, तत्त्वेनोपकरोत्यसौ / शिरामोक्षाधुपायेन, पं०भा०। पं०चूल। औ० कुर्वाण इव नीरुजम् / / " अथ वास्यामपकारिण्यां चन्दनस्य कल्प इव--
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________________ वासीचंदणकप्प 1106 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वासुदेव च्छेद इव य उपकारित्वेन वर्तन्ते ते वासीचन्दनकल्पाः / आह च"अपकारपरेऽपि परे, कुर्वन्त्युपकारमेव हि महान्तः। सुरभी करोति वासी, मलयजमपि तक्षमाणमपि // 1 // " वास्यां वा चन्दनस्येव कल्प आचारो येषां ते तथा। अथवास्यां चन्दनकल्पाश्चन्दनतुल्या येते तथा। भावना तु प्रतीतैव / हा० 26 अष्ट०। ज्ञा०। वासुइ-पुं०(वासुकि) स्वनामख्याते महानागे, द्वी०। वासुदेव-पुं०(वासुदेव) बलदेवलधुभ्रातरि त्रिखण्डभरताधिपे, तं०भरते अवसर्पिण्यां नव वासुदेवाः, त्रिपृष्टपादयस्तेषां पितरो मातरः प्रतिशत्रवश्चैवमुत्सर्पिण्यां नव। ऐरवतजाश्चनव नव वासुदेवाः। तिला आवासका ती०। स्थान ___ साम्प्रतं वासुदेवादीनां वर्णप्रमाणप्रतिपादनायाऽऽहवण्णेण वासुदेवा, सव्वे नीला बलाय सुक्किलया। एएसि देहमाणं, वुच्छामि अहाणुपुथ्वीए॥४०२।। पढमो धणूणऽसीई 1, सत्तरि२ सट्ठी 3 अपण्ण 4 पणयाला। अउणत्तीसंच धणू 6, छव्वीसा 7 सोलस दसेव / / 403|| गाथाद्वयं निगदसिद्धम्। साम्प्रतं वासुदेवादीनां गोत्रप्रतिपादनायाऽऽहबलदेव वासुदेवा, अद्वेव हवंति गोयमसगुत्ता। नारायण पउमा पुण, कासवगुत्ता मुणेअव्वा ||4|| निगदसिद्धा! वासुदेवबलदेवानां यथोपन्यासमायुःप्रतिपादनायाऽऽहचउरासीइविसत्तरि२,सट्ठी३तीसाय 5 दयश्य लक्खाई। पण्णद्विसहस्साई 6, छप्पण्णा७ बारसे गंच 9 // 405 / / पंचासीई १पण्ण-तरी अ२ पण्णहि३ पंचवण्णाय। सत्तरस सयसहस्सा, पंचमए आउअंहोई॥४०६॥ पंचासीइ सहस्सा 6, पण्णट्ठी 7 तह य चैव पण्णरस 81 बारस सयाई आउं, बलदेवाणं जहासंखं / / 407|| निगदसिद्धाः। साम्प्रतममीषामेव पुराणि प्रतिपाद्यन्ते-तत्रपोअणं१बारवइतिगंध, अस्सपुरं 5 तह य होइ चक्कपुरं 6 वाणारसी७ रायगिहं 8, अपच्छिमो जाओं महुराए ||408|| निगदसिद्धा। एतेषां मातापितृप्रतिपादनायाऽऽह--- मिगावई 1 उमा चेव 2, पुहवी३ सीआय 4 अम्मया 5 / लच्छीमई 6 सेसमई 7, केगमई 8 देवई इअ ||406 // भद्द१ सुभद्दा 2 सुप्पभ३, सुदंसणा विजय५वेजयंती ६अ। तह य जयंती७अपरा-जिआय तह रोहिणीरचेव 010|| हवइ पयावइ१ बंभोर, रुद्दो३सोमोसिवोपमहसिवो 3 / अग्गिसिहे७अ दसरहेक, नवमे भणिए अवसुदेवे ||11|| निगदसिद्धाः। एतेषामेव पर्यायवक्तव्यतामभिधित्सुराहपरिआओ पव्वञ्जा, ऽभावाओ नऽत्थि वासुदेवाणं। होइ बलाणं सो पण, पढमऽणुओगाओंणायथ्वो॥४१२॥ निगदसिद्धा एव। एतेषामेव गति प्रतिपादयन्नाहएगो असत्तमाए, पंच य छट्ठीऍ पंचमी एगो। एगो अचउत्थीए, कण्हो पुण तच पुढवीए // 413 / / गमनिका-एकश्च सप्तम्याम्, पञ्च च षष्ठ्याम्, पञ्चम्यामेकः, एकश्च चतुर्थ्याम्, कृष्णः पुनस्तृतीयपृथिव्यां यास्यति, गतो वेति सर्वत्र क्रियाध्याहारः कार्यः / भावार्थः स्पष्ट एव / / 413 / / आव०१ अ० आ०चू० (वासुदेवानां बलं 'बल' शब्दे पञ्चमभागे 1280 पृष्ठ व्याख्यातम् / ) विशे० आ०म०। (वासुदेवो वासुदेवनपश्यतीति दुवई' शब्देचतुर्थभागे 2565 पृष्ठे कपिलं प्रति मुनिसुव्रतस्वामि-संवादेनोक्तम्।) अथवासुदेवस्य रत्नान्याहचकं खग्गं च २धणू३,मणी य: माला तहा गया संखो। एए सत्त उरयणा, सव्वेसिं वासुदेवाणं॥२९ चक्रखनधनुर्मणयः प्रतीताः। माला सदैव चाम्लाना देवाप्पिता, गदाकौमोदकीनामा प्रहरणविशेषः, शङ्कःपाञ्चजन्यो द्वादशयोजनविस्तारिध्वानः एतानि सप्तरत्नानि सर्वेषामपि वासुदेवानां भवन्तिा प्रव०२१२ द्वार। वसुदेवस्य पुत्रो वासुदेवः। कृष्णवासुदेवे, आ० म०१ अ०। अनु०॥ "वासुदेवोऽभवत्तत्र (द्वारवत्याम) वसुदेवनृपाङ्गजः देवकीकुक्षिकासारकलहंसः क्षितीश्वरः // 1 // " आ० क०१ अ०॥ कृष्णवासुदेवस्य भेरीत्रयकथा तद्भेदाश्चैवम्"वासुदेवस्स तिनि भेरीओ, तंजहा-संगामिया, अब्भुइया, कोमुइया। तत्र प्रथमा संग्रामकालेसमुपस्थितेसामन्तादीनांज्ञापनार्थ वाद्यते, द्वितीया पुनरागन्तुके कस्मिंश्चित्प्रयोजनेसमुद्भूते लोकानां सामन्तादीनां परिज्ञापनाय, तृतीया कौमुदीमहोत्सवाद्युत्सवज्ञापनार्थम् / ततो तिषिण वि गोसीसचंदणमइंतो देवतापरिगहियातो तस्स चउत्थी भेरी असिवप्पसमणी। तीसे उप्पत्ती कहिजइ-तेणं कालेणं तेणं समएणं सक्को देविंदो, सो तत्थ देवलोगे सूरमज्झे वासुदेवस्स गुणकित्तणं करेइ / अहो उत्तमपुरिसाएए अवगुणं न गिण्हंति, नीएणयजुद्धेणं नजुज्झति। तत्थएगो देवो असद्दहतो आगतो वासुदेवो वि जिणसगासं वंदगो पट्टितो / सो अंतरा कालसुणयरूवंमययं विउव्वइ दुब्भिगंधी तस्स गंधणसव्वो लोगो पराभग्गो, वासुदेवेण दिह्रो भणियं-वण्णेण अहो इमस्स कालसुणयस्स पंडुरा दंता मरगयभायणनिहितमुत्तावलि व्व रेहति / देवो चिंतेइ सचं गुणगाही। ततो वासुदेवस्स आसरयणं गहाय पहावितो / सो य मंदुरापालएण नातो लेण कहियं जहा आसो हीरइ। ततो कुमारा रायाणो यनिग्गया, ते देवेण हयविप्पहया काऊणं धाडिया। वासुदेवो निग्गतो भणइ-कीस मम आसरयणं हरसि? एसो मम आसो तुडमन होइ। देवो भणति-इमं जुज्झे पराजिऊण गिण्हाही वासुदेवेण भणियंवादकिहजुज्झामो, तुमभूमिएअहंचरहेणं, तोरहं गेहादेवोभणइ अलंमेरहेण। एवंआसोहत्थीपडिसिद्धो! वायाजुज्झाइया पचास
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________________ वासुदेव 1110- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वाहित्त इ सव्वाइं पडिसेहेइ। तो अक्खायं केण जुज्झेण जुज्झियव्वं? देवो भणइ-अहिट्ठाणजुद्धण। वासुदेवेण भणितं-पराजितोऽहं नेहि आसरयणं नाहं नीयजुरेण जुज्झेमि। ततो देवो तुट्ठोसमाणो भणति-वरेहि वरं, किं ते देमि?" वासुदेवेण भणियं-असिवोव-समणिं भेरि देहि। तेण दिन्ना। एसा तीसे भेरीए उप्पत्ती।।" आ० म०१ अ० विशे! वासुदेवखंधावार-पुं०(वासुदेवस्कन्धावार) वासुदेवकटकस निवेशे, प्रज्ञा० 1 पद। वासुदेवघर-न०(वासुदेवगृह) वासुदेववेश्मनि, आ०म० अ०) वासुदेवपडिमा-स्त्री०(वासुदेवप्रतिमा) वासुदेवमूर्ती, 'वासु-देवपडिमाए मुहे अहिट्ठाणं काऊण ठितो' आ० म०१० वासुपुज-पुं०(वासुपूज्य) भरतक्षेत्रजे अवसर्पिण्या द्वादशे जिने, पश्चा० 16 विवof आ०म०। वसवो देवास्तेषां पूज्यः वासुपूज्यः, वसुपूज्य एव वासुपूज्यस्तत्र सर्वेऽपि तीर्थकृतो वासुपूज्याः। ततो विशेषमाहपूएइ वासवो जं, अभिक्खणं तेण वासुपुजो सो। तस्मिश्च भगवति गर्भगते वासवो देवराजोऽभीक्ष्णं जननी पूजति, तेन वासुपूज्य इति, वा पृषोदरादित्वादिष्टरूपनिष्पत्तिः। अथवा वासवो नाम वैश्रमणः स गर्भगते भगवति तद्राजकुलमभीक्ष्णं वसुभी रत्नैः पूजयति पूरयति तेन कारणेन वासुपूज्यः / आ०म०२ अ०। अनु० ध० स० प्रव०। (एतद्विषयिका 'तित्थयर' शब्दे चतुर्थभागे 2247 पृष्ठादारभ्य सर्वा वक्तव्यतोक्ता।) वासुपुजस्सणं अरहओवासडिंगणावासडिं गणहरा होत्था।। वासुपूज्यस्येह द्विषष्टिगणा गणधराश्चोक्ताः, आवश्यके तुषट्-षष्टिरुकेति मतान्तरमिदमपीति स०६२ सम०। वासुपुजे णं अरहा सत्तरि धइंडं उच्चत्तेणं होत्था / स० 62 सम० वासुपुजे णं अरहा छहिं पुरिससएहिं सद्धिं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए। (सू०-५२०+) स्था०६ठा०। वासेसि-पुं०(व्यासर्षि) पदयोः सन्धिर्वा' ||8|15|| इति संस्कृतोक्तः सन्धिः सर्वः प्राकृते पदयोर्व्यवस्थितविभाषया भवतीति सन्धिर्वा / वासइसी। वासेसी। कृष्णद्वैपायने, प्रा०१पादा वाह-पुं०(वाह) वाहनं वाहः / भारोगहने, सूत्र० 1 श्रु० 3 अ०४ उ०॥ वाहयतीति वाहः / शाकटिके, सूत्र० १श्रु०२ अ०३ उ०। धरिमप्रमाणचिन्तायाम्, ज्यो०२ पाहु० / अष्टभिराढकशतैर्निर्वृत्ते मानभेदे, अनु०॥ *व्याध-पुं०। 'अधो मनयाम् / / 6278|| इति यलोपः प्रा०। 'ख-ध थ-ध-भाम् / / 8 / 1 / 187 // इतिधस्य हः / प्रा०ा लुब्धके, व्य०३ उ० वाहइ-स्त्री०(व्याहति) भजनायाम, विशे०। वाहगणो-(देशी) मन्त्रिणि, दे०ना०६१ गाथा! वाहण-न०(वाहन) शकटाद्याकर्षणे, प्रश्न०२ आश्र० द्वार। परैर्गवामिव (प्रश्र०२ आश्र० द्वार।) व्यापारणे, प्रव०६द्वार। 'अण्णतरेणं नयणप्पगारेणं नयणं वाहणं भण्णति'। नि० चू०१८ उ०। शिविकावेगसरादिके, कल्प० १अधि०५ क्षण / स्था०। ज्ञा०। रा०ा हस्त्यश्वबलीवदांदिके, औ०। शकटादिषु, प्रश्न०१ आश्र० द्वार। रा०) ग०। यानपात्रेषु, प्रश्न०१ आश्र० द्वार। रा० / गा यान-पात्रेषु, प्रश्न०५ आश्र० द्वार। प्रवहणेषु, प्रश्न०३ आश्र० द्वार। (वाहनविधिप्रत्याख्यानम् 'आणंद' शब्दे द्वितीयभागे 110 पृष्ठे उक्तम्।) वाहणकहा-स्त्री०(वाहनकथा) वेगसरादिकथायाम्, “हेसंतहयं गजंतमयंगलंघणघणंतरहलक्खं कस्सन्नस्स विसेन्नं, विन्नासियसत्तु-सिन्नंभो // 1 // " स्था०४ ठा०२ उ०॥ वाहणा-स्त्री०(उपानह) पादरक्षिकायाम, भ०२ श०१ उ०। वाहतेण-पुं०(वाहस्तेन) मार्गचौरे, "अडविं गच्छंताओ य उदगं घेत्तुं गच्छति' नि० चू० 16 उ० वाहय-पुं०(वाहक) अश्ववारे, विशे०। अश्वन्दमे, उत्त० 10 // *व्याहत-त्रि० / व्याहतिदुष्टे, यत्र पूर्वेण परं व्याहन्यते। यथा-"कर्म चास्तिफलं चास्ति, कर्ता न त्वस्ति कर्मणा" मित्यादि। अनु०॥ विशे। आ०म०। वाधिते, नं०। वाहरमाण-त्रि०(व्याहरत्) आढयति, प्रा०४ पाद। आव० वाहरिउं-अव्य०(व्याहृत्य) अकार्येत्यर्थे, व्य०४ उ०। वाहि-पुं०(व्याधि) विशिष्टचित्तपीडायाम, ज्ञा०१ श्रु० 13 अ०। चिरस्थायिनि (विपा०१श्रु०७ अ०1) ज्वरकुष्ठादिके, स्था० 10 ठा०३ उ०। रोगे, तं०। प्रश्न०। ज्वरातिसारादौ, द्वा० 16 द्वा०। बृ०1 स्था०। चउविहा वाही पण्णत्ता, तं जहा-वाइए पित्तिए वसंमिते सन्निवाइए।। (सू०-३४३x)| कण्ठ्यं केवलं वातो निदानमस्येति वातिकः। एवं सर्वत्र नवरं संनिपातः संयोगो द्वयोस्त्रयाणां वेति / स्था० 4 ठा०४ उ० द्विविधो व्याधिःसाध्योऽसाध्यश्च / आ०म०। (अत्रत्या वक्तव्यता 'इंदभूई' शब्दे द्वितीय-- भागे 543 पृष्ठे गता।) रुजि, पञ्चा० 17 विव०ा "वाहिरोगवेयणोदीरणापरिणामसलिल त्ति' व्याधयः-स्थिराः कुष्ठादयो-रोगाः-सद्योधातिनः शूलादयस्तजन्याया वेदनाया योदीरणा सैव परिणामो यस्य सलिलस्य तत्तथा, तदेवंविधं सलिलं येषान्ते तथा, अत एवामनोज्ञापनीयकाः / भ०७ श०६ उ०। रोगे, "आर्यको आयल्लो, वाही तह आमयो रोआ" पाइ० ना० 51 गाथा। वाहिगत्थ-त्रि०(व्याधिग्रस्त) कुष्ठाद्यभिभूते, द्रा०१२ द्वा०॥ वाहिणी-स्त्री०(वाहिनी) नद्याम्, को०। नि० चूल। सेनायाम्, "सेणा वरूहिणी वा-हिणी अणीअं चमू सिन्नं।" पाइ० ना०३४ गाथा। वाहित्त-त्रि०(व्याहृत) 'इत्कृपादौ // 8/11128 // इति ऋज इत्त्वम्, प्रा० / सेवादित्वात्तकारस्य वा द्वित्वम् / प्रा० आहृते, उत्त०१ अ० जी० शब्दिते, ज्ञा० १श्रु०१ अ०आहूते, "आहूओ वाहित्तो' / पाइ० ना० 247 गाथा।
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________________ वाहिप्प 1111- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विइण्ह वाहिप्प-धा० व्याह(वि-आ-ह) भाषणे, व्याहृतेर्वा हिप्पः'' विशे० प्रकर्षे, सूत्र०२ श्रु०१ अ० विविधार्थो विशेषार्थो वा विशब्दः / ।।८।४।२५३।व्याहरतेः कर्मणि भावे च 'वाहिप्प' इत्यादेशो वा भवति। आ०म०१ अधआचा०। सूत्र० भ०1 विपा०) 'प्यादयः' तत्सन्नियोगे क्यस्य च लुक् / वाहिप्पइ। वाहरिज्जइ। व्याहियते / प्रा० ॥चारा२१८|| प्यादयो नियतार्थवृत्तयः प्राकृते प्रयोक्तव्याः / पिवि४ पाद। अप्यर्थे, प्रा०२ पाद। वाहिम-त्रि०(वाहिम) वाहनयोग्ये, आचा०२ श्रु०१ चू०४ अ०२ उ०। विअंगिअ-(देशी) निन्दिते, देना०६६ गाथा। वाहिय-त्रि०(व्याधित) सञ्जातकुष्ठादिरोगे, प्रश्न०३ आश्र० द्वार। ज्ञा०। विअंसओ-(देशी) व्याधे, दे०ना०७२ गाथा। पीडिते, सूत्र० १श्रु०५ अ०२ उ०। भगन्दरातीसारकुष्ठप्लीहशूलार्श:- विअड-न०(विकट) प्रकटप्रकाशे, स०११समा विविधौषधमिश्रेमद्ये, प्रभृतिरोगैस्ते, ग०१ अधि। पं०वा विशिष्टचित्तपीडावति शोकादि- उत्त०२ अ० नि०० विप्लुतचित्ते, विशिष्ट आधिर्यस्य स व्याधिः / स्थिरो रोगः कुष्ठादिस्तद्वान्। विअडभोइ(ण)-पुं०(विकटभोजिन्) विकटे प्रकटप्रकाशे दिवा न रात्री ज्ञा०१ श्रु० 13 अ०। पं०सू०। रोगिणि, स्था०३ ठा०४ उ०ाग्लाने, बृ०३ दिवाऽपि वा अप्रकाशे न भुक्ते अशनाद्यभ्यवहरतीति विकटभोजी। उ० नि० चू० अरात्रिभोजिनि, स०११ समा __ इयाणिं वाहिय त्ति / गाहा विअडि-पुं०(वितर्दि) 'सम्मर्द-वितर्दि-विच्छर्दच्छर्दि-कपर्दमर्दितेरोगेण वाहिणेवं, अभिभूतो जो तु अभिलसे दिक्खं / दस्य' / / 8 / 2136 / / इति दस्य डः / शरीरसन्धिपीडने, प्रा०) सोलसविहो उरोगो, वाही पुण होइ अट्ठविहो / / 358 / / विअडीकरण-न०(विकटीकरण) विकसितमुकुलितार्थमुकुलित-भेदनं कंठा। इमो सोलसविहो रोगो चेव 'मग्गियं पंगु वडभभिम्मणि मलसंच | _कुर्वतो मालाकारस्येव आलोचने, आव०४ अ०॥ सकरपमेहं / बहिरंधकुंटवडभ, गंडीकोटीक्खतेसूई // 1 // इमो अट्ठविहो विअङ्क-त्रि०(विदग्ध) 'दग्धविदग्धवृद्धिवृक्दः' ||चारा४०॥ इति संयुक्तस्य वाही-'जर सास कास डाहे, अतिसार भगंदरे यसूले या तत्तो अश्रीर- | ढः। चतुरे, प्रा०२ पाद।। घातग, आसुचिरे वाहिरोगविही॥१॥ आसुघातित्वात् व्याधिः, चिरधा- विअण-न०(व्यजन)'इ: स्वप्नादौ' |/146 / / इति यकारस्य इकारः / तित्वाद्रोगः। तालवृन्तके, प्रा०१ पाद। रोगवाहिघत्थं पव्यावेंतस्स दोसा आणादी इमे य / गाहा- विअणा-स्त्री०(वेदना) 'एत इद्वा वेदना-चपेटा-देवर-के सरे' छक्कायसमारंभा, नालचरित्ताण चेव परिहाणी। // 8/11146 / / इत्येत इत्त्वम् / शारीरदुःखे, प्रा०१ पाद / घंसण पीसण परणय, दोसा एवंविहा होंति॥३५६।। विअसिय-त्रि०(विकसित) विकास प्राप्ते, "दरविअसिअं" अर्द्धन, यद्वा विकसितम्। प्रा०२ पाद। "विअसिअवरकमलाण-णनयणे'' विकसितं पिलाणवेयावच्च वावडस्स सुत्तत्थपोरिसीओ अकरेंतस्सणाणपरिहाणी। वरं--प्रधानं यत्कमलं तद्वत् आननमुखं नयने च यस्य स तथा प्रमोदपूरिचंदणादियाण घंसणं वडवल्लिमादियाण पीसणं घयमादीण परणयं एवमादिपलिमंथदोसेहिं अप्पणो सकिरया परिहाणी। अध न करेति से | विआण-न०(वितान) 'कगचजेति' तलुक् / विस्तारे। प्रा०१ पाद। किरियं तो चउगुरुं, जंसो वा वापादति पावेहिं वा तंच पावति, दिक्खितो। | विआर-पुं०(विचार) बहिर्भूमर्गमने, पं०व०१ द्वार। (कथं कर्तव्यो विचार किं चान्यत्। गाहा इति अस्य वक्तव्यता 'अइयार' शब्दे प्रथमभागे 10 पृष्ठे गता।) जाता अणाहसाला, समणा विय दुक्खिया पडियरंता। / तत्तियपडणासंता, होजवसमणाण वा होजा॥३६०॥ विआलुओ-(देशी) असहने, देना०६८ गाथा। 'अणाहसास ति'आरोग्गसाला गच्छवासो अणाहसालावत् / तत्थ / विआलो-(देशी) संध्यायाम्, चौरे च / दे०ना०६० गाथा। साहवो अन्नस्स वमणं, अन्नस्स विरेयणं, अणस्स असणं, अण्णस्स | विइकिण्ण-त्रि०(व्यतिकीर्ण) परिपाट्या प्रसृते, मिलिते, बृ०२ उ०। पाणयं, अण्णस्स व घयाइयं एवमादिउग्गमेत्ता दुक्खिया जाता। पच्छद्धं / दे०ना०ावृन्दैर्निजावाससीमोल्लङ्घनेन व्याप्ते, भ०१श०१ उ०) कंठं। रोगि त्ति गतं / नि० चू० 11 उ०। विइण्ण-त्रि०(वितीर्ण) अनुज्ञाते, ज्ञा०१ श्रु०२ अ० स्था०। वाहिसमारुग्गविण्णाण-न०(व्याधिशमारोग्यविज्ञान) व्याधिशमाद्य- * विकीर्ण-त्रि० गमनागमनाभ्यां व्याप्ते, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। दारोग्यं तदवबोधे, पं० सू०४ सूत्र०। विइण्णवियार-पुं०(वितीर्णविचार) वितीर्णो राज्ञाऽनुज्ञातो विचारोऽववाही-स्त्री०(व्याधी) व्याधदुहितरि,बृ०६ उ० काशो यस्य विश्वसनीयत्वात् असौ वितीर्णविचारः / राजानुज्ञातविचारे, वाहोवम-त्रि०(व्याधोपम) व्याधस्थानीये, व्य० २उ०॥ ज्ञा०१ श्रु०१ श्रु०१अ01 वि-अव्य०(वि) विविधे-सूत्र०१ श्रु०१३ अ० अनेकप्रकारे, सूत्र०१ श्रु० | विइण्ह-त्रि०(वितृष्ण)"इत्कृपादौ" ||8/1 / 128 // इतीकारः। तृष्णा१२ अ० विरूपरूपे, सूत्र०१श्रु०१२ असा विशेषे, उत्त०३३ अ० | रहिते, प्रा०१ पाद।
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________________ विइत्तु १११२-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विउला विइत्तु-अव्य(विदित्वा) विज्ञायेत्यर्थे, दश०१० अ० 'विइत्तु उद्देसणं' | सूत्र०१श्रु०३ अ०२ उ०। विदित्वा समुद्देशनंपरिणामादिकंशिष्यं ज्ञात्वेत्यर्थः / स्था०५ ठा०३उ०॥ विउल-त्रि०(विपुल) प्रभूततरे, सूत्र०२ श्रु०१ अ०। ज्ञा०। ओघा राधा विइय-त्रि०(विदित) ज्ञाते, आव०१ अ० प्रतीते, ज्ञा०१ श्रु०१८ अ०) बहुशब्दार्थे , विशे०। स्था०ा आ०म० विस्तीर्णे, औ०। नि०। सारा०। कलिते, पाइ० ना०६१ गाथा। जं० पं० चू०। उत्त०। चं०प्र०। आव०। स्था०। ज्ञा०। आ०म० / जी० / विउ-त्रि०(विद्वस्) सद्विद्योपेते. सूत्र०२ श्रु०१० सदसद्विवे-कज्ञे, सूत्र० प्रतिपूर्णे, तं०। ज्ञा०। महति, स्था०५ ठा०३ उ०। स्वनामख्याते 1 श्रु०२ अ०२ उ०। संयमकरणैकनिपुणे, सूत्र०१ श्रु०१ अ०४ उ०) पर्वतविशेषे, भ०२ श०१ उ०। विपुलकालवेये, प्रश्न० 4 सव० द्वार। ज्ञातसर्वपदार्थस्वभावे, सूत्र०१ श्रु० 16 अ०। विदितसंसारस्वभावे, शरीरव्यापिन्यां वेदनायाम्, स्था०६ ठा० ३उ० भ०। विशेषग्राहिण्याम, आचा०१ श्रु०५ अ०५ उ०ा विवेकिनि, सूत्र०१ श्रु०६ अ०। पण्डिते, स्था०२ ठा०१ उ०। 'विउलवट्ट-वग्धारियमल्लदामकलावं' कल्प०१ दश०४ अ० गीतार्थे, प्रश्न०५ संव० द्वार / ज्ञापके, आव०६ अ०। अधि० 5 क्षण। विशाले, "वियडं विउलं पिहुलं, वित्थिन्नं वित्थयं उरु परिज्ञावति, आ०चू०६ अ० विसालं" पाइ० ना०८६ गाथा। विउति-स्त्री०(व्यवक्रान्ति) मरणे, भ०१श०७ उ01 विउलकयवित्तिय-पुं०(विपुलकृतवृत्तिक) विहितप्रभूतजीवके, वृत्तिविउक्कमण-न०(व्यवक्रमण) च्यवने, स्था०३ ठा०३ उ०। स्था प्रमाणं चेदम्-अर्द्धत्रयोदशरजतसहस्राणि / यदाह-"मंडलियाणं सहस्सा, पीइदाणं सयसहस्सा" औ०। नान्तरगमने, आचा०१ श्रु०८ अ०८ उ०) विउक्कम्म-अव्य०(व्यवक्रम्य) परित्यज्येत्यर्थे , सूत्र०१ श्रु०१अ०२ विउलकुलबालिया-स्त्री०(विपुलकुलबालिका) विपुलकुलाश्च ता बालिकाश्चेति विग्रहः / उत्तमकुलजातायां बालिकायाम्, भ०६ श० उा आचाo 33 उ०। विउक्कस-त्रि०(व्युत्कर्ष) माने, सूत्र०१ श्रु० १अ०२ उ०। आत्मनः विउलखंध-त्रि०(विपुलस्कन्ध) विपुलो विस्तीर्णः स्कन्धोऽश-देशो श्लाघायाम्, आचा०१ श्रु०६अ०४ उ०) येषान्ते तथा / महास्कन्धेषु, जी०३ प्रति० 4 अधिo! विउच्छेय-पुं०(व्यवच्छेद) विनाशे, पञ्चा० 17 विव०॥ विउलट्ठाणभाव-पुं०(विपुलस्थानभाव) विपुलं मोक्षहेतुत्वात्संयमविउट्टण-न०(व्यावर्तन) अतीचारान्निवृत्तौ, स्था०८ ठा०३ उ०। आचा०। स्थानं च सेवते तच्छीलश्च यःस तथा। संयमस्थानसेविनि, दश०६ अ०। विउट्टण-न०(वित्रोटन) विविधमनेकप्रकारं त्रोटनमपनयनम्, सूत्र०२ विउलतरग-त्रि०(विपुलतरक) प्रभूततरके, नं०। श्रु०२ अ०। अनुबन्धच्छेदने, ज्ञा० 1 श्रु० 16 अ०। भ०। तदध्यव विउलघण-न०(विपुलधन) प्रचुरगवादिके, भ०६ श०३३ उ०। सायविच्छेदने, स्था०३ ठा०३ उ०ा आचा०) विउलमइ-स्त्री०(विपुलमति) विपुलं-बहु विशेषसंख्योपेतं वस्तु मन्यते विउट्टणा-स्त्री०(विकुट्टना) विविधा विरूपा वा कुट्टना / जातिम गृह्णातीति विपुलमतिः, बाहुलकात्कर्तरि क्तिप्रत्ययः। यदि वा-विपुला रणशोककृतायां शरीरपीडायाम्, सूत्र०१श्रु०१२ अ०) पर्यायशतोपेता चिन्तनीयघटादिवस्तुविशेषग्राहिणी मतिर्मननं यत्तत् *विउट्टा-स्त्री०।न०(विकुट्टन) शल्योद्धरणे, ओघ०। विपुलमतिः। बहुग्राहिण्यां वस्तुविशेषग्राहिण्यां वा बुद्धौ, आ० म०१ विउट्टित्तए-अव्य०(विवर्त्तयितुम्) अतिचारानुबन्धि विच्छेदयितुमित्यर्थे, अ० विशे०। औ०। कर्म01 ग० भ०। प्रव०। स्था०२ ठा० 10 // विउलं वत्थुविसेसेणं, नाणं तग्गाहिणी मई विउला / वित्रोटयितुम्-अव्य०। अतिचारानुबन्धि विच्छेदयितुमित्यर्थे , स्था०२ चिंतियमणुसरह धडं, पसङ्गओ पेजवसएहिं // 14 // ठा०१ उ० विपुलं वस्तुनो--घटादेविशेषणानां देशक्षेत्रकालादीनां मानं संख्या*विकुट्टयितुम्-अव्य० / अतिचारानुबन्धि विच्छेदयितुमित्यर्थे, स्था०२ स्वरूपं तद्ग्राहिणी मतिर्विपुला, सा च परेण चिन्तितंघटं प्रसङ्गतः पर्यवउ०१ उ० शतैरुपेतमनुसरति / सौवर्णः पाटलिपुत्रकोऽद्यतनो महान् अपवरविउड-धा०(नश्) "नशेर्विउड-नासव-हारव-विप्पगाल-प्रलावाः" कस्थित इत्याद्यपि प्रभूतविशेषविशिष्टं घटं परेण चिन्तितमव॥४॥३१॥ इति नशेय॑न्तस्य विउडादेशः। विउडानश्यति / प्रा०४ गच्छतीत्यर्थः / प्रव० 270 द्वार। पा०ा विशे० कल्पका नंग पाद। विउलमइलद्धि-स्त्री०(विपुलमतिलब्धि) पर्यायशतोपेतघटादिवस्तुविउडिअ-त्रि०(विकुटित) विनाशिते, पाइ० ना०१८८ गाथा / विशेषचिन्तनप्रवृत्तमनोद्रव्यग्राहिस्फुटतरं संपूर्णमनुष्यक्षेत्रविषयं ज्ञानं विउत्त-त्रि०(वियुक्त) शून्ये, आ०म०१ अ01 विपुलमतिलब्धिः। प्रव० 270 द्वार / विशुद्धतरे संपूर्णमनुष्यक्षेत्रवर्तिविउट्टियमंदमइप्पसर-त्रि०(विकुट्टिमन्दमतिप्रसर) चूर्णिततुच्छशमु- संज्ञिपञ्चेन्द्रियमनोद्रव्यप्रत्यक्षीकरणहेतौमनःपर्यायज्ञानभेदे, ग०२ अधि० विकबुद्धिप्रागल्म्ये, जी०१ प्रति०। | विउला-स्त्री०(विपुला) सकलशरीरव्यापितया विस्तीर्णायां वेदनायाम, विउमंत-पुं०(विद्वस्) विवेकिनि, यथावस्थितसंसारस्वभावस्य वेत्तरि, | जी०३ प्रति०१ अधि०२ उ०।
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________________ विउलाउल १११३-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विउव्वणा विउलाउल-त्रि०(व्याकुलाकुल) अतिव्याकुले, औ०। विउवसिय-त्रि०(व्यवशमित) उपशमिते, बृ०६ उ०। विउवसिओदीरणवयण-न०(व्यवशमितोदीरणवचन) व्यवशमितस्य पुनरुदीरणे नामनिषष्ठे वचने, बृ०॥ अथ व्यवशमितोदीरणे वचनमाहखामितवोसिट्ठाई, अधिकरणाइंतु जे उईरेति। ते पावा णायव्वा, तेसिंच परूवणा इणमो // 5 // क्षामितानि वचसा मिथ्यादुष्कृतप्रदानेन शमितानि वोपशमितानि / विविधमनेकधा मनसा व्युत्सृष्टानि क्षामितानि च तानि व्युत्सृष्टानि चेति क्षामितव्युत्सृष्टानि। एवंविधान्यधिकरणानिये भूय उदीरयन्तितेपापाःसाधुधर्मबाह्या ज्ञातव्याः तेषां चेयं प्ररूपणाउप्पायगउप्पण्णे, संबद्धे कक्खडे य बाहू य। आवट्टणा य मुच्छण-समुग्धायति घायणा चेव // 16 // लहुओ लहुगा गुरुगा, छम्मासा होतिं लहुग गुरुगा य। छेदो मूलं च तहा, अणवठ्ठप्पो य पारंची॥६०॥ द्वौ साधू पूर्व कलहं कृतवन्तौ, तत्र च क्षामितव्युत्सृष्टऽपि तस्मिन्नधिकरणा / अन्यदा तयोरेक एवं भणति एवं नाम त्वया तदानीमहमित्थमित्थं च भणितः, एष उत्पादक उच्यते / अस्य च मासलघु / इतरोऽपि ब्रूते-अहमपि त्वया तदानीं किं स्तोकं भणितः, एवमुक्त उत्पादकः प्राह-यदि तदानीं त्वमभणिष्यस्तदा किमह-मेवमेव त्वामवेक्ष्ये एवमधिकरणमुत्पन्नमुच्यते / तत्र द्वयोरपि चतुर्लधु। संबद्ध नामवचसा परस्परमाक्रोशनं कर्तुमारब्धंतत्र चतुर्गुरु। कर्कशं नामतटस्थितैरुपशम्यमानावपि नोपशाम्यतस्तदा षड्लघु / 'बाहु त्ति रोषभरपरवशतया बाहूबाहवि युद्धं कर्तुं लग्नौ तत्र षड्गुरुकाः। आवर्तना नामएकेनापरो निहत्य पातितस्तत्र छेदः / योऽसौ निहतः स मूर्छा यदि प्राप्तस्तदा मूलम्, मारणान्ति-कसमुद्धाते समवहते अनवस्थाप्यम्, अतिपातनं नाममरणं तत्र पाराञ्चिकम् / बृ०६ उ०। विउवाय-पुं०(व्यापात) भ्रंशे, सूत्र०१ श्रु०३ अ० ३उ०! विउविजमाणं-त्रि०(वैक्रियमाण) वैक्रियतया परिणम्यमाने, विउविजमाणे पुग्गले चलेजा। वैक्रियमाणो वैक्रियशरीरतया परिणम्यमानो वैक्रियमाणो वा शरीरे परिचार्यमाणो मैथुनसंज्ञया विषयीक्रियमाणः शुक्रपुद्गलादिः परिचार्यमाणोवा भुज्यमानः स्त्रीशरीरादौ शुक्रादिरेव चलेत्। स्था० 10 ठा०३ उ०। विउव-धा०(विकुर्व) सामयिको ऽयं धातुः / विक्रियायाम्, पञ्चा०१ विव०। प्रवण विउव्वइत्ता-अव्य०(विकुळ) वैक्रियं कृत्वेत्यर्थे , उपा०२ अ० विउव्वणा-स्त्री०(विकुवणा) 'विकुर्व' विक्रियायामिति धातुः, प्रव०१ द्वार / युच् भूषणादिभिरलङ्करणे, बृ०१ उ०) मण्डने, बृ०४ उ०। नानारूपायां विक्रियायाम्, स०६५ सम०) वैक्रियलब्धौ, स्था०। दोण्हं गन्मत्थाणं विउव्वणा पण्णत्ता, तं जहा-पंचिदियति-- रिक्खजोणियाणं चेव, मनुस्साणं चेव / (सू०-१५) स्था०२ ठा०३ उ०। एगा जीवाण अपरियाइत्ता विगुष्वणा। (सू०-१८) 'एगा जीवाणं' ति प्रतीतम् 'अपरियाइत्त' त्ति अपर्यादाय परितः-- समन्तादगृहीत्वा वैक्रियसमुद्धातेन बाह्यान् पुद्गलान् या विकुर्वणा भवधारणीयवैक्रियशरीररचनालक्षणा स्वस्मिन् स्वस्मिन्नुत्पत्ति-स्थाने जीवैः क्रियते साएकैव प्रत्येकमेकत्वाद्भवधारणीयस्येति सकलवैक्रियशरीरापेक्षया वा भवधारणीयस्यैकलक्षणत्वात् कथ-चिदिति / या पुनर्बाह्यपुद्गलपर्यादानपूर्विका सोत्तरवैक्रियररचनालक्षणा, सा च विचित्राभिप्रायपूर्वकत्वाद् वैक्रियलब्धिमतस्तथाविधशक्तिमत्त्वाचैकजीवस्याप्यनेकाऽपि स्यादिति पर्यवसितम्। अथ बाह्यपुद्गलोपादान एवोत्तरवैक्रियं भवतीति कुतोऽवसीयते? येनेह सूत्रे 'अपरियाइत्ता' इत्यनेन तद्विकुर्वणा व्यवच्छिद्यते इति चेद, उच्यते-भगवतीवचनात्। स्था० 1 ठा०। तिविहा विगुटवणा पण्णत्ता,तं जहा-बाहिरए पोग्गलए परियाइत्ता एगा विगुटवणा, बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता एगा विगुव्वणा, बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता वि अपरियाइत्ता वि एगा विगुटवणा।तिविहा विउव्वणा पन्नत्ता,तंजहा-अब्भंतरएपोग्गले परियाइत्ता एगा विउव्वणा / अभंतरए पोम्गले अपरि-याइत्ता एगा विउव्वणा। अब्भंतरए पोग्गले परियाइत्ता वि अपरियाइत्ता वि एगा विउव्वणा / तिविहा विउव्वणा पण्णत्ता, तं जहाबाहिरमंतरए पोग्गले परियाइत्ताएगा विउव्वणा, बाहिरमंतरए पोग्गले अपरियाइत्ता एगा विउव्वणा, बाहिन्भ-तरए पोग्गले परियाइत्ता वि अपरियाइत्ता विएगा विउवणा / (सू०-१२०) 'तिविहे' त्यादि। सूत्रत्रयी कण्ठ्या नवरं बाह्यान् पुद्गलान् भवधारणीयशरीरानवगाढक्षेत्रप्रदेशवर्तिनो वैक्रियसमुद्धातेन पर्यादाय गृहीत्वैका विकुर्वणा क्रियत इति शेषः / तान् पर्यादाय या तु भवधारणीयरूपैव साऽन्या, यत्पुनर्भवधारणीयस्यैव किञ्चिद्विशेषापादानं सा पर्यादयाऽपि, अपर्यादायाऽपि, इति तृतीया व्यपदिश्यते। अथवा विकुर्वणाभूषाकरणं तत्र बाह्यपुद्गलानादायाभरणादीन् अपर्यादाय केशनखसमारचनादिना उभयतस्तूभयथेति। अथवा अपर्यादायेति कृकलाससादीनां रक्तत्वफणादिकरणलक्षणेति। एवं द्वितीयसूत्रमपि, नवरमभ्यन्तरपुद्गला भवधारणीयेनौदारिकेण वा शरीरेण ये क्षेत्रप्रदेशमवगाढास्तेष्वेव ये वर्तन्ते ते
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________________ विउव्वणा 1114 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विउव्वणा अवसेयाः, विभूषापक्षे तु निष्ठीवनादयोऽभ्यन्तरपुद्गला इति / तृतीयं तु बाह्याभ्यन्तरपुद्गलयोगेन वाच्यमिति / तथाहि-उभयेषामुपादानाद्भवधारणीयनिष्पादनं तदनन्तरं तस्यैव केशादिरचनञ्च, अनादानाच्चिरविकुर्वितस्यैव मुखादिविकारकरणम्, उभयतस्तु बाह्याभ्यन्तराणामनभिमतानामादानतोऽन्येषाञ्चानादानतोऽनिष्टरूपभवधारणीयेतररचनमिति। स्था०३ ठा०१ उ० नैरयिकविकुर्वणामाहनेरइयाणं भंते ! किं एगत्तं पभू विउव्वित्तए, पुहत्तं पभू विउवित्तए? जहा जीवाभिगमे आलावगो तहा नेयव्वो० जाव दुरहियासं। (सू०-२०६) एगतं' ति एकत्वं प्रहरणानाम् 'पुहत्तं' ति, पृथक्त्वम् बहुत्वं प्रहरणानामेव, जहा 'जीवाभिगमे' इत्यादि। आलापकश्चैवम्-'गोयमा ! एगत्तं पि पभू विउव्वित्तए, पुहुत्तं, पि पहू विउवित्तए। एगत्तं विउव्वमाणे एग महं मोग्गररूवं वा भुसुढिरूवं वा" इत्यादि / 'पुहुत्तं विउव्वमाणे मोग्गररुवाणि वे' त्यादि। "ताइंसंखेज्जाइंनो असंखेज्जाई। एवं संबद्धाई 2 सरीराइं विउव्यंति, विउव्वित्ता अण्णमण्णस्स कार्य अभिहणमाणार वेयणं उदीरेंति विउलं उज्जलं पगाढं कक्कसं कड्डय फरुसं निटुरं चंडं तिव्वं दुक्खं दुग्गं दुरहियासं" ति। तत्रोज्ज्वलांविपक्षलेशेनाप्यकलडितां विपुलां-शरीरव्या-पिकां प्रगाढांप्रकर्षवती कर्कशां कर्कशद्रव्योपमामनिष्टामित्यर्थः, एवं कटुकां परुषां निष्ठुरां चेति, चण्डां रौद्रां तीव्रां झगिति शरीर-व्यापिका दुःखामसुखरूपांदुर्गा-दुःखाश्रयणीयाम; अत एव दुरधिसह्यामिति। भ०५ श०६ उ०। संप्रति वैक्रियशक्तिं विचिचिन्तयिषुरिदमाहइमीसे णं मंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरतिया किं एकत्तं पभू विउवित्तए पुहुत्तं पिपभू विउव्वित्तए ? गोयमा ! एकत्तं पिपभू पुहुत्तं पि पभू विउव्वित्तए। एगत्तं विउव्वेमाणा एगं महं मोग्गररूवं वा एवं मुसुंढिकरवत्तअसिसत्तिहलगदामुसलचक्कणारायकुंततोमरसूललउडभिंडमाला य०जाव मिंडमालरूवं वापुहुत्तं पि विउव्वेमाणा मोग्गररूवाणि वा० जाव भिंडमालरूवाणि वा, ताईसंखेज्जाईनो असंखेज्जाइं संबद्धाइंनो असंबद्धाइं सरिसाई नो असरिसाइं विउव्वंति, विउटिवत्ता अण्णमण्णस्स कार्य अमिहणमाणा अभिहणमाणा वेदणं उदीरेंति, उज्जलं विउलं पगाढं ककसं कडुयं फरसं निठुरं चंडं तिव्वं दुक्खं दुग्गं दुरहियासं एवंजाव धूमप्पमाए पुढवीएछट्ठसत्तमासुणं पुढवीसु नेरइया बहू मा हंताई लोहियकुंथूरूवाइं वयरामयतुं-डाई गोमयकीडसमाणाई विउंव्वंति, गोमयकीडसमाणाई विउव्वित्ता अन्नमन्नस्स कायं समतुरंगेमाणा 2 खायमाणा 2 सयपोरागकिमिया विवचालेमाणा 2 अंतो 2 अणुप्पविस्समाणा 2 वेयणं उदीरंति उज्जलंजावदुरहियासं (सू०-८६x) 'रयणप्पभे' त्यादि रत्नप्रभापृथिवीनैरयिका भदन्त ! प्रत्येकं किम् एकत्वम् एकं रूपं विकुर्वितुं प्रभवः, उतपृथक्त्वं पृथक्त्वशब्दो बहुवाची / आह च-कर्मप्रकृतिसंग्रहणिचूर्णिकारोऽपि-"पुहत्तसद्दो बहुत्तवाई" इति प्रभूतानि रूपाणि विकुर्दितुं प्रभवः, 'विकुर्य' विक्रियायाम, इत्यागमप्रसिद्धोधातुरस्ति यस्य विकुर्वणा इति प्रयोगस्ततो विकुर्वितुमित्युक्तम् / भगवानाह--एकत्वमपि प्रभवो विकुर्वितुंपृथक्त्वमपि प्रभवो विकुर्वितुम, तत्रैकं रूपं विकुर्वतो मुद्ररूपं वा / मुद्गरः प्रतीतः, भुशुण्ढिरूपं वा भुशुण्ढिः -प्रहरणविशेषः, करपत्ररूपंवा असिरूपं शक्तिरूपं वा हलरूपं गदारूपंवा मुशलरूपंवा चक्ररूपंवा नाराचरूपं वा कुन्तरूपंवा तोमररूपं वा शूलरूपं वा लकुटरूपं वा भिण्डमालरूपं वा विकुर्वन्ति। करपत्रादयः प्रतीताः, भिण्डमालः शस्त्रजातिविशेषः, अत्र संग्रहणीगाथा क्वचित् पुस्तकेषु-"मुग्गरमुसुंदिकरकय-असिसत्तिहलं गया मुसलचक्का / नारायकुंततोमर-सूललउडभिंडमाला य॥१॥"गतार्था नवरं 'करकय' त्ति क्रकचं करपत्रमित्यर्थः, पृथक्त्वं विकुर्वन्तो मुद्ररूपाणि वा यावत् भिण्डमालरूपाणिवा तान्यपिसदृशानि (समानरूपाणि) नो असदृशानि (अ) समानरूपाणि तथा संख्येयानि-परिमितानि न असंख्येयानिसंख्यातीतानि विसदृशकरणे असंख्येयकरणे वा शक्त्यभावात्। तथा संबद्धानि स्वात्मनः शरीरसंलग्रानिनासंबद्धानिस्वशरीरात् पृथग्भूतानि, स्वशरीरात् पृथग्भूतकरणे शक्त्यभावात्, विकुर्वन्ति / विकुर्वित्या अन्योन्यस्य कायमभिघ्नन्तो वेदनामुदीरयन्ति। किं विशिष्टामित्याहउज्ज्वला दुःखरूपतया जाज्वल्यमानां सुखलेशेनाप्यकलङ्कितामिति भावः / विपुलां-सकलशरीरव्यापितया विस्तीर्णा प्रगाढां-प्रकर्षण मर्मप्रदेशव्यापितया अतीव समवगाढां कर्कशामिवकर्कशाम् / किमुक्त भवति?-यथा कर्कशः पाषाणसंघर्षः शरीरस्य खण्डानि त्रोटयति एवमात्मप्रदेशान् त्रोटयन्तीव या 'वेदनोपजायते सा कर्कशा तां, कटुकामिव कटुकां पित्तप्रकोपपरिकलितवपुषो रोहिणीकटुकद्रव्यमिवोपभुज्यमानमतिशयेनाप्रीतिजनिकामिति भावः। तथा परुषां मनसोऽतीव रौक्ष्यजनिकां निष्ठुरामशक्यप्रतीकारतया दुर्भेदां चण्डाम् रुद्रां रौद्राध्यवसाय-हेतुत्वात्। तीव्राम्-अतिशायिनी दुःखां--दुःखरूपांदुर्गा दुर्लघ्यामत एव च दुरघिसह्याम्।एवं पृथिव्यां पृथिव्यां तावद्वक्तत्वं यावत् पञ्चम्याम्, 'छट्टसत्तमीसुण' मित्यादि। षष्ठसप्तम्योः पुनः पृथिव्योभैरयिकाः बहूनि-महान्ति गोमयकीटप्रमाणत्वात् लोहितकुन्थुरूपाणिआरतकुथुरूपाणि वज्रमयतुण्डानिगोमयकीटसमानानिविकुर्वन्ति, विकुर्वित्वा अन्योन्यस्य परस्परस्य कार्यशरीरं समतुरङ्गा इवाचरन्तः समतुरङ्गायमाणा अश्वा इव अन्योन्यमारुहन्त इत्यर्थः / 'खायमाणा खायमाणा' भक्षयन्तो भक्षयन्तोऽन्तरन्तरनुप्रविशन्तोऽनुप्रविशन्तः 'सयपोरागकिमिया इव' शतपर्वकृमय इव इक्षुपर्वकृमय इव 'चालेमाणा 2 शरीरस्य मध्यभागेन सं
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________________ विउव्वणा 1115 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विउव्वणा चरन्तो वेदनामुत्पादयन्त्युज्ज्वलामित्यादिप्राग्वत्। जी०३ प्रति०२उ०। सौधर्मेशानयोरेकत्वविकुर्वणामाहसोहम्मीसाणेसु णं भंते ! कप्पेसु देवा एगत्तं पभू विउवित्तए, पुहुत्तं (पुहत्तं इति युक्तः पाठः) पभू विउवित्तए?, हंता पभू / एगत्तं विउव्वेमाणा एगिंदि-यरूवं वाजाव पंचिंदियरूवं वा पुहत्तं विउव्वेमाणा एगिदि-यरूवाणि वाजाव पंचेंदियरूवाणि वा। ताई संखेज्जाइं पिअसंखेज्जाइं पिसरिसाइं वि असरिसाइं पि, संबद्धाई पि असंवद्धाई पिरूवाइं विउव्वंति, विउव्वित्ता अप्पणा जहिच्छियाई कज्जाइं करेंति० जाव अच्चुओ। गेवेज्जणुत्तरोववाइया देवा किं एगत्तं पभू विउव्वित्तए पुहुत्तं पभू विउवित्तए? गोयमा! एगत्तं पि पुहुत्तं पि। नो चेव णं संपत्तीए विउव्विंसु वा / विउव्वंति वा विउव्विस्संतिवा। (सू०-२१७४) "सोहम्मीसाणेसु ण' मित्यादि, सौधर्मेशानयोर्भदन्त ! कल्पयोर्देवा एकत्वम्-एकरूपं विकुर्वितुं प्रभवः पृथक्त्वं? बहूनीत्यर्थः, भगवानाहगौतम ! एकत्वमपि प्रभवो विकुर्वितुं पृथक्त्वमपि प्रथवो विकुर्वितुम्, एकत्वं विकुर्वन्त एकेन्द्रियरूपं वा द्वीन्द्रियरूपं वा त्रीन्द्रियरूपं वा चतुरिन्द्रियरूपं वा पञ्चेन्द्रियरूपं वा विकुर्वितुं पृथक्त्वं कुर्वन्तः, एकेन्द्रियरूपाणि यावत्पञ्चेन्द्रियरूपाणि वा, तान्यपि संख्येयानि विकुर्वन्ति असंख्येयानि वा। तान्यपि सदृशानिसजातीयानि वा असदृशानिवा-विजातीयानि संबद्धानि-आत्मनिसमवेतानि असंबद्धानिआत्मप्रदेशेभ्यः पृथग्भूतानि प्रासादघटपटादीनि, यथा चतुर्दशपूर्वधरा घटात् घटसहस्रपटात्पटसहसं विकुर्वन्ति विकुर्खित्वा पश्चात्यादृच्छिकानि कार्याणि कुर्वन्ति, एवं तावद्यावदच्युत कल्पदेवा। 'गेवेज्ज-गदेवा गंभंते' इत्यादि प्रश्रसूत्र प्रतीतम्, भगवानाह-गौतम! एकत्वमपि प्रभवः, विकुर्वितुं पृथक्त्वमपि / 'नो चेव ण' मित्यादि, नैव पुनः संपत्त्या साक्षाद्वैक्रियरूपसंपादनेन विकुर्वितवन्तो विकुर्वन्ति विकुटिवष्यन्ति, एवमनुत्तरोपपातिका अपि वक्तव्याः / जी०३ प्रति०२उ०। असुरकुमाराणामृजुवक्रविकुर्वणादो भंते ! असुरकुमारा एगंसि असुरकुमारावासंसि असुरकुमारदेवत्ताए उववण्णा / तत्थ णं एगे असुरकुमारे देवे उज्जुयं विउव्विस्सामि त्ति उज्जुयं विउव्वइ, वकं विउव्विस्सामीति वंक विउव्वइ, जंजहा इच्छइतंतहा विउव्वइ एगे असुरकुमारे देवे | उज्जुयं विउव्विस्सामीति वंकं विउव्वइ, वंकं विउवि-स्सामीति उज्जुयं विउव्वइ, जं जहा इच्छइ णो तं तहा विउव्वइ / से कहमेवं भंते ! एवं 7 गोयमा! असुरकुमारा देवा दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-मायी मिच्छादिट्ठी उववण्णगा य अमायी सम्महिट्ठी उववण्णगा य / तत्थ णं जे से मायी मिच्छट्ठिी उववण्णए असुरकुमारे देवे से णं उज्जुयं विउव्विस्सामीति वंकं वि उध्वइ जाव णो तं तहा विउव्वइ / तत्थ णं जे से अमायी सम्मट्टिी उववण्णए असुरकुमारे देवे से उज्जुयं विउव्वइ ०जावतं तहा विउव्वइ / दो भंते ! णागकुमारा एवं चेव, एवं जाव थणियकुमारा वाणमंतरजोइसियवेमाणिया एवं चेव सेवं भंते ! भंते त्ति। (सू०-६२६) "दो भंते ! असुरकुमारा' इत्यादि, यच्चेह मायिमिथ्यादृष्टीनामसुरकुमारादीनामृजुविकुर्वणेच्छायामपि वङ्कविकुर्वणं भवति तन्मायामिथ्यात्वप्रत्ययकर्मप्रभावात् / अमायिसम्यग्दृष्टीनां तु यथेच्छं विकुर्वणा भवति तदार्जवोपेतसम्यक्त्वप्रत्ययकर्मवशादिति / भ०१८ 04 30/ भव्यदेवानां विकुर्वणां प्ररूपयन्नाहमवियदष्वदेवाणं भंते ! किं एगत्तं पभू विउवित्तए पुहुत्तं पभू विउव्वित्तए? गोयमा ! एगत्तं पि पभू विउवित्तए पुहूत्तं पि पभू विउवित्तए / एगत्तं विउध्वमाणे एगिंदियरूवं वा जाव पंचिंदियरूवं वा, पुहुत्तं विउव्वमाणे एगिदियरूवाणि वा जाव पंचिंदियरूवाणि वा / ताई संखेज्जाणि वा असंखेज्जाणि वा संबद्धाणि वा असंबद्धाणि वा सरिसाणि वा असरिसाणि वा विउव्वंति विउव्वित्तातओ पच्छा अप्पणो जहिच्छियाइं कमाई करेंति, एवं णरदेवा वि, एवं धम्मदेवा वि। देवाहिदेवाणं पुच्छा, गोयमा! एगत्तं पिपभू विउव्वित्तए पुहुत्तं पिपभू विउ-वित्तए, णो चेवणं संपत्तिए विउव्विसुवा, विउव्वंतिवा, विउ-विस्संति वा। भावदेवाणं पुच्छा, जहा भवियदव्वदेवा। (सू०-४६५) 'भवियदव्वदेवाण' मित्यादि। एपत्ते पभूविउवित्तए' त्ति भव्यद्रव्यदेवो मनुष्यः / पञ्चेन्द्रियतिर्यग्वा वैक्रियलब्धिसम्पन्नः, एकत्वम् एकरूपंप्रभुःसमर्थो विकुर्वयितुम् 'पुहुत्तं ति। नानारूपाणि, देवातिदेवास्तु सर्वथौत्सुक्यवर्जितत्वान्न विकुर्वते, शक्तिसद्भावेऽपीत्यत उच्यते-'नो चेवण' मित्यादि। 'संपत्तीए' त्ति वैक्रियरूपसंपादनेन, विकुर्वणशक्तिस्तु विद्यते, तल्लब्धिमात्रस्य विद्यमानत्वात्। भ० 12 श०६ उ० देवो बाह्यपुद्गलानादाय प्रभुः देवे णं भंते ! महिड्डिए जाव महाणुभाए बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता पभू एगवण्णं एगरूवं विउवित्तए ? गोयमा ! नो इणढे समझे। देवे णं मंते ! वाहिरए पोग्गले परियाइत्ता पभू? हंता! पभू / से णं भंते ! किं इहगए पोग्गले परियाइत्ता विउव्वइ, तत्थगए पोग्गले परियाइत्ता विकुव्वइ, अण्णत्थगए पोग्गले परियाइत्ता विकुम्वइ? गोयमा ! नो इहगए पोग्गले परियाइत्ता विउव्वइ, तत्थगए पोग्गले परियाइत्ता विउवइ,नो
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________________ विउव्वणा 1116 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विउव्वणा अण्णत्थ गए पोग्गले परियाइत्ता विउव्वइ / एवं एएणं गमेणं. जाव एगवण्णं एगरूवं 1, एगवण्णं अणेगरूवं 2, अणेगवणं एगरूवं 3, अणेगवण्णं अणेगरूवं 4, चउमङ्गो। देवे णं भंते ! महिडिए जाव महाणुभागे वाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता पभू, कालयं पोग्गलं नीलगपोग्गलत्ताए परिणामेत्तए नीलगं पोग्गलं वा कालगपोग्गलत्ताए परिणामेत्तए? गोयमा ! नो इणटे समढे, परियाइत्ता पभू / से णं भंते ! किं इह गए पोग्गले तं चेव नवरं परिणामेइ ति भाणियव्वं, एवं कालगपोग्गलं लोहियपोग्गलताए, एवं कालएणजाव सुकिल्लं, एवं णीलएणं०जाव सुकिल्लं, एवं लोहियपोग्गलं०जाव सुकिल्लत्ताए एवं हालिहएणंजाव सुकिल्लं, तं जहा-एवं एयाए परिवाडीए गंधरसफास० कक्खडफासपोग्गलं मउयफासपोग्गलत्ताए 2, एवं दो दो गराअलहुअ२ सीयउसिण 2 णिद्धलुक्ख 2, वण्णाइ सव्वत्थ परिणामेइ, आलावगा यदोदो पोग्गले अपरियाइत्ता परियाइत्ता। (सू०-२५३) 'देवे ण' मित्यादि, 'एगवन्नं ति कालाघेकवर्णम्- एक रूपम्एकविधाकारं स्वशरीरादि, 'इह गए ' त्ति प्रज्ञापकापेक्षया इह गतान्प्रज्ञापकप्रत्यक्षासन्नक्षेत्रस्थितानित्यर्थः। तत्थगए' त्ति देवः किल प्रायो देवस्थान एव वर्तत इति तत्र गतान्-देवलोका-दिगतान् 'अण्णत्थ गए' त्ति प्रज्ञापकक्षेत्राद्देवस्थानाचापरत्र स्थितान, तत्र च स्वस्थान एव प्रायो विकुर्व(रु)ते, यतः कृतो-तरवैक्रियरूप एव प्रायोऽन्यत्र गच्छतीति नो इह गतान् पुद्गलान् पर्यादायेत्याद्युक्तमिति। 'कालयं पोग्गलं नीलपोग्गलत्ताए' इत्यादौ कालनीललोहितहारिद्रशुक्ललक्षणानां पञ्चानां वर्णानां दशद्विक-संयोगसूत्राण्यध्येयानि। एवं एयाए पडिवाडीए गंधरसफास' त्ति इह सुरभिदुरभिलक्षणगन्धद्वयस्यैकमेव / तिक्तकटुकषायाम्लमधुररसलक्षणानां पञ्चानां रसानां दशद्विकसंयोगसूत्राण्यध्येयानि, अष्टानां च स्पर्शानां चत्वारि सूत्राणि परस्परविरुद्धेन कर्कशमृद्रादिना द्वयेनैकैकसूत्रनिष्पादनादिति। भ०६ श०६ उ०। देवो रूपीभूत्वा अरूपी न भवतिदेवे णं भंते ! महिड्डिए०जाव महेसक्खे पुष्वामेव रूवी भवित्ता पभू अरूविं विउटिवत्ता णं चिहित्तए? णो इणहे समहे / से केणऽटेण भंते ! एवं वुबइ देवे गंजाव णो पभू अरूविं विउव्वित्ताणं चिद्वित्तए? गोयमा! अहमेयं जाणामि, अहमेयंपासामि, अहमेयं बुज्झामि, अहमेयं अभिसमन्नागच्छामि। मए एयं णायं, मए एयं दिटुं, मए एयं बुद्धं, मए एयं अभिसमण्णागयं, जण्णं तहागयस्सजीवस्स सरूविस्ससकम्मस्स सरागस्स सवेदणस्स समोहस्स सलेसस्स ससरीरस्स ताओ सरीराओ अविप्पमुक्कस्स एवं पण्णायति / तं जहा-कालते वा०जाव सुकिल्लत्ते वा सुब्भिगंधत्ते वा दुब्भिगंधत्ते वा तित्ते वा० जाव महुरत्ते वा कक्खडत्ते वा० जाव लुक्खत्ते से तेणऽद्वेणं गोयमा ! जाव चिट्ठित्तए। सचेवणं भंते ! से जीवे पुवामेव अरूवी भवित्ता पभू रूविं विउव्वित्ता णं चिट्ठित्तए? णो इणढे समढे०जाव चिट्ठित्तए गोयमा ! अहमेयं जाणामि, जाव जण्णं तहागयस्स जीवस्स अरूवस्स अकम्मस्स अरागस्स अवेदस्स अमोहस्स अलेसस्स असरीरस्स ताओ सरीराओ विप्पमुक्कस्स णो एवं पन्नायति, तं जहा-कालत्ते वा० जाव लुक्खत्ते वा, से तेणऽटेणं० जाव चिद्वित्तए वा सेवं भंते ! भंते ! त्ति। (सू०-५९७) 'देवे ण' मित्यादि, पुव्यामेव रूवी भवित्त' ति पूर्वविवक्षितकालात् शरीरादिपुद्गलसंबन्धात् मूर्तो भूत्वा मूर्तः सन्नित्यर्थः प्रभुः 'अरूविं'ति अरूपिणं-रूपातीतम् अमूर्तमात्मानमिति गम्यते, 'गोयमा!' इत्यादिना स्वकीयस्य वचनस्याव्यभिचारित्वोपदर्शनाय सम्बोधपूर्वकतां दर्शयन्नुत्तरमाह- 'अहमेयं जाणामि' ति अहमेतद्वक्ष्य-माणमधिकृतप्रश्ननिर्णयभूतं वस्तु जानामि विशेषपरिच्छेदेनेत्यर्थः। पासावमि' त्ति सामान्यपरिच्छेदतो दर्शनेनेत्यर्थः। 'बुज्झामि' ति बुध्ये-श्रद्दधे, बोधेः सम्यग्दर्शनपर्यायत्वात् / किमुक्तं भवति?- 'अभिसमागच्छामि' त्ति अभिविधिनासाङ्गत्येन चावगच्छामि-सर्वैः परिच्छित्तिप्रकारैः परिच्छिनधि / अनेनात्मनो वर्तमानकालेऽर्थपरिच्छेदकत्वमुक्तमथातीतकाले एभिरेव धातुभिस्तदर्शयन्नाह-'मए' इत्यादि, किं तदभिसमन्या गतम्? इत्याह--'जण्ण' मित्यादि, 'तहागयस्स' तितथागतस्य-तं देवत्वादिकं प्रकारमापन्नस्य 'सरूविस्स' त्ति वर्णगन्धादिगुणवंतः। अथ स्वरूपेणामूर्तस्य सतो जीवस्य कथमेतत्? इत्याह- 'सकम्मस्स' त्ति कर्मपुद्गलसम्बन्धादिति भावः / एतदेव कथमित्यत आह 'सरागस्स' ति रागसम्बन्धात् कर्मसंबन्ध इति भावः। रागश्चेह माया लोभलक्षणो ग्राह्यः, तथा 'सवेयस्स' तिस्त्र्यादिवेदयुक्तस्य,तथा 'समोहस्स' ति इह मोहःकलत्रादिषु स्नेहो मिथ्यात्वं चारित्रमोहो वा, 'सलेसस्स ससरीरस्स' त्ति व्यक्तम्, 'ताओ सरीराओ अविप्पमुक्कस्स' ति येन शरीरेण सशरीरस्तस्माच्छरीरादविप्रमुक्तस्य, एवं' ति वक्ष्यमाणं प्रज्ञायते सामान्यजनेनापि; तद्यथा-कालत्वं वेत्यादि, यतस्तस्य कालत्वादिप्रज्ञायते अतो नासौ तथा-गतो जवो रूपी सन्नरूपमात्मानं विकुळ प्रभुःस्थातुमिति। एतदेव विपर्ययेण दर्शयन्नाह- 'सच्चेव णं भंते !' इत्यादि, 'सचेव णं भंते ! से जीवे' त्ति यो देवादिरभूत् स एवासौ भदन्त ! जीवः पूर्वमेव विवक्षितकालात् 'अरूवि' त्ति अवर्णादिः 'रूविं' ति वर्णादिमत्त्वम् 'नो एवं पण्णायति' त्ति नैवं केवलिनाऽपि प्रज्ञायतेऽसत्त्वात्, असत्त्वं चमुक्तस्य कर्मबन्धहेत्वभावेन कर्माभावात्तदभावेच शरीराभावाद्वण्र्णाद्यभाव इति / नारूपी भूत्वा रूपी भवतीति। भ० 17 श०३ उ०। वायुकायस्य विकुर्वणामाहपभू णं भंते ! वाउकाए एग महं इत्थिरूवं वा पुरिसरूवं
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________________ विउव्वणा १११७-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विउव्वणा - वा हत्थिरूवं वा जाणरूवं वा एवं जुग्गगिल्लिथिलिसीयसंद- 'एगओ पडाग' ति एकतः एकस्यां दिशि पताका यत्र तदेकतःपताकम्, माणियरूवं वा विउव्वित्तए? गोयमा ! नो इणढे समठे। स्थापना त्वियम्। 'दुहओ पड़ागं ति, द्विधापताकम, स्थापना त्वियम्। वाउकाएणं विकुव्वमाणे एगं महं पडागासंठियं रूवं विकुव्वइ।। रूपान्न्तरक्रियाधिकारागलाहकसूत्राणि 'बलाहए' त्ति मेघाः, परिणापभू णं भंते ! वाउकाए एग महं पडागासंठियं रूवं विउव्वित्ता मेत्तए' त्ति बलाहकस्याजीवत्वेन विकुर्वणाया असम्भवा-त्परिणामयिअणेगाई जोयणाइंगमित्तए? हंता! पभू। से मंते ! किं आय- तुमित्युक्तम्, परिणामश्चास्य विश्रसारूपः। 'नो आइड्डीए' त्ति अचेतन ढीए गच्छद परिडिए गच्छह? गोयमा! आयड्डीए गच्छइणो त्वान्मेघस्य विवक्षितायाः शक्तरभावान्नात्मा गमनमस्ति। वायुना परिड्डीए गच्छइ, जहा आयडीए एवं चेव आयकम्मुणाऽवि देवेन वा प्रेरितस्य तु स्यादपि गमन-मतोऽभिधीयते 'परिड्डीए' त्ति एवं आयप्पयो गेण वि भाणियव्वं / से भंते ! किं ऊसिओदयं पुरिसे आसे हत्थि' त्ति स्त्रीरूप-सूत्रमिव पुरुषरूपाश्वरूपहस्तिगच्छद, पयतोदगं गच्छइ? गोयमा ! ऊसिओदयं पि गच्छद रूपसूत्राण्यध्येतव्यानि। यानरूप-सूत्रे विशेषोऽस्तीति तद्दर्शयति-'पभू पयोद यं पिगच्छहासे भंते ! किं एगओ पडागं गच्छइ,दुहओ णं भंते ! बलाहए एगं महं जाणरूवं परिणामेत्ता' इत्यादि 'पतोदयं पि पडागं गच्छइ?, गोयमा ! एगओ पड़ागं गच्छइ, नो दुहओ गच्छई' इत्येतदन्तं स्त्रीरूपसूत्रसमानमेव। विशेषः पुनरयम्-'से भंते! पड़ागं गच्छइ। से णं मंते ! किं वाउकाए पडागा? गोयमा ! किं एगओ चक्कवालं दुहओ चक्कवालं गच्छइ? गोयमा ! एगओ चकवालं वाउकाए णं से नो खलु सा पडागा / (सू०-१५७) पि गच्छइ, दुहओ चक्कवालं पि गच्छइ'त्ति / अस्यैवोत्तररूपमंशमाहपभूणं भंते ! बलाहगे एवं महं इत्थिरूवं वाजाव संदमाणि नवरं 'एगओ' इत्यादि। इह यानं-शकटं चक्रवालं-चक्रम्, शेष-सूत्रेषु यरूवं वा परिणामेत्तए? हंता! पभू / पभू णं भंते ! बलाहए एगं त्वयं विशेषो नास्ति, शकट एव चक्रवालसद्भावात्। ततश्च युग्यगिल्लिमहं इत्थिरूवं परिणामेत्ता अणेगाइं जोयणाई गमित्तए? हंता! थिल्लिशिबिकास्यन्दमानिकारूपसूत्राणि स्त्रीरूपसूत्रवदध्येयानि / पभू / से भंते ! किं आयडीए गच्छइ, परिड्डीए गच्छइ? गोयमा! एतदेवाह-'जुग्गगिल्लिथिल्लिसीयासंदमाणियाणंतहेव' त्ति। भ०३।०४ उ०/ नो आयडीए गच्छद, परिड्डीए गच्छइ / एवं नो आयकम्मुणा ___ भाषाविकुर्वणे प्रभुत्वमाहपरकम्मुणा नो आयप्पओगेणं परप्पओगेणं ऊसितोदयं वा देवेणं भंते ! महिड्डीएन्जाव महेसक्खे रूवसहस्सं विउव्वित्ता गच्छद पयोदयं वा गच्छदा से भंते! किं बलाहए इत्थी? गोयमा! पमू भासासहस्सं भासित्तए? हंता पभू / साणं भंते ! किं एगा बलाहए णं से णो खलु सा इत्थी, एवं पुरिसेण आसे हत्थी। भासा भासासहस्सं? गोयमा ! एगा णं सा भासा णो खलु तं पभू णं भंते ! बलाहए एग महं जाणरूवं परिणामेत्ता अणेगाई भासासहस्सं 1 (सू०-५३५४) जोयणाई गमित्तए जहा इत्थिरूवं तहा भाणियट्वं, नवरं एगओ 'देवे ण' मित्यादि 'एगा णं सा भासा भास' त्ति एकाऽसौ भाषा, चक्कवालं पि दुहओ चकवालं पि गच्छद (त्ति) भाणियट्वं / जीवैकत्वेनोपयोगैकत्वात्, एकस्य जीवस्यैकदा एक एवोपयोग इष्यते, जुग्गगिलिथिलिसीयासंदमाणियाणं तहेव। (सू०१५८) ततश्च यदा सत्याधन्यतरस्यां भाषायां वर्त्तते तदा नान्यस्यामित्येकैव 'पभू ण मित्यादि, जाणं' ति शकटम् 'जुग्गं' ति गोलविषयप्रसिद्धं जम्पानं-द्विहस्तप्रमाणं वेदिकोपशोभितम्। 'गिल्लि' ति हस्तिन उपरि भाषेति। भ०१४ श०६ उ० कोलर रूपा या मानुषं गिलतीव गिल्लिः / 'थिल्लि' त्ति लाटानां केरिसा विउव्वणा। यदश्वपल्ल्यानं तदन्यविषयेषु थिल्लीत्युच्यते। 'सीय' ति शिबिका तत्र 'केरिसविउव्वण' क्ति कीदृशी चमरस्य विकुर्वणाशक्तिरित्यादिकूटाकाराच्छादितो जम्पानविशेषः। 'संदमाणि य' ति पुरुषप्रमा प्रश्ननिर्वचनार्थः प्रथम उद्देशकः। भ०३श०१ उ०। णायामो जम्पानविशेषः / 'एग महं पडागासंठिय' ति महत् पूर्वप्र तत्र कीदृशी विकुर्वणा? इत्याद्यर्थस्य प्रथमोद्देशकस्येदं सूत्रम्माणापेक्षया पताकासंस्थितं स्वरूपेणैव वायोः पताकाकारशरी-रत्वात् तेणं कालेणं तेणं समएणं मोया नाम नगरी होत्था, वण्णओवैक्रियावस्थायामपि तस्य तदाकारस्यैव भावादिति। 'आइड्डीए' ति। तीसे णं मोयाए नगरीए बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभागे णं आत्मा -आत्मशक्त्याऽऽत्मलब्ध्या वा। आयकम्मुण' ति आत्म नंदणे नामं चेतिए होत्था / वण्णओ-तेणं कालेणं तेणं समएणं क्रियया 'आयप्पओगेणं' ति न पराप्रयुक्त इत्यर्थः / ऊसिओदयं' ति सामी समोसड़े परिसा निग्गच्छद पडिगया परिसा / तेणं उच्छ्रित-ऊर्ध्वं उदय-आयामो यत्रगमनेतदुच्छ्रितोदयम्-ऊर्ध्वपता- कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स दोच्चे कमित्यर्थः। क्रियाविशेषणं चेदम्। 'पतोदयं' ति पतदुदयं पतितपताकं अंतेवासी अग्गिभूती नाम अणगारे गोयमगोत्तेणं सत्तुगच्छति। ऊर्ध्वपताकास्थापना चेयम्-पतितपताकास्थापना त्वियम, | स्सेहे०जाव पज्ज-वासमाणे एवं वदासी-चमरे ण भते ! अ--
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________________ विउव्वणा 1118 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विउव्वणा सुरिंदे असुरराया केमहिड्डिए ? केमहज्जुत्तिए? केमहाबले?, केमहायसे ? केमहासोक्खे? केमहाणुमागे ? केवइयं च णं पभू विउवित्तए? गोयमा ? चमरे णं असुरिंदे असुरराया महिड्डिए० जाव महाणुभागे से णं तत्थ चोत्तीसाए भवणावाससय-सहस्साणं चउसट्ठीए सामाणियसाहस्सीणं तायत्तीसाए ताय-तीसगाणंजाव विहरइ,एवं महिडएन्जाव महाणुभागे, एवतियं च णं पभू विउवित्तए, से जहानामए जुवतिं जुवाणे हत्थेणं हत्थे गेण्हेजा, चक्कस्स वा नाभी अरयाउत्ता सिया, एवामेव गोयमा ! चमरे असुरिंदे असुरराया वेउब्वियसमुग्धारणं समोह (णिज्ज)णइ, वेउब्वियसमुग्घाए णं समोहणइ संखेज्जाई जोयणाई दंडं निसिरइ, तं जहारयणाणं०जाव रिहाणं अहावायरे पोग्गले परिसाडेइ, अहावायरे पोग्गले परिसाडित्ता अहासुहुमे पोग्गले परियाएति, अहासुहुमे पोग्गले परियाइत्ता दोचं पि वेउव्वियसमुग्धाएणं समोहणतिश्ता पभू णं गोयमा ! चमरे असुरिदे असुरराया केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीवं बहूहिं असुरकुमारेहिं देवेहिं देवीहि य आइण्णं वितिकिण्णं उवत्थडं संथडं फुडं अवगाढा अवगाढं करेत्तए / अनुत्तरं च णं गोयमा ! पभू चमरे असुरिंदे असुरराया तिरियमसंखेने दीवसमुद्दे बहूहिं असुरकुमारेहिं देवेहिं देवीहि य आइण्णे वितिकिण्णे उवत्थडे संथडे फुडे अवगाढावगाढे करेत्तए, एस णं गोयमा ! चमरस्स असुरिंदस्स असुररण्णो अयमेयारूवे विसए विसयमेत्ते बुइए णो चेवणं संपत्तीए विकुटिवसु वा विकुय्वति वा विकुट्विस्सति वा। (सू० 126) // 'तेणं कालेण' मित्यादि सुगम,णवरं 'केमहिड्डिए' ति केन रूपेण महर्द्धिकः?, किंरूपा वा महर्द्धिरस्येति किंमहर्द्धिकः, कियन्म-हद्ध्यिा इत्यन्ये, 'सामाणियसाहस्सीणं' ति समानया-इन्द्रतुल्यया ऋद्ध्या चरन्तीति सामानिकाः 'तायत्तीसाए' त्ति त्रयस्त्रिंशतः तायत्तीसगाणं' ति मन्त्रिकल्पाना यावत्करणादिदं दृश्यम्-"चउण्हं लोगपालाण पंचण्हं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं तिण्हं परिसाणं सत्तण्हं अणियाणं सत्तण्हं अणियाहिवईणं चउण्णं चउसठ्ठीणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं अन्नेसिंच बहूणं चमरचंचारायहाणीवत्थव्वाणं देवाण य देवीण य आहेवचं पोरेवच्चे सामित्तं भट्टित्तं आणाईसरसेणावच्चं कारेमाणे पालेमाणे महयाऽऽहयनट्टगीयवाइयतंतीतलतालतुडियघणमुइंगपडुप्पवाइयरवेणं दिव्वाई भोगभोगाई भुंजमाणे'' ति तत्राधिपत्यम्-अधिपतिकर्म पुरोवर्तित्वम्अग्रगामित्वं स्वामित्वं-स्वस्वामिभावं भर्तृत्वम्-पोषकत्वम् आज्ञेश्वरस्य आज्ञाप्रधानस्य सतो यत्सेनापत्यं तत्तथा, तत्कारयन् अन्यैः पालयन् स्वयमिति, तथा महता रवे–णेतियोगः। 'आहय' त्ति आख्यान कप्रतिबद्धानीति वृद्धाः, अथवा-'आहय' ति अहतानि-अव्याहतानि नाट्यगीतवादितानि, तथा तन्त्री-वीणा तलतालाः-हस्ततालाः तला वा हस्ताः ताला:-कांसिकाः 'तुडिय' त्ति शेषतूर्याणि, तथा घनाकारो ध्वनिसाधाद्यो मृदङ्गोमर्दवः पटुना-दक्षपुरुषेण प्रवादित इत्येतेषां द्वन्द्रोऽत एषां योरवः स तथा तेन भोगभोगाई ति भोगार्हान् शब्दादीन् 'एवं महिड्डिए' त्ति एवं महर्द्धिक इव महर्द्धिकः, इंयन्महर्द्धिक इत्यन्ये। 'से जहानामए' इत्यादि, यथा युवतिं युवा हस्तेन हस्ते गृह्णाति, कामवशान्गाडतरग्रहणता निरन्तरहस्ताङ्गु-लितयेत्यर्थः, दृष्टान्तान्तरमाह'चक्करसे' त्यादि, चक्रस्य वा नाभिः, किंभूता?-'अरगाउत्त' त्ति अरकैरायुक्ताअभिविधिनाऽन्विता अरकायुक्ता 'सिय' त्तिस्यात्-भवेत्, अथवा-अरका उत्तासिता आस्फालिता यस्यां सा आरकोत्तासिता, 'एवमेव' त्ति निरन्तरतयेत्यर्थः, प्रभुर्जम्बूद्वीपं बहुभिर्देवादिभिराकीर्ण कर्तुमिति योगः / वृद्धस्तु व्याख्यातं यथा यात्रादिषु युवतियूनो हस्ते लग्ना-प्रतिबद्धा गच्छति बहुलोकप्रचिते देशे, एवं यानि रूपाणि विकुर्वितानि तान्येकस्मिन् कर्तरि प्रतिबद्धानि / यथा वा चक्रस्य नाभिरेका बहुभिरारकैः प्रतिबद्धा घना निश्छिद्रा एवमात्मशरीरमतिबद्धैरसुरदेवैर्देवीभिश्च पूरयेदिति / 'वेउब्वियसमुग्घाएणं ' ति वैक्रियकरणाय प्रयत्नविशेषेण 'समोहणइ' त्ति समुपहन्यते समुपहतो भवति समुपहन्ति वा-प्रदेशान् विक्षिपतीति। तत्स्वरूपमेवाह-'संखेज्जाई' इत्यादि, दण्ड इव दण्डः-ऊवधि आयतः शरीरबाहल्यो जीवप्रदेशकर्मपुद्गलसमूहः, तत्र च विविधपुद्गलानादत्त इति दर्शयन्नाह-तद्यथा-रत्नानां-कर्केतनादीनाम्, इह च यद्यपि रत्नादिपुद्रला औदारिका वैक्रियसमुद्धाते च वैक्रिया एव ग्राह्या भवन्ति तथाऽपीह तेषां रत्नादिपुद्गलानामिव सारताप्रतिपादनाय रत्नानामित्याद्युक्तम्, तच्च रत्नानामिवेत्यादि व्याख्येयम्।अन्ये त्वाहुः औदारिका अपितेगृहीताः सन्तो वैक्रिय-तया परिणमन्तीति। यावत्करणादिदं दृश्यम्-'वइराणं वेरुलियाणं लोहियक्खाणं मसारगलाणं हंसगब्भाणं पुलया णं सोगंधियाणं जोतीरसाणं अंकाणं अंजणाण रयणाणंजायरूवाणं अंजणपुलयाणं फलिहाणं' ति, किम्? अत आह- 'अहा बायरे' त्ति यथा बादरान्-असारान् पुगलान् परिशातयति दण्डनिसर्गगृहीतान्, यचोक्तं प्रज्ञापनाटीकायां यथा-'स्थूलान्वैक्रियशरीरनामकर्मपुद्गलान् प्राग्बद्धान् शातयती' ति तत्समुद्धातशब्द-- समर्थनार्थमनाभोगिकं वैक्रियशरीरकर्मनिर्जरणमाश्रित्येति। 'अहा सुहमे' त्ति यथा सूक्ष्मान-सारान् परियाए' ति पर्यादत्ते, दण्डनिसर्गगृहीतान्; सामस्त्येनादत्त इत्यर्थः। 'दोच्चं पि' त्ति द्वितीयमपि वारसमुद्घातं करोति, चिकीर्षितरूपनिर्माणार्थं ततश्च 'पभुत्तिसमर्थः केवल-कप्प' ति केवलःपरिपूर्णः कल्पत इति कल्पः-स्वकार्यकरण-सामथ्योपेतस्ततः कर्मधारयः, अथवा-केवलकप्पः-केवलज्ञान सदृशः परिपूर्णतासाधात्सम्पूर्णपर्यायोवा केवलसदृशः परिपूर्णतासाधात्सम्पूर्णपर्यायोवा केवल
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________________ विउव्वणा 1116 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विउव्वणा कल्प इतिशब्दः / 'आइन्न' मिव्यादय एकार्था अत्यन्तयाप्तिदर्श--- नायोक्ताः। अदुत्तरं च णं' ति अथापरं च इदं च सामर्थ्यातिशयवर्णनम्, 'विसए' त्ति गोचरो वैक्रियकरणशक्तेः, अयं च तत्करणयुक्तोऽपि स्यादित्यत आह-'विसयमेत्ते' त्ति विषेय एव विषय-मात्रं-क्रियाशून्य 'बुइए' ति उक्तम्, एतदेवाह- 'संपत्तीए' त्ति यथोक्तार्थ-सम्पादनेन 'विउव्विसु वा विकुर्वितवान् विकुर्वति वा विकुर्विष्यतिवा,'विकुर्व' इत्ययं धातुः सामयिकोऽस्ति, विकुर्वणेत्यादिप्रयोगदर्शनादिति। जतिणं भंते ! चमरे असुरिंदे असुरराया एमहिडिएन्जाव एवइयं चणं पभू विकुवित्तए, चमरस्सणं भंते ! असुरिंदस्स असुररन्नो सामाणिया देवा के महिड्डीयाजाव के वतियं च णं पभू विकुवित्तए? गोयमा ! चमरस्स असुरिंदस्स असुररन्नो सामाणिया देवा महिड्डिया० जाव महाणुमागा। तेणंतत्थ साणं साणं भवणाणं साणं साणं सामाणियाणं साणं साणं अग्गमहिसीणंजाव दिघ्वाई भोगभोगाइं मुंजमाणा विहरंति / एवं महिड्डिया० जाव एवइयं च णं पभू विकुवित्तए, से जहा-नामएजुवतिं जुवाणे हत्थेणं हत्थे गेण्हेज्जा चक्कस्स वा नाभी अरयाउत्ता सिया एवमिव गोयमा! चमरस्स असुरिंदस्स असुररनो एगमेगे सामाणिए देवे वेउव्वियसमुग्धाएणं समोहणइ समोहणित्ता० जाव दोच्चं पि वेउव्वियसमुग्घाएणं समोहणति समोहणित्ता पभू णं गोयमा ! चमरस्स असुरिंदस्स असुररन्नो एगमेगे सामाणिए देवे केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीवं बहूहिँ असुरकुमारेहिं देवेहिं देवीहि य आइग्नं वितिकिन्नं उवत्थडं संथर्ड फुडं अवगाढावगाढं करेत्तए। अदुत्तरं च णं गोयमा ! पभू चमरस्स असुरिंदस्स असुररन्नो एगमेगे सामाणियदेवे तिरियमसंखेज्जे दीवसमुद्दे बहूहिं असुरकुमारेहिं देवेहिं देवीहि य आइण्णे वितिकिण्णे उवत्थडे संथडे फुडे अवगाढावगाढे करेत्तए। एस णं गोयमा ! चमरस्सअसुरिंदस्स असुररन्नो एगमेगस्स सामाणियदेवस्स अयमेयारूवे विसए विसयमेते बुइए णो चेव णं संपत्तीए विकुटिवसु वा विकुव्वति वा विकुटिवस्सति वा / जति णं भंते ! चमरस्स असुरिंदस्स असुररन्नो सामाणिया देवा एवं महिड्डिया० जाव एवतियं च णं पभू विकुवित्तए। चमरस्स णं भंते ! असुरिंदस्स असुररन्नो तायत्तीसिया देवा केमहिड्डिया? तायत्तीसिया देवाजहा सामाणिया तहानेयव्वा,लोयपाला तहेव, नवरं संखेजा दीवसमुद्दा भाणियव्वा / बहूहिं असुरकु-मारेहिअरीहि य आइन्ने० जाव विउव्विस्संति वा / जति णं मंते ! चमरस्स असुरिंदस्स असुररन्नो लोगपाला देवा एवं महिड्डिया० जाव एवतियं च णं पभू विउवित्तए। चमरस्सणं भंते ! असुरिंदस्स असुररन्नो अग्गमहिसीओ देवीओ के महि-डियाओ० जाव केवतियं च णं पभू विकुवित्तए? गोयमा ! चमरस्सणं असुरिंदस्स असुररन्नो अग्गमहिसीओ महिड्डियाओ० जाव महाणुभागाओ / ताओ णं तत्थ साणं साणं भवणाणं साणं साणं सामाणिय साहस्सीणं साणं साणं महत्तरियाणं साणं साणं परिसाणंजाव एमहिब्जियाओ अन्नं जहा लोगपालाणं अपरिसेसं / सेवं भंते ! भंते त्ति। (सू०१२७) मगवं दोच्चे गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ वंदित्ता नमंसित्ता जेणेव तचे गोयमे वायुभूती अणगारे तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता तचं गोयमं वायुभूति अणगारं एवं वदासी-एवंखलु गोयमा ! चमरे असुरिंदे असुरराया एवं महिड्डिए तं चेव एवं सव्वं अपद्रवागरणं नेयध्वं अपरिसेसियं० जाव अग्गमहिसीणं वत्तव्वया समत्ता। तएणं से तचे गोयमे वायुभूती अणगारे दोचस्स गोयमस्स अग्गिभूइस्स अणगारस्स एवमाइक्खमाणस्स भासमाणस्स पण्णवे माणस्सपरूवेमाणस्स एयमद्वं नो 'सइहइ नो पत्तियइ नो रोयइ एयमटुं असद्दहमाणे अपत्तियमाणे अरोएमाणे उट्ठाए उट्टेइ उहेत्ताजेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छद०जाव पज्जुवासमाणे एवं वयासी-एवं खलु भंते ! मम दोच्चे गोयमे अग्गिभूती अणगारे एवमातिक्खइ भासइ पन्नवेइ परूवेइ-एवं खलु गोयमा ! चमरे असुरिंदे असुरराया महिडिए०जाव महाणुभावे से णं तत्थ चोत्तीसाए भवणावाससयसहस्साणं एवं तं चैव सव्वं अपरिसेसं भाणियध्वं० जाव अग्गमहिसीणं वत्तय्वया समत्ता / से कहमेयं भंते ! एवं गोयमादिसमणे भगवं महावीरे तच्चं गोयमंवाउभूतिं अणगारंएवं वदासीजणं गोयमा! दोच्चे गोयमा! अगिभूई अणगारेतवएवमातिक्खइ एवं भासइएवं पन्नवेइएवंपरूवेइ। एवं खलु गोयमा! चमरे असुरिंदे असुरराया महिड्डिए एवं तं चेव सवं० जाव अग्गमहिसीणं वत्तव्वया समत्ता सच्चे णं एसमढे / अहं पिणं गोयमा ! एवमातिक्खामि भासेमि पण्णवेमि परूवेमि, एवं खलु गोयमा ! चमरे जाव महिडिए सोचेव बितिओगमो भाणियव्वोजाव अ
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________________ विउव्वणा 1120 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विउव्वणा ग्गमहिसीओ, सचे णं एसमढे सेवं भंते! भंते ! त्ति। तचे गोयमे! वायुभूती अणगारे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ 2 त्ता जेणेव दोच्चे गोयमे अग्गिभूती अणगारे तेणेव उवागच्छह २त्ता दोच्चं गोयम अग्गिभूतिं अणगारं वंदइ नमसति २त्ता एयमढे सम्मं विणएणं भुञ्जो मुजो खामेति / (सू०-१२८) तए णं से तच्चे गोयमे वाउभूती अणगारे दोच्चेणं गोयमेणं अग्गिभूतिणामेणं अणगारेणं सद्धिंजेणेव समणे भगवं महावीरे जाव पज्जुवासमाणे एवं वयासी-जति णं भंते ! चमरे असुरिंदे असुरराया एवं महिड्डिए०जाव एवतियं च णं पभू विकुटिवत्तए / बली णं भंते ! वइरोयणिंदे वइरोयणराया केमहिड्डिए०जाव केवइयं च णं पभू विकुवित्तए? गोयमा! बली णं वइरोयणिंदे वइरोयणराया महिड्डएजाव महाणुभागे, सेणंतत्थ तीसाए भवणावाससयसहस्साणं सट्ठीए सामाणिय-साहस्सीणं सेसं जहा चमरस्स तहा बलियस्स वि णेयव्वं / णवरं सातिरेगं केवलकप्पं जंबुद्दीवं ति भाणियध्वं, सेसं तं चेव णिरवसेसं णेयव्वं, णवरं णाणत्तं जाणियव्वं भवणेहिं सामाणि-एहिं, सेवं भंते ! भंते ति / तचे गोयमे वायुभूती०जाव विहरति० भंते ! त्ति। भगवं दोच्चे गोयमे अग्गिभूती अणगारे समणं भगवं महावीरं वंदइ 2 त्ता एवं वदासी-जइ णं भंते ! बली वइरोयणिंदे वइरोयणराया एमहिडिए०जाव एवइयं च णं पभू विकुवित्तए। धरणे णं भंते ! नागकुमारिंदे नागकुमारराया केमहिड्डिए जाव केवतियं च णं पभू विकुवित्तए? गोयमा! धरणे णं नागकुमारिंदे नागकुमारराया एमहिड्डिए जाव से णं तत्थ चोयालीसाए भवणावाससयसहस्साणं छहंसामाणियसाहस्सीणं तायत्तीसाए तायत्तीसगाणं चउण्हं लोगपालाणं छण्डं अग्गम-हिसीणं सपरिवाराणं तिण्हं परिसाणं सत्तण्हं अणियाणं सत्तण्हं अणीयाहिवईणं चउत्तीसाए आयरक्खदेवसाहस्सीणं अन्नेसिंच जाव विहरइ / एवतियं च णं पभू विउवित्तए से जहानामए-- जुवतिं जुवाणे०जाव पभू केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीवंजाव तिरियं संखेजे दीवसमुद्दे बहूहि नागकुमारीहिं जाव विउवि-स्संति वा। सामाणिया तायत्तीसलोगपालगा महिसीओयतहेव, जहा चमरस्सा एवं धरणे णं नामकुमारराया महिडिए० जाव एवतियं जहा चमरे तहा धरणेण वि, णवरं संखेने दीव-समुहे माणियव्वं / एवं जाव थणियकुमारा वाणमंतरा जोइसिया वि,नवरं दाहिणिल्ले सय्वे अग्गिभूती पुच्छति, उत्तरिल्ले सव्वे वाउभूती पुच्छह, भंते ! त्ति भगवं दोचे गोयमे अग्गिभूती अणगारे समणं भगवं महावीरं वंदति नमंसति २त्ता एवं वयासीजतिणं भंते !जोइसिंदे जोतिसराया एवं महिडिए० जाव एवतियं च णं पभू विकु वित्तए सके णं मंते ! देविंदे देवराया केमहिड्डिएजाव केवतियं च णं पभू विउव्वि-त्तए? गोयमा ! सक्के णं देविंदे देवराया महिड्डिए०जावमहाणु-भागे,से णं तत्थ वत्तीसाए विमाणावाससयसहस्साणं चउरासीए सामाणियसाहस्सीणं०जाव चउण्डं चउरासीणं आयरक्ख-(देव) साहस्सीणं अन्नेसिंच०जाव विहरइ। एवं महिड्डिए०जाव एवतियं च णं पभू विकुवित्तए, एवं जहेव चमरस्स तहेव भाणियव्वं, नवरं दो केवलकप्पे जंबुद्दीवे दीवे अवसेसं तं चेव / एस णं गोयमा ! सकस्स देविंदस्स देवरण्णो इमेयारूवे विसए विसयमेत्ते णं बुइए नो चेवणं संपत्तीए विउ-टिवसु वा विउव्वति वा विउव्विस्सति वा। (सू०-१२६) 'नवरं संखेजा दीवसमुद्द' त्ति लोकपालादीनां सामानिकेभ्योऽल्पतरर्द्धिकत्वेनाल्पतरत्वाद्वैक्रियकरणलब्धेरिति। अपुट्ठवा-गरण' ति अपृष्टे सति प्रतिपादनं 'वइरोयणिदे' त्ति दाक्षिणात्या-सुरकुमारेभ्यः सकाशाद्विशिष्टं रोचन-दीपनं येषामस्तिते वैरोचना-औदीच्यासुरास्तेषु मध्ये इन्द्र-परमेश्वरो वैरोचनेन्द्रः साइरेगं केवलकप्पं ति औदीच्येन्द्रत्वेन बलेविशिष्टतरलब्धिकत्वादिति / एवं०जाव थणियकुमार' त्ति धरणप्रकरणामव भूतानन्दादिमहाघोषान्तभवनपतीन्द्रप्रकरणा-न्यध्येयानि, तेषु चेन्द्रनामान्येतद्-गाथानुसारतोवाच्यानि-"चमरे 1 धरणे २तह वे-णुदेव 3 हरिकंत 4 अग्गिसीहे यश पुण्णे ६जलकंते विय७, अमिय 8 विलंबे यह घोसे य 10 // 15 // " एते दक्षिणनिकायेन्द्राः। इतरे तु- "बलि 1 भूयाणंदे 2 वेणुदालि३हरिसहऽगि ग्गि) माणव 5 वसिट्टे जलप्पभे७मियवाहणे 8 पभंजण 6 महाघोसे 10 // 1 // " एतेषांच भवनसंख्या-"चउतीसा 1 चउचत्ता 2" इत्यादिपूर्वोक्त-गाथाद्वयादवसेया। सामानिकात्मरक्षसंख्या चैवम्- "चउसठ्ठी सट्ठी खलु, छच्च सहस्सा उ असुस्वज्जाणं / सामाणिया उ एए, चउग्गुणा आयरक्खा उ ||1||" अग्रमहिष्यस्तु प्रत्येकं धरणादीनां षट्। सूत्राभिलापस्तुधरणसूत्रवत्कार्यः, 'वाणमंतरजोइसिया वि' त्ति व्यन्तरेन्द्रा अपि धरणेन्द्रवत्सपरिवारा वाच्याः, एतेषु च प्रति-निकायं दक्षिणोत्तरभेदेन द्वौ द्वौ इन्द्रौ स्याताम्, तद्यथा- "काले य महाकाले१, सुरूवपडिरूव 2 पुण्णभद्दे य। अमरवइमाणिभद्दे, भीमे यतहा महाभीमे // 1 // किंनरकिंपुरिसेखलु, सप्पुरिसे चेव तह महापुरिसे। अइकायमहाकाये७, गीयरई चेव गीयजसे शा" एतेषां ज्योतिष्काणां च त्रायस्त्रिशतुः सहस्रसंख्याः। एतच्च
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________________ विउव्वणा 1121 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विउव्वणा चतुर्गुणाश्चात्मरक्षाः / अग्रमहिष्यश्चतस्र इति / एतेषु च सर्वेष्वपि दाक्षिणात्यानिन्द्रानादित्यं चाग्निभूतिः पृच्छति, औदीच्यांश्चन्द्रञ्च वायुभूतिस्तत्र च दाक्षिणात्येष्वादित्ये च केवलकल्पं जम्बूद्वीपं संस्तृतमित्यादि। औदीच्येषु च चन्द्रे च सातिरेक जम्बूद्वीपमित्यादिच वाच्यम्, यचेहाधिकृतवाचनायामसूचितमपि व्याख्यातं तद्वाचनान्तरमुपजीव्येति भावनीयमिति / तत्र कालेन्द्रसूत्राभिलाप एवम्'काले णं भंते ! पिसाइंदे पिसायराया केमहिड्डिए 6 केवइयं च णं पभू विउव्वित्तए? गोयमा ! काले णं महिडिए 6 से णं तत्थ असंखे-जाणं नगरावाससहस्साणं चउण्हं सामाणियसाहस्सीणं सोलसण्हं आयरक्खदेवसाहस्सीणं चउण्हं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं अण्णेसिंच बहूणं पिसायाणं देवाणं देवीण य आहेवच्चं०जाव विहरइ, एमहिड्डिए 6 एवइयं चणं पभू विउवित्तए०जाव केवलकप्पंजंबुद्दीवंदीवं०जाव तिरियं संखेज्जे दीवसमुद्दे' इत्यादि, शक्रस्य प्रकरणे, 'जावचउण्हं चउरासीण' मित्यत्र यावत्करणादिदं दृश्यम्- 'अट्ठण्हं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं चउण्हं लोगपालाणं तिण्हं परिसाणं सत्तण्हं अणियाणं सत्तण्हं अणियाहिवईणं' ति, शक्रस्य विकुर्वणोक्ता। अथ तत्सामानिकानां सा वक्तव्या, तत्र च स्वप्रतीतं सामानिकविशेषमाश्रित्य तच्चरिता-- नुवादतस्ता प्रश्नयन्नाहजइणं भंते ! सक्के देविंदे देवराया एमडिएन्जाव एवइयं च णं पभू विकुवित्तए, एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी तीसए नाम अणगारे पगइभद्दए०जाव विणीए छटुं छटेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावेमाणे बहुपडिपुण्णाइं अट्ठ संवच्छराई सामण्णपरियागं पाउणितामासियाए संलेहणाए अप्पाणं झुसित्ता सढि भत्ताई अणसणाए छेदित्ता आलोइयपडिक्वंते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे सयंसि विमाणंसि उववायसभाए देवसयणिज्जंसि देवदूसंतरिए अंगुलस्स असंखेजभागमेत्तीए ओगाहणाए सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो सामाणियदेवत्ताए उववण्णे / तएणं तीसए देवे अहुणोववण्णमेत्ते समाणे पंचविहाए पजत्तीए पञ्जत्तिभावं गच्छा, तं जहा-आहारपज्जत्ती सरीरइंदिय-आणापाण-पज्जत्तीए भासामणपञ्जत्तीए। तएणं तं तीसयं देवं पंचविहाए पज्जत्तीए पज्जत्तभावं गयं समाणं समाणं सामाणियपरिसोव-वण्णया देवया करयलपरिग्गहियं दसनहं सिरसा वत्तं मत्थए अजलिं कटु जएणं वद्धावेइ, वद्धावेइत्ता एवं वयासी-अहो णं देवाणुप्पिएहिं दिव्वा देविड्डी दिव्वा देवजुत्ती दिव्वे देवाणुभावे लद्धे पत्ते अभिसमण्णागए जारिसाणं देवाणु- | प्पिएहिं दिव्वा देविड्डी दिव्वा देवजुत्ती दिवे देवाणुभावे लद्धे पत्ते अभिसमण्णागएतारिसियणं सक्कणं देविंदेणं देवरण्णो दिव्वा देविड्डी जाव अभिसमण्णागया जारिसिया णं (सक्केणं देविंदेणं देवरण्णा दिव्वा देविडी०जाव अभिसमण्णागया तारिसिया णं) देवाणुप्पिएहिं दिव्वा देविड्डी०जाव अभिसमन्नागया। सेणं भंते ! तीसए देवे केमहिड्डिए जाव केवतियं च णं पभू विउव्वित्तए? गोयमा ! महिड्डिए जाव०महाणुभागे / से णं तत्थ सयस्स विमाणस्स चउण्हं सामाणियसाहस्सीणं चउण्डं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं तिण्हं परिसाणं सत्तण्हं अणियाणं सत्तण्हं अणियाहिवईणं सोलसण्हं आयरक्खदेवसाहस्सीणं अण्णेसिं च बहूर्ण वेमाणियाणं देवाण य देवीण०जाव विहरति, एवं महिडिए०जाव एवइयं च णं पभू विउवित्तए / से जहाणामए जुवतिं जुवाणे हत्थेण हत्थे गेण्हेजा जहेव सक्कस्स तहेव० जाव एसणं गोयमा! तीसयस्स देवस्स अयमेयारूवे विसए विसयमेत्ते बुइए नो चेवणं संपत्तीए विउटिवसु वा 3 / जति णं भंते। तीसए देवे महिड्डिए०जाव एवइयं च णं पभू विउवित्तए, सक्कस्स णं भंते ! देविंदस्स देवरन्नो अवसेसा सामाणिया देवा केमहिड्डिया? तहेव सव्वं जाव, एस णं गोयमा! सकस्स देविंदस्स देवरन्नो एगमेगस्स सामाणियस्स देवस्स इमेयारूवे विसयमेत्ते बुइए नो चेवणं संपत्ती ए विउटिवसु वा विउव्विंति वा विउव्विस्संति वा तायत्तीसाए य लोगपालअग्गमहिसीणं जहेव चमरस्स नवरं दो केवलकप्पे जंबुद्दीवे दीवे अण्णं तं चेव, सेवं भंते ! भंते ! त्ति। दोचे गोयमे जाव विहरति / (सू०-१३०) "एवं खलु' इत्यादि ‘एवम्' इति वक्ष्यमाणन्यायेन सामानिकदेवतयोत्पन्न इति योगः, 'तीसए' त्ति तिष्यकाभिधानः 'सयंसि' त्ति स्वके विमाने, 'पंचविहाए पजत्तीए' त्ति पर्याप्तिः-आहारसरीरादीनामभिनिवृत्तिः, सा चान्यत्र षोढोक्ता, इह तु पञ्चधा, भाषामनः पर्याप्त्योबहुश्रुताभिमतेन केनापि कारणेनैकत्वविवक्षणात, 'लद्धे त्ति जन्मान्तरे तदुपार्जनापेक्षया 'पत्ते' ति प्राप्ता देवभवापेक्षया 'अभिसमण्णागए' त्ति तद्भोगापेक्षया 'जहेव चमरस्स' त्ति अनेनलोकपालाग्रमहिषीणां तिरियं संखेज्जे दीवसमुद्दे ति वाच्यमिति सूचितम्। भंते ! त्ति भगवं तचे गोयमे वाउभूती अणगारे समणं भगवं० जाव एवं वदासी-जति णं भंते ! सके देविंदे देवराया एमहिड्डिए जाव एवइयं च णं पभू विउवित्तए ईसाणे णं भंते ! देविंदे देवराया केमहिडिए?, एवं तहेव, नवरं साहिए दो केवलकप्पे जंबुद्दीवे दीवे अवसेसं तहेव / (सू०-१३१)
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________________ विउव्वणा 1122- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विउसमणया 'ईसाणे णं भंते!' इत्यादि, ईशानप्रकरणम् इह च एवं तहेव' त्ति अनेन 6 चत्त 7 छच्चे व 8 सहस्सालंतसुक्कसहसारे / सयचउरो आणयपा--- यद्यपि शक्रसमानवक्तव्यमीशानेन्द्रप्रकरणं सूचितं तथाऽपि विशेषोऽस्ति, णएसु 6-10 तिण्णारणच्चुयओ 11-12 / / 2 / / ' सामानिकपरिमाणउभयसाधारणपदापेक्षत्वादतिदेशस्येति। स चायम्-'सेणं अट्ठावीसाए गाथा- "चउरासीइ असीई, बावत्तरि सत्तरी य सट्ठी य / पण्णा विमाणावाससयसहस्साणं असीईएसामाणिय-साहस्सीणंजाव चउण्हं. चत्तालीसा, तीसा वीसा दससहस्सा ॥१॥"इहचशक्रादिकान्पञ्चैकाअसीईणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं ति।' ईशानवक्तव्यतानन्तरंतत्सामा- न्तरितानग्निभूतिः पृच्छति, ईशानादींश्च तथैव वायुभूतिरिति / भ०३ निकवक्तव्यतायां स्वप्रतीतम्। श०१ उ०। तद्विशेषमाश्रित्य तचरितानुवादतः प्रश्नयन्नाह इदानीं "निरयतिरिनरसुराणं उक्कोसविउव्वणाकालो" जति णं मंते ! ईसाणे देविंदे देवराया एमहिडिए०जाव एवतियं इति त्रिंशदुत्तरद्विशततमं द्वारमाहच णं पभू विउव्वित्तए / (म०) एवं सामाणियतायत्तीसलोग- अंतमुहुत्तं नरए-सु हॉति चत्तारि तिरिअ-मणुएसु / पालअग्गमहिसीणं०जाव एसणं गोयमा ! ईसाणस्स देविंदस्स देवेसु अद्धमासो, उक्कोसविउव्वणाकाले // 1322 / / देवरन्नो एवं एगमेगाए अग्गमहिसीए देवीए अयमेयारूवे विसए अन्तर्मुहूर्त नरकेषूत्कर्षतो विकुणाऽवस्थानकालः, तिर्यक्षु मनुष्येषु विसयमेत्ते बुइए नो चेवणं संपत्तीए विउविसु वा०३॥ (सू०- चत्वार्यन्तर्मुहूर्तानि, देवेषु भवनपत्यादिषु अर्द्धमासः पञ्चदशदिनान्यु१३२४) एवं सणंकुमारे वि, नवरं चत्तारि केवलकप्पे जंबुद्दीवे त्कृष्टतो विकुर्वणाकाल इति। प्रव० 230 द्वार। दीवे अदुत्तरं च णं तिरियमसंखेने एवं सामाणियं तायत्तीस- विउव्वदुग-न०(वैक्रियद्विक) वैक्रियशरीरवैक्रियाङ्गोपाङ्गरूपे वैक्रियोपलोगपालअम्गमहिसीणं असंखेन्छे दीवसमुहे सवे विउव्वंति, ___ लक्षिते द्वये, पं० सं०५ द्वार। कर्म०| सणंकुमाराओ आरद्धा उवरिला लोगपाला सव्वे वि असंखेजे | विउव्वमाण-त्रि०(विक्रियमाण) विक्रियकरणवंशवर्तिनि, स्था०३ ठा०१ दीवसमुद्दे विउटिवति, एवं माहिंदै वि, नवरं सातिरेगे चत्तारि | उ०। स्वेच्छया (सू०प्र०२० पाहु०) विकुर्वणां कुर्वति, भ० 12 श०६ केवलकप्पे जंबुद्दीवे दीवे / एवं बंभलोए वि, नवरं अट्ठ केवल- उ०। वैक्रियशरीरं कुर्वति, भ०३ श०२ उ०। कप्पे, एवं लंतए वि, नवरं सातिरेगे अह केवलकप्पे, महासुक्के / विउव्ववग्गणा-स्त्री०(वैक्रियवर्गणा) वैक्रियशरीरग्रहणप्रायोग्यवर्गसोलस केवलकप्पे, सहस्सारे सातिरेगे सोलस, एवं पाणाए | णायाम, कर्म०५ कर्म०| वि,नवरं बत्तीसं केवलं एवं अच्चुए वि नवरं सातिरेगे बत्तीसं | विउविउ-अव्य०(विकुर्वितुम्) सिद्धान्तप्रसिद्धो विकुर्व' इतिधातुरस्ति केवलकप्पे जंबुद्दीवे दीवे अन्नं तं चेव, सेवं भंते ! भंते ! त्ति। / यस्य विकुर्वणेति प्रयोगः, ततस्तुमुन् / वि क्रियां कृत्वेत्यर्थे , सूत्र०१ तचे गोयमे वायुमूती अणगारे समणं भगवं महावीरं वंदइ श्रु०१ अ०२ उ०। भा नमंसति जाव विहरति / तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नया | विउविय-अव्य०(विकृत्य) परिचारणायोग्य विधायेत्यर्थे , स्था०३ कयाई मोयाओ नगरीओनंदणाओ चेतियाओ पडिनिक्खमइर ___ठा०१ उ०। त्ता बहिया जणक्यविहारं विहरइ। (सू०-१३३) *विकुर्वित-त्रिका दैवशक्त्या कृते, आ०म० १अ०। (कुरुदत्तपुत्रवृत्तान्तं 'कुरुदत्तपुत्त' शब्दे तृतीयभागे 561 पृष्ठे गतम्) | विउव्वियबोंदि-त्रि०(वैक्रियबोन्दि) विकुर्विता-वस्त्रादिभिरलंकृता 'एवं सणंकुमारे वि' त्ति, अनेनेदं सूचितम्- 'सणंकुमारे णं भंते ! देविंदे | बोन्दिः-शरीरं येषां ते तथा। अलकृतशरीरेषु बृ० 1303 प्रक०। देवराया केमहिड्डिए 6 केवइयं चणं पभू विउव्वित्तए? गोयमा! सणंकुमारे | विउव्वियसमुग्घाय-पुं०(वैक्रियसमुद्धात) समुद्धातभेदे, (एत-द्वक्तणं देविंदे देवराया महिड्डिए ६,सेणं बारसण्हं विमाणावाससयसाहस्सीणं व्यताम् 'वेउव्वियसमुग्घाय' शब्देदर्शयिष्यामः।) विउव्विय–समुग्धारण बावत्तरीए सामाणियसाहस्सीणंजाव चउण्हं बावत्तरीणं आयरक्ख- समोहयं' विहितोत्तरवैक्रियशरीरमिति। भ०३ श०४उ०/ देवसाहस्सीण' मित्यादीति, 'अग्गमहिसीणं' ति यद्यपि सनत्कुमारे | विउस-पुं०(विद्वस्) कुशले, 'चउरा निउणा कुसला,छेआ विउसा बुहाय स्त्रीणामुत्पत्तिर्नास्ति तथाऽपि याः सौधर्मोत्पन्नाः समयाधिकपल्योप- पत्तट्ठा' पाइ० ना०६० गाथा! मादिदशपल्योपमान्तस्थितयोऽपरिगृहीतदेव्यस्ताः सनत्कुमारदेवानां | विउसन-अव्य०(व्युत्सृज्य) परित्यज्येत्यर्थे, व्य०१ उ०। भोगाय सम्पद्यन्ते इति कृत्वाऽग्रमहिष्यः इत्युक्तमिति। एवं माहेन्द्रादि- | विउसमणकालसमय-पुं०(व्यवशमनकालसमय) व्यवशमनं पुंवेदविसूत्राण्यपि गाथानुसारेण विमानमानं सामानिकादिमानं च विज्ञायानु- | कारोपशमस्तस्य यः कालसमयः सतथा। रतावसाने, भ०१२श०६ उ०1 सन्धानीयानि। गाथाश्चैवम्- 'बत्तीस अट्ठवीसा 2, बारस ३ऽट्ठ४ चउरो | विउसमणया-स्त्री०(व्यवशमनता) परस्मिन् क्रोधान्निर्वत्तयति सति 5 यसयसहस्सा। आरेण बंभलोया, विमाणसंखा भवेएसा / / 1 / पण्णासँ | क्रोधोज्झने, भ०१ श०६ उ०|
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________________ विउसमिय 1123 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विछिय विउसमिय-त्रि०(व्यवशमित) उपशमिते, स्था०६ ठा०३ उ०नि० चून दृष्टान्तत्वेन भावनं 'करकंडु' शब्दे तृतीयभागे 357 पृष्ठे उक्तम्।) (ततो विउसमियपाहुड-त्रि०(व्यवशमितप्राभृत) विशेषेणावसायितमवसानं 'णमि' शब्दे चतुर्थभागे 1810 पृष्ठे चतुर्णा मेलकः1) नीतं प्राभृतं कलहो येन स व्यवशमितप्राभृतः / व्युत्सृष्टकलहे, बृ०१ दव्वविउस्सग्गे खलु, पसन्नचंदो भवे उदाहरणं / उ०३ प्रक०। पडियागयसंवेगो, भावम्मि वि होइ सो चेव। विउसरण-न०(व्युत्सर्जन) परित्यजने, दर्श०१ तत्त्व। आचा०। उत्सर्गे , द्रव्यव्युत्सर्गोगणोपधिशरीरान्नपानादिव्युत्सर्गः1 अथवा-द्रव्यव्युत्सर्गो आव०५ अ० नाम-आर्तध्यानादिध्यायिनः कायोत्सर्गः, अत एवाह-द्रव्यव्युत्सर्गेखलु विउसरणया-स्त्री०(व्यवसर्जनता) त्यागे, भ०२ श०५ उ०॥ प्रसन्नचन्द्रो राजर्षिर्भवत्युदाहरणम्। भावव्युत्सर्गः स्वस्थानादिपरित्यागः। विउसविय-अव्य०(व्यवशमय्य) विविधमनेकप्रकारैर्द्रव्यपदार्थप्रति अथवा-धर्मशुक्लध्यायिनः कायोत्सर्गः। तथा चाह-प्रत्यागतसंवेगो पत्तिपुरस्सरं मिथ्यादुष्कृतप्रदानेनावशमय्य उपशमं नीत्वेत्यर्थे , बृ०१ भावेऽपि-भावव्युत्सर्गेऽपि स एव प्रसन्नचन्द्रो राजर्षिरुदाहरणमिति उ०३ प्रक०। नि०चून गाथाक्षरार्थः।आ०म०१अ आ०चू०। (अत्रार्थे प्रसन्नचन्द्रराजर्षिकथा 'पसण्णचन्द' शब्दे पञ्चमभागे 811 पृष्ठे गता।) कुस्वप्नादौ कायोत्सर्ग, विउस्सग्ग-पुं०(व्युत्सर्ग) विविधार्थो विशेषार्थो वा विशब्दः, उच्छब्दो आव०५ अ01 भृशार्थः, सर्जनं-सर्गः, विविधं-विशेषेण वा भृशं त्यजनम्-अतीत विउस्सम्गपडिमा-स्त्री०(व्युत्सर्गप्रतिमा) कायोत्सर्गकरणे, औ०। स्था०| सावद्ययोगमिति भावः / आ० म०१ अ०ा गौणादित्वात्व्युत्सर्गस्थाने'विउसग्गो' / प्रा०२ पाद। परित्यागे, स च द्विधा-द्रव्यतो भावतश्च / तथा पूर्वादिचतुष्टयाभिमुखस्य प्रत्येकप्रहरचतुष्टयमानकायोत्सर्गे, द्रव्यतोगणशरीरोपध्याहारविषयो, भावतस्तु-क्रोधादिविषय इति। स्था०४ ठा०३ उ०। विउस्सग्गारिह-न०(व्युत्सर्हि) कायचेष्टानिषेधोपयोगमात्रेण यत् आव०६ अ०। ममत्वस्य त्यागे, उत्त० 30 अ०। निःसङ्गतया देहोपधित्यागे, स्था० 4 ठा०१ उ01 औ०। उपयोगसम्बन्धिनि कायोत्सर्गे, बृ० दुःस्वप्नादिकमिव शुध्यति तत् व्युत्सर्हिम् / जी०१ प्रति०। प्राय श्चित्तभेदे, स्था०६ ठा०३ उ०। (व्युत्सर्गप्रायश्चित्तविषयः 'काउस्सग्ग' 1 उ०३ प्रक०। स्था०। भ०। अनेषणीयादिषु त्यक्तेषु गमनागमनसावधानस्वप्नदर्शननौ-सन्तरणोच्चारप्रश्रवणेषु च विशिष्टप्रणिधान शब्दे तृतीयभागे 427 पृष्ठे उक्तः।) पूर्वककायवाङ्मनो-व्यापारत्यागे, ध०३ अधि०ा आ०चू०। विउस्सिय-त्रि०(व्युत्सृत) विविधमनेकप्रकारमुत्प्राबल्येन सितोबद्धः / स्वसमयेष्वभिनिविष्ट, सूत्र०१ श्रु०१ अ०१ उ०। संसारे उषितः / _द्रव्यभावव्युत्सर्गभेदानाह संसारान्तर्वर्तिनि, सूत्र०१श्रु०१अ०॥ से किं तं विउस्सग्गे? विउस्सग्गे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा विउह-त्रि०(विबुध) 'क-ग-च-ज-त-द-प-य-वां प्रायो लुक्' दव्वविउस्सग्गे, भावविउस्सग्गे अ।से किं तं दव्वविउस्सग्गे? // 8/1/177 // इति वलुक् / विदुषि,प्रा०१ पाद। दवविउस्सग्गे चउविहे पण्णत्ते, तं जहा- सरीरविउस्सगे विऊरमण-न०(व्यवरमण) विराधने, ध०२ अधिo गणविउस्सग्गे उवहिविउस्सग्गे भत्तपाणविउस्सग्गे / से तं विऊरिअं-(देशी) नष्टे,देवना०७ वर्ग 72 गाथा। दव्वविउस्सम्गे / से किं तं भावाविउस्सग्गे? भावविउस्सग्गे तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-कसायविउस्सगे संसारविउस्सग्गे विऊह-पुं०(व्यूह) रचनाविशेषे, पञ्चा०५ विव०॥धo कम्मविउस्सगे / से किं तं कसायविउस्सग्गे? कसायविउ विओग-पुं०(वियोग) क्षये, आचा०१श्रु०४ अ०४ उस पित्रादिभिः सह स्सग्गे चउटिवहे पण्णत्ते, तं जहा-कोहकसायविउस्सग्गे विप्रयोगे,दर्श०४ तत्त्व। आव०| माणकसायविउस्सग्गे मायाक सायविउस्सग्गे लोहकसाय विओजण-न०(वियोजन) विश्लेषणे सूत्र०१श्रु०५ अ० 130 खण्डने, विउस्सग्गे / सेतं कसायविउस्सग्गे से किं तं संसारविउस्स विशेष स्थान ग्गे? संसारविउस्सग्गे चउविहे / पण्णत्ते,तं जहा-णेरइअसं विओयावइत्ता-त्रि०(वियोजयिता) मोक्तरि, स्था०४ ठा०२ उ०। सारविउस्सग्गे तिरियसंसारविउस्सग्गे मणुअसंसारविउस्सगे | विओल-(देशी) आविग्ने, देवना०७ वर्ग 63 गाथा। देवसंसारविउस्सग्गे / से तं संसारविउस्सग्गे। (सू०-२०) विओसिय-त्रि०(व्यवसति) विविधमवसितं व्यवसितम् / पर्यवसिते, 'संसारविउस्सगे' त्ति नरकायुष्कादिहेतूनां मिथ्यादृष्टित्वादीनांत्यागः।। उपशान्ते, सूत्र०१ श्रु०१३ अ०। औ०। (कर्मव्युत्सर्गः 'कम्मविउस्सग्गशब्दे तृतीयभागे 342 पृष्ठे गतः।) | विख-न०(विड्ख) वाद्यभेदे, आ०चू०१अ०। द्रव्यभावव्युत्सर्गे, आव०१ अ० (व्युत्सर्गद्वारे द्रव्यव्युत्सर्गकरकण्डुकानां | विछिअ-पुं० (वृश्चिक) 'इत्कृपादौ // 6 / 1 / 128 // इति ऋतः इ
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________________ विछिअ ११२४-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विकंपण त्वम्। प्रा०। "वक्रादावन्तः" // 1 / 1 / 26|| इत्यनुस्वरागमः। विषपुच्छ- | विकंपण-न०(विकम्पन) स्वस्वमण्डलादहिरवष्वष्कणे, अभ्यन्तरकण्टके जन्तुभेदे, प्रा०१ पाद। प्रवेशने च। सू० प्र० १पाहु०। वि(३)ट-न०(वृन्त) 'इदेदोवृन्ते' / / 8 / 1 / 136 // इति वृन्तशब्दे ऋत सूर्यमण्डलानां विकम्पनमाहइत् एत् ओच भवतीति इदेदोत आदेशाः / प्रा०। बन्धने, सूत्र०१ श्रु०२ | ता केवतियं (ते)एगमेगेणं रातिदिएणं दिकंपइत्ता विकंपइत्ता अ०१ उ०। फलस्य मूले, आ०क० 4 अ०। मलनाले, ध०२ अधिo! सूरिए चारं चरति आहिते त्ति वदेज्जा? तत्थ खलु इमाओ सत्त विंटट्ठाइ-त्रि०(वृन्तस्थायिन्) वृन्तेनाधोवर्तिना तिष्ठतीत्येवंशीलं पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ / तत्थेगे एवमाहंसु-ता दो जोयणाई वृन्तस्थायि / वृन्तमधोभागे उपरि पत्राणि इत्येवं स्थानशीले, राण अद्धदुचत्तालीसं तेसीतसयभागे जोयणस्स एगमेगेणं रातिआ०म०। औ०। दिएणं विकंपइत्ता 2 सूरिए चारं चरंति, एगे एवमाहंसु 1 / एगे विंटबद्ध-न०(वृन्तबद्ध) अतिमुक्तकप्रभृतिषु, प्रज्ञा०१पद। पुण एवमाहंसु-ता अड्डातिजाइं जोयणाई एगमेगेणं राइंदिएणं विंटल-न०(विण्टल) तथाविधज्योतिषनिमित्तादिके छलोपजीवनोपाये, विकंपइत्ता 2 सूरिए चारं चरति, एगे एवमाहंसु 2 / एगे पुण बृ०॥"चुण्णाइ विंटलकए, गरहिय संथवकए य तुज्झाहिं" बृ०१ उ०३ एवमाहंसु-ता तिभागूणाई तिन्नि जोयणाई एगमेगेणं राइंदिएणं प्रक० विकंपइत्तार सूरिए चारं चरति, एगे एव माहंसु 3 / एगे पुण विंतागी-स्वी०(वृन्ताकी) गुच्छवनस्पतिभेदे, आचा०१ श्रु०१ अ०२ उ० एवमाहंसु-ता तिण्णि जोयणाइं अद्धसीतालीसं च तेसीतिवृन्ताकीफलंन भक्ष्यम्। ध०२ अधि०। सयभागे जोयणस्स एगमेगेणं राइंदिएणं विकंपइत्ता 2 सूरिए विंदमाण-त्रि०(विन्दत) लभमाने, नि०१ श्रु०१ वर्ग 1 अ०) चारं चरति, एगे एवमाहंसु / एगे पुण एवमाहंसु-ता अट्ठाई विंदावण-न०(वृन्दावन) मथुरासविधे यमुनातटस्थेवृन्दादेव्यावासभूते जोयणाई एगमेगेणं राइदिएणं विकंपइत्ता 2 सूरिए चारं चरति, लौकिकवने, यो० विंग एगे एवमाहंसु 5 / एगे पुण एवमाहंसु-ता चउम्भागूणाई चत्तारि जोयणाई एगमेगेणं राइंदिएणं विकंपइत्ता 2 सूरिए चार चरति वरं वृन्दावने रम्ये, क्रोष्टुत्वमभिवाञ्छितम् / एगे एवमाहंसु 6 / एगे पुण एवमाहंसु-ता चत्तारि जोयणाई न त्वेवाविषयो मोक्षः, कदाचिदपि गौतम !||138|| अक्दावण्णं च तेसीतिसतभागे जोयणस्स एगमेगेणं राइंदिएणं वरं-प्रधानं वृन्दावने-यमुनानदीतटवर्तिनि मथुरोपवनविशेषे रम्ये विकंपइत्तार सूरिए चारं चरति एगे एवमाहंसु 7 / वयं पुण एवं रमणीये क्रोष्टुत्वम्-शृगालत्वमभिवाञ्छितम्-अभिलषितम्, नत्वेवनैव वदामो-ता दो जोयणाई अडतालीसं च एगट्ठिभागे जोयणस्स पुनरविषयः कदाचित्क्रियया साधयितुमयोग्यः मोक्षोऽपवर्गः कदाचिदपि एगमेगं मंडलं एगमेगेणं राइंदिएणं विकंपइत्ता 2 सूरिए चारं क्वाऽप्यवस्थाविशेषे वाञ्छितः / गौतमेति गालवेन निजशिष्यविशेष चरति, तत्थ णं को हेतू इति वदेज्जा? ता अयण्णं जंबूदीवे 2 स्यामन्त्रणं कृतमिति / यो० वि०। जाव परिक्खेवेणं पन्नत्ते, ता जताणं सूरिए सव्वमंतरं मंडलं बिंदु-गगन० (बिन्दु) (पवर्गादय एते तत्रानुक्तत्वादिहोक्ताः।) "गुणाद्याः उवसंकमित्ता चारं चरति, तता णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए क्लीबे वा' / / 8 / 1 / 34 // इति वानपुंसकत्वम्।जलकणे, प्रा०ा अनुस्वा अट्ठारस मुहुत्ते दिवसे भवति, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई रपरिचायके, पतितबिन्दुसंस्थाने, “बिन्दौ च वाग्बीजम्' जै०गा। भवइ / से णिक्खममाणे सूरिए णवं संवच्छरं अयमाणे पढमंसि बिंदुसार-पुं०(बिन्दुसार) चन्द्रगुप्तसुते, अशोकश्रीमहाराजपितरि अहोरत्तंसि अभिंतराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति / मगधराजे, कल्प०२ अधि०८ क्षण। विशे० "चंदगुत्तपपुत्तोऽयं, बिंदुसा ता जया णं सूरिए अमितराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चार रस्स नत्तुओ। असोगसिरिणो पुत्तो अंधो जायइ कागणिं // 86 // " चरति तदा णं दो जोयणाई अडयालीसं च एगट्ठिभागे जोयणबृ०१ उ०। नि० चू०१६ उ०ा लोकशब्दोऽत्र लुप्तो द्रष्टव्यस्ततश्च लोकस्य स्स एगेणं राइंदिएणं विकंपत्तिा चारं चरति / तता णं अट्ठारसबिन्दुरिवाक्षरस्य सारं सर्वोत्तमं यत्तल्लोक-बिन्दुसारम्। स०१४ सम०। मुहुत्ते दिवसे भवति दोहिं एगहिभागमुहुत्तेहिं ऊणे, दुवालसमुचतुर्दशे पूर्वे, आ०म० अ० स्था०। आव०॥ हुत्ता राई भवति दोहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं अहिया, से णिक्खबिहणिज्ज-त्रि०(बृहणीय) मांसोपचयकारिणि, औ०ा स्था०। ज्ञा० जी०| ममाणे सूरिएदोचंसि अहोरतंसि अभिंतरंतचं मंडलं उवसंकधातूपचयकारिणि, जं०२ वक्ष०ा जी०। संबद्धनीये, पो०६ विव०॥ मित्ता चारं चरति, ता जया णं सूरिए अन्मिंतरं तचं मंडलं उव१-पवर्गादय एते तत्रानुक्तत्वादिहोक्ताः। संकमित्ताचारंचरति,तताणपणतीसंचएपट्ठिभागेजोयणस्सदोहिं
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________________ विकंपण 1125 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विकंपण राइंदिएहिं विकंपइत्ता चार चरति, तताणं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति चउहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं ऊणे दुवालसमुहुत्ता राई भवति, चउहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं अधिया / एवं खलु एतेणं उदाएणं णिक्खममाणे सूरिए तताऽणंतराओ तदाणंतरं मंडलातो मंडलं संकममाणे 2 दो जोयणाई अडतालीसंच एगट्ठिभागे जोयणस्स एगमेगं मंडलं एगमेगेणं राइदिएणं विकंपमाणे 2 सय्वबाहिरमंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति / ता जया णं सूरिए सव्वमंतरातो मंडलातो सव्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति, तता णं सवन्मंतरं मंडलं पणिहाय एगेणं तेसीतेणं राइंदियसतेणं पंचदसुत्तरजोयणसते विकंपइत्ता चारं चरित, तता णं उत्तमकट्ठपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवति। एसणं पढम छम्मासे। एस णं पढमछम्मासम्म पञ्जवसाणे / से य पविसमाणे सूरिए दोचं छम्मासं अयमाणे पढमंसि अहोरत्तंसि बाहिराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति ता जता णं सूरिए बाहिराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति तया णं दो दो जोयणाई अडयालीसं च एगट्ठिभागे जोयणसए एगेणं राइदिएणं विकंपइत्ता चारं चरति, तता णं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवति, दोहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं ऊणे दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवति, दोहिं एगट्ठिभागेहिं मुहुत्तेहि अहिए। से पविसमाणे सूरिए दोचंसि अहोरत्तंसि बाहिरतचंसि मंडलंसि उवसंकमित्ता चारं चरति / ता जया णं सूरिए बाहिरतच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति तया णं पंचजोयणाई पणतीसं च एगट्ठिभागे जोयणस्स दोहिं राइंदिएहिं विकंपइत्ता चारं चरति, राइंदिए तहेव / एवं खलु एतेणुवाएणं पविसमाणे सूरिए ततोऽणंतराओ तयाणंतरं च णं मंडलं संकममाणे 2 दो जोयणाई अडयालीसंच एगट्ठिभागे जोयणस्स एगमेगेणं राईदिएणं विकंपमाणे 2 सव्वमंतरंमंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति, ता जया णं सूरिए सव्वबाहिरातो मंडलातो सव्वमंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति तता णं सव्वबाहिरं मंडलं पणिधाय एगेणं तेसीएणं राइंदियसतेणं पंचदसुत्तरे जोयणसते विकंपइत्ता चारं चरति, तताणं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति,जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ। एसणंदोच्चे छम्मासे एसणं दोचस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे, एसणं आदिचे संवच्छरे, एसणं आदिबस्स संवच्छरस्स पज्जवसाणे।। (सू-१८) 'ता केवइयं ते एगमेगेणं राइदिएणं विकंपइत्ता' इत्यादि। ता इति पूर्ववत्, | कियत्प्रमाणं क्षेत्रमिति गम्यते। 'एगमेगेणं' ति अत्र प्रथमादेकशब्दान्मकारोऽलाक्षणिकस्ततोऽयमर्थः--एकैकेन रात्रिन्दिवेन अहोरात्रेण विकम्प्य विकम्प्य विकम्पनं नामस्वस्वमण्डलाद् बहिरबष्वष्कणमभ्यन्तरप्रवेशनं वा सूर्य-आदित्यश्चारं चरति, चारं चरन् आख्यात इति वदेत् ? एवं भगवता गौतमेन प्रश्ने कृते सति एतद्विषयपरतीर्थिकप्रतिपत्तिमिथ्याभावोपदर्शनाय प्रथमतस्ता एव प्ररूपयति 'तत्थे' त्यादि। तत्र सूर्यविकम्पविषये खल्विमाः सप्त प्रतिपत्तयःपरमतरूपाः प्रज्ञप्ताः। तद्यथ'तत्थेगे' त्यादि, तत्र-तेषां सप्तानांप्रवादिनांमध्ये एकेएवमाहुः-द्वयोजने अर्धाद्वाचत्वारिंशत्वाचत्वारिंशत्तमो येषां ते अर्धद्वाचत्वारिंशतस्तान्सार्द्ध-कचत्वारिंशत्सङ्ख्यानित्यर्थः,त्र्यशीत्यधिकशतभागान् योजनस्य / किमुक्तं भवति?-त्र्यशीत्यधिकशतसंख्यैर्भागः प्रविभक्तस्य योजनस्य सम्बन्धिनोऽर्धाधिकैकचत्वारिंशत्सङ्ख्यान् भागान् एकैकेन रात्रिन्दिवेन विकम्प्य विकम्प्य सूर्यश्चारं घरति। अत्रैवो-पसंहारमाह'एगे एवमाहंसु / एके-पुनर्द्वितीया एवमाहुः--अर्द्ध-तृतीयानि योजनानि एकैकेन रात्रिन्दिवेन विकम्प्य 2 सूर्यश्चारं चरति। अत्राप्युपसंहारः- 'एगे एवमाहंसु' 2 / एके पुनस्तृतीया एवमाहुः-त्रिभागोनानि त्रीणि योजनानि एकैकेन रात्रिन्दिवेन विकम्प्यर सूर्यश्चारं धरति / अत्रोपसंहारः ‘एगे एवमाहसु' 3 / एके पुनश्चतुर्था-स्तीर्थान्तरीया एवमाहुः त्रीणि योजनानि अर्द्धसप्तचत्वारिंशतश्चसार्द्धषट्चत्वारिंशतश्चेत्यर्थः, त्र्यशीत्यधिकशतभागान् योजनस्य एकैकेन रात्रिन्दिवेन विकम्प्य 2 सूर्यश्वारं चरति, अत्रैवोपसंहार-माह- 'एगे एवमाहंसु' 4 : एके पुनः पञ्चमा एवमाहुःअर्द्धचतुर्थानि योजनानिएकैकेनरात्रिन्दिवेन विकम्प्य 2 सूर्यश्वारं चरति। अत्रोपसंहारवाक्यम्- 'एगे एवमाहंसु' 5 / एके पुनः षष्ठास्तीर्थान्तरीया एवमाहुः- चतुर्भागोनानि चत्वारि योजनानि एकैकेन रात्रिन्दिवेन विकम्प्य 2 सूर्यश्चारं चरति। अत्रोपसंहारवाक्यम्- 'एगे एवमाहंसु' 6 / एके पुनः सप्तमा एवमाहु:-चत्वारि योजनानि अर्द्धपञ्चाशतश्चसार्द्वकपञ्चाशत्संख्यांश्च त्र्यशीत्यधिकशतभागान् योजनस्य एकैकेन रात्रिन्दिवेन सूर्यो विकम्प्य 2 चारं चरति। अत्रोपसंहार-वाक्यम् 'एगे एवमाहंसु' / तदेवं मिथ्यारूपाः परप्रत्तिपत्तीरुपदय, सम्प्रति स्वमतं भगवानुपदर्शयति- 'वयं पुण' इत्यादि। वयं पुनरेवं वक्ष्यमाणप्रकारेण केवलज्ञानोपलम्भपुरस्सरं वदामः ! यदुत द्वे द्वे योजने अष्टाचत्वारिंशच्चैकषष्टिभागान् योजनस्य एकैकेन रात्रिन्दिवेन सूर्यो विकम्प्य 2 चारं चरति, चारं चरन् आख्यात इति वदेत् / साम्प्रतमस्यैव वाक्यस्य स्पष्टावगमनिमित्तं प्रश्नसूत्रमुपन्यस्यति-'तत्थ को हेतू इति वएज्जा, तत्रएवंविधवस्तुतत्त्वावगतौ को हेतुः? का उपपत्तिरितिवदेत् भगवान्। एवमुक्ते भगवानाह-'ता अयण्ण' मित्यादि / इदं जम्बूद्वीपवाक्यं पूर्ववत् परि
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________________ विकंपण 1126 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विकंपण पूर्ण पठनीयं व्याख्यानीयं च / 'ता जया ण' मित्यादि / तत्र यदा सूर्यः सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा उत्तमकाष्ठा--प्राप्तः-- परमप्रकर्षप्राप्त उत्कर्षतः-उत्कृष्टोऽष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवति, जघन्या च द्वादशमुहूर्ता रात्रिः / से निक्खममाणे' इत्यादि / ततः सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलान्निष्क्रामन् ससूर्यो नवं संवत्सरमाददानो नवस्य संवत्सरस्य प्रथमेऽहोरात्रे 'अभितराणंतरं ति-सर्वाभ्यन्तरस्य मण्डलस्यानन्तरंबहिर्भूतं द्वितीयं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति, 'ता जया ण' मित्यादि। तत्र यदा तस्मिन्नवसंवत्सर-सत्के प्रथमेऽहोरात्रे सर्वाभ्यन्तरानन्तरं द्वितीयं मण्डलमुपसंक्रम्य सूर्यश्वारं चरति, चारं चरितुमारभते,'तदाण' मिति प्राग्वत्, द्वे योजने अष्टाचत्वारिंशतं च एकषष्टिभागान् योजनस्य एकैकेन रात्रिन्दिवेन पाश्चात्येनाऽहोरात्रेण विकम्प्य चारं चरति। इयमत्र भावना-सर्वाभ्यन्तरेमण्डले प्रविष्टः सन्प्रथमक्षणादूर्ध्व शनैः शनैस्तदनन्तरं द्वितीयमण्डलाभिमुखं तथा कथंचन मण्डलगत्या परिभ्रमतियथा तस्याऽहोरात्रस्य पर्यन्ते सर्वाभ्यन्तरमण्डलगतान् अष्टाचत्वारिंशतमेक षष्टिभागान् योजमस्यापरे च द्वे योजने अतिक्रान्तो भवति, ततो द्वितीयेऽहोरात्रे प्रथमक्षणे एव द्वितीयमण्डल-मुपसम्पन्नो भवति, तत उक्तम्-'तयाणं दो जोयणाई अडयालीसंच एगद्विभागे जोयणस्स एगेणं राइंदिएणं विकंपइत्ता सूरिए चारं चरति तयाण' मित्यादि, तदा सर्वाभ्यन्तरानन्तरद्वितीय-मण्डलचारथरणकाले णमिति पूर्ववत् अष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवति द्वाभ्यां मुहूर्तकषष्टिभागाभ्यामूनः, द्वादशमुहूर्ता रात्रिः द्वाभ्यां मुहूर्तेकषष्टिभागाभ्यामधिका। तस्मिन्नपि द्वितीये मण्डले प्रथमक्षणादूर्ध्व तथा कथञ्चनाऽपितृतीयमण्डलाभिमुखं मण्डलपरिभ्रमणगत्या चारं चरति यथा तस्याहोरात्रस्य पर्यन्ते द्वितीयमण्डलगतानष्टाचत्वारिंशतमेकषष्टिभागान् योजनस्यापरे च तदहिभूते द्वे योजने अतिक्रान्तो भवति, ततो नवसंवत्सरस्य द्वितीयेऽहोरात्रे प्रथमक्षण एव तृतीयं मण्डलमुपसंक्रामति। तथा चाह-'से निक्ख-ममाणे' इत्यादि। स सूर्यो द्वितीयान्मण्डलात् प्रथमक्षणादूर्ध्वं शनैः शनैर्निष्क्रामन्बहिर्मुखं परिमभ्रन् नवसंवत्सरसत्के द्वितीयेऽहो-रात्रे 'अभिंतरतच्चं, ति सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलात्तृतीयमण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा द्वाभ्यां रात्रिन्दिवाभ्यां यावत्प्रमाणं क्षेत्रं विकम्प्य चारं चरति, तावन्निरूपयितुमाह-'ताजयाण' मित्यादितत्र यदा सूर्यः सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलात्तृतीयं मण्डल मुपसंक्रम्य चारं चरति, तदाद्वाभ्यां रात्रिन्दिवाभ्यां सर्वाभ्यन्तरमण्डलगततदनन्तरद्वितीयमण्डलगताभ्यां पञ्चयोजनानि पञ्चत्रिंशतं च एकषष्टिभागान् योजनस्य विकम्प्य, तथाहि-एकेनाप्यहोरात्रेण द्वे योजने अष्टाचत्वारिंशच्च योजनस्यैकषष्टिभागा विकम्पिता द्वितीयेनाप्यहोरात्रेण / तत उभयमीलने यथोक्तं विकम्पपरिमाणं भवति एतावन्मात्रं विकम्प्य चारं चरति। 'तया ण' मित्यादि, रात्रिन्दिवपरिमाणं सुगमम्। सम्प्रति शेषमण्डलेषु गमनमाह-एवं खलुं, इत्यादि, एवमुक्तेन प्रकारेण खलु-निश्चितमेतेनोपायेन तत्तन्मण्डलप्रवेशप्रथमक्षणादूर्ध्व शनैः शनैस्तत्तदहिभूतमण्डलाभिमुखगमनरूपेण तस्मात्तन्मण्डलान्निष्क्रामन् तदनन्तरान् मण्डलात्तदनन्तरं मण्डलं संक्रामन् 2 एकैकेन रात्रिन्द्रिवेन द्वे द्वे योजने अष्टाचत्वारिंशतं चैकषष्टिभागान् योजनस्य निष्कम्पयन् 2 प्रथमषण्मासपर्यवसानभूते त्र्यशीत्यधिकशततमे अहोरात्रे सर्वबाह्य मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति। 'ता जयाण' मित्यादि, सुगमम्। 'तया ण' मित्यादि, तदा सर्वाभ्यन्तरं मण्डलं प्रणिधाय-अवधीकृत्य तत्तद्गतमहोरात्रमादि कृत्वा इत्यर्थः, त्र्यशीतेन-त्र्यशीत्यधिकेन रात्रिन्दिवशतेन पञ्चदशोत्तराणि योजनशतानि विकम्प्य, तथाहि-एकैकस्मिन्नहोरात्रेद्वेद्वेयोजने अष्टचत्वारिंशतंचैकषष्टिभागान्योजनस्य विकम्पयति, ततो द्वे द्वे योजनेत्र्यशीत्यधिकेन शतेन गुण्येते, जातानि त्रीणि शतानि षट्षष्ट्यधिकानि 366 येऽपि चाष्टाचत्वारिंशदेकषष्टिभागास्तेऽपि त्र्यशीत्यधिकेनशतेन गुण्यन्ते, जातानि सप्ताशीतिशतानि चतुरशीत्यधिकानि 8784, तेषां योजनानयनार्थमेकषष्ट्या भागो ह्रियते, लब्धं चतुश्चत्वारिंशं योजनशतम् 144, एतत्पूर्वस्मिन् योजनराशौ प्रक्षिप्यते, जातानि पञ्च शतानि दशोत्तराणि 510, एतावत्प्रमाणं विकम्प्य चारं चरति / 'तया ण' मित्यादि, रात्रिन्दिवपरिमाणं सुगमम्, सर्वबाह्ये च मण्डले प्रविष्टः सन् प्रथमक्षणादूर्ध्वं शनैः शनैरभ्यन्तरसर्वबाह्यानन्तरद्वितीयमण्डलाभिमुखं तथा कथंचनापि मण्डलगत्या परिभ्रमति येन प्रथमषण्मासपर्यवसानभूताहोरात्रपर्यवसाने सर्वबाह्यमण्डलगतानष्टाचत्वारिंशतमेकषष्टिभागान् योजनस्यापरे च द्वेयोजने अतिक्रम्य सर्वबाह्यानन्तरद्वि-तीयमण्डसीमायां वर्तते, ततोऽनन्तरे द्वितीयस्य षण्मासस्य प्रथमेऽहोरात्रे प्रथमक्षणे सर्वबाह्यानन्तरं द्वितीयमभ्यन्तरं मण्डलं प्रविशति, तथा चाह- 'से पविसमाणे' इत्यादि, स सूर्यः सर्वबाह्यान्मण्डलादुक्तप्रकारेणाभ्यन्तरं प्रविशन् द्वितीयषण्मासस्य प्रथमेऽहोरात्रे 'बाहिराणंतरं' ति सर्वबाह्यस्य मण्डलस्याभ्यन्तरं द्वितीयमनन्तरमण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति, 'ता जया ण' मित्यादि, 'ता' इति-तत्र यदा सूर्यो बाह्यानन्तरंसर्वबाह्यमण्डलानन्तरं द्वितीयं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा एकेन रात्रिंदिवेन सर्वबाह्यमण्डलगतेन प्रथमषण्मासपर्यवसानभूतेन व योजने अष्टाचत्वारिंशतं च एकषष्टिभागान योजनस्य विकम्प्य, एतच्चानन्तरमेव भावितं, चारं चरति-चारं प्रतिपद्यते। 'तया ण मित्यादि, रात्रिन्दिवपरिमाणं सुगमम्। 'से पविसमाणे' इत्यादि। स सूर्यः सर्वबाह्यानन्तराभ्यन्तरद्वितीयमण्डलादपि प्रथमक्षणादूर्ध्वं शनैः शनैरभ्यन्तरं प्रविशन् द्वितीयस्य षण्मासस्य द्वितीयेऽहोरात्रे 'बाहिरतच्च' ति सर्वबाह्यस्य मण्डलस्याभ्यन्तरं तृतीयमण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति, 'ताजयाण' मित्यादि, तत्र यदा सूर्यः सर्वबाह्यान्मण्डलादभ्यन्तरं तृतीयमण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा द्वाभ्यां रात्रिन्दिवाभ्यां सर्वबाह्यमण्डलगतसर्वबाह्यानन्तरद्वितीयमण्डलगताभ्यां पञ्चयोज
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________________ विकंपण 1127 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विकप्प नानि पञ्चत्रिंशतं चैकषष्टिभागान् योजनस्य विकम्प्य तथा एकेनाप्यहोरात्रेण प्रथमषण्मासपर्यवसानभूतेन द्वे योजने अष्टाचत्वारिंशतं चैकषष्टिभागान् योजनस्य विकम्पयति। द्वितीयेनाप्यहोरात्रेण द्वितीयषण्मासप्रथमेन, तत उभयमीलने यथोक्तं विकम्पपरिमाणं भवति। 'तया ण' मित्यादि, रात्रिन्दिवपरिमाणंसुगमम्। एवं खलुएएण उवाएणं पविसमाणे' इत्यादिसूत्रं प्रागुक्तसूत्रानुसारेण स्वयं परिभावनीयम्। सू०प्र०१ पाहु०। ('चंदमंडल' शब्दे तृतीयभागे 1076 पृष्ठे विकम्पक्षेत्रमुक्तम्।) विकंपमाण-त्रि०(विकम्पमान) चलति, सूत्र०१ श्रु०१४अ) विकट्टिय-त्रि०(विकर्तित) पाटिते, तं०। विकडुभ-न०(विकडुभ) विदारिते, शालनके, सूत्र०१ श्रु०५ अ०२ उ०ा बृ०॥ विकट्ठ-न०(विकृष्ट) दूरे, ज्ञा०१ श्रु० 1 अ०। विपरीतकर्षणे, प्रश्न०१ आश्र० द्वार। विकत्त-त्रि०(विकिरत्) अन्नादिविकिरति, उत्त० 20 अ०1 विकत्थण-न०(विकत्थन) श्लाघने, व्य०६उकास्था०ा आचा० विकल्प-पुं०(विकल्प) भेदे, विशे० प्रकारे, अनु०। स्था०। प्रश्न०। आ०चूला "विकप्पो त्ति वा पगारो त्ति वा एकट्ठा" मनोविशेषे, विमर्श, विकल्पो व्याहति जना व्यभिचार इत्येकार्थाः / विशेष स्था०। एत्तो तु समासेणं, वोच्छामि विकप्पमहुणा तु // अतिरेगं परिकम्मण, तह भंदुप्पायणाय बोधव्वा। एमादिविकप्पो तु, तत्थऽतिरेगं इमं होति / / एगेण अलेवकडं, कप्पो संघाडलेवगपकप्पो। तिप्पमिदं तु विकप्पो, मत्तगभोगो यऽणहाए / पादेगेण अलेवं, गिण्हे जिणकप्पिया तु सो कप्पो। द्वारथेराण दोन्नि पादा, संघाडेणं च हिंडंति॥ तत्थेगपडिग्गहए, भत्तं लेवाडगम्मि हेण्हंति। एगत्थ दवं मत्तग, दोण्हं पी तिरित्तगपकप्यो॥ द्वारतिप्पमिति हिंडंती, णिक्कारणमत्तएसु वा गेण्हे। सो होति विकप्पो जइ, तत्थ य सोही इमो होति। जदि भोपॅणमावहती, तति मासा जति दिणा तु आणाती। तावइया चउमासा, बितिया आरोवणा भणिया। समणीण तिण्ह कप्पो, चउपंचण्डै भणितो पकप्पो तु। तेण परेण विकप्पो, एत्तो उवहिं तु वोच्छामि। तिहि तु भणिता कप्पा, अतरंताऽधिपतिणो य कप्पविही। उप्पायगवजाणं, तिहाणाऽऽरोवणा भणिता। गणणाएँ पमाणेण य, उ विहियमाणं दुहा मुणेयध्वं / गणणाऐं जिणाणं तू, एको दोहि विवा कप्पो।। दो रयणी संडासी; इत्थीओ वाऽवि होति आयामे। रुंदादिवट्टहत्थं, एयपमाणप्पमाणं तु॥ दो खोम्मि उहि एको, थेराणं तिहि होति गणणाए आयामाण पमाणा, दुहत्थ अद्धं च वित्थिण्हा।। एसो कप्पो, तु हवे पकप्पो तु गिलाणए गुरूणं वा। चतुसत्तवाविया उण, माणऽतिरित्तं च वारेजा। कारणें पकप्पो होती, विकप्पोंणिकारणे मुणेयव्वो। उप्पायणगों पवित्ती, सो वतिरेग धरेजाहि॥ गणणाएँ पमाणेण व, गच्छहाए तु तं पमोत्तूणं / जो अण्हो अतिरेगं, धरेति सोधी तु तस्स इमा / / चाउम्मासुझोसे, मासियमज्झे य पंच य जहण्णे। तिविहम्मि वि उवहिम्मि, अतिरेगारोवणा भणिता॥ अतिरेगउवहिदारं, संखेवेणोदितं अह हयाणिं / दारंपरिकम्मदारवोच्छं, अपरिकम्मो जिणाऽणुबंधी तु॥ कारणविही पकप्पो, थेराणं अविहिए विकप्पो उ। परिकम्मणा उ एसा, भंदुप्पायं अतो वोच्छं। गाहट्ठ गहण , जहसंखेणिमो लु णायव्वो। पुरिसें पडिमा उवत्ती, तिण्हि तिगा भावसुद्धाई / / गाहगों गीयत्था खलु, पुरिसो नियमेण होति णायव्यो। दारं-- उद्विमादियाहिं, गहणं पडिमाउ होति य मणित्तुं / / दारंघेत्तय्वो उवही खलु, तिण्हित्ता हार उवहिसेजत्ति। तिण्हि वि तिविसुद्धाइं, उग्गममादीहि नियमेणं // एगेण चेव गहणं, कप्पो दोहिं भवे पकप्पो तु। तिप्पमितिं तु विकप्पो, भत्ते पाणे तहा उवही॥ आदितिएण तु गहणं, बितियट्ठाणम्मि अन्मणुण्हातं / हंदि परिरक्खणिज्जो, सुहाकरो सवसाहूणं // आदि त्ति होति कप्पो, तिगंति आहारउवहिसेजाओ। गहणं तु होति तिविहं, उग्गममादी तिगविसुद्धं // बितियट्ठाणपकप्पो, तत्थ वि वा सुद्धेमेव घेत्तव्यं / असती य अणुण्णातं, पणिहाणीए असुद्धपि॥ केण पुण कारणेणं, गच्छे ऽसुद्धं पि उग्गमादीहिं। घेप्पति भण्णति सुणसू, कारणमिण सो समासेणं / / रयणाकरो व्व जम्हा, उ आगारो होति सध्वसोक्खाणं / णाणादीण य पभवो, ततो पभोक्खे तु तो रक्खे / / आइण्हता महाणो, कालो विसमो सपक्खओ दोसो। आदितिगभंगगेणं, गहणं भणितं पकप्पम्मि॥ तियतिकंतपमाणे, अणुवासो चेव कारणणिमित्तं /
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________________ विकप्प 1128 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विकहा परिकम्मणपरिहरणे, उवही अतिरित्तगपमाणे। हंतुप्पायणे त्ति दारं। तत्थ गाहा-गाहओतत्र ग्राहको ग्रहणं ग्रहीत-व्यमिति गच्छो सबालवुड्डो, गिलाणसेहादिएहि आदिण्हे / / पुरुषग्राहकग्रहणं प्रतिमाग्रहीतव्युपधी / तिन्नि य त्ति ति--नि ता वा एसोवमहाणे तू, तस्स दुल्लमं तिगबिसद्ध / आहारोवहिसेज त्ति / ताणि तिहिं वि सुद्धाणि उग्गमाइ-सुद्धाणि पुरिसे दारं त्तिएगो कप्पे ठिओ गेण्हइ। बिइओ नामपकप्पो।तत्थ दो जणा गेण्हति / कालो विसमा दुन्मि-क्खमादिदोसा सपक्खओ उ इमे॥ तहेव कप्पो तत्थ तिप्पभिइ बहवो वि गेण्हंति / किं चतं घेप्पइ भत्तपाणसेज्जोवहिआइ विकप्पो त्ति। कप्प-पकप्प-विकप्पो। तत्थाइ वासात्थदी बहवे, ओमाणंतो तओ होति। जिणकप्पो / तत्थ नियमं एकेण गहणं उग्गमुप्पायणेसणाए सुद्धं / अहव असंविग्गा वी, जह महुरा कोंटइलगा केइ। बिइयवाणं नाम-पकप्पो / तत्थ निकारणे तिहि वि उम्गमाईहिं सुद्धं / मायाएँ उड्वमंती, सडा अवि गोऽवि ण विजाणे। आहाराइगहण कारणे राग-दोसविप्पमुक्कस्स असुद्धं पि अणुण्हायं / एतेहि कारणेहिं, अलभेयाइ तिण्ण गहणं तु // एतदुक्तं भवति-तिण्हि तिका भावओ सुद्धा। किं कारणं ? आइकप्पआदितिगमुग्गमादी, भंगो तू भंसणा होति। ट्ठियस्स उग्गमाइसु-कस्स गहणं गच्छे य असुद्धमवि घेप्पइ। हेवत्स ! कारणतो तिविहं पी, मागं तूऽतिकमेजउ कदादी। गच्छो परिरक्खणिज्जो सबालबुड्डाउलो जम्हा सव्वसोक्खकरो किं पुण तिविहं माणं, भण्हति इणमो निसामेह। जिणकप्पाईणतओ निप्फत्ती रयणागरदिटुंतसामत्था। केण पुण कारणेणं भवती व माणमाणं, खेत्तपमाणं च कालमाणं च // गच्छे उग्ग-माइअसुद्धं पिघेप्पइ? उच्यते-आकिण्णया महायणो गाहाएवं तिविहपमाणं, अतिक्कमो तेसिमो होति। जहा आकिण्णदोसा सपक्खाइ महायणोय साहूण एगत्थ अच्छंति, जइ एगो वा दो वा अइंति तेसिं सुलभा भिक्खाई, कालो य दुभिक्खाअतिरेगपमाणेणं, तिण्ह परेणं पिणाम गेण्हेज्जा॥ इविसमो सपक्खदोसाइ असंविग्गा वि। महुराए कोंटइल्ल य दिढतो। खेत्तओऽतिक्कमों तु, परतो वि दुगाउ या मग्गे। जहा-उग्गति अविकोविया य सावगा नयाणेति ताहे ओमाण-दोसेण कालपमाणातिक्कम-कुज्जा पाउरणगैं अकालेणं॥ साहू ण लहंति आहाराइ, ताहे आइतियभंगो नाम उग्गमा इगाणं दारं अइझमंति। किं पुणतं तिविहं? पमाणाइक्वंतं खेत्ताइक्वंतं कालाइक्वंतं। वसती कालातीतं, असिवादणुवासणं एयं। पमाणाइछतं आयप्पमाणओ अइरेग पि गिण्हेजा, गणणाए तिण्ह कप्पाणं दारं अइरेगं पिगेण्हेज्जा / खेत्तपमाणाइक्कतं अद्धजोयणस्स परेण विगेण्हेजा। परिकम्मणमविहीए, पलियट्ठा दुब्बलम्मि कुज्जाहि। कालाइकंतं अणुवासं उवइयं अणुवसइ। अणुवासो-मासं वासावासंवा दुल्लभलंभे सीते ण अदिओ उणियं पंतो॥ अच्छिओ पुणो वि तत्थेव अच्छइ। असिवाइसु कारणेसु परिकमणे त्ति अतिरित्तपमाणं वा, वारिजति कारणेहिँ एएहिं। अविहीए परिकमणं पि करेजा। पालिओगोउ त्ति अविहीए परिक्कमेजा। सो सव्वो तु पकप्पो, निक्कारणतो विकप्पो तु / / अंतो कंबलिं करेजा। अइरेगपमाणं पि धरेजा। परिहरण त्ति असंथरंतो अंतो उणियं पि करेजा। सीयाभिभूओ एवमाइयकारणे वितहं करेंति। पं०भा०३ कप्पन सो वि सव्वो विकप्पो। पं० चू०३ कल्प। अंशे, आ०म०१ अ०। इयाणिं विकप्पो-तत्र गाहा अइरेग अपडिकम्मे जिणकप्पियस्सताव विकप्पण-न०(विकल्पन) छेदने, प्रश्न०१ आश्र० द्वार। एगेण पाएण अलेवाडं गेण्हतस्स कप्पो भवति। पकप्पिओ नामदोण्ह वि विकप्पणत्थ-पुं०(विकल्पनार्थ) भेदकथनार्थे, आ० चू०१ अ०) हिंडताणं एगपडिग्गहे कूर, एगपडिग्गहे पाणयं, गेलण्हयारित्ता पकप्पो चेव / अह मत्तएसु गेण्हंति भत्तं पाणं वा निकारणे ताहे विकप्पो। विकप्पणा-स्त्री०(विकल्पना) अर्थभेदोपदर्शने, विशे०। विकप्पसो-अव्य०(विकल्पशस्) अनेकप्रकारे, व्य०१० उ०। आरोवणा-से जइ भोयणमावहइ चउलहुयाइ, अट्ठमे दिवसे पारंचिओ। एयं पाए वत्थे वा जिणाणं कप्पमाणाणं संडासओ सोथिओ वा गणणाए विकप्पिय-त्रि०(विकल्पित) उत्प्रेक्षिते, प्रव०२ द्वार। एगो दो तिण्णि वा। थेराण गणणा वि तिण्णि कप्पा / पमाणप्पमाणेण विकरण-न०(विकरण) विविधमनेकप्रकारं करणं खण्डनं यस्य आयप्पमाणा एस कप्पो / विगप्पो पुण गाहा–तिण्णि य भणिया। तद्विकरणम्। लिङ्ग विवेके, बृ०४ उ०। असंथरंतस्स वा अण्णस्स वा बालवुड्डाइ चत्तारि सत्त वा पाउणेजा। विकराल-त्रि०(विकराल) भीमे, स्था०६ ठा०३ उ०॥ गणणप्पमाणेण पमाणप्पमाणे उप्पायगो नाम पवत्ती तस्स बहुगा विकप्पा विकल-त्रि०(विकल) असम्पूर्णे , भ०७ श०६ उ० भवन्ति। सेसाणमइरेगमणट्ठा / एए धरैताण उवहिनिप्फण्णं पायच्छित्तं विकलाएस-पुं०(विकलादेश) नयवाक्ये, स्था०२ ठा०२ उ०। चाउम्मासुक्कोसे। परिकमेत्ति दारं। अपरिकम्माणं जिणाणं उवही थेराण विकसिय-त्रि०(विकसित) फुल्ले, अनु०। आ०म०| विही / परिकम्मिओ जइ तो पकप्पो / अविहिपरिकम्मिए विकप्पो। | विकहा-स्त्री० (विकथा) विरुद्धा संयमबाधकत्वेन कथा व
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________________ विकहा 1126 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विकहा चनपद्धतिर्विकथा। स्था०४ ठा०२ उ०। अनिष्टायाम्, (आव० 40) पैशून्यापादिन्यां वा कथायाम, सूत्र०१ श्रु०२ अ०२ उ०। विकथाःचत्तारि विकहाओ पण्णत्ताओ,तं जहा-इत्थिकहा, भत्तकहा, देसकहा रायकहा। (सू० 282) स्था०४ ठा०२ उ०। संथा०। ध०। प्रश्न०। ग०। (स्त्रीकथाद्याः स्वस्वस्थाने।) विकथाः-- सत्त विकहाओ, पण्णत्ताओ, तं जहा-इत्थिकहा भत्तकहा देसकहा रायकहा मिउकालणिया दंसणभेयणी चरित्तभेयणी। (सू०-५६९) स्था०७ ठा०३ उ०। आव०॥ दर्श० गाजीत०। विकथासु प्रायश्चित्तम्एवं तु अइकमिज्जाणं गोयमा! किंचूणगं दिवडवडिगं पुव्वण्हिगस्स णं पढमजामस्स एयावसरम्मि उ गोयमा ! जे णं भिक्खू गुरूणं पुरओ विहीए सज्झायं संदिसाविऊणं एगग्ग-चित्तेसु जाओ ते दद धिइए घडिगूणपढमपोरिसिं जावजीवाभिग्गहेणं अणुदियहं अपुव्वनाणगहणं न करेजा, तस्स दुवालसमं पच्छित्तं निद्विसेजा। अपुष्वनाणाहिजनाणस्स असई जमेव पुथ्वाहिज्जयं / तं सुत्तत्थोभयमणुसरमाणो एगग्गमाणसेण परावत्तेज्जा, भत्तित्थीरायतकरजणवयाइविचित्तविगहासुण अभिरमेज्जा अवंदणिजा। जेसिं च णं पुय्वाहीयं सुत्तं ण छेदे अपुष्वनाणगहणस्स णं असंभवो वा ते सिमविघडिगणपढमपोरिसी पंचमंगलं पुणोरपरावत्तियं / अहा णं णो परावत्तिया विग्गहं कुब्विया वा निसामिया वा से णं अवंदे। एवं घडिगूणगाए पढमपोरिसीए जे णं भिक्खू एगम्गचित्तो सज्झायं काऊणं तओ पत्तगमत्तगकमढाई मंडोवगरणस्सणं अवेक्खताउ तो विहीए पच्चुप्पण्णं ण करेजा तस्स णं चउत्थं पच्छित्तं निहिसेजा। भिक्खू सदोसपच्छित्तसद्दोस इमे सवत्थपइएयं जोजणीए जइ णं तं भंडोवगरणं ण मुंजीय अहा णं परिमुंजे दुवालसं एवं अइकता पढमपोरिसी। बीयपोरिसीए अत्थग्गहणंन करेजा पुरिमडं, जइणं वक्खाणस्स णं अभावो अहाणं वक्खाणं तत्थेवतंण सुणेज्जा अवंदे, वक्खाणस्स संभवे कालवेलं जाव वा-यणाइसज्झायं न करेजा दुवालसं, एवं एत्ताए कालवेलाएजं किंचि अइयाराइ यदेवसियाइयारे निदिए गरहिए आलोइय-पडिकंते जं किंचि कागं वा वाइगं वा माणसिगं वा उस्सुत्तायरणेण वा उम्मग्गायरणेण वा अकप्पासेवणेण वा अकरणिजसमायरणेण वा दुजाएण वा दुविचिंतिएण वा अणायारसमायरणेण वा अणिच्छियव्वसमायरणेण वा / असमणपाउमग्गसमायरणेण वा नाणे दंसणे चरित्ते सुसामाइए तिण्हं गुत्तियादीणं चउण्हं कसायादीणं पंचण्हं अणुव्वयाणं छण्हं जीवनिकायाणं सत्तण्डं पाणेसणमाईणं सत्तण्हं पिंडेसणमाईणं अट्टण्हं पवयणमाईणं नवण्हं बंभचेरगुत्तीणं दसविहसमणधम्मस्स एवं तु०जावणं पमाइअणेगालोवगमाईणं खंडणविराहणे वा आगमकुसलेहिं णं गुरूहिं पायच्छित्तमुवइ तं निमित्तेणं जहासत्तीए अणगूहि-यबलवीरियपुरिसयारपरकमे असढत्ताए अहीणमाणसे अणसणाइ सव्वन्भंतर दुबालसविहं तवोकम्मं गुरूणमंतिए पुणरवि णिमुकिऊणं सुपरिफुडं काऊण तह त्ति अभिनंदित्ता णं खंडखंडी विभत्तं वा एगपिंडट्ठियं वाणं समणुचिडेजा से णं अवंदे। से भवयं / केणं अद्वेणं खंडखंडीए काउंसमणुचिट्टेखा? गोयमा ! जे णं भिक्खू संवच्छरद्धचाउम्मासखमणं वा एक्को लग्गं काऊणं न सकुणोइ तेणं छट्ठट्ठमदसमदुबालसद्धमासखमणेहि णं तं पायच्छित्तं अणुपवेसेइ, अन्नमवि जं किंचि पायछित्ताणुयं एतेणं अटेणं खंडखंडीए समणुचिट्ठेजा। एवं तु मसोगाढं किंचूणं पुरिमडं एयावसरम्मि (महा०) ('जे णं पडिक्कमंते वा' इत्यादि 'पडिक्कमण' शब्दे पंचमभागे 317 पृष्ठे गतम्।) वंदतेइ वा सज्झायं करतेइ वा परिभमितेइ वा संवरंतेइ वा मएइ (तपःकर्मविषयः 'तव' शब्दे चतुर्थभागे 2204 पृष्ठे गतम् / ) तमेव बीयदियहे उवहिसेज्जा जेसिं च णं वंदंताण वा पडिकमंताण वा दीहं वा मजारं वा छिंदिऊणं गयं हवेजा तेसिं च णं लोयकरणं अन्नत्थ गमंताणं उग्गं तवाभिरमणं एयाइ ण कुणंति तओ गच्छं वजे, जेणं तुम महोवसग्गमाहणगं उप्पायगं दुन्निमित्तममंगलावह हविया / जे णे पढमपोरिसीए वा बीयपोरिसीए वा चंकमणियाए परिसकरेजा अगालसन्निए वा छढेि करेइ वा से णं जइचउविहेणं ण संवरेजा तओ छ8 दिया थंडिलेहिं एगओसन्नं वोसिरिजा समाहीए वा एगासणं गिलाणस्स अन्नेसिंतु छट्ठमेव। जइणं दिया ण थंडिलं पच्चुपेहियं णो णं समाहि-संजमिया अपच्चुप्पेहिए थंडिले बहिया चेव समाहीए रयणीए मत्तं वा काइयं वा वोसिरिजा। एगासणं गिलाणस्स सेसाणे दुबालसं / अहाणं गिलाण मिच्चुकडं वा एवं पढमपोरिसीए, बीयपोरिसीए सुत्ता
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________________ विकहा 1130- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विक्खभ मोत्तूणं जे णं इत्थीकहं वा भत्तकहं वा देसकहं वा रायकहंवा | तद्विपरीतोऽगीतार्थः / व्य०१ उ०। तेणकहं वा गोरच्छियकहं वा अन्नं असंबद्धं वा रोहट्टज्झाणो- | विकोस-त्रि०(विकोश) विकाशिते, विशेष अपनीतकोशके निरावरणे, दीरणकहं पत्थावेजा उदीरेजा वा कहेज वा काहावेज्जा वा से ज्ञा०१ श्रु०८ अ० णं संवच्छरं जाव अवंदे। अहा णं पढमबीइपोरिसीए जइणं विकोसायंत-त्रि०(विकोशायमान) विगतकोशीकृते, तं० कहाइ महया कारणवसेणं अट्ठघडिगंवा सज्झायं न कयं तत्थ विकंत-त्रि०(विक्रान्त) परकीयभूमण्डलाक्रमणसमर्थे , कल्प०१ अधि० मिच्चुकमडं गिलाणस्स अन्नेसिं निट्विगइयं / महा०१०।। ३क्षण / भला त्रयश्चत्वारिंशे ऋषभदेवपुत्रे, कल्प० १अधि०७ क्षण। विकहाविहीण-त्रि०(विकथाविहीन) विकथया-भक्तकथादिरूपया विकंति-स्त्री०(विक्रान्ति) विक्रमे, ज्ञा०१ श्रु०१६अ। विशेषेण हस्तसंज्ञादेरपि परिहारेण-हीनास्त्यक्ताः। त्यक्तविकथादिकेषु विकम-पुं०(विक्रम) पराक्रमे,तं०। औ० पौरुषे, औ०। हरितिलबृ०३ उ०। कराजसुते, तं०। विकाल-पुं०(विकाल) विगतः सन्ध्याकालोऽत्रेति विकालः बृ० 1303 | विक्कमपुर-न०(विक्रमपुर) विक्रमनगरे, (बीकानेर)"चोलदेसावयंसो प्रक० दिनभिन्नेऽहोरात्रभागे, बृ० १३०३प्रक०। चोरपारदारिकादयो कामाण य नयरे विक्कमपुरवत्थव्वपहू जिणवइसूरी चुल्लपिऊसाहुमाणविरमन्त्यत्रेति / बृ० 1 उ०३प्रक०! संध्याकाले, बृ०१ उ०३ प्रक०। देवो' ती०२० कल्प। केषांचिदाचार्याणां दिवसलक्षणकालविगमात्संध्या विकालः / बृ० विकमवच्छर-पुं०(विक्रमवत्सर) वीरमोक्षात् 470 वर्षे प्रवृत्ते उ०३प्रका विक्रमादित्यशके, अंग०। विकालग-पुं०(विकालक) स्वनामख्याते द्वितीये महाग्रहे, कल्प०१ | विक्कमसागर-पुं०(विक्रमसागर) जयपुरनगरराजस्य विक्रमसेनस्य पुत्रे, अधि०७ क्षण ! ('महाग्गह' शब्दे 5 भागे विशेषो गत) दर्श०३ तत्त्व। विकासर-त्रि०(विकस्वर) "लुप्त-य-र-व-श-ष-सां शषसां दीर्घः" | विक्कमसिंह-पुं०(विक्रमसिंह)"किइकम्म' शब्दे उदाहृतेशृङ्गारमञ्जरी६/१।४३॥ इति मध्यदीर्घः। विकासनशीले, प्रा०१ पादा पतौ, प्रव०२ द्वार। विकिइ-स्त्री०(विकृति) अन्यथाभावे, विशेo! विकमसूरि-पुं०(विक्रमसूरि) चान्द्रकुले देवानन्दसूरिशिष्ये, ग०२ अधि०। विकिंचणा-स्त्री०(विवेचना) उद्वरितभक्तपानादिपरिष्ठाप निकायाम, बृ०१ विकमसेण-पुं०(विक्रमसेन) भारतवर्षे जयपुरनगरराजे, दर्श० 3 तत्त्व। उ०३ प्रक० विकमाइच-पुं०(विक्रमादित्य) संवत्सरप्रवर्तके उज्जयिनीराजे, ती०४५ विकिण्ण-त्रि०(विकीर्ण) विक्षिप्ते, प्रश्न० 3 आश्र० द्वार। कल्प। (पञ्चदण्डग्रन्थात्तत्कथावगन्तव्या "कुटुंबेसर" शब्देतृतीयभागे विकिण्णाभरण-न०(विकीर्णाभरण) विक्षिप्तालंकारे, प्रश्न०३ आश्र० | 576 पृष्ठे तत्सम्यक्त्वग्रहणमुक्तम्।) द्वार। विजय-पुं०(विक्रय) मूल्येनान्येषां वस्त्रपात्रादिकार्पणे, ग०। ''जत्थ य विकिरण-न०(विकिरण) विक्षेपे, ज्ञा०१ श्रु०८ अ० विनश्वरत्वे, तं०। मुणिणो कयविक्कयाइँ कुव्वंति संजमट्ठाए। तंगच्छंगुणसायर! विसं व दूर विकिरिज्जमाण-त्रि०(विकीर्यमाण) इतस्ततो विक्षिप्यमाणे, जी०३ परिहरेज्जा'' ||1|| ग०२ अघि प्रति०४ अधि विकव-पुं०(विक्लव) "सर्वत्र ल-व-राम (द) चन्द्रे' ||8|276 / / इति लस्य लुक् / विकलतायाम्,प्रा०२ पाद। विकिरिया-स्त्री०(विक्रिया) विविधायां-विशिष्टायां क्रियायाम, स्था० विकवया-स्त्री०(विक्लवता) तच्छेकातिरेकेणाहारादिष्वप्यनपेक्षतायाम्। 5 ठा०२ उ०। "विविहाय य विसिट्ठा य किरिया वि-किरिया।" अनु०॥ दश०६अ। विडुव्वमाण-त्रि०(विकुर्वमाण) वैक्रियं कुर्वति, स्था०३ ठा०१ उ०। विकायमाण-त्रि०(विक्रीयमाण) आपणे मूल्येन गृह्यमाणे, "विक्कायमाणं विकुस-पुं०(विकुश) वल्वजादिषु तृणविशेषेषु, भ०६ श०७301 औ०। पसद रएण परिफासियं" दश०१अ०५ उ०॥ ध०। ज्ञा० राम विकिण-धा०(वि-क्री) मूल्यं गृहीत्वा वस्तुदाने, "क्रियः किणो वस्तु क्के विकोय-त्रि०(विकोच) फुल्ले, विशे० च"||४।५।। इति क्रीणावेर्वे : परस्य द्विरुक्तः कः चकारात् विकोवण-न०(विकोपन) प्रकोपने, झटितितत्तदर्थतया प्रसरीभवने, पिं०। किणश्चादेशः। विक्किणइ / प्रा०1"स्वरादनतो वा" ||8/4/240 / / इति विकोविय-पुं०(विकोविद) गीतार्थे , परिणामके, व्या अन्तेऽकारागमः / विकेअइ। विक्रीणाति / प्रा०४ पाद। गीतो विकोवितो खलु, कयपच्छित्तो सिया अगीतोऽवि। विक्खंभ-पुं० (विष्कम्भ) उन्माने, ज्ञा० 1 श्रु० 3 अ० / गीतो-गीतार्थःखलु कृतप्रायश्चित्तो विकोविदः। योऽप्युक्तो यथा आर्य ! | पूर्वोत्तरायत्ततया विस्तारे, स्था० 5 ठा० 3 उ० / पृथुत्वे, स्था० यदीदं भूयः सेविष्यसे तच्छेदं मूलं वा दास्यामः सोऽपि विकोविदः, / 10 ठा० 3 उ० / सू० प्र० / “विक्खंभायामसुप्पमाणे" विष्कम्भे
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________________ विक्खंभ ११३१-अभिधानराजेन्द्रः- भाग 6 विक्खेवणविणय नायामेन शोभनमौचित्यानतिवर्ति प्रमाणं यस्य स विष्कम्भायामसुप्रमाणः / रा० / विस्तरे, "विक्खंभो वित्थरो य परिणाहो।" पाइ० ना० 168 गाथा। विक्खंभण-न०(विष्कम्भन) यथाशक्तिनिरोधे, षो०५ विव०। विक्खंभसूइ-स्त्री०(विष्कम्भसूचि) विस्तरश्रेणौ, अनु०॥ विक्खमाण-त्रि०(वीक्षमाण) विविधं दिक्षु पश्यति, ध०३ अधिo विक्खरण-न०(विकिरण) इतस्ततो विक्षेपणे, बृ०२ उ०। उपा०। विक्खरिजमाण-त्रि०(विकीर्यमाण) इतस्ततो विप्रकीर्यमाणे, रा०॥ विक्खाअ-त्रि०(विख्यात) प्रसिद्धे, "विक्खाओ विस्सुओ पयडो''। | पाइ० ना० 105 गाथा। विक्खाय-त्रि०(विख्यात) प्रसिद्धे, संघा०१ अधि०१प्रस्ता०ा "इक्खागरायवसभो, कुन्थुनाम नरेसरो। विक्खायकित्ती भयवं, पत्तो गइमणुतरं // 40 // " उत्त०१८ अ०॥ विक्खिण्ण-त्रि०(विकीर्ण) प्रसारिते, भ०१४ श०१ उ०) विक्खित्त-त्रि०(विक्षिप्त) आकृष्टे, प्रश्न०१आश्रद्वार। आव०ा विक्षिप्तानि | नामत एव धान्यराशयोऽभिन्नाः परमेकतः संबद्धाः। बृ०२ उ०। *व्याक्षिप्त-त्रि०अनेकभविकलोकसंकुलायांसभायां देशनाकरणादिना व्याकुले, प्रव०२ द्वार। विक्खित्तय-त्रि०(विक्षिप्तक) विक्षिप्ते, "विक्खित्तयं पइण्णं' पाइ० ना० 186 गाथा। विक्खित्ता-स्त्री०(विक्षिप्ता) प्रतिलेखितस्य वस्त्रस्य अप्रतिलिखितवस्त्रोपरिमोचने यवनिकादौ वा प्रक्षेपणे, वस्त्राञ्चलादीनामूज़ क्षेपणे, स्था०६ठा०३ उ० इय सप्रमादा प्रतिलेखना षष्ठी त्याज्या। उत्त०२६ अ०। 'विक्खित्त त्ति भण्यते' तत्राह-- "विक्खेवं तु विक्खेवो' विक्षेपां तुतां विद्धि यत्र वस्त्रस्यान्यत्र क्षेपणम् / एतदुक्तं भवति-प्रतिलेखयित्वा वस्त्रमन्यत्र जवनिकादौ क्षिपति। अथवा-विक्षेपो वस्त्राश्चलानामूर्ध्व यत् क्षेपणम्, सच प्रत्युपेक्षणायां न कर्तव्यः। ओघा विक्खेव-पुं०(विक्षेप) विस्मृतिगमने, व्य०६ उ01 सप्तदशे निर्ग्रन्थ स्थानभेदे, स्याका क्षोभे, "छोहो विक्खेवो' पाइ० ना० 270 गाथा। विक्खेवणविणय-पुं०(विक्षेपणविनय) विक्षिप्यते इति विक्षेपणं तदेव विनयो विक्षेपणविनयः / विनयभेदे, प्रव०। स चतुर्धा-तत्र मिथ्यादृष्टिं मिथ्यामार्गाद्विक्षिप्य सम्यक्त्वमार्ग ग्राहयतीत्येकः / सम्यग्दृष्टि तुगृहस्थं गृहस्थभावाद्विक्षिप्य प्रव्राजयतीति द्वितीयः। सम्यक्त्वाचारित्राद्वा च्युतं तद्भावाद्विक्षिप्य पुनस्तत्रैव व्यवस्थापयतीति तृतीयः, स्वयं च चारित्रधर्मस्य यथैवामिवृद्धिस्तथैव प्रवर्ततेऽनेषणीयपरिभोगादित्यानेन च एषणीयपरिभोगादिस्वीकारणे चेति चतुर्थः / प्रव० 64 द्वार। विक्षेपणाविनयमाहअद्दिष्टुं दिटुं खलु, दिलृ साहम्मियत्तविणएणं। चुयधम्म धम्में ठावे, तस्सेव हियट्ठमन्मुढे॥३०३|| अदृष्टम्-अदृष्टधमणि दृष्टमिव दृष्टपूर्वमिव-धम्म ग्राहयति / दृष्ट-- दृष्टपूर्वश्रावकं साधम्मिकत्वविनयेन विनयति; प्रव्राजयतीत्यर्थः। तथा च्युतधर्म-धर्मात्प्रभ्रष्टं पुनर्धर्म स्थापयति।तथा तस्यैव चारित्रधर्मस्य वृद्धये हितमभ्युत्तिष्ठति। तत्र प्रथमभेदव्याख्यानार्थमाहवीणाणाभावम्मि, खिवि पेरणे विक्खिवित्तु परसमया। ससमयंतेणेमभिछुभे, अदिधम्मं तु दिटुं वा // 304 / / विशब्दो-नानाभावे 'क्षिप' प्रेरणे परसमयाद्विनिक्षिप्य नानाप्रकार प्रियदृष्टधर्माणं दृष्ट चेति। वाशब्द-उपमायाम्।दृष्टधर्माणमिव स्वसमयान्तेन स्वसमयाभिमुखममिक्षिपति। एतदेव चरमपदंव्याचष्टधम्मसभावो सम्म-इसणं तं जण्ण पुव्वि न उलद्धं / सो होति दिहपुटवो, तंगाहइ पुष्वदिटुं च // 305 / / धर्मः स्वभावः सम्यग्दर्शनमित्येकार्थम्। तत्सम्यग्दर्शनं येन पूर्व न लब्धं स भवत्यदृष्टपूर्वोऽदृष्टपूर्वधर्मस्तंपूर्वदृष्टमिवाविविक्तो विश्रान्ततया पूर्वोपलब्धमिव धर्म ग्राहयति। अदृष्टम्, दृष्टमित्यस्यान्यथा व्याख्यानमाहजह भायरं च पियरं, मिच्छद्विढि पि गाहिसम्मत्तं / दिद्वपुटवं च सावग-साहम्मि करेति पटवावे // 306 / / नदृष्ट-अदृष्ट पूर्व-दृष्टमिव दृष्टपूर्वमिव धर्म ग्राहयति! किमुक्तं भवतियथा भ्रातरं पितरं वा सम्यक्त्वं ग्राहयति एवमदृष्टपूर्व मिथ्यादृष्टिमपि सम्यक्त्वं ग्राहयति। 'दिट्टसाहम्मिय' त्ति"विणएणं' इत्यस्य व्याख्यानमाह-दृष्टो नामदृष्टपूर्वः, स च श्रावकस्तंसाधम्मिकत्वविनयेन शिक्षयति साधम्मिकं करोति; प्रव्राजयतीत्यर्थः। ___ 'चुतधम्म धम्म ठावे' इत्यस्य व्याख्यानार्थमाहचुयधम्मो मधम्मो, चरित्तधम्मो तु दंसणातो वा। तं ठावेइ तहिं चिय, पुणो वि धम्मे जहोहिहो॥३०७।। च्युतधर्मो नाम भ्रष्टधर्मः, धर्माद्दष्टो भ्रष्टधर्मः,राजदन्तादिदर्शनात् धर्मशब्दस्य परनिपातः / कस्मात् च्युत इत्याह- चारित्रधर्मात् दर्शनाद्वा। तं च्युतधर्माणं तत्रैवचारित्रधर्मे सम्यग्-दर्शने वा यथोचिते पुनः स्थापयति। एष तृतीयो भेदः।। __ 'तस्सेव हियट्ठमभुट्टे' इति चतुर्थभेदमाहतस्सत्ती तस्सेव उ, चरित्तधम्मस्स बुडिहेतुंतु। वारेयऽणेसणादी, न य गिण्हें सयं हियट्ठाए॥३०८|| तस्येति-तस्यैव चारित्रधर्मस्य वृद्धिहेतोरेषणादिवारयति। हितार्थमभ्युत्तिष्ठतीति हितार्थाय / नच स्वयमनेषणादि गृह्णाति। हिताथायेत्युपलक्षणं तेन हिताय सुखाय क्षमाय निःश्रेयसे आनुगासिकायाभ्युत्तिष्ठतीति द्रष्टव्यम्।
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________________ विक्खेवणविणय 1132 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विगइ ततो हितादिपदानां व्याख्यानमाहजं इहपरलोगे वा, हितं सुहं तं खमं मुणेयव्वं / निस्सेयसँ मोक्खाय उ, यंतं अणुगच्छते जंतु // 309 / / यत्-यस्मात् कारणात्तत्-अभ्युत्थानमिहलोके हितं तेन हितमित्युच्यते।सुखम्-इहपरलोके सुखकरणात्, क्षमम्--ऐहिक-पारत्रिकप्रयोजनक्षमत्वात्, निःश्रेयसं-कल्याणकारित्वात्, अनुगामि यन्मोक्षाय अनुगच्छति। व्य०१० उ०। विक्खेवणी-स्त्री०(विक्षेपणी) विक्षिप्यते सन्मार्गात्कुमार्गे कुमार्गाद् वा सन्मार्गे श्रोताऽनयेति विक्षेपणी। स्था०४ ठा०२ उ०। कथाभेदे, स्था०। विक्खेवणी कहा चउविहा पण्णत्ता, तं जहा-ससमयं कहेइ, ससमयं कहेत्तापरसमयंकहेइ१,परसमयंकहेत्ताससमयं ठावित्ता भवइ 2, सम्मावायं कहेइ सम्मावायं कहेत्ता मिच्छावायं कहेइ 3, मिच्छावायं कहेत्ता सम्मवायंठावइत्ता भवइ / (सू०-२८२४) स्वसमयं स्वसिद्धान्तं कथयति-तद्गुणानुद्दीपयति पूर्व ततस्तं कथयित्या परसमयं कथयति, तदोषान् दर्शयतीत्येका १।एवं परसमयकथनपूर्वकं स्वसमयं स्थापयिता-स्वसमयगुणानां स्थापको भवतीति द्वितीया 2 / 'सम्मावाय' मित्यादि, अस्यायमर्थः-परसमयेष्वपि धुणाक्षरन्यायेन यो यावान् जिनागमतत्त्ववादसदृशतया सम्यग् अविपरीतस्तत्त्वानां वादः सम्यग्वादस्तं कथयति। तं कथयित्वा तेष्वेव यो जिनप्रणीततत्त्वात्विरुद्धत्वं मिथ्यावादस्तंदोषदर्शनतः कथयतीतितृतीया 3 / परसमयेष्वेव मिथ्यावादं कथयित्वा सम्यग्वादं स्थापयिता भवतीति चतुर्थी 4 / अथवा सम्यग्वादः अस्तित्वं मिथ्यावादः-नास्तित्वंतत्रास्तिकवादिदृष्टीरुक्त्वा नास्तिकवादिदृष्टीभणतीति तृतीया / एतद्विपर्ययाचतुर्थीति / स्था०४ ठा०२ उ०। द्वा०। ग०। औ०। दश०। विक्षेपणीमाहजा ससमयवजा खलु, होइ कहा लोगवेयसंजुत्ता। परसमयाणं च कहा, एसा विक्खेवणी नाम||१७|| कथयित्वा स्वसमयं-स्वसिद्धान्तं ततः कथयति परसमयंपरसिद्धान्तमित्येको भेदः, अथवा-विपर्यासाद्-व्यत्ययेन कथयतिपरसमयं कथयित्वा स्वसमयमिति द्वितीयः। मिथ्यासम्यग्वादयोरेवमेव भंयतो द्वौ भेदाविति मिथ्यावादं कथयित्वा सम्यग्वादंकथयति, सम्यग्वादं च कथयित्वा मिथ्यावादमिति / एवं विक्षिप्यतेऽनया सन्मार्गात् कुमार्गे कुमार्गाद्वा सन्मार्गे श्रोतेति विक्षेपणीतिगाथाक्षरार्थः। भावार्थस्तु वृद्धविवरणादवसेयः। तच्चेदम्-"विक्खेवणी सा चउव्यिहा पन्नत्ता, तं जहाससमयं कहेत्ता परसमयं कहेइ 1, परसमयं कहेता ससमयं कहेइ२, मिच्छावादं कहेत्ता सम्मावादं कहेइ 3, सम्मावादं कहेत्ता मिच्छावायं कहेइ 4 / तत्थ पुटिव ससमयं कहेत्ता परसमयं कहेइ-ससमयगुणे दीवेइ परसमयदोसे उवदंसेइ / एसा पढमा विक्खेवणी गया / इयाणी बिइया भन्नइ-पुव्वि परसमयं कहेत्ता तस्सेव दोसे उवदंसेइ, पुणो ससमयं कहेइ गुणे य से उवदंसेइ। एसा बिइया विक्खेवणी गया / इयाणिं तइयापरसमयं कहेत्ता तेसु चेव परसमएसु जे भावा जिणप्पणीएहिं भावोह सह विरुद्धा असंता चेव वियप्पिया ते पुव्वि कहित्ता दोसा तेसिं भाविऊण पुणो जे जिणप्पणीयभावसरिसा घुणक्खरमिव कहवि सोभणा भणिया त कहयइ / अहवा मिच्छावादो णत्थित्तं भन्नइ, सम्मावादो अस्थित्तं भण्णति। तत्थ पुवि णाहियवाईणं दिट्ठीओ कहित्ता पच्छा अस्थित्तपक्खयाईणं दिट्ठीओ कहेइ। एसा तइया विक्खेवणी गया। इयाणिं चउत्थी विक्खेवणी। सावि एवं चेव। णवरं पुव्वि सोभणे कहेइपच्छा इयरेत्ति। एवं विक्खिवति सोयारंति' गाथाभावार्थः / दश० ३अ०१उ०। विक्खे विया-स्त्री०(व्याक्षेपिका) व्याक्षेपस्य व्याक्षेपशब्दस्य भावः प्रवृत्तिनिमित्तं व्याक्षेपिका / व्याक्षेपे, व्य०६ उ०। विग-पुं०(वृक) ईहामृगपर्याये, प्रश्न०१ आश्र० द्वार।तरक्षके, ज्ञा०१ श्रु० १अगस्था०। प्रश्न विगइ-स्त्री०(विकृति) विकारे, बृ०३उ०। शरीरमनसोः प्रायो विकारहेतुत्वात्घृतादिरसविशेषे, स्था०| चत्तारि सिणेहविगतीओ पण्णत्ताओ, तं जहा-तेल्लंघयं वसा णवणीतं / चत्तारि महाविगतीओ पण्णत्ताओ,तं जहा-महूं मंसं मजं णवणीतं // (सू०-२७४+) चत्तारि, इत्यादि, गवां रसो गोरसः' व्युत्पत्तिरेवेयं गोरसशब्दस्य, प्रवृत्तिस्तु महिष्यादीनामपि दुग्धादिरूपे रसे / विकृतयः शरीरमनसोः प्रायोविकारहेतुत्वादिति / शेषं प्रकटम्, नवरं सर्पिः-घृतम् नवनीतंम्रक्षणं स्नेहरूपाविकृतयः स्नेहविकृतयो वसा-अस्थिमध्यरसः, महाविकृतयो-महारसत्वेन महाविकारकारित्वात्, महतः सत्त्वोपघातस्य कारणत्वाचेति / इह विकृति-प्रस्तावाद्, विकृतयो वृद्धगाथाभिः प्ररूप्यन्ते"खीरं 5 दहि 4 णवणीयं 4, घयं 4 तहा तेल्लमेव 4 गुड 2 मज्जं 2 / महु 3 मंसं३ चेवतह, ओगाहिमगं च दसमी उ॥११॥ गोमहिसुट्टिपसूणं,एलगखीराणि पंच चत्तारि। दहिमाझ्याइँ जम्हा, उट्टीणं ताणि णो हुंति // 2 // चत्तारि होति तेल्ला, तिलअयसिकुसुंभसरिसवाणं च। विगईओ सेसाई.डोलाईणं न विगईओ // 3 // दवगुलपिंडगुला दो, मज्जे पुण कट्ठपिट्ठनिप्फन्न। मच्छियकोत्तियभामर-भेयं च तिहा महुँ होइ |4|| जलथलखहयरमंसं, चम्मं वससोणियं ति हेयं पि। आइल्ल तिन्नि चलचल, ओगाहिमगं च विगईओ॥५॥" आदिमानि त्रीणि चलचलेत्येवं पक्कानि विकृतिरित्यर्थः / "सेसा न होंति विगई, अजोगवाहीण ते उ कप्पंती। परिभुज्जति न पायं, जं निच्छयओ न नजंति // 1 // एगेण चेव तवअ, पूरिज्जति पूयएण जो ताओ। बीओ वि स पुण कप्पइ, निव्यिगई लेवडो नवरं // 2 // " स्था०१ ठा० 4 उ०। (तैलघृतवशानवनीतध्याख्या स्वस्व-स्थाने।)
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________________ विगइ 1133 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विगइ नव विकृतय :नव विगईओ पण्णत्ताओ, तं जहा-खीरं दहि णवणीयं सप्पिं तिल्लं गुलो महुं मजं मंसं / (सू० 674) 'विगईओ' त्ति विकृतयो विकारकारित्वात्पक्वान्नं तु कदाचिदविकृतिरपि तेनैता नव अन्यथा तु दशाऽपि भवन्तीति, तथाहि-'एक्केण चेव तओ, पूरिज्जइ पूयएण जो ताओ। वीओ वि स पुण कप्पइ, निव्विगइअलेवडो नवर' मिति। द्वितीयोऽपि विकृतिर्न भवतीति भावः। तत्र क्षीरं पञ्चधाअजैडकागोमहिष्युष्ट्रीभेदाद् दधिनवनीतघृतानि चतुर्दैव , उष्ट्रीणाम् तदभावात्, तैलं चतुर्कीतिलातसीकुसुम्भसर्षपभेदात् / गुडो द्विधाद्रवपिण्डभेदात्। मधु त्रिधामाक्षिककौन्तिकभ्रामरभेदात्। मद्यं द्विधाकाष्ठपिष्टभेदात्- मांसं त्रिधाजलस्थलाकाशचरभेदादिति / स्था०६ ठा०३ उ०। दश विकृतयः मनसो विकृतिहेतुत्वात् विकृतयस्ताश्च दश। यदाहुः- "खीरं दहिणवणीयं, घयं तहा तेल्लमेव गुडमझं / महु मसं चेव तहा, उग्गाहिमगं च विगईओ॥१॥"तत्र पञ्च क्षीराणि गोमहिष्यजोष्ट्रयै-- लकासम्बन्धिभेदात्। दधिनवनीतघृतानि च चतुर्भेदानि, उष्ट्रीणां तदभावात्। तैलानि चत्वारि-तिलातसीलट्टासर्षपसंबन्धिभेदात, शेषतैलानि तु न विकृतयः लेपकृतानि तु भवन्ति / गुडः-इक्षुरसक्वाथः, स द्विधा-पिण्डो,द्रवश्व। मद्यं द्वेधा-काष्ठषिष्टोद्भवत्वात्। मधु त्रेधामाक्षिकं, कौन्तिकं, भ्रामरं च / मांसं त्रिविधं-जल-स्थलखचरजन्तूद्भवत्वात्, अथवा-मांसं त्रिविधं-चर्मरुधिर-मांसभेदात्। अवगाहेन स्नेहबोलनेन निवृत्तमवगाहिमं पक्वान्नम् 'भावादिमः' 6-4-21 / श्री सि०। इतीमः। यत्तापिकायां घृतादिपूर्णायां चलाचलं खाद्यकादि पच्यते तस्यामेवं तापिकायां तेनैवं घृतेन द्वितीयं तृतीयं च खाद्यकादि विकृतिः ततः पक्वान्नानि अयोगवाहिनां निर्विकृतिप्रत्याख्यानेऽपि कल्पन्ते। अथैकेनैव पूपकेन तापिका पूर्यते तदा द्वितीय पक्वान्नं, निर्विकृतिप्रत्याख्याने-ऽपि कल्पते। लेपकृतं तु भवतीत्येषा वृद्धसामाचारी। ध०२ अधि तथा तदिनतलितपक्वान्नं कटाहविकृतिप्रत्याख्यानवतः कल्पतेन वेति? अत्र तदिनतलितपक्वान्नं कटाहविकृतिप्रत्याख्यानवतः प्रत्याख्यानकरणसमये यदि मुत्कलं रक्षितं भवति तदा कल्पते नान्यथेति परंपरा दृश्यते इति। ही०४ प्रका०। श्रावकैर्विकृतयो भक्ष्याः षट्। ता दुग्ध१ दधि 2 घृत 3 तैलन गुड सर्वपक्वान्नभेदात्। ध०२ अधि०ा आव०। इदानीं कस्यां विकृतौ कानि किन्नामकानि कियन्ति विकृतिगतानि भवन्तीत्याह अह पेया 1 दुद्धट्टी 2, दुद्धवलेही य 3 दुद्धसाडी य / / पंचेव विगइगया, दद्धम्मि य खीरसहियाइं॥२३१।। अथानन्तरं पञ्चैव दुग्धे चशब्दस्यावधारणार्थत्वात् विकृतिगतानि भवन्ति, विकृतौ क्षीरादौ गतानिस्थितानि विकृतिगतानि-विकृत्याश्रितानि न विकृतिरित्यर्थः / कानि तानीत्याह-पेया; दुग्धकाजिकमित्यर्थः / तथा दुग्धाटीदुग्धावलेहिका दुग्धसाटिका चक्षीरसहिता इति। क्षरेय्या पायसेन सहितानि पूर्वोक्तानि चत्वारि पञ्चमी च; रेयीत्यर्थः / एतानि क्षीरे पञ्च विकृतिगतानीति। एतेषु स्वयमेव कानिधिद्विवृणोतिअंबिलजुअम्मि दुद्धे, दुट्टी दक्खमीसरद्धम्मि। पयसाडी तह तंदुल-चुण्णयसेहम्मि अवलेहि॥२३२॥ अम्बिलेन युक्ते दुग्धे दुग्धाटी किलाटिकेत्यर्थः, अन्ये तु बलाहिकामाहुः, तथा द्राक्षामिश्रे दुग्धे राद्धे पयसाटी, पयो-दुग्धं सटतिगच्छतीति व्युत्पत्तेः, तथा तन्दुलचूर्णकसिद्धे दुग्धे अबलेहिका। दधिविकृतिगतान्याहदहिए विगयगयाइं, घोलवडा घोल सिहरिणि करंबो। लवणकणदहि य महियं, सगरिगायम्मि अप्पडिए॥२३३।। दधिन-दधिविषये विकृतिगतानिपञ्च घोलवटकानिघोल युक्तवटकानि तथा घोलो-वस्षगालितं दधि, तथा शिखरिणी करमथितखण्डयुक्तदधिनिष्पन्ना, तथा करम्बको दधियुक्तकूर-निष्पन्नस्तथा लवणकणयुक्त दधि च मथितं राजिका खाटकमित्यर्थः। तच्च संगरिकादिके पतितेऽपि विकृतिगतं भवति। संगरिका पुंस्फलं शकलादौ पतिते पुनर्भवत्येव। घृतविकृतिगतान्याहपकघयं घयकिट्टी, पक्कोसहिउपरि तरियसप्पिं च। निभंजण वीसंदण, गई घय विगय विगइ गया // 23 // औषधैः पक्वं घृतं सिद्धार्थकादि, तथा घृतकिट्टी-घृतमलं तथा घृतपक्वौषधोपरि तरिकारूपं यत् सर्पिस्तद्विकृतिगतम्, तथा निर्भज्जन पक्वान्नोत्तीण दुग्धघृतमित्यर्थः / तथा विस्पन्दनं दधितरिका कणिक्कानिष्पन्नद्रव्यविशेषः, सपादलक्षप्रसिद्धंघृतविकृतिगतान्येतानिपञ्चापीत्यर्थः। तैलविकृतिगतान्याहतेल्लमली 1 तिलकुट्टी२, दद्ध तेलं 3 तहोसहोदेवरियं / लक्खाइ दय्वपळ, तेल्लं 5 तेलम्मि पंचेव // 235 / / तैलमलिका१तथा तिलकुट्टिः तथा दग्धं तैलं निभजनमित्यर्थः, तथा तैलपक्वौषधोपरिभागे यदुवरितं तथा लाक्षादिद्रव्यपक्वं च तैलम्। एतानि तैलविकृतौ पञ्च तैलविकृतिगतानि। गुडविकृतिगतान्याहअद्धकाडिक्खुरसो 2, गुडपाणीअंच सकराखंडं। पायगुलं गुलविगई, विगइगयाई तु पंचेव // 236|| अर्द्धक्वथितेक्षुरसस्तथा गुडपानीयम्, तथा शर्करा, तथा खण्डम् तथा पाकगुडो येन खज्जकादि लिप्यते गुडविकृतौ विकृतिगतानिएतानि पञ्चैव। पक्वान्ने विकृतिगतान्याहजेणेगेणं तवओ, पूरिज्जइ पूयगेण तब्बीओ। अक्खवियनेहो पचइ, जइ सवे होइ ते विगई // 237 / / एग एगस्सुवरिं, तिन्नोवरि बीअगं च जंपकं / तुप्पेणं तेणं चिय, तइयं गुलहाणिया पमिई // 238|| एकं विकृतिगतं तद्यदेकस्य घाणस्योपरि पच्यते / कोऽभिप्रायः ? प्रक्षिप्तघृतादिके तापके एके नैव पूपके न स
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________________ विगइ 1134- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विगइ कले पूरिते, द्वितीयपूपकादिस्तत्र प्रक्षिप्तो विकृतिगतमेव भवति / यदवाचि-''जेणेगेणं तवओ, पूरिज्जइ पूयगेण तब्बीओ। अखिविय नेहो पच्चइ, जइ सो नइ होइ तविगई // 1 // " द्वितीयं विकृतिगतं त्रयाणां घाणानामुपरि अप्रक्षिप्तापरघृतम् , यत्तेनैव 'तुप्पेण' त्ति घृतेन पक्वं तृतीयं गुडधानिकाप्रभृति। तथाचउत्थं जलेणे सिद्धा, लप्पसिया पंचमं तु पूपलिआ। चुप्पडियतावियाए, परिपक्कंती समिलिएसं॥२३॥ चतुर्थं समुत्सारिते सुकुमारिकादौ पश्चादुद्ध(द)रितधृतादिखरण्टितायां तापिकायां जलेन सिद्धा लपनश्रीः पञ्चमम् / पुनः स्नेहदिग्धतापिकायां परिपक्वा पूपका / एवं च षट् विकृतिसंबन्धिनी। पञ्च पश्च विकृतिगतानि मिलितानि त्रिंशद्भवन्तीति। इह च विकृतिगतानां स्वरूपं नाचार्येण स्वमनीषिकयाऽभिदधे किं तु सिद्धान्ताभिहितमेव / यदाहआवस्सयचुण्णीए, परिभणि एत्थ वणि कहियं / कहिअव्वं कुसलाणं, पउंजिअव्वं तु कारणिए // 240 // आवश्यकचूर्णी परिभणितम्, अत्र ग्रन्थे वर्णितं-सामान्यद्वारेण कथितम्, विशेषद्वारेणास्माभिरेतच कथयितव्यम्, कुशलानां-बुद्धिमतां प्रयोक्तव्यञ्च कारणिके कारणिकविषये। अयमभिप्रायः यद्यपि क्षरेयीप्रमुखाणि साक्षाद्विकृतयो न भवन्ति किं तु विकृतिगतान्येव निर्विकृतिकानामपि कल्पन्ते, तथापि उत्कृष्टानि एतानि द्रव्याणि भक्ष्यमाणान्यवश्यं मनोविकारमानयन्ति शान्तानामपि, न च कृतनिर्विकृतिकानामेतेषु भक्ष्यमाणेषु उत्कृष्टा निर्जरा संपद्यते तस्मादेतानि नगृह्यन्ते इति। यस्तु विविधतपःकरणक्षाम उदारानुष्ठानं स्वाध्यायाध्ययनादिकं कर्तुन शक्नोति सविकृतिगतान्युत्कृष्टान्यपि द्रव्याणि भुङ्क्ते, न कश्चिदोषः। कर्मनिर्जराऽपि तस्य महती भवति / यदाहुः-- "नवरं इह परिभोगो, निविइयाणं पि कारणावेक्खो। उक्कोसगदव्वाणं, नउ विसेसेण विन्नेओ॥१॥ आवन्ननिव्विगइय-स्स असाहुणो जुजई परीभोगो। इंदियजयखुद्धाए, विगई चायम्मि नो जुत्तो // 2 // जो पुण विगई चायं, काऊणं खाइ निद्धमहुराई। उक्कोसगदव्वाई, तुच्छफलो तस्स सोनेओ।॥३॥ दीसंति अकेइ इहिं, पच्चक्खाए विमंदधम्माणो। कारणिअंपडिसेवं, अकारणेणावि कुणमाणा ||4|| तिलमोअगतिलवट्टि. वरिसो लगनालिकेरखंडाई। अइबहलघोलखीरि,घयपप्पुयवंजणाइंच॥५॥ घयवुटुमंङगाई, दहिदुद्धकरंबधेयमाईयं / कुल्लुरिचूरिमपमुहं, अकारणे केइ भुजंति / / 6 / / न य तं पि इह पमाणं, जहुत्तकारीण आगमंतूणं। जरजम्ममरणभीसण-भवन्नवुचिग्गचित्ताणं // 7 // मोत्तुं जिणाणमाणं, जियाण बहुदुहदवम्गितवियाणं / नहु अन्नो पडियारो, कोइ इह भववणे जेण॥८॥ विगई परिणइधम्मो, मोहो जसुदिजए उदिन्ने य। सुछ वि चित्तचयपरो, कहं अकज्जे न वट्टिहिइ || दावानलमज्झगओ, को तदुवसमट्ठयाए जलमाई। संते विन सेविजा, मोहानलदीविए उवमा // 10 // विगई विगईभीओ, विगयगयं जो य भुंजए साहू। विगई विगयसहावो, विगई विगई बला नेइ॥११॥" इत्यादि। सुगमाश्चैताः, नवरमन्त्यगाथाः किंचिद्विषमत्वाद्वि-तन्यते। विगतेनरकादिकाया यो भीतस्त्रस्तः साधुर्विकृति क्षीरादिकाम्, चशब्दस्यापि दर्शनाद्विकृतिगतं च क्षीरान्नादिकं यो भुङ्क्ते स दुर्गतिं यातीति शेषः। कस्मादित्याह-विकृतिबलात् जीवमनिच्छन्तमपि विगति नरकादिकां नयतीति। एतदपि कुत इत्याह-विकृतिर्यतो विकृतिस्वभावा मनोविकारकारिस्वरूपेति। प्रव०४ द्वार। बृ०ा आ० चू०। नि० चू०पं० वादश०। (विकृतावुदाहरणम् 'आलंबण' शब्दे द्वितीयभागे 364 पृष्ठे गतम्।) (वर्षासु विकृतिस्थापनम् 'पज्जुसवणाकप्प' शब्दे पञ्चमभागे 242 पृष्ठे उक्तम्।) विकृति भुङ्क्ते णिज्जतिवित्थारे ति इच्छामो नाउं का विगती केवतियाउ वा / गाहातेल्ले घतणवणीते, दधिविगती उहाँति चत्तारि। फाणियविगडे दो दो,खीरम्मि य हॉति पंचेव॥३४॥ मधुपोग्गलम्मि तिणि व, चलचल ओगाहिमं च जं पक्कं / एतासिं अवदिण्णं, जोगमजोगे य संवरणे // 3 // सव्वे तेल्लाएक्कविगती, सेसा पुण तेल्ला णिव्विगइया लेवाडा पुण, सम्वे घता एका य विगती। एवं णवणीयादि वि / दहिविगतीओ वि चत्तारि गावीमहिसीअयएलगाणंच। फाणिओगुलो भण्णति सो दुविहो-छिद्दगुडो, खंडगुडोय। वियडं मजं तस्य दो भेया, पिट्ट-कडं, गुलकडं च। खीराणि पंच, गावीमहिसीअयएलयउट्टीणं च। महूणि तिण्णि-कोतियं मक्खियं भामरं च / पोग्गलाणि तिपिण, जलयं थलयं खहचरं च / चलचले त्ति तत्थ पढमं जंघयं खित्तं तत्थ अण्णं अपक्खिवंती। आदिमे जे तिण्णि धाणा एयतितं चलचले त्ति तेण ते अचलचलओगाहिम भण्णति। तत्थेव घताजे सेसा पच्चंति तेण चलचलेत्ति, अतो तेण आतिल्ला तिणि धाणा मोत्तुं सेसा पच्चक्खाणिस्स कप्पंति। जति अण्णं घयं ण पक्खिवति, जोग–वाहिस्स पुण सेसगा विगती। एतेसिं विगतीणं जो अण्णतरं विगति आहारेति जोगवाही वा संवरणे वा। गाहाआगाढमणागाढे, दुविधे जोगे समासतो होति। आगाढेण व वज्जण, भयणं पुण होतऽणागावे // 36|| जोगो दुविहो-आगाढोय, अणागाढो या अगाढतरा जम्मि जोगेजतणा सो आगाढो यथा-भगवतीत्यादि, इतरो अणागाढो यथा-उत्तराध्ययनादि। आगाढे ओगाहिमवजाणवविगतीओदण्णिजेति। दसमाए भयणा। सव्वा ओगाहिमविगती पण्णत्तीए कप्पति, महा-कप्पेसु ते एक्का, परं मोत्तगविगती कप्पति / सेसा आगाढेसु सव्व-विगतीतो ण कप्पंति। अणागाढे पुण दस विगतीओ भन्नति। ताओ जओ गुरुअणुण्णाते कप्पंति
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________________ विगइ 1135 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विगइ अणुण्णाए विणाण कप्पंति। एसाभयणा / जति अगुण्णाते अविधीए तो जोगभङ्गो भवति वा। जोगभंगो दुविहो-सव्वभंगो, देसभंगो य। गाहाविगतिमणहा भुंजति, ण कुणति आयंबिलं ण सद्बहती। एसो तु सव्वभङ्गो, देसे मङ्गो इमो तत्थ // 37 / / विगती निक्कारणे अणुण्णाओ भुंजति आयंबिलवारए आयंबिणण कारेति, सव्वरसे य भुंजतिण सद्दहतिवा एस सव्वभङ्गो। आगाढे सव्वभंगे चउगुरुं, अणागाढे सव्वभंगे चउलहं, इमो देसभंगे। गाहाकाउस्सग्गमकातुं, जति भोत्तूण कुणति वा पच्छा। सयकाउँ जे च भुंजति, तत्थ लहू तिण्णि उ विसिट्ठा // 38 // जदि कारणे काउस्सग्गमकाउं भुंजइ भोत्तूण वा पच्छा काउस्सग्गं करेति, सयं वा काउस्सगं काउं भुंजइ।अवरो गुरुं भणति-मम विगतिं विसज्जेह। एएसु विचउसु विमासलहुं तवकालविसिटुंचउत्थेदोहि वि लहुं / जो पुण कारणे अणुण्णातो काउस्सगं काउं भुंजति सो सुद्धो। आगाढजोगे विदेसभंगे एवं चेव नवरं मासगुरूं। अणागाढागाढजोगाण देसभंगे इमं पच्छित्तं! गाहाण करेति भुजितूणं, करेति काऊण भुंजति सयं तु। वीस धम्मति य, तवकालविसेसिओ मासो॥३६।। इमो विगतिविवज्जणे गुणोजागरंतमजीए वि, ण फुसे लूहवित्तिणं / जोगीऽहं ती सुहं लद्धो, विगती परिहरिस्सति // 40 // सुत्तत्थधरणहेतुं रातो जागरंतं अजीरातिया दोसा ण फुसंति लूहवित्तिणं। किं चान्यात्-जोगीऽहमिति लद्धे वि सुहेणं विगति-वज्जंति / कारणे जोगीऽवि दिगतिं आहारेति। गाहाबितियपदमणागाढे, गेलण्णवए महामहठ्ठाणे। ओमेय रायदुढे, ऽणागाढाऽऽगाढ जतणाए।४१|| अणागाढगेलण्णगहणातो गाढं पि गहियं वए त्ति गोउलं महामहोइदमहादि अद्धाणे वा ओमे दुरिभक्खे रायदुढे वा, एतेहिं कारणेहिं अणागाढजोगी आगाढजोगी वा जयणाए विगतिं विभुंजति। गाहाजोगे गेलण्णम्मि य, अगाढितरे य होति चतुभंगो। पढमो उभयागाढे, बितिओ ततिओ य एकेणं / / 42 / / जोगगेलण्णेसु आगाढअणागाढेसु चउभंगो कायव्वो। पढमे उभयमवि अगाढं, बितिए जोगो आगाढोण गेलण्णं तइए नजोगो गेलण्ण आगाढं, चउत्थेदो विअणागाढा। उभयम्मि वि आगाढे, दवे दड्ढे य पक्क एएहिं। मक्खंति अठायंते, पजंति (इ)यरे दिणे तिण्णि // 43|| उभयम्मि आगाढे त्ति पढमभंगे दड्डेलगं ओगाहिमणिग्गालो जं वा दोहिं तिहिं वा दव्वेहिं णिद्दढ पक्केल्लगे हंसतेल्लमाती एएहिं पतिदिणा तिण्णि दिणे मक्खेति, 'अठाअंते' त्ति जइ रोगो न उवसमति ताहे से सव्वहा जोगो णिक्खिपति। गाहाजत्तिऍ अच्छति दिवसे, विगति सेवतिण उदिसे तंतु। तह विय अठायमाणे, णिक्खिवणं सव्वधा जोगे॥४४॥ जति णिक्खिवती दिवसे, भूमीउ तत्तिए उवरि वट्टो। अपरिमियं उहेसो, भूमीउ परं तथा कमसो॥४५|| जत्तिए दिवसे णिक्खित्तजोगो अच्छति, पुणो उक्खिक्तजोगे जोगभूमीओ तत्तिए दिवसे उवरिवट्टिजति जोगभूमीए वि विरायणजोगभूमीए जे केति दिवसा सेसा सो जोगभूम्यंतो भण्णति, तत्थ मेहाविणो कद्दमस्स अपरिमिओ उद्देसो, विरायणजोगभूमीएपरउवढिदिवसेसुकमेण उद्देसो कजति। अण्णे भण्णंति-जत्तिए दिवसेणं उद्दितत्तिए दिवसे, अपरिमिओ उद्देसो कायव्वो। ततो परं कमेण उद्देसो। इदाणिं बितियभंगो। गाहागेलण्णमणागाढे, रसवति णेहोवरए असति पक्का। तह विय अठायमाणे ,मा बट्टे णिक्खिवे य तहा // 46|| जोगो आगाढेगेलण्णे अणागाढेणेहावगाढभत्तरसोतीएछुब्भतिणेहोवरते वा / ते णेहावयवपोग्गला सरीरमणुपविट्ठा रंगोवसमा भवंति, ततो दद्वेलगपक्केल्लगेहिं मक्खंति। तिण्णि दिणे अट्ठीए पजति तहावि अद्विते तो रोगो मा अतीव रोगवड्डी भविस्सति तम्हा जोगणिक्खेवो। तहेव जहा पढमभंगे। इदाणिं ततियभंगो अणागाढलोगे आगाढगेलण्णे तिणि दिणा दवल्लगपक्केल्लगेहिं मोति अवरे तिणि दिणे पखंति। ततो परं / गाहातिण्णि तिगेगंतरिया, गेलण्णगाढपरतो णिक्खिवणा। तिण्णि विएगंतरिता, चउत्थछट्टेव णिक्खिवणा ||7|| तिण्णि तिगेवतेसिंएकेको विएगो णिव्वीयंतरिओ कायव्यो। तिणि दिणे काउस्सग काउं विगतिं आहारेत्ता चउत्थदिवसे णिव्वीयं आहारेति। ताहे पंचमछट्ठसत्तमाणि दिवसाणि विगतिं आहारेति, अट्ठमे दिवसे निव्वीयं करेति, नवमे दिणे विगतिं आहारे-ति, ताहे जति णोवसमति ताहे दसमे दिवसे जोगो णिक्खिप्पति। इदाणिं चउत्थभंगो। एत्थ विरसवतिणेहोव्व मक्खणापमजणं तहेव, अतो परं तिष्णि वि पच्छद्धतिणि वि तिया णव एते, एमंतरएण णिव्वीतितेणणेयव्वा। विगतिणीवीतितं-वि०१ नि०१ वि०१ नि०१ वि०१नि०अतो परं अठायंते सव्वहा जोगणिक्खेवो पतिदिवसमलभते परिव्वसावेतव्वकट्ठियव्वगे वा जोगणिक्खोवो। अहवा-अजोगिगिलाणस्सविखीरातिणोहोजताहेयसम्गामेमगियव्यं। असतिसक्खेतेपरगा गाहा
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________________ विगइ 1136 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विगयकप्पयणिभ मे सक्खेत्ते असति खेत्तबहिया तो वि आणियव्वं / सव्वहा अलब्भंते अलब्भमाणे इयराण वि आगाढे जोगो णिक्खिप्पति। चउभागतिभागगिलाणोवचितं णिज्जेज्जा / वतियाए त्ति दारं अद्धाण वा असंथरणा णिक्नेवो एवं ओमोयरियरायदुद्देसु वि। जोगो त्ति तत्थिमा जयणा / गाहा गयं। नि०चू०४ उ०। वयिगा य अयोगी व, अदढो अतरंतगस्स दिजंति। . विगई परिमुंजे पंचेव आयंबिलाणि दोण्हं विगईणं उद्धं परिभुजे णिव्वीतियमाहारो, सति अंतर विगतिणिक्खिविणा | 4|| पंच निविइगा इयाणिं अकारणिगो विगइपरिभोगं कुजाअट्ठमं / अतरंतगो-गिलाण्णो अदढो विणा वि गेलण्णएण जो दुब्बलो एते जया महा०१चू०। वइआ णिजंति तत एतेसिं सहाया अजोगवाही दिलंति / असति विगइंगालघूम-त्रि०(विगताङ्गारधूम) अङ्गारधूमदोषरहिते, आचा०१ अजोगवाहीणं अणागादजोगवाही वि दिजंति, अहवा अदढ त्ति अजोग श्रु०२ अ०५ उ० वाहिणो जे अदढसरीरा ते अंतरंगस्स वि धितिजगा दिजंति, तेऽपि तत्र विगइणिज्जूठ-त्रि०(विगतिनियूँढ) निर्विकृतिके, आचा०१ श्रु०२ बलिनो भविष्यन्ति इत्यर्थः। जे जोगवाहिणोते तत्थ वईआए णिच्चिय अ०५ उ०। यमाहारं गेहूति / असति णिव्वीतियस्स अपजंतं वा लब्भति, ताहे विगइपचक्खाण-न०(विकृतिप्रत्याख्यान) विकृतित्यागे, ध०२ अधिol अंतरंतरा काउस्सग्गं करेति। विगतिं भुजंतु आयरणा पुण ततियभंग ('णिव्विगई' शब्दे चतुर्थभागे 2130 पृष्ठे व्याख्यातमिदम्।) विकप्पेण सपयं सव्वहा वा णिव्वितीए अलब्भंते णिक्खिवणे जोगस्स। विगइपडिबद्ध-त्रि०(विकृतिप्रतिबद्ध) घृतादिरसविशेषगृद्धे, अनुपधान कारिणि, बृ०४ उ०। स्था० गाहा विगओदग-त्रि०(विगतोदक) बिन्दुरहिते, कल्प०३ अधि०६ क्षण। विगंचिउ-अव्य०(विविच्य) परिष्ठाएयेत्यर्थे , व्य०२ उ० ................................||49ll विगण्णिजंत-त्रि०(विगण्यमान) आत्मपरेषां जुगुप्सायोग्ये, तं० तत्थवतिताए "आयंबिलपारणं" आयबिलस्स अलंभे। अभत्तद्वंकरेज जति उववासगस्सअसण्ह ताहे तकाति वेगंतियं भुंजति। आदिसघातो विगत्तग-त्रि०(विकर्तक) प्राणिनां चर्मापनेतृषु, सूत्र०२ श्रु०२ अ०। वल्लचणगमुग्णपाणियं बिलं वा कंजियसागंता एवमाति जं णिव्वीतियं विगत्तिऊण-अव्य०(विकर्त्य) छित्त्वेत्यर्थे, सूत्र०१ श्रु०५ अ०२ उ०। अत्थि तो वहति अलभते पुण आगाढजोगे जोग-णिक्खेवो आगाढा विगप्प-पुं०(विकल्प) अध्यवसायमात्रे, रत्ना०३ परि०ा चित्तविभ्रमे, ऽणागाढा पुणो उक्खित्तो उद्देसो तहेव। जहा गिलाणदारे। एवं वईआए। अष्ट०६ अष्टा अवस्तुविषयायां शाब्दधियाम्, द्वा०११ द्वा०ा "शब्द ज्ञानानुपाती वस्तुशून्योऽर्थोविकल्पः" इतिपतञ्जलिः। द्वा०२० द्वा०) इदाणिं महामहे त्ति दारं / गाहा-- "विकल्पः शब्दार्थः" इति बौद्धविशेषाः। तथा-'ब्राह्मण' इत्युक्ते तपो सक्कमहादीएसुं, पमत्त देवा छलेज तेण ठवे। वा जातिर्वा श्रुतं वा, तपश्च जातिश्च श्रुतं चेति न प्रतिपत्तिर्भवति, अपितुपीणिज्जंति व दढा, इतरे उ वहति ण पढंति // 50 // साकल्येन संबन्ध्यन्तरव्यवच्छिन्नास्तपःप्रभृतयस्संहताःप्रतीयन्त इति / सक्कमहो-इंदमहो आदिसद्दाओ सुगिम्हादिजो वजत्थ महामहो एतेसु बहुष्वप्यनेक्समुदायिभेदावधारणं विकल्पः। सम्म०१ काण्ड 3 गाथाटी०। मा पमत्तं देवया छलेज तेण उण उवट्ठवण त्ति / अणागाढजोगणिक्खेवो। | विगप्पण-न०(विकल्पन) उपकरणपरिकल्पने, उत्त०२३ अ० किं चान्यत्-तेसु य सक्कमहादिदिवसेसु विगतिलाभो भवति, ताओ विगप्पिय-त्रि०(विकल्पित) कल्पनाशिल्पनिर्मिते, नं०। अनु०॥ दुब्बलसरीरा भुंजति तहा पीणिज्जति; बलिनो भवंतीत्यर्थः / इतरे णाम विगम-पुं०(विगम) विनाशे, विशे० आ०म०। आ० का गला नि० चू०। आगाढजोगवाही ते जोगं वहति जोग-खंधा अच्छंति, ण तेसु उद्देसोन / स्था०ा आवळा निर्जरणे, पञ्चा० 15 विव०। वापुव्वदिहें पढ़ति। विगमसहाव-त्रि०(विगमस्वभाव) विनश्वररूपे, विशे० इदाणिं अद्घाणओमरायदुटुं च तिण्णि विदारे जुगवं विगय-(विकृत) विकारवति, ज्ञा०१ श्रु०८ अ० उपा० विगत-जीवे, वक्खाणेति! दारगाहा बृ०२ उ० अद्धाणओमदुहे. एसाणिजोगीण सेसपणगादी। *विगत-त्रि०। अपगते,सूत्र०१श्रु०१०४ उ०! व्यतीते, बृ०२ उ०॥ असतीय अणागाढे, णिक्खिव सव्वासती इतरे।।१।। प्रलीने, सूत्र०१ श्रु०६ अ०। विनष्ट,आ० म०१ अ०। विप्रनष्ट, जी०३ अक्णुगामाणुगामिए छिण्णद्धाणे वा जोगं वहंति, ताहे जं एसणिज्जं तं प्रति०४ अधि०। अतिक्रान्ते, पञ्चा०५ विव० "विगयभग्गभुग्गभुमए'' जोगीण दिजति।सेस त्ति अजोगवाहीतेपणगपारहाणीए जयंति, फासुय- विकृतेविकारवत्यौ भग्रेविसंस्थुलतया भुग्ने वक्रे भुवौ यस्य पिशाचरूपस्य एसणिज्जस्स असति जइ सव्वे जोगवाहिणो ण संथरंति ताहे अणागाढे तत्तथा। उपा०२ अ० जोगवाहीणं जोगो णिक्खिप्पइ, सव्वासति णाम सव्वहा एसणिज्जो | विगयकप्पयणिभ-त्रि० (विकृतकल्पकनिभ) विकृतौ योऽरञ्ज
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________________ विगयकप्पयणिभ 1137- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विग्गह कादीनां कल्प एव कल्पकश्छेदः--खण्डं तन्निभम् / कर्परसदृशे, | विकलेन्द्रियाः।एकद्वित्रिचतुरिन्द्रियेषु, व्य०१ उ०। विशे० अपश्शेन्द्रियेषु, उपा०२ अ०। स्था०३ ठा०१ उ०। (विकलेन्द्रियाणां द्वीन्द्रियादीनां प्रत्येकशरीरिणां विगयकिरियणियट्टि-पुं०(विगतक्रियानिवर्तिन) विगतप्राणातिपात- सर्वा वक्तव्यता पत्तेयसरीर' शब्दे पञ्चमभागे 428 पृष्ठे उक्ता। प्रचारे, शेषकायवाङ्मनोयोगसर्वदेशपरिस्पन्दत्वात् विगतक्रियानिव- विगल्लणयर-न०(विगल्लनगर) नगरभेदे, “विगउल्लीदेसे, विगल्लं नयरं र्तीत्युच्यते। सम्म०३ काण्ड। तत्थ सिरिपालो नाम नरवई हुत्था"। ती०५१ कल्प०। विगयगेहि-त्रि०(विगतगृद्धि) विगता-प्रलीना बाह्याभ्यन्तरेषु वस्तुषु | विगसंत-त्रि०(विकसत्) वर्द्धमानविकाशे, ज्ञा०१ श्रु०१ अ० गृवियाह्याभिलाषो यस्य स विगतगृद्धिः / सूत्र०१ श्रु०६ अ०। आचा०। / विगसिय-त्रि०(विकसित) व्याक्रोशीभूते, अभिनवोबुद्धे, चं० प्र०१ विगता--अपगता आहारादौ गृद्धिर्यस्यासौ विगत-गृद्धिः / आहारादिषु पाहुन गृद्धिरहिते, "वुसिए य विगयगेही 'सूत्र०१ श्रु०१ अ०४ उ०। विगहा-स्त्री०(विकथा) विरुद्धा स्त्र्यादिविषया कथा। स०४ सम०। जो विगयधूम-न०(विगतधूम) द्वेषरहिते, "रागेण सइंगालं दोसेण सधूमगं संजओ पमत्तो, रागदोसगो परिकहेइ / सा उ विकहा पययणे, पन्नत्ता ति णायव्वो" प्रश्न०१ संव० द्वार। धीरपुसेहिं / / 1 / / इत्युक्तलक्षणे कषायादिवशगेन कथने, द्वा०६ द्वा० विगयपक्ख-पुं०(विगतपक्ष) विगतं विगमो वस्तुनोऽवस्थान्तरापेक्षाया | विगहापरायण-त्रि०(विकथापरायण) सप्तप्रकारविकथातत्परे, ग०१ विनाशः; स एव पक्षो वस्तुधर्मस्तस्य वा पक्षः परिग्रहो विगतपक्षः।। अधिक। विनाशपक्षे, "छिज्जमाणे छिन्ने भिज्जमाणे भिण्णे दज्झमाणे दड्डे. | विगहामहण-न०(विकथामथन) विकथाविनाशने, पं०व०३ द्वार। भिज्जमाणे मए णिज्जमाणे णिज्जिपणे एएणं पंचपदाणाणट्ठा णाणाघोसा विगहासील-त्रि०(विकथाशील) विरुद्धकथाकथनस्वभाये, ग०२ अधिका णाणावज्जणा विगयपक्खस्स" विगतं त्विहाशेषकर्माभावोऽभिमतो विगाढ-त्रि०(विगाद) विशेषेण गाढो विगाढः / विनाशयितुमशक्ये, उत्त० जीवेन तस्याप्राप्तपूर्वतयाऽत्यन्तमुपादेयत्वात्तदर्थत्वाच्च पुरुषप्रया 10 अ०। समन्ता व्याप्ते, स्था० १ठा०। सस्य / भ०१श०१ उ० विगार-पुं०(विकार) वर्णस्यान्यथाभावापादने, अनु०। रागाद्यशुद्धाध्यविगयमोह-त्रि०(विगतमोह) मोहरहिते, ध०२ अधि०। अपगत-मोहे, वसाये, अष्ट० 15 अष्ट०। अपगतमोहनीये, पो०१५ विव०। विर्गिचण-न०(विवेचन) पृथक्करणे, बृ०१ उ०३ प्रकला सूत्र०। आचाला विगयसोगा-स्त्री०(विगतशोका) नलिनावतीविजयक्षेत्रवर्तिपुरीयुगले, अपनयने, सूत्र०२ श्रु०१३ असा त्यागे, आचा०१ श्रु०१ अ०२ उ०। स्था०२ ठा०३ उ०। पंचसप्ततितमे महाग्रहे, स्था०। ('महाग्गह' शब्दे स्था०। सूत्र०ा आ०चूला पञ्चा० / निर्जरायाम्, स्था०८ ठा०३ उ०। विशेषो गतः)। विगिंचमाण-त्रि०(विवेचयत्) क्षपयति, आचा०२ श्रु०६ अ०२ उ०। दो विगयसोगा। स्था०१ ठा०१ उ०। परिष्ठापयति, सकृच्छोधयति, स्था०५ ठा०२ उ०॥ विगयागार-त्रि०(विगताकार) साकाररहिते, अनाकारप्रत्या ख्याने, विगिंचिय-अव्य०(विविच्य) त्यक्त्वेत्यर्थे , आचा०१ श्रु०२ अ०८ स्था०२ ठा०३ उ०। उ०। भग विगरण-न०(विकरण) उचितकरणादर्शने व्य०१० उ०ाखण्डशः कृत्वा | विगिट्ठ-त्रि०(विकृष्ट) नातिदीर्घ , ज्ञा०१ श्रु०१५ अ० परिष्ठापने, बृ०४ उ०॥ विगिट्ठखमग-पुं०(विकृष्टक्षपक) अष्टमादिविकृष्टतपःसेविनि, पञ्चा०१३ विगरणभाव-पुं०(विकरणभाव) कायनरपेक्ष्येणेन्द्रियाणां वृत्तिलाभे, द्वा० विव० 26 द्वा० विगीय-त्रि०(विगीत) निषिद्धे, प्रतिका विगराल-त्रि०(विकराल) विकृताङ्गोपाङ्गधरे, उत्त०१२ अ०भयोत्पा विगुण-पुं०(विगुण) विगताः छाद्मस्थिकज्ञानादयो गुणा यस्य स विगुणः। दके, तं०। आ०म० अ० केवलिनि, सत्त्वरजस्तमोगुणरहिते, विशेषण विगल-त्रि०(विकल) विरुद्धेन्द्रियवृत्तिषु, प्रश्न०३ आश्र० द्वार। विगुव्वणा-स्त्री०(विकुर्वणा) वैक्रियकरणे, स्था०६ ठा० ३उ०॥ पाणिपादाद्यवयवव्यङ्गितेषु, बृ०१ उ०२ प्रक०। विगुटिवत्ता-अव्य०(विकुळ) वैक्रियं कृत्वेत्यर्थे , स्था०७ ठा०३ उ०। विगलतिक-न०(विकलत्रिक) द्विन्द्रीयत्रिद्वीयचतुरिन्द्रियजातिलक्षणे / विगोवइत्ता-अव्य०(विगोप्य) गुप्तं प्रकटीकृत्येत्यर्थे , कल्प०१अधि० विकलेन्द्रियजातिके, कर्म० 3 कर्म० / क०प्र०। 5 क्षण! विगलाएस-पुं०(विकलादेश) नयवाक्यापरपर्याय नये, स्था०। विग्गह-पुं० (विग्रह) कलहे, विशे० / प्रश्न० / विशिष्ट विगलिंदिय-पुं०(विकलेन्द्रिय) विकलान्यसंपूर्णानि इन्द्रियाणि येषां ते | वाह्येन्द्रियेण गृह्यत इति विग्रहः। औदारिकशरीरे, आचा०।
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________________ विग्गह 1138- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विचित्त मंगो। ( सू विग्रहो-वक्र १श्रु०५ अ०२ उ०।युद्धे, सूत्र०१श्रु०१३ अ०। वक्रगमने, स्था०३ठा० कहिं णं भंते ! विग्गहविग्गहिए लोए पण्णत्ते? गोयमा ! 4 उ०। क्षेत्रविभागे, स्था० 10 ठा०३ उ०। लोकनाडीचक्रे, स्था०२ विग्गहकंटए एत्थ णं विग्गहविग्गहिए (लोए) पण्णत्ते / भ० 13 ठा०४ उ०। काये, पाइ० ना०५६ गाथा। श०४ उ०। विग्गहकडय-न०(विग्रहकण्डक) विग्रहो-वक्रं कण्डकम्- अवयवो | विग्गहसीलत्त-न०(विग्रहशीलत्व) पश्चादननुतापितया क्षमणा-दावपि पंकण्डकं विग्रहकण्डकम्। ब्रह्मलोककूपर लोकाऽवयवे, यत्र वा | सत्यप्राप्त्या च विरोधानुबन्धे, ध०३ अधि० प्रदेशवद्ध्या हान्या वा वक्रं भवति, तद्विग्रहकण्डकम्। प्रायो लोकान्तेषु / विग्गहिय-पुं०(विग्रहिक) विग्रहो-युद्धं स विद्यते यस्यासौ विग्रहिकः। अवयवविशेषे, भ० 13 श०४ उ०। अङ्गादाने, शिस्ने, नि०चू०११ उ०। / युद्धप्रिये, सूत्र०१ श्रु०१३ अ०। विग्गहगइ-स्त्री०(विग्रहगति) वक्रगतौ, स्था०२ ठा०३ उ०। भ० विग्गहियउण्णयकुच्छि-त्रि०(विग्रहीतोन्नतकुक्षि) विग्रहिता-मुष्ठिग्राह्या जीवे णं भंते ! किं विग्गहगतिसमावन्नए अविग्गहगतिसमा- उन्नता च कुक्षियेषां ते विग्रहीतोन्नतकुक्षय H / मुष्ठिमित-कटिकेषु, जी० वन्नए? गोयमा ! सिय विग्गहगइसमावन्नए सिय अविग्गहगह 3 प्रति० 4 अधि०। समावन्नगे, एवं०जाव वेमाणिए।जीवाणं भंते ! किं विग्गहगइ- विग्घ-नापुं०(विघ्न) अन्तराये, आव०५ अ०। ज्ञा० तं०। औ०। तच्च समावन्नया अविग्गहगइसमावन्नगा? गोयमा ! विग्गहगइसमा- विषयभेदात्पञ्चधा-दानलाभभोगोपभोगवीर्यान्तरायभेदात् / कर्म०५ वनगा वि अविग्गहगइसमावनगा वि / नेरइया णं भंते ! किं कर्म०। “दितस्सलभंतस्सव, भुंजतस्सवजिणस्सएस गुणो।खीणंतविग्गहगतिसमावन्नया अविग्गहगतिसमावन्नगा?,गोयमा! सव्वे राययत्ते, जं से विग्धं न संभवइ" HEII जिनस्यक्षीणसकलघातिविताव होजा अविग्गहगतिसमावन्नगा 1, अहवा अविग्गहगति कर्मणः क्षीणान्तरायत्वे सत्येष गुणो जायते, यदुत-'से' तस्य जिनस्य समावन्नगाय विग्गहगतिसमावन्ने य२,अहवा अविग्गहगतिसमा ददतो लभमानस्य वा भुञानस्य वकारस्यानुक्तसमुच्चयार्थत्वादुपवनगा य विग्गहगइसमावनगा य३ / एवं जीवे-गिदियवज्जो भुजानस्य च यद्विघ्नोन भवति,प्राकृतत्वाच्च विघ्नशब्दस्य नपुंसकतियभंगो। (सू०-५६)। निर्देशः / / 'विग्गहगइसमावन्नए' त्ति विग्रहो-वक्रं तत्प्रधाना गतिर्विग्रहगतिः। तत्र विग्धकर-त्रि०(विघ्नकर) अन्तरायकारके, प्रश्न०३ आश्रद्वार।"इह यदा वक्रेण गच्छति तदा विग्रहगतिसमापन्न उच्यते, अविग्रह भवविहारिणो सा, विग्घकरी वेयणा समुढेइ" इह भवविहा-रिणो / गतिसमापन्नस्तु ऋजुगतिकः स्थितो वा, विग्रहगतिनिषेधमात्राश्रयणात्। विघ्नकरी-विग्यविधातकारिणी वेदना समुत्तिष्ठति। संघा०१ अघि यदि चाविग्रहगतिसमापन्न ऋजुगतिक एवोच्यते तदा नारकादिपदेषु विग्घजय-पुं०(विघ्नजय) विघ्नस्य धर्मान्तरायस्य जयः-परिभवो सर्वदेवाविग्रहगतिकानां यद्बहुत्वं वक्ष्यति तन्न स्याद्, एकादीनामपि निराकरणम् ! विघ्नाभिभवे, षो०३ विव०। (विघ्नविजय वक्तव्यता तेषूत्पादश्रवणात्। टीकाकारेण तु केनाप्यभिप्रायेणाविग्रहगतिसमापन्न 'धम्म' शब्दे चतुर्थभागे 2670 पृष्ठे गता।) ऋजुगतिक एव व्याख्यान इति। 'जीवा णं भंते !' इत्यादि प्रश्नः / तत्र विग्यविघायणहेउ-पुं०(विघ्नविघातनहेतु) उपद्रवविनाशनार्थे, जी०१ जीवानामानन्त्यात् प्रतिसमयं विग्रह-गतिमतां तन्निषेधवतां च बहूनां प्रति भावादाह- "विम्गहगई' इत्यादि। नारकाणां त्वल्पत्वेन विग्रहगतिमतां विग्धोवसमणी-स्त्री०(विघ्नोपशमनी) विघ्नानुपशमयतीति विघ्नोपकदाचिदसम्भवाद् / सम्भवेऽपि चैकादीनामपि तेषां भावाद्, विग्रह शमनी। पूजाभेदे, षो०८विव०। ('पूया' शब्दे पञ्चमभागे 1075 पृष्ठे गतिप्रतिषेधवतां च सदैव बहूनां भावात् / आह-'सव्ये वि ताव होज दर्शितषा।) अविगहे' त्यादि विकल्पत्रयम्। असुरादिषु एतदेवातिदेशत आह- 'एव' विघडण-न०(विधटन) विनाशने, ज्ञा०१ श्रु०१अ०। मित्यादि-जीवानां निर्विशेषाणामेकेन्द्रियाणां चोक्तयुक्त्या विग्रहगति विघण-न०(विधन) विगतं घनं-मेघ यत्र। मेघरहिते, ज्ञा० १श्रु०६अ01 सत्वे तत्प्रतिषेधे च बहुत्वमेवेतिन भङ्गत्रयम, तदन्येषु तु त्रयमे- | विघाय-पुं०(विघात) अन्तरे, विशे० वेति। 'तियभंगो' त्ति त्रिकरूपो भङ्गस्त्रिकभङ्गो, भङ्गत्रयमित्यर्थः। भ० | विघुट्ठ-त्रि०(विघुष्ट) विरूपघोषकरणे, प्रश्न०३ आश्रद्वार। १श०७उo विचक्खु-पुं०(द्विचक्षुष्) द्वाभ्यां चक्षुरिन्द्रियावधिभ्यांतत्त्वग्रहीतरि, स्था० विग्गहगइसमावन्नग-त्रि०(विग्रहगतिसमापन्नक) तद्गतिप्राप्तेवु, भ०१ ३ठा०४ उ०। श०२ उम विचचिया-स्त्री०(विचर्चिका) विपादिकायाम, बृ०१३०३प्रक०। प्रश्न०। विग्गहविग्गहिय-पुं०(विग्रहविग्रहिक) विग्रहो-वक्रं तद्युक्तो विग्रहः-शरीरं | विचिकी-स्त्री०(विचिकी) वाद्यभेदे, रा० यस्यास्ति स विग्रहविग्रहिकः। वक्रकाये, भला विचित्त-त्रि० (विचित्र) विविधरूपवति, ज्ञा०१ श्रु०२ अ०। उच्यते.
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________________ विचित्त 1136 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विच्छिण्ण 'नानाप्रकारे, विशेला चं०प्र०। अपूर्वे, आ०म०१ अ०। प्रज्ञा०नि० चू० / जायं।'' एव मेव भावे / सूत्रं व्यत्यानेडयति ''सव्वभूय--भूयस्स सम्म विविधवर्णविशेषवति, स्था०१ठा०३उ०। विविधचित्र-युक्ते, सू०प्र०२० भूयाईपासओ'' अत्रेदमपि घटत इति कृत्वा क्षिपति। श्रूयतां धर्म सर्वस्वं पाहु०। कुबुरे, ज्ञा०१ श्रु०६ अ०। स्था०। 'विचित्तवत्था- श्रुत्वा चैवावधार्यतामात्मनः प्रतिकुलानि परेषां न समाचरेत् / भावतो भरणे" विचित्राणि वस्त्राणि वाऽऽभरणानि च यस्य वस्त्राण्येव वाऽऽ-- व्यत्यानेडितं सूत्रं कुर्वतोऽर्थस्य विसंवाद इत्यादि विभाषा प्रागिव या भरणानि-भूषणानि अस्याभरणानि अवस्थोचितानीत्यर्थो यस्य स दीक्षा निरर्थिका। बृ०१ उ०१ प्रक०। तथा। स्था०८ ठा०३ उ०। 'विचित्तउल्लोए' विचित्रो विचित्रकलित विच्चामेलियदाण-न०(व्यत्यानेडितदान) वितथसूत्रार्थप्रदाने, विशे० उल्लोकः उपरिभागो यत्र तत्तथा / कल्प०१ अधि०२ क्षण / भ०। विच्चुइ-स्त्री०(विच्युति) विस्मरणे, विशे०। 'विचित्तमणिरयणकुट्टिमतले विचित्राणां मणिरत्नानां कुट्टिमतलं विच्चय-त्रि०(विच्युत) विस्मरतः पतिते, व्य०८ उ०। वद्धभूभागो यस्य स तथा / कल्प०१ अधि०७ क्षण / जी0। 'विचित्त- विच्चुया-स्त्री०(विच्युता) चतुरिन्द्रियजीवभेदे, प्रज्ञा०१ पद। जी०। मालामउली' विचित्रा मालाश्च पुष्पमाला मौलिश्च शेखरो यस्य स तथा। विचोयण्ण-न० उपधानके, जी० 3 प्रति०४ अधि०। कल्प०| स्था०८ ठा०३ उ०। 'विचित्तसुहकेउबहुला' विचित्रै नाप्रकारैः विच्छडु-पुं०(विच्छद) "सम्मर्द-वितर्दि-विच्छर्द-च्छर्दि-कपर्द-मर्दिते शुभैर्मङ्गलभूतैः केतु-भिर्ध्वजैर्बहुला व्याप्ता विचित्रशुभकेतुबहुला। रा०) दस्य" / / 8 / 2 / 36|| इति र्दस्य डः। प्रा०। महति जनसाम-ग्रीसम्म, जंग। 'विचित्त-हत्थाभरणे' विचित्राणि नानारूपाणि हस्ताभरणानियेषां "ह्यः प्रवेशोऽभवद्यस्य, विच्छन महीयसा।' आ० क० 10 // ते विचित्रहस्ताभरणाः / जी०३ प्रति०४ अधि०। स्था०। भ०। वेणु- | विच्छाइत्ता-अव्य०(विच्छद्य) विशेषेण त्यक्त्वेत्यर्थे, कल्प०१अधि० देववेणुदारिणोः पूर्वलोकपाले, स्था०४ ठा०१ उ०। ५क्षण। विचित्तकुसुम-न०(विचित्रकुसुम) नानाविधपुष्पे,पञ्चा०८ विव०। विच्छडिय-त्रि०(विच्छर्दित) त्यक्ते, स्था०८ ठा०३ उ० "विच्छड्डिविचित्तकूड-पुं०(विचित्रकूट) जम्बूद्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्यपूर्वे शीतोदाया यपउरभत्तपाणे'' विच्छर्दितप्रचुरभक्तपानः। विच्छर्दिते त्यक्ते बहुजनमहानद्या दक्षिणे वक्षस्कारपर्वते, स्था० 10 ठा०३ उ०। भोजनदानेनावशिष्टोच्छिष्टसंभवात् सञ्जातविच्छ वा नानाविधभक्तिके विचित्तत्थग-पुं०(विचित्रार्थ) बहुधार्थेषु,षो०६ विव०। भक्तिपाने यस्य स तथा। ज्ञा० 1 श्रु०१ अ०। विच्छर्दितं विविधमुज्झितं विचित्तपक्ख-पुं०(विचित्रपक्ष) चतुरिन्द्रियजीवभेदे, जी०१ प्रति०। बहुलोकभोजनत उच्छिष्टावशेषसम्भवात् / विच्छर्दितं वा विविधं प्रज्ञा०। वेणुदेववेणुदारिणोरुत्तरलोकपाले, स्था०४ ठा०१ उ०। भा विच्छित्तिमद् विपुलं भक्तं च पानकं च येषां ते तथा। भ०३ श०५ उ०| विच्छर्दिते त्यक्ते बहुजनभोजनावशेषतया विच्छर्दितवती विभूतिमती विचित्तभेद-त्रि०(विचित्रभेद) बहुप्रकारे, पञ्चा०१६ विव०॥ विविधभक्ष्य--भोज्यचोष्यलेह्यपेयाहारभेदयुक्ततया प्रचुरे भक्तपाने येषु विचित्तवेस-त्रि०(विचित्रवेष) विविधवस्त्रादिनेपथ्यधारिणि, बृ०१ उ०३ तानि तथा। स्था०५ ठा०३ उ०। प्रामुक्ते, पाइ० ना०७६ गाथा। प्रक० विच्छय-त्रि०(विक्षत) विविधप्रकारेण पीडिते, "वाहेण जहावा--वच्छिए विचित्ता-स्त्री०(विचित्रा) ऊर्ध्वलोकवास्तव्यायां दिकुमार्याम, आ० चू० अबले होइ गवं पचोइए।" सूत्र०१ श्रु०३ अ०१ उ०। अनेकप्रकारं हते, 1 अ०। स्था०। आव०ा अधोलोकवासिन्यां दिकुमार्याम्, आ००१ सूत्र०१ श्रु०३ अ०१ उ०। अ०। आ०म० ज० निका विच्छवि-त्रि०(विच्छवि) विगतच्छाये, स्फुरितच्छयौ, जी०३ प्रति०१ विच-त्रि०(विचय) च्युते, वाते, जी०३ प्रति०४ अधि०। आ०म० ___ अधि०२ उ० अपान्तराले. पं०व०२ द्वार। विच्छिदण-पुं०(विच्छेदन) बहुवारं सुष्छ वा छेदने, नि०चू०३ उ०॥ विचवण-न०(विच्यवन) भ्रंशे, विशे०। विच्छिदमाण-त्रि०(विच्छन्दत्) नितरामसकृद्वा छिन्दति, भ०८२० विचामेलिय-न०(व्यत्यामेडित) विपरीते, विशेष 3 उ०। विशेषेण विविधतया वा छिन्दति, भ०१५ शा विशे० विनामेलणे अन्नु-नसत्थपलवविमिस्सपयसेवो। विच्छिदावंत-त्रि०(विच्छिन्दत) नितरामसकृदा छिन्दति,नि० चू०१० तं चेव यहिट्तुवरिं, वायडे आवली नायं // 267|| विच्छिण्ण-त्रि०(विच्छिन्न) सान्तरे, विशेष व्यत्याने डितं नाम अन्यान्यशास्त्रपल्लवविमिश्राणां तत्र द्रव्यतो *विस्तीर्ण-त्रि०ा पृथुले, अतिविस्तीर्णे, प्रश्न०४ आश्र० द्वार / व्यत्यानेडिते पायसमुदाहरणम्-"जहा कोलिया वइयं गया तत्थ तेहिं विस्तारवति,स्था०८ठा०३उाजाआ०म०। “विच्छिन्न–विपुल-भवणपरमन्नं रंधेमो दुई आरहितं, इत्थ जं जं बुज्झइ तं तं पायसो भवइ त्ति सयणा' --विस्तीर्णानि--विस्तारवन्ति विपुलानि-बहूनि भवनानि- गृहाणि तंदुला चवला मुग्गा तिला कुकुसा बु(छ) ढंतं सव्वं विणटुं अकिंचिकरं शयनानि-पर्यादीनि आसनानि-सिंहा-सनादीनि यानानि रथादीनि वा--
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________________ विच्छिण्ण 1140- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विजय हनानि च वेगसरादीनि येषु कुलेषु तानि तथा। स्था० 8 ठा० 3 उ०। ठा०३ उ० स०। अभ्युदये, चं० प्र०१८ पाहुाजी०। रा०।०। अपरेविच्छिण्णतर(पुस्तकानुरोधात)-त्रि०(विस्तीर्णतर) विष्कम्भतो षामभिभवे, ज्ञा० 1 श्रु० 1 अ०। विपा०ा परेषामसहमानानामविस्तीर्णे , भ०१३ श०३ उ० भिभवोत्पादे, जी०३ प्रति०४ अधिo! विच्छिण्णदोहला-स्त्री० विच्छिन्नदोह(दोह)दा विवक्षितार्थवाञ्छानु विजयश्च षोढाबन्धायाम, विपा० 1 श्रु०२ अ० लोगो भणिओ दवं, खित्तं कालो अभावविजओ अ। विच्छित्ति-स्त्री०(विच्छित्ति) भक्तिषु, विशे०। रा०ा विन्यासे, 'विन्नासो मवलोगभावविजओ, पगयं जह वज्झई लोगो॥१६७।। विच्छित्ती' पाइ० ना० 116 गाथा। विजयस्य तु निक्षेपं नामस्थापने क्षुण्णत्वादनादृत्य द्रव्यादिक-माहविच्छिप्पमाण-त्रि०(विच्छुप्यमान) विशेषेण स्पृश्यमाने, "मणोमाला- | 'दव्व' मित्यादिना, द्रव्यविजयोव्यतिरिक्तो द्रव्येण द्रव्यात् द्रव्ये वा विजयः सहस्सेहिं विच्छिप्पमाणे" जं०२वक्षः। कल्पना कटुतिक्तकषायादिना श्लेष्मादेनॅपतिमल्लादेर्वा / क्षेत्रविजयः षट्खण्डविच्छुडिय-त्रि०(विच्छुटित) मुक्ते, ज्ञा०१ श्रु०१६ अ०॥ भरतादेर्यस्मिन् वा क्षेत्रे विजयः प्ररूप्यते / कालविजय इति कालेन विच्छुय-पुं०(वृश्चिक) पुच्छकण्टकविषधरे चतुरिन्द्रिजीवभेदे, स्था०४ विजयो यथा षष्ठिभिर्वर्षसहस्रैर्भण्यते न जितं भरतम्, कालस्य प्राधा न्यात्, भृतककर्मणि वा मासोऽनेन जित इति, यस्मिन् वा काले विजयो ठा०४ उ० आचा०। प्रज्ञा०। जी०) व्याख्यायत इति / भाववि-जय औदयिकादेर्भावस्य भावान्तरेण विच्छुयडंक-पुं०(वृश्चिकडक) वृश्चिकपुच्छकण्टके, प्रश्न०१आश्र० द्वार। औपशमिकादिना विजयः / तदेवं लोकविजययोः स्वरूपमुपदर्थ्य विच्छुयविजा-स्त्री०(वृश्चिकविद्या) वृश्चिकप्रधाना विद्या वृश्चिकविद्या। प्रकृतोपयोन्याह-'भवे' त्यादि, अत्र हि भवलोकग्रहणेन भावलोक शतसहस्रवृश्चिकविकुर्वणात्मिकायां परिव्राजकविद्यायाम, आ० म०१ अ०। एवाभिहितः, छन्दोभङ्गभीत्या ह्रस्व एवोपादायि, तथा चावाचि--''भावे विच्छुरिअग-त्रि०(विच्छुरितक) जटिते, पाइ० ना० 80 गाथा। कसायलोगो, अहिगारो तस्स विजएणं ति, तस्य औदयिकभावकषायविच्छुलंगुल-न०(वृश्चिकलाङ्कल) वृश्चिकपुच्छे, वृश्चिकलागूल--संस्थानं लोकस्य औपशमिकादिभावलोकेन विजयः।आचा०१ श्रु०२अ०१ उ०। पूर्वाषाढायाः। जं०७ वक्षा तेनैव भावलोकविजयेन किं फलमित्याहविच्छूट-त्रि०(विक्षिप्त) विक्षिप्ते, पाइ० ना०५३ गाथा। विजिओ कसायलोगो, सेयं खु तओ नियत्तिउं होइ। विच्छेय-पुं०(विच्छेद) विविधैः प्रकारेश्छेदे, उपा०७ अ० विशेादशा०! कामनियत्तमई खलु, संसारा मुचई खिप्पं // 168|| विच्छेयण-न०(विच्छेदन) दूरे व्यवस्थापने, विशेषेण छेदने, स्था०५ ठा० विजितः-पराजितः कोऽसौ? कषायलोकः औदयिकभावकषायलोक 10) इति यावत्। विजितकषायलोकः सन् किमवाप्नोतीत्याह-संसारान्मुविच्छोल-धा०(कपि) चलने, "कम्पेर्विच्छोलः" ||4|46|| कम्पेयॆ- च्यते क्षिप्रम्, अतस्तस्मान्निवर्तितुं श्रेयः, खलुक्यालङ्कारे, अवधारणे न्तस्य विच्छोल इत्यादेशो वा। विच्छोलइ। कंपेइ। कम्पते। प्रा०४ पाद। वा, निवर्तितुं श्रेय एव / किं कषायलोकादेव निवृत्तः संसारान्मुच्यते विच्छोलिअ-त्रि०(विच्छोलित) धावने, “धोविच्छोलिअं' पाइ० आहोश्विदन्यस्मादपि पापोपादान-हेतोरिति दर्शयति-'कामे' त्यादि, ना० 261 गाथा। प्रा०। गाथार्द्ध सुगमम् / गतो नाम-निष्पन्नो निक्षेपः / आचा०१ श्रु० २अ०१ विच्छोह-पुं०(विक्षोभ) विरहे, "पिअ-माणुस-विच्छोहगरु गिलिगिलि उ०। "जएणं विजएणं वद्धावेइ" जय विजयेत्यादिभिर्मङ्गलाभिधायराहुमयंकु" / प्रा० 4 पाद। कवचनशतैरित्यर्थः वर्धयते।औ०रा०ा लोकोत्तररीत्या आश्विनमासे, विजइंदसूरि-पुं०(विजयेन्द्रसूरि) देवेन्द्रसूरिसतीर्थ्य देवभद्रसूरिशिष्ये, जं०७ वक्ष०। सू०प्र०ाज्यो०। अहोरात्रस्य सप्तदशे मुहूर्ते, विजये मुहूर्ते षष्ठेन भक्तेन निर्गतः श्रीवीरजिनः / आ०म०१ अ०। आ०चू०। कल्प। बृ०। "तृतीयशिष्याः श्रुतवारिवार्धयः, परीषहाक्षोभ्यमनः समाधयः / ज्यो० द०प०। ज्ञा० स०॥ चं० प्र०) चक्रवर्तिविजेतव्ये क्षेत्रे, स्था०२ जयन्ति पूज्या विजयेन्द्रसूरयः, परोपकारादिगुणौघसूरयः" // 13 // बृ० ठा० 4 उ०। (विजयाः ‘धायइसंडदीव' शब्दे चतुर्थभागे 746 पृष्ठे ६उ। व्याख्याताः।) विजढ-न०(विहीन) परित्यक्ते, पं०व०१द्वार। ओघालाव्या कहिणं भंते ! जम्बुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे सुकच्छे णाम विजंभिय-न०(विजृम्भित) मुखविस्फाटने, विशेष विजए पण्णत्ते ? गोयमा ! सीआए महाणईए उत्तरेणं णीलवंतविजण-त्रि०(विजन) विगतजने, आव०४ अ०। स्स वासहरपव्वयस्स दाहिणेणं गाहावईए महाणईए पच्चविजय-पुं०(विचय) निर्णये, स्था० 10 ठा०३ उ०। त्थिमेणं चित्तकूडस्स वक्खारपध्वयस्स पुरथिमेणं एत्थ णं *विजय-पुंज परदेशजये, कल्प०१ अधि०१ क्षण। समृद्धौ, स्था० 10 | जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे सुकच्छे णामं विजए पण्ण
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________________ विजय 1151- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विजयकुमार ते, उत्तरदाहिणायए जहेव कच्छे विजए, तहेव सुकच्छे विजए, णवरं खेमपुरा रायहाणी सुकच्छे राया समुप्पज्जइ तहेव सवं / (सू०-६५+) 'कहिण' मित्यादि, सर्वं सुगमं कच्छतुल्यवक्तव्यत्वात, नवरं खेमपुरा राजधानी सुकच्छस्तत्र राजा चक्रवर्ती समुत्पद्यते, विजयसाधनादिकं तथैव सर्वं वक्तव्यमिति शेषः / उक्तः सुकच्छः। जं०४ वक्षः। (महाकच्छविजयवक्तव्यता 'महाकच्छ' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 184 पृष्ठे गता )(कच्छकावतीविजयवक्तव्यता'कच्छगावई शब्दे तृतीयभागे 186 पृष्ठे गता।)-(आवर्तविजयव्याख्या 'आवट्ट' शब्दे द्वितीयभागे 440 पृष्ठे गता )-(मङ्गलावर्तविजयवक्तव्यता 'मंगलवत्तविजय' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 17 पृष्ठे गता।)-(पुष्कलावर्तविजयवक्तव्यता 'पुक्खलावत्तविजय' शब्दे पञ्चमभागे 668 पृष्ठे गता।)-(पुष्कलावतीचक्रवर्तिविजयवक्तव्यता, पुक्खलावई' शब्दे पञ्चमभागे९६७ पृष्ठे गता।)-(वत्सविजयवक्तव्यता 'वच्छ' शब्देऽस्मिन्नेव भागेगता।)ऊर्ध्वलोके प्रथमानुत्तरोपपातिकविमाने, तवास्तव्येषु देवेषु च। स० ! अनु०। प्रज्ञा० / स्था० / चं० प्र०ा जी०जम्बूद्वीपस्यलवणसमुद्रस्य धातकीखण्डस्य कालोदस्य पुष्करवरद्वीपस्यपुष्करोदस्य च पूर्वद्वारेषु, स्था०४ ठा०२ उ०। विजयद्वाराधिपतौ देवे, जी०३ प्रति०४ अघि० जी०। संघा०ा जा (द्वारस्य देवस्य च वर्णको 'लवणसमुद्द' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 623 पृष्ठे दर्शितः।) नालन्दायां वीरजिनस्य प्रथमभिक्षादायके श्रेष्ठिनि, भ० 15 श० / कल्पका आ० का आ०म०। चतुर्दशतीर्थकरस्यानन्तजितः प्रथमभिक्षादायके, स० आ०म०/ वाणिजकग्रामे उज्झितकस्य दारकस्य पितरि, स्था० 10 ठा०३ उ०। पोलासपुरनगरे अतिमुक्तककुमारपितरि,स्था० 10 ठा०३ उ०। अन्त०। मृगापुत्रपितरि, मृगग्रामराजे, स्था० 10 ठा०३ उ०। उपा०। अस्यामवसर्पिण्यां जाते द्वितीयबलदेवे , स०। उत्सर्पिण्या भविष्यति द्वितीयबलदेवेच। स०७३ समा आव०।तिका तहेव विजओ राया, अणट्ठा कित्तिपव्वए। रज्जं तु गुणसमिद्धं, पयहित्तु महायसो // 50 // हे मुने! तथैव विजयो नामा द्वितीयो बलदेवो राजा प्रव्रजितो-दीक्षां प्रपन्नः, किं कृत्वा राज्यं तु पयहित्तु' इति परिहृत्य / कीदृशं राज्यम्-- गुणसमृद्धं गुणैः-सप्ताङ्गै पूर्णम्-स्वाम्य १मात्य 2 सुहृत् 3 कोश 4 राष्ट्र 5 दुर्ग६ बलानिच 7 राज्याङ्गानि। अथवा गुणैः इन्द्रियकामगुणैः पूर्णम् / कीदृशो विजयः 'अणट्ठा' अनातः आर्तध्यानरहितः, पुनः कीदृशः, कीर्तिः–कीर्त्या उपलक्षितः, अथवा 'अणडाकित्ति' इति अनष्टा कीर्तिः आसमन्तात् नष्टा अकीर्तिर्यस्य स अनष्टाकीर्तिः / अयशोरहितः। 50 / अत्र विजयराजकथा-द्वारावत्यां ब्रह्मराजस्य पुत्रः सुभद्राकुक्षिसम्भूतो विजयो नाम द्वितीयो बलदेवोऽस्ति, सच स्वलघुभ्रातृद्विसप्ततिवर्षशतसहस्रायुर्द्विपृष्ठवासुदेवमरणानन्तरं श्रामण्यमङ्गीकृत्य उत्पादितकेवलज्ञानः पञ्चसप्ततिवर्षशतसहस्राणि सर्वायुरतिवाह्य मुक्तिंगतः सप्ततिधनूंषि चानयोर्देहमानमिति। उत्त०१८ अ०। प्रव० / स०) विजए णं बलदेवे तेवत्तरि वाससयसहस्साइंसव्वाउयं पालइत्ता सिद्धे० जाव सव्वदुक्खप्पहीणे // 73 / / तथा विजयो द्वितीयो बलदेवस्तस्येह त्रिसप्ततिवर्षलक्षाण्यायुरुक्तम् / आवश्यके तु-पञ्चसप्ततिरितीदमपि मतान्तरमेव / स०७३ सम०। अष्टषष्टितमे ऋषभदेवपुत्रे, कल्प०१ अधि०७ क्षण। जयस्य एकादशचक्रवर्तिपितरि, स०। उत्सर्पिण्या भविष्यति विंशतितमे तीर्थकरे, प्रव० 46 द्वार / ती०। श्रीचन्द्रप्रभस्य शासनयक्षे, स हरितवर्णस्त्रिलोचनो हंसवाहनो द्विभुजः कृतदक्षिणहस्तचक्रो वामहस्तधृतमुद्रश्च। प्रव० 26 द्वार / पुरिमतालनगरस्य उत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे शालाटवीपल्लीराजे चोरसेनापतौ स्कन्ध-श्रीभर्तरि अभग्नसेनपितरि, विपा०१ श्रु०१ अ० भृगुकच्छपुरसमवसृतसूरिशिष्ये, योऽवन्तीपुर्यां किञ्चित्कार्यार्थ दौत्याय प्रेषितः। आव० 4 अ०। आ० क०। राजगृहवासिनि स्वनामख्याते तस्करराजे, ज्ञा०१श्रु २अ०१ ('धण' शब्दे चतुर्थभागे 2645 पृष्ठे धनसार्थवाहवक्तव्यतायां तत्सम्मिश्रा एतद्वक्तव्यतोक्ता।) एकविंशतीर्थकरस्य नमः पितरि, मत्स्यभेदे च / जी०३ प्रति०४ अधिक। वप्रापतौ, स०६ सम०। ति विजयकुमार-पुं०(विजयकुमार) लज्जालुत्वेन प्रसिद्ध स्वनामख्याते विशालापुरीराजजयानुगपुत्रे, ध० 20 // "अत्थि सुविसालसाला, दुहा विसाला पुरी विसाल त्ति। तत्थ निवो जयतुंगो, चंदवई तस्स पाणपिया // 1 // लज्जानइ नरनाहो, पडुपयडपयावविजियदिणनाहो। परकजसजचित्तो, विजओ नामेण तप्पुत्तो / / 2 / / अन्नम्मि दिणे, कोई, जोई निवभवणसंठियं कुमरं। भालयलमिलियकरकम-लसंपुडो फुडमिमं भणइ ||3|| कुमर ! मह अज्ज कसिण-ट्ठमीइरयणीइ भइरवमसाणे। मंतं साहंतस्स य, तं उत्तरसाहगो होसु॥४॥ तं पडिवज्जइ कुमरो, परो परोहप्पहाणमणकरणो। पत्तो य भणियठाणे, करे करेऊण करवालं / / 5 / / तो जोई जो जोइ, कुंडकलियं करित्तु सुपवित्तो। रत्तकणवीरगुग्गल-माईहिं तं च तप्पेउं / / 6 / / पभणिय निसगउवस-ग वग्गसंसग्गरंगिरे तत्थ। नियसत्तचत्तडरभर-कुमर ! खणं होसु अपमत्तो / / 7 / / निरुनियनासावस-ग लग्गनयणो जवेइ जा मंतं / कुमरो विजाव चिट्ठइ,तप्पासे खग्गवग्गकरो।।८।। ताव निरवञ्जविज्जो, एगो विजाहरो तहिं पत्तो। अह जंपइ कुमरं पइ, निडालतडघडियकरकोसो // 6 तुममुत्तमसत्तधरो, सि सरणपत्ताण तुं सरनो सि। बहु अत्थि सत्थमणचिं-तयत्थकप्पमो तुं सि॥१०॥ ता तायव्वा ताय-व्व पुत्तिया महदुपिया इमा तुमए। जा वेरि खेयरंद--प्पदुद्धरं जिणिय एमि अहं // 11 // किं कायव्वविमूढो ................. वि चिट्ठए कुमरो। ता झत्ति उप्पइत्ता, पत्तो खयरो अदिट्ठिपहं // 12 //
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________________ विजयकुमार ११४२-अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विजयकुमार इत्थंतरम्मि नियसिय, कत्ती कत्ती रउद्दपाणितलो। असिमसिकसिणसरीरो, गुंजापुंजारुणत्थिउडो॥१३।। अट्टहासजियकु-ट्टमाणवंभंडभंडचंडरवो। हण हण हण त्ति भणिरो, समुडिओ रक्खसो एगो॥१४॥ भणइ य जोइं रेरे, अणज्ज ! अज्ज वि अकजसज्ज इहं। मज्झ विपूयमकाउं, चिट्ठसि ता धिट्ठ! नट्ठोऽसि / / 15|| मह मुहकुहरहुयासे, तुह संगिल्लं इमं कुमारं पि। लहु दहउ तणगणं पिव, अहव कुसंगो न किं जणई॥१६|| तव्वयणसवणउप्प-नमन्नुभरिओ भणेइतो कुमरो। रे रे! तुहऽज्ज पत्तं, कयं तदत्तं समणुपत्तं // 17|| मइपासठिए विग्धं, इमस्स सक्को विकाउन हुसक्को। इय जपतो पत्तो, झत्ति कुमारो तयासन्नं / / 18|| अह दोवि कोवकडनिव-डभिउडिणो फुरफुरंतअहरदला। अन्नुन्नं पहरता, तज्जंता फरुसवयणेहिं / / 16 / / जा संपत्ता दूरं, ता नवरयणीयरु व्व रयणियरो। खिणमित्तेणं कुडिलो, नयणअगोयरपहं पत्तो // 20 // पडियागओ कुमारो, गयजीयं जोइयं निएऊण। गुरुतरविसायविहुरो,पलोयए खेयरि तेण // 21 // तमवि मयच्छिमपिच्छिय-हयसव्वस्सुव्य दीणकसिणमुहो। निंदइ अत्ताणमत्ता-ण कारणं सरणपत्ताणं / / 22 / / इत्तो झत्ति स पत्तो, खयरो कुमरं नमित्तु वज्जरइ। तुज्झ पभावेण मए, निहओ दक्खो विपडिवक्खो // 23 // ता परनारि सहोयर ! सरणागयवजपंजर ! सुधीर!। अणवज्जकज्जअप्पसु, मह पाणपियं पियं कुमर ! ||24|| परकजउज्जयमणो, अह बीओ नत्थि इत्थ जियलोए। जयतुंगरायवंसो, विभूसिओ तुज्झ जम्मेण // 25 // जह जह थुव्वइ कुमरो, तह तह उव्विग्ग माणसो धणिय। लज्जाभरमंथरकं-धरो य नहु किं पिजंपेइ॥२६॥ तं पइ पुणो पयंपइ, खयखारं पिव खरं गिरं खयरो। जइ तुह कज्जं मह पण-इणीइ ता जामि एस अहं / / 27 / / तुह-सरिसपवरपुरिस--स्स महप्पिया जइसिजाइ उवओगं। लद्धं जं लहियव्वं, मणं पि मा कुणसु मणखेयं / / 28|| इय वुत्तं उप्पइओ, खयरो ता चिंतए इमं कुमरो। अहह बहू पावभरिओ, निम्मलकुलदूसणो अह य॥२६॥ सरणागए न रक्खइ, विजयकुमार त्ति किं न पज्जत्तं / जं कुणसि परत्थिकलं-कअंकियं मज्झरे दिव्व ! // 30 // वरमिहपाणच्चाओ, लज्जिक्कधणाण पवरपुरिसाणं / भट्ठपइन्नण कलं-कियाण न जियं पि जं भणियं // 31 // लज्जां गुणौधजननी जननीमिवार्यामत्यन्तशुद्धहृदयामनुवर्तमानाः॥ तेजस्विनः सुखमसूनपि संत्यजन्ति। सत्यव्रतव्यसनिनो न पुनः प्रतिज्ञाम्॥३२॥ इइ चिंताभरविहुरं, कुमरं को वि हुसुरो सुकंतिल्लो। जंपइ आहरणपहा, उज्जोइयसयलदिसिचक्को।।३३।। मा कुणसुकुमर ! खेयं, सेयं एवं सुणेहि मह वयणं। इयरो वि भणइ तुह वय-णसवणपवणा य मे सवणा॥३४|| आह सुरो वीरपुरे, पुरम्भि जिणदासनामवरसिट्ठी। कयगुरुजणअणुसिट्ठी अइधम्मिट्ठी विमलदिट्ठी / / 3 / / तस्स य मिच्छद्दिट्ठी, मित्तो अइवल्लहो धणो नाम / सो पडिवज्जइ वज्जि-विसओ ताव सवय कइया // 36|| तो चिंतइ जिणदासो, एए अन्नाणिणो वि जइ एव / पावभरपसरभीरू, विसं व विसए परिहरंति॥३७।। अवगयभवस्सरूवा, जिणपवयणवसवणनायनायव्वा। निम्मलविवेइणो विहु, ता कि अम्हे न ते चइमो॥३८|| इव चिंतित्तु सविणयं, विणयंधरगुरुसमीवगाहियवओ। अणसणविहिणा मरिउं, जाओ सोहम्मसग्गसुरो॥३६।। मित्तं पिवंतरं तं, जायं सो झत्ति ओहिणा दटुं।। निययं रिद्धिसमुदयं, निदसए बोहणत्थं सो॥४०॥ चिंतेइ वंतरो तो, अव्वो लहिऊण मणुयजम्ममहं; जइ जिणधम्म तइया, सेवंतो तो सुही हुंतो॥४१॥ जइरे जिय! गुणगुरुणो, गुरुणो अमरत्तरु व्व सेवंतो। तो रुद्ददरिदं पिद,नलहंतो हीणअमरत्तं // 42 // जइ जियजिणपवयण अम--यपाणपवणो तया तुम हुँतो। असरिस अमरिसक्सिपर-वसत्तणं तो न पावंतो॥४३॥ इचाइ बहुवियं जू-रिऊण नियमित्तअमर वयणेण। सम्म सम्म॑धम्मो, पडिवन्नो मुक्खतरुबीयं // 44 // दसवरिससहस्सठिई, निययं जाणित्तु भणइ सुरपवरं। परकजचित्तमणुय-तणे वि बोहिज मित्त ! ||45|| तियसेण विपडिवन्ने, उव्वट्टिय वंतरोतुमं जाओ। एकंतवीरवित्ती, न मुणसि नाम पि धम्मस्स॥४६|| तो तुज्झ बोहणकए, मए इमा बहुल बहुलिया विहिया। ओहावणं अपत्ता, जनहु बुज्झंति माणधणा॥४७॥ इय सुणमाणुचिय जा-इसरणफुडवियडमुणियनियचरिओ। कुमरो विन्नवइ सुरं, विबोहिओ साहु साहु तए।।४८|| तुमह मित्तो तुम-ज्झ-बंधवो तुं सया गुरू मज्झ। इय भणिय गिण्हइवयं, सुरअप्पियसाहुनेवत्थो॥४६॥ तो कयकाउस्सग्गं, कुमरमुणिं खामिउं पणमिउंच। पत्तो सुरो सठाणं, उदिओ इत्थंतरम्मि रवी // 50 // तत्थेव तया पत्तो, जयतुंगनिवो वि कुमरसुद्धिकए। पुत्तं निइत्तु सहस, त्ति लुतविहुरं भणइ दीणो // 51 / / हा वच्छ! पणयवच्छल! छलिया अम्हे विकह तए एवं। धवलजस धरसु अज्ज वि, रजधुरुद्धरणधवलत्तं // 52 // बुड्ढवय उचियमेयं, वयमुजसु झत्ति सत्तिनयनकलियं!। तुह वयणामयपाणं, लहुलहइ जणो इमो वच्छ॥५३॥ इय जपंतं निसुणियं, मोहतिव्वं निवं विबोहेउं। पारियकाउस्सग्गो, कुमरमुणी भणइ वयणमिणं // 54|| भो भो नरिंद! तडिलय-चलाइ अभिमाणमित्तसुहयाए। सग्गापवग्गसंस-गमग्गगुरुविग्धभूयाए॥५५॥ नरयअइदुसह दुहका-रणाइ धम्मतरुजलणजालाए। कोणप्पमई अप्पं विडंबए रायलच्छीए॥५६|| पिउणा जणियं लच्छिं, भइणं पिव अप्पणा उधूयं व। परसतियं परत्थिं,व किह ण सेविज लज्जालू॥५७|| पवणपहरिल्लकम्मलग्ग-लग्गजललवचलम्मि जीयम्मि। कल्ले काहं धम्म,को भणइ सकन्न विन्नाणो / / 5 / / जओजस्स ऽत्थि मच्घुणा सक्खं,जस्स वऽस्थि पलायणं / जो जाणे न मरिस्सामि, सो हु कंखे सुएसियं / / 5 / /
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________________ विजयकुमार 1143 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विजयसिंह तथा श्रितवति प्राज्यं च राज्याकृती, ग्रन्थोऽयं वितनोतु कोविदकुले मोदं जा जा वच्चइ रयणी, न सा पडिनियत्तए। विनोदतथा।।१।। प्रत्यक्षरं निरूप्यास्य, ग्रन्थमानं विनिश्चितम्। अनुष्टुभां अहम्मं कुणमाणस्स, अफला जंति राइओ॥६०॥ सहस्राणि, त्रीणि षट् च शतानि वै // 2 // " श्रीतपागच्छे श्रीविजयदेवतथा सूरिवराणां गच्छे श्रीजीतविजयप्राज्ञास्तेषां सा तीर्थ्यधराः श्रीनयजो जाणइ पुणरुत्तं, कइया होही उ धम्मसामगी। विजयप्राज्ञाः / अष्ट०३२ अष्ट रंकधणुव्व विहिजउ, वयाण इहि पि पत्ताणं // 61 // विजयदेवा-स्त्री०(विजयदेवा) मण्डिकमौर्यपुत्रयोर्वीरगणधरयो-तिरि, इय सुणियगलियमोहो, संवेयविवेयपरिगओ राया। आ०म० अ० कुमररिसिपायमूले, सम्म गिण्हइ गिहीधम्मं // 6 // विजयपुर-न०(विजयपुर) सुमतिनाथस्य तीर्थकृतः प्रथमपारणभत्तीइ मुणिं नमिउं, खामित्तु गओ निवासठाणम्मि। कस्थाने, आ०म०१ अ० विजयपुरराजस्यकनकरथनाम्नोधन्वन्तरिसाहू वि दढपइन्नो, सयासयायारसारवओ॥६३।। नामा वैद्य आसीत् / स्था० 10 ठा०३ उ०। यत्रार्यवर्यपिता रुद्रसोमो लज्जातवाइसहिओ, सहिओ तिहुयणजणाण मरिऊण। द्विज आसीत् / सङ्घा० 1 अधि०१ प्रस्ता०ा "चउत्थस्स उक्खेवओ जाओ तत्थेव सुरो, जिणदासो अत्थए जत्थ॥६॥ विजयपुरंणयरंणंदणवणं उज्जाणं असोगोजक्खोवासवदत्तोराया" नि०) तत्तो चुया समाणा, महाविदेहम्मि जिणसमीवम्मि। विजयपुरा-स्त्री०(विजयपुरा) पक्ष्मकावतीविजयक्षेत्रवर्तिपुरीयुगले, निम्मियनिव्वणचरणा,सिद्धिं ते दो वि गमिहंति // 65 // जं०४ वक्ष०। लज्जामकार्यपरिहारसुकार्यकार्य दो विजयपुराओ। (सू०-६२+) स्था०२ ठा०३ उ० रूपां सदा विदधतः क्षितिपात्मजस्य / / विजयप्पभ-पुं०(विजयप्रभ) यशोविजयसमकालिके तपागच्छपदाएवं निशम्य फलमुत्तममेकताना, धिष्ठिते सूरौ, नं०। नित्यं समाश्रयत भव्यजनास्तदेनाम् // 66 // " विजयपुंडरीगिणी-स्त्री०(विजयपुण्डरीकिणी) पुष्कलावती-विजयइति विजयकुमारकथा। ध०र०१ अधि०६ गुण। नगाम, दर्श०१ तत्त्व। विजयकूड-न०(विजयकूट) जम्बूद्वीपे मन्दरस्योत्तरे रुचकवर-पर्वतस्य | विजयवद्धमाण-पुं०(विजयवर्द्धमान) एकापि राष्ट्रकूटरक्षिते, ग्रामभेदे, कूटभेदे, स्था०८ ठा०३ उ०। विपा०१ श्रु०१ अग('तस्सणं सयदुवारस्स णयरस्स' इत्यादिसूत्राविजयघोस-पुं०(विजयघोष) वाराणसीवास्तव्ये जयघोषभ्रातरि, उत्त० लापकः 'मियापुत्त' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 288 पृष्ठे गतः।) 25 अाती०। (तत्कथा 'जयघोष' शब्दे चतुर्थभागे 1416 पृष्ठे उक्ता।) विजयमाण-पुं०(विजयमान) तपागच्छीयहीरविजयसूरिशिष्यविजयविजयचंद-पुं०(विजयचन्द्र) चित्रावालकगच्छीयभुवनचन्द्रसूरिशिष्ये राजेन्द्रसेनशिष्यविजयतिलकसूरिशिष्यविजयानन्दगुरुशिष्यविजयदेवभद्रगणिगुरौ, ध० 203 अधि० तपागच्छे, संवत्सरे १२८५-याते राजशिष्ये, "तदनु पट्टपतिर्विहितोऽधुना, विजयराजतपागणभूभुजा। जगदिन्द्रसूरिशिष्ये, ग०३ अधि० / तेन च केशि-कुमारचरित्रग्रन्थो विजयमान इति प्रथिताड्डयो, विजयतेऽतुलभाग्यनिधिः सुधीः // 6 // रचितः जै० इ०। ध०३ अधिका विजयतिलगसूरि-पुं०(विजयतिलकसूरि) हीरविजयशिष्ये-विजयसेन विजयवाणारसी-स्त्री०(विजयवाराणसी) विश्वनाथप्रसादस्थाने सूरिशिष्ये, कल्प०३ अधि०६ क्षण। "विजयतिलक-सूरिभूरिसूरि वाराणसीभागे, ती०३८ कल्प०। प्रकृष्टो, दिनमणिरुदयाद्रौ तस्य पट्टे बभूव / कुमति-तिमिरमुग्रं प्रास्य विजयविमल-पुं०(विजयविमल) गच्छाचारप्रकीर्णकवृत्तिकारके सूरौ, शुद्धोपदेश-प्रसृमरकिरणैर्योऽबूबुधद्भव्यपद्मान्" ||१||ध०३ अधि०। ग०३ अधि०। ('गच्छायार' शब्दे तृतीयभागे 812 पृष्ठेऽस्य मुनेवृत्तम् ) विजयवेजयंती-स्त्री०(विजयवैजयन्ती) विजयोऽभ्युदयस्तत्सूचिका विजयदाणसूरि-पुं०(विजयदानसूरि) वीरजिनात्सप्तपञ्चाशानामानन्दविमलसूरीणां शिष्ये हीरविजयसूरिगुरौ, ग० ३अधि०। वैजयन्त्यभिधाना या पताका / अथवा-विजया इति वैजयन्तीनां पार्श्वकणिका उच्यते तत्प्रधाना वैजयन्ती विजयवै-जयन्ती / रा०। विजयदार-न०(विजयद्वार) जम्बूद्वीपलवणसमुद्रधातकीखण्डकालोद सूत्र०ा जी०आ०म०। ज्ञा०। भला विजयसूचके पार्श्वतो लधुपताकापुष्करवरपुष्करोदानां द्वीपसमुद्राणां पूर्वद्वारे, जं०१ वक्ष०। द्वययुते पताकाविशेषे, औ०। विजयदूसग-न०(विजयदूष्य) वितानकरूपे वस्तुविशेषे, स्था० 4 ठा०२ विजयसिंह-पुं०(विजयसिंह) यशोविजयोपाध्यायसमकालिकाचार्यउा आ० म०। जी०। विजयप्रभगुरौ, हरिविजयसूरिपट्टपरम्परासूरौ, नं०ा दर्श०। मुनिचन्द्रविजयदेवसूरि-पुं०(विजयदेवसूरि) यशोविजयसूरिसमकालिक शिष्याजितदेवसूरिशिष्ये, ग०३ अधि। मलधारिहेमचन्द्रसूरिशिष्ये च / विजयप्रभगुरुविजयसिंहगुरौ, "सूरिश्रीविजयादिदेवसुगुरौ पट्टाम्बराह- सच विक्रमे 1142 संवत्सरे विद्यमान आसीत्। कल्पसूत्रोपरिकल्पावर्मणौ, सूरिश्रीविजयादिसिंहसुगुरौ शक्रासनं भेजुषि। सूरिश्रीविजयप्रभो बोधिनीनाम टीका व्यधात्। जै० इ०।
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________________ विजयसूरि 1145 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विजया विजयसूरि-पुं०(विजयसूरि) सुरत्नविजयविष्ये,' श्रीवीरपट्टाधिपति बभूव, सूरिः सुरत्नद्विजयो यशस्वी। यस्मिन् समुद्रे विविशुः समग्रा, विद्याः सुनद्यश्च चतुर्दशापि" ||1|| द्रव्या० 15 अध्या०। विजयसेट्ठि-पुं०(विजयश्रेष्ठिन) स्यनामख्याते श्रेष्ठिनि, ध०२०। तत्कथा चैवम"इह विजयवद्धणपुरे, अस्थि विसालु त्ति विस्सुओ सिट्ठी। कयकोहजोहविजओ, विजओ नामेण से पुत्तो।।१।। सो उज्झायमुहाओ, कयाइ आणन्नई इमं वयणं / अप्पहिएण नरेणं, खमापहाणेण होयव्यं / / 2 / / खंती सुहाण मूलं, मूलं कोहा दुहाण सव्वाणं। विणओ गुणाण मूलं, मूलं माणो अणत्थाणं / / 3 / / जिणजणणी रमणीणं, मणीण चिंतामणी जहा पवरो। कप्पलया य लयाणं, तहा खमा सव्वधम्माणं // 4 // इह इक्कं चिय खंति, पडिवज्जिय जियपरीसहकसाया। सायाणंतमणंता, सत्ता पत्ता पयं परमं // 5 // पीऊसवरिससरिसं,तंसो संगिणइ तत्तबद्धीए। जाओ बिउसो कमसो, पत्तोय सुतारतारुन्नं / / 6 / / पियरेहि वसंतपुरे, सागरसिट्ठिस्स गोसिरिं धूयं / परिणाविओ तर्हि चिय, मुत्तु पियं नियपुरं पत्तो // 7 // ससुरगिहाउ कयाइ वि, चित्तु पियं नियगिहम्मि सो इंतो। अद्धपहे पडिभजिओ, नियपियरुक्कंठियपियाए|| वाहइ तिसापिसाई, भिसं ममं नाह! तो इमो तुरियं / पत्तो कूवे सद्धिं, णुभग्गलग्गाइ दइयाए॥६॥ जा कड्डइ वादि तओ, ता अवडे तं खिवित्तु सा पत्ता। जयणगिहे भणइ अहं, न तेण नीया असउणत्ता / / 10 / / निवडतोस तदुभव-तरुम्मिलग्गिय विणिग्गओतत्तो। चिंतइ सहावसोमो, किं तीइ अणुलिओ अहयं / / 11 / / हुनायं पियगिहगमण-पवणचित्ताइ ता अरे जीव!। मा कुणसुतीइ उवरि, रोसं सोसंच देहस्स।।१२।। सव्वो पुव्वकयाणं, कम्माणं पावए फलविवागं। अवराहेसु गुणेसु य, निमित्तमित्तं परो होई // 13 // जइ खमसि दोसवंते, ता तुह खंतीइ होइ अवयासो। अह न खमसि तो तुह अवि, सया अखंतीइ वावारो॥१४॥ इह चिंतिय नियगेहं, पत्तो जणणीइ पुच्छिओ भणइ। अवसउणकारणा मे, सुणहा नो आणिया अंब।।१५।। बहुआ बहुआणयणे, पिऊहि भणिओ वि सोन उच्छहइ। तो तीइवराईए, काहिइ दुक्खं ति काऊणं॥१६॥ कइया वि भिसं मित्तेहि, पेरिओ सो गओ ससुरगेहे। ठाऊण कइवयदिणे, चित्तुं पियं सगिहमणुपत्तो॥१७॥ पियरेसु उवरएसुं, जायं तेसिं गिहस्स सामित्तं / पिम्मपराण कमेणं, चउरो तणया समुप्पन्ना / / 18|| पयई सोमसहावो, विचओ पाएण हणिय बहुपावो। जाओ सुसेवणिज्जो, परियणसुहिसयणपभिईण // 16 // तस्ससग्गिवसेणं, पसमिक्कधणो घणोजणो जाओ। जं संगाउ जियाणं, गुणा गुणा हुंति भणियं च // 20 // " काव्यम्संतप्तायसि संस्थितस्य पयसो नामापि न ज्ञायते, मुक्ताकारतया तदेव नलिनीपत्रस्थितं राजते। स्वातौ सागरशुक्तिसंपुटगतं तज्जायते मौक्तिकं, प्रायेणाधममध्यमोत्तमगुणः संसर्गतो दृश्यते // 21 // "निव्वुइदाणपहाणं, खमागुणं मुणियसुहमणो विजओ। जइ नियइ कं पि कलह, तयं तओ भणइ इय वयणं / / 22 / / विलसिरपरमपमोया, खमापहाणा भवेह भो लोया !! मा कुणह कह वि कोह, ओहं पि व भवसमुदस्स॥२३॥ धम्मत्थकाममुक्खा-ण हारणं कारणं दुहसयाणं। कलह कलहंसा इव, कलुसजलं चयह भो भविया // 24 // सव्वस्साविहिलीयं, अजंपियं जंपिया उ वरमिहायं। निउणमइस्स परस्स वि, अपुच्छियं पुच्छ्यिाउ वरं / / 25 / / इय पइदिणमुवएस, दितं जणयं भणेइ जिट्ठसुओ। किं ताय! तुमं पुणरु-तमेमुवइससि सव्वेसिं॥२६॥ विजओ जंपइ अणुहव-सिद्धमिणं वच्छ! मज्झसो आह। कह णु भणइ तो सिट्ठी, अजंपियं जंपिया उवरं / / 27 / / गाढायरेण तणए–ण,पभणिओ अह भणेइ सिट्ठी वि। तुह जणणीइ पुराहं, पणुल्लिओ वियडअवडम्मि॥२८|| नयतं तीए विमए, कहियं जातं सुहावहं जायं। तुमए वितओ एयं, कहियव्वं नेव कस्सावि॥२६॥ हसिऊण ऊणमइणा, तेणं पुढें कयाइ किं अम्मो। सबमिणं जंताओ, तुमए कूवम्मि पक्खित्तो // 30 // कह नायमिणं तीए, वढे सो आह ताय वयणाओ। तं सुणिय लज्जिया सा, हिययं फुडियं धस त्ति मया / / 31 / / एयं नाउं विजओ, अप्पं अप्पासयं ति निंदतो। सोयभरभरियहियओ, करेइ दइआइमयकिचं // 32 // संवेगरंगियमणो, कयावि सिरिविमलसूरिपासम्मि। निरवजं पव्यज्ज, सज्जो पडिवजए विजओ॥३३॥ सामन्नं बहुवरिसे, परिपालिय चइय पाटवं देह। लहिउंच अमरगेहं, कमेण पाविहि य सिद्धिपि // 34 // " इति निशम्य सुसाम्य निबन्धनं, विजयवृत्तमुदारमनुत्तरम् / प्रकृतिसौम्यगुणं गुणशालिनः, श्रयत भव्यजना जननच्छिदे 35 इति विजय श्रेष्ठिकथा। ध००१ अधि० 3 गुण / विजयसेण-पुं०(विजयसेन) अङ्गारमर्दकाचार्यस्य रुद्रदेवस्य अभव्यत्व परीक्षके गर्जनकपुरसमवसृते आचार्ये पञ्चा०३ विव०ा हीरविजयसूरिशिष्ये,ध०३ अधि०। ('मानविजय' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 242 पृष्ठेऽस्य वृत्तं गतम्।) "श्रीविजयसेनसूरि-प्रमुखैमुनिपुङ्गवैर्विगतदोषैः / सेवितपदारविन्दाः, श्रीगुरवस्ते जयन्तितराम्॥७२॥" ग०३ अधि०। स्वनामख्याते चन्द्रकान्तानगरीराजे, कल्प० 10 अधि०१ क्षण। एकोनविंशे अहोरात्रमुहूर्ते, चं० प्र० 10 पाहु०नागेन्द्रगच्छीये कलि-कालगौतमविरुद्धवतो हरिभद्रसूरेः शिष्ये, धर्माभ्युदयग्रन्थकृति उदयप्रभस्य गुरौ, अयं 1250 संवत्सरे विद्यमान आसीत्। जै० इ०। विजया-स्त्री० (विजया) पूर्वरुचकवास्तव्यायां दिक्कुमार्याम्, स्था० 8 ठा० 3 उ० / आ० चू० / जं० / द्वी० / आ० म० / ति० / आ० क० / पक्षस्य सप्तमतिथिरात्रौ, चं० प्र० 10 पाहु०।
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________________ विजया 1155 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विजा कल्पाजंगाज्यो। अङ्गारादीनां महाग्रहाणामग्रमहिषीषु, स्था०४ ठा० | 1 अधि०७ क्षण। 10 भ० ज० श्रीविमलस्य शासनदेव्याम्, प्रव० 27 द्वार। ('तित्थ- | विजाणया-स्त्री०(वैद्यज्ञाता) स्थविरात् श्रीगुप्तान्निर्गतस्य चारणगणस्य यर' शब्दे चतुर्थभागे 2266 पृष्ठेऽस्याः स्वरूप-मुक्तम्।) द्वितीयजिनस्य / शाखायाम, कल्प०२ अधि०८ क्षण। अजितस्वामिनो मातरि, आय०१ अ० पञ्चमतीर्थकरस्य निष्क्रमण- विजपुत्त-पुं०(वैद्यपुत्र) वैद्यकशास्त्रचिकित्सोभयकुशलस्य पुत्रे, विपा०१ शिविकायाम्, स०) आव०॥ चतुर्थचक्रवर्तिभायाम्, स०ा स्वनाम- / श्रु० १अ० ख्यातायां पार्श्वनाथान्ते वासिन्याम, आ० म० अ० मृगावतीप्रतिहा- | विज्जमाण-त्रि०(विद्यमान) सति, पञ्चा०६ विव०। स्या० / आ० चू०। रिण्याम, आ० म०१०। आ०चू० पञ्चमबलदेवमारतरि, स०। आव०॥ आचा०।"अत्थि भावो त्ति वा विजमाणभावो त्ति वा एगट्ठा' आ० चू० तिला उत्तरस्य अञ्जनादिपर्वतस्य पूर्वदिशि नन्दापुष्करिण्याम्, द्वी० १अ ती०। स्था०। शक्रत्रायस्त्रिंशदेवोत्पातपर्वतपूर्वदिग्राजधान्याम्, द्वी०। विजय-न०(वैद्यक) चिकित्साशास्त्रे, सूत्र०१श्रु०३ अ०३उ०| विजयाणंद-पुं०(विजयानन्द) धर्मसंग्रहवृत्तिकृन्मानविजयगुरुशान्ति विजल-न०(विजल) विगतं जलं विज्जलम्। शिथिलकर्दमे, नि० चू०१ विजयस्य गुरौ, ध०३ अधिवा कल्प०('माणविजय' शब्देऽस्मिन् भागे उादशा 243 पृष्ठेऽस्य स्वरूपमुक्तम्।) विजा-स्त्री०(विद्या) वेदनं विद्या / तत्त्वज्ञाने, उत्त०६ अ०॥ नंगा विजहण-न०(विहान) परित्यागे, स्था०। 'विजहण' त्ति आचार्योपाध्या अत्यन्तापकारिभावतमोभेदके, दश०१ असम्यग्ज्ञाने, उत्त०५ अ०) यगणित्वादिभेदेन त्रिविधैव विहानं-परित्यागः / स्था०३ ठा०३ उ० सूत्र०ा नंगा परिज्ञाने, आ० म०१ असा ससाधनायां प्रज्ञप्त्याविज(य)हित्ता-अव्य०(विहाय) विशेषेण तदनुस्मरणात्मकेन हित्वा / दिदेवताधिष्ठितायां वर्णानुपूर्व्याम्, दर्श०३ तत्व। व्य०। नि० चू०। पं० (उत्त०८अ०1) परित्यज्येत्यर्थे , आचा०१ श्रु०१ अ०३ उ०। व०। पं०भा०ा पं० चू०। औ०। ज्ञा०। विजाणंत-त्रि०(विजानान) विवेकानि, सूत्र०१ श्रु०११ अ० अथ विद्यामन्त्राख्यद्वारमाहविजिइंदिय-पुं०(विजितेन्द्रिय) निवृत्तविषयप्रसरे, द्वा०२ द्वा०। विद्यामंतपरूवण-विजाए भिक्खुवासओ होइ। विजियसमुहेसणा-स्त्री०(विवित्यसमुद्देशना) तदेव योग्यनान्यदिति मंतम्मि सीसवेयण, तत्थ मुरुडेण दिलुतो // 464|| विचिन्त्य समुद्देशने, व्य०१० उ०। विद्यामन्त्रयोः प्ररूपणा कर्तव्या। सा चैवम्-ससाधना स्त्रीरूप-देवताविजियोद्देसणा-स्त्री०(विजितोद्देशना) सम्यग्योग्यतां परिनिश्चि धिष्ठिता वाऽक्षर पद्धतिर्विद्या / असाधना पुरुषरूपदेवताधिष्ठिता वा त्योद्देशने, व्य०१० उ०। मन्त्रः / तत्थ' त्तितत्र विद्यायां भिक्षूपासको दृष्टान्तः, मन्त्रेशिरोवेदनायां विजोगंत-त्रि०(वियोगान्त) विरसावसाने, पं०सू०३ सूत्रा मुरुण्डेन राज्ञोपलक्षितः पादलिप्तसूरिः। विज्ज-त्रि०(विद्वस) पण्डिते, सूत्र०१ श्रु० 13 अ०) सदसद्विवेकिनि, तत्र भिक्षूपासकदृष्टान्तं गाथाद्वयेन भावयतियथावस्थिततत्त्वग्रहीतरि, सूत्र०१ श्रु०७ अगसकलपदार्थानां करतला परिपिडियमुल्लावो, अइपंतो भिक्खुवासओ दावे। मलकन्यायेन वेत्तरि, सूत्र०१ श्रु०६ अ०। सश्रुतिके, सूत्र०१ श्रु०६ अ01 जइ इच्छह अणुजाणह, घयगुलवत्थाणि दावेमि ||4|| *वैद्य-पुंगा चिकित्साकर्त्तरि, ग०१ अधि०। वैद्यकशास्त्रे, चिकि-त्सायां गंतुं विजामंतण-किं देमि? घयंगुलं च वत्थाई। चकुशले, विपा०१ श्रु०१ अ० दिन्ने पडिसाहरणं, केण हियं केण मुट्ठोमि? // 466|| वैद्यस्वरूपम् गन्धसमृद्ध नगरे धनदेवो नाम भिक्षूपासकः / स च साधुभ्यो भिक्षार्थ अम्मापिईहिँ जणियस्स, आयंकपउरदोसेहिं। गृहे समागतेभ्यो न किञ्चिदपि ददाति। अन्यदाच तरुण-श्रमणानामेकत्र विजा दिति समाहिं, जेहिं कया आगमा हुंति // 361|| परिपिण्तिानां परस्परमुल्लापः / तत्रैकेनोक्तम्-अतिप्रान्तोऽयं धनदेवः मातापितृभ्यां जनितस्य तस्याधिकृतस्य वणिजः आतङ्कान्-रोगान् संयतानां न किमपि ददाति, तदस्ति कोऽपि साधुर्य एनं घृतगुडादिकं ये समुत्था प्रचुरदोषास्तैरुपेतस्येति गम्यते / वैद्या ददति-कुर्वन्ति दापयति / ततस्तेषां मध्ये केनाप्यूचे यदीच्छथ ततोऽनुजानीध्व मां, समाधिं-स्वास्थ्यं; नीरोगतामित्यर्थः / यैः कृता-अभ्यस्ता आगमा येनाहं दापयामि। तैरनुज्ञातः। ततो गतस्तस्य गृहमभिमन्त्रितो विद्यया। वैद्यकशास्त्रलक्षणा भवन्तिवर्तन्ते / व्य० १उ०। (अष्टौ वैद्याः 'गिलाण' ततो ब्रूते साधून-किं प्रयच्छामि? तैरुक्तम्-घृतगुडवस्त्रादि।ततोदापितं शब्दे तृतीयभागे 183 पृष्ठे वैद्यानुवर्त्तनायां व्याख्याताः।) तेन संयतेभ्यः प्रचुरं घृतगुडादिकम् / तदनन्तरं च प्रतिसंहृता क्षुल्लकेन विज्ञ्जकिरिया-स्त्री०(वैद्यक्रिया) चिकित्सापरिज्ञानरूपे कलाभेदे, कल्प० / विद्या / जालः स्वभावस्थो भिक्षूपासकः / ततो यावन्निभालयति घृ
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________________ विजा 1146 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विजा तादिकं तावत्स्तोकं पश्यति। ततः केन मे हृतंघृतादि? केनाहं मुषितो- यादयः। नैगमेन विद्या सर्वजीवद्रव्या-दिसंग्रहेण, द्रव्यश्रुतं व्यवहारणे ऽस्मि? इति विलपितुं प्रवृत्तः / ततःपरिजनेनोक्तम्-युष्माभिरेव दापितं ऋजुसूत्रेण वाचनादि। शब्दनयेन यथार्थोपयोगः कारणकार्यादिसंकररूपं संयतेभ्यः तत्कि यूयमेवं भणथ? ततो मौनमवलम्ब्य स्थितः। सविकल्पचेतना-समभिरूढेन निर्विकल्पचेतनाक्षायोपशमकी साधनाअत्र दोषानुपदर्शयति वस्थाएवंभूतेन साधका निर्विकल्पा तात्त्विकी। तथा केचित् केवलज्ञानपडिविजथंभणाई, सो वा, अन्नो व से करिजाहि। रूपसिद्धविद्या इति आधनयचतुष्टयस्य द्रव्यनिक्षेपान्तर्गतत्वेन कारणरूपा पावाजीवी माई, कम्मणगारीय गहणाई ||47|| गृहीता; अतो न यत्र यस्य भावरूपत्वेन कार्यरूपा उत्तरोत्तरसूक्ष्मा गृहीता तत्र कारणोद्यमेन कार्याऽऽदरवता भवितव्यम् -- यो विद्ययाऽभिमन्त्रितः स च स्वभावस्थो जातः सन् कदाचित्प्रद्विष्टो नित्यशुच्यात्मताख्याति-रनित्याशुच्यनात्मसु / ऽन्यो वा तत्पक्षपाती प्रद्विष्टः सन्प्रतिविद्यया स्तम्भनादिस्तम्भनोच्चाट अविद्या तत्त्वधीविद्या, योगाचार्य : प्रकीर्तिता।।१।। नमारणादि कुर्यात्। तथा पापाजीविनः-पापेनविद्यादिना परद्रोहकरणरूपेण जीवनशीला मायिनः-शठा इति लोके जुगुप्सा। तथा कार्मण 'नित्यशुच्ये' ति-अनित्याशुच्यनात्मसु नित्यशुच्यात्मताख्यातिः अविद्या इत्यन्वयः / अनित्ये चेतनात् जातिभिन्नमूर्तपुद्गलग्रहणोत्पन्ने कारिण इमे इति राजकुले ग्रहणा-कर्षणवेषपरित्याजनकदर्थनमारणादि। परसंयोगे या नित्यता ख्यातिः सा अविद्या / अशुचिषु-शरीरादिषु पिं०। (परिव्राजकस्य सप्त विद्याः 'तेरासिय' शब्दे चतुर्थभागे 2360 पृष्ठे स्रवन्नवद्वाररन्ध्रेषु शुद्धस्वरूपावतरणनिमित्तेषु शुचिख्यातिः, अनात्मसुगताः / ) (भौमादीनि शास्त्राणि 'पुरिसविजयविभगं' शब्दे पञ्चमभागे पुद्गलादिषु आत्मख्यातिः 'अहमन्ये' इति बुद्धिः 'इदं शरीरं मम, 1036 पृष्ठे गतानि।) "अङ्गानि वेदाश्चत्वारो, मीमांसा न्यायविस्तरः / अहमेवैतत्, तस्य पुष्टौ पुष्टः' इति ख्यातिः-कथनं-ज्ञानं तत्र रमणम्धर्म-शास्त्रं पुराणं च, विद्या ह्येताश्चतुर्दश''||१|| आ० चू०१ अ०। बृ०॥ इयमविद्याभ्रान्तिबुद्धिा या तत्त्वबुद्धिः, शुद्धात्मनि नित्यता-शुचिताआ०म० आव०ा "तस्स दो विजातो अत्थि-ओणामणी य, उन्नामणी आत्मता-इति ज्ञप्तिः विद्यातत्त्वविवेकः / अत्र नित्यत्वं तुउत्पादव्ययध्रुवय।" नि० चू० 1 उ०। नमिविनमिभ्यां भगवानृषभः-गौरीगान्धारी रूपेऽपि अर्पि--तानर्पितप्रकारेण द्रव्यास्तिककूटस्थनित्यता ज्ञेया। इयं रोहिणी-प्रज्ञप्तिलक्षणाश्चतस्रो महाविद्याश्च पाठसिद्धा एव दत्तवान्। यचोक्तं विद्या परमार्थसाधनपद्धतिर्योगाचार्यः, योगः-ज्ञानश्रद्धाचरणात्मककिरणावलीकारेण अष्टचत्वारिंशत्संख्याका इति तदयुक्तम्। आवश्यक मोक्षोपायः तस्य आचार्याः-तदाचरणकुशलाः तैः प्रकीर्तिता / अत्र वृत्तौ अष्ट चत्वारिंशत्सहस्राणामुक्तत्वात् / कल्प०१ अधि०७ क्षण / भेदज्ञानं साधनम् / उक्तं च अध्यात्मबिन्दौ- "यावन्तो ध्वस्तबन्धा (विद्यास्वरूपं वासक्खेव' शब्देऽस्मिन् भागे 1103 पृष्ठे गतम्।) अभूवन्, भेदज्ञानाभ्यास एवात्र मूलम्।यावन्तोऽध्वस्तबन्धा भ्रमन्ति, तत्रागमे भेदज्ञानाभाव एवात्र बीजम् // 1 // " जे भिक्खू अण्णउत्थियाणं वा गारत्थियाणं वा विजं पउंजइ यः पश्येन्नित्यमात्मन-मनित्यं परसङ्गमम्। पउंजंतं वा साइजइ। (सू०-२४) नि०चू०१३उ०। छलं लब्धुं न शक्नोति, तस्य मोहमलिम्लुचः / / 2 / / ('अण्णउत्थिय' शब्दे प्रथमभागे व्याख्यातमिदम्।) (विद्या प्रतीत्य 'यः पश्ये' दिति-य आत्मार्थी आत्मानं नित्यं-सदा अचलितकथा 'अत्थकहा' शब्दे प्रथमभागे 507 पृष्ठे उक्ता / ) विद्यते ज्ञायते स्वरूपम्, पश्येत्-अवलोकयेत्, परसंगम-शरीरादिकम् अनित्यम्आभिस्तत्त्वमिति विद्याः। आरण्यकब्रह्माण्डपुराणा-त्मिकायां वेदभक्तौ, अध्रुवं पश्येत्, तस्य-साधनोद्यतस्य मोहो-मौढ्यं मुग्धता-मिथ्यात्या"विज्जामाहणसंपया''उत्त०२५ अ० विद्यानिक्षेपः-तत्र नामविद्या इति दिभ्रान्तिरूपा स एव मलिम्लुचः-तस्करः छलम्-छिद्रं लब्धं न नाम जीवस्याभिधानं क्रियते सा नामविद्या / अक्षवराटककाष्ठादिविद्या शक्नोति-न समर्थो भवति / इति अनेन यथार्थज्ञानवतः रागादयो न इति स्थाप्यते, सा स्थापनाविद्या। द्रव्यविद्या लौकिका शिल्पादिरूपा, प्रवर्द्धन्ते-तस्यात्मा मोहाधीनो न भवति। लोकोत्तरा द्विविधा-कुप्रावचनिकाभारतरामायणोपनिषदुपा, लोको- तरङ्गतरलां लक्ष्मी-मायुर्वायुवदस्थिरम् / त्तरासुप्रावचनिका विद्या आवश्यकाचाराङ्गादिलक्षणा। साऽपि ज्ञशरी अदधीरनुध्याये-दभ्रवद् मङ्गुरं वपुः // 3 // रभव्यशरीरस्य तदभ्यासवतः अनुपयुक्तस्य द्रव्यविद्या / अथवा 'तरङ्गे ति अदभ्रधीः-पुष्टबुद्धिः लक्ष्मीः तरङ्गवत्-जलधिकल्लोलवत्अनुपयुक्तस्य-हेयोपादेयपरीक्षाविकलस्य वाचना पृच्छना परिवर्तना तरला-चपला तां तरङ्गतरलाम्-अस्थिराम्, अनुध्यायेत् आयुःधर्मकथा अनुप्रेक्षाविकलाऽपि चेतना विज्ञप्तिर्द्रव्यरूपा ज्ञेया। भावविद्या जीवितं याति तद् वायुवत, अस्थिरम्-गत्वरं प्रतिसमयविनश्वरम्, तुलोकोत्तरार्हत्प्रणीतागमरहस्याभ्यासवतः नित्यानित्याद्यनन्तपर्यायो- अध्यवसानानि विघ्नोपयुक्तम्, अनुध्यायेत्-चिन्तयेत्, वपुः-शरीरं पेताचिद्रूपोपादेयबुद्धिविभावाद्यन्तपरभावपरित्यागप्रज्ञप्तिलक्षणा / पुद्गलस्कन्धनिश्चितम् अभवद्भगुरम्-भड्गुशीलम्, अनुध्यायेत्-इदं च भावविद्याभ्यासस्यावसरः, तत्र मत्यादिज्ञानक्षयोपशमनिमित्ता इन्द्रि- | यथार्थचिन्तनम्। भावना चस्वसम्पद्विमुक्तेन पृथ्वीकायस्कन्धासम्पद्पेण
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________________ विजा ११४७-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विजा उपचरिता। न च ते सम्पत् तथा जीवः ज्ञानदर्शनवीर्यसुखरूपैः भावप्राणैरेव जीवति / आयुर्जीवनं तु बाह्यप्राणसंम्बन्धस्थितिहेतुतया तन्नात्मस्वरूपम्। तथा वर्णगन्धरसस्पर्शाचेतनशरीरोपचयश्चनस्वरूपम्, तदपि अस्थिरम् इत्येवमस्थिरपरभावे स्वात्मधर्मप्रध्वंसके कः प्रतिबन्धः? तदर्थं च स्वगुणानचेतनावीर्यादीन् कः परभावग्रहणोन्मुखान् करोति? अत आत्मनि आत्मगुणप्रवृत्तिरेव करणीया। शुचीन्यप्यशुचीका, समर्थेऽशुचिसम्भवे / देहे जलादिना शौच-भ्रमो मूढस्य दारुणः॥४|| 'शुचीन्यपी' ति मूढस्य-अज्ञस्य यथार्थापरयोगरहितस्य देहेन्द्रियायतने जलादिना-पानीयमृत्तिकादिसङ्गेन शौचभ्रमः श्रोत्रियादीनां दारुणः-भयकृत, यश्च जात्याऽशुचिः स किं जलव्यूहैः शुचीभवति? | कथंभूते देहे ?.शुचीन्यपिकर्पूरादीन्यपि अशुवीकर्तुं समर्थे, देहसङ्गात् मलयजविलेपनादयोऽऽप्यशुचीभवन्ति, पुनः कथं भूते देहे? अशुचिसम्भवे अशुचि आर्तवं मातुः रक्तं पितुः शुक्र, तेन सम्भवः उत्पत्तिः यस्य स तस्मिन् / उक्तं च भवभावनायाम्- "सुक्कं पिउणो माउएँ, सोणियं तदुभयं पि संसटुं / तप्पढमाए जीवो, आहारइ तत्थ उप्पन्नो / / 1 / / " जूकाइसुणयभक्खे, किमि-कुलवासे य वाहिखित्ते य / देहम्मि अवचुविहुरे, सुसाणत्थाणे य पडिबन्धो" ॥साअतः अस्थिरे अपवित्रे औपाधिके अभिनवबन्धकारणे द्रव्यभावाधिकरणे कः संस्कारः // 4 // अथ देहे आत्मत्वारोपोऽपि बहिरात्मदोषौघः अतः तन्निवार्य स्वरूपे आत्मनः पावित्र्यं करणीयं तदुपदिशतियः स्नात्वा समताकुण्डे, हित्वा कश्मल मलम् / पुनर्न याति मालिन्यं, सोऽन्तरात्मा परः शुचिः // 5 / / 'यः स्नात्वेति'-स अन्तरात्मा देहात भिन्न आत्मज्ञानी स्वपरविवेकी परः-प्रकृष्टःशुचिः-पवित्रःज्ञेयः पुरुषः, समता अरक्तद्विष्टता तद्पे कुण्डे स्नात्वा कश्मलजम्-पापोत्पन्नं मलं हित्वा पुनः मालिन्यं न प्राप्नोति। सम्यक्त्वमावितात्मा परमशुचिः 'बन्धेण वोलइ कयाऽवि' इति वचनात्, सम्यगदृष्टिरनेनांशेन स्नातकः न पुनः उत्कृष्टां स्थितिंबध्नाति, एतदेव सहज पवित्रत्वम् / / 5 / / (अष्ट०) ('आत्मबोधः' (6) इति श्लोकः 'आतबोध' शब्दे द्वितीयभागे 162 पृष्ठेगतः।) मिथो युक्तपदार्थाना-मसंक्रमचमत्क्रिया। चिन्मात्रपरिणामेन, विदुषैवानुभूयते // 7 // 'मिथो युक्त' इति परस्परं युक्ताना मिलितानां पदार्थानाधर्मादीनामेकक्षेत्रावगाहिना पुद्गलानां च स्वक्षेत्रपरिणतानामसंक्रमचमत्क्रिया, न संक्रमः परस्परमीलनरूपः चमक्रिया-चमत्कारः, एकक्षेत्रावगाढा अपि नपरस्परं व्यापारका भवन्ति इत्यनेन स्वरूपतो भिन्ना एव। एषांचमक्रिया विदुषा एव अनुभूयते-पण्डिते-नैव विभज्यते / कथंभूतेन विदुषा? चिन्मात्रपरिणामेन-ज्ञानमात्रपरिणामेन ज्ञानमात्रबलेन इत्यनेन पञ्चास्तिकायानां कैश्चित्साधारणगुणैः अगुरुलध्वादिभिः तुल्येनापि असाधारणगुणैः गतिस्थित्यवगाहचेतनापूरणगलनादिलक्षणैश्च भेद एव, स्वाशुद्ध- | ग्राहकता-गृहीतपुद्गलेष्वपि न स्वगुणसंक्रमः, नाऽपि पुद्गलगुणसंक्रमः, यावत् एषां भेदचमत्क्रिया भिन्नद्रव्ये स्वद्रव्यगुणपर्यायाणामेकद्रव्यं व्याप्यावस्थितानामाधाराधेयत्वेनाभेदरूपाणामपिस्वस्वधर्मपरिणतिरूपा भेदचमत्क्रिया / एवं द्रव्याद् द्रव्यस्य, गुणाद् गुणस्य, पर्यायात्पर्यायस्य स्वभावस्य भेदलक्षणचमक्रिया विदुषा पण्डितेनैव अनुभूयते, नान्येन द्रव्यानुयोगज्ञानविकलेन / उक्तं च सम्मतौ-"अण्णोण्णाणुगयाणं,''इमं व तं व ति विभयणमजुत्तं / जह दुद्धपाणियाणं, जावंत विसेसपज्जाया // 47 // (नेयं गाथा सम्मतावुपलभ्यते) जं दव्वखित्तकाले, एगत्ताणं पि भावधम्माणं / सुअनाणकारणेणं, भेए नाणं तु सा विज्जा ।।१।इति / हरिभद्रपूज्यैः द्रव्यानुयोगलीनानामाधाकर्मादिदोषमुख्यत्वं न मतम्। तथा च भगवत्यङ्गे-'समणोवासगस्सणं भंते ! तहारूवं समणंवा माहणं वा अफासुएणं अणेसणिज्जेणं असणपाणखइमसाइमेणं पडिलाभमाणे किं कज्जइ? गोयमा ! बहुतरा से निज्जरा कज्जइ, अप्पतरो से पावे कम्मे कज्जइ / तवृत्तिः- इह च केचित् मन्यन्ते-असंस्तरणादिकारणे एवाप्रासुकादिदाने बहुतरा निर्जरा भवति नाकारणम्। यत उक्तम्- "संथरणम्मि असुद्धं, दोण्ह विगेण्हंतदितयाणं हिआआउरदिवतेणं, तंचेव हियं असंथरणे' ||1|| अन्ये त्याहुः-कारणेऽपि गुणवत्पात्रायाप्रासुकादिदाने परिणामवशात् बहुतरा निर्जरा भवति, अल्पतरं च पापं कर्म इति निर्विशेषत्वात्, सूत्रस्य परिणामस्य च प्रामाण्यात् / आह "परमरहस्समिसीणं, समत्तगणिपिडगधरियसाराणं / परिणामि पमाणं, निच्छयमवलंबमाणाणं" ||1|| इमे पुनः"चरणकरणप्पहाणा, ससमयपरसमयमुकवावारा। चरणकरणस्स सारं, निच्छयसुद्धं न याति // 2 // अहागडाइ भुंजंति, अण्णमण्णे सकम्मुणा। उवलित्ते वियाणिज्जा, ऽणुवलित्ते त्ति वा पुणो, // 1 // एतेहिं दोहिँ ठाणेहिं, ववहारेण विजइ। एलेहिँ दोहिँ ठाणेहिं, अणायारं तु जाणए।।। इति" द्वितीययोमे 21 अध्ययने इत्यादि गीतार्थस्याकल्प कल्पम्, एषा लब्धिः तत्त्वज्ञानवतामेव // 7 // अविद्यातिमिरध्वंसे, दशाविद्याञ्जनस्पृशा। पश्यन्ति परमात्मान-मात्मन्येव हि योगिनः ||8|| 'अविद्या' इति, हि-निश्चय योगिनः-समाधिदशावस्थाप्रवृत्तचक्रयोगिनःआत्मनिएक्स्वात्मनिएवपरात्मानम्-उत्कृष्टनिष्पन्न सिद्धात्मानम् पश्यन्ति-आत्मनि परमात्मत्वं निर्धारयन्ति। कया? विद्याञ्जनस्पृशा दृशा अविद्या-अज्ञानमबोधविद्या-तत्त्वबुद्धिरूपा, सा एव अञ्जनं तस्य स्पृशा दृशाचचुषा, वसति? अयथार्थोपयोगोवातदव तिमिरंतस्यध्वंसः तस्मिन्, इत्यनेन मिथ्यात्वतिमिरध्वसेजातेसम्यगदृष्टयः आत्मानम् आत्मनिपश्यन्ति, अत एव अनेकोपयोगेन श्रुताभ्यासेन आत्मस्वरूपोपलम्भायतत्त्वपरी(१)-नेयं गाथा सम्मतावुपलभ्यते
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________________ विज्जा 1148 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विजासिद्ध क्षणाय यतितव्यम्, यथार्थम् आत्मस्वरूपपरिज्ञानं विद्यापरोपकारिणी विजाए उभएणं, वजे उम्घाएँ(पुण) गिण्हए भिक्खं। . इति ज्ञेयम्।।। अष्ट०१ अष्टा सो आणाअणवत्थं, मिच्छत्तविराहणं पावे ||19|| "विद्यया राजपूज्यः स्या--द्विद्यया कामिनीप्रियः। विद्या हि सर्वलोकस्य, | नि०चू०१३ उ०। आ० क०। आचा०। स्था०। वशीकरणकार्मणम् // 1 // " स्था०५ ठा०३ उ०। पार्श्वनाथशासन- [ विजारंभ-पं०(विद्यारंभ) प्रथमाध्ययनारम्भे, "सवणेण धणिट्ठाई,पुणदेव्याम्, ती०५ कल्प। व्वसू न वि करिज णिक्खमणं / सयभिसयपूसथभे, विजारभं पवविजाचरण-न०(विद्याचरण) श्रुतसंयमयोः, उत्त०२२ अ० विद्या चचरणं | . तिजा" // 2 // 868|| द०प०। च क्रिया ते द्वे अपि विद्येते कारणत्वेन यस्येति विगृह्य अर्शआदित्वा- विजावं-त्रि०(विद्यावत्) प्रज्ञप्त्यादिविद्याशालिनि, ध०२ अधि०। न्मत्वर्थीयोऽय, असौ विद्याचरणः। ज्ञानक्रियाजन्ये, सूत्र०१श्रु०१२अ० विजासत्थ-न०(विद्याशास्त्र) विद्याधिष्ठिते शास्त्रे, सूत्र०१ श्रु०८ अ०॥ विजाचरणपारग-पुं०(विद्याचरणपारग) विद्या-श्रुतज्ञानंतथा चर्यत इति | विज्जासिक-पुं०(विद्यासिद्धि) साधितविद्ये सिद्धभेदे, आ० म०। चरणं-चारित्रम्, विद्या च चरणं च विद्याचरणे; तयोः पारगः-पर्यन्तगामी। . अधुना विद्यासिक्सनिदर्शनमुपदर्शयतिउत्त० पाई०१८ अ०। ज्ञानचारित्रयोः पारगामिनि, उत्त०२३ अ०। विज्जाण चक्कवट्टी, विज्जासिद्धो स जस्स वेगाऽवि। विजाचरणविणिच्छय-पुं०(विद्याचरणविनिश्चय) विद्येति ज्ञानं तच सिज्झेज्जमहाविमा, विज्जासिद्धोऽज्जखउडो ट्व / / सम्यग्दर्शनसहितमवगन्तव्यमन्यथा ज्ञानत्वायोगात्, चरणं चारित्रमेतेषां विद्यानां सर्वासां चक्रवर्ती-अधिपतिर्विद्यासिद्ध इति व्युत्पत्तेः। यस्य फलविनिश्चयप्रतिपादको ग्रन्थो विद्याचरणविनिश्चयः श्रुतभेदे, नं०। वा एकाऽपि महाविद्या महापुरुषदत्तापि सिध्येत् स विद्यासिद्धः। विजाचारण-पुं०(विद्याचारण) विद्या श्रुतं तच पूर्वतत्कृतोपकारश्चारणो सातिशयत्वात् क इव आर्यखपुटवदिति गाथाक्षरार्थः / आ० म०१ विद्याचारणः / भ०२० श०८ उ०। उत्त०। विद्याविवक्षितः कोऽप्या अ01 आ० चू०। आचा०ा नि० चू०। संथा०| गमस्तत्प्रधानश्चारणो विद्याचारणः / विशे० विद्यावशतः समुत्पन्नगम कथा चेयम्-- नागमनलब्धौ, प्रव०६८ द्वार / प्रति०। आ० म०। पा०। आ० चू०। "आस्ते पुरं भृगुपुरं, लाटदेशललाटिका। "विद्याचारणास्तु गच्छन्त्येकेनोत्पातकर्मणा / मानुषोत्तरमन्येन, द्वीप तत्रार्यखपुटाचार्या, विद्यानां चक्रवर्तिनः॥१॥ नन्दीश्वरावयम् // 1 // तस्मादायान्ति चैकेनोत्पातेनोत्पत्तिता यतः / तेषां च भगिनीपुत्रः, शिष्यः प्राज्ञोऽस्ति बालकः। यान्त्यायान्त्यूर्ध्वमार्गेऽपि, तिर्यग्यानक्रमेण ते / / 2 // " ग०२ अधि०। ('चारण' शब्दे 3 भागे 1173 पृष्ठे विशेषः।) तेनैकदा गुरोः पार्थ्या-द्विद्यैका जपतः श्रुता / / 2 / / विज्जाणंदमूरि-पुं०(विद्यानन्दसूरि) कर्मग्रन्थषट्कशोधकाचार्ये, कर्म०२ विद्यासिदैव सा तस्य, विद्यासिद्धगुरोर्वशात्। कर्म०। ग। इतश्च गुडशस्त्राख्यं, पुरमस्ति गुडाकरः / / 3 / / विजाणुओग-पुं०(विद्यानुयोग) रोहिणीप्रभृतिविद्यासाधनाभिधायके तत्रैकः साधुभिर्वादे, परिवाड् निर्जितः पुरा। शास्त्रे, स०२६ समन पराभवान्मृतः सोऽभू-द्यक्षो वटुकराभिधः॥४॥ विजाणुप्पवाय-न०(विद्यानुप्रवाद) विद्या अनेकातिशयसंपन्ना अनुप्र भापिताः साधवस्तेन, प्राग्वैरस्मरणक्रुधा। वदति साधनानुकूल्येन सिद्धिप्रकर्षण प्रवदतीति विद्यानुप्रवादम्। दशमे अथाऽऽर्यखपुटाचार्याः, संघेनाकारितास्तदा / / 5 / / पूर्वगते, तस्य पदपरिमाणमएका पदकोटी दश च पदलक्षाः। नं०। मुक्त्वा तत्राखिलं गच्छं, भागिनेयं च बालकम्। विजाणुप्पवायस्स णं पुटवस्स पन्नरस वत्थू पण्णत्ता। स०। स्वयमल्पपरीवारा, गुडशस्त्रं समाययुः॥६॥ विजातिसय-पुं०(विद्यातिशय) विद्याविशेषेषु, यैराकाशगमादीनि साधवः प्रेषिता मध्ये, स्वयं वटुकरालये। भवन्ति / व्य०४ उ० सायं तत्र स्थिताः कृत्वो-पानहौ तस्य कर्णिकौ / / 7 / / विजापिंड-पुं०(विद्यापिण्ड) विद्यया-व्याख्यानतो यः प्राप्तः पिण्डः स तदुत्सङ्गे निवेश्याची, सुप्ताः सौख्येन सूरयः। विद्यापिण्डः / आचा० 2 श्रु०१ चू०१ अ०६ उ०। विद्ययोपार्जिते देवव्यङ् प्रातरायातो, दृष्ट्वा चख्यौ जनस्य तत् / / 6 / / उत्पादनादोषविशिष्टे आहारे, प्रव०६७द्वार। पञ्चा०जी०। यदा विद्यया एयुर्जनास्तमुद्धाट्यो-द्धाट्यैक्षन्त यतो यतः। सुरं साधयित्वा आहारं गृह्णाति तदा विद्यापिण्डो द्वादशो दोषः। अथवा- तत्र तत्र निरीक्ष्याधि-ष्ठानं राज्ञेन्यवेदयन्॥६॥ विद्यां पाठयित्वा ग्रन्थमध्याप्य भोजनादिकं गृहस्थात् गृह्णाति तदा दृष्ट्वा राजाऽपि लकुट-लेष्ट्वाद्यैस्तमताडयत्। विद्यापिण्डो द्वादशो दोषः। उत्त०२४ अ०। धo1 प्रहारांस्तान् गुरुस्तस्यान्तःपुरे समचिक्रमत्॥१०॥ विद्यापिण्डं भुङ्क्ते भक्तिवाक्यैस्ततः स्तुत्वा, क्षमितः प्रणतश्च सः। जे भिक्खू विजापिंडं मुंजइ भुंजंतं वा साइजइ॥६३|| अथार्यखपुटाचार्या, उत्थाय स्वमदर्शयन्।।११।। नि०चू० 13 उ०। शक्तिं तस्य गुरोर्वीक्ष्य जनः सर्वो विसिष्मिये। गाहा उत्साहेनाथ राजाद्या, गुरं प्रावीविशन् पुरं / / 12 / /
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________________ विज्जासिद्ध 1146 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विज्जुप्पम यक्षो वटुकरोऽग्रेऽगा-मूर्तयश्चापरा अपि। पन्नत्ता / (सू०७७४४) दृषन्मय्यौ महाद्रोण्यौ, ततोऽप्यग्रे च ते कृते॥१३॥ सर्वाः सर्वदीर्घवताट्यसंभवा विद्याधरश्रेणयो विद्याधरनगर-श्रेणयः, उत्पतन्त्यः पतन्त्यश्च, प्रभोः पाषाणमूर्तयः। दीर्घवैताळ्या हि पञ्चविंशतिर्योजनान्युचैस्त्वेन पञ्चाशच मूलविष्कम्भेण / एता निघ्नन्ति जीवांस्त-नुच्यतामित्यवग् जनः / / 14|| तत्र दश योजनानि धरणीतलादतिक्रम्य दश योजनविष्कम्भा दक्षिणत ततो लोकोपरोधेन, गुरुभिः करुणापरैः। उत्तरतश्च श्रेणयो भवन्ति, तत्र दक्षिणतः पञ्चाशन्नगराणि, उत्तरस्ततु उक्तो वटुकरोऽन्याश्च, यातारः स्वस्वमाश्रयम्॥१५॥ षष्टिरिति भरतेषु, ऐरवतेषु तदेव व्यत्ययेन / विजयेषु तु पञ्चपञ्चाशत् प्रतोलीद्वारमभितो, द्रोण्यौ मुक्तेन ते पुनः। पञ्चपञ्चाशदिति / स्था०१०ठा०३ उ० अन्यो मम समः कोऽपि, स्वस्थानं प्रापयेदिमे / / 16 / / विजाहरी-स्त्री०(विद्याधरी) विद्याधरसम्बन्धिन्याम् (ज्ञा०१ श्रु०१६ गुरवोऽन्तर्गतास्तेऽथ, राजादीन् प्रत्यबोधयन्। अ०। प्रति०]) कोटिककाकन्दिकाभ्यां निर्गतस्य कोटिकगणस्य उपशान्तो वटुकरो, जातः साधुषु भाक्तिकः / / 17 / / शाखायाम, कल्प०२ अधि०८ क्षण। स्थविराद् विद्याधर-गोपालान्निजामेयो भृगुकच्छे च, मिलितः सौगतेषु सः। र्गतशाखायाम्, कल्प०२ अधि० 8 क्षण। पात्राणि प्रेषयव्योम्ना, तदुपासकवेश्मसु॥१८|| विजिडियामच्छ-पुं०(विज्जिटिकामत्स्य) मत्स्यभेदे, प्रज्ञा०१पदा पुरस्थं मात्रकं श्वेत-वस्त्रेण पिहिताननम्। विज्जु-स्त्री०(विद्युत्) तडिति, प्रव०२६८ द्वार। प्रज्ञा स्था०ा सू०प्र०। तस्याप्यग्रे टोप्परिका-मेकां संप्रासनस्थिताम् // 16|| औo: "विज्जुआअंति' विद्युतं विकुर्वन्तीत्यर्थः। आ०म०१० औला तन्मुखोऽभूजनो भूयान्, संघोऽथाज्ञापयद् गुरून्। असुरकुमारस्याग्रमहिष्याम्, स्था०५ ठा०१ उ०। राा ईशानेन्द्रलोकपागुडशस्वादथायासीद् गुरुरज्ञातचर्यया।।२०।। लानामग्रमहिष्याम्, स्था०४ ठा०१ उ० भ०। (पूर्वोत्तरजन्मकथाऽनयोः तत्पाषाणामथायाता, भृतानामन्तरा शिला। 'अगमहिसी' शब्दे प्रथमभागे 173 पृष्ठे गता।) विद्युत्कुमारे, पुं०। विचक्रे गुरुभिस्तस्या, सर्वाण्यास्फाल्यपुस्फुटुः / / 21 / / प्रश्र०आश्र० द्वार। भीतश्च क्षुल्लको नश्य-त्कृत्वो यातान गुरूंस्ततः। विज्जुअंतरिया-स्त्री०(विद्युदन्तरिका) विद्युति सत्यामन्तरं भिक्षाबुद्धायतनमागत्य, गुरवो बुमूचिरे।।२२।। ग्रहणस्य येषामस्तिते विद्युदन्तरिकाः। विद्युत्सम्पातेभिक्षामनटत्सु, औ०। एहि शौद्धोदने ! वत्स! वन्दस्वास्मानिहागतान्। विज्जुकुमार-पुं०(विद्युत्कुमार) भूषणनियुक्तवज्ररूपचिहधरेषु भवनआगत्य बुद्धप्रतिमा, पतिता गुरुपादयोः / / 23 / / पतिभेदेषु, प्रज्ञा० 2 पद / प्रव०। स्था०। भ०! प्रेषितोऽगान्निजस्थान-मुक्तः स्तूपोऽप्यवन्दत। ऊचे च तिष्ठ स्वस्थाने, किंचिन्नमस्तथा स्थितः॥२४॥ छावत्तरि विज्जुकुमारावाससयसहस्सा पण्णत्ता / (सू०निर्ग्रन्थानामित इति, तस्य ख्यातिरभूदतः। 764) स०७६ सम01 एवंविधः सिद्धवाक्यो, विद्यासिद्धोऽभिधीयते॥२५॥" विज्जुकुमारीमहत्तरिया-स्त्री०(विद्युत्कुमारीमहत्तरिका) विदिग्आ० क० १अगदश०। रुचकवास्तव्यासु दिक्कुमारीमहत्तरिकासु, स्था०। विज्जाहर-पुं०(विद्याधर) विद्यां धरन्तीति विद्याधराः। वैता व्यपुराधि चत्तारि विज्जुकुमारीमहत्तरियाओ पण्णत्ताओ,तं जहा-चित्ता, पतिषु,सूत्र०१ श्रु०१४ अ० प्रज्ञप्त्यादिविविधविद्याविशेषधारिषु, औ०। चित्तकणगा, सतेरा, सोयामणी। (सू०-२५६x) विशिष्टशक्तिमत्पूरुषविशेषेषु, जं० 4 वक्ष रा०ाआ०म० प्रज्ञा०। विद्युत्कुमारीमहत्तरिकास्तु विदिग्रुचकवास्तव्याः / एताश्च भगवतो "विजाहरजमलजुयलजंतजुत्तं पिव'' त्ति। विद्याधरयोर्यत् यमलं सम- जातमात्रस्य चतसृष्वपि दिक्षु स्थिता दीपिकाहस्ता गायन्तीति।स्था०४ श्रेणिकं युगलं-द्वयं तेनैव यन्त्रेण सञ्चरिष्णुपुरुषप्रतिमाद्वयरूपेण युक्ता ठा०१ उ० सा तथा ताम्, आर्षत्वाचैवंविधः समासः। भ०६श०३३ उ०॥ वज्रसेन- छ विज्जुकुमारीमहत्तरियाओ पण्णत्ताओ / तं जहा-आला प्रव्राजिते जिनदत्तपुत्रे, कल्प०२ अधि० क्षण। सुस्थितसुमतिबुद्धयोः सक्का सतेरा सोयामणी इंदा घणविज्जुया / (सू०-५०७+) शिष्ये, कल्प०१ अधि०२ क्षण। विंशतिव्याकरणानां मध्ये अन्यतम- स्था०६ ठा०३ उ०। व्याकरणस्य कर्तरि, कल्प०१ अधि०१क्षण। विज्जुजिब्म-पुं०(विद्युजिह्व) कर्दमस्यानुबेलन्धरनागस्यावासपर्वते, विजाहरनगरावास-पुं०(विद्याधरनगरावास) वैताढ्यपर्वते विद्याधर- | स्था०४ ठा०२ उ०। श्रेणिषु नगररूपेषु आवासेषु, जं०४ वक्ष०। ('वेयड्ड' शब्दे वर्णकः।) विज्जुदंत-पुं०(विद्युद्दन्त) स्वनामख्याते अन्तरद्वीपे, स्था० 4 ठा०२ विजाहरसेढि-स्त्री०(विद्याधरश्रेणि) दीर्घवैताव्यसंभवेषु विद्याध- उ०ानं० प्रव० प्रज्ञा०। ('अंतरदीव' शब्दे प्रथमभागे 97 पृष्ठे वक्तव्यरनगरश्रेणिषु, स्था०। तोक्ता।) सवओ विणं विजाहरसेढीओ दस दस जोयणाइं विक्खंभेणं | विज्जुप्पभ-पुं०(विद्युत्प्रभ) देवकुरुपश्चिमगजदन्तके, स्था०६ ठा०३ उ०।
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________________ विज्जुप्पभ 1150 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विज्जुयार कहिणं भंते ! जबूदीवे दीवे महाविदेहे वासे विज्जुप्पभे णामं कनककूटं तस्य दक्षिणतः षष्ठं सौवस्तिककूटं तस्यापि दक्षिणतः सप्तमें वक्खारपव्वए पण्णत्ते? गोयमा ! णिसहस्स वासहरपव्वयस्स शीतोदाकूटं तस्यापि दक्षिणतोऽष्टमं शतज्वलकूटं, नवमस्य सविशेषउत्तरे णं मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणपञ्चस्थिमे णं देवकुराए त्वेन, हरिस्सहातिदेशमाह-यथा-माल्यवद्वक्षस्कारस्य हरिस्सहकूट पञ्चत्थिमे णं, पम्हस्स विजयस्स पुरस्थिमे णं / एत्थणं जंबूदीवे / तथैव हरिकूट बोद्धव्यं सहस्रयोजनोचम् अर्द्धतृतीयशतान्यवगाढं मूले दीवे महाविदेहे वासे विज्जुप्पभे णामं वक्खारपव्वए पण्णत्ते, सहस्रयोजनानि पृथु इत्यादि / तथा-पृथुत्वविषयकावाक्षेपपरिहारौ उत्तरदाहिणायए एवं जहा मालवंते णवरि सव्वतवणिजमए तथैव वाच्यौ; नवरमष्टमतो दक्षिणतः इदं निषधासन्नमित्यर्थः। हरिस्सहअच्छे०जाव देवा आसयंति। कूटम् उत्तरतो नीलवदासन्नम्, अस्य राजधानी यथैव दक्षिणेन चमरचञ्चा 'कहिण' मित्यादि सर्वं स्पष्ट माल्यवदतिदेशेन वाच्यत्वात्। नवरमयं राजधानी तथैव ज्ञेया / कनकसौवस्तिककूटयोर्वारिषेणबलाहके सर्वात्मना रक्तसुवर्णमयः। दिक्कुमार्या द्वे देवते, अवशिष्टेषु विद्युत्प्रभादिषु कूटेषु कूटसदृशनामानो अथात्र कूटवक्तव्यतामाह देवा देव्यश्च राजधान्यो दक्षिणेन / यद्यप्युत्तरकुरुवक्षस्कारयोर्यथायोगं विज्जुप्पभे णं ! वक्खारपव्वए कइ कूडा पण्णत्ता? गोयमा! सिद्धहरिस्सहकूटव कूटाधिपराजधान्यो यथाक्रमं वायव्यामैशान्यां नव कूडा पण्णत्ता? तं जहा-सिद्धाययणकूडे विज्जुप्पभकूडे च प्रागभिहितास्तथा देवकुरुवक्षस्कारयोर्यथायोगं सिद्धहरिकूटवजदेवकुरुकूडे पम्हकूडे कणगकूडे सोवत्थिअकूडे सीओआकूडे कूटाधिपराजधान्यो यथाक्रममाग्नेय्यां नैर्ऋत्यां च वक्तुमुचितास्तथापि सयजलकूडे हरिकूडे।"सिद्ध अविज्जुणामे, देवकुरू पम्ह प्रस्तुतसूत्रसम्बन्धियावदादशेषु पूज्यश्रीमलयगिरिकृतक्षेत्रविचारवृत्तौ च कणगसोवत्थी। सीओआय सयजलहरिकूडे चेवबोद्धब्वे // 1 // " तथा दर्शनाभावात्, अस्माभिरपि राजधान्यो दक्षिणेनेत्यलेखि / एए हरिकूडवज्जा पञ्चसइआ णेअव्वा / एएसिं कूडाणं पुच्छा, अथास्य नामनिमित्तं पिपृच्छिषुराह-'से केणटेण' मित्यादि, उत्तरसूत्रे दिसिविदिसाओ णेअवाओ जहा मालवन्तस्स हरिस्सहकूडे विद्युत्प्रभो वक्षस्कार पर्वतो विद्युदिव रक्तस्वर्णमयत्वात्सर्वतः समन्तातह चेव हरिकूडे रायहाणी जह चेव दाहिणेणं चरम-चंचा दवभासते द्रष्टणां चक्षुषि प्रतिभासति यदयं विद्युत्प्रकाश इति, एतदेव रायहाणी तह अव्वा / कणगसोवत्थिअकूडेसु वारिसेण दृढयति-भास्वरत्वादासन्नं वस्तु द्योतयति, स्वयं च प्रभासते शोभते, बलाहयाओ दो देवयाओ अवसिट्टेसु कूडेसु कूडसरिसणामया तेन विद्युदिव प्रभातीति विद्युत्प्रभः। विद्युत्प्रभश्चात्र देवः परिवसति तेन देवा रायहाणीओ दाहिणेणं / से केणऽटेणं भंते ! एवं दुबइ विद्युत्प्रभः। शेष प्राग्वत्। जं०४ वक्ष०ा विज्जुप्पभे वक्खारपव्वए विज्जुप्पभे वक्खारपध्वए?गोयमा! दो विज्जुप्पभा। (सू०६२४) स्था०२ ठा०३ उ०। विज्जुप्पभे णं वक्खारपव्वए विज्जुमिव सव्वओ समन्ता | विज्जुप्पमदह-पुं०(विद्युत्प्रभहृद) जम्बूद्वीपे मन्दरस्य दक्षिणे देवकुरू ओभासेइ उनोवेइ पभासेइ विज्जुप्पभे य इत्थ देवे पलिओ- षुहृदभेदे, स्था०५ ठा०२ उग वमट्ठिइए जाव परिवसइ / से एएणऽटेणं गोयमा ! एवं वुचइ | विज्जुमई-स्त्री०(विद्युन्मती) कालायां सन्निवेशे सिंहनामग्रामकूटेन सह विज्जुप्पभे२, अदुत्तरं च णं० जाव णिचे / (सू०१०११) रतायां गोष्ठीदास्याम्, आ०म० अ० आ० चू०। चित्रदुहितरिब्रह्मदत्त 'विज्जुप्पभे' इत्यादि, प्रश्नसूत्रं व्यक्तम्, उत्तरसूत्रे सिद्धायतन-कूट चक्रवर्तिभार्यायाम, उत्त०१३अ० विद्युत्प्रभवक्षस्कारनाम्ना कूट देवकुरुनाम्ना कूटं पक्ष्मविजय-कूट | विज्जुमाली-पुं०(विद्युन्मालिन्) पञ्चशैलद्वीपराजे उदयनराजाय कनककूटं सौवस्तिककूटं शीतोदाकूटं शतज्वलकूटं हरिनाम्नो दक्षिण- वीरप्रतिमाससमर्पके स्वनामख्याते यक्षे, ग०२ अधिवा आ० का श्रेण्यधिपविद्युत्कुमारेन्द्रस्य कूटं हरिकूटम्। उक्तमेव संग्रहगाथयाऽऽह कल्प०ा नि० चू०। आ० चूल। स्वनामख्याते ब्रह्मलोकेन्द्र, आ० म०१ 'सिद्ध अविज्जुनामे' इत्यादि, एतानि हरिकूटा (दी) निपञ्चशतिकानि | अ० आ० चू०। ज्ञातव्यानि। एतेषां कूटानां 'कहिणं भंते ! विज्जुप्पभे वक्खाररपव्वए विज्जुमुह-पुं०(विद्युन्मुख) स्वनामख्यातेऽन्तरद्वीपे, प्रव०२६२ द्वार। सिद्धाययणकूडे णामं कूडे पण्णत्ते? 'इत्येवंरूपायां पृच्छायां दिशो ('अंतरदीव' शब्दे प्रथमभागे६६ पृष्ठे वक्तव्यतोक्ता।) विदिशश्च ज्ञेयाः; यथा- योगमवस्थित्याधारतया वाच्या इत्यर्थः / | विज्जुमेह-पुं०(विद्युन्मेघ) विद्युत्प्रधाने जलवर्जितमेघे, भ०७श०६उ०। तथाहि-मेरोदक्षिणपश्चिमायां दिशि मेरोरासन्नमाद्यं सिद्धायतनकूटं तस्य | विज्जुया-स्त्री०(विद्युत) बलिलोकपालानामग्रमहिष्याम्, स्था० 4 ठा०१ दक्षिणपश्चिमायां दिशि विद्युत्प्रभकूटंततोऽपितस्यां दिशि तृतीयं देवकुरुकू | 3이 이 टतस्यापि तस्यामेव दिशि चतुर्थं पक्ष्मकूटम् / एतानि चत्वारि कूटानि | विज्जुयार-पुं०(विद्युत्कार) विद्युत्-तडित्सैव क्रियत इतिकारः-कार्य विदिग्भावीनि। चतुर्थस्य दक्षिणपश्चिमायां षष्ठस्य कूटस्योत्तरतः पञ्चमं | विद्युतो वा करणं कारः क्रिया। विद्युत्करणे, स्थान
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________________ विज्जुयार 1151 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विढव तिहिं ठाणेहिं देवे विज्जुयारं करेजा, तं जहा-विउव्वमाणे वा | विट्टि-स्त्री०(विष्टि) भद्रायाम्, प्रा०ा करणभेदे, ववादिकरणानामन्यतमे, पडियारेमाणे वा तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा इड्डिं आ० म०१ अ०। सूत्र०ा आ० म०। विशे० आ० चू० / उत्त० ज०। जुइं जसं बलं वीरियं पुरिसकारपरक्कम उवदंसेमाणे देवे | विट्ठा-स्त्री०(विष्ठा) उपलक्षणे, मृत्तिकामले, गुथे च। पं०व०१ द्वार। विज्जुयारं करेजा। (सू०१३३४) विट्ठाकोट्ठागार-न०(विष्ठाकोष्ठागार) वर्चस्कगृहोपमे कलेवरे, तं०। विद्युतं कुर्यादित्यर्थः, वैक्रियकरणादीनि हि सदर्पस्य भवन्ति, तत्प्रवृ- विड-पुं०(विट) स्त्रैणे, स्त्रीलम्पटे, आ० म० अ०। तस्य च दर्पोल्लासवतश्चलनविद्युद्गर्जनादीन्यपि भवन्तीति चलनविद्यु- *विट्-स्त्री० गोमूत्रादिपक्के लवणभेदे, दश०६ अ०। कारादीनां वैक्रियादिकं कारणतयोक्तमिति / ऋद्धिं विमानपरिवारा- विडंक-पुं०(विटङ्क) कपोतपाल्याम्. जी०३ प्रति०४ अधि०। लोमदिकी द्युति-शरीराभरणादीनां यशः-प्रख्यातिं बलम्-शारीरं वीर्यम्- पक्षिभेदे, जी०१ प्रति जीवप्रभवम्, पुरुषकारश्च अभिमानविशेषः स एव निष्पादितस्वविषयः / विडंबक-पुं०(विडम्बक) विदूषके, नानावेषकारिणि, जी०३ प्रति०४ पराक्रमश्चेति पुरुषकारपराक्रमम्। समाहारद्वन्द्वस्तदेतत्सर्वमुपदर्शयमान अधिo ज्ञा इति। स्था०३ ठा०१ उ०। विडंबिय-त्रि०(विडम्बित) भूतावेष्टितपीतमद्यादिजनाङ्गविक्षेपतुल्ये, विज्जुला-स्त्री०(विद्युत) "विद्युत्पत्रपीतान्धाल" ||8/2 / 173 / / इति उत्त०१३ अ० विकृतिकृते, अनु० / ज्ञा०) स्वार्थेलः। तडिति, प्रा०२ पाद। विडवि(ण)-पुं०(विटपिन्) वृक्षे, को। विज्जुवएस-पुं०(वैद्योपदेश) वैद्यनिरूपिते, ग०१ अधि०। विडविड्ड-धा०(रच) निर्माण, "रनेरुग्गहावह-विडविड्डाः" / / 4 / 64 / विज्जुसिरी-स्त्री०(विद्युच्छ्री) आमलकल्पायां विद्युन्नामगृहपतेर्विद्यु इति रचधातोः विडविड्ड आदेशः। विडविड्डया रचयति। प्रा०४ पाद। द्यारिकाजनिकायां भार्यायाम, ज्ञा०२ श्रु०१ वर्ग 4 अ० विडाली-स्त्री०(विडाली) मार्जार्याम, आ०क०१ अ०। विज्जुसिहा-स्त्री०(विधुच्छिखा) शिवमन्दरेनगरेज्वलनशिखरस्य राज्ञो | विाडम-पु०(विटापन्) वृक्ष, दश०१ अ०) देव्याम्, उत्त०१३ अ० विडिमंतरपरिवसण-पुं०(विडिमान्तरपरिवसन) विडिमान्तरेषु शाखाविज्जुसोयामिणीपहा-स्त्री०(विद्युत्सौदामिनीप्रभा) विशेषेण द्योतते इति न्तरेषु प्रासादाद्याकृतिषु परिवसनमाकालमावासो येषां ते विडिमान्तर परिवसनाः / वृक्षगेहालयेषु सुषमामनुष्येषु, विडिमान्तरनिवासिविद्युत्, सा चासौ सौदामिनी चेति विद्युत्सौदामिनी। तद्वत्प्रभा यस्याः शब्दोऽप्यत्र / जी०३प्रति०४ अधि०। सा विद्युत्सौदामिनीप्रभा। स्फुरद्विद्युत्कान्तौ, उत्त० 6 अ० विडिमा-स्त्री०(विडिमा) ऊर्ध्वविनिर्गतायां वृक्षशाखायाम्, जी०३ विज्झडिय-त्रि०(देशी) मिश्रिते, व्याप्ते, भ०७ श०६ उ०| प्रति०४ अधि० ज०। रा० विज्झवण-न०वि(ध्या)ध्मापन विविधे उपशमने, नि०चू०५ उ०) / विड्डा-स्त्री०(व्रीडा) “सर्वत्र लवरामचन्द्रे' / / 8 / 2176 / / इति रलोपः। आचा० निर्वापने, आचा०२ श्रु०१ चू०२ अ०१ उ० तैलादित्वाद् द्वित्वम् / विड्डा। ब्रीडा। लज्जायाम, प्रा०२ पाद। विज्झवेयव्व-त्रि०(विध्यापयितव्य) दाहादुपरमणे, ना निर्वापयितव्ये, विड्डार-न०(विद्वार) विगतद्वारे नक्षत्रे, पूर्वद्वारिके नक्षत्रे, पूर्वदिशागन्तव्ये दश०२अ०आव० यदाऽपरया दिशा गच्छति तदा तद् विद्वारं भवति। व्य०१ उ०। पं० व० विज्झायसंकम-पुं०(विध्यातसंक्रम) यासां प्रकृतीनां गुणप्रत्ययतो बन्धो नि० चू०। विशे०। द०प०/ आ० म०) न भवति तासां संक्रमकरणे, पं० सं०५ द्वार क०प्र०। *विड्वर-न०। यस्मिन् नक्षत्रे ग्रहो वक्रतामुपयाति शुद्धं वा विधत्ते विटंक-पुं०(विटङ्क) कर्पातपाल्याम्, प्रश्न०१ आश्र० द्वार। तादृशे नक्षत्रभेदे, जीता विद्याल-त्रि०(अस्पृश्यसंसर्ग) स्पृष्टमयोग्ये संसर्ग, "शीघ्रादीना वाह- | विढत्त-त्रि०(अर्जित) "क्तनाप्फुण्णादयः" ||4 / 258|| इति अर्जितलादयः" ||8|4|422 / / इति। अस्पृश्यसंसर्गस्य विद्यालः। “जे छड्डविणु / __स्थाने विढत्तादेशः। उत्पादिते, प्रा०४ पाद। रयणनिहि, अप्पउंतडिघल्लंति / तह संखहविट्टाल-पर-फुकिज्जत विढप्प-धा०(अर्ज) उत्पादने, "अर्जेविढप्पः" ||८४१२५१।।अन्त्यभमंति।" प्रा०४ पाद। स्येति निवृत्तम्। अर्जेविंढप्प इत्यादेशो वा भवति तत्सन्नियोगे क्यस्य च विट्ठ-त्रि०(विष्ट) उपविष्ट, बृ०१ उ०३ प्रक०। लुक्। विढप्पइ। पक्षे-विढविज्जइ। अजिज्जइ। प्रा० 4 पाद। *वृष्ट-त्रिका "इदुतौ वृष्ट-वृष्टि-पृथङ्मृ दङ्ग-नप्लके" // 8 / 1 / 137 // | विढव-धा०(अर्ज) उत्पादने, "अर्जेविंढवः'' ||14|108 / / अर्जेविंढव इति ऋत इकारः / वृष्टिमुपगते, प्रा०१ पाद। इत्यादेशो वा भवति। विढवइ अर्जयति / प्रा०।
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________________ विणइय 1152 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विणय विणइय-त्रि०(विनयित) शिक्षा ग्राहिते, स्था० 10 ठा०३ उ०। विणकृतेय-त्रि०(विनष्टतेजस्) निःसत्ताकीभूततेजसि, भ०१५ श० विणओणय-त्रि०(विनयावनत) सर्वैर्विनयैर्नमति, जी०३ प्रति०४ | विणण-नविन(वा)न वस्त्रस्य वानकर्मणि, बृ०१ उ०१प्रकला अधि० ज०भग विणत-न०(विनत) प्राणतदेवलोकविमानभेदे, स०१६ सम० विणओवगय-त्रि०(विनयोपगत) मानमकुर्वति, स०३२ सम०) विणमि-पुं०(विनमि) महाकच्छसुते, भगवता ऋषभेण पुत्रत्वेन प्रतिपन्ने विनयोपगतानाह वैताळ्यनगेश्वरे विद्याधरे, कल्प०१ अधि०७ क्षण / ती आ० चू० "उज्जेणी अंबरिसी, मालुग तह निम्बए अपव्वज्जा। आ० म०। आ० क०। (अस्य 'उसह शब्दे द्वितीयभागे 1133 पृष्ठे संकमणं च परगणे, अविणये विणए य पडिवत्ती॥१॥" कथोक्ता) "उज्जयिन्यामिहाम्बर्षि-ब्राह्मणो मालुकाप्रियः / विणमिय-त्रि०(विनमित) विशेषेण फलपुष्पभारेण नते, औ० / ज्ञा०। भ०। निम्बः सुतो मालुकायां, मृतायां स सुतो द्विजः / / 1 / / विणय-पुं०(विनय) विनयनं विनयः। कर्मापनयने, विनीयते वाऽनेन कर्मेति व्रत्यभूद् दुर्विनीतस्तु, निम्बकः कायिकाभुवि। विनयः / आव०२ अ० विनयति-नाशयति सकलक्लेशकारकमष्टकण्टकान्न्यखनत् क्षौति, स्वाध्यायस्य प्रवेदने।।२।। प्रकारं कर्म स विनयः / देशकालाद्यपेक्षया यथोचितप्रतिपत्तिलक्षणे हन्ति कालं विपर्यस्तां, सामाचारी करोति च / (आ०म०१अ० प्रवादशाध01) कर्मविनयनसमर्थे अनुष्ठानविशेषे, आचार्य साधवोऽथाहु-रस्त्वेषो यदि वा वयम्॥३॥ पञ्चा०६ विव०। ज्ञा० स्था०ध०र०ा औ०। आन्तरतपोरूपे, उत्त०१ निःसार्यते स्म निम्बोऽथ, जनकोऽपि तमन्वगात्। अ०। ग०। स०। सूत्र०ा नंगा विशिष्टो नयो विनयः / गुरुप्रतिपत्तिविशेषे, गतोऽन्याचार्यनिकटे, तत्रापि निरसार्यत॥४॥ स्था०३ ठा०३ उ०ा दर्श०। गुरुशुश्रूषायाम्, स्था०४ ठा०४ उ०। आव०॥ पञ्चप्रतिश्रयशता-न्यवन्त्यां हिण्डितोऽथ सः। आ० म०। आ० चूका अभ्युत्थानपादधावनादौ, दश०३ अ०। स्थितिः कुत्राप्यभून्नाथ, संज्ञाभूमौ पिताऽरुदत्।।५।। पादधावनादिरूपे, (आ० म०१ अ०) गुरुसेवाप्रकारे, दश०६ अ०५ उ० आव०) नं० ग० अञ्जलिकरणादौ, भ०६श०३३ उ०। औ०। सोऽवक् किं रोदिषि पित-निम्बो नाम त्वया कृतम्। आ० म० / अभिवन्दनादिलक्षणे (आ०म० अ०। आ० चू०।) पितोचे सान्वयं नाम, नादां किं त्वेवमेव तत्॥६॥ अभ्युत्थानाद्युपचारे, प्रश्र०४ संव०द्वार। आ० का धाप्रमाणे, आव०२ साम्प्रतं दुष्कृतैस्ते भो ! लेभे नाहमपि स्थितिम्। अ०। आ०चू०। इच्छाकारादिदानेन बलात्कारपरिहारादिलक्षणे न चेत्प्रव्रजितुं शक्यं, तस्याप्यासीदथाधृतिः // 7 // एकनान्यत्र च गुर्वनुज्ञया भोजनादिकृत्यकरणलक्षणे उपचारे, प्रश्न०३ ऋषितस्तात ! कुत्रापि, मार्गयत स्थानमेकदा। संव०द्वार नि० चू० / नीचैर्वृत्त्यनुत्सेके, आचा०१ श्रु० ११०१उ०। इतो भावी विनीतोऽहं, पार्श्वेऽगाद्दीक्षितुस्ततः / / 8 / / "उववातो निद्देसो; आणा विणओपओति एगट्टा" व्य०४ उ०। संयमे, साधवः क्षुभिताः सोऽवक्, न करिष्यति दुर्नयम्। आचा०१ श्रु०१अ०७ उ०! चारित्रे, स०३० सम०। तथाऽपीच्छन्ति ते नैव, तानाचार्यास्ततोऽभ्यधुः। कर्मणां दाग विनयना-दिनयो विदुषां मतः। प्राघूर्णकौ तिष्ठतोऽद्य,यातारौ स्वसुतः स्थितौ / / 6 / / अपवर्गफलाम्यस्य, मूलं धर्मतरोरयम् // 1 // स्थण्डिलादिविधिं कुर्वन्, निम्बोऽपयारञ्जयन्मुनीन्। 'कर्मणामिति' कर्मणां-ज्ञानावरणीयादीनां द्राक्-शीघ्रं विनयनाद्अमृताम्रस्ततो जात-स्तेनान्येऽपि प्रतिश्रयाः / / 10 / / अपनयनाद्विदुषां विनयो मतः। अयमपवर्गफलेनाढ्यस्य पूर्णस्य धर्मत रोर्मूलम्॥१।। द्वा०२८ द्वा०। विनयाद्यैररज्यन्त, सर्वत्राभून्महर्घता। विनयनिक्षेपःविनयोपगता तस्य, नादौ पश्चाच साऽभवत् // 11 // " विणयस्स समाहीए, निक्खेवो होइ दोण्ह वि चउको। आ०० 40 दव्वविणयम्मि तिणिसो,सुवन्नमिचेव माईणि॥३०॥ विणओवयार-पुं०(विनयोपचार) विनय एवोपचारो विनयोपचारः। विनयस्य-प्रसिद्धतत्त्वस्य समाधेश्व-प्रसिद्धतत्त्वस्यैव निक्षेपोन्यासो विनयरूपे उपचारे, "विनओवयारमाणस्स संजणा पूअणा गुरु भवति। द्वयोरपि चतुष्को नामादिभेदात्। तत्र नामस्थापने क्षुण्णत्वादजणस्स" आव०३ अ० नादृत्य द्रव्यविनयमाह-द्रव्यविनये ज्ञशरीव्यतिरिक्त तिनिसो-वृक्षविशेष विणओववण्ण-त्रि०(विनयोपपन्न) ज्ञानदर्शनसेवनरूपं विनयमुपपन्ने, उदाहरणम् / स रथाङ्गादिषु यत्र२ यथार विनीयते स तत्र 2 तथा 2 उत्त०१ अ० परिणमति, योगत्वादिति / तथा सुर्वणमित्यादीनि कटककुण्डलादिविणट्ठ-त्रि०(विनष्ट) उच्छूनत्वादिविकारैः स्वरूपादपेते, ज्ञा० 1 श्रु०८ प्रकारेण विनयनात् / द्रव्याणि द्रव्य-विनयः आदिशब्दात्तत्तद्योग्यअग अत्यन्तविकृतावस्थां प्राप्ते, प्रश्र०१आश्रद्वार। विगतभावे, ज्ञा०१ रूप्यादिपरिग्रह इति गाथार्थः। दश०९ अ०२ उ०ा आ० चू० श्रु०१ अ०। व्यापन्ने, स्था०५ ठा०२ उ०ा विश्रते, ज्ञा०१ श्रु०१०॥ साम्प्रतं भावविनयमाहविणटुंग-त्रि०(विनष्टाङ्ग) विकृतशरीरे, अप्रतिकर्मशरीरे, सूत्र०१ श्रु०३ लोगोवयारविणओ, अत्थनिमित्तं च कामहेउंच। अ०१उ० भयविणयमुक्खविणओ, विणओ खलु पंचहा होइ॥३१०।।
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________________ विणय 1153 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विणय लोकोपचारविनयो-लोकप्रतिपत्तिफलः अर्थनिमित्तं च अर्थप्राप्त्यर्थे च कामहेतुश्च-कामनिमित्तश्च तथा भयविनयो भयनिमित्तः मोक्षविनयो-मोक्षनिमित्तः एवमुपाधिभेदाद्विनयः खलु पञ्चधा-पञ्चप्रकारो भवतीति गाथासमासार्थः / व्यासार्थाभिधित्सया तु लोकोपचारविनयमाहअब्भुट्ठाणं अंजलि-आसणदाणंच अइहिपूआय। लोकोपचारविणओ, देवयपूया य विभवेणं // 311 / / 'अब्भुट्ठाणं' तदुचितस्यागतस्याभिमुखमुत्थानम् अञ्जलिः विज्ञापनादौ आसनदानं च गृहागतस्य प्रायेण अतिथिपूजा चाहारादिदानेन एष इत्थंभूतोलोकोपचारविनयः, देवतापूजा चयथाभक्तिबल्याधुपचाररूपा विभवेनेति यथा-विभवं विभवोचि तेति गाथार्थः / उक्तो लोकोपचारविनयः। दश० अ०१ उ०। आ० म० नं0 व्य०। अर्थविनयमाहअब्भासवित्तिछंदा-गुवत्तणं देसकालदाणं च। अन्मुट्ठाणं अंजलि-आसणदाणं च अत्थकए॥३१॥ अभ्यासवृत्तिः--नरेन्द्रादीनां समीपावस्थानं छन्दोऽनुवर्तनम् अभिप्रायाराधनं देशकालदानंच कटकादौ विशिष्टनृपतेः प्रस्तावदानम, तथा अभ्युत्थानमञ्जलिरासनदानं नरेन्द्रादीनामेव कुर्वन्ति अर्थकृतेऽर्थार्थमिति गाथार्थः / उक्तोऽर्थविनयः। कामादिविनयमाहएमेव कामविणओ, भये अनेयव्वमाणुपुथ्वीए। मोक्खम्मि वि पंचविहो, परूवणा तस्सिमा होइ॥३१३|| एवमेव यथार्थविनय उक्तोऽभ्यासवृत्त्यादिः तथा कामविनयः भये चेति भयविनयश्च ज्ञातव्यो-विज्ञेयः आनुपूर्व्यापरिपाट्या, तथाहि-कामिनो वेश्यादीनां कामार्थमेवाभ्यासवृत्त्यादि यथाक्रमं सर्वं कुर्वन्ति, प्रेष्याश्च भयेन स्वामिनामिति उक्तौ कामभयविनयौ / मोक्षविनयमाह-मोक्षेऽपि मोक्षविषयो विनयः-पञ्चविधःपञ्च-प्रकारः प्ररूप्रणा-निरूपणा तस्यैषा भवति वक्ष्यमाणेति गाथार्थः। दर्शनादिविनयमाहदंसणनाणचरित्ते, तवे य तह ओवयारिए चेव। एसो अमोक्खविणओ, पंचविहो होइ नायय्वो॥३१४।। दर्शनज्ञानचारित्रेषुदर्शनज्ञानचारित्रविषयः तपसि चतपोविषयश्च तथा औपचारिकश्चैव प्रतिरूपयोगव्यापारश्चैव, एष तु मोक्षविनयो मोक्षनिमित्तः पञ्चविधो भवतिज्ञातव्य इतिगाथासमासार्थः / दश०६ अ०२ उ०ा आo चू० गधा तिन ज्ञानादिसप्तविनयाःसे किं तं विणए? विणए सत्तविहे पण्णत्ते,तं जहा-णाणविणए दंसणविणए चरित्तविणए मणविणए वइविणए कायविणए लोगोवयारविणए। (सू०२०x) ज्ञानविनयः से किं तं णाणविणए? णाणविणए पंचविहे पण्णत्ते,तं जहाआभिणिवोहियणाणविणए सुअणाणविणए ओहिणाणविणए मणपज्जवणाणविणए केवलणाणविणए। (सू० 20+) औ०। भाव्य दर्शनविनयःसे किं तं दंसणविणए? दंसणविणए दुविहे पण्णत्ते, तं जहासुस्सू(स्सु)सणाविए अणचासायणाविणए / से किं तं सुस्सूसणाविणए? सुस्सूसणाविणए अणेगविहे पण्णत्ते, तं जहाअब्भुट्ठाणेइ वा आसणाभिग्गहेइ वा आसणप्पदाणेति वा सकारेइ वा संमाणेइ वा कितिकम्मेइ वा अंजलि पग्गहेइ वा एयस्स अणुगच्छणया ठिअस्स पज्जुवासणया गच्छंतस्स पडिसंसाहणया। से तं सुस्सूसणाविणए। (सू० 204) औ०) (दर्शनविनयोऽप्यष्टप्रकारः सच 'दंसणायार' शब्दे चतुर्थभागे 2436 पृष्ठे दर्शितः।) (अनत्याशातनाविनयः अणच्चासायणा-विणय' शब्दे प्रथमभागे 283 पृष्ठे दर्शितः।) उपसंहरन्नाह-- एसो भे परिकहिओ, विणओ पडिरूवलक्खणो तिविहो। बावन्नविहिविहाणं, ति अणासायणाविणयं // 32 // एषः अनन्तरोदितः 'भे'-भवतां परिकथितो विनयः प्रतिरूपलक्षणस्त्रिविधः कायिकादिः द्विपञ्चाशद्विधिविधानम् एतावत्-प्रभेदमित्यर्थः अवते-अभिदधति तीर्थकरा अनाशातनावियं वक्ष्यमाणमिति गाथार्थः। एतदेवाहतित्थयरसिद्धकुलगण-संघकियाधम्मनाणनाणीणं / आयरियथेरओज्झा-गणीण तेरस पयाणि // 325 / / तीर्थकरसिद्धकुलगणसंघक्रियाधर्मज्ञानज्ञानिनां तथा आचार्यस्थविरोपाध्यायगणिनां संबन्धीनि त्रयोदश पदानि, अत्र तीर्थकरसिद्धौ प्रसिद्धौ, कुलंनागेन्द्रकुलादि गणः-कोटिकादिः संघः-प्रतीत:-क्रिया अस्तिवादरूपा,धर्म:-श्रुतधादिः ज्ञानम्-इत्यादिज्ञानिनस्त-द्वन्तः, आचार्यः प्रतीतः स्थविरः-सीदतां स्थिरीकरणहेतुः,उपाध्यायः प्रतीतः गणाधिपतिर्गणिरिति गाथार्थः। एतानि त्रयोदश पदान्यनाशातनादिभिश्चतुर्भिर्गुणितानि द्विपञ्चाशद्भवन्तीत्याहअणॉसायणा य भत्ती, बहुमाणे तह य वन्नसंजलणा। तित्थगराई तेरस, चउग्गुणा हॉति बावन्ना / / 326 / / अनाशातनाचतीर्थकरादीनांसर्वथा अहीलनेत्यर्थः, तथा भक्तिस्तेष्वेवोचितोपचाररूपा, तथा बहुमानस्तेष्वेवान्तरभावप्रतिबन्धरूपः, तथा च वर्णसंज्वलनातीर्थकरादीनामेव सद्भूतगुणोत्कीर्तना। एवमनेन प्रकारेण तीर्थकरादयस्त्रयोदश चतुर्गुणा अनाशातनाद्युपाधिभेदेन भवन्ति द्विपञ्चाशद्भेदा इतिगाथार्थः। उक्तो विनयः / दश० 6 अ०२ उ०। (चारित्रविनयः 'चारित्त-विणय' शब्दे तृतीयभागे 1175 पृष्ठे गतः।)
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________________ विणय 1154 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विणय से किं तं मणविणए ? मणविणए दुविहे पण्णत्ते, तं जहापसत्थमणविणए, अपसत्थमणविणए / से किं तं अपसत्थमणविणए? 2, जे अ मणे सावजे सकिरिए सककसे कटुए णितुरे फरसे अण्हयकर छेयकरे भेयकरे परितावणकरे उद्दवणकरे भूओवघाइए तहप्पगारंमणो णो पहारेज / से तं अपसत्थमणोविणए। सें किं तं पसत्थमणोविणए ? पसत्थमणोविणए तं चेव पसत्थं णेअव्वं / एवं चेव वइविणओ वि एतेहिं पदेहिं चेवणेअध्वो, सेतं वइविणए। (सू०२०x) कायविनयःसे किं तं कायविणए? कायविणए दुविहे पण्णत्ते, तं जहापसत्थकायविणए, अपसत्थकायविणए / से किं तं अपसत्थकायविणए? अपसत्थकायविणए सत्तविहे पण्णत्ते, तं जहाअणाउत्तं गमणे अणाउत्तं ठाणे अणाउत्तं णिसीदणे अणाउत्तं तुअट्टणे अणाउत्तं उल्लंघणे अणाउत्तं पल्लंघणे अणाउत्तं सविंदियकायजोगजुंजणया। से तं अपसत्थकायविणए / से किं तं पसत्थकायविणए.? पसत्थकायविणए एवं चेव पसत्यं माणियध्वं / से तंपसत्थकायविणए ।से तं कायविणए। (सू० 204) औ०। कायिकमाहअन्मुट्ठाणं अंजलि-आसणदाणं अभिग्गहकिई अ। सुस्सूसणमणुगच्छण-संसाहणकायअट्ठविहो // 321 / / अभ्युत्थानमर्हस्य अञ्जलिः प्रश्नादौ आसनदान पीठकाथुपनयनम् अभिग्रहो-गुरुनियोगकरणाभिसंधिः कृतिश्चेति कृतिकर्म; वन्दनमित्यर्थः / शुश्रूषणं-विधिवददूरासन्नतया सेवनम् / अनुगमनम्-आगच्छतः प्रत्युगमनं स्वसाधनं चगच्छतोऽनुव्रजनं चाष्टविधः कायविनय इति गाथार्थः / दश०६ अ०२ उ01 लोकोपचारविनयःसे किं तं लोगोक्यारविणए? लोगोवयारविणए सत्तविहे पण्णत्ते, तं जहा-अन्भासवत्ति परच्छंदाणुवत्तिअं कहेलं कयपडिकिरिआ अत्तगवेसणया देसकालण्णुयासव्वहेसु अपडिलोमया। से तं लोगोवयारविणए। (सू०२०x) औ०। शुश्रूषणाविनयःसे किं तं सुस्सूसणाविणए? सुस्सूसणाविणए अणेगविहे पण्णत्ते, तं जहा-सकारेति वा सम्माणेति वा जहा चउद्दसमसए तइयउद्देसएन्जाव पडिसंसाहणया / से तं सुस्सूसणाविणए। (सू०८०२४) भ०२५ श०७०।०। संथा०। प्रव०॥ ___ सम्प्रति तृतीयं विनयभेदं प्रचिकटयिषुर्गाथापूर्वार्द्धमाहअब्भुट्ठाणाईयं, विणयं नियमा पउंजइ गुणीणं / / अभिमुखमुत्थानमभ्युत्थानं तदादिः यस्य सः अभ्युत्थानादिरादिशब्दात्संमुखयानादिपरिग्रहः। तदुक्तम्-'दळुअब्भुट्ठाणं, आगच्छताण समुहं जाणं / सीसे अंजलिकरणं, सयमासणढोयणं कुज्जा ||1|| निविसिज निसन्नेसुं, गुरूण वंदणमुवासणं ताणं! जंताणं अणुगमणं, इय विणओ अट्ठहा होइ // 2 // " इति / तमित्थं भूतं विनयं-प्रतिपत्ति नियिमात्-निश्चयेन प्रयुक्त विदधाति गुणिनां-गुरुगौवार्हाणां पुष्पसालसुतवत्।ध० 202 अधि०३ लक्ष०। वाग्विनयः-- से किं तं वइविणए? वइविणए दुविहे पण्णत्ते, तं जहापसत्थवइविणए, अप्पसत्थवइविणए या से किं तं पसत्थवइविणए? पस०२ सत्तविहे पण्णते, तं जहा-अपावए० जाव अभूताभिसंकणे / सेत्तंपसत्थवइविणए। से किं तं अप्पसत्थवइविणए? अप्पसत्थवइविणए सत्तविहे पण्णत्ते,तंजहा-पावए सावज्जेजाव भूताभिसंकणे / सेत्तं अप्पसत्थविणए / सेत्तं वइविणए। (सू०८०२४) भ०२५ श०७ उ०। वागादिविनयमाहहियमियअफरुसवाई, अणुवीईभासिवाइओ विणओ। अकुसलचित्तनिरोहो, कुसलमणउईरणा चेव // 322 / / हितमितापरुषवागिति हितवाक्-हितं वक्ति परिणामसुन्दरं मितवाग्मितं स्तोकैरक्षरैः अपरुषवाक् अपरुषम् अनिष्ठुरं, तथा अनुविचिन्त्यभाषी स्वालोचितवक्तेति वाचिको विनयः। तथा अकुशलमनोनिरोधः आर्त्तध्यानादिप्रतिषेधेन कुशलमनउदीरणं चैव धर्मध्यानादिप्रवृत्त्येति मानस इति गाथार्थः। आह-किमर्थमयं प्रतिरूपविनयःकस्य चैव इति। उच्यतेपडिरूवो खलु विणओ, पराणुयत्तिम्मओ मुणेअब्दो। अप्पडिरूवो विणओ, नायव्यो केवलीणं तु // 323 // प्रतिरूपः-उचितः खलु विनयः परानुवृत्त्यात्मकस्तत्तद्वस्त्वपेक्षया प्राय आत्मव्यतिरिक्तप्रधानानुवृत्त्यात्मको मन्तव्यः अयं च बाहुल्येन छद्मस्थानाम् / तथा अप्रतिरूपो विनयः अपरानुवृत्त्यात्मकः, स च ज्ञातव्यः केवलिनामेव तेषां तेनैव प्रकारेण कर्मविनयनात तेषामपीत्वरः प्रतिरूपो ज्ञातकेवलभावानां भवत्येवेति गाथार्थः / दश० 6 अ०२ उ०। स्था०ा व्य प्रतिरूपविनयमाहपडिरूवो खलु विणओ,काइयजोए य वायमाणसिओ। अट्ठ चउविह दुविहो, परूवणा तस्सिमा होई॥३२॥ प्रतिरूपः-उचितः खलु विनयस्त्रिविधः, काययोगे च, वाचि, मानसः, कायिको वाचिको मानसश्च, अष्टचतुर्विधद्विविधः / कायिकोऽष्टविधः, वाचिकश्चतुर्विधः, मानसो द्विविधः / प्ररू
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________________ विणय 1155 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विणय प्रणा तस्य कायिकाष्टविधादेरियं भवति वक्ष्यमाणलक्षणेति गाथार्थः। J दश०६ अ०२ उ०। उत्त०। व्य० / नि० चू०। (विनयमूलो धर्म इति, विनयश्च कतिविध इति च 'थावयापुत्त' शख्दे चतुर्थभाग 2405 पृष्ठे दर्शितम्।) विनये उदाहरणम्। इयाणिं विणए त्ति दारं-- णीयासणंजलिप-गहादिविणयो तहिं तु हरिएसो। भत्तीए उ महोसव, बहुमाणो भावपडिबन्धो // 13 // णीयं-नीयं निम्न आसीयते जम्मि तमासणं नीयं आसणं णीयासणं। गुरूण णीततरं उवविसति। तं च पीठगादि आसणं भवति। दो वि हत्था मउलकमलसंठिया अंजली भण्णति / पगरि-सेण गहो पग्गहो। सो य णीयासणस्स वा अंजलिपग्गहो वा / अहवा-णिसेज दंडगादीण वा पग्गहो भवति आदिसद्दग्गहणेण णिद्दाविगहा-परिवज्जिएहि। गाहा-एवं पठंतस्स वा सुणे तस्स वा विणओ भवति, इहरहा अविणओ / अविणीयस्स पच्छित्तं तं चिम-सुत्ते मासलहु / अत्थे मासगुरु / अहवा-सुत्ते-हु / अत्थे-त / तम्हा विणएण अधीयव्वं / विणओववेयस्स इह परलोगे विजाओ फलं पयच्छति तहिं तु अत्थे विणओवकारित्ते ठियस्स जहा विजाओ फलं पयच्छति तहा हरिएसो दिट्ठतो भण्णति। रायगिह णयरं सेणिओ राया सो य भजाए भण्णति / एगखंभ मे पासायं करेहि / तेण वकइणो आणत्ता गया कट्ठछिंदा सलक्खणो महादुमो दिहो, धूवो वि दिण्णो। इमं च तेहिं भणियं-जेण एस परिगहिओ भूतातिणासो दरिसावं देउ जाव ण छिंदामो, एवं भणिऊण गता तद्दिणं जेण य सो परिगहितो वाणमंतरेण तेण अभयस्स रातो दरिसाओ दिण्णो / इमं च तेण भणियं अहं एगखंभं पासायं सपायारपरिक्खेवं च करेमि, सव्वोउयपुप्फफलोववेएण वणसंडेण णवरंमा मज्झ णिलओवरिडिओ रुक्खो छिज्जइ। अभएण पडिस्सुयं। कओ य सो तेण आरक्खियपुरिसेहि य अहोरायं रक्खिज्जइ / अण्णया एक्कीए मायंगीए अकाले अंबदोहलो, भत्तारं भणइ-आणेहि। सो भणति-अकालो अंबगाणं / तीए लवियंजतो जाणेसि ततो आणेहि। सो गओ रायाण आमं तस्स य दो विजाओ अत्थि-ओणामणी य, उण्णा णी य / ओणामणीए ओणामित्ता गहियाणि पज्जत्तगाणि, उण्णामिणीए उण्णामिया साहा। दिट्ठो य रण्णा अंबग्गहणपरिच्छडो, चिंतियं च जस्स एसा सत्ती सो अंतेउरं पि धरिसेहि त्ति / अभयं भणति-सत्तरत्तस्स अब्भंतरे जति ण चोरं लभसि ततो ते जीवियं णस्थि / गवेसति अभओ। पेच्छइ य एगत्थ लोग मिलितं ण ताव गोज्जो (जानाति) आगच्छति। तत्थ आगंतुंअभओ भण्णति--जाव गोज्जो आढवेइ एयं ताव अक्खाणय सुणेह / एगम्मि दरिद्दकुले वडूकुमारी रूववती, सा य एगत्थ आरामे चोरियाई कुसुमाइं गेण्हइ, ताणिय घेत्तुं कामदेवं अचेति।सा य अण्णया आरामिएण गहिया, असुभभावो अ सो कड्डिउमारद्धो। सा भणति-मा मे विणासेहि तव वि भगिणी जीवा अत्थि। सो भणति–किमेतेण एकहा मुयामि जया परिणीया तया जति पढमं मम समीवमागमिस्ससि तो ते मुयामि। तीए पडिस्सुयं विसज्जिया परिणीया य वासघरं पविट्ठा, भत्तारस्स सब्भावं कहियं, तेण विसजिआ आरामं जाति / अंतरा चोरेहिं गहिया, सबभाव कहिए तेहिं मुका पुणो गच्छति / अंतरा रक्यसो आहारत्थी छह मासाणं णीति तेण य गहिता। सब्भावे सिट्टे मुक्का। गया आरामियस्स पासं दिहा, कतो सिभणति सो समयो, कहं मुक्का भत्तारेण? सव्वं कहेति / अहो सव्व पइण्णाए त्ति मुक्का कहमहं दुहामि मुक्का य पडिइंति। सव्वेहि मुक्का भत्तारसगासमक्खुण्णा गता। अभओ पुच्छति-एत्थ केण दुक्कर कयं? जे तत्थ इस्सालू ते भणंति भत्तारेण, छुहा रक्खसेणं, पारदारिया मालिएणं / हरिएसो भणति चोरेहि। अभएण गहितो एस चोरो त्ति। रण्णा उवणीओ पुच्छिओ सब्भावो कहिओ। राया भणति-जइ चोरवि-जाओ देसि तो जीवसि तेण पडिसुयं देमि त्ति। आसणत्यो पति-उमावाहेतिण वहइ। अभओ पुच्छिओ किंण वहति? अभओ भणति-अविणयगहिया एस हरिकेसो भूमित्थो तुमसीहासणत्थो तओ तस्स अण्णं आसणं दिण्णं राया णीततरे ठितो सिद्धा / एवं णाणं पि विणयगहियं फलं देति अविणयगहियं ण देति। तम्हा विणएण गहियव्यं / विणयए त्ति दारं। नि० चू०१ उ०। (विनयाकरणे प्रायश्चित्तम्, 'तवायार' शब्दे चतुर्थभागे 2208 पृष्ठे दर्शितम्।) साम्प्रतमार्तगवेषणरूपविनयप्रतिपादनार्थमाहदव्वाऽऽवइमाईसुं, अत्तमणत्ते गवेसणं कुणई। द्रव्यापदि-दुर्लभद्रव्याऽसंपत्तौ च तथा भवति। केषुचित् देशेष्ववन्त्यादिषु दुर्लभं घृतादिद्रव्यमिति, आदिशब्दात् क्षेत्रापदादिपरिग्रहः / तत्र क्षेत्रापदि कान्तारादिपत्तने, कालापदि दुर्भिक्षे, भावापदि गाढग्लानत्वे आर्त्तस्यपीडितस्य अत्यन्तसहिष्णुतया अनार्तसय वा यथाशक्ति यद् गवेषणं करोतिदुर्लभद्रव्यादिसंपादयति स आर्त्तगवेषणविनयः। सम्प्रति (भाष्यकारः) कालज्ञताविनयप्रतिपादनार्थमाहआहारादिपयाणं, छंदम्मि उछट्टओ विणओ॥४॥ षष्ठः कालज्ञतालक्षणो विनयः, एष यदुत 'छन्दम्मिउ' इति तृतीयार्थे - सप्तमी / तथा 'तिसु तेसु अलंकिया पुहवी' इत्यतोऽयमर्थः, छन्दसा गुरूणामभिप्रायेणैव तुशब्दस्यैवकरार्थत्वात् आहारादिप्रदानम्। किमुक्तं भवति-यद्यस्मै प्रतिभासते तदिङ्गिताकारादिभिरपि विज्ञाय आचार्यग्लानोपाध्यायप्रभृतीनामकालक्षेपं संपादयति। स एष कालकृतो विनयः / उक्तः कालज्ञताविनयः। संप्रति सर्वत्रानुलोमतालक्षणं विनयमाहसामायारिपरूवण-निद्देसे चेव बहुविहे गुरुणो। एमेय त्ति तह त्तिय, सव्वत्थऽणुलोमया एसा ||5|| 'गुरुणो' इत्यत्र-कर्तरि षष्ठी, गुरोः सामाचारीप्ररूपणे कि मुक्तं भवति-इच्छा मिथ्यादिरूपायां तस्यां तस्यां सामाचार्या गुरुणा प्ररूप्यमाणायाम् एवमेतद्यथा-भगवन्तो वदन्ति / नान्यथेति प्रतिपत्तिः, तथा बहुविधे बहुप्रकारे निर्देशे तत्क
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________________ विणय 1156 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विणय र्तव्यज्ञापनलक्षणे गुरोर्गुरुणा क्रियमाणे या तथेति वचनतः कर्तव्यतया च प्रतिपत्तिरेषा सर्वाऽपि सनुिलोमताविनयः। उपसंहारमाहलोगोवयारविणओ, इय एसो वण्णिओ सपक्खम्मि। आसन्न कारणं पुण, कीरइ जयणा विपक्खे वि||६|| इत्येवमुक्तेन प्रकारेण एष लोकोपचारविनयः स्वपक्षे-सुविहितलक्षणे वर्णितः। आसाद्य कारणे पुनर्विपक्षेऽपि गृहस्थेषु तथाविधागारिषु श्रावकेषु पार्श्वस्थादिषु च एष लोकोपचारविनयोऽभ्यासः वर्तित्वादिलक्षणो यतनया प्रवचनोन्नतिव्याघातपरिहारेण संयमानाबाधया च क्रियते। तदेवं कायवाङ्मनोलोकोपचारभेदतश्चतुष्प्रकारः प्रतिरूपविनय उक्तः। अथवा चतुष्प्रकारः प्रतिरूपविनयस्तानेव प्रकारान् दर्शयतिचउहावा पडिरूवो, तत्थेगणुलोमवयणुसहियत्तं / पडिरूवकायकिरिया, फासणसव्वाणुलोमं च / / 7 / / वाशब्दः प्रकारान्तरद्योतनार्थः। अन्यथा वा चतुर्दा-चतुष्प्रकारः प्रतिरूपविनयस्तत्रतेषु चतुर्यु प्रकारेषु मध्ये एकः प्रतिरूपविनय-स्तावदयम्यदुत अनुलोमवचनसहितत्वं यत्किमपि कार्यमादिष्टः करोति तत्सर्वमनुलोमवचनपूर्वकं करोति नान्यथेति भावः। द्वितीयप्रतिरूपकायक्रिया; यथा-परिपाट्या शरीरविश्रामणमित्यर्थः। तृतीयः संस्पर्शनविनयः यथा गुर्वादः सुखासिकोप-जायते तदा मृदुसंस्पर्शात्मकः संस्पर्शनविनय इति भावः। चतुर्थः सर्वानुलोमतासूत्रे सर्वानुलोममिति भावप्रधानो निर्देशः। चः समुच्चये / साच सर्वानुलोमता व्यवहारविरुद्धेऽपि प्राणव्यपरोपण-- कारिण्यपि वा समादेशे यथाक्रमं तथेति प्रतिपत्तिस्तथैव च कार्यसंपादनमित्येवंरूपा। एतानेव प्रकारान् क्रमेण व्याचिख्यासुः प्रथमतोऽनुलोमवचनसहितत्वं व्याख्यानयति अमुगं कीरउ आम-ति भणइ अनुलोमवयणसहितो उ। / वयणपसायाईहि य, अभिणंदइ तं वयं गुरुणो // 88|| इच्छाकारेण भो शिष्य ! अमुकं क्रियतामित्येवं गुरुणा समादिष्ट यो वचसा आममितिब्रूते न केवलं ब्रूते एव किं तुगुरोस्तां वाचं वदनप्रसादादिभिर्वदनस्य प्रसादेन मुखस्य प्रसन्नतया आदिशब्दात्-उत्फुल्लनयनकमलोऽञ्जलिप्रग्रहादिना वाऽभिनन्दति महान् कृतः प्रसादो यदिदं समादिष्टमित्येवं ज्ञापनेन स्फाति करोति स विनयविनयवतोरभेदोपचारात् अनुलोमवचनसहितः प्रतिरूपविनयः / तुशब्द एवकारार्थः / एवंरूप एवानुलोमवचनसहितो नान्य इति। अस्यैव विनयस्य करणे उपदेशमाहचोययंते परं थेरा, इच्छाणिच्छेव तं वइं। जुत्ता विणयजुत्तस्स, गुरुवक्काणुलोमता || स्थविरा-आचार्यादयः ते परं शिष्यं चोदयन्ते-शिक्षयन्ते तेषांतत्राधिकारित्वात्। तत्र तां चोदनात्मिकां वाचं प्रति यदिइच्छा भवति तदादिष्ट- | कार्यकरणाय, यदिवा-अनिच्छा तथापि विशुद्धान्वयतया विनययुक्तस्य गुरुवाक्यानुलोमता। आममित्येवं गुरुवाक्योपवृंहणं गुरुवाक्योपदिष्टकार्यसंपादकता चेति लक्षणा युक्ता / इयमत्र भावना-जातिकुलसमन्वितेन विनयमिच्छता सदैव गुरोनिकटवर्तिना भवितव्यं तत्र यदा गुरुः शिक्षयते तदाता शिक्षामिच्छता अनिच्छता वाऽवश्यं गुरुवाक्यमाममिति तथैवेत्येव वा उपवृंहणीयं कार्यं च संपादनीयमिति। एतदेव सविस्तरमाहगुरवो जं पभासंति, तत्थ खिप्पं समुज्जमे। नहु सच्छंदया सेया, लोए किमुत उत्तरे || गुरवो यत्प्रभाषन्ते-कर्तव्यतयोपदिशन्ति, तत्र क्षिप्रंशीघ्रं समुद्यच्छेत्सम्यगुद्यम कुर्यात्, यतो 'नहु'-नैव स्वच्छन्दता स्वाभिप्रायेणावर्तिता श्रेयसी लोकेऽपि अपिशब्दोऽत्रानुक्तोऽपि सामर्थ्यात् गम्यते, किमुत उत्तरे-लोकोत्तरे सुविहितजनमार्गे परलोकार्थिनस्तस्य सुतरां न श्रेयसी, ज्ञानादिविच्युतिप्रसङ्गात्। जं जुत्तं गुरुनिद्देसं, जो वि आइसई मुणी। तस्सावि विहिणा जुत्ता, गुरुवक्काणुलोमता||११|| यथोक्तं गुरुनिर्देशं गुर्वाज्ञारूपं योऽपि मुनिरादिशति-कथयति तस्यापि तथा दिशतः प्रतिविधिना सूत्रोक्तेन युक्ता गुरुवाक्यानुलोमता यथोक्तस्वरूपा। तदेवमुक्तोऽनुलोमवचनसहितत्वरूपो विनयः। संप्रति प्रतिरूपकायक्रियाविनयमाहअद्घाणवायणाए, निव्वासणएपरिकिलंतस्स। सीसाइजाव पाया, किरियापायादविणओ उIIEI अध्वनि-मार्गे वा वाचनायां 'सूत्रार्थप्रदानलक्षणायां नित्यासनतयानिरन्तरोपवेशनतः परिक्लान्तस्य–समन्ततः क्तममुपागतस्य क्रिया प्रतिरूपकायक्रिया विश्रामणेति तात्पर्यार्थः। कर्तव्येति वाक्यशेषः। कथं कर्तव्येत्यत आह-शीर्षादियावत्पादौ शिरस आरभ्य क्रमेण तावत्कर्तव्या यावत्पादौ, यदि पुनः पादादारभ्य करोति तदा अविनयपादादिमलस्य शीर्षादिषु लगनात्। अत्रैवापवादमाहजत्तो पभणाइ गुरू, करेइ किइकम्म मो ततो पुष्वं / संफरिसणविणओ पुण, परिमउवा जहा सहइ॥३॥ यतो वा अङ्गादारभ्य गुरुर्भणति ततः पूर्वमारभ्य कृतिकर्म विश्रामणां 'मो' इति पादपूरणे करोति। तथा च सति पादादप्यारभ्य ककुर्वतो नाविनयः गुर्वाज्ञाकारित्वात्। उक्तोऽनुलोमकायक्रिया-विनयः संप्रति संस्पर्शनविनयमाह-'संफरिसणे' त्यादिसंस्पर्शनविनयः पुनः परिमृदुकम्, वाशब्दादल्पमृदुकं वा यथासहते तथापि विश्रामणां करोति अतिखरेण विश्रामणायां परितापनसंभवात्। अथ विश्रामणायां को गुण इत्यत आहवायाई सट्ठाणं, वयंति महासणस्स जे खुमिया। खेयजतो तणुथिरया, बलंच अरिसादओ नेवं ||
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________________ विणय 1157- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विणय वातादयो-यातपित्तश्लेष्माणो ये बद्धासनस्य सतः क्षुभिर्ताः-स्थानात् प्रचलितास्ते स्वस्थानं व्रजन्ति-स्वस्थानं प्रतिपद्यन्ते; ते न विक्रियां भजन्तीति भावः / तथा वाचनाप्रदानतो मार्गगमनतो वा यः खेद उपजातस्य यतोऽपगमो भवति / तथा तनोः-शरीरस्य स्थिरतादायं भवति, न विशरारुताभावः। अत एव च बलं शारीरं तदुपष्टम्भतो वाचिक मानसिकं च / तथा एवं विश्रामणातो वातादीनां स्वस्थागमने अर्शआदयोऽसि वातपित्तश्लेष्मजानि आदिशब्दात् तदन्ये च रोगा नोपजान्ते। एते विश्रामणायां गुणास्ततः कर्त्तव्योऽवश्यमनुलोमकायक्रियाविनयः, संस्पर्शनविनयश्च। संप्रति सर्वत्रानुलोमताविनयमाहसेयवऊ मे कागो, दिहो चउदंतपंडुरो वेभो। आम पडिति भणंते, सव्वत्थऽणुलोमपडिलोमे |5|| श्वेतवपुः श्वेतशरीरोमया काको दृष्टः। यदिवा-इमो-हस्ती चतुर्थन्तः, पाण्डुरश्च मया दृष्ट इति वर्तते। एवं प्रतिलोमे लोकव्यवहारविरुद्ध गुरुणा कथमप्युच्यमाने इति प्रतिभणति शिष्ये सर्वत्रानुलोमलक्षणो विनयः प्रतिपत्तव्यः। किमुक्तं भवति-यदि नामश्वेतवपुर्मया काको दृष्ट इत्यादिकं लोकव्यवहारप्रतिकूलं कथमपि गुरुर्भणति तथापितदानीं सकलजनसमक्षमाममित्येव वक्तव्यम्, न पुनस्तद्वचः कुट्टयितव्यम्। केवलं विशेषार्थिना जनविरहे कारणं प्रष्टव्यम् / एवं हि सर्वानुलोमतालक्षणो विनयः प्रकटितो भवति नान्यथा। मिणु गोणसंगुलेहि, गणेहि से दचकलाई से। अग्गंगुलीवग्धं, तुद डिवगडं भणइ आमं ||6|| मिनु-प्रमिणु गोनसं-सर्पजातिविशेषम् अङ्गुलैःन्यथा कियन्त्यङ्गुलानि अयं गोनसो विद्यते इति / तथा गण-परिसंख्याहि 'से' तस्य गोनसस्य दंष्ट्राः, यदि वा-'से' तस्य चक्रवालानिपृष्ठस्योपरि मण्डललक्षणानि गणय, कियन्त्योऽस्य दंष्ट्रा कियन्ति वास्य पृष्ठस्योपरि चक्रवालानीत्येतत् गणयित्वा कथयेति भावः। तथा अबागुल्यग्रभागेन व्याघ्रं तुदतोत्रेण या व्यथय, तथा 'डिव' निपत्योलक्य अवटंकूपम् / एवं प्राणिप्रतिलोमं वदति गुरौ, सर्वत्रानुलोमताविनययुक्तः शिष्य आममिति भणति / गुरवो हि सकलजगत्प्राणिवर्गविषयपरमकरुणापरीतचेतसस्ततस्तएव युक्तमयुक्तं वाजानन्तिा किमत्र शिष्यस्य चिन्तयेत शिष्येण सर्वत्रानुलोमविनयमिच्छुना ईदृशमपि गुरुवचनं तथेति प्रतिपत्तव्यमिति / व्य०१ उ०। ध००। (लौकिको लोकोत्तरिको बलीयानिति संज्ञाभूमिगमनप्रस्तावे आचार्यस्य 'अइसय' शब्दे प्रथमभागे 16 पृष्ठे उक्तः।) (सत्कारादिविनयेषु दण्डकः 'सक्कार' शब्दे वक्ष्यते।) साम्प्रतं सूत्रानुगमः, तत्रालीकोपघातजनकत्वादिदोषरहितं निर्दोषसार (वत्त्वा) त्वादिगुणान्वितं सूत्रमुच्चारणीयम्, तच्चेदम् संजोगविप्पमुक्कस्स, अणगारस्स मिक्खुणो। विणयं पाउकरिस्सामि, आणुपुटिव सुणेह मे / / 1 / / अस्य च संहितादिक्रमेण व्याख्या-तत्र चास्खलितपदोचारणं संहिता, सा चानुगतैव, सूत्रानुगमस्य तद्रूपत्वात्, तथा चाह-''होइक्यत्थोवोत्तुं, सपयच्छेयं सुयं सुयाणुगमो' त्ति। पदंतुनामिकनैपातिकादि स्वधियैव भावनीयम्, पदार्थस्त्वयम्-अन्यसंयुक्तस्यासंयुक्तस्य वा सचित्तादिवस्तुनो द्रव्यादिना संयोजन संयोगः, स च संयुक्तसंयोगादिभेदेनानेकधा वक्ष्यते, तस्मान्मात्रादिसंयोगरूपादौदयिकादिक्लिष्टतरभावसंयोगात्मकाच विविधैः-ज्ञानभावनादिभिर्विचित्रैः प्रकारैः प्रकर्षणपरीषहोपसर्गादिसहिष्णुतालक्षणेन मुक्तोभ्रष्टो विप्रमुक्तः, तस्य-'अनगारस्ये' ति अविद्यमानमगारमस्येत्यनगार इति व्युत्पन्नोऽनगारशब्दो गृह्यते, यस्त्वव्युत्पन्नो रूढिशब्दो यतिवाचकः, यथोक्तम्-'अनगारो' मुनिर्मानी, साधुःप्रव्रजितो व्रती। श्रमणः क्षपणश्चैव, यतिश्चैकार्थ-वाचकाः॥१॥" इति। इह न गृह्यते, भिक्षुशब्देनैव तदर्थस्य गतत्वात्, तत्र चागारं द्विधाद्रव्य-भावभेदात, तत्र द्रव्यागारमगैः-द्रुमदृषदादिभिर्निवृत्तम, भावागारं पुनरगैः--विपाककालेऽपि जीवविपाकतया शरीरपुद्रलादिषु बहिः प्रवृत्तिरहितैरनन्तानुबन्ध्यादिभिर्निर्वृत्तं कषायमोहनीयम्, तत्रच द्रव्यागारपक्षे तनिषेधे ततोऽनगारस्याविद्यमानगृहस्येत्यर्थः, भावागारपक्षे त्वल्पताभिधायी, ततः स्थितिप्रदेशानुभागतोऽत्यल्पकषायमोहनीयस्येत्यर्थः / कषायमोहनीयं हि कर्म, न च कर्मणा स्थित्यादिभूयस्त्वे विरतिसङ्गमः / यत आगमः-"सत्तण्हं पयडीणं, अभितरओउकोडिकोडीओ। काऊण सागराणं, जइ लहइ चउण्हमन्नयरं / / 1 / / " इत्यादि, क्लिष्टतरभावसंयोगमुक्तत्वेनैव चास्य गतत्वे पुनरभिधानं कषायमोहनीयस्यातिदुष्टताख्यापनार्थम्। विशेष्यमाह--'भिक्षो' रिति, अत्रच पचनपाचनादिव्यापारोपरमतः साधुर्भिक्षते तर्मा चेत्यर्थे "सनाशंसभिक्ष उ" रिति (पा०३-२--१६८) ताच्छीलिक उप्रत्ययः। अस्य चवर्तमानाधिकारविहितत्वेऽपि सज्ञाप्रकारास्ताच्छीलिका इति भाष्यकारवचनाद् भिक्षु-शब्दस्त्रिकालविषयो यतिपर्यायः सिद्धो भवति, शेषविवक्षायां च षष्ठी। अथवा- "अणगारस्स भिक्खुणो' त्ति अस्वेषु भिक्षुरस्वभिक्षुः जात्याद्यनाजीवनादनात्मीकृतत्वेनानात्मीयानेव गृहिणोऽन्नादिभिक्षत इति कृत्वा, सच यतिरेव। ततोऽन्नगारश्वासावस्वभिक्षुश्च अनगारास्वभिक्षुस्तस्य। किमित्याह-विशिष्टो विविधो वा नयो नीतिर्विनयः साधुजनासेवितः समाचारस्तं, विनमनंवा विनतं 'णीयं सेजंगई ठाणं' इत्याद्यागमात्। द्रव्यतो नीचैर्वृत्तिलक्षणं प्रहृत्वम्, भावतश्च सध्वाचारं प्रतिप्रवणत्वं प्रादुष्करिष्यामि-प्रकटयिष्यामि। कथमित्याह-पूर्वस्य पश्चादनुपूर्व तस्य भाव इत्यर्थे "गुणवचनब्राह्मणादिभ्य" (पा०५-१-१२६) कर्मणि चेति ष्यञ्, तस्य च पित्करणसामर्थ्यात् स्त्रीत्वे "षिद्गौरादिभ्यश्चे'' ति (पा०४-१-४१) डीष्यानुपूर्वीक्रमः-परिपाटीति यावत् तया, द्वितीया तु 'छन्दोवत् सूत्राणी तिन्यायतः छान्दसत्वे 'सुपां सुपो भवन्ती' ति वचनात् तृतीयार्थे, शृणत-आकर्णयत श्रवणं प्रत्यवहिता भवता यदाशृणु इहेति-जगति जिनमते वा; व्याख्याद्वयेऽपि शिष्याभिमुखीकरणमित्यर्थः / अनेन च पराङ्मुखमपि प्रतिबोधयतो व्याख्यातुर्धर्म
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________________ विणय 1158 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विणय एवेतिख्यापितं भवति। तथाच वाचकः-"न भवतिधर्मः श्रोतुः, सर्वस्यैकान्तताहितश्रवणात् / बुवतोऽनुग्रहबुद्ध्य, वक्तुस्त्वेकान्ततो भवति // 1 // " मे-मम विनयं विनतं वा प्रादुष्करिष्यत इति प्रक्रमः / उक्तः पदार्थस्तदभिधानात् सामासिकपदान्तर्गतः पदविग्रहश्च (उक्त इति) ततश्चालनावसरः, साच सूत्रार्थगतदूषणात्मिका, "सुत्तगयमत्थविसयं, व दूसणं चालणं मयं तस्स'' इति वचनात्, तत्र सूत्रचालना-संयोगस्य विप्रमुक्तक्रिया प्रति कर्तृत्वात् संयोगादिति कथं पञ्चमी? अर्थचालना च 'विनयं प्रादुष्करिष्यामी' ति प्रतिज्ञातम्, उत्तरत्र च आणाऽणिद्देसकरे' इत्यादिना 'खड्डयाहिं चवेडाहिं' इत्यादिना च विपर्ययप्रतिपादनमपि दृश्यते इति कथं न प्रतिज्ञाक्षतिः? प्रत्यवस्थानं शब्दार्थन्यायतः परोप-- न्यस्तदोषपरिहाररूपम्, यत आह-"सद्दत्थन्नायाओ, परिहारोपच्चवत्थाणं" तत्र च यद्यपि संयोगेन विमुच्यमानो भिक्षुःकर्म तथापि कर्तृत्वेनात्र विवक्ष्यते, ततश्च तस्य तं विप्रमुञ्चतो विश्लेषोऽस्तीति विश्लेषक्रियायां संयोगस्य ध्रुवत्वेनापादानत्वान्न्याय्यैव पञ्चमी, अत एव विप्रमुक्त इत्यत्र कर्मकर्तुः कर्मवद्भावात् कर्मणि क्तोऽपि सिद्धो भवति इति न सूत्रदोषो, नाप्यर्थदोषः। यतो यद्यलक्षणं तत्तद्विपर्ययाविधान एव तल्लक्षणमक्लेशेन ज्ञातुं शक्यमिति / अत्र विनयाभिधानप्रतिज्ञानेऽप्यविनयाभिधानम्, तथा च शय्यम्भवप्रणीताचारकथायामपि "वयछक्ककायछक्क' मित्यादिनाऽऽचारप्रक्रमेऽप्यनाचारवचनम् / अथवा--एकमपीदं सूत्रमावृत्त्या श्वेतो धावती' तिवदर्थद्वयाभिधायकम्, ततश्चायमन्योऽर्थः-संयोगेन कषायादिसम्पर्कात्मकेनाप्यविप्रमुक्तः-अपरित्यक्तः, संयोगाविप्रमुक्तस्तस्य, ऋणमिव कालान्तरक्लेशानुभवहेतुतया ऋणम्अष्टप्रकारं कर्म तत् करोतीति कोऽर्थः?-तथा तथा गुरुवचनविपरीतप्रवृत्तिभिरुपचिनोतीति ऋणकारस्तस्य भिक्षोः-कषायादिवशतो जीववीर्यविकलस्य पौरुषध्नीभेव भिक्षां तथाविधफलनिरपेक्षतया भ्रमणशीलस्य विनयं 'प्रादुष्करिस्यामि' इति "प्राकाश्यसम्भवे प्रादु" रिति वचनात् प्रादुःशब्दस्य सम्भवार्थस्यापि दर्शनादुत्पादयिष्यामि, सम्भवति हीदमध्ययनमधीयानानां गुरुकर्मणामपि प्रायो विनीताविनीतगुणदोषविभावनातो ज्ञानादिविनयपरिणतिः, अथवा-विरुद्धो नयो विनयः; असदाचार इत्यर्थः, तं प्रादुष्करिष्यामि-प्रकटयिष्यामि, कस्य-भिक्षोः-उक्तन्यायेन-भिक्षणशीलस्य, सम्यग्-अविपरीतो योगः समाधिः- संयोगः, ततो विविधैः परीषहासनगुरुनियोगासहिष्णुत्वालस्यादिभिः प्रकारैः प्रकर्षण मुक्तो विप्रमुक्तः तस्य, शेषं प्राग्वत्। एवं चाविनयप्रतिपादनस्यापि प्रतिज्ञातत्वात् सर्वं सुस्थम्। अपरस्त्वाह-- प्रतिज्ञातमपि विनयमभिधित्सोरप्रस्तुतम्, इदमपि बालप्रजल्पितं यतः शास्वारम्भेऽभिधेयाद्यवश्यमभिधेयम् अन्यथा प्रेक्षावत्प्रवृत्त्यसम्भवात्, तत्प्रदर्शनात्मकं चैतत् प्रतिज्ञानम्, तथाहि-विनयं प्रादुष्करिष्यामीत्युक्ते विनयोऽस्याध्ययनस्याभिधेयः, तत्प्रादुष्करणंफलम्, तथा चेदमुपेयम्, उपायश्चास्य प्रस्तुताध्ययनम्, इत्यनयोरुपायोपेयभावलक्षणः सम्बन्ध इति च दर्शितं भवति,ततो नाप्रस्तुतत्वं प्रतिज्ञातस्येति स्थितम्। उत्त० पाई० 10 // सम्प्रति यदुक्तं विनयं प्रादुष्करिष्यामीति,तत्र विनयोधर्मः सचधर्मिणः कथञ्चिदभिन्न इति धर्मिद्वारेण तत्स्वरूपमाह आणानिद्देसयरे, गुरूणमुववायकारए। इंगियागारसम्पन्ने, से विणीए त्ति वुचइ // 2 // आडिति स्वस्वभावावस्थानात्मिकया मर्यादयाऽभिव्याप्त्या वा ज्ञायन्तेऽर्था अनयेत्याज्ञाभगवदभिहितागमरूपा तस्या निर्देशउत्सर्गापवादाभ्यां प्रतिपादनमाज्ञानिर्देशः, इदमित्थं विधेयमित्थं वेत्येवमात्मकः तत्करणशीलस्तदनुलोमानुष्ठानो वा आज्ञानिर्देशकरः, यद्वा-आज्ञा-सौम्य? इदं कुरु इदंचमा कार्षीरिति गुरुवचनमेव,तस्या निर्देश इदमित्थमेव करोमि इति निश्चयाभिधानं तत्करः, आज्ञानिर्देशेन वा तरति भवाम्भोधिमित्याज्ञानिर्देशतर इत्यादयोऽनन्तगमपर्यायत्वाद्भगवद्वचनस्य व्याख्याभेदाः सम्भवन्तोऽपि मन्दमतीनां व्यामोहहेतुतया बालाऽबलादिबोधोत्पादनार्थत्वाच्चास्य प्रयासस्य न प्रतिसूत्रं प्रदर्शयिष्यन्ते, तथा गुरूणाम्--गौरवाहाणामाचार्यादीनामुप--समीपे पतनं स्थानमुपपातः-दृग्-वचनविषयदेशावस्थानं तत्कारक:-तदनुष्ठाता, न तु गुर्वादशादि-भीत्या तद्व्यवहितदेशस्थायीति यावत्, तथेङ्गितंनिपुणमतिगम्यं प्रवृत्तिनिवृत्तिसूचकमीषद् भूशिरः कम्पादि आकारः-- स्थूलधीसंवेद्यः प्रस्थानादिभावाभिव्यञ्जको दिगवलोकनादिः,आह च"अवलोयणं दिसाणं, वियंभणंसाडयस्ससंठवणं।आसणसिढिलीकरणं, पट्ठियलिंगाइँ एयाई॥१॥" अनयोर्द्वन्द्वे इङ्गिताकारौतौ अर्थाद्-गुरुगतौ सम्यक् प्रकर्षेण जानाति इङ्गिताकारसम्प्रज्ञः, यद्वा--इङ्गिताकाराभ्यां गुरुगतभावपरिज्ञानमेव कारणे कार्योपचारादिङ्गिताकारशब्देनोक्तम्, तेन सम्पन्नोयुक्तः,'स' इत्युक्तविशेषणान्वितः विनीतः-विनयान्वितः, 'इति' सूत्रपरामर्श उच्यते तीर्थकृद्रणधरादिभिरिति गम्यते,अनेन चस्वमनीषिकाऽपोहमाहं इति सूत्रार्थः / / 2 / / इह विनयोऽभिधित्सितः, सच विपर्ययाभिधान एव तद्विविक्ततया सुखेन ज्ञातुं शक्यत इत्यविनयं धर्मिद्वारेणाहआणानिद्देसकरे, गुरूणमणुववायकारए। पडिणीए असंबुद्धे, अविणीए त्ति दुचइ||३|| पादद्वयं प्राग्वत्, नवरं नज्योजनादव्यतिरेकतो व्याख्येयम्, प्रत्यनीकः-प्रतिकूलवर्ती शिलाऽऽक्षेपककूलबालक श्रमणवत्, दोषानीकं प्रति वर्तत इति प्रत्यनीकः, किमित्येवंविधोऽसावित्याह-असम्बुद्धःअनवगततत्त्वः, अविनीतः अविनयवान् 'इत्युच्यते' इति पूर्ववदिति सूत्रार्थः // 3 // साम्प्रतं दृष्टान्तपूर्वकमिहैवास्य सदोषतामाह-- जहा सुणी पूइकण्णी, णिकसिजह सव्वसो। एवं दुस्सीलपडिणीए, मुहरी निक्कसिजइ॥॥ यथा इत्युपदर्शने, श्वसितीति शुनी, स्त्रीनिर्देशोऽत्य
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________________ विणय 1156- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विणय न्तकुत्सोपदर्शकः, पूती--परिपाकतः कुथितगन्धौ कृमिकुलाकुलत्वाधुपलक्षणमेतत्, तथाविधौ कर्णीश्रुती यस्याः पक्वरक्तं वा पूतिस्तव्याप्तौ कर्णी यस्याः सापूतिकर्णा, सकलावयवकुत्सोपलक्षणं चैतत्, सा चेदृशी शुनी, किमित्याह-निष्काश्यते-निर्वास्यते बहिनिःसार्यत इति यावत्, कुतः?-'सव्वसो' तिसर्वतः-सर्वेभ्यो गोपुरगृहाङ्गणादिभ्यः, सर्वान् वा हतहतेत्यादिविरूक्षवधनलतालकुटलेष्ठुघातादिकान् प्रकारानाश्रित्य 'छन्दोवत्सूत्राणि भवन्ती' तिछान्दसत्वाच्च सूत्रेशस्प्रत्ययः। उपनयमाह-एवम्-अनेनैव प्रकारेण, दुष्टमिति रागद्वेषादिदोषविकृतं शीलंस्वभावः समाधिराचारो वा यस्यासौ दुःशीलः, प्रत्यनीकःप्राग्वत्, मुखेनारिमावहति मुखमेव वेह परलोकापकारितयाऽरिरस्य मुधैव वा कार्य विनैवारयो यस्यासौ मुखारिर्मुधारि/बहुविधासम्बद्धभाषी, सूत्रत्वाद्वा 'मुहरि त्ति मुखरी वाचाटो निष्काश्यते 'सर्वतः' इतीहापि योज्यते, ततश्च सर्वतो निष्काश्यते, सर्वथा कुलगणसंघसमवायबहिर्वर्ती विधीयत इति सूत्रार्थः // 4 // आह-दौःशील्यनिमित्त एवायमविनीतस्य दोषः, प्रत्यनीकतामुखरत्वयोरपि तत्प्रभवत्वात् तत्र चैवमनर्थहेतौ किमसौ प्रवर्तत इति, अत्रोच्यते, पापोपहतमतित्वेन तत्रैवास्याभिरतिरिति कृत्वा, तामेव दृष्टान्तपूर्विकामाहकणकुंडगं जहित्ता णं, विहं मुंजइ सूयरो। एवं सीलं जहित्ता णं, दुस्सीले रमई मिए॥५॥ कणाः-तन्दुलास्तेषां तन्मिश्रो वा कुण्डकः-तत्क्षोदनोत्पन्नकुकुसः कणकुण्डकस्तं 'हित्वा' पाठान्तरतस्त्यक्त्वा वा विष्ठाम्-पुरीष भुङ्क्तेअभ्यवहरति 'सूकर' इति गर्तासूकरो, यथेति गम्यते, एवं शीलम्उक्तरूपं प्रस्तावाच्छोभनं हित्वा-प्राग्वत्त्यक्त्वा वा दुष्टं शीलं दुःशीलं तस्मिन् भावप्रधानत्वाद्वा निर्देशस्य दुष्टंशीलमस्येति दुःशीलस्तद्भावो दौःशील्यं तस्मिन्, उभयत्र दुराचारादौ रमतेधृत्तिमाधत्ते मृग इव मृगः अज्ञत्वादविनीत इति प्रक्रमः / इदमत्र हृदयम्-यथा मृग उदीर्णासिपुत्रिकगौरिगायनपुरुषहेतुकमायती मृत्युरूपमपायमपश्यनज्ञः, एवमयमपि दौःशील्यहेतुकमागामिनं भवभ्रमणलक्षणमपायमनालोकयन्नज्ञ एव सन् गर्तासूकरोपमः सदा पुष्टिदायिकणकुण्डकसदृशं शीलमपहाय विवेकिजनगर्हिततया विष्ठोपमे दुःशीले दौःशील्ये वा रमते / इह च दृष्टान्तेऽपि विड्भुक्त्यभिरतिरेवार्थत उक्ता, तदविनाभावित्वात्तस्याः, यद्वा-शुभपरिहारेणाशुभाश्रयणमुभयत्रापि सादृश्यनिमित्तमस्तीति नोपमानोपमेयभावविरोध इति सूत्रार्थः / / 5 / / उक्तोपसंहारपूर्वकं कृत्योपदेशमाहसुणिया मावं साणस्स, सूयरस्स नरस्स य। विणए ठविध अप्पाणं, इच्छंतो हियमप्पणो॥६॥ श्रुत्वा आकर्ण्य अभावं-नत्रः कुत्सायामपि दर्शनादशोभनं भावं सर्वतो निष्काशनलक्षणं पर्यायं 'साणस्स' ति प्राकृतत्वादिवेत्यस्य गम्यमा नत्वात् शुन्या इव सूकरस्य-उक्तन्यायेन शूकरोपमस्य नरस्य, 'चः' पूरणे, यद्वा-शुन्याः शूकरस्य च दृष्टान्तस्य नरस्य च दान्तिकस्याशोभनं भावं त्रयाणामप्युक्तरूपं श्रुत्वा, किमित्याह-विनये वक्ष्यमाणस्वरूपे, स्थापयेदात्मानम्, आत्मनैवेति गम्यते, इच्छन्-वाञ्छन् हितम्-ऐहिकमामुष्मिकं च पथ्यम् आत्मनः-स्वस्य, इह च पुनर्दृष्टान्ताभिधानमुपसंहारत्वेनाविनये शिष्यस्याशुभभावस्योत्पादनार्थत्वेन वा नाप्रकृतमिति सूत्रार्थः / / 6 / / यतश्चैवं ततः किमित्याहतम्हा विणयमेसिखा, सीलं पडिलभे जओ। बुद्धउत्ते नियागट्ठी,न निकसिबइ कण्हुइ // 7 // 'तस्माद्' इति यस्मादविनयदोषदर्शनादात्मा विनये स्थापनीयस्तस्मात् विनयम् 'एषयेत्' अनेकार्थत्वेन धातूनां पर्यवसितवृत्त्या वा कुर्यात्, एवं ह्यात्मा विनये स्थाप्यत इति। किं पुनरस्य विनयस्य फलम् येनैवमत्रात्मनोऽवस्थापनमुद्दिश्यत इत्याशङ्कयाह-शीलम्-उक्तरूपं प्रतिलभेत-प्राप्नुयात्- 'यत' इति विनयात्, अनेन विनयस्य शीलावाप्तिः फलमुक्तम्, अस्यापि किं फलमित्याह-बुद्धैः-अवगततत्त्वैस्तीर्थकरादिभिरुक्तम्-अभिहितं,तच्च तन्निजमेव निजकंच-ज्ञानादिस्तस्यैव बुद्धरात्मीयत्वेन तत्त्वत उक्तत्वात,बुद्धोक्तनिजकम, तदर्थयते--- अभिलषतीत्येवंशीलः बद्धोक्तनिजकार्थी सन्, पठन्ति च-'बुक्चुत्ते णियाणट्टि' ति बुकेः-उक्तरूपैर्युक्तोविशेषेणाभिहितः सचद्वादशाङ्गरूप आगमस्तस्मिन् स्थित इति गम्यते, यदा-बुद्धानाम्-आचार्यादीनांपुत्र इवपुत्रो बुद्धपुत्रः 'पुत्ता य सीसा य समं विहित्ता इति वचनात्, स्वरूपविशेषणमेतत्, नितरां यजनं याग:-पूजा यस्मिने सोऽयं नियागो-मोक्षः, 'तत्रैव नितरां पूजासम्भवात्, तदर्थी सन्, किमित्याह-न निष्काश्यतेन बहिष्क्रियते, कुतश्चिद् गच्छगणादेः, किन्तु-विनीतत्वेन सर्वगुणाधारतया सर्वत्र मुख्य एव क्रियते इति भावः, इति सूत्रार्थः // 7 // कथं पुनर्विनय एषयितव्य इत्याहणिसंते सिया अमुहरि, बद्धाणमंतिए सया। अट्ठ जुत्ताणि सिक्खिज्जा, निरट्ठाणि उवज्जए॥॥ नितराम्-अतिशयेन शान्तः उपशमवान् अन्तःक्रोधपरिहारेण बहिश्च प्रशान्ताकारतया निःशान्तः स्याद्-भवेत्, तथा अमुखारिः-प्राग्वत् अमुखरो वा सन् बद्धानाम्-आचार्यादीनाम् अन्तिके समीपे, न तु, विनयभीत्या-ऽन्यथैव सदा-सर्वकाल-मर्यते--गम्यते इति अर्थ: अर्तेरौणादिकस्थन् (उषिकुषिगाऽतिभ्यस्थन् उ०२-४) स च हेय उपादेयश्चोभयस्याप्यर्यमाणत्वात्, तेन युक्तानि-अन्वितानिअर्थयुक्तानि, तानिच हेयोपादेयाभिधायकानि, अर्थादागमवचांसि,यदा-मुमुक्षुभिरर्थ्यमानत्वादर्थोमोक्षस्तत्रयुक्तानि-उपायतयासङ्गतानि अर्थवा अभिधेयमाश्रित्ययुक्तानि यतिजनोचितानि शिक्षेतअभ्यस्येत,प्रपञ्चितज्ञ-विनेयानुग्रहाय व्यतिरेकत आह-निरर्थकानि-उक्तविपरीतानि डित्थडवित्थादीनि, १-सूकर शब्दो दन्त्यादिस्तालव्यादिश्च /
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________________ विणय ११६०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विणय यद्वा-वैश्यिकवात्स्यायनादीनि स्त्रीकथादीनिवा 'तुः पुनरर्थे, वर्जयेत्परिहरेत् / इह च निशान्त इत्यनेन प्रशमादीनामुपलक्षितत्वात् तेषां च दर्शनाविनाभावित्वाद्दर्शनस्य च जिनोक्तभावश्रद्धानरूपत्वात् तस्यैव दर्शनविनयत्यात् अर्थतो दर्शनविनयो दर्शितः। उक्तं हि प्राक्-"दव्याण सव्वभावा, उवइट्ठा जे जहा जिणिदेहि। तंतह सद्दहइणरो, दंसणविणओ हवति तम्हा // 1 // " शेषेण तु श्रुतज्ञानशिक्षाऽभिधायिना ज्ञानदर्शनविनय उक्तः, तत्स्वरूपमाह-"णाणं सिक्खइणाणंगुणेइणाणेण"त्तिसूत्रार्थः||८|| कथं पुनरर्थयुक्तानि शिक्षेतेत्याहअणुसासिओ न कुप्पिञ्जा, खंति सेवेज पंडिए। बालेहिं सह संसग्गिं, हासं कीडं च वलए 'अनुशिष्ट' इति अर्थयुक्तानि शिक्ष्यमाणः कथञ्चित् स्खलितादिषु गुरुभिः परुषोक्त्याऽपि शिक्षितः न कुप्येत्-न कोपं गच्छेत्, किं तर्हि कुर्यादित्याह- 'क्षान्तिं-परुषभाषणादिसहनात्मिकां सेवेत-भजेत, पण्डा-बुद्धिः सा संजाताऽस्येति पण्डितः, तथा क्षुद्रैः-बालैः शीलहीनैर्वा पार्श्वस्थादिभिः सह समं 'संसग्गि' ति प्राकृतत्वात्संसर्ग , हसनंहासस्तं, क्रीडां च अन्ताक्षरिकाप्रहेलिकादानादिजनितां च वर्जयेत्-परिहरेत् सर्वेषामप्येषां विशिष्टशिक्षाक्षितिहेतुत्वात् लोकागमविरुद्धत्वाचेति सूत्रार्थः / / 6 / / पुनरन्यथा विनयमाहमा य चंडालियं कासी, बहुयं मा य आलवे / कालेण य अहिग्जित्ता, तत्तो भाइस इकाओ / / 10 / / 'मा' निषेधे, चः-समुच्चये, चण्डः क्रोधस्तद्वशादलीकम् अनृतभाषणं चण्डालीकं, भयालीकाद्युपलक्षणमेतत्, यद्वा-चण्डेनाऽऽलमस्य चण्डेन वा अलितश्चण्डालः, स चातिक्रूरत्वाचण्डाल--जातिस्तस्मिन् भवं चाण्डालिकं कर्मेति गम्यते, अथवा-अचण्ड! सौम्य ! अलीकम्अन्यथात्वविधानादिभिरसत्यं, गुरुवचनमागमंचेति गम्यते मा कार्षीःमा विधाः भगवदुद्दिष्टतिलोत्पाटकस्वेच्छालापिगोशालकवत्, बढेव बहुकम् अपरिमितमालजालरूपं 'मा च' इति प्राग्वत्, आडितिस्त्र्यादिकथाऽभिव्याप्त्या लपेत्-भाषेत, बडालापनात्ध्यानाध्ययनक्षितिवातक्षोभादिसम्भवात्, किं पुनः कुर्यादित्याह-कालः-अध्यय नाधवसरः प्रथमपौरुष्यादिस्तेन, चः-पुनरर्थे , अधीत्य-पठित्वा, प्रच्छनाधुपलक्षणमेतत्, 'ततः' अध्ययनात्, अनन्तरमिति गम्यते, ध्यायेत्चिन्तयेत्, 'एकक' इति भावतो रागद्वेषादिसाहित्यरहितः, द्रव्यतस्तुविविक्तशय्यादिसंस्थः, इत्थं हि चाण्डालिककरणाद्यनुत्थानमधीतार्थस्थिरी-करणं च कृतं भवतीति भावः / इह च पादत्रयेण साक्षाद्वाग्गुप्तिरुक्ता, ध्यायेदित्यनेन मनोगुप्तिः, आद्यपादोत्तरव्याख्यानद्वयेन तु कायगुप्तिरपि, एताच चारित्रान्तर्गता एव, यदुक्तम्- "पणिहाणजोग-जुत्तो, पंचहिसमितीहि तिहिँ गुत्तीहि। एसधरित्तायारो, अट्ठविहो होइणायव्यो ॥१॥"नचचारित्राचारस्तत्त्वतश्चरित्रविनयादतिरिच्यते इति देशस्तिस्याप्यनेनाभिधानमिति सूत्रार्थः // 10 // इत्यमकृत्यनिषेधः कृत्यविधिश्वोपदिष्टः कदाचिदेतद्विप र्ययसम्भवे च किं करणीयमित्याहआहब चंडालियं कट्टु,न निण्हविज कण्हुइ। कडं कडं ति भासिञ्जा, अकडं नो कडं ति य // 11 // आहत्य-कदाचित् चण्डालिकं च चाण्डालिकं चोक्तरूपम्, यद्वाचण्डश्चालीकं च चण्डालीकं कृत्वा-विधाय न निह्नवीत-न कृतमेवेति नापलपेत्, कदाचिदपि, यदा परैरुपलक्षितो यदा वा नोपलक्षितस्तदाऽपीत्यर्थः, किं तर्हि कुर्यादित्याह-कृतम्-विहितं चाण्डालीकादि कृतमिति-इति कृतमेव, न भयलज्जादिभिरकृतमपि भाषेत-ब्रूयात, अकृतम्-तदेवाविहितंनोकृतमिति-अकृत-मेव भाषेत, नतुमायोपरोधादिना कृतमपि, अन्यथा मृषावादादि-दोषसम्भवात्, उपलत्तणत्वाचास्य बहुनालपनकालाध्ययनादि-विपर्ययसम्भवेऽप्येतदेव कृत्यम्। इदं चात्राकूतं कथञ्चिदतिचारसम्भवे लज्जाद्यकुर्वन् स्वयं गुरुसमीपमागत्य-- 'जह बालो जंपंतो कजमकजं च उज्जुयं भणति / तं तह आलोएज्जा, मायाभयविप्पमुक्को उ॥१॥' इत्याद्यागममनुस्मरन् कथ-- ञ्चित् परैः प्रतीतमप्रतीतं वा मनः शल्यं यथावदालोचयेत्, ततश्चानेनान्तरतपोऽन्तरगताऽऽलोचनाख्यप्रायश्चित्तभेदाभिधानम्, अनेन च शेषतपोभेदानामप्युपलक्षितत्वात् तपोविनयमाह इति सूत्रार्थः / / 1 / / इहैवं पुनः पुनरुपदेशश्रवणायदैव गुरोरुपदेशस्तदैव प्रवर्तितव्यं निवर्तयितव्यं चेति स्यादाशता, तदपनोदायाहमा गलियस्सेव कसं, वयणमिच्छे पुणो पुणो। कसं वदतुमाइन्नो, पावगं परिवजए॥१२॥ मा-निषेधे, गलिः-अविनीतः,सचासावश्वश्च गल्यश्वः स इव, कशतीति कशस्तम्, उपलक्षणत्वात्कशप्रहारं वचनम् प्रवृत्तिनिवृत्तिविषयमुपदेशं, प्रस्तावाद्गुरूणाम्, इच्छेत्-अभिलषेत्, पुनः पुनः वारंवारम्, कोऽभिप्रायः? -यथा गल्यश्वो दुर्विनीततया न पुनः पुनः कशप्रहारं विना प्रवर्तते निवर्ततेवा, नैवं भवताऽपि प्रवृत्तिनिवृत्त्योः पुनः पुनर्गुरुवचनमपेक्षणीयं, किन्तु 'कसंवदठुमाइण्णे' त्ति इवशब्दस्य भिन्नक्रमत्वात् कसंचर्मयष्टिं दृष्ट्वाऽऽकीर्णो-विनीतः, स चेह प्रस्तावादश्वः स इव, सूचकत्वात् सूत्रस्य, सुशिष्यो गुरोराकारादि दृष्ट्वा, पापमेव पापकं, गम्यमानत्वादनुष्ठानं परिवर्जयेत् सर्वप्रकारंपरिहरेत, उपलक्षणत्वादितर-च्चानुतिष्ठत, पठन्ति च-- 'पावगं पडिवज्जइ' ति तत्र च पुनातीति पावकं-शुभमनुष्ठानं प्रतिपद्येत-अङ्गीकुर्यात्, इहापि प्राग्वदितरत् परिहरेत्, किमुक्तं भवति?, यथाऽऽकीर्णोऽश्वः कशग्रहणादिनाऽऽरोहकाभिप्रायमुपलभ्य कशेनाताडित एव तदभिप्रायानुरूपं प्रवर्तते निवर्तते वा, तथा सुशिष्येणाप्याकारादिभिराचार्याशयमवगस्यवचनेनाप्रेरित एव प्रवर्तते, मा भूद्-यथाऽऽरोहकस्येव गुरोरायास इति सूत्रार्थः / / 12 / /
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________________ विणय 1161 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विणय अत्र च नियुक्तिकृत् गल्याकीर्णी व्याधिख्यासुः 'तत्त्वभेदपर्यायैयाख्या' इति तत्पर्यायानाहगंडी गली मराली, अस्से गोणे य हुंति एगट्ठा। आइन्ने य विणीए,य भइए वावि एगट्ठा॥६४|| गच्छति प्रेरितः प्रतिपथादिना डीयते च कूर्दमानो विहायोगमनेनेति गण्डिः , गिलत्येव केवलं न तु वहति गच्छति वेति गलिः, मियत इव शकटादौ योजितो राति च ददाति लत्तादि लीयते च भुवि पतनेनेति मरालिः-अमी च अश्वेतुरगेगोणेच बलिवः भवन्ति एकार्थाः-एकोऽर्थो--- दुष्टतालक्षणः अनन्तरोक्तनीत्या प्रवृत्तिनि-मित्तभेदेऽप्यमीषामिति कृत्वा। आकीर्यते-व्याप्यते विनयादिभिर्गुणैरिति आकीर्णः चः-पूरणे, विशेषेण नीतः-प्रापितः प्रेरकचित्तानुवर्तनादिभिः श्लाघादीति विनीतः, भाति-शोभते स्वगुणैर्ददाति च प्रेरयितुश्चित्तनिर्वृत्तिमिति भद्रः; स एव भद्रकः,चशब्दः इहाप्यश्वे गोणे चेति विषयानुवृत्त्यर्थः, अपिशब्द इह पूर्वत्र चानुक्तपर्यायान्तरसमुच्चयार्थः, एकार्था इति प्राग्वदिति गाथार्थः॥६४॥ न चैव गल्याकीर्णतुल्यशिष्ययोर्गुरोरायासजननाजनने एव गुणदोषौ, किन्तु-गलिसदृशस्यानाश्रवत्वादेराकीर्णतुल्यस्य चित्तानुगतत्वादेः सम्भव इति तद्वशतः कोपनप्रसादने अपि। अत एवाह-- अणासवाथूलवया कुसीला, मिउं पिचंडं पकरंति सीसा। चित्ताणुया लहु दक्खीववेया, पसायएते हु दुरासयं पि।१३।। 'अणासव' त्ति आ-समन्तात् शृण्वन्ति-गुरुवचनमाकर्णयन्तीत्याश्रवाः न तथा प्रतिभाषाविषयस्य तस्याश्रवणादनश्रवाः, पठ्यतेच'अणासुण' त्ति अस्यार्थः स एव स्थूलम्-अनिपुणं यतस्ततो भाषितया वचो येषां ते स्थूलवचसः 'कुशीला' इति दुःशीलाः, मृदृमपिअकोपनमपि कोमलालापिनमपि वा चण्डं-कोपनं परुष-भाषिणं वा प्रकुर्वन्ति-प्रकर्षेण विदधति शिष्याः-विनेयाः, सम्भवति ह्येवंविधशिष्यानुशासनाय पुनः पुनर्वचयनात्मकं खेदमनुभवतो मृदोरपि गुरोः कोप इति। इत्थं गलितुल्यस्य दोषमभिधायेतरस्य गुणमाह-चित्तं-हृदयं प्रक्रमात् प्रेरकस्यानुगच्छन्ति कसपाताननपेक्ष्य जात्याश्ववदनुवर्त्तयन्तीति चित्तानुगाः लघु-शीघ्र-मेव दक्षस्य भावो दाक्ष्यम्-अविलम्बितकारित्वं तेन 'उववेय' त्ति उपपेता युक्ता दाक्ष्योपपेताः प्रसादयेयुः सप्रसादे कुर्युः 'ते' इति शिष्याः, 'हुः' पुनरर्थः, दुःखेनाऽऽश्रयन्ति तमतिकोपनत्वादिभिरिति दुराश्रयस्तमपि, प्रक्रमाद् गुरुं, किं पुनरनुत्कटकषायमित्यपिशब्दार्थः / अत्रोदाहरणं चण्डरुद्राचार्यशिष्याः, तत्र च सम्प्रदायः- "अवन्तीजणवए उज्जेणीणयरीए ण्हवणुजाणे साहुणो समोसरिया, तेसिं सगासं एगो जुवा उदत्तवेसो वयंससहिओ उवागतो, सो ते वंदिऊण भणति-भयवं ! अम्हे संसाराउ उत्तारेह पध्वयामि त्ति, एस एमेव पवंचेति त्ति काऊण 'घृष्यतां कलिना कलिरि' ति चंडरुद्ध आयरियं उवदिसन्ति, एस ते नित्थारेहि ति। सोऽविय सभावेण फरुसो, तओ सो वंदिऊण भणइ-भगवं ! पव्वावेह (हि) ममं ति, तेण भणितोछारं आणेह त्ति, आणीए लोयं काऊण पव्वाविओ वयंसगा से अधिई काऊण पडिगया / तेऽवि उवस्सयं नियगं गया, विलंबिए सूरे पंथं पडिलेहेइ, परंपच्चूसे वचामि त्ति विसज्जिओ। पडिलेहिउमागओ। पच्चूसे निग्गथा पुरतो वचति त्ति भणितो / वचंतो पंथातो फिडितो चंडरुद्दो खाणुए पक्खलितो। रुसिएण हा दुछ सेह त्ति दंडएण मत्थए आहतो, सिरं फोडितं / तहावि सम्मं सहइ विमले पहाए चंडरुद्वेण रुहिरोग्गलंतमुद्धाणो दिट्ठो। हा! दुटु कयं ति संवेगमावण्णेण खामिओ।" एवं गुरुप्रसादात् चण्डरुद्राचार्यशिष्यस्येव सकलसमीहितावाप्तिरिति मत्वा मनोवाक्कायैर्गुरुचित्तानुवृत्तिपरैर्भाव्यमिति / अनेनानन्तरेण च सूत्रेण प्रतिरूपयोगयोजनात्मक औपचारिको विनय उक्त इति सूत्रार्थः // 13 // कथं पुनर्गुरुचित्तमनुगमनीयमित्याहणाऽपुष्टो वागरे किंचि, पुट्ठो वा नाऽलियं वए। कोहं असचं कुट्विजा, धारिज्जा पियमप्पियं // 14|| नापृष्टः-कथमिदम्? इत्याद्यजल्पितः, गुरुणेति गम्यते, व्यागृणीयात् वदेत, तथाविधं कारणं विना, किञ्चित्-स्तोकमपि, पृष्टो वा न अलीकम्--अनृतं वदेत् कारणान्तरेण च गुरुभिरतिनिर्भत्सितोऽपि न तावत् क्रध्येत् कथंचिदुत्पन्नं वा क्रोधम् असत्यंतदोत्पन्नकुविकल्पविफलीकरणेन कुर्वीत-विदध्यात्, कथम्? धारयेत्-- स्थापयेत्, मनसीति शेषः, 'पियमप्पियं' ति इवाप्योर्गम्यमानत्वात् प्रियमिवेष्टमिव सदा गुणकारणतया अप्रियमपि कर्णकटुकतया तदाऽनिष्टमपि, गुरुवचनमिति गम्यते, अत्रश्लोकपूर्वार्धेन वाचा यथा गुरुरनुवर्तनीयः तथोक्तमुत्तरार्धेन तु मनसेति / अथवा-नापृष्ट इति--न गुरुणैव किन्तु येन केनचिदपी-त्यादिक्रमेण पादत्रयं सामान्येन प्राग्वन्नेयं, नवरं क्रोधम् उपल-क्षणत्वान्मानादिकषायं चोत्पन्नमसत्यं कुर्वीत। क्रोधासत्यतायामुदाहरणं संप्रदायः-"कस्स वि कुलपुत्तयस्स भाया वेरिएणवावाइओ। तओ सो जणणीए भण्णइ-पुत्त ! पुत्तघाययं घायसु त्ति, तओ सो तेण जीवग्गहो गिहिऊण जणणीसमीवमुवणीओ / भणिओ अणेणभायघायय? कहिं ते आहणामि त्ति, तेण भणिओ-जहिं सरणागया आहम्मंति, तेण जणणी अवलोकिया, ताए भण्णइ--ण पुत्त! सरणागया आहम्मंति। तेण भण्णइ-कहं रोसं सफलं करेमि त्ति / तेण भण्णइ-ण पुत्त! सव्वत्थ रोसो सफलो कज्जइ। पच्छा सोतेण विसज्जिओ।" एवं क्रोधमसत्यं कुर्वीत, मानादिविफलीकरणे उदाहरणान्यागमादवधा यथैषामुदय एव न स्यात्तथोपदेष्टुमाह-धारयेत्-स्वरूपेणावधारयेत्, न तद्वशतो राग द्वेषं वा कुर्यात्, प्रियंप्रीत्युत्पादकं शेषजनापेक्षया स्तुत्यादि, अप्रियंतद्विपरीतं निन्दादि, तत्रोदाहरणंसंप्रदायः-"असिवोवद्दुएणयरे तिन्नि भूयवाइया रायाणमुवगया, भणति-अम्हे असिवं उवसमेमो
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________________ विणय Am 1162 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विणय त्ति, राइणा भणियं-सुमिणो केणोवाएणं ति।तत्थेगो भणइ अस्थिमहेगं भूयं, तंसुरूवं विउव्विऊण गोपुररत्थाइसुपडियडइ, तंन णिहालेयव्वं, तं णिहालियं रूसइ / जो पुण तं निहालेति सो विणस्सइ, जो पुण पिच्छिऊण अहोमुहो ठाइ सो रोगाओ मुच्चइ / राया भणति-अलाहि एएण अइरोसणेणं ति! बिइओ भणति-महच्चयं भूयं महति महालयं रूवं विउव्वति,लंबोयरं विवियकुच्छि पंचसिरं एगपादं विसिहं विस्सरूवं अट्टहास मुयंत गायंतं पणच्चंतं, तं विकितरूपं दटूर्ण जो पहसति पवंचेतिवा तस्स सत्तहा सिरं फुट्टइ, जो पुणतंसुहाहिं वायाहिं अभिणंदति धूवपुप्फाईहिं पूएइ सो सव्वहाऽऽमयातो मुच्चइ। राया भणइ-अलमेएणं पि / ततितो भणइ-मम वि एवंविहमेव णातिविसेसकरं भूयमत्थि, पियप्पिय-कारिणं दरिसणादेव रोगेहिंतो मोचयति, एवं होउत्तितेण तहा कए असिवं उवसंत। एवं साधू विआसारूपत्ते सति सदादिपडिकूलत्तेच परेहिं परिभूयमाणो पवंचिजमाणो हसिज्जमाणो वा तथा थुव्वमाणो वा पूइज्जमाणो वा तं पियापियं सहेत"। अनेन च मनोगुप्त्यभिधानाचारित्रविनय उक्त इति सूत्रार्थः / / 14|| आह-क्रोधासत्याकरणादिभिरात्मदमनोपाय उक्तः, तत्रच बाह्येष्वपि दमनीयेयु सत्सु किमिति तस्यैव दमनोपाय उद्दिश्यत? किं वा तद्दमने फलमिति, अत्रोच्यतेअप्पामेव दमेयव्यो, अप्पा हु खलु दुइमो। अप्पादतो सुही होइ, अस्सि लोए परस्थ य॥१५॥ अतति-सततं गच्छति शुद्धिसंक्लेशात्मकपरिणामान्तराणीत्यात्मा तमेव दमयेत्-इन्द्रियनोइन्द्रियदमेन मनोज्ञेतरविषयेषु रागद्वेषवशतो दुष्टगजमिवोन्मार्गगामिनं स्वयं विवेकाकुशेनोपशमनं नयेत्, पठन्तिच'अप्पा चेव दमेयव्वो' ति स्पष्टम्, किमेवमुपदिश्यत इति आह-आत्मैव, हुशब्दस्यैवकारार्थत्वात् 'खलु' इति यस्मात् दुर्दमः-दुर्जयः, ततस्तद्दमने दमिता एव बाह्यदमनीया इति, न तद्दमनमुपदिश्यत इति भावः, उक्तं हि-'"सव्वमप्पे जिए जियं"कः पुनरेवंगुण इत्याह-आत्मा दान्त-उपशममानीतः, सुखमस्यास्तीति सुखी, भवति, व? अस्मिन्-इत्यनुभूयमानायुषि विनेयाध्यक्ष लोके-भवे परत्र च इत्यागामिनि भवान्तरे, दान्ताऽऽत्मानो हि परमर्षय इहैव सुरैरपि पूज्यन्ते, अदान्ताऽऽल्मानस्तु चौरपारदारिकादयो विनश्यन्ति, तथा- "सद्देण मओ रूवेण पयंगो महुयरो य गंधेणं / आहारेण य मच्छो, बज्झइफरिसेण य गइंदो॥१॥" तद्विपर्ययतस्तु-इह परत्र च नन्दन्ति, तत्र चोदाहरणम्-"दो भायरो चोरा, तेसिं उवस्सए साहुणो वासावासं उवागया, तेहिं वासरत्तपरिसमत्तीए गच्छंतेहि तेसिं चोराणं अन्नं वयं किंचि अपडिवजमाणाणं रत्तिं न भोत्तव्वं ति वयं दिण्णं / अन्नया तेहिं उदाएहिं सुबहुयं गोमाहिसं आणीयं, तत्थ अन्ने महिसं मारेउं पइउमारद्धा, अन्ने मजस्स गया, मंसइत्ता संपहारेन्ति-अद्धगे मंसे विसंपक्खिवामोतो मज्जइत्ताणंदाहामो, तओ अम्हं सुबहु गोमाहिसं भागेण आगमिस्सइ, मज्जइत्ता वि एवं चेव सामत्थे-हिं ति, एवं तेहिं विसं पक्खित्तं आइयो य अत्थं गतो, ते भायरो न भुत्ता, इयरे परोप्परं विससंजुत्तेण मज्जमसेण उवभुत्तेण मया, मरिऊण य कुगइंगया, इयरे इह परलोएय सुहभागिणोजाया, एवंताव जिभिंदियदमे, एवं सेसेसु वि इंदिएसु, अप्पादतोसुही होइ, अस्सि लोए परत्थ य।" इति सूत्रार्थः।।१५।। किं पुनः परिभावयन्नात्मानं दमयेदित्याहवरं मे अप्पा दंतो, संजमेण तवेण य। माऽहं परेहिं दम्मतो,बंधणेहिं बहेहि य / / 16 / / वर-प्रधानं मे-मया आत्मा-अभिहितरूपस्तदाधाररूपो वा देहः, 'दान्त' इति दमं ग्राहितः असमञ्जसचेष्टातो व्यावर्तितः, केन हेतुना? संयमेन--पञ्चाश्रवविरमणादिना, तपसा च–अनशनादिना, चशब्दो द्वयोरप्यनपेक्षितायां मुक्तिहेतुताविरहात् परस्परसापेक्षतासूचनार्थः, सम्यग-ज्ञानसमुच्चयार्थो वा-विपर्यये दोषदर्शनायाह- 'मा' प्राग्वत्, 'अहम्' इत्यात्मनिर्देशः, परैः-आत्मव्यतिरिक्तैः 'दम्मंतो' त्ति आर्षत्वादमितः, कैः? बन्धनैः-बादिविरचितैर्मयूरबन्धादिभिः वधैश्च-लतालकुटादिताडनैः, अत्रोदाहरणम्-"सेयणओ गंधहत्थी अडवीएहत्थिजूह महल्लं परिवसइ, तत्थ जूहवती जाए जाए गयकलभए विणासेइ, तस्थेमा करिणी आवण्णसत्ता चिंतेइ-जइ कहं चि गयकलभतो जायइ, सोऽपि एतेण विणासिजिहि त्ति काउंलंगति ओसरइ, जूहाहिवेण जूहे छुडभइपुणो ओसरइ, ताहे बितियततियदिवसे जूहेण मिलइ, ताहे एगं रिसिआसमपयं दिटुं, सा तत्थ अल्लीणा संवणिया य अणाएरिसओ, सा. पसूया गयकलहं, सो तेहिं रिसिकुमारेहिं सहिओ पुप्फारामं सिंथइ, सेयणउत्ति से नाम कयं। वयत्थो जातो, जूहं दठूण जूहपतिं हंतूण जूह णेण पडिवण्णं / गंतूण य अणेण सो आसमो विणासिता, नो अन्नावि कावि एवं काहिति त्ति / ताहे तेरिसितो रुसिया, पुप्फफलगहियपाणी सेणियस्सरण्णो सयासंउवगया। कहियंचऽणेहि-एरिसोसव्वलक्खणसंपुण्णो गंधहत्थी सेयणतो णाम / सेणिओ हत्थिगहणाय गतो / सो य हत्थी देवयाए परिगहितो, ताहे (ए) ओहिणा आभोइयं-जहाअवस्सं एसो घेप्पति, ताहे ताए सो भण्णइ-पुत्त ! वरं ते अप्पा दंतो, ण यऽसि परेहिं दमंतो बंधणेहिं वहेहि य / सो एवं भणिओ सयमेव रत्तीए गंतूण आलाणखंभं अस्सितो" यथा हि अस्य स्वयन्दमनान्महागुणः तथा मुक्त्यर्थिनोऽपि विशिष्टनिर्जरातः, इतरथा त्वकामनिर्जरातो न तथेति सूत्रार्थः।।१६।। गुर्वनुवृत्त्यात्मकं प्रतिरूपविनयमाहपडिणीयं च बुद्धाणं, वाया अदुव कम्मुणा। आवि वा जइ वा रहस्से, नेव कुज्जा कयाइ वि।।१७।। प्रत्यनीक म् इति-प्रतिकूलम्, चः पूरणे, चेष्टिमित्युपस्कारः, भावप्रधानत्वाद्वा निर्देशस्य प्रत्यनीकत्वं के - षाम् ? बुद्धानाम्-अवगतवस्तुतत्त्वानां गुरूणामिति यावत्,
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________________ विणय 1163- अभिधानराजेन्द्रः- भाग 6 विणय कया? वाचा, किं त्वमपि किञ्चिज्जानीषे? इत्येवंरूपया विपरीतप्ररूपणायां प्रेरितस्त्वयैवैतदित्थमस्माकं प्ररूपितमित्याद्यात्मिकया वा, अथवा कर्मणा--संस्तारकातिक्रमणकरचरणसंस्पर्शनादिना आविःजनसमक्ष प्रकाशदेश इति यावत्, यदिवा-रहस्ये विविक्तोपाश्रयादी 'न' इति निषेधे एव–अवधारणे,सच 'शत्रोरपि गुणा ग्राह्याः, दोषा वाच्या गुरोरपी' ति कुमतनिराकरणार्थः कुर्यात् इति विदध्यात् कदाचित्परुषभाषणादावपीति सूत्रार्थः / / 17 / / पुनः शुश्रूषणात्मकं तमेवाहण पक्खओ ण पुरओ, व किच्चा ण पिट्ठओ। न जुंजे ऊरुणा ऊरं, सयणे ण पडिस्सुणे / / 18|| न पक्षतः-दक्षिणादिपक्षमाश्रित्य उपविशेदिति सर्वत्रोपस्कारः तथोपवेशने तत्पतिसमविशतः तत्साम्यापादनेनाविनयभावात्, गुरोरपि वक्रावलोकने स्कन्धकन्धरादिवाधासम्भवात्, न पुरतः-अग्रतः, तत्र वन्दकजनस्य गुरुवदनानवलोकनादिनाऽप्रीतिभावात्, नैव इति पूर्ववत् कृतिः-वन्दनकं तदर्हन्ति कृत्याः दण्डादित्वाद्द्यप्रत्ययः ते चार्थादाचार्यादयस्तेषां पृष्ठतः-पृष्ठदेशमाश्रित्य, द्वयोरपि मुखादर्शन तथाविधरसवत्ताऽभावादिदोषसम्भवात् न युज्यात्-नसंघट्टयेद् अत्यासन्नोपवेशादिभिः, ऊरुणा-आत्मीयेन, ऊरुंकृत्य संबन्धिनं, तथा करणेऽत्यन्ताविनयसम्भवात्, उपलक्षणं चैतत् शेषाङ्गस्पर्शपरिहारस्य,शयनेशय्यायां शयित आसीनो वेति शेषः, किमित्याह-न प्रतिशृणुयात्, किमुक्तं भवति? कदाचिच्छव्यागतो गुरुणाऽऽकारित उक्तो वा कृत्यं प्रति न तथास्थित एवावज्ञया कुर्म एवमित्यादिवचनतः प्रतिजानीयात्, किन्तु-गुरुवचनसमनन्तरमेव सम्भ्रान्तचेता विनयविरचितकराञ्जलिःसमीपमागत्य पादपतनपुरस्सरमनु-गृहीतोऽहमिति मन्यमानो भगवन्निच्छामोऽनुशिष्टिमिति वदेदिति सूत्रार्थः // 18|| पुनस्तमेवाहनेव पल्हत्थियं कुजा, पक्खपिंडं व संजए। पाए पसारिए वाऽवि, न चिडे गुरुणंतिए॥१९॥ नैव पर्यस्तिकां-जानुजसोपरिवस्त्रवेष्टनाऽऽत्मिकां कुर्यात्, पक्षापण्डं वा बाहुद्वयकायपिण्डात्मकं संयतः-साधुः,तथा पादौ प्रसारयेत् वाऽपि नैव, वा-समुच्चयार्थः, अपिः-किं पुनरित इतो विक्षिपेदिति निदर्शनार्थः / अन्यच्चन तिष्ठेत् नाऽऽसीत, क्?-गुरूणामन्तिके इति, प्रक्रमादतिसन्निधौ, किन्तूचितदेश एव, अन्यथाऽविनयदोषसम्भवात्, अथवा-'पाए पसारिए वावि' त्ति पाठात् पादौ प्रसारितौ वाऽपि, कृत्वेति शेषः, एकारस्यालाक्षणिकत्वात् प्रसार्य वा न तिष्ठेद् गुरूणामन्तिके उचितप्रदेशेऽपीति, उपलक्षणं चैतद्दण्डपादिकाऽवष्टम्भादीनामिति सूत्रार्थः // 16 // पुनः प्रतिश्रवणविधिमेव सविशेषमाह-- आयरिएहिं वाहिंतो, तुसिणीओ ण कयाइ वि। पसायट्ठी नियागट्टी, उवचिडे गुरांसया / / 20 / / आचार्यः उपलक्षणत्वादुपाध्यायादिभिः 'वाहिंतो' ति व्याहृतःशब्दितः 'तुसिणीओ' त्ति तूष्णीकः तूष्णीशीलः न कदाचिदपि ग्लानाधवस्थायामपि, भवेदिति गम्यते, किन्तु-'धन्यस्योपरि निपतत्यहितसमाचरणधर्मनिर्वापी। गुरुवदनमलयनिसृतो, वचनरसश्चन्दनस्पर्शः / / 1 / / इति / प्रसादोऽयं यदन्यसद्भावेऽपि मामादिशन्ति गुरव इति प्रेक्षितुम्-आलोचितुं शीलमस्येति प्रसादप्रेक्षी, पाठान्तरतः प्रसादार्थी, वा गुरुपरितोषाभिलाषी 'णियागट्ठी तिपूर्ववत्, उपतिष्ठत मस्तकेनाभिवन्दइत्यादि वदन्सविनयमुपसर्पत, गुरुंसदासर्वकालमितिसूत्रार्थः // 20 // / तथाआलवंते लवंते वा, ण णिसीना कयाइ वि। चइत्ता आसणं धीरो,जओ जत्तं पडिस्सुणे॥२१॥ आङिति ईषल्लपति वदति लपति वा वारमनेकधा वाऽभिदधति न निषीदेत्-न निषण्णो भवेत्, कदाचिदपिव्याख्यानादिना व्याकुलतायामपि,किन्तु? त्यक्त्वा-अपहाय आसनंपादपुञ्छनादि, धिया राजते धीरः, अक्षोभ्यो वा परीषहादिभिः, 'यत' इति यतो यत्नवान् ‘जत्त' ति प्राकृतत्वाद्विन्दुलोपे तस्य च द्वित्वे यद्गुरव आदिशन्ति तत् प्रतिशृणुयात्- अवश्यविधेयतया अभ्युपगच्छेदिति यावत्। यदा-यत इति यत्र गुरवः, तत्र गत्वेति गम्यते, यात्रां-संयमयात्रां प्रस्तावाद् गुरूपदिष्टां प्रतिश्टणुयादिति सूत्रार्थः // 21 // पुनः प्रतिरूपविनयमेवाऽऽहआसणगओ ण पुच्छिलाणेव सिजागओ कया। आगम्मुकुडुओ संतो, पुच्छिता पंजलीगडे ||22|| 'आसनगतः' इति आसनासीनो न पृच्छेत्, सूत्रादिकमिति गम्यते, नैव शय्यागत, इति संस्तारकस्थितः, तथाविधावस्थां विनेत्युपस्कारः, 'कदाचिदपि' बहुश्रुतत्वेऽपि, किमुक्तं भवति? बहुश्रुतेनापि संशये सति 'न'-न प्रष्टव्यम्, पृच्छताऽपि नावज्ञया, सदा गुरुविनयस्यानतिक्रमणीयत्वात्, तथा चाऽऽगमः-'जहाहि अग्गी जलणं न मंसे, णाणाहुई मंतपयाहि सित्तं / एवायरि (री) यं उवचिट्ठइज्जा, अणंतणाणोवगओऽवि संतो॥१॥" किं तर्हि कुर्या--दित्याह- आगम्यगुर्वन्तिकमेत्य उत्कुटुक इति-मुक्तासनः, कारणतो वापादपुञ्छनादिगतः सन् शान्तोवा पृच्छेत्पर्यनुयुजीत, सूत्रादिकमितीहापिगम्यते, प्रकर्षण अन्तःप्रीत्यात्मकेन कुतोविहितोऽञ्जलिः उभयकरमीलनात्मकोऽनेनेति प्रकृताञ्जलिः, प्राकृतत्वाच्च कृतशब्दस्य परनिपातः, 'पंजलिउड' त्ति पाठे च प्रकष्टं भावान्विततयाऽञ्जलिपुटमस्येति प्राञ्जलिपुट इति सूत्रार्थः // 22 // ईदृशस्य शिष्यस्य गुरुणा यत् कृत्यं तदाहएवं विणयजुत्तस्स, सुत्तं अत्थं च तदुभयं / पुच्छमाणस्स सिस्सस्स. वागरिज जहासुयं / / 23 / / एवम्-इत्युक्तप्रकारेण विनययुक्तस्य-विनयान्वितस्य सूत्रंकालिकोत्कालिकादि अर्थ च तस्यैवाभिधे यं तदुभयम्-- सूत्रार्थोभयं पृच्छतः-ज्ञीप्सतः शिष्यस्यस्वयं दीक्षितस्यो
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________________ विणय 1164 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विणय पसम्पन्नस्य वा व्यागृणीयात्-विविधमभिव्याप्त्याऽभिदध्यात् व्याकु द्विा-प्रकटयेत् यथा येन प्रकारेण श्रुतम्-आकर्णितं, गुरुभ्य इतिगम्यते / नतु स्वबुद्ध्यैवोत्प्रेक्षितमित्यभिप्रायः / अनने च-"आयारे सुयविणए, विक्खिवणे चेव होइ बोद्धव्वे। दोसस्सयनिग्याए, विणए चउहेस पडिवत्ती ||1||" इत्यागमाभिहितचतुर्विधाचार्यविनयान्तर्गतस्य, "सुत्तं अत्थं च तहा, हियकरणिस्सेसयं च वाएइ। एसो चउविहो खलु, सुयविणओ होइ णायव्यो।।१।। सुत्तं गाहेति उज्जुत्तो, अत्थं च सुणावए पयत्तेणं। जं जस्स होइ जोगं, परिणामगमाइ तं तु सुयं / / 2 / / निस्सेसमपरिसेसं, जाव समत्तं च ताव वाएइ। एसो सुयविणओ खलु, निद्दिडो पुव्वसूरीहिं" ||3|| इत्याद्यागमाभिहितस्य श्रुतविनयस्य साक्षादभिधानम्, यच्च विनयं प्रादुष्करिष्यामीति प्रतिज्ञाय 'अब्भुट्ठाणं अंजलि' तथा 'दसणणाणचरित्ते' इत्यादिना ग्रन्थेनैव नतस्यशुद्धस्वरूपाभिधानं, किंतु-'णिसंते सिया अमूहरी' इत्यादि लिडन्तादिपदैरुपदेशरूपतया, तदपि प्रसङ्गत एव यथायोगमाचार्यविनयोपदर्शनपरमिति भावनीयमितिसूत्रार्थः // 23 // उत्त० पाई० १अ०। (पुनः शिष्यस्य वाग्विनयः 'भासा' शब्दे पञ्चमभागे 1545 पृष्ठे गतः।) इत्थं स्वगतदोषपरिहारमभिधायोपाधिकृतदोषपरिहारमाहसमरेसु अगारेसुं. गिडसंधिसु अ महापहेसु / एगो एगितिथए सद्धिं, नेव चिट्टे न संलवे // 26 // समरेषु-खरकुटीषु, तथा च चूर्णिकृत्-समरं नामजत्थ हेट्ठा लोहयारा कम्मं करेंति' उपलक्षणत्वादस्यान्येष्वपि नीचास्पदेषु अगारेषुगृहेषु गृहसन्धिषु च गृहद्वयान्तरालेषु च महापथेषु-राजमार्गादौ, किमित्याह-- एक:-असहायः एका असहाया सा चासौ स्त्री च एकस्त्री तया सार्द्धसह नैव तिष्ठत्-असंलपन्नेव चोद्धस्थानस्थो न भवेत्, न संलपेत्-न तयैव सह संभाष कुर्यात्, अत्यन्तदुष्टतोद्भावनपरं चैकग्रहणम्, अन्यथा ससहायस्यापि ससहायया अपि च स्त्रिया सहावस्थानं सम्भाषणं चैवंविधास्पदेषु दोषायैव, प्रवचनमालिन्यादिदोषसम्भवात्, अथवा-- सममरिभिर्वर्तन्त इति समरा द्रव्यतो जनसंहारकारिणः संग्रामाः, भावात्तु स्त्रीणामरिभूतत्वात् ज्ञानादिजीवस्वतत्त्वघातिनः, तासामेव दृष्ट्या दृष्टिसम्बन्धाः , तत्रेह भावसमरैरधिकारः, सप्तमी चेयम्, ततोऽयं भावार्थः-द्रव्यसमरा हि न स्युरपि प्राणापहारिणः, भावसमरास्तु ज्ञानादिभावप्राणापहारिण एव, विशेषतस्त्वेकाकितायाम, तत एवमेतेष्वपि दारुणेषु भावसमरेषु सत्सु नैक एकस्त्रिया सार्द्धमगारादिषु तिष्ठेत् संलपेद्रा, अनेनापि चारित्रविनय एवोक्तः / उपदेशाधिकाराच्च न पौनरुक्त्यम्, एवमन्यत्रापि भावनीयमिति सूत्रार्थः // 26 // कदाचित्स्खलिते च गुरुभिः शिक्षितो यत्कुर्यात् तदेवाहजं मे बुद्धाऽणुसासंति, सीएण फरसेण वा। मम लाभु त्ति पेहाए, पयओ य (तं) पडिस्सुणे // 27 // यन्मा बुद्धा अनुशासन्ति-शिक्षा ग्राहयन्ति शीतेन–सोपचारवचसा, 'शीलेन वे ति पाठः, तत्र शीलं-महाव्रतादि उपचारात्तजनकं वचोऽपि शीलं तेन, यद्वा-शील-समाधौ, ततः शीलेन-समाधानकारिणाभद्र ! भवादृशामिदमनुचितमित्यादिना, परुषेण कर्कशेन, उभयत्र वचसेति गम्यते, तत् प्रतिशृणुयात्-विधेयतया अङ्गीकुर्यादित्युत्तरेण सम्बन्धः, किमभिसन्धायेत्याह-मम लाभः-अप्राप्तार्थप्राप्तिरूपः, यन्मामनाचारकारिणममी शासन्तीति 'पेहाए' त्ति एकारस्यालाक्षणिकत्वात् प्रेक्ष्यआलोच्य प्रेक्षया वा एवंविधबुद्ध्या पयतो ति प्रयतः-प्रयत्नवान् पदतो वा-तथा--विधानुस्मर्यमाणसूत्रालापकादिति सूत्रार्थः // 27 // किमिह परत्र चात्यन्तोपकारि गुरुवचनमपि कस्यचिद न्यथा सम्भवति? येनैवमुपदिश्यते इत्याहअणुसासणमोवायं, दुकडस्स य परेणं। हियं तं मन्नए पन्नो, वेस्सं भवइ ऽसाहुणो // 25 अनुशासनम्--उक्तरूपम्, ओवायं' ति उपाये-मृदुपरुष-भाषणादी भवमौपायम्, यद्वा-'ओवायं' ति सूत्रत्वात् उपपतनमुपपातः-समीपभवनं तत्र भवमौपपातं गुरुसंस्तारास्तरणविश्रामणादिकृत्यं दुष्कृतस्य च-कुत्सिताचरितस्य प्रेरणं-हा! किमिद-मित्थमाचरितमित्याद्यात्मकं गुरुविहितमिति गम्यते, हितम्-इह परलोकोपकारि, तदित्यनुशासनादि मन्यते प्राज्ञः-प्रज्ञावान् द्वेष्यम्-द्वेषोत्पादकं भवति-जायते, कस्य? असाधोः-अपगत-भावसाधुत्वस्य, तदनेनासाधोर्गुरुवचनस्याप्यन्यथात्वसम्भव उक्त इति सूत्रार्थः // 28 // अमुमेवार्थं व्यक्तीकर्तुमाहहियं विगयभया बुद्धा, फरुसमप्पणुसासणं। वेस्सं तं होइ मूढाणं, खंति सुद्धिकरं पयं // 29 // हितम्-पथ्यं विगतभयाः-सप्तभयरहिताः बुद्धाः-अवगत-तत्त्वाः, मन्यन्त इति शेषः, परुषमपि-कर्कशमपि, अनुशासनं शिष्याणां गुरुविहितमिति प्रक्रमः, द्वेष्यम्-द्वेषोत्पादि तद् इति अनुशासनं भवति मूढानाम्-अज्ञानानां क्षान्तिः-क्षमाशुद्धिः-आशयविशुद्धता तत्करणम्, यद्वा-क्षान्तेःशुद्धिः-निर्मलता क्षान्तिशुद्धिस्तत्करणम्, अमूढानां विशेषतः क्षान्तिहेतुत्वाद्गुर्वनुशासनस्य, मार्दवादिशुद्धिकरत्वोपलक्षणं चैतद्, अत एव पद्यते-गम्यते गुणैर्ज्ञानादिभिरिति पदंज्ञानादिगुणस्थानमित्यर्थः, अथवा-परुषमपीति अपिशब्दो भिन्नक्रमः ततश्च हितमप्यायत्यां विगतभयाद्बुद्धाद्-आचार्यादः उत्पन्नमितिशेषः, परुषं यच्छुत्यसुखदमनुशासनम्, तत्किमित्याह-द्वेष्यं तद्भवति मूढानां, शेषं प्राग्वदिति सूत्रार्थः॥२६ पुनर्विनयमेवाहआसणे उवचिद्विजा, अनुचेऽकुक्कुए थिरे। अप्युत्थाई निरुत्थाई, निसीज्जा अप्पकुक्कुई // 30 // आसनम - पीठादि वर्षास ऋतुबद्धे तु पादपुञ्छनं तत्र पीठादौ उपतिष्ठे त् - उपविशेत्. अनुचे - द्रव्यतो नीचे भावतस्त्वल्पमूल्यादौ, गुर्वासनात् इति गम्यते; अकुक्कुचे
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________________ विणय 1165 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विणय अस्पन्दमाने, न तु तिनिशफलकवत् किञ्चिच्चलति, तस्य शृङ्गा- | नीकादि, सुमृतमस्य पण्डितमरणमर्तुः, तथा सुनिष्ठितोऽसौ राङ्गत्वात्, स्थिरे-समपादप्रतिष्ठिततया निश्चले, अन्यथा सत्त्व- साध्वाचारविषये, 'सुलट्ठि' त्तिशोभनमस्य तपोऽनुष्ठानमित्यादि-रूपं, विराधनासम्भवात्, ईदृश्यप्यासने अल्पमुत्थातुं शीलमस्येति अल्पो- कारणतो वा-"पयत्तपक्के त्ति व पक्कमालवे, पयत्तछिन्न त्ति व त्थायी, प्रयोजनेऽपि न पुनः पुनरुत्थानशीलः, निरुत्थायी-न निमित्त छिन्नमालवे / पयत्तलढे त्ति व कम्महेउयं, पहारगाढे ति व गाढ-मालवे विनोत्थानशीलः, उभयत्रान्यथाऽनवस्थितत्वसम्भवात्, एवंविधश्व // 1 // " इत्याप्तोपदेशात् प्रयत्नकृतपक्वादिरूपं वदेदपीति / अस्मिश्च किमित्याह-निषीदेत्-आसीत् 'अप्पकुक्कुइ' त्ति अल्पस्पन्दनः, पक्षे प्रतिरूपयोगयोजनात्मको वाचिकविनय उक्त इति सूत्रार्थः // 36 / / करादिभिरल्पमेव चलन्, यद्वा-अल्पशब्दोऽभावाभिधायी, ततश्शाल्पम्- विनय एवादरख्यापनाय सुविनीतेतरोपदेशदानतो यद्गुरोर्भवति असत्, 'कुक्कुयं' ति कौत्कुचं-करचरणभूभ्र-मणाद्यसच्चेष्टात्मकमस्ये- तदुपदेशयितुमाह-- त्यल्पकौत्कुचः, अनेनाप्यौपचारिक-विनयः प्रकारान्तरेणोक्त इति रमए पंडिए सासं, हयं भदं व वाहए। सूत्रार्थः / / 30 // बालं सम्मइ सासंतो,गलिअस्समिव वाहए॥३७॥ सम्प्रति चरणकरणविनयात्मिकामेषणासमितिमाह रमते-अभिरतिमान् भवति पण्डितान्-विनीतविनेयान्, 'सासत्' कालेण णिक्खमे भिक्खू, कालेण य पडिक्कमे। इत्याज्ञापयन् कथञ्चित् प्रमादस्खलिते शिक्षयित्वा गुरुरिति शेषः, कमिव अकालं च विवजित्ता, काले कालं समायरे॥३१॥ कः? इत्याह-हयमिवअश्वमिव, कीदृशम्? भाति भन्दते वा भद्रस्तं'कालेण' ति सप्तम्यर्थे तृतीया, काले-प्रस्तावे निष्क्रामेत्– गच्छेत् कल्याणावह 'वाहकः' अश्वन्दमः, बालम्- अज्ञं श्राम्यति-खिद्यते भिक्षुः, अकालनिर्गम आत्मक्लामनादिदोषसम्भवात्, तथा कालेन च / शासत्, स हि सकृदुक्त एव न कृत्येषु प्रवर्तते, तत इदं कुरु इदं च मा प्रतिक्रामेत्-प्रातनिवर्तेत भिक्षाटनादिति शेषः, इदमुक्तं भवति- कार्षीरित्यादिपुनः पुनस्तमाज्ञापयन् शिक्षयित्वा, कमिव कः? इत्याहअलाभेऽपि-'अलाभो त्ति न सोइजा, तवो त्ति अहियासए' इति गलिम्-उक्तरूपमश्वमिव वाहक इति सूत्रार्थः // 37 / / समयमनुस्मरन्, अल्पं मया लब्धंनलब्धं वेति, लाभार्थीनाटन्नेव तिष्ठत्, I . गुरोःश्रमहेतुत्वमुद्भावयन् बालस्याभिसन्धिमाहकिमित्येवमत आह-अकालं-तत्तत्क्रियाया असमयं चेति, यस्माद्वि- खड्डुयाहिं चवेडाहिं, अकोसेहि वहेहिय। र्ययकाले प्रस्तावे प्रत्युप्रेक्षणादिसम्बन्धिनि 'कालामति' तत्तत्कालोचितं कल्लाणमणुसासंतं, पावदिहि तिमन्नइ // 38 // क्रियाकाण्डं समाचरेत्-कुर्यात्, अन्यथा कृषीबलकृषीक्रियाया खड्डकाभिः टक्कराभिःचपेटाभिः करतलाघातैः आक्रोशैः असत्यइवाभिमतफलोपलम्भासम्भव इतिगर्भार्थः, अनेनचकालनिष्क्रमणादौ भाषणैः वधैश्चदण्डिकादिघातैः, चशब्दादन्यैश्चैवं प्रकारैर्दुः खहेतुभिरनुहेतुरुक्तः, प्रसङ्गात् शेषक्रियाविषयतया वा नेयम्, समुच्चयार्थश्च तदा शासनप्रकारैस्तमाचार्य कल्याणम्-इहपरलोकहितम् अनुशासन्तंचशब्द इति सूत्रार्थः // 31 // (निर्गतश्च यत्कुर्यात्तद् ‘एसणा' शब्दे शिक्षयन्तं, पापा दृष्टि:-बुद्धिरस्येति पापदृष्टिः, अयमाचार्य इति मन्यते, तृतीयभागे 66 पृष्ठे दर्शितम्।) यथा-पापोऽयंमा हन्ति निघृणत्वात्, चारकपालकवत् पठन्ति च-- यदुक्तं 'यतमान' इति तत्र वाग्यतनामाह 'खड्डयामे' इत्यादि, अत्र व्यवच्छेदफलत्वाद्वाक्यस्य खड्डुकादय सुकडं ति सुपकं ति, सुच्छिन्नं सुहडे मडे / एव मम नापरं किञ्चित् समीहितमस्तीत्यभिसन्धिना कल्याणमनुसुनिट्ठिए सुलहित्ति, सावजं वजए मुणी॥३६।। शासन(त)माचार्य पापदृष्टिं मन्यते, यदा-वाग्भिरप्यनुशास्थभानोऽसौ सुकृतं-सुष्ठ निर्वर्तितमन्नादि सुपक्कं-घृतपूर्णादि. 'इतिः' उभयत्र खड्डुकादि-रूपावाचो मन्यत इति सूत्रार्थः॥३८|| प्रदर्शने, सुच्छिन्नं-शाकपत्रादि सुहृतं-शाकपत्रादेस्तिक्तत्वादिघृतादि गुरोरतिहितत्वं प्रचिकाशयिषुर्विनीताभिसन्धिमाहवा सूपविलेपिकादीनां, तथा 'मडे' त्ति प्रक्रमात् सुष्ठ मृतं घृताद्येव पुत्तो मे मायनाइ त्ति, साहू कल्लाण मन्नइ। सक्तुसूपादौ, तथा सुष्टु निष्ठितमित्यतिशयेन निष्ठां-रस-प्रकषपर्यन्ता- पावदिट्ठी उ अप्पाणं, सासंदासं व मन्नइ॥३६।। त्मिकां गतं, 'सुलट्ठित्ति सर्वैरपि रसादिभिःप्रकारैः शोभनमिति, इतिः पुत्रो मे भ्राता ज्ञातिरिति, अत्रैवार्थस्य गम्यमानत्वात् पुत्र इवेत्यादि एवं प्रकारार्थः, एवंप्रकारमन्यदपि सावद्यं प्रक्रमाद्वचो, वर्जयेन्मुनिः / बुद्ध्याऽऽचार्यों मामनुशास्तीति साधुः-सुशिष्यः कल्याणं-कल्याणयद्वा-सुष्ठ कृतं यदनेनारातेः प्रतिकृतं, सुष्ठपक्वं मांसाशनादि, सुच्छिनोऽयं हेतुमाचार्यमनुशासनं वा मन्यते स हि विवेचयति शिष्यः-सौहार्दादसौ न्यग्रोधपादपादिः, सुहृतं कदर्यादर्थजातं, सुहतो वा चौरादिः सुमृतोऽयं मां शास्ति, दुर्विनीतत्वे हि मम किमस्य परिहीयते? ममैव त्वर्थभ्रंश प्रत्यनीकधिग्वर्णादिः सुनिष्ठितोऽयं प्रासादकूपादिः, 'सुलहि' त्ति इति / बालोऽप्येवं किं न मन्यत इत्याह-पापदृष्टिस्तु-कुशिष्यः शोभनोऽयं करितुरगादिरिति सामान्येनैव सावधं वचो वर्जयेन्मुनिः / पुनरात्मानं 'सासं' ति प्राकृतत्वाद्धितानुशासने-नापि शास्यमानं निरवयं तु सुकृतमनेन धर्मध्यानादि, सुपक्वमस्य पचनविज्ञानादि, दासमिव मन्यते, यथा असौ दासवन्मामाज्ञापयति, ततोऽस्य शास्तरि सुच्छिन्नं स्नेहनिगडादि, सुहृतमुपकरणमशिवोपशान्तये, सुहतंवा कर्मा- | पापदृष्टिताऽभिसन्धिरेव सम्भवतीति सूत्रार्थः // 36 //
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________________ विणय 1166 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विणय विनयसर्वस्वमुपदेष्टुमाहण कोवए आयरियं, अप्पाणं पिण कोवए। बुद्धोवघाईन सिया, न सिया तोत्तगवेसए||४|| न कोपयेत्-न कोपोपेतं कुर्यात्, आचार्यम्, उपलक्षणत्वादपरमपि विनयाहम, 'आत्मानमपि गुरुभिरतिपरुषभाषणादिनाऽनुशिष्यमाणं न कोपयेत्, कथञ्चित् सकोपतायामपि बुद्धोपघाती आचार्योपघातकृत न स्यात्-न भवेत्, तथा न स्यात् तुद्यते-व्यथ्यतेऽनेनेति तोत्रंद्रव्यतः प्राजनको भावतस्तु तद्दोषोद्भावकतया व्यथोपजनकं वचनमेव, तद् गवेषयति किमहममीषां जात्यादिदूषकं वच्मि? इत्यन्वेषयतति तोत्रगवेषकः, प्रक्रमाद्-गुरूणां, न स्यादिति चादरख्यापनार्थत्वान्न पुनरुक्तम्, यदुक्तं बुद्धोपघातीन स्यात्तत्रोदाहरणम्-कश्चिदाचार्यादिगणिगुणसम्पत्समन्वितो युगप्रधानः प्रक्षीणप्रायकर्माऽऽचार्योऽनियतविहारितया विहर्तुमिच्छन्नपि परिक्षीणजघाबलः क्वचिदेकस्थान एवावतस्थे। तत्रत्यश्रावकजनेन चैतेषु भगवत्सु सत्सुतीर्थं सनाथमिति विचिन्तयता तद्वयोऽवस्थासमुचितस्निग्धमधुराहारादिभिः प्रतिदिवस-- मुपचर्यते स्म, तच्छिष्याश्च गुरुकर्मतया कदाचिदचिन्तयन्, यथाकियचिरमयमजङ्गमोऽस्माभिरनुपालनीयः, ततस्तमनशनमादापयितुमिच्छवोऽतिभक्तश्रावकजनानुदिनदीयमानमुचितमशनादि तस्मै न समर्पयामासुः, अन्तप्रान्तादि च समुपनीय सविषादमिव तत्पुरत उक्तवन्तः-किमिह कुर्मः? यदीदृशामपि भवतामुचितम-शनादि नामी विवेकविकलतया सदपि सम्पादयितुमीशते, श्राद्धानभिदधतिच, यथाअत्यन्तनिःस्पृहतया शरीरयापनामपि प्रत्यनपेक्षिणः प्रणीतं भक्तपानमाचार्या नेच्छन्ति, किन्तु-संलेखनामेव विधातुमध्यवस्यन्तीति। ततस्ते तद्वचनमाकर्ण्य मन्युभरनिभृतचेतसस्तमुपसृत्य सगद्गदंजगदुः-भगवन् ! भुवनभवभावस्वभावावभासिष्वर्हत्सु चिरतरातीतेष्वपि प्रतपत्सु भवत्सु भुवनमवभासवदिवाभाति, तत्किमयमत्र भवद्भिरकाल एव संलेखनाविधिरारब्धः? न च वयममीषां निर्वेदहेतव इति मन्तव्यम्, यतः-शिरः स्थिता अपि भवन्तो न भारमस्माकममीषां वा शिष्याणां कदाचिदादधति, ततस्तैरिङ्गितज्ञैरवगतं यथाऽस्मच्छिष्यमति-विजृम्भितमेतत्, किममीषामप्रीतिहेतुना प्राणधारणेन? न खलु धर्मार्थिनां कस्यचिदप्रीतिरुत्पादयितुमुचितेति चेतसि विचिन्त्य मुकुलितमेव तत्पुरत उक्त्तम्कियच्चिरमजङ्गमैरस्माभिरुपरोधनीयास्तपस्विनो भवन्तश्च, तद्वरमुत्तमाचरितमुत्तमार्थमेव च प्रतिपद्यामहे इति तानसौ संस्थाप्य भक्तमेव प्रत्याचचक्षे इत्येवं बुद्धोपघाती न स्यादिति सूत्रार्थः / / 40|| एवं तावदाचार्य न कोपयेदित्युक्तं, कथञ्चित् कु पिते वा यत्कृत्यं तदाहआयरियं कुवियं नच्चा, पत्तिएणं पसायए। विज्झविज्जा पंजलिउडे, वएज्जा न पुणो त्तिय॥५१॥ आचार्यम्-उक्तस्वरूपम्, उपलक्षणत्वादुपाध्यायादिकंमपिकुपितम्- | इति सकोपमनुशासनोदासीनताभिः, 'पुरिसजाए वितहा, विणीयविण- | यम्मि णऽत्थि अभिओगो / सेसम्मि उ अभिओगो, जणवयजाए जहा आसे / / 1 / / ' इत्यागमात्, कृतबहिष्कोपं वा दृष्टयप्रदानादिना ज्ञात्वाअवगम्य पत्तिएणं ति आर्षत्वात्प्रतीतिः प्रयोजनमस्येतिप्रातीतिकशपथादि, अपिशब्दस्य चेहलुप्तनिर्दिष्टत्वात् तेनापि प्रसादयेत्। इदमुक्तं भवति-गुरुकोपहेतु कमबोध्याशातनामुक्त्यभावादिकं विगणयन् यया तया गत्या तत्प्रसादनमेवोत्पादयेत्, सर्वमपि वा प्रतीत्युत्पादकं वचः प्रातीतिकं तेन प्रसादयेत्, यद्वा- 'पत्तिएणं' ति प्रीत्या साम्नैव, न भेददण्डाद्युपदर्शनेन, एतदेवाह- विध्यापयेत्- कथञ्चिदुदीरितकोपानलानप्युपशमयेत्, प्रकर्षण-अन्तःप्रीत्यात्मकेन कृतो-विहितोऽञ्जलिः उभयकरमीलनात्मकोऽनेनेति प्रकृताञ्जलिः, प्राकृतत्वाच्च कृतशब्दस्य परनिपातः, प्रकृष्टं वा-भावान्विततयाऽञ्जलिपुटमस्येति प्राञ्जलिपुटः। इत्थं कायिकं मानसं च विध्यापनोपायमभिधाय वाचिकं वक्तुमाह- वदेत्-ब्रूयात् न पुनरिति, चशब्दो भिन्नक्रमः, वदेदित्यस्यानन्तरं द्रष्टव्यः, ततोऽयमर्थः-कथञ्चित् कृतकोपानपि गुरून् विध्यापयन् वदेत् यथा--भगवन् ! प्रमादाचरितमिदं मम क्षमितव्यम्, न पुनरित्थमा-चरिष्यामीति सूत्रार्थः॥४१॥ साम्प्रतं यथा निरपवादतयाऽऽचार्यकोप एव न स्यात्, तथाऽऽहधम्मज्जियं च ववहार, बुद्धे हाऽऽयरियं सया। तमायरंतो ववहारं, गरहं नाभिगच्छह // 42 // धर्मेण-क्षान्त्यादिरूपेणार्जितम्-उपार्जितं धर्मार्जितं, नहि क्षान्त्यादिधर्मविरहित इमं प्राप्नोतीति, चः-पूरणेविविधं विधि-वद्वाऽवहरणमनेकार्थत्वाद्वाचरणं व्यवहारस्तं यतिकर्तव्यतारूपं, बुद्धैः-अवगततत्त्वैः आचरितं, सदा-सर्वकालम्, 'त' मिति सदावस्थिततया प्रतीतमेव आचरन्-व्यवहरन्, यद्वा यत्तदोनित्याभिसम्बन्धात् सुब्ब्यत्ययाच्च धर्मार्जितो बुद्धराचरितश्च यो व्यवहारस्तमाचरन् कुर्वन, विशेषेणापहरति पापकर्मेति व्यवहारस्तंव्यवहारविशेषणमेतत्, एवं च किमित्याह-गर्हाम्अविनीतोऽयमित्येवंविधां निन्दा नाभिगच्छति-न प्राप्नोति, यतिरिति गम्यते / यद्वा-आचार्यविनयमनेनाह, तत्र धर्मादनपेतो धो-न धर्माति-क्रान्तः, 'जियं ववहारं' ति प्राकृतत्वाचास्य भिन्नक्रमत्वाञ्जीतव्यवहारश्च, अनेन चागमादिव्यवहारव्यवच्छेदमाह-अत एव बुद्धःआचार्यैराचरितः सदा-सर्वकालं त्रिकालविषयत्वात् जीतव्यवहारस्यय एवंविधो व्यवहारस्तं व्यवहार-प्रमादात् स्खलितादौ प्रायश्चित्तदानरूप- . माचरन् गाँदण्डरुचिरयं निघृणो वेत्येवंरूपां जुगुप्सां नाभिगच्छति, आचार्या इति शेषः, न चायं निजक उपकारी वा मम विनेय इति न दण्डनीय इतिज्ञापनार्थं चधर्म्यजीतविशेषणम्। पठन्ति च-'तमायरंतो मेहावि' त्ति सुगममेवेति सूत्रार्थः।।४।। किंबहुना?मणोगयं वक्तगयं,जाणित्ताऽऽयरियस्सउ। तं परिगिज्झ वायाए, कम्मुणा उववायए।।१३।।
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________________ विणय ११६७-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विणय मनसि-चेतसि गतम् स्थितं मनोगतंतथा वाक्ये वचनरचनात्मनि गतं वाक्यगतं, कृत्यमिति शेषः, वाक्यग्रहणं तु पदस्यापरिसमाप्तार्थाभिधायित्वेन क्वचिदप्रयोजकत्वात्, ज्ञात्वा-अवबुध्य आचार्यस्यविनयार्हस्य गुरो,तुशब्दः कायगतकृत्यपरिग्रहार्थः, तत्-मनोगतादि परिगृह्य-अङ्गीकृत्य वाचा वचसः इदमित्थं करोमि इत्यात्मकेन कर्मणाक्रियया तन्निर्वर्तनात्मिकया तदुपपादयेत्-विदधीत, पठन्ति च 'मणोरुई वक्करुई, जाणित्ताऽऽयरियस्स उ' अत्र च-मनसि रुचिः-अभिलाषस्तामाचार्यस्य ज्ञात्वा-इदम-मीषां भगवतामभिमतमित्यवगम्य,वाक्ये रुचिः-पर्यवसितकार्यवाञ्छा तां च, शेष प्राग्वत्, अनेन सूक्ष्मो विनय उक्त इति सूत्रार्थः / / 43 // सचैवं विनीतविनयतया यादृक् स्यात्तदाहवित्ते अचोइए निचं, खिप्पं हवइ सुचोयए। जहोवइलु सुकडं, किचाई कुव्वई सया॥४४॥ वित्ते इति--विनीतविनयतयैव सकलगुणाश्रयतया प्रतीतः प्रसिद्ध इति यावत्, 'अचोइए' त्ति यथाहि बलवद्विनीतधुर्यः प्रतोदोत्क्षेपमपि न सहते, कुतस्तन्निपतनम्? एवमयमप्यचोदित एव प्रतिप्रस्तावं गुरुकृत्येषु प्रवर्तत इति, कुतःप्रेरितत्वमस्य? नित्यम्-सदा न कदाचिदेव, स्वयं प्रवर्तमानोऽपि प्रेरितोऽनुशय-वानपि स्यादिति कदा शङ्कापनोदायाहक्षिप्रम्-इति शीघ्रं भवति 'सुचोयए' त्ति शोभने प्रेरयितरि, गुराविति गम्यते, सोपस्कारत्वाच क्षिप्रमेव प्रेरके सति कृत्येषु वर्तते, नानुशयतो विलम्बितमेव, पठ्यते च--'वित्ते अचोइए खिप्पं, पसन्ने थामधं करे' इति, अत्र च–प्रसन्नः-प्रसत्तिमान्, नाहमाज्ञापित इत्यप्रसन्नो भवति, किन्तु ममायमनुग्रह इति मन्यते, क्षिप्रमेव च तत्कुरुते, 'थामवं' ति स्थामबलं तद्वान्। किमुक्तं भवति? सति बले करोति, असति च सद्भावमेवाऽऽख्याति, यथाऽहमनेन कारणेन न शक्नोमीति / क्षिप्रमपि कुर्वन् कदाचिद्विपरीतमर्धविहितंवा विदध्यात्तद्व्यवच्छेदायाह-यथो-पदिष्टम्उपदिष्टानतिक्रमेण सुकृतम्-सुष्ठ परिपूर्णं कृतं यथा भवत्येवं कृत्यानि करोति-निवर्तयति, सदा सता वा शोभनेन प्रकारेणेति सूत्रार्थः / / 44|| सम्प्रत्युपसंहर्तुमाहणचा णमइ मेहावी, लोए कित्ती य जायइ। किचाणं सरणं होइ, भूयाणं जगई जहा।।५।। ज्ञात्वा अनन्तरमखिलमध्ययनार्थमवगम्य नमति तत्कृत्यकरणं प्रति प्रह्लीभवति मेधावी-एतदध्ययनार्थावधारणशक्तिमान् मर्यादावर्ती वा, तद्गुणं वक्तुमाह- लोकेकीर्तिः सुलब्धमस्य जन्म निस्तीर्णरूपो भवोदधिरनेनेत्यादिका श्लाघा चशब्दाः-'एकदिग्व्यापिनी कीर्तिः, सर्वदिग्व्यापकं यशः' इति प्रसिद्धेर्यशश्चेति समुच्चिनोति, उभयमपि प्रक्रमानन्तुरेव जायते-प्रादुर्भवति, स एव भवति, कृत्यानाम्-उचितानुठानानां कलुषान्तःकरणवृत्तिभिरविनीतविनयैरतिदूरमुत्सादितानां शरणम् आश्रय इत्यर्थः / केषां केद?भूतानाम्-प्राणिनां जगतीपृथ्वी यथेति सूत्रार्थः / / 45 // ननु विनयः पूज्यप्रसादनफलः ततोऽपि च किमवाप्यत इत्याहपुजा जस्स पसीयंति, संबुद्धापुटवसंथुया। पसन्नालंभइस्संति, विउलं अहिअंसुयं // 46|| पूजयितुमर्हाः-पूज्या-आचार्यादयःयस्य इति-विवक्षितशिष्योपदर्शकं सर्वनाम प्रसीदन्ति-तुष्यन्ति सम्बुद्धाः-सम्यगवगतवस्तुतत्त्वाः, (उत्त०) (पूर्वसंस्तुतपदव्याख्या 'पुष्वसंथुय' शब्दे पञ्चमभागे 1064 पृष्ठे गता।) शेषविनयोपलक्षणमेतत् प्रसन्ना इति-सप्रसादाः, पठ्यतेचसंपन्नाः ज्ञानादिगुणपरिपूर्णाः सम्यग्-अविपरीताः प्रज्ञा येषां ते सत्प्रज्ञा वा, लम्भयिष्यन्ति-प्रापयिष्यन्ति, किमित्याह-विपुलम्-विस्तीर्णम् अर्यत इति अर्थोमोक्षः सप्रयोजनमस्येत्यार्थिक, तदस्य"प्रयोजनम्" (पा०५-१-१०६) इति ठक्, अथवा-अर्थःसएव प्रयोजनरूपोऽस्यास्तीत्यार्थिकः,"अत इनिठनौ''पा० (5-2-115) इतिठन, श्रुतम्अङ्गोपाङ्गप्रकीर्णकादिभेदमागम, न तु हरिहरहिरण्यगर्भादिवत् साक्षात् स्वर्गादिकम्, अनेन पूज्यप्रसादस्यानन्तरफलं श्रुतमुक्तम्, व्यवहितफलं तु मुक्तिरिति सूत्रार्थः / / 46|| सम्प्रति श्रुतावाप्तौ तस्यैहिकफलमाहस पुजसत्थे सुविनीयसंसए, मणोरुई चिट्ठा कम्मसंपया। तवोसमायारिसमाहिसंवुडे, महज्जुई पंचवयाई पालिया // 47 // स इति-शिष्यः प्रसादितगुरोरधिगतश्रुतः पूज्यं-सकलजनश्लाधादिना पूजाहं शास्त्रमस्येति पूज्यशास्त्रः, विनीतस्य हिशास्वं सर्वत्र विशेषेण पूज्यते, यदि वा-प्राकृतत्वात् पूज्यः शास्ता गुरु–रस्येति पूज्यशास्तृकः, विनीतो हि विनेयः शास्तारं पूज्यमपि विशेषतः पूजा प्रापयति, अथवा-पूज्यश्चासौ शस्तश्च सर्वत्र प्रशंसास्पदत्वेन पूज्यशस्तः सुष्ठ-अतिशयेन विनीतःअपनीतःप्रसादितगुरुणैव शास्त्रपरमार्थसमपणन संशयो-दोलायमानमानसात्मकोऽस्येति सुविनीतसंशयः, सुविनीता वा संसत् परिषदस्येति सुविनीतसंसत्कः, विनीतस्य हि स्वयमतिशयविनीतैव परिषद्भवति, 'मणोरुइ' त्ति मनसः-चेतसः प्रस्तावाद् गुरुसम्बन्धिनी रुचिः-प्रतिभासोऽस्मिन्निति मनोरुचिः, तिष्ठतिआसते, विनयाधिगतशास्त्रो हि न कथञ्चिद्गुरूणामप्रीतिहेतुरिति। तथा 'कम्मसंपय' त्ति कर्म-क्रिया दशविधचक्रवालसामाचारीप्रभृतिरितिकर्तव्यता तस्याः सम्पत् सम्पन्नता तया, लक्षणे तृतीया, ततः कर्मसम्पदोपलक्षितस्तिष्ठतीति सम्बन्धः, हेतौ वा तृतीया, मनोरुचित्वापेक्षया चहेतुत्वम्।अथवा-मनोरुचितेव मनोरुचिता, तिष्ठति-आस्ते कर्मणांज्ञानावरणादीनां सम्पद्-उदयोदीरणादिरूपा विभूति:-कर्मसम्पद्, " अस्येति गम्यतेतदुच्छेदशक्तियुक्ततया अस्य प्रतिभासमानतयेवतत्स्थि
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________________ विणय 1168 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विणय तेरुपलक्ष्यमाणत्वात्, पठ्यते च- 'मणोरुइ' ति तत्र मनसो रुचिः-- अभिलाषो यस्मिस्तन्मनोरुचिस्वप्रतिभासानुरूपं यथा भवत्येवं तिष्ठति, कया? कर्मसंपदायत्यनुष्ठानमाहात्म्यसमुत्पन्नपुलाकादिलब्धिसम्पत्त्या, पठन्ति च-'मणोरुई चिट्ठइ कम्मसंपयं तत्र चमनोरुचितफलसम्पादकत्वेन मनोरुचितां कर्मसम्पदं शुभप्रकृतिरूपाम् अनुभवन्निति शेषः, नागार्जुनीयास्तु पठन्ति-'मणिच्छियं संपयमुत्तमंगय' त्ति, इह च संपदं यथाख्यातचारित्रसंपदम्, अन्यत् सुगममेव, तपसः-अनशनाद्यात्मकस्य सामाचारीति-समाचरणम्, यद्वा--तपश्च सामाचारी च न्यक्षतो वक्ष्यमाणस्वरूपा समाधिश्च-चेतसःस्वास्थ्यं तैः संवृतः निरुद्धाश्रवः तपस्सामाचारीसमाधिसंवृतः,यद्वा-तपस्सामाचारीसमाधिभिः संवृतं संवरणं यस्य स तथाविधः, महती द्युतिः-तपोदीप्तिस्तेजोलेश्या वाऽस्येति महाद्युतिः, भवतीति गम्यते, किं कृत्वेत्याहपञ्चव्रतानि-प्राणातिपातविरमणादीनि, पालयित्वानिरतिचारं संस्पृश्येति सूत्रार्थः।।४७|| पुनरस्यैवैहिकमामुष्मिकं च फलं विशेषेणाहस देवगंधवमणुस्सपूहए, चइत्तु देहं मलपंकपुय्वयं / सिद्धे वा हवइ सासए, देवे वाऽप्परए महिड्डिए॥४८|| त्ति बेमि। स-तादृग विनीतविनयः,देवैः-वैमानिकज्योतिष्कैः गन्धर्वैश्व गन्धर्वनिकायोपलक्षितैय॑न्तरभुवनपतिभिः मनुष्यैश्चमहाराजाधिराजप्रभृतिभिः पूजितः-अर्चितो देवगन्धर्वमनुष्यपूजितः, त्यक्त्वा अपहाय देह-शरीरम्-'मलपंकपुव्वयं' तिजीवशुद्ध्यपहारितया मलवन्मलः स चासौ 'पावे वजे वेरे पंके पणए य' तिवचनात् पङ्कश्च कर्ममलपङ्कः स पूर्वकार्यात् प्रथमभावितया कारणमस्येति मलपङ्कपूर्वकम्, यद्वा-'माओउयं पिऊसुक्कं' ति वचनात् रक्तशुक्रे एव मलपङ्कौ तत्पूर्वकं, सिद्धो वानिष्ठितार्थो वा भवति--जायते शास्वतः-सर्वकालावस्थायी, न तु परपरिकल्पिततीर्थनिकारादिकारणतःपुनरिहागमवानशाश्वतः, सावशेषकर्मवास्तुदेवो वा भवति, अप्परए ति अल्पमिति अविद्यमानं रतमिति-क्रीडितं मोहनीयकर्मोदयजनितमस्येति अल्परतो-लवसप्तमादिः, अल्परजा वा प्रतनुबध्यमानकर्मा, महती-महाप्रमाणा प्रशस्या वा ऋद्धिः-चक्रवर्तिनमपि योधयेत् इत्यादिका विकरण-शक्तिःतृणाग्रादपि हिरण्यकोटिरित्यादिरूपा वा समृद्धिरस्येति महर्द्धिकः, देवविशेषणं वा,इतिः-परिसमाप्तावेवमर्थे वा एतावद्विनयश्रुतमनेन वा प्रकारेण 'ब्रवीमि' इति गणभृदादिगुरूपदेशतः, न तु स्वोत्पेक्षया इति सूत्रार्थः // 48 // उक्तोऽनुगमः। उत्त० पाई० 110 / साम्प्रतं सूत्रालापकनिष्पन्नस्यावसर इत्यादि चर्चः पूर्ववत् तावद्यावत्सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगु णोपेतं सूत्रमुच्चारणीयं, तच्चदम्थंभा व कोहा व मयप्पमाया, गुरुस्सगासे विणयं न सिक्खे। सो चेव ऊ तस्स अभूइभावो, फलं व कीअस्स वहाय होइ / / 1 / / 'भा व त्ति, अस्य व्याख्या-स्तम्भाद्वा मानाद्वा जात्यादिनिमित्तात् क्रोधाद्वा अक्षान्तिलक्षणात् मायाप्रमादादिति मायातो-निकृतिरूपायाः प्रमादाद् निद्रादेः सकाशात्, किमित्याह-गुरोः सकाशे-आचार्यादेः समीपे विनयम-आसेवनाशिक्षाभेदभिन्नं न शिक्षते-नोपादत्ते, तत्र स्तम्भात्कथमहं ज्ञात्यादिमान् जात्या-दिहीनसकाशे शिक्षामीति, एवं क्रोधात्वचिद्वितथकरणचोदितोरोषाद्वा, मायातःशूलं मे क्रियत इत्यादिव्याजेन, प्रमादात्प्रक्रान्तोचितमनवबुध्यमानो निद्रादिव्यासङ्गेन, स्तम्भादिक्रमोपन्यासश्चेत्थमेवामीषां विनयविघ्नहेतुतामाश्रित्य प्राधान्यख्यापनार्थः। तदेवं स्तम्भादिभ्यो गुरोः सकाशे विनयं न शिक्षते, अन्ये तु पठन्ति-गुरोः सकाशे विनयेन तिष्ठति-विनयेन वर्तते; विनयं नासेवत इत्यर्थः / इह च ‘स एव तु स्तम्भादिः' विनयशिक्षाविघ्नहेतुः तस्य जडमतेः अभूतिभाव इति-अभूतेर्भावोऽभूतिभाव; असंपद्भाव इत्यर्थः, किमित्याह-वधाय भवति--गुणलक्षणभावप्राणविनाशाय भवति / दृष्टान्तमाह-फलमिव कीचकस्यकीचको वंशस्तस्य यथा फलं वधाय भवति, सति तस्मिस्तस्य विनाशात् तद्वदिति सूत्रार्थः // 1 // जे आवि मंदि त्ति गुरुं विइत्ता, डहरे इमे अप्पसुअ त्ति नच्चा। हीलंति पिच्छं पडिवजमाणा, करति आसायण ते गुरूणं // 2 पगईइ मंदावि भवंति एगे, डहरावि(अ)जे सुअबुद्धोववेआ। आयारमंतो गुणसुटिअप्पा, जे हीलिआ सिहिरिव भासकुन्जा // 3 // जे आवि नागं डहरंति नचा, आसायए से अहिआय होइ। एवायरिअंपि हु हीलयंतो, निअच्छई जाइ पहं खु मंदो // 4 // आसीविसो वावि परं सुरुट्ठो, कि जीवनासाउ परं नु कुजा?। आयरिअप्पाया पुण अप्पसन्ना, अबोहिआसायण नत्थि मुक्खो॥५॥ जो पावगंजलिअमवक्कमिला, आसीविसं वा विहु कोवइजा। जो वा विसं खायइजीविअट्ठी, एसेवमाऽऽसायणया गुरूणं // 6| सिआ हु से पावय नो डहिज्जा, आसीविसो वा कुविओ न भक्खे।
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________________ विणय 1166 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विणय सिआ विसं हालहलं न मारे, न आवि मुक्खो गुरुहीलणाए // 7 // जो पय्वयं सिरसा भित्तुमिच्छे, सुत्तं व सीह पडिबोहइजा। जो वा दए सत्तिअग्गे पहारं, एसोवमाऽऽसायणया गुरूणं // 8 // सिआ दुसीसेण गिरि पि भिंदे, सिआ हु सीहो कुविओ न भक्खे। सिआन मिंदिजस सत्तिअग्गं, न आवि मुक्खो गुरुहीलणाए| आयरिअपाया पुण अप्पसना, अबोहिआसायण नत्थि मुक्खो। अम्हा अणाबाहसुहामिकंखी, गुरुप्पसायाभिमुहो रमिजा॥१०॥ किंच-'जे आवि' ति सूत्रं, ये चापि केचन द्रव्यसाधवोऽगम्भीराः, किमित्याह-'मन्द इति गुरुं विदित्वा' क्षयोपशमवैचित्र्यात्तन्त्रयुक्त्यालोचनाऽसमर्थः सत्प्रज्ञाविकल इति स्वमाचार्यं ज्ञात्वा तथा कारणान्तरस्थापितमप्राप्तवयसम्डहरोऽयम्-अप्राप्तवयाः खल्वयं, तथा 'अल्पश्रुत' इत्यनधीतागम इति विज्ञाय, किमित्याह-हीलयन्तिसूयया असूयया वा खिंसयन्ति, सूयया-अतिप्रज्ञस्त्वं वयोवृद्धो बहुश्रुत इति, असूयया तु-भन्दप्रज्ञस्त्वमित्याद्यभिदधति, मिथ्यात्वं प्रतिपद्यमाना' इति गुरुनहीलनीय इति तत्त्वमन्यथाऽवगच्छन्तः कुर्वन्ति आशातनांलघुतापादनरूपांते-द्रव्यसाधवः गुरूणाम्-आचार्याणां तत्स्थापनाया अबहुमानेन एकगुर्वाशातनायां सर्वेषामाशातनेति बहुवचनम्, अथवा-कुर्वन्ति आशातनाम्-स्वसम्यग्दर्शनादिभावापहासरूपां ते गुरूणां संबन्धिनी, तन्निमित्तत्वादिति सूत्रार्थः / / 2 / / अतो न कार्या | हीलनेति, आह च-"पगइति सूत्रं, प्रकृत्यास्वभावेन कमवैचित्र्यात्, मन्दर अपि-सद्बुद्धिरहिता अपि भवन्ति एकेकेचन वयोवृद्धर अपि, तथा डहराः, अपि च-अपरिणता, अपि च-दसाऽन्येऽमन्दा भवन्तीति वाक्यशेषः / किं विशिष्टा? इत्याह- ये च श्रुतबुद्ध्युपपेताः, तथा सत्प्रज्ञावन्त श्रुतन बुद्धिभावना, भविनों वृत्तिमाश्रित्याल्पश्रुता झीत. सर्वथा आचारवन्तो-ज्ञानाद्याचारसमन्विताः गुणसुस्थिता-त्मानोगुणेषु-संग्रहोपग्रहादिषु सुष्टु-भावसारं स्थित-आत्मा येषां ते तथाविधा न हीलनीयाः, ये हीलिताः-खिंसिताः शिखीव-अग्निरिवेन्धनसंघातं भस्मसात्कुर्यु:-ज्ञानादिगुणसंधातमपनयेयुरितिसूत्रार्थः / / 3 / / विशेषेण डहरहीलनादोषमाह- 'जे आवि' त्ति सूत्रम्, यश्चापि कश्चिदज्ञो नागसर्प डहर इति-बाल इति ज्ञात्वा-विज्ञाय आशातयति-किलिञ्चादिना कदर्थयति स--कदीमानो नागः 'से' तस्य कदर्थकस्य अहिताय | भवति-भक्षणेण प्राणनाशाय भवति, एष दृष्टान्तः / अयमर्थोपनयःएवमाचार्यमपि कारणतोऽपरिणतमेव स्थापितंहीलय निर्गच्छति जातिपन्थानम्-दीन्द्रि-यादिजातिमार्ग मन्दः-अज्ञः, संसारे परिभ्रमतीति सूत्रार्थः // 4 // अत्रैव दृष्टान्तदान्तिकयोमहदन्तरमित्येतदाह-'आसि' त्ति सूत्रं, 'आशीविषश्चापि' सर्पोऽपि परंसुरुष्टः-सुक्रुद्धः सन् किंजीवितनाशात्- मृत्योः परं कुर्यात्? न किंचिदपीत्यर्थः, आचार्यपादाः पुनः अप्रसन्ना-हीलनया अननुग्रहे प्रवृत्ताः, किं कुर्वन्तीत्याह- अबोधिम्निमित्तहेतुत्वेन मिथ्यात्वसंहतिं, तदाशातनया मिथ्यात्वबन्धात्, यतश्चैवमत आशातनया गुरोर्नास्ति मोक्ष इति, अबोधिसन्तानानुबन्धेनानन्ससंसारिकत्वादिति सूत्रार्थः / / 5 / / किंच-'जो पावगं' ति सूत्रं, यः पावकम्-अग्नि ज्वलितं सन्तम् 'अपक्रामेद्' अवष्टभ्य तिष्ठति, 'आशीविषं वापि हि-भुजङ्गमं वापि हि कोपयेत्-रोषं ग्राहयेत्, यो वा विषं खादति जीवितार्थी-जीवि-तुकामः, एषोपमाअपायप्राप्तिं प्रत्येतदुपमानम्, आशातनया कृतया गुरूणां संबन्धिन्या तद्वदपायो भवतीति सूत्रार्थः // 6 // अत्र विशेषमाह-'सिआ हुत्ति सूत्रं, स्यात्-कदाचिन्मन्त्रादिप्रतिबन्धादसौ पावकः-अग्निः न दहेत्-न भस्मसात्कुर्यात्, आशीविषोया-भुजङ्गोवा कुपितो न भक्षयेत्-नखादयेत्, तथा स्यात्कदाचिन्मन्त्रादिप्रतिबन्धादेव विषम्-हालाहलम् अतिरौद्रंन मारयेत्न प्राणांस्त्याजयेत्, एवमेतत्कदाचिद्भवति न चापि मोक्षो गुरुहीलनयागुरोराशातनया कृतया भवतीतिसूत्रार्थः // 7 // किं-च- 'जो पव्वयं' ति सूत्रं, यः पर्वतं शिरसा उत्तमाङ्गेन भेत्तुमिच्छेत्, सुप्तं वा सिंह गिरिगुहायां प्रतिबोधयेत्, यो वा ददाति शक्त्यग्रे प्रहरणविशेषाग्रे प्रहारं हस्तेन, एषोपमाऽऽशातनया गुरूणामिति पूर्ववदेवेति सूत्रार्थः / / 8 / / अत्र विशेषमाह-'सिआहुत्ति सूत्रम्, स्यात्-कदा चित्कश्चिद्वासुदेवादिः प्रभावातिशयाच्छिरसा गिरिमपि पर्वतमपि भिन्द्यात्, स्यान्मन्त्रादिसामर्थ्यात्सिहः कुपितोनभक्षयेत्, स्याद्देवतानुग्रहादेर्न भिन्द्याद्वा शक्त्यग्रं प्रहारे दत्तेऽपि, एवमेतत्कदाचिद्रवति, न चापि मोक्षो गुरुहीलनया-गुरोराशातनया भवतीति सूत्रार्थः / / 6 / / एवं पावकाद्याशातनाया गुर्वाशातना महतीत्यतिशयप्रदर्शनार्थमाह- 'आयरिअ' त्ति सूत्रम्, आचार्यपादाः पुनरप्रसन्ना इत्यादि पूर्वाध पूर्ववत्, यस्मादेवं तस्माद् अन्राबाधसुखाभिकरणारमोक्षसुखाभिलाषी साधुः गुरुप्रसादाभिमुखआचादिप्रसाद उद्युक्तः सात-द: इति सूत्रार्थ उहाहिती जलप नमसे, नाणाहुईमंतपयामिसित्तं। एवायरिअंउदचिट्ठइजा, अणंतनाणोवगओऽवि संतो॥११॥ जस्संतिए धम्मपयाई सिक्खे, तस्संतिए वेणइयं पउंजे। सकारए सिरसा पंजलीओ,
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________________ विणय - 1170 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विणय कायग्गिरा भो मणसा अनिचं // 12 // लज्जा दया संजम बंभचेरं, कल्लाणभागिस्स विसोहिठाणं। जे मे गुरू सययमणुसासयंति, तेऽहं गुरू सययं पूअयामि // 13 // जहा निसंते तवणचिमाली, . पमासई केवलमारहं तु। एवायरिओ सुअसीलबुद्धिए, विरायई सुरमज्ञ व इंदो // 14 // जहा ससी कोमुइजोगजुत्तो, णक्खत्ततारागणपरिवुडप्या। खे सोहई विमले अब्भमुक्के, एवं गणी सोहइ भिक्खुमज्झे / / 1 / / महागरा आयरिआमहेसी, समाहिजोगे सुअसीलबुद्धिए। संपाविउकामे अणुत्तराई, आराहए तोसइ धम्मकामी||१६|| सुच्चा ण मेहावी सुभासिआई, सुस्सूसए आयरिअप्पमत्तों। आराहइत्ता ण गुणे अणेगे, से पावई सिद्धिमणुत्तरं ति॥१७॥ बेमि। केन प्रकारेणेत्याह- 'जहा हि अग्गि' ति सूत्रम्, यथा आहितानिःकृतावसथादिर्ब्राह्मणो ज्वलनम्-अग्निं नमस्यति, किं विशिष्टमित्याहनानाहुतिमन्त्रपदाभिषिक्तम्-तत्राहुतयो-घृत-प्रक्षेपादिलक्षणा मन्त्र-. पदानि-अग्नये स्वाहेत्येवमादीनि तैरभिषिक्तं-दीक्षासंस्कृतमित्यर्थः, एवम्-अनिमिवाचार्यम् उपतिष्ठत्-विनयेन सेवेत। किं विशिष्ट इत्याह'अनन्तज्ञानोपगतोऽपी' ति अनन्तं स्वपरपर्यायापेक्षया वस्तु ज्ञायते येन तदनन्तज्ञानं तदुपगतोऽपि सन्, किमङ्ग ! पुनरस्य इति सूत्रार्थः // 1 // एतदेव स्पष्टयति-'जस्स' त्ति सूत्रम्, यस्यान्तिकेयस्य समीपे धर्मपदानिधर्मफलानि सिद्धान्तपदानि शिक्षेत-आदद्यत् तस्यान्तिके-- तत्समीपे किमित्याह-वैनयिकं प्रयुञ्जीत-विनय एव वैनयिकं तत्कुर्यादिति भावः / कथमित्याह-सत्कारयेदभ्युत्थाना-दिनापूर्वोक्तेन शिरसा-उत्तमाङ्गेन प्राञ्जलिः-प्रोद्गताञ्जलिः सन् कायेनदेहेन गिरावाचा मस्तकेन वन्दे इत्यादिरूपया भो' इति शिष्यामन्त्रणं मनसा'च' भावप्रतिबन्धरूपेण नित्यं-सदैव सत्कारयेत, न तु सूत्रग्रहणकाल एव, कुशलानुबन्धव्यवच्छेदप्रसङ्गादिति सूत्रार्थः / / 12 / / एवं च मनसि कुर्यादित्याह-'लज्जादय' त्ति सूत्रम्, लज्जा-अपवादभयरूपा दयाअनुकम्पा संयमः पृथिव्यादिजीवविषयः ब्रह्मचर्यम्-विशुद्धतपोऽनुष्ठानम्, एतल्लज्जादिविपक्षव्यावृत्त्या कुशलपक्षप्रवर्तकत्वे कल्याणभागिनो जीवस्य विशोधिस्थानम्-कर्ममलापनयनस्थानं वर्तते, अनेन ये मां गुरवः-आचार्याः सततम्-अनवरतम् अनुशासयन्ति-कल्याणयोग्यता नयन्ति तानहमेवभूतान् गुरून् सततं पूजयामि, न तेभ्योऽन्यः पूजार्ह इति सूत्रार्थः / / 13 / / इतश्चैते पूज्या इत्याह-'जह' त्ति सूत्रम्, यथा निशान्ते-रत्र्यवसाने; दिवस इत्यर्थः तपन अर्चिाली-सूर्यः प्रभासयति-उद्योतयति केवलम्-संपूर्ण भारतम्-भरतक्षेत्रं, तुशब्दादन्यच क्रमेण एवम्-अर्चिालीवाऽऽचार्यः श्रुतेन-आगमेन शीलेनपरद्रोहविरतिरूपेण बुद्ध्या च स्वाभाविक्या युक्तः सन् प्रकाशयति जीवादिभावानिति। एवंचवर्तमानः सुसाधुभिः परिवृतो विराजतेसुरमध्ये इव-सामानिकादिमध्यगत इव इन्द्रः इति सूत्रार्थः / / 14 // किंच-'जह' त्ति सूत्रम्, यथा शशीचन्द्रः कौमुदीयोगयुक्तः कार्तिकपौर्णमास्यामुदित इत्यर्थः स एव विशेष्यते-नक्षत्रतारागणपरिवृतात्मा-नक्षत्रादिभिर्युक्त इति भावः, खे-आकाशे शोभते / किं विशिष्ट खे? विमलेऽभ्रमुक्ते अभ्रमुक्त मेवात्यन्तं विमलं (तत्) भवतीति ख्यापनार्थमेतत्, एवचन्द्र इव गणी-(तत्) आचार्यः शोभते भिक्षुमध्ये साधुमध्ये, अतोऽयं महत्त्वात्पूज्य इति सूत्रार्थः / / 15 / / किंच-'महागर' त्ति सूत्रम्, महाकरा ज्ञानादिभावरत्नापेक्षया आचार्या महैषिणो-मोक्षैषिणः, कथं महैषिण इत्याह-समाधियोगश्रुतशीलबुद्धिभिः-समाधियोगैः ध्यानविशेषैः श्रुतेन-द्वादशाङ्गाभ्यासेन शीलेन-परद्रोहविरतिरूपेण बुद्ध्या च औत्पत्तिक्यादिरूपया अन्ये तु व्याचक्षते-समाधियोगश्रुतशीलबुद्धीनां महाकरा इति। तानेवभूतानाचार्यान् संप्राप्तुकामोऽनुत्तराणि ज्ञानादीनि आराधयेद्विनयकरणेन सकृदेव, अपितु-तोषयेद्-असकृत्करणेन तोष ग्राहयेत् धर्मकामो निर्जरार्थं , न तु ज्ञानादिफलापेक्षयाऽपीति सूत्रार्थः |16|| 'सोच्चा ण' त्ति सूत्रम्, श्रुत्वा मेधावी सुभाषितानि गुर्वाराधनफलाभिधायीनि, किमित्याह-शुश्रूषयेदाचार्यान् अप्रमत्तो-निद्रादिरहितस्तदाज्ञां कुर्वीतेत्यर्थः, य एवं गुरुशुश्रूषापरः स आराध्य गुणान्अनेकान् ज्ञानादीन् प्राप्नाति सिद्धिमनुत्तरां मुक्तिमित्यर्थः, अनन्तरं सुकुलादिपरम्परया वा ब्रवीमीति पूर्ववदयं सूत्रार्थः / / 17 / / दश०६ अ०१3० मूलाउ खंधप्पभवो दुमस्स, खंधाउ पच्छा समुविंति साहा। साहप्पसाहा विरुहंति पत्ता। तओ सि पुष्पं च फलं रसो अ॥१॥ एवं धम्मस्स विणओ, मूलं परमो से मुक्खो। जेण कित्तिं सुअंसिग्धं,नीसेसंचाभिगच्छह // 2 // विनयाधिकारवानेव द्वितीय उच्यते, तत्रेदमादिमं सूत्रम्-'मूलाउ' इत्यादि, अस्य व्याख्यामूलाद्-आदिप्रबन्धात् स्कन्धप्रभवःस्थुडोत्पादः, कस्येत्याह-बुमस्य-वृक्षस्य ततः-स्कन्धात् सकाशात् पश्चात्--तदनु समुपयान्ति-आत्मानं प्राप्नुवन्त्युत्पद्यन्त इत्यर्थः / कास्ता इत्याह-शाखा:-तद्गुजाकल्पाः, तथा-- शाखाभ्य-उक्तलक्षणाभ्यः प्रशाखास्तदंशभूता विरोहन्ति जा)
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________________ विणय 1171 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विणय षन्ते-तथा तेभ्योऽपि पत्राणि-पर्णानि विरोहन्ति ततः-तदनन्तरं 'से' अनेकार्थत्वादनुभवन्तः आभियोग्यंकर्मकरभावम् उपस्थिताः-प्राप्ता तस्य गुमस्य पुष्पं च फलं चरसश्च फलगत एवैते क्रमेण भवन्तीतिसूत्रार्थः / इति सूत्रार्थः।।५।। एतेष्वेव विनयगुणमाह-'तहेव' त्ति सूत्रम्, तथैवेति॥१॥ एवं दृष्टान्तमभिधाय दार्टान्तिकयोजनामाह- ‘एवं' ति सूत्रम्- तथैवैते सुवि-नीतात्मानः विनयवन्त आत्मज्ञा औपवाह्या राजादीनां एवं-द्रुममूलवत्धर्मस्यपरमकल्पवृक्षस्य विनयो मूलम् आदिप्रबन्धरूपं हया गजा इति पूर्ववत्। एते किमित्याह-दृश्यन्ते--उपलभ्यन्त एव सुखम्'परम' इत्यग्रो रसः 'से' तस्य फलरसवन्मोक्षः, स्कन्धादिकल्पानि तु आह्लादलक्षणम् एधमानाः अनुभवन्तःशुद्धिप्राप्ता इति विशिष्टभूषणालय-- देवलोकगमनसुकुलागमनादीनि, अतो विनयः कर्त्तव्यः किं विशिष्ट / भोजनादिभावतःप्राप्तड़यो महायशसोविख्यातसद्गुणा इति सूत्रार्थः // 6 // इत्याह.. येन-विनयेन कीर्ति-सर्वत्र शुभप्रवादरूपां तथा श्रुतम् एतदेव विनयाऽविनयफलं मनुष्यानधिकृत्याहअङ्गप्रविष्टादि श्लाध्यम्-प्रशंसास्पदभूतं निःशेषम् संपूर्णम् अधिगच्छति- तहेव अविणीअप्पा, लोगम्मि नरनारिओ। प्राप्नोतीति // 2 // दीसंति दुहमेहता, छायाविगलितेंदिआ // 7 // अविनयवतो दोषमाह दंडसत्था परिज्जुन्ना, असम्भवयणेहि अ। जे अचंडे मिए थद्धे, दुव्वाई नियडी सढे। कलुणा विवनच्छंदा,खुप्पिवासाइपरिगया ||8|| वुज्झइ से अविणीअप्पा, कटु सो अययं जहा // 3 // तहेव सुविणीअप्पा, लोगंसि नरनारिओ। विणयं पि जो उवाएणं, चोइओ कुप्पई नरो। दीसंति सुहर्महंता, इड्डि पत्ता महायसा // 9 // दिव्वं सो सिरिमिखंति, दंडेण पडिसेहए|| 'तहेव' त्ति सूत्रम्, तथैव-तिर्यश्च इव अविनीतात्मान इति पूर्ववत् / 'जे अति सूत्र, यः चण्डो-रोषणो मृगः--अज्ञः हितमप्युक्तो रुष्यति लोके अस्मिन्मनुष्यलोके, नरनार्थ इति प्रकटार्थ दृश्यन्ते दुःखमेधमाना तथा स्तब्धो--जात्यादिमदोन्मत्तः दुर्वागाप्रियवक्ता निकृतिमान् इति पूर्ववत्, छाराः (ताः) कसंघातव्रणाङ्कितशरीराः विगलितेन्द्रियाः मायोपेतः शठः-संयमयोगेष्वनादृतः, एभ्यो दोषेभ्यो विनयं न करोति अपनीतनासिकादीन्द्रियाः पारदारिकादय इति सूत्रार्थः // 7 // तथा 'दंड' यः उह्यतेऽसौ पापः संसारस्रोतसा अविनीतात्मासकलकल्याणैक त्ति सूत्रम्, दण्डा:-क्षेत्रदण्डादयः शस्त्राणिखणादीनिताभ्यां परिजीर्णाःनिबन्धनविनयविरहितः / किमिवेत्याह-काष्ठं स्रोतोगनिद्यादिप्रवाह समन्ततो दुर्बलभावमापादिताः तथा'असभ्यवचनैश्च' खरकर्कशादिभिः निपतितं यथा तद्वदिति सूत्रार्थः // 3 // किं च- 'विणयं पी' ति सूत्रम्, परिजीर्णाः,तएवंभूताः सतां करुणाहेतुत्वात्करुणादीना व्यापन्नच्छन्दसः विनयम्-उक्तलक्षणं यः उपायेनापि- एकान्तमृदुभणनादिलक्षणेनापि परायत्ततया अपेतस्वाभिप्रायाः, क्षुधा-बुभुक्षया पिपासयातृषा परिगता-- अपिशब्दस्य व्यवहितः संबन्धः, चोदितः-उक्तः कुप्यतिरुष्यति नरः। व्याता अन्नादिनिरोधस्तोकदानाभ्यामिति, एवमिह लोके प्रागवि नयोपात्तकर्मानुभावतः एवंभूताः परलोके तु कुशलाप्रवृत्तेर्दुःखिततरा अत्र निदर्शनमाह-दिव्याम्-अमानुषीम् असौनरः / श्रियलक्ष्मीम् विज्ञेया इति सूत्रार्थः // 8 // विनयफलमाह-'तहेव' त्ति सूत्रं, तथैवआगच्छन्तीम्-आत 'भवन्तीम् दण्डेन काष्ठमयेन प्रतिषेधयति विनीततिर्यञ्च इव सुविनीतात्मानो लोके अस्मिन्नरनार्यइति पूर्ववत् / निवारयति। एतदुक्तं भवति-विनयःसंपदो निमित्तं, तत्र स्खलितं यदि दृश्यन्ते सुखमेधमानाः शुद्धि प्राप्ता महायशस इति पूर्ववदेव, नवरं कश्चिच्चोदयति स गुणस्तत्रापि / 'करणेन वस्तुतः संपदो निषेधः, स्वाराधितनृपगुरुजना उभयलोकसाफल्यकारिण एत इति सूत्रार्थः / / 6 / / उदाहरणं चात्र दशारादयः कुरूपागतश्रीप्रार्थनाप्रणयभङ्गकारिणस्त एतदेव विनाऽविनयफलं देवानधिकृत्याहद्रहितास्तदभङ्गकारीच तद्युक्तः कृष्ण इति सूत्रार्थः / / 4 / / तहेव अविणीअप्पा, देवा जक्खा अगुज्झगा। __ अविनयदोषोपदर्शनार्थमेवाह दीसंति दुहमेहंता, आमिओगमुवहिआ।॥१०॥ तहेव अविणीअप्पा, उववज्झा हया गया। तहेव सुविणीअप्पा, देवा जक्खा अ गुज्झगा। दीसंतिदुहमेहंता, आमिओगमुवहिआ॥५॥ दीसंति सुहमेहंता, इडिंपत्ता महायसा // 11 // तहेव सुविणीअप्पा, उववज्झा हया गया। 'तहेव' त्ति सूत्रं, तथैव-यथा नरनार्यः अविनीतात्मानोभवान्तरेऽदीसंति सुहमेहता, इडिंपत्ता महायसा॥६|| कृतविनयाः देवा वैमानिका ज्योतिष्का यक्षाश्वव्यन्तराश्च गृह्यकाभवन'तहेव' त्ति सूत्रम्, तथवेति-तथैवेते अविनीतात्मानः-विनयरहिता वासिनः, त एते दृश्यन्ते आगमभावचक्षुषा दुःखमेधमानाः पराज्ञाकरणअनात्मज्ञाः, उपवाह्याना-राजादिवल्लभानामेते कर्मकरा इत्यौपवाह्याः परवृद्धिदर्शनादिना, आभियोग्यमुपस्थिताः अभियोगः-आज्ञाहयाः-अश्वाः गजा-हस्तिनः, उपलक्षणमेतन्महिषकादीनामति / एते प्रदानलक्षणोऽस्यास्तीत्यमियोगी तद्भाव आभियोग्यः कर्मकरभावकिमित्याह-दृश्यन्ते-उपलभ्यन्त एव मन्दुरादौ अविनयदोषेण उभय- मित्यर्थः, उपस्थिताः-प्राप्ता इति सूत्रार्थः // 10 // विनयफलमाह-'तहेव' लोकवर्त्तिना यवसादिवोढारः दुःखम्-संक्लेशलक्षणम् एधयन्तः-- तितथैवेतिपूर्ववत्सुविनीतात्मानोजन्मान्तरकृतविनया निरतिचारधर्माराधका
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________________ विणय 1172 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विणय इत्यर्थः, देव यक्षाश्च गुह्यका इति पूर्ववदेव, दृश्यन्ते सुखमेधमाना अर्हत्कल्याणादिषु, ऋद्धिं प्राप्ता-इति देवाधिपादिप्राप्तर्द्धयो महायसशयो विख्यातसद्गुणा इति सूत्रार्थः / / 11 / / एवं नारकापोहेन व्यवहारतो येषु सुखदुःखसंभवस्तेषु विनया-विनयफलमुक्तम्। अधुना विशेषतो लोकोत्तरविनयफलमाहजे आयरिअउवज्झा-याणं सुस्सूसाँवयणकरा। तेसिं सिक्खा पवखंति, जलसित्ता इव पायवा॥१२॥ अप्पणट्ठा परहावा, सिप्पाणेउणिआणि / गिहिणो उवभोगट्ठा, इहलोगस्स कारणा / / 13 / / जेणं बंधं बहं घोरं, परिआवं च दारुणं। सिक्खमाणा निअच्छंति, जुत्ता ते ललिइंदिआ॥१४॥ तेऽवितं गुरुं पूअंति, तस्स सिप्पस्स कारणा। सकारंति नमसंति, तुद्वा निद्देसवत्तिणो॥१५॥ किं पुणं जे सुअग्गाही, अणंतहिअकामए। आयरिया जं वए भिक्खू तम्हातं नाइवत्तए।१६।। 'जे आयरिअ' त्ति सूत्रं, य आचार्योपाध्याययोः-प्रतीतयोः शुश्रूषावचनकरा-पूजाप्रधानवचनकरणशीलास्तेषांपुण्यभाजां शिक्षाग्रहणासेवनालक्षणा भावार्थरूपाः प्रवर्द्धन्ते-वृद्धिमुपयान्ति दृष्टान्तमाहजलसिक्ता इव पादपावृक्षा इति सूत्रार्थः / / 12 / / एतच्च मनस्याधाय विनयः कार्य इत्याह-आस्मार्थम्- आत्मनिमित्तमनेन मे जीविका भविष्यतीति, एवं परार्थं वा परनिमित्तं वा पुत्रमहमेतद्ग्राहयिष्यामीत्येवं शिल्पानि-कुम्भकार-क्रियादीनि नैपुण्यानि च आलेख्यादिकलालक्षणानि गृहिणः-असंयता उपभोगार्थम् अन्नपानादिभोगाय, शिक्षन्त इति वाक्य-शेषः / इह लोकस्य कारणम्-इह लोकनिमित्तमिति सूत्रार्थः ||13|| येनशिल्पादिना शिक्ष्यमाणेन बन्धं निगडादिभिः बधं कषादिभिः धोरं-रौद्रं परितापं च दारुणम्-एतज्जनितमनिष्टं निर्भर्त्सनादिवचनजनितंच शिक्षमाणा गुरोः सकाशात् नियच्छन्ति-प्राप्नुवन्ति 'युक्ता' इति नियुक्ताः शिल्पादिग्रहणे ते ललितेन्द्रियागर्भेश्वरा राजपुत्रादय इति सूत्रार्थः / / 14 / / तेऽपीत्वरं शिल्पादि शिक्षमाणास्तगुरुं बन्धादिकारकमपि पूजयन्ति सामान्यतो मधुरवचना भिनन्दनेन तस्य शिल्पस्येत्वरस्य कारणात्, तन्निमित्तत्वा दिति भावः। तथा सत्कारयन्ति वस्त्रादिना, नमस्यन्तिअञ्जलिप्रग्रहादिना। तुष्टा-इत्यमुत इदमवाप्यत इति हृष्टानिर्देशवर्त्तिन:-आज्ञाकारिण इति सूत्रार्थः / / 15 / / यदि तावदेतेऽपि तं गुरुं पूजयन्ति अत:--'कि' सूत्र, किं पुनर्यः साधुः श्रुतग्राहीपरमपुरुषप्रणीतागमग्रहणाभिलाषी 'अनन्तहितकामुकः' मोक्षं यः कामयत इत्यभिप्रायः, तेन तु सुतरां गुरवः पूजनीया इति। यतश्चैवमाचार्या यद्दन्ति किमपि तथा तथाऽनेकप्रकारं भिक्षुः-साधुस्तस्मात्तदाचार्यवचनं नातिवर्तेत, युक्तत्वात्सर्वमेव संपादयेदिति सूत्रार्थः // 16 // विनयोपायमाहनीसिजंगई ठाणं, नीअंच आसणाणि अ। नीअंच पाएँ वंदिञ्जा, नीअंकुजाअ अंजलिं // 17 // संघट्टइत्ता काएणं,तहा उवहिणामवि। खमेह अवराह मे, वइज न पुणुत्ति अ॥१८॥ दुग्गओ वा पओएणं, चोइओ वहई रहं। एवं दुब्बुद्धिकिचाणं, वुत्तो वुत्तो पकुव्वई ||16|| (आलवंते लवंते वा, न निसिजाइ पडिस्सुणे। मुत्तूण आसणं धीरो, सुस्सूसाए पडिस्सुणे) कालं छंदोवयारं च, पडिलेहित्ता ण हेउहिं। तेण तेण उवाएणं,तं तं संपडिवावए // 20 // नीचां शय्या-संस्तारकलक्षणामाचार्यशय्यायाः सकाशात्कुर्यादिति योगः, एवं नीचां गतिम् आचार्यगतेः, तत्पृष्ठतो नातिदूरेण नातिद्रुतं यायादित्यर्थः / एवं नीचं स्थानमाचार्यस्थानात्, यत्राचार्य आस्ते तस्मान्नीचतरे स्थाने स्थातव्यमिति भावः / तथा नीधानि लघुतराणि कदाचित्कारणजाते आसनानि पीठकानि तस्मिन्नुपविष्ट तदनुज्ञातः सेवेत, नान्यथा। तथा नीचंच सम्यगवनतोत्तमाङ्गः सन्पादावाचार्यसत्को वन्देत, नावज्ञया / तथा क्वचित्प्रश्रादौ नीचं नम्रकायं कुर्यात्--संपादयेचाञ्जलिं, नतुस्थाणुवस्तब्ध एवेति सूत्रार्थः // 17 // एवं कायविनयमभिधाय वाग्विनयमाह-संघट्टियस्पृष्ट्वा कायेन-देहेन कथञ्चित्तथाविधप्रदेशोपविष्टमाचार्य तथा उपधिनाऽपिकल्पादिना कथञ्चित्संघढ्यं मिथ्यादुष्कृतपुरः सरमभिवन्द्य क्षमस्व-सहस्व अपराधंदोषं में मन्दभाग्यस्यैवं वदेद-ब्रूयात्नपुनरिति च नाहमेनं भूयः करिष्यामीति सूत्रार्थः / / 18|| एतच्च बुद्धिमान् स्वयमेव करोति, तदन्यस्तु कथमित्याह-दुगौरिवगलिबलीववत् प्रतोदेन-आरादण्डलक्षणेन चोदितो-विद्धः सन् वहति-नयति क्वापि रथंप्रतीतम्, एवं-दुर्गोरिद दुर्बुद्धिः-अहितावहबुद्धिः शिष्यः कृत्यानाम्-आचार्यादीनां कृत्यानि वातदभिरुचितकायोणि उक्त उक्तः-पुनः पुनरभिहित इत्यर्थः, प्रकरोतिनिष्पादयति प्रयुङ्क्ते चेति सूत्रार्थः / / 16|| एवं च कृतान्यमूनि न शोभनानीत्यतः (आह)-काल-शरदादिलक्षणं, छन्दः तदिच्छारूपम् उपचारम्-आराधनाप्रकारं, चशब्दाद्देशादिपरिग्रहः, एतत् प्रत्युपेक्ष्य-- ज्ञात्वा हेतुभिः- यथानुरूपैः कारणैः, किमित्याह-तेन तेनोपायेन गृहस्थावर्जनादिना तत्तत्-पित्तहरादिरूपमशनादि सम्प्रतिपादयेत्, यथा काले शरदादौ पित्तहरादिभोजनं प्रवातनिवातादिरूपा शय्या इच्छानुलोमं वा यद्यस्य हितं रोचते च आराधनाप्रकारोऽनुलोमं भाषणं ग्रन्थाभ्यासवैयावृत्त्यकरणादिदेशे अनुपदेशाधुचितं निष्ठीवनादिभिहेतुभिः श्लेष्माद्याधिक्यं विज्ञाय तदुचितं संपादयेदिति सूत्रार्थः // 20 //
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________________ विणय 1173 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विणय किंचविवत्ती अविणीअस्स, संपत्ती विणिअस्सय। जस्सेयं दुहओ नायं, सिक्खं से अभिगच्छह // 21 // जे आवि चंडे मइइडिगारवे, पिसुणे नरे साहसहीणपेसणे। अदिट्ठधम्मे विणए अकोविए, असंविभागी न हु तस्स मुक्खो॥२२॥ निद्देसवित्ती पुण जे गुरूणं, सुअत्थधम्मा विणयम्मि कोविआ। तरित्तु ते ओघमिणं दुरुत्तरं, खवित्तु कम्मं गइमुत्तमंगय / / 23 / त्ति बेमि। विपत्तिरविनीतस्य ज्ञानादिगुणानां, संप्राप्तिर्विनीतस्य च ज्ञानादिगुणानामेव, यस्यैतत्-ज्ञानादिप्राप्त्यप्राप्तिद्वयम् उभयतः- उभयाभ्यां विनयाऽविनयाभ्यां सकाशात् भवतीत्येवं 'ज्ञातम्-उपादेयं चैतदिति भवति शिक्षाम्-ग्रहणासेवनारूपाम् असौ-इत्थंभूतः अधिगच्छति प्राप्नोति, भावत उपादेयपरिज्ञानादिति सूत्रार्थः।।२१।। एतदेव दृढयन्नविनीतफलमाह-यश्चापि चण्डः-प्रव्रजितोऽपि रोषणः ऋद्धिगौरवमतिः-ऋद्धिगौरवे अभिनिविष्टः पिशुनः-पृष्ठिमांसखादकः नरोनरव्यञ्जनो न भावनरः साहसिकः-अकृत्यकरणपरः हीनप्रेषणःहीनगुर्वाज्ञापरः अदृष्ट-धर्मासम्यगनुपलब्धश्रुतादिधर्मा विनयेऽकोविदोविनयविषयेऽपण्डितः असंविभागी-यत्र वचन लाभेन संविभागवान्।य इत्थं-भूतोऽधर्मो नैवतस्य मोक्षः, सम्यग्दृष्टश्चारित्रवत इत्थंविधसंक्लेशाभावादिति सूत्रार्थः / / 22 / विनयफलाभिधानेनोपसंहर-न्नाहुनिर्देश-आज्ञा तद्वर्तिनः पुनर्ये गुरूणाम्-आचार्यादीनां श्रुतार्थधर्माइति प्राकृतशैल्या श्रुतधर्मार्थाः; गीतार्था इत्यर्थः, विनये कर्तव्ये कोविदा-- विपश्चितोय इत्थंभूतास्ती. ते महास-त्वाः ओघमेनं-प्रत्यक्षोपलभ्यमानं संसारसमुद्रंदुरुत्तारंतीत्वैव तीर्खा, चरमभवं केवलित्वंचप्राप्येति भावः, ततः क्षपयित्वा कर्म निरवशेषं भवोपग्राहिसंज्ञितं गतिमुत्तमांसिद्ध्याख्या गताः-प्राप्ताः। इति ब्रवीमिति पूर्ववदिति सूत्रार्थः // 23 // दश०६ अ०२ उ० इह च विनीतः पूज्य इत्युपदर्शयन्नाहआयारिअं अग्गिमिवाहि अग्गी, सुस्सूसमाणो पडिजागरिजा। आलोइअं इंगिअमेव नया, जो छंदमाराहयईस पुज्जो // 1 // आयारमहा विणयं पउंजे, सुस्सूसमाणो परिगिज्झ वकं / जहोवइड अभिकंखमाणो, गुरुं तु नासाययई स पुज्जो // 2 // रायणाहिएसुं विणयं पउंजे, डहरा अवि अजे परिआयजिट्ठा। नीअत्तणे वट्टइ सचवाई, उवायवं वझकरे स पुखो ||3|| अन्नायउंछं चरई विसुद्ध, जवणट्टया समुआणं च निच्च / अलद्धअंनो परिदेवइज्जा, लद्धं न वीकत्थइ(वा)स पुज्जो // 4 // संथारसिज्जासणभत्तपाणे, अप्पिच्छया अइलाभेऽविसंते। जो एवमप्पाणमितोसइज्जा, संतोसपाहन्नरए स पुज्जो // 5 // सक्का सहेउं आसाइकंटया, अओ मया उच्छहया नरेणं / अणासए जो उसहिज्ज कंटए, वईमए कन्नसरे स पुज्जो ||6|| मुहुत्तदुक्खाउ हवंति कंटया, __अओ मया तेऽवि तओ सुउद्धरा। वाया दुरुत्ताणि दुरुद्धराणि, वेराणुबंधीणि महन्मयाणि // 7 // आचार्य-सूत्रार्थप्रदं तत्स्थानीय वाऽन्यं ज्येष्ठार्य, किमित्याहअग्निमिव तेजस्कायमिव आहिताग्निः ब्राह्मणः शुश्रूषमाणःसम्यक्सेवमानः प्रतिजागृयात् तत्तत्कृत्यसंपादनेनोपचरेत्, आहयथाऽऽहिताग्निरित्यादिना प्रागिदमुक्तमेव, सत्यं, किंतु-तदाचार्यमेवाङ्गीकृत्य इदं तु रत्नाधिकादिकमप्यधिकृत्योच्यते, वक्ष्यति च'रायणिएसु विणयमि' त्यादि, प्रतिजागरणोपाय--माह--आलोकितंनिरीक्षितम् इङ्गितमेव च अन्यथा वृत्तिलक्षणं ज्ञात्वा विज्ञायाचाीयं यः-साधुःछन्दः-अभिप्रायमाराधयति यथा शीते पतति प्रावरणावलोकने तदा नयने, इङ्गिते वा निष्ठीवनादिलक्षणे शुण्ठ्याद्यानयनेन स पूज्यः स इत्थंभूतः साधुः पूजाहः कल्याणभागिति सूत्रार्थः / / 1 / / प्रक्रान्ताधिकार एवाह-- आचारार्थ ज्ञानाद्याचारनिमित्तं विनयम् उक्तलक्षणं प्रयुङ्क्ते करोति यः शुश्रूषन् श्रोतुमिच्छन्, किमयं वक्ष्यतीत्येवम्। तदनु तेनोक्ते सति परिगृह्य वाक्यम् आचार्गीयं ततश्च यथोपदिष्ट-यथोक्तमेव अभिकाङ्कन्, मायारहितः श्रद्धया कर्तुमिच्छन् विनयं प्रयुक्ते, अतोऽन्यथाकरणेन गुरुंत्विति-आचार्यमव नाशात-यतिन हीययति यः स पूज्य इति सूत्रार्थः // 2 / / किं चरत्नाधिकेषु-ज्ञानादिभावरत्नाभ्युच्छ्रितेषु विनयं यथोचितं प्रयुक्तेकरोति, तथा डहरा अपि च ये वयःश्रुताभ्यां पर्यायज्येष्ठाः-चिरप्रव्रजितास्तेषु विनयं प्रयुक्ते, एवं च यो नीचत्वे-गुणाधिकान् प्रति नीचभावे वर्ततेसत्यवादी-अविरुद्धवक्ता तथा अवपातवानवन्दनशीलोनिकटवर्ती या
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________________ विणय 1174 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विणय एवं च यो वाक्यकरो-गुरुनिर्देशकरणशीलः स पूज्य इति सूत्रार्थः / / 3 / / किं च- अज्ञातोञ्छं-परिचयाऽकरणेनाज्ञातः सन् भावोञ्छं गृहस्थोद्धरितादि चरति-अटित्वाऽऽनीतं भुङ्क्ते, नतुज्ञातस्तद्-बहुमतमिति, एतदपि विशुद्धम्-उद्गमादिदोषरहितम्, नन्सद्विपरीतम्, एतदपि यापनार्थम्-संयमभरोद्वाहिशरीरपालनाय नान्यथा समुदानंच-उचितभिक्षालब्धं च नित्यं--सर्वकालं न तूञ्छमप्येक-चैव बहुलब्धं कादाचित्कं वा, एवंभूतमपि विभागतः अलब्ध्वा अनासाद्य, न परिदेवयेत नखेदं यायात्, यथा-मन्दभाग्योऽहम-शोभनो वाऽयं देश इति, एव विभागतश्च लब्ध्वा-प्राप्योचितं न विकत्थते-नश्लाघां करोति-स पुण्योऽहं शोभनो वाऽयं देश इत्येवं स पूज्य इति सूत्रार्थः // 4 / / किं च-संस्तारकशय्यासनभक्तपानानि प्रतीतान्येवएतेषु अल्पेच्छता-अमूर्छया परिभोगोऽतिरिक्ताग्रहणं वा अतिलाभेऽपि सति संस्तारकादीनां गृहस्थेभ्यः सकाशात् य एवमात्मानम् अभितोषयति येन वा तेन वा यापयति संतोषप्राधान्यरतः-संतोष एव प्रधानभावे सक्तः स पूज्य इति सूत्रार्थः / / 5 / / इन्द्रियसमाधिद्वारेण पूज्यतामाह-शक्याः सोढुम् आशये-त्ति इदं मे भविष्यतीति प्रत्याशया, क इत्याह-कण्टका अयोमया-लोहात्मकाःउत्सहतानरेण-अर्थोद्यमवतेत्यर्थः,तथाच कुर्वन्ति केचिदयोमयकण्टकास्तरणशयनमप्यर्थलिप्सया, न तु वाक्कण्टकाः शक्या इत्येवं व्यवस्थिते अनाशया-फलप्रत्याशया निरीहः सन्यस्तुसहेत कण्टकान् वाङ्मयान्-खरादिवागात्मकान् कर्णसरान-कर्णगामिनः स पूज्य इति सूत्रार्थः / / 6 / / एतदेव स्पष्टयति-मुहूर्तदुःखा-अल्पकालदुःखा भवन्ति कण्टका अयोमयाः वेधकाल एव प्रायो दुःखभावात्, तेऽपिततः कायात् सूद्धराः-सुखैनैवोज्रियन्ते व्रणपरिकर्म च क्रियते, वाग्दुरुक्तानि पुनः दुरुद्धराणि-दुःखेनोज्रियन्ते मनोलक्षवेधनाद् वैरानुबन्धीनि तथा श्रवणप्रद्वेषादिनेह परत्र च वैरानुबन्धीनि भवन्ति अत एव महाभयानि, कुगतिपातादिमहाभयहेतुत्वादिति सूत्रार्थः / / 7 / / समावयंता वयणाभिघाया, कन्नं गया दुम्मणि जणंति। धम्मु त्ति किच्चा परमग्गसूरे, जिइंदिए जो सहई स पुजो // 6 // अवण्णवायं च परम्मुहस्स, पच्चक्खओ पडिणीअंच भासं। ओहाराणिं अप्पिअकारिणिंच, भासं न भासिज्ज सया स पुलो / / 6 / अलोलुए अकुहए अमाई, अपि (पी)सुणे आवि अदीणवित्ती। नो भावए नोऽवि अभाविअप्पा, अकोउहल्ले असया स पुजो॥१०॥ गुणेहि साहू अगुणेहिऽसाहू, गिण्हाहि साहू गुणमंचऽसाहू। विआणिआ अप्पगमप्पएणं, जो रागदोसेहि समो स पुज्जो // 11 / / तहेव डहरं च महलगं वा, इतिथ पुमं पव्वइ गिहिं वा। नो हीलए नोऽवि अखिंसइज्जा, . थंभं च कोहं च चए स पुज्जो // 12 // जे माणिआ समयं माणयन्ति, जत्तेण कन्नं व निवेसयंति। ते माणए माणरिहे तवस्सी , . जिइंदिए सच्चरएस पुञ्जो॥१३॥ तेसिं गुरूणं गुणसायराणं, सुच्चा णं मेहावि सुभासिआई। चरे मुणी पंचरए तिगुत्तो, चउकसायावगए सपुशो ||1|| गुरूमिह मययं पडिअरिअमुणी, जिणमयनिउणे अभिगमकुसले। धुणिअरयमलं पुरकडं, भासुरमउलं गई वयइ।।१५।। तिबेमि।। किंच-समापतन्त-एकीभावेनाभिमुखं पतन्तः, क इत्याह-वचनाभिघाता:-खरादिवचमप्रहाराः कर्णगताः सन्तः प्रायोऽनादिभवाभ्यासात् दौर्मनस्यं दुष्टमनोभावं जनयन्तिप्राणिनामेवंभूतान् वचनाभिघातान् धर्म इति कृत्वा सामायिकपरिणामापन्नो न त्वशक्त्यादिना परमाग्रशूरोदानसंग्रामशूरापेक्षया प्रधानः शूरो जितेन्द्रियः सन् यः सहते नतु तैर्विकारमुपदर्शयति स पूज्य इति सूत्रार्थः // 8 // तथा अवर्णवादंच अश्लाघावादं च पराङ्मुखस्य-पृष्ठत इत्यर्थः प्रत्यक्षतश्च प्रत्यक्षस्य च प्रत्यनीकाम्अपकारिणी चौरस्त्वमित्यादिरूपां भाषां तथा अवधारिणीम्--अशोभन एवा–यमित्यादिरूपाम् अप्रियकारिणीं च-श्रोतुमृतनिवेदनादिरूपां भाषां वाचंन भाषेत सदा यः कदाचिदपि नैव ब्रूयात्स पूज्य इति सूत्रार्थः / / 6 / / तथा अलोलुपः-आहारादिष्वलुब्धः अकुहकः-इन्द्रजालादिकुहकरहितः अमायी कौटिल्यशून्यः अपिशुनश्चापि-नो छेदभेदकर्ता अदीनवृत्तिः-आहाराद्यलाभेऽपि शुद्धवृत्तिःनो भावयेद् अकुशलभावनया परं, यथाऽमुक-पुरतो भवताऽहं वर्णनीयः नापि च भावितात्मास्वयमन्यपुरतः स्वगुणवर्णनापरः अकौतुकश्व सदा नटनर्तकादिषु यः स पूज्य इति सूत्रार्थः / / 10 / / किंच-गुणैः-अनन्तरोदितैर्विनयादिभिर्युक्तः साधुर्भवति, तथा अगुणैः-उक्त-गुणविपरी-तैरसाधुः, एवं सति गृहाण साधुगुणान् मुञ्चासाधुगुणानिति शोभन उपदेशः, एवमधिकृत्य प्राकृतशैल्या विज्ञापयति विविधं ज्ञापयत्यात्मानमात्मना यः, तथा रागद्वेषयोः समः न रागवान्न द्वेषवानिति स पूज्य इति सूत्रार्थः / / 1 / / किंच-तथैवे.
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________________ विणय 1175 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विणय ति पूर्ववत् डहरं वा महल्लकं वा वाशब्दान्मध्यम वा स्त्रियं पुमांसमुपलक्षणत्वान्नपुंसकं वा प्रव्रजितं गृहिणं वा वाशब्दादन्यतीर्थिकं वा न हीलयति, नापिच खिंसयति, तत्र सूयया असूययावा / सकृद् दुष्टाभिधानं हीलनम, तदेवासकृत्खिसनमिति।हीलनखिंसनयोश्च निमित्तभूतं स्तम्भ च मानं च क्रोधं च रोषं च त्यजति यः स पूज्यो, निदानत्यागेन तत्त्वतः कार्यत्यागादिति सूत्रार्थः / / 12 / / किं च-ये मानिता अभ्युत्थानादिसत्कारैः सततम्-अनवरतं शिष्यान्मानयन्ति-श्रुतोपदेशं प्रति चोदनादिभिः, तथा यत्नन कन्यामिव निवेशयन्ति-यथा मातापितरः, कन्या गुणैर्वयसा च संबद्ध्यं योग्यभर्तरि स्थाययन्तिएवमाचार्याः शिष्यं सूत्रार्थवेदिनं दृष्ट्वा महत्याचार्यपदेऽपि स्थापयन्ति। तानेवंभूतान् गुरून्मानयति योऽभ्युत्थानादिना मानार्हान-मानयोग्यान् तपस्वी सन् जितेन्द्रियः सत्यरत इति, प्राधान्यख्यापनार्थ विशेषणद्वयं, स पूज्य इति सूत्रार्थः / / 13 / / तेषां गुरूणम्-अनन्तरोदितानां गुणसागराणां-गुणसमुद्राणां संबन्धीनि श्रुत्वा मेधावी सुभाषितानि-परलोकोपकारकाणि चरतिआचरति मुनिः-साधुः-पञ्चरतः-पञ्चमहाव्रत-सक्तः-त्रिगुप्तोमनोगुप्त्यादिमान् चतुःकषायापगत इति अपगतक्रोधादिकषायो यः स पूज्य इति सूत्रार्थः // 14 // प्रस्तुतफलाभिधानेनोपसंहरन्नाह गुरुम्आचार्यादिरूपम् इह-मनुष्यलोके सततम्-अनवरतं परिचर्यविधिनाऽऽराध्य मुनिः-साधुः, किंवि-शिष्टो मुनिरित्याह-जिनमतनिपुणःआगमे प्रवीणः अभिगम-कुशलो-लोकप्राघूर्णकादिप्रतिपतिदक्षः, स एवंभूतः विधूय रजोमलं पुराकृतं, क्षपयित्वा अष्टप्रकारं कर्मेति भावः, किमित्याह-भास्वरां ज्ञानतेजोमयत्वात् अतुलाम्-अनन्यसदृशीं गतिं-- सिद्धिरूपां व्रजति गच्छति तदा जन्मान्तरेण वा सुकुलप्रकृष्टजात्यादिना प्रकारेण ब्रवीमीति पूर्ववदिति सूत्रार्थः / / 15 / / दश० अ०३ उ०। कर्मणां द्राग्विनयना-द्विनयो विदुषांमतः। अपवर्गफलाट्यस्य, मूलं धर्मतरोरयम् // 1 / / (दा०)। (अस्मिन्नेव शब्दे 1152 पृष्ठे प्राग्व्याख्यातः।) ज्ञानदर्शनचारित्र-तपोभिरुपचारतः। अयं च पञ्चधा मिन्नो, दर्शितो मुनिपुङ्गवैः / / 2 / / 'ज्ञानेति' ज्ञानादीनां विनयत्वं पूर्वकर्मविनयनादुत्तरकर्मावन्धाच द्रष्टव्यम् // 2 // प्रतिरूपेण योगेन, तथा नाशातनात्मना। उपचारो द्विधा तत्रा-दिमो योगत्रयात्रिधा ||3| प्रतिरूपेणेति-प्रतिरूपेणोचितेन योगेना तथाऽनाशातनात्मना आशातनाऽभावेन उपचारो द्विधा / तत्रादिमः प्रतिरूपयोगात्मको योगत्रयात्रिधा कायिको वाचिको मानसश्चेति // 3 // अभिग्रहासनत्यागा-वभ्युत्थानाञ्जलिग्रही। कृतिकर्म च शुश्रूषा, गतिः पश्चाच्च संमुखम् // 4 // अभिग्रहेति-अभिग्रहो-गुरुनियोगकरणाभिसन्धिः, आसनत्यागःआसनदानं पीठकाद्युपनयनमित्यर्थः। अभ्युत्थानं निषण्णस्य सहसाह.. दर्शनेन / अञ्जलिग्रहः-प्रश्रादौ कृतिकर्म च वन्दनम् शुश्रूषा-विधिवददूरासन्नतया सेवनम्। पश्चादतिर्गच्छतः, संमुखं च गतिरागच्छत इति॥४॥ कायिकोऽहविधवायं, वाचिका चतुर्विधः। हितं मितं चापरुष, हुवतोऽनुविचिन्त्य च // 5 // कायिक इति-अयं चाष्टविधः कायिक उपचारः।वाचिकस्तुचतुर्विधःहितं परिणामसुन्दर ब्रुवतः प्रथमः, मितं स्तोकाक्षरं ब्रुवतो द्वितीयः, अपरुषं चानिष्ठुरं ब्रुवतस्तृतीयः, अनुविचिन्त्य-स्वालोच्यच ब्रुवतश्चतुर्थ इति // 5 // मानसब-द्विधा शुद्ध प्रवृत्याऽसन्निरोधतः। छद्मस्थानामयं प्रायः, सकलोऽन्यानुवृत्तितः॥६|| मानसश्चेति-मानसश्चोपचारो द्विधा शुद्धप्रवृत्त्या धर्मध्यांनादिप्रवृत्त्या, असनिरोधत आर्तध्यानादिप्रतिषेधात् अयं च सकलः प्रायः प्रतिरूपो विनयश्छद्मस्थानामन्यानुवृत्तितः आत्मव्यतिरिक्तप्रधानानुवृत्तेः प्रायोग्रपणादज्ञातकेवलभावदशायां केवलिनामपि / अन्यदा तु तेषामप्रतिरूप एव विनयस्तथैव तत्कर्मविनयनोपपत्ते / तदुक्तम्-- "पडिरूवो खलु विणओ, पराणुअत्तिमइओ मुणेअव्वो / अप्पडिरूवो विणओ, णायव्वो केवलीणं तु // 1 // // 6|| अहत्सिद्धकुलाचार्यो-पाध्यायस्थविरेषु च। गणसंघक्रियाधर्म-ज्ञानज्ञानिगणिष्वपि।।७।। अर्हदिति-अर्हन्तस्तीर्थकराः सिद्धाः-क्षीणाष्टकर्ममलाः, कुलम्नागेन्द्रादि, आचार्यः-पञ्चविधाचारानुष्ठाता तत्प्ररूपकश्वा उपाध्यायःस्वाध्यायपाठकः स्थविरः-सीदतां स्थिरीकरणहेतुः, गणः-कौटिकादिः संघः-साध्वादिसमुदायः, क्रिया-अस्तिवादरूपा, धर्मः श्रुतधर्मादिः, ज्ञानम्-मत्यादि, ज्ञानिनस्त-द्वन्तः, गणिः-गणाधिपतिः // 7 // अनाशातनया भक्त्या , बहुमानेन वर्णनात्। द्विपञ्चाशद्विधः प्रोक्तो, द्वितीयचौपचारिकः|||| अनाशातनयेति-अनाशातनया-सर्वथाऽहीलनया, भक्त्या उचितोपचाररूपया, बहुमानेनान्तरभावप्रतिबन्धरूपेण, वर्णनात्-सद्भूतगुणोत्कीर्तनात्, द्वितीयश्चानाशातनात्मक औपचारिकविनयो द्विपञ्चाशद्विधः 52 प्रोक्तः। त्रयोदशपदानां चतुर्भिर्गुणने, यथोक्तसंख्यालाभात्॥८॥ एकस्याशातनाऽप्यत्र, सर्वेषामेव तत्त्वतः। अन्योऽन्यमनुविद्वा हि, तेषु ज्ञानादयो गुणाः // 6 // एकस्येति–अत्राहदादिपदेषु एकस्यापि आशात्तना तत्त्वतः सर्वेषां हि यतस्तेषु ज्ञानादयो गुणा अन्योन्यभनुवि०द्धाः, यदेव ह्येकस्य शुद्धं ज्ञानं तदेवापरस्यापि। इत्थं च हीलनाविषयीभूतज्ञानादिसंबन्धस्य सर्वत्राविशेषादेकहीलने सर्वहीलनापत्तेर्दारुणविपाकत्वमवधार्थ न कस्यापि हीलना कार्येति भावः // 6
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________________ विणय 1176 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विणय नूनमल्पश्रुतस्यापि, गुरोराचारशालिनः। हीलना भस्मसात्कुर्याद, गुणं वहिरिवन्धनम् // 10 // 'नूनमिति' नूनं-निश्चितमल्पश्रुतस्याप्यनधीतागमस्यापि कारणान्तरस्थापितस्य गुरोराचार्यस्याचारशालिनः पञ्चविधाचारनिरतस्य हीलना गुणस्वगतचारित्रादिकंभस्मसात् कुर्यात्, इन्धनमिव वह्निः॥१०॥ शक्त्यग्रज्वलनव्याल-सिंहक्रोधातिशायिनी। अनन्तदुःखजननी, कीर्तिता गुरुहीलना // 11 // शक्त्यग्रेति-शक्तिः-प्रहरणविशेषस्तदग्रं शक्त्यग्रं, ज्वलनोऽग्निः व्यालर्सिहयोः-सर्पकसरिणोः क्रोधः-कोपः, तदतिशायिनीतेभ्योऽप्यधिका अनन्तदुःखजननी गुरुहीलना कीर्तिता दशवैकालिके // 11 // पठेद्यस्यान्तिके धर्म-पदान्यस्यापि सन्ततम्। कायवाड्मनसां शुद्ध्या, कुर्याद्विनयमुत्तमम्॥१२॥ पठेदिति-यस्यान्तिके धर्मपदानि-धर्मफलानि सिद्धान्तपदानिपठेत् / अस्य सन्ततमपि-निरन्तरमपि, नतुसूत्रग्रहणकाल एव, कुशलानुबन्धव्यवच्छेदप्रसङ्गात्। कायवाड्मनसांशुद्ध्या उत्तम विनयं कुर्यात्॥१२॥ पर्यायेण विहीनोऽपि, शुद्धज्ञानगुणाधिकः। ज्ञानप्रदानसामा-दतो रत्नाधिकः स्मृतः||१३|| पर्यायेणेति-अतो धर्मपाठकस्य सदा विनयाहत्वात्पर्यायेण-चारित्रयर्यायेण विहीनोऽपि शुद्धज्ञानगुणेनाधिको ज्ञानप्रदान सामार्थ्यमधिकृत्य रत्नाधिकः स्मृत आवश्यकादौ / स्वापेक्षितरत्नाधिक्येन तत्त्वव्यवस्थितेः। विवेचितमिदं सामाचारीप्रकरणे // 14 // शिल्पार्थमपि सेवन्ते, शिल्पाचार्य जनाः किल। धर्माचार्यस्य धर्मार्थ, किं पुनस्तदतिक्रमः॥१४॥ शिल्पार्थमिति व्यक्तः // 14 // ज्ञानार्थ विनयं प्राहु-रपि प्रकटसेविनः। अत एवापवादेना-न्यथा शास्वार्थबाधनम्॥१५॥ ज्ञानार्थमिति--अत एव ज्ञानादिग्रहणे विनयपूर्वकत्वनियमस्य सिद्धान्तसिद्धत्वादेवापवादेन ज्ञानार्थ प्रकटसेविनोऽपि विनय-माहुः,पर्यायादिकारणेष्वेतदन्तर्भावात्। अन्यथा तथाविधकारणेऽपि तद्विनयानादरे शास्त्रार्थवाधनं-शास्त्राज्ञाव्यतिक्रमः। तदुक्तम्-"एयाइँ अकुव्वंतो, जहारिहं अरिहदेसिए मग्गे / ण हवइ पवयणभत्ती, अभत्तिमंतादओ दोसा // 1 // " नन्वेवमपवादतोऽपि प्रकटप्रतिषेविणोऽगृहीतग्रहिलनृपन्यायेन द्रव्यवन्दनमेव यदुक्तं तद्भङ्गापत्तिानगुणबुद्ध्या तद्वन्दने भाववन्दनावतारादित्याशङ्कय तदुक्तिप्रायिकत्वाभिप्रायेण समाधत्तेन चैवमस्य भावत्वाद, द्रव्यतोक्तिर्विरुध्यते। सद्भावकारणत्वोक्तेर्भावस्याप्यागमाख्यया ||16|| न चैवमिति-न चैवं ज्ञानार्थ प्रकटप्रतिषेविणोऽपि विनयकरणेऽस्य ज्ञानार्थविनयस्य भावत्वाद्व्यत्वोक्तिरापवादिकविनयस्योपदेश- 1 पदादिप्रसिद्धा विरुध्यते, भावस्यापि आगमाख्यया-आगमनाम्ना सद्भावकारणत्वोक्तः पुष्टालम्बनत्ववचनादस्वारसिककारणस्थल एवोक्तनियमादिति। भावलेशस्तु मार्गानुसारी यत्र क्वचिदपि मार्गोगासनार्थं वन्दनादिविनयार्हतानिमित्तमेव श्रूयते। यदुक्तं बृहत्कल्पभाष्ये"दंसणनाणचरितं, तवविणयं जत्थ जत्तियं पासे / जिणपन्नत्तं भत्तीइ पूयए तं तहिं भावं" ||16|| विनयेन विना न स्या-जिनप्रवचनोन्नतिः। पयःसेकं विना किं वा, वर्धते भुवि पादपः // 17 // विनयं ग्राह्यमाणो यो, मृदूपायेन कुप्यति।। उत्तमां श्रियमायान्ती,दण्डेनापनयत्यसौ ||18|| त्रैलोक्येऽपि विनीतानां, दृश्यते सुखमङ्गिनाम्। त्रैलोक्येऽप्यविनीतानां, दृश्यतेऽसुखमङ्गिनाम् // 16 // ज्ञानादिविनयेनैव, पूज्यत्वाप्तिः श्रुतोदिता। गुरुत्वं हि गुणापेक्षं, न स्वेच्छामनुधावति / / 20 / / विनये च श्रुते चैव, तपस्याचार एव च। चतुर्विधः समाधिस्तु, दर्शितो मुनिपुङ्गवैः॥२१॥ शुश्रूषति विनीतः सन्, सम्यगेवावबुध्यते। यथावत् कुरुते चार्थ, मदेन च न माद्यति // 22 // श्रुतमेकाग्रता वा मे, भविताऽऽत्मानमेव वा। स्थापयिष्यामि धर्मेऽन्यं, वेत्यध्येति सदागमम् // 23 // कुर्यात्तपस्तथाऽऽचार, नैहिकामुष्मिकाशया। कीाद्यर्थ च नो किं तु, निष्कामो निर्जराकृते // 24 // इत्थं समाहिते स्वान्ते, विनयस्य फलं भवेत् / स्पर्शाख्यं स हि तत्त्वाप्तिबोधमात्रं परः पुनः॥२५॥ अक्षेपफलदः स्पर्श-स्तन्मयी भावतो मतः। यथा सिद्धरसस्पर्श-स्ताने सर्वानुवेधतः॥२६॥ इत्थं च विनयो मुख्यः, सर्वानुगमशक्तितः। मिष्ठान्नेष्विव सर्वेषु, निपतन्त्रिक्षुजो रसः॥२७।। दोषाः किल तमांसीव, क्षीयन्ते विनयेन च / प्रसृतेनांशुजालेन, चण्डमार्तण्डमण्डलात्॥२८॥ श्रुतस्याप्यतिदोषाय, ग्रहणं विनयं विना। यथा महानिधानस्य, विमानधनसनिधिम् // 26 // विनयस्य प्रधानत्व-द्योतनायैव पर्षदि। तीर्थ तीर्थपतिर्नत्वा, कृतार्थोऽपि कथां जगौ ||30|| छिद्यते विनयो यैस्तु, शुश्रूषोऽपि परैरपि। तैरप्यग्रेसरीभूय, मोक्षमार्गो विलुप्यते // 31 // नियुङ्क्ते यो यथास्थान मेनं तस्य तु सन्निधौ / स्वयंवराः समायान्ति, परस्य रतिसंपदः // 32 // अर्थः स्पष्टः / / 32 / / द्वा०२६ द्वा०।
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________________ विणय 1177- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विणय तदेवं प्रव्रज्यामभ्युद्यतो नित्यं गुरुकुलवासमावसन् सर्वत्र स्थानशयनासनादावुपयुक्तो भवति तदुपयुक्तस्य च गुणमुद्भावयन्नाहजेठाणओ य सयणासणे य, परक्कमे यावि सुसाहुजुत्ते / समितीसु गुत्तीसुय आयपन्ने, वियागरिते य पुढो वएज्जा // 5 // सहाणि सोचा अदु भेरवाणि, अणासवे तेसु परिव्वएज्जा। निदं च भिक्खू न पमाय कुज्जा, कहं कहं वा वितिगिच्छातिने / / 6 / / डहरेण वुड्डेणऽणुसासिए उ, रातिण्णिएणावि समवएणं। सम्मं तयं थिरतो णाभिगच्छे, णिज्जंतए वावि अपारए से // 7 // विउहितेणं समयाणुसिढे, _डहरेण वुड्डेण उ चोइए य। अच्चुट्टियाए घडदासिए वा, अगारिणं वा समयाणुसिट्टे || यो हि निर्विण्णसंसारतया प्रव्रज्यामभ्युद्यतो नित्यं गुरुकुलवासतः स्थानतश्वस्थानमाश्रित्य तथा शयनतः-आसनतः, एकश्चकारः समुचये, द्वितीयोऽनुक्तसमुचायार्थः, चकारागमनमाश्रित्यागमनंच तथा तपश्चरणादौ पराक्रमतश्च (सु) साधो:-उद्युक्तविहारिणो ये समाचारास्तैः समायुक्तः सुसाधुयुक्तः; सुसाधुर्हि यत्र स्थान कायोत्सर्गादिकं विधत्ते तत्र सम्यक् प्रत्युपे-क्षणादिकां क्रियां करोति / कायोत्सर्ग च मेरुरिव निष्प्रकम्पः शरीरनिःस्पृहो विधत्ते, तथा शयनं च कुर्वन् प्रत्युपेक्ष्य संस्तारकं तद्भुवं कायं चोचितकाले गुरुभिरनुज्ञातः स्वपेत्, तत्रापि जाग्रदिव नात्यन्तं निःसह इति। एवमासनादिष्वपि तिष्ठता पूर्ववत्संकुचितगात्रेण स्वा ध्यायध्यानपरायणेन सुसाधुना भवितव्यमिति / तदेवमादिसुसाधुक्रियायुक्तो गुरुकुलनिवासी सुसाधुर्भवतीति स्थितम्। अपि च--- गुरुकुलवासे निवसन् पञ्चसु समितिष्वीर्यासमित्यादिषु प्रविचार-रूपासु, तथा तिसृषु च गुप्तिषु प्रविचाराप्रविचाररूपासु, आगता उत्पन्ना प्रज्ञा यस्यासावागतप्रज्ञः- संजातकर्त्तव्याकर्तव्यविवेकः-स्वतो भवति, परस्यापिच व्याकुर्वन् कथयन् पृथक्पृथग्गुरोः प्रसादात् परिज्ञातस्वरूपः समितिगुप्तीनां यथावस्थितस्वरूपप्रतिपालनम्तत्फलं च वदेत्-प्रतिपादयेदिति॥५॥ ईर्यासमित्याधुपेतेन यद्विधेयं तदर्शयितुमाह-शब्दान्-वेणुवीणादिकान् मधुरान्- श्रुतिपेशलान् श्रुत्वा-समाकर्ण्य, अथवा-भैरवान्-भयावहान् कर्णकटूनाकर्ण्य शब्दान् आश्रयति तान् शोभनत्वेन अशोभनत्वेन वा गृह्णातीत्याश्रवो नाश्रवोऽनाश्रवः, तेष्वनुकूलेषु प्रतिकूलेषु श्रवणपथमुपगतेषु शब्देष्वनाश्रवो मध्यस्थो-रागद्वेष-रहितो भूत्वा परिसमन्ताद्व्रजेत् परिव्रजेत्-संयमानुष्ठायी भवेत्, तथा--निद्रांच-निद्राप्रमादंच भिक्षुः-सत्साधुः प्रमादाङ्गत्वान्न कुर्यात्। एतदुक्तं भवति--शब्दाश्रवनिरोधेन विषयप्रमादो निषिद्धो निद्रानिरोधेन च निद्राप्रमादः, चशब्दादन्यमपि प्रमादं विकथाकषायादिकं न विदध्यात् / तदेवं गुरुकुलवासात् स्थानशयनासनसमितिगुप्तिष्वागतप्रज्ञः प्रतिषिद्धसर्वप्रमादः सन् गुरोरुपदेशादेव कथं कथमपि विचिकित्सां-चित्तविप्लुतिरूपां (वि) तीर्णः--अतिक्रान्तो भवति, यदि वा-मद्गृहीतोऽयं पञ्चमहावतभाराऽतिदुर्वहः कथं कथमप्यन्तं गच्छेत् ; इत्येवंभूतां विचिकित्सांगुरुप्रसादाद्वितीर्णो भवति, अथवा-यां काञ्चिच्चित्तविप्लुतिं देशसर्वगतांतां कृत्स्नांगुर्वन्तिके वसन् वितीर्णो भवति अन्येषामपि तदपनयनसमर्थः स्यादिति॥६॥ किश्चान्यत् -स गुर्वन्तिके निवसन् क्वचित् प्रमादस्खलितः सन् वयःपर्यायाभ्यां क्षुल्लकेन-लघुना चोदितः-प्रमादा-चरणं प्रति निषिद्धः, तथा वृद्धेन वावयोऽधिकेन श्रुताधिकेन वा अनुशासितः-अभिहितः, तद्यथाभवद्विधानामिदमीदृक्प्रमादाचरणमासेवितुमयुक्तं, तथा रत्नाधिकेन वा-प्रव्रज्यापर्यायाधिकेन श्रुताधिकेन वा समवयसा वा अनुशासितःप्रमादस्खलिताचरणं प्रति चोदितः कुप्यति यथा अहमप्यनेन द्रमकप्रायेणोत्तमकुलप्रसूतः सर्वजनसंमत इत्येवं चोदितः-इत्येवमनुशास्यमानो न मिथ्यादुष्कृतं ददाति नसभ्यगुत्थानेनोत्तिष्ठति नापि तदनुशासनं सम्यक् स्थिरतः-अपुनःकरणतयाऽभिगच्छेत्-प्रतिपद्येत, चोदि-तश्च प्रतिचोदयेद, असम्यक्प्रतिपद्यमानश्चासौ संसारस्रोतसा नीयमानउह्यमानोऽनुशास्यमानः कुपितोऽसौ न संसारार्णवस्य पारगो भवति / यदि वा-आचार्यादिना सदुपदेशदानतः प्रमादस्खलितनिवर्तनतो मोक्षप्रति नीयमानोऽप्यसौ संसारसमुद्रस्य तदकरणतोऽपारग एव भवतीति // 7 // साम्प्रतं स्वपक्षचोदनानन्तरतः (र) स्वपरचोदनामधिकृत्याह-विरुद्धोत्थानेनोत्थितो व्युत्थितः- परतीर्थिको गृहस्थो वा मिथ्यादृष्टिस्तेन प्रमादस्खलितेचोदितः स्वसमयेन, तद्यथा-नैवंविधमनुष्ठानं भवतामागमे व्यवस्थितं येनाभिप्रवृत्तोऽसि, यदिवा-व्युत्थितःसंयमाद् भ्रष्टस्तेनापरः साधुः स्खलितः सन् स्वसमयेन-अर्हत्प्रणीतागमानुसारेणानु-शासितो मूलोत्तरगुणाचरणे स्खलितः सन् चोदितःआगमं प्रदाभिहितः,तद्यथा-नैतत्त्वरितगमनादिकं भवतामनुज्ञातमिति, तथा अन्येन वा मिथ्यादृष्ट्यादिना क्षुल्लकेन-लघुतरेण वयसा वृद्धेन वा कुत्सिताचारप्रवृत्तश्चोदितः, तुशब्दात्समानवयसा वा तथा अतीवकार्यकरणं प्रति उत्थिता अत्युत्थिताः, यदि वादासीत्वेन अत्यन्तमुत्थिता दास्या अपि दासीति तामेव विशिनष्टि-घटदास्याजलवाहिन्याऽपि चोदितो नक्रोधं कुर्यात, एतदुक्तं भवति-अत्युत्थितयाऽतिकुपितयाऽपि चोदितः स्वहितं मन्यमानः सुसाधुन कुप्येत् किं पुनरन्येनेति। तथा अगारिणां-गृहस्थानां यः समयः-अनुष्ठानं तत्समयेनानुशासितो, गृहस्थानामपि एतन्न युज्यते कर्तुं यदारब्धं भवतेत्येवमात्मावमेनापि चोदितो ममैवैतच्छ्यः इत्येवं मन्यमानो मनागपि न मनो 'दूषयेदिति // 8 //
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________________ विणय ११७८-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विणय एतदेवाह अभिहितवान् वीरः-तीर्थकरोऽन्यो वा गणधरादिकः अनुगम्यबुद्धा ण तेसु कुज्झे ण य पव्वहेजा, अर्थपरमार्थं चोदनाकृतं परमोपकारं सम्यगात्मन्युपनयति, तद्यथाणयावि किंची फरुसंवदेना। अहमनेन मिथ्यात्ववनाजन्मजरामरणाद्यनेकोपद्रवबहुलात्सदुपदेशतहा करिस्संतिपडिस्सुणेजा, दानेनोत्तारितः, ततो मयाऽस्य परमोपकारिणोऽभ्युत्थानविनयादिभिः सेयं खु मेयं ण पमाय कुस्खा पूजा विधेयेति / अस्मिन्नर्थे बहवो दृष्टान्ताः सन्ति तद्यथा-"गेहम्मि वणंसि मूढस्स जहा अमूढा, अग्गिजाला-उलम्मि जह णाम डज्झमाणम्मि। जो बोहेइ सुयंतं, सो तस्स जणो परमबंधू॥१||जह वा विससंजुतं,भत्तं निद्धमिह भोत्तुकामस्स। मग्गाणुसासंति हितं पयाणं। जो विसदोसंसाहइ, सो तस्स जणो परमबंधू॥२॥" |11|| अयमपरः तेणेव (तेणावि) मज्झं इणमेव सेये, सूत्रेणैव दृष्टान्तोऽभिधीयते--यथाहि सजलजलधराच्छादितबहलान्धजं मे बुहा समणुसासयंति॥१०॥ कारायां रात्रौ नेता-नायकोऽटव्यादौ स्वभ्यस्तप्रदेशोऽपि मार्गपन्थानअह तेण मूढेण अमूढगस्स, मन्धकारावृत्तत्वात्स्वहस्तादिकमपश्यन्न जानाति-न सम्यक् परिच्छिकायव्व पूया सविसेसजुत्ता। नत्ति / स एव प्रणेता सूर्यस्य-आदित्यस्याभ्युद्रमेनापनीते तमसि एओवमं तत्थ उदाहु वीरे, प्रकाशिते दिक् चक्रे सम्यगाविभूते पाषाणदरिनिम्नोन्नतादिकेमार्ग ___ अणुगम्म अत्थं उवणेति सम्मं // 11|| जानातिविवक्षितप्रदेशप्रापकं पन्थानमभिव्यक्तचक्षुःपरिच्छिनत्तिणेता जहा अंधकारंसि राओ, दोषगुणविचारणातः सम्यगवगच्छतीति॥१२॥ मगंण जाणाति अपस्समाणे। एवं दृष्टान्तं प्रदर्श्य दार्शन्तिकमधिकृत्याऽऽहसे सूरिअस्स अन्मुग्गमेणं, एवं तु सेवे वि अपुढधम्मे, मग्गं वियाणाइ पगासियंसि॥१२॥ धम्मं न जाणाइ अबुज्झमाणे / तेषु-स्वपरपक्षेषु स्खलितचोदकेष्वात्महितं मन्यमानो न ध्येद | से कोविए जिणवयणेण पच्छा, अन्यस्मिन् वा दुर्वचनेऽभिहिते न कुप्येद् एवं च चिन्तयेत्-"आक्रुष्टन सूरोदये पासति चक्खुणेव / / 13 / / मतिमता, तत्त्वार्थविचारणे मतिः कार्या। यदिसत्यं कः कोपः? स्यादनृतं उ अहेयं तिरियं दिसासु, किं नु कोपेन? ||1 // ' तथा नाप्यपरेण स्वतोऽधमेनापि चोदितोऽर्हन्मा तसाय जे थावरा जे य पाणा। गानुसारेण लोकाचारगत्या वाऽभिहितः परमार्थं पर्यालोच्य तं चोदकं सयाजए तेसु परिव्यएज्जा, प्रकर्षेण व्यथेत्-दण्डादिप्रहारेण पीडयेत्, न चापि / किञ्चित्परुष मणप्पओसं अविकंपमाणे||११| तत्पीडादिकारि वदेत्-ब्रूयात्, ममैवायमसदनुष्ठायिनो दोषो येनायमपि कालेण पुच्छे समियं पयासु, मामेवं चोदयति, चोदितश्चैवंविधं भवता असदाचरणं न विधेयमेवंविधं च आइक्खमाणो दवियस्स वित्तं / पूर्वर्षिभिरनुष्ठितमनुष्ठयमित्येवंविधं वाक्यं तथा करिष्यामीत्येवं मध्यस्थवृत्त्या प्रतिश्टणुयाद् अनुतिष्ठेच्च-मिथ्यादुष्कृतादिना निवर्तेत, तं सोयकारी (य) पुढोपवेसे, यदेतचोदनं नामैतन्ममैव श्रेयो, यत एतद्भयात्क्वचित्पुनः प्रमादं न संखा इमं केवलियं समाहिं // 15 // कुन्निवासदाचरणमनुतिष्ठेदिति ||6|| अस्यार्थस्य दृष्टान्तं दर्श अस्सि सुठिचा विविहेण तायी, यितुमाह-वने-गहने महाटव्यां दिग्भ्रमेण कस्यचिद् व्याकुलितम एएसुया संति निरोहमाहु / तेर्नष्टसत्पथस्य यथा केचिदपरे कृपाकृष्टमानसा अमूढाः-- सदस- ते एवं मक्खंति तिलोगदंसी, न्मार्गज्ञाः कुमार्गपरिहारेण प्रजानां हितम्-अशेषापायरहितमीप्सित ण भुज्जमेयंति पमायसंगं // 16 // स्थानप्रापकं मार्गपन्थानम् अनुशासन्ति प्रतिपादयन्ति, सचतैः सदस- यथा ह्यसावन्धकारावृतायां रजन्यामतिगहनायामटव्यां मार्ग न द्विवेकिभिः सन्मार्गावतरणमनुशासित आत्मनः श्रेयो मन्यते, एवं तेनाप्य- * जानाति सूर्योद्रमेनापनीते तमसि पश्चाजानाति एवं तु शिष्यक:-अभिसदनुष्ठायिना चोदितेन न कुपितव्यम्, अपि तु ममायमनुग्रह इत्येवं नवप्रव्रजितोऽपि सूत्रार्थानिष्पन्नः अपुष्टः-अपुष्कलः सम्यगपरिज्ञातो मन्तव्यम्,यदेतद्बुद्धाः सम्यगनुशासयन्तिसन्मार्गेऽवतारयन्तिपुत्रमिव धर्मः श्रुतचारित्राख्यो दुर्गतिप्रसृतजन्तुधरणस्वभावो येनासावपुष्टपितरः तन्ममैव श्रेय इति मन्तव्यम्।।११॥ पुनरप्यस्यार्थस्य पुष्ट्यर्थमाह-- धर्मा,सचागीतार्थः--सूत्रार्थानभिज्ञत्वादबुध्यमानो धर्म न जानातीतिअथेत्यानन्तर्यार्थे, वाक्योपन्यासार्थेवा, यथा तेन-मूढेन सन्मार्गावता- नसम्यकपरिच्छिनत्ति, स एव तुपश्चाद्गुरुकुलवासाजिनवचनेन कोविदःरितेन तदनन्तरं तस्य अमूढस्य-सत्पथोपदेष्टुः पुलिन्दादेरपि परमुपकार अभ्यस्तसर्वज्ञप्रणीतागमत्वान्निपुणः सूर्योदयेऽपगतावरणचक्षुषे यथावमन्यमानेन पूजा विशेषयुक्ता कर्तव्या, एवमेतामुपमाम् उदाहृतवान्- | स्थितान् जीवादीन् पदार्थान् पश्यति / इदमुक्तं भवति-यथा हि इन्द्रि
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________________ विणय 1176 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विणय यार्थसंपत्सिाक्षात्कारितया परिस्फुटा घटपटादयः पदार्थाः प्रतीयन्ते एवं सर्वज्ञप्रणीतागमेनापि सूक्ष्मव्यवहितविप्रकृष्टस्वर्गापवर्गदेवतादयः परिस्फुटा निःशकं प्रतीयन्त इति / अपि च-कदा-चिचक्षुषाऽन्यथाभूतोऽप्यर्थोऽन्यथा परिच्छिद्यते, तद्यथा-मरुमरीचिकानिचयो जलभ्रान्त्या किंशुकनिचयोऽग्न्याकारणापीति।नच सर्वज्ञप्रणीतस्यागमस्य क्वचिदपि व्यभिचारः तद्व्यभिचारे हि सर्वज्ञत्वहानिप्रसङ्गात्, तत्संभवस्य चासर्वज्ञेनप्रतिषे मशक्यत्वादिति।।१३।। शिक्षको हिगुरुकुलवासितया जिनवचनाभिज्ञो भवति, तत्कोविदश्च मूलोत्तरगुणान् जानाति, तत्र मूलगुणानधिकृत्याह-ऊर्ध्वमधस्तिर्यग् दिक्षु विदिक्षु चेत्यनेन क्षेत्रमङ्गीकृत्य प्राणातिपातविरतिरभिहिताः, द्रव्यतस्तु दर्शयति-त्रस्यन्तीति त्रसाः-तेजोवायुद्वीन्द्रियादयश्च, तथा ये च स्थावराः-स्थावरनामकर्मोदयवर्तिनः पृथिव्यब्वनस्पतयः, तथा ये चैतद्भेदाः सूक्ष्मबादरपर्याप्तकाऽपर्याप्तकरूपा दशविधप्राणधारणात्प्राणिनस्तेषु, सदासर्वकालम्, अनेनतुकालमधिकृत्य विरतिरभिहिता,यतः पविजेत्-परिसमन्ताद् व्रजेत् संयमानुष्ठायी भवेत्, भावप्राणातिपातविरतिं दर्शयति-स्थावरजनमेषु प्राणिषु तदपकारे उपकारे वा मनागपि मनसा प्रदेषं न गच्छेद, आस्तां तावद् दुर्वचनदण्डप्रहारादिकं, तेष्वपकारिष्वपि मनसाऽपि न मङ्गुलं चिन्तयेद्, अविकम्पमानः-संयमादचलन् सदाचारमनुपालयेदिति / तदेवं योगत्रिककरणत्रिकेण द्रव्यक्षेत्रकालभावरूपां प्राणातिपातविरतिं सम्यगरक्तद्विष्टतयाऽनुपालयेद्एवं शेषाण्यपि महाव्रतान्युत्तरगुणांश्च ग्रहणासेवनाशिक्षासमन्वितः सम्यगनुपालयेदिति।।१४।। गुरोरन्तिके वसतो विनयमाह-सूत्रार्थं तदुभयं वा विशिष्टनप्रष्टव्य-कालेनाचार्यादरवसरं ज्ञात्वा प्रजायन्त इतिप्रजाजन्तवस्तासुप्रजासुजन्तुविषये चतुर्दशभूतग्रामसंबद्धं कञ्चिदाचार्यादिकं सम्यगित-सदाचारानुष्ठायिनं. सम्यग्वा समन्ताद्वा जन्तुगतंपृच्छेदिति। सच तेन पृष्ट आचार्यादिराचक्षाणः शुश्रूषयितव्यो भवति। यदा-चक्षाणस्तद्दर्शयति-मुक्तिगमनयोग्यो भव्यो द्रव्यं रागद्वेषविरहाद्वा द्रव्यं तस्य द्रव्यस्य-वीतरागस्यतीर्थकरस्य वा वृत्तम्-अनुष्ठानं संयमं ज्ञानं वा तत्प्रणीतमागर्म वा सम्यगाचक्षाणः सपर्याऽयं मान-नीयो भवति। कथमित्याह-'तद् आचार्यादिनाकथितं श्रोत्रे-कर्णे कर्तु शीलमस्य श्रोत्रकारी-यथोपदेशकारी आज्ञाविधायी सन् पृथक् पृथगुपन्यस्तमादरेण हृदये प्रवेशयेद्-चेतसि व्यवस्थापेत् / व्यवस्थापनीयं दर्शयति-संख्याय- सम्यक् ज्ञात्वा 'इम' मिति वक्ष्यमाणं केवलिन इदं कैवलिकं-केवलिना कथितं समाधि सन्मार्ग सम्यग्ज्ञानादिकं मोक्षमार्गमाचार्यादिना कथितं यथोपदेशं प्रवर्तकः पृथग् विविक्तं हृदये पृथग्व्यवस्थापयेदिति॥१५॥ किंचान्यत्-अस्मिन् गुरुकुलवासे निवसता यच्छुतं श्रुत्वा च सम्यक् हृदयव्यवस्थापनद्वारेणावधारितं तस्मिन् / समाधिभूते मोक्षमार्गे सुष्टु स्थित्वा त्रिविधेनेति-मनोवाक्कायकर्मभिः कृतकारितानुमतिभिर्वाऽऽत्मानं त्रातुं शीलमस्येति त्रायी जन्तूनां सदुपदेशदानतस्वाणकरणशीलो वातस्य स्वपरत्रायिणः, एतेषु च समितिगुप्त्यादिषु समाधिमार्गेषु स्थितस्य शान्तिर्भवति अशेषद्वन्द्वोपरमो भवति / तथा निरोधम्-अशेषकर्मक्षयरूपम् आहुः-तद्विदः प्रतिपादित- वन्तः। क एवमाहुरित्याह-त्रिलोकम्-ऊर्ध्वाधस्तिर्यग्लक्षणं द्रुष्टुं शीलं येषां ते त्रिलोकदर्शिनः तीर्थकृतः सर्वज्ञास्ते एवम् अनन्तरोक्तया नीत्या सर्वभावान् केवलालोकेन दृष्ट्वा आचक्षते-प्रतिपादयन्तीति / एतदेव समितिगुप्त्यादिकं संसारोत्तारणसमर्थं ते त्रिलोकदर्शिनः कथितवन्तो न पुनर्भूय एतं (नं) प्रमादसङ्गं मद्यविषयादिकं सम्बन्धं विधेयत्वेन प्रतिपादितवन्तः // 16 // ___ किञ्चान्यत्निसम्म से भिक्खू समीहियऽहं, पडिमाण होइ विसारएय। आयाण अट्ठीबोदाणमोणं, उर्वच सुद्धेण उदेति मोक्खं // 17 // सगुरुकुलवासी भिक्षुः द्रव्यस्य वृत्तं निशम्य-अवगम्य स्वतः समीहितं चार्थ-मोक्षार्थं बुद्धा हेयोपादेयं सम्यक् परिज्ञाय नित्यं गुरुकुलवासतः प्रतिभानवान्-उत्पन्न प्रतिभो भवति, तथा सम्यक् स्वसिद्धान्तपरिज्ञानाच्छ्रोतृणां यथावस्थितार्थानां विशारदो भवति-प्रतिपादको भवति। मोक्षार्थिनाऽऽदीयत इत्यादानं-सम्यग्ज्ञानादिकं तेनार्थः स एव वाऽर्थः आदानार्थः स विद्यते यस्या--सावादानार्थी स एवंभूतो ज्ञानादिप्रयोजनवान् व्यवदानं-द्वादश-प्रकारं तपो मौनं संयम आश्रवनिरोधरूपस्तदेवमेतौ तपःसंयमावुपेत्यप्राप्यग्रहणासेवनरूपया द्विविधयाऽपि शिक्षया समन्वितः सर्वत्र प्रमादरहितः प्रतिभानवान् विशारदश्च शुद्धन-निरुपाधिना उद्मादिदोषशुद्धेन चाहारेणात्मानं यापयन्नशेषकर्मक्षयलक्षणं मोक्षमुपैति'न उवेइमारं ति क्वचित्पाठः, बहुशो नियन्ते स्वकर्मपरवशाः प्राणिनो यस्मिन् स मारः- संसारस्तं जातिजरामरणरोगशोकाकुलं शुद्धेन मार्गेणात्मानं वर्तयन् न उपैति। यदि वा-मरणं-प्राणत्यागलक्षणं मारस्तंबहुशोनोपैति। तथाहि-अप्रति-पतितसम्यक्त्वउत्कृष्टतः सप्ताष्टौ वा भवान् म्रियते नोर्ध्वमिति / / 17 / / सूत्र०१ श्रु०१४अ० (गुरुकुलनिवासितया धर्मे सुस्थिता बहुश्रुता प्रतिभानवन्तोऽर्थविशार-दाश्च सन्तोयत्कुर्वन्ति तद्दर्शितम्'धम्मकहा' शब्देचतुर्थभागे 2712 पृष्ठे।) सच प्रश्नमुदाहरन् कदाचिदन्यथाऽपि ब्रूयादतस्तत्प्रतिषेधार्थमाहणो छायए णोऽवियलूसएज्जा, माणं ण सेवेज पगासणं च। ण याऽवि पन्ने परिहास कुज्जा, ण याऽऽसिया वाय वियागरेज्जा॥१६॥ भूतामिसंकाइ दुगुंछमाणे, ण णिव्वहे मंतपदेण गोयं / ण किंचि मिच्छे मणुए पयासुं, असासु धम्माणिण संवएना / / 20 / / सः - प्रश्नस्योदाहा सर्वाथाश्रयत्वाद्रत्नक रण्ड कल्पः कुत्रिकाप-णकल्पो वा चतुर्दशपूर्विणामन्यतरो वा क
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________________ विणय 1180- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विणय श्विदाचार्यादिभिः प्रतिभानवान् अर्थविशारदस्तदेवंभूतः कुतश्चिनिमित्तात् श्रोतुः कुपितोऽपि सूत्रार्थ न छादयेत्-नान्वथा व्याख्यानयेत् स्वाचार्य वा नापलयेत् धर्मकथां वा कुर्वन्नार्थ छादयेद् आत्मगुणोत्कर्षाभिप्रायेण वा परगुणान्न छादयेत् / तथा परगुणान्न लूषयेत्-न विडम्बयेत्, शास्त्रार्थं वा नापसिद्धान्तेन व्याख्यानयेत्। तथा समस्तशास्त्रवेत्ताऽहं सर्वलोकविदितः समस्तसंशयापनेता न मत्तुल्यो हेतुयुक्तिभिरर्थप्रतिपादयितेत्येवमात्मकं मानम-अभिमानं गर्व न सेवेत, नाप्यात्मनो बहुश्रुतत्वेन तपस्वित्वेन वा प्रकाशनं कुर्यात् / चशब्दादन्यदपि पूजासत्कारादिकं परिहरेत् / तथा न चापि प्रज्ञावान्-सश्रुतिकः परिहासंकेलिप्रायं ब्रूयाद्, यदिवा-कथंचिदबुध्यमाने श्रोतरितदुपहासप्रायं परिहासं न विदध्यात् / तथा नापि चाशीवदि बहुपुत्रो बहुधनो (बहुधर्मो) दीर्घायुस्त्वं भूया इत्यादि व्यागृणीयात्। भाषासमितियुक्तेन भाव्यमिति / / 16 / / किं निमित्तमाशीर्वादो न विधेय इत्याह-भूतेषुजन्तुषु उपमर्दशङ्गाभूताभिशङ्का तयाऽऽशीवदि सावधं-सपापं जुगुप्समानो न ब्रूयात्, तथा गास्त्रायत इति गोत्रं-मौनं वाक्संयमस्तं मन्त्रपदेनविद्याप्रमार्जनविधिना न निर्वाहयते-न निःसारं कुर्यात् / यदिवा--- गोत्रंजन्तूनां जीवितं मन्त्रपदेन राजादिगुप्तभाषणपदेन राजादीनामुपदेशदानतोन निर्वाहयेत्-नापनयेत्। एतदुक्तं भवति-नराजादिना सार्ध जन्तुजीवितोपमर्दकं कुर्यात्, तथा प्रजायन्त इति प्रजाः-जन्तवस्तासु प्रजासु मनुजो-मनुष्यो व्याख्यानं कुर्वन् धर्मकथां वा न किमपि लाभपूजासत्कारादिकम् इच्छेद्-अभिलषेत्। तथा कुत्सितानाम्-असाधूनां धर्मान्-वस्तुदानतर्पणादिकान्नसंव-देत्-नब्रूयाद्, यदिवा-नासाधुधर्मान् ब्रुवन् संवादयेद्, अथवा-धर्मकथा व्याख्यानंवा कुर्वन् प्रजास्वात्मश्लाघारूपां कीर्ति नेच्छेदिति // 20|| किञ्चान्यत्हासं पिणो संधति पावधम्मे, ओएतहीयं फरुसं वियाणे। जो तुच्छए णो य वि कंथइज्जा, अणाइले वा अकसाइ भिक्खू // 21 // संकेज याऽसंकितभावमिक्खू, विभजवायं च वियागरेजा। भासादुयं धम्म समुट्टितेहिं। वियागरेज्जा समया सुपन्ने // 22 // अणुगच्छमाणे वितह विजाणे, तहा तहा साहु अककसेणं / ण कत्थई भास विहिंसइज्जा, निरुद्धगं वाविनदीहइजा // 23 // समालवेज्जा पडिपुन्नमासी, निसामिया समिया अट्ठदंसी। आणाइसुद्धं वयणं भिउंजे, अभिसंधए पावविवेग मिक्खू // 24 // यथा परात्मनोहस्यिमुत्पद्यते तथा शब्दादिकं शरीरावयव-मन्यान् वा पापधर्मान् सावधान् मनोवाक्कायव्यापारान् न संधयेत्-न विदध्यात्, तद्यथा-इदं छिन्धि भिन्धिा तथा कुप्राव-चनिकान् हास्यप्रायं नोत्प्रासयेत्, तद्यथा-शोभनं भवदीयं व्रतं, तद्यथा-"मृद्वी शय्या प्रातरुत्थाय पेया, मध्ये भक्तंपानकंचापराह्न।दाक्षाखण्डं शर्कराचार्धरात्रे, मोक्षश्चान्ते शाक्यपुत्रेण दृष्टः / / 1 / / " इत्यादिकं, परदोषोद्भावनप्रायं पापबन्धकमिति कृत्वा हास्येनापि न वक्तव्यम् / तथा-'ओजो' रागद्वेषरहितः स बाह्याभ्यन्तरग्रन्थत्यागाद्वा निष्किञ्चनः सन् तथ्यमिति परमार्थतः सत्यमपि परुषं वचोऽपरचेतोविकारि ज्ञपरिज्ञया विजानीयात् प्रत्याख्यानपरिज्ञया च परिहरेत् / यदि वा- रागद्वेषविरहादोजाः तथ्यंपरमार्थभूतमकृत्रिममप्रतारकं परुषकर्मसंश्लेषाभावान्निर्ममत्वादल्पसत्वैर्दुरनुष्ठेयत्वादा कर्कशमन्तप्रान्ताहारोपभोगाद्वापरुष-संयम विजानीयात्-तदनुष्ठानतः सम्यगवगच्छेत्। तथास्वतः कश्चिदर्थविशेष परिज्ञाय पूजासत्कारादिकं वाऽवाप्य न तुच्छो भवेत्-नोन्मादं गच्छेत्। तथा न विकत्थयेत्-नात्मानं श्लाघयेत् परं वा सम्यगनवबुध्यमानः नो विकथयेत्- नात्यन्तं चमढयेत्। तथा अनाकुलोव्याख्यानावसरेधर्मकथावसरे वाऽनाविलो लाभादिनिरपेक्षो भवेत्, तथा सर्वदा अकषायःकषायरहितो भवेद् भिक्षुः-साधुरिति।२१। साम्प्रतं व्याख्यानविधिमधिकृत्याह-भिक्षुः-साधुर्व्याख्यानं कुर्वन्नग्दिर्शित्वादर्थनिर्णय प्रति अशङ्कितभावोऽपि शङ्केतऔद्धत्यं परिहरन्नहमेवार्थस्य वेत्ता नापरः कश्चिदित्येवं गर्वं न कुर्वीत, किन्तु-विषममर्थं प्ररूपयन् साशङ्कमेव कथयेद्, यदि वा-परिस्फुटमप्य-शङ्कित्तभावमप्यर्थ न तथा कथयेत् यथा परः शङ्केत, तथा विभज्यवाद-पृथगर्थनिर्णयवादं व्यागृणीयात्, यदिवा-विभज्यवादः-स्याद्वादस्तं सर्वत्रास्खलितं लोकव्यवहारविसंवादितया सर्वव्यापिनं स्वानुभवसिद्धं वदेद, अथवा-सम्यगन् विभज्य-पृथक् कृत्वा तद्वादं वदेत्, तद्यथा-नित्यवादं द्रव्यार्थतया; पर्यायार्थतया त्वनित्यवादं वदेत्। तथा स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावैः सर्वेऽपि पदार्थाः सन्ति, परद्रव्यादिभिस्तुन सन्ति, तथा चोक्तम्-"सदैव सर्व को नेच्छे-स्वरूपादिचतुष्टयात्। असदेव विपर्यासान्नचेन्नव्यवतिष्ठते // 1 // " इत्यादिकं विभज्यवादंवदेदिति। विभज्यवादमपि भाषाद्वितयेनैव ब्रूयादित्याह-भाषयोः-आद्यचरमयोः सत्या-सत्यामृषयोकिं भाषाद्विकं तद्भाषाद्वयं क्वचित्पृष्टोऽपृष्टो वा धर्मकथावसरेऽन्यदा वा सदा वा व्यागृणीयात्-भाषेत। किंभूतः सन्? सम्यक् सत्संयमानुष्ठानेनोत्थिताः समुत्थिताः सत्साधव उद्युक्तविहारिणो न पुनरुदायिनृपमारकवत्कृत्रिमास्तैः सम्यगुत्थितैः सह विहरन चक्रवर्तिद्रमकयोः समतया रागद्वेषरहितो वा शोभनप्रज्ञो भाषाद्वयोपेतः सम्यग्धर्म व्यागृणीयादिति // 22 // किञ्चान्यत्-तस्यैवंभाषायेन कथयतः कश्चिन्मेधावितयातथैव तमर्थ-मायार्यादिना कथितमनुगच्छन् सम्यगवबुध्यते, अपरस्तुमन्दमेधावितया वितथम-अन्यथैवाभिजानीयात्, तंच सम्यगनवबुध्यमानंतथा तथा-तेनतेन
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________________ विणय 1181 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विणय हेतूदाहरणसद्युक्तिप्रकटनप्रकारेण मूर्खस्त्वमसि तथा दुर्दुरूढः खसूचिरित्यादिना कर्कशवचनेनानियिन्यथा यथाऽसौ बुध्यते तथा तथासाधुःसुष्टु बोधयेत् न कुत्रचित्क्रुद्धमुखहस्तौष्ठनेत्रविकारैरनादरेण कथयन् मनःपीडामुत्पादयेत्। तथा प्रश्नयतस्तद्भाषामपशब्दादिदोषदुष्टामपि धिङ् मूर्खासंस्कृतमते! किं तवानेन संस्कृतेन पूर्वोत्तरव्याहतेन वोच्चारितेनेत्येवं न विहिस्यात्-नतिरस्कुर्याद् असंबद्धोद्घट्टनतस्तं प्रश्रयितारन विडम्बयेदिति / नथा निरुद्धम्-अर्थस्तोकंदीर्घवाक्यैर्महता शब्ददुधरणार्कविटपिकाठिकान्यायेन न कथयेत् निरुद्धं वा स्तोककालीन व्याख्यानं व्याकरणतर्कादिप्रवेशनद्वारेण प्रसक्त्यानुप्रसक्त्या न दीर्घयेत्-न दीर्घकालिकं कुर्यात् / तथा चोक्तम्- 'सो अत्थो क्त्तव्यो, जो भण्णइ अक्खरेहि थोवेहि। जो पुण थोवो बहुअक्खरेहिं सो होइनिस्सारो॥१॥" तथा किंचित्सूत्रमल्पाक्षरमल्पार्थं वा इत्यादिचतुर्भङ्गिका। तत्रयदल्पाक्षरं महार्थ तदिह प्रशस्यत इति // 23 // अपि च यत्पुनरतिविषमत्वादल्पाक्षरैर्न सम्यगवबुध्यते तत्सम्यग्-शोभनेन प्रकारेण समन्तात्पर्यायशब्दोचारणतो भावार्थकथनतश्चालपेभाषेत समालपेत्, नाल्पैरेताक्षरैक्त्वा कृतार्थो भवेद्, अपितु-ज्ञेयगहनार्थभाषणे सद्धेतुयुक्त्यादिभिः श्रोतारमपेक्ष्य प्रतिपूर्णभाषी स्याद्, अस्खलितामिलिताहीनाक्षरार्थवादी भवेदिति / तथा आचार्यादः सकाशाद्यथावदर्थ श्रुत्वानिशम्य अवगम्य च सम्यग्- यथावस्थितमर्थं यथा गुरुसकाशादवधारितम) प्रतिपाद्यं दृष्टुं शीलमस्य स भवति सम्यगर्थदर्शी; स एवंभूतः संस्तीर्थकराज्ञया सर्वज्ञप्रणीतागमानुसारेण शुद्धम्-अवदात पूर्वापराविरुद्धम् निरवद्यं वचनमभियुञ्जीतोत्सर्गविषये सतिउत्सर्गमपवादविषये चापवाद तथा स्वपरसमययोर्यथास्वं वचनमभिवदेत् / एवं चाभियुञ्जन् भिक्षः पापविवेकं लाभसत्कारादिनिरपेक्षतया काङ्खमाणो निर्दोषं वचनमभिसन्धयेदिति // 4|| पुनरपि भाषाविधिमधिकृत्याहअहावुझ्याइंसुसिक्खएखा, जइज्जमाणातिवेलं वदेजा। से दिद्विमं दिट्टिण लूसएजा, से जाणई भासितं समाहिं // 25 // अलूसएणो पच्छन्नमासी, णो सुत्तमत्थं च करेन्ज ताई। सत्थारभत्ती अणुवीइवायं, सुयं च सम्म पडिवाययंति॥२६|| यथोक्तानि तीर्थकरगणधरादिभिस्तान्यहर्निशं सुष्ठु शिक्षेतग्रहणशिक्षया | सर्वज्ञोक्तमागमं सम्यक् गृह्णीयाद् आसेवनाशिक्षया त्वनवरतमुधुक्तविहारितयाऽऽसेवेत, अन्येषां च तथैव प्रतिपादयेत्, अतिप्रसक्तलक्षणनिवृत्तये त्वपदिश्यते सदा ग्रहणासेवनाशिक्षयोर्देशनायां यतेत, सदा यतमानोऽपि यो यस्य कर्त्तव्यस्य कालोऽध्ययनकालो वातां वेलामतिलभ्य नातिवेलं वदेद् अध्ययनकर्तव्यमर्यादा नातिलवयेत्स(दस) / दनुष्ठानं प्रतिव्रजेता, यथावसरंपरस्पराबाधया सर्वाः क्रियाः कुर्यादित्यर्थः / स एवंगुणजातीयो यथाकालवादी यथाकालचारी च सम्यग्दृष्टिमान्यथावस्थितान् पदार्थान् श्रद्दधानो देशनां व्याख्यानं वा कुर्वन् दृष्टिसम्यग्दर्शनं न लूषयेत्-न दूषयेत्। इदमुक्तं भवति-पुरुषविशेषज्ञात्वा तथा तथा कथनीयमपसिद्धान्तदेशनापरिहारेण यथा यथा श्रोतुः सम्यक्त्वं स्थिरीभवति, न पुनः शङ्कोत्पादनतो दूष्यते, यश्चैवंविधः स जानाति-अवबुध्यते भाषितुं-प्ररूपयितुं समाधिं सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्राख्यं सम्यक्चित्तव्यवस्थानाख्यं वातं सर्वज्ञोकं समाधि सम्यगवगच्छतीति / / 25 / किञ्चान्यत्- 'अलूसए' इत्यादि सर्वज्ञोक्तभागर्म कथयन् 'नो लूषयेत्' नान्यथाऽपसिद्धान्तव्याख्यानेन दूषयेत्, तथा न प्रच्छन्नभाषी भवेत् सिद्धान्तार्थमविरुद्धमवदातं सार्वजनीनं तत्प्रच्छन्नभाषणेन न गोपयेत्, यदिवा-प्रच्छन्नं वाऽर्थमपरिणताय न भाषेत्, तद्धि सिद्धान्तरहस्यमपरिणतशिष्यविध्वंसनेन दोषायैव संपद्यते / तथा चोक्तम्-"अप्रशान्तमतौ शास्त्र-सद्भावप्रतिपादनम् / दोषायाभिनवोदीर्णे,शमनीयमिव ज्वरे / / 1 // " इत्यादि, न च सूत्रमन्यत् स्वमतिविकल्पनतः स्वपरत्रायी कुर्वीतान्यथा वा सूत्रं तदर्थं वा संसारात् त्रायी त्राणशीलो जन्तूनां न विदधीत, किमित्यन्यथा सूत्रं न कर्त्तव्यमित्याह-- परहितैकरतः शास्ता तस्मिन् शास्तरि या व्यवस्थिता भक्तिः बहुमानस्तया तद्भक्त्या अनुविचिन्त्य ममानेनोक्तेन न कदाचिदागमबाधा स्यादित्येवंपर्यालोच्य वादं वदेत्। तथा यच्छुतमाचार्यादिभ्यः सकाशात्तत्तथैव सम्यक्त्याराधनामनुवर्तमानोऽन्येभ्य ऋणमोक्ष प्रतिपद्यमानः प्रतिपादयेत्-प्ररूपयेन्न सुखशीलतां मन्यमानो यथाकथंचित्तिष्ठेदिति // 26|| सूत्र०१ श्रु०१४ अ०) इयाणिं विणएणं-जहा मगहविसएगोवरगामे पुप्फसालो गिहवती। भद्दा भारिया पुत्तो से पुप्फसालसुतो सो मायापियरं पुच्छईको धम्मो? तेहिं भण्णइ मायापियरं सुस्सूसियव्वं दो चेव देवयाई माया पियरो य जीवलोगम्मि। तत्थ वि पिया विसिट्ठो, जस्स वसे वट्टइ माया। ताहे सो ताण पायमुहधावणाई विभासा देवयाणि वसुस्सूसई। अन्नया गामभोइओ आगतो ताणि संभंताणि पाहुण्णं करेंति / सो वि चिंतेइ एयाणि वि एस देवयं एवं पूएमि तो धम्मो होहिइ। तस्स सुस्सूसा कया। अन्नया तस्स भोइयस्स अन्नो महल्लो दिट्ठो० जाव सेणिओरायातओलग्गिउमारद्धो या सामी समोसढो सेणिओ इड्डिए गंतूण बंदइ, ताहे सो सामि भणइ अहं तुब्भो ओलग्गामि, सामिणा भणियं--अहं रयहरणपडिग्गहतायाए ओलग्गिज्जामि ताणं सुणणाए संबुद्धो। एवं विणएणं सामाइयं लब्भइ / आ०म०१ अ०। ('विणयकम्म' शब्देऽप्येतत्कथानकं स्फुटं वक्ष्यते।) "विणएण णरो गंधे-ण चंदणं सोमयाइ रयणिययरो। महुररसेणं अमयं, जणप्पियत्तं लहइ भुवणे // 2 // सुविसुद्धसीलजुत्तो, पावइ कित्तिं जसं च इहलोए। सव्वजणवल्लहो विय, सुहगइभागीय परलोए॥३॥" ध००१ अधि०४ गुण / नीती, उत्त०१ अ०
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________________ विणयकम्म 1182- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विणयंधर विणयकम्म-न०(विनयकर्मन्) विनयनं विनयः। कर्मापनयनमित्यर्थः / विनीयते वाऽनेनाष्टप्रकार कर्मेति विनयस्तस्य च कर्म विनयकर्म। पूजाकर्मणि, कृतिकर्मणि, प्रव०२ द्वार / आव०। वैनयिककृत्ये, पञ्चा०८ विव०विनयकर्माऽपि द्विधा-द्रव्यतो निहावादीनामनुपयुक्तसम्यग्दृष्टीनांचा भावत उपयुक्तसम्यग् दृष्टीनां विनयक्रियेति। आव०३ अ०॥ उदाहरणं विनये पुष्पशालकथामागधे गोवरनामे, पुष्पशालः कुटुम्बिकः / भद्रा भार्या च तस्याऽऽसीत्, पुष्पशालस्तु तत्सुतः // 1 // समातापितरावूचे, को धर्मस्ताववोचतुः। विनयादत्स ! शुश्रूषा, मातापित्रोर्विधीयते / / 2 / / द्वे एव देवते वत, माता च पिता च जीवलोकेऽस्मिन्। तत्रापि पिताऽभ्यधिको, यस्य वशे वर्तते माता !|3|| पादशौचादिशुश्रूषां, सचक्रेऽथ सदा तयोः। ग्रामाधिपोऽन्यदाऽऽयातः, स ताभ्यामप्यपूज्यत // 4|| सोऽथ दध्यावसौ ताव-न्मत्पित्रोरपि दैवतम्। तच्छुश्रूषामथाकार्षी-दावी लाभो महानितः / / 5 / / तस्याप्यन्योऽन्यदाऽधीशः, प्राप्तस्तं सोऽप्यपूजयत्। अस्याप्यसौ पूज्य इति,मुक्त्वैतमहमप्यमुम्॥६॥ सेवेऽथ तस्य सेवायां, प्रवृत्तो धर्मकामुकः। उपर्युपरि सेवार्थी, श्रेणिकं सेवते स्म सः॥७॥ श्रेणिकोऽपि नमन् दृष्टः, श्रीवीरं सोऽथ दध्यिवान्। सेवेऽहमप्यमुं तस्मात्, पूजितैरपि पूजितम्॥८॥ अथोचे भगवन्तंस, प्रभो ! सेवां करोमि वः। स्वाम्यूचे साधुवेषेण, सेवाऽस्माकं विधीयते॥६॥ तच्छुत्वा भगवद्वाक्यं, संबुद्धो व्रतमग्रहीत्। एवं वैनयिकात्तस्या-ऽभवत्सामायिकव्रतम्॥१०॥ आ० क०१अ०) आ० चू०! विणयचंदसूरि-पुं०(विनयचन्द्रसूरि) तपागच्छीये रत्नसिंहसूरिशिष्ये, येन कल्पसूत्रे नियुक्तिः कृता, विक्रमीये 1325 संवत्सरे अयमासीत्। जै० इ०। विणयण-न०(विनयन) गमने, प्रापणे, आ०चू०१० विणयण्णु-पुं०(विनयज्ञ) विनयो-ज्ञानदर्शनचारित्रौपचारिकरूपस्तं जानातीति विनयज्ञः। ज्ञानादिरत्नत्रयज्ञे, आचा०१ श्रु०२ अ०५ उ०) विणय(यं)धर-पुं०(विनयधर) स्वनामख्याते पुरुष, ध०२०। दिनयंधरकथा पुनरेवम्"अस्थि ह सुवन्नरुइरा, चंपा चंपयलय व्व पवरपुरी। फुरियनयधम्मबुद्धी, तत्थ निवो धम्मबुद्धि त्ति / / 1 / / अमरीओ विजयंती, रूपेण पिया यतस्स विजयंती। सिड्डी य इन्भनामो, पुन्नजसा नाम से भज्जा / / 2 / / निचं गुरुजणपणओ, नियतणुअइकंतकंतिजियकणओ। उल्लसिरबहुलविणओ, ताणं विणयंधरो तणओ|३|| सो सव्वकलाकुसलो, कोमुइनाहु व्व सयलजणइट्ठो! निरुवमसुंदेरिमर-ग संगयं जुव्वणं पत्तो॥४॥ सुहसंगहियकलाओ, लवणिमउवहसियतियसरमणीओ। साययकुलजम्माओ, पडिवनगिहत्थधम्माओ // 5 // तारा सिरीय विणया, देवी नामाउ विमलसीलाओ। जमगं चउरो परिणे-इपवरसिट्ठीण धूयाओ॥६॥ ववहारसुद्धिसारो, पायं परिहरिय पावपन्भारो। सो सुहजलहिनिमग्गो, कालं बोलइ अणुव्विग्गो।।७।। को अइसुहिओ इहयं, नयरे नयकुलहरे सया सुहिएं। वत्ता इमा पवत्ता, कयाऽवि नरनाहअत्थाणे // 8 // एगेण तत्थ भणियं सुहियाण जणाण मत्थयमणि व्व। अस्थि इह इब्भपुत्तो, धणियं विणयंधरो नाम / / 6 / / जस्स धणं धणयस्सव, जणप्पियं रूवममरपहुणु व्य। जीवस्स व अमलमई, करिरायस्स व सया दाणं // 10 // जस्सय पिया उचउरो, अइसयसुंदेरमंदिरं दर्छ। विलियाओ अमरीओ, मन्ने नो इंति दिट्टिपहं॥११॥ इचाइ बहुपयारं, निरुनिरुवमवन्नणं सुणिय ताणं। मयणसरपसरविहुरो, राया रायाउरो जाओ।॥१२॥ तिहुयणमणोहरीओ, कहमह संपजिहंति एयाओ। इय चिंताउरचित्त-स्स तस्स बुद्धी इमा जाया / / 13 / / पञ्चाइय पउरजणं, दोसं उप्पाइयं च सेवणिणो। गिण्हामि बला ताओ, न होमि गरिहारिहो जेण / / 14 // इय निच्छिय एगते, निभिच्च भिच्चो पयंपियो तेण। विणयंधरेण सद्धिं, कुण मित्तिं कवडनेहेण / / 15 / / तत्तो वि भुज खंडे, लहुं लिहाविय इमं तुमं गाहं। पच्छन्नमेव मज्झं, उवणेहि अयाणियंतेणं // 16 / / तथा हि"पसयच्छिरइवियक्खणि, अज्ज अभग्गस्स तुह दुसहविरहे। सा जामिणी तिजामा,तिजाम सहसि व्व मह जाया"||१७|! तेण वितहेव विहिए, निवेण पउराण पेसियं भुजं! देवीए गंधपुडे, पहियं विणयंधरेणेयं // 15 // भो भो लिवी परिच्छं, विहिऊण विणिच्छयं कहह मज्झं। नहु पच्छा कहियवं, अहह अजुत्तं कयं रन्ना // 16 // ते वि हुन हुँति दुद्धे,पूयरया तह वि सासणं पहुणो। कायव्वं ति भणंतो, कुणति हत्थे लिविपरिच्छं॥२०॥ पिच्छि वि लिविसंवाय, भणियं नायरजणेण सविसायं। जइ वि लिवी संवाओ, नयघडइ इमं तु एयाओ॥२१॥ जो चरइ मणभिरामे, सलइतरुनियरबहलआरामे। सो कंटइयसरीरे, करी करीरे कहं रमइ // 22 // जो दुललिओ सलिले, सया विमाणससरस्स अइविमले। सो कह करेइ किडु, कलहंसो गामनदम्हि / / 23 / / जो अत्थइ तप्पासे,खणमविपडिपुन्नपुन्नपसरस्स। वंजुलसंगेण विसं–वपन्नगो मुयइ सो पावं॥२४॥ ता मज्झत्थो होउं, देवो चिंतेउ वत्थुपरमत्थं। अगडतयं पि गडियं,एयं केणावि पिसुणेण // 25 // सुद्धो वि फालिहमणी, उवाहिवसओ धरेइ अन्नत्तं / खलसंगाउ इमस्स वि, खलियं अक्खलियसीलस्स // 26 / / इय भणिए पउरजणे, पडियारं मयगसव्व अगणंतो। भंजियमेरालाणो, पगओ असमंजसं निवई // 27 // भणइयरे रे सुहडा, हठेण आणेइ तस्स तस्स दइयाओ। मुद्देह य हदगेहे, निद्धाडिय परियणं दूरे।।२८|| तुब्भे पुण नायरया, हंहो दोसिल्लपक्खवाइला। तं कारह मह पुरओ, सुद्धं जेणासु मुंचामि॥२६॥
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________________ विणयंधर ११५३-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विणयंधर इय पउरं फरुसागरा-हिताडिया धाडिया नरिदेण। किवणेण मगणा इव, पउरा पत्ता सगेहेसु // 30 // तो विणयंधरभजा, ताओ निरवञ्जकजसज्जाओ। आणाविय सुहडेहि, राया पक्खिवइ ओरोहे // 31 / / ताण सुरूवं दटु, चिंतइ निवई अहो अहं धन्नो। जं निसुया दिट्ठाओ, मम गेहमिमाउ पत्ताओ॥३२॥ . बहुचाडुवयणपुव्वं, विसएपस्थितओ निवो ताहिं। लज्जो ण य वयणाहिं, महासईहिं इमं भणिओ॥३३॥ पररमणीरमणीयं, रूवं पासंति अहह मूढमणा। नमणागं पिहु अप्पं, निवडतं भीमभवकूपे॥३४॥ परजुवइजुव्वणभरं, जे जोअंते जणे जए जिणइ। कुसुमसरो वि अणंगो,कह ते वुचंति नरसीहा // 35 // परकतं कामंता, गयसुचरियजीविया महामलिणा। गुरुपावकारिणो इव, कह ते दंसंति निययमुहं॥३६॥ इह विनडिय अप्पाणं, कुलं कलंकित अकित्ति अकंता। अइदुस्सहनरयदुह-गितावतविभमंति भवे॥३७।। इय सुणिय दोसजालं, नराहमाणं विणड्डसीलाणं। मणसा वि सीलरयणं, मा मइल्प कुलसंभूआ।।३।। इय सुणिय सो विलक्खो, सयलदिणं त निसं च कह कह वि। गमिउं गोसे पत्तो, तासिं पासे पुणो वि निवो॥३६।। ता नियइ ताउ सव्वा-उजलण जालालिकविलकेसाओ। अइसयबीभच्छीओ, जरजीवरमलिणगत्ताओ / / 4 / / परिगलियजुव्वणाओ, रागीण विरागकरणपउणाओ। चिंतइय निराणंदो, वेरम्गगओ नरवरिदो॥४१॥ किं एस दिट्ठिबंधो, मइमोहो वाऽवि सुविणओ किं वा / किं वा दिव्यपओगो, अहवा पावप्पभावो मे // 42 // अहह हयासेण भए, कलंकियं नियकुलं सया विमलं। वित्थारिओय भुवणे, तमालदलसामलो अयसो॥४३॥ इचाइ बहुविहं जू-रिऊण राया विसज्जए ताओ। विणयंधरस्स पासे, सजो जाया सरूवत्था / / 44|| इत्तोय तत्थ नयरे, पत्तो सिरिसूरसेणवरसूरी। पत्ता गुरुनमणत्थं, निवविणयंधरपउरलोया // 45 // तिपयाहिणपुव्वमपु-व्वभावभावियमणा नमिय गुरुणो। निसियति उचियदेसे, इय कहइ गुरू विधम्मकहं / / 46|| धम्मो दुविहो भणिओ, जिणेहि जियरागदोसमोहेहिं। सिवनयरिगमणगब्भो, सुसाहधम्मो य गिहिधम्मो // 47 // तत्थय पढम साव-ज्ज कज्जपरिवजणुज्जुओ उज्जू। पंचमहव्ययपव्यय-गुरुभारसहुव्वहणपवणो॥४८॥ समिईगुत्तिपवित्तो, अममत्तो सत्तुमित्तसमचित्तो। खंतो दंतो संतो, अवगयतत्तो महासत्तो 146 // निम्मलगुणगणजुत्तो, गुरुपयभत्तो करेइ जो सत्तो। सो अचिरेणं पावइ, सुमग्गलग्गो पवग्गपुरं / / 5 / / तकरणासत्तेहिं, सावगधम्मोऽवि होइ कायव्यो। कालेण सोऽवि सिवसु-क्खदायगो देसिओ समए५१॥ इय सोउं धम्मकहं, लद्धावसरेण पुच्छिय रना। भयवं! किं कयमसमं, सुकयं विणयंधरेण पुरा // 52|| जंसव्वपिओ एसो, पियाउएयस्स पवररूवाओ। अह भणइ गुरू निव! इंह, आसी नयरम्मि हत्थिसीसम्भि। राया वियारधवलो, धवलजसों धवलियदियंतो // 54 // तस्स चरो वेयाली, अगन्नकारुन्नमाइगुणसाली। निचं परोवयारी, आसि दढं पावपरिहारी // 55 / / सो अइउदारयाए, पइदिवसं असणमाइसमणुन्न। दाउँ कस्सइ उचियं,पच्छा भुंजइ सयं नियमा॥५६।। सो अन्नदिणे बिंदु-जाणो, पडिमाठियं सविहिनाहं। उवसभरसं व मुत्तं, दटुं तुट्ठो थुणइ एवं / / 57 / / जिणस्तुतिकाव्यम्वपुरि अंगविन्नासु वपुरिलोयणघणलवणिम, कटरिभालुसुविसालु कटरिमुहकमलपसन्निम। अरिरि सरलुभुयजुयलु अरिरि सिरिवत्थहसत्थिम, अइयचरण भवहरण अइयसव्यंगसुचंगिम।। अरि कुणह नयणघणुरंक धउ वलिवलिजोइवि एहु पहू। देवाहिदेव तिहुयण तिलओ परमप्पउंजिम लहु हु लहु // 58|| एवं थुणिऊण अणू-ण भत्तिराएण सुद्धसद्धिल्लो। बहुमाणमुव्वहंतो, जिणम्मि सगिह इमो पत्तो // 56 / / पन्नाणुबंधिपुन्नो-दएण अह तस्स भोयणावसरे। सिरिसुविहिजिणो भिक्खा-इआगओ गिहदुवारम्मि // 60 / / तंसुलु द? वंदी, अमंदआणंदजायरोमंचो। पडिलाभेइ जिणिंद, परिवेसियकामगुणिएणं // 61 / / चिंतइय अहं धन्नो, अन्ज मर्म जम्मजीवियं सहलं। जं पाणिपुडेणमिणं, दाणं गिण्हइ सयं भयवं / / 62 / / अह उग्घुटुं गयणे, अहो सुदाणं अहो सुदाणं ति। वियसिय मुहेहि विबुहे-ति ताडिया अमरभेरीओ॥६३।। बहुजणजणियचमक्कं, गंधोदगकुसुमवरिसणं जायं। उक्कोसा वसुहारा, पडिया भुवणंगणे तस्स // 6 // नर सुर असुरपहू विहु, वंदित्तुं वंदिणो वि से पत्ता। सुह परिणामेण तया, जाया सम्मत्तसंपत्ती॥६५।। काउं सुपत्तपत्तं, वित्तं चित्तम्मि जिणमणुसरंतो। सो चइय पूइदेह, पत्तो पढमं अमरगेहं॥६६॥ तत्तो चविओ एसो, जाओ विणयंधरोउलोयपिओ। तद्दाणपुन्नवसओ, इमाउ जायाउ जायाओ॥६७।। तुह वेरगनिमित्तं, तासिं सुइसीलरंजियमणाए। सासणदेवीइ तया, इमा विरूवाउ विहियाओ|६|| इय सुणिय फुरियगुरुचरण, धम्मबुद्धिनिवो। काऊण रज्जसुत्थं, सुत्थमाणो गिण्हए दिक्खं / / 66 // विणयंधरो विधम्मे, बहुमाणं बहुजणाण वढ्तो। चउहि वि भजाहि सम, महाविभूईएँ पव्वइओ|७|| पउरावि ससत्तीए, धम्मंगहि वयंति सहाणं। सूरी वि सपरिवारो, सुहेण अन्नत्थ विहरेइ॥७१। तो धम्मबुद्धि विणयं-धर मुणिणो चरियचरणमकलंक। निहणियअसेसकम्मा, जाया संकलियसिवसम्मा।।७२|| श्रुत्वेति वृत्तं विनन्धरस्य, प्रभूतसत्त्वाहितबोधिबीजम् / भो भव्यलोका ! विलसद्विवेका! लोकप्रियत्वं गुणमाश्रयध्वम्॥७३॥
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________________ विणयपडिवत्ति ११५४-अभिधानराजेन्द्रः- भाग 6 विणयसमाहिट्ठाण विणयपडिवत्ति-स्त्री०(विनयप्रतिपत्ति) विनयस्य प्रारम्भे, अङ्गोकारे, दशा०। आयरितो अंतेवासी इमाएचउव्विहाए विणयपडिवत्तीए विणएता णिरिणित्तं गच्छंति / तं जहा-आयारविणएणं सुयविणएणं विक्खेवणाविणएणं दोसनिग्घायणाविणएणं। आचार्याः आडित्यभिव्याप्त्या मर्यादया वा स्वयं पञ्चविधाचारमाचरति आचारयति वा इत्याचार्यः, पूर्वोक्तगुणयुक्तो वा अन्तेवासि' त्ति अन्ते-समीपे वस्तुंचारित्रक्रियायां वस्तुं शीलमेषामित्यन्तेवासिनः तान् ‘इमाए' त्ति अनयाऽनन्तरवक्ष्यमाणया चतुः संख्यया विनयस्य प्रतिपत्तिः प्रारम्भाङ्गीकार इति यावत् विनय-प्रतिपत्तिस्तया विनयप्रतिपत्त्या विनयित्वा शिक्षयित्वा अनृणीभवति / यदा आचार्येण गच्छोद्धारकरणसमर्थोऽन्यः कोऽपि शिष्यो विनयितो भवति तदा स अनृणीभवतीति / स(ऋर्णस्तु लोकेऽपि गर्हितो भवति; निन्दापात्रमित्यर्थः, सचचतुर्द्धा शिष्ययति, तद्यथा-आचारविनयेन 1, श्रुतविनयेन 2, विक्षेपणाविनयेन 3, दोषनिर्घातनतया 4 / दशा० 4 अ० व्य०। विणयपरिहीण-त्रि०(विनयपरिहीन) शिक्षावियुक्ते, ध०२ अधि०। विणयमंसि(ण)-पुं०(विनयभ्रंशिन) विनयादभ्रश्यतीति विनयभ्रंशी। विनयकरणभीरौ,विशे। विणयमूल-पुं०(विनयमूल) विनयो विनीतता मूलं कारणं यस्यासौ विनयमूलः। विनयप्रभवे,पा०। विणयवई-स्त्री०(विनयवती) विगतभयाया अन्तिके प्रव्रजितायां साध्व्याम्, सा च भक्तप्रत्याख्यानेन मृत्वा देवलोकं गता / आव०४ अ० आ० चू०। विणयवादि(ण)-पुं०(विनयवादिन) विनयादेव केवलात् क्रियासाध्या सिद्धिमिच्छति वैनयिके, आचा१ श्रु०१ अ०७ उ०। सूत्र० विणयविजय-पुं०(विनयविजय) कल्पसुबोधिकाकारे, श्रीकीर्तिविजयगणि-शिष्योपाध्यायश्री 5 विनयविजयगणिविरचितायां कल्पसुबोधिकायां सामाचारीव्याख्यानं सम्पूर्णम्। कल्प०३ अधि०२ क्षण। "तस्य स्फुरदुरुकीर्तेर्वाचकवरकीर्तिविजयपूज्यस्य / विनयविजयो विनेयः, सुबोधिकां व्यरचयत् कल्पे॥१॥" कल्प०३ अधि०२ क्षण। विणयसंपण्ण-त्रि०(विनयसम्पन्न) अभ्युत्थानादिविनयसम्पन्ने, पं० चू० 1 कल्प। स्था०। औ०। विणयसमाहि-पुं०(विनयसमाधि) विनयस्य समाधेश्च प्रतिपादके दश वैकालिकस्य नवमेऽध्ययने, दश०८ अ०। ('विणय' शब्देसर्वावक्तव्यतोक्ता।) विणयसमाहिट्ठाण-न०(विनयसमाधिस्थान) विनयसमाधिभेदरूपेऽर्थे, दश०। सामान्योक्तविनयविशेषोपदर्शनार्थमिदमाह सुअं मे आउसं ! तेणं भगवया एवमक्खायं-इह खलु थेरेहि भगवंतेहिं चत्तारि विणयसमाहिट्ठाणा पन्नत्ता / कयरे खलु ते थेरेहिं भगवंतेहिं विणयसमाहिट्ठाणा पन्नत्ता? इमे खलु ते थेरेहि भगवंतेहिं चत्तारि विणयसमाहिट्ठाणा पन्नत्ता। तं जहा-विणयसमाही सुअसमाहीतवसमाही आयारसमाही। "सुअं में" इत्यादि सूत्रम् / अस्य व्याख्या श्रुतं मया आयुष्मंस्तेन भगवता एवमाख्यातमित्येतद्यथा-षड्जीवनिकायां तथैव द्रष्टव्यम्। इह खल्विति' इह क्षेत्रे प्रवचने वा खलुशब्दो विशेषणार्थः। न केवलमत्र किं त्वन्यत्राप्यन्यतीर्थकृत्प्रवचनेष्वपि स्थविरैर्गणधरैर्भगवद्भिः-परमैश्वर्यादियुक्तश्चत्वारि विनयसमाधिस्थानानि-विनयसमाधिभेदरूपाणि प्रज्ञप्तानि-प्ररूपितानि। भगवतः सकाशेश्रुत्वा ग्रन्थत उपरचितानीत्यर्थः / कतराणि खलु तानीत्यादिना प्रश्नः, अमूनि खलु तानीत्यादिना निर्वचनम्। तद्यथेत्युदाहरणोपन्यासार्थः / विनय समाधिः, श्रुतसमाधिः, तपः समाधिः,आचारसमाधिः। तत्र समाधानं समाधिः-परमार्थत आत्मनो हितं सुखं समाधिम् विनये विनयाद्वा समाधिः विनयसमाधिः / एवं शषेष्वपि शब्दार्थो भावनीयः। एतदेव श्लोकेन संगृह्णातिविणए सुए अतवे, आयारे निचपंडिआ। अभिरामयंति अप्पाणं,जे भवंति जिइंदिआ||१|| अस्य व्याख्या-विनये यथोक्तलक्षणे, श्रुते-अङ्गादौ, तपसि बाह्यादौ, आचारे च मूलगुणादौ चशब्दस्य व्यवहित उपन्यासः / नित्यंसर्वकालं पण्डिताः-सम्यक्परमार्थवेदिनः / किं कुर्वन्तीत्याह-अभिरामयन्ति अनेकार्थत्वादाभिमुख्येन विनयादिषु युञ्जत आत्मानंजीवम्। किमित्यस्योपादेयत्वात्। केएवं कुर्वन्तीत्याह येभवन्तिजितेन्द्रियाः, जितचक्षुरादिभावशत्रवः तएव परमार्थतः पण्डिता इतिप्रदर्शनार्थमेतदिति सूत्रार्थः / / 1 / / विनयसमाधिमभिधित्सुराहचउव्विहाखलु विणयसमाही भवइ। तं जहा-अणुसासिख़तो सुस्सूसइ१, सम्मं संपडिवाइ 2, वेयमारा हइ 3, नय भवइ अत्तसंपग्गहिए, चउत्थं पयं भवइ। भवइ अ इत्थ सिलोगो॥ 'चउव्विहे' त्यादि। चतुर्विधः खलु विनयसमाधिर्भवति / तद्यथेत्युदाहरणोपन्यासार्थः। 'अणुसासिज्जंतो' इत्यादि। अनुशास्यमानस्तत्र तत्र चोद्यमानः शुश्रूषतितदनुशासनमर्थितया श्रोतुमिच्छति 1 / इच्छा-प्रवृत्तितः तत्सम्यक् संप्रतिपद्यते। सम्यगविपरीतमनुशासनतत्त्वं यथा-विषयमवबुद्ध्यते / स चैवं विशिष्टप्रतिपत्तेरेव वेदमाराधयति / वेद्यतेऽनेनेति वेदः-श्रुतज्ञानं तद्यथोक्तानुष्ठानपरतया सफलीकरोति 3 / अत एव विशुद्धप्रवृत्तेन च भवत्यात्मसंप्रगृहीतः / आत्मैव सम्यक् प्रकर्षण गृहीतो येनाहं विनीतः सुसाधुरित्येवमादिना। स तथा नात्मोत्कर्षप्रधानत्वाद्विनयादेर्नचैवंभूतो भवतीत्यभिप्रायः /
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________________ विणयसमाविट्ठाण 1185 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विणिहिट्ठ चतुर्थं पदं भवतीत्येतदेव सूत्रक्रमप्रामाण्यादुत्तरोत्तरगुणापेक्षया चतुर्थमिति। निग्रहो याताना विनाश इति पर्यायाः। आव०६ अ०। अत्यन्ताभावरूपे, भवति चात्र श्लोकः / अत्रेति विननयसमाधौ श्लोकश्छन्दोविशेषः / स सूत्र०२ श्रु०१(बौद्धानां स्वत एव निर्हेतुको विनाश इति तृतीयभागे चायम् 'खणिअवाय' शब्दे 704 पृष्ठे परीक्षितम्!) "विणासो बलस्स" (नारी) पेहेइ हिआणुसासणं, सुस्सूसई तं च पुणो अहिहिए। पुरुषबलस्य क्षयहेतुत्वात्। उक्तंच--"दर्शने हरते, चित्तं, स्पर्शने हरते नयमाणमएण मजई, विणयसमाहि आययहिए / / 2 / / बलम् / सङ्गने हरते वीर्य, नारी प्रतयक्षराक्षसी // 1 // " तं०। आ० म० 'पेहेइ' इत्यादि सूत्रम् / अस्य व्याख्या-प्रार्थयते-हितानुशासन- 1 विणासण-न०(विनाशन) शैलेश्यवस्थायां सामस्त्येन कर्माभावापादने, मिच्छतीहलोकपरलोकोपकारिणमाचार्यदिभ्य उपदेशम्। शुश्रूषतीत्य- 1 आचा०१श्रु०६अ०१उ०। नेकार्थत्वाद्यथाविषयमवबुध्यते। तचावबुद्धं सत्पुनरधितिष्ठति यथावत् | विणासधम्म(ण)-त्रि०(विनाशधर्मन्) विनश्वरस्वभावे, बृ० ३उ०॥ करोति / न च कुर्वन्नपि मानमदेन-मानगर्वेण माद्यति-मदं याति / विणासवाय-पुं०(विनाशवाद) क्षणिकैकान्तवादे, स्या०) विनयसमाधौविनयसमाधिविषये आयता-र्थिको मोक्षार्थीति सूत्रार्थः विणासि(ण)-त्रि०(विनाशिन) विनश्वरे, विशेष |2|| दश०अ०४उ०। विणिउत्त-त्रि०(विनियुक्त) प्रतिसमयं प्रवृत्तिमति, विशे०। निवेशिते, विणयसुद्ध-न०(विनयशुद्ध)'किइकम्मविसोहि पउं-जए जो अहीण- | ज्ञा०१8०१०। व्यापारिते, व्य०१ उ०1 मइरित्तं मणवयणकायगुत्तो, तंजाणसु विणयओ सुद्धं / / 1 / / इत्युक्त- | विणिओग-पुं०(विनियोग) नियोगे, विणिओगो त्ति वा निओगो त्ति वा लक्षणे विनयतः सुद्धे कृतिकर्मणि, स्था० 5 ठा० ३उ०। आ० चू०। एगट्ठा / आ० चू०१ अ01 आशयभेदे, षो०३ विव०। विशे० (कदा आवा विनियोगः कार्य इति 'जोग' शब्दे चतुर्थभागे 1616 पृष्ठे गतम्।) विणयस्सुय-न०(विनयश्रुत) विनयप्रतिपादके उत्तराध्ययनानां / विणिक्खमित्ता-अव्य०(विनिष्क्रम्य) विमुच्येत्यर्थे , पञ्चा०१८ विवा प्रथमेऽध्ययने, उत्त०१अातत्र चाद्यं विनयश्रुतमिति तस्य कीर्तनावसरः। विणिगृहण-(विनिगूहन) प्रच्छादने, आचा०२ श्रु०१चू०१अ०१० उ०॥ न च तद् उपक्रमाद्यनुयोगद्वारतद्भेदनिरुक्तिक्रमप्रयोजनप्रतिपादन विणिधाय-पुं०(विनिधात) विनाशे, सूत्र०१ श्रु०७ अ०। मन्तरेण शक्यं कीर्तयितुमिति मन्वानः प्रस्तुताध्ययनस्यानुयोग पंचहिं ठाणेहिं जीवा विणिघायमावलंति / तं जहा-सद्देहिं० विधानक्रममाधिकारं चाह जाव फासेहिं / (सू०-३६०४) तत्थऽज्झयणं पढम, विणयसुयं तस्सुवकमाईणि। विनिघातं मरणं मृगादिवत्संसारंवाऽऽपद्यन्ते प्राप्नुवन्तीति। आह च-- दाराणि पनवेलं, अहिगारो इत्थ विणएणं / / 28|| "रक्तः शब्दे हरिणः; स्पर्श नागो रसे च वारिचरः। कृपणपतङ्गो रूपे, तत्र एतेष्वध्ययनेषु मध्ये अध्ययनंप्रथमम्-आद्यं विनयाभिधानकं श्रुतं भ्रमरो गन्धे ननु विनष्टः / / 1 / / पञ्चसु रक्ताः पञ्च विनष्टा, यत्रागृहीतविनयश्रुतंमध्यपदलोपीसमासः। तस्य इति-विनयश्रुतस्य उपक्रमादीनि परमार्थाः / एकः पञ्चसु रक्तः, प्रयाति भस्मान्ततां मूढः / / 2 / / " इति। द्वाराणि प्ररूप्य-तद्भेदनिरुक्तिक्रम-प्रयोजनप्रतिपादनद्वारेण प्रज्ञाप्य, स्था०५ ठा०१ उ०। प्रतिस्खलने, अनु०॥ एतदनुयोगः कार्य इति शेषः, अधिकारश्चात्र विनयेन, तस्येहानेकधाऽभि विणिच्छय-पुं०(विनिश्चय) विगतो निश्चयो विनिश्चयः। अनु०। उत्तका धानात् / आह- 'पढमे विणओ' इत्यनेनैवोक्त्वात् पुनरुक्तमेतद्, आ० म०। आ० चू०! निर्णये, सूत्र०१ श्रु०११ अ०॥ निः सामान्यानां उच्यते-शास्त्रपिण्डार्थविषयं तत्, एतच्च प्रस्तुतैकाध्ययनगोचरमितिन | विशेषाणां निश्चये, विशे० पौनरुक्त्यमिति गाथार्थः / उत्त० पाई०१अग तिविहे विणिच्छए पण्णत्ते, तं जहा–अत्थविणिच्छए, धम्मविणयहीण-त्रि०(विनयहीन) अकृतोचितविनये, ध०३ अधि०ा आव०॥ विणिच्छये, कामविणिच्छए। (मु०-१८९४) विणयायार-पुं०(विनयाचार) ज्ञानाचारभेदे, नि० चू०१उ०। अर्थादिविनिश्चया अर्थादिस्वरूपपरिज्ञानानि। स्था०३ ठा०३ उ०। विणस्समाण-त्रि०(विनश्यत) अनेकशी म्रियमाणे, उपा०७०। विणिच्छियह-त्रि०(विनिश्चितार्थ) प्रश्नानन्तरम्। (भ० ११श०११ उ०।) विणा-अव्य०(विना) वर्जयित्वेत्यर्थे , पञ्चा, 12 विव०। अन्तरेणार्थे, ऐदंपर्यार्थस्योपलम्भात् (भ०२ श०५उ०) निर्णीतार्थे, कल्प०१ व्य०१उ०॥ अधि०४ क्षण। विणायग-पुं०(विनायक) राक्षसभेदे, प्रज्ञा०१ पद / 'श्रेयांसि / विणिजरा-स्त्री०(विनिर्जरा) विशेषेण निर्जरणं विनिर्जरा / पूर्वोप बहुविघ्नानि, भवन्ति महतामपि / अश्रेयसि प्रवृत्तानां, क्वापि यान्ति | चितशुभाशुभकर्मपरिशाटे, सा च समितिगुप्तिश्रवणधर्मभावनाविनायकाः ||1||" आ० म०१ अ०। मूलगुणोत्तरगुणपरीषहोपसर्गादिसहनतरस्य भवति। जीता विणास-पुं०(विनाश) भूतविघटने, सूत्र०१ श्रु०१अ०१ उदण्डे, दण्डो | विणिहिट्ठ-त्रि०(विनिर्दिष्ट) उक्ते, पञ्चा०१६ विव०॥
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________________ विणिम्माण 1186 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विण्णत्ति विणिम्माण-न०(विनिर्माण) निर्मापणे, विशे०। मवगाढमर्थोपार्जनोपाये मातापित्राद्यभिष्वङ्गे वा शब्दादि-विषयोपभोगे विणिम्मुयंत-त्रि०(विनिर्मुञ्चत्) विसृजति, औला विक्षिपति, ज्ञा०१ / वा चित्तम्- अन्तःकरणं यस्य स तथा / आचा०१ श्रु०२ अ०१ उ० श्रु०१ अ० विकिरति, प्रश्न०४ आश्र० द्वार। अभिनिविष्टचित्ते, आचा०१ श्रु०६ अ०१ उ०। विणियट्टणा-स्त्री०(विनिवर्तना) पञ्चेन्द्रियाणां विषयेभ्यो विशेषेण | विणिहय-त्रि०(विनिहत) व्यापादिते, सूत्र० १श्रु०७ अ०। विशेषेण निवर्तने, उत्त०२६ अ०॥ निपातिते,उत्त०३ अ०) विनिवर्त्तनायाः फलमाह विणिहिय-त्रि०(विनिहित) विशेषेण निहितं स्थापितं विनिहितम्। विणिवट्टणयाए णं भंते ! जीवे किं जणयह? विणिवट्टणयाए णं पातिते, स्या० पावाणं कम्माणं अकरणयाए अब्भुटेइ पुष्ववद्धाण य निजरणयाए विणीय-त्रि०(विनीत) विनयप्रापित्ते, उत्त०१ अ० आ०म० ज्ञा०। अनुद्धतप्रकृतौ, द्वा०२१ द्वा०। विनीतात्मतया प्रश्रयवति, तं०। सूत्र तं नियत्तेइ, तओ पच्छा चाउरंतसंसारकंतारं वीईवयइ।।३२|| प्रतिका पं०सू०। स्वाभीष्टकारित्वात् (आव०१अ०1) बृहत्पुरुषविनयहे स्वामिन् ! विनिवर्त्तनया विषयेभ्य आत्मनः पराङ्मुखीभावेन जीवः करणशीले, तं० विनयवति, कल्प०१ अधि०५ क्षण / गुणाधिकेषु किं जनयति? गुरुराह-हे शिष्य ! विनिवर्त्तनया पापकर्मणामकरणत्वेन गौरवकृति,ध०१ अधि० भ०ा जंा आ०चूला विनीता गुरुजनगौरवकृतः। सावद्यकर्मत्यागेन अभ्युत्तिष्ठते-धर्माय सावधानो भवति, पूर्वबद्धानां विनयवति हि सपदिसंपदः प्रादुर्भवन्तीति श्रावकगुणत्वम्। प्रव० 246 पापकर्मणां निर्जरया नूतनपापकर्मणामकरणत्वेन सावद्यकर्मत्यागेन द्वार / ध० 0 / सदैवागर्वितत्वेन विनया प्रति प्रवीभूतमनोवाक्काये, अभ्युत्तिष्ठते-धर्माय सावधानो भवति। पूर्वबद्धानां पापकर्मणामनुपादनेन दर्श०२ तत्वाअपनीते, उत्त०१ अगसूत्र०। (विनीतस्याऽविनीतस्यच तत्पापकर्म निवर्तयति-निवारयति, ततः पश्चात् चातुरन्तसंसारकान्तारं स्वरूपमनुपदमेव 'विणय' शब्दे उक्तम्।) 'वीईवयई' व्यति-व्रजति-व्युत्क्रामतीत्यर्थः ॥३२सा उत्त० 26 अ०॥ विणीयणगरी-स्त्री०(विनीतनगरी) ऋषभदेवस्य जन्मस्थानेऽयोध्याविविक्तशयनाशनतायां च विनिवर्त्तना भवतीतितामाहविनिवर्त्तनया | याम्, आ० म० 1 अ० विषयेभ्यः आत्मनः पराड्मुखीकरणरूपयापापकर्मणां सावद्यानुष्ठाना विणीयतण्ह-त्रि०(विनीततृष्ण) अपेताभिलाषे, दश०अ० नामकरणतया न मया पापानि कर्तव्यानीत्येवंरूपयाऽभ्युत्तिष्ठते-धर्म विणीयदोहला-स्त्री०(विनीतदोहदा) वाञ्छाविनयनात् अपनीतप्रत्युत्सहते पूर्वबद्धानां पापकर्मणामिति प्रक्रमश्चशब्दो निज़रणानन्तरं दोहदायाम्। विपा० १श्रु०२ अ०। द्रष्टव्यस्ततः पूर्वबद्धानां निर्जरणया चशब्दादभिनवानुपादाने च तदिति विणीयसंसार-त्रि०(विनीतसंसार) तीर्थकरादौ विनष्टसंसारे,आ० चू० कर्म निवर्तयति-विनाशयति, यदि वा पापकर्मणां-ज्ञानावरणादीनाम् 4 अग 'अकरणया' इति आर्षत्वाद् अकरणेन अपूर्वानुपार्जनेनाभ्युत्तिष्ठते विणीया-स्त्री०(विनीता) विनीता मनुष्या अत्रेति विनीता / आ० चू० मोक्षायेति शेषः / पूर्वबद्धानां च कर्मणां निर्जरणया अन्यत् प्राग्वत्॥४०॥ १अ० अयोध्यायाम्, ती०१२ कल्प। ('अउज्झा' शब्दे प्रथमभागे उत्त० पाई० 26 अ01 तत्कल्प उक्तः।) (तदुत्पत्तिः 'उसह' शब्दे द्वितीयभागे उक्ता।) विणियट्टपरास-त्रि०(विनिवृत्तपराश) विनिवृत्ता-निवृत्ता परस्य आशा | विणु-अव्य०(विना) "पुनर्विनः स्वार्थे डुः" ||1426|| अपभ्रंशे येषां ते तथा / सर्वथा पुद्गलाशारहिते निर्वाञ्छके, "विनिवृत्तपंराशा पुनर्विना इत्येताभ्यां स्वार्थे डुः प्रत्ययो भवतीतिः। अन्तरेणार्थे, 'विणु नाम्।" अष्ट०३२अष्ट०। जुज्झे न बलाहु'। प्रा०४ पाद। विणियट्टमाण-त्रि०(विनिवर्तमान) समस्ताशुभव्यापारात् (आचा०१ / विणुत्ति-स्त्री०(विनोक्ति)"विनोक्तिः सा विनाऽन्येन यत्रान्यः सन्नश्रु०५ अ०४ उ०1) भोगेभ्यो वा विषयेभ्यः निवर्तमाने, आचा०१श्रु०५ चेतरः" इत्यक्तलक्षणेऽलंकारे, प्रति०। अ०४ उ० विणेय-पुं०(विनेय) शिष्ये, नं० आव०। शास्तानुयोग्ये, विशे० विणिवट्टण-न०(विनिवर्तन) असंयमस्थानेभ्यो विरमणे, भ०१७ | विणेयाणुगुण्ण-न०(विनेयानुगुण्य) शिक्षीयसत्त्वानुरूप्ये, पञ्चा० 16 श०३ उ० विवा विणिवाइय-न०(विनिपातिक) नाट्यभेदे, आ० म० 1 अ०। विणोय-पुं०(विनोद) विश्रामे, आ० चू०१०। आ० म०। आचा०| विणिवाय-पुं०(विनिपात) सुतादिमरणे, अनु० / धर्मभ्रंशे, संसारे च! | *विनोकस्-पुं०ानरविहीने निवासगृहे, व्य०५ उ०) स्था०४ ठा०३ उ०। औ०। विण्णत्त-त्रि०(विज्ञप्ति) उक्ते, सूत्र०१ श्रु०४ अ०२०। विणिविट्ठ-त्रि०(विनिविष्ट) विविधमनेकधा निविष्टं स्थितम् / नाना- विण्णत्ति-स्त्री०(विज्ञप्ति) विविध विशेषेण वा ज्ञपनं प्रबोधनं प्रकारैर्निविष्ट,आचा०१ श्रु० 2010 विज्ञप्तिः। विशे०। विज्ञानं वा विज्ञप्तिः। परिच्छे दे, नं0। आ० विणिविट्ठचित्त-त्रि०(विनिविष्टचित्त) विविधमनेकधा निविष्ट स्थित- | म०। आचा०ा ज्ञाने ,सूत्र०१ श्रु०१२ अ०॥ "विज्ञप्तिः फलदा
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________________ विण्णत्ति 1187- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विण्णाणवाइ पुंसां, न क्रिया फलदा मता। मिथ्याज्ञानात् प्रवृत्तस्य, फलासंवा--- ददर्शनात् // 30 // " नयोग विण्णत्तिहेउभूय-त्रि०(विज्ञप्तिहेतुभूत) ज्ञातव्यसामर्थ्यायुक्ते, विज्ञप्ति-- कारणे, आ०चू०१ अग विण्णयपरिणयमेत्त-पुं०(विज्ञकपरिणतमात्र) विज्ञएव विज्ञकः स चासौ परिणतमात्रं च कलादिष्विलि गम्यते। विज्ञपरिणतमात्रे, ज्ञा०१ श्रु०१ अ० योग्यविज्ञान प्राप्ते, भ०११ श०११ उ०। विपा० विण्णवण-न०(विज्ञपन) विज्ञप्तौ, परिच्छेदे, आ०म०१ अ०) "पण्णवण त्ति वा विण्णवण त्ति वा एगट्ठा" आ० म०१ अ० विण्णावणा-स्त्री०(विज्ञापना) विज्ञप्तिकायाम्, सप्रणयप्रार्थने, भ०६ श० 33 उ०॥ सूत्र०। ज्ञा०नि०। प्रतिसेवनायाम्, प्रार्थनायाञ्च। बृ०१ उ०३ प्रक०। विज्ञाप्यन्ते याः कामार्थिभिस्तदर्थिन्यो वा कामिनमिति विज्ञापनाः / स्त्रीषु, सूत्र०१ श्रु० २१०३उ०। विण्णाण-न०(विज्ञान) विशिष्टं ज्ञानं विज्ञानम्। "ज्ञोञः" / / 8 / 2 / 42 / / इति क्वाचित्कत्वादत्र न अकारः। प्रा०ा "मज्ञोर्णः" इति ज्ञस्थाने णः। प्रा०। ज्ञानदर्शनोपयोगे, विशे०। औ०। क्षयोपशमविशेषत एवावधारितार्थविषये, तीव्रतरधारणाहेतौ बोधविशेषे, नं० चक्षुरादीन्द्रियोपलब्धिरूपे विशेषावबोधे, आतु। नं०। सूत्र०) हिताऽहितप्राप्तिपरिहाराध्यवसाये, आचा०१ श्रु०४अ०२उ०। अर्थादीनां हेयोपादेयत्वविनिश्चये, स्था०३ठा० ३उ०। मतिविशेषभूतौत्पत्तिक्यादिबुद्धिरूपपरिच्छेदे, ज्ञा०१ श्रु०१अ० अनेकप्रकाररूपादिकरणे, तं०ा अनेकधर्मिणि वस्तुनि तत्तथाध्यवसाये, दश०४ अ०। 'णाणे विण्णाणफले' प्रव०२ द्वार / ज्ञानं विशिष्टज्ञानफलम्। श्रुतज्ञानाद्धि हेयोपादेयविवेककारिविज्ञानमुत्पद्यते / भ०३ श०७ उ०। विज्ञायतेऽनेनेति। मनसि, विज्ञाने, अनु०। विण्णाणखंध-पु०(विज्ञानस्कन्ध) रूपविज्ञानादिरूपे बौद्धपरिभाषिते पञ्चसु स्कन्धेष्वन्यतमे, सूत्र०१ श्रु०१ अ०१उ०। विण्णाणघण-पुं०(विज्ञानघन) ज्ञानदर्शनोपयोगात्मकं विज्ञानं तन्मयत्वादात्मा विज्ञानघनः। कल्प०१ अधि०६क्षण! विज्ञानपिण्डे, सूत्र०१ श्रु०१अ०१ उ०ा पृथिव्यादिभूतानां विज्ञानलवसमुदाये, पृथिव्यादिविज्ञानांशानां पिण्डे, विशे०("विण्णा-णओ" 0(1563-1564) इत्यादिगाथाद्वयम्-'आता' शब्दे द्वितीयभागे 176 पृष्ठे व्याख्यातम्।) विण्णाणपत्त-त्रि०(विज्ञानप्राप्त) हिताहितप्राप्तिपरिहाराध्यवसायं प्राप्ते, आचा०१ श्रु०४ अ०२ उ०। अवाप्तसद्बोधे, उपा०१ अ०। विण्णाणवाइ-पुं०(विज्ञानवादिन) शेषनीलादिविकल्पशून्यस्य पारमार्थिकरागादिवासनाविशेषरहितस्य बोधलक्षणस्य प्रतिज्ञापके बौद्धभेदे, षो०१६ विव० स्या०। तन्मतनिरास:न संविदद्वैतपथेऽर्थसंविद् विलूनशीणं सुगतेन्द्रजालम्। अथ व्याख्यातुमुपक्रम्यते-तत्र च बाह्यार्थनिरपेक्ष ज्ञानाद्वैतमैव ये बौद्धविशेषा मन्वते तेषां प्रतिक्षेपः / तन्मतंचेदम्-ग्राह्यग्राहकादिकलङ्का- | ऽनङ्कितं निष्प्रपञ्चं ज्ञानमात्रं परमार्थसत्। बाह्यार्थस्तु पिवारमेवन क्षमते। तथाहि-कोऽयं बाह्योऽर्थः? किं परमाणुरूपः स्थूलावयविरूपो वा? न तावत्परमाणुरूपः प्रमाणाऽभावात् / प्रमाणं हि प्रत्यक्षमनुमानं वा? न तावत्प्रत्यक्षतत्साधनं बद्धकक्षम् / तद्धि योगिनां स्यात् अस्मदीदानां वा? नाद्यम; अत्यन्तविप्रकृष्टतया श्रद्धामात्रगम्यत्वात् / न द्वितीयम्, अनुभवबा-धित्वात्। न हि वयमयं परमाणुरयं परमाणुरिति स्वप्नेऽपि प्रतीमः, स्तम्भोऽयं कुम्भोऽयमित्येवमेव नः सदैव संवेदनोदयात् / नाप्यनु-मानेन तत्सिद्धिः, अणूनामतीन्द्रियत्वेन तैः सह अविनाभावस्य कापि लिङ्गे ग्रहीतुमशक्यत्वात्। किं च-अमी नित्या अनित्या वा स्युः? नित्याश्चेत्क्रमेणाऽर्थक्रियाकारिणो युगपद्वा? न क्रमेण; स्वभावभेदेनाऽनित्यत्वापत्तेः न युगपत्,एकक्षणे एव कृत्स्नार्थक्रियाकरणात् क्षणान्तरे तदभावादसत्त्वापत्तिः। अनित्याश्चेत् क्षणिकाः, कालान्तरस्थायिनो वा? क्षणिकाश्चेत्, सहेतुका निर्हेतुका वा? निर्हेतुकाश्चेन्नित्यं सत्त्वमसत्त्वं वा स्यान्निरपेक्षत्वात् / अपेक्षातो हि कादाचित्कत्वम् / सहेतुकाश्चेत्, किं तेषां स्थूलं किंचित्कारणं परमाणवो वा? न स्थूलं; परमाणुरूपस्यैव बाह्यार्थस्याऽङ्गीकृतत्वात्।नच परमाणवः। तेहि सन्तोऽसन्तः सदसन्तो वा स्वकार्याणिकुर्युः? सन्तश्चेत्, किमुत्पत्तिक्षण एव, क्षणान्तरे वा? नोत्पत्तिक्षणे, तद्वानीमुत्पत्तिमात्रव्यग्रत्वात् तेषाम् / अथ-"भूतिर्येषां क्रिया सैव कारणं सैव चोच्यते' इति वचनाद्भ वनमेव तेषामपरोत्पत्ती कारणमिति चेत्, एवं तर्हि रूपाणवो रसाणूनाम्, ते च तेषामुपादानं स्युरुभयत्र भवनाऽविशेषात्। न च क्षणान्तरे, विनष्टत्वात्। अथासन्तस्ते तदुत्पादकास्तर्हि एकं स्वसत्ताक्षणमपहाय सदा तदुत्पत्तिप्रसङ्गः, तदसत्त्वस्य सर्वदाऽविशेषात् / सदसत्पक्षस्तु "प्रत्येकं यो भवेदोषो, द्वयोर्भावे कथं न सः?" इति वचनाद्विरोधाघ्रात एव। तन्नाणवः क्षणिकाः नापि कालान्तरस्थायिनः क्षणिकपक्षसदृक्षयोगक्षेमत्वात्। किंच-अमी कियत्कालस्थायिनोऽपि किमर्थक्रिया पराङ्मुखाः, तत्कारिणो वा? आधे खपुष्पवदसत्त्वापत्तिः उदग्विकल्पे किमसद्रूपं सद्रूपमु-भयरूपं वा ते कार्यं कुर्युः? असद्रूपं चेत्-शशविषाणादेरपि किं न करणम्? सद्रूपं चेत्, सतोऽपि करणेऽनवस्था। तृतीयभेदस्तु प्राग्वद्विरोधदुर्गन्धः / तन्नाणुरूपोऽर्थः सर्वथा घटते। नापि स्थूलावयविरूपः। एकपरमाण्वसिद्धौ कथमनेकतत्सिद्धिः? तदभावे च तत्प्रचयरूपः स्थूलावयवी वाइमात्रम् / किं च-अयमनेकावयवाधार इष्यते / ते चावयवा यदि विरोधिनस्तर्हि नैकः स्थूलावयवी; विरुद्धधर्माध्यासात् / अविरोधिनश्चेत्प्रतीतिबाधः, एकस्मिन्नेव स्थूलावयविनि चलाचलरक्तारक्ताऽऽवृतानावृतादिविरुद्धावयवानामुपलब्धेः / अपि च असौ तेषु वर्तमानः कात्स्न्य नैकदेशेन वा वर्तते? कात्स्न्ये न वृत्तावेकस्मिन्नेवावयवे परिसमाप्तत्वादनेकावयववृत्तित्वंनस्यात्; प्रत्यवयवं कात्स्न्येन वृत्तौ चावयविबहुत्वापत्तेः / एकदेशेन वृत्तौ च तस्य निरंशत्वाभ्युपगमविरोधः, सांशत्वे वा तेंऽशास्ततो भिन्नाः, अमिन्ना वा? भिन्नत्वेपुनरप्यने कांशवृत्तेरेकस्य कात्स्न्यैकदेशविकल्पानतिक्रमादनवस्था। अभिन्नत्वे न केचि दंशाः स्युः / इति नास्ति बाह्योऽर्थः-कश्चित्। किन्तु-ज्ञानमेवेदं सर्वं नीलाद्याकारण प्रतिभाति।बाह्यार्थस्यजङवेनप्रतिभासायोगात्। यथोक्तं स्वाकारबु
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________________ विण्णाणवाइ 1188 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विण्णाणवाइ द्विजनका दृश्या नेन्द्रियगोचराः" / अलङ्कारकारेणाप्युक्तम्- "यदि यदे-केनाहमिति प्रतीयते तदेवाऽपरेण त्वमिति प्रतीयते / नीलाद्यासंवेद्यते नीलं, कथं बाह्य तदुच्यते? न चेत्संवेद्यते नीलं, कथं बाह्य कारस्तु व्यवस्थितः, सर्वैरप्येकरूपतया ग्रहणात् / भक्षितहृत्पूरातदुच्यते? // 1 // " यदि बाह्योऽर्थो नास्ति किं विषयस्त यं घटपटादि- दिभिस्तु यद्यपि नीलादिकं पीतादितया गृह्यते तथापितेनन व्यभिचारः, प्रतिभास इति चेन्ननु निरालम्बन एवायमनादिवितथवासनाप्रवर्तितो तस्य भ्रान्तत्वात्, स्वयं स्वस्य संवेदनेऽहमिति प्रतिभासत इति चेत्। निर्विषयत्वादाकाशकेशज्ञानवत्, स्वप्नज्ञानवद्वेति / अत एवोक्तम् ननु किं परस्यापि संवेदनमस्ति? कथमन्यथा स्वशब्दस्य प्रयोगः? "नान्योऽनुभाव्यो बुद्ध्याऽस्ति, तस्या नानुभवोऽपरः / ग्राह्यग्राहक प्रतियोगिशब्दो ह्ययं परमपेक्ष्यमाण एव प्रवर्तते। स्वरूपस्यापि भ्रान्त्या वैधुर्यात्स्वयं सैव प्रकाशते॥१॥ बाह्यो न विद्यते हार्थो , यथा बालैर्वि भेदप्रतीतिरिति चेत् / हन्त ! प्रत्यक्षेण प्रतीतो भेदः कथं न वास्तवः? कल्प्यते।वासनालुण्ठितं चित्तमामासे प्रवर्तते॥२॥" इति। तदेतत्स भ्रान्तं प्रत्यक्षमिति चेत्। ननु कुत एतत्? अनुमानेन ज्ञानार्थयोरभेदर्वमवद्यम् / ज्ञानमिति हि क्रियाशब्दस्ततो ज्ञायतेऽनेनेति ज्ञानं ज्ञप्तिर्वा सिद्धेरिति चेत् किं तदनुमानमिति पृच्छामः? यद्येन सह नियमेनोपलभ्यते ज्ञानमिति / अस्य च कर्मणा भाव्यं; निर्विषयाया ज्ञप्तेरघटनात् / न तत्ततो न भिद्यते। यथा सच्चन्द्रादसचन्द्रः। नियमेनोपलभ्यते च ज्ञानेन चाकाशकेशादौ निर्विषयमपि दृष्टं ज्ञानमिति वाच्यं, तस्याप्येकान्तेन सहार्थः। इति व्यापकाऽनुपलब्धिः / प्रतिषेध्यस्य ज्ञानार्थयोर्भेदस्य निर्विषयत्वाऽभावात्। न हि सर्वथाऽगृहीतसत्यकेशज्ञानस्य तत्प्रतीतिः / व्यापकः सहोपलम्भान्नियमस्तस्याऽनुपलब्धिभिन्नयोर्नीलपीतयोयुगस्वप्नज्ञानमप्यनुभूतदृष्टाद्यर्थविषयत्वान्न निरालम्बनम्। तथा च महा पदुपलम्भनियमाभावात् / इत्यनुमानेन तयोरभेदसिद्धिरिति चेन्न / भाष्यकार:-"अणुहूय-दिट्ठ-चिंतिय-सुयपयइ-वियारदेवपाणू वा / संदिग्धानकान्तिकत्वेनास्यानुमानाभासत्वात् ज्ञानं हि स्वपरसंवेदनं, सुमिणस्स निमित्ताई.पुण्णं पावं च णाऽभावा / / 1 / " यश्च ज्ञानविषयः तत्परसंवेदनतामात्रेणैव नीलं गृह्णाति, स्वसंवेदन-तामात्रेणैव च नीलस बाह्योऽर्थः / भ्रान्तिरियमिति चेद् / चिरं जीव, भ्रान्तिर्हि मुख्येऽर्थे बुद्धिम् / तदेवमनयोर्युगपद्ग्रहणात्सहोपलम्भनियमोऽस्ति / अभेदश्च नास्ति। इति सहोपलम्भनियमरूपस्य हेतोर्विपक्षाद् व्यावृत्तेः संदिग्धक्वचिद् दृष्टे सति करणाऽपाटवादिना अन्यत्र विपर्यस्तग्रहणे प्रसिद्धा / यथा शुक्तौ रजतभ्रान्तिः। अर्थक्रियासमर्थेऽपि वस्तुनि यदि भ्रान्तिरुच्यते त्वात् संदिग्धाऽनैकान्तिकत्वम्।असिद्धश्च सहोपलम्भनियमो, नीलमेत दिति बहिर्मुखतयाऽर्थेऽनुभूयमाने तदानीमेवान्तरस्य नीलानुभवस्याऽतर्हि प्रलीना भ्रान्ताऽभ्रान्तव्यवस्था। तथा च सत्यमेतद्वचः-"आशामोदकतृप्ता ये, ये चास्वादितमोदकाः / रसवीर्यविपाकादि, तुल्यं तेषां ननुभवात् / इति कथं प्रत्यक्षस्यानुमानेन ज्ञानार्थयोरभेदसिद्ध्या भ्रान्तत्वम्? अपि च-प्रत्यक्षस्य भ्रान्तत्वेनाऽबाधितविषयत्वादनुमानप्रसज्यते॥१॥" न चामून्यर्थदूषणानि स्याद्वादवादिनां बाधां विदधते, स्यात्मलाभो, लब्धात्मके चानुमाने प्रत्यक्षस्य भ्रान्तत्वमित्यन्योन्यापरमाणुरूपस्य स्थूलावयविरूपस्य चार्थस्याङ्गीकृतवात्। यच परमाणु श्रयदोषोऽपिदुर्निवारः। अर्थाभावे च नियतदेशाधिकरणाप्रतीतिः कुतः? पक्षखण्डनेऽभिहितं प्रमाणाऽभावादिति। तदसत्। तत्कार्याणां घटादीनां न हि तत्र विवक्षितदेशेऽयमारोपयितव्यो नान्यत्रेत्यस्ति नियमहेतुः। प्रत्यक्षत्वे तेषामपि कथंचित् प्रत्यक्षत्वं, योगिप्रत्यक्षेण च साक्षात्प्र वासनानियमात्तदारोपनियम इति चेत् / न, तस्या अपि तद्देशनियमत्यक्षत्वमवसेयम्। अनुपलब्धिस्तुसौक्ष्म्यात् / अनुमानादपि तत्सिद्धिः, कारणाभावात्। सति ह्यर्थसद्भावे यद्देशोऽर्थस्तद्देशोऽनुभवस्तद्देशा च यथा-सन्ति परमाणवः स्थूलावयविनिष्पत्त्यन्यथाऽनुपपत्तेरित्यन्त तत्पूर्विका वासना / बाह्यार्थाभावे तु तस्याः किं कृतो देशनियमः? व्याप्तिः। न चाणुभ्यः स्थूलोत्पाद इत्येकान्तः, स्थूलादपि सूत्रपटलादेः अथास्ति तावदारोपनियमः / न च कारणविशेषमन्तरेण कार्यविशेषो स्थूलस्य पटादेः प्रादुर्भावविभावनात्; आत्माकाशादेरपुद्गलकार्यत्व घटते। बाह्यश्चार्थो नास्ति। तेन वासनानामेव वैचित्र्यं तत्र हेतुरिति चेत्। कक्षीकाराच्च / यत्र पुनरणुभ्यस्तदुत्पत्तिस्तत्र तत्तत्कालादिसामग्रीसव्य तद्वासनावैचित्र्यं बोधाकारादन्यदनन्यद्वा? अनन्यचेत् बोधाकारस्यैपेक्षक्रियावशात्प्रादुर्भूतं संयोगातिशयमपेक्ष्येयमवितथैव यदपि कत्वात्कस्तासां परस्परतो विशेषः? अन्यच्चेदर्थे कः प्रद्वेषो? येन सर्वकिंचायमनेकावयवाधार इत्यादिन्यगादि, तत्रापि कथंचिद्विरोध्यनेकाव लोकप्रतीतिरपभूयते? तदेवं सिद्धो ज्ञानार्थयोर्भेदः / तथा च प्रयोगः। यवाऽविष्वगभूतवृत्तिरवयव्यभिधीयते। तत्र चयद्विरोध्यनेकावयवाधार- विवादाध्यासितं नीलादि ज्ञानाद् व्यतिरिक्तं विरुद्धधर्माध्यस्तत्वात्। तायां विरुद्धधर्माध्यासनमभिहितं तत्कथंचिदुपेयत एव, तावदवयवा विरुद्धधर्माध्यासश्च ज्ञानस्य शरीरान्तः, अर्थस्य च बहिः; ज्ञानस्याऽपरत्मकस्य तस्यापि कथंचिदनेकरूपत्वात् / यचोपन्यस्तमपि च असौ काले, अर्थस्य च पूर्वकाले वृत्तिमत्त्वात्, ज्ञानस्य आत्मनः सकाशाद् तेषु वर्तमानः कात्य॒ नैकदेशेन वा वर्तेतेत्यादितत्रापि विकल्पद्वयाऽनभ्यु अर्थस्य च स्वकारणेभ्य उत्पत्तेः; ज्ञानस्य प्रकाशरूपत्वादर्थस्य च पगम एवोत्तरम्, अविष्वग्भावेनाऽवयविनोऽवयवेषु वृत्तेः स्वीकारात्। किं जडरूपत्वादिति / अतो न ज्ञानाद्वैतेऽभ्युपगम्यमाने बहिरनुभूयमाच-यदि बाह्योऽर्थो नास्ति किमिदानी नियताकारं प्रतीयते 'नीलमेतदि' नार्थप्रतीतिः कथमपि संगतिभङ्गति। न च दृष्टमपोतुं शक्यमिति। अत ति? विज्ञानाकारोऽयमिति चेन्न ज्ञानादहिभूतस्य संवेदनात्। ज्ञाना- एवाह स्तुतिकारः--"न संविदद्वैतपथेऽर्थसंवित्" इति / सम्यगकारत्वे तु 'अहं नीलमि' ति प्रतीतिः स्यान्न त्विदं नीलमिति ज्ञानानां अवैपरीत्येन विद्यतेऽवगम्यतेवस्तुस्वरूपमनयेति संवित, स्वसंवेदनपक्षे प्रत्येकमाकारभेदात् कस्यचिदहमिति प्रतिभासः कस्यचिन्नीलमेतदिति तु संवदेनं संक्त् िज्ञानम्, तस्या अद्वैतम्। यद् वयोवो द्विता / द्वितैव चेत्। नीलाधाकारवदहमित्याकारस्य व्यवस्थितत्वाभावात्। तथा च- / द्वैतं; प्रज्ञादित्वात् स्वार्थिकऽणि, नद्वैतमद्वैतं बाह्यार्थप्रतिक्षेपादेकत्वम्।
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________________ विण्णाणवाइ 1186- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विण्हुकुमार संविदद्वैत ज्ञानमेवैक तात्त्विकं न बाह्योऽर्थ इत्यभ्युपगम इत्यर्थः। तस्य / वेत्यर्थः। स्था०१ठा०। पन्थाः-मार्गः संविदद्वैतपथस्तस्मिन् / ज्ञानाद्वैतवादपक्ष इति यावत्। | विण्णेय-त्रि०(विज्ञेय) अवबोद्धव्ये, दर्श०१ तत्त्व! अवगन्तव्ये, विशे०। किमित्याह--"नार्थसंवित्"। येयं बर्हिमुखतयाऽर्थप्रतीतिः साक्षादनु- विण्डवण-न०(विस्नपन) विशेषेण स्नपने, बृ०१ उ०२ प्रक०। बालभूयते सा न घटते इत्युपस्कारः। एतच्चानन्तरमेव भावितम् / एवं च स्नापने, पं०व०५ द्वार। स्थिते सति किमित्याह-"विलूनशीर्ण सुगतेन्द्रजालम्" इति-सुगतो- | विण्डावणग-न०(विस्नापनक) विविधैर्मन्त्रमूलादिभिः संस्कृत-जलैः मायापुत्रस्तस्य सम्बन्धितेन परिकल्पितं क्षणक्षयादि वस्तुजातमिन्द्र- स्नापनके, प्रश्न०२ आश्र० द्वार। जालमिवेन्द्रजालं, मतिव्या-मोहविधायित्वात्। सुगतेन्द्रजालं सर्वमिदं विण्डि-पुं०(वृश्नि) स्वनामख्याते अन्धकवृश्निपुत्रे, अन्त०। (स विलूनशीर्णम्-पूर्व विलूनं पश्चात् शीर्णं विलूनशीर्णम् ; यथा किंचित्तृण चारिष्टनेमेरन्तिके प्रव्रज्य शत्रुञ्जये सिद्ध इत्यन्तकृद्दशानां प्रथम-- स्तम्बादि विलूनमेव शीर्यते-विनश्यति एवं तत्कल्पितमिदमिन्द्रजालं वर्गे दशमाध्ययने सूचितम्) तृणप्रायं धारालयुक्तिशस्त्रिकया छिन्नं सद्विशीर्यत इति। अथवा-यथा | विण्हु-पुं०(विष्णु) "सूक्ष्म-श्न-ष्ण-स्न-ल-क्षणांण्हः" / 8 / 275|| निपुणेन्द्रजालिककल्पितमिन्द्रजालमवास्तवतत्तद्वस्त्वद्भुततोपदर्शनेन इति ष्णस्य ग्रहः / प्रा०। वाशिष्ठसगोत्रस्य जेहिलस्य माढरसगोत्रे तथाविधंबुद्धिदुर्विदग्धजनं विप्रतार्य पश्चादिन्द्रधनुरिव निरवयवं विलून स्वनामख्याते शिष्ये,कल्प०२ अधि०८ क्षण / वासु-देवे, आ० क० शीर्णतां कलयति, तथा सुगतपरिकल्पितं तत्तत्प्रमाणतत्तत्फलाऽभेद १अ०। स्था०| "जले विष्णु, स्थले विष्णु-र्विष्णुः पर्वतमस्तके। क्षणक्षयज्ञानार्थहतुकत्वज्ञानाऽद्वैताभ्युपगमादि सर्वं प्रमाणाऽभिज्ञं लोकं सर्वभूतमयो विष्णु-स्तस्माद्विष्णुमयं जगत्' ||1|| अनेन हि वाक्येन व्यामोहयमानमपि युक्त्या विचार्यमाणं विशरारुतामेव सेवत इति। अत्र विष्णोर्महिमा प्रतीयते / कल्प० / च सुगतशब्द उपहासार्थः / सौगता हि शोभनं गतं ज्ञानमस्येति सुगत "जले विष्णुः स्थले विष्णु-विष्णुःपर्वतमस्तके। इत्युशन्ति। ततश्चाहो तस्य शोभनज्ञानतायेनेत्थमयुक्तियुक्तमुक्तम्। ज्वालमालाकुले विष्णुः, सर्वं विष्णुमयं जगत् // 1 // इति काव्यार्थः / / 16 / / स्या०। (विस्तरार्थस्तु 'णाण' शब्दे चतुर्थभागे तथा१६६० पृष्ठे गतः।) अहं च पृथिवी पार्थ! वाय्वग्निजलमप्यहम्। विण्णाय-त्रि०(विज्ञात) विशेषेण ज्ञातं विज्ञातम्। आचा०१ श्रु०१० वनस्पतिगतश्चाहं, सर्वभूतगतोऽप्यहम् / / 2 / / १उ०। विदिते, आचा०१श्रु०१अ०१ उ०। *विज्ञाय-अव्य०। अवेत्येत्यर्थे / दश० 8 अ पं०सू०। सो किल जलयसमुत्थे, णुदएणेगन्नवम्मि लोगम्मि। विण्णायपरिणयमेत्त-त्रि०(विज्ञातपरिणतमात्र) विज्ञातं-विज्ञानं वीतीपरंपरेणं, घोलंतो उदयमज्झम्मि // 3 // तत्परिणतमात्रं यत्र सः। परिपक्वविज्ञाने, कल्प०१अधि०३ क्षण। स किल मार्कण्ड ऋषिः। विण्णया-त्रि०(विज्ञातृ) प्रतिभेदज्ञानेन पदार्थानां परिच्छेदके, आचा०१ पेच्छइ सो तसथावर-पणट्ठसुरनरतिरिक्खजोणीयं। श्रु०५ अ०५ उ०। सूत्रा विण्णास-पुं०(विन्यास) निक्षेपे, विशे०। एगन्नवं जगमिणं, महभूयविवज्जियं गुहिरं / / 2 / / विण्णु-पुं०(विद्वस्) पण्डिते, द्वा०२७ द्वा०। अष्ट०। ज्ञानपिण्डे, सूत्र०१ एवंविहे जगम्मि, पिच्छइ नग्गोहपायवं सहस्सा। श्रु०१ अ०१ उ०। जिनागमगृहीतसारे, आचा०२ श्रु०४ घू०। मंदरगिरिं व तुंगं, महासमुदं व वित्थिन्न।।३।। अथ (यश्च) विद्वानिति द्वारमाह खंधम्मि तस्स सयणं, अच्छइ तह बालओ मणभिरामो। विदु जागए विणीए, उववाए जो उचिट्ठइ गुरूणं। (विष्णुरित्यर्थः) तविवरीयविणीए, अदितें दिते अलहु गुरुगा॥७६५।। संविद्धो सुद्धहियओ, मिउकोमलकुंचियसुकेसो॥४|| विद ज्ञाने इत्यस्य धातोर्वेत्ति-जानातीति व्युत्पत्त्या विद्वान् ज्ञायक हत्थो पसारिओ से, महरिसिणो एहि वच्छ ! भणिओ य। उच्यते। सचेहाभ्युत्थानासनप्रदानादिरूपस्य विनयस्य विज्ञाता ग्राह्यः। खंधे इमं विलग्गसु, मा मरिहिसि उदयवुड्डीए / / 5 / / न केवलं ज्ञायकः, किं तु-विनीतो यथावसरम-भ्युत्थानादिविनय- तेण य घेत्तुं, हत्थे,मिलिओ सो रिसी तओ तस्स। प्रयोक्ता। तथा उपपाते-आज्ञानिर्देशे गुरूणां'यस्तु' यः पुनर्वर्तते तस्य पिच्छइ उदरम्मि जयं, ससेलवणकाणणं सव्वं // 6 // " इति। सूत्रं न ददाति चतुर्लघु, अर्थ न ददाति चतुर्गुरु / गत(यश्च) विद्वानिति पुनः सृष्टिकाले विष्णुना सृष्टम्। कुदर्शनता चास्य प्रतीतिबाधितत्थात्। द्वारम् / बृ०१उ०१प्रका प्रश्न०२ आश्र० द्वार। श्रवणनक्षत्रस्य देवतायाम, जं०७ वक्ष०ा सू०प्र०। एगा विण्णू / (सू०-३२) दो विण्हू (सू०) स्था०२ ठा०३ उ० विद्वान् विज्ञो वा तुल्यबोधत्वादेक इति। स्त्रीलिङ्गत्वं च प्राकृतत्वात्। | विण्हुकुमार-पुं०(विष्णुकुमार) वैक्रियलब्धिसंपन्नत्वेन प्रसिद्धेस्वनामख्याते उत्पाद (स्य) उप्पावत् लुप्तभावप्रत्ययत्वाद् वा एका विद्वत्ता; विज्ञता | साधौ, कर्मा (विष्णुकुमारस्य कृत्तम् 'पावा' शब्देपञ्चमभागे८८६ पृष्ठेगतम्।) तथा
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________________ विण्हुकुमार 1190 - अभिघानराजेन्द्रः - भाग 6 वितिगिच्छा विष्णुकुमारसंबन्धः कुत्र ग्रन्थे वर्तते। तथा तेन यल्लक्षयोजनप्रमाणं रूपं अ०४उ० कृतं श्रूयते तत् कि मुत्सेधागुलनिष्पन्नेन योजनेन प्रमाणाङ्गुल- वितरण-न०(वितरण) दानार्थनिमन्त्रणे, आचा०१ श्रु० अ०१उ०। निष्पन्नेन वा? तथा तेन पूर्वपश्चिमसमुद्रयोः पादौ मुक्तौ स्त इत्यप्यु- वितल-त्रि०(वितल) शवले,'सवले त्ति वा वितले ति वा एगट्ठा। आ०५० क्तमस्ति तेनैतदाश्रित्य यथा घटमानं भवति तथा प्रसाधमिति? अत्र |. 4 अ०॥ विष्णुकुमारसंबन्धः उत्तराध्ययनवृत्तिपुष्पमालावृत्तिप्रमुखग्रन्थेषु वर्तते, | वितह-त्रि०(वितथ) अयथाभूते, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। सूत्र०ा असद्भूते, तथा तेन यल्लक्षयोजनप्रमाणं रूपं कृतं वर्तते तदुत्सेधाङ्गुलनिष्पन्न- आचा०१ श्रु०२ अ०३उ०। आव० दश०। मिथ्या-वितथमव्रतमिति योजनप्रमाणेन, यत्पुनः पूर्वपश्चिमसमुदयोः पादौ मुक्तौ तज्जम्बूद्वीप- पर्यायाः। आ०म० अ० वितहं ति वा असच्चं ति वा एगटुं। आ० चू० मध्यस्थलवणसमुद्रखातिकायामितिसंभाव्यते, अन्यथा उत्सेधागुल- 10 / स्था०। सूत्र निष्पन्नलक्षयोजनप्रमाणाशरीरस्य चरणाभ्यां पूर्वपश्चिमलवणसमुद्र- वितहकरण-न०(वितथकरण) विपरीतकरणे, पं०व०४ द्वार। स्पर्शनं दुःशक्यमिति // 3 // ही०४ प्रका०। वितहायरण-न०(वितथाचरण) अन्यसामाचार्या आचरणे, ओघ०। विण्हुगायत्ती-स्त्री०(विष्णुगायत्री) वाग्विशुद्धाय विद्महे वाग्विशुद्धाय वितिकिण्ण-त्रि०(व्यतिकीर्ण) अनानुपूर्व्या विप्रकीर्णे ,नि० चू०१६ उ०। धीमहि तन्नो विष्णुः प्रचोदयात्' इति विष्णुदेवताकगायत्र्याम, गाo! वितिकीर्ण-त्रि० एकतः सम्मिलितेषु सर्वेष्वपि धान्येषु, व्यतिकीर्णा विण्हुमित्त-पुं०(विष्णुमित्र) मानपिण्डशब्दे उदाहृते स्वनामख्याते यदेतेषां धान्यानां सम्मोलका भवन्तीनि उक्तेः। बृ०२ उ०। श्रावके, पिं० वितिगिच्छतिण्ण-त्रि०(विचिकित्सातीर्ण) चित्तविप्लुतिसंशय-ज्ञानं वा विण्हुसिरी-स्त्री०(विष्णुश्री) वीरतीर्थे सर्वान्तिमायामनगार्याम्, 'एरिस- | अतिक्रान्ते, सूत्र०१ श्रु०१० अ० गुणजुत्ता चेव सुगहियनामधिज्जा विण्हुकुमारी' महा०४ अ०॥ वितिगिच्छा-स्त्री०(विचिकित्सा) चित्तविप्लुतौ, सूत्र०१ श्रु०१४ अ०/ वितंडा-स्त्री०(वितण्डा) वितण्डयते आहन्यतेऽनया प्रतिपक्षसाधन- दानादौ फलं प्रति सन्देहे,ध०२ अधि० बृ०॥ मतिविभ्रमे, ध०१ अधि०। मिति। प्रतिपक्षस्थापनाहीने वाक्ये, अभ्युपेत्य पक्षं यो न स्थापयति स स्था०। सूत्रा आशङ्कायाम्, आचा० १श्रु० ३अ०३ उ०। नि० चू०। वि वैतण्डिकः। इति हि न्यायवार्तिकम् जैनपरिभाषयातत्त्वविचारमौखयें, इति विशेषेण विविधैः प्रकारैर्वा चिकित्सा-प्रतिक्रिया। स्था० 4 ठा०२ स्या०। निचू०। सूत्र० स०। कल्प! उ० सूत्र०। विमर्षे , मीमांसायाम्, सूत्र०२ श्रु०२ अ०। आशङ्कायाम्, वितक-पुं०(वितक) विमर्श नं०। निचूला श्रुते, आव० 4 अ०॥ आचा०१श्रु०३ अ०३उ०ा अनेषणीयाशङ्कायाम्, आचा०२ श्रु०१चू०१ *वितर्का-त्रि०ा प्रार्थनीये, बृ०१ उ०३ प्रक०। अ०३उ०। यक्त्याऽऽगमोपपन्नेऽप्यर्थे फलं प्रति सम्मोहः,किमस्य वितक्किय-त्रि०(वितर्कित) वितर्किते, पं०चू०१ कल्पना महतस्तपः क्लेशायासस्य सिकताकणकवलनादेरायत्यां मम वितडी-स्त्री०(वितटी) विरूपासुनदीषु, ज्ञा०१ श्रु०१० फलसंपद् भविष्यति किं वा नेति / आव०४ अ०। आ० चू०। इदाणिं वितिगिच्छत्ति दारं- 'संतम्मि वि वितिगिच्छ गाहा-पच्छद्धं' 'संतम्मि वितण्हा-त्रि०(वितृष्णा) विगतगायें , द्वा०११ द्वा० / विजमाण-म्मि' अविपयत्थसंभावणे। किं-संभावयति?-पच्चक्खे वि वितत-न०(वितत) विस्तृते, संधा०१ अधि०१ प्रस्ता०। विततीकृते, ताव अत्थे वितिगिच्छं करेति किमु परोक्खे, एतं संभावयतिताडिते, आ०म०१ अ०जी०। प्रज्ञा० भ० पटहादिके, जं०२ वक्षा वितिगिच्छा णाम चित्तविप्लुतिःजहा थाणुरयं पुरिसोऽयमिति / जी०। सूत्र०ा "ततं वीणादिकंज्ञेयं, विततंपटहादिकम्। घनं तु कांस्यता सिज्झेजत्ति / जहाऽभिल-सितफलपावणं सिद्धीणगारेण संदेहं लादि, वंशादिशुषिरं मतम्।।१॥" स्था०४ ठा०४301 श्रीहेमचन्द्रास्तु जणयति। मे इति आत्मनिर्देशः / अयमिति ममाभिप्रेतः। अर्थ अर्थ्यत विततस्थाने आनद्धमाहुः / जं०५ वक्ष०। रा०जी०। स्था०। आचाo! इत्यर्थः / एस पयत्थो भणिओ। उदाहरणसहिओसमुदायत्थो भण्णतिआ० चू०। प्रश्नका सप्त-सप्ततितमे महाग्रहे, स्था० 2 ठा०३ उ० चं० सा वितिगिच्छा दुविहादेसे, सव्वे य / तत्थ देसे अम्हे मोयसेयमलप्र०। कल्प जल्लपंकदिद्धगत्ता अच्छामो अब्/व्वट्टणादि ण किंचि वि करेमो णो य दो वितता। (सू०) स्था०२ ठा०३ उ०। णजति किं फलं भविस्सतिण वा? एमातिदेसे / सव्वसोबंभचरणकेविततपक्खि(ण)-पुं०(विततपक्षिण) विततौ पक्षावस्येति / स्था०४ सुप्पाडणजल्लधरणभूमिसयणपरिसहोवसग्गविस-हणाणि य एवमाईणि ठा०४ उ०। बहिर्दीपवर्तिनि पक्षिभेदे, सूत्र०२ श्रु०३ अ०। बहूणि करेमोन नजइ किमेतेसिंफलं होज्ज वाणवा? एवं वितिगिच्छंति। जे वितह-पुं०(वितर्द) विविधं तर्दयतीति वितर्दः / तर्द-हिंसायामि--- ते आतिजुगपुरिसा ते संघयणधितिबलजुत्ता जहाभिहितं मोक्खमग्गं त्यस्मात्कर्तरि पचाद्यव्। हिंसके, संयमे, प्रतिकूले च। आचा०१ श्रु०६ आचरंता जहाऽभिलसियमत्थं साहेति, अम्हे पुण संधयणादिविहूणा फलं
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________________ वितिगिच्छा 1191 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वित्ति वि लहिज्जामो ण था?ण णजति / अहवा-सव्वं साहूणं लद्वंदिढ जति ठा०३उन णवरं जीवाकुलो लोगो ण दिट्ठो होतो तो सुंदरं होतं देसविति-गिच्छा | वितिमिरकर-पुं०(वितिमिरकर) वितिमिराः करा यस्यासौ वितिमिरएसा। सव्वसो यितिगिच्छा-जइसव्वण्णूहिं तिकालदरिसीहिंसव्यं सुकरं | करः। निरन्धकारकिरणे, जं०२ वक्ष०। दिलु होतं ताणं अम्हारिसा कापुरिसा सुहं करेंता एवं सुंदरं-होतं / नि० | वितिय-त्रि०(द्वितीय) द्वित्वसंख्यापूरके, प्रश्न० 2 आश्र० द्वार / चू०१ उ०। विचिकित्सायां विद्यासाधकसावगो नंदीसरवरगमणं दिव्व अमौटशस्-रूपायां द्वितीयसुब्विभक्ती, "विइया उवएसणे' अनु०॥ 'गंधाणं देवसंसग्गेण मित्तस्स पुच्छणं, विजाए पदाणं साहणं मसाणे, उत्त। चउपायगसिक्कयं हेट्ठा इंगालखायरोपतलो अट्ठसयवारा परिजवित्ता पादो वितियपद-न०(द्वितीयपद) अपवादपदे, नि०चू०१०। सिक्कगस्स छिज्जइ। एवं बीओ, तइओय छिज्जइ। चउत्थे छिन्ने आगासेण | वित्त-त्रि०(वित्त) विनयादिगुणेन प्रसिद्ध, उत्त०१ अ०। स्था० भ०) वचइ / तेण सा विज्ञा गहिया कालचउद्दसरत्तिं साहेइ मसाणे / चोरो य विख्याते, नि०। नपुं०। द्रव्ये, स०३० सम०। ज्ञा० उत्तका षो० औ०। णयरारक्खिएहिं पारद्धो परिभममाणो तत्थेव अगओ।ताहे वेढउमसाणं दशा०। सूत्रा आचा०ा द्रव्यजाते, सूत्र०१ श्रु० अ०। वित्ते गद्धो वित्तगद्ध ठिया। पभाएघिप्पिहि सोयभमंतोतं विजासाहगंपेच्छइ। तेण पुच्छिओ। इति। वित्त इति अदत्तादानस्योपलक्षणम्। उत्त०५ अ०। सूत्र०। द्वा० सो भणइ / विजं साहेमि / चोरो भणइ केण ते दिण्णा / सो भणइ *वृत्त-न० अनुष्ठाने, संयमे, ज्ञानेचा सूत्र०१ श्रु०२अ०३उ०। सच्छन्दसावगेणं / चोरेण भणियं / इमं दव्वं गिण्हाहि विजं देहि / सो सड्डो स्के पद्ये, सूत्र० १श्रु०१अ०१ उ०| विचिकिच्छइ सिज्झिज्जा न व त्ति / तेणं दिन्ना / चोरो चिंतइ सावगो वित्तट्ठ-पुं०(वृत्तस्थ) वृत्तमनाचारपरिहारः सम्यगाचारपालनं च तत्र कीडियाए वि पावं नेच्छइ सचं मेयं तो सो साहिउमारद्धो सिद्धा। इयरोस तिष्ठन्तीति वृत्तस्थाः / आचाररतेषु, "वित्तट्ठणाणबुढारिहा' धo) लुद्धो गहिओ। तेण आगसगएण लोगो भेसिओ। ताहे सो मुक्को। दो वि सेवाऽभ्युत्थानादिलक्षणा गुणभाजो हि पुरुषाः सम्यक् सेव्यमाना सावगा जाय त्ति। श्रा०। प्रवाध०। बृ० स्था०ा युक्त्या समु-त्पन्नेऽपि नियमात्कल्पतरव इव सदुपदेशादिफलैः फलन्ति / यथोक्तम्-- मतिव्यामोहोत्पन्नचित्तविप्लुतौ, द्वा० 14 द्वा०ा सूत्र०। चित्तभ्रान्ती, सं "उपदेशः शुभो नित्यं, दर्शनं धर्मचारिणाम् / स्थाने विनय इत्येतत्, शीती, सूत्र०१ श्रु०१२ अ० दश। फलं प्रति शङ्कायाम्, पञ्चा०१५ साधुसेवा फलं महत्॥१॥"ध०१ अधिo विव०। उपा०। जीता वित्तङ्क-पुं०(वित्ताढ्य) विभवनायके, द्वा०१४ द्वा०। वितिगिच्छासण्णा-स्त्री०(विचिकित्सासंज्ञा) मोहोदयात् चित्तविप्लुतो, वित्तपाइ(ण)-त्रि०(वित्तपातिन्) वित्तेन पतनशीले, यो०बि०। आचा०१ श्रु०१अ०१ उ वित्तप्पजाय-न०(वृत्तप्रजात) पद्यप्रकारे, स्था०७ ठा०३ उ०। वितिगिच्छासमावण्ण-पुं०(विचिकित्सासमापन्न) अनेषणीयाशङ्का वित्तवाव-पुं०(वित्तवाप) वित्तस्य-धनस्य श्रावकाधिकारान्न्यायोपात्तस्य गृहीते, आचा०२ श्रु० १चू० ११०३उ०| वितिगिच्छिय-त्रि०(विचिकित्सित) फलं प्रति शङ्कोपेते, स्था०३ ठा०४ वा यो व्ययकरणम्। सत्कार्येषु धनव्यये,ध०२ अधि०| उ०। अस्मिन्नुत्तरे दत्ते किमस्य प्रतीतिरुत्पत्स्यते न वेत्येवं संशयिते, वित्तसंजुत्त-त्रि०(वित्तसंयुक्त) प्रभूतद्रव्यवति, प्रभूतवित्तो ख़ुदारतया (भ०) किमिदमिहोत्तरमिदं वेति सञ्जातशङ्क इदमित्थमुत्तरं साधु इदं च व्यापारयन्नपि अन्येषां भावमुत्पादयति, अहो धन्याः खल्वमी य नसाधु / इदं च न साधु / भ०२ श० 2 उ०। स्था०। ज्ञा०) एवंविधोदारतया निजभुजोपात्तं वित्तं जिनायतनेषूपयोगं नयति। ततश्च वितिगिट्ठ-त्रि०(व्यतिकृष्ट) अतिशयेन क्षेत्रतो भावतश्च विकृतेन व्यतिकृष्ट शासनोन्नतिश्च जायते। स्ववित्तानुसारेण जिनभवनविधौ प्रवर्त्तमानेन दिशमुदिशेत् / व्य०७ उ०ा दूरदेशवर्तिनि, बृ०१ उ०३ प्रक०। ('उद्देस' स्वाशयवृद्धिरपि कृता भवति। दर्श०१ तत्त्व। शब्दे द्वितीयभागे 811 पृष्ठे व्याख्यातम्।) वित्तास-पुं०(वित्रास) विक्षोभे, उत्त०२ अ० आ० मा आचा०। वितिण्ण-त्रि०(वितीर्ण) अतिक्रान्ते, सूत्र०१ श्रु०१अ०२ उ०। वित्तासणय-न०(वित्रासनक) विकरालरूपादिदर्शने, आव०४ अ०) वितिमिर-त्रि०(वितिमिर) विगतं तिमिरं तिमिरसंपाधो भ्रमो येषां ते | वित्ति-स्वी०(वृत्ति) वृत्तिर्वर्तनम् / कृपादित्वादित्त्वम् / प्रा०। राजादेशवितिमिरः। प्रकृष्टतरविति तरप्प्रत्ययः। ततः प्राकृतलक्षणे स्वार्थे कः कारिणो जीविकायाम, विपा०१ श्रु०१ अ० भ० स्था०। सूत्र०। ज्ञा०| प्रत्ययः। नं। औ०। भ्रमरहिते, विशुद्धतरके वा निरन्धकारेषु, कर्मति अथ तान्येव नामतः श्लोकद्वयेनाहमिरवासनापगमात्। (प्रज्ञा०३६ पद।) क्षीणावरणे, भ०५ श०४ उ०। वृत्तयोऽङ्गारविपिना-नोभाटीस्फोटकर्मभिः। सान०। विगताज्ञानेषु, औ० नपुं० ब्रह्मलोके पञ्चमविमाने, स्था०६ वाणिज्याका दन्तलाक्षा-रसकेशविषाश्रिताः // 12 //
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________________ वित्ति 1192- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वित्थाररुइ - यन्त्रपीडनकं निर्ला-उछनंदानं दवस्य च। णिरवेक्खस्स उजुत्तो, संपुण्णो संजमो चेव / / 7 / / सरःशोषोऽसतीपोष-पति पञ्चदशत्यजेत्॥१३॥ वृत्तिव्यवच्छेदे-जीविकाविघाते वृत्तिक्रियाविरुद्धपूजाकालाश्रयणे कृते, ध०२ अधि०। (तत्तच्छब्दानां व्याख्या स्वस्वस्थाने) पालने, प्रव० / चशब्दोविशेषद्योतकः, पुनःशब्दार्थः, तस्य चैवं भावनावृत्तिक्रिया६५ द्वार / विविधैरभिग्रहविशेषैर्वर्तने, नं० भ०। नि० दशा औला विरुद्धकालाश्रयणे वृत्तिव्यवच्छेदो भवति / वृत्तिव्यवच्छेदे पुनः / पञ्चा०। दशा०) विपा०। आचा०। सूत्राधा पं०व०। बृ०ा जीवनोपाये, किमित्याह- गृहिणो गृहस्थस्य सीदन्ति-- न प्रवर्तन्ते सर्वक्रियाकल्प० १अधि०१क्षण / निर्वाह, ज्ञा०१ श्रु०१ अ० स्था०। प्राणसं- धर्मलोकाश्रिता समस्तव्यापाराः / अथ सीदन्तु ताः सकलकल्मषधारणे, स्था०६ठा०३ उ०। देहपरिपालनायाम,दश०१ अ० यथानियु- विमोषपरपरममुनिपदपङ्कजपूजनप्रवृत्तस्य किं ताभिरित्यत्राहक्तपुरुषेभ्यः सुवर्णस्यद्वादशशतसहस्राणि (आ०म० १अ०1) वर्तन्तेऽ- निरपेक्षस्य तु वृत्तिनिःस्पृहस्य पुनः पुरुषस्य युक्तः--सङ्गतो विधेयतया नयेति द्वात्रिंशत्कवलपरिमाणे, आचा०१ श्रु०८ अ०१ उ०। प्रव०। संपूर्णः सर्वविरतिरूपतया परिपूर्णः / संयमश्चैव साधुधर्म एव साधोरिअनुष्ठाने, सूत्र०१ श्रु०१० अ०अभ्यन्तरायां निर्वृत्तौ, आचा०१ श्रु०२ वान्यथा सर्वथा निरपेक्षत्वासिद्धे / इति गाथार्थः // 7 / / पञ्चा०४ विव०। अ०१ उ०ातान्त्रिक्या परिभाषयाघ्राणेन्द्रिये, द्वा०२६द्वा०। सूत्रविवरणे, | वित्तिसंखय-पुं०(वृत्तिसंक्षय) असंप्रज्ञातसमाधौ, द्वा०२० द्वा०। विशे०। आव०। बहुसंस्कृताक्षरनिबद्धसूत्रादिविवरणरूपायाम, संथा। विकल्पस्यन्दरूपाणां, वृत्तीनामन्यजन्मनाम्। समुदायलक्षणस्यावविनोऽवयवे, द्वा० अपुनर्भावतो रोधः,प्रोच्यते वृत्तिसंक्षयः॥२५॥ योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः / विकल्पेति-स्वभावत एव निस्तरङ्गमहोदधिकल्पस्यात्मनोऽन्यतचित्तं वृत्तयस्तस्य, पञ्चतय्यः प्रकीर्तिताः। जन्मनां पवनस्थानीयस्वेतरतथाविधमनःशरीरद्रव्यसंयोगजनितानां द्वा०११द्वा०। (वृत्तयः 'जोग' शब्दे चतुर्थभागे 1621 पृष्ठेव्याख्याताः।) विकल्पस्यन्दरूपाणां वृत्तीनाम्, अपुनर्भावतः पुनरुत्पत्तियोग्यतापरिद्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषेषु पञ्चसु पदार्थेषु वर्तनाद् वृत्तिः / समवाये, हारात्, रोधः-परित्यागः केवलज्ञानलाभकाले अयोगिकेवलित्वकाले स्या च वृत्तिसंक्षयः प्रोच्यते। तदाह-"अन्यसंयोगवृत्तीनां, यो निरोधस्तथा वित्तिकंतार-न०(वृत्तिकान्तार) वृत्ति विका तस्याः कान्तारमरण्यं तथा। अपुनर्भावरूपेण, स तु तत्संक्षयो मतः॥१॥" द्वा० 18 द्वा० / तदिव कान्तारं क्षेत्र कालो वा वृत्तिकान्तारम्। निर्वाहाभावे, उपा०१ अ०। ('जोग' शब्दे चतुर्थ--भागे 1631 पृष्ठे गतोऽयं वृत्तिसंक्षयविस्तरः।) वित्तिकर-पुं०(व्यक्तिकर) व्यक्तिकरणशीलो व्यक्तिकरः / निर- वित्तिसंखेव-पुं०(वृत्तिसंक्षेप) वृत्तेर्भिक्षाचर्यारूपायाः संक्षेपोऽभिवशेषव्युत्पत्तिमतिचारानतिचारफलादिभेदभिन्नमर्थं भाषमाणे, आ० ग्रहविशेषात्संकोचनं वृत्तिसंक्षेपः। पा०ा भिक्षाचर्यारूपे (ग०१ अधिol) म०१ अ० बाह्यतपोभेदे, स०६ समा द्रव्याधभिग्रहणे, पञ्चा०ा सा (वृत्तिः) द्रव्यतो *वृत्तिकर-त्रि० निर्वाहकरे, ज्ञा०१ श्रु०१ अ० द्वात्रिंशत्कवलमानपूर्णाहारापेक्षयैकादिकवलन्यूनाहारग्रहणतोऽवित्तिच्छेय-पुं०(वृत्तिच्छेद) वर्त्तनोपायविघ्ने, सूत्र०१ श्रु०७ अ०। नेकविधा / भावो नोदरिका तु कषायत्यागः, तथा वृत्तेर्भिक्षाचर्यायाः आचा०। प्रश्न०। "जे यदाणं पसंसंति, वहमिच्छति पाणिणं / जे उतं संक्षेपणमल्पताकरणं वृत्तिसंक्षेपणं द्रव्याद्यभिग्रहग्रहणम् / तत्र द्रव्यतो पडिसेहंति, वित्तिच्छेयं करेति ते॥१॥" प्रश्न०२ आश्र० द्वारा लेपकृदेवेतरदेव वा, द्रव्यं मया ग्राह्यमित्यादि। एवं क्षेत्रतः स्वग्राम एव वित्तिदाण-न०(वृत्तिदान) नियुक्तपुरुषेभ्यः सार्द्धद्वादशसुवर्णसहस्रदाने, परग्राम एव वा एतावत्स्वेव वा, गृहेषु यल्लप्स्यत इत्यादि। एवं कालतः आ०म० 10 पूर्वाह्न मध्याह्ने अपराह्ने वा, भावतःपुनरुत्क्षिप्तमेव वा गायतो वारुदतो वित्तिमिक्खा-स्त्री०(वृत्तिभिक्षा) "निःस्वान्धपङ्गवो ये तु, न शक्ता वा यल्लप्स्यत इत्यादि। पञ्चा० १६विव०॥ वैक्रियान्तरे। भिक्षामटन्ति वृत्त्यर्थं वृत्तिभिक्षेयमुच्यते।।१।।" इत्युक्त- | वित्तेसि-त्रि०(वित्तैषिन) वित्तं द्रव्यं तदन्येष्टुं शीलं येषां ते वित्तैषिणः। लक्षणे भिक्षाभेदे, हा०५ अष्टक द्रव्यार्थिषु, सूत्र०२ श्रु०६ अ०॥ वित्तिय-त्रि०(वित्तिक) वित्तं द्रव्यं तदस्ति यस्येति / धनसमृद्धे, वृत्तिं | वित्थड-त्रि०(विस्तृत) विस्तरवति, प्रव०६४ द्वार। औला रा०) चाश्रितलोकानां ददाती वृत्तिदम् / जीविकादातरि, ज्ञा०१ श्रु०१अ० वित्थर-पुं०(विस्तर) प्रपञ्चे, आ०म० 10 // महावचनसंदर्भे, स०। प्रव०। साऔ! वित्थराल-त्रि०(विस्तराल) विशाले, स्था०५ ठा०१ उ०। वित्तिवोच्छेय-पुं०(वृत्तिव्यवच्छेद) जीविकाविघाते, पञ्चा० वित्थार-पुं०(विस्तार) विष्कम्भे, स्था०५ ठा०३उ०। पृथक्त्वे, अथ कथभापवादिककालानाश्रयणे शुभसन्तान-- नि०चू०४उ० व्यवच्छेदः स्यात्? वृत्तिव्यवच्छेदादिति वित्थाररुइ-पुं० (विस्ताररुचि) विस्तारो-व्यासःसकलद्वादब्रूमः / एतदेवाह शाङ्गस्य नयैः पर्यालोचनमिति ततोऽपवृंहिता रुचिर्यस्य वित्तीबोच्छेयम्मिय, गिहिणो सीयंति सव्यकिरियाओ। स विस्ताररुचिः। प्रज्ञा०१ पद / विस्तारो व्यासस्तज्जा रुचि
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________________ वित्थाररुइ 1193 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विदुगुंछा यस्य तथा। दर्शनिभेदे,धर्मास्तिकायादिद्रव्याणां सर्वपर्यायाणां सर्वैर्नयैः / "विदिण्णच्छत्तबालवीयणा' वितीर्णच्छत्रबालवीजना वितीर्ण राज्ञा प्रमाणैतिरि, स्था०१० ठा०३ उ०। प्रसादतोदत्तंछत्रचामररूपाबालवीजनिका यस्यै सा तथा।गणिकायाम, अथ विस्ताररुचिमाह विपा० 1 श्रु० 2 अ० "विदिण्णवियारे" साधुः वितीर्णो राजानुज्ञातो दव्वाण सव्वभावा, सव्वपमाणेहि जस्स उवलद्धा। विचारोऽवकाशोयस्यस विश्वसनीयत्वात्स वितीर्णविचारः। संघकार्यासवेहि नयविधीहि, वित्थाररुई मुणेयव्यो / / 671|| दिष्विति प्रकृतम् / विपा०१श्रु० २अ०! द्रव्याणां-धर्मास्तिकायादीनामशेषाणामपि सर्वे भावाः पर्यायाः सर्व विदित्ता-अव्य०(विदित्वा) बुवेत्यर्थे , आचा०१ श्रु०८ अ० ८उ०। प्रमाणैरशेषैः प्रत्यक्षादिभिर्यस्योपलब्धा यस्य प्रमाणस्य यत्र व्यापार विदित्तासमुद्देसणा-स्त्री०(विदित्वासमुद्देशना) ज्ञात्वा परिणामत्वादिस्तेनैव प्रमाणेन प्रतीताः, सव्वेहिं' ति सर्वैश्च नयविधिभिर्नंगमादिनय गुणोपेतं शिष्यं यद्यस्य योग्यं तस्य तदेव समुद्दिशतः। वाचनासंपतेंदे, प्रकारैरमुं भावमयममुं चायं नयभेदमिच्छतीति स विस्ताररुचिरिति उत्त०१० ज्ञातव्यः / सर्ववस्तुपर्यायप्रपञ्चावगमेन तस्य रुचेरतिविमलरूपतया विदित्तोइसणा-स्त्री०(विदित्वोद्देशना) ज्ञात्वा परिणामत्वादिगुणोपेतं भावात् / प्रव० 146 द्वार। प्रज्ञा०।०। शिष्यं यद्यस्य योग्यं तस्य तदेवोद्विशतः। उद्देशनालक्षणे वाचनासंपर्दोदे, वित्थिण्ण-त्रि०(विस्तीर्ण) विस्तारवति, भ०२ श०५ उ०। रा०संथा। उत्त० 10 // आव०। रा०ा ऊधिोऽपेक्षया पृथुत्वे, जी० 3 प्रति० 4 अधिo विदिय-त्रि०(विदित) प्रत्यभिज्ञाते, विपा०१ श्रु०३ अ०। उत्त। ति०| "वित्थिण्णछत्तचामरबालवीयणे" विस्तीर्णानि छत्राणि चामररूपबा आ०चू०। पर्यालोचिते, नं०। लव्यजनिकाश्च येषां ते तथा। भ० 13 श०६ उ०॥ "वित्थिण्णविउल विदिसा-स्त्री०(विदिश) एकप्रदेशात्मिकायां कोणदिशि, आचा०१ श्रु० भवणसयणासणजाणवाहणाइण्णा'' विस्तीर्णानि विस्तारवन्ति / 101 उ०। मोक्षसंयमाभिमुखाया दिशोऽन्यस्यां कुदिशि, आचा०१ विपुलानि-प्रचुराणि भवनानि-गृहाणि शयनासनयानवाहनैराकीर्णानि श्रु०५ अ०३ उ० येषां ते तथा अथवा-विस्तीर्णानि-विपुलानि भवनानि येषां ते, विदिसापइण्ण-त्रि०(विदिक्प्रतीर्ण) मोक्षसंयमाभिमुखा दिक् ततोऽन्या शयनासनयानवाहनानि चाकीर्णानि गुणवन्ति येषां ते तथा। भ०२१०५ विदिक् तां प्रकर्षण तीर्णः विदिक्प्रतीर्णः / असंयमाभिमुखे, आचा० उ०। "विस्थिण्णविउलबल-वाहणं ति" विस्तीर्णविपुले अति १श्रु०५ अ०३ उ०। विस्तीर्णे बलवाहने-सैन्यगजाजादिके यस्य स तथा। भ० 112011 विदिसावाय-पुं०(विदिग्यात) विदिग्भ्यो वाति वायुकाये, प्रज्ञा०१ पद। उ०। कल्प स्था० विदंड-पुं०(विदण्ड) विशिष्टदण्डे, जीत०। विदु-अव्य०(विदित्वा) विज्ञायेत्यर्थे, बृ० 330 // विदंसग-पुं०(विदंशक) विदंशतीति विदंशकः। श्येनादौ, प्रश्न०१आश्र० *विद्रस्-त्रि०ा बुधे, पञ्चा०१६ विव०। कालज्ञे, आचा०२ श्रु०४ चू०। द्वार। पक्षिबन्धनविशेषे, उपा०१ अ०) बृ०॥ ('विष्णु' शब्देऽस्मिन्नेव भागे विस्तरो गतः।) विदंसण-न०(विदर्शन) अन्धकारस्य वस्तुप्रकाशने, प्रश्र०१आश्रद्वार। विदुगुंछा-स्त्री०(विद्वज्जुगुप्सा) विद्वांसः-साधवः विदितसंसार-- अलग्नस्यैव लग्नत्वेन दर्शने, बृ०१ उ०३ प्रक०ा नि० चू०। स्वभावाः परित्यक्तसमस्तसंधास्तेषां गुजुप्सानिन्दा।साधुजुगुप्सारूपे दर्शनाचारातिचारे, यथा-अस्नानात् प्रस्वेदजलक्लिन्ना मलिनत्वाद् विदद्ध-त्रि०(विदग्ध) विचक्षणे, षो० 10 विव०गेयनीतिनिपुणे, द्वा०२२ दुर्गन्धिवपुषो भवन्ति तान्निन्दति, आव० 6 अ०को दोषः स्याद्यदि द्वा० धूमगन्धिनि अजीर्णभेदे, ध०१ अधिका प्रासुकेन वारिणा अङ्गक्षालनं कुर्वीरन् भवन्त इत्येवमपिन कुर्यादहस्यैव विदब्भ-पुं०(विदर्भ) सप्तमतीर्थकरप्रथमशिष्ये, स० परमार्थतोऽशुचित्वात्। आव०६अ। विदर-पुं०(विदर) क्षुद्रकनद्याकारेषु नदीपुलिनस्यन्दजलगतरूपेषु, ज्ञा०१ विदुगुच्छ त्ति वि भण्णति, सा पुण आहारमोयमसिणाई। श्रु०१ अ० तीसु वि देसे गुरुगा, मूलं पुण सव्वहिं होति // 25 // विदरिसण-न०(विदर्शन) विरूपाकारे, विभीषिकादिदृष्ट, उत्त०३६ अ०1 विदू-साहू कुच्छति-गरहति; निन्दतीत्यर्थः / वि इति वितियविदाय-अव्य०(विदित्वा) विद-ज्ञाने क्तः। विज्ञायेत्यर्थे, दशा०४ अ० विकप्पदरिसणे / भण्णइ त्ति-भणियं होंति, सा इति-साविदुगंछा पुणसद्दो विदारय-त्रि०(विदारक) विदारयतीति विदारकः / स्फोटके, प्रश्न०१ संव० विसेसणत्थेदावो। पुव्वाभिहितावतिर्गिछातोइमं विदुगुच्छंविसेसयति।सा 'द्वार / ज्ञा० पुण विदुगुंछा इमेसु संभवति-आहारे त्ति वल्लिकरेसु आहारंति / अहवाविदालण-न०(विदारण) विविधप्रकारैर्दारणे, प्रश्न०१ आश्र० द्वारा मंडलिविहाणेण भुजमाणा पाणा इव सव्वे एकलाला असुइणो,एते मोए-त्ति विदिण्ण-त्रि०(वितीर्ण) विदत्ते, आ०म० अ०। राजानु ज्ञाने, रा०ा | काइयंवोसिरिउंदवंण गेण्हंति।समाहिसुवा योसिरिउतारिसेसुचवलंबणेसुं
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________________ विदुगुंछा 1195- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विद्दायमाण भायणाणि छिवंति। असिणाणे त्ति अण्हाणा य एते पस्सेयउल्लिय- द्विधा-अनूपो, जङ्गलश्च नद्यादिपानीयबहुलोऽनूपः, तद्विपरीतोजङ्गलो; मलभतरगत्ता सया कालमेवं चिट्ठति। आदिसद्दातो-सोवीरंगग्रहणं तेण निर्जल इत्यर्थः / बृ० 1302 प्रक०| व णिल्लेवणं मोयपडिभापडिक्त्ती य एते घेप्पंति / जहा-केण कया | विदेह-पुं०(विदेह)लोकप्रसिद्धराजर्षों, सच प्रव्रज्य क्षत्रियपरिव्राजकेषु विदुगुंछा / तत्थुदाहरणं-सड्डो पव्वंते वसति। तस्सधूयाविवाहे किह वि | प्रसिद्धोभूत्। औ०। विशिष्टं देहं यस्य सः / कल्प०१ कधि०५ क्षण। साहुणो आगता। सा पिउणा भणियापुत्ति ! पडिलाहेहि, सा मंडियप- ऋषभदेवस्य अष्टाविंशतितमे पुत्रे,कल्प०१ अधि०७क्षण / तद्राज्ये साहिता पडिलाहेति / साहूणं जल्लगंधो तीए अग्घाओ। सा हियएण मिथिलानगरीप्रतिबद्ध जनपदे, ज्ञा०१ श्रु०८ अ० उत्त०। आव०॥ चिंतेति-अहो अणवज्जो धम्मो भगवता देसिओ; जति फासुएणण्हाएज्जा प्रज्ञा| स्था०। सूत्र०। इहेव भारहे वासे पुव्वदेसे विदेहा णामंजणवया। को दोसो होज्जा? सा तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिक्कता कालगता। संपइ काले तिरहु त्ति देसो त्ति भण्णइ'1 ती०१८ कल्प। आ० चू०। नि० देवलोगगमणं, चुता मगहरायगिहे गणिया धूया जाया। गब्भतया चेव चू०वर्षभेदे, चत्वारि वर्षाणि-विदेहे अपरविदेहे देवकुरा उत्तरकुरा / अरतिं जणेति / गब्भसाडणेहिं विण पडति, जाता समाणी उज्झिया। स्था० 4 ठा०२ उ०। सा गंधेण तं वणं वासेति / सेणिओ य तेण उ मग्गेण णिग्गच्छेति सामि विटेडकड-ना विटेडकट जम्बदीपे मन्दरस्योत्तरे नीलवतो वर्षधरस्य वंदन्तो सो खंधावारो तीए गंधं ण सहते, उम्मग्गेण य पयाओ। रण्णा तृतीयकूटे, स्था०६ ठा०३उ०) पुच्छिय-किमेयं? तेहिं कहियं,दारि-याए गंधो गंतूणं दिट्ठा भणति-एसेव विदेहजंबू-स्त्री०(विदेहजम्बू) विदेहेषु जम्बू विदेहजम्बू / विदेहान्तममपढमपुच्छा, भगवं पुव्वभवंकहेति भणति-एसकहिंपचणुभविस्सति? र्गतोत्तरकुरुकृतनिवासत्वात् सौमनस्यहेतुत्वात् / जम्बूसुदर्शनायाम, सामी भणतितीए तं चेतितं / इदाणिं सा तव चेव भज्जा भविस्सति। जी०३प्रति०४अधि०। जंग। जम्बूद्वीपो ह्यनया जम्ख्या भुवनत्रयेऽपि अग्गमहिसी बारस संवच्छराणि / सा कहं जाणियव्वा?जा तुम विदितमहिमा ततः संपन्नं यथोक्तयशोधारित्वमस्याः।जं०४ वक्ष०ा. णममाणस्स पिट्ठीए हंसोलीणं काहिति तं जाणिज्जासि, वंदित्ता गओ। विदेहजब-पुं०(विदेहजार्च) विदेहा-त्रिशला तस्यां जाता अर्चाशरीरं सा अवगयगंधा एगाए आहीरीए गहिता / संवड्डिया जोव्वणत्था जाया। यस्य स तथा / वीरस्वामिनि, कल्प०१अधि० ५क्षण। कोमुदीवारं माताए समं आगता। अभओ सेणिओ पच्छण्णं कोमुदीवारं *विदेहजात्य-पुं० वीरस्वामिनि, आचा०२ श्रु०३ चू०। पेच्छति। तीसे दारियाए अंगफासेणं सेणिओ अज्झोववण्णो णाममुद्दिया विदेहदिण्ण-०(विदेहदत्त) विदेहदत्ता–त्रिशला तस्या अपत्यं वैदेहदत्तः / य तीसे दंसियाए बंधति। अभयस्स कहेति णाममुद्दा हरिता। मग्गाहि। वीरस्वामिनि, कल्प०१अधि० 5 क्षण। तेणं मणूसा पेसिता तेहिं वारा बद्धा, ते एक्कक्कं माणुसंणीणंति। सादारिया दिट्ठा चोरी गहिता / अभओ चिंतेति। एतदत्थं तीसे दंसियाए वेढओ विदेहदिन्ना-स्त्री०(वैदेहदत्ता) त्रिशलायां वीरस्वामिमातरि, कल्प०१ बद्धो, अभओ गओ सेणियस्स समीवं / भणति-गहिओ चोरो ! कहिं अधि०८ क्षण / आचा०। सो? मारिओ, सेणिओ अधितिं पगओ। अभओ भण्णइमुक्का सा पुण | विदेहपुत्त-पुं०(विदेहपुत्र) कूणिके, "वजी विदेहपुत्ते जइत्था' भ०७ मया आसाय धीया चरेत्ता परिणीया। अण्णया वुक्कण्णए व ण रमंति। श०५० राणियाउ पोत्तं वहावेंति हत्थं वो देति जाहेराया जिप्पइ ताहेणवंताहेति- | विदेहरायवरकण्णगा-स्त्री०(विदेहराजवरकन्यका) विदेहो मिथिलाइयरीए जितो पोत्तं वेढेत्ता विलम्ग। रण्णा सरियं मुक्का, भणति-ममं नगरीजनपदस्तस्य राजा कुम्भकस्तस्य वरकन्या या सा तथा / ज्ञा०१ विसज्जेह। विसज्जिया पव्वइया य एवं विदुगुंछाए फलं / विदुगुंछेति दारं | श्रु०५ अ०। मल्लीस्वामिन्यामेकोनविंशतीर्थकृति, स्था०७ ठा०३उ०। गतं। नि०चू० 130 विदेहसुकुमाल-पुं०(विदेहसुकुमार) विदेहशब्देनात्र गृहवास उच्यते, तत्र विदुग्ग-पुं०(विदुर्ग) समुदाये, भ०१।०८उ०नि०चू०। सुकुमारः। दीक्षायां तु परीषहादिसहनेऽतिकठोरत्वात्। वीरे, कल्प०१ विदुपरिसा-स्त्री०(विद्वत्पर्षद) अनेकविज्ञानपर्षदि, रा०ा अधि०५ क्षण। आचा०। विदुर-पुं०(विदुर) क-ग-च-ज०' इत्यादिसूत्रसय काचित्कत्वाहलोपो | विद्दव-पुं०(विद्रव) विसर्प ,ज्ञा०१ श्रु० अ०) न / प्रा०१ पाद / बन्धुदत्तसाधुना पाटलिपुत्रे नगरे वादपराजयेन विद्दवण-न०(विद्रवण) विनाशकरणे,जी०१ प्रतिका प्रव्राजितेऽव्यक्तलिङ्गे षड्दर्शनपारगे लौकिकसाधौ,ध० 0 / / विविअ-त्रि०(विद्रवित) विनाशिते, व्य०२उ०। हस्तिनापुरनगरराजधृतराष्ट्रभ्रातरि क्षत्रिये, ज्ञा०१ श्रु०१६अ०। विद्याअ-त्रि०(विद्रुत) मुकुलादित्वात् उत आकारः! विनष्टे, प्रा०१ पाद। विदूसय-पुं०(विदूषक) नानावेषादिकारिणि,अनु०। औ०। विद्दायमाण-त्रि०(विद्वस्यत्) विद्धांसो वयमित्येवं मन्यमानेषु, "अहे विदेश-पुं०(विदेश) स्वकीयदेशापेक्षयाऽन्यदेशे, ज्ञा०१श्रु०१ अ० विदेशो | संभवंता विद्दायमाणा अहमंसा विउक्कमे" आचा० १श्रु०६ अ०४०।
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________________ विहुम 1195 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विपरिणामित्तए विदुम-पुं०(विद्रुम) प्रवाले, ध०२ अधिoज्ञा०। स्था०। प्रकम्पितेऽनेकार्थत्वाद् वा अपनीते रजोमले यैस्ते तथाविधाः। अकर्मसु विडय-त्रि०(विद्रुत) अभिभूते, ज्ञा०१ श्रु०१अ०। सिद्धे, ला विद्ध-त्रि०(विद्ध) ताडिते, आचा०१ श्रु०५ अ०३ उ०। विधेयता-स्त्री०(विधेयता) विधेयवृत्तौ, विषयताविशेषे, ध० 1 अधि०। *वृद्ध-पुं० श्रुतपर्यायाभ्यां महति, "तस्सेस मग्गो गुरुविद्धसेवा' उत्त० विपंची-स्त्री०(विपञ्ची) वितन्त्र्यां वीणायाम, जी०३ प्रति०४ अधि०| 32 अ०। "विद्धकइनिरूवियं" प्रा०२ पाद। प्रश्रा रा०। आचा। विपक-त्रि०(विपक्व) विशिष्टपरिपाकमागते, जी०३ प्रति० 4 अधि०। विद्धंसण-न०(विध्वंसन) रोगज्वरादिना जर्जरीकरणे, तं०। विनाशे, प्रश्न०३ आश्र० द्वार। सर्वथा क्षये, स्था०३ ठा०१उ०तंगवसतेभञ्जने, विपक्ख-पुं०(विपक्ष) शत्रौ, उत्त०१४ अग बृ०१उ०२प्रक०। प्रकृतेरुच्छेदे,ज्ञा०१ श्रु० 110 विपक्खभूय-त्रि०(विपक्षभूत) तत्प्रतिबन्धकतयाऽत्यन्तप्रतिभूते, उत्त० 14 अ० शत्रुभूते, उत्त०१४ अ० विद्धंसणधम्म-त्रि०(विध्वंसनधर्म) विध्वंसनं धर्मोऽस्येति / विश विपचइय-न०(विप्रत्ययिक) दृष्टिवादस्य स्वनामख्याते सूत्रे, स० रारुस्वभावे, गत्वरे, सूत्र०१ श्रु०२ अ०२ उ०ा आचाo। विपच्छिय-पुं०(विपश्चित्) विदुषि, स्या०| विद्धकइ-पुं०(वृद्धकवि) कृपादित्वाद्-इः। प्राचीनकवौ, प्रा०१ पाद। विपजय-पुं०(विपर्यय) मिथ्याज्ञाने, द्वा०११ द्वा० / (उद्देशानुसारेण विद्धत्थ-त्रि०(विध्वस्त) अप्ररोहसमर्थे, "विद्धत्था अविद्धत्था जोणी विपर्ययस्वरूपं पमाण' शब्दे पञ्चमभागे 453 पृष्ठगतम्।) (विशेषः'खाइ' जीवाणं होई" दश०४ अ० शब्दे 3 भागे७३५ पृष्ठे गतः।) विद्धि-स्त्री०(वृद्धि) वर्धन स्वनामख्याते औषधिभेदे, पचा०८ विव०। / विपणोलय-त्रि०(विप्रणोदयत्) विविधैः प्रकारैः संसारभावनादिभिः कुटुम्बिनां वितीर्णस्य धान्यस्य द्विगुणादिग्रहणे,विपा० १श्रु० 10 // प्रेरयति, आचा०१ श्रु०५ अ०२ उ०। विद्धिकर-पुं०(वृद्धिकर) समृद्धिहेतौ, "दस नक्खत्ता णाणस्स विद्धि | विपत्ति-स्वी०(विपत्ति) कायस्यासिद्धौ.बृ०१ उ०२प्रक०। विपत्तिशब्देन करा" स्था० १०ठा०३ उ०। कायस्यासिद्धिरत्राभिधीयते। तदुक्तम्- "संप्राप्तिश्च विपत्तिश्च, कार्याणां विभ्रूण-अव्य०(विद्ध्वा) वेधं कृत्वेत्यर्थे , सूत्र०१ श्रु०५ अ०१ उ०। द्विविधा स्मृता / सम्प्राप्तिः सिद्धिरर्थेषु, विपत्तिश्च विपर्ययः // 1 // " विधम्म-पुं०(विधर्मन्) विगतो धर्मो येभ्यस्ते विधर्माणः। धर्मरहितेषु, बृ०१३०२ प्रका प्रति विपरामुसंत-त्रि०(विपरामृशत्) विविधमनेकप्रकारं विषयाभिलाषितया विधम्ममाण-त्रि०(विधर्मयत्) विगतधर्म कुर्वति, विपा०१ श्रु०१ अ०॥ परांमृशत्युपतापयतीति / दण्डकशतताडनादिभिर्धातयति, आचा०१ विधवा-स्वी०(विधवा) रण्डायाम्,नि०चू०८ उ०। श्रु०५ अ०१ उ०ा नानापीडाकरणैर्वधकरणे, आचा०१श्रु०८ अ०२ उ०। विधाण-न०(विधान) यद्येन प्राप्तव्यं तस्य करणे, "असंसयं तं विपरिकुंचिय-न०(विपरिकुञ्चित) अर्द्धवन्दित एव देशादिकथाकरणे, असुणाणमगं, गतो विधाणे दुरतिक्कमम्मि" बृ०१ उ०३ प्रक०। ध०२ अधि०। प्रव० / "देसकहावित्तंते कधेति दरवंदिए विपरि कुंची" वन्दिते-अर्द्धवन्दनके दत्ते सति देशकथावृत्तान्तान् यत्र करोति विधाय-पुं०(विधात) व्यन्तराणामौत्तराहाणामिन्द्रे, स्था०२ठा० 330) तद्विपरिकुश्चितम्। बृ०३उ० विधुणणा-स्त्री०(विधुनना) धूञ् -कम्पने, विविधप्रकारा धुणणा विपरिणमणा-स्त्री०(विपरिणमना) गिरिसरिदुपलन्यायेन द्रव्यक्षेत्रादिविधुणणा। आ० चू०२ अ०नि० चू०।अपनयने, सूत्र०१श्रु०१६ अ० भिर्वा करणविशेषेण वा अवस्थान्तरापादने, स्था०४ ठा०२ उ०॥ आचा। विपरिणममाण-त्रि०(विपरिणमत्) परिणामान्तराणि गच्छति, भ०७ श० विधुर-न०(विधुर) अपापे, प्रश्न०३ आश्र० द्वार। १०उन विधूत-त्रि०(विधूत) क्षुण्णे, आचा०१श्रु०६ अ०३ उ०। विपरिणाम-पुं०(विपरिणाम) विविधेन प्रकारेण परिणमनं विपरिणामो विधूतकप्प-पुं०(विधूतकल्प) विधूतः क्षुण्णः सम्यक् स्पृष्टः कल्पः- वस्तूनामिति / स्था० 4 ठा०१ उ०ा परिणामान्तरगमने, विभक्तिआचारो येन स तथा। कृताचारे, आचा०१ श्रु०६ अ०३ उ०। विपरिणामरूपे व्याख्याने, आचा०१ श्रु०१ अ०५ उ०। विधूमट्ठाण-न०(विधूमस्थान) विधूमस्यानेः स्थाने, सूत्र०१ श्रु०५ अ०२ | विपरिणामाणुप्पेहा-स्त्री०(विपरिणामानुप्रेक्षा) वस्तूनां प्रतिक्षणं उ०ा "समूसियं णाम विधूमठाणं, जं सोयतत्ता करुणं भणंति'' सूत्र०१ विविधपरिणामगमनानुचिन्तने, ग०१ अधि० भ०। श्रु०५ अ०२ 301 विपरिणामित्तए-अव्य०(विपरिणामयितुम्) विपर्ययतः परिणामयितुविधूयरयमल-पुं०(विधूतरजोमल) रजश्च मलं च रजोमले। विधूते / मित्यर्थे, उपा०२ अ०।
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________________ विपरिणामिय 1196 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विप्परियास विपरिणामिय-त्रि०(विपरिणामित) स्थितिधातरसघातादिभिः विपरि- | श्रु०१३ अा विविधं प्रतिपन्नो विप्रतिपन्नः। आचा०१ श्रु० अ०१3०1 णाम नीते, भ०६श०१ उ० स्थाला साधुसन्मार्गद्वेषिणि, सूत्र० १श्रु०२ अ०१ उ० असंबद्धे, विशे०। विपरियास-पुं०(विपर्यास) वैपरीत्ये मिथ्यात्वमोहे, आचा०१ श्रु०६ / विप्पडिवत्ति-स्त्री०(विप्रतिपत्ति) मिथ्याभिनिवेशे, स्था०६ ठा०३ उ०। अ०४ उ०) उत्त०। विप्पडिवेयण-न०(विप्रतिवेदन) पर्यालोचने, आचा०१ श्रु०५१०४ उ०| विपलाइज्जत-त्रि०(विपलायमान) विपलायति, विपा०१ श्रु०२ अ०! | विप्पणट्ठ-त्रि०(विप्रणष्ट) वीति-विधिना प्रेति-प्रकर्षेण प्रक्षिप्यमाणोविपाग-पुं०(विपाक) पुण्यपापरूपकर्मफले, विपा० १श्रु०१अ० स्था०। ___ नष्टः ! नि०चू० 2 उ०। स्वमिकैर्गवेषयद्भिरपि अप्राप्ते, अप्राप्ते, प्रश्न०३ विपिक्खंत-त्रि०(विप्रेक्षमाण) पश्यति, प्रश्र०३ आश्र0 द्वार। संव० द्वार। विपित्त-(देशी) विकसिते, देवना०७ वर्ग 61 गाथा। विप्पणमंत-त्रि०(विप्रणमत) विविधं संयमानुष्ठानं प्रति प्रणमत, प्रह्रीभविपिनकम्म-न०(विपिनकर्मन्) कर्मभदे,धाविपिनंवनं,तत्कर्मछिन्ना वति, सूत्र० 1 श्रु०१ अ० 2 उ०। च्छिन्नवनपत्रपुष्पफलकन्दमूलतृणकाष्ठकम्बावंशादिविक्रयः, कणदल विप्पणासधम्म-त्रि०(विप्रणाशधर्म) प्रणाशो-विनश्वरो धर्मः-स्वभावो पेषणं वनकच्छादिकरणं च, यतः-"छिन्नाच्छिनवनपत्रप्रसूनफल यस्य तद्-विप्रणाशधर्मम्। विनश्वरस्वभावे, तं०। विक्रयः / कणानांदलनोत्पेषाद, वृत्तिश्च वनजीविका // 1 // " इति। अस्यां विप्यमाय-पुं०(विप्रमाद) विविधे प्रमादे, सूत्र०१ श्रु०१४ अ० च वनस्पतेस्तदाश्रितत्रसादेव घातसम्भव इतिदोषः ।।२।।ध०२ अधिol विप्पमुक-त्रि०(विप्रमुक्त) अपगते, सूत्र०१ श्रु०११ अ०। विविधं विपुल-त्रि०(विपुल) प्रचुरे, भ०२ श०५ उ० प्रश्नवा विस्तीर्णे , प्रश्न०५ परमार्थभावनया शरीरानुबन्धात्प्रमुक्तो विप्रमुक्तः / आचा०१ श्रु०५ संव० द्वार। अ०२ उ०। सूत्र०1 अनु०। विविधमनेकैः प्रकारैः प्रकर्षण प्रभावसारं विप्पइट्ठ-त्रि०(विप्रकृष्ट) बृहदन्तराले, जी०३ प्रति०४ अधि० मुक्तः-परित्यक्तः। दश०३ अ० ज०। प्रज्ञा०। उत्त०। सूत्र०। च्युते, विप्पइट्ठणाण-न०(विप्रकीर्णज्ञान) असन्निकृष्टार्थज्ञाने, द्वा०२६ द्वा०। सूत्र०२ श्रु०२ अ० विप्पइण्ण-त्रि०(विप्रकीर्ण) अनेकधा विक्षिप्ते, दश०५ अ०१ उ०। विप्पय-पुं०(विप्पक) कुट्टिते त्वगुपे, बृ०२ उ०) विप्पइण्णबाहु-त्रि०(विप्रकीर्णबाहु) विप्रकीर्णी-अवकीर्णी-विरला विप्परद्ध-त्रि०(विपराद्ध) व्याहते, ज्ञा०१ श्रु०१अ० विरलावित्यर्थः, बाहू यस्य स विप्रकीर्णबाहुः / विरलभुजे, तं०। विप्परिणामियभाव-पुं०(विपरिणामितभाव) विपरिणामितो विवक्षिताविप्पओग-पुं०(विप्रयोग) अप्रणिधाने, प्रव० 6 द्वार। वियोगे, आव०४ चार्यादुत्तरितो भावो यस्य स विपरिणामितभावः / स्वाचार्य प्रति प्रतिअ० औ० स्था०। कूलवृत्तौ, बृ०३ उ० विप्पगब्भिय-त्रि०(विप्रगल्भित) विविधं विशेषेण वा धाोपगते, सूत्र०१ विप्परियास-पुं०(विपर्यास) विविधोऽनेकप्रकारः पर्यासः-परिक्षेपः / अनेकधाऽरघट्टघटीन्यायेन परिभ्रमणे, सूत्र०१ श्रु०१२ अ०॥ तत्त्वे श्रु०१अ०२ उ०। विप्पचेइयव्व-त्रि०(विप्रत्यक्तव्य) त्याज्ये, नं०। अतत्त्वाभिनिवेशः, अतत्त्वे च तत्त्वाभिनिवेशः, हितेऽहितबुद्धिरित्ये-वभूते विपर्यये, आचा०१श्रु० 2 अ०३ उ०। सूत्र०ा पर्यायान्तरे, भ०१४ विप्पजढ-त्रि०(विप्रहीण) परित्यक्ते, उत्त०८ अ० नि० ज्ञा०ा अनु०। श०६उ०। आचा०। व्यत्यये, सूत्र०१ श्रु०७ अ०। जन्मजरामरणआचा रोगशोकोपद्रवे, सूत्र०१श्रु०१३ अ०। आत्मानं विपर्यासयति, नि०चू०। विप्पजहणा-स्त्री०(विप्रहाणि) विशेषेण विविधं प्रकर्षतो हानिस्त्यागो विपर्यासो नाम अबंभचेरं / आ० चू० 4 अ०। विग्रहाणिः। परित्यागे, औ०। जे भिक्खू अप्पाणं विप्परियासेइ विप्परियासंतं वा साइजइ विप्पजहमाण-त्रि०(विप्रजहत्) परित्यज्यति, स्था०२ ठा० 270 / ||173 // जे भिक्खू परं विप्परियासेइ विप्परियासंतं वा विप्पजहसेणियापरिकम्म-न०(विप्रहाणश्रेणिकापरिकर्मन्) साइजइ॥१७॥ दृष्टिवादपरिकर्मभेदे, स० विपर्ययकरणं विप्परियासणा तम्मि चउगुरुगा सा य विप्परियासणा विप्पजहाय-अव्य०(विप्रहाय)त्यक्वेत्यर्थे, सूत्र०१ श्रु०४ अ०१ उ०। चउव्विहा दव्वादिया इमा। विप्पजहियध्व-त्रि०(विप्रहातव्य)त्याज्ये, भ०६ श०३३उ०। १-अत्र विप्परद्ध-विप्परिणामियभाव-विप्परियास-इत्यादौ आर्षत्वात्पविप्पडिवण्ण-त्रि०(विप्रतिपन्न) विशेषेण प्रतिपन्नो विप्रतिपन्नः / ज्ञा०१ कारस्य द्वित्वम्।
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________________ विप्परियास 1167 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विप्परियास गाहा पन्नवेति वासासु रातो वा विहरियव्वं / इयरेसु व उडुबद्ध दिवसे य णो दव्वे खेत्ते काले, भावे यचउट्विहो विवजासो। विहरियव्वं / मनुते--मन्यते वा वासासु रातो य विहरणं श्रेयमिति / एएसिंणाणत्तं,वोच्छामि अहाणुपुटवीए॥६॥ वयपरिणाम वा विवरीयं करेति वदति वा / जहा-नडो, थेरो तरुणं वेसं दव्वम्मि दाडिमं वा-दिएसु खेत्तेसु णाममादीसु। करोति तरुणो वा थेरं करोति। जम्मं पव्वज्जापरियागंवा, विवरीयं वदति, काले गेलण्णावहि-भावम्मि य णिवुयादीसुं / / 6 / / जहा-वीसतिवासपरियागो पंचवीसपरियागं अप्पाणं कहेति, पंचवीस वासपरियागो वीसवासपरियागं कहेति। जो अजाणयस्स पुच्छंतस्स दालिमं अंबाडयं वा अंबाडयं दालिम कहेति / खेत्ते विवज्जासं दुनामे कए, जहा-आणंदपुरं अक्कस्थली भावविवचासो इमो। गाहाअक्कस्थली आणंदपुरं, कालविवज्जासो-अणागाढे गेलन्ने अणा अतवस्सिणं तवस्सि,दद गिलाणोऽमि सो विहुण तिण्णो। गाढकालकरणं, उवहिं वा अकाले गेण्हति काले ण गिण्हति। भावम्मिय सारिक्खो सोऽमि अहं, न वत्ति सरवण्णभेदं वा॥६॥ अप्पाणं अनिव्वुतं णिव्वुयं दंसेति, निव्वुयं परं अनिव्वुयं पगासेति / कोऽवि साहू सभावकिसो सरीरेण, सो पुच्छितो सोत्थमं तवस्सी सो आदिसैद्दातो खमादिया भावा वा तथा। अप्पाणं अतवस्सि कहेति / अहवा-सभावकिसो अगिलाणो विसट्ठो गाहा-- जायवितिगतिमादियं देहि मे गिलाणो त्ति / सड्ढेहिं वा पुच्छितो सो तुम जेण पगारेण भवे, गिलाणो ति? आमं ति वदति / अहवा-सड्डेहिं पुच्छितो कयरो सो णियओ उ तमण्णहा जो तु। गिलाणो? देमि से पाओग्गं, ताहे अप्पाणं वदति / णन्नं वा किसं साधु दंसेति अगिलाणं लुद्धो वा हट्टेऽविदिलाणे गंतु सड्डेजायति-सो गिलाणो मण्ण्णति करेति वदति, अन्ज वि ण तरति, देह से दधिखीरादियं पाउग्गं / कोइ चिरप्पवासी विप्परियासो भवे एसो॥६॥ सयणो तस्स सरिसयं साधुंदळुभणेज, एस साहूतस्स सारिक्खो, ताहे वयणभाव इति द्रव्यादिको भावः, नियतो त्ति ठितो तं अन्नहा जो साहू | सो साहू भणेज-सोऽम्हि अहं, सब्भूतं वा पञ्चभिन्नातो अवलावं करोति / मणसा मन्नति, किरियाएवा करेति, अन्नस्स वा अग्गतो पन्नावेंतो वदति ण वत्ति सरवन्नभेदि-कारीणीहिं वा अप्पाणं अन्नहा करेजा। एसो विपर्यासः। (विपर्यासे प्रायश्चित्तम्) गाहातत्थ दव्वभावविप्परियासो इमो। गाहा एतेसि कारणाणं, एगतराएण जो विवश्वासे। चेयण्णं व वएज्जा, कुन्न व चेयण्णमचित्तं वावि। अप्पाणंच परंवा, सो पावति आणमादीणि ||70 / / वेसगहणादिएसु वि, थीपुरिसं अण्णहादव्वे // 66 // / दव्वादिविपशासं, अहवावी भिक्खुणो वदंतस्स। सचित्तं पुढवाइयं दव्वं अचित्तं वदति करोति वा इंदजालादिणा। इस्थि अहिंगरणाइ परेहि,मायामोसं अदत्तं च // 71 // वा पुरिसनेवत्थं करेति वदति, पुरिसंवा इत्थिनेवत्थं करेति वदति वा, आणादिया य दोसा, संजमविराहणा य, मायाकरणंच बादर-मुसावायअण्णहाकारमित्यर्थः। भासणं च। कीस वा अवलवसि त्ति असंखड भवेज्जा। खेत्ते भावे पुण-ममादिसु त्ति अस्य व्याख्या। गाहा गाहासाएतणआउज्झो, अहवा उज्झातों भणइ साएते। वितियपदं गेलण्णं, खेलें सतीए व अपरिणामेसु / वत्थध्वमवत्थव्वा, मालवों मागधोऽण्णहा वाऽहं // 67 // अण्णस्सहे दुलभे, एवं चउसु वि पदेसुं वि॥७ कोवि साहू अउज्झाणगरातो पाहुणगो गतो, सो वत्थव्वग-साधुणा गेलन्ने त्ति-दव्वाववादो, खेत्ताववाए त्ति खेत्ताववादो अपरिणामेसु त्ति पुच्छ्रितो-आउज्झातो आगतो सि? ताहे सो भणति-णो अउज्झाओ कालाववादो, अन्नस्सटे दुलभे ति भावाववादो। चउसु वि दव्वादिएसु साएयातो आगतोऽम्हि / सो वत्थव्वगसाहू तं वितिय--णाम ण याणति। पत्तेयं एते अपवादपदा इमेण विधिणा / तत्थ गेलन्ने-अचित्तस्स अलंभे एवं साएते पुच्छिते अउज्झंभासति। अहवा-वत्थव्वगोऽसि त्ति पुच्छिते फलाइयं मिस्सं सचित्तं वा आणियंतंच गिलाणो णेच्छतिताहे तो भण्णति, अवत्थव्वं अप्पाणं कधिति। अवत्थ-व्वगो वा अप्पाणं वत्थव्वं कहेति। अवस्संएयंअचित्तं चेवाओसढंयलंबादियं आणीयं च गिलाणस्स अप्पत्थं मालवविसयुप्पण्णो वा पुच्छितो मगहविसए उप्पण्णं वा अण्णं वा कहेति, जम्हा जातं तं भन्नति एवं मिस्सं सचित्तं संसत्तं वा / यदि गिलाणो एवं मागधः स पृष्टः माल-वमन्यं वा विषयं कथयति। भणेज-कीस भे तो एयं गहियं? स भन्नति-अणाभोइयाणि एयं कालभावविव्वज्जासो इमो। गाहा-- परिट्ठवेयव्वं / खेत्तासतीए वि अतोज्झाए मासकप्पो कतो वासावासो वरिसा णिसासु रीयति, इतरेसु णयरी तो वयति मन्ने। वा पुग्ने मासकप्पे वासाकाले वा अन्ने खेत्तासतीए तहेव ठितो, ताहे ततो वयपरिणामं व वए, परियायं वा विवज्जासं॥६८|| खेत्तातो अन्नो कोऽवि गीयत्थो अन्नं खेत्तं अपरिणामगाणं सकासंपाहुणगो वरिसाकाले रीयति णो उदुबद्धे, अहवा णिसासुरीयति नो दिवा, सतो | गतो।ताए तेहिं अपरिणामगेहिं पुच्छितो-कतो आगतोऽसि? ताहे सो
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________________ विप्परियास ११९८-अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विन्भम गीयत्थो चिंतेति, मा एते अपरिणामगा जाणिस्संति त्ति एतेणिति- विप्पो' त्ति मूत्रपुरीषयोर्विपुषोऽवयवाः इह विपुडुच्यते-'विप्पुसो वावि' यवासंति त्ति ताहे सो गीयत्थो भण्णति-आगतोऽहं साएयातो। इदाणिं त्ति पाठस्तुग्रन्थान्तरेष्वदृष्टत्वादुपेक्षितः। अथवा-अवश्यमेतद्व्याख्यानेन कालतो अपरिणामगेसुत्ति-कारणे अणुदियत्थमित्ते घेत्तव्वं दव्वं आइच्चं प्रयोजनं तदित्थं व्याख्येयम्-वाशब्दः-समुचये, अपिशब्द-एवकारार्थो, भणेजा उदितो, कारणे वा उदितं अणुदितंभणेजा, अत्थंगतं वा भणेज्जा / भिन्नक्रमश्च / ततो मूत्रपुरीषयोरेवावयवा इह विपुडुच्यते इति / अन्ये तु (घरतीति)भावतो अन्नस्सऽट्ठा / दुलभे त्ति-दुल्लभे गिलाणादिपाओग्गे भाषन्ते-'वि इति' विष्ठा, प्र इति प्रश्रवणंमूत्रं सूचकत्वात् सूत्रस्येति। अप्पणो अन्नस्स वा अट्ठा परववएसं करेति। अतवसी वि सो तवस्सीति ततः 'एए त्ति' एतौ विण्मूत्रावयवौ, 'अन्ने य' त्ति अन्ये च खेलजल्लअप्पाणं भणेज्जा, तस्स वा तव-सिस्सऽवातंणेमि। अगिलाणं वा गिलाणं केशनखादयो बहवः सर्वे च समुदिता अवयवा येषां साधूनां सुरभयो अप्पाणं भणेज, जेण वा परववदेसेण लभतितं ववदेसम्गहणं वा करेति। रोगोपशमसमर्थाश्च ते साधवो भवन्ति / कथंभूता? इत्याह--'त उसहिं नि० चू० 11 उ०। आ० चू० / (अन्ययूथिकान् प्रति विपर्यासविषयः पत्ति' त्ति ते च ते औषधयश्च तदौषधयो विण्मूत्रखेलजल्लकेशन'अण्णउत्थिय' शब्दे प्रथमभागे 472 पृष्ठे गतः1) खाद्यौषधयः सर्वोषधयश्च साधवो भवन्तीत्यर्थः / एतदुक्तं भवतिविप्परियासिभूय-त्रि०(विपर्यासीभूत) अध्युपपन्ने, आचा०२ श्रु०१चू० यन्माहात्म्यान्मूत्रपुरीषा-वयवमात्रमपि रोगराशिप्रणाशाय संपद्यते १अ०३ उ०॥ सुरभिच सा विगुडौषधिः। प्रव० 270 द्वार। पा०। विप्पलाव-पुं०(विप्रलाप) विविधे अनर्थक वचसि, स्था०७ ठा०३ | विष्फंदमाण-न०(विस्पन्दमान) अस्वतन्त्रे, इतश्चैतश्च धावति, आचा०१ उ०। तं० श्रु०४ अ०३ उ०॥ विप्पवसिय-त्रि०(विप्रोषित) देशान्तरं गन्तुं प्रवृत्ते, ज्ञा०१श्रु०२ अ० | विप्फाल-धा०(विस्फाल) विघाटने, विविधैः प्रकारैः स्फालने। नि०चू० *विप्रोष्य-अव्य०। परदेशं गत्वेत्यर्थे , "पंचाहेण वा विप्पवसियओ ४उ०पृच्छायाम, विष्फालेइ देशीवचनमेतत् पृच्छतीत्यर्थः / विप्फालन वा गच्छेज्जा।" आचा०२ श्रु०१चू०५ अ०२७०। त्ति वा पुच्छण त्ति वा एगट्ठमिति वचनात्। व्य० 170 / विप्पसाय-पुं०(विप्रसाद) विविधः प्रसादो विप्रसादः / आगमदृष्ट- विप्फालिय-अव्य०(विस्फाल्य) भृशं पाटयित्वेत्यर्थे, आचा०२ श्रु०१ याऽऽत्मनो विविधैरुपायैरिन्द्रियप्रणिधानप्रमादादिभिः प्रसादे, आचा० / चू०३ अ०२ उ० १श्रु०३ अ०३ उ० *विस्फारित-त्रि० / विकाशिते, "विप्फालियपुंडरीयणयणा'' विस्फाविप्पहूण-त्रि०(विप्रहीण) विविधं--प्रकर्षण हीनो-रहितः / बृ०४ उ०| रितं रविकिरणैर्विकाशितं यत्पुण्डरीकं-सितपद्म तद्वन्नयने येषां ते सूत्र० / विमुक्ते, प्रश्न०१ आश्र0 द्वार। अपगतकर्त्तव्यविवेके, सूत्र०१ विस्फारितपुण्डरीकनयनाः / जी०३प्रति०४ अधिका श्रु०५ अ०१ उ० विप्फुजिय-त्रि०(विस्फूर्जित) सम्यग्व्याख्यानविलसिते, प्रतिका विप्पित्तु-अव्य०(विप्पित्वा) कुट्टयित्वेत्यर्थे ,बृ०२ उ०। विप्फुरंत-त्रि०(विस्फुरत्) विविधं परिणमति, प्रति०।इतस्तत-स्तडफविप्पिय-त्रि०(विप्पित) यस्य जातमात्रस्यैवाङ्गुष्ठप्रदेशिन्योर्मध्यमा- डति, उत्त० 16 अ० भिर्मलयित्वा वृषणद्वयं गालितं तादृशे नपुंसकभेदे, बृ० 1303 प्रक०ा | विफल-त्रि०(विफल) फलासाधने, प्रश्न०२ आश्र० द्वार। गाधा पं०भा०। पं०चू। विबद्ध-त्रि०(विबद्ध) विशेषेण बद्धे, सूत्र०१ श्रु०३ अ०२ उ०। विप्पुय-त्रि०(विप्लुत) विक्षुभे, स्था०५ ठा०१ उ०। विबुह-त्रि०(विबुध) फुल्ले, आ० म०१ अ॥ पुं०।देवे, हरिभद्रसूरिमित्रस्य विप्पुस-न०(विप्रुष्) मूत्रस्य पुरीषस्य वाऽवयवेषु आ० म०१ अ०। मानदेवसुगुरोः शिष्ये, ग०३ अधि०! विप्पेक्खिय-न०(विप्रेक्षित) विविधमर्धाक्षिकटाक्षादिभिर्भेदैः प्रेक्षितं | विबोह-पुं०(विबोध) जागरणे, पञ्चा०१ विव०। आ० म०। विप्रेक्षितम् / बृ० 130 ३प्रक०। निरीक्षिते, नि० चू० १उ०। प्रश्र०। | विभंत-त्रि०(विभ्रांत) विविधं भ्रान्ते, आचा०१श्रु०६ अ०४ उ०। विशे० भ० विभंस-पुं०(विभ्रंस) प्राणातिपाते, प्राणिप्राणवियोजने, स्था०५ ठा०१उ० विप्पोसहि-पुं०(विप्रोषधि) मूत्रपुरीषयोरक्यवो विप्रडुच्यते। अन्येत्वाहुः- विम्भम-पुं०(विभ्रम) क्षिप्तचित्ततादिरूपसंभवे, बृ०३ उ०। वक्त्रवि इति-उच्चारःप्र इति-प्रश्रवणम् ओषधिर्यस्येति।लब्धिभेदे, यस्य हि मनसोन्तित्वे, स०३५ सम०। रा०। आ० म०। पं० व०। पञ्चदशे विपुषः परस्य व्याध्यपनयनसर्मथा भवन्ति। विशे०औ०। आ०म०। गौणालीके, प्रश्र०४ आश्रद्वार। (विभ्रमस्वरूपम् 'अबंभ' शब्देप्रथमभागे ग० प्रश्र० / विप्पोसहिगहणेण विट्ठस्स गहणं कीरइतंचेव विठं ओसहि- 676 पृष्ठे गतम्।) भूसमुद्भवे, ज्ञा०१ श्रु०१ अ० शृङ्गाररसप्रभवे सामत्थज्जतेण विप्पोसहि भन्नति। आ०चू०१०। 'मुत्तपुरीसाण विप्पुसो | मनसोऽस्थिरत्वे, "यचित्तवृत्तेरनवस्थितत्वं, शृङ्गारजं विभ्रम उच्य
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________________ विन्मम . 1161 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विभंगणाण तेऽसौ।" उत्त० 15 अ०। विभ्रमविक्षेपकिलिकिञ्चितादिवियुक्तत्वम्। पावं च णं कम्मं कीरमाणं णो पासइ, तस्स णमेवं भवइ-अस्थि विभ्रमोवक्त्रमनसोन्तता विक्षेपस्तस्यैवाभिधेयार्थं प्रत्यनासक्तता, णं मम अइसेसे णाणदंसणे समुप्पन्ने किरियावरणे जीवे संतेकिलिकिञ्चितं-रोषभयाभिलाषादिभावानां युगपदसकृत्करणम्, गइया समणा वा माहणा वा एवमाहंसु नो किरियावरणे जीवे, आदिशब्दात-मनोदोषान्तरपरिग्रहस्तैर्वियुक्तं यत्तत्तथा तद्भावस्तत्त्वम् जे ते एमाहंसु मिच्छं ते एवमाहंसु तच्चे विभंगणाणे 3 / अहावरे ॥२६औ०। चउत्थे विभंगणाणे, जया णं तहारूवस्स समणस्स वा माहणविन्मलगइ-त्रि०(विट्ठलगति) अर्दवितर्दगतिमंत्सु,जं० २वक्ष०। स्स वा०जाव समुप्पज्जइ, से णं तेणं विभंगणाणेणं समुप्पन्नेणं विब्भिडिमच्छ-पुं०(विभिटिमत्स्य) मत्स्यभेदे, विपा०१ श्रु०८ अ०॥ देवामेव पासइ बाहिरभंतरए पोग्गले परियाइत्ता पुढेगत्तंणाणत्तं विन्मिसमाण-त्रि०(विभ्रश्यत्) असकृद्देदीप्यमाने, आ०म० अ०। फुसित्ता फुरिता फुट्टित्ता विगुम्वित्ता णं विगुटिवत्ता णं चिहित्तए तस्स णमेवं भवइ-अस्थि णं मम अइसेसे णाणदंसणे समुप्पने विभंग-पुं०(विभङ्ग) विपरीतो भङ्ग:-परिधिप्रकारो यस्मिन् तद् मुदग्गे जीवे संतेगइया समणा वा माहणा वा एवमाहंसु अमुविभङ्गमिति। प्रव० 226 द्वार। प्रज्ञा०। सूत्र०ा कर्म०। मिथ्या दृष्टरवधौ, दग्गे जीवे, ते एवमाहंसु मिच्छं ते एवमाहंसु चउत्थे विभंगणाणे स्था०३ ठा०३ उ०॥ पं०सं०नि० चू० VI अहावारे पंचमे विभंगणाणे, जया णं तहारुवस्स समणविभंगणाण-न०(विभङ्गज्ञान) विरुद्धो, वितथो वाऽयथा वस्तुभङ्गो स्स०जाव समुप्पज्जइसे णं तेणं विभंगणाणेणं समुप्पन्नेणं देवामेव वस्तुविकल्पो यस्मिस्तद्विभङ्ग तच तज्ज्ञानं च साकारत्वादिति / पासइ बाहिरब्भंतरए पोग्गलए अपरियाइत्ता पुढेगत्तं णाणत्तं मिथ्यात्वसहिताववधौ, स्था। जाव विउव्वित्ताणं चिट्ठित्तए तस्स णमेवं भवइ-अत्थि जाव सत्तविहे विभंगणाणे पण्णत्ते,तं जहा-एकदिसिलोगाभिगमे 1, समुप्पन्ने अमुदग्गे जीवे संतेगइय समणा वा माहणावा एवमाहंसु पंचदिसिलोगाभिगमे 2, किरियावरणे जीवे 3, मुदग्गे जीवे , मुदग्गे जीवे जेते एवमाहंसु मिच्छं ते एवमाहंसुपंचमे विभंगणाणे अमुदग्गे जीवे 5, रूवी जीवे 6, सव्वमिणं जीवा 7 / तत्थ खलु 5 आहवरे छठे विभंगणाणे-जया णं तहारूवस्स समणस्स वा इमे पढमे विभंगणाणे जयाणंतहारूवस्स समणस्सवा माहणस्स माहणस्स दा०जाव समुप्पज्जइ से णं तेणं विभंगणाणेणं वा विभंगणाणे समुप्पज्जति, से णं तेणं विभंगणा-णेणं समुप्पन्नेणं देवामेव पासइ बाहिरभंतरए पोग्गले परियाइत्ता वा समुप्पन्नेणं पासइ। पाईणं वा पडीणं वा दाहिणं वा उदीणं वा अपरियाइत्ता वा पुढगेत्तं णाणत्तं फुसित्ता जाव विउव्वित्ता उर्ल्ड वा जाव सोहम्मे कप्पे तस्स णमेवं भवइ-अस्थि णं मम | चिट्ठित्तए तस्स णमेवं भवइ-अत्थि णं मम अइसेसे णाणदंसणे अइसेसे णाणदसणे समुप्पन्ने एगदिसिं लोगाभिगमे, संते-गइया समुप्पन्ने रूवी जीवे संतेगइया समणा वा माहणा वा एवमाहंसु समणा वा माहणा वा एवमाहंसु पंचदिसिं लोगाभिगमे, जे ते अरूवी जीवे जे ते एवमाहंसु मिच्छं ते एवमाहंसु छठे विभंगणाणे एवमाहंसु मिच्छं ते एवमाहंसु पढमे विभंगणाणे 1 / अहावरे 6 / अहावरे सत्तमे विभंगणाणे जयाणं तहा-रूवस्स समणस्स दोच्चे विभंगणाणे,जयाणं तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा माहणस्स वा विभंगणाणे समुप्पजइसे णं तेणं विभंगणाणेणं वा विभंगणाणे समुप्पज्जइ से णं तेणं विभंगणाणेणं समुप्पन्नेणं समुप्पन्नेणं पासइ सुहुमेणं वाउकाएणं फुड पोग्गलकार्य एयंतं पासइ, पाईणं वा पडीणं वा दाहिणं वा उदीणं वा उडुंजाव वेयंतं चलंतं खुन्भंत फंदंतं उदीरेंतं तं तं भावं परिणमंतं तस्स सोहम्मे कप्पे तस्स णमेवं भवइ-अत्थि णं मम अइसेसे णमेवं भवइ-अत्थि णं मम अइसेसे णाणदसणे समुप्पन्ने णाणदसणे समुप्पन्ने पंचदिसिं लोकाभिगमे संतेगइया समणा सव्वमिणं जीवा संतेगइया समणा वा माहणा वा एवमाहिंसुजीवा वा माहणा वा एवमाहंसु एगदिसिं लोगाभिगमे जे ते एवमाहंसु चेव अजीवा चेव, जे ते एवमाहिंसु मिच्छं ते एवमाहंसु तस्स मिच्छं ते एवमाहंसु, दोचे विभंगणाणे२ / अहावरे तच्चे णमिमे चत्तारि जीवनिकाया णो सम्ममुवगया भवंति, तं जहाविभंगणाणे, जया णं तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा पुढविकाइया आऊ तेऊ वाउकाइया। इच्चेएहिं चरहिं जीवनिविभंगणाणे समुप्पजइ, से णं तेणं विभंगनाणेणं समुप्पन्नेणं काएहिं मिच्छादंडं पवत्तेइसत्तमे विभंगणाणे // 7 // (सू०-५५२) पासइ पाणे अइवाएमाणे मुसंवयमाणे अदिन्नमादित्तमाणे मेहुणं 'सत्तविहे.' त्यादि सप्तविधं-सप्तप्रकार विरुद्धो विपडिसेवमाणे परिग्गहं परिगेण्हमाणे वा राइभोयणं मुंजमाणे वा / तथो वा अन्यथा वस्तुभङ्गो-वस्तुविकल्पो यास्मस्त
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________________ विभंगणाण १२००-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विभंगणाण द्विभङ्ग तच तज्ज्ञानं च साकारत्वादिति विभङ्गज्ञानं मिथ्यात्वसहितोऽवधिरित्यर्थः। एगदिसं' ति एकस्यां दिशि एकया दिशा पूर्वादिकयेत्यर्थः लोकाभिगमः-लोकायवोध इत्येकं विभङ्गज्ञानम् / विभङ्गता चास्य शेषदिक्षु लोकस्यानभिगमेन तत्प्रतिषेधनादिति 1 / तथा पञ्चसु दिक्षुलोकाभिगमो नैकस्यां कस्यांचिद्दिशीति इहापि विभङ्गता एकदिशि दर्शनात्तद्धेतुकर्मणश्चादर्शनात् क्रियैवावरणं कर्म यस्य स क्रियावरणः, कोऽसौ?-जीव इत्यवष्टम्भपरं यद्विभङ्गं तत्तृतीयं, विभङ्गता चास्य कर्मणोऽदर्शनेनानभ्युपगमादेवमुत्तरत्रापि विभङ्गताऽवसेयेति 3 / 'मुयग्गे' त्ति बाह्याभ्यन्तरपुद्गलरचितशरीरो जीव इत्यवष्टम्भवत् भवनपत्यादिदेवानां बाह्याभ्यन्तरपुद्गलपर्यादानतो वैक्रियकरणदर्शनादिति चतुर्थम् / / 'अमुदग्गे जीवे' त्ति देवानां बाह्याभ्यन्तरपुद्गलादानविरहेण वैक्रियवतां दर्शनाद् अबाह्याभ्यन्तरपुद्रलरचितावयवशरीरो जीव इत्यवसायवत् पञ्चमम् 5 / 'रूवी जीवे' त्ति देवानां वैक्रिय-शरीरवत्तादर्शनाद्रूप्येव जीव इत्येवमवष्टम्भवत् षष्ठमिति ६।तथा सव्वमिणं जीव त्ति वायुना चलतः पुद्गलकायस्यदर्शनात्सर्वमेवेदं वस्तुजीवा एव चलनधर्मोपेतत्वादित्येवं निश्चयवत्सप्तममिति। संग्रहवचनमे-तत् 'तत्थे त्यादित्वेतस्यैव विवरणवचनमुत्तानार्थमेव,नवरम् 'तत्थ' त्ति तेषु सप्तसु मध्ये 'जया णं' ति यस्मिन्काले 'सेणं' ति इह तदेतिगम्यते स विभङ्गी पासइ'त्ति उपलक्षणत्वाज्जानातीति च अन्यथा ज्ञानत्वं विभङ्गस्यनस्यादिति। पाईणं वे' त्यादि,वा विकल्पार्थः 'उड्डेजाव सोहम्मे कप्पे' इत्यनेन सौधर्मात्परतः किल प्रायः बालतपस्विनो न पश्यन्तीति दर्शिम् तथाऽवधिमतोऽप्यधोलोको दुरधिगमो विभङ्गज्ञानिनस्तु सुतरामित्यधोदिग्दर्शनमिह नाभिहितं दुरधिगम्यता चाधोलोकस्य त्रिस्थानकेऽभिहितेति / एवं भवई' त्ति एवंविधो विकल्पो भवति-यदुत अस्ति मे अतिशेषं शेषाण्यतिक्रान्तं; सातिशयमित्यर्थः / ज्ञानंच दर्शनंच, ज्ञानेन वा दर्शनंज्ञानदर्शनं ततश्चैकदिशो दर्शनेन तत्रैवलोकस्योपलम्भादाह--एकदिशि लोकाभिगम इति, एकदिग्मात्र एव लोकस्तथोपलम्भादिति भावः / सन्ति-विद्यन्ते एकके श्रमणा वा ब्राह्मणा वा ते चैव-माहुः-अन्यास्वपि पञ्चसु दिक्षु लोकाभिगमो भवति, तास्वपि तस्य विद्यमानत्वात् / ये ते एवमाहुःयदुत पञ्चस्वपि दिक्षु लोकाभिगमो मिथ्या ते एवमाहुरिति प्रथमं विभङ्गज्ञानमिति 1 / अथापरं द्वितीय-म्-तत्र ‘पाईणं वे' त्यादौ वाशब्दश्वकारार्थो द्रष्टव्यः, विकल्पार्थत्वे तु पञ्चानां दिशां पश्यत्ता न गम्यते; एकस्या एव च गम्यते। तथा च प्रथमद्वितीययोर्विभङ्गयोर्भेदो नस्यादिति क्वचिद् वाशब्दा न दृश्यन्त एवेति 2, प्राणानतिपातयमानानित्यादिषु जीवानिति गम्यते,'नो किरियावरणे' त्ति अपि तु कर्मावरण इति 3, 'देवामेव' त्ति देवानेव भवनवास्यादीनेव। 'बाहिरभंतरे' त्ति बाह्यान्शरीरावगाहक्षेत्रादभ्यन्तरान्-अवगाहक्षेत्र-स्थान पुद्गलान-वैक्रियवर्गणारूपान् पर्यादाय परिसमन्तात् वैक्रियसमुद्धातेनादाय गृहीत्या पुढेगत्त' / नानात्वम्-नानारूपत्वं विकृत्य उत्तरवैक्रियतया 'चिट्ठितए' त्तिस्थातुम्आसितुंप्रवृत्तानिति वाक्यशेष इति संबन्धः। कथं विकृत्येत्याह'फुसित्ता' तानेव पुद्गलान् स्पृष्ट्वा तथाऽऽत्मना स्फुरित्वावीर्यमुल्लास्य पुगलान् वा स्फोरयित्वातथा स्फुटित्वाप्रकाशीभूय पुद्गलान् वा स्फोटयित्वा वाचनान्तरे तु पदद्वयमपर-मुपलभ्यते / तत्र संवर्त्य सारानेकीकृत्य निवर्त्य असारान् पृथक्कृत्येति, अथवा-पर्याप्तपुद्गलैरुत्तरवैक्रियशरीरस्यैकत्वं नानात्वं च कर्मतापन्नं स्पृस्टाप्रारभ्य तथा स्फुरत् कृत्वास्फुट कृत्वा सम्--एकीभावेन वर्तितं सामान्यनिष्पन्नं कृत्वा निर्वर्तितं कृत्वा सर्वथा परिसमाप्य, किमुक्तं भवति-विकुळ-वैक्रियं कृत्वा नत्यौदारिकतयेति, तस्येति-विभङ्गज्ञानिनो बाह्याभ्यन्तरपुद्गलपर्यादानप्रवृत्तदेवान् पश्यत एवं भवति इति विकल्पोजायते। 'मुदग्गेत्ति बाह्याभ्यन्तरपुद्रलरचितशरीरो जीव इति 4, अथापरं पञ्चमम्-तत्र बाह्याभ्यन्तरान् पुद्गलान् अपर्यादायेत्यत्र निषेधस्य वैक्रियसमुद्धातापेक्षित्वादुत्पत्तिक्षेत्रस्थास्तूत्पत्तिकाले गृहीत्या भवधारणीयशरीरस्यैकत्वमेकदेवापेक्षया कण्ठाद्यवयवापेक्षया वा, नानात्वंत्वनेकदेवापेक्षया हस्ताङ्गुल्याद्यवयवापेक्षया वा, विकुळ स्थातुं प्रवृत्तानित्यादि शेषं प्राग्वत् / बाह्यपुद्गलपर्यादानं हि विनोत्तरवैक्रियैकत्वनानात्वे किल न भवति; इति भवधारणीयमिहाधिकृतम्, तदेवमबाह्याभ्यन्तरपुद्गलरचितशरीरदेवदर्शनात्तस्यैवं विकल्पो भवति। 'अमुदग्गे' त्ति अबाह्याभ्यन्तरपुद्गलरचितावयवशरीरोजीव इति 5 / 'रूवी जीवे' त्ति पुद्गलानांपर्यादाने अपर्यादानेच वैक्रियरूपस्यैकानेकरूपस्य देवेषु दर्शनाद्रूपवानेव जीव इत्यवसायो जायते तस्य अरूपस्य कदाचनाप्यदर्शनादिति६। 'सुहुमे त्यादि सूक्ष्मेण-मन्देन नतु सूक्ष्मनामकर्मोदयवर्तिना तस्य वस्तुचालनासमर्थत्वात् / 'फुड' ति स्पृष्ट पुगलकायं-पुद्रलराशिम् 'एयंतं' ति एजमान-कम्पमानं वेजमानंविशेषेण कम्पमानं चलन्तं स्वस्थानादन्यत्र गच्छन्तं क्षुभ्यन्तम् अधोनिमज्जन्तं स्पन्दन्तम्-ईषचलन्तं घट्टयन्तं वस्त्वन्तरं स्पृशन्तमुदीरयन्तं वस्त्वन्तरं प्रेरयन्तं तं तमनाख्येयमनेकविध भावं पर्यायं परिणमन्तं-- गच्छन्तम् 'तं सव्वमिणं' ति सर्वमिदंचलत्पुद्रलजातं जीवाः स्पन्दनलक्षण-जीवधर्मोपेतत्वाद्यच चलदपि श्रमणादयो जीवाश्चाजीवाश्चेति प्राहुस्तन्मिथ्येति तदध्यवसाय इति,'तस्सणं' ति तस्य विभङ्गज्ञानवतः 'इमे' ति वक्ष्यमाणान सम्यगुपगताः अचलनावस्थायां जीवत्वेनन बोधविषयीभूताः, तद्यथा-पृथिव्यप्तेजोवायवः, चलनदोह-दादिधर्मवतां सानामेव दोहदादित्रसधर्मवतां वनस्पतीनामेव च जीवतया प्रज्ञानात्। पृथिव्यादीनां तु वायुचलनेन स्वतश्चलनेन च त्रसत्वेनैव प्रज्ञानात् स्थावरजीवतया तु तेषामनभ्युपगमाचेति। 'इचेएहिं' ति इति हेतोरेतेषु चतुर्यु जीवनिकायेषु मिथ्यात्वपूर्वो दण्डो हिंसामिथ्यादण्डस्तं प्रवर्त्तयति तद्रूपानभिज्ञः संस्तान् हिनस्ति निहनुते चेति भाव इति सप्तम विभङ्गज्ञानमिति 7 / स्था० 7 ठा० ३उ०। पा०। अनु०॥
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________________ विभंगणाण 1201 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विभत्ति विभङ्गज्ञानविषयः णो इण समडे' इति तृतीयः-३। अविसुद्धलेसे समोहएणं विसुद्धलेसं विभंगनाणस्स णं भंते ! केवइए विसएपण्णत्ते ? गोयमा ! से देवं देविं अण्णयरं जाणइ पासइ, नो इणट्टे सभडे' इति चतुर्थः 4 / समासओ चउविहे पण्णत्ते,तं जहा-दय्वओ खेत्तओ कालओ 'अविसुद्धलेसे समोहया समोहएणं अप्पाणेणं अविसुद्धलेसं देवं देविं भावओ। दव्वओ णं विभंगनाणी विभंगनाण-परिगयाइं दव्वाई अण्णयरं जाणइ पासइणो इणट्टे समढे' इति पञ्चमः 5 / 'अविसुद्धलेसे जाणइ पासइ, एवं० जाव भावओ णं विभंगनाणी विभंगनाण- समोहया समोहएणं विसुद्धलेसं देवं देविं अण्णयरं जाणइ पासइ, नो परिगए भावे जाणइ पासइ। (सू०३२२+) इणवे समढे' इति षष्ठः 6 / 'विसुद्धलेसे असमोहएणं अप्पाणेणं अवि'दव्वओ णं विभंगणाणी' त्यादि 'जाणइ' त्ति विभङ्गज्ञानेन 'पासइ' सुद्धलेसं देवं देविं अण्णयरं जाणइ पासइ, नो इणटे समढे त्ति सप्तमः त्ति अवधिदर्शननेति / भ०८ श०२ उ०। ('ओहि' शब्दे तृतीयभागे 7 / विसुद्धलेसे असमोहएणं विसुद्धलेसं देवं देविं अण्णयरंजाणइ पासइ, 146 पृष्ठे विभङ्गवक्तव्यतोक्ता।) नो इण8 समढे'त्ति अष्टमः 8 / एतैरष्टभिर्विकल्पैर्न जानाति, तत्रषभि मिथ्यादृष्टित्वात् द्वाभ्यां त्वनुपयुक्तत्वादिति / 'विसुद्धलेसे समोहएणं विभङ्गज्ञानेन देवोऽपरं पश्यति। देवाधिकारादिदमाह अविसुद्धलेसं देवं देविं अण्णयरं जाणइ ? हंता जाणइ' इति नवमः / / अविसुद्धलेसे णं भंते ! देवे असमोहएणं अप्पाणएणं अवि 'विसुद्धलेसे समोहएणं विसुद्धलेसं देवं देवि अण्णयरं जाणइ ? हंता सुद्धलेसं देवं देबि अन्नयरं जाणति पासति 1, ? गोयमा ! णो जाणइ' इति दशमः 10 / विसुद्धलेसे समोहया समोहएणं अप्पाणेणं तिणडे समढे, एवं अविसुद्धलेसे असमोहएणं अप्पाणेणं अविसुद्धलेसं देवं देविं अण्णयरं जाणइ पासइ ? हंता जाणइत्तिएकादशः विसुद्धलेसं देवं देविं अण्णयरं जाणइ पासइ / अविसुद्धलेसे 11 / 'विसुद्धलेसे समोहया समोहएणं अप्पाणेणं विसुद्धलेसं देवं देविं समोहएणं अप्पाणेणं अविसुद्धलेसं देवं देविं अण्णयरं जाणइ अण्णयरं जाणइ पासइत्ति द्वादशः 12 / एभिः पुनश्चतुर्भिर्विकल्पैः पासइ 3 / अविसुद्धलेसे देवे समोहएणं अप्पाणेणं विसुद्धलेसं सम्यग्दृष्टित्वादुपयुक्तत्वानुपयुक्तत्वाच जानाति, उपयोगानुपयोगपक्षे देवं देविं अण्णयरं जाणइ पासइ 4 / अविसुद्धलेसे समोहया उपयोगांशस्य सम्यग्ज्ञानहेतुत्वादिति / एतदेवाह- ‘एवं हेढिल्लेहिं' असमोहएणं अप्पाणेणं अविसुद्धलेसं देवं देविं अण्णयरं जाणइ इत्यादि, वाचनान्तरेतु सर्वमेवेदं साक्षादृश्यत इति। भ०६श०६ उ०। पासइ 5 / अविसुद्धलेसे समोहया असंमोहएणं अप्पा-णेणं विभंगु-न०(विभङ्ग) तृणभेदे, प्रज्ञा०१ पद। विसुद्धलेसं देवं देविं अण्णयरं जाणइ पासइ 6 / विसुद्धलेसे विभज्ज-त्रि०(विभज्य) विभुक्तुं शक्ये, स्था० 3 ठा० 2 उ०। असमोहएणं अप्पाणेणं अविसुद्धलेसे देवं देविं अण्णयरं जाणए विभज्य-अव्य० पृथक्कृत्वेत्यर्थे, सूत्र०१ श्रु०१४ अ०। पासइ / विसुद्धलेसे असमोहएणं विसुद्धलेसं देवं देविं अण्णयरं विभजवाय-पुं०(विभज्यवाद) स्याद्वादे, “संकेज या संकितभावजाणइपासइ२। विसुद्धलेसे णं भंते ! देवे समोहएणं अविसुद्ध भिक्खू, विभजवायं व वियागरेज्जा' विभज्यवादः-स्याद्वादस्तं सर्वत्रालेसं देवं देविं अण्णयरं जाणइ पासइ ? हंता जाणइ पासइ। स्खलितं लोकव्यवहाराविसंवादितया सर्वव्यापिनं स्वानुभवसिद्धं वदेद् / एवं विसुद्धलेसे णं भंते ! देवे समोहएणं विसुद्धलेसं देवं देविं अथवा-सम्यगर्थान् विभज्य पृथक् कृत्वा तद्वादं वदेत्। सूत्र०१ श्रु० अण्णयरं जाणइ ? हंता जाणइ / विसुद्धलेसे समोहया 14 अ०। समोहएणं अविसुद्धलेसं देवं देविं अण्णयरं जाणइ पासइ५। विसुद्धलेसे समोहया समोहएणं विसुद्धलेसं देवं देविं अण्णयरं विभत्त-त्रि०(विभक्त) विभागवति, तं०।जी। विविक्ते, प्रश्न० 4 आश्र० द्वार। दृश्यमानान्तरे, भ०७श०६ उ०। औ०।०। पृथग्व्यवस्थापिते, जाणइ पासइ 6 / एवं हेडिल्ल एहिं अट्ठहिं न जाणइ न पासइ आ० म०१ अ०। आचा०। भोजनविशेषरहिते, जं०२ वक्ष० / भावे उवरिल्लएहिं चउहिं जाणइ पासइ / सेवं भंते ! भंते ! त्ति // क्तः। नपुं०। विभागे, आचा०१ श्रु०२ अ०१ उ०। (सू०२५५) | विमत्ति-स्त्री०(विभक्ति) विभजन-विभक्तिः / विभक्ततायाम्, ज्ञा० 1 श्रु० 'अविसुद्धे' त्यादि, 'अविसुद्धलेसेणं' ति अविसुद्धलेश्यो विभङ्गज्ञानो | 10 / पार्थक्येन स्वरूपप्रकटने, नं०। देवः 'असमोहएणं अप्पाणएणं' ति अनुपयुक्तेनात्मना, इहाविशुद्धलेश्यः विभक्तिनिक्षेपः१असमवहतात्मा देवः २अविशुद्धलेश्यं देवादिकम् 3 इत्यस्य पदत्रयस्य द्वादश विकल्पा भवन्ति, तद्यथा- 'अविसुद्धलेसे णं देवे असमोहएणं णिक्खेवा विभत्तीए, चउव्यिहो दुविह होइ दवम्मि। अप्पाणेणं अविसुद्धलेसं देवं देविं अण्णयरं जाणइ पासइ ? नो इणष्टे आगमनोआगमओ, नोआगमओ असो तिविहो / / 553|| समढे' इत्येको विकल्पः 1 / 'अविसुद्धलेसे असमोहएणं विसुद्धलेसं देवं जाणगसरीरभविए, तव्वइरित्ते य सो भवे दुविहो। देवि अण्णयरं जाणइ पासइ, नो इणढे समढे' इति द्वितीयः- जीवाणमजीवाण य,जीवविभत्तीतहिं दुविहा / / 554|| २।अविसुद्धलेसे समोहएणं अविसुद्धलेसं देवं देविं अण्णयरंजाणइ पासइ सिद्धाणमसिद्धाण य, अजीवाणं तु होइ दुविहा उ।
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________________ विभत्ति 1202 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विभत्ति रूवीणमरूवीण य, विभासियव्वा जहा सुत्ते // 55 // भावम्मि विभत्ती खलु-नायव्वा छविहम्मि भावम्मि। अहिगारो एत्थं पुण, दव्वविभत्तीऍ अज्झयणे / / 556|| तथा विभक्तिनिक्षेपे सति विभक्तिर्भवेत् द्विविधा- द्विप्रकारा द्वैविध्यं चास्याः संबन्धिभेदादेवेति / तमाह-जीवानामजीवानां च कोऽर्थः 1 जीवविभक्तिः-जीवानां विभागेनावस्थापनम्, एवमजीवविभक्तिश्च / उत्तरत्राप्येवमेव संबन्धिभेदाभेदो व्याख्येयः। 'तहिं ति वचनव्यत्ययात्तयोर्जीवाजीवविभक्त्योर्मध्ये द्विविधा- सिद्धानामसिद्धानां च'अजीवाणं तु'त्ति तुरपिशब्दार्थस्ततोऽजीवानामपि भवति 'दुविहा उ' त्ति तु अवधारणे, ततो द्विविधैव रूपिणामरूपिणां च विभाषितव्याविशेषेण व्यक्तं वक्तव्या, यथा सूत्रे-प्रक्रान्ताध्ययनरूपे, इह तुप्रक्रमायाताऽपि पौनरुक्त्यप्राप्तेरसौन प्रतिपाद्यत इति भावः / भावे-भावनिक्षेपे विभक्तिः, खलुनिश्चितं ज्ञातव्या षड्विधे भावे-षट्प्रकारौदयिकादिभावविषया। आह- एवमनेकविधायां विभक्ताविह कयाऽधिकारः ? उच्यते-अधिकारः- अधिकृतं अत्रेति प्रस्तुते-पुनः शब्दो-वाक्यान्तरोपन्यासे द्रव्यविभक्त्या जीवाजीवद्रव्यविभागावस्थापनरूपया तस्या एवात्र प्रदर्श्यमानत्वादितिभावः / इति नियुक्तिगाथाष्टकावयवार्थः इत्यवसितो नाम निष्पन्ननिक्षेपः / उत्त० पाई०३६ अ०। सांप्रतं विभक्तिपदनिक्षेपार्थमाहणामंठवणा दविए, खेत्ते काले तहेव भावे य। एसो उविभत्तीए, णिक्खेवो छविहो॥६६॥ 'नामंठवणे त्यादि, विभक्तेनमिस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालभावभेदात् षोढा निक्षेपः। तत्र नामविभक्तिर्यस्य कस्यचित् सचित्तादेव्यस्य विभक्तिरिति नाम क्रियते, तद्यथास्वादयोऽष्टौ विभक्तयस्तिवादयश्च / स्थापनाविभक्तिस्तु यत्र ता एव प्रातिपदिकाद्धातोर्वा परेण स्थाप्यन्ते पुस्तकपत्रकादिन्यस्ता वा द्रव्यविभक्तिर्जीवाजीवभेदाद् द्विधा, तत्रापि जीवविभक्तिः सांसारिकेतरभेदाद् द्विधा तत्राप्यसांसारिकजीवविभक्तिद्रव्यकालभेदात् द्वेधा, तत्र द्रव्यतस्तीर्थातीर्थसिद्धादिभेदात्पञ्चदशधा। कालतस्तु प्रथमसमयसिद्धादिभेदादनेकधा / सांसारिकजीवविभक्तिरिन्द्रियजातिभवभेदात्रिधा। तत्रेन्द्रियविभक्तिः-एकेन्द्रियविकलेन्द्रियपञ्चेन्द्रियभेदात्पञ्चधा, जाति-विभक्तिः- पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतित्रसभेदात् षोढा, भवविभक्ति रकतिर्यङ्मनुष्यामरभेदाचतुर्धा, अजीवद्रव्यविभक्तिस्तु रूप्यरूपिद्रव्यभेदाद् द्विधा / तत्र रूपिद्रव्यविभक्तिश्चतुर्धा, तद्यथा स्कन्धाः स्कन्धदेशाः स्कन्धप्रदेशाः परमाणुपुद्गलाश्च। अरूपिद्रव्यविभक्तिर्दशधा, तद्यथा-- धर्मास्तिकायो धर्मास्तिकायस्य देशो धर्मास्तिकायस्य प्रदेशः / एवमधर्माकाशयोरपि प्रत्येकं त्रिभेदता द्रष्टव्या, अद्धासमयश्च दशम इति। क्षेत्रविभक्तिश्चतुर्धा, तद्यथा-- स्थानं दिशं द्रव्यं स्वामित्वं चाश्रित्य / तत्र स्थानाश्रयणादूधिस्तिर्यग्विभागव्यवस्थितो लोको वैशाखस्थानस्थपुरुष इव कटिस्थकरयुग्म इव द्रष्टव्यः / तत्राप्यघोलोकविभक्तिः- रत्नप्रभाद्याः सप्त नरकपृथिव्यः, तत्रापि सीमन्तकादिनरकेन्द्रकावलिकाप्रविष्टपुष्पावकीर्णकवृत्तत्र्यस्रचतुरस्रादिनरकस्वरूपनिरूपणम्। तिर्यग्लोकविभक्तिस्तुजम्बूद्वीपलवणसमुद्रधातकीखण्डकालोदसमुद्रेत्यादिद्विगुणद्विगुणवृद्ध्या द्वीप सागरस्वयंभूरमणपर्यन्तस्वरूपनिरूपणम् / ऊर्ध्वलोकविभक्तिःसौधर्माद्या उपर्युपरिव्यवस्थिता द्वादश देवलोकाः नव ग्रैवेयकानि पञ्च महाविमानानि, तत्रापि विमानेन्द्रकावलिकाप्रविष्टपुष्पावकीर्णकवृत्तत्र्यस्रचतुरस्रादिविमानस्वरूपनिरूपणमिति। दिगाश्रयणेन तु पूर्वस्यां दिशि व्यवस्थितम्, क्षेत्रमेवमपरास्वपीति द्रव्याश्रयणाच्छालिक्षेत्रादिकं गृह्यते, स्वाम्याश्रयणाच देवदत्तस्य क्षेत्रं यज्ञदत्तस्य वेति। यदि वाक्षेत्रविभक्तिरार्याऽनार्यक्षेत्रभेदाद् द्विधा / तत्राप्यार्यक्षेत्रमर्धषड्विशतिजनपदोपलक्षितं राजगृहमगधादिकं गृह्यते। "रायगिहमगहचंपा, अंगा तह तामलि त्ति वंगाय। कंचणपुरं कलिङ्गा, वाणारसी चेव कासी य ||1|| साकेयकोसलागय-पुरं च कुरुसोरियं कुसट्टाय / कंपिल्लं पंचाला, अहिछत्ता जंगला चेव / / 2 / / वारवई य सुरहा, मिहिलविदेहा य वच्छकोसंवी। नंदिपुरं संदिब्मा, भदिलपुरमेव मलया य / / 3 / / वइराडमच्छवरणा, अच्छा तह मित्तियावइ दसण्णा। सुत्तीमई य चेदी, वीयभयं सिंधुसोवीरा ||4|| मुहरा य सूरसेणा, पावा भंगी य मासपुरिवट्टा। सावत्थी य कुणाला, कोडीवरिसं च लाढाय॥५॥ सेयविया वि य णयरी, केययअद्धं च आरियं भणियं / जत्थुप्पत्ति जिणाणं, चक्कीणं रामकिण्हाणं // 6|| अनार्यक्षेत्रं धर्मसंज्ञारहितमनेकधा। तदुक्तम्सगजवणसवरवब्बर-कायमुरुडो दुगोणपकणया। अक्खागहूणरोमस-पारसखसखासिया चेव / / 1 / / दुविलयलवोसवोकस, मिलिंदपुलिंदकों चभमररूया। कांबोयचीणचंचुय, मालयदमिला कुलक्खा य / / 2 / / केकयकिरायहयमुह, खरमुह गयंतुरयमेठगमुहा य / हयकण्णा गयकण्णा, अण्णे य अणारिया बहवे // 3 // पावा च चंडदंडा अणारिया णिग्धिणा णिरणुकंपा। धम्मो त्ति अक्खराई, जेसु ण णद्धति सुविणे वि ||4|| कालविभक्तिस्तु अतीताऽनागतवर्तमानकालभेदात् त्रिधा। यदिवैकान्तसुषमादिकक्रमेणाऽवसर्पिण्युत्सर्पिण्युपलक्षितं द्वादशारं कालचक्रम्अथवा- "समयावलियमुहुत्ता, दिवसमहोरत्तपक्खमासा य। संवच्छरयुगपलिया, सागरउस्सप्पिपरियट्टे' त्येवमादिका कालविभक्तिरिति / भावविभक्तिस्तु-जीवा-जीवभावभेदाद् द्विधा-तत्र जीवभावविभक्तिः औदयिकौपशमिक्क्षायिकक्षायोपशमिकपारिणामिक्सान्निपातिकभेदात् षट्प्रकारा। तत्रौदयिको गतिकषायलिङ्गमिथ्यादर्शनाऽज्ञानाऽसंयतासिद्धलेश्याश्चतुश्चतुस्त्र्येकैकैकषड्भेदक्रमेणैकविंशतिभेदभिन्नः, तथौपशमिकः सम्यक्त्वचारित्रभेदाद् द्विविधः, क्षायिकः सम्यक्त्वचारित्रज्ञानदर्शनदानलाभभोगोपभोगवीर्यभेदान्नवधा, क्षायोपशमिकस्तु ज्ञानाज्ञानदर्शनदानादिलब्धयश्चतुस्त्रिपञ्चभेदाः / तथा सम्यक्त्वचारित्रसंयमासंयमभेदक्रमेणाष्टादशधेति, पारिणामिको जीवभव्याभव्यत्वादिरूपः, सान्निपातिकस्तु द्विकादिभेदात् षड्विंशतिभेदः,
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________________ विभत्ति 1203 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विभासा - संभवी तु षड्विधोऽयमेव गतिभेदात्पञ्चदशधेति / अजीव-भाववि- | विभाग--पुं०(विभाग) विभजनं-विभागः / विस्तरे, नि० चू० 20 उ०। भक्तिस्तु मूर्तानां वर्णगन्धरसस्पर्शसंस्थानपरिणामः / अमूर्तानां व्य० / प्रय० / प्रस्तावोऽवसरो विभाग इत्यनर्थान्तरम् / विशे०। आ० गतिस्थित्यवगाहवर्तनादिक इति / सूत्र०१ श्रु०५ अ०१ उ० / म०। प्राप्तिपूर्विकायामप्राप्तौ, सम्म०३ काण्ड। विशे० / नैयायिकसंमत('अणुमाण' शब्दे प्रथमभागे 405 पृष्ठेद्वावपि विभक्ती द्रष्टव्ये।) (प्रथमा- गुणभेदे, व्यक्ततापादने, आ० म०१ अ०। अंशे, स्था०३ ठा०३ उ०। द्वितीयातृतीयाचतुर्थीपञ्चमीषष्ठीसप्तमीलक्षणा वचनविभक्तयो 'वयण- बंटगो विभागो वेति एगह्र आव०४ अ०। विभत्ति' शब्देऽस्मिनेव उक्ताः।) विभावण-न०(विभावन) प्रकटार्थी करणे, आविर्भावने, सूत्र०२ श्रु० विमत्तिभाव-पुं०(विभक्तिभाव) विभागरूपे, भ०। १अ०। अथ विचित्रपरिणाम एव जीवस्य यतो भवति विभावणा--स्त्री०(विभावना) संविभागे, संविभागो विभावना भण्यते, तद्दर्शयितुमाह यथा-व्रतानां धारणं समितीनां रक्षणं कषायाणां निग्रह इत्यादि। (60) कम्मओ णं भंते ! जीवे नो अकम्मओ विभत्तिभावं परिणमइ, | विभावनं तुप्राणातिपाताद्विरमणं यावत्परिग्रहाद्विरमणमिति। बृ०३ उ०। कम्मओ णं जए नो अकम्मओ विभत्तिभावं परिणमइ? हंता ('अंतरगिह' शब्दे प्रथमभागे 88 पृष्ठे सूत्रं गतम्।) गोयमा ! कम्मओ णं तं चेव० जाव परिणमइ नो अकम्मओ विभावता-स्त्री०(विभावता) विभावस्वभावे, दश०१ अ०। विभत्तिभावं परिणमइ, सेवं मंते ! सेवं भंते ? ति॥ (सू०-४५२) / विभावसभाव-पुं०(विभावस्वभाव) स्वभावादन्यथाकरणेद्रव्या०। 'कम्मओ ण' मित्यादि, कर्मतः सकाशान्नो अकर्म्मतः-- न कर्माणि स्वभावादन्यथाभावो, विभावोऽपि महव्यथा। विना जीवो 'विभक्तिभावं-विभागरूपं भावं नारकतिर्यगमनुष्यामरभवेषु नानादेशादिकर्मोपा-धिर्यतो घटते कथम् || नानारूपं परिणाममित्यर्थः परिणमति-गच्छति, तथा- 'कम्मओ ण जए' त्तिं गच्छतितांस्तान्नारकादिभावानिति। जगत्-जीवसमूहो जीवद्रव्य स्वभावात् योऽन्यथाभावः स विभावस्वभावः, कथ्यते इति तुमहद्व्यस्यैव वा विशेषो जङ्गमाभिधानो "जगन्ति जङ्गमान्याहु' रिति वचना थारूप लगति। एतच विभावस्वभावस्याङ्गीकरणं विना जीवस्य नानादिति। भ० 12 श० 4 उ०। देशादिकर्मोपाधिः कथं घटते नानादेशाधनियतदेशकालादिविपाकि कर्मोपाधिर्जीवस्य अलग्ना युज्यते, तत उपाधिसंबन्धयोग्यानादिविभत्तिभिन्न-न०(विभक्तिभिन्न) सूत्रदोषे, यत्र विभक्तिव्यत्ययः- यथा विभावस्वभाव इति। द्रव्या० 12 अध्या०। वृक्षं पश्य इति वक्तव्ये वृक्षः पश्येति ब्रूयात्। अनु० / विशे० / आ० म०। अत्र हि विभक्तेरन्यथाप्रयोगाद् विभक्तिभिन्नत्वम् / बृ०१ उ०१ प्रक०। विमासग-पुं०(विभाषक) अनुयोगाचार्येण भणितस्य व्याख्यानस्य समं भाषमाणे, विशे० / विभाषकस्तु अनुयोगाचार्याभाषितस्यैव अनेकधा विभत्तिविपरिणाम-पुं०(विभक्तिविपरिणाम) विभक्तीनां व्यत्यासे, अर्थमभिधत्ते, यथा-समभाव:-सामयिकं समानां वा-ज्ञानदर्शनचारिआचा०१ श्रु०१ अ०५ उ०। आव०। त्राणायः समवायः समाय एव सामायिकंस्वार्थेइकण्प्रत्यय इत्यादि।आ० विभव-पुं०(विभव) कृतसफलसंपदि, ज्ञा० 1 श्रु०१ अ० / लक्ष्म्याम्, म०१ अ०। आ० चू०। ('भासव' शब्देपञ्चभागे 1521 पृष्ठे उदाहरणम्।) स० 146 सम० / समृद्धौ, ज्ञा० 1 श्रु० 17 अ० / 'विभव' इति किं विभासा-स्त्री०(विभाषा) विविधा भाषा विभाषा। विषयविभागव्यवमदस्ते, उत विभवः किं विषादमुपयासि ? करनिहित-कन्दुकसमाः, स्थापनेन व्याख्यायाम, आव०२ अ०। नि० चू०। पञ्चा०। विविधपर्यापातोत्पाता मनुष्याणाम् ||1|| आचा०१ श्रु०२ अ०६ उ०। यशब्दैः स्वरूपकथने, आ० म०१ अ०। भास त्ति वा विभास त्ति वा विभवण-न०(विभवन) विरूपकरणे, नि० चू०१६ उ०। वत्तियं ति वा एगट्ठा। आ० चू०१ अ०। बृ०॥ विभवसार-त्रि०(विभवसार) विभूत्युत्कर्षे, पञ्चा० 8 विव० / ध०। साम्प्रतमभ्रपटलदृष्टान्तसमन्वितं विभाषाद्वारमाहविभवापेक्षायाम, पञ्चा०२ विव०। ध०। तथा विभवादीनां वित्तवयोऽवस्थानिवासस्थानादीनामनुसारत आनुरूप्येण वेषो वस्त्राभरणादिभोगः एगपए उ दुगाई, जो अत्थे भणइ विभासा उ। लोकपरिहासाद्यनास्पदतया योग्यो वेषः कार्य इति भावः / यो हि असइ य आसु य धावइ, न य सम्मइ तेण आसो उ॥२०१॥ सत्सप्याये कार्पण्याद् व्ययं न करोति, सत्यपि वित्ते कुचेलत्वादिधर्मा एकेणं एकदलं, ताहि कयं विइयएण बहुतरगा। भवति स लोकगर्हितो धर्मेऽप्यनधिकारी स्यात्। प्रसन्ननेपथ्यो हि पुमान् तइएण छाइयं तं, तिल्लंबिलमादिगाएहिं / / 202 / / मङ्गल-मूर्तिर्भवति, मङ्गलाच श्रीसमुत्पत्तिः, यथोक्तम्- 'श्रीमङ्गला- एकेन छत्रकारेण त्रयाणामात्मीयशिष्याणां छत्रच्छादनार्थमभ्रपटत्प्रभवति, प्रागल्भ्याच प्रवर्द्धते / दाक्ष्यात्तु कुरुते मूलं, संयमात्प्रति- लानि दत्तानि / छत्राण्याच्छादयत / तत्रैकेन शिष्येन एकमभ्रपटतिष्ठति / / 1 / / " मूलमित्यनुबन्धं प्रति तिष्ठतीति प्रतिष्ठां लभत इति / लदलं तत्र छत्रे कृतम्, द्वितीयेनात्मीयं छत्रे बहुतराणि द्वित्रिचतु:ध०१ अधि०। प्रभृतीनि अझ पटलानि लापितानि, तृतीयेन बहून्यभ्र पटलानि विभवोचिय-त्रि०(विभवोचित) स्वसमृद्ध्यनुरूपे, पञ्चा० 8 विव०। | दत्त्वा तैलाम्लादिभिरुपायैसतु छत्रं सर्वात्मना छादितम्। किमुक्तं भ
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________________ विभासा 1204 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विभूसावत्तिय -वति-तान्यभ्रपटलदलानि पालितानि तैलाम्लादिभिस्तिमित्वा सर्वथा संगय० जाव पासातीयाओ० जाव पडिरूवाओ। तत्थ णं जाओ निर्भेदम् / एष दृष्टान्तः / अयमर्थोपनयः- प्रथमशिष्यसदृशो भाषकः, अवेउव्वियसरीराओताओणं आभरणवसणरहियाओ पगतिद्वितीयशिष्यसदृशो विभाषकः / तथा चाह-य एकस्मिन् द्वित्रादीनान् त्थाओ भूसाए पण्णत्ताओ, सेसेसु देवा देवीओणऽत्थि० जाव वक्ति; यथा- अश्नातीत्यश्वः, यदिवा- आशु धावति न च श्राम्यती- अचुतो, गेविज्जगदेवा के रिसया विभूसाए पण्णत्ता ? गोयमा ! त्यश्यः, एष विभाषकः तस्य भाषणं विभाषा। तृतीयशिष्यसदृशो व्यक्ति- आभरणवसणरहिया य, एवं देवी णऽस्थि माणियव्वं, पगतित्था करः। उक्तं च-"पढमसरिच्छो भासग, विइयविभासो य तइय वित्ति- विभूसाए पण्णत्ता / एवं अणुत्तरा वि। (सू०२१८) करो'इति। बृ०१उ०१प्रक० / विकल्पे, भजनायां च / दश०४ अ०। सौधर्मेशानयोर्भदन्त! कल्पयोर्देवानां शरीरकाणि कीदृशानि विभूषया श्रुतस्य शेषविशेषरूपायां भाषायाम्; विशे०।अर्थकथने, नि० चू०१३०। प्रज्ञप्सानि? भगवानाह-गौतम ! द्विविधानिप्रज्ञप्तानि, तद्यथा-भवधारविभासित्तए-अव्य०(विभाषयितुम) व्याख्यातुमित्यर्थे, आ० म०१ अ०। / णीयानि उत्तरवैक्रियाणि च। तत्र यानि (तानि) भवधारणीयानि, तानिप्रव०। आभरणवसनरहितानि प्रकृतिस्थानि विभूषया प्रज्ञप्तानि, स्वाभाविविभिण्ण-त्रि०(विभिन्न) विदारिते, उत्त० 32 अ० / विशेषेण सूक्ष्म क्येव तेषां विभूषा नौपाधिकीतिभावः। तत्र यानि (तानि) उत्तरवैक्रिय रूपाणि शरीराणि तानि 'हारविराइवच्छा' इत्यादि पूर्वोक्तं तावद्वाच्य खण्डीकृते, उत्त०१६ अ01 यावत् 'दस दिसाओ उज्जोवेमाणा पभासेमाणा पासाईया दरिसणिज्जा विभीयग-पुं०(विभीतक) 'बहेडा' इति ख्याते वृक्षभेदे, विशे०। अभिरूवा पडिरूवा विभूसाए पन्नत्ता' अस्य व्याख्या प्राग्वत् / एवं विभीसण-पुं०(विभीषण) अपरविदेहे सलिलावतीविजये वीतशोकायां देवीष्वपि नवरं 'ताओ णं अच्छराओ सुवण्णसद्दालाओ' इति नूपुरानगर्यां जितशत्रुनृपतिपुत्रे वासुदेवे, आ० चू०१ अ०। आ० म०। दिनिर्घोषयुक्ताः 'सुवण्णसद्दालाइंवत्थाईपवरपरिहिताओं' सकिंकिणीविभु-त्रि०(विभु) व्यापके, विशे०। हा०1 आ० म० स०। कानि वस्त्राणि प्रवरमत्युद्रटं यथा भावत्येवं परिहितवत्य इति भावः। विभूइ स्त्री०(विभूति) उत्कृष्टपरसंपदि, आव० 4 अ०।आ०म०। ज्ञा०। 'चंदाणणाओ चंदविलासिणीओ चंदद्धसमनिडालाओ चंदाहियसोमरा०। विच्छर्दे, औ०। नि० चू०। स्था० / प्रश्न दंसणाओ उक्काइव उज्जोवेमाणीओ विज्जुघणमरीइसूरदिप्पंततेय अहिययविभूसणा-स्वी०(विभूषणा) मण्डनायाम्, आ० म०१०। औ०। व्य० / रसंनिकासाओ सिंगारागार-चारुवेसाओ, पासाईयाओ दरिसणिजाओ अभिरुवाओ पडिरूवाओ' इति प्राग्वत्, एवं देवानां शरीरविभूषा चूल त्ति वा विभूसगं ति वा सिहरं ति वा एते एगट्ठा। नि० चू०१ उ०। तावद्वाच्या यावदच्युतः कल्पः, देव्यस्तुसनत्कुमारादिषु न सन्तीतिन स्नानविलेपनधूपननखदन्तकेशसंमार्जनादिके स्वशरीरसंस्कारे, प्रव० तत्सूत्रं तत्र वाच्यम् / 'गेवेजगदेवाणं भंते ! सरीरा केरिसगा विभूसाए 66 द्वार। पन्नत्ता ? गोयमा! गेवेज्जगदेवाणं एगे भवधारणिज्जे सरीरे तेणं आभरणविभूसा-स्वी०(विभूषा) विभूषणं विभूषा / शरीरोपकरणकरणादिषु, वसणरहिआ पगइत्था विभूसाए पण्णत्ता' इति पाठः / एवमनुत्तरोपस्नानधावनादिभिः संस्कारे, उत्त० 16 अ०। वस्त्रादिराढायाम, दश० पातिका अपि वाच्याः। जी०३ प्रति०२ उ०। 8 अ०।स्फारोदारशृङ्गारकरणे, आ०म०१ अ०। रा०। उचितनेपथ्या विभूसावत्तिय न०(विभूषाप्रत्यय) विभूषानिमित्ते, दश०। दिकरणे, औ०। विभूषाकरणे दोषमाहविभूषाप्रलिपादनार्थमाह - विभूसावत्तिअंभिक्खू, कम्मंबंधइ चिक्कणं / सोहम्मीसाणा देवा केरिसया विभूसाए पण्णत्ता ? गोयमा ! संसारसायरे घोरे, जेणं पडइ दुरुत्तरे // 6 // दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-वेउब्वियसरीराय, अवेउव्वियसरीरा य। तत्थ णं जे ते वेउव्वियसरीरा ते हारविराइयवच्छा० जाव विभूषाप्रत्ययम्-विभूषानिमित्तं भिक्षुः--साधुः कर्म बध्नाति चिक्कणं दारुणं, संसारसागरे घोरे-रौद्रे येन कर्मणा पतति दुरुत्तारे-अकुशलादसदिसाओ उज्जोवेमाणा पभासेमाणा० जाव पडिरूवा। तत्थ गंजे ते अवेउब्वियसरीराते णं आभरणवसणरहिता पगतित्था नुबन्धतोऽत्यन्तदीर्घ इति सूत्रार्थः // 65 // विभूसाए पण्णत्ता / सोहम्मीसाणेसु णं भंते ! कप्पेसु देवीओ एवं बाह्यविभूषापायमभिधाय संकल्पविभूषापायमाहके रिसयाओ विभूसाए पण्णत्ताओ ? गोयमा ! दुविहाओ विभूसावत्तिअंचेअं, बुद्धा मन्नंति तारिसं। पण्णत्ताओ, तं जहा-वेउव्वियसरीराओय अवेउव्वियसरीराओ सावजबहुलं चेअं, नेयं ताईहि सेविअं॥६६॥ यातत्थणंजाओ वेउव्वियसरीराओ ताओणं सुवण्णसहालाओ | 'विभूस' त्ति सूत्रं, विभूषाप्रत्ययं-विभूषानिमित्तं चेत एवं चैवं च यदि सुवण्णसद्दालाई वत्थाई पवरपरिहिताओ चंदाणणाओ मम विभूषा संपद्यत इति, तत्प्रवृत्त्यङ्गं चित्तमित्यर्थः, बुद्धाः-तीर्थकराः चंदविलासिणीओचंदद्धसमणिडालाओ सिंगारागारचारवेसाओ मन्यन्ते-जानन्ति,तादृशं रौद्रकर्मबन्धहेतुभूतं विभूषाक्रियासदृशंसावद्य
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________________ विभूसावत्तिय 1205 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विभूसावत्तिय बहुलं चैतद्-आर्तध्यानानुगतं चेतः, नैतदित्थंभूतं त्रातृभिः-आत्मारामैः साधुभिः सेवितम्-आचरितं कुशलचित्तत्वात्तेषामिति सूत्रार्थः // 66 / / दश०६ अ०२ उ०। आ०म०।ज्ञा०।ग०। आ० चू०। (साधोर्विभूषाप्रत्ययः 'बभचेरसमाहिहाण' शब्दे 5 भागे 1266 पृष्ठे दर्शितः।) विभूषाप्रत्ययमार्जनादिजे भिक्खू विभूसावडिए अप्पणो पाए आमजेज वा पमज्जेज वा आमजतं वा पमजंतं वा साइजइ / / 101 / / जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो पाए संवाहेज वा पलिमद्देज्ज वा संवाहतं वा पडिमइंतं वा साइज्जइ ।।१०शा जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो पाए तेल्लेण वा घएण वा वण्णेण वा वसाएण वा णवणीएण वा मंखेज वा मिलिङ्गेज वा मंखंतं वा मिलिंगतं वा साइजइ / / 103|| जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो पाए लोद्धेण वा कक्केण वा ण्हवणेण वा पउमचुण्णेण वा सिणाहणेण वा उध्वट्टेज वा परियट्टेज वा उव्वस॒तं वा परियटुंतं वा साइज्जइ // 104|| जे मिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो पाए सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेज वा पधोवेज वा उच्छोलंतं वा पधोवंतं वा साइजइ / / 10 / / जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो पाए फूमेज वा रएज वा मंखेज वा फूमंतं वा रयंतं वा मंखंतं वा साइजह // 106|| जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो कायं आमजेज वा पमज्जेज वा आमज्जंतं वा पमजंतं वा साइजइ।।१०७||जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो कायं संवाहेज वा पलिमद्देज वा संवाहतं वा पलिमबंतं वा साइजइ / / 108|| जे मिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो कायं तेल्लेण वा घएण वा वण्णेण वा वसाएण वाणवणीएण वा मंखेज वा भिलिनेज्ज वा मंखंतं वा मिलिङ्गतं साइज्जइ / / 10 / / जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो कायं लोद्धेण वा कक्केण वा ण्हवणेण वा परमचुण्णेण वा वण्णेण वा सिणाहणेण वा उव्वट्टेज वा परिवट्टेज वा उव्वस॒तं वा परिवदृतं वा साइजइ // 110 // जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो कार्य सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेज वा पधोवेज वा उच्छोलतं वा पधोवंतं वा साइजह / / 111|| जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो कायं फूमेज वा रएज वा मंखेज वा फूमंतं वा रयंतं वा मंखतं वा साइजइ॥११॥ जे भिक्खू विभू० अप्पणो कार्यसि वणं आमजेज वा पमजेज वा आमजंतं वा पमजंतं वा साइजइ // 113|| जे मिक्खू विभू० अप्पणो कायंसि बणं संवाहेज वा पलिमद्देज वा संवाहंतं वा पलिमदतं वा साइजइ / / 114 // जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो कार्यसि वणं तेल्लेण वा धरण वा वण्णेण वा वसारण वा णवणीएणं वा मंखेज वा मिलिंगेज वा मंखंतं वा भिलिंगंतं वा साइजइ॥११॥ जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो कायंसि वणं लोद्धेण वा ककेण वा ण्हवणेण वा पउमचुण्णेण वा दण्णेण वा सिणाहणेण वा उव्वट्टेज वा परिवटेज वा उव्वदृतं वा परिवर्सेतं वा साइज्जइ / / 116|| जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो कार्यसि वणं सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेज वा पधोवेज वा उच्छोलतं वा पधोवंतं वा साइजइ / / 117 // जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो कार्यसि वणं फूमेज वा रएज वा मंखेज वा फूमंतं वा रयंतं वा मंखंतं वा साइज्जए॥११८|| जे भिक्खू विमूसावडियाए अप्पणो कायंसिगंडं वापलियं वा अरियं वा असियं वा भगंदलं वा अण्णयरेण वा तिक्खेण वा सत्थजाएण अच्छिदेज वा विच्छिदेज वा अच्छिदंतं वा विच्छिदंतं वा साइजइ॥११६।। जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो कार्यसि गंडं वा पलियं वा अरियं वा असियं वा भंगदलं वा अण्णयरेण वा तिक्खेण वा सत्थजाएण अच्छिदेज वा विच्छिदेल वा पूर्व वा सोणियं वा णीहरेज वा विसोहिएज्ज वाणीहरंतं वा विसोहंतं वा साइज्जइ // 120 / / जे मिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो कायंसि गंडं वा पलियं वा अरिय वा असिंय वा भगंदलं वा अण्णयरेण वा तिक्खेण वा सत्थजाएण अच्छिदेज वा विच्छिदेज वा पूर्व वा सोणियं वा णीहरेज वा विसोहिएज्ज वा सीओदगवियडेण वा उच्छोलेज वा पधोवेज वा उच्छेलंतं वा पधोवंतं वा साइजइ // 121 / / जे मिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो कार्यसि गंडं वा पलियं वा अरियं वा असियं वा भगंदलं वा अण्णयरेण वा तिक्खेण वा सत्थजाएण अच्छिदेज वा विच्छिदेज वा पूर्व वा सोणियं वा णीहरेज वा विसोहेज वा अण्णयरेण वा आलेवणजाएणं आलिंपेज वा विलिंपेज वा आलिंपतं वा विलिंपंतं वा साइजह / / 122|| जे मिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो कार्यसि गंडं वा पलियं वा अरियं वा असियं वा भगंदलं वा अण्णयरेण वा तिक्खेण वा सत्थजाएण अच्छिदेज वा विच्छिदेज वा पूर्य वासोणियं वाणीहरेज वा विसोहिएज्ज वा अण्णयरेण आलेवणजाएणं तेल्लेण वा घएण वा वण्णेण वा वसाएण वा अभिगेज वा मंखेज वा अभिगतं वा मंखंतं वा साइजइ / / 123 // जे भिक्खू विभूसावडियाएअप्पणो कार्यसिगंडवापलियंवा असियं वा भगंदलं
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________________ विभूसावत्तिय 1206 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विभूसावत्तिय वा अण्णयरेण वा तिक्खेण वा सत्यजाएण अच्छिदेज वा विच्छिदेश वा पूर्व वा सोणियं वाणीहरेश वा विसोहिएखवा अण्णयरेण वा धुवेज वापधुवेज वा धुवंतं वापधुवंतं वा साइजह // 124|| जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो पालुकिमियं वा कुच्छिकिमियं वा अप्पणो अंगुलियाए निवेसिय हरेज वा णीहरेज वा हरंतं वा णीहरंतं वा साइज्जइ // 125 / / जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो दीहाओणहसिहाओ कप्पेजवा संठवेज वा कप्पंतं वा संठवंतं वा साइज // 126|| जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो दीहाईवच्छरोमाइंकप्पेञ्ज वा संठवेज वा कप्पंतं वा संठवंतं वा साइजइ / / 127 / / जे मिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो दीहाइंजंघरोमाइंकप्पेज्ज वा संठवेज वा कप्पंतं वा संठवंतं वा साइजइ / / 128|| जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो दीहाइंसीसकेसाई कप्पेछवासंठवेज वा कप्पंतं वा संठवंतं वा साइजइ / / 126 // जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो दीहाई कण्णरोमाइंकप्पेज वा संठवेज वा कप्पंतं वा संठवंतं वा साइजइ / / 130 // जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो दीहाई भुमयरोमाई कप्पेज वा संठवेज वा कप्पंतं वा संठवंतं वा साइजइ / / 131 / / जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो दीहाइं अच्छिपत्ताइंकप्पेज वा संठवेज वा कप्पंतं वा संठवंतं वा साइजइ / / 132 / / जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो दीहाइंचक्खूरोमाइंकप्पेज वा संठवेज वा कप्पंतं वा संठवंतं वा साइज्जइ // 133 / / जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो दीहाइं नझरोमाइंकप्पेज वा संठवेज वा कप्पंतं वा संठवंतं वा साइडइ / / 134|| जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो दीहाइं मंसुरोमाई कप्पेज वा संठवेज वा कप्पंतं वा संठवंतं वा साइज्जइ / / 135 // जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो दीहाई कक्खरोमाई कप्पेजवा संठवेज वा कप्पंतं वा संठवंतं वा साइजइ // 136 // जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो दीहाइं पासरोमाइं कप्पेज वा संठवेज वा कप्पंतं वा संठवंतं वा साइज // 137|| जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो दीहाइं उत्तरउहाई कप्पेड वासंठवेज वा कप्पंतं वा संठवंतं वा साइजइ // 138|| जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो दंते आघसेच वापघसेज वा आधसंतं वा पघसंतं वा साइजइ / / 136 / / जे मिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो दते सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेज वा पधोवेज वा उच्छोलतं वा पधोवंतं वा साइजइ // 140 // जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो दंते फूमेज वा रएज वा मंखेज वा फूमंतं वा रयंतं मंखंतं वा साइजइ॥१४१।। जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो उट्टे आमज्जेज वा पमज्जेज वा आमजंतं वा पमजंतं वा साइज्जइ / / 142 / / जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो उठे संवाहेज वा पलिमद्देज वा संवाहतं वा पलिमइंतं वा साइजइ ।।१४३जे भिक्ख अप्पणो उट्ठे तेल्लेण वाघएण वा वण्णेण वा वसाएण वाणवणीएण वामंखेज वा भिलिङ्गेज्ज मंखंतं वा मिलिङ्गं तं वा साइज ||14|| जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो उट्टे लोहेण वा कक्केण वा ण्हाणेण वा पउमचुण्णेण वा वण्णेण वा उल्लोलेज वा उव्वट्टेज वा उल्लोलंतं वा उव्वस॒तं वा साइजइ // 145|| जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो उद्धे सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेज वा पोवेज वा उच्छोलंतं वा पधोवंतं वा साइजइ / / 146|| जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो उद्धे फूमेज वा रएन वा मंखेज वा फूमंतं वा रयंतं वा मंखंतं वा साइजइ॥१४७|| जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो अच्छीणि आमज्जेज वा पमजेज वा आमजतं वा पमञ्जतं वा साइज्जइ ॥१४॥जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो अच्छीणि संवाहेज वापलिपद्देशवासंवाहतं वा पलिमदंतं वा साइजइ॥१४ाजे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो अच्छीणि तेल्लेण वा घएण वा वण्णेण वा वसाएण वा णवणीएण वा मंखेज वा मिलिङ्गेज वा मंखंतं वा मिलिंगतं वा साइज्जइ।।१५०।। जे मिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो अच्छीणि लोहेण वा कक्केण वा पहाणेण वा पउमचुण्णेण वा बसाएण वा उल्लोलेज वा उबट्टेज वा उल्लोलंतं वा उव्वट्टतं वा साइजइ॥१५१॥ जे मिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो अच्छीणि सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेज वा पधोवेज वा उच्छोलंतं वा पधोवंतंवा साइजइ॥१५२॥ जे मिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो अच्छीणि फूमेज वा रएज वा मंखेज वा फूमंतं वारयंतं वा मखंतं वा साइजइ ||15|| जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो अच्छिमलं वा कण्णमलं वा दंतमलं वाणहमलं वाणीहरेइणीहरंतं वा साइजइ ||१५||जे भिक्खू विभूसावडियाए अप्पणो कायाओसेयं वाजल्लं वा पंकं,वा मलं वाणीहरेज वा विसोहेज वाणीहरंतं वा विसोहंतं वा साइडइ॥१५५।। जे मिक्खू विभूसावडियाए गामाणुग्गामं दुइजमाणे अप्पणो सीसदुवारियं करेइ करतं वा साइज्जइ॥१५६||
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________________ विभूसावत्तिय 1207- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विमल विभूषाप्रतिज्ञया एवं० जाव सीसदुवारियं करेति / सुत्तं-जे / सिंधुमासवगादिसु तत्थुजतो वा विवरणं पि करेज ! एसादिपओयणेसु भिक्खू विभूसावडियाए वत्थं वा पडिग्गहं वा कंवलं वा उज्जलोवहिधरणं करेंतस्स जा जहिं जयणा संभवति सा कायव्वा पायपुञ्छणं वा अण्णयरंवा उवगरणजायं घरेइधरंतं वा साइडइ | "रविकिरणमभिधारणक्खरसत्तमवग्गंतअक्खरजुएण। णाम जसित्था।।१५७॥ जे भिक्खू विभूसावडियाए वत्थं वापडिग्गहंवा कंबलं एसें, तेण तस्सेस कयचुण्णी॥१॥"नि० चू०१५ उ०। वा पायपुञ्छणं वा अण्णयरं वा उवगरणजायं धोवेइ धोवंतं वा / विभूसिय-त्रि०(विभूषित) वस्त्रादिभिः सञ्जातविभूषे, औ० भ०। ज्ञा० / साइजइ।।१५५||जे भिक्खू विभूसावडियाए वत्थं वा पडिग्गहं अन्त० / प्रश्न० / कल्प० / भ० / मण्डिते, दर्श०३ तत्त्व / अलंकृते, वा कंबलं वा पायपुञ्छणं वा अण्णयरं वा उवगरणजायं धुवेइ / विशे० आ० म०। आव०। धुवंतं वा साइजइ / / 156 विभेलय-पुं०(विभीतक) (बहेडा) वृक्षभेदे, प्रज्ञा०१पद। तं सेवमाणे आवज्जइ चउम्मासियं परिहारट्ठाणं उग्घातियं विभूसाए विमग-पुं०(विमक) पर्वकवनस्पतिभेदे, प्रज्ञा०१पद। आसेवंतस्स चउलहु पच्छित्तं / विमज्झ-न०(विमध्य) अन्तराले, विशे०। गाहा विमण-त्रि०(विमनस्) विगतमिव विगतं मनश्चित्तमस्ये ति विमनाः। पादपमज्जणमादी,सीसवाराउजाव उवहिंति। विषण्णे, उत्त०१० अ०। सूत्र०। प्रश्न० / विषण्णतचेतसि, प्रश्न०३ जे कुञ्ज विभूसट्ठा, वत्थादि धरेज वाऽऽणादी॥३७३॥ आश्र० द्वार / विदूसवृसि, उत्त०१२ अ०। शोकाकुलमनसि, जं०२ जे आणादिया जहिं संभवंति ते तहिं भाणियव्वा दोसा। वक्ष० / प्रश्न० / विगतं भोगकषायादिष्वरतौ वा मनो यस्य स विमनाः। गाहा असंयमचित्ते, आचा०१ श्रु०४ अ०४ उ०। इयरह विताण कम्पति, पादादिपमजणं विभूसाए। विमता-स्त्री०(विमता) वजवीर्यराज्ञो भार्यायाम, उत्त०२३ अ०। देहपलोगपसंतो, साता उच्छोलगमणादी॥३७॥ विमरिस-पुं०(विमर्श) विकल्पे, मनोविशेषे, स्था०४ ठा०१3०। विशे०। 'इयरह' त्ति विणा विभूसाए जो विभूसाए पदेसुपमजणं करेति सो तेण विमल-त्रि०(विमल) विगतागन्तुकमले, भ०१५ श०। रा०ाताजी०। पसंगेण देहपलोयणं करेजा ताहे वसापडियाए उच्छोलणादिसुदेसे सव्वे स्वाभाविकागन्तुकमलरहिते, जी०३ प्रति० 4 अधि०। तं०1 औ०। वा पवट्टति तप्पसंगे य पडिगमणादीणि करेजा। रा० / स० / कर्ममलरहिते, उत्त०१२ अ०। "विमलमहातवणिज्ज" गाहा-- विमलंनिर्मलं महत्- महाजातीयमेवं तपनीयं रक्तवर्णसुवर्णम् / कल्प० एमेव य उवगरणे, अभिक्खधुवणे विराहणा दुविहा। १अधि०२क्षण / षट्सप्ततितमे महाग्रहे, चं० प्र०२० पाहु०। सू०प्र०। संका य अमादीणं, तेणगमुहणंतदिलुतो // 375|| दो विमला। (सू०९०४) स्था० 2 ठा०३ उ०। अभिक्खा पुणो पुणो, दुविधा-आयविराहणा संजम सहस्रारस्याष्टमदेवलोकेन्द्रस्य पारियानिके विमाने, स्था० 8 ठा०३ विराहणा, संकाए जहा वा ससरीरोवकरणपाओसो उ०। औ० / ऋषभदेवस्य पञ्चमे पुत्रे, कल्प० 1 अधि०७ क्षण / दीसति तहा से नूणं कोई पसंगो वि अत्थि एवं अविरता आनतप्राणतयोर्देवेन्द्रयोः पारियानिकविमानवाहके देवे, जं०५ वक्ष०। संकंति, उज्जले विहिते य तेणगमुहणंतगदिटुंतो- एगे द्वादशदेवलोकस्थविमानभेदे, स०२२ सम० / सनत्कुमारदेवलोकआयरिया बहुसिस्स-पज्जागमा, एगेण रण्णा कंबलरयणेण पडिलाभिता, सम्बन्धिनि षष्ठे विमाने, स०७ सम०। अस्यामवसर्पिण्यां भरतज्ञेत्रजे भणिता य- पाउतेण य णिग्गच्छह / ते पाउएण णिगच्छंता तेणगेहि त्रयोदशे तीर्थकरे, आ० म०। नामान्वर्थमाह-विमलः विगतमलो, दिट्ठा, वसहिं गंतुंतत्थ मुहणंतगा कया तेणगा विराओ आगता। भणंति, ज्ञानादियोगाद्वा विमलः / तत्र सर्वेऽपि भगवन्त इत्थंभूताः, इतो देह तं कंबलरयणं / दंसिया य तेहिं एते मुहणंतगाकता। तेणगेहिं रुडेहिं विशेषमाह-"विमलतणुमहद्धं, गब्भयतो माताए सरीरं बुद्धी य अतिसीवावेतुं मुक्का / जम्हा एते दोसा तम्हा ण विभूसाए धरियव्वं / सव्वेसिं विमला / जओ तेण विमलेति / आ० म०२ अ० / सामण्णं सव्वे सुत्ताणं इमं वितियपदं जहा-संभवं भाणियव्यं / विमलमती, विसेसो माताए सरीरं अतीवविमलं जातं बुद्धीतत्ति // 13 // गाहा आ० चू०२ अ०। स०।1०। भ० / कल्प० / अनु० / काम्पिल्यनगरे, वितियपदमणप्पज्झे, अप्पज्झे वावि दुविह तेइच्छे / ती० 24 कल्प०। (काम्पिल्यपुरेऽस्य जन्मादीति 'कंपिल्ल' शब्दे अमिओगअसिवदुभि क्खमादिसुंजा जहिं जयणा // 376 / / तृतीयभागे 176 पृष्ठे गतम्।) ('तित्थयर' शब्दे चतुर्थभागे 2274 पृष्ठे अणवजो खेतादिगो सेहो वा अजाणंतो। असेहो वि दुविधा मोहति- सर्वा वक्तव्योक्ता!) गिच्छाए अणिमित्तेषु / णिमित्ते वा मोहोदए रायादिअभियोगेण वा असिवे विमलस्स णं अरहओ छप्पन्नं गणा गणहरा (य) होत्था / वा असिवोवसमणनिमित्ते, दुभिक्खे वा कुचेलस्स ण लब्भति त्ति | (सू०-५६४) स०५६ सम०। 0 0 000 000 0 |
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________________ विमल 1208 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विमल विमलस्सणं अरहओ अडसहि समणसाहस्सीओ उकोसिया / समणसंपया होत्था। (सू०६८+) स०६८ सम०। पुरुषाः सिद्धाःविमलस्सणं अरहओणं चउआलीसं पुरिसजुगाइं अणुपिडिं सिद्धाइं० जाव प्पहीणाइं। (सू०४५+) स०४४ सम०।। पञ्चमे भारतातीतजिने, प्रव०७द्वार / ति०। भारते वर्षे उत्सर्पितां भविष्यतिमल्लीपर्याये द्वाविंशे तीर्थकरे, सति०। (विमल-स्यार्हतः शिष्यसन्तानेन सुमङ्गलेनानमारेण गोशालकजीवो विमलवाहनराजो भस्मीकृत इति 'गोसालग' शब्दे तृतीयभागे 1034 पृष्ठे गतम्।) भारते भविष्यति दशमे चक्रवर्तिनि, ती०२० कल्प० एरवते वर्षे भविष्यति एकविंशे, तीर्थकरे, स०। द्वितीयतीर्थकरस्याजितस्वामिनः पूर्वभवजीवे, स०।स्वनामख्याते कुवलयचन्द्रवेष्ठिनः सुते, ध०२०। तत्कथानकञ्चैवम्सिरिनंदणं समयरं, अत्थिकुसत्थलपुरं मयणसरिणं / तत्थ य कुवलयचंदो, चंदो व्व जणप्पिओ सिट्ठी||१|| गयदंदा गंदसिरी, सिरीव पुरिसुत्तमस्स से भञ्जा। विमलसहदेवनामा, ताणं पुत्ता सया भत्ता ||2|| पगईऍ पावभीरू, जिट्टो विवरीयओ कणिट्ठो उ। कइया वि कीलिउ ते, उज्जाणगया नियति मुणिं / / 3 / / तस्स कमकमलममलं. सुठुपहिट्ठानमित्तु उवविठ्ठा। साहू वि कहइ धम्म, ताणुचियं सयलजीवहियं / / 4 / / हयसयलकम्मलेवो, देवो गुरुणो विसुद्धगुणगुरुणो। धम्मो दयाइरम्मो, भुवणे रयणत्तलं एयं / / 5 / / इय सुणिउंतुट्टेहिं, गहिओ सम्मत्तमाइ गिहिधम्मो। असमत्थेहिं तेहिं, दुद्धरजइधम्मधुरधरणे।।६।। ते अन्नदिणे चलिया, गहिउंपणियाइपुव्वदेसम्मि। केण वि पहिएण इमं, अद्धपहे पुच्छिओ विमलो // 7 // भो कहसु पंजलपहं, घणइंधणनीरनीरणाइजुयं / विमलो वि दंडभीरू, जंपइ अहयं न याणामि॥८॥ पभणेइ पुणो पहिओ, गामे नयरे व कत्थ गंतव्वे। सिट्ठीं तए सो साहइ, अग्घिस्सइजत्थ नणु पणियं / / 6 / / पुण पहिएणुल्लविय, नियनयरं कहसुजत्थ तुं वससि। स भणइ निवहाणीए, नय नयरं अत्थि मम ह किंचि।।१०|| जइपभणसि विमल ! तुम, तए समं एमि तेण इय वुत्ते। सो आह सइच्छाए, इंताण तुमाण के अम्हे / / 11 / / अह पत्तो पुरवाहिं, पागत्थं जाव जालए जलणं। विमलो तापहिएणं, भणिओ अप्पणु मह दहणं // 12 // सो वि पयंपइ तं पइ, मह पासे जिमसु अवि य भो पहिय!! नय अगणिपमुहदाणं, तुकप्पए समयपडिसेहा // 13 // तथाहिमहुमज्जमसभेस-जमूलसत्थग्गिजंतमंताई। न कया वि हुदायव्वं, सड्डेहिं पावभीरूहिं॥१४॥ अन्यत्राप्युक्तम्न ग्राह्याणि न देयानि, पञ्च द्रव्याणि पण्डितैः। अनिर्विषं तथा शस्त्रं, मद्यं मांसं च पञ्चमम्॥१५॥ तो सो कुविउ व्व अरे, रे चिट्ठ! निकिट्ठ! दुट्ठधम्मिट्ठ! बधुत्तराइँ पकुणसि, मह पुरओ विमल इय भणिउं / / 16 / / उत्तासियसयलजणो, कसिणतणुंतह य बडिउंलग्गो। जह तस्स किंचि भीयं, वउ वरिहुत्तं गयं गयणं // 17 // तह जंपइ विमलं पइ, रे पागकए महग्गिमप्पेसु। जं भुक्खि उम्हि वाद, इहरा ते नासिहं पाणे॥१८॥ इयरो वि भणइ जललव-चलाण पाणाण कारणा भद्द!! को नाम पावभीरू, इय एरिसपावमावहई // 16 // अथिरेहि थिरो समले-हि गयमलो परवसेहि साहीणो। पाणेहि जइ विढप्पइ, धम्मो ता किं न खलु पतं // 20 // जंजाणसि तं पकुणसु, न उण निरत्थं करेमि पावमहं। तो सो संहरिय तणू, नियरूवं काउमाह तयं // 21 // विमल ! अइविमलगुणगण!, धन्नो सि तुम तुम चिय सपुन्ने। जं सक्को विपसंसइ, तुह पयडं पावभीरुतं // 22 // सावजवयणवज्जण-पचलनिच्चलसुधम्मवर सुवरं। सो भणइतए दिन्नं, दितेण सदसणं सव्वं // 23 // वरदाणपरे अमरे, पुणो विजंपइ इमो अहो भद्द!। निययमणं अइपउणं, करेसु गुणिजणगुणग्गहणे॥२४॥ अह तम्मि अइनिरीहे, सप्पविसुच्छायणं मणिं सुमणो। बंधिय तदुत्तरीए, बलावि पत्तो सयं ठाणं / / 25 / / विमलो करेइ सद, सहदेवाईण ते वि तो पत्ता। पुच्छंति पहियचरियं, जहट्ठियं, सोऽविसाहेइ॥२६॥ जिणमुणिसुमरणपुव्वं, ते भुत्तुं अह गया नयरमज्झे। ता तत्थ पुरे वणिए-हि आवणा लहु पिहिज्जति / / 27|| चउरंगबल पबलं, इओ तओ भमइ समरसज्जं वा। मालिज्जइ पायारो, दिव्यं ति य गोयरकवाडे ||28|| तं असरिच्छे पिच्छिय, विमलेणं कोऽवि पुच्छिओ पुरिसो। भीयं पिव पुरमेयं, किं दीसइ भद्द ! सयलं पि॥२६॥ तो विमलसवणमूले, ठाऊण भणेइ सो विजह इत्थ। बलिबंधुकरो पुरिसु--त्तमु व्व पुरिसुत्तमो राया // 30 // इको चिय से पुत्तो, अरिमल्लो नाम विजिय अरिमल्लो। सो अज्ज केलिभवणे, सुत्तो डसियो भुयंगेणं / / 31 / / तप्पणइणी गाढं, पुक्करिए परियणेण मिलिएण। अइनिउणं पिगविट्ठो, न य दिट्ठो विसहरो दुट्ठो॥३२॥ पत्तो निवो वितहियं, मयं व कुमरं निए विरुत्तिगओ। मुच्छमतुच्छंपवणा-इएहि जाओ पुणो पउणो॥३३॥ किरियाओं बहुविहाओ, नरिंदविंदारएहिं बिहियाओ। न य जाओ को व गुणो, तत्तो भणियं निवेण इमं // 34 // जइ कह वि किं पि कुमर-स्स मंगुलं जायए अमच्चवरा !! तो मज्ज वि नणु, सरणं, जलणो जालाभरियगयणो // 35 // तो बुत्तो परिवारो, रुयंति अंतेउरी उकरुणसरं। सामंता वि विसन्ना, खलभलिओ सयलपुरलोओ // 36|| अह दाविओ पडहओ, निवेण आउलमणेण इय नयरे। जो जीवावइ कुमर, तस्स अहं देमि रज्जद्धं // 37 / / तं सुणिय भणइ विमलं, सहदेवो भाय ! कुणसु उवयारं। ओहलिय मणिं छंटसु, कुमरं जं जियइ लहु एसो॥३८॥ गरुयं अहिगरणमिणं, बंधव ! को रज्जकारणे कुणइ। इय विमलेणं वुत्ते, सहदेवो भणइ भो भाय !||36 // उज्जीविऊण कुमरं, अम्ह कुलस्स वि दलेसुदालिहं। कइय विजीविओ किर, करिज कुमरो वि जिणधम्मं // 4 //
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________________ विमल 1206 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विमलवाहन एमाइ तम्मि भणिरे, जा विमलो किं पि उत्तरइ ताव। चेलं चलाउ इमिणा, गहियमणिं छित्तओ पडहो // 41 // नीओ कुमरसमीवे, मणिमोहलिऊण छंटिओ एसो। सुत्तविउठु व्वखणे-ण उडिओपुच्छइ नरिंदं॥४२॥ किं ताय! एस पुरिसो, अंबा अंतेउरी उपुरलोओ। सव्वो वि इत्थ मिलिओ, तो राया कहइ तं सव्वं / / 43 / / हिट्टेणं सहदेवो, रज्जद्धेणं निमंतिओ रन्ना। सो आह देव जस्स--प्पभावओ जीविओ कुमरो॥४४॥ सो मह भाया जिट्ठो, विमलो विमलासओ सपरिवारो। चिट्ठइ चउहहेत-स्स देसु एवं इहाणे॥४५॥ तो गच्छइ तत्थ निवो, सह सहदेवेण करिवरारूढो। तंट्ठसुठु उठो, अवगूहि विपभणए एवं // 46| भो विमल ! पुत्तभिक्खा, दिन्ना सुन्नासयस्स मज्झतुए। तो काऊण य सायं, लहु मह गिहमेहि देहि मुदं // 47 // जह जह जंपइ तं पई, राया वयणाइ पणयपउणाई। गुरु अहिगरणपवित्ती, तह तह सल्लइ विमलहियए॥४८॥ पडिभणियं तेण नरिं-दअनयविसपसर हरणसुनरिंद!। सहदेवविलसियमिणं, ता किजउ उचियमेयस्स।।४६।। आरोविओ गयवरे, सबंधवो नियगिहे इमो नीओ। भणिओ य रज्जविसए, रन्ना पडिभणइ इय विमलो॥५०॥ इक्कं ता खरकम्म, वीयं अइरित्तया परिगहस्स। ता निव मह न हुकलं, रज्जेणमवजमूलेण // 51 / / अह स जिगीसं नाउं, सहदेवं तस्स निवइणा दिन्नं। हयगयरहभडजणवय-पुरपसुहं पि भइउं सव्वं / / 5 / / अप्पित्तोधवलहरं, सरंव कमलाउलं उदयकलियं। विमलो पुण सिट्ठिपए, संठविओऽणिच्छमाणो वि॥५३॥ नियजणयपमुहलोओ, समाणिओ तत्थ तेहि अह विमलो। कुव्वंतो जिणधम्म, सम्ममइक्कमइ बहुकालं // 54 // सहदेवो उण रज्जे, रट्टे विसएसु अइसयसय (ति) णहो। अकरं करेइ वड्डए, पुव्वकरे दंडए लोयं॥५५|| वियरइ पावुवएसे, अहिंगरणे कुणइहणइ अरिदेसे। असुहज्झाणोवगओ, कया वि विमलेण तो भणिओ // 56 // करिकलहकन्नचवला-इरायकमलाइकारणा भाय !! को पावेसु पवत्तइ, नियनियमधुरं विराहित्ता ! // 57 / / वरमनलम्मि पवेसो, फणिमुहकुहरे वरं करो खित्तो। वरमसमामयपीडा, न हु विरइविराहणा भाय !!58|| इय निसुणंतो जाओ, जलभरियधणु व्व कसिणवयणो सो। विमलेण तओ मोणं, विहियमजोगुत्ति काऊणं / / 5 / / जिणधम्मे विगयरई, विवन्नविरइप्फुरंत पावमई। अइधणमणत्थदंडं, कुव्वंतो वंतसम्मत्तो॥६०॥ केण वि नरेण पुव्वं, विराहिएणं कया वि सहदेवो। लहिउंछलं छुरीए, हणिओ पत्तो पढमपुढविं // 61 / / तयणुगुरुगाहरभवजल-निहिम्मिअइसहियदुसहदुहनिवह। कह कह विलहिय नरज-म्मकम्महणिउंगमीय सिवं // 6 // अचंतपावभीरू, विमलो पुण पालिऊण गिहिधम्म। जाओ अमरो पवरो, महाविदेहम्मि सिज्झिहिइ / / 63|| इत्यवेत्य विमलस्य चेष्टितं, वेष्टितं न खलु कर्मकोटिभिः / हे जना! भवत पापभीरवो, धीरवोधिचरणव्यवस्थिताः॥६४|| इलि विमलदृष्टान्तः समाप्तः। ध० 20 1 अधि० 6 गुण / साकेते महाबलस्य राज्ञश्चित्रकरे, आव० 4 अ०। आ० चू०/क्षीरोदसमुद्रस्याधिपतौ देवेचा सू०प्र०१६ पाहु०। विमलकूड-न०(विमलकूट) जम्बूद्वीपे सौमनसवक्षस्कारपर्वतस्य वत्साभिधानाधोलोकनिवासिदिक्कुमार्यावासभूते पञ्चमे कूटे, स्था०७ ठा० 3 उ०1 विमलकुमार-पुं०(विमलकुमार) स्वनामख्याते विमलराजतनूजे, ध० 201 अधि० 16 गुण / (विमलकुमारचरितं कृतज्ञतायामुदाहृतम् 'कयण्णू' शब्दे तृतीयभागे 347 पृष्ठे।) विमलगणि-पुं०(विमलगणिन) अभयदेवसूरिशिष्ये, "प्रथमादर्श लिखि ता विमलगणिप्रभृतिभिर्निजनिवेयैः / कुर्वद्भिः श्रुतभक्तिं, दक्षैरधिकं विनीतैश्च // 13 // " भ०४१श० धर्मघोषसूरिशिष्ये,येनचन्द्रप्रभसूरि कृतदर्शनशुद्धिग्रन्थस्यटीका कृता। जै० इ०। विमलगुत्त-पुं०(विमलगुप्त) विचित्रवेगनृपस्य व्रतग्राहके आचार्य, संघा० 1 अधि०१ प्रस्ता। विमलघोस-पुं०(विमलघोष) जम्बूद्वीपे भारतक्षेत्रे अतीतायामुत्सर्पिण्यां जाते पञ्चमे कुलकरे, स्था०७ ठा०३ उ०। विमलचंद-पुं०(विमलचन्द्र) विक्रमसमये चान्द्रकुलेमान-देवसूरिशिष्ये, 'तस्माच विमलचन्द्रः, सहेमसिद्धिर्बभूव सूरिवरः' / ग०३ अधि०। बृहद्गच्छीयवादिदेवसूरिगुरुभ्रातरि प्रश्नोत्तरमालिकानामग्रन्थकर्तरि, अयमाचार्यः विक्रमे 1226 संवत्सरे विद्यमान आसीत्। जै० इ०। विमलजस-पुं०(विमलयशम्) भारते वर्षे सुमङ्गलापतौ पुष्पचूडपितरि, ती०४२ कल्प०। विमलणाह-पुं०(विमलनाथ) विमलतीर्थकरस्य प्रतिमायाम, काम्पिल्ये गङ्गामूले सिंहपुरे च श्रीविमलनाथः। ती० 43 कल्प० / विमलणाहत्थय-पुं०(विमलनाथस्तव) समन्तभद्रविरचिते श्रीविमलनाथस्तोत्रे, 'नयास्तव स्यात्पदलाञ्छना इमे रसोपविद्धा इव लोहधातवः। भवन्त्यभिप्रेतफलायतस्त, तो, भवन्तमार्याः प्रणताः हितैषिणम् // 11 // स्था०२ठा०३उ०। विमलहि-पुं०(विमला)ि शत्रुञ्जये, ती०१ कल्प०। विमलधी-त्रि०(विमलधी) विमलबुद्धौ, षो०६ विव०। विमलप्पभ-पुं०(विमलप्रभ) क्षीरोदसमुद्रदेवे, सू०प्र०१६ पाहु। विमलप्पमसूरि-पुं०(विमलप्रभसूरि) तपागच्छीये, सोमप्रभसूरिशिष्ये, ग०३ अधि०। विमलवर-न०(विमलवर) प्राणतदेवेन्द्रस्य नवमदेवलोकाधिपतेः पारि यानिके विमाने, स्था० 10 ठा०३ उ०। विमलोत्तमे, 'विमलवरबद्धचिंधपट्टे' विमलवरो बद्धश्चिह्नपट्टो वस्त्रादिमयो यैस्ते तथा। विपा०१ श्रु०२ अ०। विमलवाहन-पुं० (विमलवाहन) अपरविदेहजवयस्यस्य मायिनः सम्प्रति हस्तित्वं प्राप्तस्य आभियोग्यतां गतस्य (भगवतीवृत्तिः।)
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________________ विमलवाहण १२१०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विमाण वाहनीकरणात् लोके विमलवाहनेति नाम्ना प्रसिद्धः / भारतेऽस्याम- | विमलसूरि-पुं०(विमलसूरि) नागिलकुलीयविजयसेनसूरिशिष्ये, येन क्सर्पिण्यां जाते, प्रथमे कुलकरे, आ० म०१ अ01 ति०। स्था०। स०। प्राकृतभाषानिबद्धपद्मचरित्रं निर्भमे। अयमाचार्यः विक्रमीय 60 संवत्सरे आ० चू०। ('कुलगर' शब्दे तृतीयभागे 563 पृष्ठे वक्तव्यतोक्ता।) आसीत्, 'पंचेव य वाससया, दुसमाए तीसवरिससंजुत्ता / वीरेहि विमलवाहणे णं कुलकरे सत्तविहा रुक्खा उवभोगत्ताए सिद्धिमुवगए, तओ निबद्धं चरियमेयं / / 1 / / " इति तत्रत्योक्तेः / जै० इ० / हव्वमागञ्छिसु, तंजहा-"मत्तंगयाय मिना, चित्तंगाचेव होंति विमलहरिस-पुं०(विमलहर्ष) स्वनामख्याते वाचके आचार्य, यवंश्येन चित्तरसा / मणियंगा य अणिअणा, सत्तमगा कप्परुक्खा य भावविजयवाचकेन विनयविजयविरचितकल्पसूत्रटीका सुबोधिका // 1 // " (सू०५५६४) व्यशोधि। कल्प० 3 अधि० 6 क्षण। तथा विमलवाहने प्रथमकुलकरे सति सप्तविधा इति पूर्व दशविधा | विमला-स्त्री०(विमला) वितिमिरत्वाद् उर्ध्वदिशि, स्था० 10 ठा० 3 अभूवन् / 'रुक्ख' त्ति कल्पवृक्षाः / 'उवभोगत्ताए' त्ति उपभोग्यतया। / उ० / विशे० / सा च रुचकादूर्ध्वं विनिर्गता दिक् / आ० म० 1 अ०। 'हव्वं' शीघ्रमागतवन्तः, भोजनादिसंपादनेनोपभोगतत्कालीनमनुष्या- स्था० / भ० / धरणलोकपालकालस्याग्रमहिष्याम्, स्था० 4 ठा०१ णामागता इत्यर्थः। 'मत्तंगया य' गाहा। 'मत्तंगया य' इति मत्तं-मदस्तस्य उ० / गीतरतेर्गन्धर्वस्याग्रमहिष्याम्, भ० 10 श०५ उ० / स्था० / कारणत्वान् मद्यमिह मत्तशब्देनोच्यते तस्याङ्गभूताः-कारणभूतास्तदेव पोतनपुरराजवजसिंहामात्यस्यात्यन्तवल्लभायां भार्यायां कमलस्य वा अङ्गमवयवो येषां ते मत्ताङ्गकाः; सुखपेयमद्यदायिन इत्यर्थः / चकारः कुमारस्य मातरि, दर्श०१ तत्व / त्रयोदशस्य तीर्थकरस्य निष्क्रमणपूरणे / 'भिंग' त्ति संज्ञाशब्दत्वात् / भृङ्गारादिविविधभाजनसंपादका शिविकायाम्, स०॥ भृङ्गाः। चित्तंग' त्ति चित्रस्यानेकविधस्य माल्यस्य कारणत्वाचित्राङ्गाः / विमलाचल-पुं०(विमलाचल) विमलपर्वते, ती०१ कल्प०। ('सत्तुंजय' 'चित्तरस' त्ति चित्रा विचित्रा रसा मधुरादयो मनोहारिणो येभ्यः सकाशा- शब्देऽस्य वक्तव्यतां वक्ष्यामि) त्संपद्यन्ते ते चित्ररसाः 'मणियंग त्ति मणीनामाभरणभूतानामङ्गभूताः विमाण-न०(विमान) विविधं मन्यते उपभुज्यते पुण्यवद्भिर्जीवैरिति कारणभूता मणयो वा अङ्गान्यवयवा येषां ते मण्यङ्गा; भूषणसंपादका विमानम्। प्रज्ञा०१ पद। जी०। वैमानिकदेवावासविशेषे, स्था० 2 ठा० इत्यर्थः / 'अणियण' त्ति अनग्नकारकत्वादनना विशिष्टवस्त्रदायिनः / 4 उ० / जी० / प्रश्न० / भ० / तानि च ज्योतिः संबन्धीनि अनुत्तरसंज्ञाशब्दो वाऽयमिति। 'कप्परुक्ख' त्ति उक्तव्यतिरिक्त-सामान्यक विमानान्तानि विमानशब्देन गृह्यन्ते। दर्श०४ तत्त्व। जी०। (ईशानल्पितफलदायित्वेन कल्पना-कल्पस्तत्प्रधाना वृक्षाः कल्पवृक्षा इति। विमानानां लोगपाल' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 722 पृष्ठे वक्तव्यतोक्ता।) स्था०७ ठा०३ उ० 1 कल्प०। आ० क० / जं०। सम्प्रति वैमानिकदेवानां विमानान्याहविमलवाहणे णं कुलकरे नव धणुसयाइं उडं उच्चत्तेणं कहिणं भंते ! वेमाणियाणं देवाणं विमाणा पण्णत्ता? (सू० होत्था। (सू०-६६६) स्था०६ ठा०३ उ० स०। 207+) गोशालस्योत्तरभवजीवे देवसेनापरपर्याय राजनि, (सच सुमङ्गलेना 'कहिणं भंते ! वेमाणियाण' मित्यादि, क्व भदन्त! वैमानिकानां देवानां नगारेण तेजोदग्धो मृत इति 'गोसालग' शब्दे तृतीयभागे 1031 पृष्ठे विमानानि प्रज्ञप्तानि ? (जी०) भगवानाह-गौतम ! अस्या रत्नप्रभायाः कथितम्।) भरतक्षेत्रे, चञ्चुदेशचञ्चुचूडनगरे चञ्चुशेखरनरपतेरमात्यस्य पृथिव्या बहुसमरमणीया भूमिभागाद्चकोपलक्षितादिति भावः, ऊर्द्ध चञ्चुपथस्य भार्याया रतिकन्दल्याः पितरि श्रेष्ठिनि, दर्श०१तत्त्व। भारते चन्द्रसूर्यग्रहनक्षत्रतारारूपाणामप्युपरि बहूनि योजनानि बहूनि योजनवर्षे आगामिन्यामुत्सर्पिण्यां जनिष्यमाणे पञ्चमे कुलकरे, स्था० 10 ठा० शतानि बहूनि योजन-सहस्राणि बहूनि योजनशतसहस्राणि बहीर्योजन३ उ०। जम्बूद्वीपे ऐरवते वर्षे आगामिन्यामुत्सर्पिण्यां जनिष्यमाणे प्रथमे कोटीकोटीः ऊर्द्ध दूरमुत्प्लुत्यबुद्ध्या गत्वा, एतच्च सार्द्धरजूपलक्षणम्, कुलकरे,सकातृतीयतीर्थकरस्य संभवस्य पूर्वभवजीवे, स०। महापद्मा तथा चोक्त-म्-"सोहम्मम्मि दिवड्डा, अढाइजा य रज्जु माहिंदे। बंभम्मि परनामके भारते वर्षे उत्सर्पिणीप्रथमतीर्थकरे, स्था०६ ठा०३ उ०। अद्धपंचम, छ अचुए सत्त लोगते ||1||" 'एत्थ ण' मित्यादि, 'अत्र' (अस्य 'उस्सप्पिणी' शब्दे द्वितीयभागे 1171 पृष्ठे कथोक्ता) जम्बूद्वीपे एतस्मिन् सार्द्धरजूपलक्षिते क्षेत्रे ईषत्प्राग्भारादर्वाक् सौधर्मेशानसनत्कुभारते वर्षे आगामिन्यामुत्सर्पिण्यांजनिष्यमाणे दशमचक्रवर्तिनि, स०। मारमाहेन्द्रब्रह्मलोकलान्तकशुक्रसहस्रारानतप्राणतारणाच्युतप्रैवेयकल्किनृपपुत्रदत्तवंश्ये अपश्चिमनरेन्द्र, तिला "राया य विमल-वाहणो, कानुत्तरेषु स्थानेषु अत्र- एतस्मिन् वैमानिकानां चतुरशीतिर्विमानासुमुहो नामेण तस्स य अमचो। इह दुसमाए काले, रायामचो अपच्छि- धासशतसहस्राणि सप्तनवतिः सहस्राणित्रयोविंशतिर्विमानानि८४६७०२३ मिमो' ||36|| ति० / 'अस्याः पश्चिममुद्धार, राजा विमलवाहनः। / भवन्तीत्याख्यातानि।इयंचसंख्या- "बत्तीस अट्ठवीसा, वारस अट्ठचउरो श्रीदुष्प्रभवसूरीणामुपदेशाद् विधास्यति।।१।।" ती०१ कल्प०1 सयसहस्सा" इत्यादिसंख्यापरिमीलनेन भावनीया // 'ते णं विमाणा'
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________________ विमाण 1211 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विमाण इत्यादि, तानि विमानानि सर्वरत्नमयानि 'अच्छा सण्हा लण्हा घट्ठा मट्ठा नीरया निम्मला निप्पंका निक्कंकडच्छाया सप्पभा ससिरीया सउजोया पासाईया दरिसणिज्जा अभिरुवा पडिरूवा' / जी०३ प्रति०१उ०। सौधर्मे विमानसंख्यामाहसोहम्मे कप्पे वत्तीसं विमाणावाससयसहस्सा णं पण्णत्ता। (सू०३२४) स०३२० सम०। सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु पढमे पत्थडे पडमावलियाए एगमेगाए दिसाए वासहि विमाणा पण्णत्ता। (सू०६२४) 'सोहम्मी' त्यादि तत्र सौधर्मेशानयोस्त्रयोदश विमानप्रस्तटा भवन्ति, सनत्कुमारमाहेन्द्रयोदश ब्रह्मलोके षट्,लान्तके पञ्च, शुक्रे चत्वारः, एवं सहस्रारे आनतप्राणतयोश्चत्वारः, एवमारणाच्युतयोः ग्रैवेयकेष्वधस्तनमध्यमोपरिमेषु त्रयः त्रयः, अनुत्तरेष्वेक इति द्विषष्टिस्ते भवन्ति। एतेषां च मध्यभागे प्रत्येकमुडुविमानादिकाः सर्वार्थसिद्धविमानान्ता वृत्तविमानरूपा द्विषष्टिरेव विमानेन्द्रका भवन्ति / तत्पार्श्वतश्च पूर्वादिषु दिक्षु व्यस्रचतुरस्रवृत्तविमानक्रमेण विमानानामाबलिका भवन्ति। तदेवं सौधर्मेशानयोः कल्पयोः प्रथमे प्रस्तटे सर्वाधस्तन इत्यर्थः, पढमावलियाए' त्ति प्रथमा- उत्तरोत्तरावलिकापेक्षया आद्याश्चतस्र आवलिका यस्मिन् स प्रथमावलिकाकस्तत्र, अथवा-प्रथमात्- मूलभूताद्विमानेन्द्रकादारभ्य याऽसावावलिका विमानानुपूर्वी तया, अथवोत्तरोत्तरावलिकापेक्षया एकैकस्यां दिशि या प्रथमा आधाऽवलिका तस्याम्, 'पढमावलिय'त्ति पाठान्तरे तु उत्तरोत्तरावलिकापेक्षया एकैकस्यां दिशि या प्रथमाऽऽवलिका सा द्विषष्टिर्द्विषष्टिप्रमाणेन प्रज्ञप्तेति, 'एगमेगाए' त्ति उडविमानाभिधानदेवेन्द्रकापेक्षया एकैकस्यांपूर्वादिकायां दिशि द्विषष्टिद्विषष्टिविमानानि प्रज्ञप्तानि, द्वितीयादिषु पुनः प्रस्तटेषु एकैकहान्या विमानानि भवन्ति यावद् द्विषष्टितमेऽनुत्तरसुरप्रस्तटेसर्वार्थसिद्धदेवेन्द्रकः पार्श्वे तदेकैकमेव भवतीति। स०६२ सम01 देवेन्द्रस्तवे पुष्पावकीर्णकानां सौधर्मादिविमानानां संख्या - अउणाणउइसहस्सा, चउरासीइंच सयसहस्साई। एगूणयं दिवढं, सयं च पुष्पावकिण्णाणं // 208|| सत्ते व सहस्साई, सयाई वावत्तराई अह भवे। आवलियाइविमाणा, सेसा पुप्फावकिण्णाणं / / 206 / / आवलियाइविमाणा, अंतरयं नियमसो असंखिजं / संखिज्जमसंखिजं, भणियं पुप्फावकिन्नाणं // 21 // // 1135 // द०प०। आरणे कप्पे दिवढं, विमाणावाससयं पण्णत्ता, एवं अचुए वि। (सू०१५०) स० 150 सम०। त्रिप्रतिष्ठितानि विमानानि -- तिपइडिया विमाणा पण्णत्ता, तं जहा- घणोदहिपइटिया घणवायपइट्ठिया उवासंतरपइट्ठिया। (सू०१८०४) प्रतिष्ठानसूत्रस्येयं विभजना (देवेनद्रस्तवे)- "धणउदहिपइट्ठाणा, सुरभवणा हों ति दोसु कप्पेसु / तिसु वाउपइट्ठाणा, तदुभयसुपइट्ठिया तीसु॥१८६।१११७॥ तेण परंउवरिमगा, आगासंतरपइडिया सव्वे।। (190) (१११८)"त्ति। स्था० 3 ठा० 3 उ०। सणंकुमारमाहिदेसु कप्पेसु विमाणपुढवी किं पइडिया पण्णत्ता ? गोयमा ! घणावायपइट्ठिया पण्णत्ता / बंमलोए णं भंते ! कप्पे विमाणपुठवी णं पुच्छा, गोयमा ! घणवायपइडिया पण्णत्ता, लंगते णं भंते ! पुच्छा, गोयमा ! तदुभयपइडिया पण्णत्ता, महासुकसहस्सारेसु वि तउभयपइट्ठिया / आणय० जाव अचुएसुणं भंते ! कप्पेसुपुच्छा, गोयमा ! उवासंतरपइट्ठिया पण्णत्ता, गेविजविमाणपुढवीणं पुच्छा, गोयमा ! उवासंतरपइडिया पण्णत्ता, अणुत्तरोव वाइयपुच्छा, गोयमा ! उवासंतरपइडिया पण्णत्ता। (सू० 206+) भदन्त ! सनत्कुमारमाहेन्द्रकल्पयोर्विमानपृथिवी किंप्रतिष्ठिता-- कस्मिन् प्रतिष्ठिता किमाश्रया; किमाधारा इत्यर्थः प्रज्ञप्ता, भगवानाह गौतम ! धनोदधिप्रतिष्ठिता प्रज्ञप्ता, एवं सनत्कुमारमाहेनद्रेषु घनवातप्रतिष्ठिता ब्रह्मलोकेऽपि धनवातप्रतिष्ठिता, लान्तके तदुभयप्रतिष्ठिताघनोदधिधनवातप्रतिष्ठिता, महाशुक्रसहस्रारयोऽपि तदुभयप्रतिष्ठिता, आनतप्राणतारणाच्युतेष्वव-काशान्तरप्रतिष्ठिता-आकाशप्रतिष्ठिता, एवं ग्रैवेयकविमानपृथिवी अनुत्तरविमानपृथिवी च। (उक्तंच-"घणउदहि०" इत्यादि अनुपदमेव) जी० 4 प्रति० 3 उ०1"दुसु तिसु तिसु कप्पेसुघणुदहिघणवायतदुभयं च कमा" इत्यत्रघनोदधिधनवाततदुभयानां तद्वलयानां च विष्कम्भादिप्रमाणं कियदस्ति, कुत्रचेति संदिहानोऽस्ति / तन्निर्णये च तत्रत्यभूमेरपि विष्कम्भायामादिनिर्णयो भवति ? "दुसु तिसु तिकप्पेसु घणुदहिघणवायतदुभयं च कमा' / अत्र घनोदध्यादीनामष्टसुस्वर्गेषु विमानानामाधारतया आगमे प्रतिपादनं दृष्टमस्ति, न तुतेषांपरिमाणवलयानिचाद्ययावदृष्टानि स्मृतिमायान्ति।ही०३ प्रका० / त्रिरवस्थितानि विमानानितिविधा विमाणा पण्णत्ता, तं जहा- अवहिता वेउविता पारिजाणिता। (सू०१८०+) अवस्थितानि-शाश्वतानि वैक्रियाणि-भोगाद्यर्थ निष्पादितानि यतोऽभिहितं भगवत्याम्- "जाहेणं भंते! सक्के देविंद देवराया दिव्वाई भोगभोगाई भुंजिउकामे भवइ से कहमियाणि पकरेइ ? गोयमा ! ताहे चणं से सक्के देविंदे देवराया एगं महं नेमिपडिरूवगं विउव्वइ" नेमिरिति चक्रधारादुद्धृतविमानमित्यर्थः। “एगं जो-यणसयहस्सं आयामविक्खंभेण'' मित्यादि यावत् "पासायवडिंसए सयणिज्जे तत्थ णं से सक्के देविंदे देवराया अद्वहिं अग्गम-हिसीहिं सपरिवाराहिं दोहि य अणीएहिं णट्टाणीएण गंधव्वाणीएण यसद्धिं महया णट्ट० जाव दिव्वाइं भोगभोगाई भुंजमाणे विहरइत्ति" परि-परियानंतिर्यग्लोसवतरणादितत्प्रयोजन
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________________ विमाण 1212 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विमाण येषां तानि पारियानिकानिपालकपुष्पकादीनि वक्ष्यमाणानीति। स्था० 3 ठा०३ उ०1 सौधर्मेशानयोर्विमानपृथिवीसोहम्मीसाणेसु णं भंते ? कप्पेसु विमाणपुटवी किंपइडिया पण्णता? गोयमा ! घणोदधिपइट्ठिया पण्णत्ता। (सू०२०६+) "सोहम्मीसाणेसुणभंते!" इत्यादि सौधर्मेशानयोः, सूत्रे द्विवचनेऽपि बहुवचनं प्राकृतत्वात् / उक्तं च- "बहुवयणेण दुवयणं, छट्ठिविभत्तीऍ भन्नइ चउत्थी। जह हत्था तह पाया, नमोऽत्थु देवाहिदेवाणं' // 1 // जी०४ प्रति०३ उ०। विमानानामन्तराले भूमिरस्तिनवा ? इत्यत्र सा नास्तीति विज्ञायते, यतो भगवत्यादौ नरकसत्काः सप्त ईषत्प्राउभारा चैकेति अटैव पृथिव्य उक्ताः सन्ति। यदि स्वर्गेपि साऽभविष्यत् तदाऽधिकाऽपि उक्ताऽभविष्यदिति। ही० 3 प्रक०।। सोहम्मीसाणेसु बंभलोए यतिसु कप्पेसु चउसहि विमाणावाससयसहस्सा पण्णत्ता। (सू० 644) 'सोहम्मी' त्यादि सौधर्म द्वात्रिंशदीशानेऽष्टाविंशतिः, ब्रह्मलोके च चत्वारि विमानलक्षाणि भवन्तीति सर्वाणि चतुःषष्टिरिति, 'चउसट्ठि लट्ठिए' त्ति चतुःषष्टिर्यष्टीनां शरीराणां यस्मिन्नसौ चतुःषष्टियष्टिकः। स० 65 सम०। विमानानां बाहल्यमुच्चत्वं चसोहम्मीसाणकप्पेसु विमाणपुढवी केवइयं वाहल्लेणं पण्णता? गोयमा! सत्तावीसं जोयणसयाई वाहल्लेणं पण्णत्ता। एवं पुच्छा, सणंकुमारमाहिंदेसुछय्वीसंजोयणसयाई।बंभलंतएसु पंचवीस, महासुबासहस्सारसुचउव्वीसं, आणयपाणयआरणबुएसुतेवीसंसयाई गेविजविमाणपुठवीवावीसं, अणुत्तरविमाणपुढवी एकवीसं जोयणसयाई वाहल्लेणं / (सू०२१०४) 'सोहम्मीसाणेसु णमि' त्यादि सौधर्मेशानयोर्भदन्त ! कल्ययोविमानपृथिवी कियत्- किंप्रमाणा बाहल्येन प्रज्ञप्ता ? भगवानाहगौतम ! सप्तविंशतियोजनशतानि बाहल्येन प्रज्ञप्ता / एवं शेषसूत्राण्यपि भावनीयानि नवरं सनत्कुमारमाहेन्द्रयोः षड्विंशतिर्योजनशतानि वक्तव्यानि / ब्रह्मलोकलान्तकयोः पञ्चविंशतिः, महाशुक्रसहस्रारयोश्चतुर्विंशतिः, आनतप्राणतारणाच्युतकल्पेषु त्रयोविंशतिः, ग्रैवेयकेषु द्वाविंशतिः, अनुत्तरविमानेषु एकविंशतिर्योजनशतानि। संप्रति विमानानामुच्चैस्त्वपरिमाणं प्रतिपिपादयिषुराह - सोहम्मीसाणेसुणं भंते! कप्पेसु विमाणा केवतियं उचत्तेणं? गोयमा! पंच जोयणसयाइं उच्चत्तेणं। (सू०२११+) 'सोहम्मीसाणेसुणमि' त्यादि इह विमानं महानगरकल्पं तस्य चोपरि / वनखण्डप्राकारप्रासादादयस्तत्र पूर्वेण सूत्रकदम्बकेन विमानपृथिवीबाहल्यमुक्तम्, अनेन प्रासादापेक्षया उच्चत्वमुच्यते इति गर्भः / सौधर्मेशानयोर्भदन्त ! कल्पयोर्विमानानि कियत उद्ध्वमुच्चैस्त्वेन प्रज्ञप्तानि? भगवानाह- गौतम ! पञ्च योजनशतानि ऊर्ध्वमुच्चैस्त्वेन प्रज्ञप्तानि मूलप्रसादादीनां तत्र पञ्चयोजनशतोच्छ्रयप्रमाणत्वात् एवं शेषसूत्राण्यपि भावनीयानि। सनत्कुमारमाहेन्द्रयोःसणंकुमारमार्हिदेसु छ जोयणसयाई / (सू० 2114) सनत्कुमारमाहेन्द्रयोः षट् योजनशतानि वक्तव्यानि। जी०३ प्रति०१ उ० स्था०1 ब्रह्मलोकलान्तकयो:बंभलंतएसुसत्त। (सू०२११४) ब्रह्मलोकलान्तकयोः सप्त योजनशतानि / जी०३ प्रति०१ उ०। महाशुक्रसहस्रारयोःमहासुकसहस्सारेसु दोसु कप्पेसु विमाणा अट्ट जोयणसयाई सुंउबत्तेणं पण्णत्ता। (सू०१११४) स०८०० सम01 आणयपाणयआरणऽचुएसु कप्पेसु विमाणा नव जोयणसयाई उडं उच्चत्तेणं पण्णत्ता। सू०२११४) ग्रैवेयकेषुगेवेजगविमाणाणं भंते ! केवइयं उग्रं उबत्तेणं? गोयमा! दस जोयणसयाई / (सू० 2114) ग्रैवेयकेषु दश योजनशतानि। अनुत्तरविमानेषुअणुत्तरविमाणाणं एकारस जोयणसयाई उडं उच्चत्तेणं / (सू० 2114) अनुत्तरेऽवेकादश योजनशतानि सर्वत्रापि विमानानि बाहल्योचत्वमीलनेन च द्वात्रिंशत् योजनशतानि उपर्युपरि बाहल्येनोस्त्वस्य वृद्धर्भावात्, उक्तं च"सत्तावीससयाई, आदिमकप्पेसु पुढविवाहल्लं। एकेकहाणिसेसे, दुदुगेण दुगेच उक्के य। पंचसु उच्चत्तेणं, आइमकप्पेसु हतिय विमाणा। एक्कक्कवुड्डिसेसे, दुदुगेय दुगे चउक्के य। गेविजणुत्तरेसुं, एसेव कमो उबुड्डिहाणीए। एककम्मि विमाणा, दोन्नि वि मिलिया उ वत्तीसं // 3 // जी०३ प्रति०१ उ०। स०। अनुत्तरोपपातिकेषु-- अणुत्तरोववाइयाणं देवाणं विमाणा एक्कारस जोयणसयाइं उद्धं उचत्तेणं पण्णत्ता। (सू०११३४) स०११०० सम०। संस्थानमाहसोहम्मीसाणेसु णं भंते ! कप्पेसु विमाणा किंसंहिता पण्णत्ता? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-आवलियापविट्ठा य, बाहिरा य / तत्थ णं जे ते आवलियापविठ्ठा ते ति
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________________ विमाण 1213- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विमाण विहा पण्णत्ता। तं जहा वट्टा तंसा चउरंसा / तत्थ णं जे ते आवलियबाहिरा ते णं णाणासंठाणसंठिता पण्णत्ता, एवं० जाव गेवेजविमाणा। अणुत्तरोववाइयविमाणा दुविहा पण्त्ता ,तं जहावट्टे य तंसा य / (सू०२१२) 'सोहम्मीसाणेसु णं भंते' इत्यादि सौधर्मशानयोर्भदन्त ! कल्पयोविमानानि किंसंस्थितानि प्रज्ञप्तानि? भगवानाह-गौतम ! द्विविधानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-आवलिकाप्रविष्टानि आवलिकाबाह्यानि च। तत्रावलिकाप्रविष्टानि नामयानि पूर्वादिषु चतसृषु दिक्षु श्रेण्या व्यवस्थितानि, यानि पुनरावलिकाप्रविष्टानां प्राङ्गणप्रदेशे कुसुमप्रकर इव यतस्ततो विप्रकीर्णानि तान्यावलिकाबाह्यानि तानि पुष्पावकीर्णानीत्युच्यन्ते, पुष्पाणीव इतस्ततोऽवकीर्णानिविप्रकीर्णानि पुष्पावकीर्णानि इति व्युत्पत्तिः, तानि च मध्यवर्तिनो विमानेन्द्रस्य दक्षिणतोऽपरत उत्तरतश्च विद्यन्तेन तुपूर्वस्यां दिशि। उक्तंच- 'पुप्फावकिन्नगा, पुण, दाहिणतो पच्छिमेण उत्तरतो। पुव्वेण विमाणिंदस्स नत्थि पुप्फावकिन्ना उ॥१॥' 'तत्थ णमि' त्यादि, तत्रावलिकाप्रविष्टावलिकाबाह्येषु मध्ये यानि तानि आवलिकाप्रविष्टानि तानि त्रिविधानि प्रज्ञाप्तानि, तद्यथा- वृत्तानि त्र्यस्त्राणि चतुरस्राणि। इहावलिकाप्रविष्टानि प्रतिप्रस्तट विमानेन्द्रकस्य पूर्वदक्षिणा परोत्तरूपासुचतसृषु दिक्षु श्रेण्याव्यवस्थितानि, विमानेन्द्रकश्च सर्वोऽपि वृत्तस्ततः पार्श्ववर्तीनिचतसृष्वपि दिक्षुत्र्यस्राणि तेषांपृष्ठतश्चतसृष्वपि दिक्षु चतुरस्राणि तेषां पृष्ठतोवृत्तानि, ततोऽपिभूयोऽपित्र्यस्राणि ततोऽपि चतुरस्राणि, इत्येवमावलिकापर्यन्तस्तत्र त्रिविधान्येवावलिकाप्रविष्टानि। 'तत्थ णमि' त्यादि, तत्र यान्यावलिकाबाह्यानि तानि नानासंस्थानसंस्थितानि प्रज्ञप्तानि, तथाहि-कानिचिन्नन्द्यावर्ताकाराणि, कानिचित्स्वस्तिकाकाराणि, कानिचिद् खङ्गाकाराणीत्यादि। उक्तं च-"आवलियासु विमाणा, वट्टा तसा तहेव चउरंसा / पुप्फावकिन्नगा पुण, अणेगविहरूवसंठाणा।।१।।" एवं तावद्वाच्यं यावद्मवेयकविमानानि तान्येव यावदावलिकाप्रविष्टानामावलिकाबाह्यानां च भावात्, परत आवलिकाप्रविष्टान्येव, तथा चाह- 'अणुत्तरविमाणां णं भंते ! विमाणा किंसंठिया पन्नत्ता' इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगमम् / भगवानाहगौतम ! द्विविधानि प्रज्ञाप्तानि, तद्यथा- 'वट्टे य तंसा य' मध्यवर्तिसर्वार्थसिद्धाख्यं विमानं वृत्तं, शेषाणि विजयादीनि चत्वार्थपित्र्यस्राणि / उक्तं च- 'एग वट्ट तंसा, चउरो य अणुत्तरविमाणा' / जी०३ प्रति०१ उ०। भ०। त्रिसंस्थितानि विमानानि - तिसंठिया विमाणा पण्णत्ता, तंजहा-वट्टा तंसा चउरंसा। तत्थ णं जे तं वट्टा विमाणा ते णं पुक्खरकण्णियासंठाणसंठिया सव्वओ समंता पागारपरिक्खित्ता एगदुवारा पन्नत्ता। तत्थ णं जे ते तंसा विमाणा ते सिंघाडगसंठाणसंठिया दुहओ पागारपरिक्खित्ता एगओ वेदयापरिक्खित्ता तिदुवारापण्णत्ता तत्थ णं जे ते चउरंसविमाणा ते णं अक्खाडगसंठाणसंठिया सव्वओ | समंतावेइयापरिक्खित्ता चउदुवारा पन्नत्ता। (सू०१९०४) 'तिसंठिए' त्यादि, सूत्रत्रयं स्फुटमेव, केवलं त्रीणि संस्थितानि-- संस्थानानि येषां तानि, त्रिभिर्वा प्रकारैः संस्थितानि त्रिसंस्थितानि / 'तत्थ णं' ति येषु मध्ये 'पुक्खरकण्णिए' त्ति पुष्करकर्णिकापामध्यभागः, सा हि वृत्ता समोपरिभागा च भवति। सर्वत इतिदिक्षु समन्तादिति-विदिक्षु 'सिंघाडग' ति त्रिकोणो जलजफलविशेषः, एकतःएकस्यां दिशि यस्यां वृत्तविमानमित्यर्थः 'अक्खाडगो' चतुरस्रः प्रतीत एव, वेदिका-मुण्डप्राकारलक्षणा, एतानि चैवंक्रमाण्येवावलिकाप्रविष्टानि भवन्ति, पुष्पावकीर्णानित्वन्यथाऽपीति। भवन्ति चात्र गाथा:"सव्वेसु पत्थडेसुं, मझे वट्ट अणंतरे तंसं। एयंतर चउरंस, पुणो विवट्ट पुणोतंसं // 1 // वट्ट वट्टस्सुवरिं, तसं तंसस्स उप्परि होइ। चउरंसे चउरंसं, उड्ढेतु विमाणसेढीओ॥२॥ वटुं च वलयगं पित, तसं सिंघाडगं पिय विमाणं। चउरंसविमाणं पिय, अक्खाडगसंठियं भणियं / / 3 / / सव्वे वट्टविमाणा, एगदुवारा हवन्ति विन्नेया। तिनिय तंसविमाणे, चत्तारिय होति चउरंसे।।४।। पागारपरिक्खित्ता, वट्टविमाणा हवंति सव्वे वि। चउरंसविमाणायां चउद्दिसिंवेइया होइ॥५॥ जत्तो वट्टविमाणं, तत्तो तंसस्स वेइया होइ। पागारो बोधव्दो, अवसेसेहिंतु पासेहिं / / 6 / / आवलियासु विमाणा, वट्टा तंसा तहेव चउरंसा। पुप्फावगिन्नया पुण, अणेगविहरूव संठाणा / / 7 / / स्था०३ ठा०३ उ०। अधुना त्वायामविष्कम्भादिपरिमाणप्रतिपादनार्थमाह - सोहम्मीसाणेसु णं भंते ! कप्पेसु विमाणा केवतियं आयामविक्खंभेणं, केवतियं परिक्खेवेणं पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-संखेजवित्थडाय असंखेजवित्थडाय। जहा नरगातहा०जाव अणुत्तरोववातिया संखेज्जवित्थडाय असंखेअवित्थडाय। तत्थणं जे से संखेञ्जवित्थडे से जुबुद्दीवप्पमाणे, तत्थ जे से असंखेजवित्थडा असंखेन्जाइंजोयणसयाई जाव० परिक्खेवेणं पण्णत्ता। (सू०२१३४) "सोहम्मीसाणेसुणं भंते!' इत्यादि, सौधर्मेशानयोर्भदन्त ! कल्पयोविमानानि कियदायामविष्कम्भेन कियत् परिक्षेपेण प्रज्ञप्तानि ? भगवानाह-- गौतम ! द्विविधानि विमानानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथासंख्येयविस्तृतानि, असंख्येय-विस्तृतानि च / तत्र यानि तानि संख्येयविस्तृतानि संख्येयानि योजनसहस्राण्यायामविष्कम्भेन संख्येयानि योजन-सहस्राणि परिक्षेपेण, तत्र यानि तानि असंख्येयविस्तृतानि असंख्येयानि योजनसहस्राण्यायामविष्कम्भेन असंख्येयानि योजनसहस्राणि परिक्षेपेण, एवं तावत् वाच्यं यावत् ग्रैवेयकविमानानि तानियावत् संख्येयविस्तृतानामसंख्येयविस्तृतानां च बा
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________________ विमाण 1214 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विमाण हल्येन भावात् नतु परतः। तथा चाह-'अणुत्तरविमाणे णं भंते ! केवइयं / पंचवण्णा, एक्कगहीणा उ जा सहस्सारे। दो दो तुल्ला कप्पा, तेण परं आयामविक्खंभेणमि' त्यादि प्रश्नसूत्रं सुगमम्। भगवानाह-द्विविधानि पुंडरीया (ओ) इं।।१।।" जी०३ प्रति०१ उ०। प्रज्ञप्तानि, तद्यथा- संख्येयविस्तृतानि असंख्येयविस्तृतानि च / संप्रति प्रभाप्रतिपादनार्थमाह - सर्वार्थासिद्ध संख्येयविस्तृतं शेषाण्यसंख्येयविस्तृतानीति भावः। तत्र - सोहम्मीसाणेसु णं भंते ! कप्पेसु विमाणा के रिसयाए पभाए यत्तत् संख्येयविस्तृतं तत् एकं योजनशतसहस्रमायामविष्कम्भेन त्रीणि पण्णत्ता ? गोयमा ! णिचालोया णिचुञ्जोया सयंपभाए पभाए योजनशत-सहस्राणि षोडश सहस्राणि द्वेशतेसप्तविंशत्यधिके योजनानां पण्णत्ता, जाव० अणुत्तरोववातियविमाणा णिचालोया णिचुञ्जोया क्रोशत्रिकमष्टाविशं धनुःशतं त्रयोदशामुलानि एकम -गुलमिति सयंपभाए पण्णता। (सू०२१३x)। परिक्षेपेण, तत्र यानि तानि असंख्येयविस्तृतानि तानि असंख्येयानि योजनसहस्राण्यायामविष्कम्भेन असंख्येयानि योजनसहस्राणि परि सौधर्मेशानयोर्भदन्त! कल्पयोर्विमानानि कीदृशानि प्रभया प्रज्ञाप्तानि क्षेपेण प्रज्ञप्तानि। जी०३ प्रति०१ उ०॥ कीदृशी तेषां प्रभा प्रज्ञप्तेति भावः / भगवानाह-गौतम! प्रभया प्रज्ञप्तानि नित्यालोकानि नित्यमालोकोदर्शनं दृश्यमानता येषां तानि नित्यालोसंप्रति वर्णप्रतिपादनार्थमाह कानिनतुजातुचिदपि तमसाऽऽश्रियन्त इति भावः। कथं नित्यालोकानि सोहम्मीसाणेसु णं भंते ! विमाणा कतिवण्णा पण्णत्ता ? इति हेतुद्वारेण-विशेषणमाह-नित्योद्योतानि निमित्तकारणहेतुषु सर्वासां गोयमा ! पंचवण्णा पण्णत्ता, तं जहा-किण्हा नीला लोहिया विभक्तीनां प्रायो दर्शनमिति हेतौ प्रथमा, ततोऽयमर्थः- यस्मान्नित्यं हालिद्दा सुकिल्ला / (सू०२१२+) सततमप्रतिघमुद्योतो दीप्यमनता येषां तानि नित्योद्योतानि, तथा ततो 'सोहम्मीसाणेसु णं भंते ! इत्यादि सौधर्मेशानयोर्भदन्त ! नित्यालोकानि, सततमुद्योतमानता च परसापेक्षाऽपि सम्भाव्यते यथा कल्पयोर्विमानानि कतिवण्णानि प्रज्ञप्तानि ? भगवानाह मेरोः स्फटिककाण्डस्य सूर्यरश्मिसंपर्कतस्तत आह-स्वयंप्रभाणि, स्वयं गौतम ! पञ्चवर्णानि, तद्यथा-कृष्णानि नीलानि लोहितानि सूर्यादिप्रभावत् देदीप्यमानता येषां तानि तथा, एवं निरन्तरं तावद्वक्तव्यं हारिद्रांणि शुक्लानि, एवं शेषसूत्राण्यपि भावनीयानि। यावदनुत्तरविमानानि। __ सनत्कुमारमाहेन्द्रयोः सम्प्रति गन्धप्रतिपादनार्थमाहसर्णकुमारमार्हिदेसु चउवण्णा नीला० जाव सुकिल्ला / सोहम्मीसाणेसु णं भंते ! कप्पेस विमाण केरिसया गन्धेणं (सू०२१३+) पण्णत्ता? गोयमा! से जहानामए कोहपुडाण वा०जाव गंधेणं नवरं सनत्कुमारमाहेन्द्रयोश्चतुर्वर्णानि कृष्णवर्णाभावात् / पण्णत्ता, एवं० जाव एत्तो इतरगा चेव० जाव अणुत्तरविमाणा। जी०३ प्रति०१उ०। (सू०२१३४) सणंकुमारमार्हिदेसु णं कप्पेसु विमाणा चउवण्णा पण्णत्ता, तं 'सोहम्मीसाणेसुणं भंते ! इत्यादि सौधर्मेशानयोर्भदन्त ! कल्पयोजहा-णीला लोहिया हालिहा सुकिल्ला। (सू०३७५४) विमानानि कीदृशानि गन्धेन प्रज्ञप्तानि ? भगवानाह- गौतम ! "से 'सणंकुमारे' त्यादिका द्विसूत्री सुगमा चेयं, नवरं सनत्कुमार जहानामए कोट्ठपुडाण वा पंचगपुडाण वादमण-गपुडाण वा कुंकुमपुडाण माहेन्द्रयोश्वतुर्वर्णानि कल्पान्तरेषु त्वन्यथा, तदुक्तम्- "सोहम्मि वा चंदणपुडाण वा उसीरपुडाण वा मरुयापुडाण वा जाईपुडाण वा पंचवण्णा, एक्कगहाणी उ जा सहस्सारे। दो दो तुल्ला कप्पा, तेण परं जूहियापुडाण वा मल्लियापुडाण दाण्हाणमज्जियापुडाण वा केयइपुडाण पुंडरीयाओ॥१॥" द्वयोर्द्वयोः कल्पयोर्वर्णस्य हानिः कार्येत्यर्थः / स्था० वा पा उलिपुडाण वा नोमालियापुडाण वा वासपुडाण वा कप्पूरपुडाण 4 ठा०४ उ०। वा अणुवायंसि उब्भिज्जमाणाण वा कुट्टिजमाणाण वा रुविजमाणाण वा बंभलोगलतएस वि तिवण्णा लोहिया० जाव सुकिल्ला, उक्कीरिजमाणाण वा विक्खरिज्जमाणाण वा परिभुज्जमाणाण वा (सू०२१३ +) परिभाइजमाणा ण वा भंडाओ वा भंडं साहरिजमाणाण वा ओराला ब्रह्मलोकलान्तयोस्त्रिवर्णानि कृष्णनीलवर्णाभावात्।जी०३ प्रति० मणुण्णा मणहराघाणमणनिव्वुइकरा सव्वतो समंता गन्धा अभिनिस्स१ उ०। रंति भवे एयारूवे सिया नो इणद्वे समठे। ते णं विमाणा एत्तो इट्टतरा चेव महासुक्कसहस्सारेसु णं कप्पेसु विमाणा दुवण्णा पन्नत्ता, तं कंततरा चेव मण्णुण्णतरा, चेव मणामतरा चेव गंधेणं पण्णत्ता''। अस्य जहा- हालिहा य सुकिल्ला य / आणयपाणतारणचुएसु व्याख्या पूर्ववत् / एवं निरन्तरं तावद्वक्तव्यं यावदनुत्तरविमानानि। जी० सुकिल्ला, गेविजविमाणा सुकिल्ला, अणुत्तरोववातियविमाणा 3 प्रति०१ उ०। परमसुकिल्ला वण्णेणं पण्णत्ता। (सू०२१३+) स्पर्शप्रतिपादनार्थमाह - महाशुक्रसहस्रारयोर्द्विवर्णानि कृष्णनीलहारिद्रवर्णाभावात्, आनत- सोहम्मीसाणेसु विमाणा के रिसया फासेणं पण्णत्ता, से प्राणतारणाच्युकल्पेषु एकवर्णानि, शुक्लवर्णस्यैकस्य भावात्, ग्रैवेयक- जहानामए आइणेति वा रूतेति वा सव्वो फासो माणियव्वो० विमानानि अनुत्तरविमानानि च परमशुक्लानि / उक्तश्च- "सोहम्मि जाव अणुत्तरोववातियविमाणा।
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________________ विमाण 1215 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विमाण सौधर्मेशानयोर्भदन्त ! कल्पयोर्विमानानि कीदृशानि स्पर्शन प्रज्ञप्तानि ? भगवानाह- गौतम ! "से जहानामए अइणेइ वा रूवेइ वा पूरेइ वा नवणीएइ वा हंसगब्भतुलीइ वा सिरीसकुसुमनिचए वा पवालकुसुमपत्तरासीइ वा भवे एयारूवे ? नो इणढे समझे। तेणं विमाणा इत्तो इट्टतरा चेव कंततराचेव मणुण्णतरा चेवमणामतरा चेव फासेणं पण्णत्ता" इति पूर्ववत् एवं निरन्तरं तावद्वक्तव्यं यावदनुत्तरविमानानि। महत्त्वप्रतिपादनार्थमाहसोहम्मीसाणेसु णं भंते ! (कप्पेस) विमाणा केमहालिया पण्णत्ता ? गोयमा ! अयण्णे जंबूहीवे दीवे सव्वदीवसमुदाणं सो चेव गमो० जाव छम्मासे वीइवएजा० जाव अत्थेगइया विमाणावासा वीइवएज्जा, अत्थेगइया मिवाणावासानो वीइवएखा० जाव अणुत्तरोववातियविमाणा अत्थेगतियं विमाणं वीइवएज्जा अत्थेगतिया नो वीइवएग्जा। (सू०२१३+) 'सोहम्मीसाणेसु णं भंते ! कप्पेसु' इत्यादि सौधर्मेशानयो भदन्त ! कल्पयोर्विमानानि किंमहान्ति- किंप्रमाणमहत्त्वानि प्रज्ञप्तानि ? भगवानाह– 'गौतम ! अयण्णं जंबुद्दीवे दीवे' इत्यादि, जम्बूद्वीपवाक्यं परिपूर्णमेवं द्रष्टव्यम्। "सव्वद्दीवसमुद्दाणं सव्वन्भन्तराए सव्वखुड्डाए वट्टे तेल्लापूपसंठाणसंठिए वट्टपुक्खरकण्णियासंठाणसंठिए वट्टे परिपुण्णचंदसंठाणसंठिए एकंजोयणसयसहस्सं आयामविक्खंभेणं तिन्नि जोयणसहसहस्साइं सोलस सहस्सा दो य सया सत्तावीसा तिन्नि य कोसे अट्ठावीसंधनुसयं तेरह अंगुलाई अद्धंगुलंच किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं पन्नत्ते' इदं च पूर्ववत्भावनीयम्। देवो नाम महर्द्धिको यावन्महानुभावः, यावत्करणान्महाद्युतिरित्यादिपरिग्रहः ! 'जाव इणामेवे' तियावदिदानीमेव अनेन वप्पुटिकात्रयानुकरणपुरस्सरमत्यन्तं कालस्तोकत इति कृत्वा केवलकल्पं परिपूर्णं जम्बूद्वीपं द्वीपं त्रिभिरप्सरोनिपातौस्तिसृभिश्चप्पुटिकाभिरित्यर्थः / त्रिःसप्तकृत्व एकविंशतिवारान् अनुपरिवत्य प्रादक्षिण्येन परिभ्रम्य 'हव्वं'-शीघ्रमागच्छेत्। 'सेणं देवे' इत्यादिसदेवस्तया सकलदेवजनप्रसिद्धया पूर्वदृष्टान्तभावितया उत्कृष्टया अतिशायिन्या 'तुरियाए चवलाए चंडाए सिग्घाएउझुयाए जवणाए छेयाए' अमीषां पदानां व्याख्यानं पूर्ववत्। दिव्यया देवगत्या व्यतिव्रजन् यावदेकाहं वा वाह वा उत्कर्षतः षण्मासान् व्यतिव्रजेत् / तत्रास्त्येककं विमानं यत् व्यतिव्रजेत, अस्त्येककं विमानं यत् न व्यतिव्रजेत्। 'एवं महालियाणं' तिएतावन्ति महान्ति गौतम ! विमानानि प्रज्ञातानि, एवं निरन्तरतावद्व-. क्तव्यं यावदनुत्तरविमानानि। सौधर्मेशानयोर्विमानानि किम्मयानिसोहम्मीसाणेसु णं भंते ! विमाणा किम्मया पण्णत्ता ? गोयमा! सय्वरयणामया पण्णत्ता, तत्थणं बहवे जीवाय पोग्गला य वक्कमति विउक्कमति चयंति उवचयंति सासया णं ते विमाणे दव्वट्ठयाए०जाव फासपनवेहिं असासया०जाव अणुत्तरोववाइया विमाणा। (सू०२१३x) सोहम्मीसाणेसुण मित्यादि सौधर्मेशानयोर्भदन्त ! कल्पयोर्विमानानि किम्मयानि प्रज्ञप्तानि ? भगवानाह- गौतम् ! सर्वात्मना रत्नमयानि अच्छानि यावत्प्रतिरूपाणि 'तत्थ ण' मित्यादि, तत्र तेषु विमानेषु बहवो जीवा पृथिवीकायरूपाः पुद्गलाश्चापनामन्ति- गच्छन्ति व्युत्क्रामन्तिउत्पद्यन्ते। तथा चीयन्ते-चयमुपगच्छन्ति, उपचीयन्ते-उपचयमुपगच्छन्ति। एतत्पुद्गलापेक्षं विशेषणं पुद्गलानामेवं चयोपचयधर्मकत्वात्। शाश्वतानि भदन्त! विमानानिद्रव्यार्थतया प्रज्ञप्तानि, वर्णपर्याय रसपर्यायैर्गन्धपर्यायः स्पर्शपर्यायैरशाश्वतानि प्रज्ञप्तानि। एवं निरन्तरतावद्वक्तव्यं यावदनुत्तरविमानानि। जी० 3 प्रति०१ उ०। शक्रेशानविमानानां नीचोन्नतत्वम् - सकस्स णं भंते ! देविंदस्स देवरनो विमाणेहिंतो ईसाणस्स देविंदस्स देवरनो विमाणा ईसिं उच्चयरा चेव ईसिं उन्नयतरा चेव / ईसाणस्स वा देविंदस्स देवरन्नो विमाणेहिंतो सक्कस्स देविंदस्स देवरनो विमाणा णीययरा चेव ईसिं निन्नयरा चेव ? हंता ? गोयमा ! सक्कस्स तं चेव सव्वं नेयव्वं / से केणटेणं ? गोयमा ! से जहानामएकरयले सिया देसे उचे देसे उन्नए देसे णीए देसे निन्ने से तेणटेणं / (सू० 1234) "उच्चतरा चेव त्ति उच्चत्वं प्रमाणतः 'उन्नयतरा चेव' त्ति उन्नतत्वं गुणतः, अथवा उच्चत्वं प्रासादापेक्षम्, उन्नतत्वं तु प्रासादपीठापेक्षमिति / यचोच्यते- 'पंचस उच्चत्तेणं, आइमकप्पेसु होति उ विमाण' ति तत्परिस्थूलन्यायमङ्गीकृत्यावसेयं, तेन किंचिदुचतरत्वेऽपि तेषां न विरोध इति / 'देसे उच्चे देसे उन्नए' त्ति प्रमाणतो गुणतश्चेति। (ज्योतिषिकायां स्थानानि 'ठाण' शब्दे चतुर्थभागे 1707 पृष्ठे दर्शितानि।) चन्द्रविमानम्चंदविमाणे णं मंते ! किंसंठिते पण्णत्ते ? गोयमा ! अद्धकविहगसंठाणसंठिते सव्वफालितामए अन्भुग्गतभूसितपहसिते वण्णओ, एवं सूरविमाणे वि नक्खत्तविमाणे वि ताराविमाणे वि सवे अद्धकविट्ठ संठाणसंठिते / चंदविमाणे णं भंते ! केवतियं आयामविक्खं भेणं ? के वतियं परिक्खेवेणं ? के वतियं बाहल्लेणं पण्णत्ते ? गोयमा ! छप्पन्ने एगसहिभागे जोयणस्स आयामविक्खंभेणं तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवणं अट्ठावीसं एगसहिभागे जोयणस्स बाहल्लेणं पण्णत्ते / सूरविमाणस्स वि सचेव पुच्छा, गोयमा ! अडयालीसं एगसहिभागे जोयणस्स आयाम-विक्खंभेणं तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं चउवीसं एगसहि-मागे जोयणस्स बाहल्लेणं पन्नत्ते / एवं गहविमाणे वि अद्ध-जोयणं आयामविक्खंभेणं सविसेसं परिक्खेवे कोसं बाहल्लेणं / णक्खत्तविमाणे णंकोसं आयमबिक्खंभेणं तं तिगुणं
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________________ विमाण 1216- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विमाण सविसेसं परिक्खेवेणं अद्धकोसंबाहल्लेणं पण्णत्ते, ताराविमाणे णं अद्धकोसं आयामविक्खंभेणं तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं पंचधणुसयाई बाहल्लेणं पण्णत्ते / (सू०१९७) 'चंदविमाणे णं भंते !' इत्यादि, चन्द्रविमानं भदन्त ! किं संस्थितं' किमिव संस्थितं प्रज्ञप्तम् ? भगवानाह-गौतम! अर्द्धकपित्थसंस्थानसंस्थितम्' उत्तानीकृतमर्द्धकपित्थं तस्येव यत् संस्थानं तेन संस्थितमर्द्धकपित्थसंस्थानसंस्थितम् / आह- यदि चन्द्रविमानमुत्तानीकृताछकपित्थसंस्थानसंस्थितं तत उदयकालेऽस्तमयकाले वा यदि वा तिर्थक्परिभ्रमत्पौर्णमास्यां कस्मात्तदर्द्धकपित्थफलाकारं नोपलभ्यते? कामं शिरस उपरि दूरमवस्थापितस्य परभागादर्शनतो वर्तुलतया दृश्यमानवात्, उच्यते-इहार्द्धकपित्थफलाकारं चन्द्रविमानं न सामस्त्येन प्रतिपत्तव्यं; किन्तुतस्य विमानस्यपीठं, तस्य चपीठस्योपरिचन्द्रदेवस्य ज्योतिश्चक्रराजस्य प्रासादः, सच प्रासादस्तथा कथञ्चनापि व्यवस्थितो यथा पीठेन सह भूयान् वर्तुल आकारो भवति, सच दूरभावादेकान्ततः समवृत्ततया जनानां प्रतिभासते ततो न कश्चिद्दोषः। नचैतत्स्वमनीषिकाया विजृम्भितम्, यत एतदेव जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणेन विशेषणवत्यामाक्षेप-पुरस्सरमुक्तम्- "अद्धकविट्ठागारा, उदयत्थमणम्मि कह न दीसंति। ससिसूराण विमाणा, तिरियक्खेत्ते ठियाणं च ? ||1|| उत्ताणद्धकविट्ठागारं पीढं तदुवरि चपासाओ। वट्टालेखेण ततो, समवट्ट दूरभावातो // 2 // " तथा सर्व निरवशेष स्फटिकविशेषमणिमयं तथाऽभ्युद्गताआभिमुख्येन सर्वतो विनिर्गता उत्सृताः प्रबलतया सर्वासु दिक्षु प्रसृता या प्रभा तया सितम् अभ्युद्गतोत्सृतप्रभासितम्। यावत्करणात्-'विविहमणिरयणभत्तचित्ते वा उद्भूयविजयवैजयन्तीपडागच्छतातिछत्तकलिये तुंगे गगणतलमणुलिहंतसिहरे जालंतररयणपंजलोम्मीलियमणिकणगथूभियागे वियसिय-सयवत्तपुंडरीयतिलगरयणद्धचंदचित्ते अंतोबहिं च सण्हे तवणिज्जवालुयापत्थडेसुहफासे सस्सिरीयरूवे पासाईएदरिसणिज्जे अभिरूवे पडिरूवे' इति, तत्र विविधा-अनेकप्रकारा मणयः चन्द्रकान्तादयो रत्नानि च कर्केतनादीनि तेषां भक्तयो-विच्छित्तिविशेषास्ताभिश्वित्रम्- अनेकरूपवद् आश्चर्यवद्धा विविधमणिरत्नभक्तिचित्रं, तथा वातोद्भूता-वायुकम्पिता विजयः-अभ्युदयस्तत्संसूचिका वैजयन्त्यभिधानाः पताका विजयवैजयन्त्यः, अथवाविजया इति वैजयन्तीयां पार्श्वकणिका उच्यन्ते, तत्प्रधानावैजयन्त्यो विजयवैजयन्त्यः पताकास्ता एव विजयवर्जिता वैजयन्त्यः छत्रातिच्छत्राणि-उपर्युपरिस्थितातपत्राणितैः कलितं वातोद्भूतविजयवैजयन्तीपताकाकलितं तुङ्गम्उचम् अत एवं 'गगणतलमणुलिहंतसिहर' गगनतलमनुलिखद्अभिलङ्घयद् गगनतलानुलिखच्छिखरं, तथा जातानि- जालकानि तानि च भवनभित्तिषु लोके प्रतीतानि तदनन्तरेषु विशिष्टशोभानिमित्त रत्नानि यत्र तज्जालान्तर-रत्नम्। सूत्रे चात्र प्रथमैकवचनलोपो द्रष्टव्यः। तथा पञ्चणद् उन्मीलितमिव- बहिष्कृतमिव पञ्जरोन्मीलितमिव, यथाहि-किल किमपि वस्तुपञ्जराद्-वंशादिमयप्रच्छादनविशेषाद् बहिष्कृतमत्यन्तमविनष्टच्छायत्वात् शोभते; तथा तदपि विमानमिति भावः, तथा मणिकनकानां सम्बन्धिनी स्तूपिका शिखरं यस्य तत् मणिकनकस्तूपिकाकं, तथा विकसितानि यानिशतपत्राणि पुण्डरीकाणि चद्वारादौ प्रतिकृतित्वेन स्थितानि तिलकाश्चभित्त्यादिषु पुण्ड्राणि रत्नम'याश्चार्द्धचन्द्रा द्वारादिषु तैश्चित्रं विकसितशतपत्रपुण्डरीकतिलकरत्नार्द्धचन्द्रचित्रम्, 'अंतो बहिं च सण्हे' इत्यादिअञ्जनपर्वतोपरिसिद्धायतनद्वारवत्, ‘एवं सूरविमाणे वि' इत्यादि, एवं चन्द्रविमानमिव सूर्यविमानमपि वक्तव्यं; ग्रहविमानमपि नक्षत्रविमानमपि ताराविमानमपि,ज्योतिविमानानां प्राय एकरूपत्वात्। 'चंदविमाणे णं भंते!' इत्यादिचन्द्रविमानं भदन्त! कियदायामविष्कम्भेन कियत्परिक्षेपेण कियाहल्येन प्रज्ञप्तम् ? भगवानाह-गौतम! षट्पञ्चाशतमेकषष्टिभागान् योजनस्यायामविष्कम्भेन, तदेवायामविष्कम्भमानं त्रिगुणं सविशेष परिक्षेपेण, अष्टाविंशतिमेकषष्टिभागान् योजनस्य बाहल्येन प्रज्ञप्तम् / 'सूरविमाणे णं भंते !' इत्यादि प्रश्नसूत्रं प्राग्वत्, भगवानाह- गौतम ! अष्टचत्वारिंशतमेकषष्टिभागान्, योजनस्यायामविष्कम्भेन, तदेवायामविष्कम्भमानं त्रिगुणं सविशेष परिक्षेपेण, चतुर्विंशतिमेकषष्टिभागान् योजनस्य बाहल्येन / 'गहविमाणे णं भंते !' इत्यादि प्रश्नसूत्रं तथैव, भगवानाह- गौतम ! अर्द्धयोजनमायामविष्कम्भेन तदेवार्द्धयोजनं त्रिगुणं सविशेष परिक्षेपेण क्रोशं बाहल्येन / 'नक्खत्तविमाणे णं भंते !' इत्यादि प्रश्नसूत्रं तथैव, भगवानाह- गौतम ! क्रोशमेकमायामविष्कम्भेन तदेवायामविष्कम्भपरिमाणं त्रिगुणं सविशेष परिक्षेपेण अर्द्धक्रोशं च बाहल्येन प्रज्ञप्तम् / 'ताराविमाणे णं भंते!' इत्यादि प्रश्नसूत्रं तथैव, भगवानाह- गौतम ! अर्द्धक्रोशमायामविष्कम्भेन तदेवायामविष्कम्भायामपरिमाणं त्रिगुणं सविशेष परिक्षेपेण, पञ्चधनुःशतानि बाहल्येन प्रज्ञप्तम्। एवं परिमाणं च ताराविमानमुत्कृष्टस्थितिकस्य तारादेवस्य सम्बन्धि द्रष्टव्यं, जघन्यस्थितिकस्य तु पञ्चधनुः- शतान्यायामविष्कम्भेन अर्द्धतृतीयानि धनुःशतानिबाहल्येन, उक्तञ्च-तत्त्वार्थभाष्ये- "अष्टचत्वारिंशद्योजनैकषष्टिभागाः सूर्यमण्डलविष्कम्भः; चन्द्रमसः षट्पञ्चाशत्, ग्रहाणामर्द्धयोजनं, गव्यूतं नक्षत्राणां, सर्वोत्कृष्टायास्ताराया अर्द्धक्रोशः, जघन्यायाः पञ्चधनुःशतानि, विष्कम्भार्द्धबाहल्याश्च भवन्ति सर्वे सूर्यादयो नृलोकेः" इति। चंदविमाणेणंभंते! कतिदेवसाहस्सीओपरिवहति? गोयमा !चंदविमाणस्स णं पुरच्छिमेणं सेयाणं सुभगाणं सुप्पभाणं संखतलविमलनिम्मलदधिधणगोखीरफे,णरययणिगरप्पगासाणं (मुहगुलियर्पिगलक्खाणं) थिरलट्ठ (पउह) वट्टपीवरसुसिलिहसुविसिट्ठतिक्खदाढाविडंवितमुहाणं रत्तुप्पलपत्तमउयसुकुमालतालुजीहाणं (पसत्थसत्थवेरुलियभिसंतकक्कडनहाणं) विसालपीवरोरुपडिपुण्णविउलखंधाणं मिउविसयपसत्थसुहुमलक्खणविच्छिपणकेसरसडोवसोभिताणं चंकभितललियपुलियधवलगवि
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________________ विमाण 1217 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विमाण तगतीणं उस्सियसुणिम्मियसुजायअप्फोडियणंगूलाणं वइरामयणक्खाणं वइ-रामयदन्ताणं वइरामयदाढाणं तवणिजजीहाणं तवणिजतालुयाणं तवणिज्ज-जोत्तगसुजोतिताणं कामगमाणं पीतिगमाणं मणोगमाणं मणोरमाणं मणोहराणं अमियगतीसं अमियबलवीरियपुरिसकारपरकमाणं महता अप्फोडियसीहनातीयबोलकलयलरवेणं महुरेण य मणहरेण य पूरिता अंबरं दिसाओ य सोभयंता चत्तारि देवसाहस्सीओ सीहरूवधारिणं देवाणं पुरच्छिमिल्लं बाहं परिवहति / चंदविमाणस्स णं दक्खिणेणं सेयाणं सुभगाणं सुप्पभाणं संखतलविमलनिम्मलदधिघणगोखीरफेणरययणियरप्पगासाणं वइरामयकुंभजुयलसुहितपीवरवरवइरसों डवट्टियदित्तसुरत्तपउमप्पकासाणं अन्भुण्णयगुणा (मुहा) णं तवणिज्जविसालचंचलचलंतचवलकण्णविमलुजलाणं मधुवण्णमिसंतणिद्धापिंगलपत्तलतिवणमणिरयणलोयणाणं अन्भुग्गतमउलमल्लियाणं धवलसरिससंठितणिवणदढ कसिणफासियामयसुजायदंतमुसलोवसोभिताणं कंचणकोसीपविट्ठदंतग्गविमलमणियणरुइरपेरंतचित्तरूवगविरायिताणं तवणिजविसालतिलगपमुहपरिमंडिताणं णाणामणिरयणमुद्धगेवेजबद्धगलयवरभूसणाणं वेरुलियविचित्तदंडणिम्मलवइरामयतिक्खलठ्ठअंकुसकुंभजुयलंतरोदियाणं तवणिजसुबद्धकच्छदप्पियबलुद्धराणं जंबूणयविमलघणमंडलवइरामयलालाललियतालणाणामणिरयणघण्टपासगरयतामयरज्जूबद्धलंबितघंटाजुयलमहुरसरमणहराणं अल्लीणपमाणजुत्तवट्टियसुजातलक्खणपसत्थतवणिजबालगत्तपरिपुच्छणाणं उवचियपडिपुण्णकुम्भचलणलहुविक्कमाणं अंकामयणक्खाणं तवणिज्जतालुयाणं तवणिजजीहाणं तवणिज्जजोत्तगसुजोतियाणं कामकमाणं पीतिकमाणं मणोगमाणं मणोरमाणं मणोहराणं अभियगतीणं अमियबलवीरियपुरिसकारपरकमाणं महया गंभीरगुलगुलाइयरवेणं महुरेणं मणहरेणं पूरेन्ता अंबरं दिसाओ य सोभयंता चत्तारिदेवसाहस्सीओ गयरूवधारीणं देवाणं दक्खिणिल्लं बाहं परिवहति / चंदविमाणस्स णं पञ्चत्थिमेणं सेताणं सुभगाणं सुप्पमाणं चंकमियललियपुलितचल-चवलककुदसालीणं सण्णयपासाणं संगयपासाणं सुजायपासाणं मियमाइतपीणरइतपासाणं झसविहंगसुजातकुच्छीणं पसत्थणिद्धमधुगुलितमिसंतपिंगलक्खाणं विसालपीवरोरुपरिपुण्णविपुलखंधाणं वठ्ठपडिपुण्णविपुलकवोलकलिताणं घणणिचितसुबद्धलक्खणुण्णतईसिआणयवसभोट्ठाणं चंकमितललितपुलियचकवालचवलगव्वितगतीणं पीवरोरुवट्टियसुसंठित कडीणं ओलंबपलंबलक्खणपमाणजुत्तपसत्थरमणिजवालगंडाणं समखुरवालधारीणं समलिहिततिक्खग्गसिंगाणं तणुसुमसुजातणिद्धलोमच्छविधराणं उवचितमंसलविसालपडि पुण्णखुद्दपमुहपुंडराणं (खंधपएससुंदराणं) वेरुलियमिसंतकडक्खसुणिरिक्खणाणं जुत्तप्पमाणप्पधाणलक्खणपसत्थरमणिज्जगग्गरगलसोभिताणं घग्घरगसुबद्धकण्ठपरिमंडियाणं नाणामणिकणगरयणघण्टवेयच्छगसुकयरतियमालियाणं वरघंटागलगलियसोभंतसस्सिरीयाणं पउमुप्पलभसलसुरभिमालाविभूसिताणं वइरखुराणं विविधविखुराणं फालियामयदंताणं तवणिजीहाणं तवणिज्जतालुयाणं तवणिज्जजोत्तगसुजोतियालं कामकमाणं पीतिकमाणं मणोगयाणं मणोरमाणं मणोहराणं अमितसतीणं अमियबलवीरियपुरिसयारपरकमाणं महया गंभीरगजियरवेणं मधुरेण य मणहरेण य पूरता अंबरं दिसाओय सोभयंता चत्तारि देवसाहस्सीओ वसभरूवधारिणं देवाणं पचत्थिमिल्लंबाह परिवहंति। चंदविमाणस्सणं उत्तरेणं सेयाणं सुभगाणं सुप्पमाणं जाणंतरमल्लिहायणाणं हरिमेलामदुलमल्लियच्छाणं घणणिचितसुबद्धलक्खगुण्णताचंकमि (चंचुचि) यललियपुलियचलचवलचंचलगतीणं लंघणवग्गणधावणधारणतिवइजईण सिक्खितगईणं सण्णत्तपासाणं ललंतलामगलायवरभूसणाणं सण्णयपासाणं संगतपासाणं सुजायपासाणं भितमायितपीणरइयपासाणं झसविहगसुजातकुच्छीणं पीणपीवरवट्टितसुसंठितकडीणं ओलंबपलंबलक्खणपमाणजुत्तपसत्थरमणिजबालगंडाणं तणुसुहुमसुजायणिद्धलोमच्छविधराणं मिउविसयपसत्थसुहुमलक्खणविकिण्णकेसरवालिधराणं ललियसविलासगति (ललंतथासगल) लाडवरभूसणाणं मुहमंडगोचूल-चमरथासगपरिमंडियकडीणं तवणिजखुराणं तवणिज-जीहाणं तवणिज्जतालुयाणं तवणिजोत्तगसुजोतियाणं कामगमाणंपीतिगमाणं मणोगमाणं मणोरमाणं मणोहराणं अमितगतीणं अमियबलवीरियपुरिसयारपरकमाणं महया हयहेसियकिलकिलाइयरवेणं महुरेणं मणहरेण य पूरेता अंबरं दिसाओ य सोमयंता चत्तारि देवसाहस्सीओहयरूवधारीणं उत्तरिल्लं बाहं परिवहति // (सू०१९८४) 'चंदविमाणे णे भंते !' इत्यादि, चन्द्रविमानं णमिति वाक्याङ्कारे भदन्त ! कति देवसहस्राणि परिवहन्ति ? भगवानाह- गौतम ! षोडश देवसहस्राणि परिवहन्ति, तद्यथा पूर्वेण-पूर्वतः, एवं दक्षिणेन पश्चिमेन उत्तरेण / तत्र पूर्वेण सिंहरूपधारिणां देवानां चत्वारि सहस्राणि परिवहन्ति / दक्षिणेन गजरूपधारिणां देवानां चत्वारि सहस्राणि, पश्चिमेन वृषभरूपधारिणां देवानां चत्वारि सहस्राणि, उत्त
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________________ विमाण 1218- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विमाण रेणाश्वरूपधारिणां देवानां चत्वारि देवसहस्राणि / इयमत्र भावना-- चन्द्रादिविमानानि तथा जगत्स्वाभाव्यान्निरालम्बनान्येव वहन्तिअवतिष्ठन्ते, केवलमाभियोगिका देवास्ते तथाविधनामकर्मोदयवशात् समानजातीयानां हीनजातीयानां वा निजस्फातिविशेषप्रदर्शनामात्मानं बहु मन्यमानाः प्रमोदभृतः सततवहनशीलेषु विमानेष्वधः स्थित्वा केचित्सिंहरूपाणि केचिद् गजरूपाणि केचिद् वृषभरूपाणि केचिदश्वरूपाणि कृत्वातानि विमानानि वहन्तिानचैतदनुपपन्नं, यथाहि-कोऽपि तथाविधाभियोग्यनामकर्मोपभोगभागी दासोऽन्येषां समानजातीयानां हीनजातीयानां वा पूर्वपरिचितानामेवमहं नायकस्यास्य सुप्रसिद्धस्य संमत इति निजस्फातिविशेषप्रदर्शनार्थं सर्वमपि स्वोचितं कर्म नायकसमक्षं प्रमुदितः करोति, तथा आभियोगिका देवास्तथाविधाभियोग्यनामकर्मोपभोगभाजः समानजातीयानां हीनजातीयानां वा देवानामन्येषामेवं वयं समृद्धा यत्सकललोकप्रसिद्धानां चन्द्रादीनां विमानानि वट्टाम इति / निजस्फातिविशेषप्रदर्शनार्थमात्मानं बहु मन्यमाना उक्तप्रकारेण चन्द्रादिविमानानि वहन्ति / एवं सूर्यादिविमानविषयाण्यपि सूत्राणि भावनीयानि जी०३ प्रति०२ उ०ा जं०। अस्थि णं भंते ! विमाणाई सोत्थियाणि सोत्थियावत्ताई सोत्थियपभाई सोत्थियकन्ताइं सात्थियवन्नाइं सोत्थियलेसाई सोस्थियझयाई सोथिसिंगाराइं सोस्थिकूडाई सोत्थिसिट्ठाई सोत्युत्तरवडिंसगाई ? हंता अत्थि। तेणं भंते ! विमाणा के महालयापण्णत्ता, गोयमा! जावतिएणं सूरिए उदेति जावइए णं च सूरिए अत्थमेति एवतिया तिण्णोवासंतराई अत्थेगतियस्स देवस्सएगे विकमे सिता, सेणं देवे ताए उनिहाए तुरियाए० जाव दिव्वाए देवगतीए वितीवयमाणे २,०जाप एकाहं वा दुयाहं बाउकोसेणं छम्मासा वितीवएजाअत्यंगतिया विमाणं वितीवइजा अत्थेगतिया विमाणं नो वितीवएजा, एमहालता णं गोयमा! ते विमाणा पण्णता, अत्थिणं भंते ! विमाणाई अचीणि अचिएवत्ताई तहेव० जाव अचुत्तरवडिंसगाति, हंता अत्थि, ते विमाणा के महालता पण्णता? गोयमा! एवं जहा सोत्थी (माई) णि णवरं एगतियाइं पंच उवासंतराइं अत्थेगतियस्स देवस्स एगे विकम्मे सिता सेसं तं चेव / अस्थि-णं भंते ! विमाणाई कामाई कामवत्ताइं० जाव कामुत्तरवडिंसयाई? हंता अस्थि ते णं भंते ! विमाणा के महालया पण्णत्ता ? गोयमा ! जहा सोत्थी णि णवरं सत्त उवासंतराई विक्रमे सेसं तहेव / / अस्थि णं मंते ! विमाणाई विजयाई वैजयंताई जयंताई अपराजिताई? हंता अत्थि, तेणं मंते / विमाणा के महालया ? गोयमा! जावतिए सूरिए उदेह एयाइ नव उवासंतराई सेसं तं चेव नो चेवणं ते विमाणे वीइवएज्जा एमहालया णं विमाणा पण्णत्ता समणाउसो ! (सू०६९) 'अस्थि णं भंते ! इत्यादि, अस्तीति निपातो बह्वर्थे, सन्ति-विद्यन्तेणमिति वाक्यालङ्कारे, विमानानि-विशेषतः पुण्यप्राणिभिर्मन्यन्ते तद्गतृसौख्यानुभवनेनानुभूयन्ते इति विमानानि, तान्येव नामग्राहमाहअर्चीषि-अर्चिर्नामानि, एवमर्चिरावर्तानि अर्चिःप्रभाणि अर्चिःकान्तानि -अर्चिवर्णानि अर्चिलेश्यानि अर्चि+जानि अर्चिः शृङ्गाराणि अर्चिःसृ (शि) ष्टानि अर्चिःकुटानि अर्चिरुत्तरावतंसकानि सर्वसंख्यया एकादश नामानि। भगवानाह- 'हंता अत्थि' हन्तेति प्रत्यवधारणे अस्तीति निपातो वह्वर्थे सन्त्येवैतानि विमानानीति भावः / 'के महालया ण' मित्यादि, किंमहान्ति कियत्प्रमाणमहत्त्वानि / णमिति पूर्ववत् भदन्त ! तानि विमानानि प्रज्ञप्तानि ? भगवानाह- गौतम ! 'जाव य उएइ सूरो,' इत्यादि, जम्बूद्वीपे सर्वोत्कृष्ट दिवसे सर्वाभ्यन्तरे मण्डले वर्तमानः सूर्यो यावति क्षेत्रे उदेति यावति च क्षेत्रे सूर्योऽस्तमुपयाति, एतावन्ति त्रीणि अवकाशान्तराणि, उदयास्तमितप्रमितमधिकृतं क्षेत्रं त्रिगुणमित्यर्थः अस्त्येतद्-बुद्ध्या परिभावनीयमेतद्यथैकस्य विवक्षितस्य देवस्यैको विक्रमः स्यात् तत्र जम्बूद्वीपे सर्वोत्कृष्ट दिवसे सूर्य उदेति सप्तचत्वारिंशत्सहस्राणि द्वेशते त्रिषष्ट्यधिके योजनानामेकस्य चयोजनस्यैकविंशतिः षष्टिभागा एतावति क्षेत्रे, उक्तञ्च- "सीयालीससहस्सा, दोण्णि सया जोयणाणं तेवट्ठी। इगवीससट्ठिभागा, काडमाइम्मि पेच्छ नरा॥१॥" 47263 / 21/60, एतावत्येव क्षेत्रे तस्मिन् सर्वोत्कृष्ट दिवसेऽस्तमुपयाति / तत एतत्क्षेत्रं द्विगुणीकृतमुदयास्तापान्तरालप्रमाणं भवति, तचैतावत्- चतुर्नवतिः सहस्राणि पञ्च शतानि षड्विशत्यधिकानि योजनानामेकस्य, च योजनस्य (च) द्वाचत्वारिंशत्षष्टिभागाः 64526 / 42/60 एतावित्रिगुणीकृतं यथोक्तविमानपरिमाणकरणाय देवस्यैको विक्रमः परिकल्प्यते। स चैवंप्रमाणः-द्वेलक्षे त्र्यशीतिः सहस्राणि पञ्च शतानि अशीयधिकानि योजनानाम् एकस्य च योजनस्य षष्टिभागाः षट् 283580 / 6/90 इति। 'से णं देवे' इत्यादि स-विवक्षितो देवः तया-सकलदेवजनप्रसिद्धया उत्कृष्टया त्वरितया चपलया चण्डयाशीघ्रया उद्धतयाजवनया छेकया दिव्यया देवगत्या, अमीषां पदानामर्थः प्राग्वद्भावनीयः, व्यतिव्रजन् व्यतिव्रजन् जघन्यत एकाहं वा व्यहं वा यावदुत्कर्षतः षण्मासान् यावद् व्यतिव्रजेत्- गच्छेत् / तत्रैवं गमने अस्त्येतद्यथैकं किञ्चन विमानं पूर्वोक्तानां विमानानांमध्ये व्यतिव्रजेत्अतिक्रामेत्, तस्य पारं लभेतेति भावः। तथा अस्त्येतद्यथैककं विमानं नव्यतिव्रजेत, नतस्यपारंलभेत। उभयत्रापि जाता-वेकवचनं, ततोऽयं भावार्थः-उक्तप्रमाणेनापि क्रमेण यथोक्तरूपयाऽपिच गत्या षण्मासानपि यावदधिकृतो देवो गच्छति तथापि, केषाञ्चिद्विमानानां पारंलभते केषाञ्चित् पारं न लभते इति एतावन्महान्ति तानि विमानानि प्रज्ञप्तानि हेश्रमण ! हेआयुष्मन्! 'अत्थिणं भंते!' इत्यादि,सन्तिभदन्त! विमानानिस्वस्तिकानिस्वस्तिकावर्तानि स्वस्तिकप्रभाणि स्वस्तिककान्तानि स्वस्तिक
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________________ विमाण 1219 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विमाणवास वर्णानि स्वस्तिकलेश्यानि स्वस्तिकध्वजानि स्वसितकशृङ्गाराणि स्वस्तिकशिष्टानि स्वस्तिककूटानि स्वस्तिकोत्तरावतंसकानि? 'हंता अत्थि' इत्यादि, समस्तं प्राग्वत, नवरमत्र एवइयाइंपंच ओवासंतराई' इति कण्ठ्यम्, उदयास्तापान्तरालक्षेत्रं पञ्चगुणं क्रियत इति भावः / 'अस्थि णं भंते !' इत्यादि, सन्ति भदन्त ! विमानानि कामानिकामावर्तानिकामप्रभाणि कामकान्तानि कामवर्णानि कामलेश्यानि कामध्वजानि कामशृङ्गाराणि कामशिष्टानि कामकूटानि कामोत्तरावतंसकानि? 'हंता अत्थि' इत्यादि सर्व पूर्ववत्, नवरमत्रोदयास्तापान्तरालक्षेत्र सप्तगुणं कर्त्तव्यं, शेषं तथैव / 'अस्थि णं भंते !' इत्यादि, सन्ति भदन्त ! विजयवैजयन्तजयन्तापराजितानि विमानानि ? 'हंता अत्थी' त्यादि, प्राग्वत्, नवरमत्र एवइयाई' नव ओवासंतराई' इति वक्तव्यं शेषं तथैव / उक्तञ्च"जावइ उदेइ सूरो, जावइ सो अत्थमेइ अवरेणं। तिय पण सत्त नवगुणं, काउंपत्तेय पत्तेयं / / 1 / / सीयालीससहस्सा, दो य सया जोयणाण तेवट्ठा। इगवीससद्विभागा, कक्खडमाइम्मि पेच्छ नरा // 2 // एयं दुगुणं काउं, गुणिज्जए तिपणसत्तमाईहिं। आगयफलं च जंतं, कमपरिमाणं वियाणाहि // 3 // चत्तारि वि सकमेहि, चंडादिगईहि जंति छम्मासं। तह वि य न जंति पारं, केसिं चि सुरा विमाणाणं || जी०३ प्रति०१ उ०1 विमाणपत्थड-पुं०(विमानप्रस्तट) विमानसम्बन्धिषु घनसमभागेषु, सौधर्मेशानयोस्त्रयोदश विमानप्रस्तटा भवन्ति। सनत्कुमारमाहेन्द्रयो दश, ब्रह्मलोके षट्, लान्तके पञ्च, शुक्रे चत्वारः, एवं सहस्रारे आनतप्राणतयोश्चत्वारः, एवमारणाच्युतयोऎवेयकेष्वधस्तनमध्यमोपरिमेषु त्रयः, अनुत्तरेषु इक इति द्विषष्टिस्ते भवन्ति। स०॥ सवे वेमाणियाणं वासट्टि विमाणपत्थडापत्थडग्गेणं पण्णत्ता। (सू०६२४) 'सव्वे' त्ति सर्वे वैमानिकानां देवविशेषाणां संम्बन्धिनो द्विषष्टिविमानप्रस्तटा- विमानप्रतराः प्रस्तटाग्रेण प्रस्तटपरिमाणेन प्रज्ञप्ता इति / सं०६२ सम०। साधुचर्याफलभोक्तृस्थानविशेषमाहबंभलोए णं कप्पे छ विमाणपत्थडा, पण्णत्ता,तं जहा-अरए विरए नीरए निम्मले वितिमिरे विसुद्धे / (सू०५१६) 'बंभलोए' त्ति पञ्चमदेवलोके षडेव विमानप्रस्तटाः प्रज्ञप्ताः, आहच-"तेरस वारस ३छ पंच५, चेव ६चत्तारिचउसुकप्पेसु॥१॥गेविजेसु तिय तिय, ३-३-३-एगो य अणुत्तरेसु 1 भवे।" इति १३-१२--६५-१६-६-१-सर्वेऽपि 62 द्विषष्टिः। स०४ समा तद्यथा--'अरजा' इत्यादि सुगममेवेति। स्था०६ ठा०३ उ०। विमाणपविभत्ति-स्त्री०(विमानप्रविभक्ति) आवलिकाप्रविष्ट तरविभ जनं यस्यां ग्रन्थपद्धत्तौ सा विमानप्रविभक्तिः। अङ्गबाह्यकालिकतभेदे साच द्विधाएकाऽल्पग्रन्थार्था, तथाऽन्या महाग्रन्थार्था। अतः क्षुल्लिकाविमानप्रविभक्तिमहती विमान-प्रविभक्तिरिति / पा० नं०। व्य० खुडियाए णं विमाणपविभत्तीय ताइए वग्गे चत्तालीसं उद्देसणकाला पण्णत्ता। (सू०४०x) महालियाए णं विमाणपविभत्तीए पढमे वग्गे एकचत्तालीसं उद्देसणकाला पण्णत्ता। (सू०४१+) स०४१ सम०। विमाणभवण-न०(विमानभवन) विमानाकारे भवने, "विमाणभवणं सुविणे पासइ" विमानाकारं भवनं विमानभवनम्, अथवा देवलोकाद् योऽवतरति तन्माता विमानां पश्यति, यस्तुनरकात्तन्माता भवनमिति। भ० 11 श०११ उ०। कल्प। विमाणवरपॉडरीय-न०(विमानवरपुण्डरीक) विमानवरेषु मध्येषु पुण्डरीकमिव, अत्युत्तमत्वात्। विमानोत्तमे, कल्प०१ अधि०३ क्षण। विमाणवास-पुं०(विमानवास) सुरलोके, आव० 3 अ०भ०। सोहम्मे णं भंते / कप्पे केवइया विमाणवांसा पण्णत्ता ? गोयमा वित्तीसं विमाणवाससयसहस्सा पण्णत्ता, एवं ईसाणाइसु अट्ठावीसवारसअचत्तारिएयाइंसयसहस्साईपण्णासं चत्तालीसं छ एयाई सहस्साइं आणए पाणए चत्तारि आरणाए तिण्णि, एयाणि सयाणि / एवं गाहाहिं भाणियव्वं / (स० 150+) स० 150 सम०। वत्तीसहावीसा, वारस अहवरो सहसहस्सा। पन्ना चत्तालीसा, छच सहस्सा सहस्सारे // 1 // आणयपाणयकप्पे, चत्तारिसयाऽऽरणधुए तिनि। सत्त विमाणसयाई, चउसु वि एएसु कप्पेसुं // 2 // एकारसुत्तरं हे-हिमेसु सत्तुत्तरं सयं च मज्झिमए। सयमेगं उवरिमए, पंचेव अणुत्तरविमाणा // 3 // (सू०५३) भ०१०५ उ०। "सोहम्मे णं भंते ! कप्पे केवइया विमाणावासा पण्णत्ता? गोयमा ! वत्तीसं विमाणावाससयसहस्सा पण्णत्ता" एवमीशानादिष्वपि द्रष्टव्यम्। एतदेवाह- 'एवं ईसाणाइसु' त्ति एवं गाहार्हि भाणियव्वं' ति 'वत्तीस अट्ठवीसा' इत्यादिकाभिः पूर्वोक्तगाथाभिस्तदनुसारेणेत्यर्थः / प्रतिकल्पं भिन्नपरिमाणा विमानावासा भणितव्यास्तद्वर्णकश्च वाच्यः 'जाव तेणं विमाणे' त्यादि यावत्पडिरूवा, नवरमभिलापभेदोऽयं यथा-"ईसाणे णं भंते ! कप्पे केवइया विमाणावाससयसहस्सा पण्णत्ता, गोयमा ! अट्ठावीसं विमाणावाससयसहस्सा भवंतीति मक्खाया। तेणं विमाणा० जाव पडिरूवा'' एवं सर्वं पूर्वोक्तगाथानुसारेण प्रज्ञापनाद्वितीयपदानुसारेण च वाच्यमिति। (सू० 150) स०१५० सम०।
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________________ विमाणवास 1220- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विमुत्ति . सोहम्मीसाणेसु दोसु कप्पसु सर्हि विभाणा (ण) नामसयसहस्सा पण्णत्ता। (सू०६०४) सट्टि' त्ति सौधर्मे द्वात्रिंशदीशाने चाष्टाविंशतिर्विमानलक्षाणीति कृत्वा षष्टिस्तानि भवन्तीति। स०६० सम०। ईसाणे णं कप्पे अट्ठावीसं विमाणावाससयसहस्सा पण्णत्ता।। (सू०२८४) स०२८ सम०। सोहम्मसणंकुमारषार्हिदेसुतिसुकप्पेसु वावन्नं विमाणावाससयसहस्सा पण्णत्ता। (सू०५२) स०५२ सम०। सहस्सारे णं कप्पे छ विमाणवासहस्सा पण्णत्ता / (सू० 116x) स० 116 सम०। माहिदे णं कप्पे अट्ट विमाणावाससयसहस्सा पण्णत्ता / (सू०१३१) स०। लंतए कप्पे पन्नासं विमाणावाससहस्सा पण्णत्ता। (सू०५०x) स०५० सम०। विमाणावलिया-स्त्री०(विमानावलिका) आवलिकाप्रविष्टेषु ग्रैवेयकादि विमानेषु, प्रज्ञा०२ पद। विमाणोववण्णग-पुं०(विमानोपपन्नक) विमानेषु-सामान्यरूपेषूपपन्नो विमानोपपन्नकः ।जी०३ प्रति०४ अधि० ग्रैवेय-कानुत्तरलक्षणविमा नोपपन्ने कल्पातीते वैमानिकभेदे, स्था०२ ठा०२ उ०। विमाया स्त्री०(विमात्रा) विविधा मात्रा विमात्रा। सूत्र० 1 श्रु०२ अ०। अनेकविधमात्रायाम, विशे०। विभिस्स-त्रि०(विमिश्र) युक्ते, विशे० आचा०। विमुउल-त्रि०(विमुकुल) विकसिते, नं०। औ०। ज्ञा०। विमुक-त्रि०(विमक्त) निःसङ्गे, आचा०२ श्रु०४ चू०।लोभद्वेषत्यक्ते, प्रश्न०३ संव० द्वार! आचा०। विमुक्कसंधिबंधण-त्रि०(विमुक्कसन्धिबन्धन) श्लथीकृतसन्धाने, भ०६ श०३३ उ०। श्लथीकृताङ्गसन्धाने, प्रश्न०१आश्र० द्वार। विमुत्त-त्रि०(विमुक्त) विविधं मुक्तः।अनेकैः प्रकारैर्मुक्ते,("विमुत्ता हु ते जणा'' इत्यादिसूत्रम् (74) 'लोगवियज' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 727 पृष्ठे व्याख्यातम्।) विमुत्तया-स्त्री०(विमुक्तता) धर्मोपकरणेष्वपि अमूर्छायाम, दश०७ अ०। विमुत्ति-स्त्री०(विमुक्ति) मोक्षे, आचा० / निक्षेपः- चतुर्थचूडारूपं विमुक्तयध्ययनमारभ्यते। अस्य चायमभिसम्बन्धः, इहानन्तरं महाव्रतभावनाः प्रतिपादिताः, तदिहाप्यनित्यभावना प्रतिपाद्यते, इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्याध्ययनस्य चत्वार्यनुयोगद्वाराणि भवन्तिातत्रोपक्रमान्तर्गतमर्थाधिकारं दर्शयितुं नियुक्तिकृदाह अणिधे पव्वए सप्पे, भुयगस्स तहा महासमुद्दे य। एए खलु अहिगारा,अज्झयणम्मी विमुत्तीए॥३४॥ अस्याध्ययनस्यानित्यत्वाधिकारः तथा पर्वताधिकारः पुना रूप्याधिकारः तथा भुजगत्वगधिकार एवं समुद्राधिकारश्च इत्येते पञ्चाधिकारास्तांश्च यथायोगसूत्र एव भणिष्याम इति। नामनिष्पन्ने तु निक्षेपे विमुक्तिरिति नाम, अस्य च नामादिनिक्षेपः उत्तराध्ययनान्तःपाति विमोक्षाध्यनवदित्यतिदेष्टुं नियुक्तिकार आहजो चेव होइ मुक्खो, साउ विमुत्तिपगयं तु भावेणं / देसविमुका साहू, सव्वविमुक्का मवे सिद्धा॥२४३।। य एव मोक्षः सैव विमुक्तिः, अस्याश्च मोक्षवनिक्षेप इत्यर्थः / प्रकृतम् अधिकारो भावविमुक्त्येति / भावविमुक्तिस्तु देश-सर्वभेदात् द्वेधातत्र देशतः साधूनां भवस्थकेवलिपर्यन्तानां, सर्वविमुक्तास्तु सिद्धा इति, अष्टविधकर्मविचटनादिति। सूत्रानुगमे सूत्रमुचारयितव्यम्। तचेदम् -- अणिबमावासमुविंतिजंतुणो, पलोयए सुचमिणं अणुत्तरं। विउस्सरे विन्नु अगारबंधणं, अभीरु आरंभपरिग्गहंचए।।१।। आ वसन्त्यस्मिन्नित्यावासो- मनुष्यादिभवस्तक्ष्छरीरं वा तमनित्यमुप-सामीप्येन यान्ति- गच्छन्ति जन्तवः-प्राणिन इति, चससृष्वपि गतिषु यत्र यत्रोत्पद्यन्ते तत्र तत्रानित्यभावमुपगच्छन्तीत्यर्थः / एतच मौनीन्द्रप्रवचनमनुत्तरं श्रुत्वा, प्रलोकयेत्-पर्यालोचयेद्, यथैव प्रवचनेऽनित्यत्वादिकमभिहितं तथैव लक्ष्यते-दृश्यते इत्यर्थः / एतच श्रुत्वा प्रलोक्य च विद्वान् व्युत्सृजेत्-परित्यजेत् अगारबन्धनं–गृहपाशं पुत्रकलनधनधान्यादिरूपम् / किम्भूतः सन् ? इत्याह- अभीरु:सप्तप्रकास्भयरहितः परीषहोपसर्गाप्रधृष्यश्च आरम्भंसावद्यमनुष्ठान परिग्रहं च सवाह्याभ्यन्तरं त्यजेदिति॥१॥ साम्प्रतं पर्वताधिकारेतहागयं भिक्खुमणंतसंजयं, अणेलिसं विनु चरंतमेसणं। तुदंति वायाहि अमिहवं नरा, सरेहि संगामगयं व कुंजरं / / 2 / / तथाभूतं साधुम्-अनित्यत्वादिवासनोपेतं व्युत्सृष्टगृहबन्धनं त्यक्तारम्भपरिग्रह, तथाऽनन्तेष्वेकोन्द्रियादिषु सम्यग्यतः संयतस्तम् अनीदृशम्-अनन्यसदृशं विद्वांसं-जिनागम-गृहीतसारम् एषणायां चरन्तंपरिशुद्धाहारादिनां वर्तमानं तमित्थंभूतं भिक्षु नराः- मिथ्यादृष्टयःपापोपहतात्मानः वाग्भिः-असभ्यालापैः तदुन्तिव्यथन्ते, पीडामुत्पादयन्तीत्यर्थः, तथालोष्ठप्रहारादिभिरभिद्रवन्ति च। कथमिति दृष्टान्तमाह-शरैः संग्रामगतं कुञ्जरमिव // 2 //
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________________ विमुत्ति 1221 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विमुत्ति अपिचतहप्पगारेहि जणेहिं हीलिए, ससद्दफासा फरासाउईरिया। तितिक्खए नाणि अदुट्ठचे यसा, गिरिव वाएणन संपवेयए॥३॥ तथाप्रकारैः-अनार्यप्रायैर्जनैः हीलितः-कदर्थितः, कथं? यतस्तै परुषास्तीवाः सशब्दाः-साक्रोशाः स्पर्शाः-शीतोष्णादिका दुःखोत्पादका उत्-प्राबल्येनेरिता-जनिताः कृता इत्यर्थः, ताँश्च स मुनिरेवं हीलितोऽपि तितिक्षते-सम्यक्सहते, यतोऽसौज्ञानीपूर्वकृतकर्मण एवायं विपाकानुभव इत्येवं मन्यमानः, अदुष्टचेताः-अकलुषान्तःकरणः सन् न तैः संप्रवेपते-नकम्पते गिरिरिव वातेनेति // 3 // __ अधुना रूप्यदृष्टान्तमधिकृत्याह-- उवेहमाणे कुसलेहि संवसे, __ अकंतदुक्खी तसथावरा दुही। अलूसए सव्वसहे महामुणी, तहाहि से सुस्समणे समाहिए।।। उपेक्षमाणः-परीषहोपसर्गान् सहमान इष्टानिष्टविषयेषु वोपेक्षमाणोमाध्यस्थ्यमवलम्बमानः कुशलैः- गीतार्थः सह संवसेदिति। कथम् ? अकान्तम्-अनभिप्रेतंदुःखम्-असातावेदनीयं तद्विद्यते येषां त्रसस्थावरणांतान् दुःखिन-स्त्रसस्थावारान् अलूषयन्-अपरितापयन् पिहिताश्रवद्वारः पृथ्वीवत्सर्वसहः-परीषहोपसर्गसहिष्णुः महामुनिः-सम्यग् जगत्त्रयस्वभाववेत्ता तथा ह्यसौ सुश्रमण इति समाख्यातः॥४|| किशविऊ नए धम्मपयं अणुत्तरं, विणीयतण्णस्स मुणिस्स झायओ। समाहियस्सऽम्गिसिहावतेयसा, तवो य पन्ना य जसो य वह / / 5 / / विद्वान्-कालज्ञः नतः-प्रणतः प्रहः, किंतत् ?-धर्मपदम्-क्षान्त्यादिकं, किंभूतम् ?- अणुत्तरम्-प्रधानमित्यर्थः, तस्य चैवंभूतस्य मुनेविंगततृष्णस्य ध्यायतो धर्मध्यानं समाहितस्य- उपयुक्तस्याग्निशिखावत्तेजसा ज्वलतस्तपः प्रज्ञा यशश्च वर्द्धत इति // 5 // तथादिसो दिसंऽणंतजिणेण ताइणा, महव्वया खेमपया पवेइया। महागुरू निस्सयरा उईरिया, तमेव तेउत्ति दिसं पसासगा।।६।। दिशो- दिशमिति- सर्वास्वप्येकेन्द्रियादिषु भावदिक्षु क्षे-मपदानिरक्षणस्थानानि प्रवेदितानि-प्ररूपितानि, अनन्तश्चासौ ज्ञानात्मतया नित्यतया वा जिनश्च-रागद्वेष-जयनादनन्तजिनस्तेन, किंभूतानि व्रतानि ?- महागुरूणिकापुरुषैर्दुर्वहत्वात् निःस्वकराणि- स्वंकर्मानादिसम्बन्धात्तदपनयनसमर्थानि निःस्वकराणि उदीरितानिआविष्कृतानि तेजस इव तमोऽपनयनात्त्रिदिशं प्रकाशकानि। यथातेजस्तमोऽपनीयोवधिस्तिर्यक् प्रकाशते एवं तान्यपि कर्मतमोऽपनयनहेतुत्वात्त्रिदिशं प्रकाशकानीति // 6 // __ मूलगुणानन्तरमुत्तगुणाभिधित्सयाऽऽहसिएहि भिक्खू असिए परिथ्वए, असज्जमित्थीसु चइड पूयणं / अणिस्सिओ लोगमिणं तहा परं, न मिलई कामगुणेहिँ पंडिए॥७॥ सिताः-बद्धाः कर्मणा-गृहपाशेन रागद्वेषादिनिबन्धनेन वेति गृहस्था अन्यतीर्थिका वा, तैः असितः- अबद्धः-तैः सार्द्ध सङ्गमकुर्वन् भिक्षुः परिव्रजेत्-संयमानुष्ठायी भवेत्।तथा स्त्रीषु असजन-सङ्गमकुर्वन् पूजन त्यजेत्, नसत्काराभिलाषी भषेत्। तथा अनिश्रितः-असंबद्धइहलोकेअस्मिन् जन्मनि तथा परलोके स्वर्गादाविति, एवंभूतश्च कामगुणैःमनोज्ञशब्दादिभिः न मीयते-न तोल्यते न स्वीक्रियत इति यावत्, पण्डितः-कटुविपाककामगुणदर्शी ति॥७॥ तहा विमुकस्स परिनचारिणो, धिईमओ दुक्खखमस्स मिक्खुणो। विसुज्झई जंसि मलं पुरेकडं, समीरियं रुप्पमलं वजोइणा ||8|| तथा तेन प्रकारेण मूलोत्तरगुणधारित्वेन विमुक्तो-निस्सङ्गस्तस्य, तथापरिज्ञानं परिज्ञा–सदसद्विवेकस्तया चरितुंशीलमस्येति परिज्ञाचारी ज्ञानपूर्व क्रियाकारी तस्य, तथा धृतिः- समाधानं संयमे यस्य स धृतिमांस्तस्य, दुःखम्-असातावेदनीयोदयस्तदुदीर्णं सम्यक् क्षमतेसहते, न वैक्लव्यमुपयाति, नापि तदुपशमार्थं वैद्यौषधादि मृगयते; तदेवंभूतस्य भिक्षोः पूर्वोपात्तं कर्म विशुध्यति-अपगच्छति। किमिव ? समीरित-प्रेरितं रूप्यमलमिव ज्योतिषाअग्रिनेति // 8 // साम्प्रतं भुजङ्गत्वगधिकारमधिकृत्याहसेह (ह) परिनासमयम्मिवई, निराससे उवरयमेहुणा चरे। भुयंगमे जुम्नतयं जहा चए, विमुचई से दुहसिन माहणे // 6 // स-एवंभूतो भिक्षुर्मूलोत्तरगुणधारी पिण्डैषणाध्ययनार्थकरणोद्युक्तः, परिज्ञासमये वर्तते, तथा निराशंसः-ऐहिकामुष्मिकाशंसारहितः, तथा मैथुनादुपरतः, अस्य चोपलक्षणत्वादपरमहाव्रतधारी च, तदेवंभूतो भिक्षुर्यथा-सर्पः कञ्चुकं मुक्त्वा निर्मलीभवति एवं मुनिरपि दुःखशव्यातः-नरकादिभवाद्विमुच्यत इति / / 6 / /
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________________ विमुत्ति १२२२-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विमोक्ख समुद्राधिकारमधिकृत्याह - जमाहु ओहं सलिलं अपारयं, महासमुदं व भुयाहि दुत्तरं। अहे य णं परिजाणाहि पंडिए, से (हुमुणी अंतकडे त्ति वुधई // 10 // यं-संसारं समुद्रमिव भुजाभ्यां दुस्तरमाहुस्तीर्थकृतो गणधरादयो वा, किम्भूतम्, ? ओधरूपं, तत्र द्रव्यौघः सलिलप्रवेशो भावौघ आस्रवद्वाराणि, तथा मिथ्यात्वाद्यपारसलिलम्, इत्यनेनास्य दुस्तरत्वे कारणमुक्तम्। अथैनं संसारसमुद्रमेवंभूतं ज्ञपरिज्ञया सम्यग्जानीहि, प्रत्याख्यानपरिज्ञया तु परिहर पण्डितः-सदसद्विवेकज्ञः। सच मुनिरेवंभूतः कर्मणोऽन्तकृदुच्यते॥१०॥ अपिचजहा हिबद्धं इह माणदेहि, जहा य तेसिं तु विमुक्ख आहिए। अहा तहा बन्धविमुक्ख जे विऊ, से (हू) हुमणी अंतकडे ति बुचई // 11 // यथा-येनप्रकारेण मिथ्यात्वादिना बद्धं कर्म-प्रकृतिस्थित्यादिनाऽऽ-- त्मसात्कृतम् इह-अस्मिन् संसारे मानवैः-मनुष्यैरिति, तथा यथा च सम्यग्दर्शनादिना तेषां कर्मणां विमोक्ष आख्यातः इत्येवं याथातथ्येन बन्धविमोक्षयोर्यः सम्यग्वेत्ता स मुनिः कर्मणोऽन्तकृदुच्यते।।११।। इमम्मि लोए परए य दोसु वि, न विजई बंधण जस्स किंचि वि। से (हू) हुनिरालंवणमप्पइहिए. कलंकलीभावपहं विमुचइ तिमि // 12 // अस्मिन् लोके परस्त्रच द्वयोरपि लोकयो यस्य बन्धनं किञ्चनास्ति स निरालम्बनः-ऐहिकामुष्मिकाशंसारहितः अप्रतिष्ठितः-न क्वचित्प्रतिबद्धोऽशरीरी वास एवंभूतः कलंकलीभावात्-संसारगर्भादिपर्यटनाद्विमुच्यतेब्रवीमीति पूर्ववत्। उक्तोऽनुगमः। आचा०२ श्रु०४ चूल आचाराङ्गस्य द्वितीयश्रुतस्कन्धस्य षोडशेऽध्ययने, स०।आचा०। नि० चू०। आव० : विमुच्यते प्राण सकलबन्धनेभ्यो यया सा विमुक्तिः // 12 // गौणीहिंसायाम, प्रश्न०१संव० द्वार। बन्धदशानामष्टमे अध्ययने, स्था० 10 ठा०३ उ०। विमुह-त्रि०(विमुख) निरपेक्षे, विशे०। विमुखस्यादेरभावाद् विमुखम्। भ०२श०२ उ०1 विमुहया-स्त्री०(विमुखता) वैमुख्ये, षो०४ विव०। विमुहीकय-त्रि०(विमुखीकृत) विरञ्जिते, प्रश्न०३ आश्र० द्वार। विमोइ(चि)य-त्रि०(विमोचित) स्वस्थानाचलिते,बृ०३ उ०। विमोक्ख-पुं०(विमोक्ष) परित्यागे, आचा०१९०८ अ०१उ०। निसर्गे, विशे०। विमोक्षस्य निक्षेपं चिकीर्षुर्नियुक्तिकार आहनाम ठवण विमुक्खो, दवे खित्ते य काले भावे य। एसोउ विमुक्खस्स, निक्खेवो छविहो होइ।।२५८|| नामविमोक्षः स्थापनाविमोक्षो द्रव्यविमोक्षः क्षेत्रविमोक्षः कालविमोक्षो भावविमोक्षश्चेत्येवं विमोक्षस्य निक्षेपः षोढा भवतीति गाथासमासार्थः। व्यासार्थप्रतिपादनायतुसुगमनामस्थापनाव्युदासेन द्रव्यादिविमोक्षप्रतिपादनद्वारेणाह - दव्वविमुक्खो नियला-इएसु खित्तम्मिचारयाईसुं। काले चेइयमहिमा-इएसु अणघायमाईओ / / 256 / / द्रव्यविमोक्षो द्वेधा-- आगमतो, नोआगमतश्च / आगमतो ज्ञाता, तत्र चानुपयुक्तः, नो आगमतस्तुज्ञशरीरभव्यशरीव्यतिरिक्तो निगडादिकेषु विषयभूतेषुयो विमोक्षः स द्रव्यविमोक्षः।सुब्व्यत्ययेन वा पञ्चम्यर्थेसप्तमी, निगडादिभ्यो द्रव्येभ्यः सकाशाद्विमोक्षोद्रव्यविमोक्षः, अपरकारकवचनसम्भवस्तु स्वयमभ्यूह्याऽऽयोज्यः। तद्यथा-द्रव्येण द्रव्यात् सचित्ताचित्तमिश्राद्विमोक्ष इत्यादि, क्षेत्रविमोक्षस्तु यस्मिन् क्षेत्रे चारकादिके व्यवस्थितो विमुच्यते, क्षेत्रदानाद्वा यस्मिन्वा क्षेत्रे व्यावर्ण्यते स क्षेत्रविमोक्षः। कालविमोक्षस्तु चैत्यमहिमादिकेषु कालेष्वानाघातादिघोषणापादितो यावन्तं कालं मुच्यते यस्मिन्वा काले व्याख्यायते सोऽभिधीयत इति गाथार्थः। भावविमोक्षप्रतिपादनायाहदुविहो भावविमुक्खो, देसविमुक्खो य सव्वमुक्खो य। देसविमुक्खा साहू, सव्वविमुक्खा भवे सिद्धा।।२६०॥ भावविमोक्षो द्विधा- आगमतो, नोआगमतश्च / आगमतो ज्ञाता तत्र चोपयुक्तो, नोआगमतस्तु द्विधा-देशतः सर्वतश्च / तत्र देशतोऽविरतसम्यग्दृष्टीनप्रमाद्यकषायचतुष्कक्षयोपशमाद् देशविरतानामाद्याष्टकषायक्षयोपशमाद्भवति, साधूनां च द्वादशकषायक्षयोपशमात् क्षपकश्रेण्यांच यस्ययावन्मात्रं क्षीणं तस्यतत्क्षयादेशविमुक्ततेत्यतः साधर्वा देशविमुक्ताः। भवस्थकेवलिनोऽपि भवोपग्राहिसद्भावाद्देशविमुक्ता एव, सर्वविमुक्ताश्च सिद्धा भवेयुरितिगाथार्थः / ननुबन्धपूर्वकत्वान्मोक्षस्य निगडादिमोक्षवदित्याशङ्काव्य वच्छेदार्थ बन्धाभिधानपूर्वकं मोक्षमाहकम्म य दव्वेहि समं, संजोगो होइ जो उ जीवस्स। सो बन्धो नायव्यो, तस्स विओगो भवे मुक्खो // 261 / / कर्मेद्रव्यैः कर्मवर्गणाद्रव्यैः सम-साद्धयः संयोगो जीवस्य सम्बन्धः प्रकृतिस्थितत्यनुभावप्रदेशरूपो बद्धस्पृष्टनिधत्तनिकाचनावस्थश्च ज्ञातव्यः / तथैकैको ह्यात्मप्रदेशोऽनन्तानन्तैः कर्मपुद्गलैर्बद्धः, बध्यमाना अप्यनन्तानन्ता एव, शेषाणामग्रहणयोग्यत्वात्। कथं पुनरष्टप्रकारं कर्म बध्नातीति चेद् ? उच्य-ते-मिथ्यात्वोदयादिति। उक्तं च-"कहं णं भंते!जीवा अट्ठकम्मपगडीओबंधंति? गोयमा!णाणावरणिजस्स कम्मस्स
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________________ विमोक्ख 1223 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विम्हावण उदएणं दरिसणावरणिज्जं कम्मनिअच्छन्ति, दंसणमोहणिजस्स कम्मस्स | विमोयग-त्रि०(विमोचक) अपनेतरि, सूत्र०१ श्रु०६ अ01 उदएण मिच्छत्तं णियच्छन्ति, मिच्छत्तेणं उइनेणं, एवं खलु जीवे अट्ठ | विमोयणा-त्रि०(विमोचना) त्याजने, सूत्र०१ श्रु०१३ अ०। ज्ञा०॥ कम्मपगडीओ बंधई" यदिवा-"णेहत्तुप्पिअगत्तस्स रेणुओ लग्गईजहा विमोयतर-त्रि०(विमोच्यतर) त्याज्यतरे, स्था० 2 ठा० 130 / अंगे। तह रागदोसणेहालियस्स कम्मं पि जीवस्स // 1 // ' इत्यादि, विमोह-पुं०(विमोह) विगतो मोहो येषु येषां वा येभ्यो वा। आचा०१ श्रु० तस्यैवम्भूतस्याष्टप्रकारस्य कर्मणः आस्त्रवनिरोधात्तपसाऽपूर्वकरणक्षपक श्रेणिप्रक्रमेण शैलेश्यवस्थायां वा योऽसौ वियोगः-क्षयः स मोक्षो 8 अ०८ उ०।अज्ञानरहितेषु, उत्त०५ अ० अनुत्तरोपपातिनो विमोहाः / भवेदिति गाथार्थः। मोहसमुत्थेषु परीषहोपसर्गेषु, प्रादुर्भूतेषु विमोहो भवेत्तान् सम्यक्सहेतेति यत्राभिधीयतेस विमोहः स्था०६ ठा०३ उ० आचाराङ्गप्रथमश्रुतस्कअस्य च प्रधानपुरुषार्थत्वात् प्रारब्धासिधाराव्रतानुष्ठानफलत्वात् न्धस्य सप्तमे अध्ययने, स०६ सम० / आव० / उत्त० / विमोहा तीर्थकैः सह विप्रतिपत्तिसद्भावाच यथा-वस्थितमव्यभिचारिमोक्षस्य इवाल्पवेदादिमोहनीयोदयतया विमोहाः। अथवा-मोहो द्विधा-द्रव्यतो, स्वरूपं दर्शयितुमाह / यदिवा-पूर्वं कर्मवियोगोद्देशेन मोक्षस्वरूपम भावतश्च / द्रव्यतोऽन्धकारो, भावतश्चमिथ्यादर्शनादिः / स द्विविधोऽपि भिहितम्, साम्प्रतं जीववियोगोद्देशेन मोक्षस्वरूपं दर्शयितुमाह सततरत्नोद्योतितत्वेन सम्यग्दर्शनस्यैव च तत्रसंभवेन विगतो मोहो येषु जीवस्स अत्तजणिए-हि चेव कम्मेहि पुटवबद्धस्स। ते विमोहाः। उत्त०५ अ०। आचा०। सव्वविवेगो जो ते-ण तस्स अह इत्तिगो मुक्खो // 26 // विमोहित्ता-अव्य०(विमोह्य) मोहमुत्पाद्येत्यर्थे, भ०१० श०३ उ०। जीवस्यासंख्येयप्रदेशात्मकस्य स्वतोऽनन्तज्ञानस्वभावस्यात्मनैव-- विम्ह-न०(वेश्मन्) वसतौ, ध०३ अधि०। मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगपरिणतेन जनितानि बद्धानि यानि कर्माणि तैः पूर्वबद्धस्यानादिबन्धबद्धस्य प्रवाहाऽपेक्षया तेन कर्मणा विम्हअणिज्ज-त्रि०(विस्मयनीय) "वोत्तरीयानीय-तीयकृधे जः" सर्वविवेकः-सर्वाभावरूपतया यो विश्लेषस्तस्यजन्तोः, अथेत्युपप्रदर्शने // 1 / 248 / / इति यस्य द्विरुक्तोज कारोवा विस्मयविषये, प्रा०१पाद। एतावन्मात्र एवमोक्षो नापरः-परपरिकल्पितो निर्वाणप्रदीपकल्पादिक | विम्हय-पुं०(विस्मय) “पक्ष्म-श्म-म-स्म-ह्यां-म्हः" ||8|274 / / इति गाथार्थः। इति स्मभागस्य मकाराक्रान्तो हकारः / प्रा० आश्चर्ये, आव० 4 अ०॥ उक्तो भावविमोक्षः। सच यस्य भवति तस्यावश्यं भक्तपरिज्ञादिम- मयाऽप्राप्तपूर्वमिदमित्येवंरूपे प्रमोदे, पञ्चा० 3 विव० / अनु० / रणत्रयान्यतरेण मरणेन भाव्यं, तत्र कार्ये कारणोपचारात् तन्मरणमेव | विम्हर-स्मृ-धा० स्मरणे, "स्मरेझर - झूर - भर - भल - लढभावविमोक्षो भवतीत्येतत्प्रतिपादयितुमाह विम्हर-सुमर-पयर-पम्हुहाः" ||17|| इतिस्मरतेर्विम्हरादेशः। भत्तपरिन्नाइंयिणि, पायवगमणं च होइ नायव्दं / विम्हरइ। स्मरति। प्रा० 4 पाद। जो मरइ चरिममरणं, भावविमुक्खं वियाणाहि॥२६३।। विस्मृ-धा०। विस्मृतौ, "विस्मुः पम्हुस-विम्हर-वीसराः" 114/75 // भक्तस्य परिज्ञा भक्तपरिज्ञा; अनशनमित्यर्थः, तत्र त्रिविधचतु- | इति विस्मरतेर्विम्हादेशः। विम्हरइ। विस्मरति। प्रा०४ पाद। विधाहारनिवृत्तिमान् संप्रतिकर्मशरीरोधृतिसंहननवान् यथा समाधि- विम्हावण-न०(विस्मापन) बालस्मयने, पं०व०५ द्वार। आश्चर्यकुहकभवेत्तथा अनशनं प्रतिपद्यते, तथेगिते प्रदेशे मरणमिङ्गितमरणमिदं पराक्षेपकरणे, नि० चू०। चतुर्विधाहारनिवृत्तिस्वरूपं विशिष्टसंहननवतः स्वत एवोद्वर्तनादिक्रिया जे मिक्खू अप्पाणं विम्हावेह विम्हावंतं वा साइडइ / / 170 / युक्तस्यावगन्तव्यम् / तथा परित्यक्तचतुर्विधाहारस्यैवाधिकृतचेष्टा जे भिक्खू परं विम्हावेइ विम्हावंतं वा साइजइ / / 171 / / व्यतिरेकेण चेष्टान्तरमधिकृत्यैकान्तनिष्प्रतिकर्मशरीरस्य पादपस्ये विस्मयकरणं विम्हावणा। आश्चर्य कुहकपराक्षेपकरणमित्यर्थः। वोपसामीप्येन गमनंवर्तनं पादपोपगमनमेतच्च ज्ञातव्यं भवति / यो हि गाहाभवसिद्धिकश्वरमम्-अन्तिमं मरणमाश्रित्य म्रियते स एतत्पूर्वोक्तत्रयान्यतरेण मरणेन म्रियते, नान्येन वैहानसादिनाबालमरणेनेत्येतचानन्त विम्हावणा उ दुविधा, अभूयपुवाय भूयपुवाय। राक्तंमरणं चेष्टाभेदोपाधिविशेषात् त्रैविध्यमनुभवद्भावमोक्षं विजानीहिति विजातवइंदजालिय, निमित्तवयणादिसुंचेव।।१८|| गाथार्थः / / आचा०१ श्रु०८ अ० 1 उ०1 ('मरण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे विजाए मंतेण वा तवोलद्धीए वा इंदजालेण वा नानाणागतपहुप्पन्नण वा 113 पृष्ठे मरणभेदा इदमध्ययनं च व्याख्यातम्।) णिमित्तवयणेण आदिसद्दातो अंतह्माणपादलेवजोगेण वा, अहवा वयणं विमोक्खण-न०(विमोक्षण) अष्टविधकर्मणः पृथक्करणे, उत्त०८ अ०। मरहट्टयदभियकूडुव्वगोल्लयकीरट्टकसेंधवातीयाण य कुट्टिकरणं / इम विमोचके, सूत्र०१ श्रु०८ अ०। कर्मबन्धनान्मुक्तिकरणे, उत्त०२६ अ01 अभूतपुव्वाण भूतपुव्वाण य वक्खाणं। // //
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________________ विम्हावण 1225 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वियच्चा गाहा दिजयणा वा जाहे चउलहू पत्तो, ताहे विम्हावेज्जा / नि० चू०११ उ०। जो जेण अकयपुव्वा, अस्सुयपुष्वा अदिहपुव्वा वा। | विम्हावित-त्रि०(विस्मापयत्) विस्मापके, इन्द्रजालिनि, स्था० 4 ठा० सा होतऽभूसपुष्या, तविवरीया भवे भूता / / 5 / / Vउ०पं०व०॥ ('परविम्हावग' शब्देपञ्चमभागे५४८ पृष्ठऽयंव्याख्यातः।) जेण पुरिसेण जो विजामंतजोगइंदजालादियोपयोगो अप्पणा अकय- | विय-पुं०(विद्) विदन्तीति विदः / विदुषि, आ०म०१ अ०। विदितवेद्ये, पुष्यो अन्नेण वा कजमाणो न दिट्ठो असुतो वा सो तस्स अभूतपुव्वो | सूत्र०१ श्रु०१ अ०४ उ०। भावे क्विप। विज्ञाने, स्था०५ ठा०३ उ०। भण्णति, तव्विवंरीतो पुण जोसंयकतो दिट्ठोसुतोवासो भूतपुत्वो भन्नति। अविच-अव्य० समुचयार्थे, अपि चेत्यव्ययद्वयस्थाने वियशब्दः समुच्चएत्थसंभूते चउलहुं, असंभूए चउगुरुं, नेमित्ते अतीतेचउलहुं, पहुप्पन्ना यार्थः / जी०१ प्रति०। गतेसुचउगुरुं। व्यय-पुं० विगमे, स्था० 5 ठा०३ उ०। एत्थ निमित्तवयणे असब्भूते इमं उदाहरणं गाहा-- वियइ-स्त्री०(विगति) मरणे, स्था०। दिव्वं अच्छेरं वि-म्हओय अतिसाहसं। एगा वियती। (सू०२३) अतिसओ य कतो से, णाउंजे किं सुहं णातुं // 60|| 'वियइ' त्ति विगतिर्विगमः, सा चैकोत्पादवदिति विकृतिर्विगतिरिदो जणी मिलिउं कित्तियादियाण सत्तण्हं णक्खत्ताणं इमं णाम संगारं त्यादिव्याख्यान्तरमप्युपचितमायोज्यम्, अस्माभिस्तु उत्पादसुत्रानुकरेंति। अच्छेरं विम्हतो अतिसाहसं अतिसतो कतो। से णातुं जे किं गुण्यतो व्याख्यातमिति // 23|| स्था० 1 ठा०। णाहित्ति किमुहं णाउंएवं मघादिअणुराहादिधणिट्ठादि, एवं संगारंकरित्ता बहुजणमज्झेएवं भासति-जोजसत्तवीसाणं नक्खत्ताणं अनंतरं छिवति विकृति-स्त्री० विकारे, पिं०। ('विगई' शब्देऽस्मिन्नेव भावे विशेषः)। तमहं जाणामि, तंपरोक्खे कातुं छिक्कं / इतरो संगारसाहू भणाति-जदि वियंग-त्रि०[विग(कृ)ताङ्ग] विगतकर्णनासाहस्ताद्यङ्गे, ज्ञा० 1 श्रु०१४ पुव्वदारियं तो पुव्वा महा महोठ्ठिचा अहो दिव्वं नाणं ताहे जाणतिक्किया अ01 प्रश्न। एवं अन्नम्मि विसंगारे नामे उक्कितिते जाणति। एवं सव्वणक्खत्ते जाणति। वियंजिय-त्रि०(व्यञ्जित) अभिव्यक्तीकृते, सूत्र०२ श्रु०१ अ०॥ गाहा वियंति-स्त्री०(व्यन्ति) विशेषेणान्तिय॑न्तिः। अन्तक्रियायाम, आचा० एत्तो एगतरेणं, विम्हितकरणेन सन्नसंतेणं। १श्रु०८ अ०४ उ०। अप्पपरं विम्हाहे, सो पावति आणमादीणि॥६१।। वियंतिकारय-पुं०(व्यन्तिकारक) विशेषेणान्तिय॑न्तिरन्तक्रिया तस्याः विजामंतादिया एगतरेण विम्हावंतस्स आणादिया य इमे दोसा। कारकः / आचा०१ श्रु०८ अ०४ उ०। कर्मक्षयविधायिनि, आचा०१ गाहा श्रु०८ अ०५ उ०। उम्मायं पावेजा, तदट्ठजाएण पडिणिए खित्तं। वियंभिय--त्रि०(विजृम्भित) प्रबलीभूते, ज्ञा०१श्रु०१अ०। विवृताङ्गअत्तं व परं कुजा, तव णिव्वहणं व माया य॥६२| तायाम्, ज्ञा० 1 श्रु०६ अ०। विस्फुरिते, प्रश्न०३ आश्र० द्वार। एरिसं मया कतेति सयमेव दित्तचित्तो भवेजा, तं वा विम्हावणकरणहूँ / | वियकिल-पुं०(विचकिल) वनस्पतिविशेषे, आचा०१श्रु०१अ०५ उ०। जाएज्जा / दिन्ने अहिगरणं अदिजंते पडिणीतो / एसो वा विम्हावितो वियक-पुं०(वितर्क) विकल्पे, स्था० 4 ठा० 1 उ० / ऊहे, आतु० ! खित्तचित्तो भवति। विजाजीवण प्रयोगेण यतवो णिव्वहति-विफलीभव- मीमांसायाम. सूत्र० 2 श्रु०६ अ०। प्राकृते स्त्रीत्वमपि / द्वा० 21 तीत्यर्थः / असन्भूते य मायाकरणं मुसावादो य। जम्हा एते दोसा तम्हा द्वा०। (सप्तविंशतिर्वितर्का इति 'मित्ता' शब्देऽस्मिन्नेव भागे व्याख्याताः।) गो वेम्हाविज्जा। वियकज्झाण-न०(वितर्कध्यान) कथं राज्यादि ग्रहीष्ये इति चिन्तामाइमेहिं कारणेहिं विम्हावेज्जा ! गाहा ध्याने नन्दराज्यं जिघृक्षोश्चाणक्यस्येव दुर्व्याने, आतु०। असिवे ओमोयरिए, रायहुहे भए व गेलण्णे। वियक्खण-पुं०(विचक्षण) विविधमाख्याति- कथयतीति विचक्षणः / अद्धाणरोहए वा, जयणाए विम्हयावेशा॥६३|| पण्डिते, दश०६ अ०। विदुषि, दश०५ अ०१०। षो०। उत्त०। असिवअवणयणेण विम्हावेज्जा, अहवा असिवे ओमे य अप्पश्चंतो विविधं सर्वाषु दिक्षु पश्यति, ओघ०। ध०। विम्हावेज, रायदुढे भएय आउंटणाणिमित्तं विम्हावेजा, गेलण्णं आउंट- | वियचा स्त्री०(विगतार्चा) विगतस्य-विगमवतो जीवस्य; मृतस्येत्यर्थः णऽट्ठा ओसहट्ठा वा रोधगअद्धाणेसु वि अपुव्वणाणादिगाणि बहुकारणाणि | अर्चा-शरीरं विगतार्चः / विगतिमजीवशरीरे, स्था०१ठा०। अविक्खिऊण विम्हावेजा। तं चजयणाते। साइमापुव्वं मंतेण पणगा- | विचर्चा- स्त्री० विशिष्टोपपत्तिपद्धतौ, विशिष्टभूषायां च।
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________________ वियच्चा 1225 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वियड एगा वियचा। (सू०-२४) एका विगतार्चा विचर्चा वा सामान्यात्। स्था० 1 ठा०। वियट्ट-त्रि०(व्यावृत्त) निवृत्ते, अपगते, भ०१श०१ उ०। स०। विवर्त्त-पुं० कारणविकारेण वस्तुजन्मनि, द्वा० 10 द्वा०। ("परिणामा विवर्तन्तेजीवस्तुन कदाचन'' इति जोग' शब्दे चतुर्थभागे १६२१पृष्ठे विस्तरतः प्रतिपादितम्।) वियदृछउम--पुं०(व्यावृत्तच्छद्मन्) व्यावृत्तं निवृत्तमपगतंछाशठत्वमावरणं वा यस्यासौ व्यावृत्तछया। केवलिनि, भ०१श०१ उ01 स०। कल्प० / "वियदृछउमाण" व्यावृत्तछमभ्यः छादयतीति छयाघातिकर्माभिधीयते, ज्ञानावरणादि, तद्वन्धयोग्यतालक्षणश्च भावाधिकार इति असत्यस्मिन् कर्मयोगाभावात् / अत एवाहुरपरे- असहजाऽविद्येति, व्यावृत्तं छप येषां ते तथाविधा इति विग्रहः, नाक्षीणे संसारेऽपवर्गः क्षीणे च न जन्मपरिग्रह इत्यसत्; हेत्वभावेन सदा तदापत्तेः / न तीर्थनिकारो हेतुः, अविद्याभावेन तत्संभवाभावात्, तद्भावे च छद्मस्थास्ते, कुतस्तेयां केवलमपवर्गो वेति भावनीयमेतत् / न चान्यथा भव्योच्छेदेन संसारशून्यतेत्यसदालम्बनं ग्राह्यम्, आनन्त्येन भव्योच्छेदासिद्धेः / अनन्तानन्तकस्यानुच्छेदरूपत्वाद्; अन्यथा सकलमुक्तिभावेनेष्टसंसारिवदुपचरित- संसारभाजः सर्वसंसारिणः इति बलादापद्यते। अनिष्ट चैतदिति / व्यावृत्तछयान इति // 26 // ल01 वियट्टभोइ(ण)-त्रि०(व्यावृत्तभोजिन्व्यावृत्ते सूर्ये भुङ्क्ते इत्येवंशीलो व्यावृत्तभोजी। प्रतिदिनभोजिनि, भ०२श०२ उ०। वियट्टमाण-त्रि०(विवर्तमान) विचरति, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। आचा०। वियट्टिऊण-(अव्य) विवर्तितुम) विविधमनेकप्रकारं वा वर्तितुमित्यर्थे, पं० चू०५ कल्प०। वियट्टित्तए अव्य०(विवर्तयितुम्) आसितुमित्यर्थे, आचा०२ श्रु०१चू० 2 अ०२ उ०। वियड-न०(विकट) समयभाषया जले, स्था०५ ठा०२ उ०। सूत्र०। विगतजीवे उदके, सूत्र०१श्रु०६ अ०। प्रासुकोदके, आचा०१ श्रु०६ अ० 1 उ० / सूत्र० / नि० चू० / शीतोष्णादिशस्त्रेण विकारं प्रापित प्रासुकीकृते, बृ०२ उ०।उष्णोदके, स्था०३ ठा०३ उ०। पल्वलादिगते जले, तं०॥ देशीवचनत्वात्। तडागिकायाम्, उत्त०२ अ०। मद्ये, पिं०1 (विकट क्रीणातीत्यादि कीयगड' शब्दे तृतीयभागे 565 पृष्ठे गतम्।) जे भिक्खू वियर्ड पामिचइ पामिचवइ पामिचियमाह? दिजमाणं पडिग्गहेइ पडिग्गहतं वा साइडइ ।।२।जे मिक्खू वियर्ड परियट्टेइ परियट्टावेइ परियट्टियमाह१ दिनमाणं पडिग्गहेइ पडिग्गहंतं वा साइजह // 3 // जे भिक्खू वियर्ड अच्छिजं अणिसिटुं अमिहडमाहट दिजमाणं पडिग्गहेइ पडिग्गहंतं वा साइजइ || एतेसिं स्वरूपं पूर्ववत् / जहा पिंडणिजुत्तीए। एतेसुपच्छित्तं चउलहुँ। जंच दुगुंछियपिंडगहणे पच्छित्तं च भवति-ह। गाहाएमेव तिविहकरणे, पामिचं पडिगहे य परियट्टे / अणिसट्टे अच्छि , तिविहं करणं णवरिणत्थि || तिविहं करणं-कृतं कारितं अनुमोदितं च। अच्छिज्जणिसट्टेसु तिविहं करणं ण भवति, सेसं सव्वं वितियपदं पूर्ववत् / नि० चू० 16 उ० / (दतिविषयः 'दत्ति' शब्दे चतुर्थभागे 2410 पृष्ठे गतः!) गाहा--- वियडत्तस्स उ विहिणे, गंतुं देति अह बला णीति। जयणाएँ पत्तवासे, गोयणबलवंतवदणमवि||१३|| जइ जुत्तभेत्तपीएण अतिरित्तेण वा मतो वियडत्तगो जातामत्तो पराधीणं उवहिं णिग्गच्छेज्ज ता ण देति से णिगंतुं, बला शिंतो जयण त्ति जहा ण पीडिजति तहा पत्तवासेति वज्झइ। अह पत्तवासिं तो मोक्कलो वा गाएज्ज वा पलवेज वा तो आसमविति आसममुहं तं पि से विजति। अहवादेतो तिण्हं दत्तीणं अतिरित्तमवि गेण्हिज्ज। गाहाविवियपदं गेलण्णे, विझुवदेसे तहेव सिक्खाए। गहणं अतिरित्तस्स वि, विजुवदेसेय आतियरं॥११॥ गेलण्णट्ठा वेज्जुयदेसेण सिक्खाएवा, एतेहि कारणेहिंगहणं अतिरित्तस्स। आतियरं पि अतिरित्तस्स गेलण्णसिक्खादिविशेषतो वेज्जुवदेसेणतंपुण इमेसु ठाणेसुकमेण गेण्हेज / गहणं पुराणसावगसड्डअहाभद्ददासणसड्डेय भावियकुलेसु, ततो जयणाए, न तु परलिङ्गण / जे भिक्खू वियर्ड गहाय गामाणुग्गामं दूइज्जइ दूइजंतं वा साइजइ॥६॥ वियडेण हत्थगतेण जो गामाणुगामं दूइज्जइ तस्स आणादी चउलहुंच। गाहाकारणतो सग्गामे, सति लब्भति जो (सयं) परगामे। आणिजाए वियडं, णिञ्जा वा आणमादीणि // 15 // कारणओ वियर्ड घेत्तव्वं, तं पिसग्गामे 'सती' तिलब्भमाणे जोपरग्गामातो आणति सग्गामाओ वा परग्गामंणिज्जा तस्स आणादिया इमे दोसा। गाहापरिगलणपवडणे वा, अणुपंथियगंधमादिउड्डाहो। आहारइयरें तेणा, किं लद्ध ति कुतूहलो चेव // 16|| परिगलंते पुढवादिछक्काया विराहिजंति। पडियस्स वा भायणभग्गो य छक्कायविराहणा। अहवा परिगलंते पडियस्स वा छड्डिते अणुपंथिओ वा पडिपंथिओ वा गंधमाघाएजा / सो य उड्डाहंकरेज। अंतरा वा आहारतेणा भायणं उग्घाडेज, ते दट्टे आदीएज्ज, उड्डाहं वा करेज्ज / इयरे त्ति उवकरणतेणा ते वा कुतूहलेण भायणं उग्गाहेज्जा किं लद्धं ति तं वा उड्डाहं करेजा। जम्हा एवमादी दोसा
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________________ वियड १२२६-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वियडवेस गाहा शब्देऽस्मिन्नेव भागे 646 पृष्ठेगतम्।) (एतद्विषयकप्रतिसेवना'मूलगुणतम्हा खलु सग्गामे, घेत्तूर्ण बंधणं तहा कुला। पडिसेवणा' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 344 पृष्ठे उक्ता।) विस्तीर्णसूक्ष्मतरएत्तो चिय उवउत्तो, गिहीण दूरेण संचरितो॥१७॥ बुद्धिगम्ये, त्रि०। चं०प्र०१पाहु०। उपा०। भ० / ज्ञा०। प्रभूते, सूत्र०२ खलुसद्दो सग्गामावधारणे, स्वग्राम एव ग्रहीतव्यं / सग्गाआसति परगा श्रु०२ अ०। अतिप्रकटे स्थूरे, व्य०१उ०।सापुं०। एकपञ्चाशत्तमे, मातो आणियव्वं कारणेवा परगामणेयव्वं इमेण विहिणासंकुडमुहभायणे महाग्रहे, कल्प०१ अघि०६ क्षण। सू० प्र० ज०॥ ओमंथियं सरावं घणं परिबंधणं कुजा, पंथं उवउत्तो गच्छति / जहा णो दो वियडा। (सू०) स्था०२ ठा०३ उ०। परिगक्षति, पक्खलति, वा, गिहीण वा एयं जंताण हेहोवाएण दूरतो विकृत-त्रि० अस्वाभाविके, व्य०७ उ०। गच्छति।तं पि भायणं वासे कप्पदिणासुसंवृतं करेति। अववादकारणेण विवृत-त्रि० अनावृते, स्था०५ ठा०२ उ०। परगामणेति आणावेति। वियडगिह-न०(विवृतगृह) अधः कुड्याभावादुपरि वाच्छादनाभावागाहा दनावृत्ते गृहे, पञ्चा० 18 विव०। स्था० / आचा०। बृ० / विवृतम्वितियपदं गेलण्णे, वेलवएसे तहेव सिक्खाए। अनावृतं, तच द्वेधा-अधऊर्ध्वं च / तत्र पार्श्वत एकादिदिक्ष्वनावृतमएतेहि कारणेहि, जतणेमा तत्थ कायव्वा // 16|| धोविवृतम्, नाच्छादितममालगृहं चोर्ध्वविवृतं; तदेव गृहं विवृतगृहम् / पूर्ववत् / एवमादिकारणेहिं, गेण्हतस्स इमा जयणा। उक्तञ्च-"अनाउड जंतुचउद्दिसिं पि, दिसामहो तिन्नि दुवे य एका। गाहा अहो भवे तं वियर्ड गिहं तु, उद्धृ अमालं च अतिच्छदं च / / 1 / / " त्ति। पुराणेसु सामएसुं, सण्णिअहाभहदाणसड्डे य। स्था०३ठा०४ उ०। मज्झत्थकुलीणेसुं, किरियावादीसु तग्गहणा ||19|| वियडजाण-न०(विवृतयान) तल्लरकवर्जिते शकटे, भ०११श० 1170 / पुवंपुराणस्स हत्थातो घेप्पइ, तस्स असतिगहिताणुव्वतसावगस्स, वियडणा-स्वी०(विकटना) आलोचनायाम्, ओघ० / व्य० / प्रति०। ततो अविरयसम्मद्दिहिस्स, ततो अहाभद्दगस्स, ततो दाणसङ्कुस्स, बृ० / नि० चू०। पं०व०। मज्झत्था-जे णो अम्हं सासणं पडिवण्णा, णो अण्णेसिं ते या जाति- वियडदत्ति-स्त्री०(विकटदत्ति) विकटं पानकाहारस्तस्यदत्तय एकप्रक्षेपकुलीणा एत्थ कुलीणो सभावट्ठितो दिवे अदितु य सदृशेत्यर्थः / क्रियां प्रदानरूपाः / पानकदत्तिषु स्था० / वदति क्रियावादीति। वैद्येत्यर्थः। णिग्गंथस्स णं गिलायमाणस्स कप्पति ततो वियडदत्तीओ . खेत्ततो पुण इमेसु गहणं / गाहा पडिग्गाहित्तते,तंजहा-उकोसामज्झिमाजहन्ना। (सू०१७२) गिहकुलपाणागारिसु, गहणं पुण तस्स होदिठाणेहिं। निर्ग्रन्थस्य ग्लायतः अशक्नुवतः, तृड्वेदनादिना अभिभूयमानस्येसागारियमादीहिं, ओगाढे अन्नलिंगेणं // 20 // त्यर्थः, आहारग्रहणं हि वेदनादिभिरेव कारणैरनुज्ञातम्, 'तओ' त्ति तिस्रः दोहिं ठाणेहिं गहणं करेति, पुराणादियाणं गिहेसु, पाणागारि त्ति- 'वियड' त्ति मनकाहारः, तस्य दत्तयः- एकप्रक्षेपप्रदानरूपाः प्रतिग्रकल्लाणावणे। पुराणादिगिहासइ, पच्छा कल्लाणावणे गिण्हेति / पुवं हीतुम्-आश्रयितुं वेदनोपशमायेति, उत्कर्षः-प्रकर्षः तद्योगादुत्कर्षा, सेज्जातरगिहातो आणिज्जति। जे दूराणयणे दोसा ते परिहरिया भवंति। उत्कर्षतीति वोत्कर्षा; उत्कृष्टत्यर्थः, प्रचुरपानकलक्षणा, यया दिनमपि सेजातरगिहासतिपच्छा णिवेसणतो वाडगसाहि सग्गामपरग्गामातोय। यापयति, मध्यमा ततो हीना, जघन्या यया सकृदेव वितृष्णो भवति जत्थ सलिंगेण वड्डाहो तत्थ परलिङ्गेणं गहणं करेति। यापनामात्रं वा लभते / अथवा- पानकविशेषादुत्कृष्टाद्या वाच्याः, गाहा तथाहि-कलमकाञ्जिकावश्रावणादेर्द्राक्षापानकादेर्वा प्रथमा 1, षष्टिका (दि) काञ्जिकादेमध्यमा 2, तृणधान्यकाञ्जिकादेरुष्णोदकस्य वा अह दिट्ठमस्सुतेसुं, परलिङ्गेणंतरे सलिङ्गे हिं। जघन्येति। देशकालस्वरुचिविशेषाद्वोत्कर्षादिनेयमिति। स्था०३ठा० आसजवाविदोसं, अदिट्टपुटवे वि लिङ्गेण / / 21 / / 3 उ०। जत्थ णगरे गामे वा सो साधू केणइ दिट्ठो वा अगारीहिं वा सुत्तो तत्थ वियडधम्मिय-पुं०(विकटधर्मिक) स्वनामख्याते शत्रुञ्जयचैत्योपरलिंगेणं ठितो गेण्हइ / ण तरति जत्थ पुण सो परलिङ्गवितो वि | पचभण्णति जति सलिंगेण वागण्हति। अहवा आसज्ज वा विदोसं' ति, द्धारकारके, ती०१ कल्प०॥ जत्थ दोसो ण णज्जति, किं एतेसिं वियर्ड कप्पं अकप्पं ति, ण वा लोगो वियडभोइ(ण)-त्रि०(विकटभोजिन्) विकटे-प्रकटे दिवसे; न रात्रौ गरहति तत्थ सलिंङ्गेण गेण्हति। अदिट्ठपुव्वे' त्ति जत्थ गामणगरादिसु (इति यावत्) भोक्तुं शीलमस्येति विकटभोजी / चतुर्विधाहाररात्रिअदिठ्ठपुव्वो तत्थवासलिंगेण गेण्हति। नि० चू०१६ उ०। (गालनविषयः भोजनवर्जके, पञ्चा० 10 विव० / उपा०॥ 'गालण' शब्दे तृतीयभागे 871 पृष्ठे गतः) (विकटपानविवरणं वसहि' | वियडवेस--पुं०(विकृतवेष) देशदशाविभवानुचितवेषे,दर्श०३ तत्त्व /
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________________ वियडा 1227- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वियार वियडा-स्त्री०(विट्टता) योनिभेदे, तत्र द्वीन्द्रियादीनां चतुरिन्द्रिय- | वियत्तूण-अव्य०(विवर्थ) आवयेत्यर्थे, आचा०१ श्रु०८ अ० 1 उ०। पर्यन्तानां सम्मूच्छिममनुष्याणां च विवृता योनिस्तेषामुत्पत्तिस्थानस्य | वियत्थ-पुं०(वितस्त) अष्टाविंशतितमे महाग्रहे, स्था०। जलाशयादेः स्पष्टमुपलभ्यमानत्वात्। प्रज्ञा० 10 पद। _दो वियत्था (सू०६०+) स्था०२ ठा०३ उ०। वियडावइवासि(न)-पुं०(विकटापतिवासिन्) विकटावतीवास्तव्ये, I लिग वियत्थि-पुं०(वितस्ति) द्वादशाङ्गुलप्रमाणे मानभेदे, जी०१ प्रति०। स्था०। वियय-त्रि०(वितत) विस्तारिते, ज्ञा०१ श्रु०८ अ० प्रसारिते, विशे०। दो वियडावईवासी। (सू०९२४) स्था०२ ठा०३ उ०। वियर-पुं०(वितर) नदीपुलिनादौ जलार्थे गर्ने, स्था०४ ठा०४ उ०। वियडावाइ(न)-पुं०(विकटापातिन्) जम्बूद्वीपे मन्दरस्योत्तरतऐरण्यवते / विदर-पुं० जलस्थानविशेषे, ज्ञा०१श्रु०१०। कूपिकायाम्, नि० चू० वर्षे प्रभासदेवाधिष्ठिते वृत्तवैताढ्यपर्वते, स्था०२ ठा० 3 उ०॥[] 15 उ०। दो वियडावाई। (सू०९२४) विवर-न० रन्ध्रे, उत्त० 20 अ०। निर्झरविशेषे, ज्ञा० 1 श्रु० 4 अ०। विकटापातिदेवयोर्द्वित्वेन तदावासपर्वतावपि द्वौ। स्था०२ ठा०२ उ०। वियरण-न०(विचरण) बालानां विजढीकरणे, प्रव०३८ द्वार। वियडासय-पुं० [विकटाश(श्र)य] विकटं-जलं तस्याशयः आश्रयो वा वितरण-न० ग्रहणानुज्ञादाने, नि० चू० 2 उ०। स्थानं विकटाशयो विकटाश्रयो वा। चुलुके, भ० 15 श०। वियरिय-त्रि०(विचरित) आसेविते, ज्ञा०१ श्रु०४ अ०। वियडासव-त्रि०(विकटाश्रव) अनिवारिताश्रवे, “वियडासवा जलम्मि वियसंती-स्त्री०(विकसन्ती) अमुकुलितायाम, प्रज्ञा०२ पद। जी०। उ, कहंतुनावा न वोडेजा।" "वियडासवे' त्यादि, विकटानि-अतिप्रक वियसिय-त्रि०(विकसित) प्रफुल्लिते, "वियसियसयपत्तपोंडरीया' टानि स्थूराणीत्यर्थः आश्रवाणि जलप्रवेशस्थानानि यस्य स तथा। व्य० विकसितानि यानि शतपत्राणि पुण्डरीकाणि च द्वारादौ प्रकृतित्वेन 1 उ०1 स्थितानि यत्रेति / सू० प्र०१८ पाहु० / स०। प्रज्ञा०। रा०। वियडी-स्त्री०(वितटी) विरूपायां तट्याम, अटव्यां च / ज्ञा० 1 श्रु० वियाउरी-स्त्री०(विजनयित्री) अपत्यानां विजननशीलायाम्, नि०।आ० 1 अ०। म०। ज्ञा०। वियंडिजंत-त्रि०(विकट्यमान) आलोच्यमाने, व्य०५ उ०। वियागरेमाण-त्रि०(व्याकुर्वत्) सम्यग्व्याकर्तरि, आचा०२ श्रु०१ चू० वियडोदग-न०(विकटोदक) प्रासुकजले, पञ्चा०१८ विव०॥ .2 अ०३ उ०। कथयति, सूत्र०१ श्रु०१४ अ०। वियत्त-त्रि०(व्यक्त) परिस्फुटे, सूत्र०१ श्रु०१४ अ०। वयः-श्रुताभ्यां प्यागृणत्-त्रि० प्रतिपादयति, सूत्र०१ श्रु०१४ अ० / व्याख्यानयति, परिणते, स०१८ सम० / बालभावान्निष्क्रान्ते, सूत्र०२ श्रु०१ अ०। सूत्र०१ श्रु०१३ अ०1आचा०। अमुक्ते, विवेकं प्राप्ते, सूत्र०१ अ०२ उ०। द्रव्यभाववृद्धे, दश०६ अ०। वियाण-न०(वितान) अनेकेषां संघाते, नि० चू० 1 उ०। स्था०। वीरजिनेन्द्रस्य चतुर्थे गणधरे, आ० म०१ अ०। ('वत्त' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 928 पृष्ठे एतद्वर्णनमुक्तम् / ) प्रीतिकरे, ज्ञा०१ श्रु०५ वियाणग-पुं०(विज्ञापक) विज्ञ, पञ्चा० 12 विव० / वादाभिज्ञ, व्य०१ अ०। स्था०। उ०। विशिष्टावबोधसहिते, आचा०१ श्रु०१ अ०२ उ०! वियत्तकिब-त्रि०(व्यक्तकृत्य) अकार्यं कृत्वाऽपि दृष्टे, स्थाo! "वियत्त वियाणमाण-त्रि०(विजानत) विशेषेण विविधं वा जानन् विजानन् / किच' त्ति व्यक्तस्य भावतो-गीतार्थस्य कृत्यं करणीयं व्यक्तकृत्यं अवगच्छति, उत्त० 12 अ०। अर्थधर्मज्ञे, उत्त०। 12 अ०। प्रायश्चित्तमिति / गीतार्थो हि गुरुलाघवपर्यालोचनेन यत्किञ्चन करोति | वियाणिय-अव्य०(विज्ञाय) विशेषेण (देवगतिमनुष्यगतित्यागामित्वतत्सर्वं पापविशोधकमेव भवतीति / अथवा- ज्ञानाद्यतिचारविशुद्धये लक्षणेन) ज्ञात्वेत्यर्थे, उत्त०७ अ०। सूत्र०। थानि प्रायश्चित्तान्यालोचनादीनि विशेषतोऽभिहितानि तानि तथा व्यप- | वियाय-अव्य०(विजनय्य) प्रसूयेत्यर्थे, 'वियायपुत्तं हरिथजूहेण समं दिश्यन्ते प्रायश्चित्ते, स्था० 4 ठा० 1 उ०। .. चरति' आव० 4 अ०। विदत्तकृत्य-त्रि० प्रायश्चित्ते, विशेषेण-अवस्थाद्यौचित्येन विशेषानभि- | वियार-पुं० (विचार) मते, अभिमते, विशे० / विचरणहितमपि दत्तं वितीर्णमभ्यनुज्ञातमित्यर्थः। यत्किञ्चिन्माध्यस्थगीतार्थेन मर्थाद् व्यञ्जने, व्यञ्जनार्थे, तथा मनःप्रभृतीनां संयोगानाकृत्यमनुष्ठानं तत् विदत्तकृत्यं प्रायश्चित्तमेव / स्था० 4 ठा०१ उ०। मन्यतरस्मादन्यतरस्मिन्निति विचारः / अर्थव्यजनयोगसं
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________________ वियार 1228 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विरइ क्रान्ती, स्था० 4 ठा०१ उ०। आव०।०। सञ्चरणे, विपा०१श्रु०६ | वियाल पुं०(विकाल) सन्ध्यायाम, नि० चू०४ उ०। विपा०। सन्ध्यापगमे, अ०।अवकाशे, ज्ञा०१ श्रु०१०। रा० उच्चारादिपरिष्ठापने, व्य०१ नि० चू०४ उ०। ज्ञा०। आचा०। प्रत्यपरालकालसमये, ज्ञा०१ श्रु०१ उ०। नि० चू० प्रव०। संज्ञाव्युत्सर्जनार्थबहिर्गमने, प्रव० 101 द्वार।। अ०। आ० म०! ग० आव०॥ विचाल-न० अन्तराले, विशे०। सम्प्रति विचारकल्पमाह व्याल-पुं० सर्प, आचा०२ श्रु०१चू०१ अ०५ उ०। अप्पत्ते अकहित्ता, अणहिगयपरिच्छणम्मि घरगुरुगा। | वियालण-न० (विचारण) ईहाज्ञाने, "वियालणं ति ईहणं ति मग्गणं वि दोहि गुरू तवगुरुगा, कालगुरू दोहि वी लहुगा / / 417 // | वा एगट्ठ।" आo चू०१०।। सूत्रे सप्तसप्तकलक्षणे ओघनियुक्तिलक्षणे वा अप्राप्ते यदि विचारभूमा- | वियालग-पुं०(विकालग) द्वितीये महाग्रहे, सू० प्र० 20 पाहु०। वेकाकिनं प्रस्थापयति तदा तस्य प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः, तेचदाभ्यां दो वियालगा (सू०१०+) स्था०२ ठा०२ उ०म०। गुरुकाः, तद्यथा-- तपोगुरुकाः, कालगुरुकाश्च / अथ प्राप्तेऽपि श्रुते वियालयारि(ण)-पुं०(विकालचारिन्) विकालेऽपि-रात्रावपि चरतीति तदर्थमकथयित्वा, कथनेऽप्यधिगतस्तदर्थो नवेत्यपरिज्ञायाधिगतमपि विकालचारी। औ० / साहसिकत्वाद् रात्रावपि विचरणशीले, ज्ञा०१ सम्यक् श्रद्दधाति न वेत्यपरीक्ष्य यदि प्रेषयति तदा प्रत्येकम-कथनेऽन श्रु०१ अ०। धिगमेऽपरीक्षणे च तस्य प्रायश्चित्तं चत्वारो लघुकाः। ते च विचाराधि वियावण-न०(वितापन) शीतार्दितस्य शीतापनयनाय काष्ठप्रज्वालने, कारात् सर्वत्रापि च द्वाभ्यां लघवः, तपोलघुकाः काललघुकाश्च / न आचा० 1 श्रु०१ अ०५ उ०। केवलमेतत् प्रायश्चित्तं किं त्वाज्ञादयश्च दोषाः / संयमविराधना त्वेवं वियावत्त-त्रि०(व्यव्यक्त) अव्यक्ते, "सामीजंभियगाभंगतो तस्स बहिया सोऽप्राप्तश्रुतादित्वादेकाकी प्रस्थापितः षट्सुजीवनिकायेषुसंज्ञा व्युत्सृ वियावत्तस्स चेइयस्स अदूरसामंते" अव्यक्तं पतितशटितम्: जेत, उड्डाहं वा स्थण्डिले व्युत्सृजन् कुर्यात्। विरुद्धदिक्षु व्युत्सृजनेना प्रकटमित्यर्थः / आ० म०१ अ० / आ० चू०। महाशुक्रदेवलोकस्थयुषोऽपगमत आत्मविराधना / तस्मात् विमानभेदे, स्था० 2 ठा०१ उ०। स्तनितकुमारेन्द्रयो?षमहाघोषपढिते य कहिय अहिगय, परिहरति वियारकप्पितो सोउ। योदक्षिणलोकपाल, भ०३ श०८ उ० स्था०। तिविहं तीहिँ विसुद्धं, परिहर नवएण भेदेणं / / 418|| वियास-पुं०(व्यास) पराशरपुत्रे, कृष्णद्वैपायनर्षों, विशे०। सूत्र०। यदा सूत्रं सप्तसप्तकादिरूपं पठितं भवति, तस्य चार्थः कथितो- विहाय-स्त्री०(व्याख्या) व्याख्यायन्तेऽर्था यस्यां सा व्याख्या। प्राकृतऽधिगतोऽधिगम्य च सम्यक् श्रद्धानविषयीकृतोऽस्तीति निशीथोक्तेन त्वात्पुंलिङ्गत्वम्। अर्थविवृतौ, स०१३६ सम०। प्रकारेण परीक्ष्यमाणस्त्रिविधं सचित्तमचित्तं मिश्रं च स्थण्डिलं परिहार वियाहिय-त्रि०(व्याख्यात) विविधमाख्यातो व्याख्यातः। आचा०१श्रु० विषयेण नवकभेदेन त्रिभिर्मनोवाकायैर्विशुद्धं परिहरति। तद्यथा-सचित्तं 4 अ० 4 उ० / तीर्थकरगणधरादिभिः प्रतिपादिते, आचा० 1 श्रु०८ स्थण्डिलं तन्मनसा स्वयं न गच्छति, नाप्यन्यान् गमयति, न चाप्यन्यं अ०३ उ०। स्था० भ०। गच्छन्तमनुजानाति / एवं वाचा 3 कायेनापि। एवं मिश्रमचित्तं चापात व्याहृत-त्रि० कथिते, ग०२ अधि०। सूत्र० / आचा० / उत्त०। संलोकादिदोषदुष्टं संभवति। वि (चा) कारकल्पिकेन विचारभूमौ गतेन स्थण्डिले उपवेष्टव्यम्। बृ०१उ०१प्रक०। ('थंडिल' शब्दे चतुर्थभागे वियुत्त-त्रि०(वियुक्त) रहिते, नि० चू०२० उ०। विशे०॥ 2370 प्रष्ठे शेषविधिरुक्तः / ) विय्या(खा)हल-पुं०(विद्याधर)"ज-ध-यां यः" ||262 / / इति धस्थाने द्विरुक्तो यः / वैताठ्यपर्वतमनुष्ये, "अप्प किल विय्याहले वियारण-न०(विचारण) अनुगमने, अनु०। अर्थानां पर्यालोचने, आ० आगदे' प्रा०४ पाद। म०१ अ० स्थान विर-धा०(गुप) गोपने, "गुप्येर्विर--ण्डौ" ||8/4 / 150 // इति गुप्यतेर्विविदारण-न० स्फोटने, विशे० आव० भेदने, आव०४ अ०। स्था०। रादेशः। विरइ। गुप्पइ / गुप्यति / प्रा० 4 पाद / वियारभूमि-स्त्री०(विचारभूमि) शरीरचिन्ताद्यर्थगमने, कल्प०३ अधि० मञ्ज-धा० आमदने, भजेर्वेमय -- मुसुमूर-मूर-सूर - सूड-विर६ क्षण। विष्ठोत्सर्गभूमौ, आचा०२ श्रु०१चू०१ अ०३ 30 / व्य०। नि० पविरज-करञ्ज-नीरजाः" ||4|106 // इति भजधातोर्विरादेशः। चू०।बृ०॥ विरइ / भनक्ति। प्रा० 4 पाद। वियाररयणागर-पुं०(विचाररत्नाकर) हीरविजयसूरिशिष्यकीर्तिविजय- | विरह-स्त्री०(विरति) विरमणं विरतिः / स्था० 1 ठा० / प्राणाकल्पसुबोधिकाकारविनयविजयगुरौ, कल्प०३ अधि०६ क्षण / तिपातादिनिवृत्तौ, सूत्र०१ श्रु० 11 अ01 प्रश्न०। ("पाणा(विचाररत्नाकरवृत्तम् 'कप्पसुबोहिया' शब्देतृतीयभागे 236 पृष्ठेगतम्।) इदायविरई" (महा०१चू०) इत्यादि 'आलोयणा' शब्दे द्वितीयवियारामयसंगह-पुं०(विचारामृतसंग्रह) चैत्यपूजाद्यर्थप्रतिबद्धे, ग्रन्थभेदे, भागे 436 पृष्ठे गतम्।) सावद्ययोगान्निवृत्ती, विशे० / उत्त०। प्रश्न०। ध०२ अधिक। आ० म०। सम्यक्त्वपूर्विकायां सावद्यारम्भान्निवृत्तौ, सूत्र०२ श्रु०२
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________________ विरइ 1229 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विरहग्गि अ०। प्रत्याख्येयार्थेषु निवृत्तिपरिणामे, पञ्चा०५ विव०। वर्जने, संघा० विरतः। पञ्चा० 6 विव०।आ० चू०। आव०। विशेषण देशविरते श्रावके, १अधि०१प्रस्ता०। आ० म०। स०४ सम०। विरइपरिणाम-पुं०(विरतिपरिणाम) प्राणातिपातादिनिवर्त्तने पारमार्थि- | विरल-त्रि०(विरल) अल्पे, अष्ट० 26 अष्ट०। आ० म०। ज्ञा० / उपा०। काध्यवसाये, ध०२ अधि०। पं०व०। विरलिया-स्त्री०(विरलिका) दोरिकाख्ये पटीभेदे, प्रव० 62 द्वार। विरइभाव-पुं०(विरतिभाव) सावद्ययोगविरमणपरिणामे, पञ्चा० 14 | द्रिसरसूत्रपट्याम्, बृ०३ उ०) / विव०। विरली-स्त्री०(विरली) चतुरिन्द्रियजीवभेदे, उत्त०३६ अ०। विरइय–त्रि०(विरचित) निर्मिते, ज्ञा० १श्रु०१ अ०। कल्प०। विहिते, विरलोत्तमंग-न०(विरलोत्तमाङ्ग) विरलकेशे, "लोयविरलुत्तमंग" अत्र स०। 'विरइयवरकण्णपूरे' विरचिते वरकर्णपूरे प्रधानकर्णाभरणविशेषौ उत्तमाङ्गशब्देन उत्तमाङ्गस्थाः केशा उच्यन्ते। पिं०। यस्य स तथा। भ०७ श०६ उ०। औ०। विरल्ल-तन्-धा० "तनेस्तङ-तडु-तडुव-विरल्लाः " ||84137 / / विरइरयण-न०(विरतिरत्न) अत्युत्तमत्वाद् विरतितत्त्वे, पं०व०५द्वार! | इति तनधातोर्विरल्लादेशः। विरल्लइ / तनोति। प्रा०! विरंगभंगि-त्रि०(विरङ्गभङ्गि) तथाविधरङ्गेन-रागद्रव्येण भनिर्विच्छि- | विरल्लअ-पुं०(विरल्लक) लावकपक्षिणि, बृ०२ उ०। त्तिर्यत्र तद् विरङ्गभङ्गि। वर्णचित्रे, व्य०८ उ०। विरल्लिअ-त्रि०(तत)तनूञ् विस्तारे इत्यस्य, "तनेस्तङ-तडतड्डवविरत्त-त्रि०(विरक्त) क्वचिदपिरतिमप्राप्ते, प्रश्न०२ आश्रद्वार। निवृत्ते, विरल्लाः" // 84137 // तनूधातोर्विरल्लादेशः प्रा० / विरलीकृते, प्रश्न०५ संव०। द्वार। आतु०। विविधरागे, विरागे वा। आचा०१ श्रु० जं०२ वक्ष०ा जी०। विस्तारिते, स्था० 4 ठा०४ उ०। जलाइँषुः दे० 2 अ०३उ०॥ ना०७ वर्ग 82 गाथा। विरमण-न०(विरमण) रागादिविरतिप्रकारे, ज्ञा०१ श्रु०८ अ०।आतु०।। | विरस-न०(विरस) विगतरसे, पुराणधान्यौदनादौ, स्था०५ ठा०१3०। सर्वसावद्ययोगनिवृत्तौ, आ० म०१ अ०। ज्ञा०। दश०। भ०। प्रश्न०। विरमाल-धा० (प्रति-ईक्ष) प्रत्याशायाम्, "प्रतीक्षेः सामयविहीरविर- | विरसमेह-पुं०(विरसमेघ) विरुद्धरसे मेघे, भ०७ श०६ उ०। दे० ना०। मालाः" ||8141163 / / इति प्रतीक्षतेर्विरमाला देशः / विरमालइ। विरसाहार-त्रि०(विरसाहार) विरसं-विगतरसं पुराणधान्यौदनादि प्रतीक्षते। प्रा० 4 पाद। आहरन्तीति विरसाहाराः / विरसो वाऽऽहारो यस्य स विरसाहारः / विरय-त्रि०(विरत) विरमति स्म सावद्ययोगेभ्यो निवर्तते स्मेति विरतः। अभिग्रहविशेषेण विरसंस्यैवाहर्तरि, स्था०५ ठा०१ उ०। सूत्र०। औ०। "गत्यकर्मण्यनाधारे वा' इति कतरिक्तप्रत्यय पं० सं०१ द्वार। विरइ-पुं०(विरह) विनाशे, पञ्चा० 16 विव० / अभावे, पं० व० 3 द्वार। प्राणातिपातादिनिवृत्ते, दश०२ अ०। उत्त० / विषयसुखनिवृत्ते, द्वा० विजनत्वे, नि०।ज्ञा०ा त्यागे, पञ्चा०४ विव०॥"अष्टकाख्यं प्रकरणं, 27 द्वा० / औ० / दश का सूत्र० / असंयमानिवृत्ते, उत्त० 15 अ०। कृत्वा यत्पुण्यमर्जितम् / विरहान्ते न पापस्य, भवन्तु सुखिनो जनाः सूत्र० / आचा०।हिंसाधाश्रवद्वारेभ्यो निवृत्ते, आचा०१ श्रु०५ अ०२ // 1 // " विरहशब्देन हरिभद्राचार्यकृतत्वं प्रकरणस्यावेदितं विरहाङ्कउ०। उत्त०। सूत्र०। संथा०।आचा०1निवृत्ते, सूत्र०१ श्रु०२अ०१ त्वाद्धरिभद्रसूरेरिति। हा०३२ अष्ट०। उ० / सम्यक्संयमरूपेणोत्थिते, सूत्र०१ श्रु०२ अ०२ उ० / विशे०। अहेसत्तमा णं पुढवी उक्कोसेणं छम्मासा विरहिया उववाएणं, विविधमनेकधा द्वादशविधे तपसि रतो विरतः। तपोरते, दश० 4 अ०। सिद्धिगईणं उकोसेणंछम्माणा विरहिया उववाएणं।(सू०५३५४) ध० / पुं०। द्वाससप्ततितमे महाग्रहे, चं० प्र० 20 पाहु० / सू० प्र०। अधः सप्तमीत्यत्र सप्तमी हि रत्नप्रभाऽपि कथञ्चिद् भवतीति तद्व्यकल्प० / कर्म०1 आ० म० / विरतिर्विरतं कीवे क्तप्रत्ययः / नपुं०। वच्छेदार्थमधोग्रहणम्: अतस्तमस्तमेत्यर्थः / साषण्मासान् विरहितोपसावधयोगप्रत्याख्याने, कर्म०२ कर्म०। ('अविरय-सम्मद्दिट्टि' शब्दे पातेन, यदाह- "चउवीसई मुहुत्ता 1, सत्त अहोरत २तह य पन्नरस 3 / प्रथमभागे 806 पृष्ठे व्याख्यातमेतत्।) मासो य 4 दो य 5 चउरो 6, छम्मासा विरहकालो उ७॥१॥" इति। विरयण-न०(विरचन) निक्षेपे, अनु०। सिद्धिगतावुपपातो गमनमात्रमुच्यते न जन्म, तद्वेतूनां सिद्धस्याभावाविरयणा-स्त्री०(विरचना) प्रस्तारे, अनु०। विधौ, स्था०४ ठा०२ उ०। दिति, इहोक्तम्-"एगसमओजहन्नं, उक्कोसेणं हवंति छम्मासा। विरहो विरयाऽविरह-स्त्री०(विरताविरति) विरमणं--विरतं, न विरतिः,विरतिः, सिद्धिगईए, उव्वट्टणवज्जिया नियमा // 1 // " इति / शेषं सुगममिति / विरतं चाविरतिश्च यस्यां निवृत्तौ सा विरताविरतिः। देशविरतिसामायिके, स्था०६ठा०३ उ०। एकान्त-कुसुम्भरक्तवस्त्रयोः, दे० ना०७ वर्ग 1 विशे०। गाथा। विजने, नि० चू०१ उ०। विरयाऽविरय-त्रि०(विरताविरत) विरतः स्थूलादिविशेषणेभ्यः प्राणा- | विरहग्गि-पुं० (विरहानि) "ह्रस्वः संयोगे" |8184 // इति संयोगे परे तिपातादिभ्योऽविरतश्वानिवृत्तः सूक्ष्मादिविशेषणेभ्यः स एवेति विरता- दीर्घस्य ह्रस्वः / प्रियविप्रयोगजनितशोकाग्नौ; प्रा०।
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________________ विरहय १२३०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विरुद्ध विरहय-पुं०(विरहक) पुष्पप्रधाने, विशे० / अन्तरकाले, आ० म०१अ०१ ___ क्षायिकादिचारित्रं सामायिकादीति // 3 // स०३ सम० / प्रश्न० / विरहानल-पुं०(विरहानल) विरहाग्नौ, "विरहानलजालकरालि अउ कस्यचिद्वस्तुनःखण्डने, आव० 4 अ० स्था०ाखण्डनायाम, विराहणा पहिओ को विबुडविडिअओ" | प्रा०४ पाद। खंडणा भंजणा य एगट्ठा / नि० चू०१ उ०। पं० सू०। अपराधासेवने, विरहाल-(देशी) कुसुम्भरक्ते वस्त्रे, दे० ना०७ वर्ग 68 गाथा। षो०१३ विव०। पं०व०। औ०। आ० चू०1विराधना द्विविधा--संयमे, आत्मनि च / तत्र संयमविषया तावदियम्-"अणटो दंडो विकहा, विरहालंभ-पुं०(विरहालम्भ) विजनालम्भे, नि० चू०१ उ०। वक्खेवो विसोत्तिया य सइकरणं / आलिंगणाए दोसा, ऽसंनिहिए विरहाली-स्त्री०(विरहाली) कणधान्यभेदे, ध०२ अधि०। वायमाणस्स // 1 // " बृ०१ उ०३ प्रक० 1 नि० चू०। आ० चू०। विरहिय-त्रि०(विरहित) विजनस्थाने, विपा०१ श्रु०६ अ०। वियुक्ते, नाणस्स विराहणा णाण-विराहणा। आ० चू 0 / “पडिक्कमामि तिहिं आतु० / त्यक्ते , प्रव० 40 द्वार / विशे०। "निरयगईणं केवइयं कालं विराहणाहिं।" विगता आराहणा विराहणा, नाणविराहणाए अकालसविलं विरहिया" भ०१श०१० उ०। ज्झायकारओ उदाहरणं / दसणविराहणाए सावगधीता जल्लगंधेणं / विरा-धा०(वि-ली) विलयगमने, विराइ। विलिज्जइ। विलीयते। प्रा०४ चरित्त-विराहणाएखुड्डुओ सुतओ जातो, महिसो वा, एताहिं तिहिं पाद। विराहणाहिं जो मे० जाव दुक्कडंति / आ० चू० 4 अ० (एते द्वे अपि विराग-पुं०(विराग) विरञ्जने, आचा०१श्रु०३ अ०३उ०।"विराग विराधने 'पलम्ब' शब्दे पञ्चमभागे 705 पृष्ठे गते।) (संयमविराधना रूवेसु गच्छेजा" आचा०१ श्रु०३ अ०३ उ०। सूत्र०। (सर्वकामेषु योगविराधनादिवक्तव्यता 'उस्सारकप्प' शब्दे द्वितीयभागे 1174 विरक्तता 'सव्वकाम' शब्देवक्ष्यते।) विरुद्धोरागो विरागः अमनोज्ञरागे, पृष्ठे गता।) विगतो रागो मन्मथभावो यस्मात्स विरागः / वैराग्ये, तं०। विराहणी-स्त्री०(विराधनी) ज्ञानदर्शनचारित्रविराधनाकारिण्यां विराड-पुं०(विराट्) विशेषो राट्यत्रा देशभेदे, तद्देशाधिपे नृपेचा नगरभेदे, भाषायाम्, "सचा मोसा विराहणी होई" दश०७अ01 ('भासा' शब्दे यत्र युधिष्ठिरकाले कीचकराजो राजा आसीत्। "नवमं इयं विराडनगरं पञ्चमभागे 1523 पृष्ठे वक्त्तव्यतोक्ता।) तत्थ णं तुम कीयं रायं भाउयसयसमगं करयल जाव समोसाह" // | विराहिता-अव्य०(विराध्य) दूषयित्वेत्यर्थे, सूत्र०१श्रु०११ अ०। ज्ञा०१ श्रु०१६ अ०। विराहिय-त्रि०(विराधित) देशभग्ने, आव० 5 अ० / सुतरां भग्ने, विराम--पुं०(विराम) अवसाने, दश० अ०१०। एकान्ततोऽभावमनापादिते, ध०३ अधि०। दुःखेन स्थापिते, आव०४ विरामपचयाभास-पुं०(विरामप्रत्ययाभ्यास) विरामो वितर्कादिचिन्ता- | अ००। त्यागः स एव प्रत्ययो विरामप्रत्ययस्तस्याभ्यासः पौनः पुन्येन चेतसि विराहियसंजम-पुं०(विराधितसंयम) विराधितः सर्वात्मना खण्डितो न निवेशनं विरामप्रत्ययाभ्यासः। विरामप्रत्ययस्यशतताभ्यासे, "विराम पुनः प्रायश्चित्तप्रतिपत्त्या भूयः सन्धितः संयमो यैस्ते विराधितसंयमाः। प्रत्ययाभ्यासान्नेति नेति निरन्तरात्। ततः संस्कारशेषाच, कैवल्य खण्डितचारित्रेषु, प्रज्ञा०२० पद। मुपतिष्ठते।" द्वा० 20 द्वा०। विरिंच-पुं०(विरिचि) ब्रह्मणि, प्रजापतौ, पाइ० ना०। विरायंत-त्रि०(विराजमान) शोभमाने, ज्ञा० 1 श्रु०१ अ० प्रश्न०। रा०। सूत्र०। विरिचिअ-(देशी) विमल-विरक्तयोः, दे० ना०७ वर्ग९३ गाथा। विराल-पुं०(विडाल) माजरि, प्रज्ञा०११ पद। "जहा विडालावसहस्स | विरिंचिर-दे० ना०। अश्वविरलयोः, दे० ना०७ वर्ग 63 गाथा। मज्झे, नमूसगाणं वसही पसत्था" उत्त०३२ अ01 विरिक-(देशी) पाटिते, दे० ना०७ वर्ग 64 गाथा। विराली-स्त्री०(विडाली) मार्जार्याम, प्रज्ञा०११पदा सूत्र० आ०म०। विरिलअ-(देशी) अनुचरे, दे० ना०७ वर्ग 66 गाथा! परिवाट्प्रयुक्तमूषिकविद्याप्रतिपक्षभूतायां विडालाप्रधानायां विद्या विरुअ-(देशी) विरूपार्थे, दे० ना०७ वर्ग 63 गाथा। याम्, आ० म० अ०। आ० क०। विशे०। विदारी-(स्त्री०) बल्लीभेदे, प्रव० 4 द्वार। ध०। विरूद्ध-त्रि०(विरुद्ध) प्रतिपन्थिनि, पञ्चा०११ विव०। हेत्वाभासभेदे, रत्ना०। विराहग-पुं०(विराधक) विराधयतीति विराधकः / ज्ञानादीनां विनाशके, नि० चू०१ उ०। स०। रा०।ज्ञा०। अधुना विरुद्धलक्षणमाचक्षतेविराहणा-स्त्री०(विराधना) विराध्यन्ते दुःखंस्थाप्यन्ते प्राणिनोऽनयेति साध्यविपर्ययेणैव यस्यान्यथाऽनुपपत्तिरध्यवसीयते स विरुद्ध विराधना। आव०४ अ०। ज्ञानादीनां सम्यगननुपालनायाम, प्रश्न०५ इति // 52 // सवं० द्वार। यदा केनचित्साध्यविपर्ययेणाविनाभूतो हेतुः साध्याविना-भावभ्रान्त्या तओ विराहणा पण्णत्ता, तं जहा-नाणविराहणा, दंसण- प्रयुज्यते तदाऽसौ विरुद्धो हेत्वाभासः। विराहणा, चरित्तविराहणा। (सू०३+)। अत्रोदाहरणम्विराधनाः खण्डनास्तत्र--ज्ञानस्य विराधना ज्ञानविराधना / ज्ञान- यथा नित्य एव पुरुषोऽनित्य एव वा, प्रत्यभिज्ञानादिमत्त्वाप्रत्यनीकता- निहवादिरूपा एवमितरेऽपि नबरं दर्शनं सम्यग्दर्शनं | दिति // 53 //
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________________ विरुद्ध 1231 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विरोहि आदिशब्दात्-स्मरणप्रमाणतदाभासादिग्रहः। अयं च हेतुः प्राचि साध्ये तदसत् / उभयलक्षणोपपन्नत्वेनोभयव्यवहारविषयत्वात् / तुलायां सांख्यादिभिराख्यातः स्थिरैकस्वरूपपुरुषसाध्यविपरीतपरिणामि- प्रमाणप्रमेयव्यवहारवत्। धर्मिस्वरूपविपरीतसाधनधर्मिविशेषविपरीतपुरुषेणैव व्याप्तत्वाद्विरुद्धः / तथाहि-यद्येष पुरुषः स्थिरैकस्वरूप एव साधनौतुसौगत सम्मतौ हेत्वाभासावेव न भवतः; साध्यस्वरूपविपर्ययतदा सुषुप्ताद्यवस्थायामिव बाह्यार्थग्रहणादिरूपेण प्रवृत्त्यभावात् प्रत्य- साधकस्यैव विरुद्धत्वेनाभिधानाद् अन्यथा समस्तानुमानोच्छेदापत्तिः। भिज्ञानादयः कदाचिन्न स्युः,तदावे वा स्थिरैकरूपत्वहानिः। अवस्था- तथाहिअनित्यः शब्दः कृतकत्वादिति हेतुरनित्यतां साधयन्नपि यो यः भेदादयं व्यवहारः; इत्यप्ययुक्तम्, तासामवस्थातुर्व्यतिरेकाव्यतिरेक-- कृतकः स शब्दो न भवति, यथा घटः / यो यः कृतकः स श्रावणो न विकल्पानुपपत्तेः, व्यतिरेके तास्तस्येति संबन्धाभावः / अव्यतिरेके भवति, यथा-स एवेति धमिणः स्वरूपं विशेषं च साधयत्येवेत्यहेतु: पुनरवस्थातैवेति तदवस्थस्तदभावः / कथं च तदेकान्तैक्ये अवस्था- स्यात्, नचैवं युक्तमिति / / 53|| रत्ना०६ परि० / पुण्यपापपरलोकाभेदोऽपि भवेत्। तथैकान्तानित्यत्वेऽपि साध्ये सौगतेन क्रियमाणे अयं द्यभ्यु-पगमपरेऽक्रियावादिनि, तस्य सर्वपाखण्डिभिः सह विरुद्धचारिहेतुर्विरुद्धः परिणामिपुरुषेणैव व्याप्तत्वात् / तथाहि- अत्यन्तोच्छेद- त्वात्। ग०२ अधि० / औ० / ज्ञा० / स्था०। देशकालनृपलोकधर्मविधर्मिणि पुरुषे पुरुषान्तरचित्तवदेकसन्तानेऽपि स्मृतिप्रत्यभिज्ञाने न रुद्धवर्जनम्। ध०२ अधि०। स्याता; नित्यानित्ये पुंसि पुनः सर्वमेतदवदातमुपपद्यते / विरोधादेः विरुद्धरछ-न०(विरुद्धराज्य) विरुद्धः स्वकीयस्य राज्ञः प्रतिपन्थी तस्य सामान्यविशेषवचित्रज्ञानवचासंभवात्। तथा तुरङ्गोऽयं शृङ्गसङ्गित्वादि राज्यं कटकं देशो वा विरुद्धराज्यम् / स्वराजविरुद्धनृपस्य सेनायां, त्याधप्यत्रोदाहर्त्तव्यम् / ये च सति सपक्षे पक्षविपक्षव्यापका इत्यादयो राज्ये च। पञ्चा०१ विव०। ध०२०। ध०। विरुद्धभेदास्तेऽस्यैव प्रपञ्चभूताः। तथाहि-सति सपक्षे चत्वारो विरुद्धाः विरुद्धरजाइकम-पुं०(विरुद्धराज्यातिक्रम) विरुद्धनृपयो राज्यं विरुद्धपक्षविपक्षव्यापको यथा-नित्यः शब्दः कार्यत्वात्। सपक्षश्चात्र चतुर्ध्वपि राज्यं तस्यातिक्रमोऽतिलकन विरुद्धराज्यातिक्रमः / विरुद्धनृपाज्ञामव्योमादिनित्यः, स्वकारणसमवायः कार्यत्वम्; उभयान्तोपलक्षिता न्तरेण तद्देशगमनरूपे स्थूलादत्तादानविरतेऽतिचारे, आव० 6 अ० / सत्ताऽनित्यत्वमित्येके, तदभिप्रायेण प्रागभावस्यापि नित्यत्वाधुक्तमेव श्रा०। उपा०। विरुद्धोदाहरणम् / अन्यथा न विपक्षव्यापि कार्यत्वं स्यात् / यदा | विरूड-त्रि०(विरूढ) अङ्कुरितेषु द्विदलधान्येषु, प्रव० 4 द्वार। ध०। त्वादिमत्त्वमेव कार्यत्वं तदा प्रध्वंसस्य नित्यत्वेऽपि कार्यत्वमस्तीत्यनैकान्तिकं स्यान्न विरुद्धमिति। अयंचपक्षे शब्दे विपक्षे घटादौ व्याप्य विरूव-त्रि०(विरूप) नानाभूते, आचा०१ श्रु०६ अ०३ उं०। सूत्र० / वर्तते॥१॥ विपक्षैकदेशवृत्तिः पक्षव्यापको यथा-नित्यः शब्दः सामान्य बीभत्सामवस्थां प्राप्ते, ज्ञा०१ श्रु०८ अ०। वत्त्वे सत्यस्मदादिबाह्येन्द्रियग्राह्यत्वात् / अर्हत्यर्थे कृत्याभिधानात् विरूवरूव-त्रि०(विरूपरूप) विरूपं बीभत्सं मनोऽनाहादि, विविधं वा ग्रहणयोग्यतामात्रग्राह्यत्वमुक्तम्, तेनास्य पक्षव्यापकत्वम्, विपक्षे तु मन्दादिभेदाद्रूपं येषां ते विरूपरूपाः / आचा०१ श्रु०६ अ०३ उ०। घटादावस्ति न सुखादौ ॥२शा पक्षविपक्षकदेशवृत्तिर्यथा-नित्यः शब्दः | इष्टानिष्टरूपतया नानाप्रकारेषु, आचा०१ श्रु०२ अ०१ उ०। सूत्र०। प्रयत्नानन्तरीयकत्वात्। अयं हि पुरुषादिशब्दे पक्षेऽस्तिन वाय्वादिशब्दे नि० चू। बीभत्सरूपे, आचा० 1 श्रु०१ अ०१ उ०। घटादौ च, विपक्षे न विधुदादौ॥३॥ पक्षकदेशवृत्तिर्विपक्षव्यापको यथा- | विरेय-पुं०(विरेक) विभजने, बृ०३ उ०! आव०। नित्या पृथिवी कृतकत्वात् ! कृतकत्वं व्यणुकादावस्ति पृथिव्यां न विरेयण-न०(विरेचन) कोष्ठशुद्धिरूपे, उत्त० 15 अ० 1 वान्त्यादिनापरमाणौ, विपक्षे तुघटादौ सर्वत्रास्ति॥४॥असति सपक्षे चत्वारो विरुद्धाः (दश०३ अ01) निःश्रोतआदिभिर्वा अधोविरेके, ज्ञा०१श्रु०१३अ०। पक्ष-विपक्षव्यापको यथा-आकाशविशेषगुणः शब्दः प्रमेयत्वात् / एषु आचा०। आव०। उत्त०। (विरेचने प्रायश्चित्तादि वमण' शब्देऽस्मिन्नेव चतुर्वप्याकाशे विशेषगुणान्तरस्याभावात् सपक्षाभावः। अयं च पक्षशब्दे, भागे गतम्।) निरूहे च। सूत्र०१ श्रु०६ अ०। विपक्षे च रूपादौ व्याप्य वर्तते॥५॥ पक्षविपक्षकदेशवृत्तिर्यथा-तत्रैवपक्षे विरोयण-पुं०(विरोचन) विविधैः प्रकारै रोच्यन्ते दीप्यन्ते इति विरोचनाः। प्रयत्नानन्तरीयकत्वात् अयं पक्षे पुरुषादिशब्दे एव, विपक्षे च रूपादावे उत्तरदिग्वासिषु, स्था० 4 ठा० 1 उ०। वास्ति, न वाय्वादिशब्दे विद्युदादौ च // 6 // पक्षव्यापको विपक्षकदेशवृत्तिर्यथा- तत्रैव पक्षे बाह्येन्द्रियग्राह्यत्वात्। अयं शब्दं पक्षं व्याप्नोति, विरोल-धा०(मन्थ) विलोडने, 'मन्थेघुसल-विरोलौ" // 8 / 4 / 121 / / इति मन्थधातोर्विरोलादेशः / विरोलइ। मथ्नाति / प्रा० 4 पाद। विपक्षे तु रूपादावस्ति न सुखादौ |7|| विपक्षव्यापकः पक्षैकदेशवृत्तिर्यथा-तत्रैवपक्षे अपदात्मकत्वात्। अयं पक्षकदेशे वर्णात्मकेऽस्ति / विरोह-पुं०(विरोध) विपर्यये, विशे०। द्विविधो हि विरोधः-परस्परपरि: नान्यत्र, विपक्षे तुरूपादौ सर्वत्रास्ति।।८। ननु चत्वार एव विरुद्धभेदा ये हारलक्षणः, सहानवस्थानलक्षणश्च / नं०। सूत्र०। पक्षव्यापका नान्ये ये पक्षकदेशवृत्तयस्तेषामसिद्धलक्षणोपपन्नत्वात्। | विरोहि-त्रि०(विरोधिन) विरुद्धे, पूर्वापरविरोधादिदोषाघ्रातै, स्या०।
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________________ विल 1232 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विलुलिय विल-न०(विड) खनिविशेषोत्पन्ने लवणभेदे, आचा०२ श्रु०१ चू०१ | विलासिय-त्रि०(विलासित) विलासः संजातोऽस्येति तारकादिदर्शना अ०६ उ०। जत्थ विसए लोणं नत्थि तत्थ उ सो पचति तं विललोणं / दितच्प्रत्ययः। विलासवत्याम, जी०३ प्रति०४ अधिकाजातविलासे, भण्णति। नि० चू० 11 उ०! ज्ञा०१ श्रु०१७ अ०। विलअ-(देशी) सूर्यास्तमने, दे० ना० 7 वर्ग 63 गाथा। विलिअ-(देशी) लज्जायाम, दे० ना०७ वर्ग 65 गाथा! विलइअ-(देशी) अधिज्य-दीनयोः, दे० ना०७ वर्ग 62 गाथा। विलिंगण-न०(विलिङ्गन) कन्दर्पप्रधानानां वक्त्रसंयोगादिकानां विलओलग-(देशी) लुण्टाके, ये ग्राम मुष्णन्ति / बृ० 1303 प्रक०। क्रियाणां करणे, आचा०२ श्रु०२ चू०२ अ०! विलंब पुं०(विलम्ब) परिमन्थरे, स्था०७ठा०३ उ०। विलिंजरा-(देशी) धानासु, दे० ना०७ वर्ग 66 गाथा। विलंबिय-न०(विलम्बित) सूर्येण परिभुज्य मुक्ते नक्षत्रभेदे, व्य०१३०। विलिंपावंत-त्रि०(विलेपयत्) विलेपनं कुर्वनि, नि० चू०१७ उ०। विशे० पं०व०। आ०म०ाद०प० विलम्बकरणे, नाट्यभेदे च। आ० | विलिइय-त्रि०(व्यलीकित) सञ्जातव्यलीके, भ०१५ श०। म०१ अ०। रा०। विलिय-न०(व्यलीक) "इः स्वप्नादौ" ||8/146|| इत्यादेर्यस्येत्त्वम्। विलग्ग-त्रि०(विलग्न) अवस्थिते, प्रश्न० 3 आश्र० द्वार / आ० म०। प्रा० / "पानीयादिष्वित्' ||8/1 / 101 // इति मध्येकारस्त्येत्वम् / नि० चू०। प्रा०। असत्ये, प्रा०! विलट्ठि-त्रि०(वियष्टि) चतुरङ्गुलोनाऽऽत्मप्रमाणे दण्डभेदे, "लट्ठी | विलिव्विली-(देशी) कोमलनिःस्थामतनौ, दे० ना०७ वर्ग 66 गाथा। आयपमाणा, विलट्ठी चउरंगुणेण परिहीणा," ध०३ अधि०। विलिहमाण--त्रि०(विलिखत) नितरामनेकशोवा कर्षति, भ०८ श०१उ०। विलय-पुं०(विलय) विनाशे, विशे० आव०। विलिहिलमाण-त्रि०(विलिख्यमान) खच्यमाने, कल्प०१अधि०१क्षण। विलया-स्त्री०(वनिता) "वनिताया विलया" ||8 / 21128|| इति वनि विलीण-त्रि०(विलीन) क्लिन्ने, ज्ञा०१ श्रु०१ अ० / जुगुप्सिते, प्रश्न० ताया विलयादेशो वा / योषिति, प्रा०।। १आश्र० द्वार। ज्ञा०। विलवणया-स्त्री०(विलपनता) क्लिष्टभाषणे, ग०१ अधि०। विलुंगय-पुं०(विलुङ्कक) निर्ग्रन्थे, अकिञ्चने, आचा०२ श्रु०१ चू०१ विलवमाण-त्रि०(विलपमान) आर्तस्वरं कुर्वाणे, विपा०१ श्रु०२ अ01 अ०२ उ०१ विलापान् कुर्वति, विपा० 1 श्रु०६ अ०। विलुंचण-न०(विलुचन) विच्छित्या विश्वतो वा लुञ्चने, पिं०। विलविय-न०(विलपित) आर्तस्वरे, प्रश्न० 5 संव० द्वार। विलापे, ज्ञा० १श्रु०६ अ०॥ विलपितमिव विलपितम्। निरर्थकतया मत्तबालगीततुल्ये, विलुप-धा०(काङ्क्ष) वाञ्छायाम्, "काङ्गे राहाहि-लङ्कालिस - बच्च उत्त० 13 अ० औ०। -बंफ-मह-सिह-विलुम्पाः॥८४|१६|| इति काडतेविलुम्पादेशः। विलुंफ्इ। कासति। प्रा० 4 पाद। विलवियसह-पुं०(विलपितशब्द) भर्तृगुणान् स्मारं 2 प्रलापरूपे शब्दे, उत्त०१६ अ०। विलुंपअ-(देशी) कीटे, दे० ना०७ वर्ग 67 गाथा। विलसंत-त्रि०(विलसत्) दीप्यमाने, कल्प०१ अधि०३क्षण। विलुपइत्ता-त्रि०(विलम्पयित) कशाप्रहारादिभिरत्यन्त दुःखोत्पादनेन विलसिय-न०(विलसित) नेत्रविकारे, ज्ञा० 1 श्रु०६ अ०। कतरिक्तः। लुम्पके, सूत्र०२ श्रु०२ अ०। सर्वस्वापहारेण आशु पञ्चत्वं नयति, आचा०१श्रु०८ अ०२ उ०।ग्रामघातादिना लुण्ठके, आचा०१श्रु०८ त्रि०। विलासवति, औ०। अ०५ उ०। विलह-(देशी) धवले, दे० ना० 7 वर्ग 61 गाथा। विलुत्त-त्रि०(विलुप्त) विशेषेण लुप्ते, "विलुत्तो वि वंतेहिं, ढंककंकेहिं विलाव-पुं०(विलाप) आर्तस्वरकरणे, प्रश्न०१आश्र० द्वार। शब्दविशेषे, णंतसो' विलुप्तः--चुन्थितः। विशेषेण लुप्तो विलुप्तः नासानेत्रान्त्रकाप्रश्न०३ आश्र० द्वार। लेयादिषु चुण्टित इत्यर्थः / उत्त० 16 उ01 विलास-पुं०(विलास) सकामे नेत्रचेष्टाविशेषे, अनु० / ज्ञा० / स्त्रीणां | | विलुत्तहिअअ-(देशी) प्रासङ्गिककार्यकरणानभिज्ञे, दे० ना०७वर्ग७३ स्थानासनगमनादिरूपे चेष्टाविशेषे, सच"स्थानासनगमनानां, हस्त गाथा। भूनेत्रकर्मणां चैव। उत्पद्यते विशेषो, यःश्लिष्टोऽसौ विलासः स्यात्॥१॥" अन्ये त्वाहुः-विलासो-नेत्रजो विकारः। तथा चाक्तम् - "हावो मुख- विलुप्पमाण-त्रि०(विलुप्यमान) बाह्योपध्यपहारतो लुप्यमाने, उपा० विकारः स्याद, भावश्चित्तसमुद्भवः / विलासोनेत्रजो ज्ञेयो, विभ्रमो धूस- | 7 अ० / मुद्भवः // 1 // " रा०1 औ० / भ० / ज्ञा० / प्रश्न० / ग०। ज्ञा० / विपा०। | विलुलिय-त्रि०(विलुलित) शिथिलतया चञ्चले, प्रश्न०३ आश्र० द्वार। बृ०। जं०। स्वकुलौचित्येन श्टङ्गारादिकरणे, रा०। लुठिते, प्रश्न०१आश्र० द्वार।
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________________ विलेवण 1233 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विवरीउप्पाय - विलेवण-न०(विलेपन) कुसमचन्दनादिभिर्लेपने, षो०६ विव०ा औ०। / विवच्छिय-पुं०(विपश्चित्) एकान्तपण्डिते, द्वा०३१द्वा०। कुड्कुमचन्दनादिना विलेपनकरणे, ध०२ अधि०। विवजअ-पुं०(विपर्यय) अन्यथाकरणे, पं०व०४ द्वार। व्यत्यासे, पञ्चा० विलेवणविहि-पुं०(विलेपनविधि) विलेपनप्रकारे, उपा० 1 अ०। / 6 विव० / अतस्मिस्तदध्यवसाये, विशे०। (विलेवणविहिपरिमाणं करेइ इति आणंद' शब्दे द्वितीयभागे 106 पृष्ठे विवञ्जणा-स्त्री०(विवर्जना) विशेषतस्त्यागे, मिथ्याश्रुतश्रवण-कुट्टाष्टगतम्।) यक्षकर्दमादिपरिज्ञाने, जं०२ वक्ष०ा कलाभेदे, ज्ञा०१श्रु०१ सङ्गत्यागे, उत्त०३२० अ०। "तस्सेस मग्गो गुरुविद्धसेवा, विवजणा अ० औ०। बालजणस्स दूरा।" उत्त०२२ अ०। विलेविया-स्त्री०(विलेपिका) पानभेदे, विलेपिकायाम्, बृ०। विलेपिका | विवज्जत्थ-त्रि०(विपर्यस्त) विपरीते, पञ्चा० 12 विव०॥ द्विविधा-एका काजिकविलेपिका, द्वितीया उदकविलेपिका / बृ०१ / विवजयंत-त्रि०(विपर्ययत) अनेकैः प्रकारैः सूत्रोक्तैः परिहरति, दश०५ उ०२प्रक०। अ०१उ०। विलोट्ट-धा०[वि-सं-वद] विरुद्ध संवादे, विपरीतकथने, "विसंव- | विवज्जास-पुं०(विपर्यास) वैपरीत्यभवने, विशे०। सूत्र० आचा०। "मूढो देर्वि अट्ट-विलोट्ट-फंसाः // 8 / 41126|| इति विसंपूर्वस्य विपरियासमुवेति'' विपर्यासमुपैति, तच्चेऽतत्त्वा-भिनिवेशमतत्त्वे च वदधातोर्विलोट्टादेशः। विलोट्टई। विसंवदति। प्रा०४ पाद। तत्त्वाभिनिवेशं च। हितेऽहितबुद्धिमेवं सर्वत्र विपर्ययं विदधाति, उक्तंच विलोव-पुं०(विलोप) उच्छेदे, सूत्र० 1 श्रु०१अ०२ उ०। अवच्छेदने, "दाराः परिभवकारा, बन्धुजनो बन्धनं विषं विषयाः / मोहो जनस्य आचा०१ श्रु०२ अ०३ उ०। सद्धर्माद्बाधने, सूत्र०१ श्रु०१३ अ०! कोऽयं, ये रिपवस्तेषु सुहृदाशा ।।१।आचा० 1 श्रु० 2 अ०३ उ०। विल्ल-पुं०(विल्व) संयोगे-"इत एद्वा" / / 1 / 8 / / इति इत एत्वं | विवजिय-त्रि०(विवर्जित) रहिते, जी०१ प्रति० / अष्ट० / विकले, प्रश्न० वा। वेलं। विल्लं / प्रा०। बहुबीजफले वृक्षभेदे, प्रज्ञा०१७ पद। आचा०। | 3 आश्र० द्वार। अनु० / स्थानान्तरालेषु, दे० ना०७ वर्ग 86 गाथा। विवङ्कणी-स्त्री०(विवर्धनी) विशेषेण वृद्धिहेतो, "कामरागविव-डणिं" विल्लल-पुं०[विल्ल(ल्व)ल] सनखचतुष्पदविशेषे, प्रज्ञा०१ पद। विषयरागस्य अतिशयेन वृद्धिकीम् / उत्त०१६ अ०। विल्लिय-त्रि०(विलीय) दीप्यमाने, विशेषेण लीने, औ०। विवणि-पुं०(विपणि) वणिक्पथे, औ०। ज्ञा०। दरिद्रापणे, बृ०१ उ०। विव-अव्य०(इव) इवार्थे, तं० / "मिव पिव विव व्य व विअ इवार्थे वा | विवण्ण-त्रि०(विवर्ण) अशोभनवणे, आचा०२ श्रु०१ चू० 5 अ०२ // 8/2 / 182 / / इति इवार्थे विवशब्दः / प्रा०। उ०। रूपवणे, प्रश्न०२ आश्र० द्वार। विगतवर्णे, दश०५ अ०२ उ०। विवइ-स्त्री०(विपद्) "आपद्विपत्संपदां द इ:" ||8|4|400 / / इति द्विपर्ण-त्रि० पर्णद्वययुक्ते, "विवन्नओरुक्खो" आचा०२ श्रु०१ चू० विपदोऽन्त्यस्य दस्य इः। विपत्तौ, प्रा० 4 पाद। 5 अ०२ उ०। द्विपर्णो-वृक्षः, अङ्कुरोद्गमावस्थायां हि प्रथमं द्वौपर्णी विवक्क-त्रि०(विपक्क) सुपरिनिष्ठिते, प्रकर्षपर्यन्तमुपगते, उदयागते, स्था० भवतः। बृ०१ उ०१ प्रक०। 5 ठा०२ उ०। विवण्णच्छंद-त्रि०(विवर्णच्छन्दस्) परायत्ततया अपेतस्वाभिप्राये, दश० 6 अ०२ उ०/ विवक्ख-पुं०(विपक्ष) विपरीतः पक्षो-धर्मो विपक्षः। विवक्षितवस्तुधर्मस्य विपरीते, धर्म, अनु० / यथा शृगाली अशिवाऽप्यमाङ्गलिकशब्द विवण्णसारसद पुं०(विवर्णसारशब्द) विगतसर्वद्रव्यभाण्डे, उत्त०१४ अ०। परिहारार्थ शिवा भण्यते। अनु०। वैधयें, विशे०। विसदृशः पक्षो विपक्षः, विवत्ति-स्त्री०(विपत्ति) कार्यविनाशे, नि० चू० 15 उ० / वि० / साध्यादिविपर्यये, दश० 1 अ०। (इह विपक्षः पञ्चम इति 'अणुमाण' "सम्प्राप्तिश्च विपत्तिश्च, कार्याणां द्विविधा स्मृता। सम्प्राप्तिः सिद्धिरर्थेषु, शब्दे प्रथमभागे 406 पृष्ठे गतम्।) विपत्तिश्च विपर्ययः / / 1 / / " नि० चू०१५ उ०। विवक्खपडिसेह-पुं०(विपक्षप्रतिषेध) अनुमानवाक्यस्य षष्ठेऽवयवे, दश० - विवद्धन-न०(विवर्द्धन) विविधैः प्रकारैर्वृद्धिकरे, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। 10 / (विशेषव्याख्या अणुमाण' शब्दे प्रथमभागे 406 पृष्ठे गता।) विवर-न०(विवर) विगतावरणतया विवरम् / आकाशे, भ० 17 श०८ विवक्खा-स्त्री०(विवक्षा) वक्तुरिच्छायाम, पिं०। उ०। रन्ध्रे, उत्त०२० अ० / आचा०। सूत्र०। विवक्खापुटव-त्रि०(विवक्षापूर्व) विवक्षाकारणे, दश०१ अ०। विवरण-न०(विवरण) बालानां विजढीकरणे,ध०२ अधि०। विवच्छा-स्त्री०(विवत्सा) वत्सरहितायाम्, बृ० 1 उ०३ प्रक०।सिन्धु- | विवरीउप्पाय--पुं०(विपरीतोत्पात) अशुभसूचके, प्रकृतिविकारे, प्रश्न० सङ्गते नदीभेदे, स्था०१०ठा०३ उ०। 2 आश्र० द्वार।
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________________ विवरीय 1234 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विवागसुय विवरीय-त्रि०(विपरीत) परमार्थादन्तथाभूते, सूत्र० 1 श्रु० 1 अ० 4 उ० / विपर्यस्ते, नि० चू०१उ०। विवरीयपरूवणा-स्त्री०(विपरीतप्ररूपणा) अन्यथा पदार्थकथनायाम, आव०४ अ०। उन्मार्गदेशनायाम, ध०२ अधि०॥ विवलीयभासग-पुं०(विपरीतभाषक) भाषकाद् विपरीतो विपरीतभाषकः / राजदन्तादिवत्समासः। अभाषके, अनु०। विवस-त्रि०(विवश) पराधीने, कर्म०१ कर्म०1 विवाग-पुं०(विपाक) विपचनं विपाकः।शुभाशुभकर्मपरिणामे, स०१४५ सम० नं०।अशुभफलदायकत्वे, पञ्चा०१विव०। विपच्यमानतायाम्, रसप्रकर्षावस्थायाम, भ०६श०३२ उ०द्वा० उदये साध्ये, प्रश्न०२ आश्र० द्वारा परिणामे, आव० 4 अ०।अनुभावे, स्था० 4 ठा०२ उ०। परिपाककाले, उत्त०३२ अ०। सूत्र० / फले, सूत्र०१ श्रु०६ अ०। पुष्टतायाम्, आ० म०१ अ०। द्विगृद्धिदशानां द्वितीयेऽध्ययने, स्था०१ ठा०३ उ० / भारते वर्षे आगामिन्यामुत्सर्पिण्यां भविष्यति एकोनविंशे जिने, स०जी०। विवागखंति-स्त्री०(विपाकक्षान्ति) विपाके क्षान्तिः विपाकक्षान्तिः कर्मफलविपाकं नरकादिगतमनुपश्यतो दुःखभीरुतया मनुष्यभारमेव वाऽनर्थपरम्परामालोचयतो विपाकदर्शनपुरस्सरायां क्षान्तौ, षो० 10 विव०॥ विवागविजय-पुं० [विपाकवि(च)जय] विपाकः कर्मणां ज्ञानावरकत्वादि विचीयते-निर्णीयते विजीयते- अभिगमद्वारेण परिचितीक्रियते यस्मिस्तद् विपाकविज (च) यम्। स्था०४ ठा०१ उ०। अशुभकर्मविपाकानुचिन्तनार्थे प्रकृत्यादिभेदभिन्नस्य कर्मणः स्वरूपध्यानरूपे धर्मध्याने, ध०२ अधि०। आ० चू० विवागविरस-पुं०(विपाकविरस) बहुतरदुःखानुबन्धबीजत्वेन परिणति विरसे, द्वा० 13 द्वा०। विवागसाधण-न०(विपाकसाधन) अनुभावकारणे, पं० सू०१ सू०। विवागसुय-न०(विपाकश्रुत) विपचन विपाकः। शुभाशुभकर्मपरिणाम इत्यर्थः। तत्प्रतिपादकं श्रुतं विपाकश्रुतम्।नं०1 एकादशाङ्गे, विपा०। अथ विपाकश्रुतमितिकः शब्दार्थः? उच्यते-विपाकः-पुण्यपापरूपकर्मफलं तत्प्रतिपादनपरं श्रुतम्-आगमो विपाकश्रुतम्, इदंचद्वादशाङ्गस्य प्रवचनपुरुषस्यैकादशमङ्गम् / इह च शिष्टसमयपरिपालनार्थ मङ्गलसम्बन्धाभिधेयप्रयोजनानि किल वाच्यानि भवन्ति। तत्र चाधिकृतशास्तस्यैव सकलकल्याणकारिसर्ववेदिप्रणीतश्रुतरूपतया भावनन्दीरूपत्वेन मङ्गलस्वरूपत्वात्, न ततो भिन्नं मङ्गलमुपदर्शनीयम् / अभिधेयं च शुभाशुभकर्मणां विपाकः, स चास्य नाम्नवाभिहितः।। प्रयोजनमपि श्रोतृगतमनन्तरं कर्मविपाकावगमरूपं नाम्नैवोक्तमस्य / यत्किल कर्मविपाकावेदकं श्रुतं तत् शृण्वतां प्रायः कर्मविपाकावगमो भवत्येवेति। यत्तु निःश्रेयसावाप्तिरूपं परम्परप्रयोजनमस्य तदाप्तप्रणीततयैव प्रतीयते, न ह्याप्ता यत्कथञ्चिन्निः श्रेयसार्थं न भवति तत्प्रणयनायोत्सहन्ते आप्तत्वहानेरिति / सम्बन्धोऽप्युपायोपेयभावलक्षणो नाम्नवास्य प्रतीयते, तथाहि-इदं शास्त्रमुपायः कर्मविपाकावगमस्तूपेयमिति। यस्तु गुरुपर्वक्रमलक्षणसम्बन्धोऽस्य तत्प्रतिपादनायेदमाह-- तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपाणामणयरी होत्था, वण्णओपुन्नभद्दे चेइए / तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी अजसुहम्मे णाम अणगारे जाइसंपन्ने, वण्णओ चउहसपुष्वीचउनाणोवगए पंचहि अणगारसएहिं सद्धिं संपरिबुडे पुवाणुपुर्दिव० जाव जेणेव पुण्णभद्दे चेइए अहापडिरूवं० जाव विहरइ, परिसा निग्गया धम्मं सोचा निसम्म जामेव दिसं पाउन्भूया तामेव दिसं पडिगया / तेणं कालेणं तेणं समएणं अजजंबूनामं अणगारे सत्तुस्सेहे जहा गोयमसामी तहा० जाव झाणकोहोवगए विहरति / तए णं अजजंबूनामे अणगारेजायसङ्के०जाव जेणेव अजसुहम्मे अणगारे तेणेव उवागए तिक्खुत्तोआयाहिणपयाहिणं करेति करेत्ता वंदति वंदेत्तानमंसति नमंसित्ता० जाव पञ्जुवासति, एवं वयासी-(सू०१)(विपा०) एक्कारसमस्स णं भंते ! अंगस्य विवागसुयस्स समणेणं० जाव संपत्तेणं के अट्टे पन्नत्ते ? ततेणं अज्जसुहम्मे अणगारे जंबूं अणगारं एवं वयासी-एवं खलुजंबु! समणेणं० जावसंपत्तेणं एकारसमस्स अंगस्स विवागसुयस्सदोसुयक्खंधापन्नत्ता,तं जहा-दुहविवागा य 1, सुहदिक्षागा य 2, जहणं भंते ! समणेणं० जाव संपत्तेणं एकारसमस्स अंगस्स विवागसुयस्स दो सुयक्खंधा पन्नत्ता, तं जहा-दुहविवागा य 1, सुहविवागा य 2 / (सू०२) 'दुहविवागाय'त्ति दुःखविपाकाः पापकर्मफलानिदुःखानां वा-दुःखहेतुत्वात् पापकर्मणां विपाकास्ते यत्राभिधेयतया सन्त्यसौ वरणानगर' मिति न्यायेन दुःखविपाका:- प्रथमश्रुतस्कन्धः, एवं द्वितीयः सुखविपाकः / 'तएणं' ति ततः-अनन्तरमित्यर्थः। पढमस्सणं भंते ! सुयक्खंघस्सदुहविवागाणं समजेणं० जाव संपत्तेणं कई अज्झयणा पन्नत्ता ? तते णं अज्जसुहम्मे अणगारे जंबू अणगारं एवं वयासी- एवं खलु जंबू ! समणेणं०जाव आइगरेणं तित्थगरेणं० जाव संपत्तेणं दुहविवागाणं दस अज्झयणा पन्नत्ता, तं जहा-"मियपुत्ते १(य) उज्झियते 2, अभग्ग 3 सगडे 4 बहस्सई 5 नंदी 6 / उंबर 7 सोरियदत्ते 8, य देवदत्ता यह अंजू य 10 // 1 // " (सू०२+)
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________________ विवागसुय 1235 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विवागसुय 'मियउत्ते' इत्यादि गाथा, तत्र 'मियपुत्ते' ति मृगापुत्राभिधानराजसुतवक्तव्यताप्रतिबद्धमध्ययनं मृगापुत्रः 11 एवं सर्वत्र, नवरम् 'उज्झिए' त्ति उज्झितको नाम सार्थवाहपुत्रः 2, 'अभग्ग', त्ति सूत्रत्वादभग्नसेनो विजयाविभधानचौरसेनापतिपुत्रः 3, 'सगडे' त्ति शकटाभिधानसार्थवाहसुतः 4, 'बहस्सइति सूत्रत्वादेव बृहस्पतिदत्तनामा पुरोहितपुत्रः 5, 'नंदी' इति सूत्रत्वादेव नन्दिवर्द्धनो राजकुमारः 6, 'उंबर' त्ति सूत्रत्वादेव उदुम्बरदत्तो नाम सार्थवाहसुतः 7, 'सोरियदत्ते' त्ति शौरिकदत्तो नाम मत्स्यबन्धपुत्रः 8, चशब्दः समुच्चये 'देवदत्ता य' त्ति' देवदत्ता नाम गृहपतिसुता 6, चः समुच्चये 'अंजू य' त्ति अजूनाम सार्थवाहसुता 10 / विपा० 1 श्रु०१ अ० अथ द्वितीयश्रुतस्कन्धस्य प्रथमाध्ययने किञ्चिल्लिख्यतेतेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे णगरे गुणसिले चेइए सोहम्मे समोसढे जंबू० जाव पज्जुवासणे एवं वयासी-जति णं भंते ! समणेणं० जाव संपत्तेणं दुहविवागाणं अयमढे पण्णत्ते 0 सुहविवागाणं मंते! समणेणं० जाव संपत्तेणं के अहे पण्णत्ते? तते णं से सोहम्मे अणगारे जंबू अणगारं एवं क्यासी-एवं खलु जंबू समणेणं० जाव संपत्तेणं सुहविवागाणं दस अज्झयणा पन्नत्ता,तं जहा-"सुबाहू 1 भद्दनंदी२य, सुयाएय 3 सुवासवे तहेव जिणदासेश्य,धणपतीय 6 महबले७|१|| भद्दनंदी 8 महचंपे, वरदत्ते 10 / " (सू०३३४) विपा०२ श्रु०१ अ० / से किं तं विवागसुयं ? विवागसुए णं सुकडदुक्कडाणं कम्माणं फलविवागे आधविजंति, से समासओ दुविहे पण्णत्ते, तं जहा- दुहविवागे चेव, सुहविवागे चेव / तत्थ णं दस दुहविवागाणि, दस सुहविवागाणि / से किं तं दुहविवागाणि ? दुहविवागेसुणं दुहविवागाणं नगराइंउजाणाइंचेइयाई वणखंडा रायाणो अम्मापियरो समोसरणाई धम्मायरिया धम्मकहाओ नगरमगणाई संसारपबंधे दुहपरंपराओ य आघविजंति / सेत्तं दुहविवागाणि। से किं तं सुहविवागाणि ? सुहविवागेसु सुहविवागाणं णगराई उजाणाईचेझ्याईवणखंडारायाणो अम्मापियरो समोसरणाई धम्मायरिया धम्मकहाओ इहलोइयपरलोइयइड्डिविसेसा भोगपरिचाया पव्वज्जाओ सुयपरिगहा तवोवहाणाई परियागापडिमाओ संलेहणाओ भत्तपञ्चक्खाणाई पाओवगमणाई देवलोगगमणाई सुकुलपचायाया पुण बोहिलाया, अंतकिरियाओय आघविजंति। दुहविषागेसुणं पाणाइवायअलियवयणचोरिककरणपरदार मेहुणससंगयाए महतिय्व-कसायइंदियप्पमायपावप्पओयअसुहज्झवसाणसंचियाणं कम्माणं पावगाणं पावअणुभागफलविवागा णिरय-गतितिरिक्खजोणिबहुविहवसणसयपरंपरापवद्धाणं मणुयत्ते वि आगयाणं जहा पावकम्मसेसेण पावगा होन्ति फलविवागा-बहवसणविणासनासाकन्नुहगुहकरचरणनहच्छे यणजिब्भच्छे अणअंजणकडग्गिदाहगयचलणमलणफालणउल्लंबणसूललयालउडलटिभंजणतउसीसगतत्ततेल्लकलकलअहिसिंचणकुंभिपागकंपणाथिरबंधणवेहवज्झकत्तणपतिभयकरकरपल्लीवणादिदारुणाणिदुक्खाणि अणोवमाणि बहुविविह परंपराणुबद्धा णमुचंति पावकम्मबल्लीए, अवेयइत्ता हुणऽस्थि मोक्खो तवेण घिइधणियबद्धकच्छेण साहेणं तस्स वावि हुन्जा / एत्तो य सुहविवागेसु णं सीलसंजमणियमगुणतयोवहाणेसु सासु सुविहिएसु अणुकंपासयप्पओगतिकालमइसिवुद्धभत्तपाणाई पययमणसाहियसुहनीसे सतिवपरिणामनिच्छियमई पयच्छिणपयोगसुद्धाइं जहय निव्वत्तें ति उबोहिलाभं जहय परित्तीकरेंति नरनरयतिरियसुरगमणविपुलपरियट्ट-अरतिभयविसायसोगमिच्छत्तसेलसंकर्ड अन्नाणतमंधकारचिक्खिल्लसुदुत्तारं जरमरणजोणिसंखुभियचक्कवालं सोलसकसायसावयपयंडचंडं अणाइअं अणवदग्गं संसार-सागरमिणं जह य णिबंधंति आउगं सुरगणेसु जह य अणु-भवंति सुरगणविमाणसोक्खाणि अणोवमाणि, ततो य कालंतरे चुआणं इहेव नरलोगमागयाणं आउवपुपुण्णरूवजातिकुलजम्मआरोग्गबुद्धिमेहाविसेसा मित्तजणसयणधणधण्णविभवसमिद्धसारसमुदयविसेसा बहुविह-कामभोगुब्भवाण सोक्खाण सुहविवागोत्तमेसु, अणुवरय-परंपराणुबद्धा असुभाणं सुभाणं चेव कम्माणं भासिआ बहुविहा विवागा विवायसुयम्मि भगवया जिणवरेण संवेगकारणत्था अन्ने वि य एवमाइया बहुविहा वित्थरेणं अत्थपरूवणया आघविचंति, विवागसुअस्स णं परित्ता वायणा संखेज्जा अणुओगदारा० जाव संखेचाओ संगहणीओ। से णं अंगठ्ठयाए एकारसमे अंगे वीसं अज्झयणा वीसं उद्देसणकाला वीसं समद्देसणकाला, संखेज्जाई पयसयसहस्साई पयग्गेणं पण्णत्ता। संखेजाणि अक्खराणि अणंता गमा अणंता पजवा० जाव एवं चरणकरणपरूषणया आघविजंति, सेत्तं विवागसुए।।११। (सू०१५६) _ 'से किं त' मित्यादि, विपचन विपाक:- शुभाशुभकर्मपरिणामस्तत्प्रतिपादकं श्रुतं विपाकश्रुतं 'विदागसुएण' मित्यादि कण्ठ्यं, नवरं 'फलविपाके' ति फलरूपो विपाकः फलविपाकः तथा 'नगरगमणाई' त्ति भगवतो गौतमस्य भिक्षाद्यर्थ नगर-प्रवेशनानीति। एतदेव पूर्वोक्तं प्रपञ्चयन्नाह- 'दुहविवागेसुण' मित्यादि, तत्र प्राणातिपातालीकवचनयौर्यकरणपरदारमैथुनैः सह 'ससंगयाए' त्तिया ससंगता सपरिग्रहता तया संचितानां कर्मणामिति योगः, महातीव्रकषायेन्द्रियप्रमादपापप्रयोगशु
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________________ विवागसुय 1236 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विवागसुय भाध्यवसायसञ्चितानां कर्मणां पापकानां पापानुभागाअशुभरसा ये फलविपाका-विपाकोदयास्ते तथा ते आख्यायन्त इति योगः / केषामित्याह--निरयगतौ-- तिर्यग्योनौ च ये बहुविधव्यसनशतपरम्पराभिः प्रबद्धाः ते तथा तेषां, जीवानामिति गम्यते / तथा 'मणुयत्ते' त्ति मनुजत्वेऽप्यागतानां यथा पापकर्मशेषेण पापका भवन्ति फलविपाका; अशुभा विपाकोदया इत्यर्थः, तथा आख्यायन्ते इति प्रकृतम्। तथाहि-वधोयष्ट्यादिताडनं वृषणविनाशोवर्द्धितककरणं तथा नासायाश्च कर्णयोश्च ओष्ठस्य चाङ्गुष्ठानां च करयोश्च चरणयोश्च नखानांच यच्छेदनं तत्तथा जिह्वाछेदनम् 'अंजन' ति अञ्जनं-तप्तायःशलाकया नेत्रयोः म्रक्षणं या देहस्य क्षारतैलादिना'कडमिदाहणं तिकटानांविदलवंशादिमयानामग्निः कटाग्निस्तेन दाहनं कटाग्निदाहनं; कटेन परिवेष्टितस्य बाधनमित्यर्थः, तथा गजचलनमलनं फालनंविदारणम् उल्लम्बनंवृक्षशाखादावुद्न्धनंतथा शूलेन लतया लकुटेन यष्ट्याच भञ्जनंगात्राणां तथा त्रपुणा-धातुविशेषेण सीसकेनच-तेनैवतप्तेन तैलेनच 'कलकल' त्ति सशब्देनाभिषेचनं तथा कुम्भ्यां-भाजनविशेषे पाकः कुम्भीपाकः कम्पनं शीतलजलाच्छोटनादिना शीतकाले गात्रोत्कम्पजननं तथा स्थिरबन्धन- निबिडनियन्त्रणं वेधः-कुन्तादिना शस्त्रेण भेदनं वर्द्धकर्तनंत्वगुत्त्रोटनं प्रतिभयकरं-भयजननं तच तत्करप्रदीपनंच वसनावेष्टितस्य तैलाभिषिक्तस्य करयोरग्नि प्रबोधनमिति कर्मधारयः, ततश्च वधश्च वृषण-विनाशश्चेत्यादि यावत्प्रतिभयकरकरप्रदीपनं चेति द्वन्द्वः, ततस्तानि आदिर्येषां दुःखानां तानि च तानि दारुणानि चेति कर्मधारयः / कानीमानीत्याह-दुःखानि, किम्भूतानि ? अनुपमानि दुःखविपाकेष्वाख्यायन्त इति प्रक्रमः / तथेदमाख्यायते बहुविविधपरम्पराभिः दुःखानामिति गम्यते। अनुबद्धाः-सन्ततमालिङ्गिता बहुविधपरम्परानुबद्धा जीवा इति गम्यते न मुच्यन्तेन त्यज्यन्ते, कया ? पापकर्मवल्ल्या दुःखफलसम्पादिकया, किमित्याह-यतोऽवेदयित्वाअननुभूय कर्मफलमिति गम्यते, हुर्यस्मादर्थे, नास्ति-न भवतिमोक्षोवियोगः कर्मणः सकाशात्, जीवानामिति गम्यते। किंसर्वथा नेत्याहतपसा- अनशनादिना, किम्भूतेन ? धृतिः- चित्तसमाधानं तद्रूपा 'धणिय' त्ति अत्यर्थं बद्धानिष्पीडिता कच्छाबन्धविशेषो यत्र तत्तथा तेन, धृतिबलयुक्ते नेत्यर्थः / शोधनम्-अपनयनं तस्य-कर्मविशेषस्य 'वावि' ति सम्भावनायां 'होज्जा' सम्पद्येत नान्यो मोक्षोपायोऽस्तीति भावः / एत्तो ये' त्यादि इतश्चानन्तरं सुखविपाकेषु, द्वितीयश्रुतस्कन्धाध्य-यनेष्वित्यर्थः, यदाख्यायते तदभिधीयते इति शेषः, शीलंब्रह्मचर्यं समाधिर्वा संयमः-- प्राणातिपातविरतिनियमा-अभिग्रहविशेषाः गुणाः-शेषमूलगुणाः उत्तरगुणाश्च तपोऽनशनादिएतेषामुपधानंविधानं येषां ते तथा अतस्तेषु शील-संयमनियमगुणतपउपधानेषु, केष्वित्याह-साधुषुयतिषु, किम्भूतेषु ? सुष्ठु विहितम्-अनुष्ठितं येषां ते सुविहितास्तेषु भक्तादिदत्त्वा यथा बोधिलाभादिनिर्वतयन्ति तथहाख्यायत इति सम्बन्धः / इह च सम्प्रदानेऽपि सप्तमी न दुष्टा विषयस्य विवक्षणात्, अनुकम्पा- अनुक्रोशस्तत्प्रधान आशयः-- चित्तं तस्य प्रयोगो-व्यावृत्तिरनुकम्पाशयप्रयोगस्तेन, तथा 'तिकालमति' ति त्रिषु कालेषु या मतिः-बुद्धिर्यदुत दास्थामीति परितोषो दीयमाने परितोषो दत्ते च परितोष इति सा त्रिकालमतिस्तया च यानि विशुद्धानि तानि तथा, तानिचतानि भक्त पानानि चेति अनुकम्पाशयप्रयोगत्रिकालमिविशुद्धभक्तपानानि प्रदायेति क्रियायोगः / केन प्रदायेत्याह- प्रयतमनसा- आदरभूतचेतसा, हितोऽनर्थपरिहाररूपत्वात् सुखहेतुत्वात् सुखःशुभो वा 'नीसेस' ति निःश्रेयसः कल्याणकरत्वात् तीव्रः-प्रकृष्टः परिणामः-अध्यवसानं यस्याः सा तथा सा निश्रिता-असंशया मतिःबुद्धिर्येषां ते हितसुखनिःश्रेयसतीव्रपरिणामनिश्चितमतयः, किं ? 'पयच्छिऊणं' ति प्रदाय, किं भूतानि भक्तपानानि ? प्रयोगेषु शुद्धानि दायकदानथ्यापारापेक्षया सकलाशंसादिदोषरहितानि ग्राहकग्रहणव्यापारापेक्षया चोद्गमादिदोषवर्जितानि, ततः किं ?- यथा च-येन च प्रकारेण पारम्पर्येण मोक्षसाधकत्वलक्षणेन निर्वर्त्तयन्ति, भव्यजीवा इति गम्यते, तुशब्दो भाषामात्रार्थः, बोधिलाभम्, यथा च परित्तीकुर्वन्तिह्रस्वतां नयन्ति संसारसागरमिति योगः। किं भूतं? नरनिरयतिर्यक्सुरगतिषु यजीवानां गमनं परिभ्रमणं स एव विपुलो-विस्तीर्णः परिवर्तोमत्स्यादीनां परिवर्तनमनेकधा सञ्चरणं यत्र स तथा, तथा अरतिभयविषादशोकमिथ्यात्वान्येव शैलाः-- पर्वतास्तैः सङ्कटः-सङ्कीर्णो यः स तथा ततः कर्मधारयोऽतस्तम्, इह च विषादोदैन्यमानं शोकस्त्वाक्रन्दनादिचिह्न इति, तथा अज्ञानमेव तमोऽन्धकारं महान्धकारं यत्र स तथा अतस्तं, 'चिक्खि-ल्लसुदुतारं' तिचिंक्खिल्लं-कर्दमः संसारपक्षे तु चिक्खिल्लं विषयधनस्वजनादिप्रतिबन्धस्तेन सुदुस्तरो दुःखोत्तार्यो यःस तथा तम्, तथा जरामरणयोनय एव संक्षुभितं महामत्स्यमकराद्यनेकजलजन्तुजातसम्मनं प्रविलोडितंचक्रवालं जलपरिमाण्डल्यं यत्र स तथा तं, तथा षोडश कषाया एव स्वापदानिमकरग्राहादीनि प्रकाण्डचण्डानिअत्यर्थं रौद्राणि यत्र स तथा तम्, अनादिकमनवदग्रमनन्तं संसारसागरमिमं प्रत्यक्षमित्यर्थः, तथा यथा च सागरोपमादिना प्रकारेण निबध्नन्त्यायुः सुरगणेषु साधुदाप्रत्ययमिति भावः, यथा चानुभवन्ति सुरगणविमानसौख्यानि अनुपमानि, ततश्च कालान्तरेण च्युतानाम् 'इहेव' ति तिर्यग्लोके नरलोकमागतानामायुर्वपुर्वर्णरूपजातिकुलजन्मारोग्यबुद्धिमेधाविशेषा आख्यायन्त इति योगः, तत्रायुषो विशेष इतरजीवायुषः सकाशात् शुभत्वं दीर्घत्वं च एवं वपुः-शरीरंतस्य स्थिरसंहननता वर्णस्योदारगौरत्वं रूपस्यातिसुन्दरता जातेरुत्तमत्वं कुलस्याप्येवं जन्मनो विशिष्टक्षेत्रकालौ निराबाधत्वम् आरोग्यस्य प्रकर्षः बुद्धिरौत्पत्तिक्यादिका तस्याः प्रकृष्टता मेधा-अपूर्वश्रुत-ग्रहणशक्तिस्तस्या विशेषः प्रकृष्टतैवेति, तथा मित्रजनः- सुहृल्लोकः स्वजन:पितृपितृव्यादिः धनधान्यरूपो यो विभवो-लक्ष्मीः सधनधान्य-विभवस्तथा समृद्धेः-पुरान्तः पुरको-शकोष्ठागारबलवाहनरूपायाः सम्पदोयानि साराणि प्रधानानिवस्तूनितेषांयः समुदायः--समूहः सतथा इत्येतेषांद्वन्द्व
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________________ विवागसुय 1237- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विवाह स्तत एषां ये विशेषाः प्रकर्षास्ते तथा, तथा बहुविधकामभोगोद्भवानां सौख्यानां विशेषा इतीहापि सम्बन्धनीयम्, शुभविपाक उत्तमो येषां ते शुभविपाकोत्तमास्तेषु जीवेष्विति गम्यम्। इह चेयं षष्ठ्यर्थे सप्तमी, तेन शुभविपाकाध्ययनवाच्यानांसाधूनामायुष्कादिविशेषाः शुभविपाकाध्ययनेष्वाख्यायन्ते इति प्रकृतम्। अथ प्रत्येकं श्रुतस्कन्धयोरभिधेये पुण्यपापविपाकरूपे प्रतिपाद्य तयोरेव यौगपद्येनते आह-'अणुक्रये' त्यादि, अनुपरता-अविच्छिन्ना ये परम्परानुबद्धाः- पारम्पर्यप्रतिबद्धाः, के? विपाका इति योगः, केषाम् ? अशुमानां शुभानां चैव कर्मणां प्रथमद्वितीयश्रुतस्कन्धयोः क्रमेणैवच भाषिताः-उक्ता बहुविधा विपाकाः विपाकश्रुते एकादशाङ्गे भगवता जिनवरेण संवेगकारणार्थाः-- संवेगहेतवो भावाः अन्येऽपि चैवमादिका आख्यायन्त इतिपूर्वोक्तंक्रियया वचनपरिमाणाद्वोत्तरक्रियया योगः, एवं च बहुविधा विस्तरेणार्थप्ररूपणता आख्यायन्त इति। शेषं कण्ठ्यम्, नवरं संख्यातानिपदशतसहस्राणि पदाणेति, तत्र किल एका पदकोटी चतुरशीतिश्च लक्षाणि द्वात्रिंशच्च सहस्राणीति॥११॥ स० 146 सम० / नं०। "नामेण पूसमित्तो, समणो समणगुणनिउणविंशतितो। होही अपच्छिमो किर, विवायसुयधारको धीरो।" ति०। विवाय-पुं०(विवाद) विरुद्धो वादो विवादः / आचा० 1 श्रु० 4 अ०२ उ० / विप्रतिपत्तौ, प्रश्न०२ सर्व० द्वार। विप्रतिपत्तिसमुत्थवचने, क्रोधकार्यत्वादस्य क्रोधकषायविशेषे, भ०१२ श०५ उ०। स०1 सूत्र०। वाकलहे, जी०१ प्रति० / कलहो त्ति वा भंडणं ति वा विवादो त्ति वा एगटुं / नि० यू०१६ उ०। छविहे विवादे पण्णत्ते, तं जहा- ओसकतित्ता उस्सकइत्ता अणुलोमइत्ता पडिलोमतित्ता भइत्ता भेलतित्ता। (सू०४१२) 'छविहे त्यादिषड्विधः-षड्भेदो विप्रतिपन्नयोः-क्वचिदर्थे वादोजल्पो विवादः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- 'ओसक्कइत्त' त्ति अवष्वष्क्यअपसृत्यावसरलाभाय कालहरणं कृत्वा यो विधीयते स तथोच्यते, एवं सर्वत्र, क्वचिच्च 'ओसक्कावइत्त' त्ति पाठस्तत्र प्रतिपन्थिनं केनापि व्याजेनापसl-अपसृतं कृत्वा पुनरवसरमवाप्य विवदते, 'ओसक्कइत्त' त्ति उत्ष्यष्क्य-उत्सृत्य लब्धावसरतयोत्सुकीभूय 'उस्सकावइत्त' त्ति पाठान्तरे परमुत्सुकीकृत्य लब्धावसरोजयार्थी विवदते, तथा अणुलोमइत्त' त्ति विवादाध्यक्षान् सामनीत्याऽनुलोमान् कृत्वा प्रतिपन्थिनमेव वा पूर्व तत्पक्षाभ्युपगमेनानुलोमं कृत्वा 'पडिलोमइत्ता' प्रतिलोमान कृत्वा अध्यक्षान् प्रतिपन्थिनंवा, सर्वथा सामर्थ्य सतीति,तथा भइत्त' त्ति अध्यक्षान् भक्त्वा-संसेव्य, तथा 'भेलइत्त त्ति स्वपक्षपातिभिर्मिश्रान् कारणिकान् कृत्वेति भावः / कचित्तु - 'भैयइत्त' ति पाठः, तत्र भेदयित्वा केनाप्युपायेन प्रतिपन्थिनं प्रति कारणिकान् द्वेषिणो विधाय स्वपक्षग्राहिणो वेति भावः। स्था०६ठा०३ उ०। लब्धिख्यात्यर्थिना तु स्याद्, दुःस्थितेनाऽमहात्मना। छलजातिप्रधानो यः, स विवाद इति स्मृतः॥४॥ लब्धिः-- सुवर्णादीनां लाभः ख्यातिश्व-प्रसिद्धिः ताभ्यामर्थः प्रयोजन यस्यास्ति स तथा तेन, तुशब्दः पुनःशब्दार्थः, स चाद्यवादविवादयोर्विशेषद्योतकः स्याद्भवेत् यो वाद इति संबन्धः, दुस्थितेन-दरिद्रेण मनोदुःस्थितेन वा अमहात्मना-अनुदारचित्तेन एवंविधस्य हि पराजये हि विषाद-वृत्तिच्छेदादिदोषप्रसङ्गेन साधोः परलोकबाधेति कृत्वा वादस्य विरुद्धता स्यादत एव कारणात् विशेषितोऽसाविति। इह चसह वादिनेति गम्यम्, छलजातिप्रधानो यस्तत्र छलं वाक्छलादि यथा नवकम्बलो देवदत्तः जातयो दूषणाभासाः यथाअनित्यः शब्दः कृतकत्वात्घटवदिति, अस्य हेतोर्दूषणं तथाहि-यदि घटगतं कृतकत्वं हेतुस्तदा तच्छब्देन सिद्धमित्यसिद्धो हेतुः, अथशब्दगतं तदनित्यत्वेन व्याप्तं न सिद्धमित्यसाधारणा-नैकान्तिको हेतुरिति तत्प्रधानो यःस तथा स एवंविधो वादो विवाद इति स्मृत-एवमभिहित इति / / 4 / / कस्माद्विवादोऽयं स्मृत इत्याह। मूलसूत्रम् - विजयो पत्र सन्नीत्या, दुर्लभस्तत्त्ववादिनः। तद्भावेऽप्यन्तरायादि, दोषोऽदृष्टविघातकृत्॥५॥ विजयः-प्रतिवाद्यभिभवद्वारेण जयो हिर्यस्मात-अत्र छलादिप्रधाने विवादे सन्नीत्या-शोभनेन न्यायेन यतस्तत्र सन्नीत्युद्ग्रहणपरस्यापि छलाय शब्दादिना निग्रहस्थानावाप्तिः स्यात् , दुर्लभो न सुलभः / कस्येत्याह-तत्त्ववादिनः वस्तुतत्त्ववदनशीलस्य साधोः अथात्यन्तप्रमादितया छलादिपरिहरतो विजयस्य लाभो भवति तत्रान्तरायादिदोषमाह-तद्भावेऽपि आस्तां विजयाभावो दोषस्तद्भावेऽपिपरनिराकरणे हि अन्तरायः प्रतिवादिनो लाभख्यात्यादिविघात आदिर्यस्य शोकप्रद्वेषादेः स तथा सचासौ दोषश्चेत्यन्तरायादिदोषः संभवतीति गम्यते। स हि पराजितो राजादिभ्यो न किंचिल्लभते, लब्धं चास्य ह्रियते / किंविधो दोष इत्याह-अदृष्टविधातकृतत्परलोकव्याहतिकारीति॥५|| हा०१२ अष्ट। शक्रेशान्योर्विवादःअत्थिणं भंते ! तेसिं सकीसाणाणं देविंदाणं देवराईणं विवादा समुप्पजंति, हंता अस्थि / से कहमिदाणिं पकरेइ ? गोयमा ! ताहे चेवणं ते सकीसाणा देविंदा देवरायाणो सणंकुमारं देविंदं देवरायं मणसीकरेंति / तए णं से सणंकुमारे देविंदे देवराया तेहिं सकीसाणेहिं देविंदेहिं देवराईहिं मणसीकए समाणे खिप्पामेव सक्कीसाणाणं देविंदाणं देवराईणं अंतियं पाउन्भवंति, जं से वयइ तस्स आणा उववा-यवयणनिहेसे चिट्ठति / (सू०१४०) भ०३ श०१ उ०। विवाह-पुं०(विवाह) पाणिग्रहणे, प्रश्न० 2 आश्र० द्वार। वैवाह्यं विवाह एव तत्कर्म वा वैवाह्यं सामान्यतो गृहस्थधर्म इति प्रकृतम्, अग्रेऽपि सर्वत्र ज्ञेयम्। अत्र लौकिकनीतिशास्त्रमिदम्-द्वादशवर्षा स्त्री षोड
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________________ विवाह .1238 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विवाहपणत्ति शवर्षः पुमान् तौ विवाहयोग्यौ, विवाहपूर्वो व्यवहारः कुटुम्बोत्पादनपिरपालनारूपश्चतुरो वर्णान् कुलीनान् करोति / युक्तितो वरविधानम्, अग्निदेवादिसाक्षिकं च पाणिग्रहणं विवाहः / स च लोकेऽष्टविधः, तत्र अलंकृत्य कन्यादानं ब्राह्मयो विवाहः 1, विभवविनियोगेन कन्यादानं प्राज्यापत्यः 2, गोमिथुनदानपूर्वमार्षः 3, यत्र यज्ञार्थमृत्विजः कन्याप्रदानमेव दक्षिणा स दैवः 4; एतेधा विवाहाश्चत्वारः गृहस्थो-चितदेवपूजनादिव्यवहाराणामेतदन्तरङ्ग कारणत्वात् / मातुः पितृबन्धूनां चाप्रामण्यात् परस्परानुरागेण समवायाद्गान्धर्वः 5. पणबन्धने कन्याप्रदानमासुरः 6, प्रसह्य कन्याग्रहणाद्राक्षसः 7, सुप्तप्रमत्तकन्याग्रहणात्पैशाचः 8; एते च चत्वारोऽधाः / यदि वधूवरयोरनपवादं परस्परं रुचिरस्ति तदा अधा अपि धाः / शुद्धकलत्रलाभफलो विवाहः / तत्फलं च सुजातसुतसंततिरनुपहता चित्तनिर्वृत्तिर्गृहकृत्यसुविहितत्वमाभिजात्याचारविशुद्धत्वं देवातिथिबान्धवसत्कारानवद्यत्वं चेति / कुलवधूरक्षणोपायास्त्वेते गृहकर्मविनियोगः, परिमितोऽर्थसंयोगः, अस्वातन्त्र्य, सदाचारमातृतुल्यस्त्रीलोकावरोधनमिति / / 6 / / ध०१ अधि०। "वर्षासु शुभकार्याणि, नान्यान्यपि समाचरेत्। गृहिणां मुख्य कार्यस्य, विवाहस्य तु का कथा॥१॥" कल्प०१ अधि०७ क्षण। आ० म०। (सर्वतः पूर्वमृषभेन भगवता युगलिकमनुष्याणां विवाहोऽनुष्ठापित इति उसह' शब्दे द्वितीयभागे 2627 पृष्ठे उक्तम्।) (एवं जगद्गुरुविषयां महादानविप्रतिपत्तिनिरतस्यैव राज्यदानविषयतां निरस्य परमतं रज्ज' शब्देऽस्मिन्नेव भागे दर्शितम्।) (परविवाहकरणं परविवाहकरण' शब्दे पञ्चमभागे 548 पृष्ठे व्याख्यातम्।) विवाहचूलिया-स्त्री०(व्याख्याचूलिका) व्याख्या-भगवती तस्याश्धूलिका व्याख्याचूलिका / संक्षेपिकानां दशानां पञ्चमेऽध्ययने, स्था० 10 ठा० 3 उ०।२०। पा० / ध०। ती०। विवाहपण्णत्ति-स्त्री०(व्याख्याप्रज्ञप्ति) भगवत्यपरनामके प्रवचनपुरुषस्य पञ्चमे अङ्गे, भ०। विवाह-स्त्री०(ध)प्र(ज्ञा)ज्ञ त्ति)प्ति भगवत्यपरनामके प्रवचन-पुरुषस्य पञ्चमे अङ्गे, भ०। अथ विवाहपन्नत्ति त्तिकः शब्दार्थः ? उच्यते, विविधा--जीवाजीवादिप्रचुरतरपदार्थविषयाः आ-अभिविधिना कथञ्चिन्निखिलज्ञेयव्याप्त्या मर्यादया वा-परस्परा-संकीर्णलक्षणाभिधानरूपया ख्यानानिभगवतो महावीरस्य गौतमादिविनेयान् प्रति प्रश्चितपदार्थप्रतिपादनानि व्याख्यास्ताः प्रज्ञाप्यन्ते-प्ररूप्यन्ते भगवता सुधर्मस्वामिना जम्बूनामानमभि यस्याम्, ? अथवा विविधतया विशेषेण वा आख्यायन्त इति व्याख्याःअभिलाप्यपदार्थवृत्तयस्ताः प्रज्ञाप्यन्ते यस्याम् 2, अथवाव्याख्यानाम्अर्थप्रतिपादनानां प्रकृष्टाः ज्ञप्तयोः-ज्ञानानि यस्यां सा व्याख्याप्रज्ञप्तिः 3, अथवा व्याख्यायाः- अर्थकथनस्य प्रज्ञायाश्वतद्धेतुभूतबोधस्य व्याख्यासु वा प्रज्ञाया आप्तिः --- प्राप्तिः आत्तिर्वा-आदानंयस्याः सकाशादसौ व्याख्याप्रज्ञाप्तिाख्याप्रज्ञात्तिर्वा 4-5, व्याख्याप्रज्ञाद्वा-भगवतः सकाशादाप्तिरात्तिर्वा गणधरस्य यस्याः सा तथा 6, अथवा विवाहा विविधा विशिष्टा वाऽर्थप्रवाहा नयप्रवाहा वा प्रज्ञाप्यन्ते-प्ररुप्यन्तेप्रबोध्यन्ते वा यस्यां, विवाहा वा-विशिष्टसन्ताना विबाधा वा-प्रमाणाबाधिताः प्रज्ञा आप्यन्ते यस्याः, विवाहा चासौ विबाधा चासौ वा प्रज्ञप्तिश्च–अर्थप्रज्ञप्तिश्वार्थप्ररूपणा विवाहप्रज्ञप्तिर्विवाहप्रज्ञाप्तिः विबाधप्रज्ञाप्तिर्विबाधप्रज्ञप्तिर्वा ७-----६-१०-(भ०१ श०१ उ०।) स०। अनु०। पा० "विवाह-पन्नत्ति' त्ति सज्ञितस्य पञ्चमागस्य समुन्नतजयकुञ्जरस्येव ललितपदपद्धतिप्रबुद्धजनमनोरञ्जकस्य उपसर्गनिपाताव्ययस्वरूपस्य घनोदारशब्दस्य लिङ्ग विभक्तियुक्तस्य सदाख्यातस्य सल्लक्षणस्य देवताधिष्ठितस्य सुवर्णमण्डितौद्देशकस्य नानाविधाद्भुतप्रवरचरितस्य षट्त्रिंशत्प्रश्नसहस्रप्रमाण-सूत्रदेहस्य चतुरनुयोगचरणस्य ज्ञानचरणनयनयुगलस्य द्रव्यास्तिकपर्यायास्तिकनयद्वितयदन्तमुशलस्य निश्चयव्यवहारनयसमुन्नतकुम्भद्वयस्य प्रस्तावनावचनरचनाप्रकाण्शुण्डादण्डस्य निगमनवचनातुच्छपुच्छस्य कालाधष्टप्रकारप्रवचनोपचारचारुपरिकरस्य उत्सर्गापवादसमुच्छलदतुच्छघण्टायुगलघोषस्य यशःपटहपटुप्रतिरवापूर्णदिक्चक्रवालस्य स्याद्रादविशदाङ्कुशवशीकृतस्य विविधहेतुहेतिसमूहसमन्वितस्य मिथ्यात्वाज्ञानाविरमणलक्षणारिपुबलदलनाय श्रीमन्महावीरमहाराजेन नियुक्तस्य बलनियुक्त कल्पगणनायकातिप्रकल्पितस्य मुनियोधैराबाधमधिगमाय पूर्वमुनिशिल्पिकल्पितयोर्बहुप्रवरगुणत्वेऽपि ह्रस्वतया महतामवे वाञ्छितवस्तुसाधनसमर्थयोवृत्तिचूर्णिनाडिकयोस्तदन्येषांचजीवाभिगमादिविविधविवरणदवरकलेशानां संघट्टनेन बृहत्तरा, अत एवामहतामप्युपकारिणी हस्तिनायकादेशादिव गुरुजनवचनात्पूर्वमुनिशिल्पिकुलोत्पत्नैरस्माभिर्नाडिकवेयं वृत्तिरारभ्यते, इति शास्त्रप्रस्तावना / (सू०१) भ०१श०१ उ०। णमो अरिहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आयरियाणं णमो उवज्झायाणं णमो लोए सवसाहूणं / (सू०१) णमो बंभीए लिवीए। (सू०२)। अधिकृतशास्त्रस्यैव मङ्गलत्वात्कि मङ्गलेन ? अनवस्थादिदोषप्राप्तेः, सत्यं, किन्तु शिष्यमतिमङ्गलपिरग्रहार्थं मङ्गलोपादानं शिष्टसमयपरिपालनाय वेत्युक्त मेवेति / अभिधेयादयः पुनरस्य सामान्येन व्याख्याप्रज्ञप्तिरिति नाम्नैवोक्ता इति ते पुनर्नोच्यन्ते, तत एव श्रोतृप्रवृत्त्यादीष्टफलसिद्धेः। तथाहि-इह भगवतोऽर्थव्याख्या अभिधेयतया उक्ताः,तासां च प्रज्ञापना बोधो वाऽनन्तरफलं, परम्परफलं तुमोक्षः, स चास्याऽऽप्तवचनत्वादेव फलतया सिद्धो, न ह्याप्तः साक्षात् पारम्पर्येण वा यन्न मोक्षाङ्ग तत्प्रतिपादयितुमुत्सहते, अनाप्तत्वप्रसङ्गात्, तथाऽयमेव सम्बन्धो यदुतास्यशास्त्रस्येदं प्रयोजनमिति॥२॥ तदेवमस्यशास्त्रस्यैकश्रुतस्कन्धरूपस्य सातिरेकाध्ययनशतस्वभावस्य उद्देशकदशसहस्री (10000) प्रमाणस्यानषट्त्रिंशत्प्रश्-(३६०००) सहस्रपरिमाणस्य अष्टाशीतिसहस्वाधिकलक्षद्वय(२८८०००) प्रमाण-पदराशेर्मङ्गलादीनिदर्शितानि। अथ प्रथमेशते ग्रन्थान्तरपरिभाषयाऽध्ययने दशोद्देशका भवन्ति। उद्देशकाश्चअध्ययनार्थदेशाभिधानियोऽध्ययनविभागाः। उद्दिश्यन्ते-उपधानविधिना शिष्यस्याचार्येण, यथाएतावन्तमध्ययनभागमधीष्वेत्येवमुद्देशास्तएवोद्धेशकाः,
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________________ विवाहपण्णत्ति 1236 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विवाहपण्णत्ति तांश्च सुखधरणस्मरणादिनिमित्तमाद्याभिधेयाभिधानद्वारेण संग्रहोतुमिमां गाथामाहरायगिहंचलणदुक्खं, कंखपओसे य पगइपुढवीओ। जावंते नेरइए, बाले गुरुए य चलणाओ ||1|| अधिकृतगाथार्थो यद्यपि वक्ष्यमाणोद्देशकदशकाभिगमे स्वयमेवावगम्यते तथाऽपि बालानां सुखावबोधार्थमभिधीयते-तत्र 'रायगिहे' त्ति लुप्तसप्तम्येकवचनत्वाद्राजगृहे नगरे वक्ष्यमाणोद्देशकदशकस्याओं भगवता श्रीमहावीरेण दर्शित इति व्याख्येयम् / एवमन्यत्रापीष्टविभस्त्यन्तताऽवसेया। 'चलण' त्ति चलनविषयः प्रथमोद्देशकः 'चलमाणे चलिए' इत्याद्यर्थनिर्णयार्थ इत्यर्थः 1, 'दुक्खे' त्ति दुःखविषयो द्वितीयः / 'जीवो भदन्त! स्वयं कृतं दुःखं वेदयती' त्यादिप्रश्ननिर्णयार्थ इत्यर्थः / 2, 'कंखप-ओसे' त्ति काङ्क्षामिथ्यात्वमोहनीयोदयसमुत्थोऽन्यान्यदर्शनग्रहरूपो जीवपरिणामः स एव प्रकृष्टो दोषोजीवदूषणं कासाप्रदोषस्तद्विषयस्तृतीयः, 'जीवेन भदन्त! कासामोहनीयं कर्मकृत' मित्याद्यर्थनिर्णयार्थ इत्यर्थः 3, चकारः समुच्चये, 'पगइ' त्ति प्रकृतयःकर्मभेदाश्चतुर्थोद्देशकस्यार्थः, 'कति भदन्त ! कर्म प्रकृतयः ?' इत्यादिश्चासौ 4, 'पुढवीओ' त्ति रत्नप्रभादिपृथिव्यः पञ्चमेवाच्याः, कति भदन्त! पृथिव्यः?' इत्यादिचसूत्रमस्य 5, 'जावंतो' ति यावच्छब्दोपलक्षितः षष्ठः 'यावन्तो भदन्त ! अवकाशान्तरात्सूर्य' इत्यादिसूत्रश्चासौ ६,'नेरइए' त्ति नैरयिकशब्दोपलक्षितः सप्तमः, नैरयिको भदन्त ! निरये उत्पद्यमानः' इत्यादि च तत्सूत्रम् / 7. 'बाले' त्ति बालशब्दोपलक्षितोऽष्टमः, एकान्तबालो भदन्त ! मनुष्यः' इत्यादिसूत्रश्चासौ 8, 'गुरुए' त्ति गुरुकविषयो नवमः, 'कथं भदन्त ! जीवा गुरुकत्वमागच्छन्ति ? इत्यादिचसूत्रमस्य:, चः समुच्चायार्थः 'चलणाओ' त्ति बहुवचननिर्देशाचलनाद्या दशमोद्देशकस्यार्थाः, तत्सूत्रं चैवम्- 'अन्यूथिका भदन्त ! एवमाख्यान्ति चलद् अचलितमित्यादी' ति प्रथमशतो-द्देशकसमहणिगाथार्थः / / 1 / / तदेवं शास्त्रोद्देशे कृतमङ्गलादिकृत्योऽपि प्रथमशतस्यादौ विशेषतो मङ्गलमाहनमो सुयस्य / / (सू०३)। 'नमो सुयस्स' त्ति नमस्कारोऽस्तु श्रुताय- द्वादशाङ्गीरूपायाहत्प्रवचनाय, नन्विष्टदेवतानमस्कारो मङ्गलार्थो भवति, न च श्रुतमिष्टदेवतेति कथमयं मङ्गलार्थ इति ? अत्रोच्यते-श्रुतमिष्टदेवतैव, अर्हतां नमस्करणीयत्वात्, सिद्धवत्, नमस्कुर्वन्ति च श्रुतमर्हन्तो, 'नमस्ती ये' ति भणनात्। तीर्थं च श्रुतं संसारसागरोत्तरणासाधारणकारणत्वात्, तदाधारत्वेनैव च सङ्घस्य तीर्थशब्दाभिधेयत्वात्, तथा सिद्धानपि मङ्गलार्थमर्हन्तो नमस्कुर्वन्त्येव-"काऊण नमोक्कार, सिद्धाणमभिग्गहं तु सो गिण्हे'' इति वचनादिति // 3 // एवं तावत्प्रथमशतोद्देशकाभिधेयार्थलेशः प्राग्दर्शितः, ततश्च यथोद्देशं निर्देश, इति न्यायमाश्रित्यादितः प्रथमोद्देशकार्थप्रपञ्चो वाच्यः, तस्य | चगुरुपर्वक्रमलक्षण सम्बन्धमुपदर्शयन् भगवान सुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिनमाश्रित्येदमाह तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नाम नयरे होत्था, वण्णओ, तस्सणं रायगिहस्स बहिया नगरस्स उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए गुणसिलएनामंचेहए होत्था, सेणिएराया, चेल्लणादेवी। (सू०५) अथ कथमिदमवसीयते यदुत-सुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिनमभिसंबन्धग्रन्थमुक्तवानिति ? उच्यते-सुधर्मस्वामिवाचनाया एवानुवृत्तत्वात्, आह च- “तित्थं च सुहम्माओ, निरवचा गणहरा सेसा" सुधर्मस्वामिनश्च जम्बूस्वाम्येव प्रधानः शिष्योऽतस्तमाश्रित्येयं वाचना प्रवृत्तेति। तथा षष्ठाने उपोद्घात एवं दृश्यते-यथा किल सुधर्मस्वामिनं प्रति जम्बूनामा प्राह- "जह णं भंते ! पंचमस्स अंगस्स विवाहपन्नत्तीए समणेणं भगवया महावीरेणं अयमढे पण्णत्ते, छट्ठस्सणं भंते ! के अष्टे पन्नत्ते?" तितत एवमिहापि सुधर्मैव जम्बूनामानं प्रत्युपोद्धातमवश्यमभिहितवानित्यवसीयत इति / अयं चोपोद्घातग्रन्थो मूलटीकाकृता समस्तं शास्त्रमाश्रित्य व्याख्यातोऽप्यस्माभिः प्रथमोद्देशकमाश्रित्य व्याख्यास्यते प्रतिशतं प्रत्युद्देशकमुपोद्घातस्येह शास्त्रेऽनेकधाऽभिधानादिति। अयं च प्राग् व्याख्यातो नमस्कारादिको ग्रन्थो वृत्तिकृतान व्याख्यातः कुतोऽपि कारणादिति। 'तेणं कालेणं' ति, ते इति-प्राकृतशैलीवशात्तस्मिन् यत्र तन्नगरमासीत्, णकारोऽन्यत्रापि वाक्यालङ्कारार्थो यथा-"इमाणं भंते! पुढवी" त्यादिषु काले अधिकृतावसर्पिणीचुतर्थविभागलक्षण इति, 'तेणं तितस्मिन् यत्रासौ भगवान् धर्मकथामकरोत् 'समएण' ति समये- कालस्यैव विशिष्ट विभागे, अथवा तृतीयैवेयं ततस्तेन कालेन हेतुभूतेन तेन समयेन हेतुभूतेनैव 'रायगिहे' त्ति एकारः प्रथमैकवचनप्रभवः 'कयरे आगच्छइ दित्तरूवे' इत्यादाविव / ततश्च राजगृहं नाम नगरं 'होत्थं त्ति अभवत्। नन्विदानीमपि तन्नगरमस्तीत्यतः कथमुक्तमभवदिति ? उच्यते, वर्णकग्रन्थोक्तविभूतियुक्तं तदैवाभवत्न तु सुधर्मस्वामिनो वाचनादानकाले, अवसर्पिणीत्वात्कालस्य तदीयशुभभावानां हानिभावात्। 'वन्नओ' त्ति इह स्थानके नगरवर्णको वाच्यः, ग्रन्थगौरवभयादिह तस्यालिखितत्वात् / भ०१२०१ उ०। "इति गुरुगमभङ्गैः सागरस्याहमस्य, स्फुटमुपचितजाड्यः पञ्चमाङ्गस्य सद्यः / प्रथमशतपदार्थावर्तगर्तव्यतीतो, विवरणवरपोतं प्राप्त सद्धीवराणाम् / / 1 / / " इति श्रीमदभयदेवाचार्यविरचितायां भगवतीवृत्तौ प्रथमशतं समाप्तमिति। भ०१श०. ग अथ द्वितीयं व्याख्यायते- तत्रापि प्रथमोद्देशकः- तस्य चायमभिसम्बन्धः-प्रथमशतान्तिमोद्देशकान्त जीवानामुत्पादविरहोऽभिहितः, इह तु तेषामेवोच्छ्वासादि चिन्त्यत इत्येवं सम्बन्धस्यास्येदमुपोद्घातसूत्रानन्तरसूत्रम्। गाहा ऊसासखंदए विय 1, पुढविं 2, दिय 3, अन्नउत्थि, भासा 5 य। देवा य 6 चमरचंचा 7, समय 8 खित्त ऽस्थिकाय 10 बीयसए।।१।। भ०२श०१ उ०।
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________________ विवाहपण्णत्ति १२४०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विवाहपण्णत्ति "श्रीपञ्चमाङ्गे गुरुसूत्रपिण्डे,शतं स्थितानेकशते द्वितीयम्। अनैपुणेनापि मया व्यचारि, सूत्रप्रयोगज्ञवचोऽनुवृत्त्या // 1 // " इति। भ०२ श० 10 उ०। तृतीयं व्याख्यायते- अस्य चायमभिसम्बन्धः-- अनन्तरशतेऽस्तिकाया उक्ताः, इह तु तद्विशेषभूतस्य जीवास्तिकायस्य विविधधर्मा उच्यन्ते, इत्येवं सम्बन्धस्यास्य तृतीयशतस्योद्देशकार्थसाहायेयं गाथाकेरिसविउव्वणाचम-रकिरियजाणित्थिनगरपालाय। अहिवइ इंदियपरिसा, ततियम्मि सए दसुदेसादा भ०३श०१ उ01 "श्रीपञ्चमाङ्गस्य शतंतृतीयं, व्याख्यातमाश्रित्य पुराणवृत्तिम्।शक्तोऽपि गन्तुं भजते हि यानं, पान्थः सुखार्थं किमु यो न शक्तः ? ||1|" भ०३ श०१० उ०। तृतीयशतेप्रायेण देवाधिकार उक्तः, अतस्तदधिकारवदेवचतुर्थ शतं, तस्य पुनरुद्देशकार्थाधिकारसंग्रहगाथाचत्तारि विमाणेहिं, चत्तारिय हॉति रायहाणीहि / नेरइए लेस्साहिय, दस उद्देसा चउत्थसए। भ०४ श०१ उ०। 'स्वतः सुबोधेऽपिशते तुरीये, व्याख्या मया काचिदियं विदृब्धा। दुग्धे सदा स्वादुतमे स्वाभावात्, क्षेपो न युक्तः किमुशर्करायाः / / 1 / / ' भ०४ श०१० उ०। चतुर्थशतान्ते लेश्या उक्ताः, पञ्चमशते तु प्रायो लेश्यावन्तो निरूप्यन्ते इत्येवं संबन्धस्यास्योद्देशकसंग्रहाय गाथेयम्चंपरवि अनिल गंठिय, सद्दे छउमायुएयण णियंठे। रायगिहं चंपा चं-दिमा य दस पंचमम्मि सए॥१॥ भ०५ श०१ उ०। 'श्रीरोहणानेरिव पञ्चमस्य, शतस्य देशानिव साधुशब्दान् / विभिद्य कुश्येव बुधोपदिष्ट्या, प्रकाशिताः सन्मणिवन्मयाऽर्थाः' // 1 / / भ०५ श०१० उ०। व्याख्यातं विचित्रार्थं पञ्चमंशतम्। अथावसरायातं तथाविधमेव षष्ठमारभ्यते, तस्य तस्य चोद्देशकार्थसंग्रहणी गाथेयम् - वेयण आहार मह-स्सवे य सपएस तमुय भविए य। साली पुढवी कम्म, ऽन्नउत्थि दस छट्टगम्मि सए॥१॥ 'वेयणे' त्यादि, तत्र 'वेयण' त्ति महावेदनो-महानिर्जर इत्याद्यर्थप्रतिपादनपरः प्रथमः 1 / 'आहार' त्ति अहा-राद्यर्थाभिधायको द्वितीयः 2 / 'महस्सवे' यत्ति महाश्रवस्य पुद्गला बध्यन्ते इत्याद्यर्थाभिधानपरस्तृतीयः 3 / 'सपएस' ति सप्रदेशो जीवोऽप्रदेशो वा इत्याधर्थाभिधायकश्चतुर्थः 4 / 'तमुए य' त्ति तमस्कायार्थनिरूपणार्थः पञ्चमः 5 / 'भयिए' ति भव्यो-नारकत्वादिनोत्पादस्य योग्यस्तद्वक्तव्यतानुगतः षष्ठः 6. 'सालि' ति शाल्यादिधान्यवक्तव्यताऽश्रितः सप्तमः 7 / 'पुढवि' त्ति रत्नप्रभादिपृथिवीवक्तव्यताऽर्थोऽष्टमः 8 कम्म' ति कर्मबन्धाभिधायको नवमः / अन्नउत्थि' ति अन्ययूथिकवक्तव्यतार्थो दशमः 10 इति। / भ०६श०१ उ०। "प्रतीत्य भेदं किल नालिकेर, षष्ठं शतं मन्मतिदन्तभजि / तथापि विद्वत्सभसच्छिलायां, नियोज्य नीतं स्वपरोपयोगम् // 1 // " भ०६श० 10 उ०! व्याख्यातं जीवाद्यर्थप्रतिपादनपरं षष्ठं शतम् / अथ जीवाद्यर्थप्रतिपादनपरमेव समं शतं व्याख्यायते, तत्र चादावेवोद्देशकार्थसंग्रहगाथाआहार विरति थावर, जीव पक्खीय आउ अणगारे। छउमत्था संवुड अ-प्रणउत्थि दस सत्तमम्मि सए॥१॥ 'आहारे' त्यादि 'आहार' त्ति आहारकानाहारकवक्तव्यतार्थः प्रथमः। 'विरइ' त्ति प्रत्याख्यानार्थो द्वितीयः। तत्र 'थावर' ति वनस्पतिवक्तव्यतार्थस्तृतीयः / 'जीव' त्ति संसारिजीव-प्रज्ञापनार्थश्चतुर्थः / पक्खी य' ति खचरजीवयोनिवक्तव्यतार्थः पञ्चमः। 'आउ' त्ति आयुष्कवक्तव्यतार्थः षष्ठः / अणगारे' त्ति अनगारवक्तव्यतार्थः सप्तमः। 'छउमत्थ' त्ति छद्मस्थमनुष्यवक्तव्यतार्थोऽष्टमः / 'असंवुड' ति असंवृतानगारवक्तव्यतार्थो नवमः। 'अण्णउत्थिय' ति कालोदायिप्रभृतिपरतीर्थिकवक्तव्यतार्थो दशम इति / भ०७ श०१ उ०। "शिष्टोपदिष्टयष्ट्या, पदविन्यासं शनैरहं कुर्वन् / सप्तमशतविवृतिपथं, लडितवान् वृद्धपुरुष इव // 1 // " भ०७ श०१० उ०। पूर्वं पुद्गलादयो भावाः प्ररूपिता इहापित एव प्रकारान्तरेण प्ररूप्यन्त इत्येवं सम्बद्धमष्टमशतं विव्रियते; तस्यचौद्देशकसंग्रहार्थं पोग्गले' त्यादि गाथामाहपोग्गल आसीविसरु-क्ख किरिय आजीवफासुगमदत्ते। पडिणीय बंध आरा-हणाय दस अट्ठमम्मि सए"१॥ 'पोग्गल' त्ति पुद्गलापरिणामार्थः प्रथम उद्देशकः, पुद्गल एवोच्यत एवमन्यत्रापि। आसीविस' त्ति आसीविषादिविषयो द्वितीयः। 'रुक्ख' त्ति संख्यातजीवादिवृक्षविषयस्तृतीयः / 'किरिय' त्ति कायिक्यादिक्रियाभिधानार्थश्चतुर्थः। 'आजीव त्ति आजीविकवक्तव्यतार्थः पञ्चमः। 'फासुय' त्ति प्रासुकदानादिविषयः षष्ठः / 'अदत्ते' त्ति अदत्तादानविचारणार्थः सप्तमः। 'पडिणीय' ति गुरुप्रत्यनीकाद्यर्थप्ररूपणार्थोऽष्टमः / 'बंधे' त्ति प्रयोगबन्धाद्यभिधानार्थो नवमः। 'आराहण' ति देशाराधनाद्यर्थो दशमः / भ०५ श०१ उ०। "सद्भक्त्याहुतिना विवृद्धमहसा पार्श्वप्रसादाग्निना, तन्नामाक्षरमन्त्रजप्तिविधिना विनन्धनप्लोषितः / सम्पन्नेऽनघशान्तिकर्मकरणे क्षेमादहं नीतवान, सिद्धिं शिल्पिवदेतदष्टमशतव्याख्यानसन्मन्दिरम्॥१॥" भ० 8 2010 उ०। व्याख्यातमष्टमशतम्।अथ नवममारभ्यते अस्य चायमभिसम्बन्धःअष्टमशते विविधाः पदार्थो उक्ताः, नवमेऽपितएव भङ्गयन्तरेणोच्यन्ते, इत्येवं सम्बन्धस्योद्देशकार्थसंसूचिकेयं गाथा जंबूहीवे जोइस, अंतरदीवे असोच गंगेय। कुंडग्गामो पुरिसे, नवमम्मि,सयम्मि चोत्तीसा // 1 // 'जंबुद्दीवे त्यादितत्र 'जंबूदीवे तिजम्बूद्वीपवक्तव्यताविषयः प्रथमोद्देशकः। 'जोइस' तिज्योतिष्कविषयो द्वितीयः। अंतरदीवे' त्ति अन्तरद्वीपविषयाः अष्टाविंशतिरुद्देशकाः। असोच त्ति अश्रुत्वा धर्मं लभेतेत्याद्यर्थप्रतिपादनार्थ एकत्रिंशत्तमः / 'गंगेय' त्ति गाङ्गेयाभिधानाऽनगारवक्तव्यतार्थों द्वात्रिं
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________________ विवाहपण्णत्ति 1241 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विवाहपण्णत्ति शतमः। 'कुंडग्गामे त्ति ब्राह्मणकुण्डग्रामविषयस्त्रयस्त्रिंशत्तमः / 'पुरिसे' त्ति पुरुषाः पुरुषं घ्नन्तीत्यादिवक्तव्यतार्थश्चतुस्त्रिंशत्तम इति। भ०६ श० / 1 उ०।"अस्मन्मनोव्योमतलप्रचारिणः, श्रीपार्श्वसूर्यस्य विसर्पितजसा। दुर्द्धष्यसंमोहतमोपसारणाद्विभक्तमेवं नवमं शतं मया।।१।।" भ०६० 34 उ०। व्याख्यातं नवमं शतम् / अथ दशम, व्याख्यायते-अस्यायमभिसम्बन्धोऽनन्तरशते जीवादयोऽर्थाः प्रतिपादिता इहापित एव प्रकारान्तरेण प्रतिपाद्यन्त इत्येवं सम्बन्धस्यास्योद्देशकार्थ संग्रहगाथेयम्दिसि संवुडमणगारे, आइड्डी सामहत्थि देवि सभा। उत्तर अंतरदीवा, दसमम्मि सयम्मिचोत्तीसा / / 1 / / 'दिसी' त्यादि 'दिसि' त्ति दिशमाश्रित्य प्रथम उद्देशकः / 'संदुङमणगारे' त्ति संवृतानगारविषयो द्वितीयः। 'आइड्डि', ति आत्मया देवो देवी वा वासान्तराणि व्यतिक्रामेदित्याद्यर्थाभिधायकस्तृतीयः / 'सामहत्थि' त्ति श्यामहस्त्यभिधानश्रीमन्महावीरशिष्यप्रश्नप्रतिवद्धश्वतुर्थः / 'देवि त्ति / चमराधग्रमहिषीप्ररूपणार्थः पञ्चमः। 'सम' त्ति सुधर्मसभाप्रतिपादनार्थः षष्ठः / 'उत्तरअंतरदीव' त्ति उत्तरस्यां दिशि ये अन्तरद्वीपास्तत्प्रतिपादनार्था अष्टाविंशतिरुद्देशका एवं चादितो दशमे शते चतुस्विंशदुद्देशका भवन्तीति। भ०१श०१ उ०।"इति गुरुजनशिक्षापार्श्वनार्थप्रसादप्रसृततरपतत्रद्वन्द्वसामर्थ्यमाप्य / दशमशतविचारक्ष्माधरार येऽधिरूढः, शकुनिशिशुरिवाहं तुच्छबोधाङ्ग कोऽपि // 1 // " भ०१० श०३४ उ०। व्याख्यातं दशमं शतम् / अथैकादशं व्याख्यायते, अस्य चायमभिसम्बन्धः- अनन्तरशतस्यान्तेऽन्तरद्वीपा उक्तास्ते च वनस्पतिबहुला इति वनस्पतिविशेषप्रभृतिपदार्थस्वरूपप्रतिपादनायैकादशं शतं भवतीत्येवं सम्बद्धस्यास्योद्देशकार्थ-संग्रहगाथाउप्पल सालु पलासे, कुंभी नालीय पउम कन्नीय। नलिण सिव लोग काला, लंभिय दस दो य एक्कारे / / 1 / / भ०११०१ उ०। (व्याख्या 'वणप्फई' शब्देऽस्मिन्नेव भागे गता।) "एकादशशतमेवं, व्याख्यातमबुद्धिनाऽपि यन्मयका। हेतुस्तत्राग्रहिता, श्रीवागदेवीप्रसादो वा // 1 // " भ०११ श०१२ उ०। व्याख्यातं विविधार्थमेकादशं शतम्। अथ तथाविधमेष द्वादशमारभ्यते तस्य चोद्देशकार्थाभिधानार्था गाथेयम्संखे जयंति पुढवी, पोग्गल अइवाय राहु लोगे य। नागे य देव आया, वारसमसए दसुद्देसा // 1 // 'संखे' इत्यादि, शङ्खश्रमणोपासकविषयः प्रथम उद्देशकः। 'जयंति' त्ति जयन्त्यभिधानश्राविकाविषयो द्वितीयः 1 'पुढवि' ति रत्नप्रभापृथिवीविषयस्तृतीयः। 'पुग्गल' त्ति पुगलविषयश्चतुर्थः / अइवाए' त्ति प्राणातिपातादिविषयः पञ्चमः। 'राहु' त्ति राहुवक्तव्यतार्थः षष्ठः। 'लोगे य'त्ति लोकविषयस्सप्तमः / 'नागे य' त्ति सर्पवक्तव्यतार्थोऽष्टमः। 'देव' त्ति देवभेदविषयो नवमः। 'आय' त्ति आत्मभेदनिरूपणार्थो दशम इति। भ०१२ श०१ उ०। "गम्भीररूपस्य महोदधेर्यत, पोतः परम्पारमुपैति मक्षु / गतावशक्तोऽपि निजप्रकृत्या, कस्याप्यदृष्टस्य विजृम्भितं तत् // 1 // " भ०१२ 10 10 उ०। व्याख्यातं द्वादशं तत्र चानेकधा जीवादयः पदार्था उक्तास्त्रयोदशेऽपि एव भङ्गयन्तरेणोच्यन्त इत्येवं सम्बद्धमिदं व्याख्यायते / तत्र पुररियमुद्देशकसंग्रहगाथापुढवी देवमणंतर-पुढवी आहारमेव उववाए। भासा कम्मऽणगारे, केयाघडिया समुग्धाए||१|| 'पुढवी' इत्यादि, 'पुढवी' ति नरकपृथिवीविषयः प्रथमः। 'देव' त्ति देवप्ररूपणार्थो द्वितीयः। अणंतर' त्ति अनन्तराहारा नारका इत्याद्यर्थप्रतिपादनपरस्तृतीयः। 'पुढवी तिपृथिवीगतवक्तव्यताप्रतिबद्धश्चतुर्थः / 'आहारे' त्ति नारकाद्याहारप्ररूपणार्थः पञ्चमः / 'उववाए' त्ति नारकाधुपपातार्थः षष्ठः। भास' त्ति भाषार्थः सप्तमः। 'कम्म' त्ति कर्मप्रकृतिप्ररूपणार्थोऽष्टमः / 'अणगारे केयाघडिय' त्ति अनगारोभावितात्मा लब्धिसामर्थ्यात् 'केयाघडिय' त्ति रज्जुबद्धघटिकाहस्तः सन् विहायसि वृजेदित्याद्यर्थप्रतिपादनार्थो नवमः, 'समुग्धाए' त्ति समुद्घातप्रतिपादनार्थो दशम इति / भ० 13 श०१ उ०। "त्रयोदशस्यास्य शतस्य वृत्तिः, कृता मया पूज्यपदप्रसादात्। नान्धकारे विहितोद्यमोऽपि, दीपं विना पश्यति वस्तुजातम्" ||1|| भ०१३ 2010 उ०। व्याख्यातं विचित्रार्थं त्रयोदशतम्। अथ विचित्रार्थमेव क्रमायातं चतुर्दशमारम्यते, तत्र चदशोद्देशकास्तत्र सङ्ग्रहगाथा चेयम्चर उम्माद सरीरे, पोग्गल अगिणी तहा किमाहारे। संसिट्ठमंतरे खलु, अणगारे केवली चेव / / 1 / / 'चर उम्मायसरीरे' त्यादि तत्र 'चर' त्ति सूचामात्रत्वादस्य चरमशब्दोपलक्षितोऽपि चरमः प्रथम उद्देशकः। 'उम्माय' त्ति उन्मादार्थाभिधायकत्वादुन्मादो द्वितीयः। 'सरीरे' त्ति शरीरशब्दोपलक्षितत्वाच्छरीरस्तृतीयः / 'पुग्गल' त्ति पुद्गलार्थाभिधायकत्वात् पुद्रलश्चतुर्थः / 'अगिणि' त्ति अग्निशब्दोपलक्षितत्वादग्निः पञ्चमः / 'किमाहारे' त्ति किमाहारा इत्येवंविधप्रश्नोपलक्षितत्वात्किमाहारः षष्ठः। 'संसिट्ठ' त्ति "चिरसंसिट्ठो सि गोयम''त्ति इत्यत्रपदेयः संश्लिष्टशब्दस्तदुपलक्षितत्वात्संश्लिष्टोद्देशकः सप्तमः / 'अंतरे' त्ति पृथिवीनामन्तराभिधायकत्वादन्तरोद्देशकोऽष्टमः / 'अणगारे' त्ति अणगारेति पूर्वपदत्वादनगारोद्देशको नवमः। 'केवलि' त्ति केवलीतिप्रथमपदत्वात्केवली दशमोद्देशक इति / भ०१४ श०१ उ० / "चतुर्दशस्येह शास्य वृत्तिर्येषां प्रभावेण कृता मयैषा / जयन्तु ते पूज्यजना जनानां, कल्याणसंसिद्धिपरस्वभावाः / / 1 / / " भ०१४ श०१० उ०। व्याख्यातं चतुर्दशं शतम् / अथ पञ्चदशममारभ्यते, तस्य चायं पूर्वेण सहाभिसम्बन्धः-- अनन्तरशते के वली रत्नप्रभादिकं वस्तु जानातीत्युक्तं तत्परिज्ञानं चात्मसंबन्धि यथा भगवता श्रीमन्महावीरेण गौतमायाऽविर्भावितं गोशालकस्य स्वशिष्या
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________________ विवाहपण्णत्ति १२४२-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विवाहपण्णत्ति भासस्य नरकादिगतिमधिकृत्य तथाऽनेनोच्यते इत्येवं संबन्धस्यास्येदमादिसूत्रम्णमो सुयदेवयाए भगवतीए। "श्रीमन्महावीरजिनप्रभावा-द्रोशालकाहकृतिवद्गतेषु / समस्तविघ्नेषु समापितेयं, वृत्तिः शते पञ्चदशे मयेति // 1 // " भ०१५ श०॥ व्याख्यातं पञ्चदशं शतं, तत्र चैकेन्द्रियादिषु गोशाल-कजीमस्यानेकधा जन्म मरणं चोक्तमितीहापि जीवस्य जन्म-मरणाधुच्यते, इत्येवं सम्बद्धस्यास्येयमुद्देशकाभिधानसूचिका गाथाअहिगरणि जरा कम्मे, जावतियं गंगदत्त सुमिणे य। उवओग लोग बलिओ-हि दीव उदही दिसा थणिया||१|| 'अहिगरणी' त्यादि 'अहिगरणि' त्ति अधिक्रियते-ध्रियते कुट्टनार्थ लोहादि यस्यां साऽधिकरणी-लोहकाराद्युपकरणविशेषः, तत्प्रभृतिपदार्थविशेषितार्थविषय उद्देशकोऽधिक-रण्येवोच्यते।सचात्र प्रथमः। 'जर' ति जराद्यर्थविषयत्वाजरेति द्वितीयः। 'कम्मे' त्ति कर्मप्रकृतिप्रभृतिकार्थविषयत्वात्कर्मेति तृतीयः / 'जावइयं' ति 'जावइय' मित्यनेन आदिशब्देनो-पलक्षितो 'जावइयमिति' चतुर्थः / 'गंगदत्त' त्ति 'गङ्गदत्तदेववक्तव्यताप्रतिवद्धत्वाद्गदत्त एव पञ्चमः। 'सुमिणेय' त्ति स्नप्नविषयत्वात्स्वप्न इति षष्ठः / 'उवओग' त्ति उपयोगार्थप्रतिपादकत्वादुपयोग एव सप्तमः। 'लोग' त्ति लोकस्वरूपाभिधायकत्वाल्लोक एवाष्टमः। 'बलि' त्ति बलिसम्बन्धिपदार्थाभिधायकत्वादलिरेव नवमः। 'ओहि ति अवधिज्ञानप्ररूपणार्थत्वादबधिरेव दशमः। 'दीव' त्तिद्वीपकुमारवक्तव्यतार्थो द्वीप एकादशः। उदहि' ति उदधिकुमारविषयत्वादुदधिरेव द्वादशः। 'दिसि' त्ति दिक्कुमारविषयत्वाद्विगेव त्रयोदशः / 'थणिव' त्ति स्तनितकुमार-विषयत्वात्स्तनित एव चतुर्दश इति / भ० १६श०१ उ०। "सम्यक् श्रुताचारविवर्जितोऽप्यहं यदप्रकोपात्कृतववाविचारणाम्।अविघ्नमेतां प्रतिषोडशं शतं, वाग्देवता सा भवताद्वरप्रदा // 1 // " भ० 16 श०१४ उ०। व्याख्यातं षोडशंशतम्। अथ क्रमायातंसप्तदशमारभ्यते, तस्य चादाबेवोद्देशकसंग्रहाय गाथाकुंजर संजय सेले-सि किरिय ईसाण पुढविदग वाऊ। एगिदिय नाग सुव-नविजुवायुऽग्गि सत्तरसे // 1 // 'कुंजरे' त्यादि। तत्र 'कुंजर' त्ति श्रेणिकसूनोः कूणिकराजस्य सत्क उदायिनामा हस्तिराजः तत्प्रमुखार्थाभिधायकत्वात्कुञ्जर एव प्रथमोद्देशक उच्यते-एवं सर्वत्र। 'संजय' त्ति संयताद्यर्थप्रतिपादको द्वितीयः। सेलेसित्ति शैलेश्यादिवक्त-व्यतार्थस्तृतीयः। किरिय' त्ति क्रियाद्यर्थाभिधायकश्चतुर्थः / 'ईसाण' त्ति ईशानेन्द्रवक्तव्यतार्थः पञ्चमः ! 'पुढवि' त्ति पृथिव्यर्थः षष्ठः सप्तमश्च। 'दग' त्ति अप्कायार्थोऽष्टमो नवमश्च। 'वाउ' त्ति वायुकायार्थो दशम एकादशश्च / एगिंदिय' त्ति एकेन्द्रियस्वरूपार्थो द्वादशः / 'नाग' ति नागकुमारवक्तव्यतार्थस्त्रयोदशः / 'सुवण्ण' त्ति सुवर्णकुमारार्थानुगतश्चतुर्दशः / 'विलु ति विद्युत्कुमाराभिधायकः पञ्चदशः। 'वाउ' त्ति वायुकुमारवक्तव्यतार्थः षोडशः। अग्गि' त्ति अग्निकुमारवक्तव्यतार्थः सप्तदशः। 'सत्तरसे' ति सप्तदशशते एते उद्देशका भवन्ति। भ०१७ श०१७ उ०1"शते सप्तदशे वृत्तिः, कृतेयं गुर्वनुग्रहात्। यदन्धोयाति मार्गेण, सोऽनुभावोऽनुकर्षिणः // 1 // " भ०१७ श०१७ उ० / व्याख्यातं सप्तदशशतम्। अथावसरायातमष्टादशं व्याख्यायते, तस्य च तावदादावेवेयमुद्देशकसंग्रहणी गाथापढमे विसाहमायं-दिए य पाणाइवाय असुरे य। गुल केवलि अणगारे, भविए तह सोमिलट्ठऽरसे ||1|| 'पढमे' त्यादि, तत्र 'पढमे त्ति जीवादीनामर्थानां प्रथमाऽप्रथमत्वादिविचारपरायण उद्देशकः प्रथम उच्यते, स चास्य प्रथमः। 'विसाह' त्ति विशाखा नगरी तदुपलक्षितो विशाखेति द्वितीयः / 'मार्गदिए य' त्ति माकन्दीपुत्राभिधानाऽनगारोपलक्षितो माकन्दिकस्तृतीयः / 'पाणाइवाय' ति प्राणातिपातादिविषयः प्राणातिपातश्चतुर्थः / असुरे य' त्ति असुरादिवक्तव्यताप्रधानोऽसुरः पञ्चमः / 'गुल' त्ति गुलाद्यर्थविशेषस्वरूपनिरूपणपरो गुलः षष्ठः / 'केवलि' ति केवल्यादिविषयः केवली सप्तमः / 'अणगारे' त्ति अनगारादिविषयोऽनगारोऽष्टमः / 'भविय' त्ति भव्यद्रव्यनारकादिप्ररूपणार्थो भव्यो नवमः। 'सोमिल' त्ति सोमिलाभिधानब्राह्मणवक्तव्यतोपलक्षितः सोमिलो दशमः। 'अट्ठरसे' त्ति अष्टदशशते एते उद्देशका इति। भ०१८ श०१ उ०। 'अष्टादशशतवृत्ति- विहिता वृत्तानि वीक्ष्य वृत्तिकृताम् / प्राकृतनरो ह्यदृष्ट, न कर्म कर्तुं प्रभुर्भवति।।१।।" भ०१८ श०१० उ०। व्याख्यातमष्टादशशतमथावसरायातमेकोनविंशतितमं व्याख्यायते, तत्र चादावेवोद्देशक सङ्ग्रहाय गाथालेस्सा य गन्भ पुढवी, महासवा चरम दीव भवणा य / निव्वत्ति करण वणचर-सुरा य एगूणवीसइमे ||1|| 'लेस्से' त्यादि। तत्र 'लेस्साय तिलेश्याः प्रथमोद्देशके वाच्या इत्यसौ लेश्योद्देशक एवोच्यते, एवमन्यत्रापि / चशब्दः समुच्चये / 'गठभ' त्ति गर्भाभिधायको द्वितीयः / 'पुढवी' त्ति पृथिवीकायिकादिवक्तव्यतार्थस्तृतीयः। महासव' त्तिनारका महासवा महाक्रिया इत्याद्यर्थपरश्चतुर्थः / 'चरम' ति चरमेभ्योऽल्पस्थितिकेभ्यो नारकादिभ्यः परमा महास्थितयो महाकर्मतरा इत्याद्यर्थप्रतिपादनार्थः पञ्चमः 'दीव' त्ति द्वीपाद्यभिधानार्थः षष्ठः / 'भवणा य' त्ति भवनाद्यर्थाऽभिधानार्थः सप्तमः / 'निव्वत्ति' त्ति निर्वृत्तिनिष्पत्तिः शरीरादेस्तदर्थोऽष्टमः / 'करण' त्ति करणार्थो नवमः / 'वणचरसुरा य, ति वनचरसुराव्यन्तरा देवास्तद्वक्तव्यतार्थो दशम इति / भ० 16 श० 1 उ० / "एकोनविंशस्य शतस्य टीकामज्ञोऽप्यकार्ष सुजनानुभावात् / चन्द्रोपलश्चन्द्रमरीचियोगदन म्बुबाहोऽपि पयः प्रसूते।।१।।" भ०१६ श०१उ०।
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________________ विवाहपण्णत्ति 1243 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विवाहपण्णत्ति व्याख्यातमेकोनविंशतितमं शतम् / अथावसरायातं विंशतितभमारभ्यते-तस्य चादावेवोद्देशकसंग्रहणीम् ‘वेइंदिये' त्यादिगाथामाहवेइंढियमागासे, पाणवहे उवचए य परमाणू। अंतर बंधे भूमी, चारण सोवक्कमा जीवा // 2 // तत्र 'वेइंदिय' ति द्वीन्द्रियादिवक्तव्यताप्रतिबद्धः प्रथमोद्देशको दीन्द्रियोद्देशक एवोच्यत इत्येवमन्यत्रापि। आगासे' त्ति आकाशाद्यर्थों द्वितीयः / 'पाणवहे' ति प्राणातिपाताद्यर्थपरस्तृतीयः / 'उवचए' त्ति श्रोत्रेन्द्रियाद्युपचयार्थश्चतुर्थः / परमाणु त्ति परमाणुवक्तव्यतार्थः पञ्चमः / 'अंतर' त्ति रत्नप्रभाशर्करप्रभाद्यन्तरालवक्तव्यतार्थः षष्ठः / 'बंधे' त्ति जीवप्रयोगादिबन्धार्थस्सप्तमः। 'भूमि' ति विद्याचारणाद्यर्थो नवमः। 'सोवक्कमा जीव' त्ति सोपक्रमायुषो निरुषक्रमायुषश्च जीवा दशमे वाच्या इति। भ०२० श०१ उ०। "विंशति-तमशतकमलं, विकासितं वृद्धवचनविकिरणैः / विवरणकरणद्वारेण सेवितं मधुलिहेव मया / / 1 / / " भ० २०श०१० उ०। व्याख्यातं विंशतितमशतम्। अथावसरायातमेकविंशतित-ममारभ्यते, अस्य चादावेवोद्देशकवर्गसंग्रहायेयं गाथासालि कल अयसि वंसे, इक्खु दन्भे य दम्भ तुलसीय। अहेए दस वग्गा, असीति पुण होति उद्देसा // 1 // भ० 21 श०१ उ०1 (व्याख्या चास्य 'वणप्फइ' शब्दे 812 पृष्ठे गता।) 'एकविंशं शतं प्रायो, व्यक्तं तदपि लेशतः / व्याख्यातं सद्गुणाधायी, गुडक्षेपो गुडेऽपि यत्॥१॥' भ०२१ श० 8 वर्ग। व्याख्यातमेकविंशतितमं शतम्। अथ क्रमायातं द्वाविंशं व्याख्यायते, तस्य चादावेवोद्देशकवर्गसङ्गग्रहायेयं गाथातालेगट्ठिय बहुबी-यगा य गुच्छा य गुम्म वल्ली य। छद्दस वग्गा एए, सष्टिंपुण होति उहेसा ||1|| भ०२२ श०१ वर्ग। (814 पृष्ठे 'वणप्फई' शब्दे गता।) "द्वाविंशं तु शतं व्यक्तं, गम्भीरं च कथञ्चन। व्यक्तगम्भीरभावाभ्यामिह वृत्तिः करोतु किम् ? ||1||" भ० 22 श० 6 वर्ग। व्याख्यातं द्वाविंशं शतमथावसरायातं त्रयोविंशं शतमारभ्यते, अस्य चादावेवोद्देशकवर्गसंग्रहायेयं गाथा आलुय लोहो अवया, पाढी तह मास वनि वल्लीय। पंचेते दस वग्गा, पन्नासा हो ति उद्देसा॥१॥ भ० 23 श०१ वर्ग। "प्राक्तनशतवन्नेयं, त्रयोविंशं शतं यतः। प्रायः समंतयो रूपं, व्याख्याऽतोऽत्रापि निष्फला ||1||" भ० 23 श०५ वर्ग। व्याख्यातंत्रयोविंशं शतम्। अथावसरायातं चतुर्विशंशतं व्याख्यायते, तस्य चादावेवेदं सर्वोद्देशकद्वारसंग्रहगाथाद्वयम्उववाय परीमाणं, संघयणुचत्तमेव संठाणं / लेस्सा दिट्ठीणाणे, अण्णाणे जोग उवओगे ||1|| सण्णा कसाय इंदिय, समुग्धाया वेयणा य वेदे य। आऊ अज्झवसाणा, अणुबंधो कायसंवेहो / / 2 / / 'उववाये' त्यादि, एतच्च व्यक्तं नवरम् ‘उववाय' ति नारकादयः कुत उत्पद्यन्ते इत्येवमुपपातो वाच्यः, परीमाणं' तिये नारकादिषूत्पत्स्यन्ते तेषां स्वकाये उत्पद्यमानानां परिमाणं वाच्यं 'संघयण' ति तेषामेव नारकादिषुत्पित्सूनां संहननं वाच्यम्, 'उचत्तं' ति नारकादियायिनामवगाहनाप्रमाणं वाच्यम्, एवं संस्थानाद्यप्यवसेयम्। 'अणुबंधो' त्ति विवक्षितपर्यायेणाव्यवच्छिन्नेनावस्थानं 'कायसंवेहो' त्ति विवक्षितकायात्कायान्तरे तुल्यकाये वा गत्वा पुनरपि यथासम्भवं तत्रैवागमनम्। भ०२४ श०१ वर्ग।''चरमजिनवरेन्द्रप्रोदितार्थे परार्थ, निपुणगणधरेण स्थापितानिन्द्यसूत्रे। विवृतमिह शते ना कर्तृमिष्ट बुधोऽपि, प्रचुरगमगभीरे किं पुनर्मादृशोऽज्ञः॥१॥" भ०२५ श०२४ उ०। व्याख्यातं चतुर्विंशतितमशतम् / अथ पञ्चविंशतितममारभ्यते तस्य चैवमभिसम्बन्धः - प्राक्तनशते जीवा उत्पादादिद्वारैश्चिन्तिता इह तु तेषामवे लेश्यादयो भावाश्चिन्त्यन्ते इत्येवं सम्बन्धस्यास्योद्देशकसंग्रहगाथेयम्लेसा य दव्व संठा-ण जुम्म पज्जव णियंठ समणा य। ओहे भवियाऽमविए, सम्मा मिच्छे य उद्देसा॥१॥ 'लेसे' त्यादि। तत्र 'लेसा य' त्ति प्रथमोद्देशका लेश्यादयोऽर्थावाच्या इति लेश्योद्देशक एवायमुच्यत इत्येवं सर्वत्र। 'दव्य' त्ति द्वितीये द्रव्याणि वाच्यानि। 'संठाण' त्ति तृतीये संस्थानादयोऽर्थाः। 'जुम्म' त्ति चतुर्थे . कृतयुग्मादयोऽर्थाः / पज्जव' त्तिपञ्चमे पर्यवाः / 'नियंठ' त्ति षष्ठे पुला कादिका निर्गन्थाः। 'समणाय'त्तिसप्तमे सामायिकादिसंयतादयोऽर्थाः। 'ओहे' त्ति अष्टमे नारकादयो यथोत्पद्यन्ते तथा वाच्यं, कथम्? ओघे सामान्ये वर्तमाना भव्याभव्यादिविशेषणैरविशेषिता इत्यर्थः। भविए' त्ति नवमे भव्यविशेषणा नारकादयो यथोत्पद्यन्ते तथा वाच्यम्। 'अभविए' त्ति दशमेऽभव्यत्वे वर्तमाना अभव्यविशेषणा इत्यर्थः। 'सम्म' त्ति एकादशे सम्यग्दृष्टिविशेषणाः। 'मिच्छेय त्तिद्वादशे मिथ्यात्वे वर्तमाना मिथ्यादृष्टिविशेषणा इत्यर्थः / 'उद्देस' ति एवमिहशतेद्वादशोद्देशका भवन्तीति। भ०२५ श० 1 उ०। "कृचिट्टीकावाक्यं क्वचिदपि वचश्चौर्णमनघं, कृचिच्छाब्दी वृत्तिं क्वचिदपि गर्मवाच्यविषयम्। कचिद्विद्वद्वाचं क्वचिदपि महाशास्त्रमपरं, समाश्रित्य व्याख्या शत इह कृता दुर्गमगिराम्॥१॥" भ०२५ श०१२ उ०। व्याख्यातं पञ्चविंशतितमं शतम्। अथ षड्वंशतितममारभ्यते, अस्य चायमभिसंबन्धः-अनन्तरशते नारकादिजीवानामुत्पत्तिरभिहिता; सा च कर्मबन्धपूर्विकेति षड्विंशतितमशते मोहकर्मबन्धोऽपि विचार्यते इत्येवं सम्बन्धस्यास्यैकादशोद्देशकप्रमाणस्य प्रत्युद्देशकद्वारनिरूपणाय तावद्गाथामाहजीवा य लेस्स पक्खिय, दिट्ठी अन्नाण णाण सन्नाओ। वेय कसाए उवओग जोग एकार विट्ठाणा।।१।
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________________ विवाहपण्णत्ति 1244 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विवाहपण्णत्ति "जीवा य' इत्यादि जीवा य'त्तिजीवाः प्रत्युद्देशकं बन्धवक्तव्यतायाः स्थानम्, ततो लेश्याः पाक्षिकाः दृष्टयः अज्ञानं ज्ञानं संज्ञा वेदः कषाया योग उपयोगश्च बन्धवक्तव्यतास्थानम्, तदेवमेतान्येकादशाऽपि स्थानानीति गाथार्थः / भ०२६श०१उ०।"येषां गौरिव गौः सदर्थपयसांदात्री पवित्रात्मिका, सालङ्कारसुविग्रहा शुभपदक्षेपा सुवर्णान्विता। निर्गत्यास्य गृहाङ्गणाद् बुधसभाग्रामाजिरं राजयेत्, ये चास्यां विवृत्तौ निमित्तमभवन्नन्दन्तु ते सूरयः॥१॥" भ०२६ श०११ उ०। व्याख्यातं षड्वंशं शतम्। अथ सप्तविंशमारम्भ्यते, अस्य चायमभिसंबन्धः, अनन्तरशते जीवस्य कर्मबन्धनक्रियाभूतादिकालविशेषेणोक्ता, सप्तविंशशते तुजीवस्य तथाविधैव कर्मकरणक्रियोच्यत इत्येवं सम्बद्धस्यास्येदमादिसूत्रम्- . जीवे णं भंते ! पावं कम्मं किं करिसु करेंति करिस्संति 1? करिंसु करेंति ण करिस्संति 21 करिंसु ण करिति करिस्संति 31 करिंसु ण करेंति ण करिस्संति ? गोयमा! अत्थेगइए करेंसु करेंति करिस्संति 1 अत्थेगइए करिंसु करिंतिण करिस्संति 2, अत्थेगएइ करिसुन करेंति करिस्संति 3, अत्थेगइए करिंसु ण करेंति ण करिस्संति / भ०२७ श० 1 उ०। (सू०८१५४) "व्याख्यातशतसमानं, शतमिदमित्यस्तनो कृता विवृत्तिः। दृष्टसमाने मार्गे, किं कुरुताद्दर्शकस्तस्य।॥१॥" भ० 27 श०११ उ०। व्याख्यातं कर्मवक्तव्यतानुगतं सप्तविंशं शतम् / अथ क्रमायातं तथाविधमेवाष्टविंशव्याख्यायते, तत्र चैकादशोदेशका जीवाद्येकादशद्वारानुगतपापकर्मादि दण्डकनवकोपेता भवन्ति चाद्योद्देशकस्येदमादिसूत्रम्जीवा णं भंते ! पावं कम्म कहिं समश्रिणिंसु ? कहिं समायरिंसु ? गोयमा! सवे विताव तिरिक्खजोणिएस होजा ||1|| म०२८ श०१ उ०। "इति चूर्णिवचनरचना-कुञ्जिकयोद्घाटितं मयाऽप्येतत् / अष्टाविंशतितमशत-मन्दिरमनघं महाघचयम्॥१॥" भ०२८ श०११ उ०1 व्याख्यातं पापकर्मादिवक्तव्यतानुगतमष्टाविंशं शतम्। अथ क्रमायातं तथाविधमेवैकोनत्रिंशं व्याख्यायते, तत्र चतथैवैकादशोद्देशका भवन्ति / भ०२६ श०१ उ०॥"अनुसृत्यमयाटीका, टीकेयं टिप्पिता प्रपटुनेव। अप्रकटपाटवोऽपि हि, पटूयते पटुगमेनाटन् // 1 // " भ० 26 श०११ उ० व्याख्यातमेकोनत्रिंशं शतम् / अथ त्रिंशमारभ्यते-अस्य चायं पूर्वेण सहाभिसम्बन्धः- प्राक्तनशते कर्मप्रस्थापनाद्याश्रित्य जीवा विचारिता इह तुकर्मबन्धादिहेतुभूतवस्तुवादमाश्रित्यतएव विचार्यन्ते / भ० 3 श०१ उ० / "यद्वाङ्महामन्दरमन्थनेन, शास्त्रार्णवादुच्छलितान्यतुच्छम् / भावार्थरत्नानि ममापि दृष्टौ, यातानि ते वृत्तिकृतो जयन्ति / // 1 // " भ०३श०११ उ०। त्रिंशत्तमशते चत्वारि समवसरणान्युक्तानीति चतुष्टयसाधाच्चतुर्युग्मवक्तव्यतानुगतमष्टाविंशत्युद्दे शकयुक्तमेकत्रिंशं शतं व्याख्यायते / भ० 31 श०१ उ० / "शतमेतद्भगवत्या, भगवत्या भावितं मया वाण्याः। यदनुग्रहेण निरवब्रहेण सदनुग्रहेण तथा // 1 // " भ०३१ श०२८ उ०।" एकत्रिंशे शते नारकाणामुत्पादोऽभिहितो द्वात्रिंशे तु तेषामेवोद्वर्तनोच्यते इत्येवं संबद्धमष्टाविंशत्युद्देशकमानमिदं व्याख्यायते। भ०३२ श०१3०1"व्याख्याते प्राक्शते व्याख्या, कृतैवास्य समत्वतः। एकत्र तोयचन्द्रे हि, दृष्ट दृष्टाः परेऽपिते॥१॥" भ०३२ श०२८ उ०। द्वात्रिंशे शते नारकोद्वर्तनोक्ता नारकाचोवृत्ता एकेन्द्रियादिषु नोत्पद्यन्ते, के च ते इत्यस्यामाशङ्कायां ते प्ररूपयितव्या भवन्ति, तेषु चैकेन्द्रियास्तावत्प्ररूपणीया इत्येकेन्द्रियप्ररूपणपरं त्रयस्त्रिंश शतं द्वादशावान्तरशतोपेतं व्याख्यायते। भ०३३ श०१उ०।"घ्याख्येयमिह स्तोक, स्तोका व्याख्या तदस्य विहितेयम्। न ह्योदनमात्राया-मतिमात्र व्यञ्जनं युक्तम् / / 1 / / " भ०३३ श०६ उ०ात्रयस्त्रिंशशते एकेन्द्रियाः प्ररूपिताश्चतुस्विंशच्छतेऽपि भङ्गयन्तरेण तएव प्ररूप्यन्ते। भ०३४ श०१ उ०।"यद्गीर्दीपशिखेव खण्डिततमा गम्भीरगेहोपमग्रन्थार्थप्रचयप्रकाशनपरा सदृष्टिमोदावहा / तेषां ज्ञप्तिविनिर्जितामरगुरुप्रज्ञाश्रियां श्रेयसां, सूरीणामनुभावतः शतमिदं व्याख्यातमेवं मया॥१॥" भ०३४ श०६ उ०। चतुस्विंशशते एकेन्द्रियाः श्रेणिप्रक्रमेण प्रायः प्ररूपिताः, पञ्चत्रिंशेतुतएव राशिप्रक्रमेण प्ररूप्यन्ते। भ०३५ श०१ उ०। "व्याख्या शतस्यास्य कृता सकष्ट, टीकाऽल्पिका येन नचास्ति चूर्णिः / मन्दैकनेत्रोवत पश्यताद्वा, दृश्यान्यकष्ट कथमुद्यतोऽपि।।१।।" भ०३५ श०१२ उ०॥पञ्चत्रिंशे शते संख्यापदैरेकेन्द्रियाः प्ररूपिताः षट्त्रिंशे तु तैरेव द्वीन्द्रियाः प्ररूप्यन्ते। भ०३६ श०१ उ०। सव्वाए भगवईए अद्वतीसंसतंसयाणं 138 / उद्देसगाणं 1925 भ०४१श०। आद्यानि द्वात्रिंशच्छतान्यविद्यमानावान्तरशतानि 32 त्रयस्त्रिशादिषु तु सप्तसु प्रत्येकमवान्तरशतानि द्वादश 84, चत्वारिंशे त्वेकविंशतिः, २१एकचत्वारिंशे तु नास्त्यवान्तरशतम् 1, एतेषां च सर्वेषां मीलनेऽष्टत्रिंशदधिकं शतानांशतं भवति। एवमुद्देशकपरिमाणमपि सर्वशास्वमवलोक्यावसेयम्, तचैकोनविंशतिशतानि पञ्चविंशत्यधिकानि। "इहशतेषु कियत्स्वपि वृत्तिका, विहितवानहमस्मि सुशङ्कितः / विवृतिचूर्णिगिरां विरहाद्विदृक् कथमशङ्कमियय॑थवा पथि? ||15" एकचत्वारिंशं शतं वृत्तितः परिसमाप्तम् // 41 // अथ भगवत्या व्याख्याप्रज्ञप्त्याः परिमाणाभिधित्सया गाथामाहचुलसीय सयसहस्सा, पदाण पवरवरणाणदंसीहिं। भावाभावमणंता, पन्नत्ता एत्थमंगम्मि||१|| 'चुलसी' त्यादि, चतुरशीतिः शतसहस्राणि पदानामत्राङ्गे इति सम्बन्धः / पदानि च विशिष्टसम्प्रदायगम्यानि, प्रवराणां वरं यज्ज्ञानं तेन पश्यन्तीत्येवंशीला येतेप्रवरवरज्ञानदर्शिनस्तैः केवलिभिरित्यर्थः प्रज्ञप्तानीति योगः / इदमस्य सूत्रस्य स्वरूपमुक्तमथार्थस्वरूपमाह'भावाभावमणंत' त्तिभावा-जीवादयः पदार्थाः अभावाश्च-तएदास्या
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________________ विवाहपण्णत्ति 1245 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विवाहपण्णत्ति पेक्षया भावाभावाः, अथवा भावा-विधयः, अभावा-निषेधाः प्राकृतत्वाचेत्थं निर्देशः, अनन्ताः- अपरिमाणाः अथवा- भावाभावैर्विषयभूतैरनन्तानि भावाभावानन्तानि चतुरशीतिः शतसहस्राणि प्रज्ञप्तानि अत्र-प्रत्यक्षेपञ्चमेइत्यर्थः अङ्गे-प्रवचनपरमपुरुषावयव इतिगाथार्थः।।१।। अथान्त्यमङ्गलार्थं संघ समुद्ररूपकेण स्तुवन्नाहतवनियमविणयवेलो, जयति सदा नाणविमलविपुलजलो। हेतुसतविपुलवेगो, संघसमुद्दो गुणविसालो॥२॥ 'तवे' त्यादि गाथा, तपोनियमविनया एव वेलाजलवृद्धिरवसरवृद्धिसाधाद्यस्य स तथा जयति-जेतव्यजयेन विजयते सदा सर्वदा ज्ञानमेव विमलं-निर्मलं विपुलं-विस्तीर्णं जलं यस्य स तथा, अस्ति (अस्ताघ) त्वसाधर्म्यात्स तथा, हेतुशतानि-इष्टानिष्टार्थसाधननिराकरणयोर्लिङ्गशतानि तान्येव विपुलो-महान् वेगः-कल्लोलाव दिरयो यस्य विव-क्षितार्थक्षेपसाधनसाधात्स तथा संघ समुद्रः-जिनप्रवचनोदधिर्गाम्भीर्यसाधात् , अथवा साधर्म्य साक्षादेवाह-गुणैःगाम्भीर्यादिभिर्विशालो विस्तीर्णस्तद्रहुत्वाद्यः स तथेति गाथार्थः / / 2 / / णमो गोयमाईणं गणहराणं, णमो भगवईए विवाहपन्नत्तीए, णमो दुवालसंगस्स गणिपिडगस्स / / (कुसुम) "कुम्मसुसंठियचलणा, अमिलियकोरंटवेंटसंकासा। सुयदेवया भगवई, मम मतितिमिरं पणासेउ॥१॥" पण्णत्तीए आयिमाणं अट्ठण्हंसयाणं दो दो उद्देसगा उद्दिसिजंति णवरं चउत्थे सए पढमदिवसे अट्ठ वितियदिवसे दो उद्देसगा उद्दिसिजंति, णवरंणवमाओ सताओ आरद्धं जावइयं जावइयं तावइयं तावइयं एकदिवसेणं उद्विसिजंति, उक्कोसेणं सतं पि एगदिवसेणं मज्झिमेणं दोहिं दिवसेहिं सतं, जहण्णेणं तिहिं दिवसेहिं सतं एवं० जाव वीसतिम सतं, णवरं गोसालो एगदिवसेणं उद्दिसिज्जंति / जदि ठिओ एगेण चेव आयंबिलेणं अणुण्णजिहिति। अहण ठितो आयंबिलेणं छठेणं अणुण्णवति, एकवीसवावीसतेवीसइमाई सताई एके-कदिवसेणं उद्दिसिजंति, चउवीसतिमं सयं दोहिं दिवसेहिं छछ उद्देसगा, पंचवीसतिमं सयं दोहिं दिवसेहिंछछ उद्देसगा, बंधिसयाइ अट्ठसयाई एगेणं दिवसेणं सेढिसयाई वारस, एगेणं एगिदियमहाजुम्मसयाई वारस, एगेणं एवं वेंदियाणं वारस, तेइंदियाणं वारस, चउरिंदियाणं वारस, एगेण असपिण-पंचिंदियाणं वारस,सण्णिपंचिदियमहाजुम्मसयाईएकवीसं एगदिवसेणं उद्दिसिजंति,रासीजुम्मसतं एगदिवसेणं उहिसिञ्जति। (सू०५६९)। वियसियअरविंदकरा, नासियतिमिरा सुयाहिया देवी। मज्झं पि देउ मेहं, बुहविबुहणमंसिया णिचं ||1|| सुयदेवयाएँ पणमिमों, जिए पसाएण सिक्खियं णाणं / अण्णं पवयणदेवी, संतिकरी तं नमसामि // 2 // सुयदेवयाएँ जक्खो, कुंभधरो बंभसंति वेरोट्टा। विजाय अंतहुंडी, देउ अविग्धं लिहंतस्स // 3 // इति श्री विवाहपन्नत्ती पंचम अंग सम्मत्तं / भ० / यदुक्तमादाविह साधुयोधैः, __ श्रीपञ्चमाङ्गोन्नतकुञ्जरोऽयम्। सुखादिगम्योऽस्त्विति पूर्वगुर्वी, प्रारभ्यते वृत्तिवरत्रिकेयम् // 1 // समर्थितं तत्पटुबुद्धिसाधु साहायकात् केवलमत्र सन्तः। सबुद्धिदात्र्याऽपगुणान् लुनन्तु, सुखग्रहा येन भवत्यथैषा ||2|| चान्द्रे कुलेसद्वनकक्षकल्पे, महाद्रूमो धर्मफलप्रदानात्। छायान्वितः शस्तविशालशाखः, श्रीवर्द्धमानो मुनिनायकोऽभूत् / / 3 / / तत्पुष्पकल्पौ विलसद्विहार सद्गन्धसम्पूर्णदिशौ समन्तात्। बभूवतुः शिष्यवरावनीच वृत्ती श्रुतज्ञानपरागवन्तौ / / 4 / / एकस्तयोः सूरिवरो जिनेश्वरः, ख्यातस्तथाऽन्यो भुवि बुद्धिसागरः। तयोविनयेन विबुद्धिनाऽप्यलं, __ वृत्तिः कृतैषाऽभयदेवसूरिणा // 5 // तयोरेव विनेयानां, तत्पदं चानुकुर्वताम्। श्रीमतां जिनचन्द्राख्य-सत्प्रभूणां नियोगतः // 6|| श्रीमज्जिनेश्वराचार्य-शिष्याणां गुणशालिनाम्। जिनभद्रमुनीन्द्राणा-मस्माकं चाङ्घ्रिसेविनः / / 7 / / यशश्चन्द्रगणेढ-साहाय्यात्सिद्धिमागता। परित्यक्तान्यकृत्यस्य, युक्तायुक्तविवेकिनः // 8 // युग्मम्। शास्त्रार्थनिर्णयसुसौरभलम्पटस्य, विद्वन्मधुव्रतगणस्य सदैव सेव्यः। श्रीनिर्वृताख्यकुलसन्नदपद्मकल्पः, श्रीद्रोणसूरिरनवद्ययशः परागः।।। शोधितवान् वृत्तिमिमां, युक्तो विदुषां महासमूहेन। शास्त्रार्थनिष्कनिकषण कषपट्टककल्पबुद्धीनाम्॥१०॥ विशोधिता तावदियं सुधीभि स्तथापि दोषाः किल सम्भवन्ति। मन्मोहतस्तांश्च विहाय सद्भि स्तद्ग्राहामाप्ताभिमतं यदस्याम्॥११।। यदवाप्तं मया पुण्यं, वृत्ताविह शुभाशयात्। मोहाद्वृत्तिजमन्यच्च, तेनागो मे विशुध्यतात्।।१२।१ भ०। (अन्यकृता इवेमा गाथा इति प्रतीयते) (ग्रन्थलेखनकर्तृकृतानि।)
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________________ विवाहपण्णत्ति 1246 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विवाहपण्णत्ति अस्याः करणव्याख्या, श्रुतिलेखनपूजनादिषु यथार्हम्। दायिकसुतमाणिक्यः, प्रेरितवानस्मदादिजनान् / / 14 / / अष्टाविंशतियुक्ते, वर्षसहस्रे शतेन चाभ्यधिके। अणहिलपाटकनगरे, कृतेयमच्छुप्तधनिवसतौ / / 15 / / अष्टादशसहस्राणि, षट् शतान्यथषोडश। इत्येव मानमेतस्याः, श्लोकमानेन निश्चितम् // 16|| ग्रन्थसंख्या (18616) भ० टी०१ विवाहपन्नत्तीए एकासीति महाजुम्मसया पण्णत्ता। (सू०८१४) 'विवाहपन्नत्तीए' ति व्याख्याप्रज्ञप्तौ एकाशीतिर्महायुग्मशतानि प्रज्ञप्तानि / इह च शतशब्देनाध्ययनान्युच्यन्ते, तानि कृतयुग्मादिलक्षणाराशिविशेषविचाररूपाणि, अत्रान्यराध्ययनस्वभावानितदवगमावगम्यानीति। स०६१ सम०। विवाहपन्नत्तीए णं भगवतीए चउरासीइं पयसहस्सा पदग्गेणं पण्णत्ता। (सू०५४+) व्याख्याप्रज्ञप्त्यां-भगवत्यां चतुरशीतिः पदसहस्राणि पदाग्रेणपदपरिमाणेन, इह च यत्रार्थोपलब्धिस्तत्पदं मतान्तरेण तु अष्टादशपदसहस्र परिमाणत्वादाचारस्य, एतद्विगुणत्वाच्च शेषाङ्गानां व्याख्याप्रज्ञप्तिर्द्वलक्षे अष्टाशीतिः सहस्राणि पदानां भवन्तीति। तथा चतुरशीतिनागकुमारावासलक्षाणि, चतुश्चत्वारिंशतो दक्षिणायां, चत्वारिंशतश्चोत्तरायां भावादिति / स०५४ सम01 विवाहप्रज्ञप्तिविषयःसे किं तं वियाहे? वियाहे णं ससमया विआहिअंतिपरसमया विआहिजंति ससमयपरसमया विआहिलंति जीवा विआहिलंति अजीवा विआहिजंति जीवाजीवा विआहिजंति / लोगे विआहिजई, अलोए विआहिज्जई, लोगालोगे विआहिज्जई। वियाहे णं नाणाविहसुरनरिंदरायरिसिविविहसंसइअपुच्छियाणं जिणेणं वित्थरेण भासियाणंदम्वगुणखेत्तकालपज्जवपदेसपरिणामजहच्छिट्ठिअभावअणुगमनिक्खेवणयप्पमाणसुनिउणोवक्कमविविहप्पकारपगडपयासियाणं लोगालोगपयासियाणं संसारसमुहरुंदउत्तरणसमत्थाणं सुरवइसंपूजियाणं भवियजणपयहिययाभिनंदियाणं तमरयविद्धंसणाणं सुदिहदीवभूयईहामविबुद्धिबद्धणाणं छत्तीससहस्समणूणयाणं वागरणाणं दसणाओ सुयत्थबहुविहप्पगारा सीसहियत्था य गुणमहत्था, वियाहस्सणं परित्ता वायणा, संखेचा अणुओगदारा, संखेखाओ पडिवत्तीओ, संखेज्जा वेढा, संखेजा सिलोगा, संखेजाओ निझुत्तीओ / से णं अंगठ्ठणाए पंचमे अंगे एगे सुयक्खंधे, एगे साइरेगे अज्झयणसते दस उद्देसगसहस्साई, दस समुद्देसग सहस्साई, छत्तीसं वागरणसहस्साई, चउरासीई पयसहस्साई पयग्गेणं पण्णत्ता। संखेज्जाई अक्खराई, अणंता गमा, अणंता पज्जवा, परित्ता तसा, अणंता थावरा सासया कडा णिबद्धा णिकाइया जिणपण्णत्ता भावा आघविजंति पण्णविखंति परूविजंति निदंसिर्जति उवदंसिजंति / से एवं आया से एवं णाया एवं विण्णाया एवं चरणकरणपरूवयणया आधविजंति। सेत्तं वियाहे // 5 / / (सू०१४०) 'से किं तं वियाहे' इत्यादि, अथ केयं व्याख्या ? व्याख्यायन्ते आर्था यस्यां सा व्याख्या। 'वियाहे' इति च पुंल्लिङ्गनिर्देशः प्राकृतत्वात्, 'वियाहे णं' तिव्याख्यया व्याख्यायां वा ससमया इत्यादीनि नव पदानि सूत्रकृतवर्णके व्याख्यातत्वादिह कण्ठ्यानि, 'वियाहे ण' मित्यादि नानाविधैः सुरैः नरेन्दैः राजर्षिभिश्च 'विविहसंसइय' त्ति विविधसंशयितैः-विविधसंशयवद्भिः पृष्टानि यानि तानि तथा तेषां नानाविधसुरनरेन्द्रराजऋषिविविधसंशयित पृष्टानां व्याकरणानां षट्त्रिंशत्सहस्राणां दर्शनात् श्रुतार्था व्याख्यायन्त इति पूर्वापरेण वाक्यसम्बन्धः / पुनः किम्भूतानां व्याकरणानाम् ? जिनेनेति भगवता महावीरेण 'वित्थरेण भासियाणं' विस्तरेण भणितानामित्यर्थः, पुनः किंभूतानाम् ? 'दव्वे' त्यादि, द्रव्यगुणक्षेत्रकालपर्यवप्रदेशपरिणामाऽवस्थायथाऽस्तिभावाऽनुगमनिक्षेपनयप्रमाणसुनिपुणोपक्रमैर्विविधैः प्रकारैः प्रकटः प्रदर्शितो यैव्याकरणैस्तानि तथा तेषां, तत्र द्रव्याणिधर्मास्तिकायादीनि गुणाज्ञानवर्णादयः क्षेत्रमाकाशं कालः-समायादिः-पर्यवाः- स्वपरभेदभिन्ना धाः, अथवा-कालकृता अवस्था-नवपुराणादयः पर्यवाःप्रदेशा निरंशावयवाः परिणामा-अवस्थातोऽवस्थान्तरगमनानि यथायेन प्रकारेणास्तिभावः- अस्तित्वं सत्ता यथास्तिभावं अनुगमः संहितादिव्याख्यानप्रकाररूपः उद्देशनिर्देशनिर्गमादिद्वारक-लापात्मको वा निक्षेपो-- नामस्थापनाद्रव्यभावैर्वस्तुनो न्यासः नयप्रमाणं नयानैगमादयः सप्त द्रव्यास्तिकपर्यायास्तिकभेदात्ज्ञाननयक्रियानयभेदानिश्चयव्यवहारभेदाद्वा द्वौ ते एव तावेववा प्रमाणं वस्तुतत्त्वपरिच्छेदनं नयप्रमाणं, तथा सुनिपुणः- सुसूक्ष्मः सुनिनुणो वा सुष्ठु निश्चितगुण उपक्रमः-आनुपूर्व्यादिः विविधप्रकारता चैषां भेदभणनत एवोपदर्शितेति। पुनः किंभूतानां व्याकरणानां, लोकालोको प्रकाशितौ येषु तानि तथा तेषां, तथा- 'संसारसमुद्दरुंदउत्तरणसमत्थाणं' ति संसारसमुद्रस्य रुन्दस्य–विस्तीर्णस्य उत्तरणेतारणे समर्थानामित्यर्थः, अतएव सुरपतिसम्पूजितानां प्रच्छकनिर्णायकपूजनात् सूक्तत्वेन श्लाघितत्वादा, तथा 'भविजयणपयहिययाभिणंदियाणं' त्ति भव्यजनानां-भव्यप्राणिनां प्रजालोको भव्यजनप्रजा भव्यजनपदो वा तस्यास्तस्य वा हृदयश्चित्तैरभिनन्दितानामनुमोहितानामिति विग्रहः, तथा तमोरजसी-अज्ञानपातके विध्वंसयतिनाशयति यत्तत्तमोरजोविध्वंसं तच तद् ज्ञानं च तमोरजोविध्वंसज्ञानंतेन सुष्ठदृष्टानि निर्णीतानि यानितानि तथा अतएव तानि च तानि दीपभूतानि चेति, अत एव तानि ईहामतिबुद्धिवर्द्धनानि चेति तेषां तमोरजोविध्वंसज्ञानसुदृष्टदीपभूतेहामतिबुद्धिवर्द्धनानाम्, तत्र ईहावितर्को
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________________ विवाहपण्णत्ति 1247 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विवित्तचरिया मतिः- अवायो; निश्चय इत्यर्थः बुद्धिः- औत्पत्तिक्यादिचतुर्विधेति, अथवा-तमोरजोविध्वंसनानामिति पृथगेव पदं पाठान्तरेण सुदृष्टदीपभूतानामिति च, तथा 'छत्तीससहस्समसणूणयाणं' ति अन्यूनकानि षट्त्रिंशत् सहस्राणि येषां तानि तथा, इह मकारोऽन्यथा पदनिपातश्च प्राकृतत्वादनवद्य इति, 'वागरणाणं' तिव्याक्रियन्ते प्रश्नान्तरमुत्तरतयाऽभिधीयन्ते निर्णायकेन यानि तानि व्याकरणानि तेषां दर्शनात्प्रकाशनादुपनिबन्धनादित्यर्थः / अथवा-तेषां दर्शनाः, उपदर्शका इत्यर्थः / क इत्याह- 'सुतत्थबहुविहप्पयारे' त्ति श्रुत-विषया-अर्थाः श्रुतार्थाः; अभिलाप्यार्थविशेषा इत्यर्थः, श्रुता वा आकर्णिता जिनसकाशे गणधरेण ये अर्थास्ते श्रुतार्थाः, अथवा-श्रुतमिति सूत्रम्, अर्थानियुक्त्यादय इति श्रुतार्थास्तेच ते बहुविधप्रकाराश्चेति विग्रहः, श्रुतार्थानां वा बहवो विधाः- प्रकारा इति विग्रहः / किमर्थ ते व्याख्यायन्ते ? इत्याह-शिष्यहितार्थाय-शिष्याणां हितमनर्थप्रतिघातार्थप्राप्तिरूपं तदेवार्थः प्रार्थ्यमानत्वात्तस्य तस्मै इति / किंभूतास्ते ? अत आहगुणहस्ता गुण एवार्थ-प्राप्त्यादिलक्षणो हस्त इव हस्तः प्रधानावयवो येषां ते तथा 'वियाहस्से' त्यादि तु निगमनान्तं सूत्रसिद्धं, नवरं शतमिहाध्ययनस्य संज्ञा चतुरशीतिः पदसहस्राणि पदाणेति समवायापेक्षया द्विगुणताया इहानाश्रयणादन्यथा तद्विगुणत्वेद्वेलक्षे अष्टाशीतिः सहस्राणि च भवन्तीति। स०१४१ सम०। विवाहिय-त्रि०(विवाहित) संजातविवाहे, आ० म०१ अ०। स्था०। विविण-न०(विपिन) वने, ध० 2 अधि०। विविणकम्म-न०(विपिनकर्मन) छिन्नाछिन्नवनपत्रपुष्पफलकन्दमूलतृणकाष्ठकम्बावंशादिविक्रये कणदलपेषणे, वनकच्छादिकरणे च / विपिनंवनंतत्कर्म छिन्नाच्छिन्नवनपत्रपुष्पफलकन्दमूलतृणकाष्ठकम्बावंशादिविक्रयः कणदलपेषणं वनकच्छादिकरणं च। यतः- "छिन्नाच्छिनवनपत्रप्रसूनफलविक्रयः। कणानां दलनोत्पेषा वृत्तिश्य वनजीविका ||1 // " इति। अस्यां च वनस्पतेस्तदाश्रितत्रसादेश्च घातसम्भव इति दोषः 2 / 302 अधि०। विवित्त-त्रि०(विविक्त) स्त्रीपशुपण्डकविवर्जिते, सूत्र०१ श्रु०२ अ०२ उ० स्त्र्यादिरहितोपाश्रये, उत्त०३२ अ०। आचा०। 60 / प्रश्न०। पृथग्भूते त्यक्ते, आचा०१ श्रु०८ अ०८ उ०। रहस्यभूते, दशा०५ अ० | आ० म०। एकान्तसंविग्गे, व्य०४ उ०। विवित्तचरिया-स्त्री०(विविक्तचर्या) पशुपण्डककुशीलवर्जितानवद्याश्रयाश्रयणे, पञ्चा०१६ विव०। अधुना विविक्तचर्या सा पुनरियम् - आरामुज्जाणादिसु, थीपसुपंडगविवज्जिएसु (जं) ठाणं। फलगादीण य गहणं, तह भणियं एसणिज्जाणं ||1|| गता विविक्तचर्या / दश०१ अ०। चूलिअंतु पवक्खामि, सुअंकेवलिभासि। जं सुणित्तु सुपुण्णाणं, धम्मे उप्पज्जए मई ||1|| अणुसोअपट्ठिअबहु-जणम्मि पडिसोअलद्धलक्खेणं। पडिसोअमेव अप्पा, दायथ्वो होउ कामेणं // 2 // अणुसोअसुहोलोओ, पडिसोओ आसवो सुविहिआणं / अणुसोओ संसारो, पडिसोओ तस्स उत्तारो॥३॥ तम्हा आयारपर-कमेण संवरसमाहिबहुलेणं। चरिआ गुणा अनियमा, अहुंति साहूण दट्ठव्वा // 4 // चूडां तु प्रवक्ष्यामि- चूडां - प्राग्व्यावर्णितशब्दार्थां तुशब्दविशेषितां भावचूद्धं प्रवक्ष्यामीति-प्रकर्षणावसर-प्राप्ताभिधानलक्षणेन कथयामि, श्रुतं-- केवलिभाषितमिति इयं हि चूडा श्रुतं- श्रुतज्ञानं वर्तते, कारणे कार्योपचारात्, एतच केवलिभाषितम्-अनन्तरमेव केवलिना प्ररूपित'मिति सफलं विशेषणम् / एवं च वृद्धवादः- कयाचिदार्ययाऽसहिष्णुः कुरगडुकप्रायः संयतश्चातुर्मासिकादावुपवासं कारितः, सतदाराधनया मृत एव / ऋषिघातिकाऽहमित्युद्विग्ना सा तीर्थकरं पृच्छामीति, गुणावर्जितदेवतया नीता श्रीसीमन्धरस्वामिसमीपम्, पृष्टो भगवान् अदुष्टचित्ताऽधातिकेत्यभिधाय भगवतेमां चूडां ग्राहितेति इदमेव विशेष्यतेयच्छ्रुत्वेति-यच्छुत्वा--आकर्ण्य सुपुण्यानां-कुशलानुबन्धिपुण्ययुक्तानां प्राणिनां धर्मे- अचिन्त्यचिन्तामणिकल्पे चारित्रधर्मे उत्पद्यते मतिःसंजायते भावतः श्रद्धा। अनेन चारित्रं-चारित्रबीजं चोपजायत इत्येतदुक्तं भवतीति सूत्रार्थः // 1 / / एतद्धि प्रतिज्ञासूत्रम्, इह चाध्ययने चर्यागुणा अभिधेयाः, तत्प्रवृत्तौ मूलपादभूतमिदमाह- अनुस्रोतः प्रस्थिते-- नदीपूरप्रवाहपतितकाष्ठवद् विषयकुमार्गद्रव्य- क्रियानुकूल्येन प्रवृत्ते बहुजने तथा- विधाभ्यासात् प्रभूतलोके तथा प्रस्थानेनोदधिगामिनि किमित्याह-प्रतिस्रोतोलब्धलक्ष्येण द्रव्यतस्तस्यामेव नद्यां कथञ्चिदेवतानियोगात्प्रतीपस्रोतःप्राप्तलक्ष्येण, भावतस्तु विषयादिवैपरीत्यात्कथञ्चिदवाप्तसंयमलक्ष्येण प्रतिस्रोत एवदुरपाकरणीयमप्यपाकृत्य विषयादिसंयमलक्ष्याभिमुखमेव आत्माजीवो दातव्यः-- प्रवर्त्तयितव्यो भवितुकामेन-संसारसमुद्रपरिहारेण मुक्ततया भवितुकामेन साधुना, न क्षुद्रजनाचरितान्युदाहरणीकृत्यासन्मार्गप्रवणं चेतोऽपि कर्त्तव्यम्, अपि त्वागमैकप्रवणेनैव भवितव्यमिति। उक्तंच"निमित्तमासाद्य यदेव किञ्चन, स्वधर्ममार्ग विसृजन्ति बालिशाः। तपःश्रुतज्ञानधनास्तु साधवो, न यान्ति कृच्छ्रे परमेऽपि विक्रियाम्॥१॥ तथाकपालमादाय विपन्नवाससा, वरं द्विषद्वेश्मसमृद्धिरीक्षिता। विहाय लजां न तु धर्मवैशसे, सुरेन्द्रता (सा) र्थेऽपि समाहितं मनः // 2 // तथापापं समाचरति वीतघृणो जघन्यः, प्राप्यापदं सघृण एव विमध्यबुद्धिः। प्राणात्ययेऽपि न तु साधुजनः स्ववृत्तं,
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________________ विवित्तचरिया 1248 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विवित्तचरिया वेलांसमुद्र इवलचयितुं समर्थः। इत्यलं प्रसङ्गेनेति सूत्रार्थः // 21 // अधिकृतमेव स्पष्टयन्नाह- अनुस्रोतःसुखो लोकः-उदकनिम्नाभिसर्पणवत्प्रवृत्त्याऽनुकूलविषयादिसुखो लोकः, कर्मगुरुत्वात्, प्रतिस्रोत एव-तस्माद्विपरीतः आश्रवः-- इन्द्रियजयादिरूपः परमार्थपशलः कायवाङ्गनोव्यापारः आश्रमो वाव्रतग्रहणादिरूपः सुविहिताना-साधूनाम्, उभयफलमाह-अनुस्रोतः संसारः--शब्दादिविषयानुकूल्यं संसार एव, कारणे कार्योपचारात्, यथाविषं-मृत्युः, दधि-त्रपुषी, प्रत्यक्षो-ज्वरः, प्रतिस्रोतः- उक्तलक्षणः, तस्येति पञ्चम्यर्थे षष्ठी 'सुपां सुपो भवन्ती' ति वचनात्, तस्मात्संसाराद् उत्तारः- उत्तरणमुत्तारः, हेतौ फलोपचारात् यथाऽऽयुघृतं तण्डुलान्वर्षति पर्जन्य इति सूत्रार्थः // 3|| यस्मादेतदेवमनन्तरोदितं तस्मात् आचारपराक्रमेणेति-आचारे-- ज्ञानादौ पराक्रमः- प्रवृत्तिबलं यस्य स तथाविध इति, गमकत्वाद्बहुव्रीहिः, तेनैवंभूतेन साधुना 'संवरसमाधिबहुलेने ति संवरे-इन्द्रियादिविषये समाधिः-अनाकुलत्वं बहुलं-प्रभूतं यस्य स इति, समासः पूर्ववत् तेनैवंविधेन सता अप्रतिपाताय विशुद्धये च, किमित्याह-चर्याभिक्षुभावसाधनी बाह्याऽनियतवासादिरूपा गुणाश्च -मूलगुणोत्तरगुणरूपाः नियमाश्च- उत्तरगुणानामेव पिण्डविशुद्धयादीनां स्वकालासेवननियोगाः भवन्ति साधूनां द्रष्टव्या इत्येते चर्यादयः साधूनां द्रष्टव्या भवन्ति, सम्यग्ज्ञानासेवनप्ररूपणारूपेणेति सूत्रार्थः / / 4 / / दश० 2 चू०। गि(हिणो)हीण वेआवडिन कुजा, भिवायणं वंदणपूअणं वा। असंकिलिहेहि समं वसिज्जा, मुणी चरित्तस्स जओ न हाणीl इयं साधूनां विहारचर्येतिसूत्रस्पर्शनमाहदव्वे सरीरभविओ, भावेण य संजओ इह तस्स। उग्गहिआ पग्गहिआ, विहारचरिया मुणेअब्वा॥३६८|| साधूनां विहारचर्याऽधिकृतेति साधुरुच्यते, स च द्रव्यतो, भावतश्च / तत्र 'द्रव्य' इति द्वारपरामर्शः, 'शरीरभव्य' इति मध्यमभेदत्वादागमनोआगमज्ञशरीरभव्यशरीरतद्व्यतिरिक्तद्रव्यसाधूपलक्षणमेतत्, "भावेन चेति' द्वारपरामर्शः, स एव 'संयत' इति संयतगुणसंवेदको भावसाधुः / इह अध्ययने तस्य-भावसाधोः अवगृहीता-उद्यानारामादिनिवासाद्यनियता प्रगृहीता-तत्रापिविशिष्टाभिग्रहरूपा उत्कुटुकासनादिविहारचर्या मन्तव्याबोद्धव्येति गाथार्थः। सा चेयमिति सूत्रस्पर्शनाहअणिएअंपइरिकं, अण्णायं सा मुआणि उर्छ। अप्पोवही अकलहो, विहारचरिआइसिपसत्था॥३६॥ व्याख्या सूत्रवदवसेया / अवयवक्रमस्तु गाथाभङ्ग भयाद्, अर्थतस्तु सूत्रोपन्यासवद् द्रष्टव्य इति / 'विहारचर्या ऋषीणां प्रशस्ता' इत्युक्तं तद्विशेषोपदर्शनायाह-'आकीविमानविवर्जनाच 'विहारचर्या ऋषीणां प्रशस्ते' ति, तत्राकीर्णराजकुलसंखड्यादि अवमानंस्वपक्षपरपक्ष- | प्राभूत्यजं लोकाबहुमानादि, अस्य विवर्जना, आकीर्णे-हस्तपादादिलूषणदोषात् अवमाने--अलाभाऽऽधाकर्मादिदोषादिति। तथा उत्सन्नदृष्टाहृतं प्राय उपलब्धमुपनीतम् 'उत्सन्नशब्दः प्रायो वृत्तौ वर्तते यथा"देवा ओसन्नं सायं वेयणं वेएंति'' किमेतदित्याह- भक्तपानम्'ओदनारनालादि इदं चोत्सन्नदृष्टाहृतं यत्रोपयोगःशुद्ध्यति, त्रिगृहान्तरादाहृत इत्यर्थः, 'भिक्खग्गाही एग-त्थ कुणइ वीओ य दोसुमुवओग' मिति वचनादित्येवंभूतमुत्सन्नं दृष्टाहृतं भक्तपानमृषीणां प्रशस्तमिति योगः / (दश०) उपदेशाधिकार एवाह- गृहिणो गृहस्थस्य वैयावृत्त्यं गृहिभावोपकाराय तत्कर्मस्वात्मनोव्यावृत्तभावं न कुर्यात् स्वपरोभयाश्रेयः समायोजनदोषात्, तथा अभिवादनंवाङ्नमस्काररूपं वन्दनंकायप्रणामलक्षणं पूजनं वा वस्त्रादिभिः समभ्यर्चनं वा गृहिणो न कुर्यात्, उक्तदोषप्रसङ्गादेव तथैतद्दोषपरिहारायैवासंक्लिष्हिवैयावृत्त्याकरणसंक्लेशरहितैः साधुभिः समंवसेन्मुनिः चारित्रस्यमूलगुणादिलक्षणस्य यतो येभ्यः साधुभ्यः सकाशान्न हानिः, संवासतस्तदक्षत्यानुमोदनादिनेत्यनागतविषयंचेदंसूत्रप्रणयनकालेसंक्लिष्टसाध्वभावादितिसूत्रार्थः।।६।। ण या लभेजा निउणं सहायं, गुणाहिअंवा गुणओ समं वा। इकोऽवि पावा. विवजयंतो, विहरिज कामेसु असञ्जमाणो // 10 // संवच्छरं वाऽवि परं पमाणं, वीअंच वासंनतहिं वसिञ्जा। सुत्तस्स मग्गेण चरिज भिक्खू, सुत्तस्स अत्थो जह आणवेइ॥११॥ जो पुटवरत्तावररत्तकाले, ___ संपेहए अप्पगमप्पगेणं। किं मे कडं किं च में किच्चसेसं, किं सकणिशं न समायरामि? ||12|| किं मे परो पासइ किं च अप्पा, किं वाऽहँ खलिअंन विवज्जयामि। इचेव सम्मं अणुपासमाणो, अणागयं नो पडिबधं कुज्जा // 13 // जत्थेव पासे कइ दुप्पउत्तं, काएण वाया अदु माणसेणं। तत्थेव धीरोपडिसाहरिजा, आइन्नओ खिप्पमिव क्खलीणं॥१४|| जस्सेरिसा जोगजिइंदिअस्स, धिईमओ सप्पुरिसस्स निचं। तमाहु लोए पडिबुद्धजीवी, सोजीअईसंजमजीविएणं // 15 //
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________________ विवित्तचरिया 1246 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विवित्तसयणा० तथा असंक्लिष्टः समवसेदित्युक्तमत्र विशेषमाह-कालदोषाद्नयदिलभते- वेयावृत्त्यादि न समाचरामि न करोमि ? तदकरणे हि तत्कालनाश इति नयदि कथंचिद्प्राप्नुयात् निपुणं-संयमानुष्ठानकुशलं सहायं-परलोक- सूत्रार्थः / / 12 / / तथा किं ममस्खलितं परः- स्वपक्षपरपक्षलक्षणः साधनद्वितीयं, किंविशिष्टमित्याह-गुणाधिकं वा-ज्ञानादिगुणोत्कटं वा, पश्यति ? किं वाऽऽत्मा क्वचिन्मनाक संवेगापन्नः? किं वाऽहमोघत एव गुणतः समं वा, तृतीयार्थे पञ्चमी गुणैस्तुल्यं वा, वाशब्दाद्धीनपि जात्य- स्खलितं न विवर्जयामि, इत्येवं सम्यगनुपश्यन् अनेनैवप्रकारेण स्खलितं काञ्चनकल्पं विनीतं वा / ततः किमित्याह- एकोऽपि संहननादियुक्तः ज्ञात्वा सम्यग्-आगमोक्तेन विधिना भूयः पश्येत् अनागतं न प्रतिबन्ध पापानि-पापकारणान्यसदनुष्ठानानि विवर्जयन्-विविधमनेकैः प्रकारैः कुर्यात्-आगामिकालविषयं नासंयमप्रतिबन्धं करोतीतिसूत्रार्थः // 13 // सूत्रोक्तः परिहरन् विहरेदुचितविहारेण कामेषु-इच्छाकामादिषु असज्य कथमित्याह- यत्रैव पश्येत्- यत्रैव पश्यत्युक्तवत्परात्मदर्शनद्वारेण मानः-- सङ्गमगच्छन्नेकोऽपि विहरेत्, न तु पार्श्वस्थादिपापमित्रसङ्ग क्वचित्-संयमस्थानावसरे धर्मोपधिप्रत्युपेक्षणादौ दुष्प्रयुक्तं-दुर्व्यवकुर्यात्, तस्य दुष्टत्वात्। तथा चान्यैरप्युक्तम् स्थितमात्मानमिति गम्यते, केनेत्याह-कायेन वाचा, तथा मानसेनेति, "वरं विहर्तुं सह पन्नगर्भवेच्छठात्मभिर्वा रिपुभिः सहोषितुम्। मन एव मानसं; करणत्रयेणेत्यर्थः। तत्रैव-तस्मिन्नेव संयमस्थानावसरे अधर्मयुक्तैश्चपलैरपण्डितै-र्न पापमित्रैः सह वर्तितुं क्षमम्।।१।। धीरो-बुद्धिमान् प्रतिसंहरेत्-प्रतिसंहरति य आत्मानां; सम्यग् विधि प्रतिपद्यत इत्यर्थः / निदर्शनमाह-आकीर्णो जवादिभिर्गुणैः, जात्योऽश्व इहैव हन्युर्भुजगा हिरोषिताः, धृतासयश्छिद्रमवेक्ष्य चारयः। इति गम्यते असाधारणविशेषणात् / तच्चेदम्- क्षिप्रमिव खलिनशीघ्र असत्प्रवृत्तेन जनेन संगतः, परत्र चैवेह च हन्यते जनः॥२॥ कविकामिव, यथा जात्योऽश्वो नियमितगमननिमित्तं शीघ्रं खलिनं प्रतिपद्यते, एवं यो दुष्प्रयोगत्यागेन खलिनकल्पं सम्यग् विधिम्, परलोकविरुद्धानि, कुर्वाणं दूरतस्त्यजेत्। एतावतांऽशेन दृष्टान्त इति सूत्रार्थः / / 14 // यः पूर्वरात्रेत्यधिकारोपसंहाआत्मानं योऽभिसंधत्ते, सोऽन्यस्मै स्यात्कथं हितः? ||13|| रायाह- यस्य साधोः ईदृशाः- स्वहितालोचनप्रवृत्तिरूपा योगातथा-- मनोवाक्कायव्यापारा जितेन्द्रियस्य-वशीकृतस्पर्शनादीन्द्रियकलापस्य ब्रह्महत्या सुरापानं, स्तेयं गुर्वङ्गनागमः। धृतिमतः-संयमे सधृतिकस्य सत्पुरुषस्य-प्रमादजयान्महापुरुषस्य महान्ति पातकान्याहु-रेभिश्च सह संगमम्॥४॥" . नित्यंसर्वकालं सामायिकप्रतिपत्तेरारभ्याऽऽमरणान्तम् 'तमाहुलॊके प्रतिबुद्धजीविनं' तमेवंभूतं साधुमाहुः- अभिदधति विद्वांसः लोके--- इत्यलं प्रसङ्गे नेति सूत्रार्थः / / 10 / / विहारकालमानमाह-संवत्सरं प्राणिसंघाते प्रतिबुद्धजीविनं-प्रमादनिद्रारहित-जीवनशील, सवापि-अत्र संवत्सरशब्देन वर्षासु चातुर्मासिको ज्येष्ठावग्रह उच्यते। एवंगुणयुक्तः सन् जीवति संयमजीवितेन कुशलाभिसंधिभावात् सर्वथा तमपि, अपिशब्दान्मासमपि, परं प्रमाणं-वर्षाऋतुबद्धयोरुकृष्टमेकत्र संयमप्रधानेन जीवितेनेति सूत्रार्थः / / 15 / / दश०२ चू०। निवासकालमानमेतत्, द्वितीयं च वर्षम्-चशब्दस्य व्यवहित उपन्यासः, विवित्तजीवि(ण)-त्रि०(विविक्तजीविन्) विविक्तं स्त्रीपशुपण्डकद्वितीयं वर्षे वर्षासुचशब्दान्मासं च ऋतुबद्धे न तत्र-क्षेत्रे वसेत्, यत्रैको समन्वितशय्यादिरहितमसंक्लिष्टं जीवितुं शीलमस्येति विविक्तजीवी। वर्षाकल्पोमासकल्पश्च कृतः, अपितुसङ्गदोषा द्वितीयं तृतीयंच परिहृत्य स्त्र्यादिसंसक्तासनादिवर्जनतो जीवनशीले, भ०६ श०३३ उ०। वर्षादिकालंततस्तत्र वसेदित्यर्थः, सर्वथा। किंबहुना ? सर्वत्रैव सूत्रस्य मार्गेण चरेद्भिक्षुः-आगमादेशेन वर्तेतेति भावः। तत्रापि नौघत एव यथा विवित्तमउअ-त्रि०(विविक्तमृदुक) दोषवियुक्ते, लोकान्तरासंकीर्णे वा कोमले, "विवित्तमउएहिं सयणासणेहिं भ०६ श०३४ उ०। श्रुतग्राही स्यात् अपितु सूत्रस्य अर्थः-पूर्वापराविरोधितन्त्रयुक्तिघटितः पारमार्थिकोत्सर्गापवादगर्भो यथा आज्ञापयति-नियुङ्क्ते तथा वर्तेत, विवित्तवासवसहि-स्त्री०(विविक्तवासवसति) विविक्तानां निर्दोषाणां नान्यथा। यथेहापवादतो नित्यवासेऽपि वसतावेव प्रतिमासादि साधूनां वासो-निवासो यस्यां, सा चासौ वसतिः। निर्दोषजनावासे, प्रश्न०३ संस्तारगोचरादिपरिवर्तेन् नान्यथा, शुद्धापवादायोगादित्येवं वन्दनक सव० द्वार। तदन्यसाधुभी रहितायां वसतौ च। दश० 8 अ०। / प्रतिक्रमणादिष्वापि तदर्थं प्रत्युपेक्षणेनानुष्ठानेन वर्तेत, नतु तथाविध- विवित्तसयणासणसेवणया-स्त्री०(विविक्तशयनासनसेवनता) लोकहेर्या तं परित्यजेत्, तदाशातनाप्रसङ्गादिति सूत्रार्थः / / 11 / / एवं विविक्तानि स्त्र्याद्यसंसक्तानि यानि शयनासनानि उपलक्षणत्वादुपाविविक्तचर्यावतोऽसीदनगुणोपायमाह-यः साधुः पूर्वरात्रापररात्रकाले, श्रयश्च तेषां या सेवनता सा तथा।भ०१७ श०३ उ०। स्त्रीपशुपण्डकादिरात्रौ; प्रथमचरमयोः प्रहयोरित्यर्थः, संप्रेक्षते सूत्रोपयोगनीत्या आत्मानं रहितशयनासनानामासेवनायाम, उत्त० 26 अ०। कर्मभूतमात्मनैव करणभूतेन। कथमित्याह-किं मे कृतमिति-छान्द तत्फलमाहसत्वात्तृतीयार्थे षष्ठी। किं मया कृतं शक्त्यनुरूपं तपश्चरणादियोगस्य ? विवित्तसयणासणसे वणयाए णं भंते ! जीवे किं किं च मम कृत्यशेष कर्तव्यशेषमुचितम् ? किं शक्यं वयोऽवस्थानुरूपं | जणयइ? विवित्तसयणासणसे वणयाए णं चरित्तगुत्तिं
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________________ विवित्तसयणा० 1250 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विवेग विव०। जणयइ, चरित्तगुत्ते णं जीवे विवित्ताहारे दढचरित्ते एगन्तरए | विविहगुणतवोरय-त्रि०(विविधगुणतपोरत) अनशनाद्यपेक्षया अनेकगुणे मोक्खभावपडिवन्ने अढविहकम्मगंठिं निजरेइ॥३१॥ तपसि रते, दश० अ० 4 उ०। 'विविहगुणतवोरए निचं भवइ निरासइ' भदन्त ! विविक्तानि- स्त्रीपशुपण्डकवर्जितानि शयना-सनानि- |- दश०६ अ०४ उ०। उपाश्रयस्थानानि यस्य स विविक्तशयनासनस्तस्य भावो विवक्तशय- विविहजाइ-स्त्री०(विविधजाति) नानाजातीयेषु, प्रश्न०१आश्र० द्वार। नासनता तया स्त्रीपशुपण्डकादिरहित-स्थितिनिवासत्वेन जीवः किं या स्त्रीपशुपण्डकादिराहत-स्थितिानवासत्वन जीवः कि I-विविहजोग-पुं०(विविधयोग) बहुविधव्यापारे, पञ्चा० 11 विव०। जनयति ? गुरुराह- हे शिष्य ! विविक्तशयनासनतया जीवश्चरित्रगुप्ति विविहतित्थकप्प-पुं०(विविधतीर्थकल्प) खरतरगच्छालङ्कारश्रीजिनचारित्रस्य रक्षां जनयति, गुप्तवरित्रश्च जीवो विविक्तो-विकृत्यादिशरीर.. प्रभसूरिविरचिते कल्पप्रदीपाऽपरपर्यायेऽनेकतीर्थानां कल्पे, स च पुष्टिकारक-वीर्यवृद्ध्यादिकृदस्तुरहित आहारो यस्य स विविक्ताहार "अनुष्टुमां सहस्राणि, त्रीणि नव शतानि च / एकोनत्रिंशदन्यस्मात् स्तादृशः स्यात्। तथा दृढ निश्चलं चरित्रं यस्य स दृढचरित्रः, पुनरत एव 3626 ग्रन्थमानं विनिश्चितम् // 1 // " इयत्प्रमाणः शत्रुञ्जयादितीर्थानां एकान्तेन-निश्चयेन रक्त-आसक्तः एकान्तरतः संयमेन सावधानः स्यात्। निखिलवक्तव्यताप्रतिबद्ध आगमैतिह्यमूलो जिनप्रभसूरिभिर्महता श्रमेण तथा मोक्षभावेन मनसा प्रतिपन्नः- आश्रितो मोक्षो मया साध्य इति सन्दृब्धः पुरेतिवृत्तजिज्ञासुभिस्त्ववश्यं वीक्ष्यः / नापरोऽस्मादेवंविधो बुद्धिमान् क्षपक श्रेणि प्रतिपद्याष्टविधकर्मग्रन्थि निर्जरयति-क्षपयति / ग्रन्थो विक्रमार्कसमयाद्यवनसमयं यावद् भारतदशादर्शक उपलभ्यते। उत्त० 26 अ01 ती०५५ कल्प०। विवित्तेसि(ण)-त्रि०(विविक्तैषिण) विविक्तं स्त्रीपशुपण्डकादिविरहितं विविहपाण-न०(विविधपान) द्राक्षापानकादौ, प्रश्न० 5 संव०। द्वार। स्थानमेषितुं शीलमस्य। स्त्रीपशुपण्डकादिरहितस्थानसेवके, सूत्र०१ श्रु०४ अ० 130 / विविहप्पगार-त्रि०(विविधप्रकार) अनेकप्रकारेषु, पं० 204 द्वार। विविदिसा-स्त्री०(विविदिषा) वेदितुमिच्छा विविदिषा। जिज्ञासायाम् , दिविहवण्णसंजुत-त्रि०(विविधवर्णसंयुक्त) विचित्राक्षरसंयोगे, षो०६ पञ्चा० 4 विव०। विविद्धि-स्त्री०(विवृद्धि) उत्तरभाद्रपदनक्षत्राधिपतौ देवे, स्था०। विविहवत्थमल्लधारि(ण)-त्रि०(विविधवस्त्रमाल्यधारिन) विविधानि शुभतराणि वस्त्राणि माल्यानि च धारयन्तीत्येवंशीलाः विविधवस्त्रमादो विविद्धी। (सूत्र०६०+)। स्था०२ठा०३ 30 / ल्यधारिणः / अनेकविधवस्त्रमाल्यधारकेषु, जी० 4 प्रति०२ उ०। विविह–त्रि०(विविध) अनेकप्रकारे, चं० प्र०१८पाहु०।आचा०। सूत्र०। नि० चू०। दश०। प्रश्न०। पं० चू०। रा०। स०। नानाप्रकारे, आचा० / विविहवित्थराणुगम-पुं०(विविधविस्तरानुगम) विविधश्चासौ सत्पद प्ररूपणाधनेकानुयोगद्वाराश्रितत्वेन विस्तरानुगमः / विस्तारानु१ श्रु०.२ अ०३ उ० 1 जं०1 विचित्रे, आ० म०१ अ० / रा०। गमनीयानेकनीवादितत्त्वानां विस्तरप्रतिपादेन, स०१३७ सम०। "विविहतारारूवोवचिया" विविधैस्तारारुपैस्तारिकारूपैरुपचितानि तोरणेषु हि शोभार्थं तारिका निबध्यन्ते इति प्रतीतम्। जी०३ प्रति०४ विविहवेस-पुं०(विविधवेश) विविधवेश्याजने, औ०॥ अधि० / "विविहदेसनेवत्थगहियवेसे' विविधैर्देशनेपथ्यैर्गहीतो वेषो विविहसत्त-पुं०(विविधसत्त्व) विविधा बहुप्रकारा वर्णादिभेदात्, सत्त्वा यैस्ते विविधदेशनेपथ्यगृहीतवेषाः। जी०३ प्रति०४ अधि०। "विविह- येषामनन्तकायिकवनस्पतिभेदानां ते तथा। अनेकविधसत्त्वेषु, भ०७ फलहरसण्णामियचित्तडाले," विविधफलभरेण सन्नामितान्यवनती- श०३ उ०।'अणंतजीवा विविहसत्ता।' भ०७श०३ उ०। कृतानि चित्राणि विविधानि डालानि शाखा यस्य स तथा। पञ्चा०१६ | विविहसत्थ-न०(विविधशस्त्र) स्वकायपरकायभेदेषु शस्त्रेषु, प्रश्न०१ विव० / 'विविहमुत्तंतरोवियं' विविधा विविधविच्छित्तिकलिता मुक्ता आश्र० द्वार। मुक्ताफलानि अन्तरेति अन्तराशब्दो गृहीतवीप्सोऽपि सामर्थ्याद्वीप्सां विवेग-पुं०(विवेक) विवेचन विवेकः। 'विचिर' पृथग्भावे। ओघका परित्यागे, गमयति अन्तरा 'आरोविया' आरोपितानि यत्र तानि तथा / जी०३ आचा०१श्रु०८ अ० 1 उ० व्य०। सूत्र०। विवेकस्त्यागः। स्था०१ प्रति०४ अधि०। 'विविहवाहिसयसपिणकेयं' इह संनिकेतं स्थानम्। ठा० / स्वजनसुवर्णादित्यागे, आ० म०१ अ०।संसक्तानपानोपकरणभ०६श०३३ उ० शय्यादिविषये, त्यागे, ध० 3 अधि० / अशुद्धभक्तादिविवेचने, ग०१ विविहकरणबुद्धि-त्रि०(विविधकरणबुद्धि) विविधचिकीर्षों, प्रश्न०५ | अधि० / भ० / अनेषणीय-भक्तादित्यागे, पञ्चा० 16 विव०। कायोत्सआश्र० द्वार। गर्गाऽभिधाने, आव०५ अ०। ('दव्वाइओविवेगो०-(३९६) इत्यादि-पिण्ड विविहगर-पुं०(विविधकर) 36 ऋषभदेवपुत्रे, कल्प० 1 अधि०७ क्षण। नियुक्तिगाथया विवेकव्याख्या 'उमाम' शब्दे द्वितीयभागे 664 पृष्ठ कृता।)
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________________ विवेग 1251 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विसन्धि शास्त्रोक्तार्थविभागस्थापनासमर्थे, दर्श० 5 तत्त्व! हेयोपादेयपरिरक्षणे, साधूनामुपयुक्तत्वात्कथं कालातिक्रान्तत्व संभवः? सत्यम्, संभवत्येव अष्ट० 15 अष्ट० / बुद्ध्या पृथक्करणे, औ० स्था०। विनिश्चये, प्रति०। ग्लानादिहेतोः, तत्त्वतो वा स्थण्डिलं नस्यात्, सागारिका वा तत्र स्युश्चौ"स्यात्क्षणक्रमसम्बन्ध-संयमाद्यद्विवेकजम्। ज्ञानाज्जात्यादिभिस्तच, रादिभयं वा तथा स्यादिति / अथानुद्गतास्तमितगृहीते अशठत्वेन मेघतुल्ययोः प्रतिपत्तिकृत्" द्वा० 26 द्वा। (विवेकाष्टकम् 'आता' शब्दे महिकामहीधररजोराहुभिरावृते भास्वति प्रातरुद्गतबुद्ध्या गृहीतं पश्चाद्वितीयभागे 206 पृष्ठे गतम्।) त्काले गृहीतमिति ज्ञातं तथा कारणगृहीतोद्वृत्तं बालग्लानाचार्यप्राघूर्णविवेगक्खाइ-स्त्री०(विवेकख्याति) प्रतिपक्षभावनाबलादविद्याप्रविलये कदुर्लभद्रव्यसहसालाभादिना कारणेनगृहीतस्य विधिना च भुक्तस्योद्वृत्तं भक्तादिअशनपानं खाद्यरूपम्- अशठः श्रुतोक्तस्थण्डिले विविश्चन्-- विनिवृत्तज्ञातृत्वाकर्तृत्वाभिमानाया रजस्तमोमलानभिभूताया बुद्ध त्यजन शुद्धः कोऽर्थः? कालतिक्रान्तादीनां सर्वेषां विवेकाहप्रायश्चित्तेनैव * रन्तमुखायाश्चिच्छायायाः संक्रान्तौ, द्वा०।२५ द्वा० / ('विवेकख्याति शुद्धिर्भति। उक्तं विवेकाहम्। जीत०। निरूपणं' 'मोक्ख' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 534 पृष्ठ द्रष्टव्यम्।) विवेयणा-स्त्री०(विवेचना) निर्जरायाम, स्था०८ ठा०३ उ०। विवेगहि-पुं०(विवेकाद्रि) तत्त्वज्ञानतत्त्वरमणगिरी, अष्ट०१५ अष्ट। विव्वोअ-(देशी) अवलोकितविश्रान्तयोः, दे० ना०७ वर्ग 86 गाथा। विवेगपडिमा-स्त्री०(विवेकप्रतिमा) विवेचनं विवेकरत्यागः, च चान्तराणां विव्वोय-पुं०(विव्वोक) "इष्टानामर्थानां, प्राप्तावभिमानगर्वसंभूतः। कषायादीनां बाह्यानां च गणशरीरानुचिन्ताभक्तपानादीनां तत्प्रतिपत्ति स्त्रीणामनादरकृतो, विव्वोको नाम विक्षेपः / " इत्युक्तलक्षणे स्त्रीणां विवेकप्रतिमा। अभिग्रहविशेषे, स्था०२ ठा०३ उ०।सुद्धातिरिक्तभक्त चेष्टाभेदे, बृ०१ उ०३ प्रक०। ग०। ज्ञा० आचा०। देशीपदंवा 'विव्वोय' पानवस्त्रशरीरतन्मलादित्यागे, स्था० 4 ठा०१ उ०। त्ति / अङ्गजविकारे, अनु०। विवेगमासि(ण)-त्रि०(विवेकभाषिन्) भाषासमित्युपेते, आधा०२ श्रु० | विव्वोयण-(देशी) न० उपधानके, सू० प्र०२० पाहु। दश०। ज्ञा० / भ०। १चू०४ अ०२ उ०। 'विव्वोयणा' उपधानकान्युच्यन्त इति जीवाभिगममूलटीकाका- . विवेगविलास-पुं०(विवेकविलास) स्वनामख्याते श्रावकशौचाचार- रोक्तेः / रा०। प्रतिपादके ग्रन्थे, "मौनी वस्त्रावृतः कुर्यादिनसन्ध्याद्वयेऽपि च। उदङ्- | विस-अस्त्री०(विष) गरले, उत्त०१६ अ०। ग० / प्रश्न / "गरलं / मुखः शकृन्मूत्रे, रात्रो याम्याननः पुनः॥१॥" ध०२ अधि०। विसं / " पाइ० ना०२१० गाथा। प्रव० आव०। धo-२०१यो० बिं० / विवेगारिह-न०(विवेकाह) परित्यागशोध्ये, स्था० 1 ठा०३ उ०। कालकूटे, प्रश्न०१ आश्र० द्वार / आव० / विषगरलक्ष्वेडब्रह्मसुतप्रायश्चित्तभेदे, स्था०६ ठा०३ उ० / अशुद्धभक्तादिविवेचने, औ०। वत्सनाभेति पर्यायाः / है० / विषकाल-कूटगरलहालाहलकाकोलाः स्था० / यस्य चानेषणीयग्रहणादेर्विधिना परित्यागेनैव शुद्धिर्भवति / पुनपुंसकाः / है०। (विषव्याख्या 'उवभागेपरिभोगपरिणाम' शब्दे जीत०व्य०। (विवेकाहप्रायश्चित्तम् 'उभयारिह' शब्दे द्वितीयभागे 543 द्वितीयभागे 601 पृष्ठे गता।) विषं स्थावराजङ्गमभेदाद् द्विधा / स्था० पृष्ठे गतम्।) 10 ठा० 3 उ०। वल्लीभेदे, व्य०४ उ०। अधुना विवेकाह भण्यते विष्-स्त्री०॥ विष्ठायाम, अष्ट० 16 अष्ट०। पिंडोवहिसिज्जाई, गहियं कडजोगिणोवउत्तेण। वृष-पुं० गवि, व्य०१ उ०1 पच्छा नायमसुद्धं,सुद्धो विहिणा विर्गिचिंतो॥१६|| विस-न० कमलकन्दे, प्रा० 1 पाद। पिण्डसंघातोऽशनपानखाद्यस्वाद्यभेदभिन्नः उपधिरोधिक उपग्रहिकश्च | विसअ-पुं०(विषय) गोचरे, गोअरो विसओ।' पाइ० ना० 261 गाथा। प्रागुक्तरूपः शय्या-उपाश्रयः आदिशब्दात्-औषधतृणलोष्ठक्षारमल्ल- | विसओदय--पुं०(विषयोदय) विषयग्रहणेन विषयविषयो मोहः परिगृह्यते, कादिग्रहः। ततः पिण्डोपधिशय्यादिकं कृतयोगिनागीतार्थेन सूत्रतोऽर्थ- | विषयेण विषयिणोपलक्षणात्। विषयविषयमहोदये, व्य० 1 उ०। तोऽपिचाधिगतशेषतत्समयवर्त्तमानश्रुतेन उपयुक्तेनदत्तोपयोगेन गृहीतं / विसंखलिय-त्रि०(विशृङ्खलित) निरवग्रहे, को०। पश्चाद् ग्रहणानन्तरम् उद्मोत्पादनैषणादन्यतरदोषदुष्टत्वेनाऽशुद्धमिति विसंखलया-स्त्री० [पविशृङ्ख(लिका)ला] स्वच्छन्दायाम्, "सच्छंदा ज्ञातंनिर्णीतं विधिना पातासंलोकादौ स्थण्डिले विविचन्-परित्यजन् उद्दामा, निरगला मुक्कला विसंखलयां"। पाइ० ना० 13 गाथा। शुद्धोनिर्दोषो भवति। विसंथुल-त्रि०(विस्थुल) "ठो स्थि विसंस्थुले" // 8 / 2 / 32 / / इति कालद्धाणा इच्छिय-मणुगगयत्थमियगहियमसढण। संयुक्तस्य ठः। प्रा० / 'लच्छिविसंतुलधाई।' प्रा०४ पाद / विह्वले, कारणगहिउव्वरियं, भत्ताइविगिंचियं सुद्धो॥१७॥ "विहुलं विसंतुलं जाण" पाइ० ना०२६४ गाथा। कालाध्वातिक्रान्तं-प्रहरत्रयादूज़ ध्रियमाणं कालातिक्रान्तम् अर्द्ध- | विसन्धि-पुं०(विसन्धि) विगलितबन्धने, सूत्र०२ श्रु०१० आव० / योजनातिरेकादानीतं चाध्वातिक्रान्तं, तच साधूनामपरिभोगम्। आह- व्यवस्थितौ, आ० चू० 4 अ०। द्वापञ्चाशत्तमेमहाग्रहे, स्था०२ ठा०३उ०।
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________________ विसंधि 1252 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विसंभोग दो विसंधी। (सू०१०+) स्था० 2 ठा०३ उ०। कल्प०। विसंभ-पुं०(विश्रम्भ) विश्वासे, प्रव०२ द्वार।। विसंभट्ठाण-न०(विश्रम्भस्थान) विश्वासस्थाने, प्रव०२ द्वार। विसंभोइय-पुं०(विसंभोगिक) विसंभोगो दानादिभिरसंव्यवहारः, स यस्यास्ति स विसंभोगिकः।स्था०३ठा०३ उ०मण्डलीबाहो, स्था० 5 ठा०१ उ०। भोजनादिभिरसंव्यवहार्ये, साम्भोगिकस्य विसम्भोगीकरणमाहतिहिं ठाणेहि समणे निग्गंथे साहम्मियं संभोगियं विसंभोगियं करेमाणे णातिक्कमति / तं जहा- सयं वा दटुं सस्स वा निसम्म तचं मोसं आउदृइ चउत्थं नो आउट्टइ। (सू०१७३) 'साहम्मियं' ति समानेन धर्मेण चरतीति साधर्मिकस्तम्, सम्-एकत्र भोगो-- भोजनं संभोगः- साधूनां समानसामाचारीकतया परस्परमुपध्यादिदानग्रहणसंव्यवहारलक्षणः स विद्यते यस्य स सांभोगिकस्तं विसंभोगो दानादिभिरसंव्यवहारः स यस्यास्ति स विसंभोगिकस्तं कुर्वन्नातिक्रामति-नलङ्घयत्याज्ञां सामयिकं वा विहितकारित्वादि ति। स्वयमात्मना साक्षात् दृष्ट्वा सांभोगिकेन क्रियमाणां सांभोगिकदानग्रहणादिकामसमाचारी तथा 'सड्विस्स' त्ति श्रद्धा-श्रद्धानं यस्मिन्नस्ति स श्राद्धः श्रद्धेयवचनः कोऽप्यन्यः साधुस्तस्य वचनमिति गम्यते निशम्य-- अवधार्य्य, तथा 'तचं ति एक द्वितीयं यावत् तृतीयं 'मोसं' तिमृषावादम् अकल्पग्रहणपार्श्वस्थदानादिना सावधविषयप्रतिज्ञाभङ्गलक्षणमा-श्रित्येति गम्यते आवर्तते-निवर्तते; तमालोचयतीत्यर्थः, अनाभोगस्तस्य भावात् प्रायश्चित्तं चास्योचितं दीयते, चतुर्थन्त्वाश्रित्य प्रायो नो आवर्तते-तंनालोधयति, तस्य दर्पत एव भावादिति, आलोचनेऽपि प्रायश्चित्तस्यादानमस्येति, अतश्चतुर्थासंभोगकारणकारिणं विसंभोगिकं कुर्वन्नातिक्रामतीति प्रकृतम्। उक्तं च-"एणं व दोवि तिन्नि व, आउटुंतस्स होइ पच्छित्तं। आउट्टते वितओ, परिणे तिण्हं विसंभोगो i // 1 // " इति एतचूर्णिः-स सम्भोइओ असुद्धं गिण्हंतो चोइओ भणइ"संतपडिचोयणा, मिच्छा मि दुक्कड़, ण पुणो एवं करिस्सामो," एवमाउट्टो जमावन्नो तंपायच्छित्तं दाउं संभोगो।एवं वीयवाराए वि, एवं तइयवाराए वि, तइयवाराओ परओ चउत्थवाराएतमेवाइयारं सेविऊण आउटुंतस्स वि विसंभोगो' इति। इह चाद्यंस्थानद्वयं गुरुतरदोषाश्रयम्। यतस्तत्र ज्ञातमात्रे श्रुतमात्रे च विसम्भोगः क्रियते, तृतीयं त्वल्पतरदोषाश्रयं, तत्र हि चतुर्थवेलायां स विधीयत इति। स्था०३ठा०३ उ०। संभोगिक विसंभोगिकं करोतिनवहिं ठाणेहिं समणे निग्गंथे संभोइयं विसंभोइयं करेमाणे णाइक्कमइ, तं जहा- आयरियपडिणीयं उवज्झायपडिणीयं थेरपडिणीयं कुलपडिणीयं / गणपडिणीयं / संघपडिणीर्य / नाणपडिणीयं / दसणपडिणीयं / चरित्तपडिणीयं / (सू०६६१) स्था०९ ठा०३ उ०। विसंभोग-पुं०(विसंभोग) दानादिभिरसंव्यवहारे, स्था० 3 ठा० 3 उ०। / आर्यसुहस्तिसमयाद्विसंभोगः। व्य०। अधुना भाष्यविस्तरःसंभोइए त्ति भणिते, संभोगो छविहो उ आदीए। भेदप्पभेदतो विय, उणेगविहो होति नायव्वो॥५१॥ संभोगिक इति भणिते संभोगो विचार्यते / तत्रादौ संभोगः षझिओ भवतिभेदप्रभेदतोऽपिचएकैकस्य भेदस्यप्रभेदतः पुनरनेकविधो भवति। तत्र प्रथमतः षड्विधमाहओहें अभिगहें दाणे, गहणे अणुपलणाएँ उववाए। संवासम्मि यछट्ठो, संभोगविही मुणेयध्वो // 12 // ओघे-उपध्यादौ अभिग्रहे दानग्रहे अनुपालनायामुपपाते एवमेते पञ्चा संभोगा भवन्ति, षष्ठसंभोगविधिः संवासे ज्ञातव्यः। तत्र यथोद्देशं निर्देश इति न्यायात् प्रथमत ओघसंभोगमभिधित्सुराहओधो पुण वारसहा, उवधिमादिकमेण बोधव्यो। कायव्व परूपणया, एतेसिं आणुपुष्वीए॥५३|| उवहिसुयभत्तपाणे, अंजली पम्गहेइ वा। दावणा य निकाए य, अन्मुट्ठाणे त्ति आवरे // 54 // कितिकम्मस्स (य) करणे, वेयावचकरणे इय। समोसरणसन्निसेला, कहाए य पबंधणे / / 5 / / ओघसंभोगो द्वादशप्रकारस्तद्यथा-- उपधिविषयः 1, श्रुतविषयः 2, भक्तपानविषयः 3, अञ्जलिग्रहविषयः 4, 'दावणाए' त्ति दापनाशय्यातरोपिधस्वाध्यायशिष्यगणानां प्रदापनं तद्विषयः 5, 'निकाय' त्ति निकाचो निकाचनं-छदनं निमन्त्रणमित्येकार्थास्तद्विषयः 6, 'अन्भुट्ठाणे त्ति आवरे' अपरोऽभ्युत्थानविषयः 7, कितिकम्मस्स य' इत्यादि, कृतिकर्म वन्दनकं तत्करणविषयः 8, वैयावृत्त्यकरणविषयः 6, समवस-रणविषयः 10, सन्निषद्याविषयः११, कथाप्रबन्धनविषयश्च // 12 // तत्रोपधिसंभोगः षट्प्रकारस्तथा चाहउवहिस्सय छम्मेया, उग्गमउप्पायणेसणासुद्धो। परिकम्मण परिहरणा, संजोगो छट्टओ होइ॥१॥ उपधेरुपधिसंभोगस्यषड्भेदाभवन्ति, तद्यथा-उद्मशुद्धः 1, उत्पादनाशुद्धः२एषणाशुद्धश्च 3, परिकर्मणासंभोगः 4, परिहरणासंभोगः 5, संयोगविषयः षष्ठः संभोगः 6, तत्र यत्सांभोगिकःसांभोगिकेन सममाधा- . कम्मादिभिः षोडशभिरुद्रमदोषैः शुद्धमुपधिमुत्पादयति एष उद्गमशुद्धमुपधिसंभोगः / अथाशुद्धमुत्पादयति तर्हि येन दोषेण अशुद्धमुत्पादयति तनिष्पन्नं प्रायश्चित्तमापद्यते। तत्रापीयं व्यवस्थाअशुद्धग्राही सांभोगिकः शिक्ष्यमाणः सति मे प्रतिचोदनेऽपि मन्यमानो मिथ्यादुष्कृत पुरस्सरं न पुनरेवं करिष्यामीति ब्रुवाणः प्रत्यावर्तते, तदायत्प्रायश्चित्तमापन्नस्तद्दत्वा संभोग्यते, एवं द्वितीयावारं तृतीयवारमपि चतुर्थवेलायां त्वावृत्तस्यापि न संभोगः / अथनिष्कारणेअन्यसांभोगिकेनसमशुद्धमशुद्धंचोपधिमुत्पादयति, तर्हि सोऽपि यदिशिक्ष्यमाणः व्यावततेततः संभोगविषयीक्रियते अन्यथा
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________________ विसंभोग 1253 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विसंभोग प्रथमवेलायामपि तस्य विसंभोगः / एवं द्वितीयवारं तृतीयवारमपिचतुर्थधारमावृत्तस्यापि नियमतो विसंभोगः / वारत्रयेऽपि तस्य प्रायश्चित्तं मासलघु, कारणे त्वन्यसांभोगिकेनापि सममुपधिमुत्पादयन् शुद्धः / एवं पार्श्वस्थादिभिर्गृहिभिर्यथाछन्दैश्च सह वेदितव्यम्, प्रायश्चित्तविधिरपि तथैव नवरं यथा--छन्दे मासगुरु चतुर्गुरुकमित्यपरे। योऽपि पार्श्वस्थादेः संघाटकं प्रयच्छति तस्यापि मासलघुः तथा संयतीभिः संविग्नाभिरसंविग्राभिर्वा सांभोगिकाभिरसांभोगिकाभिर्वा सममुद्गमेन शुद्धमशुद्धं वोपाधमुत्पादयतश्चतुर्गुरुकम्। एतत्तावत्पुरुषवर्गेऽभिहितं संयतीवर्गेऽपि द्रष्टव्यम् / एवं षोडशभिरुत्पादनादोषेर्दशभिरेषणादोषैः सांभोगिकेन सममुपधिमुत्पादयन् शुद्धः, विपर्यासे प्रायश्चित्तविधिः पूर्ववत् (2,3) / 'परिकम्मण' त्ति परिकर्मणा नाम यदुपधिमुचितप्रमाणकरणतःसंयतप्रायोग्यं करोति / तत्र भङ्गाश्चत्वारस्तद्यथापरिकर्मणा कारणे विधिना 1, कारणेऽविधिना 2, निष्कारणे विधिना 3, निष्कारणेऽविधिना 4, अत्र प्रथमभङ्गःशुद्धः, द्वितीयेमासलघुतपोगुरु,तृतीयेमासलघुकालगुरु कम्, चतुर्थे मासलघुद्वाभ्यां गुरु। संविग्नैरन्यसांभोगिकैः समंचतुर्थेष्वपि भङ्गेषु मासलधु, अत्रापि द्वितीयादिषु भङ्गेषु पूर्ववत्। तपःकालविशिष्टत गृहस्थैः पार्श्वस्थादिभिः समं प्रत्येकं चतुर्लधुकं, यथाछन्दैः समंचतुर्गुरुकमत्रापि द्वितीयादिषु भङ्गेषु प्राग्वत्, तपःकालविशिष्टता। तथा सांभोगिकीनां संयतीनामुपधिं विधिना संयतीप्रायोग्यं गणधरः परिकर्मयन् 'ददानश्च परिशुद्धः, अविधिना परिकर्मयतश्चतुर्गुरु, पार्श्वस्थादिसंयतीनां गृहस्थानां च कारणे विधिनेत्यादि भङ्गचतुष्टये प्रत्येक चतुर्गुरु / द्वितीयादिषु भङ्गेषु तपः कालविशिष्टता प्राग्वत् / तथा परिहरणा नाम परिभोगस्तत्रापि भङ्गचतुष्टयं कारणे विधिना 1, कारणेऽविधिना 2, निष्कारणे विधिना 3, निष्कारणेऽविधिना 4, तत्र प्रथमभङ्गे सांभोगिकैः सममुपकरणं परिभुजानः शुद्धः शेषेषु द्वितीयादिषु भङ्गेषु मासलघु तपःकालविशिष्टम्, असांभोगिकैः सममुपकरणं परिभुजानस्य चतुर्वपि भङ्गेषु मासलधु, द्वितीयादिषु तु तपःकालविशिष्टता पार्श्वस्थादिभिर्गृहस्थादिभिश्च सममुपभुजानस्य भङ्गचतुष्टयेऽपि प्रत्येक चतुर्लघु, यथाछन्दैः संयतीभिः गृहस्थाभिश्चतुर्गुरु। उभयत्रापि द्वितीयादिषु भङ्गेषु तपः कालविशिष्टता 5 // संभोगोठ्यादिपदानां मीलनम् / तत्र भङ्गाः षड्विशतिः, तद्यथा-दश द्विकसंयोगाः, दश त्रिकसंयोगाः पञ्चचतुष्कसंयोगाः एकः पञ्चसंयोगः / तत्र दश द्विकसंयोगा इमे-साम्भोगिकेन सममुद्गमेनोत्पादनयाच शुद्धमुपधिमुत्पादयतीति प्रथमः, उद्गमेनैषणया च द्वितीयः। उद्गमेन शुद्धमुत्पादयति परिकर्मयति चेति तृतीयः। उद्गमेन शुद्धभुत्पादयति परिहरति चेति चतुर्थः / एते चत्वारोऽपिभङ्गाउद्गमपदममुञ्चतालब्धाः एवमुत्पादनापदामोचनेन लभ्यन्ते त्रयः, एषणापदामोचनेन द्रौ, परिकर्मणापरिहरणापदयोरेकः। दशत्रिकसंयोगा इमे-साम्भोगिकः साम्भोगिकन सममुद्गमेनोत्पादनया एषणया च शुद्धमुत्पादयतीति प्रथमः / उद्गमेनोत्पादनया च शुद्धमुत्पादयति परिकर्मयति चेति द्वितीयः / उद्गमेनोत्पादनया च शुद्धमुत्पादयति परिहरति चेति तृतीयः। इत्याधुपयुज्य वक्तव्यम्। एवं पञ्चचतुष्कसंयोगाः। एकः पञ्चकसंयोगश्च वक्तव्यः। एतेषु च षड्विशतिभङ्गेषु सांभोगिकेन समं शुद्धः, असांभोगिकादिभिः सममसांभोगिकादिविषयं व्यादिसंयोगनिष्पन्नं प्रायश्चित्तम्। तद्यथा-उद्रमनिष्पन्नमुत्पादनानिष्पन्नमित्यादि, एवमुक्तमुपधिसंभोगः। सम्प्रति श्रुतसंभोगादीनतिदेशत आहएवं जहा निसीथे, पंचमउद्देसए समक्खातो। संभोगविही सब्दो, तहेव इह इंपिवत्तव्यो॥५६॥ एवमुक्तेन प्रकारेण यथा निशीथे-निशीथाध्ययने पञ्चमे उद्देशके सर्वश्रुतादिसंयोगनिष्पन्न प्रायश्चित्तविषयं संभोगविधिः समाख्यातस्तथैवेहापि वक्तव्यः / स च ग्रन्थगौरवभयान्न शक्यते लिखितुमिति तत एवावधारणीयः। एष च संभोगविधिः पूर्वमस्मिन्नर्द्धभरते सर्वसंविग्नानामेकरूप आसीत् पश्चात्कालदोषत इमे सांभोगिका इमे त्वसांभोगिका इति प्रवृत्तम्। किं कारणमिति चेदत आहअगडे भाउय तिलतं-दुले सरक्खे य गोणि असिवे य। अविणढे संभोगे, सय्वे संभोइया आसी॥५७।। पूर्वमविनष्ट संभोगे सर्वे संविनाः सांभोगिका एकसंभोगा आसीरन्। पश्चात्तु कालवैगुण्यतः सांभोगिकाऽसांभोगिकविभागः। तत्र दृष्टान्तोऽवटः 1 गाथायां जातावेकवचनम्, एवमुत्तरत्रापि / तथा द्वौ भ्रातरौ 2, तिलाः 3, तण्डुलाः 5, सरजस्काः 5, गोवर्गश्वाशिवविषयः६। तत्रावटदृष्टान्तभावनार्थमाहआगंतु तदुत्थेण व, दोसेण विणहें कूवें तो पुच्छा। कुत आणीयं उदयं, अविणढे नासि सा पुच्छा / / 5 / / "एगस्स नगरस्स एक्कीए दिसाए बहवे महुरोदगा कूवा, तत्थ केइ कूवा आगंतुकेण तया विसाइणा दोसेण केइ तदुत्थेण खारलोणविसपाणियसिरासंभवरूवेण विणट्ठा। तत्थ केसु वि कूवेसु पाणियं पिज्जमाणं, कुट्ठाइणा सरीरसंदूसणकर हवइ। केईजीवंतकरा भवंति। केइण्हाणायमणाइसु अविरुद्धा, केईण्हाणाइसु विरुद्धा। तत्र बहुजणो एयद्दोस दुढे ते नाउं आणीए पाणीए पुच्छइ, कओ आणियंतत्थ जइ निधोसं तो परिभुजंति, अहसदोसंतो वजंति। तत्थ विजइजाणंतेन सदोसमाणीयं ताहे सो तओ फेडिज्जइ तजिज्जइय। अह अयाणंतेणमाणीयं तो वारिजइ मा पुणो आणेज्जासि।"अक्षरगमनिका त्वेवम्-आगन्तुकेन तदुत्थेन वा दोषेण कूपे कूपसंघाते विनष्ट सति ततस्तदनन्तरं यतस्ततोवा समानीते उदके लोकस्य पृच्छा प्रावर्तत कुत आनीतमिदमुदकम् ? इति। अविनष्ट कूपसंघाते नासीत् सा पृच्छा / एष दृष्टान्तोऽयमर्थोपनयः अविनष्ट संभोगे नसांभोगिकासंभोगिकपृच्छा आसीत्, अधुना दुःषमानुभावतः केचिचारित्रशरीरोत्तरगुणदूषका अभवन्, केचिचारित्रजीवितव्यपरोपकाः। केचिसंस्पर्शपरिभोगिनः। केचित्संस्पर्शतोऽपि विवर्जिताः। ततः परीक्षाः।।१। अधुना भ्रातृदृष्टान्तमाहभोइकुलसेवि भाउय, दुस्सीलेगे तुजा यतो पुच्छा।
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________________ विसंभोग १२५४-अभिधानराजेन्द्रः-भाग 6 विसण्ण एमेव सेसएसु वि, होइ विभासा तिलाईसु // 56 // विसंवाय-(देशी) मलिने, दे० ना०७ वर्ग 72 गाथा। द्वौ भ्रातरौ भोजिकुलसेवको राजकुले, अभ्यर्हितसेवको सर्वत्रावा- | | विसंवायणा-स्त्री०(विसंवादना) अनाभोगादिना गवादिकमश्वादिकं रितप्रसारौ, तयोः कनिष्ठोऽन्तःपुरे कृतानाचारो जातस्ततो राज्ञा प्रवेशो / यद्दति कस्यचित् अभ्युपगम्य वा यन्न करोति तादृशे मिथ्याप्रत्यये, निवारितः / ज्येष्ठोऽपि च राज्ञोऽकथिते प्रवेशं न लभते, प्रतीहारेण तु | स्था० 4 ठा० 1 उ०। कथिते राज्ञा पुष्ध्यते क आगतो ज्येष्ठः कनिष्ठो वा / तत्र ज्येष्ठ इति | विसकंठिया-स्त्री०(विसकण्ठिका) विसं मृणालमिव कण्ठोऽस्त्यस्याः कथिते स प्रवेश्यते, इयं तु पृच्छा पूर्वं नासीत्। कालक्रमेण च कस्मिन् | ठन्। बलाकायाम्, आ० म०१ अ०॥ कनिष्ठे दुःशीले जाते प्रावर्तत। उपनयभावना प्राग्वत् शति लादिदृष्टा- | विसकंद-पुं०(विसकन्द) खाद्यविशेषे, जी०३ इति० 4 अधि०। न्तानाह- 'एमेवे' त्यादि एवमेवानेनैव प्रकारेण शेषेष्वपि तिलादिषु विसकल-त्रि०(विशकल) खण्डाखण्डीकृते, व्य०८ उ०। दृष्टान्तेषु भवति विभाषाव्याख्यानं कर्त्तव्यम्। तचेदम्- पूर्वं सर्वेष्वपि विसकलिय-त्रि०(विशकलित) खण्डिते, आ० म०७ उ०। आपणेषु अपूतिकास्तिला अदुष्टजन्मानस्तण्डुला विक्रयाय प्रसार्यन्ते विसकुंभ-पुं०(विषकुम्भ) स्फोटिकाविशेषे.वृ०३ उ०। विषभृतकुम्भे, स्म, ततः कालदोषा त्ति एकेन वणिजा निकृतिबहुलेन पूतिकास्तिलाः _'विसकुंभे णाममेगे विसप्पिहाणे,' स्था० 4 ठा०४ उ०। प्रसारिताः, अपरेण तु दुष्टजन्मानस्तन्दुलास्ततो लोकस्य पृच्छा प्रावर्त्तत, कीदृशास्तवापणे तन्दुलाः कीदृशा वा तिला इति, पूर्व तु विसकण-न०(विष्वष्कण) शीघ्रविध्या(ध्मा) पनार्थं ज्वलतामुल्मुकानासीत् / उपनयः प्राग्वत् (3-4) तथा एकस्मिन्नगरे एकस्यां दिशि बहूनि नामपकषणे, बृ०२ उ०। देवकुलानि तेषु सर्वेषु सरजस्कावसन्ति सुशीलास्तान् सर्वानपि भूयान् विसगंडूस-पुं०(विषगण्डूष) कालकूटभृतगण्डूषे, 'जह णाम विसगंडूसं जनो निर्विशेषं पूजयति, पश्चात्केषुचिद्देवकुलेषु दुःशीला जाताः, गिमन्त्र कोती घेत्तूण नाम तुहिको' सूत्र० 1 श्रु० 3 अ०४ उ० / प्रश्न० / णवेलाया पृच्छा प्रवृत्ता कतमान्निमन्त्रयामि। पूर्वत्वेवंरूपा पृच्छा नासीत्। | विसघाइ(ण)-त्रि०(विषघातिन) गरदोषहननशीले, पञ्चा०१४ विव०। उपनयः प्राग्वत् / तथा एकस्मिन्ग्रामे महान् गोवर्गः स कदाचिदशिवेन दश०। गृहीतस्ततस्तस्मात् ग्रामादानीतासुगोषु लोकस्य पृच्छा अभवत्। कुतो | विसधारियजोगतुल्ल-पुं०(विषधारितयोगतुल्य) हालाहलब्याप्तपुरुषग्रामादानीता कस्य गोवर्गस्येयमिति / पूर्वं तु नासीत् 6 / एवमत्रापि | व्यापारसदृश, अस्पष्टचेतनत्थादल्पे, पञ्चा०६ विव०। विनष्ट संभोगे सांभोगिकः परीक्ष्य संभोज्यते। विसज्जणा-स्वी०(विसर्जना) मुत्कलने, व्य० 4 उ०। तथा चाह विसञ्जिय-त्रि०(विसृष्ट) प्रेरिते, ज्ञा० 1 श्रु०१३ अ०नि०।चू०। आ० साहम्मिय वइधम्मिय, निघरिसमाणे तहेव कूवे य। म०। आव०॥ गावीपुक्खरिणी य, नीयल्लगसेवआगमणे / / 60 // विसट्ट-धा०(दलि) चूर्णीकरणे, विकासे च। "दलि बल्योर्विसट्टयम्फो" सधर्माता--समानधर्मशीलतातां सम्यक् परीक्षया ज्ञात्वा संभुञ्जते, ||14 / 176 // इति दलेर्धातोर्विसट्टादेशः / विसट्टइ। विदलति। प्रा० 4 विधर्माता-विगतधर्मशीलता तां ज्ञात्वा परिवर्जयन्ति / यथा सुवर्ण पाद। निघर्षे निकषोपले परीक्ष्य यदि युक्तं ज्ञायते ततः प्रतिगृह्यते, अन्यथा तु दलित-त्रि० "विसट्ट विहडिअत्थे।" पाइ० ना० 243 गाथा। परित्यज्यते। एवमज्ञातशीलोऽपि भाजनेन परीक्षणीयः। यदि भाजनस्य | विसट्टमाण–त्रि०(विदलत्) विकसति, स्था० 4 ठा० 4 उ०। भ०। तलमघृष्टमुपकरणं वा विधिनासेवितं तत 'आलएण विहारेण' मित्यादि- | विसट्टया-स्वी०(विषार्थता) विषमेवार्थो विषार्थस्तद्भावस्तत्ता। विषत्वे, वचनतः साधर्मिको ज्ञेयः, शेषस्तु वैधर्मिकः। यथा वा कूपे, यदि वा- भ०८श०२उ०। स्था०। गोषु यथा वा पुष्करिणी यथा वा निजकस्य भ्रातुः सेवकस्यागमने परीक्षा विसढ-त्रि०(विषम) नीरोगे, दे० ना०७ वर्ग 62 गाथा। पाइ० ना०२०७ तथा अत्रापि परीक्ष्य संभोगविसंभोगौ। उक्तः सप्रपञ्चः संभोगः। गाथा। सम्प्रति येनाधिकारस्तमभिधित्सुरिदमाह -- विसण-न०(विशन) प्रवेशे, व्य०७उ०। एएसिं कयरेणं, सम्भोगेणं तु होइ सम्भोगी। विसणंदि(ण)-पुं०(विषनन्दिन) प्रथमबलदेवस्याचलस्य पूर्वभवजीवे, समणाणं समणीतो, भण्णइ अणुपालणाए उ॥६१|| स०। ति०। एतेषामनन्तरोदितानां संभोगानां मध्ये कतरेण सम्भोगेन संभोगिन्यः विसण्ण-त्रि०(विषण्ण) विविधमनेकप्रकारं सन्नो मग्नो विषण्णः / उत्तक श्रमणानां श्रमण्यो भवन्ति ? सूरिराह-भण्यते अनुपालनया अनुपाल ६अ। सूत्र०। विशेषेण सन्नो निमग्नो विषण्णः / उत्त०८ अ० आचा० / नारूपेण सम्भोगेन, तदेवमुक्तः संभोगः। व्य०५ उ०। नि० चू०। विशेषेण दीने, उत्त०१२ अ०॥ सूत्र० आचा०। अवसक्ते विषयप्रधाने, विसंवइअ-त्रि०(विसंवदित) विसंवादयुक्ते, "विअट्ट विसंवइ।" पाइo सूत्र०१ श्रु०१२ अ०। शोकिते, प्रश्न०३ आश्रद्वार। असंयमे, सूत्र० ना०२४६ गाथा। १श्रु०५ अ०२ उ०।
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________________ विसण्णचित्त 1255 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विसय विसण्णचित्त-त्रि०(वियण्णवित) मूञ्छिते, सूत्र०१ श्रु०५ अ०२ उ०। स्था०।०। (विषमपदं 'गहण' शब्दे तृतीयभागे 160 पृष्ठेव्याख्यातम्।) विसण्णेसि(ण)-त्रि०(विषण्णैषिण) विषण्णोऽसंयमस्तमेषितुंशालम- निस्नेहे दुःसंचारे, आव० 4 अ०। प्रतिकूले, सूत्र० १श्रु० 2102 उ० / स्येति विषण्णैषी / असंयमगवेषके, 'दुगुणं करेइ से पावं पूयणकामो "चलबहुलविसमचम्मो' चलं श्लथं बहुलं स्थूलं विषमं बलियुक्तं चर्म विसनेसी' / सूत्र०१श्रु० 4 अ०१ उ०। यस्य स तथा। स्था०४ ठा०२ उ०। असंयमे, सूत्र०१ श्रु०२ अ०१ विसत्त-त्रि०(विसत्त्व) विगताः सत्त्वा यत्र तद् विसत्त्वम्। विगतजने, व्य० उ० / दुर्गमत्वाद् विषमम्। आकाशे, भ०२श०२ उ०। विसढं विसमं' 6 उ०। पाइ० ना० 207 गाथा। विसद-त्रि०(विशद) धवले, कल्प० 1 अधि० 5 क्षण / व्यक्ते, नि० चू० विसमइअ-त्रि०(विषमय) 'मयट्यइर्वा' ||8/1 / 50|| मयट्प्रत्यये 1 उ०। आदेरतः स्थाने अइ इत्यादेशः / विषमयः। विसमइओ। विषप्रचुरे, प्रा० विसदसण-पुं०(विषदर्शन) आगाढकारणे उत्पन्ने प्रतिसेवमाने, नि० चू० १पाद। 1 उ०। विसमंत-पुं०(विषमान्त) कूटपाशादियुक्तप्रदेशे, सूत्र०१श्रु० 102 उ०॥ विसपरिगय-त्रि०(विषपरिगत) विषव्याप्ते, स्था० 4 ठा०१ उ०॥ विसमचारिणक्खत्त-पुं०(विषमचारिनक्षत्र) विषमचारीणि, यथा स्वतिविसपरिणय-त्रि०(विषपरिणत) विषरूपापन्ने, स्था० 4 ठा० 130 / / थिष्वन्तर्वर्तीनि नक्षत्राणि यत्र स विषमचारिनक्षत्रः विषमचारिनक्षत्रयुक्ते संवत्सरे, 'ससिसगलपुण्णमासी, जोएइ विसमचारिणक्खत्ते' / स्था० विसपरिणाम-पुं०(विषपरिणाम) गरलपरिपाके, स्था०। 5 ठा०३ उ०। छविहे विसपरिणामे पण्णत्ते, तं जहा- डक्के भुत्ते निवइए विसमय-(देशी) भल्लातके, दे० ना०७ वर्ग 66 गाथा। मंसाणुसारी सोणिताणुसारी अहिमिंजाणुसारी। (सू०५३३४) विसमसंधिबंधण-त्रि०(विषमसन्धिबन्धन) विषमाणि दीर्घहस्वत्वादिना 'डके' ति दष्टस्य प्राणिनो दंष्ट्रा विषादिना यत्पीडाकारी तद्दष्टं सन्धिरूपाणि बन्धनानि येषां ते विषमसन्धिबन्धनाः / असमसन्धिजङ्गमविषम्, यच -भुक्तं सत् पीडयति तद् भुक्तमित्युच्यते, तच्च बन्धनेषु, भ०७श०६ उ०। स्थावरम् / यत्पुनर्निपतितम् उपरि पतितं सत् पीडयति तन्निपतितं त्वग्विषं दृष्टिविषं चेति त्रिविधं स्वरूपतः तथा किंचिन्मांसानुसारी विसमाअव-पुं०(विषमातप) तलोपः। "पदयोः सन्धिर्वा" ||81 / 5 / / मांसान्तधातुव्यापकं किंचिच्छोणितानुसारी तथैव किंचिच्चासिथमज्जा इति संस्कृतोक्तः सन्धिर्वा / प्रतिकूलधर्मे, प्रा० १पाद। नुसारि तथैवेति त्रिविधं कार्यतः / एवं च सति षविधं तत्ततस्त- | विसमिअ-(देशी) विपुलोत्थितयोः, दे० ना०७ वर्ग 62 गाथा। त्परिणामोऽपि षोरैवेति / स्था०६ ठा०३ उ०। विसमीस-त्रि०(विषमिश्र) गरलयुक्ते, सूत्र०१ श्रु० 4 अ० 130 / विसप्पमाण-त्रि०(विसर्पत्) विस्तारं व्रजति, भ०२ श०१ उ०। आ० | विसमेह-पुं०(विषमेघ) जनमरणहेतुजले, मेघे, भ०७श०६ उ०। माज्ञा०रा०। विशेषेण सर्पतीति विसर्पत्। विस्फुरति, उत्त०३५ अ० लिमय.io/विशट निर्मले जी०३ प्रति०४ अधिoजव्यक्त औ०। विसप्पि(ण)-त्रि०(विसर्पिण) विसर्पणशीलं विसर्पि। विस्तारयुक्ते, षो० स्पष्ट, ज्ञा०१ श्रु०१अ०। रा०। धवले, औ०। 11 विव०। विशय-पुं० विशन्त्यस्मिन्निति विशयः गृहे, उत्त०७अ०। संभावनायाम्, विसभ-पुं०(वृषभ) बलीवर्दे, भ०११ श०११ उ०। "विसओ त्ति वा सम्भवो त्ति वा उववति त्ति वा एगट्ठा' आ० चू०१अ०। विसभक्खण न०(विषभक्षण) विषं तालपुटादितस्य भक्षणं विषभक्षणम्, | विषय-पुं० विषीदन्ति धर्म प्रति नोत्सहन्ते एतेष्विति विषयाः, यद्वा ग०२ अधि०।गरलाशते, विषभक्षणेन मरणभेदे, भ०२ श०१ उ०। / सेवनकाले मधुरत्वेन परिणामे चातिकटुकत्वेन विषस्योपमा यान्तीति विसभाग-परिक्खय-पुं०(विषभागपरिक्षय) स्वनामख्याते बौद्धानां | विषयाः। उत्त० अ०। विषीयन्ते निबध्यन्ते विषयिणोऽस्मिस्मिन्निति संज्ञाभेदे, विषभागपरिक्षयो बौद्धानाम्। द्वा० 24 द्वा०। विषयः / गोचरे, परिच्छेद्ये, रत्ना०५ परि० पञ्चा०।३०। ग्राह्ये अर्थे, भ० विसम-त्रि०(विषम) "शषोः सः" ||84306 / इतिषस्य सः / प्रा०। 5 श०२ उ० / 'विषयः प्राप्तिर्गोचर एगट्ठा' आ० चू० 1 अ० विषीदन्त्येदुरारोहावरोहस्थाने, जं०२ वक्ष०ाजी०। निम्नोन्नते, विपा०१ श्रु०३ तस्मिन् सक्ताः प्राणिनइति विषयाः। इन्द्रियगोचरे, आव० 4 अ० शब्दरूपअ० / प्रश्न० / आचा० / नि० चू० / दश / तं० / विषमभूमिप्रतिष्ठिते, रसगन्धस्पर्शादी, ग०२अधि०आचा०।व्य०।जी०1०।आव०।उत्त०। भ०३ श० 4 उ० / पाषाणगर्त्ततर्वाद्याकुलभूमिरूप, भ०३ श०२ उ०। स्था०।सूत्र०ाव्या प्रवाशा०चक्षुरादिग्राह्येषु रूपादिषु, द्वा०२३ दा०।
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________________ विसय 1256 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विसयग्गाम दशा शब्दादिषु (विषयषु) जीवाः सज्जन्ति यावद्रमन्ते। स्था०। स्पर्शव्याकुलितमति-गजेन्द्र इव बध्यते मूढः / / 5 / / पंच कामगुणा पण्णत्ता, तं जहा-सहा रूवा गंधा रसा फासा एवमनेके दोषाः, प्रनष्टशिष्टेष्टदृष्टिचेष्टानाम्। ३,पंचर्हि ठाणेहिंजीवासनन्ति, तंजहा-सद्देहिं०जाव फासेहि दुर्नियमितेन्द्रियाणां, भवन्ति बाधाकरा बहुशः॥६॥ ४.एवं रजंति५, मुच्छंति ६,गिज्झंति७,अज्झविवधति८, / एकैकविषयसङ्गा-द्रागद्वेषातरा विनष्टास्ते। (स्था०) पंच ठाणा अपरिण्णात्ता जीवाणं अहिताते असुभाते |... किं पुनरनियमितात्मा, जीवः पञ्चेन्द्रियवशातः / / 7 / / अखमाते अणिस्सिताते अणाणुगामियत्ताते भवंति, तं जहासहा० जाव फासा १०,पंच ठाणा सुपरिण्णाता जीवाणं हियाते तथा विषयैस्तरवोऽपि विगोपिताः, यतः पठ्यते--- सुभाते० जाव आणुगामियत्ताए भवंति, तं जहा-सहा० जाव पादाहतः प्रमदया विकशत्यशोकः, - फासा 11, (सू० 360+) शोकं जहाति वकुलो मधुशीधुसिक्तः। 'कामगुण' त्ति कामस्य-मदनाभिलाषस्य अभिलाषमात्रस्य वा आलिङ्गितः कुरवकः करते विकाशसंपादका गुणाः-धर्माः पुद्गलानां, काम्यन्त इति कामाः तेचतेगुणाश्चेति मालोकितः सतिलकस्तिकलो विभाति // 6il वा कामगुणा इति 3, 'पंचहिं ठाणेहिं ति पञ्चसु पञ्चभिर्वा इन्द्रियैः ग०३अधि०। स्थानेषु-रागाधाश्रयेषु तैर्वा सह सज्यन्ते--सङ्ग-संबन्धं कुर्वन्तीति 4, 'उपभोगोपायपरो, वाञ्छति यः शमयितुं विषयतृष्णाम् / धावत्या'एव' मिति पञ्चस्वेव स्थानेषु रज्यन्ते-सङ्ग कारणं राग यान्तीति 5, क्रमितुमसौ, पुरोऽपराह्ने निजच्छायाम् // 1 // " मूच्छन्ति- तद्दो-षानवलोकनेन मोहमचेतनत्वमिव यान्ति संरक्षणानुबन्धवतो वा भवन्तीति 6, गृध्यन्ति-प्राप्तस्यासंतोषे णाप्राप्तस्या आचा०१ श्रु०२ अ०४ उ०। परापर-स्याकाङ्क्षावन्तो भवन्तीति 7, अध्युपपद्यन्ते- तदैकचित्ता अथेन्द्रियविषयमानमाहभवन्तीति तदर्जनाय वाऽधिक्येनोपपद्यन्ते उपपन्ना घटमाना भवन्तीति वारसहिजोयणेहिं, सोयं परिगिण्डए सह॥११२१४|| 8 (स्था०) ('विणिघाय' शब्देऽप्यस्मिन्नेव भागे गतम्।) अपरिण्णाय' रूवं गिण्हइ चक्खू, जोयणलक्खाउ साइरेगाओ। त्ति अपरिज्ञया स्वरूपतोऽपरिज्ञातान्यनवगतानि अप्रत्याख्यानपरिज्ञया गंधं रसं च फासं, जोयणनवगाउ सेसाणि // 1122 / / वा प्रत्याख्यातानि अहितायापायायाशुभायापुण्यबन्धायासुखाय द्वादशभ्यो योजनेभ्य आगतं घनगर्जितादिशब्दमुत्कृष्टतो गृह्णाति श्रोत्रं, वाऽक्षमायानुचितत्वायाऽसमर्थत्वाय वाऽनिःश्रेयसायाकल्याणा न परतः आगताः खलु ते शब्दपुद्गलास्तथा स्वाभाव्यान्मन्दपरिणायामोक्षाय वा यदुपकारि सत्कालान्तरमनुयाति तदनुगामिकं तत्प्रतिषे मास्तथोपजायन्ते, येन स्वस्वविषयं श्रोत्रज्ञानं नोत्पादयितुमीशाः, धोऽननुगामिकंतद्भावस्तत्त्वंतस्मै अननुगामिकत्वाय भवन्ति 10 / द्वितीय श्रोत्रेन्द्रियस्य च तथाविधमत्यद्भुतं बलं न विद्यते येन परतोऽप्यागतं विपर्ययसूत्रम् 11 / स्था०५ ठा०१ उ०।। शब्दं शृणुयादिति / तथा चक्षुरिन्द्रियमुत्कर्षतः सातिरेकाद्योजनं "विषस्य विषयाणं च, दूरमत्यन्तमन्तरम्। लक्षादारभ्य कटकुट्यादिभिरव्यवहितं रूपं गृह्णातिपरिच्छिनत्ति, उपयुक्तं विषं हन्ति, विषयाः स्मरणादपि।।१।।" परतोऽव्यवहितस्यापि परिच्छेदे, चक्षुशक्त्यभावात्, एतचाभासुरद्रव्यसूत्र०१ श्रु० 4 अ०१ उ०1 मधिकृत्योच्यते, भासुरं तु द्रव्यं प्रमाणागुलनिष्पन्नेभ्य एकविंशति"न जातु कामः कामाना-मुपभोगेन शाम्यति / योजनलक्षेभ्योऽपि परतः पश्यन्ति यथा पुष्करवरद्वीपार्द्धमानुषोत्तर नगनिकटवर्तिनो नराः कर्कसंक्रान्तौ सूर्यबिम्बम् / उक्तं च-"इगवीसं। हविषा कृष्णवर्मेव, भूय एवाभिवर्द्धते॥१॥" खलु लक्खा , चउतीसं चेव तह सहस्साइं / तह पंच सया भणिया, सम्म०३ काण्ड सत्तत्तीसाएँ अइरित्ता ||1|| इह नयणविसयमाणं, पुक्खरदीवड्डवासियदुक्तं श्रीप्रशमरतौ मणुआणं / पुव्वेण य अवरेण य, पिहं पिहं होइ नायव्व // 2 // " तथा "कलरिभितमधुरगान्ध-वंतूर्ययोषिद्विभूषणरवाद्यैः। शेषाणिघ्राणरसस्पर्शनेन्द्रियाणि क्रमेण गन्धं रसंस्पर्श च प्रत्येकमुत्कर्षतो श्रोत्रावबद्धहृदयो, हरिण इव नाशमुपयाति // 1 // नवभ्यो योजनेभ्य आगतं गृह्णन्तिन परतः, परत आगतानां मन्दपरिणागतिविभ्रमेङ्गिताका- रहास्यलीलाकटाक्षबिक्षिप्तः / मत्वभावात्।घ्राणादीन्द्रियाणंच रूपाणामपि परिच्छेदं कर्तुभशक्तत्वात् / प्रव०१५५ द्वार। देशे,जनपदे, मण्डले, पञ्चा०६ विव०) रूपावेशितचक्षुः शलभ इव विपद्यते विवशः॥२॥ विसयंगण-न०(विशयाङ्गण) विशन्त्यस्मिन् विशयो गृहं तस्याङ्गणम्। स्नानाङ्गरागवर्त्तिक–वर्णकधूपाधिवासपटवासैः / गृहाङ्गणे, उत्त०७ अ०। गन्धभ्रमितमनस्को, मधुकर इव नाशमुपयाति // 3 // विसयंगणा-स्त्री०(विषयाङ्गना) विषयप्रधानायामङ्गनायाम, सूत्र०१ श्रु० मिष्ठान्नपानमांसौ-दनादिमधुररसविषयगृद्धात्मा / 12 अ०। गलयन्त्रपाशबद्धो, मीन इव विनाशमुपयाति / / 4 / / विसयग्गाम-पुं०(विषयग्राम) शब्दादिविषयसमूहे,आचा०१ श्रु०३ अ० शयनासनसंबाधन-सुरतस्नानानुलेपनासक्तः। * २उ०।
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________________ विसयचाग 1257- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विसरिसगम विसयचाग-पुं०(विषयत्याग) भोगसाधनपरिहारे, द्वा०२७ द्वा० / विसयसुह-न०(विषयसुख) विषयेन्द्रियसंसर्गजे सुखे, "विसयसुहं दुक्खं विसयणिरोह पुं०(विषयनिरोध) आत्मद्रव्यैकाग्रतायाम्, अष्ट०२ अष्ट०। चिय, दुक्खप्पडियारओ तिगिच्छ व्व। तं सुहमुवयाराओ, न उ उवयारो विणा तयं / / 1 / / ' अष्ट० 2 अष्ट०। "अणवरयमरणरणरण यति सणं विसयतण्हा-स्त्री०(विषयतृष्णा) शब्दादिविषयलालसायाम, पिच्छिऊणं संसारं। मुक्कं विसंवविसम, विसयमुहंजेहि ताण नमो // 1 // " इदानीं विषयतृष्णालक्षणमाह-- संधा० 1 अधि०१ प्रस्ता०। गम्यागम्यविभाग, त्यक्त्वा सर्वत्र वर्तते जन्तुः। (महाप्रत्याख्याने) विषयेष्ववितृप्तात्मा, यतो भृशं विषयतृष्णेयम् // 1 // तणकट्ठण व अग्गी, लवणजलो वा नईसहस्सेहि। 'गम्ये' त्यादि गम्यागम्ये लोकप्रतीते तयोविभाग आसेवनपरिहार- न इमो जीवो सको, तिप्पेउं कामभोगेहिं // 5 रूपस्तंत्यक्त्वा विषयानियमेन व्यवस्थितः, सर्वत्र वर्तते जन्तुः सामान्येव तणकट्टेण व अग्गी, लवणजलो वा नईसहस्सेहिं। सर्वत्र प्रवर्त्तते जन्तुः-प्राणी विषयेषुशब्दस्पर्शरसरूपगन्धेष्ववितृप्तात्मा न इमो जीवो सक्को, तिप्पेउं अत्थसारेणं / / 16 / / साभिलाष एव यतो यस्या विषयतृष्णायाः सकाशाद् भृशमत्यर्थं तणकट्ठण व अग्गी, लवणजलो वा नईसहस्सेहिं। विषयतृष्णा इयमिति इयं विषयतृष्णोच्यते। षो० 4 विव० / सूत्र०। न इमो जीवो सक्को, तिप्पेउं भोयणविहीए॥५७।। विसयधम्महि(ण)-त्रि०(विषयधर्मार्थिन) स्त्रीपरिभोगार्थिनि, नि० चू० वलयामुहसामाणो, दुप्पारोवणरओ अपरिमिजो। 1 उ०॥ न इमो जीवो सको, तिप्पेउं गंधमल्लेहिं // 58|| विसयपडिकूल-त्रि०(विषयप्रतिकूल) 6 त०। विषयपरिभोगनिषेध अवियत्तोऽयं जीवो, अईयकालम्मि आगमिस्साए। कत्वेन प्रतिलोमे, भ०६ श० 33 उ०। सद्दाण य रूवाण य, गंधाण रसाण फासाणं // 56 // विसयपडिभास-पुं०(विषयप्रतिभास) विषयः श्रोत्रादीन्द्रियज्ञानगोचरः कप्पतरसंभवेसुं-देवुत्तरकुरुवंसपसूएसु। शब्दादिस्तस्यैव न पुनस्तत्प्रवृत्तौ तञ्जन्यस्यात्मनोऽर्थानर्थसद्भावस्य उववाए ण य तित्तो, न य नरविञ्जाहरसुरेसु // 60 / / प्रतिभासः प्रतिभासनं परिच्छेदो यत्र तद्विषयप्रतिभायम्। ऐहिकामुष्मिकेषु खइएण व पीएणव,नय एसो ताइओ हवइ अप्पा। छाद्यस्थिकज्ञानविषयेष्वर्थेषु प्रवृत्तावात्मनस्तात्त्विकार्थानर्थप्रतिभास जह दुग्गइं न वचइ, तो मरणे ताइओ होइ // 61 / शून्ये ज्ञाने, हा०६ अष्ट०। (विषयाणां विषकण्टकत्वं 'णाण' शब्दे देविंदचकवट्टि-तणाई रजाइँ उत्तमा भोगा। चतुर्थभागे 1976 पृष्ठे व्याख्यातम्।) पत्ता अणंतखुत्तो,नयतह तित्तिं गओ तेहिं // 62 / / विसयपमाय-पुं०(विषयप्रमाद) शब्दादिविषयजप्रमादे, "विषयव्या खीरदगेच्छुरसे सुं. साऊसु महोदहीसु बहुसोऽवि। कुलचित्तो, हितमहितं वान वेत्ति जन्तुरयम्। तस्मादनुचितकारी, चरति उववण्णो ण य तण्हा, छिन्ना भे सीयलजलेणं // 63 / / चिरं दुःखकान्तारे॥१॥" स्था०६ ठा०३ उ०। तिविहेण य सुहमउलं, तम्हा कामरइविसयसुक्खाणं / विसयपास-पुं०(विषयपाश) शब्दादिरूपेषु रज्जुबन्धनेषु, सूत्र०१ श्रु०४ बहुसो सुहमणुभूयं, न य सुहतण्हाए ते तित्ती / / 6 / / अ०१ उ०। ||167|| द०प०। विसयभेद-पुं०(विषयभेद) गोचरविशेषे, पञ्चा०६ विव० / "वरि विस खइयं विसयसुह, इक्कसि विसिण मरंति। विसयामिस पुण विसयमेत्त-न०(विषयमात्र) विषय एव विषयमात्रम्। क्रिया शून्ये अर्थमात्रे, घारिया, णर णरएहि पडंति // 1 // " सूत्र० 1 श्रु० 4 अ०१ उ० सैन्ये, भ०३ श०१ उ०1 दे० ना०७ वर्ग 62 गाथा। विसयराग-पुं०(विषयराग) शब्दादिविषयविषयकेरक्तत्वे, आ० चू०१०। / विसयारंभय-पुं०(विषयारम्भक) विषयाणामारम्भोऽस्येति विषयारम्भकः। विसयविगयवोच्छिण्णकोउहल्ल-त्रि०(विषयविगत-व्यवच्छिन्न विषयार्थं सावद्यारम्भप्रवृत्ते, आचा०१ श्रु०५ अ० 1 उ०। कौतूहल) विषयेषु शब्दादिषु विगतं व्यवच्छिन्नमत्यन्तं क्षीणं कौतूहलं | विसर-पुं०(विसर) मत्स्यबन्धनविशेषे, विपा० 1 श्रु०८ अ०। यस्य स तथा। विषयविषयककौतूहलरहिते, भ०६ श०३३ उ०। विसरण-न०(विशरण) परिशटने, स्था०१ ठा०। विसयविवेग-पुं०(विषयविवेक) विषयपरित्यागे, दश० 10 अ०। विसरिया-स्त्री०(विसरिका) सरटे,नि० चू०१ उ०। विसयवेस-पुं०(विशदवेष) धवलाकारे, औ०। विसरिस-त्रि०(विसदृश) विजातीये, आ० म०१ अ०। विसयसारत्त-न०(विषयसारत्त्व) प्रधानगोचरत्वे, पञ्चा०६ विव०। विसरिसगम-त्रि०(विसदृशगम) विजातीयज्ञानग्राह्ये, सम्म०३ काण्ड।
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________________ विसल्ल 1258- अभिधानराजेन्द्रः- भाग 6 विसाहा विसल्ल-त्रि०(विशल्य) विगतानि शल्यानि मायादीनि यस्यासौ , मुत्पन्नमोहे, आव० 4 अ०। औ०। नपुं०। एकादशदेवलोकस्थविमानविशल्यः / उद्गतशल्ये, आव० 5 अ०॥ भेदे, स०२० सम०। विसल्लकरणी--स्त्री०(विशल्यकरणी) शल्योद्धारकरणे विद्याभेदे, सूत्र० | विसायणिज--त्रि०(विस्वादनीय)विशेषतस्तद्रसमधिकृत्य स्वादनीये, २श्रु०२ अ०1 जं०२ वक्ष०। विशेषत आस्वादयितुं योग्ये, जी०३ प्रति० 4 अधि०। विसल्ला-स्त्री०(विशल्या) ओषधिविषेशे, ती०६ कल्प। विसारओ-(देशी) धृष्ट, दे० ना०७ वर्ग 66 गाथा। विसल्लीकरण-न०(विशल्यीकरण) विगतानि शल्यानि मायादीनि | विसारण-म०(विस्तारण) उद्वापनकृते विस्तारणे, ध०२ अधि०। यस्यासौ विशल्यः। अविशल्यः विशल्यः क्रियते इति विशल्यीकरणम्। विसारय-पुं०(विशारद) विपश्चिति, विशे०। नं० / आ० म० / विचक्षणे, शल्योद्धरणे, ध०२ अधि०। उत्त० 20 अ० पं० चू०। संथा०। रा०ा पण्डिते, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। विसवाणिज्ज-न०(विषवाणिज) विषं शृङ्गकादि तच्चोपलक्षणमन्येषां | प्रश्न०। औ०। जीवघातहेतूनामुपविषाणामस्त्रादीनां च तेषां वाणिज्यम्, प्रव०६ द्वार।। विसारी-(देशी) कमलासने, दे० ना०७ वर्ग 6 गाथा। पञ्चा०।जीवधातप्रयोजने विषशस्त्रादिविक्रयणे, "विषास्त्रहलयन्त्रायो विसाल-त्रि०(विशाल) विस्तीर्णे, ज्ञा० 1 श्रु०१ अ०। पाइ० ना० / हरितालादिवस्तुनः विक्रयो जीवितघस्य, विषवाणिज्यमुच्यते॥१॥" कल्प०। ध० ज्यो० ज०। संथा०रा०। आ० म० / आव०। स०। इत्युक्तलक्षणे, (उपा० १०॥ध० आ० चू०। आव०1) वाणिज्यभेदे, बहुले, आ० चू० 5 अापुं०। एकोनाशीतितमे महाग्रहे, स्था०२ ठा० ध०। विषं शृङ्गकादि, तत्रोपलक्षणं जीवघातहेतूनामस्त्रादीनां, ततो 3 उ०। चं० प्र०। सू० प्र०। विषशस्वकु-शीकुद्दालादिलोहहलादिविक्रयो विषवाणिज्यम् / अस्मिश्च दो विसाला। (सू०६०४) स्था०३ठा०३ उ०। शृङ्गकवत्सनाभादेहरितालसोमलक्षारादेश्च विषस्य शस्त्रादीनां च जीवितघ्त्वं प्रतीतमेव। दृश्यन्तेचजलाईहरितालेन सहसैव विपद्यमाना नपुं० / अष्टमदेवलोकस्थविमानभेदे, स०१८ सम० / चतुर्थवेयमक्षिकादयः, सोमलक्षारादिना तु भक्षितेन बालादयोऽपि, विषादिवा कविमाने, प्रव० 164 द्वार। पुं०। समुद्रव्यवहारे जातिविशेष, सूत्र०१ णिज्यं च परेऽपि निषेधयन्ति, यतः-"कन्याविक्रयिणश्चैव, रसविक्रयि श्रु०१अ०३ उ०। द्वितीये कन्देन्द्र, स्था०२ ठा०३ उ०। णस्तथा। विषविक्रयिणश्चैव, नरा नरकगामिनः॥१॥" इति। अरघट्टादि- विसालअ-(देशी) जलधौ, दे० ना०७ वर्ग 71 गाथा। यन्त्रविक्रयोऽपि योगशास्त्र विषवाणिज्यतयोक्तो, यतः-"विषावहल- विसालसिंग-पुं(विशालशृङ्ग) स्वानामख्याते पळते, पिं०। यन्त्रायो-हरितालादिवस्तुनः। विक्रयो जीवितघ्नस्य, विषवाणिज्य विसाला-स्त्री०(विशाला) नगरीभेदे, आ० क० 1 अ० त्रयोविंशतिमुच्यते॥१॥" ध०२ अधि०। तीर्थकरस्य शिविकाभेदे, स० / पश्चिमाञ्जनाद्रिपर्वतस्य दक्षिणदिशि विसहर-पुं०(विषधर) सर्प, "विसहरगइव्व चरियं, कविवंक महेलाणं' स्वनामख्यातायां पुष्करिण्याम, ती० 23 कल्प / शैलप्रभस्य पूर्वेण सूत्र०१ श्रु०४ अ०१ उ०। राजधान्याम, दी०। सूत्र०। महावीरस्य जनन्याम, सूत्र०१ श्रु०२अ० विसा-स्त्री०(विषा) सागरपुत्रस्य दुहितरि विषाणभार्यायाम, आ० चू० ३उ०। ६अ०॥ विसावेग-पुं०(विषावेग) मिथ्यात्वस्य त्वरायाम, अष्ट० 32 अष्ट०। विसाइ-त्रि०(विषादिन्) विषादयुक्ते, अणु०। विसाह-पुं०(विशाख) गणेशे, पाइ० ना० 22 गाथा। स्वामिकार्तिके, वाच०। विसाएमाण-त्रि०(विस्वादयत्) विशेषेण स्वादयन् / सर्वाऽऽस्वादके खर्जूरादेरिवाल्पत्यक्ते, कल्प०१अधि०५ क्षण / विपा०। विसाहनंदि(न)-पुं०(विशाखनन्दिन) वीरस्य षोडशभवजीवस्य विश्वभूतेः पितृव्यपूत्रे, कल्प०१ अधि० 26 क्षण। आ० म०। आ० चू०। विसाण-न०(विषाण) शृङ्गे, स्था०६ ठा०३ उ०। आचा०। प्रश्न०। विसाहमूह-पुं०(विशाखभूति) राजगृहे नगरे विश्वनन्दिनो राज्ञो भ्रातरि शूकरदन्ते, विषाणशब्दो यद्यपि गजदन्ते रूढस्तथापि इह शूकरदन्ते प्रतिपत्तव्यः / उपा०७ अ०। ज्ञा०1 अनु०1 युवराजे, आ० म०१ अ०। आ० चू०। "राजा राजगृहे विश्व-नन्दी विश्वाभिनन्दनः। विसाणच्छेय-पुं० (विषाणच्छेद्र) विषाणविशेषे, औ०। पल्या प्रियङ्गौ विशाख-नन्दी तस्य सुतोऽभवत्।।१।। विसाणि(न्) पुं०(विषाणिन) शृङ्गरूपेणावयवेनावयविनि, अनु०। विशाखभूतिर्युवरा-डनुजो धारिणी प्रिया। विसाद-पुं०(विषाद) पराभवगमने, सूत्र०१श्रु०३ अ०१उ० दैन्यभावे, सूत्र०१ श्रु०३ अ० 1 उ० / विषीदन्ति।संयमानुष्ठानात्। शीतलीभवेन, मरीचिजीवस्तस्याभूत, विश्वभूत्याख्यया सुतः // 2 // " भ्रंशे, सूत्र०१ श्रु०३ अ०१ उ० / 'किमहमत्र प्रदेशे सामायात इति आ० क०१० खेदस्वरूपे, अनु०ा स्वप्नानुभूतदुः-खद्वेषलिङ्गे, (विशे०) स्नेहादिस- | विसाहा-पुं० (विशाखा) इन्द्राग्निदेवताके पश्चतारे नक्षत्र
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________________ विसाहा 1256 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विसव भेदे, स०५ सम०। सू० प्र०। अनु० स्था०। ज्यो०१०। प्र०। जं०। विसि-पुं०[वृ(व्य)षि] ''इत्यकृषादौ" / 8 / 1 / 128 // इति आदेः ऋत इत्त्वम् / विसी / ऋषीणामपनयने, प्रा० 1 पाद। विसिट्ट-पुं०(विशिष्ट) प्रधाने, कल्प०१ अधि० 2 क्षण। औ० / जं०। रा०। मनोहरे, ज्ञा०१श्रु०१अ० रमणीये, कल्प०१ अधि०३ क्षण / अतिशयवति, पञ्चा० 16 विव०। शोभने, कल्प०१ अधि०३ क्षण। विसिट्ठखमग-पुं०(विशिष्टक्षपक) अष्टमादितपस्विनि, पञ्चा० 12 विव०। विसिद्वगुणजीवलोग-पुं०(विशिष्टगुणजीवलोक) विशिष्टगुणः संसाराभिनन्दिसत्त्वापेक्षया मार्गाभिमुखः स चासौ जीवलोकश्च सत्त्वलोको विशिष्टगुणजीवलोकः। मुमुक्षौ भव्यजीवलोके, पञ्चा० 10 विव०। विसिहतर-त्रि०(विशिष्टतर) तीव्रतरशुभाध्यवसायविशेषणोत्कृष्टतरेषु संयमस्थानकण्डकेषु वर्तमाने, बृ०६ उ०। विसिहपुप्फाइ-पुं०(विशिष्टपुष्पादि) प्रधानसुमनःप्रभृतौ, पञ्चा० 4 विव०। विसिट्ठबुद्धि-स्त्री०(विशिष्टबुद्धि) प्रकारताविशेष्यतोभयशालिन्यां बुद्धौ, नयो०। (नैयायिकास्तु विशेषणं तत्र च विशेषणान्तरं 1 विशिष्टस्य वैशिष्ट्यम् 2 एकविशिष्टऽपरवैशिष्ट्यम् 3, एकत्र द्वय 4 मित्येवं चतुर्की विशिष्टा वैशिष्ट्यबुद्धिः / / 7 / / इति ‘णय' शब्दे चतुर्थभागे 1871 पृष्ठे दर्शितम्।) विसिट्ठय-त्रि०(विशिष्टक) विशेषवति, पञ्चा० 16 विव०। विसिट्टलिंग-न०(विशिष्टालिङ्ग) सांख्यपरिभाषया भूतेषु, द्वा०२० द्वा०। विसिण देशी--रोमशे, दे० ना०७ वर्ग 64 गाथा। विसि-(देशी) करिशारौ, विसी-करिशारिः / दे० ना०७ वर्ग 1 गाथा। विसीयमाण-त्रि०(विषीदत्) संयमे, अवसीदति, आचा०१ श्रु०६ अ० 1 उ०1 विसुज्झमाण–त्रि०(विशुद्ध्यमान) विशुद्धिं गच्छति, भ० 13 श०१३० / उत्तरां विशुद्धिमनुभवति, पञ्चा०२ विव० / विसुज्झमाणभाव-पुं०(विशुद्ध्यमानभाव) विशुद्ध्यमाने विहितानुष्ठानेन भावो येषां ते विशुद्ध्यमानभावाः। विहितानुष्ठानतत्परेषु, पं० सू०४ सूत्र०। विसुज्झमाणय-त्रि०(विशुद्ध्यमानक) उपशमश्रेणिक्षपकश्रेणी वा समा रोहति, भ०२५ श०७ उ० स्था०। विसुणिय-न०(विशून्य) अतिशून्ये, प्रश्न०१आश्र० द्वार। विसुत्तिया-स्त्री०(विश्रोतसिका) अपध्याने, आव० 4 अ०। विसुद्ध-त्रि०(विशुद्ध) निर्दोषतया संमते, उत्त०१अ० निष्कल, सूत्र० 1 श्रु०४ अ०२ उ०। निर्दोषे, औ०। जंग। ज्ञा०। निर्मले, आ० म०१ अ० / रा०। संथा०। रागादिदोषरहिते, प्रश्न० 4 संव० द्वार। अनवद्ये, पञ्चा० विव०। विशुध्यमानभावे, पं० सू०३ सूत्र०। प्रशस्ते, स्था०३ ठा० 4 उ०। विरहिते, औ०। विशुद्धिमुपगते, स०। उत्पादनादोषरहिते, आचा० 1 श्रु०६ अ० 4 उ०। नपुं०।ब्रह्मलोकस्य स्वनामख्याते प्रस्तरे, स्था०६ ठा०३ उ०। "विसुद्धकुलवंससंताणतंतुबद्धणपगब्भवय-भाविणीओ," विशुद्धकुलवंश एव सन्तानतन्तुर्विस्तारितन्तुस्तद्वद्धनेन पुत्रोत्पादनद्वारेण तवृद्धौ प्रगल्भं समर्थं यद्वयो यौवनं तस्य भावः सत्तास विद्यते यायां तास्तथा। भ०६ श०३३ उ०।"विसुद्धगंधजुत्तेहिं'' रा०। विसुद्धकिरिया-स्त्री०(विशुद्धक्रिया) अनवद्यानुष्ठाने, पञ्चा० 16 विव०। विसुद्धकोडि-पुं०(विशुद्धकोटि) क्रीतकृताद्याहारदोषकोटौ, आचा०१ श्रु०८ अ०२ उ०। विसुद्धजाइकुलवंस-पुं०(विशुद्धजातिकुलवंस) विशुद्धे जातिकुले यत्रैवविधेषु वंशेषु, कल्प०१ अधि०२ क्षण। विसुद्धजोग-पुं०(विशुद्धयोग) निरवद्यमनोवाकायव्यापारे, पञ्चा०७ विव०। विसुद्धतरग-पुं०(विशुद्धतरक) वितिमिरतरके, अतिशयविशुद्धे, नं०। विसुद्धधी-स्त्री०(विशुद्धधी) विशुद्धा निर्मला धीर्बुद्धिरिति विशुद्धधीः / "बुद्धिः कर्मानुसारिणी" ति वचनात् / निर्मलबुद्धौ, ध०३ अधि०॥ विसुद्धभाव-त्रि०(विशुद्धभाव) विशुद्धः स्वपरसंसारनिस्तारणैकता नतयाऽवदातो भावोऽभिप्रायो यस्य स विशुद्धभावः / व्य० 3 उ०। विशुद्धाध्यवसायिनि, षो०१३ विव०। विसुद्धि-स्त्री०(विशुद्धि) विशुद्धे, परिशुद्धनिःशङ्कितत्वादिदर्शना चारवारिपूरप्रक्षालितशङ्कादिपङ्कतया प्रकर्षप्राप्तिलक्षणायां सम्यग्दर्शन सत्कायां सम्यक्त्वशुद्धौ, ध०१ अधि०। विसुयजस-त्रि०(विश्रुतयशस्) विख्यातकीर्ती, संथा०। विसुयण-न०(विसूचन) ग्रन्थने, नि० चू०२ उ०। विसुयाविणा देशी-त्रि०(विशुचीकृत) विशोधिते, व्य०६ उ०। विसुव-न०(विषुवत्) समरात्रिदिनकालके अयनांशक्रमेण रखेः तुलामेषराशिसंक्रान्तिभेदे, ज्यो०। ___ संप्रति विषुवत्प्रतिपादकं पञ्चदशं प्राभृतं विवक्षुराहआसोयकत्तियाणं, मज्झे वइसाहचित्तमज्झे य। एत्थ सममहोरत्तं, तं विसुवं अयणमझेसु / / 1 / / अश्वयुक्कार्तिकयोसियोर्मध्ये तथा वैशाखचैत्रयोर्मध्येऽस्मिन्ननन्तरे सममहोरात्रं भवति, तच पूर्वपुरुषपरिभाषया विषुवमिति व्यवयिते / तथा चोक्तमभिधानकोशे-'समरात्रिंदिवः कालो, विषुवत्, विषुतंचतत् तानीत्थंभूतानि विषुवाणि 'अयनमध्येषु-अयनमध्यभागेषु भवन्ति। इयमत्र भावनाअश्वयुग्मासानन्तरकार्तिकमासे यथाभागंदक्षिणायनविषुवाणांसंभवः,तथा चैत्रमासानन्तरंवैशाखेयथासंभवमुत्तरायणविषुवसंभवः। ततएतस्मिन्नवकाशे समाहोरात्रसंभवः / यदा पञ्चदशमुहूर्त्तप्रमाणो दिवसो भवति तदा पञ्च
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________________ विसुव १२६०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विसुव दशमुहूर्तप्रमाणा रात्रिः, तचेत्थंभूते सममहोरात्रमण्डलमध्यभागगत एव J * जातं चतुर्दशोत्तरं शतम्, तत् प्रतिराश्यते तस्यार्द्ध सप्तपञ्चाशत्, तस्याः रवौ भवति, तद्यथा-सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलान्नवतितमेमण्डले सर्वबाह्या- पर्वानयनाय पञ्चदशमिर्भागो ह्रियते, लब्धानि त्रीणि पर्वाणि, तानि दपि मण्डलात् द्विनवतितमे इति इत्थंभूतं च द्विनवतितमं मण्डलं यदा पर्वराशौ प्रक्षिप्यन्तेपश्चादवतिष्ठन्ते च द्वादश। तत आगतं सप्तदशोत्तरसूर्य उपसंक्रम्य चारंचरति तदासकला व्यवहारतो विषुवमित्याख्यायते, पर्वशतातिक्रमे द्वादश्यां दशममिति 10 / / निश्चयतस्तुयस्मिन्नहोरात्रे समो दिवसः समा रात्रिस्तस्मिन्नस्तपाये सूर्ये अत्रैवार्थे करणान्तरमाहयो रात्रिप्रवेशकालः, सार्द्धद्विनवतिमण्डलसंभवी स कालो विषुव-मिति। रूवोणविसुवगुणिए, छलसीसयपक्खिवाहिते णउई। तथा चोक्तं मूलटीकायाम्- "रविमण्डलमज्झं नाम विसुवं'' ति। .. पन्नरस भाइलद्धा, पव्वा सेसा तिही होइया संप्रति नैश्चयिकमेव विषुवकालप्रमाणमनन्तरोक्तं सूत्रकृदुपदर्शयति यत् विषुवं ज्ञातुमिष्टं तेन रूपोनेन तत्संख्ययारूपोनया षडशीत्यधिकं पन्नरसमुहुत्तदिणो, दिवसेण समा य जा हवइ राई। शतं गुण्यते, गुणिते च तस्मिन् त्रिनवतिप्रक्षेपे ततः पञ्चदशभि जिते सो होइ विसुवकालो, दिणराईणं तु संधिम्मि / / 2 / / सति ये अङ्का लब्धास्तानि पर्वाणि ज्ञातव्यानि शेषास्त्वंशास्तिथयः, भवति पञ्चदशमुहूर्तप्रमाणदिवसेन समाना रात्रिः पञ्चदशमुहूर्तप्रमाणा एष करणगाथाक्षरार्थः / भावना त्वियम्-प्रथमं विषुवं कतिपर्वातिक्रमे इत्यर्थः। इह द्वानवतितमेऽपि मण्डले समौ रात्रिदिवसौन भवतः कलया कस्यां तिथौ भवतीति जिज्ञासायां रूपं स्थाप्यते तदेकरूपहीनं क्रियते न्यूनाधिकभावात् परं साकल्येन विवक्षितेति समौ रात्रिदिवसौ तत्र जातमाकाशम्, तेन षडशीत्यधिकं शतं गुण्यते जातं शून्यं 'खेन गुणने गण्येते; इत्थंभूतयो रात्रिदिवसयोः संधौ यः कालः स विषुवकालः / खमिति' वचनप्रामाण्यात्, ततः शून्येतस्मिन् त्रिनवतिः प्रक्षिप्यते तस्याः साम्प्रत कतिपर्वातिक्रमे कस्यां तिथावीप्सितविषुवं भवतीति विषुवा पञ्चदशभिगिहृते लब्धाः षट्शेषाः तिष्ठन्ति त्रीणि, आगतंषट्पतिक्रमे नयनाय करणमाह तृतीयस्यां तिथौ प्रथम विषुवमिति। तृतीयविषुवचिन्तायां त्रीणि, रूपाणि ध्रियन्ते, तेभ्यो रूपापहारे जाते द्वे रूपे, तस्यांषडशीत्यधिकं शतं गुण्यते इच्छियविसुवा दुगुणा-रुवोणा छग्गुणा मुणेयव्वा / जातानि त्रीणि शतानि द्विसप्तत्यधिकानि 372 अत्र त्रिनवतिः प्रक्षिप्ता पव्वड्ढे हों ति तिही, नायव्या सव्वविसुवेसु॥३|| जातानि चत्वारि शतानि पञ्चषष्ट्यधिकानि 465 एतेषां पञ्चदशभिर्भागो युगमध्ये ईप्सितानि- विवक्षितानि यानि विषुवाणि तानि ध्रियन्ते, | हियते लब्धा एकत्रिंशत्, आगतं त्रिंशत्पतिक्रमे पञ्चदश्यां तृतीयं किमुक्तं भवति-तत्संख्या ध्रियत इतिधृत्वा चतानि द्विगुणानि क्रियन्ते, विषुवमिति 3 / ततो रूपोनानि तदनन्तरं च षड्गुणानि कर्त्तव्यानि षड्भिश्च गुणने भूयः प्रकारान्तरेणात्रैवाथे करणमाहयदागच्छति तानि पर्वाणि ज्ञातव्या-नि। पर्वाणां चार्द्ध यद्भवति तास्ति इगतीसा ओयगुणा, पंचहि भेय व्व तिगणिआ साउ। थयः सर्वेषु विषुवेषु ता यथायोगं ज्ञातव्या एष करणगाथाक्षरार्थः। तिहिओ भवंति सव्वे-सुचेव विसुवेसुनायव्वा / / 5 / / सम्प्रति करणभावना क्रियते--कतिपर्वातिक्रमे कस्यां तिथौ प्रथम एकत्रिंशत् योत्तरमोजोगुणाः- विषमगुणाः प्रथमतः कर्तव्याः, विषुवमिति जिज्ञासायां रूपमेकं स्थाप्यते, तत् द्विगुणं क्रियते जाते द्वे रूपे, ते रूपोने क्रियेते, स्थितं भूयः एकं रूपं, तस्य षड्भिर्गुणने जाताः तद्यथा--प्रथमविषुवचिन्तायामेकगुणा द्वितीयविषुवचिन्तायां त्रिगुणाः, तृतीयविषुवचिन्तायां पञ्चगुणाः, चतुर्थविषुवचिन्तायां सप्तगुणाः, षट् ते प्रतिराश्यन्ते तेषामढ़ क्रियते जातास्वयः, आगतं षट्पतिक्रमे पञ्चमविषुवचिन्तायाम्, नवगुणाः एवं यावद्द-शमविषुवचिन्तायामेकोनतृतीयस्यां तिथौ प्रथमं विषुवमिति १।तथा द्वितीयं विषुवं कतिपतिक्रमे विंशतिगुणाः, ततः पञ्चभिर्भक्तव्याः / तथा च सति यल्लभ्यते तानि कस्यां तिथौ भवतीति यदि जिज्ञासा तदा द्वे रूपे ध्रियेते ते द्विगुणे जातानि पर्वाण्यवसेयानि, शेषास्त्वंशा उद्वरितास्त्रिगुणिताः सन्तो यावन्तो चत्वारि तानि रूपोनानि क्रियन्ते स्थितानि पश्चात् त्रीणि तानि षड्भि भवन्ति तावत्प्रमाणास्तिथयः सर्वेषु विषुवेषु ज्ञातव्याः / तद्यथागुण्यन्तेजातानि अष्टादश, तानि प्रतिराश्यन्ते तेषां च प्रतिराशितानामर्द्ध प्रथमविषुवचिन्तायामेकत्रिंशत् एकेन गुणितं तदेव भवतीति जाताएकनव, आगतं द्वितीयं विषुवमष्टादशपर्वातिक्रमे नवम्यां तिथाविति तथा त्रिंशदेव, तस्याः पञ्चभिर्भागे हृते लब्धाः, षट्, एकः पश्चादुद्वरति स कतिपर्वातिक्रमे कस्यां तिथौ तृतीयं विषुवमिति जिज्ञासायां त्रीणि रूपाणि त्रिगुणः क्रियते जातास्त्रयः, आगतं षट्पतिक्रमे तृतीय-स्यां तिथौ ध्रियन्ते तानि च द्वाभ्यां गुण्यन्ते जातानि षट्, तेषामेकरूपापहारे प्रथमं विषुवमिति। तृतीयविषुवचिन्तायामेकत्रिंशत् पञ्चभिर्गुण्यन्तेजातं स्थितानि पश्चात् पञ्च, तानि षड्भिर्गुण्यन्ते जाता त्रिंशत्, सा प्रतिरा पञ्चपञ्चादशधिकं शतम् 155, तस्य पञ्चभिर्भागो ह्रियते लब्धा श्यते, प्रतिराशितायाश्च तस्या अर्द्ध पञ्चदश, आगतं त्रिंशत्पतिक्रमे एकत्रिंशत्, आगतं त्रिंशत्पतिक्रमे पञ्चदश्यां तृतीयं विषुवमिति। तथा पञ्चदश्यां तृतीयं विषुवामिति। तथा दशमं विपुवं कतिपर्वातिक्रमे कस्यां दशमविषुवचिन्ता-यामेकत्रिंशत् एकोनविंशत्या गुण्यन्ते जातानि पञ्चं तिथौ भवतीति यदि ज्ञातुमिच्छा तदा दशको ध्रियते स द्विगुण्यते जाता शतानि नवा-शीत्यधिकानि 586 तेषां पञ्चदशभिर्भागो हियते लब्धं विंशतिः, तस्या एक रूपप्रपहियते जाताएकोनविंशतिः, साषभिर्गुण्यते सप्तदशोत्तरं शतं, शेषास्तिष्ठन्ति चत्वारस्ते त्रिभिर्गुण्यन्ते जाता द्वा
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________________ विसुव 1261 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विसुव दश सप्तदशोत्तरपर्वशतातिक्रमे द्वादश्यां दशमं विषुवमिति'। पुनरप्यत्रैवार्थे प्रकारान्तरेण करणमाहपवाय छडादिका, दुवारसॉऽहिया दसाऽवसाणाउ। तिगमाइगा वि य तिही, छदुत्तरा सव्वविसुवेसु / / 6 / / इह विषुवेषु पर्वचिन्तायां षडादिकानि यथोत्तरं द्वादशाधिकानि तावदृ ज्ञेयानि यावद्दशावसानानि-दशसंख्यानि विषुवाणि भवन्तीत्यर्थः। तथा पर्वाणामुपरि तिथिचिन्तायां त्रिकादिकाः-त्रिप्रभृतिका यथोत्तरंषत्तरास्तिथयः सर्वेषु विषुवेषु तावदवसेया यावत्तानि विषुवाणि दशसंख्यानि भवन्ति, तद्यथा- प्रथमं विषुवंषट्पर्वा तिक्रमे तृतीयस्यां तिथौ। द्वितीयविषुवचिन्तायां प्रागुक्तपर्वसंख्यानेद्वादश प्रतिप्यन्तेतिथिसंख्यया षट्, तत आगतं द्वितीयं विषुवम् अष्टादशपर्वातिक्रमे नवम्यां तिथौ। भूयोऽपि तृतीयविषुवचिन्तायाम् अनन्तरोक्तपर्वसंख्याने द्वादश प्रक्षिप्यन्ते, तिथिचिन्तायां षट्, तत आगतं तृतीयविषुवं त्रिंशत्पातिक्रमे पञ्चदश्याम्। चतुर्थविषुवचिन्तायां पुनरप्यनन्तरोक्तपर्वसंख्याने द्वादश प्रक्षिप्यन्ते, तिथिचिन्तायां षट्, ततस्तिथय एकविंशतिर्भवन्ति, पञ्चदशभिश्च गुण्यन्तेलब्धमेकं पर्व, तत्पर्वराशौ प्रक्षिप्यते, आगतं त्रिचत्वारिंशत्पतिक्रमे षष्ट्यां तिथौ चतुर्थं विषुवमिति 4, एवं पञ्चमादीन्यपि दशमपर्यन्तापि विषुवाणि भावनीयानि। . तत्र पर्वसंख्याने संग्राहिका इयं गाथा- ' छक वारस तीसा, तेयाला पंचपण्ण अहही। तह य असीइविणउई,पंचाहियसयं-च सत्तरस ||7|| प्रथमं विषुवं षट्पण्यितिक्रम्य, द्वितीयं द्वादश, तृतीयं त्रिंशत्तम, सप्तदशोनं चतुर्थं त्रिचत्वारिंशत्, पञ्चमं पञ्चपञ्चाशत्, षष्ठं षष्टिः, सप्तममशीतिः, अष्टमं द्विनवतिः नवमं पञ्चाधिकंशतम्, दशमं सप्तदशोत्तरशतम्। संप्रति पर्वोपरि तिथिसंख्यानसंग्राहिकां गाथामाहतइया नवमीय तिही, पन्नरसी छट्टि वारसीचेव। जुगपुटवद्ध एया, ता चेव हवंति पच्छऽद्धे // 8 // युगपूर्वार्द्ध यानि पञ्च विषुवाणि तेषु यथाक्रममिमाः पर्वोपरि तिथयस्तद्यथा तृतीया नवमी पञ्चदशी षष्ठी द्वादशीविषुवस्य पश्चाद्भवन्ति / तृतीयस्यां प्रथम विषुवं, द्वितीयं नवम्यां तृतीयं पञ्चदश्यां, चतुर्थं षष्ठ्यां, पञ्चमं द्वादश्याम्, एता एव तिथयः क्रमेण युगस्य पश्चाद्धेऽपि भवन्ति / तद्यथा-षष्ठं विषुवं तृतीयस्यां, सप्तमं नवम्याम्, अष्टमं पञ्चदश्यां, नवमं षष्ठ्या, दशमंद्वादश्यामिति, एवंभूते तिथ्यांनयनार्थ वाऽमुंप्रकारंपूर्वसूरयः परिभाषन्ते / इहायनगतदिवसराशेस्त्रशीत्यधिकशतप्रमाणस्य दश विषुवाणि किल युगे भवन्ति इति दशभिर्भागो ह्रियते लब्धा अष्टादश, ते त्यज्यन्ते प्रयोजनाभावात् शेषा उदरन्ति त्रयस्ते प्रथमविषुवादारभ्य यथोत्तरं व्युत्तरेण ओजसा गुण्यन्ते, तद्यथा- प्रथमविषुवचिन्तायां ते त्रय एकेन गुण्यन्ते द्वितीयविषुवचिन्तायां त्रिभिस्तृतीयविषुवचिन्तायां सप्तभिः, एवं यावद्दशमविषुव-चिन्तायामेकोनविंशत्या, गुणयित्वा च पञ्चदशभिः पर्वाणि कृत्वा याः शेषास्तिथयः उदरन्ति ता गुण्यन्ते, ततो यथोक्तास्तिथयो भवन्ति। तद्यथा-प्रथमविषुवचिन्तायां ते त्रयः, एकेन गुणितं तदेव भवतीति, तत आगतं प्रथमं विषुवं तृतीयस्यां तिथौ। द्वितीयविषुवचिन्तायां ते त्रयस्त्रिभिर्गुण्यन्तेजाता नव आगतं द्वितीयं विषुवं नवम्यामिति। तृतीयविषुवचिन्तायां ते त्रयः पञ्चभिर्गुण्यन्तेजाताः पञ्चदश, आगतं तृतीयं विषुवं पञ्चदश्याम् | चतुर्थविषुवचिन्तायां ते त्रयः सप्तभिर्गुण्यन्तेजाता एकविंशतिःशेषास्तिष्ठन्ति षट् आगतं चतुर्थं विषुवं षष्ठ्यामिति। एवं सर्वत्रापि भावनीयम्। सम्प्रति केन नक्षत्रेण सहयोगे किं विषुवमिति चिन्त्यते, तत्र यदि दशभिर्विषुवैः सप्तषष्टिश्च पर्याया लभ्यन्ते ततो द्विभागविषुवेण कति चन्द्रपर्याया लभ्यन्ते ? राशित्रयस्थापना१०-६७-१अत्रान्त्येन राशिना एककलक्षणेन मध्यमस्यराशेः सप्तषष्टिरूपस्य गुणने जाता सप्तषष्टिरेव, विषुवं वाऽयनस्य द्विभागरूपमिति दश द्वाभ्यां गुण्यन्ते जाता विंशतिः, तया सप्तषष्टे -भीगो व्हियते लब्धास्त्रयो नक्षत्रपर्यायाः शेषास्तिष्ठन्ति सप्त, ते पर्यायरूपं भागं न प्रयच्छन्तीति अष्टादशभिः शतैस्त्रिशैः सप्तषष्टिभागैर्गुणयिष्याम इति विंशतिलक्षणच्छेदराशिगतेन शून्येन सह शून्यस्यापवर्तनायां जातं त्र्यशीत्यधिकं शतम्, 183, तेन सप्त गुण्यन्ते जातानि द्वादश शतानि एकाशीत्यधिकानि 1281, छेदराशिश्च विंशतिलक्षणोंऽन्त्यशून्यापवततेन जातो द्विकस्तेन सप्तषष्ट्यादयः समक्षेत्राणिनक्षत्रभागा गुण्यन्ते, जातानि चतुस्विंशदधिकशतादीनिशोधनकानि, तत्राभिजितो वाचत्वारिंशत् शुद्धा, स्थितानिशेषाणि द्वादशशतानिएकोनचत्वारिंशदधिकानि १२३६,ततः षभिः शतैः सप्तत्यधिकैः 670, उत्तरभद्रपदान्तानि पञ्च नक्षत्राणि शुद्धानि, स्थितानि पश्चात्पञ्चशतान्येकोनसप्तत्यधिकानि 566, ततश्चतुस्त्रिंशदधिकेन शतेन रेवती शुद्धा, स्थितानि चत्वारि शतानि पञ्चत्रिंशदधिकानि 435, ततोऽपि चतुविशदधिकेन शतेन अश्विनी शुद्धा, शेषाणि तिष्ठन्ति त्रीणि शतानि एकोत्तराणि,३०१, ततः सप्तषष्ट्या भरणी शुद्धा, स्थिते पश्चात् द्वे शते चतुस्त्रिंशदधिके, 234, ततोऽपि चतुस्त्रिंशदधिकेन शतेन कृत्तिका शुद्धा, शेष तिष्ठति शतम्, आगतं श्रवणादीनि कृत्तिकापर्यन्तानि नव नक्षत्राण्यतिक्रम्य दशमस्य रोहिणीनक्षत्रस्य चतुस्त्रिंशदधिकशतभागानां शतमवगाह प्रथमं विषुवं भवतीति। द्वितीयं विषुवं कस्मिन् चन्द्रनक्षत्रे भवतीति यदि विज्ञातुमिच्छा तदापूर्वक्रमेण त्रैराशिकमनुसर्तव्यम, तद्यथा-यदिदशभिर्विषुवैः सप्तषष्टिश्चन्द्रनक्षत्रपर्याया लभ्यन्ते ततो द्वाभ्यां विषुवाभ्यां कति चन्द्रनक्षत्रपर्यायान्लभामहे ? राशित्रयस्थापना-१०-६६-३, इह द्वितीयं विषुवं त्रिभिरयनविभागैर्भवतीत्यतो राशिस्त्रिकरूपः स्थाप्यते, तेन चान्त्येन राशिना त्रिकलक्षणेन मध्यमः सप्तषष्टिरूपो राशिगुण्यतेजाते एकोत्तरे द्वे शते 201 विषुवं चाऽयनस्य द्विभागरूपमित्यादि राशिदशकलक्षणो द्वाभ्यां गुण्यते जाता विंशतिः, तया भागो हियते लब्धा दश चन्द्रनक्षत्रपर्यायाः शेषस्तिष्ठत्येकः, सपर्यायभागंन प्रयच्छतीत्यष्टादशभिः शतैस्त्रिशैः सप्तषष्टिकभागैर्गुणयिष्याम इति विंशतिलक्षणच्छेदराशिगतेन शून्येन सह शून्यस्यापवर्तनायां जातंत्र्यशीत्यधिकंशतं 183, तेनैककेन
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________________ विसुव . 1262 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विसुव गुण्यते जातम् त्र्यशीत्यधिकमेकशतम्, एकेन गुणितं तदेव भवतीति राशिना एककलक्षणेन मध्यमस्यपञ्चकरूपस्य राशेर्गुणनाज्जाताः पञ्चैव, वचनात्। ततोऽभिजितो द्वाचत्वारिंशत् शुद्धा शेष तिष्ठत्येकचत्वारिंश- आद्यश्च राशिः विषुवरूपो विषुवं च प्रथममयनद्विभाग इति द्वाभ्यां गुण्यते दधिकं शतम् 141, ततोऽपि चतुस्विंशदधिकेन शतेन श्रवणः शुद्धः शेषाः जाता विंशतिः तया पूर्वराशेर्भागो ह्रियते, लब्धः एकश्चतुर्भागः, एते तिष्ठनित सप्त, आगतम्-श्रवणनक्षत्रमतिक्रम्य धनिष्ठानक्षत्रस्य वसुदेव- नियतनक्षत्रपरिमाणानयनार्थमष्टादशभिः शतैस्त्रिंशदधिकैः गुणयिष्याम ताकस्य सप्तचतुस्विंशधिकशतभागानवगाह्य द्वितीयं विषुवं प्रवर्तते इति। इति गुणकारराशेरर्द्धनापवर्तना जातानि नव शतानि पञ्चदशोत्तराणि तथा चतुर्थं विषुवं कस्मिन् चन्द्रनक्षत्रे भवतीति जिज्ञासायां त्रैराशिकम, |- 615, तैरेकोऽनन्तरोक्तश्चतुर्थभागो गुण्यन्ते,जातानितान्येव नवशतानि यदि दशभिर्विषुवैः सप्तषष्टिश्चन्द्रनक्षत्रपर्याया लभ्यन्ते ततः सप्तभिर्विषु पञ्चदशोत्तराणि / तेभ्योऽष्टाशीत्या पुष्यः शुद्धः, स्थितानि पश्चादष्टौ वद्विभागैः कति पर्याया लभ्यन्ते ? राशित्रयस्थापना-१०-६७-७, शतानि सप्तविंशत्यधिकानि 827, तेषां चतुस्त्रिंशदधिकेन शतेन भागो अत्रान्त्येन राशिना सप्तकलक्षणेन भागो व्हियते मध्यमस्य राशेर्गुणने ह्रियते लब्धाः षट पश्चात् तिष्ठति त्रयोविंशतिः, आगतमश्लेषादीनि जातानि चत्वारि शतानि एकोनसप्तत्यधिकानि 466, तेषां विंशत्या चित्रापर्यन्तीनि षट् नक्षत्राण्यतिक्रम्य स्वातिनक्षत्रस्य चतुस्त्रिंशदभागो हियते लब्धास्त्रयोविंशतिः पर्यायाः, शेषा उद्भरिता नव प्रागुक्तयु धिकशतभागानां त्रयोविंशतिभागानवगाह्य प्रथमं विषुवं सूर्यः प्रवर्त्तयति, क्त्या त्र्यशीत्यधिकेन शतेन गुण्यन्तेजातानिषोडशशतानि सप्तचत्वा यदा तृतीयविषुवविषया चिन्ता क्रियते तदा तृतीयं विषुवं पञ्चानारिंशदधिकानि 1647, ततोऽभिजितो द्वाचत्वारिंशत् शुद्धाः स्थितानि मयनद्विभागानामतिक्रमे भवति तत एवं त्रैराशिकं कर्म, यदि दशभिर्विषुवैः पञ्च सूर्यपर्याया लभ्यन्ते ततः पञ्चभिरयनैर्बिभागैः किं लभ्यते ? शेषाणि षोडश शतानि पञ्चोत्तराणि 1605, तेभ्यश्चतुर्दशभिः शतैः राशित्रयस्थापना-१०-५-५, अत्रान्त्येन राशिना पञ्चकलक्षणेन चतुःसप्तत्यधिकैः 1474 मृगशिरः पर्यन्तान्येकादश नक्षत्राणि शुद्धानि, मध्यमस्य पञ्चकरूपस्य राशेर्गुणना, जाता पञ्चविंशतिः, ततः पूर्ववदाद्यो स्थितं पश्चादेकत्रिंशदधिकं शतं 131, ततोऽपि सप्तषष्ट्या आर्द्रा शुद्धा, राशिभ्यां गुण्यते जाता विंशतिः, तया भागो ह्रियते, लब्धः एकः स्थिता शेषा चतुःषष्टिः। आगतम्-श्रवणादीनि आर्द्रापर्यन्तानि द्वादश परिपूर्णः पर्यायः पश्चादेकश्चतुर्थभागोऽवतिष्ठते, ततः पूर्वक्रमेणात्रापितृतीये नक्षत्राण्यतिक्रम्यपुनर्वसुनक्षत्रस्य चतुस्त्रिंशदधिकशतभागानां चतुःषष्टि विषुवे स्वातिनक्षत्रलाभः / एवमुक्तनीत्या परिभाव्यमानानि पश्चापि संख्यानां चतुर्थं विषुवद्वर्त्तत इति / एवं सर्वाण्यपि विषुवनक्षत्राणि दक्षिणायनविषुवाणि स्वातिनक्षत्र एव लभ्यन्ते नान्यत्रेति / संप्रत्युत्तभावनीयानि। रायणविषुवविषयाभावना क्रियते-उत्तरायणविषयाणि च विषुवाण्यमूनि, तत्संग्राहिका चेयं गाथा तद्यथा-द्वितीयं चतुर्थं षष्ठमष्ठमं दशमं च। द्वितीयं च विषुवं त्रयाणारोहिणि वासव साई,अदिई अभिवति मित्त पिउ देवा। मयनद्विभागानामन्ते भवति, चतुर्थ सप्तानां षष्ठमेकादशानामष्टमं पञ्चआसिणि विवीसुदेवा, अज्जमणा इह विसुवरिक्खा / / दशानां दशममेकोनविंशतः, तत्रैवं त्रैराशिकं कर्म, यदि दशभिर्विषुवैः इतीति-अमूनि यथाक्रमं विषुवाणां नक्षत्राणि, तद्यथा-प्रथमस्य पञ्चसूर्यनक्षत्रपर्याया लभ्यन्ते ततस्विभिरयनद्विभागैः किं लभामहे ? विषुवस्य प्रवृत्तावादौ नक्षत्रं रोहिणी, द्वितीयस्य वासर्ववसुदेवतोप राशित्रयस्थापना-१०-५-३, अत्रान्त्येन राशिना त्रिकलक्षणेन मध्यमः लक्षितं, घनिष्ठानक्षत्रं, तृतीयस्य स्वातिः, चतुर्थस्याऽदितिदेवतोप- पञ्चकलक्षणो मृशिर्गुण्यते जाताः पञ्चदश, आद्यश्च दशकलक्षणो राशिः लक्षितं पुनर्वसुनक्षत्र, पञ्चमस्याभिवृद्धिदेवतोपलक्षितमुत्तराभाद्र पूर्ववत् द्वाभ्यां गुण्यते जाता विंशतिस्तया भागो हियते लब्धास्त्रयश्चतुपदनक्षत्रं, षष्ठस्य मित्रो-मित्रदेवतोपलक्षितमनुराधानक्षत्रम्, सप्तमस्य 'र्भागास्तानष्टादशभिः शतैस्त्रिंशदधिकैर्गुणयिष्याम इति तस्य गुणराशेरपितृदेवतामघा, अष्टमस्य अश्विनी, नवमस्य विष्वग्देवा-उत्तराषाढाः, र्द्धनापवर्त्तना, जातानिनव शतानि पञ्चदशोत्तराणि 615, तैरनन्तरोदशमस्यार्यमा-अर्यमदेवोपलक्षितमुत्तराफाल्गुनी नक्षत्रमिति। कास्त्रयो गुण्यन्ते जातानि सप्तविंशतिशतानि पञ्चचत्वारिंशदधिकानि 2745, तेभ्योऽष्टाशीत्य पुष्यः शुद्धः, स्थितानि पश्चात्षट्विंशतिशतानि ___ संप्रत्येतेष्वेव विषुवेषु सूर्यनक्षत्रं प्रतिपिपादयिषुराह सप्तपञ्चाशदधिकानि 2657, तेषां चतुस्विंशदधिकेन शतेन दक्खिणअयणे सूरो, पंच वि विसुवाणि वासुदेवेणं। भागहरणं लब्धा एकोनविंशतिः शेष तिष्ठत्येकादशोत्तरं शतम् 111, जोएइ उत्तरेणऽवि, आइचो आसदेवेणं // 10 // तेभ्योऽभिजित् द्वाचत्वारिंशता शुद्धा, शेषा तिष्ठत्येकोनसप्तति 66, दक्षिणायने वर्तमानः सूर्यः पञ्चापि विषुवाणि वासुदेवे-नस्वातिनक्षत्रेण तत्रैकोनविंशतिमध्यात्त्रयोदशभिरश्लेषादीनि उत्तराषाढापर्यन्तानि योजयति, उत्तरेणाऽपि-उत्तरस्यामपिदि-शिगच्छन् आदित्यः पञ्चापि नक्षत्राणि शुद्धानि, अभिजिन्नक्षत्रं प्रागेव शोधितम, ततः पञ्च नक्षत्राणि विषुवाणि अश्वदेवेन- अश्वदेवोपलक्षितेनाश्विनीनक्षत्रेण योजयति / शुद्धानि, एकेन च शेषेण रेवती, आगतमश्विनीनक्षत्रस्य चतुस्त्रिंशदधिकिमुक्तं भवति- पञ्चापि दक्षिणायनविषुवाणि स्वातिनक्षत्रेण सह योगे कशतभागानामेकोनसप्ततिभागानवगाह्य सूर्यो द्वितीयविषुवं प्रवर्त्तयति / प्रवर्त्तन्ते, पञ्चापि चोत्तरायण विषुवाणि अश्विनीनक्षत्रेण योगे इति। तत्रेयं तथा चतुर्थविषुवचिन्तायामेवं त्रैराशिकं यदि दशभिर्विषुवैः पञ्च भावना यदि दशभिर्विषुवैः पञ्च सूर्यपर्याया लभ्यन्तेततोऽयनद्विभागरूपे सूर्यनक्षत्रपर्यायालभ्यन्तेततः सप्तभिरयनद्विभागः किलभ्यमिति? राशित्रयप्रथमे विषुवे किं लभामहे ?. राशित्रयस्थापना-१०-५-१, अत्रान्त्येन स्थापना-१०-५-७, अत्रान्त्येनराशिना--सप्तकलक्षणेन मध्यमराशेर्गुणने
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________________ विसुव 1263 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विसुव जाताः पञ्चत्रिंशत् 35, तस्याः पूर्वोक्तयुक्त्या विंशत्या भागो ह्रियतेलब्धः एकः 1 सूर्यनक्षत्रपर्यायः पश्चादवतिष्ठन्ते पञ्चदश, ते च त्रयः पर्यायचतुर्भागास्ततस्ते प्रागुक्तयुक्त्या नवभिः शतैः पञ्चदशाधिकैर्गुण्यन्ते जातानि सप्तविंशतिशतानि पञ्चचत्वारिंशदधिकानि 2745, ततः पूर्वोक्तप्रकारेण तावद्वक्तव्यं यावदागतमश्विनीनक्षत्रस्य चतुस्त्रिंशदधिकशतभागानामेकोनसप्ततिभागानवगाह्य सूर्यश्चतुर्थविषुवं प्रव्रतयति, एवमुक्तनीत्या परिभाव्यमानानि पञ्चाप्युत्तरायणविषुवाणि अश्विनीनक्षत्रे एव यथोदितभागाऽतिक्रमे प्रवर्तन्ते इति। तदेवं दक्षिणोत्तरायणविषुयेषु नक्षत्राणि प्रतिपाद्य लग्नं प्रतिपादयतिलग्गं दक्षिणायण, विसुवेसु वि अस्सउत्तरं अयणे। लग साई विसुवेसु, पंचसु वि दक्खिणं अयणे // 12|| दक्खिणमयणे विसुवे, नहयलेऽभिजि रसायले पुस्से / उत्तरअयणे अमिई, रसायले नहयले पुस्से // 13 // दक्षिणायनगतेषु पञ्चस्वपि विषुवेषु अश्व अश्वदेवोपलक्षिते अश्विनीनक्षत्रे लग्रं भवति / किमुक्तं भवति- पञ्चापि दक्षिणायनविषुवाणि मेषलग्ने प्रवर्त्तन्ते इति, तथाहि-यदिदशभिर्विषुवैरष्टादश शतानि पञ्चत्रिंशदधिकानि, लग्नपर्यायाणां भवन्ति, ततोऽयनद्विभागरूपे प्रथमे विषुवे किं लग्नं भवतीति ? राशित्रयस्थापना 10-1835-1, अत्रान्त्येन राशिना एककलक्षणेन मध्यो राशि ण्यते गुणितश्च सन् स तावानेव भवति 'एकेन गुणितं तदेव भवतीति' न्यायात् / विषुवंचायनविभाग रूप भवतीति विषुवपरिमाणकृदाद्यो राशिौभ्यां गुण्यते जाता विंशतिस्तया भागो हियते लब्धा एकनवतिपर्यायाः शेषास्तिष्ठन्ति पञ्चदश, तेषां पञ्चकेनापवर्तना जातात्रयस्ततो नक्षत्रानयनार्थमष्टादशभिः शतैस्त्रिंशदधिकैर्गुणयिश्याम इति गुणकारराशेरर्द्धनापवर्त्तना जातानि नव शतानि पञ्चदशाधिकानि 615, तैस्त्रयो गुण्यन्ते जातानि सप्तविंशतिशतानि पञ्चचत्वारिंशदधिकानि 2745, तेभ्योऽष्टाशीत्या पुष्यः शुद्धः, स्थितानि, पश्चात् षड्विशतिशतानि सप्तपञ्चाशदधिकानि 2657 तेषां चतुस्त्रिंशदधिकशतेन भागहरणं लब्धा एकोनविंशतिः शेषं तिष्ठत्येकादशोत्तरं शतम् 111, तस्मादभिजितो वाचत्वारिंशत् शुद्धा शेषास्तिष्ठन्त्येकोनसप्ततिः ६६,अत्र एकोनविंशतिमध्याम् त्रयोदशभिः श्लेषादीनि उत्तरभद्रपदापर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि, अभिजिन्नक्षत्रं प्रागेव शोधितं, ततः पञ्चभिः श्रवणादीनि उत्तरभद्रपदापर्यन्तानि पञ्च नक्षत्राणि शुद्धानि, अभिजिन्नक्षत्रं च प्रागेव शोधितं, ततः पञ्चभिः श्रवणादीन्युत्तरभाद्रपदापर्यन्तानि पञ्च नक्षत्राणि शुद्धानि, एकेन च शेषेण रेवती शुद्धा, आगतमश्विनीनक्षत्रस्य चतुस्त्रिंशदधिकशतभागानाभेकोनसप्तति संख्येषु प्रथमं विषुवं भवति / द्वितीयविषुवचिन्तायामेवं त्रैराशिकम्-यदि दशभिर्विषुवैरष्टादश शतानि पञ्चत्रिंशदधिकानि लग्नपर्यायाणां लभ्यन्ते ततः पञ्चभिरयन द्विभागैः किं लंभ्यमिति राशित्रयस्थापना-१०-१८३५-५, अत्रान्त्येन राशिना मध्यराशेर्गुणने जातान्येकनवतिशतानि पञ्चसप्तत्यधिकानि 6175, ततः प्रागुक्तयुक्त्याऽऽद्यो राशिभ्यां गुण्यते, जाता विंशतिः, तया भागो हियते लब्धानि लगपर्यायाणां चत्वारि शतानि अष्टपञ्चाशदधिकानि 458, न तैः प्रयोजनम् शेषाः तिष्ठन्तिपञ्चदश 15, ततः प्रागुक्तगणितक्रमेणागतमश्विनीनक्षत्रस्य लगप्रवर्तकस्य चतुस्त्रिंशदधिकशतं भागानामेकोनसंख्येषु भागेषु द्वितीयं विषुवं प्रवर्तते। एवं पञ्चस्वपि दक्षिणायनविषुयेषु लग्रं भावनीयम्, साम्प्रतमुत्तरा-यणविषुवलग्नभावना क्रियतेयदि दशभिर्विषुवैरष्टादश शतानि पञ्चत्रिंशदधिकानि लग्नपर्यायाणां भवन्ति ततस्विभिरयनविभागैः किं लभ्यमिति ? राशित्रयस्थापना१०-१८३५-३, अत्रान्त्येन राशिना(त्रिकलक्षणेन) राशेर्गुणनेजातानि पञ्चपञ्चाशत्शतानि पञ्चोत्तराणि 5505, ततः प्रागुक्तयुक्त्या आद्यराशि भ्यां गुण्यते जाता विंशतिस्तया भागो ह्रियते लब्धे द्वे शते पञ्चसप्तत्यधिके 275, लापर्यायाणां न तैः प्रयोजनमिति, शेषाः तिष्ठन्ति पञ्च 5, राच किल, एकश्चतुर्भाग इत्येकः स्थाप्यते ततः प्रागुक्तयुक्त्या स नयभिश्शतैः पञ्चदशोत्तरैगुण्यते जातानि नवशतानि पञ्चदशोत्तराणि 615, तेभ्योऽष्टाशीत्या पुष्यः शुद्धः, स्थितानिपश्चादष्टौ, शतानि सप्तविंशत्यधिकानि ८२७.तेषां चतुस्विंशदधिकेन शतानि भागो ह्रियते लब्धाः षट्, पश्चात् तिष्ठात त्रयाविंशतिः, षड्भिश्वाश्लेषादीनि चित्रापर्यन्तानि षट् नक्षत्राणि शुद्धानि, आगतं स्वातिनक्षत्रस्य लगप्रवर्तकस्य चतुस्त्रिशदधिकशतभागानामेकोनसप्ततिसंख्येषु भागेषु गतेषु द्वितीयं विषुवं प्रवर्तते / एवं चतुर्थविषुवचिन्तायामेवं वैराशिकम्-यदि दशभिर्विषुवैरष्टादश शतानि पञ्चत्रिंशदधिकानि लगपर्यायाणां लभ्यन्ते, ततः सप्तभिरयन द्विभागैः किं लभ्यमत्रेति ? राशित्रयस्थापना- 10-1535--7, अत्रान्त्येन राशिना मध्यराशिगुण्यते जातानि द्वादश सहस्राणि अष्टौ शतानि पञ्चचत्वारिंशदधिकानि 12845, तेषां विंशत्या भागो हियते लब्धानि षट् शतानि द्विचत्वारिंशदधिकानि लगपर्यायाणां 642 शेषास्तिष्ठन्ति पञ्च, ततः प्रागुक्तगणितक्रमेण आगतं स्वातिक्षत्रस्य लग्नप्रवर्तकस्य चतुरिंशदधिकशतभागानामेकोनसप्ततिसंख्येषु भागेषु गतेषु चतुर्थ 4 विषुवं प्रवर्तते, एवं 5 पञ्चस्वपि उत्तरायणेषु विषुवलग्नं भावनीयम् / इह यदा सूर्यो दक्षिणायनविषुवे अश्विन्या प्रवर्तते तदा पाश्चात्यं लग्नं स्वातौ स्वात्यश्विन्योश्च मध्येऽभिजिद्वर्तते स्म भावि द्वितीयाऽर्द्धमध्ये चभावी पुष्यः, ततो दक्षिणायनविषुवेषु पञ्चस्वपि अप्रभजिन्नभस्तले अतिक्रान्तपाश्चात्यार्द्धवर्द्धितत्वात् पुष्यो रसातले भाव्युत्तरार्द्धमध्यभावित्वात्, यदातु-रविरुत्तरायणे विषुवे स्वातौ वर्तते तदा पाश्चात्यं लगमश्विन्यां स्वात्यश्विन्योश्च मध्ये च पुष्यो, भाविद्वितीया मध्ये भावि लग्नम् अभिजित्, तत उत्तरायणविषुवेषु पञ्चस्वपि पुष्पो नभस्तले अतिक्रान्तपाश्चात्या॰ गतत्वात् अभिजित् रसातले भाव्युत्तरार्द्धमर्द्धभावितत्वात् तदेवमुक्त विषुवगतं लग्नम्। सम्प्रति कः कालो निश्चयतो विषुवस्येति प्ररूपयति-- मंडलमज्झत्थम्मि य, अचक्खुविसयं गयम्मि सूरम्मि। जो खलु मत्ताकालो, सो कालो होई विसुवस्स ||14|| मण्डल मध्यस्थे : सार्द्ध द्विनवतिमण्डलमध्यभागवतिनीत्यर्थः / अक्षुर्विषयगते कलया चक्षुर्विषयमतीतो व्यवहा
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________________ विसुव 1264 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 तर विसेस रतश्चक्षुर्विषयातीति इति विवक्षितः तस्मिन् सूर्ये यः खलु मात्राकालो अनुमाननिराकृतो यथा नित्यः शब्दः, प्रतीतिनिराकृतो यथा अचन्द्रः दिवसरात्रिमध्यगतसंधिरूपः स विषुवकालो वेदितव्यः। तथाहि-यदि राशी स्ववचननिराकृतो यथा यदि वच्मि तन्मिथ्येति, लोकरूढिदशभिर्विषुवैरष्टादश सूर्योदयशता नि त्रिंशदधिकानि लभ्यन्ते ततोऽयन- निराकृतो यथा शुचि नरशिरः कपालमिति। तज्जातदोषविषयेऽपि भेदो द्विभागरूपे विषुवे किं लभा-महे ? राशित्रयस्थापना-१०-१८३०-१, जन्ममर्मकर्मादिभिः, जन्मदोषो यथा-"कच्छोल्लुयाएघोडीए, जाओ अत्रान्त्येन राशिना मध्यराशेर्गुणने जातानि तान्येवाष्टादश शतानि जो गद्दहेण छूटेण / तस्स महायणमज्झे, आयारा पायडा होति / / 1 / / " त्रिंशदधिकानि 1830, आद्यश्च राशिः प्रागुक्तयुक्त्या द्वाभ्यां गुण्यते |... इत्यादिरनेकविधः 2, चकारः समुच्चये। तथा 'दोसे' ति पूर्वोक्त सूत्रे ये जाता विंशतिस्तया भागो ह्रियतेलब्धा एकनवतिरेकश्च द्विभागः अहोरा शेषा मतिभङ्गादयोऽष्टावुक्तास्ते दोषाः दोषशब्देनेह संगृहीतास्ते च त्रस्य, ततः आगतमर्थापत्त्या द्विनवतितमे अहोरात्रे दिवसस्य रात्रेश्च यः दोषसामान्यापेक्षया विशेषा भवन्त्येवेति दोषो विशेषः / अथवा-'दोसे' सन्धिरूपः कालः स मात्राकालः स निश्चयतो विषुवकालः / नन्वत्र संदेहः त्ति दोषेषु शेषदोषविषये विशेषो भेदःचानेकविधः स्वयमूह्यः३। ('एगट्ठिय' किमयं सूर्योदयसन्धिरित्यभिधीयते; किं वा-अस्तमयसन्धिः? वक्तव्यता 'एगट्टिय' शब्दे तृतीयभागे 1110 पृष्ठे।) अथवा दोषशब्द उच्यते-अस्तमयसंधिर्यतो दिवसादिरहोरात्रः, तथा चोक्तं "दिवसादि इहापि संबध्यते, ततश्च न्यायोद्ग्रहणे शब्दान्तरापेक्षया विशेष इति / रहोरात्र'" इति। ततो दिवसोऽतिक्रान्तोऽस्तमयश्च प्रवर्तते इत्यस्तमय तथा कार्यकारणात्मके वस्तुसमूहे कारणमिति विशेषः कार्यमपि विशेषो भवति, न चेहोक्तो दशस्थानकानुवृत्तेः / अथवा-कारणे-कारणविषये संधिरेवाऽभिधीयते / इति श्रीमलयगिरिविरचितायां ज्योतिष्करण्ड विशेषो भेदो यथा परिणामिकारणं, मृत्पिण्डः, अपेक्षाकारणं दिग्देशकाकटीकायां विषुवप्रतिपादकं पञ्चदशं प्राभृतं समाप्तम्। ज्यो० 15 पाहु० / लाकाशपुरुषचक्रादि / अथवोपादानकारणं मृदादि, निमित्तकारणं विसूइया-स्त्री०(विषूचिका) अजीर्णोद्भूते वमनाध्मानविरेचादिसद्यो कुलालादि, सहकारिकारणं चक्र-चीवरादीत्यनेकधा कारणम्। अथवा मृत्युकृगुजि, उत्त०१० अ०। अजीर्णविशेषे, उत्त० 10 उ०। दोषशब्दसंबन्धात् पूर्वव्याख्यातः कारणदोषो दोषसामान्यापेक्षया विशेष विसूणिय-त्रि०(विशून्य) उत्कृते, सूत्र०१ श्रु०५ अ०२ उ०। इति / चः समुच्चये तथा प्रत्युत्पन्नो वार्त्तमानिकोऽभूतपूर्व इत्यर्थो दोषो विसूणियंग-त्रि०(विशूनिताङ्ग) उत्कृताङ्गे, अपगतत्वचि, सूत्र०१ श्रु० गुणेतरः, स चातीतादिदोषसामान्यापेक्षया विशेषः / अथवा-प्रत्युत्पन्ने 5 अ०२ उ०। सर्वथा वस्तुन्यभ्युपगते विशेषो यो दोषोऽकृताभ्यागमकृतविप्रणाशादिः विसूर-धा०(खिद) दैन्ये, "खिदेर्जूर-विसूरौ" ||84132 // इति स दोषसामान्यापेक्षया विशेष इति 6, तथा नित्यो यो दोषोऽभवव्यानां मिथ्यात्वादिरनाद्यपर्यवसितत्वात् स दोषसामान्यापेक्षया विशेषः / खिदेर्विसूरादेशः। विसूरइ। खिद्यते। प्रा०४ पाद। अथवा-सर्वथा नित्ये वस्तुनि अभ्युपगते यो दोषो बालकुमाराद्यवस्थाविसूरण-न०(खेदन) चित्तखेदे, प्रश्न०५ आश्र० द्वार। भावापत्तिलक्षणः सदोषसामान्यापेक्षया दोषविशेष इति। तथा 'हियट्टमे' विसेति-त्रि.(विश्रेणि) विरुद्धा विदिगाश्रिता श्रेणियंत्र तद्विश्रेणि / भ०२ त्ति अकारप्रश्लेषादधिकं वादकाले यत् पर प्रत्यायनं प्रत्यतिरिक्तं श०१ उ०। विरुद्धदिस्थिते, नं०॥ दृष्टान्तनिगमनादि तद्दोषः, तदन्तरेणैव प्रतिपाद्यप्रतीतेस्तदभिधानविसेस-पुं०(विशेष) "शषोः सः" / / 1 / 260 / / इति शषोः सः। प्रा०। स्यानर्थकत्वादिति / आह च- "जिणवयणं सिद्धं चे-व भण्णए कत्थई भेदे, पर्याये, व्यक्ती, विशे० / उत्त०। नि० चू० / पर्यायो विशेषो धर्म उदाहरणं। आसजउसोयारं, हेऊविकहिचिभण्णेला॥१॥' तथा 'कत्थइ इत्यनर्थान्तरम्। स्था० 4 ठा०२ उ०। दश०। ("विशेषोऽपि द्विरूपो पंचावयवं, दसहा वा सव्वहा न पडिकुट्ठ' मिति / ततश्चाधिको दोषो गुणः पर्यायश्च" ||6|| इति। सूत्रम 'खणियवाइ' शब्दे तृतीयभागे 707 दोषविशेषत्वाद्विशेष इति अथवा अधिके दृष्टान्तादौ सति यो दोषो दूषणं पृष्ठे व्याख्यातम्।) वादिनः सोऽपि दोषविशेष एव अयं चाष्टम आदितो गण्यमान इति 8 // विशेषाः 'अत्तण' त्ति आत्मना कृतमिति शेषस्तथोपनीतं प्रापितं परेणेति शेषः, वस्तुसामान्यापेक्षयाऽऽत्मकृतंच विशेषः परोपनीतंचापरो विशेष इतिभावः, दसविहे विसेसे पण्णत्ते,तं जहा-वत्थु तजायदोसे य, दोसे चकारयोर्विशेषशब्दस्य च प्रयोगो भावनावाक्ये दर्शितः / अथवा-दोषएगट्टिते ति या कारणे य पडुप्पन्ने,दोसे निव्वेहियट्ठमे // 1 // " शब्दानुवृत्तेरात्मना कृतो दोषः परोपनीतश्च दोष इति दोषसामान्यापेक्षया अतणा उवणीए'य, विसेसे ति य ते दस। (सू०७४३४) विशेषावेतौ इति / एवं ते विशेषा दश भवन्तीति इहादर्शपुस्तकेषु- "निचे 'दसे' त्यादि विशेषो भेदो व्यक्तिरित्यनर्थान्तरम्'वत्थु इत्यादि सार्द्धः हियट्टमे' त्ति दृष्ट नच तथाष्चै पूर्यन्त इति निचे इति व्याख्यातम्। स्था०१० श्लोकः, वस्त्विति प्राक्तनसूत्रस्यान्तोक्तो यः पक्षः, तज्जातमिति तस्यै ठा०३ उ० शाङ्खएवायं शब्द इत्यादिविशेषज्ञाने, विशे० सम्म०। सूत्र०। वादावुक्तम् / प्रतिवाद्यादेत्यिादि तद्विषयो दोषो वस्तुतज्जातदोषस्तत्र तुल्यजातिगुणक्रियाधारणां नित्यद्रव्याणां परमाण्वाकाशदिगादीनामत्यवस्तुदोषः पक्षदोषस्तजातदोषश्च-जात्यादिहीलनमेतौ च विशेषौ न्तव्यावृत्तिवृद्धिहेतौ पदार्थभेदे, आ० म०१ अ०। स्था० / अथ विशेषास्ते दोषसामान्यापेक्षया, अथवा-वस्तुदोषे-वस्तुदोषविषये विशेषो-भेदः चात्यन्तव्यावृत्तिबुद्धिहेतुत्वेन परैराश्रीयन्ते, तदंचिन्त्यते-यातेषु विशेषप्रत्यक्षनिराकृतत्वादिः / तत्र प्रत्यक्षनिराकृतो यथा अश्रावणः शब्दः, बुद्धिः सा नापरविशेषहेतुकाऽऽश्रयितव्या अनवस्थाभयात्। स्वतः समाश्र
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________________ विसेस 1265 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विसेसावस्सय यणे च तद्वद् द्रव्यादिष्वपि विशेषबुद्धिः स्यात्कि द्रव्यादिव्यतिरिक्तै- | विसेससण्णा-स्त्री०(विशेषसंज्ञा) पृथगभूताभिधाने, सम्म०१ काण्ड०। विशेषैरिति द्रव्याव्यतिरिक्तास्तु विशेषा अस्माभिरप्याश्रीयन्ते सर्वस्य | विसेसावस्सय-न०(विशेषावश्यक) आवश्यकग्रन्थस्य प्रथमाध्यसामान्यविशेषात्मकत्वादिति / एतत्तु प्रक्रियामात्रं, तद्यथा--"नित्य- यनभाष्यविवरणे, विशे०। द्रव्यवृत्तयोऽन्स्या विशेषाः" नित्यद्रव्याणि च / चतुर्विधाः परमाणवो मुक्तात्मानो मुक्तमनांसि चेति नियुक्तिकत्वादपकर्णयितव्यमिति। सूत्र० श्रीसिद्धार्थनरेन्द्रविश्रुतकुलव्योमप्रवृत्तोदयः, १श्रु०१२ अ०। विसेसो दुविहो, अंतविसेसो, अणंतविसेसो य। आ० ' सदोधांशुनिरस्तदुस्तरमहामोहान्धकारस्थितिः। चू०१०। अन्त्या विशेषाः-सकलसाधारणरूपाः, अवान्तरविशेषाश्च पररूपव्यावर्तनक्षमाः। आ० म०१ अ०। प्रकर्षे, स० 146 सम०। दृप्ताशेषकुवादिकौशिककुलप्रीतिप्रणोदक्षमो, रमणीयत्वे, बृ०१ उ०३ प्रक०। ___ जीयादस्खलितप्रतापतरणिः श्रीवर्धमानो जिनः / / 1 / / विश्लेष-पुं० वियुक्तीकरणे, पृथक्करणे, विश्लेषे कृते सति यदवतिष्ठते तदपि येन क्रमेण कृपया श्रुतधर्म एष, विश्लेषतो जातत्वाद् विश्लेषः। आरोपणाच्छेदे व्य०१ उ०। आनीय मादृशजनेऽपि हि संप्रणीतः। विसेसण-न०(विशेषण) भेदे, व्यावर्त्तने, 'संभवव्यभिचाराभ्यां स्याद् श्रीमत्सुधर्मगणभृत्प्रमुख नतोऽस्मि, विशेषणमर्थवत्' ल०। आ० म०।०। तं सूरिसङ्घमनघं स्वगुरूंश्च भक्त्या // 2 // विसेसणविसिस्सभाव-पुं०(विशेषणविशेष्यभाव) व्यावर्त्यव्यावर्त- आवश्यकप्रतिनिबद्धगभीरभाष्यकत्वे, आ० म०१ अ०। पीयूषजन्मजलधिर्गुणरत्नराशिः। विसेसणाण-न०(विशेषज्ञान) आत्मनो गुणदोषाधिरोहलक्षणस्य ख्यातःक्षमाश्रमणतागुणतः क्षितौ यः, विशेषस्य ज्ञाने, यथा-"प्रत्यहं प्रत्यवेक्षेत, नरश्चरितमात्मनः। किं नुमे सोऽयं गणिर्विजयते जिनभद्रनामा // 3 // पशुभिस्तुल्यं, किन्नु सत्पुरुषैरिति॥१॥" ध० 1 अधि०। यस्याः प्रसादपरिवर्धितशुद्धबोधाः, विसेसण्णु-पुं०(विशेषज्ञ) विशेषं जानातीति विशेषज्ञः / यथावस्थि पारं व्रजन्ति सुधियः श्रुततोयराशेः। तगुणदोषविवेचनसहे, दर्श०२ तत्त्व। अपक्षपातित्वेन गुणदोषविशेषा सानुग्रहा मयि समीहितसिद्धयेऽस्तु, विशेषवेदिनि, ध०१ अधि० तदितरवस्तुविभागवेदिनि अविशेषज्ञस्तु सर्वज्ञशासनरता श्रुतदेवताऽसौ // 4 // दोषानपि गुणत्वेन गुणानपि दोषत्वेनाध्यवस्यति। प्रव० 236 द्वार। इह चरणकरणक्रियाकलापतरमूलकल्पं सामायिकादिषडध्ययसाम्प्रतं विशेषज्ञ इतिषोडशं गुणं प्रचिकटयिषुराह नात्मकश्रुतस्कन्धरूपमावश्यकं तावदर्थतस्तीर्थकरैः, सूत्रतस्तु वत्थूणं गुणदोसे, लक्खेइ अपक्खवायभावेण। गणधरैर्विरचितम्।अस्य चातीव गम्भीरार्थतांसकल-साधुश्रावकवर्गस्य पारण विसेसण्णू, उत्तमधम्मारिहो तेण॥२३॥ नित्योपयोगितां च विज्ञाय चतुर्दशपूर्वधरेण श्रीमद्भद्रबाहुस्वामिनैतद्वस्तूनां द्रव्याणां सचेतनाऽचेतनानां धर्माऽधर्महेतूनां वा गुणान् दोषांश्च व्याख्यानरूपा "आभिणिबोहिअनाणं, सुयनाणं चेव ओहिनाणं च" लक्षयति-जानात्यपक्षपातभावेन-माध्यस्थ्य-सुस्थचेतस्तया पक्ष- इत्यादि प्रसिद्धग्रन्थरूपा नियुक्तिः कृता / तन्मध्ये च सामायिकाध्यपातयुक्तो हि दोषानपि गुणान् गुणानपि दोषानध्यवस्यति समर्थयति च। यननियुक्तिं विशेषत एवा-तिबहुविचारदुर्विज्ञेयार्थामतिशयोपकारिणी उक्तञ्च- "आग्रही वत निनीषति युक्तिं, तत्र यत्र मतिरस्य निविष्टा। चावगम्य केवलामृतरसस्यन्दिवाग्विलासैः श्रीमञ्जिनभद्रगणिक्षमापक्षपातरहितस्य तु युक्ति-यंत्र तत्र मतिरेति निवेशम् // 1 // " अतः श्रमण-पूज्यैस्तदर्थव्याख्याऽऽतमकमेव 'कयपवयणप्पणामो' इत्यादिप्रायेण बाहुल्येन विशेषज्ञः सारेतरवेदी उततमधार्हः प्रधानधर्मोचितो गाथासमूहस्वरूपं भाष्यमकारि। तस्य च यद्यपि श्रीजिनभद्रगणिक्षमाभवति। सुबुद्धिमन्त्रिवदिति। ध० 201 अधि०१६ गुण। (तवृत्तम्- श्रमणपूज्यैः, श्रीकोट्याचार्यश्च वृत्तिर्विहिता वर्त्तते,तथाऽप्यतिगम्भीरवा'सुबुद्धि' शब्दे वक्ष्यते।) वस्त्व-वस्तुविभागवेदिनि, बृ०४ उ०। क्यात्मकत्वात् किंचित्संक्षेपरूपत्वाचदुःषमानुभावतः प्रज्ञादिभिरपजाणाति जो विसेस, हिताहितादीण सो विसेसण्णू। चीयमानानां किमपि विस्तराभिधानरुचीनां शिष्याणां नाऽसौ तथाण वि होति णिव्विसेसो,समचंदणलोद्धिचिक्खल्लो। विधोपकारं सांप्रतमाधातुं क्षमाः, इति विचिन्त्य मुत्कलतरवाक्यपं०भा०१कल्प। विशेषं जानातीति विशेषज्ञः। आचार्यः विशेषं जानीते प्रबन्धरूपा किमपि विस्तरवती च मन्दमतिनाऽपि मया मन्दतममतिअनुवर्तविशेष वा। पं० चू०१ कल्प। शिष्यावबोधार्थ, श्रुताभ्याससंपादनार्थ च वृत्तिरियमारभ्यते। विशे०। विसेसपूया स्त्री०(विशेषपूजा) धर्माचार्यादितद्विशेषार्चनायाम, पञ्चा०८ अथ प्रकृतोपसंहासर्थमात्मनः औद्धत्यपरिहारार्थं च श्रीजिनभद्रगणिविव०। क्षमाश्रमणपूज्याः प्राहुःविसेसपूयापुष्व-न०(विशेषपूजापूर्व) प्राक्तनदिनापेक्षया विशिष्टत- इय परिसमापियमियं, सामाइयमत्थओ समासेण। रार्चनपुरः सरे, पञ्चा०८ विव०। वित्थरओ केवलिणो, पुष्वविओवा पहासंति॥३६०२।। विसेसबुद्धि-स्त्री०(विशेष्यबुद्धि) विशेष्यताक्रान्तबुद्धौ, नागृहीत- इत्युक्त प्रकारेण सर्वणापि भाष्येणावश्यक ग्रन्थस्य प्रथममविशेषणाविशेष्यबुद्धिरिति वचनात्। स्या० / ध्ययन सामायिकं समासेन-संक्षेपेणार्थतः परिसमापित
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________________ विसेसावस्सय 1266 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विसेसावस्सय संक्षेपेणास्यार्थः कथितः, संक्षेपभैणनमात्रशक्तिकत्वान्मम। विस्तरतस्त्वशेषविस्तरेणातिगम्भीरार्थत्वादिदं केवलिनः पूर्वविदो वा प्रभाषन्त इति // 3602 // अथैतद्भाष्यं श्रुत्वा विनेयानां यदिहैव फलं भवति तदुपदर्शनार्थमाहसवाणुओगमूलं, भासं सामाइअस्स सोऊण। होइ परिकम्मिअमई,जोग्गो सेसाणुओगस्स॥३६०३|| | इदं च सर्वानुयोगमूलं--सर्वानुयोगकारणं सामायिकस्य भाष्यंविवरणं श्रुत्वा-निशम्यैतत्परिकर्मितमतिः सन् विनेयः शेषशास्त्रानुयोगस्य योग्यः-कुशलः क्षमो भवति / इति चतवारिंशदाथार्थः // 3603 / / पूर्व चाध्यवसानपर्यन्तव्याख्यातगाथानाम् // 2803 / / उभयं व्याख्यातभाष्यगाथानाम्॥३६०३|| शेषाणितु चतुर्दशाधिकसप्तशतान्यतिदेशेनैव गतानि, न तु व्याख्यातानि, इति नेह गणितानि, इत्येषा शिष्यहिता नाम विशेषावश्यकवृत्तिः समाप्ता / इह गम्भीरापारजन्मजरामरणसलिलसंचयसंपूर्णे अनवरतभ्राम्यन्महामोहावर्तभीमे विविधविस्त्रोतसिका-वेलाव्यतिकरदुरतिक्रमे निःसंख्यकुविकल्पकल्लोलमालाकुले, प्रसरदज्ञानमहामेघदुर्दिनान्धकारनिकुरम्बभीषणे अनेकापद्विद्युन्निपातसंपादितमहाभये रागद्वेषदुर्वातसंततिसंजनितहृदयोत्कम्पे अविश्रान्तसंज्वलितक्रोधातिरौद्रवडवामुखे अमानमानशैलस्खलनदुर्गी कृतगमागमव्यतिकरे मायावल्लीवितानगुप्यत्सत्त्वसंघाते विभवसलिलातिदुष्पूरलोभमहोदरे विविधव्याधिसंबन्धमत्स्यकच्छपपृष्ठपृच्छच्छटाटोपग्राहनक्रादिप्रचुरजलचरसंचरणसंजनितविषमसंचारे शारीरमानसानन्तदुःखप्रदापारसंसारवारांनिधौ मां निमग्नं विकलं निःशरणं दीनमवलोक्य कोऽपि करुणापरीतमानसः सद्गुणगुरुमहापुरुषः सम्यग्दर्शनातिदृढमहाप्रतिष्ठानमष्टादशशीलाङ्ग सहस्रविचित्रफलकनिविड्यटनाविराजितंसम्यग्ज्ञाननिर्यामकान्वितंसुसाधुसंसर्गकार्थसूत्रनिबिडबन्धनबद्धं संवरकीलप्रभग्ननिःशेषास्रवद्वारं सूत्रितसामायिकच्छेदोपस्थानीयभेदभिन्नरम्यभूमिकाद्वयं तदुपर्युपकल्पितसाधुसमाचारकरणरणमण्डपं समन्ततोगुप्तित्रयप्रस्खरागुप्तम्, असंख्यशुभाध्यवसायसंनद्धदुर्योधयोधसहस्रदुरवलोकं, सर्वतो निवेशितसद्गुरूपदेशावल्लिकनिकुरम्बं मध्यव्यवस्थापितस्थिरतरातिसरलसदोधकूपस्तम्भंतद्विन्यस्तप्रकृष्टशुभभावमयमहासितपटतदग्रसमारूढप्रौढसदुपयोगपञ्जरदौवारिकं तदवबद्धाप्रमादनगरनिकरसमायुक्तमित्यादिसर्वाङ्गसंपूर्णतया प्रवणं चारित्रमयं महायानपात्रं समर्पयामास, भणितवांश्चभो महाभाग! समधिरोह त्वमस्मिन्यानपात्रे। समारूढश्चात्र मदीयशिक्षां कुर्वाणस्त्वमक्षेपेणैव दुस्तरमप्यमुंभवजलधिमुत्तीर्य प्राप्स्यसि निःशेषदुःखातिक्रान्तमनन्तसुखमयं शिवरत्नद्वीपम्। ततश्च तद्वचनेनाश्वासितोऽहमारूढस्तत्र, समर्पितं च मम तेन महापुरुषेण सद्भावनामञ्जूषायां प्रक्षिप्य शुभमनोनामकं महारत्नम्।अभिहितं च मां प्रति रक्षणीयमिदं प्रयत्नतो भद्र ! तिष्ठति ह्यस्मिन् महाप्रभावे शुभमनोरत्नेएतद्यानपात्रम्, यथोक्तो निर्यामकः, कूपस्तम्भः, योधाः, पञ्चर- 1 दौवारिकं सर्व क्रमेणावतिष्ठमानमभीष्टदेशं त्वां प्रापयति, एतदभावे तु सर्वमतत् प्रलयमुपयाति / अत एव तव पृष्ठतः सर्वादरेणैतदपहरणार्थ लगिष्यन्ति ते मोहराजादयो दुष्टतस्काराः, तेभ्यश्च त्वयेदमित्थं रक्षणीयम् / सद्भावनामञ्जूषाङ्गानां चाग्रतो नानाभङ्गसंभवेऽन्यान्यमूनि च तदङ्गानितस्यां निवेशनीयानि। इत्यादिशिक्षा प्रयच्छन्मयाऽपि समं दूरदेशं गत्वा ततोऽन्तर्हितः संजातः। श्रुतश्चायं सर्वोऽपिव्यतिकरः प्रमादपरताभिधानां महापल्लीं समाश्रितेन दुष्टतस्कराधिपतिना मोहराजेन। ततो 'रे रेतस्कराधमाः ! हता वयम्, यतः केनाप्यस्मद्वैरिणा निजयानपात्रमारोप्यास्मदविषयभूतं शिवरत्नद्वीपं नेतुमारब्धः सोऽमुकसंसारिजीवः, सचन केवलंचलितः, किन्त्वन्यानपि यथादर्शमात्मना सहाऽनेकान् नयन् तिष्ठति / तद् 'यावदेतदस्मदीयसंसार नाटकं सर्वशून्यं न करोति तावद् धावत धावत' इति ब्रुवाणः ससंभ्रममुत्थाय महादुष्टो दुर्बुद्धिनामिका महानावमारूढः कुवासनाभिधाननौवृन्दादिरूढाशेषतस्करनिकरसहित एव प्रधावितः सत्वरम्। समागतश्च यानपात्रदेशम्। ततः पूत्कृतं पञ्चरदौवारिकेणभो भोः ! समायाता एतास्तास्तस्करचेटिकाः, प्रगुणीभवत यूयम / तदेतत् श्रुत्वा निर्यामकोत्साहितास्तदुपदिष्टविधिनैव रणमण्डपमारूढाः सञ्जीभूताश्चारित्रधर्मनृपतिसैन्येन सह पूर्वोक्तरूपायोधाः / गृहीतानिच सर्वैरपि पञ्जरदौवारिकादिभिर्यथोचित जीवादितत्त्वचिन्तनादिरूपाणि नाराचादिप्रहरणानि / मोहराजेनापि निरूपितो मिथ्यादर्शनमन्त्री, उत्साहिताः कषायचरटाः, तर्जितं हास्यादिषट्कलुण्टाकवृन्दम्, पुरस्कृतः पुरुषवेदादिपरिवृतकाममहातस्करः व्यापारिता निद्रातन्द्रादयः, प्रेरिताश्चक्षुर्दर्शनावरणादयः, अग्रेसरीकृतं रोगाद्यसातवेदीनयसैन्यम्, प्रवर्तिता जराऽन्तरायादयः, स्वयमपि च निजतनयरागकेसरिद्वेषगजेन्द्रादितलवर्गान्वितेन मोहचरटाधिपेन वेष्टितं समन्ततोऽनन्तगुणपरिपाट्या यानपात्रम्। प्रहर्तुमारब्धं चाक्षेपेण सर्वैरपि समकालम्। ततश्च सदागमसेनाधिपोत्साहितेन सम्यग्दर्शनमन्त्रिणा समाक्षिप्तो.मिथ्यादर्शमन्त्री, प्रथम-मार्दवाऽऽर्जवादिमहायोधैरपिलीलयैव निरुद्धाः क्रोधादिकषायचरटाः, वैराग्यब्रह्मव्रतादिमहासुभटैरपि दूरमुत्त्रासितो हास्यादिनिजतलवर्गानुगतः काममहालुण्टाकः / अप्रमादमहारथिनाऽपि श्रुतोपयोगोद्यमादिनाराचैस्ताडिताः शिरसि निन्द्रातन्द्रादयः, तदावरणक्षयोपशमवीरेणाप्यधरीकृताश्चक्षुर्दर्शनावरणादयः, सद्धर्मानुष्ठानोद्दीपितसातोदयसैनिकेनापि विलक्षीकृतं रागाद्यसातवेदनीयसैन्यम्, पुण्योदयमहाबलराजपुत्रेणापि निष्प्रभावीकृता जराऽन्तरायादयः / एवमन्येषामप्यनन्तानां चारित्र-धर्मराजसैनिकानां निजनिजप्रतिपक्षेण सह महासमरसम्मः प्रवृत्ते निजसैन्यं किञ्चिद् नश्यमानमवलोक्य 'रे रे तस्कराधमाः ! किमेतदारब्धम्, स्थिरीभूय लगत लगत सर्वात्मना' इति ब्रुवाणो मोहचरट- चक्रवर्ती ससैन्य एवारब्धो युगपत् प्रहर्तुम् / केचित् त्वतीव छलघानितो मोहसैनिकाः केनापि पक्षण समारोहन्ति तद् यानपात्रम्, विप्रतारयितुमुपक्रमन्तेमाम, प्रविशन्तिरणमण्डपस्यान्तः,प्रहरन्ति छन्नीभूताः,समाहत्य जर्जरयन्तिसद्भावनामञ्जूषाङ्गानि।ततोमया तस्य परमपुरुषस्योपदे
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________________ विसेसावस्सय 1267 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विसोदण्णय - शं श्रुत्वा विरचय्य झटिति निवेशितमावश्यकटिप्पनिकाभिधानं सदावनामञ्जूषायां नूतनफलकम्, ततोऽपरमपि शतकविवरणनामकम्, अन्यदप्यनुयोगद्वारवृत्ति संज्ञितम् / ततोऽपरमप्युपदेशमालासूत्राभिधानम्, अपरं तु तद्वृत्तिनामकम्, अन्यच जीवसमासविवरणनामधेयम्, अन्यत्तु भवभावनासूत्रसंक्षिप्तम्, अपरं तु तद्विवरणनामकम्, अन्यच्च झटिति विरचय्य तस्याः सद्भावनामञ्जूषाया अङ्गभूतं निवेशितं नन्दिटिप्पनकनामधेयं नूतनदृढफलकम् / एतैश्च नूतनफलकैर्निवेशितैर्वजमयीव सजाताऽसौ मञ्जूषा, तेषां पापानामगम्या। ततस्तैरतीवच्छलघातितया सञ्चूर्णयितुमारब्धं तद्द्वारकपाटसम्पुटम्। ततो मया ससंभ्रमेण निपुणं तत्प्रतिविधानोपायं चिन्तयित्वा विरचयितुमारब्धं तवारपिधानहेतोर्विशेषावश्यकविवरणाभिधानं वज्रमयमिव नूतनकपाटसम्पुटम् / ततश्चाभयकुमारगणिधनदेवगणि जिनभद्रगणिलक्ष्मणगणि-विबुधचन्द्रादिमुनिवृन्द-श्रीमहानन्द--श्रीमहत्तरावीरमतिगणिन्यादिसाहाय्याद् 'रे रे निश्चितमिदानी हता वयम्, यद्येतद् निष्पद्यते, ततो धावत धावत, गृह्णीत गृह्णीत, लगत लगत, 'इत्यादि पूत्कुर्वतां सर्वात्मशक्त्या युगपत् प्रहरता हा हारखं कुर्वतांच मोहादिचरटानां चिरात् कथं कथमपि विरचय्य तद्वारे निवेशितमेतदिति। ततः शिरो हृदयं च हस्ताभ्यां कुट्टयन विषण्णो मोहमहाचरटः, समस्तमपि विलक्षीभूतं तत्सैन्यम्, विलीनं च सनायकमेव / ततः क्वचित् क्षेमेण शिवरत्नदीपं प्रतिगन्तुं प्रवृत्तं तद्यानपात्रमिति। "क्क श्रीजिनभद्रगणेः, पूज्यस्यैतानि भाष्यवचनानि / तर्कव्यतिकरदुर्गा---ण्यतिगम्भीराणि ललितानि // 1 // विवृतानि स्वयमेव हि, कोट्याचार्यश्च बुधजनप्रवरैः। सङ्गच्छते व पुनरपि, ममापि वृत्तेः प्रयासोऽत्र / / 2 / / ऋजुभणितिमिच्छतामिह, तथापि मत्तोऽपि मन्दबुद्धीनाम् / उपकारः केषाञ्चित्, समीक्ष्यते शिष्टलोकानाम् / / 3 / / तेनात्मपरोपकृति, संभाव्य मयाऽपि भाष्यवृत्तिरियम्। विहिता श्रुतेऽतिभक्तिं, शुभं विनोदं च चिन्तयता // 4 // यचेह किमपि वितथं, लिखितमनाभोगतः कुबोधाद्वा। तत् सर्वं मध्यस्थै-मैय्यनुकम्पापरैः शोध्यम्॥५॥ कृत्वा च विवरणमिदं, यत् पुण्यमुपार्जितं मया किञ्चित्। तेनाभवक्षयाद--स्तु जिनमते प्रीत्यविच्छेदः // 6 // " ग्रन्थाग्रं प्रत्यक्षरंगणनया सहस्राणि (28000) . श्रीमत्तपोगॅणगगना-गणगगनमणिप्रभैः स्वपुण्यार्थम्। विजयानन्दमुनीन्द्र-श्वित्कोशेऽसौ प्रतिमुमुचे॥१॥" विशेषावश्यकप्रशस्तिः"श्रीप्रश्नवाहनकुलाम्बुनिधिप्रसूतः, क्षोणीतलप्रथितकीर्तिरुदीर्णशास्त्रः / विश्वप्रसाधितविकल्पितवस्तुरुच्चैश्छायाश्रितप्रचुरनिर्वृतभव्यजन्तुः // 13 // ज्ञानादिकुसुमनिचितः,फलितः श्रीमन्मुनीन्द्रफलवृन्दैः। कल्पद्रुम इव गच्छः, श्रीहर्षपुरीयनामाऽस्ति // 2 // एतस्मिन् गुणरत्नरोहणगिरिगाम्भीर्यपाथोनिधितुङ्गत्वानुकृतक्षमाधरपतिः साम्यत्वतारापतिः। सम्यग्ज्ञानविशुद्धसंयमतपः स्वाचारचर्यानिधिः, शान्तः श्रीजयसिंहसूरिरभवद् निःसङ्गचूडामणिः / / 3 / / रत्नाकरादिवैतस्माद, शिष्यरत्नं बभूव तत्। स वागीशोऽपि नो मन्ये, यगुणग्रहणे प्रभुः // 4 // श्रीवीरदेवविबुधैः, सन्मन्त्राद्यतिशयप्रवरतौयैः। द्रुम इव यः संसिक्तः, कस्तद्गुणकीर्तने विबुधः?||५|| तथाहिआज्ञा यस्य नरेश्वरैरपि शिरस्यारोप्यते सादरं, यं दृष्ट्वाऽपि मुदं व्रजन्ति परमं प्रायोऽतिदुष्टा अपि। यद्वक्त्राम्बुनिधिर्यदुज्ज्वलवचः पीयूषपानोद्यतैगीवणिरपि दुग्धसिन्धुमथने तृप्तिने लेभे जनैः॥६॥ कृत्वा येन तपः सदुश्चरतरं विश्वं प्रबोध्य प्रभोस्तीर्थं सर्वविदः प्रभावितमिदं तैस्तैः स्वकीयैगुणैः। शुक्लीकुर्वदशेषविश्वकुहरं भव्यैः स्तुतं सस्पृहं, यस्याशास्वनिवारितं विचरति श्वेतांशुगौरं यशः / / 7 / / यमुना प्रवाहविमल-श्रीमन्मुनिचन्द्रसूरिसम्पर्कात्। अमरसरितेव सकलं, पवित्रितं येन भुवनतलम्।।८।। विस्फूर्जत् कलिकालदुस्तरतमः सन्तानलुप्तस्थितिः, सूर्येणेव विवेकभूधरशिरस्यासाद्य येनोदयम्। सम्यग्ज्ञानकरैश्चिरन्तनमुनिक्षण्णः समुयोतितो, मार्गः सोऽभयदेवसूरिरभवद् तेभ्यः प्रसिद्धो भुवि॥६॥ तच्छिष्यलवप्रायै-रगीतार्थेरपि शिष्टजनतुष्ट्यै। श्रीहेमचन्द्रसूरिभि-रियमनुरचिता प्रकृतवृत्तिः // 10 // शरदां च पञ्चसप्त-त्यधिकैकादशशतेष्वतीतेषु // 1175 // कार्तिकसितपञ्चम्यां, श्रीमजयसिंहनृपराज्ये // 11 // विशे०॥ विसोग-त्रि०(विशोक) विगतशोके, उत्त० 320 अ०। आचा०। विसोगा-स्त्री०(विशोका) योगजसिद्धिभेदे, द्वा० 26 द्वा०। (विशोका सिद्धिः 'केवलि' शब्देतृतीयभागे 668 पृष्ठे व्याख्याता।) विसोत्तिया-स्त्री०(विस्रोतसिका) इन्द्रियैर्मनसा संयमस्थानप्लावने, व्य० ६उ०ास्त्र्यादिरूपसन्दर्शनस्मरणापध्यानकचवरनिरोधतः ज्ञानश्रद्धाजलोज्झनेन संयमशस्यशोषफलायां चित्तविक्रयायाम, दश०५ अ०१ उ० / आचा० / विशे०। विश्रोतसिका द्विधा-द्रव्यतो, भावतश्च / तत्र द्रव्यतः सारिणीपनीयं वहमानम्। भावतः--यया तणदिकचवरस्थानीयया चित्तविप्लुत्या निरुद्धे सति चारित्रस्य विनाशो जायते सा विश्रोतसिकेत्युच्यते / बृ०१ उ०३ प्रक० / आ० चू० / शङ्कायाम, -- आचा०१ श्रु०१ अ०३ उ०। विसोदण्णय-पुं०(वृषोदन्वत) विधिकृतमात्रप्रतिमापूजाप्ररूपके, प्रति०। वृषोदन्वदनुसारिणो मतमुपन्यस्य दूषयतिवन्द्याऽस्तु प्रतिमा तथापि विधिना सा कारिता मृग्यते, स प्रायो विरलस्तथा च सकलं स्यादिन्द्रजालोपमम्। हन्तवं यतिधर्मपौषधमुख श्राद्धक्रियादेर्विधेदौर्लभ्येन तदस्ति किं तवन यत् स्यादिन्द्रजालोपमम्॥६८| प्रति०। ('चेझ्य' शब्दे तृतीयभागे 1243 पृष्ठसोपपत्तिकं व्याख्यातम् / )
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________________ विसोहइत्ता 1268 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विसोहि विसोहइत्ता-अव्य०(विशोध्य) अपनीयेत्यर्थे, सूत्र०१ श्रु०६ अ०१ विसोहण-न०(विशोधन) त्यजने, आचा०२ श्रु० 1 चू०३ अ०३ उ० / अपगमने, आचा०२ श्रु०३ चूत बहुशः शोधने, स्था० 5 ठा०२ उ०। व्रतानां पुनर्नवीकरणे, ज्ञा०१श्रु०१६ अ० अतिचारकलङ्कस्य शुभभावजलेन शोधने, स्था० 8 ठा० 3 उ० / निर्मलत्वाधाने, स० 137 सम०। (कायस्य विशोधनम् परकिरिया' शब्दे पञ्चमभागे 515 पृष्ठे उक्तम्।) विसोहणा-स्त्री०(विशोधना) प्रमार्जनायाम्, स्था०६ ठा०३ उ०। विसोहि-स्त्री०(विशोधि) पिण्डचरणादीनां निर्दोषतायाम्, स्था०३ ठा० 4 उ० / कर्भमलिनस्यात्मनो विशुद्धिहेतुत्वाद् विशोधिः / विशे० / आवश्यके, अनु० / प्रतिक्रमणे, आ० च० 4 अ०। पडिक्कमणं ति वा 1, पडियरणं ति वा 2, परिणं ति वा 3, वारणं ति वा ४,णियत्ती ति वा 5, निंदंति वा 6, गरिहंति वा 7, विसोहि त्ति वा / एतेसिं एगट्ठियाणं इमाणि अट्ट उदाहरणाणि-(आ० चू० 4 अ०1) विशोधिपर्यायोदाहरणानि-तत्थपडिक्कमणे अद्धाणदिद्रुतो-जहा एगो राया गयरबाहिं पासायं काउकामो सोभणै दिणे सुत्ताणि पाडियाणि, रक्खगा णिउत्ता, भणिया य-जइ कोइ इत्थ पविसिज्ज सो मारेयव्यो, जइ पुण ताणि चेव पयाणि अक्कमंतो पडिओसरइ सो मोयटयो / तओ तेसिं रक्खगाण वक्खित्तचित्ताणं कालहया दो गामिल्लया पुरिसा पविठ्ठा, तेणाइदूरं गया रक्खगेहिं दिडा, उक्करिसियखग्गेहिय संलत्ता-हादासा ! कहिं एत्थ पविट्ठा ? तत्थे गो काकट्ठो भणइ-को एत्थ दोसो त्ति इओ तओ पहाविओ, सो तेहिं तत्थेवमारिओ। बितिओ भीओतेसु चेव पएसु चेव ठिओ भणइ-सामि! अयाणतो अहं पविट्ठो, माम मारेह, जं भणइतं करेमि त्ति / तेहिं भण्णइ-जइ अण्णओ अणकमंतो तेहिं चेव पएहिं, पडिओसरसि तओ मुच्चसि / सो भीओ परेण जत्तेण तेहिं चेव पएहिं पडिनियत्तो, सो मुक्को / इह लोइयाणं भोगाणं आभागी जाओ, इयरो चुक्यो / एतं दव्वपडिक्कमणं / भावे दिद्रुतस्स उवणओ-रायत्थाणीएहिं तित्थयरेहिं पासायत्थाणीओ संजमो रक्खियव्यो त्ति आणत्तं, सो य, गामिल्लगत्थाणीएण एगेण साहुणा अइक्कमिओ, सो रागद्दोसरक्खगऽऽब्भाहओ सुचिरं कालं संसारे जाइयव्वमरियव्वाणि पाविहिति / जो पुण किह वि पमाएण असंजमं गओ तओ पडिनियत्तो अपुणक्करणाए, पडिकभए सो णिव्वाणभागी भवइ। पडिक्कमणे अद्धाणदिलुतो गतो॥१॥ (आव०) (प्रतिचरणाया उदाहरणम् 'पडियरणा' शब्दे पञ्चमभागे 336 पृष्ठे गतम्।) इयाणिं परिहरणाए दुद्धकाएण दिलुतो भण्णइ दुद्धकाओ नाम दुद्धघडगस्स कादोडी / एगो कुलपुत्तो, तस्स दुवे भगिणीओ अण्णगामेस वसंति। तस्स धूया जाया, भगिणीण पुत्ता तेसु वयपत्तेसु ताओदोवि भगिणीओतस्स समगंचेव वरियाओ आगयाओ। सो भणइदुहं अत्थीणं कयरं पियं करेमि ? वच्चेह पुत्ते पेसह, जो खेयण्णो तस्स दाहामि त्ति, गामाओ, पेसिया / तेण तेसिं दोण्ह विधडगा समप्पिया, वचह गोउलाओ दुद्धं आणेह / ते कावोडीओ गहाय गआ। ते दुद्धघडए भरिऊण कावोडीओ गहाय पडिनियत्ता / तत्थ दोषिण पंथा--एगो परिहारेण सो च समो, बितिओ उज्जुएण, सो पुण विसमखाणुकंटगबहुलो। तेसिंएगो उज्जुएण पट्ठिओ, तस्स पक्खलियस्स एगोधडो भिण्णो, तेण पडतेण बिइओ वि भिण्णो। सो विरिकाओ गओ माउलगसगासं। बिइओ समेण पंथेण सणियं सणियं आगओ अक्खुडियाए दुद्धकावोडीए, एयस्स तुट्ठो। इयरो भणिओ-न मए भणियं को चिरेण लहुं वा एहि त्ति, मएभणियं-दुद्धंआणेह त्ति, जेण आणीयं तस्स दिण्णा, इयरो धाडिओ। एसा दव्वपरिहरणा। भावे दिटुंतस्स उवणओकुलपुत्तत्थीएहि तित्थगरेहि आणत्तं, दुद्धत्थणीयं चारित्तं, अविराहतेहिं कण्णगत्थाणीया सिद्धी पावियव्व त्ति, गोउलत्थाणीओ मणुसभवो, तओ चस्तिस्स मग्गो उज्जुओ जिणकप्पियाणा ते भगवंतो संघयणधिइसंपण्णा, दव्वखित्तकालभावावइविसमं पि उस्सग्गेणं वचंति, वंको थेरकप्पियाण, स उस्सग्गाववायओऽसमो मग्गो, जो अजोग्गो जिणकप्पस्सतं मगंपडिवज्जइ सो दुद्धधङ ट्ठाणीयं चारित्तं विराहिऊण कण्णगत्थाणीयाए सिद्धीए अणाभागी भवइ, जो पुण गीयत्थो दव्वखित्तकालभावावईसु जयणाए जयइ सो संजमं अविराधित्ता अचिरेण सिद्धिं पावेइ 3 / (आव०) (वारणाया दृष्टान्तः 'वारणा' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 1068 पृष्ठे गतः।) इयाणिं णियत्तीए दोण्हं कण्णयाणं, पढमाए कोलियकण्णाए दिलुतो कीरइ-एगम्भि णयरे कोलिओ, तस्स सालाए धुत्ता वसंति। तत्थेगोधुत्तो महुरेण सरेण गायइ, तस्स कोलियस्स धूया तेण समं संपलग्गा। तेणं भण्णइ-मस्सामोजाव ण णज्जामु त्ति / सा भणइमम वयंसिया रायकण्णगा, तीए समं संगारो जहा दोहि वि एकभजाहि होयव्वं ति। तोऽहं तीए विणा ण वचामि। सो भणइ-सा वि आणजउ। तीए कहियं, पडिस्सुयं च कण्णाए, पहाविया मढल्लए पचूसे / तत्थ केण वि उग्गीयं-- ("जइ फुल्ला कणियारया चूयय!'' इत्यादिगाथा 'चूय' शब्दे तृतीयभागे 1204 पृष्ठे सव्याख्या गता।) एवं च सोउं रायकण्णा चिंतेइ-एस चूओ वसंतेण उवालद्धो जइ कणियारो रुक्खाण अंतिमो पुप्फिओ ततो तव किं पुप्फिएण उत्तिमस्स? ण तुमे अहियमासघोसणा सुया ? अहो ! सुछ भणियं-जइ कोलिगिणी एवं करेइतो किंमए विकायव्वं ? रयणकरंडओ वीसरिउत्ति एएण छलेण पडिनियत्ता। तदिवसं च सामंतरायपुत्तो दाइयविप्परद्धोतं रायाणं सरणमुवगओ। रण्णा य से सा दिण्णा इट्ठा जाया। तेण ससुरसमग्गेण दाइए णिजिऊण रज्जं लद्धं / सा से महादेवी जाय। एसा दव्वणियत्ती। भावणियत्तीए दिलुतस्स उवणओ-कण्णगत्थाणीया साहू, धुत्तत्थाणीएसु विसएसु आसज्जमाणा गीतत्थाणीएण आयरिएण जे समणुसिट्ठा णियत्ता ते सुगइं गया, इयरे दुग्णई गया। बितियं उदाहरणं दव्वभावणियत्तणे- एगम्मि गच्छे एगो तरुणो गहणधारणासमत्थो त्ति काउंतं आयरिया वट्टाविंति। अण्णया सो असुहकम्मोदएणपडिगच्छामि त्ति पहाविओ, णिग्गच्छंतो य गीतं सुणेइ / तेण मंगलनिमित्तं उव
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________________ विसोहि 1266 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विसोहि ओगो दिन्नो / तत्थ य तरुणा सूरजुवाणा इमं साहिणियं गायंति"तरियव्वा य पइण्णा, मरियव्वं वा समरें समत्थेणं। असरिसजणउल्लावा, न हु सहियव्या कुलप्पसूएणं // 1 // " अस्या अक्षरगमनिका-तरितव्या वा-निर्वोढय्या वा प्रतिज्ञा मर्तव्यं वा समरे समर्थेन, असदृशजनोल्लापा नैव सोढव्याः कुले प्रसूतेन। तथा केनचिन्महात्मनैतत्संवाद्युक्तम् -'लज्जां गुणौधजननी जननीमिवाऽऽमित्यन्तशुद्धहृदयामनुवर्तमानाः। तेजस्विनः सुखमसूनपि सन्त्यजन्ति, सत्यस्थितिव्यसनिनो न पुनः प्रतिज्ञाम् / / 1 / / '' गीतियाए भावत्थोजहा केइ लद्धजसा सामिसंमाणिया सुभडारणे पहारओ विरया भज्जमाणा एगेण सपक्खजसावलंबिणा अप्फालियाण सोहिस्सह पडिप्पहरा गच्छमाण त्ति / तं सोउं पडिनियत्ता, ते य पट्ठिया पडिया पराणीए, भग्गं च, तेहिं पराणीयं, सम्माणियाय पहुणा, पच्छा सुभडवायं सोभंति वहमाणा। एतं गीयत्थं सोउं तस्स साहुणो चिंता जाया- एमेव संगामत्थाणीया पध्वजा जइ तओ पराभज्जामि तो असरिसजणेण हीलिस्सामि-एस समणगो पच्चोगलिओ त्ति, पडिनियत्तो आलोइयपडिक्कतेण आयरियाण इच्छा पडिपूरिया 5 / इयाणिं जिंदाए दोण्हं कण्णगाणं बिइया कण्णगा चित्तकरदारिया उदाहरणं कीरइ- एगम्मि णयरे राया, अण्णेसिं रायाणं चित्तसभा अत्थि मम णत्थि त्ति जाणिऊण महइमहालियं चित्तसभंकारेऊण चित्तकरसेणीए समप्पेह। ते चित्तेन्ति। तत्यंगस्स चित्तगरस्स धूया भत्तं आणेइ, राया य रायमग्गेण आसेण वेगप्पमुक्केण एइ। सा भीया पलाया किहमवि फिडिया गया पिया वि से ताहे सरीरचिंताए गओ, तीए तत्थ कोट्टिमे दण्णएहिं मोरपिच्छं लिहियं। राया वि तत्थेव एगागिओ चंकमणियाओ करेति / सा वि अण्णचित्तेण अच्छइ / रण्णो तत्थ दिट्ठी गया, गिण्हामि त्ति हत्थो पसारिओ, णट्ठा दुक्खाविया, तीए हसियं, भणियं च रण्णाए-तिहिं पाएहिं आसंदओण ठाइ जाव चउत्थं पायं मग्गंतीए तुम सिलद्धो। राया पुच्छइ-किह त्ति ? सा भण्णइ-अहं च पिउणोभत्तं आणेमि, एगो य पुरिसो रायमगे आसेण वेगप्पमुक्केण एइ, ण से विण्णाणं किह वि कंचि मारिजामि त्ति / तत्थाहं सएहिं पुण्णेहिं जीविया, एस एगो पाओ। बिइओ, पाओ राया, तेण चित्तकरणं चित्तसभा विरिक्का, तत्थ इक्किक्के कुटुंबे बहुआ चित्तकरा मम पिया इक्कओ, तस्स वि तत्तिओ चेव भागो दिनो / तइओ पाओ मम पिया, तेपा राउलियं चित्तसभं चित्तंतेण पुध्वविद्वत्तं णिट्ठवियं, संपइ जो वा सो वा आहारो सोय सीयलो केरिसो होइ ? तो आणीए सरीरचिंताए जाइ। राया भणइ-अहं किह चउत्थो पाओ ? सा भणइ-सव्वो विताव चिंतेइ-कुतो इत्थ आगमो मोराणं ? जइ वि ताव आणित्तिल्लयं होज्ज तो वि ताव दिट्ठीए णिरिक्खिज्जइ, सो भणइ-सचयं मुक्खो, राया राओ। पिउणा जिमिए सा घरं गता। रण्णा वरगा पेसिया, तीए पिया माथा भणिया-देह ममं ति, भण्णइय अम्हे दरिदाणि किह रण्णो सपरिवारस्स पूयं काहामो ? दव्यस्स से रण्णा घरं भरियं, दासी य रण्णाए सिक्खाविया ममं रयणं संवाहिती अक्खाणयं पुच्छिज्जासि, जाहेराया सोउकामो, जा सामिणि ! राया पवट्टइ किंचि ताव अक्खाणयं कहेहि, भणइ, कहेमि-एगस्स धूया, अलंधणिज्जाय जुगवं तिन्नि वरगा आगया, दक्खिण्णेणं मातिभातिपितीहिं तिण्ह वि दिण्णा, जणताओ आगयाओ। साय रत्तिं अहिणा खझ्या मया, एगो तीए समंदड्डो, एगो अणसणं वइहो, एगेण देवो आराहिओ / तेण संजीवणर्णा मंतो दिण्णो, उज्जीवाविया, ते तिणि वि उवट्ठिया, कस्स दायव्दा ? किं सक्का एका दोण्हं तिण्हं वा दाउं? तो अक्खाह ति, भणइ-निद्दाइया सुवामि, कल्लं कहेहामि। तस्स अक्खाणयस्स कोउहल्लेणं बितियदिवसे तीसे चेव वारो आणत्तो, ताहे सा पुणो पुच्छइ / भणइ-जेण उजियाविया सो पिया, जेण समं उज्जीवाविया सो भाया, जो अणसणं वइड्रो तस्सदायव्व त्ति। सा भणइअण्णं कहे हि / सा भणइ-एगस्स रण्णो सुवण्णकारा भूमिघरे मणिरयणकउज्जोया अणिग्गच्छता अंतेउरस्स आभरणगाणि घडाविजंति। एगो भणइ-काउण वेला वट्टइ ? एगोभणइ-रत्ती वट्टइ, सो कह जाणइ ? जो ण चंदं ण सूरं पिच्छइ, तो अक्खाहि / सा भणइ-णिवाइया, बितियदिणे कहेइ-सो रत्तिं अंधत्तणेण जाणइ / अण्णं अक्खाहि त्ति, भणइ-एगो राया तस्स दुवे चोरा उवट्ठिया, तेण मंजूसाए पक्खिविऊण समुद्दे छूढा, ते कियचिरस्स वि उच्छल्लिया, एगेण दिवा मंजूसा, गहिया, विहाडिया, मणुस्से पेच्छइ। ताहे पुच्छिया-क इत्थो दिवसो छूढाणं ? एगो भणइ चउत्थो दिवसो, सो कहं जाणइ ? तहेव बीयदिणे कहैइतस्स चाउत्थजरो तेण जाणेइ / अण्णं कहेइ-दो सवत्तिणीओ, एक्काए रयणाणि अत्थि, सा इयरीए ण विस्संभइ मा हरेज्जा, तओऽण्णाए जत्थ णिक्खमंती पविसंती य पिच्छइ तत्थ घडए छोटूण ठवियाणि, ओलित्तो घडओ। इयरीए विरहं णाउं हरिउंरयणाणि, तहेवयघडओ ओलित्तो। इयरीए णायं हरियाणि त्ति, तो कहं जाणइ, ओलित्तए हरिताणि त्ति ? बिइए दिवसे भणइसोकायमओघडओ, तत्थताणि पडिभासंति हरिएसु णत्थि / अण्णं कहेहि, भणइ-एगस्स रण्णो चत्तारि पुरिसरयणाणि तं जहा-"नेमित्ती रहकारो, सहस्सजोही तहेव विज्जो य। दिण्णा चउण्हं कण्हा, परिणीया नवरमेक्केण // 1 // " कथं ? तस्स रण्णो अइसुंदरा धूया, सा केण वि विज्जाहरण हडा, ण णज्जइ कूओऽवि पिक्खिया, रण भणियं-जो कण्णगं आणेइ तस्सेव सा। तओ णेमित्तिएण कहियं अमुगं दिसं णीया, रहकारेण आगासगमणो रहो कओ, तओ चत्तारि वि तं विलम्गिऊण पहाविया। अम्मि(भि) ओ विजाहरो, सहस्सजोहिणा सो मारिओ, तेण वि मारिजंतेण दारियाए सीसं छिन्नं, विजेण संजीवणोसहीहिं उजियाविया, आणीया घरं / रण्णा चउण्ह वि दिण्णा / दारिया भणइ-किह अहं चउण्ह वि होमि? तो अहं अगिं पविसामि, जो मए समं पविसइतस्साह, एवं होउत्ति, तीएसमको अम्गि पविसइ? कस्सदायव्या?
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________________ विसोहि १२७०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विसोहि बितियदिणे भणइ-णिमित्तिणा णिमित्तेण णायं जहा एसा ण मरइ त्ति पुरओठाइस्संति ? तीए चिंतियं-मारेमि एयं अज्झाक्यंतो मे एस भत्ता तेण अब्भुवयं / इयरेहिं णिच्छियं, दारियाए चियट्ठाणस्स हेट्ठा सुरंगा भविस्सइ त्ति मारिओ / पेडियाए छुभेऊण अडवीए उज्झिउमारद्धा, खाणिया। तत्थ ताणि चियगाणुरूपणाणि कट्ठाणि दिण्णाणि / अग्गी वाणमंतरीए थंमिया अडवीए भमितुमारद्धा, छुहं ण सक्केइ अहियासिउं, रइओ जाहे ताहे ताणि सुरंगाए णिस्सिरियाणि, तस्स दिण्णा / अण्णं तंच से कुणिमं गलति उवरिं, लोगेण हीलिज्जइ-पइमारिया हिंडइ ति। कहेहि, साभणइ-एकाए अविरइयाए पगरणं जंतिआए कङगा मग्गिया, . तीसे पुणरावत्ती जाया, ताहे सा भणइ-देह अम्मो ! पइमारियाए भिक्खं ताहे रूवहिं बंधएण दिन्ना, इयरीए धूयाए आबिद्धा, वत्ते पगरणे ण चेव ति, एवं बहुकालोगओ। अण्णयासाहुणीणं पाएसुपडतीसुपडिया पेडिया, अल्लिवेइ / एवं कइवयाणि वरिसाणि गयाणि, कडइत्तएहिं मग्गि-या। पव्वइया। एवं गरहियव्यंजंदुचरियं७।इयाणिं सोहीए वत्थागया दोण्णि सा भणइ-देमि त्ति, जाव दारिया महती भूया ण सक्केति अवणेउं, ताहे दिटुंता, तत्थ वत्थदिटुंतो-रायगिहे सेणिओ राया, तेण खोमजुगलं ताए कडहत्तिया भणिया अण्णे विरूपए देमि, मुयह, ते णेच्छंति। तो किं णिल्लेवगस्स समप्पियं, कोमुदियवारो य वट्टइ, तेण दोण्हं भजाणं सक्षा हत्था छिंदिउं? ताहे भणियं-अण्णे एरिसए चेव कडए घडावेउं अणुचरतेण दिण्णं, सेणिओ अभओय कोमुदीए पच्छण्णं हिंडति, दिलु, देमो, तेऽवि णिच्छन्ति,तेचेवदायव्वा, कहं संठवेयव्वा? जहायदारियाए तंबोलेण सित्तं, आगयाओ, रयगेण अंबाडियाओ, तेण खारेण सोहियाणि हत्था ण छिंदिनति, कहं तेसिमुत्तरंदायव्वं ? आह तीए भणियव्वा अम्ह गोसे आणावियाणि। सब्भावं पुच्छिएण कहियं रयएण। एस दव्वविसोही। विजइ तेचेव रूवए देह तो अम्हे विचेव कडए देमो, एरिसाणि अक्खाण- एवंसाहुणा वि अहीणकालमायरियस्स आलोएयव्यं, तेण विसोही कायव्व गाणि कहेंतीए दिवसे दिवसे राया छम्मासे आणीओ। सवत्तिणीओ से त्ति, अगओ जहा णमोक्कारे, एवं साहुणाऽविणिंदाऽगएण अतिचारविसं छिद्याणि मग्गंति, सा य चित्तकरदारिया ओवरयं पविसिऊण एगाणिया ओसारेयव्वं, एसा विसुद्धी।" उक्तान्येकार्थिकानि / आव० 4 अ०। चिराणए मणियए चीराणि यपुरओ काउं अप्पाणं जिंदइ, तुम चित्तयरधूया प्रायश्चित्ते, व्य०१उ०। विशेषेण शोधिर्विशोधिः ! शिष्येणालोचितेऽपराधे सिया, एयाणि ते पितिसंतियाणि वत्थाणि आभरणाणि य, इमा सिरी सति, तद्योग्यप्रायश्चित्तप्रदाने, ओघ०। रायसिरी, अण्णाओ उदिओदियकुलवंसप्पसूयाओ रायधूयाओ मोत्तुं उद्गमादिभिर्दोषैरविद्यमानतया वा विशुद्धिः-पिण्डचरणादीनां निर्दोषता राया तुम अणुवत्तइ ता गव्वं मा काहिसि, एवं दिवसे दिवसे दारं ढक्केउं सा उद्रमादिविशुद्धिः, उद्गमादीनां वा विशुद्धिर्यासा तथेति। इदमेवातिकरेइ। सवित्तीहिं से कह वि णायं, ताओ रायाणं पायपडियाओ दिशन्नाहविण्णविंति–मारिजिहिसि एयाए कम्मणकारियाए। एसा अपवरए पविसिउं कम्मणं करेति, रण्णा जोइयं सुयं च। तुट्टेण से महादेविपट्टो तिविहा विसोही पन्नत्ता, तं जहा-उग्गमविसोही उप्पायणबद्धो, एसा दव्वणिंदा / भावणिंदाए साहुणा अप्पा जिंदियव्वो-जीव ! विसोही एसणाविसोही। (सू०१९४४) स्था०३ ठा० उ०। तुमे संसारं हिंडते णं निरयतिरियगईसुं कहमवि माणुसत्ते सम्मत्त- पंचविहा विसोही पण्णत्ता, तंजहा-उग्गमविसोही 1, उप्पायणाणचरित्ताणि लद्धाणि, जेसिं पसाएण सव्वलोयमाणणिज्जो पूयणिज्जो णविसोही सएसणाविसोही३, परिकम्मविसोही ,परिहरणय ता मा गव्वं काहिसि / जहा अहं बहुस्सुओ उत्तिमचरित्तो व त्ति 6 / वसोही (सू०४२५४) स्था०५ठा०२ उ०॥ दव्वगरिहाए पइमारियाए दिट्ठतो- एगो मरुओ अज्झावओ, तस्सतरुणी दसविहा विसोही पन्नत्ता, तं जहा-उग्गमविसोही उप्पायमहिला, सा बलिवइसंदेवं करिती भणइ-अहं काकाणं बिभेमित्ति तओ णविसोही० जाव सारक्खणविसोही। (सू०७३८४) स्था०१० उवज्झायनिउत्ता वट्टा दिवसे दिवसेधणुगेहिंगहिएहिं रक्खंति, बलिवइ ठा०३ उ०। सदेवं करेंति / तत्थेगो वट्टो चिंतेइ ण एसा मुद्धा जा कागाण बिभेइ, असतिया एसा, सोतं पडिचरइ। सायणम्मदाए परफूले पिंडारो, तेण तत्रोद्रमादिविशुद्धिः 1-2- भक्तादेर्निरवद्यता, 'जाव' त्ति करणात् समं संपलग्गिया। अण्णयातं घडएणं णम्मयं तरंती पिंडारसगासं वचइ। 'एसणे' 3 त्यादि वाच्यमित्यर्थः, तत्र परिकर्मणावसत्यादिसारचोरा य उत्तरंति, तेसिमेगो सुसुमारेण गहिओ, सो रडइ, तीए भण्णइ- वणलक्षणेन क्रियमाणेन विशुद्धिर्या संयमस्य सा परिकर्मविशुद्धिः / / अच्छि ढोक्केहि त्ति, ढोक्किए मुक्को / तीए भणिओ-किं इत्थ कुतित्थेण परिहरणया-वस्त्रादेः शास्त्रीययाऽसेवनया विशुद्धिः परिहरणाविसुद्धिः उत्तिण्णा ? सो खंडिओ तं मुर्णितो चेव णियत्तो / सा य बितियदिवसे 5, ज्ञानादित्रयविशुद्धयस्तदाचारपरिपालनातः 6-7-8, अचियत्तस्यबलिं करेइ, तस्स य वट्टस्स रक्खणवारओ, तेण भण्णइ- "दिया अप्रीतिकस्य विशोधिस्तन्निवर्तनादचियत्तविशोधिः 6, संरक्षणं संयमाकागाण बीहेसि, रत्तिं तरसि णम्मयं / कुतित्थाणि य जाणासि, अच्छि र्थम् उपध्यादेस्तेन विशुद्धिश्चारित्रस्येति संरक्षणविशुद्धिः 10, अथवोद्गढोक्किणियाणि य॥१॥" तीए भण्णइ किं करेमि ? तुम्हारिसा मे णिच्छंति, माधुपाधिका दशप्रकाराऽपीयं चेतसो विशुद्धिर्विशुद्ध्यमानता भणितेति। सा तं उवयरइ भणइ-ममं इच्छसुत्ति / सो भाइ-कहं उवज्झायस्स स्था० १०ठा०३ उ01
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________________ विसोहिकरण 1271 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विस्सोअसिआ विसोहिकरण-न०(विशोधिकरण) अतिचारापगभादात्मनो नैर्मल्य- पूरयति कचित्कदाचिदुत्पत्त्या सर्वजगद्व्यापनेनेति विश्वभृत् / जीवे, करणे, ध०२ अधिo एकैकेन जीवेन विश्वस्मिन्ननेकशो भ्रान्तत्वात्, उक्तं च- "णत्थि किर विसोहिकोडि-स्त्री०(विशोधिकोटि) अल्पतरदोषदुष्टायामुद्द्रमादि सो पएसो, लोए बालग्गकोडिमेत्तोऽवि। जम्मणमरणं वाहा, जत्थ जिएहिं दोषकोटी, दश०५ अ०१ उ० / नि० चू०। नसंपत्ता" उत्त०३ उ०। विसोहिहाण-न०(विशोधिस्थान) कर्ममलापनयनस्थाने, दश० अ० विस्सकप्पलया स्वी०(विश्वकल्पलता) फलवर्द्धिकास्थाने पार्श्वनाथ१०। प्रतिमायाम्, ती० 43 कल्प। विसोहित्तए-अव्य०(विशोधयितुम्) उच्चारादिखरण्टितोपकरणादेः विस्सकम्म-पुं०(विश्वकर्मन्) देवत्वष्टरि ऋषभदेवस्य चतुर्थे पुत्रे, कल्प० प्रक्षालनं कर्तुमित्यर्थः स्था०२ ठा०१ उ० पूयाद्यपनेतुमित्यर्थे, विपा० १अधि०७ क्षण। स्वनामख्याते नटभेदे, पिं०1 1 श्रु०८ अ०॥ विस्सगय-पुं०(विश्वगज) कुक्कुटेश्वरतीर्थेपार्श्वनाथप्रतिमायाम, ती०४३ कल्प। विसोहिय-त्रि०(विशोधित) विविधमनेकप्रकारं शोधितो विशोधितः / कुमार्गप्ररूपणापनयनद्वारेण निर्दोषतां नीते, सूत्र०१ श्रु०१४ अ०। विस्सतिलग-पुं०(विश्वतिलक) चम्पायां वासुपूज्यजिन-प्रतिमायाम्, ती०४३ कल्प। विशोध्य--अव्य० अपनीयेत्यर्थे, आचा०२ श्रु०१चू०१ उ०। | विस्समूह-स्त्री०(विश्वभूति) वीरजिनसत्कषोडशभवीयजीवविश्वविसोहिया--स्त्री०(विशोधिका) विशुद्धिकारिण्याम, सूत्र०१ श्रु०३ अ० नन्दिभ्रातृविशाखनन्दियुवराजपुत्रे, कल्प०१ अधि०२क्षण / ती०। ३उ०। आ० म०। आ० चू०। ('मरीई' शब्दे 6 भागे विशेषः) विसोहेमाण-त्रि०(विशोधयत्) पादादिलग्रस्य निरवयवत्वं कुर्वति, विस्सर-त्रि०(विस्वर) विकृतशब्दे, प्रश्न०१आश्रद्वार। विरूपशब्दशौचभावेन शोधयति, स्या०! स्वरूपे, ज्ञा०१श्रु०६ अ01 विस्स-त्रि०(विश्व) सर्वशब्दार्थे, स्था०१०ठा०३ उ०। षो०। ऋषभ- विस्सरूव-त्रि०(विश्वरूप) नानाविधे, विशे०। देवस्य षट्सप्ततितमे७६ पुत्रे, कल्प०१ अधि०७क्षण। स्वनाम-ख्याते विस्सवत्थु-न०(विश्ववस्तु) कालत्रयवर्तिसामान्यविशेषात्मकपदार्थे, देवगणे, पूर्वाषाढानक्षत्रस्य विश्वेदेवा देवताः / चं० प्र०१०पाहु। रत्ना०१परि०। अनु० ज०। विस्सवाइ-पुं०(विश्ववादिन) सर्ववादिनि, वीरजिनेन्द्रवादिनामन्यतमे, दो विस्सा। (सू०९०४) स्था०५ ठा०३ उ०। स्था०६ ठा०३ उ०। विस्सउर-न०(विश्वपुर) स्वनामख्याते नगरभेदे, अथ विश्वपुरे धरणेन्द्रो / विस्ससेण-पं०(विश्वसेन) ऋषभदेवस्यचतुःषष्टिमे पुत्रे, कल्प०१अधि० राजा महेन्द्रः पुत्रः। ग०२ अधि०॥ 7 क्षण / शान्तिनाथस्य पितरि, प्रव० 12 द्वार / जम्बूद्वीपे भरतक्षेत्रे विस्सओमुह-न०(विश्वतोमुख) प्रतिसूत्रं चरणानुयोगाद्यनुयोग- जातस्य पञ्चमचक्रवर्तिनः पितरि, स० / अहोरात्रस्यैकोनविंशतितमे चतुष्टयव्याख्याक्रमे, "धम्मो मंगलमुक्किट्ठ" मित्यादिश्लोके चत्वारोऽ- | मुहूर्ते, सू० प्र० 10 पाहु०।। नुयोगा व्याख्यायन्ते। अनन्तार्थत्वाद् वा अनेकमुखे, अनु० विशे०। विस्साणण-न०(विश्राणन) दाने, आ० म०१ अ01 आचा०। आ० म०। सर्वतोऽधिकृतार्थप्रयच्छके.बृ०१ उ०१प्रक०। विस्साम-पुं०(विश्राम) विश्रम्यते-विरम्यते गलमेतेषुः इति विश्रामाः। विस्संता-स्त्री०(विश्रान्ता) योगसमापत्तिभेदे, सा च निर्विचारसमाधि- प्रणिपातदण्डकादिसंपत्सु विश्रमणस्थानेषु, प्रव०१द्वार / चित्तस्यापर्यन्ते ग्राह्यसमापितरूपा। द्वा०२० द्वा०। श्वासने, स्था० 4 ठा०३ उ०। विस्संतिअतित्थ-न०(विश्रान्तिकतीर्थ) मथुरास्थतीर्थभेदे, ती०८ | विस्सामणा-स्त्री०(विश्रामणा) श्रमापनयनसंबाधनादिरूपायां (ध०२ कल्प। अधि०) शीतोदकादिना (नि० चू०३ उ०1) अगसंबाधनायाम्, प्रव० विस्संदण-न०(विस्यन्दन) कणिकानिष्पन्नद्रव्यविशेषे, ध०२ अधि०। / 38 द्वार। विस्संभ-पुं०(विश्रम्भ) विश्वासे, व्य०३ उ०। विस्सुय-त्रि०(विश्रुत) विख्याते, संघा०ा औ०। विस्सुयकित्तिय-त्रि०(विश्रुतकीर्तिक) प्रतीतख्यातिके, ज्ञा०१ श्रु० विस्संभघाइ-त्रि०(विश्रम्भघातिन) विश्वासघातके, ज्ञा०१श्रु०२ अ०। १अ० विस्संभण-न०(विश्रम्भण) विश्वासे, आचा० १श्रु०८ अ०६ उ०। विस्सुयजस-त्रि०(विश्रुतयशस्) ख्यातकीर्ती, ज्ञा०१श्रु०१०। प्रति०॥ विस्संभर-पुं०(विश्वम्भर) भुजपरिसर्पभेदे, सूत्र०२ श्रु०३ अ०।०।। | विस्सोअ(सि)स्सिआ-स्त्री०(विश्रोतसिका) संयमस्पर्शमङ्गीप्रज्ञा०। कृत्याध्यवसायसलिलस्य विश्रोतोगमने, श्रा० / प्रा०१ अपध्याने, दर्शक विस्संभिय-पुं०(विश्वभूत) बिन्दुरलाक्षणिकः विश्व-जगत् बिभर्ति- / 4 तत्त्व।
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________________ विस्सोअसिआर० 1272 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विहंगम विस्सोअ(सिस्सिआरहिय-त्रि०(विश्रोतसिकारहित) संयमानु सारिचेतोविघातवर्जिते, पं०व०३द्वार। विह-पुं०(विह) अनेकाहगमनीये पथि, आचा०२ श्रु०१ चू०३ अ०१ उ०। अध्यनि, नि० चू०१ उ० अटवीप्राये दीर्घ अध्वनि, आचा०२ श्रु०१चू०३ अ०३ उ०। विध न० विधीयते क्रियते कार्यजातमस्मिन्निति विधम्। आकाशे, भ०२० श०२ उ०। विहायस्-न० विशेषेण हीयते त्यज्यते तदिति विहायः / आकाशे, भ० 20 श०२ उ०। विहई-(देशी) वृन्ताक्याम, दे० ना० 7 वर्ग 63 गाथा। विहंगम-पुं०(विहङ्गम) विहायसा गच्छतीति विहङ्गमः। पक्षिणि, सूत्र०१ श्रु०३ अ०४ उ०। एमेए समणांदुत्ता, जे लोए संति साहुणो। विहंगमा व पुप्फेसु, दाणभत्तेसणे रया ||3|| ('धम्म' शब्दे चतुर्थभागे 2688 पृष्ठे व्याख्यातमिदंसूत्रम्।) अवयवार्थ सूत्रस्पर्शिकनियुक्त्या प्रतिपादयति-तत्रापि चविहङ्गमं व्याचष्ट-स द्विविधः-द्रव्यविहङ्गमो, भावविहंगमश्च तत्र तावद् द्रव्यविहङ्गमं प्रति पादयन्नाहधारेह तं तु दव्वं, तंदव्वविहामं वियाणाहि। भावे विहंगमो पुण, गुणसन्नासिद्धिओ दुविहो / / 117 / / धारयति-आत्मनि लीनं धत्ते तत्तु द्रव्यमित्यनेन पूर्वोपात्तं कर्म निर्दिशति, येन हेतुभूतेन विहंगमेषूत्पस्यत इति / तुशब्द एवकारार्थः। अस्थानप्रयुक्तश्च, एवं तु द्रष्टव्यः-धारयत्येव, अनेन च धारयत्येव यदा तदा द्रव्यविहङ्गमो भवति नोपभुङ्क्त इत्येतदावेदितं भवति, द्रव्यमिति, चात्र कर्मपुद्गलद्रव्यं गृह्यते, न पुनराकाशादि, तस्यामूर्तत्वेन धारणायोगात्, संसारिजीवस्य च कथंचिन्मूतत्वेऽपि प्रकृतानुपयोगित्वात् / तथाहि-यदसौ भवान्तरं नेतुमलं, यच विहङ्गमहेतुतां प्रतिपद्यते तदत्र प्रकृतम्, न चैवमन्यः संसारिजीव इति, तं द्रव्यविहंगममित्यत्र यत्तदोनित्याभिसंबन्धादन्यतरोपादानेनान्यतरपरिग्रहादयं वाक्यार्थ उपजायते-धारयत्येव तद् द्रव्यं यस्तं द्रव्यविहङ्गममिति। द्रव्यं च तद्विहङ्गमश्च स इति द्रव्यविहंगमः, द्रव्यं जीवद्रव्यमेव, विहंगमपर्यायेणाऽऽवर्तनाद, विहंगमस्तु कारणे कार्योपचारादिति। तं विजानीहि-अनेकैः प्रकारैरागमतो ज्ञाताऽनुपयुक्त इत्येवमादिभिर्जानीहि / दश०। (भावविहंगमव्याख्या 'भाव' शब्दे पञ्चमभागे 1460 पृष्ठे गता।) तस्मिन् भावे कर्मविपाकलक्षणे, किम् ?-विहङ्गमे-वक्ष्यमाणशब्दार्थः, पुनः शब्दो विशेषणे, न पूर्वस्मादत्यन्तमयमन्य एव जीवः, किंतु स एव जीवस्त एव पुद्गलास्तथाभूता इति विशेषयति, गुणश्च सज्ञांच गुणसंज्ञे, गुणः-अन्वर्थः संज्ञापारिभाषिकी ताभ्यां सिद्धिः गुणसंज्ञासिद्धिः, सिद्धिशब्दः सम्बन्धवाचकः, तथा च लोकेऽपि "सिद्धिर्भवतु"-इत्युक्ते इष्टार्थसम्बन्ध एव प्रतीयत इति, तया गुणसंज्ञासिद्ध्या हेतुभूतया, किम् ? - द्विविधोद्विप्रकारा, गुणसिद्ध्या-अन्वर्थसम्बन्धेन तथा संज्ञासिद्ध्या चयदृच्छाभिधानयोगेन च / आह- यद्येवं द्विविध इति न वक्तव्यम्, गुणसंज्ञासिद्ध्येत्यनेनैव द्वैविध्यस्य गतत्वात, न, अनेनैव प्रकारेणह द्वैविध्यम्, आगमनोआगमादिभेदेन नेति ज्ञापनार्थमिति गाथार्थः / / 117|| तत्र 'यथोद्देशं निर्देश' इति न्यायमाश्रित्य गुणसिद्ध्या यो भावविहङ्गमस्तमभिधित्सुराहविहमागासं भण्णइ, गुणसिद्धी तप्पइडिओ लोगो। तेण उ विहामो सो, भावत्थो वा गई दुविहा॥११८|| विजहाति-विमुञ्चति जीवपुदलानिति विहं, ते हि स्थितिक्षयात्स्वयमेव तेभ्यः-- आकाशप्रदेशेभ्यश्च्यवन्ते, तांश्च्यवमानान्विमुञ्चतीति, शरीरमपि च मलगण्डोलकादिविमुञ्चत्येव (इति) मा भूत् संदेह इत्यत आह-आकाशं भण्यते, न शरीरादि संज्ञाशब्दत्वात्, आकाशन्तेदीप्यन्ते स्वधर्मोपेता आत्मादयो यत्र तदाकाशम, किम् ?- संतिष्ठत इत्यादि क्रियाव्यपोहार्थमाह-भण्यते-आख्यायते। गुणसिद्धिरित्येतत्पदं गाथाभङ्ग भयादस्थाने प्रयुक्तम्, संबन्धश्चास्य 'ते न तु विहंगमः 'स' इत्यत्र तेन स्वित्यनेन सह वेदितव्य इति। ततश्चायं धाक्यार्थः-तेन तुशब्दस्यैवकारार्थत्वेनावधारणार्थत्वाद्येन विहमाकाशं भण्यतें तेनैव कारणेन गुणसिद्ध्या- अन्वर्थसम्बन्धेन विहङ्गमः / कोऽभिधीयत ? इत्याह--तत्प्रतिष्ठितो लोकः, तदित्यनेनाकाशपरामर्शः, तस्मिन्नाकाशे प्रतिष्ठितः तत्प्रतिष्ठितः, प्रतिष्ठति स्म प्रतिष्ठितः-प्रकर्षेण स्थितवानित्यर्थः, अनेन स्थितः स्थास्यतिचेतिगम्यते। कोऽसावित्थमित्यत आहलोकः लोक्यत इति लोकः, केवलज्ञानभास्वता दृश्यत पदार्थः / इह धर्मादि पञ्चास्तिकायात्मकत्वेऽपि लोकस्याकाशास्ति-कायस्याधारत्वेन निर्दिष्टत्वाचत्वार एवास्तिकाय गृह्यन्ते, यते नियुक्तिकारेणाभ्यधायि-'तत्प्रतिष्ठितो लोकः' 'विहङ्गमः स' इत्यत्र विहेनभसि गतो गच्छति गमिष्यतिचेति विहङ्गमः, गमिरयमनेकार्थत्वाद्धातूनामवस्थाने वर्तते, ततश्च विहे स्थितवांस्तिष्ठति स्थास्यति चेति भावार्थः / स इति चतुरस्तिकायात्मकः, भावार्थ इति-भावश्चासावर्थश्य भावार्थः, अयं भावविहङ्गम इत्यर्थः / उक्त एकेन प्रकारेण भावविहङ्गमः, पुनरपि गुणसिद्धिमन्येन प्रकारेणाभिधातुकाम आह– 'वा गतिििवधेति,' वाशब्दस्य व्यवहित उपन्यासः, एवं तु द्रष्टव्यः-गतिर्वा द्विविधेति, तत्र गमनं गच्छति वाऽनयेति गतिः, द्वे विधे यस्याः सेयं द्विविधा, द्वैविध्यं वक्ष्यमाणलक्षणामिति गाथार्थः // 118|| तथा चेदमेव द्वैविध्यमुपदर्शयन्नाहभावगई कम्मगई, भावगई पप्प अत्थिकाया उ। सव्वे विहंगमा खलु, कम्मगईए इमे भेया॥११६।। भवन्ति भविष्यन्ति भूतवन्तश्चेति भावाः, अथवा-- भवन्त्येतेषु स्वगता उत्पादविगमध्रौव्याख्याः परिणामविशेषा इति भावाःअस्तिकायास्तेषां गतिः- तथा परिणामवृत्तिर्भावगतिः, तथा कर्मगतिरित्यत्र क्रियत इति कर्म-ज्ञानावरणादि पारिभाषिकम, क्रिया वा। कर्म च तद्रति चासौ कर्मगतिः, गमनं गच्छत्यसया वेति गतिः,
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________________ विहंगम 1273 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विहगगइणाम तत्र 'भावगति प्राप्त अस्तिकायास्तु' इति अत्र भावगतिः पूर्ववत्ता प्राप्त- स्यार्थे प्रयुक्तः, जीवा--उपयोगादिलक्षणाः ततश्चायं वाक्यार्थ:अभ्युपगम्याश्रित्य, किम् ? 'अस्तिकायास्तु' धर्मादयः, तुशब्द चलनकर्मगतिमेव प्रतीत्य संसारिणो भवेयुर्जीवा विहंगमा इति, विहं एवकारार्थः, स चावधारणे, तस्य च व्यवहितःप्रयोगः, भावगतिमेव प्राप्य गच्छन्ति चलन्ति सर्वैरात्मप्रदेशैरिति विहंगमाः। तथा 'पुद्गलद्रव्याणि नपुनः कर्मगति, सर्वे विहङ्गमाः खलु सर्वचत्वारः नाकाशमाधारत्वात्। वे' त्यादि, पूरणगलनधर्माणः पुद्गलाः, पुद्गलाश्च ते द्रव्याणि च तानि विहङ्गमाः इति-विहं गच्छन्त्यवतिष्ठन्ते स्वसत्ता विभ्रतीति विहङ्गमाः / पुद्रलद्रव्याणि, द्रव्यग्रहणं विप्रतिपत्तिनिरासार्थम, तथा चैते पुद्गलाः खलुशब्दोऽवधारणे, विहंगमा एव, न कदाचिन्न विहंगमा इति, कर्मगतेः- कैश्चिदद्रव्याः सन्तोऽभ्युपगम्यन्ते, 'सर्वे भावा निरात्मानः' इत्यादिवप्राग्निरूपितशब्दार्थायाः, किम् ? - इमौ भेदौ-वक्ष्यमाणलक्षणाविति चनाद्, अतः पुद्रलानां परमार्थसद्रूपताख्यापनार्थ द्रव्यग्रहणम्, वाशब्दो गाथार्थः / / 116 // विकल्पवाची, पुद्गलद्रव्याणि वा संसारिणो वा जीवा विहंगमा इति। तत्र जीवानधिकृत्यान्वर्थो निदर्शितः, पुद्गलास्तु विहं गच्छन्तीति विहंगमाः, तावेवोपदर्शयन्नाह तच गमनमेषां स्वतः परतश्च संभवति, अत्र स्वतः परिग्रह्यते, विहंगमा विहगगई चलणगई, कम्मगई उ य समासओ दुविहा। इति च प्राकृतशैल्या जीवापेक्षया वोक्तम्, अन्यथा द्रव्यपक्षे विहंगमानीति तदुदयवेययजीवा, विहंगमा पप्प विहगगई।१२०।। वक्तव्यम्, एष भावविहङ्गमः, कथम् ?-गुणसिद्ध्या-अन्वर्धसम्बन्धेन, इह गम्यतेऽनया नामकर्मान्तर्गतया प्रकृत्या प्राणिभिरिति गतिः, प्राकृतशैल्या वाऽन्यथोपन्यास इति गाथार्थः / / 121 / / विहायसि-आकाशे गतिर्विहायोगतिः, कर्मप्रकृतिरित्यर्थः, तथा एवं गुणसिद्ध्या भावविहङ्गमउक्तः, साम्प्रतं संज्ञासिद्ध्या अभिधातुकाम चलनगतिरिति, चलिरयं परिस्पन्दने वर्त्तते, चलनं स्पन्दनमित्येकोऽर्थः, आहचलनं च तद्गतिश्च सा चलनगतिः- गमनक्रियते भावः / कर्मगतिस्तु सन्नासिद्धिं पप्पा, विहंगमा होति पक्खिणो सवे (122) समासतो द्विविधेत्यत्र तुशब्द एवकारार्थः, स चावधारणे, कर्मगतिरेव द्विविधा न भावगतिः, तस्या एकरूपत्वेन व्याख्यातत्वात्, तत्र संज्ञानं संज्ञा नाम रूढिरिति पर्यायाः तया सिद्धिः संज्ञा सिद्धिः, 'तदुदयवेदकजीवा' इति / अत्र तदित्यनेनानन्तरनिर्दिष्टां विहायोगति संज्ञासंबन्ध इति यावत, तां संज्ञासिद्धिं प्राप्यआश्रित्य, किम् ?-विहे निर्दिशति, तस्या-- विहायोगतेः उदयस्तदुदयो विपाक इत्यर्थः, तथा गच्छन्तीति विहंगमा भवन्ति, के ? पक्षा येषां सन्ति ते पक्षिणः, सर्वे समस्ता हंसादयः, पुद्गलादीनां विहंगमत्वे सत्यप्यमीषामेव लोके प्रतीतवेदयन्ति-निर्जरयन्ति उपभुञ्जन्तीति वेदकाः तदुदयस्य वेदकाश्च ते त्वात्। दश०१ अ०। जीवाश्चेति समासः। आह-तदुदयवेदका जीया एव भवन्तीति विशेषणानर्थक्यम्, नजीवानां वेदकत्वावेदकत्वयोगेन सफलत्वात्, अवेदकाश्च विहग-पुं०(विहग) पक्षिणि, अनु० / व्य० / 0 / कल्प० / स्था०। रा०। सिद्धा इति / 'विहङ्गमाः प्राप्त विहायोगति' मिति अत्र विहे विहायोग "विहग इव सव्वओ विप्पमुक्को," विहग इव सर्वतो विप्रमुक्तः निष्परिग्रह तेरुदयादुद्गच्छन्तीति विहङ्गमाः, प्राप्त-आश्रित्य, किं प्राप्य ? इत्यर्थः / प्रश्न०५ संव० द्वार। विहायोगतिम्-विहायोगतिरुक्ता तां, विपर्यस्तान्यक्षराण्येवंतु द्रष्टव्यानि- विहगगइ-स्त्री०(विहायोगति) गमनं गतिः सा पुनस्त्र पादादिविहरविहायोगतिं प्राप्य तदुदयवेदकजीवा विहंगमा इति गाथार्थः / / 120 / / णात्मिका देशान्तरप्राप्तिहेतुर्दीन्द्रियादीनां प्रवृत्तिरभिधीयते नैकेन्द्रिअधुना द्वितीयकर्मगतिभेदमधिकृत्याह याणां, पादादेरभावात् / कर्म० 1 कर्म० / विहासया-आकाशेन गतिविहायोगतिः / आकाशगमने, कर्म० 1 कर्म० / सा द्विधा-शुभा चलनं कम्मगई खलु, पडुच संसारिणो भवे जीवा। प्रशस्ता, अशुभा-अप्रशस्ता। क्रमेणोदाहरणमाह- 'वसुट्ट' त्ति वृषो, पोग्गलदव्वाई वा, विहंगमा एस गुणसिद्धी।।१२१।। वृषभः सौरभेयो बलीवर्द इति यावत् ततो वृषस्य उपलक्षणत्वाद्गजचलनं-स्पन्दनं, तेन कर्मगतिर्विशेष्यते, कथम् ?- चलनाख्या या कलभराजहंसादीनां प्रशस्ता विहायोगतिः, उष्ट्रः --करभः क्रमेलक इति कर्मगतिः सा चलनकर्मगतिः, एतदुक्तं भवति- कर्मशब्देन क्रियाऽ- यावत्ततः उष्ट्रस्य उपलक्षणत्वात् खरतिड्डादीनामप्रशस्ता विहायोगतिभिधीयते' सैव गतिशब्देन सैव चलनशब्देनचातत्र गतिविशेषणं क्रिया रितिश्कर्म०१ कर्म०। क्रियाविशेषणं चलनम्। कुतः? -व्यभिचाराद्, इह गतिस्तावन्नरका- | विहगगइणाम-न०(विहायोगतिनामन) विहायोगतिनिबन्धनं नामकर्म / दिका भवति अतः क्रियया विशेष्यते, क्रियाऽप्यनेकरूपा भोजनादिका नामकर्मभेदे, यतःशुभेतरगमनयुक्तोभवति।स०२सम०। कर्म०। विहासया ततश्चलनेन विशेष्यते, अतश्चलनाख्या कर्मगतिश्चलनकर्मगतिस्ताम्, गतिर्गमनं विहायोगतिः। ननुसर्वगतत्वाद्विहायसस्ततोऽन्यत्रगतिरेवनसंभवअनुस्वारोऽलाक्षणिकः, खलु शब्द एवकारार्थः, सचावधारणे, चलन- तीति किमर्थ विहासया विशेषणम् ? सत्यमेतत् किंतु यदिगतिरित्येवोच्येत कर्मगतिमेव, न विहायोगति, प्रतीत्य-आश्रित्य, किम् ? संसरणं-- तर्हि नाम्नः प्रथमप्रकृतिरपि गतिरस्तीति पौनरुक्त्याशङ्का स्यात्ततस्तसंसारः, संसरणं-ज्ञानावरणादिकर्मयुक्तानां गमनं, स एषामस्तीति व्यवच्छेदार्थं विहायसा विशेषणम्, विहायसा गतिः, न तु नारकत्वादिसंसारिणः, अनेन सिद्धानां व्युदासः, भवे इति-अयं शब्दो भवेयुरित्य- पर्यायपरिणतिरूपा गतिः विहायोगतिस्तन्निबन्धनं नाम विहायोगतिनाम,
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________________ विहगगइणाण 1275- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विहायस तत् द्विविध-प्रशस्तविहायोगतिनाम, अप्रशस्तविहायोगतिनाम / तत्र विहवण-न०(विधवन) विनाशे, ज्ञा० 1 श्रु०१०। यदुदयाजन्तोःप्रशस्ता विहायोगतिर्भवति, यथा हंसादीनांतत्प्रशस्त- विहवा-स्त्री०(विधवा) धवो मनुष्यः स विनष्टो यस्या इति समासः / विहायोगतिनाम, यदुदयात्पुनरप्रशस्ता विहायोगतिर्भवति यथा खरोष्ट्र- | ओघ० / मृतपतिकायां नार्याम्, व्य०३ उ०। ज्ञा० / महिषादीनां तदप्रशस्त-विहायोगतिनाम। कर्म०६ कर्म०। पं० सं०। ।निमिय विहसिय-न०(विहसित) अर्द्धहसितादौ, ज्ञा०१श्रु०६ अ०। विहगगइपव्वला-स्त्री०(विहगगतिप्रव्रज्या) पक्षिन्यायेन परिवारादि | विहसिविअ-(देशी) विकसिते, दे० ना०७वर्ग 61 गाथा। वियोगेनैकाकिनो देशान्तरगमनेनचया सा विहगगतिप्रव्रज्या। प्रव्रज्या विहा-स्त्री०(विधा) विधानं विधा / उपसर्गादातः // 5 // 3 / 110 / / इत्यङ्ग भेदे, स्था० 4 ठा०३ उ01 प्रत्ययः। नं०। विधाने, भेदे, विशे० प्रकारे, अनु०। सूत्र० / आचा०) विहण्ण-(देशी) पिञ्जने, दे० ना०७ वर्ग 63 गाथा। स्था० ज्ञा०। विहत्तु-अव्य०(विहत्य) नाशयित्वेत्यर्थे, 'अंदूसुपक्खी य विहत्तु देखें। विहाड-त्रि०(विघाट) विकटे, व्य०१ उ०। सूत्र०१ श्रु०५ अ०१ उ०। विहाडग-त्रि०(विघाटक) चूर्णके, सूत्र०१ श्रु०४ अ०१उ०। विहत्थि-स्त्री०(वितस्ति) “वितस्ति-वसति-भरत–कातर-मातुलिङ्गे विहाडजणपञ्जवासण-न०(विहाटजनपर्युपासन) विहाटयति दीप्यहः" / / 6 / 1 / 214|| इति तस्य हः। प्रा०। विस्तृताङ्गुलिहस्ते, सूत्र०१ मानाञ्छ्रोत्रबुद्धो प्रकाशमानानर्थान् दीपयति प्रकाशयतीति विहाटः / श्रु०५ अ०१ उ०।"वारस अंगुलाई विहत्थी" भ०६ श०७ उ०। विहाटश्चासौ जनश्चतुर्दशपूर्वविदादिलोकः, तस्य पर्युपासनम्- 'कारणे द्वादशाङ्गुलप्रमाणा वितस्तिः / प्रव० 254 द्वार / द्वादशाङ्गुलानि कार्योपचारात्' सेवाजनिततद्व्याख्यानम्। वह्नागमव्याख्याने, सम्म० वितस्तिः। द्वौ पादौ वितस्तिः / अनु० / जं०। ३काण्ड। विहम्ममाण-त्रि०(विहन्यमान) विविधं परीषहोपसर्गहेन्यमाने, आचा० विहाडण-(देशी) अनर्थे, दे० ना०७ वर्ग 71 गाथा। १श्रु०६ अ०५ उ01 विहाडिय-(देशी) विनाशिते, जी०१प्रतिका विहम्मेमाण-त्रि०(विधर्मयत्) स्वाचारभ्रष्टान् कुर्वति, विपा०१ श्रु०१ अ०॥ विहाण-न०(विधान) भेदे, आव० 4 अ०। प्रकारे, आव० 4 अ०। विशे०। विहय-त्रि०(विहत) विशेषतस्ताडिते, प्रश्न०१आश्र० द्वार। नि० चू०। पं०व०।आचा०प्रश्न०। सम्पादने, षो०६ विव० स्था० / विहरण-न०(विहरण) विचरणे, प्रश्न०४ आश्र० द्वार। क्रीडने, 'धातवो- विविक्तमितरव्यवच्छिन्नंधानं पोषणं स्वरूपस्य यत्तत्प्रतीत्य सामान्यऽर्थान्तरेऽपीति' विपूर्वो हरतिः क्रीडायाम्। प्रा०विजनत्वे, विपा०१ चिन्तामाश्रित्येति शेषः, कृष्णो नील इत्यादिप्रतिनियतो वर्णविशेष इति श्रु०६ अ०। यावत्। इतरव्यवच्छेदकतयाऽर्थपोषणे, जी०१ प्रति०। विहरंत-त्रि०(विहरत्) निष्प्रतिबन्धकत्वेनानियतं विचरति, उत्त०२ | विधि-प्रभातयोः, दे० ना० 7 वर्ग 60 गाथा। अ०। 'विहरंता वि य दुविहा, गच्छगया गच्छनिग्गया चेव' ओघ०। विहान-न० परित्यागे, स्था० 3 ठा०३ उ०। विहयपध्वजा-स्त्री०(विहतप्रव्रज्या) दारिद्रयादिभिररिभिर्वा विहतस्य विहाणग-न०(विधानक) स्वार्थे कः। भेदे, प्रश्न०१आश्र0 द्वार। प्रव्रज्यायाम्, स्था०४ ठा०४ उ०। विहाणाएस-पुं०(विधानादेश) भेदप्रकारे, भ० 25 श०४ उ० / विहरिअ-(देशी) सुरते, दे० ना०७ वर्ग 70 गाथा। समुदितानामप्येकैकस्यादेशने, भ०२५ श०३ उ०। विहरियव्व-त्रि०(विहर्तव्य) साधुना चरितव्ये, प्रश्न०३ संव० द्वार। विहाणु-न०(विभात) प्रातःकाले; "शीघ्रादीनां वहिल्लादयः" विहरेमाण-त्रि०(विहरत्) विहारेण ग्रामादिषु अवतिष्ठमाने, रा०। |4422 / / इति विभातस्थाने विहाणु इत्यादेशः। "ढोल्ला मइ तुह विहल-त्रि०(विफल) अप्राप्तेच्छितार्थे, प्रश्न०३ आश्र० द्वार। वारिआ, मा करु दीहामाणु। निद्वऍगमिही रत्तडी, दडवड होइ विहाणु।" प्रा०४पाद। विहल-त्रि० "क-ग-च-ज-त-द-प-य-वां प्रायो लुक्" // 81 / 177 / / इति क्लोपः। "रहोः / / 8 / 2 / 63 // इति हस्य द्वित्वं न। विहाय-अव्य०(विहाय) विमुच्येत्यर्थे, पञ्चा०६ विव०। त्यक्त्वेत्यर्थे, विभ्रान्ते, प्रा०२ पाद। सूत्र०१ श्रु०१४ अ०1 विहल्ल-पुं०(विहल्ल) मगधराजश्रेणिकस्य चेल्लणागर्भजे हल्ले नसह विहायम्-न० आकाशे, औ०। यमलजे पुत्रे, भ०७ श०३ उ० आव०। आ01 क आ० चू०। (सच | विहायगइ-स्त्री०(विहायोगति) स्पृशद्गत्यादिके गतिभेदे, भ० 8 श०७ वीरान्तिके प्रव्रज्य द्वादश वर्षाणि श्रामण्यं परिपाल्य मृत्वा विजये कल्पे उ० प्रव०। देवत्वेनोपपद्य महाविदेहे वर्षे सेत्स्यतीति अनुत्तरोपपातिकदशानां प्रथमे | विहायस-पुं०(विहायम्) मगधराजश्रेणिकमहाराजस्य चेल्लणावर्गे अष्टमेऽध्ययने सूचितम्।) देवीगर्भसम्भूते स्वनामख्याते राज्ञि, अणु०। (स च वीरान्ति
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________________ विहायस 1275 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विहार के प्रव्रज्य द्वादश वर्षाणि श्रामण्यं परिपाल्य विजये देवलोके उपपद्य | जिणकप्पितों गीयत्थो, परिहारविसुद्धितो वि गीयत्थो। महाविदेहे सेत्स्यतीत्यनुत्तरोपपातिकदशानां प्रथमे वर्गे षष्ठेऽध्ययने गीयत्थे इडिदुर्ग, सेसंगीयत्थनिस्साए॥२४॥ सूचितम्।) गीतार्था द्विविधास्तद्यथा--गच्छगता, गच्छनिर्गताश्च तत्र 'गच्छनिर्गता विहार-पुं०(विहार) विहरणं विहारः / मनुष्यत्वेनावस्थाने, उत्त० 14 इमे' जिनकल्पिको गीतार्थः, परिहारविशुद्धिकोऽपि गीतार्थः, अपि अ०। क्रीडायाम, स्था० 8 ठा०३ उ०। एकरात्रादिना विचित्रक्रीडायाम्, शब्दाद्यथालन्दकल्पिकः प्रतिमाप्रतिपन्नोऽपि च गीतार्थः, अमीषां प्रश्न०१ संव० द्वार। सूत्र०। स्था०। विचरणे, स्था०७ठा०३ उ०। विहारो गीतार्थः / गच्छवासे गीतार्थे गीतार्थविषये ऋद्धिद्विकम, तद्यथा मुनिचर्यायाम्, ग०१ अधि०।व्य०। मासकल्पादौ, आव०४ अ०। सूत्र०। आचार्य, उपाध्यायश्च / अथवा-आचार्यः शेष चतुष्टयम्- उपाध्याय(१) विहारनिक्षेपमाह प्रवृत्ति--स्थविर-गणावच्छेदिरूपमेतच द्विकं स्थाननियुक्तमिति। व्यवनामं ठवणा दविए, भावे य चउव्धिहो विहारो हो। ह्रियते स्वस्वव्यापारे तेषां नियुक्तत्वात, शेषाः सर्वे अनियुक्ताः। ते यदि विविहपगारेहि रयं, हरई जम्हा विहारो उ॥२१॥ गीतार्थाः, यदिवा-अगीतार्थाः सर्वैर्गीतार्थनिश्रया विहर्त्तव्यम्। अत्र पर आहनामविहारः, स्थापनाविहारः, द्रव्ये-द्रव्यनिमित्तं द्रव्यभूतो विहारो द्रव्यविहारः, भाव-भावविहारः, एवमेष विहारश्चतुर्विधो भवति / इह च चोएइ अगीयत्थे, किं कारण मो निसिज्झइ विहारो। नोआगमतो भावविहारेण गीतार्थेनाऽधिकारः, न शेषः, ततस्तमधिकृत्य सुण दिलुतो चोयग, सिद्धिकरं निण्हवे एसिं॥२५॥ व्युत्पत्ति माह-यस्माद्विविधैरनेकैः प्रकारै रजः-कर्म हरति तस्माद्विहार चोदयति- प्रश्नं करोति, अगीतार्थे अगीतार्थस्य किं कोरणं-- किं इत्युच्यते। विविधं ह्रियते रजः-कम्मनिनेति विहारः, अकर्तरिघमिति निमित्तं 'मो' इति पादपूरणे निषेध्यते विहारः ? सूरिराह-हे चोदक! व्युत्पत्तेः / सम्प्रति नामादिभेदा व्याख्येयाः। तत्र यस्य विहार इति नाम त्रयाणामप्येतेषां गीतार्थाऽगीतार्थनिश्रितानां सिद्धिकरं दृष्टान्तं शृणु। सनामविहारः। स्थापनाविहारश्चित्रकर्मण्यन्यत्र वा आलिख्य-मानः, तमेवाहस्थापनाविहारः। द्रव्यविहारो द्विधा-आगमतो, नोआगमतश्च। तत्रागमतो तिविहे संगिल्लम्मि, जाणते निस्सए अजाणते। विहारशब्दार्थज्ञाता तत्र चानुपयुक्तः / नोआगमतस्त्रिधाज्ञाशरीरभव्य- पाणंधि छित्तकरणे, अडविजले सावए तेणा // 26 // शरीरतद्व्य तिरिक्तभेदात्। तत्र ज्ञशरीरभव्यशरीरे प्राग्वत्। संगिल्लो नाम-गोसमुदायस्तस्मिन् क्षणीये त्रिविधो रक्षके दृष्टान्तः, तद्व्यतिरिक्तमाह तद्यथा-जानन् निश्रितोऽजानंश्च, एषोऽक्षरार्थः / भावार्थस्त्वयम्- "एगो आहारादीणट्ठा, जो उ विहारो अगीयपासत्थे। रक्खगो नगरस्स गावीणं, सो निजेहिं ओगासेहिं गावीतो जंतीएतीओय जो याऽवि अणुवउत्तो, विहरइ दवे विहारो उ॥२२॥ खेत्ताईणं अवरोहं न करेति / तेहिं ओगासेहिं नेइ आणेइ य। जत्थ य यो नाम आहारादीनामाहारोपधिप्रभृतीनामर्थायोत्पादनाय अगीता तेणाइभयं नऽत्थि तत्थ चारेइ / अन्नया दो पुरिसा गावीओ रक्खमि त्ति नाम्-अगीतार्थानां पार्श्वस्थानांच, गाथायां च समाहारद्वन्द्वः षष्ठीसप्त उवट्ठिया। अम्हे भइयाए गावो रक्खामो त्ति नागरगा चिंत्तन्ति-सोएगोन म्योरथं प्रत्यभेदाच सप्तम्या निर्देशः, तथा-योऽप्यनुपयुक्तः सन् विहरति तरइ सव्वनगरस्स गावीओरक्खिउं। तम्हा एए विनिजुजंतु त्ति भणिया-- एष सर्वोऽपिद्रव्यविहारः,आद्यो द्रव्यनिमित्तत्वात् द्रव्यविहारः। द्वितीयो रक्खह / तत्थ एगो तस्स पुराणस्स संखेडिपालस्स निस्साए गावीओ ऽनुपयुक्तत्वादिति उक्तो द्रव्यविहारः / भावविहारो द्विधाआगमतो, नेइ आणेइय। अजाणतोत्ति काउंतस्स मएणचंकमइ। बितिओ संखेडिनोआगमतश्चातत्राऽगमतो विहारशब्दार्थज्ञाता तत्र चोपयुक्तः, नोआग पालओ चिंतेति-अहमन्नस्स निस्साए न चारेमि सयमेव अहं रक्खिउं मतो भावविहारो द्विधा-गीतार्थो, निश्रितश्च / समत्थो / सो चारीओ एतो अजाणतो इमाणि ठाणाणि न याणाइ। 'पाणधी' ति देशीपदमेतत्वर्तनीवाचकम्। ततोऽयमर्थः क्षेत्रे क्षेत्रे क्षेत्रसतथा चाह ड्कुलेषु प्रदेशेषु नगरप्रदेशनिर्गमयोग्या वर्त्तन्यः क्षेत्रपाणंधयः तान्न जानाति, गीयत्थो य विहारो,बीओ गीयत्थनिस्सितो होइ। अजानश्चताभिर्गा नयति आनयति च यत्र क्षेत्रेषुशाल्यादय उप्तास्तिष्ठन्ति, एत्तो तइयविहारो, नाऽणुण्णातो जिणवरेहिं // 23 // गावश्च गच्छन्त्य आगच्छन्त्यश्च रक्ष्यमाणा अपि शाल्यादि चरन्ति / ततः विहारः प्रथमो भवति गीतार्थः-गीतार्थसाध्वात्मको, द्वितीयो गीतार्थ क्षेत्रस्वामिभिः क्षेत्रोपद्रवमूल्यं याच्यते। एवं करणेऽपि दोषावाच्याः। करणं निश्रितः-गीतार्थस्य निश्रा-संश्रयणं गीतार्थनिश्राः सा सजाताऽस्येति। नाम-राजकीयमन्यदीयं वा वीतम्। तथा 'अडवि' त्ति सो वराकोऽजानन् पाठान्तरं गीतार्थमिश्रित इति, तत्र गीतार्थसंयुक्त इति व्याख्येयम्। इतः गा-अटवीमपि प्रवेशयति, तत्र पुलिन्दादिभिर्गावो मार्यन्ते, तथा 'जले त्ति आभ्यां गीतार्थ- गीतार्थनिश्रिताभ्यामन्यस्तृतीयो विहारो नानुज्ञातो सोऽजानन् नद्यादिषु तत्र प्रदेशे गाः पाययति यत्र ग्राहादिभिर्जलचरैर्गाव जिनवरेन्द्रैः। आकृष्यन्ते 'सावए' ति स मूढोवराकस्तत्र प्रदेशे नयति यत्र व्याघ्रादयो (2) तत्र गीतार्थ गीतार्थनिश्रितं च विहारमाह दुष्टस्वापदास्तैश्चगाव उपद्रूयन्ते, 'तेणं' तितेषुचनिकुञादिषुनयतियत्र
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________________ विहार 1276 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विहार स्तेनानां प्रसरस्ततस्तेनास्ता अपहरन्ति, एवं सोऽजानन् गा विनाशयति / इतरस्तु जानन एतानि सर्वाण्यापत्स्थानानि परिहरति, योऽपि निश्रितस्तमपि परिहारयति, एष दृष्टान्तः। अयमर्थोपनयः-यो गीतार्थः स सर्वानपि दोषान् स्वयं परिहरति, यस्तु निश्रितस्तं परिहारयति। यः पुनः स्वयमगीतार्थो यश्च अगीतार्थनिश्रितस्तयोरात्मविराधना संयमविराधना च भवति। (3) तानेवात्मविराधनादिदोषान् विवक्षुरिगाथामाह - मग्गे सेहविहारे, मिच्छत्ते एसणादिविसमे य। सोही गिलाणमादी, तेणा दुविहा व तिविहा वा // 27 // मार्ग-मार्गविषये तथा शैक्षे-शैक्षकुलविषये एवं विहारे मिथ्यात्वे एषणाऽऽदौ विषमे शोधौ ग्लानादौ दोषाः, स्तेना द्विविधास्त्रिविधा वा ये भवन्तितेभ्योऽपि दोषा भवेयुः एष द्वारगाथासंक्षेपार्थः। साम्प्रतमेनामेव द्वारगाथां विवरीषुः प्रथमतो मार्गद्वारं शैक्षद्वारं चाहमग्गं सद्दव रीयइ, पाउस उम्मग्गगहणजयणाए। सेहकुलेसु य विहरइ, अणुयत्तति ण गाहेइ / / 28|| मार्ग --पन्थानं सेवते सोऽजानन् अगीतार्थः सन् द्रवचारितया रीयतेगच्छति। तत्र संयमविराधना कुन्थ्वादिसत्त्वो पमर्दनात्, आत्मविराधना पादादिविस्खलनात् / तथा अनयतया 'पाउस' त्ति प्रावृष्यपि काले गच्छति तत्राऽपि संयमविराधना आत्मविराधना च / तथा मार्गोन्मानिभिज्ञतया उन्मार्गेऽपि गच्छति, तत्र स्थाणुकण्ट कादिभिरात्मविराधना, सचित्तपृथिव्याधुपमर्दनात्संयमविराधना च / तथा ग्रहणशिक्षायाम, आसेवनाशिक्षायां वा अप्रवीणत्वात्, अयतनया वा गच्छेत् अयतनया च संयमात्मविराधना। गत मार्गद्वारम् / शैक्षद्वारमाह-'सेहे' त्यादिशैक्षकुलानि-अभिनवप्रपन्नव्रतानि तेष्वज्ञतया स विहरति-तेभ्यो यतनया भक्तपानादिकमुत्पादयतीति भावः। तथा नतानि अनुवर्त्तयति-- नानुवर्त्तनागुणतः वर्द्धमानतरधर्मश्रद्धाकानि करोति अनुवर्तनाया अपरिज्ञानात् / तथा न ग्राहयति तानि ग्रहणशिक्षामासेवनाशिक्षा वा श्रावकधम्मोचिताम् उभयोरपि शिक्षयोस्तस्याकुशलत्वात् / गतं शैक्षद्वारम्। अधुना विहारद्वारं मिथ्यात्वद्वारं चाहदस्सुदें से पच्चंते, वइयादिविहारपाणबहुले य। अप्पाणं च परं वा, न मुणइ मिच्छत्तसंकंतं // 29 // सोऽज्ञतया दस्युदेशे-चौरदेशे विहारं करोति, यदि वाप्रत्यन्ते-बहुले म्लेच्छाकुले, अथवा--लुब्धतया ब्रजिकादौ आदिशब्दात् -स्वज्ञातिकादिकुलपरिग्रहः, यदि वा-प्राणिबहुले जीवसंसक्ते देशे एतेषु यथायोगमात्मविराधना संयमविराधना च भूयसीति / गत विहारद्वारम्। अधुना मिथ्यात्वद्वारमाह- 'अप्पाणं चे' त्यादि, स वराकोऽजानन् आत्मानमपि कुप्ररूपणादिभिर्मिथ्यात्वशङ्कासंक्रान्तं न जानाति, नाऽपि परम्। ततः आत्मनः परस्य च मिथ्यात्वं प्रवर्द्धयतीत्युभयेयामपि संसारप्रवर्द्धकः / गतं मिथ्यात्वद्वारम्। अधुना एषणाद्वारमाहआहार उवहि सेज्जा, गुग्गमउप्पायणेसणकडिल्ले। लग्गइ अवियाणतो, दोसे एएसु सव्वेसुं॥३०॥ आहारो-भक्तपानादिरूपः, उपधिः-कल्पादिलक्षणः, शय्यावसतिः; एतेषां ग्रहणे इति गम्यते। किं विशिष्ट ? इत्याह- उगमेन-उद्गमदोषैः षोडशभिराधाकर्मप्रभृतिभिरुत्पादनया उत्पादनादोषेर्धात्र्यादिभिः षोडशभिरेषणया-गवेषणादिदोषैः शङ्कितम्रक्षितप्रभृतिभिः संयोजनाप्रमाणाङ्गारधूमैः काकशृगाला-दिभक्षितैश्च 'कडिल्ले' इति महागहने सति सोऽविजानन् एतेष्वनन्तरोदितेषु दोषेषु सर्वेषु लगति। द्वारगाथायामेषणादाविति य आदिशब्दः स समस्तोगमादिदोषपरिग्रहार्थः। तथा 'विसमे' इति विषमे च पर्वतजलादौ या यतना तां स न जानाति, अजानंश्चात्मविराधनां संयमविराधनां चाप्नोति। सम्प्रति शोधिद्वारमाहमूलगुण उत्तरगुणे, आवण्णस्स य न जाणई सोहिं। पडिसिद्धे तिन कुणति, गिलाणमादीण तेगिच्छं // 30 // मूलगुणविषये उत्तरगुणविषये च प्रायश्चित्तमापन्नस्य यस्य यादृशी यस्मिन्नपराधे दातव्या शोधिस्तस्य तादृशीं तस्मिन्नपराधे न जानाति, अजानानश्चाप्रायश्चित्तेऽपि अतिप्रभूतं प्रायश्चित्तं दद्यादिति महत्याशातना भवेत्। गतं शोधिद्वारम्। अधुना ग्लानादिद्वारमाह- 'पडिसिद्धे त्यादि प्रतिषिद्धा खलु चिकित्सा षड्जीवनिकायविराधनोपपत्तेरिति वचनमकान्तेनाङ्गीकुर्वन्ग्लानादीनाम् आदिशब्दः स्वगतानेकभेदसूचकः आगाढा-नागाढसहासहबालतरुणग्लानादीनां चिकित्सां न करोति, न च तद्विषयां यतनां जानाति / ततः चिकित्साया यतनायाश्च अकरणे भूयांसो दोषास्ते च प्रागेव प्रथमोद्देशकेऽभिहिताः। सम्प्रति 'तेणा दुविहा व तिविहा वा' इत्यादि व्याख्यानयतिअप्पसुय त्तिय काउं, दुग्गाहे हरंति खुड्डादी। तेण सपक्ख इयरे, सलिंगिगिहिअन्नहा तिविहा॥३१॥ स्तेना द्विविधाः- स्वपक्षाः, परपक्षाश्च / तत्र स्वपक्षा द्विविधाःगीतार्थाः, पार्श्वस्थादयश्च / तत्र गीतार्था इदं चिन्तयन्ति- अभी अल्पश्रुता अल्पश्रुतत्वाच अगीतार्थाः; नचागीतार्थानां क्षेत्रम-स्ति। ततः एवं चिन्तयित्वा तेषां सचित्तादि गातार्था अप हरन्ति / पार्श्वस्थादयः पुनः क्षुल्लकादीन् व्युद्ग्राहयन्ति, तथा दुष्करा चर्याऽमीषां न च दुष्करचर्यायाः सम्प्रति देशकालौ तस्मादत्रागच्छतेति। एवं व्युद्ग्राह्यक्षुल्लकादीन् आदिशब्दात्तरुणादिपरिग्रहः, अपहरन्ति / परपक्षामिथ्यादृष्टयस्तेऽपि क्षुल्लकादीन् व्युद्ग्राह्य अपहरन्ति / अथवा-- त्रिविधा-स्तेनास्तद्यथा-- स्वलिङ्गाः, पार्श्वस्थादयः तेऽपि पूर्ववत् , गृहिणस्तस्करास्ते उपधिप्रभृतीनपहरन्ति। अन्ये वा–स्वलिङ्गगृहिभ्यो व्यतिरिक्तास्ते च भिक्षुकादयोऽवगन्तव्यास्ते क्षुल्लकादीन् व्युद्ग्राह्याऽपहरन्ति। एए चेव य ठाणे, गीयत्थो निस्सितो उ वजेइ। भावविहारो एसो, दुविहो उ समासओ भणिओ // 32||
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________________ विहार 1277 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विहार एतान्येवानन्तरोदितानि स्थानानि गीतार्थो गीतार्थनिश्रितश्च वर्जयति। तत्र गीतार्थः स्वयं कुशलत्वाद,गीतार्थनिश्रितश्च गीतार्थोपदेशेन एष भावविहारो द्विविधो भणितः समासतः- संक्षेपेण। सो पुण होई दुविहो, समत्तकप्पो तहेव असमत्तो। तत्थ समत्तो इणमो, जहण्णमुक्कोसतो होइ॥३३|| स पुनः- भावविहारो द्विविधोऽपि भूयो द्विविधो भवति, तद्यथासमाप्तकल्पः, तथैवासमाप्तो-5समाप्तकल्पः। तत्र यः समाप्तकल्पः स द्विविधो भवति। तद्यथा--जघन्य, उत्कृष्टश्च / अनयोरेव प्रमाणमाहगीयत्थाणं तिण्हं, समत्तकप्पो जहण्णतो होइ। वत्तीससहस्साई,हवंतिउकोसओ एस|३४|| गीतार्थानां (तिह) त्रयाणां विहारः समाप्तकल्पो जघन्यो भवति, उत्कृष्टस्त्वेष समाप्तकल्पोद्वात्रिंशत्सहस्राणि भवन्ति। तिण्ह समत्तो कप्पो, जहण्णओ दोण्णि उज्जुया विहरे। गीयत्थाण विलहुओ, अगीएँ गुरुगा इमे दोसा // 35 // त्रयाणां किल समाप्तकल्पो जघन्यो भवति। ततो यदा द्वौ विहरतस्तदा द्वयोर्गीतार्थयोर्विहरतोलघुको मासः प्रायश्चित्तम्, अगीतार्थयोश्चत्वारो गुरुकाः। द्वयोश्च विहरतोरिमे वक्ष्यमाणा दोषाः। तानेवाहदोण्ह वि विहरंताणं, सलिंगगिहिलिंगअन्नलिंगे य। होइ बहुदोसवसही, गिलाणमरणे य सल्ले य॥३६|| द्वयोर्विहरतोः स्वलिङ्गगृहिलिङ्गानधिकृत्य भूयांसो दोषाः, तथा एको वसतिपालकः एको भिक्षार्थ गतस्तत्र यो भिक्षार्थं गतस्तस्य स्वलिङ्गे संयत्या आलापादिकं पृच्छन्त्या आत्मपरोभयसमुत्था दोषाः, परलिङ्गे घरकादिकायाः, गृहिलिङ्गे स्त्रियाः प्रोषितभर्तृकादिकायाः, 'होइ बहुदोसवसहि त्ति-हिण्डमानात्वसतिर्बहुदोषा भवति। किमुक्तं भवतिवसतिपालस्य हिण्डमानापेक्षया भूयांसो दोषाः / एकान्तमिति कृत्वा स्वलिङ्गिन्यादीनामुपपातसम्भवात्, प्रदीपनके च लग्ने एकाकी स कथं करोति ? अथैते दोषामा भूवन्निति शून्यां वसतिं कृत्वा निर्गच्छतः तदानीं वक्ष्यमाणा बहतो दोषास्तद्यथा-द्वयोर्विहरतोर्यधेको ग्लानो भवति तदा तस्य ग्लानस्य एकाकिनो मोचने पिपासादिसम्भवः, तथा मरणेमरणकाले शल्यं नोद्धृतमिति शल्येन तथाऽवस्थिते सति गरीयांसो दोषाः। व्य०। (दसतेः सर्वो विषयः 'वसहि शब्देऽस्मिन्नेव भागे६३८ पृष्ठे गतः।) अत्रोपसंहारमाहजम्हा एते दोसा, तम्हा दुण्हं न कप्पति विहारो। एयं सुत्तं विफलं, अह सफलं निरत्थओ अत्थो // vel यस्माद् द्वयोर्विहारे एते-अनन्तरोदिता दोषास्तस्मान्न कल्पते द्वयोर्विहारः / अत्र पर आह-नन्वेतत्सूत्रमफलंद्वयोर्विहारस्यैवासम्भवात्। अथसफलं तर्हि द्वयोर्विहारः सूत्रे नानुज्ञात इति योऽयमर्थतः प्रतिषिद्धो भवद्भिर्विहारः सोऽर्थो निरर्थकः सूत्रेणाऽबाधितत्वात्। आचार्य आहमा वय सुत्तनिरत्थं, न निरत्थगवाइणो जतो थेरा। कारणियं पुण सुत्तं, इमे य ते कारणा हुति // 50 // मावद-मा ब्रूहि त्वं चोदक! यत्सूत्रं निरर्थकम्, यतः स्थविरा भगवन्तो निरर्थकवादिनोन भवन्ति तेषां श्रुतकेवलित्वात्। यद्येवमर्थतः प्रतिषिद्धो द्वयोर्विहारः, अथ च सूत्रे प्रतिपादित इति कथम् ? अत आह-सूत्रं पुनः कारणेषु भवं कारणेन निर्वृत्तं वा कारणिकं कारणान्यधिकृत्य प्रवृत्तमिति भावः / तानि च कारणानि अमूनिवक्ष्यमाणलक्षणानि। तान्येवाहअसिवे ओमोयरिए, रायासंदेसणे जयंता वा। अजाण गुरुनियोगा, पव्यजानातिवग्गदुगे॥५१॥ अशिवं क्षुद्रदेवताकृत उपद्रवः तस्मिन् द्वयोर्विहारः, तथा अवमौदर्य --- दुर्भिक्षं तस्मिन्, अथवा-राजा प्रद्विष्टो भवेत् ततो द्वयोर्विहारः 'संदेसण' त्ति-आचार्यप्रेषणेन द्वौ विहरेयाताम् ‘जयन्ता वा' इति यतमाना नाम ज्ञाननिमित्तं दर्शननिमित्तं वा प्रयत्नवन्तः / इयमत्र भावना-विषमशास्त्राणि सम्प्रति कालगृहीतानि च यदि नाभ्यस्तानि क्रियन्ते ततो विस्मृति-मुपयान्ति / गच्छे च सबालवृद्धाकुले भिक्षाचर्यादिना व्याघातस्तत आचार्यानापृछ्य तैर्विसृष्टौ द्वावप्यन्यत्र गन्छेयाताम्। एवं दर्शनप्रभावकशास्त्रनिमित्तमपि द्वयोर्विहारो भावनीयः / आचार्याणां वा एकस्मात् क्षेत्रात्, अन्यस्मिन् क्षेत्रे नयने संघाटस्य गुरुनियोगात् द्वयोविहारो भवेत्, यदि वा-प्रव्रज्याभिमुखः कोऽपि सजातस्ततस्तस्य स्थिरीकरणार्थ सङ्काटकः प्रेष्यः, यदि वा- ज्ञातिवर्गः- स्वजनवर्गः कस्याऽपिसाधोर्वन्दापनीयो जातः, ततस्तद्वन्दापनार्थं द्वौ विहरेयातामिति। तत्र यतनामाहसमय भिक्खग्गहणं, निक्खमणपवेसणं अणुण्णवणं / एको कहमावण्णो, एको व कहं न आवण्णो // 12 // यदि नाम प्रागुक्तकारणवशात् तौ विहरन्तौ द्वावपि समकंयुगपत् भिक्षाग्रहणं कुरुतः, समकं भिक्षानिमित्तं हिण्डेते इत्यर्थः। एवं समकमेव शेषप्रयोजननिमित्तमपि निष्क्रामतोव्रजतः, समकमेव च प्रविशतः-गत्वा प्रत्यागच्छतः, तथा समकमेवाऽनुज्ञापनं कुरुतः / किमुक्तं भवतिसमकमेव नैषेधिक्यादिकं शय्यातरादिकमनुज्ञापयतः ततः एकाकिनः सतो ये प्रागुक्ताः दोषाः ते प्रायोन सम्भवन्ति। पर आह-यद्येवं समकभिक्षाग्रहणादिकरणं कथमेकः प्राप्तः-प्रायश्चित्तस्थानमापन्नः, एको वा कथं नाऽऽपन्नः? इति। सूरिराहएगस्स खमणभाण-स्स धोवणं बहियइंदियऽत्थेहि। एएहि कारणेहि, आवण्णो वा अणावण्णो // 53 / / एकस्य क्षपणमभक्तार्थोऽभवत्- एके न तु क्षपणं न कृतम्, तत्र यदि क्षपणकारी शक्नोति, ततो द्वावाप समकं भिक्षा
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________________ विहार 1278 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विहार निमित्तं हिण्डते!अथ क्षपणकृत् न शक्नोति। ततएको भिक्षार्थं गच्छति, च बहुसाहुपरिवुडा य एरिसे आयरिए वंदामि साहुस्स वि एते चेव गुणा एकस्तूपाश्रय एव तिष्ठति, एवंद्वयोरप्येकाकित्वसम्भवः। तथा-'भाणस्स णवरं परिवारो वज्जिजति / चेतिया चिरायतणा अपुटदा य अहवा धोवणं' ति अथ धावनार्थमुपाश्रयागहिर्विनिर्गत एकस्तूपाश्रयस्यै- अभिणवा कया। धान्तस्तिष्ठति एवमेका-किनौ जातौ।ततो यो भिक्षागतो यो वा भाजन गाहाप्रक्षालनार्थ बहि-विनिर्गतोयो वा वसताववतिष्ठतेस इन्द्रियार्थरूपरसा दच्छीहामिव णीए, सण्णीसु व भोयणादि लब्मामो। दिभिरिष्टानिष्टैः समापतितं राग द्वेषं वाप्रयाति रागद्वेषगमनाच दोसोवमे अपुथ्वो, वइगादिसु खीरमादीणि / / 270 / / प्रायश्चित्तस्थानमापद्यते। तत एवमनन्तरोदितैः कारणैरेकः प्रायश्चित्त कण्ठा। णिक्कारणं विहरंतस्स इमे दोसा। स्थानमापन्नो भवत्येकस्त्वनापन्न इति। अथवा-यद्यपि नाम भिक्षाग्रहणादिनिमित्तं समकं हिण्डेते तथाप्येक आपद्यते प्रायश्चित्तस्थानमपरोनैव। गाहाव्य०२ उ०। अद्धाणे वचन्ता, भिक्खूवधितेणसाणपडिणीए। ओमाण अभोजघरे, वयथंडिलसतीय जे तत्थ॥२७१।। ततः समकहिण्डनेऽप्येको घटते प्रायश्चित्तमापन्नोऽपरा नेति, इतश्च विषया न प्रमाणम्। अद्धाणो असमो भवति भिक्खा वसहिं ण लब्भति, एतेसु परितावयत आह णादिणिक्खमणं / उवहि-सरीरा तेणा भवंति, साणपडिणीएसु खुजए हम्मए वा हिंडताणं सपक्खपरपक्खोमाणं भवति, अभोजघरे पवयणभणसा उवेति विसए, मणसा वि य सनियत्ति एतेसुं। हीलणा य भवति। असतिथंडिलस्स पुढविमादीजीवविराहेति जे दोसा इय वि हु अज्झत्थसमो, बंधो विसया न उ पमाणं // 15 // जंचपच्छित्तं सव्वं उवउज्जि वक्तव्यं। इह विषयोपलब्धिव्यतिरेकेणाऽपि मनसा-अन्तः करणेन विषयान् गाहारूपादीन् उपैति-अध्यवस्थतीति भावः। मनसैव च तेभ्यो--विषयेभ्यः संजमतो छकाया, आत कंदट्टि वायरलु वाया य। संन्निवर्ततः विरज्यते इत्यर्थः / इत्यपि- एवमपि हु-निश्चितमध्या उवधिअलेव हरावण, परिहाणी जा य तेण विणा // 272 / / त्मसमोऽध्यात्मानुरूपः; परिणामानुसारी इत्यर्थः, बन्धः- कर्मबन्धः णिक्कारणओ अड्तो छक्कायविराहणं कुणति, एस संजमविराहणा। तस्मान्न विषयाः प्रमाणम् / तेषु सत्स्वपि केषाश्चिद्रागद्वेषाऽसम्भवात्, कंदर्हि वाविञ्जति वायरलूवावी भवंति। एस आयविराहणा। सागारिभया तदभावेऽपि चके-षाञ्चिन्मनसा तत्सम्भवादिति। परिस्संतो वा पमादेण वा उवहिं ण पडिले हेति, हरावेइ वा / उवहिम्मि एवं खलु आवणे, तक्खण आलोयणा उगीयम्मि। अवहरिएजा तेण विणा परिहाणी तेण अम्गिगहणसेवणादिजंकरिस्सति ठवणिज्जंठवतित्ता, वेयावडियं करे बितिओ।।५६|| तंसव्वं पच्छित्तं क्त्तव्यं। एवम्- उक्तेन प्रकारेण खलु-निश्चितमेकस्मिन् प्रायश्चित्तस्था गाहानमापन्ने तेन तत्क्षणमेव-तत्कालमेव गीतार्थस्य पुरत आलोचना वेलातिकमपत्ता, अणेसणादातुरानुलेविज्जा। दातव्या / तत्र यदिद्वावपि गीतार्थी विहरतस्ततः स्थापनीयं प्रागुक्तस्वरूपं पडिणीयसाणमादी, पच्छाकम्मं चऽचेलम्मि॥२७३।। स्थापयित्वा यः प्रायश्चित्तस्थानमापन्नः स परिहारतपः प्रतिपद्यते। द्वितीयः कल्पस्थितो भवति स एव चानुपारिहारिक इति तस्य वैयावृत्त्यं भिक्खा वेलातिक्कतं पत्ता अपुच्छंता अणेसणं पिलेविज्जा तण्णिप्फण्णं करोति। व्य०२ उ०। पच्छित्तं। पढमबितिएसुवा परिसहेसुवा आउरा जं सेवेत तष्णिप्फण्णं, पडिणीतेण हते साणेण वा खविए आयविराहणाणिप्फण्णं / अचेले इदाणिं णिज्जुत्तिवित्थरो / गाहा-- भिक्खंतस्स हिंडतस्स पच्छा-कम्मदोसा भवंति, संकातिया य दोसा सेहाण वुडवासी, वसमाणा णवविकप्पवेहारी। तेणऽढे मेहुणऽढे वा भवंति / नि०चू०२ उ०।अनु०॥ पञ्चा०॥ध०। बृ० / दूतिजंता दुविहा, णिकारणिया य कारणिया।।२६७।। पं०व०/ग कारणनिष्कारणे वक्ष्यति। शेषं गतार्थमेव / इमे कारणिया आयरिय (4) संप्रति विहारकल्पिकमाहसाहुचेइयाण य वंदणणिमित्तं गच्छति, सण्णीणं दंसणऽत्थं भोयणवत्थाणि गीयत्थो य विहारो, बीओ गीयत्थनिस्सिओ भणिओ। वा लभिस्सं ति गच्छति, अपुव्वदेसदसणत्थं वतितादिसु वा खीरनं इत्तो तइयविहारो, नाणुनाओ जिणवरेहिं॥६९२| लम्भिस्सामीति गच्छति। गीतः-परिज्ञातोऽर्थो यैस्ते गीतार्था जिनकल्पिकादयस्तेषां स्वातगाहा न्त्र्येण यद्विहरणं स गीतार्थो नाम प्रथमो विहारः / तथा गीतार्थस्याआयरिय साधुवंदण, चेतियणीयल्लगा तहा सण्णी। ऽऽचार्योपाध्यायलक्षणस्य निश्रिताः- परतन्त्रा यद्गच्छवासिनो विहगमणं च देसदसण, णिकारणिए य वगादी॥२६८|| रन्ति स गीतार्थनिश्रितो नाम द्वितीयो विहारो भणितः / इति ऊर्ध्वअप्पुष्वविवित्त बहु-स्सुता य परिवारवंद आयरिया। मगीतार्थस्य स्वच्छन्दविहारिणस्तृतीयो विहारो नानुज्ञातो जिनवरैपरिवारवजसाधू, चेति अपुव्वा अभिनवावा // 26 // भगवद्भिस्तीर्थङ्करैरिति। 601 उ०१प्रक०। (गीतार्थविषयः गीयत्थ' अपुव्वा इमे आयरिया विवित्ता णिरतिचारचरित्ता बहुस्सुया विचित्तसुया | शब्दे तृतीयभागे 602 पृष्ठे गतः, तत्स्वरूपप्रतिपादिका गाथा च त
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________________ विहार 1276 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विहार त्रैव गता-तद्व्याख्याऽत्र)-इह सूत्रार्थधरत्वे चतुर्भङ्गी। तद्यथा-सूत्रधरो नामैको नार्थधरः 1, अर्थधरो नामैको न सूत्रधरः 2, एकस्सूत्रधरोऽ-- प्यर्थधरोऽपि 3, अपरो न सूत्रधरो नाप्यर्थधरः 4, अयं चतुर्थो भङ्ग उभयशून्यत्वादवस्तुभूतः / शेषभङ्ग-त्रयमधिकृत्याह- गीतेन सूत्रेण केवलेन सम्यक्पठितेन गीतमस्यास्तीति गीती भवति। अर्थन केवलेन सम्यगधिगतेनार्थी भवति, ज्ञातव्यम्, अर्थधरः इत्युक्तं भवति / यस्तु गीतेन चार्थेन चोभयेनाऽपि युक्तस्तं गीतार्थं विजानीहि इति / इदमत्र तात्पर्यम्-तृतीयभङ्गवत्यैव तत्त्वतो गीतार्थशब्दमविकलमुद्रोदुमर्हतिन प्रथमद्वितीयभङ्गवर्तिनाविति। (5) अथ येषां गीतार्थानां तनिश्रितानां वा विहारो भवति तान् दर्शयतिजिनकप्पिओं गीयत्थो परिहारविसुद्धिओऽवि गीयत्थो। गीयत्थे इविदुर्ग,सेसागीयत्थनीसाए॥६६॥ जिनकल्पिको नियमाद्रीतार्थः परिहारविशुद्धिकः, अपि-शब्दात्प्रतिमाप्रतिपन्नको यथालन्दकल्पिकश्चावश्यतया गीतार्थः जघन्यतोऽप्यधीतनवमपूर्वान्तगीताचारनामकतृतीयवस्तुकत्वादेषामिति। तथा गच्छे गीतार्थविषयमृद्धिमतोराचार्योपाध्याययोकिं द्रष्टव्यम् / सूत्रे अनुलोमः प्राकृतत्वात् आचार्य उपाध्यायो वा नियमाद्गीतार्थः / एष सर्वेषामपि स्वातन्त्र्येण विहारो विज्ञेयः, शेषाः साधवो गीतार्थनिश्रया आचार्योपाध्यायलक्षणगीतार्थपारतन्त्र्ये विहरन्ति। इदमेव पश्चार्द्ध भावयतिआयरियगणी इड्डी, सेसा गीता विहाँति तन्नीसा। गच्छगयनिग्गया वा, ठाणनिउत्ताऽनिउत्तावा॥६९६|| आचार्यः- सूरिर्गणी-उयाध्यायः एतौ यत ऋद्धिमन्तौ सातिशयज्ञानादिऋद्विसम्पन्नौ अतिशायनेऽत्र मत्वर्थीयः, यथा रूपवती कन्येत्यादौ अतः शेषाः साधवो गीतार्था अपि तन्निश्रया आचार्योपाध्यायपरतन्त्रतया विहरन्ति / अथके ते शेषाः? इत्याह-गच्छगता, गच्छनिर्गता वा / तत्र गच्छगता गच्छमध्यवर्तिनः, गच्छनिर्गता "असिवे ओमोयरिए" इत्यादिभिः कारणैरेकाकीभूताः। अथवा-स्थाननियुक्ताः स्थानाऽनियुक्ता वा। स्थानेपदे नियुक्ता व्यापारिताः स्थाननियुक्ताःप्रवर्तकस्थविरगणावच्छेदकाख्याः; पदस्थगीतार्था इत्यर्थः। तद्विपरीताः स्थानाऽनियुक्ताः, सामान्यसाधव इत्यर्थः / एते सर्वेऽप्याचार्योपाध्यायनिश्रया विहरन्ति। कथमित्याहआयारपकप्पधरा, चउदसपुथ्वी अजेय तम्मज्झा। तन्नीसाएँ विहारो, सबालवुडस्स गच्छस्स // 667|| आचारप्रकल्पधरा निशीथाध्ययनधारिणो जधन्यगीतार्थाः, चतुर्दशपूर्विणः पुनरुत्कृष्टाः, तन्मध्यवर्तिनः कल्पव्यवहारदशाश्रुतस्कन्धधरादयो मध्यमाः / तेषां जघन्यमध्यमोत्कृष्टानां गीतार्थानामनिश्रया बालवृद्धस्याऽपि गच्छस्य विहारो न भवति। (6) नपुनरगीतार्थस्य स्वच्छन्दमेकाकिविहारः कर्तु युक्तः कुत इति चेदुच्यतेएगविहारी य अजा-यकप्पिओ जो भवे चवणकप्पे। उवसंपन्नो मंदो, होहिह वोसट्टतिहाणो // 698|| एकः सन् विहरतीत्येवं शील एकविहारी, स च अजातकल्पिकोऽगीतार्थः, तथा च्यवनं-चारित्रात् प्रतिपतनं तस्य कल्पः--प्रकारश्च्यवनकल्पः-पार्श्वस्थादिविहार इत्यर्थः, तस्मिन् यो भवेत्स एकाकित्वमुपसम्पन्नः प्रतिपन्नः सन् मन्दः- सद्बुद्धिविकलो भविष्यति, व्युत्सृष्टत्रिस्थानः-व्युत्सृष्टानि-परित्यक्तानि त्रीणि स्थानानि-ज्ञानादिरूपाणि येन स व्युत्सृष्टत्रिस्थानः, एषा नियुक्तिगाथा। अथैनामेव विवृणोतिमुत्तूण गच्छनिग्गते,गीयस्स वि एकगस्स मासो उ। अविणीए चउगुरुगा, चवणे लहुगाय भंगट्ठा॥६६॥ मुक्त्वा, गच्छनिर्गतान्--जिनकल्पिकादीन् गीतार्थस्याऽपि एककस्य एकाकिविहारं कुर्वतो मासलघु, अविनीते गीतार्थे एकाकिविहारिणि चत्वारो गुरुकाः, च्यवने-पार्श्वस्थादिविहारे यदि मनसाऽपि संकल्पं कुरुते तदा चत्वारो लघुकाः, 'भंगट्ठ' त्ति अष्टौ भङ्गा अत्र कर्तव्याः। तद्यथा-एकाकी अजातकल्पिकः च्यवनकल्पिकश्च 1, एकाकी जातकल्पिकश्च्यवनकल्पिकश्व 2, एकाकी अजातकल्पिको न च्यवनकल्पिकः 3, एकाकी जातकल्पिको न च्यवनकल्पिकः 4, एवमेकाकिपदेन चत्वारोभङ्गा लब्धाः, नैकाकिपदेनापि चत्वारो लभ्यन्ते। संख्यया अष्टी भङ्गाः। अत्राऽष्टमो भङ्गस्त्रिष्वपि पदेषु शुद्धत्वात्प्रायश्चित्तरहितः। शेषेषु तु यथायथमनन्तरोक्रं प्रायश्चित्तम् / एतेषु सप्तष्वपि भङ्गेषु वर्तमानस्य दोषमुपदर्शयितुमुपसम्पन्नपदंव्याचष्टेएगागित्तमणट्ठा, उवसंपजइ चुओ व जो कप्पो। सो खलु सोच्चो मंदो, मंदो पुण दय्वभावेणं / / 700 / / य एकाकित्वम् अनर्थात्-ज्ञानादिप्रयोजनाभावादुपसम्पद्यते अङ्गीकरोति, यो वा च्युतः प्रतिपतितः कल्पात् संविनविहारात् स खलु वराकः द्रव्यजीवितेनजीवन्नपिशोच्यः-शोचनीयः संयमजीविताभावात्, मन्दश्चासौ (मन्दस्वरूपं मंद' शब्दे अस्मिन्नेव भागे 25 पृष्ठे गतम्।) बृ० १उ०१ प्रक०1 अथ यदुक्तं नियुक्तिगाथायां 'होहिइवोसट्ठतिट्ठाणे' त्ति तत्र कानि पुनस्ताति त्रीणि स्थानानि यानि तेन परित्यक्तानि। उच्यते-- नाणाई तिहाणं, अहव ण चरणप्पओ पवयणं च। सुत्तत्थं तदुभयाणि व, उग्गमउप्पायणाओ वा // 702 / / एकाकी-ज्ञानादीनि ज्ञानदर्शनचारित्राणि त्रीणि स्थानानि वक्ष्यमाणनीत्या परित्यजतीति 'अहवण' त्ति अखण्डमव्ययमथवाऽर्थे चरणमात्मा प्रवचनं चेति वा त्रीणि स्थानानि।तत्र गीतार्थतयाऽसौ षट्कायविराधनया चरणम्, अतिप्रचुराहारलक्षणादिना ग्लानत्वाद्यापन्ना वाऽऽत्मानम्, अयतनया संज्ञाव्युत्सर्गादिना प्रवचनंच परित्यजति।अथवा-सूत्रार्थतदुभयानि त्रीणि स्थानानि, तत्रासावेकाकितया कदाचित्सूत्रं विस्मारयति, कदाचिदर्थं, कदाचित्तदुभयम् / यद्वाउद्गमोत्पादने वाशब्दादेषणा येति त्रीणि स्थानानि च निरङ्कुशत्वादेकाकी परित्यजतीति प्रकटमेव /
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________________ विहार १२८०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विहार अथ यथाऽसौ ज्ञानदर्शनचारित्राणि परिहरति, तथाऽभिधित्सुराह- भालाभादिकां वार्ता च तस्य पार्वे पृच्छति, 'तहिं वसई' ति तत्र तेषां अपुष्वसुयस्स य गहणं, न य संकिये पुच्छणा न सारणया। गृहस्थानां मध्य एवासौ वसति, तत्र च वसतो निरन्तरं यस्तैः सह गुणयंतोऽपर दर्बु, सीदइ एगस्स उच्छाहो // 703 / / संस्तवस्तेनात्यन्तिकः स्नेहस्तेष समुल्लसति, तद्वशात् तदीसपल्या यत् क्रीडापनं यचाक्षरगणितादिशिक्षापणं यचंतदुपरोधतः कुण्टलविण्टअपूर्वस्य श्रुतस्याग्रहणमेकाकितया पाठयितुरभावात् / न च शङ्किते लादिकरणं तदेवमादयो दोषा द्रष्टव्याः, तथा भाषांसावद्यामसावसूत्रेऽर्थे वा कस्याऽपि पार्वे प्रच्छनम्, न वा सूत्रमर्थं वा विकुट्टयतः - गीतार्थतया ब्रूयात्, हे श्रावक ! गम्यता-मागम्यतामुपविश्यतामित्यादि सारणा शिक्षणा मैवं पाठीरित्यादिका भवति। तथा अपरान् गुणयतो गृहिसत्के च वस्तुजाते केनचिचौरादिना हृते स्वयं वा नष्टे तस्य दृष्ट्वा सीदति-परिहीयतेएकस्यैकाकिन उत्साहः सूत्रार्थपरावर्तनाया स्नेहातिरेकतः शोकः-परिदेवनादिरूपः स्यादिति, यत एवंविधदोषोपमभियोग इत्युक्तो ज्ञानपरिहारः। निपातस्तत एकाकिविहारविरहेण गच्छवासमध्यासीनेन साधुना सम्प्रति दर्शनचरणयोः परिहारमाह यावजीवं विहरणीयम्। बृ०१ उ०१ प्रक०(कीदृशस्य गच्छो दीयते ? चरगाऽऽइवुग्गहेणं, न य वच्छल्लाइ दंसणासंका। अयोग्यस्य वा गच्छं प्रयच्छन् अयोग्यो वा गच्छं धारयन् कीदृशं प्रायश्चित्तं थी सोहि अणुजमया, निप्पग्गहिया य चरणम्मि // 704 // / प्राप्नोति इति 'गणहर' शब्दे 3 भागे 820 पृष्ठे / ) (प्रायश्चित्तविषयः चरकादिभिः कणादसौगतसांख्यप्रभृतिभिः-पाषण्डिभिः कुयुक्ति- 'पच्छित्त' शब्देऽपि पञ्चमभागे 203 पृष्ठे गताः।) युक्ताभिर्युद्ग्रहेण सोऽगीतार्थतया तस्य भवेत् / न चासावेकाकितया (7) आचार्यस्योपाध्यायस्यैकाकिनो विहारोन कल्पतेसाधर्मिकाणां वात्सल्यमादिशब्दादुपबृंहणं स्थिरीकरणं तीर्थप्रभावनां नो कप्पइ आयरियउवज्झायस्स एगाणियस्स हेमंतगिम्हासु वा कुर्यात्, शङ्कादयो वा दोषा देशतः सर्वतो वा तस्य भवेयुरित्येवं चरिए / / 1 / / कप्पइ आयरियउवज्झायस्स अप्पबिइयस्स दर्शनमसौ परिहरति, तथा 'थी' इत्येकाकिन्या स्त्रिया सम्भाषणादि हेमंतगिम्हासु चरिए ॥२॥णो कप्पइ गणावच्छेझ्यस्स अप्पनाऽऽत्मपरोभयसमुत्था दोषा भवेयुः / सोहि' त्ति सोधिः-प्रायश्चित्तं बीयस्स हेमंतगिम्हासु चरिए ||3|| कप्पड़ गणावच्छेइयस्स तदपराधमापन्नस्य तस्यको नाम ददातु। अनुद्यमता चतस्य सारणादीनां अप्पतइयस्स हेमंतगिम्हासु चरिएणो कप्पा आयरिय'निप्पग्गहिय' त्ति भवेत् नियन्त्रणा गुर्वाशेति यावत्, निर्गतः प्रग्रहादिति उवज्झायस्स अप्पबीयस्स वासावासं वत्थए / कप्पड़ निष्प्रग्रहस्तस्य भावो निष्प्रग्रहता, गुर्वाज्ञाया अभावात्पाणिपादमुख आयरियउवज्झायस्स अप्पतइयस्सवासावासं वत्थए॥६॥णो धावनादि निःशङ्कं करोतीत्यर्थः / एवं चरणविषयपरित्याग इति। कप्पइ गणावच्छेइयस्स अप्पतझ्यस्स वासावासं वत्थए // 7 // किंच कप्पइगणावच्छेइयस्स अप्पचउत्थस्सवासावासं वत्थए।।८| सामन्नयजोगाणं, बज्झो गिहिसण्णसंथुओ होइ। से गामंसिवा० जाव संनिवेसंसि वाबहूणं आयरियउवज्झायाणं दसणनाणचरित्ता-ण मइलणं पावई एको // 705| अप्पबिइयाणं, गणावच्छे इयाणं अप्पतइयायाणं, कप्पड़ स एकाकी श्रामण्यभाविनां विनयवैयावृत्त्यप्रभृतीनां योगानां बाह्यो हेमंतगिम्हामु चरिए अन्नमण्णं णिस्साए || से गामंसि वा० नाऽऽभागी भवति / गृहिणामगारिणां संज्ञा समाचारस्तस्यां संस्तुतः-- जाव संनिवेसंसि वा बहूणं आयरियउवज्झायाणं अप्पतइयाणं परिचयवान् भवति / दर्शनज्ञानचारित्राणां च मालिन्यमेकः सन् बहूणं गणावच्छेझ्याणं अप्पचउत्थाणं कप्पइ वासावासं वत्थए प्राप्नोति / तत्र बौद्धादिभिर्विपरिणामितमतेरहोऽमीषामपि दर्शनं निपुणो अन्नमन्नं निस्साए॥१०॥ (व्य०) यः परिदृष्टान्तसंवर्मितं समीचीनमिव प्रतिभासतेइत्यादिना चित्तविप्ल- नकल्पते आचार्यश्चोपाध्यायश्च समाहारो द्वन्द्रः आचार्योपाध्यायं तस्य वेनोन्मार्गप्ररूपणया वा दर्शनमालिन्यं विशाखिलवात्स्यायनादिपाप- आचार्योपाध्यायस्य चेत्यर्थः, एकाकिनो हेमन्तग्रीष्मयोः शीतकाले श्रुतान्यभ्यस्यतस्तेषु बहुमानबुद्धिं कुर्वतो ज्ञानमालिन्यं पुनरेकाकिनः उष्णकाले चेत्यर्थः, चरितुं विहर्तुम्॥१॥ कल्पते आचार्यस्योपाध्यायसुप्रतीतमेव। स्यात्मद्वितीयस्य हेमन्तग्रीष्मयोश्चरितुम्॥२॥ एवं द्वे सूत्रे गणावच्छेदअथ गृहसंज्ञासंस्तुतः कथं भवतीत्युच्यते कस्य भावनीये / नवरमत्राधसूत्रे - (3) आत्मद्वितीयस्यः प्रतिषेधः, द्वितीयसूत्रे- (4) त्वात्मतृतीयस्यानुज्ञा / एवममीषां चत्वारि सूत्राणि कयमकए गिहिकजे, संतप्पइ पुच्छई तहि वसई। वर्षाविषयाण्यपि वेदितव्यानि, नवरमत्र प्रथमसूत्रे-(५) आचार्यस्योपासंथवसिणेहदोसा, भासा हियनहसोगोय॥७०६|| ध्यायस्य चाऽऽत्मद्वितीयस्य प्रतिषेधो, द्वितीयसूत्रे--(६)त्वात्मतृतीयगृहकार्ये क्रयविक्रयादावनभिमते कृते, अभिमते वा अकृतेससंतप्यते- स्यानुज्ञा, तृतीयसूत्रे-(७) गणावच्छेदकस्याऽऽत्मतृतीयस्य प्रतिषेधः, सन्तापमनुभवति, यथा अशोभनं समजनि यदेतेनागारिणा अमुकं वस्तु, चतुर्थसूत्रे-(८) त्वात्मचतुर्थस्यानुज्ञेति। इहोत्सर्गतो द्वयोस्त्रयाणां वा व्यवहृतम्, अमुकं न व्यवहृतमित्यादि। तथा 'पुच्छइ' ति सुखला- जघन्यतोऽपि विहारोन कल्पतेयत एवं जघन्यादिभेदतो विहारपरिमाणम्।
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________________ विहार १२८१-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विहार पणगो व सत्तगो वा, कालदुर्गे खलु जहण्णतो गच्छो। बत्तीसाइसहस्सो, उक्कोसो सेसओ मज्झो॥४॥ कालद्विके ऋतुबद्धे काले, वर्षाकालेचजघन्यतः खलु यथाक्रमं गच्छो भवति, पञ्चकः सप्तकश्चापञ्च परिमाणमस्य पञ्चकः, एवं सप्तकः, वाशब्दः समुच्चये। किमुक्तं भवति- ऋतुबद्धे काले पञ्चको वर्षाकाले सप्तकः / कथमिति चेत् ? उच्यते- ऋतुबद्ध काले आचार्य आत्मद्वितीयो गणावच्छेदकस्त्वात्मतृतीयः, एवं पञ्चकः। वर्षाकाले जघन्यत आचार्य आत्मतृतीयो, गणावच्छेदकः आत्मचतुर्थः, एवं सप्तक इति। उत्कर्षतः कालद्विकेऽपि द्वात्रिंशत्सहस्राणि / तथा च भगवत ऋषभस्वामिनो ज्येष्ठस्य गणधरस्य पुण्डरीकनाम्नोद्वात्रिंशत्सहस्रोगच्छोऽभूत्। शेषकःशेषपरिमाणो गच्छो मध्यमः। (8) सम्प्रति जघन्यतः पञ्चकसप्तकाभ्यां हीनतायाः प्रायश्चित्तमाहउउवासे लहुलहुगा, एए गीते अगीते गुरुगुरुगा। अकयसुयाण बहूण वि, लहुओ लहुया वसंताणं / / 5 / / 'उउ' त्ति ऋतुकाले पञ्चकात् हीनानां गीतार्थानां विहरतां प्रायश्चित्तं लघुको मासः। 'वासे' त्ति वर्षाकाले सप्तकात् हीनानांगीतार्थानां विहरतां चत्वारो लघुका मासाः, एते लघुलघुका गीते-गीतार्थविषया द्रष्टव्याः। अगीते-अगीतार्थविषयाः पुनर्गुरुगुरुकाः / किमुक्तं भवति-ऋतुकाले पञ्चकात् हीनानामगीतार्थानां वसतां प्रायश्चित्तं गुरुको मासः, वर्षाकाले सप्तकात् हीनानामगीतार्थानां च चत्वारो गुरुकाः मासाः / अकृतश्रुतानामगृहीतोचितसूत्रार्थतदुभयानां बहूनामपि पञ्चकसप्तकादीनामपि वसतां यथाक्रममृतुकाले प्रायश्चित्तं लघुको मासः, वर्षाकाले चत्वारो लघुकाः। अत्र चोदक आहएवं सुत्तविरोहो, अत्थे वा उभयतो भवे दोसो। कारणियं पुण सुत्तं, इमे य तर्हि कारणा हुंति // 6|| यदि नामैतद् जघन्यादिभेदेन गच्छपरिमाणं तत एवं सति सूत्रतोऽर्थतस्तदुभयतश्च विरोधेदोषो भवेत् सूत्रेऽन्यथा विहारानुज्ञानात्। अत्राचार्यः प्राह-कारणिक कारणैर्निर्वृत्तं पुनरिदंसूत्रमतोनदोषः। तानिच कारणानि पुनरिमानि वक्ष्यमाणानि तत्राधिकृतसूत्रप्रवर्त्तनतो भवन्ति। तान्येवाहसंघयणे वाउलणा, नवमे पुय्वम्मि गमणमसिवादी। सागरजाये जयणा, उउबद्ध लोयणा भणिता // 7 // या इयं कारणविषया शेषवक्तव्यविषया च सूचागाथा ततोऽयं संक्षेपार्थःसंहननं यद्युत्तमं भवति, व्याकुलता वा व्याकुलीभवनं वा गच्छे, नवमे वा पूर्वे, उपलक्षणमेतत् दशमे वा सूत्रमभिनवगृहीतं, सम्यक् स्मर्त्तव्यमस्ति, यमनं वा अशिवादिभिः-अशिवाऽवमौदर्यादिभिः संपन्नम्, 'सागर' त्ति स्वयम्भूरमणसदृशमतिप्रभूतमनेकातिशयसम्पन्नम् नवमं पूर्व परावर्त्तनीयमस्ति, ततः एतैः कारणेविपि विहरेयाताम् / तथा- 'जाते' त्ति जातादिकल्पो वक्तव्यः, तत्रापि भङ्गचतुष्टये प्रथमवर्जेषु शेषेषु त्रिषु भङ्गेषु यतना वक्तव्या। तथा ऋतुबद्धे काले आगच्छद्गच्छद्भिरविरहितं तत्स्थानं कर्तव्यं गणिनाऽप्यवलोकना स्वयं करणीया कारणीया वा / एतानि कारणान्यधिकृत सूत्रप्रवृत्तौ भणितानि। साम्प्रतमेनामेव गाथां व्याचिख्यासुः प्रथमतः ___ संहननमिति पदं व्याख्यानयतिआयरिय उवज्झाया, संघयणधितिए जे उ उववेया। सुत्तं अत्थो य बहु, गहितो गच्छे य वाघातो |8|| आचार्या वा उपाध्याया वा जे संहननेन प्रथमेन वज्र-ऋषभ-नाराचलक्षणेन धृत्या च वजकुड्यसमानया उपेतायुक्ताः सूत्रमर्थो वा बहुःप्रभूतो गृहीतो गच्छे च सूत्रार्थस्मरणव्याघातः। (E) कुतो व्याघात इति चेत् ? उच्यते-व्याकुलनातः। तामेव व्याकुलनामाहधम्मकहि महिडीए, आवस्सयनिसिहियाय आलोए। पडिपुच्छ वादि पहुणग, रोगी तह दुल्लभं मिक्खं / / वाउलणा सा भणिया, जह उद्देसम्मिपंचमे कप्पे। नवम दसमाउ पुवा, अमिणवगडिया उनासेजा / / 10 / / स हि धर्मकथी लब्धिसम्पन्नस्ततो भूयान् जनः श्रोतुमागच्छतीति धर्मकथया व्याकुलना, तथा महर्द्धिको राजादिः धर्मश्रवणाय तस्य समीपमुपागच्छति, ततस्तस्य विशेषतः कथनीये तदावर्जने भूयसामावर्जनादन्यथा व्याकुलनातः सम्यग् धर्मग्रहणाभावे तस्य रोषः स्यात्। तस्मिश्च रुष्ट भूयांसो दोषाः / अथवा- अन्यः कश्चनापि महर्द्धिकाय कथयति, तदानीमपि तूष्णीकैर्भवितव्यं, मा भूत् कोलाहलतस्तस्य सम्यग्धप्रितिपत्तिरिति कृत्वा / तथा महति गच्छे बहव आवश्यकी निर्गच्छन्तः कुर्वन्ति, बहवः प्रविशन्तो नैषेधिकी ते सम्यनिरीक्षणीयाः, अन्यथा तयोरकरणे उपलक्षणमेतदन्यस्या अपि सामाचार्याः प्रत्युपेक्षणाऽऽदेः सम्यक्करणे यदि स्मारणं न करोति तत उपेक्षाप्रत्ययप्रायश्चित्तसम्भवस्तत आवश्यकादिनिरीक्षणायां व्याघातः। तथा भिक्षामटित्वा समागतस्य तस्य सङ्घाटकस्यालोचयतो यदि पठ्यते तदा विकटनायामग्रेतनस्य पश्चात्तनस्य च सम्मोहः, सम्मोहाच सम्यगनालोचना, तद्भावाचरणव्याघात इति तदाऽऽलोचनायां न पठनीयम् / तथा च गच्छे वसतो बहवः प्रतिपृच्छानिमित्तमागच्छन्ति, ततस्तेषामपि प्रत्युत्तरदाने व्याधातः / तथा तं बहुश्रुतं तत्र स्थितं श्रुत्वा वादिनः समागच्छन्ति ततस्तेऽपि निग्रहीतव्याः, अन्यथा प्रवचनोपघातस्ततस्तन्निग्रहणेऽपि व्याकुलना / तथा महति गणे बहवः प्राधूर्णकाः समागच्छन्ति ततस्तेषां विश्रामणयापर्युपासनयाचव्याघातः।तथाबहवः खलुमहतिगणेग्लानास्तेषां यावदालोचना श्रूयते तावद्व्याकुलना, तथा महति गणे भूयसां प्राधूर्ण
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________________ विहार 1282- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विहार कादीनां प्रायोग्यं दुर्लभमिति साधवः केऽपि कुत्राप्यन्यत्र प्रेषणीय इति व्याघातः। 'वाउलणासा' इत्यादि, एषा व्याकुलनायथा कल्पे-कल्पाध्ययने पञ्चमे उद्देशे सविस्तरंभणिता तथाऽत्रापिद्रष्टव्या।'नवमदसमाउ पुव्वे' ति व्याख्यानयति, नवमे दशमे पूर्वे अभिनवे गृहीते यदि सततं न स्मर्यते ततो नश्येतामतोऽर्थं द्वयोर्विहारः! 'गमणमसिवादी' ति व्याख्यानार्थमाहअसिवादिकारणेहि, उम्मुगनायं ति होजजादोण्णि। सागरसरिसं नवम, अतिसयनयभंगगहणत्ता॥११॥ अशिवं नाम–मारिःसा उपस्थिता तत्रच ज्ञातमुल्मुकं यथा उल्मुकानि बहून्येकत्राहृतानि ज्वलन्ति एक द्वौ वा नज्वलतः, एवं त्रिप्रभृतिषु बहुषु मारिः प्रभवति नैकस्मिन् द्वयोर्वा / तत एवमशिवकारणेनादिशब्दादवमौदर्येण राजप्रद्वेषतो वा गणभेदस्तावद्भवति यावत् पृथक् पृथक्वावपि भवेतामतो नानुपपन्नो द्वयोर्विहारः। 'सागरे' त्ति व्याख्यानयति सागरसदृशंस्वयम्भूरमणजलधितुल्यं नवममुपलक्षणमेतत्, दशमं च पूर्वम् / कस्मादित्याह--- अतिशयनयभङ्गादनेकैरतिशयैरनेकैर्नयैरनेकैर्भङ्गेश्व गुपिलत्वात्, ततोऽगीतार्थानामतिशयाकर्णनं मा भूत, नयबहुलतया भङ्गबहुलतया वा बहूनां मध्ये परावर्त्तनं दुष्करमिति द्वयोर्विहारः। अन्यचपाहुडविजातिसया, निमित्तमादी सुहं व पइरिके। छेदसुयम्मि व गुणणा, अगीयबहुलम्मि गच्छम्मि॥१२॥ प्राभृतं-ज्योतिषप्राभृतं गुणयितव्यं विद्यातिशया नाम विद्याविशेषा यैराकाशगमादीनि भवन्ति ते वा परावर्तनीया वर्तन्ते / निमित्तम्अतीतादिभावप्ररूपकम्, आदिशब्दात्-योगा मन्त्राश्च परिगृह्यन्ते। एते सर्वेऽपि सुख-सुखेन प्रतिरिक्ते-विविक्ते प्रदेशे अभ्यस्यन्ते, न अगीतबहुले-अगीतार्थसंकुले गच्छे छेदश्रुतस्य व्यवहारादेर्गाथायां सप्तमी षष्ठ्यर्थे गुणनापरावर्तनम् कर्तुं शक्यम्, मा तेषामगीतार्थानां कर्णाभ्यटनतः श्रुत्वा विपरिणामतो गच्छान्निर्गमनमभूदिति सूरेरुपाध्यायस्य चात्मद्वितीयस्यान्यत्र गमनम्।। (10) सम्प्रतियादृशे द्वयोरन्यत्र गमनमुचितं तादृशमाहकयकरणिज्जा थेरा, सुत्तत्थविसारया सुयरहस्सा। जे य समत्था वोढुं, कालगयाणं उवहिदेहं // 13 // कृतकरणानामगीतार्थतया-परिणामकतया चान्यदापि अन्यैः सहानेकशः ईदृशानि कार्याणि कृतवन्तः। यद्यपिचकदाचित् द्वितीयं सहायं न कृतवान् तथाऽपि योग्यतया सकृत्करणीय इव द्रष्टव्यः। स्थविराः श्रुतेन पर्यायेण च, तथा सूत्रार्थयोर्विशारदाः सूत्रार्थविशारदाः, तथा श्रुतानि रहस्यानि अनेकान्यनकेशो यैस्ते श्रुतरहस्या इति सहायं प्रति विशेषणं सूररुपाध्यायस्य वा पूर्वगतसूत्रार्थधारिणोऽधिगतच्छेदश्रुतस्य च श्रुतरहस्यत्वाव्यभिचारात्, तथा द्वयोरेकतरस्मिन् कालगते अपरेण शरीरपरिस्थापनिकां कर्तुं गच्छता द्वयोरप्युपधिः शून्यायां वसतौ न मोक्तव्यो न दस्यवस्तमपहार्युरिति कृत्वा द्वयोरत्युपपधिzतकशरीरं वान्यतरेण वोढव्यं ततो येकालगतानां देहं द्वयोरुपधिं वा वोढुं समर्थास्ते अधिकृत सूत्रविषयाः। तथा चाऽऽह-- एयगुणसंपउत्ता, कारणजाएण ते दुयग्गाऽवि। उउबद्धम्मि विहारो, एरिसयाणं अणुन्नातो॥१४॥ एतैरनन्तरगाथोक्तैर्गुणैः सम्प्रयुक्ता एतद्गुणसम्प्रयुक्ताः, कारणजातेनानन्तरोदितेन केनचित्कारणविशेषेण तावाचार्यादिकावुपाध्यायादिको वा ऋतुबद्धे काले विहरतो न कश्चित् दोषोऽधिकृतसूत्रेणानुज्ञानात्, तथा चाऽऽहईदृशयोर्ऋतुबद्धेकाले अधिकृतसूत्रेण विहारोऽनुज्ञातो दोषाभावात्कारणविशेषेस्य च गरीयस्त्वात् जातेति चत्वारः कल्पाः सूचिताः। तानेवाऽऽहजातो य अजातो वा, दुविहो कप्पो उहोति नायव्वो। एकेको विय दुविहो, समत्तकप्पो य असमत्तो // 15 // द्विविधः खलुकल्पो भवति ज्ञातव्यस्तद्यथा-जातोऽजातश्च / एकैकोऽपि च द्विधा--समाप्तकल्पः, असमाप्तकल्पश्च। एतानेव चतुरो व्याख्यानयतिगीयस्थों जायकप्पो-गीतो खलु भवे अजातो तु। पणगं समत्तकप्पो, तदण्णगो होति असमत्तो।।१६|| जातकल्पो नाम-यो गीतार्थः सूत्रार्थतदुभयकुशलः, अगीतः-अगीतार्थः खलु भवेदजातो-ऽजातकल्पः / समाप्तकल्पो नाम परिपूर्णसहायः, स च जघन्येव पञ्चकंपञ्चकपरिमाण ऋतुबद्धे कालेवर्षाकाले सप्तपरिमाणः तदूनकस्तस्मात्पञ्चकात्सप्तकाद्वा हीनतरः कल्पो भवत्यसमाप्तोऽपरिपूर्णसहायत्वात्। अत्र भङ्गचतुष्टयं तदेवाह-- अहव जातो समत्तो, जातो चेव य तहेव असमत्तो। असमत्तोनातोय, असमत्तो चेव उ अजातो // 17 // अथवेति प्रकारान्तरे पूर्व कल्पचतुष्टयं सामान्यतः प्ररूपितमिदानीं संयोगतः प्ररूप्यते। जातकल्पोऽपिसमाप्तकल्पोऽपीत्येको भङ्गः।जातकल्पोऽसमाप्तकल्प इति द्वितीयः / अजातकल्पः समाप्तकल्प इति तृतीयः / अजातकल्पोऽसमाप्तकल्पइतिचतुर्थः / अत्र प्रथमभङ्गःशुद्धः, शेषेषु तु त्रिषु भङ्गेषु यतना कर्तव्या। 'तेसिं 'जयणे' त्ति सूचागाथोक्तं पदं व्याख्यानयन् प्राहतेसिं जयणा इणमो, भिक्णग्गहनिक्खमप्पवेसे य। ऽणुण्णवणं पिव समगं,तिय गिहें दिनहोहाणं // 18 // तेषामाद्यवानांत्रयाणांभङ्गानामिययतना-समकमेककालंभिक्षाग्रहाय उपलक्षणमेतत् विचाराय च निष्क्रमः, समकमेव चावग्रहस्यानुज्ञापनम्। इयमत्रभावना-भिक्षाग्रहणाय विचाराय वा सर्वमुपकरणमादाय समकमेव निष्क्रामतः समकमेव च प्रविशतः,तथा वसतिप्रथमंयाचमानौ समकमेव शय्यातरमनुज्ञापयतः, तथा निर्गच्छन्तौ समकमेव शय्यातरसमीपमुपगम्य बुवाते, यथा--गृह-गृहस्य प्रतिश्रयस्य उपधानस्थगनंदद्यादिति।
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________________ विहार 1283 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विहार "उडुबद्धे' ति पदव्याख्यानार्थमाह कर्तव्या, कस्य क्षेत्रे भवति कस्याक्षेत्रं; कस्य नाऽऽभवति क्षेत्रमित्यर्थः / उडुबद्धे अविरहियं, एतं जं तेहि होइ साहहिं। तत्र परस्परोपसम्पदा समाप्तकल्पभूतानां भवत्यन्येषां न भवतीत्येवमर्थं कारेइ कुणइ व सयं, गणी वि ओलोयणमभिक्खं // 1 // तथा चैतदेव नियुक्तिकृत्सविस्तरमाहऋतुबद्धे काले तयोः कारणवशतस्तथास्थितयोस्तत्- स्थानमाग उउबखें समत्ताणं, उग्गहो एगदुगपिडियाणं पि। च्छर्दिभिक्षार्थं ग्रामं प्रविशद्धिर्विचारार्थाय वा निर्गत्य मिलनार्थमायद्भि साहारणपत्तेगे, संकमति पडिच्छए पुच्छा॥६८|| गच्छद्भिश्च पुनः स्वस्थानं प्रति प्रचलद्भिः साधुभिरविरहितं भवति 'ओलोयण' तिपदं व्याख्यानयति-योऽसौ गणी आचार्यः सोऽपितयोx पञ्च जनाः समाप्तकल्पा ऊना असमाप्तकल्पाः, ऋतुबद्धे काले योज॑नयोरवलोकनां-गवेषणामभीक्ष्णं द्वितीये तृतीये वा दिने स्वयं बहूनामाचार्याणां परस्परोपसंपदा समाप्तकल्पानामेकदिकपिण्डिताकरोति अन्यैर्वा कारयति। नामपि पञ्चाप्येककाः सन्तः पिण्डिताः एकपिण्डिताः। अथवा-द्विकेन उपसंहारमाह वर्गद्वयेन एकः- एकाकी एकश्चतुर्वर्गः / अथवा-एको द्विवर्गोऽपरस्त्रिवर्ग इत्येवंरूपेण पिण्डिता द्विकपिण्डितास्तेषामेकदिकपिण्डितानामएएहि कारणहि, हेमंते गिम्हें अप्पवीयाणं। पिशब्दात्-त्रिवर्गपिण्डितानां चतुर्वर्गपिण्डितानामपि तत्र त्रिवर्गपिण्डिता धिइदेहमकंपाणं, कप्पति वासो दुवेण्हं पि।।२०।। द्वावप्येका-किनावेकस्त्रिवर्गः, चतुर्वर्गपिण्डितास्थय एकाकिना एको एतैरनन्तरोदितैयाकुलनादिभिः कारणैर्हेमन्ते- शीतकाले ग्रीष्मे-- द्विवर्गः अवग्रह आभवति / न शेषाणामसमाप्तकल्पस्थितानां यदि धर्मकाले द्वयोरप्यात्मद्वितीययोराचार्योपाध्याययोधृत्या देहेन पुनः गच्छौ समाप्तकल्पावेकत्र क्षेत्रे समकं स्थितौ स्यातां तदा तत् चाक्रम्पयोरचाल्ययोधृतर्वज्रकुड्यसमानत्वात्, देहस्य च प्रथमसंहन क्षेत्रमामवति, द्वयोरपि तयोः साधारणम् / तच साधारणं क्षेत्रं तेषां नात्मकत्वात् कल्पते वासस्तदेवमृतुबद्धकालविषयाणि सूत्राणि समाप्तकल्पतया प्रत्येकं स्थितानां मध्ये ये सूत्रार्थनिमित्तं यानुपसम्पद्यन्ते भाष्यकृता प्रपञ्चितानि। (व्या० 4 उ०।) (वसतिविषयः 'वसहि' शब्देऽ तत उत्तीर्य तेषामुपसम्पद्विषयाणामाभाव्यतया संक्रामति / तथा चाह-- स्मिन्नेव भागे 168 पृष्ठादारभ्य दृष्टव्यः) साधारणं क्षेत्र प्रत्येकं व्यवस्थितमपि प्रतीच्छके प्रतीच्छकादुत्तीर्य तेषां अस्य (5) सूत्रस्य सम्बन्धमभिधित्सुराह संक्रामति ते हि प्रतीच्छाकास्तन्निश्रामुपपन्नास्ततस्तेषां क्षेत्रमितरेषां इति पत्तेया सुत्ता, पिंडगसुत्ता इमे पुण गुरूणं / संक्रामति। अथ प्रतीच्छका नोपसम्पद्यन्ते केवलं 'पुच्छ' ति पृच्छामात्रं दुप्पमिई तिप्पमिई,बहुत्तमिह मग्गणा खेत्ते // 66|| सूत्रार्थविषया क्रियते तदा 'पुच्छ' त्ति इत्यादिना मार्गणा कर्तव्या। अत्रैव इत्येवमुपदर्शितेन प्रकारेणाऽष्टौ प्रत्येकानि-प्रत्येकभावीनि सूत्राण्यु- विशेषमाहक्तानि प्रत्येकानन्तरं चः समुदाये इति, इमे पुनदे॒वक्ष्यमाणे पिण्डकसूत्रे / अप्पबितियप्पतइय-ट्ठियाण खेत्तेसु दोसु दोण्हं तु। केषां पिण्डक इत्याह-गुरूणामाचार्यादीनाम: आचार्यादिसमुदायविषये उडुबद्ध होइखेत्तं, गमणागमणं जतो अत्थि 66|| इत्यर्थः / अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य (सू०६) व्याख्या- 'से' शब्दोऽथशब्दार्थः। अथग्रामे वा यावत्करणात्- 'नगरंसि वा पट्टणंसि वा एकस्मिन् क्षेत्रे एक आचार्य उपाध्यायो वा आत्मद्वितीयः स्थितोऽमडंबंसि वा' इत्यादिपरिग्रहः, सन्निवेशे वा बहूनां द्वित्रिप्रभृतीना परस्मिन् क्षेत्रे अपर आचार्य उपाध्यायो गणावच्छेदको वाऽऽत्मतृतीयः भाचार्योपाध्यायानामात्मद्वितीयानां बहूनां द्वित्रिप्रभृतीनां गणावच्छेद स्थितः, केवलं परस्परमुपसंपदा ततस्तयोर्द्वयोरपि क्षेत्रयोरात्मद्वितीयाकानामात्मतृतीयानां हेमन्तग्रीष्मयोश्चरितुं कल्पते अन्योन्यनिश्रया त्मतृतीयस्थितयोः ऋतुबद्धे काले तदुभयमपि क्षेत्रमाभाव्यं भवति। कुत परस्परोपसंपदा। अथ ग्रामे वायावत्सन्निवेशेवा बहूनामाचार्योपाध्याया इत्याह ?- गमनागमनं यतः परस्परमस्ति परस्परोपसम्पन्नत्वादतः नामात्मतृतीयानां बहूनां गणावच्छेदकानामात्मचतुर्थानां च वर्षावासं वस्तुं समाप्तकल्पतया भवत्याभाव्यमिति। कल्पते अन्योन्यनिश्रयेत्येष सूत्रसंक्षेपार्थः / / 6 / / अत्र बहुत्वव्याख्या (11) सम्प्रति यैः कारणैरुपसम्पद्यतेतान्याहनार्थमाह- 'दुष्पभिइ' इत्यादि द्विप्रभृति त्रिप्रभृति वा अत्र बहुत्वमवगन्त- खेत्तनिमित्तं सुहदु-क्खतोबसुत्तत्थकारणे वाऽवि। व्यम्। किमर्थमिदं सूत्रमिति चेत्, उच्यते-इह मार्गणा क्षेत्रे कर्तव्येत्येत असमत्ते उवसंपय-समत्ते सुदुक्खयं मोत्तुं / / 7 / / दर्थम् एकस्मिन् क्षेत्रे स्थितानां कस्य क्षेत्रमाभावति कस्य नेति चिन्तायां असमाप्तस्यः असमाप्तकल्पस्योपसम्पद्भवति क्षेत्रनिमित्तं सुखदुःखये परस्परनिश्रयाऽसमाप्तकल्पा वर्तन्ते तेषामाभवति, अन्येषां नेत्येव हेतोर्वा सूत्रार्थकारणाद्वा। किमुक्तं भवति-अन्यत् तादृशं क्षेत्रं न विद्यते। मर्थमित्यर्थः। यदिवा- असमाप्तकल्पतया विहरतां दुःखं, समाप्तकल्पतया विहरता एतदेवाक्षेपपुरस्सरमाह सुखमिति सुखदुःखहेतोः, अथवा- सूत्रार्थकारणाद्वा असमाप्तकल्पा हेट्ठा दोण्ह विहारो, भणितो किं पुण इयाणि बहुयाणं। अन्यं गच्छमुपसम्पद्यन्ते इति, समाप्ते समाप्तकल्पस्य पुनरुपसम्पदि एगक्खित्तठियाणं, तु मग्गणाखेत्त अक्खेत्ते // 67 / / सुखदुःखतांमुक्त्वा शेषाणि कारणानि द्रष्टव्यानि। समाप्तकल्पा अन्यक्षेत्रं ऋतुबद्धे कालेद्वयोर्विहारोऽधस्तात्पूर्व द्वितीयसूत्रे उपलक्षणमेतत् वर्षासु | तादृशं नास्तीति क्षेत्रनिमित्तं सूत्रनिमित्तं तदुभयनिमित्तं वाऽन्यद् षष्ठसूत्रेण त्रयाणां ततस्तेनैवेदं गतार्थमिति किम्- किमर्थं पुनरिदानी / गच्छान्तरमुपसम्पद्यन्तेन सुखदुःखहेतोः समाप्तकल्पतया तेषां विहरणे बहुकानामाचार्यादीनां ? सूत्रम्, सूरिराह- एकक्षेत्रस्थितानां मार्गणा | दुःखाभावादिति भावः।
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________________ विहार 1284 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 - विहार अथ ते कथमेकाकिनोऽसमाप्ता वा जाता इत्यत आहपडिभग्गेसु मएसु व, असिवादीकारणेसु फिडिया वा। एएण तु एगागी, असमत्ता वा भवे थेरा॥७१।। शेषेषु साधुषु व्रतात् प्रतिभग्रेषु वा मृतेषु वा। अथवा-ये अशिवादिभिः | कारणै स्फिटिताः-परस्परं वित्रुटिता एतेन स्थविरा एकाकिनोऽसमाप्ता वा भवेयुः। साम्प्रतम् ‘एगदुगपिण्डियाणं(६८)' इत्यस्य व्याख्यानार्थमाहएगदुगपिंडिया वि हु, लब्मति अण्णोण्णनिस्सिया खेत्तं / असमत्ता बहुया विहु, न लभंति अणिस्सिया खेत्तं / / 72 / / एककाः पिण्डिता एकपिण्डिताः, द्रिकेन-वगद्वयेन पिण्डिताः अपिशब्दात्-त्रिकपिण्डिताश्चतुष्कपिण्डिताश्च। अमीषां भावना प्रागेवोक्ता हु-निश्चितम्, अन्योऽन्यनिश्रिताः-परस्परमुपसम्पन्ना लभन्ते क्षेत्रम्, ये पुनरसमाप्ताः परस्परोपसम्पद्ग्रहणाभावतोऽसमाप्तकल्पास्तिष्ठन्तिते परस्परमनिश्रिताः,'निमित्तकारणहेतुषु सर्वास विभक्तीनां प्रायोदर्शन' मिति न्यायादत्र हेतौ प्रथमा। ततोऽयमर्थः-परस्परमनिश्रितत्वात् बहुका अपि सन्तो हु-निश्चितं न लभन्ते क्षेत्रं समाप्तकल्पानामेव क्षेत्रस्याऽभवनात् / तथा पूर्वाचार्यकृतिस्थिति। जइ पुण समत्तकप्पो, दुहा ठितो तत्थ होज चउरण्णे। चउरोऽवि अप्पभूते, लभंति दो ते इतरनिस्सा // 73|| यदि पुनः समाप्तकल्पः पञ्चजनात्मको वसतेः सङ्गटनादोषेणैकस्मिन् क्षेत्रे द्विधा स्थित एकस्यां वसतौ द्वौ जनावपरस्यां त्रयस्तथाऽस्मिन् क्षेत्रे अन्यस्यां वसतावन्ये चत्वारोजनाः स्थिता भवेयुस्तथाऽपि चत्वारोऽपि तस्य क्षेत्रस्याऽप्रभवो न तेषां तत् क्षेत्रमाभाव्यं भवति।यौ पुन तौ तत् क्षेत्रं लभेते। कुत इत्याह-इतरनिश्री, अत्राऽपि हेतौ प्रथमा / यस्तस्तावितरत्रयनिश्रातः समाप्तकल्पत्वाल्लभन्ते। अथ कस्मादसमाप्तकल्पानामेकाकिनां चाभाव्यं क्षेत्रं न भवतीत्यह आहएगागिस्स उदोसा, असमत्ताणं च तेणथेरेहि। . एस ठविया उ मेरा, इति विहुमा होज एगागी // 74|| यत एकाकिनः सतोऽसमाप्तानां च-असमाप्तकल्पानां च दोषा भूयांसस्तेन कारणेन स्थविरैरेषा मर्यादा स्थापिता इत्यपि खलु कारणात्' क्षेत्रानाभवनलक्षणत् एकाकिनोसमाप्तकल्पावामा भूवन्निति।व्य०४ उ०। तत्र साधारणशैक्षं वक्तुमाहअक्खेत्तें जस्सुवठितो,खेत्ते वा समठियाण साहारे। वायन्तियववहारे, कयम्मि जो जस्सुवट्ठाइ।।१०।। अक्षेत्रे स्नानादिप्रयोजनतः क्वाप्येकत्र मिलितानां यो यस्योपतिष्ठति शैक्षः सतस्याऽऽभवति। अथवा समकमेककालं ये स्थिताः पृथक्पृथक् समाप्तकल्पास्तेषां समकस्थितानां तत्क्षेत्रं साधारणं; तस्मिन् साधारणे क्षेत्रे समकस्थितानाम्, अथवा- पश्चादागता अप्येवं व्यवस्थां कृत्वा प्रविष्टाः-यस्योपतिष्ठति तस्याऽऽभवति, तत एवं वाचन्तिके व्यवहारे कृतेयो यस्योपतिष्ठति स तस्याऽऽभवति। साधारणट्ठियाणं, सेहे पुच्छंतुवस्सए जो उ। दूरत्थं पिहु निययं, साहेति उ तस्स मासगुरु / / 110 / / विचारादिविनिर्गतं साधुं दृष्ट्वा कोऽपि शैक्षकः पृच्छति कुत्र साधूनां वसतय इति, एवं साधारणस्थितानाम्-साधारणक्षेत्रावस्थितानामुपाश्रयान् पृच्छति शैक्षो यो निजकमात्मीयमुमाश्रयं दूरस्थमपिशब्दात्प्रत्यासन्नं वा साधयतिकथयति तस्य हु-निश्चितं प्रायश्चित्तं मासगुरु / किं कथनीयमित्याहसवे उद्विसियव्वा,(अह) पुच्छइ कयरो य एत्थ आयरितो। बहुस्सय तवस्सि पव्वा-यगो य तत्थ वि कहेयव्वा // 111|| सर्वे यथाक्रममुपाश्रया उद्देष्टव्याः, यथा-अमुकस्याचार्यस्योपाश्रयोऽमुकप्रदेशेऽमुकस्याऽमुके इति, एवं कथिते यत्र यातितेषामाभवति। अथ स पृच्छेत् कतरोऽत्राचार्यः बहुश्रुतो वा तपस्वी वा प्रव्राजको वा तत्रापि तस्यामपि पृच्छायां तथैव कथनीयमन्यथा कथने मासगुरु। सव्वे सुयत्था य बहुस्सुया य, पव्वावगा आयरिया पहाणा। एवं तु वुत्ते समुवेति जस्स, सिद्धे विसेसो चउरो य किण्हा ||११सा अथ सर्वे श्रुतार्थाः सर्वेबहुश्रुताः सर्वेच प्रव्राजकाः सर्वेचाचार्याः प्रधानास्ततस्तथैव यथाभावं कथनीयाः, एवं तूक्ते यस्य समीपं समुपैति तस्याऽऽभवति। अथाऽऽत्मीयानां बहुतरगुणोत्कीर्तनतोऽन्येषां बहुतरनिन्दनेन रागद्वेषाऽऽकुलतथा विशेष कथयति, ततः शिष्ट विशेषे तस्य-विशेषकथकस्य प्रायश्चित्तं चत्वारो मासाः कृत्स्नाः परिपूर्णगुरुका इत्यर्थः। अथ सर्वेषां मिलितानां स शैक्षः समागत एवं ब्रूयात्धम्ममिच्छामि सोउंजे, पव्वइस्सामि रोइए। कहणालवितो हीणो, जो पढमं सो उ साहति॥११३।। धर्म, श्रोतुमिच्छामि युष्माकं पार्श्वे 'जे' इति पादपूरणे, श्रुते धर्मे रुचिते- प्रतिभासिते सति प्रव्रजिष्यामि एवमुक्ते कथना सा धर्मस्य भवति / कः कथयतीति चेदत आह-यो लब्धितः कथनलब्धेरहीनः स प्रथमं साधयति-कथयति / अथाऽन्येऽपि द्वित्रिप्रभृतयो लब्धितः समानास्तहि यो रत्नाधिकस्तेन कथयितव्यम्। पुणो वि कहमिच्छंते, तत्तुल्लं भासते परो। एवं तु कहिए जस्स, उवट्ठायति तस्स सो॥११॥ अहं पुनरपि कथां-- धर्मकथां श्रोतुमिच्छामीति ततः पुनरपि काधर्मकथां श्रोतुमिच्छामीति ब्रवीति, ततः पुनरपि कथा- धर्मकथा श्रोतुमिच्छति परोऽन्यो भाषते परं तत्तुल्यं तावन्मात्रमेवमपरवेलायामन्योऽपि। उक्तं च 'जारिसं पढमेण कहियं तारिसंसेसेहि वि कहेयव्वमिति एवं प्रदीपकथनसदृशता सर्वैः कथिते यस्योपतिष्ठते तस्य स आभवति। अथाऽन्ये विशेषेण विशेषतरेण कथयन्ति तर्हि तेषां न लभन्ते, किं तुयो रत्नाधिकस्तेषां तस्य स आभवति। अणुवसंते च सव्वेसि, सलद्धिकहणा पुण।
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________________ विहार 1295 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विहार * राइणियादि उवसंतो, तस्स सोमाय नासउ॥११॥ अथ यादृशं प्रथमेन कथितं तादृशमन्यैरपि कथिते सनोपशाम्यति-न प्रव्रज्याभिमुखीभूतो भवति ततः तस्मिन्ननुपशान्ते पुनः कथना धर्मास्य सर्वेषां रत्नाधिकादीनां-रत्नाधिकप्रभृतीनां स्वलध्या यथा स्वशक्तितुलनया, एवं च कथने यस्य समीपे स उपशान्तस्तस्याऽऽभवति / कस्मादेवं कथनेति चेदत आह-मा सोऽनुपशान्तः सन् नश्यतु संसारं परिभ्रमत्विति कृत्वा / अथ सर्वे आचार्या एकत्र मिलितास्तिष्ठन्ति सच शैक्षक एवं कञ्चन पृच्छति कोऽऽचार्याः, सर्वे प्रधाना इति, एवमुक्ते यदि शैक्षको ब्रूतेयं जानीथ यूयमाचार्य तं मम दर्शयत। तत्राऽऽहजं जाणह आयरियं, तं देह ममंतिएव भणियम्मि। जइ बहुया ते सीसा, दलंति सदेसिमेकं // 116|| यं जानीथ यू यमाचार्य तं मम 'देह' त्ति दर्शयतेत्येवं भणिते यदि ते शिष्याः शिष्यत्वेनोपस्थिता बहवो भवन्ति, ततः सर्वेषामेकैकं शिष्यं ते एकत्र मिलिताः परस्परसम्मत्या ददति-प्रयच्छन्ति। अथ एकः शिष्यस्तत्र विधिमाहराइणिया थेरा सति, कुलगणसंघे दुगादिणो भेदा। एमेव वत्थपाए, तालायर सेवगा वणिए // 117 / / यधेक एव शिष्यस्तदा यस्तेषां सर्वेषामपि रात्निको रत्नाधिकस्तस्य तं समर्पयन्ति / अथ सर्वे समरत्नाधिकास्ततो यस्तेषां वृद्धतरस्तस्य। अथ सर्वे वृद्धास्तहि यस्य शिष्या नसन्ति तस्य। अथ सर्वेषामपि शिष्या न विद्यन्ते, तत इयं सामाचारी-सर्वेषां शिष्याणामसत्यभावे 'कुल' त्ति यदिते सर्वे समानकुलास्ततः कुलस्थविरस्य तं ददति। अथान्यकुलसत्का अपि तत्र ते तत आह- 'गण' त्ति गणस्थविरस्य समर्पयन्ति। अथान्यगणसत्का अपितत्र विद्यन्ते, तत आह-'संघे त्तिसङ्कस्थविराय ददति / अथवा-स एकः शिष्यः साधारणस्तावत् क्रियते यावदन्ये उपतिष्ठन्ते उपस्थितेषु च तेषु यदा सर्वेषां परिपूर्णा भवन्ति तदा विभज्यन्ते / एवं द्विकादयोऽपि भेदा वाच्याः-द्विप्रभृतीनामपि शिष्याणामुपस्थितानामेव विभाषा कर्तव्या। एवमेव-अनेनैव च प्रकारेण वस्त्रपात्रेऽपिवस्वपात्रादिलाभेऽपि द्रष्टव्यम् ! तच वस्त्रपात्राऽदिकं तालाचरा वा दधुः सेवका वा वणिजो वा एतेषां प्रायो वर्षासुदानसम्भवात्। एनामेव गाथां व्याचिख्यासुः प्रथमतः 'रायणिया थेरा सति' इति व्याख्यानयति-- रायणियस्स उ एगं, दलंतितुल्लेसुथेरगतरस्स। तुल्लेसु जस्स असती, तहावि तुल्ला इमा मेरा // 118|| एक शिष्यमुपस्थितं रात्निकस्य-रत्नाधिकस्य ददाति / अथ सर्वे समरत्नाधिकास्ततस्तुल्येषु रत्नाधिकेषु यः स्थविरतरस्तस्य, अथ सर्वे स्थविरतरास्तर्हि तुल्येषु स्थविरतरेषु यस्य शिष्याणामभावस्तस्य, अथ शिष्याभावेनाऽपि सर्वे तुल्यास्तत इयं मर्यादा। तामेवाहसमकुलगा कुलथेरे गणथेरे, गणिय्वएयरा संधे। रायणिए थेरेऽसति, कुलादिथेराण वि तहेव // 11 // यदि तेसर्वेसमकुलकाः-समानकुलकास्ततः कुलस्थविस्स्य ददति / अथान्यकुलका अपि विद्यन्ते ततः 'सङ्के' सङ्घस्थविरस्य, अथैषां मध्ये तत्कालमेकस्याऽप्यभावस्तत आह-'रायणिए' इत्यादिरत्नाधिकस्थविरस्याभावे कुलादिस्थविराणामपि तथैव अभावे ददति। साहारणं व काउं,दोहि विसारति जाव अण्णो उ। उप्पज्जइ सिं सेहो. एमेव य वत्थपत्तेसुं / / 120|| साधारणं वा तं शिष्यं कृत्वा द्वावपितं तावत्सारयतो यावदन्यशिष्यस्तयोरुत्पद्यते। ततो विभजनमिति। अत्र द्विग्रहणं त्रिप्रभृतीनामुपलक्षणं तेन बहूनामप्ययं न्यायो द्रष्टव्यः / एवमेव वस्त्रपात्रेष्वपि साधारणतया सम्पन्नेषु विधिर्द्रष्टव्यः। अत्र पर आह-- चोएइ वत्थपाया, कप्पंते वासवासि घेत्तुंजे। जइ कारणम्मि सेहो, तह तालचरादिसुं वत्था // 121 / / चोदयति शिष्यः वर्षावासे वस्त्रपात्राणि ग्रहीतुंकल्पन्ते काचा पाठयति प्रश्नावगमः। सूरिराह-यथा कारणे पूर्वोपस्थित इत्येवंलक्षणे अव्यवच्छित्तिकारको भविष्यतीत्येवं रूपे वा अपवादतःशैक्षः कल्पते तथाऽपवादतस्तालाचरादिषु वस्त्राणि उपलक्षणमेतत् पात्राणि च कल्पन्ते। साहारणो अभिहतो, इयाणि पच्छाकडस्स अवयारो। सो उगणावच्छेहय-पिंडगसुत्तम्मि भणिहिति॥१२२|| यदुक्तं प्राक् द्विविध शैक्षं वक्ष्ये-साधारणं, पश्चात्कृतमिति च तत्र साधारणः शैक्षोऽभिहितः, इदानीं पश्चात्कृतस्याऽवतार:-प्रस्तावः स तु गणावच्छेदकपिण्डगसूत्रे गणावच्छेदकबहुत्वसूत्रे भणिष्यते तदेवमाचार्योपाध्यायगतान्येकत्वबहुत्वसूत्राणि भावितानि। संप्रति गणावच्छेदकैकत्वबहुत्वसूत्राणि बिभावयिषुराहएमेव गणावच्छे, एगत्तपुहुत्तदुविहकालम्मि। जं इत्थं नाणत्तं, तमहं वुच्छं समासेणं // 123 / / एवमेवाचार्योपाध्यायसूत्रगतेन प्रकारेण द्विविधे काले-ऋतुबद्धे काले वर्षाकाले चगणावच्छेदकैकत्वपृथक्त्वसूत्राणि भावयितव्यानि। किमुक्तं भवति-यथा आचार्योपाध्या-यानामेकत्वपृथक्त्वसूत्राणि द्विविधकालगतानि व्याख्यातानि, या वाऽऽभवति अनाभवति च समाचारी, तथा गणावच्छेदकस्याऽप्येकत्यपृथक्त्वसूत्राणि द्विविधकालगतानिभावयितव्यानि, सैव च सामाचारी आभवत्यनाभवतीति, नवरभत्र यन्नानात्वं तदहं समासेन वक्ष्ये। तत्र ऋतुबद्धतावद्भण्यते यदि गणावच्छेदक आत्मद्वितीयो वसति तदा तस्य प्रायश्चित्तं मासलघु। इमे च दोषाः-- जह होति पत्थणिज्जा, कप्पट्टी नीलकेसी सव्वस्स।
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________________ विहार 1286 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विहार तव चेव गणावच्छो, किं कारण जेण तरुणो उ॥१२॥ यथा 'कप्पट्ठी' ति बालिका नीलकेशी-कृष्णकेशी; तरुणीत्यर्थः सर्वस्य तरुणस्य महतो वा प्रार्थनीया भवति, तथा गणावच्छेदकोऽपि। किं कारणम् ? सूरिराह-येन कारणेन स गणावच्छेदकस्तरुणस्ततस्तरुणतया तरुण्या महत्या वा प्रार्थनीयो जायते। दोण्हं चउकण्णरहस, हवेज छकंनमो न संभवति। सिद्धं लोके तेण उ, परपञ्चयकारणा तिनि॥१२॥ लोके इदं सिद्धं-प्रतीतं यद्योश्चतुःकर्ण रहस्यं भवति षट्कर्ण 'मो' / इति पादपूरणे। त्रयाणां रहस्यं न सम्भवति, तेन कारणेन परप्रत्ययकारणात् परेषां प्रत्ययोत्पादनार्थं त्रयो विहरन्ति / इतरथा समर्थः स आत्मनिग्रहं कर्तुम् / त्रयोऽपि चोत्सर्गतो नं कल्पन्ते तत इदमपि सूत्रं कारणिकमवगन्तव्यम्। कारणतश्च तेषां त्रयाणां तिष्ठतामियं यतनांजयणा तत्थुदुबद्ध, सममिक्खाणुण्ण णिक्खम पवेसो। दासासु दोण्हि चिहे, दो हिंडेऽसंथरे इयरे॥१२६|| तत्रऋतुबद्धे काले इयं यतना-समकं भिक्षा, समकं शय्यातरस्य समीपे वसतेरनुज्ञा, समकं विचारार्थ निष्क्रमः, समकं वसतौ प्रवेशः। वर्षासु पुनरियम्-द्वौ पश्चात् तिष्ठतो हिण्डेते एतच संस्तरणे, इतरौ द्वौ गणावच्छेदकतदन्यलक्षणौ वसतेः प्रत्यासन्नेषु गृहेषु वसतिं प्रलोकमानौ हिण्डेते यावता न पूर्यते तावदितरानीतं गृहीतः / इदमपि वर्षाविषयं कारणिकम्। अकारणे चतुण्ाँ तिष्ठतां प्रायश्चित्तं चतुर्लघु। सम्प्रति बहुत्वविषये गणावच्छेदकसूत्रे भावयतिएमेव बहूणं पी, जहेव मणिया उ आयरियसुत्ते। जाव य सुओवसंपय, नवरि इमं तत्थ नाणत्तं // 127 // एवमेव अनेनैव प्रकारेण। किमुक्तं भवति-यथा एकत्वे ऋतुबद्धे वर्षासु च पूर्व सूत्रमुक्तमेवं बहूनामपि ऋतुबद्धे वर्षासु च वक्तव्यम्। भावनाऽपिच यथा बहुत्वविषये आचार्यसूत्रे भणिता तथैवाऽत्रापि भणनीया / सा च तावत्यावत् श्रुतोपसम्पत्। तथाहि-तैरपि समाप्तकल्पीकरणार्थमन्योऽन्यनिश्रया वर्तितव्यमः परस्परो-पसम्पदा इत्यर्थः / सा च निश्रा द्विविधा-गीतार्थनिश्रा, श्रुतनिश्राच। तत्रयद्गीतार्थस्य समीपे उपसम्पत्सम्पादनं सा गीतार्थनिश्रा, तया परस्परोपसम्पन्नत्वेन समाप्तकल्पीभूतयोयोस्त्रयाणं वा वर्गाणां समकमागतानां साधारणं क्षेत्रम् / तथा श्रुतार्थ निश्रा श्रुतनिश्रा, साऽपि च यथा प्राक् आचार्यसूत्रेऽभिहिता तथा अत्रापि भणितव्या, नवरमिदं तत्र निश्रायां नानात्वम्। तदेवाऽऽहसाधारणट्ठिया उ, सुत्तत्थाई परोप्परं गिण्हे। वारंवारेण तहिं, जह आसा कंडुयंते उ॥१२८|| ते सर्वे द्विवगास्त्रिवर्गा वा समाप्तकल्पाः समकमेकस्मिन् क्षेते यदि स्थितास्ततः साधारणं तत् क्षेत्रम्, तेतस्मिन् साधारणे क्षेत्र स्थिता यदि यथा वारंवारेणाश्वाः परस्परं कण्डूयन्ति एवं वारंवारेण परस्परं सूत्रमर्थ वा गृह्णन्ति, यथाऽहमद्य तव पार्श्वे गृह्णामि कल्ये त्वं मम पार्श्वे ग्रहीष्यसि / अथवा-पौरुषीप्रमाणेन मुहूत्तैर्वा वारकं कुर्वन्ति तदा यो यदा यस्य पार्चे गृह्णाति तस्य तावन्तं कालमाभाव्यमितरः सूत्रस्यार्थस्य वा प्रदाता अपहरति। अह पुवठिए पच्छा, अण्णो एजाहि बहुस्सुतो खेत्ते। सो खेत्तुवसंपण्णो, पुरिमल्लो खेत्तितो तत्थ॥१२६।। अथ पूर्वस्थिते क्षेत्रिके क्षेत्रस्वामिनि गणावच्छेदके आचार्येवा पश्चादन्यो बहुश्रुतस्तस्मिन् क्षेत्रे आगच्छति तर्हि सतदनुमत्या तत् क्षेत्रमुपसम्पन्न इति तत् क्षेत्रे क्षेत्रिक:-क्षेत्रस्वामी पूर्वतनः एवनपश्चात्तनः। खेत्तेतो जइ इच्छे-जा सुत्तादी उ किंचि गिरोहउं। सीसं जइ मेहाविं, पेसे खेत्तं तु तस्मेव / / 130 // क्षेत्रिकः- क्षेत्रस्वामी यदि पश्चादागतस्य समीपे किञ्चित्तु सूत्रादिग्रहीतुमिच्छति तत्र यदि शिष्यं मेधाविनंप्रेषयतितर्हि क्षेत्रंतस्यैवं पूर्वस्थितस्य न पश्चादागतस्य। असती तस्विहसीसे, अणिखित्तगणे उ वायए संकमति / अहवाय अगीयत्थे, निक्खिवइ गुरुगन य खेत्तं / / 131 / / अथ तथाविधो मेधावी शिष्यो नास्ति ततस्तद्विधे शिष्ये असतिअविद्यमाने अनिक्षिप्ते स्वशिष्यस्य गीतार्थस्य, गणे यदि सूत्रादिपश्चादागतस्य समीपे वाचयति, तर्हि तत्क्षेत्र पश्चादागते वाचयति संक्रामति। अथागीतार्थे स्वशिष्ये गणं निक्षिपति निक्षिप्य च पश्चात्सूत्रादि वाचयति, तर्हि अगीतार्थे गणं निक्षिपतस्तस्य प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः, न च तस्य क्षेत्रं, किंतु सूत्रादिवाचयितुः पश्चादागतस्य। अह निक्खिवती गीते, होई खेत्तं तु तो गणस्सेव। तस्स पुण अतुलाभो, वायंते न निग्गतो जाव / / 132 / / अथगीते-गीतार्थे शिष्ये गणं निक्षिपति निक्षिप्य च पश्चादागतस्य समीपे सूत्रादि गृह्णाति, 'तो' त्ति ततः क्षेत्रं गणस्यैवाऽऽभवति न पाठयितुः पश्चादागतस्याचार्यस्त / अथ यदा गणमनिक्षिप्यागीतार्थे वा निक्षिप्य सूत्रादि गृह्णाति तदा कियन्तं, कालमाभाव्यं तत् क्षेत्रं पाठयितुंः? अत आह-तस्स' इत्यादि, तस्यपुनः पाठयितुंः पुनस्तस्मिन् क्षेत्रिकेवाचयति आत्मलाभः आत्मीयत्वेन क्षेत्रस्यालम्भनं तावत्यावत् सततो गच्छान्न निर्गतोभवति, किमुक्तं भवति-यावत्तस्य समीपे अध्ययनार्थमवतिष्ठते तावत्तस्याध्यापयितुः पश्चादागतस्याऽऽ-भवति तत क्षेत्रम्, यदपि च शिष्यादिकंतस्य सूत्रादि-ग्रहीतुरुपतिष्ठतितदपितस्याऽऽभवति, निर्गत च ततो गच्छात्तस्मिन् भूयस्तस्यैव पूस्थितस्य क्षेत्र संक्रामतीति। आगंतुगोऽवि एवं, ठवेंतों खेत्तोवसंपयं लभति। साहारणे य दोण्हं, एसेव गमो य नायव्यो।।१३३।। आगन्तुकोऽपि एवं पूर्वोक्तेन प्रकारेण गच्छे स्थापयन् क्षेत्रोपसम्पदं लभते / इयमत्र भावना- आगन्तुकोऽपि यदि
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________________ विहार 1287 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विहार पूर्वस्थिते सूत्रादि गृह्णाति अन्यस्यागन्तुकस्य समीपे सूत्रादि जिघृक्षु मेधाविनं शिष्यं प्रेषयति, यदिवा-गीतार्थे गणं निक्षिप्य स्वयं वाचयति तदा तत्क्षेत्रं तस्यैव मूलागन्तुकस्याअथ गणमनिक्षिप्त अगीतार्थे वा गणं निक्षिप्य सूत्रादि गृह्णाति तदा ग्राहयितुः क्षेत्रम्, अगीतार्थस्य च गणं निक्षिपतः प्रायश्चित्तं चतुर्गुरुकमिति / तथा साधारणे च द्वयोराचार्ययोः क्षेत्रे सूत्रादिग्रहणचिन्तायामेष एव गमोज्ञातव्यस्तद्यथा-द्वयोः साधारणक्षेत्रे एको यद्यपरस्य समीपे सूत्रादिकं ग्रहीतुकामः प्राज्ञ विनीतं शिष्यं प्रेषयति,गण वा गीतार्थे निक्षिप्य स्वयं गृह्णाति तदोभयोरपि साधारणम् / अथ गणमनिक्षिप्यागीतार्थे वा निक्षिप्य वाचयति तदाऽध्यापयितुः क्षेत्रं नेतरस्य, तदपि च तावद्यावत्स ततो गच्छान्न निर्गच्छति। निर्गत उभयोः साधारणम्। अगीतार्थस्य गणाध्यारोपे प्रायश्चित्तं चतुर्गुरुकम्। * साहारणो उ भणितो, इयाणि पच्छा कडं तु वोच्छामि। सो दुविहो बोधयो, निहत्थसारूविओ चेव // 13 // साधारणोऽभिहितः इदानीं पश्चात्कृतं वक्ष्यामि, स च पश्चात्कृतो द्विविधः / तद्यथा-गृहस्थः सारूपिकश्व गृहेगृहलिङ्गे तिष्ठतीतिगृहस्थः, समान रूपं सरूपं तेन चरतीति सारूपिकः। अनयोरेव स्वरूपमभिधित्सुराहअसिहो ससिह गिहत्थो, रयहरवजो उ होइ सारूवी। धारेइ निसिज्जंतु, एगं ओलंबगं चेव / / 13 / / गृहस्थः पश्चात्कृतो द्विविधः- अशिखः, सशिखश्च / तत्र यः केशान् धारयति स सशिखाकः, यस्तु मुण्डनेन तिष्ठति सोऽशिखाको भवति, रजोहरणवर्जः, रजोहरणग्रहणं दण्डकपात्रादीनामुपलक्षणम्। ततोऽयमर्थः- यः केवलं शिरसो मुण्डनमात्रं कारयति न च रजोहरणदण्डकपात्रादिकं धरति सोऽशिखाक इति / यस्तु सारूपी सारूपिकः स एकनिषद्यामेकनिषद्योपेतं रजोहरणम् अवलम्बकंदण्डकमुपलक्षणमेतत् पात्रादिकं च धारयति, शिरश्च मुण्डयति। अत्राऽऽभवनमाहगिहिलिंग पडिवाइ, जो ऊ तदिवसमेव जो तंतु। उवसामेती अण्णो, तस्सेव ततो पुरा आसी॥१३६|| यो व्रतं मुक्त्वा गृहिलिङ्गं प्रतिपन्नो योऽन्य उपलक्षणमेतत् मूलाचार्यो वा तद्दिवसमेव उपशमयति पुनरपि व्रतग्रहणायाभिमुखीकरोति येनैव उपशमितस्तस्यैवाऽऽभवति, न मूलाचार्यस्य / उक्तं च-"पच्छाकडो गिहत्थीभूतो तदिवसँ पव्वइउमिच्छइ। जस्स सगासे इच्छइ, तस्सेवय होइ सो चेव / / " इति एष विधिः पुरा आसीत्, संप्रति पुनर्लिङ्ग परित्यक्तेऽपि त्रिषु वर्षेषु गतेषु तदाभवनपर्यायः परिपूर्णो भवति नाऽऽरतः-(न अक्)ि / किं कारणं केव वाचार्येणेयं मर्यादा स्थापियेति चेदत आहइम्हि पुण जीवाणं, उक्कडकलुसत्तणं वियाणित्ता। तो महबाहुणा उ, तेवरिसाठाविया ठवणा / / 137 / / इदानीं पुनर्जीवानामुकृष्टं कलुषत्वं विज्ञाय ततो भद्रबाहुना त्रैवर्षिकात्रिवषप्रमाणा स्थापना मर्यादा स्थापिता। चारित्रतडागे संयमोदकपरिवहनरक्षणार्थं त्रैवर्षिकी मर्यादा पालीकृतेति भावः। सम्प्रति त्रैवर्षिक्यामेव स्थापनायां विशेषमभिधित्सुराहपरलिंग निण्हवे वा, सम्मइंसणजहे उ संकंते। तहिवसमेव इच्छा, सम्मत्तजुते समा तिषिण / / 138 // परलिङ्गं द्विधा-गृहिलिङ्ग,परतीर्यिकलिङ्गं चातत्रेह पररतीर्थिकलिङ्ग गृह्यते तस्मिन् - परतीर्थिकलिङ्गं निवे वात्यक्तसम्यग्दर्शने संक्रान्ते यस्य समीपे तद्दिवसमपीच्छा तस्य स आभवति / अयमत्र भावः--स भग्नचारित्रपरिणामः सम्यग्दर्शनमपि परित्यज्य परिव्राजकादीनां निह्नवानां मध्ये गतः, यदि तद्दिवसमेव यस्य समीपे प्रव्रजितुमिच्छति ततः स तस्यैवाऽऽभवति न मूलाचार्यस्य / अथ सम्यक्त्वसहितः परलिङ्गादिषु गतस्ततस्तस्मिन् सम्यक्त्वयुतेपरलिङ्गादिगतेमूलाचायमर्यादा तिस्रः समाः-त्रीणि वर्षाणि त्रिषु वर्षेशु पूर्णेषु पूर्वपर्यायस्तुट्यति। एमेव देसियम्मि वि, सभासिएणं तु समणुसिम्मि। ओसण्णेसु वि एवं, अचाइण्णेन पुण एहिं // 139 / / एवमेव- अनेनैव प्रकारण दोशकऽपि समाभाषिकेण समानभाषाव्यवहारिणा समनुशिष्ट ज्ञातव्यम्। किमुक्तं भवति-द्रविडान्ध्रादिदेशोद्भवो म्लेच्छप्राय आर्यभाषामजानानो यो विपरिणतःसन्त्यक्तसम्यक्त्वो गृहस्थीभूतः परिव्राजकादिषु निहवेषु वा मिलितो यदि केनाऽपि सामाषिकेण समनुशिष्टः सन्प्रत्यावर्त्ततेतर्हि तस्य समनुशासकस्याऽऽभवति, नाऽन्यस्य। अथ ससम्यक्त्वः परलिङ्गादिषु गतस्तर्हि मूलाचार्यपर्यायपरिमाणं तिस्रः समाः।अवसन्नेष्वपिएवं पूर्वमासीत, यथा अवसन्नीभूतं तद्दिवसमपि यत्र प्रशमयति स तस्याऽऽभवति / इदानीं पुनः कषायैरत्याकीणे नेयं व्यवस्था, किंतु-त्रीणि वर्षाणि / उक्तो गृहस्थः पश्चात्कृतः। सम्प्रति सारूपिकमधिकृत्याहसारूवी जजीवं, पुवायरियस्स जे य पवावे / अपवाविएँ सच्छंदो, इच्छाएजस्स सो देइ / / 140 / / सारूपिको रजोहरणादिधारी स यावज्जीवं पूवाचार्यस्याऽऽभवति न तु त्रिवर्षप्रमाणा तस्य मर्यादा। यानि च ससारूपिकः प्रव्राजयितुंमुण्डूितानि करोति तान्यपिपूर्वाचार्यस्याऽऽभवन्ति तेन मुण्डितत्वात्।यानि पुनस्तेत न मुण्डितानि किं त्वद्यापि सशिखाकानि वर्तन्ते तदायत्तानि च तान्यप्रव्राजितान्यधिकृत्य स्वच्छन्द आत्मेच्छा। तथा चाह-यस्येच्छ्या स ददाति तस्याऽऽभवान्त नाऽन्यस्येति / एतचाऽपुत्रादिषु द्रष्टव्यं, पुत्रादीनि पुनः पूर्वाचार्यस्याऽऽभवन्ति। जो पुण गिहत्थमुंडो, अहवा मुंडो उतिण्ह वरिसाणं / अरिणं पवावे, सयं च पुवायरिए सव्वं / / 141 // यः पुनर्गृहस्थ इव मुण्डो गृहस्थमुण्डः क्षुरेण मुण्ड इ
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________________ विहार १२८८-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विहार त्यर्थः / अथवा-मुण्डो लोचेन मुण्ड एष द्विविधोऽपि मुण्डो गृहस्थत्वं करोति, न तु रजोहरणदण्डपात्रादि धारयति, तेन सारूपिकाद्भिन्नः स त्रयाणां वर्षाणामारतोऽर्वाक यानि प्रव्राजयति-मुण्डितानि करोति तानि स्वयं च यावत्रीणि वर्षाणि न पूर्यन्ते तावत्सर्वं पूर्वाचार्यस्याऽऽभवति। अप्पावितें सच्छंदा, तिण्हं उवरिंतु जाणि पव्वाबे। अपव्वावियाणिजाणिय, सो दियजस्सिच्छए तस्स॥१४२।। यानि पुनस्त्रयाणां वर्षाणामारतोन प्रवाजितानि-नमुण्डितानि कृतानि किं तु सशिखाकानि वर्तन्ते तानि स्वचछन्दात् यस्मै प्रयच्छति तस्याऽऽभवन्ति, त्रयाणां वर्षाणामुपरिपुनर्यानि प्रव्राजयति--मुण्डितानि करोति यानि वा प्रव्राजितानि सशिखाकानि तिष्ठन्ति सोऽपि च स्वयमात्मना यस्य सकाशे इच्छति-प्रतिभासते तस्य समीपे प्रव्राजयति प्रव्रजति चतानि यस्येच्छति तस्याऽऽभवन्ति त्रिवर्षमर्यादायाः परिपूर्णीभूतत्वात्। गंतूणं जइ वेत्ती, अहयं तुझं इमाणि अन्नस्स। एयाणि तुज्झनाहं, दो वि तुज्झं दुवेऽण्णस्स / / 143|| त्रिवषप्रमाणायां मर्यादायामतिक्रान्तायां पूर्वाचार्यस्य समीपंगत्या यदि ब्रूते- अहं युष्माक्रमन्तिके प्रव्रजिष्यामि, यानि पुनरिमानि मम समीपे उपस्थितानितान्यन्यस्याऽमुकस्य पार्श्वे प्रव्रजिष्यन्ति। अथवा-एतानि युष्माकमहमन्यस्य, अथवा-द्वावपि एतान्यहं च युष्माकं, यदि वाद्वावपि एतान्यहं चान्यस्य तदा यदिच्छति तत् प्रमाणम्। तदेवाहछिण्णम्मि उ परियाए, उवट्ठियंते उपुच्छिउं विहिणा। तस्सेव अणुमएणं, पुवदिसा पच्छिमा वाऽवि॥१४॥ छिन्ने पर्याये; वर्षत्रयमर्यादायामतिक्रान्तायामित्यर्थः तस्मिन् स्वयमुपतिष्ठति अन्यांश्चोपस्थापयति विधिना, तं दृष्ट्वा तस्यैवोपतिष्ठतोऽनुमतेनेच्छया पूर्वा दिक् पश्चिमा वा दीयते, किमुक्तं भवति- यदि पूर्वाचार्यमिच्छति ततः पूर्वाचायस्याऽऽ-भवति / अथाऽन्यं त_न्यस्य शेषतदुपस्थापितविषयेऽपिच तस्येच्छा प्रमाणं, सा च प्रागेवोपदर्शिता। स यदि सम्यगुपशान्तः सन् स्वकमाचार्यमाश्रयते तर्हि स प्रव्राजनेन संग्रहीतव्यः, यदि पुनर्न संगृह्णाति ततः प्रायश्चित्तं मासलघु / अन्यच तेनाऽसंग्रहणे यदि तस्य श्रद्धाभङ्गो भवति, यदपि चान्यस्य समीपे दूर गच्छन् पथि स्तेनश्वापदादिभ्योऽनर्थ प्राप्नोति तन्निमित्तमपि तस्य प्रायश्चित्तं तस्मादवश्यं संग्रहीतव्यः। संविग्गमुहिसंते, पडिसेवंतस्स संथरे गुरुगा। किं अम्हं तु परेणं, अहिकरणं जं तु तं तेसिं // 14 // अथान्यस्य समीपे प्रव्रजन् स पूर्वाचार्यमात्मीयं संविनिमुद्दिशति / प्रकाशयति, तस्मिन् संविग्नमुद्दिशति यस्य समीपे प्रव्रजितुमिच्छति स यदि प्रतिषेधति, यथा-किमस्माकं परेण-परकीयेन यत्येषामधिकरणं तत्तेषां भवत्विति तस्य एवं प्रतिषेधत प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः। एतच संस्तरणे सति द्रष्टव्यम्। अथासंस्तरन् प्रतिषेधति ततः शुद्धः। अथ स पूर्वाचार्यस्यैव पार्श्वे कस्माल्लिङ्गं न प्रतिपद्यते ? उच्यते-- आचार्याः, यदि वा-यत्र यत्रतेपूर्वाचार्या विहरन्तितत्र तत्र तस्य सागारिकं किमपि अतिदूरे वा ते उपलभ्यन्ते, ग्लानो वा पूर्वाचार्यों जात इति। एवं खलु संविग्गे, संविग्गे वारणा न उदिसणा। अन्भुवगतों जं भणती, पच्छ भणंतेण से इच्छा / / 146|| एवमुक्तेन प्रकारेण संविग्ने पूर्वाचार्ये उद्दिश्यमाने खलु विधिरुक्तः। अथ स पूर्वाचार्यमात्मीयमसंविग्नमुद्दिशति, तर्हि तेनाऽसंविग्रे पूर्वाचार्ये उद्दिश्यमाने तस्य वारणाप्रतिषेधः कर्तव्यो न दातव्या तस्य प्रव्रज्या गुरुनिन्दकत्वादिति भावः। न च स तं पूर्वाचार्यमसंविनमुदिशेत्, एष भगवतां परमगुरूणामुपदेशः। 'न उदिसणा' इत्यादि, अथ स ब्रूते नाहं संविनमसंविनंवा पूर्वाचार्यमुद्दिशामि, किंतु-त्वमेव मभाचार्य इति, तर्हि यदि पूर्वाचार्यस्य नोद्देशना, यं वाऽभ्युपगतस्तं प्रत्येवं भणति, ततः स प्रव्राजनीयः। अथ स प्रवाजितःसन्पश्चाद्वदेत् यथा पूर्वाचार्यस्याऽहं न युष्माकमिति तत आह-पश्चादेवं भणति, तस्मिन्न 'से' तस्य इच्छा, किंतु-यमभ्युपगतस्तस्यैव सः। एतदेव स्पष्टतरमाहएमेव निच्छिऊणं, उट्ठतो पच्छ तेसिमाउट्टो। इयरेहि व रोसवितो, सच्छंददिसं पुणो न लभे // 147|| उपतिष्ठन् प्रव्रज्यां जिघृक्षुरेवमेव मे त्वमाचार्य इति निश्चित्य प्रव्रजितः सन् यः पश्चात्तेषां पूर्वाधार्याणामात्मीयानामावृत्तो जायते, इतरैर्वा येषां समीपे प्रव्रजितस्तैर्वा रोषितः सन् अहं पूर्वाचार्यस्यैवनयुष्माकमितिस एवं बुवाणः पुनः स्वच्छन्ददिशंस्वेच्छया दिशं न लभते, किं तु यमभ्युपगतस्तस्यैव स इति। यस्तु पश्चात्कृतो न ज्ञातो यस्यानुज्ञातस्याऽपि पूर्वदिक्संग्रहणे भावोन ज्ञायते तस्य मलङ्गदाने विविधमाहअण्णाते परियाए, पुण्णे न कहे जो समुहेंतो। लजाएँ मा य गेज्झति, मा वन दिक्खिन मे भयणा // 148|| अज्ञातः सन् यः पर्याये पूर्णेऽपि समुपतिष्ठन् आत्मानं न कथयति यथाहममुकस्याऽऽचार्यस्य पश्चात्कृत इति। कस्मान्न कयमति इतिचेदत आह- लज्जया, यदि वामा तत्पाक्षिकेण केनाऽप्यहं ग्रहीष्ये, अथवामाम् अमी पश्चात्कृतं ज्ञात्वा न दीक्षयेयुरिति भजनात्-विकल्पनात् न कथयति। नाते व जस्स भावे, न नज्जए तस्स दिजए लिंगे। दिण्णम्मि दिसिं नाहिति, कालेण व सो सुणंतो वा||१vel ज्ञातेवा पश्चात्कृततया तस्मिन् प्रव्रज्यार्थमुपस्थितेयस्य भावोन ज्ञायते केनाऽपि कारणेन पूर्वाचार्यसमीपंन गत इति तस्य ज्ञातस्याज्ञातस्य वा लिङ्ग दीयते, दत्ते च लिङ्गे स आत्मीयां दिशं कालेन पूर्वाचार्यस्य लक्षणं हास्यति, स वा पूर्वाचार्यः कालेन परम्परया शृण्सन्तं ज्ञास्यति, ततो यस्य समीपे ? यस्य समीपमुपमच्छतु। व्य० 4 उ०।
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________________ विहार 1286 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विहार कैः सह विहारं कुर्यात् कैः सह वा न कुर्यात् ? तत्राऽपि प्रथमं येन मुनिना छडास्थेनापि साकं केवली विहरेत्, तत्स्वरूपं गाथाद्वयेनाऽऽहगीअत्थे जे सुसंविग्गे, अणालस्सी दढध्वए। अक्खलियचरित्ते सययं, रागद्दोसविवजए॥४१॥ निहविअअट्ठमयठाणे, सोसि (य) कसाए जिइंदिए। विहरिजा तेण सद्धिं तु, छउमत्थेण वि केवली // 42 // अनयोव्याख्या-गीतः-परिज्ञातोऽर्थः छेदसूत्रस्य येन स गीतार्थः, यदा--गीतार्थावस्य विद्येते इत्यभ्रादित्वादप्रत्यये गीतार्थः। तत्र गीतम्सूत्रम् अर्थः-तद्व्याख्यानम्। उक्तं च श्रीबृहत्कल्पभाष्यपीठिकायाम् "गीयं गुणितेगट्ठ, विदियत्थं खलु वयंति गीयत्थं / गीएण स अत्थेण य, गीयत्थो वा सुयं गीयं / / 1 / / गीएण होइ गीई, अत्थी अत्थेण होइ नायव्वो। गीएणय अत्थेण य, गीयत्थं तं वियाणाहि॥२॥" यः सुसंविग्गे' त्ति अत्यर्थ संवेगवान् आलस्यमस्यास्तीति आलस्यी न आलस्यी अनालस्यी आलस्यरहित इत्यर्थः, दृढानि-- निश्चलानि व्रतानि-नियमा उत्तरगुणा इति यस्यासौ दृढव्रतः, अस्खलितम्अतीचाररहितं चारित्रं मूलगुणरूपं यस्याऽसौ अस्खलितचारित्रः, सततमनवरतं रागद्वेषविवर्जितः तत्र मायालोभात्मको रागः क्रोधनामात्मको द्वेष इति, निष्ठापितानिक्षयं नीतान्यष्टौ मदस्थानानिमानभेदा जातिकुलरूपबललाभश्रुततपोविभवभदाख्या येनाऽसौ निष्ठापिताष्टमदस्थानः, शोषिताः कषायाः सभेदाः क्रोधमानमायालोभाख्याः, नोकषायावा येनासौ शोषितकषायः, जितान्यात्मवशीकृतानीन्द्रियाणि श्रोत्रदृगनासाजिह्वात्वगमनोरूपाणि येनाऽसौ जितेन्द्रियः स्यादिति शेषः / एवंविधेन तेन छदास्थेनाऽपि सार्द्ध केवलमेकं ज्ञानमस्यास्तीति केवली विहरेत्- विचरेत् / तुशब्दादेकत्र वसेदपि / यद्वा-- तेन छास्थेन सार्द्ध केवल्यपि विहरेत् छपस्थस्तु तेन सार्द्ध सुतरां विहरेदित्यर्थः / इति विषमाक्षरेति लक्षणे गाथाछन्दसी॥४१॥४२॥ ग०२ अधि०। (यैः सह विहारादिन विधीयते ते 'अगीयत्थ' शब्दे प्रथमभागे 162 उक्ताः।) (केन सार्द्ध केवली विहरेदिति 'परदारगमण' शब्दे पञ्चमभागे 527 पृष्ठे दर्शितम्।) नो खलु कप्पइ देवाणुप्पिया ! समणाणं० जाव पमत्ताणं विहरित्तए। (सू०५५४) ज्ञा०१ श्रु०५ अ०। (12) वर्षासुन विहरेत्नो कप्पइ निग्गंथाणंवा निग्गंथीण वावासावासासु चरित्तए॥३६|| अस्य सम्बन्धमाह-- अहिगरणं काऊण व, गच्छइ तं वाऽवि उवसमेतुं जे। पुव्वं च अणुवसंते, खामेस्सं वयति संबंधो // 562| अधिकरणं कृत्वा कषायानुबद्धमना अन्यत्र ग्रामादौ गच्छति, यता-- | तदधिकरणमुत्पन्नं श्रुत्वा कश्चिद्धर्मश्रद्धावान्, तदुपशमयितुमागच्छति। 'जे' इति पादपूरणे। यदिवा पूर्वमनुपशान्तः सन्नन्यत्र ग्रामादौ गतस्तत्र च स्वयमन्योपदेशेन वा क्षमयिष्याम्यहं तं साधुमिति / परिणाममुपगतो भूयस्तत्रैव ग्रामे व्रजति, तच गमनमनेन सूत्रेण वर्षासु प्रतिषिध्यते इत्ययं पूर्वसूत्रेण सहास्य सम्बन्धः। __ अथास्यैव तृतीयं सम्बन्धप्रकारं व्याख्यातिअहवा अखामियम्मि, त्ति कोइ गच्छेज ओसवणकाले। सुभमवितम्मि उगमणं, वासावासासु चारेउं ||563|| अथवा अनुपशान्त एवान्यत्र गतस्तत्र च वर्षासुपर्युषणाकाले समायाति सत्यधिकरणे मया न क्षमितम्; अतः कथं मे सांवत्सरिकप्रतिक्रमणं विधीयमानं शुद्धमेष्यतीति परिभाव्य यत्र द्वितीयः साधुश्चतुर्मास्यां स्थितोऽस्ति तत्राधिकरणं क्षमयितुं गच्छति, तच तत्र गमनं शुभमपि वर्षावर्षास्वनेन सूत्रेण वारयति इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्याऽस्य (सू० ३६)व्याख्या-नो कल्पते निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीनांवावर्षोपलक्षिता वर्षा वर्षावर्षास्तासु। 'चर' गतिभक्षणयोरिति धातुरत्र गत्यर्थो गृह्यते ग्रामात् ग्रामं पर्यटितुमित्यर्थः / यदा-भक्षणार्थोऽप्यत्र गृह्यते, तथाहि-भक्षणंसमुद्देशनं तच्च यथा ऋतुबद्धेसाधूनां तथा वर्षासु कर्तुं न कल्पते, तदानीं हिचतुर्थभक्तादिप्रत्याख्यानपरायणैर्भवितव्यं विकृतीनां चाभीक्ष्णं ग्रहणं न कर्तव्यमिति सूत्रार्थः। अथ नियुक्तिविस्तरःवासावासो, दुविधो, पाउसवासो उ पाउसे गुरुगा। वासासु होति लहुगा, ते वि य पुण्णे अणितस्स ||16|| वर्षा एव वासो वर्षावासः, स द्विधा--प्रावृद, वर्षा रात्रश्च / तत्र श्रावणभाद्रपदमासौ प्रावृडुच्यते, आश्विनकार्तिको तु वर्षा रात्रः। आह च चूर्णिकृत- "पाओसोसावणो भद्दवओअ, वासारत्तो आसोओ कत्तिओ अत्थि।" तत्र यदि प्रावृषि ग्रामानुग्रामं चरति तदा चतुर्गुरुकाः, वर्षासु विचरतश्चतुर्लघुकाः,तएव चत्वारो लघुकाः पूणे वर्षारात्रे अनिर्गच्छतः प्रायश्चित्तम्। तत्र प्रावृषि विहरतस्तस्य दोषानाहवासावासविहारे, चउरो मासा हवंतऽणुग्धाया। आणाइणो यदोसा, विराहणा संजमायाए॥५६५|| इह वर्षावासः श्रावणो भाद्रपदश्चाभिधीयते, तत्र विहारं कुर्वतश्चत्वारो मासा अनुदाता गुरवः प्रायश्चित्तं भवति। आज्ञादयश्च दोषाः, विराधना च संयमाऽऽत्मविषया। तामेव भावयतिछक्कायण विराहण, आवडणं विसमखाणुकंटेसु / वुज्झण अमिहणरुक्खो,ल्ल सावय तेणे गिलाणे य॥५६॥ वर्षासु विहरतः षट्कायानां विराधना, तथा आपतनं वर्षे निपतति वर्षाकल्पादितीमनभयाद् वृक्षादेरधस्तिष्ठतः तदीय-शाखादिना शिरस्य-भिधातो भवेत्, यद्वा-आपतनं कर्दमे पिच्छिल्ले प्रविश्य लचन् विषमे च भूप्रदेशे निपतेत्, स्थाणुकीलकः स पादयोरास्फालेत् कण्टकैर्वा पादतले विद्ध्येत्, उदकवाहेन वा गिरिनद्यां या वाहनमु
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________________ विहार 1290- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विहार क्षिप्याऽन्यत्र नयनं भवेत् / तथा गिरिनदीतटीकया मार्गे गच्छतोऽभिघातो भवेत्। 'रुक्खोल्ल'त्तियद्यार्दीकरणभयावृक्षमालायते सच वृक्षः प्रबलवातप्रेरिततया पतेत्, तत्राऽऽत्मसंयमविराधना। तथा यस्य वृक्षस्याधस्तिष्ठतितस्योपरि चित्रकादिकः श्वापदः आरूढो भवेत् तेनानागाढमागाढं वा परिताप्येत 'तेणे' त्ति अवहमानेषु मार्गेषु द्विविधाः स्तेनाविश्वस्ताः संचरेयुः, तैरुपधेर्वा तस्य वा साधोरपहारः क्रियते। अकाले वा परिभ्रमन् स्तेनक इति शङ्कयेत ? 'गिलाणे' त्ति तीमनादिके चोपभुक्ते अजीर्यमाणे ग्लानो भवेत् / एवमेतेष्वात्मविराधना संयमविराधना संयमात्मविराधना वा या यत्र सम्भवति सा तत्र योजनीया। अथ षट्कायविराधनां व्याख्यानयतिअक्खुन्नेसु पहेसुं, पुढवी उदगम्मि होइ उहओ वि। उल्लपयावणअगणी, इहरा पणगो हरियकुंथू।१९७|| अक्षुण्णा-अमर्दिताः पन्थानः प्रावृषि भवन्ति तेषु विहरन् पृथ्वीकार्य विराधयति, तथा द्विविधमापः भौमान्तरिक्षभेदाद् द्विप्रकारमप्युदकं तदा सम्भवति ततोऽप्कायविराधना, वर्षेणाऽऽीभूतमुपधिं यद्यग्निना प्रतापयति तदाऽग्निविराधना। यत्राऽग्निस्तत्र वायुरवश्यं भवतीति वायुविराधनाऽपि / इतरथा यदि उपधिं न प्रतापयति तदा पनकाः संमूर्च्छन्ति, तत्संसक्तं चोपधिं प्रावृण्वतः प्रत्युपेक्षमाणस्य वा अनन्तकायसङ्घट्टनादिनिष्पन्नं प्रायश्चित्तम् / हरितानि वा दूर्वादीनि तदानीमचिरोद्गतानि चिरन्तनानि च भवेयुः ततो वनस्पतिविराधना। अप्रत्युपेक्षमाणे उपौ कुन्थुप्रभृतयोजन्तवः सम्मूर्च्छन्ति, मार्गे गच्छतामिन्द्रगोपसिसुनागुकुत्तिकादयस्त्रसप्राणिनो बहवो भवन्ति, ततः त्रसकायविराधना, एवंषण्णामपि कायानां विराधना यतः प्रावृषि विहरतां भवति अतोन विहर्त्तव्यम्। द्वितीयपदे विहरेदपि कथमित्याहअसिवे ओमोयरिए, रायडुढे भए व गेलण्णे। आवाहादीएसुव, पंचसु ठाणेसुरीएला // 168ll अशिवे परपक्षतोऽवमौदर्ये वा संजाते असंस्तरन् गच्छेत्, राजद्विष्ट विरोधनाभयेवागच्छेत्। भये वा बोधिकस्तेनसमुत्थे यद्यमी मां द्रक्ष्यन्ति ततोऽपहरिष्यन्तीति मत्वा वा गच्छेत्, ग्लानो वा कश्चिदप्यत्र सञ्जातस्तस्य प्रतिचरणार्थं गच्छेत्, आबाधादिषु वा पञ्चसु स्थानेषूत्पन्नेषु प्रावृष्यपि रीयेत्-ग्रामान्तरं गच्छेत्। (3) तान्येवाबाधादीनि स्थानानानि दर्शयतिआबाहे व भये वा, दुब्भिक्खे वाहवादओ हंसि। पवाहणे व परेहि, पंचहि ठाणेहिं रीइला IEl आबाधंनाम-मानसी पीडा-भयं स्तेनादिसमुत्थं दुर्भिक्ष प्रतीतम् एतेषु समुत्पन्नेषु, अथवा-- वाढके नौपानीयप्रवाहे प्रतिश्रये ग्रामे वा व्यूढेसति परैर्वा प्रत्यनीकैर्दण्डकादिभिः प्रमथने परिभवे ताडने वा विधीयमाने एतेषु पञ्चसु स्थानेषु प्रावृष्यतिरीयेत्। एतंतु पाउसम्मि, मणियं वासासु नवरि चउ लहुगा। ते चेव तत्थ दोसा, बितियपदं तं विमुंचतं // 600|| एतदनन्तरोक्तं प्रायश्चित्तदोषजालं द्वितीय पदं च प्रावृषिभणितम्। अथ वर्षासुवर्षारात्रे अश्विनकार्तिकरूपे चरति ततश्चतुर्लधुकाः प्रायश्चित्तं,त एव च षट्कायविराधनादयो दोषाः / तदेव च द्वितीयपदमभिधीयतेअसिवे ओमोयरिए, राय(हे भये व गेलण्णे। नाणाइतिगस्सट्ठा, वीसुंभण पेसणेणं वा॥६०१।। अशिवे अवमौदर्ये राजद्विष्ट भये वा ग्लानकारणे वा समुत्पन्ने वर्षासु ग्रामानन्तरं गच्छेत् एतावत्प्रागुक्तमेव द्वितीयपदम्। अथैतदपरमुच्यते-- ज्ञानादित्रयस्याऽपि अर्थे योऽन्यत्र वर्षासु गच्छेत् तत्र अपूर्वः कोऽपि श्रुतस्कन्धोऽन्यस्याऽऽचार्यस्य विद्यते, सच भक्तं प्रत्याख्यातुकामो वर्तत सच श्रुतस्कन्धस्तस्मादाचार्यादगृह्यमाणो व्यवच्छिद्यते अतस्तदध्ययनार्थे वर्षास्वपि गच्छेत् / एवं दर्शनप्रभावकशास्त्राणामप्यध्ययनार्थं गच्छेत् / चारित्रार्थं नाम तत्र क्षेत्रे स्त्रीसमुत्थदोषैरेषणादोषैर्वा चारित्रं न शुद्ध्यति तन्निमित्तमन्यत्र वर्षासुगच्छेत् 'वीसुंभणं' -- मरणं तत्र यस्याऽऽचार्यस्य ते शिष्याः सआचार्यो मरणमुपगतः,तस्मिश्च गच्छे अपर आचार्यो न विद्यते अतस्ते वर्षास्वप्यन्यं गणमुपसंपत्तुंगच्छेयुः, अथवा-विश्वग्भवनं नाम कश्चिदुत्तमार्थ प्रतिपत्तुकामस्तस्य विशोधिकरणार्थ गच्छेत् / 'पेसणेणं व' त्ति कश्चिदाचार्येणान्यतस्मिन् औत्पत्तिके कारणे वर्षास्वपि प्रेषितो भवेत्, स च तस्मिन् कारणे समापिते भूयोऽपि गुरूणां समीपे समागच्छेत्। अथ वेदं द्वितीयं पदम्आऊ तेऊ वाऊ, दुबला संकामिए अ ओमाणे। पाणाइसप्पकुंथू, उहण तहथंडिलस्सऽसती॥६०२।। अप्कायेन वसतिः प्लाविता भवेत, स्थण्डिलानि वाव्यूढानि, अग्निकायेन वा प्रतिश्रयो ग्रामो वा दग्धो, वासुकायेन वा वसतिर्भग्ना 'दुब्बले त्ति वर्षेण तीम्यमाना वसतिदुर्बला पतितुकामा संजाता 'संकामिय' त्ति संग्रामो धिगजातीयादेः कस्याऽपि प्रत्यनीकस्य संक्रामितोदत्त इत्यर्थः / अथवा- 'संकायम' त्ति तानि श्राद्धकुलानि अन्यत्र ग्रामे संक्रान्तानि 'ओमाणे' त्ति इन्द्रमहादिषु बहवः पाण्डुराङ्गप्रभृतयः आगतास्तैरेव मानं सञ्जातं प्राणादि माकटिकौद्देशिकादिभिः वसतिः संसक्ता भवेत, सर्पो वा वसतौ समागत्य स्थितः, अनुद्धरिनामकैर्वा कुन्थुजीवैर्वसतिः संसक्तासमुपजायते, ग्रामो वा सकलोऽप्युत्थितः सचोदसीभूतः, स्थण्डिलस्य वा विचारभूमिलक्षणस्य हरितकायादिभिरभावः समजनि। एवमादिकस्तत्र व्याघातो भवेत्। अत एव ते साधवः प्रागेवामुं विधिं विदधतिमूलग्गामे तिनि तु, पडिवसभेसुं पि तिन्नि वसहीओ। ठायंता पेहिंति उ, वियारवाघायमाइट्टा // 603 / / मूलगामो नाम यत्र साधवः स्थिताः सन्ति तस्मिन् तिस्रो वसतीः प्रत्युपेक्षन्ते, प्रतिवृषभग्रामो नाम येषु मिक्षाचर्यया गम्यते तेष्वपि प्रत्येकं तिस्रो वसतीस्तिष्ठन्त एव प्रत्युपे
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________________ विहार 1291 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 . विहार क्षन्ते / किमर्थमित्याह-मूलग्रामे यदि विचारभूमेर्वा व्याघातो भवति ससरक्खा वेगया० अप्पससरक्खा वेगया० सदंसमसगा वेगया० ततस्तेषु प्रतिवृषभग्रामेषु तिष्ठन्तिा अप्पदंसमसगावेगया० सपरिसाडावेगया अपरिसाडा वेगया० तत्राऽप्कायादिव्याघाते समुत्पन्ने यतनामाह सउवसग्गा वेगया० निरुवसग्गा वेगया०ातहप्पगाराहि सिजाहिं उदगागणिवायाइसु, अन्नस्स सती पथं तणुद्दवणे। संविजमाणाहिं पम्गहियतरगं विहारं विहरिजा नो किंचि वि संकामियम्मि, भयणा, उट्ठणथंडिल्ल अन्नत्थ // 604|| गिलाइजा, एवं खलु०जं सबढेहिं सहिए सया जए त्ति बेमि / / उदकेन वा अग्निना वा वातेन वा आदिशब्दात्- सप्राणादिजन्तु (सू०-११०) संसक्त्या व्याधाते समुत्पन्ने अन्यस्यां वसतौ तिष्ठन्ति। अथ नास्त्यन्या वसतिस्तेन उदकाग्निवातान् स्तम्भनीविद्यया स्तम्भयन्ति, यत्रच सर्पः यैव काचिद्विषमसमादिका वसतिः सम्पन्ना तामेव समचित्तोऽधिवसेत्समागत्य तिष्ठति तत्र तस्य सर्पस्यापद्रावणं--विद्यया अन्यत्र नयनं नतत्र व्यलीकादिकं कुर्यात्, एतत्तस्य भिक्षोः सामग्यं यत्सर्वार्थः सहितः कुर्वन्ति / यत्र च ग्रामस्वामी कुलानि वा अन्यानि संक्रान्तानि तत्र भजना सदा यतेतेति। आचा०२ श्रु०१चू०३ अ०१ उ०। कर्तव्या / यदि स ग्रामस्वामी कुलानिवा भद्रकाणि ततस्तत्रैव तिष्ठन्ति! (15) प्रथमप्रावृषि ग्रामानुग्रामं द्रवतिअथ प्रान्तानि ततोऽस्यत्र गच्छन्ति / अथाऽसौ ग्राम उत्थितः, स्थण्डि- जे भिक्खु पढमपाउसंसि गामाणुग्गामं दूइजइ दूइजंतं वा लानां व्याघातः समजायत ततोऽन्यग्रामे गच्छन्ति। साइनइ॥४६॥ अवमानशय्यायां यतनामाह जे भिक्खू वीसाइ वासं पक्षोसवियंसि गामाणुग्गामं दूइजइ इंदमहादी वसभा, गतेसुपरतिस्थिएसुय जयंति। दूइज्जतं वा साइडइ॥४७|| पडिवसभेसु सखेत्ते, दुब्बलसेना पदे थूणं // 605 // जेति णिईसे भिक्खूपुव्ववण्णिता पाउसोआसाढो सावणोयदोमासा / इन्द्रमहोत्सवादौ वा बहुषु परतीर्थिकषु समागतेषु स्वक्षेत्रे ये प्रतिवृष तत्थ आसाढो पढमपाउसोभण्णति, अहवाछण्हं उत्तणंजेण पढमो पाउसो भग्रामास्तेषु अन्तरपल्लिकासु च भिक्षाग्रहणाय यतन्ते। अथ तेष्वपिन वणिज्जति, तेण पढम-पाउसो भण्णति। तत्थजोग्गमणुग्गामंदूइज्जति। संस्तरन्ति ततोऽन्यत्र गच्छन्ति, दुर्बलशय्यायां वर्षेण तीम्यमानतया अनु पश्चाद्भावे दोसु सिसिरगिम्हेसु रीतिजति दूइज्जति, दोसु वा पाएसु वसतौ दुर्बलायां सजातायां स्थूणां दद्यात्। रीइज्जति दूइज्जति तस्स चउगुरुं, आणादिणो य दोसा भवंति / एस सुत्तत्थो / इयाणिं णिज्जुत्ती। अथ वसतिप्रमार्जने विधिमाह गाहादोन्नि तु पमजणा उ, उडुम्मि वासासु तइय मज्झण्हे। वसहि बहुसो पमजण, अईव संघट्टणा गच्छे॥६०६|| विहिसुत्ते जो उगमो, पढमुद्देसम्मि आदिओ सुत्ते। सोचेव णिरवसेसो, सम्मुद्देसम्मि वासासु।५०६॥ वसतेरष्टसु ऋतुबद्धमासेषु द्वे प्रमार्जने कर्तव्ये। तद्यथापूर्वाह्न अपराहे च / वर्षासु पुनः तृतीया प्रमार्जना मध्याह्ने विधेया। अथ कुन्थुप्रभृति विधिसुत्ते सव्वे चेव आयारा। इह तु विसेसेण बितियसुतक्खंधे ततियभिस्त्रसप्राणैः संसक्ता वसतिस्ततः ऋतुबद्ध वर्षावासे च यथोक्त ज्झयणं इरिया भण्णति तस्स वि पढमुहसंतस्स वि आतिसुत्तेसु जो प्रमाणादतिरिक्तमपि बहुशः प्रमार्जनं कुर्यात्। अथ बहुशः प्रमार्जने तत्र विधी भणितो सो चेव णिरवसेसो णिसीहदसमुद्देसे पढमपाउससुत्ते विधी प्राणानामतीव सङ्घहो भवति अतिबहवो वा त्रसास्ततोऽन्यत्र ग्रामे ते वत्तव्यो। सो य इमो अज्झवगते खलु वासावासे अभिप्पवुढे इमे पाणा अभिसंभूता बहवे विय अहुणो भिण्णा अंतरा से मांगा। बहुपाणा बहुबीया गच्छेयुः। एते णायव्वा णो गामाणुग्गामं दूतिज्जेजा। नि० चू०१० उ०। गच्छतां च मार्गे यतनामाह आशिवादिकारणेषु वर्षास्वपि विहरेत्- तथा यो नियतमवस्थानउत्तणससावयाणि य, गंभीराणि यजलाणि वजेता। लक्षणः सप्ततिदिनमानः पर्युषणाकल्प उक्तः सोऽपि कारणाभावे एव, कारणे तु तन्मध्येऽपि विहर्तु कल्पते। तद्यथाउत्तृणानि नाम ऊर्वीभूतानि तृणादीनि दीर्घाणीति यावत् तानि यत्र "अशिवे 1 भोजनाऽप्राप्तौ 2, राज 3, रोग 4 पराभवे / मार्गेभवन्ति, सश्वापदानिचसिंहव्याघ्रादिपदोपेतानियत्र तृणानि भवन्ति, गम्भीराणि च अतलानि जलानि यत्र भवन्ति, तान्मार्गान् वर्जयन्तस्त चतुर्मासकमध्येऽपि, विहर्तु कल्पतेऽन्यतः।।१।। लिकारहिताअनुपानत्का दिवसतो गच्छन्ति, न रात्रौ / यच्चाभ्यासतर- असति स्थण्डिले 5 जीवा-कुले 6 च वसतौ 7 तथा। मतिप्रत्यासन्न क्षेत्र तत्र व्रजन्ति / बृ० 1 उ०३ प्रक०। आचा०। कुन्थुष्व नौह तथा सर्प, 10 विहर्तुं कल्पतेऽन्यतः॥२॥" (14) साम्प्रतं सामान्येन शय्यामङ्गीकृत्याऽऽह तथा एभिः कारणैश्चतुर्मासकात्परतोऽपि स्थातुं कल्पते-"वर्षादविरते से भिक्खू वा भिक्खुणी वा समा वेगया सिला भविखा विसमा | __ मेघे, मार्गे कर्दमदुर्गमे / अतिक्रमेऽपि कार्तिक्या स्तिष्ठन्ति मुनिसत्तमाः वेगया सिजा भविज्जा, पवाया वेगया० निवाया वेवाया० / | // 1 // " कल्प०१ अधि०१क्षण /
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________________ विहार 1292 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विहार तएणं अहं गोयमा! अण्णया कयाइ पढमं सरदकालसमयंसि अप्पबुटिकायंसि गोसालेणं मंखलिपुत्तेणं सद्धिं सिद्धत्थगामाओ जगराओ कुम्मारगामं णयरं संपट्ठिए विहाराए। (सू०५४२+) | भ०१५ श०। ('गोसालग' शब्दे तृतीयभागे 1016 पृष्ठे व्याख्या गता।) (वर्षासु साधर्मिकाणामुदन्तवहनार्थ चतुः पञ्च योजनानिगच्छेत्, तत्र वस्त्रग्रहणम् 'उवहि' शब्दे द्वितीयभागे 1067 पृष्ठे उक्तम्।) (16) वर्षासुव्यतिक्रान्तासु विहरेत्। साम्प्रतं गतेऽपि वर्षाकाले यदा यथा च गन्तव्यं तदधिकृत्याहअह पुण एवं जाणिज्जा चत्तारि मासा वासावासाणं वीतिकंता हेमंताण य पंच दस रायकप्पे परिसिते अंतरा से मग्गे बहू पाणा० जाव ससंताणगा णो जत्थ बहवे. जाव उवागमिस्सन्ति, सेवं नया णो गामाणुग्गामं दुनिया / / अह पुण एवं जाणिजा चत्तारि मासा वासावासाणं वीतिकंता हेमंताण य पंच दस रायकप्पे परिवुसिए अंतरा से मग्गे अप्पंडा० जाव ससंताणगा बहवे जत्थसमण जाव उवागमिस्संतिय सेवं णमा संजयामेव गामाणुग्गामं दूइजिजा। (सू०-११३) अथैवं जानीयाद् यथा चत्वारोऽपि मासाः प्रावृट्कालसम्बन्धिनोऽतिक्रान्ताः; कार्तिकचातुर्मासिकमति-क्रान्त-मित्यर्थः, तत्रोत्सर्गतो यदिन वृष्टिस्ततः प्रतिपद्येवान्यत्र गत्वा पारणकं विधेयम्, अथवृष्टिस्ततो हेमन्तस्य पञ्चसुदशसुवा दिनेषु पर्युषितेषु- गतेषु गमनं विधेयम्, तत्राऽपि यद्यन्तराले पन्थानः साण्डा यावत्ससन्तानका भवेयुर्नचतत्र बहवः श्रमणब्राह्मणादयः समागताः समागमिष्यन्ति वा ततः समस्तमेव मार्गशीर्य यावत्तत्रैव स्थेयं, तत ऊर्ध्वं यथा तथाऽस्तु नस्थेय मिति / एवमेतद्विपर्ययसूत्रमप्युक्तार्थम्। आचा०२ श्रु०१चू०३ अ०१ उ०।दश। नि० चू०। ओघ० / ग०। (17) हेमन्तग्रीष्मयोश्चरितुं कल्पतेकप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा हेमंतगिम्हासु चारए॥३७|| अस्य सम्बन्धमाहदुस्संचर बहुपाणा-दिकाउँवासासु जंन विहरिंसु। तस्स उ विवजयम्मि, चरन्ति अहसुत्तसंबंधो॥६०७।। वर्षासु कईमाकुलतया दुस्संचरं बहुप्राणहरितादिसंकुलं वा मेदिनीतलं 'भवतीति कृत्वा यत्तदानीं न विहृतवन्तः, तत एव तस्य वर्षावासस्य विपर्यत ऋतुबद्धकालेषु संचरमकल्पप्राणजातीयं वा मत्वा चरन्ति। अथैध पूर्वसूत्रेण सहास्य सूत्रस्य सम्बन्ध इत्यनेन सम्बन्धेनाऽऽयातस्याऽस्य (सू० 37) व्याख्याकल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां या हेमन्तग्रीष्मयोरष्टसु ऋतु-बद्धमासेषु चरितुंग्रामाऽनुग्रामंपर्यटितुमिति सूत्रार्थः। अथ नियुक्तिविस्तरः पुण्णेऽनिग्गमें लहुगा, दोसा ते चेव उग्गमादीया। दुबलखमगगिलाणे, गोरस उवहिं पडिच्छंति // 605|| यदि पूर्ण वर्षावासे ततः क्षेत्रान्न निर्गच्छन्ति ततः चत्वारो लघुकाः, त एव चोदमाशुद्धिस्त्रीसमुत्थादयो दोषायेमास-कल्पप्रकृते दर्शिताः / अपरे चामी दोषाः 'दुब्बल' इत्यादि,ये साधवो वासेन दुर्बला:-कृशीभूतशरीरास्ते कदा वर्षावासं पूरयिष्यन्त इत्येवं निर्गमनं प्रतीक्षमाणा यत्परितापनादिकमवाप्नुवन्ति तन्निष्पन्नं प्रायश्चित्तम् / क्षपका वा विकृष्टतपोनिस्तप्तवपुषो निर्गमनं प्रतीक्षन्तेग्लानो वा अधुनोत्थितो दुःखं तत्र तिष्ठति तत्र चतुर्मासादूर्ध्वमप्यवस्थाने क्षेत्रस्य चमढिततया तथाविधपश्वाद्यभावात्, गोरसाऽऽधारको वा कश्चित् सिन्धुदेशीयः प्रव्रजितः, सोऽपि गोरसाभावान्न तत्र स्थातुं शक्रोति, उपधिर्वा पूर्वगृहीतः परिक्षीणः, अतस्तम् अभिनवमुत्पादयितुंसाधवो निर्गमन प्रतीक्षन्ते, ततस्तेन विना यत्परिताप्यन्ते तन्निष्पन्नमनिर्गच्छतां प्रायश्चित्तम्। अथ निर्गच्छन्ति तर्हि किं भवतीत्याहएएन हॉति दोसा, बहिया सुलभं च भिक्ख ओहीय। भवसिद्धियाउ आणा, बिइयपय गिलाणमादीसु॥६० . निर्गच्छतामेते अनन्तरोक्ता दोषा न भवन्ति। बहिश्चबहिमिषु विहरतां भैक्षं सुलभं भवति, तेन च दुर्बलक्षपकादीनामाप्यायना स्यात, उपधिश्च बहिःप्राप्यते, भवसिद्धिकाश्च सत्त्वाबोधमासादयन्ति, केचिदा तदानीमाचार्याणां दर्शनमभिलषन्ति तेषां च विरत्यादिप्रतिपत्तिः, आज्ञा च भगवतां-तीर्थकृतां कृता भवति, यत् एवमतो निर्गन्तव्यम्। द्वितीयपदे ग्लानादिषु कारणेषु निर्गच्छति आदिशब्दाद्-अवमौदर्यादिपरिग्रहः, अत्र च यतना यथा मासकल्पे कृता तत्र 'भागतिभागद्धे जयन्ति निच्छे अलम्भे वा' इत्यादिना दर्शिता तथैव द्रष्टव्या। तम्हाउ विहरियव्वं, विहिणा जे मासकप्पिया गामा। छह वंदणादी, तइ लहुगा मग्गणा पच्छा॥६१०।। यदिग्लानादिकारण न स्यात्ततो अवश्यं विधिना मासकल्पः, प्रकृतोक्ता ये मासकल्पप्रायोग्या ग्रामास्तेषु विहर्त्तव्यम्। अथमासकल्पप्रायोग्याणि क्षेत्राणि चैत्यवन्दनादिभिः कारणैर्वक्ष्यमाणैः छईयति तदा यावन्ति क्षेत्राणि परित्यज्य गच्छति 'तइ' त्ति तावन्ति चतुर्लघुकानि 'मग्गणा पच्छत्ति द्वितीयपदेमासकल्पप्रायोग्यक्षेत्राणामपि परित्यागे ये गुणास्तेषां मार्गणा-अन्वेषणा प्रत्याहिता। अथ वन्दनान्येव कारणानि प्रतिपादयतिआयरियसाहुवंदण-चेइयनीयल्लए तहा सन्नी। गमणं च देवदंसण-वइगासु य एवमाईणि // 611 / / आचार्याणां साधूनां चैत्यानां वा वन्दनाथ गच्छन्ति, निजका:-- संज्ञातकाः असंज्ञिनः- श्रावकास्तेषामुभयेषामपि दर्शनार्थ देशदर्शनार्थं वा गमनं करोति / व्रजिकासु वा क्षीरा
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________________ विहार 1293 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विहार दिकं लप्स्येऽहमिति कृत्या गच्छति, एवमादीनि कारणानि मासकल्पयोग्यक्षेत्रं परित्यजन्नवलम्बते। अथ तान्येव व्याख्यानयतिअपुष्वा विवित्तबहु-स्सुयाय परियारवंच आयरिया। परियारवज्जसाहू, चेइयपुष्वा अभिनवा वा // 612 / / गाहिस्सामि व नीए, सन्नी वा भिक्खुमाइवुग्गाहो। बहुगुणअपुष्वदेसे, वइगाइसु खीरमादीणि // 613 // अपूर्वा-अदृष्टपूर्वा विविक्ता निरतिचारचारित्रा बहुश्रुता नाम-युगप्रधानागमा विचित्राः श्रुतवन्त उपचारवन्तश्च बहुसाधु-समूहपरिवृता एवंविधा आचार्या अमुके नगरे तिष्ठन्ति तानहं वन्द्रिष्ये, साधवोऽप्येवंविधगुणोपेता एव नवरं परिवारवस्तेि भवन्ति / चैत्यानि अपूर्वाणि वा चिरन्तनानिजीवन्तस्वामि-प्रतिमादीनि अभिनवानिवा तत्कालकृतानि एतानि ममा-दृष्टपूर्वाणीति द्ध्या तेषां वन्दनाय गच्छन्ति / तथा निजकान् या संज्ञातकान् ग्राहयिष्यामि बोधयिष्यामीत्यर्थः / संज्ञिनो वा श्रावकान् भिक्षुकादिः कुप्रावचनिकपरिव्राजकादिः परपाषण्डी व्युद्ग्राहयति-तेषां स्थिरीकरणा) , देशोवा बहुगुणः सुलभ-भैक्षतादिगुणोपेतोऽपूर्वश्च वर्तते, वजिकायां गोकुले आदिशब्दात्-प्रचुरद्रव्यं प्रतिग्रामादिषु वा क्षीरदधिघृतावगाहिमादीनि लभ्यन्ते एवमादिभिः कारणमसिकल्पप्रायोग्याणि क्षेत्राणि परित्यजति। अत्रदोषान् दर्शयति-- अद्धाणे उव्वाता-भिक्खोवहिसाणतेणपडिणीए। ओमाण अभोज्जघरे, थंडिलें असतीय जे जत्थ // 614|| ते साधवोऽध्वनि व्रजन्त उद्वाताः-परिश्रान्ता सन्तश्चिन्तयन्ति-अत्र ग्रामे गुरवः स्थास्यन्ति, आचार्याश्च तं ग्रामं व्यतीत्याऽग्रतो गतास्ततस्ते छिन्नायामाशायां व्रजन्तो यदनागाढमागाढं वा परिताप्यन्ते तन्निष्पन्नं प्रायश्चित्तम्। भैक्षंवा तत्र स्फिटितायां वेलायां न प्राप्यते, अत्यन्तपरिश्रान्ता मार्ग एवोपधिं परित्य-जेयुः / अकाले पर्यटतांश्वान उपद्रवं कुर्युः, स्तेना वा तेषामुपछि तानेव वा अपहरन्ति। प्रत्यनीको वातदानीं विजनं मत्वा हन्यादा / मारयेद्वा / अपमानं स्वपक्षतः परपक्षतो वा भवेत् / अभोज्यगृहेषु वा रजकादिसम्बन्धिषु भिक्षां गृह्णीयुः, तत्रैव वा तिष्ठेयुः, ततश्च प्रवचनविराधना / स्थण्डिलानि वा तत्र न भवेयुः तेषामभावे संयमात्मविराधना। एवं ये यत्र दोषा भवन्ति तेऽत्र योजयितव्याः। अथ द्वितीयपदमाहबितियपए असिवाई, उवहिस्स व कारणाव लेवो वा। बहुगुणतरं व गच्छे, आयरियाई व आगाढे // 615 / / द्वितीयपदे अशिवादीनि कारणानि विज्ञाय व्यतिव्रजेयुरपि तत्र यदपान्तराले क्षेत्रं तदशिवगृहीतम्, आदिशब्दाद् - अवमौदर्यराजद्विष्टादिदोषयुक्तं स्वाध्यायो वा तत्र न शुद्ध्य-तीत्यादिपरिग्रहः / उपधिर्वस्त्रपात्रादिरूपस्तत्र न लभ्यते, पुरोवर्तिनि तु ग्रामादौ लभ्यते अतस्तस्य कारणात् लेपो वाऽग्रतोवर्तिनि ग्रामे लभ्यतेन तत्र, गच्छस्य वा बहुगुणतरं तत् क्षेत्रं स्थानप्रत्यनीकाद्यभावात् भिक्षात्रयवेलासद्भावात्, आचार्यादीनां वा प्रायोग्यं तत्र विद्यते / यता- 'आयरियाई व' ति सम्यक्त्वं ग्रहीतुकामाः केचिदाचार्याणां दर्शनं कान्ति आदिशब्दात्परप्रवादी वा कश्चिदुद्धोषणं कारयेत्, तथा-शून्याः परप्रवादाः, इत्यादि, ते चाचार्या वादलब्धिसम्पन्ना अतस्तन्निग्रहार्थमागाढयोगवाहिनां वा प्रायोग्यमर्वाक् न प्राप्यते, परस्मिन् ग्रामे तु प्राप्यते / यद्वा-आगाढं सप्तधा, तद्यथाद्रव्याऽऽगाढं क्षेत्राऽऽगाढं कालागाढं भावागाढं पुरुषागाढं चिकित्सागाढं सहायागाढम्। तत्र द्रव्यागाढमेषणीयं द्रव्यं यत्रनलभ्यते, क्षेत्रागाढं नामतदतीव खलु क्षेत्रं स्वल्पभैक्षा-दायकमित्यर्थः, कालागाढं तत्क्षेत्रं न ऋतुक्षम, भावागाढंग्लानादीनां प्रायोग्यं तत्र न लभ्यते, पुरुषागाढमाचार्यादिपुरुषाणां तदकारकम्, चिकित्सागाढं वैद्यास्तत्र न प्राप्यन्ते, सहायागाढ सहायास्तत्र न सन्तीति। एएहि कारणेहिं, एक्कदुगंतरतिगतरं वाऽवि। संकममाणो खेत्तं, पुट्ठो विजओ नऽतिक्कमइ // 616|| एतैरशिवादिभिः कारणैरेकं वा द्वे वा त्रीणि वाऽपान्तरालक्षेत्राणि अतिक्रम्यापरं क्षेत्रं संक्रामन् पूर्वोक्तदोषैः स्पृष्टोऽपि न दोषवान् भवति, यतो यस्मात्तीर्थकराज्ञामसौ नातिक्रामति। यद्वा यतो नाम यतनायुक्तः। निकारगणमणम्मि उ, जे चिय आलंबणाउ पडिकुट्ठा। कमम्मि संकमंतो, तेहिं चिय सुज्झई जयणा // 617 // निष्कारणे अशिवाद्यभावे यद्-- गमनमपान्तरालक्षेत्रपरित्यागेन क्षेत्रान्तरसंक्रमणं तत्र तान्येवाऽऽचार्यसाधुचैत्यवन्दनादीनि आलम्बनानि प्रतिकुष्टानि-प्रतिषिद्धानि कार्येद्वितीयपदे ज्ञानदर्शनादिविशुद्धिनिमित्तं संक्रामन् तैरेवाचार्यादिभिरा-लम्बनैर्यतनायुक्तेषु शुद्ध्यति-अदोषभाग् भवतीत्युक्तो मास-कल्पविहारः। बृ०१ उ०३ प्रक०। (18) अथ विहारद्वारविषयं विधिमभिधित्सुराहनिप्फत्तिं कुणमाणा, थेरा विहरंति तेसिमा मेरा। आयरियउवज्झाया, भिक्खू थेरा य खुड्डा य॥६१८॥ शिष्याणां निष्पत्तिं कुर्वन्तःस्थविरा-गच्छवासिनः साधवो विहरन्तिअप्रतिबद्ध विहारं विदधति। तेषां चेत्थं विहरतामियं मर्यादासामाचारी! तत्र गच्छवासिनस्तावत्पञ्चाविधा:- तद्यथा- आचार्यः, उपाध्यायो, भिक्षवः, स्थविराः, क्षुल्ल-काश्चेति। धीरपुरिसपन्नत्तो, सप्पुरिसनिसेविओ अमासविही। तस्स पडिलेहगा पुण, सुत्तत्थविसारया भणिया॥६१६॥ धीरपुरुषैस्तीर्थकरगणधरैः प्रज्ञप्तः, सत्पुरुषैश्च जम्यूप्रभवादिभिनिषेवितुमनुष्ठितो मासकल्पविधिः। तस्य पुनर्मासकल्पविधेः प्रत्युपेक्षकाः सूत्रार्थविशारदाः साधवो भणिता भगवद्भिः। स पुनर्विहारः शरदादिर्भवति। कथमिति चेदुच्यते-- वासावासेऽतीए, अद्वसु वारो अतो उसरदाई।
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________________ विहार १२९५-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विहार पडिलेहसंकमविही, ठिए य मेरं पडिकहेऽहं // 620 // वर्षावासे अतीते - अतिक्रान्ते अष्टसु ऋतुबद्धमासेषु वारो मासे मासे क्षेत्रान्तरगमनलक्षणो विहारो भवति, अतः शरदादिरयं मन्तव्यः। तत्रच क्षेत्रप्रत्युपेक्षणाविधिं क्षेत्रान्तरसंक्रमणविधिं प्रत्युपेक्षिते च क्षेत्रे 'ठिए' त्ति स्थितानां सतां या काचिन्मर्यादा तामहं परिकथयिष्यामि। प्रतिज्ञातमेव यथाक्रमं व्याचिख्यासुराहनिग्गमणम्मिय पुच्छा, पत्तमपत्ते अइथिए वाऽवि। वाघायम्मि अपत्ते, अइथिए तस्स असतीए॥६२१|| यत्र वर्षावासः कृतस्ततः क्षेत्रान्निर्गमने पृच्छा, किं कार्तिकचतुर्मासिके निर्गन्तव्यम्, उताऽप्राप्ते आहोस्विदतिक्रान्ते ? उच्यते-- यदि कोऽपि व्याघातस्तदा अप्राप्ते वा अतिक्रान्ते वा निर्गच्छन्ति तस्य व्याघातस्याऽसत्यभावे प्राप्ते चातुर्मासिकदिने मार्गशीर्षप्रतिपदि निर्गत्य बहिर्गत्वा पारयन्ति। कः पुनव्यार्घात इत्याहपत्तमपत्ते रिक्खं, असाहगं पुन्नमासिणिमहो वा। पडिकूल त्ति य लोगो, मा वोच्छिइ तो अईअम्मि // 622 // प्राप्ते-चातुर्मासिकदिवसे अप्राप्ते वा यथाऽचार्याणाम् ऋक्ष नक्षत्रमसाधकम्-अननुकूलं पूर्णमासीमहो वा तदा भवेत्; कार्तिकीमहोत्सव इत्यर्थः / तत्र च लोको निर्गच्छन् साधून दृष्ट्वा अमङ्गलं मन्यमानः प्रतिकूला अस्मिन्महोत्सवप्रतिपन्थिनोऽमी इत्येवमावक्ष्यति ततोऽतीते निर्गन्तव्यम्। पत्ते अइथिए वा, असाहणं तेण णिति अप्पत्ते। नाऊ निग्गमकालं, पडिचरए एस बिति तहा।।६२३।। प्राप्ते अतिक्रान्त वा निर्गमनकाले नक्षत्रमसाधकम्, उपलक्षणत्वान्मेघो वा वर्षणान्नोपरंस्यते, पन्थानः कदमदुर्गमाश्च भविष्यन्तीत्यतिशयज्ञानवशेन परिज्ञाय तेन कारणेनाप्राप्ते चातुर्मासके निर्गच्छन्ति, निर्गमनकालं ज्ञात्वा प्रतिचरकान्-क्षेत्रप्रत्युपेक्षकान्प्रेषयन्तिा तथा तेष्वायातेषुसत्सु निर्गमनकाल उपढौकते / तच्च क्षेत्रं द्विधा दृष्टपूर्वम्, अदृष्टपूर्व च / उभयमपि नियमेन प्रत्युपेक्षणीयम्। ___ कुत इति चेदुच्यतेअप्पडिलेहिएँ दोसा, वसही भिक्खं च दुल्लहं होला। बालाइगिलाणाणव, पाउग्गं अहव सज्झाओ / / 624|| अप्रत्युपेक्षिते क्षेत्रे गच्छतामेते दोषाः / सा पूर्वदृष्टा वसतिः स्फोटिता पतिता वा भवेत्, अन्ये वा साधवस्तत्र स्थिता वा भवेयुः, भैक्षं वा दुर्लभं भवेत्, दुर्भिक्षाऽऽदिभावात् बालादीनां ग्लानानां वा प्रायोग्यं दुर्लभं भवेत्, स्वाध्यायो वा दुर्लभः स्यात्; मांसशोणितादिभिरस्वाध्यायिकैराकीर्णत्वात्। यतश्चैवमतः किं विधेयमित्याहतम्हा पुर्वि पडिले-हिऊण पच्छा विहीऍ संकमणं। पेसेइ जइ अणापु-च्छिउंगणं तत्थिमे दोसा॥६२५॥ तस्मात्पूर्व प्रत्युपेक्ष्य पश्चाद्विधिना संक्रमणं तत्र कर्त्तव्यम् / अथाप्रत्युपेक्षिते व्रजन्ति ततश्चतुर्लघु, आज्ञाभङ्गे चतुर्गुरु, अनवस्थायां चतुर्लघु / यद्वा-संयमविराधनादिकं प्राप्नुवन्ति तन्निष्पन्नं प्रायश्चित्तम्। यदि पुनराचार्यो गणं गच्छमनापृच्छ्य क्षेत्रे प्रत्युपेक्षकान् प्रेरयति तदा मासलधु। तत्रच गणमनापृच्छय प्रेषणे इमे दोषाःतेणा सावए मसगा, ओम-सिवे सेह-इत्थि-पडिणीए। थंडिल्लवसहि उहा-ण एवमाई भवे दोसा // 626 / / स्तेना द्विविधाः-शरीरस्तेना, उपधिस्तेनाश्च / श्वापदाः-सिंहव्याघ्रादयः मशकाः-प्रतीताः अवमं-दुर्भिक्षम् अशिवंव्यन्तरकृतोपद्रवः शैक्षस्य वा तत्र मारिकं स्त्रियो वा स्नेहोद्रेकबहुलाः साधूनुपसर्गयन्ति, प्रत्यनीको वा कोऽप्युपद्रवति, स्थण्डिलानिवा तत्र न विद्यन्ते, वसतिर्वा नास्ति, 'उहाणे' त्ति उत्थितः स देशः एवमादयस्तत्रापान्तराले पथि गच्छतांदोषा भवन्ति। तत्र स्थाने प्राप्तानां पुनरिमे दोषाःपञ्चंत तावसीओ, सावय दुम्भिक्ख तेणपउराइं। नियगयउप्पटवायण, फेडणयाहरियपत्तीए॥६२७|| सग्रामः प्रत्यन्तो-म्लेच्छाधुपद्रवोपेतः, तापस्यो वा तत्र प्रचुरमोहाः संयमात्परिभ्रशयन्ति, श्वापदभयं दुर्भिक्षः, स्तेन-प्रचुराणि च तानि क्षेत्राणि, शिक्षकस्यान्यस्य वा कस्याऽपि साधोस्तत्र निजकाः स्वजनास्ते तमुत्प्रव्राजयन्ति, प्रद्विष्टो वा प्रत्यनीकस्तत्र साधूनुपद्रवति, उत्थितो वा सग्रामः, स्फुटिता वासा वसतिः, स्फिटितानि वा परिणामित्यानि तानि कुलानि येषां निश्रया तत्र गम्यते / अत्र चूर्णिकृत्"फिडियाणि वा ताणि कुलाणि जेसिं निस्साए गम्मइ” ति 'हरियपत्तीए' त्ति हरितपत्रशाकं बाहुल्येन तत्र भक्ष्यते।अथवा-तत्र देशे केषु-चिद्गृहेषु राज्ञा दण्डं दत्त्वा देशतापहारार्थमागन्तुकः पुरुषो मार्यते, गृहस्य चोपरिष्टादावृक्षशाखाचिह्न क्रियते, एतेन चिह्ननाऽस्माभिराख्यातमेवाभवद्यन्मारणेऽप्यस्माकं न दोष इति, यत एते दोषा अतः सर्वमपि गणमामन्त्र्य क्षेत्रप्रत्युपेक्षकाः प्रेषणीयाः। यदि पुनर्न सर्वमपि गणमामन्त्रयतेतत एते दोषाः। सीसे जइ आमंते, पडिच्छगा तेण बाहिरं भावं। जइ इअरे तो सीसा, तेऽवि समत्तम्मि गच्छंति॥६२८|| तरुणा बाहिरभाव, न य पडिलेहोवहिं न किइकम्म। मूलगपत्तसरिसगा, परिभूया वचिमो थेरा॥६२९।। यद्याचार्यः शिष्यान् केवलानामन्त्रयति कस्यां दिशि क्षेत्रप्रत्युपेक्षकाः प्रेषयितुमुचिता इति ततो मासलघु, आज्ञादयश्च दोषाः, प्रतीच्छकाश्च तेन कारणेन बाह्यं भावं गच्छेयुः। अहो अद्य शिष्या एवामीषां सर्वकार्येषु प्रमाणं न वयमित्यतो रागद्वेषदूषितत्वात्को वा नामामीषामुपकण्ठे स्थास्यतीति / यदि इतरान् प्रतीच्छकानामन्त्रयति ततः शिष्याः बर्हिर्भावं गच्छेयुः, प्रतीच्छका एव तावदमीषां प्र
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________________ विहार 1295 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विहार सादपात्राणि; अतः किमर्थं वयमेव वैयावृत्त्यादिप्रयासं कुर्मइति, तेऽपिप्रतीच्छकाः समाप्ते सूत्रार्थग्रहणे स्वगच्छं गच्छन्ति। ततश्चाचार्य उभयैरपि प्रतीच्छकैः शिष्यैः परित्यक्तः सन्नेकाकी सञ्जायते।अथवृद्धानामन्त्रयते ततस्तरुणा बहिविं मन्यन्ते, नच-नैव गुरूणां क्षेत्रप्रत्युपेक्षकाणां वा उपकरणं प्रत्युपेक्षन्ते, नवा स्थविरादीनामुपधिं वहन्ति, न च कृतिकर्म भक्तपानाऽऽनयनविश्रामणादिकं कुर्वते, वृद्धा एव सर्वमपि विधा-स्यन्ति, के पुनर्वयमस्थापितमहत्तरा इति। अथैतदोषभयात् तरुणानेव पृच्छति, ततः स्थविराश्चिन्तयेयुः मौलकपत्रसदृशा- मौलम्-- आद्यं यत्पूर्ण परिपक्वप्रायम्, यदि वा- मूलकः कन्दविशेषस्तस्य यत्पत्रं निस्सारं तस्सदृशा वयम्, अत एव परिभूताः-परिभवपदमायाता इत्यतो ब्रजामो वयं गणान्तरमिति। अथाऽकिञ्चित्करत्वात् स्थविराणामनामन्त्रणादपि कानाम हानिः सम्पद्यते ? उच्यतेजुन्नमिएहि विहूणं, जं जूहं होइ सुद्धवि महल्लं। तं तरुणरहसपोइय-मयगुम्मइयं सुहं हंतुं // 630 // जीर्णाः परिणतवयसो ये मृमास्तैर्विहितं यत् यूथं भवतिसुष्ट्वप्यतिशयेन महत्- महासमूहाऽऽत्मकं तत् यूथम् / 'तरुण' त्ति भावप्रधानत्वात् निर्देशस्य तारुण्येन यौवनवशेन यद्भसश्चापलं गोरिगीतश्रवणादिविषयं तेन 'पोतितं' ति देशीवचनत्वादितस्ततः स्पन्दितं मदगुल्मितं मदेन घूर्णिणतचेतनं तत् सुखं हन्तुं विनाशयितुंसुखेन तद्व्यापाद्यत इति भावः। उक्तं च--"अतिरागप्रणीतान्यतिरभसकृतानिचातापयन्ति नरं पश्चात्क्रोधाध्यवसितानि च // 1 // " यतश्चैवमतः सर्वएव मिलिताः सन्तः प्रष्टव्याः / अत्रैव प्रायश्चित्तमाह-- आयरिय अवाहरणे, मासे वाहित्तणागमे लहुओ। वाहित्ताण य पुच्छा, जाणगसिद्धे तओ गमणं // 631 / / आचार्या गणं न व्याहरन्ति-नामन्त्रयन्ति मासलघु, शिष्यप्रतीच्छ.. कतरुणस्थविराणामन्यतमानविशेष्याऽऽमन्त्रयन्ति तदापि मासलघु / तेऽपि व्याहृताः सन्तो यदि नागच्छन्ति तदापि मासलघु / व्याहृत्य च सर्वमपि गणं, पृच्छा कर्तव्या। यथा-कतरत् क्षेत्रं प्रत्युपेक्षणीयम् ? ततो ज्ञायकेन क्षेत्रस्वरूपेपृष्टे शिष्टन कथितेसतिगमनं क्षेत्रप्रत्युपेक्षकैः कर्तव्यम्। आमन्त्रणस्यैव विधिमाहथुइमंगलमामंतणे- नागच्छह जो व पुच्छिओ कहई। तस्सुवरि ते दोसा तम्हा मिलिएसु पुच्छिना / / 632|| आवश्यके समापिते स्तुतिमङ्गलं कृत्वा तिस्रः स्तुतीर्दत्वेति भावः, सर्वेषामपि साधूनाम् आमन्त्रण कर्त्तव्यं, कृते चा मन्त्रणे च यः कश्चिन्नागच्छति आगतो वा क्षेत्रस्वरूपं पृष्टः सन्न कथयति तदा मासलघु, तथा तस्योपरि ते दोषाः स्तेनश्वापदादयो भवन्ति ये तत्रगतानां भविष्यन्ति। तस्मान्मिलितेषु सर्वेष्वपि पृच्छेत्, उपलक्षणत्वात्सर्वेऽपि च कथयेयुः। तत्रैव मतान्तरमुपन्यस्य दूषयन्नाह केई भणंति पुट्वं, पडिलेहिय एवमेव गंतव्वं / तंतुन जुइ वसही, फेडण आगंतु पडिणीए॥६३३|| केचित् भणन्ति पूर्व प्राक् प्रत्युपेक्षिते क्षेत्रे एवमेव गन्तव्यं न पुनस्तत्र क्षेत्रप्रत्युपेक्षकाः प्रेक्षणीया इति / तत्तु न युज्यतेन घटते,कुत इत्याह-- वसतेः कदाचित् स्फेटनं कृतं भवेत्, आगन्तुको वा प्रत्यनीकस्तत्र संवसेत्, अतः पूर्वदृष्टमपि क्षेत्रं प्रत्युपेक्षणीयम्। अथ कथं प्रष्टव्यमित्याहकयरी दिसा पसत्था, अमुगी सव्वेसि अणुमए गमणं / चउदिसितिदुए वा, सत्तगपणगं तिग जहन्ने // 634 / / यदा सर्वेऽपि साधवो मिलिता भवन्ति तदा गुरवो ब्रुवते- आर्याः ! पूर्णोऽयमस्माकं मासकल्पः क्षेत्रान्तरं सम्प्रति प्रत्युपेक्षणीयम्, अतः कतरा दिक् साम्प्रतं प्रशस्ता? ते ब्रुवतेअमुका पूर्वादीनामन्यतमा, एवं सर्वेषां यद्यसावनुमता अभिरुचिता तदागमनं कर्तव्यम्। प्रथमंचतसृष्वपि दिक्षुअथ चतुर्थ्यां कोऽप्यशिवादिरुपद्रवस्ततस्तिसृषु दिक्षु, तदभावे द्वयोर्दिशोस्तदसत्येकस्यां दिशि मच्छन्ति। ते चैकैकस्यां दिस्युत्कर्षतः सप्त व्रजन्ति।सप्तानामभावे पञ्चजधन्येनतुत्रयः साधवो नियमाद्रच्छन्ति। तत्र च ये आभिग्रहिका:-क्षेत्रप्रत्युपेक्षणार्थ प्रतिपन्नाभिग्रहास्ते स्वयमेव गुरूनापृच्छय गच्छन्ति। अथ न सन्त्याभिग्रहिकास्ततः को विधिरित्याहवेयावचगरं बा-लवुडखमयं वहतऽगीयत्थं / गणवच्छेइअगमणं, तस्सव असतीय पडिलोमं / / 635 / / वैयावृत्त्यकरम् 1 बालम् 2 वृद्धम् 3 क्षपकम् 4 वहन्तम्योगवाहिनम् 5 अगीतार्थम् 6 एतान्न क्षेत्रप्रत्युपेक्षणाय व्यापारयेत, किंतु-गणावच्छेदकस्य गमनं भवति / तस्य वाशब्दादापरस्य वा गीतार्थस्यासत्यभावे प्रतिलोम-प्रतिक्रमेण पश्चानुपूर्येत्यर्थः, एतानेवाऽगीतार्थानादिं कृत्वा व्यापारयेदिति संग्रहगाथासमासार्थः। अथैनामेव विवरीषुः प्रथमतः प्रायश्चित्तमाहआइतिए चउगुरुगा, लहुओ मासो उ होइ चरिमतिए। आणाइणो विराहण, आयरियाईसुणेयव्वा / / 636|| आदित्रिके वैयावृत्त्यकरबालवृद्धलक्षणे व्यापार्यमाणे चत्वारो गुरुकाः। चरमत्रिके तु क्षपकयोगवाह्यगीतार्थलक्षणे लघुको मासः, आज्ञादयश्च दोषाः, विराधना चाऽऽचायादीनां ज्ञातव्या। तामेव भावयतिठवणकुले न वसाहइ, सिट्ठावन दिति जा विराहणया। परितावणमणुकंपण, तिण्ह समुत्थो भवे खमओ॥६३७।। वैयाकृत्याकरः प्रेक्ष्यमाणोरक्ष्यति, रूषितश्चयान्याचार्यादिप्रायोग्यदायकानि स्थापनाकुलानि तानि न कथयति, शिष्टानि वा कथितानि परं तानि तस्यैव ददति, नान्यस्यतेन भावितत्वात्तेषांततोऽलभ्यमानेप्रायोग्येयाकाचिदात्मनो ग्लानादीनांवा विराधना तन्निष्पन्नमाचार्यस्यप्रायश्चित्तम्। अथक्षपकंप्रेषयतित
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________________ विहार 1296- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विहार तोऽसौ शीतातपादिना परिताप्यते तन्निष्पन्नम्, देवता वा काचित् क्षपकमनुकम्पमाना खलु क्षेत्रेऽपि भक्तपानमुत्पादयति, लोको वा क्षपक इति कृत्वा तस्याऽनुकम्पया सर्वमपि ददातिनाऽन्यस्य,तपः क्षामकुक्षिश्वासौ तिसृणां गोचरचर्याणामसमर्थ इति। बालद्वारमाहहीरेज व खेलेज व, काकजं न जाणई बालो। सो व अणुकंपणिो , न दिति वा किंचि बालस्स / / 638|| हियते वा म्लेच्छादिनो, खेलयेद्वा चेटरूपैः सार्द्ध कार्याऽकार्य चकर्तव्याकर्तव्यं न जानाति बालः।सचबालःस्वभावत एवाऽनुकम्पनीयो भवति, ततः सर्वोऽपि लोकस्तस्मै भक्तपानं प्रयच्छति / स चागत्याचार्याय कथयति, यथा सर्वमपि प्रायोम्यं तत्र प्राप्यते। ततस्तद्वचनादागतस्तत्र गच्छो यावन्न किचिल्लभते, नददातिवा किञ्चिदालायलोकः पराभवनीयतया दर्शनात्। वृद्धद्वारमाहवुड्डो ऽणुकंपणिज्जो, चिरेण न य मग्गथंडिले पेहे। अहवाऽवि बालवुड्डा, असमत्था गोयरतियस्स॥६३६॥ वृद्धः-परिणतवया अनुकम्पनीयोलोकस्य भवति, ततश्चाऽयं सर्वत्राऽपि लभते नापरः / तथा स मन्दं मन्दं गच्छन् चिरकालेनोपैति, न च मार्ग पन्थान स्थण्डिलानिच प्रत्युपेक्षते। अथवा-बालवृद्धौ असमर्थों गोचरत्रिकस्यत्रिकालभिक्षाटनस्येति। योगवाहिद्वारमाहदूरंतो वन पेहे, गुणणालोमे न य चिरं हिंडे / विगई पडिसेहेई, तम्हा जोगिन पेसिया॥६५०।। योगवाही श्रुतं मम पठितव्यं वर्तत इतिचरमाणः सन्नपान्तरालेपन्थानं न प्रत्युपेक्षते, गुणनापरावर्तना तस्या लोभेन चिरमसौ भिक्षां न हिण्डते, लभ्यमानापि विकृति घृतादिकमसौ प्रतिषेधयति, तस्माद्योगिनं न प्रेषयेत्। अगीतार्थद्वारमाहपंथं च मास वासं, उवस्सयं एचिरेण कालेण / एहामो त्ति न जाणइ, गीतो पडिलोम असतीए॥६५१।। अगीतार्थपन्थानं-मार्ग मास-मासकल्पविधिं वासं-वर्षावासविधिम् उपाश्रयं-वसतिम् एतानि परीक्षितुं न जानाति / तथा शय्यातरेण पृष्टः कदा यूयमागमिष्यथ ? ततोऽसौ ब्रवीति-इयता कालेनार्द्धमासादिना वयमेष्याम इत्येवं वदतो यः खल्वविधिभाषणजनितो दोषस्तमगीतार्थो नजानाति, यतएवमतः प्रथमतो गणावच्छेदकेनगन्तव्यम्। तस्याऽभावे अपरोऽपि यो गीतार्थः स व्यापारणीयः, तस्याप्यसत्यभावे प्रतिलोभ पश्चानुपूर्व्या एतानेव गीतार्थमादिं कृत्वा प्रेषयेत्। केन विधिनेत्युच्यतेसामायारिमगीए, जोग्गमणागाढखमग पारावे। वेयावचे दामण-जुयलसमत्थं व सहियं वा // 642|| अगीतार्थ ओघनियुक्तिसामाचारी कथयित्वा प्रेषणीयः / तदभावे अनागाढयोगी बाह्ययोगवाही योगं निक्षिप्य प्रेष्यते। अस्याप्यसत्यभावे क्षपकः तच प्रथमं पारयेत्-पारणं कारयेत्, ततो मा क्षपकं कार्षीरिति शिक्षां दत्त्वा प्रहिणुयात्। तस्याऽप्यभावे वैयावृत्त्यकरः प्रेष्यते, 'दामण्ण' त्ति स वैयावृत्त्यकरो वास्तव्यसाधूनां स्थापनाकुलानि दर्शयति-ततो बालवृदयुगलं, कथंभूतं ? समर्थ-दृढशरीरं वाशब्दो विकल्पार्थः / सहितं वा-वृषभसाधुसमन्वितम्। इत्थमादिष्टस्तैः शेषसाधूनां स्वमुपछि समर्म्य परस्परं क्षामणं कृत्वा गमनकाले भूयोऽपि गुरूनापृच्छ्य गन्तव्यम्। यदि नाऽऽपृच्छन्ति तदा मासलघु। ते चावश्यिकीं कृत्वा निर्गच्छन्ति, कियन्तः कथं चेत्याहतिन्नेव गच्छवासी, हवंतऽहालंदियाण दोन्नि जणा। गमणे चोदक पुच्छा, थंडिलपडिलेह हालंदे // 643|| जघन्यतस्त्रयो गच्छवासिनो जना एकैकस्यां दिशि व्रजन्ति, यथालन्दिकानां तु गच्छप्रतिबद्धानां द्विजनावेकस्यां दिशि क्षेत्रप्रत्युपेक्षको गच्छतः, शेषास्तुतिसृषु दिक्षु। गच्छयासिनामाचार्या आदिशन्ति, यथायथालन्दिकानामपि योग्यं क्षेत्र प्रत्युपेक्षणीयं तेषां च गमने प्ररूपिते नोदकपृच्छा वक्तव्या,स्थण्डिलप्रत्युपेक्षणं यथालन्दिकानांवाच्यम्। तत्र गमनद्वारं विवृणोतिपंथुचारे उदये, ठाणे भिक्खंतरा य वसहीओ। तेणा सावयबाला, पचावाया य जाणविही॥६४४|| पन्थान-मार्गम्, 'उच्चारे' त्ति उचारप्रश्रवणभूमिके उदिय'त्ति पानकस्थानानि येषु बालादियोग्यं प्राशुकैषणीयं पानकं लभ्यते, 'ठाणे' त्ति विश्रामस्थानानि 'भिक्ख' त्ति येषु येषु प्रदेशेषु भिक्षा प्राप्यते न वा अन्तराअन्तराले च सतपःप्रतिश्रयाः, सुलभा दुर्लभा वा स्तेनाः श्वापदा व्यालाश्चयत्र सन्ति, नवा प्रत्यपायाश्च यत्र दिवा रात्रौवा भवन्ति, तदेतत्सर्व सम्यग् निरूपयद्भिर्गन्तव्यम् / यानं-गमनं तस्य विधिरयं द्रष्टव्य इति। इदमेव व्याचिख्यासुराहवावारियसच्छंदा-ण वावि तेसिं इमो विही गमणे। दव्वे खित्ते काले, भावे पंथं सुपडिलेहे // 645| व्यापारिता-आचार्येण नियुक्ताः स्वच्छन्दानाम ये आभिग्रहिकास्तेषामुभयेषामप्ययंगमने विधिः। तद्यथा-द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतश्च पन्थानं प्रत्युपेक्षन्ते। कथमित्याहकंटगतेणा वाला, पडिणीया सावयाय दवम्मि। समविसमउदगथंडिल-भिक्खायरियंतरा खेत्ते॥६४६|| दिय राउ पचवाए, य जाणई सुगमदुग्गमे काले। भावे सपक्खपरप-क्खपेल्लणा निण्हगाईया // 647 // द्रव्यतः कण्टकास्तेनाव्यालाः प्रत्यनीकाः श्वापदाश्वपथिप्रत्युपेक्षणीयाः / क्षेत्रत:--समोगिरिकन्दराप्रपातनिम्नोन्नतरहितः-पन्था विषमस्तद्विपरीतः 'उदग' ति पानीयवदुलो मार्गः स्थण्डिलानि भिक्षाचर्या तथा अन्तरा-अ
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________________ विहार 1297 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विहार पान्तराले वसतयः। कालतोदिवा रात्रौ या प्रत्यपायान् जानाति, यथाऽत्र दिवा प्रत्यपाया न रात्रौ, रात्रौ न दिदेति यथा दिवा रात्रौ वाऽयं पन्थाः सुगमो दुर्गमो वा। भावतः- स्वपक्षेण परपक्षेण वा प्रेरित आक्रान्तोऽयं ग्रामः पन्था वा न वेति / अथ कः पुनः स्वपक्षः को वा परपक्ष इत्याह'निण्हगाइय' त्ति निवाः-पार्श्वस्थादयः साधुलिङ्गधारिणः स्वपक्षाः आदि-ग्रहणात्-चरकपब्रिाजकादयः परपक्षाः एवं प्रत्युपेक्षमाणास्तावद् 'व्रजन्ति यावत् विवक्षितक्षेत्र प्राप्ताः / उक्तं गमनद्वारम्। अथनोदकपृच्छाद्वारमाहसुत्तत्थाणि करिते,नवत्ति वचंतगा उ चोएछ। न करिंति साहु चोयय, गुरूण निइआइआ दोसा॥६५८|| परो नोदयति- क्षेत्रप्रत्युपेक्षका व्रजन्तः किं सूत्रार्थी कुर्वते न वा ? गुरुराह- न कुर्वन्ति, मा भूवन् गुरूणां नित्यवासादयो दोषाः, अतः सूत्रपौरुषी कुर्वन्ति यदि कुर्वन्ति तदा मासलघु।अर्थपौरुष्या मासगुरु। 'थण्डिलपडिलेहहालंदे' त्ति पदं व्याख्यानयतिसुत्तत्थपोरिसीओ, अपरिहवेंता वयंति जहॉलंदी। थंडिल्ले उवओगं, करिति रत्तिं वसंति जहि // 6 // यथालन्दिकाः सूत्रार्थपौरुष्यावपरिहापयन्तो विहारं भिक्षाचर्यां च तृतीयस्यां पौरुष्यां कुर्वाणा व्रजन्तिायत्रचरात्रो वसन्ति तत्र स्थण्डिले-- कालग्रहणादियोग्ये उपयोगं कुर्वन्ति। केन विधिना गच्छवासिनस्तत्र क्षेत्रे प्रविशन्तीत्याहसुत्तत्थे अकरता, भिक्खं काउं अइंति अवरहे। वितियदिणे सज्झाओ, पोरिसि अद्धाएँ संघाडो॥६५॥ सूत्रार्थावकुर्वन्तः प्रस्तुतक्षेत्रासन्ने ग्रामे भिक्षां कृत्वा समुद्दि-श्यापरा) विचारभूमिं स्थण्डिलानि प्रत्युपेक्षमाणा विवक्षितं क्षेत्रम् 'अइंति' त्ति प्रविशन्तिं, ततो वसतिं गृहीत्वा, तत्राऽवश्यकं कृत्वा, कालं प्रत्युपेक्ष्य, प्रादोषिकं स्वाध्यायं कृत्वा, प्रहरद्रय शेरते।येतुनशेरतेते अर्द्धरात्रिकवैरात्रिककालद्वयमपि गृह्णन्ति। ततः प्राभातिकं कालं गृहीत्वा द्वितीयदिने स्वाध्यायः कर्त्तव्यः / ततोऽर्द्धयां पौरुष्यामतिक्रान्तायां संघाटको भिक्षामटति। एतदेवाहवीयारभिक्खचरिया, वुत्ताण विरुग्गयम्मि पडिलेहा। चोयग भिक्खायरिया, कुलाइ तहुवस्सयं चेव // 611 // विचारभूमिः प्रथममेवापराह्न प्रत्युपेक्षणीया, ततो रात्रादुषितानार्माचेरोगते सूर्ये अर्द्धपौरुष्यां भिक्षाचर्यायाः प्रत्युपेक्षणा भवति। अत्र नोदकः प्रश्नयति, किमिति प्रातरारभ्य भिक्षाचर्या विधीयते? सूरिरभिदधातिएवं भिक्षाचर्यां कुर्वाणाः कुलानि-दानकुलादीनितथोपाश्रयं च ज्ञास्यन्तीति समासार्थः। अथैतदेव व्याचष्टेबाले दुरे सेहे, आयरियगिलाणखमगपाहुणए। तिमि उकाले जहियं, मिक्वायरिया र पारग्गा // 652 // षष्ठीसप्तम्योरथ प्रत्यभेदात् बालस्य वृद्धस्य शैक्षस्याऽऽचार्यस्य ग्लानस्य क्षपकस्य प्राघूर्णकस्यच प्रायोग्या तदनुकूलप्राप्यमाणभक्तपाना त्रीनपि पूर्वापराह्नमध्याह्वलक्षणान् कालान् यत्र भिक्षाचर्या भवति तत्क्षेत्रं गच्छस्य योग्यमिति गम्यते। कथं पुनस्तत्प्रत्युपेक्ष्यत इत्याहखेत्तं तिहा करिता, दोसीणे नीणितम्मि उवयंति। अन्नोने बहुलद्धो, थोवंदन मा य रूसिया // 653|| क्षेत्रं त्रिधा-त्रीन्भागान् कृत्वा एकं विमागं प्रत्युषसि पर्यटन्ति, द्वितीयं . मध्याह्ने, तृतीयं साया।तत्र यत्र प्रातरेव भोजनस्य देशकालस्तत्र प्रथम पर्यटन्ति। अथ मास्ति प्रातः काऽपि देशकालस्ततो 'दोसीणे' पर्युषिते आहारे निस्सारिते वदन्ति, यथा अन्यान्येषु गृहेषु पर्यटद्रिः बहुः-प्रचुर आहारोलब्धस्तेन च भृतमिदं भाजनम्, अतः स्तोकं देहि, मा चरुषःमा रोषं काषीर्यदेते न गृहन्तीति, एतनामी परीक्षार्थ कुर्ववन्ति किमयं दानशीलो न वेति। अहवनदोसीणं चिय, जाणीमो देहिणे दहि खीरं। खीरे व य गुल गोरस-थोवंथोवं च सव्वत्थ।।६५४|| अथवा न वयं 'दोसीण' मेव जानीमः, किंतु-देहिणे' अस्मभ्यं दधि क्षीरं च / क्षीरं लब्धे सति घृतं गुडं गोरसं च याचयित्वा सर्वत्र स्तोकं स्तोकमेव गृह्णन्ति / एवं तावत्प्रशस्यौ यौ भिक्षाया देशकालौ यानि च भद्रककुलानि तानि सम्यगवधारयन्ति, यथा बालवृद्धक्षपकादीनां प्रथमद्वितीयपरीषहार्दितानां समाधिसन्धारणार्थ प्रातरेवतेषु पेयादीनि यानि चापनीयन्ते एवमेकस्य पर्यायं गृहीत्वा वसतिमागम्यालोचनादिविधिपुरस्सरं समुद्दिश्य मध्याह्ने द्वितीये भिक्षा पर्यटन्ति। कथमित्याहमज्मण्हें पसरभिक्खं, परिताविय पेज जूसपयकठियं / ओभासिमणोभासिय, लम्भाजंजत्थ पाउग्गं // 655|| मध्याह्ने प्रचुरं भैक्षं तथा परितापितं-परितलितं सुकुमालिकादि यत्कान्तं, यदा-परितापितं कथितं; कट्टरादिकमित्यर्थः, पेया-यवागू, यूषोमुद्गरसः तथा पयो दुग्धं कथितं-तापितम् एवमवभाषितमनवभाषितं वा यद्यत्र प्रायोग्यमन्विष्यते तत्तत्र यदि लभ्यते तदा प्रशस्तं तत् क्षेत्रम्, अत्राऽप्येकस्य पर्याप्तं गृहीत्वा प्रतिनिवृत्त्य समुद्दिश्य संज्ञाभूमिं गत्वा वैकालिकी पात्रादिप्रत्युपेक्षणां कृत्वा साया तृतीयविभागे भिक्षामटन्ति। कथमित्याहचरिमे परिताविय पेशक्खीर आएस अतरणऽहा। एकेकागसंजुक्तं, भत्तऽहं एकमेकस्सि६५६||
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________________ विहार १२९८-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विहार * चरमे भिक्षाकाले परितापितं पेयाक्षीरं येषु प्राप्यते तानि कुलानि सम्यगवधारयन्ति। किमर्थमित्याह--आदेशाय प्राघूर्णकास्तदा समागच्छेयुः, अतरणोग्लानस्तदानीं पथ्यमुपयजीततदर्थमुपलक्षणत्वादालाद्यर्थं च / अत्राऽप्येकस्य पर्याप्तं गृहीत्वा प्रतिनिवर्तन्ते / यत आह'एक्कक्क इत्यादिएकैक्कः साधुरन्यसाधुना संयुक्तो यस्मिन्नानयते तदेकैकं संयुक्तं भक्तार्थमुदरपूरमाहारमेकैकस्य साधोरायाऽऽनयन्ति। इदमुक्तं भवति-प्राती साधू सङ्घट्टकेन पर्यटतः, तृतीयो रक्षपाल आस्ते। द्वितीयस्यां वेलायां तयोर्मध्यादेक आस्ते अपरः प्रथमव्यवस्थितं गृहीत्वा प्रयाति, तृतीयस्यां तु द्वितीयवेलारक्षपालः प्रथमव्यवस्थितरक्षपालेन सह पर्यटति। यस्तुवारद्वयंपर्यटतिस तिष्ठति, एवं त्रयाणां जनानांद्वौ द्वौ वारौ पर्यटनं योजनीयम्। ओसहमेसजाई, काले य कुले य दाणसखाई। सग्गामे पेहित्ता, पेहें तितओ परग्गामे // 657 / / औषधानि-हरीतक्यादीनि, भेषजानि-पेयादीनि, त्रिफलादीनि च। | 'काले य' त्ति येषु कुलेषु यत्र काले वेलायां वा दानश्राद्धादीनि कुलानि | एतानि स्वग्रामे प्रत्युपेक्ष्य ततः परग्रामे प्रत्युपेक्षन्ते। __ अत्र चालनां कारयतिचोयगवयणं दीहं, पणीयगहणं नणु भवे दोसा। जुजइ तं गुरुपाहण-गिलाणगट्ठा न दप्पहा / / 658| जइ पुण खद्धपणीए, अकारणे एकसिं पि गिहिला। तहियं दोसा तेण उ, अकारणे खद्धनिद्धाइं॥६५॥ . | नोदकः-प्रेरकस्तस्य वचनंचालनारूपंनतुतेषामित्थं दीर्घाभिक्षाचाँ कुर्वतां प्रणीतस्यचदधिदुग्धादेहणे दोषाः सूत्रार्थे परिमन्थमोहोद्भवादयो. भवेयुः / सूरिराह-- भद्र ! युज्यते तत्प्रणीतग्रहणं दीर्धभिक्षाटनं च प्राघूर्णकग्लानाथ न दार्थ तन्मनोबलवर्णादिहेतोः, यदि पुनः 'खद्धं' प्रचुर प्रणीतं-स्निग्धंमधुरमिति अकारणे-गुर्वादिकारणाभावे एकशोऽपि गृह्णीयान्न तस्मिन् खद्धप्रणीतग्रहण भवेयुर्दोषाः।कुत इत्याह-अकारणे आत्मार्थं यस्मात्तेन 'खद्धनिद्धाई ति प्रचुरस्निग्धानि भक्ष्यन्ते इति वाक्यशेषः / अतो गुरुग्लानादिहेतोः क्षेत्रप्रत्युपेक्षणे काले प्रणीतं गृह्णतां चिरं च पर्यटतां न कश्चिद्दोष इति। अथ'कुलाइतह तस्स पंचेव' तिपदंव्याख्यायते। भिक्षामटन्तः कुलानि जानन्ति, कथमित्याहदाणे अभिगमसड़े, सम्मत्ते खलु तहेव मिच्छत्ते। मामाए अवियत्ते, कुलाइजाणंति गीयत्था॥६६०॥ दानश्रद्धानि-प्रकृत्यैव दानरुचीनि अभिगमश्रद्धानि-प्रतिपन्नाणुव्रतानि श्रावककुलानि सम्यक्त्वश्रद्धानि- अविरतसम्यग्दृष्टीनि तथैव मिथ्यात्वे-मिथ्यादृष्टिकुलानि मामकानि मा मदीयं गृहं श्रमणाः प्रविशन्त्विति प्रतिषेधकारीणि 'अवियत्ते' ति नास्ति प्रीतिः साधुषु गृहमुपागतेषु येषां तान्यप्रीतिकानि एतानि कुलानि गीतार्थाः पर्यटन्तः सम्यग् जानन्ति उपाश्रयांश्च जानन्ति। कथमित्याहजेर्हि कया उवस्सय-समणाणं कारणा वसहिहे। परिपुच्छिय सहोसा, परिहरियव्वा पयत्तेणं // 661 / / इह श्रमणाः पञ्चधा, तद्यथा-शाक्याः, परिव्राजका, गेरुका आजीवकाः, निर्ग्रन्थाश्च / तेषामेव वा कारणात; कारणमुद्दिश्येत्यर्थः / कारणमेव व्यनक्ति, वसतिः- अवस्थानं तद्धेतोस्तन्निमित्तं यैहिभिः कृता उपाश्रयास्तेषां समीपे भिक्षामटद्भिः परिपृच्छ्योपाश्रयं मूलोत्पत्तिं पर्यनुयुज्य सदोषाः सवाद्यादोषदुष्टास्तेउपाश्रयाः प्रयत्नेन परिहर्त्तव्याः। तथाजेहिं कया उवस्सय-समणाणं कारणा वसहिहेउं। परिपुच्छिय निहोसा, परिभोत्तुं जे सुहं होइ॥६६२।। यैः कृता उपाश्रयाः श्रमणानां-निर्ग्रन्थवर्जानां शाक्यादीनां कारणाद्वसतिहेतोस्तान् परिपृच्छ्य निर्दोषाः-निरवद्यास्ते उपाश्रयाः परिभोक्तुं 'जे' इति निपातः पादपूरणे, सुखं भवति; सुखेनैव संयमबाधामन्तरेण तेपरिभुज्यन्त इत्यर्थः / जेहिं कया पाहुडिया, समणाणं कारणा वसहिडेउं। परिपुच्छिय सद्दोसा, परिहरियव्वा पयत्तेणं॥६६३३॥ यैः कृता प्राभृतिका-- उपाश्रयेषु उपलेपनधवलनादिका श्रमणानांपञ्चानामपि साधूनामेव वा कारणाद्वसतिहेतोस्तान् परिपृच्छय सदोषाः उत्तरगुणैरशुद्धत्वात्, सावद्यास्ते उपाश्रयाः प्रयत्नेनपरिहर्त्तव्याःजेहि कया पाहुडिया, समणाणं कारणा वसहिहे। परिपुच्छिय निहोसा, परिभोत्तुं जे सुहं होइ॥६६॥ यैः कृता प्राभृतिका श्रमणानां-साधुवर्जितानां तापसादीनां कारणाद् वसतिहेतोः तान् परिपृच्छ्य निर्दोषा इति मत्वा परिभोक्तुं 'जे' इति प्राग्वत् सुखं भवति-सुखेनैव परिभुज्यन्त इत्यर्थः। / अथ कीदृशे स्थाने वसतिरन्वेषणीया? उच्यते-यावन्मात्रं वसितुमाक्रान्तं भवति तावन्मानं पूर्वाभिमुखवामपावोपविष्टवृषभाकारं बुद्ध्या परिकल्प्य प्रशस्तेषु स्थानेषु वसतियुज्ये। अथ कुत्रावयवस्थाने गृहाणामावसतिः किं फला भवति ? इति उच्यतेसिंगक्खोडे कलहो, ठाणं पुण नऽत्थि होइ चलणेसु। अहिठाणे पोट्टरोगो, पुच्छम्भिव फेडणं जाणे // 66 // मुहमलम्मि य चारी, सिरे अककुहे य पूअसक्कारो। खंधे पट्ठीइभरो, पुट्ठम्मिय घायओवसहो // 666|| शृङ्गकखोडे-शृङ्गप्रदेशे यदि वसतिं करोति तदा निरन्तरं साधूनां कलहो भवति, स्थानमवस्थितिः पुनर्नास्ति चरणेषु गाढप्रदेशेषु अधिष्ठाने आपादप्रेशे 'पुढे ति उदरं तस्य रोगो भवति, पुच्छे-पुच्छप्रदेशे स्फेटनमपनयनं वसतेजर्जानीहि // 665 / / मुखमूले यदि वसतिः तदा चारी भोजनसम्पत्तिः, प्रशस्ता, शिरसि शृङ्गयोर्मध्ये ककुदिच
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________________ विहार 1269 - अभिधानरांजेन्द्र:- भाग 6 विहार वसतिकरणे पूजा च वस्त्रपात्रादिभिः सत्कारश्चाभ्युत्थानादिना साधूनां | धीयते कालतोरात्रौ दिवा वा अवेलायामुच्चारस्य प्रश्रवणस्य वा व्युत्सर्जन भवति। स्कन्धप्रदेशे पृष्ठदेशे च वसतौ सत्यां साधुभिरितस्तत आगच्छ- भावतोग्लानस्यापरस्य वा प्राघूर्णकादेर्निवातप्रवाताधवकाशस्थापनेन द्भिर्भरो भवति। पोट्टे-उदरप्रदेशे वसतौ गृह्यमाणायांधावतो-नित्यतृप्तो समाधिसम्पादनमित्युक्तेयदनुजानातिततः सुन्दरम्। अथ यात्-मया वृषभो वृषभपरिकल्पना-गृहीतवसतिनिवासी साधुजनो, भवतीत्येवं युष्मभ्यं वसतिरदत्ता अहमन्यं युष्मदीयं प्रायोग्यं न जानामि, ततो यः परीक्षा प्रशस्त-स्थानव्युदासेन प्रशस्तेषु स्थानेषु स्त्रीपशुपण्डकवर्जिता प्राग भोजनदृष्टान्ते उद्दिष्टः स उपदिश्यते 'कूरुवमेति कूरोभक्तं तस्योपमा वसतिरन्वेषणीया। यथा केनचित्कस्याऽपि पार्श्वे कूरः प्रार्थितस्तेन च दत्तः, ततस्तस्य तदन्वेषणे चाऽयं विधिः स्नानासनभोजनादी केनावगाहिमसूपनानाविधव्यञ्जनादीन्यपि देउलिय अणुण्णवणाऽणुनविए तम्मि जंच पाउग्गं / दीयन्ते, एवं भवताऽपि वसतिं प्रयच्छता सर्वमपि प्रायोग्यं दत्तमेव भवति, भोयणकाले किचिर, सागरसरिसा य आयरिया // 667 / / परं तथाऽपि वयं भवन्त भूयोऽपि तृतीयव्रतभावनामनवर्तयन्तोऽनु ज्ञापयाम / एवमुक्ते स सर्वमपि प्रायोग्यमनुजानीयात्ततो यत्र यदुचारादि देवकुलिका-यक्षादीनामायतनं तत्पार्श्ववर्त्तिनो वागताः, आह व्युत्सर्जनमनुज्ञातं तत्तत्र विधेयम्। किमर्थं देवकुलिकाया निबन्ध उच्यते, सा प्रायेण ग्रामादीनां बहिर्भवति, यत आहसाधुभिश्चोत्सर्गतो बहिः स्थातव्यम्, देवकुलिका च विविक्तावकाशा भवति, अतः प्रथमतस्तस्या अनुज्ञापना कर्तव्या। अथ नाऽस्ति उचारे पासवणे, अलाउनिल्लेवणे य अच्छणए। देवकुलिका बहिर्वा सप्रत्यपाया ततो ग्रामादेरन्तः प्रतिश्रयोऽन्विष्यते करणं तु अणुनाए, अणणुण्णाए भवे लाओ।।६७१।। यस्तत्र प्रभुः सन्दिष्ठो वासप्रायोग्यं वक्ष्यमाणामनुज्ञाप्यतेअनुज्ञापितेसति उचारस्य प्रश्रवणस्य अलाबुनिर्लेपनस्य पात्रप्रक्षालनस्य 'अच्छणए' तस्मिन् यच तेन प्रायोग्यमनुज्ञातं तस्य परिभोगः कार्यः / अथाऽसौ त्ति स्वाध्यायाद्यर्थमवस्थानस्य गाथायां षष्ठ्यर्थे सप्तमी, करणं-- नानुजानीते प्रायोग्यं ततो भोजनदृष्टान्तः कर्तव्यः। तथा कियचिरंक्रालं समाचरणं शय्यातरेणाऽनुज्ञाते प्रदेशे कर्त्तव्यम् / अथाऽनुज्ञाते अवकाशे भवन्तः स्थास्यन्तीति पृष्ट अभिधातव्यं यावत्भवतां गुरूणां प्रतिभासते, उच्चारादिकं करोति / तदा लघुको मास इति। गतं भोजनद्वारम्। कियन्तो भवन्त इहावस्थास्यन्ते इति पृष्ट वक्तव्यं सागरः- समुद्रस्त अथ कियचिरं कालमिति द्वारं यदि शय्यातरः त्सदृशा आचार्या भवन्तीति संग्रहगाथा-समासार्थः। प्रश्नयति कियन्तं कालं यूयं स्थास्यथ अथैनामेव व्याचिख्यासुः "अविदिन्ने परिभोग, अणुन्नविए ततो-वक्तव्यम्तम्मि' इति पदं विवृणोति जाव गुरूण य तुजा य, केवइया तत्थ सागरेणुवमा। जं जंतु अणुन्नायं, परिभोगं तस्स तस्स काहिंति। केवह काले णेहिह, सागर ठवेंति अनेऽवि // 672 / / अविदिने परिभोग, जइ काहिति तत्थिमा सोही॥६६५|| यावद् गुरूणां च युष्माकं प्रतिमाति तावदवस्थास्यामः परं नियाघाते यद्यत्तृण्डगलादिकं शय्यातरेणानुज्ञातं तस्य परिभोगमभिरुचिते क्षेत्रे मासमेकं, व्याघाते तु हीनमधिकं वयमेकत्र तिष्ठामः / अथ मासमेव समायाताः सन्तः करिष्यन्ति, यदि पुनरवतीपणे शय्यातरेणाऽननुज्ञाते स्थास्याम इति निर्धारितं ततो मासलधु / अथाऽसौ प्रश्नयेत् कियन्तो द्रव्यक्षेत्राऽऽदौ परिभोगं कोऽपि करिष्यति तत्रेयं वक्ष्यमाणा शोधिः / यूयं तिष्ठथ ततो वक्तव्यम्-'सागरेणुवम' त्ति सागरः-समुद्रस्तेनोपमा तामेवाऽऽह यथा-समुद्रः कदाचित्प्रसरति, कदाचिचापसरति, एवमाचार्योऽपि कदाचिद्दीक्षामुपसम्पदं वा प्रतिपद्यमानः साधुभिः परिवारितः प्रसर्पति इकडकविणे मासो, चाउम्मासो अपीढफलएसु। कदाचित्तेष्वेवाऽन्यत्र गतेष्वपसर्पति, अत इयन्त इति संख्यां कर्तुं न कट्ठकलिंबे पणगं, वारे तह मल्लगाईसु // 66 // शक्यते, यस्त्वेतावन्तो वयमिति निश्चितं ब्रूते तस्य मासलघु।अथासौ कटमये-कठिनमये च संस्तारके अदत्ते गृह्यमाणे लघुमासा:-चत्वारो पृच्छति-कियता कालेन एष्यथ आगमिष्यथ ततः साकारं सविकल्पं मासा लघवः, पीठफलकेषु तथा काष्ठनिम्बयोः क्षारमल्लकतृणड- वचनं स्थापयन्ति; ब्रुवते इत्यर्थः, यथा अन्यक्षेत्रे प्रत्युपेक्षकाः अपरासु गलादिषु च पञ्चकम्, अतः प्रायोग्यमनुज्ञापनीयम्।। दिक्षुगताः सन्तिततस्तैर्निवृत्ते यदागुरूणां निकटे समेष्यतितदा व्याघाअथाऽसौ ब्रूयात् किं तत्प्रायोग्यं ? ततो वक्तव्यम् ताभावे इयत्सु दिवसेसु, व्याघाते तुहीने अधिके वा काले वयमेष्याम दव्वे तणडगलाई, अच्छणभाणाइ धोवणे खित्ते / इति यः पुनरियता कालेनागमिष्याम इति ब्रवीति तस्य मासलधु। काले उचाराइं, भावे गिलाणाइसु कूरुवमा / / 670 / / पुखुद्दिडे दिजह, अहव भणिज्जा भवंतु एवइआ। प्रायोग्यं चतुर्द्धा-द्रव्यतः, क्षेत्रतः, कालतो, भावतश्च / तत्र द्रव्यतः- तत्थन कप्पइ वासो, असई खेत्तस्सऽणुनाओ॥६७३।। तृणडगलानि, आदिशब्दात्-क्षारमल्लकादीनिच। क्षेत्रतः-'अच्छणं' अथाऽसौ पूर्वदृष्टान् यैः प्राग्मासकल्पो वर्षावासो वा कृत ति स्वाध्यायादिहेतोः प्राङ्गणादिप्रदेशेऽवस्थानं भोजनानाम् आदि- आसीत् तानेवेच्छति नान्यान्, भणति वा ये साधवो मया ग्रहणादाचार्यादिसत्कमलिनवस्त्राणां धावनप्रक्षालनं प्रतिश्रयादहिर्वि- दृष्टपूर्वास्तेषामहं शीलसमाचारं सर्वमपि जानामि अतस्त
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________________ विहार १३००-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विहार एवेह समानेतव्या न शेषाः। अथवा भणेत्येवा ते वा सा धवो भवन्तु परमेतावन्त एवात्र तिष्ठन्तु तत्र किं कर्त्तव्यमित्याह-तत्रैवं शय्यातरेण निर्धारितेसतिन कल्पते वासो-नयुज्यते तस्यां वसताववस्थातुमिति भावः / अथनास्त्यपरं मासकल्पप्रायोग्य क्षेत्रंतत इतरस्या वसतेरलाभे तस्यामेव वसतौ वासोऽनुज्ञातः। तत्रच वसतां यदि प्राघूर्णकः समागच्छति ततः को विधिः? इत्याहसकारो सम्माणो, भिक्खग्गहणंच होइ पाहुणए। जइ वसइ जाणओ तह, आवाइ मासियं लहुगं // 674|| सत्कारो-वन्दनाऽभ्युत्थानादिः सम्मानो-विश्रामणादिः भिक्षाग्रहणमुपविष्टस्य भिक्षाया आनयनम्, एतत्सर्वमपि प्राधूण्णक आगते सति कर्तव्यं, यदिवसतिर्येषां वा परिमितानां दत्ता तदा यावन्तः प्राधूर्णकाः समायाताः तावतो वास्तव्यानन्यत्र विसय॑ प्राधूर्णकाः स्थाप्यन्ते। अथ नामग्राहं गृहीत्वा नियमितानामेव साधूनां सा दत्ता ततः प्राघूर्णकस्य वसतिस्वरूपं निवेद्यते, निवेदिते च यदि कोऽपि वसतिस्वरूपं जानानोऽपि तत्र वसति तदा आपद्यते मासिकं लघुकम्। ततःकिइकम्में भिक्खगहणे, कयम्मि जाणाविओ तहिं वसई। हियन सुं संका-सुण्हा उन्मामवोच्छेदो॥६७५॥ कृतिकर्मणि-विश्रामणादौ भिक्षाग्रहणे च कृते सति वसतिस्वरूपं ज्ञापितः सन् रात्रौ बहिर्वसति। यदि ज्ञापितोऽपि सन् बहिर्न व्रजति तदा सागारिकस्य केनचिचौराऽऽदिना हृते-नष्ट च एवमेवादृश्यमाने कस्मि - श्चिद्वस्तुनि शङ्का भवेत्, नूनं यदद्यामुकं वस्तु न दृश्यते, तदेतेषां यः प्राघूर्णको रात्रावुषित्वा प्रतिगतः तेन हृतं भविष्यति, स्नुषा वा वधू रात्रावुद्धामकेन सह गता भवेत्, तत्राऽपि यदि प्राघूर्णकस्य शङ्का सागारिकः करोति तदा तद्रव्यान्यद्रव्याणां व्यवच्छेदो भवेत्। एवं वसतौ लब्धायां किं विधेयमित्याहपडिलेहियं च खेत्तं,थंडिलपडिलेहऽमंगले पुच्छा। गामस्स व नगरस्सव, मसाणकरणं पढमवत्थु // 676 // यदा क्षेत्रं सम्यक् प्रत्युपेक्षितं भवति तदा महास्थण्डिलंशवपरिष्ठापनभूमिलक्षणं प्रत्युपेक्षणीयम्, अमङ्गलेषु पृच्छति, भगवन्तो! यूयं तिष्ठन्त एव किमेवम् ? अमङ्गलं-कुरूपं, सूरिराह-ग्रामस्य वा नगरस्य वा 'मसाणकरणं ति श्मशानस्थापनायोग्यं प्रथममाद्यं वास्तु प्रत्युपेक्षीत इति वाक्यशेषः / इयमत्र भावना-ग्रामनगरादीनां तत्प्रथमतया निवेश्यमानानां वा वास्तुविद्याऽनुसारेण प्रथमं श्मशानवास्तु निरूप्य ततः शेषाणि देवकुलसभासौधादिवास्तूनि निरूप्यन्ते, लोके तथा दृष्टत्वात्। नच तदमाङ्गलिकम्, एवमत्राऽपि महास्थण्डिलं प्रथमं प्रत्युपेक्षमाणमस्माकं न अमाङ्गलिकं भवतीति। तच कस्यां दिशि प्रत्युपेक्षणीयम् ? उच्यते दिसा अवरदक्खिणया, अवरा वा दक्खिणाय पुटवा वा। अवरुत्तराय पुव्वा, उत्तरपुव्युत्तरा चेव // 677 / / पउरन्नपाणपठमा, वितियाए भत्तपाण न लभंति। ततियाएँ उवहिमादी, चउत्थी सज्झार्य न करेंति॥६७८|| पंचमिआएऽसंखड,छट्ठीऍ गणस्स भेदणं जाण। सत्तमिए गेलण्णं, मरणं पुण अहमीए उ॥६७६।। प्रथमतो महास्थण्डिलप्रत्युपेक्षणविषया अपरदक्षिणविषया अपरदक्षिणा दिक् / अथ तस्यां नदीक्षेत्रे 'अट्ठमीए उ’ प्रथमा अपरदक्षिणा दिक् प्रचुरानपाना भवति; तस्यां प्रत्युपेक्षमाणायां प्रचुरमन्नपानं प्राप्यत इत्यर्थः, यदि तस्यां सत्यां द्वितीयां दक्षिणां प्रत्युपेक्षन्ते तेन भक्तपानं न लभन्ते। अथ प्रथमायां कोऽपि व्याघातस्ततो द्वितीयामपि प्रत्युपेक्षमाणाः शुद्धाः। एवमुत्तरास्वपि दिक्षु भावनीयम्। तथा तृतीयस्याम् 'उवहिमाइ' . त्ति उपधिर्वस्त्रपात्रादिकः स्तेनैरपहियते तस्मिश्चापहृते तृण-ग्रहणाग्निसेक्तादयो दोषाः, चतुर्थ्यां स्वाध्यायं न कुर्वन्ति-स्वाध्यायः कर्तव्यो न भवतीत्यर्थः पञ्चम्यामसंखडं-कलहः साधूनां भवति, षष्ठ्यां गणस्यगच्छस्य भेदन-द्वेधीभवनं जानीहि, सप्तम्यां ग्लानं-ग्लानत्वं साधूनां जनयति, अष्टम्यां पुनर्मरणमपरस्य साधोरुपजायते। अमुमेव गाथाद्रयोक्तमसमकगाथया प्रतिपादयतिसमाही य भत्तपाणे, उवमरणे तुमंतुमा य कलहो उ। भेदो गेल्लनं वा, चरिमा पुण कडते अन्नं // 680 // प्रथमायां भक्तपानलाभेन साधूनां समाधिः-- रुचिर्भवति, द्वितीयायां भक्तपानं न लभन्ते, तृतीयायामुपकरणमपहियते, चतुर्थ्याम् एकः साधुरपरं भणति त्वमेवमपराधं कृतवान्, अपरो ब्रूते न ममापराधः, त्वमेवेदं विनाशितवानित्येवं तुमंतुमा भवति, तस्याः करणेनस्वाध्यायो नभवतीति भावः / पञ्चम्यांकलहो भण्डनं, षष्ठ्या भेदोगच्छस्यद्वैधीभावः, सप्तम्यां ग्लानत्वम्, चरमा-अष्टमी पुनरन्यं साधुं कर्षति-पञ्चत्वं प्रापयतीत्यर्थः। एकिकम्भितु ठाणे, चउरो मासा हवंतऽणुग्घाया। आणाइणो यदोसा, विराहणा जा जहिं भणिया।।६८१॥ एकैकस्मिन् स्थाने यथोक्तक्रममन्तरेण दक्षिणादीनां दिशां प्रत्युपेक्षणे चत्वारो मासा अनुद्धाताः प्रायश्चित्तं भवति / आज्ञादयश्च दोषाः, विराधना-भक्तपानलाभोपधिकरणादिका या यत्र भणिता सा तत्र द्रष्ठव्या। एतेन विधिना यदा क्षेत्रं प्रत्युपेक्षितं भवति तदा किमपरं भवतीत्याह-- पडिलेहियं च खित्तं, अहय अहालंदियाण आगमणं। नत्थि उवस्सयबालो, सव्वेहि वि होइगंतव्वं // 682 // एकतो गच्छवासिभिः क्षेत्रं प्रत्युपेक्षितं भवति, अथात्रान्तरे यथालन्दिकानामागमनं भवति, तेहि सूत्रार्थपौरुष्यावा हापयन्तस्तृतीयपौरुष्या विहारं कुर्वन्तो गच्छवासिभिः क्षेत्रे प्रत्युपेक्षितेसमायान्ति, तेषांच नाऽस्ति
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________________ विहार 1301 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विहार तत्र क्षेत्रस्थापनायोग्य उपाश्रयपालः जनद्वयस्यैवागमनादिति कृत्वा सर्वैरपि भवति गन्तव्यम्। ___अथ ते यथालन्दिकाः कथं क्षेत्रं प्रत्युपेक्षन्ते ? उच्यतेपुच्छित रुइयं खेत्तं, गच्छे पडिबद्ध बाहि पेहिति। जंतेसिं पाउग्गं, खित्तविभागे य पूरिंति // 653 // ये गच्छप्रतिबद्धा यथालन्दिकास्तैर्गच्छवासिनः पृष्टाः आर्या ! अभिरुचितं क्षेत्रं भवति? ततो गच्छवासिनः प्राहुः-अभिरुचितं, ततो यथालन्दिका गच्छवासिनः प्रत्युपेक्षितस्य क्षेत्रस्य 'बाहि' त्ति सक्रोशयोनारहिः क्षेत्रं प्रत्युपेक्षन्ते, कथमित्याह-यत्तेषां यथालन्दिकानां प्रायोग्यं कल्पनीयमलेपकृतं भक्तपानं परिकर्मरहिता च वसतिस्तदेव गृह्णन्ति, क्षेत्रविभागश्च षड्वीथिरूपास्तानपिपूरयन्ति। जंपिनवचंति दिसिं, तत्थ विगच्छिल्लगासि पेति। पग्गहिय एसणाए, विगई लेवाडवाई॥६८४॥ यामपि दिशं यथालन्दिका न व्रजन्ति तत्रापि- तस्यामपि दिशि गच्छवासिनः क्षेत्रप्रत्युपेक्षकाः तेषां यथालन्दिकानां योग्यं स्वप्रत्युपेक्षितक्षेत्रस्य सक्रोशयोजनादहिः क्षेत्रं प्रत्युपेक्षन्ते, कथमित्याहप्रगृहीतया-साभिग्रहया तृतीयपौरुष्या उपरितनैषणया विकृतिलेपकृतवर्जे भक्तपाने गृह्णाति, घृतादिका विकृतिः तक्रतीमनादिकं द्राक्षापानादिकं वा लेपकृतं वर्जयन्तीत्यर्थः। जइ तिनि सव्वगमणं, एहामु त्ति लहुओ य आणाई / परिकम्मकुडुकरणे, नीहरणं कट्ठमाईणं // 68 // यदि ते गच्छवासिनस्त्रयो जनास्ततः सर्वेषामपि गुरुसकाशे गमनं, ते गच्छन्तो यदि सागारिकेण-पृच्छ्यन्ते-किं यूयमागमिष्यथन वा? ततो / यद्येष्याम-आगमिष्याम इति निर्वचनमर्पयन्ति ततो लघुको मासः, आज्ञादयश्च दोषाः। शय्यातरश्चिन्तयति-यद्येते एष्यन्ति प्रतिगतास्तत्र समागमिष्यन्तीति परिभाव्य परिकर्मेऽपि लेपनादिकं वसतेः कुर्यात्, कुड्यस्य वा जीर्णस्योपलक्षणत्वात्कपाटस्य वा करणं संस्थापन विदध्यात्, काष्ठानामादिग्रहणात्-तृणानांधान्यस्य वानीहरणं निष्काशनं कुर्यात्। यदा-तेषामाचार्याणामपरं किमपि क्षेत्रमभिरुचितंततस्तत्र गताः। तत्र च क्षेत्रे अपरे साधवः समायातास्ततः किमित्याहअद्धाणनिग्गयाई,असिवादिगिलाणओय जो जत्थ। हामो त्तिय लहुओ, तत्थ वि आणाइणो दोसा // 686|| अध्वा-विप्रकृष्टो मार्गस्तेन निर्गता-निष्क्रान्ताअशिवादिभिर्वा कारणैः प्रेरिताः परिश्रान्तास्ते साधवस्तत्रायाताः। तत्र चान्या वसतिनास्ति सा च प्राचीनसाधुप्रत्युपेक्षिता वसतिस्तैर्याचिता / सागारिको ब्रूतेमयेयमन्येषां साधूनां दत्ताऽस्ति तेऽप्येष्याम इति भणित्वा गताः सन्ति, अतो नाऽहं दातुमुत्सहे। एवं ते वसतिमलभमानाः श्वापदस्तेनकण्टकै शीतेनवा प्रारभ्यमाणाः प्रतिगमनादीनि कुर्युम्लानो वा यस्तेषां स विहार कार्यमाणो यत्र यत्परितापनादिकं प्राप्नोति तन्निष्पन्नं प्रायश्चित्तम् / यतश्चैवमत एण्याम इति न वक्तव्यम्।न एष्याम इत्यपि वदतां मासलघु, तत्राऽप्याज्ञाऽऽदयो दोषाः। अपरो वक्तिविकाइअविकएण वि, फेडणधनाइ छुमणमावासे। नीणिते अहिकरणं, विहारणा हाणि हिंडते // 687|| नागमिष्यन्ति साधव इति कृत्वा विक्रीय विक्रयेणभाटकेन दत्ता सा वसतिः, विक्रयेण वादत्ता; विक्रीतेत्यर्थः,स्फेटनंवा वसतिकृतंधान्यस्य, आदिशब्दात्-भाण्डस्यान्यस्य वोपकरणजातस्य क्षेपणं तस्यां कृतम्। वक्क चारणादयो वा तत्र शय्यातरेण वासिताः। तेषां च-आचार्याणां तदेव क्षेत्रमभिरुचितंततः तत्रैव समागताः। सप्राह-युष्माकंसाधुभिरिति कथितं - वयं नैष्यामः, ततो मयेयमन्येषां दत्ता, धान्यादिना वा भृता। ततो यथा भद्रकोऽसौ सागारिकस्तान वटुकादीनिष्काशयति ततस्तेषु निष्काश्यमानेष्वधिकरणं प्रद्विष्टाः सागारिकस्य साधूनां वा करिष्यन्ति, तन्निष्पन्न प्रायश्चित्तम्। वसतिं विना हिण्डमानानाम्, इतस्ततः पर्यटतां या संयमादिविराधना या च सूत्रार्थयोः परिहाणिस्तन्निष्पन्नमपि प्रायश्चित्तम् / तस्मान्न वक्तव्यं नैष्याम इति। किं पुनस्तर्हि वक्तव्यम् ? उच्यते-- जह अम्हे तह अने, गुरु जेहमहाजणस्स अम्हे मो। पुवमणिया उदोसा, परिहरिया कुडमाईया // 65 // यथा वयमत्रागतास्तथा अन्येऽपि साधवस्तिसृषु दिक्षु गताः सन्ति, ततो न जानीमः कीदृशं क्षेत्रं तैः प्रत्युपेक्षितमस्ति, अस्माकं तावदिदं क्षेत्रमभिरुचितं परं गुरवश्वाचार्याः ज्येष्ठमहाजनाश्वज्येष्ठार्यसाधुसमुदायो गुरुज्येष्ठमहाजनं तस्य वयं 'मो' इति पादपूरणे, परतन्त्रा व महे इति वाक्यशेषः / ततस्तत्र गतानांगुरूणां ज्येष्ठार्याणां वा यद्विचारे समेष्यति तद्विधास्यामः; एवं ब्रुवाणैः पूर्वभणिताः कुड्यकरणादयो दोषाः परिहृताः। इत्थमुक्त्वा सागारिकमापृच्छ्य, ते किं कुर्वन्तीत्याहजइपंच तिनि चत्तारिछस्सु सत्तस्सु पंच अच्छंति। चोदक पुच्छा सज्झाय करणवचंत अच्छंते॥६८९॥ यदि ते पञ्च जनास्ततस्त्रयस्तत्रैवासते, द्वौ गुरुसकाशं गच्छतः, अथ षट् जनास्ततश्चात्वारस्तिष्ठन्ति द्वौ गुरूणामभ्यणे व्रजतः, अथ सप्त जनास्ततः पञ्च तत्रैवासते द्वौ गुरूणामुपकण्ठे गच्छतः, यदिच-ऋजुः पन्थाः सव्याघातस्ततोऽपरं पन्थानं प्रत्युपेक्षन्ते। नोदकः पृच्छति-येच गुरुसकाशं व्रजन्तिये चतत्र उपाश्रये आसते ते उभये अपि किंस्वाध्याय कुर्वते न वा? उच्यतेवचंत करण अच्छंत अकरण लहुओ मासों गुरुओ य। जावह कालं गुरुणो, न हंति सव्वं अकरणाए // 66 //
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________________ विहार 1302 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विहार येतावत् व्रजन्तितेयदिसूत्रपौरुषीं कुर्वन्ति ततो मासलघु, अर्थपौरुषीं कुर्वन्ति मासगुरु।ये तुपाश्रये तिष्ठन्ति तेषां सूत्रपौरुष्या अकरणे लघुको मासः, अथपौराष्या अकरणे गुरुको मासः। यावत्कालं गुरूणां समीपन यान्ति न प्राप्नुवन्ति तावत् 'सव्वं अकणाए' त्ति सर्वमपि सूत्रमर्थं च न कुर्वन्ति। इदमेव सविशेषमाहजइ वि अणंतरखेत्तं, गया तह वि अगुणयंतगा एंति। नितियाईमागच्छे, इतरत्थय सिडावाघाओ॥६६१|| यद्यप्यनन्तरमव्यवहितमेव क्षेत्रगतास्ते ततोऽप्यगुणयन्तः सूत्रार्थवक्तव्यताम् आयान्ति, कुतइत्याह-नित्यावासादयो दोषा गच्छस्य मा भूवन, इतरत्र च प्रत्युपेक्षिते क्षेत्रे चिरकालं विलम्ब्यागच्छन्तं शय्याया उपाश्रयस्य व्याघातो मा भूत्। यत एवमतोऽगुणयन्तः समागम्य ते इदं कुर्वन्ति-- ते पत्त गुरुसगासं, आलोएंती जहकम सव्ये। चिंता वीमंसावा, आयरियाणं समुप्पन्ना // 692 / ते क्षेत्रप्रत्युपेक्षका प्राप्ताः सन्तो गुरुसकाशमालोचयन्ति यथाक्रम सर्वेऽपि क्षेत्रस्वरूपम्, ततस्तेषामालोचनां श्रुत्वा चिन्ता-कस्यां दिशि व्रजाम इत्येवं लक्षणा मीमांसा च शिष्याभिप्रायविचारणा आचार्याणां समुत्पन्ना। अथैनामेव गाथां भावयतिगंतूण गुरुसगासं, आलोएत्ता कर्हिति खेत्तगुणे। नय सेस कहणमाणोज संखडं रत्ति साहंति॥६९३|| गत्वा गुरूणां, सकाशमालोच्य गमनागमनातिचारं कथयन्ति क्षेत्रगुणान, तेचाचार्यान् विमुच्य, नच-नैवशेषाणांसाधूनां कथयन्ति। कुत इत्याहमा भूदसंखडं स्वस्वक्षेत्रपक्ष पात-समुत्थम्, यद्यन्येषां कथयन्ति तदा मासलघु, तस्माद्रात्रौ 'साहन्ति' त्तिकथयन्ति।कथमितिचेत् ? उच्यतेआचार्या आवश्यकसमाप्य मिलितेषु सर्वेष्वपि साधुषु पृच्छन्ति, आर्याः ! आलोचयत कीदृशानि क्षेत्राणि ? तत उत्थाय गुरूनभिवन्द्य बद्धाञ्जलयो यथाज्येष्ठमालोचयन्ति। पढमाएँ नऽत्थि पढमा, तत्थ य घयखीरकूरदधिमाई। बिइएऽविय तइयाए, दो अवितेसिं च धुवलंभो // 66 // ओभासिय धुवलंभो, पाउग्गाणं चउत्थिए नियमा। इहरा विजहिच्छाए, तिकालजोगं च सव्वेसिं||६|| प्रथमायां पूर्वस्यां दिशि यदस्माभिः क्षेत्रं प्रत्युपेक्षितं तत्र प्रथमा-- सूत्रपौरुषी नास्ति, तस्यामेव भिक्षाटनवेलासम्भवात; परं तत्र क्षेत्रे च क्षीरकूरदध्यादीनि प्रकामं प्राप्यन्ते / द्वितीयाः क्षेत्रप्रत्युपेक्षका ब्रुवतेद्वितीयस्यां दिशि द्वितीया अर्थपौरुषी नास्ति, तस्यामेव भिक्षाटनवेलाभावात् घृतदुग्धदध्यादीनितुतथैव लभ्यन्ते। तृतीया ब्रुवते-तृतीयस्यां | दिशिद अपि सूत्रार्थपौरुष्यौ विद्येते, मध्याहे भिक्षालाभसद्भावात् तेषां चघृतदुग्धादीनां ध्रुपो निश्चितो लाभ इति। तथाचतुर्थाः पुनरित्थमाहुःअस्मत्प्रत्युपेक्षितायां चतुर्थ्यां दिशि प्रायोग्यानामवभाषितानां ध्रुवोऽवश्यंभावी लाभः इतरथाऽप्यवभाषणमन्तरेणाऽपि यदृच्छया प्रकामं .त्रिकालं पूर्वाह्न-मध्याह्वापरावलक्षणे लक्षणे कालत्रये सर्वेषामपि बालवृद्धानां योग्यं सामान्य भक्तपानं प्राप्यते। इत्थं सर्वरपिस्वस्वक्षेत्रस्वरूपे निवेदिते सत्याचार्याश्चिन्तयन्ति कस्यां दिशि गन्तुं युज्यते। ततः स्वयमेवाद्यानां तिसृणां दिशा सूत्रार्थहान्यादिदोषजालं परिभाव्य चतुर्थी दिशमनन्तरोक्तदोषरहितत्वेन गन्तव्यतया विनिश्चित्य किं कुर्वन्ति ? इत्याहइच्छागहणं गुरुणो, कहिं दयामो त्ति तत्थ ओदरिया। खुहिया भणंति पढमं तं चिय अणुओगतत्तिल्ला // 666|| बिइयं सुत्तग्गाही, उभयग्गाही य तइयगं खित्तं / आयरिओ उ चउत्थं, सो य पमाणं हवइ तत्थ // 697|| गुरोः- आचार्यस्य इच्छाग्रहणं शिष्याणामभिप्रायपरीक्षणं भवति, आर्याः! कथयत-कुत्र कस्यां दिशिव्रजाम? इति। ततो ये औदरिकाः स्वोदरभरणैकचिक्तस्ते क्षुभिताः संभ्रान्ताः सन्तो भणन्ति-प्रथमां दिशं व्रजामो यत्र प्रथमपौरुष्यामेव प्रकामं भोजनमवाप्यते; तामेव दिशम् 'अणुओगतत्तिल्ल' त्ति अनुयोग-ग्राणैकनिष्ठाः शिष्याः आगच्छन्तितिष्ठन्ति येन द्वितीयपौरुष्यां नियाघातमर्थग्रहणं भवति ये तु सूत्रग्राहिणस्ते भणन्ति-द्वितीयां दिशं गच्छामः। यत्र न सूत्रपौरुषीव्याघात इति, ये तूमयग्राहिणस्ते तृतीयदिग्वर्तिक्षेत्रमिच्छन्ति / तत्र हि द्वयोरप्याद्यपौरुष्योर्नियाघात सूत्रार्थग्रहणे भवतः। आचार्यास्तु चतुर्थ क्षेत्रं गन्तुमिच्छन्ति / यतस्तत्र त्रिष्वपि कालेषु बालवृद्धाद्यर्थ, सामान्यभक्तं प्राधूर्णकाद्यर्थ नावभाषितमिति दुग्धादि प्रायोग्यं च प्राप्यते, न च कोऽपि सूत्रार्थयोयाघात इति स एव चाचार्यस्तत्र तेषां मध्ये प्रमाणं भवति। आह--किं पुन: कारणं येनाचार्याश्चतुर्थक्षेत्रमिच्छन्तीत्यत आहमोहुम्भओ उ वलिए, दुग्बलदेहो न साहए अत्थं / तो मज्झबला साहू, दुऽस्सो होइ दिटुंतो॥६९८|| प्रथमद्वितीयतृतीयेषु क्षेत्रेषु प्रचुरस्निग्धमधुराहारप्राप्तेः शरीरेण बलवान् भवति, बलवतश्वावश्यंभावी मोहोद्भवः / एवं तर्हि यत्र भिक्षा न लभ्यते तत्र गत्वा बुभुक्षाक्षामकुक्षयस्तिष्ठन्तु, नैव दुर्बलदेहः साधु साधयत्यर्थं ज्ञानदर्शनचारित्ररूपं यत एवं ततो मध्यमबलानातिबलवन्तो न चातिदुर्बलाः साधव इष्यन्ते! दुष्टाश्वो भवत्यत्र दृष्टान्तः, दुष्टाश्वो गर्दभः, स यथा प्रचुरभक्षणाद्दुर्जयः सन्नुत्प्लुत्य कुम्भकारारोपितानि भाण्डानि भिनत्ति भूयस्तेनेव कुम्भकारेण निरुद्वाऽऽहारः सन् भाण्डानि वोढुं न शक्नोति / स एव च गर्दभो विमध्यमाहारक्रियया प्रतिचयमाणः सम्यग् भाण्डानि वहति। एवं साधवोऽपि यदि स्निग्धमधुराभ्यवहारतः शरीरोपचयभाजो भवन्ति तत उत्पन्नदुर्निवारमोहोद्रेकतया संयमयोगान् बलादुपमर्देयुः, आहाराभावे चातिक्षामवपुषः संयमयोगान् वोढुंन शक्नुयुः। मध्यमबलोपेतास्तुव्यपगतौत्सुक्या अनुदिनपरिणामाः सुखेनैव संयमयोगान् बहन्तीतिमत्वा क्षेत्रत्रयं परिहृत्याचार्याश्चतुर्थ क्षेत्रं व्रजन्ति।
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________________ विहार 1303 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विहार किंचपणपण्णगस्स हाणी, आरेणं जेण तेण वा घरई। जह तरुणा नीरोगा, वचंति चउत्थगं ताहे // 69l पञ्चपञ्चाशद्वार्षिकस्य मानुषस्य विशिष्टाहारमन्तरेण हानि:-बलपरिहाणिर्भवति / पञ्चपञ्चाशतो वर्षेभ्यः आरात् वर्तमानो येन वा तेन वा आहारेण ध्रियते निर्वहति।ततोयदिते साधवः करुणास्तथा नीरोगास्ततश्चतुर्थमेव क्षेत्रं व्रजन्ति, नशेषाणि। जइ पुण जुण्णा थेरा, रोगविमुका य साहुणो तरुणा। ते अणुकूलं खित्तं, पेसिंति न याऽवि खग्गूठे / / 700 / यदि पुनर्जीणाः पञ्चपञ्चाशद्वार्षिकादय इति भावः के ते स्थविरावृद्धाः, तथा तरुणा अपिये रोगेण ज्वरादिना मुक्तमात्रा अत एव क्षुधाऽसहिस्नवो नयदपि तदप्याहारजातं परिणमयितुं समर्थास्तानेवंविधांस्तुस्थविरतरुणाननुकूलं प्रायोग्यलाभ-संभवेन हितं क्षेत्र-प्रथमक्षेत्रादिकं गीतार्थमेकं ससहायं समर्थाः प्रेषयन्ति,ये नचाऽपि नैवखम्गूढा-अलसाः। स्निग्धमधुराद्याहारलम्पटाः खम्गूढा उच्यन्ते। आह-कियता पुनः कालेन ते वृद्धादयश्च पुष्टिं गृह्णन्ति। उच्यते--पञ्चभिर्दिवसः। तथा च वैद्यकशास्त्रार्थ सूचिकामेतदर्थविषयामेव गाथामाहएगपणगऽहमासं,सद्धीसुण मणुयगोणहत्थीणं / राइंदिएहि उबलं-पणगं तो एक दो तिमि // 701 / / क्षीणशरीरस्य शुनः-पोष्यमाणस्यैकेन रात्रिन्दिवेनबलमुपजायते, एवं मनुष्यस्य रात्रिंदिवपञ्चकेन गोबलीवर्दस्यार्द्धमासेन हस्तिनस्तु क्षीणवपुषः पुष्टिमारोप्यमाणस्य षष्ट्यादिवसैर्बलमुद्भवति / ततः एते वृद्धादयः प्रथमक्षेत्रे प्रोष्यमाणाः पञ्चकमेकं रात्रिंदिवानां व्यवस्थाप्यन्ते,ततश्चतुर्थक्षेत्रे नीयन्ते। अथपञ्चके-नामीन बलं गृहीतवन्तः ततः द्वेपञ्चके तथाऽपि बलमगृह्णानाः त्रीणि पञ्चकानि व्यवस्थाप्य चतुर्थक्षेत्रे नेतव्याः। एवं ते चतुर्थक्षेत्रगमनं निणीय शय्यातरमाच्छ्य क्षेत्रान्तरं संक्रामन्ति / तद्विषयं विधिमभिधित्सुराहसागारिय आपुच्छण, पाहुडिया जह य वजिता होइ। के वचंते पुरओ, भिक्खुणों उद हुआयरिया // 702 / / क्षेत्रान्तरं संक्रामद्भिः सागारिकस्याऽऽप्रच्छनं कर्त्तव्यं, य सा च प्राभृतिका हरिततच्छोभाद्यधिकरणरूपा वर्जिता भवति तथा विधिना आप्रच्छनीयं, तथा गच्छता के पुरतो व्रजन्ति, किं भिक्षवः उताहो आचार्या इति निर्वचनीयम्। एष द्वारगाथा-समास्वार्थः। अथैनामेव विवरीषुराहसागारिअणापुच्छण, लहुओ मासो उहोइनायव्यो। आणाइओ य दोसा, विराहणा इमेहि ठाणेहिं // 703|| सागारिकमनापृच्छय यदि गच्छन्ति तदा लघुको मासः प्रायश्चित्तं भवति-ज्ञातव्यः। आज्ञादयश्च दोषा विराधना वा मातृस्थाने प्रवचनादेर्भवति। तान्येवाहसागारिऽपुच्छगमणम्मि बाहिरा मिच्छगमणकयनासी। गिहिसाहू अभिधारण, तेणगसंकाय जं चऽन्नं // 704 / / सागारिकमनापृच्छ्य यदि गच्छन्ति ततः सागारिकश्चिन्तयेत्, 'बाहिर' त्ति बाह्या लोकधर्मस्यामी भिक्षवः। यतः-"आपुच्छिऊण गम्मइ. कुलं चसीलंच माणिओ होइ। अभिजाओ त्ति अभन्नइ, सोऽविजणोमाणिओ होइ॥१॥" एष लोकधर्मः / तथा-'मिच्छगमण' त्ति ये लोकधर्ममपि प्रत्यक्षदृष्टं नावबुद्ध्यन्ते ते कथमतीन्द्रियमदृष्टं धर्ममवभोत्स्यन्ते, इति सागारिको मिथ्यात्वं गच्छेत्। तथा कृतनाशिनः कृतघ्रा एते एकरात्रमपि हि यस्य गेहे स्थीयते तमनापृच्छ्य गच्छतां भवत्यौचित्यपरिहाणिः किं पुनरमीषामियान्त दिनानि मम गृहे स्थित्वा युक्तं मामनापृच्छ्य गन्तुमिति। तथा अन्यस्य प्रातिवेश्मिकस्य अपिशब्दात् सागारिकस्य वा हृते नष्ट वा करिमश्चिद्वस्तुनि स्तेनकशङ्का भवेत, यदमी साधवोऽनापृच्छय गतास्तन्नूनमेभिरेव स्तेनितं तद् द्रव्यमिति / 'जं चऽनं' त्ति यच्चान्यदसतिव्यवच्छेदादिभवति तदपिद्रष्टव्यम्। तदेवाऽऽहवसहीए वोच्छेदो,अभिधारिताण वाऽवि साहूणां। पध्वजाभिमुहाणं, तेणेहि व संकणा होला // 705 / / विप्रलम्भितास्तावदमीभिरेकवारम् अत ऊर्ध्वं ये केचित् संयता इति नामोदहन्ते तेभ्यो वसतिं न प्रदास्यामीत्येवं वसतेर्व्यवच्छेदो भवेत्, अभिधारयन्तो नाम ये साधवस्तमाचार्य मनसि कृत्वोप-सम्पदं प्रतिपत्त्यर्थं समायातास्ते सागारिकं प्रश्नयन्ति- आचार्याः कस्मिन् क्षेत्रे . विहृतवन्तः ? सागारिक आह-यः कथयित्वा व्रजति स ज्ञायते, यथा अमुकत्र गत इति / ये तु प्रथमत एव तावद्गच्छन्ति ते कथं ज्ञायन्ते ततस्तेषामभिधारयतां साधूनामहो लोकव्यवहारबहिर्मुखा अमी आचार्याः को नामीमीषामुपकण्ठे उपसम्पत्स्यते इति कृत्वा स्वगच्छे गणान्तरे वा गमनं भवेत् / स चाचार्यस्तेषां श्रुतवाचनादिजन्याया निर्जराया अनाभोगी भवति प्रव्रज्याभिमुखानां वा 'तेणहि' ति स्तेनविषया शङ्का भवेत् / किमुक्तं भवति- केचिदगारिणः संसारप्रपञ्चविरक्तचेतसस्तदन्तिके प्रव्रज्यां प्रतिपित्सवः समायाताः, सागारिक पृच्छन्ति, क्वगता आचार्याः ? सप्राह-वयं नजानीमस्तत्स्वरूपमिति / गतस्तेषां शङ्का जायते- यथा- नूनं किमपि सागारिकस्य चोरयित्वा गतास्ते, अन्यथा किमर्थमेष परिस्फुटमाचार्याणां गमनवृत्तान्तं न निवेदयतीति। ततश्च तेप्रव्रज्यामप्रतिपद्यमाना यत्षण्णां जीवनिकायानां विराधनां कुर्वन्ति। यथा छेटिकनिहवादिषु व्रजन्ति, अपरान्विप्रव्रजतो विपरिणामयन्ति, तनिष्पन्नमाचार्याणां प्रायश्चित्तम्। यत एवमतः सागारिकमापृच्छ्य गन्तव्यं सा च पृच्छा द्विविधा-विधिपृच्छा, अविधिपृच्छाच। तत्राविधिपृच्छामभिधित्सुः प्रायश्चित्तं तावदाहअविहीपुच्छणे लहुओं, तेसि मासो उ दोस आणाई। मिच्छत्त पुष्वभणिए, विराहण इमेहि ठाणेहिं // 706 //
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________________ विहार १३०४-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विहार / अविधिप्रच्छने तेषामाचार्याणां लघुको मासो, दोषाश्चाज्ञादयः तथा / मनग्रामाः प्रम्लानचिक्खिल्ला अल्पोदकाच मार्गाः, वसुधाऽपि च पक्कमिथ्यात्वं पूर्वभणितं प्रागुक्तमेव मन्तव्यम्। विराधना एभिः स्थानैर्भवति। मृत्तिका जाता। अन्यैः पथिकादिभिरुत्क्रान्ताः क्षुण्णाः पन्थानः सम्प्रति तान्येवाह वर्त्तन्ते, अतो विहरणकालः सुविहितानाम्, एतगाथादयं शय्यातरस्य सहसा दटूलै उग्गाहिएण सिखायरी उरोविखा। शृण्वतो गुरवश्चंक्रमणं कुर्वन्तः पठन्ति, ततः शय्यातरो ब्रूयात्-भगवन्! सागारियस्स संका, कलहे य समिखिसणया 707 // किमिदानीं यूयं गमनोत्सुकाः? गुरवः प्राहुः वाढं गन्तुकामा वयं प्रेषिताअविधिपृच्छा नाम- वस्त्रपात्राधुपकरणं विहारार्थमुद्राह्य पृच्छन्ति श्वाऽस्माभिः क्षेत्रान्तरं प्रत्युपेक्षितुं साधवः, इत्थमन्तराऽन्तरा वयमिदानी विहारं कुर्महे, ततः सहसा-अकस्मा-दुद्वाहिते चोपकरणे प्रज्ञाप्यमानानां शय्यातरमनुष्याणां व्यवच्छिद्यत स्नेहानुबन्धः। प्रस्थितान् दृष्ट्वा शय्यातरी रुद्यात्, तत् दृष्ट्वा सागारिकस्य शङ्का भवेत्, ततः-- मयि प्रवसति कदाचिदप्यस्या अक्षिणी अश्रुपातं न कुरुतः, अमीषु तु आवासगकयनियमा, कल्लं गच्छामु तो उ आयरिया। प्रस्थितेष्वित्थमश्रूणि मुञ्चतः, ततो भवितव्यं कारणेनेति मिथ्यात्वं गच्छेत् सपरिजणं सागरियं, वाहेउं देति अणुसहिं / / 712|| तद्रव्यान्यद्रव्यव्यवच्छेदादयश्च दोषाः। तथा 'सइज्झि' त्ति प्रातिश्मिकी आवश्यक प्रतिक्रमणं तदेवावश्यमनुष्ठेयत्वान्नियमः, स कृतो यैस्ते रुदतीं शय्यातरीं दृष्ट्वा पञ्चात्कलहे समुत्पन्ने खिंसनां कुर्यात्, कृतावश्यकनियमाः। गाथायां प्राकृतत्वादावश्यकशब्दस्य पूर्वनिपातः किमन्यद्भवदीयं दुश्चरितमुद्गीर्यते येन तदानीमाचार्येषु विहारं कर्तुमुद्यतेषु 'कल्लं गच्छामु' ति"वर्तमानासन्ने वर्तमाने' ति वचनात् कल्येप्रभाते भवत्या रुदितम् / किं वा-आचार्यस्ते पिता भवति येन रोदिषीति / गमिष्याम इतिमत्वा तत आचार्याः सपरिजनं सकुटुम्ब सागरिकंध्याहृत्य अथानागतमेव पृच्छन्ति वयममुकदिवसे गमिष्यामः तत्राऽप्यमी दोषाः- ददति अनुशिष्टिं; धर्मकथां कुर्वन्तीत्यर्थः।। हरियच्छेअणछप्पझ्यघेवणं कियणं च पोताणं / ततःगमणंच अमुगदिवसे, संखडिकरणं विरूवं च // 708|| पध्यछ सावओवा, सणसको जहन्नओवसहिं। ते शय्यातरमनुष्या अन्येद्युः साधवो गमिष्यन्तीति कृत्वा क्षेत्रादौ न | जोगम्मि वट्टमाणे, अमुगं बेलं गमिस्सामो 713|| गच्छन्ति, ततो यानि ततः महान्ति तानि धर्म शृणुयुः, चेटरूपाणि सशय्यातरोधर्मकथां श्रुत्वा कदाचित्प्रव्रज्यां प्रतिपद्यते। अथ प्रव्रज्यां स्नुषाश्च पुरोहडादिषु हरितच्छेदन, यद्वापरस्पररं षट्पदिकानां 'घेवणं' प्रतिपत्तुमशक्तस्ततः श्रावको भवति, देशविरतिं प्रतिपद्यते / अथ उपमर्दनं कियणं' तिकर्तनं वा विदध्युः। पोतानि-वस्त्राणि तेषां प्रक्षालनं तामप्यङ्गीकर्तुमक्षमस्ततो दर्शनश्राद्धोऽविरत सम्यग्दृष्टिर्भवति। अथ कुज़रन् / यद्वा-अमुकदिवसे गमनं करिष्याम इत्युक्ते संयतोऽर्थ दर्शनमप्युररीकर्तुं नोत्सहते ततो जघन्यतोऽवश्यतया वसतिं साधूनां संखड्याः करणं भवेत्, तत्र यदि गृहन्ति तदाऽऽधाकर्मादयो दोषाः यथा ददाति तथा प्रज्ञाप्यते / भूयोऽपि धर्मकथा समाप्याचार्या ब्रुवतेअगृह्णतां तु प्रद्वेषगमनादयः / 'विरूवं' ति विरूपमनेकप्रकारं कुड्य- योऽसौ योगो गमनायास्मान् प्रेरयति तस्मिन् वर्तमाने सति 'अमुगं वेलं' धवलनादिकमपरमप्यधिकरणं कुर्युः। यत एते दोषाः अतोऽविधिपृच्छा ति सप्तम्यर्थे द्वितीया अमुकस्यां वेलायां गमिष्याम इत्थं विकालवेलायां न विधेया। कथयित्वा प्रत्युषसि व्रजन्ति। कः पुनः पृच्छायां विधिरित्याह कथमित्याहजत्तो पाए खेत्तं, गयाउ पडिलेहगा ततो पाइ। तदुभयसुतं पडिल्लेहणाय उग्गयमणुग्गए वादि। सागारियस्स भावं, तणुइंति गुरू इमेहिं तु 706|| पडिच्छाहिकरणतेणे, नढे खग्गूठसंगारो॥७१४|| यतः प्रगेयतो दिनादारभ्य क्षेत्रप्रत्युपेक्षका गताः, ततः प्रगे ततः प्रभृति तदुभयं सूत्रपौराषीमर्थपौरुषीं च कृत्वा व्रजन्ति। अथ दूरं क्षेत्रं गन्तव्यं सागारिकस्य भावं प्रतिबन्धं तनूकुर्वन्ति तनुं प्रापयन्ति गुरव आचार्या ततः सूत्रपौरुषीं कृत्वा, अथ दूरतरं ततः पादोनप्रहरे पात्रप्रत्युपेक्षणं एभिर्वचनैः। कृत्वा, अथ दूरतमं ततः उद्गतमात्रे सूर्य, अथ दधीयान् मार्गो गन्तव्यः तान्येवाह गच्छस्य तृषादिभिराक्रान्त उत्सूरं न शक्नोति गन्तुं ततोऽनुगते सूर्ये उच्छू बोलिंति वई, तुंबीओ जायपुत्तभंडाओ। प्रचलिन्त 'पडिच्छि' त्ति निशि निर्गता उपाश्रयादहिः परस्परं प्रतीक्षन्ते अन्यथा ये पश्चानिर्गच्छन्तितेनजानन्ति केनाऽपि मार्गेण गताः साधवः वसहा जायच्छामण-गामा पम्माणचिक्खल्ला // 710|| ततो महता शब्देन अग्रेत नान् साधून व्याहरेयुः, ततश्चा-धिकरणअप्पोदगा य मग्गा, वसुहा विय पकमष्टिया जाया। मप्काययन्त्रवाहनवणिग्नामान्तरगमनादि भवति 'तेणे नट्टे' त्ति ते अण्णेहि छुण्णपंथा, विहरणकालो सुविहियाणं // 711 // पाश्चात्यसाधवोऽग्रेतनानांनष्टाः स्फिटिताःसन्तःस्तेनकैरुपद्रूयेरन् अतः इह पूर्वं शरदादिभिर्विहारो भवतीत्युक्तम्, अतः शरत्कालमेवाङ्गी- प्रतीक्षणयां 'खग्गूढ' त्ति कश्चित्खग्गूढो-निद्रालुरुपलक्ष्णत्वात्कश्चिद्वा कृत्याऽभिधीयते-इक्षवो बोलयन्ति-व्यतिक्रामन्ति वृत्तिस्वपरिक्षेप- 1 धर्मश्रद्धालुरिदं ब्रूते-न कल्पते साधूनां रात्रौ विहर्तुमिति 'संगारो' त्ति रूपां, तुम्च्यश्च जातपुत्रभाण्डाः समुत्पन्नंतुम्बकास्तथा वृषभाजातच्छा- कयाऽपि सङ्केतः क्रियते त्वया अमुकत्राऽऽगन्तव्यमिति।
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________________ विहार 1305 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विहार अथाऽस्या एव गाथायाः कानिचित् पदानि विवृणोति विरिञ्चन्ति विभज्य गृह्णन्ति, तत्र च तथाऽभिग्रहिका बालवृद्धादीनापडिलेते विय विंटिया उ काउं कुणंति सज्झायं। मुपधिरस्माभिर्वोढव्य इत्येवं प्रतिपन्नाभिग्रहाः सन्ति ततस्ते परस्पर चरिमा उग्गाहेउं, सोचा मज्झाहि वचंति 715 // विभज्य गृहन्ति। ते साधवः प्रभाते, प्रत्युपेक्षमाणा एव वस्त्राणि विण्टिकां कुर्वन्ति, अथ न सन्त्याभिग्रहिकाः ततः को विधिरित्याहविण्टिकां कृत्वा स्वाध्यायं कुर्वन्ति, तावद्यावचरमापादोनपौरुषी। ततः आयरिओवर्हि बाला-इयाण गिण्डंति संघयणजुत्ता। पात्रकाणि प्रत्युपेक्षणापूर्वमुद्ग्राह्य ग्रन्थिदानादिना सज्जीकृत्य ततोऽर्थं दो सुत्ति उण्णिसंथारए य गहणेपासेणं // 72 // श्रुत्वा मध्याहे प्रहरद्रयं समाप्य व्रजन्ति। आचार्योपधिं बालादीनांचोपधिं गृह्णन्ति संहननयुक्ताः अनाभिग्राहिका कथमित्याह अपि सन्तो ये समर्थाः साधवः। कथमित्याह-द्वौ सौत्रिकौ कल्पोपक:तिहिकरणम्मि पसत्थे, णक्खत्ते अहिवईण अणुकूले। ऊर्णिणकाकल्पः संस्तारकः, चशब्दादुत्तरपट्टकश्च / एतेषामाचार्यादिचित्तूण णिति वसभा, अक्खे सउणे परिक्खंता // 716 // सम्बन्धिनां गहणेक्कपासेणं' तिसप्तम्यर्थे तृतीया एकस्मिन्पार्वे एकत्र स्कन्धे ग्रहणं कुर्वन्ति, द्वितीयेऽनुपार्वे आत्मीयमुपधिं स्थापयन्ति। तिथिश्च-नन्दाभद्रादिका, करणं च-ववादिकं, तिथिकरणं तस्मिन्नु अथ 'खग्गूढ' त्ति एवं विवृणोतिपलक्षणत्वाद्वारयोगमुहूर्तादिषु प्रशस्तेषु, नक्षत्रे चाऽधिपतीनामाचार्याणामनुकूलं वहमाने सति, किमित्याहअक्षान् गुरूणामुत्कृष्टो रत्तिं न चेव कप्पइ, नीयदुवारे विराहणा दुविहा। पधिरूपान् गृहीत्वा वृषभा गीतार्थ-साधवः शकुनान् परीक्षमाणा पण्णवणबहुतरगुणा, अणिवीओ व उवहीवा / / 725 / / 'निति-निर्गच्छन्ति। कश्चित् धर्मश्रद्धालुतया खग्गूढतया वा प्राऽऽह-- रात्रौ न चैव कल्पते __ आह-किमर्थं प्रथममाचार्या न निर्गच्छन्ति ? उच्यते विहर्तुं यतः-'नीयदुवारंतमस कोट्ठगपरिवजए' त्ति वचनात्, दिवाऽपि तावन्नीचद्वारे कोष्ठके प्राणिनां कण्टकादीनां चोपलभ्यमानतया द्विविधा वासस्सय आगमणं, अवसउणे पट्ठिया नियत्ताय। संयमात्मविराधना भवति, इति कृत्वा प्रवेष्टुं न कल्पते, किं पुनः रात्री ओभावणा उ एवं, आयरियो मग्गओ तम्हा / / 717 विहर्तु कल्पिष्यते। इत्थं बुवाणस्य तस्य प्रज्ञापना कर्तव्या। यथावदवर्षणं वर्षा वृष्टिस्तस्यागमनं दृष्ट्वा अपशकुने वा दृष्ट वृषभाः प्रस्थिताः रतक्षेत्रस्य गन्तव्यतया बहुतरा गुणसेवा बालवृद्धस्य गच्छस्य साम्प्रतं सन्तो निवृत्ता अपिन लोकापवादमासादयन्ति सामान्यसाधुत्वात्, यदि रात्रौ गमने भवति, इत्थमपि प्रज्ञापितो यदि नेच्छति ततो द्वितीयः सहायो पुनराचार्या वृष्टिमपशकुनान् वा विज्ञान निवर्तते तत एवमपभ्राजना दीयते उपधिर्वा तस्य जीर्ण उपहतश्च समर्प्यते मा सारतस्तदीयोपधिः भवति, यथा-यदेतद् ज्योतिषिकाणां विद्वानं तदप्यमी आचार्या न स्तेनैगुह्येत, मा वा रात्रौ सुप्तस्योपहन्येत इति। तदेवमुक्तविधिना ततः बुध्यन्ते, अपरं किमवभोत्स्यन्ते, तस्मादाचार्या; मार्गतः-- पृष्ठतो क्षेत्रान्निर्गत्य सूत्रोक्तनीत्या गच्छन्ति। ग्रामे च प्राप्ताः क्षेत्रप्रत्युपेक्षका यत्र निर्गच्छन्ति, न पुरतः / अथ पुरतो गच्छन्ति ततो मासलधु / एतेन "के पूर्वं वसतिः प्रत्युपेक्षिता आसीत् तत्र प्रथम स्वयं गत्वा वसतिं निरूप्य वचंते पुरओ उ भिक्खुणो उदाहुआयरिय'ति पदंभावितम्। बृ०१३० ततो गच्छंतत्र प्रवेशयन्ति, तत्र रात्रावुषित्वा प्रभाते नामान्तरं गच्छन्ति। 2 प्रक०।। एवं वाअथ प्रशस्तेषु शकुनेषु सञ्जातेषु गुरवः किं कुर्वन्ति? वचंतेहि य दिट्ठो, गामो रमणियभिक्खसज्झाओ। इत्याह जं कालमणुन्नाओ, अणणुन्नाए भवे लहुओ // 726|| सिजायरेऽणुसासइ, आयरियो सेसगा चिलिमिलि तु। व्रजद्भिस्तैःसाधुभिः कश्चिद्ग्रामो दृष्टः, कथंभूतो-रमणीयं सुखप्राप्तत्वेन काउंगिण्हंतुवहिंसारविय पडिसया पुदि॥७२२|| मनोज्ञभक्तपानलाभेनच भैक्षम् अत एव च रमणीयः स्वाध्यायश्च यत्र स शय्यातराननुशासते आचार्याः यथा-व्रजामो वयं भवद्भिः धर्मकर्मण्य- रमणीयभिक्षस्वाध्यायः। एवंविधो ग्रामोऽयं यावन्तं कालमेकदिवसलक्षणं प्रमत्तैर्भवितव्यमिति, शेषास्तु साधवः चिलिमिलिं कृत्वा बद्ध्वा तदन्त- स्थातव्येनाऽनुज्ञातः तावन्तं कालं वसन्तो न प्रायश्चित्तभाजो भवन्ति। रिताः सन्तः उपधिं गृह्णन्ति-सञ्चयन्तीत्यर्थः / कथंभूताः? सारवितः- अनुज्ञाते द्वितीयादिषु दिवसेषु वसतां लघुको मासो भवेत्। सम्मार्जितः प्रतिश्रयो यैस्ते सारवितप्रतिश्रयाः पूर्व प्रथमम्। अथवा. अथ कः कियदुपकरणं गृह्णातीत्युच्यते तवसोसिय उव्वाया, खलु लुक्खाहारदुम्बला वाऽवि। बालाईया उवहि,जं वो तरंति तत्तियं गिण्हे। एग दुग तिन्नि दिवसे, वयंति अप्पाइया वसिउं // 727|| जहण्णे णजहाजावं, सेसं तरुणा विचिंति / / 723 / / तपसा-षष्ठाऽष्टमादिना ये शोषिताः, ये उदाता अतीव परिश्रान्ताः, ये बालवृद्धराजप्रव्रजितादयो यावन्मात्रमुपधिं वोढुं शक्नुवन्ति तावन्मात्र- | च 'खलु' ति कर्कशक्षेत्रादायाताः, ये वा रूक्षाहारभाजित्वात् दुर्बलाः मेव गृह्णन्ति, यदि च सर्वथैव न शक्नुवन्ति तदा जघन्येन-सर्वस्तोकतया एते एकं वा द्वौ वा त्रीन् वा दिवसान् तस्मिन् ग्रामे उषित्वा स्थित्वा यथाजातमुपधिं गृह्णन्ति, शेषं-बालादिसत्कमुपकरणं तरुणाः साधवः / आप्यायिता मनोज्ञाऽऽहारैः स्वस्थीभूता अपरं ग्रामं व्रजन्ति।
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________________ विहार 1306 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विहार इदमेव भावयति नैष्यामो नो गमिष्याम इत्युक्ते ये पूर्व क्रीतादयो वसतेर्भाटकसपठमदिणे समणुण्णा, सोही दुडी अकारणे परतो। मर्पणविक्रयणादयो दोषा वर्णितास्ते चैव अर्थः-प्रयोजनंतदभावोऽनर्थ तिदिस व समणुनाया, तओ परेणं भवे सोही // 628| तेन प्रयोजनमन्तरेणेत्यर्थः। तत्रग्रामे रसगोरसबहुलतया तेषां निष्क्रामतां प्रथमदिने तत्र ग्रामे वसतां समनुज्ञा प्रथमो दिवसस्तत्राऽनुज्ञात इति कालविलम्बलगनाचिकीर्षितमासकल्पे क्षेत्रे वसतिं शय्यातरो भाटकेन भावः। ततः परतो द्वितीयादिदिवसेष्वकारणे वसतां शोधिः-प्रायश्चित्तं समर्पयेत्, विक्रीणीत वा, धान्यादिना वा चिनुयात्, वटुकादीनां वा दद्यात् तस्याऽऽभवति; सा चानन्तरगाथायां वक्ष्यते। अथ तपः शोषितत्वादिक- ततस्तएवाऽऽत्मविराधनादयो दोषाः। कारणे तु तिष्ठतां यतना-एकं द्वौ मनन्तरगाथोक्तं कारणं वर्तते तत्र त्रीण्यपि दिनादि समनुज्ञातानि ततो चीन वा दिवसान् छित्त्वा यथा गन्तव्यं यथा विलम्बमन्तरेण तत् क्षेत्रं दिवसत्रयात्परतः शोधिः-प्रायश्चित्तं भवेत्। प्राप्यत इति भावः। तामेवाऽऽह एवमेतेन विधिना व्रजन्तस्तावद्गता यावन्मूलक्षेत्रं ततः सत्तरत्तं तवो होइ तओ छेओ पहावई। किमित्याहछएण छिन्नपरियाए, तओ मूलं तओ दुर्ग / / 726 / / भत्तऽडिया विखमगा, पुदिपविसंतु ताव गीयत्था। सप्तरात्रं यावत्तपो भवति ततः-सप्तरात्रानन्तरं छेदः प्रधावति, छेदेनाऽ- | परिपुच्छिय निहोसे, पविसंतिगुरुगुणसमिद्धा॥७३३|| प्यच्छित्रपर्याये साधौ ततो मूलं, ततो द्विकम्-अनवस्थाप्यपारा- | ते हि भक्तार्थिनः क्षपकाः वसन्तस्तत्र क्षेत्रे प्रविशन्ति भक्तार्थिनोचिकद्वयम्। भोक्तुकामाः क्षपकाः-उपोषिताः, तत्र च पूर्वं तावद्गीतार्थाः प्रविशन्तु, इदमेव व्याख्यानयति ततस्तैः गीतार्थः परिपृच्छा शय्यातरं प्रति, निर्दोष उपाश्रये सुनिश्चिते मासो लहुओ गुरुओ, चउरो लहुया य हो ति गुरुगाय। सति प्रविशन्ति गुरवो गुणसमृद्धाः / साऽभिप्रायकमिदं विशेषणम्-तेहि छम्मासा लहुगुरुगा, छेओ मूलं तह दुगं च // 730 // भगवन्तो गुरवो गुणैः समृद्धाः; अतोयदिप्रथमं प्रविश्य सव्याघातांवसतिं इह प्रथमदिवसे वसन्तोऽनुज्ञाता एव पढमदिणे समणुण्ण' तिवचनात्, गत्वा प्रतिनिवर्तन्ते ततो भवति महानवर्णवादः-यथैतेषामेतदपि ज्ञानं द्वितीये दिवसे यदि मनोज्ञाऽऽहारलम्पटतया तत्र ग्रामे वसन्ति तदा लघुको नास्तीति ततः पश्चात्प्रविशन्ति। मासः, तृतीये गुरुकाः, चतुर्थे चत्वारो लघवः, पञ्चमे चतुर्गुरवः, षष्ठे . अथैनामेव गाथां विवरीषुराहषष्मासा लघवः, सप्तमे षण्मासा गुरवः सप्तरात्रानन्तरमष्टमे दिवसे छेदः, बाहिरगामे पुच्छा, उाणे ठाणवसहिपडिलेहा। नवमे मूलं, दशमे अनवस्थाप्यम्, एकादेश पाराश्चिकमिति। अथ तपः .... इहरा उगहियभंडा, वसहीवाधाय उड्डाहो // 734 // शोषित-शरीरादयस्ते ततस्त्रीणि दिवसानिवसन्तः प्रायश्चित्तं नाऽऽपद्यन्ते प्रत्यासन्ने बाह्यग्रामे उषिताः प्रत्युषसि विवक्षित-क्षेत्रस्योद्यानमागम्य "तिन्निवसमणुन्नाय'त्ति वचनात, चतुर्थे दिवसे वसतां लघुमासः पञ्चमे तत्र उद्याने तिष्ठन्ति / यैः क्षेत्रं प्रत्युपेक्षितं ते वसतिप्रत्युपेक्षणार्थ गुरुमासः, षष्ठे चतुर्लघवः, सप्तमे चतुर्गुरवः, अष्टमेषट् लघवः, नवमेषट् गुरवः, दशमे छेदः, एकादशे मूलं, दादशे अनवस्थाप्यं त्रयोदशे पाराञ्चि प्रत्युपेक्षन्ते, इतरथा यदि वसतिमप्रत्युपेक्ष्य प्रविशन्ति ततो मासलघु। कमिति विशेषचूर्ण्यभिप्रायः / बृहद्भाष्ये पुनरित्थमुक्तम्- "इक्किक्क सत्त सा वसतिरन्येषां प्रदत्ता भवेत्, ततो गृहीतभाण्डा:- गृहीतोपकरणा वारा, मासाईयं तवं तु दाऊण / छेओ वि सत्तसत्तओं, तिन्नि गमा तस्स वसतिव्याघाते सत्यपरां वसतिमन्वेषयन्त इतस्ततः पर्यटन्ति, तथापुव्वुत्ता॥१॥" पूर्वं पीठिकायाः तस्य छेदस्य ये त्रयोगमा उक्ताः तेऽत्राऽपि भूतांश्च दृष्ट्वा उड्डाहो भवेत्, यथा अहो निष्परिग्रहा निर्ग्रन्था इति। द्रष्टव्याः / तत्र यतः स्थानात्तपः प्रारब्धं तत आरभ्य छेदोऽपि दीयते; ततः किं विधेयमित्याहलघुमासादारभ्येत्यर्थः, इत्येको गमः / लघुपञ्चकादारभ्येति द्वितीयः, तम्हा पडिलेहिय सागुरुपञ्चकादारभ्येति तृतीयः / इदं सामान्यतः प्रायश्चित्तम्। हियम्मि पुष्वगतअसतिसारविए। विशेषत आह फु।' (फ) डगफु। (फ)पेवेसा, अणणुण्णाए निका-रणे य गुरुगाइयं चउण्हं पि। कहणा न य उहणायरिए / / 73|| गुरुगा लहुगा गुरुगो, लहुओ मासो य अच्छंते // 731 // तस्माचिलिमिलीं प्रोञ्छ्य दण्डकप्रोञ्छने गृहीत्वा वसतिं प्रत्युपेक्ष्य यदि अननुज्ञाते दिवसत्रयादूज़ निष्कारणेवा-कारणं विना प्रथमदिवसादूर्ध्व सा नान्येषां प्रदत्ता तदा 'साहियम्मि' त्ति शय्यातरस्य आचार्या आगताः गुर्वादीनां चतुर्णामपि तिष्ठतां यथाक्रमं गुरुका लघुका गुरुको लघुकश्च सन्तीति कथयन्ति। यदि पूर्वगताः क्षेत्रप्रत्युपेक्षकास्तत्र सन्तितदातैः प्रागेव मासः / इयमत्र भावना-आचार्य-स्याऽननुज्ञाते निष्कारणे दा तिष्ठत वसतिः प्रमार्जितैव / अथ न सन्ति ततः स्वयमेव 'सारविए त्ति सम्मार्जिते श्वत्वारो गुरवः वृषभस्य चत्वारो लघवः, अभिषेकस्य गुरुमासो, भिक्षोलघुमासः। प्रतिश्रये द्वारे च चिलिमिलीं वध्वा धर्मकथकमेकं मुक्त्वा व्यावृत्त्य गुरूणां आह किं निमित्तमित्थं प्रायाश्चित्तमापद्यते / उच्यते निवेदयन्ति, ततोवृषभास्तथैवाक्षान्गृहीत्वा शकुनान् परीक्षमाणाः प्रविशनेहासु ति य दोसा,जे पुष्वं वणिया कइयमादी। १-फुड्ग' शब्दो लघुतर- गच्छैकदेशवाचकः / अत्र न सोऽर्थः प्रतीयते। ते चेव अणट्टाए, अच्छंते कारणे जयणा // 732| २.अत्र- 'फडा' शब्दः, प्रतीयते। ३-तथा-'फड्डु' शब्दश्च /
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________________ विहार 1307 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विहार न्ति, तैश्च प्रविष्टः शेषाः साधवः स्पर्द्धकस्पर्द्धकैः प्रविशन्ति न पुनः तस्मात्खलु आलपनमाचार्येण कर्त्तव्यं स्वयमेवचतत्राऽऽचार्येणधर्मकथा सर्वेऽपि एकत्र पिण्डीभूयेति भावः / यश्च तत्र धर्मकथिकः स्थित आस्ते कार्या। (बृ०) (वसतिदानफलम् 'वसहिदाणफल' शब्देऽस्मिन्नेव भागे स सागारिकस्य धर्मकथां करोति, स च- 'अणायरिय' त्ति आचार्य 1051 पृष्ठे गतम्।) अथाऽऽचार्याणां धर्मकथने लब्धिर्न भवति तदा मुक्त्वाऽशेषसाधूनां ज्येष्ठार्याणामप्युत्थानंन करोति, मा भूत धर्मकथाया शिष्यधर्मकथालब्धिसम्पन्नं व्यापारयेयुः, ततः पश्चादाचार्याः प्रविशन्ति व्याघातः इति। वसतिं, तत्र च प्रविष्टानां भूयः पुनरिय मर्यादा-समाचारी। अथ वृषभाणां प्रविशतां शकुनाऽपशकुन तामेवाऽभिधित्सुराहविभागनिरूपणायाह मनाया पट्ठवणं, पवत्तगा तत्थ हॉति आयरिया। मइलकुचेले अब्म-गियल्ल पसणेय खुज वडभे य। जो उ अमाइल्लो, आवज्जइ मासियं लहुयं / / 742|| एयाइँ अपसत्थाई, हॉति उगाम अइंताणं // 736|| मर्यादा च समाचारी स्थापना च दानादिकुलानां तयोः प्रवर्तकास्तत्र खेत्तपडचरग तावस, रोगी विमला य आतुरा विजा। क्षेत्रे आचार्या भवन्ति। यश्च साधुर्मर्यादामाचार्यैः स्थापितांन पालयति स कासायवत्थउद्ध-लिया य कलंन साहिन्ति // 737 / / आपद्यते मासिकं लघुकम्। 'नदीतूरं' गाहा– 'समणं जयं' गाहा। चतस्रोऽपि गाथाः प्राग्वन्नवरं मर्यादामेवाहदक्षिणपाद्विामपार्श्वगामी गृहीते। पडिलेहण संथारग, आयरिए तिनि सेसें एकर। इत्थं वृषभेषु प्रशस्तैः शकुनैः प्रविष्टसु सूरयः विटियलक्खेवणया, पविसइ तावे व धम्मकही।।७५३|| क्षेत्रं प्रविशन्तिः सन्तः किं कुर्वन्तीत्याह उचारे पासवणे,लाउणिल्लेवणे अ अच्छणए। पविसंते आयरिए, सागारि उहोइ पुव्वदहव्वो। करणं तु अणुनाए, अणणुण्णाए भवे लहुओ 744|| अद्दठूण पविट्ठो, आवजइ मासियं लहुयं / / 738|| संस्तारकभूमीनां प्रत्युपेक्षणाम्- अवलोकनां कुर्वते, तत्राऽऽचार्यस्य 'पविसंते आयरिए' त्ति तृतीयार्थे सप्तमी, वसतिं प्रविशता आचार्येण तिस्रः संस्तारकभूभयो निरूपणीयाः / तद्यथा-एका निवाता, अपरा सागारिकः पूर्वमेव द्रष्टव्यो भवति। अथ सागारिकमदृष्टव प्रविष्ट आचार्यः प्रवाता, तृतीया निवातप्रवाता। शेषाणां साधूनामेकैकां संस्तारकभूमि तत आपद्यते मासिकं लघुकम्। यथारत्नाधिकतया अर्पयन्ति न यथा कथञ्चिदिति। तैश्च तदानीमात्मीअथाचार्यमायान्तं दृष्ट्वा धर्मकथी किं करोतीत्याह-- यविण्टिकानामुत्क्षेपणं कर्त्तव्यं येन नास्ति क्षिप्तः सुभूमिभागः प्रतिनियतः परिमाणच्छे देनाऽऽगम्यते तदा च धर्मकथी संस्तारकग्रहणार्थ आयरियडब्भुट्ठाणे, ओभावणबाहिरा अदक्खिन्ना। धर्मक्रथामुपसंहृत्य प्रतिश्रयाभ्यन्तरे प्रविशति। तद्यथा-क्षेत्रप्रत्युपेक्षकाः कहणं तु वंदणिज्जा, अणालवंतेऽपि आलावो // 739 / / शय्यातरानुज्ञातां भुवं ग्लानाद्यर्थ दर्शयन्ति, यथा इयति प्रदेशे उच्चारधर्मकथिना आचार्याणामभ्युत्थानं कर्त्तव्यं, यदि न करोति तदा अपभ्रा परिष्ठापनमनुज्ञायते न ऊर्द्धवम् / एवं 'पासवणे' त्ति प्रश्रवणभूमिम् जनालाघवमाचार्याणां भवति, नूनं नामधारक- एवाऽयमाचार्यो नाऽस्य 'अलाउए' त्ति अलाबूनि-तुम्बकानि तेषां कल्पकरणप्रायोग्यं प्रदेश किमप्याज्ञैश्वर्यं विद्यते। लोकव्यवहारस्य बाह्या अमी, यतः पञ्चानाम निर्लेपनं तस्य स्थानम् 'अच्छणए' त्ति यत्र स्वाध्यायं कुर्वद्भिरास्यते, प्यङ्गुलीनां तावदेका ज्येष्ठा भवति / तथा-अदाक्षिण्याद्-गुरूनपि प्रति एतानि तथैव दर्शयन्ति / ततो य एव शय्यातरेणानुज्ञातोऽवकाशस्तएतेषां दाक्षिण्यं नाऽस्तीतिशय्यातरश्चिन्तयति-'कहणंतु त्ति शय्या त्रैवोच्चारादीनां करणं भवद्भिरादिष्टम्, अननुज्ञाते त्ववकाशे कुर्वतो तरस्य धर्मकथिना कथनीयं यथा-वन्दनीया एते भगवन्त इति / ततो मासलधु, तद्रव्यान्यद्रव्यव्यवच्छेदादयश्च दोषाः। उक्ता मर्यादा। बृ०१ गुरुभिरनालपतोऽपि शय्यातरस्याऽऽलापः कर्तव्यः। उ०२ प्रक०। (स्थापनाकुलानि 'ठवणाकुल' शब्दे तृतीयभागे 1662 अथन कुर्वन्त्यालपनमाचार्यास्तत एते दोषाः पृष्ठेउक्तानि।) (पूर्वपश्चिमानां मासकल्पोनेति'मासकप्प' शब्देऽस्मिन्नेव खद्धा निरोवयारा, अग्गहणं लोकजत्तवोच्छेदो। भागे 267 पृष्ठे उक्तम् / ) (निर्ग्रन्थीनां मासकल्पः 'णिग्गंथी' शब्दे तम्हा खलु आलवणं, सयमेव य तत्थ धम्मकहा / / 740 / / चतुर्थभागे 2047 पृष्ठे गतः1) शय्यातरश्चिन्तयेत्-अहो आत्माभिमानिन एते वचसाऽपि नान्यस्य (16) मासकल्पादन्येऽपि विहाराः सन्तिगौरवं प्रयच्छन्ति, निरुपकाराः-कृतमप्युपकारं न बहु मन्यन्ते; कृतघ्रा अप्पडिबद्धो य सया, गुरूवएसेण सव्वभावेसु। इत्यर्थः / अग्रहणम्- अनादरो मां प्रत्यमीषां, लोकयात्रामप्येते न मासाइविहारेणं, विहरिज जहोचिअंनिअमा।| | जानन्ति / लोके हि यो यस्याश्रयदाना-दिनोपकारी स ततः स्निग्ध- अप्रतिबद्धश्च सदा; अभिष्वङ्ग रहित इत्यर्थः गुरूपदेशेन दृष्ट्याऽवलोकनमधुरसंभाषणादिकां महतीं प्रतिपत्तिमहतीति इत्थं हेतुभूतेन / क्वे त्याह-सर्वभावेषु चेतनाऽचेतनेष्वप्रतिबद्धः / कषायितस्तद्रव्यस्यान्यद्रव्याणां वा व्यवच्छेदनं कुर्यात् / यत एवं | किमित्याह- मासादिविहारेण समयप्रसिद्धेन विहरेत्, य
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________________ विहार १३०८-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विहार थोचितं संहननाद्यौचित्येन नियमान्नियमेन विहरेदिति गाथार्थः। ग्रहणं विधेः स्पर्शनार्थमथवा प्रयोजनान्तरमेतच्छिष्यकविशेषादिविपराभिप्रायमाशङ्क्य परिहरति षयमेव, विशेषोऽपरिणामकादिर्विहरणशीलो वेतिगाथार्थः। उक्तं विहारमोतूण मासकप्पं, अन्नो सुत्तम्मि नऽत्थि उ विहारो। द्वारम्। पं०व०३ द्वार। ता कहमाइग्गहणं, कब्जे ऊणाइभावाओ ||866|| (20) मार्गयतनामधिकृत्याहमुक्त्वा मासकल्पं-- मासविहारम् अन्यः सूत्रे- सिद्धान्ते नास्त्येव से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गामाणुग्गाम दूइज्जमाणे पुरओ विहारस्तथाश्रवणात् तत्कथं कस्मादादिग्रहणमनन्तरगाथायामेत- जुगमायाए पेहमाणे दळूण तसे पाणे उद्धटु पादं रीइशा दाशङ्कयाह-कार्येतथाविधे सतिन्यूनाऽऽदिभावात्-न्यूनाधिकभावा- साहटु वितिरिच्छंवा कट्टु पायं रीइला, सइ परमे संजयात्कारणात्तदादिग्रहणमिति गाथार्थः / मेव परिकमिजानो उजुयंगच्छिना, तओ संजयामेवगामाणुगामं एपि गुरुविहारा-ओविहारो सिद्ध एव एअस्स। दूइनिजा। से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गामाणुगामं दूइज्जमाणे भेएण कीस मणिओ, मोहजयऽट्ठा धुवो जेण ||7|| अंतरा से पाणाणि वा बीयाणि वा हरियाणि वा उदए वा मट्टिआ नन्वेवमपि गुरुविहारात्सकाशाद्विहारस्सिद्धएव एतस्य उपस्थापित वा अविद्धत्थे सइ परकमे० जाव नो उजुयं गच्छिा , तओ साधोर्भेदेन किमिति भणितो विहार इत्याशङ्क्याह- मोहजया) संजयामेव गामाणुगाम दुइलिना। (सू०-११४) चारित्रविघ्रजयाय ध्रुवो येन कारणेन तस्य विहार इति गाथार्थः। स भिक्षुर्यावद् ग्रामान्तरं गच्छन् पुरतः-- अग्रतः- युगमात्रम् एतद्भावनायैवाह चतुर्हस्तप्रमाणं शकटोर्द्धसंस्थितं भूभागंपश्यन्गच्छेत्तत्रच पथि दृष्ट्वा इयरेसि कारणेणं, नीआवासो विदव्वओ हुज्जा। त्रसान्-प्राणिनः पतगादीन् 'उद्धटु ति पादमुद्धृत्याग्रतलेन पादपातभावेण उगीआणं, न कयाइ वि विहिपरायाणं ||5|| प्रदेशं वाऽतिक्रम्य गच्छेत् एवं संहृत्य-शरीराभिमुखमाक्षिप्य पादं विवक्षितपादपातप्रदेशादारत एव विन्यस्य उतिक्षप्य वाऽग्रभागंपाष्णिकया इतरेषां-गुर्वादीनां कारणेन संयमवृद्धिहेतुना नित्यवासोऽप्येकत्र बहु गच्छेत्, तथा तिरश्चीनवापादं कृत्वा गच्छेत्, अयंचान्यमार्गाभावे विधिः। काललक्षणो द्रव्यतो भवेत्। अपरमार्थावस्थानरूपेण, भावतस्तुपरमा सति त्वन्यस्मिन्पराक्रमेगमनमार्गे संयतः सन् तेनैव पराक्रमेत्-- गच्छेत् र्थेनैव गीतानां गीतार्थभिक्षणां न कदाचिदपि नित्यवासो भवति / किं न ऋजुनेत्येवं ग्रामान्तरं गच्छेत्, सर्वोपसंहारोऽयमिति 'से' इत्यादि, भूतानाम्-विधिपरायणानां; यतनाप्रधानानामिति पाथार्थः / उत्तानार्थम्। आचा०२श्रु०१चू०३अ०१ उ०। (पथिषट्कायप्रतिसेवना ____ अत्रैव विधिमाह 'मूलगुणपडिसेवणा' शब्दे पञ्चभागे 343 पृष्ठे उक्ता।) गोअरमाईआणं, एत्थं परिअत्तणं तु मासाओ। (21) यत्र अन्तरा ग्रामे चौरास्तत्र न विहरेत्जहसंभवं निओगो, संथारम्मी विही भणिओ Imel से मिक्खू वा भिक्खुणी वा गामाणुगामं दूइछमाणे अंतरा से गोचरादीनामिति-गोचरबहिर्भूम्यादीनामत्र-विहाराधिकारे परावर्त्तनं विरूवरूवाणि पचंतगाणि दसुगायगाणि मिलक्खूणि अणायरितु केषाश्चित्कदाचिदौचित्येन मासादौ ऋतुबद्धे मासे वर्षासु च चतुर्यु याणि दुसन्नप्पाणि दुप्पन्नवणिजाणि अकालपडिबोहीणि यथासम्भवं सत्सु, गोचरादिष्वित्यर्थः, नियोगो-नियम एव संस्तारक अकालपडिभोईणि सइलाठे विहाराए संथरमाणेहिं जाणवएहिं परावर्तने विधिर्भणित इह तीर्थकरादिभिरिति गाथार्थः / नो विहारबडियाए पवजिजागमणाए, केवली बूया आयाणमेयं / प्रकृतोपयोगमाह तेणंबाला अयं तेणे अयं उवचरए अयं ततो आगए त्ति कटु तं एअस्स विपडिसेहा, निअमेणं दवओ विमोहुदए। भिक्खुं अकोसिज वा०जा उद्दविज वा वत्थं वा पत्तं वा कंबलं जइणो विहारखावण-फलमित्थ विहारगहणं तु / / 600|| वा पायपुंछणं वा अच्छिदिल वा मिंदिन वा अवहरित वा एतस्यापि विधिप्रतिषेधात् प्रतिषेधेन नियमेनावश्यन्तया द्रव्यतोऽपि परिहविज वा, अह भिक्खूणं पुव्वोवदिहा पतिण्णा०५, जं विहारेणापि मोहोदये सतियतेः-भिक्षोर्विहारख्यापनफलं विहारख्याप- | तहप्पगाराइं विरू-वरूवाइं पचंतियाणि दस्सुगायतणाणि० जाव नार्थमत्राधिकारे विहारग्रहणं कृतमाचार्येणेति गाथाऽर्थः / विहारवत्तियाए नो पवजिज वागमणाए तओ संजया गामाणुगामं प्रयोजनान्तरमाह दूइजिजा।। (सू०-१५५)॥ आईओ चिअपडिबंधवाणत्थं वहंदि सेहाणं। स भिक्षुग्रामांन्तरं गच्छन् यत्पुनरेवं जानीयात्, तद्यथाविहिफासणऽत्थमहवा, सेहविसेसाइविसयं तु / / 101|| अन्तरा- गामान्तराले विरू परूपाणि-नानाप्रकाराणि आदितएवारभ्य प्रतिबन्धवर्जनार्थ स्वक्षेत्रादौ हन्दि शिक्षकाणां विहार- | प्रात्यन्तिकानि दस्यूना-चौराणामायतनानि-स्थानानि 'मि
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________________ विहार 1306 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विहार लक्खूण' तिवर्वरशबरपुलिन्द्रादिम्लेच्छप्रधानानि अनार्याणि-अर्द्धष- | 'ड्विशजनपदबाह्यानि दुःसञ्ज्ञाप्यानिदुःखेनार्यसंज्ञां ज्ञाप्यन्ते, तथादुष्प्रज्ञाप्यानि-दुःखेन धर्मसंज्ञोपदेशेनानार्यसंकल्पान्निवर्त्यन्ते, अकालप्रतिबोधीनि-नतेषां कश्चिदपर्यटनकालोऽस्ति, अर्द्धरात्रादावपि मृगयादौ गमनसम्भवात, तथा अकालभोजीन्यपीति, सत्यन्यस्मिन् ग्रामादिके, विहारे विद्यमानेषु चान्येष्वार्यजनपदेषु न तेषुम्लेच्छस्थानेषु विहरिष्यामीति गमनं न प्रतिपद्यते, किमिति ? यतः केवली ब्रूयात्कर्मोपादानमेतत्, संयमात्मविराधनातः, तत्रात्मविराधने संयमविराधनाऽपि सम्भवतीत्यात्मविराधनां दर्शयति-ते म्लेच्छाः, 'णम् इति वाक्यालङ्कारे, एवमूचुः, तद्यथा-अयं स्तेनः, अयमुपचरकः-चरोऽयं तस्मादस्मच्छत्रुग्राभादागत इति कृत्वा वाचा आक्रोशयेयुः, तथा दण्डेन ताडयेयुः, यावञ्जीविताट्यपरोपयेयुः, तथा वस्त्रादि आच्छिन्द्युःअपहरेयुः, ततस्तं साधुं निर्धाटयेयुरिति। अथ साधूनां पूर्वोपदिष्टमेतत्प्रतिज्ञादिकं यत्तथाभूतेषु म्लेच्छस्थानेषु गमनार्थं न प्रतिपद्यते, ततस्तानि परिहरन् संयत एव ग्रामान्तरं गच्छेदिति। (22) अराजकादिग्रामेषु न विहरेतसे भिक्खू वा भिक्खुणी वा दूइजमाणे अंतरा से अरायाणि वा गणरायाणि वा जुवरायाणि वा दो रजाणि वा देरयाणि वा विरुद्धरजाणि वा सइलाठे विहाराए संथरमाणेहिंजणवएहिं नो विहारवडियाए पवजेज गमणाए, केवली बूया-आयाणमेयं, ते णं बाला तं चेव० जाव गमणाए तओ संजयामेव गामाणुगाम / दूइज्जेजा। (सू०-११६) कण्ठ्यं, नवरम्, अराजानि-यत्र राजा मृतः युवराजानियत्र नाद्यापि राज्याभिषेको भवतीति। किञ्चसे भिक्खू वा भिक्खूणी वा गामाणुगाम दूइजमाणे अंतरा से विहं सिया, से जं पुण विहं जाणिज्जा एगाहेण वा दुआहेण वा तिआहेण वा चउआहेण वापंचाहेणवापाउणिजवानोपाउणिज वा तहप्पगारं विहं अणेगाहगमणिलं सइ लाठे०जाव गमणाए, 'केवलीबूया-आयाणमेयं अंतरासे वासे सिया पाणेसुवा पणएसु वाबीएसुवा हरिएसु वा उदएसुवा मट्टियाए वा अविद्धत्थाए अह मिक्खू जंतहप्पगारं विहं अणेगाहगमणिशं०जावणोपवचिज वा गमणाए ततो संजया गामाणुगामं दूइ जा॥ (सू०-११७) / स भिक्षुामान्तरं गच्छन् यत्पुनरेवं जानीयात् अन्तरा-ग्रामान्तराले मम गच्छतः विह' तिअनेकाहगमनीयः पन्थाः स्यात्-भवेत, तमेवंभूतमध्वानं ज्ञात्वा सत्यन्यस्मिन् विहारस्थाने न तत्र गमनाय मति विदध्यादिति, शेष सुगमम्। आचा०२ श्रु०१चू०३ अ० 130 / विरुद्धराज्ये गमनादौ प्रायश्चित्तम् नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा वेरविरुद्धरशंसि सजं गमणं सचं आगमणं सजंगमणाऽऽगमणं करित्तए, जे खलु निग्गंथे वा निग्गंथी वा वेरजविरुद्धरजंसिसनं गमणं सजं आगमणं सज्ज गमणाऽऽगमणं करेड करंतं वा साइजइसे दुहओ विइकममाणे आवजहचाउम्मा सियं परिहारहाणं अणुग्घाइयं॥३८|| अथास्य सूत्रस्यकः सम्बन्ध इत्याहचोरो ति अइपसंगा, विरुद्धरण विमा चरित्राहि। इय एसो उवधाओ, वेरनविरुद्धसुत्तस्स॥६१६॥ अनन्तरसूत्रे हेमन्तग्रीष्मयोामानुग्राम विहारो-गमनं कर्तुं कल्पते इत्युक्तोक्तिप्रसङ्गतो विरुद्धराज्येऽपि वर्तमानः समाचरेदित्यभिप्रायेणेदं सूत्रमारभ्यते एष वैराज्य-विरुद्धराज्यसूत्रस्योपोद्धातः- सम्बन्धः, अनेनाऽऽयातस्यास्य (सू०-३८) व्याख्या-नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनांवा वैराज्ये विरुद्धराज्ये वा सद्यस्तत्कालं गमनं सद्य आगमनं सद्यो गमनागमनं कर्तुं यः खलु निर्ग्रन्थो वा निर्ग्रन्थी वा वैराज्यविरुद्धराज्ये सद्यो गमनं सद्य आगमनं सद्यो गमनागम-नं करोति कुर्वन्तं वा स्वादयति-अनुमोदयति स द्विधाऽपि तीर्थकृतां राज्यस्य च सम्बन्धिनीमाज्ञामतिक्रामन् आपद्यते-प्राप्नोति चातुर्मासिकं परिहारस्थानमनुद्धातिकं चतुर्गुरुकमित्यर्थः। इति सूत्रसंक्षेपार्थः / अथ विस्तरार्थं भाष्यकृदाहदेरं जत्थ उरने, वेरं जायं व देररखं वा। जंच विरजइ रज्जे-णं तेणं विगयरायं वा // 620 / / यत्र राज्ये पूर्वपुरुषपरंपरागतं वैरं तद्वैराज्यमुच्यते-नैरुक्ता शब्दनिष्पत्तिः / यद्वा न पूर्वपुरुषपरम्परागतं परं सम्प्रति ययो राज्ययोर जातमुत्पन्नं तद्वैराज्यम् / अथवा परकीयग्रामनगरवाहादीनि कुर्वन् यत्र राजादिवरेविरोधेरज्यतेतादृशं डमरं विराज्यमुच्यते, यदि वा–यद्राज्यममात्यादिप्रधानपुरुषरूपं 'रजेणं ति विवक्षितेन राज्ञा सा विरज्यतेविरक्ता भवति, तद्वैराज्यम्, इष्टरूपनिष्पत्तिः सर्वथाऽपि निरुक्तिवशात्, यद्वा-विगतो मृतः प्रोषितो वा राजा यत्र तद्विगतराजकम्-अराजकमित्यर्थः, तदेव वैराज्यम्।यत्रतुद्वयोरपि राज्ञो राज्ये परस्परं गमनागमनं विरुद्धं तद्विरुद्धराज्यमुच्यते। सद्यः प्रभृतीनिशेषपदानि व्याचष्टेसजग्गहणाऽतीयं, अणागयं चेव वारियं वरं। पनवगपडुच कयं, होछा गमणं च उभयं वा // 621 // सद्यो-वर्तमानकालभावि यद्वैरं तत्र गमनादिकं न कल्पते, एवं सधो ग्रहणादतीतमनागतंचरनिवारितंभवतिायत्ररपूर्वोक्तमस्तियत्रवाभाविष्यतयासम्भाव्यमानंतत्राऽपि क्षेत्रेगमनादीनिनकर्तव्यानीतिभावः, तथाप्रज्ञापक प्रतीत्य गमन-मानमनम् उभयं वा-गमनागमनमत्र भवति। तत्र यत्र प्रज्ञा
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________________ विहार १३१०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विहार षकस्तिष्ठति, ततो यदन्यत्र गम्यते तद्गमनम्- अन्यतः स्थानात् प्रज्ञापकसम्मुखं यदागम्यते तदागमनं, गत्वा प्रत्यागमने विधीयमाने गमनाऽऽगमनम्। बृ० 1 उ०३ प्रक०। अथ वाऽनेनैवाऽधिकारः वैराज्यग्रहणादेतेऽप्यर्थाः सूचिता भवन्तीति दर्शयतिअणराए जुवराए, तत्तो वेरज्जए अवेरखे। एत्तो एककम्मिउ, चाउम्मासा भवे गुरुगा // 622 / / अराजके यौवराज्ये ततश्च वैराज्ये ततश्च वैराज्ये-इति चतुर्णा भेदानाम् एकैकस्मिन् गच्छतस्तपःकालविशेषिताश्चतुर्मासा गुरुका भवेयुः। तत्र प्रथमे द्वाभ्यामपि कालाभ्यां लघवः, द्वितीये कालगुरवः, तृतीये तपोगुरवः, चतुर्थे द्वाभ्यामपि गुरवः / अराजकादीनामेव चतुण्णां व्याख्यानमाहअणरायं तिवमरणे, जुवराया जावदोव्वऽणमिसित्तो। वेरखं तु परवलं, दाइयकलहो उ वेरजं // 623|| यस्य प्राक्तनस्य राज्ञो मरणे सजाते सतियावदद्याऽपि राजा युवराश्चेत्येतौ द्वावपि नाभिषिक्तौ तावदराजकं भण्यते, प्राचीननृपतिना यो यौवराज्याभिषिक्त आसीत् तेनाधिष्ठितं राज्यं परमनेन यावन्नाद्याऽपि द्वितीयो युवराजोऽभिषिक्तः तावद्यौवराज्यमुच्यते / यत्र तु परबलं-- परचक्रमागत्य विराज्यं करोति तद्वैराज्यम्। यत्रतुद्वयोर्दायिकयोः सगोत्रयोरेकराज्याभिलाषिणोः स्वस्वकटकसन्निविष्टाभ्यां परस्परं कलहोविग्रहस्तद्वैराज्यमुच्यते। विरुद्धराज्यं व्याख्यानयतिअविरुद्धावाणियगा, गमणाऽऽगमणंच होति अविरुद्धं / णिस्संचारविरुद्धे,न कप्पती बंधणादीया।।६२६|| यत्र वैराज्ये वाणिजकाः परस्परं गच्छन्ति अविरुद्धास्तत्र साधूनामपि गमनं विरुद्धं न भवति, कल्पते तत्र गन्तुमिति भावः / यत्र तु वणिजां शेषजनपदस्य च निस्संचारं कृतं गमनाऽऽगमननिषेधो विहितः अतस्तद्वैराज्यं विरुद्धमुच्यते, तस्मिन् विरुद्ध गमनादि न कल्पते। अत्ताण चोरमेया, वग्गुरसेणा पलाइणो पहिया। पडिचरगाय सहाया, गमणागमणम्मिनायव्वा // 625 / / ('अत्ताण' पदव्याख्या अत्ताण' शब्दे प्रथमभागे 504 पृष्ठे गता।) तथा-चौरा-गवादिहारिणः 2, भेदानाम गृहीतचापा दिवा रात्रौ चजीवहिंसापरा म्लेच्छविशेषाः 3, वागुरिकाः-पाशप्रयोगेण मृगघातकाः 4, शुनिकाः-द्वितीया लुब्धकाः५, पलायिनोनाम ये भट्टादयो राज्ञः पृच्छा विना सकुटुम्बाः प्रणश्य राज्यान्तरं गच्छन्ति 6, पथिकानानाविधनगरग्राम-देशपरिभ्रमणकारिणः 7, प्रतिचरका नाम-ये परराष्ट्राणि स्वयं प्रच्छन्नचारितया गवेषयन्ति; हेरिका इत्यर्थः 8, एते आत्मादयोऽत्राणादयो वाऽष्टभेदा भवन्ति, केषाञ्चिदाचार्याणां वागुरिकाः शौनिकाश्च | द्वयेऽप्येक एव भेदास्तन्मतेनाष्टमा अहिमरका भवन्ति, अहिः-- सर्पः पूर्वस्मादकृतेऽप्यपकार परं मारयन्तीत्यहिमरकाः, एते सहायाः साधूनां वैराज्यगमनाऽऽगमने ज्ञातव्याः। एतेष्वेव भङ्गोपदर्शनायाहअत्ताणमाइएस, दियपहदितु य अट्ठिया भयणा। एत्तो एगतरेणं, गमणागमणम्मि आणाई // 626|| आत्मादिभेदेषु अत्राणादिषु वा सहायेषु एकैकस्मिन् दिवापथदृष्टपदैः सप्रतिपक्षरष्टिका भजना भवति; अष्टो भङ्गा भवन्तीत्यर्थः / तथाहिआत्मनासहायविरहिता दिवा मार्गेण राजपुरुषैर्दृष्टा गच्छन्ति 1, आत्मना दिदामार्गेण राजपुरुषैरदृष्टाः 2, आत्मना दिवा उन्मार्गेण राजपुरुषैदृष्टाः 3, आत्मना दिवा उन्मार्गेण वा राजपुरुषैरदृष्टाः 4, आत्मना रात्री मार्गेण दृष्टाः 5, आत्मना रात्रौ मार्गेणादृष्टाः 6, आत्मना रात्रायुन्मार्गेण दृष्टाः 7, आत्मना रात्रावुन्मार्गेणादृष्टा गच्छन्ति 8, एवं चौरादिभिः द्वितीयव्याख्यानापेक्षया त्वत्राणादिभिः प्रतिचरकान्तिकसहायैरपि सार्द्ध गच्छतां प्रत्येकमष्टौ भङ्गाः कर्त्तव्याः, 'एत्तो' इत्यादि पश्चार्द्धम् / एतेषामष्टानां भेदानां प्रत्येकमष्टविधानांमध्यादेकतरेणाऽपि प्रकारेण यो गमनं करोति तस्याऽऽज्ञाऽनवस्थादयो दोषा भवन्ति। प्रायश्चित्तं चेदम् - अत्ताणमाइएसुं, दियपहदिउसु चउलहू हॉति। राओ अपह अदिट्टे, चउगुरुगा इक्कमे मूलं / / 627 / / आत्मादिषु अत्राणादिषु वा पदेषु, ये दिवाविषयाः प्रथमे चत्वारो भङ्गकास्तेषु दृष्टादृष्टपदाभ्यांसप्रतिपक्षाभ्यामुपक्षितेषु तपःकालविशेषिताश्चत्वारो लघुकाःये तु रात्रिविषयाः पाश्चात्याश्चत्वारो भङ्गकास्तेषु अपथा दृष्टादृष्टपदाभ्यांसप्रतिपक्षाभ्यामुपलक्षितेषु तपःकालविशेषिताश्चत्वारो गुरुकाः। यतो राज्यात्प्रधावितस्तस्यातिक्रमेऽतिलड़ने कृते सति मूलम्। अथ सर्वभङ्गपरिमाणज्ञापनार्थमाहअत्ताणमाझ्याणं, अgण्हाडहि पएहि भइयाणं। चरसहिए पदाणं, विराहणा होइसा दुविहा॥६२८|| आत्मादीनामत्राणादीनां वा अष्टानां पदानामष्टभिः पदैर्भङ्गैः प्रत्येक भक्तानां गणितानां चतुःषष्टिसंख्यानि भङ्गकपदानि भवन्ति! चतुःषष्टिश्च पदानामन्यतरेण गच्छत इयं द्विविधा संयमात्मविराधना भवति। तामेवाहछकायगहणकडण-पंथि भितूण चेव अइगमणं / सुन्नम्मिय अइगमणं, विराहणा दुण्ह वग्गाणं // 626 // अपथेशस्त्रोपहतपृथिव्यां गच्छन् पृथिवीकार्य, नद्यादिसन्तरेण अवश्यायसम्भवे वाऽप्कायं, दवानलसम्भवे सार्थिकप्रज्चालिताऽग्निप्रतापने वा तेजस्कायं, यत्राऽग्निस्तत्र नियमाद्वायुर्भवतीति कृत्वा वायुकायं, हरितादिमर्दनप्रलम्बासेवने वा वनस्पतिकार्य, पृथिव्युदकवनस्पतिसमाश्रितत्रसानां परितापनादौ त्रसकायम्। एवं षट् कायान् विराधयतीतिसंयमविराधना। तथा राजपुरुषा ग्रहणाकर्षणादि विदध्युरि
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________________ विहार 1311- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विहार त्यात्मविराधना ! अथतेसाधवः पन्थानमार्ग भित्त्वाच उत्पथेन परजन- लगतीति भावः / अत्र साधूनामेव दोषो न-स्थान-पालकानाम् / अथ पदेऽभिगमनंप्रवेशं कुर्वन्तिततोगाढतरेऽपराधे नरादिशून्येवा स्थण्डिल- स्थानपालकाः सुप्ता भवन्ति, शून्यं वा तत्स्थानकं वर्तते स्थानपालपालिविरहिते मार्गेऽतिगमने द्वयोरपि वर्गयोः संयतानां सहायानां च कानामन्यत्र कुत्राऽपि गमनात्। तत्र यदि साधवो गच्छन्ति तदा द्वयोरपि विराधना भवतीति। वर्गयोः स्थानपालकानां, संयतानां चेत्यर्थः ग्रहणाकर्षणादयो दोषाः अथ षट्कायविराधनायां प्रायश्चित्तमाह-- भवन्ति। छक्कायचउसु लहुगा, परित्तलहुगा य गुरुगसाहारे। तानेव सप्रायश्चित्तान् दर्शयतिसंघट्ठणपरितावण, लहु गुरुग निवायणे मूलं // 630 / / गेण्हणे गुरुगा छम्मास कङ्कणे छेउ होइ ववहारे। अस्य व्याख्या प्राग्वत्। पच्छा कडे य मूलं, उडुहणविरंभणे नवमं // 63 / / अथ ग्रहणाऽऽकर्षणपदं व्याचष्टे उद्दावणनिव्विसए, एगमणेगे पओस पारंची। संजमगिहितदुभय महगा य तह तदुभयस्स वि य पंता। अणवठ्ठप्पो दोसुय, दोसुय पारंचिओ होइ॥६३६|| चउभंगों गोम्मिएहिं,संजयमहा विसजें ति॥६३१।। गाथाद्वयस्याऽपि व्याख्या प्राग्वत्, एवमात्मनैवासहायानामत्राणसहागौल्मिका नाम ये राज्ञ; पुरुषाः स्थानकं बवा पन्थानं रक्षयन्ति तेषु यानां वा गच्छतां दोषाः अभिहितः। चतुर्भङ्गी, संयतभद्रका गृहस्थप्रान्ताः 1, गृहस्थभद्रकाः संयमप्रान्ताः अथ चौरादिसहाययुक्तानां दोषानतिदिशन्नाह--- 2, संयमभद्रका अपि गृहस्थभद्रका अपि३, संयतभद्रकाः न गृहस्थ- एमेव सेसएसुं, चोराईहि समं तु गच्छंतो। भद्रकाः, किंतु-तदुभयप्रान्ताः / अथतेसंयतभद्रकाः गौल्मिकाः; प्रथम- सविसेसयरा दोसा, पत्थारो जीवभंसणया॥६३७।। तृतीयभङ्गवर्तिन इत्यर्थः, ते साधून् गच्छतो विसर्जयन्तिन निरुन्धन्ते। एवमेव चौरप्रतिचरकादिसहायैः शेषैरपि समकं व्रजतां दोषास्त एव संजयभगमुक्के, बीया घेत्तुं गिही वि गिण्हंति। ग्रहणाकर्षणादयो वक्तव्याः परंसविशेषतराः। तथाहि तेषां साधूनांदोषेण जे पुण संजयपंता, गेण्हंति जती गिही मुतुं // 632|| यदन्येषामपि तद्रच्छीयानांवा कुलस्यवासङ्घस्य वा ग्रहणाकर्षणादिकम्, संयतभद्रकैर्मुक्तानपिसाधून द्वितीयाः-द्वितीयभङ्गवर्तिनः स्थानपा एष प्रस्तार उच्यते--सवा भवेत् जीवितस्यचा चरणस्यवाभ्रंशनं स्यात्, लकास्ते संयतप्रान्तवद् गृह्णन्ति।गृहीत्वा च ते गृहीणोऽपि प्रथमस्थान- यावच्छब्दोपादानात् शरीर-विकर्तनभेदा द्रष्टव्याः। पालकान गृह्णन्ति कस्माद्भवद्भिरमी संयता मुक्ता इति कृत्वा, यद्वाते सविशेषदोषदर्शनार्थमाहसाधवो गृहस्थसहिता गच्छन्तः संयतभद्रकैर्मुक्ता गृहस्था अपि तैरमीषां तेणहम्मि पसज्जण, निस्संकिएँ मूलं अहिमरे चरिमं / साधूनामेते सहाया इत्यभिप्रायेण मुक्ताः, परं ये द्वितीयभङ्गवर्तिनः जइताव हो ति भद्दय, दोसा ते तं चिमं वत्तं / / 638 // स्थानपालकास्ते संयतप्रान्ततया संयतान् गृहीत्वा गृहस्थानपिगृह्णन्ति स्तेनादिभिः सह गच्छन् स्तैन्यार्थे प्रसजनं करोतिस्तैन्यादिकं करोति, यस्मादमीभिः समं ययं गच्छत इत्यतो यूयमप्यपराधिनः इति कृत्वा, ये कारयति; अनुमन्यते वा इत्यर्थः / यदि स्तेनोऽयमिति शङ्कयते तदा पुनः संयतप्रान्ताः पुनः शब्दो विशेषणोकिं विशिनष्टि-ये गौल्मिकाः चत्वारो गुरुकाः निःशङ्किते मूलम् / अभिमरोऽयमिति निःशङ्किते चरमं संयतानामेवातीव प्रद्विष्टास्ते गृहिणो मुक्त्या यतीन् गृह्णन्ति गृहीत्वा पाराश्चिकम् अपिच-यदितावत्ते स्थानपालका भवन्ति तथाऽपि वैराज्य बन्धनादिकं कुर्युः। संक्रामतः साधून् दृष्ट्वा चिन्तयन्ति-एतेऽपि यदीदृशानि कुर्वन्ति तर्हि न पढमतइयमुक्काणं, रज्जे दिवाण दोण्ह वि विणासो। किमप्यमी मध्ये शोभनं, तीर्थकरेण वा किं न प्रतिषिद्धं वैराज्य-- पररज्जपवेसे वं,जओ व णंतीतहि वि एवं // 633 // संक्रमणमित्यादि। एवं च तेऽपिप्रान्तीभवन्ति। अथवा-यदिते स्थानएवं प्रथमतृतीयभङ्गयोः संयतभद्रकैर्मुक्ताः सन्तः साधवः परराज्ये पाला भद्रका भवन्ति तदा तैर्विसर्जितानां परराष्ट्रप्रविष्टानांतएव दोषाः, प्रविष्टा दृष्टाश्च राजपुरुषैः, ततः पृष्टाः-किमुत्पर्थनायाताः? यदि साधवो तदेव चतुर्गुरुकादिकं प्रायश्चित्तम्। भणन्ति-उत्पथेन, तत उन्मार्गगामित्वात् चारिका एते इति कृत्वा इदं चान्यत्प्रायश्चित्तावह दोषजालम् - ग्रहणाकर्षणादिकं प्राप्नुवन्तितीअथ ब्रुवतेपथा वयमागताः ततोद्वयोरपि आयरिय उवज्झाया, कुलगणसंघो य चेझ्याइं च। वर्गयोर्विनाशो भवति, संयतानां स्थानपालकानां चेति भावः / एवं सव्वे विपरियता, वेरलं संकमंतेणं // 639 / / परराज्यप्रवेशे दोषा अभिहिताः / यतोऽपि राज्यान्निर्गच्छन्ति तत्राप्येत आचार्या अर्थदातारः उपाध्यायाः- सूत्रप्रदाः कुलंनागेन्द्रादि गणंएव दोषा भवन्ति। परस्परसापेक्षानेककुलं संघः समुदायः चैत्यानिभगवदिम्बानि जिनअथ पंथं भित्तूण' इत्यादिपदं व्याख्यानयति भवनानि वा / एते आचार्यादयः सपक्षिणो वृक्षानागच्छन्ति तस्मात्तानेव रक्खिज्जइ वा पंथो, जइ तं मित्तूण जणवयसयंति। वृक्षानुद्धातयामः मा फलार्थिनः शकुना आगच्छन्तु, एतेन दृष्टान्तगाढतरं अवराहो, सुन्ने सुत्ते वि दोण्हं पि॥६३॥ सामर्थ्येन तानेवाऽऽचार्याऽऽदीनुद्धातयामो येन तदर्थमिह कोऽपि नाऽऽअथ चौरहेरिकादिभयतो गाढतरमपराधो भवति महान् दोषस्तेषां | गच्छति त एते दोषाः।
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________________ विहार 1312- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विहार अतः एयारिसे विहारो,न कप्पई समणाण सुबिहियाणं। दो सीमेऽतिकमई, जिणसीमं रायसीमं वा // 640|| एतादृशे वैराज्ये विहारः श्रमणानां सुविहितानांन कल्पते, यस्तु करोति स द्वेसीमानावतिक्रामति, तद्यथा-जिनसीमानंन कल्पते वैराज्यसंक्रमणं कर्तुमिति लक्षणां, राज्यसीमानं-न कर्त्तव्यो मदीयराज्यात्परराज्ये गमाऽऽगम इति रूपाम्। किञ्चबंधं वहं च धोरं,णावज एरिसे विहरमाणे। तम्हाउविवशेषा, वेरमविरुद्धसंकमणं // 651|| बन्धो-निगडादिनियन्त्रणं, वधः-कशाघातादिः, घोरंभया-नकमीदृशे विहरमाणे यत आपद्यते तस्माद्वैराज्यसंक्रमणं विवर्जयेत्। अथ दितीयपदमाहदसणनाणे माता, भत्तविसोही गिलाणमायरिए। अधिकरणवादराय, कुलसंगतें कप्पती गंतुं // 642|| दश्रनार्थ वा वैराज्यसंक्रमणमपि कुर्यात् 'माय' तिमातापितरौ कस्याऽपि प्रव्रजितुकामस्य शोकेन मियेते 'भत्तविसोहि ति कश्चित्साधुभक्त प्रत्याख्यातुकामः स विशोधिमालोचनां दातुकामो गीतार्थस्य पार्वे गच्छेत्, अजङ्गमस्यतस्य पावें गीतार्था गच्छन्ति गिलाण' तिग्लानस्य वाप्रतिचरणार्थं प्रायोग्यौषधहेतवेवा गच्छेत् आयरिय' त्ति आचार्यसमीपे आचार्याणामादेशेन वा गच्छति 'अधिकरण' त्ति कस्यापि साधोः केनाऽपि गृहिणा सहाधिकरणमुत्पन्नं स च गृही नोपशाम्यति, ततः प्रज्ञापनालब्धिमान् तस्योपशमनाय गच्छति, 'वाद' ति-अन्यराज्ये परप्रवादी कश्चिदुत्थितस्तस्य निग्रहार्थ वादलब्धिसम्पन्नेन गन्तव्यं 'राय' ति राजा वा कश्चित् परराष्ट्रीयः साधूनामुपरि प्रद्विष्टस्तस्योपशमनार्थसलब्धिकेन गन्तव्यं कुलसंगते त्ति उपलक्षणत्वात् कुलगणसंघसङ्गतं किमपि कार्यमुत्पन्नं कुलादिविषयमित्यर्थः / अथवा-'राजकुलसंगत' त्ति एकमेव पदं राजकुलेन सह सङ्गतंबद्धं केनाऽपि साधुनाऽधिकृतं तदुपशमनाय गच्छति / एवमादिषु कार्येषु वैराज्येऽपि गन्तुं कल्पते। अथ दर्शनज्ञानपदद्वयं भाष्यकृयाख्यानयतिसुत्तत्थतदुभयविसा-रयम्मिपडिवों उत्तिमट्टम्मि। एतारिसम्मि कप्पड़, वेस्खविरुद्ध संकमणं / / 653|| दर्शनप्रभावकशास्त्राणामाचारादिश्रुतज्ञानस्य वा सम्बन्धि यदन्यत्राऽविद्यमानं सूत्रार्थत दुभयं तत्र विशारदः कश्चिदाचार्यः स चोत्तमार्थम् अनशनं प्रतिपन्नो; यस्मिश्च क्षेत्रेऽसौ स्थितस्तत्रापान्तराले वा वैराज्य वर्तते, तौ च सूत्रार्थी मा व्यवच्छेदं प्रापतामिति कृत्वा एतादृशे कारणे वैराज्यविरुद्ध संक्रमणं कर्तुं कल्पते। अथ येन विधिना तत्र गन्तव्यं तमभिधित्सुराहआपुच्छिय आरक्खिय, सेट्टि सेंणावह अमचरायाणं। अइगमणे निग्गमणे, एस विही होइ नायव्वो // 654|| आपृच्छ्याऽऽरक्षिकंततः श्रेष्ठिनं ततः सेनापतिंततो राजानमप्यापृच्छ्य निर्गन्तव्यं प्रवेष्टव्यं वा, एष विधिरतिगमने निर्गमने च ज्ञातव्यो भवति। अमुमेवार्थ प्रकटयन्नाहआरक्खितो विसञ्जइ, अहव मणिमा स पुच्छह तु सेटिं। जाव निवो ता नेयं, सुद्धा पुरिसो व दूतेणं / / 645 // वैराज्यविरुद्धराज्यं गच्छता प्रथमत एव रक्षितः प्रष्टव्यः यद्यसौविसजयतिततोलष्टम्। अथाऽसौ भणेत्-प्रेष्ठिनं-श्रीदेवताध्यासितशिरोवेष्टनविभूषितोत्तमानं पृच्छ, ततः श्रेष्ठी प्रष्टव्यः / एवं नृपो यावत् नृपा राजा नेतव्यं; वक्तव्यमित्यर्थः, तचैवं श्रेष्ठी पृष्टो यदि विसर्जयति ततः सुन्दरम्, अथाऽसौ ब्रूयात्- अहं न जानामि सेनापतिं प्रश्नयत, ततः सेनापतिः प्रश्रितो यधनुजानीते ततः शोभनम्। अथाऽसौ ब्रूयात्-अमात्यं पृच्छ, ततोऽसावमात्यः पृष्टो यदि विसर्जयति ततोलष्टम् अथ ब्रूयात्-राजानं पृच्छ, ततो राजाऽपि प्रष्टव्यः / एते च राजादयो यदि विसर्जयन्ति तदा मुद्रापट्टकं दूतपुरुषा वा मार्गयितव्याः, येन राजादिना विसर्जिता एते इति स्थानपालकाः प्रत्ययतः प्रथममवतारयन्ति। यो वा दूतस्तत्रराज्ये व्रजतितेनसार्द्ध गच्छन्तिएवंतावद्यतोराज्यान्निर्गच्छन्तितत्र विधिरुक्तः। अथ यत्र राज्ये गन्तुकामास्तत्र प्रविशतां विधिमाहजत्थ विय गंतुकामा, तत्थ वि कारिंति तेसि णातं तु। आरक्खिगाइते विय, तेणेव कमेण पुच्छंति // 646|| यत्रापि राज्ये गन्तुकामास्तत्राऽपि ये साधवो वर्चन्ते तेषां लेखप्रेषणेन, सन्देशकप्रेषणेन वा आरोपज्ञानं कुर्वन्ति, यथा वयमितो यत्र राज्यात्तत्राऽऽगन्तुकामा अतो भवन्त-स्तत्रारक्षकादीन् पृच्छन्त्विति, यदा तैरनुज्ञाता भवन्ति तदा तान् साधून ज्ञापयन्ति, यथा तैः आरक्षकादिमित्रानुज्ञाताः सन्ति, भवद्भिरत्रागन्तव्यम्। एष निर्गमनेप्रवेशेच विधिरुक्तः। अथ 'आयरिय त्ति' पदं विशेषतो भावयन्नाहराईण दोह भंडण, आयरिए आसियावणं होइ। कयकरणे करणं वा, निवेद जयणाएँ संकमणा // 647 // द्वयो राज्ञोः परस्परं भण्डनं-कलहो वर्तते, तत्रैकस्य राज्ञः कोऽप्याचार्योऽतीव पूजासत्कारस्थानं, ततश्च द्वितीयो नृपतिस्तत्परिज्ञायात्मीयदक्षपुरुषैः 'आसिआवणं' ति तस्याऽऽचार्यस्यापहरणं कारयति, अस्मिन् हि गृहीते सम्प्रपि पार्थिवो गृहीत एव भवतीति, तत्र च यः करणेधनुर्वेदादौ गृहवासे कृतपरिश्रमस्तस्य तत्र करणं भवति; तेनाऽऽचार्यापहारिणा सह युद्धं कर्तुमुपतिष्ठत इत्यर्थः / अथ नास्ति कोऽपि कृतकरणस्ततो यस्य राज्ञः सकाशादपहृतस्तस्य निवेदनं कृत्वा यतनया शेषसाधवः संक्रमणं कुर्वन्ति।
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________________ विहार 1313 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विहार इदमेव स्पष्टतरमाहअब्मरहियस्स हरणे, उजाणाऽऽइष्ट्रियस्स गुरुणो उ। उध्वट्टणे समत्थे, दूरगए वाऽवि ते विउलं // 648|| पेसवियम्मि अदत्ते, रना जइ विउ विसजिया सिस्सा। गुरुणो निवेइयम्मि, हारिंतगराइणो पुटिव // 646 // अभ्यर्हितस्य-राजमान्यस्य गुरोराचार्यस्योद्यानसभाप्रपादिषु स्थितस्य हरणं भवति, यदि च कोऽपि युद्धकरणेन वा तस्योद्वर्तनायां चालनायां समर्थो भवति, ततः स तं निवार्याऽऽचार्य प्रत्याहरति / अथ नास्त्युद्वर्तनासमर्थः ततः क्षणमात्रं साधवस्तूष्णीका आसते, यदा आचार्यापहारी दूरं गतो भवति तदा सर्वेऽपि साधवो बोलं कुर्वन्ति, अस्माकमाचार्यो हृतो धावत लोका इति / आसन्नस्थिते तु वोलं न कुर्वन्ति, मा भूत्पपरस्परं बहुजनक्षयकारी युद्धविप्लव इति। ततश्च राजा साधुभिरभिधातव्यः-अनाथा वयमाचार्यविना अत आचार्या यथा आगच्छन्ति तथा कुरुत / एवमुक्तौऽसौ द्वितीयस्य राज्ञो दूतं विसर्जयति, शीध्रमाचार्यः प्रेषणीय इति / यदि प्रेषितस्ततो लष्टम् / अथाऽसौ दूते प्रेषितेऽप्याचार्य न ददाति; न विसर्जयतीत्यर्थः / ततः साधवो द्वे त्रीणि वादिनानि राजानं दृष्ट्वा ब्रुवते--अस्मान् वियर्जयत येन गुरूणामुपकण्ठं गच्छामः। कीदृशा वयं गुरुविरहिता अत्र तिष्ठन्तः, स्वाध्यायादिकं चात्र न किमपि निर्वहतीत्यादिएवमुक्ते यद्यपि ते शिष्या न राज्ञा विसर्जितास्तथाऽपि गुरूणां सन्देशकप्रेषणेन निवेदयन्ति, यथा वयमागच्छामः; ततो गुरवः 'हारितगराइणो पुद्धि' ति अपहर्तुः राज्ञः पूर्वमेव निवेदयन्ति, अहं शिष्यानप्यानयामि अतः स्थानपालानामादेशंप्रयच्छत, येनतेतान्न गृह्णन्तु, एवं निवेदितेयतनया संक्रमणं कुर्वन्ति। बृ० 1303 प्रक०नि० चू०।। जे भिक्खू वेरजं विरुद्धरज सज्जं गमणं सजं आगमणं सज्ज गमणाऽऽगमणं करेइ करतं वा साइजइ॥१७७|| जेसिं राईणं परोप्परं वेररज्जं जेसिं राईणं परोप्परं गमणागमणं विरुद्धतं वेरजविरुद्धरजं / सज्जग्गहणावट्टमाणा कालग्गहणं / अहवा–अभिक्खं गमणं करेति पन्नवर्ग पडुच गमणं, अण्णट्ठाणातो आगमणं, गन्तुपडियागयस्स गमणाऽऽगमणं / एवं जो करेइ तस्स आणादिया य दोसा, चउगुरु च से पच्छितं / एसो सुत्तत्थो। नि० चू०११ उ०। ('नदीसंतरणविधिः 'णईसंतरण' शब्दे चतुर्थभागे 1742 पृष्ठे उक्तः 1) से मिक्खू वा मिक्खुणी वा उदउल्लं वा कार्य ससिणिद्धं वा कायं णो आमजेज वा नो पमझेज वा, अह पुण विगओदए मे काए छिन्नसिणेहे तहप्पगारं काय आमनिवा०जाव पयाविज वा तओ संजयामेव गामाणुगामं दूइजेजा। (सू०-१२५४) आचा०२ श्रु०१ चू०३ अ०२ उ०। उदकोत्तीर्णस्य गमनविधिमाहसे भिक्खू वा भिक्खुणी वा गामाऽणुगामं दूइजमाणे नो मट्टियागएहिं पाएहिं हरियाणि छिंदिय छिंदिया विकुञ्जिय विकुजिय विष्फालिय विप्फालिय उम्मग्गेण हरियवाहाए गच्छिना, जमेयं पाएहि मट्टियं खिप्पामेव हरियाणि अवहरंतु, एवमाइहाणं संफासे नो एवं करिया, से पुवामेव अप्पहरियं मग्गं पडिलेहिमा तओ संजयामेवगामाणुगामंदूइजेखा। (सू०१२५) सभिक्षुरुदकादुत्तीर्णः सन् कर्दमाविलपादः सन्नो हरितानि भृशं छित्त्वा तथा विकुब्जानि कृत्वा एवं भृशं पाटयित्वोन्मार्गेण हरितवधाय गच्छेत्। यथैनां पादमृत्तिका हरितान्यपनयेयुरित्येवं मातृस्थानं संस्पृशेत्, न चैतत्कुर्याच्छेषं सुगममिति। (23) मार्गे वप्रादिके गमनविधिमाहसे मिक्खू वा भिक्खुणी वा गामाणुगाम दूइज्जमाणे अंतरा से वप्पाणि वा फालिहाणिवापासगाणि वा तोरणाणिवा अग्गलाणि वा अग्गलपासगाणि वा गड्डाओ वा दरीओ वा सइ परकमे संजयामेव परकमिजा, नो उजुयं गच्छेन्ना, केवली बूया-आयाणमेयं से तत्थ परकममाणे पयलिन वा पयलिज्ज वा से तत्थ पयलमाणे वा पयलमाणे वा, रुक्खाणि वा गुच्छाणिवा गुम्माणि वा लयाओ वा वल्लीओ वा तणाणि वा गहणाणि वा हरियाणि वा अवलंबिय अवलंबिय उत्तरिजा,जे तत्थ पाडिपहिया उवागच्छंति ते पाणी जाइजा 2, तओ संजयामेव अवलंबिय अवलंबिय उत्तरिजा तओ संजयामेव गामाणुगामं दूइजेजा। (सू०१२५४) स भिक्षुामान्तराले यदि वप्रादिकं पश्येत्ततः सत्यन्यस्मिन् संक्रमे तेन ऋजुना पथा न गच्छेत्, यतस्तत्र गर्तादौ निपतन् सचित्तं वृक्षादिकमवलम्बते, तच्चायुक्तम्। अथ कारणिकस्तेनैव गच्छेत्, कथञ्चित्पतितश्च गच्छतो वल्ल्यादिकमप्यवलम्ब्य प्रातिपथिकं हस्तं वा याचित्या संयत एव गच्छेदिति।आचा०२ श्रु०१चू०३ अ०२ उ०। (पङ्कादिसंक्रममार्गः 'णईसंतरण' शब्दे चतुर्थभागे 1740 पृष्ठे उक्तः।) - किच-यवसाऽऽदिसंसृष्ट मार्गे विधिमाहसे भिक्खू वा भिक्खुणी वा गामाणुगामं दूइज्जेमाणे अंतरा से जवसाणि वा सगडाणि वा रहाणि वा सचक्काणि वा परचक्काणि वा से पं विरूवरूवं संनिरुद्धं पेहाए सइ परक्कमे संजयामेव णो उज्जुयं गच्छेमा, सेणं परो सेणागओवइजा आउसंतो! एसणं समणे सेणाए अभिनिवारियं करेइ, सेणंबाहाएगहाय आगमह, से णं परो बाहाहिं गहाय आगसिजा,तं नो सुमणे सिया० जाव समाहीएतओ संजयामेवगामाणुगामंदूइजेजा। (सू०-१२५४)
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________________ विहार 1314 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विहार स भिक्षुर्यदि ग्रामान्तराले यवसं-गोधूमादिधान्यं शकटस्कन्धावारनिवेशादिकंवा भवेत्तत्र बहुपायसम्भवात्तन्मध्येन सत्परस्मिन् पराक्रमे न गच्छेत्, शेषं सुगममिति। (24) प्रातिपथिकपृच्छायां विधिमाहसे भिक्खू वा भिक्खुणी वा गामाणुगामं दूइजमाणे अंतरा से पाडिवहिया उवागच्छिज्जा, ते णं पाडिवहिया एवं वइजा आउसंतो! समणा ! केवइए एस गामे वा० जाव रायहाणी वा केवइया इत्थ आसा हत्थी गामपिंडोलगा मणुस्सा परिव-संति। से बहुभते बहुउदए बहुजणे बहुजवसे, से अप्पभत्ते अप्पुदए अप्पजणे अप्पजवसे ? एयप्पगाराणि पसिणाणि पुच्छिज्जा, एयप्पगाराणि पुट्ठो वा अपुट्ठो वा नो वागरिजा, एवं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणीए वा सामग्गियं जं सबढेहिं सहिते सयाजइजासि। (सू०-१२६) त्ति बेमि।। 'से' तस्य भिक्षोरपान्तराले गच्छतः प्रातिपथिकाः-सम्मुखाः पथिका भवेयुः, तेचैवं वदेयुर्यथा आयुष्मन्! श्रमण! किम्भूतोऽयं ग्रामः ? इत्यादि पृष्टो न तेषामाचक्षीत, नापितान पृच्छदिति पण्डिाऽथः, एतत्तस्य भिक्षोः सामग्यमिति। आचा०२ श्रु०१ चू 3 अ०२ उ०। (25) मार्गे वप्रादीनि नाङ्गुल्या दर्शयते / इहानन्तरं गमनविधिः प्रतिपादितः इहाऽपि स एव प्रतिपाद्यते, इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्याऽऽदिसूत्रम् से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गामाणुगामं दूइज्जमाणे अंतरा से वप्पाणिवा जाव दरीओ वा० जाव कूडागाराणि वा पासायाणि वा नूमगिहाणि वा रुक्खगिहाणि वा पव्वयगिहाणि वा रक्खं वा चेइयकडं थूमं वा चेइयकडं आएसणाणि वा० जाव भवणगिहाणि वा नो बाहाओ पगिज्झिय पगिज्झिय अंगुलिआए उद्विसिय उद्दिसिय ओणमिय ओणमिय उन्नमिय उन्नमिय निज्झाइजा, तओ संजमामेव गामाणुगामं दूइज्जे-या।। स भिषामाद् ग्राभान्तरं गच्छन् यद्यन्तराले एतत्पश्येत्, तद्यथापरिखाः प्राकारान् कूटागारान्- पर्वतोपरि गृहाणि नूमगृहाणि-भूमिगृहाणि, वृक्षप्रधानानि तदुपरि वा गृहाणि वृक्षगृहाणि, पर्वतगृहाणि-- पर्वतगुहाः, 'रुक्खं वा चेइअकडं' ति वृक्षस्याऽधो व्यन्तरादिस्थलकं स्तूषां वा-व्यन्तरादिकृतं-तदेवमादिकं साधुना भृशं बाहुं प्रगृह्याउत्क्षिप्य तथाऽङ्गुलीः प्रसार्य तथा कायमवनम्योन्नम्य वा न दर्शनीयं नाप्यवलोकनीयं, दोषाश्चात्र दग्धमुषितादौ साधुराशङ्कयेताजितेन्द्रियो वासम्भाव्येत, तत्स्थः पक्षिगणा वा सन्त्रासं गच्छेत्, एतद्दोषभयात्संयत एव दूयेत्-गच्छेदिति। मार्गे, कच्छादीनि नाङ्गुल्या प्रदर्शयेत्, तथा से भिक्खू वा मिक्खुणी वा गामाणुगाम दूइजेजमाणे अंतरा से कच्छाणि वा दवियाणि वा नूमाणि वा वलयाणि वा गहणाणि वा गहणविदुग्गाणि वा वणाणि वा वणविदुग्गाणि वा पव्वयाणि वा पव्वयविदुम्गाणि वा आगडाणि वातलागाणि वा दहाणि वानईओ वा वावीओ वा पुक्खरिणीओ वा दीहियाओ वा गुंजालियाओ वा सराणि वा सरंपंतियाणि वा सरसरपंतियाणि दानो बाहाओ पगिज्झिय पगिज्झिय० जाव निज्झाइजा, केवली बूयाआदाणमेयं / जे तत्थ मिगा वा पसू वा पक्खी वा सरीसिवा वा सीहा वा जलचरा वा थलचरा वा खहचरा वा सत्ता ते उत्तसिज्ज वा वित्तसिज वा वाडं वा सरडं वा कंखिज्जा, चारित्ति मे अयं समणे, अह भिक्खू णं पुथ्वोवदिट्ठपत्तिण्ण०४ जं नो बाहाओ पगिज्झिय पगिज्झिय निज्झाइजा, तओ संजयामेव आयरियउवज्झाएहि सद्धिंगामाणुग्गामं दूइञ्जिजा॥ (सू०-१२७) स भिक्षुर्गामान्तरं गच्छेत् , तस्य च गच्छतो यद्येतानि भवेयु, तद्यथा-- कच्छाः-नद्यासन्ननिम्नप्रदेशा मूलकवालुङ्कादिवाटिका वा 'दवियाण' त्ति अटव्यां घासार्थ राजकुलावरुद्धभूमयः निम्नानिग दीनि वलयानिनद्यादिवेष्टितभूमिभागाः गहनं-निर्जलप्रदेशोऽरण्यक्षेत्रं वा गुञ्जालिकाःदीर्घा गम्भीराः कुटिलाः लक्ष्णाः जलाशयाः सरःपङ्क्तयः--प्रतीताः, 'सरःसरःपङ्क्तयः' - परस्परसंलग्नानि बहूनि सरांसीति, एवमादीनि बाह्लादिनान प्रदर्शयेत्नावलोकयेद्वा, यतः केवली ब्रूयात्-कर्मोपादानमतेत्, किमिति ? यतो ये तत्स्थाः पक्षिमृगसरीसृपाऽऽदयस्ते त्रासं गच्छेयुः, तदावासिनां वा साधुविषयाऽऽशङ्का समुत्पद्येत। अथ साधूनां पूर्वोपदिष्टमेतत्प्रतिज्ञादिकं यत्तथा न कुर्यात्। आचार्योपाध्यायादिभिश्च गीताथैः सह विहरेदिति। (26) साम्प्रतमाचार्यादिनासह गच्छतः साधोर्विधिमाह--- से भिक्खू वा भिक्खुणी वा आयरियउवज्झाएहिं सद्धिं गामाणुगामं दूइज्जमाणे नो आयरियउवज्झायस्स हत्थेण वा हत्थां० जाव अणासायमाणे तओ संजयामेव आयरियउवज्झाएहि सद्धिं० जाव दूइजिञ्जा। से भिक्खू वा भिक्खुणी वा आयरियउवज्णाएहिं सद्धिं दूइजमाणे अंतरा से पाडिवहिया उवागच्छिना, तेणं पाडिवहिया एवं वइज्जा आउसंतो! समणा ! के तुन्भे ? कओ वा एह? कर्हि वा गच्छिहिह ? जे तत्थ आयरिए वा उवज्झाए वा से मासिज वा वियागरिजवा, आयरियउवज्झायस्स भासमाणस्सवा वियागरेमाणस्सवानो अंतरा भासं करिजा, तओ संजयामेव अहाराइणिएण सद्धिं० जाव वा दूइलिजा / / से भिक्खू वा मिक्खुणी वा अहाराइणियं गामाणुगामं दूइज्जमाणों राइणियस्स हत्थेण हत्थं० जाव अणासायमाणे तओ संजयामेव अहासइणियंगामाणुगामंदूइंजिला॥सेभिक्खूवाभिक्खुणी
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________________ विहार 1315 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विहार वा अहारइणिअंगामाणुगामं दूइज्जमाणे अंतरा से पाडिवहिया 'से' तस्य भिक्षोर्गच्छतः प्रातिपथिकः कश्चित्संमुखीन एतद् ब्रूयात्, उवागच्छिज्जा, तेणं पाडिवहिया एवं वइजा-आउसंतो! समणा | तद्यथा-आयुष्मन् ! श्रमण ! अपिच-किं भवता पथ्यागच्छता कश्चिन्मके तुब्भे ? जे तत्थ सव्वराइणिए से भासिज्ज वा वागरिश वा, नुष्यादिरुपलब्धः? तं चैवं पृच्छन्तंतूष्णीभावेनोपेक्षेत, यदिवाजानन्नपि राइणियस्स भासमाणस्स वा वियागरेमाणस्स वा नो अंतरा, माहं जानामीत्येवं वेददिति / अपि च स भिक्षुामान्तरं गच्छन् केनचिभासं भासिज्जा, तओ संजयामेव अहाराइणियाए गामाणुगामं त्सम्मुखीनेन प्रातिपथिकेन पृष्टः सन् उदकप्रसूतं कन्दमूलादि नैवाचक्षीत, दूइजिजा / (सू०-१२८) जानन्नपि चैव जानाभीति वा ब्रूयादिति / एवं यवसासनादिसूत्रमपि स भिक्षुराचार्यादिभिः सह गच्छंस्तावन्मात्रायां भूमौ स्थितो गच्छेद्, नेयमिति / तथा कियहूरे ग्रामादिप्रश्नसूत्रपपि नेयमिति / एवं कियान् पन्थाः ? इत्येतदपीति। यथा हस्तादिसंस्पर्शो न भवतीति / तथा–स भिक्षुराचार्यादिभिः सार्द्ध किञ्चगच्छन् प्रातिपथिकेन पृष्टः सन् आचार्यादीनतिक्रम्य नोत्तरं दद्यात्, नाप्याचार्यादौ जल्पत्यन्तरभाषां कुर्यात्, गच्छंश्च संयत एव युगमात्रया से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गामाणुगामं दूइज्जमाणे अंतरा से दृष्ट्या यथारत्नाधिकं गच्छेदिति तात्पर्यार्थः / एवमुत्तरसूत्रद्वयमप्याचार्यो गोणं वियालं पडिन्नेह पेहाए जाव चित्तचिल्लडं वियालंपडिपहे पाध्यायैरिवापरेणाऽपि रत्नाधिकेन साधुना सह गच्छता हस्तादि पेहाए नो तेसिं भीओ उम्मग्गेणं गच्छिज्जा, नो मग्गाओ उम्मग्गं संघट्टोऽन्तरभाषा च वर्जनीयेति द्रष्टव्यमिति। संकमिजा, नो गहणं वा वणं वा दुग्गं व अणुपविसिज्जा, नो रुक्खंसि दुरूहिा, नो महइमहालयंसि उदयंसि कायं विउकिञ्च सिज्जा, नो वाडं वा सरणं वासेणं वा सत्थं वा कंखिज्जा अप्पुसे भिक्खू वा भिक्खुणी वा दूइजमाणे अंतरा से पाडिवहिया स्सुए० जाव समाहीए तओ संजयामेव गामाणुगामं दूइजिञ्जा। उवागच्छिज्जा, ते णं पाडिवहिया एवं वदेजाआउसंतो! समणा! स भिक्षुामान्तरं गच्छन् यद्यन्तराले गां-वृषभं व्यालं दर्षितं प्रातपथे अवियाई इत्तो पडिवहे पासइतंजहा-मणुस्सं वा गोणं वा महिसं पश्येत्, तथा सिद्धं व्याधं यावच्चित्रकं तदपत्यं वा व्यालं क्रुर दृष्ट्वा च वा पसुं वा पक्खिं वा सरीसिवं वा जलयरं वा से आइक्खह तद्भयान्नेवोन्मार्गेण गच्छेत्, न च गहनादिकमनुप्रविशेत् , नापि वृक्षादिदंसेह, तं नो आइक्खिज्जा नो दंसिज्जा, नो तस्स तं परिनं कमारोहेत्, न चोदकं प्रविशेत्, नापि शरणमधिकाक्षेत्, अपि परिजाणिजा, तुसिणीए उवेहिज्जा,जाणं वानोजाणं ति वइज्जा, त्वल्पोत्सुकोऽविमनस्कः संयत एव गच्छेत् / एतच गच्छनिर्गतैर्विधेयं, तओ संजयामेव गामाणुग्गामंदूइजेजा।। से भिक्खू वा भिक्खुणी गच्छान्तर्गतास्तु व्यालादिकं परिहरन्त्यपीति। वा गामाणुगाम दुइजेजा अंतरा से पाडिवहिया उवागच्छिज्जा, किञ्चते णं पाडिवहिया एवं वइजा-आउसंतो ! समणा ! अवियाई से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गामाणुगामं दूइज्जमाणे अंतरा से इतो पडिवहे पासह उदगपसूयाणि कंदाणि वा मूलाणि वा तया विहं सिया, से जं पुण विहं जाणिज्जा इमंसि खल विहंसि बहवे पत्ता पुप्फा फला बीया हरिया उदर्ग वा संनिहियं अगणिं वा आमोसगा उवगरणपडियाएसपिदिया गच्छिज्जा, नो तेसिं भीओ संनिक्खित्तं से आइक्खह० जाव दूइञ्जिना / से भिक्खू व उम्मग्गेण गच्छिज्जा०जावसमाहीएतओ संजयामेव गामाणुगाम भिक्खुणी वा गामाणुगामं दूइजमाणे अंतरा से पाडिवहिया दूइजेजा। (सू०-१३०) उवागच्छिज्जा, ते णं पाडिवहिया एवं आउसंतो ! समणा ! 'से'-तस्य भिक्षोामान्तराले गच्छतः 'विहं' ति अटवीप्रायो दीर्थोऽध्वा अवियाई इत्तो पडिवहे पासइ जवसाणि वा० जाव से णं वा भवेत, तत्र च आमोषकाः-स्तेनाः उपकरणप्रतिज्ञया-उपकरणार्थिनः विरूवरूवं संनिविटं से आइक्खह० जाव दूइजिन्ना / / से मिक्खू समागच्छेयुः, नतद्भयादुन्मार्गगमनादिकुर्या-दिति। वा मिक्खुणी वा गामाणुगामं दूइज्जमाणे अंतरा पाडिवहिया० | से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गामाणुगाम दुइजमाणे अंतरा जाव आउसंतो! समणा ! केवइए इत्तो गामे वा० जाव रायहाणिं से आमोसगा संपिंडिया गच्छिना, ते णं आमोसगा एवं वा से आइक्खह० जाव दूइजिज्जा // से भिक्खू वा भिक्खुणी वा वइज्जा आउसंतो ! समणा!आहर एयं वत्थं वा पत्तं वा कंबलं गामाणुगाम दूइज्जेज्जा, अंतरा से पाडिवहिया आउसंतो ! वा पायपुंछणं वा देहि णिक्खिवाहि, तं नो दिजा निक्णिसमणा ! कवइए इत्तो गामस्स नगरस्स वा० जाव रायहाणीए वा | विजा, नो वंदिय वंदिय जाइजा, नो अंजलिं कटु जाइजा, मग्गे से आइक्खह, तहेव० जाव दूइजिजा।। (सू०-१२९) | नो कलुणपडियाए जोइला, धम्मियाए वायणाए जाइज्जा, /
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________________ विहार १३१६-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विहार तसिणीयभावेण वा तेणं आमोसगा सयं करणिति कटु अकोसंति वा० जाव उहविंति वा वत्थं वा पत्तं वा कंबलं वा पायपुंछणं वा अञ्छिदिल वा० जाव परिविज वा, तं नो गामससांरियं कुज्जा, नो परं उदसंकमित्तु नो रायसंसारियं कुशा बूया-आउसंतो! गाहावई एएखलु आमोसगा उवगरणपडियाए / सयं कररिजं ति कट्टु अकोसंति वा० जाव परिट्ठवंति वा, एयप्पगारंमणं वा वायं वानो पुरओ कटु विहरिजा, अप्पूसए० जाव समाहिए तओ संजयामेवगामाणुगाणं दूइग्रेना। एयं खलु तस्स भिक्खुस्स वा मिखुणीएवा सामग्गियं जं संघटेहिं सहिते सया जइजासित्ति वेमि। (सू०-१३१) स भिक्षुर्गामान्तरे गच्छन्यदिस्तेनैरुपकरणंयाच्येततत्तेषां न समर्पयेत्, बलाद् गृह्णतां भूमौ निक्षिपेत् नच चौरगृहीतमुपकरणं वन्दित्वा दीना वा वदित्वा पुनर्याचेत, अपि तु धर्मकथनपूर्वकं गच्छान्तर्गतो याचेत्, तूष्णीं भावेन वोपेक्षेत, ते पुनः स्तेनाः स्वकरणीयमिति कृत्वैतत्कुर्युः, तद्यथा-आक्रोशन्ति वाचा, ताडयन्ति दण्डेन यावज्जीवितात्याजयन्ति, वस्त्रादिकं वाऽऽच्छिन्द्युवित्तत्रैवप्रतिष्ठापयेयुः-त्वजेयुः, तच तेषामेवं चेष्टितं न ग्रामे संसारणीयं-कथनीयं, नापि राजकुलादौ, नापि परं गृहस्थमुपसंक्रम्य चौरचेष्टितं कथयेत् नाप्येवंप्रकारं मनो वाचं वा सङ्कल्प्यान्यत्र गच्छेदिति, एतत्तस्य भिक्षोः सामग्यमिति। आचा०२ श्रु० 103 अ०३ उ०। (27) पूर्वोत्तरदिग्मानं विहारक्षेत्रस्याहकप्पड निरगंथाण वा निग्गंथीण वा पुरत्थिमेणं० जाद अंगमगहाओ एत्तए, दक्खिणेणं० जाव कोसंबीओ एत्तए पञ्चच्छिमेणं० जावथूणाविसयाओ एतए, उत्तरेणं० जाव कुणालाविसयाओ एतए, एतावता तत्थ कप्पइएतावताच आरिए खेत्ते, णो से कप्पइएत्तोबाहिं तेण परंजत्थ नाणदंसणचरित्ताउस्सप्पंति तिबेमि // 51 // अथास्य सूत्रस्य कः सम्बन्धः इत्याहइति काले पडिसेहो, परूवितो अह इदाणि खेत्तम्मि। चउदिसि समणुण्णायं मोत्तूणं परेण पडिसेहो // 1060 / / इति-अमुना प्रकारेण रात्रिलक्षणो यः कालस्तद्विषयः प्रतिषेधः प्ररूपितः / अथानन्तरमिदानी क्षेत्रविषयः प्ररूप्यते, कथमित्याह-- चतसृषु दिक्षु यावत् क्षेत्रमत्र सूत्रे समनुज्ञातं तावन्मुक्त्वा परेण बहिः क्षेत्रेषु विहारस्य प्रतिषेधो मन्तव्यः। किहेहा विय पडिसेहो, दव्वादी दवें आदिसुत्तं तु। घडिमत्तचिलिमिलीए, वत्थादीचेव चत्तारि॥१०६१|| वगडा रत्था दगती-रयं च विहचरमगं च खित्तम्मि। सोरियपाहुडभावे, सेसा काले य भावे य / / 1052 / / अधस्तनसूत्रेष्वपि द्रव्यक्षेत्रकालभावविषयप्रतिषेधो मन्तव्यः, तत्र द्रव्यप्रतिषेधपरमादिसूत्रं, प्रलम्बप्रकृतमित्यर्थः / तथा घटीमात्रसूत्रं चिलिमिलिकासूत्रं च वस्त्रादिप्रतिषेधकानिच चत्वारि सूत्राणि एवं तावत् "निगंथं च णं गाहावइकुलं अणुप्पविर्ट केइ हत्थेण वा पाएण वा" इत्यादिलक्षणं द्वितीयमिदमेव, "बहिया विहारभूमि वा वियारभूमिवा" इति विशेषितं तृतीयचतुर्थे त्वेयमेव, निर्ग्रन्थीविषये एतान्यपि द्रव्यप्रतिषेधपराणि। तथा वगडासूत्रं रथ्यासुखापणगृहादिसूत्रंदकतीरसूत्रम्, एतदेव प्रस्तुतं, चरमसूत्रम् / एतानि क्षेत्रप्रतिषेधपराणि।तथा योऽन्यतो विभागान् स्वसागारिकसूत्राणि यत्र प्रभूतभधिकरणं तद्विषयसूत्राणि भावप्रतिषेधपराणि,शेषाणि तु मासकल्पप्रकृतप्रभृतीनि सर्वाध्यपि सूत्राणि काले च भावे च उभयोरपि प्रतिषेधकानि भवन्ति। अहव ण सुत्ते सुत्ते, दव्वादीणं चउण्हतोतारो। सोउ अधीणो वत्तरि, सोत्तरिय अतो अणियमो तु / / 1063 / / अथवा-न पृथग् द्रव्यादिविषयाणि सूत्राणि किं तु सूत्रे चतुर्णा द्रव्यक्षेत्रकालभावानामवतारः प्रदर्शयितव्यः, स चाऽवतारो वक्तरि वाधीन-आयत्तः। यदि वक्ता तथाविधप्रतिपादनशक्तिसमन्वितः, श्रोता च ग्रहणधारणालब्धिसम्पन्नः तदा भवति सूत्रे चतुर्णा द्रव्यादीनामवतारः अन्यथा तु नेति भावः / अतो नायं नियमो यदवश्यं प्रतिसूत्रं द्रव्यादिचतुष्टयमवतारणीयमित्यनेन सम्बन्धेनायातस्याऽस्य (सू० 51) व्याख्या-कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा पूर्वस्यां दिशि यावदङ्गमगधानएतुं-विहर्तुम्, अङ्गोनाम-चम्पाप्रतिबद्धो देशः दक्षिणस्यां दिशि यावत् कौशाम्बी, एवं प्रतीच्यां दिशि स्थूणाविषयं यावदेतुम्, उत्तरस्यां दिशि कुणालाविषयं यावदेतुम्, सूत्रे पूर्वदक्षिणादिपदे यस्तृतीयानिर्देशो लिङ्गव्यत्ययश्च प्राकृतत्वात् एतावत्तावत्क्षेत्रमवधीकृत्य विहतुकल्पते। कुत इत्याह-एतावत्ता-वदस्मादार्यक्षेत्रं नो 'से' तस्य निर्ग्रन्थस्य वा निन्थ्या वा कल्पते, अत एवंविधात् आर्यक्षेत्रात् बहिर्विहर्तु ततः परं बहिर्देशेषु यत्र ज्ञानदर्शनचारित्राणि उत्सर्पन्ति-स्फीतिमासादयन्ति तत्रविहर्त्तव्यम्। इतिः परिसमाप्तौ ब्रवीमीति तीर्थकरगणधरो-पदेशेन न तु स्वमनीषिकयेति सूत्राऽर्थः। बृ० 1 उ०३ प्रक०। (28) केदं सूत्रमुक्तम्। अथेदं सूत्रं भगवता यत्र क्षेत्रेयं च कालं प्रतीत्य प्रज्ञाप्तं तदेवाहसाएयम्मि पुरवरे, सभूमिभागम्मि बद्धमाणेण। सुत्तमिणं पण्णत्तं, पडुचतं चेव कालं तु / / 1110 / / साकेते पुरवरे उद्याने समवसृतेन भगवता वर्द्धमानस्वामिना सूत्रमिदं तमेव वर्तमानं कालं प्रतीत्य निन्थनिर्ग्रन्थीनां पुरतः प्रज्ञप्तम्। ___ कथमित्याहमगहा कोसंबीय,थूणाविसओ कुणालविसओय। एसा विहारभूमी, एतावंताऽऽरियं खेत्तं // 1111 / /
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________________ विहार 1317 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विहार अस्मात्-साकेतात् पूर्वस्यां दिशि कौशाम्बीविषयम्, अपरस्यां दिशि स्थूणाविषयम्, उत्तरस्यां दिशि कुणालाविषयं, यावद् ये देशाः एतावदार्यक्षेत्रं मन्तव्यम् / अत एव साधूनामेषा विहारी भूमिः / इतः परं निर्गन्थनिर्ग्रन्थीनां विहर्तुं न कल्पते। बृ०१ उ०३ प्रक०।। (26) अथाऽऽर्यक्षेत्रविहारकारणमाह-- जम्मणनिक्खमणेसु य, तित्थकराणं करेंति महिमाओ। भवणवइवाणमंतर-जोइसवेमाणिया देवा।।१११५॥ इहाऽऽर्थक्षत्रे भगवतां तीर्थकृतां जन्मनिष्क्रमणयोश्चशब्दात् ज्ञानोत्पत्तौ च भवनपतिवाणमन्तरज्योतिष्कवैमानिका देवा महिमाः- सातिशयपूजाः कुर्वन्ति, ताश्च दृष्ट्वा बहवो बुद्धा विबुध्यन्ते-प्रव्रज्यां प्रतिपद्यन्ते, अचिर प्रव्रजिताः अपि स्थिरतरा भवन्ति। उप्पण्णे णाणवरे, तम्मि अणते पहीणकम्माणो। तो उवदिसंति धम्म, जगजीवहिया य तित्थकरा।।१११६|| तस्मिन् देशे-अनन्ते-अपर्यवसिते ज्ञानवरे-मतिश्रुता-दिशेषज्ञानप्रधाने केवलाऽख्ये उत्पन्ने-तदाचारककर्मक्षयादाविर्भूते सति प्रहीणकर्माणः-प्रक्षोणघातिकाशास्तीर्थ-करास्ततो-ज्ञानोत्पत्त्यनन्तरं धर्म-श्रुतचारित्ररूपं जगज्जीव-हितायोपदिशन्ति। लोगच्छेरयभूतं, ओवयणं निवयणं च देवाणं। संसय वागरणाणिय य, पुच्छंति तहिं जिणवरिंदो॥१११७।। लोकस्य-मनुष्यलोकस्याऽऽश्चर्यभूतं विस्मयकारि देवाना मुत्पतनं निपतनं च दृष्ट्वा बहवो जीवाः प्रतिबुद्ध्यन्ते तथा देवमनुष्यतिर्यग्पाः असङ्ख्ययाः संज्ञिनः स्वस्वसंशयानां व्याकरणानि निर्वचनानि जिनवरेन्द्रान् तत्रार्यजनपदे पृच्छन्ति, भगवन्तोऽपि च सातिशयत्वात्तषामसंख्येयानामपि युगपदेव संशयानुन्मूलयन्ति। अपिचसमणगुणविदुत्थ जणो, सुलभो उवधी सततमविरुद्धो। आरियविसयम्मि गुणा, णाणचरणगच्छवुड्डी य॥१११८|| श्रमणगुणा-मूलोत्तरगुणरूपाः तत्र पञ्च महाव्रतानि मूलगुणाः उद्गमोत्पादनैषणादोषाः विशुद्धिरष्टादशशीलाङ्गसहस्राणि चोत्तरगुणान्ताः, वेत्ति-जानातीति श्रमणगुणवित् ईदृशोऽत्रार्यजनपदे जनोलोकः अत्र चोपधिरोधिक उपग्रहिकश्च स्वतन्त्रेणस्वसिद्धान्तोक्तेन प्रकारेण विसुद्धोऽदूषितः सुलभः-सुखेनैव लभ्यते, एते आर्यविषये विहरतां गुणा भवन्ति / लथा ज्ञानस्य चरणस्योपलक्षणत्वाद्दर्शनस्य चात्र वृद्धिर्भवति व्याघाताभावो ज्ञानदर्शनचारित्राणि स्फीतिमुपगच्छन्तीति भावः / गच्छस्य चात्र वृद्धिर्भवति बहूनां भव्यजन्तूनां प्रव्रज्याप्रतिपत्तिः। एत्थ किर सण्णि सावग, जाणंति अभिग्गहे सुविहियाणं। एतेहि कारणेहिं, विहिगमणे होतऽणुग्घाया / / 1116 // अत्र किलार्यक्षेत्रे संज्ञा--गुरुदेवधर्मपरिज्ञानंसा विद्यते येषां ते संज्ञिन:--- अविरतसम्यग्दृष्टयः श्रावकाः प्रतिपन्नाऽणुव्रताः एते सुविहितानासाधूनामभिग्रहान् जानन्ति / अभिग्रहा यथा इत्थमाहारादिकममीषां कल्पते इत्थं च न कल्पते। अथवा अभिग्रहा द्रव्यक्षेत्रकालभावविशेषाः प्रागुक्तस्वरूपास्तान ज्ञात्वा ते संज्ञिश्रावकास्तथैव प्रतिपूरयन्ति। एतैः कारणैरार्यजनपदे विहारः कर्त्तव्य इति वाक्यशेषः। यद्यार्यक्षेत्रावहिः ततश्चत्वारः अनुदाता मासाः प्रायश्चित्तम्। आणादिणो य दोसा, विराहणा खंदएण दिटुंतो। एतेण कारणेणं, पडुन कालं तु पण्णवणा ||1120|| आज्ञादयश्च दोषा विराधना चात्मसंयमविषया। तत्र च स्कन्दकाचार्येण दृष्टान्तः कर्तव्यः / अत एतेन कारणेन बहिर्न गन्तव्यम्, एतद्भगवद्वर्द्धमानस्वामिकालं प्रतीत्योक्तम्। इदानीं तुसम्प्रति नृपतिकालं प्रतीत्य प्रज्ञापना क्रियते, यत्र यत्र ज्ञानदर्शनचारित्राण्युत्सर्पन्ति तत्र तत्र विहर्तव्यम्। अथ स्कन्दकाचार्यदृष्टान्तमाहदोचेण आगतो खं-दएण वादे पराजितो कुवितो। खंदय दिक्खा पुच्छा, णिवारणाऽऽराहपव्वला // 1121 / / उजाणाऽऽयुधणूमण, णिवकहणं कोव जंतयं पुवं / थंभविरिकों णिदाणं, कंबलदाणे रयोहरणं / / 1122 / / अग्गिकुमारुवातो, चिंता देवीऍचिण्हरयहरणं। खेयण सपरिसदिक्खा, जिणसाहर वातडाहोय॥१२२३।। कथा- "सावत्थी नयरो जियसत्तू राया धारणी देवी तेसिं तु पुत्तो खंदतो कुमारो युवराया, भगिणी से पुरन्दरजसा ! सोय खंदतो सावतो अभिगतो, इओ य उत्तरावहे पच्चयंता कुंभकारकड नगरं, दंडती राया तस्स दोहितो पालतो। सा पुरन्दरजसा दंडतिस्स रन्ना दिन्ना अन्नया पालयदूतो आगतो खंदयकुमारेण रायपरिसाए वाए पराजिओ पदुहो। से वि य सविसयं गतो / खंदतो पंचहिं सएहिं सद्धिं पव्वइओ मुणिसुव्वयसामिणो अंतिए, तस्सेव ते सीसा जाया / अन्नया तित्थयरं आपुच्छतिपंचहि सएहिं सद्धिं कुंभकारकडं वच्चामि, भगवया वारितो सोवसगंति, पुणो पच्छति-आराहया, तुम मोत्तुंसेसा आराहया, एवं सो गतो कुंभकारकडं, तस्स उजाणे ठितो पालगेण य दिट्ठो। ताहे तेणं पुव्यवरेणं दंडती वुग्गाहितो। एस परीसहपराजितो पंवहिं सएहिं सद्धिं तव रज्जं पेच्छेहिति, सो य पत्तियइ / ताहेऽणेण आउहाणि अग्गुजाणे ठवियाणि / दंसेऊण वुग्गाहितो।तओभणति-तुमंचेव सेजंजाणसितं करेहि, तेण पुरि सज्जकंठं कयं, सव्वे आरद्धा पिल्लिङ। खंदएण भणियं मम पढममारेहि। ताहे सोभणति-तुम पिच्छाहितावसीसेवहिजले, एवं तेसव्ये वहिया, सिद्धेय। पच्छा खंदयस्स बद्धस्सरुहिरविरिकाहिय सिच्चमाणस सीसेसु य खंडिजंतेसु असुहो परिणामो जातो, तेण नियाणयं कयं / अग्गिकुमारसु उवउत्तो, भगिणीए से कंबलरयणं दिन्नं / ततोहितो रयहरणं कयं, तरुहिरावलितं, साणेहियमंसं ति काउंगहिय। देवीए अग्गतोपाडियं /
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________________ विहार 1318 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विहार कतो एयं रयहरणं, किंमम भाया मारिओ? त्ति। तीए राया भणितो अहो विणट्ठोऽसि। ताहे सो अगिंकुमारेसुपज्जत्तो जातो। ताहे नगरस्स सव्वतो जोयणपरिमंडले जं किंचितणं वा कटुं वा तंसाहरिउंदईसजणवयं नयरं / सोजणवओ'अणेण सपुत्तदारओ सह सुयणेणं कुम्भीए पक्को, पुरंदरजसा य मुणिसुव्वयतित्थयरपायमूले साहारिया सपरिसा' / अथ गाथाक्षरयोजनाश्रावस्त्यां पालको दौत्येनागतः, सच वादे स्कन्दकेन पराजितः। ततोऽसौ तस्योपरि कुपितः। इतश्च स्कन्दकस्य सुव्रतस्वामिपावें दीक्षा अधीतसूत्रार्थस्य तस्यान्यदा भगवतांसमीपे पृच्छा, व्रजाम्यहं कुम्भाकारकृतं नगरम्, भगवता तु सोपसर्गमिति भणित्या निवारणा कृता। तथा त्वदर्जाः सर्वेऽप्याराधका इति च भणन्ति / ततस्तं कुम्भकारकृतपुरमागच्छन्तं श्रुत्वा पालकेन यत्रोद्यानेऽसौ स्थितः तत्राऽऽयुधानां ''मण' त्ति प्रच्छन्नं स्थापना कृता। ततो नृपस्य कथना यथैष परीषहपराजितस्त्वां मारयित्वा त्वदीयं राज्यमधिष्ठास्यतीत्यादि, ततो राज्ञः कोपोऽभवत्, भणितं च / यत्ते रोचते तदमीषां कुरुष्वेति / ततस्तेन पुरुषयन्त्रं कृत्वा पीडयितुमारब्धाः साधवः, स्कन्दकेनोक्तं पूर्व मां यन्त्रमध्ये प्रक्षिप / ततस्तेन पापाऽऽत्मना स्कन्दकस्य स्तम्भे गाढतरं बन्धनं कृतं, ततो निपीड्यमानसाधुसम्बन्धिनीभिः शोणितविरक्ताभिः सिक्तेन स्कन्दकेन निदानं कृतम् / भगिन्या च तस्य कम्बलरत्नदानं कृतमासीत्, तेन च रजोहरणं कृतम्। स्कन्दकस्य च विपद्याग्निकुमारेधूपपातः, ततो रजोहरणं शोणितलिप्तं चिह्नमवलोक्य देव्याश्चिन्ता नूनमपद्राविताः साधवः पापात्मनेति / ततः प्रभूतं राज्ञः पुरतः खेदनं ततः सपरिषदः सपरिवारायास्तस्या दीक्षादापनार्थ जिनसमीपे संहरणं-- नयनं संवर्तकवातं दीक्षादापनार्थं विकुळ सकलस्याऽपि पुरस्य दाहोदहनम्।यत एवमादयो दोषाः अतोनाऽनार्थक्षेत्रे विहर्त्तव्यम्। बृ०१ उ० 3 प्रक०। (यत्र ज्ञानदर्शनचारित्राण्युत्सर्पन्ति तत्र विहर्त्तव्यमिति यदुक्तं तद्विषयकाभिधानं 'संपइ' शब्दे वक्ष्यते।) (30) निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा रात्रौ विकाले वा विहारनिषेधः-- नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा राओ वा वियाले वा अद्धाणगमणं पत्तए॥४७|| अथास्य सूत्रस्य कः सम्बन्ध इत्याहहरियाहडिअट्ठाए, होज विहे माइयं न वारेमो। जं पुण रत्तिं गमणं, तदट्ठ अन्नऽट्ठ वा सुत्तं ||VEVII विहे--अवनि गच्छतां हताहतिकार्थमेवमादिकं पल्लीगमनप्रभृ तिकं भवेत्, नवयं तद्वारयामः, यत्पुना रात्रावध्वनिगमनंतदर्थ-हताहतिकानिमित्तम्, अन्यार्थमन्येषां ज्ञानादिकारणानामर्थाय तत्र सूत्रमवतरति, तन्न कल्पते इति भावः। अहवा तत्थ अवाया, वचंते होज रत्तिचारिस्स। जइ वा विहं वि रत्ति, वारितिऽविहं किमंग ! पुणो|६६ अथवा तत्राऽध्वनि व्रजतां यो रोत्रिचारी-रात्रौ गमनशीलस्तस्य संयमात्मप्रवचनविषया बहवः प्रत्यपाया भवेयुरिति रात्रौ गमनंचवार्यते / यदि च-विहमप्यध्वानमपि रात्रौ गन्तुं वारयति ततः कि-मङ्ग ! पुनरविहमनध्वानम्, जनपदे सुतरां रात्रौ गन्तुं न भवतीति भावः / अनने सम्बन्धेनायातस्यास्य (सू०४७) व्याख्या नो कल्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा रात्रौ विकाले वा अध्वगमनम् एतुमिति सूत्रार्थः / अथ भाष्यविस्तरःइहरत वि तान कप्पइ, अद्धाणे किं तु रायविसयम्मि। अत्थाऽऽवत्ती संसइ, कप्पइ कज्जे दिया नूणं / / 866|| इतरथाऽपि तावन्न कल्पते अध्वानं गन्तुं, किंतु-किं पुनः रात्रिविषये तत्रसुतरां न कल्पते। यतश्व सूत्रं रात्रिविषयं प्रतिषेधं विधत्ते, अतोऽर्थापत्तिः सामर्थ्यगम्या, सा वैशंसति कथयति, नूनं ज्ञायते दिवा कार्ये ज्ञानादौ समुत्पन्ने अध्वानमपिगन्तुं कल्पते। अध्वानमेव भेदतः प्ररूपयन्नाहअद्धाणं पिय दुविहं, पंथो मग्गो य होइ नायव्यो। पंथम्मि नत्थि किंचि वि, मग्गो सग्गामें गुरुआणा ||867|| अध्वा द्विविधस्तद्यथा-पन्थाः, मार्गश्च! पन्थाः नाम-यत्र ग्रामनगरपल्लीव्रजिकानां किञ्चिदेकतरमपि नाऽस्ति, यत्र पुनामानुग्रामपरंपरया, वासो भवति स ग्रामो मार्ग इति उच्यते / द्वयोरपि रात्रौ गच्छतश्चत्वारो गुरुकाः, दिवा तुपथि चतुर्गुरवः, मार्गे चतुर्लघवः, आज्ञादयश्च दोषाः। तं पुण गामिना दिवा, रतिं वा पंथगमणमग्गो वा। रतिं आएसदुर्ग, दोसु वि गुरुगाय आणादी||८६७|| सपुनरध्या दिवा गम्यते, रात्रौ वा / तचोभयमपि गमनं पथि वामार्गेवा स्यात्। तत्र रात्रिशब्दे आदेशद्वयम्। केचिदाचार्या ब्रुवते ससन्ध्या यतो राजते--शोभने तेन निरुक्तिरीत्या रात्रिरुच्यते, यस्तु संध्याया अपगमः स विकालः 1 अन्ये तुब्रुवते यतः सन्ध्याया अपगमे चोरपारदारिकादयो रमन्ते ततोऽसौ रात्रिरिति परिभाष्यते, सन्ध्यायां तु यत एते विरमन्ति ततः स विकालः; पन्थानं वा यदिरात्रौ विकाले वा गच्छति तदा द्वयोरपि चत्वारो गुरवः, आज्ञादयश्च दोषाः। इयमन्याचार्यपरिपाट्या गाथा ततो न पौनरुक्त्यम्। तत्र मार्गे तावदोषानुपदिशयिषुराहमिच्छत्ते उड्डाहो, विराहणा होइ संजमाताए। रीयाइसंजमम्मि, छकाय अचक्खुविसयम्मि||१|| रात्रौ मार्गे गच्छतः साधून दृष्ट्वा कश्चिदभिनवधा मिथ्यात्वं गच्छेत्, उड्डाहो वा भवेत्, विराधना संयमाऽऽत्मविषया भवेत्। तत्र संयमविराधनागीतार्थाः समितिप्रभृतिकाः ईर्यासमितीन शोधयन्ति, रात्रौ वा चक्षुरविषये षट्काया विराध्यते एष द्वारगाथासंक्षेपार्थः। साम्प्रतमेनामेव सविस्तारं विवृणोतिकिं मण्णे निसि गमणं, जतीण सोहिंति वा कथं इरियं / जइवेसेण व तेणा, वडंति गमणाइउड्डाहो // 100| अमीषा--परलोककार्योधतानां यतीनां किमर्थ निशि-रात्रौ गमनम् / किं मध्ये दुष्टचित्ता अमी, कथं वा रात्रावटन्तोऽमी
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________________ विहार 1316 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विहार ईर्या शोधयन्ति / यथा चैतदसत्यं तथा सर्वमप्यमीषामसत्य मिथ्यात्वं निम्नोन्नते प्रपतेत्, स्थाणुना वा कण्टकैर्वा विध्येत। आत्मसमुत्थं स्तेनास्थिरीकृतमुत्पादितं वा भवति, तथा यतिवेषेण नूनममी स्तेनाः पर्यट- दिना वा अहेतुविराधनस्वचित्तविकल्पेनोत्प्रेक्षितमकस्माद्यं रात्रौ मार्गे न्तीतिकृत्वा ग्रहणाऽऽकर्षणादिपदेषु विधीयमानेषु महान् प्रवचनस्योड्डाहो गच्छतो भवेत्। भवेत्। अथात्रैव द्वितीयपदमाहसंजमविराहणाए, महव्वया तत्थ पढमछक्काया। कप्पइ गिलाणगट्ठा, रत्तिं मग्गे तहेव संझाए। बिइए अतेण तेणं, तइएऽदिन्नं तु कंदाई ||10|| पंथो य पुष्वदिट्ठो,आरक्खिउ पुष्वभणिओय ||606|| संयमविराधना द्विविधा-मूलगुणविषया, उत्तरगुणविषया वा। मूलगुण- ग्लानो-रोगातः स एकस्माद्गाभाद्गामान्तरं नेतव्यो, यद्वाग्लानः विषयायां व्रतानि विराध्यन्ते, तत्र प्रथमे महाव्रते रात्रावचक्षुर्विषयतया कश्चिदपरत्र ग्रामादौ सञ्जातः, तदर्थं तत्र गन्तव्यम् / एवं ग्लानाथ रात्रौ षट्कायाः पृथिव्यादयो विनाशमश्नुवते द्वितीये रजन्यामयं स्तेन इति वा सन्ध्यायां वा मार्गेगन्तुं कल्पते, येनच यथागन्तव्यं सच पूर्वमेव दृष्टः भाषेत्, तृतीये कन्दमूलादिकमदत्तं-स्वामिना अवतीर्णं गृह्णीयात्। प्रत्युपेक्षितो यथा भवति तथा कर्त्तव्यम्, आरक्षिकश्च पूर्वमेव भणितव्यो अथवा यथा वयं ग्लानकारणेन रात्रौ गमिष्यामः भवद्भिर्न किमपिछलंग्रहीतव्यम्, दिय दित्ते विसचित्ते, जइतेन्नं किमुय सव्वरीविसए। एवमुक्ते तेनानुज्ञाते सति गच्छन्ति। गतं मार्गद्वारम्। जेसिंच ते सरीरा, अविदिना तेहिं जीवेहिं / / 10 / / अथ पथिद्वारमाहयद्वा-कन्दादिकं स्वामिना दत्तं गृह्णाति तथाऽपि सचित्तमिति कृत्वा दुविहो य होइपंथो, छिन्नद्धाणतरं अछिन्नं च / जिनैस्तीर्थकरैर्नानुज्ञातमिति दिवाऽपि स्तैन्यं भवति, किं पुनः शर्वरी छिन्नम्मि नत्थि किंचि, अछिन्नपल्लीहि वइगाहिं / / 607|| रात्रिस्तद्विषये, तदा गायरीं गृह्णतः 'जेसिं' येषां जीवानां तानि कन्दादीनि द्विविधश्च भवति पन्थाः, तद्यथा-छिन्नाध्यान्तरम्, अच्छिन्नाध्वान्तरं शरीराणि ते वैरवितीर्णानि गृह्णतः तृतीयव्रतभङ्गो भवति। च। छिन्नंग्रामादिरहितमध्वलक्षणं, यदन्तरमपान्तरालं,तद्विपरीतमच्छिपंचेंमे अणेसणादी, छटे कप्पो व पढमबिइया वा। नाध्वान्तरम्। तत्र छिन्ने पथिग्रामनगरपल्लीव्रजिकानां किश्चिदेकतरमपि नाऽस्ति सर्वथैव शून्यत्वात्, यः पुनरच्छिन्नः पन्थाः स पल्लीभिजिभग्गवओ त्तिय जातो, अपरिणतो मेहुणं पि वए।।९०३|| काभिर्वा युक्तो भवति। पञ्चमे महाव्रते अनेषणीयमादिशब्दात्-आकीर्णविकीर्ण हिरण्यादिकं छिन्नेण अछिन्त्रेण य, रत्तिं गुरुगा य दिवसतो लहुगा। च गृह्णतः परिग्रहो भवति, षष्ठे रात्रिभक्तव्रते अध्वकल्पं भुञ्जीत पढमबीए उड (ख)हरे पवजण, सुद्धपदे सेवतीजं च / / 608|| व' ति प्रथमपरीषहाऽऽतुरो वा रजन्यां भुञ्जीत वा पिवेद्वा / एवं षष्ठव्रत अनन्तरोक्तेन छिन्नेन वा अच्छिन्नेन वा पथा व्रजतो रात्रौ चतुर्गुरुकाः, विराधना / ततश्चभग्नव्रतोऽहमिति बुद्ध्वा / मैथुनमपि व्रजेत्- सेवेत। दिवा गच्छतश्चतुर्लधुकाः, अत एव यत्रो बादराः पूर्यन्ते त्र यद्यध्यानं यदा-योऽद्याप्यपरिणतः स सार्थे व्रजति सति कायिक्यादिनिमित्तम प्रतिपद्यन्तेतदा शुद्धपदेऽप्येतत् प्रायश्चित्तम्, यचाकल्पनीयादिकं किमपि पसृतः सन् कांचिदविरतिकामप्यपसृतां विलोक्याल्पसागारिके प्रति सेवतेतन्निष्पन्नं पृथक् प्रायश्चित्तमापद्यते। सेवेत। भाविता मूलगुणविराधना। इदमेव स्पष्टतरमाहउत्तरगुणविषयां वदति उद्धहरे सुभिक्खे, खेमे निरुवहवे सुहविहारे। इरियादिसोहि रत्ति, भासाए उच्चसहवाहरणं। जइ पडिवज्जइ पंथं, दप्पेख परं न अनेणं // 606|| नय आदाणुस्सग्गे, सोहए काइ ठाणाई 180|| ऊवदरे अनन्तरोक्ते सुभिक्षे-सुलभभक्षे क्षेमे स्तेनपरचक्रादिरात्रावीर्यादीनांसमितीनामशोधिर्भवति, तत्राचक्षुर्विषयत्वेनेर्यासमिति भयरहिते, निरुपद्रवे-अशिवायुपद्रववर्जिते सुखविहारेसुखेनैव मासपथो विप्रनष्टानां साधूनामुचशब्देन व्याहरणं कुर्वन् भाषासमिति मुपल कल्पविधिना विहर्तुं शक्ये एवंविधे जनपदे सति यदि पन्थानं वा क्षणत्वादुदकाद्रादिमपश्यन्नेषणासमिति तथा अप्रत्युपेक्षिते'ठाणाइ'त्ति-- प्रतिपद्यते / कथमित्याह-परं केवलं दर्पण देशदर्शनादिनिमित्तं न स्थाननिषदनादीनि कुर्वन्नादाननिक्षेपसमितिमस्थण्डिले 'काइ' त्ति ज्ञानादिना पुष्टालम्बनेन। कायिकी व्युत्सृजन उत्सर्गसमितिं च न शोधयति / एषा सर्वा संयम ततः किं भवतीत्याहविराधना। आणा न कप्पइत्तिय, अणवत्थपसंगताएँ गणणासो। अथाऽऽत्मविराधनामुपदर्शयति वसणादिसमावण्णे, मिच्छत्ताऽऽराहणा मणिया।।९१०॥ वाले तेणे तह सा-वए य विसमे य खाणुकंटे य। आज्ञा-न कल्पते अध्वानं गन्तुमितिलक्षणा भगवतां विराधिता आकम्ह भय समुत्थे, रत्तिं मग्गे भवे दोसा / / 605|| भवतीति, अनवस्था यद्येष बहुश्रुतोऽप्येवमध्वानं प्रतिपद्यतेततः किमहं रात्री मार्गे गच्छतः एते दोषाः, व्यालेन-सादिना दश्यते, स्तेनैरुप- | न प्रतिपद्ये एवमनवस्थातः प्रसङ्गेनपरम्परया सर्वस्याऽपि गणस्य करणं संयतो वा हियते, सिंहादिभिर्वा श्वापदैरुपयेत्, विषमे वा | - नाशश्चारित्रव्यवच्छेदः प्राप्नोति।तथा अध्वानं प्रतिपन्नः सन् सदाव्यसनं
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________________ विहार 1320- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विहार द्रव्याद्यापदम् आदिशब्दादपरं वा कमपि प्रत्यपायं समापन्नः- प्राप्तो अपरीणामगमरणं, अइपरिणामा य होइ नि(च्छ)त्थक्का / भवति, तथा मिथ्यात्वस्याऽऽराधना-अनुषञ्जना भणिता, तथाहि- निग्गयगहणे चोइय, भणंति तइया कहं कप्पे ||15|| साधून अध्वनि व्यसनादिसमापन्नान् दृष्ट्वालोको ब्रूवात्-अहो अमीषां | तत्राध्वनि गच्छतामेषणीयाऽलाभे पञ्चकम, यदियतम-याऽनेषणीयतीर्थकरेणैतदपि न दृष्टं यदेवंविधो बहुप्रत्यपायः पन्था न प्रतिपत्तव्यः / मपि गृह्यते तचापरिणामको न गृह्णात्रि अगृह्णानस्य तस्य मरणं भवेत्।ये अथ विराधना भाव्यते। सा च द्विधा-आत्मनि, संयमे च। पुनरपरिणामकास्ते अकल्पनीयग्रहणं दृष्ट्वा 'नि(त्थ)च्छक्का' निर्लज्जा तत्राऽऽत्मदिराधनामाह भवन्ति, ततश्चाध्वनो निर्गताः सन्तोऽकल्पग्रहणं कुर्वाणा गीतार्थाः वायखलुवायकंडग-आवडणं विसमखाणुकंटेसुं। प्रतिनोदिता आर्या ! मा गृह्णीध्वमकल्पम्। ततस्ते-ब्रुवते तदा अध्वनि वाले सावयतेणे, एमाइ हवंति आयाए||११|| वर्तमानानां कथभकल्पत-कल्पनीयमासीत्। अध्वानं गच्छतः खलुका-जानुका,जानुकादिसन्धयो वातेन गृह्यन्ते तेणभयोदककछे, रत्तिं सिग्घगतिं दूरगमणे वा। 'वायकंडय' त्ति जङ्घायां वातने कण्टका उत्तिष्ठन्ते, विषमे वा स्थाणौ वा वहणावहणे दोसा, बालादी सल्लविद्धे य / / 616|| आपतनं-प्रस्खलनं भवति, कण्टका वा पादयोलगेयुः व्याला वा श्वापदा स्तेनभये दण्डकचिलिमिलिकां विना उदककार्ये चर्मकरकं गुलिका वा उपद्रवेयुः। एवमादिका आत्मविराधना मन्तव्या। खोलिकां विना यत् प्राप्नुवन्ति रात्रौ सार्थवशेन शीध्रगतौ दूरगमने वा संयमविराधना नाम उपस्थिते, तलिकाभिर्विना बालवृद्धादयः प्रपतन्ति तान् यदि कापोतिछकायाण विराहण, उवगरणं बालवुद्धसेहाय। कया वहन्तितदास्वयं परिताप्यन्ते। अथ कापोतिकया न वहन्तिततस्ते पढमेण व बिइएणव, सावयतेणाय मिच्छा य||१२|| परिताप्यन्ते। शल्यविद्धाः शस्त्र-कोशकेन विना शल्ये अनुध्रियमाणे अस्थण्डिले स्थाननिषदनानि कुर्वन् पृथिव्यादीनां षण्णां कायानां परितापनादिकं प्राप्नुवन्ति तन्निष्पन्नं प्रायश्चित्तम्। यत एवमतो निष्कारणे विराधनां करोति, उपकरणं नन्दीप्रतिग्रहादि गृह्णाति, ततो भारेण अध्वान प्रतिपत्तव्यः। वेदनादयो दोषाः / अथ न गृह्णाति तत उपकरणेन विना यत्प्राप्नुवन्ति कारणे तु प्रतिपद्यमानानामयं क्रमः-- तन्निष्पन्नं प्रायश्चित्तम्। बालवृद्धशैक्षाश्च प्रथमेन वा द्वितीयेन वा परीषहेण बिइयपयगम्म माणे, मम असतीय पंथें जतणाए। परिताप्यन्ते, साधवो वा श्वापदैर्भक्ष्यन्ते, स्तेनैरुपकरणमपहियते, परिपुच्छिऊण गमणं, अछिण्णे पल्लीहि बइगाहिं / / 17 / / म्लेच्छा वा क्षुल्लकानपहरेयुर्जीविताद्वा व्यपरोपयेयुः। द्वितीयपदे अध्वनि गम्यमाने प्रथमं मार्गेण, मार्गस्याऽसति पथि, अथोपकरणपदे विशेषतो व्याख्यानयति पथाऽपि यतनया गन्तव्यम् / तत्र च जनं परिपृच्छ्य यः पल्लीभित्रउवगरणगेण्हणोभा-रवेदणा तेणगम्मि अहिगरणं / जिकाभिर्वा अच्छिन्नः पन्थाः तेन गमनं विधेयम्, तदभावे छिन्नेनाऽपि। रीयादिअणुवओगो, गोम्मियभरवाहउड्डाहो।।१३|| वृ० 1703 प्रक०। (आगाढविषयः ‘आगाढ' शब्दे द्वितीयभागे 86 पृष्ठे उपकरणं-नन्दीप्रतिग्रहाध्वकल्पगुणिकादि यदि गृह्णन्ति ततो भारेण गतः।) महती वेदना ज्ञायते, बहूपकरणाश्च स्तेनानां गम्या भवन्ति। हृतेषु अथ आगाढविषये कर्तव्यतां स्पष्टयतिचापकरणेषु असंयतेन परिभुज्यमानेषु अधिकरणं, भाराक्रान्तानां च, असिवे अगम्ममाणे, गुरुगा नियमा विराहणा दुविहा। यदि वा-अनुपयागो भवति, बहूपकरणान् वा दृष्ट्वा गौल्मिका:- तम्हा खलु गंतव्वं, विहिणा जो वण्णिओ हेट्ठा / / 627|| स्थानपाला उपद्रवेयुः, लोको वा ब्रूयात्-अहो बहुलो लोभो भारवहाश्च अशिवे समुत्पन्ने सति यदिन गम्यते ततश्चत्वारो गुरवः, तत्रच तिष्ठतां एते एवमुड्डाहो भवति। नियमात् द्विविधा संयमाऽऽत्मनो विषया आत्मनः परस्य चेति विराधना / (31) अथैतदोषादुपकरणभुज्झन्ति ततो यत्नेन विना यत्प्राप्नुवन्ति यत एवं तस्मात् खलु-निश्चितं विधिना गन्तव्यम्।कः पुनर्विधिरित्याहतन्निष्पन्नं प्रायश्चित्तम् योऽधस्तादोघनिर्युक्तौ "संवच्छर वारसए, ण होहि असिवं ति ते तओ चम्मकरगसत्थादी, दुलिंगकप्पे अचिलिमिणिअगहणे / विति।" इत्यादि गाथाभिर्वणितः। शेषाण्यप्यवमौदर्यादीनि निदानानि -तसविपरिणमुड्डाहो, कंदाइवधो य कुच्छा य॥११४|| यथैवौघ-निर्युक्तौ तथैव वक्तव्यानीति। पूर्वार्द्धपश्चार्द्धपदानां यथासंख्येन योजना कार्या, तद्यथा-चर्मकरकं यदि उवगरण पुव्वभणियं, अप्पडिलेहिंति चउगुरुअआणा। न गृह्णन्ति ततस्त्रसानां-पूतरकादीनां विराधना, शस्त्रकोशस्यादि- ओमाणपंत सत्थिय अतिपंतिय अप्पपत्थयणे // 21 // शब्दात्-गुलिकाखोलादीनामग्रहणे कण्टकादिशल्यविद्धानां शैक्षादीनां उपकरणं पूर्वभणितं चर्मकरकादिकं तदगृह्णानस्य चतुर्गुरुकाः, सार्थ च विपरिणामो भवति, लिङ्गद्वयं-गृहिलिङ्गम् , अन्यपाषण्डिकलिङ्ग च। वा यदि न प्रत्युपेक्षन्ते तदापि चतुर्गुरवः, आज्ञादयश्च दोषाः / सार्थः तयोरुपकरणे अगृह्यमाणे स्वलिङ्गेनैव रात्रौ भक्तग्रहणे पिशिताऽऽदिग्रहणे कदाचिदवमानेन स्वपक्षपरपक्षकृतेनातीवोद्विजितो भवेत्, यद्वा-सार्थिका वा उड्डाहः स्यात् अध्वकल्पं विना कन्दमूलादीनां वधो भवति, चिलिमि- अतिप्रान्तिका वा सार्थचिन्तकाः प्रान्ताः भवेयुः अल्पपथ्यदनो वा-- लिकाया अग्रहणे उज्ज्वल्यां भुजानान् विलोक्य जनो जुगुप्सां कुर्यात्।। स्वल्पशम्बलः स सार्थः। अत एतद्दोषपरिहारार्थ सार्थः प्रत्युपेक्षितव्यः।
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________________ विहार 1321 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विहार कर्थपुनरित्यत्रोच्यतेरागदोसविमुक्को, सत्थं पडिलेहि सो उपंचविहो। भंडी वहिलग भर वह, ओदरिया कप्पडिय सत्थो // 22 // रागद्वेषविमुक्तो नाम यस्य गन्तव्ये न रागो, यदि वा-न द्वेषः स सार्थः प्रत्युपेक्ष्यते। बृ० 1 उ०३ प्रक०। (स सार्थः पञ्चविधः, इति 'सत्थ' शब्दे वक्ष्यते।) अथैनामेव गाथां विवृणोतिगंतव्वदेसरागी, असत्थसत्थं पिजणति जे दोसा। इअरो सत्थमसत्थं, करेइ अच्छन्ति जे दोसा ||23|| यो गन्तव्ये देशे रागीस सार्थप्रत्युपेक्षकः कृतोऽसार्थमपि सार्थं करोति, ततः कुसार्थेन गच्छतां ये दोषास्ते समापद्यन्ते। इतरो नामगन्तव्यदेशे दोषवान्ससार्थमप्यसार्थं करोति, ततस्तत्राशिवादिषु सन्तिष्ठमानानां ये दोषास्ते प्राप्नुवन्ति। उप्परिवाडी गुरुगा, तिसु कंजियमादि संभवो होला। परिवहणं दोसु भवे, बालादी सल्लगेलने ||24|| उत्परिपाट्या यथोक्तक्रममुल्लमय यदि सार्थेन सह गच्छन्ति तदा चतुर्गुरुकाः। किमुक्तं भवति-भण्डीसार्थे विद्यमाने यदि वहिलिकसार्थेन गच्छन्ति तदा चतुर्गुरुकाः। अथ भण्डीसार्थो न प्राप्यते ततो वहिलिकसार्थनाऽपि गन्तव्यं, तत्र विद्यमाने यदि भारवाहसार्थेन गच्छन्ति तदाऽपि चतुर्गुरवः / एवं भारवाहादिसार्थेष्वपि भावनीयम्। तत्र चाद्येषु भण्डीवहिलकभारवाहकसार्थेषु काञ्जिकादिपानकानां सम्भवो भवेत्, द्वयोस्तु भण्डीवहिलकसार्थयोर्बालानामादिशब्दाद्-वृद्धानां ग्लानानां च परिवहनं भवेत्। (32) किं पुनः सार्थे प्रत्युपेक्षणीयमित्याहसत्थं च सत्थवाहं, सत्थविहाणं च आदियत्तं च। दव्वं खेत्तं कालं, भावो मासं च पडिलेहे ||25|| सार्थ सार्थवाहं सार्थविधानम् आदियात्रिकां द्रव्यं क्षेत्रं कालं भावम् / अवमानंच प्रत्युपेक्षेत इति द्वारगाथासंक्षेपार्थः / सांप्रतमेनामेव विवृणोतिसत्थि त्ति पंचभेया, सत्थाहा अट्ट आइयत्तीय। सत्थस्स विहाणं पुण, गणिमाइ चउचिहं होइ॥२६॥ सार्थ इति पदेन भण्डीसार्थाऽऽदयः पूर्वोक्ताः पञ्च भेदाः गृहीताः, सार्थवाहाः पुनरष्टौ, आदियात्रिका अप्यष्टौ, उभयेऽप्युत्तरत्र वक्ष्यन्ते। सार्थविधानं पुनर्गणिमादि भेदाचतुर्विधं भवति / तत्र गणिमं-- यदेकव्यादिसंख्यया गणयित्वा दीयते, यथा हरीतकीपूगफलादि / धरिमंयत्तुलायां धृत्वा दीयते, यथा-खण्डशर्करादि, मेयं यत्पलादिना सेतिकादिना वा मीयते यथा-घृतादिकं वा। परिच्छेद्यं नामयचक्षुषा परीक्ष्यते, यथा-वस्त्र-रत्नमौक्तिकादि, एतच्चतुर्विधमपि द्रव्यं भण्डीसार्थादिषु प्रत्युपेक्षणीयम्, तथा द्रव्यक्षेत्रकालभावैरपि सार्थः प्रत्युपेक्षणीयः ! तत्र द्रव्यतःप्रत्युपेक्षणां तावदाह अणुरंगाऽऽई जाणे, गुच्छाऽऽई वाहणे अणुन्नवणा। धम्मु त्ति वा भईय व, बालादि अणिच्छा पडिकुटा / / 927|| अनुरङ्गाः-घंसिकास्तदादीनि यानानि गवेषणीयानि, आदिशब्दात्शकटादिपरिग्रहः, वाहनानि-गुण्ठादीनि गुण्ठोनाम-घोटको महिषो वा आदिशब्दात्-करभवृषभादिपरिग्रहः / एतेषां यानानां-वाहनानां वा सुज्ञापना कर्तव्या, यथाऽस्माकं कोऽपि बालोवृद्धो दुर्बलोग्लानःशल्यविद्धो वा गन्तुं न शक्नुयात् स युष्माभिरनुरङ्गादौ वा आरोहयितत्व, यद्येवं धर्म इति कृत्वाऽनुजानन्ति ततः सुन्दरम् / अथ नानुजानन्ति ततो भृत्या मूल्येनाऽपि यथाऽरोहयन्ति तथा प्रज्ञापयितव्याः / अथ मूल्येनाऽपिबालादीनामारोहणं नेच्छन्तिततःप्रतिष्टाः-प्रतिषिद्धास्तैः सह नगन्तव्यमित्यर्थः। __अपिचदंतिक गोर-तिल्लग-गुलसप्पियमादिभंडभरिएसुं। अंतरवाघातम्मिव, तं देंति हए उकिं देति / / 128|| मोदिकभण्डिका शकट्यादिकं यद्बहुविधं दन्तखाद्यकं तद्दन्तिकं 'गोर' त्ति-गोधूमाः तैलगुडौ प्रतीतौ सर्पिः-- घृतम् एवमादीनां भक्तभाण्डानां यत्रशकटानिभृतानि प्राप्यन्तेससार्थोद्रव्यतःशुद्धः, यतएवमादिभाण्डभृतेषु शकटादिषु सत्सु यद्यप्यन्तरा-अपान्तराले व्याघाते वर्षानदीपूरादिक मुत्पद्यते तथाऽपि तद्दन्तिकं ते सार्थिकाः स्वयमपि भक्षयन्ति, साधूनामपि च प्रयच्छन्ति / इतरथा तेषामभावे किं ददति ? न किमपीत्यर्थः। व्याघातकारणान्येव दर्शयतिवासेण णदीपूरेण वाऽवि तेणभयहत्थिरोधे य। खोभो व जत्थ गम्मति, असिवं वेमादि वाधाता ||26|| सार्थस्य गच्छतोऽपान्तराले त्वागाढवर्षेण वा नदीपूरेण वा बहुतरदिवसान् व्याघात उपस्थितः अग्रतो वा स्तेनानां भयमुत्पन्नं, दुष्टहस्तिना वा मार्गों निरुद्धः, यत्र वा नगरादौ गम्यते-गन्तुमिष्यते तत्र रोधको राज्यक्षोभो वा अशिवमुत्पन्नम्, एवमादयो गमनस्य व्याधाता भवन्ति। ततश्च प्रस्थितेषु यद्यपान्तराले सार्थः सन्निवेशं कृत्वा तिष्ठति, तथा च सतिक्वापि बहुविधखाद्यद्रव्यभृतासुगन्त्रीसु सुखेनैव साधवः संस्तरन्ति, अतस्तेन सह गन्तव्यम्। नपुनरीदृशेकुंकुमय अगरुएत्तं, चोयं कत्थूरिया य हिंगुं वा। संखग लोणय भरिते,ण तेण सत्थेण गंतव्यं // 30 // कुडकुमम् अगरु-तगरपत्रं 'चोय' ति त्वक् कस्तूरिकाहिगुरेवमादिकमखाद्यद्रव्यं यत्र भवति; यश्च शंखेन लवणेन वा भृतः-- पूर्णः तत्राऽन्तरा व्याघाते समुत्पन्ने तिष्ठन्तः शम्बलसार्थिकाः किं प्रयच्छन्तु? यतएवमतस्तेनतादृशेन सार्थेन सहनगन्तव्यम्।गता द्रव्यतः प्रत्युपेक्षणा। अथ क्षेत्रकालभावैस्तामाहखेत्ते जंबालाऽऽदी, अपरिस्संता वयंति अद्धाणं /
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________________ विहार 1322 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 ... विहार काले जो पुटवण्हे, भावें सपक्खादणोमाणं ||31|| यावन्मात्रमध्वानं बालवृद्धादयोऽपरिश्रान्ता व्रजन्ति-गन्तुं शक्नुवन्ति तावन्मात्रं यदि सार्थो व्रजति तदा सार्थः क्षेत्रशुद्धः, तथा यः सूर्योदयवेलायां प्रस्थितः पूर्वाऽढे तिष्ठति अयं कालतः शुद्धः, यत्र तु स्वपक्षभिचाररैरनवमानंस भावतः शुद्धः। एकिको सो दुविहो, सुद्धो ओमाणपेल्लितो चेव / मिच्छत्तपरिग्गहितो, गमणे अदणे अठाणे य॥६३२। भण्डीसार्थवहिलकसार्थयोर्मध्यादेकैका द्विविधः- शुद्धः, अशुद्धश्च / शुद्धो नाम-योऽनवमाने प्रेरितः, अवमाने प्रेरितोऽशुद्धः / सार्थवाह आदियात्रिको वा यो वा तत्र प्रधानः स यदि मिथ्यादृष्टिस्तदा समर्थो मिथ्यात्वपरिगृहीत इति कृत्वा नाऽनुगन्तव्यः 'गमणे अदणे य ठाणे य' त्तिगमने-यः सार्थो मृदुगतिः अच्छिन्नेन वा पथा व्रजति, अदन-भोजनं तद्वेलायां यस्तिष्ठति स्थान-स्थण्डिले यो निवेशं करोति ईदृशः शुद्धः / अथ स्वपक्षपरपक्षाऽवमानं व्याख्यानयतिसमणा समणि सपक्खो, परपक्खो लिंगिणो गिहत्था य। आयोसंजमदोसा, असई यसपक्खवज्जेण // 33 // स्वपक्षः श्रमणाः, श्रमण्यश्च। परपक्षो-लिङ्गिनो, गृहस्थाश्च। इह लिङ्गिनोऽन्यतीर्थिकाः प्रष्टव्याः ईदृशेन भिक्षाचरवर्गेण आकीर्णे पर्याप्तमलभमानानाम् आत्मसंयमदोषा भवन्ति / तत्राऽऽत्मदोषाः परितापनादिना, संयमदोषास्तु कन्दाऽऽदिग्रहणेनेति / अथवा-अनवमानं सर्वथैव न प्राप्यते ततोऽवमानस्याऽसति स्वपक्षावमानं वर्जयित्वा यत्र परपक्षाऽव. मानं भवति तेन गन्तव्यम् / तत्र जनो भिक्षाग्रहणे विशेष जानाति इमे श्रमणा एते तु तचनिकादय इति / 'गमणे, अदणे य, ठाणे य' त्ति पदत्रयं व्याचष्ट-- गमणं जो जुत्तगती, वइगापल्लीहि वा अछिण्णेण / थंडिल्लं तत्थ भवे, मिक्खग्गहणे य वसही य॥६३४|| आदियणे भोत्तूणं, न चलति अवरण्हें तेण गन्तव्वं / तेण परं भयणातु, ठाणे थंडिल्लमाईसु ||35|| गमनशुद्धो नाम–यः सार्थो युक्तगतिर्मन्दगमनो; नशीघ्रं गच्छतीत्यर्थः / यो वा जिकापल्लीभिरच्छिन्नः पन्थास्तेन गच्छति यतस्तत्राच्छिन्ने पथि स्थण्डिलं भवति, व्रजिकादौ च सुखेनैव यस्तिष्ठति, भुक्त्वा चापराह्नेन चलति तेन सह गन्तव्यम् / तेण परं भयण' त्ति प्राकृतत्वात्पशम्यर्थे तृतीया, ततो भोजनादनन्तरमपराह्ने यश्चलति तत्र भजना कार्या / यदि सर्वेऽपि साधवः समस्तिदानीं गन्तुंततः शुद्धः। अथ न शक्नुवन्ति ततोऽशुद्ध इति। स्थानं नाम-गमनादुपरम्य निवेशं कृत्वा क्वचित्प्रदेशेषु अवस्थानं, तत्र यः स्थण्डिलस्थायी सशुद्धः, अस्थण्डिले तिष्ठन्नशुद्ध इति। बृ० 130 3 प्रक०। (अथ यदुक्तम्-अष्टौ सार्थवाहा आदियात्रिकाश्चेति तदेतत् 'सत्थवाह' शब्दे वक्ष्यामि।) (33) साम्प्रतमध्वानं प्रतीत्य भड़ानुपदर्शयतिसत्यपणए य सुद्धे, य पेल्लओ कालकालगमभोगी। कालमकालहाई, सत्थहेट्ठादियत्ती य॥६३७॥ सार्थपञ्चके-भण्डीसार्थो, वहिलकसार्थकश्च / अवमाने शुद्धो वा स्यात्प्रेरितो वा / यः शुद्धस्तेन गन्तव्यम् / तथा कालगामिनोऽकालगामिनो वा, कालभोजिनोऽकालभोजिनो वा, कालनिवेशिनोऽकालनिवेशिनो वा, स्थण्डिलस्थायिनोऽस्थण्डिलस्थायिनो वा, एते पञ्चाऽपि सार्था भवेयुः। तथा अष्टौ सार्थवाहा अष्टौ वाऽऽदियात्रिकाः एभिः पदैः कियन्तो भङ्गा उत्तिष्ठन्ते इत्याहएतेसिं तु पयाणं भयणाए सया एकपनं तु। वीसं च गमा नेया, एत्तो य सयग्गसो जयणा-||६३८|| एतेषां पदानां संयोगेन भजनायां--भङ्गरचनायां विधीयमानायामेकपञ्चाशत् संख्यानिशतानि विंशतिश्च गमाभङ्गका ज्ञेयाः एत्तो य सयासो जयण' त्ति आर्षत्वादेषु शुद्धाऽशुद्धेषु सार्थवाहाऽऽदियात्रिकेषु भद्रकप्रान्तेषु अल्पबहुत्वचिन्तायां शताग्रशः-शतसंख्याभेदा यतना भवति। अमुमेवाऽर्थ भाष्यकारः प्रकटयन्नाहकालुद्वॉयी कालनि सि, ठाणट्ठातीय कालभोगीय। उग्गतऽणथमियथंडिल-मज्झण्ह धरंतसूरे य ||3|| इह पूर्वाऽर्द्धपश्चाऽर्द्धपदानां यथासंख्यं योजना, तद्यथा-कालोत्थायी नाम सार्थो-य उगते सूर्ये उत्तिष्ठते; चलतीत्यर्थः / कालनिवेशीयोऽनस्ततिमते रात्रिप्रथमायां पौरुष्यां निवेशं कृत्वा तिष्ठति, स्थानस्थायीयः स्थण्डिले जिकादौ तिष्ठति, कालभोजीयो मध्याह्ने सूर्ये वाऽपि ध्रियमाणे भुङ्क्ते। एतेसिं तु पयाणं, भयणा सोलसविहा उ कायव्वा। सत्थपणएण गुणिया, असीतिभंगातु णायव्वा ||14|| एतेषां चतुर्गो पदानां षोडशविधा भजना कर्तव्या। तद्यथा-कालोत्थायी कालनिवेशी स्थानिस्थायी कालभोजी 11 अकालोत्थायी कालनिवेशी स्थानस्थायी अकालभोजी / अकालोत्थायी कालनिवेशो अस्थानस्थायी कालभोजी, 31 अकालोत्थायी कालनिवेशी अस्थानस्थायी अकालभोजी, 4 / एवमकालनिवेशपदेनापि चत्वारो भङ्गाः अवाप्यन्ते। लब्धा अष्टौ भङ्गाः / एते कालोत्थायिपदेनाऽप्यष्टौ प्राप्यन्ते, जाताः, षोडश भङ्गाः / एते च सार्थपञ्चकेऽपि प्राप्यन्त इति पञ्चभिर्गुण्यन्ते, गुणिताश्च अशीतिर्भङ्गका भवति। सत्थाह अद्वगुणिया, असीति चत्ताल छस्सता होति। त आइयत्तिगुणिया, सत एकापण्णवीसहिया ||1|| पूर्वलब्धा अशीतिभङ्गकाः प्रतिसार्थप्रत्युपेक्षका आलोचयन्ति। ___ अथ सार्थवाहस्याऽनुज्ञापनायां विधिमाहदुण्ड वि वियत्तगमणं, एगस्स वियत्त होइ भयणाओ। अप्पत्ताण निमित्तं, पत्ते सत्थम्मि परिसाओ।।९५२|| यत्र कः सार्थवाहः तत्र तमनुज्ञापयन्ति / ये प्रधानपुरुषास्ते ऽनुज्ञापयितव्याः / अथ द्वौ सार्थाधिपति ततो
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________________ विहार 1323 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विहार द्वावप्यनुज्ञापयितव्यौ, यदि प्रीतिकं ततो गमनं कर्त्तव्यम्। अथैकस्याऽप्रीतिकं भवति ततो यस्तयोः प्रेरकः प्रमाणभूतस्तस्य प्रीतिके गन्तव्यम्, सार्थं च प्राप्तानां निमित्तं शकुनग्रहणं भवति / सार्थं प्राप्ताः पुनः सार्थस्यैव शकुनेन गच्छन्ति, सार्थप्राप्ताश्च तिस्रः परिषदः कुर्वन्ति। तद्यथा--पुरतो मृगपरिषदं, मध्ये सिंहपरिषदं, पृष्ठतो वृषभपरिषदम्। __ अथ 'दोण्ह वि' त्ति पदं विवृणोतिदोन्नि वि समागयास-त्थिगो य जस्सय वसेण वचंति। अणणुण्णविते गुरुगा, एमेव य एगतरपंते // 43|| सार्थवाह आदियात्रिकश्च द्वावपि समागतौ मिलितौ समकमनुज्ञापयन्ति। अथवा-सार्थिकः सार्थो विद्यते यस्येति व्युत्पत्त्या सार्थवाह एकः पश्चादनुज्ञाप्यते, यस्य वावशेसार्थोव्रजति सोऽनुज्ञाप्यः। अथाऽननुज्ञापिते सार्थवाहादौ व्रजन्ति तदा चत्वारो गुरुकाः। अथ द्वौ सार्थावकत्र मिलितौ स्यातां, तत्र चद्वौ सार्थाधिपती, द्वावप्यनुज्ञापयितव्यौ। अथैकमनुज्ञापयन्ति तत्रैवमेव चतुर्गुरुकाः / अथैकतरः प्रान्तः ततश्चिन्तनीयं स प्रेरको वा। यदि प्रेरकस्ततो न गन्तव्यमित्याहजो होई पेलंतो, भणंति तुह बाहुछायसंगहिया। वचामऽणुग्गहो त्तिय, गमणं इहरा उगुरु आणा ||4|| यस्तत्र प्रेरकः प्रमाणभूतो भवतितं धर्म लाभयित्वा भणन्ति-यद्यनुजानीतं ततोवयं युष्माभिः सह युष्मदाहुच्छायासंगृहीता व्रजामः, एवमुक्ते यद्यसौ ब्रूयात्-भगवन्ननुग्रहोऽयं मे अहं सर्वमपि भगवतामुदन्तमुद्रहामीति, एवमनुज्ञाते गमनं विधेयम्। इतरथा यद्यसौ तूष्णीकस्तिष्ठतिब्रवीति वामा समागच्छत, यदि गच्छन्ति ततश्चत्वारो गुरवः आज्ञादयश्च दोषाः / ततो यदि सार्थवाहस्य अपरस्य वा प्रेरकस्याऽप्री तिके गम्यते तत एते दोषाःपडिसेहणणिच्छुभणं, उवकरणं बालमादिवाहारे। ऑतिजत्तगुम्मिएहिं, च उद्धमंते ण वारेति // 45 // स सार्थवाहादिः प्रान्तः महाऽटवीमध्यप्राप्तानां साधूनां भक्तपानं प्रति सार्थनिष्काशनं विदध्यात्, उपकरणं वा बालादीन् वा अन्येन स्तेनादिना हारयेत् अपहरणं कारयेदित्यर्थः। आदियात्रिकैर्वा स्थानरक्षापालैरुह्यमानान्-मुष्यमाणान् साधून्न वारयति-उदासीन आस्ते इत्यर्थः। यत एवं ततः किं कर्त्तव्यमित्याहभगवयणे गमणं, भिक्खे भत्तट्ठणाएँ वसधीए। थंडिल्ल असतिमत्तग-वसभा य पदेसवोसिरणं ||646|| सार्थवाहादिर्भद्रको ब्रूयात्-यद्यूयमादिशत तदहं सर्वमपि सम्पादयिष्यामि, सिद्धार्थकवत्त्वम्, एकपुष्पबद्धा शिरसि स्थितोऽपि भारं न कुरुषे, एवं वचने भणिते सति गमनं कर्त्तव्यं गच्छद्भिश्वाऽध्वनि भैक्षविषया सार्थनासमुद्देशनं तद्विषया वसतिविषया च यतना कर्तव्या। संज्ञाकायिकी वा स्थण्डिलस्थाऽसति मात्रके व्युत्सृज्य तावद्वहन्ति यावत् | स्थण्डिलं प्राप्नुवन्ति, एवं वृषभा यतन्ते / यद्वा वृषभाः पुरतो गत्वायत्र | स्थण्डिलं तत्र प्रथमत एव तिष्ठन्ति। अथ सर्वथैव स्थण्डिलं न प्राप्यते धमाधमाकाशास्तिकायप्रदेशेष्वपि व्युत्सृजन्ति। अमुमेवार्थमतिदेशद्वारेणाहपुटवं भणिया जयणा, मिक्खे भत्तद्ववसहिथंडिल्ले। सो चेव य होति इहं, णाणत्तं णवरि कप्पम्मि||९४७|| भिक्षा भक्तार्थवसतिस्थण्डिलविषया यतना पूर्वमधस्तनसूत्रेषु, ओघनियुक्तौ वा भणिता। सैवेहाध्वनि वर्तमानानां मन्तव्या, स्थानाशून्यार्थ तु किञ्चिदत्रापि वक्ष्यते तत्र भैक्षद्वारे नवरं केवलमिह कल्पे अध्वकल्पविषयम्। बृ०१ उ०३ प्रक०। (अत्रार्थ 'राइभोयण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 517 पृष्ठे बहु वक्तव्यं गतम्।) (32) निर्ग्रन्थस्य रात्रौ विकाले वा एकाकिनो गन्तुंन कल्पतेनो कप्पइ निग्गंथस्स एगाणियस्सराओ वा वियाले वा बहिया वियारभूमि वा विहारभूमि वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा। कप्पति से अप्पबिइयस्स वा अप्पतइयस्स वाराओवा वियाले वा बहिया वियारभूमि वा विहारभूमि वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा // 4 // अथाऽस्य सूत्रस्य सम्बन्धमाहआहारो नीहारो, अवस्समेसो तु सुत्तसंबंधो। तं पुण ण प्पडिसिद्ध, वारे एगस्स निक्खमणं // 1056!! पूर्वसूत्रे संखडिप्ररूपणाद्वारेणाहार उक्तः, तस्मादाहारादवश्यं भवेन्नीहार इत्येतद्विषयो विधिरनेन सूत्रेणोपवर्ण्यते। कथमित्याह-तत्पुनर्नीहारकरणमाहारानन्तरमवश्यंभावित्वान्न प्रतिषिद्धं, किंतु तदर्थं यदेकस्यएकाकिनो निष्क्रमणं तदेव निवारयतीत्येष सूत्रसम्बन्धः / अनेन सम्बन्धेनायातस्याऽस्य (सू०४६) व्याख्या-नो कल्पते निर्ग्रन्थस्य साधोरेकाकिनो रात्रौ वा विकाले वा बहिर्विचारभूमि वा विहारभूमि वा उद्दिश्य प्रतिश्रयान्निष्क्रमितुं वा प्रवेष्टुं वा / कल्पते 'से' तस्य निर्ग्रन्थस्याऽऽत्मद्वितीयस्य वा आत्मतृतीयस्य वा रात्रौ वा विकाले वा बहिविचारभूमि वा विहारभूमिं वा निष्क्रमितुंवा प्रवेष्टुं वा इति सूत्रसमासार्थः / अथ नियुक्तिविस्तरःरत्तिं वियारभूमि, णिग्गंथेगाणियस्स पडिकुट्ठा। लहुगोय होति मासो, तत्थ वि आणाइणो दोस // 1060 // रात्रौ विचारभूमिर्निग्रन्थस्यैकाकिनो गन्तव्ये प्रतिक्रुष्टा। सा च द्विविधा-- कायिकीभूमिः, उच्चारभूमिश्च / कायिकीभूमिं यदि रात्रावेकाकी गच्छति ततो लघुमासः प्रायश्चित्तम्; तत्राप्याज्ञादयो दोषाः / तथातेणाऽऽरक्खियसावय-पडिणीए थीणपुंसतेरिच्छे। ओहाणपेहिवेहा-यसे य वाले य मुच्छा य॥१०६१।। स्तेनैरुपधिः संहियेत, आरक्षिका एकाकिनं दृष्ट्वा चौर इति बुद्ध्या ग्रहणाऽऽकर्षणादिकं कुर्युः श्वापदा वा सिंहव्याघ्रादयो भक्षेयुः, प्रत्यनीको वा तमेकाकिन मत्वा प्रतापनादिकं कु
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________________ विहार 1324 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विहार यत्,ि स्त्री वा नपुंसको वा तमेकाकिनमुदारशरीरं दृष्ट्वा बलादपि गृह्णीयात्, तिर्यचो वा दुष्टगवादयस्तमभिघातयेयुः, तिर्यग्योनिकां वा स एकाकी प्रतिसेवेत, यो वा अवधावनप्रेक्षी स एकाकी निर्गतः सन् तत एवमपलायेत, स्त्रिया वा षण्डकेन वा प्रतिस्खलितः सन् भग्नव्रतोऽहं जात इति बुद्ध्या वैहायसमुद्न्धनं कुर्यात, व्यालेन वा-सर्पण दश्येत् मूर्छा वा तत्र गतस्य भवेत् तदशेन भूमौ प्रपतेत् / तस्य परितापमहादुःखप्रभृतयो दोषाः। अस्या एव गाथाया लेशतो व्याख्यानमाहथीपंडे तिरिगीसुय, खलितो वेहाणसंच ओधावे। तेणोवधीसरीरे, गहणाऽऽदी मारणं जोये // 1062 / / स्त्रियां पण्डके तिर्यग्योनिकायां वा स्खलितो--मैथुनप्रतिसेवनया अपराधमापन्नः सन्भग्रव्रतस्य किंमे जीवितेनेतिबुद्ध्या वैहायसमभ्युपगच्छेत्।यो वा अवधावनप्रेक्षीस तत एवावधावेत्। शेषाणि सप्त द्वाराणि तेषु यथाक्रममते दोषाः। तद्यथा-स्तेनेषूपधिशरीरग्रहणम्। आरक्षिकेषु ग्रहणाऽऽकर्षणादि देशेषु तु श्वापदादिमारणमुपघातः संयतस्य भवतीति योजयेत्-योजनं कुर्यात्। यतएवमतःदुप्पभिइओ अगम्मा,णय सहसा साहसं समायरति। वारेति च णं बितिओ, पंच य सक्खी उधम्मस्स।।१०६३|| द्विप्रभृतयः साधवो रात्रौ कायिकीभूमौ गच्छन्तः स्तेनारक्षकादीनामगम्या भवन्ति, न च द्वितीये साधौ तटस्थे सति सहसा साहसंमैथुनप्रतिसेवनवैहायसादि समाचरति, समाचरितुकाममपि तमात्मद्वितीयः साधुर्वारयति / यतो धर्मस्यपञ्चमहाव्रतस्य पञ्च साक्षिणो भवन्ति / तद्यथा-अर्हन्तः सिद्धाः साधवः सम्यग्दृष्टयो देवा आत्मा चेति। अतः साधौ तृतीयसाक्षिणि पार्श्ववर्तिनि न सहसा साहसं समाचरति, एवं तावत्कायिकी भूमिमङ्गीकृत्योक्तम् / अथोचारभूमिमधिकृत्याहएए चेव य दोसा, सविसेसुचारमायरंतस्स। सबितिजगणिक्खमणे, परिहरिया ते भवे दोसा।।१०६४॥ एत एव स्तेनारक्षिकादयो दोषाः सप्रायश्चित्ताः सविशेषाः-समधिका रजन्यामेकाकिन उच्चारमाचरतो मन्तव्याः। यदा तु विचारभूमौ गच्छत् / सद्वितीयः प्रतिश्रयान्निष्क्रमणं करोति तदा स्तैन्यादयो दोषाः परिहृता भवेयुः। कथमित्याहजति दोण्णि तिण्णि वेदितु,णेति तेण भए वातिदारेको। सावयभयम्मि एको, णिसिरतितं रक्खती बितिओ।।१०६५।। यदि द्वौ संयतौ कायिकीभूमौ निर्गच्छतः तदा यस्तत्र जागर्ति तस्य निवेद्य द्वावपि निर्गच्छतः। स्तेनभये तुततो द्वयोर्मध्यादेको द्वारे तिष्ठति, द्वितीयः कायिकी व्युत्सृजति / अथ श्वापदादिभये एकः तत्र कायिकी निसृजति, द्वितीयो दण्डकहस्तस्तं कायिकी व्युत्सृजन्तमात्मानंचरक्षति।। (35) अथैकाकिनो यतना प्रतिपाद्यते-- सभया सति मत्तस्स, एको उवओगदंडओ हत्थे। वतिकुडंतेण कडिं, कुणति य दारेऽवि उवओगं / / 1066 / / . यदि सभयं, द्वितीयस्य तत्राऽभावः, ततः मात्रके व्युत्सर्जनीयम् / अथ मात्रकं न विद्यते तत उपयोगं कृत्वा दण्डकं हस्ते गृहीत्वावृतेर्वा कुड्यस्य वा अन्तेन-पार्श्वेन कटिं कृत्वा कायिकी व्युत्सृजति / द्वारेऽपि स्तेनादिप्रवेशविषयमुपयोगं करोति। बितियपदे तु गिलाण-स्स, कारणा अहव होज एगागी। पुवट्ठियनिहोसे, जतणाएँ णिवेदिउचारे॥१०६६॥ द्वितीयपदे तुम्लानस्य कारणादेकोऽपि निर्गच्छेत्। अथवा स साधुरशिवादिभिः कारणैरेकाकी भवेत, यद्वा-तत्र पूर्व निर्दोषं निर्भयमिति मत्वा स्थितः पश्चात्सभयं सञ्जातं तत्राऽपि यतनया निवेद्य तथैवोचारभूमौ वा गच्छन्ति। अथ ग्लानस्य कारणादिति पदं व्याख्यानयतिएगो गिलाणपासे, बितिओ आपुच्छिऊण तं नीति। चिरगतगिलाणमितरो, जग्गंते पुच्छिउंणीति ||1068|| इह तेत्रयोजनाः, तेषां च मध्ये एकोग्लानो विद्यते, एकश्च तस्य ग्लानस्य पार्श्वे तिष्ठति, द्वितीयस्तमापृच्छ्य कायिक्यादिभूमौ निर्गच्छति। स च यदि चिरगतो भवति तत इतरोग्लानस्य पार्श्वे स्थितो ग्लानं जाग्रतमापृच्छ्य निर्गच्छति। जहियं पुण ते दोसा, तेणाऽऽदीया ण होज पुटवुत्ता। एकोऽवि णिवेदेतुं, णितो वितहिं णऽतिकमति // 1066 // यत्र पुनस्ते पूर्वोक्ताः स्तेनादयो दोषा न भवन्ति तत्रैकोऽपि साधूनां जाग्रतां निवेद्य निर्गच्छन् भगवदाज्ञानं नातिक्रामति / एवं विचारभूमिविषयो विधिरुक्तः। अथ विहारभूमिविषयमाहबहिया विहारभूमी, दोसा ते चेव अहियछक्काया। पुष्वदितु य कप्पइ, बितियं आगाढसंविग्गो।।१०७०॥ प्रतिश्रयादहिर्विहारभूमौ स्वाध्याभूमौ रात्रावेकाकिनो गच्छतस्तत एव स्तेनारक्षिकादयो दोषा भवन्ति, अधिकाश्वषट्कायविराधनानिष्पन्नाः। द्वितीयमपवादपदमत्रोच्यते कल्पते रात्रावपि स्वाध्यायभूमौ पूर्वदृष्टायांदिवा प्रत्युपेक्षितायां गन्तुंतत्राप्यागाढकारणे यः संविग्नः स गच्छति। अथाऽऽगाढपदं व्याचष्टेते तिणि दोण्णी अहवेकतूणं णवं च सुत्तप्पसगासमस्स। सज्झातियं णऽस्थि रहस्ससुत्तं, याऽवि पेहाकुसलो स साहू // 1071 / / तेसाधवोरात्रौ विहारभूमौ गच्छन्तउत्सर्गतस्त्रयोजनागच्छन्ति, त्रयाणामभावेद्वौगच्छतः। अथग्लानादिकार्यव्यापृततया द्वितीयोऽपिनप्राप्यतेएवमेकाक्यपिगच्छेत्। किमर्थमित्याह अस्य-विवक्षितसाधोनवम्-अधुनाऽधीतं
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________________ विहार 1325 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विहार ससूत्रस्पर्शक नियुक्तिरूपेणार्थेन सहितं परावर्तनीय वर्तते। स्वाध्यायिक __णामपित एव सविशेषतरा मन्तव्याः, तरुणाद्युपद्रवसहिता इति भावः / च वराती ततानी नाऽस्ति / अथवा-रहस्यसूत्र निशीथादिकं तद् यथा बहिया वियारभूमी, निग्गन्थेगाणियाए पडिसिद्धा। द्वितीयो न शृणोति तथा परावर्तयितव्यम्। न चासौ साधुरनुपेक्षाकुशलः / चउगुरुगाऽऽयरियादी, दोसा ते चेव आणादी।।१०७५|| रतेनाऽऽगाढकारणेन रात्रावपि विहारभूमौ गन्तुं कल्पते। रावौ बहिर्विचारभुमौ गमनमेकाकिन्या निर्गन्थ्याः प्रतिषिद्धम , अत तत्र कीदृशे गृहे कीदृशेन वा साधुना गन्तव्यमिति। एवैतत्सूत्रमाचार्यः प्रवर्तिनी न कथयति चतुर्गुरवः / प्रवर्तिनी भिक्षुणीन दर्शयति कथयति चतुर्गुरवः / भिक्षुण्यो न प्रतिष्टण्वन्ति मासलघु / प्रवर्तिनीआसन्नगेहे दियदिट्ठभोमे, मतिक्रम्य भिक्षुण्यो बलामोढिकया एकाकिन्यो निर्गच्छन्ति / चतुर्गुरवः, घेत्तूण कालं तहि जाइ दोसं। दोषाश्च ते एवाऽऽज्ञादयो द्रष्टव्याः। वस्सिदिओ दोसविवजितो य। भीरू अकिच्चे उ ऽबलाऽबला य, णिद्दाविकारालसवजितऽप्पा / / 1072|| आसंकितेगागमणी उ रातो। कालं गृही था दोष-प्रतिप्रादोषिक स्वाध्यायं कर्तुमासन्नगेहे दिवा | मा पुष्फभूयस्स भवे विणासो, दृष्टभा मेदिवा प्रत्युपेक्षितोचारप्रश्रवणभूमिकेयाति गच्छति / स च सीलस्स थोवाण ण देति गंतुं // 1076 / / वश्यन्द्रियः इष्टाऽनिष्टविषयेषु वर्तमानाना-मिन्द्रियाणां निहीला दोषाः-- इह स्त्री प्रकृत्यैव-स्वभावेनैव भीरु:- अल्पसत्त्वा पुरुषं च प्राप्य सा क्रोधादयस्तैर्विवर्जितः तथा निट्रया विकारेण वा हास्या:दिना आल अबला-अकिञ्चित्करी, अत एव तस्या अबलेति नाम / अबला च स्येन वर्जिज आत्मा यस्य रातभा एवंविधास्तत्र गन्तुमर्हति, माऽनीदृशः। स्वभावादेव चञ्चलाः अत एकाकिनी श्रमणी रात्रौ विधारभूमौ गच्छन्ती तब्भावियं तं तु कुलं अदूरे, आशङ्किता स्यात्, अवश्यमेषा व्यभिधारिणीति। अतो मा पुष्यभृतस्य - किया सझायं णिसिमेव एति। शरीरपुष्पसुकुमारस्य शीलस्य विनाशो भवेदिति कृत्वा स्तोकानामवाघाततो वा अहवा विदूरे, प्यार्याणां रात्रौ विचारभूमौ गन्तुं भगवन्तो न ददतिनाऽनुजानन्तीत्यर्थः। सोऊण तत्थेव उवेइ पाते॥१०७३।। उपाश्रयेऽपि ताभिरीदृशे वस्तव्यमिति दर्शयति-- यस्मिन श्रावकादिकुले स गच्छति तस्यां वेलायां प्रविशद्भिः साधुभि- / गुत्ते गुत्तदुवारे, कुलपुत्ते इत्थ मज्झ निहोसे। गम्ति तनावेत तदप्यदूरे-अदूरदेशवर्ति एवंविधेगृहे प्रादोषिक स्वाध्याय मीतपरिसमद्दविदे, अज्जा सिजायरे भणिए // 1077 / / कल्दा-परिर्त्य निशायामेव प्रतिश्रय-मागच्छति / अथ रजन्यामा- गुप्तो-नाम वृत्त्यादिपरिक्षिप्तः गुप्तद्वारः- सकपाट ईदृशे उपाश्रये गच्छतोऽमा तराले दुरश्वगवादिभिः स्तेनादिभियाघातः, अथवा- रथातव्यं, शय्यातरश्च तासां कुलपुत्रको गवेषणीयः, तस्यैव शय्यातरस्य दूरदूरदेशवर्तिनी सा विहारभूमिः ततस्तत्रैव गृहे सुप्त्या प्रातः -- प्रभाते या भगिनीप्रभृतयस्तासां संबन्धि यद् गृहं तन्मध्यवर्ती संयतीनाम्, प्रतिश्रयमुपैति / बृ० 1303 प्रक०। उपाश्रयो भवति / सोऽपि निर्दोषः- पुरुषसागारिकादिदोषरहितः / (36) निर्गन्थ्या रात्रिविहारः कुलपुत्रकश्च भीतपर्षद मार्दविकश्वान्वेषणीयः / भीतपर्षन्नामयद्यात्त-दीयः नो कप्पइ निग्गंथीए एगाणियाए राओ वा वियाले वा बहिया परिवारो न कमप्य-नाचारं कर्तुमुत्सहते। मार्दविकोमधुरवचनः ईदृश वियारभूमि वा विहारभूमि वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा। आर्यायाः शय्यातरो भणितः। कप्पइ से अप्पबिइयाए वा अप्पतइयाए वा अप्पचउत्थीए वा रात्रौ च प्रतिश्रये ताभिरियं यतना कर्तव्याराओ वा वियाले वा बहिया वियारभूमि वा विहारभूमि वा पत्थारो अंतोबहिँ, अंतो बंधाहि चिलमिली उवरिं। निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा / / 50|| तं तह बंधति दारं, जह ते अण्णा ण जाणाई // 1078|| अस्य व्याख्या प्रावित्। प्रस्तारः- कटः स एकः प्रतिश्रयाभ्यन्तरे द्वितीयस्तु प्रति-श्रयादहिः अथ भाष्यम् कर्तव्यः / अन्तश्चाभ्यन्तरे कटस्योपरि चिलिमिलिकां बध्नीत नियन्त्रयेत सो चेव य सम्बन्धो, नवरि पमाणम्मि होइ णाणत्तं। च। प्रतिहारी तथा बध्नाति द्वारं यथा तान्-बन्धानन्या संयती मोक्तुं न जे य जतीणं दोसा, सविसेसतरा उ अजाणं / / 1074|| जानाति। स एव निन्थिसूत्रोक्तसम्बन्ध इहाऽपि सूत्रे ज्ञातव्यः, न वरं केवलं सन्थारेगंतरिया, अभिक्खणा ओजणा य तरुणीणं / प्रमाणेभ्यो निग्रन्थीनां नानात्वं, निर्ग्रन्थानाद्वयोस्त्रयाणां निर्गन्तुं कल्पते, पडिहारि दारमूले, मज्झे य पवित्तिणी होति / / 1076 / / निर्गन्थीनां तु द्वयोस्तिसृणां चतसृणा वा इत्ययं संख्याकृतो विशेष इति संस्तारक मेकान्तरिताना तरुणीवृद्धानां भवति, अभीक्ष्ण भावः। ये च स्तेनाऽऽरक्षिकाऽऽदयो यतीनामेकाकिनिर्गमने दोषाः आर्या- | च तरुणीना यतनयां प्रवर्तिन्यां प्रतिहारिक या चोपयो -
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________________ विहार 1326 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विहार जना--सट्टना-कर्तव्या। प्रतिहारिच द्वारमूले स्वपिति, मध्ये सर्वमध्यवर्तिनी प्रवर्तिनी भवति। निक्खमणपिडियाणं, अग्गद्दारे य होइ पडिहारी। दारे पवित्तिणी सा-रणा य फिडिताण जयणाए।१०८०।। रात्री विचारभूमौ निष्क्रमणं पिण्डिताना-समुदिताना, त्रिचतुःषष्ठ प्रभृतीनामित्यर्थः, प्रतिहारी द्वारं समुद्घाट्य प्रथमत एवागद्वारे तिष्ठति / प्रवर्तिनी पुनद्वरि स्थिता संयती यदा प्रविशति तां शिरसि कपोलयोर्वक्षसि च स्पृष्ट्वा प्रवेशयति / याश्च तत्र स्फिटिता द्वारविप्रनष्टा इतस्ततः परिभ्रमन्ति तासां यतनया यथा अप्रीतिक न भवति तथा स्मारणा कर्तव्या / आर्ये ! इहाऽऽगच्छ, इतो न भवति द्वारम् / अथ द्वितीयपदमाहबिइयपदें गिलाणाए, तु कारणा अहव होज एगागी। आगाढ़े कारणम्मि, गिहिणीसाए वसंतीणं / / 1081 / / द्वितीयपदे ग्लानायाः संयत्याः कारणादेकाकिन्यपि विचारभूमौ गच्छेत्, कथमिति चेदुच्यते-इह प्रवर्तिनी यदा आत्मतृतीया भवति. तत्राऽप्येका ग्लानायाः पार्श्वे तिष्ठति, द्वितीया तु निवेद्य निर्गच्छति / अथवा-सा अशिवादिभिः कारणैरेकाकिनी भवेत, तत्र चागाढे-आत्यन्तिके कारणे गृहनिश्रया वसन्तीनामे-काकिनीनां विधिरभिधीयते। एगा उ कारणठिया, अविकारकुलेसु इत्थिबहुलेसु / तुज्झ वसाऽहं णीसा, अज्जा सेज्जातरं भणति // 1052 / / एका आर्थिका कारणेन पुष्टालम्बनेनाऽविकारकुलेषुहास्यादिविकारविरहितेषु स्वीबहुलेषु स्थिता सती शय्यातरमित्थं भणति-अहं युष्मन्निश्रया वसामि, ये च मम किञ्चित् क्षणमायान्ति तत्राऽहं भवद्भिः स्मारणीया। इदमेव स्फुटतरमाहअपुव्यपुंसे अवि देहमाणी, वारेसि धूताऽऽदि जहेव भज्ज / तहाऽवरहेसु ममं पिपेक्ख, जीवो पमादी किमु जो ऽवलाणं // 1083 // भो श्रावक ! यथा त्वमपूर्वपुंसोऽदृष्टपूर्वपुरुषान् पश्यन्तीमपि आस्ता तैः सह संभाषणादि कुर्वाणामित्यपिशब्दार्थः, दुहितरम्, आदिशब्दाद्भगिनीप्रभृतिका भार्या वा यथा वारयसि तथा-ऽपराधेषु स्खलितेषुअनुचितसन्दर्शनादिषु मामपि प्रेक्षस्व अहमपि तथैव वारणीया। यतो जीवः सर्वोऽपि प्रायः प्रमादी-अनादिभवाभ्यस्तप्रमादबहुलः किं पुनर्योऽबलानां-स्त्रीणां सम्बन्धी, स चपलस्वभावतया सुतरां प्रमादीति भावः। पायं सकजग्गहणा ऽलसेयं, बुद्धी परत्थेसु अजागरूका। तमाउरो पस्सति णेहकत्ता, दोसं उदासीणजणो तहं तु / / 1054|| येयं प्रतिप्राणिस्वसंवेदनप्रत्यक्षा बुद्धिः सा प्रायः स्व-स्वकीय यत्कार्य हिताऽहितप्रवृत्तिरूप निवृत्तिरूपं वा तद्ग्रहणे तत्परिच्छदे अलसा-जडा, परार्थेषु तु-परप्रयोजनेषु जागरूका-जाग-रणशीलाः अत एव तद्दोषमिह-जीवलोके कर्ता-आत्मीय-कार्यसाधको जनः आतुर-उत्सुकः सन्न पश्यति, यकं दोषमुदासीनजनो-मध्यस्थलोकः तटस्थः पश्यति, अतोऽहं भवतां पाादात्मानमहितेषु वर्तमान निवारवामीति प्रक्रमः / तेणिच्छिए तस्स जहिं अगम्मा, वसंति णारीउ तहिं वसेज्जा। ता बेति रत्तिं सह तुज्झ णीहिं, अणिच्छमाणीसु बिभेमि बेति // 1085 / / एवमुक्ते सति यद्यसौ श्रावक इति तदुक्तं प्रतिपद्यते तदा तस्य-शय्यातरस्य यत्रागम्या-माताभगिनीप्रभृतयो नार्यो वसन्ति तत्र सा एकाकिनी संयती वसेत् / ताश्च स्त्रियो ब्रूते, रात्रौ युष्माभिः सह कायिकाद्यर्थ निर्गमिष्यामि, अतो यदा भवत्य उत्तिष्ठन्ते तदा मामप्युत्थापयत / यदि ता नेच्छन्ति ततोऽहं रात्रावेकाकिनी निर्गच्छन्ती बिभेमि एत्येव ब्रवीति / एवमप्युक्ता यदि ता द्वितीया नाऽऽगच्छन्ति। तदा किं कर्त्तव्यमित्याहमत्तासईए अपवत्तणे वा, सागारिए वा निसि णिक्खमंती। तासिं णिवेदेतु ससइदंडा, अतीति वा णीति व साधुधम्मा ! // 1086 // मात्रके कायिकी व्युत्सर्जनीया। अथ मात्रकं नास्ति, यदा-तस्या मात्रके कायिक्याः प्रवर्तमाने गमनं न भवति, सागारिकबहुलं वा तद्गृहम्। एतैः कारणैः निशि-रात्रावेकाकिनी निष्क्रामन्ती तासां शय्यातराणां निवेद्य शब्दकाशितादिशब्दं कुर्वती दण्डकं हस्ते कृत्वा साधुधर्माशोभनसमाचारा अतियाति वा निर्गच्छति वा / एवं तावद्विचारभूमिविषयो विधिरुक्तः। (37) अथ विहारभूमिविषयमाहएगहि अणेगाहि व, दिया व रातो व गन्तु पडिसिद्धं / चउगुरु आयरियादी, दोसा ते चेव जे भणिया // 1086 / / एकाकिनीनाम्, अनेकाकिनीनां वा बहीनामपि गाथायां च षष्ठ्यर्थे तृतीया, दिवा वा रात्रौ वा विहारभूमौ संतीनां गन्तुं प्रसिषिद्ध न कल्पते। अत एव योनमर्थमाचार्याः प्रवर्त्तिन्यां न कथयन्ति तदा चतुर्गुरवः, प्रवर्तिनी भिक्षुणीनां न कथयति चतुर्गुरवः, भिक्षुण्यो न प्रतिशृण्वन्ति लधुमासः, दोषाश्च त एव द्रष्टव्याः ये पूर्व विचारभूमौ भणिताः द्वितीयपदे गन्तव्यमपीति दर्शयतिगुत्ते गुत्तदुवारे, दुञ्जणवज्जे णिवेसणस्संतो! वाडग संबंधिणियस-णि बितिय आगाढसंविग्गा 1087 //
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________________ विहार 1327 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विहार गुप्ते गुप्तद्वारे दुर्जनवर्जे, दुःशीलजनरहिते गृहे स्वाध्यायकरणार्थ गन्तव्यं, तच्च गृहं यदि निवेशनस्य पाटकास्याभ्यन्तरवर्ति भवति / अथ निवेशनान्तर्न प्राप्यते ततोऽन्यस्मिन्नपि पाटके यः संयतीनां पितृभ्रात्रादिशकनीयः सम्बन्धी, यो वा शय्यातरस्य निजसुहृदादि, यो वा संज्ञी श्रावको मातापितृसमानस्तस्य गृहे गन्तव्यम्। एतच्च द्वितीय पदमागाढे संविनाया आर्यिकाया मन्तव्यम्, किमुक्तं भवति व्याख्याप्रज्ञप्ति प्रभृतिश्रुतसम्बन्धे तमागाढयोगं काचिदार्यिका प्रतिपन्ना, सा च यदि संविग्ना हास्यादिवर्जिता ततस्तस्या आत्मतृतीयया आत्मचतुर्थया आत्मपञ्चमया वा पूर्वोक्तगुणोपेतं गृहं गत्वा स्वाध्यायः कर्तुं कल्पते। पडिवत्तिकुसलअजा, सज्झायज्झाणकरण उझुता। मोत्तूण अब्भरहितं, अजाण ण कप्पती गंतुं॥१०८७।। प्रतिपत्तिः-उत्तरप्रदानं तत्र कुशला-निपुणा या काचिदार्या सा तस्याः समर्पणीया, तथा या आगाढे योग प्रतिपन्ना सा स्वाध्यायस्य यद् ध्यानमेकाग्रतया करणं तत्रेदृशे उद्युक्ता भवेत्, 'मोत्तूण अब्भरहियं' ति येषु कुलेषु यथाभद्रकादिषु संयतीनामागमनमभ्यर्हितं गौरवाऽहं तानि मुक्त्वा अन्यत्र कुले आर्यकाणां न कल्पते गन्तुम्। एवंविधकुले गत्वा स्वाध्यायं कुर्वतीनां यद्यसौ गृहपतिः 'प्रश्नयेत्-किमर्थं भवत्य इहाऽऽगताः?, ततः प्रतिपत्तिकुशलया वक्तव्यम्सज्झाइयं नऽस्थि उवस्सएऽम्हं, आगाढयोगं च इमा पवना। तरेण सो भवमिदं च तुज्झं, संभावणिज्जा उण अण्णहा ते // 106011 हे श्रावक ! योऽयमस्माकमुपाश्रयः तत्र स्वाध्यादिकं नाऽस्ति, इयं संयती आगाढयोगं प्रवृत्तावर्त्तते, 'तरेण' त्ति शय्यातरेण सह युष्माकमिदमीदृशं सकलजनप्रतीतं सौहार्द तन्मत्वा वयमत्र समागताः अतो नान्यथा त्वया वयं सम्भावनीयाः। अपिचखुद्दो जणो णऽत्थि ण याऽवि दूरे, पच्छणा भूमी य इहं पकामा। तुज्झेहि लोएण य विण्णमेत्तं, सज्झायसीलेसु जहोज्जमाणे॥१०६१|| क्षुद्रो जनो-वुर्जनलोक इह नास्ति, नचेदंयुष्मद्गृहं दूरे अस्मत्प्रतिश्रयाद् दूरवर्त्ति प्रच्छन्नभूमिश्वेह युष्मद्ग्रहे प्रकामाविस्तृता, अस्माकं स्वाध्यायो नियाघातं निर्वहति। किंचयुष्माकं लोकस्य च वृत्तं प्रतीतमेतत् यथा-'णे' अस्माकं स्वाध्यायशीलानां गाढतर उद्यमः-प्रयत्नो भवति / बृ०१उ०३ प्रक०। इदानी मार्गद्वारं प्रतिपादयन्नाह नियुक्तिकारःपंथं तु वचमाणं, जुगंतरं चक्खुणा व पडिलेहा। अइदूरचक्खुपाए, सुहुमतिरिच्छग्गएँ न पेहे // 325 / / पथि व्रजन् युगान्तरं-चतुर्हस्तप्रमाणं तन्मात्रान्तरं चक्षुषा प्रत्युपेक्षेत, किं कारणम् ? यतोऽतिदूरचक्षुःपाते सति सूक्ष्मास्तिर्यग्गतान् प्राणिनः 'न पेहे'-नपश्यति, दूरे दूरतरे प्रहितत्वाचक्षुषः ! अबासन्ननिरोहे, दुक्खं दंव पि पायसंहरणं। छक्कायविओरमणं सरीर तह भत्तपाणे य॥३२६|| अत्यासन्ने निरोधं करोति चक्षुषस्ततो दृष्ट्वाऽपि प्राणिनां दुःखेन पादसंहरणं पादं प्राणिनि निपतन्तं धारयतीत्यर्थः अतिसन्निकृष्ट-- त्वाचक्षुषः। 'छक्कायविओरमण' तिषटकायानां विराधनं भवति, शरीरविराधनां तथा भक्तपानविराधनां करोतीति। इदानीमस्या एव गाथायाः पश्चार्द्ध व्याख्यानयन्नाह __ भाष्यकार:उजमहो कहरत्तो, अवयक्खंतो वियक्खमाणो य। बायरकाए बहए, तसेतरे संजमे दोसा // 158|| ऊध्र्वमुखो व्रजन् कथासु च रक्तः-सक्तः 'अवयक्खंतो' ति पृष्ठतोऽभिमुखं निरूपयन् 'वियक्खमाणो' त्ति विविधं सर्वासु दिक्षु पश्यन्, स एवंविधो बादरकायानपि व्यापादयेत् त्रसेतरांश्वपृथिव्यादीन् स्थावरकायान् ततश्च संयमे-संयमविषया एते दोषा भवन्तीति। इदानीं शरीरविराधनां प्रतिपादयन्नाहनिरवेक्खो वचंतो, आवडिओ खाणुकंटविसमेसु।' पंचण्ह इंदियाणं, अन्नतरं सो विराहेजा // 16 // निरपेक्षो व्रजन् आपतितः सन् स्थाणुकण्टकविषमेषु विषमम्-उन्नतं, तेष्वापतितः पञ्चानामिन्द्रियाणां चक्षुरादीनामन्यतरत् स विराधयेत्। इदानीं 'भत्तपाणे यत्ति अवयवं व्याख्यानयन्नाहभत्ते वा पाणे वा, ऑवडियपडियस्स भिन्नपाए वा। छकायविओरमणं, उड्डाहो अप्पणो हाणी॥१६॥ आपतितश्चासौ पतितश्च आपतितपतितः तस्य साधोः भिन्ने-भग्ने वा पात्रके सति भक्ते वा प्रोज्झितेपानकेवा,ततः षट्कायव्युपरमणं भवति, उड्डाहश्च भवति, आत्मनश्च हानिःक्षुधाबाधनं भवति, ततःपुनः षट्कायव्युपरमणमुड्डाहश्च। दहि घय तकं पयम-बिलं व सत्थं तसेतराण भवे / खद्धम्मि य जणवाओ, बहुफोडे जं च परिहाणी।।१९१|| तानि गृहीतानि कदाचिदधिघृततक्रपयः काञ्जिकानि भवन्ति, ततश्च तानि शस्त्रम्, केषां ?-त्रसानामितरेषां च-पृथिव्यादीनां भवेत्, 'खद्धम्मि' त्ति प्रचुरे च तत्र भक्ते लोकेन दृष्ट सति जनापवादो भवति, उड्डाहः-यदुत 'बहुफोडे तित बहुभक्षका एत इति, या चाऽऽत्मपरि. तापनिकादिका परिहाणिसा च भवति / तथा पात्रविराधनायां याचनादोषान् प्रदर्शयन्नाह __ नियुक्तिकारःपत्तं च मग्गमाणे, हवेज पंथे विराहणा दुविहा। दुविहाय भवे तेणा, परिकम्मे सुत्तपरिहाणी॥३२७।।
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________________ विहार 1328 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विहि 1. चविषति सति ग्रामादौ भवेत् पथि विराधना द्विविधा- (26) आचार्यादिना सह गच्छेतः साधोविधिः। आत्मनिराधना, संयमविराधना च / पथि स्तेनाश्च द्विप्रकारा भवन्ति- / (27) विहारक्षेत्रस्य पूर्वोत्तरदिग्मानम्। उपधिस्तेनाः, शरीरस्तेनाश्चालब्धेऽपि कृच्छ्रात्पात्रके तत्परिकर्मयतः (28) भगवता कुत्र (51) इदं सूत्रं निरूपितम्। तद्व्यापारे लग्नस्य सूत्रार्थपरिहाणिः ओघ०। (प्रलम्बार्थ विहारः 'पलंब' शब्दे पञ्चमभागे 712 पृष्ठ गतः।) अध्वद्वारे,बृ०१ उ०३ प्रक० / निक (26) आर्यक्षेत्रविहारकारणम्। चूत। स्वाध्यायार्थ कन्द-रोद्यानादौ गमने,जीत०। बौद्धाद्यश्रये, प्रश्न० (30) निर्गन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा रात्रौ विकाले वा विहारनिषेधः / 1 आश्र० द्वार। (दुर्भिक्षादौ रात्रिभोजनस्य कल्पनीयता 'राइभोयण' (31) विहारे उपकरणत्यागे प्रायश्चित्तम्। शब्देऽस्मिन्नेवभागे 516 पृष्ठे उक्ता / ) चारिकाप्रविष्टस्य भिक्षोर्विहारः (32) किं पुनः सार्थे प्रत्युपेक्षणीयम्। 'थरियापविट्ठ' शब्दे तृतीयभागे 1155 पृष्ठे गतः / ) (गणादपक्रम्य (33) अध्वानं प्रतीत्य भङ्गाः। परपाखण्डप्रतिमानुपसम्पद्यते विहरेदिति 'उपसंपया' शब्दे द्वितीयभागे 1005 पृष्ठे उक्तम्।) (एकाकी एकया स्त्रिया सहन विहरेत् इति इत्थ' (34) रात्रौ विकाले वा एकाकिनो विहारनिषेधः / शब्दे द्वितीयभागे 614 पृष्ठे गतम्।) जिनकल्पिकस्य विहारः 'थविरकप्प' (35) एकाकिनो यतनाप्रतिपादनम्। शब्दे चतुर्थ-भागे 2388 पृष्ठे गतम्।) 'शिष्यस्कन्धचढितविहारवर्णकः (36) निर्गन्थ्या रात्रिविहारः। 'खंधचढियविहार' शब्दे तृतीय भागे 701 पृष्ठे गताः / ) (एकाकि- (37) विहारभूमिविषयः। विहारप्रतिमा एगल्ल विहार' शब्दे तृतीयभागे 20 पृष्ठे उक्ता।) (वीर विहारकप्प-पुं०(विहारकल्प) विहरणं विहारो वर्त्तनं तस्य कल्पो जिनेन्द्रस्य विहारः 'वीर' शब्दे वक्ष्यते 1) (वे वर्षारात्रे नैकत्र वसेत्, व्यवस्था स्थविरकल्पादीनामुच्यते-यत्र ग्रन्थेऽसौ विहारकल्पः पा विहारकालमानं च 'विवित्तचरिया' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 1248 पृष्ठे उत्कालिकश्रुतभेदे, नं०1 गतम् / ) (नदीसन्तरणम् ‘णईसंतार' शब्दे चतुर्थभागे 1738 पृष्ठे उक्तम्।) विहारगमण-न०(विहारगमन) विहरणं-क्रीडन विहार स्तेन गर नम्: अधिकारसूची उद्यानादौ क्रीडया गमने, सूत्र०१ श्रु०३ अ०२ उ०। (1) विहारनिक्षेपः। विहारघरय-न०(विहारगृहक) स्वनामख्याते उद्याने, चत्र दा सुपूज्या (2) गीतार्थनिश्रया विहारः। जिनो निष्क्रान्तः / आ० म०१ अ०1 (3) आत्मविराधनादिद्वारगाथा / विहारचरिआ-स्त्री०(विहारचर्या) विहाररूपायां साधुचर्यायाम, दश०२ (4) विहारकल्पिकः। अ०। ('विवित्तचरिया' शब्देऽस्मिन्नेव भागे विस्तरतो वर्णितैषा।) (5) गीतार्थानां तनिश्रितानां वा विहारः / विहारजत्ता-स्वी०(विहारयात्रा) उद्यानक्रीडायाम, 'विहारजत्तं निजाओ, (6) अगीतार्थस्य स्वच्छन्दमेकाकिनो विहारनिषेधः। मंडिकुंडिसि चेइए उत्त०२ अ०। (7) आचार्यस्योपाध्यायस्यैकाकिनो विहारो न कल्पते। विहारभूमि-स्त्री०(विहारभूमि) स्वाध्यायभूमी, आचा०२ श्रू०१चू०१ (8) जघन्यतः पञ्चकसप्तकाभ्यां हीनतायां प्रायश्चित्तम्। अ०१ उ० / बृ० / नि० चू०। भिक्षानिमित्तभ्रमणभूमौ, व्य०४ उ० / जिनचैत्यगमने, 'विहारो जिनसद्मनीति' वचनात् / कल्प०३ अधि० (8) व्याकुलनाया विहारः। ६क्षण। (10) कीदृशे द्वयोरन्यत्र गमनमुचितम् ? विहारवत्तिया-स्त्री०(विहारप्रतिज्ञा) विहरिष्यामीति गमन-प्रतिज्ञायाम्, (11) यैः कारणैरुपसंपद्यते तेषां निरूपणम्। आचा०२ श्रु०१ चू० 3 अ० 1 उ०। (12) वर्षासुन विहरेत्। विहारि(न)--त्रि०(विहारिन्) विहरतीत्येवंशीलो विहारी। ध० 3 अधि० / (13) विहारे आबाधादीनि स्थानानि। विहरणशीले, आचा०१ श्रु०५ अ०४ उ०। (14) सामान्येन शय्यामङ्गीकृत्य विधिः। विहादरी-स्त्री०(विभावरी) रात्रौ, ! पाइ० ना०। (15) प्रथमप्रावृषि ग्रामाऽनुग्रामविहारे प्रायश्चित्तम् / विहावसु-पुं०(विभावसु) अग्नौ, पाइ० ना०। (16) वर्षासु व्यथतिक्रान्तासु विहरेत्। विहि-स्त्री० विधि-पुं० विधानं विधिः। प्रकारे, आव०६ अ० / ज्ञा० / (17) हेमन्तग्रीष्मयोर्विहारः। दश० / भेदे, व्य०५ उ० / उपा० / सम्यग्ज्ञानदर्शनयोर्योगपद्येनाप्तौ, सूत्र०१U०११अ०उपोद्घाते,आव०१ अ०। प्ररूपणे, आ०म०१ (18) विहारद्वारविषयो विधिः। अ०। अनुष्ठाने, प्रश्न०३ आश्र०द्वार। विधाने, सम्यक्करणे, पञ्चा०५ (16) मासकल्पादन्येऽपि विहाराः। विव०।०। अनुज्ञायाम, आव० 4 अ०। न्यायः स्थितिमर्यादा विधान(२०) मार्गयतनामधिकृत्य विहरेत्। मित्येकार्थाः / आचारे, व्य०७उ० आ०म०। विस्तरे, रचनायाम, (21) यत्राऽन्तरा ग्रामे चौरास्तत्र न विहरेत्। नि० चू०१उ०। सर्वकौशले, आ० म०२ अ०। प्रतिपत्तिक्रमे, पञ्चा०२ (22) अराजकादिग्रामेषु न विहरेत्। विव० / शास्त्रोक्ते न्याये, श्रद्धासत्कारक्रमयोगाऽऽदौ, हा०२४ अष्ट० / अस्तित्वादिभावे नयो० / विधिमभिदधति- "विधिः-- सदश" इति / (23) मार्गे वप्रादिके विहारविधिः / सदसदंशाल्मनो वस्तुनो योऽयं सदंशो भावरूपः स विधिरित्यभिधीयते। (24) प्रातिपथिकपृच्छायां विहारविधिः। रत्ना०३ परि०। विचारे, सम्म०३ काण्ड। "वेमाजल्याद्याः स्त्रियाम्" (25) मार्गे वप्राऽऽदीनि नाऽड्गुल्या दर्शयेत्। ||8/1 / 35 / / इति स्त्रीत्वम्-विही। प्रा०।
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________________ विहि 1326 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विहिसेस एकार्थाः यस्येति / गुरुदत्ततपोऽनुष्ठातरि, जीत०। अणुपुव्वी पडिवाडी, कमो य नाओ ठिई य मनाया। विहिया-रत्री० (विहिता) "वृद्ध्याद्यर्थमसङ्ग स्य, भ्रमरोपमयाऽटतः। होइ विहाणं च तहा, विहीऍ एगट्ठिया हुंति / / गृहिदेहोपकाराय, विहितेति, शुभाशयात् / / 1 / / " इत्युक्तलक्षणे आनुपूर्वी परिपाटी क्रमः न्यायः स्थितिः मर्यादा विधानमेकार्थिकानि भिक्षाभेदे, ध०१ अधि० विधेरेतानि। बृ० 1 उ०१ प्रक० / विहियाऽणुट्ठाण-न०(विहिताऽनुष्ठान) विहितमाप्तागमे विधेयतयाऽविहिंस-त्रि०(विहिंस्य) विहिंस्यन्त इति विहिंस्याः। विधात्येषु. प्रश्न० नुमतं यदनुष्ठानं क्रिया तद् विहितानुष्ठानम्। पञ्चा०६ विव० / दीक्षा दीक्षितसमाचाररूपसद्वृत्ते, पञ्चा०२ विव० ।आगमोक्तक्रियायाम, पञ्चा० २आश्र० द्वार। 16 विव० / उचिताक्रियायाम, पञ्चा०१८ विव०। विहिंसण-न०(विहिंसन) विविधव्यापादने, प्रश्न०१ आश्र० द्वार। विहियाऽणुट्ठाणपर-त्रि०(विहिताऽनुष्ठानपर) आगामोक्त-क्रियानिष्ट विहिंसमाण-त्रि०(विहिंसत्) विविधैरुपायैर्हिसति, आचा०१ श्रु०५ अ० पञ्चा० 14 विव०। 5 अ०। विहिवाय-पुं०(विधिवाद) 'अग्निहोत्रं जुहुयात्स्वर्गकामः' इत्यादिके विहिंसा-स्त्री०(विहिंसा) विविधैरुपायैर्हिसायाम्, आचा०१ श्रु०५ अ० चोदनावाक्ये, आ० म०१ अ०। 4 उ० / जन्तुघातादौ, अनु० / विघाते, प्रश्न० 1 आश्र० द्वार / विहिसार-पुं०(विधिसार) विधिप्रधाने; ध०२०। विर्हिसिय-त्रि०(विहिंसित) हिंसां प्राप्तं हिंसितम्, विरूपं हिंसित विहि विहिसारं चिय सेवइ, सद्धालू सत्तिमं अणुट्ठाणं। * सितम्। असम्यनिर्जीवीकृते, सूत्र०२ श्रु०१अ०। दव्याइदोसनिहओ, विपक्खवायं वहइ तम्मि||१|| विहिकरण न०(विधिकरण) आगमोत्तीर्णविधिविधाने, जी०१ प्रति०। विधिसारं-विधिप्रधान सेवते अनुतिष्ठति श्रद्धालुः-- श्रद्धा गुणवान् विहिकारग-त्रि० (विधिकारक) सूत्राज्ञासम्पादके, पं० व० 1 द्वार। शक्तिमान-सामोपेतः सन्ननुष्ठानं-प्रत्युपेक्षणैषणादिकं श्रद्धालुत्वविहिगहिय-त्रि०(विधिगृहीत) अलुब्धेनोद्गमिते, लोभराहित्येनोद्गमा- स्थान्यथानुपपत्तेः, यदि पुनः- शक्तिमान्न स्यात् ततः का वार्तेत्याह?दिदोषदुष्ट, आव०६अ। द्रव्याण्याहारादीनि आदिशब्दात्-क्षेत्रकालभायाः परिगृह्यन्ते, तेषां विहिणाह-पुं०(विधिनाथ) कोटाद्वारतीर्थे पार्श्वप्रतिमायाम्, ती०४३ दोषः-- प्रतिकूलता तेन निहतोऽपिगाढपीडितोऽपि पक्षपात भावप्रतिबन्ध वहति-धारयति, तरिमन्नेव-विध्यनुष्ठान एव साधारणत्वाद्वाक्यस्येति। ध००३ अधि०२ लक्ष०। विहिपडिसेहजुय-त्रि०(विधिप्रतिषेधयुत) वनस्पत्यादिहिंसादिष्वासेवापरिहारान्विते. पञ्चा०११ विव०। विहिसाराऽणुट्ठाण-न०(विधिसाराऽनुष्ठान) प्रवचनकुशलभेदे, ध०२०। सम्प्रति विधिसारानुष्ठानमिति पञ्चमं भेदं प्रकटयन् गाथापूर्वार्द्धमाहविहिपडिसेहाऽणुग-न०(विधिप्रतिषेधाऽनुग) विधिश्च प्रतिषेधश्च तावनु वहइ सह पक्खवायं, विहिसारे सव्वधम्मणुट्ठाणे (544) गच्छति यत्तत् विधिप्रतिषेधानुगम् / रुचिनिरपेक्षतया शास्त्रानुसारेण क्रियासु प्रवर्तने, दर्श०३ तत्त्व। वहति-धत्ते सदा पक्षपात-बहुमान विधिसारे-विधानप्रधाने सर्वधर्मा नुष्ठाने-देवगुरुवन्दनादौ, इदमुक्तं भवति-विधि-कारिणमन्यं बहु मन्यते विहिपवा-स्त्री०(विधिप्रपा) स्वनामख्याते प्रकरणग्रन्थे, अष्ट० 16 अष्ट। स्वयमपि सामग्रीसद्भावे यथाशक्ति विधिपूर्वकं धर्मानुष्ठाने प्रवर्तते, विहिपारण-न०(विधिपारण) प्रत्याख्यानस्पर्शनादिविधानयुक्ते, भोजने, सामग्यभावे पुनर्विध्याराधनमनोरथान्न मुञ्चत्येवमप्यसावाराधकः स्यात् पञ्चा० 16 विव०। ब्रासेनश्रेष्ठिवत्। ध००२ अधि०। (तत्कथा 'बंभसेण' शब्दे पञ्चमभागे विहिपुव्व-न०(विधिपूर्व) अविधिपरिहारेण (षो० 6 विव०) शास्त्रोक्त- गता।) विधानपुरःसरे, पो० 12 विव० विहिसाहण-न०(विधिसाधन) अनुष्ठानप्रकाशने, पञ्चा० 2 विव०। विहिप्पओग-पुं०(विधिप्रयोग) दुनिर्मित्तप्रणिधानविधानप्रयुक्तो, पञ्चा० विहिसुवण-न०(विधिस्वपन) जिनार्चनवन्दनविशेषप्रत्याख्यानकरणा१२ विव०। दिविधिना शयनक्रियायाम, पञ्चा०१ विव०। विहिभुत्त-न०(विधिभुक्त) एषणीयं गृहीत्वा पश्चान्मण्डल्यां कृतप्रतरगच्छे विहिसेवणा-स्त्री०(विधिसेवना) नीत्यनुपालनायाम्, पञ्चा०८ विव०। सिंहखादितेन विधिना वा भुक्ते, आव०६ अ०। विहिसेवा-स्त्री०(विधिसेवा) आगमाभिमतन्यायसेवायाम्, "विधिसेवा विहिय-त्रि०(विहित) आचरिते, संथा० / चेष्टिते, ज्ञा० 1 श्रु० 1 अ०। दानादौ" विधिसेवा-आगमाभिमतन्यायसेवा / षो०५ विव०। अनुष्ठाने, नपुंका आव०३ अ०। पिजिते, दे० ना०७ वर्ग 64 गाथा। | विहिसेस-पं०(विधिशेष) विहितानुष्ठानस्य उक्तापेक्षयाऽनुक्ते शेष, पञ्चा० विहियतव-त्रि०(विहिततपस्) विहितं दत्तं गुरुभिस्तपोरूपं प्रायश्चित्तं / 1 विव०॥ कल्प।
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________________ विहुणण 1330 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वीइवयण विहुणण-न०(विधुनन) वीजनके, बृ० 4 उ०॥ दशा० / सूत्र०। | वीइवइत्ता-अव्य०(व्यतिव्रज्य) व्यतिक्रम्येत्यर्थे भ०३ श०७ उ०। विहुणिय-अव्य०(विधूय) कल्पयित्वेत्यर्थे, सूत्र० 1 श्रु० 2 अ० 1 उ०। वीइवयण-न०(व्यतिव्रजन) व्यतिक्रमे, उल्लङ्कने, म०। अपनीयेत्यर्थे, सूत्र०२ श्रु०६ अ०। आचा० / विध्वस्येत्यर्थे, स्था०३ अप्पडीए णं भंते ! देवे सेमहड्डियस्स देवस्स मज्झं मज्झेणं ठा० 3 उ० / सूत्र० वीइवइज्जा ? णो तिणढे समटे | समिड्डीए णं भंते ! देवे विहुय-त्रि०(विधूत) प्रकम्पिते, आव०२ अ०। विविधमनेकप्रकारं धूतम- समिड्डियस्स देवस्स मज्झं मज्झेणं वीइवएज्जा ? णो तिणढे पनीतम्। आचा०१ श्रु०३ अ०३ उ०। समढे, पमत्तं पुण वीइवएज्जा, से णं भंते ! किं विमोहित्ता पभू विहुयकप्प-त्रि०(विधूतकल्प) विधूतः कल्प आचारो यस्याऽसौ विधूत अविमोहित्ता प्रभू ? गोयमा ! विमोहेत्ता पभू नो अविमोहेत्ता कल्पः। अपनीताचारे, आचा०१ श्रु०३ अ०३ उ०। पमू / से भंते ! किं पुट्विं विमोहेत्ता पच्छा वीइवएज्जा, पुटिव वीइवएजा पच्छज्ञ विमोहेजा? गोयमा! पुट्विं विमोहेत्तापच्छा विहुर-न०(विधुर) इष्टजनवियोगे, ज्ञा० 1 श्रु०२ अ०। आव०। वीइवएजा, णो पुट्विं वीइवइत्ता पच्छा विमोहेज्जा / महिड्डीए णं विहूण-त्रि०(विहीन) रहिते, नि०। मंते ! देवे अप्पड्डियस्स देवस्स मज्झ मज्झेणं वीइवएज्जा ? विहेज-त्रि०(विधेय) विधिविषये, सूत्र० 1 श्रु० 13 अ० / हंता वीइवएजा, से णं भंते ! किं विमोहित्ता पभू अविमोहेत्ता विहेजया-स्त्री०(विधेयता) विषयताविशेष, प्रति०। पभू ? गोयमा ! विमोहेत्ता वि पभू अविमोहेत्ता विपभू, से भंते ! विहेडंत-त्रि०(विहेटयत्) विशेषेण हिंसति, उत्त० 12 अ०। किं पुट्विं विमोहेत्ता पच्छा वीइवइज्जा पुट्विं वीइवइत्ता पच्छा विमोहेजा ? गोयमा ! पुट्विं वा विमोहेत्ता पच्छा वीइवइजा विहेढय-त्रि०(विहेठक) विविधमनेकप्रकार, हेटको-बाधकः / ऋक् पुटिव वा वीइवएत्ता पच्छा विमोहेजा। अप्पिड्डिए णं भंते ! संस्थानीये अभिचारमन्त्रे, 'षट्शतानि नियुज्यन्ते, पशूनां मध्येऽहनि / अश्वमेधस्य वचनान्न्यूनानि पशुभिस्त्रिभिः / / 1 / / " इत्यादि / सूत्र० 1 असुरकुमारे महड्डियस्स असुरकुमारस्स मज्झं मज्झेणं वीइव एज्जा ? णो इणढे समढे, एवं असुरकुमारेऽवि तिन्नि आलावगा श्रु०८ अ०। भाणियव्वा, जहा ओहिएणं देवेणं भणिया, एवं० जाव थणियविहेलय-पुं०(विभेलक) ग्रामाकग्रामे प्रतिमास्थितस्य वीरजिनेन्द्रस्य कुमाराणं, वाणमंतरजे इसियवेमाणिए णं एवं चेव / / अप्पड्डिए पूजके स्वनामख्याते यक्षे, आ० चू०१अ०। णं भंते ! देवे महिड्डियाए देवीए मज्झं मज्झेणं वीइवएज्जा ? णो विहोड-धा०(तडि) आघाते, "तडेराहोड-विहोडौ' ||8|4 / 27 / / इति इणद्वे समढे / समड्डिए णं भते ! देवे समिड्डियाए देवीए मज्झं तडेः ण्यन्तस्य विहोडदैशः। विहोडयति। ताडयति। प्रा० जुगुप्सनीये, मज्झेणं वीइवएज्जा, एवं तहेव देवेण य देवीण य दंडओ बृ०१ उ०२प्रक० भाणियव्वो० जाव वेमाणियाए || अप्पड्डिया णं भंते ! देवी वीअ-देशी-विधुर-तत्कालयोः दे० ना०७ वर्ग 63 गाथा। महड्डियस्स देवस्स मज्झं मज्झेणं एवं एसो वि तइओ दंडओ वीइ-रत्री०(वीचि) महाकल्लोले, औ० / भ० / पाइ० / ना० / ऊर्मी, भाणियव्वो० जाव महड्डिया वेमाणिणी अप्पड्डियस्स वेमाणियस्स आव० 4 अ० / स्था० / हस्वकल्लोले, विविक्तत्वे, विवेचनाद्वि- मज्झमझेणं वीइवएज्जा ? हंता वीइवएजा। अप्पड्डिया णं भंते ! विक्तस्वभावाद्वीचिः / आकाशे, भ०२० श०२ उ०। देवी महिड्डियाए देवीए मज्झं मज्झेणं वीइवएज्जा ? णो इणढे समढे, एवं समड्डिया देवी समड्डियाए देवीए, तहेव महड्डिया वि वीइंगाल-न०(वीताङ्गार) वीतो-गतोऽङ्गारो रागो यस्मात्तद्वीताङ्गारम्। अङ्गाराख्यग्रासैषणादोषरहिते भिक्षाभेदे, भ०७ श०१ उ० / देवी अप्पड्डियाए देवीए तहेव, एवं एकेके तिन्नि तिन्नि आलावगा भाणियव्वा० जाव महड्डिया णं मंते ! वेमाणिणी अप्पड्डियाए वीइत-त्रि०(व्यतिक्रान्त) उल्लसितवति, भ०१० श०३ श०। वेमाणिणीए मज्झं मज्झेणं वीइवएज्जा ? हंता वीइवएज्जा, सा वीइक्कमइत्ता-अव्य०(व्यतिक्रमय्य) नीत्वेत्यर्थे, भ०७ श०१ उ०।। भंते ! किं विमोहित्ता पभूतहेव० जाव पुविं वा वीइवइत्ता पच्छा वीइपंथ-पुं०(वीचिपथिन्) कषायवतो मार्ग, भ० 10 श०२ उ० / (अस्य विमोहेजा एए चत्तारि दंडगा। (सू०४०१) भ० 10 श०३ उ०। व्याख्या 'अणगार' शब्दे प्रथमभागे 272 पृष्ठे गता।) देवेणं भंते ! महाकाए महासरीरे अणगारस्स भावियप्पणो मज्झं वीइधूम-न०(वीतिधूम) द्वेषरूपदोषरहिते, भ०७ श० 1 उ०। मज्झेणं वीइवएज्जा ? गोयमा ! अत्थेगइए वीइवएज्जा अत्थेगतिए वीइभय-न०(वीतिभय) सिन्धुसौवीरेषु उदायननृपपालिते नगरे, भ०१३ नो वीइवएज्जा, से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ अत्थेगतिए वीइवएज्जा श०६ उ०। आ० चू० / आव०। नि० चू०। अत्थेगतिए नो वीइवएज्जा ? गोयमा ! दुविहा देवा, पण्णत्ता / तं
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________________ वीइवयण 1331 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वीसेस जहा-मायी मिच्छाठिी उववन्नगा य, अमायी सम्मट्टिी पुट्विं वा वीइवइत्ता पच्छा सत्थेणं अक्कमिज्ज' त्ति 'चत्तारि दंडगा भाणिउववन्नगा या तत्थ णं जे से मायी मिच्छादिट्ठी उववन्नए देवे से यव्य' ति तत्र प्रथमदण्डक उक्तालापकत्रयात्मको देवस्य देवस्य च, णं अणगारं भावियऽप्पाणं पासइ पासित्ता नो वंदित नो नमसति द्वितीयस्त्वेवंविध एव नवरं देवस्य च देव्याश्च, एवं तृतीयोऽपि नवरं देव्याश्च नो सक्कारेति नो कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं० जाव पज्जुवासति, | देवस्य च, चतुर्थोऽप्येवं नवर देव्याश्च देव्याश्चेति, अत एवाऽऽह-''जाव से णं अणगारस्स भावियप्पणो मज्झं मज्झेणं वीइवएज्जा, तत्थ महड्डिया वेमाणिणी अप्पड्डियाए वेमाणिणीए' त्ति 'मज्झं मज्झेणं' णं जे से अमायी सम्मट्ठिी उववन्नाए देवे से णं अणगारं इत्यादि तु पूर्वोक्तानुसारेणामध्येयमिति / भ०१४ श०३ उ०। (व्यतिभावियऽप्पाणं पासइ पासित्ता वंदतिनमंसति० जाव पञ्जुवासति। व्रजनं विचित्रं परिणाममधिकृत्य 'तेउक्काइय' शब्दे चतुर्थभागे 1348 से णं अणगारस्स भावियप्पणो मज्झं मज्झेणं नो वीयीवएज्जा, पृष्ठे विस्तरतः प्रतिपादितम्।) से तेणऽटेणं ! गोयमा! एवं वुच्चइ० जाव नो वीइवएजा। असुर- वीचि(इ)दव्य-न० (वीचिन्द्रव्य)। वीचिर्विवक्षितद्रव्याणां तदवयवाना च कुमारे णं भंते ! महाकाये महासरीरे, एवं चेव एवं देवदंडओ परस्परेण पृथग्भावो 'विचिर' पृथग्भावे इतिवच नात् तत्र वीचिप्रधानानि भणियव्वो० जाव वेमा-णिए। (सू०५०६) द्रव्याणि वीचिद्रव्याणि। एकादिप्रदेशन्यूनेषु द्रव्येषु० भ०१४ श०६ उ० / 'देवेणं' इत्यादि, इह च क्वचिदियं द्वारगाथा दृश्यते 'महाकाए सकारे, यावता द्रव्य-समुदायेनाहारः पूर्यत स एकादिप्रदेशोनो वीचिद्रव्याण्युसत्थेणं वीइवयंति देवा उ / वीसं चेव या ठाणा० नेरइयाणं तु परिणामे च्यते, पीर पूर्णस्त्ववीचिद्रव्याणीति टीकाकारः। भ०१४ श०६ उ०। 1 // 1 // " इति, अस्याश्वार्थ उद्देशकार्थाधिगमावगम्य एवेति / महाकायत्ति (नैरथिकादयो वीचिद्रव्याण्यवीचिद्रव्याणि वा आहारयन्ती ति सख्यामहान् वृहत् प्रशस्तो वा कायो-निकायो यस्य स महाकायः, महासरीरे' ख्यम् 'आहार' शब्दे द्वितीयभागे 506 पृष्ठे उक्रम्।) त्ति बहत्तनुः / एवं देवदंडओ भाणियव्वो' त्ति नारकपृथिवीकायिकादी वीचि(इ)वेग-पुं० (वीचिवेग) कल्लोलवेगे, व्या० 1 उ०। नामधिकृतव्यतिकरस्याऽसम्भवात् देवानामेव च सम्भवाद्देवदण्डकोऽत्र वीची-(देशी)-लघुश्यामायाम्, दे० ना०७ वर्ग 73 गाथा। व्यतिकरे भणितव्य इति। भ०१४ श०३ उ०॥ वीण-स्त्री० (वीणा) "स्वराणां स्वराः प्रायोऽपभ्रंशे'' ||8||4 / 326 / / अप्पड्डीए णं भंते ! देवे महड्डियस्स देवस्स मज्झं मज्झेणं इत्याकारस्य ह्रस्वः। प्रा० / विपञ्च्याम्, प्रश्न० 5 संव० द्वार। जी० / वीइवएज्जा ? नो तिणद्वे समढे,समिवीएणं भंते ! देवे समड्डियस्य आचा०। देवस्य मज्झं मज्झेणं वीइवएज्जा, णो इणढे समढे, पमत्तं पुण वीणिया-स्त्री० (वीणिका) वाद्यविशेषे, स्त्रिया स्वार्थे कः प्रत्ययः / आचा० वीइवएज्जा, से णं भंते ! किं सत्थेणं अक्कमित्ता पभू अणक्कमित्ता 2 श्रु० 2 चू० 4 अ० / 'तुंबवीणियसद्दाणि वा नि० चू० 5 उ० / पभू ? गोयमा ! अक्कमित्ता पमूनो अणकमित्ता पभू, से णं भंते ! (अनेकप्रकारा वीणिका 'मुहवीणिया' शब्देऽस्मिन्नेव भागे गता।) किं पुट्विं सत्थेणं अक्कमित्ता पच्छा वीयीवएज्जा पुटिव वीईवएज्जा वीतगिद्धि-स्त्री० (वीतगृद्धि) विगता गृद्धिर्विषयेषु यस्य स वीतगृद्धिः / पच्छा सत्थेणं अक्कमेजा ? एवं एएणं अभिलावेणं जहादसमसए __ आशंसादोषरहिते, सूत्र०१ श्रु०८ अ०। आइडीउद्देसए तहेव निरवसेसं चत्तारिदंडगा भणियव्वा० जाव महड्डिया वेमाणिणी अप्पड्डिया वेमाणिणीए। (सू०५०४४) वीभावण-न० (विभापन) भयोत्पादने, नि० चू०। 'अप्पड्डिए णं' इत्यादि, 'एवं एएणं अभिलावेणं' इत्यादि 'आइड्डि वीहावेती मिक्खू, भंते लहुगा गुरू मसंतंमि। आणादी मिच्छत्तं, विराहणा होति सा दुविहा॥४१।। उद्देसए' त्ति दशमशतस्य तृतीयोद्देशके 'निरवसेसं ति समस्तं प्रथम दण्डकसूत्रं वाच्यम्, तत्र चाल्पर्द्धिकमहर्द्धिकाऽऽलापकः समर्द्धिकालाप नि० चू० 11 उ० (अस्या व्याख्या- 'भय' शब्दे पञ्चमभागे 1376 पृष्ठे कश्चेत्यालापकद्वयं साक्षादेव दर्शितम्, केवलं समर्द्धिकालापकस्यान्तेऽयं गता।) सूत्रशेषो दृश्यः- गोयमा ! पुव्वि सत्थेणं अक्कमित्ता पच्छा वीइवएज्जा नो वीमंस पुं० (विमर्ष) विमर्षणं विमर्षः / अपायात्पूर्वे ईहायाश्चोत्तरे प्रायः पुवि वीईवइत्ता पच्छा सत्थेणं अक्कमिन्ज' तितृतीयस्तुमहर्द्धिकाल्पर्द्धि- शिरःकरण्डूयनादयः पुरुषधर्मा इह घटन्ते इति। पुरुषोऽयमिति प्रत्यये, कालापकः, एवम् - 'महड्डिए णं भंते ! देवे अप्पड्डियस्स देवस्स मज्झं विशे० / आ० म० 1 नं०। मज्झेणं वीइवएना ?, हंता वीइवएज्जा, सेणं भंते ! किं सत्येणं अक्कमित्ता विमर्श-पुं० / इदमित्थमेव घटते इत्थं वा तद्भूतमित्थमेव वा पभू अणक्कमित्ता पभू ! शस्त्रेण हत्वा अहत्वा वेत्यर्थः, 'गोयमा ! अक्कमित्ता तद्भावीति यथा-वस्थितवस्तुस्वरूपनिर्णये, / नं० / चिन्तात वि पभू अणक्कमित्ता वि पभू / से णं भंते ! किं पुव्वि सत्थेणं अक्कमित्ता ऊर्ध्व क्षयोपशमविशेषात् स्पष्टतरं सद्भूतार्थविशेषाभिमुखे पच्छा वीइवएजा पुवि वीइवइत्ता पच्छा सत्थेणं अक्मेज्जा ? गोयमा। एवं व्यतिरेकधर्मपरित्यागतोऽन्वयधर्मापरित्यागतोऽन्वयध
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________________ वीमंस 1332 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वीयराग मविमर्शनं विमर्शः / ईहायाम, नं०। आ० चू० / सूत्र० / किमेष साधुः उज्झितव्यमेत हेयतया। विज्ञातं मया, कल्याणमित्रगुरुभगवद्वचनात्। शक्यः क्षोभयितुंनवेत्येवमादिके विकल्पे, वृ०१ उ०३ प्रक०। भगवद्वचनप्राप्तौ प्राय इयमानुपूर्वीत्येवमुपन्यासः / एवमेतदिति रोचित वीमंसा-स्त्री० (मीमांसा) मातुमिच्छा मीमांसा / प्रमाणजिज्ञासायाम, श्रद्धया तथाविधकर्मक्षयोपशमजया। ततः किम् ? इत्याह-अर्हत्सिद्धविशे० / नं०। आ०म०१ परीक्षायाम्, नि० चू० 1 उ० / शैक्षकादिपरी समक्षं तानधिकृत्य गर्हेऽहमिदं; कुत्सामीत्यर्थः / कथम् ? इत्याह - क्षायाम्, “वीमंसा सेहमाईणं" स्था० 10 ठा०१ उ०। दुष्कृतमेतत्, उज्झितव्यमेतत् / अत्र - व्यतिकरे 'मिच्छा मि दुक्कड' वीय-त्रि०(वीत) विगते, स्था०२ ठा०१०। अपगते, विशे०। वारत्रयं पाठः / व्याख्या अस्य अर्थविशेषत्वात्प्राकृताक्षरैरेव न्यया, नियुक्तिकारवचनप्रामाण्यात्। आह च नियुक्तिकार :दीयण-न० (वीजन) वंशादिमये अन्तर्ग्राह्यदण्डे वायूदीरके, भ०६ श० "मि त्ति मिउमद्दवत्ते, छत्ति य दोसाण छायणे होइ। 33 उ०। ज्ञा० मित्ति य मेराएँ ठिओ, दुत्ति दुगुच्छामि अप्पाणं // 686|| व्यजन-न० / चामरादिना वायुकरणे, दश० 4 अ० / सूत्र० / आचा० / कति कड मे पावं, डत्ति य डेवेमि तं उवसमेणं। प्रश्न०1 एसो मिच्छादुक्कड-पयवखरत्थो समासेणं // 657 // " दीयदोस पुं० (वीतद्वेष) द्विष्यतेऽनेनेति द्वेषः द्वेषमोहनीय कर्म आत्मनः अत्रैतत्सुन्दरत्वान्नाऽसम्यगभिमन्यमान आहक्वचिदज्ञानपरिणामापादनात् द्वेषण द्वेष वेदनीयकर्मापादितो भावोऽप्रीतिपरिणाम एव / वीतो द्वेषो यस्येति। क्षीणद्वेष, पं० सू०१ सूत्र। होउ मे एसा सम्म गरिहा / हो उ मे अकरणनिअमो / बहुमयं ममेअंति इच्छामि अणुसढेिं / अरहताणं भगवंताणं गुरूणं वीयभय-न० (धीतभय) उदयनराजपालिते सिन्धुसोवीरदेशप्रधान कल्लाणमित्ताणं ति होउ मे एएहिं संजोगो / होउ मे एसा नगरे, आ०० 3 अ०। प्रव०। ती०। प्रज्ञा०। आ० म० / आव०। सुप्पत्थणा होउ मे इत्थ बहुमाणो। होउ मे इओ मुक्खबीअंति। वीयमोह-पुं० (वीतमोह) मुह्यतेऽनेनेति मोहः वेदनीयं कर्म / आत्मनः भवतु मम एषा - अनन्तरोदिता, सम्यग्गहरे भावरूपा / भवतु में क्वचिदज्ञानपरिणामापादनात मोहनं वा मोहः / मोहनीयकर्मापादितो अकरणनियमः ग्रन्थिभेदवत्तदबन्धरूपः, गर्हाविषय इति सामर्थ्यम् / भावोऽज्ञानपरिणामः / क्षीणमोहे, पं० सू०१ सूत्र। बहुमतं ममैतद द्वयम्, इत्यस्मादिच्छामि अनुशास्तिम् - उदितप्रवीयराग-पुं० (वीतराग) वीतो रागो मायालोभकषायोदयरूपो यस्य स पञ्चबीजभूताम् / केषाम् ? इत्याह - अहता भगवतां, तथा गुरुणा वीतरागः / दर्श०५ तत्त्व / कर्म० स्था० / व्यपेताभिष्वड़े, पञ्चा०४ कल्याणमित्रणामिति। प्रतिपन्नतत्त्वानां गुणाधिकविषयैव प्रवृत्तियाय्या, विव० / सर्वज्ञ, नि० चू० 20 उ०। इत्येवमुपन्यासः। प्रणिध्यन्तरमाह - भवतु मम एभिः - अर्हदादिभिः णमो वीयरागाणं (सू०१ +) संयोगः; उचितो योग इत्यर्थः / भवतु ममैषा सुप्रार्थना अर्हदादिसंयोगा'नमो वीतरागेभ्यः / तत्र रज्यते अनेनेति रागः रागवेदनीयं कर्म, विषय / भवतु ममात्र बहुमानः प्रार्थनायाम् / भवतु मम इतः प्रार्थनातो आत्मनाः क्वचिदभिष्वङ्गपरिणामापादनात् रञ्जनं वा रागः रागवेद मोक्षबीज सुवर्णघटसंस्थानीय प्रवाहतः कुशलानुबन्धि कर्मेत्यर्थः। नीयकर्मापादितो भावोऽभिष्वङ्गपरिणाम एव / वीतोऽपेतो रागो येषां ते तथा-- वीतरागाः, तेभ्यो नमः। 50 सू० 1 सूत्र। पत्तेसु एएसु अहं सेवारिहे सिआ आणारिहे सिआपडिवत्तिजुत्ते सुहमं वा बायरं वा मणेण वा वायाए वा कारण वा कयं वा सिआ निरइआरपारगे सिआ। काराविअं वा अणुमोइ वा रागेण वा दोसेण वा मोहेण वा | प्राप्तेषु एतेषु अर्हदादिषु अहं सेवार्हः स्याम्। अर्हदादीनामेवाज्ञाझे स्याम् / इत्थ वा जम्मे जम्मतरेसु वा गरहिअमेअंदुक्कडमेअं उज्झिय- एतेषामेव प्रतिपत्तियुक्तः स्याम् / एतेषामेव निरतिचारपारगः स्यामेतव्वमेयं विआणि मए कल्लाणमित्तगुरुभगवंतवय-णाओ दाज्ञायाः। एवमेअंति रोइअंसद्धाए अरहंतसिद्ध-समक्खं गरहामि अहमिणं एवं सानुषगांदुष्कृतगर्हामभिधाय सुकृतासेवनमाहदुक्कडमेअं उज्झियव्वमेअं इत्थ मिच्छा मि दुक्कडं, मिच्छा मि संविग्गो जहासत्तीए सेवेमि सुकडं / अणुमोएमि सव्वेसिं दुक्कड, मिच्छामि दुक्कडं। अरहंताणं अणुद्वाण / सव्वेसिं सिद्धाणं सिद्धभावं / सव्वेसिं सूक्ष्म, बादरंधा, स्वरूपतः / कथमेतदाचरितम् ? इत्याहमनसा वाचा आयरिआणं आयारं। सव्वेसिं उवज्झायाणं सुत्तप्पयाणं / सव्वेसिं कायेन वा कृतं चात्मना 1, कारित चान्यैः 2, अनुमोदितं वा परकृतम् साहूणं साहुकिरिअं / सव्वेसिं सावगाणं मुक्खसाहणजोगे / 3 / एतदपि रागेण वा, द्वेषेण वा, मोहेन वा, / अत्र वा जन्मनि, जन्मान्तरेषु सव्वेसिं देवाणं सव्वेसिंजीवाणं होउ कामाणं कल्लाणाऽऽसयाणं या अतीतेषु गर्हितमेतत् - कुत्सारम्पदम्, दुष्कृतमेतत्सद्धर्मबाह्यत्वेन, , मग्गसाहणजोगे।
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________________ वीयराग 1333 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वीयराग संविग्रः सन् यथाशक्ति किम् ? इत्याह-सेवे सुकृतम् एतदेवाह - अनुमादेऽहमिति प्रक्रमः / सवेषामर्हताम् अनुष्ठानं धर्मकथादि। एवं सर्वेषां सिद्धानां सिद्धभावम्-अव्याबाधादिरूपम् / एवं सर्वेषामाचार्याणाम् आधार ज्ञानाचारादिलक्षणम / एवं सर्वेषामुपाध्यायानां सूत्रप्रदानं सद्विधिवत / एवं सर्वेषां साधूना साधुक्रिया सत्स्वाध्यायादिरूपाम्। एवं सर्वेषा श्रावकाणां मोक्षसाधनयोगान् वैयावृत्त्यादीन् / एवं सर्वेषां देवानाम् - इन्द्रादीनाम्; सर्वेषां जीवानाम्, सामान्येनैव भवितुकामा-नामासन्नभव्यानां, कल्याणाऽऽशयाना-शुद्धाशयानाम् एतेषाम्। किं ? इत्याहमार्गसाधनयोगान सामान्येन कुशलव्यापाराननुमोदे, इति क्रियानुवृत्तिः / भवन्ति चैतेषामपि मार्गसाधनयोगाः, मिथ्यादृष्टीनामपि गुणस्थानकत्वाभ्युपगमात्। अनभिग्रहे सति प्रणिधिशुद्धिमाह - होउ मे एसा अणुमोअणा। सम्मं विहिपुविआ, सम्मंसुद्धाऽऽसया, सम्म पडिवत्तिरूवा, सम्म निरइआरा / परमगुणजुत्तअरहंताइसामत्थओ अचिंतसत्तिजुत्ता हि ते भगवंतो वीअरागा सव्वणू परमकल्लाणा पमकल्लाणहेऊ सत्ताणं मूढे अम्हि पावे अणाइमोहवासिए अणभिन्ने भावओ हिआऽहिआणं अभिन्ने सिआ अहिअनिवित्ते सिआ हिअपवित्ते सिआ आराहगे सिआ उचिअपडिवत्तीए सव्वसत्ताणं सहि-अंति / इच्छामि सुक्कडं, इच्छामि सुक्कडं, इच्छामि सुक्क(क)डं / भवतु ममेषाऽनुमोदना अनन्तरोक्ता / सम्यवग्विधिपूर्विका, सूत्रानुसारेण / सम्यक् शुद्धाशया, कर्मविगमेन / सम्यक् प्रतिपत्तिरूपा, क्रियारूपेण / सम्यग्निरतिचारा, सन्निर्वहणेनाको भवतु ? इत्याह-परमगुणयुक्तार्हदादिसामर्थ्यतः / आदिशब्दात्सिद्धादिपरिग्रहः / प्रार्थनायाः सविषयतामाह-अचिन्त्यशक्तियुक्ता हिते भगवन्तोऽर्हदादयः, वीतरागाः सर्वज्ञाः प्राय आचार्यादीनामप्येतद्वीतरागादित्वमस्तीत्येवमभिधानं तद्विशेषापेक्ष त्वाह-परमकल्याणा आचार्यादयोऽपि परमकल्याणहेतवः सत्यानां तैस्तैरुपायैः सर्वएवैते मूढश्चास्मिघाप एतेषां विशिष्टानांप्रतिपत्तिं प्रति / अनादिमोहवासितः संसारानादित्वेन / अनभिज्ञो भावतः परमार्थतः। हिता-हितयोरभिज्ञः स्यामहमेतत्सामर्थ्येन। तथा अहितनिवृत्तः स्या, तथा हितप्रवत्तः स्याम्। एवमाराधकः स्यामुचितप्रतिपत्या, सर्वसत्त्वानां सम्बन्धिन्या / किम् ? इत्याह - स्वहितमिति / इच्छामि सुकृतम् एवं वारत्रयं पाठः / उत्तममेतत्सुकृताऽऽसेवनम्, विशेषतः पृथग्गतानां वनच्छेत्तृबलदेवमृगोदाहरणात् परिभावनीयम्। सूत्रपाठे फलमाहएवमेअं सम्म पढमाणस्स सुणमाणस्स अणुप्पेहमाणस्स सिढिलीभवंति परिहायंति खिजंति असुहकम्माणु बंधा / निरणुबंदे वा असुहकम्मे भग्गसामत्थे सुहपरिणामेणं कडगबद्धेऽवि अविसे अप्पफले सिआ सुहावणिजे सिआ अपुणभावे सिआ। एवमेत्सूत्रं सम्यक् पठतः संवेगसारं, तथा शृण्वतःआकर्णयतः अन्यसमीपात्, तथाऽनुपेक्षमाणस्य अर्थानुस्मरणद्वारेण / किम् ? इत्याह - श्लथीभवन्ति, मन्दविपासतया / तथा परिहीयन्ते, पुद्गलापसरणेन। तथा क्षीयन्ते निर्मूलत एवाशयविशेषाभ्यासद्वारेण / के ? इत्याह.. अशुभकर्मानुबन्धाभाव-रूपाः। कर्मविशेषरूपावा। ततः किम् ? इत्याहनिरनुबन्धं वाऽशुभकर्म यच्छेषमास्ते। भनसामर्थ्य विपकप्रवाहमङ्गीकृत्य शुभपरिणामेनानन्तरोदित सूत्रप्रभवेन किमिव ? इत्याह - कटकबद्धमिव विष मन्त्रसामर्थ्येनाल्पफलं स्यात; अल्पविपाकमित्यर्थः / तथा सुखापनेयं स्यात्, सम्पूर्णस्वरूपेणैवा तथा अपुनर्भावस्यात्कर्म, पुनस्तथाऽबन्धकत्वेन एवमपायपरिहारः फलत्वेनोक्तः / इदानी रादुपायसिद्धिलक्षणमेतदभिधातुमाहतहा आसगलिजंति परिपोसिज्जंति निम्मविज्जं ति सुहकम्माणुबंधा / साणुबंधं च सुहकम्मं पगिहँ पगिट्ठभावज्जिअं नियमफलयं सुप्पउत्ते (व्व) विअमहाऽगए सुहफले सिआ सुहपवत्तगे सिआ परमसुहसाहगे सिआ अपडिबंधमेअं असुहभावनिरोहेणं सुहभावबीअंति सुप्पणिहाणं सम्मं पढिअव्वं सम्म सोअव्वं अणुप्पेहिअव्वं ति। तथा आ सकलीक्रियन्ते; आक्षिप्यन्ते इत्यर्थः / तथा परिपोष्यन्ते, भावोपचयेन / तथा निर्माप्यन्ते परिसमाप्ति नीयन्ते / के ? इत्याह - कुशलकर्मानुबन्धा इति भावः / ततः किम् ? इत्याह - सानुबन्धं च शुभकर्म, आत्यन्तिकानुबन्धापेक्षम् / कि विशिष्टम् किम् ? इत्याह -- प्रकृष्ट-प्रधान प्रकृष्टभावार्जितं-शुभभावार्जितमित्यर्थः / नियमफलद, प्रकृष्टत्वेनैव / तदेवंभूतं किम् ? इत्याह-सुप्रयुक्त इव महाऽगदाः एकान्तकल्याणः शुभफलं स्यादनन्तरोदितं कर्म / तथा शुभप्रवर्तक स्यादनुबन्धेन / एवं परमसुखसाधकं स्यात् पारम्पर्येण, निर्वाणावहमित्यर्थः / यत एवम्, अतोऽस्मात्कारणात् अप्रतिबन्धम् एतत् प्रतिबन्धरहितम्, अनिदानमित्यर्थः / अशुभभावनिरोधेन - अशुभानुबन्धनिरोधनेत्यर्थः / शुभभावनाबीजमिति कृत्वैतत्सूत्रं सुप्रणिधानं शोभनेन प्रणिधानेन सम्यक् प्रशान्तात्मना पठितव्यम् अध्येतव्यम् / श्रोतव्यमन्वाख्यानविधिना। अनुप्रेक्षितव्यं-परिभावनीयमिति ।नच,"होउमे एसा अणुमोदना सम्म विहिपुब्विगा'" इत्यादिना निदानपदमेतदिति मन्तव्यम्। क्लिष्टकर्मबन्धहेतोर्भवानुबन्धिनः संवेगशून्यस्य महर्द्धिभोगगृद्धायध्यवसानस्य निदानत्वात्। अस्य च तल्लक्षणायोगात्। अनीदृशस्य चानिदानत्वात्। आरोग्यप्रार्थनादेरपि निदानत्वप्रसङ्गात् / तथा चागमविरोधः -"आरुग्गबोधिलाभ, समाधिवरमुत्तमं देंतु / इत्यादिवचनश्रवणादित्यलं प्रसङ्गेन। सूत्रपरिसमाप्ताववसानमङ्गलमाहनमो नमिअनमिआणं परमगुरुवीअरागाणं / नमो सेसनमुकारारिहाणं / जयउ सवण्णुसासणं / परमसंबोहीए सुहिणो भवंतु जीवा, सुहिणो भवन्तु जीवा, सुहिणो भवन्तु जीवा इति /
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________________ वीयराग 1334 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वीयराग नमो नतनतेभ्यः: देवर्षिवन्दितेभ्य इत्यर्थः / केम्यः ? इत्याहपमगुरुवीतरागेभ्य इति यावत् / नमः शेषनमस्काराहे भ्य आचार्यादिभ्यो गुणाधिकेभ्य इति भावः / जयतु सर्वज्ञशासनं, कुतीर्थापोहेन / परमसम्बोधिना वरबोधिलाभरूपेण सुखिनो भवन्तु, मिथ्यात्वदोषनिवृत्त्या जीवाः- प्राणिन इति अस्य वारत्रयं पाटः। पं० सू०१ सूत्र। प्रशमरसनिमग्नं दृष्टियुग्मं प्रसन्न, वदनकमलमङ्कः कामिनीसङ्गशून्यः / करयुगमपि यत्ते शस्त्रसंबन्धवन्द्यं, तदसि जगति देवो वीतरागस्त्वमेव 1411' प्राले०। (वीतरागत्व सिद्धिः 'जिण' शब्दे चतुर्थभागे 1460 पृष्ठ चिरतरतो दर्शिता) अवशिष्टा 'आता' शब्दे द्वितीयभागे 211 पृष्ठे दशिता गतोऽवशिष्टा पुनस्त्र दर्श्यते-स्यादेतत् न कश्चिदन्यः क्षणेभ्यः सन्तानः, किन्तु य एव कार्यकारणभावप्र बन्धेन क्षणानां भावः स एव सन्तानः, ततो न कश्चिद्दोषः, तदप्ययुक्तम्, भवन्मते कार्यकारणभावस्याप्यय मानत्वात्, तथाहि-प्रतीत्य समुत्पादमात्र कार्यकारणभावः तता यथा विवक्षितघटत-क्षणानन्तरं घटक्षणः तथा पटादिक्षणोऽपि, यथा च घलक्षणात प्रागनन्तरो विवक्षितो घटक्षणः तथा पटादिक्षणा अपि, ततः कथं प्रतिनियतकार्यकारणभावावगमः?, किच-कारणादुपजायभानं कार्य सतो वा जायेत असतो वा ? यदि सतः तर्हि कार्योत्पत्तिकालेऽपि कारणं सदिति कार्यकारणयोः समकालताप्रसङ्गः न च समकालयोः कार्यकारणभाव इष्यते, मात्रपत्याद्यविशेषाद्, घटपटादीनामपि परस्पर कार्यकारणभावप्रसङ्गः, अथाऽसत इति पक्षः, तदप्ययुक्तम्, असतः कार्यो त्पादायोगत्, अन्यथा खरविषाणादपि तदुत्पत्तिप्रसक्तेः, न चात्यऽन्ता भावप्रध्वंसाभावयोः कोऽपि विशेषः, उभयत्रापि वस्तुसत्त्वाभावात, प्रध्वंसाभावे वस्त्वासीत् तेन हेतुरिति चेत् यदाऽसीत् तदा न हेतुः अन्यदा च हेतुरिति साध्वी तत्त्वव्यवस्थितिः। अन्यच्च तद्भावे भाव इत्यवगमे कार्यकारणभावावगमः स च तद्भावे भावः कि प्रत्यक्षेण प्रतीयते उतानुमानेन ?न तावत्प्रत्यक्षेण पूर्ववस्तुगतेन हि प्रत्यक्षेण पूर्व वस्तु परिच्छि नमुत्तरवस्तुगतेन तूत्तरं, न चैते परस्परस्वरूपमवगच्छतो, नाप्यन्योऽनुसन्धाता, कश्चिदेकोऽभ्युपगम्यते, तत एतदनन्तरमेतस्य भाव इति कथमवगमः ? नाप्यनुमानेन, तस्य प्रत्यक्षपूर्वकत्वात्, तद्धि लिङ्गलिङ्गिसम्बन्धग्रहणपूर्वकं प्रवर्तते, लिङ्ग लिङ्गिसम्बन्धश्च प्रत्यक्षेण ग्राह्यो नानुमानेन अनुमानेन ग्रहणेऽनवस्थाप्रसक्तेः, न च कार्यकारणभावविषये प्रत्यक्ष प्रावर्तिष्ट ततः कथं तत्रानुमानवत्तिः ? एवं ज्ञानक्षणयोरपि परस्परं कार्यकारणभावावगमः प्रत्यस्तो वेदितव्यः, तत्रापि स्वेन स्वेन संवेदनेन स्वस्य स्वस्य रूपस्य ग्रहणे परस्परस्वरूपानवधारणादेतदनन्तरमहमुत्पन्नमेतस्य चाहं जनकमित्यनवगतेः, तन्न भवन्मतेन कार्यकारणभावो, नापि तदवगमः, ततो याचित-कमण्डनमेतिप - एकसन्ततिपत्वादेकाधिकरणं वन्धमोक्षादिकमिति / एतेन पदच्यते-उपादेयोपादानक्षणानां परस्परं वास्यवासकभावादुत्तरोत्तरविशिष्टविशिष्टतरक्षणोत्पत्तेः मुक्तिसम्भव इति, तदपि प्रतिक्षिप्तमवसेयम्, उपादानोपादेयभावस्थैवोतनीस्याऽनुपपद्यमानत्वात्, योऽपि च वास्य वासकभाव उक्तः, सोऽपि युगपद्धाविनामेवोपलभ्यते, यथा तिलकुसुमानाम्, उक्त चान्यैरपि - "अवस्थिता हि वास्यन्ते, भावा भावैरवास्यतैः " तत्कथमुपादेयोपादानक्षणयोर्यास्यवासकभावः ? परस्परमसाहित्यात्, उक्तं च - ''वास्यवासकयोश्चैव-मसाहित्यान्न वासना। पूर्वक्षणैरनुत्पन्नो, वास्यते नोत्तरःक्षणः / / 1 / / उत्तरेण विनष्टत्वान्न च पूर्वस्य वासना / / " अपि च-वासना वासकाद्भिन्ना वा स्यादभिन्ना वा ? यदि भिन्ना तर्हि तया शून्यत्वात् नैवान्यं वासयति, वस्त्वन्तरवद्, अथाऽभिन्ना तहि न वास्ये वासनायाः संक्रान्तिः तदभिन्नत्वात्, तत्स्वरूपवत्, संक्रान्तिश्चेत्तर्हि अन्वयप्रसङ्ग इति यत्किञ्चिदेतत् / यदप्ययुक्तसकलमपि जगद्रागद्वेषादिदुःखसंकुलमभिजानानः कथमिदं सकलमपि जगत् मया दुःखदुद्धर्तव्यमित्यादि, तदपि पूर्वापरासंबद्धबन्धकीभाषितमिय केवलधाष्टर्यसूचकं, यतो भवन्मतेन क्षणा एव पूर्वापरक्षणत्रुटितानुगमाः परमार्थसन्तः, क्षणानां चावस्थानकालमानभेकपरमाणुव्यत्रिमात्रम्, अत एवोत्पत्तिव्यतिरेकेण नान्या तेषां क्रिया सङ्गतिमुपपद्यत, 'भूतिर्येषां क्रिया सैव कारकं सैव चोच्यते' इति वचनात्, ततो ज्ञानक्षणानामुत्पत्त्यनन्तरं न मनागप्यवस्थानं नापि पूर्वापरक्षणाभ्यामनुगमः, तस्मान्न तेषां परस्परस्वरूपावद्यारण, नाप्युत्पत्त्यनन्तरं कोऽपि व्यापारः, ततः कथमर्थोऽयं मे पुरः साक्षात्प्रतिभासते इत्येवमर्थनिश्चयमात्रमप्यनेकक्षणसम्भवि अनुस्यूतमुपपद्यते ? तदभावाच्च कुतः सकलजगतो रागद्वेषादिदुःखसकुलतया परिभावनम् ? कुतो वा दीर्घतरकालानुसन्धानेन शास्त्रार्थचिन्तनम् ? यत्प्रभावतः सम्यगुपायमभिज्ञाय कृपाविशेषात् मोक्षाय घटनं भवेदिति। ननु सर्वोऽय व्यवहारो ज्ञानक्षणसन्तत्यपेक्षया, नैकक्षणमधिकृत्य, तत्केयमनुपपत्तिरुद्भाव्यते ? उच्यते - सुकुमारप्रज्ञो देवानाप्रियः, सदैव सप्तघटिकामध्यमिष्टान्नभोजनमनोज्ञशयनीयशयनाभ्यासेन सुखैधितो न वस्तुयाथात्म्यावगमे चित्तपरिक्लेशमधिसहते, तेनास्माभिरुक्तमपि न सम्यगवधारयसि, ननुज्ञानक्षणसन्ततावपि तदवस्थैवानुपपत्तिः, तथाहि-वैकल्पिका अवैकल्पिका था ज्ञानक्षणाः परस्परमनुगमाभावादविदितपरस्परस्वरूपाः,नच क्षणादूद्ज़मवतिष्ठन्ते, ततः कथमेष पूर्वापरानुसंधानरूपो दीर्धकालिकः सकलजगदुःखितापरिभावनशास्त्रविमर्शादिरूपो व्यवहार उपपद्यते ? अक्षिणी निमील्य परिभाव्यतामेतत्, यदप्युच्यते स्वग्रन्थेषुनिर्विकल्पकमकारमुत्पन्नं पूर्वदर्शनाहितवासनाप्रबोधात्तं विकल्पं जनयति येन पूर्वापरानुसन्धानात्मकोऽर्थनिश्चयादिव्यवहारः प्रवर्त्तते, तदप्येतेनापाकृतमवसेयं, यतो विकल्पोऽप्यनेकक्षणात्मकः, ततो विकल्पेऽपि यत्पूर्वक्षणे वृत्तं तदपरक्षणो न वेत्ति, यच्चापरक्षणे वृत्तं न तत्पूर्वक्षणः, ततः कथमेष दीर्घकालिकोऽनुस्यूतकरूपतया प्रतीयमानोऽर्थनिश्चयादिव्यवहारो घटते ? अपि च - भवन्मतेन ज्ञानस्यार्थपरिच्छेदव्यवस्थाऽपि नोपपद्यते, अर्थभावे ज्ञानस्योत्पादाद्, अर्थकार्यतया तस्याभ्युपगमात्, 'नाकारण विषयं' इति वचनात्, न च वाच्यं तत उत्पन्नमिति तस्य परिच्छेदकम्, इन्द्रियस्याप्यर्थवत्परिच्छेदप्रसक्तेः ततोऽप्युत्पादात्, तदभावेऽभावात्। नाऽपि सारूप्यात्, सर्वस्यापि सर्वदेशविकल्पाभ्यामयोगात्
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________________ वीयराग 1335 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वीयराग तथाहि-न सवात्मना अर्थेन सह सारूप्यं सर्यात्मनार्थेन सह सारूप्ये ज्ञानस्य जडरूपताप्रसक्तेः, अन्यथा सर्वात्मना सारूप्ययोगात्, नाप्येकदेशेन, सर्वस्य सर्वार्थपरिच्छेदकत्वप्रसङ्गात, सर्वस्यापेि ज्ञानस्य रावैरपि वस्तुभिः सह केनचिदंशेनानन्तः प्रमेयत्वादिना सारूप्यसम्भवात्, आह च भवदाचार्योऽपि धर्मकीर्तिनिनयप्रस्थाने - "सर्वात्मना हि सारूप्ये, ज्ञानमज्ञानतां व्रजेत्। साम्ये केनचिदशेन, सर्व सर्वस्य वेदनम्।।१।।" न च सारूप्यादर्थपरिच्छेदव्यवस्थिता-दर्थसाक्षात्कारो भवति, परमार्थतोऽर्थस्य परोक्षत्वात्, ततो योऽयं प्रतिप्राणिप्रसिद्धः सकलैरपीन्द्रियैर्यथायोगमर्थसाक्षात्कारो यच गुरूपदेशश्रवणं शास्वनिरीक्षण वा यद्वशात्तत्वं ज्ञात्वा मोक्षाय प्रवृत्तिः तत्सर्वमेकान्तिकक्षणिकपक्षाभ्युपगमे विरुध्यते स्यादतत्-परमार्थत एतदेव, तथाहिन ज्ञानं कस्यचित् पच्छेिदकम् , उक्तनीत्या ग्राहकत्वायोगात्, नाऽपि तत् कस्यचित्परिच्छेद्यं, तत्रापि ग्राह्यग्राहकत्वायोगात्, ततो ग्राह्यग्राहकाकारातिरिक्त ज्ञानमेव केवलं स्वसविदितरूपत्वातस्वयं प्रकाशते, तेन्गद्वैतमव तत्त्वम्, यस्तु तर्थाथनिश्चयादिको व्यवहारः सोऽनादिकालसंलीनवासनापरिपाकसम्पादितो द्रष्टव्यः, तदप्ययुक्तम् , वासनाया अपि विचार्यमाणाया अघटमानत्वात्, तथाहि-सा वासना असती, सती वा ? न तावदसती, असतः खरविषाणस्येव सकलोपाख्याविकलतया तथा तथाऽर्थ-प्रतिभासहेतुत्वायोगाद्, अथ सती तर्हि सा ज्ञाना व्यत्यरेक्षीत् नवा?, व्यत्यरेक्षीदद्वैतहानिः, द्वयस्याभ्युपमाद, अपि च सा ज्ञानाद् व्यतिरिक्ता सती एकरूपा वा स्यादनेकरूपा वा ? न तावदेकरूपा एकरूपत्वे तस्या नीलपीताद्यनेकप्रतिभासहेतुत्वायोगात, स्वभावभेदेन विना भिन्नभिन्नार्थक्रियाकरणविरोधात्, अथानेका तर्हि नामान्तरेणार्थ एव प्रतिपन्नः, तथाहि-सा वासना ज्ञानाद्व्यतिरिक्ता, अनेकरूपाच, अर्थोऽप्यवरूप एवेति, अथाव्यतिरिक्ता सापि च पूर्वविज्ञानजनिता विशिष्ट ज्ञानान्तरोत्पादनसमर्था शक्तिः, आह च प्रज्ञाकरगुप्तः - "वासनेति हि पूर्वविज्ञातजनितांशक्तिमामनन्ति वासनास्वरूपविदः" एवं तर्हि पूर्वपूर्वविज्ञानजनिताः कालभेदेन तत्तद्विशिष्टविशिष्टतरज्ञानोत्पादनसमर्थाः शक्तयोऽनेकाः प्रबन्धेनानुवर्तमानाः तिष्ठन्ति, तत एकस्मिन्नपि ज्ञानक्षणेऽने का वासनाः सन्ति, शक्तीनामेव वासनात्वेनाभ्युपगमात्, तासा च ज्ञानक्षणादव्यतिरेकादेकरयाः प्रबोधे सर्वासामपि प्रबोधः प्रात्नोति, अन्यथा व्यतिरेकायोगात्, ततो युगपदनन्तविज्ञानानामुदयप्रसङ्गः स चायुक्तः, प्रत्यक्षबाधितत्वात् / अन्यच -ज्ञाने विनश्यति तदन्यतिरेकात्ता अपि निरन्वयमेव विनष्टाः, ततः कथं तत्सामर्थ्यात्कालभेदेन तत्तद्विशिष्टविशिष्टतरज्ञानान्तरप्रसूतिः / , स्यादेतत्-पूर्वभव विज्ञानं पाटवाधिष्ठितं, वासनातजनिता शक्तिः, उत्कदोषप्रशङ्गात् तच पूर्व विज्ञानं किञ्चिदनन्तरंतथा तथा विशिष्ट ज्ञानं जनयति, किश्चित् कालान्तरे, यथा जाग्रद्दशाभाविज्ञान स्थप्नज्ञानं, न च व्यवहितादुत्पत्तिरसम्भाव्या, दृष्टत्वात्, लथाहि- अनुभवाचिरकालातीतादपि स्मृतिरुदयमा-सादयन्ती दृश्यते, तदप्युक्तम् , तत्राप्युक्तदोषानतिक्रमात, यदि पूर्वविज्ञानं निरन्वयमेव विनष्टं न तस्य कोऽपि धर्मः क्षणान्तरेऽनुगच्छति, ततः कथं ततोऽनन्तरं कालान्तरे वा विशिष्ट ज्ञानमुदयते? एवं हि तन्निर्हे तुकमेव परमार्थतो भवेत्। अथ पूर्व विज्ञान प्रतीत्य तदुत्पद्यते तत्कथं तन्निर्हेतुकम् ? क्रीडनशीलो देवानां प्रियो यदेवमेवाऽस्मान् पुनः पुनरायासयति, ननु यदा यत्पूर्व विज्ञानं न तदा तद्विशिष्ट ज्ञानमुपजायते यदा च तदुपजायते न तदा पूर्वविज्ञानस्य लेशोऽपि तत्कथं तन्न निर्हेतुकम् ? यदप्युक्तन् - 'किञ्चित्कालान्तरे' इति, तदपि न्यायबाह्य, चिरविनष्टस्य कार्यकरणायोगाद्, अन्यथा चिरविनष्टेऽपि शिखिनि केकायितं भवेत्, ननु चिरविनष्टादप्यनुभवात् स्मृतिरुदयमा-सादयन्ती दृश्यते, नच दृष्टऽनुपपन्नता, तद्वत्ज्ञानान्तरमपि भविष्यति को दोषः ? उच्यते-दृश्यते चिरविनष्टादप्यनुभवात् स्मृतिः, केवलं साऽपि भवन्मतेन नोपपद्यते, तत्राप्युक्तदोषप्रङ्गात्, ततोऽयमपरो भवतो दोषः, न च दृष्टमित्येव यथा कथञ्चित्परिकल्पनामधिसहते, किन्तु-प्रमाणोपपन्नं तत्र यथा भवत्परिकल्पना तथा न किमप्युपपद्यते, ततोऽवश्यमन्वयि ज्ञानमभ्युपगन्तव्यम्, तथा च सति न कश्चिद्दोषः, सर्वस्यापि स्मृत्यादरुपपद्यमानत्वात्, तथाहि- अनुभवेन पटीयसाऽविच्युतिरूपधारणासहितेनात्मनि वासनाऽपरपर्यायः संस्कार आधीयते, स च यावदवतिष्ठते तावत्तादृशार्थदर्शनादाभोगतो वा स्मृतिरुदयते, संस्काराऽभावे तु न, ततोऽन्वयिज्ञानाभ्युपगमे परमार्थतोऽनुसन्धातुरे कस्याभ्युपगमात्कार्यकारणभावावगमो निखिलजगददुःखितापरिभावनं शास्त्रपौर्वापर्यालोचनेन मोक्षोपायसमीचीनताविवेचनमित्यादि सर्वमुपपद्यते तन्न नैरात्म्यादिभावना रागादिक्लेशप्रहाणि.. हेतुः, तस्या मिथ्यारूपत्वात्। यदपि च उक्तम्-आत्मनि परमार्थतया विद्यमाने तत्र रनेहः प्रवर्त्तत इति तत्राचीनावस्थायामेतदिष्यत एव. अन्यथा मोक्षायाऽपि प्रवृत्त्यनुपपत्तेः, तथाहि- यत एवात्मनिस्नेहः तत एव प्रेक्षावतामात्मनो दुःखपरिजिहीर्षया सुखमुपादातुं यत्नः, तत्र संसारे सर्वत्रापि दुःखमेव केवल म्, तथाहि नरकगतौ कुन्ताग्रभेदकरपत्रशिरः पाटनशूलारोपकुम्भिपाकासिपत्रवनकृतकर्णनासिकादिच्छेदं कदम्बवालुकापथगमनादिरूपमनेकप्रकारं दुःखमेव निरन्तरं नाक्षिनिमीलनमात्रमपि तत्र सुखम्, निर्यग्गतावपि अड्कुशकशाभिघातप्राजनकतोदनवधबन्धरोगक्षुत्पिपासादिप्रभनमनेक दु:खम्, मनुष्यगतावपि परप्रेषगुप्तिगृहप्रवेशधनबन्धुवियोगानिष्टसम्प्रयोगरोगादिजनितं विविधमनेक दुःखम्, देवगतावपि च परगतिविशिष्टद्युतिविभवदर्शनात् मात्सर्यमात्मनितद्विहीन विषादःच्युतिसमये चातिरमणीयविमानवनवापीस्तूपदेवाग नावियोगजमनिष्टजन्मसन्ताप वाऽवेक्षमाणस्य तप्तायोभाजननिक्षिप्तशफरादप्यधिकतरं दुःखम्, यदपि च-मनुष्यगतौ देवगतो वा किमप्यापातरमणीयं कियत्कालभावि विषयोपभोगसुखं तदपि विषसम्मिश्रभोजनसुखमिवपर्यन्तदारुणत्वादतीव विदुषामनुषादेयम्, तन्न संसृतौ क्वापि विदुषामास्थोपनिबन्धो युक्तः। यत्तु निःश्रेयसपदमधि-रूढस्य सुखं तत्परमानन्दरूपमपर्यवसान च, तच्च प्रायो युक्तिलेशेन प्रागेवोपदर्शितम्, आगमतोवाऽनुसतव्यम्, (नं०) (आगमप्रमाणबलाद्धि सकलमपि परलोकाऽऽदिस्वरूपं यथा-वदवगम्यते, इति आगम' शब्दे द्वितीयभागे७८ पृष्ठे उक्तम्।) तत आगमबलादुक्तस्वरूपमोक्षसुखमवेत्य तत्राऽऽगमे सर्वा
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________________ वीयराग 1336 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वीयसोगा त्मना निषण्णमानसः संसाराद्विरक्तो यद्यत्संसारहेतुः तत्तस्वरिजिहीषुर- पूर्वमभावात्, अथात्मस्वभावरूपा सा वासना तर्हि तस्याः कदाचनारक्तद्विष्टः सर्वकर्मनिर्मूलनाय प्रकर्षण पतते, तस्य चैवं प्रयतमानस्य प्यात्मन इवोपरमासम्भवात्सर्वदाऽप्यमुक्तिरेवेति / यत्किञ्चिदेतत् / कालक्रमेण विशिष्टकालादिसामग्रीसम्प्राप्तौ प्रतनुभूतकर्मणः सकलमोह- यदप्युक्तम् - 'रागादयो धर्माः, ते च किं धर्मिणो भिन्ना अभिन्ना वा' विकाप्रादुर्भावविनिवृत्तेरणिमाद्यैश्वर्यलब्धावपि नौत्सुक्यमुपजायते, अत इत्यादि, तदप्ययुक्तं, भेदाभेदपक्षस्य जात्यन्तरस्याभ्युपगमात्, केवलएव च तस्य मोक्षेऽपिन स्पृहाऽभिष्वङ्गापरपर्याया, तस्या अपि मोहविका भेदाऽभेदपक्षे धर्मधर्मभावस्यानुपपद्यमानत्वात्, (नं०) (इतोऽग्रे र त्यात, केवलं सा संसाराद्विरक्तिहेतुः स्वयमपि च परंपरानिरनुबन्धि 'धम्म' शब्दे चतुर्थभागे 2663 पृष्ठे गतम्।) ततश्चन सर्वेषां वीतरागत्वनीत्यर्वाचीनावस्थायां प्रशस्यते, ननु यदि मोक्षेऽपि न स्पृहा कथं तर्हि प्रसङ्गः केवलभेदस्यानभ्युपगमात्, नापि दोषक्षयवदात्मनोऽपि क्षयः तार्थ प्रत्त्युपपत्तिः / न लोकेऽपि स्पृहाव्यतिरेकेणापि तत्तत्कार्यकरणाय केवलाभेदस्यानभ्युपगमादिति सर्व सुस्थम्। ननु येनैव क्रमेण भगवतोप्रवृत्ति दर्शनात, तथाहि-दृश्यन्ते केचित् गम्भीराशया अभिष्वङ्गात्मिका ऽतिशयलाभः तेनैव क्रमेण तदभिधानं युक्तिमन्नाऽन्यथा। भगवतश्व स्वृहामन्तरेणापि यथाकालं भोजनाद्यनुविष्टन्तः, तथाविधौत्सुक्य प्रथमतोऽपायापगमातिशयस्य लाभः, पश्चात् ज्ञानातिशयस्य तत्किमर्थ व्युत्क्रमनिर्देशः ? उच्यते-फलप्राधानाः समारकम्भा इति ज्ञापनार्थम् / लम्पट्याधादर्शनाद्। अपि च-यथा न मोक्षे स्पृहा तथा न संसारेऽपि, नं०। दर्श०। गतरागद्वेषमोहे, संथा०॥ संसारादत्यन्तं विरक्तत्वात्, ततः सकलमपि संसारहेतुं परित्यजन्तः कथमिव संसारपरिक्षये मोक्षस्पृहाव्यतिरेकेणापि न मुक्तिभाजः ? तदेवं वीयरागगामि(ण)-त्रि०(वीतरागगामिन) जिनविषये, पञ्चा०५ विव० / सत्र स्पृहारहितस्य सूत्रोक्तनीत्य ज्ञानादिषु यतमानस्य भावनाप्रकर्षे वीयरागत्थय-पुं० (वीतरागस्तव) श्रीहेमसूरिविरचित वीतरागस्तोत्रे, ध० रस्त्यशेषरागादिक परिक्षयता भवति मुक्तिः, एतेन यदुक्तम्- 'तत्रने 2 अधिक। हवशाच तत्सुखेषु परितर्षवान् भवति' इत्यादि, तदपि निर्विषयमवगन्त- वीयरागदसणारिय-पुं० (वीतरागदर्शनार्य) वीतरागदर्शनार्ये, प्रज्ञा०१ व्यम, उक्तनीत्या तत्त्ववेदिनः परित्तर्षाद्यभावादिति स्थितम् / सांख्याः पदा (ते च द्विविधाः 'आयरिय' शब्दे द्वितीयभागे 337 पृष्ठे गताः) पुनराहुः- "प्रकृतिपुरुषान्तरपरिज्ञानान्मुक्तिः"तथाहि- "शुद्धचैत- वीयरागया-स्त्री० (वीतरागता) वीतो रागो यस्मात्स वीतरागस्तस्य भावो न्यरूपोऽयं, पुरुषः परमार्थतः / प्रकृत्यन्तरमज्ञात्वा, मोहात्संसारमाश्रितः वीतरागता / रागद्वेषाभावे, उत्त० 26 अ० ! रागद्वेषनिवारणे, उत्त० // 1 // " ततः प्रकृतेः सुखादिस्वभावाया यावत्न विवेकेन ग्रहणं तावन्न 26 अ० मुक्तिः, केवलज्ञानोदये तु मुक्तिः, तदप्यसद्, आत्मा ह्येकान्तनित्यः वीयरा(ग)ययाए णं भंते ! जीवे किं जमयइ ? वीयराययाए णं सुखादयस्तूत्पादव्ययधर्माणः, ततो विरुद्धधर्मसंसर्गादात्मनः प्रकृते- ने हाऽणुबंधणाणि य तण्हाऽणुबंधणाणि य वोच्छिन्दइ र्भेदः प्रतीत एव, किं न मुक्तिः ? अथैवदेव संसारी न पर्यालोचयति ततो मणुन्नाऽमणुनेसु सद्दफरिसरसरूवगंधेसु चेव विरजइ / / 45 / / न मुक्तिः, यद्येवं तर्हि सर्वदाऽप्यमुक्तिरेव प्राप्तविवेकाध्यवसायस्या- हे भगवन ! वीतरागतया जीवः किं जनयति? वीतोगतो रागो यस्मात्स संभवात्, तथाहि-यावत् संसारी तावन्न विवेकपरिभावनातभ, अथ च वीतरागस्तस्य भावो वीतरागाता तया वीतरागतया - रागद्वेषाभावेन विवेकपरिभावने संसारित्वव्यपगमः, ततो विवेकाध्यवसायासंभवात्न किं फलं जनयति। गुरुराह-हे शिष्य! वीतरागतया स्नेहाऽनुबन्धनानि कदाचिदपि संसाराद्विप्रमुक्तिः। अपि च-सृष्टरपि प्रागात्मा केवल इष्यते, स्नेहस्य अनुकूलानि बन्धनानि पुत्रमित्रकलत्रादिषु प्रेमपाशान् तथा ततस्तस्य कथं संसारः? कथं वा मुक्तस्य सतो न भूयोऽपि ?, अथ सृष्टः तृष्णानुबन्धनानि द्रव्यादिषु आशापाशान्, व्यवच्छिन्नत्ति विशेषण प्रागात्मनो दिदृक्षा ततो दिदृक्षावशात्प्रधानेन सहकतामात्मनि पश्यतः त्रोटयति पुनर्मनोज्ञेषु- मनोहरेषु चः- पुनः अमनोज्ञेषु- अमनोहरेषु संसारः, मुक्तिस्तु प्रकृतेर्दुष्टतामवधार्य प्रकृतेर्विरागतो भवति, ततो न | शब्दस्पर्शरसरूपगन्धेभ्यो विरज्यतेविषयेभ्यो विरक्तो भवतीति भावः / पुनः प्रकृतिविषया दिदृक्षति न भूयः संसारः, तदप्ययुक्तम, स्वकृतान्त उत्त० 26 अ०। विरोधात, तथाहि- दिवृक्षा नाम द्रष्टमभिलाषः, स च पूर्यदृष्टप्वर्थेषु तथा वीयरागसुय-न० (वीतरागश्रुत) सरागव्यपोहेन वीतरागस्वरूपं प्रतिरमरणतो भवति, न च प्रकृति : पूर्व कदाचनापि दृष्टा, तत्कथं तद्विषयी पाद्यते यत्राध्ययेन तद्वीतरागश्रुतम्। वीतरागस्वरूपप्रतिपादकेऽध्ययेन, स्मरणाभिलाषौ ? अपि च - स्मरणाभिलाषौ प्रकृति विकारत्वात् नं०। पा०। प्रकृते विनौ, स्मरणाभिलाषाभ्यां च प्रकृत्यनुगम इत्यन्योऽन्याश्रयः, वीयसोग-पुं० (वीतशोक) पञ्चसप्ततितमे महाग्रहे, कल्प०१ अधि०६ आह च- "अभिलाषस्मरणयोः, प्रकृते रेव वृत्तितः। अभिलाषाश्च तवृ- क्षण। स्था०। सूत्र०। आ० म०1 द्वीपसमुद्रविशेषाधिपती, द्वी०। त्तिरित्याभ्योऽन्यसमाश्रयः // 1 // ' अथानादियासनावशात्प्रकृतिविषयौ / वीयसोगा-स्त्री० (वीतशोका) जम्बूद्वीपेऽपरविदेहे शलिलावतीविजयस्मरणाभिलाषौ, तदप्यसत्, वासनाया अपि प्रकृतिविकारतया प्रकृतेः / राजधान्याम्, स्था० 7 ठा० 3 उ० / ज्ञा० / आ० म० /
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________________ वीर 1337 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वीर वीर-पुं० (वीर) विशेषेणेरयति मोक्षं प्रति गच्छति गमयति वा प्राणिनः / / देव रत्नसंचय आनीतः सिद्धार्थगृहे। प्रेरयति वा कर्माणि निराकरोति वीरयति वा रागादि शत्रून् प्रति पराक्रम (14) भगवतो वीरस्य जन्मकालः / जन्मकुण्डली च यतीति वीरः / निरुक्तितो वा वीरः / यदाह - "विदारयति यत्कर्म, (15) वीरस्य जन्मनि रात्रिः प्रकाशरूपा। तपसा च विराजते। तपोवीर्येण युक्तश्च, तस्माद् वीर इति स्मृतः।।१।।" स्या० / 'शूर' 'वीर' विक्रान्तौ / पा० / ध००।कषायादिशत्रुसैन्यजयाद् (16) तीर्थप्रवर्तनार्थ वीर प्रति प्रेरणा। (विशे०) 'ईर' गतौ कियत् क्षपितकर्मसाध्वपेक्षया विशेषत ईरयति- (17) संबोधनद्वारम्। क्षिपति तिरस्करोति अशेषाण्यति कर्माणीति वीरः / अथवा-विशेषत (18) वीरेण वार्षिकदानं दत्तम्। ईरयति शिवपदं प्रति भव्यजन्तून् गमयतीति वीरः / यदि वा-विशेषतः (16) निश्चक्रमणद्वारम्। शिवपदं स्वयमियर्तिगच्छतीति वीरः। अथवा- 'दृ' विदारणे, विदारयति (20) शक्रश्च देवराजो हंसलक्षणेन पटशाटकेन केशान् प्रतीच्छति, कर्मरिपुसंघट्टमिति वीरः ! अनन्यानुभूतमहातपःश्रिया वा विराजत इति भगवतामुपरि देवदूष्यवस्त्रं च स्थापयति / वीरः / अन्तरङ्ग मोहमहाबलनिर्दलनार्थमनन्तं तपोवीर्य व्यापारयतीति वा वीरः / विशे० 1 सूत्र०ा श्रा०। आ० म०। 'ईर' गतिप्रेरणयोरित्यस्य (21) तस्य भगवतश्चारित्रप्रतिपत्तिसमनन्तरमेव मनःपर्याय ज्ञानमुदविपूर्वस्याऽजन्तस्य विशेषेण ईरयति कर्म गमयति याति चेह शिवमिति पादि। वीरः आव० 4 अ०। प्रज्ञा० / ग०॥ पं० सं०।धा घनघातिकर्मसंघात- (22) शक्रः प्रभु विज्ञापयामास। विदारणाऽनन्तरं प्राप्तादुलकेवलश्रिया विराजत इति वीरः / तीर्थकृति, (23) वीरो दीक्षाकालात् कियदनन्तरमचेलो जातः / आचा०१२०१ अ०४ उ० कर्मविदारणसमर्थे, सूत्र०१ श्रु०२अ०१ (24) वीरस्योपसर्गाः। उ०। आचा० परीषहोपसर्गकषायसेनाविजयात् (आचा०१ श्रु०१ (25) उपसर्गसहनानन्तरं वीरस्य श्रमणत्वम्। अ०३ अ० / सूत्र०) संग्रामतो वा धीरे, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०भ० / सूत्र०। परानीकभेदिनि सुभटे, सूच०१ श्रु०१ अ० भ०। सूत्र०। (26) वीरस्य केवलज्ञानोत्पत्तिः। परानीकभेदिनि सुभटे, सूत्र० 1 श्रु० 8 अ० / औरसबलवति, व्य०३ (27) वीरस्य निर्वाणकालः। उ०।शुनकद्वितीये शस्त्राद्यपेक्षारहिते मृगयाखेलके, बृ०१ उ०। चतुर्थ- (28) वीरस्य श्रमणाऽऽदिसंपत्। देवलोकस्थे विमानभेदे, नपुं०। स०६सम०। तगरायां नगर्यां पुष्यमित्रा (26) वीरस्तवाऽध्ययनम्। दिशिष्यकाष्ठकाचार्यस्य शिष्ये, व्य०३ उ०। वीरयति- कषायान् प्रति विक्रामतीति वीरः / / रा०। आ०म०। विशेषेणेरयति प्रेरयत्यष्टप्रकार (30) प्रकीर्णकवार्ताः। कर्माषिड्वर्ग वेलि वीरः / शक्तिमति, आचा०१श्रु०२१०६ उ०। ईर' (1) वीरस्य निक्षेपः, स्तुतयश्यगति-प्रेरणयोः, विशेषेण ईरयति-गमयति स्फेटयति कर्म प्रापयति वा वीरवरस्स भगवतो, जरमरणकिलेसदोसरहियस्स। शिवमिति वीरः। अथवा - 'ईर' गतौ अविशेषेण-अपुनविन ईरयति वंदामि विणयपणतो, सोक्खुप्पाए सया पाए / / 6 / / शिवमिति वीरः / नं०। आचा०। दर्श० / अस्यामवसर्पिण्या भरतक्षेत्रे (सू०१०५४) जाते चरमतीर्थकरे, आतु०। स० श्रीमहावीरस्वामिनि, कर्म०२ कर्म०। 'वीरवरस्से' त्यादिशूर वीर विक्रान्तौ, वीरयति स्म वीरः, स च विषयसूची नामादिभेदाचतुर्दा भिद्यमानो नामवीरः, स्थापनावीरो, द्रव्यवीरो, (1) वीरस्य निक्षेपः, स्तुतयश्च / भाववीरश्च / तत्र यस्य जीवस्य अजीवस्य वाऽन्वर्थरहितं वीर इति नाम (2) श्रीवीरजिनकथा। क्रियते स नामवीरो 'नामनाम-वतोरभेदात्' नाम चासौ वीरश्च नामवीरः। (3) विस्तवाचनथा श्रीवीरचरितम्। स्थापनावीरो वीरस्यसुभटस्य, स्थापना वीरवर्द्धमानस्वामिस्थापनात, (4) देवानन्दायाः स्वप्नदर्शनम्। द्रव्यवीरो द्विधा-आगमतो, नोआगमतश्च / तत्रागमतो ज्ञाता तत्र चानुप युक्तः, 'अनुपयोगो द्रव्य' मिति वचनात्, नोआगतस्त्रिधा, तद्यथा--- (5) देवानन्दायै ऋषभदत्तेन स्वप्नफलकथनम्। ज्ञशरीरद्रव्यवीरो भव्यशरीरद्रव्यवीरस्तद्व्यतिरिक्तश्च / तत्र वीर इति (6) शक्रः श्रीवीरं नमस्करोति। पदार्थज्ञस्य यच्छरीरं जीवविप्रयुक्तं सिद्धशिलातलादिस्थितं तद् भूते (7) भगवान कथम् उत्पन्न इत्याह / द्रव्यवीरः, यत्पुनर्वालकस्य शरीरं वीर इति पदार्थमद्यापि नाववुध्यते, अथ (8) गर्भव्युत्क्रान्तिः। चावश्यमायत्या भोत्स्यतेसतथाविधभाविभावत्वात् भव्यशरीर-द्रव्यवीरः, (8) हरिनैगमेषिणं प्रति शक्राऽऽज्ञा। तद्व्यतिरिक्तः स्वशत्रुविदारणसमर्थोऽनेकशः संग्रामशिरसिलब्धजयपताक(१०) चतुर्दशमहास्वप्नस्वरूपम्। चक्रवादिः / भाववीरो द्विधा, तद्यथा- आगमतो, नोआगमतश्च / ताऽऽमगतो ज्ञातोपयुक्तश्च वीरपदार्थे , नोआगमतो दुर्जयसमस्तान्तररि(११) वीरस्य यौवनाऽवस्था। पुविदारणसमर्थस्तस्यैकान्तिकात्यन्तिकवीरत्वसद्भावात् / सू० प्र० 20 (12) स्वप्नसंख्या। पाहु० / कल्प०। सूत्र० / वीरस्य द्रव्यक्षेत्रकालभावभेदाचतुर्धा निक्षेपः, तत्र (13) यत्प्रभृति वीरः सिद्धार्थगृहे संहृतः तत्प्रभृति शक्रवचनेन जृम्भक- | ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तो द्रव्यवीरो द्रव्याथ संग्रामादावदभुतकर्मका
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________________ वीर 1338 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वीर रितया शूरः, यदि वा-यत्किचित् वीर्यवद्रव्यं तद्व्यवीरेऽन्तर्भवति। तद्यथा-तीर्थकृदनन्तबलवीर्यो लोकमलोक कन्दुकवत् प्रक्षेप्तुमलम् / तथा मन्दरं दण्डं कृत्वा रत्नप्रभा पृथिवीं छत्रवद्विभृयात्। तथा चक्रवर्तिनोऽपि बलम् - "दो सोला बत्तीसा" इत्यादि तथा विषादीनां मोहनादिसामर्थ्यमिति। क्षेत्रवीरस्तु यो यस्मिन् क्षेत्रेऽद्भुतकर्मकारी वीरो वा यत्र व्यावय॑त, एवं कालेऽप्यायोज्यम्, भाववीरो यस्य क्रोधमानमायालोभैः परीषहादिभिश्चात्मनो जेता (सूत्र०) "एको परिभमउजए, वियड जिणकेसरी सलीलाए। कंदप्पदुद्द्दाढो, मयणो विड्डारिओ जेण // 3 / / ' तदेवं वर्धमानस्वाम्येव परीषहोपसर्गरनुकूलप्रतिकूलैरपराजितोद्भुतकर्मकारित्वेन गुणनिष्पन्नत्वात् भावतो महावीर इति भण्यते। यदिवा-द्रव्यवीरो व्यतिरिक्त एकभविकादिः, क्षेत्रवीरो यत्र-तिष्ठत्य सौ व्यय॑ते वा, कालतोऽप्येवमेव, भाववीरो नोआगमतो वीरनामगोत्राणि कर्माण्यनुभवन् स च वीरवर्धमानस्वाभ्येवेति। सूत्र० 1 श्रु०६ अ०। 'चञ्चचन्द्रमरीचिचारुरुचिरा विश्वम्भरा राजते, कीर्तिर्विष्टपचन्द्रशेखरशशी शीतांशुशीतत्विषम्। यः शुद्धाशयशुद्धबुद्धिविभवो धीरोधिनोत्युभव, य वीरं नौमि नमत्सुरासुरशिरो घृष्टान्हिविश्वाग्रणीः / / 1 / / " दर्श०१ तत्त्व। "मुक्ताफलमिव करतल-कलितं विश्वं समस्तमपि सततम्। यो वेत्ति विगतकर्मा, स जयति नाथो जिनो वीरः॥१॥" चं० प्र०१ पाहु०। ''जयति णवणलिणकुवलय-वियसियसयपत्तपत्तलदलच्छो। वीरो गइंदमयगल-सुललियगयविक्कमो भयवं / / 1 / / " सूत्र० 1 श्रु०१६ अ०। "नमः शमितनिःशेष कर्मणे वरशर्मणे। श्रीवीराय भवाम्भोधि-लब्धतीराय तायिने 'संथा० षो०। "जयति परिस्फुटविमल-ज्ञानविभावितसमस्तवस्तुगणः। प्रतिहतपरतीर्थिमनाः, श्रीवीरजिनेश्वरो भगवान् / / 1 / / " जी०२ प्रति०। "वन्दे वीरं तपोवीरं, तपसा दुस्तरेण यः। शुद्धं स्वं विदधे स्वर्ण, स्वर्णकार इवाग्निना॥१॥" जीत०। "विष्णोरिव यस्य विभो, पदत्रयी व्यानशे जगन्निखिलम्। शतमखशतकप्रणतः, स श्रीवीरो जिनो जयतु॥१॥" कर्म०५ कर्म०। "जयति विजितान्यतेजाः, सुरासुराधीशसेवितः श्रीमान् / विमलस्त्रासविरहित-स्त्रिलोकचिन्तामणिर्वीरः / / 1 / / " दश०१०॥ ''स्पष्ट चराचरं विश्वं, जानीते यः प्रतिक्षणम्। तस्मै नमो जिनेशाय, श्रीवीराय हितैषिणे।" ज्यो०१ पाहु०। "यस्य ज्ञानमनन्तवस्तुविषयं यः पूज्यते दैवतैनित्यं यस्य वचो न दुर्नयकृतैः कोलाहलै प्यते। रागद्वेषमुखद्विषां च परिषत् क्षिप्ता क्षणाद्येन सा' स श्रीवीरविभुर्विधूतकलुषां बुद्धिं विधत्तां मम / / 1 / / " स्या०। (2) श्री वीरजिकथाश्री वीरचरितं वर्णयन्तः श्रीभद्रबाहुस्वामिनो जघन्यमध्यमवाचनात्मक प्रथम सूत्रं रचयन्ति तेणं काले णं ते णं समए णं समणे भगवं महावीरे पंचहत्थुत्तरे होत्था। __ 'तेणं काले णं' तस्मिन् काले- अवसर्पिणी-चतुर्थारकपर्यन्तलक्षणे, णंकारः सर्वत्र वाक्यालंकारार्थः, 'ते णं समए णं निर्विभाज्यः कालविभागः समयस्तस्मिन् समये 'समणे भगवं महावीरे' त्ति श्रमणस्तपोनिरतः, 'भगवं' ति भगवान् अर्कयोनिवर्जितद्वादशभगशब्दार्थवान्, यदाहुः - "भगोऽर्क (1) ज्ञान (2) माहात्म्य (3) यशो (4) वैराग्य (5) मुक्तिषु (6) / रूप (7) वीर्य (8) प्रयत्ने (६)च्छा (10) श्री (11) धर्मे (12) श्वर्य (13) योनिषु (14) // 1 // " अत्र आद्यान्त्यौ अथौ वर्जनीयौ। ननु अन्त्योऽर्थस्तु वर्ण्य एव, परमर्कः कथं वयः? सत्यम्, उपमानतया अर्को भवति, परं वत्प्रत्ययान्तत्वेन अर्कवान इत्यर्थो न लगतीति वर्जितः, 'महावीरे' त्ति कर्मवैरिपराभवसमर्थः, श्रीवर्धमानस्वामीत्यर्थः / ('पंचहत्थुत्तरे होत्था' एतद्व्याख्या 'कल्लाणग' शब्दे तृतीयभागे 384 पृष्ठे गता।) (कल्प०)। कल्याणकानि पञ्चैवतं जहा- हत्थुत्तराहिं चुए चइत्ता गब्भं वकंते, हत्थुत्तराहिं गब्भाओ गब्भं साहरिए, हत्थुत्तराहिं जाए, हत्थुत्तराहिं मुंडे भवत्तिा अगाराओ अणगारियं पव्वइए, हत्थुत्तराहिं अणंते अणुत्तरे निव्वाघाए निरावरणे कसिणे पडिपुण्डे केवलवरनाणदंसणे समुप्पन्ने, साइणा परिनिव्वुए भयवं / (सू०१४) "तं जह' ति तद्यथा-पञ्चहस्तोत्तरत्वं भगवतो मध्यमवाचनया दर्शयति- 'हत्थुत्तराहिं चुए' ति उत्तराफाल्गुनीषु च्युतो देवलोकात् 'चइता गब्भं वक्कते' ति च्युत्वा गर्भे उत्पन्नः / 'हत्थुत्तराहिं गडभाओ गब्भं साहरिए'त्ति उत्तराफाल्गुनीषुगर्भात् गर्भ संहृतः, देवानन्दागर्भात्रिशलागर्भ मुक्त इत्यर्थः / 'हत्थुत्तराहिं जाए' त्ति उत्तराफाल्गुनीषु जातः 'हत्थुत्तराहि मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारिअंपव्यइए' ति उत्तराफाल्गुनीषु मुण्डो भूत्वा तत्र द्रव्यतो मुण्डः केशलु चनेन, भावतो मुण्डः रागद्वेषाऽभावेन, अगारात्-गृहात् निष्क्रम्येति शेषः, अनगारितांसाधुता 'पव्वइए' त्ति प्रतिपन्नः, तथा - 'हत्थुत्तराहिं' ति उत्तराफाल्गुनीषु 'अणन्ते' ति अनन्तम्-अनन्तवस्तुविषयम् 'अणुत्तरे' त्ति नियाघात - भित्तिकटादिभिरस्खलितं 'निरावरणे' ति समस्ताऽऽवरणरहित 'कसि णे' त्ति कृत्स्नं सर्वपर्यायोपेतवस्तुज्ञापकं पडिपुण्णे' त्ति परिपूर्ण सर्वावयवसंपन्नम्, एवंविधं यत् वर-प्रधानं 'केवल वरनाणदंसणसमुत्पन्ने' त्ति केवलज्ञानं केवलदर्शन च / तत उत्तराफाल्गुनीषु प्राप्तः, 'साइण्णा परिनिव्वुए भयवं' ति स्वातिनक्षत्रे मोक्षं गतो भगवान्।
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________________ वीर 1336 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वीर (3) अथ विस्तरवाचनया श्रीवीरचरितमाहते णं काले णं ते णं समए णं समणे भगवं महावीरे, जे से गिम्हाणं चउत्थे मासं अट्ठमे पक्खे आसाढसुद्धेतस्स णं आसाढसुद्धस्स छट्ठिपक्खे णं, महाविजयपुप्फुत्तरपवरपुंडरियाओ महाविमाणाओ वीसं सागरोमट्टिइयाओ, आउक्खएगं भवक्खएणं ठिइक्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता इहेव जम्बुद्दीवे दीवे भारहे वासे दाहिणभरहे, इमीसे ओसप्पिणीए सुसमसुसमाए समाए विइक्वंताए, सुसमाए समाए विइक्कंताए सुसमदुसमाए समाए विइक्कताए, दुसमसुसमाए बहुबिइकंताए सागरोवमकोडाक्कोडीए बायालीसवाससहस्सेहिं ऊणिआए पञ्चहत्तरिए वासेहि अद्धनवमेहि य मासेहिं सेसेहिं इक्कवीसाए तित्थयरेहिं इक्खागकुलसमुप्पन्नेहिं कासवगुत्तेहिं, दोहि य हरिवंसकुलसमुप्पन्नेहिं गोयमसगुत्तेहिं, दोहि य हरिवंसकुलसमुप्पन्ने हिं गोयमसगुत्तेहिं, तेवीसाए तित्थयरेहिं विइक तेहिं समणे भगवं महावीरे चरमतित्थयरे पुव्वतित्थयरनिद्दिडे, माहणकुंडग्गामे नयरे उसभदत्तस्स माहणस्स कोडालसगुत्तस्स भारियाए देवाणंदाए माहणीए जालंधरसगुत्ताए पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि हत्थुत्तराहिं नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं आहारवकंतीए भववक्कंतिए सरीरवकं तिए कुच्छिसि गब्भत्ताए वकंते समणे भगवं महावीरे तिन्नाणोवगए आऽवि हुत्था-चइस्सामि त्ति जाणई, चयमाणे न जामए, चुए मि त्ति जाणइ।। "ते पं काले णं तितस्मिन् काले, 'ते णं समए णं' ति तस्मिन् समये चतुर्थो मासः, अट्ठमे पक्खे' ति अष्टमः पक्षः, कोऽर्थः, 'आसाढसुद्धे त्ति आषाढशुक्लपक्षः 'तस्सणं आसाढसुद्धस्त' तितस्य आषाढशुक्लपक्षस्य 'छट्टीपक्खेणं' तिषष्ठीरात्रौ महाविजयपुप्फुत्तरपवरपुंडरीआओ महाविमाणाओ' त्ति महान् विजयो यत्र तन्महाविजयं, 'पुप्फुत्तर' त्ति पुष्पोत्तरनामकं 'पवरपुडरीआओ' त्ति प्रवरेषु अन्यश्रेष्ठविमानेषु पुण्डरीकमिव - श्वेतकमलमिव अतिश्रेष्ठमित्यर्थः, तस्मात् - 'महाविमाणाओ' त्ति महाविमानात्, किंविशिष्टात् ? - 'वीसं सागरोवमट्टिइआओ' त्तिविंशति सागरोपमस्थितिकात्, तत्र हि देवानां विंशतिसागराणि उत्कृष्टा स्थितिर्भवति, भगवतोऽपि एतावत्ये व स्थितिरासीत्। अथ तस्माद्विमानात् आउक्खएणं' त्ति देवायुःक्षयेण ‘भवक्खएगणं' ति देवगतिनामकर्मक्षयेण 'ठि इक्खएण' ति स्थितिक्रियशरीरेऽवस्थान तस्याः क्षयेण पूर्णीकरणेन 'अणन्तरं' ति अन्तररहितं 'चयं चइत्त' त्ति च्यवं- च्यवनं कृत्वा 'इहेव जम्बुद्दीवे दीवे' ति अस्मिन्नेव जम्बूद्वीपनाम्नि द्वीचे 'भारहे वासे' त्ति भरतक्षेत्रे 'दाहिणड्डभरहे' त्ति दक्षिणधिभरते 'इमीसे ओसप्पिणीए' त्ति यत्र समये समये रूपरसादीनां हानिः स्यात् साऽवसर्पिणी, ततोऽस्यामवसर्पिण्यां सुसमसुसमाए' त्ति सुषमसुषमानाम्नि 'समाए विइक्वंताए' ति चतुःकोटाकोटिसागरः प्रमाणे प्रथमारके अतिक्रान्ते 'सुसमाए समाए' त्ति सुषमानाम्नि त्रिकोटाकोटिसागरप्रमाणे द्वितीयारके, 'विइक्कताए' व्यतिक्रान्ते सुसमदुसमाए समाए' त्ति सुषमदुःषमानाम्नि द्विकोटा-कोटिसागरप्रमाणे तृतीयारके विइक्कताए व्यति-- क्रान्ते अतीते 'दुसमसुसमाए समाए' ति दुःषमसुषमानाम्नि चतुरिके 'बहुविइकताए' ति बहु व्यतिक्रान्ते किञ्चिदूने, तदेवाह -- 'सागरोवमकोडाको डीए बायालीसाए वाससहस्सेहिं ऊणियाए' ति द्विचत्वारिशवर्षसहरुयोना (42000) एका सागरकोटाकोटिश्चतुर्थारकप्रमाणं, तत्रापि चतुर्थारकस्य पञ्चहत्तरीए वासेहिं अद्धनवमेहि य मासेहिं सेसेहिं' ति पञ्चसप्तति (75) वर्षेषु सार्धाष्टवर्षेषु सार्द्धाष्टमासाधिकेषु शेषेषु श्रीवीराऽवतारः / द्वासप्ततिवर्षा णि च श्रीवीरस्यायुः श्रीवीरनिर्वाणाच्च त्रिभिर्वर्षेः साष्टिमासैश्चतुर्थारकसमाप्तिः / ततः पूर्वोक्ता या द्विचत्वारिंशद्वर्षसहरसी सा एकविंशत्येकविंशतिवर्षसहस्रप्रमाणयो पञ्चमारकषष्ठारकयोः सम्बन्धिनी ज्ञेया, 'इक्कवी साए तित्थयरेहि ति एकविंशतितीर्थकरेषु 'इक्खागकुलसमुप्पन्नेहि तिइक्ष्वाकुकुलसमुत्पन्नेषु कासवगुत्तेहिं ति' काश्यपगोत्रेषु दोहि यत्ति द्वयोर्मुनिसुव्रतनेभ्योः ‘हरिवंसकुलसमुप्पन्नेहिं ति हरिवंशकुलसमुत्पन्नयोः 'हरिवंसकुलसमुप्पन्नेहि ति हरिवंशकुलसमुत्पन्नयोः 'गोयमसगुत्तेहिं ति गौतमगोत्रयोः, एवं च 'तेबीसाए तित्थयरेहिं विइक्क तेहिं ति त्रयोविंशतौ तीर्थंकरेषु अतीतेषु 'समणे भगवं महावीरे' त्ति श्रमणो भगवान् महावीरः' किंविशिष्टः 'चरमतित्थयरे' ति चरमतीर्थङ्करः, पुनः किंविशिष्टः / 'पुव्वतित्थयरनिद्दिष्टे त्ति पूर्वतीथङ्करनिर्दिष्टः श्रीवीरो भविष्यतीत्येवं पूर्वजिनैः कथितः 'माहणकुंडग्गामे नयरे ति ब्राह्मणकुण्डग्रामनामके नगरे 'उसभदत्तस्स माहणस्स' ति ऋषभदत्तस्य ब्राह्मणस्य, किंविशिष्टस्य ? 'कोडालसगुत्तस्स' त्ति कोडालैः, समानं गोत्रं यस्य स तथा तस्य, कोडालगोत्रस्येत्यर्थः "भारिआए देवाणंदाए माहणीए' त्ति तस्य भार्याया देवानन्दाया ब्राह्मण्याः जालन्धरसगुत्ताए' त्ति जलन्धरसगोत्रायाः कदा ! 'पुव्वरत्ता वरत्तकालसमयसि' पूर्वरात्रापररात्रकालसमये मध्यरात्रे इत्यर्थः, 'हत्थुत्तराहिं नक खत्तेण' उत्तराफाल्गुनीनक्षत्रे' जोगमुवागएणं' ति चन्द्रयोग प्राप्ते सति कया! आहारवक्कति ए'त्ति आहारापक्रान्त्यादिव्याहारत्यागेन भववऋति' त्ति दिव्यभवत्यागेन 'सरीरवक्कतिए' ति दिव्यशरीरत्यागेन 'कुच्छिसिगब्भत्ताए वक्रते' कुक्षौ गर्भतया व्युत्क्रान्त इति सम्बन्धः 'समणे भगवं महावीरे' अथ यदा श्रमणो भगवान् महावीरः गर्भ उत्पन्नस्तदा तिन्नाणोवगए आऽवि होत्थ' त्ति ज्ञानत्रयोपगत आसीत् 'चइस्सामित्ति जाणए' ततः च्यविष्ये इति जानाति, च्यवनभविष्यत्कालं जानातीत्यर्थः, 'चयमाणे न जाणई' च्यवमानो नो जानाति, एकसामायिकत्वात् 'चुए मिति जाणइ च्युतोऽस्मीति च जानाति। (4) देवानन्दायाः स्वप्नदर्शनम्जं रयणिं च णं समणे भगवं महावीरे देवाणंदाए मा
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________________ वीर १३४०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वीर हणीए जालंधरसगुत्ताए कुच्छिसि गब्मत्ताए वकते, तं रयणिं च राशिः (13) शिखीनिधूमोऽग्निः (14) 'तए णं सा देवानंदा माहणी' णं सा देवाणंदा माहणी सयणिशंसि सुत्तजागरा ओहीरमाणी ततः सा देवानन्दा ब्राह्मणी 'इमे' त्ति इमान् ‘एयारूवे' त्ति एतदूपान् ओहीरमाणी इमे एयारूवे उराले कल्लाणे सिवे धन्ने मंगल्ले / 'उदाले' त्ति उदारान् -प्रशस्तान् 'जाव' ति यावच्छब्देन पूर्वपाठोऽसस्सिरीए चउद्दस महासुमिणे पासित्ताणं पडिबुद्धा, तं जहा- | नुसरणीयः 'चउद्दस महासुमिणे' त्ति यथोक्तान् चतुर्दश महास्वप्नान् "गय-वसह-सीह-अभिसेअ-दाम-ससि-दिणयरं-झयं-कुंभुं। / 'पासित्ता णं पडिबुद्धा समाणी' ति दृष्ट्वा जागरिता सती 'हट्ठा' हृष्टा पउमसर-सागर-विमा-ण-भवण-रयमुच्चयसिहं च१॥"तए | विस्मयं प्राप्ता, 'तुट्ठा' संतोषं प्राप्ता 'चित्तमाणंदिया' चित्तेन आनन्दिता, णं सादेवाणंदा माहणी इमे एयारूवे उराले० जाव चउद्दस 'पीइमणा' प्रीति युक्तचित्ता 'परमसोमणसिआ' परमं सौमनस्यमहासुमिणे पासित्ताणं पडिबुद्धा समाणी हट्टतुट्ठचित्तमाणंदिआ सन्तुष्टच्तित्वं जातं यस्याः सा तथा 'हरिसवस' त्ति हर्षवशेन विसप्पपीइमणा परमसोमणसिआ हरिसवसविसप्पमाणहिअया माण' ति विस्तारवत् 'हिअय'त्ति हृदयं यस्याः सा तथा पुनः किंभूता? धाराहय-कयंबपुप्फगं पिव समुस्ससिअरोमकूवा सुमिणुग्गहं 'धाराहयकयंबपुप्फगं पिव' त्ति धारया-मेघजलधारया सिक्तमेवंविधं करेइ, सुमिणुग्गहं करित्ता, सयणिज्जाओ अब्भुढेइ, सय० यत्कदम्बतरुकुसुमं तद्धि मेघधारया फुल्लति ततस्तद्वत् 'समुस्ससिअन्मुद्वित्ता अतुरियमचवलमसंभताए अविलंबिआए रायहंस- अरोमकूवा' समुच्छ्वसितानि रोमाणि कूपेषु यस्याः सा तथा एवंविधा सरिसीए गईए, जेणेव उसमदत्ते माहणे, तेणेव उवागच्छइ, सती 'सुमिणुग्गहं करेइ करेत्ता' स्वप्नाना मवग्रहं स्मरणं करोति, तत्कृत्या उवागच्छित्ता, उसमदत्तं माहणंजएणं विजएणं वद्धावेइ, वद्धा- च 'सयणिज्जाओ अब्भुट्टेइ' शय्याया अभ्युतिष्ठति, 'अब्भुट्टित्ता' अभ्युवित्ता भद्दासणवरगया आसत्था वीसत्था सुहासणवरगया त्थाय 'अतुरिअ' त्ति अत्वरितया मानसौत्सुक्यरहितया 'अचवल' त्ति करयलपरिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु एवं अचपलया कायचापल्यवर्जितया, 'असंभन्ताए' त्ति असम्भ्रान्तया वयासी (5) एवं खलु अहं देवाणुप्पिया! अज सयणिशंसि अस्खलन्त्या 'अविलंबिआए' त्ति विलम्बरहितया 'रायहंससरिसीए सुत्तजागरा ओहीरमाणी ओहीरमाणी इमे एयारूवे उराले०जाव गईए' राजहंससदृशया गत्या 'जेणेवउ सभदत्ते माहणे' यत्रैव ऋषभदत्तो सस्सिरीए चउद्दस 14 महासुमिणे पासित्ताणं पडिबुद्धा॥६॥ ब्राह्मणः 'तेणेव उवागच्छई तत्रैवोपागच्छति 'उवागच्छित्ता' उपागत्य 'जरयणिंचणं समणे भगवं महावीरे ति यस्यां रजन्यां श्रमणो भगवान् 'उसभदत्तं माहणं' ऋषभदत्तं ब्राह्मणं 'जएणं विजएणं वद्धविइ' जयेन महावीरः 'देवाणंदाए माहणीए' देवानन्दाया ब्राह्मणयाः 'जालंधरस विजयेन वर्धापयति-आशिष ददाति, तत्र जयः स्वदेशे विजयः परदेशे गुत्ताए' जालन्धरसगोत्रायाः 'कुञ्छिसि गठभत्ताए वक्रते' कुक्षौ गर्भतया 'वद्धावित्ता' वर्धापयित्वा च 'भद्दासणवरगया' भद्रासनवरगता ततश्च उत्पन्नः, 'तं रयणिं च णं सा देवाणंदा माहणि' ति तस्यां रजन्यां सा 'आसत्थ' त्ति आश्वस्ता श्रमापनयनेन 'वीसत्थ' त्ति विश्वस्ता क्षोभाऽदेवानन्दा ब्राह्मणी 'सयणिजंसि' शयनीये पल्यङ्के 'सुत्तजागर' त्ति भावेन, अत एव 'सुहासणवरगय' त्ति सुखेन आसनवरं प्राप्ता, 'करयलनातिनिद्रायन्ती नातिजाग्रती, अत एव 'ओहीरमाणी ओहीरमाणि' परिग्गहियं दसनह' करतलाभ्यां परिगृहीतं कृतं दशनखाः समुदिता यत्र त्तिअल्पां निद्रां कुर्वन्ती 'इमे, 'एयारूवे' त्ति एतद्रूपान् -- वक्ष्यमाण तम् 'सिरसावत्तं' ति शिरसि आवतः प्रदक्षिणभ्रमणं यस्य तम्, एवंविध स्वरूपान्'उराले' ति उदारान्-प्रशस्तान्'कल्लाणे' त्ति कल्याणहेतून 'मत्थए अंजलिं कटुटु' अञ्जलिं मस्तके कृत्वा देवानन्दा एवं वयासि' 'सिवे' त्ति शिवान्- उपद्रवहरान् धन्ने त्ति' धन्यान्धनहेतून् ‘मंगल्ले' त्ति एवम् अवादीत्. किं तदित्याह-(५) एवं खलु अहं देवाणुप्पिआ' त्ति मङ्गलकारकान् ‘सस्सिरीए' त्ति सश्रीकान् ‘चउद्दसमहासुमिणे' एवं निश्चयेन अहं हे वेवानुप्रिय ! हे स्वामिन् ! 'अज्ज सयणिजंसि' अद्य इदृशान् चतुर्दश महास्वप्नान् ‘पासित्ताणं पडिबुद्ध त्ति दृष्ट्वा जागरिता शय्यायां 'सुत्तजागरा ओहीरमाणी ओहीरमाणि' ति सुप्तजागरा अल्प'तंजह' त्ति तद्यथा-गय (1) क्सह (2) सीह (3) अभिसेअ (4), दाम निद्रां कुर्वती 'इमे' त्ति इमान् ‘एयारूवे' त्तिएतद्रूपान् 'उराले त्ति उदारान् (5) ससि (6) दिणयरं (7) झयं (8) कुंभुं(६)॥पउमसर (1) सागर 'जाव सस्मिरीए' ति यावत् सश्रीकान् 'चउद्दसमहासुमिणे' त्ति चतुर्दश (11) विमाणभवण (12) रयणुचय (13) सिहिञ्च (14) / / 1 / / हस्ती महास्वप्नान् 'पासित्ता णं पडिबुद्ध' त्ति, दृष्ट्वा जागरिता / / 6 / / (1) वृषभः (2) सिंहः (3) अभिषेकः श्रियाः सम्बन्धी (4) पुष्पमाला तं जहा-गय० जाव सिहिं च // 1 // एएसि णं देवाणुप्पिअ ! (5) चन्द्रः (6) सूर्यः (7) ध्वजः (8) पूर्णकुम्भः (1) पद्मोपलक्षितंसरः उरालाणं चउद्दसण्हं महासुमिणाणं के मण्णे कल्लाणे फलवि(१०) समुद्रः (11) विमाने देवसम्बन्धि, भवनं-गृहं, तत्र यः तिविसेसे भविस्सइ? तएणंसेउसमदतेमाहणे देवाणंदाएमाहणीए स्वर्गादवतरति, तन्माता विमानं पश्यति, यस्तु नरकादायाति तन्माता अंतिए एअमटुं सुचा निसम्म हहतुट्ठ० जाव हिअए धाराहयकयंभवनमिति द्वयोरेकतरदर्शनाचतुर्दशैव स्वप्नाः (12) रत्नानामुचयो / बपुप्फगं पिव समुस्ससियरोमकूवे सुमिणुम्गहं करेइ करित्ता, ईहं
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________________ वीर 1341 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वीर अणुपविसइईहं अणुपविसित्ता अप्पणो साहाविएणं मइपुटवएणं बुद्धिविन्नाणेणं तेसिं सुमिणाणं अत्थुग्गहं करेइ, अत्थुग्गहं करित्ता देवाणंद माहणिं एवं वयासी-उराला णं तुमे देवाणुप्पिए ! सुमिणा दिट्ठा, कल्लाणा णं० जाव सस्सिरिआ आरोग्गतुहिदीहाउकल्लाण मंगलकारगाणं तुमे देवाणुप्पिए ! सुमिणा दिट्ठा, तंजहा–अत्थलाभो देवाणुप्पिए ! भोगलाभो देवाणुप्पिए! पुत्तलाभो देवाणुप्पिए ! सुक्खलाभो देवाणुप्पिए ! एवं खलु तुम देवाणुप्पिए ! नवण्हं मासाणं बहुपडिपुन्नाणं अट्ठभाणराईदिआणं वइक्वंताणं सुकुमालपाणिपायं अहीणपडि पुन्नपंचिदियसरीरं लक्खणवंजणगुणोववेअंमाणुम्माणपमाणपडिपुण्णसुजायसव्वंगसुंदरंग ससिसोमागारं कंतं पिअदंसणं सुरूवं दारयं पयाहिसि ||7|| 'तं जहा' तद्यथा 'गय० जाव सिहिं च॥१॥ त्ति गय इत्यादितः 'सिहि' चेति यावत् पूर्वोक्ताः स्वप्ना ज्ञेयाः 'एएसि णं देवाणुप्पिअ' ति एतेषां देवानुप्रिय! 'उरालाणं ति प्रशस्तानां 'जाव चउद्दसण्हं महासुमिणाणं' ति यावत् चतुर्दशानां महास्वप्नानाम्, 'के मण्णे' त्ति मन्येविचारयामि 'कल्लाणे फलवित्तिविसेसे भविस्सइ' इति कः कल्याणकारी फलवृत्ति- / विशेषो भविष्यति, तत्र फलं पुत्रादि, वृत्तिर्जीवनोपायादि, 'तए णं से उसभदत्ते माहणे' ततः स ऋषभदत्तो ब्राह्मणः 'देवाणंदाए महाणीए' त्ति देवानन्दायाः ब्राह्मण्याः 'अंतिए' त्ति' अन्तिके पार्चे 'एअमट्ट सुचा' एतमर्थ श्रुत्वा कर्णाभ्यां 'निसम्म' त्ति निशम्यचेतसा अवधार्य हट्टतुट्ट० / जाव हियए' त्ति हृष्टः तुष्टः यावत् हर्षवशेन विसर्पितहृदयः 'धाराहयकयंबपुप्फग पिव समुस्ससिअरोमकूवे' त्ति मेघधारया सिक्तकदम्बवृक्षपुष्पवत समुच्छ्वसितानिरोमाणि कूपेषुयस्य सः एवंविधः सन् 'सुमिणुग्गह करेइ त्ति स्वप्नधारण करोति करित्त' त्ति तत् कृत्वा च 'ईहं अणुपविसइ' ईहाम्-अर्थविचारणां प्रविशति 'ईहं अणुपविसित्ता' तां कृत्वा च-- अप्पणो साहाविएणं मइपुव्वएण बुद्धिविन्नाणेणं' ति आत्मनः स्वात्मनः स्वाभाविकेन मतिपूर्वकेण बुद्धिविज्ञानेन, तत्र अनागतकालविषया मतिः, वर्तमानकालविषया बुद्धिः, विज्ञानं चातीतानागतवस्तुविषयं 'तेसिं सुमिणाणं अत्थुग्गह करेइ ति ततस्तेषां स्वप्नानाम् अर्थनिश्चयं करोति'अत्थुग्गहं करित्ता' तं कृत्वा 'देवाणंदं माहणिं' देवानन्दाब्राह्मणीम् एवं वयासि' त्ति एवमवादीत्, किं तदित्याह- 'उराला णं तुमे देवाणुप्पिए ! सुमिणा दिट्टा उदारास्त्वया देवानुप्रिये ! स्वप्ना दृष्टाः, 'कल्लाणाणं० जाव सस्सिरीय' ति कल्याणकारकाः यावत्. सश्रीकाः 'आरोग्ग' त्ति आरोग्य-नीरोगत्वं तुहित्ति तुष्टिः सन्तोष, दीहाउ, त्ति दीर्घायुश्विरजीवित्व 'कल्लाणं' ति कल्याण-मुपद्रवाऽभावः ‘मंगलकारगाणं तुमे देवाणुप्पिए ! सुमिणा दिवा' मङ्गलं वाञ्छितावाप्तिः, एतेषां वस्तूना कारकास्त्वया हे देवानुप्रिये ! स्वप्ना दृष्टाः तं जह' तितद्यथा-'अत्थ- | लाभो देवाणुप्पिए' त्ति अर्थलाभो भविष्यति हे देवानुप्रिये ! भोगलाभो देवाणुप्पिए' ति भोगाना लाभः हे देवानुप्रिये ! 'पुत्तलाभी देवाणुप्पिए' त्ति पुत्रस्य लाभः हे देवानुप्रिये ! 'सुक्खलामो देवाणुप्पिए' त्ति सौख्य - लाभो हे देवानुप्रिये ! भविष्यतीति सर्वत्र योज्यम्, 'एवं खलु तुम देवाणुप्पिए' त्ति एवं खलु त्वं देवानुप्रिये ! 'नवण्हं मासाणं बहुपडिपुन्नाणं' ति नवसु मासेषु बहुप्रतिपूर्णेषु अट्ठमाण राइंदिआणं वइक्ताणं' सार्द्धसप्ताहोरात्राधिकेषु अतीतेषु एतादृशं दारकं पुत्रं 'पयाहिसि' ति प्रजनिष्यसीति सम्बन्धः। किंविशिष्टं दारकम् ? 'सुकुमालपाणिपायं' ति सुकुमारंपाणिपादं यस्यैवंविधं, पुनः किंविशिष्ट दारकम् ? 'अहीण' त्ति अहीनानि लक्षणोपेतानि 'पडिपुनपंचिंदिअसरीर' त्ति स्वरूपेण प्रतिपूर्णानि पञ्चेन्द्रियाणि यत्र तादृशं शरीरं यस्य स तथा तम्, तथा'लक्खणवंजणगुणोववेअंति तत्र लक्षणानि चक्रितीर्थकृतामष्टोत्तरसहसम्, बलदेववासुदेवानामष्टोत्तरशतम्, अन्येषां तु भाग्यवतां द्वात्रिंशत् / (कल्प०) 'तानि च द्वात्रिंशत् 'लक्खणवंजणगुणोववेय' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 565 पृष्ठे दर्शितानि / ) व्यञ्जनानि च मषतिलकादीनि तेषां ये गुणास्तैरुपपेतम्, पुनः किं विशिष्टम् ? 'माणुम्माणपडिपुण्णसुजायसव्वंगसुंदरंग' ति, तत्र मानं जलभृतकुण्डान्तः पुरुषे निवेशिते यदि तजलं द्रोणमानं भवेत् तदा स पुरुषो मानप्राप्तः, यदि च तुलारोपितोऽर्धभारमानः स्यात् तदा स उन्मानं प्राप्तः उन्मानप्राप्तः (कल्प०) क्वचिद्देशे किशिदूनशेस्त्रयस्यापि मानत्वव्यवहारात्, तथा ‘पमाण ति' स्वागुलेन अष्टोत्तरशताङ्गुलोच उत्तमपुरुषः मध्यहीनपुरुषो च षण्णवति (66) चतुरशीत्यड्गुलोचौ स्याताम्, अत्र उत्तमपुरुषोऽपि अन्य एव, तीर्थङ्करस्तु द्वादशाङ्गुलोष्णीषसद्भावेन विंशत्यधिकताडगुलोचो भवति, ततश्च मानोन्मानप्रमाणैः प्रतिपूनि सुजातानि सर्वाङ्गानि शिरःप्रमुखाणि यत्र एवंविधं सुन्दरम् अङ्ग यस्य तथा तं, पुनः किंविशिष्टम् 'ससिसोमागारे' तिशशिवत्सौम्याकारं 'कन्त' ति कमनीयं 'पियदसण' तिवल्लभदर्शनं सुरुवं' ति शोभनरूपं 'दारयं पयाहिसि' ति दारकं प्रजनिष्यसीति ज्ञेयम् / / 6 / / से वि अ णं दारए उम्मुक्कबालभावे विनायपरिणयमित्ते जुव्वणगमणुपत्ते, रिउव्वेअ-जउटवेअ-सामवेउ अथवणवेअ-. इतिहासपंचमाणं निघंटुच्छट्ठाणं संगोवंगाणं सरहस्साणं चउण्हं वेआणं सारए वारए धारए, सडंगवी, सद्वितंतविसारए, संखाणे सिक्खाणे सिक्खाकप्पे वागरणे छंदे निरुत्ते जोइसामयणे अन्नेसु अ बहुसु बंभण्णएसु परिवायएसु नएसु सु परिनिहिए आऽवि भविस्सइ॥१०॥ "से वि अणं दारए' ति सोऽपि च दारक एवंविधो भविष्यति, किविशिष्टः दारकः? 'उम्मुक्बालभावे' त्ति त्यक्तबाल्यो जाताष्टवर्षः, पुनः किंविशिष्टः दारक:-'विनायपरिणयमित् ति विज्ञानंपरिणतमात्रयस्यसततःक्रमाच, कि
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________________ वीर 1342 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वीर विशिष्टः दारकः- 'जोव्यणगमणुपते त्ति यौवनमनुप्राप्तः पुनः किविशिष्टः दारक:- "रिउव्वेउ-जउव्वेअ-सामवेअ-अथव्वणवेअत्ति ऋग्वेद (1) यजुर्वेद (2) सामवेदा (3) ऽथर्वण (4) वेदानां, कीदृशानाम् 'इतिहासपंचमाण' ति इतिहासपुराणं पञ्चमें येषां ते तथा तेषां, पुनः कीदृशानां 'निघटुच्छट्टाणं' ति निघण्टुर्नामसङ्ग्रहः षष्ठो येषां ते तथा तेषां, पुनः कीदृशानां 'संगोवंगाणं' ति अगोपाङ्ग सहितानां, तत्र अङ्गानिशिक्षा 1 कल्पो 2 व्याकरणं 3 छन्दो 4 ज्योति 5 निरुक्तम् 6, उपाङ्गानि अङ्गार्थविस्ताररूपाणि, पुनः कीदृशाना सरहस्साण' तितात्पर्ययुक्तानां चउण्हं वेयाण' ति ईदृशानां पूर्वोक्तानां चतुर्णा वेदानां 'सारए' ति स्मारकः अन्येषां विस्मरणे 'वारए' ति वारकः, अन्येषामशुद्धपाठनिषेधात, 'धारए' त्ति धारणसमर्थः, तादृशो दारको भावी, पुनः किंवि० सडंगवी' ति पूर्वोक्तानि षट् अङ्गानि विचारयतीति षडङ्ग वित्, ज्ञानार्थत्वे तु पौनरुक्त्वं स्यात, पुनः किंवि० सहितंतविसारए ति षष्ठितन्त्रं कापिलीय शास्त्र तत्र विशारदः पण्डितः, पुनाः किंवि०- 'संखाणे' त्ति गणितशस्त्रे, यथा-"अर्ध तोये कर्दमे द्वादशांशः, षष्ठो भागो वालुकायां निमनः / / सा? हस्तो दृश्यते यस्य तस्य, स्तम्भस्याशु ब्रूहि मानं विचिन्त्य / / 1 / / " स्तम्भो हस्ताः 6 क्वचित् 'सिक्खाणो' त्ति पाठः तत्र 'सिक्खाण' शब्देन आचारग्रन्थः 'सिक्खाकप्पे' ति शिक्षा अक्षराम्नायग्रन्थः, कल्पश्च यज्ञादिविधिशास्त्र तत्र, तथा 'वागरणे' त्ति व्याकरणेशब्दशास्त्रे, तानि च विंशतिः, (कल्प०) ('वागरण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे दर्शितानि) 'छंदे ति छन्दःशास्त्रे 'निरूत्ते' त्ति पदभञ्जने व्युत्पत्तिरूपे टीकादौ इत्यर्थः 'जोइसामयणे' त्ति ज्योतिःशास्त्रे 'अन्नेसु अ बहुसु' त्ति एषु पूर्वोक्तेषु अन्येषु च बहुषु 'बभणहिएसुत्ति ब्राह्मणहितेषु शास्त्रेषु परिव्वायएसुत्ति परिव्राजकसम्बन्धिषु 'नएसु' ति नयेषु-आचारशास्त्रेषु 'सुपरिनिट्ठिए आऽवि भविस्सइ'त्ति अतिनिपुणो भविष्यतीति योगः। (5) देवानन्दायै ऋषभदत्तेन स्वप्नफलकथनम्तं उराला णं तुमे देवाणुप्पिए! सुमिणा दिट्ठा० जाव आरुग्गतुट्ठिदीहाउमंगल्लकारगाणं तुमे देवाणुप्पिए ! सुमिणा दिट्ठ त्ति कटु भुजो अणुवूहइ॥११|| तएणं सा देवाणंदा माहणी उसभदत्तस्स माहणस्स अंतिए एअमटुं सुच्चा निसम्म, हट्टतुट्ठ० जाव हियया, करयलपरिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु एवं वयासी ! // 12 // एव मेयं देवाणुप्पिआ ! तहमेयं देवाणुप्पिया ! अवितहमेयं देवाणुप्पिया! असंदिद्धमेअं देवाणुप्पिआ! इच्छियमेअंदेवाणुप्पिआ! पडिच्छियमेअंदेवाणुप्पिआ! इच्छिय-पडिच्छियमेअंदेवाणुप्पिआ! सच्चेणं एस अट्टे से जहेयं तुब्भे वयह त्ति कट्ठ ते सुमिणे सम्म पडिच्छइ पडिच्छित्ता उसमदत्तेणं महाणेणं सद्धिं उरालाई माणुस्सगाई भोगभोगाई मुंजमाणी विहरह। 'तंउराला णं तुमे देयाणुप्पिए! सुमिणा दिठ्ठा' तस्मात् कारणात् उदाराः त्वया हे देवानुप्रिये ! स्वप्ना दृष्टाः 'जाव आरुग्ग-तुट्ठिदीहाउमगल्लकारगा ण' ति यावत् आरोग्यतुष्टिदीर्घा-युःकल्याणमङ्गलानां कारकाः 'तुमे देवाणुप्पिए ! सुमिणा दिह' ति त्वया हे देवानुप्रिये ! स्वप्ना दृष्टाः 'इति कट्टुं त्ति-इति कृत्वा भुजो भुजो अणुवूहइ' त्ति भूयो 2 वारं वारम् अनुबृहयति-अनुमोदयति।।११।। तर णं सा देवानंदा माहणि तिततः सा देवानन्दा ब्राह्मणी 'उसमदत्तस्स माहणस्स अंतिए' ऋषभदत्तस्य ब्राह्मणस्य पार्श्वे एयमट्ठ सुच' ति इममर्थं श्रुत्वा 'निसम्म' ति चेतसा अवधार्य हहतुल० जाव हियय' त्ति दृष्टा तुष्टा यावत हर्षपूर्णहृदया करय - लपरिग्गहियं दसनहं सिरसावत्त मत्थए अंजलिं कटु' करतलाभ्यां कृतं दशनखा मिलिताः यत्र तं शिरसि आवतो यस्य तम्, 'ईदृश मस्तके करसम्पुट कृत्वा ‘एवं वयासी' ततः सा देवानन्दा एवमवादीत्।।१२।। किमित्याह-'एवमेअंदेवाणुप्पित्ति एवमेतदेव देवानुप्पिय ! 'तहमेअ देवाणुप्पि' ति तथैवैतदे॒वानुप्रिय ! यथा यथा भवद्भिरुक्तम्। अवितहमेअ देवाणुप्पिअत्ति यथा स्थितम् एतद्देवानुप्रिय ! 'असंदिद्धमेअं देवाणुप्पिअत्ति सन्देहरहितम् एतद्देवानुप्रिय ! 'इच्छिअमेअंदेवाणुप्पिय' त्ति ईप्सितम् एतद्देवानुप्रिय ! 'पडिच्छिअमेअं देवाणुप्पिअत्ति प्रतीष्ट युष्मन्मुखात् पतदेवं गृहीतं देवानुप्रिय ! 'इच्छियपडिच्छि अमेअं देवाणुप्पिय' ति उभयधर्मोपेतं देवानुप्रिय ! 'सघेणं एस अट्टे' त्ति सत्यः स एषोऽर्थः 'से' इति अथ'जहेयं ति येन प्रकारेण इममर्थ 'तुन्भे वयह' त्ति यूयं वदथ 'इति कटु' इति कृत्वा-इति भणित्वा ते सुमिणे सम्म पडिच्छइति तान् स्वप्नान् सम्यग् अङ्गीकरोति पडिच्छित्त' त्ति अङ्गीकृत्य 'उसभदत्तेणं माहणेण सद्धिं ति ऋषभदत्तब्राह्मणेन सार्धम् 'उरालाई माणुस्सगाई' ति उदारान् मानुष्यकान् ‘भोगभोगाई' ति भोगार्हभोगान् 'भुंजमाणा विहरइ' भुजाना विहरति। (कल्प०) (शक्रवक्तव्यताप्रतिबद्धं चतुर्दशं 14 सूत्रम् 'सक्क' शब्दे वक्ष्यामि।) इमं च णं केवलकप्पं जंबूद्दीवं दीवं विउलेणं ओहिणा आभोएमाणे आभोएमाणे विहरइ / तत्थणं समणं भगवं महावीरं जंबूद्दीवे दीवे भारहे वासे दाहिणवभरहे माहणकुंडग्गामे नयरे उसमदत्तस्समाहणस्स कोडालसगुत्तस्स भारियाए देवाणंदाए माहणीए जालंधरसगुत्ताए कुच्छिसि गब्भत्ताए वकंतं पासइ पासित्ता हट्ठतुट्ठचित्तमाणंदिए पीइमणे परमसोमणस्सिए हरिसवसविसप्पमाणहियएधाराहयकयंबसुरहिकसुमचंचुमालइयऊससियरोमकूवे विअसियवरकमलाणणनयणे पयलियबरकडगतुडियकेऊरमउडकुंडलहारविरायंतवच्छे पालंबपलबमाणघोलंतभूसणधरे, ससंभमं तुरिअंचवलं, सुरिंदे सीहासणाओ अब्भुढेइ
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________________ 1343 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वीर अब्भुट्टित्ता पायपीढाओ पचोरुहइ पचोरुहइत्ता वेरुलियव- | रिट्ठरिटुंजणनिउणोवचिअमिसिमिसिंतमणिरयणमंडिआओ पाउयाओ ओमुअइओमुइत्ता एगसाडिअंउत्तरासंगं करेइ करेत्ता अंजलिमउलिअअग्गहत्थे तित्थयराभिमुहे सत्तऽट्ठपयाई अणुगच्छइ अणुगच्छित्ता वामं जाणुं अंचेइ अंचित्ता दाहिणं जाणु धरणितलंसि साहटु तिक्खुत्तो मुद्धाणं धरणितलंसि निवेसेह, निवेसित्ता ईसिं पञ्चुन्नमइ, पचुन्नमइत्ता कडगतुडिअर्थभिआओ भुयाओ साहरइ साहरित्ता करयलपरिग्गहिअंदसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु एवं वयासी पुनः स किं कुर्वन्नित्याह- 'इमंचणं' ति इमं केवलकप्पं' ति सम्पूर्ण 'जंबूद्दीवं दीवं' ति, जम्बूद्वीपं 'विउलेणं' ति विपुलेन-विस्तीर्णेन 'ओहिण' त्ति अवधिना 'आभोएमाणे आभोएमाणे विहरइ'त्ति अवलोकयन अवलोकयन् विहरति आस्ते इति सम्बन्धः 'तत्थणं समणं भगवं महावीर' ति तत्र समये श्रमण भगवन्तं महावीरं 'जंबूद्दीवे दीवे' त्ति अस्मिन्नेव जम्बूद्वीपनाम्निद्वीपे 'भारहे वासे' ति भरतक्षेत्रे 'दाहिणडभरहे' त्ति दक्षिणा-धभरते, 'माहणकुडम्गामे नयरे' ब्राह्मणकुण्डग्रामनामके नगरे 'उसभदत्तस्स' ति ऋषभदत्तस्य 'माहणस्स' त्ति ब्राह्मणस्य, किंविशिएस्य 'कोडालसगुत्तस्स' त्ति कोडालैः समानं गोत्रं यस्य स तथा, कोडालगोत्रस्येत्यर्थः, 'भारिआए देवाणंदाए माहणीए' ति तस्य भार्याया देवानन्दाया ब्राह्मण्याः ‘जालंधरसगुत्ताए' त्ति जालन्धरसगोत्रायाः 'कुच्छिसि गब्भत्ताए वकंत' ति कुक्षौ गर्भतया उत्पन्नं पासइ' पश्यति पासित्ता'दृष्ट्वा 'हट्टतुट्टचित्तमाणदिए' हष्टः तुष्टः चित्तेन आनन्दितः ‘पीइमणे' प्रीतिर्मनसि यस्य सः- 'परमसोमणस्सिए' परमं सौमनस्यं प्राप्तः, सौमनस्यतुष्टचित्तत्वं 'हरिसवसविसप्पमाणहियए' हर्षवशेन विसर्पमानं हृदयं यस्य सः धाराहयकर्यबसुरहिकुसुम' तिधाराहतं यत्कदम्बस्य सुरभि कुसुमं तद्वत् 'चंचुमालइ ति रोमाञ्चितः, अत एव ऊससिअरोकूवे' त्ति उच्छ्रितरोमकूपः, तथा- 'विअसि-अवरकमलाऽऽणणणयणे' त्ति विकसितं वरं प्रधान यत्कमलं तद्वत् आननं मुखं नयने च यस्य स तथा, प्रमोदपूरितत्वात्, ‘पयलिअ' त्ति तत्र प्रचलितानि भगवदर्शनेन अधिक सम्भ्रभवत्त्वात् कम्पितानि 'वरकडग' त्ति वराणि कटकानि कङ्कणानि 'तुडिअ' त्ति त्रुटिताश्च बाहुरक्षकाः, 'बहिरखा' इति लोके मउडकुंडल' त्ति मुकुट कुण्डले प्रसिद्धे, एतानि प्रचलितानि यस्य स तथा। पुनः किंवि० 'हारविरायंतवच्छे' तिहारविराजमानं यच्छ' त्ति हृदयं यस्य स तथा, ततो विशेषणसमासः, पुनः किं वि० 'पालंबपलंबमाण' त्ति प्रलम्बमानं यत्प्रालम्बो झुम्बनकं 'धोलंतभूसणधरे' त्ति दोलायमानानि भूषणानि च तानि धरति यः स तथा 'ससंभम' ति सादरं 'तुरिअं चवलं सुरिदे सीहासणाओ अब्भुट्टेइ' ति त्वरितंचपलं वेगेन सुरेन्द्रः सिंहासनादभ्युत्तिष्ठति अब्भुवित्त' त्ति अभ्युत्थाय यावत् पादपीढाओ पचोरुहइ' त्ति यत्र पादौ स्थाप्येते तत्पादपीठं कथ्यते, तस्मात्प्रत्यवतरति पचोरुहित्त' त्ति प्रत्यवतीर्थ च पादुके अवमुञ्चति, किंविशिष्टे ते, 'वेरुलिअ' त्ति वैडूर्य मरकतं नाम नीलरत्नं 'वरिट्ठरिट्ठअंजण' त्ति वरिष्ट प्रधाने रिष्टे अञ्जननाम्नी श्यामरत्ने, एतै रत्नैः कृत्वा 'निउणोवचिअ' ति निपुणेन शिल्पिना उपचिते इव, पुनः किंवि० 'मिसिमिसिंत त्ति देदीप्यमानानि 'मणिरयणमंडिआउ' त्ति मणयश्चन्द्रकान्तादयः, रत्नानि कर्केतनादीनि, तैर्मण्डिते 'पाउआओ ओमुइअत्ति ईदृश्यौपादुके अवमुञ्चति, ओमुइत्त' त्ति अवमुच्य 'पासाडिअं उत्तरासंगं करेइ' करित्त' त्ति एकपटमुत्तरासङ्ग करोति, तत् कृत्या च 'अञ्जलि-मउलिअग्गहत्थे' त्ति अञ्जलिकरणेन मुकुलीकृतौ योजितौ अग्रहस्तौ येन स तथाभूतः 'तित्थयराभिमुहे सत्तहपयाई अणुगच्छइ' ति सप्ताष्टपदानि तीर्थकराभिमुखोऽनुगच्छति 'अणुगच्छित्त' ति तथा कृत्वा वामं जाणुंअंचेइ' त्ति वामं जानुमुत्पाटयति, भूमौ अलग्नं स्थापयति, 'अंचित्त' त्ति तथा संस्थाप्य 'दाहिणं जाणु धरणितलंसि' त्ति दक्षिणं जानुं धरणीतले 'साहट्ट' त्ति निवेश्य 'तिक्खुत्तो, त्ति वारत्रयं 'मुद्धाणं धरणितलंसि निवेसेह' त्ति मस्तकं धरणीतले निवेशयति 'निवेसित्ता तथा कृत्वा 'ईसिं पचुन्नमइति ईषत् प्रत्युन्नमति, उत्तरार्धेन ऊो भवतीत्यर्थः ‘पच्चुन्नमित्त त्ति ऊीभूय 'कडगतुडिअथंभिआओ भुआआ साहरइ' ति कटकत्रुटिकाः कङ्कणयाहुरक्षिकास्ताभिः स्तम्भिते भुजे 'साहरइ' त्ति बालयति ‘साहरित्त' त्ति बालयित्वा 'करयलपरिग्गहिअदसनहं' ति करतलपरिगृहीतं हस्तसम्पुट्घटितं दश नखाः समुदिता यत्र स तथा तं 'सिरसात्त' ति शिरसि मस्तके आवर्तः प्रदक्षिणभ्रमणं यस्य एवंविधं मत्थए अंजलिं कटु' त्ति मस्तके अञ्जलिं कृत्वा एवं वयासि’ त्ति एवमवादीत्। किं तदित्याहनमुत्थु णं अरिहंताणं भगवंताणं आइगराणं तित्थयराणं सयंसंबुद्धाणं पुरिसुत्तमाणं पुरिससीहाणं पुरिसवरपुंडरीयाणं पुरिसवरगंधहत्थीण लोगुत्तमाणं लोगनाहाणं लोगहियाणं लोगपईवाणं लोगपञ्जोअगराणं अभयदयाणं चक्खुदयाणं मग्गदयाणं सरणदयाणं जीवदयाणं बोहिदयाणं धम्मदयाणं धम्मदेसयाणं धम्मनायगाणं धम्मसारहीणं धम्मवरचाउरंतचक्क्चट्टीणं दीवो-ताणं-सरणं-गई-पइट्ठा-अप्पडिहयवरनाणदंसणधराणं विअट्टछउमाणं जिणाणं जावयाणं तिन्नाणं तारयाण बुद्धाणं बोहयाणं मुत्ताणं मोअगाणं सव्वन्नूणं सव्वदरिसीणं सिवमयलमरुअप्रणंतमक्ख-यमव्वाबाहमपुणरावित्तिसिद्धिगइनामधेयं ठाणं संपत्ताणं / नमो जिणाणं जिअभयाणं / (6) शक्रः श्रीवीरं नमस्करोतिनमुत्थु णं-समणस्स भगवओ महावीरस्स पुटव
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________________ वीर 1344 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वीर पुव्वतित्थयरनिद्दिट्ठस्स० जाव संपाविउकामस्स / वंदामि णं भगवंतं तत्थ गयं इह गए, पासउ मे भगवं तत्थ गए इह गयं ति कटु समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता सीहासणवरंसि पुरस्थाभिमुहे सन्निसन्ने, तएणं तस्स सक्कस्स देविंदस्स देवरन्नो अयमेआरूवे अडभत्थिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पजित्था॥१६|| न खलु एयं भूअं,न मव्वं, न भविस्सं, जन्नं अरहंता वा चक्कवट्टी वा बलदेवा वा वासुदेवा वा अंतकुलेसु वा पंतकुलेसु वा तुच्छकुलेसु वा दरिद्दकुलेसु वा किविणकुलेसु वा भिक्खागकुलेसु वा माहणकुलेसु वा, आयाइंसु वा आयाइंति वा आयाइस्संति वा / / 17 / / 'नमोऽत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स' नमोऽस्तु श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य 'पुव्वतित्थयरनिहिस्स' पूर्वतीर्थङ्करैः निर्दिष्टस्य 'जाव संपाविउकामस्स' यावत् सिद्धिगतिनामक स्थानं सम्प्रामुकामस्य, श्रीवीरो हि अथ मुक्तिं यास्यतीति एवं विशेषणम्, इमानि सर्वाण्यपि विशेषणानि चतुर्थ्यकवचनान्तानि ज्ञेयानि // वदामि णं भगवंत तत्थ गयं इह गए' वन्दामि अहं भगवन्तं तत्रगतं देवानन्दाकुक्षौ स्थितमित्यर्थः, अत्र स्थितोऽहं 'पासउ मे भगवं तत्थ गए इह गयं ति कटु' पश्यतु मां भगवान् तत्र स्थितः इह स्थितम् इति उक्त्वा 'समणं भगव महावीर' श्रमणं भगवन्तं महावीरं 'वंदइ नमसइ' वन्दते नमस्यति 'वंदित्ता नमसित्ता' वन्दित्वा नमस्यित्वा 'सीहा-सणवरंसि पुरत्थाभिमुहे सन्निसणे' पूर्वाभिमुखः सिंहासने सन्निषण्ण उपविष्ट इत्यर्थः, 'तए णं तस्स सक्कस्स देविदस्स देवरन्नो' ततस्तस्य शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवानां राज्ञः 'अयमेआरूवे' अयमेतद्रूपः 'अब्भत्थिए' आत्मविषय इत्यर्थः 'चिंतिए' चिन्तात्मकः 'पत्थिए' प्रार्थितोऽभिलाषरूपः ‘मणोगए' मनोगतो, न तु वचनेन प्रकाशितः, ईदृशः 'संकप्पे' संकल्पो विचारः 'समुप्पञ्जित्था' समुत्पन्नः / / 16 / / कोऽसौ इत्याह- 'न खलु एअं भूअं' न निश्चयेन एतद्रूतमतीतकाले 'न भव्वं' न भवति एतत् वर्तमानकाले, 'न भविस्स' एतत् न भविष्यति आगामिनि काले / किं तदित्याह-'जन्नं अरहंता वा यत् अर्हन्तो वा 'चक्कवट्टी वा' चक्कवर्त्तिनो वा 'बलदेवा वा' बलदेवा वा 'वासुदेवा वा' वासुदेवा वा 'अतकुलेसु वा' अन्त्यकुलेषुशूद्रकुलेषु इत्यर्थः 'पंतकुलेसुवा' प्रान्तकुलेषुअधमकुलेषु 'तुच्छकुलेसु वा' तुच्छाः अल्पकुटुम्बाः तेषां कुलेषु वा 'दरिद्दकुलेसु वा दरिद्रा निर्धनास्तेषां कुलेषु वा 'किविणकुलेसुवा' कुपणाः अदातारस्तेषां कुलेषु वा 'भिक्खागकुलेसुवा' भिक्षाकाः-तालाचरास्तेषां कुलेषु वा 'माहणकुलेसु वा ब्राह्मणकुलेषु वा तेषां भिक्षुकत्वात्, एतेषु 'आयाइंसु वा' आगता अतीतकाले 'आयाइंति वा' आगच्छन्ति वर्तमानकाले 'आयाइरसंति वा' आगमिष्यन्ति-अनागतकाले, एतन्न भूतमित्यादि योगः। तर्हि अर्हदादयः चत्वारः केषु कुलेषु उत्पद्यन्ते इत्याह एवं खलु अरहंता वा चक्कवट्टी वा बलदेवा वा वासुदेवा वा, उग्गकुलेसु वा भोगकुलेषु वा राइन्नकुलेसु वा इक्खागकुलेसु वा खत्तियकुलेसु वा हरिवंसकुलेसु वा अन्नयरेसु वा तहप्पगारेसु विसुद्धजाइकुलवंसेसु आयाइंसु वा आयाइंति वा आयाइस्संति वा॥१८|| ‘एवं खलु' एवम्-अनेन प्रकारेण खलु निश्चये 'अरहंता वा' अर्हन्ता वा 'चकवट्टी वा' चक्रवर्त्तिनो वा 'बलदेवा वा बलदेवा वा 'वासुदेवा वा' वासुदेवा वा उग्गकुलेसुवा' उग्राः श्रीआदिनाथेन आरक्षकतया स्थापिता जनाः तेषां कुलेषु भागकुलेसु वा' भोगाः गुरुतया स्थापिताः, तेषां कुलेसु 'रायन्नकुलेसु वा श्रीऋषभदेवेन मित्रस्थाने स्थापिताः, तेषां कुलेषु'इक्खागकुलेसुवा' इक्ष्वाकाः श्रीऋषभदेववंशोद्भवाः, तेषां कुलेषु 'हरिवंसकुलेसुवा' तत्र'हरि तिपूर्वभववैरिनीत-हरिवर्षक्षेत्रयुगलं, तस्य वंशो हरिवंशस्तत्कुलेषु 'अन्नयरेसु वा अन्यतरेषु वा 'तहप्पगारेसु विसुद्धजाइकुलवंसेसु' विशुद्धे जातिकुले यत्र एवं विधेषु वंशेषु तत्र जातिःमातृपक्षः, कुल-पितृपक्षः, ईदृशेषु कुलेषु 'आयाइंसु वा' आगता अतीतकाले 'आयाइंति वा' आगच्छन्ति वर्तमानकाले 'आयाइस्संति वा' आगमिष्यन्ति अनागतकाले, न तु पूर्वोक्तेषु। (7) तर्हि भगवान् कथम् उत्पन्न इत्याहअस्थिपुण एसे वि भावे लोगच्छेरयभूए अणंताहिं उस्सप्पिणीओसप्पिणीहिं विइकंताहिं समुप्पज्जइ। (सू०१६+) 'अत्थि गुण एसे वि भावे' अस्ति पुनः एवोऽपि भावो भवितारख्यः 'लोगच्छरयभूए' लोके आश्चर्यभूतः 'अणंताहि उस्सप्पिणी ओसप्पिणीहिं' अनन्तासु उत्सर्पिण्यवसर्पिणीषु 'विइकंताहिं समुप्पज्जइ' व्यतिक्रान्तासु ईदृशः कश्चित्पदार्थ उत्पद्यते, तत्रास्यामवसर्पिण्याम् ईदृशानि दश आश्चर्याणि जातानि / कल्प०१ अधि०२ क्षण / (तान्याश्चर्याणि 'अच्छेर' शब्दे प्रथमभागे 200 पृष्ठे उक्तानि।) समणे भगवं महावीरे वासीइराइंदिएहिं विइक्कतेहिं तेयासीइमे राइंदिए वट्टमाणे गम्भाओ गब्भं साहरिए / (सू०५३४) स० 23 सम०। नामगुत्तस्स वा कम्मस्स अक्खीणस्स अवेइयस्स अणिज्जिनस्स उदएणं जंणं अरहंता वा चक्कवट्टी वा बलदेवावा, अंतकुलेसु वा पन्तकुलेसु वा तुच्छकुलेसु वा दरिदकुलेसु वा भिक्खागकुलेसु वा किविणकुलेसु वा माहणकुलेसु वा आयाइंसु वा आयाइंति वा आयाइस्संति वा कुञ्छिसि गडभत्ताए वक्कमिंसु वा वक्कमति वा वक्कमिस्संति वा। 'नामगुत्तस्स कम्मस्स' नाम्रा गोत्रम् इति प्रसिद्ध यत्कर्म गोत्राभिधानं कर्मत्यर्थः, तस्य किं विशिष्टस्य 'अक्खीणस्स' त्ति अक्षीणस्य स्थिते. अक्षयेण 'अवे इयरस' ति अवेदितस्य रस
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________________ वीर 1345 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वीर स्य अपरिभोगेन 'अणिजिण्णस्स' ति अनिर्जीर्णस्य जीवप्रदेशेभ्यो | भावे लोगच्छे रयमूए अणंताहिं उस्सप्पिणीओसप्पिणीहिं परिशटितस्य ईदृशस्य गोत्रस्य नीचैर्गोत्रस्य उदयेन भगवान् ब्राहाणीकुक्षौ विइक्कंताहिं समुप्पज्जति नामगुत्तस्स वा कम्मस्स अक्खीणस्स उत्पन्न इति योगः। तच नीचैर्गोत्रं भगवता स्थूलसप्तविंशतिभवापेक्षया अवे इअस्स अणिजिन्नस्स उदए णं, जंणं अरिहंता वा चक्कवट्टी तृतीयभवे बद्धम् / कल्प०१ अधि०२ क्षण। (वीरस्य अष्टाविंशतिर्भवाः वा बलदेवा वा वासुदेवा वा अंतकुलेसु वा पंतकुलेसु वा तुच्छ'मरीइ' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 151 पृष्ठ गताः।) कुलेसु वा किविणकुलेसु वा दरिहकुलेसु वा मिक्खागकुलेसु (8) गर्भव्युत्क्रान्तिः वा आयाइंसु आयाइंति वा आयाइस्संति वा कुञ्छिसि गब्भत्ताए वक्कमिंसु वा वक्कमंति वा वक्कमिस्संति, वा, नो चेव णं जोणीनो चेव णं जोणीजम्मणनिक्खमणेणं निक्खमिंसु वा निक्ख जम्मणनिक्खमणेणं निक्खमिंसु वा निक्खमिति वा निक्खमिति वा निक्खमिस्संति वा / अयं च णं समणे भगवं महावीरे मिस्संति वा // 23 / / अयं च णं समणे भगवं महावीरे जंबूद्दीवे जंबूद्दीवे दीवे भारहे वासे माहणकुंडग्गामे नयरे उसभदत्तस्स दीवे भारते वासे माहणकुंडग्गामे नयरे उसमदत्तस्स माहणस्स माहणस्स कोडालसगुत्तस्स भारियाए देवाणंदाए माहणीए कोडालसगुत्तस्स मारियाए देवाणंदाए माहणीए जालंधरसगुत्ताए जालंधरगुत्ताए कुञ्छिसि गब्भत्ताए वकते, तंजीअमेअंतीअप कुञ्छिसि गब्भत्ताए वळते // 24 // तं जीअमेअंतीअपचुप्पन्नचुप्पन्नमणागयाणं सक्काणं देविंदाणं देवरायाणं अरिहंते भगवंते मणागयाणं सक्काणं देविंदाणं देवरायाणं अरिहंते भगवंते तहप्पगारेहिंतो अंतकुलेसु वा पंतकुलेसु वा तुच्छकुलेसु व तहप्पगारेहिंतो अंतकुले हिंतो पंतकुलेहिंतो तुच्छकुलेहिंतो दरिदकुलेसु वा भिक्खागकुलेसु वा किविणकुलेहिंतो माहण दरिद्दकुले हिंतो किविणकुलेहिंतो वणीमगकुलेहिंतो माहणकुले हिंतो तहप्पगारेसु उग्गकुलेसु वा भोगकूलेसु वा रायन्न कुलेहिंतो तहप्पगारेसु उग्गकुलेसु वा भोगकुलेसु वा रायन्नकुलेसु वा नायकुलेसु वा अन्नयरेसु वा तहप्पगारेसु विसुद्ध कुलेसु वा नायकुलेसु वा खत्तियकुलेसु वा इक्खागकुलेसुवा जाइकुलवंसेसु० जाव रजसिरिं कारेमाणे पालेमाणे साहरा हरिवंसकुलेसु वा अन्नयरेसु वा तहप्पगारेसु वा विसुद्धजाइवित्तए-तं सेयं खलु मम वि समणं भगवं महावीरं चरमत्थियरं कुलवंसेसु साहरावित्तए / / 25 / / पुव्वतित्थयरनिद्दिढ़ माहणकुंडग्गामाओं नयराओ उसमदत्तस्स "तं जीअमेय' तस्मात् हेतोः जीतम्- एतत्, आचार एष इत्यर्थः, माहणस्स भारियाए देवाणंदाए माहणीए जालंधरसगुत्ताए केषामित्याह--'तीअप्पचुप्पन्नमणागयाणं' अतीतवर्तमाना-ऽनागतानां कुच्छीओ खत्तियकुंडग्गामे नयरे नायाणं खत्तियाणं सिद्धत्थस्स 'सक्काणं देविंदाणं देवरायाणं शक्राणां देवेन्द्राणां देवराजानां, कोऽसौ खत्तियस्स कासवगुत्तस्स भारियाए तिसलाए खत्तियाणीए इत्याह-यत् 'अरिहंते भगवंते' अर्हतो भगवतः 'तहप्पगारेहितो' तथावासिट्ठसगुत्ताए कुच्छिसि गम्भत्ताए साहरावित्तए, जे वियणं से प्रकारेभ्यः अंतकुलेर्हितो' अन्तकुलेभ्यः पंतकुलेहिंतो' प्रान्तकुलेभ्यः तिसलाए खत्तियाणीए बभे तं पियणं देवाणंदाएमाहणीए जालं 'तुच्छकुले हिंतो' तुच्छकुलेभ्यः 'दरिघकुलेहितो' दरिद्रकुलेभ्यः धरसगुत्ताए कुञ्छिसि गम्भत्ताए साहरावित्तए-त्ति कटु एवं 'भिक्खागकुलेहितो' भिक्षाचरकुलेभ्यः 'किविणकुलेहितो' कृपणसंपेहेइ, संपेहेत्ता हरिणेगमेसिं पायत्ताणीयाहिवइं देवं सद्दावेइ कुलेभ्यः 'माहणकुलेहिंतो' ब्राह्मणकुलेभ्यश्चादाय तहप्पगारेसु' तथासद्दावेत्ता एवं वयासी // 21 / / एवं खलु देवाणुप्पिआ ! न एअं प्रकारेषु उग्गकुलेसुवा' उग्रकुलेषु वा भोगकुलेसुवा' भोगकुलेषु वा' भून एअंभव्वं,न एअं भविस्सं,जंणं अरिहंता वा चक्कवट्टी रायन्नकुलेसु वा' राजन्यकुलेसु वा 'नायकुलेसु या' ज्ञातकुलेषु वा वा बलदेवा वा वासुदेवा वा, अंतकुलेसु वा पंतकुलेसु वा 'अन्नयरेसुवा' अन्यतरेषु वा 'तहप्पगारेसु' तथाप्रकारेषु 'विसुद्धजाइकिविणकुलेसु वा दरिद्दकुलेसु वा तुच्छकुलेसु वा भिक्खा- कुलवंसेसुवा' विशुद्ध जातिकुले यत्र ईदृशेषु वंशेषु जावरजसिरि' यावत् गकुलेसु वा आयाइंसु वा आयाइंति वा आयाइस्संति वा, एवं राज्यश्रियं कारेमाणे' कुर्वत्सु 'पालेमाणे' पालयत्सु च 'साहरावित्तए' खलु अरिहंता वा चक्कवट्टी वा बलदेवा वा वासुदेवा वा उग्ग- मोचयितुम् इन्द्राणामेष आचारः ‘त सेयं खलु मम वि' ततः श्रेयः खलु कुलेसु वा, भोगकुलेसु वा राइन्नकुलेसु वा नायकुलेसु वा युक्तमेतन्यमापि, किं तदित्याह 'समणं भगवं महावीरं' श्रमणं भगवन्तं खत्तियकुलेसु वा इक्खागकुलेसु वा हरिवंसकलेसु वा अन्नयरेसु महावीरं 'चरमतित्थयरं' चरमतीर्थकर 'पुव्वतित्थयरनिद्दिष्ट पूर्वतीर्थवा तहप्पगारेसु विसुद्धजाइकुलवंसेसु आयाइंसु वा आयाइंति करैर्निर्दिष्ट 'माहणकुङगामाओनयराओं ब्राह्मणकुण्यामातूनगरात् 'उसभवा आयाइंति व आयाइस्संति वा / / 22 / / अत्थि पुण एसे वि | दत्तस्स माहणस्स' ऋषभदत्तस्य ब्राह्मणस्य 'भारियाए' भार्यायाः 'देवाण
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________________ वीर 1346 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वीर दाए माहणीए' देवानन्दायाः ब्राह्मण्याः 'जालंधरसगोत्ताए' जालन्धरसगोत्रायाः 'कुच्छीओ' कुक्षेमध्यात् 'खत्तिअकुंडग्गामे नयरे' क्षत्रियकुण्डग्रामे नगरे 'नायाण खत्तिआण' ज्ञातानां श्रीऋषभस्वामिवेश्यानां क्षत्रियविशेषाणां मध्यं 'सिद्धत्थरस खत्तिअस्स' सिद्धार्थस्य क्षत्रियस्य 'कासवगुत्तस्स' काश्यपगोत्रस्य 'भारियाए' भार्यायाः 'तिसल्लाए' त्रिशलायाः 'खत्तिआणीए' क्षत्रियाण्याः 'वासिहरागुत्ताए' वारािष्ट्रसगोत्रायाः 'कुच्छिसि गठभत्ताए कुक्षौ गर्भतया 'साहरावित्तए' मोचयितुं, तथा- 'जे वि य णं से तिसलाए खत्तिआणीए गठभे' योऽपि च तस्याः त्रिशलायाः क्षत्रियाण्याः गर्भः पुत्रिकारूपः, 'त पि य ण देवाणदाए माहलाए' तमपि देवानन्दायाः ब्राह्मण्याः 'जालंधर-रसगुत्ताए' जालन्धरसगोत्रायाः कुच्छिसि गब्भत्ताए' कुक्षौ गर्भतया 'साहरावित्तए' मोचयितुं 'ति कटु' इति कृत्वा ‘एवं संपेहेइ' एवं पूर्वोक्त विचारयति 'संपेहित्ता' विचार्य, 'हरिणेगमेसि हरिनैगमेषिनामकं 'पाइत्ताणीआहिवई पादातिकटकाधिपति 'देवं सद्दावेइ देवमाकारयति 'सद्दावित्ता' आकार्य एवं वयासी' एवम् इन्द्रः अवादीत् // 21 / / किं तदित्याह-एवं 'खलु' इत्यादिना साहरावित्तए' त्ति पर्यन्तं तेन सूत्रचतुष्टयेन ( // 22 // 23 / / 24 // 25 // सर्व स्वचिन्तितं शक्रो हरिनगमेषिणमकथयत, तच) प्राग्वत्। कल्प०१ अधि०२ क्षण। (6) हरिनगमेषिण प्रति शक्राज्ञामाहतं गच्छ णं तुमं देवाणुप्पिआ ! समणं भगवं महावीरं माहणकुंडग्गामाओ नयराओ उसभदत्तस्स माहणस्स कोडालसगुत्तस्स भारियाए देवाणंदाए माहणीए जालंधरसगुत्ताए कुच्छीओ खत्तियकुंडग्गामे नयरे नायाणं खत्तियाणं सिद्धत्थस्स खत्तियस्स कासवगुत्तस्स भारियाए तिसलाए खत्तियाणीए वासिट्ठसगुत्ताए कुच्छिसि गब्भत्ताए साहराहि, जे वियणं से तिसलाए खत्तियाणीए गन्भे तं पि य णं देवाणंदाए माहणीए कुञ्छिसि गब्भत्ताए | साहराहि साहरित्ता ममेयमाणत्तिअं खिप्पामेव पञ्चप्पिणाहि // 26 / / तए णं से हरिणेगमेणि पायत्ताणीयाहिवई देवे सक्केणं देविंदेणं देवरन्ना एवं वुत्ते समाणे हट्ठ० जाव - हयहियए करयल० जाव त्ति कटु जं देवो आणवेइ त्ति आणाए विणएणं वयणं पडिसुणेइ पडिसुणित्ता उत्तरपुरच्छिमं दिसीभागं अवक्कमइ अवकमिता वेउटिवअसमुग्घाएणं समोहणइ, समोहणित्ता संखिज्जाइं जोअणाइंदंडं निस्सरइ, तं जहा-रयाणाणं वयराणं वेरुलिआणं लोहिअक्खाणं मसारगल्लाणं हंसगडभाणं पुलयाणं सोगंधियाणं जोईरसाणं अंजणाणं अंजणपुलयाणं जायरूवाणं सुभगाणं अंकाणं फलिहाणं रिट्ठाणं, अहाबायरे पुग्गले पडिसा डेइपरिसाडित्ता अहासहुमे पुग्गले परिआएइ।।२७।। परिआइत्ता दुचं पि वेउव्विअसमुग्घायाणं समोहणइ समोहणित्ता उत्तरवेउव्वियं रूवं विउव्वए विउव्वित्ता ताए उक्किट्ठाए तुरिआए चवलाए चंडाए जयणाप उद्धआए सिग्घाए छे आए दिव्वाए देवगईए वीईवयमाणे वीईवयमाणे तिरिअमसंखिज्जाणं दीवसमुद्दाणं मज्झं मझेणं जेणेव जंबूद्दीवे दीवे भारहे वासे, जेणेव माहणकुंडग्गामे नयरे, जेणेव उसभदत्तस्स माहणस्स गिहे, जेणेव देवाणंदा माहणी, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता आलोए समणस्स भगवओ महावीरस्स पणामं करेइ, पणामं करित्ता देवाणंदाएमाहणीए सपरिजणाए आसोवणिं दलइ, दलित्ता असुभे पुग्गले अवहरइ, अवहरित्ता, सुभे पुग्गले पक्खिवइ, पक्खिवित्ता "अणुजाणउ मे भयवं" ति कट्ठ समणं भगवं महावीरं अव्वाबाहं अव्वाबाहेणं दिव्वेणं पहावेणं करयलसंपुडेणं गिण्हइ, गिण्हित्ता, जेणेव खत्तिअकुंडग्गामे नयरे जेणेव सिद्धत्थस्स, खत्तियस्स गिहे, जेणेव तिसला खत्तियाणी तेणेव उवागच्छइ, तिसलाए खत्तिआणीए सपरिअणाए ओसोवणिं दलइ, दलित्ता, असुमे पुग्गले अवहरइ, अवहरित्ता सुभे पुग्गले पक्खिवइ पक्खिवित्ता समणं भगवं महावीरं अव्वाबाहं अव्वाबाहेणं दिव्वेणं पहावेणं तिसलाए खत्तियाणीए कुञ्छिसि गब्मत्ताए साहरइ जे वि य णं से तिसलाए खत्तियाणीए गम्भे तं पि य णं देवाणंदाए माहणीए कुञ्छिसि गम्भत्ताए साहरइ साहरित्ता जामेव दिसिं पाउन्भूए तामेव दिसिं पडिगए // 28 // ताए उक्किट्ठाए तुरिआए उद्धआए चवलाए चंडाए जयणाए सिग्घाए दिव्वाए देवगईए, तिरिअमसंखिज्जाणं दीवसमुदाणं मज्झं मज्झेणं जोअणसयसाहस्सिएहिं विग्गहेहिं उम्पयमाणे जेणामेव सोहम्मे कप्पे सोहम्मवर्डिसए विमाणे सक्कंसिसीहासणंसिसक्के देविंदे देवराया तेणामेव उवागच्छद उवागच्छित्ता सक्कस्स देविंदस्स देवरन्नो तमाणत्ति खिप्पामेव पञ्चप्पिणइ / / 26 / / 'तं गच्छ णं देवाणुप्पिया यस्मात् कारणात् इन्द्राणामेष आचारः, तस्मात्कारणात् त्वं गच्छ, देवानुप्रिय ! हे हरिण (नै) गमेषिन् ! 'समणं भगवं महावीर' श्रमण भगवन्तं महावीर माहणकुंडग्गामाओ नयराओ' ब्राह्मणकुण्डग्रामात् नगरात् 'उसभदत्तस्स माहणरस' ऋषभदत्तस्स ब्राह्मणस्य 'कोडालसगुत्तस्स' कोडालसगोत्रस्य 'भारियाए' भार्याथाः 'देवाणंदाए माहणीए' देवानन्दायाः ब्राह्मण्याः 'जालंधरसगुत्ताए' जालन्धरसगोत्रायाः 'कुच्छिओ' कुक्षेः लात्वा 'खत्तियकुंडग्गामे नयरे' क्षत्रियकुण्डग्रामे नगरे 'नायाणं खत्तिआणं' ज्ञातजातीयानां क्षत्रियाणां मध्ये 'सिद्धत्थस्स खत्तिअस्स' सिद्धार्थ -
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________________ वीर 1347 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वीर स्य क्षत्रियस्य 'कासवगुत्तस्य' कश्यपगोत्रस्य 'भारियाए' भार्यायाः 'तिसलाए खतिआणीए' त्रिशलायाः क्षत्रियाण्याः 'वासिट्टसगुत्ताए' वाशिष्टगोत्रायाः 'कुच्छिसि गब्भत्ताए' कुक्षौ गर्भतया 'साहराहि' मुञ्च 'जे वि य णं' योऽपि च 'से तिसलाए' तस्याः त्रिशलायाः 'खत्तिआणीए' क्षत्रियाण्याः 'गब्भं गर्भः 'तं पियण' तमपि 'देवाणंदाएमाहणीए' देवानन्दायाः ब्राह्मण्याः 'कुच्छिसि’ कुक्षो 'गब्भत्ताए' गर्भतया 'साहराहि, मुश्च; 'साहरिता' मुक्त्वा मम एअमाणत्तिअं' मम एतामाज्ञप्तिम्-आज्ञां 'खिप्पामेव' शीघ्रं पञ्चप्पिणाहि' प्रत्यर्पय कार्य कृत्वाऽऽगत्य मयैतत् कार्य कृतम् इति शीघ्र निवेदय इत्यर्थः / / 26 / / 'तरणं से हरिणेगमेसी ततः स हरिणैगमेषीं पायत्ताणीयाहिवई देवे' पादात्यनीकाधिपतिर्देवः 'सक्कणं देविदेणं' शक्रेण देवेन्द्रेण 'देवरन्ना' देवराजेन 'एवं वुत्ते समाणे' एवमुक्तः सन् ‘हट्ठ० जाव' यावत्- यावत्करणात् 'तुट्ठचित्तमाणदिए पीइमणे परमसोणस्सिए हरिसवसविसप्पमाणं' इत्यादि सर्व वक्तव्यम्। 'हियए' हर्षपूर्णहृदयः, अथैवंविधः सन् हरिणैगमेषी करयल' करतलाभ्यां 'जाव' यावत्, यावत्करणात्- 'परिग्गहिय दसनह सिरसावत्त मत्थए अंजलिं' इति प्राग्वत् वाच्यम् ‘कटु' तथा मस्तके अञ्जलिं कृत्वा 'ज देवो आणवेइ' ति यत् शक्रः आज्ञापयति 'आणाए विणएण वयणं पडिसुणइ' आज्ञाया उक्तरूपाया यद्वचनंतद्विनयन प्रतिशृणोतिअङ्गीकरोति पडिसुणित्ता' प्रतिश्रुत्य च–अङ्गीकृत्य च उत्तरपुरच्छिमं दिसिभाग' ईशाणकाणनामके दिग्विभागे इत्यर्थः, तत्र 'अवक्कमइ' अपकामति गच्छतीत्यथः 'अवक्कमित्ता' अपक्रम्य गत्वा च विउव्विअरामुग्धारण समोहणइ' वैक्रियसमुद्घातेन समुद्धान्त वैक्रियशरीरकरणार्थ प्रयत्नविशेष करोतीत्यर्थः 'समोहणित्ता' प्रयत्नविशेषं कृत्वा 'संखिल्जाई जोअणाई' संख्ययोजनप्रमाणं दण्ड-दण्डाकारं शरीरबाहल्यमूर्धाध आयातं जीवप्रदेशकर्मपुद्गलसमूह 'निस्सरई' शरीरादहिः निष्काशयतीत्यर्थः, तत्कुणस्तु एवंविधान् पुद्गलान् आदत्ते 'तं जहां तद्यथा'रयणाण' रत्नानां कर्केतनादीनां 1, यद्यपि रत्नपुगला औदारिका वैक्रियशरीरकरणे असमर्थाः, तत्र वैक्रियवर्गणा पुद्गला एव उपयुज्यन्ते, तथापि रत्नानामिव सारपुद्गला इति ज्ञेयं 'वयराण' वज्राणांहीरकाणां 2, वेरुलिआण' वैडूर्याणां नीलरत्नानाम् 3, लोहिअक्खाण' लोहिताक्षाणां 4 , 'मसारगल्लाणं मसारगल्लानां 5, 'हसगब्भाणं हंसगर्भाणां 6, पुलयाण पुलकानां 7, 'सोगंधिआणं' सौगन्धिकानां 8, जोईरसाशंत्र ज्योतीरसानां 6, 'अंजणाणं' अञ्जनानाम् 10, 'अंजणपुलयाणं' अञ्जनपुलकाना 11, 'जायरूवाणं' जातरूपाणां 12, 'सुभगाणं' सुभगानाम् 13, 'अकाण' अडानां 14, 'फलिहाणं' स्फटिकानां 15, 'रिहाणं' रिष्टानाम् 16 / एताः षोडश रत्नजातयस्तेषां च 'अहावायरे' यथाबादरान अत्यन्तम् असारान्, स्थूनान् इत्यर्थः 'पुग्गले तान् पुगलान् परिसाडेइ परित्यजति परिसाडित्ता' परित्यज्य 'अहासुहमे' यथा सूक्ष्मान; अत्यन्तं सारान् इत्यर्थः, तान् 'पुग्गले' पुद्गलान् परिआएइ' पर्यादत्ते; गृह्णातीत्यर्थः // 27 // परियाइत्ता' पर्यादाय गृहीत्या 'दुचं पि' द्वितीयवारमपि वेउय्वियसमुग्घाएणं' वैक्रियसमुद्घातेन 'समोहणइ' पूर्ववत् प्रयत्नविशेष करोति 'समोहणित्ता' प्रयत्नविशेष कृत्वा 'उत्तरवेउव्वियरूवं' उत्तरवैक्रिय, भवधारणीयापेक्षया अन्यत् इत्यर्थः, ईदृश रूपं, 'विउव्वई' विकुर्वते करोति 'विउव्वित्ता' तथा कृत्वा 'ताए' तया उक्किट्ठाए' उत्कृष्टया, अन्येषां गतिभ्यो मनोहरया 'तुरिआए' त्वरितया, चित्तौत्सुक्यवत्या 'चवलाए' कायचापल्ययुक्तया 'चंडाए' चण्डया अत्यन्ततीव्रया 'जयणाए' शेषगतिजयनशीलया 'उद्धआए' उद्भूतया, प्रचण्डपवनोद्भूतधूमादेरिव 'सिग्घाए' अत एव शीघ्रया 'छेआए' त्ति कुत्रचित् पाठः, तत्र छेकया विघ्नपरिहारदक्षया 'दिव्वाए देवयोग्यया, ईदृश्या 'देवगईए' देवगत्या 'वीइक्यमाणे वीइवयमाणे' गच्छन्, अवस्तादुतरन् अधस्तादुत्तरन् 'तिरिअमसंखिजाणं दीवसमुदाणं' तिर्यगसंख्येयाना द्वीपसमुद्राणां 'मज्झं मज्झेणं' मध्यं मध्येन-मध्यभागेन 'जेणेव जबूद्दीवे दीवे' यत्रैव जम्बूद्वीपो द्वीपः ‘भरहे वासे' भरतक्षेत्रं 'जेणेव माहणकुंडग्गामे नयरे' यत्रैव ब्राह्मणकुण्डग्राम नगरं जेणेव उसभदत्तस्स माहणरस गिहे' यत्रैव ऋषभदत्तस्य ब्राह्मणस्य गृहं- 'जेणेव देवाणंदा माहणी यत्रैव देवानन्दा ब्राह्मणी तेणेव उवागच्छइ' तत्रैव उपागच्छति, 'उवागच्छित्ता' उपागत्य च 'आलोए' आलोके दर्शनमात्रे 'समणस्स भगवओ महावीरस्स' श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य 'पणामं करेइ' प्रणामं करोति 'पणाम करित्ता' प्रणामं कृत्वां च 'देवाणंदामाहणीए' देवानन्दायाः ब्राह्मण्याः 'परिजणाए' सपरिवारायाः 'ओसोवणिं' अवस्वापिनी निद्रा 'दलई' ददाति दलित्तां तां दत्त्वा च 'असुभे पुग्गले' अशुवीन पुद्गलान्, अपवित्रानित्यर्थः 'अवहरइ अपहरति दूरीकरोति 'अवहरित्ता' तथा कृत्वा च 'सुभे पुग्गले' शुभान् पुगलान्, पवित्रपुद्गलानित्यर्थः 'पक्खिवई' प्रक्षिपात पाक्खवित्ता' प्रक्षिप्य च 'अणुजाणउ मे भयवं ति कटु अनुजानातु-आज्ञा ददातु मह्यं भगवान् इति कृत्वा, इत्युक्त्वा 'समणं भगवं महावीरं' श्रमणं भगवन्तं महावीरम् 'अव्वाबाह' व्याबाधारहितं भगवन्तम् 'अव्वाबाहेणं' अव्याबाधेन, सुखेन 'दिव्येणं पहावेण' दिव्येन देवयोग्यन प्रभावेण 'करयलसंपुडेणं गिण्हइ' करतलसम्पुटे गृह्णाति, न च तेन गृह्यमाणस्यापि गर्भस्य काचित्पीडा स्यात्, यदुक्तं भगवत्यान- 'पभू णं भंते ! हरिणेगमेसी सक्छदूए इत्थीगभं नहसिरसि वा रोमकूवंसि वा साहरित्तए वा नीहरित्तए वा ? हंता पभू, नो चेवणं तस्स गन्भस्स आबाहं वा वाबाहं वा उप्पाएजा, छावच्छेअं पुण्ण करिज्जा' छविच्छेदं त्वक्छेदनम् अकृत्वा गर्भस्य प्रवेश यितुम अशक्यत्वादिति करयलसंपुडणं गिपिहृत्ता' हस्ततलसम्पुटे गृहीत्वा च 'जेणेव खत्तियकुण्डग्गामे नयरे' यत्रैव क्षत्रियकुण्डग्रामनामनगरं 'जेणे व सिद्धत्थस्स खत्तियस्स गिहे' यत्रैव सिद्धार्थस्य क्षत्रियस्य गृहं 'जेणेव तिसला खत्तियाणी यत्रैव त्रिशलानाम क्षत्रियाणी 'तेणेव उवागच्छइ' तत्रैव उपागच्छति 'तिसलाए खत्तिआणीए' त्रिशलायाः क्षत्रियाण्याः सपरिअणाए' परिवारसहितायाः ओसोवर्णि'
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________________ वीर 1348 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वीर अवस्वापिनी निद्रा 'दलइ' ददाति दलित्ता' तां दत्त्वा च 'असुभे पुग्गले अवहरइ' अशुभान् पुद्गलान् दूरीकरोति अवहरिता' तथा कृत्वा 'सुभे पुग्गले पक्खिवइ' शुभान पुदालान् प्रक्षिपति पक्खिवित्ता प्रक्षिप्य च 'समण भगवं महावीरं' श्रमणं भगवन्तं महावीरम्- 'अव्वाबाह' व्याबाधारहितम् 'अय्याबाहेणं अव्याबाधेन सुखेन 'दिग्वेण पहावेणं' दिव्येन प्रभावेन 'तिसलाए खत्तिआणीए' त्रिशलायाः क्षत्रियाण्याः 'कुच्छिसि गब्भत्ताए' कुक्षौ गर्भतया 'साहरइ' मुञ्चति, अत्र गर्भाशयात् गर्भाशये, गर्भाशयात योनौ, योनेर्गर्भाशये, योनेर्योनौ इति गर्भसंहरणे चतुर्भङ्गी भवति। तत्र योनिमार्गेण आदाय गर्भाशये मुञ्चतीत्ययं तृतीयो भङ्गोऽनुज्ञातः, शेषाश्च निषिद्धाः श्रीभगवतीसूत्रे 'जे विय णं से तिसलाए खत्तिआणीए गम्भे' योऽपि च तस्याः त्रिशलायाः क्षत्रियाण्याः गर्भः पुत्रीरूपः 'त पि अगं देवाणदामाहणीए' तमपि गर्भ देवानन्दायाः ब्राहाण्याः 'कुञ्छिसि गम्भत्ताए' कुक्षिविषये गर्भतया 'साहरइ' मुञ्चति 'साहरित्ता' मुक्त्वा च 'जामेव दिसिंपाउब्भूए' यस्याः एव दिशः सकाशात् प्रादुर्भूतः आगतः 'तामेव दिसिं पडिगए' तस्यामेव दिशं पश्वाद्गतः, स देव इति 1 // 28|| 'ताए उक्किट्ठाए' तया अन्येषां गतिभ्यो मनोहरया 'तुरिआए' चित्तौत्सुक्यवत्या चवलाए' कायचापल्ययुक्तया चंडाए' अत्यन्ततीव्रया 'जयणाए' सकलगतिनेत्र्या 'उदुआए' उद्भूतया 'सिग्घाए' अत एव शीघ्रया 'दिव्याए' देवयोग्यया 'देवगइए' ईदृश्या देवगत्या 'तिरिअम - संखिजाणं तिर्यग् असंख्येयानां दीवसमुद्दाणं मझमझेणं' दीपसमुद्राणां मध्य मध्येन मध्यभागेन 'जोयणसयसाहस्सिएहिं' योजनलक्षप्रमाणाभिः 'विग्गहेहिं' विग्रहैः पदन्यासान्तरैः 'उप्पयमाणे ऊर्ध्वमुत्पतन् 'जेणामेव सोहम्मे कप्पे' यत्र स्थाने सौधर्मे कल्पे 'सोहम्मवडिंसए विमाणे' सौधर्मावतंसकनामविमाने 'सकसि सीहासणंसि' शक्रनामसिंहासने सके देविंदे देवराया' शक्रनामा देवेन्द्रः देवराजोऽस्ति तेणामेव उवागच्छइ' तत्रैव स्थाने उपागच्छति उवागच्छिता' उपागत्य च 'सक्कस्स देविंदस्स देवरन्नो' शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य 'तमाणत्तिअखिप्पामेव' तां पूर्वोक्तामाज्ञां शीघ्रमेव पचपिणइ' प्रत्यर्पयति, कृत्वा निवेदयति, स देवः इति // 26 // तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे जे से वासाणं तचे मासे पंचमे पक्खे आसोअबहुले, तस्स णं आसो-अबहु-1 लस्स तेरसीपक्खेणं बासीइराइंदिएहिं वीइकतेहिं तेसीइमस्स राइंदिअस्स अंतरा वट्टमाणस्स हिआणुकं पएणं देवेणं हरिणेगमेसिणा सक्कवयणसंदिट्ठणं माहणकुंडग्गामाओ नयराओ उसभदत्तस्स माहणस्स कोडालसगुत्तस्स भारियाए देवाणंदाए माहणीए जालंधरसगुत्ताए कुच्छीओ खत्तियकुंडग्गामे नयरे नायाणं खत्तिआणं सिद्धत्थस्स खत्तिअस्स कासवगुत्तस्स भारिआए तिसलाए खत्तियाणीएवासिट्ठसगुत्ताए पुष्वरत्तावरत्तकालसमयंसि हत्थुत्तराहिं नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं अव्वाबाहं अय्वाबाहेणं कुञ्छिसि गन्भत्ताए साहरिए // 30 // तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे तिन्नाणोवगए आऽवि हुत्थासाहरिजिस्सामि त्ति जाणइ, संहरिजमाणे नो जाणाइ, साहरिएमित्ति जाणइ। 'तेणं कालेणं' तस्मिन् प्रस्तावे 'तेणं समएण' तस्मिन् समये 'समणे भगवं महावीरे' श्रमणो भगवान् महावीरः 'जे से वासाणं तचे मासे' योऽसौ वर्षाणां वर्षाकालसम्बन्धी तृतीयो मासः ‘पंचमे पक्खे' पक्षमः पक्षः, कोऽसौ इत्याह-'आसोअबहुले' आश्विनमासस्य कृष्णपक्षः तस्सणं आसोअबहुलस्स' तस्स आश्विनबहुलस्य 'तेरसीपक्खेण' त्रयोदश्याः पक्षः, पश्चार्धरात्रिरित्यर्थः, तस्यां 'बासीइराइदिएहि विइक्रोहि, द्वयशीतो अहोरात्रेषु अतिक्रान्तेषु तेसीइमस्स' राइंदिअस्स त्र्यशीतितमस्याऽहोरात्रस्य 'अंतरा वट्टमाणस्स' अन्तरकाले रात्रिलक्षणे काले वर्तमाने "हिआणुकंपएणं' स्वस्य इन्द्रस्य च हितेन, तथा भगवतः अनुकम्पकेन भगवतो भक्तेन, अनुकम्पायाश्च भक्तिवाचित्वम्, 'आयरिअअणुकंपाए गच्छो अणुकंपिओ महाभागो' इति वचनात्' हरिणेगमेरिणा देवेणं' ईदृशेन हरिणेगमैषिनामकेन देवेन 'सक्कवयणसंदिवणं शक्रवचनेन संदिष्टन प्रेषितेन 'माहणकुण्डग्गामाओ' ब्राह्मणकुण्डग्रामात् 'नयराओ' नगरात् 'उसभदत्तस्स माहणस्स' ऋषभदत्तस्य ब्राह्मणस्य 'कोडालसगुत्तरस' कोडालसगोत्रस्य भारिआए देवाणंदाए माहणीए' भार्याया देवानन्दायाः ब्राह्मण्याः 'जालंधरसगुत्ताए' जालन्धरसगोत्रायाः 'कुच्छिओ' कुक्षितः 'खत्तिअकुंडग्गामे नयरे' क्षत्रियकुण्डग्रामे नगरे 'नायाणं खत्तिआणं' ज्ञातजातीयाना क्षत्रियाणा "सिद्धत्थस्य खत्तियस्स' सिद्धार्थस्य क्षत्रियस्स कासवगुत्तस्स' काश्यपगोत्रस्य भारिआए तिसलाए खत्तिआणीए' भार्यायास्त्रिशलायाः क्षत्रियाण्याः ‘वासिहसगुत्ताए' वाशिष्ठगोत्रायाः 'पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि' मध्यरात्रकालसमये हत्थुत्तराहिं नक्खत्तेणं' उत्तराफाल्गुनीनक्षत्रे 'जोगमुवागरणं' चन्द्रेण सम्बन्धे उपागते सति 'अव्वाबाह' पीडारहितं यथा स्यात्तथा अव्याबाहेणं' अव्याबाधेन दिव्यप्रभावेन 'कुञ्छिसि गब्भत्ताए साहरिए कुक्षिविषये गर्भतया संहृतः; मुक्त इत्यर्थः / अत्र कवेरुत्प्रेक्षा-"सिद्धार्थपार्थिवकुलाप्तगृहप्रवेशे, मौहूर्तमागमयमान इव क्षणं यः / रात्रिंदिवान्युषितवान् भगवान् व्यशीति, विप्रालये स चरमो जिनराट् पुनातु // 30 // तेणं कालेणं' तस्मिन् काले 'तेणं समएणं' तस्मिन् प्रस्तावेच 'समणे भगवं महावीरे' श्रमणो भगवान महावीरः 'तिन्नाणोवगए आऽवि हुत्था' त्रिभिज्ञानः उपगतः सहितः अभवत् 'साहरिजिस्सामि त्ति' जाणाई' संहरिष्यमाणः, इतः संहरिष्यामि इति जानाति 'साहरिजमाणे नो जाणइ' सहियमाणः संहरणसमये न जानाति साहरिएमि' त्ति जाणाइ' संहृतोऽ
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________________ 1346 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वीर स्मीति जानाति, ननु संहियमाणे न जानातीति कथंयुक्तं, संहरणस्य असङ्ख्यसामायिकत्वात्, भगवतश्च विशिष्टज्ञानवत्त्वात्, उच्यते- इदं वाक्य सहरणस्य कौशलज्ञापकं, तथा तेन संहरणं कृतं यथा भगवता ज्ञातमपि अज्ञातमिवाभूत, पीडाऽभावात्, यथा कश्चिद्वदति त्वया मम पादात्तथा कण्टको उद्धृतो यथा मया ज्ञातएव नेति, सौख्यातिशये च सत्येवंविधो व्यपदेशः सिद्धान्तेऽपि दृश्यते, तथाहि-'तहिं देवा वंतरिआ वरतरुणीगीअवाइअरवेणं निच्च सुहिअपमुइआ गयं पि कालं न याणति' इत्यादि, तथा च 'साहरिजमाणे वि जाणइ' इत्याचाराङ्गोक्तेन विरोधोऽपि न स्यात्, इति मन्तव्यम्। जं रयणिं च णं समणे भगवं महावीरे-देवाणंदाए माहणीए जालंधरसगुत्ताए कुच्छीओ तिसलाए खत्तियाणीए वासिट्ठसगुत्ताए कुञ्छिसि गब्भत्ताए साहरिए, तं रयणिं च णं सादेवाणंदा माहणी सयणिज्जंसि सुत्त जागरा ओहीरमाणी ओहीरमाणी इमेयारूवे उराले० जाव चउद्दसमहासुमिणे तिसलाए खत्तिआणीए हडे पासित्ता णं पडिबुद्धा, तं जहा, 'गय-'० गाहा // 31 // ज रयणिं च णं समणे भगवं महावीरे देवाणंदाए माहणीए जालंधरसगुत्ताए कुच्छीओ तिसलाए खत्तिआणीए वासिहसगुत्ताए कुच्छिसि गब्भत्ताए साहरिए, तं रयणिं च णं सा तिसला खत्तिआणी तंसि तारिसंसि वासघरंसि अभितरओ सचित्तकम्मे बाहिरओ दूमिअ-घट्ठमटेविचित्तउल्लोअचिल्लियतले मणिरयणपणासि अंधयारे बहुसमसुविभत्तभूमिभागे पंचवन्नसरससुरहिमुक्कपुप्फपुंजोवयारकलिए कालागुरुपवरकुंदुरुक्कतुरुक्कडझंत धूवमघमघंतगंधुद्धयामिरामे सुगंधवरगंधिए गंधवट्टिभूए तंसि तारिसगंसि सयणिजंसि सालिंगण वट्टिए उभओ बिध्योअणं उभओ उन्नए मज्झेण य गंभीरे गंगापुलिणवालुआउद्दालसालिसएउअवीअखोमिअदुगुल्लपट्टपमिच्छन्ने सुविरइअरयत्ताणे रत्तंसुयसंवुडे सुरम्मे आईणगरूयवूरनवणीअतूलतुल्लफासे सुगंधवरकु सुमचुनसयणो वयारक लिए, पुटवरत्तावरत्तकालसमयंसि सुत्तजागरा ओहीरमाणी ओहीरमाणी, इमे इयारूवे उराले० जाव चउद्दस महासुमिणे पासित्ता णं पडिबुद्धा, तं जहा"गय-वसह-सीह अभिसेय-दाम-ससि–दिणयर-झयं-कुंभ। पउमसर सागर-विमा-ण भवण-रयणुचय सिहं च / / 1 / / " 'जरयणिं च णं' यस्यां च रात्रौ 'समणे भगवं महावीरे' श्रमणो भगवान् महावीरः 'देवाणंदाए माहणीए' देवानन्दाया ब्राह्मण्याः 'जालंधरसगुत्ताए' जालन्धरसगोत्रायाः 'कुच्छीओ' कुक्षितः 'तिसलाए खत्तिआणीए' त्रिशलायाः क्षत्रियाण्याः 'वासिट्ठसगुत्ताए' वाशिष्ठगोत्रायाः 'कुञ्छिसि गब्भत्ताए साहरिए' कुक्षिविषये गर्भतया मुक्तः 'तरयणि च ण' तस्यामेव रात्रौ 'सा देवाणंदा माहणी' सा देवानन्दा ब्राह्मणी 'सयणिज्जसि' शय्यायां सुत्तजागरा' सुप्तजागरा 'ओहीरमाणी ओहीरमाणी' अल्पानिद्रां कुर्वती 'इमे एयारूवे उराले' एमान् एतद्रूपान् प्रशस्तान् 'जाव चउद्दस महासुमिणे' यावत् चतुर्दश महास्वप्रान् 'तिसलाए खत्तिआणीए हडे पासित्ताण पडिबुद्धा' त्रिशलाया क्षत्रियाण्या हुता इति दृष्ट्वा जागरिता 'तं जहा' तद्यथा- ‘गयवसह० गाहा' 'गयवसह' इति गाथाऽत्र वाच्या // 31 // ज रयणि च णं' यस्यां च रात्रौ 'समणे भगवं महावीरे' श्रमणो भगवान महावीरः 'देवाणंदाए माहणीए' देवानन्दायाः ब्राहाण्याः 'जालंधरसगुत्ताए' जालन्धरसगोत्रायाः 'कुच्छीओ' कुक्षितः 'तिसलाए' खत्तिआणीए' त्रिशलायाः क्षत्रियाण्याः वासिट्ठसगुत्तए' वासिष्ठसगोत्रायाः 'कुच्छिरिस गडभत्ताए साहरिए' कुक्षौ गर्भतया मुक्तः 'तं रयणिं च णं' तस्यां रजन्यां 'सा तिसला खत्तिआणी सा त्रिसला क्षत्रियाणी 'तसि' तस्मिन् 'तारिसगसि' तादृशे वक्तुमशक्यस्यरूपे महाभाग्यवतां योग्ये 'वासघरंसि' वासगृहे, शयनमन्दिरे इत्यर्थः, किंविशिष्ट वासगृहे-- 'अभितरओ सचित्तकम्मे' मध्ये चित्रकर्मरमणीये, पुनः किविशिष्टे'बाहिरओ' बाह्यभागे 'दूमिअ' सुधादिना धवलिते घट्टे' कोमलपाषाणादिना घृष्ट, अत एव 'मढ़े' सुकोमले, पुनः किविशिष्ट-'विचित्तउल्लाअतले' विचित्रो विविधचित्रकलित उल्लोक उपरिभागो यत्र तत्तथा 'विल्लिअतले' देदीप्यमानतलः अधोभागो यत्र तत्तथा कर्मधारये विचित्रोल्लोकचिल्लिततले, पुनः किविशिष्टे- 'मणिरयअपणासिअंधयारे' मणिरत्न-प्रणाशितान्धकारे, पुनः किंविशिष्ट- 'बहुसम' अत्यन्तं समोऽविषमः पञ्चवर्णमणिनिबद्धत्वात् 'सुविभत्त' सुविभक्तः विविधस्वस्तिकादिरचनामनोहरः, एवंविधो 'भूमिभागे 'भूमिभागो 'भूमिगागो यत्र तस्मिन् पुनः किंविशिष्ट-- 'पंचवन्न-सरससुरहिमुफपुप्फपुजोवयारकलिए' पञ्चवर्णेन सरसेन सुरभिणा 'मुक्क' त्ति इतस्ततो विक्षिप्तेन ईदृशेन पुष्पपुञ्जलक्षणेन उपचारेण पूजया कलिते, पुनः किंविशिष्ट 'कालागुरु' कृष्णागुरु प्रसिद्ध 'पवरकुन्दुरुक्क' विशिष्ट चीडाभिधानं गन्धद्रव्यविशेषः 'तुरुक्क' तुरुष्कं सिलकाभिधानं सुगन्धद्रव्यं 'डज्मंतधूव' दह्यमानो धूपो दशाङ्गादिरनेकसुगन्धद्रव्यसंयोगसमुद्धृतः, एतेषां वस्तुना सम्बन्धियः 'मघमघंत' मघमघायमानोऽतिशयेनगन्धवान् 'गंधुद्धआभिरामे' उद्धतः-प्रकटीभूतः, एवंविधो गन्धस्तेनाभिरामे, पुनः किविशिष्ट... 'सुगंधवरगन्धिए' सुगन्धाः सुरभयो ये वरगन्धाः प्रधानचूर्णानि तेषां गन्धो यत्र तथा तस्मिन्, पुनः किंविशिष्ट– 'गंधवट्टिभूए' गन्धवर्तिर्गन्धद्रव्यगुटिका तत्सदृशेऽतिसुगन्धे इत्यर्थः, एतादृशे वासभवने, अथ'तसि' तस्मिन् 'तारिसगंसि' तादृशे वक्तुम् अशक्यस्वरूपे महाभाग्यवता योग्ये 'सयणिज्जंसि' शयनीये, पल्यड़े इत्यर्थः, इह विशेष्यम्, किंविशिष्टे-'सालिंगणवट्टिए' सालिङ्गनवर्त्तिके आलिङ्गनवर्तिका नाम--शरीर-प्रमाण दीर्घगण्डोपधानं तथा सहिते, पुनः किंविशिष्ट-'उभओ
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________________ वीर 1350- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वीर उभयतः शिरोऽन्तपादान्तोः 'बिब्बोअणे' उच्छीर्षके यत्र तत्तथा तस्मिन्, तओ पुणो हारनिकरखीरसागरससंककिरणदगरययमपुनः किंविशिष्ट- 'उभओ उन्नए' यत उभयत उच्छीर्षकयुक्ते, अत एव हासेलपंडुरतरं रमणिज्जपिच्छणिज्जं थिरलट्ठपउहवठ्ठपीवउभयतः उन्नते, पुनः किंविशिष्टे- 'मझेण य गंभीरे' तत एव मध्ये नते रसुसिलिट्ठविसिट्ठतिक्खदाढाविडं बिअमुहं परिकम्मिअगम्भीरे च, पुनः किंविशिष्ट 'गंगापुलिणावालुआउद्दालसालिसए' तत्र जबकम्मगलकोमलपमाणसोहंतलहउटुं रत्तुप्पलपत्तमउ'उद्दाल' त्ति उद्दालेन पादविन्यासे अधोगमनेन गङ्गातटवालुकासदृशे, असुकुमालतालुनिल्लालियग्गजीहं मूसागयपवरकणगताविअयमर्थः-- यथा गङ्गापुलिनवालुका पादे मुक्ते अधो व्रजति, तथा | अआवत्तायंतवट्टतडियविमलसरिसनयणं विसालपीवरवरोरु अतिकोमलत्वात् स पल्यकोऽपीति ज्ञेयं, पुनः किं विशिष्टे- 'उववीअ' पडिपुन्नविमलखंधं मिउविसयसुहमलक्खणपसत्थवित्थिपरिकर्मितं, 'खोमिअ' क्षोमम् - अतसीमयं 'दुगुल्लपट्ट' दुकूलं वस्त्रं नके सराडोवसोहिअंऊसिअसुनिम्मियसुजायअप्फोडितस्य यः पट्टो युगलापेक्षया एकपट्टः, तेन पडिच्छन्न' आच्छादिते, पुनः अलंगूलं सोम्म सोम्माऽगारं लीजायंतं नहयलाओ उवयमाणं किंविशिष्ट-- 'सुविरइअरयत्ताणे' सुष्टु विरचितं रजस्त्राणम्-अपरिभोगा- नियगवयणमइवयंतं पिच्छद सा गाढतिक्खग्गनहं सीहं वस्थायामाच्छादनं यत्र तस्मिन्, पुनः किंविशिष्ट-- रत्तंसुअसंवुडे' वयणसिरीपल्लवपत्तचारुजीहं 3 // 35 // रक्तांशुकेन मशकग्रहाभिधानेन रक्तवस्त्रेणाच्छादिते, तथा 'सुरम्मे' तओ पुणो पुग्नचंदवयणा, उच्चागयठाणलहसंठिअंपसत्थरूवं अतिरमणीये, पुनः किंविशिष्टे-'आइण-गरुअबूरनवरणीअतूलतुल्ल- सुपइडिअकणगमयकुम्मसरिसोवमाणचलणं अचुन्नयपीणरइफासे' आजिनकंदेशान्तरीयं चर्म, रुतं प्रतीतं, बूरोवनस्पतिविशेषः, अमंसलउवचियतणुं तबणिद्धनहं कमलपलाससुकुमालकरनवनीतं, म्रक्षणं तूलम्-अर्कतूलम्, एभिः वस्तुभिः तुल्यः समानः स्पर्शो चरणं कोमलवरंगुलिं कुरुविंदावत्तवट्टाणुपुटवजंघं निगूढजाणुं यस्य तथा तस्मिन्, एतद्वस्तुवत्कोमले इत्यर्थः, पुनः किंविशिष्ट- 'सुगंध- गयवरकरसरिसपीवरोरुंचामीकररइअमेहलाजुत्तं कंतवित्थिवरकुसुमचुन्नसयणोवयारकलिए सुगन्धवरैः अतिसुगन्धैः कुसुमैः चूर्णैः सोणिचकं जबंजणभमरजलयपयरउज्जुअसमसंहिअतणुअवासादिभिश्चयः शयनोपचारः शय्यासंस्क्रिया तेन कलिते; कुसुमैः चूर्णश्च आइज्जलडहसुकुमालमउअरमणिज्जरोमराई नाभिमंडलमनोहरे इत्यर्थः, 'पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि' मध्यरात्रकालप्रस्तावे सुंदरविसालपसत्थजघणं करयलमाइज्जपसत्थतिवलियमज्झं 'सुत्तजागरा ओहीरमाणी ओहीरमाणी' सुप्तजाराअल्पनिद्रां कुर्वती 'एमे नाणामणिकणगरयणविमलमहातवणिज्जाभरणभूसणविराइयएयारूवे' इमान् एतद्रूरान् 'उराले प्रशस्तान् 'जावचउद्दस महासुमिणे' मंगुवंगं हारविरायंतसुंदमालपरिणद्धजलजलं तथणजुअयावत् चतुर्दश महास्वप्रान् पासित्तांणं पडिबुद्धा' दृष्ट्वा जागरिता, 'तं लविमलकलसंआइयपत्तिअविभूसिएणं सुभगजालुजलेणं जहा' तद्यथा- 'गय 1 वसह 2 सीह 3 अभिसेअ 4 दाम 5 ससि 6 मुत्ताकलावएणं उत्थदीणारमालविरइएणं कंठमणिसुत्तएणं दिणयरं 7 झयं 8 कुंभ६॥ पउमसर 10 सागर 11 विमा णभवण 12 कुंडलजअलुल्लसंतअंतोवसत्तसोभंतसप्पभेणं सोभागुणरयणुचय 13 सिहिं च 14 // 1 // " इयं गाथा सुगमा / समुदएणंआणणकुटुंबिएणं कमलामलविसालरमणिज्जलोअणिं कमलपज़लें तकरगहिअमुकतोयं लीलावायकयपक्खएणं (14) चतुर्दश महास्वप्नस्वरूपम् सुविसदकसिणघणसण्हलंबंतकेसहत्थं पउमद्दहकमलवासिणिं तए णं सा तिसला खत्तिआणी तप्पढमयाएचउदंतमूसि सिरिं भगवई पिच्छइ हिमवंतसेलसिहरे दिसागइंदोरुपीवरकराअगलिअविपुलजलहरहारनिकारखीरसागरससंककिरणदग भिसिचमाणिं / // 36|| कल्प०१ अधि० 2 क्षण! तओ पुणो रययमहासेलपंडुरं समागयमहुयरसुगंधदाणवासियकपोल सरसकुसुममंदारदामरमणिजभूअं चंपगाऽसोगपुन्नागनागपिमूलं देवरायकुंजरवरप्पमाणं पिच्छह सजलघणविपुलजल अंगुसिरीसमुग्गरमल्लिआजाइजूहिअंकोल्लकोजकोरिंटहरगजियगंभीरचारघोसं इमं सुभं सवलक्खणकयं बिअं पत्तदमणयणनवमालिअबउलतिलयवासंतिअपउमुप्पलपावरोरं 1 // 33 // डलकुंदइमुत्तसहकारसुरभिगंधिं अणुवममणोहरेण गंघेणं दस तओ पुणो धवलकमलपत्तपयराइरेगरूवप्पमं पहासमुदओ- वि दिसाओ वि वासयंतं सव्वोउअसुरभिकुसुममल्लधवलविवहारेहिं सव्वओ चेव दीवयंतं अइसिरिभरपिल्लणाविसप्पं- लसंतकंतबहुवन्नभत्तिचित्तं छप्पयमहुअरीममरगणगुमगुमातकं तसोहंतचारुककुहं तणुसुद्धसुकुमाललोमनिद्धच्छविं यंतनिलिंतगुंजंतदेसभागं दामं पिच्छइ नभंगणतलाओ उवयंत थिरसुबद्धमंसलोवचिअलहसुविभत्तसुंदरंग पिच्छह घणवठ्ठल- 5 // 37 / / (कल्प०) हुउकिट्ठतुप्पग्गतिक्खसिंग दंतं सिवं समाणसोहंतसुद्धदंतं वसहं 6 षष्ठ स्वप्नस्वरूपम् 'चंद' शब्दे तृतीयभागे 1064 पृष्ठे अमिअगुणमंगलमुहं 2 // 3 // गतम् / ) (सूरदर्शनविशिष्टं सप्तमं स्वप्नम् 'सूर' शब्दे वक्ष्य
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________________ वीर 1351 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वीर ते।) (ध्वजदर्शनविशिष्टमष्टमं स्वप्नम् 'झय' शबदे चतुर्थभागे 1660 / रिसंनिगासं पिच्छइ सा रयणनिकररासिं 13 // 45 // पृष्ठे गतम्।) सिहिं च सा विउलुज्जलपिंगलमहुघयपरिसिचमाणनिभूमधतओ पुणो जञ्चकं चणुञ्जलं तरूवं निम्मलजलपुन्नमुत्त- गधगाइयजलंतजालुज्जलाभिरामं तरतमजोगजुत्तेहिं न जालापमंदिप्पमाणसोहं कमलकलावपरिरायमाणं पडिपुग्नं सव्व- यरेहिं अन्नुन्नमिव अणुप्पइन्नं पिच्छइ जालुजलणग अंबरं व मंगलभेयसमागमं पवररयणपरिरायंतकमलट्ठियं नयणभूस- कत्थइ पयंतं अइवेगचंचलं सिहिं 14 // 46|| णकरं पभासमाणं सव्वओ चेव दीवयंतं सोमलच्छीनिभेलणं इमे एयारिसे सुभे सोमे पियदंसणे सुरूवे सुविणे दठूण सव्वपावपरिवज्जिअंसुभं भासुरं सिरिवरं सव्वोउयसुरभिकुसुम- सयणमज्झे पडिबुद्धा अरविंदलोयणा हरिसपुलइअंगी। एए आसत्तमल्लदाम पिच्छइ सा रययपुन्नकलसं // 41 // चउद्दस सुमिणे, सव्वा पासइ तित्थयरमाया, जं रयणिं वक्कमइ तओ पुणो रविकिरणतरुणबोहिययसहस्सपत्तसुरभितरपिंज- कुञ्छिसि महायसो अरिहा / / 47 // तएणं सा तिसला खत्तियाणी रजलं जलचरपहकरपरिहत्थगमच्छपरिभुजमाणजलसंचयं इमे एयारूवे चउद्दस महासुमिणे पासित्ता गं पडिबुद्धा समाणी महंतं जलंतमिव कमलकुवलयउप्पलतामरसपुंडरीओरुसप्प हट्ठ-तुट्ठ० जाव-हियया धाराहयकयंबपुप्फगं पिव समूससिमाणसिरिसमुदएणं रमणिज्जरूवसोहं पमुइअंतभमरगणमत्तमहु अरोमकूवा सुमिणुग्गहं करेह करित्ता सयणिज्जाओ अब्भुढेइ यरिंगणुक्करोलिज्जमाणकमलं कायंबगबलाहयचक्ककलहंस अब्भुट्टित्ता पायपीठाओ पचोरुहइ, पायपीठाओ पचोरुहित्ता सारसगव्विअसउणगणमिहुणसेविजमाणसलिलं पउमिणिपत्तो अतुरिअमचवलमसंभंताए अविलंबियाए रायहंससरिसीए गई। वलग्गजलबिंदुनिचयचित्तं पिच्छइ सा हिययनयणकंतं पउमसरं जेणेव सयणिज्जे जेणेव सिद्धत्थे खत्तिए तेणेव उवागच्छइ नाम सरं सरोरुहा-भिरामं 10 // 42 // उवागच्छित्ता सिद्धत्थं खत्तिअंताहिं इट्ठाहिं कंताहिं पियाहिं मणुन्नाहिं मणोरमाहिं ओरालाहिं कल्लाणाहिं सिवाहिं धन्नाहिं तओ पुणो चंदकिरणरासिसरिसरिवच्छसोहं चउगमणप मंगल्लाहिं सस्सिरीयाहिं हिययगमणिज्जाहिं हिययपल्हायणिवड्डमाणजलसंचयं चवलचंचलुचायप्पमाणकल्लोललोलंततोयं जाहिं मिअमहुरमंजुलाहिं गिराहिं संलवमाणी 2 पडिबोहेइ पडुपवणाहयचलियचवलपागडतरंगरंगतभंगखोखुब्भमाणसो ||48|| तए णं सा तिसला खत्तिआणी सिद्धत्थेणं रन्ना अब्भणुभंतनिम्मलुक्कडउम्मीसहसंबंधधावमाणावनिपत्त भासुरतराभि नाया समाणी नाणामणिकणगरयणभत्तिचित्तंसि भद्दासणंति रामं महामगरमच्छतिमितिमिंगिलनिरुद्धतिलितिलियाभिधा निसीयइ निसीइत्ता आसत्था वीसत्था सुहासणवरगया सिद्धत्थं यकप्पूरफेणपसरं महानईतुरियवेगसमागयभमगंगावत्तगुप्प खत्तिअंताहिं इट्ठाहिं० जाव संलवमाणी संलवमाणी एवं वयासी माणुचलंतपचोनियत्तभममाणलोलसलिलं पिच्छइ खीरोयसा -||47 // एवं खलु अहं सामी, अज्जतंसि तारिसगंसि सयणिज्जंसि यरं सा रयणिकरसोमवयणा 11 // 43|| वण्णओ० जाव-पडिबुद्धा, तं जहा-गयवसह० गाहा, तं एएसिं तओ पुणो तरुणसूरमंडलसमप्पहं दिप्पमाणसोभं उत्तमकंच सामी उरालाणं चउद्दसण्हं महासुमिणाणं के मन्नेकल्लाणे महामणिसमूहपवरतेयअट्ठसहस्सदिप्पंतनहप्पईवं कणगपय फलवित्तिविसेसे भविस्सइ / / 50|| तए णं से सिद्धत्थे राया रलंबमाणमुत्तासमुज्जलं जलंतदिव्वदामं ईहामिगउसभतुरगन तिसलाए खत्तिआणीए अंतिए एयमढे सुया निसम्म हट्ठतुट्ठरमगरविहगवालगकिन्नररुरुसरभचमरसंसत्तकुंजरवणलयप जाव हियए धाराहयनीवसुरभिकुसुमचंचुमालइयरोम-कूवे उमलय भत्तिचित्तं गंधव्वोपबजमाणसंपुन्नघोसं निचं सजलघण ते सुमिणे ओगिण्हई, ओगिण्हित्ता ईहं अणुपविसइ, ईहं विउलजलहरगज्जियसवाणुणाइणा देवदुंदुहिमहारवेणं सयलमवि अणुप-विसित्ता अप्पणो साहाविएणं मइपुव्वएणं बुद्धि विन्नाणेणं जीवलोयं पूरयंतं, कालागुरुपवरकुंदुरुक्कतुरुक्कडज्झमाणधूव- तेसिं सुमिणाणं अत्थुग्गहं करेइ करित्ता तिसलं खत्तिआणिं वासंगउत्तममघमघंतगंधुद्भुयाभिरामं निचालोयंसेयंसेयप्पभंसुरव ताहिं इट्ठाहिं० जाव मंगल्लाहिं सस्सिरीयाहिं वग्गू हिं राभिरामं पिच्छा सा साओवभोगं विमाणवरं पुंडरीयं 12 // 44|| संलवमाणे संलवमाणे एवं वयासी- ||51 / ! उराला णं तु में तओ पुणो पुलगवेरिंदनीलसासगकक्केयणलोहियक्खमरग- देवाणु प्पिए ! सुमिणा दिट्ठा, कल्लाणा णं तुमे देवाणुप्पिए! यमसारगल्लपवालफलिहसोगंधियहंसगब्भअंजण चंदप्पहवर- सुमिणां दिट्ठा, एवं सिवा धन्ना मंगल्ला सस्सिरीया आरुग्गरयणेहिं महीयलपइडिअंगगणमंडलंतं पभासयंतं, तुंगं मेरुगि- | तुट्ठिदीहाउकल्लाणमंगल्लकारगाणं तुमे देवाणुप्पिए ! सुं
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________________ वीर 1352 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वीर मिणा दिट्ठा, अत्थलाभो देवाणुप्पिए ! भोगलामो देवाणुप्पिए ! अंजलिं कटु एवं सामि' ति आणाएविणएणं वयणं पडिसुणंति पुत्तलामो देवाणुप्पिए ! सुक्खलामो देवाणुप्पिए ! रजलाभो पडिसुणित्ता सिद्धत्थस्सखत्तियस्स अंतिआओ पडिनिक्खमंति, देवाणुप्पिए! एवं खलु तुमे देवाणुप्पिए! नवण्हं मासाणं बहुपङि- | पडिनिक्खमित्ता जेणेव बाहिरिआ उवट्ठाणसाला तेणेव पुन्नाणं अट्ठमाणं राइंदियाणं विइछताणं अम्हं कुलकेउं अम्हं उवागच्छंति, उवागच्छित्ता खिप्पामेव सविसेसं बाहिरियं कुलदीवं कुलपव्वयं कुलबडिंसयं कुलतिलयं कुलकित्तिकरं उवट्ठाणसालं गंधोदगसित्तं सुई० जाव-सीहासणं रयाविंति कुलवित्तिकरं कुलदिणयरं कुलाऽऽधारं कुलनंदिकरं कुलज- | "रयावित्ता जेणेव सिद्धत्थे खत्तिए तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता सकरं कुलपायवं कुलविवद्धणकरं सुकुमालपाणिपायं अहीण- करयल० जाव मत्थए अंजलिं कट्टु सिद्धत्थस्स खत्तिअस्स पडिपुग्नपंचिंदियसरीरं लक्खणवंजणगुणोववेयं माणुम्माणप्प- तमाणत्ति पचप्पिणंति // 56 // तए णं सिद्धत्थे खत्तिए कल्लं माणपडिपुन्नसुजायसव्वंगसुंदरंग ससिसोमागारं कंतं पियदसणं पाउप्पभाए रयणीए फुल्लुप्पलकमलकोमलुम्मीलियम्मि सुरूवं दारयं पयाहिसि // 52 // अहापंडुरे पभाएरत्तासोगप्पगासकिंसुअसुअमुहगुंजद्धराग(११) वीरस्य यौवनावस्था बंधुजीवपारावयचलणनयण परहुअसुरत्तलोअणजासुसे वि अ णं दारए उम्मुक्कबालभावे विनायप्परिणयमित्ते अकुसुमरासिहिंगुलनिअराइरेगरेहंतसरिसे कमलायरजुव्वणमणुपत्ते सूरे वीरे विक्कं ते वित्थिण्णविउलबलवाहणे संडविवोहए उठ्ठिअम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेअसा रज्जवई राया भविस्सइ॥५३॥ तं उरालाणं० जाव सुमिणा दिट्ठा, जलंते, तस्स य करपहरापरद्धम्मि अंधयारे वालायवकुंकुमेणं दुचं पि तचं पि अणुबूहइ / / तए णं सा तिसला खत्तिआणी खचिअव्व जीवलोए, सयणिज्जाओ अन्मुढेइ॥६०|अब्भुद्वित्ता सिद्धत्थस्स रन्नो अंतिए एयमटुं सुचा निसम्म हहतुट्ठ० जाव पायपीढाओ पचोरहइ पचोरहित्ता जेणेव अट्टणसाला तेणेव हियया करयलपरिग्गहिअं० जाव मत्थए अंजलिं कट्ठ एवं उवागच्छइ उदागच्छिता अट्टणसालं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता, वयासी-||१४|| एवमेयं सामी,तहमेयं सामी अवितहमेयं सामी, अणे गवायामजोगवग्गणवाहुमहणमल्लजुद्धकरणे हिं संते असंदिद्धमेयं सामी, इच्छियमेअंसामी, पडिच्छियमेअंसामी, परिस्संते सयपागसहस्सपागेहिं सुगंधतिल्लमाइएहिं पीणइच्छिअपडिच्छियमेयं सामी, सच्चे णं एस अट्टे से जहेयं तुम्भ णिज्जेहिं दीवणिज्जेहिं मयणिज्जेहिं बिहणिजेहिं दप्पणिज्जे हिं वयह त्ति कटु ते सुमिणे सम्म पडिच्छइपडिच्छित्ता सिद्धत्थेणं सविदिय-गायपल्हायणिंजेहिं अन्भंगिएसमाणे तिल्लचम्मंसि रना अन्भणुनाया समाणी नाणामणिरयणभत्तिचित्ताओ, भद्दास निउणेहि पडिपुनपाणिपायसुकुमालकोमलतलेहिं अब्मंगणपणाओ अब्मुढेइ, अन्मुद्वित्ता अतुरियमचवलमसंभत्ताए अविलं- रिमद्दणुव्वलणकरणगुणनिम्माएहिं दक्खेहिं पढेहिं कुलले हिं बिआए रायहंससरिसीए गईए जेणेव सए सयणिज्जे, तेणेव मेहावीहिं जिअपरिस्समेहिं पुरिसेहिं अट्ठिसुहाए मंससुहाए उवागच्छह उदागच्छित्ता, एवं वयासी-मामे एए उत्तमा पहाणा तयासुहाए मिसुहाए चउव्विहाए सुहपरिकम्मणाए संवाहणाए मंगल्ला सुमिणा दिहा अन्नेहिं पावसुमिणेहिं पडिहम्मिस्संति संवाहिए समाणे अवगयपरिस्समे अट्टणसालाओपडिनिक्खमइ, त्ति कटु देवयगुरुजणसंबद्धाहिं पसत्थाहिं मंगल्लाहिं पडिनिक्खमित्ताजेणेव मजणघरे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता धम्मियाहि कहाहिं सुमिणजागरियं जागरमाणी पडिजागरमाणी मनणघरं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता समत्तजालाकुलाभिरामे विहरइ // 56 // तए णं सिद्धत्थे खत्तिए पचूसकालसमयंसि विचित्तमणिरयणकुट्टिमतले रमणिज्जे ण्हारणमंडवंसिं नाणामकोडुं विअपुरिसे सद्दावेइ सहावित्ता एवं वयासी-||५७।। णिरयणभत्तिचित्तंसि पहाणपीढंसि सुहनिसन्ने पुप्फोदहि अ, खिप्पामेव भो देवाणुप्पिआ ! अज सविसेसं बाहिरि गंधोदएहि अ, उण्होदएहि अ,सुद्धोदएहि, सुहोदएहिय कल्लाउवट्ठाणसालं गंधोदयसित्तं सुइसमजिओवलित्तं सुगंध-वरपंच- णकरणपवरमजणविहीए मजिए तत्थ कोउअसएहिं बहुविहेहिं वनपुष्फोवयारकलिअंकालागुरुपवरकुंदुरकतु-राकडज्झंत- कल्लाणपगपवरमजणाऽवसाणे पम्हलसुकुमालगंधकासाइधूवमघमघंतगंधुद्धयाभिरामं सुगंधवरगंधियं गंधवट्टिभूअं करेह अलू हिअंगे अहयसुमहरघ दूसरयणसुसंवुडेसरससुरभिकारवेह, करित्ताकारवित्तासीहासणंरयावेहरयावेहित्ताममेय- गोसीसचंदणाणुलित्तगत्ते सुइमालावन्नगविलेवणे आविद्धमणिमाणत्तिअंखिप्पामेव पचप्पिणह॥५८|| तएणं कोडुविअपुरिसा सुवन्ने कप्पियहारहारतिसरयपालंबपलंबमाणक डिसिद्धत्थेणं ना एवं वुत्ता समाणा हट्ठतट्ठ०जाव-हियया,जाव सुत्तसुक यसोहं पिणद्धगे विख्ने अंगुलिज्जगललियकया
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________________ वीर 1353 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वीर भरणे वरक डगतु डि अथं मिअभुए अहिअरू वसस्सिरीए | निग्गच्छंति निग्गच्छित्ता,खत्तियकुंडग्गामं नयरं मज्झं मज्झेणं कुंडलउज्जोइआणणे मउडदत्तसिरए हारुच्छियसुकयरइअवच्छे जेणेव सिद्धत्थस्स रन्नो भवणवरवडिं सगपडिदुवारे तेणेव मुद्दिआपिंगलंगुलीए पालबपलंबमाणसुकयपडउत्तरि नाणाम- उवागच्छंति, उवागच्छित्ता भवणवरवडिंसगपडिदुवारे एगओ णिक णगरयणविमलमहरिअनिउणो वचिअमिसिमिसिंत- मिलंति मिलित्ता जेणेव बाहिरिआउवट्ठाणसाला, जेणेव सिद्धत्थे विरइअसुसिलिट्टविसिट्ठलट्ठ आविद्धवीरबलए किं बहुणा खत्तिए, तेणेव उवागच्छंति तेणेव उवागच्छित्ता करयल० जाव कप्परुक्खए विव अलंकिअविभूसिए नरिंदे, सकोरंटमल्ल- अंजलिं कटु, सिद्धत्थं खत्तिअंजएणं विजएणं वद्धाविति दामेणं छत्तेणं धरिजमाणेणं से अवरचामराहिं उद्धवमाणीहिं // 66 // कल्प०१ अधि०३ क्षण / मंगलजयसद्दकयालोए अणेगगणनायगदंडनायगराईस-रतल तए णं ते सुविणलक्खणपाढगा सिद्धत्थेणं रन्ना वंदियवरमाडं बिअकोडं बिअमंतिगणगदोवारियमचचढे पीढमद्द पूइअसक्कारिअसम्माणिआ समाणा पत्ते पत्ते पुटवनत्थेसु नगरनिगमसिट्ठिसेणावइसत्थवाहदूअसंधिवालसद्धिं संपरिवुडे भद्दासणेसु निसीयंति // 68|| तए णं सिद्धत्थे खत्तिए तिसलं धवलमहामेहनिग्गए इव गहगणदिप्पंतरिक्खतारागणाण मज्झे खत्तियाणिं जवणिअंतरियं ठावेइ ठावित्ता पुप्फफलपडिससि व्व पिअदंसणे नरवई नरिंदे नरवसहे नरसीहे अब्भहि पुन्नहत्थे परेणं विणएणं ते सुविणलक्खणपाढए एवं वयासीअरायतेयलच्छीए दिप्पमाणे मजणघराओ पडि निक्खमइ, // 66 // एवं खलु देवाणुप्पिआ ! अज्ज तिसला खत्तियाणी तंसि मजणघराओ पडिनिक्खभित्ता जेणेव बाहिरिआ उवट्ठाणसाला तारिसगंसि० जाव सुत्तजागरा ओहीरमाणी ओहीरमाणी इमे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता सीहासणंसि पुरत्थाभिमुहे एयारूवे चउद्दस महासुमिणे पासित्ता णं पडिबुद्धा // 70 / / तं निसीअइ निसीइत्ता, अप्पणो उत्तरपुरिच्छमे दिसीमाए जहा- 'गयवसह०' गाहा-तं एएसिं चउद्दसण्हं महासुमिणाणं अट्ठभद्दासणाई सेअवत्थपचुत्थयाइं सिद्धत्थकयमंगलोवयाराई देवाणुप्पिआ ! उराला णं के मन्ने कल्लाणं फलवित्तिविसेसे रयावेइ, रयावेत्ता अप्पणो अदूरसामंते नाणामणिरयणमंडिअं भविस्सइ / / 71 / / तए णं ते सुमिणलक्खणपाढगा सिद्धत्थस्स अहिअपिच्छणिज्जं महाघवरपट्टणुग्गयं सहपट्टभत्तिसयचित्ताणं खत्तियस्स अंतिए एयमढे सुच्चा निसम्म हट्टतुट्ठ० जाव हियया, ईहामिअउसभतुरगनरमगरविहगवालगकिन्नररुरुसरभचम ते सुमिणे सम्मं ओगिण्हंति ओगिण्हित्ता ईहं अणुपविसंति रकुंजरवणलयपउमलय भत्तिचित्तं अभितरिअं जवणिअं अणुपविसित्ता अन्नमन्नेणं सद्धिं संचालिंति संचालित्ता तेसिं अंछावेइ, अंछावित्ता नाणामणिरयणभत्तिचित्तं अत्थरयमिउम सुमिणाणं लद्धट्टा गहिअऽट्ठा पुच्छियऽट्ठा विणिच्छियऽट्ठा सूरगो (च्छ)त्थयं सेअवत्थपचुत्थयं सुमउअं अंगसुहफरिसगं सिद्धत्थस्स रन्नो पुरओ सुमिणसत्थाई, उचारे माणा विसिटुं तिसलाए खत्तिआणीए भद्दासणं रयावेइ, रयावित्ता उचारेमाणा सिद्धत्थं खत्तियं एवं वयासी-||७२।। कोडं बिअपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी-॥६५।। खिप्पामेव भो देवाणुप्पिआ ! अटुंगमहानिमित्तसुत्तत्थधारए 'तए णं ते सुविणलक्खणपाढगा' ततस्ते स्वप्नलक्षणापाठकाः विविहसत्थकुसले सुविणलक्खणपाढए सद्दावेह || तए णं सिद्धत्थेण रन्ना वदिअ सिद्धार्थेन राज्ञा वन्दिताः गुणस्तुतिकरणेन कोड़े बिअपुरिसा सिद्धत्थेणं रन्ना एवं वुत्ता समाणा, हट्ठ-तुट्ठ० 'पूइअ'पूजिताः पुष्पादिभिः 'सकारिअ' सत्कारिताः फलवस्त्रादिदानेन जावहियया करयल० जाव पडिसुणं ति // 65|| तए णं० 'सम्माणिआ समाणा' सन्मानिताः अभ्युत्थानादिभिः, एवंविधाः सन्तः पडिसुणित्ता सिद्धत्थस्स खत्तिअस्स अंतिआओ पडिनिक्खमंति 'पत्तेयं पत्तेयं पुवनत्थेसु भद्दासणेसु 'निसीअंति' प्रत्येक प्रत्येक पडि निक्खमित्ता कुं डग्गामं नयरं मज्झं मज्झेणं जेणेव पूर्वन्यस्तेषु भद्रासनेषु निषीदन्ति // 68|| 'तए णं सिद्धत्थे खत्तिए ततः सुविणलक्खणपादगाणं गेहाइं तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता, सिद्धार्थः क्षत्रियः 'तिसलं खत्तिआणि त्रिशलां क्षत्रियाणीं 'जवणिसुविणलक्खणपाढए सद्दाविति // 66|| तए णं ते सुविण- अंतरिय ठावेइ यवनिकान्तरितां स्थापयति 'ठावित्ता स्थापयित्वा लक्खणपाढगा सिद्धत्थस्स खत्तियस्स कोडं बिअपुरिसेहिं 'पुप्फफलपडिपुन्नहत्थे' पुष्पैः प्रतीतैः फलैर्नालिकेरादिभिः प्रतिपूर्णी सद्दाविआ समाणा हट्ठ-तुट्ठ० जाव हियया ण्हाया कयवलिकम्मा हस्तौ यस्य स तथा, यतः- "रिक्तपाणिर्न पश्येच, राजानं दैवतं गुरुम्॥ कयकोउअमंगलपायच्छित्ता सुद्धपदेसाई मंगल्लाई वत्थांइ निमित्तमं विशेषेण, फलेन फलमादिशेत्॥१॥" ततः पुष्पफलप्रतिपूर्णपवराई परिहिआ अप्पमहाघाभरणा-लंकियसरीरा सिद्धत्थ- हस्तः सन् 'परेण विणएणं' उत्कृष्टेन विनयेन 'ते सुविणलक्खणपाढए' यहरिआलिआ कयमंगलगद्धाणा सएहिं सएहिं गेहे हिंतो तान स्वप्नलक्षणापाठकान् ‘एवं वयासी' एवमवादीत् // 66 // कि
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________________ वीर 1354 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वीर मित्याह– ‘एवं खलु देवाणुप्पिआ !' एवं निश्चयेन भो देवानु-प्रियाः! | सहं महासुमिणाणं अन्नयरं एग महासुमिणं पासित्ता णं 'अज्ज तिसला खत्तिआणी' अद्य त्रिसला क्षत्रियाणी 'तंसि तारिसगंसि' / पडिबुज्झंति॥७६।। इमे य णं देवाणुप्पिआ ! तिसलाए खत्तितस्मिन् तादृशे शयनीये 'जाव सुत्तजागरा ओहीरमाणी' 2 यावत् आणीए चउद्दस महासुमिणा दिट्ठा, तं उराला णं देवाणुप्पिआ! सुप्तजागरा अल्पनिद्रा कुर्वती 'इमे एयारूवे' इमान् एतद्रूपान् 'उराले तिसलाए खत्तिआणीए सुमिणा दिट्ठा, जाव मंगल्लकारगाणं चउद्दस महासुमिणे' प्रशरतान् चतुर्दश महास्वप्नान् ‘पासित्ता ण देवाणुप्पिआ ! तिसलाए खत्तिआणीए सुमिणा दिट्ठा, तं पडिबुद्धा' दृष्ट्वा जागरिता 1 // 70|| 'तं जहा' तद्यथा 'गयवसह० गाहा' अत्थलाभो देवाणुप्पिआ, भोगलामो देवाणुप्पिआ पुत्तलाभो 'गयवसह' इति गाथा चात्र वाच्या, 'तं एएसिं' तस्मातएतेषां 'चउद्दसण्ह देवाणुप्पिआ, सुक्खलाभो देवाणुप्पिया ! रज्जलाभो देवाणुमहासुमिणरण' चतुर्दशाना महास्वप्नानां 'देवाणुप्पिया' हेदेवानुप्रियाः ! प्पिआ ! एवं खलु देवाणुप्पिआ ! तिसला खत्तिआणी नवण्हं 'उरालाणं' प्रशस्ताना 'के मन्ने' कः विचारयामि 'कल्लाणे' कल्याण- मासाणं बहुपडिपुन्नाणं अट्ठमाणं, राइंदिआणं विइक्वंताणं, कारी फलवित्तिविसेसे भविस्सइ' फलवृत्तिविशेषः भविष्यति // 71 / / तुम्हं कुलकेउं कुलदीवं कुलवडिंसयं कुलपव्वयं कुलतिलयं 'तएणं ते सुमिणलक्खणपाढगा' ततस्ते स्वप्नलक्षणपाठकाः ‘सिद्धत्थ कुलकित्तिकरं कुलवित्तिकरं कुलदिणयरं कुलाऽऽधारं कुलजस्सखत्तियरस' सिद्धार्थस्य क्षत्रियस्य अंतिए एयमट्ठसुचा' पार्श्वेएनमर्थ सकरं कुलपायवं कुलतंतुसंताणविवद्धणकरं सुकुमालपाणिश्रुत्वा 'निसम्म' निशम्य च 'हद्वतुट्ठ० जाव हिअया' हृष्टाः तुष्टाः यावत् पायं अहीणपडिपुन्नपंचिंदियसरीरं लक्खणवंजणगुणोववेयं हर्षपूर्णहृदयाः ते सुमिणे सम्म ओगिण्हति' तान् स्वप्नान् सम्यग हति माणुम्माणप्पमाणपड्पुिन्नसुजायसव्वंगसुंदरगं ससिसोमागारं धरन्ति 'ओपिण्हित्ता' हृदि धृत्वा 'ईह अणुपविसति' अर्थविचारणाम् कंतं पियदंसणं सुरूवं दारयं पयाहिसि // 77 / / से वि य णं दारए अनुप्रविशन्ति ‘अणुपविसित्ता' अनुप्रविश्य च 'अन्नमन्त्रेणं सद्धि उम्मुक्कबालभावे विन्नायपरिणयमित्ते जोव्वणगमणुपत्ते, सूरे वीरे संचालिति' अन्योऽन्येन परस्परेण सह सञ्चालयन्ति- संवादयन्ति, विकते वित्थिन्नविपुलबलवाहणे चाउरंतचक्कवट्टी रज्जवई राया पर्यालोचयन्तीत्यर्थः, 'संचालित्ता' सञ्चाल्य च 'तेसिं सुमिणाण' तेषां भविस्सइ, जिणे वा तिलुक्कनायगे धम्मवरचाउरंतचक्कवट्टी स्वप्नानां 'लहा' लब्धोऽर्थी यैस्ते लब्धार्थाः, स्यबुद्ध्यावगतार्थाः 178|| तं उराला णं तुमे देवाणुप्पिआ, तिसलाए खत्तिआणीए सुमिणा दिट्ठा० जाव मंगल्लकारगाणं देवाणुप्पिआ ! तिसलाए 'गहियट्ठा' परस्परतो गृहीतार्थाः 'पुच्छियट्ठा' संशये सति परस्पर खत्तिआणीए सुमिणा दिट्ठा ॥७९तए णं सिद्धत्थे राया तेसिं पृष्टार्थाः, ततएव विणिच्छियट्ठा' विनिश्चितार्थाः, अतएव 'अहिगयट्ठा' सुमिणलक्खणपाढगाणं अंतिए एयमढे सुया निसम्म हद्वतुट्ठ० अभिगतार्थाः अवधारितार्थाः सन्तः 'सिद्धत्थस्सस्नो पुरओ' सिद्धार्थस्य जाव हिअए करयल० जाव ते सुमिणलक्खणपाढए एवं वयासीराज्ञः पुरतः 'सुमिणसत्थाई उचारेमाणा उच्चारेमाणा' स्वप्नशास्त्राण्यु ||८०|एवमेअंदेवाणुप्पिआ ! तहमेयं देवाणुप्पि-आ! अवितचारयन्तः 'सिद्धत्थखत्तिय सिद्धार्थ क्षत्रियम एवं वयासी' एवमावादिषुः / हमेयं देवाणुप्पिया ! इच्छियमेअं देवाणुप्पिआ ! पडिच्छियमेअं (12) स्वप्नसंख्या-- देवाणुप्पिआ ! इच्छियपडिच्छियमेयं देवाणुप्पिआ ! सचे णं एवं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं सुमिणसत्थे बायालीसं सुमिणा, एस अट्टे से जहेयं तुम्भे वयह त्ति कटु, ते सुमिणे सम्म तीसं महासुमिणा, बावत्तरिं सव्वसुमिणा दिट्ठा, तत्थ णं पडिच्छइ पडिच्छित्ता ते सुमिणलक्खणपाढए विउलेणं असणेणं देवाणुप्पिया ! अरहंतमायरो वा चक्कवट्टिमायरो वा अरहंतसि पाणेणं खाइमेणं साइमेणं पुप्फवत्थगंध-मल्लालंकारेणं वा चक्कहरंसि वा गन्भं वकमाणंसिवा, एएसिं तीसाए महासुमि- सक्कारेइ सम्माणेइ सकारिता सम्माणित्ता विउलं जीवियारिहं णाणं, इमे चउद्दस महासुमिणे पासित्ताणं पडिबुज्झंति,तं जहा- पीइदाणं दलइ, विउलं जीवियारिहं पीइदाणं दलित्ता पडिविगयवसह० गाहा 173 / / वासुदेवमायरो वा वासुदेवंसि गभं सज्जेइ / / 81|| तए णं सिद्धत्थे खत्तिए सीहासणाओ अन्भुट्टेइ वक्कमाणंसि एएसिं चउद्दसण्हं महासुमिणाणं, अन्नयरे सत्त अब्भुट्ठित्ता जेणेव तिसला खत्तिआणी जवणिअंतरिआ तेणेव महासुमिणे पासित्ता णं पडिबुझंति 174|| बलदेवमायरो वा उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तिसलं खत्तियाणिं एवं वयासीबलदेवंसि गभं वकमाणंसि एएसिं चउद्दसण्हं महासुमिणाणं ||82 / / एवं खलु देवाणुप्पिए ! सुमिणसत्थंसि बायालीसं अन्नयरे चत्तारि, महासुमिणे पासित्ता णं पडिबुझंति // 75 // सुमिणा तीसं महासुमिणा० जाव एणं महासुमिणं पासित्ता णं मंडलियमायरो वा मंडलियंसि गम्भं वकमाणंसि एएसिंचउद्द- पडिबुझंति // 83 // इमे यणं तुमे देवाणुप्पिए! चउद्दस महासुमिणा
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________________ वीर 1355 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वीर दिट्ठा / तं उराला णं तुमे० जाव-जिणे वा तेलुकनायगे धम्मवरचाउरंतचक्कवट्टी // 85 / / तए णं सा तिसला खत्तिआणी, एअमटुं सुच्चा निसम्म हट्ठतुट्ठ० जाव हियया, करयल० जाव ते सुमिणे सम्म पडिच्छइ // 86|| पडिच्छित्ता सिद्धत्थेणं रन्ना अब्भणुन्नाया समाणी, नाणामणिरयणभत्तिचित्ताओ भद्दासणाओ अब्भुढे इ अब्भु द्वित्ता अतुरिअं अचवलं. जाव रायहंससरिसीए गईए, जेणेव सए भवणे तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता सयं भवणं अणुप्पविट्ठा ||7|| 'इमे य णमि' त्यादि तो पयाहिसि' त्ति पर्यन्तं तत्र इमे च देवानुप्रिय ! त्रिशलया क्षत्रियाण्या चतुर्दश महास्वप्ना दृष्टास्ततो महास्वप्नत्वात् महाफलत्वं दर्शयति- 'तंजहे' त्यादि तद्यथा-अर्थलाभो देवानुप्रिय ! इत्यादि पूर्ववत् / / 77 / / 'से वि अ णमि' त्यादितः 'चक्कवट्टि त्ति' यावत् तत्र सोऽपि च दारकः उन्मुक्तबालभावो यौवनावस्थामनुप्राप्तो राज्यपती राजा चक्रर्ती भविष्यति जिनो वा त्रैलोक्यनायको धर्मावरचातुरन्तचक्रवर्ती तत्र जिनत्वं चतुर्दशानामपि स्वप्नानां पृथक् फलानि इमानि-- चतुर्दन्तहस्तिदर्शनाचतुर्द्धा धर्म कथयिष्यति 1, वृषभदर्शनाद्भरतक्षेत्रे बोधिबीज च वपस्यति 2, सिंहदर्शनान्मदनादिदुर्गजभज्यमानं भव्यवन रक्षिष्यति 3, लक्ष्मीदर्शनाद्वार्षिकदानं दत्त्वा तीर्थकरलक्ष्मी भोक्ष्यते 4, दामदर्शनात्रिभुवनस्य मस्तकधार्यो भविष्यति५, चन्द्रदर्शनात कुवलये मुदं दास्यति 6, सूर्यदर्शनाद्भामण्डलभूषितो भविष्यति 7, ध्वजदर्शनाद्धर्मध्वजभूषिता भविष्यति 8, कलशदर्शनाद्धर्मप्रासादशिखरे स्थास्यति 6, पद्मसरोदर्शनात्सुरसंचारितकमलस्थापितचरणो भविष्यति 10. रत्नाकरदर्शनात्केवलरत्नस्थानं भविष्यति 11, विमानदर्शनाद्वमानिकानामपि पूज्यो भविष्यति 12. रत्नराशिदर्शनाद्रत्नप्राकारभूषितो भविष्यति 13, निर्दूमाग्निदर्शनात् भव्यकनकशुद्धिकारी भविष्यति 14, चतुर्दशनामपि समुदितफलं तु चतुर्दशरज्चा(मकलोकाग्रस्थायी भविष्यति // 76 / / 'तं उराला णमि' त्यादितः 'सुविणा दि?' ति यावत् प्राग्वत्॥८०|| 'तए णं इत्यादितः ‘एवं वयासी' ति यावत् प्राग्वत्॥८१।। एवमेय' इत्यादितः 'पडिविसज्जे' इति यावत् तत्र ते सुवि-णलक्खणपाढए' इत्यादि तान् स्वप्नलक्षणपाठकान् विपुलेन अशनेन शाल्यादिना पुष्पैः अग्रथितैर्जात्यादिपुष्पैः वस्त्रैः प्रतीतर्गन्धर्वासचूर्णः माल्यग्रंथितपुष्पः अलंकारेर्मुकुटादिभिः सत्कारयति सन्मानयति च विनयवचनप्रतिपत्त्या विपुलं जीविकाहम् आजन्मनिर्वाहयोग्य प्रीतिदानं ददाति प्रीतिदानं दत्त्वा च प्रतिविसर्जयति।।८।। 'तए णमि त्यादितः ‘एवं धयासी' ति यावत् प्राग्वत्।।८३।। 'एवं खल्वि' न्यादितो 'बुज्झती' ति यावत् पूर्ववत् // 84 / / 'इमे य ण मि' त्यादितः 'चकवट्टी' ति यावत् प्राग्वत्।।८।। 'तएणं से इत्यादितः पडिच्छइ' त्ति यावत् प्राग्वत् // 86 // 'पडिच्छित्ते' त्यादितः 'अणुपविसि' ति यावत् प्राग्वत् // 27 // (13) यत्प्रभृति वीरः सिद्धार्थगृहे संहृतः तत्प्रभृति शक्रवचनेन जुम्भकदेवैः रत्नधनसंचय आनीतः-सिद्धार्थगृहे-- जप्पभिई च णं समणे भगवं महावीरे तंसि रायकुलंसि साहरिए, तप्पमिइंच णं बहवे वेसमणकुंडधारिणो तिरियजंभगा देवा सक्कवयणेणं से जाई इमाई पुरा पोराणाई महानिहाणाई भवंति–तं जहा--पहीणसामिआई पहीणसेउआई पहीणगोत्तागाराइं उच्छिन्नसामिआइं, उच्छिन्नसेउआई, उच्छिन्नगोत्तागाराई, गामागरनगरखेडकब्बमडंबदोणमुहपट्टणासमसंबाहसन्निवेसेसु, सिंघाडएसुवा, तिएसुवा, चचरेसुवा, चउम्मुहेसु वा, महापहेसु वा, गामट्ठाणेसु वा, नगरट्ठाणेसु वा, गामनिद्धमणेसुवा, नगर-निद्धमणेसुवा, आवणेसुवा, देवकुलेसुवा, सभासु वा, पवासु वा, आरामेसु वा, उज्जाणेसु वा, वणेसु वा, वणसंडेसुवा, सुसाणसुन्नागारगिरिकंदरसंतिसेलोयट्ठाणभवणगिहेसु वा, सन्निक्खित्ताई चिट्ठति, ताइं सिद्धत्थरायभवणंसि साहरंति॥५॥ 'जप्पभिई चणं समणे' भगवं महावीरे यतः प्रभृति यस्मादिनादारभ्य श्रमणो भगवान महावीरः 'तंसि रायकुलंसि साहरिए' तस्मिन राजकुले संहृतः 'तप्पभिइचणं' ततः प्रभृति, तस्मादिनादारभ्य 'बहवे बेसमणकुंडधारिणो' बहवः, वैश्रमणो-धनदः, तस्य कुण्ड:-आयत्तता, तस्य धारिणः, अर्थात् वैश्रमणायत्ताः ‘तिरियजंभगा देवा' तिर्यग्लोकवासिनो जृम्भकजातीयाः तिर्यगम्भकाः उच्यन्ते, एवंविधाः देवाः 'सक्कवयणेण' शक्रवचनेन शक्रेण वैश्रमणाय उक्त, वैश्रमणेन तिर्यग्जम्भकेभ्य इति भावः, 'से जाई इमाई' 'से' त्ति अथशब्दार्थे, अथ ते तिर्यग्जृम्भका देवाः यानि इमानि वक्ष्यमाणस्वरूपाणि 'पुरा पोराणाई पुरा पूर्वं निक्षिप्तानि अत एव पुराणानि चिरन्तनानि 'महानिहाणाई भवंति' महानिधानानि भवन्ति 'तं जहा' तद्यथा- तानि कीदृशानि? 'पहीणसाभिआई' प्रहीणस्वामिकानि, अल्पीभूतस्वामिकानीत्यर्थः, अत एव 'पहीणसेउआई' प्रहीणसेक्तृकानि, सेक्ता हि उपरिधनक्षेप्ता, स तु स्वाम्येव भवति, पुनः किंविशिष्टानि 'पहीणगोत्तागाराई येषां महानिधानानां धनिकसम्बन्धीनि गोत्राणि अगाराणि च प्रहीणानि विरलीभूतानि भवन्ति तानि प्रहीणगोत्रागाराणि' उच्छिन्नसामिआई उच्छिन्नः सर्वथा अभावं प्राप्तः स्वामी येषा तानि उच्छिन्नस्वामिकानि उच्छिन्नसेउआई उच्छिन्नसेक्तृकाणि' उच्छिन्नगोत्तागाराई उच्छिन्नगोत्रागाराणि, अथ केषु केषु स्थानेषु तानि वर्तन्ते इत्याह-- 'गामागरनगरखेडकब्बडमडंबदाणमुहपट्टणासमसंबाहसंनियेसेसु' ग्रामाः करवन्तः, आकरा: लोहाद्युत्पत्तिभूमयः, नगराणि कररहितानि, खेटानि धूलिप्राकारोपेतानि, कर्बटानि कुनगराणि मडम्बानि सर्वतोऽर्धयोजनात्परतोऽवस्थितग्रामाणि, द्रोणमुखानि यत्र जलस्थलपथावुभावपि भवतः, पत्तनानि जलस्थलमार्गयो
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________________ वीर 1356 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वीर रन्यतरेण मार्गेण युक्तानि, आश्रमास्तीर्थस्थानानि तापसस्थानानि वा, संबाहाः समभूमौ कृषि कृत्वा कृषीवला यत्रधान्यं रक्षार्थ स्थापयन्ति, सन्निवेशा सार्थकटकादीनामुत्तरणस्थानानि, एतेषा द्वन्द्वः, तेषां तथा 'सिंघाडएसु वा' शृङ्गाटकेषु शृद्धाटकफलाकाररथानेषु वा 'तिएसु वा' त्रिकेषु, मार्गत्रयमिलनस्थानेषु वा 'चचरेसुवा' चत्वरेषु, बहुमार्गमिलनस्थानेषु वा 'चउम्मुहेसुवा' चतुर्मुखेषु देवकुलच्छत्रिकादिषु वा महापहेसु वा' महापथेषु राजमार्गेषु वा, तथा 'गामट्ठाणेसुवा' ग्रामस्थानानि उद्वसग्रामस्थानानि तेषु वा 'नगरट्ठाणेसु वा' उद्वसनगरस्थानानि तेषु या 'गामनिद्धमणेसु वा ग्रामसम्बधीनि निर्धमनानि जलनिर्गमाः 'खाल' इति प्रसिद्धास्तेषु 'नगर-निद्धमणेसुवा' एवं नगर निर्धमनेषुधा आवणेसु वात्र आपणा हट्टास्तेषु देवकुलेसु वा' देवकुलानि यक्षाद्यायतनानि तेषु 'सभासु वा' सभासु जनोपवेशनस्थानेषु 'पवासुवा' प्रपासु पानीयशालासु आरामेसु' आरामेषु कदल्याधाच्छादितेषु स्त्रीपुरसयोः क्रीडास्थानेषु 'उज्जाणेसु वा' उद्यानेषु पुष्पफलोपेतवृक्षशोभितेषु बहुजनभोग्येषु उद्यानिकास्थानेषु इत्यर्थः 'वणेसु वा' वनेषु एकजातीयवृक्षसमुदायेषु 'वणसंडेसु वा वनखण्डेषु अनेकजातीयोत्तभवृक्षसमुदायेषु 'सुसाणसुन्नागारगिरिकंदर 'स्मशानं' शून्यागार शून्यगृह, गिरिकन्दरा प्रतीता पर्वतगुहेत्यर्थः 'संतिसेलोवट्टाणभवणगिहेसु वा' तत्र गृहशब्दः प्रत्यक योज्यः, शान्तिगृहाः शान्तिकर्मस्थानानि, शैलगृहाः पर्वतगृहाः; पर्वतमुत्कीर्य कृतगृहा इत्यर्थः / उपस्थानगृहाः आस्थानसभाः, भवनगृहाः कुटुम्बिवसन-स्थानानि, ततः श्मशानादीनां द्वन्द्वः, अथ एतेषु ग्रामादिषु शृङ्गाटकादिषुच यानि महानिधानानि संनिक्खित्ताइ चिट्ठति' पूर्व कृपणपूरुषैः संनिक्षिप्तानि तिष्ठन्ति, 'ताई सिद्धत्थरायभवणंसि साहरंति' तानि तिर्यक्जृम्भका देवाः सिद्धार्थराजभवने सहरन्तिमुशन्तीति योजना।।८८|| जं रयणिं च णं समणे भगवं महावीरे नायकुलंसि साहरिए, तं रयणिं च णं ते नायकुलं हिरण्णेणं वड्डित्था सुवण्णेणं वड्डित्था धणेणं धनेणं रज्जेणं रटेणं बलेणं वाहणेणं कोसेणं कोट्ठागारेणं पुरेणं अंतेउरेणं जणवएणं जसवाएणं ववित्था विपुलधणकणगरयणमणिमोत्तियसंखसिलप्पवालरत्तरयणमाइएणं सेतसारसावइजेणं पीइसक्कारसमुदएणं अईव अईव अभिववित्था / तए णं समणस्स भगवओ महावीरस्स अम्मापिऊणे अयमेयारूवे अन्भत्थिए० जाव से कप्पे समुप्पज्जित्था ||86 / / जप्पभिई च णं अम्हे एस दारए कुञ्छिसि गठभत्ताए वक्रते तप्पमिदं च णं अम्हें हिरण्णेणं वड्डामो, सुवनेणं, धणेणं धन्नेणं० जाव सेतसारसावइज्जेणं पीइसक्कारेणं अईव अईव वडामो जया णं अम्हे एस दारए जाए भविस्सइ तया णं अम्हे एयस्स दारयस्स एयाणुरूवे गुण्णे गुणनिप्फन्नं नामधिज्जं करिस्सामो "वद्धमाणु"त्ति|EO|| 'जं रयणि चणं समणे भगवं महावीरे' तत्र णमिति वाक्यालङ्कारे यस्या रात्री श्रमणो भगवान महावीरः 'नायकुलंसि साहरिए' ज्ञातकुले संहृतः 'त रयणिं च णं तं नायकुलं तस्यां रात्री, ततः प्रभृति इत्यर्थः, तत ज्ञातकुलं 'हिरण्णेणं ववित्था' हिरण्येन रूप्येन अघटितसुवर्णेन वा अवर्द्धत, 'सुवण्णेणं ववित्था' सुवर्णेन प्रतीतेन अवर्धत, 'एवं धणेण धनेन (कल्प०) धण्णेण धान्येन (कल्प०) 'रजेणं राज्येन सप्ताङ्गेन 'रटेणं' राष्ट्रेण देशेन 'बलेण' बलं चतुरङ्गसैन्य तेन 'वाहणेण वाहनेन औष्ट्रप्रमुखेन 'कोसेणं' कोशेन भाण्डागारेण 'कोहागारेणं' कोष्ठागारेण धान्यगृहेण 'पुरेणं' नगरेण अंतेउरेणं' अन्तः पुरेण प्रतीतेन 'जणवएणं' जानपदेन देशवासिलोकेन जसवाएणं वड्डित्था' यशोवादेन साधुवादेन च अवर्धत 'विपुलधणकणगरयणमणिमोत्तियसंखसिलप्प-वालरतरयणमाइएणं' विपुलं-विस्तीर्ण धनं गवादिकं. कनकं घटिताघटितप्रकाराभ्यां द्विविधं, रत्नानि कर्केतनादीनि, मणयश्चन्द्रकान्ताद्याः मौक्तिकानि प्रतीतानि शङ्का दक्षिणावर्ता, शिला राजपट्टादिकाः, प्रबालानि विद्रुमाणि, रक्तरत्नानि पद्मरागादीनि, आदिशब्दाद्वस्त्रकम्बलादिपरिग्रहस्तेन तथा 'संतसारसावइजेणं' सत्-विद्यमानं नविन्द्रजालादिवत्स्वरूपतोऽविद्यमानम्, एवविध यत् सारस्वापतेयप्रधानद्रव्यं, तेन यथा 'पीइसक्कारसमुदएणं' प्रीतिर्मानसी तुष्टिः, सत्कारो-वस्त्रादिभिः स्वजनकृता भक्तिस्तत्समुदयेन, तद् ज्ञातकुलम् 'अईव अईव अभिवट्टित्था' अतीव अतीव अभ्यवर्द्धत'तएणं समणस्स भगयओ महावीरस्स' ततः श्रमणस्स भगवतो महावीरस्स 'अम्मापिऊणं' मातापित्रोः 'अयमेथारूवे अब्भत्थिए० जाव संकप्पे समुप्पजित्था' अयमेतद्रूपः आत्मविषयः, यावत् संकल्पः समुदपद्यत, 186 कोऽसौ इत्याह- 'जप्पभिई चण' यतः प्रभृति 'अम्ह एस दारए कुच्छिसि गब्भत्तार वकते' अस्माकम् एष दारकः कुक्षौ गर्भतया उत्त्पन्नाः 'तप्पभिई च णं' ततः प्रभृति 'अम्हे हिरण्णणं वड्डामो' वयं हिरण्येन वर्धामहे 'सुवण्णेणं वड्डामो' सुवर्णन वर्धामहे 'धणेणं धन्नेण० जाव संतसारसावइज्जेणं' धनेन धान्येन यावत् विद्यमानसारस्थापतेयेन 'पीइसक्कारेण अईव अईव अभिवड्डामो' प्रीतिसत्कारेण च अतीव अतीव अभिवर्धामहे, 'जयाणं अम्ह एस दारए जाए भविस्सइ' 'तस्माद्' यदा अस्माकमेष दारकः जातो भविष्यति 'तया णं अम्हे एयस्स दारयस्स' तदा वयमेतस्य दारकस्य, एयाणुरूव' एतदनुरूपंधनादिवृद्धेरनुरूपम् अत एव 'गुण्ण गुणनिप्फन्नं नामधिल करिस्सामो' गुणेभ्य आगतं तत एव गुणनिष्पन्न नामधेय करिष्यामः, किं तदित्याह- 'वद्धमाणु' त्ति, वर्धमान इति // 10 // तए णं समणे भगवं महावीरे माउअणुकंपणट्ठाए निचले निप्फंदे निरयणे, अल्लीणपल्लीणगुते आऽवि होत्था ||11|| तए णं से तिसलाए खत्तिआणीए अयमेयासवे०जावसंकप्पेणं समुप्पञ्जित्था हडे मे से गब्भे, मडे मे से गन्भे, चुए मे से गब्भे, गलिए मे से गब्भे एस मे गन्भे, पुट्विं एयइ, इयाणिं नो एयइ त्ति कटु, ओहय
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________________ वीर 1357- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वीर मणसंकप्पा चिंतासोगसागरं पविट्ठा, करयलपल्हत्थमुही, अट्टज्झाणोवगया भूमीगयदिट्ठिया झियाअइ // तं पि य सिद्धत्थरायवरभवणं उवरयमुइंगतंतीतलतालनाड इज्जजणमणुण्णं दीणविमणं विहरइ ||2|| तए णं से समणे भगवं महावीरे माऊ अ अयमेयारूवे अब्भत्थि मणोगयं संकप्पं समुप्पन्नं वियाणित्ता एगदेसेणं एयइ // तए णं सा तिसला खत्तिआणी हट्ठ-तुट्ठ० जाव हियया एवं वयासी||३|| नो खलु मे गब्भे हडे० जाव नो गलिए एस मे गब्भे पुटिव नो एयइइयाणिं एयइत्ति कटु हट्ठ-तुट्ठ० जाव हियया एवं विहरइ ||4|| 'तए णं समणे भगवं महावीरे' ततः श्रमणो भगवान् महावीरः 'माउअणुकंपणट्टाए' मयि परिस्पन्दमाने मातुः कष्ट माभूदिति मातुः अनुकम्पनार्थ-मातुर्भक्त्यर्थम् अन्येनापि मातभक्तिरेवं कर्तव्या इति दर्शनार्थ च, 'निचले' निश्चलः 'निप्फंदे 'निष्पन्दः किंचिदपि चलनाडभावात् 'अत एव' निरयणे' निरेजनो निष्कम्पः 'अल्लीण' आईपल्लीनः अङ्गगोपनात 'पल्लीण' लीनः 'उपाङ्गगोपनात्' अत एव 'गुत्ते याऽवि होत्था' गुप्तः ततः पदत्रयस्य कर्मधारयः, 'वाऽपि त्ति विशेषणसमुचये अभवत्, अत्र कविः- "एकान्ते किमु मोहराजविजये मन्त्रं प्रकुर्वन्निव, ध्यानं किंश्चिदगोचरं विरचयत्येकः परब्रह्मणे।। किं कल्याणरसं प्रसाधयति वा देवो विलुप्यात्मकं, रूपं कामविनिग्रहाय जननीकुक्षावसौ वः श्रिये // 1 // " ||1|| 'लए णं से तिसलाएखत्तियाणीए' ततो भगवतो निश्चलावस्थानन्तरं तस्या-खिशलाक्षत्रियाण्याः 'अयमेयारवे०जाव संकप्पे समुप्पजित्था' अयमेतद्रूपः यावत् अध्यवसायः समुत्पन्नः, कोऽसौ इत्याह- 'हडे मे से गब्भे' हतः मेसगर्भः 'मडे मे से गठभे' अथवा-स मे गर्भः मृतः 'चुए मे से गब्भे' अथवा स मे गर्भः किं च्युतो, गर्भस्वभावात परिभ्रष्टः 'गलिए मे से गड्भे' अथवा स में गर्भः किं गलितः-- द्रवीभूय क्षरितः, यस्मात्कारणात् 'एस में गब्भे पुट्विं एयइ एष मे गर्भः पूर्वमेजते, पूर्व कम्पमानोऽभूत् 'इयाणिं नो एयइत्ति कटु इदानीं नैजतेन कम्पते, इति कृत्वा झाते हेतोः 'ओहयमणसंकप्पा' उपहतः कलुषीभूतो मनःसंकल्पो यस्याः सा तथा 'चिंतासोगसागरं पविट्ठा' चिन्ता गर्भहरणादिवि-कल्पसम्भवा अर्तिस्तया यः शोकः स एव सागरः समुद्रस्तत्र प्रविष्टा बुडिता, अत एव करयलपल्हत्थमुही' करतले पर्यस्तं स्थापितं मुखं यया सा तथा 'अट्टज्झाणोवगया' आर्तध्यानोपगता 'भूमीगयदिट्ठिया झियाअइ' भूमिगतदृष्टि-काध्यायति. अथ सा त्रिशला तदानीं यद् ध्यायति, तल्लिख्यते "सल्यमिदं यदि भविता, मदीयगर्भस्य कथमपीहा तदा। निष्पुण्यकजीवाना-मवधिरिति ख्यातिमत्यभवम् // 1 // यद्वा चिन्तारनं, न हि नन्दति भाग्यहीनजनसदने। नापि च रत्ननिधानं, दरिद्रगृहसगतीभवति / / 2 / / कल्पतरुर्मरुभूमौ, न पादुर्भवति भूम्यभाग्यवशात्। न हि निष्पुण्यपिपासित-नृणां पीयूषसामग्री / / 3 / / हा धिर धिग् देवं प्रति, किं चक्रे तेन सततवक्रेण। यन्मम मनोरथतरु-र्मूलादुन्मूलितोऽनेन / / 4 / / आत्तं दत्त्वापि च मे, लोचनयुगलं कलङ्कविकलमलम्। दत्त्वा पुनरुद्दालित-मधर्मनानेन निधिरत्नम् // 5 // आरोप्य मेरुशिखरं, प्रपातिता पापिनाऽमुनाऽहमियम्। परिवेष्याप्याकृष्टं, भोजनभाजनमलज्जेन / / 6 / / यद्वा मयाऽपराद्ध, भवान्तरेऽस्मिन् भवेऽपि किं धातः। यस्मादेवं कुर्व-त्रुचिताऽनुचितं न चिन्तयसि / / 7 / / अथ किं कुर्वे क्व च वा, गच्छामि वदामि कस्य वा पुरतः। दुर्दैवतेन दग्धा, जग्धा मुग्धाधमेन पुनः // 8 // कि राज्येनाप्यमुना, किं वा कृत्रिमसुखैर्विषयजन्यैः। किं वा दुकूलशय्या-शयनोद्भवशर्महर्येण / / 6 / / गजवृषभादिस्वप्नैः, सूचितमुचितं शुचिं त्रिजगदय॑म्। त्रिभुवनजनासपत्न, विना जनानन्दि सुतरत्नम् / / 10 / / युग्मम्धिक् संसारमसारं, धिक् दुःखव्याप्तविषयसुखलेशान्। मधुलिप्तखड्गधारा-लेहनतुलितानहो लुलितान् // 11 // यद्वा मयका किंचित्, तथाविधं दुष्कृतं कर्म। पूर्वभवे यदृषिभिः, प्रोक्तमिदं धर्मशास्त्रेषु ।।१२।(कल्प०) (यैः कर्मभिर्गर्भनाशो जायते तद 'गब्भ' शब्दे तृतीयभागे 838 पृष्ठे गतम्।) यतःकुरडरंडत्तणदुब्भगाई, वंझत्तनिंदुविसकन्नगाई। लहति जम्मतरभग्गसीला, नाऊण कुजा दढसीलभावं // 20 // एवं चिन्ताक्रान्ता, ध्यायन्ती म्लानकमलसमवदना। दृष्टा शिष्टन सखी-जनेन तत्कारणं पृष्टा / / 21 / / प्रोवाच साश्रुलोचन-रचनानिःश्वासकलितवचनेन। किं मन्दभागधेया, वदामि यजीवितं मेऽगात् / / 22 / / सख्यो जगुरथ रे सखि ! शान्तममङ्गलमशेषमन्यदिह। गर्भस्य तेऽस्ति कुशलं, न वेति वद कोविदे सत्यम्॥२३।। सा प्रोचे गर्भस्य च, कुशले किमकुशलमस्ति मे सख्यः। इत्याद्युक्त्वा मूर्छा-मापन्ना पतति भूपीठ।।२४।। शीतलवातप्रभृतिभि-रुपचारैर्बहुतरैः सखीभिः सा। संप्रापितचैतन्यो-तिष्ठति विलपति च पुनरेवम्।।२५।। गरुए अणोरपारे, रयणनिहाणे असायरे पत्तो। छिद्दघडो न भरिजइ, ता किं दोसो जलनिहिस्स // 26|| पत्ते वसन्तमासे, रिद्धिं पावन्ति सयलवणराई। जंन करीरे पत्त, ता किं दोसो वसंतस्स / / 27 / / उत्तुंगो सरलतरू, बहुफलभारेण नमिअसव्वंगो। कुजो फलं न पावइ, ता किं दोसो तरुवरस्स // 28 // समीहितं यन्न लभामहे वयं, प्रभो! न दोषस्तव कर्मणो मम। दिवाप्युलूको यदि नावलोकते, तदा स दोषः कथमंशुमालिनः // 26 / / अथ मे मरणं शरणं, किं करणं विफलजीवितव्येन। तत् श्रुत्वेति व्यलपत्, सख्यादिः सकलपरिवारः // 30 // हा किमुपस्थितमेतत्, ! निष्कारणवैरिविधिनियोगेन। हा कुलदेव्यः क्व गताः, यदुदासीनाः स्थिता यूयम्॥३१॥ अथ तत्र प्रत्यूहे, विचक्षणाः कारयन्ति कुलवृद्धाः।
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________________ वीर 1358 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वीर शान्तिकपौष्टिकमन्त्रो-पयाचितादीनि कृत्यानि ||32|| पृच्छन्ति च दैवज्ञान, निषेधयन्त्यपि च नाटकादीनि। अतिगाढशब्दविरचित-वचनानि निवारयन्त्यपि च // 33 / / राजाऽपि लोककलितः, शोकाकुलितोऽजनिष्ट शिष्टमतिः / किं कर्त्तव्यविमूढाः, संजाता मन्त्रिणः सर्वे / / 34 // " अस्मिन्नवसरे च तत्सिद्धार्थराजभवनं यादृशं जातं, तत् सूत्रकृत् स्वयमाह- 'तं पि य सिद्धत्थरायवरभवणं' तदपि सिद्धार्थराजवरभवनम् 'उवयरमुइंगतंतीतलतालनाडइजजण-मणुन्नं' मृदङ्गोमईलस्तन्त्री-वीणा, तलतालाहस्ततालाः, यद्वा-तला-हस्ताः, ताला:कंसिकाः नाटकीया नाटकहिता जनाः पात्राणीति भावः, एतेषां यत् मनोज्ञत्वंतत् उपरतं-निवृत्तं यस्मिन्, एवंविधम्, अत एव 'दीणविमणं विहरइ' दीनं सत् विमनस्कं–व्यग्रचतेस्कं विहरतिआस्ते॥१२॥ 'तएणं से समणे भगवं महावीरे' तंतथाविधं पूर्वोदितं व्यतिकरमवधिना अवधार्य भगवान् चिन्तयति"किं कुर्मः कस्य वा बूमो, मोहस्य गतिरीदृशी। दुषेधातोरिवास्माकं, दोषनिष्पत्तये गुणः / / 1 / / मया मातुः प्रमोदाय, कृतं जातं तु खेदकृत्। भाविनः कलिकालस्य, सूचकं लक्षणं ह्यदः / / 2 / / पञ्चमारे गुणो यस्माद्, भावी दोषकरो नृणाम्। नालिकेराम्भसि न्यस्तः, कर्पूरो मृतये यथा // 3 // इत्येवं प्रकारेण स श्रमणो भगवान महावीरो 'माऊअ अयमेयारूवे' मातुरिममेतद्रूपम् 'अन्भत्थिय पत्थिय मणोगय आत्मविषयं प्रार्थित मनोगतं. संकप्प समुप्पन्नं विजाणित्ता' संकल्पं समुत्पन्न अवधिना विज्ञाय 'एगदेसेणं एयइ' एकदेशेन अड्गुल्यादिना एजते-कम्पते, 'तए णं सा तिसला खत्तिआणी ततः सा त्रिशला क्षत्रियाणी 'हट्ट-तुट्ठ० जावहियया' हृष्टतुष्टादिविशेषणविशिष्टा यावत्, हर्षपूर्णहृदया एवं वयासी' एवमवादीत् / / 63 / / अथ किमवादीदित्याह- 'नो खलु मे गडभे हडे' नैव-निश्चयेन मे गर्भो हृतोऽस्ति 'जाव नो गलिए' यावत् नैव गलितः 'एस मे गडभे पुट्विं नो एयई एष मे गर्भः पूर्वं न कम्पमानोऽभूत्, 'इयाणिं एयइ त्ति कटु' इदानीं कम्पते इति कृत्वा 'हट्टतुट्ठ० जाव हियया एवं विहरई' हृष्टा तुष्टा यावत् हर्षपूर्णहृदया, ईदृशी सती विहरति। अथ हर्षिता त्रिशला देवी यथाऽचेष्टत तथा लिख्यते "प्रोल्लसितनयनयुगला, स्मेरकपोला प्रफुल्लमुखकमला। विज्ञातगर्भकुशला, रोमाञ्चितकञ्चुका त्रिशला / / 1 / / प्रोवाच मधुरवाचा, गर्भ मे विद्यतेऽथ कल्याणम्। हा धिक् मयकाऽनुचितं, चिन्तितमतिमोहमतिकतया // 2 // सन्त्यथ मम भाग्यानि, त्रिभुवनमान्या तथा च धन्याऽहम्। श्लाघ्यं च जीवित मे, कृतार्थतामाप मे जन्म॥३॥ श्रीजिनपदाः प्रसेदुः, कृताः प्रसादाश्च गोत्रदेवीभिः / जिनधर्मकल्पवृक्ष-रत्वाजन्माराधितः फलितः॥४॥ एवं सहर्षचित्ता, देवीमालोक्य वृद्धनारीणाम्। जय जय नन्देत्याद्या-शिषः प्रवृत्ता मुखकजेभ्यः / / 5 / / हर्षात् प्रवर्तितान्यथ, कुलनारीभिश्च ललितधवलानि। उत्तम्भिताः पताका, मुक्तानां स्वस्तिका न्यस्ताः // 6|| आनन्दाऽद्वैतमयं, राजकुल तद्वभूव सकलमपि। आतोद्यगीतनृत्यैः सुरलोकसमं महाशोभम् / / 7 / / वर्धापनागताधन-कोटी गृह्णन् ददच धनकोटीः। सुरतरुरिव सिद्धार्थः, संजातः परमहर्षभरः / / 8 // " कल्प०१ अधि० 4 क्षण। (भगवान् वीरः गर्भस्य मासषट्के व्यतिक्रान्ते एतद्रूपमभिग्रहं गृह्णाति स्म--न मम कल्पते मातापितृषु जीवत्सु दीक्षा गृहीतुमिति 'अभिग्गह' शब्दे प्रथमभागे 713 पृष्ठे उक्तम् / ) (सुखेन त्रिशला गर्भ परिवहति रक्षति च इति 'गब्भ' शब्दे तृतीयभागे 838 पृष्ठे उक्तम्।) (14) भगवतो वीरस्य जन्मकालः कुण्डली चतेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे जे से गिम्हाणं पढमे मासे, दुचे पक्खे चित्तसुद्धे तस्स णं चित्तसुद्धस्स तेरसीदिवसेणं, नवण्हं मासाणं बहुपडिपुन्नाणं अट्ठमाणं राइंदियाणं विइक्वंताणं उच्चट्ठाणगएसुगहेसु, पढमे चंदजोगे, सोमासु दिसासु वितिमिरासु विसुद्धासु जइएसु सव्वसउणेसु, पयाहिणाऽणुकूलंसि भूमिसप्पंसि मारुयंसि पवायंसि, निप्फनमेइणीयंसि कालंसि, पमुइयपक्कीलिएसु जणपएसु पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि हत्थुत्तराहिं नक्खत्तेणं चंदेणं जोगमुवागएणं आरोग्गारोग्गं दारयं पयाया ||6|| 'तण कालण' तस्मिन् काले 'तेणं समएणं' तस्मिन समये 'समणे भगवं महावीरे' श्रमणो भगवान महावीरः 'जे से गिम्हाणं पढमे मासे' योऽसौ उष्णकालस्य प्रथमो मासः 'दुचे पक्खे' द्वितीयः पक्षः 'चित्तसुद्धे चैत्रमासस्य शुक्लपक्षः 'तस्स णं चित्तसुद्धस्स' तस्य चैत्रशुद्धस्य 'तेरसीदिवसेणं' त्रयोदशीदिवसे 'नवण्हं मासाणं बहुपडिपुन्नाणं' नवसु मासेषु बहुप्रतिपूर्णेषु 'अट्ठमाणं राइंदिआणं विइकताणं' अर्धाष्टमरात्रिन्दिवाधिकेषु सार्द्धसप्तदिवाधिकेषु नवसुमासेषु व्यतिक्रान्तेषु, इति भावः तदुक्तम्"दुण्हं वरमहिलाणं, गब्भे वसिऊण गब्भसुकुमालो। नवमासे पडिपुण्णे, सत्त य दिवसे समइरेगे' ||1|| इदं च गर्भस्थितिमान न सर्वेषां तुल्यं, तथा चोक्तम्"दु 1 चउत्थ 2 नवम 3 बारस 4, तेरस 5 पन्नरस 6 सेस 18 गब्भठिई। मासा अडनवतदुवरि, उसहाओ कमेणिमे दिवसा // 1 // बउ 1 पणवीस २छविण 3. अडवीसं 4 छच्च 5 छचि 6 गुणवीस 7 / / सग 8 छव्वीसं 6 छ 10 च्छ य 11, वीसी 12 गवीसं 13 छ 14 छव्वीसं 15 / / 2 / / छ 16 प्पण 17 अड 18 सत्त 16 ट्ठय 20, अड 21 हय 22 छ 23 सत्त 24 होन्ति गम्भदिणा''।३। इति। सप्ततिशतस्थानके श्रीसोमतिलकसूरिकृते-"उचट्टाण गएसुगहेसु" तदानीं गृहेषु उच्चस्थानस्थितेषु, गहाणामुचत्वं चैवम्"अाधुच्चान्यज १वृष 2, मृग 3 कन्या 4 कर्क 5 मीन 6 वणिजों 7 शैः।। दिग् 10 दहना 3 ष्टाविंशति २८-तिथी १७षु५ नक्षत्र 27 विंशतिभिः / / 1 / / अयं भावः- मेषादिराशिस्थ सूर्यादयः उचाः, तत्रापि दशा
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________________ वीर 1356 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वीर दीनशान यावत परमोचाः, एषां फलं तु- "सुखी 1 भोगी 2 धनी 3 नेता 4, जायते मण्डलाधिपः 5 / / नृपति 5 श्चक्रवर्ती च 7, क्रमादुरग्रहे फलम् / / 1 / / तिहि उच्चेहिं नरिंदो, पञ्चहिँ तह होइ अद्धचक्की अ / छहिं होइ चक्कवट्टी, सत्तहिं तित्थरो होइशा" 'पढमे चंदजोए' प्रथमे प्रधाने चन्द्रयोगे सति सोमासु दिसासु' सौम्यासुरजोवृष्ट्यादिरहितासु दिक्षु वर्तमानासु, पुनः किंविशिष्टासु दिक्षु- 'वितिमिरासु' अन्धकाररहितासु, भगवज्जन्मसमये सर्वत्र उद्योतसद्भावात, पुनः किंवि० 'विसुद्धासु' विशुद्धासु, दिग्दाहाद्यभायात्, 'जइएसु सय्यसउणेसु सर्वेषु शकुनेषु काकोलूकदुर्गादिषु जयिकेषु जयकारकेषु सत्सु ‘पयाहिणाणुकूलसि' प्रदक्षिणे प्रदक्षिणावर्त्तत्वात्, अनुकूले शीतत्वात् सुखप्रदेशे "भूमिसप्पसि' मृदुत्वात् भूमिसर्पिणी, प्रचण्डो, हि वायुः उच्चैः सर्पति, एवंविधै 'मारुअंसि मारुते-वायौ 'पवायसि' प्रवातुमारब्धे सति 'निप्फण्णमेइणीयंसि कालसि' निष्पन्ना, कोऽर्थः- निष्पन्नसर्वशस्या मेदिनी यत्र एवंविधे काले सति पमुइअपक्कीलिएसुजणवएसु' प्रमुदितेषु सुभिक्षादिना, प्रक्रीडितेषु प्रक्रीडितुमारब्धेषु वसन्तोत्सवादिना, एवविधेषु जनपदेषु जनपदवासिषु लोकेषु सत्सु 'पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि' पूर्वरात्रापररात्रकालसमये 'हत्थुत्तराहिं नक्खत्तेणं चंदेणं जोगमुवागएणं' उत्तरफाल्गुनीभिः समं योगमुपागते चन्द्रे सति आरोग्गारोग' आरोग्या आबाधारहिता सा त्रिशला आरोग्यम्- आबाधारहितं 'दारयं पयाया' दारकपुत्रं प्रजाता-सुषुवे इति भावः // 86 // कल्प०१ अधि०४ क्षण। वीरजन्मकुण्डलीचक्रम् दिवं गच्छद्भिर्मेरुशिखरगमनाय, तैः कृत्वा 'उप्पिंजलमाणभूआ भृशमाकुला इव 'कहकहगभूया याऽवि हुत्था हर्षाऽट्टहासादिना कहकहकभूतेव, अव्यक्तवर्णकोलाहलमयीच, एवंविधा सा रात्रिरभवत्, अनेन च सूत्रेण सुरकृतः सविस्तरो जन्मोत्सवः सूचितः। स चायम्-"अचेतना अपि दिशः, प्रसेदुर्मुदिता इव / वायवोऽपिसुखस्पर्शा, मन्दं मन्दं ववुस्तदा / / 1 / / ' कल्प०१ अधि० 5 क्षण / (देवकृतः तीर्थकरस्याभिषेकोत्सवः 'तित्थयर' शब्दे चतुर्थभागे 2248-2257 पृष्ठे गतः / ) "अस्मिन्नवसरे राज्ञे, दासी नाम्ना प्रियंवदा। तं पुत्रजननोदन्तं, गत्वा शीघ्र न्यवेदयत् // 1 // सिद्धार्थोऽपि तदाकर्ण्य, प्रमोदभरमेदुरः / हर्षगद्गदरोमांचो-दमदन्तुरभूघनः // 2 // विना किरीट तस्यै स्वां, सर्वाङ्गालकृतिं ददौ / तां धौतमस्तकां चक्रे, दासत्यापगमाय सः // 3 // ' जं रयणिं च णं समणे भगवं महावीरे जाए, तं रयणिं च णं, बहवे वेसमणकुंडधारी तिरियजंभगा देवा सिद्धत्थरायभवणंसि हिरण्णवासं च सुवण्णवासं च वयरवासं च वत्थवासं च, आभरणवासं च, पत्तवासं च, पुप्फवासं च, फलवासं च, बीअवासंच, मल्लवासंच, गंधवासं च, चुन्नवासं च वण्णवासं च, वसुहारवासं च, वासिंसु ||18|| 'जं रयणिं च णं' इत्यादितो 'वासं वासिंसु ति यावत् पर्यन्तं तत्र हिरण्यम्- रूप्यम् 'सुवण्णे' त्यादीनि तु पदानि प्राख्याख्यातानि 'वसुहार' त्ति वसु-द्रव्यं तस्य धारा-निरन्तराणि / शेष सुगमम् / तएणं से सिद्धत्थे खत्तिए भवणवइवाणमंतर जोइसवेमाणिएहिं देवेहिं तित्थयरजम्मणाभिसे यमहिमाए कयाए समाणीए, पञ्चूसकालसमयंसि नगरगुत्तिए सहावेइ सद्दावित्ता एवं वयासी THESEII खिप्पामेव भो देवाणुप्पिआ ! खत्तियकुंडग्गामे नयरे चारगसोहणं करेह, करेत्ता माणुस्साण वद्धणं करेह, करित्ता कुंडपुरं नयरं सभितरबाहिरियं आसियसम्मजिओवलित्तं संघाडगतिअचउक्कचचरच-उम्मुहमहापहाहेसु सित्तसुइसंमट्ठरत्यंतरावणवीहिणं मंचाइमंचकलिअं नाणाविहरागभूसिअज्झयपडागमंडिअं लाउल्लोइयमहिअं गोसीससरसरत्तचंदणदद्दरदिनपंचंगुलितलं उवचियचंदणकलसं चंदणघडसुकयतोरणपडिदुवारदेसभागं आसत्तोवसत्तविपुलवट्वग्धारिय-मल्लदामकलावं पंचवन्नसरससुरहिमुक्कपुप्फपुंजोवयारकलिअंकालागुरुपवरकुंदुरुक्कतुरुक्कडझंत धूवमघमघंतगंधुद्धआभिरामं सुगंधवरगंधिअंगंधवट्टिभूअं नडनाजल्ल मल्लमुट्ठियवेलंबगपवगक हगपाढगलासगआरक्खगलं खतूणइल्लतुबंवीणियअनेगतालायराणुचरिअंकरेह, कारवेइत्ताय जूअसहस्सं मुसलसहस्संचउस्सवेह, उस्सवित्ताममेयमाणत्तिअंपचाप्पिणह||१००॥तए 12 V X के 10 __सू. 1 बु. ७श. 2 शु. X रा. 4 . X६चं. (15) वीरजन्मनि रात्रिः प्रकाशरूपाजं रयणिं च णं समणे भगवं महावीरे जाए, साणं रयणी बहुहिं देवेहिं देवीहि य ओवयंतेहिं उप्पयंतेहि उपिजलमाणभूआ कहकहगभूया आऽवि हुत्था ||17|| 'जं रयणिं च णं यस्यां च रात्रौ 'समणे भगवं महावीरे जाए' श्रमणो भगवान महावीरो जातः 'साणं रयणी बहुहिं देवेहिं देवीहिय' सा रजनी बहुभिर्देवैः शक्रादिभिर्बह्वीभिर्देवीभिः दिक्कुमार्यादिभिश्च 'ओवयंतेहिं' अवपतद्भिर्जन्मोत्सवार्थ स्वर्गाद् भुवमागच्छद्भिः 'उप्पयंतेहि उत्पत
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________________ वीर 1360- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 णं ते कोडुंबियपुरिसा सिद्धऽत्थेणं रन्ना एवं वुत्ता समाणा हट्ठतुट्ठ० जाव हियया करयल०जाव–पडिसुणित्ता खिप्पामेव कुंडपुरे नयरे चारगसोहणं० जाव उस्सवित्ता, जेणेव सिद्धत्थे खत्तिए तेणेव उवागच्छंति जेणेव सिद्धत्थे खत्तिए तेणेव उवागच्छित्ता सिद्धत्थस्स खत्तियस्स तमाणत्तिअंपचप्पिणंति।।१०१।। 'तए णं से सिद्धत्थे खत्तिए' ततोऽनन्तरं स सिद्धार्थः क्षत्रियः, 'भवणवइवाणमंतरजोइसवेमाणिएहिं देवेहिं' भवनपतयः, व्यन्तराः, ज्योतिष्काः, वैमानिकाः, ततः समासस्तैः एवंविधैः देवैः 'तित्थयरजम्मणाभिसेयमहिमाए कयाए समाणीए' तीर्थङ्करस्य यो जन्माभिषेकस्तस्य महिम्नि उत्सवे कृते सति पचूसकालसमयंसि' प्रभातकालसमये 'नगरगुत्तिए सद्दावेइ' नगरगोप्तकान्-आरक्षकान् शब्दयति-आकारयतीत्यर्थः। 'सद्दावित्ता' शब्दयित्वा च एवं वयासी' एवमवादीत्॥६६॥ 'खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया' क्षिप्रमेव भो देवानुप्रियाः! 'खत्तियकुंडग्गामे नयरे क्षत्रियकुण्डग्रामे नगरे 'चारगसोहणं करेह' चारकशब्देन कारागारमुच्यते, तस्य शोधनं-शुद्धिं कुरुत; बन्दिमोचन कुरुत इत्यर्थः / यत उक्तम्-- "युवराजाभिषेके च, परराष्ट्रोपमईने / पुत्रजन्मनि वा मोक्षो, बद्धानां प्रविधीयते // 1 // " किञ्च- 'माणुम्माणवद्धण करेह' तत्र मानं रसधान्यविषयम्, उन्मानं तुलारूपं तयोर्वर्द्धनं कुरुत, 'करित्ता' कृत्वा च 'कुंडपुरं नयरं सम्भितरबाहिरिअं' अभ्यन्तरे बहिश्च यथोक्तविशेषणविशिष्ट कुण्डपुरनगर कुरुत, कारयत, अथ किंविशिष्टम्- 'आसिअ' आसिक्तं सुगन्धजलच्छण्टादानेन 'संमजिओवलित' संमार्जित कचवरापनयनेन, उपलिप्तं छगणादिना, ततः कर्मधारयः, पुनः किंविशिष्टम्'सिंघाडगतिअचउक्कचचरचउम्मुहमहापहपहेसु' शृङ्गाटक-त्रिकोणं स्थानं, त्रिक-मार्गत्रयसंगमः, चतुष्कंमार्गचतुष्टयसङ्गमः, चत्वरम्अनेकमार्गसङ्गमः चतुर्मुख-देवकुलादि, महापथः-राजमार्गः, पन्थानःसामान्यमार्गाः एतेषु स्थानेषु सित्त' सिक्तानि जलेन, अत एव 'सुइ' शुचीनि पवित्राणि 'संमट्ठ' संमृष्टानि कचवरापनयनेन समीकृतानि 'रत्यंत-रावणवीहियं' रथ्यान्तराणि मार्गमध्यानि, तथा आपणवीथयश्च हट्टमार्गा यस्मिन् तत्तथा. पुनः किंविशिष्टम्- 'मंचाइमंचकलिअंमचामहोत्सवविलोककजनानामुपवेशननिमित्तं मालकाः, अतिमञ्चकाःतेषामपि उपरिकृत्वा मालकास्तैः कलितं, पुनः किंविशिष्टम्-'नाणाविहरागभूसिअज्झयपडागमंडिअं' नानाविधै रागैर्विभूषिता ये ध्वजाः सिंहादिरूपोपलक्षिता बृहत्पटाः, पताकाश्च लघ्व्यस्ताभिर्मण्डितं विभूषितं, पुनः किविशिष्टम- 'लाउल्लोइअमहिय' छगणादिना भूमौ लेपन सेढिकादिना मित्त्यादौ धवलीकरणं, ताभ्यां महितमिव पूजितमिव, पुनः किंविशिष्टम्– 'गोसीससरसरत्तचंदणदहरदिन्नपंचंगुलितल' गोशीर्ष चन्दनविशेषः, तथा सरसं यत् रक्तचन्दन, तथा दर्दरनाम पर्वतजातचन्दनं, तैः दत्ताः पञ्चाङ्गुलितला हस्तकाः कुड्यादिषु यत्र तत्तथा, पुनः किंविशिष्टम् 'उवचियचंदणकलसं गृहान्तश्चतुष्केषु स्थापिताः चन्दन कलशाः यत्र तत्तथा- 'चंदणघडसुकयतोरणपडिदुवारदेसभाग' चन्दन घटैः सुकृतानि रमणीयानि तोरणानि च प्रतिद्वारदेशभाग द्वारस्य द्वार देशभागे यस्मिन् तत्तथा, पुनः किंविशिष्टम्- 'आसत्तोसत्तविपुलवह वग्घारियमल्लदामकलावं' आसक्तो भूमिलग्न उत्सतश्व उपरि ला विपुला-विस्तीर्णो वर्तुलः प्रलम्बितो माल्यदामकलापः-- पुष्पमाला - समूहो यस्मिन् तत्तथा, पुनः किंविशिष्टम्- 'पंचवण्णसरससुरहिमुक्छ / पुप्फपुंजोवयारकलियं, पञ्चवर्णाः सरसाः सुरभयो ये मुक्ताः पुष्पपुजा स्तैर्य उपचारो-भूमेः पूजा तया कलितं, पुनः किंविशिष्टम्-'कालागुरुपवरकुंदुरुक्कतुरुक्कडझंतधूवमघमघंतगंधु आभिराम' दह्यमानाः र कृष्णागरुप्रवरकुन्दुरुक्कतुरुष्कधूपाः, तेषां मघमघायमानो यो गन्धः, तेन 'उद्धृयाभिरामन्ति' अत्यन्तमनोहरम्, पुनः किविशिष्टम्- 'सुगंधवरगधियं' सुगन्धवराः-चूर्णानि तेषां गन्धो यत्र तत्तथा तं, पुनः किंविशिष्टम्गंधवट्टिभूयं' गन्धवृत्तिभूतं-गन्धद्रव्यगुटिकासमान, पुनः किविशिष्टम्'नडनट्टगजल्लमल्लमुट्ठिय' नटा-नाटयितारः, नर्तकाः- स्वयं नृत्यकर्तारः, जल्लावरत्राखेलकाः मल्लाः, प्रतीताः, मौष्टिका-ये मुष्टिभिः प्रहरन्ति ये मल्लजातीयाः 'वेलबग' विडम्बका विदूषकाजनाना हास्यकारिकाः ये स्वमुखविकारमुत्प्लुतयन्ति ते व पवग' प्लवका ये उत्प्लवन्ते गर्ता दिकमुल्लङ्यन्ति, नद्यादिकं वा तरन्ति 'कहग' सरसकथावतारः 'पाढग' सूक्तादीनां पाठकाः 'लासग' लासका ये रासकान् ददति 'आरक्खग' आरक्षका:- तलवराः 'लंख' लड्वा वंशानखेलकाः 'मंख' मखाः- चित्रफलकहस्ता भिक्षुकागौरीपुत्रा इति प्रसिद्धाः 'तूणइल्ल' तूणाभिधानवादित्रवादका:- भिक्षुविशेषाः 'तुंबवीणिय' तुम्बवीणिका-वीणावादकाः, तथा 'अणेगतालायराणुचरियं' अनेके ये तालाचरास्तालादानेन प्रेक्षाकारिणस्तालान् कुट्टयन्तो वा ये कथा कथयन्ति'तैः अनुचरितं संयुक्तम्' एवंविध क्षत्रियकुण्डग्रामं नगर 'करेह कारवेह' कुरुत स्वयं, कारयत अन्यैः, करित्ता कारवित्ता य' कृत्वा कारयित्वा च, 'जूअसहस्सं मुसलसहस्सं च उस्सवेह' यूपाःयुगानि तेषां सहसं तथा मुशलानि प्रतीतानि तेषां सहस्रम् ऊर्वीकुरुत युगमुसलो/करणेन च तत्रोत्सवे प्रवर्त्तम्मने शकटखेटनखण्डनादिनिषेधः प्रतीयते इति वृद्धाः 'उस्सवित्ता' तथा कृत्वा च मम एयमाणत्तिय पचप्पिणह' मम एतामाज्ञां प्रत्यपर्यत 'कार्य कृत्वा कृतम् इति मम कथयतेत्यर्थः / / 100 / / तए णं ते को डुबियपुरिसा' ततः ते कौटुम्बिकपुरुषाः सिद्धत्थे णं रन्ना' सिद्धार्थेन राज्ञा ‘एवं वुत्ता समाणा' एवमुक्ताः सन्तः 'हट्टतुट्ट० जाव हियया 'हृष्टाः तुष्टाः यावत् हर्षपूर्णहृदयाः 'करयल० जाव पडिसुणित्ता' करतलाभ्यां यावत् अञ्जलिं कृत्वाप्रतिश्रुत्य अङ्गीकृत्य 'खिप्पामेव कुंडपुरे नयरे' शीघ्रमेव क्षत्रियकुण्डग्रामे नगरे चारगसोह० जाव उस्सवित्ता' बन्दिगृहशोधन बन्दिमोचनं यावत्
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________________ वीर 1361 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वीर मुशलसहस्रं चोध्वीकृत्य जेणेव सिद्धत्थे खत्तिए' यत्रैव सिद्धार्थः क्षत्रियः 'तेणेव उवागच्छति' तत्रैव उपागच्छन्ति 'उवागच्छित्ता' उपागत्य च 'सिद्धत्थस्स खत्ति अस्स' सिद्धार्थस्य क्षत्रियस्य तमाणत्तिय पचप्पिणति' तामाज्ञां प्रत्यर्पयन्ति, कृत्वा निवेदयन्ति // 101 // तए णं सिद्धत्थे राया जेणेव अट्टणसाला तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता० जाव सव्वोवरोहेणं सव्वपुप्फगंधवत्थमल्लालंकारविभूसाए सव्वतुडिअसद्दनिनाएणं महया इड्डीए महया जुईय महया समुदएणं महया तुडि अजमगर्समगपवाइएणं संखपणवभेरिझल्लरिखरमुहिहुडुक्कमुरजमुइंगदुंदुहिनिग्घोसनाइयरवेणं उस्सुक्कं उक्करं उक्किट्ठ अदिजं अमिजं अभडप्पवेसं अदंडकोदंडिमं अधरिमं गणिआवरनाडइज्जकलिअं अणेगतालायराणुचरिअं अणुद्धअमुइंग अमिलायमल्लदामं पमुइअपक्वीलियसपुरजणजाणवयं दसदिवसं ठिइवडियं करेइ / / 102 / / तए णं सिद्धत्थे राया दसाहियाए ठिइवडियाए वट्टमाणीए सइए असाहस्सिए अ सयसाहस्सिए अ, जाए अदाए अ भाए अ दलमाणे अदवावेमाणे अ, सइए असाहस्सिए असयसाहस्सिए अलंभे पडिच्छमाणे अ,पडिच्छावेमाणे अ, एवं विहरइ।।१०३|| 'तएणं सिद्धत्थे राया' ततोऽनन्तरं सिद्धार्थो राजा 'जेणेव अट्टणसाला' यत्रैव अट्टनशाला–परिभ्रमणस्थानं 'तेणेव उवागच्छद' तत्रैवोपागच्छति 'उवागच्छिता' उपागत्य 'जाव सवोराहेग' अत्र यावच्शब्दात् 'सब्धिड्डीए, सव्वजुइए, सव्वबलेणं, सव्ववाहणेण, सव्यसमुदएण' इत्येतानि वाच्यानि, तेषां चायमर्थः- 'सब्विड्डीए' ति सर्वया ऋद्ध्या युक्त इति गम्यत, एवं सर्वेष्वपि विशेषणेषु वाच्यं, सर्वया युक्त्या-उचितवस्तुसंयोगेन, सर्वेण बलेन-सैन्येन, सर्वेण वाहनेन-शिबिकातुरगादिना सर्वेण समुदयेन-परिवारादिसमूहेन, एवं यावच्शब्दसूचितमभिधाय, ततः 'सव्वोवरोहेणं' इत्यादि वाच्यग, तत्र 'सव्वोवरोहेणं' ति सर्वावरोधेन सर्वेण अन्तःपुरेणेत्यर्थः। 'सव्वपुप्फगधवत्थमल्लालंकारविभूसाए सर्वया पुष्पगन्धवस्त्रमालालङ्काराणां विभूषया युक्तः 'सध्यतुडियसनिनाएणं' सर्ववादित्राणि तेषां शब्दो निनादः प्रतिरवश्व, तेन युक्तः ‘महयः इड्डीए' महत्या ऋद्ध्या छत्रादिरूपया युक्तः ‘महया जुइए' महत्या युक्त्याउचिताडम्बरेण युक्तः 'महया बलेणं' महता बलेन-चतुरङ्गसैन्येन युक्तः 'महया वाहणेण महता वाहनेन, शिबिकादिना युक्तः 'महया समुदएण' महता समुदयेन स्वकीयपरिवारादिसमूहेन युक्तः 'महया वरतुडियजमगसमगप्पवाइएण' महत्-विस्तीर्ण यत् वराणां-प्रधानानां त्रुटितानावादित्राणां जमगसमग युगपत् प्रवादितः शब्दस्तेन तथा 'संखपणव भेरिझल्लरिखरमुहिहुडुकमुरजमुइंगदुंदुहिनिग्घोसनाइयरवेणं' शस:प्रतीतः, पणवो- मृत्पटहः, ढका-झल्लरी प्रतीता, खरमुखीदुन्दुभिः देववाद्यम्, एतेषः यो निर्घोषो महाशब्दो, नादितं च प्रतिशब्दस्तद्रूपो यो रवस्तेन, एवं रूपया सकलसामग्या युक्तः सिद्धार्थो राजा दश दिवसान् यावत् स्थितिपतिता कुलमर्यादा महोत्सवरूपां करोतीति योजना / / अथ किंविशिष्टां स्थिति-पतितामित्याह- 'उस्सुक्क उच्छुल्का, शुल्कंविक्रेतव्यक्रयाणकं प्रति मण्डपिकायां राजदेयं ग्राह्यं 'दाण' इति लोके, तेन रहिता, पुनः किंविशिष्टाम्- 'उक्कर' उत्करा करो गवादीन् प्रति प्रतिवर्ष राजग्राह्य द्रव्य, तेन रहिताम्, अतएव उकिट्ठ' उत्कृष्टां सर्वेषां हर्षहेतुत्वात्, पुनः किंविशिष्टिाम्- 'अदिजं' अदेयां यत् यस्य युज्यते तत्सर्व तेन हट्टतः ग्राह्यं, न तु मूल्यं देयं, मूल्यं तु तस्य राजा ददातीति भावः, अत एव 'अमिज्ज' अमेयाम् अमितानेकवस्तुयोगात्, अथवाअदेयां विक्रयनिषेधात्, अमेयां क्रयविक्रयनिषेधात्, पुनः किंविशिष्टाम्'अभडपवेस' नास्ति कस्यापि गृहे राजादेशदापनार्थ भटानां राजापुरुषाणां प्रवेशो यत्र सा तथा ता. पुनः किंविशिष्टाम्- 'अदंडकोदंडिम' दण्डो यथाऽपराधराजग्राह्यं धनं कुदण्डो महत्यपराधे अल्पं राजग्राह्य धनं, ताभ्यां रहिताम्, पुनः किंविशिष्टाम- 'अधरिमं' धरिमम्-ऋणं तेन रहिताम् ऋणस्य राज्ञा दत्तत्वात्, पुनः किंविशिष्टाम्-- 'गणियावरनाडइज्जकलिय' गणिकावरैः-नाटकीयैः नाटकप्रतिबद्धैः पात्रैः कलिता, पुनः किंविशिष्टाम्- 'अणेग-तालायराणुचरिअं' अनेकैस्तालाचरैः प्रेक्षाकारिभिः अनुचरितां-सेविता, पुनः किंविशिष्टाम्-'अणु यमुइंग' अनुद्धता वादकैः अपरित्यक्ता मृदङ्गा यस्यां सा तथा ता, पुनः किंविशिष्टाम- 'अमिलायमल्लदाम, अम्लानानि माल्यदामानि यस्या सा तथा ता, पुनः किंविशिष्टाम्- ‘पमुइयपक्कीलिअसपुरजणजाणवयं' प्रमुदिताः प्रमोदवन्तः, अत एव प्रक्रीडितुमारब्धाः पुरजनसहिता जानपदा देशलोका यत्र सा तथा ताम् 'दसदिवसठिइवडियं करेइ' दशदिवसान् यावत्, एवंविधा स्थितिपतितामुत्सवरूपां कुलामर्यादां करोति // 102 / / 'तए णं सिद्धत्थे राया' ततः स सिद्धार्थो राजा 'दसाहियाए ठि इवडियार वट्टमाणीए' दशाहिकायां-दशदिवसप्रमाणायां स्थितिपतितायां वर्तमानायां 'सइए अ' शतपरिमाणान साहस्सिए अ' सहस्र-परिमाणान् ‘सयसाहस्सिए अ' लक्षप्रमाणान् 'जाए अ' यागान अर्हत्प्रतिमापूजाः, भगवन्मातापित्रोः श्रीपार्श्वनाथसन्तानीय श्रावकत्वात्, यजधातोश्च देवपूजार्थत्वात्यागशब्देन प्रतिमापूजा एंव ग्राह्या, अन्यस्य यज्ञस्य असम्भवात्, श्रीपार्श्वनाथसन्तानीयश्रावकत्वं चानयोराचाराङ्गो प्रतिपादितम् ‘दाए अ' दायान् पर्वदिवसादौ दानानि 'भाए अ' लब्धद्रव्यविभागान्मानितद्रव्यांशान् ‘दलमाणे अ' ददत् स्वयं 'दवावेमाणे अ' दापयन सेवकः 'सइए य साहस्सिएय सयसाहस्सिए य' शतप्रमाणान् सहसप्रमाणान् लक्षप्रमाणान्, एवंविधान् 'लंभे पडिच्छमाणे अपडिच्छावेमाणे य' लाभान् ‘वधामणा' इति लोके प्रतीच्छन् स्वयं गृह्णन, प्रतिग्राहयन् सेवकादिभिः ‘एवं विहरइ' अनेन प्रकारेण च विहरति- आस्ते // 103|| तए णं समणस्स भगवओ महावीरस्स अम्मापियरो पढ मे दिवसे ठिइवडियं करेंति, तइए दिवसे चंदसूरदंस
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________________ वीर 1362 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वीर णि करेंति, छठे दिवसे धम्मजागरियं जागरेंति, एकारसमे दिवसे विइकते निव्वत्तिए असहजम्मकम्मकरणे, संपत्ते वारसाहे दिवसे, विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडाविति, उवक्खडावित्ता मित्तनाइनियगसयण-संबंधिपरिजणं नायए खत्तिए अ आमंतेइ आमंतित्ता, तओ पच्छा ण्हाया कयबलिकम्मा कयकोउयमंगलपायच्छित्ता सुद्धप्पावेसाई मंगल्लाइं पवराई वत्थाई परिहिया अप्पमहग्घाभरणाऽलंकियसरीरा भोअणवेलाए भोअणमंडवंसि सुहासणवरगया तेणं मित्तनाइनियगसंबंधिपरियणेणं नाय-एहिं खत्तिएहिं सद्धिं तं विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं आसाएमाणा विसाएमाणा परिभुजेमाणा परिभाएमाणा एवं वा विहरंति॥१०॥ 'तए णं समणस्स भगवओ महावीरस्स' ततः श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य 'अम्मापियरोपढमे दिवसे' मातापितरौ प्रथमे दिवसे 'ठिइवडियं करेंति' स्थितिपतितां कुरुतः,'तइए दिवसे चंदसूरदंसणियं करेंति' तृतीये दिवसे चन्द्रसूर्यदर्शनि-कामुत्सवविशेष कुरुतः / (कल्प०) (तद्विधिश्च 'चंददरिसणिया' शब्दे तृतीयभागे 1071 पृष्ठे दर्शिता।) (चन्द्रदेवस्वरूपम् 'चंदमंडल' शब्दे तस्मिन्नेव भागे 1085 पृष्ठेदर्शितम्।) (चन्द्रविमानस्वरूपम् 'चंदविमाण' शब्दे तस्मिन्नेव भागे 1065 पृष्ठे दर्शितम्।) एवं सूर्यस्यापि दर्शनं, नवरं मूर्तिः स्वर्णमयी ताम्रमयी वा मन्त्रश्च-"ओँ अर्ह सूर्योऽसि, तमोऽपहोऽसि सहस्रकिरणोऽसिजगच्चक्षुरसि प्रसीद।" आशीर्वादश्चायम्- 'सर्वसुरासुरवन्धः, कारयिताऽपूर्वसर्वकार्याणाम् / भूयात्रि-जगचक्षुर्मङ्गलदस्ते सपुत्रायाः / / 1 / / " इति सूर्यदर्शनविधिः। साम्प्रतंच तत्स्थाने शिशोर्दर्पणोदय॑ते-'छट्टेदिवसे धम्मजागरियं जागरेंति' ततः षष्ठे दिवसे 'धम्मजागरियं' तिधर्मेण कुलधर्मेण षष्ठ्या रात्री जागरणं धर्मजागरिकां जागृतः, षष्ठे दिने जागरणमहोत्सवं कुरुत इति भावः, एवं च 'एक्कारसमे दिवसे विइक्वंते' एकादशे दिवसे व्यतिक्रान्ते सति 'निव्वत्तिए असुइ जम्मकम्मकरणे' अशुचीनां जन्मकर्मणां नालच्छेदादीनां करणे निर्वर्तिते-समापिते सति 'संपत्ते बारसाहे दिवसे' द्वादशे च दिवसे सम्प्राप्ते सति भगवन्मातापितरौ 'विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडाविति' विपुलं बहुअशनंपानं खादिम स्वादिमंच उपस्कारयतः प्रगुणीकारयतः 'उवक्खडावित्ता' उपस्कारयित्वा च 'मित्तनाइनियगसयणं संबधिपरिजणं' मित्राणि-सुहृदादयः ज्ञातयः- सजातयः, निजकाः- स्वकीयाः पुत्रादयः, स्वजनाः-- पितृव्यादयः, सम्बन्धिनः- पुत्रपुत्रीणां श्वशुरादयः, परिजनोदासीदासादिः 'नायए खत्तिए य' ज्ञातक्षत्रियाः श्रीऋषभदेवसजातीयास्तान 'आमतेइत्ता' आमन्त्रयति, आमन्त्रय च 'तओ पच्छा ण्हाया कयबलिकम्मा' ततः पश्चात् स्नातौ, कृतं बलिकर्म पूजा याभ्यां, तथा तौ 'कयकोउअमंगलपायच्छित्ता' कृतानि कौतुकमङ्गलानि, तान्येव प्रायश्चित्तानि याभ्यां तथा तौ 'सुद्धप्पावेसाई मंगल्लाइं पवराई वत्थाई | परिहिया' शुद्धानि-श्वेतानि सभाप्रवेशयोग्यानि, माङ्गल्यानिउत्सवसूचकानि, प्रवराणि श्रेष्ठानि वस्त्राणि परिहितौ 'अप्पमहग्घाभरणालंकियसरीरा' अल्पानि-स्तोकानि महा_णि बहुमूल्यानि यानि आभरणानि, तैः अलङ्कृतं शोभितं शरीरं याभ्यां तथा तौ, एवंविधौ भगवन्मातापितरौ 'भोअणवेलाए भोअणमंडवंसि' भोजनवेलायां भोजनमण्डपे 'सुहासणवरगया' सुखासनवराणि गतौ सुखासीनौ इत्यर्थः 'तेणं मित्तनाइनियग संबंधिपरियणेणं' तेन मित्रज्ञातिनिजकस्वजनसम्बन्धिपरिजनेन 'नारहिं खत्तिएहिं सद्धिं ज्ञातजातीयैः क्षत्रियैः सार्द्ध 'तं विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं तं विपुलमशनं पानं खादिम स्वादिम च 'आसाएमाणा' आ-ईषत् स्वादयन्तौ बहु त्यजन्तौ, इक्ष्वादेरिव 'विसाएमाणा' विशेषेण स्वादयन्तौ, अल्पं त्यजन्तौ, खजूरादेरिव 'परिभुजे माणा' सर्वमपि भुजानौ अल्पमपि अत्यजन्तौ भोज्यादेवि 'परिभाएमाणा' परिभाजयन्तौ परस्परं यच्छन्तौ एवं वा विहरंति' अनेन प्रकारेण भुञ्जानौ तिष्ठत इति भावः // 104 / / जिमिअभुत्तुत्तरागया वि अ णं समाणा आयंता चोक्खा परमसुइमूआ तं मित्तनाइनियगसयणसंबंधिपरियणं नायए खत्तिए विउलेणं पुप्फवत्थगंधमल्लालंकारेणं सकारेंति संमाणेति सकारिता सम्माणित्ता तस्सेव मित्तमाइनियगसयणसंबंधिपरियणस्स नायाणंखत्तिआणयपुरओ एवं वयासी॥१०॥ पुटिव पिणं देवाणुप्पिया! अम्हें एयंसि दारगंसि गम्भं वळतंसि समाणंसि इमे एयारूवे अन्भत्थिए० जाव समुप्पजित्था-जप्पमिदं च णं अम्हं एस दारए कुञ्छिसि गम्भत्ताए वक्रते तप्पमिदं च णं अम्हे हिरनेणं वड्डामो, सुवनेणं वडामो धणेणं धनेणं रजेणं० जाव सावइजेणं पीइसकारेणं अईव अईव अभिवडामो, सामंतरायाणो वसमागया य / / 106|| तं जया णं अम्हं एस दारए जाए भविस्सइ, तयाणं अम्हे एयस्स दारगस्स इमं एयाणुरूवं गुण्णं गुणनिप्फन्नं नामधिलं करिस्सामो "वद्धमाणु'" त्ति ता अम्हं अज्जमणोरहसंपत्ती जाया, तं होउणं अम्हं कुमारे वद्धमाणे नामेणं 11107 / / समणे भगवं महावीरे कासवगुत्ते णं, तस्सणं तओनामधिमा एवमाहिजंति,तं जहाअम्मापिउसंतिए बद्धमाणे, सहसमुइआए समणे-अयले भयभेरवाणं परीसहोवसग्गाणं-खंतिखमेंपडिमाणं पालएधीमं- अरहरइसहे-दविए-वीरिअसंपन्नेदेवेहिं से नामं कयं समणे भगवं महावीरे॥१०६|| 'जिमिय भुत्तुत्तरागया वि य णं समाणा' ततः जिमित्तौ भुक्त्युत्तरं-- भोजनानन्तरमागतौ-उपवेशनस्थाने समागतौ, अपि च निश्चयेन एवंविधौ सन्तौ 'आयंता चोक्खा परमसुइ-भूया' आचान्तौ शुद्धोदकेन कृताचमनौ सिक्थाद्यपनयनेन चोक्षौ, अत एव परमपवित्रीभूतौ सन्तौ 'तं मित्तनाइंनियगसयणसंबंधिपरियणं तं मित्रज्ञातिनिजकस्वजनसम्बन्धिप
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________________ वीर 1363 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वीर रिजनं 'नायए खत्तिए अ' ज्ञातजातीयांश्च क्षत्रियान् 'विउलेणं पुप्फवत्थगंधमल्लालंकारेणं' विपुलेन पुष्पवस्त्रगन्धमालालङ्कारादिना 'सक्कारेंति सम्माणेति' सत्कारयतः सन्मानयतः 'सकारिता सम्माणिता' सत्कार्य सन्मान्य च 'तस्सेव मित्तनाइनियगसयणसंबंधिपरियणस्स' तस्यैव मित्रज्ञातिनिजकस्वजनसम्बन्धिपरिजनस्य 'नायाणं खत्तिआण य पुरओ' ज्ञातजातीयानां क्षत्रियाणां च पुरतः ‘एवं वयासी' एवमवादिष्टाम- // 105|| 'पुद्धि पिणं देवाणुप्पिया!' पूर्वमपि भो देवानुप्रियाः ! भो स्वजनाः 'अम्हं एयसि दारगंसि गल्भं वकसि समाणंसि' अस्माकमेतस्मिन् दारके गर्भे उत्पन्ने सति 'इसे एयारूवे अब्भत्थिए० जाव समुप्पज्जित्था' अयमेतद्रूपः आतमविषयः यावत् संकल्पः समुत्पन्नोऽभूत, कोऽसौ इत्याह- 'जप्पभिई च णं अम्हं एस दारए कुच्छिसिगढभत्ताए वक्कते' यतः प्रभृति अस्माकम् एष दारकः कुक्षौ गर्भतया उत्पन्नः तप्पभिई चणं अम्हे' तत्प्रभृति वयं हिरण्णेणं वड्डामो' हिरण्येन रूप्येन वर्धामहे 'सुवण्णेणं वड्डामो' सुवर्णेन वर्धामहे 'धणेणं धन्नेणं रजेणं० जाव सावइज्जेण' धनेन धान्येन राज्येन यावत् स्वापतेयेन द्रव्येण 'पीइसक्कारेणं अईव अईव अभिवड्डामो' प्रीतिसत्कारेण अतीव अतीव अभिवर्धामहे 'सामंतरायाणो वसमागया य' स्वदेशसमीपयर्तिनः राजानः 'सीमा डा राजा' इति च वश्यम् - आयत्तत्वमागताः // 106 / / 'तं जया णं अम्ह एस दारए जाए भविस्सइ तस्मात् यदा अस्माकमेष दारको जातो भविष्यति तया णं अम्हे एयस्सदारगस्स' तदा वयमेतस्य दारकस्य 'इम एयाणुरुवं गुण्णं गुणनिष्फन्नं इमम्-एतदनुरूपं गुणेभ्यः आगतं गुणैर्निष्पन्न 'नामधिज्जं करिस्सामो वद्धमाणु' त्ति एवंविधमभिधान करिष्यामः 'वर्द्धमान' इति ता अम्हं अज्ज मणोरहसंपत्ती जाया' 'ता' इति सा पूर्वोत्पन्ना अस्माकं अद्य मनोरथस्य संपत्तिः जाता 'तं होउ णं अम्हं कुमारे वद्धमाणे नामेण तस्मात् भवतु अस्माकं कुमारः 'वर्द्धमानः' नाम्ना कृत्वा // 107 / / 'समणे भगवं महावीरे' श्रमणो भगवान् महावीरः 'कासवगुत्तेणं काश्यप इति नामकं गोत्रं यस्य स तथा 'तस्स णं तओ नामधिज्जा एवमाहिज्जति तस्य भगवतः त्रीणि अभिधानानि एवमाख्यायन्ते- 'तं जहा' तद्यथा 'अम्मापिउसंतिए बदमाणे मातापितृसत्कमातापितृदत्तं 'वर्द्धमान' इति प्रथमं नाम 1, 'सहसमुझ्याए समणे' सह समुदिता सह भाविनी तपः- करणादिशक्तिः, तया श्रमण इति द्वितीयं नाम 2, 'अयले भयभेरवाणं' भयभैरवयोर्विषये अचलो निष्प्रकम्पः, तब भयम्-अकस्माद्यं विद्युदादिजातं, भैरवं तु सिंहादिक, तथा परिसहोवसग्गाणं' परिषहाः क्षुत्पिपासादयो द्वाविंशतिः- (22) उपसर्गाश्च दिव्यादयश्चत्वारः सप्रभेदास्तुषोडश-(१६) तेषां खंतिखमे' क्षान्त्या क्षमया क्षमते, न त्वसमर्थतया यः स क्षान्तिक्षमः ‘पडिमाणं पालए' प्रतिमानां भद्रादीनाम् एकरात्रिक्यादीनां वा अभिग्रहविशेषाणां पालकः 'धीम' धीमान ज्ञानत्रयाभिरामत्वात् 'अरइरइसहे' अरतिरति सहते, न तु तत्र हर्षविषादौ कुरुते इति भावः 'दविए' द्रव्यं तत्तद्गुणानां भाजन रागद्वेषरहिते इति वृद्धाः 'वीरिअसंपन्ने' वीर्य पराक्रमस्तन संपन्नः, यतो भगवान् एवंविधस्ततः 'देवेहिं से णामं कयं समणे भगवं महावीरे' देवैः 'से' इति तस्य भगवतो नाम कृतं श्रमणो भगवान् महावीर इति तृतीयम् 3, // 108 / / तदिदं नाम देवैः कृतं, कथं कृतमित्यत्र वृद्धसंप्रदायः-अथैव पूर्वोक्तयुक्त्या सुरासुरनरेश्वरैः कृतजन्मोत्सवो भगवान् द्वितीयशशीव मन्दाराऽङ्कुर इव वृद्धिं प्राप्नुवन् क्रमेण एवंविधो जातः"द्विजराजमुखो गजराजगतिः, अरुणोष्ठपुटः सितदन्तततिः। शितिकेशभरोऽम्बुजमञ्जुकरः, सुरभिश्वसितः प्रभयोल्लसितः / / 1 / / मतिमान श्रुतवान् प्रथितावधियुक्. पृथुपूर्वभवस्मरणो गतरुकामतिकान्तिधृतिप्रभृतिस्वगुणै- जगतोऽप्यधिको जगतीतिलकः / / 2 / / " स चैकदा कौतुकरहितोऽपि तेषामुपरोधात् समानवयोभिः कुमारैः सह क्रीडां कुर्वाण आमलकीक्रीडानिमित्तं पुराद् बहिर्जगाम। तत्र च कुमारा वृक्षारोहणादिप्रकारेण क्रीडन्ति स्म। अत्रान्तरे सौधर्मेन्द्रः सभायां श्रीवीरस्य धैर्यगुणं वर्णयन्नास्ते, यदुत पश्यत भो देवाः ! साम्प्रतं मनुष्यलोके श्रीवर्द्धमानकुमारो बालोऽप्यबालपराक्रमः शक्रादिभिर्देवैरपि भापथितुमशक्यः, कटरे बालस्यापि धैर्य, तदाकर्ण्य च कश्चिन् मिथ्यादृग-देवश्चिन्तयामासअहो शक्रस्य प्रभुत्वाभिमाने निरङ्कुशा विचारा पुम्मिकापातेन नगराक्रमणा-मिवाऽश्रद्धेया च वचनचातुरी, यदिमं मनुष्यकीटपरंमाणुमपि इयन्तं प्रकर्ष प्रापयति, तदद्यैव तत्र गत्वा तं भीषयित्वा शक्रवचन वृथा करोमि, इति विचिन्त्य मर्त्यलोकमागत्य शिंशपामुशलस्थूलेन लोलजिह्वायुगलेन भयङ्करफूत्कारेण क्रूरतराकारेण प्रसरत्कोपेन ऋजुफटाटोपेन दीप्रमणिना महाफणिना तं क्रीडातरुमावेष्टितवान. तदर्शनाच पलायितेषु सर्वेषु बालेषु मनागप्यभीतमनाः श्रीवर्द्धमानकुमारः रवयं तत्र गत्वा तं फणिनं करेण गृहीत्वा दूरं निक्षिप्तवान्, ततः पुनः कुमारैः कन्दुकक्रीडारसे प्रस्तुते सतिस देवोऽपि कुमाररूपं विकुऱ्या तां क्रीडा कर्जा प्रववृते / तत्र चायपणः-पराजितेन स्कन्धे आरोपणीय इति, क्षणाच परोजितं मया जितं वर्धमानेनेति वदन् श्रीवीरं स्कन्धे समारोप्य भगवद्भापनाय सप्ततालप्रमाणशरीरः संजातो, भगवानपि तत्स्वरूपं विज्ञाय वज्रकठिनया मुष्ट्या तत्पृष्ठं जघान, सोऽपि तत्प्रहारवेदनापीडितो मशक इव संकोचं प्राप / / ततश्च शक्रवचनं सत्यं मन्यमानः प्रकटितस्वरूपः सर्व पूर्वव्यतिकरं निवेद्य भूयो भूयो निजमपराध क्षमयित्वा स्वस्थानं जगाम स देवः, तदा च सन्तुष्टचित्तेन शक्रेण 'श्रीवीरः' इति भगवतो नाम कृतम्। यदुक्तम् - 'बालत्तणे वि सुरो, पयईए गुरुपरकामो भयवं / वीरु त्ति कयं नाम, सक्केणं तुट्ठवितेणं // 1 // " इत्यामलकीक्रीडा / (कल्प०) (वीरस्य लेखनशालागमनम् 'लेहसाला' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 667 पृष्ठे उक्तम्।) समणस्स णं भगवओ महावीरस्स पिआ कासवगुत्ते - णं, तस्स णं तओ नामधिजा एवमाहिज्ज ति, तं जहा
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________________ वीर 1364 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वीर सिद्धत्थेइवा, सिजंसेइ वा, जसंसेइ वा / / समणस्स भगवओ महावीरस्स माया वासिट्ठगुत्तेणं, तीसे तओ नामधिञ्जा एवमाहिन्जंति, तं जहा-तिसलाइ वा विदिन्नाइ वा पीइकारिणीइ वा।। समणस्स भगवओ महावीरस्स पित्तिज्जो सुपासे, जिढे भाया नंदिवद्धणे भगिणी सुदंसणा, भारिया जसोया कोडिन्ना गुत्तेणं समणस्स भगवओ महावीरस्स धूआ कासवगोत्ते णं तीसे दो नामधिज्जा एवमाहिजंति, तं जहा-अणोजाइ वा पियदंसणाइ वा समणस्स भगवओ महावीरस्स नत्तुई कासवगुत्तेणं तीसे णं दो नामधिन्ना एवमाहिजंति, तंजहा-सेसवई वा जसवईवा।।१०।। 'समणस्स भगवओ महावीरस्स' श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य 'पिया कासवगुत्तेणं' पिता कीदृशः? काश्यपः गोत्रेण कृत्वा 'तस्स णं तओ नामधिजा' तस्य त्रीणि नामधेयानि एवमाहिति एवमाख्यायन्ते'तं जहा सिद्धत्थेइ वा सिजसेइ वा जसंसेइ वा तद्यथा-सिद्धार्थ इति वा, श्रेयासं इति वा, यशस्वी इति वा। समणस्स भगवओ महावीरस्स' श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य 'माया वासिट्ठगुत्तेणं' माता वाशिष्ठगोत्रेण 'तीसे तओ नामधिजा' तस्याः त्रीणि नामधेयानि एवमाहिति' एवमाख्यायन्ते- 'तं जहा तिसला इ वा विदेहदिन्ना इ वा पीइकारिणी इवा' तद्यथा-त्रिशला इति वा, विदेहदिन्ना इति वा प्रीतिकारिणीति वा 'समणस्स भगवओ महावीरस्स' श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य 'पित्तिजे सुपासे' पितृव्यः 'काको' इति सुपार्श्वः 'जिट्टे भाया नंदिवद्धणे' ज्येष्ठो भ्राता नन्दिवर्द्धनः भगिणी सुदसणा' भगिनी सुदर्शना भारिया जसोया कोडिण्णागुत्तेणं' भार्या यशोदा सा कीदृशी कौण्डिन्या गोत्रेण 'समणस्स भगवओ महावीरस्स' श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य 'धूआ कासवगोत्तेणं पुत्री काश्यपगोत्रेण 'तीसे दो नामधिज्जा एवमाहिति' तस्या द्वे नामधेये, एवमाख्यायेते- 'तं जहा- अणोजाइ वा पियदसणाइ वा' तद्यथा-अणोजा इति वा, प्रियदर्शना इति वा, 'समणस्स भगवओ महावीरस्स' श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य 'नत्तुई कासवगुत्तेण' पुत्र्याः पुत्री-दौहित्री काश्यपगोत्रेण 'तीसेणं दो नामधिजा एवमाहिति' तस्याः द्वे नामधेये एवमाख्यायेते- 'तं जहा-सेसवई वा जसवई वा तद्यथाशेषवती इति वा यशस्वती इति वा / / 10 / / समणे भगवं महावीरे दक्खे दक्खपइन्ने पडिरूवे आलीणे भद्दइ विणीए नाए नायपुत्ते नायकुलचंदे विदेहे विदेहदिन्ने विदेहजचे विदेहसूमाले तीसं वासाई विदेहंसि कटु अम्मापिउहिं देवत्तगएहिं गुरुमहत्तरएहिं अध्भणुन्नाए सम्मत्तपइन्ने पुणरवि लोअंतिएहि-जीअकप्पिहिं देवेहिं ताहिं इट्ठाहिं० जाव वग्गूहिं अणवरयं अभिनंदमाणा य अभिथुव्यमाणा य एवं वयासी||११०।। 'समणे भगवं महावीरे' श्रमणो भगवान महावीरः 'दक्खे' दक्षःसकलकलाकुशलः 'दक्खपइन्ने' दक्षानिपुण्णा प्रतिज्ञा यस्य स तथा समीचीनाभेव प्रतिज्ञा करोति, तां च सम्यग निर्वह-तीति भावः, 'पडिरूवे' प्रतिरूपः- सुन्दररूपवान् 'आलीणे' आलीन:- सर्वगुणैरालिङ्गितः"भदए' भद्रकः- सरलः 'विणीए' विनीतो-विनयवान् 'नाए' ज्ञातः-- प्रख्यातः 'नायपुत्ते' ज्ञातः- सिद्धार्थस्तस्य पुत्रः, न केवलं पुत्रमात्रः किन्तु-- 'नायकुलचन्दे' ज्ञातकुले चन्द्र इव 'विदेहे' वऋषभनाराचसंहन-नसमचतुरस्त्रसंस्थानमनोहरत्वात् विशिष्टो देहो यस्य स विदेहः 'विदेहदिन्ने विदेहदिन्ना-त्रिशलातस्या अपत्यं वैदेहदिन्नः 'विदेहजचे' विदेहा-त्रिशला तस्यां जातमर्चा-शरीरं यस्य स तथा विदेहसूमाले' विदेहशब्देन अत्र गृहवास उच्यते, तत्र सुकुमालः दीक्षायां तु परिषहादिसहने अकठोरत्वात् 'तीसं वासाई विदेहसि कटु' त्रिंशद्वर्षाणि गृहवासे कृत्वा, त्रिंशद्वर्षाणि गृहस्थभावे स्थित्वेत्यर्थः, 'अम्मापिउहिं देवत्तगएहि' मातापित्रोदेवत्वं गतयोः। 'गुरुमहत्तरएहि अब्भणुण्णाए गुरुमहत्तरैनन्दिवर्द्धनादिभिरभ्यनुज्ञातः। 'समत्तपइन्ने' समाप्तप्रतिज्ञश्च, "मातापित्रोजीवतोः नाहं प्रव्रजिष्यामी'' ति गर्भगृहीतायाः प्रतिज्ञायाः पूरणात्, स व्यतिकरस्त्वेवम्- अष्टाविंशतिवर्षातिक्रमे भगवतो मातापितरौ, आवश्यकाभिप्रायेण तुर्य स्वर्गम्, आचाराङ्गाभिप्रायेण तु अनशनेन अच्युतंगतो, ततो भगवता ज्येष्ठभ्राता पृष्टः, राजन् ! ममाभिग्रहः सम्पूर्णोऽस्ति, ततोऽहं प्रव्रजिष्यामि, ततो नन्दिवर्द्धनः प्रोवाचभ्रातः ! मम मातापितृविरहदुःखितस्य अनया वार्तया किं क्षते क्षारं क्षिपसि, ततो भगवता प्रोक्तम्- 'पिअमाइभाइभइणी भज्जा पुत्तत्तणेण सव्वे वि। जीवा जाया बहुसो, जीवस्स उएगभेगस्स // 1 // ततः कुत्र कुत्र प्रतिबन्धः क्रियते इति निशम्य नन्दिवर्द्धनोऽवोचत्- भ्रातरहमपि इदं जानामि, किन्तु-प्राणतोऽपि प्रियस्य तव विरहो मामतितमा पीडयति, ततो मदुपरोधाद्वर्षद्वयं गृहे तिष्ठ, भगवानपि एवं भवतु, किन्तु-राजन् ! मदर्थ न कोऽपि आरम्भः कार्यः, प्रासुकाशनपानेनाहं स्थास्यामि इत्यवोचत, राज्ञापि तथा प्रतिपन्ने समधिकं वर्षद्वयं वस्त्रालड्कारविभूषितोऽपि प्रासुकैषणीयाहारः सचित्तजलमपिबन भगवान गृहे स्थितः, ततः प्रभृति भगवता अचित्तजलेनापि सर्वस्नानं न कृतं, ब्रह्मचर्य च यावजीवं पालित, दीक्षोत्सवे तु सचित्तोदकेनापिस्नान कृतं, तथाकल्पत्वात्, एवं भगवन्तं वैरगि कं विलोक्य चतुर्दशस्वप्नसूचितत्वाचक्रवर्त्तिधिया सेवमानाः श्रेणिकचण्डप्रद्योतादयो राजकुमाराः स्वं स्वं स्थान जग्मुः / 'पुणरवि लोअंतिएहि पुनरपि इति विशेषद्योतने, एकं तावत् समाप्तप्रतिज्ञः स्वयमेव भगवान् वर्त्तते, पुनरपि लोकान्तिकैर्देवैर्बोधित इति विशेषो धोत्यते, लोकान्ते-संसारान्ते भवाः लोकान्तिकाः एकावतारत्वात्, अन्यथा ब्रह्मलोकवासिनां तेषां लोकान्ते भवत्वं विरुद्धयते, ते च नवविधाः, यदुक्तम्''सारस्सय 1 माइचा 2 वन्ही 3 अरुणाय 4 गहतोया य५ | तुडिआ६ अव्वावाहा 7.
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________________ वीर 1365 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वीर अगिव्वा 8 चेव रिट्ठा य॥८६॥ एए देवनिकाया, भयवं वोहिन्ति जिणवरिद तु। सव्यजगजीवहिय, भयवं तित्थं पवत्तेहि।।७।।" यद्यपि स्वयम्बुद्धो भगवास्तदुपदेश नापेक्षते, तथापि तेषामयमाचारो वर्त्तते, तदेवाह-'जीयकप्पिएहिं देहि जीतेन–अवश्यभावेन कल्पअचारो जीतकल्पः सोऽस्ति येषां तेजीतकल्पिकास्तैः, एवंविधा देवाः विभक्तिपरावर्तनात्, ते देवाः 'ताहिं इट्टाहि' ताभिः इष्टाभिः 'जाव वगूहिं यावत्शब्दात्- 'कंताहिं मणुन्नाहि, इत्यादि पूर्वोक्तः पाठो वाच्यः, एवंविधाभिवाग्भिः 'अपवरय' निरन्तर भगवन्तम् 'अभिनंदमाणा य' अभिनन्दवन्तः समृद्धिमत आचक्षाणाः अभिथुव्वमाणा य' अभिष्ट्रवन्तः स्तुतिं कुर्वन्तः सन्तः ‘एवं वयासी' एवमवादिषुः / / 110 / / (16) तीर्थप्रवर्तनार्थ वीरं प्रति प्रेरणाजय जय नंदा, जय जय भद्दा, भई ते जय जय खत्तिअवरवसहा, बुज्झाहि भगवं लोगनाह सयलजगजीवहियं पवत्तेहि धम्मतित्थं, हियसुहनिस्सेयसकरं सव्वलोए सव्वजीवाणं भविस्सइ त्ति कटु जय जय सदं पउंजंति॥१११| 'जय जय नंदा' जय लभस्व, सम्भ्रमे द्विवचनं, नन्दति समृद्धो भवतीति नन्दस्तस्य सम्बोधन हेनन्द ! दीर्घत्वं प्राकृतत्वात, एवं 'जय जय भवा' जय जय भद्र ! - कल्याणवन् 'भई ते ते-तव भद्र भवतु 'जय जय खत्तियवरवसहा' जय जय क्षत्रियवरवृषभ ! 'बुज्झाहि भगवं लोगनाह' बुद्ध्यस्व भगवन् ! लोकनाथ ! 'सयलजगजीवहियं' सकलजगजीवहितं 'पवत्तेहि धम्मतित्थ' प्रवर्तय धर्मतीर्थ, यत इदं 'हियसुहनिस्सेयसकरं' हितं-हित्कारकं सुखं शर्म, निःश्रेयस मोक्षस्तत्करं 'सव्वलोए सव्वजीवाण, सर्वलोक सर्वजोवाना 'भविस्सइ त्ति कटु जय जय सद पउंजंति' भविष्यतीति कृत्वा इत्युक्त्वा जय जय शब्दं प्रयुञ्जन्ति ||111 // कल्प०१ अधि०५ क्षण। (17) अधुना संबोधनद्वारम्-तत्र यदा भगवान् निष्क्रमिष्या मीति मनः संप्रधारयति तदा ये लोकान्तिका देवाः सारस्वतादयो ब्रह्मलोके कल्पे रिष्ट विमानप्रस्तटे स्वकीयविमाने स्वकीये प्रासादावतंसके प्रत्येक चतुर्भिः सामानिकसहस्रस्तिसृभिः षर्षद्भिः सप्तभिरनीकैः सप्तभिरनीकाधिपतिभिः षोडशभिरारक्षकदेवसहस्रैरन्यैश्च स्वस्वविमानवास्तव्यैर्देवैः संपरिवृता दिव्यान् भोगान् भुजाना आसते तेषामासनानि प्रचलन्ति ततोऽवधिं प्रयुज्यात् प्रयुज्य चाभोगयन्ति ततो जानन्ति यथा स्वामी निष्क्रमिष्यामीति मनः संप्रधारितवान् ततश्चिन्तयन्ति-कल्प एष लोकान्तिकानां दवानां भगवतामर्हता निष्क्रमणकाले संबोधनं कर्त्तव्यमिति। तत एवं चिन्तयित्वा उत्तरपूर्वां दिशमवक्रम्य द्विकृत्वो वैक्रियसमुद्धातेन समवहत्योत्तरवैक्रियाणि रूपाणि विकुर्वते विकुर्वित्वा भगवतः समीपमागत्याकाशे स्थिता मधुराभिर्वाग्भिरेवमवादिषुः- "जय जय नन्दा जय जय भद्दा जय जय मुणिवरवसभा कुज्झाहि भगवं लोगनाह ! पवत्ताहि भयवधम्मतित्थ हियसुहनिस्सेयसकरंजीवाणमेयं भविस्सइति" | ततो वन्दन्ते नमस्यन्ति। वन्दित्वा नमस्यित्वा यत आगतास्तत्र गताः। एतदेवाहसारस्सयमाइचा, वही करुणा य गद्दतोया च / तुसिया अव्वाबाहा, अग्गिच्चा चेव रिहाय।।६।। एए देवनिकाया, भयवं बोहिंति जिणवरिंदं तु। सव्वजगजविहियं, भयवं तित्थं पवत्तेहि।।७।। एवं अमित्थुवंतो, बुद्धो बुद्धारविंदसरिसमुहो। लोगंतियदेवेहिं, कुण्डग्गामे महावीरो|८|| इदमपि गाथात्रयं सुगमत्वाच न प्रतन्यते, न तु पूर्वमृषभदेवाधिकारे पूर्व संबोधनमुक्त पश्वाद् ‘दानसंबोहेण परिव्वाए' इति पाठक्रमात् इह तु पूर्व दानं पश्चात्संबोधनं 'दाणं संबोहनिक्खमणे' इति वचनात् ततः कथं परस्परं न विरोधः नैष दोषो न सर्वतीर्थकराणामयं नियमो यदुत संबोधनोत्तरकालभाविनी महादानप्रवृत्तिः किंतु केषाञ्चिदेवमपि भवतिपूर्व महादानं पश्चात्संबोधनमिति 'दाणे' इति वचनात, अथवा-भवतु नियमः स च द्विधा धटते पूर्व सम्बोधनं पश्वान् महादानम्, अथवा-पूर्व महादानं पश्चात्संबोधन, तत्र पूर्वनियमेनसंबोधन-द्वयन्यासोऽल्पवक्तव्यत्वादेवं तावत् संभविनः पक्षा उपन्यस्तास्तत्त्वं विशिष्टश्रुतत्वादेवं तावत् संभविनः पक्षा उपन्यस्तास्तत्त्वं विशिष्ट श्रुतविदो जानन्तीति कृतं प्रसङ्गेन / गत संबोधनद्वारम् / आ० म०१ अ०। (18) वीरेण वार्षिकदानं दत्तम्पुट्विं पि णं समणस्स भगवओ महावीरस्स माणुस्सगाओ गिहत्थधम्माओ अणुत्तर आभोइए अप्पडिवाई नाणदंसणे हुत्था-तए णं समणे भगवं महावीरे तेणं अणुत्तरेणं आभोइएणं नाणदंसणेणं अप्पणो निक्खमणकालं आभोएइ, आभोएत्ता चिचा हिरनं, चिचा सुव्वन्नं, चिचा धणं, चिच्चा रज, चिच्चा रहूं, एवं बलं-वाहणंकोसं-कोट्ठागारं, चित्रा पुरं, चिया अंतेउरं, चिच्चा जणवयं, चिचा विउलघणकणगरयणमणि-मोत्तियसंखसिलप्पवालरत्तरणमाइयं संतसारसावइजं, विच्छड्डइत्ता, विगोवइत्ता दाणं दायारेहिं परिभाइत्ता, दाणं दाइयाणं परिभाइत्ता / / 112 / / 'पुव्यि पिणं समणस्स भगवओ महावीरस्स' इदं पदं 'गिहत्थधम्माओ' इत्यस्मादने योज्यं, श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य 'माणुस्सगाओ गिहत्थधम्माओ' मनुष्ययोग्यात् एवंविधात् गृहस्थधर्मात् गृहव्यवहारात् पूर्वमपि 'अणुत्तरे आभोइए अनुपममाभागे उपभोगः सप्रयोजनं यस्य तत् आभोगिकम् 'अप्पडिवाइनाणदंसणे हुत्था' अप्रतिपाति आकेव-लोत्पत्तेः स्थिरम् एवंविधं ज्ञानदर्शनम् अवधिज्ञानम्, अविधदर्शनं च अभूत् 'तएणं समणे भगवं महावीरे' ततः श्रमणो भगवान् महावीरः तेणं अणुत्तरेणं आभोइएण' तेन अनुत्तरेण आभोगिकन'नाणदंसणेणं ज्ञानदर्शनेन 'अप्पणो निक्खमणकालं' आत्मनो दीक्षाकालं आभोएइ' आभोगयति विलोकयति 'आभोइत्ता' आभोग्य च' चिचा हिरण्ण' त्यक्त्वा हिरण्यं रूप्यं 'चिचा
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________________ वीर 1366 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वीर सुवण्णं त्यक्त्वा सुवर्ण 'चिचा धणं त्यक्त्वा धनं 'चिचा रज्ज' त्यक्त्वा राज्यं चिचा रट्ठ' त्यक्त्वा राष्ट्र देशम् ‘एवं बलं वाहणं कोस कोट्ठागार' एवं सैन्य वाहनं कोश कोष्ठागारं 'चिचा पुरं' त्यक्त्वा नगरं 'चिचा अंतेउर' त्यक्त्वा अन्तःपुरं 'चिचा जणवयं त्यक्त्वा जनपदं देशवासिलोक 'चिच्चा विपुलधणकण-गरयणमणिमोत्तियसंखसिलप्पयालरत्तरयणमाइअं' त्यक्त्वा विपुलधनकनकरत्नमणिमौक्तिकशखशिलाप्रबालरक्तरत्नप्रमुखं 'संतसारसावइज्ज़' सत्सारस्थापतेयम्, एतत् सर्वं त्यक्त्वा, पुनः कि कृत्वा 'विच्छडुइत्ता' विच्छ विशेषेण त्यक्त्वा, पुनः किं कृत्वा 'विगोवइत्ता' विगोप्य तदेव गुप्त सद्दानातिशयात् प्रकटीकृत्येति भावः, अथवा-दिगोप्य कुत्सनीयमेतदस्थिरत्वा-दित्युक्त्वा, पुनः किं कृत्वा दाणं दायारेहिं परिभाइत्ता' दीयते इति दानं धनं, तत् दायाय दानार्थमाछन्तिआगच्छन्तीति दायारा याचकास्तेभ्यः परिभाज्य विभागैर्दत्त्वा, यद्वा-परिभाव्य-आलोच्य इदममुकस्य देयम् इदमनुकस्यैवं विचार्येत्यर्थः, पुनः किं कृत्वा 'दाणं दाइयाणं परिभाइत्ता' दानं धनं दायिका गोत्रिकास्तेभ्यः परिभाज्य विभागशो दत्चेत्यर्थः, अनेन वेण च वार्षिकं दानं सूचितं तचैवम्-भगवान् दीक्षादिवसात् प्राग्वर्षेऽवशिष्यमाणे प्राप्तकाले वार्षिकं दानं दातुं प्रवर्तते, सूर्योदयादारभ्य कल्पवर्तवलापर्यन्तमष्टलक्षाधिकाम् एका कोटि सौवर्णिकानां प्रतिदिन ददाति, वृणुत वरं वृणुत वरम् इत्युद्घोषणापूर्वकं यो यन् मार्गयति तस्मै नदीयते, तच सर्व देवाः शक्रादेशेन पूरयन्ति, एवं च वर्षेण यद्धनं दत्त तदुच्यते“तिन्नेव य कोडिसया, अट्ठासीई य हुंति कोडीओ। आसीइंच सहस्सं, एयं संवच्छरे दिन्नं / / 1 / / " / तथा च कवयः"तत्तद्वार्षिकदानवर्षविरमदारिद्रयदावानलाः, सद्यः सज्जितवाजिराजिवसनालङ्कारदुर्लक्ष्यभाः। सम्प्राप्ताः स्वगृहेऽर्थिनः सशपथं प्रत्याययन्तोऽङ्गनाः, स्वामिन् ! (स्वीय षिद्जनैर्निरुद्धहसितैः के यूयमित्यूचिरे।१।" कल्प०१ अधि० 5 क्षण। (16) अधुना निश्चक्रमणद्वारम्मणपरिणामों अकंतो, अभिनिक्खमणम्मि जिणवरिंदेण। देवेहिं देवीहि य, समततो वत्थयं गयणं / / मनः परिणामश्च कृतः 'अभिनिक्खमणम्मि' अभिनिष्क्रमणविषयो जिनवरेन्द्रेण, तावत् किं संजातमित्याह-देवैर्देवीभिश्च समन्ततः सर्वासु दिक्षु सर्वमवस्तृतं व्याप्तं गगनम्। भवणवइवाणमंतर-जोइसवासी विमाणवासीय। धरणियले गयणयले, विजुजोओ कओ खिप्पं // यैर्देवैर्गगनं व्याप्तं ते खल्वमी वर्तन्ते-भवनपतयश्च व्यन्तराश्च ज्योतिवासिनश्चेति द्वन्द्वः समासः, तथा विमानवासिनश्च अमीभिरागच्छद्रि धरणितले गगनतले च विद्युत् उद्योतो विधुदुद्योतः कृतः क्षिप्रंशीघ्रम् जाव य कुंडग्गामो, जाव य देवाण भवण आवासा। देवेहिं देवीहि य, अविरहियं संचरंतेहिं / / यावत्कुण्डग्रामो यावच देवानां भवनाऽऽवासाः अत्रान्तरे गगनतल धरणितलं च देवैर्देवीभिश्च अविरहितं व्याप्त संचरद्भिः। एतत् सामान्येनोक्त विशेषप्रक्रिया त्वेवं-यदा भगवान् स्वामी लोकान्तिकदेवैः संबोधितस्तदा नन्दिवर्द्धनप्रमुख-स्वजनवर्गसमीपमुपागतवान् उपागत्य चैवमवादीत्इच्छामि युष्मदनुज्ञातः प्रव्रज्यां ग्रहीतुमिति। आ० म०१ अ०! तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे जे से हेमंताणं पढमे मासे, पढमे पक्खे, मग्गसिरबहुले तस्स णं मग्गसिरवबहुलस्स दसमीपक्खेणं पाईणगामिणीए छायाए पोरिसीए अभिनिविट्ठाए पमाणत्ताए, सुव्वएणं दिवसेणं विजएणं मुहुत्तेणं चंदप्पभाए सिबिआए सदेवमणुआसुराए परिसाए समणुगम्ममाणमग्गे संखियचक्किय-लंगलिअमुहमंगलिअबद्धमाणपूसमाणघंटियगणेहिं, ताहिं इट्ठाहिं० जाव वग्गूहिं अभिणंदमाणा य अमिथुव्वमाणा य एवं वयासी-||११३|| "जय जय नंदा, जय जय भद्दा, भदं ते, अभग्गेहिं नाणदंसणचरित्तेहिं अजियाई जिणाहि इंदियाइं, जिअंच पालेहि समणधम्मं, जियविग्घोवियवसाहि तं देवसिद्धिमज्झे, निहणाहि रागद्दोसमल्ले तवेणं धिइधणिअबद्धकच्छे, महाहि अट्ठकम्मसत्तू झाणेणं उत्तमेणं, सुक्केणं, अप्पमत्ते हराहि आराहणपडागं च वीर ! तेलुक्करंगमज्झे, पावयवितिमिरमणुत्तरं केवलवरनाणं, गच्छय मुक्खं परं पयं जिणवरोवइटेण मग्गेण अकुडिलेण हंता परीसहचमु,जय जय खत्तिअवरवसहा, बहूई दिवसाई बहूई पक्खाई बहूई मासाई बहूई उऊई बहूई अयणाई बहूई संवच्छराई, अभीए परीसहोवसग्गाणं खातिखमे भयभेरवाणं, धम्मे ते अविग्धं भवउ'' त्ति कटु जय जय सदं पउंजंति॥११४॥ तएणं समणे भगवं महावीरे नयणमालासहस्सेहिं पिच्छिज्जमाणे पिच्छिजमाणे, वयणमालासहस्सेहिं अमिथुप्वमाणे अमिथुव्वमाणे, हिययमालासहस्सेहिं उन्नंदिज्जामाणे उन्नंदिजमाणे, मणोरहमालासहस्सेहिं विच्छिप्पमाणे विच्छिप्पमाणे, कंतिरूवगुणेहिं, पत्थिज्जमाणे पत्थिज्जमाणे, अंगुलिमालासहस्सेहिं दाइजमाणे दाइजमाणे दाहिणहत्थेणं बहूणं नरनारीसहस्साणं अंजलिमालासहस्साइं पडिच्छमाणे पडिच्छमाणे, भवणपतिसहस्साई समइक्कमाणे समइकमाणे तंतीतलतालतुडियगीयवाइअरवेणं महुरेण य मणहरेणं जयजयसघोसमीसिएणं मंजुमंजुणा घोसेण य पडिबुज्झमाणे पडिबुज्झमाणे सव्विड्डीए सव्वजुईए सव्वबलेणं सव्ववाहणेणं सव्वसमुदएणं सव्वायरेणं सवविभूइए सव्वविभूसाइ सव्वसंभमेणं सव्वसंगमेणं सव्वपगइएहिं सव्वनाडएहिं सव्वतालायरेहिं सव्वावरोहेणं सवपुप्फगंधमल्लालंकारविभूसाए सव्वतुडियसहसन्निनाएणं मह
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________________ वीर १३६७-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वीर या इवीए महया जुईए महया बलेणं महया वाहणेणं महया समुदएणं महया वरतुडियजमगसमगपवाइएणं संखपणवपड हभे रिझल्लरिखरमुहिहुडुक्कदुंदुहिनिग्घोसनाइयरवेणं कुंडपुरं नगरं मझं मज्झेणं निग्गच्छइ निग्गच्छित्ता जेणेव नायसंडवणे उज्जाणे जेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवागच्छइ / / 11 / / तेणेव उवागच्छित्ता, असोगवरपायवस्स अहे सीयं ठावेइ, ठावेत्ता, सीयाओ पचोरुहइ, पच्चोरुहित्ता सयमेव आभरणमल्लालंकारं ओमुअइ, ओमुइत्ता, सयमेव पंचमुट्ठियं लोअं करेइ, करित्ता छटेणं भत्तेणं अयाणएणं हत्थुत्तराहिं नक्खत्तेणं चंदेणं जोगमुवागएणं एगं देवदूसमादाय एगे अबीए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारिअंपव्वइए।११६|| 'तेण कालेणं' तस्मिन् काले 'तेणं संमएण' तस्मिन् समये 'समणे भगवं महावीरे' श्रमणो भगवान् महावीरः 'जे सेहेमंताणं' योऽसौ शीतकालस्य 'पढमे मासे पढमे पक्खे' प्रथमो मासः प्रथमः पक्षः 'मग्गसिरबहुले' मार्गशीर्षमासस्य कृष्णपक्षः 'तस्सणं मग्गसिरबहुलस्स' तस्स मार्गशीर्षबहुलस्य दसमीपक्खेणं' दशमीदिवसे पाईणगामिणीए छायाए' पूर्वदिग्गामिन्या छायायां 'पोरिसीए अभिनिविट्ठाए' पौरुष्यां पाश्चात्यपौरुष्यामभिनिवृत्तायां जातायां 'पमाणपत्ताए' प्रमाणप्राप्तायां, न तुन्यूनाधिकायां 'सुटवएणं दिवसे' सुव्रताख्ये दिवसे विजएणं मुहुत्तेण' विजयाख्ये मुहूर्ते 'चंदप्पभाए सिविआए' चन्द्रप्रभायां पूर्वोक्तायां शिबिकायां कृतषष्ठतथाः विशुद्ध्यमानलेश्याकः पूर्वाभिमुखः सिंहासने निषीदति, शिरिकारूढस्य च प्रभोदक्षिणतः कुलमहत्तरिका हंसलक्षण पटशाटकमादार, वामपाश्र्ये च प्रभोरम्बधात्री दीक्षोपकरणमादाय पृष्ठ चैका वरतरुणी स्फारशृङ्गारा धवलच्छत्रहस्ता, ईशानकोणे चैको पूर्णकलशहस्ता, अग्निकोणे चैका मणिमयतालवृन्तहस्ता भद्रासने निषीदति; ततः श्रीनन्दिनृपादिष्टाः पुरुषाःयावत् शिबिकामुत्पाटयन्ति, तावत् शक्रो दाक्षिणात्यामुपनी बाहाम्. ईशानेन्द्र औत्तराहामुपरितनी बाहा, चमरेन्द्रो दाक्षिणात्यामधस्तनी बाहा, बलीन्द्र औत्तराहाम् अधस्तनीं बाहां, शेषाश्च भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकेन्द्राश्वश्चलकुण्डलाद्याभरणकिरणरमणीयाः पञ्चवर्णपुष्पवृष्टिं कुर्वन्तो, दुन्दुभीस्ताडयन्तो यथार्ह शिबि-कामुत्पाटयन्ति। ततः शक्रेशानौ ता बाहां त्यक्त्वा भगवतश्चामराणि वीजयतः, तदा च भगवति शिबिकारूढे प्रस्थिते सति शरदि पद्मसर इव, पुष्पितम् अतसीवनमिव, कर्णिकावनमिय, चम्पकवनमिव, तिलकवनमिव, रमणीयं गगनतलं सुरवरैरभूत, किञ्च-निरन्तर वाद्यमानभम्भाभेरीमृदङ्ग दुन्दुभिशखाद्यनेकवाद्यध्वनिर्गगनतले भूतले च प्रससार। तन्नादेन च नगरवासिन्यस्त्यतस्वस्वकार्या नार्यः समागच्छन्त्यो विविधचेष्टाभिर्जनान् विस्माययन्ति स्म। (कल्प०) (इति'कोउयदंसण' शब्दे तृतीयभागे 670 पृष्ठे गतम्।) इत्थं नागरनागरीनिरीक्ष्यमाणविभवप्रकर्षस्य भगवतः पुरतः प्रथमतो रत्नमयान्यष्टौ मङ्गलानि क्रमेण प्रस्थितानि, तद्यथा-स्वस्तिकः 1 श्रीवत्सो 2 नन्द्यावर्तो 3 वर्द्धमानकं 4 भद्रासनं 5 कलशो 6 मत्स्ययुग्म 7 दर्पणश्च 8 / / ततः क्रमेण पूर्णकलशभृङ्गारचामराणि, ततो महती वैजयन्ती, ततश्छत्रं, ततो मणिस्वर्णमयं सपादपीढं, सिंहासनं, ततोऽष्टशतमारोहरहितानां वरकुञ्जरतुरगाणा. ततस्तावन्तो घण्टापताकाभिरामाः शस्त्रपूर्णा रथाः, ततस्तावन्तो वरपुरुषाः ततः क्रमेण हय 1 गज 2 रथ 3 पदात्यनीकानि 4 ततो लघुपताकासहस्रपरिमण्डितः सहसयोजनोचो महेन्द्रध्वजः, ततः खड्गग्राहाः, कुन्तग्राहाः, पीठफलकग्राहाः, ततो हासकारकाः, नर्तनकारकाः कान्दर्पिका जयजयशब्द प्रयुञ्जानास्तदनन्तरं बहव उग्रा भोगा राजन्याः क्षत्रियास्तलयरा माइम्बिकाः कौटुम्बिकाः श्रेष्ठिनः, सार्थवाहाः, देवा देव्यश्च स्वामिनः पुरतः प्रस्थिताः, तदनन्तरं सदेवमणुआसुराए देवमनुजाऽसुरसहितया 'परिसाए' स्वर्गमर्त्यपातालवासिन्या पर्षदा 'समणुगम्ममाण' सम्यम् अनुगम्यमानं 'मग्गे' अग्रतः 'संखियं शंखिकाः शंखवादकाः 'चक्किय' चाक्रि-काश्चक्र प्रहरणधारिणः 'लंगलिय' लाङ्गलिका गलावलम्बितसुवर्णादिमयलाङ्गलाकारधारिणो भटविशेषाः। 'मुहमंगलिय' मुखे प्रियवक्तारश्चाटुकारिण इत्यर्थः / 'वद्धमाण' वर्द्धमानाः स्कन्धारोपितपुरुषाः पुरुषाः 'पूसमाण' पुष्यमाणा मागधाः 'घंटियगणेहिं' घण्ट्या चरन्तीतिघाण्टिकाः राउलिया' इति लोके प्रसिद्धाः, एतेषां गणैः परिवृत च भगवन्तं प्रक्रमात् कुलमहत्तरादयः स्वजनाः 'ताहिं इठ्ठाहिं० जाव वग्गूहि' ताभिरिष्टादिविशेषणवि शिष्टाभिर्वाग्भिः 'अभिनंदमाणा य अभिथुप्वमाणाय' अभिनन्दन्तः अभिष्टुवन्तश्च एवं वयासी' एवमवादिषुः 1 // 113 / / जय जय नंदा' जय जयवान् भव, हे समृद्धिमन् ! 'जय जय भद्दा भद्द ते' जय जयवान् भव, हे भद्रा भद्रकारक! ते-तुभ्यं भद्रमस्तु। किश्च- 'अभग्गेहिं नाणदंसणचरित्तेहिं अभग्नैर्निरतिचारैनिदर्शनचारित्रैः 'अजियाई जिणाहि इंदियाई अजितानि इन्द्रियाणि जय-वशीकुरु 'जियं च पालेहि समणधम्म' जितं च स्ववशीकृतं पालय श्रमणधर्म 'जियविग्यो वि अवसाहि तं देवसिद्धिमज्झे' जितविनोऽपि च हे देव ! प्रभो! त्वं वस, कुत्र सिद्धिमध्ये, अत्र सिद्धिशब्देन श्रमणधर्मस्य वशीकारस्तस्य मध्य लक्षणया प्रकर्षस्तत्र त्वं निरन्तरायं तिष्ठेत्यर्थः / निहणाहि रागदोसमल्ले' रागद्वेषमल्लौ निजहि-निगृहाण तयोर्निग्रहं कुरु इत्यर्थः, केन 'तवेण' तपसा, बाह्याभ्यन्तरेण, तथा 'धिइधणियबद्धकच्छे' धृतो संतोषेधैर्ये वा अत्यन्तं बद्धकक्षः सन् 'मद्दाहि अट्ठकम्मसत्तू' अष्ट कर्मशत्रून् मर्दय, पर केनेत्याह- 'झाणेण उत्तमेणं सुक्केणं ध्यानेन उत्तमेन शुक्लेनेत्यर्थः, तथा। अप्पमत्तो हराहि आराहणपडागंच वीर तेलुक्क रंगमज्झे हे वीर ! अप्रमत्तः सन् त्रैलोक्यम् एव यो रङ्गो मल्लयुद्धमण्डपस्तस्य मध्ये आराधनपताकामाहरगृहाण / यथा-कश्चिन्मल्लः प्रतिमल्लं विजित्यं जयपताकां गृह्णाति, तथा त्वं कर्मशत्रून् विजित्य आराधनपताकां गृहाण इति भावः 'पावय वितिमिरमणुत्तर केवलवरनाणं प्राप्नुहि च वितिमिर ति
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________________ वीर 1368 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वीर मिररहितमुनत्तरमनुपम केवलवरज्ञान, 'गच्छय मुक्खं पर' पय' गच्द च मोक्षं परमं पदं, केन 'जिणवरोवइटेण मन्गेण अकुडिलेण' जिनवरोपदिष्टन अकुटिले न मार्गेण, अथ किं कृत्वेत्याह- 'हता परीसहचमु' हत्वा का ? परीषहसेना 'जय जय खत्तियवरवसहा' जय जय क्षत्रियवरवृषभ ! 'बहूई दिवसाई यहून दिवसान ‘बहूई पक्खाई' बहून पक्षान् 'बहूई मासाई' पहुन् मासान 'बहूइ उऊई' बहून् ऋतून् मासद्वयप्रमितान् 'बहूई अयणाई' 6 अयनानि, पाण्मासिकानि दक्षिणोत्तरायणलक्षणानि 'बहूई सबसई बहून संवत्सरान् यावत् 'अभीए परिसहोवसग्गाणं' परीषहोरो भीतः सन् 'खंत्तिखमे भयभेरवाण' भयभैरवाणां विद्युत्सिहायिकीन मामा क्षमो, न त्वसामर्थ्यादिना, एवंविधः सन् त्वं जय, अपरं / म त अविग्धं भवउ त्ति कटु' तेतव धर्म अविन-विघ्राभानानि कृत्वा इत्युक्त्वा 'जय जय सदं पउंजति' जयजयशब्दं HATi114 // 'तए ण समणे भगवं महावीरे' ततः श्रमणो भगवान् महापौर : क्षत्रियकुण्डग्रामनगरमध्येन भूत्वा यत्र ज्ञातखण्डवनं. यत्राशो कपादपस्तत्र उपागच्छतीति योजना / अथ किंविशिष्टः सन् यणमालासहस्सेहिं नयनमालासहस्त्रैः 'पिच्छिज्जमाणे पिच्छिज्जमाणे' प्रेक्ष्यनाणः प्रेक्ष्यमाणः, पुनः पुनः विलोक्यमानसौन्दर्यः, पुनः किविशि० 'वयणमालासहस्सेहि' वदनमालासहसैः श्रेणिस्थितलोकानां मुखप क्ति सहरीः 'अभिथुव्वमाणे अभिथुव्वमाणे पुनः पुनः अभिष्ट्रयभानः, पुनः किंविशि० हिअयमालासहरसेहिं हृदयमालासहरौः 'उन्नंदिञ्जमाणे उन्नंदिजमाणे' उन्नन्धमानः 2, जयतु जीवतु इत्यादि ध्यानेन समृद्धि प्राप्यमाणः, पुनःकिंविशि, 'मणोरहमालासहस्सेहिं' मनोरथमालासहौः 'विच्छिप्पमाणे 2 विशेषेण स्पृश्यमानः, वयमेतस्य सेवका अपि भवामस्तदापि वरमिति चिन्त्यमानः, पुनः किंवि०- 'कंतिरूवगुणेहि' कान्तिरूपगुणैः पत्थिज्जमाणे पथिजमाणे' प्रार्थ्यमानः प्रार्थ्यमानः स्वामित्वेनभर्तृत्वेन वाञ्छ्यमान इत्यर्थः, पुनः किंवि० 'अंगुलिमालासहस्सेहि अङ्गुलिमालासहरीः 'दाहिणहत्थेणं बहूण नरनारीसहस्साणं' दक्षिणहस्तेन बहूनां नरनारीसहस्राणाम् 'अंजलिमालासहस्साई अञ्जलिमालासहस्राणि नमस्कारन् ‘पडिच्छमाणे पडिच्छमाण' प्रतीच्छन् प्रतीच्छन् गृह्णन्, पुनः किंवि०- 'भवणपंतिसहस्साई' भवनपक्तिसहस्राणि 'समइक्कमाणे समइक्कमाणे' समतिक्रामन् समतिक्रामन्, पुनः किंवि० तंतीतलतालतुडियगीयवाइयरवेण तन्त्रीवीणा, तलतालाः- हस्ततालाः, त्रुटितानि वादित्राणि, गीत-गानं, वादित-वादन, तेषां रवेण शब्देन, पुनः कीदृशेन- 'महुरेण य मणहरेणं' मधुरेण च मनोहरेण, पुनः कीदृशेन-'जयजयसद्दघोसमीसिएणं' जयजयशब्दस्ययो घोष उद्घोषण, तेन मिश्रितेन, पुनः कीदृशेन‘मंजुमंजुणा घोरोण य' मञ्जुमञ्जुना घोषेण च, अतिकोमलेन जनस्वरेण 'पटिबुज्झमाणे पडियुज्झमाणे' सावधानीभवन् सावधानीभवन् 'सव्विड्डीए' सा समस्तच्छत्रादिराजचिह्नरूपया 'सव्वजुईए' सर्वद्युत्या आभरणादिसम्बन्धिन्या कान्त्या 'सव्ववलेणं' सर्ववलेन हस्तितुरगादिरूपकटकेन- 'सव्ववाहणेण' सर्ववाहनेन करभवेसरशिबिकादिरूपेण 'सव्वसमुदएणं' सर्वसमुदयेन महाजनमेलापकेन 'सव्वायरेण' सर्वादरेण सर्वाचित्यकरणेन 'सव्वविभूइए' सर्वविभूत्या सर्वसंपदा 'सव्वविभूसाए 'सर्वविभूषया समस्तशोभया 'सव्यसंभमेणं' सर्वसम्भ्रमेण प्रमोदजनितौत्सुक्येन 'सव्वसंगमेण' सर्वसङ्गमेन सर्वस्वजनमेलापकेन 'सव्वपगइपहि' सर्वप्रकृतिभिः, अष्टादशभिर्निगमादिभिः नगरवास्तव्यप्रजाभिः 'सव्वनाडएहिं' सर्वनाटकैः सव्वतालायरेहि' सर्वतालाचरैः 'सव्वावरोहण' सर्वावरोधेन सर्वान्तः पुरेण 'सव्वपुप्फगधमल्लालंकारविभूसाए' सर्वपुष्पगन्धमाल्यालङ्कारविभूषया प्रतीतया सव्वतुडियसद्दसण्णिनाएण' सर्वत्रुटितशब्दानां यः शब्दः सनिनादश्च प्रतिरवस्तेन, सर्वत्वं च स्तोकानां समुदाये स्तोकैरपि स्यात्तत आह- 'महया इडोए' महत्या ऋद्ध्या महया जुईए' महत्या धुत्या महया बलेण' महता बलेन महया समुदएणं' महता समुदयेन 'महया वरतुडियजमगसमगप्पवाइएण' महता उच्चैस्तरेण वरत्रुटितानि प्रधानवादित्राणि तेषां 'जमग समग' समकालं प्रवादन यत्र एवंविधेन 'संखपणवपडहभेरीझल्लरीखरमुहिहुडुक्कदुहिनिग्घोसनाइयरवेणं शंख:-प्रतीतः, पणवः-मृत्पटहः, पटहः-काष्ठपटहः, भेरी-ढक्का, झल्लरी-प्रतीता, खरमुखी काहला, हुडुक्कः त्रिवलितुल्यवाद्यविशेषः दुन्दुर्भिर्देववाद्यं, तेषां निर्घोषः, तस्य नादितः प्रतिशब्दः तदूपेण रखेण-शब्देन युक्तम्, एवंरूपाया ऋद्धया व्रताय वजन्त भगवन्तं पृष्ठतश्वतुरङ्गसैन्यपरिकलितो ललितच्छत्रचामरविराजितो नन्दिवर्धननृपो गच्छति। पूर्वोक्ताडम्बरेण युक्तो भगवान 'कुंडपुर नगर मझ मज्झेण' क्षत्रियकुण्डनगरस्य मध्यभागेन 'निग्गच्छइ' निर्गच्छति 'निगच्छित्ता' निर्गत्य 'जेणेव नायसंडवणे उजाणे' यत्रैव ज्ञातखण्डवनम् इति नामकम् उद्यानमस्ति 'जेणेव असोगवरपायवे' यत्रेव अशोकनामा वरपादपः श्रेष्ठवृक्षः 'तेणेव उवागच्छइ तत्रैव उपागच्छति॥११५।। 'उवागच्छित्ता' उपागत्य 'असोगवरपायवस्स' अशोकवरपादपस्य'अहे सीय ठावेइ' अधस्तात् शिबिकां स्थापयति'ठावित्ता' स्थापयित्वा 'सीयाओ पचोरुहइ' शिबिकातः प्रत्यवतरति पचोरुहिता' प्रत्यवतीर्य 'सयमेव आभरणमल्लालङ्कारं ओमुयइ' स्वयमेव आभरणमाल्यालङ्कारान् उत्तारयति 'ओमुइत्ता' उत्तार्य, तचैवम- 'अडगुलीभ्यश्च मुद्रावलि पाणितो, वीरवलयं भुजाभ्यां झटित्यङ्गदे / हारमथ कण्ठतः कर्णतः कुण्डले, मस्तकान्मुकुटमुन्मुञ्चति श्रीजिनः / / 1 / / ' तानि चाभरणानि कुलमहत्तरिका हंसलक्षणपट्टशाटकेन गृह्णाति, गृहीत्वा च भगवन्तमेवमवादीत्- "इक्खागकुलसमुप्पन्ने सिणं तुम जाया, कासवगुत्ते सि णं तुम जाया. उदितोदितनाय-कुलनहयलमिअङ्कसिद्धत्थजचखत्तिअसुए सिण तुम जाया, जचखत्तिआणीए तिसलाए सुए सिणं तुमं जाया, देविन्दनरिन्दपहिअकित्ती सिणंतुमंजाया. एत्थ सिग्घं चंकमिअव्वं, गरु आलम्बेअव्वं असिधारामहव्वयंचरिअव्वंजाया, परिकमिअव्वंजाया, अस्सिचणं अ 21
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________________ वीर 1366 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वीर टेनोपमाइअव्वं' इत्यादि उक्त्वा वन्दित्वा नमस्कृत्य एकतोऽपक्रामति। ततश्च भगवान् एकया मुष्ट्या कूर्य, चतुसृभिश्च ताभिः शिरोजान्, एवं 'सयभेव पंचमुट्टियं लोयं करेइ' स्वयमेव पञ्चमौष्टिकं लाचं करोति / (कल्प०१ अधि०५ क्षणा) (20) शक्रश्च देवराजो हंसलक्षणेन पटशाटकेन केशान् प्रतीच्छति भगवतामुपरि देवदूष्यवस्त्र च स्थापयतिजिणवरमणुन्नवित्ता, अंजणघणरुयगविमलसंकासा। केसाखणेण नीया, खीरसरिसनामयं उदहिं / / 107 / / शक्रेण जिनवरं भगवन्तं वर्द्धमानस्वामिनमनुज्ञाप्य अञ्जनं प्रसिद्ध धनो-मेघः रुचकः- कृष्णमणिविशेषः तेषामिव विमलः संकाशःछायाविशेषो येषां ते अञ्जनघनरचकविमलसंकाशाः, के ते इत्याहकेशाः किं क्षणेन नीताः क्षीरसदृशनामानमुदधिं; क्षीरोदधिमित्यर्थः / आ०म०१ अ०। 'करित्ता तथा कृत्वा च 'छट्टेणं भत्तेण अपाणएणं' षष्ठेन भक्तेन अपानकेन हत्थुत्तराहिं नक्खतेण चंदण जोगमुवागएणं' उत्तराफाल्गुन्या चन्द्रयोगे साते एगं देवदूसमादाय' शक्रेण वामस्कन्धे स्थापितम् एकं देवदूष्यमादाय एगे' एको रागद्वेषसहायविरहात्, 'अबीए' अद्वितीयः, यथाहि ऋषभश्चतुःसहस्य राज्ञा, मल्लिपावो त्रिभिस्त्रिभिः शतैर्वासुपूज्यः षट्शत्या शेषाश्च सहस्रेण सह प्रव्रजितास्तथा भगवान् न केनापि सहेत्यतः अद्वितीयः, 'मुंडे भवित्ता' द्रव्यतः शिर:कूर्चलोचनेन भावतः क्रोधाद्यपनयनेन मुण्डो भूत्वा अगाराओ अणगारियंपव्वइए' अगारात्गृहात निष्क्रम्य अनगारिता-साधुता प्रव्रजितः प्रतिपन्नः, तद्विधिश्वायमएवं पूर्वोक्तयकारेण कृतपञ्चमौष्टिकलोचो भगवान् यदा सामायिकम् उच्चरितुवाञ्छति तदा शक्रः सकलमपि वाद्यकोलाहलं निवारयति, ततः प्रभुः 'नमो सिद्धाण'' इति कथनपूर्वक 'करेमि सामाइअंसव्वं सावर्ज जोग पचक्खामी" त्यादि उच्चरतिनतु भंते ति भणति, तथाकल्पत्वात्। कल्प०१ अधि० 5 क्षण। चारित्रप्रतिपत्तिकाले स्वभावतो भुवनभूषणस्य भगवतः शक्रो देवदृष्य वस्त्रमुपनीतवान्। अत्रान्तरे कथानकम्- 'एगेण देवदूसेक पव्वइए तं जाहे असे करेइ एत्थंतरापि उवयं सो धिज्जाइतो उवहितो साय दाणकाले कहिं पियवागतेअल्लो पच्छा आगतो भञ्जाए अवाडिते सामिणा एवं दाणं दत्तं तुम पुण कहिं विहिंसिज्जाहिपुण एत्थंतरे विलभेजासि. ततो सो आगतो भणइ-जहा मम, सामी न किंचितुब्भेहिं दिन्न इयाणि पि देहि त्ति ताहे सामिणा तस्स दूसस्स अद्ध दिन्नं, सव्वं परिवत्तं ति अन्न मेनऽस्थि तेण तुन्नागरस उवणीयं, जहा एयस्स दसिया बंधाहि तेण पुच्छितो इमं कतो लद्ध, सो भणइ-भगवता दिन्नं, तुन्नागो भाइ--तंगि से अद्ध आणेहि, जया पडिहियं भयवतो अंसातो तो णं अहं तुन्नामि ताइ लक्खं मोल्लं भविस्सइ त्ति ता तुज्झ वि अखं, मज्झवि अद्ध पडिवन्नं ताहे पउलग्गित्तो सेसमुवरि भणीहामि। (21) तव्य भगवतश्चारित्रप्रतिपत्तिलमनन्तरमेवमनःपर्यायज्ञानमुदपादि सर्वतीर्थकृता वाऽयं क्रमो यत आह (भाष्यकारः)तिहिं नाणेहिँ समग्गा, तित्थयरा जाव होंति गिहवासे। पडिवन्नम्मि चरित्ते, चउनाणी जाव छउमत्था॥११०।। त्रिभिज्ञानः-- मतिश्रुतावधिभिः समग्राः- सम्पूर्णास्तीर्थकरा यावद् गृहावासे भवन्ति वसन्तीत्यर्थः,प्रतिपन्ने पुनश्चारित्रे चतुनिनो भवन्ति, कियन्तं कालं यावदित्याह-यावच्छयस्थास्तावचतुर्जानिनः। आ०म० १अ०। एवं च चारित्रग्रहणानन्तरमेव भगवतश्चतुर्थज्ञानमुत्पद्यते ततः शक्रादयो देवा भगवन्तं वन्दित्वा नन्दीश्वरयात्रां कृत्वा स्वस्व स्थानजग्मुः। कल्प० 1 अधि०५ क्षण / ततश्चतुनिो भगवान् बन्धुवर्गमापृच्छ्य च विहारार्थ प्रस्थितो' बन्धुवर्गोऽपि दृष्टिविषयं यावत् तत्र स्थित्वा"त्वया विना वीर ! कथं व्रजामो, गृहेऽधुना शून्यवनोपमाने, गोष्ठीसुखं केन सहाऽऽचरामो, भोक्ष्यामहे केन सहाऽथ बन्धो ! ||1|| सर्वेषु कार्येषु च वीरवीरे त्यामन्त्रणाद्दर्शनतस्तवाऽऽर्य !! प्रेमप्रकर्षादभजाम हर्ष, निराश्रयाश्वाथ कमाश्रयामः ||2|| अतिप्रियं बान्धवदर्शनं ते, सुधाञ्जनं भावि कदास्मदक्ष्णोः। नीरागचित्तोऽपि कदाचिदस्मान्, स्मरिष्यसि प्रौढगुणाभिराम ! ||3||" इत्यादि वदन् कष्टेन निर्वृत्य साश्रुलोचनः स्वगृहं जगाम। किञ्च-प्रभुर्दीक्षामहोत्सवे यद्देवैर्गोशीर्षचन्दनादिना पुष्पैश्च पूजितोऽभूत, साधिकमासचतुष्कं यावत् तदवस्थेन च गन्धेन आकृष्टा भ्रमरा आगत्य गाढ त्वचं दशन्ति, युवानश्च गन्धपुटी याचन्ते, मौनवति च भगवति रुष्टास्ते दुष्टानुपसर्गान-कुर्वन्ति, स्त्रियोऽपि भगवन्तम् अद्भुतरूपं तथा सुगन्धशरीरं च निरीक्ष्य कामपरवशा अनुकूलान् उपसर्गान् कुर्वन्ति, भगवाँस्तु निष्प्रकम्पः सर्व सहमानो विह-रति। तस्मिन् दिने च मुहूर्तावशेषे कुमारग्राम प्राप्तस्तत्र रात्रौ कायोत्सर्गेण स्थितः, इतश्च तत्र कश्चिद् गोपः सर्वं दिनं हले वृषान् वाहयित्वा सन्ध्यायां तान् प्रभुपायें मुक्त्वा गोदोहाय गृह गतः, वृषभास्तु चरितु गताः, स चागत्य प्रभुं पृष्टवान्- देवार्य ! क्व मे वृषाः ? अजल्पति च प्रभौ अयं न वेत्तीति वने विलोकितुंलग्नः, वृषास्तु रात्रिशेषे स्वयमेव प्रभुपार्श्वे आगताः, गोपोऽपि तत्रागतस्तान् दृष्ट्वा अहो ! जानताऽपि अनेन समग्रां रात्रिमहं भ्रामितः इति कोपात् सेहकमुत्पाट्य प्रहर्तुधावितः / इतश्च शक्रस्तं वृत्तान्तमवधिना ज्ञात्वा गोपं शिक्षितवान्। (22) अथ तत्र शक्रः प्रभुं विज्ञपयामास प्रभो ! तवोपसर्गा भूयांसः सन्ति, ततो द्वादश वर्ष यावत् वैयावृत्त्यनिमित्तं तवान्तिके तिष्ठामि, ततः प्रभुरवादीद्देवेन्द्र ! कदाप्येतन्न भूतं, न भवति न भविष्यति च / यत कस्यचिवेन्द्रस्य असुरेन्द्रस्य वा साहाय्येन तीर्थङ्कराः केवलज्ञानमुत्पाद-यन्ति, किन्तु-स्वपराक्रमेणैव केवलज्ञानमुत्पादयन्ति,
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________________ वीर १३७०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वीर ततः शक्रोऽपि मरणान्तोपसर्गवारणाय प्रभोर्मातृष्वरयं व्यन्तरं वैयावृत्त्य- पडिलोमा वा, ते उप्पन्ने सम्म सहइखमइ तितिक्खइ अहियाकर स्थापयित्वा त्रिदिवं जग्मिवान्। ततः प्रभुः प्रातः कोल्लाकसन्निवेशे | सेइ।११८॥ बहुलब्राह्मणगृहे मया सपात्रोधर्मः प्रज्ञापनीय इति प्रथमपारणां गृहस्थपात्रे 'समणे भगवं महावीरे 'श्रमणो भगवान महावीरः' साइरेगाइ परमानेन चकार, तदा च-चेलोत्क्षेपः (1) गन्धोदकवृष्टिः (2) दुन्दुभि दुवालसवासाई 'सातिरेकाणि द्वादश वर्षाणि यावत्' निच्च वोसलुकाए नादः (3) अहो दानमहो दानमित्युद्घोषणा (4) वसुधारावृष्टि (5) 'नित्य दीक्षाग्रहणादनु यावज्जीवं व्युत्सृष्टकायः' परिकर्मणावर्जनात् श्चेति पश्च दिव्यानि प्रादुर्भूतानि, एषु वसुधारास्वरूपं चेदम्-'' अद्धत्तेरस 'वियत्तदेहे' व्यक्तदेहः परीषहसहनात्, एवंविधः सन् प्रभुः 'जे केइ कोडी उक्कोसा तत्थ होइ वसुधारा / अद्धत्तेरस लक्खा, जहन्निआ होइ उवसग्गा उप्पजंति' ते केचित् उपसर्गा उत्पद्यन्ते, 'तं जहा' तद्यथा वसुहारा / / 1 / / " ततः प्रभुर्विहरन मोराकसन्निवेशे दूइज्जन्ततापसाश्रमे 'दिव्वा वा' दिव्याः देवकृताः 'माणुस्सा वा' मानुष्याः मनुष्यकृताः गतस्तत्र सिद्धार्थभूपमित्रः कुलपतिः प्रभुमुपस्थितः 'प्रभुणापि पूर्वाभ्या 'तिरिक्खजोणिआ वा' तैर्यग्योनिकाः तिर्यक कृताः 'अणुलोमा वा' सान्मिलनाय बाहू प्रसारितौ, तस्य प्रार्थनया च एका रात्रि तत्र स्थित्वा अनुकूलाः, भोगार्थ प्रार्थनादिकाः ‘पडिलोमावा' प्रतिकूलाः प्रतिलोमाः नीरागचित्तोऽपि तस्याग्रहेण तत्र चतुर्मासाऽवस्थानमङ्गीकृत्य अन्यतो ताडनादिकाः 'ते उप्पन्ने सम्म सहइ तान् उत्पन्नान् सम्यक् सहते विजहार। अष्टौ मासान् विहृत्य पुनर्वर्षार्थं तत्रागतः, आगत्य च कुलपति भयाऽभावेन 'खमइ' क्षमते क्रोधाभावेन तितिक्खइ' तितिक्षते, दैन्यासमर्पिते तृणकुटीरकेतस्थौ तत्र च बहिस्तृणाप्राप्त्या क्षुधिता गावोऽन्यै कर इव 'अहियारोहिते' अध्यासयति निश्चलतया // 118 // कल्प०१ स्तापसैः स्वस्वकुटीर-कान्निवारिताः सत्यः प्रभुभूषितं कुटीरं निःशङ्क अधि०६क्षण। खादन्ति, ततः कुटीरस्वामिना कुलपतेः पुरतो रावाः कृताः, कुलपतिर तओ णं समणे भगवं महावीरे इमं एयारू वे अभिग्गह प्यागत्य भगवन्तमुवाच-हे-वर्द्धमान ! पक्षिणोऽपि स्वनीडरक्षणे दक्षा अभिगिण्हित्ता वोसिट्ठचत्तदेहे दिवसे मुहत्तसेसे कम्मारगामं भवन्ति, त्वं तावत् राजपुत्रोऽपि स्वमाश्रयं रक्षितुम-शक्तोऽसि / ततः समणुपत्ते तओणं समणे भगवं महावीरे वोसिट्ठचत्तदेहे अणुत्तरेणं प्रभुर्मयि सति एषामप्रीतिरिति विचिन्त्याषाढशुक्लपूर्णि-माया आरभ्य आलएणं अणुत्तरेणं विहारेणं एवं संजमेणं पग्गहेणं संवरेणं तवेणं पक्षे अतिक्रान्त वर्षायामेव इमान् पञ्च अभिग्रहान् अभिगृह्य अस्थिक्ग्राम बंभचेरवासेणं खंतीए मुत्तीए समिइए गुत्तीए तुट्ठीए ठाणेणं कमेणं प्रति प्रस्थितः। अभिग्रहाश्चमे- 'नाप्रीतिमद्गृहे वासः, स्थेय प्रतिमया सदा सुचरियफलनिव्वाणमुत्तिमग्गे णं अप्पाणं भावेमाणे विहरइ ! एवं २।नगेहिविनयः कार्यो 3, मौनं 4 पाणौ च भोजनम् 5 / / 1 / / ' वा विहरमाणस्स जे केइ उवसग्गा समुप्पजंति- दिव्वा वा (23) वीरो दीक्षाकालात्कियदनन्तरमचेलो जातः माणुस्सा वा तिरिच्छिया वा ते सव्वे उवसग्गे समुप्पन्ने समाणे समणे भगवं महावीरे संवच्छरं साहियं मासं चीवरधारी अणाउले अव्वहिए अदीणमाणसे तिविहमणवयणकायगुत्ते सम्म हुत्था, तेणं परं अचेलए पाणिपडिग्गहिए / / 117 // सहइ खमइ तितिक्खइ अहियासेइ। (सू० 276x) आचा०२ 'समणे भगवं महावीरे' श्रमणो भगवान् महावीर: 'संवच्छरं साहियं श्रु०३ चू०। 'मास' साधिक-मासाधिकसंवत्सरं यावत् 'चीवरधारी हुत्था' चीवर- बहिआ य णायसंडे, आपुच्छित्ताण नायए सव्वे / धारी अभूत् 'तेणं परं अचेलए' तेन परं ततः उर्ध्व साधिकमासाधि- दिवसे मुहुत्तसेसे, कुमारगामं समणुपत्तो।।१११।। कवर्षादूर्ध्वं च अचेलकः 'पाणिपडिगहिए' पाणिपतद्ग्रहः करपात्र बहिर्धा चकुण्डपुरात् ज्ञातखण्डे उद्याने, आपृच्छ्य ज्ञातकान-स्वजनान् श्वाभवत्, तत्र अचेलकभवनं चैवम्- साधिकमासाधिकसंवत्सरादूर्ध्व सर्वान्- यथासन्निहितान्, तस्मात् निर्गतः, कर्मारग्रामगमनायेति विहरन् दक्षिणवाचालपुरासन्नसुवने वालुकानदीतटे कण्टके विलग्य वाक्यशेषः / तत्र च पथद्वयम्। तत्र च एको जलेन, अपरः स्थल्याम्, तत्र देवदूष्या? पतिते सति भगवान सिंहावलोकनेन तदद्राक्षीत्, ममत्वेनेति भगवान् स्थल्यां गतवान्, गच्छंश्च दिवसे मुहूर्त्तशेषे कारग्राम समनुप्राप्त केचित्, स्थण्डिलेऽस्थण्डिले वा पतितमिति विलोकनायेत्यन्ये, अस्म इति गाथार्थः / तत्र प्रतिमया स्थित इति। अत्रान्तरे- 'तत्थेगो गोवो, त्सन्ततेर्वस्त्रपात्रं सुलभं दुर्लभं वा भावीति विलोकनार्थमिति अपरे, सो दिवसं बइल्ले वाहित्ता गामसमीवं पत्तो, ताहे चिंतेइ एए गामसभीवे वृद्धास्तु कण्टके वस्त्रविलगनात् स्वशासनं कण्टकबहुलं भविष्यतीति चरंतु, अहं पिता गावीओ दुहामि, सोऽवि ताव अन्तो परिकम्म करेइ, विज्ञाय निर्लोभत्वात् तद्वस्त्रार्द्ध न जग्राहेति, ततः पितुर्मित्रेण ब्राह्मणेन तेऽवि बइल्ला अडवि चरन्ता पविट्ठा, सो गोवो निग्गओ, ताहे सामि गृहीतम्। अर्द्ध तु तस्यैव पूर्व प्रभुणा दत्तमभूत्। कल्प०१ अधि० 6 क्षण। पुच्छइ-कहिं बइल्ला ? ताहे सामी तुण्हिक्को अच्छइ, सो चिंतेइ-एस न (24) वीररयोपसर्गाः याणइ, तो मग्गिउं पवत्तो सवरत्तिं पि, तेऽवि बइल्ला सुचिर भमित्ता समणे भगवं महावीरे साइरेगाई दुवालसवासाइं निचं / गामसमीवमागया माणुसं दद्रूण रोमर्थता अच्छंति, ताहे सो आगओ, ते वोसट्ठकाए वियत्तदेहे जे केइ उवसग्गा उप्पजंति, तं जहा- पेच्छइ तत्थेव निविट्ठ, ताहे आसुरुत्तो एएण दामएण आहणामि, एएण दिव्वा वा, माणुस्सा वा, तिरिक्खजोणिआ वा, अणुलोमा वा, | मम एए हरिआ, पभाए घेत्तुण वचिहामि ति ताहे सक्को देवराया चिंतेइ-किं
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________________ वीर 1371 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वीर अज्ज सामी पढमदिवसे करेइ ? जाव पेच्छइ गोवं धावतं, ताहे सो तेण थमिओ, पच्छा आगओ, तंतजेति-दुरप्पा ! नयाणसि सिद्धत्थरायपुत्तो / एस पव्वइओ / एयम्मि अंतरे सिद्धत्थो सामिस्स माउसियापुत्तो बालतवोकम्मेणं वाणमंतरो जाएल्लओ, सो आगओ। ताहे सक्को भणइभगवं ! तुब्भ उवसग्गबहुलं, अहं बारस वरिसाणी तुभ वेयावचं करेमि। ताहे सामिणा भणिअं-न खलु देविंदा ! एवं भूअं वा (भव्वं वा भविस्सं वा)जण्णं अरहंतादेविंदाण वा असुरिंदाण वा निस्साए कटटु केवलनाणं उप्पाडेंति, सिद्धिं वा वचंति, अरहंता सरण उट्ठाणबल-विरियपुरिसकारपरकमेणं केवलनाणं उप्पाडेति। ताहे सक्केण सिद्धत्थो भण्णइ-एस तव नियल्लओ, पुणो य मम वयण-सामिस्स जो परं मारणंतिअंउवसगं करेइ तं वारेजसु, एवमस्तु, तेण पडिस्सुअंसको पडिगओ सिद्धत्थो ठिओ। तद्विवस सामिस्स छट्ठपारणयं, तओ भगवं विहरमाणो गओ कोल्लागसण्णिवेसे, तत्थय भिक्खट्ठा पविट्ठो बहुलमाहणगेणं, जेणामेव कुल्लाए सन्निवेसे बहुले माहणे / तेण महुघयसंजुत्तेण परमण्णेण पडिलाभिओ। तत्थ पंच दिव्वाई पाउन्भूयाई। अमुमेवार्थमुपसंहरन्नाहगोवनिमित्तं सक्क-स्स आगमो वागरेइ देविंदो। कोल्लाबहुले छट्ठ-स्स पारणे पॉयस वसुहारा / / 461 / / ताडनायोद्यतगोपनिमित्तं प्रयुक्तावधेः शक्रस्य देवराजस्य किम् ? | आगमनम् आगमः अभवत्, विनिवार्य च गोपं 'वागरेइ देविंदो' त्ति भगवन्तमभिवन्द्य, व्याकरोतिअभिधत्ते देवेन्द्रो-भगवन् ! तवाहं द्वादश वर्षाणि वैयावृत्त्यं करोमीत्यादि, वागरिंसु वा पाठान्तरं व्याकृतिवानिति भावार्थः, सिद्धार्थ वा तत्कालप्राप्त व्याकृतवान् देवेन्द्रः- भगवान् त्वया न मोक्तव्य इत्यादि / गते देवराजे भगवतोऽपि कोल्लाकसन्निवेशे बहुलो नाम ब्राह्मणः षष्ठस्य-तपोविशेषस्य पारणके, किम् ? 'पॉयस' इति पायसं समुपनीतवान्, वसुधारेति तद्गृहे वसुधारा पतितेति गाथाक्षरार्थः / कथानकम्- "तओ सामी विहरमाणो गओ मोरागं सन्निवेसं, तत्थ मोराए दुइज्जता नाम पासंडिगिहत्था, तेसिं तत्थ आवासो, तेरिं कुलवती भगवओ पिउमित्तो, ताहे सो सामिस्स सागरण उवडिआ, ताहे सामिणा पुटवपओगेण बाहा पसारिआ, सो भणति अस्थि धरा, एत्थ कुमारवर ! अच्छाहि, तत्थ सामीए एगराइअवसित्ता पच्छा गतो, विहरति, तेण य भणियं-विवित्ताओ वसहीओ, जइ वासारत्तो कीरइ, आगच्छेजह अणुग्गहीया होजामो, ताहे सामी अट्ठ उउवद्धिए मासे विहरेत्ता वासावासे उवागते तं चेव दूइज्जतयगाम एति, तत्थेगम्मि उडवे वासावासं ठिओ। पढमपाउसे य गोरूवाणि चारिं अलभताणि जुण्णाणि तणाणि खायंति, ताणि य घराणि उव्वेल्लेंति, पच्छा ते वारेंति, सामी न वारेइ, पच्छा दूइजंतगा तस्स कुलवइस्स साहेति जहा एस एताणि न णिवारेति, ताहे | सो कुलवती अणुसासति, भणति कुमार ! सउणी वि ताव अप्पणिअं णेड रक्खति, तुम वारेनासि, सप्पिवासं भगति। ताहे सामी अचियत्तोगहो त्ति काउं, निग्गओ, इमे य तेण पंच अभिग्गहा गहिआ, तं जहाअचियत्तोग्गहे न वसियव्यं 1, निच वोसट्ठकाएण 2, मोणेणं 3, पाणीसु भोत्तव्यं 4, गिहत्थो न वंदियव्वो नऽन्भुदे॒तव्वो 5, एते पंच अभिग्गहा। तत्थ भगवं अद्धमासं अच्छित्ता तओ पच्छा अहितगामं गतो। तस्स पुण अट्ठिअगामस्स पढम वद्धमाणगं नाम आसी, सो य किह अट्ठियग्गामो जाओ? धणदेवो नाम वाणिअओ पंचहिं धुरसएहिं गणिमधरिमभेजस्सभरिएहिं तेणं तेण आगओ, तस्स समीवे य वेगवती नाम नदी, तं सगडाणि उत्तरंति, तस्स एगो बइल्लो सो मूलधुरे जुप्पति, तावचएण ताओ गड्डिओ उत्तिण्णाओ, पच्छा सो पडिओ छिन्नो, सो वाणिअओ तस्स तणपाणिअं पुरओ छड्डेऊणं तं अवहाय गओ। सोऽवि तत्थ वालुगाए जेट्ठामूलमासे अतीव उण्हेण तण्हाए छुहाए य परिताविज्जइ, वद्धमाणओ य लोगो तेणं तेण पाणिअंतणं च वहति, न य तस्स कोइ वि देइ, सो गोणो तस्स पओसमावण्णो, अकामतण्हाए, छुहाएय मरिऊण तत्थेव गामे अगुजाणे सूलपाणी जवखो उप्पण्णो, उवउत्तो पासति तं बलीव।सरीरं ताहे रुसिओ मारि विउव्वति, सोगामो मरिउमारद्धो, ततो अद्दणा कोउगसयाणि करति. तह विण ठाति, ताहे भिण्णो गामो अण्णगामेसु संकतो, तत्थवि न मुंचति, 1 ताहे तेसिं चिंता जाता-अम्हेहिं तत्थ न नज्जइ कोऽवि देवो वा दाणवो वा विराहिओ, तम्हा तहिं चेव वचामो, आगया समाणा नगरदेवयाए विउल असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेंति बलिउवहारे करेंता समंतओ उड्ड मुहा सरणं सरणं तिज अम्हेहिं सम्मन चेटिअंतस्स खमह, ताहे अंतलिक्खपडिवण्णो सो देवो भणति-तुम्हे दुरप्पा निरणुकंपा / तेण तेण य एह जाह य, तस्स गोणस्स तणं वा पाणि वा न दिण्णं, अतो नत्थि भे मोक्खो, ततो बहाया पुप्फबलिहत्थगया भणंति-दिह्रो कोवो पसादमिच्छामो, ताहे भणति-एताणि माणुसअद्विआणि पुंज काऊण उवरि देवउलं करेह, सूलपाणिं चतत्थ जक्खं बलिवद्धं च एगपासे ठवेह, अण्णे भणति-तं बइल्लरूवं करेह, तस्स य हेडा, ताणि से अट्टिआणि निहणह, तेहिं अचिरेण कयं, तत्थ इंदसम्मो नाम पडियरगो कओ। ताहेलरेगो पंथिगादिपेच्छइ, पंडरट्ठिअगामं देवउलंचताहे पुच्छंति अण्णेकयराओ गामाओ आगता जाह वत्ति, ताहे भणति-जत्थ ताणि अट्ठियाणि, एवं अट्ठिअगामो जाओ, तत्थ पुण वाणमंतरघरेजोरत्तिं परिवसतिसोतेण सूलपाणिणाजक्खेण वाहेत्ता पच्छा रत्तिं मारिजइ, ताहे तत्थ दिवसं लोगो अच्छति, पच्छा अण्णत्थ गच्छति, इंदसम्मोऽविधूपंदीवगं च दाउंदिवसओजाति। इतोय तत्थ सामी आगतो, दूतिजंतगामपासाओ, तत्थयसवोलोगो एणत्थपिंडिओ अच्छइ, सामिणा देवकुलिगोअणुण्णविओ, सोभणति-गामोजाणति, सामिणा गामो मिलिओ चेवाणुण्णविओ, गामो भणति-एत्थ न सक्मा वसिउं, सामी भणइ नवरं
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________________ वीर 1372 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वीर तुम्हे अणुजाणह, तेभणति-ठाह, तत्थेक्केको वस हिं देइ, सामीणेच्छति, जाणति-जहेसो संबुज्झिहिति त्ति, ततो एगकूणे पडिम, ठिओ, ताहे सो इंदसम्मो सूरे धरेते चेव धूवपुप्फ दाउंकप्पडियकारोडिए सव्वे पलोइत्ता भणति जाह मा विणस्सिहिह, तं पि देवजयं भणति-तुब्भे विणीध, मा मारिहिञ्जिहिध, भगवं तुसिणीओ, सो वंतरो चिंतेइ-देवकुलिएण गामेण य भणतोऽविन जाति, पेच्छजसे करेमि, ताहे संझाए चेव भीम अट्टहास मुअंतो बीहावेति। अभिहितार्थोपसंहारायेदं गाथाद्वयमाह-- दूइजंतग पिउणो, वयंस तिव्वा अभिग्गहा पंच। अचियत्तुग्गहि न वसणा-१ णिचं वोसट्ठ 2 मोणेणं / / 462 / / पाणीपत्तं / गिहिवं-दणं च 5, तउ वद्धमाणवेगवई। धणदेवसूलपाणिं-दसम्म वासऽट्ठिअग्गामे ||463 / / विहरतो मोराकसन्निवेशं प्राप्तस्य भगवतः तन्निवासी दूइज्जन्तकाभिधानपाषण्डस्थो दूतिजन्तक एवोच्यते, पितुः-सिद्धार्थस्य वयस्यःस्निग्धकः, सोऽभिवाद्य भगवन्तं वसतिं दत्तवान् इति वाक्यशेषः। विहृत्य च अन्यत्र वर्षाकालगमनाय पुनस्तत्रैवागतेन विदितकुलपत्यभिप्रायेण, किम् ? 'तिव्वा अभिग्गहा पंच' ति तीव्राः-रोद्राः अभिग्रहाः, पञ्च गृहीता इति वाक्यशेषः / ते चामी 'अचियत्तुग्गहिनवसणं' ति अचियत्तं-देशीवचनम् अप्रीत्यभिधायकं, ततश्च तत्स्वामिनो न प्रीतिर्यस्मिनन्नवग्रहे सोऽप्रीत्यवग्रहः तस्मिन् न वसनं; न तत्र मया वसितव्यमित्यर्थः, 'णिचं वोसट्ठमोणेणं' ति नित्यं सदा व्युत्सृष्टकायेन सता मौनेन विहर्तव्यम् 'पाणीपत्तं ति पाणिपात्रभोजिना भवितव्यम्, "गिहिवंदणं चे' त्ति गृहस्थस्य वन्दनं, चशब्दादभ्युत्थानं च न कर्त्तव्यमिति। एतान् अभिग्रहान् गृहीत्वा तथा तस्मान्निर्गत्य वासऽट्टिअग्गामे त्ति वर्षाकालम् अस्थिगामे स्थित इति अध्याहारः। सचास्थिग्रामः, पूर्व वर्धमानाभिधः खल्वासीत्, पश्चात् अस्थिग्रामसंज्ञामित्थं प्राप्तः, तत्र हि वेगवतीनदी, तां धनदेवाभिधानः सार्थवाहः प्रधानेन गवाऽनेकशकटसहितः समुत्तीर्णः, तस्य च गोरनेक-शकटसमुत्तारणतो हृदयच्छेदो बभूव, सार्थवाहः तं तत्रैव परित्यज्य गतः, स वर्धमाननिवासिलोकाप्रतिजागरितो मृत्वा तत्रैव शूलपाणिनामा यक्षोऽभवत्, दृष्टभयलोककारितायतने स प्रतिष्ठितः, इन्द्रशर्मनामा प्रतिजागरको निरूपित इत्यक्षरार्थः / एवमन्यासामपि गाथानामक्षरगमनिका स्वबुद्ध्या कार्येति। कथानकशेषम्- "जाहे सो अट्टहासादिणा भगवंत खोभेउ पवतोताहे सोसव्वो लोगो तं सई सोऊण भीओ, अजसो देवजओ मारिज्जइ, तत्थ उप्पलो नाम पच्छाकडओ पासवचिजओ परिव्वायगो अटुंगमहानिमित्तजाणगो जणपासाओ तं सोऊण मा तित्थंकरो होज्ज अधितिं करेइ, वीहेइ य रत्तिं गंतु, ताहे सो वाणमंतरो जाहे सद्देण न बीहेति ताहे हत्थिरूवेणुवसणं करेति, पिसायरूवेणं नागरूवेण य, एतेहिं पि जाहे नं तरति खोभेउं ताहे सत्तविहं वेदणं उदीरेइ, तं जहा-सीसवेयणं कण्ण-अच्छिनासादतनहपद्विवेदण च एक्केका वेअणा समत्था पागतस्स जीवित सकामेउं, किं पुण सत्त वि समेताओ उज्जलाओ? अहियासेति, ताहे सो देवो जाहे न तरति चाले वा खोभेउ वा ताहे परितंतो पायवडितो खामेति, खमह भट्टारग त्ति / ताहे सिद्धत्थो उद्धाइओ भणति-हंभो सूलपाणी ! अपत्थि-अपस्थिआ न जाणसि सिद्धत्थरायपुत्त भगवंतं तित्थयर, जइएवं सक्को जाणइ तोते निविसय करेइ, ताहे भीओ दुगुणं खामेइ, सिद्धत्थो से धम्मं कहेइ, तत्थ उवसंतो महिमं करेइ सामिस्स, तत्थ लोगो चिंतेइ-सो तं देवजय मारित्ता इदाणिं कीलइ, तत्थ सामी देसूणे चत्तारि जामे अतीव परियाविओ पहायकाले मुहुत्तमेत्तं निद्दापमादंगओ, तत्थ इमे दस महा.. सुमिणे पासित्ता पडिबुद्धो. तं जहा-तालपिसाओ हओ, सेअसउणो चित्तकोइलो अदोऽविएते पजुवासंता दिट्ठा, दामदुगं च सुरहिकुसुममयं, गोवग्गो अपजुवासेतो, पउमसरो विबुद्धपंकओ, सागरो अ मे निस्थिण्णो त्ति, सूरो अपइण्णरस्सीमंडलो उग्गमतो, अंतेहि य मेमाणुसुत्तरो वेदिओ त्ति, मंदरं चारूढोमि त्ति / लोगो पभाए आगओ, उप्पलो अ, इंदसम्मो अ, ते अ अचणिअंदिव्वगंधचुण्णपुप्फवासंचपासंति, भट्टारगंच अक्खयसव्वंग, ताहे सो लोगो सव्वो सामिस्स उमिट्ठसिंहणायं करेंतो पाएसु पडिओ भणति जहा देवजएणं देवो उवसामिओ, महिमं पगओ, उप्पलोऽवि सामि दटुं वंदिअभणियाइओ-सामी ! तुब्भेहिं अंतिमरातीए दस सुमिणा दिट्ठा, तेसिम फलं ति, जो तालपिसाओ हओ तमचिरेण मोहणिज्जं उम्मूलेहिसि, जो असेअसउणो तं सुक्कज्झाण काहिसि जो विचित्तो कोइलो तं दुवालसंग पेण्णवेहिसि, गोवग्गफलं च ते चउव्विहो समणसमणीसावगसाविगासंघो भविस्सइ, पउमसरा चउव्विहदेवसंघाओ भविस्सइ,जं च सागरं तिण्णोतं संसारमुत्तारिहिसि, जो अ सूरो तमचिरा केवलनाण ते उप्पजिहि त्ति, जंचंतेहिं माणुसुत्तरो वेदिओ तं ते निम्मलो जसकित्तिपयावो सयलतिहुअणे भविस्सइत्ति, जं च मंदरमारूढोऽसितं सीहासणत्थो सदेवमणुआसुराए परिसाए धम्मपण्णवेहिसि ति, दामदुग पुण न याणामि / सामी भणति-हे उप्पल ! जंणं तुम न जाणासि तण्ण अहं दुविहं सागाराणगारिअं धम्मं पण्णवेहामि त्ति, ततो उप्पलो वदित्ता गओ, तत्थ सामी अद्धमासेण खमति / एसो पढमो वासारत्तो 1 / ततो सरए निग्गंतूण मोरागं नाम सण्णिवेसं गओ, तत्थ सामी बाहिं उजाणे ठिओ, तत्थ मोराए सण्णिवेसे अच्छंदा नाम पासंडत्था, तत्थेगो अच्छदओ तम्मि सण्णिवेसे कोंटलवेंटलेण जीवति, सिद्धत्थओ अ एक्कलओ दुक्खं अच्छति बहुसंमोइओ पूअंच भगवओ अपिच्छंतो, ताहे सो वोलेतयं गोवं सहावेत्ता भणति--जहिं पधावितो जहिं जिमिओ पंथे य जं दिट्ठ, दिट्ठो य एवंगुणविसिट्ठो सुमिणो, तं वागरेइ, सो आउट्ठो गंतुंगामेमित्तपरिचिताणं कहेति, सव्वेहिं गामे य पगासिअं–एस देवजओ उज्जाणे तीताणागयवट्टमाणं जाणइ, ताहे अण्णोऽवि लोओ आगओ, सव्वस्स वागरेइ, लोगो आउट्ठो महिम करेइ, लोगेण अविरहिओ अच्छइ, ताहे सो लोगो भ
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________________ वीर 1373 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वीर इ-एत्थ अच्छंदओ नाम जाणओ। सिद्धत्थो भणति-सो ण किंचि जाणइ, ताहे लोगो गंतुंभणइ-तुम न किंचि जाणसि, देवजओ जाणइ। सो लोयमज्झे अप्पाणं ठावेउकामो भणति-एह जामो, जइ मज्झ पुरओ जाणइ तो जाणइ। ताहे लोगेण परिवारिओ एइ, भगवओ पुरओ ठिओ तणं गहाय भणति-एयं तणं किं छिदिहि तिन वत्ति, सो चिंतेइ-जई भणति-न छिजिहिइ त्ति तो छिंदिस्सं, अह भणइ-छिजिहि त्ति तो न छिंदिस्सं। ततो सिद्धत्थेण भणिअं-न छिजिहि ति, सो छिदिउमादत्तो, सक्केण य उवओगो दिण्णो, वन पक्खितं, अच्छंदगरस, अंगुलीओ दस विभूमीए पडिआओ, ताहे लोगेण खिंसिओ, सिद्धत्थो य से रुट्ठो। अमुमेवार्थ समासतोऽभिधित्सुराह नियुक्तिकार:रोद्दा य सत्त वेयण, थुइ दस सुमिणुप्पलद्धमासे य। मोराए सवारं, सक्को अच्छंदए कुविओ॥४६४।। समासव्याख्या-रौद्राश्च सप्त वेदना यक्षेण कृताः, स्तुतिश्च तेनैव कृता, दश स्वप्ना भगवता दृष्टाः, उत्पलः फल जगाद, 'अद्धमासे य' त्ति अर्धमासमर्धनासं चक्षपणभकाति, मोरायां लोकः सत्कारं चकार शक्रः अच्छन्दक तीर्थकरहीलनात् परिकुपित इत्यक्षरार्थः / इयं नियुक्तिगाथा। एतास्तु मूलभाष्यकारगाथा:भीमऽट्टहास हत्थी, पिसाय नागे य वेदणा सत्त। सिरकण्णनासदन्ते, नहऽच्छि पट्ठीय सत्तमिआ।।११२।। तालपिसायं 1 दो को-इला य 3 दामदुगमेव 4 गोवरगं 15 // सर ६सागर 7 सूरं 8 तेह-मन्दर 10 सुविणुप्पले चेव।।११३|| मोहे य झाण पवयण ३,धम्मे 4 संघे 5 य देवलोए 6 य। संसारं 7 णाण 8 जसे धम्म परिसाएँ मज्झम्मि // 114 / / भीमाऽट्टहासः हस्ती पिशाचो नागश्च वेदनाः सप्त शिरः कर्णनासादन्तनखाक्षिपृष्ठौ च सप्तमी, एतव्यन्तरेण कृतम्। तालपिशाचं द्वौ कोकिलो च दामदयेभवे गोवर्ग सरः सागरं सूर्यम् यन्त्रं मन्दरं, 'सुविणुप्पले चेव' त्ति, एतान् स्वप्नान दृष्टवान्, उत्पलश्चैव फलं कथितवान् इति। तचेदम्मोह चध्यानं प्रवचनंधर्भः सङ्गश्च देवलोकश्च देवजनश्चेत्यर्थः, संसारं ज्ञानं यशः धर्म पर्षदो मध्ये, मोहं च निराकरिष्यसीत्यादिक्रियायोगः स्वबुद्ध्या कार्यः। मोरागसण्णिवेसे, बाहिं सिद्धत्थतीतमाईणि। साहइ जणस्स अच्छं-दपओसोछेअणेसक्के / / 16 / / अर्थोऽस्याः कथानकोक्त एव वेदितव्य इति / इयं गाथा सर्वपुस्तकेषु नास्ति, सोपयोगा च। कथानकशेषम्- 'तओ सिद्धत्थो तस्स पओसमावण्णो त लोग भणति-एस चोरो' कस्सणेण चोरियं ति भणह, अत्थेत्थ वीरघासो णाम कम्मकरो ? सो पादेसु पडिओ अहे ति, अस्थि तुब्भ अमुककाले दस पलयं वट्टयं णट्टपुव्वं ? आमं अस्थि, तं एएण हरिय, तं पुण कहिं ? एयस्स पुरोहडे महिसिंदुक्खस्स पुरस्थिमेण हत्थमित्तं गंतूर्ण तत्थ खणिउं गेण्हइ / ताहे गता, दिट्ठ, आगया कलकलं करेमाणा। अण्णं पि सुणह-अस्थि एत्थं इंदसम्मो नाम गिहवई ? ताहे भणति अत्थि, ताहे सो सयमेव उवढिओ, जहा अहं, आणवेह, अस्थि तुम्भ ओरणओ अमुयकालम्मि नहिल्लाओ? स आह-आम अस्थि, सो एएण्ण मारित्ता खइओ, अट्टियाणि य से बदरीए दक्खिणे पासे उकुरुडियाए नियाणि, गया, दिवाणि, उक्किट्ठकलयलं करेंता आगया, ताहे भणंतिएवं बितिअं'। __ अमुमेवार्थं प्रतिपादयन्नाह नियुक्तिकृत्तणछेयंगुलि कम्मा--र वीरघोस महिसिंदु दसपलिअं। बिइइंदसम्म ऊरण, बयरीए दाहिणुकुरुडे ||465 / अच्छन्दकः तृणं जग्राह, छेदः अड्गुलीनां कृतःखल्विन्द्रेण, 'कम्मारवीरघोस' ति कर्मकरो वीरघोषः, तत्संबन्ध्यनेन 'महिसिंदुदसपलिय' दश पलिकं करोटकं गृहीत्वा महिसेन्दुवृक्षाधः स्थापितम्, एकं तावदिदं, द्वितीयम् इन्द्रशर्मण ऊरणकोऽनेन भक्षितः, तदस्थीनि चाद्यापि तिष्ठन्त्येव बदर्या अधः दक्षिणोत्कुरुट इति गाथार्थः॥४६५|| "ततियं पुण अवचं, अलाहि भणितेण, ते निबंध करेंति, पच्छा भणति-वचह भक्षा से कहेहिइ, सा पुण तस्स चेव छिड्डाणि मागमाणी अच्छति, ताए सुयं-जहा सो विडबिओ त्ति 'अंगुलीओ से छिन्नाओ' सा य तेण तदिवसं पिट्टिया सा चिंतेति-नवरि एउ गामो' ताहे साहेमि 'ते आगया पुच्छति, सा भणइ-मा से नामं गेण्हह' भगिणीए पती ममं नेच्छति ते उक्किट्टि करे माणा तं भणंति-एस पावो 'एवं तस्स उड्डाहो जाओ' एस पावो, 'जहान कोइ भिक्ख पि देइ ताहे अप्पसागारियं आगओ भणइ-भगवं ! तुब्भे अन्नत्थ वि पुजिज्जह 'अहं कहिं जामि ?' ताहे अचियत्तोग्गहो त्ति काउं सामी निग्गओ। ततो वचमाणस्स अंतरा दो वाचालाओ-दाहिणा उत्तरा य 'तासिं दोण्ह वि अंतरा दो नईओ-सुवण्णवालुगा रुप्पवालुगा य' ताहे सामी दक्खिण्णवाचालाओ सन्निवेसाओ उत्तरवाचालं वचइ 'तत्थ सुवण्णवालुयाए नदीए पुलिणं कंटियाए तं वत्थं विलग्ग' सामी गतो 'पुणोऽवि अवलोइय' किं निमित्तं ? केई भणति-ममत्तीए; अवरेकिंथंडिल्ले पडिअं अथंडिले त्ति 'केई-सहसागारेणं' केई-वरं सिस्साणं वस्थपतं सुलभं भविस्सइ ? तं च तेण धिज्जाइएण गहिअं 'तुण्णागस्स उवणीअ सयसहस्समोल्लं जायं' एककस्स पण्णासं सहस्साणि जायाणि / अमुमेवार्थमभिधित्सुराह-- तइअमवचं भज्जा, कहिही नाहं तओ पिउवयंसो। दाहिणवायालसुव-प्रणवालुगाकंटए वत्थं / / 466 / / पदानि-तृतीयमवाच्य भार्या कथयिष्यति'ततः पितुर्वयस्यस्तु दक्षिणवाचालसुवर्णवालुकाकण्टके वस्त्रं' क्रियाऽध्याहारतोऽक्षरगमनिका स्वबुद्ध्या कार्यति। ताहे सामी वचइ उत्तरवाचाल 'तत्थं अंतरा कणगखल नाम आसमपयं तत्थ दो पंथा-उज्जुगो, वंको य। जो सो उज्जुओ सो कणगखलं मझेण वचइ, वंको परिहरंतो, सामी उज्जुगेण पहाविओ, तत्थ गोवालेहिं वारिओ 'एत्थ दिट्ठिविसो सप्पो' मा एएण वग्रह 'सामी जाणति--जहेसो भविओ संबुज्झिहिति' तओ गतो जक्खघरमंडवियाए पडिभं टिओ। सो पुण को पुव्वभवे आसी? खमगो 'पारणाए गओ वासिगभत्तरस' तेणं मंडुक्कलिया विराहिआ 'खुड्डएण परिचोइओ' ताहे
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________________ वीर 1374 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वीर सो भणति-किं इमाओऽवि मए मारिआओ लोयमारिआओ दरिसेइ, ताहे खुड्डएण नायं-वियाले आलोहिइ त्ति, सो आवस्सए आलोएत्ता उवविट्टो, खुडुओ चिंतेइ-लूणं से विस्सरिय, ताहे सारिअरुट्टो आहणामि त्ति उद्धाइओ खुड्डगस्स, तत्थ थमे आवडिओ मओ विराहियसामण्णो जोइसिएसु उववण्णो, ततो चुओकणगखले पंचण्ह तावसरयाण कुलवइस्सतावसीए उदरे आयाओ, ताहे दारगोजाओ, तत्थ से "कोसिओ' त्ति नाम कयं, सो य अतीव तेण सभावेण चंडकोधो, तत्थ अन्नेऽवि अस्थि कोसिया तस्स'चंडकोसिओ' ति नाम कयं, सो कुलवती मओ, ततोय सो कुलवई जाओ, सो तत्थ वणसंडे मुच्छिओ, तेसिं तावसाण ताणि फलाणि न देइ, ते अलभंता गया दिसो दिसंजोऽवि तत्थ गोवालादी एतितं पि हंतुंधाडेइ, तस्स अदूरे सेयंबिया नाम नयरी, ततो रायपुत्तेहि आगंतूर्ण विरहिए पडिनिवेसेण भग्गो विणासिओ य, तस्स गोवालएहिं कहियं, सो कंटियाणं, गओ, ताओ, छड्डुत्ता परसुहत्थो गओ रोसेण धमधमंतो, कुमारेहिं दिट्ठो एतओ, तंदटूण पलाया, सोऽवि कुहाडहल्थो पहावेत्ता खड्डे आवडिऊण पडिओ, सो कुहाडो अभिमुहो ठिओ, तत्थ से सिर दो भाए कय, तत्थ मओ तम्मि चेव वणसंडे दिट्टिविसो सप्पो जाओ, तेण रोसेण लोभेण य तं रक्खइ वणसंड, तओ ते तावसा सव्वे दड्ढा, जे अदडगा तेनट्टा, सो तिसझवणसंड परियचिऊणं जं सउणगमवि पासइ तं डहइ, ताहे सामी तेण दिट्ठो, ततो आसुरुत्तो, ममं न याणसि ? सूरं णिज्झाइत्ता पच्छा सामि पलोएइ, सोन डज्झइ जहा अण्णे। एवं दो तिणि वारा, ताहे गंतूण डसइ, डसित्ता अवक्कमइ-मा मे उवरि पडिहि त्ति, तह विन मरइ, एव तिणि वारे, ताहे पलेएतो अच्छति अमरिसेण, तस्स भगवओ एवं पेच्छतस्स ताणि विसभरियाणि अच्छीणि विज्झाइयाणि सामिणो कंतिसोम्मयाए। ताहे सामिणा भणिअं-उवसम भो चंडकोसिया ! ताहे तस्स ईहापोहमग्गणगवेसणं करेंतस्स जातीसरणं समुप्पण्णं, ताहे तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेत्ता भत्तं पच्चक्खाइ मणसा। तित्थगरोजाणइ, ताहे सो विले तुडं छोद ठिओ, माहं रुट्ठो संतो लोग मारेह, सामी तस्स अणुकंपाए अच्छइ, सामि दह्ण गोवालवच्छवाला अल्लियंति, रुक्खेहिं आवरेत्ता अप्पाणं तस्स सप्पस्स पाहाणे खिवंति, न चलति त्ति अल्लीणो कट्ठहिं घट्टिओ तह वि न फंदति त्ति / तेहिं लोगस्स सिट्ट, तो लोगो आगंतूण सामि वदित्ता तं पि य सप्पं महेइ। अण्णाओ य घयविक्किणियाओ त सप्प मक्खेति, फरुसिंति, सो पिवीलियाहिं गहिओ, तं वेयणं अहियासेत्ता अद्धमासस्स मओ सहस्सारे उववण्णो। अमुमेवार्थमुपसंहरन्नाहउत्तरवाचालन्तर-वणसंडे चंडकोसिओ सप्पो। न हे चिंता सरणं, जोइसकोवाऽहि जाओऽहं / / 467 // उत्तरवाचालान्तरवनखण्डे चण्डकौशिकः सर्पः न ददाह चिन्ता स्मरण ज्योतिष्कः क्रोधाद् अहिजोतोऽहमिति, अक्षरगमनिका स्वबुद्धया कार्येति // 4671 अनुक्तार्थे प्रतिपादयन्नाहउत्तरवायाला ना-गमेण खीरेण भोयणं दिव्वा। सेयवियाएँ पएसी, पंचरहे निजरायाणो।।४६८|| उत्तरवाचाला नागसेनः क्षीरेण भोजन दिव्यानि श्वेताम्ब्यां प्रदेशी पञ्चरथैः नैयका राजनः- नैयका गोत्रतः, प्रदेशे निजा इत्यपरे। शेषो भावार्थः कथानकादवसेयः। तचेदम्-'तओ सामी उत्तरवाचालं गओ, तत्थ पक्खक्खमणपारणते अतिगओ, तत्थ नागसेणण गिहवइणा खीरभोयणेण पडिलाभिओ, पंच दिव्वाणि पाउब्भूयाणि ततो सेयंबियं गओ, तत्थपदेशी राया समणोवासओ भगवओ महिमं करेइ, तओ भगवं सुरभिपुरं वचइ तत्थंतराए णेजगा रायाणो पंचहिं रथेहिं एन्ति, पएसिरण्णो पासे, तेहिं तत्थ सामी वदिओ पूइओ य / ततो सामी सुरभिपुरं गओ, तत्थ गंगा उत्तरियव्वा, तत्थ सिद्धजत्तो नाम नाविओ, खेमल्लो नाम सउणजाणओ, तत्थ य णावाए लोगो विलग्गइ, कोसिएण महासउणेण वासियं। कोसिओ नाम उलूको। ततो खेमिलेण भणियं-जारिस सउणेणं भणियं तारिसं अम्हेहिं मारणंतियं पावियव्यं, किं पुण? इमस्स महरिसिस्स पभावेण मुचिहामो। सायणावा पहाविया सुदाढेण य णागकुमारराइणा दिहो, भयवं णावाए ठिओ। तस्स कोवो जाओ। सो य किर जो सो सीहो वासुदेवत्तणे मारिओ सो संसारं भमिऊण सुदाढो नागो जाओ। सो संवट्टगवाय विउव्वेत्ता णावं ओबोलेउइच्छइ, इओ य कंबलसबलाण आसणं चलिय। (आव०) (कंबलशबलयोवृत्तम् ‘कंबल' शब्दे तृतीयभागे 176 पृष्ठे गतम्।) णागकुमारेसु उववण्णा, (ते) ओहिं पउंजंति० जाव पेच्छंति तित्थगरस्स उवसग्गं कीरमाणं, ताहे तेहिं चिंतियं अलाहि ता अण्णेणं, सामि मोएमो, आगया, एगेण णावा गहिया, एगो सुदाढेण सम जुज्झइ, सो महिड्डियो। तस्स पुण चवणकालो, इमे य अहुणोववण्णया, सो तेहिं पराइओ, ताहे ते णागकुमारा तित्थगरस्स महिमं करेंति, सत्तं रूवं च गायंति, एवं लोगोऽवि ततो सामी उत्तिण्णो / तत्थ देवेहि सुरहिगंधोदयवासं पुप्फवासं च बुट्ट, तेऽवि पडिगया। अमुमेवार्थमुपसंहरन्नाहसुरहिपुर सिद्धजतो, गंगा कोसिअ विऊ य खेमिलओ। नाग सुदाढे सीहे, कंबलसबला य जिणमहिमा // 466 / / महुराए जिणदासो, आहीर विवाह गोण उववासे। भंडीर मित्तऽवच्चे, भत्ते णागो हि आगमणं // 470|| वीरवरस्स भगवओ, नावारूढस्स कासि उवसग्गं / मिच्छादिष्ट्ठि परद्धं, कंबलसबला समुत्तारे॥४७१।। पदानि सुरभिपुरं सिद्धयात्रः गङ्गाः कौशिकाः विद्वांश्च खेमिलकः नागः सुदंष्ट्रः सिंहः कम्बलसबलौ च जिनमहिमा मथुरायां जिनदासः आभीरविवाहः गोः उपवासः भण्डीरः मित्रम् अपत्ये भक्त नागौ अवधिः आगमनं वीरवरस्य भगवतः नावपमरूढस्य कृतवान् उपसर्ग मिथ्यादृ
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________________ वीर 1375 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वीर ष्टिः परद्धं विक्षिप्तं भगवन्तं कम्बलसबलौ समुत्तारितवन्तौ / अक्षरग- जहा भवियव्वं ण तं भवति अण्णहा, लजिओ आगतो / तओ भगवं मनिका स्वबुझ्या कार्या। ततो भगवं दगतीराए इरियावहियं पडिक्कमइ, चउत्थमासक्खमणपारणए नालंदाओ निग्गओ, कोल्लाकसन्निवेसं पत्थिओ ततो, णदीपुलिणे भगवओ पादेसु लकखणाणि दीसति गओ, तत्थ बहुलो माहणो माहणे भोयायेति घयमहुसंजुत्तेण परमण्णेण, महुसित्थचिक्खल्ले, तत्थ पूसो नाम सामुदिओ, सो ताणि पासिऊण ताहे तेण सामी पडिलाभिओ, तत्थ पंच दिव्वाणि / गोसालोऽवि चिंतेइ, एस चक्कवट्टी गतो एगागी, वच्चामिण वागरेमि, तो मम एतो भोगा तंतुवागसालाए सामि अपिच्छमाणो रायगिह सहभंतरबाहिरिअंगवेसति, भविस्संति, सेवामि णं कुमारत्तणे,सामीऽवि थूणागस्स सण्णिवेसस्स जाहे न पेच्छइ ताहे नियगोवगरणं धीयराणं दाउं सउत्तरोढुं मुंडं काउं बाहि पडिमं ठिओ, तत्थ सो सामि पिच्छिऊणं चिंतेइ अहो मए पलालं गतो कोल्लागं, तत्थ भगवतो मिलिओ, तओ भगवं गोसालेण सम अहिलिअं, एएहि लक्खणेहिं जुत्तं, एएण समणेण न होउं। इओ य सक्को सुवण्णखलगं वचइ, एत्थंतरा गोवा गावीहिंतो खीरं गहाय महल्लिए देवराया ओहिणा पलोएइ-कहिं अज्ज सामी? ताहे सामि पेच्छइ. तं च थालीएणवएहिं तंदुलेहिं पायसं उवक्खडेंति, ततो गोसालो भणति एह पूस, आगओ सामि वन्दित्ता भणति-भो पूस ! तुम लक्खणं न याणसि भगवं ! एत्थ भुंजामो, सिद्धत्थो भणति-एस निम्माणं चेवन वचइ, एस एसो अपरिमिअलक्खणो, ताहे वण्णेइ लक्खणं अभितरगं-गोखीरगोरं भजिहिति उल्लहिजंती। ताहे सो असद्दहतो ते गोवे भणति एस देवज्जगो रुहिरं पसत्थं, सत्थं न होइ अलिअं, एस धम्मवरचाउरंतचक्रवट्टी तीताणागतजाणओ भणति- एस थाली भनिहिति, तो पयत्तेण सा देविंदनरिंदपूइओ भवियजण-कुमुयाणंदकारओ भविस्सइ, ततो सामी रक्खह, ताहे पयत्तं करेंति वंसविदलेहि सा बद्धा थाली, तेहिं अतीव रायगिहं गओ, तत्थ णालंदाए बाहिरियाए तंतुवागसालाए एगदेसम्मि बहुला तंदुला छूढा, सा फुट्टा, पच्छागोवालाणं जेणंजं करुल्लं आसाइयं अहापडिरूवं उग्गह अणुण्णवेत्ता पढमं मासवखमण उपसंपञ्चित्ता सो तत्थ पजिमिओ, तेण न लद्ध, ताहे सुठुतरं नियतिं गेण्हर। विहरइ। तेणं कालेणं तेण समएणं मखली नाम मंखो, तस्स भद्दा भारिया अमुमेवार्थ कथानकोक्तमुपसंजिहीर्षुराहगुठ्विणी सरवणे नाम सण्णिवेसे गोबहुलस्स माहणस्स गोसालाए पसूआ, कुल्लाग बहुल पायस, दिव्वा गोसाल दठ्ठ पव्वजा। गोण्णं नाम कयं गोसालो त्ति, संवडिओ, मखसिप्प अहिजिओ, चित्त- बाहिं सुवण्णखलए, पायसथाली नियइगहणं // 474|| फलयं करेइएकल्लओ विहरंतओ रायगिहे तंतुवायसालाए ठिओ, जत्थ कोल्लाकः बहुलः पायसं दिव्यानि गोशालः दृष्ट्वा प्रव्रज्या बहिः सामी ठिओ, तत्थ वासावासं उवागओ। भगवं मासखमणपारणए अभि सुवर्णखलात् पायसस्थाली नियतेर्ग्रहणं च। पदार्थ उक्त एव / तरियाए विजयस्स घरे विउलाए भोयणविहीए पडिलाभिओ। पंच बंभणगामे नंदो-वनंद उवणंद तेय पबद्धे। दिव्वाणि पाउन्भूयाणि, गोसालोसुणेत्ता आगओपंच दिव्वाणि पासिऊण चंपादुमासखमणे, वासावासं मुणी खमइ / / 475 / / भणति-भगवं ! तुज्झं अहं सीसो त्ति सामी तुसिणीओ निग्गओ। ब्राहाणग्रामे नन्दोपनन्दौ उपनन्दः तेजः प्रत्यर्धे चम्पा द्विमासक्षपणे बितिअमासखमणं ठिओ, बितिए आणंदस्स घरे खज्जगविहीए ततिए वर्षावासं मुनिःक्षपयतीति। अस्याः पदार्थः कथानकादवसेयः। तचेदम्सुदस्स घरे सव्यकामगुणिएण, ततो चउत्थं मासखमणं उवसंपञ्जित्ता ततो सामी बंभणगामं गतो, तत्थ नंदो उवणंदो य भायरो, गामस्स दो णं विहरइ। पाडगा, एको नंदस्स बितिओ उवणदस्स, ततो सामी नंदस्स पाडगं अभिहितार्थोपसंग्रहायेदमाह पविट्ठो नंदघरं च, तत्थ दोसीऽणणं पडिलाभिओ नंदेण गोसालो थूणाऐं बहिं पूसो, लक्खणमभंतरं च देविंदो। उवनंदस्स, तेण उवणंदेण संदिट्ठ-देहि भिक्खं, तत्थन ताव वेला ताहे रायगिहि तंतुसाला, मासक्खमणं च गोसालो।।४७२।। सीअलकूरोणीणिओ, सो तं णेच्छइ, पच्छा सा तेण वि भण्णति-दासी ! मंखलि मंख सुभद्दा, सरवण गोबहुलमेव गोसालो। एयस्स उवरि छूभसु ति, ताए छूटा, अपत्तिएण भणति-जइ मज्झ विजयाणंदसुणंदे, भोअण खजे अकामगुणे // 473 / / धम्मायरिअस्स अस्थि तओ तेए वा एयस्स घरं डज्झउ, तत्थ पदानि-स्थूणायां बहिः पुष्यो लक्षणमभ्यन्तरं च देवेन्द्रः राजगृहे अहासण्णिहितेहिं वाणमंतरेहिं मा भगवतो अलियं भवउ त्ति तेणं तं दा तन्तुवायकशाला मासक्षपणं च गोशालः मखली मखः सुभद्रा शरवणं घरं / ततो सामी चंपं गओ, तत्थ वासावासं ठाइ, तत्थ दोमासिएण गोबहुल एव गोशालो विजयः आनन्दः सुनन्दः भोजनंखाद्यानिच कामगुणं खमणेणखमइ, विचित्तं च तवोकम्म, ठाणादीए पडिमंठाइ, ठासुकुडुओ शरवणं गोशालोत्पत्तिस्थानम्। शेषाऽक्षरगनिका स्वधिया कार्या / गोसा एवमादीणि करेइ। एस ततिओ वासारत्तो। लोकत्तियदिवसपुण्णिमाए पुच्छइ-किमहं अज्न भत्तं लभिस्सामि ? कालाएँ सुण्णगारे, सीहो विजुमई गोहिदासी या सिद्धत्थेण भणियं-कोदवकूर अंबिलेण कूडरूवगंच दक्खिणं, सो णयरि खंदो दन्तिलियाए, पत्तालग सुण्णगारम्मि॥४७६।। सव्वादरेण पडिहिओ, जहा भंडीसुणए, न कहिं चि विन संभाइयं, ताहे पदानि कालायां शून्यागारे सिंहः विद्युन्मती गोष्ठीदासी अवरण्हे एक्कणं कम्मकरण अंबिलेण कूरो दिण्णो ताहे जिमिओ, एगो च स्कन्दः दन्तिलिकया पात्रालके शून्यागारे / अक्षर - रूवगो दिण्णो, रूवगो परिक्खाविओ० जाव कूडओ, ताहे भणति-जेण | गमनिका क्रियाध्याहारतः स्वधिया कार्या / पदार्थः कथान
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________________ वीर 1376 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वीर कादवसेयः, तचेदम् ततो चरिमं दो मासियपारणयं बाहिं पारेता कालाय ताहे तुभ पडिस्सओ डज्झउ / ते भणंति-तुम्हाणं भणिएण अम्हे न नाभ सण्णिवेसंगओ गोसालेण सम, तत्थ भगवं सुण्णघरे पडिम ठिओ, डज्झामो, ताहे सो गतो साहइ सामिस्स-अज्ज मए सारंभा सपरिग्गहा गोसालोऽवि तस्स दारपहे ठिओ। तत्थ सीहो नाम गामउ(कु)डपुत्तो समणा दिट्ठा, तं सव्वं साहइ / ताहे सिद्धत्थेण भणियं ते पासावचिज्जा विजुमईए गोट्ठीदासीए समतं चेव सुण्णघरं पविट्टो, तत्थ तेण भण्णइ- साहबो, न ते डझंति / ताहे रत्ती जाया, ते मुणिचंदा आयरिया बाहिं जइ इत्थ समणो वा माहणो वा पहिको वा कोई ठिओ सो साहउ जा उवरसगरस पडिमं ठिआ, सो कूवणओ तदिवस सेणीए भत्ते पाऊण अन्नत्थ वचामो, सामी तुहिकओ अच्छइ, गोरालोऽवि तुहिक्कओ, वियाले एइ, मत्तेल्लओ जाव पासेइ ते मुणिचंदे आयरिए, सो चितेइ-एस ताणि अच्छित्ता णिग्गयाणि / गोसालेण सा महिला छिका, सा भणति चोरो ति, तेण से गलए गहिया, ते निरुस्सासा कया, न य झाणाओ एस एत्थ कोइ, तेण अभिगंतूण पिट्टिओ, एस धुत्तो अणायारं करें ताणि कंपिआ, ओहिणाणं उप्पण्णं आउंच णिट्टिअं, देवलोअं गया। तत्थ देच्छंतो अच्छइ / ताहे सामि भणइ-अहं एक्किलो पिट्टिजामि, तुम्भे ण अहासन्निहिएहिं वाणमंतरेहिं देवेहि महिमा, कया, ताहे गोसालो बाहिं वारेह / सिद्धत्थो भणइ-कीस सीलं न रक्खसि ? किं अम्हेऽवि ठिओ पेच्छइ, देवे उब्वट्टते निव्वयंते आ सो जाणइ-एस इज्झइ सो तेसिं आहण्णामो? कीस वा अतो न अच्छसि, ता दारे ठिओ। ततो निग्गंतूण उवस्सगो साहेइ सामिस्स, एस तेसिं पडिणीयाण उवस्सओ डज्झइ, सामी पत्तकालयं गओ, तत्थ वि तहेव सुण्णघरे ठिओ, गोसालो तेण सिद्धत्थो भणई-नतेसि उवरसओ डज्झइ, तेसि आयरियाणं ओहिणाणं भएणं अंतो ठिओ, तत्थ खंदओ नाम गामउडपुत्तो अप्पिणिचियादासीए उप्पण्ण-आउयं च णिहियं, देवलोगं गया, तत्थ अहासन्निहिएहिं वाणमतदत्तिलियाए समं महिलाए लजंतो तमेव सुण्णघरं गओ, तेऽवि तहेव रेहिं देवेहि महिमा कया, ताहे गोसालो बाहि ठिओ पिच्छइ, ताहे गओत पदेसं, जाव देवा महिम काऊण पडिगया ताहे तस्स त गंधोदगयास पुच्छंति, तहेव तुहिक्का अच्छंति, जाहे ताणि निग्गच्छति ताहे गोसालेण पुप्फवासं च दटूण अब्भहिअं हरिसो जाओ। ते साहुणो उवढेइ-अरे हसिय। ताहे पुणोऽवि पिट्टिओ, ताहे सामि खिसइ-अम्हे हम्मामो, तुब्भे तुब्भे न याणह, एरिसगा चेव बोडिया हिंडह, उद्वेह, आयरियं कालगयं न वारेह, किं अम्हे तुम्हे ओलग्गामो ? ताहे सिद्धत्थो भणति- तुम पिन याणह ? सुवह रत्तिं सव्वं ताहे ते जाणंति--सचिल्लओ पिसाओ, अप्पदोसेण हम्मसि, कीसतुंड न रक्खेसि ? रत्तिं पि हिंडइ ताहे तेऽवि तस्स सद्देण उडिआ, गया आयरियस्स सगासं मुणिचंद कुमाराए, कुँवणय चंपरमणिज्जउज्जाणे। जाव पेच्छति कालगये। ताहे ते अधिति करेइ अम्हेहिंणणाया आयरिया चोराएँ चारि अगडे, सोम जयंती उवसमेइ॥४७७।। कालं करेंता, सोऽवि चमढेत्ता गओ। ततो भगवं चोरागं सन्निवेसं गओ, पदानि--मुनिचन्द्रः कुमाया कूपनयः चम्परमणीयोद्याने चौराया तत्थ धारिय त्ति काऊण उड्ढवालगा अगडे पक्खिविज्जति, पुणो य चारिकोऽगडे सोमा जयन्ती उपशामयतः / पदार्थः कथानकादवसेयः, उत्तारिजंति, तत्थ पढ़म गोसालो सामी न, ताव तत्थ सोमा-जयन्तीओ तचेदम्- "ततो भगवं कुमारायं नाम सण्णिवेसं गओ, तत्थ चंपरमणिज्जे नाम दुवे उप्पलस्स भगिणीओ पासावचिजाओ जाहे न तरंति संजमं उजाणे भगवं पडिभ ठिओ। इओ य पासावचिज्जो मुणिचंदो नाम थेरो काउं ताहे परिवाइयत्त करें ति, ताहिं सुयं-एरिसा केऽवि दो जणा बहुस्सुओ बहुसीसपरिवारो तम्मि सन्निवेसे कूवणयस्स कुंभगारस्स उड्ढवालएहि पक्खिविनंति, ताओ पुण जाणंति-जहा चरिमतित्थगरो सालाए ठिओ। सो य जिनकप्पपडिमं करेइ सीसं गच्छे ठवेत्ता, सो य पध्वइओ, ताहे गयाओ, जाव पेच्छंति, ताहिं मोइओ. ते उज्झंसिआ सत्तभावणाए अप्पाणं भावेति-"तवेण सत्तेण सुत्तेण, एगतेण बलेण य। अहो विणस्सिउकामेति, तेहिं भएण खमाविया महिया य। तुलणा पंचहा बुत्ता, जिणकप्पं पडिवज्जओ / / 1 / / ' एआओ भावणाओ, पिट्ठी चंपा वासं, तत्थ चउम्मासिएण खमणेणं। ते पुण सत्त भावणाए भावेति, सा पुण "पढमा उवस्सयम्मि, वितिया, कयंगल देउलवरिसे, दरिद्दथेरा य गोसालो // 478|| बाहिं ततिय चउकम्भि। सुण्णघरम्मिचउत्थी, तह पंचमिआ मसाणम्मि ततो भगवं पिट्ठीचंपं गओ, तत्थ चउत्थं वासारत्त करेइ, तत्थ सो ||1||" सो बितियाए भावेइ / गोसालो सामि भणइ–एस देसकालो चउम्मासिय खवणं करें तो विचित्तं पडिमादीहिं करेइ, ततो बाहिं पारित्ता हिंडामो। सिद्धत्थो भणइ-अज्ज अम्ह अन्तरं, पच्छा सो हिंडतो ते पासा- कयंगलंगओ, तत्थ दरिद्वथेरा नाम पासंडत्था समहिला सारंभा सपरिगहा, वचिओ पासति, भणतिय- के तुडभे? ते भणति-अम्हे समणा निग्गथा, ताण वाडगस्स मज्झे देवउलं, तत्थ सामी पडिमं ठिओतदिवसं चफुसिअं सो भणति अहो निग्गथा, इमो भे एत्तिओ गंथो, कहिं तुब्भे निग्गंथा ? सो सीयं पडति / ताणं च तद्दिवसं जागरओ, ते समहिला गायंति, तत्थ अप्पणो आयरियं वण्णेइ-एरिसो महप्पा, तुब्भे एत्थ के ? ताहे तेहिं गोसालो भणति- एरिसोऽवि नाम पासंडो भण्णइ सारंभो समहिलो य। भण्णइ-जारिसे तुमं तारिसो धम्मायरिओऽपि ते सयं गहीयलिंगो, ताहे सव्वाणि य महाणि गायति, वायंति य। ताहे सो तेहि णिच्छूढो, सो तहिं सो रुट्ठो अम्ह धम्मायरिय सवह त्ति; जइममधम्मायरियस्स अस्थि तवो | ___ माहमासे तेण सीएण सतुसारेण अच्छइ सकुइओ। तेहिं अणुकंपतेर्हि पुणोऽवि
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________________ 1377 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वीर आणिओ, पुणोऽवि भणति, पुणोऽविणीणिओ, एवं तिणि वारा णिच्छूढो अतिणिओ य / ततो भणइ-जइ अम्हे फुड भणामो तो णिच्छुभामो, तत्थऽण्णेहि भण्णइ एस देवजयस्स कोऽवि पढिआवाहो छत्तधारो वा आसी तो तुहिकाणि अच्छइ, सव्वाउज्जाणि य खडखडावेह जहा से सद्यो न सुवति। सावत्थी सिरिभद्दा, निंदू पिउदत्त पयस सिवदत्ते। दारगणी नखवालो, हलिद्द पडिमाऽगणी पहिआ।।४७६।। ततो सामी सावत्थि गओ, तत्थ सामी बाहिं पडिमं ठिओ, तत्थ गोसालो पुच्छति-तुन्भे अतीह ? सिद्धत्थो भणति-अज्ज अम्हं अंतर, सो भणतिअज्ज अह किं लभिहामि आहार ? ताहे सिद्धत्थो भणइ-तुमे अज्ज माणुसमंस खाइअव्यं ति, सो भणति-तं अज्न जेमेजि जत्थ मंससंभवो नऽस्थि, किमंग! पुण माणु-समंस? सो पहिडिओ। तत्थ य सावत्थीए नयरीए पिउदत्तो णाम गाहावई, तस्स सिरिभद्दा नाम भारिआ, सा य णिंद, णिंदू नाम भरंतवियाइणी, सा सिवदत्तं नेमित्तिअंपुच्छइ-कि हवि मम पुत्तभडं जीविज्जा ? सो भणति-जो सुतवस्सी तस्सतं गम्भं सुसोधितं रंधिऊण पायसं करेत्ता ताहे देह, तस्स य घरस्स अण्णओ हुत्त दारं करेजासि, मा सा जाणित्ता डहिहि त्ति, एवं ते थिरा पया भविस्सइ ताए तहा कयं, गोसालो य हिंडतो तंघरं पविट्ठो, तस्स सो पायसो महुघयसंजुत्तो दिण्णो, तेण चितिअं -एत्थ मंसं कओ भविस्सइ ति ? ताहे तुट्टेण भुतं, गंतु भणति-चिरं ते णेमित्तियत्तणं करेंतस्स अजंसि णवरि फिडिओ, सिद्धन्थो भणइ-न विसंवयति, जइन पत्तियसि वमाहि, वमिय दिला नक्खा विकइए अवयवा या ताहेरुट्टोतंधरं मग्गइ, तेहि वितं बार ओहाडियं, तं तण न जाणति, ओहाडिओ करेइ जाहे न लभइ ताहे भणति- जइ मम धम्मायरियस्स तवतेओ अत्थि तओ डज्झउ, ताहे सव्वा दड्डा बाहिरिआ। ताहे सामी हलिदुगो नाम गामो तं गओ, तत्थ महप्पमाणो हलिदुगरुक्खो, तत्थ सावत्थीओ णगरीओ निग्गच्छतो पविसंतोय, तत्थ वसइ जणवओ सत्थनिवेसो, सामी तत्थपडिम टिओ, तेहिं सत्थेहिं रतिं सीयकालए अग्गी जालिओ, तेवड्डेपभाए उठेत्ता गया, सो अगी तेहि न विज्झाविओ, सो डहंतो सामिस्स पासं गओ, सो सामी परितावेइ, गोसालो भणति-भगवं ! नासह, एस अग्गी एइ. सामिस्स पाया दड्डा गोसालो नहो। तत्तो य णंगलाए, डिंभमुणी अच्छिकडणं चेव। आवत्ते मुहतासे, मुणिओ त्ति अबाहि बलदेवो // 480|| ततो सामी नंगला नाम गामो, तत्थ गतो, सामी वासुदेवघरे पडिम ठिओ, तल्थ गोसालो वि ठिओ तत्थ य चेडरूवाणि खेलति, सोऽवि कदप्पिओ ताणि चेडरूवाणि अच्छीणि कड्डिऊण बीहावेइ, ताहे ताणि धावंताणि पडंति, जाणूणि य फोडिजति, अप्पेगइयाण खुखुणगा भजंति, पच्छा तेसिं अम्मापियरो आगंतूणतं पिट्टति, पच्छा भणंति-देवजगस्स एसो दासो नूणं न ठाति ठाणे / अण्णे वारेति-अलाहि, देवजयरस खमियव्वं पच्छा सो भणति-अह हम्मामि, तुडभे न वारेह / सिद्धत्थो भणति-न ठासि तुम एकलो अवस्सं पिट्टिजसि, ततो सामी आवत्तानाम गामो तत्थ गतो, तत्थ वि सामी पडिमं ठिओ बलदेवघरे, तत्थ मुहमक्वडिआहिं भेसवेइ, पिट्टति वि। ततो सामी ताणि चेडरूवाणि रूयंताणि अम्मापिऊणं साहंति, तेहिं गंतूणं घेचिओ, मुणिओ त्ति काउं मुमो, मुणिओ पिसाओ, भणतिय-किं एएण हएणं ? एयं से सामि हणामो जो एयं न वारेइ। ततो सा बलदेवपडिमा हलं बाहुणाऽहिक्खिविऊणं उद्विआ, तत्तो ताणि य पायपडियाणि सामि खाति। चोरा मंडव भोजं, गोसालो वहण तेय झामणया। मेहो य कालहत्थी, कलंबुयाए उ उवसग्गा // 481 // ततो सामी चोराय नाम संणिवेसंगओ,तत्थ गोट्ठिअभत्तं रज्झइ पचति य। तत्थ य भगवं पडिग ठिओ, गोसालो भणति-अज्ज एत्थ चरियव्यं, सिद्धत्थो भणइ-अज्ज अम्हे अच्छामो, सोऽवि तत्थ णिउडुकुडियाए पलोएइ-किं देसकालो न व ति, तत्थ च चोरभयं, ताहे ते जाणतिएस पुणो पणो पलोएइ, मण्णे एस चारिओ होज त्ति, ताहे सो घेतूण निसटुं हम्मइ, सामी पच्छपणे अच्छइ, ताहे गोसालो भणति-ममधम्मायरियरस जइ तवो अत्थि तो एस मंडवो डज्झउ, डड्डो / ततो साभी कलंबुगा नाम सण्णिवेसो तत्थ गओ, तत्थ पचंतिआ दो भायरो-मेहो, कालहत्थीय। सो कालहत्थी, चोरेहिं सर्ग उद्घाइओ, इमे यपुव्वे अग्गे पेच्छइ, ते भणतिके तुब्भे ? सामी तुसिणीओ अच्छइ, ते तत्थ हम्मंति, न य साहति तेण ते बंधिऊण महल्लस्स भाउअस्स पेसिआ, तेण भगवं दिट्ठो त उद्वित्ता पूइओ खामिओ य, तेण कुंडग्गामे सामी दिट्ठपुव्यो। लाढेसु य उवसग्गा, घोरा पुण्णा कलसा य दो तेण / वजहया सक्केणं, भद्दिअवासासु चउमासं // 42 // ततो सामी चिंतेइ-बहु कम्मं निजरेयव्यं, लाढाविसयं वचामि, ते अणारिया, तत्थ निजरेमि। तत्थ भगवं अच्छारिया दिद्वत हियए करइ / ततो पविट्ठो लाढाविसयं कम्मनिज्जरातुरिओ, तत्थ हीलणनिंदणाहिं बहु कम्म निजरेइ, पच्छा ततो णीइ। तत्थ पुण्णकलसो नाम अणारियग्गामो, तत्यंतरा दो तेणा लाढाविसयं पविसिउकामा, अवसउणो एयस्स वहाए भवउ त्ति कटु असिं कड्डिऊणं सीसं छिंदामु त्ति पहाविआ, सक्केण ओहिणा आभोइता दोऽवि वजेण हया / एवं विहरता भदिलनयरिंपत्ता, तत्थ पंचमो वासारत्तो, तत्थ चाउम्मासियखमणेणं अच्छति, विचित्तं च तवोकमठाणादीहिं। कयलिसमागम भोयण, मंखलि दहिकूर भगवओ पडिमा। जंबूसंडे गोट्ठी, य भोयणं भगवओ पडिमा // 483|| ततो बाहिं पारेत्ता विहरतो गओ, कयलिसमागमो नाम गामो, तत्थ सरयकाले अच्छारियभत्ताणि दहिकू रेण निसट्ट दिजंति, तत्थ गोसालो भणति-वद्यामो, सिद्धत्थो भणति-अम्ह
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________________ वीर 1378 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वीर अंतरं, सो तहिं गओ, भुजइ दहिकूरं सो, बहिफोडो न चेव धाइ, तेहिं भणिय-वधु भायणं करंबेह, करंबियं, पच्छा न नित्थरइ, ताहे से उबरि छूट, ताहे उक्किलंतो गच्छइ। ततो भगवं जंबूसंड नाम गाम गओ, तत्थ वि अच्छारिया भत्तं तहेव नवरं तत्थ खीरकूरे, तेहि वितहेव धरिसिओ जिमिओ / तंबाएँ नंदिसेणो, पडिमा आरक्खि वहण भय डहणं / कूवियचारियभोक्खे, विजयपगम्भा य पत्तेअं॥४५४|| ततो भगवं तंबायं णाम गाम एइ, तत्थ नंदिसेणा नाम थेरा बहुस्सुआ बहुपरिवारा पासाविचजा, तेऽवि जिणकप्पस्स परिकम्म करेंति, इमोऽवि बाहिं पडिमं ठिओ, गोसालो अतिगओ, तहेव पुच्छइ, खिंसति य / ते आयरिया तदिवसं चउक्के पडिमं ठायंति, पच्छा तहिं आरक्खियपुत्तेण चोरो ति काउं भल्लएण आहओ, ओहिणाणं. सेसं जहा मुणिचंदस्स, जाव गोसालो बोहेत्ता आगतो। ततो सामी कूपिअनाम सण्णिवेसं गओ, तत्थ तेहिं चारिय त्ति काउं धिप्पं ति वज्झंति पिट्टिजंति य / तत्थ लोगसमुल्लावो-अहो देवजओ रूवेण जोव्वणेण य अप्पतिमो चारिउ त्ति काउंगहिओ, तत्थ विजया पगब्भा य दोणि पासंतेवासिणीओ परिव्वाइयाओ लोयस्स मूले सोऊण-तित्थकरो पव्वइओ, वचामो ता पलोएमो, को जाणति ? होज्जा, ताहे ताहिं मोइओ दुरप्पा ! ण याणह चरमतित्थकरं सिद्धत्थरायपुत्त, अज्ज भे सक्को उवालभहिइ, ताहे मुक्को खामिओ य / पत्तेयं ति पिहिपिहीभूता साभी गोसालो य, कहं पुण ? तेसि वचंताण दो पंथा ताहे गोसालो भणति-अहं तुब्भेहिं समं न वचामि, तुम्भे मम हम्ममाणं न वारेह, अवि य-तुब्भेहि समं बहूवसग्गं, अण्णं चअहं चेव पढम हम्मामि, तओ एकल्लओ विहरामि। सिद्धत्थो भणतितुमंजाणसि, ताहे सामी सालीमुहो पयाओ, इमोय भगवओ फिडिओ अण्णओ पट्टिओ, अंतरा य छिण्णद्धाणं, तत्थ चोरो रुक्खविलग्गो ओलोए ति, तेण दिह्रो भणति एक्को नग्गओ, समणओ एइ, ते य भणतिएसो न य वीहेइ नत्थि हरियव्वंति, अज्ज से नत्थि फेडओ, जे अम्हे परिभवति। तेणेहि पहे गहिओ, गोसालो माउलो त्ति वाहणया। भगवं वेसालीए, कम्मार घेणण देविंदो।।४६५।। आगओ पंचहि विसएहि वाहिओ माउल त्ति काऊणं, पच्छा चिंतेइ वरं / सामिणा सम / अवि य-कोइ मोएइ सामि ? तरस निस्साए मोयण भवइ, ताहे सामि मग्गिउमारद्धो सामी वि वेसालिं गओ, तत्थ कम्मकरसालाए अणुण्णवेता पडिमं ठिओ, सा साहारणा, जे साहीणा तत्थ ते अणुण्णविआ। अण्णदा तत्थेगो कम्मकरो छम्मासपडिलग्गओ आढत्तो सोहणतिहिकरणे, आउहाणि गहाय आगओ, सामिं च पासइ, अमंगलं ति सामि आहणामि त्ति पहाविओघणं उग्गिरिऊणं सक्केण य ओही पउत्तो, जावपेच्छइ, तहेव निमिसंतरेण आगओ,तरसेव उवरिसोघणो साहिओ, तह चेव गओ, सक्कोऽवि वंदिता गओ। गामागविहेलग ज-क्ख तावसी उवसमा वसाण थुई। छट्टेण सालिसीसे, विसुज्झमाणस्स लोगोही।।४८६|| ततो सामी गामायं नाम सण्णिवेसं गओ, तत्थुजाणे विहेलए बिभेलयजक्खो नाम, सो भगवओपडिम ठियस्स महिमं करेइ. ततो भगवं सालिसीसयं नाम गामो तहिं गतो, तत्थुजाणे पडिमं ठिओ माहमासो य वट्टइ. तत्थ कडपूयणा नाम वाणमंतरी सामि दठूणं तेयं असहमाणी पच्छा तावसीरूवं विउव्वित्ता वक्कल-नियत्था जड़ा भारेण य सव्वं सरीरं पाणिएण ओलेत्ता देहम्मि उवरि सामिस्स ठाउंधुणति वातं च विउव्वइ, जइ अन्नो होतो तो फुट्टो होतो, तं तिव्वं वेउण अहियासिंतस्स भगवओ ओही विअसिउ व्व लोगं पासिउमा रद्धो, सेसं कालं गब्भाओ आढवेत्ता जाव सालिसीसं ताव एकारस अंगा सुरलोयप्पमाणमेत्तो य ओही, जावतिय देवलोएसु पेच्छिताइओ। सा वि वंतरी पराजिआ, पच्छा सा उवसंता पूअं करेइ। पुणरवि भद्दिअनगरे, तवं विचित्तं च छट्ठवासम्मि। मगहाएँ निरुवसग्गं, मुणि उउबद्धम्भि विहरित्थ / / 487|| ततो भगवं भद्रियं नाम नगरिं गतो, तत्थ छट्ठ वासं उवागओ, तत्थ वरिसारते गोसालेण समं समागमो, छठे मासे गोसालो मिलिओ भगवओ। तत्थ चउमासखमणं विचित्ते य अभिगहे कुणइ भगवं ठाणादीहिं, बाहिं पारेत्ता ततो पच्छा मगहाविसए विहरइ निरुवसगं अट्ठ उडुबद्धिए मासे. विहरिऊणं। आलभिआए वासं, कुंडागे (तह) देउले पराहुत्तो। मद्दण देउलसारिअ, मुहमूले दोसु वि मुणि त्ति / / 488|| आलंभि नयरिं एइ, तत्थ सत्तमं वासं उवागओ, चउमासखमणेणं तवो, बाहिं पारेत्ता कुंडाग नाम सन्निवेस तत्थ एति। तत्थ वासुदेवधरे सामी पडिम ठिओकोणे, गोसालोऽवि वासुदेवपडिमाए अहिट्ठाणं मुहे काऊणं ठिओ, सो य से पडिचारगो आगओ, तं पेच्छइतहा ठियं, ताहे सो चिंतेइ-मा भणिहिइ रागदोसिओ धम्मिओ, गामे जाइतु कहेइ. एह पेच्छइ भणिहिइ, राइतओ ति। ते आगया दिट्ठो पिट्टिओ य, पच्छा वंधिजइ, अन्ने भणति-एस पिसाओ, ताहे मुक्को तओ निग्गया समाणा मद्दणा नाम गामो, तत्थ बलदेस्स घरे सामी अन्तोकोणे पडिमं ठिओ, गोसालो मुहे तस्स सागारिअंदाउं ठिओ, तत्थ वि तहेव हओ, मुणिओ त्ति काऊण मुक्को / मुणिओ नाम पिसाओ। बहुसालग सालवणे, कडपूअण पडिम विग्घणोवसमे। लोहग्गलम्मि चारिय, जिअसत्तू उप्पले मोक्खो / / 486 // ततो सामी बहुसालगनाम गामो तत्थ गओ, तत्थ सालवणं नाम उजाणं, तत्थ सालझा वाणमंतरी, सा भगवओ पूअं करेइ. अण्णे भणति-जहा सा कडपूअणा वाणमंतरी भगवओ पडिमागयस्स उवसग्गं करेइ, ताहे उपसंता महिमं करेइ। ताते जिग्गया गया लोहगयं रायहाणिं, तत्थ जियसत्तू राया, सोय अण्णेण राइणासमं विरुद्धो, तस्सचारपुरिसेहिंगहिआ, पुच्छिअंता न साहति, तत्थ चारिय त्ति काऊण रण्णो अत्थाणीवरगयस्स उ
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________________ वीर 1376 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वीर वट्टविआ. तत्थय उप्पलो अहिअगामाओ सो पुव्वमेव अतिगतो, सो य ते आणिज्जतेदठूण उडिओ, तिक्खुत्तो वंदइ, पच्छा सो भणइ-ण एस चारिओ, एस सिद्धत्थरायपुत्तो धम्मवरचक्कवट्टी एस भगवं,लक्खणाणि य से पेच्छह, तत्थ सकारिऊण मुक्तो। तत्तो य पुरिमताले, वगुर ईसाण अचए पडिमा। मल्लिजिणायणपडिमा, उण्णाए वंसि बहुगोट्ठी / / 460| | ततो सामी पुरिमतालं एइ, तत्थ वग्गुरो नाम सेट्ठी तस्स भद्दा भारिआ, वंझा अवियाउरी(अप्रसविनी)जाणुकोप्परमाया बहूणि देवस्स उवादिगाणि (उपयाचितानि) काउंपरिसंता।अण्णया सगडमुहे उज्जाणे उजेणियाए गया, तत्थ पासति जुण्णं देवउल सडियपडियं, तत्थमल्लिसामिणो पडिमा, तं णमसति, जइ अम्ह दारओ दारिआ वा जायति तो एवं चेव देउलं करेस्सामो, एय भत्ताणि य होहामो, एवं नमंसित्ता गयाणि / तत्थ अहासन्निहिआएवाणमंतरीए देवयाए पाडिहेर कयं, आहूओ गठभो० ज चेव आहूओतं चेव देवउल काउमारद्धाणि, अतीव तिसंझं पूअं करेंति, पव्वतियगेय अल्लियति, एवं सोसावओजाओ।इओय सामी विहरमाणो सगडमुहस्स उजाणस्सनगरस्सय अंतरापडिम ठिओ, वग्गुरो यहाओ उल्लपडसाडओ सपरिजणो महया इड्डीए विविहकुसुमहत्थगओ तं। आययण अचओ जाइ, ईसाणो य देविंदो पुटवागओ सामि वंदित्ता पजुवासति, वग्गुर चवीतीवंतपासइ, भणतियभो वग्गुरा! तुमपञ्चक्खतिस्थगरस्स महिम न करेसि तो पडिम अचओ जासि, एस महावीरो वद्धमाणो ति, तो आगओ मिच्छादुक्कड़ काउंखामेति महिमंच करेइ। ततो सामी उण्णागं वच्चइ, एत्थंतरा वधूवरं सपडिहुत्तं एइ, ताणि पुण दोण्णि वि विरूवाणि दंतिलगाणि य तत्थ गोसालो भणति-अहो इमो सुसंजोगो - "तत्तिल्लो विहिराया, जाणति दूरे वि जो जहिं वसइ / जं जस्स होइ सरिस, तं तस्स विइज्जयं देइ / / 1 / / " जाहे न ठाइ ताहे तेहिं पिट्टि ओ, पिट्टित्ता वंसीकुडंगे छूढो, तत्थ पडिओ अत्ताणओ अच्छइ, वाहरइ सामि, ताहे सिद्धत्थो भणति-सयंकयंते, ताहे सामी अदूरे, गंतु पडिच्छइ, पच्छा ते भणंति-नूणं एस एयस्स देवजगस्स पीढियावाहगो वा छत्तधरो वा आसि तेण अवडिओ, ता णं मुयह, ततो मुक्को। अण्णे भणति–पहिएहिं उत्तारिओ सामि अच्छतं दठूण। गोभूमिवज्जलाढे, गोवक्कोवे य वंसि जिणुवसमे। रायगिहट्ठमवासा, वज्जाभूमी बहुवसग्गा॥४७१।। ततो सामी गोभूमि वचइ एत्थंतरा अडवी घणा, सदा गावीओ चरंति तेण गोभूमी, तत्थ गोसालो गोवालए भणइअरे वजलाढा ! एसपंथो कहि / वचइ ? वजलाढा नाम मेच्छा। ताहे ते गोवा भणंति-कीस अक्कोससि ? ताहे सो भणइ-असूयपुत्ता ! खउरपुत्ता ! सुठु अक्कोसामि, ताहे तेहिं, मिलित्ता पिट्टित्ता बंधित्ता वंसीए छूढो, तत्थ अण्णेहिं पुणो मोइओ जिणुवसमेणाततो रायगिह गया, तत्थ अहम वासारत्तं तत्थ चाउम्मास खवणं विचित्ते अभिग्गहे बाहिं पारेत्ता सरए दिट्टतं करेति समतीए, जहाएगस्स कुडुबियस्स बहुसाली जाओ, ताहे सो पंथिए भणति-तुर्भ हियइच्छि भत्तं देमि मभ लूणह, एवं सो उवाएण लूणावेइ, एवं चेव मम वि बहु कम्मं अच्छइ, एतं अच्छारिएहिं निज्जरावेयध्वं / तेण अणारियदेसेसु लाढावजभूमी सुद्धभूमी तत्थ विहरिओ, सो अणारिओ हीलइ निदइ, जहा बंभचेरेसु, छु छु करेंति आहेसु सभणं कुक्कुरा डसंतु त्ति एवमादि, तत्थ नवमो वासारत्तो कओ, सो य अलेभडो आसी। वसती वि न लब्भइ। तत्थ छम्मासे अणिच्चजागरि विहरति / एस नवमो वासारत्तो। अनिअयवासं सिद्ध-त्थपुरं तिलथंब पुच्छ निप्फत्ती। उप्पाडेइ अणज्जो, गोसालो वासबहुलाए ||4|| ततो निग्गया पढमसरए सिद्धत्थपुरं गया। तओ सिद्धत्थपुराओ कुम्मगाम संपडिआ, तत्थेतरा तिलथंबओ, तं दृटूण गोसालो भणइभगवं ! एस तिलत्थंबओ किं निष्फजिहिति न व ति? सामी भणतिनिष्फनिहिति, एए यसत्त तिलपुप्फजीवा उद्दाइत्ता एगाए तिलसंगलियाए वचायाहिंति, ततो गोसालेण असद्दहतेण ओसरिऊण सलेटुगो उप्पाडिओ एगते पडिओ, अहासन्निहिएहि य वाणमंतरेहिं मा भगवं मिच्छावादी भवउ, वासं वासितं, आसत्था, बहुलिआ य गावी आगया, ताए खुरेण निक्खित्तो पइट्टिओ पुप्फा य पश्चाजाया। मगहा गोव्वरगामो, गोसंखी वेसियाण पाणामा / / कुम्मग्गामायावण, गोसाले गोवण परतु // 493|| ताहे कुम्मगाम संपत्ता, तस्स बाहिं वेसायणो बालतवस्सी आयावेति. तस्स का उप्पत्ती? चपाए नयरीए रायगिहस्स य अंतरा गोब्बरगामो, तत्थ गोसंखी नाम कुटुंबिओ, जो तेसिं अधिपती आभीराणं, तस्स बन्धुमती नाम भजा अवियाउरी। इओ य तस्स अदूरसामते गामो चोरेहि हओ, तं हंतूण वंदिग्गहं च काऊण पहाविया। एका चिरपसूइया पतिम्मि मारितेचेडण समं गहिया, सा तंतेडछड्डाविया, सो चेडओ तेण गोसंखिणा गोरूवाणं गएण दिट्ठो गहिओय, अप्पणियाए महिलियाए दिण्णो, तत्थ पगासियं– जहा मम महिला गूढगब्मा आसी० तत्थ य छगलयं मारेत्ता लोहिअगंध करेता सूइयानेवत्था ठिया। सव्वं जंतस्स इतिकत्तव्यं तं कीरइ. सोऽाव ताव संवडइ० सावि से माया चंपाए विछिया, वेसिया थेरीए गहिया, एसममधूयत्ति।ताहे जो गणियाणं उवयारोतं सिक्खा-विया, सातत्थनाम निग्गया गणिया जाया। सोय गोसंखियस्स पुत्तो तरुणोजाओ, घियसगडेणं चपंगओ सवयंसो, सो तत्थ पेच्छइनागरजणंजहिच्छिअंअभिरमंत, तस्स विइच्छा जाया अहमवितावरमामि, सो तत्थगतो वेसावाड्यं, तत्थसा चेव माया अभिरुझ्या, मोल्लं देइ विआले पहायविलित्तो वच्चइ।तत्थवचंतस्स अंतरा पादो अभेज्झेण लित्तो, सो न जाणइ केणावि लित्तो / एत्थंतरा तस्स कुलदेवया मा अकिचमायरउ वोहेमिति तत्थ गोट्ठए गाविं सवच्छियं
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________________ वीर 1380 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वीर विउव्विऊण ठिया, ताहे सो तं पाय, तस्स उवरि फुसति, ताहे सो वच्छओ भणइ-- किं अम्मो ! एस ममं उवरि अमेज्झलित्तयं पादं फुसइ? ताहे सा गावी माणुसियाए वायाए भणइ - 'कि तुमे पुत्ता ! अधिति करेसि ? एसो अज मायाए सम संवासं गच्छइ, तं एस एरिसं अकिचं ववसइ, अन्नं पि किं न काहिति त्ति / ताहे ते सोऊणं तस्स चिंता समुप्पण्णा-गतो पुच्छिहामि, ताहे पविट्ठो पुच्छइ-का तुज्झ उप्पत्ती ? ताहे सा भणति-किं तव उप्पत्तीए ? महिलाभावं दाएइ सा, ताहे सो भणति-अन्नं पि एत्ति मोल्लं देमि, साह सब्भावं ति सवहसावियाए सव्यं सिद्धृति, ताहे सो निग्गओ सग्गाम गओ, अम्मापियरो य पुच्छइ, ताणि न साहे ति, ताहे ताव अणसिओ ठिओ जाव कहियं / ताहे सो त मायरं मोयावेत्ता वेसाओ पच्छा विरागं गओ। एयावत्था विसय त्ति पाणामाएपवज्जाए पव्वइओ, एस उप्पत्ती। विहरतोयतं कालं कुम्भग्गामे आयावेइ, तस्स य जडाहिंतो छप्पयाओआइयकिरणताविआओपडंति, जीवहियाए पडियाओ चेव सीसे छुभइ। तं गोसालो दठूण ओसरित्ता तत्थ गओ भणइ - कि ? भवं मुणी मुणिओ उयाहु जूआसेज्जातरो? कोऽर्थः, 'मन' ज्ञाने, ज्ञात्वा प्रव्रजितो नेति, अथवा- कि इत्थी पुरिसे वा? एकसिं दो तिणि वारे, ताहे वेसिआयणो रुट्टो तेयं निसिरइ, ताहे तस्स अणुकंपणट्टाए वेसियायणस्स य उसिणतेयपडिसाहरणट्ठाए एत्थंतरा सीयलिया तेयलेस्सा निस्सारिया, सा जंबूदीवं भगवओ सीयलिया तेयलेसा, अभितरओ वेढेति, इतरातं परियंचति, सा तत्थेव सीयलियाए विज्झाविया, ताहे सो सामिस्स रिद्धिं पासित्ता भणति-से गयमेवं भगवं ! से गयमेव भयवं?. कोऽर्थः ?- न याणामि जहा तुभं सीसो, खमह, गोसालो पुच्छइसामी ! किं एस जूआसेज्जातरो भणति? सामिणा कहिय, ताहे भीओ पुच्छइ-किह संखित्तविउलतेयलेस्सो भवति? भगवं भणति-जे णं गोसाला ! छठे छट्टेण अणिक्खित्तेण तवोकम्मेणं आयावेति, पारणए सणहाए कुम्मास, पिडियाए एगेण य वियडासणेण जावेइ जाव छम्मासासे ण संखित्तविउलतेयलेस्सो भवति / अण्णया सामी कुम्मगामाओ सिद्धत्थपुरंपत्थिओ, पुणरवि तिलथंबगस्स अदूरसामंतण वीतिवयइ, पुच्छइ सामि जहा-न निष्फण्णो कहिय जहा णिप्फण्णो, तं एवं वणस्सईणं पउट्टपरिहारो, (पउट्टपरिहारो नाम परावर्त्य परावर्त्य तस्मिन्नेव सरीरके उववज्जंति) तं असद्दहमाणो गंतूण तिलसंगलियंहत्थेण फोडिता तेतिले गणेमाणो भणति-एवं सव्वजीवावि पउट्ट परियदृति, णियइवादंधणियमवलंबेत्तातं करेइज उवदिट्ट सामिणा जहा संखित्तविउलतेयलेस्सो भवति, ताहे सोसामिस्स पासाओ फिट्टो सावत्थीए कुंभकारसालाए ठिओ तेयनिसगं आयावेइ, छहिं मासेहि जाओ, कूवतडे दासीओ विण्णासिओ, पच्छा छदिसाअरा आगया, तेहिं निमित्तलल्लोगो कहिओ, एवं सो अजिणो जिणप्पलावी विहरइ, एसा से विभूती संजाया। वेसालीए पडिम, डिंभमुणि(णी) उत्ति तत्थ गणराया। पूएइ संखनामो, चित्तो नावाएँ भगिणिसुओ॥४६४|| भगवं पि वेसालिं नगरि पत्तो, तत्थ पडिमं ठिआ, डिभेहिं मुणिउत्ति काऊण खलयारिओ, तत्थ 'संखो' नाम गणराया, सिद्धत्थस्स रणो मित्तो सो त पूएति / पच्छा वाणियग्गामं पहाविओ, तत्थंतरा गंडइया नदी, तं सामी णावाए उत्तिण्णो ते णाविआ सामि भणंति-देहि मोल्लं, एवं था हंति, तत्थ संखरण्णो भाइणिज्जो चित्तो नाम दूएकाए गएल्लओ णावाकडएण एइ, ताहे तेण मोइओ महिओय। वाणियगामायावण, आनंदो ओहिपरीसहसहिंति। सावत्थीए वासं चित्ततवो साणुलट्ठि वहिं।।४६५|| तत्तो वाणियग्गामं गओ, तस्स बाहिं पडिमं ठिओ, तत्थ आणंदो नाम सावओ, छटुंछट्टेण आयावेइ, तस्स ओहिनाणं समुप्पण्णं, जाव पेच्छइ तित्थंकर, वंदति भणति - अहो सामिणा परीसहा अहियासेजंति, एचिरेण कालेण तुज्झं केवलनाण उप्पजिहिति पूएति य / ततो सामी सावत्थि गओ, तत्थ दसमं वासारत्तं, विचित्तं च तवोकम्मं ठाणादिहि। ततो साणुलट्ठियं नाम गामं गओ। पडिमा भद्द महाभ-दसवओभद्द पढमिआ चउरो। अट्ठय वीसाणंदे, बहुलिय तह उज्झिए दिव्वा / / 466|| तत्थ भद्रं पडिमं ठाइ, केरिसा भद्दा ? पुव्वाहुत्तो दिवसं अच्छइ, पच्छा रत्तिं दाहिणहुत्तो, अवरेण दिवसं उत्तरेण रति, एवं छट्ठभत्तेण निटुिआ, पच्छा न चेव पारेइ अपारिओ चेव महाभ पडिमं ठाइ, सा पुण पुव्वाए दिसाए अहोरत्तं एवं चउसुवि दिसासुचत्तारि अहोरत्ताणि, एवं सादसमेणं निहाइ, ताहे अपारिओ चेव सव्वओभई पडिमं ठाइ, सा पुण सव्वतोभद्दा इंदाए अहोरत्तं एवं अग्गेईए जामाए नेरइए वारुणीए वायव्वाए सोम्माए ईसाणीए विमलाए जाइंउड्डलोइयाइंदव्याणि ताणि निज्झायति, तमाएहेडिल्लाई, एवमेवेसा दसहिं वि दिसाहिं वावीसइमेणं समप्पइ। 'पढमिआ चउरो' ति पुव्वाए दिसाए चत्तारि जामा, दाहिणाए वि चत्तारि जामा, अवराए वि चत्तारि जामा, उत्तराए वि चत्तारि जामा, बितियाए अट्ट, पुयाए बे चउरो जाभाणं एवं दाहिणाए उत्तराए वि अट्टएए अट्ठाततियाए वीस, पुवाए दिसाए बेचउक्कं जामाणं जाव अहो वेचउक्का, एए बीसंपच्छा तासुसमत्तासु आणंदस्स गाहावइस्स घरे बहुलियाएदासीए महाणसिणीए भायणाणि खणीकरें तीए दोसीण छड्डेउकामाए सामी पविट्ठो, ताए भणति-किं भगवं ! अट्ठो सामिणा पाणी पसारिओ, ताए परमाए सद्धाए दिण्णं, पंच दिव्वाणि पाउब्भूआणि। दढभूमीए बहिआ, पेढालं नाम होइ उज्जाणं। पोलासचेइयम्मी, ठिएगराई महापडिमं // 467|| ततो सामी दढभूमि गओ, तीसे बाहिं पेढालं नाम उजाणं, तत्थ पोलास चेइअं, तत्थ अट्ठमेणं भत्तेणं एगराइयं पडिमं ठिओ, एगपोग्गलनिरुद्धदिट्टी अणमिसनयणो, तत्थविजे अचित्ता पोग्गला तेसु दिट्टि निवेसेइ. सचित्तेहिं
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________________ वीर 1381 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वीर दिहि अप्पाइजइ, जहासंभव सेसाणि वि भासियव्वाणि, ईसिं पब्भारगओईसि ओणयकाओ। सक्को अ देवराया, सभागओ भणइ हरिसिओ वयणं। तिण्णि वि लोगसमत्था, जिणवीरमणं न चालेउं॥४६८|| इओ य सक्को देवराया, भगवंत ओहिणा आभोएत्ता सभाए सुहम्माए अस्थाणीवरगओ हरिसिओ सामिस्स नमोकारं काऊण भणति-अहो भगवं तेलोकं अभिभूअ ठिओ, न सका केणइ देवेण वा दाणवेण वा चालेउ। सोहम्मकप्पवासी, देवो सक्कस्स सो अमरिसेणं। सामाणिअ संगमओ, वेइ सुरिंदं पडिनिविट्ठो||४६६ll तेल्लोकं असमत्थं, ति पेहए तस्स चालणं काउं। अजेव पासह इमं, मम वंसग भट्ठजोगतवं / / 500 / अह आगमो तुरंतो, देवो सक्कस्स सो अमरिसेणं / कासी य ह उवसग्गं, मिच्छद्दिट्ठी पडिनिविट्ठो॥५०१।। इओ य संगमओ नाम सोहम्मकप्पवासी देवो सक्कसामाणिओ अभवसिद्धीओ, सो भणति-देवराया अहो रागेण उल्लवेइ. को माणुसो देवेण न चालिजइ ? अह चालेमि, ताहे सक्को तं न वारेइ, मा जाणिहिइपरनिस्साए भगवं तवोकम्मं करेइ, एवं सो आगओ। धूली पिवीलिआओ, उइंसा चेव तह य उण्होला। बिछुय नउला सप्पा, य मूसगा चेव अट्ठमगा / / 502 / / हत्थी हस्थिणिआओ, पिसायए घोररूववग्धो य। थेरो थेरीइ सुओ, आगच्छइ पक्कणो य तहा।५०३॥ खरवायकलंकलिया, कालचक्कं तहेव य। पाभाइयउवसग्गे, वीसइमो होइ अणुलोमो / / 504|| सामाणिअदेवड्डि, देवो दावेइ सो विमाणगओ। भणइ य वरेह महरिसि!, निप्फत्ती सग्गमोक्खाणं // 50 // उवहयमइविण्णणो, ताहे वीरं बहुप्प साहेउं। ओहीए निज्झाइ, झायइ छजीवहियमेव / / 506 // ताहे सामिस्स उवरि धूलिवरिसं वरिसइ, जाहे अच्छीणि कण्णा य सव्वसोत्ताणि पूरियाणि, निरुस्सासो जाओ, तेण सामी तिलतुसतिभागमित्तं पि झाणाओ न चलइ, ताहे संतोतंतो साहरित्ता ताहे कीडिआओ विउव्वइ वज्जतुंडाओ, ताओ समंतओ विलग्गाओ खायंति, अण्णातो सो तेहिं अन्तोसरीरगं अणुपविसित्ता अण्णेणं सोएणं अतिति अण्णेण णिति, चालिणी जारिसो कआ, तह वि भगवं न चालिओ, ताहे उसे वजतुंडे विउव्वइ, ते तं उद्दसा वज्जतुंडा खाइंति, जे एगेण पहारेण लोहियं नीणिति, जाहे तह वि न सका ताहे उण्होला विउव्वति, उण्होला तेल्लपाइआओ. ताओ तिक्खेहि तुडेहिं अतीव डसंति, जहाजहा उवसगं करेइ तहातहा सामी अतीव झाणेण अप्पाणं भावेइ, जाहे तेहिं न सकिओताहे विच्छुए | विउव्वति, ताहे खायंति जाहे न सका ताहे नउले विउज्वइ, ते तिक्खाहि दाढाहिं डरांति, खंडखंडाइं च अवणेति, पच्छा सप्पे विसरोसपुण्णे उग्मविसे डाहजरकारए, तहि विन राक्का, मूसए विउव्वइ, ते खंडाणि अवणेत्ता तत्थेव वोसिरति मुत्तपुरीस, ततो अतुला वेयणा भवति। जाहे न सक्का ताहे हस्थिरूवं विउव्वति, ते ण हत्थिरूवेण सुडाए गहाय सत्तऽहताले आगासं उक्खिवित्ता पच्छा दंतमुसलेहि पडिच्छति, पुणो भूमीए विंधति, चलणतलेहिं मलइ, जाहे न सको ताहे हस्थिणियारूव विउव्वति, साहत्थिणिया सुंडाएहिं दंतेहिं विंधइ फालेइय पच्छा काइएण सिंचइ, ताहे चणणेहि मलेइ जाहे न सका ताहे पिसायरूवं विउव्वति, जहा कामदेवे, तेण उवसग करेइ। जाहे न सका ताहे वग्घरूवं विउव्वति, सो दाहिं नखेहि य फालेइ, खारकाइएण सिंचति, जाहे न सका ताहे सिद्धत्थरायरूवं विउव्वति, सो कट्ठाणि कुललाणि विलवइएहि पुत्त ! मा मा उज्झाहि, एवमादि विभासा, ततो तिसलाए विभासा, ततो सूर्य, किह ? सो ततो खंधावार विउव्वति, सो परिपेरंतेसु आवासिओ, तत्थ सूतो पत्थरे अलभंतो दोण्ह वि पायाण मज्झे अग्गिं जालेत्ता पायाण उवरि उक्खलियं काउं पयइओ, जाहे एएण वि न सक्का ततो पक्कण विउव्वति, सो ताणि पंजराणि बाहुसुगलए कण्णेसुय ओलएइ, तेसउणगा तंतुंडेहिं खायति विधति सण्णं काइयं च वोसिरति, ताहे खरवायं विउब्वेइ, जेण सक्का मंदर पि चालेउ, न पुण सामी विचलइ, तेण उप्पाडेत्ता उप्पाडेत्ता पाडेइ, पच्छा कलंकलियवाय विउव्वइ, जेण जहा चक्काइडगो तहा भमाडिजइ, नंदिआवत्तो वा, जाहे एवं न सक्का ताहे कालचक्क विउव्वति, तं घेत्तूणं उढुंगगणतलं गओ, एत्ताहे मारेमि त्ति मुएइ वजसंनिभ ज मंदरं पिचूरेज्जा, तेण पहारेण भगवताव णिवुड्डो जाव अग्गनहा हत्थाण, जाहे न सक्का तेण विताहे चिंतेति-न सक्को एस मारेउं, अणुलोमे करेमि, ताहे पभायं विउव्वइ, लोगो सव्वो चंकमिउं पवत्तो भणति-देवजगा ! अच्छसि अज वि ? भयवं पि नाणेण जाणइ जहा न ताव पभाइ जाव सभावओपभायंति, एस वीसइमो। अन्ने भणन्ति तुट्ठोमि तुज्झ भगवं! भण किं देमि ? सगं वा ते सरीरं नेमि मोक्खं वा नेमि, तण्णि वि लोए तुज्झ पादेहिं पाडेनि? जाहे न तीरइ ताहे सुट्ट्यरं पडिनिवेसं गओ, कल्लं काहिति, पुणो वि अणुक डइ। वालुयपंथे तणा, माउलपारणग तत्थ काणच्छी। तत्तो सुभोम अंजलि, सुच्छित्ताए य विडरूवं / / 507 / / ततो सामी वालुगा नाम गामो तं पहाविओ, एत्थंरा पंच चोरसए विउव्वति, वालुगं च जत्थ खुप्पइ, पच्छा तेहि माउलोत्ति वाहिओ पव्ययगुरुतरेहिं सागयं च वज्जसरीरा दिति जहिं पव्वयावि फुट्टिना, ताहे वालुयं गओ, तत्थ सामी भिक्खं पहिडिओ, तत्थावरेतुं भगवतो रूवं काणच्छि अविरझ्याओ गडेइ, जाओ तत्थ तरुणीओताओ हम्मति, ताहे निग्गतो ! भगवं सुभोमं वचइ. तत्थ वि अतियओ भिक्खायरियाए, तत्थ वि आवरेत्ता महिलाणं अंजलिं करेइ, पच्छा तेहिं पिट्टिजति, ताहे भगवं णीति, पच्छा सुच्छेत्ता नाम गामो तर्हि वचइ जाहे अतिगतो सामी भिक्खाए
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________________ वीर 1382- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 ताहे इमो आवरेत्ता विडरूवं विउव्वइ, तत्थ हसइय गायइय अट्टहासे य मुंचति, काणच्छियाओ य जहा विडोतहा करेइ, असिहाणिय भणइ, तत्थ वि हम्मइ, ताहे ततो विणीति। मलए पिसायरूवं, सिवरूवं हत्थिसीसए चेव। ओहसणं पडिमाए, मसाण सक्को जवणपुच्छा!।५०८|| ततो मलयं गतो गाम, तत्थ पिसायरूवं विउव्वति, उम्मत्तय भगवतो रू करेइ, तत्थ अविरइयाओ अवतासे गेण्हइ, तत्थ चेडरूवेहि छारकयारेहि भरिजइलेड्डु (ठु) एहिं चहम्मइ, ताणि य विहावेइ ततो ताणि छोडियापडियाणि नासति, तत्थ कहितहम्मति, ततो सामी निगतो हत्थिसीसं गामं गतो, तत्थ भिक्खाए अतिगयस्स भगवओ सिवरूवं विउच्वइ सागारियं च से कसाइययं करेइ, जाहे पेच्छइ अविरइयं ताहे उहवेइ, पच्छा हम्मति, भयव चिंतेतिएस अतीव गाढ उड्डाहं करेइ अणेसणं च, तम्हा गाम चेवन पविसामि बाहिं अच्छामि, अण्णे भणंतिपंचालदेवरूवं जहा तहा विउव्वति, तदा किर उप्पण्णो पंचालो, ततो बाहि निग्गओ गागल्स, जओ महिलाजूअंतओ कसाइततेण अच्छति, ताहे किर ढोढसिवा पवत्ता, जम्हा सक्केण पूइओ ताहे ठिया, ताहे सामी एणतं अच्छति, ताहे संगमओ उहसेइ-नसक्का तुम ठाणाओ चालेउं? पेच्छामि ता गाम अतीहि, ताहे सक्को आगतो पुच्छइ-भगवं ! जत्ता भे जवणिज्ज अव्वाबाह फासुयविहारं ? वंदित्ता गओ। तोसलिकुसीसरूवं, संधिच्छेओ इमो त्ति वज्झो य। मोएइ इंदालिउ, तत्थ महाभूइलो नाम / / 506 / / ताहे सामी तोसलिं गतो, बाहिं पडिम ठिओ, ताहे सो देवो चिंतेइ-एस न पविसइ एताहे एत्थ वि से ठियस्स करेमि उवसग, ततो खुड्डगरूवं विउव्वित्ता संधिं छिदइ उवकरणेहिं गहिएहिं धाडीए तओ सो गहितो भणति-मा मम हणह, अहं किं जाणा-नि? आयरिएण अहं पेसिओ, कहिं सो ? एस बाहिं अमुए उज्जाणे, तत्थ हम्मति, बज्झतिय, मारेजउ त्ति य बज्झो णीणिओ, तत्थ भूइलो नाम इंदजालिओ, तेण सामी कुंडग्गामे दिडओ, ताहे सो मोएइ, साहइय-जहा एस सिद्धत्थरायपुत्तो. | मुक्को खामिओ खुडओ मग्गिओय, न दिट्ठो, नायं जहा से देवो उवसर्ग करेइ। मोसलि संधि सुभागह, मोएइ रहिओ पिउवयंसो। तोसलिय सत्तरजू, वावत्तीतोसलीमोक्खो॥५१०।। ततो भगवं मोसलिंगओ, तत्थ विबाहिं पडिमं ठिओ, तत्थ विसो देवो खुडगरूवं विउव्वित्ता संधिमग्गं सोहेइ पडिलेहेइ य, सामिस्स पासे सध्याणि उवगरणाणि विउव्वइ, ताहे सो खुडओ गहिओ, तुम कीस एत्थ सोहेसि ? साहइममधम्मायरिओ रत्तिमा कंटए भंजिहिति सो सुहं रत्तिं खत्तं खणिहिति, सो कहिं ? कहिते गया, दिवो सामी, ताणि य परिपेरन्ते पासंति, गहितो आणीओ, तत्थसुमागहो नाम रट्टिओ पियमित्तो भगवओ सो मोएइ, ततो सामी तोसलिंगओ, तत्थ वि तहेव गहिओ, नवरं उक्कलं विजिउमाढत्तो; तत्थ से रजू छिण्णो, एवं सन्त वारा छिण्णो, ताहे सिट्ट तोसलियरस खत्तियस्स, सो भणतिमुयह एस अचोरो निद्बोसो, तं खुड्य : मग्गह, मग्गिजंतो न दीसइ. नायं जहा देवो ति। सिद्धत्थपुरे तेणे, त्ति कोसिओ आसवाणिओ मोक्खो। वयगाहिंडऽणेसण, बिइयदिणे वेइ उवसन्तो।।५११॥ ततो सामी सिद्धत्थपुरं गतो, तत्थ वि तेण तहा कयं जहा तेणो त्ति गहिओ, तत्थ कोसिओ नाम अस्सवाणियओ, तेणं कुंडपुरे सामी दिडिल्लओ, तेण मोयाविओ। ततो सामी वयगाम ति गोउलं गओ, तत्थ य तद्विवसं छणो, सव्वत्थ परमण्णं उवक्खड़ियं, चिरं च तस्स देवस्स ठियस्स उवसग्गे काउं सामी चिंतेइ-गया छम्मासा, सो गतो त्ति अतिगओ जाव असणाओ करेति, ततो सामी उवउत्तो पासति, ताहे अद्धहिडिए नियत्तो, बाहिं पडिमं ठिओ, सो य सामि ओहिणा आभोएतिकिं भग्गपरिणामो न वत्ति? ताहे सामी तहेव सुद्धपरिणामो ताहे द? आउट्टो, न तीरइ खोभेउ, जो छहिं मासेहिं न चलिओ एस दीहणावि कालेण न सको चालेउ, ताहे पादेसुपडिओ भणति-सचं जसो भणति, सव्वं खामेइ-भगवं! अह भग्गपतिण्णो तुम्हे सम्मत्तपतिण्णा। वच्चह हिंडह न करे-मि किंचि इच्छा न किंचि वत्तव्यो। तत्थेव वच्छवाली, थेरी परमन्नवसुहारा // 512 / / छम्मासे अणुबद्धं, देवो कासी य सो उ उवसगं / दठूण वयग्गामे, वंदिय वीरं पडिनियत्तो // 513 / / जाह एताहे अतीह न करेमि उवसम्ग, सामी भणति-भो संगमय ! नाह कस्सइवत्तव्यो, इच्छाए अतीमिवाण वा ताहे सामी बितियदिवसे अत्थेव गोउले हिडतो वच्छवालथेरीए दोसीसेण पायसेण पडिलाभिओ, ततो पंच दिव्वाणि पाउन्भूयाणि, एगे भणंति-जहा तदिवसं खीरं न लद्धं ततो बितियदिवसे ऊहारेऊण उवक्खडियं तेण पडिलाभिओ। इओय सोहम्मे कप्पे सव्वे देवा तदिवसं उद्विग्गमणा अच्छति, संगमओय सोहम्मे गओ, तत्थ समझोतंदटूण परंमुहो ठिओ, भणइ-देवे भो ! सुणह एसे दुरप्पा, ण एएण अम्ह वि चित्तावरक्खा कया अन्नेसिं वा देवाणं, जओ तित्थकरो आसाइओ, न एएण अम्ह कज्जं, असंभासो निव्विसओ य कीरउ। देवों चु(ठि)ओ महिड्डिओ, वरमंदरचूलियाइसिहरम्मि। परिवारिउ सुरबहुहिं, आउम्मि य सागरे सेसे / / 514 / / ताहे निच्छढो सह देवीहिं मंदरचूलियाए जाणएण विमाणेणागम्म ठिओ, सेसा देवा इदेण वारिता, तस्स सागरोवमठिती सेसा। आलमियं हरि विज्जू, जिणस्स भत्तीऍ वंदओ एइ। भगवं पियपुच्छा जिय, उवसग्ग त्ति थेवमवसेसं / / 515 / / हरिसह सेयवियाए, सावत्थी खंदपडिमसको य। ओयरि पडिमाए, लोगो आउट्टिओ बंदे।।५१६||
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________________ वीर 1353 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वीर तत्थ सामी आलभियं गओ, तत्थ हरि विज्जुकुमारिंदो एति, ताहे सो वंदित्ता भगवओ महिमं काऊण भणतिभगवं ! पियं पुच्छामो, नित्थिण्णा उवसग्गा, बहुं गय थोवमवसेस, अचिरेण भे केवलणाणं उप्पजिहिति। ततो सेयवियं गओ, तत्थ हरिसहो पियपुच्छओ एइ, ततो सावत्थिगओ, बाहिं पडिमं ठिओ, तत्थ खंदगपडिमाए महिम लोगो करेइ, सक्को आहिं पउंजति, जाव पेच्छइ खंदपडिमाए पूर्य कीरमाणं, सामि णाढायति, उत्तिण्णौ सा य अलंकिया रह विलग्गिहिति त्ति, ताहे सको तं पडिमं अणुपविसिऊण भगवंतेण पट्टिओ, लोगो तुह्रो भणति-देवो सयमेव विलग्गिहिति, जाव सामि गंतूण वंदति, ताहे लोगो आउट्टो, एस देवदेवो त्ति महिम करेइ जाव अच्छिओ। कोसंबि चंदसूरो-यरणं वाणारसी य सक्को उ। रायगिहे ईसाणो, महिला जणओ य धरणो य / / 517|| ततो सामी कोसबि तो तत्थ चंदसूरा सविमाणा महिमं करेंति, पियं च पुच्छंति, वाणारसी य सक्को पियं पुच्छइ रायगिहे, ईसाणो पिय पुच्छइ. मिहिलाए जणगो राया पूर्व करेति, धरणो य पियपुच्छत्रो एई। वेसालि भूयणंदो, चमरुप्पाओ य सुंसुमारपुरे। भोगपुरि सिंदकंदग, माहिंदो खत्तिओ कुणति / / 518|| ततो सामी वेसालि नगरि गतो, तत्थेक्कारसमो वासारत्तो, तत्थ भूयाणंदो पिय पुच्छइ नाणं च वागरेइ। ततो सामी सुसुमारपुर एइ, तत्थ चमरो उप्पयति, जहा पन्नत्तीए, ततो भोगपुरं एइ, तत्थ माहिंदो नाम खत्तिओ सामिं दद्दूणा सिंदिकंदयेण आहणामि त्ति पहावितो, सिंदीखर्जूरी। वारणसणंकुमारे, नंदीगामे पिउसहा वंदे। मंढियगामे गोवो, वित्तासणयं च देविंदो।।५१६॥ एत्यंतरे सणकुमारो एति, तेण धाडिओ तासिओ य पियं च पुच्छइ। ततो नंदिगामंगओ, तत्थ णंदीणाम भगवओ पियमित्तो, सो महेइ, ताहे मेंढिय एइ। तत्थ गोवो जहा कुम्मारगामे तहेव सक्केण तासिओ वालरज्जुएण आहणतो। कोसंबिऍ सयॉणीओ, अभिग्गहो पोसबहुलपाडिवई। चाउम्मासमिगावइ, विजयसुगुत्तो य नंदा य॥ 520|| तघावाई चंपा, दहिवाहण वसुमई विजयनामा। धणवह मूला लोयण, संपुल दाणे य पव्वज्जा / / 521 / / तो कोसंबिंगओ, तत्थ सयाणीओ राया, मियावती देवी, तचावाती नामा धम्मपाढओ, सुगुत्तो अमच्चो, णंदा से भारिया, सा य समणोवासिया, साय साड्डेत्ति मियावईए वयंसिया, तत्थेव नगरे धणावहो सेट्ठी, तस्स मूला भारिया, एवं ते सकम्मसंपउत्ता अच्छंति। तत्थ सामी पोसबहुलपाडिवए इमं एयारत्वं अभिग्गह अभिगिण्इ चउव्विहंदव्यओ खित्तओ, कालओ, भावओ, दव्वओ कुम्मासे सुप्पकोणेणं, खेत्तओ एलुगं विक्खं भइता, कालओ नियत्तेसु भिक्खायरेसु, भावतो जहा रायधूया दासत्तण पत्ता नियलबद्धा मुंडियसिरा रोवमाणी अट्टमभत्तिया. एवं कप्पति, सेसं न कप्पति, एवं घेत्तूण कोसंबीए अच्छति। दिवसे दिवसे भिक्खायरियं च फासेइ, किंनिमित्तं ? बावीस परीसहा भिक्खायरियाए उदिजन्ति, एवं चत्तारि मासे कोसंबीए हिंडंतस्स त्ति। ताहे नंदाए घरमणुप्पविट्ठो, ताहे सामी णाओ, ताहे परेण आदरेण भिक्खा णीणिया, सामी निग्गओ, सा अधितिं पगया, ताओदासीओ भणंति-एस देवजओ दिवसे दिवसे एत्थ एइ-ताहे ताए नायं-नूणं भगवओ अभिग्गहो कोइ, ततो निरायं चेव अधिती जाया, सुगुत्तोय अगच्चो आगओ, ताहे सो भणति-किं अधिति करेसि? ताहे कहियं, मणति-किं अम्ह अमच्चत्तणेणं? एवचिरं कालं सामी भिक्खन लहइ, किंचते विन्नाणेणं? जइएवं अभिग्गहन याणसि, तेण सा आसासिया, कल्ले समाणे दिवसे जहा लहइतहा करेमि। एयाए कहाए वट्टमाणीए विजयानाम पडिहारी मिगावतीए भणिया सा केणइ कारणेणं आगया, सा त सोऊण उल्लावं मियावतीए साहइ, मियावती वि तं सोऊण महया दुक्खेणाऽभिभूया, सा चेडगधूया अतीय अधिति पगया, राया य आगओ पुच्छइतीए भण्णइ-किं तुज्झ रज्जेणं ? मते या? एवं सामिस्स एवतियं कालं हिंडतस्स भिक्खाभिग्गहो न नाइ, न च जाणासि एल्थ विहरंत, लेण आसासिया - तहा करेमि जहा कल्ले लभइ, ताह सुगुत्तं अमचं सद्दावेइ, अंवाडेइ य - जहा तुम आगयं सामि नयाणसि, अज्ज किर चउत्थोमासो हिंडतस्स, ताहेतचावादी सदाविती, ताहे सो पुच्छिओ सयाणीएण तुभं धम्मसत्थे सव्वपासंडाण आयारा आगया ते तुम साह, इमोऽवि भणितो - तुम पि बुद्धिबलिओ साह, ते भणंति-बहवे अभिग्गहा, णणजंति को अभिप्पाओ? दव्यजुत्ते खेत्तजुत्ते कालजुत्ते भावजुत्ते सत्त पिंडेसणाओ सत्त पासेणणाओ, ताहे रण्णा सव्वत्थ संदिट्ठाओ लोगे, तेण वि परलोयकंखिणा कयाओ, सामी आगतो, न य तेहिं सव्वेहिं पयारेहि, गेण्हइ, एवं च ताव एयं / इओ य सयाणीओ चंप पहाविओ, दधिवाहणं गेण्हामि, नावा कडएणं गतो एगाते रत्तीते, अचिंतिया नगरी देदिया-तत्थ दहिवाहणो पलाओ, रण्णा य जग्गहो धोसिओ, एवं जग्गहे घुढे दहिवाहणस्स रण्णो धारिणी देवी, तीसे धूया वसुमती, सा सह यूयाए एगेण होडिएण गहिया, राया य निग्गओ, सो होडिओ भणति एसा मे भज्जा, एयं च दारिय विक्केणिसं, सा तेण मणोमाणसिएण दुक्खेण एसा मम धूया ण णज्जइ किं पाविहिति त्ति अंतरा चेव कालगया, पच्छा तस्स होडियस्स चिंता जाया-दुट्ठ मे भणियं - महिला ममं होहि त्ति, एत धूयं से ण भणामि, मा एसा वि मरिहिति, ता मे मोल्लं पिण होहि त्ति ताहे तेण अणुयत्ततेण आणीया विवणीए उड्डिया, धणावहेण दिट्ठा, अणलंकियला वण्णा अवस्स रणो ईसरस्स वा एसा धूया, मा आवई पावउ त्ति, जत्तियं सो भणइ तत्तिरण मोल्लेण गहिया, वरं तेण समं मम तम्मिनगरे आगमण गमण च होहिति त्ति, णीया णिययघरं, कासि तुमं ति पुच्छिया, न साहइ, पच्छा
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________________ वीर 1384 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वीर लेण धूय ति गहिया, एवं सा हाविया, मूला वि तेण भणिया- एस तुज्झ धूया, एवं सा तत्थ जहा नियघरं तहा सुहं सुहेण अच्छति, ताए वि सो सदा सपरियणो लोगो सीलेणं विणएण य सव्वो अप्पणिजओ कओ, ताहे ताणि सव्वाणि भणति -- अहो इमा सीलचंदण त्ति, ताहे से बितियं नाम जायं चंदण त्ति, एवं, वचति कालो, ताए य धरणीए अवमाणो जागति, मच्छरिजइ य, को जाणाति? कयाति एस एवं पडिवजेजा, गाह अस अस्सामिणी भविस्सामि, तीसे य बाला अतीव दीहा स्म क हायस, सो सेट्ठी मज्झण्हे जणविरहिए आगओ, जावनस्थि का इति; ताहे सा पाणियं गहाय निग्गया, तेण वारिया, सा नडाए ग्याविया, ताहे धोवंतीए बाला बद्धेल्लया छुट्टा, मा शियल मिति सि तस्स हत्थे लीलाकट्ठयं, तेण धरिया बद्धा य। मूलाय ओलागणावरगया पेच्छइ, तीए णायं विणसियं कज्जं, जइ एवं विह विपरि 13 मर्म एस नत्थि जाव तरुणओ वाही ताव तिगिच्छामि त्ति सिटिम निगए ताए ण्हावियं सद्दावेत्ता बोडाविया (मुण्डिता), निथलाह बद्धा, पिट्टिया या, वारिओ णाए परिजणो-जो साहइ वाणियगरस सोममनस्थि, ताहे सो पिल्लियओ सा रे छोण बाहिरि कुहंडिया, सो कमेण आगओ पुच्छइ-कहिं चंदणा ? न कोइ वि साहइ भयेण, सो जगति - नूर्णरमति उवरिया। एवं राति पि पुच्छिया जाणाति सा सुत्ता नणं, वितियदिवसेऽवि सा न दिट्ठा, ततियदिवसे धणं पुच्छइ साहह मा भे भारह, ताहे थेरदासी एका, सा चिंतेइ-किं मे जीविएण ? सा जीवउ रई, ताइ कहियं - अमुयघरे: तेण उग्घाडिया, छुहाहयं पिच्छित्ता कूर पमग्गितो, जाव समावत्तीए नत्थिताहे कुम्मासा दिट्टा, तीसे ते, सुप्पकोणे दाऊण लोहारघरं गओ, जा नियलाणि छिंदावेमि, ताहे सा हत्थिणी जहा कुल संभरिउमारद्धा एलुगं विक्खंभइत्ता, तेहिं पुरओ कएहिं हिययभंतरओ रोवति, सामीय अतियओ, ताए चिंतियं सामिस्स देमि, मम एवं अहम्मफलं, भणति-भगवं ! कप्पइ? सामिणा पाणी पसारिओ, चउव्विहोऽवि पुण्णो अभिगहो, पंच दिव्वाणि ते, बाला तयवत्था चेव जाया, ताणिऽवि से नियलाणि फुट्टाणि सोवणियाणि नेउराणि जायाणि, देवेहि यसव्वालंकारा कया, सक्को देवराया आगओ, वसुहारा अद्धतेरस हिरणकोडिओ पाडियाओ, कोसंबीए य सव्वओ उग्घुट्ट - केण पुण पुण्णमतेण अज सामी पडिलाभिओ ? ताहे राया संतेउरपरियणो आगओ, ताहे तत्थ संपुला नाम दहिवाहणस्स कंचुइजो सो बधित्ता आणियओ लेण सा णाया, ततो सो पादेसुपडिऊण परुण्णो, राया पुच्छइ का एसा!, तेण से कहियं -जहेसा दहिवाहण-रण्णो दुहिया, मियावती गणइ -- मम भगिणीधूय ति, अमचोऽवि सपत्तीओ आगओ, सामि वंदइ, सामी वि निग्गओ, ताहे राया तं वसुहार पगहिओ, सझेण वारिओ, जर ससादह तस्साऽऽभवइ, सा पुच्छिया भणइ-मम पिउणो, ताहे सेद्धिणा गहिय / ताहे सण सयाणीओ भणिओ-एसा चरितसरीरा, एय सगोवाहि०जाद रामिस्स नाणं उप्पज्जइ, एसा पढमसिस्सिगा, ताहे कन्नतेउरे छूढा संवडति। छम्मासा तथा पंचहि दिवसेहिं ऊणा जदिवस सामिणा भिक्खा लद्धा / सा मूला लोगेणं अंबाडिया, हीलिया य। तत्तो सुमंगलाए, सणकुमार सुछित्त एइ माहिंदो। पालगवाइलवणिए, अमंगलं अप्पणो असिणा।।५२२।। सामी ततो निगंतूण सुमंगल नाम गामो तहिं गओ, तत्थ सणंकुमारो एइ वंदति पुच्छति य / ततो भगवं सुच्छित्तं गओ, तत्थ माहिंदो पिय पुच्छओ एइ / ततो सामी पालगं नाम गाम गओ, तत्थ वाइलो नाम वाणियओ जताए पहाविओ अमंगलं ति काऊण असिं गहाय पहाविओ एयस्स फलउत्ति तत्थ सिद्धत्थेण सहत्थेण सीसं छिण्णं। चंपा वासावासं,जक्खिदे साइदत्तपुच्छाय। वागरणदुहपएसण, पचक्खाणे य दुविहे उ॥५२३।। ततो सामी चंप नगरिंगओ, तत्थ सातिदत्तमाहणस्स अग्निहोत्तसालाए वसहिं उवगओ, तत्थ चाउम्मासं खमति, तत्थ पुण्णभद्दमाणिभद्दा दुवे जक्खा रत्तिं पज्जुवासंति, चत्तारि विमासे पूयं करेंति रत्तिं रत्तिं, ताहे सो चिंतेई - किं जाणाति एस तो देवा महंति ताहे विनासणानिमित्त पुच्छइ-को ह्यात्मा? भगवानाह-योऽहमित्यभिमन्यते / स कीदृशः ? सूक्ष्मोऽसौ / किं तत् ? सूक्ष्मम्, यन्न गृह्णीमः / ननु शब्दगन्धानिलाः, नैते, इन्द्रियग्राह्यास्ते न ग्रहणमात्मनः, ननु ग्राहयिता सः / किं भंते ! पदेसणयं? किं पचक्खाण ? भगवानाह-सादिदत्त ! दुविह पदेसणगंधम्मियं, अधम्मियं च / पदेसणं नाम उवएसो / पञ्चक्खाणेऽवि दुविहे - मूलगुणपचक्खाणे, उत्तरगुणपचक्खाणे य / एएहि पएहिं तस्स उवगतं / भगवं ततो निग्गओ। जंमियगामे नाण-स्स उप्पया वागरेइ देविंदो। मिढियगामे चमरो, वंदण पियपुच्छणं कुणइ / / 524|| जंभियगामं गओ, तत्थ सचो आगओ, वंदित्ता नट्टविहिं उवदसित्ता वागरेइ-जहा एत्तिएहिं दिवसेहिं केवलनाणं उष्पञ्जिहिति / ततो सामी मिढियमामं गओ, तत्थ चमरओ वंदओ पियपुच्छओ य एति, वंदित्ता पुच्छित्ता य पडिगतो। छम्माणि गोव कडसल-पवेसणं मज्झिमाएँ पावाए। खरओ विजों सिद्धत्थ, वाणियओ नीहरावेइ / / 525|| ततो भगव छम्माणि नाम गाम गओ, तरस बाहि पडिम ठिओ, तत्थ सामिसमीवे गोवो गोणे छड्डेऊण गामे पविट्ठो दोहणाणि काऊण निग्गओ, ते य गोणा अडविं पविट्ठा चरियध्वगस्स कजे, ताहे सो आगतो पुच्छति-देवज्जग ! कहिं ते वइल्ला? भयर्व मोणेण अच्छइ, ताहे सो परिकुविओ भगवतो कण्णेसु कडसलागाओ छुहति, एगा इमेण कण्णेण एगा इमेण जाव दोन्नि वि मिलियाओ, ताहे मूले भग्गाओ मा कोइ उक्खणिति त्ति / केइ भणंति-एक्का चेव जाव इयरेण कण्णेण निग्गता ताहे भग्गा, 'कण्णेसु तउं तत्तं, गोवस्स कयं तिविठुणा राणा / कण्णेसु वद्धमाणस्स तेण छूढा कडसलाया / / 1 / / ' भगवतो तहारवेयणीयं कम उदिण्णं / ततो सामी मज्झिमं गतो, तत्थ सिद्धत्थो
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________________ वीर 1385 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वीर नाम वाणियगो, तस्स धर भगवं अतीयओ, तस्स य मित्तो खरगो नाम वेज्जो, ते दो विसिद्धत्थस्स घरे अच्छति, सामी भिक्खस्स पविट्ठो वाणियओ वंदति थुणति य, वेज्जो तित्थगरं पासिऊण भणति- अहो भगवं सव्वलक्खणसंपुण्णो किं पुण ससल्लो, ततो सो वाणियओ संभतो भणति-पलोएहि कहिं सल्लो? तेण पलोएतेण दिट्टो कण्णेसु, तेण वाणियण भण्णइ-गीणेहि एवं महातवस्सिस्स पुण्ण होहिति त्ति, तव दि मज्झ वि। भगति-निप्पडिकम्मो भगव नेच्छति, ताहे पडियरावितो जाव दिट्ठो उजाणे पडिम ठिओ, ते ओसहाणि गहाय गया, तत्थ बगवं तेल्लदोणीये निबजाविओ मक्खिओ य पच्छा बहुएहि मणूसेहि जंतिओ अकतो य, पच्छा, संडासतेण गहाय कड्डियातो, तत्थ सरुहिराओ सलागाओ अछियाओ, तासु य अंछिज्जतिसु भगवता आरसिय, ते य मणूसे उप्पाडित्ता उढिओ, महाभेरवं उज्जाणं तत्थ जायं, देवकुलं च, पच्छा संरोहणं ओसह दिन्नं, जेण ताहे चेव पउणो, ताहे वंदित्ता खामेत्ता य गया। सव्वेसु किर उवसग्गेसु कयरे दुव्यिसहा ? उच्यते-कडपूयणासीयं कालचक एवं चेव सल्लं निक्कड्डिज्जतं, अहवा-जहण्णगाण उवरि कडपूयणासीर, मज्झिमगाण उवरि कालचक्क, उनोसगाण उवरि सल्लुद्धण्णं / एवं गोवेणारद्धा उक्सग्गा गोवेण चेव निहिता। गोवो अहो सत्तमि पुढविं गओ। खरतो सिद्धत्थो य देवलोग तिव्वमवि उदीरयंता सुद्धभावा। आव० 1 अ01 (25) उपसर्गसहनानन्तरं वीरस्य श्रमणत्वम् - तए णं समणे भगवं महावीरे अणगारे जाए, इरियासमिए भासासमिए एसणासमिए आयाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिए उच्चारपासवणखेलसिंघाणजल्लपारिट्ठावणियासमिए मणसमिए वयसमिए कायसमिए मणगुत्ते वयगुत्ते कायगुत्ते, गुत्ते गुत्तिदिए गुत्तबंभयारी अकोहे अमाणे अमाए अलोभे संते पसंते उवसंते परिनिव्वुडे अणासवे अममे अकिंचणे छिन्न-गंथे। सू०(१६x) 'तए णं समागे भगवं महावीरे' यत एव परीषहान् सहते ततः, 'ण' वाक्यालङ्कारे, श्रमणो भगवान महावीरः 'अणगारे जाए' अनगारो जातः, किंविशिष्टः-इरिआसमिए' ईयर्या-गमनागमनं तत्र समितः-सम्यक प्रवृत्तिमान 'भासासमिए' भाषायां समितः 'एसणासमिए' एषणायां द्विचत्वारिंशदोषवर्जिताया भिक्षाया ग्रहणे सम्यक्प्रवृत्ति 'भासासमिए' भाषायां समिाः 'एसणासमिए' एषणायां द्विचत्वारिंशद्दोषवर्जिताया भिक्षाया ग्रहणे सम्यकप्रवृत्तिमान् ‘आयाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिए' आदाने ग्रहणे, उपकरणादेरिति ज्ञेयम्, भाण्डमात्रायाः वस्त्राद्युपकरणजातस्य, यदा-भाण्डस्य वस्त्रादेम॒न्मयभाजनस्य धा, मात्रस्य च, समितः प्रत्यवेक्ष्य-प्रमाय॑ मोचनात् 'उचारपांसवणखेलसिंघाणजल्लपारिठ्ठाव णियासमिए, उच्चारःपुरीषं, प्रश्रवणम्-मूत्र. खेलोनिष्ठीवनं, सिडधानो-नासिकानिर्गत श्लेष्म, जल्लो-देहमलः एतेषां यत् परिष्ठा पनंत्यागरतत्र समितः-सावधानः, शुद्धस्थण्डिले परिष्ठापनात् / एतच अन्त्यसमितिद्वयं भगवतो भाण्ड सिवानाद्यसम्भवेऽपि नामाऽखण्डनार्थमित्थमुक्तम्, एवम् ‘मणसमिए' मनसः सम्यक् प्रवर्तकः 'वयसमिए' वचसः सम्यक् प्रवर्तकः 'कायसमिए' कायस्य प्रवर्तकः ‘मणगुत्ते' अशुभपरिणामान्निवर्तकत्वात् मनसि गुप्तः वयगुत्ते एवं वचसि गुप्तः कायगुत्ते' काये गुप्तः 'गुत्ते गुत्तिदिए' अत एव गुप्तः, गुप्तानि इन्द्रियाणि यस्य सः गुप्तेन्द्रियः 'गुत्तबंभयारी' गुप्तं वसत्यादिनववृत्तिविराजितम् एवंविध ब्रहाचर्य चरतीति गुप्तब्रह्मचारी 'अकोहे अमाणे अमाए अलोभे' क्रोधरहितः मानरहितः भायारहितः लोभरहितः 'संतो' शान्तोऽन्तर्वृत्त्या 'पसंते' प्रशान्तो बहिर्वृत्त्या उवसंते' उपशान्तोऽन्तर्बहिश्चोभयतः शान्तः, अत एव परिनिव्वुडे' परिनिर्वृतः- सर्वसन्तापवर्जितः 'अणासर्वे' अनाश्रवः पापकर्मबन्धरहितः हिंसाद्याश्रवद्वारविरतेः 'अममे' ममत्वरहितः 'अकिंचणे' अकिञ्चनः, किञ्चनं-द्रव्यादि तेन रहितः 'छिन्नगंथे' छिन्नःत्यक्तो हिरण्यादि ग्रन्थो येन स तथा / कल्प०१ अधि० 6 क्षण। ("निरुवलेवे'' इत्यादीनि भगवतः विशेषणपदानि 'णिरुवलेव' शब्दे चतुर्थभागे 2115 पृष्ठे गतानि) से अपडिबंधे चउविहे पण्णत्ते, तं जहा-दव्वओ, खित्तओ, कालओ, भावओ / दव्वओ सचित्ताचित्तमीसि एसु दव्वेसु / खित्तओ गामे वा, नयरे वा, अरन्ने वा, खित्ते वा, घरे वा, अंगणे वा, नहे वा / कालओ समए वा, आवलिआए वा, आणपाणुए वा, थोवे वा, खणे वा, लवे वा, मुहुत्ते वा, अहोरत्ते वा, पक्खें वा, मासे वा, ऊऊ वा, अयणे वा, संवच्छरे वा, अन्नयरे वा, दीहकाल संजोए। भावओ-कोहे वा, माणे वा मायाए वा,लोभे वा, भएवा, हासे वा, पिज्जे वा, दोसे वा, कलहे वा, अब्भक्खाणे वा, परपरिवाए वा, अरहरई वा, मायामोसे वा, मिच्छादंसणसल्ले वा, तस्स णं भगवंतस्स नो एवं भवइ।। (सू० 116x) 'सेयपडिबंधे चउत्विहे पण्णत्ते' स च प्रतिबन्धः चतुर्विधः प्रज्ञप्तः 'तं जहा' तद्यथा 'दव्वओ खित्तओ कालओ भावओ' द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतः भावतश्च 'दव्वओ सचित्ताचित्तमीसिएसु दट्वेसु' द्रव्यतस्तु प्रतिबन्धः सचिताऽचित्तमिश्रितेषु द्रव्येषु, सचित्तवनितादि, अचित्तम्- आभरणादि, मिश्र-सालङ्कार वनितादि, तेषु तथा 'खित्तओ गामे वा क्षेत्रतः क्वापि ग्रामे वा 'नयरे वा' नगरे वा 'अरण्णे वा' अरण्ये वा खित्ते वा' क्षेत्रं - धान्यनिष्पत्तिस्थानं तत्र वा 'खले वा' खलंधान्यतुषपृथक्करणस्थानं, तत्र वा 'घरे वा' गृहे वा अंगणे' अङ्गणं-गृहाग्रभागस्तत्र वा 'नहे वा' नभः -- आकाशं तत्र वा, तथा 'कालओ समए वा' कालतः -- समय:सर्वसूक्ष्मकालः उत्पलपत्रशतवेधजीर्णपट्टशाटिकापाटनादि-दृष्टान्तसाध्यस्तत्र वा 'आवलियाए वा' आवलिका-आसख्यातसमयरूपा 'आणपाणुएवा' आनप्राणी-उच्छ्वासनिःश्वासकालः 'थोवेवा' स्तोकःसप्तोच्छवासमानः 'खणे वा' क्षणे घटिषष्ठभागे या 'लवे वा' लवः-स
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________________ वीर 1386 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वीर प्सस्तोकमानः 'मुहुत्ते वा' मुहुर्तः–सप्तसप्ततिलवमानः 'अहोरत्ते वा, पक्खे वट्टमाणस्स,जे से गिम्हाणं दुचे मासे चउत्थे पक्खे वइसाहसुद्धे वा, मासे वा, उऊ वा, अयणे वा, संवच्छरे वा' अहोरात्रे वा, पक्षे वा, तस्स णं वइसाहसुद्धस्स दसमीपक्खेणं पाईणगामिणीए छायाए मासे वा, कतौ वा, अयने वा, संवत्सरे वा 'अण्णयरे वा दीहकालसंजोए' पोरिसीए अभिनिवट्ठाए पमाणपत्ताए सुव्वएणं दिवसेणं विजएणं अन्यतरस्मिन् वा दीर्घकालसंयोगे, युगपूर्वाङ्ग पूर्वादौ 'भावओ' भावतः- मुहुत्तेणं जंभियगामस्स नगरस्स बहिआ उज्जुबालिआए नईए 'कोहे वा, माणे वा, मायाए वा, लोभे वा, भए वा, हासे वा' क्रोधे वा, तीरे वेयावत्तस्स चेइअस्स अदूरसामंते सामागस्स गाहावइस्स माने वा, मायायां वा, लोभे वा, भये वा, हास्ये वा, 'पिज्जे वा, कलहे कट्ठकरणंसि सालपायवस्स अहे गोदोहिआए उकुडि-अनिसिवा, अब्भक्खाणे वा' प्रेम्णि वा, रागे वा, द्वेष-अप्रीती, कलहे-वाग्युद्धे, जाए आयावणाए आयवेमाणस्स छटेणं भत्तेणं अपाणएणं अभ्याख्याने-मिथ्याकलङ्कदाने, 'पेसुन्ने वा, परपरिवाए वा पैशून्ये- हत्थुत्तराहिं नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं झाणंतरिआए वट्टमाणस्स प्रच्छन्नदोषप्रकटने, परपरिवादे विप्रकीर्ण परकीयगुणदोषप्रकटने अणं ते अणुत्तरे निव्वाघाए निरावरणे क सिणे पडिपुन्ने 'अरइरई वा, मायामोसे वा' मोहनीयोदयाचित्तोद्वेगः- अरतिः, रतिः- केवलवरनाणदंसणे समुप्पन्ने / / 120|| मोहनीयोदयाचित्तप्रीतिस्तत्र, मायया युक्ता मृषा मायामृषा तत्र 'तस्स णं भगवंतस्स' तस्य भगवतः ‘अणुत्तरेणं नाणेणं' अनुत्तरेण'मिच्छादसणसल्ले वा' मिथ्यादर्शनं मिथ्यात्वं, तदेव अनेकदुःख- अनुपमेन ज्ञानेन 'अनुत्तरेणं दंसणेण' अनुपमेन दर्शनेन 'अणुत्तरेणं हेतुत्वाच्छल्यं मिथ्यादर्शनशल्यं, तत्र 'तस्सणं भगवतस्स नो एवं भवई' चारित्तेणं अनुपमेन चारित्रेण 'अणुत्तरेण आलएणं' अनुपमेन आलयेन तस्य भगवतः एवं पूर्वोक्तस्वरूपेषुद्रव्यक्षेत्रकालभावेषु कुत्रापि प्रतिबन्धो स्त्रीषण्डादिरहितवसतिसेवनेन 'अणुत्तरेण विहारेणं अनुपमेन विहारेण, नैवास्तीति। देशादिषु भ्रमणेन 'अणुत्तरेणं विहारेणं' अनुपमेन विहारेण, देशादिषु से णं भगवं वासावासं वजं अट्ठगिम्हहेमंतिए मासे गामे एगराइए भ्रमणेन 'अणुत्तरेणं वीरिएणं' अनुपमेन वीर्येण-पराक्रमेण 'अणुत्तरेणं नगरे पंचराइए वासीचंदणसमाणकप्पे समति-णमणिलेट्ठकंचणे अज्जवेणं' अनुपमेन आर्जवं-मायाया अभावस्तेन 'अणुत्तरेणं मद्दवेणं' समसु हदुक्खे इहपरलोगअप्पडि बढे, जीवियमरणे अ अनुपमेन, मार्दवं-मानाऽभावस्तेन 'अणुत्तरेण लाघवेणं' अनुपमेन, निरवकंखे, संसारपारगामी कम्मसत्तुनिग्घा यणट्ठाए अन्भुट्ठिए लाघवं द्रव्यतः अल्पोपधित्वं, भावतो गौरवायत्यागस्तेन 'अणुत्तराए एवं च णं विहरइ / (सू०११६x) खतीए' अनुपमया क्षान्त्या-क्रोधाऽभावेन अणुत्तराए मुत्तीए' अनुपमया 'से णं भगवं' स भगवान् 'वासावास वज्ज' वर्षावासश्चतुर्मासी तां मुक्त्या , लोभाऽभावेन 'अमुत्तराए गुत्तीए' अनुपमया गुप्त्या, लोभाऽवर्जयित्वा अट्ट गिम्हहेमतिए मासे' अष्टौ ग्रीष्महेमन्तसम्बन्धिनो मासान् भावेन अणुत्तराए गुत्तीए' अनुपमया गुप्त्या, मनोगुप्त्यादिकया 'अणुत्त'गामे एगराइए' ग्रामे एकरात्रिकः, एकरात्रिवसनस्वभावः 'नगरे पंचराइए' राए तुट्टीए' अनुपमया तुष्ट्या-मनःप्रसच्या 'अणुत्तरेणं सचसंजमतवनगरे पञ्चरात्रिकः, पुनः किंविशिष्टः- 'वासीचंदणसमाणकप्पे' वासी- सुचरिय' अनुपमेन-सत्य, संयमः-प्राणिदया, तपो-द्वादशप्रकारम् एतेषा सूत्रधारस्य काष्टच्छेदनोपकरणं, चन्दनं प्रसिद्ध, तयोर्द्वयोर्विषये समान- यत्सुचरणं सदाचरणं तेन कृत्वा 'सोवचियफलनिव्वाणमग्गेणं' सोपचयंसङ्कल्पस्तुल्याध्यवसायः, पुनः किं विशिष्टः -- 'समतिणमणिलेटुकंचणे' पुष्ट फलं मुक्तिलक्षणं यस्य एवंविधो यः परिनिर्वाणमार्गो रत्नत्रयरूपस्तेन, तृणादीनि प्रतीतानि नवरं लेष्टु:-पाषाणः, समानि तुल्यानितृणमणिलेष्टु- एवमुक्तेन सर्वगुणसमूहेन 'अप्पाणं भावेमाणस्स' आत्मनां भावयतो काञ्चनानि यस्य स तथा 'समसुदुक्खे' समे सुखदुःखे यस्य स तथा 'दुबालस संबच्छराई विइक्कताई द्वादश संवत्सरा व्यतिक्रान्ताः, ते 'इहपरलोगअप्पडिबद्धे इहलोके परलोके च अप्रतिबद्धः, अत एव चैवम्एक षण्मासक्षपणं, द्वितीयं षण्मासक्षपणं पञ्चदिनन्यून, नवचतुर्मास'जीवियमरणे निरवकंखे' जीवितमरणयोर्विषये निरवकाङ्गो वाञ्छा- क्षपणानि, द्वे त्रिमासक्षपणानि, षद्विमासक्षपणानि, द्वे सार्द्धकमासरहितः 'संसारपारगामी' संसारस्य पारगामी 'कम्मसत्तुनिग्घायणट्ठाए' क्षपणे, द्वादश मासक्षपणानि, द्वासप्ततिः पक्षक्षपणानि, भद्रप्रतिमा कर्मशत्रुनिर्घातनार्थम्, 'अब्भुट्टिए' अभ्युत्थितः- सोद्यमः ‘एवं च णं दिनद्वयमाना, महाभद्रप्रतिमा दिनचतुष्कमाना, सर्वतोभद्रप्रतिमा विहरइ' एवम् अनेन क्रमेण भगवान् विहरति-आस्ते / / 11 / / दशदिनमाना, एकोनत्रिंशदधिकं शतद्वयं षष्ठाः, द्वादश अष्टमाः, तस्स णं भगवंतस्स अणुत्तरेणं नाणेणं, अणुत्तरेणं दसणेणं, एकोनपञ्चाशदधिक शतत्रयं पारणानां, दीक्षादिनम् 1 / ततश्चेदं जातम् अणुत्तरेणं चरित्तेणं, अणुत्तरेणं आलएणं, अणुत्तरेणं विहारेणं, - ''बारसचेव यः वासा, मासा छच्चेव अद्धमासंच। वीरवरस्स भगवओ, अणुत्तरेणं वीरिएणं, अणुत्तरेणं, अज्जवेणं, अणुत्तरेणं मद्दवेणं, एसो छउमत्थपरिआओ / / 1 / / '' इदं च 'तेरसमरस संवच्छरस्स' अणुत्तरेणं लाघवेणं, अणुत्तराए खंतीए, अणुत्तराए मुत्तीए, त्रयोदशस्य संवत्सरस्य 'अंतरा वट्टमाणस्स' अन्तरा वर्तमानस्य' जे अणुत्तराए गुत्तीए, अणुत्तराए तुट्ठीए, अणुत्तरेणं सबसंजमतवसुच- से गिम्हाणं योऽसौ ग्रीष्मकालस्य 'दुच्चे मासे चउत्थे पक्खे द्वितीयो रिअसोवचिअफलनिव्वाणमग्गेणं, अप्पाणं भावमाणस्स दुवालस मासश्चतुर्थः पक्षः 'वइसाहसुद्धे' वैशाखस्य शुद्धपक्षः 'तस्स णं संवच्छराइं विइक्कं ताई। तेरसमस्स संवच्छरस्स अंतरावेसाहसुद्धस्स दसमी पक्खेणं' तस्य वैशाखशुद्धस्य दशमीदिवसे
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________________ वीर 1387 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वीर 'पाईणगामिणीए छायाए' पूर्वगामिन्यां छायायां सत्यां 'पोरिसीए नरकेषु वोत्पत्तिः 'तक्मणो' तेषां सर्वजीवानां सम्बन्धि तत्कम्-ईदृश अभिनिविट्ठाए' पाश्चात्यपौरुष्याम् अभिनिवृत्तायां जातायां सत्या, यन्मनः 'माणसिय' मानसिक, मनसि चिन्तितं 'भुत्त' भुक्तम्, अशनकीदृशायाम् 'पमाणपत्ताए प्रमाणप्राप्तायां, न तुन्यूनाधिकायां 'सुव्वएणं फलादि 'कर्ड' कृतं, चौर्यादि 'पडिसेविय' प्रतिसेवितं-मैथुनादि दिवसेणं' सुव्रतनामके दिवसे विजएणं मुहुत्तेणं' विजयनामके मुहूर्ते 'आविकम्म' आविःकर्म-प्रकटकृतं 'रहोकम्म' रहःकर्म-प्रच्छन्नं कृतम्, 'जंभियगामस्स नगरस्स बहिया' जृम्भिकग्राभनामकस्य नगरस्य एतत् सर्व सर्वजीवानां भगवान जानातीति योजना / पुनः किंविशिष्टः बहिस्तात् 'उज्जुवालुयाए नईए तीरे' ऋजुवालुकायाः नद्यास्तीरे प्रभुः- 'अरहा' न विद्यते रहः प्रच्छन्नं यस्य, त्रिभुवनस्य करामलकवद् 'वेयावत्तस्सचेइयस्स' व्यावृत्तं नामजीर्णम् एवंविधं यच्चैत्यं व्यन्तरायतनं दृष्टत्वात् अरहाः अरहस्स भागी' रहस्यम्- एकान्तं तन्न भजते इति, तस्य 'अदूरसामंते' नातिदूरे नातिसमीपे इत्यर्थः 'सामागस्स गाहाव- 'तं तं काल मणवयकायजोगे' तस्मिन् तस्मिन् काले मनोयचनकाययोगेषु इस्स' श्यामाकस्य गृहपतेः- कौटुम्बिकस्य 'कट्ठकरणंसि' क्षेत्रे यथार्ह 'वढमाणाणं' वर्तमानानां 'सव्वलोए सव्वजीवाणं' सर्वलोके 'सालपायवस्स अहे' सालपादपस्य अधः 'गोदोहियाए' गोदोहिकया सर्वजीवाना 'सव्वभावे जाणमाणे पासमाणे विहरइ' सर्वभावान् पर्यायान् 'उकुडियनिसिज्जाए' उत्कुटिकया निषद्यया 'आयावणाए आयावेमा- जानन् पश्यंश्च विहरति, 'सव्वजीवाणं' इत्यत्र अकारप्रश्लेषात् सर्वाऽणस्स' आतापनया आतापयतः प्रभोः 'छट्टेणं भत्तेणं अपाणएणं षष्ठेन जीवानां धर्मास्तिकायादीनामपि सर्वपर्यायान्जानन् पश्यंश्च विहरतीति भक्तेन जलरहितेन 'हत्थुत्तराहिं नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं' उत्तराफल्गु- व्याख्येयम् / / 121 // नीनक्षत्रे चन्द्रेण योगमुपागते सति 'झाणंतरियाए वट्टमाणस्स' ध्यानस्य तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे अट्ठियगामं अन्तरे-मध्यभागे वर्तमानस्य, कोऽर्थः-शुक्लध्यानं चतुर्धापृथक्त्व- नीसाए पढमं अंतरावासं वासावासं उवागए, चंपंच पिट्ठचंपंच वितर्क सविचारम् (1) एकत्ववितर्कम् अविचारम् (2) सूक्ष्मक्रियम् नीसाए तओ अंतरावासे वासावासं उवागए, वेसालिं नगरि अप्रतिपाति (3) उच्छिन्नक्रियमनिवर्त्ति (4) एतेषां मध्ये आद्यभेदद्वये वाणियगामंच नीसाए दुवालस अंतरावासे वासावासं उवागए, ध्याते इत्यर्थः, अणंते' अनन्तवस्तुविषये अणुत्तरे' अनुपमे 'निव्वाघाए' रायगिहं नगरं नालंदं च बाहिरिअं नीसाए चउद्दस अंतरावासे निर्याघाते, भित्त्यादिभिरस्खलिते 'निरावरणे' समस्तावरणरहिते वासावासं उवागए, छ मिहिलाए, दो भद्दिआए, एगं आलंमियाए, 'कसिणे' समस्ते 'पडिपुण्णे' सर्वावयवोपेते 'केवलवरनाणदंसणे एग सावत्थीए, एग पणिअभूमिए, एग पावाए मज्झिमाए हत्थिपासमुप्पन्ने' एवंविधे केवलवरज्ञानदर्शने समुत्पन्ने।।१२०|| लस्स रण्णो रज्जुगसभाए अपच्छिमं अंतरावासंवासावासं उवागए (26) वीरस्य केवलज्ञानोत्पत्ति : // 122 / / तत्थ णं जे से पावाए मज्झिमाए हत्थिपालस्स रन्नो तएणं समणे भगवं महावीरे अरहा जाए, जिणे, केवली, सव्वन्नू, रज्जुगसभाए अपच्छिम अंतरावासं वासावासं उवागए।।१२३|| सव्वदरिसी, सदेवमणुआसुरस्स लोगस्स परिआयंजाणइ, पासइ 'तेणं कालेणं' तस्मिन् काले 'तेण समएणं' तस्मिन् समये 'समये भगवं सव्वलोए सव्वजीवाणं आगई गई ठिइं चवणं उववायं ! तक्तं महावीरे' श्रमणो भगवान् महावीरः 'अट्ठिअग्गाम निस्साए' अस्थिकमणोमाणसिअं भुत्तं कडं पडिसेवियं आवीकम्मं रहोकम्मं अरहा ग्रामस्य निश्रया पढमं अंतरावासं प्रथमं वर्षारात्रं चतुर्मासीति यावत् अरहस्स भागीतं तं कालं मणवयकायजोगे वट्टमाणाणं सव्वलोए 'वासावासं उवागए' वर्षासु वसनं वर्षावासार्थमुपागतः 'चंपं च पिट्ठचपंच सव्यजीवाणं सव्वभावे जाणमाणे पासमाणे विहरइ।।१२१।। निरन्साए' ततः चम्पायाः पृष्ठचम्पायाश्च निश्रया 'तओ अंतरावासे' श्रीणि 'तए णं समेण भगवं महावीरे' ततो ज्ञानोत्पत्त्यनन्तरं श्रमणो भगवान् चतुर्मासकानि वासावास उवागए' वर्षावासार्थमुपागतः 'वेसालिं नगर महावीरः 'अरहा जाए' अर्हन् जातः, अशोकादिप्रातिहार्यपूजायोग्यो वाणिअगाम च निस्साए वैशाल्याः नगर्याः वाणिज्यग्रामस्य च निश्रया जातः, पुनः कीदृशः- 'जिणे केवली सव्वन्नू सव्वदरिसी' जिनो-- 'दुबालस अंतरावासे' द्वादश चतुर्मासकानि 'वासावासं उवागए' वर्षावारागद्वेषजेता केवली सर्वज्ञः सर्वदर्शी 'सदेवमणुआसुरस्स लोगस्स' सार्थमुपागतः 'रायगिह नयरं नालंदं च बाहिरिनीसाए' राजगृहस्य देवमनुजाऽसुरसहितस्य लोकस्य परियाय जाणइपासई' पर्यायमित्यत्र नगरस्य नालन्दायाश्च बाहिरिकायाः निश्रया 'चउद्दस अंतरावासे' जातावेकवचन, ततः पर्यायान् जानाति पश्यति च - साक्षात् करोति, चतुर्दश चतुर्मासकानि 'वासावास उवागए' वर्षावासार्थमुपागतः, तत्र तर्हि किं देवमनुजाऽसुराणामेव पर्यायमानं जानातीत्याह - 'सव्वलोए नालन्दाराजगृहनगरादुत्तरस्यां दिशि बाहिरिका शाखा पुरविशेषस्तत्र सव्वजीवाणं' सर्वलोके सर्वजीवानाम् 'आगई गई ठिई चवणं उववायं चतुर्दशवर्षाराबान उपागतः 'छ मिहिलाए' षट् मिथिलायां नगर्था 'दो आगति भवान्तरात, गतिं च भवान्तरे, स्थिति तद्भवसत्कमायुः काय- भद्विआए' द्वे भद्रिका-याम् 'एग आलंभिआए' एकमालम्भिकायाम् स्थितिं वा, च्यवनं-देवलोकात्तिर्यग्नरेषु अवतरणम्, उपपातो देवलोके / 'एग सावत्थीए एकं श्रावस्त्याम् ‘एपणिअभूमीए' एकं प्रणीतभूमौ वज्र
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________________ वीर 1358 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वीर भूमाख्याऽनार्यदेशे इत्यर्थः 'एग पावाए मज्झिमाए' एक पापायां मध्यमायां 'हत्थिपालस्स रण्णो' हस्तिपालस्य राज्ञः 'रज्जुगसभाए' रज्जुका- लेखकाः "कारकुन'' इति लोके प्रसिद्धास्तेषां शाला-सभा जीर्णा-अपरिभुज्यमाना, तत्र भगवान् 'अपच्छिमं अतरावास अपश्चिममन्त्यं चतुर्मासकं वासावासं उवागए' वर्षावासार्थमुपागतः, पूर्व किल तस्य नगर्या अपापेति नामाऽऽसीत्, देवैस्तु पापेत्युक्तं तत्र भगवान् कालगत इति॥१२२।। 'तत्थण' जे से पावाए मज्झिमाए' तत्र यस्मिन् वर्षे पापायां मध्यमायां 'हत्थिपालस्स रणो' हस्थिपालस्य राज्ञः 'रज्जुगसभाए' लेखकशालायाम् 'अपच्छिमं अंतरावासं' अन्त्य चतुर्मासकं वासावासं उवागए' वर्षावासार्थमुपागतः।।१२३॥ (27) वीरस्य निर्वाणगमनकालः -- तस्सणं अंतरावासस्स जे से वासाणं चउत्थे मासे सत्तमे पक्खे कत्तिअबहुले तस्स णं कत्तियबहुलस्स पन्नरसीपक्खेणं जा सा चरमा रयणी तं रयणिं च णं समणे भगवं महावीरे कालगए विइक्कं ते समुजाए छिन्नजाइजरामरणबंधणे सिद्धे वुद्धे मुत्ते अंतगडे परिनिव्वुडे सव्वदुक्खप्पहीणे - चंदे नामे से दोचे संवच्छरे, पीइबद्धणे मासे, नंदिबद्धणे पक्खे, अग्गिवेसे नामं दिवसे, उवसमे त्ति पवुच्चइ, देवाणंदा नाम सारयणी निरति त्ति पवुच्चई, अच्चे लवे, मुहुत्ते पाणू, थोवे सिद्धे, नागे करणे, सव्वट्ठसिद्धे मुहुत्ते, साइणा नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं, कालगए० जाव सव्वदुक्खप्पहीणे / 124|| "तस्सण अंतरावासस्स' तस्स चातुर्मासकस्य मध्ये जे से वासाणं' योऽसौ वर्षाकालस्य 'चउत्थे मासे सत्तमे पक्खे' चतुर्थः मासः सप्तमः पक्षः 'कत्तिअबहुले कार्तिकस्य कृष्णपक्षः 'तस्स णं कत्तिअबहुलस्स' तस्य कार्तिककृष्णपक्षस्य पण्णरसीपकोण' पञ्चदशे दिवसे 'जा सा चरमा रयणी' या सा चरमा रजनी 'तं रयणि च ण सभणे भगवं महावीरे' तस्यां रजन्यां च श्रमणो भगवान् महावीरः 'कालगए' कालगतः - कायस्थिति-भवस्थिति-कालाद्गतः 'विइक्कते' संसाराव्यतिक्रान्तः 'समुजाए' समुद्यातः सम्यग् अपुनरावृत्त्या उy यातः 'छिन्नजाईजरामरणबंधणे' छिन्नानि जातिजरामरणबन्धनानि, जन्मजरामरणकारणानि कर्माणि येन स तथा 'सिद्धे' सिद्धःसाधितार्थः 'बुद्धे' बुद्धःतत्त्वार्थज्ञानवान 'मुत्ते' मुक्तो भवोपग्राहिकर्मभ्यः 'अंतगडे' अन्तकृत सर्वदुःखाना परि-निव्वुडे' परिनिर्वृतः सर्वसन्तापाऽभावात्, तथा च कीद्दशो जातः 'सव्वदुक्खप्पहीणे' सर्वाणि दुःखानि शारीरभानसानि तानि प्रहीणानि यस्य स तथा, अथ भगवतो निर्वाणवर्षादीना सैद्धान्तिकनामान्याह - 'चंदे नामे से दोच्चे संवच्छरे' अथ यत्र भगवानिवृतः स चन्द्रनामा द्वितीयः संवत्सरः 'पीइवद्धणे मासे' प्रीतिवर्द्धन इति तस्य मासस्य कार्तिकस्य नाम 'नदिवद्धणे पक्खे' नन्दिवर्द्धन इति तस्य पक्षस्य नाम 'अग्गिवेसे नामं दिवसे' अनिवेश्य इति तस्य दिवसस्य नाम 'उबरामे ति पवुचइ' उपशम इति प्रोच्यते, उपशम इति तस्य द्वितीयं नामेत्यर्थः 'देवाणंदा नाम सा रयणी' देवानन्दा नाम्नी सा अमावास्या रजनी 'निरति त्ति पवुच्चइ निरतिः इत्यप्युच्यते नामान्तरेण अचेलवे' अर्चनामा लवः, 'मुहुत्ते पाणू' मुहूर्त्तनामा प्राणः 'थोवे सिद्धे' सिद्धनामा स्तोकः 'नागे करणे' नागनामकं करणम्, इदं च शकुन्यादिस्थिरकरणचतुष्टये तृतीयं करणम्, अमावास्योत्तरार्द्ध हि एतदेव भवतीति 'सव्वद्वसिद्धे मुहुत्ते' सर्वार्थसिद्धनामा मुहूर्तः 'साइणा नक्खत्तेणं जोगमुवागएण' स्वातिनामनक्षत्रेण चन्द्रयोगे उपागते सति भगवान् कालगए० जाव सव्वदुक्खप्पहीणे' कालगतः यावत् सर्वदुःखप्रक्षीणः / / 124 / / जं रयणिं च णं समणे भगवं महावीरे कालगए० जाव सव्वदुक्खप्पहीणे, साणं रयणी बहूहिं देवेहि, देवीहि य उवयमाणेहिं उप्पयमाणेहि य उज्जोविया आऽविहुत्था / / 125 / / ज रयणिं च णं समणे भगवं महावीरे कालगए० जाव सव्वदुक्खप्पहीणे सा णं रयणी बहूहिं देवेहिं देवेहि देवीहि य उवयमाणेहि उप्पय-माणेहि य, उप्पिंजलगमाणभूआ कहकहगभूआ आऽविहुत्था॥१२६।। 'जं रयणिं च ण' इत्यादितः 'उज्जोविया याऽवि होत्थ' ति यावत् सुगमम् / / 125 / / 'जं रयणिं च ण' इत्यादितः 'कहकहगभूआ याऽवि हुत्थ' ति यावत्सूत्रं प्रागव्याख्यातम् // 126 / / / जं रयणिं च णं समणे भगवं महावीरे कालगए० जाव सव्वदुक्खप्पहीणे तं रयणिं च णं जिट्ठस्स गोअमस्स इंदभूइस्स अणगारस्स अंतेवासिस्स नायए पिज्जबंधणे वुच्छिन्ने, अणंते अणुत्तरे जाव केवलवरनाणदंसणे समुप्पन्ने / / 127 / / "ज रयणि च ण समणे भगवं महावीरे' यस्यां रात्रौ श्रमणो भगवान् महावीर: 'कालगए० जाव सव्वदुक्खप्पहीणे' कालगतः यावत् सर्वदुःखप्रक्षीणः 'तं रयणिं च णं जिट्टस्स' तस्यां च रजन्या ज्येष्ठस्य किंभूतस्य 'गोअमस्स' गोत्रेण गौतमस्य 'इंदभूइरस' इन्द्रभूतिनामकरय 'अणगारस्स अन्तेवासिस्स' अनगारस्य शिष्यस्य 'नायए पिज्जबंधणे वुच्छिन्ने' ज्ञातजे-श्रीमहावीरविषये प्रेमबन्धने व्युच्छिन्ने त्रुटिते सति 'अणन्ते' अनन्तवस्तुविषये 'अणुत्तरे० जाव केवलवरनाणदंसणे समुप्पन्ने' अनुत्तरे यावत् केवलवरज्ञानदर्शने समुत्पन्ने कल्प०१ अधि० 6 क्षण। (भावोदद्योताभावे द्रव्योद्घोतः कृतस्तत्समयराजभिः, ततः प्रभृति दीपोत्सवपर्व प्रवृत्तम्।) जं रयणिं च णं समणे भगवं महावीरे कालगए० जाव सव्वदुक्खप्पहीणे तं रयणिं च णं खुदाए भासरासी नाम महग्गहे दोवाससहस्सट्टिई समणस्स भगवओ महावीरस्स जम्मनक्खत्तं संकंते // 12 // 'ज रयणि च णं समणे भगवं महावीरे' यस्यां रात्री श्रमणों भगवान महावीरः 'कालगए० जाव सरवदुक्ख -
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________________ वीर 1386 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वीर प्पहीणे' कालगतः यावत् सर्वदुःखप्रक्षीणः 'तं रथणिं च ण' तस्यां च रात्री 'खुदाए भासरासी नाम महागहे' क्षुद्रात्मा क्रूरस्वभावः एवंविधो भस्मराशिनाना त्रिंशत्तमो 30 महाग्रहः, किम्भूतोऽसौ-'दोधाससहस्सट्टिई' द्विसहस्र वर्ष स्थितिकः 2000 एकस्मिन् ऋक्षे एतावन्तं कालगवस्थानात् 'रामणरस भगवओ महावीररस' श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य 'जम्मनक्खत्त सकते, जन्मनक्षत्रम्-उत्तरफाल्गुनीनक्षत्र संक्रान्तः / कल्प०१ अधि०६क्षण। (तत्राष्टाशीतिम्रहाः, ते च 'महग्गह' शब्देऽस्मिन्नेव दर्शिताः।) (कार्तिककृष्णामावास्यारात्री वीरनिर्वाण - गमनम् / कार्तिकशुवलादारभ्य तत्संवत्सरप्रयत्तिर्याता 466 श्रीवीरसंवत्सरे गते सति ततोऽगे चैत्रशुक्लादारभ्य विक्रमसंवत्सर 1 प्रथमप्रवृत्तिर्याता) जं रयणिं च णं समणे भगवं महावीरे कालगए० जाव सव्वदुक् खप्पहीणे तं रयणिं च ण कुंथू अणुद्धरी नाम समुप्पन्ना, जा ठिया अचलमाणा छउमत्थाणं निग्गंथाणं निग्गंथीण य नो चक्खुफासं हव्वमागच्छइ, जा अट्ठिआ चलमाणा छउमत्थाणं निग्गंथाणं निग्गंथीण य चक्खुफासं हव्वमागच्छइ॥१३२।। जं पासित्ता बहूहिं निग्गंथेहिं निग्गंथीहिय भत्ताई पचक्खायाइं-से किमाहु भंते ! अजप्पमिइं संजमे दुराराहे भविस्सइ / / 133 / / 'जं रयणिं च णं' इत्यादितो 'हव्वमागच्छति' ति पर्यन्तं तत्र यस्या भगवान्निर्वृतस्तस्यां रात्रौ 'कुंथु' ति कुन्थुः प्राणिजातिः 'अणुद्धरि त्ति योद्धर्तुं न शक्यते एवंविधा समुत्पन्ना या स्थिता-एकत्र स्थिता अत एव अचलन्ती सती छदास्थानां चक्षुःस्पर्शदृष्टिपथं 'हब्ब' तिशीघ्र नागच्छति, या च अस्थिता-चलन्ती छद्मस्थानां चक्षुःस्पर्श शीघ्रमागच्छति / / 'जं पासित्ता' इत्यादितो 'दुराराहए भविस्सइ' ति पर्यन्तं तत्र 'जं पासित्त' त्ति यां कुन्थुम् अणुद्धरं दृष्ट्वा बहुभिः साधुभिः हीभिः साध्वीमिश्व भक्तानि प्रत्याख्यातानि अनशनं कृतमित्यर्थः, ‘से किमाहु भंते' त्ति शिष्यः पृच्छति-तत किमाहुर्भदन्ताः, तत् किं कारणं यद्भक्तानि प्रत्याख्यातानि, गुरुराह-अद्य प्रभृति संयमो दुराराध्यो भविष्यतिपृथिव्याः जीवाऽऽकुलत्यात् संयमयोग्यक्षेत्रा-भावात्पाषण्डिसंकराच / / 133 / / (28) वीरस्य श्रमणादिसंपत्तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स इंदूभूइपामुक्खाओ चउद्दस समणसाहस्सीओ उक्कोसिआ समणसंपया हुत्था // 134 / 'ते णं काल ण' इत्यादितो 'हुत्थ ति यावत् सुगमम् // 134 / / समणस्स भगवओ महावीरस्स अजचंदणापामुक्खाओ छत्तीसं अज्जियासाहस्सीओ उक्कोसिया अज्जिया संपया हुत्था / / 135 / / समणस्स भगवओ महावीरस्स संखसयगपामुक्खाणं समणोवा सगाणं एगा सयसाहस्सीओ अउणढेि च सहस्सा उक्कोसिया समणोवासगाणं संपया हुत्था 11136|| समणस्स भगवओ महावीरस्स सुलसारेवइपामुक्खाणं समणोवासिआणं तिन्नि सयसाहस्सीओ ओ अट्ठारस सहस्सा उक्कोसिया समणोवासिया णं संपया हुत्था।।१३७।। समणस्स भगवओ महावीरस्स तिन्नि सया चउद्दसपुव्वीणं अजिणाणं जिणसंकासाणं सव्वक्खरसन्निवाईणं जिणो विव अवितहं वागरमाणाणं उक्कोसिआ चउद्दसपुवीणं संपया हुत्था // 138|| समणस्स भगवओ महावीरस्स तेरस सया ओहिनाणीणं अइसेसपत्ताणं उक्कोसिया ओहिनाणिसंपया हुत्था॥१३६|| समणस्स भगवओ महावीरस्स सत्त सया केवलनाणीणं संभिन्नवरनाणदंसणधराणं उक्कोसिया केवलवरनाणीणं संपया हुत्था / / 140|| समणस्स भगवओ महावीरस्स सत्तसया वेउव्वीणं अदेवाणं देविडिपत्ताणं उक्कोसिया वेउव्वियसंपया हुत्था // 141 / / समणस्स णं भगवओ महावीरस्स पंच सया विउलमईणं अड्डाइजेसुदीवेसुदोसु असमुद्देसु सन्नीणं पंचिंदियाणं पजत्तगाणं मणोगए भावे जाणमाणाणं उक्कोसिया विउलमईणं संपया हुत्था / / 142 / / 'समणस्स णं' इत्यादितः 'अज्जिया संपया हुत्थ' त्ति पर्यन्तं सुगमम् / / 135 / / एवं पञ्चचत्वारिंशतसूत्रं यावत् सूत्राणि सर्वाणि प्रायः सुगमानि। 137-138-136-140-141-142 / समणस्स भगवओ महावीरस्सचत्तारिसया वाईणं सदेवमणुआसुराए परिसाए वाए अपराजियाणं उक्कोसिआ वाइसंपया हुत्था / / 143 / / समणस्स भगवओ महावीरस्स सत्त अंतेवासिसयाई सिद्धाई, जावसव्वदुक्खप्पहीणाईचउद्दस अज्जियासयाई सिद्धाइं // 144|| समणस्य भगवओमहावीरस्स अट्ठसया अणुत्तरोववाइयाणं गइकल्लाणाणं ठिइकल्लाणाणं आगमेसिभदाणं उक्कोसिआ अणुत्तरोववाइयाणं संपया हुत्था॥१४५|| अनुत्तरोपपातिकक्षेत्रे 'गइकल्लाणाणं' तिगतो आगामिन्यां मनुष्यगतौ कल्याण-मोक्षप्राप्तिलक्षणं येषां ते तथा तेषां "ठिइकल्लाणाणं' ति स्थितौ देवभवेऽपि कल्याणं येषां ते तथा तेषां वीतरागप्रायत्वात्, अत एव 'आगमेसिभहाणं' ति आगमिष्यद्भद्राणाम, आगामिभवे सेत्स्यमानत्वात्। समणस्य णं भगवओ महावीरस्स दुविहा अंतगड भूमी हुत्था, तं जहा-जुगंतगडभूमी य, परियायंतगडभूमी य० जाव तचाओ पुरिसजुगाओ जुगंतचउवासपरियाए अंतमकासी।।१४६|| 'समणस्स' इत्यादितः 'अंतमकासी ति पर्यन्तम् सुगमम्। तत्र भगवतो द्विविधा अन्तकृमिः अन्तकृतोमोक्षगामिनस्तेषा भूमिः कालोऽन्तकृभूमिः, तदेव द्विविधत्वदर्शयति-"जुगंतकडे त्यादि युगान्तकृभूमिः, पर्यायान्तकृभू
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________________ वीर 1360 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वीर मिश्च / तत्र युगानि कालमानविशेषास्तानि च क्रमवतीनितत् साधाद्ये क्रमवर्त्तिनो गुरुशिष्यप्रशिष्यादिरूपाः पुरुषास्तेऽपि युगानि तैः प्रमिता अन्तकृमिर्या सा युगान्तकृभूमिः। 'परियायंतगडभूमि' त्ति पर्यायः प्रभोः केवलित्वकालस्तमाश्रित्य अन्तकृभूमिः पर्यायान्तकृभूमिः तत्राद्या निर्दिशति- 'जाव' इत्यादि इह पञ्चमी द्वितीयार्थे ततो यावत्तृतीय पुरुष एव युग पुरुषयुगम् 'जम्बूस्वामिन यावत् युगान्तकृभूमिः 'चउवासपरियाय' ति ज्ञानोत्पत्त्यपेक्षया चतुर्वर्षपर्याय च भगवति अंतमकासि' त्ति अन्तमकार्षीत कश्चित्केवली मोक्षमगमत्, प्रभोानान्तरं चतुर्पु वर्षेषु गतेषु मुक्तिमार्गा वहमानो जातो जम्बूस्वामिनं यावच मुक्तिमार्गो वहमानः स्थित इति भावः। तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरं तीसं वासाई अगारवासमज्झे वसित्ता साइरेगाइंदुवालस वासाइंछउमत्थपरियागं पाउणित्ता देसूणाई तीसं वासाई के वलिरियागं पाउणित्ता वायालीसं वासाई सामनपरियागं पाउणित्ता बावत्तरिवासाई 72 सव्वाउ पालइत्ता खीणे वेयणिज्जाउ नामगोत्ते इमीसे ओसप्पिणीए दुसमसुसमाए समाए बहुविइक्कंताए- तिहिं वासेहिं अद्धनवमेहि य मासेहिं सेसेहिं, पावाए मज्झिमाए हत्थिपालस्स रन्नो रज्जुगसभाए एगे अबीए छट्टेणं भत्तेणं अपाणएणं साइणा नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं पचूसकालसमयं सि संपलियंकनिसन्ने पणपन्नं अज्झयणाई कल्लाणफलविवागाइ पणपन्नं अज्झयणाई पावफलविवागाई छत्तीसं च अपुट्ठवागरणाई वागरित्ता पहाणं णाम अज्झयणं विभावेमाणे विभावेमाणे कालगए विइक्वंते समुज्जाए छिन्नजाइजरामरणबंधणे सिद्धे बुद्धे मुत्ते अंतगडे परिनिव्वुड़े सव्वदुक्खप्पहीणे / / 147 / / समणस्स मगवओ महावीरस्स० जाव सव्वदुक्खप्पहीनस्स नववासययाई विइक्कंताई दसमस्स य वाससयस्स अयं असीइमे संवच्छरे काले गच्छइ वायणंतरे पुण अयंते णउए संवच्छरे काले गच्छइ इति दीसइ / / 148|| 'तेणं कालेणं' इत्यादितः 'सव्वदुक्खप्पहीणे ति पर्यन्तं सुगम, नवरं / 'छउमत्थपरिआय पाउणित्तं' त्ति छास्थपर्यायं पूरयित्वेत्यर्थः / 'एगे अबीए' ति एकः सहायविरहात् अद्वितीयः एकाकी एव नतु ऋषभादिवद्दशसहस्रादिपरिवार इति। अत्र कविः- 'यन्न कश्चन मुनिस्त्वया सम, मुक्तिमा पदितरैर्जिनैरिव / दुस्समासमयभाविलिङ्गिना, व्याजि तेन गुरुनिपक्षता'' ||1 // पच्चूसकालसमयंसि' त्ति प्रत्यूषकाललक्षणो यः समयोऽवसरस्तत्र 'संपलिअकनिसन्ने तिपद्मासननिविष्टः पक्षपञ्चाशदध्ययनानि पापफलविपाकानि पञ्चपञ्चाशत् कल्याणफलविपाकानि षट्त्रिंशत् अपृष्टव्याकरणानि व्याकृत्य पहाणं' ति एकं मरुदेवाध्ययने विभावयन भगवान्निर्वृतः ॥१४७।'समणरस णं' इत्यादितः 'दीसइ। ति पर्यन्तं तत्र भगवतो निवृतस्य नव वर्षशतानि 600 व्यतिक्रान्तानि दशमस्य वर्षशतस्यायमशीतितमः 80 संवत्सरः कालो गच्छति। कल्प० 1 अधि०६क्षण। (26) वीरस्तववाध्ययनम्पुच्छिस्सु णं समणा माहणा य, आगारिणो या परतित्थिआ य। से केइ णेगंतहियं धम्ममाहु, अणेलिसं साहु समिक्खयाए|१|| कहं च णाणं कह दंसणं से, सीलं कहं नायसुतस्स आसी ? | जाणासि णं भिक्खु जहातहेणं, अहासुतं बूहि जहाणिसंतं / / 2 / / अस्य चानन्तरसूत्रेण सहायं सम्बन्धः, तद्यथा-तीर्थकरोपदिष्टन मार्गेण ध्रुवमाचरन् मृत्युकालमुपेक्षतेत्युक्तं, तत्र किम्भूतोऽसौ तीर्थकृत् येनोपदिष्टो मार्ग इत्येतत पुष्टवन्तः श्रमणाः-यतय इत्यादि, परम्परसूत्रसम्बन्धस्तुबुध्येत यदुक्तं प्रागिति, एतच्च यदुत्तरत्र प्रश्नप्रतिवचनं वक्ष्यते तच बुद्ध्येतेति, अनेन सम्बन्धेनाऽऽयातस्यास्य सूत्रस्य संहितादक्रमेण घ्याख्या प्रतन्यते सा चेयम्-आनन्तरोक्तां बहुविधां नरकविभक्तिं श्रुत्वा संसारादुद्विग्नम नेयं प्रतिपादितेत्येतत् सुधर्मस्वामिनम् अप्राक्षुःपृष्टवन्तः 'णम्' इति वाक् यालङ्कारे, यदिवा-जम्बूस्वामी सुधर्मस्वामिनमेवाह-यथा केनैवभूतो धर्मः संसारोत्तरणसमर्थः प्रतिपादित इत्येतद्रहवो मां पृष्टवन्तः, तद्यथा-श्रमणा-निर्गन्थादयः, तथा ब्राह्मणाब्रह्मचर्याद्यनुष्ठाननिरताः, तथा अगारिणः-क्षत्रियादयो ये च शाक्यादयः परतीर्थिकास्ते सर्वेऽपि पृष्ठवन्तः। किं तदिति दर्शयति-सको योऽसावेन धर्मे दुर्गतिप्रसृत-जन्तुधारकमेकान्तहितम् आह-उक्तवान् अनीदृशम्अनन्यसदृशम् अतुलमित्यर्थः, तथा-साध्वी चासो समीक्षा च साधुसमीक्षा-यथावस्थिततत्त्वपरिच्छित्तिस्तया, यदिवा-साधुसमीक्षयासमतयोक्तवानिति / / 1 // तथा तस्यैव ज्ञानादिगुणावगतये प्रश्नमाहकथं केन प्रकारेण भगवान् ज्ञानमवाप्तवान् ? किम्भूतं वा तस्य भगवतो झान-विशेषावयोधकं ? किम्भूतं च से' तस्य दर्शनसामान्यार्थपरिच्छेदकं ? 'शीलं च यमनियमरूपं कीहक् ? ज्ञाताःक्षत्रियास्तेषां पुत्रोभगवान् वीरवर्द्धमानस्वामी तस्य आसीद्-अभूदिति, यदेतन्मया पृष्ट तत् भिक्षो ! सुधर्मस्वामिन् ! याथातथ्येनत्वं जानी-सम्यगवगच्छसि ‘णम्' इति वाक्यालङ्कारे तदेतत्सर्वे यथाश्रुतं त्वया श्रुत्वा च यथा निशान्तम् इति-अवधारितं दृष्टं तथा सर्व ब्रूहि-आचक्ष्वेति / / 2 / / स एवं पृष्टः सुधर्मस्वामी श्रीमन्महावीरवर्धमानस्वा मिगुणान् कथयितुमाहखेयन्नए से कुसलाऽऽसुपन्ने, अणंतनाणी य अणंतदंसी।
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________________ वीर वीर 1361 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 जसंसिणो चक्खुपहे ठियस्स, जाणाहि धम्मं च धिइंच पेहि // 3 // उड्ड अहेयं तिरियं दिसासु, तसा य जे थावर जे य पाणा। से णिच्चणिचेहि समिक्ख पन्ने, दीवे व धम्म समियं उदाहु ||4|| सः-- भगवान चतुखिशदतिशयसमेतः खेदं संसारान्तर्वर्तिनां प्राणिनां कर्मविपाकजंदुःखं जानानीति खेदज्ञो दुःखापनोदनसमर्थोपदेशदानात, यदि वा-क्षेत्रज्ञो-यथावस्थितात्मस्वरूपपरिज्ञानादात्मज्ञ इति / अथवा-क्षेत्रम्- आकाशं तज्जानातीति क्षेत्रज्ञोलोकालोकस्वरूपपरिझातेत्यर्थः, तथा भावकुशान्- अष्टविधकर्मरूपान् लुनातिछिनत्तीति कुशलः- प्राणिनां कर्मोच्छित्तये निपुण इत्यर्थः, आशुशीघ्रं प्रज्ञा यस्यासावाशुप्रज्ञः, सर्वत्र सदोपयोगाद्, न छदास्थ इव विचिन्त्य जानातीतिभावः, महर्षिरिति कृचित्पाठः, महांश्वासावृषिश्व महर्षिःअत्यन्तोग्रतपश्वरणानुष्टायित्वादतुलपरीषहोपसर्गसहनाचेति, तथा अनन्तम्अविनाश्यनन्तपदार्थपरिच्छेदक वा ज्ञान-विशेषग्राहकं यस्यासावनन्तज्ञानी, एवं सामान्यार्थपरिच्छेदकत्वेनान्तदर्शी, तदेवम्भूतस्य भगवतो यशो-नृसुरासुराति-शाय्यतुलं विद्यते यस्य स यशस्वी तस्य लोकस्य चक्षुःपथेलोचनमार्गे भवस्थकेवल्यवस्थायां स्थितस्य, लोकानां सूक्ष्मव्यवहितपदार्थाविर्भावनेन चक्षुर्भूतस्य वा जानीहिअवगच्छधर्म-संसारोद्धरणस्वाभावं, तत्प्रणीतं वा श्रुतचारित्राख्य, तथा तस्यैव भगवतस्तथोपसर्गितस्यापि निष्प्रकम्पां चारित्रा-चलनस्वभावां धृति--संयमे रति तत्प्रणीता वा प्रेक्षस्वसम्यकुशाग्रीयया बुद्ध्या पर्यालोचयेति, यदि वा-तैरेव श्रमणादिभिः सुधर्मस्वाम्यप्यभिहितो यथा त्वं तस्य भगवतो यशस्विनश्चक्षुष्पथे व्यवस्थितस्य धर्म धृतिं च जानीषे ततोऽस्माक 'पहि' ति कथयेति // 3 // साम्प्रतं सुधर्मस्वामी तद्गुणान् कथयितुमाह-ऊर्ध्वमधस्तिर्यक्षु सर्वत्रैव चतुर्दशरञ्चात्मके लोके ये केचन वस्यन्तीति त्रसास्ते-जोवायुरूपविकलेन्द्रियपश्चेन्द्रियभेदात् त्रिधा, तथा येच 'स्थावराः पृथिव्यम्बुवनस्पति भेदात् त्रिविधा, एत उच्छ्यासादयः प्राणाविद्यन्ते येषां ते प्राणिन इति, अनेन च शाक्यादिमतनिरासेन प्रथिव्यायेकेन्द्रियाणामपि जीवत्वमावेदितं भवति, स भगवांस्तान् प्राणिनः प्रकर्षण केवलज्ञानित्वात् जानातीति प्रज्ञः, स एव प्राज्ञो, नित्यानित्याभ्यां द्रय्यार्थपर्यायार्थाश्रयणात्-समीक्ष्यकेवलज्ञानेनार्थान परिज्ञाय प्रज्ञापनायोग्यानाहेत्युत्तरेणं सम्बन्धः, तथा स प्राणिना पदार्थाविर्भावनेन दीपवत् दीपः, यदिवा-संसारार्णवपतितानां सदुपदेशप्रदानत् आश्वासहेतुत्वात् द्वीप इव द्वीपः, स एवम्भूतः संसारोत्तारणसमर्थ धर्मश्रुतचारित्राख्यं सम्यक् इतं-गतं सदनुष्ठानतया रागद्वेषरहितत्वेन समतयावा। तथा चोक्तम्-"जहा पुण्णरस कत्थइ तहा तुच्छस्स कत्थई'' इत्यादि, समं वा-धर्मम् उत्-प्रावल्येन आह-उक्तवान् प्राणिनामनुग्रहार्थं न पूजासत्कारार्थमिति // 4 // किश्चान्यत्से सव्वदंसी अभिभूयनाणी, णिरामगंधे धिइमं ठितऽप्पा। अणुत्तरे सव्वजगंति विजं, ___ गंथा अतीते अभए अणाऊ ||5|| से भूइपण्णे अणिए अचारी, ओहंतरे धीरे अणंतचक्खू / अणुत्तरं तप्पति सूरिए वा, वइरोयणिंदे व तमं पगासे / / 6 / / 'स-भगवान् सर्व-जगत् चराचरं सामान्येन द्रष्ट्र शीलमस्य स सर्वदर्शी, तथा अभिभूय-पराजित्य मत्यादीनि चत्वार्यपि ज्ञानानि यद्वर्तते ज्ञान केवलाख्य तेन ज्ञानेन ज्ञानी, अनेन चापरतीर्थाधिपाधिकत्वमावेदितं भवति, 'ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्ष' इति कृत्वा तस्य भगवतो ज्ञान प्रदर्श्य क्रियां दर्शयितुमाह-निर्गतः-अपगत आमः-अविशोधिकोट्याख्यः तथा गन्धो-विशेधिकोटिरूपो यस्मात् स भवति निरामगन्धः, मूलोत्तरगुणभेदभिन्ना चारित्रक्रियां कृतवानित्यर्थः, तथाऽसह्यपरीषहोपसर्गाभिद्रुतोऽपि निष्प्रकम्पतया चारित्रे धृतिमान् तथा-स्थितो व्यवस्थिोऽशेषकर्मविगमादात्मस्वरूपे आत्मा यस्य स भवति स्थितात्मा, एतच ज्ञानक्रियायोः फलद्वारेण विशेषणम्। तथा नास्योत्तर-प्रधानं सर्वस्मिनपि जगति विद्यते (यः) स तथा, विद्वानिति सकलपदार्थानाः करतलामलकन्यायेन वेत्ता, तथा बाह्यग्रन्थात् सचित्तादिभेदादान्तराच कर्मरूपाद्, अतीतः-अतिक्रान्तो ग्रन्थातीतो-निन्थ इत्यर्थः, तथा न विद्यते सप्तप्रकारमपि भयं यस्यासावभयः, समस्तभयरहित इत्यर्थः, तथा न विद्यते चतुर्विधमप्यायुर्यस्य स भवत्यनायुः, दग्धकर्मबीजत्वेन पुनरुत्पत्तेरसंभवादिति॥५॥ अपि च-भूतिशब्दो वृद्धौ मङ्गले रक्षायां च वर्तते, तत्र भूतिप्रज्ञः- प्रवृद्धप्रज्ञः अनन्तज्ञानवानित्यर्थः, तथाभूतिप्रज्ञोजगद्रक्षाभूतप्रज्ञः एवं सर्वमङ्गलभूतप्रज्ञ इति, तथा अनियतम्अप्रतिबद्ध परिग्रहायोगाचरितुं शीलमस्यासावनियतचारी तथौघंसंसारसमुद्र तरितुं शीलमस्य स तथा, तथा धी:-बुद्धिस्तया राजत इति धीरः परीषहोपसर्गाक्षोभ्यो वा धीरः, तथा अनन्तं-ज्ञेयाऽनन्ततया नित्यतया वा चक्षुरिव चक्षुः-- केवलज्ञानं यस्यानन्तस्य वा लोकस्य पदार्थप्रकाशकतया चक्षुर्भूतो यः स भवत्यनन्तचक्षुः, तथा यथा-सूर्यः अनुत्तरंसर्वाधिक तपतिनतस्मादधिकस्तापेद कश्चिदस्ति, एवमसावपि भगवान ज्ञानेन सर्वोत्तम इति, तथा वैरोचन:-अग्निः स एव प्रज्वलितत्वात् इन्द्रो यथाऽसौ तमोऽपनीय प्रकाशयति, एवमसावपि भगवानज्ञानतमोऽपनीय यथावस्थितपदार्थप्रकाशनं करोति // 6 // किञ्चअणुत्तरं धम्ममिणं जिणाणं, णेया मुणी कासव आसुपन्ने /
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________________ वीर १३९२-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वीर इंदेव देवाण महाणुभावे, सहस्सणेत्ता दिविणं विसिट्टे॥७॥ से पन्नया अक्खयसागरे वा, महोदही वाऽवि अणंतपारे। अणाइले वा अकसाइमुक्के, सक्केव देवाहिवई जुईमं ||8|| नास्योत्तरोऽस्तीत्यनुत्तरस्तमिममनुत्तरं धर्मं जिनानाम्-ऋषभादितीर्थकृता सम्बन्धिनमयं-मुनिः-- श्रीमान्वर्द्धमानाख्यः काश्यपः गोत्रेण, आशुप्रज्ञः केवलज्ञानी--उत्पन्नदिव्यज्ञानो नेता-प्रणेतेति, ताच्छीलिकस्तृन्, तद्योगे- 'न लोकाव्ययनिष्ठे' (पा०२-३-६६)त्यादिना षष्ठीप्रतिषेधाद्धर्ममित्यत्रकर्मणि द्वितीयैव, यथा चेन्द्रो दिविस्वर्गे देवसहस्राणां महानुभावो-महाप्रभाववान् ‘णम्' इति वाक्यालङ्कारे, तथा नेताप्रणायको विशिष्टो-रूपबलवर्णादिभिः प्रधानः एवं भगवानपि सर्वेभ्यो विशिष्टः प्रणायको महानुभावश्चेति / / 7 / / अपि च-असौ भगवान् प्रज्ञायतेऽनयेति प्रज्ञा तया अक्षयः-नतस्य ज्ञातव्येऽर्थे बुद्धिः प्रतिक्षीयते प्रतिहन्यते वा, तस्य हि बुद्धिः केवलज्ञानाख्या, सा च साद्यपर्यवसाना कालतो द्रव्यक्षेत्रभावैरप्यनन्ता, सर्वसाम्येन दृष्टान्ताभावात्, एकदेशेन त्वाहयथा-'सागर' इति--अस्य चाविशिष्टत्वात् विशेषणमाह-महोदधिरिवस्वयम्भूरमण इवानन्तपारः यथाऽसौ विस्तीर्णो गम्भीरजलोऽक्षोभ्यश्च, एवं तस्यापि भगवतो विस्तीर्णा प्रज्ञा स्वयम्भूरमणानन्तगुणा गम्भीराऽक्षोभ्या च, यथा च असौ सागरः अनाविलः- अकलुषजलः, एवं भगवानपि तथाविधकर्मलेशाभावादकलुषज्ञान इति, तथाकषाया विद्यन्ते यस्यासौ कषायी न कषायी अकषायी, तथा ज्ञाधवरणीयादिकर्मबन्धनाद्वियुक्तो- मुक्तः, भिक्षुरिति वचित्पाठः, तस्यायमर्थःसत्यपि निःशेषान्तरायक्षये सर्वलोकपूज्यत्वे च तथापि भिक्षामात्रजीवित्वात् भिक्षुरेवासौ, नाक्षीणमहानसादिलब्धिमुपजीवतीति, तथा शक्र इव देवाधिपतिः द्युतिमान्-दीप्तिमानिति / / 8 / / किञ्चसे वीरिए णं पडिपुन्नवीरिए, सुदंसणे वा णगसव्वसेतु। सुरालए वासिमुदागरे से, विरायएउणेगगुणोववेए | सयं सहस्साण उजोयणाणं, तिकंडगे पंडगवेजयंते। से जोयणे णवणवते सहस्से, उद्धस्सितो हेहसहस्समेगं // 10 // स-भगवान् वीर्येण औरसेन बलेनधृतिसंहननादिभिश्च वीर्यान्तरायस्य निश्शेषतः क्षयात् प्रतिपूर्णवीर्यः, तथा सुदर्शनो-मेरुजम्बूदीपनाभिभूतः स यथा नगाना-पर्वतानां सर्वेषां श्रेष्ठः- प्रधानः तथा भगवानपि वीर्येणान्यैश्वगुणैः सर्वश्रेष्ठइति, तथा यथा-सुरालयः-स्वर्गस्तन्निवासिनां मुदाकरो-हर्षजनकः प्रशस्तवर्णसरगन्धस्पर्शप्रभावादिभिर्गुणैरुपेतो विराजते-शोभते, एवं भगवानप्यनेकैर्गुणैरुपेतो विराजत इति। यदिवायथा त्रिदशालयो मुदाकरोऽनेकैर्गुणैरुपेतो विराजत इति एवमसावपि मेरुरिति / / 6 / / पुनरपि दृष्टान्तभूतमेरुवर्णनायाह-स-मेरुयोजनसहस्राणां शतमुचैस्त्वेन, तथा त्रीणि कण्डान्यस्येति त्रिकण्डः, तद्यथाभौम, जाम्बूनदं, वैडूर्यमिति। पुनरप्यसावेव विशेष्यते– 'पण्डकवैजयन्त' इति पण्डकवनं शिरसि व्यवस्थितं वैजयन्तीकल्पं-पताकाभूतं यस्यस तथा, तथाऽसावूर्ध्वमुच्छ्रितो नवनवतिर्योजनसहस्राण्यधोऽपि सहस्रमेकमवगाढ इति // 10 // तथापुढेण भे चिट्ठइ भूमिवहिए, जंसूरिया अणुपरिवट्टयंति। से हेमवन्ने बहुनंदणे य जंसीरत्तिं वेदयतीमहिंदा॥१०॥ से पटवइ सहमहप्पगासे, विरायती कंचणमट्ठवन्ने। अणुत्तरे गिरिसुय पव्वदुग्गे, गिरीवरे से जलिए व भोमे / / 12 / / नभसि स्पृष्टो-लग्रो नभो व्याप्य तिष्ठति, तथा भूमिं चावगाह्य स्थित इति ऊर्ध्वाधस्तिग्लोकसंस्पर्शी, यथायं-मेरुं सूर्या--आदित्या ज्योतिष्का अनुपरिवर्तयन्तियस्य पार्श्वतो भ्रमन्तीत्यर्थः, तथाऽसौ हेमवर्णोनिष्टप्तजाम्बूनदाभः, तथा बहूनि चत्वारि नन्दनवनानि यस्य स बहुनन्दनवनः, तथाहि-भूमौ भद्रशालवनं ततः पञ्चयोजनशतान्यरुह्य मेखलायांनन्दनं, ताते द्विषष्टियोजनसहस्राणि पञ्चशताधिकान्यतिक्रम्य सौमनसं, ततः षट्त्रंशत्सहस्राण्यारुह्य शिखरे पण्डकवनमिति / तदेवमसौ चतुर्नन्दनवनाद्युपेतोविचित्रकीडास्थानसमन्वितः, यस्मिन् महेन्द्रा अप्यागत्य त्रिदशालयाद्रमणीयतरगुणेन रतिम्-रमणक्रीडां वेदयन्ति-अनुभवन्तीति|११|| अपिच-सः मेख्यिोऽयं पर्वतो मन्दरो मेरुः सुदर्शनः सुरगिरित्येवमादिभिः शब्दर्भहान् प्रकाशः-प्रसिद्धिर्यस्य स शब्दमहाप्रकाशो विराजते-शोभते, काञ्चनस्येव मृष्टः-श्लक्ष्णः शुद्धो वा वर्णो यस्य स तथा, एवं न विद्यते उत्तरः- प्रधानो यस्यासावनुत्तरः, तथा गिरिषु च मध्ये पर्वभिः-- मेखलादिभिर्दष्ट्रापर्वतैर्वा दुर्गो-विषमः सामान्यजन्तूनांदुरारोहो गिरिवरः-पर्वतप्रधानः तथाऽसौ मणिभिरौषधीभिश्च देदीप्यमानतया भौम इव-भूदेश इव ज्वलित इति // 12 // (त्रयोदशमी 13 गाथा 'जम्बूदीव' शब्दे चतुर्थभागे 1378 पृष्ठे गता।) ' साम्प्रतं भेरुदृष्टान्तोपक्षेपेण दान्तिकं दर्शयतिसुदंसणस्सेव जसो गिरिस्स, पवुचई महतो पव्वयस्स। एतोवमे समणे नायपुत्ते, जातीजसोदसणनाणसीले // 1 //
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________________ वीर 1363 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वीर एतदनन्तरोक्तं यशः-कीर्तन सुदर्शनस्य मेरुगिरः महापर्वतस्य प्रोच्यते, साम्प्रतमेतदेव भगवति दार्शन्तिके योज्यते-एषा अनन्तरोक्तोपमा यस्य स एतदुपमः, कोऽसौ ? - श्राम्यतीति श्रमणस्तपोनिष्टतदेहो ज्ञाता:क्षत्रियास्तेषां पुत्रः श्रीमन्महावीरवर्द्धमानस्वामीत्यर्थः, सचजात्या सर्वजातिमभ्यो यशसा अशेषयशस्विभ्यो दर्शनज्ञानाभ्यां सकलर्दशनज्ञानिभ्यः शीलेन समस्तशीलवयः श्रेष्ठः- प्रधानः, अक्षरघटना तु जात्यादीनां कृतद्वन्द्वानामतिशायने अर्शआदित्वादच्प्रत्यय-विधानेन विधेयेति / / 14 / / पुनरपि दृष्टान्तद्वारेणैव भगवतो व्यावर्णनमाह-- गिरीवरे वा निसहाऽऽययाणं, रुयए व सेट्टे वलयायताणं। तओदमे से जगभूइपन्ने, मुणीण मज्झे तमुदाहु पन्ने / / 15 / / अणुत्तरं धम्ममुईरइत्ता, अणुत्तरं झाणवरं झियाई। सुसुक्कसुक्कं अपगंडसुकं, संखिंदुएगंतवदातसुक्कं / / 16|| यथा निषधो-गिरिवरो गिरीणामायतानां मध्ये जम्बूद्वीपे अन्येषु वा द्वीपेषु दैोण श्रेष्ठः प्रधान तथा वलयायतानां मध्येरुचकः पर्वतोऽन्येभ्यो वलयायतत्वेन यथा प्रधानः सहि रुचकद्वीपान्तर्वी मानुषोत्तरपर्वत इव वृत्तायतः संख्येययोजनानि परिक्षेपेणेति, तथा स भगवानपि तदुपमः यथा तावायतवृसताभ्यां श्रेष्ठौ एवं भगवानपि जगति-संसारे भूतिप्रज्ञःप्रभूतज्ञानः, प्रजया श्रेष्ठ इत्यर्थः, तथा अपरमुनीनां मध्ये प्रकर्षण जानातीति प्रज्ञः एवं तत्स्वरूपविदः उदाहुः- उदाहृतवन्तः, उक्तवन्त इत्यर्थः / / 15 / / किञ्चान्यत्- नास्योत्तरः- प्रधानोऽन्यो धर्मो विद्यते इत्यनुत्तरः तमेवम्भूतं धर्मम्, उत् प्राबल्येन ईरयित्वा-कथयित्वा प्रकाश्य अनुत्तरं प्रधानध्यानवरध्यानश्रेष्ठ ध्यायति। तथाहि-उत्पन्नज्ञानो भगवान् योगनिरोधकाले सूक्ष्म काययोगं निरुन्धन् शुक्लध्यानस्य तृतीयं भेदं सूक्ष्मक्रि यमप्रतिपाताख्यं तथा निरुद्धयो गश्चतुर्थ शुक्लध्यानभेदं व्युपरतक्रियम्-अनिवृताख्यं ध्यायति, एतदेवदर्शयतिसुष्ठु-शुक्लवत् शुक्तं ध्यानम्, तथा अपगतं गण्डम्- अपद्रव्यं यस्य तदपगण्डं निर्दोषार्जुनसुवर्णवत् शुक्लं, यदिवा-अपगण्डम्-उदकफेनं तत्तुल्यमिति भावः। तथा शंखेन्दुवदेकान्तावदात-शुभ्रं शुक्लं-शुक्लध्यानोत्तरं भेदद्वयं ध्यायतीति / / 16 / / अपि चअणुत्तरग्गं परमं महेसी, असेसकम्मं स विसोहइत्ता। सिद्धिं गते साइमणंतपत्ते, णाणेण सीलेण य दंसणेण ||17|| रुक्खेसु णाते जह सामली वा, जस्सि रतिं वेययती सुवन्ना। वणेसु वा णंदणमाहु सेटुं. नाणेण सीलेण य भूतिपन्ने // 18 // तथा असौ भगवान् शैलेश्यवस्थापादितशुक्लध्यानचतुर्थभेदानन्तरं साद्यपर्यवसानां सिद्धिगति पञ्चमी प्राप्तः, सिद्धिगतिमेव विशिनष्टिअनुत्तरा चासौ सर्वोत्तमत्वादग्या च लोकाग्रव्यवस्थि-तत्वादनुत्तराग्या तां परमांप्रधानां महर्षिः-असावत्यन्तोग्रतपोविशेषनिष्टप्तदेहत्याद् अशेषं कर्मज्ञानावरणादिकं विशोध्य-अपनीय च विशिष्टेन ज्ञानेन दर्शनेन शीलेन च क्षायिकेण सिद्धिगति प्राप्त इति मीलनीयम् / / 17 / / पुनरपि दृष्टान्तद्वारेण भगवतः स्तुतिमाह-वृक्षेषु मध्ये यथा ज्ञातः-प्रसिद्धो देवकुरुव्यवस्थितः शाल्मलीवृक्षः, सच भवनपतिक्रीडास्थानम् यत्र-व्यवस्थिता अन्यतश्चागल्य सुपर्णाभवनपतिविशेषाः रतिरमणक्रीडां वेदयन्ति अनुभवन्ति, वनेषु च मध्ये यथा नन्दनं वनं देवानां कीडास्थानं प्रधानम्, एवं भगवानपिज्ञानेन-केवलाख्येन समस्तपदार्थाविर्भावकेन शीलेन चचारित्रेण यथाख्यातेन श्रेष्ठः-प्रधानः भूतिप्रज्ञः-प्रवृद्धज्ञानो भगवानिति॥१८।। अपि चथणियं व सद्दाण अणुत्तरे उ, चंदो व ताराण महाणुभावे / गंधेसु वा चंदणमाहु सेहूं, एवं मुणीणं अपडिनमाहु // 16 // जहा सयंभू उदहीण सेठे, नागेसु वा धरणिंदमाहु सेहे। खोओदए वा रसवेजयंते, तवोवहाणे मुणिवेजयंते // 20 // यथा शब्दाना मध्ये स्तनितं-मेघगर्जितं तद् अनुत्तरं--प्रधानं, तुशब्दो विशेषणार्थः समुच्चयार्थो वा, तारकाणां च-नक्षत्राणां मध्ये यथा चन्द्रो महानुभावः सकलजननिर्वृत्तिकारिण्या कान्त्या मनोरमः श्रेष्ठः, गन्धेषु इति गुणगुणिनोरभेदान्मतुबलोपाद्वा गन्धवत्सु मध्ये यथा चन्दनंगोशीर्षकाख्यं मलयज वा तज्ज्ञाः श्रेष्ठमाहुः, एवं मुनीनां महर्षीणां मध्ये भगवन्तनास्य प्रतिज्ञा इहलोकपरलोकाशंसिनी विद्यते इत्यप्रतिज्ञस्तमेवम्भूतं श्रेष्ठमाहुरिति / / 16 / / अपि च–स्वयं भवन्तीति स्वयम्भूवोदेवाः ते तत्रागत्य रमन्तीति स्वयम्भूरमणः तदेवम् उदधीनां-समुद्राणां मध्ये यथा स्वयम्भूरमणः समुद्रः समस्तद्वीपसागरपर्यन्तवर्ती श्रेष्ठ:-- प्रधानः नागेषु च भवनपतिविशेषेषु मध्ये धरणेन्द्रं धरणं यथा श्रेष्ठमाहुः, तथा 'खोओदए' इति इक्षुरन इवोदकं यस्य स इक्षुरसोदकः स यथा रसमाश्रित्य वैजयन्तः- प्रधानः स्वगुणैरपरसमुद्राणां पताकेवोपरि व्यवस्थितः एवं तपउपधानेन-विशिष्टतपोविशेषेण मनुते जगतस्त्रिकालावस्थामिति मुनिः- भगवान् वैजयन्तः-प्रधानः, समस्तलोकस्य महातपसा वैजयन्तीवोपरि व्यवस्थित इति // 20 //
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________________ वीर 1394 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वीर हत्थीसु एरावणमाहुणाए, सीहो मिगाणं सलिलाण गंगा। पक्खीसु वा गरुले वेणुदेवो, निव्वाणवादीणिह णायपुत्ते / / 21 / / जोहेसु णाए जह वीससेणे, पुप्फेसु वा जह अरविंदमाहू। खत्तीण सेट्टे जह दंतवक्के, इसीण सेट्टै तह वद्धमाणे // 22 // हस्तिषु-करिवरेषु मध्ये यथा ऐरावण-शक्रवाहनं ज्ञातंप्रसिद्ध दृष्टान्तभूतं वा प्रधानमाहुस्तज्ज्ञाः, मृगाणां--श्वापदाना मध्ये यथा सिंहः- केसरी प्रधानः तथा भरतक्षेत्रापेक्षया सलिलाना-मध्ये यथा गङ्गासलिल प्रधानभावमनुभवति, पक्षिषु-मध्ये यथा गरुत्मानः वेणुदेवापरनामा प्राधान्येन व्यवस्थितः, एवं निर्वाणसिद्धिक्षेत्राख्य कर्मच्युतिलक्षण वा स्वरूपतस्तदुपायप्राप्तिहेतुतो वा वदितु शील येषां ते तथा तेषां मध्ये ज्ञाताः- क्षत्रियास्तेषां पुत्रा:- अपत्य ज्ञातपुत्रःश्रीमन्महावीरवर्धमानस्वामी स प्रधान इति, यथावस्थितनिर्वाणार्थवादित्वादित्यर्थः / / 21 / / अपि च योधेषु मध्ये ज्ञातो-विदितो दृष्टान्तभूतो वा विश्वाहस्त्यश्वस्थपदातिचतुरङ्गबलसमता सेना यस्य स विश्वसेनः-- चक्रवर्ती यथाऽसौ प्रधानः, पुष्पेषु च मध्ये यथा अरविन्दं प्रधानमाहः, तथा क्षतात् त्रायन्त इति क्षत्रियाः तेषां मध्ये दान्ता-उपशान्ता यस्य वाक्येनैव शत्रवः सदान्तवाक्यः- चक्रवर्ती यथा असौ श्रेष्ठः तदेवं बहून दृष्टान्तान प्रशस्तान प्रदश्योधुना भगवन्तदाष्टान्तिक स्वनामग्राहमाहतथा ऋषीणां मध्ये श्रीमान वर्धमानस्वामी श्रेष्ठ इति / / 22 / / दाणाण सेढे अभयप्पयाणं, सच्चेसु वा अणवजं वयंति। तवेसु वा उत्तमबंभचेरं, लोगुत्तमे समणे नायपुत्ते / / 33 / / ठिईण सेट्ठा लवसत्तमा वा, सभा सुहम्मा वसभाण सेट्ठा। निव्वाण सेट्ठा जह सव्वधम्मा, ण णायपुत्ता परमत्थि नाणी // 24 // ('दाणाण सेट्ठ अभयप्पयाणं' अस्य पादस्थ व्याख्या 'अभयप्पदाण' शब्दे प्रथमभागे 708 पृष्ठे गता।) तथा सत्येषु च वाक्येषु यद् अनवद्यम्अपापं परपीडानुत्पादकं तत् श्रेष्ठ वदन्ति, न पुनः परपीडोत्पादकं सत्य, सद्भ्यो हितं सत्यमिति कृत्वा, तथा चोक्तम्- "लोकेऽपि श्रूयते वादो, यथा सत्येन कौशिकः 1 पतितो वधयुक्तेन, नरके तीव्रवेदने / / 1 / / " अन्यत्र- 'तहेव काणं काण त्ति पंडग पंडग ति वा / बाहियं वा वि रोगि त्ति, तेणं चोरो त्ति नो वदे॥१॥' तपस्सु मध्ये यथैवोत्तम नवविधब्रह्मगुप्त्युपेतं ब्रह्मचर्यं प्रधान भवति तथा सर्वलोकोत्तम रूपसंपदा- | सर्वातिशायिन्या शक्त्या क्षायिकज्ञानदर्शनाभ्यां शीलेन च ज्ञातपुत्रो भगवान् श्रमणः प्रधान इति // 23 / / किशस्थितिमतां यथा-लवसत्तमाःपश्चानुत्तरविमानवासिनो देवाः सर्वोत्कृष्टस्थितिवर्तिनः प्रधानाः, यदि किल तेषां सप्त लवा आयुष्कमभविष्यत्ततः सिद्धिगमनमभविष्यदित्यतो लवसप्तमास्तेऽभिधीयन्ते, सभानां च पर्षदां च मध्ये यथा सौधर्माधिपपर्षच्छ्रेष्ठा बहुभिः क्रीडास्थानैरुपेतत्वात्तथा यथा सर्वेऽपि धर्मा निर्वाणश्रेष्ठाः-मोक्षप्रधाना भवन्ति, कुप्रावचनिका अपि निर्वाणफलमेव स्न्यदर्शन ब्रुवते, यतः; एवं ज्ञातपुत्रात्-वीरवर्धमानस्वामिनः सर्वज्ञात् सकाशात परं-प्रधानं अन्यद्विज्ञानं नास्ति, सर्वथैव भगवान अपरज्ञानिभ्योऽधिकज्ञानो भवतीति भावः // 24 // किश्चान्यत्पुढोवमे धुणइ विगयगेही, न सण्णिहिं कुव्वति, आसुपन्ने / तरिउं समुदं व महाभवोघं, अभयंकरे वीर अणंतचक्खू / / 25 / / स हि भगवान् यथा पृथिवी सकलाऽधारा वर्तते तथा सर्वसत्त्वानामभयप्रदानतः सदुपदेशदानाद्वाऽसावाधार इति, यदि वा-यथा पृथ्वी सर्वसहा एवं भगवान् परीषहोपसर्गान सम्यक् सहते इति, तथा धुनाति अपनयत्यष्टप्रकार कर्मणि शेषः, तथा विगता--प्रलीना सबाह्याभ्यन्तरेषु वस्तुषु गृद्धिः गाद्यमभिलाभो यस्य सः विगतगृद्धिः (सूत्र०) (सन्निधिपदव्याख्या 'सपिणहि' शब्दे करिष्यते।) तथा आशुप्रज्ञः सर्वत्र सदोपयोगात् न छद्मस्थवन्मनसा पर्यालोच्य पदार्थपरिच्छित्तिं विधत्ते स एवम्भूतः तरित्वा समुद्रमिवापारं महाभवौघं चतुर्गतिकं संसारसागर बहुव्यसनाकुलं सर्वोत्तमं निर्वाणमासादितवान्।पुनरपि तमेव विशिनष्टिअभयं प्राणिनां प्राणरक्षारूपं स्वतः घरतश्च सदुपदेशदानात् करोतीत्यभयंकरः, तथाऽष्टप्रकारं कर्म विशेषेणेरयति प्रेरयतीति वीरः, तथा अनन्तम्-अपर्यवसानं नित्यं ज्ञेयानन्तत्वाद्वा अनन्तं चक्षुरिव चक्षुः केवलज्ञानं यस्य स तथेति। (सूत्र०1) (अध्यात्मदोषान् न कुर्वन्ति न कारयन्ति केवलिन इति अज्झत्तदोस' शब्दे प्रथमभाग 227 पृष्ठे गतम्।) किश्चान्यत्किरियाकिरियं वेणइयाणुवाय, अण्णाणियाणं पडियच ठाणं / से सव्ववायं इति वेयइत्ता, उवट्ठिए संजमदीहरायं / / 27 / / अपिचसे वारिया इत्थि सराइभत्तं, उवहाणवं दुक्खखयट्ठयाए। लोगं विदित्ता आरं परं च, सव्वं पभू वारिय सव्ववारं / / 28 / / तथा स भगवान् किवावादिनामक्रि यावादिना वैनयिका
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________________ वीर 1365 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वीर नामज्ञानिकानां च स्थान-पक्षमभ्युपगतमित्यर्थः, यदिवा-स्थीयतेऽरिमन्निति स्थान--दुर्गतिगमनादिकं प्रतीत्यपरिच्छिद्य सम्यगवबुध्ये - त्यर्थः एतेषां च स्वरूपमुत्तरत्रन्यक्षेण व्याख्यास्यामः,लेशतस्त्विदम्क्रियैव परलोकसाधनयाल-मित्येवं वदितुं शील येषां ते क्रियावादिनः, तषां हि दीक्षाल एव क्रियारूपाया मोक्ष इत्येवमभ्युपगमः, अवियावादिनस्तु ज्ञानवादिनः तेषां हि यथावस्थितवस्तुपरिज्ञानादेव मोक्षः तथा चोक्तम्- 'पञ्चविंशतितत्त्वज्ञो, यत्र तत्राभग्मे रतः / शिखो मुण्डी जटी वापि, सिध्यते नात्र संशयः // 1 // " तथा विनयादेव मोक्ष इत्येवं गोशालकमतानुसारिगो विनयेन चरन्तीति वैनयिका व्यवस्थिताः, तथा अज्ञानमेवैहिकामुष्मिकायालमित्येवमज्ञानिका व्यवस्थिताः, इत्येवं रूप तेषामभ्युपगमं परिच्छिद्यस्वतः सम्यगवगम्य-सम्यगवबोधेन, तथा स एव वीरवर्धमानस्वाभी सर्वमन्यमपि बौद्धादिकं यं कञ्चनवादमपरान सत्त्वान यथावस्थिततत्त्वोपदेशेन वेदयित्वापरिज्ञाप्योपस्थितः सम्यगुत्थानन सयन व्यवस्थितो न तु यथा अन्ये / तदुक्तम्- "यथा परेषां कथका विदग्धाः, शास्त्राणि कृत्वा लघुतामुपेताः / शिष्यैरमुज्ञामलिनोपचारैवक्तृत्वदोषास्त्वयि ते न सन्ति / / 1 / / " इति दीर्घरात्रम् / इति यावजीवं संयमोत्थाने नोस्थित इति / / 27 / / अपिच-स भगवान् धारयित्वा-प्रतिषिध्य, किं तदित्याह- 'रिचयम्' इति-स्त्रीपरिभाग मैथुनमित्यर्थः, सह रात्रिमक्तेन वर्तत इति सरात्रिभक्तम् उपलक्षणार्थस्वादस्यान्यदपि प्राणातिपातनिषेधादिकं द्रष्टव्यम्, तथा उपधानंतपस्तद्विद्यते यस्यासी उपधानवान्- तपोनिष्टप्तदेहः, किमर्थमिति दर्शयति-दुःस्यतीति दुःखम्-- अष्टप्रकार कर्म तस्य क्षयः-अपगमस्तदर्थ , किद्ध-लोकं विदित्वा आरम्-- इहलोकाख्यम्, परंपरलोकाख्य, यदिवा- 'आरंमनुष्यलोक, परमितिनारकादिक, स्वरूपतस्तस्प्राप्तिहतुतश्च विदित्वा सर्वमेतत् प्रभु:- भगवान् सर्ववारंबहुशो निवारितवान् एतदुक्तं भवति-प्राणातिपातनिषेधादिकं स्वतोऽनुष्ठाय परांश्च स्थापितवान् / न हि स्वतोऽस्थितः परांश्च स्थापयितुमलमित्यर्थः, तदुक्तम्- "ब्रुवाणोऽपि न्याय्यं स्ववचनविरुद्धं व्यवहरन्, परान्नालं कश्चिद्दमयितुमदान्तः स्वयमिति / भवान् निश्चित्यैव मनसि जगदाधाय सकलं, स्वमात्मानं तावद्दमयितुमदान्तं व्यवसितः।।१।।" इति, तथा"तित्थयरो चउनाणी, सुरमहिओ सिज्झिय व्व धूयम्मि। अणिमूहियवलविरिओ, सव्वत्थामेसु उज्जमई / / 1 / / " इत्यादि / सोचा य धम्मं अरहंतभासियं, समाहितं अट्ठपदोवसुद्ध, तं सद्दहाणा य जणा अणाउ, इंदा व देवाहिव आगमिस्सं,॥२६॥ त्ति वेमि इति श्रीवीरथुतीनाम छट्ठमज्झयणं / (26) गाथाव्याख्या 'धम्म' शब्दे चतुर्थभागे 2708 पृष्ठे गता।) इतिशब्दः परिसमाप्तौ ब्रवीमिति पूर्ववत् / इति वीरस्तवाख्य षष्ठमध्ययनं परिसमाप्तमिति / सूत्र० 1 श्रु०६ अ०। ('णिण्हग' शब्दे चतुर्थभागे 2025 पृष्ठे वीरतीर्थनिलवा दर्शिताः।) (30) प्रकीर्णकवार्ताःकल्पकिरणावल्याम्-मरुदेव्यध्ययनं विभावयन वीरः सिद्धिं गतः, तत्र मरादेव्यध्ययनं कया रीत्या विभावितम्, तत्सम्यक् प्रसाद्यमिति ? प्रश्नः, अत्रोत्तरम्-कल्पसूत्रावचूर्णो मरुदेव्यध्ययनं विभावयन्-प्ररूपयन्नित्येव व्याख्यातमस्ति, न तु विभावनरीतिरिति / / 20 / / सेन० 1 उल्ला० / सिन्धुदेशे श्रीवीरस्वामिगमने प्रसाद्यानीति? प्रश्नः, अत्रोत्तरम् -- तदक्षराणि निशीथचूर्णी सन्ति, तथा श्रूयते च अप्कायमचित्तं जानाना अपि केवलमनःपर्यायावधिश्रुतज्ञानिनो न परिभुञ्जते, अनवस्थाप्रसङ्ग भीरुतया, तथा श्रीवर्द्धमानस्वामिना विमलसलिलशैवलपटलत्रसादिरहितो महाद्रहो व्यपगताशेषजलजन्तुकोऽ-चित्तवारिपरिपूर्णः स्वशिष्याणां तृइबाधितानामपि पानायः नानुजज्ञे, तथा अचित्ततिलशकटस्थण्डिलपरिभोगानुज्ञा चानवस्थादोषसंरक्षणाय भगवता न कृतेति, श्रुतज्ञानप्रामाण्यज्ञापनार्थं च इत्याचाराङ्ग प्रथमाध्ययन-तृतीयोद्देशकवृत्ताविति / / 70 / / सेन०३ उल्ला०। कृत्रिमजिनप्रतिमानामुत्कर्षतो जघन्यतश्च किं मान, यदि पञ्चधनुःशतान्युत्कृष्ट जघन्यमङ्गुष्ठप्रमाण तदा श्रीभरतेनाष्टापदे स्वस्वशरीरप्रमाणोपेतेषु श्रीऋषभादिचतुर्विंशतिजिनबिम्बेषु कारितेषु, उत्सेधाड्गुलेन सप्तहस्तमाना श्रीवीरस्वामिनो मूर्तिर्भरतस्याङ्गुष्ठप्रमाणाऽपि कथं भवति? भरतस्यैकस्मिन्नात्माङ्गुले उत्सेधाड्गुलसत्कानि षोडशा-गुलाधिकानि चत्वारि धषि भवन्तीति ? प्रश्नः, अत्रोत्तरम्-- भरते न श्रीमहावीरशरीरप्रमाणेन तस्याः कारितत्वात् / यद्यपि सा भरतस्यात्माडगुलप्रमाणा न भवति तथाऽपि न किमप्यनुपपन्नं, भरतागुलप्रमाणस्यात्रानधिकृतत्वात्, तस्य च प्रायिकत्वादिति / / 2 / / सेन०१ उल्ला० श्रीवीरजन्मपत्री छूटकपत्रे चैत्रसुदित्रयोदशीभौमे उत्तराफाल्गुनीनक्षत्रे सिद्धियोगे रात्रिघटी 15 मकरलग्ने सिद्धार्थराजगृहे, पुत्रो जातः, स्कन्धपुराणादुद्धता इत्येवं लिखितादृश्यते, परं वीरजन्मपत्रीयमेवान्यथा वेति ? प्रश्नः, अत्रोत्तरम्-वीरजन्मपत्री तु स्कन्दपुराणनाम्नि छूटकपत्रे लिखिता दृश्यते न तु ग्रन्थे दृष्टाऽस्तीति / / 15 / / सेन० 3 उल्ला० / तथा-श्रीवीरजिनजन्मोत्सवावसरे मेराविन्द्रस्य सन्देहो यः समुत्पन्नः स सौधर्मेन्द्रस्य ततः कथं प्रथममच्युतेन्द्रः स्नपयतीति युक्तिमदिति ? प्रश्नः, अत्रोत्तरम-श्रीवीरजन्माभिषेकावसरे सौधर्मेन्द्रस्य संशयस्समुत्पन्नः तदनुसन्देहापनोदात् सौधर्मेन्द्राज्ञया अच्युतेन्द्रः प्रथमं स्नफ्यतीति नायुक्तिमत्, श्रीवीरचरित्रादौ तथैव दर्शनादिति / / 162 / / सेन०३ उल्ला० / तथा-वीरशासने आचार्याभूयापि किंसंख्याका नरकगामिनः सूरय उक्ताः सन्ति? तदक्षराणि च कुत्र ग्रन्थ इति सव्यासं प्रसाद्यमिति? प्रश्नः, अत्रोत्तरम- श्रीवीरशासने एतावत्संख्याका आचार्या नरकगामिनः इति ग्रन्धे दृष्ट न स्मरति, किञ्च- "तीआणागयकाले, केइ होंहिति गोअमा : सूरी। जेसिं नामग्गहणे, नियमेणं होइ पच्छित्तं / / 1 / / " इति श्रीगच्छाचारप्रकीर्णके प्रोक्तमस्तीति॥३५५|| सेन०३ उल्ला० /
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________________ वीरंगय 1396- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वीरतव वीरंगय–पुं०(वीराङ्गद) बलदेवपुत्रस्य रेवतीगर्भसम्भूतस्य निषध कुमारस्य पूर्वभवजीवे, नि०। ('णिसढ' शब्दे चतुर्थभागे, 2137 पृष्ठे तत्कथोक्ता।) चेटकराजस्य रथिनि, आ० क० 4 अ०। वीरकण्ह-पुं०(वीरकृष्ण) श्रेणिकमहाराजभार्यायाः वीरकृष्णायाः पुत्रे, नि०। (स च वीरान्तिके प्रव्रजय वर्षत्रयं व्रतपर्याय परिपाल्य महाशुक्रे सप्तमे कल्पे समुत्पद्य सप्तदशसागरोपममायुरनुपाल्यततश्च्युतो महाविदेहे सेत्स्यतीति निरयावलिकायाः सप्तमेऽध्ययने सूचितम्।) वीरकण्हा-स्त्री०(वीरकृष्णा) श्रेणिकमहाराजभार्यायां वीरकृष्णकुमारमातरि, नि०। (साच वीरान्तिके प्रव्रज्य महतीं सर्वतो-भद्रप्रतिमां प्रतिपद्य सिद्धेत्यन्तकृद्दशानामाष्टमे वर्गे सप्तमे अध्ययने सूचितम्।) वीरकप्प-पुं०(वीरकल्प) कण्णाणयणीय' शब्दे तृतीयभागे 231 पृष्ठे व्याख्याते भगवतो महावीरस्य कल्पे, ती० 48 कल्प। वीरकूड-न०(वीरकूट) चतुर्थदेवलोकस्थे विमानभेदे, स०४ सम०। वीरग-पु०(वीरक) द्वारवत्यां वासुदेवभक्ते कौलिके, आव० 3 अ०। वीरगणि-पुं०(वीरगणिन) श्रीगणिशिष्ये वलभीनाथ-व्यन्तरप्रतिबोधके चामुण्डराजपुत्रदे आचार्य, अयमाचार्यः 638 विक्रमसंवत्सरे जातः६८० संवत्सरे दीक्षितः 661 संवत्सरे, स्वर्गतः / जे० इ० / वीरधोस-पुं०(वीरघोष) वीरजिनविहते मोराकसन्निवेशे स्वनाम-रख्याते कर्मकरे, आ० म०१ अ०। आ० चू०। वीरचरित्त न०(वीरचरित्र) हेमचन्द्रविरचिते वीरजिनचरितनिबद्ध ग्रन्थके, ध०२ अधिक। वीरजिण-पुं०(वीरजिन) वीरश्चासौ जिनश्च कषायादिप्रत्य-र्थिसार्थजयाद् वीरजिनः। श्रीवर्द्धमानस्वामिनि, कर्म०२ कर्म० / "जयति जगदेकदीपः प्रकटितनिःशेषभावसद्भावः / कुमतपतङ्गविनाशी, श्रीवीरजिनेश्वरो भगवान् // 1 // " आ० म०१ अ०। वीरण-पुं (वीरण) तृणवनस्पतिकायभेदे, यन्मूलमुशीरं भवति। आचा० 1 श्रु०१ अ०५ उ० सूत्र०ाम्लेच्छभेदे, प्रज्ञा०१ पद। वीरतव-न० (वीरतपस्) वीरप्रभोश्छाद्यस्थिके तपसि, आ०म० 1 अ०। आव०॥ तपसा केवलमुत्पन्नमिति कृत्वा यद्भगवता तप आसेवितं तदभिधित्सुराह - जो य तवो अणुचिण्णो, वीरवरेणं महाणुभावेणं / छउमत्थकालियाए, अहक्कम कित्तइस्सामि।।५२७|| व्याख्या -- यच तप आचरितं वीरवरेण महानुभावेन छद्मस्थकाले यत्तदोर्नित्यसम्बन्धात् तद्यथाक्रम - येन क्रमेणानुचरितं भगवता तथा कीर्तयिष्यामीति गाथार्थः / / 527 / / तचेदम् - नव किर चाउम्मासे, छक्किर दोमासिए उवासीय। बारस य मासियाई, बावत्तरि अद्धमासाइं / / 528 / / व्याख्या - नव किल चातुर्मासिकानि तथा षट् 'कल द्विमासिकानि उपोषितवान्, किलशब्दः- परोक्षाप्तागमवादसं- सूचकः, द्वादश च मासिकानि द्विसप्तत्यर्द्धमासिकान्युपोषितवानिति क्रियायोग इति गाथार्थः / / 528 / एग किर छम्मासं, दो किर तेमासिए उवासीय। अड्डाइजाइ दुवे, दो चेव दिवड्डमासाइं॥५२६।। व्याख्या-एक किल पाण्मासं, द्वे किल त्रैमासिके उपोषितवान्, तथा 'अड्डाइलाइ दुवे' त्ति अर्द्धतृतीयमासनिष्पन्नं तपः- क्षपणं वाऽर्धतृतीयं, ते-अर्धतृतीये द्वे, चशब्दः क्रियानुकर्षणार्थः, द्वे एव च 'दिवड्डमासाहं.' तिसार्धमासे तपसी क्षपणेवा, क्रियायोगोऽनुवर्त्तत एवेति गाथार्थः // 526 // भदं च महाभ, पडिमं तत्तो य सव्वओभई। दो चत्तारि दसेव य, दिवसे ठासीय अणुवद्धं / / 530 / / व्याख्या-भद्रा च महाभद्रा प्रतिमा ततश्च सर्वतोभद्रां स्थितवान्, अनुबद्धमितियोगः, आसामेवानुपूर्व्या दिवसप्रमाणमाह-दौ चतुरः दशैव च दिवसान् स्थितवान्, अनुबद्धंसन्ततमेवेति गाथार्थः / / 530 / / गोयरममिग्गहजुयं, खमणं छम्मासियं च कासी य। पंचदिवसेहि ऊणं अव्वहिओ वच्छनयरीए।।५३१।। व्याख्या गोचरेऽभिग्रहो गोचराभिग्रहस्तेन युत क्षपणं षाण्मा-सिकं च कृतवानपञ्चभिर्दिवसैन्यूनम, अध्यधितः-अपीडितो वत्सानगर्याकौशाम्ब्यामिति गाथार्थः / / 531 // दस दो य किर महप्पा, ठाइ मुणी एगराइयं पडिमं / अट्ठमभत्तेण जई, एक्कक्कं चरमराईयं // 532 / / व्याख्या-दश द्वे च संख्यया द्वादशेत्यर्थः, किल महात्मा ठासि मुणि' त्ति स्थितवान् मुनिः, एकरात्रिकी प्रतिमा पाठान्तरं वा एकराइएपडिमे' त्ति एकरात्रिकीः प्रतिमाः, कथ-मित्याह अष्टनभक्तेन-त्रिरात्रोपवासेनेति हृदयम्, यतिः- प्रयत्नवान्, एकैकां चरमरात्रिकी चरमरजनीतिष्पन्नामिति गाथार्थः // 532 / / दो चेव यछट्ठसए, अउणातीसे उवासिया भगवं। न कयाइ निचमत्तं, चउत्थभत्तं च से आसि / / 533 / / व्याख्या-द्वे एव च षष्ठशते एकोत्रिंशदधिके उपोषितो भगवान, एवं न कदाचिन्नित्यभक्तं चतुर्थभक्तं वा 'से' तस्याऽऽसीदिति गाथार्थः / / 533 / / बारस वासे अहिए, छ8 भत्तं जहण्णयं आसि। सय्वं च तवोकम्मं, अपाणयं आसि वीरस्स।।५३४|| व्याख्या-द्वादश वर्षाण्यधिकानि भगवतश्छद्मस्थस्य सतः षष्ठं भक्तं' द्विरात्रोपवासलक्षणं जघन्यकमासीत्, तथा सर्व च तपः-कर्म अपानकमासीद्वीरस्य। एतदुक्तं भवतिक्षीरादिद्र वाहारभोजनकाललभ्यव्यतिरेकेण पानकपरिभोगो नाऽऽसेवित इति गाथार्थः // 534|| आव० 1 अ०।
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________________ वीरत्थय 1367- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वीरिय वीरत्थय--पुं० (वीरस्तव) महावीरस्वामिगुणकीर्तनप्रतिबद्धषष्ठेसूत्र- | ६अ। कृतागाध्ययने, सूत्र०१ श्रु०६ अ० / प्रश्न० / आ० चू०। आव०। | वीरवर-पं० (वीरवर) वीरेषु वरः प्रधानो वीरवरः / वर्द्धमानस्वामिनि, (तचध्ययनं 'वीर' शब्दे 1360 पृष्ठे दर्शितम्।) सू० प्र०२०पाहु० / प्रश्नः। वीरदेवा-स्त्री० (वीरदेवा सुधर्मस्वाभिनो मातरि, आ० चू० 1 अ०।। वीरवरनामधिज्ज-पुं० (वीरवरनामधेय) वीरवरेति प्रशस्तनामनि, प्रश्न वीरधवल-पुं० (वीरधवल) गुर्जरधरित्र्यां धवलक्कपुरराजे वस्तुपाल- १आश्र० द्वार। तेजःपालमन्त्रीश्चरे वीसलदेवनृपतिपितरि, ती०४१ कल्प। वीरवलय-न० (वरिवलय) वीरत्वसंसूचके बलये, कल्प०१ अधि०३ वीरपुर न० (वीरपुर) नेमिनाथस्य तीर्थकरस्य प्रथमभिक्षालाभ स्थाने, क्षण / सुभटो हि कश्विदन्योऽप्यस्ति वीरव्रतधारी यदसौ मां विजित्य 'आ० म० 1 अ०। मोचयत्येतानि वलयानीति स्पर्द्धयन यानि परिदधाति तानि वीरवलवीरभद्द-पुं० (वीरभद्र) कनकपुरादौ पूज्यमाने यक्षभेदे, विपा०२ श्रु०६ यानीत्युच्यन्ते / ज्ञा० 1 श्रु०१ अ०। औ०। अ० / आवा पार्श्वनाथस्य सप्तमे गणधरे, स० 8 सम० / कल्प० / वीरसासण-न० (वीरशासन) वर्तमानतीर्थे, नं०। स्था० / आतुरप्रत्याख्यानप्रकीर्णककर्तरिवीरजिनसाधौ, आतु०।। वीरसूर-पुं० (धीरशूर) वीराणां मध्येऽत्यन्तसाहसधनेशूरे, प्रश्न० 4 संव० वीररवि-पु० (वीररवि) वीरजिनादित्ये, 'उद्बोधो विदधेऽब्जानामिव द्वार। भव्यशरीरिणाम् / गवां विलासैर्येनाऽसौ, जीयाद् वीररविश्विरम् // 1 // " | वीरसरि-(वीरसरि भक्तामरकत 'मान वीरसूरि-(वीरसूरि) भक्तामरकर्तृ ''मानतुङ्ग' सुरौ, ग० 3 अधि० / ग०१ अधि०॥ वीरसेण-पुं० (वीरसेन) सम्यक्त्वप्राधान्ये दृष्टान्ततयोक्ते उदयसेनराज्ञोवीररस-पुं० (वीररस) शूर वीर विक्रान्तौ इति वीरयतिविक्रामयति | ऽन्धे पुत्रे, आचा०१ श्रु०४ अ०१ उ०। यदुकुलप्रसिद्ध वीरे, आ० चू० त्यागतपोवैरिनिग्रहेषु प्रेरयति प्राणिनमित्युत्तमप्रकृतिपुरुषचरित्र 1 अ०। आ० म० / अन्त०। श्रवणादिहेतुसमुद्भूते दानाद्युत्साहप्रकर्षात्मके काव्यरसभेदे, अनु०॥ वीरसेणिय-न० (वीरसैनिक) चतुर्थदेवलोकस्थविमानभेदे, स०६ सम०। तत्थ परिच्चायम्मि अ, दाणतवचरणसत्तुजणविणासे। वीराइपुत्तमाउ-स्त्री० (वीरादिपुत्रमातृ) अणहिलपट्टननगरे वीरादिकाअणणुसयधितिपरक्कम-लिंगो वीरो रसो होइ।।२।। नामनेकेषां पुत्राणां जनन्यां वसुन्धर्या श्राविकायाम्, जी०१ प्रति० / तत्र तेषु नवसु रसेषु मध्ये परित्यागे दाने तपश्चरणे- तपोविधाने / वीरायमाण-त्रि० (वीरायमाण) वीरमिवात्मानमाचरति, आचा०१ श्रु० शत्रुजनविनाशे च यथासंख्यमननुशयधृतिपराक्रमचिह्नो वीरो स्सो 6 अ०४ उ०। भाति इदमुत्त भवति- दाने दत्ते यदानुशयो- गर्वः पश्चात्तापो वा तं न वीरायरिय-पुं० (वीराचार्य) चन्द्रगच्छस्य शाण्डिल्यशाखायां विजयसिंहकरोति लपसि च कृते धृतिं करोति नार्तध्यानं, शत्रुविनाशे च पराक्रमते सूरिशिष्ये सिद्धराजमित्रे बौद्धसाङ्यदिगम्बराचार्याणां जेतरि आचार्य, न तु वैक्लव्यमवलम्बते, तदा एतैलिडैायतेऽयं प्राणी वीररसे वर्त्तत सच 1160 विक्रमसंवत्सरे आसीत्। जै० इ०। इत्येवमन्यत्रापि भावना कार्येति। उदाहरणनिदर्शनार्थमाह-- वीरासण-न० (वीरासन) सिंहासनोपविष्टस्य भुविन्यस्तपाद-स्यापनी तसिंहासनस्येवावस्थाने, शा०१ श्रु०१ अ० / वीरासनं नाम यथा वीरो रसो जहा सिंहासने उपविष्टो भून्यस्तपाद आस्ते तथा तस्यापनयने कृतेऽपि सो नाम महावीरो, जो रजं पयहिऊण पव्वइओ। सिंहासने इव निविष्ट मुक्तजानुके इव निरालम्बनेऽपि यदास्ते / दुष्कर कामक्कोहमहास-त्तु पक्खनिग्घायणं कुणई॥३॥ चैतत, अत एव वीरस्य-साहसिकस्यासनं वीरासनमित्युच्यते / बृ०५ वीरो रसो यथा इत्युपदर्शनार्थमेतत् 'सो नाम' गाहा पाठसिद्धा, नवरं उ०। ज्ञा० / सूत्र० / आचा० / स्था०। (वीरासनविवरणम् आसण' शब्दे वीररसवत् पुरुषचेष्टितप्रतिपादानादेवप्रकारेषु काव्येषु वीर-रसः द्वितीयभागे 470 पृष्ठ गतम्।) प्रतिपत्तव्य इति भावार्थः / अपरं चेहोत्तमपुरुषजेतव्यकामक्रोधादभाव- वीरासणिय-पृ०(वीरासनिक) वीरासनमुक्तं तदस्यास्तीति वीरासनिकः / शत्रुजयेनैव वीररसोदाहरण मोक्षाधिकारिणि प्रस्तुतशारत्रे इतरजन सूत्र०२ श्रु०२ अ०। सिंहासने निविष्ट इवासीने, स्था०७ ठा०३ उ०। साध्यसंसारकारणद्रव्यशत्रुनिग्रहस्था-प्रस्तुतत्वादिति मन्तव्यमिति। एवं दशा० / बृ० / भ०। (निर्ग्रन्थ्या वीरासनिकया भवितुं न कल्पते इति मन्यत्रापि भावार्थोऽवगन्तव्य इति / अनु०। 'आसण' शब्दे द्वितीयभागे 460 पृष्ठे गतम्।) वीरल्लसउण-पुं० (वीरल्लशकुन) उलूकजातीये हुलापकपक्षिणि, बृ० वीरिय-न० (वीर्य) विशेषेण ईर्यते चेष्ठ्यतेऽनेने ति वीर्यम् / 3 उ० / नि००। उत्त० 33 अ० / विशेषेणे रयति प्रवर्त्तयति आत्मनां तासु वीरवयण-न० (वीरवचन) भगवन्महावीरवर्द्धमानस्वामिप्रवचने, आव० तासु क्रियास्विति वीर्यम् / 'स्याद् भव्य-चैत्य-चौर्यसमेषु
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________________ वीरिय 1398 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वीरिय यात्" / 8 / 2 / 107 / / इति संयुक्तस्य यात्पूर्व इद् / प्रा० ! कर्म०। पानादिपुद्गलान् विसृजतीति परिणामालम्बनग्रहणसाधनं वीर्यम् / तेन सामर्थ्य विशेषे, उत्त० 3 अ० / शक्ती, अर्थक्रिया सामर्थ्य, मनसः | चवीर्येण योगसंज्ञकेन मनोवाक्कायावष्टम्भतो जायमानेन'लद्धनामतिगं' स्वविषयज्ञानोत्पादने, सूत्र०२ श्रु०५ अ० आ० म०। आन्तरोत्साहे, ति लब्धं नामत्रिकम् / तद्यथा-मनोयोगो, वाम्योगः, काययोगः इति। चं०प्र०२० पाहु० / आ० चू० / जीवाश्रिते, स्था०३ ठा० 3 उ०। तत्र मनसा करणभूतेन योगो मनोयोगः, वाचा योगो वाग्योगः, कायेन पराक्रमे, कल्प०१ अधि० 6 क्षण / पं० भा०। आ० चू० / योगो वीर्य योगः काययोगः / स्यादेतत्, सर्वेषु जीवप्रदेशेषु तुल्यक्षायोपशमिशक्तिरुत्साहः पराक्रम इति पर्यायाः। कर्म०२ कर्म०। आ० चू०।आव०। क्यादिलब्धिभावेऽपि किमिति क्वचित्प्रभूतं क्वचित् स्तोकं क्वचित्स्तोजी०। उत्त०। व्यवसाये, पं० चू०१ कल्प।औ०ाजका उत्साहातिरेके, कतरमित्येवं वैषम्येण वीर्यमुपलभ्यतइत्यत आह-कज्जे' त्यादि, यदर्थ स्था०८ ठा०३ उ०। चित्तोत्साहे, पञ्चा० 16 विव०। औरस बले, सूत्र० चेष्टते तत्कार्य, तस्याभ्याशः, अभ्यशनमभ्याशः, अशू व्याप्तावित्य१ श्रु०६ अ० जीवबले, भ०७ श०७ उ०। स्था०। स्याभिपूर्वस्यजन्तस्यप्रयोगः, कार्याभ्याशः कार्यस्यासन्नता निकटीप्रथमतो वीर्यमेव प्ररूपयति भवनमित्यर्थः। तथा जीवप्रदेशानामन्योऽन्यं परस्परं प्रवेशः शृङ्खलावविरियंतरायदेस-क्खएण सव्वक्खएण वालद्धी। यवानामिव परस्परं सम्बन्धविशेषः / ताभ्यां कृत्वा विषमीकृताः अभिसंधिजमियरं वा, तत्तो विरियं सलेसस्स ||3|| प्रभूताल्पाल्पतरसद्भावतो विसंस्थुलीकृताः प्रदेशाः- जीवप्रदेशा येन जीववीर्येण तत्कार्याभ्याशान्योऽन्यप्रदेशविषमीकृतप्रदेशम् / तथाहि-- वीर्यान्तरायस्य देशक्षयेण सर्वक्षयेण वा लब्धिर्वीर्यलब्धिर-सुमता येषामात्मप्रदेशानां हस्तादिगतानामुत्पाद्यमानघटादिलक्षणकार्यनैमुपजायते। तत्र देशक्षयेण छद्मस्थानां, सर्वक्षयेण (च) केवलिनाम् / कठ्यं तेषां प्रभूततरा चेष्टा, दूरस्थानाम शादिगतानां स्वल्पा, दूरतरतस्याश्च वीर्यलब्धेः सकाशादुपजायमानं वीर्य सलेश्यस्यापि च भवति, स्थानां तु पादादिगतानां स्वल्प-तरा ! अनुभवसिद्धं चैतत्। अपि चअलेश्यस्यापि च / केवलमिह सलेश्यवीर्येणाधिकार इति तदेवोपदर्शयति लोष्ठादिनाऽभिघाते सति यद्यपि सर्वप्रदेशेषु युगपद्वेदनोपजायते, तथापि 'अभिसंधिजमियरं वा तत्तो विरियं सलेसस्स' ततस्तस्थाः क्षायिक येषामात्मप्रदेशा-नामभिघातकलोष्ठादिद्रव्यनैक्व्यं तेषां तीव्रातरा वेदना, क्षायोपशमिकरूपाया वीर्यलब्धेः सकाशात्सलेश्यस्य वीर्यमभिसंधि-- शेषाणांतुमन्दाभन्दतरा। तथेहापिजीवप्रदेशेषु परिस्पन्दात्मकं वीर्यमुपजमित-रद्वा भवति। तत्र यगुद्धिपूर्वकं धावनबल्गनादिक्रियासु नियुज्यते जायमानं कार्यद्रव्याभ्याशवशतः केषु चित्प्रभूतमन्येषु मन्दमपरेषु तु तदभिसन्धिजम, इतरदनभिसन्धिजम्। यद्भुक्तस्याऽऽहारस्य धातुमल मन्दतमंभवति। एतच्चैवंजीवप्रदेशानां परस्पर संबन्धविशेषे सति भवति, त्वरूपपरिणामापादनकारणमेकेन्द्रियाणां वा तत्तत्क्रियानिबन्धनम्, नान्यथा यथा शृङ्खलावयवानाम्, तथाहि-तेषां शृङ्खलावयवानां परस्परं एतच्चाभिसन्धिजमनभिसन्धिजं वा वीर्यमवश्यं यथासंभवं सूक्ष्मबादर संबन्धविशेषे सति एकस्मिन्नवयवे परिस्पन्दमानेऽपरेऽप्यवयवाः परिस्पपरिस्पन्दरूपक्रियासहितं, योगसंज्ञमप्येतदेवा एकार्थिकानि चास्यामूनि न्दन्ते, केवलं केचित् स्तोकमपरे स्तोकतरमिति। सम्बन्धविशेषाभावे - "जोगो विरियं थामो, उच्छाह परिक्कमो तहा चिट्ठा / सत्ती सामत्थं त्वेकस्मिन् चलति नापरस्यावश्यंभावि चलनं, यथा गोपुरुषयोः, चिय, जोगस्स हवंति पजाया // 1 // " इति // 3 // तस्मात्कार्यद्रकाभ्याशवशतो जीवप्रदेशानां परस्परं संबन्धविशेषतश्च संप्रत्यस्यैव योगस्य परिणामादिहेतुतां भेदं च तथा जीव-प्रदेशेष्वस्य वीर्यजीवप्रदेशेषु केषुचित्प्रभूतमन्येषु स्तोकमपरेषुतुस्तोकतरमि-त्येवं वैषम्येणावस्थाने कारणं च प्रतिपिपादयिपुरिदमाह वैषम्येणोपजायमानं न विरुध्यत इति // 4 // परिणामालंवणगह-ण साहणं तेण लद्धनामतिगं / / तदेवं वीर्य प्रतिपाद्य संप्रत्यस्यैव जघन्याजघन्योत्कृष्टानुत्कृष्टत्वकजब्भासन्नोन्न-प्पवेसविसमीकयपएसं // 4 // परिज्ञापनाय प्ररूपणां चिकीर्षुरिमानाधिकारानाहपरिणमनं परिणामः / णिजन्तात् घञ् प्रत्यतः (श्रीम० कृ०५-३) अविभागवग्गफडग-अंतरठाणं अणंतरोवणिहा। परिणामापादनमित्यर्थः / आलम्ब्यत इत्यालम्बनं, भावेऽनट् (श्रीम० जोगे परंपराबु-डिसमयजीवप्पबहुगं च / / 5 / / कृ०६-२)(गहीतिर्ग्रहणम्) तेषांसाधनंसाध्यतेऽनेनेतिसाधनंयोगसझं योगे-योगविषये, प्रथमतोऽविभागप्ररूपणा कार्या 1 / तपो वर्गणाप्ररूवीर्य, करणेऽनद् (श्रीम० कृ० 6-4) / तथाहि -तेन वीर्यविशेषेणं पणारा ततः स्पर्धकस्य प्ररूपणा 3 / तदनन्तरमन्तरप्ररूपणा 4 / ततः योगसंज्ञकेनौदारिकादिशरीरप्रायोग्यान् पुद्गलान् प्रथतो गृह्णाति, गृहीत्वा स्थानप्ररूपणा 5 / ततोऽनन्तरोपनिधा 6 / ततः परंपरोपनिधा 7 / चौदारिकादिरूपतया परिणमयति / तथा प्राणापानभाषामनोयोग्यान तदनन्तरं वृद्धिप्ररूपणा ततः संमयप्ररूपणा।।ततोजीवानामल्पपुद्गलान् प्रथमतो गृह्णाति, गृहीत्वा च प्राणऽपानादिरूपतया परिणमयति / बहुत्वप्ररूपणेति 10 / तत्र यस्यांशस्य प्रज्ञाच्छेदनकेन विभागः कर्तुं न परिणमय्य च तन्निसगहेतुसामर्थ्य विशेषसिद्धये तानेव पुगलान- शक्यते सोंऽशोऽविभाग उच्यते! किमुक्तं भवति? --इह जीवस्य वीर्य वलम्बते / यथा मन्दशक्तिः कश्चिन्नगरे परिभ्रमणाय यष्टिमवलम्बते केवलिप्रज्ञाच्छेदनकेन छिद्यमानं छिद्यमानं यदा विभाग न प्रयच्छति, (मवष्टम्भते) ततस्तदवष्टम्भतो जातसामर्थ्य विशेषः सन्तान प्राणा- तदा सोऽन्तिमोऽशोऽविभाग इति // 5 //
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________________ वीरिय 1396 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वीरिय त चाविभागा एकै कस्मिन् जीवप्रदेशे यावन्तो भवन्ति तावत आहपण्णाछेयण छिन्ना, लोगासंखेज्जगप्पएससमा। अविभागा एक्के के, होति पएसे जहन्नेणं / / 6 / / प्रज्ञाछेदन केन छिन्नाः सन्तो ये वीर्यस्याविभागा जातास्ते एककस्मिन जीवप्रदेशे चिन्यमाना जघन्येनाप्यसंख्येय-लोकाकाशप्रदेशप्रमाणा भवन्ति। उत्कर्षताऽप्यसंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणा एव। किंतु - ते जघन्यपदभाविवीर्याविभागापेक्षयाऽसंख्येयगुणा द्रष्टव्याः इति / / 6 / / उक्ताऽविभागप्ररूपणा। संप्रति वर्गणाप्ररूपणामाहजेसिँ पएसाण समा, अविभागा सव्वतो य थोवतमा। ते वग्गणा जहन्ना, अविभागहिया परंपरओ / / 7 / / येषां जीवप्रदेशनां समास्तुल्यसंख्या वीर्याविभागा भवन्ति, सर्वतश्च सर्वेभ्योऽपि चान्सभ्योऽपि जीवप्रदेशगतवीर्याऽविभागेभ्यः स्तोकतमाः, ते जीवप्रदशा घनीकृतलोकासख्येभागवर्त्यसंख्येयप्रतरगतप्रदेशराशिप्रभाणाः समुदित एका वर्गणा। सा च जघन्या स्तोकाऽविभागयुक्तत्वात्, अविभागाधिका परपरत इति। ततः परावर्गणा एकैके नाविभागेनाधिका वक्तव्या। तद्यथा-जघन्यवर्गणातः परे ये जीवप्रदेशा एकेन वीर्याविभागेनाभ्यधिका धनीकृतलोकासंख्येयभागवय॑संख्येयप्रतरगतप्रदेशराशिप्रमाणा वर्तन्ते, तेषां समुदायो द्वितीया वर्गणा। ततः परं द्वाभ्यां वीर्याविभागाभ्यामधि कानामुक्तसंख्याकानामेव जीवप्रदेशानां समुदायस्तृनया वगणा। ततोऽपि त्रिभिीर्याविभागैरधिकाना तावत्संख्याकानामेव जीवप्रदेशानां समुदायश्चतुर्थी वर्गणा / एवमेकैकवीर्याविभागवृद्ध्या वर्धमानानां तावतांतावतां जीवप्रदेशानां समुदायरूपा वर्गणा असंख्येया वक्तव्या इति // 7 // ता था कियत्य इति तन्निरूपणार्थ स्पर्धकप्ररूपणामाहसेढिअसंखिअमित्ता, फड्डगमेत्तो अणंतरा नऽत्थि। जाव असंखा लोगा, तो बीयाई य पुव्वसमा / / 8 इह घनीकृतरय लोकस्य या एकैकप्रदेशपक्तिरूपा श्रेणिस्तस्याः श्रेणेरसंख्येयतम भागे यावन्त आकाशप्रदेशा-स्तावन्मात्रास्तावत्प्रमाणा यथोक्तस्वरूपा वर्गणाः समुदिताः, एक स्पर्धक, स्पर्धन्त इवोत्तरोत्तरवृझ्या वर्गणा अत्रेति स्पर्धकम् / वृद्हुलमिति (श्रीम० कृ० 1-11) वचनादधिकरण कुम्। उक्ता स्पर्धकप्ररूपणा। सांप्रतमन्तरप्ररूपणामाह - 'एतो अणंतरा नत्थि इतः पूर्वोक्तस्पर्धकगतचरमवर्गणायाः परतो जीवप्रदेशा अनन्तरा न सन्ति / किमुक्तं भवति ?- इत ऊर्ध्वमेकैकवीर्याविभागवृद्ध्या निरन्तर वर्धमाना जीवप्रदेशा न लभ्यन्ते, किंतु सन्तरा एव / तथाहि-पूर्वोक्तस्पर्धकगतचरमवर्गणायाः परतो जीवप्रदेशा नैकन वीर्याविभागेनाधिकाः प्राप्यन्ते, नापि द्वाभ्या, नापि त्रिभिः, नापि चतुर्भिः, यावन्नापि संख्येयैः, किं त्वसंख्येयैरेवासंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणैरभ्यधिकाः प्राप्यन्ते / ततस्तेषां समुदायो द्वितीयस्थ स्पर्धकस्य प्रथमा वर्गणा।'तो बीयाईय पुष्वसम' ति ततो द्वितीयस्पर्धकप्रथमवर्गगातः परतो द्वितीयादयो वर्गणाः पूर्वसमाः पूर्वस्पर्धकस्येत वक्तव्या इत्यर्थः / तथाहि-प्रथमवर्गणायाः परतो जीवप्रदेशानामेकेन वीर्याविभागेनाधिकानां समुदायो द्वितीया वर्गणा। द्वाभ्यां वीर्याविभागाभ्यामधिक नां समुदायस्तृतीया वर्गणा। एवं तावद्वाच्यं यावत् श्रेणयसंख्येयभागगतप्रदेशराशिप्रमाणा वर्गणा भवन्ति, तासां च समुदायो द्वितीय स्पर्धकम्। ततः परं पुनरप्येकेन वीर्याविभागेनाधिका जीवप्रदेशा न लभ्यन्ते, नापि द्वाभ्या, नापि त्रिभिः, यावन्नापि संख्येयैः, किं त्वसंख्य यैरेवासंख्ययलोकाकाशप्रदेशप्रमाणैब्यधिकाः प्राप्यन्ते, ततस्तेषा समुदायस्तृतीयस्य स्पर्धकस्य प्रथमा वर्गणा। तत एकैकवीर्याविभागवृद्ध्या द्वितीयादयो वर्गणास्तावबाच्या याच्छ्रेणयसंख्येयभागगतप्रदेशराशिप्रमाणा भवन्ति, तासां च समुदायस्तृतीयं स्पर्धकम् / एवमसंख्येयानि स्पर्धकानि वाच्यानीति॥८॥ तदेवं कृताऽन्तरप्ररूपणा। संप्रति स्थानप्ररूपणां करोति-- सेढिअसंखियमेत्ता-इँ फडुगाईजहन्नयं ठाणं / फडगपरिवुड्डिअओ, अंगुलभगो असंखतमो।।६।। इह पूर्वोक्तानि स्पर्धकानि श्रेण्यसंख्येयभागगतप्रदेशराशि-प्रमाणानि जघन्य योगस्थान भवन्ति / एतच सूक्ष्मनिगोदस्य सर्वाल्पवीर्यस्य भवप्रथमसमये वर्तमानस्य प्राप्यते / ततोऽन्यस्य जीवस्याधिकतरवीर्यस्य येऽल्पतरवीर्या जीवप्रदेशास्तेषां समुदायः प्रथमा वर्गणा ! तत एकेन वीर्याविभागेन वृद्धानां समुदायो द्वितीया वर्गणा / द्वाभ्यां वीर्याविभागाभ्यामधिकानां समुदास्तृतीया वर्गणा / त्रिभिर्वीयर्याविभागैरधिकानां समुदायश्चतुर्थी वर्गणा, एवं तावद्वाच्यं यावच्छ्रेण्यसंख्येयभागगतप्रदेशराशिप्रमाणा भवन्ति। तासां समुदायः प्रथम स्पर्धकम्। ततः प्राक्तनयोगस्थानप्रदर्शितप्रकारेण द्वितीयादीन्यपि स्पर्धकानि वाच्यानि। तानि च तावद्वाच्यानि यावच्छणयसंख्येयभागतप्रदेशराशिप्रमाणानि भवन्ति, ततस्तेषां समुदायो द्वितीय योगस्थानम्। ततोऽन्यस्य जीवस्याधिकतमवीयस्योपदर्शितप्रकारेण तृतीयं योगस्थानं वाच्यम्। एवमन्यान्यजीवापेक्षया तावद्द्योगस्थानानि वाच्यानि यावत्सर्वोत्कृष्ट योगस्थानं भवति / इह द्वितीये योगस्थाने प्रथमे स्पर्धक प्रथमवर्गणायां जीव-प्रदेशः प्रथमयोगरथानचरमस्पर्धकचरमवर्गणागतवीर्याविभागापेक्षया असंख्येयैर्वीर्याविभागैरधिकाः प्राप्यन्ते।तृतीयेऽपि योगस्थाने प्रथमस्पर्धक प्रथमवर्गणायां जीवप्रदेशा द्वितीययोगस्थानचरमस्पर्धकचरमवर्गणागतवीर्याविभागापेक्षयाऽसंख्येय:विभागैरधिकाः प्राप्तन्ता एवं सर्वेष्वपि द्रष्टव्यम्। तानि च योगस्थानानिसाण्यपि कियन्ति भवन्तीति चेदुच्यतेश्रेण्यसंख्येयभागगतप्रदेशराशिप्रमाणानि। ननु जीवानामनन्तत्वात्प्रतिजीवं च योगस्थानस्य प्राष्यमाणत्वादनन्तानि योगस्थानानि प्राप्नुवन्ति, कथमुच्यते श्रेण्यसंख्येयभागगतप्रदेशप्रमाणानीति ? नैष दोषः, यतः एकै
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________________ वीरिय १४००-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वीरिय कस्मिन् योगस्थाने सदृशे सदृशे वर्तमानाः स्थावरजीवा अनन्ताः कानि प्राप्यन्ते। ततः पुनरपि श्रेण्यसंहोरभागगतप्रदेशराशिप्रमाणेषु प्राप्यन्ते, ततः सर्वजीवापेक्षयाऽपि सर्वाणि योगस्थानानि केवलिप्रज्ञया योगस्थानेष्वति-क्रान्तेष्वधस्तने योगस्थानेऽर्धानि प्राप्यन्ते / एवं परिभाव्यमानाने यथोक्तप्रमाणान्येव प्राप्यन्ते, नोना (ततो ना) धिका- तावद्वाच्य यावजघन्यं योगस्थानमिति द्विगुणवृद्धिस्थानतुल्यानि द्विगुणनीति / कृत स्थानप्ररूपणा / साम्प्रतमन्तरोपनिधावसरः, तत्रोपनि- हानिस्थानानि / यानि चामूनि द्विगुणवृद्धिस्थानानि द्विगुणहानिधानमुपनिधा धातुनःमनेकार्थत्वान्मार्गणमित्यर्थः, अनन्तरेणोमनिधा स्थानानि वा तानि सर्वस्तोकानि; तेभ्यः पुनरेकरिमन द्विगुणवृद्धिस्थाअनन्तरोपनिया, अनन्तरं योगस्थानमधिकृत्योत्तर स्य योगस्थानरय नयोर्द्विगुणहानिस्थानयोर्वाऽन्तरे यानि योगस्थानानि तान्यसंख्येयस्पर्धकविषये मार्गणमित्यर्थः / तदेवाह फडगे' त्यादि। अतः प्रथमा- गुणानि इति / / 10 // तदेवं कृता परंपरोपनिधा। द्योगस्थानात् द्वितीयादिषु योगस्थानेषु प्रत्येक स्पर्ककार, रिद्धि साप्रतं वृद्धिप्ररूपणां चिकीर्षुराहरडलभागोऽसंख्येयतमः, अङ्गुलमात्रक्षेत्रसत्कऽसंख्ययतमे भाग यावान् बुड्डीहाणिचउक तम्हा कालोत्थ अंतिमल्लीणं / प्रदेशराशिस्तावत्प्रनाणानि पूर्वपूर्वयोगस्थानगतस्पर्धकापेक्षयोत्तरस्मि अंतोमुहुत्तमावलि, असंखभागो सेसाणं / / 11 / / त्रुत्तरस्मिन् योगस्थाने स्पर्धकान्यधिकानि भवन्तीत्यर्थः / कथमेव ज्ञायत क्षयोपशमो हि वीर्यान्तरायाचकचिकाचिकचिद्भवतीति तन्निबइति चेदुच्यते-इह प्रथम-योगस्थानगतवर्गणापेक्षया द्वितीययोगस्थान न्धनानि योगस्थानानि कदाचित्रवधमानानि भवत्ति, कटाचिदीयमागतवर्गण मूलत एव सर्वा अपि हीनहीनतरजीवप्रदेशा भवन्ति, प्रभूतप्रभूततरवीर्याणां जीवप्रदेशानां स्तोकस्तोकतरतया प्राप्यमाणत्वात्। नानि। तत्र वृद्धि भई तद्यथा- अराख्यो-भागवृद्धिः, संख्येयभागततोऽत्र विचित्रवर्गणाबाहुल्यसंभवतो यथोक्तं स्पर्धकबाहुल्यनुपपद्यत एव / वृद्धिः, संख्पेयगुणवृद्धिः, असंख्यय-गुणवृद्धिः / एवं हानिरपि चतुर्धा एवमुत्तरोत्तरेष्वपि बोगस्थानेषु पूर्वपूर्वयोगस्थानगतस्पर्धकापेक्षया तद्यथा- असंख्येयभागहानिः, संख्ययभागहानिः, संख्येयगुणहानिः, स्पर्धकबाहुल्यं परिभावनीयमिति / / 6 / / तदेवं कृताऽनन्तरोपनिधा। असक टोयगुणहानिः / यस्मादेव वृद्धिहान्योचतुष्का वर्तते तस्मादत्र प्रत्येक साप्रतं परम्परोपनिधाया अवसरः, तत्र परम्पराया स्पनिधा कालो नियतो वक्तव्यः / तत्रान्तिमयोर्वद्धिहान्योरसंख्येयगुणलक्षणयोः प्रत्येक कालो' त्ति अन्तर्मुहूर्ते शेषाणां त्याद्यानां तिसृणां वृद्धीनां हानीना नागणं परम्परोपनिधा, तां चिकीर्षुराह चावलिकाया असंख्येयभागमात्रः / एतदुक्तं भवति नथाविधक्षयोपशमसेढिअसंखियभाग, गंतुं गंतुं हवंति दुगुणाई। भावतो विवक्षितात् योगस्थानात् प्रतिसमय-परस्मिन्नपरस्मिन्नपल्लासंखियभागो, नाणागुणहाणि ठाणाणि / / 10 / / संख्येय-गुणवृद्धे योगस्थाने यद्वर्तत जीवः साऽसंख्येयगुणवृद्धिः। यत्पुनः प्रथानाधोगस्थानादारभ्य श्रेणेरसख्ययतमे भाग यावन्त आकाशप्रदेशा क्षयोपशमस्य मन्दमन्दतमभारतः पतिसभ्यमपरस्मिन्नसंख्येयगुणहीने स्तावन्मात्राणि योगस्थानानि गत्वागत्वा-अतिक्रम्यातिक्रम्य यद्यत्पर यस्थाने बर्नले साऽसंख्येयगुणहानिः। सा चांसख्येयगुणवृद्धिरसंक्येययोगस्थान तत्र तत्र पूर्वयोग-स्थानापेक्षया स्पर्धकानि द्विगुणानि भवन्ति / गुण-हानिर्वोत्कर्षतोऽन्तर्मुहूर्त कालं यावन्निरन्तरं भवति / आद्याः एतदुक्तं भवति-प्रथमे योगस्थाने यावन्ति स्पर्धकानि भवन्ति तदपेक्षया पुनस्तिस्रो वृद्धयो हानयो वोत्कर्षत आवलिकाया असंख्येय-भागमात्र श्रेण्य-संख्येयभागगतप्रदेशराशिप्रनाणानि योगस्थानान्यतिकरया काल, जघन्यतस्तु चतस्रोऽप्येकं द्वौ वा समयौ यावद्भवन्ति / / 11 / / नन्तर योगस्थाने द्विगुणानि स्पर्धकानि भवन्ति / ततः पुनरपि सता योगरथानात्परत्तस्तावन्ति योगस्थानान्युल्लङ्ग्यापरस्मिन् योगस्थाने स्यादेतत, कियन्त कालं यावत्पुनर्यथोक्तवृद्धिहानिरहिता जीवा योग स्थानध्वस्थिताः प्राप्यन्त इति प्रश्नावकाशमाशङ्क्य समयारूप. द्विगुणानि स्पर्धजानि प्राप्यन्ते / एवं भूयो भूयस्ता-वाच्ये यावदन्तिम जामाहयोगस्थानम् / किर्यान्त पुनर्योगरथानानि पूर्वपूर्वयोगस्थानापेक्षया द्विगुणद्विगुणस्पर्धकानि भवन्त्यत आह - 'पल्लासखियभागो' त्ति चउराई जावऽट्ठग-मितो जाव छगं ति समयाणं। सूक्ष्मस्थाद्धापल्योपमस्यासंख्येतमे भागे यावन्तः सम यास्ताव पज्जत्तजहन्नाओ, जावुकोसं ति उक्कोसो ||12|| त्प्रमाणानि द्विगुण-वृद्धिस्थानानि भवन्ति / 'नाणागुणहाणिठाणाणि' चत्वार आदिर्यस्याः सा चतुर दिः, समयानामस्थितिकालानयामतिनानारूपाणि यानि गुणहानिस्थानानि द्विगुणहानिस्थानानि तान्यपि कानां वृद्धिः, सा च तावद्वाच्या यावदष्टकम / इन फवं पुन: समयानां पल्योपमाःसंख्ययभागगतसमयप्रमाणानि भवन्ति / तथाहि- उत्कृष्टा- हानिर्वक्तव्या, सा च तावद्यावद् द्विकम् / सा च चतुराईदेका वृद्धिः पर्याप्तजद्योगस्थानादारभ्यायोऽधोऽवतरणे सति यदा श्रेणयसरख्ययभागगत- घन्यात्-- पर्याप्तसूक्ष्मनिगोदसत्कजघन्यया स्थानादारभ्य तावदवसेया प्रदेशराशिप्रमाणानि योगस्थानान्युल्लड्डिस्तानि भवन्ति, तदाऽनन्तरे- यावदष्टम् ततः परं हानिः साऽपि तावद्यावदुत्कृष्ट योगस्थानम्। एष उत्कृष्टोद्धधस्तने योगस्थानेऽन्तिमयोगस्थानगतस्पर्धकापेक्षयाऽर्धानि स्पर्ध- | ऽवस्थितिकालः। एतदुक्तं भवति-पर्याप्तसूक्ष्मनिगोदस्य सर्वाल्पवीर्यस्य स -
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________________ वीरिय 1401 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वीरिय काजघन्याद्योगस्थानादारभ्य क्रमेण यानि योगस्थानानि श्रेण्यं - संख्येयभागगतप्रदेशराशिप्रमाणानि तान्युत्कर्षतश्चतुरः समयान् यावदवस्थितानि प्राप्यन्ते। ततः परं यानि योगस्थानानि श्रेण्यसंख्येयभागगतप्रदेशराशिप्रमाणानि तान्युत्कर्षतः पञ्च समयान्, ततः परं यानि योगस्थानानि पूर्वोक्तप्रमाणानि तान्युत्कर्षतः षट् समयान, ततोऽपराणि यानि योगस्थानानि पूर्वोक्तप्रमाणानि तान्युत्कर्षतः सप्त समयान, ततोऽपि पराणि क्रमेण योगस्थानानि पूर्वोक्तसंख्याकानितान्युकर्षतोऽष्टी समयान, ततः पराणि पुनानि क्रमेण योगस्थानानि श्रेण्यसंख्येयभागगतप्रदेशराशिप्रमाणान्येव तान्युत्कर्षतः सप्त समयान यावदयस्थितानि प्राप्यन्ते। तदनन्तरं यथोक्तसंख्याकान्येव योगस्थानान्यूत्कर्षतः षट् समयान्, ततोऽपि पराणि यथोक्तप्रमाणान्येव योगस्थानानि पञ्च समयान, एवं तावद्वाच्ययावदन्तिमानि श्रेण्यसंख्येयभागगतप्रदेशराशिप्रमाणान्युत्कर्षतो द्वौ समयौ यावदवस्थितानि प्राप्यन्ते / / 12 / / तदेवमुक्तमुत्कृष्टमवस्थानकालमानम् / सांप्रतं जघन्यमवस्थानकालमानमाहएगसमयं जहन्नं,ठाणाणप्पाणि अट्ठसमयाणि। उभओ असंखगुणिया-णि समयसो ऊणठाणाणि / 13 / / सर्वेषामुक्तस्वरूपाणां योगस्थानाना जघन्यत एकसमयं यावदवस्थानम् / तथा यान्यप्यपर्याप्तसूक्ष्मनिगोदयोग्यान्यसंख्येयानि योगस्थानानि पूर्वमनुक्तकालनियमानि तेषां जघन्यत उत्कर्षती वा एक समय यावदवस्थानमः यतः सर्वोऽप्यपर्याप्तोऽपर्याप्तावस्थायां वर्तमानः प्रतिसमयमसंख्येयगुणरूपया योगवृद्ध्या वर्तते, ततस्तद्योगस्थानानामजघन्योत्कृष्टकमेकमेव समयं यावदवस्थानम्। तदेवमुक्ती समयप्ररूपणा / / सांप्रतमेतेषामेव चतुरादिसमयानां योगस्थानानामल्पबहुत्वमाह-'ठाणाणी' त्यादि। अष्टसामयिकानि स्थानानि योगस्थानानि, अल्पानि शेषसप्तसामयिकादियोगस्थानानि प्रतीत्य स्तोकान्येय प्राप्यन्ते इति कृत्वा, तेभ्यः प्रत्येकसमयमसंख्येयगुणानि पूर्वोत्तररूपोभयपार्श्ववर्तीनि सप्तसामयिकानि, अल्पतरस्थितिकत्वात, स्वस्थाने तुतानि द्वयान्यपि परस्परं तुल्यानि / तेभ्योऽप्यसंख्येयगुणानि उभयपाववतीनिषट्सामयिकानि, स्वस्थाने तु परस्परं तुल्यानि। तेभ्योऽप्यसंख्येयगुणानि पञ्च सामयिकानि उभयपार्श्ववर्तीनि, स्वस्थाने तु परस्पर तुल्यानि। तेभ्योऽप्यसंख्येयगुणानि चतुःसामयिकानि उभयपार्श्ववलीनि, स्वस्थाने तु परस्परं तुल्यानि / तेभ्योऽप्यसंख्येयगुणानि त्रिसामयिकानि; तेभ्योऽप्यसंख्येयगुणानि द्विसामयिकानि। 'समयसो ऊणठाणाणि' ति समयशः समयेन समयेन ऊनानि अष्टसामयिकेभ्यो व्यतिरिक्तानि सप्तसामयिकादीनि स्थानानि योगस्थानानि / / 13 / / तदेवमुक्तं चतुरादिसमयानां योगस्थाना-नामल्पबहुत्वम। संप्रति तेषु योगस्थानेषु वर्तमानानां सूक्ष्मबादरैकेन्द्रियद्वीन्द्रिय- | त्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियाऽसज्ञिसंज्ञिपञ्चेन्द्रियाणां पर्याप्ता-पर्याप्तानां जधन्योत्कृष्टयोगविषयेऽल्पबहुत्वमभिाधेित्सुराह-- सव्वत्थोवो जोगो, साहारणसुहमपढमसमयम्मि। बायरवियतियचउरम-णसन्नपजत्तगजहन्नो // 14 // इहासंख्येयगुण इति उत्तरगाथातः संबध्यते। साधारणस्य सूक्ष्मस्य लब्ध्यपर्याप्तकस्य प्रथमसमये वर्तमानस्य जघन्यो योगः सर्वस्तोकः / ततो बादरैकेन्द्रियस्य लब्ध्यपर्याप्तकस्य प्रथमसमये वर्तमानस्य जघन्यो योगोऽसंख्येयगुणः / तत-स्वीन्द्रियस्य लब्ध्यपर्याप्तकस्य प्रथमसमये वर्तमानस्य जघन्यो योगोऽसंख्येयगुणः। ततो द्वीन्द्रियस्य लब्ध्यपर्याप्तकस्य प्रथमसमये वर्तमानस्य जघन्यो योगोऽसंख्येयगुणः / ततचतुरिन्द्रियस्य लब्ध्यपर्याप्तकस्य प्रथमसयमे वर्तमानस्य जघन्यो योगोऽसंख्येयगुणः। ततोऽसंज्ञिपञ्चेन्द्रियस्य लब्ध्यपर्याप्तकस्य प्रथमसमये वर्तमानस्य जघन्यो योगोऽसंख्येयगुणः / ततः संज्ञिपञ्चेन्द्रियस्य लब्ध्यपर्याप्तकस्य प्रथमसमये वर्तमानस्य जघन्योयोगोसंख्येयगुणः॥१४॥ आइदुगुक्कोसो सिं, पज्जत्तजहन्नगेयरे य कमा। उक्कोसजहनियरो, असमत्तियरे असंखगुणो।।१५।। आदिद्विकमपर्याप्तसूक्ष्मबादरैकेन्द्रियलक्षणं तस्योत्कृष्टो योगः परिपाट्याऽसंख्येयगुणो वक्तव्यः / तद्यथा-लब्ध्यपर्याप्तकसंज्ञिपञ्चेन्द्रियजघन्ययोगात् सूक्ष्मनिगोदस्य लब्ध्यपर्याप्तकस्यैवोत्कृष्टो योगोऽसंख्येयगुणः। ततोऽपि बादरैकेन्द्रियस्य लब्ध्यपर्याप्तकस्योत्कृष्टोऽसंख्येयगुणः / 'सिं पज्जत्तजहन्नगेयरे य कमा' अनयोः सूक्ष्मबादरैकेन्द्रिययोः पर्याप्तयोर्जघन्य इतरश्वोत्कृष्टः क्रमात् क्रमेणासंख्येयगुणी वक्तव्यः / तद्यथा-लब्ध्यपर्याप्तकबादरैकेन्द्रियोत्कृष्टयागात् सूक्ष्मनिगोदस्य पर्याप्तस्य जघन्यो योगोऽसंख्येयगुणः। ततो बादरैकेन्द्रियस्य पर्याप्तकस्य जघन्ययोगोऽसंख्येयगुणः / ततः सूक्ष्मनिगोदस्य पर्याप्तस्योत्कृष्टो योगोऽसंख्येयगुणः। ततोऽपि बादरैकेन्द्रियस्य पर्याप्तस्योत्कृष्टा योगोऽसंख्येयगुणः / 'उक्कोसजहन्नियरो असमत्तियरे असंखगुणो' त्ति असमाप्तोऽपर्याप्तो द्वीन्द्रियादिस्तस्मिन्नुत्कृष्ट इतरस्मिश्च पर्याप्त द्वीन्द्रियादौ जघन्य इतरश्चोत्कृष्टः परिपाट्याऽसंख्येयगुणो वक्तव्यः / तद्यथा--पर्याप्तक-बादरैकेन्द्रियोत्कृष्टयोगात्द्वीन्द्रियस्य लब्ध्यपर्याप्तकस्योत्कृष्टो योगोऽसंख्येयगुणः। ततस्त्रीन्द्रियस्य लब्ध्यपर्याप्तकस्योत्कृष्टो योगोऽसंख्येयगुणः। ततश्चतुरिन्द्रियस्य लब्ध्यपर्याप्तकस्योत्कृष्टो योगोऽसंख्येयगुणः / ततोऽसंज्ञिपञ्चेन्द्रियस्य लब्ध्यपर्याप्तकस्योत्कृष्टो योगोऽसंख्येयगुणः। ततोऽपि संज्ञिपञ्चेन्द्रियस्य लब्ध्यपर्याप्तकस्योत्कृष्टो योगोऽसंख्येयगुणः / ततो द्वीन्द्रियस्य पर्याप्तकस्य जघन्यो योगोऽसंख्येयगुणः / ततस्त्रीन्द्रियस्य पर्याप्तकस्य जघन्यो योगोऽसंख्येयगुणः / ततश्चतुरिन्द्रियस्य पर्याप्तकस्य जघन्यो योगोऽसंख्येयगुणः। ततोऽसंज्ञिपञ्चेन्द्रियस्य पर्याप्तकस्य जघन्यो योगोऽसंख्येयगुणः। ततः संज्ञिपञ्चेन्द्रियस्य पर्याप्तकस्य जघन्यो योगोऽसंख्येयगुणः / ततो द्वीन्द्रियस्य पर्याप्तकस्योत्कृष्टो योगोऽसंख्येयगुणः / ततस्त्रीन्द्रियस्य पर्याप्तकस्योत्कृष्टो योगोऽसंख्येयगुणः / ततोऽपि चतुरिन्द्रियस्य पर्याप्तकस्योत्कृष्टो योगोऽसंख्येयगुणः / पर्याप्तकाश्च सर्वत्रापि करणपर्याप्ता वेदितव्याः॥१५॥
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________________ वीरिय 1402 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वीरिय अमणाणुत्तरेगेवि-ज्जभोगभूमिगय तइयतणुगेसुं। कमसो असंखगुणिओ, सेसेसु य जोगु उक्कोसा।।१६।। अमना-असंज्ञी पर्याप्तचतुरिन्द्रियोत्कृष्टयोगात् असंज्ञिपञ्चेन्द्रियपर्याप्तकरयोत्कृष्टो योगोऽसंख्येयगुणः / ततोऽनुत्तरोपपातिना देवानाभुत्कृष्टो योगोऽसंख्येयगुणः / ततो ग्रेवेयकाणां देवानामुत्कृष्टो योगोऽसंख्येयगुणः / तता भोगभूमिजा (गता) नां तिर्यडमनुष्याणामुत्कृष्टो योगोऽसंख्येयगुणः / ततोऽप्याहारकशरीरिणामुत्कृष्टो योगोऽसंख्येयगुणः / ततः शेषाणां देवनारकतिर्यड्मनुष्याणामुत्कृष्टो योगोऽसंख्येयगुणः / असंख्ये-यगुणकारश्च सर्वत्रापि सूक्ष्मक्षेत्रपल्योपमासंखोयभागगतप्रदेशराशिप्रमाणो द्रष्टव्यः / तइयतणुनसुति तृतीया तनुराहारकशरीरम् / / 16 // तदेवं कृता सप्रपचं योगप्ररूपणा। सांप्रतमेभिर्योगर्यत्करोति तदाहजोगेहिं तयणुरूवं, परिणमई गिहिऊण पचं तणू। पाउग्गे वालंबइ, भासाणुमणत्तणे खंधे / / 17 / / यागरनन्तरोक्तस्वरूपैः प्रायोग्यान स्कन्धान- पुद्गलसकन्धान गृहीत्वा यथायोग 'पंचतणु' ति पञ्च शरीराणि परिणमयति ओदारिकादिपञ्चशरीरतया परिणमयतीत्यर्थः / कथं पुनर्गृह्णातीति चेदत आहे-तदनुरूप योगानुरूपम् / तथाहि-जधन्ययोगे वर्तमानः स्तोकान पुगलस्कन्धान गृह्णाति, मध्यमे मध्यमान, उत्कृष्ट च योगे वर्तमानः प्रभूतानिति। उक्तं धान्यत्रापि- "जोगऽणुरुवं जीवा, परिणामतीह गिहिउं दलिय" ति, इति। अथवा-तच्छब्देन पञ्च शरीराणि संबध्यन्ते / ततश्च तदनुरूप पञ्चशरीरानुरूपं शरीरपशकप्रायोग्यतयेत्यर्थः पुद्गलस्कन्धान गृह्णाति। तथा भाषाप्राणापानमनस्त्वप्रायोग्यान पुद्गलस्कन्धान प्रथमता गृहाति। गृहीत्वा च भाषादित्वेन परिणमयति। परिणमय्य च तन्निसर्गहतुसामर्थ्यविशेषसिद्धये तान् पुगलस्कन्धानालम्बते। ततस्तदवष्टम्भतो जातसामच्यविशेषः सन् विसृजति, नान्यथा / तथाहि-यथा वृषदंशः स्वमान्यङ्गान्यूर्ध्व गभनाय प्रथमतः संकोचव्याजेनावलम्बते, तत-स्तदवष्टम्भतो जातसामर्थ्यविशेषः सन् तान्यङ्गान्यूज़ प्रक्षिपति, नान्यथा शक्नोति, 'द्रव्यनिमितं वीर्य ' संसारिणामुपजायत' इति वचननामाप्यात, तथेहापि भावनीयमिति / / 17 / / क० प्र० 1 प्रक० / कुशीलत्वं सुशीलत्वं च संयमवीर्यान्तरायोदयात्तत्क्षयोपशमाच्च भवतीत्यतो वीर्यप्रतिपादनायेदमध्ययनमुपदिश्यते, तदनेन संबन्धेनायालस्यास्याध्ययनस्य चत्वार्यनुयोगद्वाराणि उपक्रमादीनि वक्तव्यानि, वाष्णुपक्र मान्तर्गतोऽर्थाधिकारोऽयं, तद्यथा-- बालबालपण्डितपण्डितवीर्यभेदान्त्रिविधमपि वीर्य परिज्ञाय पण्डितवीर्य यतितव्यमिति, नामनिष्यन्नं तु निक्षपे वीर्याध्ययन, वीर्यनिक्षेपाय नियुक्तिकृदाहविरिए छक्कं दव्ये, सचित्ताचित्तमीसगं चेव। दुपयचउप्पयअपयं, एवं तिविहं तु सच्चित्तं / / 1 / / वीर्ये नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालभावभेदात् बोढा निक्षेपः, तत्रापि / नामस्थापने क्षुण्णे, द्रव्यवीर्य, द्विधा-आगमता नोआगमतश्च / आगमता ज्ञाता तत्र चानुपयुक्तः, नोआगमतस्तु ज्ञशरीर-भव्यशरीरच्यतिरिक्त सचित्ताचित्तमिश्रभेदात्रिधा वीर्य, सचित्तमपि द्विपदचतुष्पदापदभेदात् त्रिविधव, तत्र द्विपदानामर्हचक्रवर्तिबलदेवादीनां यद्वीर्य स्त्रीरत्नस्य वा यस्य वा यद्वीर्य तदिह द्रव्यवीर्यत्वेन ग्राह्यम्, तथा चतुष्पदानामश्वहरितरत्नादीनां सिंहव्याघ्रशरभादीनां वा परस्य वा यगोढव्ये धावने वा वीर्य तदिति, तथा अपदानां गोशीर्षचन्दनप्रभृतीनां शीतोष्णकालयोरुष्णशीतवीर्यपरिणाम इति / अचित्तवीर्यप्रतिपादनायाहअञ्चित्तं पुण विरियं, आहारावरणपहरणादीसु / जह ओसहीण भणियं, विरियं रसवीरियविवागो ||2|| आवरणे कवयादी, चक्कादीयं च पहरणे होति। खित्तम्मि जम्मि खेत्ते, काले जं जम्मि कालम्मि ||6|| अचित्तद्रव्यवीर्य स्वाहारावरणप्रहरणेषु यदीर्य तदुच्यते, तत्राऽs - हारवीर्यम्, 'सद्यः प्राणकरा हृद्या, घृतपूर्णाः कफाऽपहाः' इत्यादि, ओषधीनां च शल्योद्धरणसरोहणविषापहारमेधाकरणादिक रसवीर्य, विपाकवीर्य च यदुक्तं चिकित्साशास्त्रादौ तदिह ग्राहमिति / तथा योनिप्राभृतकान्नानाविधं द्रव्यवीर्य द्रष्टव्यमिति। तथा-आवरणे कवचादीना प्रहरणे चक्रादीनां यद्भवति वीर्य तदुच्यत इति / अधुना क्षेत्रकालवीर्य गाथापनार्धन दर्शयति-क्षेत्रवीर्य तुदेवकुर्वादिकं क्षेत्रमाश्रित्य सर्वाण्यपि द्रव्याणि तदन्तर्गतान्युत्कृष्टवीर्यवन्ति, भवन्ति. यदा-दुर्गादिकं क्षेत्रमाश्रित्य कस्यचिद्वीर्योल्लासो भवन्ति, यस्मिन्वा क्षेत्रे वीर्य व्याख्यायते तत्क्षेत्रवीर्यमिति। एवं कालवीर्यमप्टोकान्तसुषमाटावायोज्यामिति तथा चोक्तम्- “वर्षासु लवणममृतं, शरदि जलं गोपयश्व हेमन्ते / शिशिरे चामलकरो, घृतं वसन्ते गुडश्चान्ते // 1 // ' तथा- "ग्रीष्मे तुल्यगुडा सुसैन्धवयुतां मेघावनद्धेऽम्बरे, तुल्यां शर्करया शरद्यमलया शुण्ठ्या तुषारागमे / पिप्पल्या शिशिरे वसन्तसमये क्षौद्रेण संयोजितां पुंसां प्राप्य हरीतकीमिव गदा नश्यन्तु ते शत्रवः / / 1 / / " ___ भाववीर्यप्रतिपादनायाहभावो जीवस्स सवी-रियस्स विरियम्मि लद्धिऽणेगविहा। ओरस्सिदिय अज्झ-प्पिरसु बहुसो बहुविहीयं 118)| मणवइकाया आणा-पाणू संभव तहा य संभवे / सोत्तादीणं सद्दा-दिएसु विसएसु गहणं च / / 15 / / सवीर्यस्य-वीर्यशक्त्युपेतस्य जीवस्यवीर्य वीर्यविषये अनेकविधालब्धिः, तामेव गाथापक्षार्द्धन दर्शयति, तद्यथा-उरसिभवमौरस्यशारीरबलमित्यर्थः, तथन्द्रियबलमाध्यात्मिकं बलं बहुशो-बहुविधं द्रष्टव्यमिति / एतदेव दर्शयितुमाह--आन्तरेण व्यापारेण गृहीत्वा पुगलान् मनोयोग्यान मनस्त्वेन परिणमयति, भाषायोग्यान् भाषात्वेन परिणमयति, काययोग्यान कायत्वेन, आनापानयोग्यान तद्भावेनेति। तथा मनोवाक्कायादीनां तनावपरिणतानां व
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________________ वीरिय 1403 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वीरिय द्वीर्य-सामर्थ्य तद् द्विविध सम्भवे, सम्भाव्ये च। सम्भवे तावत्तीर्थकृता- | कार्या / यदि सत्यं कः कोपः, स्यादनृतं किं नु कोपेन // 1 // " तथामनुत्तरोपपातिकानां च सुराणामतीव पटूनि मनोद्रव्याणि भवन्ति / "अक्कोसहणणमारणधम्मभंसाणबालसुलभाणं / लाभं मन्नइ धीरा, तथाहि तीथकृतानामनुत्तरोपणतिकसुरमनः पर्यायज्ञानिप्रश्नव्या- जहुत्तराणं अभाव (लाभ) म्मि।।१।।'' गाम्भीर्यवीर्य नाम परीषहोपसर्गकरणस्य द्रव्यमनसैच करणात् अनुत्तरोपपातिकसुराणां च सर्वव्यापार- रधृष्यत्वं, यदिवा-यत् मनश्चमत्कारकारिण्यपि स्थानुष्ठाने अनौद्धत्यम, स्यैव मनसा निष्पादनादिति / सम्भाव्ये तु यो हि यमर्थ पटुमतिना उक्तं च - ''चुल्लुच्छलेइज होइ, ऊणयं रित्तयं कणकणेइ। भरियाइँ ण प्रोच्यमान न शक्नोति साम्प्रत परिणमयितु सम्भाव्यते त्वेष परिकर्म्य- खुमती, सुपुरिसवित्राणभंडाई / / 1 / / " उपयोगवीर्य साकारानाकारमाणः शक्ष्यत्यमुमर्थ परिणमयितुमिति। वाग्वीर्यमपि द्विविधम्- सम्भवे, भेदात् द्विविधम-तत्र साकासपयोगोऽष्टधा, अनाकारश्चतुर्धा, तेन राम्भाध्ये च। तत्र सम्भव तीर्थकृता योजननिहारिणी वाक् सर्वस्वस्थ- चोपयुक्तः स्वविषयस्य द्रव्य-क्षेत्रकालभावरूपस्य परिच्छेदं विधत्त इति / भाषानुगता च, तथाऽन्येषामपि क्षीरमध्यास्रवादिलब्धिमता वाचः तथा योगवीर्य त्रिविधम्- मनोवाकायभेदात्, यत्र मनोवीर्यमकुशलसौभायमिति तथा हंसकोकिलादीनां सम्भवति स्वरमाधुर्य, संभाव्ये गनानिराधः, कुशलमनसश्च प्रवर्तन, मनसो वा एकत्वीभावकरणम् / तु सम्भाव्यते यामायाः स्त्रिया गानमाधुर्यम् / तथा चोक्तम-सामा भनाबीर्येण हि निम्रन्थसंयताः प्रवृद्धपरिणामा अवस्थित परिणामाश्व गायति महुर, काली गायति, खरं च रुक्खंच' इत्यादि, तथा-सम्भाव- भवन्तीति। वाग्वीर्येण तु भाषमाणोऽपुनरुक्तं निरवद्य च भाषत। कायवीय यामः-- एनं श्रावकदारकम् अकृतमुखसंस्कारमप्यक्षरेषु यथावद- तुयरन्तु समाहितपाणिपादः कूर्मवदवतिष्ठत इति। तपोवीर्य द्वादशाप्रकार भिलप्तव्येष्विति तथा संभावयामः शुकसारिकादीनां वाचो मानुषभाषा- सपो यद्गलादालायन् विधत्त इति, एवं सप्तदशविधे संयमे एकत्वाध्यपरिणामः / कायवीर्यमप्यारस्यं यद्यस्य बलं तदपि द्विविधम्-सम्भवे, वसितस्य यदलात्प्रवृत्तिस्तत्संयमवीर्य, कथमहमतिचारं संयम न सम्भा ये च / स्भये यथा-चक्रवर्तिबलदेववासुदेवादीनां यदाहुबलादि प्राप्नुयामित्यध्यवसायिनः प्रवृत्तिरित्येवमाद्यध्यात्मवीर्यमित्यादि च कायबलम्, तद्यथा-कोटिशिला त्रिपृष्ठेन वामकरतलेनोद्धृता। यदिवा- भाववीर्यमिति / वीर्यप्रवादपूर्वे चानन्तं वीर्य प्रतिपादित, किमिति ? 'सलिल रायसहसरसा' इत्यादि यावदपरिमितबला जिनवरेन्द्रा इति, यतोऽनन्तार्थ पूर्व भवति, तत्र च वीर्यमेव प्रतिपाद्यते, अनन्तार्थता सम्भात्ये तु सम्भाव्यते तीर्थकरो लोकमलोके कन्दुकवत् प्रक्षेप्तुम, तथा चातोऽवगन्तव्या। तद्यथा-"सव्वणईणं जा होज्जा वालुया गणणमागया मरु दण्डवद गृहीत्वा वसुधां छत्रकवद्ध मिति। तथा सम्भाव्यते अन्य- सन्ती। तत्तो बहुयतरागो, अत्थो एगस्स पुव्वस / / 1 / / सव्वसनुद्दागं तरसुरधिपो जम्बूद्वीपं वामहस्तेन छत्रकवद्भुर्तुमयत्नेनैव च मन्दरमिति / जलं, जइ पत्थमियं हविज्ज संकलियं / एतो बहुयतरागो, अत्थो एगस्स नथा सम्भाव्यते अयं दारकः परिवर्धमानः शिलामेनामुद्धर्तुं हस्तिनं पव्वस्स // 2 // " तदेवं पूर्वार्थस्यानन्त्यावीर्यस्य च तदर्थत्वादनन्तता दमयितुमश्वं वाहयितुमित्यादि। इन्द्रियबलमपि श्रोत्रेन्द्रियादि स्वविषय- वीर्यस्येति। ग्रहणसमर्थं पञ्चधा, एकैकं द्विविधं संभवे, सम्भाव्ये च / सम्भवे यथा सर्वमप्येतद् वीर्य निधेति प्रतिपादयितुमाहश्रोत्रस्य द्वादशयोजनानि विषयः, एवं शेषाणामपि यो यस्य विषय इति। सव्वं पि य तं तिविहं, पंडियबॉलविरियं च मीसं च / सम्भाव्ये तु यस्य कस्यचिदनुपहतेन्द्रियस्य श्रान्तस्य क्रुद्धस्य पिपासि अहवा वि होति दुविहं, अगार अणगारियं चेव / / 67|| तस्य परिग्लानस्य वा अर्थग्रहणासमर्थमपि इन्द्रियं सद्यथोक्तदोषोपशमे सर्वमप्येतद्भाववीर्य पण्डितबालमिश्रभेदात् त्रिविधम्, तत्रा-नगाराणा तु सति सम्भाव्यते विषयग्रहणायेति। पण्डितवीर्य, बालपण्डितवीर्य त्वगाराणां-गृहस्थानामिति। तत्र यतीनां साम्प्रतमाध्यात्मिकं वीर्य दर्शयितुमाह पण्डितवीर्य सादिसपर्यवसितं, सर्वविरतिप्रतिपत्तिकाले सादिता उज्जमधितिधीरत्तं, सोंडीरत्तं खमा य गंभीरं। सिद्धावस्थायां तदभावात्सान्तम, बालपण्डितवीर्य तु देशविरतिसद्भावउवओगजोगतवसं-जमादियं होइ अज्झप्पो।।६६|| काले सादि, सर्वविरतिसद्धावे तद्भशे वा सपर्यवसानम, बालवीर्य आत्मन्यधीत्यध्यात्म तत्र भवमाध्यात्मिकम्-आन्तर-शक्तिजनितं त्वविरतिलक्षणमेवाभव्यानामनाद्यपर्यवसितम्, भव्यानां त्वनादिसपर्यसात्विकमित्यर्थः, तचानेकधा-तत्रोद्यमो ज्ञानतपोऽनुष्ठानादिषूत्साहः, वसितम्, सादिसपर्यवसितं तु विरतिभ्रंशात्, सादिता पुनर्जधन्यतोऽन्तएतदपि यथायोगं सम्भवे संभाव्ये च योजनीयमिति। धृतिः--संयमे स्थैर्य, मुहूर्तादुत्कृष्टतोऽपार्द्धपुद्गलपरावर्तात् विरतिसद्भावात् सान्ततेति / चित्तसमाधानमिति यावत् / धीरत्वंपरीषहोपसर्गाक्षोभ्यता, शौण्डीर्य साद्यपर्यवसितस्य तृतीयभङ्ग कस्य त्वसम्भव एव। यदिवा-पण्डितवीर्य त्यागसम्पन्नता, षट्खण्डमपि भरतं त्यजतश्चक्रवर्त्तिनो न मनः कम्पते, सर्वविरतिलक्षणम्, विरतिरपि चारित्रमोहनीयक्षयक्षयोपशमोपशमयदिवा-आपद्यविषण्णता, यदिवा-विषमेऽपि कर्तध्ये समुपस्थिते लक्षणा त्रिविधैव, अतो वीर्यमपि त्रिधैव भवति। गतो नामनिष्पन्नो निक्षेपः। पराभियोगमकुर्वन् मयैवैतत्कर्तव्यमित्येवं हर्षायमाणोऽविषण्णो विधत्त तदनुसूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुचारइति। मावीर्य तु परैराक्रुश्यमानोऽपि मनागपि मनसा न क्षोभमुपयाति, यितव्यं, तचेदम्भावयति च तत्त्वम् / तत्रेदम्-- ''आकुष्टेन मतिमता, तत्त्वार्थगवेषणे मतिः | दुहा वेयं सुयक्खायं, वीरियं ति पवुचई।
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________________ वीरिय 1404 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वीरिय किं नु वीरस्स वीरत्तं, कहं चेयं पवुचई ? ||1|| कम्ममेगे पवेति, अकम्मं वाऽवि सुव्वया। एतेहिं दोहि ठाणे हिं,जेहिं दीसंति मच्चिया / / 2 / द्वे विधे-प्रकारावस्येति द्विविध-द्विप्रकारम, प्रत्यक्षासन्नवाचित्वात् इदमो यदनन्तरं प्रकर्षणोच्यते प्रोच्यते वीर्य तद् द्विभेदं सुष्टवाख्यातं स्वाख्यातं तीर्थकरादिभिः, 'वा' -वाक्यालङ्कारे, तत्र'ईर' -गतिप्रेरणायोः, विशेषेण ईरयतिप्रेरयति अहितं येन तद्वीर्य जीवस्य शक्तिविशेष इत्यर्थः, तत्र; किं नु वीरस्य-सुभटस्य वीरत्वम् ? केन वा कारणेनासौ वीर इत्यभिधीयते ? नुशब्दो- वितर्कवाची / एतद्वितर्कयति- किं तद्वीर्यम् ? वीरस्य वा किं तदीरत्वमिति ?||1|| तत्र भेदद्वारेण वीर्यस्वरूपमाचिख्यासुराह--कर्मक्रियानुष्ठानमित्येतदेके वीर्यमिति प्रवेदयन्ति, यदिवाकर्माष्टप्रकारं कारण कार्योपचारात् तदेवं वीर्यमति प्रवेदयन्ति / तथाहि-औदयिकभावनिष्पन्नं कर्मेत्युपदिश्यते औदयिकोऽपि च भावः कर्मोदयनिष्पन्न एव बालवीर्यम्। द्वितीयभेदस्त्वयं न विद्यते कर्मास्येत्यकर्मावीर्यान्तरायक्षयजनितं जीवस्य सहज वीर्यमित्यर्थः / चशब्दात् चारित्रमोहनीयोपशमक्षयोपशमजनितंच, हे सुव्रता ! एवम्भूतं पण्तिवीर्य जानीत् यूयम्। आभ्यामेव द्वाभ्यां रथानाभ्यां सकर्मकाऽकर्मकापादितबालपण्डितवीर्याभ्यां व्यवस्थित वीर्यमित्युच्यते। यकाभ्यां च ययोर्वा व्यवस्थिता मर्येषु भवा माः ‘दिस्संत' इति दृश्यन्तेऽपदिश्यन्ते वा। तथाहि नानाविधासु क्रियासु प्रवर्तमानमुत्साहबलसंपन्नं मयं दृष्ट्वा वीर्यवानय मर्त्य इत्येवमपदिश्यते, तथा तदावारककर्मणः क्षयादनन्तबलयुक्तोऽयं मर्त्य इत्येवमपदिश्यते दृश्यते चेति / / 2 / / इह बालवीर्य कारणे कार्योपचारात्कर्मव वीर्यत्वेनाभिहितम, साम्प्रतं कारणे कार्योपचारादेव प्रभादं कर्मत्वेनापदिशन्नाहपमायं कम्ममाहंसु, अप्पमायं तहाऽवरं / तब्भावाऽऽदेसओ वाऽवि, बालं पंडियमेव वा // 3 // सत्थमेगे तु सिक्खंता, अतिवायाय पाणिणं। एगे मंते अहिज्जंति, पाणभूयविहेडिणो ||4|| प्रमाद्यति सदनुष्ठानरहिता भवन्ति, प्राणिनो येन स प्रमादोमद्यादिः तथा चोक्तम- 'मजं विसयकसाया, णिहा विगहा य पंचमी भणिया। एस पमायपमाओ, णिद्दिट्ठो वीयरागेहिं / / 1 / / तमेवम्भूतं प्रमादं कर्मापादानभूतं कर्म आहुः-उक्तवन्तस्तीर्थकरादयः, अप्रमाद च तथा अपरकर्मकमाहुरिति। एकदुक्तं भवति--प्रमादोपहतस्य कर्म बध्यते, सकर्मणश्च यत्क्रियानुष्ठानं तद्रालवीर्यम्, तथाऽप्रमत्तस्य कर्माभावे भवति, एवंविधस्य च पण्डितवीर्यं भवति, एतच्च बालवीर्य पण्डितवीर्यमिति वा प्रमादवतः सकर्मणो बालवीर्यग-प्रमत्तस्याकर्मणः पण्डितवीर्यमित्येवमायोज्यम् / 'तभावाऽऽदेसओ वावी' ति तस्यबालवीर्यस्य कर्मणश्च पण्डितवीर्यस्य या भावः- सत्ता स तद्धावस्तेनाऽऽदेशोव्यपदेशः ततः, तद्यथा-बालवीर्यमभव्यानामनादि अपर्यवसितम्, भट्यानामनादि सपर्यवसितं वा सादि सपर्यवसितं वेति, पण्डितवीर्य तु सादि सपर्यवसितमेवेति।।३।। तत्र प्रमादोपहतस्य सकर्मणो यदालवीयं तद्दर्शयितुमाह-शस्त्रं खङ्गादिप्रहरणं शास्त्र वा धुनर्वेदायुर्वेदादिकं प्राण्युपमईकारि तत् सुष्टु सातगौरवगृद्धा एकै–केचन शिक्षन्ते-उद्यमेन गृह्णन्ति / तत्र शिक्षितं सत् प्राणिनां जन्तूनां विनाशाय भवति, तथाहि-तत्रोपदिश्यते एवंविधमालीढप्रतयालीढादिभिर्जीव व्यापादयितव्ये स्थान विधेयम् / तदुक्तम्- "मुष्टिनाऽऽच्छादयेल्लक्ष्यं, मुष्टौ दृष्टि निवेशयेत् / हतं लक्ष्य विजानीयाद्यदि मूर्धा न कम्पते // 1 // " तथा एवं लावकरसः क्षयिणे देयोऽभयारिष्टाख्यो मद्यविशेषश्चेति। तथा एवं चौरादेः शूलारोपणादिको दण्डो विधेयः, तथा चाणक्याभिप्रायेण परो वञ्चयितव्योऽर्थोपादानार्थम, तथा कामशास्त्रादिकं चोद्यमेना-शुभाध्यवसानियाऽधीयते, तदेवं शस्त्रस्य धुनर्वेदादेः शास्त्रस्य वा यदभ्यसनं तत्सर्व बालवीर्यम्। किञ्च-- एकंकेचन पापोदयात् मन्त्रानभिचारकानाथर्वणानश्वमेधपुरुषमेधसर्वमेधादियागार्थमधीयते / किम्भूतानिति दर्शयति-प्राणाद्रीन्द्रियादयः भूतानि-पृथिव्यादीनि तेषां विविधम्- अनेकप्रकारं हेठकान्बाधकान् ऋक्संस्थानीयान् मन्त्रान् पठन्तीति / तथा चोक्तम्- 'षट् शतानि नियुज्यन्ते, पशूनां मध्यमेऽहनि ।अश्वमेधस्य वचनान्न्यूनानि पशुभिस्त्रिभिः / / 1 / / " इत्यादि / / 4 / / अधुना ‘सत्थ' मित्येतत्सूत्रपदं सूत्रस्पार्शिकयः नियुक्तिकारः स्पष्टयितुमाहसत्थं असिमादीयं, विज्जा मंते य देवकम्मकयं / पत्थिववारुणअग्गे–य वाउतह मीसग चेव ||1|| शस्त्र-प्रहरणं तच असिः- खगस्तदादिक, तथा विद्याधिष्ठित, मन्त्राधिष्ठित देवकर्मकृतं-दिव्यक्रियानिष्पादितंतच पञ्चविधम्, तद्यथापार्थिव वारुणभाग्नेयं वायव्यं तथैव द्व्यादि-मिश्रं चेति॥ किञ्चान्यत्माइणो कटु माया य, कामभोगे समारभे। हंता छेत्ता पगम्भित्ता, आयसायाणुगामिणो / / 5 / / मणसा वयसा चेव, कायसा चेव अंतसो। आरओ परओ वाऽवि, दुहाऽविय असंजया॥६।। माया-परवञ्चनादि (त्मि) का बुद्धिः सा विद्यते येषां ते मायाविनस्त एवम्भूता मायाः- परवञ्चनानि कृत्वा एकग्रहणे तज्जातीयग्रहणादेव क्रोधिनो मानिनो लोभिनः सन्तः कामान्-इच्छारूपान् तथा भोगांश्च शब्दादिविषयरूपान् समारभन्ते सेवन्ते / पाठान्तरं वा- 'आरंभाय तिवट्टई' त्रिभिः मनोवाकायैरारम्भार्थं वर्तते, बहून् जीवान् व्यापादयन् बध्नन् अपध्वंसयन् आज्ञापयन् भोगार्थी; वित्तोपार्जनार्थ प्रवर्तत इत्यर्थः / तदेवम् आत्मसातानुगामिनः- स्वसुखलिप्सवो दुःखद्विषो विषयेषुगृद्धाः कषायकलुषितान्तरात्मानः, सन्त एवम्भूता भवन्ति, तद्यथा
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________________ वीरिय 1405 -- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वीरिय हन्तार:- प्राणिव्यापादयितारस्तथा छेत्तारः- कर्णनासिकादेस्तथा प्रकर्तयितारः पृष्ठोदरादेरिति / / 5 / / तदेतत्कथमित्याहतदेतत्प्राण्युपमर्दनं मनसा वाचा कायेन कृतकारितानुमतिभिश्च अन्तशः- कायेनाशक्तोऽपि तन्दुलमत्स्यवन्मनरीव पापानुष्ठानानुमत्या कर्म बध्नातीति। तथा आरतः परतश्चेति लौकिकी वाचायुक्तिरित्येवं पर्यालोच्यमाना ऐहिकामुष्मिकयोः द्विधाऽपि-स्वयं करणेन परकरणेन चासंयताजीवोपघातकारिण इत्यर्थः / / 6 / / साम्प्रतं जीवोयघातविपाकदर्शनार्थमाहवेराई कुव्वई वेरी, तओ वेरेहिं रज्जती। पावोवगा य आरंभा, दुक्खफासाय अंतसो / / 7 / / संपरायं णियच्छंति, अत्तदुक्कडकारिणो। रागदोसस्सिया बाला, पावं कुव्वंति ते बहु ||8|| वैरमस्यास्तीति वैरी, स जीवोपमईकारी जन्मशतानुबन्धीनि वैराणि करोति, तताऽपि च वैरादपरैरनुरज्यते-संबध्यते, वैरपरम्परानुषड्गी भवतीत्यर्थः / किमिति यतः पापम् उपसामीप्येन गच्छन्तीति पापोपगाः, क एते ?-आरम्भाः-सावद्यानुष्ठानरूपाः अन्तशो-विषाककाले दुःखं रपृशन्तीति दुःखस्पर्शा-असातोदयविपाकिनो भवन्तीति // 7 // किश्चान्यत्- 'संपरायं णियच्छती त्यादि, द्विविधं कर्मईर्यापथं, साम्परायिकं च / तत्र सम्परायाबादरकषायास्तेभ्य आगतं साम्परायिक तत् जीवोपमर्दकत्वेन वैरानुषङ्गितया आत्मदुष्कृतकारिणः- स्वपापविधायिनः सन्तो नियच्छन्ति-बघ्रन्ति / तानेव विशिनष्टिरागद्वेषाश्रिताः- कषायकलुषितान्तरात्मानः सदसद्विवेकविकलत्वात् बाला इव बालाः, ते चैवम्भूताः पापम्-असद्वेध बहुअनन्तं कुर्वन्ति-विदधति।।८।। एवं बालवीर्य प्रदोपसंजिघृक्षुराहएवं सकम्मविरियं, बालाणं तु पवेदितं / इत्तो अकम्मविरियं, पंडियाणं सुणेह मे |6|| ददिबए बंधणुम्मुक्के, सव्वओ छिन्नबंधणे / पणोल्ल पावकं कम्मं सल्लं कंतति अंतसो / / 10 / / एतत्- यत् प्राक् प्रदर्शितम्, तद्यथा-प्राणिनामतिपातार्थ शस्त्र शास्त्रं वा केचन शिक्षन्ते, तथा परे विद्यामन्त्रान् प्राणिबाधकानधीयते, तथाऽन्ये मायाविनो नानाप्रकारां मायां कृत्वा कामभोगार्थमारम्भान् कुर्वत, केचन पुनरपरे वैरिणस्तत्कुर्वन्ति येन वैरैरनुबध्यन्ते (ते) तथाहिजमदग्निना स्वभार्याऽकार्य-व्यतिकरे कृतवीर्यो विनाशितः, तत्पुत्रेण तु कार्तवीर्येण पुनर्जमदग्निः,जमदग्निसुतेन परशुरामेण सप्त वारान् निःक्षत्रा पृथिवी कृता, पुनः कार्तवीर्यसुतेन तु सुभूमेन त्रिःसप्रकृत्वो ब्राह्मणा व्यापादिताः। तथा चोक्तम्-"अपकारसमेन कर्मणा, न नरस्तुष्टिमुपैति शक्तिमान्। अधिकां कुरुतेऽरियातनां, द्विषतां जातमशेषमुद्धरेत्॥१॥" तदेवं कषायवशगाः प्राणिनस्तत्कुर्वन्ति येन पुत्रपौत्रादिष्वपि वैरानुबन्धो भवति / तदेतत्सकर्मणा बालानां वीर्य तुशब्दात्प्रमादवतां च प्रकर्षण वेदितं प्रवेदितं प्रतिपादितमितियावत्। अत ऊर्ध्वमकर्मणां-पण्डिताना यवीर्य तन्मे-मम कथयतः शृणुत यूयमिति॥६यथा प्रतिज्ञातमेवाहद्रव्यो-भव्यो मुक्तिगमनयोग्यः 'द्रव्यं च भव्य' इति वचनातागद्वेषविरहाद्वा द्रव्यभूतोऽकषायीत्यर्थः / यदिवा-वीतराग इव वीतरागोऽल्पकषाय इत्यर्थः / तथा चोक्तम्- "किं सक्का वोत्तु जे, सरागधम्मम्मि कोइ अकसायी। संते वि जो कसाए, निगिण्हई सोऽपि तत्तुलो / / 1 / / " स च किम्भूतो भवतीति दर्शयति-बन्धनात् कषायात्मकान्मुक्तो बन्धनोन्मुक्तः, बन्धनत्वं तु कषायाणां कर्मस्थितिहेतुत्वात् / तथा चोक्तम्"बंधहिई कसायवसा'' कषायवशात् इति, यदिवा-बन्धनोन्मुक्त इव बन्धनोन्मुक्तः, तथाऽपरः सर्वतः-सर्वप्रकारेण सूक्ष्मबादररूपं छिन्नम्अपनीतं बन्धनं-कषायात्मकं येन स छिन्नबन्धनः, तथा प्रणुद्य-प्रेर्य पाप-कर्मकारणभूतान् वाऽऽश्रवानपनीय शल्यवच्छल्यं शेषकं कर्म तत् कृन्तति- अपनयति अन्तशोनिरवशेषतो विघटयति / पाठान्तरं वा 'सल्लं कतइ अप्पणो' तिशल्यभूतं यदष्टप्रकार कर्म तदात्मनः सम्बन्धि कृन्तति-छिनत्तीत्यर्थः / / 10|| यदुपादाय शल्यमपनयति तदर्शयितुमाहनेयाउयं सुयक्खायं, उवादाय समीहए। मुजो भुञ्जो दुहावासं, असुहत्तं तहा तहा।।११।। ठाणी विविहठाणाणि, चइस्संति ण संसओ। अणियत्ते अयं वासे, णायएहि सुहीहि य / / 12 / / नयनशीलो नेता, नयतेस्ताच्छीसिकस्तृन्, स चात्र सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मको मोक्षमार्गः श्रुतचारित्ररूपो वा धर्मो मोक्षनयनशीलत्वात् गृह्यते, तंमार्ग धर्म वा मोक्ष प्रति नेतारं सुष्ठु तीर्थकरादिभिराख्यात स्वाख्यातं तम् उपादाय-गृहीत्वा सम्यक् मोक्षाय ईहते-चेष्टते ध्यानाध्ययनादावुद्यम विधत्ते / धर्मध्यानारोहणालम्बनायाह-भूयो भूयः-पौनःपुन्येन यद्वालवीर्य तदतीतानागतानन्तभवग्रहणेषु दुःखमावासयतीति दुःखावासं वर्तते / यथा यथा च बालवीर्यवान् नरकादिषु दुःखावासेषु पर्यटति तथा तथा चास्याशुभाध्यवसायित्वादशुभमेव प्रवर्धते इत्येवं संसारस्वरूपमनुप्रेक्षमाणस्य धर्मध्यानं प्रवर्तते इति / / 11 / / साम्प्रतमनित्यभावनामधिकृत्याह-स्थानानि विद्यन्ते येषां ते स्थानिनः, तद्यथा-देवलोके इन्द्रस्तत्सामानिकत्रायस्त्रिंशत्पार्षद्यादीनि, मनुष्येष्वपि चक्रवर्तिबलदेववासुदेवमहामण्डलिकादीनि, तिर्यक्ष्वपि यानि कानिचिदिष्टानि भोगभूम्यादौ स्थानानि तानि सर्वाण्यपि विविधानि-नाना-प्रकाराण्युत्तमाधममध्यमानि ते स्थानिनस्त्यक्ष्यन्ति, नात्र संशयो विधेय इति / तथा चोक्तम्- "अशाश्वतानि स्थानानि, सर्वाणि दिवि चेह च / देवासुरमनुष्याणामृद्धयश्च सुखानि च॥१॥" तथाऽयं ज्ञातिभिः-बन्धुभिः सार्ध सहायैश्च मित्रैः सुहृद्भिर्यः संवासः सोऽनित्योऽशाश्वत इति। तथा चोक्तम्- "सुचिरतरमुषित्वा बान्धवैर्विप्रयोगः, सुचिरमपि हि रत्वा नास्ति भोगेषु तृप्तिः। सुचिरमपि सुपुष्ट पाति नाशं शरीरं, सुचिरमपि विचिन्त्यो धर्म एकः सहा
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________________ वीरिय 1406 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वीरिय यः / 1 // " इति / चकारी धनधान्यद्विपदचतुष्पदशरीराद्यनित्यत्वभावनाथी (थम्) अशरणाद्यशेषभावनार्थ चानुक्तसमुच्चयार्थमुपात्ताविति // 12 // अपि चएवमादाय मेहावी, अप्पणो गिद्धिमुद्धरे। आरियं उवसंपजे, सव्वधम्ममकोदियं / / 13 / / सह संमइए णचा, धम्मसारं सुणेत्तु वा। समुवट्ठिए उ अणगारे, पञ्चक्खाए य पावए॥१४॥ अनित्यानि सर्वाध्यपि स्थानानीत्येवम् आदाय-अवधार्य मेधावीमर्यादाव्यवस्थितः सदसद्विवेकी वा आत्मनः सम्बन्धिनी गृद्धि-गाद्वर्य ममत्वम् उद्धरेद्-अपनयेत्, ममेदमहमस्य स्वामीत्येवं ममत्वं क्वचिदपि न कुर्यात्, तथा आराद्यातः सर्वहेयधर्मे भ्य इत्यायों- मोक्षमार्गः सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रा-त्मकः, आर्याणां वा-तीर्थकृदादीनामयमार्यो मार्गस्तम् उपसम्पद्येत- अधितिष्ठेत् समाश्रयेदिति / किम्भूत मार्गमित्याह- सर्वेः कुतीर्थिकधर्मः अकोपितः- अदूषितः स्वमहिम्नैव दूषयितुमशक्यत्वात् प्रतिष्ठां गतः (तं). यदिवासर्वधर्म:- स्वभावैरनुछानुरूपैरगोपितं-कुत्सितकर्त्तव्याभावात् प्रकटमित्यर्थः // 13 // सुधर्मपरिज्ञानं च यथा भवति तद्दर्शयितुमाह-धर्मस्य सारः- परमार्थों धर्मसारस्तं ज्ञात्वाअवबुध्य कथमिति दर्शयति-सह सन्- मत्या स्वमत्या वा विशिष्टाभिनिबोधिकज्ञानेन श्रुतज्ञानेनावधिज्ञानेन वा, स्वपरावबोधकत्वात् ज्ञानस्य, तेन सह, धर्मस्य सारं ज्ञात्वेत्यर्थः, अय॑भ्यो वा-तीर्थकरगणधराचार्यादिभ्यः इलापुत्रवत् श्रुत्वा चिलातपुत्रवद्धा धर्मसारमुपगच्छति, धर्मस्य वा सार-चारित्र तत्प्रतिपद्यते, तत्प्रतिपत्तौ च पूर्वोपात्तकर्मक्षयार्थ पण्डितवीर्यसम्पन्नो रागादिबन्धनविमुक्तो बालवीर्यरहित उत्तरोत्तरगुणसम्पत्तये समुपस्थितोऽनगारः प्रवर्धमानपरिणामः प्रत्याख्यात-निराकृतं पापक सावधानुष्ठानरूप येनासौ प्रत्याख्यातपापको भवतीति // 14 // किश्चान्यत्जं किंचुवक्कम जाणे, आउक्खेमस्स अप्पणो। तस्सेव अंतरा खिप्पं, सिक्खं सिक्खेज्ज पंडिए / / 15 / / जहा कुम्मे सअंगाई, सए देहे समाहरे। एवं पावाई मेधावी, अज्झप्पेण समाहरे / / 16 / / उपक्रम्यते-संवर्यते क्षयमुपनीयते आयुर्येन स उपक्रमस्त(य) वञ्चनं जानीयात्, कस्य ?- आयुःक्षेमस्यस्वायुष इति / इदमुक्तं भवतिस्वायुष्कस्य येन केनचित्प्रकारेणोपक्रमो भावी यस्मिन् वा काले तत्परिज्ञाय तस्योपक्रमस्य कालस्य वा अन्तराले क्षिप्रमेवानाकुलो जीवितानाशंसी पण्डितो विवेकी संलेखनारूपां शिक्षा भक्तपरिज्ञेशितमरणादिकां वा शिक्षेत, तत्र ग्रहणशिक्षया यथा वन्मरणविधिं विज्ञायाऽऽसेवनशिक्षया त्वासेवेतेति / / 15|| किश्चान्यत-यथेति उदाहरणप्रदर्शनार्थः, यथा कूर्मः . कच्छपः स्वान्यगानिशिरोऽधरादीनि स्वके देहे समाहरेद्-- गोपयेद्-अव्यापाराणि कुर्याद् एवम्-अनयैव प्रक्रियया मेघावी-मर्यादावान् सदसद्विवेकी वा पापानि-पापरूपाण्यनुष्ठानानि अध्यात्मना-सम्यग्धर्मध्यानादिभावनया समाहरेत- उपसंहरेत्, मरणकाले चोपस्थिते सम्यक् संलेखनया संलिखितकायः पण्डितमरणेनात्मानं समाहरेदिति / / 16 / / संहरणप्रकारमाहसाहरे हत्थपाए य, मणं पंचिंद्रियाणि य। पावकं च परीणाम, भासादोसं च तारिसं / / 17 / / अणुमाणं च मायं च, तं पडिन्नाय पंडिए। सातागारवणिहुए, उवसंते णिहे चरे॥१८॥ पादपोषगमने इङ्गिनीमरणे भक्तपरिज्ञायां शेषकाले वा कूर्मवद्धस्तौ पादौ च संहरेद-व्यापारान्निवर्तयत्, तथा मनः- अन्तःकरणं तच्चाकुशलव्यापारेभ्यो निवर्तयत्, तथा शब्दादिविषयेभ्योऽनुकूलप्रतिकूलेभ्योऽरक्तद्विष्टतया श्रोत्रन्द्रियादीनिपञ्चापीन्द्रियाणि। चशब्दः समुच्यते। तथा पापकं परिणाममैहिकामुष्मिकाशंसारूप संहरेदित्येव भाषादोष च तादृशंपापरूपं संहरेत्, मनोवाक्कायगुप्तः सन् दुर्लभं सत्संयममवाप्य पण्डितमरण वाऽशेषकर्मक्षयार्थं सम्य-गनुपालयेदिति॥१७॥ तं च संयमे पराक्रममाणं कश्चित् पूजासत्कारादिना निमन्त्रयेत्, तत्रात्मोत्कर्षों न कार्य इति दर्शयितुमाह-चक्रवादिना सत्कारादिना पूज्यमानेन अणुरपिस्तोकोऽपि मानः- अहंकारो न विधेयः, किमुत महान् ? यदिवोत्तममरणोपस्थिते नोग्रतपोनिष्टप्तदेहेन वा अहोऽह-मित्येवंरूपः स्तोकोऽपि गर्वो न विधेयः, तथा पण्डुरार्ययेव स्तोकाऽपि माया न विधेयाकिमुत महती ? इत्येवं क्रोधलोभावपि न विधेयाविति / एवं द्विविधयाऽपि परिज्ञया कषायास्तद्विपाकांश्च परिज्ञाय, तेभ्यो निवृत्ति कुर्यादिति / पाठान्तरं वा 'अइमाणं च मायं च तं परिण्णाय पंडिए' अतीव मानोऽतिमानः सुभूमादीनामिव त दुःखावहमित्येवं ज्ञात्वा परिहरेत् / इदमुक्तं भवति यद्यपि सरागस्य कदाचिन्मानोदयः स्यात्तथाप्युदयप्राप्तस्य विफलीकरणं कुर्यादित्येवं मायायामप्यायोज्यम् / पाठान्तरं वा 'सुयं मे इहमेगेसि, एवं वीरस्स वीरिय' येन बलेन संग्रामशिरसि महति सुभटसंकटे परानीकं विजयते तत्परमार्थतो वीर्य न भवति, अपि तुयेन कामक्रोधादीन् विजयते तद्वीरस्य-महापुरुषस्य वीर्यम् / इहैव-अस्मिन्नेव संसारे मनुष्यजन्मनि वैकेषां तीर्थकरादीना सम्बन्धि वाक्यं मया श्रुतम्, पाठान्तरं वा 'आयतट्ट सुआदाय, एवं वीरस्न धीरिय आयतो मोक्षोऽपर्यवसितावस्थानत्वात् स चासावर्थश्च तदर्थों वातत्प्रयोजनो वा सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रमार्गः स आयतार्थस्त सुष्टवादायगृहीत्वा यो धृतिबलेन कामक्रोधादिजयाय च पराक्रमते एतवीरस्य वीर्यमिति / यदुक्तमासीत् 'किं (तु) नु वीरस्य वीरत्वमि' ति तद्यथा भवति तथा व्याख्यातम् / किञ्चान्यत्- सातागौरवं नाम सुखशीलता तत्र निभृतः- तदर्थमनुद्युक्त इत्यर्थः, तथा क्रोधाग्निजयादुपशान्तः-शीतीभूतःशब्दाविषयेभ्योऽप्यनुकूलप्रतिकूले - भ्योऽरक्त द्विष्टतयोपशान्तो जितेन्द्रियत्वात्तेभ्यो निवृत्त इति, तथा
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________________ दीरिय 1407 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वीरिय निहन्यन्ते ाणिनः संसारे यया सा निहा-भाया न विद्यते सा यस्यासावनिहो; मायाप्रपारहित इत्यर्थः, तथा मानरहितो लोभवर्जित इत्यपि द्रष्टव्सम, स चैवम्भूतः संयमानुष्ठानं चरेत्-कुर्यादिति, तदेव मरणकाले अन्यदा वा पण्डितवीर्यवान् महाव्रतेषूद्यतः स्यात् / तत्रापि पाणातिपातविरतिरेव गरोयसीति कृत्वा तत्प्रतिपादनार्थमाह-''उडमहे तिरियं वा, जे पाणा तसथावरा / सब्वत्थ विरतिं कुजा, संति निव्वाणमाहियं / / 1 / / ' अयं च श्लोको न सूत्रादर्शषु दृष्टः, टीकायां तु दृष्ट इति कृत्वा लिखितः, उत्तानार्थश्चति // 18|| सूत्र० 1 श्रु० 8 अ० / (अबुद्धा इव बालवीर्यवन्त इति अबुद्ध' शब्दे प्रथमभागे 684 पृष्ठे गतम्।) साम्प्रत पण्डितवीNिणोऽधिकृत्याऽऽहजे य बुद्धा महाभागा, वीरा सम्मत्तदंसिणो। सुद्धं तेसिं परकंतं, अफलं होइ सव्यसो / / 23 / / तेसिं पि तवो ण सुद्धो, निक्खंता जे महाकुला। जन्ने वन्ने वियागंति, न सिलोगं पवेञ्जए।।२४।। अप्पपिंडासि पाणासि, अप्पं भासेज सुव्वए। खंतेऽभिविव्वुडे दंते, वीतगिद्धी सदा जए।।२।। झाणजोगं समाहटु, कायं विउसेज सव्वसो। तितिक्खं परमं णच्चा, आमोक्खाए परिव्वए॥२६| जासि त्ति बेमि, इति श्रीवीर्याख्यमष्टममध्ययनं संमत्तं / ये केचन स्यंबुद्धास्तीर्थकराद्यास्तच्छिष्या वा बुद्धबोधिता गणधरादयो महाभागा महापूजाभाजो वीराः- कर्मविदारणसहिष्णवो ज्ञानादिभिर्वा गुणविराजन्त इति वीराः, तथा सम्यक्त्वदर्शिनः- परमार्थतत्त्ववेदिनस्तेषां भगवता यत्पराक्रान्ततपोऽध्ययनयमनियमादावनुष्ठितं तच्छुद्धम्-- अवदातं निरुपरोध सातगौरवशल्यकषायादिदोषाकलङ्कितं कर्मबन्धं प्रति अफल भवति-तन्निरनुबन्धनिर्जरार्थमेव भवतीत्यर्थः। तथाहि-सम्यगदृष्टीना सर्वमपि संयमतपःप्रधानमनुष्ठान भवति, संयमस्य चानाप्रवरूपत्वात् तपसश्च निर्जराफलत्वादिति। तथा च पठ्यते-''संयमे अणाहयफल तवे वोदाणफले' इति // 23 // किञ्चान्यत्- महत्कुलम् इक्ष्वाक्वादिक येषां ते महाकुला लोकविश्रुताः शौर्यादिभिर्गुणैर्विस्तीर्णयशसस्तेषामपि पूजा-सत्काराद्यर्थमुत्कीर्तनेन वा यत्तपस्तदशुद्धं भवति / यच क्रियमाणमपि तपो नैवान्ये दानश्राद्धादयो जानन्ति / तत्तथाभूतमात्मार्थिना विधेयम्, अतो नैवात्मश्लाघां प्रवेदयेत्- प्रकाशयेत् / तद्यथा-अहमुत्तमकुलीन इभ्यो वाऽऽसं साम्प्रतं पुनस्त-पोनिष्टप्तदेह, इति, एवं स्वयमाविष्करणेन न स्वकीयमनुष्ठानं फल्गुतामापादयेदिति / / 24 / / अपिच-अल्पस्तोक पिण्डमशितुं शीलमस्यासावल्पपिण्डाशी यत्किञ्चनाशीति भावः, एवं पानेऽप्यायोज्यम्। तथा चागमः- 'हे जंव तं व आसी य, जत्थ व तत्थ व सुहोवगयनिहो। जेण व तेण व संतु-टु, | वीर ! मुणि-ओऽसि ते अप्पा'' ||1|| तथा "अट्टकुक्कुडिअंडगमेत्तप्पामणे कवले आहारमाणे अप्पाहारे दुबालसकवलेहिं अवड्डामोयरियासोसलहिं दुभागे पत्ते--चउवीस ओभोदरिया, तीसं पमाणपत्ते बत्तीस कवला संपुण्णाहारे'' इति, अत एकैककवलहान्यादिनानोदरता विधया, एवं पाने उपकरणे चोनोदरतां विदध्यादिति। तथा चोक्तम्- "थोवाहारो थोव भणिओ अ जो होइ थोवनिदो अ। थोवोवहिउवकरणो, तस्स हु देवा विपणमति||१||" तथा सुव्रतः-साधुः अल्पंपरिमितं हितं च भाषेत, सर्वदा विकथारहितो भवेदित्यर्थः / भावावमौदर्यमधिकृत्याह-भावतः क्रोधाद्युपशमात् क्षान्तः- क्षान्तिप्रधानः तथा अभिनित्तोलोभादिजयान्निरातुरः, तथा इन्द्रियनोइन्द्रियदमनात् दान्तोजितेन्द्रियः / तथा चोक्तम्-“कषाया यस्य नोच्छिन्ना यस्य नात्मवश मनः। इन्द्रियाणि न गुप्तानि, प्रव्रज्या तस्य जीवनम् // 1 // '' एवं विगता गृद्धिर्विषयेषु यस्य स विगतगृद्धिः आशंसादोषरहितः सदा सर्वकालं संयमानुष्ठाने यतेत-यत्न कुर्यादिति / / 25 / / अपि च- 'झाणजोगं' इत्यादि, ध्यानंचित्तनिरोधलक्षणं धर्मध्यानादिकं तत्र योगो विशिष्टमनोवाक्कायव्यापारस्त ध्यानयोग समाहृत्य-सम्यगुपादाय कायंदेहमकुशलयोगप्रवृत्तं व्युत्सृजेत्-परित्यजेत् सर्वतः- सर्वेणापि प्रकारेण, हस्तपादादिकमपि परपीडाकारिन व्यापारयेत्।तथा तितिक्षां-क्षान्तिं परीषहोपसर्गसहनरूपां परमाप्रधाना ज्ञात्वा आमोक्षाय-अशेषकर्मक्षयं यावत् परिखजेरितिसंयमानुष्टानं कुर्यास्त्वमिति / इतिः परिसमाप्त्यर्थे / ब्रवीमीति पूर्ववत् / / 26 / / समाप्तं चाष्टमं वीर्याख्य-मध्ययनमिति / सूत्र०१ श्रु०८ अ०। जीवाणं भंते ! किं सवीरिया अवीरिया ? गोयमा ! सवीरिया वि, अवीरिया वि।से केणऽटेणं ? गोयमा ! जीवा दुविहा पन्नत्ता, तं जहा-संसारसमावन्नगा य, असंसारसमावन्नगा या तत्थ णं जे ते असंसारसमावन्नगा ते णं सिद्धा, सिद्धाणं अवीरिया, तत्थ णं जे जे संसारसमावन्नगा ते दुविहा पन्नत्ता, तं जहा-सेलेसिपडिवन्नगा य, असेलेसिपडिवनगा य / तत्थ णं जे ते सेलेसिपडि वनगा ते णं लद्धिवीरिएणं सवीरिया, करणवीरिएणं अवीरिया। तत्थणं जे ते असेलेसिपडिवन्नगा ते णं लद्धिवीरिएणं सवीरिया, करणवीरिएणं सवीरिया वि, अवीरिया वि। से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुचइ-जीवा दुविहा पण्णत्ता, तं-जहा-सवीरिया वि, अवीरिया वि। नेरइया णं भंते ! किं सवीरिया, अवीरिया? गोयमा ! नेरइया लद्धिवीरिएणं सवीरिया, करणवीरिएणं सवीरिया वि, अवीरिया वि। से केणऽट्टेणं ? गोयमा ! जेसिणं नेरझ्याणं अत्थि उहाणे कम्मे बले वीरिए पुरिसक्कारपारक्कमे ते णं नेरइया लद्धिवीरिएण वि सवीरिया, करणवीरिएण वि सवीरिया, जेसि णं नेरइयाणं नत्थि उट्ठाणे० जाव परक्कमे ते णं नेरइया लद्धिवीरिएणं सवीरिया, करणवीरिएणं अवीरिया। से
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________________ वीरिय 1408 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वीरियाता तणऽट्टेणं गोयमा ! जहा नेरइया एवं० जाव पंचिंदिय- | भवति। कर्म० 6 कर्म० / स०। तिरिक्खजोणिया, मणुस्सा जहा ओहिया जीवा। नवरं सिद्धवज्जा ! वीरियद्धिवण्णण-न०(वीर्यर्द्धिवर्णन) प्रकर्षरूपायाः शुद्धाचारभाणियव्वा, वाणमंतरजोइसवेमाणिया जहानेरइया। सेवं भंते! बललभ्यायास्तीर्थकरपर्यवसानाया वीर्यवर्णने, ध० 1 अधिक। (सेवं) भंते ! त्ति / सू०-७१) वीरियत्ता-स्त्री०(वीर्यता) वीर्ययोगाद्वीर्यः प्राणी तद्भावो वीर्यता / अथवा'सिद्धा णं अवीरिय' त्ति सकरणवीर्याभावादवीर्याः सिद्धाः, 'सेलेसि- | वीर्यमेव स्वार्थिकप्रत्ययाद्-वीर्याणां या भावो वीर्यता। वीर्यभावे, भ०१ पडिवनगा यत्ति शीलेश:-- सर्वसंवरंरूपचरणप्रभुस्तस्येयमवस्था, श०४ उ०। शैलेशो वा-मेरुस्तस्येवयाऽवस्था स्थिरतासाधात्साशैलेशी. साच वीरियपवाय-न०(वीर्यपवाद) सकर्मेतराणां जीवानामजीवानां च वीर्य सर्वथा योगनिरोधे पञ्च ह्रस्वाक्षरोचारकालमाना तां प्रतिपन्नका ये ते प्रवदतीति वीर्यप्रवादम्। कर्मण्यण प्रत्ययः / चतुर्दशपूर्वाणां तृतीये पूर्वे, तथा, 'लद्धि-वीरिएणं सवीरिय' ति वीर्यान्तरायक्षयक्षयोपशमतो या तस्य पदपरिमाणं सप्ततिपदशतसहस्राणि। नं० / सं०। वीर्यस्य लब्धिः सैव तद्धेतुत्वाद्वीर्य लब्धिवीर्य तेन सवीर्याः / एतेषां च वीर्याभिधायिनः पूर्वस्य स्वरूपमाहक्षायिकमेव लब्धिवीर्यम्, 'करणवीरिएणं' ति लब्धवीर्यकार्य-भूता क्रिया करणं तद्रूपं करणवीर्य, 'करणवीरिएणं सवीरिया वि अवीरिया वीरियपुटवस्स णं अट्ठ वत्थू अट्ट चूलियावत्थू पण्णत्ता। वित्ति तत्र सवीर्याः-उत्थानादिक्रियावन्तः अवीर्यास्तूत्थानादिक्रिया (सू०६२७) विकलाः, ते चापर्याप्त्यादिकालेऽवगन्तव्या इति / 'नवरं' सिद्धवजा 'वीरियपुव्वे' त्यादि वीर्यप्रवादाख्यस्य तृतीयपूर्वस्य वस्तूनि-मूलभाणियव्व' त्ति औधिकजीवेषु सिद्धाः सन्ति, मनुष्येषु तु नेति, मनुष्य वस्तूनि अध्ययनविशेष आचारे ब्रह्मचर्याध्ययनवत् चूलावस्तूनि त्वाचादण्डके वीर्यं प्रति सिद्धस्वरूप नाध्येयमिति। भ०१श०८ उ०। राग्रवदिति वस्तुवीयर्यादव गतयोऽपि भवन्ती-ति। स्था० 8 ठा०३ उ०। क्रियाधिकार एवेदमाह वीरियपवायस्स णं पुटवस्स एकसत्तरि पाहुडा पण्णत्ता / दो भंते ! पुरिसा सरिसया सरित्तया सरिव्वया सरिस- | (सू०७१x) भंडमत्तोवगरणा अन्नमन्नेणं सद्धिं संगाम संगामेन्ति, तत्थ 'वीरियपुवस्स' ति तृतीयपूर्वस्य पाहुड' त्ति प्राभृत-मधिकारविशेषः / णं एगे पुरिसे पराइणइ, एगे पुरिसे पराइजइ, से कहमेयं स०७१ सम०। भंते ! एवं ? गोयमा ! सवीरिए पराइणइ, अवीरिए परा-इज्जइ। वीरियफड्डय-न०(वीर्यस्पर्धक) त्रित्वेन एकत्र समुदितेषु असंख्येयसे केणऽटेणं० जाव पराइजइ ? गोयमा ! जस्स णं वीरिय वीर्यभागान्वितेषु जीवप्रदेशेषु, कर्म०५ कर्म०। वज्झाई कम्माइंणो बद्धाई णो पुट्ठाइं० जाव नो अभिसन्नागयाइं वीरियबल-न०(वीर्यबल) वीर्यमेव बलं वीर्यबलं यद्वशात् गमनागमनादिनो उदिन्नाई उवसंताई भवन्ति से णं पराइणइ, जस्स णं कासु विचित्रासु क्रियासु वर्तते यचापनीय सकल-कलुषपटलमनवीरियवज्झाई कम्माई बद्धाइं० जाव उदिन्नाई नो उवसंताई वरतानन्दभाजनं भवति। तथाभूते बलभेदे, स्था० 10 ठा०३ उ०। मवंति से णं पुरिसे पराइज्जइ, से तेणऽटेणं गोयमा ! एवं वुचइ वीरियलक्खण-न०(वीर्यलक्षण)लक्षणभेदे, विशे०। आ०म०। (वीर्यसवीरिए पराइणइ, अवीरिए पराइज्जइ। (सू०७०) लक्षणम्, 'लक्खण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 563 पृष्ठे गतम्।) 'सरिसय त्ति सदृशकौ कौशलप्रमाणादिना 'सरित्तय' ति सदृक्त्वचौ वीरियसंपण्ण–त्रि०(वीर्यसंपन्न) वीर्यमुत्साहातिरेकस्तेन सम्पन्नः। स्था० सदृशच्छवी 'सरिट्वयं' ति सदृग्वयसौ- समानयौवनाद्यवस्थौ 8 ठा० 3 उ०। सपराक्रमे, कल्प०१ अधि०५ क्षण। 'सरिसभंडमत्तोवगरण' त्ति भाण्डं-भाजन मृन्मयादि मात्रो मात्रया युक्त उपधिः स च कांस्यभाजनादिभोजनभण्डिका भाण्डमात्रा वा वीरियसजोगसहव्वया-स्त्री०(वीर्यसजोगसव्व्यता) वीर्य वीर्यान्तगणिमादिद्व्यरूपः परिच्छदः उपकरणानि अनेकधाऽऽवरणप्रहणादीनि रायक्षयादिकृता शक्तिः योगा-- मनःप्रभृतयः सह योगैर्वर्तत इति सयोगः, ततः सदृशानि भाण्डमात्रोपकरणानि ययोस्तौ तथा, अनेन च सन्ति विद्यमानानि द्रव्याणि तथाविधपुरला यस्य जीवस्यासौ सद्रव्यो समानविभूतिकत्वं तयोरभिहितं 'सवीरिए' त्तिसवीर्यः 'वीरियवज्झाई' वीर्यप्रधानः / सयोगो वीर्यसयोगः स चासौ सद्व्यश्चेति विग्रहस्तति वीर्य वध्य येषां तानि तथा। भ०१श०८ उ०। वीर्यप्रतिपादकेऽष्टमे द्भावस्तत्ता वीर्यसयोगसद्व्यता। सवीर्यतायां सयोगतायां सद्व्यतासूत्रकृतागाध्ययने, आ० चू० 4 अ०। याम्, भ०८ श०६उ०। (वीर्यसयोगसव्व्यता 'बंधण' शब्दे पश्चमभागे वीरियंतराय-न०(वीर्यान्तराय) अन्तरायपापकर्मभेदे, यदु-दयवशाद् 1225 पृष्ठे व्याख्याता।) बलवान् नीरुजो वयस्थोऽपि च तृणकुब्जीकरणेऽप्यसमर्थो भवति। | वीरियाऽऽता-पुं०(वीर्यात्मन्) वीर्यमुत्थानादि तदात्मा। सर्वसंसारिणां कर्म०१ कर्म० / यदुदयवशात्सत्यपि नीरुजि शरीरे यूनोऽल्पप्राणता | वीर्यरूपो आत्मनि, भ० 12 श०१ उ०। मण
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________________ वीरियाऽऽयार 1406 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वीससापरिणय दीरियाऽऽयार-j०(वीर्याचार) अनिद्दतबाह्याभ्यन्तरसामर्थ्यस्य सतोऽ- अ०। औ० / रा०। निरुद्विग्ने, बृ० 1 उ०२ प्रक० / स्वपक्षाच्छ्रावकादेः, मन्तरोक्तषट्त्रिंशदविधे ज्ञानदर्शनाद्याचार, यथाशक्तिप्रतिपत्तिलक्षणे परपक्षाद् मिथ्यादृष्ट्यादेरविभ्यति प्राणातिपाताद्यकृत्यं सेवमाने जीत०। पराक्रमणे, प्रतिपत्तौ च। यथाबलं पालने,ध०१ अधि० स्था०। आचा०। स्वपक्षतः परपक्षतो वा निर्भयं प्राणातिपातादिसेविनि, व्य० 10 उ०। इदाणिं वीरियायारो वीसत्थत्त-न०(विश्वस्तत्व) विश्वासे, परस्परगुह्यगोपनविषये प्रत्यये, अणिगहियबलविरिओ, परक्कमइ जो जहुत्तमाउत्तो। बृ०१ उ०३ प्रक०। सृजइ य जहाथाम,णायव्वो वीरियायारो॥४३॥ वीसत्थमंतभेय-पुं०(विश्वस्तमन्त्रभेद) विश्वस्ता–विस्था-समुपगताये वीरिय ति वा बलं ति वा सामत्थं ति वा परक्कमे त्ति वा थामो त्ति वा भित्रकलत्रादयस्तेषा मन्त्रो-मन्त्रणं तस्य भेदः- प्रकाशनम्। स्वदारएगट्ठा / सति बलपरक्कमे अकरणं गृहणं निगृहणं अगृहणं बलंसारीरं मन्त्रभेदनरूपे पञ्चमेऽतिचारे, धातस्या-नुवादरूपत्वेन सत्यत्वाद्यद्यपि संघयणोवेवया। वीरियणामशक्तिः, सा हि वीर्यान्तरायक्षयोपशमाद्भवति / नातिचारता घटते, तथापि मन्त्रि-तार्थप्रकाशनजनितलञादितो अहवा-बल एव वीरियं बलवीरियं परक्कमते आचरतेत्यर्थः / जो इति मित्रकलादेर्मरणादिसंभवेन परमार्थतोऽस्याऽसत्यत्वात्कथंचिद्रूपसाहू यथा उक्तं यथोक्तं अव्यत्थं जुतो आजुत्तो वा; अप्रमत्तेत्यर्थः / त्वेनातिचारतव, गुह्यभाषणे गुह्यभाकारादिना विज्ञायाऽनधिकृत एव गुह्य जुजइय-'जुजिर' योगे, जोजयतिच, चशब्दः समुच्चये, कहं जोजयति? प्रकाशयति, इह तु स्वयं मन्त्रयित्वैव मन्त्रं भिनत्तीत्यनर्योर्भेद इति पञ्चमो अहथाम णाम- जहा थाम पा (गड) ययलक्खणेण जगारस्स वंजणे ऽतिचारः / ध०२ अधि०। लुत्ते सरे ठिते अहथामं भवति, एवं करेंतस्स णायव्वो वीरियायारो वीसत्थसुहावासा-स्त्री०(विश्वस्तसुखावासा) विश्वस्तानां निर्भयानावीरियायारपमाणपसिद्ध, पच्छित्तपरूवणत्थं च भण्णइ। मनुस्सुकानां वा सुखः-सुखस्वरूपः शुभो वा आवासो यस्यांसा तथा। णाणे दंसणे चरणे, तावच्छत्ती सती य भेदेसु / सुखनिवसज्जनायां पुरि, औ०। रा०। / विरियं ण तु होवजा, सट्ठाणारोवणा बेंते ||44|| वीसदेवा-स्त्री०(विष्वग्देवा) उत्तराषाढायाम, सू० प्र०१० पाहु०॥ अट्टविहो णाणाऽऽयारो, दसणाऽऽयारो वि अट्ठविहो, चरित्ताऽऽयारो | वीसम-धा०(विश्रम) श्रमापनयने, "विश्रमेणिव्वा' / / 8 / 4 / 156 / / Share वि अट्ठविहो, तवाऽऽयारो बारसविहो, एते समुदिता छत्तीसं भवंति। विश्रम्यतेर्णिव्वा इत्यादेशे-णिव्वाइ। अन्यत्र-वीसमइ। विश्रामति। प्रा० / एतेसु छत्तीसतिसु भेदेसु वीरियं तहा वेयव्वं जाव हावेंतस्स य प्रश्न। सटाणारोवणा भवति। सट्टाणारोवणाणाम-सदाणारोवणायारं हार्वेतस्स वीसर-धा०(विस्मृ) अनुभूतविषयकोबोधाभावे, "विस्मुः पम्हुसजंणाणायारे पच्छित्तं तं चेव भवति। एवं सेसेसु विपच्छित्तं सट्टाणं / एसां विम्हर-वीसराः" / / 4 / 75 / / इति विस्मरतेवीसरादेशः / वीसरइ / चेव सट्ठाणोवणा / गतो दीरियाऽऽयारो। नि० चू० 1 उ०। विस्मरति। प्रा० 4 पाद। वीरुणा-पुं०(वीरुण) पर्वकभेदे, प्रज्ञा०१ पद। विस्वर-त्रि० विरूपध्वनिषु, विपा०२ श्रु०७ अ०। "अव्यायामेव रूवतं वीरुत्तरवडिंसग-न०(वीरोत्तरावतंसक) चतुर्थदवलोकस्थ-विमानभेदे, वीसरसरं भण्णइ'' नि० चू०१६ उ०। स०६ सम०। वीसरिण-न०(व्युत्सर्जन) “गोणादयः" ||8|2|174|| इतिव्युत्सर्जनवीलण-(देशी)-पिच्छिले, दे० ना० 7 वर्ग 73 गाथा। स्थाने वीसरिणादेशः / त्यागे, प्रा०२ पाद। वीली-(देशी)-तरङ्गे, दे० ना०७ वर्ग 73 गाथा। वीसलदेव पुं०(विश्वलदेव) गुर्जरधरित्र्यां धवलकपुरराज्ये वीरधवलवीवाह--पुं०(विवाह) परिणयने, जी०३ प्रति० 4 अधि० / प्रश्न० / नृपानन्तरे वस्तुपालतेजःपालाभ्यां प्रसिद्धमन्त्रिभ्यामभिषिक्ते स्वनामवीसंदण-न०(विस्यन्दन) अर्द्धनिर्दग्धघृतमध्यक्षिप्ततन्दुलनिष्पन्ने खाद्य- ख्याते नृपे, ती०४१ कल्प०६ पदार्थे, बृ०१ उ०२ प्रक० / पं० ब०। सूत्र० / प्रव० ! 'अम्हा णं पुण वीससा-स्वी०(वीससा) विगता स्रसना विस्रसा। आ० चू०१ अ०। वीसंदणं अविगइ' ति, बृहचूर्णिकृत्।। स्वभावे, विशे० भ०। ज्ञा०। जरायाम्, जरापर्यायतया लोके रूढस्य वीसंभ-पु०(विश्रम्भ) विश्वासे, दर्श० 4 तत्त्व / 'वीसंभनिवेसिआण' स्वभावार्थत्वात्। भ०१ श०३ उ०।। "लुप्त-य-र-व-श-ष-सां-श-ष-सां दीर्घः" / / 81 / 43 / / इति आदेः / वीससाकरण-न०(वित्रसाकरण) विगता ससना विससा तत्करणम्। स्वरस्य दीर्घः / प्रा०१ पाद। विगतप्रयोगकरणे करणभेदे, आ० चू०१ अ०। (इदं च सभेदं 'करण' वीसंभणवेस-पु०(विश्रम्भवेष) संविग्नवेषधारिणि, बृ०३ उ०। शब्दे तृतीयभागे 360 पृष्ठे व्याख्यातम्।) वीसंभर-पुं०(विश्वम्भर) जीवविशेषे, ओघ०। वीससापरिणय-त्रि०(विस्रसापरिणत) स्वभावपरिणते, भ० 8 श०१ वीसत्थ-त्रि०(विश्वस्त) क्षोभाभावेन (कल्प०१ अधि० १क्षण) निर्भये, / उ० विश्रस्तपरिणामेन चाभोगोऽपि पुराणतयेति विश्रसा स्वभावतस्तअनुत्सुके, ज्ञा० 1 श्रु०१०। विश्वासवति, निरुत्सुके, ज्ञा० 1 श्रु०१ | त्परिणता अभेन्द्रधनुरादिवदिति। स्था० 3 ठा० 3 उ०।
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________________ वीससाबंध 1410- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वुकं ति वीससाबधं-पुं०(विस्रसाबन्ध) स्वभावसंपन्ने, पुद्गलानां छायातपत्वादिना | 103 उ०। रूपेण बन्धे, सूत्र० १श्रु० 1 अ०१ उ०। बंधण' शब्दे पञ्चमभागे 1223 शुक्रस्य नव वीथय:पृष्ठे दर्शितोऽयम्।) समधरणितलादुपरिष्टान्नवयोजनशताभ्यन्तरचारिणो ग्रह-विशेषस्य वीससिय-पुं०(वैससिक) विस्त्रसा परिणामसिद्धे संध्याभरागादी, आ० व्यतिकरमाहम०१अ01 सुक्कस्स णं महागहस्स नव विहीओ पण्णत्ताओ, तं जहावीससेण-पुं०(विश्वसेन) विश्वा हस्त्यश्वरथपदातिचतुरगवलसमेता सेना हयवीही गयवीही णागवीही बसहवीही गोवीही उरगवीही अयवीही यस्य स विश्वसेनः / चक्रवर्तिनि, सूत्र०१ श्रु०७ अ० / शान्तिजिनपितरि, मियवीही वेसाणरवीही। (सू०६६६) ति०। आ० म० / अहोरात्रस्याष्टादशे मुहूर्ते, ज्यो०२ पाहु०। ज०। शुक्रस्य महाग्रहस्य नव वीथयः- क्षेत्रभागाः प्रायस्विभिस्त्रिभिनवीसाएमाण-त्रि०(विस्वादयत) विशेषेण स्वादयति, भ० 3 श०१ उ०। क्षत्रैर्भवन्ति। तत्र हयसंज्ञा वीथी हयवीथीत्येवं सर्वत्र / संज्ञा च व्यवहार - वीसाण-पुं०(विष्वाण) विष्वण- ण्वुल् / षत्वणत्वे वलोपे- "लुस-य- शेषार्थ या चेह हयवीथी साऽन्यत्र नागवीथीति रूढा, नागवीथी चैरावणर-व-श-ष--सांश-ष-सां दीर्घः" / / 8 / 1 / 43 / / इति इकारस्य दीर्घः। पदमित्येतासां च लक्षण भद्रबाहु-प्रसिद्धाभिरार्याभिः क्रमेण लिख्यतेविष्वाणः / वीसाणो। भोजने, प्रा०। 'भरणी स्वात्याग्नेय, नागाख्या वीथिरुत्तरे मार्ग। रोहिण्यादिरिभाख्या, वीसाजणिज्ज-त्रि०(विस्वादनीय) विशेषतः स्वादनीये, प्रज्ञा० 17 पद चादित्यादिः सुरगजाख्या // 1 // " (आग्रेयं कृत्तिका, आदित्यं पुनर्व४ उ०। सुरिति) "वृषभाख्या पैत्र्यादिः, श्रमणादिमध्यमे जरद्गवाख्याः / प्रोष्ठापदादिचतुष्के, गोवीथिस्तासु मध्यफलम्) ॥२॥(पैत्र्यं मघा वीसाम-पुं०(विश्राम) लुप्त-य-र-व-श-ष-सां श-ष- सा दीर्घः" मध्यमे इति-मार्गे प्रोष्टपदा-पूर्वभद्रपदा) "अजवीथी हस्तादिद्गवीथी ||8 / 1 / 43 / / इति दीर्घत्वमिकारस्य। प्रा० / श्रमापनये, आ० म०१ अ०। वैन्द्र देवतादिः स्यात् / दक्षिणमार्गे वैश्वानर्याषाढद्वयं ब्राह्म्यम् // 3 // " वीसामण--न०(विश्रामण) श्रमापनयनकरणे, ध० 3 अधिक। (इन्द्रदेवता ज्येष्ठा ब्राम्य-मभिजिदिति) 'एतासुभृगुर्विचरति, वीसाल-धा०(मिश्रि) संयोजने, "मिश्रेर्वीसाल-मेलवौ' / / 8 / 4 / 28|| नागगजैरावतीषु वीथिषु चेद् / बहु वर्षेत्पर्जन्यः, सुलभौषधयोऽर्थवृद्धिश्व इति मिश्रयतेय॑न्तस्य वीसालमेलवौ इत्यादेशौ। वीसालइ। मिश्रयति। // 4 // पशुसंज्ञासु च मध्यम-सस्यफलादिर्यदा चरेभृगुजः। अजमृगप्रा०४ पाद। वैश्वानरवीथिष्वर्थभयार्दितो लोकः // 5 // '' इति वीथिविशेषचारेण च वीसास-पुं०(विश्वास) विश्वासयतीति विश्वासः / व्यवहारे वञ्चनाया शुक्रादयो ग्रहा मनुजादीनामनुग्रहोपघातकारिणो भवन्तीति द्रव्यादिसा अकरणे, व्य० 3 उ०। त्वं मम माता भगिनी दुहिता वा अतो मा भैषीरेवं मग्या कर्मणामुदयादिसद्भावादिति। स्था०६ ठा० 3 उ० / सूत्र० / पं० वयोऽनुरूपे अविरुद्ध वचने, बृ०३ उ०। नि० चू० / व० / उभयोरपि पार्श्वयोरेकैकश्रेणिभावेन श्रेणिद्वये, जी०३ प्रति०४ वीसु-अव्य०(विष्वच्) "ध्वनिविश्वचोरुः" ||8/152 // इत्यादेरस्य अधि०। उत्त्वम् / प्रा० / "लुप्त-य-र-व-श-ष-सां श-ष-सां दीर्घः' वीहिया-स्त्री०(वीथिका) मार्गे, स्था०६ठा०३ उ०। ||8/1 / 13 / / इति इकारस्य दीर्घा वा। प्रा०। "वा स्वरे मश्च / / 8 / 1 / 24 / / वुइय-त्रि०(उक्त) स्वरूपतः प्रतिपादिते, सूत्र०२ श्रु०१ अ०। स्था०। भ०। इत्यन्त्यस्वरे परेऽनुस्वारो वा / प्रा० / पृथगर्थे, विशे० / व्य० / नि० चू०। बुंद-न०(वृन्द) "उदृत्वादौ'' ||8 / 1 / 131 / / इति ऋत उत्त्वम् / समूहे, वीसुंउवस्सय–पुं०(विष्वगुपाश्रय) विष्वग् भेदेन उपाश्रय आश्रयः / पृथक् प्रा०१पाद। पृथगाश्रये, ओघ०। बुंदारअ-पुं०(वृन्दारक) "निवृत्त- वृन्दारके वा'' ||8/1 / 132 / / इति वीसुकरण-न०(विष्वक्करण) विसंभोगकरणे, व्य०७ उ०। नि० चू०। ऋत उत्त्वम्। दैवते, प्रा०१पाद। वीसुंभण-न०(विष्वग्भवन) मरणे, शरीरात् पृथग्भवने, स्था०५ ठा०२ | वंदावण-न०(वृन्दावन) "उदृत्वादौ" ||8/1 / 13 / / इति ऋत उत्त्वम्। उ० / बृ०। व्य०। मथुरासविधे स्वनामप्रसिद्ध अरण्ये, प्रा०। वीतुय-(देशी)-पृथगित्यर्थे, दे० ना०७ वर्ग 73 गाथा। वुकंत-त्रि०(व्युत्क्रान्त) परिणते, विध्वस्ते, आचा०२ श्रु०१ चू०१ अ० वीसेणि-स्त्री०(विश्रेणि) विषमश्नेणौ, मचा क्रोशन्तीति न्याया विश्रेणि- 1 उ०। व्यवस्थित, विशे०1व्य० / स्था०। वुक्कंतजोणिय-त्रि०(व्युत्क्रान्तयोनिक) व्युत्क्रान्ता अपगता योनिरुवीहणग-न०(भयानक) भयोत्पादके, प्रश्न०१आश्र० द्वार। आ० म०। | त्पत्तिस्थानं यत्र तद्व्युत्क्रान्तयोनिकम् / प्रासुके, पिं०। वीहि-त्री०(वीथि) रथ्याविशेषे, आ० म०१०। पथि, आचा०१ श्रु० | वुकंति-स्त्री०(व्युत्क्रान्ति) उत्पत्ती, नं०।
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________________ वुक्कम्म 1411- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 दुग्गाहिय वुकम्म-अव्य०(व्युतक्रम्य) आगत्येत्यर्थे, सूत्र०२ श्रु०३ अ०। "कालक्कमेण पत्तं, संवच्छरमाइणा उजं जम्मि। दुग्गह-पुं०(व्युद्ग्रह) विशेषेण उद्ग्रहः दण्डादिप्रहारजनितंयुद्धं व्युद्ग्रहः / तं तम्मि चेव धीरो, वाएज्जा सो य कालोऽयं / / 1 / / उत्त०१७ अ०। संग्रामे, प्रव०२६७ द्वार / व्य०। आ० क०। स्था०। तिवरिसपरियागस्स उ, आयारपकप्पनाममज्झयणं / दण्डादिघातजनिते विरोधे, कलहे, उत्त० 17 अ०। "वुग्गहो त्ति वा चउवरिसस्स य सम्मं, सूयगडं नाम अगं ति॥२॥ कलहो त्ति वा भंडणं ति वा विवादो त्ति वा एगटुं" नि० चू०१६ उ०। परस्परविग्रहे, व्य०७ उ०1 मिथ्याभिनिवेशे, स्था०५ ठा०३ उ०। दसकप्पव्ववहारा, संवच्छरपणगदिक्खियस्सेव। दुग्गहट्ठाण-न०(विग्रहस्थान) कलहाश्रये, स्था०। ठाणं समवाओऽवि य, अंगे ते अट्ठवासस्स।।३।। आयरियउवज्झायस्स णं गणंसि पंच दुग्गहट्ठाणा पण्ण दसवासस्स विवाहो, एकारसवासयस्स य इमे उ। त्ता / तं जहा-आयरियउवज्झाए णं गणंसि आणं वा धारणं वा खुड्डियविमाणमाई, अज्झयणा पंच नायव्वा // 4|| नो सम्मं पउंजेत्ता भवति ? आयरियउवज्झाए णं गणंसि बारसवासस्सतहा, अरुणुववायाइपंच अज्झयणा। आधारतिणियाते कितिकम्मं नो सम्मं पउंजित्ता भवति 2, तेरसवासस्स तहा, उट्ठाणसुयाइया चउरो॥५॥ आयरियउवज्झाए गणंसि जे सुतपज्जवजाते धाति ते काले चोदसवासस्स तहा, आसीविसभावणं जिणा विन्ति। काले णो सम्ममणुप्पवातित्ता भवति 3, आयरिअउवज्झाए गणं सि गिलाणसेहवेयावचं नो सम्ममन्मुट्टित्ता भवति 5, पन्नरसवासगस्सय, दिट्ठीविसभावणं तह य॥६॥ आयरियउवज्झाए गणंसि अणापुच्छितचारी याऽवि हवइनो सोलसवासाईसुय, एक्कोत्तरवुड्डिएसुजहसंखं। आपुच्छियचारी५,आयारियउवज्झायस्सणंगणंसिपंचाऽवुग्ग- चरणभावणमहासुवि-ण भावणा तेयगनिसग्गा / / 7 / / हट्ठाणा पण्णत्ता, तं जहा-आय-रियउवज्झाए गणंसि आणं वा इJणवीसवासगस्स, उदिट्ठिवाओ दुवालसममंगं। धारणं वा सम्म पउंजित्ता भवति, एवमाधारायिणियाते सम्म संपुण्णवीसवरिसो, अणुवाईसव्वसुत्तस्सा ॥इति, किइकम्मं पउंजित्ता भवइ, आयरिअउवज्झाए णं गणंसि जे सुतपज्जवजाते धारेतिते काले काले सम्मं अणुपवाइत्ता भवइ, तथा स एव ग्लानशैक्षवैयावृत्त्यं प्रति न सम्यक् स्वयमभ्युत्थाताआयरिअउवज्झाएगणंसि गिलाणसेहवेयावचं सम्मं अन्मुद्वित्ता अभ्युपगन्ता भवतीति चतुर्थम् / तथा स एव गणमनापृच्छ्य चरति भवति, आयरियउवज्झाते गणंसि आपुच्छियचारी यावि क्षेत्रान्तरसंक्रमादि करोतीत्येवं शीलोऽनापृच्छ्यचारी। किमुक्तं भवतिभवति; णो अणापुच्छियचारी। (सू० 366) नो आपृच्छ्य चारीति पञ्चमं विग्रहस्थानम्। स्था० 5 ठा०१ उ०। तथा आचार्योपाध्यायस्येति समाहारद्वन्द्वः कर्मधारयो वा, ततश्चा व्युद्ग्रहस्थान-न० विप्रतिपत्तौ, स्था०६ ठा०३ उ० / व्युद्ग्रहेण चार्यस्योपाध्यायस्य 'गणंसि' त्ति गणे विग्रहस्थानानि कलहाश्रयाः, मिथ्याऽभिनिवेशेन विप्रतिपत्त्यर्थे, स्था०६ ठा०३ उ०। आचार्योपाध्यायौ द्वयं वा गणे-गणविषये आज्ञा-हे साधो ! भवतेदं दुग्गहवकंत-पुं०(व्युद्ग्रहव्युत्क्रान्त) कलहं कृत्वा निष्क्रान्ते, नि० चू० विधेयमित्येवरूपामादिष्टिं धारणां-न विधेयमिदमित्येवंरूपां नो-नैव / 16 उ०। सम्यग्औचित्येन प्रयोक्ता भवतीति साधवः परस्परं कलहायन्ते असम्य दुग्गाहिय-त्रि०(व्युद्ग्राहित) प्रतारिते, सूत्र० 1 श्रु०३ अ० 1 उ०॥ नियोगाद् दुनियन्त्रितत्वाचा अथवा अनौचित्यनियोक्तार-माचार्यादि कुप्रज्ञापकदृढीकृतविपर्यासे, स्था०३ठा०४ उ०। कमेव कलहायन्ते इत्येवं सर्वत्रेति / अथवा गूढार्थपदैरगीतार्थस्य संप्रति व्युद्ग्राहितं व्याचिख्यासुः द्वीपजातदृष्टान्तमाहपुरतो देशान्तरस्थगीतानिवेदनाय गीतार्थो यदतिचारनिवेदनं करोति साऽऽज्ञा, असकृदालोचनादानेन तत्प्रायश्चित्तविशेषावधारणं साधारणा, पोतविवत्ती आव-पण सत्तफलएण गाहिया दीयं / तयोर्न, सम्यक् प्रयोक्तेति, स कलहभागिति प्रथमम् / तथा स एव सुतजम्मवडिभोगा, वुग्गाहणणाव वणियाए॥३३९।। 'आहाराइणियाए' त्ति रत्नानि द्विधा द्रव्यतो, भावतश्च ! तत्र द्रव्यतः एगोवणिजोतस्स भजा अईव इट्ठा, सोवाणिज्जेणगंतुकामोतंआपुच्छति। कर्केतनादीनि, भावतो ज्ञानादीनि / तत्ररत्नैः-ज्ञानादिभिर्व्यवहरतीति तीए भणियं-अहं पिआगच्छामि, तेण सा नीता। सा गुठ्विणी समुद्दमज्झे रात्निकः बृहत्पर्यायः यो यो रात्निको यथारात्निकं तद्भावस्तत्ता तया विणट्ठजाणवत्तं सा फलगं विलग्गा अंतरदीवेपत्ता। तत्थेवपजातादारगं / यथारात्नि-कतयायथाज्येष्ठं कृतिकर्म-वन्दनकं विनय एव वैनयिकं तब सो वणिओ समुद्दे मओ। सा महिला तम्मि चेव दारए संपलग्या। तीए सो न सम्यक् प्रयोक्ता, अन्तर्भूतिकारितार्थत्वाद्वा प्रयोजयिता भवती ति वुग्र्गाहिओ--जह माणुस पिच्छिज्जासि तो नासेज्जासि, ते माणुसरूवेण द्वितीयम् / तथा स एव यानि श्रुतस्य पर्यवजातानिसूत्रार्थप्रकारान् रक्खसा। अन्नया दुव्वाहयपोएण वणिया आगया।तेदटुंसोनासइ। तेहि धारयति-धारणाविषयीकरोति तानि काले कालेयथावसरं न सम्यगनु- नायं तुम्गाहिओ केण वि, कहं वि अल्लीणे पुच्छिओ। सव्वं कहेइ, तेहि प्रवाचयिता भवति-नपाठयतीत्यर्थः इतितृतीयम्। काले अनुप्रवाचयि- बहुसो पन्नविओ एयं महापावं परिव्वयाहि तहा वि णो परिचयति'। तेत्युक्तमः तत्र गाथाः अथाक्षरार्थः-पोतःप्रवहणं तस्य विपत्तिः आपन्नसत्त्वाच यथासा फलकेन
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________________ वुग्गाहिय 1412 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 दुग्गाहिय द्वीपं ग़ाहिता सुतस्य च जन्म वृद्धिश्चाभवत्, भोगांश्च तेन सह भोक्तुमारब्धाः व्युद्ग्रहणं च कृतम्, नौवणिजश्च विराधयन्तः एवंविधा व्युद्ग्राहिताः प्रज्ञापनाया अयोग्याः। तथा चाह.. पुटिव वुग्गाहिया केइ, णरा पंडियमाणियो। णेच्छंति कारणं किंचि, दीवजाते जहा णरे / / 340 / / पूर्व व्युदग्राहिताः केचिन्नराः पण्डितमानिनः नेच्छन्ति कारणं किंचित् (श्रोतु) द्वीपजातो यथा नरः। अथ एवं शीलदृष्टान्तमाहचंपा अणंगसेणो, पंचत्थं थेरणयण दुमवलए। विहपासणयणसावग, इंगिणिमरणे य उववातो॥३४१।। चम्पायामनङ्ग सेनः सुवर्णकारः कुमारनदीति तस्य नामान्तरम् तस्य च पञ्चशीलद्वीपवास्तव्याभ्यामप्सरोभ्या (पञ्चशैल) व्युद्ग्राहितस्य स्थविरेण तत्र नयनम्, द्रुमश्च वटवृक्षोऽपान्त राले दृष्टः तत्रारोहणं स्थविरस्य वलये आवतें गत्वा मरणम् / 'विहपास' त्ति विहगाः पक्षिणस्तेषां दर्शनं तैः पञ्चशीलद्वीपनयनं हासप्रहा-साभ्यां भूय इदानीं तस्य श्रावकेण च बहुतरं प्रज्ञाप्यमानस्य तस्येङ्गिनीमरणप्रतिपत्तिः ततः पञ्चशीले द्वीप उपपात इत्यक्षरार्थः / कथानकं तु सुप्रतीतं बहुविस्तरं चेति कृत्वा न लिख्यते। अन्धदृष्टान्तमाहअंधलगभत्तपत्थिव-किमिच्छ सेजऽण्ण धुत्तवंचणता। अंधलभत्तो देसो, पव्वयसंघाडणा हरणा॥३४२।। अन्धभक्त:-कश्चित्पार्थिवः स किमपीप्सितं शय्याऽन्नादिदानं ददाति। धूर्तेन च तेषां वञ्चना, कथमित्याह-अन्धलभक्तोऽमुको देशः समस्ति तत्र युष्मान्नयाम इत्युक्त्वा पर्वते संघाटना कृता, परस्परं लगयित्वा तत्र भ्रामिता इत्यर्थः / ततो हरणं तदीयं द्रव्य हुत्वा गता इत्यक्षरार्थः / भावार्थः पुनरयम्-अन्धपुर नगरं तत्थ अणंधो राया, सो य अंधभत्तो। तेण सभ काउं अंधल-याणं अग्गाहारो दिन्नो / तत्थ खाणपाणाइएसु परिगहिया सुस्सूसिजंता अच्छंति। तेसिं सुबहु दव्वं अत्थि। अन्नया य एगेण धुत्तेण दिहा तओ सुस्सूसामि त्ति मिच्छोवयारेण ते अतीव उवचरति / अन्नया तेण अंधलया भणिया-अम्हं अंधलगामो जत्थ अम्हे वसामो सो सव्वो वि देसो अंधलगदत्तो। राया य तत्थ अंधलाणं अम्मापियरं तुज्झे एत्थ दुविहिया जइ इच्छह तो तत्थ णेमो। तेहिं इच्छियं / तओ रातो नीणेत्ता नाइदूरेण भणिया, इहत्थि चोरा जइ भे समं भामिया भणिया य पत्थरे गण्हह, जो किंचि अंतरधणं अत्थितो अप्पेहाते देमिावीसभेण अप्पियं / तओं तेण ते पुरिल्लं मग्गिल्लस्स लाइत्ता अन्नोन्नलग्गा महंत सिलं छिन्नटकं डोंगरसमं र्जा भे अल्लियइतं पहाणज्जा-ह। जइलोको भणइपमुसियो केण वि अंधो डोंगर भामिय जो ण दत्ते चोर त्ति उपहणिजाह, एवं भणित्ता पलाणा / ते य गोवालमाईहि दिवा भणति य-मुद्धा वरागा डोंगरं भामिया धुत्तेणं, तओ पभाते चोर त्ति काउं पत्थरे खिवंति, ढोयं च नदिति। सुवर्णकारदृष्टान्तमाहलोभेण मोरगाणं, भव्वग ! छिज्जेज मा हु ते कण्णा / छादेमि तंबएणं, जति पत्तियसे न लोगस्स॥३४३।। कश्विद्-वोन्दः सुवर्णकारेण भणितो, यथा--भव्यक ! भागिनेय ! 'मोरगाण' ति कुण्डलाना लोभेन मा ते-तव कौँ छिद्येताम्, अतो यदि लोकस्य न प्रत्ययसे ततस्तं प्रयच्छ छादयाम्यहमित्यक्षरार्थः / भावार्थस्त्वयम्- 'एगस्स वोंदस्स जच्चसुवन्नघडियाणि कुंडलानि कन्नेसु सुवन्नकारेण दिहाणि / तओ तेण भन्नइ-भागिणेज ! अहं तव एते एवं करेमि जहा एगाणियस्स वि पंथे वचमाणस्स न कोइ हरइ / अन्नहा ते सुवण्णलोभेण चोरेहिं कण्णा छिज्जेस्संति। तेण भणियं एवं होउ त्ति / कलाएण ते कुंडले घेत्तु अन्ने सुवन्नरिरीयामया काउ दिण्णा, भणिओ य जणो भणिहिइ कलाएण सुट्ठोवराओन य ते पत्तिजियवं, एवं पडिवजित्ता निग्गओ। लोगो जो जो पासइ सो सो भणइ सुंदरा रीरिया / से भणइ सोवन्नयाए तुज्झे विसेसं न याणह। किंचजो इत्थं भूतस्थो, तमहं जाणे कलातमामो य। वुग्गाहितो न जाणति, हितएहिँ हितं पि भण्णंतो।३४४|| योऽत्र कोऽपि भूतार्थः-परमार्थः तमहं जाने कलादमाम-कश्च जानाति, एवमसौ तेन सुवर्णकारेण व्युद्ग्राहतो हितैः पुरुषैः हितमपि भण्यमानो न जानाति / ईदृगव्युद्ग्रहेण मूढा मन्तव्याः / अज्ञानमूढादयस्तु सुगमत्वात् नाख्याता न व्याख्याता अत एवास्माभिरिगाथायामेव व्याख्याता इति। अथैषां मध्ये के मूढाः के वा व्युद्राहिता इति दर्शयन्नाहरायकुमारो वणिओ, एते मूढा कुला य ते दो वि। बुग्गाहिया य दीवे, सेलंधर भदए चेव // 345 / / यो राजकुमारो मातृप्रतिसेवको, यश्च वणिग्घटिको वोन्दास्यो ये च ते सेनापतिमहत्तरसत्के द्वे अपि कुले एते मूढा मन्तव्याः। यस्तु द्वीपजातः पञ्चशैलसुवर्णकारो ये चान्धा यश्च भद्रकः सुवर्णकारभागिनेयः उपलक्षणत्वात् ये च भरतादिकुशास्त्रेषु भाविता अज्ञाने मूढा एते व्युद्ग्राहिता मन्तव्याः। अथैषां मध्ये के प्रव्राजयितुं योग्याः के वा नेत्याहमोत्तूण वेदमूढ़, अप्पडिसिद्धा उ सेसका मूढा। वुग्गाहिता य दुट्ठा, पडिसिद्धा करणं मोत्तुं // 346 / / वेदमूढं मुक्त्वा ये शेषा द्रव्यक्षेत्रमूढादयस्ते अप्रतिषिद्धाः; प्रव्राजयितु कल्पन्ते इत्यर्थः / ये तुव्युद्ग्राहिता दुष्टाश्च कषायदुष्टादयस्ते कारणं मुक्त्वा प्रतिषिद्धाः कारणे तु कल्पत इति भावः / किमर्थमते प्रतिषिद्धा इत्याहजं तेहिं अभिग्गहियं, आमरणं ताए तं न मुंचंति / सम्मत्तं पिण लग्गति, तेसिं कत्तो चरित्तगुणा / / 347 //
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________________ वुग्गाहिय 1413- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वुट्टिकाय यत्ते व्युद्ग्राहितादिभिः किमपि शक्यादिदर्शनमन्यद्वा-भारता- | किंचिदेतत् / द्वा० 28 द्वा०। दिकंमिथ्याश्रुतमभिगृहीतमभिगृहीतमाभिमुख्येनोपादयेतया स्वीकृत | वुट्ठाणवत्ति(ण)-त्रि०(व्युत्थानवर्तिन) योगप्रतिपन्थिदशावस्थिते, द्वा० तदामरणान्तं न मुञ्चन्ति, अत्रैव चैतेषां सम्यक्त्वमपिन लगति कुतश्चारित्र 25 द्वा०॥ गुणा इति। दुट्ठि-स्त्री०(वृष्टि) वर्षणं वृष्टिः। अधःपतने, स्था० 3 ठा० 3 उ० / महावर्षे, कथं पुनरमीषां सम्यक्त्वमपि न लगतीत्याह-- भ०३ श०७ उ०।"आदित्याज्जायते वृष्टिर्वृष्टरन्नं ततः प्रजाः।" दश० सोयसुयघोररणमुह-दारभरणपेयकिच्चमइएसुं / 10 // सग्गेसु देवपूयण-चिरजीवणदाणदिहेसु // 348|| दुट्ठिकाय-j०(वृष्टिकाय) वर्षणधर्मयुक्तस्योदकस्य राशौ, स्था० 3 ठा० इचेवमाइलोइय--कुस्सुइवुग्गाहणा कुहियकन्ना / 30 // फुडमवि दाइज्जतं, गिण्हंति न कारणं केइ॥३४६।। अथ वृष्टिकायकरणरूपं तमेव देवेन्द्रादिदेवानां दर्शयन् इह भारतादौ शौचसुतघोररणमुखस्वदारभरणपेतकृत्यमयेषु देवपूजन प्रस्तावनापूर्वकमाहचिरजीवनदानदृष्टषु च स्वर्गेषु ये भाविता भवन्ति / तथा शौचविधानात्, अत्थि णं भंते ! पजने कालवसी वुट्टिकायं पकरेंति ? पुत्रोत्पादनात, घोरसमरशिरःप्रवेशात, धर्मपत्नीपोषणात्, पिण्ड- हंता अस्थि / जाहे णं भंते ! सक्के देविंदे देवराया वुट्टिकायं प्रदानादि प्रत्येक कर्मविधानात, वैश्वानरादिदेवपूजनात्, चन्द्रसहस्रा काउकामे भवति से कहमियाणिं पकरेंति ? हंता गोयमा ! ताहे दिरूपचिरकालजीवनात्, धनुःधरित्र्यादिदानात् स्वर्गा अवाप्यन्ते चेव णं से सक्के देविंदे देवराया अमितरपरिसए देवे सद्दावेति, इत्येवमादिलोकिक-कुश्रुतिव्युद्ग्राहणाकुथितकर्णाः सन्तस्तस्याः तए णं ते अम्भितरपरिसगा देवा सद्दाविया समाणा मज्झिमकुश्रुतेरघटनायां स्फुटमपि दर्यमानं कारणमुपपत्ति केचिद्गुरुकर्माणो न परिसए देवे सद्दावेति। तएणं ते मज्झिमपरिसगा देवा सद्दाविया प्रतिपद्यते; ते दुःसंज्ञाप्या मन्तव्याः / बृ० 4 उ01 समाणा बाहिरपरिसए देवे सद्दावेंति, तए णं ते बाहिरगा देवा देवा सदाविया समाणा बाहिरं बाहिरगा देवा सद्दावेति / तए णं दुग्गाहिया-स्त्री०(वैग्राहिकी) कलहप्रतिबद्धाया कथायाम्, दश०१ अ०। ते बाहिरगा देवा सद्दाविया समाणा आभिओगिए देवे सद्दावेति / बुग्गाहेमाण-त्रि०(व्युद्ग्राहयत) विविधत्वेनाधिक्येन च ग्राहयति, ज्ञा० तए णं ते० जाव सदाविया समाणा वुट्टिकाए देवे सदावेति। तए 1 श्रु०१२ अायुदग्रहे योजयति, औ०। विरुद्धग्रहवन्तं कुर्वति, भ० णं ते वुट्ठिकाइया देवा सदाविया समाया वुट्टिकायं पकरेंति, 6 श०३३ उ०। एवं खलु गोयमा ! सक्के देविंदे देवराया वुहिकायं पकरेति / वुच्चमाण-त्रि०(उच्यमान) आकुश्यमाने, सूत्र०१ श्रु०६ अ०। अस्थि णं भंते ! असुरकुमारा वि देवा वुट्टिकायं पकरेंति ? वुच्छिण्णकि रिय-त्रि०(व्युच्छिन्नक्रिय) योगाभावात् क्रियारहिते, हंता अस्थि / किं पत्तियन्नं भंते ! असुरकुमारा देवा वुट्टिकायं "धुच्छिन्नकिरियं अपडिवाइ परमसुक्झज्झाणं झियाइ'' आव० 4 अ०। पकरेंति? गोयमा ! जे इमे अरहंता भगवंता एएसिणं जम्मणमदुच्छिण्णदोहला-स्त्री०(व्युच्छिन्नदोहदा) पूर्णवाञ्छत्वादपगतगर्भका हिमासु वा निक्खमणमहिमासु वा णाणुपपायमहिमासु वा लिकमनोरथायाम, कल्प०१ अधि०४ क्षण। परिनिव्वाणमहिमासु वा एवं खलु गोयमा ! असुरकुमारा वि देवा बुटिकायं पकरेंति, एवं नागकुमारा वि एवं० जाव थणियवुच्छेय-पुं०(व्यवच्छेद) स्थगने, संवरणे, निवृत्तौ, आव० 6 अ० / दाने, कुमारा वाणमंतरजोइसिय-वेमाणिय एवं चेव। (सू०-५०४) आव०६ अ०। 'अस्थि ण' मित्यादि, त्ति अस्त्येतत् 'पज्जन्ने त्ति पर्यन्यः 'कालवासि' वुट्ठाण न०(व्युत्थान) आत्ममात्रप्रतिबन्धलक्षणे व्यवहारे, द्वा०। त्ति काले प्रावृषि वर्षतीत्येवंशीलः कालवर्षी, अथवा कालश्चासौ वर्षी व्युत्थानं व्यवहारश्चे-न्न ध्यानाप्रतिबन्धतः। चेति कालवर्षी, वृष्टिकायप्रवर्षणतो जलसमूह प्रकरोति प्रवर्षतीत्यर्थः / स्थितं ध्यानान्तरारम्भ, एकध्यानान्तरं पुनः॥३०॥ इह स्थाने शक्रोऽपि तं प्रकरोतीति दृश्यम्। तत्र च पर्जन्यस्य प्रवर्षणव्युत्थानमिति व्यवहार-आत्ममात्रप्रतिबन्धलक्षणं ध्यानप्रतिबन्धेन क्रियायां तत्स्वाभाव्यतालक्षणो विधिः प्रतीत एव / शक्रप्रवर्षणक्रियाव्युत्थानं चेत्, न, ध्यानाप्रतिबन्धत; सुव्यापारलक्षणस्य तस्य करण- विधिस्त्वप्रतीत इति तं दर्शयन्नाह– 'जाहे' इत्यादि, अथवा पर्जन्य निरोधेऽनुकूलत्वादेव चित्तविक्षेपाणामिव तत्प्रतिबन्धकत्वात्। एकध्या- इन्द्र एवोच्यते, स च कालवर्षी काले-जिनजन्मादिमहादौ वर्षतीति नान्तर पुनः ध्यानान्तरारम्भे मैत्र्यादिपरिकर्मणि स्थितम्, तथा च कृत्वा, 'जाहे ण' ति यदा ‘से कहमियाणि पकरेइ' त्ति स शक्रः कथं तावन्मात्रेण व्युत्थानत्वे समाधिप्रारम्भस्यापि व्युत्थानत्वापत्तिरिति न | तदानीं प्रकरोति ? वृष्टिकायमिति प्रकृतम्। असुरकुमारसूत्रे किं-प
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________________ दुट्टिकाय 1414 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वुड्डावास त्तियणं' ति किं प्रत्ययं-कारणमाश्रित्येत्यर्थः जम्मणमहिमासु व' त्ति ! वुड्डाऽणुग-त्रि०(वृद्धाऽनुग) वृद्धाननुगच्छतीति वृद्धानुगः / तत्र वृद्धाजन्ममहिमासु जन्मोत्सवान् निमित्तीकृत्येत्यर्थः / भ०१४ श०२ उ०। स्तपः श्रुतपर्यायवयःप्रभृतयस्तदाचरितानुष्ठायी। दर्श०२ तत्त्व / वुड्ड-त्रि०(वृद्ध)"दग्ध-विदग्ध–वृद्धि–वृद्धे ढः" / / 8 / 2 / 40 / / इति संयुक्त- परिणतमतिपुरुषसेवके, ध०१ अधि०। वृद्धजनानुगत्या हि प्रवर्तमान: स्य ढः / "द्वितीयतुर्ययोरुपरि पूर्वः" |8||6|| इति ढोपरि डः / पुमान न जातुचिदपि विपदः पदं भवति / ध०१ अधि०। प्रव० / वृद्धान् प्रा० / श्रुतेन पयरिण वयसा च महति, व्य०५ 30 / सूत्र० स्थधिरे, ग० परिणतमतीननुगच्छति गुरुजनबुद्ध्या सेवत इति वृद्धानुगः / प्रव० 3 अधि०। प्रवसे,००१ अधि०१७गुण! सच-''मध्यमः सप्तमि 236 द्वार। यावत्परतो वृद्ध उच्यते।" आचा०१ श्रु०२ अ०१ 30 सातिवर्षेभ्य वुड्डा (ढ)वास-पुं०(वृद्धा (द्ध) वास) वृद्धगत आवारा वृद्धावासः। पं० उपरि वृद्धः / अन्ये त्याहुः-अर्वागपीन्द्रियादिहानिदर्शनात षष्टिवर्षेभ्यो- चू०१ कल्प०। ऽप्युपरि वृद्धोऽभिधीयते / ग०१ अधि०। ध०। सप्ततिवर्षाणां मतान्रा सम्प्रति वृद्धावासशब्दस्य व्युत्पत्तिमाहपेक्षया षष्टिवर्षाणा वा उपरिवर्तिनि, पिं०। तापसे, अनु०। प्रथम-मुत्पन्न बुवस्स उ जो वासो, वुद्धिं पगतो उ कारणेणं तु / त्वात् प्रायो वृद्धकाले दीक्षाप्रतिपत्तेः / ज्ञा० 1 श्रु०१४ अ०] एसो तु वुड्डवासो, तस्स उकालो इमो होइ॥५१६|| पितृमातुलादी, सूत्र० 1 श्रु०२ अ० 1 उ०। स्थविरस्यार्यकालकस्य वृद्धस्य-जरसा परिणतस्थ परिक्षीण जावतस्य वसो वृद्ध-वासः / शिष्ययोः संप्रज्वलितार्यभद्रयोः शिष्ये, कल्प० 2 अधि० 8 क्षण / "बुढंति देशी पदत्वादवदग्धम्। विनष्ट, बृ०१ उ०२ प्रक०। अथवा-वृद्धः कारागनशन रागेण वृद्धि गतो वासो वृद्ध-वासः / एष खलु वृद्धवासो वृद्धवः / दार्थः, तर तुवृद्धवासस्य कालोऽयं-वक्ष्यमाणा वुलकुमारी-स्त्री०(वृद्धकुमारी) बृहत्त्वादपरिणीतत्वाच बृहत्कुमारी / धन्यादिभेदभिन्ना भवति। अधिकवयःकन्यायाम, ज्ञा०२ श्रु०१ वर्ग०१ अ० / तमेवाहवुडत्त-न०(दृद्धत्व) जरायाम, आचा०! अंतोमुहुत्तकालं, जहन्नमुक्कोसपुवकोडीओ। "गात्र सङ्कुचित गतिर्विगलिता दन्ताश्च नाशं गता, मुत्तुं गिहिपरियागं, जंजस्स व आउयं तित्थे / / 526 // दृष्टिम्यिति रूपभव हसते वक्त्रंच लालायते। वृद्धवासो जघन्येनान्तर्मुहूर्तकालम्। कथमिति चेत् ? उच्यते वृद्धवासवाक्यं नैव करोति वान्धवजनः पत्नी न शुश्रूषते, बुद्ध्या स्थितस्थान्तर्मुहूर्तानन्तरं मरणभावादुत्कर्षतः पूर्वकोटिगृहिपर्याय धिक्कष्टं जरयाऽभिभूतपुरुषं पुत्रोऽप्यवज्ञायते॥१॥ नववर्षलक्षणं मुक्त्वा नववर्षोना पूर्वकोटी इत्यर्थः / कधमेतावान्कालो न विभूषणमस्य युज्यते, न च हास्य कुत एव विभ्रमः। वृद्धवासस्य लभ्यते इति चेत् ? कोऽपि नववर्षप्रमाण एवं श्रमणो जातः, अथ तेषु च र्तते जनो, ध्रुवमायाति परां विडम्बनाम्॥२॥" स च श्राभण्यपरिग्रहात्तदनन्तरमेव प्रतिकूलकर्मोदयवशतः क्षीण"जज करेइ त तं, न सोहए जोव्वणे अतिकते / पुरिसस्स महिलिगाए, जवाबलतया रोगेण वा विहर्तुमसमर्थो जातस्तत एकत्र यासो यथोक्त कालमानो भवति। इचोकर्षतो वृद्धवासकालपरिमाणं भगवत ऋषभएक धम्म यमुत्तूण॥१॥" आचा०१ श्रु०२ अ०१ उ०। तीर्थकरतीर्थान्यधिकृत्याह-यस्य वा तीर्थकरस्य तीर्थे यत् उत्कृष्टमायुःवुड्डवाइसूरि-पुं०(वृद्धवादिसूरि) लाढदेशे भृगुकच्छनगरे कर्णाटभद्र प्रमाणं वर्षनवकहीनं तस्य तीर्थे तावान् उत्कृष्ट वृद्धवासकालः / तत्र दिवाकरस्य वाटजेतरि आचार्य, ती०४५ कल्प। योऽसौ जरापरिणामेन वृद्धवासीभूतः स एकादृशः। वुड्डवाय-पुं०(वृद्धवाद) प्रव्रज्यादानादनन्तरं संलेखनापर्यन्त साधुधर्म, केया विजा चरियं लाघवेणं, आचा०१ श्रु०८ अ०१ उ०। ततो तवो देसितो सिद्धिमग्गो / वुड्डसावग-पुं०(वृद्धश्रावक) भरतादिकाले श्रावकाणामेव संता पश्वाद् ब्राह्मणत्वभावाद / ब्राह्मणेषु, अनु० / ज्ञा०। अहाविहिं संजमं पालइत्ता, वुड्डसील-त्रि०(वृद्धशील) निभृतशीले, अवञ्चनशीले, दशा०१ श्रु० 4 अ०। दीहाउणो वुड्डवासस्स कालो॥५३०।। वुद्धसीलया-स्त्री०(वृद्धशीलता) वपुर्मनसोर्निर्विकारतायाम्, स्था० 8 विद्या नाम- सूत्रार्थतदुभयग्रहणं तत्कृतम्, तद्यथा-द्वादश वर्षाणि ठा०३ उ० / वपुषि मनसि च निभृतस्वभावतायाम्, उत्त० 1 अ०। सूत्रग्रहणं कृतं, द्वादश वर्षाण्यर्थग्रहणं, तदनन्तरं चरित देशदर्शनाय दशा० / वृद्धशीलो-निभृतशीलः अवञ्चनशील इति यावत् / अर्थ- द्वादश वर्षाणि भ्रमणं कृतम्। तथा-सदैव लाधवेन उपकरणालाघवादिना ग्रहणात्-बद्धषु ग्लानादिषु सम्यग् वैयावृत्त्या-दिकरणकारापणयोरुद्युक्तो वर्तितम्, यथाप्तं चतुर्थ-षष्ठाऽऽदिरूपं नाना-कारं तपः, तथाभवति एवं विधः, अथवा-वृद्धशीलता च दूषितमनसि च निभृत- अनिहितबलवीर्येण देशदर्शनानन्तरं द्वादश वर्षाण्यव्यवच्छित्ति स्वभावतानिर्दिकारनेति यावत्। दशा० 1 श्रु०४ अ०। व्य०। आ०म०। कुर्वता ज्ञानादिकः सिद्धिमार्गो देशितः सदैव च यथाविधि श्रुतापवुड्डा-स्त्री०(वृता) अतिक्रान्तयौवनायाम, ग० 2 अधि० देशेन / सप्तदशविधः संयमः परिपालितस्तं सकलकालं संयम यथाविधि
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________________ वुड्डावास 1415 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वुड्डावास पालयित्वा द्वादश वर्षाण्यव्यवच्छित्तिं कुर्वता यदि शिष्यो निष्पादितस्ततस्तंगणे स्थापयित्वा स्वयमभ्युद्यतविहारेण विहर्तव्यमिति भगवतामहतामुपदेशः। अथ न कोऽपि शिष्यो निष्पन्नस्तर्हि गच्छः परिवर्द्धनीयः, तथा यद्यपि च न निष्पन्नः कोऽपि शिष्यस्तथापि कश्चिदसमर्थो भवत्यभ्युद्यतविहारेण विहर्तुं सोऽपि नाभ्युद्यतविहारं प्रतिपद्यते, तस्य शिष्यनिष्पत्त्य-भावेनाभ्युद्यतविहारप्रतिपत्त्यशक्त्या वा गच्छं परिपालयतो दीर्घाऽऽयुषो वृद्धवासस्य कालः। एनामेव गाथां व्याख्यानयतिसुत्तागमों बारसमा-चरियं देसाण दरिसणं तु गतं / उवकरणदेहइंदिय-तिविहं पुण लाघवं होइ॥५३१॥ विघा नाम-सूनागमः स द्वादश वर्षाणि यावत्, तदुप-लक्षणमेतदर्थागमोऽपि विद्या सोऽपि द्वादश वर्षाणि कृतः, तथा चरितं नाम देशानां दर्शनं तदपि द्वादश वर्षाणि कृतम्। लाघवं पुनस्त्रिविध भवति। तद्यथाउपकरणलाघवं, देहलाघवम्, इन्द्रियलाधवं च। तत्रोपकरणलाघवम्उपधेरल्पोकरणं यदतिरिक्तमुधकरण नगृह्णाति गृहीतं वाऽरक्तद्विष्टः सन् सूत्रोक्तविधिनापरिभुङ्क्ते, देहलाघवं यन्नातिकृशो नातिस्थूलः, शरीरेण, इन्द्रियलाघवम्- यदीन्द्रियाणि तस्य वशे वर्तन्ते। चउत्थ छट्ठादितवो, कतो उऽवोच्छित्तीऍ होइ सिद्धिपहो। सुत्तविहीए संजम, वुड्डो अह दीहमाइं तु 11532 / / तपश्चतुर्थषष्ठादिकं कृतं तथा अव्यवस्थितौ क्रियामाणायां सिद्धिपथोमोक्षमार्गो देशितो भवति, तथा सूत्रविधिना संयमः परिपालितः स च जातो वृद्धोऽप्यथ दीर्घमायुः।। अब्भुजतमत एंतो, अगीतसिस्सो व गच्छपडिबद्धो। अच्छति जुन्नमहल्लो, कारणतो वा अजुण्णोऽवि // 533 / / अभ्युद्यतविहारमशवनुवन् अगीताः शिष्या अद्यापि यस्यासौ वा, गच्छप्रतिबद्धोगच्छपरिपालनप्रवृत्तः सन् जीर्णो महान् वृद्धवासे तिष्ठति। अजीर्णोऽपि वा-तरुणोऽपि वा कारणतः क्षीणजङ्घाबलतया रोगादिना वा वृद्धावासमुपसवते। तदेव कारणजातं गाथाद्वयेनाहजंघाबले व खीणे, गेलन्न सहाय ताव दुब्बल्ले। अहवाऽवि उत्तमढे, निप्फत्ती चेव तरुणाणं / / 534|| खेत्ताणं च अलंभे, कयसलेहेव तरुणपरिकम्मे / एएहिं कारणेहिं, वुड्डावासं वियाणाहि।।५३५।। जङ्काबलं वा क्षीणं, ग्लानत्वं वा तस्यान्यस्य वा जातम्, असहायता वा समुत्पन्ना दौर्बल्यं वा शरीरस्योपजातम्, अथवा-उत्तमार्थप्रतिपन्नः, अथवा--तरुणानामात्मपरलक्षणानां निष्पत्तिः सूत्रतोऽर्थतव कर्तव्या। क्षेत्राणां वा संयमस्फीतिहेतूनामलाभः। कृतसंलेखो वा-प्रतिपन्नसंलेखनाको वर्तते। यदि वा–तरुणस्यरोगविमुक्तस्य सतः प्रतिकर्म बलविवृद्धिकरणं समारब्धं ततो वृद्धावासः / तथा चाह-एतैः कारणैर्वृद्धावासं विजानीहि। तत्र प्रथमद्वारे-जवाबलं परिक्षीणमित्येवरूपं कियत क्षेत्र कियत कालेन गन्तुं शक्नुवन विहरणा) भवति। कियद्वा अशक्नुवन जङ्घाबलपरिक्षीण इत्येतत्प्रतिपादयतिदोण्णि वि दाऊण दुवे, सुत्तं दाऊण अत्थवजं च। दोण्णी दिवड्डमेगं, तु गाउ तंतीसु अणुकंपा / / 536 / / द्वे पौरुष्यो--सूत्रपौरुषी, अर्थपौरुषी चेत्यर्थः / दत्त्वा यावद्भिक्षावेला भवति तावद्यो द्वे गव्यूते व्रजति एष सपराक्रमो विहर्तुम् / 'सुत्तं दाऊण अत्थवज चे तिसूत्रं सूत्रपौरुषीं दत्त्वा अर्थवर्जम्-- अर्थपौरुषीमदत्त्वा यो भिक्षावेलातः अर्वाग्वे गव्यूते व्रजति सोऽपि सपराक्रमो विहर्तुम्। चशब्दोउनुक्तसमुचयार्थः। स चैतत् सूत्रपौरुषीमर्थपौरुषी वा दत्त्वा भिक्षावेलात आरतोयो द्वे गव्यूतेयाति एषोऽपि सपराक्रमो विहर्तुमिति। एवमेते त्रयः प्रकारा गव्यूतद्वयेऽभिहिताः। एते एव त्रयः प्रकारा व्यर्द्धगव्यूते, अयश्च प्रकारागट्यूते द्रष्टव्याः। एतेषुच त्रिष्वपि द्विकद्व्य-गव्यूतरूपेषु तस्यानुकम्पा विश्रामणादिरूपा वक्ष्यमाणा कर्तव्या। संप्रतिचशब्दसूचितं तृतीयं प्रकारमुपदर्शयतिखेत्तेण अद्धजोयण, कालेणं जाव भिक्खवेलाओ। खेत्तेण य कालेण य, जाणसु सपरक्कम थेरं / / 537 / / सूत्रपौरुषीमर्थपौरुषी वा कृत्वा कालतः प्रातर्वेलात आरभ्य यावद् भिक्षावेला भवति, तावत्यः क्षेत्रतोऽर्खयोजन गव्यूतद्वयप्रमाणं व्रजति त जानीत, क्षेत्रतः कालतश्च सपराक्रम स्थविरम् / तदेवं गव्यूतद्वयविषये चशब्दसूचितः तृतीयः प्रकारः / प्रकारत्रयदर्शिता एवंद्वयर्द्धगव्यूतेगव्यूतेऽपि च द्रष्टय्याः / तथा चैतदर्थख्यापनार्थमेव गव्यूतविषयं तृतीयं प्रकारमाहजो गाउयं समत्थो, सूरादारभ मिक्खवेलाओ। विहरउ एसो सपर-क्कमो उनो विहरते ण परं / / 538|| यः सूरात्-सूरोद्गमादारभ्य यावद्भिक्षावेला भवति तावत् गव्यूतं गन्तुं समर्थ एषोऽपि सपराक्रम इति विहर्तुम् / ततः परं गव्यूतमिति तावता कालेन गन्तुमशक्तो विहरेत्। इदमुक्तम्-त्रिष्वपि गव्यूतद्वयादिष्वनुकम्पा कर्तव्येति। तत्र तामेवानुकम्पामाहवीसामण उवगरणे, भत्ते पाणे व लंबणे चेव! गाउयदिवड्डदोसु, अणुकंपेसा तिसु होइ / / 536 / / अन्तराऽन्तरा यत्र विश्रमणार्थ तिष्ठति तत्र विश्राम्यते, उपकरणेउपकरणविषये अनुकम्पा कर्त्तव्या, यत्तस्योपकरणं तदन्ये वहन्ति, यैश्च तस्य शीतं न भवति तादृशानि वस्त्राणि देयानि / तथा भक्तं पानं न तत्प्रायोग्यं शुद्धं न लभ्यते. तदा पञ्चकपरिहाण्या तदुत्पादनीयम् / यत्र च विषमं तत्र बाहुप्रदानादिनाऽवलम्बनं कर्त्तव्यम् / चशब्दात्-स तेन कालेनोचालनीयो यस्मिन्नुष्णादिभिर्न परिताप्यते। एषाऽनुकम्पा त्रिषुगव्यूतद्व्यर्द्ध-गव्यूत-द्विगव्यूतेषु भवति--ज्ञातव्या। अथवा-त्रिष्वनुकम्पेति प्रकारान्तरेण व्याख्यानयतिअहवा आहारोवहि, सेज्जा अणुकंप एस तिविहो उ। पढमालियाण विस्सा-मणादि उवही य बोधव्वा / / 540 / /
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________________ वुड्डावास 1516 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वुड्ढावास अथवा आहारे उपधौ शय्यायां च या अनुकम्पा एषा त्रिविधाऽनुकम्पा भवति। तत्राहारे-प्रथमालिकादान, शय्यायां गतस्य विश्रामणादि, मार्गे चोपधिर्वोढव्यः। सांप्रतमपराक्रमभाहखेत्तेण अद्धगाउय, कालेण य जाव भिक्खवेला उ। खेत्तेण य कालेण य, जाणसु अपरक्कम थेरं // 541 / / यः कालतः- सूरादनादारभ्य यावद्भिक्षावेला तावत्यः क्षेत्रतोऽद्धंगव्युत याति तं क्षेत्रतः कालतच जानीत अपराक्रम स्थविरम्। अण्णो जस्स न जायइ, दोसा देहस्स जाव मज्झण्हो। सो विहरइ सेसो पुण, अच्छतिमा दोण्ह वि किलेसो / / 542 / / प्रातरारभ्य यावन्मध्याह्नस्तावत्तस्य गच्छतो देहस्यान्यो दोषो भ्रम्यादिलक्षणो 'नोपजायते स विहरति, शेषः पुनस्तिष्ठति। करमादित्याहमा द्वयानामपि तस्य सहायानां च क्लेशो भूयादिति हेतोरन्यो दोषो न ज्ञायते इत्युक्तम्। तत्रान्यं दोषमाहभमो वा पित्तमुच्छा दा, उड्डमासो व खुब्भति। गतिविरए वि संतम्मि, इचादिसुन रीयति / / 543 / / यस्मिन् गतिविरतेऽपि सति भ्रम-आकस्मिकी भ्रमिः, पित्तनिमित्ता मूर्छा पित्तमूळ ऊर्वश्वासो वा क्षुभ्यति-चलति आदिशब्दात्शिरोव्यथादिपरिग्रहः, ततोनरीयते-न गच्छति, न विहारक्रमं करोतीति भावः। तस्य धापराक्रमस्य वृद्धावासेन तिष्ठतः सहाया दातव्या-- स्तेषां परिमाणमाहचउभागतिभागऽद्धो, सव्वेसिं गच्छतो परीमाणं / संतासंतसतीए, वुड्डावासं वियाणाहि / / 544 / / गच्छता-गच्छमधिकृत्य साधूनां परिमाणं कृत्वा सर्वेषां चतुर्भागस्त्रिभागोऽर्द्ध वा सहायास्तस्य वृद्धावासप्रतिपन्नस्य दीयन्ते / तत्र त्रिभागोऽर्द्ध वा दीयन्ते। 'संतासंतसतीए' सद्भावेन असद्भावेन चत्यर्थः / तत्र सद्भावे सन्ति साधवो भूयासः केवलमगीतार्थास्ये सन्तोऽप्यसन्तः। असद्भावो न सन्ति बहवः साधवः। एवं वृद्धावासं ससहाय जानीहि / ततो गच्छता साधूनां परिमाणं ज्ञात्वा सर्वेषां चतुर्भागसहाया दातव्या इत्युक्तं ततो गच्छपरिमाणं जघन्यादिभेदेन आह-- अट्ठावीसं जहण्णेणं, उक्कोसेण सयग्गसो। सहाया तस्स जेसिंतु, उवट्ठाणा न जायति / / 545 / / गच्छा परिभाणं जघन्यतोऽष्टाविंशतिरुत्कर्षतः शताग्रशः शतादारभ्य यावत द्वात्रिंशत्सहस्राणि / तत्राष्टाविंशतिकस्य गच्छस्य चतुर्भागः सप्त एतावन्तः सहायास्तस्य दातव्याः / यैरुपस्थापना-उपसामीप्येन सर्वदाऽवस्थानलक्षणेन तिष्ठन्त्यस्यामिति उपस्थापनाशय्या अजादि पाठादाप् प्रत्ययः, नित्यवसतिर्न जायते / इयमत्र भावनाप्रतिमासमन्यान्या वसतिर्न लभ्यते, स चालाभो द्विधासल्लाभः, असल्लाभश्च / तत्र सल्लाभो नाम-लभ्यन्ते व सतयः, किं त्वकल्पिकाः, असल्लाभो मूलत एव न लभ्यन्ते वसतयः / एवं सल्लाभेनासल्लाभेन वा प्रतिसमयमन्यान्यवरात्यलाभे एकस्यामेव वसतौ जनाबलपरिक्षीणो वसति, तस्य च सहाया अष्टाविंशतिः / कस्यचिद् गच्छस्य च चतुर्भागमात्राः सप्त प्रदत्तारये ऋतुबद्धे काले एक मासं स्थित्वा गच्छं व्रजन्ति; अन्ये सप्त सहायाः स्थविर-स्यागच्छन्ति, तेऽपि द्वितीये मासे परिपूर्ण गतास्ततोऽन्ये सप्त समागच्छन्ति, तेऽपितृतीये मासे पूर्णे गतास्ततोऽन्ये सप्त सहायाः आयान्ति, तेऽपि चतुर्थ मासं स्थित्वा गर्छ व्रजन्ति ये प्रथमे मासे सप्तागच्छन् ते भूयः समागच्छन्ति / एवं त्रिमासान्तरितः सर्वेषां पुनारको भवति / एवं वारेण वारेण गमने तैर्नित्यवसतिदोषः परिहृतो भवति / अथ सद्भावेनाष्टाविंशलेरूनो गच्छो वर्तते. यावदेकविंशतिकस्तस्य त्रिभागे सप्त, तेषां द्विमासान्तरितो वारको भवति / तथैव सद्भावेनासद्भावेन / यदि चतुर्दशको गच्छो भवति, तदा तेषामधून राप्त, तेषामेकमासान्तरितः पुनरिकः / एवं प्रतिमासमन्यान्यवसत्यभाधे वृद्धस्यैवैकस्य वृद्धावासो भवति, नतु सहायानाम् / अथ सद्भावेन वा चतुर्दश गच्छे न सन्ति, तदा त एव सप्त जनाः चिरकालमपि तिष्ठन्तो यतनया तं वृद्धं परिपालयन्ति। अमुमेवार्थमभिधित्सुराहचत्तारि सत्तगा ति-णि दोण्णि एको व होज असतीए। संतासई अगीआ, ऊणा उ असंतओ असती।।५४६।। चत्वारः सप्तका वारेण वारेण वृद्धपरिपालनाय प्रेषणीयाः असति सद्धभावेन वाऽष्टाविंशतेरभावे त्रयः सप्तका वारेण प्रेष्याः। तावतामप्यभावे द्वौ सप्तको वारेण प्रेष्यौ / तयोरप्यभावे एकः सप्तकः सदाऽवस्थायी तत्परिपालको भवत् / सद्भावेनाऽसद्भावेन वा असतीत्युक्तम् / तत्र सद्भावं व्याख्यानयति। 'संतासती' ति सद्भावो नाम यद् अगीतार्थाः, ते हि सन्ति भूयांसः परं ते सन्तोऽप्यसन्तो वृद्धस्य सहायकार्येष्वरामर्थत्वात्। असन्लेउ असती' असद्भावः स्वभावतस्तूनाः। अथ कस्मात्सप्त सहायाः क्रियन्ते नन्यूना इत्याहदो संघाडा मिक्खं, एक्कोवहि दो य गेण्हए थेरं। आलित्तादिसु जयणा, इहरा परिताव दाहादी // 547 / / द्वौ संघाटौ भिक्षां हिण्डेते, एको बहिर्वसतेस्तिष्ठति रक्षकः द्वौ च स्थविर गृह्णीतः, एवं सप्तसु सत्सु आदीप्तादिषु-प्रदीपनादिषु यतना भवति / इतरथा परितापदाहादिकं वृद्धादेरुपजायेत! अथ सद्भातन असद्भावेन वा सप्तको गच्छो न विद्यते; किं तु षष्ट्यादिकस्तदापि सर्वेऽपिवृद्धावासिका भवन्ति, यतनया च तं परिपालयन्ति। तामेव यतनामाहआहारे जयणा वुत्ता, तस्स जोगो य पाणए। निवायमउए चेव, छवित्ताऽणेसणादिसु / / 548 / /
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________________ वुड्डावास 1417 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वुड्डावास तस्य वृद्धस्य योग्ये आहार उपाश्रये निवाते छविस्त्राणं वस्वं तस्मिन् / वर्षासु ऋतुबद्धकालकल्पं न कुर्वन्तीति भावः / तथा त्रिविधा यतना मृदुके च एषणीयानि, तदलाभे पञ्चकपरिहाण्याऽप्युत्पादनीयानि / / ऋतुबद्धे काले च कर्तव्या। तदेवमुक्ता चतुर्विधा यतना। सांप्रतमविपरीतमेव कालं व्याख्यानयतिसंप्रति प्रकारान्तरेण चतुर्विधामेव यतनामाह अव्विवरीतो नाम, कालं उवठाणदोस परिहरति। वुड्डावासे जयणा, खेत्ते काले य वसहि-संथारे। असती वसहीए पुण, अविवरीओ उवढेऽवि / / 553|| खेत्तम्मि नवगमादी, परिहाणी एक्कहिं वसई / / 546 / / अविपरीतो नाम कालः क्रियमाणः, एष यत् काले ऋतुबद्धे प्रतिमासवृद्धावासे यतना चतुर्विधा, तद्यथा-क्षेत्रे, काले, वसतौ, संस्तारे च। मन्यान्यवसतिभिक्षादिग्रहणत उपस्थानदोषान् नित्यवासदोषान्परितत्र क्षेत्रे नवकोटिविभागः नवकमादिं कृत्वा एकैकविभागे परिहाण्या हरति / असत्यभावे वसतेरुपलक्षणमेतत् भिक्षाद्यभावे च उपस्थेऽपि तावद्वक्तव्यं यावदेकरिमन्नपि भागे चिरकाल वसति / इयमत्र भावना- एकस्यां वसतौ सततमवस्थितेऽपि यतना कर्तव्या। क्षेत्रे नव भागान्करोति तत्रैकस्मिन् भागे वसतिं गृहीत्वा तस्मिन्नेव भागे तिविहा जयणाऽऽहारे, उवहीसेज्जासु होइ कायव्वा। संस्तारकभिक्षादीनि निर्दिशति, शेषानष्टौ भागान् परिहरति / ततश्व उग्गमसुद्धा तिविहा, असईएपणगपरिहाणी।।५५४|| तावत्परिपूर्णो मार्गशीर्षः। ततो द्वितीये पौषमासे द्वितीये भागे वसत्यादि आहारे उपधौ शय्यासुचवसतिषु कायतनेत्यत आह-त्रीण्यपि प्रथमत गृह्णाति शेषानष्टौ भागान्परिहरति / एवं तृतीयादिषु विमाभेषु माधादय उद्गमादिशुद्धानि-उद्गमोत्पादनैषणाशुद्धानि ग्रहीतव्यानि / तेषामसत्यआषाढान्ता मासा नेतव्याः, वर्षाकाले चतुरो मासान् नवमे भागे वसत्यादि भावे पञ्चकपरिहाण्याऽपि समुत्पादनीयानि / गता कालयतना। गृह्णाति शेषानष्टौ भागान्परिहरति। तथाविध-भिक्षाद्यभावे नव वसतयः अष्टौ भिक्षादियोग्या भागाः परिकल्पनीयाः, वसत्यलाभे अष्टौ भागा वसतियतनामाहवसतियोग्या नव भागा भिक्षादियोग्याः, वसत्यलाभे भिक्षाधलाभे चाष्टी सेलियकाणिट्टघरे, पक्केट्टाऽऽमे य पिंडदारघरे / वसतिभागा अष्टौ भिक्षादिभागाः, एवं त्रिभिः प्रकारैरेकेकभागपरिहाण्या कडगे कडगत्तघरे, वोच्चत्थे होंति चउगुरुगा / / 555|| तावत् ज्ञेयं यावदेकस्मिन् भागे वसतिं भिक्षादीनि च गृह्णाति। शैलिकं नाम पाषाणेष्टकाभिः कृत 'काणिट्ट तिलोहमय्य इष्टास्ताभिः एतदेव प्रतिपिपादयिषुराह-- कृतं काणेष्टकागृहं पक्केट्ट' इति पक्केष्टकागृहम् 'आमये' त्ति आमा भागे भागे मासं, काले वी जाव एकहिं सव्वं / अपक्कास्ताभिरिष्टकाभिः कृतं गृहमामेष्टकागृहम्। 'पिण्डदारुघर' मिति पुरिसेसु वि सत्तण्हं, असतीए जाव एक्को उ१५५०॥ गृहशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते पिण्डगृहं चिक्खल्लपिण्डैर्निष्पादित ऋतुबद्ध काले भागे भागे मासं कुर्यात, अलाभे वसतिभिक्षादीनां च दारुगृहं करपत्रस्फाटितदारुफलकमयं गृहम् 'कडक' ति यंशदलपूर्वप्रकारेणैकैकपरिहाण्या तावद्यतेत यावत् कालेऽपिऋतुबद्धकालेऽपि निर्मापितकटात्मकं गृहं कटकगृह, तृणगृह-दर्भादितृणमयम्। एतेषां सति सर्वं वसत्यादिकमेकस्मिन् भागे गृह्णीयात् / पुरुषेष्वपि सहायभूतेषु लाभे प्रथमं ग्रहीतव्यं, तदभावे द्वितीयम्, एवं शेषाण्यपिभावनीयानि। चिन्तायां सप्तानामभाव एकैकपरिहाण्या तावद्यतना विधेया यावदेकोऽपि यदि पुनः सति विपर्यस्तं कुर्यात्, तदा विपर्यस्ते-विपर्यास प्रायश्चित्तं सहायो भवत्विति। भवति चत्वारो गुरुकाः। पुव्वभणिया उ जयणा, वसही मिक्खे वियारमादी य। तत्राोषु चतुर्पु गृहेषु यो गुणो भवति तमभिधित्सुराहसा चेव य होइइहं, वुड्डावासे वसंताणं / / 551 / / कोटिमघरे वसंतो, आलित्तमवि न डज्झती तेणं / पूर्वम् - ओधनियुक्ती, कल्पाध्ययने या या वसतौ भिक्षायां विचारादौ सेलादीणं गहणं, रक्खति य निवायवसहीओ // 556 / / च यतना भणिता महता प्रबन्धेन सैव चेह वृद्धावासे वसतां भवति कोटिमपरिबद्धभूमिकं गृहं तच्च शिलादिमयं तस्मिन्वसन आदीप्येऽपि ज्ञातव्या / उता क्षेत्रयतना। प्रदीपनकेऽपिनदह्यते तत्रानेः प्रवेशाऽसंभवात्, तेन कारणेन शिलादीनां कालयतनामाह ग्रहणम्। तथा रक्षति निवाता वसतिः शीतादिकमिति वा शैलादिग्रहणमधीरा कालगच्छेयं, करेंति अपरक्कमा तहिं थेरा। कारि। उक्ता वसतियतना। कालं वा विवरीयं, करेंति तिविहं तहिं जयणा / / 552 / / संप्रति संस्तारकयतनामाहधीरा–बुद्धिमन्तः संयमकरणोद्यता अप्रमादिनोऽपराक्रमा जङ्घाबल थिरमउअस्स उ असती, अप्पडिहारिस्सचेव वचंति। परिहीनाः स्थविरास्तत्र वृद्धावासे कालगच्छेदं कुर्वन्ति, ऋतुबद्धे काले बत्तीसजोयणाणि वि, आरेण अलब्भमाणम्मिा५५७।। अष्टसु मासेषु प्रतिमासमन्यान्यवसतिं भिक्षादिग्रहणतो वर्षासु चतुरो योवसतौयथा संस्तृतश्चम्पकपट्टोऽन्योवा स्थिरमृदुकः संस्तारकोऽप्रतिहार्यः मासान् एकवसत्येकभागभिक्षादिग्रहणतस्तद्धागे पूर्वोक्तयतनया कालत्रुटि स ग्रहीतव्यः / तस्याभावे वसतेरेवसंबन्धि यन्निवेशनं गृहं तस्मादानेतव्यः / कुर्वन्ति। तथा कालमविपरीतं च कुर्वन्ति। ऋतुबद्धे काले वर्षाकालकल्प तस्याप्यलाभेवाटकादहिष्ठोऽप्यानेतव्यः। तत्राप्यसति स्वनामे दरतोऽपि, त
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________________ वुड्डावास 1418 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 बुड्डावास त्राप्यलाभे परग्रामादेरर्द्धक्रोशात्तथाऽप्यलाभे क्रोशादपि, एवमर्द्धक्रोशवृद्ध्या तावद्गन्तव्यं यावदुत्कर्षतोऽपि द्वात्रिंशतोयोजनेभ्योऽपि / तथा चाह- स्थिरमृदुकस्याप्रतिहार्यस्य संस्तारकस्य वसत्यादावलाभे अप्रतिहार्यस्यैव संस्तारकरस्यानयनाय परग्रामे व्रजन्ति, तत्र च आरतोऽलभ्यमाने द्वात्रिंशतिज-योजनान्यपि यावत् व्रजन्ति। एतदेव सुव्यक्तमाहवसहिनिवेसणसाही, दूराणयणं पि जो उ पाउग्गो। असतीए पडिहारिय, मंगलकरणम्मि नीणेति // 558 / वसतौ यथासंस्तृतस्थिरमृदुकः संस्तारको मार्गणीयः, तदभावे निवेशने अप्रतिहार्यो गवेषणीयः, तत्राप्यलाभे 'साहि' त्ति वाटके, तत्राप्यलाभे यः प्रायोग्योऽप्रतिहार्यः संस्तारकस्तस्य दूरादपि द्वात्रिंशद्योजनप्रमाणादानयनं कर्त्तव्यम् / एवमपि तथा-रूपस्याप्रतिहार्यस्य संस्तारकस्यासति- अलाभे प्रतिहार्य मङ्गलकरणेमङ्गलकरणनिमित्त ध्रियमाणं 'नीणयन्ति' आनयन्ति। एतदेव स्पष्टतरमाहओगालीफलगं पुण, मंगलबुद्धी, सारविजंत। पुणरवि मंगलदिवसे, अच्चियमहियं पवेसिंति // 556|| ओगालीफलक नाम-आर्यकप्रायकप्रभृतीनामावल्या समागतं चम्पकपट्टादिफलक मङ्गलबुद्ध्या 'सारविजंतं ध्रियमाणम् / तथाहिते मङ्गलबुद्ध्या तं फलकं धरन्ति, उत्सवादिषु च तं फलक श्रीखण्डादिना अर्चयन्ति, पुष्पादिभिर्महयन्ति न चकोऽपि तं फलकं परिभुङ्क्ते. एवं मङ्गलबुद्ध्या साराप्यमाणं साधवो याचन्ते / यथा-अस्माकमाचार्याः स्थविरास्तेषामिदं फलक प्रातिहार्यं समर्पयत अस्माकं विरताना पूज्यास्ते देवानामपि पूज्याः किं पूनर्युष्माकम्। ते एवमुक्ताः सन्तो बुवतेसत्यं दद्मः केवलमुत्सवदिवसे आनेतव्यो येन वयं पूजयामः / ततः पुनरपि दास्यामः, एवमुक्ते तं नीत्वा उत्सवदिवसे तस्यां पूजावेलायां प्रेषयन्ति। येनावष्वष्कणोत्ष्वष्कणा दोषा न भवन्ति / ततः पुनरपि तस्मिन् मङ्गलदिवसे अर्चितमहितं चम्पकादिपट्टकं वसतौ प्रवेशयन्ति। पुण्णम्मि अप्पणती, अण्णस्स व वुड्डवासिणो दें ति। मुत्तूण वुड्डवासिं, आवजइ चउलहुँ सेसे // 560 / / पूर्णे वृद्धवासे कालगतत्वादिना यश्चास्य सत्कश्चम्पकादिपट्टस्तस्य तं समर्पयन्ति, अन्यस्य वा वृद्धवासिनो ददति / वृद्धवासिनं मुक्त्वा यद्यन्यस्य शेषस्य समर्पयन्ति ततः शेषे शेषेस्य समर्पणे तेषां प्रायश्चित्तमापद्यते-चतुर्लघु / ईदृशस्य फलकस्यालाभे यदन्यत्- अपरिशाटिफलकं तदप्रातिहार्य मृगयन्ते, तदलाभे प्रातिहार्यमपि / एवं क्षेत्रकालवसति-संस्तारकयतना कर्तव्या / एतरयतनाविभागासंभवे त्रिविभागा यतना कर्तव्या तस्या अप्यसंभवे एकविभागाऽपीति / गत जगाबलक्षीणमिति द्वारम्। इदानी ग्लानद्वारमाहपडियरति गिलाणं वा, सयं गिलाणो वि तत्थ वि तहेव / प्रतिचरितग्लानम्, यदि वा-स्वयं ग्लानो जातस्ततस्तस्य वृद्धावासो | भवति, तत्रापि तथैव क्षेत्रकालवसतिसंस्थारकयतना द्रष्टव्या / गतं ग्लानद्वारम्। असहायताद्वारमाहभावियकुलेसु अच्छति, असहाए रीयतो दोसा / / 561 / / भावितकुलेषु-संविग्नभावितेषु कुलेष्वसहायः-सहायहीनस्तिष्ठति। यतस्तस्य रीयमाणस्य विहरतो बहवो दोषास्त्र्यादिभ्यः / गतमसहायताद्वारम्। संप्रति दौर्बल्यद्वारमाहओमादी तवसा वा, अचईतो दुब्बलोऽपि एमेव। संतासंतसतीए, बलकरदव्वे य जयणाओ॥५६२|| अवमम्-दुर्भिक्षम, आदिशब्दात-नगररोधादिपरिग्रहः, तत्रावमौदर्येण दुर्बलीभूतो न शक्नोति विहर्तुं तपसा वा क्षामीभूतः / कथमित्याह-- 'संतासंतसतीए' सद्भावेनाऽसद्भावेन वा। तत्र सद्भावो न लभ्यते, प्रायः यथातृप्ति भक्ष्य केवलमन्तं प्रान्तं तेन क्षामीभूतः, असद्भावो-यथातृपित भक्ष्यस्यैवाभावः / स तथा क्षामीभूतो येन विहर्तुमशक्नुवन् एवमेव क्षीणजवाबलगतेन प्रकारेण तिष्ठति, केवलं तेन बलकरद्रव्यैर्यतना कर्त्तव्या। प्रथमत उद्ग्रमादिशुद्धं तदुत्पादनीय, तदभाव पशकपरिहाण्यापिततो बलिकीभूतो विहरति / गत दौर्बल्यद्वारम् / सांप्रतमुत्तमार्थद्वारमाहपडिवन्न उत्तमहे, पडियरगा वा वसंति तन्निस्सा। प्रतिपन्न उत्तमार्थोऽनशनं येन स प्रतिपन्नोत्तमार्थः / स वा तस्य प्रतिचारकस्तन्निश्रा उत्तमार्थप्रतिपन्ननिश्राः, मासातीतं वर्षाकालातीतं वा तिष्ठन्ति। गतमुत्तमार्थद्वारम्। अधुना तरुणनिष्पत्तिद्वारमाहआयपरे निप्फत्ती, कुणमाणो वा वि अत्थेजा / / 563|| आत्मनः परस्य च सूत्रार्थतदुभयेन निष्पत्तिं कुर्वन्वा वृद्धावासेन तिष्ठत्। कियन्तं कालमत आहसंवच्छरं च स(झ)रए, बारस वासाइ कालियसुयम्मि, सोलस य दिट्ठिवाए, एसो उकोसतो कालो॥५६४।। संवत्सरं यावत्कालिकश्रुतं श(झ)रति- परावर्तयति ग्रहणे पुनः कालिकश्रुते / कालिकश्रुतस्य लगन्ति द्वादश वर्षाणि. दृष्टिवादेदृष्टिवादग्रहणमधिकृत्य षोडश वर्षाणि, एष एतावान् आत्मपरनिष्पत्तिमधिकृत्यैकत्रावस्थानस्योत्कृष्टतः कालः / एतदेव सुव्यक्तमाहबारस वासे गहिए, उक्कालिय स(झ)रति वरसमेगं तु। सोलस उ दिहिवाए, गहणं स(झ)रणं दस दुवे य॥५६५।। द्वादश वर्षाणि यावत् यत्परिपूर्ण गृहीतम् उत्कालिक श्रुतं तत् वर्षमेकं श(झ)रति-एकेन वर्षेन परावर्त्यते / ग्रहणमधिकृत्य दृष्टिवादे षोडश वर्षाणि लगन्ति। श(झ)रणमधिकृत्य, पुनर्दशद्रेचद्वादश वर्षाणीत्यर्थः। ततो ग्रहणं श(झ)रणं वाऽधिकृत्य तावन्तं कालमेकत्रावतिष्ठते।
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________________ वुड्ढावास 1416 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 बुद्धि - | अत्र पर आहस(झ)रए य कालियसुए, पुव्वगए जइ उ एत्तिओ कालो। आयार (प) कप्पनामे, कालच्छेदे उ कयरेसिं // 566|| कालिकश्रुते च पूर्वगते च श्रुते श(झ)रके चशब्दात्- ग्राहके च यदि एतावान कालो लगति तर्हि आचारप्रकल्पनाम्नि निशीथेऽध्ययने योऽसौ कालच्छेदः कृतो यथा ऋतुबद्धे मासे मासमासितव्यं, वर्षासु चतुरो मासानिति स कतरेषां दृष्टव्यः। सूरिराहसुत्तत्थ तदुभएहिं, जे उ समत्ता महिड्डिया थेरा। एएसिं तु पकप्पे, भणितो कालो निययसुत्ते / / 567 / / सूत्रार्थतदुभयैर्य समाप्ता महर्द्धिकाः स्थविरा एतेषामाचार प्रकल्प नैत्यिक सूत्रे भणितः कालो द्रष्टव्यः, न तु सूत्रार्थ-ग्राहकाणामपि ग्रहणे श(झ)रणे च। तावानुत्कृष्टः कालो यथा लगन् संभवति तथोपदर्शयतिथेरे निस्साणेणं, कारणजातेण एत्तिओ कालो। अजाणं पणगं पुण, नवगग्गहणं तु सेसाणं // 568|| स्थविरे-जड्डाबलपरिक्षीणे निश्रणेन-निश्रया कारणजातेन आत्मपरनिष्पत्तिलक्षणेन जातेन कारणेन एतावान्पूर्वोक्त प्रमाण एकत्र रथाने उत्कृष्टः काला भवति। आचार्याणाभार्थिकाणां पुनर्वृद्धवासमावसन्तीनां पञ्चक क्षेत्रपञ्चकं भवति। तहाथा-स बाह्ये क्षेत्रे द्वौ भागौ बहिद्वौ भागावन्तः एकः, एकैकस्मिश्च क्षेत्रविभागेद्वौ द्वौ मासाववस्थानं पशमो वर्षाराप्रयोग्यः क्षेत्रविभागः, शषाणा साधूनां पुनः कारणवशतएकत्र स्थितानां नवकग्रहणं नवमिर्भागःक्षेत्रकरणम्। इह ये जवाब लपरिक्षीणाः स्थविरास्तेषां समीपे आत्म-- परनिष्पतिमिच्छता यादृशाः सहाया दातव्या __स्तादृशानभिधित्सुराहजे गिहिउं धारयिउं व जोग्गा, थेराण ते देंति सहायहे। गेण्हंति ठाणठिया सुहेणं, किचं च थेराण करेंति सव्वं // 566 / / सूत्रमर्थच ग्रहीतुधारयितुं च योग्यास्तान्सहायकान स्थविराणा ददति। ततस्ते स्थानस्थिताः कालिकश्रुतं, दृष्टिवादं वासुखेन गृह्णन्ति, कृत्यं च सर्व स्थविराणां कुर्वन्ति / एवं तेषां ग्रहणे श(झ)रणे च पूर्वोक्त उत्कृष्टः काल एकत्रावस्थाने भवति / गतं तरुणनिष्पत्तिद्वारम्। अधुना क्षेत्रालाभद्वारमाहआ(सज्ज) भव्व खेत्तकाले, बहुपाउग्गा न संति खेत्ता वा। निचंच विभत्ताणं, सच्छंदादी बहू दोसा।।१७।। आ(सद्य)भाव्य-प्रतीत्य क्षेत्रकालौ, तद्यथा-अन्येषु क्षेत्रेष्वशिवादीनि कारणानि, यदि नास्ति सांप्रतमन्येषु क्षेत्रेषुतादृशः कालो येन संस्तरन्ति, अथ बहुप्रायोग्यानि महागणप्रायोग्यानिन सन्ति क्षेत्राणि, यदि पुनर्गहतो गणस्य विभागः क्रियते ततो विभक्तानामधाप्यपरिनिष्पन्नत्वेनागीताथानां नित्यमवश्यं स्वच्छन्दादयो दोषा भवन्ति / एतैः कारणैः ऋतुबद्धातीत वर्षातीतं च कालमेकक्षेत्रे यतनया तिष्ठन्ति। अधुना कृतसंलेखद्वारम्, तरुणप्रतिकर्मद्वारं चाऽऽहजह चेव उत्तमढे, कयसलेहम्मि ठंति तह चेव / तरुणपडिक्कम्मं पुण, रोगविमुक्के बलविवड्डी।।५७१।। यथा चैवमुत्तमार्थे प्रतिपन्ने तिष्ठन्ति, तथा चैव कृतसंलेखेऽपि तिष्ठन्ति / इयमत्र भावना यथा प्रतिपन्नोत्तमार्थास्तत्प्रतिचारका वा तन्निश्रया एकत्र वसन्ति एवं प्रतिपन्नसंलेखनास्तत्प्रतिचारकाश्चैतन्निश्रा एकत्र स्थाने वसन्ति / तरुणप्रतिकर्म नामरोगविमुक्तस्य सतस्तस्य बलविवृद्धिकरणं तन्निमित्त मासातीतं वर्षातीतं च कालं तिष्ठन्ति / व्य० 4 उ० / जी० / दर्श०। पं० भा०। आ० चू०। वुड्डि-स्त्री०(वृद्धि) 'उदृत्वादौ' ||8/1 / 131 / / इति ऋत उत्त्वम् / प्रा० / "दग्ध-विदग्ध-वृद्धि-वृद्धेदः ||8/2 / 40 // इति संयुक्तस्य ढः / प्रा० / प्रति०। शरीरस्य वर्द्धने, स्था०३ ठा०२ उ०। सूत्र०। स्फीती, पञ्चा० 7 विव० आ० म०1 वृद्धिहानौ दण्डकःजीवा णं भंते ! किं वखंति हायंति अवड्डिया ? गोयमा ! जीवा णो वडति नो हायंति अवट्ठिया। नेरइया णं भंते ! किं वदंति हायंति अवट्ठिया ? गोयमा ! नेरइया वड्बंति वि, हायंति वि, अवट्ठिया वि, जहा नेरइया एवं० जाव वेमाणि-या। सिद्धा णं भंते ! पुच्छा, गोयमा! सिद्धा वढंति, नो हायंति, अवट्ठिया वि। जीवाणं भंते ! केवतियं कालं अवटिया (वि)? सव्वद्धं, नेरइयां णं भंते ! केवतियं कालं वडंति ? गोयमा ! जहण्णेणं एगं समयं उक्कोसेणं आवलियाए असंखेजतिभागं, एवं हायंति। नेरइया णं भंते केवतियं कालं अवट्ठिया ? गोयमा ! जहन्नेणं एगं समयं उक्कोसेणं चउव्वीसं मुहुत्ता। एंव सत्तसु वि पुढवीसु वडंति हायंति भाणियव्वं / नवरं अवट्ठिएसु इमं नाणत्तं, तं जहा-रयणप्पभाए पुढवीए अडयालीसं मुहुत्ता, सक्करप्पभाए पुढवीए चोद्दस रातिदियाणं, वालुयप्पभाए पुढवीए मासं, पंकप्पभाए पुढवीए दो मासा, धूमप्पमाए पुढवीएचत्तारिमासा, तमाए अट्टमासा, तमतमाए बारसमासा। असुरकुमारा विवढंति हायंतिजहानेरइया, अवट्ठिया जहण्णेणं एग समए उक्कोसेणं अठ्ठचत्तालीसं मुहुत्ता। एंव दसविहा वि, एगिदिया वळति वि हायंति वि अवट्ठिया वि, एएहिं तिहि वि जह
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________________ वुड्डि 1420 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वुड्डोवुड्डि नेणं एक समयं, उक्कोसेणं आवलियाए असंखेजतिभागं, मेवेत्यतः संख्याता मासा इत्याधुक्तम्, 'एवं गेवेजदेवाणं ति इह यद्यपि वेइंदिया वढंति हायंति तहेव, अवट्ठिया। जहण्णेणं एक समयं ग्रैवेयकाधस्तनत्रये संख्यातानि वर्षाणां शतानि मध्यमे सहस्राणि उपरिमे उक्कोसेणं दो अंतोमुहुत्ता, एवं० जाव चउरिदिया, अवसेसा सव्वे लक्षाणि विरह उच्यते तथाऽपि द्विगुणितेऽपि च संख्यातवर्षत्वं न वड्ढति हायंति तहेव / अवट्ठियाणं णाणत्तं इम, तं जहा- विरुध्यते, विजयादिषु त्वसंख्यातकालो विरहः स च द्विगुणितोऽपि स संमुच्छिमपंचिं दियतिरिक्खजोणिया णं दो अंतोमुहुत्ता; एवं, सर्वार्थसिद्धे पल्योपमसंख्येयभागः सोऽपि द्विगुणितः संख्येयभाग गब्भवतियाणं चउव्वीसं मुहुत्ता, संमुच्छिममणुस्साणं अट्ठच- एव स्यादत एवोक्तम्- 'विजयवेजयंतजयंतापराजियाणं असंखेजाई तालीसं मुहुत्ता, गब्भवकं तिय-मणुस्साणं चउव्वीसं मुहुत्ता, वासहसस्साई इत्यादीति। श०५ श०८ उ०। वाणमंतरजोतिससोहम्मीसाणेसु अट्ठचत्तालीसं मुहुत्ता, | वनिकर-त्रि०(वद्धिकर) वर्द्धनकारिणि, पा० विव०। सणंकुमारे अट्ठारसरातिंदियाइं चत्तालीस य मुहुत्ता, माहिंदे दुड्डिकज-न० (वृद्धिकार्य) पुत्रकार्यादिषु वृद्धिकर्तव्येषु, ध०२ अधि० चउवीसं रातिंदियाइं वीस य मुहुत्ता, बंभलोए पंचचत्तालीसं वुड्डिधम्मय-न०(वृद्धिधर्मक) वर्धनशीले जीवबद्धशरीरे, आचा० 1 श्रु० रातिंदियाइं, लंतए नउति रातिंदियाई, महासुक्के सर्टि रातिदि 1 अ०५ उ०। यसतं, सहस्सारे दो रा, तिंदियसयाई, आणयपाणयाणं संखेज्जा मासा, आरणचुयाणं संखेज्जाई वासाइं, एवं गेवेजदेवाणं विजय वुड्डिपय-न०(वृद्धिपद) वृद्धिस्थाने, "वड्डइयणाणचरणे, जम्हा तम्हा उ वेजयंतजयंतअपराजियाणं असं खिज्जाई वाससहस्साई, तेण वुड्पिदा पवर पहाणमेत्तं, सव्वेसिं रायदेवाणं" पं०भा०५ कल्प० / सव्वट्ठसिद्धेय पलिओवमस्स असंखेजतिभागो, एवं भाणियव्वं, वुड्डोवुड्डि-स्त्री०(वृद्ध्यपवृद्धि) प्रतिमासे मुहूर्तानां चन्द्रमसो वृद्ध्यपवृद्धी, वडंति हायंति जहण्णेणं एवं समयं उक्कोसेणं आवलियाए सू० प्र०। (चन्द्रमसो वृद्ध्यपवृद्धी 'चंद' शब्दे तृतीयभागे 106 पृष्ठे गते।) असंखेजतिभागं, अवट्ठियाणं जं भणियं / सिद्धाणं भंते ! ता कहं ते वद्धोवद्धी (वुड्डोवुड्डी) मुहुत्ताणं आहितेति वदेकेवतियं कालं वर्ल्डति? गोयमा ! जहण्णेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं ज्जा ? ता अट्ठ एकूणवीसे मुहुत्तसते सत्तावीसं च सहिभागे अट्ठ समया, केवतियं कालं अवट्ठिया ? गोयमा ! जहण्णेणं मुहुत्तस्स आहितेति वदेज्जा। (सू०५) एक समयं उक्कोसेणं छम्मासा। (सू० 2224) 'ता कहं ते वद्धोवद्धी मुहुत्ताण' मित्यादि अत्र तावच्छब्दः क्रमार्थः, 'जीवा ण' मित्यादि, 'नेरइया णं भंते ! केवतियं कालं अवट्टिया ? क्रमश्चायमस्त्यन्यदपि चन्द्रसूर्यादिविषयं प्रभूतं प्रष्टव्यं, परं तदास्तां गोयमा ! जहन्नेणं एवं समय उक्कोसेणं चउव्वीसमुहत्त' ति, कथम् ? सम्प्रत्येतावदेव तावत्पृच्छामि। कथम्-केनप्रकारेण भगवन् ! ते-त्वया सप्तस्वपि पृथिवीषु द्वादश मुहूर्तान् यावन्न कोऽप्युत्पद्यते उद्वर्त्तते वा, मुहूर्ताना - दिवसरात्रिविषयाणां वृद्ध्यपवृद्धी आख्यात इति भगवान् उत्कृष्टतो विरहकालस्यैवरूपत्वात्, अन्येषु पुनादशमुहूर्तेषु यावन्त प्रसादमाधाय वदेत्-यथावस्थितं वस्तुस्वरूप कथयेत्, येनमे संशयापउत्पद्यन्ते तावन्त एवोद्वर्त्तन्त इत्येवं चतुर्विशतिमुहूर्तान यावन्नारकाणा- गमो भवति, अपगतसंशयश्च परेभ्यो निःशङ्कमुपदिशामीति। अत्राह-ननु मेकपरिमाणत्वादवस्थितत्वं वृद्धिहान्योरभाव इत्यर्थः / एवं रत्नप्रभादिषु गौतमोऽपि चतुर्दशपूर्वधरस्सर्वाक्षरसन्निपाती सम्मिन्नश्रोता-स्सकलयो यत्रोत्पादोद्वर्तनाविरहकालश्चतुर्विशतिमुहूतादिको व्युत्क्रान्ति- प्रज्ञापरिज्ञापनीयभावकुशलः सूत्रतश्च प्रवचनस्य प्रणेता सर्वज्ञदेशीय पदेऽभिहितः सतत्र तेषु तत्तुल्यस्य समसंख्यानामुत्पादोद्वर्त्तनाकालस्य एव / उक्तं च- "संखाईए वि भवे, साहइ ज वा परो उ पुच्छेजा। नयण मीलनाद् द्विगुणितः सन्नवस्थितकालोऽष्टचत्वारिंशन्मुहूर्तादिकः सूत्रोक्तो अणाइसेसी, वियाणाई एस छउमत्थो॥१॥" ततः कथं संशयसम्भवभवति, विरहकालश्च प्रतिपदमवस्थानकालार्द्धभूतः स्वयमभ्यूह्य इति। स्तदभावाच किमर्थं पृच्छ-तीति ? उच्यते यद्यपि भगवान् गौतमो 'एगिदिया बड्डति वि' त्ति तेषु विरहाभावेऽपि बहुतराणामुत्पादादल्प- यथोक्तगुणविशिष्टस्तथापि तस्याद्यापि मतिज्ञानावरणीयाधुदये वर्तमातराणां चोद्वर्तनात्, ‘हायति वि' त्ति बहुतराणामुद्वर्तनादल्पतराणां नत्वात् छद्मस्थता, छास्थस्य च कदाचिदनाभोगोऽपि जायते / यत चोत्पादात्, 'अवट्ठिया वि' त्ति तुल्यानामुत्पादादुद्वर्तनाचेति / एतेहिं उक्तम्- "न हि नामानाभोगश्छद्मस्थस्येह कस्यचिन्नेति। ज्ञानावरणीय तिहिं वि' त्ति एतेषु त्रिष्वपि एकेन्द्रियवृद्ध्यादिष्वावलिकाया असंख्येयो हि, ज्ञानावरणप्रकृतिकर्म // 1 // " ततोऽना-भोगसम्भवादुपपद्यते भागस्ततः पर यथायोगं वृद्ध्यादेरभावात्, 'दो अंतोमुहुत्त' त्ति एक- भगवतोऽपि संशयः, न चैतदनाएं , यत उक्तमुपासकश्रुते आनन्दश्रमणोमन्तर्मुहूर्त विरहकालो द्वितीयं तु समानानामुत्पादोद्वर्तनकाल इति।। पासकावधिनिर्णयविषये-- 'तेण भंते ! किं आणंदेणं समणोवासएणं तस्स 'आणयपाणयाण संखेना मासा आरणचुयाणं संखेज्जा वास' त्ति इह ठाणस्स आलोइयव्वं० जाव पडिक्कमियव्वं उयाहु मए ? ततो णं गोयमादि विरहकालस्य संख्यातमासवर्षरूपस्य द्विगुणितत्वेऽपि संख्यातत्व- समणे भगवंमहावीरगोयमएवं वयासी-तुमं चेवणं तस्स ठाणस्स आलोएहि०
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________________ वुड्डोवुड्डि 1421 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वुसीमंत जाव पडिक्कमाहि, आणंदं च समणोवासयं एयमटुंखामेहि। तएणं समणे शतानि पञ्चदशोत्तराणि 615, तथा युगे द्वाषष्टिश्चन्द्रमासास्ततोऽष्टादशभगवं गोयमे ! समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए एयमट्ट विणएणं शतानां त्रिंशदधिकानां द्वाषष्ट्या भागो ह्रियते, लब्धा एकोनत्रिंशदहोरात्रा पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता तस्स ठाणस्स आलोएइ० जाव पडिक्कमइ, द्वात्रिंशच द्वाषष्टिभागा अहोरात्रस्य। तत्र द्वत्रिंशद्वाषष्टिभागा मुहूर्तस्य आणदं च समणोवासय एयमढें खामेइ' इति / अथवा--भगवान् करणार्थ त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि नव शतानि षष्ट्यधिकानि 660, अपगतसंशयोऽपि शिष्यसम्प्रत्ययार्थं पृच्छति, तथाहि-तभर्थ शिष्येभ्यः तेषां द्वाषष्ट्या भागो ह्रियते, लब्धाः पञ्चदश मुहूर्ताः, शेषा तिष्ठाति त्रिंशत् प्ररूप्य तेषां सम्प्रत्ययार्थ तत्समक्ष भूयोऽपि भगवन्तं पृच्छतीति / यदि 30, एकोनत्रिंशयाहोरात्रा मुहूर्तकरणार्थं त्रिंशता गुण्यन्ते, जातान्यष्टी वा-इत्थमेव सूत्ररचनाकल्प इति न कश्चिद्दोषः / एवं भगवता गौतमेन शतानि सप्तत्यधिकानि 870, ततः पाश्चात्याः पञ्चदश मुहूर्ता एषु मध्ये प्रश्ने कृते सति भगवान् श्रीवर्द्धमानस्वामी प्रतिवचनमभिधातुकामः प्रतिक्षप्यन्ते, तत आगतं चन्द्रमासे मुहूर्तपरिमाणमष्टौ शतानि पञ्चाशीसविशेषबोधनाय प्रथमतो नक्षत्रमासे यावन्तो मुहूर्ताः सम्भवन्ति तावतो त्यधिकानि त्रिंशच द्वाषष्टिभागा मुहूर्तस्य / कर्ममासश्च त्रिंशदहोरात्रनिरूपयति-'ला अढे' त्यादि, तावदिति शिष्योक्तपदानुवादः, स च प्रमाणस्ततस्तत्र मुहूर्तपरिमाणं नव शतानि परिपूर्णानि। तदेवं मासगतं न्यायमार्गप्रदर्शनार्थम्। तथाहि-सर्वेणापि गुरुणा शिष्येण प्रश्ने कृते सति मुहूर्तपरिमाणमुक्तम् ! एतदनुसारेण च चन्द्रादिसंवत्सरगतं युगगतं च शिष्यपृष्टस्य पदस्य अन्यस्य वा शिष्योक्तस्य तथाविधस्य पदस्य मुहूर्तपरिमाणं स्वयं परिभावनीयम् / सू०प्र०१पाहु०। अनुवादुपरस्सर प्रतिवचनभधिधातव्यं येन गुरुषु शिष्याणां बहुमानो वुत्त-त्रि०(उक्त) "विषण्णोक्त-वमनोवुन्न-वुत्त-विचम् ||8|4|421 / / भवति-यथाऽहं गुरूणां सम्मत इति। अन्यच तावच्छब्दस्यायमर्थः इति उक्त' शब्दस्य वुत्तादेशः। प्रा० अभिहिते, सूत्र०१ श्रु०१ अ०३ आस्तामन्यत्प्रतिवक्तव्यमिदानीं तावदेव तावग्रे कथयामि, एमस्मिन्न उ० / आचा० / नि० चू०। क्षत्रमासे अष्टौ मुहूर्त्तशतानि एकोनविंशानि-एकोनविंशत्यधिकानि व्युक्त-त्रि० विशेषेणोक्ते, संथा०। एकस्य च मुहूर्तस्य राप्तविंशति सप्तपष्टिं भागानहमाख्याता इति स्व वुत्ततं-पुं०(वृत्तान्त) "उदृत्वादौ'' ||8/1:131 / / इति ऋत उत्त्वम्। शिष्यभ्यो वदेत्। एतेन चैतदावेइयति-इह शिष्येण सम्यगधीलशास्त्रेणापि प्रा० / समाचारे, आ० म०१ अ०। गुर्वनुज्ञातेन सता तत्त्वोपदेशोऽपरस्मै दातव्यो नान्यथेति। अथ कथमेकस्मिन्नक्षत्रमासे अष्टौ शतान्येकोनविंशत्यधिकानि मुहूर्तानामेकस्य च वुत्तपडिवुत्तिया स्त्री०(उक्तप्रत्युक्तिका) भणितप्रतिभणिते, भ०११२० मुहूर्तस्य सप्तविंशतिः सप्तषष्टिभागाः इति ? उच्यते-इह युगे-चन्द्र / 11 उ०। चन्द्रचन्द्राऽभिवर्द्धित-चन्द्राऽभिवर्द्धित-चन्द्रचन्द्राऽभिवर्द्धितरूप- | वुत्तित्ता-अव्य०(उक्त्त्वा) पदवाक्यादिकंभणित्वेत्यर्थे, स्था०३ठा०२ उ०। संवत्सरपञ्चकाऽऽत्मके सप्तषष्टिर्नक्षत्रमासाः, युगे चोक्तस्वरूपे अहोरात्रा- वुदगुल-पुं०(वुदगुड) आर्द्र गुडे, बृ०२ उ०। णामष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि 1830, तत एतेषां सप्तषष्ट्या भागो वुन्न-त्रि०(विषण्ण) "विषण्णोक्त-वर्त्मनो बुन्न-वुत्त-विचम् व्हियते लब्धाः सप्तविंशतिरहोरात्राः, शेषा तिष्ठति एकविशतिः, सा ||4|421 // विषण्णस्थाने वुन्नादेशः / प्रा०। भीतोद्विग्रयोः, दे० ना० मुहूर्तानयनार्थ त्रिंशता गुण्यते जातानिषट् शतानि त्रिंशदधिकानि 630, 7 वर्ग 64 गाथा। तेषां सप्तषष्ट्या भागे हते लब्धा नव मुहूर्ताः 6, शेषाऽवतिष्ठते सप्तविंशतिः / वुप्फ-(देशी)-शेखरे, दे० ना०७ वर्ग 74 गाथा। आगतं नक्षत्रमासः-सप्तविंशतिरहोरात्राः नव मुहूर्ता एकस्य च मुहूर्त्तस्य वुयावइत्ता-अव्य०(विवाप्य) प्रव्रज्याभेदे, स्था०३ ठा०२ उ०। (विशेषासप्तविंशतिः सप्तषष्टिभागाः, तत्र सप्तविंशतिरहोरात्रा मुहूर्तकरणार्थ त्रिशता गुण्यन्ते जातान्यष्टौ शतानि दशोत्तराणि 810, तेषां मध्ये र्थस्तु पव्वजा' शब्दे पञ्चभागे 731 पृष्ठे गतः।) उपरितना मुहूर्ताः प्रक्षिप्यन्ते, जातान्यष्टौ शतान्ये-कोनविंशत्यधि दुसिय-पुं०(व्युषित) अनेक प्रकारं दशविधचक्रवालसामाचार्या स्थिते, कानि, 816, आगतं नक्षत्रमासे मुहूर्तपरिमाणमौ शतान्येकोनविंशत्य / सूत्र०१ श्रु०१ अ०४ उ०। धिकानि एकस्य च मूहर्त्तस्य सप्तविंशतिः सप्तषष्टिभागा इति / इद च / दुसी-स्त्री०(वृषी) व्युषन्तः सीदन्त्यस्यामिति वृषी।ऋषीणामासने, क० नक्षत्र-मासगतमुहूर्तपरिणाममुपलक्षणम्, तेन सूर्यादिमासानाम- प्र०१प्रक० / चारित्रे, सूत्र०१२०१४ अ०। संविग्ने, नि० चू०१६ उ०। प्यहोरात्रसंख्यां परिभाव्य मुहूर्तपरिमाणं यथाऽऽगम भावनीयम्।। वुसीमंत-त्रि०(वश्यवत्) वश्य आत्मा इन्द्रियाणि वा वश्यानि विद्यन्ते तच्चैवम्- सूर्यमासा युगे षष्टिर्भवन्ति, युगे चाष्टादशशताति त्रिंशद- येषां ते वश्यवन्तः 'वसंति वा साहुगुणेहिं वुसीमंतं, अहवा-वुसीमाधिकान्यहोरात्राणम्, ततस्तेषां षष्ट्या भागे हृते लब्धाः त्रिंशदहोरात्राः संविग्गा तेसिं ति’ उत्त०५ अ० आत्मवशगेषु वश्येन्द्रियेषु, सूत्र०१ श्रु० एकसय चाहोरात्रस्यार्द्धम्, एतावत्सूर्यमासंपरिमाणं त्रिंशन्मुहूर्त्तश्वाहोरात्र 8 अ० / तीर्थ कृत्सु, सत्संयमवत्सु, सूत्र०१ श्रु० 8 अ०। पुं० / इति त्रिंशत्त्रिंशता गुण्यते, जातानि नव शतानि मुहूर्तानाम्, अर्द्ध एकचत्वारिंशे महाग्रहे, स्था०२ ठा०३ उ०। सू०प्र०। चन्द्रपूत्रे ज्योतिचाहोरात्रस्य पञ्चदश मुहूर्ताः / तत आगतं सूर्यभासे मुहूर्तपरिमाणं नव | कभेदे, प्रज्ञा०२ पद।
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________________ वुसीमंत 1422 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वेउव्विय व्यवसिन्-त्रि० बुधत्वकार्ययुक्ते, "पठकः पाठकश्चैव, ये चान्ये कार्यत- वेदिका पञ्चप्रकारा-तत्र ऊर्ध्ववेदिका यत्र जानुनोरुपरि हस्तौ कृत्वा त्पराः / सर्वे व्यसनिनो राजन! यः क्रियावान् स पण्डितः।।१।।" स्था० प्रत्युपेक्षते 1, अधोवेदिका जानुनोरधो हस्तौ निवेश्य 2, एव तिर्यग्वेदिका 4 ठा०४ उ०॥ जानुनोः पार्श्वतो हस्तौ नीत्या 3, द्विधा वेदिका बाहोरन्तरे द्वे अपि वूढ-त्रि०(व्यूढ) नीते, बृ०३ उ०। तो वसी कुडशो तं बूढो,' आ० म० जानुनी कृत्वा 4, एकतो वेदिका एक जानुं बाह्वोरन्तरे कृत्वेति 5. षष्ठी-- १अ०। प्रमादप्रत्युपेक्षणेति प्रक्रमः / स्था०६ ठा० 3 उ० / उत्त० / ओघ०। वूणक-(देशी)--पुत्रादौ बालके, व्य०२ उ०। ध०। पुं०। उपवेशनयोग्यमत्तवारणेषु, जी०३ प्रति० 4 अधिक। वूदल(न)-पुं०(व्यूदल) महोवाग्रामजे आह्वाभ्रातरि प्रसिद्धे, वीरे, ती० वेइयापुड-न०(वेदिकापुट) वेदिकायुग्मे, जी०३ प्रति० 4 अधि०। 33 कल्प०। वेइयापुडंतर-न०(वेदिकापुटान्तर) द्वयोर्वेदिकयोरपान्तराले, जी०३ वूह-पु०(व्यूह) स्थाणुरेवाऽयमिति निश्चये, ज्ञा० 1 श्रु०१०। इदमित्थ प्रति० 4 अधि०। मेवरूपे निश्चये, औ०। संयोगगिशेषे, सम्म०३ काण्ड / युयुत्सूना वेइयाबद्ध-न०(वेदिकाबद्ध) दशमे वन्दनदोषे, बृ० / दशमं दोष-माहसैन्यरचनायाम, यथा चक्रव्यूहे चक्रीकृतौ तुम्बारक प्रध्यादिषु "पंचेव वेइयाउ' त्ति, जानुनोरुपरि हस्तौ निवेश्याधो वा पार्श्वयोर्वा राजन्यस्थापना। जं०२वक्ष०। रा०नि० चू०। स्था०। स०। समुदाये, उत्सङ्गे वा एकं जानु दक्षिणं वा वाम वा करद्वयान्तः कृत्वा वन्दनकं यत्र ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। प्रश्न०। करोति तद्वेदिकाबद्धम् / बृ०३ उ०। वै-अव्य०(वै) अवधारणे, आ०म०१ अ०। निश्चये, कल्प०१ अधि०६ | वेइल्ल-पुं०(विचकिल)"स्थविरा-विचकिलायस्कारे" ||8/1 / 166|| क्षण। इत्यादेः स्वरस्य परेण सस्वरव्यञ्जनेन सहैत्। प्रा०ा तैलादित्वाल्लवेअड-धा०(खच) बन्धने, चुरा० / अदन्तः।"खचेर्वेअडः // 8483 // द्वित्वम्। मदनवृक्षे, प्रा०२ पाद। खचेर्वेअडादेशः / वेअडइ। खचयति। प्रा०।। वेउव्विय-न०(वैक्रिय) कर्म० / विविधा विशिष्टा वा क्रिया विक्रिया तस्यां वेअढ-(देशी)-भल्लातके, दे० ना० 7 वर्ग 66 गाथा। वैक्रियम् / तथाहि-तदेकं भूत्वाऽनेक भवति अनेक भूत्वा एकम, अणु वेइज्जमाण–त्रि०(वेद्यमान) अनुभूयमाने कर्मणि, भ० / 'वेइज-माणे वेइए' भूत्वा महद्भवति महद्भूत्वा अणुः, तथा-खचरं भूत्या भूमिचरं भवति भूचरं वेदनं कर्मणामनुभव इत्यर्थस्तच वेदनं स्थिति-क्षयादुदयप्राप्तस्य कर्मणा खचरम्, अदृश्यं भूत्वा दृश्यं भवति दृश्यं भूत्वा अदृश्यमित्यादि / शरीरभेदे, कर्म० 1 कर्म०। उदीरणाकरणेन चोदयमुपनीतस्य भवति। तस्य च वेदनाकालस्याऽसंख्येयसमयत्वादाद्यसमये वेद्यमानमेय वेदितव्यं भवतीति। भ०१श० वैकुर्विक-न० विशिष्ट कुर्वन्ति तदिति वैकुविक पृषोदरादित्वादभीष्ट१०॥ रूपसिद्धिः / कर्म० 1 कर्म० / शरीरभेदे, प्रश्न० 3 आश्र० द्वार। जी०। व्यज्यमान-त्रि०कम्पिते,व्येजितं कम्पितम्। 'एज' कम्पने, इति वचनात्। प्रज्ञा० / स्था० / अनु० / आव०! भ०१२०१ उ०। (व्येजनमपि तद्रूपापेक्षयोत्पाद एवेति 'कज्जकारणभाव' कइविहे णं भंते ! वेउव्वियसरीरे पण्णत्ते ? गोयमा ! दुविहे शब्दे तृतीयभागे 166 पृष्ठे व्याकृतम्।) पण्णत्ते, एगिदियवेउव्वियसरीरे य,पंचिंदिय-वेउव्वियसरीरे अ। एवं० जाव सणंकुमारे आढत्तं० जाव अणुत्तराणं भवधारणिज्जा० वेइत्थी-स्त्री०(वेदस्त्री०) पुरुषाभिलाषरूपे स्त्रीवेदोदये, सूत्र०१ श्रु०४ जाव तेसिं रयणीरयणी परिहायइ। (सू०१५२४) अ० 1 उ०। 'कइविहे ण' मित्यादि स्पष्ट, नवरं विविधा विशिष्टा वा क्रिया विक्रिया वेइय-त्रि०(वेदित) कथिते, आचा० 1 श्रु०२ अ० 3 उ० / त्वेन रसविपाकेन प्रतिसमयमनुभूयमाने अपरिसमाप्ते शेषानुभावे, भ०१श० तस्यां भववैक्रियम्। विविध विशिष्ट वा कुर्वन्ति तदिति वैकुर्विकमिति। वा / तत्रैकेन्द्रियवैक्रियाशरीरं वायुकायस्य पञ्चेन्द्रियवैक्रियशरीर १उ०। नारकादीनाम् ‘एवं जावे' त्यादेरतिदेशादिदं द्रष्टव्यम्, यदुत 'जइ एगिदिवैदिक-पुं० वेदे विदिता वैदिकाः। विद्यवृद्धेषु, दश० 4 अ०। आचाo! यवेउव्वियसरीरए किंवाउकाइयएगिदियवेउब्वियसरीरए अवाउकाइयवैदिकानां हिंसैव गरीयसी धर्मसाधनयज्ञोपदेशात् तस्य च तया एगिदिय-वेउव्वियसरीरए ? गोयमा ! वाउकाइयएगिदियसरीरए नो विनाऽभावात् / सूत्र० 2 श्रु०२ अ० 1 वेदाश्रिते, स्था० 3 टा०३ उ०। अवाउकाइय' इत्यादिनाऽभिलापेनायमों दृश्यः / यदि वायोः किं व्येजित-त्रि० विशेषतः कम्पिते, जं०१ वक्ष०ा जी०। सूक्ष्मस्य बादरस्य वा ? बादरस्यैव / यदि बादरस्य कि पर्याप्तकवेइया-स्त्री०(वेदिका) देवार्चनस्थाने, नि० / जम्बूद्वीप जगत्यादिसम्ब- स्याऽपर्याप्तकस्य वा ? पर्याप्तकस्यैव। यदि पञ्चेन्द्रियस्य किं नारकस्य धिनीषु, प्रज्ञा० 2 पद / (वेदिकाप्रमाणं तु 'पुक्खरवरदीवड्ड' शब्दे पञ्चेन्द्रियतिरश्वो मनुजस्य, देवस्यवा? गौतम् ! सर्वेषाम् / तत्र नारकस्य पश्चमभागे६६६ पृष्ठे द्रष्टव्यम्।) उपवेशनयोग्यासु भूमिषु, जं०२ वक्ष०। सप्तविधस्य पर्याप्तकस्येतरस्य च / यदि तिरश्चः किं सम्मूर्छिमस्य (जम्यूद्वीपादीनां वेदिकाः ‘पउमवरवेइया' शब्दे पश्चमभागे 15 पृष्ठे इतरस्य वा ? इतरस्य, तस्यापि संख्यातवर्षायुष एव पर्याप्तस्य, गताः / ) सुण्डा प्रकारे, स्था०३ठा०३ उ०। प्रत्युपेक्षणाप्रकारे, स्था०। तस्यापि च जलचरादिभेदेन त्रिविधस्यापि। तथा मनुष्यस्य गर्भजस्यैव
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________________ वेउव्विय 1423 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वेउव्वियलद्धि तस्यापि कर्मभूमिजस्यैव, तस्यापि संख्यातवर्षायुषः पर्याप्तकस्यैव। तथा धातुगणे धातुः, हलश्चेति घत्रि / विकुर्वणं विकुर्वस्तेन चरतीति ठकि देवस्य भवनवाग्यादेः, तत्रासुरादेर्दशविधस्य पर्याप्तकस्येतरस्य च, एवं 'ठस्येक' इति इकादेशे च वैकुर्विकः / प्रव० 1 द्वार। वैक्रियलब्धिमति व्यन्तरस्याष्टविधस्य ज्योतिष्कस्य पञ्चविधस्या तथा यदि वैमानिकस्य मनुष्ये, वातादिविक्रियविशेषान्महाप्रमाणे सागारिके, महाराष्ट्रविषये किं कल्पोपपन्नस्य, कल्पातीतस्य ? उभयस्यापि पर्याप्तस्यापर्याप्तस्य वेराटकप्रक्षेपेण विकृते सागारिके, बृ० 1 उ० 3 प्रक० / नि० चू० / चेति। तथा वैक्रियं भदन्त ! किंसंस्थितम् ? उच्यते - नानासंस्थितम्, भोगाद्यर्थ निष्पादिते विमानभेदे, स्था० 3 ठा० 3 उ० / विकृते, स्था० तत्र वायोः पताकासंस्थितं, नारकाणां भवधारणीयमुत्तरवैक्रियं च हुण्ड- ३ठा०३ उ०। विशे०। संस्थित, पञ्चेन्द्रियतिर्यग्मनुष्याणां नानासंस्थित, देवानां भवधारणीयं | वेउध्वियंगोवंगणाम--त्रि०(वैक्रियाङ्गोपाङ्गनामन्) अङ्गोपाङ्गनामकर्मसमचतुरस्त्रसंस्थानसंस्थितमुत्तरवैक्रिय नाना-संस्थितं, केवलं कल्पा भेदे, यदुदयाद्वैक्रियशरीरत्वेन परिणतानां पुद्गलानामङ्गोपाङ्गविभागतीतानां भवधारणीयमेव / तथा बैंक्रियशरीरावगाहना भवन्त ! किंमहती? परिणतिरुपजायते तद्वैक्रियाङ्गोपाङ्गनाम / कर्म०६ कर्म० / गौतम! जघन्यतोऽड्गुलासंख्येयभागमुत्कर्षतः सातिरेक योजनलक्षम्, वे उव्वियछक्क-न०(वैक्रियषट्क) देवगतिदेवानुपूर्वी नरकगतिनरवायोरुभयथा अगलासंख्येयभागम्, एवं नारकस्य जघन्येन भवधार कानुपूर्वीवैक्रियशरीरवैक्रियाङ्गोपाङ्गमिति वैक्रियोपलक्षिते, षट्के, कर्म० णीयम्, उत्कर्षतः पञ्चधनुःशतानि, एषा च सप्तयां, षष्ठ्यादिषुत्वियमेव 1 कर्म०। अर्धार्द्धहीनेति, उत्तरवैक्रिया तु जघन्यतः सर्वेषामप्यड्गुलसंख्येयभाग वेउव्वियऽवग-न०(वैक्रियाष्टक) देवगतिदेवानुपूर्वीदेवायुर्नरकगतिमुत्कर्षतश्च नारकस्य भवधारणीयद्विगुणेति। पञ्चेन्द्रियतिरश्वा योजनशत नरकानुपूर्वीनरकायुर्वैक्रियशरीरवैक्रियाङ्गोपाङ्गोपलक्षितेऽष्टके, कर्म०१ पृथकत्वमुत्कर्षतः. मनुष्याणां तूत्कर्षतःसातिरेक योजनानां लक्षं, देवानां कर्म। तु लक्षमेवोत्तरक्रिय, भवधारणीया तु भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कसोधर्मेशानान सप्त हस्ताः, सनत्कुमारमाहेन्द्रयोः षट्, ब्रह्मलान्तकयोः वेउध्वियणाम-न०(वैक्रियनामन्) वैक्रियनिबन्धनं नाम वैक्रियनाम / पञ्च, महाशुक्रराहरनारयोश्चत्वारः, आनतादिषु त्रयो, ग्रैवेयकेषु द्वयनुत्त यदुदयवशात् वैक्रियशरीरप्रायोग्यान पुङ्गलानादाय वैक्रिय-शरीररूपतया रेष्वेक इति / अनन्तरोक्तं सूत्रमेवाह– 'एवं० जाव सणंकुमारे' त्यादि, परिणामयति, परिणमय्य च जीवप्रदेशैः सहाऽन्योऽन्यानुगमरूपतया एवमिति-'दुविहे पन्नत्ते एगिदिय' इत्यादिना पूर्वदर्शितक्रमेण प्रज्ञापनोक्त संबन्धयति, तथाभूते नामकर्मभेदे, कर्म०१ कर्म०। वैक्रियावगाहनामानसूत्रं वाच्यम्। कियद् दूरमित्याह-यावत्सनत्कुमारे / वेउव्वियदुग-न०(वैक्रियद्विक) वैक्रि यशरीरवैक्रियाङ्गोपाङ्ग मिति आरब्धं भवधारणीयवैक्रियशरीरपरिहाणिमिति गम्यत्, ततोऽपि याव- / वैक्रियोपलक्षिते, द्वये, कर्म० 1 कर्म०। दनुत्तराणिअनुत्तरसुरसम्बन्धीनि भवधारणीयानि शरीराणि यानि वेउव्वियपरदारगमण-न०(वैक्रियपरदारगमन) देवाङ्गनागमने, आव० भवन्ति तेषां रत्नी रत्निः परिहीयत इति, एतदर्थसूत्रं भवेत् तावदिति। ६अ। पुस्तकान्तरे त्विदं वाक्यमन्यथाऽपि दृश्यते, तत्राप्यक्षरघटनैतदनुसारेण | वेउध्वियमीससरीरकायप्पओग-पुं०(वैक्रियमिश्रशरीरकायप्रयोग) कार्येति। स० 152 सम० / प्रज्ञा०। सूत्र०। (सूत्राणि 'ओगाहणा' शब्दे देवनारकेषु उत्पद्यमानस्यापर्याप्तकस्य कायप्रयोगे, वैक्रियशरीरस्य तृतीयभागे 78 पृष्ठे उक्तानि।) कार्मणेनैव लब्धिः, वैक्रियपरित्यागे त्वौदारिकप्रवेशाऽद्धायामौदारिकेवइआणं भंते ! वेउंव्विअसरीरा पण्णत्ता ? गोयमा! दुविहा कोपादानाय प्रवृत्ते वैक्रियप्राधान्यादौदारिकेणापि वैक्रियस्य मिश्रया पण्णत्ता, तं जहा-बद्धेल्लया य, मुक्केल्लया य / तत्थ णं जे ते इति / भ० 8 श० 1 उ०। बद्धेल्लया ते णं असंखिज्जा असंखेचाहिं उस्सप्पिणीओस वेउध्वियलद्धि-स्त्री०(वैक्रियलब्धि) वैक्रियशरीरकरणशक्ती, सा चानेकधाप्पिणीहिं अवहीरंति कालओ,खेत्तओ-असंखिज्जाओ सेढीओ अणुत्व 1 महत्त्व 2 लघुत्व 3 गुरुत्व 4 प्राप्ति 5 प्राकाम्ये 6 शित्व७ वशित्वा 8 पयरस्स असंखेजइमागो। तत्थ णं जे ते मुक्केल्लया ते णं अणंता। ऽप्रतिघातित्वा 6 अन्तर्धान 10 कामरूपित्वादिभेदात् / तत्राणुत्वम् अणंताहिं उस्सप्पिणीओसप्पिणीहिं अवहीरंति कालओ, सेसं अणुशरीरविकरणम्, येन विसच्छिद्रमपि प्रविशति तत्रच चक्रवर्तिभोगानपि जहा ओरालिअस्स मुक्केल्लया तहा एए वि भाणिअव्वा / भुङ्क्ते / / 1 / / महत्त्वम्- मेरोरपि महत्तरकशरीरकरण-सामर्थ्यम् / / 2 / / तत्र नारकदेवानामेतानि सर्वदैव बद्धानि संभवन्ति, मनुष्यतिरश्वा तु लघुत्वम्- वायोरपि लघुतरशरीरता // 3 // गुरुत्वम्- वज्रादपि गुरुतरवैक्रियलब्धिमतामुत्तरवैक्रियकरणकाले-ततः समान्येन चतुर्गतिका- शरीरतया इन्द्रादिभिरपि प्रकृष्टबलैर्दुःसहता॥४॥प्राप्तिभूमिष्ठस्य अगुल्यग्रेण नामपि जीवानाममूनि बद्धान्यसंख्येयानि लभ्यन्ते, तानि च कालतोऽ- मेरुपर्वतप्रभाकरादिस्पर्शसामर्थ्यम् / / 5 / / प्राकाम्यम्- अप्सुभूमाविव संख्येयोत्सर्पिण्यवसर्पिणीसमयराशितुल्यानि, क्षेत्रतस्तु पूर्वोक्तप्रतरा- गमनशक्तिः,तथा अपिच-भूमावुन्मज्जननिमजने / / 6 / / ईशित्वम्संख्येयभागवयंसंख्येयश्रेणीनां यः प्रदेशराशिस्तत्संख्यानि संभवन्ति, त्रैलोक्यस्य प्रभुता तीर्थकरत्रिदशेश्वरऋद्धिविकरणम् // 7 // वशित्वम्मुक्तानि यथौदारिकाणि तथैव। अनु०। शरीरतद्वतोरभेदोपचा-रान्मत्व- सर्वजीववशीकरणलब्धिः ||8 अप्रतिधातित्वम्- अग्निमध्येऽपि थीयलोपाद्वा वैक्रियशरीरवति जीवे, विशे०। 'विकुर्व' विक्रियायामिति निःसङ्गगमनम्।।६।।अन्तर्धानम् अदृश्यरूपता॥१०॥कामरूपित्वम्-युगप
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________________ वेउध्वियलद्धि 1424 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वेजयंत देव नानाकाररूपविकरणशक्तिः / / 11||26 // ग०२ अधि०। पा०। औ०। चउवीसगा दंडगा भणितव्वा' एवम्- उपदर्शितेन प्रकारेण अप्रापिवेउव्वियसमुग्घाय-पुं०(वैक्रियसमुद्धात) वैक्रिये प्रारभ्यमाणे समुद्घातो वैक्रियसमुद्घातविषयेऽपि चतुर्विशतिः-चतुर्विशतिसंख्याः- 'चउवीसा' बैंक्रियसमुद्घातः, पं० सं०२ द्वार / रा० / वैक्रियलब्धिमतो वैक्रियो- इति चतुर्विशतिः-चतुर्विंशतिस्थानपरिमाणा दण्डका--दण्डक-सूत्राणि त्पादनाय बहिरात्मप्रदेशप्रक्षेपे, आचा०१ श्रु०२ अ०१ उ०। ज्ञा०। भणितव्याः। प्रज्ञा०३६ पद। वैक्रियसमुद्घातगतः पुनर्जीवः स्वप्रदेशान् शरीरादहिनिष्काश्य शरीर- वेउव्वियसय-न०(वैक्रियशत) वैक्रियलब्धिमतिशते, स०६०० सम० / विष्कम्भबाहल्यमान-मायामतः संख्येययोजनप्रमाणं दण्ड निसृजति, I सवियसरीर न० कियशरीरभरीरभेटे कर्म० 5 कर्मo: निसृज्य च यथास्थूलान् वैक्रियशरीरनामकर्मपुगलान् प्राग्वच्छातयति। / वेउब्वियसरीरकायप्पओग-पुं०(वैक्रियशरीरकायप्रयोग) वैक्रियपतथा चोक्तम्- "वेउव्वियसमुग्घाएणं समोहणइ समोहणित्ता संखेजाई र्याप्तस्य कायप्रयोगे, भ०८ श०१ उ०। जोयणाई दंडं निसिरइ निसिरित्ता अहाबायरे पुग्गले परिसाडेइ" इति। वेउव्वियसरीरि-त्रि०(वैक्रियशरीरिन्) विभूषितशरीरे, भ०१८ 105 प्रज्ञा०१२पद। उ०। ('वग्गणा' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 786 पृष्ठे व्याख्यातम्।) वेउव्वियसमुग्धातो जहा कसायसमुग्घातो तहा निरवसेसो माणितव्यो, नवरं जस्स नऽस्थितस्सन वुचति, एत्थ विचउवीसं वेउव्यिया-स्त्री०(वैकुर्विका) विकुर्वितनानारूपधारिण्याम, चं० प्र०१६ चउवीसा दंडगा भाणियव्वा।। (सू०३३५४) पाहु०। 'वेउव्विए' इत्यादि, वैक्रियसमुद्धातो यथा कषायसमुद्घातः प्राक् वेकुंठ-पुं०(वैकुण्ठ) विकुण्ठाख्यविष्णुलोकाधिपती, प्रा० 1 पाद। प्रतिपादितः तथा निरवशेषो भणितव्यः, केवलं यस्य वैक्रियसमुद्घातो वैकुंठतित्थ-न०(वैकुण्ठतीर्थ) मथुरायां वैष्णवतीर्थभेदे, ती० 8 कल्प० / नास्ति वैक्रियलब्धेरेवासम्भवात्तस्य नोच्यते, शेषस्य उच्यते। स चैवम्- वेकुंथु-पुं०(वैकुन्थु) चमरसुरेन्द्रस्य पीठानीकाधिपती, स्था०५ ठा० 170 / एगमेगस्स णं भंते ! नेरझ्यस्स नेरइयत्ते केवइया वेउव्वियसमुग्घाया वेग-पुं०(वेग) जवे, तं०1 प्रश्न०। गतिविशेषे, औ०। रये, आव० 4 अ०। अतीता ? गोयमा ! अणता, केवइया पुरेक्खडा ? गोयमा ! कस्सइ सम्म अत्थि कस्सइनऽस्थि, जस्स अस्थि जहण्णेणं एको वा दो वा तिणि वा वेगच्छ-न०(वैकक्ष) उत्तरासङ्गे, उपा०२ अ०। उक्कोसेणं सिय संखेजा वा सिय असंखेजा वा सिय अणंता था। एगमेगस्स णं भंते नेरइयरस असुरकुमारते केवइया वेउब्धियसमुग्घाया अतीता? वेगच्छछिण्णग-पुं०(वैकच्छच्छिन्नक) उत्तरासङ्गन्यायेन विदारिते, गोयमा ! अणता, केवइया पुरेक्खडा? गोयमा ! कस्सइ अत्थि कस्सइ औ० / सूत्र०। नऽस्थि, जस्सत्थि सिय संखिजा सिय असंखिजा सिय अणंता वा, एवं वेगच्छिया-स्त्री०(वैकक्षिकी) संयतीनामुपकरणविशेषे, वृ० 1 उ०२ नेरइयस्स० जाव थणियकुमारत्ते / एगमेगस्स ण भंते ! नेरइयस्स प्रक०।"वेगच्छिया उपड़े कंचुकमुक्कच्छियं च छादेति'' औपकक्षिकीपुढविकाइयत्ते केवइया वेउटिवयसमुग्घाया अतीता? गोयमा ! नऽस्थि, विपरीतो वैकक्षिकीनामकः पटः; स च कञ्चुकमौपकक्षिकी वस्त्रं छादयन् केवझ्या पुरेक्खडा? गोयमा। नऽत्थि, एवं० जाव तेउक्काइयत्ते, एगमेगस्स वामपार्श्वे परिधीयते। बृ०३ उ०। पं०व०। नि० चू०। णं भंते नेरइयस्स वाउकाइयत्ते केवइया वेउव्वियसमुग्धाया अतीता? | वेगवई-स्त्री०(वेगवती) अस्थिकग्रामस्य समीपनद्याम, ती०३ कल्प० / गोयमा अणंता, केवइया पुरेक्खडा? गोयमा ! कस्सइ अस्थि, कस्सइ आ० क० / आ० म०। आ० चू०।। नऽस्थि, जस्सऽस्थिजहण्णेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा उक्कोसेणं संखेजा वेगसर-पुं०(वेगसर) अश्वतरे, स्था० 3 ठा० 4 उ०। वा असंखेजा वा अणंता वा, वणस्सइकाइयत्ते० जाव चउरिदियत्ते जहा वेगुण्ण-न०(वैगुण्य) वैधर्मे, विपरीतभावे, आव० 4 अ०। पुढविकाइयत्ते, तिरिक्खपंचिंदियत्ते मणुस्सत्ते जहा वाउकाइयत्ते, वेजयंत पुं०(वैजयन्त) ऊर्ध्वलोकेऽनुत्तरोपपातिकविमानानां द्वितीये वाणमंतरजोइसियवेमाणियत्तेसु जहा असुरकुमारत्ते' इह यत्र वैक्रिय विमाने, स्था०५ ठा० 3 उ० जी०। प्रज्ञा०। अणु० स०। जम्बूद्वीपस्य समुद्धातसम्भवस्तत्र भावना कषायसमुद्धातवद्भावनीया, अन्यत्र तु प्रतिषेधः सुप्रतीतः वैक्रियलब्धेरेवासम्भवात्, यथा च नैरयिकस्य लवणसमुद्रस्य धातकीखण्डस्य कालोदस्य पुष्करवरद्वीपस्य पुष्करोचतुर्विशतिदण्डकक्रमेण सूत्रमुपदर्शितमेवमसुरकुमारादीनामपि चतुर्विश दस्य च दक्षिणद्वारेषु, स्था० 4 ठा०२ उ० / स०। तिदण्डकक्रमेण प्रत्येकं सूत्रमवगन्तव्यम्, नवरमसुरकुमारादिषु स्तनित __ वैजयन्तद्वारप्रतिपादनार्थमाहकुमारपर्यवसानेषु व्यन्तरादिषु च परस्परं स्वस्थाने एकोत्तरिका परस्थाने कहिणं भंते ! जंबूदीवस्स वेजयंते णामं दारे पण्णत्ते ? संख्येयादयो वक्तव्याः, वायुकायिकतिर्यक्पञ्चेन्द्रियमनुष्येषु तु परस्पर गोयमा ? जंबूदीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दक्खिणेणं पणस्वस्थाने परस्थाने वाएकोत्तरिकाः, शेषं तथैव। एवमेतान्यपि चतुर्विंश- यालीसं जोयणसहस्साइं अबाधाए जंबूद्दीवदीवदाहिणपेरंते तिश्चतुर्विंशतिदण्डकसूत्राणि भवन्ति / तथा चाह-- 'एवमेते चउवीस लवणसमुद्ददाहिणद्धस्स उत्तरेणं एत्थं णं जंबुद्दीवस्स दीव
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________________ वेजयंत 1425 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वेढिम स्स वेजयंते णामं दारे पण्णत्ते / अट्ट जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं नस्याचेद्वण्र्णलावण्य-तया परिणमन्ति ते / / 5 / / सचेव सव्वा वत्तव्वता० जाव णिचे / कहि णं भंते !0 रायहा राज्ञा तृतीयवैधेन, कारिता वैद्यकक्रिया। णी? दाहिणे णं० जाव वेजयंते देवे ||2|| जी०३ प्रति० नीरोगः समभूद्दिव्य-रूपलावण्यवर्णभाक् // 6 // २उ०। एवं प्रतिक्रमणोऽपि, स्याद्दोषश्चेद्विशुध्यति। वैजयन्तद्वारं जयन्ाद्वारवद्वाच्यम्, “समवेजयंतं पि अप्प-डिओण गमेणं लवणस्स दाहिणेणं रायहाणी।" (जी०।) 'कहिणं भंते ! इत्यादि का नस्याचेचरणस्यैव, शुद्धिः शुद्धितरा भवेत्॥७॥" भदन्त ! लवणस्य समुद्रस्य वैजयन्तं नाम द्वारं प्रज्ञप्ते, भगवानाह-गौतम ! आ०क०४ अ०। लवणसमुद्रस्य दक्षिण-पर्यन्ते धातकीखण्डद्वीपदक्षिणार्द्धस्योत्तरतोऽत्र वेजगणा(ण्णा)य-न०(वैद्यकज्ञात) आयुर्वेदोदाहरणे, पञ्चा०४१ विव०। लवणसमुद्रस्य वैजयन्तं नाम द्वारं प्रज्ञप्तमा एतद्वक्तव्यता सर्वाऽपि विजय वेजमाण-त्रि०(वेद्यमान) अनुभूयमाने, विशे०। द्वारवदवसेया।नवरं राजधानी वैजन्तद्वारस्य दक्षिणतो वेदितव्या / जी० वेज्जसंवेज-त्रि०(वेद्यसंवेद्य) वेद्य संवेद्यते यस्मिन्नपायादिनिबन्धनं पदं तद् 3 प्रति०२ उ०। जं०। प्रधाने, स्वगुणैरपरेषां पताकायामिव व्यवस्थिते, वेद्यसंवेद्यपदम्, वेद्यं वेदनीयं वस्तुस्थित्या तथाभावयोगिसामासूत्र०१ श्रु०६अ। न्येनाविकल्पकज्ञानग्राह्यमित्यर्थः। संवेद्यते-क्षयोपशमानुरूपं निश्चयवेजयंतकूड न०(वैजयन्तकूड) जम्बूद्वीपे मन्दरस्योत्तरे रुचकवरपर्वत- बुद्ध्या विज्ञायते यस्मिन्नाशयस्थानेऽपायादिनिबन्धनं नरकस्वर्गादिस्यार्द्धकूटे, स्था० 8 ठा०३ उ०। कारण स्यादि तद्वेद्यसंवेद्यपदम् अपायादिनिबन्धवेदके, नपुं० / वेजयंती-स्त्री०(वैजयन्ती) अङ्गारकादीनां महाग्रहाणा-मग्रमहिष्याम्, ग्रन्थिभेदजनितेरुचिविशेषे च। द्वा० 22 द्वा०1 स्था० 4 ठा० 1 उ०। जं०। पताकायाम्, सूत्र० 1 श्रु०६ अ०। चं० प्र०। वेट्ठणग-पुं०(वेष्टनक) श्रीदेवताध्यासितपट्टे, बृ०६उ०। कर्णाभरणविशेषे, पताकाविशेषे, ज्ञा०१श्रु०१अ०रा० आ०म०। प्रश्न० आ० चू०। / जं०२वक्ष०। स०। पूर्वरुचकवास्तव्यायां स्वनामख्याताया दिकुमायोम्, तिला स्था०। / वेणगबद्ध-०(वेष्टनकबद्ध) श्रीदेवताध्यासितपट्टो वेष्टनक उच्यते, आ० म०। तद्यस्य राज्ञाऽनुज्ञातं स वेष्टनकबद्धः / श्रेष्ठिनि, बृ०६ उ०। दो वेजयंती (सूत्र 62) स्था० 2 ठा० 3 उ०। जेड-त्रि०(बीड) व्रीडाऽस्यास्तीति व्रीडः भूमार्थेऽस्त्यर्थ प्रत्ययः। लज्जाआ० का जाद्वीला रुचकस्य नैर्ऋतकोणदेव्याम्, ति० औत्तराहा- 1 प्रकर्षवति, भ०१५ श०। जनादिपर्वतस्य दक्षिणस्यां दिशि नन्दापुष्करिण्याम्, स्था०४ ठा०२ | वेडा-स्त्री०(ब्रीडा) लज्जायाम, भ०१५ श०। उ०पती० / पश्चिमाञ्जनाद्रेर्दक्षिणतो नन्दापुष्करिण्याम्, द्वी०। शक्रस्य वेडंबय-पुं०(विडम्बक) विदूषके, नानावेषादिकारिणि, अनु० / त्रायस्त्रिंशोत्पातपर्वतराजधान्याम, द्वी० पक्षस्य पञ्चदश्यां रात्रौ, ज्यो० 4 पाहु० / जं०। कल्प० / जम्बूद्वीपे द्वीपे प्रथमबलदेवमातरि, स० / वेडिस-पु०(वेतस) "इ: स्वप्रादौ' ||8/1:46|| इत्यत इत्त्वम्। 'इत्त्वे षष्ठजिननिष्क्रमणशिविकायाम्, स०। वेतसे" / / 1207 // वेतसे तस्य डो भवति इत्चे सति। इति तस्य डः। वेत्रे,प्रा०१पाद। वेज-त्रि०(वेद्य) अनुभावनीये (आचा०१ श्रु०५ अ०४ उ०।) तत्त्वे, अने० 4 अधि०। मले, वक्खहं ति वा चोण्णं ति वा कलुसं ति वा वेज ति वेद-धा०(वेष्ट) वेष्टने, 'वेष्टः" / / 8 / 4 / 221 / / इति कृतषलोपस्य वेष्टधावा वेरं ति वा पंको त्ति वा मलो त्ति वा सत्त एगट्टित्ता। नि० चू० 20 उ०। तोरन्त्यस्य ढः / वेढइ। प्रा०। वेष्टयते कोशिकारकीट इव / प्रश्न०३ आश्र०। द्वार / वेढिडइ / पक्षे "वेष्टेः परिआलः" ||8451 / / इति वैद्य-पुं० "ऐतएत्" / / 8 / 1 / 148 // इत्यैकारस्य एकारः / प्रा०। आयुर्वेदज्ञे, परियालादेशे-परियालेइ वेढेइ / वेष्टयति। प्रा० 4 पाद / आ००। वेष्ट-पुं० वेष्टने, स्था०४ ठा०४ उ०।छन्दोविशेषे, नं०। एकार्थप्रतिबद्धअत्र वैद्येन दृष्टान्तः वचनसंकलिकायाम, स०। "एकस्य नृपतेरेक-स्तनुजोऽतीव वल्लभः / वेढअ-पु०(वेष्टक) एकवस्तुविषयपदपद्धतौ, ज्ञा० 1 श्रु० 16 अ० / स दध्यौ माऽस्य रोगोऽभू-चिकित्सा कारयामि तत् / / 1 / / वर्णनार्थानां वाक्यपद्धतौ. ज्ञा० 1 श्रु० 16 अ० / निक्षेपनियुक्त्युआकार्य वैद्यानूचे स, चिकित्सत सुतं मम। पोद्धातनियुक्तिलक्षणे सूत्रव्याख्याने, अनु० / यथाऽस्य नैव रोग: स्या--दूचिरे तैः करिष्यते // 2 // वेढिम-न०(वेष्टिम) वेष्टनं वेष्टस्तेन निर्वृत्तं वेष्टिमम्। स्था० 4 ठा० 4 उ० / राजोचे कीदृशाः कस्य, योगा एकोऽवदत्ततः। वेष्टननिष्पन्ने पुष्पलम्बूसकादौ, भ०६ श०३३ उ० / रा०। शा० / रोगाः स्युश्चेन्निवर्तन्ते, न स्युश्चेन्मारयन्ति तम् / / 3 / / आचा० / दश०। यद्ग्रथिनं वेष्ट्यतेयथा पुष्पलम्बूसकः; गेन्दुक इत्यर्थः / ज्ञा०१ श्रु०१अ०। पुष्पवेष्टनकक्रमेण निष्पन्ने आनन्दपुरादिप्रतीतरूपे द्वितीयः रमहि रोगश्चे-द्भवेत्तदुपशाम्यति। एकं द्वौ त्रीणि वस्त्राणि वेष्टयित्वा उत्थापिते रूपके, अनु०। नि० चू० / नो चेद् गुणं वा दोषं वा, न किंचिदपि कुर्वते ||4|| वस्त्रादिनिर्वर्तित-पुत्तलिकादिके, आचा०२ श्रु०२ चू०५ अ०। पुष्पतृतीयोऽभिदधे रोगः, स्याचेत्तदुपशाम्यति। मुकुट इव उपर्युपरि शिखरीकृत्य मालास्थापने, जी०३ प्रतिक
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________________ वेढिम 1426 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वेणइया 4 अधि०। ('आवस्सय' शब्दे द्वितीयभागे 446 पृष्ट विशेषतो व्याख्या - लवावसंकीय अणागएहिं, तमिदम्।) णो किरियमाहंसु अकिरियवादी॥४।। वेढिमा स्त्री०(वेष्टिमा) माषपिष्टपूरितकरोटिकायाम, प्रश्न० 5 संव० द्वार। रास्यानं संख्या-परिच्छेदः उप- सामीप्येन संख्या उपसंख्यावेण-पुं०. स्वी०(वीणा) 'रवराणा स्वराः प्रायोऽपभशे" ||8 / 4 / 326 / / सम्यग्यथावस्थितार्थपरिज्ञानं नोपसंख्याऽनुपसंख्या तयाऽनुपसंख्ययाःइत्यपभ्रंशे ईकारस्थाने एकारः। वाहाभेदे, प्रा०॥ अपरिज्ञानेन व्यामूढमतयरते वैनथिकाः रवाग्रहगरता इति एतद्- यथा विनयादेव केवलात्स्वर्गगोक्षावाप्तिरित्युदाहृतवन्तः। एतच ते महामोहावेणइय-न०(वेनयिक) विनय एव वैनयिकम्।दश० अ०१ उ०। रथा०। च्छादिताः ‘उदाहुः उदाहृतवन्तः, आस्माकम् अवभासते आविर्भवति गुरुशुश्रूषायाम, भ० 12 श० 5 उ० / ज्ञानादिविनये कर्मक्षयादिके प्राप्यते इति यावत्, अनुपसंख्योदाहृतिश्च तेषामेवमवगन्तव्या। तद्यथाविनयफले, नं० / भारया०। त्रि०ा विनयेन चरति वैनयिकः। शिष्रो, ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षसद्भावे सति तदपारय विनयादेवैकरमात्तदवाप्त्यदश० 3 अ० / विनयमर्हन्तीति वैनयिकाः / आचार्यादिषु, 3 उ० / ग्युपगमादिति। यदुप्युक्तम्- 'सर्वकल्याणभाजनं' तदपि सम्यग्दर्शनादिविनयादेव मोक्ष इत्येवं गोशाल-कमतानुरारिणि, सूत्र०१ २०६अ। संभवे सहि विनयस्य कल्याणभाक्त्वं भवति नैवकस्येति, तद्रहितो "वैनसिकमतं विनय-श्वेतोवाकायदानतः कार्यः। सुरनृपलियतिज्ञाति-- विनयोपेतः सर्वस्य ग्रहतया न्यत्कारमेवापादयति, ततश्च विवक्षिस्थविरा-धनमातृपितृषु सदा'" / / 1 // इति। स्था० 4 ठा०४ उ०। नं० / तार्थावमा सनाभावत्तेषामेवंवादिनामज्ञानानाधृतत्वमे मावशिष्यते पुनः- इदानीं वैनयिकानां विनयादेव केवलात्परलोकमपीच्छता नाभि-प्रेतार्थावाप्तिरित्युक्ता वैनयिकाः। सूत्र० 1 अ० 12 अ०। द्वात्रिंशदनेन प्रकमेण योज्याः। तद्यथा-सुरनृपतियतिज्ञाति-रथविराध वेणइयवाह--पुं०(वैनयिकवादिन) विनयेन चरतिस् वा प्रयोजनमेषामिति ममातृपितृषु मनसा वाचा कायेन दानेन चतुर्विधो विनयो विधेयः / सूत्र० वैनायिकाः, तेच ते वादिनश्चेति वैनयिकवादिनः / 'वनय एववावैनयिक 1 श्रु०१२ अ०॥ तदेव ये स्वर्गादिहेतुतया तदन्त्येवं शीलाच ते वैनयिकवादिनः अथ वैनयिकवाद निराचिकीर्षुः प्रकमते - विधृतलिदाचारशास्त्रविनयप्रतिपत्तिलक्षणेषु वादिषु भ०३ श०१ उ० सचं असचं इति चिंतयंता, असाहु साहु त्ति उदाहरंता। नं०। स्था०। जे मे जणा वेणइया अणेगे, पुट्ठा वि भावं विणइंसु णाम / / 3 / / / वेणइया-रसी०(वैनयिकी) विनयो गुरुशुश्रूषा सकारणमस्यास्तत्प्रधाना सद्भ्यो हितं सत्य-परमार्थो यथावस्थितपदार्थनिरूपण या मोक्षो वा वैनथिकी। स्था० 4 ठा० 4 उ०। आ० म० / गुरु विनयलभ्यशास्त्रार्थतदुपायभूतो वा संयमः सत्यं तदसत्यम इति- एवं विचिन्तयन्तो सरकारजन्ये बुद्धिभेदे, ज्ञा० १श्रु०१ अ० | आ००। मन्यमानाः, एवमसत्यमपि रात्यमिति मन्यमानाः / तथाहि संप्रति वैनयिक्या लक्षण प्रतिपादयतिसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राख्यो मोक्षमार्गः सत्यस्तमसत्यत्वेन चिन्तयन्ता भरनित्थरणसमत्था, तिवग्गसुत्तत्थगहिअपेआला। विनयादेव मोक्ष इत्येतदसत्यमपि सत्यत्वेन मन्यमानाः, तथा असाधु- उभयो लोगफलवई, विणयसमुत्था हवइ बुद्धी / / 64 / / मप्यविशिष्टकर्मकारिणं वन्दनादिकया विनयप्रतिपत्त्या साधुम् इति एवम् निमित्ते 1 अत्थसत्थे अ२, उदाहरन्तः- प्रतिपादयन्तो न सम्यग्यथावस्थित धर्मस्य परीक्षकाः, लेहे 3 गणिए अ४ कूव 5 अस्से अ६। युक्तिविकलं विनयादेव धर्म इत्येवमभ्युपगमात्, क एते इत्येतदाह- ये गद्दभ 7 लक्खण 8 गंठी 6, इमे-बुद्ध्या, प्रत्यक्षासन्नीकृता जनाइव--प्राकृतपुरुषा इव जना विनयेन अगए 10 रहिए अ११ गणिया य 12 // 65 / / चरन्ति वैनयिकाः विनयादेव केवलात्स्वर्ग मोक्षावाप्तिरित्येवं वादिनः सीआ साढी दीहं, च तणं अवसव्वयं च कुंचस्स / / 13 / / अनेकवहयो द्वात्रिंशद्धेदभिन्नत्वात्तेषाम् / ते च विनयचारिणः केनचिद्धमार्थिना पृष्टाः सन्तोऽपिशब्दादपृष्टा वा भावंपरमार्थ यथार्थापलब्धं निव्वोदए अ 14 गोणे, घोडगपडणं च रुक्खाओ / / 15 / 16 / / स्वाभिप्राय वा विनयोदेव स्वर्गमोक्षावाप्तिरित्येवं व्यनैषुः-विनीतवन्तः इहाऽतिगुरुकार्य दुर्निवहत्वाद्भर इक भरस्तन्निस्तरणे समर्थाः भरन्निसर्वदा सर्वस्य सर्वसिद्धये विनय ग्राहितवन्तः / नामशब्दः संभावना स्तरणसमर्थाः, त्रयो वर्गास्त्रिवर्गाः लोकरूड्या धर्मार्थकामारतदर्जनोयाम्। संभाव्यत एव विनयात्स्वकार्यसिद्धिरिति / तदुक्तम- "तस्मात् पायप्रतिपादकं यत्सूत्रं यश्च तदर्थस्तौ त्रिवर्गसूत्रार्थी तयोर्गृहीतं पेयालं' कल्याणानां सर्वेषां भाजनं विनयः इति // 3 // " प्रमाण सारो वा यया सा तथाविधा / अत्राह-नन्वश्रुतनिश्रिता बुद्धयो वक्तुमभिप्रेताः, ततो यद्यस्या-स्त्रिवर्णसूत्रार्थगृहीतसारत्वं ततोऽश्रुतकिं चान्यत् निश्रितत्वं नोपपद्यते, न हि श्रुताभ्यासमतरेण त्रिवर्गसूत्रार्थगृहीतअणोवसंखा इति ते उदाहु, सारत्वं संभवति / अत्रोच्यते-इह प्रायो वृत्तिमाश्रित्याश्रुतनिश्रितअढेस ओभासइ अम्ह एवं। ररामुक्तं, ततः स्वल्पश्रुतभावेऽपि न कश्चिद्दोषः। तथा उभयलोकफलवती
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________________ वेणइया 1427 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वेणइया एहिके आमुष्मि के च लोके फलदायिनी विनयसमुत्था बुद्धिर्भवति / सम्प्रतयस्या एव विनेयजनानुग्रहार्थमुदाहरणैः स्वरूपं दर्शयतिगाथाद्वयार्थः कथानकेभ्योऽवसेयः तानि च ग्रन्थगौरवभयात्संक्षेपेणाच्यन्ते--- तत्र 'निमित्ते' इति-कचित्पुरे कोऽपि सिद्धपुत्रकः, तस्य द्वौ शिष्यौ निमित्तशास्त्रमधीतवन्तौ, एको बहुमानपुरस्सरं गुरोविनयपरायणों यक्किमपि गुरुरुपदशिति तत्सर्व तथेति प्रविपद्य स्वचतसि निरन्तरं विमृशति, विमृशतश्च, यत्र क्वादि सन्देह उपजायते तत्र भूयोऽपि विनयेन गुरुपाद-मूलमागत्य पृच्छति, एवं निरन्तरं विमर्शपूर्व शास्त्रार्थ तस्य चिन्तयतः प्रज्ञाप्रकर्षमुपजगाम द्वितीयस्त्वेतद्गुणविकलः। तौ चान्यदा गुरुनिदेशात् क्वचित्प्रत्यासन्ने ग्राभे गन्तं प्रवृत्ती, पथि च कानिचित् महान्ति पदानि तावदर्शताम्, तत्र विमृश्यकारिणा पृष्टम्-- भोः कस्यामूनि पदानि ? तेनोक्तम्- किमत प्रष्टव्यं हस्तिनोऽमूनि पदानि / ततो विमृश्यकारी प्राह- मैव भाषिष्ठाः, हस्तिन्या अमूनि पदानि, सा च हरितनी वामेन चक्षुषा काणा, तां चाधिरूढा गच्छति काचिद्राज्ञी, सा च समतका गुर्वी च प्रजने कल्या, अद्य श्वो वा प्रसविष्यति, पुत्रश्च तस्या भविष्यति / तत एवमुक्त सोऽविमृश्यकारी ब्रूते- कथमेतदवसीयते ? विमृश्यकारी प्राह-- 'ज्ञानं प्रत्ययसार' मित्यगे प्रत्ययतो व्यक्त भविष्यति / ततः प्राप्तौ तौ विवक्षितं ग्राम, दृष्टा चावासिता तस्य ग्रामस्थ बहिः प्रदेशे महासरस्तटे राज्ञी, परिभाविता च हस्तिनी वामेन चक्षुषा काणा / अत्रान्तरे च काचिदाराचेडी महत्तमं प्रत्याह-वर्धाप्यसे राज्ञः पुत्रलाभेनेति / ततः शब्दितो विमृश्यकारिणा द्वितीयः, परिभावय पारचे टोकचनमिति, तनोक्तं परिभावितं मया सर्व, नान्यथा तव / ज्ञानमिति / तस्तिो हस्तपादान् प्रक्षाल्य तस्मिन् महासरस्तटे न्यग्रोधतरोरधो विश्रामाय स्थिती, दृष्टौ च कयाचिच्छिरोन्यस्तजलभृतघटिकया वृद्धस्त्रिया, परिभाविता च तयोराकृतिः। ततश्चिन्तयामास-- नूनमेतौ विद्वांसौ, ततः पृच्छामि देशान्तरगतनिजपुत्रागमनमिति / पृष्ट तया। प्रश्नसमकालभेव च शिरसोनिपत्य भूमौ घटः शवखण्डशो भग्नः / / तता झटित्ये-वाविमृश्यकारिणा प्रोगतस्ते पुत्रो घट इव व्यापत्तिमिति / विमृश्यकारी ब्रूते स्म-मावयस्यैवं वादीः, पुत्रोऽस्या गृहे समागतो वर्तते, याहि मातर्वृद्ध ! स्त्रि! स्वपुत्रमुखमवलोकयातत एवमुक्ता सा प्रत्युजीवितेवाशीर्वादशतानि विमृश्यकारिणः प्रयुञ्जाना स्वगृहं जगाम / दृष्टश्चोभूलितजङ्घः स्वपुत्रौ गृहमागतः। ततः प्रणता स्वपुत्रेण, सा चाशीर्वाद निजपुत्राय प्रायुक्त, कथयामास च नैमित्तिकवृत्तान्तम्। ततः पुत्रमापृच्छ्य वस्त्रयुगलं रूपकांश्च कतिपयानादाय विमृश्यकारिणः समर्पयामास, अविमृश्यकारी च खेदमावहन् स्वचेतसि अचिन्तयत्- ननमहं गुरुणा न सम्यक परिपाठितः, कथमन्यथाऽहं न जानामि ? एष जानातीति / गुरुप्रयोजन कृत्वा समागतौ द्वौ गुरोः पावें / तत्र विमृश्यकारी दर्शनमात्र एव शिरो नमयित्वा कृताञ्जलिपुटः सबहुमान-मानन्दाश्रुप्लावितलोचनो गुरोः / पादावन्तरा शिरः प्रक्षिप्य प्रणिपपात, द्वितीयोऽपि च शैलस्तम्भ इव मनागप्यनमित-गात्रयष्टिर्मात्सयवह्निसम्पर्खतो धूमायमानोऽवतिष्ठते / ततो गुरुस्त प्रत्याहू-- रे ! किमिति पादयोर्न पतसि ? स प्राह- य एव सम्यक पाठितः स एव पतिष्यति, नाहमिति।गुरुराह-कथ त्वं न सम्यक् पाठित: ? ततः स प्राचीनं वृत्तान्तं सकलमचीकथत्, यावदेतस्य ज्ञान सर्व सत्यं न ममेति। ततो गुरुणा विमृश्यकारी पृष्टः-कथय वत्स ! कथं त्वयेद ज्ञातमिति ? ततः स प्राहमया युष्मत्पादादेशेन विमर्शः कर्तुमारब्धोयथैतानि हस्तिरूपस्य पदानि सुप्रतीतान्येव, विशेषचिन्तायां तु किं हस्तिन उत हस्तिन्या? तत्र कायिकीं दृष्ट्वा हस्तिन्या इति निश्चितम्, दक्षिणे च पार्श्वे वृत्तिसमारूढवल्लीवितान आलूनविशीर्णो हस्तिनीकृतो दृष्टो न वामपार्वे ततो निश्चिक्येनूनं वामेन चक्षुषा काणेति / तथा नान्य एवंविधपरिकरोपेतो हस्तिन्यामधिरूढो गन्तुमर्हति ततोऽवश्यं राजकीयं किमपि मानुषं यातीति निश्चितम् / तच्च मानुषं क्वचित्प्रदेशे हस्तिन्या उत्तीर्य शरीरचिन्तां कृतवत्, कायिकीं दृष्ट्वा, राज्ञीति निश्चितम्। वृक्षावलग्नरक्तवस्त्रदशालेशदर्शनात् सभर्तृका। भूमौ हस्तं निवेश्योत्थानाकारदर्शनाद् गुर्वी दक्षिणचरणनिस्सहमोचननिवेशदर्शनात्प्रजने कल्येति। वृद्धस्त्रियाः प्रश्नानन्तरं घटनिपाते चैवं विमर्शः कृतो-- यथैष घटो यत उत्पन्नस्तत्रैव मिलितस्तथा पुत्रोऽपीति। तत एवमुक्ते गुरुणा स विमृश्यकारी चक्षषा सानन्दमीक्षितः प्रशंसितश्च / द्वितीय प्रत्युवाच-तव दोषो यन्न विमर्श करोषि, न मम / वयं हि शास्त्रार्थमात्रोपदेशेऽधिकृताः विमर्श तु यूयमिति / विमृश्यकारिणो वैनयिकी बुद्धिः / / 1 / / 'अत्थसत्थे त्ति' अर्थ-शास्त्रे कल्पको मन्त्री दृष्टान्तः, 'दहिकुंडगउच्छुकलावओ य' इति संविधानके 'लेह त्ति' लिपिपरिज्ञानं, 'गणिए' ति गणितपरिज्ञानम्, एते चढे अपि वैनयिक्यौ बुद्धी 2-3-4 / 'कूवे' त्ति खातपरिज्ञानकुशलेन केनाऽप्युक्तं यथैतद्दूरे जलमिति / ततस्तावत्प्रमाण खात परं नोत्पन्न जलम्, ततस्ते खात परिज्ञाननिष्णाताय निवेदयामासुः-- नोत्पन्नं जलमिति / ततस्तेनोक्तंपाणिप्रहारेण पावन्यिाहत, आहतानि तैः, ततः पाणिप्रहारसमकालमेव समुच्छलित तत्र जलम्, खातपरिज्ञानकुशलस्य पुंसो वैनयिकी बुद्धिः 5 ! 'अस्से' त्ति बहवोऽश्ववणिजो द्वारवती जग्मुः, तत्र सर्वे कुमाराः स्थूलान् बृहतश्चाश्वान गृह्णन्ति, वासुदेवेन पुनर्यो लघीयान् दुर्बलो लक्षणसम्पन्नः स गृहीतः, स च कार्यनिर्वाही प्रभूताश्वावहश्च जातः। वासुदेवस्य वैनयिकी बुद्धिः। 6 / 'गद्दभे त्ति कोऽपि राजा प्रथमयौवनिकामधिरूढस्तरुणिमानमेव धारितवान, वृद्धांस्तु सर्वानपि निषेधयामास / सोऽन्यदा कटकेन गच्छन्नपान्तरालेऽटव्यां पतितवान्, तत्र च समस्तोऽपि जन स्तृषा पीड्यते, ततः किंकर्तव्यतामूढचेता राजा केनाप्युक्तोदेव ! न वृद्धपुरुषशेमुषीपोतमन्तरेणायमापत्समुद्रस्तरीतुं शक्यते. ततो गवेषयन्तु देवपादाः क्वापिवृद्धमिति। ततो राज्ञा सर्वस्मिन्नपि कटके पटह उद्घो
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________________ वेणइया 1428 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वेणइया षितः / तत्र चैकेन पितृभक्तेन प्रच्छन्नो निजपिता समानीतो वर्त्तते, ततस्तेनोक्तं-मम पिता वृद्धोऽस्तीति। ततो नीतो राज्ञः पार्थे, राज्ञा च सगौरवं पृष्टः- कथम महापुरुष ! कथं मे कटके पानीयं भविष्यति ? तेनोक्तं देव ! रासभाः स्वैरं मुच्यन्ता,यत्रते भुवं जिघ्रन्ति तत्र पानीयमतिप्रत्यासन्नमवगन्तव्यम् / तथैव कारितं राज्ञा; समुत्पादितं पानीयं, स्वस्थीबभूव च समस्तं कटकमिति / स्थविरस्य वैनयिकी बुद्धिः 71 'लक्खण' ति पारसीकः कोऽप्यश्वस्वामी कस्याप्यश्वरक्षकस्य कालनियमनं कृत्वा अश्वरक्षणमूल्यं द्वावश्वौ प्रतिपन्नवान्, सोऽपि चाश्वस्वामिनो दुहित्रा समं वर्तते। ततः सा तेन पृष्टा-कावश्वौ भव्याविति? तयोक्तम्- अमीषामश्वानां विश्वस्तानां मध्ये यः पाषाणभृतकुतपानां वृक्षशिखरान्मुक्तानामपि शब्दमाकर्ण्य नोत्रस्यतस्तौ भव्यो, तने तथैवैती परीक्षितौ / ततो वेतनप्रदानकाले सोऽभिधत्ते- मह्यममुकममुकं वाऽश्वं देहि / अश्वस्वामी प्राह- सर्वानप्यन्यान् अश्वान गृहाण, किमेताभ्यां तवेति ? स नेच्छति, ततोऽश्वस्वामिना स्वभार्याय न्यवेदि, भणितं चगृहजामाता क्रियतामेष इति / अन्यथा प्रधानावश्वावेष गृहीत्या यास्यति / सानैच्छत्। ततो ऽश्वस्वामी प्राह-लक्षणयुक्तेनाश्वेनान्येऽपि बहयोऽश्वाः सम्पद्यन्ते, कुटुम्ब च परिवर्द्धते, लक्षणयुक्तौ चेमावश्वौ, तस्मारिक्रयतामेतदिति / ततः प्रतिपन्नं तया, दत्ता तस्मै स्वदुहिता, कृतो गृहजामातेति / अश्वस्वामिनो वैनयिकी बुद्धिः 8 / 'गठि' त्ति पाटलिपुरे नगरे मुरुण्डो राजा / तत्र परराष्ट्रराजेन त्रीणि कौतुकनिमित्तं प्रेषितानि, तद्यथा-'मूद सूत्र, समा यष्टिरलक्षितद्वारः समुद्गको जतुना घोलितः तानि च मुरुण्डेन राज्ञा सर्वेषामप्यात्मपुरुषाणां दर्शितानि, पर केनापि न ज्ञातानि, तत आकारिताः पादलिप्ताचार्याः / पृष्ट राज्ञाभगवन् ! यूयं जानीत ? सूरय उक्तवन्तो-बाढम् / ततः सूत्रमुष्णोदके क्षिप्तम्, उष्णोदकसम्पक्काच विलीनं मदनत्रमिति लब्धः सूत्रस्यान्तः। यष्टिरपि पानीये क्षिप्ता, ततोगुरुभागो मूलमिति ज्ञातम् / समुद्के - प्युष्णोदके क्षिप्ते जतु सर्वं गलितमिति द्वार प्रकट बभूव / ततो राजा सूरीन प्रत्यवादीत्-भगवान् ! यूयमपि दुर्विज्ञेयं किमपि कौतुकं कुरुत येन तत्र प्रेषयामि / ततः सूरि-भिस्तुम्बकमेकस्मिन् प्रदेशे खण्डमेकमपहाय रत्नानां भृतम् / ततस्तथा तत्खण्ड सीवितं यथा न केनापि लक्ष्यते, भणिताश्च परराष्टराजकीयाः पुरुषाः- एतदभड्क्त्वा इतो रत्नानि ग्रहीतव्यानि, न शक्तं तैरेवं कर्तुम् / पादलिप्तसूरीणां वैनयिकी बुद्धिः / / / अगए' त्ति क्वचित्पुरे कोऽपि राजा, स च परचक्रेण सर्वतो रोद्धमारब्धः, ततस्तेन राज्ञा सर्वाण्यपि पानीयानि विनाशयितव्यानीति, विषकरः सर्वत्र पातितः। ततः कोऽपि कियद्विषमानयति, तत्रैको वैद्यो यवमात्रं विषमानीय राज्ञः समर्पितवान्-देव ! गृहाण विषमिति / राजा चस्तोक विषं दृष्ट्वा चुकोप तस्मै, वैद्यो विज्ञपयामास-देव! सहस्रवेधीदं विषं तस्मादप्रसादं मा कार्षीः, राजाऽवादीत्-कथमेतदवसेयम्।? स उवाच-देव! आनाय्यतां कोऽपि जीर्णो हस्ती। आनायितो राज्ञा हस्ती। ततो वैद्येन तस्य हस्तिनः पुच्छदेशे बाल(क) मेकमुत्पाट्य तदीयरन्ध्र विष सञ्चारितम्, विषं च प्रसरमाददानं यत्र तत्र प्रसरति तत्तत्सर्व विपन्नं कुर्वत् दृश्यते। वैद्यश्च राजानमभिधत्ते- देव ! सर्वोऽयेष हस्ती विषमयो जातः / योऽप्येनं भक्षयति सोऽपि विषमयो भवति, एवमेतद्विषं सहस्रवेधि / ततो राजा हस्तिहानिदूनचेतास्यं प्रत्युवाच अस्ति कोऽपि हस्तिनः प्रतीकारविधिः? सोऽवादीत- बाढमस्ति। ततस्तस्मिन्नेव बालरन्ध्रेऽगदः प्रदत्तः, ततः सर्वोऽपि झटित्येव प्रशान्तो विषविकारः प्रगुणीबभूव हस्ती, तुतोष राजा तस्मै वैद्याय। वैद्यस्य वैनयिकी बुद्धिः 10 / रहिए गणिया य'त्ति स्थूलभद्रकथानके रथिकस्य यत् सहकारफललुम्बित्रोटनं यच गणिकायाः सर्षपराशेरुपरि नर्तनं ते द्वे अपि वैनयिकीबुद्धिफले 11-12 / 'सीये' त्यादि, क्वचित्पुरे कोऽपि राजा, तत्पुत्राः केनाप्याचार्येण शिक्षयितुमारब्धाः, ते च तस्मै आचार्याय प्रभूत द्रव्यं दत्तवन्तः / राजा च द्रव्यलोभी तं मारयितुमिच्छति, तैश्च पुत्रैः कथञ्चितदेतज्ज्ञात्वा चिन्तितम्-अस्माकमेष विद्यादायी परमार्थपिता, ततः कथमप्येनमापदो निस्तारयामः / ततो यदा भोजनाय समागतः स्नानशटिकां याचेत तदा ते कुमाराः शुष्कामपि शाटी वदन्ति-"अहो सीया साडी' द्वारसम्मुखं च तृणं कृत्वा वदन्ति-अहो दीर्घ तृणं, पूर्व च क्रौञ्चकेन सदैव प्रदक्षिणीक्रियते, सम्प्रति तु स तस्यापसव्यं भ्रमितः। तत आचार्येण ज्ञातं-सर्वं मम विरक्तं, केवलमेते कुमारा मम भक्तिवशात् ज्ञापयन्ति, ततो यथान लक्ष्यते तथा पलाययामास कुमाराणामाचार्यस्य च वैनयिकी बुद्धिः 13 / 'निव्वोदएणं' ति कोऽपि वणिग्भार्या चिरं प्रोषिते भर्तरि दास्या निजसद्भावं निवेदयति- आनय कमपि पुरुषमिति / ततस्तया समानीतो, नखप्रक्षालनादिकं, च सर्व तस्य कारितं रात्रौ च तौ द्वावपि सम्भोगाय द्वितीयभूमिकामारूढौ, मेघश्च वृष्टिं कर्तुमारब्धवान्। ततस्तेन तृषापीडितेन पुरुषेण नीव्रोदकं पीतम् / तदपि च त्वग्विषभुजङ्गसंस्पृष्टमिति तत्पानेन पञ्चत्वमुपगतः, ततस्तया वणिग्भार्यया निशापश्चिमयाम एव शून्यदेवकुलिकायां मोचितः / प्रभाते च दृष्टो दाण्डपाशिकैः, परिभावितं सद्यः तत्तस्य नखादिकर्मा, ततः पृष्टाः सर्वेऽपि नापिताः-केनेदं भोः कृतमस्य नखादिकं कर्मेति ? तत एकेन नापितेनोक्तं मया कृतममुकाभिधवणिग्भार्यादासचेट्यादेशेन / ततः सा पृष्टासाऽपि च पूर्व न कथितवती, ततो हन्यमाना यथावस्थितं कथयामास / दाण्डपाशिकानां वैनयिकी बुद्धिः 14 / 'गोणे घोडगपडणं च रुक्खाओ' कोऽप्यकृत पुण्यो यद्यत्करोति तत्सर्वमापदे प्रभवति। ततोऽन्यदा मित्रं बलीवर्दी याचित्वा हलं वाहयति, अन्यदाच विकालवेलायांतावानीय वाटके क्षिप्तौ। स च वयस्यो भोजनं कुर्वन्नास्ते। ततः स तस्य पार्श्वे न गतः केवलं तेनापि तौ दृष्ट्याऽवलोकिताविति स स्वगृहं गतः। तौ च बलीवौ वारकान्निः शृत्यान्यत्र गतौ। ततोऽप्यपहृतौ तस्करैः / स च बलीवईस्वामी तमकृतपुण्य वराक बलिवर्दी याचते। सचदातुंनशक्नोति। ततो नीयतेतेनराजकुलम् / पथिच गच्छतस्तस्य कोऽप्यश्वारूढः पुरुषः सम्मुखमागच्छति। स चाश्वेन पातितः। अश्वश्च पलायमानोवर्तते। ततस्तेनोक्तम्-आहन्यतामेष दण्डना
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________________ वेणइया १४२६-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वेद श्व इति, तेन चाकृतपुण्येन सोऽश्वो मर्मण्याहतः, ततो मृत्युमुपागमत्। | वेणुदेव पुं०(वेणुदेव) गरुडापरनामके सुपर्णकुमारजाती ये दाक्षिणात्यानां ततस्तेनापि पुरुषेण स वराको गृहीतः / ते च यावन्नगरमायालास्ता- सुपर्णकुमाराणामिन्द्र, स्था०२ ठा०३ उ०। सूत्र० / प्रज्ञा०। द्वी०। स०॥ यत्वरणमुत्थितमिति कृत्वा ते नगरबहिः प्रदेशे एवोषितः / तत्र च बहवो महापोंडरीए पंच गरुला वेणुदेवा / (सू०५६४४) स्था०१० नटाः सुप्ता वर्तन्ते। स चाकृतपुण्योऽचिन्तयत्-यथा नास्मादापत्समुद्राद् ठा०३ ठा०॥ मे निस्तारोऽस्तीति वृक्षे गलपाशेनात्मानं बद्धवा मियेयेति तेन तथैव वेणुफल-न०(वेणुफल) वेणुकार्ये करण्डकपेटिकादौ, सूत्र०१ श्रु०४ कर्तुमारब्धम्। परंजीर्णदण्डिवस्त्रखण्डेन गले पाशोबद्धः, तच दण्डि अ०२ उ०। वस्वखण्डमतिदुर्बलमिति त्रुटितम् / ततः स वराकोऽधस्तात्सुप्तनटमहत्तरस्योपरि पपात / सोऽपि च नटमहत्तरस्तदाराकान्तगलप्रदेशः वेणुफलासिया-स्त्री०(वेणुफलासिका) वंशात्मिकायां श्लक्ष्णत्वपञ्चत्वमगमत् / ततो नटैरपि स प्रतिगृहीतः / गताः प्रातः सर्वेऽपि काष्टिकायाम, या दन्तर्वामहस्तेन प्रगृह्य दक्षिणहस्तेन वीणायद् राजकुलम्। कधितः सर्वैरपि स्वः स्वः व्यतिकरः। ततः कुमारामात्येन वाद्यते, / सूत्र०१ श्रु० 4 अ०२ उ०। स वराकः पृष्टः, सोऽपि दीनवदनोऽवादीद देव ! यदेते ब्रुवते तत्सर्वं / वेणुयाणुजाय-पुं०(वेणुकानुजात) वंशसदृशे, सू० प्र० 12 पाहु० / सत्यमपि / ततः तस्योपरि सजातकृपः कुमारामात्योऽवादीत् एष वेणुलया-स्त्री०(वेणुलता) स्थलवंशलतायाम्, विपा०१ श्रु०६ अ०। बलीवर्दी तुभ्यं दास्यति, तव पुनरक्षिणी-उत्पाटयिष्यति, एष तदैवानृणो वेणुसलागिया स्त्री०(वेणुशलाकिकी) वेणुवंशस्तस्य शलाकास्तामिबभूवयदात्वया चक्षुामवलोकितौ बलीवर्दी, यदि पुनस्त्वया चक्षुभ्या निर्वृत्ता वेणुशलाकिकी / वेणुशलाकानिष्पन्नायाम, रा०। नावलोकितौ बलीवी स्यातां तदेषोऽपि स्वगृहं न यायात, न हि यो वेण्णा स्त्री०(वेन्ना) आभीरविषये अचलपुरासन्ने कृष्णानदीसंगते नदीभेदे, यस्मै यस्य समर्पणायागतः सतस्यानिवेदने समर्पणीयमेवमेव मुक्त्वा आ० चू०१अ०। कल्प०। आ० क01 आ० म०1०। स्थगृहं याति। तथा द्वितीयोऽश्वस्वामी शब्दितः, एषोऽश्वं तुभ्यं दास्यति, तव पुनरेष जिह्वां छेत्स्यति, यदा हि त्वदीयजियोक्तम्-एनमश्वं दण्डेन / वेण्हु-पुं०(विष्णु) व्यापके, परमेश्वरे, अमरः। कल्प० आ० क० स्था०। ताइयेति तदाऽनेन दण्डनाहतोऽश्वो, नान्यदा। तत एष दण्डेनाऽऽहन्ता प्रश्नः / प्रा०। दण्ड्यते तव न पुनर्जिह्वेति कोऽतं नीतिपथः ? तथा नटान् प्रत्याह- वेतंडिय-पुं०(वैतण्डिक) वितण्ड्या चरति वैतण्डिकः। वितण्डावादिनि, अस्य पार्श्वेन किमप्यस्तिततः किं दोषयमः? एतावत्पुनः कारयामः- अभ्युपेत्य ‘पक्ष यो न स्थापयति स वैतण्डिक इत्युच्यते इति हि एषोऽधस्तात् स्थास्यति, त्वदीयः पुनः कोऽपि प्रधानो यथैष वृक्षे न्यायवार्तिकम्। वस्तुतस्तु अपवादितत्त्वातत्तवविचारमौखर्य वितण्डा, गलपाशेनात्मान बद्धवा मुक्तवान् तथाऽऽत्मानं मुञ्चत्विति, ततः सर्वैरपि तया वादिनी। मुक्तः। कुमारामात्यस्य वैनयिकी बुद्धिः 15 / नं0 1 आ० म०। आ० चूत। देतण्ह-न०(वैतृष्ण्य) तृष्णाविच्छेदे, प्रति०। वैमुख्ये, द्वा० 11 द्वा०। वेणा स्त्री०(वेणा) आर्यसम्भूतविजयस्य शिष्यायां स्थूलभद्र-भगिन्याम्, वेतस-पुं०(वेतस) "तदोस्तः" ||814 / 307 / / इति पैशाच्यां तस्य त कल्प० 2 अधि० 8 क्षण। आव० / पिं० / ति०। आ० क० / आभीरविषये एव / वेत्रे, प्रा० 4 पाद। कृष्णासङ्गते नदीभेदे, आ०म० 1 अ०। आ० चू०। वेतालि-(देशी)-तटे, प्रज्ञा० 16 पद। वेणायय-पुं०(वैनायक) आगामिन्यामुत्सर्पिण्या भाविनि विंशति-तमे वेत्त-पुं०(वेत्र) जलवंशे, प्रश्न०३ आश्र० द्वार। नि० चू०। प्रज्ञा०। स०। तीर्थकरे, ति०। वेणी-स्त्री०(वेणी) वनिताशिरसः केशबन्धविशेषे, ज्ञा०१ श्रु०६ अ01 वेत्तग-न०(वेत्राग्र) वेत्राकुरे, तच्चाङ्गवङ्गेषुभाजीकृतं भक्ष्यते। आचा० २श्रु०१अ०८ उ०) वेणीसंगम-पुं०(वेणीसंगम) गङ्गायमुनयोः सङ्गमे, तत्रादिनाथकमण्डलुः पूज्यः। ती०४३ कल्प। वेत्तदण्ड-पुं०(वेत्रदण्ड) वेत्ररूपे दण्डे, प्रश्न०३ आश्र० द्वार। वेणु-पुं०(वेणु) वंश, सू० प्र०१२ पाहु०। प्रज्ञा० / नि० चू०सूत्र० / रा०। वेत्तपीढय-पुं०(वेत्रपीठक) वेत्रासने, नि० चू०१२ उ०। वंशविशेषे, जी०३ प्रति० 4 अधि०। आतोद्यविशेषे, आचा०१ श्रु०१ वेत्तलया-स्त्री०(वेत्रलता) जलवंशलतायाम्, विपा० 1 श्रु०६ अ० / अ०५ उ०1 नि० चू०। 'कोएयाणं णाहिइ, वेत्तलयागुम्मगुविलहिययाणं / भावं भग्गासाणं, वेणुदालि-पुं०(वेणुदालि) औत्तराहाणां सुपर्णकुमाराणामिन्द्रे, स्था०२ | तत्थुप्पन्नं भणंतीणं / / 1 / / सूत्र०१श्रु०४ अ०१ उ०। ठा०३ उ० भ०। प्रज्ञा० स०। द्वी०। | वेद-पुं० (वेद) वेद्यतेऽनेन तत्त्वमिति वेदः / सिद्धान्ते, उत्त०
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________________ वेद 1430- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वेद 15 अ० / सद्भूतार्थागमे, यो० वि०। व्य०। समस्तदर्शनिनां सिद्धान्ते, बृ०३ उ० / विदन्ति तेन तमिति वा वेदः / विद ज्ञान, अस्माद् घञ्। नि० चू०१ उ०॥ वेद्यते जीवादिस्वरूपमनेनेति वेदः। आवाराङ्गाद्यागमे, आचा० 1 श्रु०१ अ० 1 उ० / वेद्यते सकलं चरावरमनेनति देदः / आगमे, आचा० 1 श्रु०४ अ०४ उ०। स च लौकिकलोकोत्तरकुंभावचनिकभेदः श्रुतवद् व्याख्यातव्यः / ज्ञा० 1 श्रु०१ अ० / रा०। विदन्त्यस्माद्धेयोपादयपदार्थानिति वेदः। आगमे, स च नामस्थापनाट्रव्यभावभेदाचतुर्धा, तत्र नामस्थापनाद्रव्याणि प्रतीतानि। भावेक्षायोपशमिकभाववयंयमाचारः / आचा० 1 श्रु० 1 अ० 1 उ० / ऋगादी, स्था० 3 ठा० 4 उ० / चत्तारो वेथा संगोवंगा' (मिथ्याशुत) चत्वारश्च वेदा, ऋग्वेदयजुर्वेदसामवेदाथर्वणवेदलक्षणाः, साङ्गोपाङ्गाः- शिक्षा 1 कल्प 2 व्याकरण 3 इन्दो 4 निरुक्त 5 ज्योतिष्कानयन 6 लक्षणानि पडुपाङ्गानि, तद्व्याख्यानरूपाणि तैः सह वर्तन्ते। अनु० / विपा० / उत्त०। आ०म०॥ त्रिविधानि वेदपदानि-कानिचित् विधिप्रतिपादकानि यथा- स्वर्गकामोऽग्निहोत्रं जुहुयादित्यादीनि, कानिचिदनुवादपराणि यथा-द्वादश मासाः संवत्सरं इत्यादीनि, कानिचि स्तुतिपराणि, यथा इद पुरुष एवेत्यादीनि। कल्प०१ अधि०३ क्षण। (वेदानामपौरुषेयत्वम, 'आगम' शब्दे द्वितीयभागे 53 पृष्ठ चिन्तितम्।) वेदने, अनुभये, सूत्र०१ श्रु०२ अ०१ उ० / वेधते इति वेदः / पं० सं०१ द्वार। मैथुनाभिलाषे. स०। कइविहे णं भंते ! वेइ पण्णत्ते ? गोयमा ! तिविहे वेए पण्णत्ते, तं जहा- इत्थीवेए, पुरिसवेए, णपुंसगवेए। (सू० 1534) 'काइविहे' त्यादि, तत्र, स्त्रीवेदः - पुस्कामिता. पुरुषदेदः - रत्रीकामिता, नपुंसकतेदः- स्त्रीपुंस्कामितेति / एते च पूर्वोदिता अर्थाः समवसरणस्थितेन भगवता देशिता इति। स० 156 सम०। सूत्र। (विरतवेदस्वरूपं 'गोयरचरिया' शब्दे तृतीयभागे 1006 पृष्ठ प्रतिपादितम्।) संप्रति वेदत्रिकमाहपुरसित्थि तदुभयं पइ, अहिलासो जव्वसा हवइ सो उ / त्थीनरनपुंवेउदओ, फुफुमतणनगरदाहसमो।।२२। / प्रतिशब्दः प्रत्येकंयोज्यते, पुरुषं प्रति स्त्रियं प्रति तदुभय प्रति, रतीपुरुष प्रतीत्यर्थः / यदशाद्यत्पारतन्त्र्यादभिलाषोवाञ्छा भवति-जायते / तुशब्दः परस्परापेक्षया पुनरर्थे। स्त्रीयोषित नरः-पुरुषः 'नपु' ति नपुंसक तैवेद्यतेऽनुभूयते स्त्रीनरनपुंवेदस्तस्योदयः स्त्रीनरनपुंवेदोदयो होगा इति शेषः फुकुमा-करीष, तृणानि प्रतीतानि नगर-पुर फुम्फुमातृणनगराणि तषा दाहस्तेन समस्तुल्य इति गाथाऽक्षरार्थः। भावार्थस्त्वयम्-- यवशात् स्त्रियाः पुरुष प्रत्यभिलाषो भवति, यथा पित्तवशान् मधुरद्रव्यं प्रति स फुफुमादाहरूमः यथा यथा वाल्यतेतथा तथा ज्वलति बृहति च। एवमबलाऽपि यथा यथा सस्पृश्यते पुरुषण तथा तथा अस्या अधिकतरोऽ भिलाषो जायते, भुज्यमानायां तु छन्नकरीषदाहनुल्योऽभिलामो; मन्द इत्यर्थः इति स्त्रीवेदोदयः। यद्वशात पुरुषस्य रिवर प्रत्यभिलाषा भवति, यथा-श्लेष्मवशादम्ल प्रति स पुनस्तृणदाहसमः, यथा तृणाना दाई ज्वलनं विध्यापनं च भवति एवं पुवेदोदर स्त्रियाः सेवन प्रत्युत्सुकोऽभिलाषो भवति, निवर्तते च तत्सेवन शीघ्रमिति नरवेदादयः ! यद्वशान्नपुंसकस्य तदुभयं प्रत्यभिलाषो भवति, यथा पित्तश्लेष्मवशान्मज्जिका प्रति स पुनर्नगरदाहसमः, यथा-नगरं दह्यमान महता कालेन दह्यते विध्यापयति च महतैव एवं नपुंसकवेदोदयेऽपि स्त्रीपुरुषयोः सेवन प्रत्यभिलाषातिरेको महताऽपि कालेन न निवर्तते नापि सेक्ने तृप्तिरिति नपुंवेदोदयः। कर्म०१ कर्म० / बृ० / प्रव० / प्रज्ञा०। प्रत्येक त्रिकभङ्गाःत्रिविधेऽपि प्रत्येक त्रिकभङ्गः कर्तव्यो भवति, कथमिति चेदुच्यते-पुरुषः पुरुषवेदं वेदयति, पुरुषः स्त्रीवेद वेदयति, पुरुषो नपुसकवेद वेदयतिच! एवं स्त्रीनपुंसकयोरपि वेदत्रयो मन्तव्यः / बृ०४ उ० ! नैरयिकदण्डकःनेरइया णं भंते ! किं इत्थीवेया पुरिसवेया णपुसंगवेया पण्णत्ता ? गोयमा ! णो इत्थीवेया, णो पुरिसवेया, णपुंसगवेया पण्णत्ता / असुरकुमारा णं भंते ! किं इत्थीवेया पुरिसवेया नपुंसगवेया ? गोयमा ! इत्थीवेया पुरिसवेया, णो णपुंसगवेया० जाव थणियकुमारपुढवीअकऊतेओवा-ऊवणस्सइबितिचउरिं दियसमुच्छिमपंचिं दियतिरिक्ख-समुच्छिममणुस्सा णपुंसगवेया गब्भवक्कं तियमणुस्सा पंचिंदियतिरिया य तिवेया जहा असुरकुमारा तहा वाणमन्तरा, जोइसियवेमाणिया वि। (सू० 156) स० 157 सम०। ते णं भंते ! जीवा किं इत्थीवेया पुरिसवेया णपुंसगवेया ? गोयमा ! णो इत्थिवेया, णो पुरिसवेया, गंपुंसगवेया। 'ते ण भंते!' इत्यादि इत्थीवेयगा' इति स्त्रियाः वेदो येषां ते स्त्रीवेदकाः, एवं पुरुपवेदका नपुंसकवेदका इत्यपि भावनीयम् / तत्र स्त्रियाः परयभिलाषः स्त्रीवेदः, पुंसः स्त्रियामभिलाषः पुंवेदः, उभयोरप्यभिलाषा नपुंसकवेदः। भगवानाह-गौतम! न स्त्रीवेदका न पुरुषवेदका नपुंसकवेदकाः संमूछिमत्त्वात्, / 'नारकसमूच्छिमा नपुंसका' इति भगवद्चनम् / जी०१ प्रति०। (निर्ग्रन्थानां वेदः 'णिग्गंथ' शब्द' चतुर्थभागे 2034 पृष्ठ गतः।) (परिहारविशुद्धिकानां वेदः परिहारविसुद्धिय' शब्दे पक्षमभाग 665 पृष्ठे गतः।) वनस्पतिजीवाना बंदःते गं भंते ! जीवा किं इत्थीवेदवंधगा पुरिसवेदबंधगा नपुंसगवेदबंधगा ? गोयमा ! इत्थीवेदबंधए वा पुरिसवेदबंधए वा नपुंसगवेयबंधए वा, छव्वीसं भंगा। भ०११ श०१ उ०। 1 नपुंसगवेदए नपुंसगवेदगा। (सू. 23) इति भ. 11 . 1 उ /
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________________ वेद 1431 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वेद (क्षयकश्रेण्यांवेदयक्षपण 'खवगसेदि' शब्देतृतीयभागे७२८ पृष्ठगतम्।) वेदस्थितिनिरूपणम्-- पुरिसत्तं सन्नित्तं, सयं पुहुत्तं तु होइ अयराणं / त्थीपलियसयपुहुत्तं, नपुंसगत्तं अणुन्नद्धा॥४६|| पुरुषत्वम-- पुरुषवेदो निरन्तरं भवन् जधन्य-तोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतोऽन्तराण!--सागरोपमाण शतपृथक्त्वं भवति, केवलं तुशब्दस्याऽधिकार्थसूचनात्तदपि सागरो-पमशतपृथक्त्वं मनाक् सातिरेकं द्रष्टव्यम्, तथा चोक्तं प्रज्ञापनायाम्- 'पुरिसवेएणं भंते ! पुरिसवेए त्ति कालओ केव चिरं होइ ? गोयम !जहन्नणं अंतोमुहत्त, उक्कोसेणं सागरो-वमसयपुहुत्तं साइरेग' तथा सीपश्चेन्द्रियो गर्भजो जीवः, तद्भावः संज्ञित्वं, तदप्यवच्छेदेन जधन्येनान्तर्मुहूर्त कालम, उत्कर्षतः सागरोपमशतपृथक्त्वं भवति / अत्रापि सागरोपमशतपृथक्त्वं सातिरेकमवगन्तव्यम्. तथा प्रज्ञापनायामभिहितत्वात्। तथा च प्रज्ञापनाग्रन्थः- 'सन्नी ण भंते सन्नि निकालयो केकिर होइ ? गायमा ! जहन्नेण अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं सागरावमसयपुहु साइरेग' ति तथा 'थीपलियसयपुहुत्त' ति स्त्रीस्त्रीवेदो जघन्यत एकसमसम उत्कर्षतः पल्योपमशतं पूर्वकोटिपृथक्त्वं च: तत्र समयमात्र-भावन क्रियते-- काचित् युवतिरुपशमश्रेण्या वेदत्रयापशमेनाऽवेदकत्वमनुभूय, ततः श्रेणेः प्रतिपतन्ती स्त्रीवेदोदयमेकं समयनुभूय द्वितीयसमये कालं कृत्वा देवेषूत्पद्यते, तत्र च तस्याः मुस्त्वमेव, न स्त्रीत्वं, तत एवं जघन्यतः स्त्रीवेदः समयमात्रं भवति / उत्कर्षतः स्त्रीवेदावस्थानचिन्तायां पुनर्भगवता आर्यश्यामेन पूर्वपूर्वतनसुरिमतभेदमुपदश्यता पशादेशाः प्रज्ञताः, तद्यथा- "इत्थीवेए णं भंते ! इन्वायए शिकलओ केव चिरं हाइ ? गोथमा ! एगेणं आएरोणं जहन्नेणं एग समय, उझोर दसारि पलिओवभरायं पुत्यकोडीपुहुत्तमभहिय 1. एगेणं आएसेणं जहन्नेणं एक समय, उक्कोसेणं अद्वारस पलिओवभाइ पवकाडिहुत्तमाहियाई 2, एगेणं आएसणं जहन्नण एक समये, उकासेणं पइसलिओवभाई पुटखको डिपुत्तमन्भहियाई 3, एगेण आएसेणं जहन्नेण एवं समयं उक्कोसेणं पलिओक्मसथं पुव्वकोडिपुहुत्तमभहियं 4, एगणं आएसणं जहणेनं एगं समयं, उक्कोसेणं पलिओवमहत्तं पुवकोडिपुत्तमभहियं ति 5," अमीषां चादेशानामियं भावना--- कश्चिजन्तु रीषु तिरश्चीषु वा पूर्वकोट्यायुष्कासु मध्ये पाषान् भवाननुभ्य ईश नकल्पे पञ्चपञ्चाशत्पल्योपभप्रमाणोत्कृष्टायुष्कास्व.रिगृहोतदेवीधु मध्ये स्वीत्वनोत्पन्नः, ततः स्वायुःक्षये ततश्च्युत्वा भूयोऽपि नारीषु तिरश्चीषु वा पूर्वकोट्यायुष्कासु मध्ये स्त्रीत्वेनोत्पन्नः, ततो भूयो द्वितीयं वारमशानदेवलोके पञ्चपञ्चाशत्पल्योपमप्रमाणात्कृष्टायुष्कास्वपरोगृहीतासु देवीषु मध्ये देवीत्वेनोत्पन्नः, ततः परमवश्य वेदान्तरमेव गच्छाते। एवं दशोत्तरं पल्योपमशत पूर्वकोटिपृथक्त्वा राधिक प्राप्यते / अत्र पर आह-- ननु यदि देवकुरूत्तरकुर्वादिषु पल्योपमत्रयस्थितिकासु खीषु मध्ये समुत्पद्यते, ततोऽधिकाऽपि स्त्रीवेदस्याऽव- | स्थितिरवाप्यते, ततः किमेतावत्येवोपदिष्टा ? तदयुक्तभभिप्रायाऽपरिज्ञानात्, तथाहि-इहतावद्देवीभ्यश्च्युत्वा असंख्येयवर्षायुष्कासु स्त्रीषु मध्ये स्त्रीत्वेन नोत्पद्यते, देवयोनेश्च्युतानागसंख्येयवर्षायुष्केषु मध्ये उत्पातप्रतिषेधात्, नाप्यसंख्येयवर्षायुष्का सती योषिदुत्कृष्टायुष्कासु देवीषु मध्ये जायते, यत उक्तं प्रज्ञा-पनाटीकाकृता-'जओ असंखेजवासाउया उक्कोसटिइंन पावेई' इति, ततो यथोक्तप्रभाणैव स्त्रीवेदसेत्कृष्टा स्थितिरवाप्यते। द्वितीयादेशवादिनः पुनरेवमाहुः-- नारीषु तिरश्चीषु वा पूर्वकोट्या-युष्कासु मध्ये पञ्चषान् भवाननुभूय पूर्वप्रकारेणेशानदेवलोके वारद्वयमुत्कृष्टस्थितिकारा देवीषु मध्ये समुत्पद्यमाना नियमतः परिगृहीतास्वेधोत्पद्यते, नाऽपरिगृहीतासु, ततस्तन्मतेन स्त्रीवेदस्योत्कृष्टमयस्थानमष्टादशपल्योपमानि पूर्वकोटिपृथक्त्वं च। तृतीयाऽदेशवादिना तु मतेन सौधर्मदेवलोके परिगृहीतदेवीषु सप्तपल्योपमप्रमाणोत्कृष्टायुष्कासु मध्ये वारद्रय समुत्पद्यते, ततस्तन्मतेन चतुर्दशपल्योपमानि पूर्वकोटिपृथक्त्वाभ्यधिकानि स्त्रीवेदस्य स्थितिः / चतुर्थाऽऽदेशवादिना तु मतेन सौधर्मदेवलोके पञ्चाशत्पल्योपमप्रमाणोत्कृष्टायुष्कास्वपरिगृहीतदवीष्वपि मध्ये पूर्वप्रकारेण वारद्वयं देवीत्वेनोत्पद्यते, ततस्तन्मतेन पल्योधमशतं पूर्वकोटिपृथक्त्वाभ्यधिकमवाप्यते, एष एव चाऽऽदशो ग्रन्थकृता परिगृहीताः, प्रायोऽस्यैव बहुभिः सूरिभिः परिगृहीतत्यात्। पञ्चमादेशवादिनः पुनरित्थमाहुः- नानाभवभ्रमणद्वारेण यदि स्त्रीवेदस्योत्कृष्टमवस्थानं चिन्त्यते, तर्हि पल्योपमपृथक्त्वमेव पूर्वकोटिपृथक्त्वा-- भ्यधिकं प्राप्यते, न ततोऽभ्यधिकम्। तत्र नारीषु तिरश्चीषु वा पूर्वकोट्यायुष्कासु मध्ये सप्त भवाननुभूयाऽश्मे भवे देवकुर्यादिषु विपल्योपमस्थितिकासु स्त्रीषु मध्ये स्त्रीत्वेन समुत्पद्य, ततो मृत्वा सौधर्मदेवलोके जघन्यस्थितिकासु देवीषु मध्ये देवीत्वेनोपजायते तदनन्तरं चावश्य वेदान्तरमधिगच्छतीति (पं० सं०) तथा नपुंसक जघन्यत एक समयमुत्कर्षतोऽनन्ताद्धा। तत्र एकसमयता स्त्रीवेदस्येव भावनीया अन्याद्धा सांच्यावहारिकजीवानधिकृत्याऽसंख्येयपुद्गलपरावर्तस्वरूपा द्रष्टव्या। तथा चोक्तम्- 'नपुंसगवेए णं भंते ! नपुंसकवेय त्ति कालओ कियचिर होई? गोयमा! जहन्नेणं एक समय, उक्कोसेणं अणंत कालं, अणंताओ उस्सप्पिणीओस्सप्पिणी कालओ, खेत्तओ-अणंता लोगा असंखेजा पोग्गलपरियट्टा आवलियाए असंखेजइभागो' असांव्यावहारिकजीवानधिकृत्य पुनर्द्विधाऽनन्ताऽद्धा, कांश्चिदधिकृत्याऽनादिरपर्यवसाना, केचन कदाचिदप्यसाव्यावहारिकराशेरुद्धृत्य सांव्यावहारिकराशी पतिष्यन्ति, कांश्चिदधिकृत्य पुनरनादिसपर्यवसाना। ये असांव्यावहारिकराशेरुसत्य सांव्यावहारिकराशावागमिष्यन्ति, आगमिष्यन्तीति च प्रज्ञापककालभाविनोऽसांव्यावहारिकराशौवर्तमानान् जीवानधिकृत्योच्यते, अन्यथा चे असांव्यावहारिकराशे निर्गत्य सांव्यावहारिकराशावागमन् आगच्छन्ति आगमिष्यन्ति वा तेषां सर्वेषामपि नपुंसकवेदाऽद्धानादिसपर्यवसाना / पं० सं०२ द्वार। प्रवृत्तिकाले वेदः पुरुषवेदो वा नपुंसकवेदो वा भवेत, न स्त्रीवेदः स्त्रियाः परि
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________________ वेद 1432- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वेभार हारविशुद्धिक कल्पप्रतिपत्त्यसंभवात्, अतीतनयमधिकृत्य पुनः वेदनमन्यासां प्रकृतीना यत्रोद्देशकेऽभिधीयते स वेदावेदः स एवोद्देशकः पूर्वप्रतिपन्नश्चिन्त्यमानः सवेदो वा भवेदवेदो वा। तत्र सवेदः श्रेणिप्रति- प्रज्ञापनायाः पञ्चविंशतितमे, पदे, भ०१६ श०३ उ०। पत्त्यभावे उपशमश्रेणिप्रतिपत्तौ वा, क्षपकश्रेणिप्रतिपत्तौ त्ववेद इति / | वेदि-स्त्री०(वेदि) वितर्दिकायाम, प्रश्न०१आश्र० द्वार। उक्तं च- "वेदो पवित्तिकाले, इत्थीवजो उ होइएगयरो। पुव्वपडिवन्नओ वेदिग-स्त्री०(वैदिक) जात्यार्यभेदे, स्था०६ढा०३ उ०। पुण, होज सवेओ, अवेओ वा // 1 // " कर्म०४ कर्म०। (सवेदकानां कायस्थितिः 'कायठिइ' शब्दे तृतीयभागे 455 पृष्ठे उक्ता।) वेदि-स्त्री०(वेदी) देवार्चनस्थाने, भ० 11 106 उ०। वेदइत्ता-अव्य०(वेदयित्वा) परिज्ञाप्येत्यर्थे, सूत्र० 1 श्रु० 6 अ०। | वेदूण-(देशी)-लज्जायाम्, दे० ना० 7 वर्ग 65 गाथा। ज्ञात्वेत्यर्थे, सूत्र०१ श्रु०५ अ०२ उ०। वेदेसिय-त्रि०(वैदेशिक) विदेशवर्तिनि, व्य०३ उ०। वेदंग-पुं०(वेद) इभ्यजातिभेदे, प्रज्ञा० 1 पद। वैफल्ल-न०(वैफल्य) निष्फलत्वे, अष्ट०१७ अष्ट० / वेदंत-पुं०(वेदान्त) ऋगादिवेदजनिते निर्णये, स्था०३ ठा०४ उ०। वेभव-न०(वैभव) विभव एव वैभवं प्रज्ञादित्वात्स्वार्थेऽण, विभोर्भावः कर्म वेज्यमान-त्रि० विशेषेण कम्पमाने, स्था०७ ठा०६ उ०। वेति वा वैभवम्। प्रकर्षे, स्या०। वेदयत्-त्रि० विपाकेनानुभवति, दश० 3 अ० / वेभार-पुं०(वैभार) स्वनामख्याते राजगृहक्रीडापर्वते, भ०३ श० 4 उ०: ज्ञा०प्रश्न०। वेदंतवाइ-पुं०(वेदान्तवादिन) वेदान्तिके, आत्मैक्यवादिनि, आचा०१ वैभारकल्पःश्रु०५ अ०६उ०॥ वेदंतिय-पुं०(वेदान्तिक) ध्यानाध्ययनसमाधिमार्गानुष्ठानात्सिद्धिमुक्त "अथ वैभारकल्पोऽयं, स्तवरूपेण तन्यते। वति, सूत्र०१ श्रु०१ अ०३ उ०। एकात्म्यवादिनि, विशे०। संक्षिप्तरुचितोषाय, श्रीजिनप्रभसूरिभिः / / 1 / / वेदग-पुं०(वेदक) वेदयति निर्जरयति उपभुनक्तीति वेदकः दश०१ अ० / प्रकृतिजनितस्य सुकृतजनितस्य सुकृतदृष्कृतस्य च प्रतिबिम्बोदय- निर्भर भारतां बुद्धि, भारती तत्र के वयम् / / 2 / / न्यायेन भोक्तरि, प्रश्न०२ आश्र० द्वार / वेदयत्यनुभवति सम्यक्त्व- तीर्थभक्त्या तरलिता-स्तथापि व्यापिभिर्गुणैः / पुद्गलानिति वेदकः / अनुभवितरि, तदनथान्तरभूतत्वात्सम्यक्त्वभेदे राजन्तं तीर्थराज तं, स्तुमः किंचिज्जडा अपि / / 3 / / च / वेद्यत इति वा वेदकम / (विशे०) विहितप्रायदर्शनसप्तकक्षयेण अत्र दारिद्रयविद्रावि-रूपकारसकूपिका। जन्तुना वेद्यते चरमतत्पुद्गलग्रासमात्र यत्र तद्वेदकम्। विशे०। सम्यक्त्यपुगलवेदनात् क्षायोपशमिके सम्यक्त्वे, कर्म० 4 कर्म / / तप्तशीताम्बुकुन्डानि, कुर्युः कस्य न कौतुकम्॥४॥ इदानी वेदकसम्यक्त्वमाह त्रिकूटखण्डिकादीनि, शृङ्गाण्यस्य चकासति। जो चरमपोग्गले पुण, वेदंती वेयगं तयं बिंति! निःशेषकरणग्राम-स्यावनानि वनानि च / / 5 / / केसिं चि यमादेसो, वेयगदिट्ठीखओवसमो॥१२८|| औषध्यो विविधव्याधि-विध्वंसादिगुणोर्जिताः। यो दर्शनसप्तकक्षपको यतोऽनन्तरसमये क्षीणसम्यक्त्वा भविष्यति नद्यो हृद्योदकाश्चात्र, सरस्वत्यादयोऽनघाः / / 6 / / तस्मिन्समये वर्तमानसम्यग्दर्शनस्य चरमान् पुद्गलान वेदयते तस्य बहुधा लौकिक तीर्थ, मागधालोचनादिकम् / तचरमपुद्गलवेदन वेदकसम्यक्त्वं पूर्वसूरयो बुवते / केषांचित पुनर्बोटि- यत्र चैत्येषु बिम्बानि, ध्वस्तबिम्बानि वार्हताम्।।७।। कानामयमादेशो वेदकदृष्टिर्वेदकसम्यग्दर्शनम्, क्षयोपशमिक सम्यग मेरूद्याने चतुष्कस्य, पुष्पसंख्यां विदन्ति ये। दर्शननाशः, तेषामयमनादेशः सम्यक्त्वापरिज्ञानादिति। वृ०१ उ०१ अमुष्मिन् सर्वतीर्थाना, विदांकुर्वन्तु ते मतिम् / / 8 / / प्रक०।वेदनं वेदः वेद एव वेदकः / वेदोदये, कर्म०६ कर्म०। श्रीशालिभद्रधन्यर्षिः, इहातप्तशिलोपरि। वेदत्थ-पुं०(वेदार्थ) वैदिकानुष्ठाने, प्रश्न०१ आश्र० द्वार। दृष्टौ कृततनूत्सर्गों, पुसां पापमथो हतः।।६।। वेदपरिणाम-पुं०(वेदपरिणाम) स्त्र्यादिभेदात्रिधा त्रिधा भिन्ने परिणाम श्वापदाः सिंहशार्दूल-भल्लूकगवलादयः। भेदे, स्था० 10 ठा०३ उ०।। न जातुतीर्थमाहात्म्या-दिह कुर्वन्त्युपलवम् / / 10 / / वेदपुरिस-पुं०(वेदपुरुष) वेदानुभवनप्रधान पुरुषो वेदपुरुषः, स चवीपुनपुसकसंबन्धिषु त्रिष्वपिलिङ्गेषु भवतीति। आहा च–'यपुरिसो तिलिंगो प्रतिदेशं विलोक्यन्ते, विहाराश्चात्र सौगताः। विपुरिसदेयाणुभूयकालमिति' / स्त्र्यादिवेदानुभवनप्रधाने पुरुष, स्था० आरुह्येनं च निर्वाण, प्रापुस्तेऽपि महर्षयः / / 11 / / 3 ठा० 1 उ०। रौहिणेयादिवीराणां, प्राग निवासतया श्रुताः। वेदरभी-स्त्री०(वैदभी) विदर्भदशजातायां भीष्मपुत्ररुक्मिपुत्र्याम्, अन्त० निवाद्यन्ते तमस्काण्ड-दुर्विगाह्या गुहा इह / / 12 / / 1 श्रु० 4 वर्ग०१ अ०। उपत्यकायामस्याद्रे-भांति राजगृहं पुरम्। वेदावेदुद्देसग-पुं०(वेदावेदोद्देशक) वेदे वेदने कर्मप्रकृतेरेकेस्या वेदो क्षितिप्रतिष्ठमित्यादि, नामान्यन्वभवंस्तदा / / 13 / /
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________________ वेभार 1433 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वेमाणिय क्षितिप्रतिष्ठचणक--पुरर्षमपुराभिधम्। कुशाग्रपुरसज्ञ च, क्रमाद्राजगृहाह्वयम् // 14 // अत्र चासीद् गुणशीलं, चैत्यं शैत्यकसन्निभम्। श्रीवीरो यत्र समव--सरे गणपतिः प्रभुः / / 15 / / प्राकारं यत्र मेतार्यः, शातकौम्भमचीकरत्। सुरेण प्राप्य सुहृदा, मणिं स्वाजीहदच्छगम्॥१६॥ शालिभद्रादयोऽनेके, महेभ्या यत्र जज्ञिरे। जगचमत्कारकरी, येषां श्रीर्भोगशालिनी / / 17 / / सहस्राः किल षट् त्रिंश-द्यासन्वणिजां गृहाः। तत्र चार्धाः सौगताना, मध्ये चाहतसंज्ञिनाम् // 18 // यस्य प्रासादपङ्क्तीनां, श्रियः प्रेक्ष्यातिशायिनीम्। त्यक्तमाना विमानाख्या- मापुरित्यसुरालयाः / / 16 / / जगन्मित्रं यत्र मित्र-सुमित्रान्वयपड्कजे। अश्वावबोधनियूंढ-व्रतोऽभूत्सुव्रतो जिनः / / 20 / / यत्र श्रीमान् जरासिन्धुः, श्रेणिकः कूणिको भयाः। मेघहल्लविहल्लः श्री-नन्दिषेणोऽपि चाऽभवन्॥२१।। यत्र श्रीमन्महावीर-स्यैकादश गणाधिपाः। पादपोपगमान्मासं, सिद्धावासं समासदन् / 22 / / जम्बूस्वामिकृतैः पुण्यैः, शय्यंभवपुरस्सराः। ययुयेतीश्वरा यत्र, नन्दाद्याश्च पतिव्रताः // 23 // एकादशो गणधरः, श्रीवीरस्य गणेशितुः। प्रभासो नाम पावित्र्य, यस्य चक्रे स्वजन्मना / / 24|| नालन्दालंकृते यत्र, वर्षा रात्राश्चतुर्दश। अवतस्थे प्रभुर्वीर-स्तत्कथं नास्तु पावनम् // 25 // यस्यां नैकानि तीर्थानि, नालन्दानायनश्रियाम् / भव्यानां जनितानन्दा, नालन्दा नः पुनातु सा / / 26 / / मेघनादः स्फुरन्नादः, शात्रवाणां रणाङ्गणे। क्षेत्रपालाग्रणीः कामान्, कांस्तान् पुंसां पिपर्त्ति न ? |27|| श्रीगौतमस्यायतनं, कल्याणस्तूपसंनिधौ। दृष्टमात्रमपि प्रीति, पुष्णाति प्रणतात्मनाम् // 28 // वर्षे सिद्धा सरस्वद्रसशिखिकुमिते वैक्रमे तीर्थमौली, सेवाहेवाकिनां श्रीवितरसुरतरौ देवता सेवितस्य। वैभारक्षोणिकर्तुर्गुणगणभणनव्यापृता भक्तियुक्तः, सूक्तिर्जनप्रभीयं मृदुविशदपदा धीयतां धीरधीभिः // 26 // " इतिश्रीवैभारगिरिमहातीर्थकल्पः / ती०१० कल्प०। वेभेल-पुं०(वेभेल) जम्बूद्वीपे भारते वर्षे विन्ध्यगिरिपादमूले स्थिते सन्निदेशे, भ०३ श०२ उ०। ग०। वेमणस्स-न०(वैमनस्य) दैन्ये, प्रश्न० 1 आश्र० द्वार। वेमवं-पुं०(वेमवत्) तन्तुवाये, "येन रक्तस्फटानागो, निवसन वदरीवने। पातितः क्षतिशस्त्रेण, क्षत्रियः सैष वेमवान् ॥१॥"प्रव०२ द्वार। आव०। वेमाणिणी--स्त्री०(वैमानिकी) वैमानिकदेवस्त्रियाम्, जी०४ प्रति०३ उ०। वेमाणिय-पुं०(वैमानिक) विविधं मन्यन्ते उपभुज्यन्ते पुण्यवद्भिजीवैरिति विमानानि, तेषु भवाः वैमानिकाः। देवभेदेषु, प्रज्ञा० 1 पद। से किं तं वेमाणिया ? वेमाणिया दुविहा पण्णत्ता, तं जहाकप्पोपगा य, कप्पाईया य। प्रज्ञा०१ पद। (कल्पोपगा'कप्पोपग' शब्दे तृतीयभागे 241 पृष्ठे उक्ताः।) से किं तं कप्पाईया? कप्पाईया दुविहा पण्णत्ता, तं जहागेविजगाय, अणुत्तरोववाइया य। से किं तं गेविजगा? गेविज्जगा नवविहा पण्णत्ता, तं जहा-हिट्ठिमहिट्ठिमगेविनगा हिटिममज्झिमगेविजगा हिट्ठिमउवरिमगे विजगा, मज्झिमहेट्ठिमगेविज्जगा मज्झिममज्झिमगे विजगा मज्झि-महेट्ठिमगेविज्जगा, उवरिमहेट्ठिमगेविज्जगा उवरिम-मज्झिमगेविनगा उवरिमउवरिमगेविनगा। ते समासओ दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-पञ्जत्तगा य, अपज्जत्तगा य / सेत्तं गेविजगा / / 'कप्पोवगा कप्पातीय ति कल्पः आचारः स चेह इन्द्रसामानिकत्रायस्त्रिंशादिव्यवहाररूपस्तमुपगाः- प्राप्ताः कल्पोपगाः सौधर्मेशानादिदेवलोक निवासिनः, यथोक्तरूपं कल्पमतीताः- अतीक्रान्ताः कल्पातीताः अधरतना-धस्तनयेयकादिनिवासिनः, ते हि सर्वेऽप्यहमिन्द्रारततो भवन्ति कल्पातीताः / प्रज्ञा० 1 पद / प्रव० / उत्त०। (अनुत्तरोपपातिकाः 'अणुत्तरोववाइय' शब्दे प्रथमभागे 383 पृष्ठे उक्ताः।) ('ठाण' शब्दे चतुर्थभागे 1707 पृष्ठे वैमानिकानां स्थानानि विमानानि च।)-(स्थितिरेषां 'ठिइ' शब्देचतुर्थभागे 1726 पृष्ठे गता।) संप्रति कियन्त एकस्मिन् समये उत्पद्यन्ते? इति निरूपणार्थमाहसोहम्मीसाणेसुदेवा एगसमएणं केवतिया उववजंति? गोयमा ! जहन्नेणं एको वा दो वा तिण्णि वा उक्कोसेणं संखेज्जा वा असंखेज्जा वा उववजंति, एवं जाव सहस्सारे,आणतादी गेवेज्जा अणुत्तरा य एको वा दो वा तिणि वा उक्कोसेणं संखेजा वा उववजंति ? सोहम्मीसाणेसु णं भंते ! देवा समए समए अवहीरमाणा अवहीरमाणा केवतिएणं कालेणं अवहिया सिया ? गोयमा! ते णं असंखेजा समए समए अवहीरमाणा अवहीरमाणा असंखेज्जाहिं उस्सप्पिणीहिं अवहीरंतिनो चेवणं अवहिया सिया० जाव सहस्सारो, आणतादिगेसु चउसु विगेवेग्जेसु अणुत्तरेसु य समए समए० जाव के वतिकालेणं अवहिया सिया ? गोयमा! ते णं असंखेज्जा समए समए अवहीरमाणापलिओवमस्स असंखेजतिभागमेत्तेणं अवहीरंति, नो चेव णं अवहिया
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________________ वेमाणिय 1434 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वेमाणिय सिया / सोहम्मीसाणेसु णं भंते ! कप्पेसु देवाणं के महालया सरीरोगाहणा पण्णता ? गोयमा ! दुविहा सरीरा पण्णत्ता, तं जहा-भवधारणिज्जा य, उत्तरवेउव्विया य / तत्थ णं जे से भवधारणिज्जे से जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जतिभागो उक्कोसेणं सत्त रयणीओ / तत्थ णं जे से उत्तरवे उदिवए से जहाणेणं अंगुलसंखेजतिभागो, उक्कोसेणंजोयणसतसहस्सं, एवं एकेका ओसारेत्ता णं० जाव अणुत्तराणं एक्का रयणी / गेवि-अगुत्तराणं एगे भवधारणिज्जे सरीरे उत्तरवेउव्विया नऽस्थि / / (सू०२१३) सोहम्मीसाणेसुणं देवाणं सरीरगा किंसंघयणी पण्णत्ता, गोयमा ! छण्हं संघयणाणं असंघयणी पण्णत्ता, नेवऽट्ठि नेव छिरा न वि पहारू णेव संघयणमत्थि / जे पोग्गला इट्ठा कंता० जाव ते तेसिं संघातत्ताए परिणभंति० जाव अणुत्तरोववातिया / / सोहम्मीसाणेसु देवाणं सरीरगा किंसंठिता पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा सरीरा--भवधारणिज्जाय, उत्तरवेउव्विया या तत्थ णं जे ते भवधारणिज्जा ते समचउरंससंठाणसंठिता पण्णत्ता। तत्थ णं जे ते उत्तरवेउव्विया ते णाणासंठाणसंठिया पण्णत्ता० जाव अचुओ। अवेउव्विया गेविजगुत्तरा, भवधारणिजा समचउरंस.. संठाणसंठिता उत्तरवेउव्विया णऽस्थि। (सू०२१४) सोहम्मीसाणेसु देवा केरिसया वण्णेणं पन्नत्ता ? गोयमा ! कणगत्तयरत्ताऽऽभा वण्णेणं पण्णत्ता: सणंकुमारमाहिंदेसुणं पउमपम्हगोरा वण्णेणं पण्णत्ता / बंभलोगे णं भंते ! गोयमा ! अल्लमधुगवण्णाऽऽभा वण्णेणं पण्णत्ता, एवं जाव गेवेजा, अणुत्तरोववातिया परमसुकिल्ला वण्णेणं पण्णत्ता / / सोहम्मीसाणेसु णं भंते ! कप्पेसु देवाणं सरीरगा के रिसया गंधेणं पण्णत्ता ? गोयमा ! से जहाणामए-कोट्टपुडाण वा तहेव सव्वं० जाव मणामतरता चेव गंधेणं पण्णत्ता० जाव अणुत्तरोववाइया / / सोहम्मीसाणेसु देवाणं सरीरगा के रिसया फासेणं पण्णता? गोयमा ! थिरमउयणिद्धसुकुमालच्छवि फासेणं पण्णत्ता एवं० जाव अणुत्तरोववातिया / / सोहम्मीसाणदेवाणं केरिसगा पुग्गला उस्सासत्ताए परिणमंति? गोयमा ! जे पोग्गला इट्ठा कंता० जाव ते तेसिं उस्सासत्ताए परिणमंति० जाव अणुत्तरोववातिया, एवं आहारत्ताए वि० जाव अणुत्तरोववातिया / / सोहम्मीसाणदेवाणं कति लेस्साओ पण्णत्ताओ ? गोयमा ! एगा तेउलेस्सा पण्णत्ता / सणकुमार-- माहिंदेसु एमा पम्हलेस्सा, एवं बंभलोगे वि पम्हा सेसेसु एका सुक्कलेस्सा / अणुत्तरोववातियाणं एका परमसुक्कलेस्सा। सोहम्मीसाणदेवा किं सम्मट्ठिी मिच्छादिट्ठी सम्मामिच्छादिट्ठी? तिण्णि वि, जाव अंतिमगेवेजा देवासम्मदिट्ठी वि मिच्छादिट्ठी वि सम्मामिच्छादिट्ठी वि। अणुत्तरोववातिया सम्मदिट्ठी णो मिच्छादिट्ठी णो सम्मामिच्छादिट्ठी। सोहम्मीसाणा किं णाणी अण्णाणी ! गोयमा ! दो वि तिण्णि णाणा तिणि अण्णाणा णियमा० जाव गेवेजा / अणुत्तरोववातिया नाणी नो अण्णाणी तिणि णाणा नियमा तिविधे जोगे दुविहे उवयोगे सव्वेसिं० जाव अणुत्तरा / (सू०२१५) 'साहम्भी' त्यादि, सौधर्मेशानयोर्भदन्त! कल्पयोर्देवा एकस्मिन् समये, सूत्रे तृतीया सप्तम्यर्थे प्राकृतत्वात्, कियन्त उत्पद्यन्ते ? भगवानाह-- मातम ! जघन्येन एको द्वौ वा त्रयो वा, उत्कर्षतः संख्यया वाऽसंख्येया वा, तिरश्चामपि गर्भजपचेन्द्रियाणां तत्रोत्पादात्, एवं तावद्वत्त्या सावत्सहरसारकल्पः / आणयदेवाणं भंते ! इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगमम्। भगवानाह.- गौतम ! जघन्येनैको द्वौ वा त्रयो वा उत्कर्षत: संख्येयाः, मनुष्याणाभेव तत्रोत्पादात्, तेषा कोटीकोटीप्रमाणत्वात्, एवं निरन्तरं तावद्वक्तव्यं यावदनुत्तरोपपातिका देवाः / सम्प्रति कालतोऽपहारतः परिमाणमाह. “सोहम्गी त्यादि सौधर्मेशानयाभदन्त ! कल्पयोर्देवाः समय समये एके कदवापहारेणापहियमाणा अपहियमा गाः कियता कालेनापहियन्त ? भगवानाह-गौतम : असंख्येयास्ते देवा: समये समये एवैकदेवापहारेणापहियमाणा अपहियमाणा असंख्येयाभिरुत्सर्पिण्यवसपिणीमिरपहियन्त / एतावता किमुक्तं भवति? असंख्येयासूत्सर्पिण्यवसर्पिणीषु यावन्तः समयास्तावत्प्रमाणाः सौधर्मेशानदेवा इति / एवमुररित्रापि भावना भावनीया। एतच कल्पनामात्र परिमाणा बधारणार्थमुक्तानपुनस्ते कदाचनापि केनाप्यपहताः स्युः,तथा चाह- 'नो चेवणं अचहिया सिया' एवं निरन्तरं तावद्वक्तव्यं यावत्सहस्रारकल्पाः देवाः, 'आणयपाणयआरणअचुएसु' इत्यादि प्रश्नसूत्र सुगमम् / नगवानाहपातमआन्तप्राणतारणाच्युतेषु कल्पेषु देवा असंख्येयाः, ते च समये समये एकैकापहारेणापह्रियमाणाः पल्योपमस्य-क्षेत्रपल्योपमस्य सूदन यासंख्येयभागमात्रेण कालेनापहियन्ते / किमुक्त नवति ?समक्षेत्रपल्योप-मासंख्येयभागे यावन्तः समयास्तावत्प्रमाणास्ते भवतीति, एवं गंवेशकदेवा अनुत्तरोपपातिनोऽपि वाच्याः। सम्प्रति शरीरावगाहनामानप्रतिपादनार्थमाह- 'सोहम्मीसाणेसु " भंते ! इत्यादि, सौधर्मेशानयोर्भदन्त ! कल्पोंर्देवानां किंमहालया' इति किंमहती शरीरावगाहना प्रज्ञाप्ता ? भगवानाह-- गौतम ! द्विविधा प्रज्ञप्ता तद्यथाअवधारणीया, उतरवैक्रिया चातत्र या सा भवधारणीया सा जघन्यतोऽडगुलासंख्येयभागमात्रा उत्कर्षतः सप्त रत्नयः। तत्र या सा उत्तरक्रिया सा जघन्य- तोऽडगुलस्य संख्येयं भाग यावत् नत्वसंख्येयं तथा-विधप्रयलाभावात, उत्कर्षत एक योजनशतसहस्रम्, एव ताव-द्वाच्यं यावदच्युतकल्पा, नवरं सनत्कुमारमाहेन्द्रयोरुत्कर्षतो भवधारणीया षड् रत्नयः, ब्रहालो कलान्तकेषु पञ्च. महाशुक्रसहस्रारयोश्चत्वारः, आनतप्राणतारणाच्युतेपुत्रयः, 'गवेञ्जगदेवाणभंते ! इत्यादि, गैवेयकदेवानां भदन्त ! किंमहती
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________________ वेमाणिय 1435 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वेमाणिय शरीरावगाहना प्रज्ञप्ता ? भगवानाह– गौतम ? गैवेयकदेवानामेक भवधारणीयं शरीरं प्रज्ञप्तं न तूत्तरवैक्रियं, शक्तौ सत्यामपि प्रयोजनाभावात्तदकरणात, तदपि च भवधारणीयं जघन्यतोऽड्गुलासंख्येयभागमात्रमुत्कर्षता द्वौ रत्नी। एवमनुत्तरोपपातसूत्रमपि वक्तव्यं, नवरमुत्कर्षत एका रत्न रेति वाच्यम्। सम्प्रति संहननमधिकृत्याह-- 'सोहम्मी' त्यादि, सौधर्मेशानयोर्भदन्त ! कल्पयोर्देवानां शरीराणि किंसंहननानि कि संहननं येषां तानि तथा प्रज्ञप्तानि ? भगवानाह- गौतम ! पण्णां संहननानामन्यतमेनापि संहननेनासहननानीति, संहननस्याऽस्थिरचनात्मकत्वात ताषा चाऽस्थ्यादीनामसम्भवाता तथा चाह-'नेवऽदी' इत्यादि, नैवास्थि रोषां शरीरेषु नापि शिराग्रीवाधमनि पि स्नायूंषि शेष शिराजालग, किन्तु - ये पुद्गला इष्टाः कान्ताः प्रिया मनोज्ञा मनआपतरा एतेषां व्याख्यान प्राग्वत्, ते तेषां सङ्घाततया परिणमन्ति, ततः संहननाभावः एवं तावद्वाच्यं यावदनुत्तरोपपातिकानां देवानाम्। सम्प्रति संस्थानप्रतिपादनार्थमाह- 'सोहम्मीसाणेसु' इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगमम् / भगवानाह.. गौतम ! तेषां शरीरकाणि द्विविधानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथाभधारणीयानि, उत्तरवैक्रियाणि च / तत्र यद् भवधारणीयं तत्समचतुरखसंस्थानसंस्थित प्रज्ञप्तं देवाना भवप्रत्ययतः, प्रायः शुभनामकर्मोदयभावात् / तत्र यदुतरवैक्रिय तत नानासंस्थानसंस्थितं प्रज्ञप्त, तस्यच्छया निवर्त्यमानत्वात् / एवं तावद्वक्तव्यं यावदच्युतः कल्पः / 'गेविजगदेवाण' मित्यादि प्रश्नसूत्रं सुगमम् / भगवानाह- गौतम ! वयकदेवानामेकं भवधारणीयं शरीरं तच समचतुरस्त्रसंस्थानसंस्थित प्रज्ञप्तम्, एवमनुत्तरोपपातिसूत्रमपि / अधुना वर्णप्रतिपादनार्थमाह'सोहम्मी' त्या दे, सौधर्मेशानयोर्भदन्त ! कल्पयोर्देवानां शरीरकाणि कीदृशाने वर्णेन प्रज्ञापानि ? भगवानाह- गौतम ! कनकत्वग्युक्तानि, कनकत्वगिव र आमा-छाया येषां तानि तथा वर्णेन प्रज्ञप्तानि, उत्तप्तकनकवर्णानीति भावः, एवं शेषसूत्राण्यपि भावनीयानि, नवरं सनत्कुमारमाहेन्द्रयोर्ब्रह्मलोकेऽपि च पापक्ष्मगौराणि, पाकेसरतुल्यावदातवर्णानीति भावः ततः पर लान्तकादिषुयथोत्तरं शुक्लशुक्लतरशुक्लतमानि, अनुत्तरोपपातिना परमशुक्लानि, उक्तश-"कणगत्तयरत्ताऽऽभा, सुरवसभर दोसु होति कप्पेसु / तिसु होति पम्हगोरा, तेण पर सुकिला देवा।।।।" सम्प्रति गन्धप्रतिपादनार्थमाह-'सोहम्मी' त्यादि प्रश्नसूत्र सुगमम्। भगवानाह-गौतम ! से जहानामए-कोट्टपुडाण वा' इत्यादि, विमानवद्भावनीयम्, एवं तावद्वक्तव्यं यावदनुत्तरोपपातिनाम् / सम्प्रति स्पर्शप्रतिपादनार्थमाह- 'सोहम्मीत्यादि, सौधर्मेशानयोर्भदन्त ! कल्पयार्देवानां शरीरकाणि कीदृशानि स्पर्शेन प्रज्ञप्तानि ? भगवानाहगौतम : 'थिरगउयणिद्धसुकुमाला फासेणं पण्णत्ता' इति स्थिराणि न तु मनुष्याणामिव विशरारभाव विभाणानि मृदूनि-अकठिनानि स्निग्धानिस्निग्धच्छायानि नतु क्षाणि सुकुमाराणि न तु कर्कशानितता विशेषणसमासः, स्पर्शन प्रज्ञप्तानि, एवं तावद्वक्तव्यं यावदनुत्तरोपपातिनां देवानां शरीरकाणि / साम्प्रतमुच्छ्वासप्रतिपादनार्थमाह - 'सोहम्मी' त्यादि, सोधर्मेशानयोर्भदन्त कल्पयोर्देवानां कीदृशाः पुद्गला उच्छ्वासतया | परिणमन्ति? भगवानाह-गौतम ! ये पुद्गलाः इष्टाः कान्ताः प्रिया मनोज्ञा भनआपा एतेषां व्याख्यानं प्राग्वत्, ते तेषामुछ्वासतया परिणमन्ति। एवं ताबद्वाच्यं यावदनुत्तरोपपातिका देवाः / एवमाहारसूत्राण्यपि। सम्प्रति लेश्या प्रतिपादनार्थमाह- 'सोहम्मी' त्यादि, सौधर्मशानयोर्भदन्त ! कल्पयोर्देवानां कति लेश्याः प्रज्ञप्ताः ? भगवानाह-गौतम ! एका तेजोलेश्या, इदं प्राचुर्यमङ्गीकृत्य प्रोच्यते, यावता पुनः कथञ्चित्तथाविधद्रव्यसम्पर्कतोऽन्यापि लेश्या यथासम्भवं प्रतिपत्तव्या। सनत्कुमारमाहेन्द्रविषयं प्रश्नसूत्रं सुगमम् / भगवानाह– गौतम ! एका पद्मलेश्या प्रज्ञप्ता, एवं ब्रहालोकेऽपि, लान्तके प्रश्नसूत्र सुगमम्। निर्वचनं-गौतम ! एका शुक्ललेश्या प्रज्ञप्ता, एवं यावदनुत्तरोपपातिका देवाः। उक्तं च''किण्हा नीलाकाऊ, तेऊलेसा य भवणवंतरिया। जोइससुहम्मिसाणा, तेऊलेसा मुणेयव्वा / / 1 / / कप्पे सणकुमारे, माहिंदे चेव बंभलोए य। एएसु पाहलेसा, तेण परं सुक्कलेसा उ॥२॥'' सम्प्रति दर्शनं चिचिन्तयिषुराह-- 'सोहम्मी' त्यादि, सौधर्मेशानयोर्भदन्त ! कल्पयोर्देवा णमिति वाक्यालडारे किं सम्यगदृष्टयो मिथ्यादृष्टयः सम्यग्मिथ्यादृष्टयः? भगवानाह-- गौतम / सभ्यगदृष्टयोऽपि मिथ्यादृष्टयोऽपि सम्यग्मिथ्यादृष्टयोऽपि / एवं यावद् गैवेयकदेवाः, अनुतरोपपातिनः सम्यग्दृष्टय एव वक्तव्याः न मिथ्यादृध्यो नापि सम्यग्मिथ्यादृष्टयः तेषां तथास्वभावत्वात्। सम्प्रति ज्ञानाज्ञानचिन्ता चिकीर्षुराह- सोहम्मी' त्यादि प्रश्नसूत्र सुगम-म् / भगवानाह- गौतम / ज्ञानिनोऽप्यज्ञानिनोऽपि, तत्र ये ज्ञानिनस्ते नियमात्त्रिज्ञानिनः, तद्यथा-आमिनिबोधिकज्ञानिनः श्रुतज्ञानिनोऽवधिज्ञानिनः / ये अज्ञानिनस्ते नियमात् त्र्यज्ञानिनः, तद्यथामत्यज्ञानिनः, श्रुताज्ञानिनो, विभङ्गज्ञानिनश्च, एवं तावद्वाच्यं यावद गैवेयकाः / अनुत्तरोपपातिनो ज्ञानिन एव वक्तव्याः / योगसूत्राणि पाठसिद्धानि। सम्प्रत्यवधिक्षेत्रपरिमाणप्रतिपादनार्थमाहसोहम्मीसाणदेवा ओहिणा केवतियं खेतं जाणंति पासंति? गोयमा ! जहणणेणं अंगुलस्स असंखेजतिभागं उक्कोसेणं अवही० जाव रयणप्पभापुढवी, उड्ढ० जाव साइं विमाणाई तिरियं० जाव असंखेज्जा दीवसमुद्दा एवं"सक्कीसाणा पढम, दोचं च सणंकुमारमाहिंदा। तचं च बंभलंतग-सुक्कसहस्सारगचउत्थी।।१।। आणयपाणयकप्पे, देवा पासंति पंचमिं पुढविं। तं चेव आरणचुय, ओहीनाणेण पासंति // 2 // छट्टि हेडिममज्झिम-गेवेज्जा सत्तमिं च उवरिल्ला। संभिण्णलोगनालिं, पासंति अणुत्तरा देवा // 3 // (सू०२१६) 'सोहम्मी' त्यादि सौधर्म शानयोर्भदन्त ! कल्पयोर्देवाः कियत्क्षे त्रमवधिना जानन्ति ज्ञानेन, पश्यन्ति दर्शनेन ? भ
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________________ वेमाणिय 1436 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वेमाणिय गवानाह--गौतम ! जघन्येनाड्गुलस्यासंख्येयभागम्, अत्र पर आहनन्वगुलासंख्येयभागमात्रक्षेत्रपरिमितोऽवधिः सर्वजघन्यो भवति, सर्वजघन्यश्वावधिस्तिर्यग्मनुष्येष्वेव न शेषेषु / यत आह भाष्यकार: स्वकृतभाष्यटीकायाम्- "उत्कृष्टो मनुष्येष्वेव नान्येषु मनुष्यतिर्यग्योनिष्वेवं जघन्यो नान्येषु शेषाणां मध्यम एवेति' तत्कथमिह सर्वजघन्य उक्तः ? उच्यते- सौधर्मादिदेवानां पारमाविकोऽप्युपपातकालेऽवधि: संभवति स एव कदाचित्सर्वजघन्योऽपि उपपातानन्तरं तु तद्भवजः ततो न कश्चिद्दोषः। आह च जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणः- ''वेमाणियाण अंगुलभागमसख जहन्नओ होइ (ओही)। उववाए परभविओ, तत्भवजो होइ तो पुच्छा / / 1 / / ' 'उक्कोसेण' ति एवं यथाऽवधिपदे प्रज्ञापनायां तथा वक्तव्यम, तचैवम्- 'उक्कोसेणं अहे० जाव इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए हेडिल्ले चरिमंते' अधस्तनाच्चरमपर्यन्ताद्द्यावदित्यथः 'तिरियं० जाव असंखेजे दीवसमुद्दे उड्ड० जाव सगाई विमाणाई' स्वकीयानि विमानानि स्वकीयविमानस्तूपध्वजादिकं यावदित्यर्थः 'जाणंति पासंति एवं सणंकुमारमाहिंदाऽवि नवरं अहे० जाव दोचाए सक्करप्पभाए पुढवीए हेडिल्ले चरिमंते, एवं बंभलोगलंतगदेवा वि, नवरं अहे० जाव तचाए पुढवीए महासुक्कसहस्सारगदेवा, चउत्थीए पंकप्पभाए पुढवीए हेहिल्ले चरिमंते आणयपाणयआरणचुयदेवा अहे० जाव पंचमीए पुढवीए धूमप्पभाए हेडिल्ले चरिमंते, हेहिममज्झिमगेवेजगदेवा छट्ठीएतमप्पभाए पुढवीए हेडिल्ले चरिमंते, उवरिमगेवेजगा देवा अहे० जावसत्तमाए पुढवीए हेडिल्ले चरिमंते, अणुत्तरोववाइयदेवा णं भंते ! केवइयं खेत्तं ओहिणा जाणंति पासंति, गोयमा ! संभिन्नं, लोगनालिं. पारपूर्ण चतुर्दशरज्ज्वात्मिका लोकनाडीमित्यर्थः 'ओहिणा जाणति पासंति' इति / उक्तञ्च"सक्कीसाणां पढम, दोचं च सणंकुमारमाहिंदा। तचंच बंभलंतग-सुक्कसहस्सारग चउत्थि।।१।। आणयपाणयकप्पे, देवा पासंति पंचमि पुढविं। तं चेव आरणचुय, ओहीनाणेण पासंति // 2 // छलुि हिटिममज्झिम-गविजा सत्तमि च उवरिल्ला। संभिन्नलोगनालिं, पासंति अणुत्तरा देवा / / 3 / / " जी०३ प्रति०२ उ० / (समुद्धातादयः समुद्धातादिशब्देषु) वैमानिकानां वासंस्थानमाहकेवइया णं भंते ! वेमाणियावासा पण्णत्ता ? गोयमा इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ उर्ल्ड चंदिमसूरियगहगणनक्खत्ततारारूवाणं वीइवइ बहूणि जोयणाणि बहूणिजोयणसयाणि बहूणि जोयणसहस्साणि बहूणि जोयणसयसहस्साणि बहुइओ जोयणकोडीओ बहुइओ जोयणकोडाकोडीओ असंखेन्जाओ जोयण-कोडाकोडीओ उड्ढे दूरं वीइवइत्ता एत्थणं वेमाणियाणं देवाणं सोहम्मीसाणसणंकुमारमाहिंद- | बंभलंतगसुक्कसहस्सारआणयपाणयआरणअचुएसु गेवेजगमणुत्तरेसु य चउरासीई विमाणावाससयसहस्सा सत्तणउई च सहस्सा तेवीसं च विमाणा भवंतीति मक्खाया, ते णं विमाणा अच्चिमालिप्पभा भासरासिवण्णाऽऽभा अरया नीरया णिम्मला वितिगिरा विसुद्धा सव्वरयणामया अच्छा सण्हा घट्ठा मट्ठा णिप्पंका णिक्कं कडच्छाया सप्पभा सस्सरीया सउज्जोया पासाईया दरिसज्जिा अभिरूवा पडिरूवा। (सू०१५०४) 'केवइए' त्यादि रत्नप्रभायाः पृथिव्या 'बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ' ति बहुसमरमणीयस्स भूमिभागस्य ऊर्ध्व-उपरि तथा चन्द्रमसः-सूर्यग्रहणनक्षत्रतारारूपाणि णमित्यलङ्कारे किं ? 'वीइवइत्त' त्तिव्यतिव्रज्य-व्यतिक्रम्येत्यर्थः, तारारूपाणि चेह तारका एवेति, तथाबहूनी' त्यादि, किमित्याह-ऊर्ध्वम्- उपरि दूरमत्यर्थ व्यतिव्रज्य चतुरशीतिविमानलक्षाणि भवन्तीति सम्बन्धः इति मक्खाय' ति इतिएवंप्रकारा, अथवा-यतो भवन्ति तत आख्याताः सर्ववेदिनेति। तेणं' तितानि विमानानि णमिति वाक्यालङ्कारे 'अचिमालिप्पभ' त्ति अर्चिालिः- आदित्यस्तद्वत्प्रभान्ति-शोभन्ते यानि तान्यर्चिालिप्रभाणि, तथा भासाना-प्रकाशानां राशिः-भासराशि:-आदित्यस्तस्य वर्णस्तद्वदाभा-छाया वर्णो येषां केषांचित्तानि भासराशिवर्णाऽऽभानि, तथा 'अरय' त्ति अरजांसि स्वाभाविकरजोरहितत्वात् 'नीरय' त्ति नीरजांसि आगन्तुकर-जोविरहात् 'निम्मल' त्ति निर्मलानि कक्खड' त्ति (कर्कश) मलाभावात् 'वितिमिर' त्ति वितिमिराणि आहार्यान्धकाररहितत्वात् विशुद्धानि स्वाभाविकतमोविरहात्, सकलदोषविरामाद्वा सर्वरत्नमयानि, नदादिदलमयानीत्यर्थः अच्छान्याकाशस्फटिकवत् श्लक्ष्णानि सूक्ष्मस्कन्धमयत्वात् घृष्टानीव धृष्टानि खरशाणया पाषाणप्रतिमेव मृष्टानि सुकुमारशाणया पाषाणप्रतिमेवेति निष्पङ्का कलङ्कविकलत्वात् कर्दमविशेषरहितत्वाद्वा निष्कङ्कटा- निष्कवचा निरावरण निरुपघातेत्यर्थः,छायादीप्तिर्येषां तानि निष्कङ्कटच्छायानि सप्रभाणिप्रभावन्ति समरीचीनिसकिरणानीत्यर्थः सोद्योतानिवस्त्वन्तरप्रकाशनकारीणीत्यर्थः, 'पासाईए' त्यादि प्राग्वत्। स० 150 सम०। चतुर्निकायेषु विमानाधिपतयः सम्यग्दृष्टयो मिथ्यादृष्टयो वेति ? प्रश्नोऽत्रोत्तरं विमानाधिपतितया यो देवविशेष उत्पद्यते स सम्यग्दृष्टिरेव भवति, न कदापि स मिथ्यादृष्टिरित्यनादिकालीना जगद्व्यवस्थितिः, यतो विमानाधिपतितयोत्पद्यमानो देवः "किं मे पुव्वं करणिज ? किं में पृच्छा करणिजं ? किं मे पुव्व सेयं ? किं मे पच्छा सेयं ? किं मे पच्छा सेय किं मे पुव्यं पि पच्छा वि हियाए सुहाए खमाए निस्सेसाए आणुगामिअत्ताए भविस्सइ ? इत्यादिराजप्रश्नीयोक्तशुभाध्यवसायविशेषेण सम्यग्दृष्टिरेवावसीयते, सम्यक्त्वमन्तरेण तथाध्यवसायरूपपरिणामानुत्पत्तेः।न चार्य प्रकारो राजप्रश्नीयाधुपाङ्गे सूर्याभदेयसम्बन्धित्वाचरितानुवादरूपोऽतः कथं सर्वेषामप्यन्यविमानाधिपतित्वेनोत्पद्यमानानां देवविशेषाणामयमेव प्रकार इति शड्कनीयम्, ग्रन्थान्तरे प्रकारान्तरस्यानभिधानाद, अन्येषामपि विमानाधिपतितयोत्पद्यमानानां तथाप्रकारस्यव
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________________ वेमाणिय 1437 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वेमायणिद्धया क्तुमौचित्याद्, अत एव विजयदेवाधिकारे तथाप्रकार, एव विजयराज- 1 इत्यादिका पाठरचना कृता, ततोऽवसीयतेय एव सम्यगदृशो देवास्त एव धान्यामुत्पन्नमात्रस्य विजयदेवस्यागमे भणित इति। किश्न--विमानाधि- जिनप्रतिमाः पूजयन्ति शक्रस्तवं च पठन्तीति सुधीभिः परिभायनीयम्। पतिदेवानां मिथ्यादृष्टित्वेऽभ्युपगम्यमाने तद्विमानगसिद्धायतनजिन - यत्तु एवं खलु देवाणुप्पि-आणं अंतेवासी तीसएणाम अणगारे छलछट्टुणं० प्रतिमानां मिथ्यादृष्टिमावितत्वेन भावग्रामताव्याघातः, स्यात, सम्यग- जाव सक्कारस देविंदस्स देवरण्णो सामाणिआ देवा केमहिड्डिया' इति दृष्टिभावितानामेव-सभ्यगदृष्टिपरिगृहीतानामेवेत्यर्थः, तासां भावग्राम- भगवत्यां तृतीयशतके प्रथमोद्देशके शक्रसामानिकानां निजनिजतया प्रवचने प्रतिपादनात्, न तु मिथ्यादृष्टिपरिगृहीतानामपीति, विभानेषूत्पत्तिभणनात्तदाधिपत्यभणनाच सर्वे सामानिकसुरा विमानातथाचोक्तम्- 'जा सम्मभाविआओ, पडिमा इयरा ण भावगामो उत्ति' धिपतयो भणिताः, तथा भणने च तदन्तर्गतः सङ्गमकाऽमरोऽपि बृहत्कल्पनियुक्तौ तवृत्त्येकदेशो यथा याः सम्यग्दृष्टिपरिगृहीताः प्रतिमाः विमानाधिपतिरेव भणितोऽवसेयः, स चाभव्यत्वानियमात् मिथ्याता भावग्राम उच्यते, नेतरा-मिथ्यादृष्टिपरिगृहीता इत्यादि, किश- दृष्टिरेवेति कथं सम्यग्दृश एव विमानाधिपतयः सर्वेऽपीति वक्तुं पार्यते विमानाधिपतयो देवाः परैर्मिथ्यादृशोऽभिधीयन्ते,तेदेवाः किं तीर्थकृता- इति विकल्पयन्ति, तदपि न सम्यग्, प्रवचनाभिप्रायस्य तैरनाकलनात्, माशातना परिहरन्ति न वा? यदिपरिहरन्तीत्युच्यते, तदा मिथ्यादृष्टित्वं न हि संयसि विमाणसि' इति पाठबलेन विमानाधिपतित्वं सामानिकानां तेषां दत्ताञ्जल्येव सम्पन्नम्। आसायणवजणाओ सम्मत्त मिति वचनेन सेत्स्यति, तथा पाठस्य विमानाधिपतित्वं विनाऽप्यागमे उपलम्भात्, सम्यक्त्वस्यैवाभिधानात्, तत्राशातनापरिहारोऽपि, "अहो देवाण य यतो ज्ञाताधर्मकथाङ्गे कालिदेव्याः कालावतंसकविमाने उत्पत्तिरसीलं, विसयविसमाहिआ वि जिणभवणे / अच्छरसाईहि समं, हास भिहिता / सूरप्रभादेव्याः सूरप्रभे विमाने यावत्पद्मादेव्याः सौधर्मो कल्पे कीलं च वजंति // 1 // " इति प्रवचनाभिहितएव, नापरः, तस्यागर्मऽनुक्तेः, पद्मावतंसके विमाने तथा कृष्णादेव्या ईशाने कल्पे कृष्णावतंसकविमाने स च मिथ्यादृष्टित्वे सति स्वप्नेऽपि न सम्भवति, किन्तु नियमतः, उत्पत्तिर्भणिता, देवीनां चाग्रमहिषीणां न भवनानि न विमानानि सम्यग्दृशामेवात एव तथाशातनावर्जनस्वरूपशालिनां देवविशेषाणां प्रवचनेऽभिहितानि सन्ति, अपरिगृहीतदेवीनामेव विमानानां भणनात्। वर्णवादोऽर्हता वर्णवादवत्प्रेत्य सुलभबोधिताहेतुर्भणित; तथा च अयं च भावो यथा देदीनां पृथंग विमानानि न सन्ति, परं मूलविमानस्थानाङ्ग-सूत्रम्- 'पंचर्हि ठाणेहिं जीवा सुलभबोहिअत्ताए कम्मं पकरेंति' सम्बन्धिविमानैकदेशः स्वोत्पत्तियोग्यः तद्विमानत्वेन भणितः, एवं सामाअरहताणं वण्ण वयमाणे० जाय विविकतवबंभचेराणं देवाणं वण्णं निकानामपि शक्रविमानसम्बन्धी तदेकदेशः तदीयप्रभुतादिना नियमितः वयमाणे' वृत्तिदेशो यथा-तत्र देवानां वर्णवादो यथा 'अहो देवाणयसीलं' तदीयविमानत्वेन भण्यमानो न दोषावह इति / तदभिव्यञ्जकं जिनइत्यादि / यच कैश्चिदाशयते-मिथ्यादृशोऽपि स्थानकमाहात्म्यात्तथा जन्मोत्सवादौ शक्रसिंहासनमण्डनवत्तदग्रमहिषीसिंहासनमण्डनवच तपाशातना वजेयिष्यन्तीति, तदपि परास्तमवसातव्यं, यतो मिथ्यादृशां चतुरशीतिसहस्रसामानिकदेवानामपितदर्हसिंहासनमण्डनमेवावसेयम्। दूरे वर्णवादस्य सुलभबोधिताहेतुत्वं प्रत्युत सम्यक्त्वदूषकत्वमेव यदि ते सामानिकाः शक्रविमानवासिनो न स्युः ततः कथमिव तेषां तस्यागमेऽभिहितम्, यदुक्तम्- 'शङ्का 1 काङ्क्षा 2 विचिकित्सा 3, सिंहासनानि शक्रविमाने मण्डितानि भवेयुरित्यपि स्वधिया पालोमिथ्यादृष्टिप्रशंसनम् / तत्संस्तवश्च पश्चापि 5, सम्यक्त्वं दूषयन्त्यमी च्यम, 'सयंसि विमाणसि' इत्यादि पाठावलोकनेऽपिन कोऽपि व्यामोहः / / 1 / / " इतियोगशास्ये। अथतंनपरिहरन्तीति द्वितीयपक्षः, सतूपेक्षणीय कार्यः, एवं च विमानाधिपतयः सम्यग्दृशो भवन्तीति आगमिकयुक्तेः एव, आगमे सिद्धायतनेष्वाशातनापरि-हरणस्यैवाभिधानात्, 'बहूणां आगमप्रामाण्यात् तत्सिद्धस्यार्थस्यापि प्रामाणिकत्वं प्रतिपत्तव्यमेव / देवाणं देवीण य वंदणिज्जाओ अच्चणिज्जाओ' इत्यादिना वन्दनपूजनादेरा यदुक्तम्- 'तह वक्खाणेअव्वं' जहाजहा तस्स अवगमो होई। आगमिशातनापरिहार-पूर्वकतयैव भावादिति / आस्ता सिद्धायतनेषु, यत्र अमागमेणं, जुत्तीगम्भ तुजुत्तीए॥१॥'त्ति, पञ्चवस्तुके यथा, नवरं चन्द्रसुधासभासु स्वमाणवकचैत्यस्तम्भेषु श्रीमदर्हद्दष्ट्रालंकृताः समुद्ग विमाने चन्द्र उत्पद्यते तत्सामानिकात्मरक्षकादयश्चेति चन्द्रप्रज्ञप्त्यष्टाकास्तिष्ठन्ति तत्रापि देवा नैव मैथुनादिप्रवृत्तिकरणादिनाऽऽशातनां दशप्राभृतकवृत्तिप्रान्तेऽस्तीति अतोऽपि सङ्गमको न पृथक विमानाधिकुवन्तीति / तस्मात्सिद्धं सुलभबोधिताहेतुतीर्थकृदा-शातनापरि पतिरित्यवसीयते / इति विमानाधिपतयस्सम्यग्दृष्टय एवेति व्यवहारान्यथानुपपत्त्या विमानाधिपतयः सम्यग्दृशो भवन्तीति / किञ्च-- स्थितम् // 37 // यदि विमानाधिपतिर्देवो मिथ्यादृष्टिरपि जिनप्रतिमाः पूजयतीति वेमाणियदेवित्थिया-स्त्री०(वैमानिकदेवस्त्रिका) वैमानिकदेव्याम्, जी० कल्पस्थितिरिति परे कल्पयन्ति, तथा तद्देवानुवृत्त्या परेऽपि तद्विमान २प्रति०। वासिनो देवा मिथ्यादृशः किं न पूजयन्तीति परिकल्पयन्ति, सम्यग- | वेमायट्टितिया स्त्री०(विमात्रस्थितिका) विमात्रा विषयमात्रा स्थितिराप्रयस्त दमा अत्यतिमा मोक्षाय भविष्यन्तीति बळ्या पजयन्ति (एवं | युर्वेषां ते विमात्रस्थितयः। विषमायुष्केषु, भ०३४ श०१ उ०। चेत्) 'सव्वेसिं देवाणं सव्वेसिं देवीण य अचणिज्जे' इत्यादिका पाठरचना | वेमायणिद्धया-स्त्री०(विमात्रस्निग्धता) विषमा मात्रा यस्याः सा विमात्रा, कृताऽभविष्यत्, परंसान कृता, प्रत्युत 'बहूणं देवाणं देवीण य अचणिज्जे' | साचासौ स्निग्धता चेति विमात्रस्निग्धता। विमात्रस्नेहे,भ०३४ श०१3०।
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________________ वेमाया 1538- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वेयणा वेमाया-स्त्री०(विमात्रा) कदाचित्सातं कदाचिदसातमित्यादिरूपायां विविधमात्रायाम्, भ०६ श०१ उ०। स्या०। विविधा मात्रापरिमाणमा सामिति विमात्रा। विचित्रपरिणामायाम्, उत्त०२ अ०। आव०। आ० म०। वेयडिय-त्रि०(वैकटिय) सुरासन्धानकारिणि, व्य०६ उ०। वेयङ्क-पुं०(वैताळ्य) पर्वतविशेषे, प्रश्न० / वैताट्यसमीपे द्विसप्ततिबिलानि क्व सन्तीति प्रश्नः ? अत्रोत्तरंवैताळ्यनिश्रया गङ्गासिन्ध्वोर्द्विसप्ततिबिलानि, तत्र दक्षिणभरतार्द्ध उत्तरभरतार्द्ध च तत्तटद्वये तव नव बिलसद्भावादिति 87 / सेन०४ उल्ला०। वेयण-न०(वेतन) मूल्ये, विपा० 1 श्रु०३ अ० उत्त०। वेदन-न० अनुभवे, स्था० 8 ठा०३ उ०। आचा०। कर्म० / सूत्र०। अवनं गमनंवेदनमिति पर्यायाः।आ०म०१अ० न० स्थितिक्षयादुदयप्राप्तस्य कर्मण उदीरणाकरणेनचोदयभावमुपनीतस्यानुभवने, स्था० 4 ठा०१ उ० दश०। प्रतिसयमं स्वेन रसविपाकेनानुभवने, स्था०४ ठा०४ उ०। उदये, दश०४ अ०। वेयणअहियासण-न०(वेदनाध्यासन) क्षुदादिपीडासहने, भ०१७ श० 3 उ०॥ वेयणंतिया-स्त्री०(वेदनान्तिका) ब्राह्मया लिपेर्भेदे, स०१८ सम०। वेयणवेयावच-न०(वेदनावैयावृत्य) वेदना चक्षुर्वेदना वैयावृत्त्यं चाचा र्यादिकृत्यकरणं वेदनावैयावृत्त्यम् / वेदनोपशमनार्थे वैयावृत्यकरणे, स्था०६ ठा०३ उ०। वेदनावैयावृत्त्यार्थ भुञ्जीततत्र क्षुद्वेदनोपशमेनाय भुञ्जीत यतो नास्ति क्षुत्सदृशी वेदना / ग०२ अधि०। वेयणा-स्त्री०(वेदना) वेद्यतेऽनयेति वेदना। योगशास्त्रपरिभाषया स्पर्शनेन्द्रियजे ज्ञाने, यत्प्रकर्षादिव्यास्पर्शविषयं ज्ञानेमुत्पद्यते। द्वा०२६ द्वा०। आव० / वेदनं वेदना स्वभावेनोदीरणाकरणेन चोदयावलिकाप्रविष्टस्य कर्मणोऽनुभवने, संवरविशेषे चायोग्य-वस्थारूपे कर्मणां वेदनैव भवति नबन्ध इति / स्था०। वेदनास्वरूपमाहएगा वेयणा। (सू०१५) वेदनं वेदना- स्वभावेनोदीरणाकरणेन वोदयावलिकाप्रविष्टस्य कर्मणोऽनुभवनमिति भावः / सा च ज्ञानावरणीयादि-कम्मपिक्षया अष्टविधाऽपि विपाकोदयप्रदेशोदयापेक्षया द्विविधाऽपि आभ्युपगमिकीशिरोलोचादिकी औपक्रमिकीरोगादिजनितेत्येवं द्विविधाऽपि वेदना सामान्यादेकैवेति / स्था० 1 ठा० / औ०। स० / स्वशरीराव्यक्तचेतनायाम्, आचा०१श्रु०१ अ०२ उ० कर्मानुभवे, 'णत्थिवेयण त्ति नसंज्ञां निवेशयेत् सूत्र०२ श्रु०५ अ०। ज्ञाने, सातासातरूपे, सूत्र०२ श्रु०२ अ०। सुखदुःखानुभवस्वभावा वेद्यन्त इति वेदनाः। शीतोष्णशाल्मल्याश्लेषणादौ, उत्त० 5 अ० / आव० / आचा० / नयनादिपीडायाम्, स्था०७ठा०३ उ०। दुःखे, स्था०४ ठा०१3०। उत्त०। _ वेदनावक्तव्यतार्थाधिकारसंग्रहःसीता(य) दव्वसरीरा, साता तह वेदणा भवति दुक्खा। अन्मुवगमोवकमिया, निदा य अणिदाय नायव्वा / / 1 / / सायमसायं सव्वे, सुहं च दुक्खं अदुक्खमसुहं च / माणसरहियं विगलिं-दिया उसेसा दुविहमेव // 2 // 'सीया (य) दव्वे' त्यादि, वेदना प्रथमतः शीता चशब्दादुष्णाशीतोष्णा च वक्तव्या, तदनन्तरं द्रव्यक्षेत्रकालभावैर्वेदना वक्तव्या; ततः शारीरी उपलक्षणान्मानसीच वेदनावाच्या,ततः साता तथा दुःखावेदनासभेदा वक्तव्यतया ज्ञातव्या भवति, तदनन्तरमाभ्युपगमिकी औपक्रमिकी च वेदना वक्तव्यतया ज्ञातव्या, ततोऽप्यनन्तरं निदा, चानिदा चेति / सातसुखादीनां विशेषमाभ्युपगमिथ्यादिशब्दानामर्थे त्वग्रे वक्ष्यामः / सातादिवेद-नामधिकृत्य यो विशेषो वक्ष्यते तत्संग्राहिका द्वितीया गाथा'सायमसाय' मित्यादि सर्वे संसारिणः सातामसातां चशब्दात्सातासातां च वेदनां वेदयन्ते, तथा सुखां दुःखाम, अदुःखासुखां च, तथा विकलेन्द्रिया- एकद्वित्रिचतुरिन्द्रियाः तुशब्दस्याधि-कारार्थसंसूचनार्थत्वादसंज्ञिपञ्चेन्द्रियाश्च मानसरहितांमनोविकलां वेदनांवेदयन्ते, शेषास्तु द्विविधामेव शरीरमनो-निबन्धनां, शारीरीं मानसीं तदुभयसमुद्भवां चेति भावः, निदाऽनिदादिगतस्तु वेशेषो न संग्रहीतो, विचित्रत्वात् सूत्रगतेः। तत्र'यथोद्देशं निर्देश' इति न्यायात् प्रथमतः शीतादि. वेदनाः प्रतिपादनार्थमाहकइविहा णं भंते ! वेदणा पण्णत्ता ? गोयमा ! तिविहा वेदणा पण्णत्ता, तं जहा-सीता उसिणासीतोसिणा। 'कइविहा णं भंते !' इत्यादि, शीता-शीतपुद्गलसंपर्क समुत्था, एवमुष्णा,याच अवयवभेदेन शीतोष्णपुद्गलसंपर्कतः शीता उष्णा च सा शीतोष्णा। एनामेव त्रिविधां वेदनां नैरयिकादिचतुर्विशतिदण्ड है कक्रमेण चिन्तयतिनेरझ्या णं भंते ! किं सीतं वेदणं वेदेति, उसिणं वेदणं वेदेति, सीतोसिणं वेदणं वेदेति ? गोयमा ! सीतं पि वेदणं वेदेति, उसिणं पि वेदणं वेति, नो सीतोसिणं वेदणं वेदेति / केई एक्ककपुढवीए वेदणाओ, भणंति, रयणप्पभापुढविनेरइया णं भंते ! पुच्छा, गोयमा! नो सीतं वेदणं वेदेति, उसिणं वेदणं वेति, नो सीतोसिणं वेदणं वेदेति, एवं० जाववालुयप्पभापुढविनेरइया, पंकप्पमापुढविनेरइयाणं पुच्छा, गोयमा! सीतं पि वेदणं वेदेति उसिणं पिवेदणं वेदेति, नो सीतोसिणं वेदणं वेदेति, ते बहुयतरागा जे उसिणं वेदणं वेदेति, ते थोवतरागा जे सीतं वेदणं वेदेति / धूमप्पभाए एवं चेव दुविहा, नवरं ते बहुयतरागा जे सीतं वेदणं वेदेति, ते थोवतरागा जे उसिणं वेदणं वेदेति। तमाएयतमतमाएयसीयं वेदणं वेदेति, नो उसिणं वेदणं वेदेति, नो सीतोसिणं वेदणं वेदेति। असुरकुमाराणं पुच्छा, गोयमा! सीतं पि वेदणं वेदेति उसिणं पि वेदणं वेदेति सीतोसिणं पि वेदणं वेदेति, एवं० जाव वेमाणिया। (सू०३२८४)
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________________ वेयणा 1436 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वेयणा - 'णेरइयाण गित्यादि, तत्राद्यासु तिसृषु पृथिवीषूष्णा वेदनां वेदयन्ते, हिमादिप्रपातेभिवेदयगाना वेदितव्याः, उष्णवेदनामयादिसम्पर्क ते हि शीताः ये नरकावासाश्च तदाश्रयभूताः सर्वतो जगत्प्रसिद्धखादि- शीतोष्णावदनामवरावशः शीतोष्णपुद्गलसम्बन्धे इति; व्यन्तरज्योतिष्कसगरा तिरिक्तबहुप्रतापोष्णपुद्गलसम्भूताः, चतुया तु पङ्कपभाभिधा-- वैमानिकास्वसुरकुमारवत् भावनीयाः / उक्ता शीतादिभेदात त्रिविधा नायां पृथिव्यां केचिन्त्रैरथिका उष्णवेदना केचिन शीतवेदनानुभवन्ति, वेदना / प्रज्ञा० 35 पद। तत्रत्यनरकावासानां शीतोष्णभेदतो द्विधा भेदात. केवल ये उगतेदना तिसु णं पुढवीसु णेरझ्याणं उसिणवेयणा पन्नत्ता, तं जहावेदयन्ते ते प्रभूततराः, प्रभूतेषु नरकावासेपुष्णवेदनासद्भावात / इतरे पढमाए दोचाए तच्चाए, तिसु णं पुढदीसु णेरइया उसिणवेयणं शीतवेदनागनुभवन्तः स्तोकाः, स्तोकतरेषु नरकावासेषु शीतवेदना पचणुमवमाणा विहरंति-पढमाए दोचाए तचाए। (सू०१४७+) सम्भवत्। धूगप्रणायानपि पृथिव्या केचित शीतवेदनाकाः केचिदुष्ण 'उशिणवेयण' निशिसृणामधारवभावनात, तिसृषु नारका उष्णवेदना वेदनाकाः, नवरं शीतवेदनाकाः प्रभूततराः, पभूतेषु नरकाबासेषु इत्युक्त्याऽपि यदुध्यते नेरशिका उष्णवेदना प्रत्यनुभवन्तो विहरन्तीति शीतवेदनासम्भवात, स्ताका उष्णवेदनाः कतिपयेष्वेव नरकावासेपृष्षण.. तपादनासातत्यप्रदर्शनार्थाम, स्था० 3 ठा० 1 30 / वेदनाावात्। अधस्तन्योस्तु द्वयोः, पृथिव्योः शीतवेदनामेव नैरयिका संप्रति तामेव वेदानां प्रकारान्तरेणाभिधित्सुः प्रश्ननिर्वअनुभवन्ति, त्नत्यनैरयिकाणां सर्वेषामुष्णयोनिकत्वात्, नरकावासना अनुपमहिमानुषतत्वात्। एतावत्सूत्रं चिरन्तनेष्वविप्रतिपत्त्या श्रूयते। __ चनसूत्रे आह-- चिदाचार्याः पुनरेतद्विषयमधिकमपि सूत्रं पठान्त, ततस्तन्मतमाह-- कतिविहाणं भंते ! वेदणा पण्णत्ता? गोयमा! चउव्विहा वेदणा 'कई एकीए पुढवीए वेयण भणंति' इति केचिदाचार्या एकैकस्यां पृथिवयां पण्णत्ता, तं जहा-दव्वतो, खेत्ततो कालतो० जाव किं भावतो प्रश्ननिर्वचनरु पलया वदना भणन्ति, यथा भणन्ति तथोपदर्शयन्ति- वेदणं वेदेति ? गोयमा ! दव्वओ विवेदणं वेदेति० जाव भावओ 'ग्यापभे' त्यादि सुगमम् / तदेव नैरयिकाणां चिन्तिता शीतादिवेदना। वि वेदणं वेदेति, एवं० जाव वेमाणिया। सम्प्रत्यसुरकुमाराणा तां चिचिन्तयिषुरिदमाह-- असुरकुमारापुच्छा' / "कइविया ण मते ! इत्यादि, इह वेदना द्रव्याक्षेत्रकालभायसामग्रीवअसुरकु माराणां शीतादिवेदनाविषये पृच्छासूत्रं च वक्तव्यम्, शादुल्पद्यते, सर्वस्यापि वस्तुनो द्रव्यादिसामग्रीवशादुत्पद्यमानत्वात्, तंत्र 'असुरखमाराणं भंते! किं सीयं वेदणं वेयति उसिण वेयण वेयंति सीओसिणं यदाऽस्यैव वेदना पुदलद्रव्य-सम्बन्धमधिकृत्य चिन्त्यते तदा द्रव्ययेदना, वेषण वयंति? इति भगवानाह– 'गोयमे' त्यादि, शीलामपि वेदनां द्रव्यतो वेदना द्रव्य-वेदना / नारकाद्युपपातक्षेत्रमधिकृत्य चिन्त्यमाना व दरान्त, यदा शीतल जलसम्पूर्णहृदादिषु निमज्जनादिकं विदधति, क्षेत्रवेदना / नारकादिभवकालसम्बन्धेन विवक्षमाणा कालवेदना / उष्णामपि वेदना वेदयन्ते यदा कोऽपि महर्द्धिकस्तजातीयोऽन्यजातीयो वेदनीय-कर्मोदयादुपजायमानत्वेन परिभाव्यमाना भाववेदना। एतामेव या कोपवशात विरूपतया दृष्ट्याऽवलोकमानः शरीरे सन्तापमुत्पादयति चतुर्विधां वेदनां चतुर्विशतिदण्डकक्रमेण चिन्तयति- 'नेरइया णं भंते ! यथा प्रथमोत्पन्नः ईशानेन्द्रो बलिचञ्चाराजधानीवास्तव्यानामसुर किं दव्वतो वेयणं वेदेति' इत्यादि, सकलमपि सुगमम्। कुमाराणामुत्पादितवान्, अन्यथा वा तथाविधोष्णपुद्गलसम्पृक्ता प्रकारान्तरेण वेदना प्रतिपिपादयिषुः प्रश्ननिर्वचनसूत्रे आहयुष्णवेदनामनुभवन्तो वेदितव्याः। यदा त्ववयवभेदेन शील-पुदलसम्पर्क उष्णपुदलसंपर्कश्योपजायते तदाशीतोष्णां वेदनां वेदयन्ते। ननु उपयोगः कतिविहा णं भंते ! वेदणा पण्णत्ता ? गोयमा ! तिविहा वेदणा क्रमेण जीवाना भवति तथास्वाभाव्यात्, कथमत्र शीतोष्णवेदनानुभवो पण्णत्ता, तं जहा-सारीरा, माणसा, सारीरमाणसा। नेरइया णं युगपत प्रख्याप्यते इति ? उच्यते-इहापि वेदनानुभवः क्रमेणैव, भंते ! किं सारीरंवेदणं वेदेति माणसं वेयणं वेदेति सारीरमाणसं त्थाजीवस्वाभाव्यात्, केवलं शीतोष्णवेदनाहेतुपुद्गलसम्पर्को युगपदुप वेदणं वेदेति ? गोयमा ! सारीरं पि वेदणं वेदेति माणसं पि जायत इति सूक्ष्म-माशुसञ्चारिणमुपयोगक्रममनपेक्ष्य यथैव ते वेदयमाना वेदणं वेदेति सारीरमाणसं पि वेदणं वेदेति, एवं० जाव युगपदभिमन्यन्ते तथैव प्रतिपादितमितिन कश्चिद्दोषः, सामान्यतः सूत्रस्य वेमाणिया / नवरं एगिंदियविगलिंदिया सारीरंवेदणं वेदेति, नो प्रवृत्तत्यात। एवं जाव वेमाणिय त्ति' एवम्-असुरोक्तेन प्रकारेण यावद् माणसं वेदणं वेदेति, नो सारीरमाणसं वेदणं वेदेति। वैमानिकास्ता बद सूत्रं वक्तव्य, तचैवम्-'पुढविकाइयाणं भंते ! किं सीयं _ 'कइविहा णं भंते !' इत्यादि शरीरे भवा शारीरी मनसि भवा मानसी, टेयण वेयंति ससिणं वेयण वेयति सीओसिणं वेयण वेयसि ? गोथमा! | तदुभयभवा शारीरमानसी, शारीरी च मानसी च शारीरमानसी सीयं पि वेयणं वेयंति उसिणं पि वेयणं वेयंति सीतोसिणं पि वेयणं वेयंति' | 'पुंवत्कर्मधारय' इति पुंवद्भावः / एतामेव चतुर्विशतिदण्डकक्रमणे इत्यादि / तत्र पृथिवीकायिकादयो मनुष्यपर्यवसानाः शीतवेदन | चिन्तयति-'नेरझ्याण भते! किंसारीरं वेथणं वेदेति' इत्यादि, तत्रयदा पर
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________________ वेयणा 1440 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वेयणा स्परोदीरणतः परमाधार्मिकोदरीरणतो वा क्षेत्रानुभावतो वा शरीरे पीडामनुभवन्ति तदा शारीरीं वेदनां वेदयन्ते / यदा तु केवलं मनसि दुःखं परिभावयन्ति पाश्चात्य वा भवमात्मीय दुष्कर्मकारिणमनुसृत्य पश्चात्तापमतीव कुर्वते तदा मानसीं वेदनां वेदयन्ते। यदातु शरीरे मनसि चोक्तप्रकारेण युगपत् पीडाम् अनुभवन्ति तदा शारीरमानसी / इहापि वेदनानुभवः क्रमेणैव केवलं विवक्षिततावत्कालमध्ये शरीरे चपीडामनुभवन्ति मनसि च एतावन्तं कालमेकं विवक्षित्वा, युगपच्छरीरमनःपीडानुभवः प्रतिपादित इत्यदोषः / एवं जाव वेमाणिया' इत्यादि, एवं नैरयिक्तोकेन प्रकारेण सूत्रं तावद् वक्तव्यं यावद्वैमानिकाः, नवरमेकेन्द्रियविकलेन्द्रियाः शारीरी वेदनां वेदयन्ते न मानसीं, तेषां मनसोऽभावात्, ततस्तदनुसारेण तद्विषय सूत्र वक्तव्यम्। प्रकारान्तरेण वेदनामभिधित्सुः प्रश्ननिर्वचनसूत्रे आह-- कइविहा णं भंते ! वेदणा पण्णत्ता ? गोयमा ! तिविहा वेयणा पण्णत्ता, तं जाह-साता, असाता, साता साता। नेरइया णं भंते ! किं सायं वेदणं वेदेति, असातं वेदणं वेदेति, सायासायं वेदणं वेदेति? गोयमा!तिविहं पिवेयणं वेयंति, एवं सव्वजीवा० जाव वेमाणिया। कतिविहाणं भंते ! वेदणा पण्णत्ता? गोयमा ! तिविहा पण्णत्ता, तंजहा-दुक्खा, सुहा, अदुक्खसुहा। नेरइया णं भंते ! किं दुक्खं वेदणं वेदेति पुच्छा, गोयमा ! दुक्खं पि वेदणं वेदेति, सुहं पि वेदणं वेदेति, अदुक्खमसुहं पि वेदणं वेदेति, एवं जाव वेमाणिया। (सू०३२८॥ 'कइविहा णं भंते !' इत्यादि, तत्र साता-सुखरूपा असातादुःखरूपा साताऽसाता-सुखदुःखात्मिका, एतामेव नैरयिकादिचतुर्विशतिदण्डकक्रमेण चिन्तयति-'नेरइया ण' मित्यादि, तत्र तीर्थङ्करजन्मादिकाले सातवेदनां वेदयन्ते, शेषकालमसातवेदना वेदयन्ते, यदा तुपूर्वसङ्गतिको देवो दानवो वा वचनामृतेः सिञ्चति तदा मनसि सातं शरीरे तु क्षेत्रानुभावतोऽसातम्, यदिवा- मनस्येव तद्दर्शनतः तद्वचनश्रवणतश्च सातं पश्चात्तापानुभवनतस्त्वसातमिति, तदा सातासातवेदनामनुभवन्ति / अत्रापि तावन्तं विवक्षितकालमेक विवक्षित्वा सातासातानुभवो युगपत् प्रतिपादितः, परमार्थतस्तु क्रमेणैव च वेदितव्य इति / एवमित्यादि, एवं-नैरयिकोक्तप्रकारेण सर्वे जीवास्तावद्वक्तव्या यावद्वैमानिकाः, तत्र पृथिव्यादयो यावन्नाद्याप्युपद्रवः स न्निपतति तावत् सातवेदनां वेदयन्ते, उपद्रवसम्पाते त्वसातवेदनामवयवभेदेनोपद्रवसम्पातभावे सातासातवेदनाम्, / व्यन्तरज्योतिष्कवैमानिका देवाः सुखमनुभवन्तः सातवेदना, च्यवनादिकाले त्वसातवेदना, परविभूतिदर्शनतो मात्सर्याद्यनुभवे स्ववल्लभदेवीपरिष्वङ्गाधनुभवे च युगपज्जायमाने सातासातवेदना वेदयन्ते इति। भूयः प्रकारान्तरेण एतामेव प्रतिपादयन् प्रश्ननिर्वचनसूत्रे आह- 'कइविहा णं भते ! इत्यादि, या वेदना नैकान्तेन दुःखा भणितुं शक्यते सुखस्यापि भावात्, नापि सुखा दुःखस्यापि भावात्, सा अदुःखसुखा सुखदुःखात्मिका इत्यर्थः / अथ सातासातयोः सुखदुःखयोश्च परस्परं कः प्रतिविशेषः ? उच्यते- ये क्रमेणोदयप्राप्तवेदनीयकर्मपुद्गलानुभवतः साताऽसाते ते साताऽसाते उच्येते, ये पुनः परोदीर्यमाणवेदनारूपे साताऽसाते ते सुखदुःखे इति / एतामेव चतुर्विशतिदण्डकक्रमेण चिन्तयति-'नेरइया ण' मित्यादि। वेदनामेव प्रकारान्तरेण चिन्तयन्नाहकतिविहा णं भंते ! वेदणा पण्णत्ता ! गोयमा ! दुविहा वेयणा पण्णत्ता, तं जहा-अब्भोवगमिया य, उवक्कमिया य / नेरइया णं मंते ! अब्भोवगमियं वेदणं वेदेति, उवक्कमियं वेदणं वेदेति, एवं० जाव चउरिंदिया, पंचिंदियतिरिक्खजोणिया मणूसा य दुविहं पि वेदणं वेयंति, वाणमंतरजोतिसियवेमाणिया जहा नेरइयाइ / / (सू०३२६) 'कतिविहा णं भंते ! इत्यादि, तत्राभ्युपगमिकी नाम या स्वयमभ्युपगम्यते, यथा साधुभिः केशोल्लुञ्चनातापनादिभिः शरीरपीडा, अभ्युपगमेन-स्वयमङ्गीकारेण निर्वृत्ता आभ्युपगमिकीति व्युत्पत्तेः, उपक्रमणमुपक्रमः- स्वयमेव समीपे भवनमुदीरणाकरणेन वा समीपानयनं तेन निर्वृत्ता औपक्रमिकी, स्वयमुदीर्णस्य उदीरणाकरणेन वा उदयमुपनीतत्त्य वेदनीयकर्मणो विपाकासुनयनेन निर्वृत्ता इत्यर्थः। तत्र पञ्चेन्द्रियतिर्यचो मनुष्याश्च द्विविधामपि वेदनां वेदयन्ते, सम्यगदृशां पञ्चेन्द्रियतिरश्वा मनुष्याणां च कर्मक्षपणार्थमाभ्युपगमिक्या अपि वेदनायाः सम्भवात्, शेषास्त्वौपक्रमिकीमेव वेदनां वेदयन्ते नाभ्युपगमिकीम्, पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिद्वित्रिचतुरिन्द्रियाणां मनोविकलतया विवेकाभावतस्तथाप्रतिपत्तेरभावात, नारकभवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकानां च तथाभवस्वाभाव्यादिति / एतदेव सूत्रकृत प्रतिपादयति- 'नेरइया णं भंते ! इत्यादि सुगमम्। पुनः प्रकारान्तरेण वेदनामेवाभिधित्सुराहकतिविहा णं भंते ! वेदणा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहो वेदना पण्णत्ता, तं जहा-निदा य, अणिदा य / नेरइया णं भंते ! किं निदायं वेयणं वेदयंते, अणिदायं वेयणं वेदयं-ते ? गोयमा ! निदायं पि वेदणं वेदेति, अणिदायं पिवेदणं वेदयंते / से केणतुणं भंते ! एवं वुचइ, नेरइया निदायं पि अनिदायं पि वेयणं वेदें ति? गोयमा ! नेरइया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-सण्णीभूया य असण्णीभूया य / तत्थ णं जे ते सण्णीभूया ते णं निदायं पि वेयणं वेदेति, तत्थ णंजे ते असण्णीभूता ते णं अणिदायं वेदणं
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________________ वेयणा 1441 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वेयणा वेदेति, से तेणऽटेणं एवं वुचइ ? गोयमा ! एवं नेरइया निदायं पि वेयणं वेदेति अणिदायं पि वेयणं वेदेति, एवं० जाव थणियकुमारा / पुढविकाइयाणं पुच्छा, गोयमा ! नो निदायं वेयणं वेदेति, अणिदायं वेयणं वेदेति। से केणतुणं भंते ! एवं वुच्चइ पुढविकाइया नो निदायं वेयणं वेदेति अणिदायं वेयणं वेदेति ? गोयमा ! पुढविकाइया सव्वे असण्णी असण्णिभूयं अणिदार्य वेयणं वेदेति, से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं बुचइ पुढविकाइया नो निदायं वेयणं वेदेति, आणिदायं वेयणं वेदेति, एवं जाव चउरिदिया, पंचिदियतिरिक्खजोणिया मणूसा वाणमंतरा जहा नेरइया / जोइसियाणं पुच्छा, गोयमा ! निदायं पि वेयणं वेदेति अणिदाय पि वेयणं वेदेति / से केणटेणं भंते ! एवं वुचइ जोइसिया निदायं पि वेदणं वेदेति आणिदायं पि वेयणं वेदेति ? गोयमा ! जोइसिया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-माइमिच्छदिहिउववण्णगा या, अमाइसम्मद्दिट्ठिउववण्णगा य / तत्थ णं जे ते माइमिच्छहिट्ठिउववण्णगा ते णं अणिदायं वेयणं वेयंति, तत्थ णं जे ते अमाई सम्मट्ठिी उवण्णगा ते णं निदायं वेयणं वेदेति, से एतेणटेणं गोयमा ! एवं वुथइ जोइसिया दुविहं पि वेयणं वेदेति, एवं वेमाणिया वि। (सू० 330) पण्णवणाए वेयणापयं समत्तं / / 3 / / 'कतिविहाणं भंते !' इत्यादि, निदा च, अनिदा च। तत्र नितरां निश्चित या सम्यक् दीयते चित्तमस्यामिति निदा, बहुलाधिकाराद् उपसर्गादातः' 15.31110 / इत्यधिकरणे घसामान्येन चित्तवतीसम्यग्विवेकवती वा इत्यर्थः, इतरा त्वनिदा-चित्तविकला सम्यग्विवेकविकला वा, एतामेव चतुर्विशति-दण्डकक्रमेण प्रतिपादयति-'नेरइयाण' मित्यादि, द्विविधा हि नैरयिकाः-संज्ञिभूताः, असंज्ञिभूताश्च / तत्र ये संज्ञिभ्य उत्पन्नास्ते संज्ञिभूताः, ये त्वसंज्ञिभ्यस्तेऽसंज्ञिभूताः, असंज्ञिनश्च पाश्चात्यं न किमपि जन्मान्तरकृतं शुभमशुभं वैरादिकं वा स्मरन्ति। स्मरणं हि तत्रतत्र प्रवर्तते यत्तीवेणाभिसन्धिना कृतं भवति, न चासंज्ञिभवे पाश्चात्ये तेषां तीव्राभिसन्धिरासीत्, मनोविकलत्वात् ततो यामपि कथञ्चिवदनां नैरयिका वेदयन्तेलामनिदा, पश्चात्यभवानुभूमिविषयस्मरणपटुचित्तासम्भवात्। संज्ञिभूतास्तु सर्व पाश्चात्यमनुस्मरन्तीति ते निदां वेदनां वेदयन्ते इति। एवमसुरकुमारादयः स्तनितकुमारपर्यवसाना भवनपतयो वक्तव्याः, तेषामपि संज्ञिभ्योऽसंज्ञिभ्यश्चोत्पादसम्भवात् / पृथिव्यप्तेजोवायुक्नस्पतिद्वित्रिचतुरिन्द्रिया सम्मूर्चिछमा इति मनोविकलत्वात् अनिदामेव वेदनां वेदयन्ते। 'पंचिदियतिरिक्खजोणिया मणुस्सा वाणमंतरा जहा नेरइया' इति, पञ्चेन्द्रि यतिर्यग्योनिका मनुष्या व्यन्तराश्च यथा नैरयिकास्तथा वक्तव्या इति शेषः, निदामपि वेदनां वेदयन्ते अनिदामपि वेदनां वेदयन्ते इति वक्तव्या इत्यर्थः / कस्मादिति चेत्, उच्यते- इह पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिका मनुष्याच द्विधा भवन्ति, तद्यथा-सम्मूञ्छिमा, गर्भव्युत्क्रान्तिकाश्च। तत्र ये सम्मच्छिमास्ते मनोविकलत्वादनिदां वेदनां वेदयन्ते, ये तु गर्भव्युत्क्रान्तास्ते समनस्का इति निदां वेदनामनुभवन्ति, व्यन्तरास्तु संज्ञिभ्योऽपि उत्पद्यन्ते, असंज्ञिभ्योऽपि ततस्तेऽपि नैरयिकवत् निदां चानिदां च वेदनां वेदयमाना भावनीयाः। 'जोइसियाण' मित्यादि, ज्योतिष्कास्तुसंज्ञिभ्य एवोत्पद्यन्ते. ततस्तेषु न नैरयिकोक्तेन प्रकारेण निदाऽनिदे वेदने सम्भावनीये, किन्तु प्रकारान्तरेण, ततस्तमेव प्रकार बुभुत्सुः प्रश्नसूत्रमाह- 'सेकेणट्टेणं भते!' इत्यादि सुगमम्। भगवानाह - 'गोयमे' त्यादि, ज्योतिष्का हि द्विविधाः-मायिमिथ्यादृष्ट्युपपन्नकाअमायिसम्यग्दृष्ट्युपपन्नकाश्च। तत्र मायानिवर्तितं यत्कर्म मित्यात्यादिकं तदपि माया, कार्ये कारणोपचारात्, माया विद्यते येषां ते मायिनः, अतएव मिथ्यात्योदयात् मिथ्याविषर्यस्ता दृष्टिः-वस्तुतत्यप्रतिपत्तिर्येषां ते मिथ्यादृष्टयः, मायिनश्च ते मिथ्यादृष्ट्यश्च मायिमिथ्यादृष्टयस्ते च ते उपपन्नकाश्च मायिमिथ्यादृष्ट्युपपन्नकाः, तद्विपरीता अमायिसम्यग्दृष्ट्युपपन्नकाः। तत्रये माथिमिथ्यादृष्टयुप-पन्नकास्तेऽपि मिथ्यादृष्टित्वादेव व्रतविराधनातोऽज्ञानतपोवशाद्वा वयमेवंविधाः उत्पन्ना इति न जानते, ततः सम्यग्यथावस्थितपरिज्ञानाभावादनिदा वेदना वेदयमानास्ते वेदितव्याः। ये त्वमायिसम्यग्दृष्ट्युपपन्नास्ते सम्यग्दृष्टित्वात् यथावस्थितं स्वरूपं जानन्ति, ततो यां काञ्चन वेदनां वेदयन्ते तां सर्वामपि निदा-मिति। एवं चेव वेमाणिया वि' इति एवं-ज्योतिष्कोक्तेन प्रकारेण वैमानिका अपि निदामनिदां च वेदनां वेदयमाना वेदितव्याः, तेषामपि मिथ्यादृष्टिसम्यग्दृष्टिभेदतो द्विविधत्वात् / इति श्रीमलयगिरिविरचितायां प्रज्ञापनाटीकायां वेदनाख्यं पञ्चत्रिंशत्तभं पदं समाप्तम्। प्रज्ञा० 35 पद। नेरइया दसविहं वेयणिज्जं पञ्चणुभवमाणा विहरंति, तं जहासीयं उसिणं सुहं पिवासं कंडुं परज्झं जरं दाहं भयं सोगं / (सू० 266) 'नेरइये' त्यादि, 'परज्झ' त्ति पारवश्यम्। भ०७ 108 उ०। दोहिं ठाणेहिं आया वेएइ, देसेण वि, सव्वेण वि। (सू०-८०) वेदयति-अनुभवति देशेन हस्तादिना अवयवेन सर्वेण सर्वावयवैराहारसत्कान परिणमितपुद्गलान् इष्टानिष्टपरिणामतः। स्था० 2 ठा० 2 उ०। (पूर्व वेदना पश्चात क्रिया इति 'किरिया' शब्दे तृतीयभागे 546 पृष्ठे गतम्।) यत्र पापं कर्म क्रियते तत्रैव वेद्यतेजे देवा उड्डो ववनगा कप्पोववनगा विमाणो ववनगा चारोववन्नगा चारद्वितीया गतिरतिया गतिसमावनगा ते सिणं देवाणं सया समियं जे पावे कम्मे कजइ तत्थ
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________________ वेयणा १४४२-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वेयणा गया वि एगइया वेयणं, अन्नत्थ गया वि एगइया वेयणं वेदेंति, णेरइया णं सता समियं जे पावे कम्मे कजति तत्थ गता वि एगतिया वेयणं वेदेति अन्नत्थ गता वि एगतिया वेयणं वेदेति, जाव पंचिंदियतिरिक्ख जोणियाणं मणुस्साणं सया समियं जे पावे कम्मे कजइ इह गया वि एगतिया वेयणं वेदेति अन्नत्थ गया विएगइया वेयणं वेयंतिमणुस्सवज्जा सेसा एक्कगम।। (सू०७७) पादि, अस्य चानन्तरसूत्रेण सहाऽयमभिसंबन्धः-प्रथमो पादपोपगमनमुक्तम् , तस्माच देवत्वं केषाञ्चिद्भवतीति दादिगणनेन तत्कर्मबन्धवेदन प्रतिपादयन्नाह- 'जे देवे' त्यादि ये या: .. मुलाः श्यभाणविशेषणेभ्यो वैमानिका अनशनादरुत्पन्नाः T: ने ऊर्यलोकस्तत्रोपपन्नकाः- उत्पन्नाः ऊोपपकाल द्विधा- कल्पोपपन्नका:-सौधर्मादिदेवलोकोत्पन्नास्तथा 'भानी पत्रकाः- ग्रेवैयकानुत्तरलक्षणविमानोत्पन्नाः, कल्पातीता 21 था परे चारोववन्नग' त्ति चरन्ति-भ्रमन्ति ज्योतिष्कविमानानि समय यारा ज्योतिश्चक्रक्षेत्र समस्तमेव, व्यत्पत्त्यर्थमात्रानपेक्षणेन शब्दप्रवृत्तिनिमित्ताश्रयणात, तत्रोपपन्नकाश्चारोपपन्नकाः- ज्योतिष्काः, न व पादपापगमनादेयोकत्वं न भवति, परिणामविशेषादिति, तेऽपि च धव, तथाहि चारे ज्योतिश्चक्रक्षेत्रे स्थितिरेच येषां ते चारस्थिकिाःनामयक्षेत्रबहिर्वतिनो; घण्टाकृतय इत्यर्थः, तथा गतौ रतिर्येषां ते गतिर काः; समयक्षेत्रवर्तिन इत्यर्थः, गतिरतयश्वाऽसंततगतयोऽपि भवन्तीत्यत आह-गति-गमनं रामिति-सन्ततमापन्नकाः प्राप्ता गतिसमा'नकाः, अनपरतगतय इत्यर्थः, तेषां देवानां द्विविधानां पुनर्दिविधानां सदा नित्यं समित–सन्ततं यत्पापं कर्मज्ञानावरणादि, सततबन्धकत्वात् जीवाना, क्रियते-बध्यते, कर्मकर्तृप्रयोगोऽयं, भवति; सम्पद्यत इत्यर्थः, त देवास्तस्य- कर्मणः अबाधाकालातिक्रमे सति 'तत्थ गया वित्ति अपिरेवकारार्थस्तस्य चैवं प्रयोगः, तत्रैव देवभव एव कल्पातीनां क्षेत्रान्तरादिगमनासम्भवादिह तत्रान्यत्रशब्दाभ्यां भव एव विवक्षितः, न क्षेत्रशयनासनादिति, गताः वर्तमानाः एके- केचन देवा वेदनाम् - उदय विपाकं वेदयन्ति- अनुभवन्ति, 'अन्नत्थगया वि' त्ति देवभवादन्यत्रैव भवान्तरे गता- उत्पन्ना वेदनामनुभवन्ति, केचित्तूभयत्रापि, अन्ये विधाकोदयापेक्षया नोभयत्रापीति / एतच विकल्पद्वयं सूत्रे नाश्रितं, दिन्याधिकारादिति / सूत्रोक्तमेव विकल्पद्वयं सर्वजीवेषु चतुर्विशतिहुन प्ररूपयन्नाह नरइया' ण मित्यादि प्रायः सुगमम्, नवरं 'तत्थ गयावि अन्नत्थ गया चि एवमभिलापन दण्डको नेयो यावत् पञ्चेन्द्रियतिर्यचोऽत एवाह जावे' त्यादि, मनुष्येषु पुनरभिलापविशेषो दृश्यः, यथा 'इह गया वि एगइया' इति सूत्रकारो हि मनुष्योऽतस्तत्रेत्येवंभूतं परोक्षानासन्ननिर्देश विमुच्य मनुष्यसूत्रे इहेत्येवं निर्दिशति स्ममनुष्यभवस्य स्वीकृतत्वेन प्रत्यक्षासन्नवाचिन इदमशब्दस्य विषयत्वादिति। अतएवाह -- 'मणुस्सवजा से सा एक्कगम' त्ति शेषा व्यन्तरज्योतिष्कवैमानिका एकगमाः - तुल्याभिलापाः। ननु प्रथमसूत्र एव ज्योतिष्कवैमानिकदेवानां विवक्षितार्थस्याभिहितत्वात् किं पुनरिह तगणनेनेति ? उच्यते -- तत्रानुष्ठानफलदर्शनप्रसङ्गेन भेदतश्चोक्तत्वादिह तु दण्डकक्रमेण सामान्यतश्चोत्कत्वादिति न दोषः, दृश्यते चेह तत्र तत्र विशेषोक्तावपि सामान्योक्तिरितरोक्तौ त्वितरेति। स्था०२ ठा०१ उ०। (नैरयिकाः दशविधा वेदना वेदयन्ति इत 'णरग' शब्दे चतुर्थभागे 1618 पृष्ठे उक्तम्।) सम्प्रति क्षेत्रस्वभावजां वेदना प्रतिपादयतिइमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइया किं सीतवेदणं वेइंति उसिणवेदणं वेइंति उसिणवेदणं वेइंति सीओसिणवेदणं वेदेति?, गोयमा ! णो सीयं वेदणं वेदेति उसिणं वेदणं वेदेति नो सीतोसिणं, (ते अप्पयरा उपहजोणिया वेदेति,) एवं 0 जाव वालुयप्पमाए, पंकप्पभाए पुच्छा, गोयमा! सीयं पिवेदणं वेदेति, उसिणं पिवेयणं वेदेति, नो सीओसिणं वेयणं वेदेति, ते बहुतरगा जे उसिणं वेदणं वेदेति, ते थोवयरगा जे सीतं वेदणं वेइंति। धूमप्पभाए पुच्छा, गोयमा ! सीतं पि वेदणं वेति उसिणं पि वेदणं वेदेति णो सीतोसिणं वेदणं वेदेति / ते बहुतरगा जे सीयवेदणं वेदेति, ते थोवयरका जे उसिणवेदणं वेदेति। तमाए पुच्छा, गोयमा ! सीयं वेदणं वेदेति, नो उसिणं वेदणं वेदेति, नो सीतोसिणं वेदणं वेदेति, एवं अहे सत्तमाए णवरं परमसीयं / इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए णेरड्या के रिसयं णिरयमवं पञ्चणुभवमाणा विहरंति ? गोयमा ! ते णं तत्थ णिचं भीता तिचं तसिता णिचं छुहिया णिचं उदिवग्गा निञ्चं उपप्पुआ णिचं वहिया निच्चं परम-मसुभमउलमणुबद्ध निरयभवं पञ्चमुभवमाणा विहरंति / एवं जाव अधे सत्तमाए णं पुढवीए पंच अणुत्तरा महति-महालया महाणरगा पण्णत्ता, तं जहा-काले महाकाले रोरुए महारोरुए अप्पत्तिट्ठाणे, तत्थ इमे पंच महापुरिसा अणुत्तरेहि दंडसमादाणेहिं कालमासे कालं किच्चा अप्पत्तिट्ठाणे णरए णेरतियत्ताए उववण्णा, तं जहा-रामे 1, जमदग्गिपुत्ते, दढाउ 2 लच्छतिपुत्ते, वसु 3 उवरिचरे, सुभूमे 4 कोरवे, बंभ 5 दत्ते, चुलणिसुते 6, ते णं तत्थ नेरतिया जाया काला (कालो)० जाव परमकिण्हं वण्णेणं पण्णत्ता, तं जहा-ते णं तत्थ वेदणं वेदें ति उज्जलं विउलं० जाव दुरहिया-सं / उसिणवेदणिज्जेसु णं भंते ! णेरतिएसु णेरतिया के रिसयं उसिण- वेदणं पचणुभवमण्णा विहरंति ? गोयमा ! से जहाणामए कम्मारदारए सितातरुणे बलवं जुगवं अप्पायंके थिर
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________________ वेयणा 1443 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वेयणा ग्गहत्थे दढपाणिपादपासपिटुंतरोरु (संघाय) परिणए लंघणपवणजवणवग्गणपमद्दणसमत्थे तलजमलजुयलबहुफलिहणिभबाहू घणणिचितबलियवट्टखंधे चम्मेद्वगदुहणमुट्ठियसमाहयणिचितगत्तगत्ते उरस्सबलसमण्णागए छेए दक्खे पट्टे कुसले णिउणे मेहावी णिउणसिप्पोवगए एग महं अयपिंडं उदगवारसमाणं गहाय तं ताविय ताविय कोट्टिय कोट्टिय उभिदिय उभिदिय चुण्णिय चुण्णिय० जाव एगाहं वा दुयाह वा तियाहं वा उक्कोसेणं उद्घमासं संहणेज्जा से णं तं सीतं सीतिभूतं अओमएणं संदसएणं गहाय असब्भाव-पट्ठवणाए उसिणवेदणिज्जेसु णरएसु पक्खिवेजा। से णं तं उम्मिसियणिमिसिंतरेणं पुणरवि पच्चुद्धरिस्सामि त्ति कटु पविरायमेव पासेज्जा पविलीणमेव पासेज्जा पविद्धत्थमेव पासेञ्जाणो चेव णं संचाएति अविरायं वा अविलीणं वा अविद्धत्थं वा पुणरवि पचुद्धरित्तए। से जहा वा मत्तमातंगे (पाए) कुंजरे सहिहायणे पढमसरयकालसमयंसि वा चरमनिदाघकालसमयंसि वा उण्हाभिहए तण्हाभिहए दवग्गिजालाभिहए आउरे सुसिए पिवासिए दुब्बले किलंते एक महं पुक्खरिणिं पासेज्जा चाउकोणं समतीरं अणुपुव्वसुजायवप्पगंभीरसीतलजलं संछण्णपमत्तभिसमुणालं | बहुउप्पलकुमुदणलिणसुभगसोगंधियपुंडरीय (महापुंडरीय) सयपत्तसहस्सपत्तकेसरफुल्लोवचियं छप्पयपरिभुज्जमाणकमलं अच्छविमलसलिलपुण्णं परिहत्थभमंतमच्छकच्छभं अणेगसउणगणमिहुणयविरइयसहुन्नइयमहुरसरनाइयं तं पासइ, तं पासित्ता तं ओगाइह, ओगाहित्ता से णं तत्थ उण्हं पिपविणेज्जा तिण्हं पिपविणेज्जा खुहं पिपविणिजाजरं पिपविणिजा दाहं पि पविणिजा णिद्दाएज्जा वा पयलाएज्ज वा सतिं वारर्ति वा धिर्ति वा मतिं वा उवलभेजा। सीए सीयभूए संकसमाणे संकसमाणे सायासोक्खबहुलेयाऽवि विहरिजा, एवामेव गोयमा ! असब्माक्पट्ठवणाए उसिणवेयणिज्जेहिंतो णरएहिंतो कुंभारागणीइ वा / णेरइए उव्वट्ठिए समाणे जाई इमाइं मणुस्सलो यंसि भवंति (गोलियालिंगाणि वा सों डियालिंगाणि वा भिडियालिंगाणि वा) अयाऽऽगराणि वा तंबागराणि वा तउयागराणि वा सीसागराणि वा रुप्पागराणि वा सुवन्नागराणि वा हिरण्णगराणि वा कुंभाराग- | णीइ वा मुसागणीइ वा इट्टयागणीए वा कवेल्लुयागणीए वा लोहारं वरिसेइ वा जंतवाडचुल्लीइ वा हंडियलित्थाणि वा सों डियलित्थाणि वाणलागणीति वा तिलागणीति वा तुसागणीति वा तत्ताई समजोतिभूयाई फुल्लकिं सुयसमाणाई उक्कासहस्साई विणिम्मुयमाणाइं जालासहस्साई पमुच्चमाणाई इंगालसहस्साई पविक्खरमाणाइं अंतो अंतो हुहुयमाणाई चिटुंति ताई पासइ, ताई पासित्ता ताई ओगाहइ, ताइ ओगाहित्ता से णं तत्थ उण्डं पि पविणेज्जा तण्हं पि पविणेज्जा खुहं पि पविणेजा जरं पि पविणेज्जा दाहं पि पविणेजा णिहाएज वा पयलाएज वा सतिं वा रतिं वा धितिं वा मतिं वा उवलभेजा। सीए सीयभूयए संकसमाणे संकसमाणे सायासोक्खबहुले याऽवि विहरेज्जा, भवेयारूवे सिया ? णो इणढे समढे, गोयमा ! उसिणवेदणिज्जेसु णरएसु नेरतिया एत्तो अणिट्ठतरियं चेव उसिणवेदणं पञ्चणुभव-माणा विहरति / सीयवदणिज्जेसु णं भंते ! णिरएसु रतिया के रिसर्य सीयवेदणं पचणुब्भवमाणा विहरंति ? गोयमा ! से जाहणामए कम्मारदारए सिया तरुणे जुगवं बलवं जाव सिप्पोवगते एगं महं अयपिंडं दगवारसमाणं गहाय ताविय ताविय कोट्टिय कोट्टिय जहा० एक्काहं वा दुआरं वा तियाहं वा उक्कोसेणं मासं हणेजा, से णं तं उसिणं उसिणभूतं अयोमएणं संदंस एणं गहाय असब्भावपट्ठवणाए सीयवेदणिज्जेसु णरएसु पक्खिवेज्जा, से तं (उम्मिसियनिमिसियंतरेण पुणरवि पबुद्धरिस्सामीति कट्ट पविरायमेव पासेज्जा, तं चेव णं 0 जाव णो चेव णं संचाएज्जा पुणरवि पचुद्धरित्तए, से णं से जहाणामए मत्तमायंगे तहेव जाव सोक्खबहुले याऽवि विहरेज्जा) एवामेव गोयमा ! असम्भावपट्ठवणाए सीतवेदणेहिंतो णरएहिंतो नेरतिए उव्वट्टिए समाणे जाइं इमाई इह माणुस्सलोए हवंति, तं जहा-हिमाणि वाहिमपुंजाणि वा हिमपडलाणिवा हिमपडलपुंजाणि वा तुसाराणि या तुसारपुंजाणि वा हिमकुंडाणि वा हिमकुंडपुंजाणि वा सीताणि वा ताई पासति, पासित्ता ताई ओगाहति ओगाहित्त से णं तत्थ सीतं पि पविणेजा तण्हं पि पविणेजा खुहं पि पविणेजा जरं पि पविणेज्जादाहं पिपविणेज्जा निहाएज वापयलाएज वा० जाव उसिणे उसिणभूए संकसमाणे संकसमाणे सायासोक्खबहुले याऽवि विहरेज्जा / गोयमा ! सीयवेयणिज्जेसु नरएसु नेरतिया एतो अणिट्ठयरियं चेव सीतवेदणं पचणुभवमाणा विहरति / (सू०८६x) 'रयणे' त्यादि रत्नप्रभापृथिवीनरयिका भदन्त ! किंशीता वेदनांवेदयन्ते, उण्णां वेदना वेदयन्ते, शीतोष्णां वा?, भगवानाहगौतम ! न शीता वेदन वेदयन्ते किन्तु उष्णा वेदनां वेदयन्ते, ते हि शीतयोनिका योनिस्थानान्ना केवलहिमानीप्रख्यशीतप्रदेशात्मकत्वात्, योनिस्थानानां केवलहिमानीप्रख्यशीतप्रदेशात्मकत्वात्, योनिस्थानव्यतिरेके ण चान्यत् सर्वमपि भूम्यादिखादिराङ्गारादपि महाप्रतप्तमतस्ते उण्णवेदनामनुभ
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________________ वेयणा 1444 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 देयणा वन्ति, नापि शीतोष्णा वेदनां वेदयन्ते, शीतोष्णस्वभावतया वेदनाया नरकेषु मूलतोऽप्यसम्भवात्। एवं शर्कराप्रभावालुकाप्रभानैरयिका अपि वक्तव्याः। पङ्कप्रभापृथिवीनैरयिकपृच्छायां भगवानाह- गौतम! शीतामपि वेदना वेदयन्ते नरकावासभेदेनोष्णामपि वेदना वेदयन्ते नरकावासभेदेनैव, न तु शीतोष्णाम् / तत्र ते बहुतरा ये उष्णा वेदनां वेदयन्ते, प्रभूततराणां शीतयोनित्वात्, ते स्तोकतरा ये शीता वेदनां वेदयन्ते अल्पतराणामुष्णयोनित्वात्, एवं धूमप्रभायामपि वक्तव्यं, नवरं ते बहुतरा येशीतवेदनां वेदयन्ते, बहूनामुष्णयोनित्वात्, ते स्तोकतरा ये उष्णवेदना वेदयन्ते, अल्पतराणां शीतयोनित्वात्। तमःप्रभापृथिवीनैरयिकपृच्छायां भगवानाह-गौतम ! शीतां वेदनां वेदयन्ते, नोष्णां नापि शीतोष्णां; तत्रत्यानां सर्वेषामुष्णयोनित्वात, योनिस्थानव्यतिरेकेण चान्यस्य सर्वस्थापि नरकभूम्यादेर्भ, हाहिमानीप्रख्यत्वात, एवं तमस्त-माप्रभापृथिवीनरयिका अपि वक्तव्याः, नवरं परमां शीतवेदना वेदयन्ते इति वक्तव्यम्, तमःप्रभापृथिवीतः तमस्तमःप्रभापृथिव्यां शीतवेदनाया अतिप्रबलत्वात् / सम्प्रति भवानुभवप्रतिपादनार्थमाह- 'रयणे' त्यादि, रत्नप्रभापृथिवीनैरयिका भदन्त! कीदृशं नरकभवं प्रत्यनुभवन्तः प्रत्येक वेदयमानाः विहरन्ति-अवतिष्ठन्ते ? भगवानाह- गौतम ! रत्नप्रभापृथिवीनरयिका नित्यसर्वकालं क्षेत्रस्वभावजमहानि-बिडान्धकारदशनतो भीताः, सर्वत उपजातशत्वात्, तथा नित्यं सर्वकालं स्वत एवग्रेऽपि त्रस्ताः-परमाधार्मिकदेवपरस्परोदीरितदुःखसंपातभयात्रासमुपपन्नाः, तथा नित्यं सर्वकालं परमाधार्मिकैः परस्परं वा त्रासिताःत्रासंग्राहिताः, तथा नित्यमुद्विग्नाः यथोक्तरूपदुःखानुभवतस्तद्गतावासपराङ्मुखचित्ताः तथा नित्यं - सर्वकालम्, उपप्लुताः उपप्लवेनोपेता नतुमनागपि रतिमासादयन्ति, एवं नित्यंसर्वकाल परममशुभम् अतुलम् - अशुभत्वेनानन्यसदृशम् अनुबद्धम् - अशुभत्वेन निरन्तरमुपचित निरयभवं प्रत्यनुभवन्तः - प्रत्येक वेदयमाना विहरन्ति, एवं पृथिव्यां पृथिव्यां तावद्वक्तव्यं यावदधः सप्तमी। अस्यां चाधः सप्तम्यां क्रूरकर्माणः पुरुषा उत्पद्यन्ते नान्ये, तथा चास्यैवार्थस्य प्रदर्शनार्थ पञ्च पुरुषान उपन्यस्यति- 'अहे सत्तमाए ण' मित्यादि, अधः सप्तभ्या पृथिव्यामप्रतिष्ठाने नरके इभे अननन्तरवक्ष्यमाणस्वरूपाः पञ्च महापुरुषाः अनुत्तरैः सर्वोत्तमप्रकर्षप्राप्तः दण्डसमादानैः समादीयतं कर्म एभिरिति समादानानिकर्मोपादानहेतवः दण्डा एवमनोदण्डादयः प्राणव्यपरोपणाध्यवसायरूपाः समादानानिदण्दसमादानानितैः कालमासे कालं कृत्वोत्पन्नाः तद्यथा-रामोजमदग्निसुतः; परशुराम इत्यर्थः, दाढादालः-छातीसुतः (जी०) (वसूराजवृत्तम् 'वसूवरिचर' शब्देऽस्मिन्नेव भागे उक्तम् / ) / सुभूमोऽष्टमश्चक्रवर्ती, कौरव्यः-कौरव्यगोत्रो ब्रह्मदत्तश्चुलनीसुतः 'तेणं तत्थ वेयणं वेयती' त्यादित परशुरामादयस्तत्र-अप्रतिष्ठाने नरके वेदनां वेदयन्ते उजवला यावद् दुरध्यासामिति प्राग्वत् / सम्प्रति नरकेषष्णवेदनायाः स्वरूपमभिधित्सुराह -- “उसिणवेदणिज्जेसुणं भंते!' त्यादि / उष्णवेदनेषुणमिति पूर्ववत्, भदन्त ! नरकेषु नैरयिकाः कीदृशीमुष्णवेदना प्रत्यनुभवन्तः- प्रत्येक वेदयमाना विहरन्ति ? भगवानाह-गौतम ! स यथानामक:-अनिर्दिष्टनामकः कश्चित् कारदारकः - लोहकारदारकः स्यात, किंविशिष्ट ? इत्याह - तरुणः -- प्रवर्द्धमानवयाः, आह-दारकः प्रबर्द्धमानवयाः एव भवति ततः किमनेन विशेषणेन ? न आसन्नमृत्योः प्रवर्द्धमानवयस्त्वाभावात्, न ह्यासन्नमृत्युः प्रवर्द्धमानवया भवति, नच तस्य विशिष्टसामर्थ्यसम्भवः आसन्नमृत्युत्वादेव, विशिष्टसामर्थ्य - प्रतिपादनार्थश्चैष आरम्भस्ततोऽर्थवद्विशेषणम्। अन्ये तु व्याचक्षते-इह यगव्यं विशिष्टवर्णादिगुणोपेतमभिनवं च तत्तरुणमिति लोके प्रसिद्ध, यथा तरुणमिदमश्वत्थपत्रमिति, ततः स करिदारकस्तरुण इति / किमुक्तं भवति ? अभिनवो विशिष्टवर्णादिगुणोपेतश्चेति, बलंसामर्थ्य तदस्यास्तीति बलवान्, तथा युगं-सुषमदुषमादिकालः सस्वेन रूपेण यस्यास्ति न दोषदुष्टः स युगवान् / किमुक्तं भवति? कालोपद्रवोऽपि सामर्थ्यविघ्नहेतुः स चास्य नास्तीति प्रतिपत्त्यर्थमेतद्विशेषणम्, युवा यौवनस्थः, युवावस्थायां हि बलातिशय इत्येतददुपादानम्, 'अप्पायंके इति अल्पशब्दोऽभाववाची अल्पः-सर्वथाऽविद्यमान आतङ्कोज्यरादियस्यासावल्पातङ्कः, 'थिरगहत्थे स्थिरौ अग्रहस्तौ यस्य स स्थिराग्रहस्तः, 'दढपाणिपायपासपिट्ठतरोरुपरिणए' इति दृढानिअतिनिविडचयापन्नानि पाणिपादपार्थपृष्ठान्तरो रूणि परिणतानि यस्य स दृढपाणिपादपार्श्वपृष्ठान्तरोरुपरिणतः, सुखादिदर्शनात्पाक्षिको निष्ठान्तस्य परनिपातः, तथधनमम्अतिशयेन निचितौ निबिडतरचयमापन्नौ बलिताविव बलितौ वृत्तौ स्कन्धौ यस्य सघननिचितबलितवृत्तस्कन्धः, 'चम्भट्ठगदुघणमुट्टियसमाहयनिचियगायगत्ते' चर्मेष्टकेन द्रुघणेन मुष्टिकया च-मुश्या च समाहत्य ये निचितीकृतगात्रास्ते चर्मेष्टकद्रुघणमुष्टिकसमाहतनिचितगात्रास्तेषामिव गात्रं यस्य च चर्मेष्टद्रुघणभुष्टिकसमाहतनिचितगात्रगावः, 'उरस्सबलसम-नागए' इति उरसि भवमुरस्यंत तलंच उरस्यबलंतच्च समन्वागतः-समनुप्राप्तः समनुप्राध- उरस्यबलसभन्वागतः, आन्तरोत्साहवीर्ययुक्त इति भावः 'तलजमलजुयलबार इति, तलौतालवृक्षौ नयोर्यमलयुगलंसमश्रणीकं युगलं तलयमलयुगलं, तद्वदतिसरलौ पीवरौ च बाहूयस्य सतलय-मलयुगलबाहुः, 'लंघणपवणजवणपमद्दणसमत्थे' इति, लङ्घने जतिक्रमणे प्लवनेमनाक् पृथुतरविक्रमगतिगमने जवनेअतिशीघ्रगतौ प्रमर्दनकठिनस्यापि वस्तुनश्चूर्णनकरणे समर्थः लखनप्लवनजवनप्रमर्दनसमर्थः, कचित् 'लंघण-पवणजणवायामणसमत्थे' इति पाठस्तत्र व्यायामने-व्यायामकरणे इति व्याख्येयम्, छेकः-द्वासप्ततिकलापण्डितः दक्षः- कार्याणामविलम्बितकारी, प्रष्ठःवाग्मी कुशलः-सम्यक्रियापरिज्ञानवान् मेधावीपरस्पराव्याहतपूर्वापरानुसन्धानदक्षः, अत एव 'निपुणसिप्पोवगए' इति निपुणं यथा भवति एवं शिल्पंक्रियासु कौशलमुपगतः- प्राप्तो निपुणशिल्पोपगतः एकं महान्तमयस्पिण्डा उदक्वार-कसमान लघुपानीयघटसमानंगृहीत्वा तमम्अयस्पिण्ड
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________________ वेयणा 1445 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वेयणा तापयित्वा तापयित्वा ततो घनेन कुट्टयित्वा कुट्टयित्वा यावदेकाहं वा द्यहं वा यावदुत्कर्षतोऽर्द्धमासं संहन्यात् ततो णमिति वाक्यालङ्कारे, ताम-अयस्पिण्ड शीतम्, सच शीतो बहिर्मनाग्मात्रेणापि स्यादत आहशीतीभूत-सर्वात्मना शीतत्वेन परिणतं अयोमयेन सदशकेन गृहीत्वा असद्धावस्थापनयाअसद्भावकल्पनया नैतदभूत् न भवति भविष्यति वा केवलमसद्भूतमिदं कल्प्यत इति, उष्णवेदनेषु नरकेषु प्रक्षिपेत, प्रक्षिप्य च स पुरुषोणमिति वाक्यालङ्कारे, 'उम्मि-सियनिमिसियंतरेण' उन्मिपितनिमिषितान्तरण यावताऽन्तरणयावता व्यवधानेन उन्मेषनिनेषौ क्रियेते तावदन्तरप्रमाणेन कालेनातिक्रान्तेन पुनरपि प्रत्युद्धरिष्यामीति कृत्वा यावद् द्रष्ट प्रवर्तत तावत् प्रवितरमेवप्रस्फुटितभेव, यदि वा - प्रविलीनमेव-नवनीतमिव सर्वथा गलितमेव, यदि वा-प्रविध्वस्तमेवसर्वथा भस्मसाद्भूतमेव पश्येत, न पुनः शक्नुयाद् अचिरात्तम, अप्रस्फुटितम् अविलीनं वा अविध्वस्तं वा पुनरपि प्रत्युद्धर्तुम्, एवं रूपा नाम तत्रोष्णपदना। अस्यैवार्थस्य स्पष्टतरभावनार्थ दृष्टान्तान्तरमाह . 'से जहानागए' इत्यादि, 'से' सकलजनप्रसिद्धो यथेति दृष्टान्तत्वोपदर्शन / वाशब्दो विकल्पने। अय वा दृष्टान्तो विवक्षितार्थप्रतिपत्तवे बोद्धव्य इति विकल्पनभावना / मत्तः-मदकलितः मातङ्ग:-हस्ती, इद मातङ्गोऽन्त्यजोऽपि संभवति ततस्तदाशङ्काव्युदासार्थ नानादेशजविनेयजनानुग्रहाय (वा) पर्यायद्वयमाह- द्विपः- द्वाभ्यां मुखेन करेण चेत्यर्थः पिबतीति द्विपः / मूलतिभुजादयः" / 5 / 1 / 144 / इति कप्रत्ययः। कौ जीर्यतीति कुजरः, यदि बा-कुञ्ज वनगहने रमति-रतिमावघ्नातीति कुञ्जरः, 'कचिदिति' प्रत्ययः, पष्टिस्यनाः- संवत्सरा यस्य स षष्टिहायनः प्रथमशरत्कालसमये-कार्तिकमाससमये, इह प्राय ऋतवः सूर्यर्तवो गृह्यन्ते ते चाषाढादयो द्विद्विमासप्रमाणाः, प्रवचने च क्रमेणैवनामानः / तद्यथा-प्रथमः प्रावृट, द्वितीयो वर्षारात्रः, तृतीयः शरत, चतुर्थो हेमन्तः, पञ्चमो वसन्तः, षष्ठो ग्रीष्मः, तथा चाह पादलिप्तसूरिः- 'पाउस वासारतो, सरओ हेमन्त वसन्त गिम्हो या एए खलु छिप्प रिऊ, जिणवरदिट्टा मए सिट्ठा / / 1 / / ' ततः प्रथमशरत्कालसमयः कार्तिकसमयः इति विवृ(त) तम्, आह च मूलटीकाकृत-"प्रथमशरत्-कार्तिकमासः" तस्मिन वाशब्दो विकल्पने, चरमनिदाघकालसमये वा- चरमनिदाघकालसमयोज्यष्ठमासपर्यन्तस्तस्मिन्, वाशब्दो विकल्पने / उष्णाभिहितः- सूर्यखरकिरणप्रतापाभिभूतः। अत एवोष्णैः सूर्यकिरणैः सर्वतः प्रतप्ताङ्ग तया शोषभावतस्तृषाभिहतः, तत्रापि पानीयगवेषणार्थमितस्ततः स्वेच्छया परिभ्रमतः कथञ्चिद्दवाग्निप्रत्यासत्तौगमनतो दवाग्निज्वालाभिहतः अतः एव आतुरः-क्वचिदपि स्वास्थ्यमलभमानः सन् आकुलः, सर्वाङ्ग परितापसम्भवेनगलतालुशोषभावात् शुषितः, कृचित् 'झिजिए' इति पाठस्तत्र क्षितेः- क्षीणशरीर इति व्याख्येयम्, असाधारणतृड्वेदनासमुच्छलनात्पिपासितः, अत एव दुर्बलः शारीरमानसावष्टम्भरहितत्वात, क्लान्तः- ग्लानिमुपगतः 'क्लमू' ग्लानौ, इति वचनात एका महतीं पुष्करिणी पुष्कराण्यस्यां विद्यन्ते इति पुष्करिणी ताम्, किं -विशिष्टामित्याह-चतुष्कोणांचत्वारः कोणा-अश्रयो यस्याः सा तथा ता, सम-विषमोन्नतिवर्जितं सुखावतारं तीर-तट यस्याः सा समतीरा ताम्, आनुपूर्येण--नीचैर्नीचैस्तरभावरूपेण न त्वेकहेलयैव क्वचिद्र रूपा क्वचिदुन्नतिरूपा इति भावः सुष्टुअतिशयेन यो जातो वप्रः-केदारो जलस्थानं तत्र गम्भीरम् अलब्धस्ताघं शीतलं जलं यस्यां सा आनुपूर्व्यसुजातवप्रगम्भीरशीतलजला ताम्, 'संछाणपत्तभिसमुणाल' मिति संछन्नानिजलेनान्तरितानि पत्रविसमृणालानि यस्यां सा संछन्नपत्रनिरामृणाला ताम्, इह विस- मृणालसाहचर्यात् पत्राणि पद्मिनीपत्राणि द्रष्टव्यानि, विसानिकन्दाः मृणालानिपद्मनालाः, तथा बहुभिरुत्पलकुमुदनलिनसुभगसौगन्धिक-पुण्डरीकमहापुण्डरीकशतपत्रसहस्रपत्रः के सरैः के सरप्रधानैः फुल्लैः विकसितैरुपचिता बहूत्पलकुमुदनलिनसुभगसौग न्धिकपुण्डरीकमहापुण्डरीकशतपत्रसहस्रपत्रकेसरफुल्लोपचिता तां तथा षट्पदैः- भ्रमरैः परिभुज्यमानानि कमलानि उप-- लक्षणमेतत कुमुदादीनि यस्याः सा षट्पदपरिभुज्यमानकमला ता, तथाऽच्छेनरवरूपतः स्फटिकवच्छुद्धेन विमलेन-आगन्तुकमलरतिन सलिलेन पूर्णा अच्छविमलसलिलपूर्णा ता, तथा पडिहत्था-अतिरेकतः; अतिप्रभूता इत्यर्थः भ्रमन्तो मत्स्यकच्छपा यस्यां सापडिहत्थभ्रमन्मत्स्यकच्छपा, तथा अनेकैः शकुनिगणमिथुनकैः गणशब्दस्य प्राकृतत्यादस्थानेऽप्यपनिपातः, शकुनिमिथुनकैर्विचरितैः इतस्ततः स्वेच्छया प्रवृत्तः शब्दोन्नतिकम् उन्नतशब्दं मधुरस्वरं नादितं यस्यां सा अनेकशकुनिगणमिथुनकविचरितशब्दोन्नतिकमधुरस्वरनादिता, ततः पूर्वपदेन विशेषणसमासः, तां दृष्ट्वाऽवगाहेत, अवगाह्य च उष्णमपि परिदाहमपि शरीरस्य तत्र प्रविनयेत्-प्रकर्षेण सर्वात्मना स्फोटयेत्, तथा क्षुधामपि प्रविनयेत् प्रत्यासन्नतटवर्तिशल्लक्यादिकिसलयभक्षणात्, तृषमपि प्रविनयेत् जलपानात, ज्वरमपि परिसंतापसमुत्थं प्रविनयेत् परिदाघरत्पिपासाऽपगमात्, एवं सकलक्षुद्रादिदोषापगमतः सुखासिकाभावेन निद्रायेत प्रचलायेत, तत्र अनिद्रावान् निद्रावान् भवतीति च्य्यर्थविवक्षाया निद्रादिभ्यो धर्मिणि क्यबिति कर्मणि क्यप्प्रत्ययः, एवं प्रचलाशब्दादपि निद्रादेराकृतिगणत्वात् / निद्राप्रचलयोस्त्वयं विशेषः- सुखप्रबोधा स्वापावस्था निद्रा, ऊर्द्धस्थितस्यापि या पुनश्चैतन्यमस्फुटीकुर्वती समुपजायते निद्रा सा प्रचला / एवं च क्षणमात्रनिद्रालाभतोऽति-स्वस्थीभूतः स्मृति वा पूर्वानुभूतस्मरणं रतिवा- तदवस्थाऽऽसक्तिरूपांधृतिंवाचित्तस्वास्थ्यंमतिवा–सम्यगीहापोहरूपाम् उपलभेत-प्राप्नुयात्। ततः शीतःबाह्यशरीरप्रदेशशीतीभावात, शीतीभूतः-शरीरान्तरेऽपि निवृतीभूतः सन् 'संकसमाणे' इति सम्- एकीभावेन कसन्– गच्छन् 'सातसौख्यबहुलश्वापि' सातम्-आहादस्तत्प्रधानं सौख्यं सातसौख्यं न त्वभिमानमात्रजनितमालादविरहितं सातसौख्येन बहुलो-व्याप्तः सातसौख्यबहुलश्चापि विहरेत्-स्वेच्छया परिभ्रमेत् एवमेव अनेनैवानन्तरोदितदृष्टान्तप्रकारेण हेगौतम ! असद्भावप्रस्थापनया-असद्भावकल्पनया भेदं वक्ष्यमाणमभूत
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________________ वेयणा 1446 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वेयणा केवल नरकगतोष्णवेदनायाथात्म्यप्रतिपत्तये सत्कल्प इति भावः | उष्णवेदनेभ्यो नरकेभ्यो नैरयिकोऽनन्तरमुर्तितोविनिर्गतः सन यानिइमानि प्रत्यक्षत उपलभ्यमानानि इह-मनुष्यलोके स्थानानि भवन्ति। / तद्यथा 'गोलियालिंगाणि वा, सोडियालिगाणि वा मिडियालिंगाणि लाएते अग्नेराश्रय-विशेषाः / अन्ये तु देशभेदनीत्या पिष्टपाचनकाग्न्याया नशेषां स्वरूपं कथयन्ति, तदप्यविरुद्धमेवेति। तैलाऽग्निरिति वा लगिरी वा बुसाग्निरिति वा नडाग्निरिति वा, नड:- तृणविशेषः, या गीति मा आर्षत्वान्नपुंसकनिर्देशः अयआकरा इति वा, येषु निमममरदयोदलं प्रक्षिप्याऽय उत्पाठ्यते ते अयआकराः, एवं .HEET: a अप्वाकरा इति वा सीसकाकरा इति वा रूप्याकरा हावा किरा इति वा हिरण्याकरा इति वा, सुवर्णहिरणययोत्र aayiलदिएत वेदितव्यः, इष्टकापाक इति वा कुम्भकारापाक इति भाबकापाक इति वा लोहकाराम्बरीष इति वा, अम्बरीषः- कोष्ठकः, या पादुल्ली इवेति, यन्त्रम्इक्षुपीडनयन्त्रं तत्प्रधानः पाटको यन्त्रपात्र बुल्ली यत्रेक्षुरसः पच्यते, इत्थम्भूतानि यानि मनुष्यलोके नान सप्तानि-वहिसम्पर्कतस्तप्ती-भूतानि, तानि च कानिचित् आगारप्रभृतीनि कदाचिदुष्णस्पर्शमात्राण्यपि सभवन्ति ततो विशेएशिदनार्थमाह - 'समजोईभूयाइ' प्राकृतत्वात्समशब्दस्य पूर्वनिपह, ज्योतिःसमभूतानि साक्षादग्निवर्णानि जातानीति भावः, एतदेवोपनया रपष्टयतिफुल्लकिशुकसमानानि-प्रफुल्लपलाशकुसुमकल्पानि 'उकासहस्साई' इति ये मूलानितो वित्रुट्य वित्रुठ्याग्निकणाः प्रसर्पन्ति ते उन्का इत्युच्यन्ते, तासां सहस्राणि उल्कासहस्राणि मुञ्चन्ति, ज्वालासहस्राणि विनिर्मुश्चन्ति, अङ्गार सहस्राणि प्रविक्षरन्ति, अन्तरन्तहूयगानानि-अतिशयेन जाज्वल्यमानानि, कृचित् 'अंतो अंतो सुहूयहुया२ःणा' इति पाठः, अन्तरन्तः सुहुतहुताशनानिसुष्ठ हुतो- हुताशनो येषु तानि तथा तिष्ठन्ति तानि पश्येत् दृष्ट्वा चावगाहेत, अवगाह्य च उष्णमपिनरकोष्णवेदनाजनितं बहिः शरीरस्य परितापमपि प्रविनयेत, नरकगतादुष्पारपर्शादय आकरादिषूष्णस्पर्शस्यातीव मन्दत्वात, एवं च सुरवासिकामावलस्तृपामपि क्षुधमपि दाहमपि अन्तःशरीरसमुत्थं प्रविनयेत। तथा च सति तृडादिदोषापगमतो निद्रायेत वा, प्रचलायेत वा. स्मृति वा रति वा धृतिं वा उपलभेत / ततः शीतः-शीतीभूतः रान संकसन् कसन-संक्रामन् संक्रामन् सातसौख्यबहुलोविहरेत्। अमीषा पदानामर्थः प्राग्वद्भावनीयः / एतावत्युक्ते व गवान् गौतमः पृच्छति - 'भवे धारवे सिया? स्यात् -- संभाव्यते एतद्यथा भवेदुष्णवेदनीयेषु नरकेषु भागमा उष्णवेदना ? भगवानाह- गौतम : नायमर्थः समर्थो यदुष्णवेदगया नरकेषु नैरयिका इति, अनन्तरं प्रतिपादितस्वरूपाया उष्णवेद सा: अनिष्टतरिकामेव अप्रियतरिकामेव अमनोज्ञतरिकामेव अमनआपतरिकामेव वेदनां प्रत्यनुभवन्तः- प्रत्येक वेदयमाना विहरन्ति / सम्प्रति शीतवेदनीयेषु नरकेषु शीतवेदनास्वरूपं प्रतिपादयति - | 'सीयवेणिज्जेसुण' मित्यादि, शीतवेदनीयेषु भदन्त ! निरयेषु नैरयिकाः कीदृशीं शीतवेदनां प्रत्यनुभवन्तो विहरन्ति ? स यथा नामकः कर्मकरदारकः स्यात्, तरुण इत्यादि विशेषणकदम्बकं प्राग्वत्तावद् यावत्सहन्यात्, नवरमुत्कर्षत्तो मासमित्यत्र ब्रूयात् / ततः सः - कर्मकरदाकरः तम् - अय-स्पिण्डमुण्णम्, स चोष्णो बाह्यप्रदेशमात्रापेक्षयाऽपि स्याद आह- उष्णीभूतं-सर्वात्मनाऽग्निवर्णीभूतमिति मावः, अयोमयेन संदशकेन गृहीत्वाऽसद्भावप्रस्थापनया शीतवेदनीयेषु नरकेषु प्रक्षिपेत. ततः स पुरुषः तम्-अय स्पिण्डमित्यादि प्राग्वत्तावद्वक्तव्यं यावद्विहरति, तचैवम्- 'से णं तं उम्मिसियनिमिसियंतरेण पुणरवि पचुद्धरिस्सामि त्ति कट्ट पावरायमेव पासेजा पविलीणमेव पासेला पविद्धत्थमेव पासेजा नो वे वर्ण संचाएइ अविरायं अविलीणं अविद्धन्थं पुणरवि पद्धरिलए स जहानामए मत्तमायंगे० जाव सायासोक्खबहुले याऽवि विहरइ ति' 'एवामेवे' त्यादि, अनेनैवाधिकृतदृष्टान्तोकेन प्रकारेण गौतम ! असद्भावप्रस्थापनया शीतवेदनीयेभ्यो नरकेभ्योऽनन्तरमुवृनः सन यानीमानि मनुष्यलोके स्थानानि भवन्ति, तद्यथा-हिमानि वा हिमपुजानि वा० सूत्रे, नपुंसकनिर्देशः प्राकृतत्वात्, हिमपटलानि वा हिमकूटानि वा, एतान्येव पदानि नानादेशजविनेयानुग्रहाय पर्यायव्याचष्टे- 'सीयाणि या सीयपुंजाणि वा' इत्यादि, तानि पश्येत् दृष्ट्वा तान्यवगाहेत, अवगाहा शीतमपि- नरकजनितं शीतत्वमपि प्रविनयेत, ततः सुखासिकाभावतस्तृषमपिक्षुधमपि ज्वरमपि नरकवेदनीयनरकसंपर्कसमुत्थंजायमपि प्रविनयेत्, ततः शीतत्वादिदोषापगमतोऽनुत्तरं स्वास्थ्यं लभमाना निद्रायेत वा प्रचलायेत वा स्मृति वा रतिं वा धृति वा लभत, ततो नरकगतजाड्यापगमाद् उष्णः, स च बहिः प्रदेशमा त्रतोऽपि स्याचल आह- 'उष्णीभूतः अन्तरेऽपि नरकगतजाड्यापगमात् जातोत्साह इत्यर्थः, सएवंभूतः सन् यथास्वसुख (संकसन्) संक्रामन् सातसौख्यबहुलो विहरेत्, एवमुक्त गौतम आह- 'भवेयारूवे सिया ?' इत्यादि प्राग्वत् / जी०३ प्रति०२ उ०। नेरइया णं भंते ! किं एवंभूयं वेदणं वेदेति, अनेवंभूयं वेदणं वेदेति ? गोयमा, नेरइया णं एवं भूयं वेदणं वेदेति अनेवंभूयं पि वेदणं वेदेति / से केणऽट्टेणं तं चेव ? गोयमा ! जे णं नेरइया जहा कडा कम्मा तहा वेयणं वेदें ति ते णं नेरइया एवंभूयं वेदणं वेदेति / जे णं नेरतिया जहा कडा कम्मा णो तहा वेदणं वेदेति ते णं नेरइया अनेवभूयं वेदणं वेदेति, से तेणऽट्टेणं, एवं० जाव वेमाणिया संसारमंडलं नेयव्वं / (सू०२०२+) 'एवंभूयं वेयण' ति यथाविधं कर्म निबद्धमेव प्रकारतयोत्पन्नां वेदनाम् - असातादिकर्मोदयं वेदयन्ति-अनुभवन्ति मिथ्यात्वं चैतद्वादिनामेवम् - न हि यथा बद्धं तथैव सर्व कर्मानुभूयते, आयुःकर्मणो व्यभिचारात तथाहि- दीर्घकालानुभवनीयस्याप्यायुःकर्मणोऽल्पीयसाऽपि कालेनानुभवो भवति, कथमन्यथाऽपमृत्युव्यपदेशः सर्वजनप्रसिद्धः स्या
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________________ वेयणा 1447- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वेयणा त ? कथं वा महासंयुगादौ जीवलक्षाणाणामप्येकदैव मृत्युरुप-पद्येतेति ? एवं तेऊयाए वि एवं वाऊयाए वि, एवं वणस्सइकाए विजाव 'अणेवंभूयं पि' त्ति यथाबद्ध कर्म नैवंभूता अनेवंभूताअतस्ताम्, भूयन्ते विहरित / सेवं भंते ! सेवं भंते त्ति / / (सू०६५३४) ह्यागमे कर्मणः स्थितिविघातरसघातादय इति। एव० जाव वेमाणिया 'पुढवी' त्यादि, 'अक्कते समाणे' त्ति आक्रमणे सति 'जमलपाणिण' संसारमंडल नेयव्व' ति एवम् --उक्तक्रमेण वैमानिकावसान संसारिजीव- त्ति मुष्टिनेति भावः / अणिढ़ समणाउसो!' त्ति गौतमवचनम् एत्तो' ति चक्रवालं; नतव्यमित्यर्थः 1 अथ चेह स्थाने वाचनान्तरे कुलकरतीर्थ उक्तलक्षणाया वेदनायाः सकाशादिति / भ० 16 श० 3 उ०। (सर्वे करादिवक्तव्यता दृश्यते, ततश्च संसारमण्डलशब्देन पारिभाषिकसंज्ञया जीवाः अनेवभूतां वेदनां वेदयन्त इत्यत्रान्ययूथिकैः सह विवादः सेह सूचितेति संभाव्यत इति। भ०५ श० 5 उ०। (करणतोऽकरणतो वा 'अण्णउत्थिय' शब्दे प्रथमभागे 457 पृष्ठे दर्शितः) (यो महानिर्जरः स सातवेदना वेदयन्ते इति करण शब्दे तृतीयभागे 370 पृष्ठे उक्तम्।) महादेवः या वेदना सा निर्जरा इति णिजरा' शब्दे चतुर्थभागे 2057 पृष्ठ महावेदनः दर्शितम् / ) चरमा अपि परमा नैरयिकाणां महाक्रियाः महावेदनाः इति जीवे णं भंते ! जे भविए नेरइएसु उववज्जित्तए से णं भंते ! किं 'चरम' शब्दे तृतीयभागे 1140 पृष्ठे दर्शितम्।) इहगए महावेदणे उववजमाणे महावेदणे उववन्ने महावे-दणे? मारणान्तिकवेदनोदये दृष्टान्तमाहगोयमा ! इहगए सिय महावेयणे सिय अप्पवेदणे उववज्जमाणे "रोहीडगं च नगर, ललिआ गुट्ठी अरोहिणी गणिआ। सिय महावेदणे सिय अप्पवेदणे अहे णं उववन्ने भवति तआ धम्मरुइ कडुअदुद्धिअ, दाणाइ अणेअकम्मुदये।।१।।" पच्छा एगंतदुक्खं वेयणं वेयंति आहच्च सायं जीवे णं भंते ! जे अनेजस्य निःकम्पस्य कर्मणामुउदये। भविए असुरकुमारेसु उववज्जित्तए पुच्छा, गोयमा ! इहगए सिय महावेदणे सिय अप्पवेदणे उववज्जमाणे सियमहावेदणे सिय "रोहितकपुरे रोह-ल्लोलाललितगोष्ठिकाः / अप्पवेदणे अहे णं उववन्ने भवइ, तओ पच्छा एगंतसायं वेयणं तथैका जीर्णगणिका, रोहिणीत्यस्ति तत्र च / / 1 / / वेदेति आहच असायं,एवं जाव थणियकुमारेसु जीवेणं भंते ! अनन्यजीवनोपाया, भक्त राध्नोति तत्कृते। जे भविए पुढविकाएसु उववजित्तए पुच्छा, गोयमा ! इहगए सिय अन्यदा कटुकं तुम्ब, पक्वं जातं विषोपमम् / / 2 / / महावेदणे सिय अप्पवेयणे, एवं उववजमाणे वि, अहेणंउववन्ने भवति मा भूवं निन्दिता गोष्ट्या-स्ततोऽन्यत्तत्कृते कृतम्। तओ पच्छा वेमायाए वेयणं वेयति एवं जाव मणुस्से सु, आद्यं धर्मरुचेर्द, मासपारणके मुनेः / / 3 / / वाणमंतरजोइसियवेमाणिएसु जहा असुरकुमारेसु। (सू० 2834) अथ 'रगं दुक्खं वेयण' ति सर्वथा दुःखरूपां वेदनीय-कर्मानुभूतिम् स गत्वोपाश्रये साधु-स्तुम्बमालोचयद् गुरोः। 'आहच सायं' ति कदाचित्सुखरूपां नरक-पालादीनामसंयोगकाले, गुरुर्विज्ञाय गन्धेन, तमूचेऽमुंपरित्यज // 4 // 'एणतसायं' ति भवप्रत्ययात्, 'आहच असायं' ति प्रहाराद्युपनिपातात्। भक्षितं मूत्यवे ह्येत-तत्त्यक्तुं स गतोऽटवीम्। भ०७श०६उ० कथंचित् पतितो बिन्दुः पात्रात्तत्रेत्य कीटिकाः / / 5 / / सइश्चाक्रमणभेदोऽत आक्रान्तानां पृथिव्यादीनां यादृशी लग्नमात्रान्मृता दृष्ट्वा, दध्यौ मे सुमृतिवरम्। वेदना भवति तत्प्ररूपणायाह - माऽन्यजीवविघातो भू-दिति त्यक्त्वऽखिलोपधिम् // 6 / / पुढ विकाइए णं भंते ! अक्कं ते समाणे के रिसियं वेदणं एकत्र स्थण्डिले स्थित्वा, विधायाराधनाविधिम्। पचणुब्भवमाणे विहरति ? गोयमा ! से जहानामए-केइ पुरिसे तद्भक्त्वा वेदना तीव्रा-मधिसह्य शिवं ययौ।॥७॥" आ० क०४ अ०॥ तरुणे बलवं जाव निउणसिप्पोवगए एगं पुरिसं जुन्नं आ० चू०। जराजजरियदेहं जाव दुब्बलं किलंतं जमलपाणिणा मुद्धाणंसि अभिहणि से णं गोयमा ! पुरिसे तेणं पुरिसेणं जमलपाणिणा यथोदीरणवेदननिर्जराः कुर्वन्ति देहिनस्तथा प्रतिपादयतिमुद्धाणं सि अभिहए समाणे के रिसियं वेदणं पचणुब्भवमाणे जीवाणं दोहिं ठाणेहिं पावकम्मं उदीरेइ,तं जहा-अब्भोवविहरति ? अणिटुं समणाउसो ! तस्स णं गोयमा ! पुरिस्स गामियाए चेव, वेयणाए, उवक्कमियाए चेव वेयणाते / एवं वेदेति वेदणाहिंतो पुढविकाइए अकंते समाणे एत्तो अणिद्रुतरियं चेव एवं णिजरेंति अब्भोवगमियाए चेव वेयणाए उवक्कमि ताते चेव अकंततरियं० जाव अमणामतरियं चेव वेदणं पञ्चणुब्भवमाणे वेयणाते। (सू०६६+) विहरति / आउयाए णं भंते ! संघट्टिए समाणे के रिसियं वेदणं 'जीवे' त्याद गतार्थम् , नवरम् उदीरयन्ति- अप्राप्ता - पच्चणुब्भवमाणे विहरति ? गोयमा ! जहा पुढविकाइए एवं चेव, | वसर सदुदये प्रवेशयन्ति, अभ्युपगमे न-अङ्गीक रणे न
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________________ वेयणा 1448 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वेयतिग निवृत्ता तत्र वा भवा आभ्युपगभिकी तया-शिरोलोचत-पश्चरणादिकया ओसन्नं सुरमणुए, सायमसायं तु तिरियणरएसु / वेदनया-पीडया उपक्रमेण-कर्मोदीरणकारणेन निर्वृत्ता तत्र वा भवा / मजं व मोहरणीयं, दुविहं दसणचरणमोहा।।३।। औपक्रमिकी तथा-ज्वरातीसारादिजन्यया, एवमिति-उक्तप्रकारत एव ओसन्नशब्दो देशीवचनो बाहुल्यवाचको, यथा- "ओसन्नं देवा सायं वेदयन्ति विपाकतोऽनुभवन्त्युदीरितं सदिति, निर्जरयन्ति-प्रदेशेभ्यः वेयण वेयंति' तत्र 'ओसन्न' बाहुल्येन-प्रायेणत्यर्थः, सुराश्वदेवा शाटयन्तीति। स्था०२ ठा० 4 उ० / मनुजाश्व-मनुष्याः सुरमनुज समाहारद्वन्द्वस्तस्मिन् सुरमनुजे सुरेषुवेयणाखंध-पु० (वेदनास्कन्ध) सुखाः दुःखा अदुःखसुखा चेति वेदना- मनुजेष्वित्यर्थः, सात-सात वेदनीयं भवति। ओसन्नग्रहणाचयवनकालेऽलक्षणे बौद्धपरिभाषिते पञ्चस्कधेप्वन्यतमे स्कन्धे, सूत्र०१ श्रु०१ अ० न्यदाऽपि सुराणामसातोदयोऽप्यस्ति, चारकनिरोधवधबन्धनशीतात१उ०। पादिभिर्मनुजानामप्यसातमिति नरकभवाः प्राणिनोऽप्युपचारात वेदणाभय-न० (वेदनाभय) वेदना-पीडा तयं वेदनाभयम्। भेदे, स्था० नरकाः, ततस्तियश्चश्व नरकाश्च तिर्यगनरकास्तेषु तिर्यक्षु नरकेष्वित्यर्थः / ७ठा०३ उ०। ओसन्नशब्दस्येहापि संबन्धादसातम्।तुःपुनरर्थ, व्यवहितसंबन्धश्च : स चैव योज्यते-तिर्यग्नरकेषु पुनरसातं प्रायो भवति ओसन्नग्रहणात्केषांचिवेयणासमुग्घाय-पुं० (वेदनासमुद्धात) असावद्यकर्माश्रये समुद्घातभेदे, त्षटहस्तितुरङ्गादीनां तिरश्वा नारकाणामपि निनजन्मकल्याणकादिषु स०६ सम०। रथाला प्रज्ञा०। तत्र वेदनासमुद्घातगत आत्मा असातवेद सातमप्यस्तीत्युक्त द्विविधं वेदनीयम् / कर्म०१ कर्म० / (वेदनीयानि नीयकर्मपुद्गलपरिशातं करोति, तथाहि-वेदनापीडितो जीवः स्वप्रदेशान् अकर्कशवेदनीयानि च कर्माणि स्वस्वस्थाने उक्तानि।) अनन्तानन्तकर्म स्कन्धवेष्टितान शरीरावहिरपि विक्षिपति तैश्च साताऽसातवेदनीयानि त्विहप्रदेशवंदनजठरादिरन्ध्राणि कर्णरकन्धाद्यपान्तरालानि चापूर्यायामतो विस्तरतश्च शरीरमा क्षेत्रमभिव्यायान्तर्मुहूर्त यावदवतिष्ठते, तम्मिश्चा अस्थि णं भंते ! जीवा णं सायावेयणिज्जा कम्मा कजंति हंता न्तर्मुहूर्ते प्रभूतासातावेदनीय-कर्मपुद्गलपरिशाते करोति / प्रज्ञा०३६ / अत्थि। कहण्णं मंते ! जीवाणं सायावेयणिज्जा कम्मा कजंति ? पं० सं०। ('समुग्घाय' शब्दे विशेपतो व्याख्या वक्ष्यते।) गोयमा ! पाणाणुकं पयाए भूयाणुकंपयाए जीवाणुकंपयाए सत्ताणुकं पयाए बहूणं पाणाणं ०जाव सत्ताणं अदुक्खयाए वेयणिज्ज-न० (वेदनीय) वेद्यते आझादादिरूपेण यदनुभूयते तद्वेदनीयम्। असोयणयाए अजूरणयाए अतिप्पणयाए अपिट्टणयाए कर्मण्यनीयप्रत्ययः / धेदनीये कर्मणि, स्था०२ ठा० 4 उ०। अपरियावणयाए एवं खलु गोयमा! जीवाणं सायावेयणिज्जा कम्मा वेयणिजे कम्मे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-सायावेयणिजे चेव, कजंति एवं नेरइयाण वि एवं 0 जाव वेमाणियाणं / अत्थि णं असायावेयणिज्जे चेव / (सू० 1054) भंते ! जीवा णं असायवेयणिज्जा कम्मा कजंति, हंता अस्थि / तथा वेद्यते-अनुभूयत इति वेदनीय, सात-सुखं तद्रूपतया वेद्यते कहण्णं भंते ! जीवा णं असायावेयणिज्जा कम्मा कज्जंति ?, यत्तत्तथा, दीर्घत्वं प्राकृतत्वात् इतरद् एतद्विपरीतम्. आह च 'महुलित्त - गोयमा ! परदुक्खणयाए परसोयणयाए परजूरणयाए परतिप्पनिसियकरवालधारजीहाएँ जारिसं लिहणं / तारिसयं वेयणिय, णयाए परपिट्टणयाए परपरितावणयाए जाव परियावणयाए एवं सुहदुहउप्पायगं मुणह।।१।।" इति। (स्था०२ टा० 4 उ०) / कर्मभेदे, खलु गोयमा ! जीवा णं असायावेयणिज्जा कम्मा कज्जंति एवं यद्यपि सर्वकमाण्यप्येवं तथापि पड़जादिशब्दवत् वेदनीयशब्दस्य रूढ- नेरइयाण वि एवं जाव वेमाणियाणं / (सू०२८६) विषयित्वात साताऽसातरूपमेव वर्म वेदनीयमित्युच्यते। कर्म०६कर्म० / 'अदुक्खणयाए' ति दुःखस्य करणं दुःखनं तदविद्यमानं यस्यासावपं० सं० ज०। दशा०। दुःखनस्तद्रावस्तत्ता तया अदुःखनतया; अदुःखकरणेनेत्यर्थः / एतदेव साम्प्रतं तृतीय कर्म वेद्यवेदनीयापरपर्याय व्याचिख्यासुराह- प्रपश्यते 'असोयणयाए'त्ति दैन्यानुत्पादनेन, अजूरणयाए' ति शरीरामहुलित्तखग्गधारा-लिहणं दुहा उ वेयणियं / / 12 / / पचयकारिशोकाऽनुत्पादनेन, ‘अतिप्पणाए' त्ति अश्रुलालादिक्षरण'महुलित्ते' न्यादि, मधुना-मधुरसेन लिप्ता-खरण्टिता खड्गस्यकरबा कारणशोऽकानुत्पादनेन ‘अपिट्टणयाए' त्ति यष्ट्यदिताडनपरिहारेण, लस्य धारा-तीक्ष्णाग्र रूपा तरया जिह्वया लेहनमिवास्वादनसदृश 'अपरितावणयाए' त्ति शरीरपरितापानुत्पादनेन / भ०७ श०६ उ०। द्विधैव-द्विप्रकारमेव साताऽसातभेदात्। तुशब्द एवकारार्थः / वेदनीय (वेदनीयस्य बन्धोदयसत्तास्थानानां संवेधः 'कम्म' शब्दे तृतीयभागे रोद्य कर्म भवति / इह चमधुलेहनसंनिभं सातवेदनीय खगधाराच्छेदन 276-263 पृषे गतः।) सममसातवेदनीयम्। उक्तं च- "महुआसायणसरिसो, सायावेयस्स होइ | वेयणिज्जजुगल-न०(वेदनीययुगल) सातवेदनीयाऽसात-वेदनीयरूपे हु विवागो / ज असिणा तहि छिजइ, सो उ विवागो असायस्स // 1 // " द्विविधैवेदनीये, कर्म० 2 कर्म / अथ गतिचतुष्टये साताऽसातस्वरूपमाह वेयतिग-न० (वेदत्रिक) स्त्रीवेदपुंवेदनपुंसक्वेदाख्ये वेदत्रये, कर्म०२ कर्म०।
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________________ वेयद्दिया 1446 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वेयालिय वेयद्दिया-स्त्री० (वितर्दिका) वेदिकायाम, नि०१ श्रु०१ वर्ग 1 अ०। वेदप्रतिपादितम्। आ० म० 1 अ०। विशे०। औ०। ज्ञा०1 वेयवत्त-न० (वेदव्यक्त) जृम्भिकग्रामस्य बहिर्ऋजुपालिकाया उत्तरकूले वेयधिगरण्ण-न० (वैयधिकरण्य) विभिन्नमधिकरणमस्येति व्यधि- / स्वनामख्याते चैत्ये, आचा०२ श्रु०२ चू०। करणस्तद्भावो वैयाधिकरण्यापरस्परविरुद्धयोधर्मयोरेका समावेशे, | व्यावृत्त-नाज़म्भिकग्रामस्य बहिः ऋजुपालिकाया उत्तरकूले स्वनामअने०१ अधि०। ख्याते चैत्ये, आचा०२ श्रु०३चू०। वेयपय-न० (वेदपद) वैदिकशब्दे, "वेययपयाणं अत्थे, न याणसी, | वेयवि-पुं० (वेदविद) वेद्यते जीवादिस्वरूपमनेनेति आचाराङ्गाद्यागमस्तं तेसिमेय?'' इति इन्द्रभूत्यादीन् प्रति वीरजिनः / आ० म०१ अ०। वेत्तीति वेदवित्। आचा० 1 श्रु०३ अ० 1 उ० / आगमविदि तीर्थकरे, विशे० / आव०। गणधरे, चतुर्दशपूर्वविदि च। आचा०१ श्रु०५ अ०४ उ०। आ०म०। वेयपुरिस-पुं० (वेदपुरुष) वेदः- पुरुषवेदस्तदनुभवनप्रधानः पुरुषो सर्वज्ञोप देशवर्तिनि, आचा०१ श्रु०४ अ०४ उ०। वेदपुरुषः।पुरुषभेदे, स्था०३ ठा० 130 / राओवरयं चरिज लोढ, विरए वेयवियाऽऽयरक्खिए (2) वेयबंधय-पु० (वेदबन्धक) वेदयते अनुभवतीति वेदः, तस्य बन्ध एव वेद्यते अनेन तत्त्वमिति वेदः-- सिद्धान्तः तस्य वेदनं वित्तया आत्मा बन्धकः / कति प्रकृतीर्वेदयमानस्य कतिप्रकृतीनां बन्धो भवतीति तत्र रक्षितो दुर्गतिपतनात्त्रातोऽनेनेति वेदविदात्मरक्षितः। यद्वा-वेदं वेत्तीति निरूप्यते, ततस्तद्वेदस्य बन्ध इति प्रज्ञापनायाः षड्विशतितमे पदे, वेदवित, ततथा रक्षिता आयाः सम्यगदर्शनादिलाभः येनेति रक्षितायो प्रज्ञा० 1 पद। ('कम्म' शब्दे तृतीयभागे 263 पृष्ठे व्याख्यातमिदम्।) क्षितशब्दपरनिपातः प्राग्वत्। उत्त०१५ अ०। वेयमाण–त्रि० (वेदयत) अनुभवति, भ०१८ श०३ उ०। वेयवेय-पु० (वेदवेद) का प्रकृति वेदयमानः कति प्रकृतीर्वेदयते इत्यर्थवेयमुह-न० (मेदमुख) वेदानां मुख्यभागे ओंकारे, 'म विजाणसि प्रतिपादके प्रज्ञापनायाः सप्तविंशतितमे पदे, प्रज्ञा०१ पद। वेयमुहं, न वि जन्नाणज मुहं' इति जयघोषविजयघोषसंवादः / उत्त० वेयाईय-पुं० (वेदातीत) अवेदके, विशे०। 25 अ०। वेयागरणी-स्त्री० (वैयाकरणी) प्रवद्रजिषुः सन्देहनिरा-करणात्प्रवेयरणी-स्त्री० (वैतरणी) क्षारोष्णरुधिराकारजलवाहिन्यां नरकनद्याम्, प्रज्यायाम, "वेयागरणीए सोमिल, पच्छा जल वायरे भगवं'' पं० भा० सूत्र०१ श्रु०५ अ०१ 30 / आचा०। आव०।दारवत्यां नगर्या कृष्णवासु १कल्प। पं० चू०। देवस्य विद्यायाम, "वारवती नगरी तत्थ कण्हो वासुदेवो तस्स दो विजा, वेयाणुवीइ-स्त्री० (वेदानुवीचि) वेदः पुंवेदोदयस्तस्यानुवीचिः--आनुकारतरी, वेयराणी ग। धनंतरी अभवितो, वेयरणी भवितो // ' आ० म० __कूल्यम् / मैथुनाभिलाषे, सूत्र०१ श्रु० 4 अ१ उ०। 1 अ०। आ० चू० प्यरुधिरत्रपुतामादिभिरतितपात्कलकलायमान ता वेयारणिया-स्त्री० (वैदा(च)(ता)रणी) विदारणं विचारणं वितारणं वा विरूपं तरणं प्रयोजनमस्या इति वैतरणीति, यथार्था नदी विकुर्व्य स्वार्थिकप्रत्ययोपादानाद् वैदारणी। क्रियाभेदे, स्था०२ ठा०१ उ० / तत्तारणेन कदर्थयति नारकानिति (स० 15 सम०) त्रयोदशे परमा- आव०। धार्मिक, पुं०। सूत्र। वेयाल-पुं० (वेताल) विकृतपिशाचे, प्रश्न०३ आश्र० द्वार। तद्वर्णनमाह वेयालग-न० (विदारक) दृ-विदारणे इत्यस्य धातोर्विपूर्वस्य छान्दपूयरुहिरकेसऽट्ठि-वाहिणी कलकलें तजलसोया। सत्वात् भावे ण्वुलप्रत्ययान्तस्य विदारकम् विदारणे, सूत्र०१ श्रु०२ वेयरणिणिरयपाला, णेरइए ऊ पवाहति // 2 // अ०१उ०। 'पूयरुहिरे' त्यादि, वैतरणीनामानो नरकपालाः वैतरणी नदी | वेयालण-न० (वेदारण) विशेषेण द्वैधीकरणे, सूत्र०१ श्रु०२ अ०१ उ० / विकुर्वन्ति, सा च पूयरुधिरकेशास्थिवाहिनी महाभयानका कलकलाय- | वेयालिय-न० (विदारणीय) विदारणकर्मणि, सूत्र। मानजलश्रोता तरयां च क्षारांष्णजलायामतीव बीभत्सदर्शनायां निक्षेपःनारकान् प्रवाहयन्तीति। सूत्र०१ श्रु०५ अ०१ उ०। वेयालियम्मि वेया-लगो य वेयालणं वियालणियं / वेयवं-पुं० (वेदवत्) वद्यते जीवादिरवरूपमनेनेति वेदः - आचाराङ्गाद्या- ! तिन्नि वि चउक्कगाई, वियालओ एत्थ पुण जीवो // 36 / / गमरत वेत्तीति वेदवित्। आगमज्ञ, आचा० 1 श्रु०३ अ०१उ०। तत्र प्राकृतशैल्या वेयालियमिति दृ-विदारणे इत्यस्य धातोर्विपूर्वस्य वेयवक्क-न० (टेदवाक्य) वैदिकपदसमूहे, त्रिविधानि वेदवाक्यानि / छान्दसत्वात् भावे णवुलप्रत्ययान्तस्य विदारकमिति क्रियावाचकमिद कानिचिद् विविवादपराणि-तत्राग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकाम इत्यादीनि मध्ययनाभिधानमिति, सर्वत्रच क्रियायामेतत्त्रय सन्निहितम्, तद्यथा-कर्ता, विधिवादपराणि, अर्थवादस्तु द्विधास्तुत्यर्थवादो निन्दार्थवादश्चेत्यादि- करणं, कर्म चेति। अतस्तदृर्शयति-विदारको विदारणं विदारणीव च। तेषा
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________________ वेयालिय 1450 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वेयालिय त्रयाणामपि नामस्थापनाद्रव्यभावभेदाचतुर्दा निक्षेपेण त्रीणि चतुष्ककानि द्रष्टव्यानि / अत्र च नाभस्थापने क्षुण्णे, द्रव्यविदारको यो हि द्रव्य काष्ठादि विदारयति, भावविदारकस्तु कर्मणो विदार्यत्वात् नोआगमतो जीवविशेषः साधुरिति // 36 // करणमधिकृत्याऽऽह - दव्वं च परसुमादी, दंसणणाणतवसंजमा भावे / दव्वं च दारुगादी, भावे कम्मं वियालणियं // 37 // नामस्थापने क्षुण्णे द्रव्यविदारण परश्वादि, भावविदारणं तु दर्शनज्ञानतपःसंयमाः, तेषामेव, कर्मविदारणे सामर्थ्य मित्युक्तं भवति / विदारणीय तु नामस्थापने अनादृत्य द्रव्यं दार्वादि, भावे पुनरष्टप्रकार कर्मेति // 37 // साम्प्रतं 'वेयालिय' मित्येतस्य निरुक्तं दर्शयितुमाहवेयालियं इह दे-सियं ति वेयालियं तओ होइ। वेयालियं तहा वि-त्तमत्थि तेणेव य णिबद्धं // 38|| इहाध्ययनेऽनेकधा कर्मणां विदारणमभिहितमिति कृत्वैतदध्ययन निरुक्तिवशाद्विदारकं ततो भवति। यदि वा-वैतालीयमित्यध्ययननाम, अत्रापि प्रवृत्तौ निमित्तं-वैतालीयं छन्दोविशेषरूपं वृत्तमस्ति, तेनैव च वृत्तेन निबद्धमित्यध्ययनमपि वैतालीयन, तस्य चेदं लक्षणम् - "वैतालीय लगनैधनाः षड युक्पादेऽष्टौ समे च लः / न समोऽत्र परेण युज्यते, नेतः षट् च निरन्तरा युजोः / / 1 / / " // 38|| साम्प्रतमध्ययनस्योपोद्घातं दर्शयितुमाहकामं तु सासयमिणं, कहियं अट्ठावयम्मि उसभेणं / अट्ठाणउतिसुयाणं, सोउणं तेऽवि पव्वइया / / 30 / / कामशब्दोऽयमभ्युपगमे, तत्र यद्यपि सर्वोऽप्यागमः शाश्ववतः तदन्तर्गतमध्ययनमपि, तथापि भगवताऽऽदितीर्थाधिपेनोत्पन्नद्वियज्ञानेनाष्टापदोपरि व्यवस्थितेन भरताधिपभरतेन चक्रवर्तिनोपहतैरष्टनवतिभिः पुत्रैः पृष्ठन यथा भरतोऽस्मानाज्ञा कारयत्यतः किमस्माभिविधयमित्यतस्तेषामगारदाहकदृष्टान्तं प्रदर्श्वन कथशिज्जन्तो गच्छा निवर्तत इत्यर्थगर्भमिदमध्ययनं कथितम्-प्रतिपादितम्, तेऽप्येतच्छुत्वा संसारा-सारतामवगम्य विषयाणां च कटुविपाकतां निःसारतां च ज्ञात्वा मत्तकरिकर्णवचपलमायुर्गिरिनदीवेगसमं यौवनमित्यतो भगवदा व श्रेयस्करीति तदन्तिके सर्वे प्रव्रज्यां गृहीतवन्त इति। अत्र उद्देसे निद्देसे य' इत्यादिः सर्वोऽप्युपोद्घातो भणनीयः // 36 // ___ साम्प्रतमुद्देशार्थाधिकार प्रागुल्लिखितं दर्शयितुमाहपढमे संबोहोऽनि-चया य बीयम्मि माणवजणया। अहिगारो पुण भणिओ, तहा तहा बहुविहो तत्थ / / 4 / / उद्देसम्मि य तइए, अन्नाणचियस्स अवचओ भणिओ। वजेयव्वो य सया, सुहप्पमाओ जइजणेणं / / 41 / / तत्र प्रथमोद्देशके हिताहितप्रातिपारिहारलक्षणो बोधो विधेयोऽनित्यता चेत्ययमाधिकारः, द्वितीयोद्देशके मानो वर्जनीय इत्ययमर्थाधिकारः | पुनश्च तथा तथा अनेकप्रकारो बहुविध शब्दादावर्थेऽनित्यतादिप्रतिपादकोऽर्थाधिकारी भणित इति, तृतीयोद्देशके अज्ञानोपचितस्य कर्मणो-ऽपचरारूपोऽर्थाधिकारो भणित इति यतिजनेन च सुखप्रमा दो वर्जनीयः सदेति // 41 // संबोधश्च प्रसुप्तस्य सतो भवति, स्वापश्च निद्रोदये, निद्रासंबोधयोश्च नामादिश्चतुर्दा निक्षेपः, तत्रनामस्थापने अनादृत्य द्रव्यभावनिक्षेपं प्रतिपादयितु नियुक्तिकृदा हदव्वं निद्दावेओ, दंसणनाणतवसंजमाभावे। अहिगारो पुण भणिओ, नाणे तवदंसणचरिते / / 12 / / इह च गाथाया द्रव्यनिद्राभावसंबोधश्च दर्शितः, तत्राद्यन्त-ग्रहणेन भावनिद्राद्रव्यबोधयोस्तदन्तर्वर्तिनोहणं द्रष्टव्यम्, तत्र द्रव्यनिद्रा निद्रावेदे, वेदनमनुभवः / दर्शनावरणीयविशेषोदये इति यावत्। भावनिद्रा तु ज्ञानदर्शनचारित्रशून्यता। तत्र द्रव्यबोधो द्रव्यनिद्रया सुप्तस्य बोधनम्, भाव-भावविषये पुनर्बोधो-दर्शनज्ञानचारित्रतपःसंयमा द्रष्टव्याः। इह च भावप्रबोधेना-धिकारः स च गाथापश्चार्द्धन सुगमेन प्रदर्शित इति। अत्र च निद्राबोधयोर्द्रव्यभावभेदाचत्वारो भङ्गा योजनीया इति॥४२॥ सूत्र० १श्रु०२१०१३०। सव्वं नचा अहिट्ठए धम्मऽट्ठी उवहाणवीरिए। गुत्ते जुत्ते सदा जए, आयपरे परमायतद्विते / / 15 / / सर्वम्- एतद्धयमुपादेयं च ज्ञात्वा सर्वज्ञात मार्गे सर्वसवररूपम् अधितिष्ठेत्-आश्रयेत, धर्मेणार्थो धर्म एववाऽर्थः परमार्थनान्यस्यानर्थरूपत्वात् धर्मार्थः, स विद्यते यस्यासौ धर्मार्थी-धर्मप्रयोजनवान, उपाधान-तपस्तत्र वीर्य यस्य स तथा अनिगूहितबलवीर्य इत्यर्थः, तथा मनोवाक्कायगुप्तः, सुप्रणिहितयोग इत्यर्थः, तथा युक्तो ज्ञानादिभिः सदासर्वकालं यतेताऽऽत्मनि परस्मिश्च / किंविशिष्टःसन् ? अत आह-परम उत्कृष्ट आयतो-दीर्घः सर्वकालभवनात् मोक्षस्तेनार्थिकः - तदभिलाषी पूर्वोक्तविशेषणविशिष्टो भवेदिति॥१५॥ सूत्र०१ श्रु०२ अ०३ उ०। अभविंसु पुरावि भिक्खुओ, आएसा वि भवंति सुव्वता। एयाइँ गुणाई आहुते, कासवस्स अणुधम्मचारिणी / / 20 / / हे भिक्षवः! - साधवः!, सर्वज्ञः स्वशिष्यानेवमामन्त्रयति, येऽभूवन्अतिक्रान्तो जिनाः - सर्वज्ञाः ‘आएसाऽवि' ति आगमिन्याञ्च ये भविष्यन्ति, तान् विशिनष्टि - सुव्रताः- शोभनव्रताः, अनेनेदमुक्त भवति- तेषामपि जिनत्वं सुव्रतत्वादेवायातमिति, ते सर्वेऽप्येतान् - अनन्तरादितान गुणान आहुः-अभिहितवन्तः, नाऽत्र सर्वज्ञानां कश्चिन्मतभेद इत्युक्तं भवति / ते च काश्यपस्य - ऋषभस्वामिनो वर्द्धमानस्वामिनोवा सर्वेऽप्यनुचीर्णधर्मचारिण इति / अनेन च सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मक एक एव मोक्षमार्ग इत्यवेदितं भवतीति॥२०॥ अभिहिताश्व गुणानुद्देशत आहतिविहेण वि पाण मा हणे, आयहिते अणियाण संवुडे /
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________________ वेयालिय 1451 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वेयावच एवं सिद्धा अणंतसो, संपइ जे अ अणागयावरे // 21|| एवं से उदाहु अणुत्तरनाणी अणुत्तरदसी अणु-त्तरनाणदंसणधरे अरहा नायपुत्ते भगवं वेसालिउ वियाहिए।।२२।। त्ति बेमि। इति श्रीवेयालियं बितियमज्झयणं समत्तं / / त्रिविधेन-मनसा वाचा कायेन, यदि वा कृतकारितानुमतिभिर्वा प्राणिनोदशविधप्राणभाजो मा हुन्यादिति, प्रथममिदं महाव्रतम्, अस्य चोपलक्षणार्थत्वात्। एवं शेषाण्यपि द्रष्टव्यानि। तथाऽऽत्मने हित आत्महितः, तथा नास्य स्वर्गावाप्स्यादिलक्षणं निदानमस्तीत्यनिदानः तथेन्द्रियनोइन्द्रियर्मनोवाकायैर्वा संवृतः: त्रिशुपिगुप्त इत्यर्थः, एवम्भूतश्वावश्यं सिद्धिमवाप्रोतीत्येतद्दर्शयति- 'एवम्- अनन्तरोक्तमार्गानुष्ठानेनानन्ताः सिद्धा--अशेष-कर्मक्षयभाजः संवृत्ता विशिष्ट स्थानभाजो वा, तथा सम्प्रति-वर्तमाने काले सिद्धिगमनयोग्ये सिद्धन्ति। अपरे वा अनागते काले एतन्मार्गानुष्टायिन एव सेत्स्यन्ति, नापरः सिद्धिमार्गोऽस्तीति भावार्थः॥२१॥ एतच सुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिप्रभृतिभ्यः स्वशिष्येभ्यः प्रतिपादयतीन्याह- ‘एवं से' इत्यादि, एवम्-उद्देशकत्रयाभिहितनीत्या स- ऋषभस्वामी स्वपुत्रानुदिश्य उदाहृतवानन्प्रतिपादितवान्, नास्योतर-प्रधानमस्तीत्यनुत्तरं तच तज्ज्ञानं च अनुत्तरज्ञानं तदस्यास्तीत्यनुनरज्ञानी तथाऽनुत्तरदर्शी-सामान्यविशेषपरिच्छेदकाव बोधस्वभाव इति। बौद्धमतनिरासद्वारेण ज्ञानाधारं जीवं दर्शयितुमाहअनुत्तरज्ञानदर्शनधर इति- कथञ्चिद्भिन्नज्ञानदर्शनाऽऽधार इत्यर्थः / अर्हन्सुरेन्द्रादिपूजा) ज्ञातपुत्रो वर्द्धमानस्वामी ऋषभस्वामी वा भगवानऐश्वर्यादिगुणयुक्तो विशाल्यां नगर्या वर्द्धमानोऽस्माकमाख्यातवान्, ऋषभस्वामी वा विशालकुलोद्भवत्वाद्वैशालिकः। तथा चोक्तम् 'विशाला जननी यरय विशाल कुलमेव वा। विशालं वचनं चास्य, तेन वैशालिको जिनः / / 1 / / " एवमी जिन आख्यातेति / इतिशब्दः परिसमाप्त्यर्थी, ब्रवीमीति उक्तार्थो, नयाः पूर्ववदिति // 22 // समाप्तं द्वितीयं वैतालीयमध्ययनम् / सूत्र० 1 श्रु० 2 अ०३ उ० / (अनित्यता धर्मदेशना 'परीसहा'ऽऽदिशब्देषु।) वैक्रिय-०। नरके परमाधार्मिकनिष्पादिते पर्वत, सूत्र०१ श्रु०४ अ० २उ। वैकालिक-अपराह्लादौ, विगतकाले जाते, दश०१ अ०। ('दसवेयालिय' शब्दे चतुर्थभागे 1480 पृष्ठे व्युत्पत्तिरुक्ता।) वेयालिया-स्त्री० (वैतालिकी) विताले तालाभावे च भवतीति वैतालिकी। देवतायाः पुरतो वाद्यमानायां मङ्गलवीणायाम्, जी० 3 प्रति० 4 अधि० / ज०। वेयाली-स्वी (वैताली) नियताक्षरप्रतिबद्धे विद्याभेदे, सा च किल कतिभिजेपैर्दण्डमुत्थापयति। सूत्र०२ श्रु०२ अ०। वेयावच्च-न० (वैयावृत्य) व्याविवर्ति स्मेति ट्यावृतस्तस्य भावः वैयावृत्यम् प्रव० 6 द्वार / व्यावृतस्य शुभव्यापारवतो भावः कर्म वा वैयावृत्यम्, भक्तादिभिर्धर्मोपग्रहकारिवस्तुभिरुपग्रहरकरणे, स्था०५ ठा०१3०। प्रति० / पा०। साधूनामाहाराद्यानयनसाहाय्ये, उत्त० 26 अ०। पशा० नं० / स० 1 औषधपथ्यादिनाऽवष्टम्भे, ध०२ अधि० / भ० / प्रश्न० / ग० / स्था० / धर्मसाधननिमित्तं व्यावृतभावे, दश०१ अ० व्य० / "वेयावचं वा वडभावो इह धम्मसाहणणिमित्तं " प्रव०६ द्वार। वैयावृत्यभेदानाहदसविहे वेयावच्चे पण्णत्ते, तं जहा-आयरियवे यावच्चे 1, उवज्झायवेयावचे 2, थेरवेयावच्चे 3, तवस्सिवेयावचे 4, सेहवेयावचे 5, गेलण्णवेयावचे 6, साहम्मियवेयावच्चे 7, कुलवेयावच्चे 8, गणवेयावच्चे,संघवेयावचे 10, आयरियवेयावचं करेमाणे समणे निग्गन्थे महानिजरे महापज्जवसाणे भवति। अरयाक्षरगमनिका-नवरं वैयावृत्यं त्रयोदशभिः पदैस्तान्यग्रे वक्ष्यन्ते। महानिर्जरः प्रतिसमयमनन्तानन्तकर्मपरमाणुनिर्जरणाद् महापर्यवसानसिद्धिगमनात्। अत्र भाष्यप्रपञ्चःदसविहवेयावचं, इमं समासेण होइ विन्नेयं / आयरिय उवज्झाए, थेरे य तवस्सिसेहे य॥१२३।। अतरंतकुलग गेज्जा, संघे साहम्मिवेयवचे य। एतेसिं तु दसण्हं, कायव्वं तेरसपएहिं / / 124 / / दशविधमिदं वक्ष्यमाणं समासेन विज्ञेयम्, तद्यथा-आचार्यस्य 1, उपाध्यायस्य 2, स्थविरस्य 3, तपस्विनः 4. शैक्षकस्य 5, अतरत्ग्लानस्तस्य 6, साधर्भिकस्य 7, कुलस्य 8. गणस्य 6, ससस्य 10, वैयावृत्यम् / गाथायां सप्तमी सर्वत्र प्रतिपत्तय्या एताषां त्वाचार्यादीना दशानामपि यथायोग त्रयोदशभिः पदैर्वैयावृत्यं कर्त्तव्यम्। तान्येव त्रयोदशपदान्याहभत्ते पाणे सयणाऽऽसणे (य) पडिलेहपायमच्छिमद्धाणे। राया तेणे दंड-गहे य गेलण्णमत्ते य / / 125|| भक्तेन-भक्तानयनेय वैयावृत्यं कर्त्तव्यम्, 1, पानेनपानी-यानयनेन 2, शय्ययासंस्तारकेण वा 3, आसनेन-आसन-प्रदानेन 4, प्रतिलेखनेन क्षेत्रस्योपधेर्वा प्रत्युपेक्षणेनापि 5, 'पाए' त्ति पादप्रमार्जनन 6, यदि वा -औषधपानेन अक्ष्णोः अक्षिरोगिणो भेषजप्रदानेन७, अध्वनि-अध्वानं प्रपन्नानामुपग्रहेण 8, राजद्विष्ट निस्तारणेन 6, 'तेण' त्ति शरीरोपधिस्तेनेभ्यश्च संरक्षणेन 10, तथाऽतिचारादिभ्य आगतानां दण्डग्रहणात् 11, ग्लानत्वे जाग्रतो यथायोग्यं तत्संपादनेन 12, 'मत्ते य' ति मात्रिकत्रिकढौकनेन 13, एतानि त्रयोदश पदानि। जा जस्स होइ लद्धी, तं तु न हावेइ संतविरियम्मि। एयाणुत्तत्थाणि य, पयाइँ किंचित्थ वुच्छामि।।१२६|| या यस्य भवति लब्धिः स ता सति वीर्य पराक्रमे न हापयेदिति / व्याख्यानार्थ त्रयोदश पदान्युपात्तानि एतानि चोक्तार्थानि सुप्रतीतानि तथापि किंचिदत्र विनेयजनानुग्रहाय वक्ष्यामि।
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________________ वेयावच्च 1452 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वेयावच पायपरिकम्मपाए, ओसहभेसज देइ अच्छीणं ! तीर्थकरस्विलोकाधिपतिराचार्यस्तु सामान्य इति कथमाचार्यग्रहणेन स अद्धाणे उवगेण्हइ, रायडुटे य नित्थारे / / 127 / / गृहीतः ? तत आह-आचारं ज्ञानादिपञ्चप्रकारमुपदिशन्, किं व वा केन 'पाय' ति पादपरिकर्म प्रमार्जनादि करोति। यदिवाओषधं पाययति / वा कारणेन न भवत्वाचार्यः ? भवत्येवेति भावः / स्वयमाचारकरणं 'अच्छि' त्ति अक्ष्णो रोगे समुत्पन्ने भेषजं ददाति। अध्वनि प्रतिपन्नान परेषामप्याचारोपदेशनमित्याचार्यशब्दप्रवृत्तिनिमित्तम्, ततः तीर्थकरोउपगृह्णाति, उपधिग्रहणतो विश्रामणाकरणेन वोपष्ट नाति, राजद्विष्ट ऽपि समस्तीति, भवति तीर्थकरः। आचार्यः अत्र निदर्शनम्यथा स्कन्दकेन समुत्पन्ने ततो निस्तारयति। भगवान् गौतमः पृष्टः केनेदं तव शिष्ट-कथितमिति? स प्रत्याह-धर्माऽऽसरीरोवहितेणेहँ, सा रक्खति सति बलम्मि संतम्मि। चार्येणेति। दंडग्गहं कुणंती, गेलने याऽवि जं जोग्गं ! // 128|| तम्हा सिद्ध एयं, आयरियग्गहणेण गहियतित्थयरा। शरीरस्तेनेभ्य उपधिस्तेनभ्यश्च सति- विद्यमाने बले सति रक्षति आयरियादी दस वी, तेरस गुण हॉति कायव्वा / / 13 / / विचारभूम्यादिभ्य आगतानां पर्यायादिवृद्धानां साधूनां दण्डग्रहणं करोति, तीसुत्तरसयमेगं, ठाणेणं वन्नियं तु सुत्तम्मि। ग्लानत्ये चे जाते यत् योग्यं तत्संपादयति। वेयावचे सुविहिय-पप्पं निव्वाणमग्गस्स।।१३६।। उच्चारे पासवणे, खेले मत्तयतियं तिविहमेयं / यस्याधुक्तिर्निदर्शनं चास्ति तस्मात्सिद्धमेतत् आचार्यग्रहणेन तीर्थकरो सव्वेसिं कायव्वं, साहम्मिय तत्थिमो विसेसो॥२१६।। गृहीतः आचार्यादीनि च दशापि पदानि त्रयोदशगुणानि भवन्तिउच्चारे प्रश्रवणे खेले श्लेष्मणि मात्रकत्रिकमेतत् त्रयोदशपदात्मकं कर्तव्यानि / एकैकस्मिन्पदे त्रयोदशभिः पदैर्वैयावृत्यकरणात् / एवं च वैयावृत्यं त्रिविधं मनसा वाचा कायेन च सर्वेषामाचार्यादीनां दशानामपि सति वैयावृत्येवैयावृत्यविषये सूत्रेऽपि त्रिंशदुत्तरं स्थानानां शतं वर्णितम् / कर्त्तव्यम् / तत्राय साधम्मिके विशेषः। किं विशिष्टमित्याह-सुविहितानां प्रापकं निर्वाणमार्गस्य। तमेवाऽऽह ववहारे दसमाए, दसविहसाहुस्स जुत्तजोगिस्स। होज गिलाणो निण्हवा, एगंतनिजरा से, न हुनवरि कयम्मि सज्झाए।।१३७।। नय तत्थ विसेसें जाणइ जणो उ। व्यवहारे दशमे उद्देशके यत् दशविधं वैयावृत्यमुक्तं तस्मिन्सा धोर्युक्तयोगस्यैकान्तनिर्जरा भवति, 'न हुनवरि' के वलं स्वाध्याये कृते तुज्झेत्थप्पव्वतितो, 'से' तस्य एकान्तनिर्जरेति। व्य० 10 उ० / उत्त०। प्रव० / आ० चू० / न तरति किं तू कुणह तस्स // 130 // 'अनलेन वैयावृत्त्यं कारयतिताहे मा उड्डाहो, होउत्ति तस्स फासुएणं तु / जे मिक्खु अणलेण वेयावनं करेइ करतं वा साइज्जइ / / 163 / / पडियारणं करेंती, चोएती एत्थ अहसीसो।।१३१।। कारवंतस्स चउगुरुं पच्छित्तं आणादिया य दोसा। ग्लानः कोऽपि निहवो भवेत् नच तत्र जनो विशेषं जानाति एष निहव गाहाएते च सुसाधव इति। ततो जनो ब्रूयात्-युष्त्कमत्र प्रव्रजितो न तरतिन पुष्वं विय पडिसिद्धा, दिक्खा अणलस्स कहमियाणिं तु। शक्नोति तस्य किं तु कुरुत प्रतिजागरणं ततो माभूत् प्रवचनस्योड्डाह इति तस्यापि नासुकेन प्रत्यवतारेण भक्तपा नादिना वैयावृत्यं करोति। वेयावचं कारे, पिंडस्स अकप्पिए सुत्तं / / 476 / / अथानन्तरमत्र शिष्यश्वोदयति। वेयावचे अणलो, चउटिवहो आणुपुथ्वीए। किं तदित्याह सुत्तत्थअभिगमेण य, परिहरणाए व नायव्वा // 480|| तित्थगरवेजवच्चं, भण णियमे त्थं तु किं न कायव्वं / वेयांवचं प्रति अणलो चउबिहो-सुत्ते, अत्थे, अभिगमे, परिहरणे य। किं वा न होति निज्जर-तहियं अह बेति आयरिते // 13 // सुत्ततो जेण पिंडेसणाण पढित्ता अभिगमणं जो वेयावचं सद्दहति, परिहरणे–जो अकप्पियं न परिहरति। चोदकाहनणु जो पव्वजाते अणलो अत्र तीर्थकरवैयावृत्यं कस्मान्न भणितं किन्तु न कर्त्तव्यम् ?, किं वा स वेयावचस्स वि अणलो किं पुढो सुकरणं। उच्यते-जो पव्वजाए अणलो तत्र निजरा न भवति ? एवं शिष्येणोदितोऽथानन्तरमाचार्यो ब्रवीति। स वेयावचस्स नियमा अणलो, जो पुण व्यावच्चस्स अणलो स पध्वजाए आयरियग्गहणेणं, तित्थयरो तत्थ होइ गहिओ उ। अलो वा, अनलो वा। अतो पि हसत्तकरणं / किं वा न होयायरिओ, आयारं उवदिसंतो उ॥१३३।। गाहाणिदरिसणत्थ जह क्खं-दएण पुट्ठो य गोयमो भयवं / एए सामण्णतरं, अणलं जाणाइ माति कारज्जा। केण उ तुह सिटुं ता, धम्मायरिएण पञ्चाह / / 134 / / वेयावचं मिक्खू, सो पावति आणमादीणि ||481 // आचार्यग्रहणेन तत्र दशानां मध्ये तीर्थकरो गृहीतो द्रवृस्यः / अथ | कंठा।
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________________ वेयावच्च 1453 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वेयावच गाहा कुर्वत्यः संयत्यो; यं संयतीभिरानीतं भुञ्जते तेषां कठिनहृदयानामपिबितियपए एगागी, गेलण्णेऽसहु अलद्धिमंते य / धृतिबलिष्ठानामपि संयमात्मनोऽचिरेण कालेन बध्नन्ति बाधयन्तीओमे य अणहियासे, गिहीसु वा मंदधम्मेसु // 482|| त्यर्थः / कथंभूता इत्याह- कैतविक्यः- कैतवेन-कपटेन अन्यन्मगच्छे एको चेव पिंडादिकप्पितो सव्वेसिं कातुणतरणि / जे कप्पिया ते नस्यन्यद्वाचि इत्यादिलक्षणेन निर्वृत्ताः कैतविक्यः। मिलाणा / असहू वा अलद्धिमता ओमे वा असंथरंतो अणले कारविज सम्प्रति द्वितीयपदे विपक्षेऽपि वैयावृत्यकरणे अणहियासति, अन्ने जाव भिक्खादिगया णं एंति ताव कोऽवि भिक्खू युक्तिमुपन्यस्यतिछहालू अणलेण कारविजा गिहिणो वा मंदधम्मया उग्ग न वेंति सो य जह चेव य बितियपदे, लभंति आलोयणं विपक्खेऽवि। अणलो लद्धिसंपन्नो ताहे सो। एमेव य बिइयपदे, वेयावच्चं तु अण्णोणं // 3 // गाहा यथा चैव द्वितीयपदे-अपवादपदे विपक्षेऽपि यतनया संयत्यः श्रमणानां एएहिँ कारणेहि, पिंडेसुस्सारकप्पियं काउं। पार्श्वे आलोचना ददति एवमेव द्वितीयपदे अन्योऽन्यसिमन्परस्पर वैयावेयावचमलंभे, कारेज्जा सो य अणलेणं // 483|| वृत्यमपि कुर्वन्ति। एवं असुढो कारवेंतो सुद्धो। नि० चू० 11 उ०। (आलोयणा' शब्दे तदेव द्वितीयपदमाहद्वितीयभागे 414 पृष्ठे उपसंपदालोचनायां के कस्य वैयावृत्यं कुर्वन्ती मिक्खूमयणच्छेवग, एएहि गणो उ होज आवण्णो। त्युक्तम्। वाए पराइओ से, संखडिकरणं च वित्थिण्णं // 84 / / वेयावच्चे तिविहे, अप्पाणम्मि य परे तदुभए य। भिक्षूपासकः कोऽपि विषमिश्रं भोजनं दद्यात्, मदन-मदन-कोद्रवकूर अणुसहि उवालंभे, उवग्गहे चेव तिविहम्मि // 374|| वा प्रतिलाभयेत्। 'छेचग' ति मारिर्वा सकलस्यापि साधुगणस्योपस्थिता। व्य०१ उ०। (परिहार' शब्दे पञ्चभागे६६४ पृष्ठे व्याख्याता)। एतैः कारणैर्गण आपन्नो विपन्नो भवति / तत्र प्रथमतो भिक्षूपासकस्य साम्भोगिकानां परस्परं वैयावृत्यमाह प्रतिनिविष्टस्य विषमिश्रभोजनदानं भावयति-कोऽप्युपासकोभिक्षुजे निग्गंथा य णिग्गंथीओ य संभोइया सिया, नो ण्हं पासको बहुजनमध्ये वादे पराजितस्ततः स प्रतिनिविष्टो जातः / स च कप्पइ अन्नमण्णस्स संतिए वेयावडियं कारवेत्तए / अस्थि कैतवेनाचार्याणां सपीपे सम्यगुपस्थितः, कथय मे भगवन्नार्हतं धर्मम्। या इत्थ ण्हं के इ वेयावचकरे, कप्पति ग्रहं तेणं वेयावच्चं आचार्येण कथितस्ततः स कैतवेन ब्रूते अद्य प्रभृति ममार्हतो धर्मो मया करावित्तए, नत्थि याइणहं के वि वेयावच्चं करे, एवं ण्हं कप्पइ युष्मत्समीपे गृहीतः, एवमुक्त्वा आचार्यान्विज्ञपयति / यथा-मया अन्नमन्नेणं वेयावचं कारवित्तए।।२०।। भिक्षुणामर्था य विस्तीर्ण संखडिकरणं कृतं प्रभूतं परमानमुपस्कृतंये निर्ग्रन्था निन्थ्यश्च सांभोगिकास्तेषां नो, 'यह' मिति वाक्यालंकारे, कारितमित्यर्थः, तन्मा असंयतास्ते भुञ्जीरन्निति साधूनां प्रयच्छामि, कल्पते अन्योऽन्यस्य वैयावृत्य कारयितुम्। अस्ति कश्चित् वैयावृत्यकरः अनुगृह्णीत मां यूयमिति / एवमुक्ते साधवश्चिन्तयन्ति-सत्यमेतत् यदेव ततः कल्पते तं वैयावृत्यं कारयि-तुम्। नास्ति चेत् क्वचित् वैयावृत्यकर ब्रूते ततो गृह्णीम इति / ततस्ते गतेषु तस्मिन्परमान्ने विषं क्षिप्त साधूनां एवं सति कल्पते अन्योऽन्यस्य वैयावृत्य कारयितुमिति सुत्रसंक्षेपार्थः / / पर्याप्तं दत्तम्, तच्च साधुभिराहारितं तेन सर्वे पतिताः। यदिवा--तत्प्रदाय अधुना भाष्यविस्तरत: मदनकोद्रयकूरं भुक्त्वा पतिताः। आलोयणाएँ दोसा, वेयावचेऽपि हुंति तह चेव। एतदेवाह-- नवरं पुण णाणत्तं, बितियपए होइ कायव्वं / / 1 / / कतिपयधम्मकहाए, आउट्टो बेति भिक्खुगाणऽट्ठा। ये एव / विपक्षे आलोचयता दोषा उक्ताः परस्परं वैयावृत्तेऽपि- परमन्नमुवक्खडियं, मा जाउ असंजयमुहाई // 85 / / वैयावृत्यकरणेऽपित एव दोषा भवन्ति, ये चाभ्यधिकास्तेऽनन्तरगाथया तं कुणहऽणुग्गहं मे, साहू जोग्गेण एसणिज्जेणं / वक्ष्यन्ते, नवरं पुनर्नानात्वं द्वितीय-पदेअपवादपदे भवति-कर्त्तव्यम्। पडिलाभणा विसेणं, पडिया पडिती य सव्वेसिं // 86 / / __ तत्राभ्यधिकान् दोषानभिधित्सुराह कैतवेन धर्मकथायां कथितायामावृत्तौ ब्रूते-मया भिक्षुकाणामर्थाय उउभजमाणसुहेहिं, देहसहावाणुलोमभुजेहिं / परमानमुपस्कृतं कारितं तन्मा असंयतमुखानि यातु तस्मात्कुरुत में कढिणहिययाण व मणं, बंधंतऽचिरेण कइयविया // 2 // साधुयोग्येनैषणीयेनानुग्रहम्, एवमुक्ते गतेषु साधुषु तेन पापीयसा विषेण-- ऋतौ ऋतौ यैर्भजमानैः- सेवमानैर्भज-सेवायामिति वचनात्, सुखं विषसन्मिश्रेण परमान्नेन प्रतिलाभना कृता। यदिवा - मदनकोद्रवकूर: जन्यते तानि ऋतुभजमानसुखानि तैस्तथा देहः- शरीररं तस्य स्वो सा वसत्यागतानां साधूनां मुखेषु पतिता, ततः सर्वेषां साधूनां पतितिः-- भावः-- स्वरूपं देहस्वभास्यानुलोमान्यनुकूलानि यानि तैवैयावृत्यं / मरणमभूत।
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________________ वेयावच 1454 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वेयावच्च आयंबिल खमगा सइ, लद्धा ण चरंतएण उ विसेणं। प्रति पृच्छा वैद्यान् यदिदुर्लभद्रव्येन प्रयोजनं जातंततस्तस्मिन् उत्पाद्ये बिइयपदे जयणाए, कुणमाणि इमा उ निद्दोसा / / 7 / / भवति वक्ष्यमाणा यतना, तामेवाह-'विसघाई' इत्यादि विसघाति खलु न च तत्र कोऽपि क्षपक आचाम्लो वा आसीत, यो विषादुद्धरति, ततः कनक, विषेण चोपहताः साधवस्तिष्ठन्ति, ततः सुवर्णेन प्रयोजनं जातम् / क्षपकानामाचाम्लानां चासति-अभागे तेषां च साधूनां चरतासंचरिष्णुना तत्र यदि ज्ञानममत्र निधिः- निखातो ज्ञायते तर्हि तनुत्खनय यावता विषेण लब्धानांमृतानामित्यर्थः, मार्या वा समुपस्थितया मृतानां द्वितीय प्रयोजनंतावत् गृह्णाति शेषं तथैव स्थापयति। अथ निधिपरिज्ञानं नास्ति पदे इय संयती यतनया वैयावृत्यं कुर्वाणा निर्दोषा। तर्हि योनिप्राभृतोक्तेन प्रकारेणोत्पादयेत्। अथ योनिप्राभृतमपि नास्ति ___ कीदृशी पुनर्वैयावृत्यकरणे योग्येत्यत आह तर्हि श्राद्धान् श्रावकान याचेत। संबंधिणि गीयत्था, ववसाया थिरतणे य कयकरणा। असतीय अण्णलिंगं, तं पि य जयणाएँ होइ कायव्वं / चिरपव्वइया य बहु-स्सुताय परिणामिया जा य // 88|| गहणे पण्णवणे वा, आगाढे हंसमादी वि||१५|| गंभीरा मद्दविया, मियवादी अप्पकोउहल्ला य। अथ श्राद्धा अपि तादृशा न सन्ति ये सुवर्ण याचितं ददति ततस्तेषा साहुं गिलाणगं खलु, पडिजग्गति एरिसी अज्जा / / 6 / / श्राद्धानामसति-अभावे आत्मना ग्रहणाय प्रज्ञापनाय च यत्तत्रान्यदर्चित या-आर्या ग्लानस्य प्रतिजाग्रमाणस्य भगिन्यादिनाऽन्त्रकेण संबन्धिनी लिङ्ग, तदपि यतनया कर्त्तव्यम् / सा चेयम्- पूर्वमगारस्त्रीलिङ्गेतथा गीतार्था-एषणीयानेषणीयविधौ सम्यक् कुशला तथा व्यवसायिनी नोत्पादयति तथाऽप्यनुत्पत्ता-वर्चितलिङ्गेन तेनाप्युत्पादनाऽशक्ती या च स्थिरत्वे वर्तत; स्थिरा इत्यर्थः तथा कृतकरणा चिरप्रव्रजिता हंसादि वा यन्त्रमयं कृत्वा तेनोत्पादयेत् / तथा-कोकासो यन्त्रमयाबहुश्रुता तथा या पारिणीमिकीगम्भीरा मार्दवितासजातमार्दवा मित न्कपोतान् कृत्वा शालिमुत्पादितवान् एवं तावन्निर्गन्थी निर्ग्रन्थस्य वादिनी-अल्पकुतूहला ईदृशी आर्या गणाभावे ग्लानं खलु प्रतिजागर्ति। वैयावृत्यं करोत्येवं संयतोऽपि संयत्या ग्लानाया वैयावृत्यं करोति। संप्रति व्यवसायिन्यादिपदानां व्याख्यानार्थमाह त्रयाणां वैयावृत्यम्ववसायिणि कायव्वे, थिरा उजा संजमम्मि होइ दढा। निग्गंथं च णं रातो वा वियाले वा दीहपिट्ठो लूसेज्जा इत्थी वा कयकरणा जा य बहुसो, वेयावच्चाइकुसला य॥६०|| पुरिसस्स ओमावेजा, पुरिसो वा इत्थीए ओमावेजा। एवं से कप्पति, एवं से चिट्ठति, परिहारं च से णं पाउणति-एस या कर्त्तव्ये व्यवसायकारिणी नालस्येनोपहता तिष्ठति सा व्यवसायिनी, कप्पे थेरकप्पियाणं; एवं से नो कप्पति, एवं से नो चिट्ठति, या संयमे भवति दृढा सा स्थिरा, यया बहुशो वैयावृत्यानि, कृतानि सा परिहारं चनो पाउणइएस कप्पे जिणकप्पियाणं ति बेमि॥२१॥ कृतकरणा-कुशला इत्यर्थः। ___ अस्य (21) सूत्रस्य संबन्धप्रतिपादनार्थमाह.. चिरपव्वइय समाणं, तिण्हुवरि बहुस्सुया पकप्पधरी। परिणामिय परिणाम, जाणइ जा पोग्गलाणं तु / / 11 / / पडिसद्धिमणुण्णायं, वेयावचं इमं खलु दुपक्खे। सो चेव य समणुण्णा, इह पि कप्पेसु नाणत्तं / / 64|| चिरप्रजिता नाम या तिसृणां समानां वर्षाणामुपरि या प्रकल्पधरी सा अनन्तरसूत्रे विपक्षे वैयावृत्यकरणं प्रतिषिद्धम्। तच्चेदं वैयावृत्यं खलु बहुश्रुता, तथा पुनः पुगलानां विचित्रं परिणाम जानाति, सा परिणामिकी / पुनर्द्विपक्षे-स्वपक्षे, परपक्षे चेत्यर्थः / सूत्रेणैवानुज्ञापनात् "अत्थियाई काउं न उत्तुणेई, गंभीरा मद्दविअविम्हइया / कज्जे परिमियभासी, पियवादी होइ अज्जा उ|६|| ग्रह केई वेयावच करे कप्पतिण्हं वेयावचं करावित्तए' इति वचनात्, सा च समनुज्ञा वैयावृत्यसमनुज्ञा, इहापि अस्मिन्नपि सूत्रेऽभिधीयते केवलं या वैयावृत्थं कृत्वा 'न उत्तुणेई' गर्वबुध्या न प्रकाशयति सा गम्भीरा, | कल्पयोर्नानात्वम-धिकमित्येष सत्रसंबन्धः। मर्दविनी-अविस्मयिता तथा कार्ये परिमितभाषिणीमितवादिनी। पुनः प्रकारान्तरेण सम्बन्धमाहकक्खंतरगुज्झादी, न निरिक्खे अप्पकोउहल्लाए। अत्थेण व आगाढं, भणितं इहमवि य होइ आगाढं। एरिसगुणसंपन्ना, साहूकरणे भवे जोग्गा ||3|| अहवा अतिप्पसत्तं, तेण निवारेइ जिणकप्पे // 65 / / या कक्षान्तरगुह्यादीनि न निरीक्षते सा भवत्यल्पकुतूहला। ईदृशगुण वाशब्दः पक्षान्तरद्योतने, पूर्व सूत्रेऽर्थेऽनागाद, भणितम्- सूचितम्, संपन्ना साधुकरणे-साधुवैयावृत्यकरणे भवेद् योग्या। तथा चागाढे प्रयोजने समुत्पन्ने संयती संयतस्य वैयावृत्यं कुर्वती संप्रति वैयावृत्यकरणविधानमाह समनुज्ञाता, नान्यथा। इहापि च भवत्यागाढं प्रयोजनमधिकृत्य वैया - पडिपुच्छिऊण विज्जे, दुल्लभदव्वम्मि होइ जयणा उ। वृत्यकरणमिति संबन्धः / अथवाऽति-प्रसक्तं खलु वैयावृत्यकरणं तेन विसघाई खलु कणगं, निहि-जोणीपाहुडे सड्ढे / / 5 / / जिनकल्पे निवारयति।
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________________ वेयावच्च 1455 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वेयावच्च सुत्तम्मि कड्डियम्मी, वोचत्थ करेंति चउगुरू हुंति। आणादिणो य दोसा, विराहणा जा मणिय पुट्वि / / 66|| सर्वत्रापि सूत्रेकर्षिते-उच्चारिते सति संबन्धः प्रदर्शनीयः। तथा श्रमणैः / श्रमणस्य वैयावृत्यं कर्तव्यम्, श्रमणीभिः श्रमण्याः / यदि पुनर्विपर्यास करोति तर्हि विपर्यासं कुर्वता प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः, न केवलं प्रायश्चित्तम्- आज्ञादयश्व-आज्ञानवस्थामिथ्यात्वविराधनारूपाश्च दोषाः। तथा या पूर्व वैयावृत्यसूत्रे भणिता विराधना शीलविराधना सा अत्रापि द्रष्टव्या। _ 'सुत्तम्मि कड्डियम्मि' इत्येतदेव प्रपञ्चयतिसंबन्धो दरिसिजइ, उस्सुत्तो खलु न विज्जते अत्थो। उच्चारितछिण्णपदे, विग्गहिए चेव अत्थो उ।।७।। सूत्रे उच्चारिते सति संबन्धोऽनन्तरसूत्रादिभिः सह दश्यते, यतः संबन्धोऽर्थतो भवति वर्णानां स्वतः सबन्धाभावात् / स चार्थः खलु / उसूत्रः- सूत्ररहितो न विद्यते संबन्धश्चोपदीते-उचारित सूत्रस्य छिन्नानि पदानि कर्तव्यानि, पदच्छेदो विधातव्य इत्यर्थः / ततो यानि पदानि विग्रहभाजि तेषु विग्रह उपदर्शनीयः विगृहीते च सूत्रतोऽर्थो व्याख्येयः। अक्खेदो पुण कीरइ, कत्थति कत्थइ विणा वि तस्सिद्धी। जत्थ अवायनिदरिसण , एसेव उ होइ अक्खेवो |8|| आक्षेपः पुनः क्वचित् क्रियते, यथा-कि कारणं परपक्षे वैयावृत्यं न क्रियते। कुत्रधित्पुर्विनाऽप्याक्षेपं तत्सिद्धिराक्षेपसिद्धिः / कथमित्याहयत्रापायनिदर्शनमपायप्रकटनमेष एव भवत्याक्षेपः आक्षेपहेतुकत्वात्, न खल्वाक्षेपसूचामन्तरेणोपायप्रदर्शन विपक्षे भवतीति परिभावनीयमेतत्। संप्रत्याक्षेपप्रसिद्धी एव वैविक्त्येनाहकिं कारणं न कप्पड़, अक्खेवो दोसदरिसणं सिद्धी। लोए वेदे समए, विरुद्धसेवादयो नाता ||6|| किं कारणं विपक्षे वैयावृत्यं न कल्पते इत्याक्षेपः, विपक्षे दोषदर्शन सिद्धि-प्रसिद्धिः। अत्रार्थ लोके वेदे समये च विरुद्धसेवादयो ज्ञातानि।। किमुक्त भवति। यथा-लोके वेदे-समये च विरुद्धसेवायामकल्पिकसेवायां च दोषोपदर्शनम, तदकरणे प्रसिद्धिरेवमिहापि विपक्षवैयावृत्यकरणेऽपायप्रदर्शनमेव तदकरणे प्रसिद्धिः। तम्हा सपक्खकरणे, परिहरिया पुव्ववणिया दोसा। कप्पे छट्तुद्देसे, तह चेव इह पि दट्ठव्वा / / 100 / / यस्मादेवं विपक्षे वैयावृत्यकरणे प्रायश्चित्तादयो दोषास्तस्मात् स्वपक्षे वैयावृत्यं कर्त्तव्यम्। स्वपक्षवैयावृत्यकरणेच ये पूर्ववर्णिता दोषास्ते यथा- | कल्पाध्ययने षष्ठोद्देशे परिहृतास्तथा चैव इहापि द्रष्टव्याः। अत्र परः प्रश्नमाहचोएंती परकरणे, नेच्छामो दोसपरिहरणहेळं। किं पुण भेसज्जगणो, घेत्तव्वो गिलाणरक्खट्ठा॥१०१।। चोदयति-प्रश्नयति शिष्यः, परकरणे-परपक्षे वैयावृत्यकरणं दोषपरिहरणहेतोर्दोषपरिहरणनिमित्तं नेच्छामः किं पुनः केवल 'भेसजगणो' औषधसमूहो ग्लानरक्षार्थ ग्रहीतव्यः।। __ अत्रैव विपक्षे दोषमाहपुव्वं तु अहिगएहिं, दूरा जा ओसहाई आणेति। तावत्तो उ गिलाणो, दिलुतो दंडियाईहिं / / 102 / / पूर्वमगृहीतेषु भेषजेषु गाथायां तृतीया सप्तम्यर्थे प्राकृतत्वात्। यावदार्या दूरादौषधान्यानयति तावत् ग्लानस्य आगाढादिपरितापना भवति, तद्भावे च परमार्थतरत्यक्तो भवति। अत्रार्थे च दृष्टान्तो दण्डिकादिभिः। तमेव विभावयिषुराहउवट्ठियम्मि संगामे, रण्णा बलसमागमे / एगो वेजोत्थ वारेई, न तुन्भे जुद्धकोविया // 103 / / घेप्पंतु ओसहाई, वणपट्टी मक्खणाणि विविहाणि / सो चेव मंगलाइं, मा कुणइ अणागयं चेव / / 104 // द्वयोर्दण्डिकयोरुपस्थिते संग्रामे मिलिते च द्वयोर्बलेऽपि राज्ञोः वैद्या उपस्थिताः / तत्र एको दण्डिको वैद्यांस्तत्र संग्रामप्रस्तावे उपस्थितान् वारयति न यूयं युद्धकोविदास्ततः किं युष्माभिः संग्रामे कर्त्तव्यम, एवमुक्ते ते वैद्याः प्राहुः-यद्यपि नवयंयुद्धकोविदास्तथापि प्रहाखणितेषु अस्माकं वैद्यक्रियोपयोगिनी; तस्माद्वयमागच्छामः1 गृह्यतां चौषधानि, व्रणपट्टीनि, विविधानि चानेक्रप्रकाराणि च म्रक्षणाणि / एवमुक्ते स दण्डिको ब्रवीति मा कुरुतानागतमेवामङ्गलानि तस्मान्निवर्तध्वं यूयमिति। किं घेत्तव्वं रणे जोग्गं, पुच्छिया इयरेण ते। भणंति वणतिल्लाइं,घयदव्वोसहाणिय॥१०५।। इतरेण-द्वितीयेन दण्डिकेनते आत्मीया वैद्याः पृष्टाः, किं कारणे-संग्रामे योग्य ग्रहीतव्यम्, एवमुक्तास्ते भणन्ति-व्रणरोहकाणि तैलानि व्रणतैलानि तथा जीर्ण घृतं द्रव्योषधानि च यैरौषधैः संयोजितैस्तैलं घृतं वा निष्पद्यते। व्रणसरोहकं चूर्ण यद्वा-व्रणरोहणाय यानि भवन्ति। तानि द्रव्योषधानि ततो राज्ञा पुरुषाः संदिष्टा यद्वैद्यैरुपदिष्ट तत्सर्व ग्रहीतव्यम्। भग्गसिव्वियसंसित्त-(बीदिणे) वणा वेज्जेहिं जस्स उ। सो पारगो उ संगामे, पडिवक्खो विवज्जए॥१०६|| ततः संग्रामे वर्तमाने यस्य राज्ञो, ये पुरुषा मुद्गरादिप्रहारतास्तेषां प्रहारो वेधैरौषधैर्भग्नाः ये च व्रणितास्तेषां व्रणाः सीवितास्तत्र औषधैः संसिक्ताः / एवं प्रणिता प्रहारिता द्वितीये दिवसे युद्धसमर्था जाताः। एवं द्वितीयदिवसे इव तृतीयदिवसेऽपि कृतम् / एवं स राजा वैद्योपदेशेनौषधसंग्रहतः संग्रामे पारगोऽभूत् प्रतिपक्षे विपर्ययो; जित इत्यर्थः / एष दृष्टान्तः / ___ अयमर्थोपनयःएवमेवऽसपेजाइ, खज्जलेजाणि जेसि उ। मेसजाइं सहीणाइं, पारगा ते समाहिए / / 107 / /
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________________ वेयावच्च 1456 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वेयावच्च एवमेव दण्डिकदृष्टान्तगतेन प्रकारेण येषामाचार्याणां भेषजानि अस' ति अशनरूपाणि पेयानि-पानकरूपाणि खाधानि-खादिमरूपाणि लेह्यानि च स्वादिमानि ते आत्मनो गच्छस्य च समाधेः पारगा भवन्ति / ये पुनरौषधानां न संग्रहीतारस्ते समाधेरपारगाः। प्रकारान्तरेण दण्डिकदृष्टान्तमाह-- अहवा राया दुविहो, आयभिसित्तो परामिसित्तो य। आयभिसित्तो भरहो, तस्स उ पुत्तो परेणं तु // 108 / / अथवेति प्रकारान्तरद्योतने। राजा द्विविधो भवति। तद्यथा-आत्माभिषिक्तः पराभिषिक्तश्च! आत्मनैव निजबलेन राज्येऽभिषिक्तः आत्माभिषिक्तः, परैरभिषिक्तः पराभिषिक्तः। तत्रात्माभिषिक्तो भरतश्चक्रवर्ती, तस्य पुत्र आदित्ययशाः पराभिषिक्तः। बलवाहरणकोसा य, बुद्धी उप्पत्तियाऽऽदिया। साहगा उभयोवेता, सेसा तिण्णि असाहगा / / 10 / / बलं-हस्त्यादि वाहनानि-यानानि कोशो-भण्डागारं तथाबुद्धिरौत्पत्तिक्यादिका / अत्र भङ्गाश्चत्वारः / एको बलवाह–नादिसमग्रो नो बुद्धिसमग्रः ? एको बलवाहनादिसमग्रः किं तु बुद्धिसमेतः 2, एको बलवाहनादिसमेतोऽपि बुद्धिसमेतोऽपि 3, एको नो बलवाहनादिसमेतो नापि बुद्धिबलोपेतः 4, एषु चतुर्ता भङ्गेषु मध्ये य उभयोपेतो बलवाहनादिसमेतो; बुद्धिसमेतश्चेत्यर्थः, स राज्यस्य साधकः शेषा स्त्रयोऽसाधकाः / एष दृष्टान्तः। अयमर्थोपनयःबलवाहणत्थहीणो, बुद्धिविहीणो न रक्खए रजं / इय सुत्तत्थविहीणो, ओसहहीणो उ गच्छंतु / / 110 / / यथा बलेन वाहनैरर्थेन च हीनो बुद्धिहीनश्च राज्यं राजा न रक्षति / एवमाचार्योऽपि सूत्रार्थविहीनः औषधविहीनश्च गच्छंन रक्षति। (तम्हा) आयपरामिसित्तेणं,जम्हा आयरिएण उ। ओसहमादीणिचओ, कायव्वो चोयती सीसो।।१११।। तस्मादाचार्येण आत्माभिषिक्तेन--श्रुतकेवलिना इतरेण च पराभिषिक्तेन औषधादिनिचयः कर्त्तव्य इति। शिष्यश्चोदयति ब्रूते। सीसेणाऽभिहिते एवं, बेइ आयरिओ ततो। वदतो गुरुगा तुझं, आणादीया विराहणा / / 112 / / एवं शिष्येणाभिहिते तत आचार्यो ब्रूते। एवं वदतस्तथा प्रायश्चित्त चत्वारो गुरुकाः, आज्ञादयश्च दोषा विराधना सूत्रस्य। एतदेव भावयतिदिद्रुतसरिसं काउं, अप्पाण परं च केइ नासंति। ओसहमादीनिचओ, कायव्वों जहेव राईणं / / 113 // केचित्तव सदृशा दृष्टान्तसदृश दण्डिकसदृशमात्मानं परं च कृत्वा नाशयन्ति / तथा औषधादिनिलयः कर्त्तव्यो यथा आज्ञामिति। एतदेवातिप्रसङ्गापादनेन दूषयतिकोसकोट्ठारदाराणि, पदातीमादियं बलं / एवं मणुयपालाणं, किं नु तुज्झं पिरोयइ / / 11 / / कोशकोष्ठागारदाराः पदात्यादिकं बलमेतन्मनुष्यपालानां भवति, तदेतत्कि नु तवापि रोचते / एतदपि दृष्टान्तबलेन गृह्यता-मिति भावः / जो वि ओसहमादीणं, निचयो सोऽवि अक्खमो। न संचये सुहं अत्थि, इह लोए परत्थ य॥११५।। योऽप्यौषधानां निचयः सोऽपि सुखोत्पादनाय अक्षमः, यतो न संचये सुखमस्ति। इहलोके तदुत्पादनतद्रक्षणतन्नाशे दुःखसंभवात् परस्त्र चपरलोके च सुखं नास्ति परिग्रहधारणतः कुगति-प्रपातात्। दारगाहाऑदिसुत्तस्स विरोधो, समणा चत्ता गिहीण अणुकंपा। पुव्वाऽऽयरियऽनाणी, अणवत्था वंतमिच्छत्तं / / 116 / / आदिसूत्रस्य-दशवैकालिकस्य विरोधस्तथा एवं ब्रुवाणो भवान्परिग्रहे साधून नियुक्ते, तन्नियोगाच ते त्यक्तास्तथा गृहिणामनुकम्पाअनुग्रहस्त्यक्तः साधूनां स्वत एव भैषज्यकादेः संभवात् / तथा ये पूर्वाचार्याः सन्निधिं प्रतिषिद्धवन्तस्ते अज्ञानीकृताः सन्निधेर्भवता गुणोपदर्शनात् / अनवस्था चैवं प्रसज्जते सन्निधिरिव भवताऽन्ये - नान्यस्यापि ग्रहणप्रसक्तेः, तथा वान्तप्रतिसेवनं भवतः समापतितं प्रतिषिद्धस्यापि संचयस्य पुनर्ग्रहणात्। तथा मिथ्यात्व-मिथ्यावादित्यमनुषजते यथावादमरणात्। निष्परिग्रहा वयमित्यभिधाय परिग्रहधारणात्। एनामेव गाथा व्याचिख्यासुः प्रथमतः सूत्रस्य विरोधमुपदर्शयतिजं वुत्तमसणं पाणं, खाइमं साइमं तहा। संचयं तु न कुट्विञ्जा, एयं ताव विरोहियं / / 117 / / यद् दशकालिके उक्तम्-अशनं पानं खादिमं स्वादिमं तेषां संचयं न कुर्यात्, तथा तद्ग्रन्थः- 'असणं पाणगं चेव, खाइमं साइमं तहा। जे भिक्खू सन्निहिं कुजा, गिही पवइए न से // 1 // " इति तदानीं विरोधित विरोधमापादितं सन्निधेरिदानी त्वयाऽभ्युपगतत्वात्। परिग्गहे निजुजंता, पारबत्ता उसंजया। भारादिमाइया, दोसा, पेहा पेहकयाइया॥११८|| संयताः परिग्रहे नियुज्यमानाः परित्यक्ताः संसारे पातनात्। किंचान्यत्-इहलोके भारादयो-भारवाहनादयो दोषा आदिशब्दात्-कायक्लेशसूत्रार्थहान्यादिदोषपरिग्रहः / तथा प्रेक्षादिकाश्च, तथाहि यदि सर्व प्रत्युपेक्षते ततः सूत्रार्थपरिमन्थः, अथन प्रत्युपेक्षते तर्हि संसक्तिभावः। आदिशब्दात्-तत्परितापनादिदोषपरिग्रहः / अहवा तप्पडिबंधा य, अत्यंते नितियादयो। अणुग्गहो निहत्थाणं, सया वी ताण होइ उ॥११९।।
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________________ वेयावच 1457 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वेयावच अथवा तत्प्रतिबन्धाद-औषधनिचयप्रतिबन्धात्तिष्ठन्ति सदावस्थायितया न तु विहारक्रमं कुर्वन्ति / तथा च सति नैत्यिकादयो नैत्यिकोनित्यवासी, आदिशब्दात्,-पार्श्वस्थादिपरिग्रहस्तदादयो दोषाः प्रसजन्ति / गत 'समणा चत्ता' इति द्वारम्। अधुना 'गिहीण अणुकंपे' ति व्याख्यानयति-गृहस्थानां सदा साधूनां भेषजादिप्रयच्छतामनुग्रहो भवति / स इदानीं परित्यक्तः साधूनां स्वत एव तन्निच्यभावात्। सम्प्रति 'पुटवायरियऽन्नाणी' त्येतद् व्याख्यानयतिपडिसिद्धा सन्निही जेहिं, पुवायरिएहि ते वि उ। अन्नाणी उकया, एवं, अणवत्थापसगंतो॥१२०॥ यैः-पूर्वाचार्यः प्रतिषिद्धः सन्निधिस्तेऽपि त्वयैवं बुवता अज्ञानीकृताः। अनवस्थाद्वारमाह-अनवस्थाप्रसङ्गतोयथा त्वयौषधसंचयः कृतस्तथाऽन्येऽन्यस्यापि करिष्यन्तीति प्रसङ्गतः सर्वस्याप्यनवस्था। वान्तद्वारं मिथ्यात्वद्वारं चाहवंतं निसेवियं होइ, गिण्हंता संचयं पुणो। मिच्छत्तं न जहावादी, तहाकारी भवंति तु॥१२१।। संचयं त्यक्त्वा पुनस्तं गृह्णतो वान्तं निषेवितं भवति। तथा मिथ्यात्वं यतो न यथावादिन उत्सूत्रप्ररूपणात्तेऽपितथा-कारिणः संचयकरणात्। एए अन्ने य जम्हा उ, दोसा होति सवित्थरा। तम्हा ओसहमादीणं, संचयं तु न कुव्वए॥१२२|| यस्मादेते अनन्तरोदिता अन्ये च दोषाः सविस्तरा भवन्ति तस्मादौषधादीनां संचयं न कुर्यात्। परस्यावकाशमाहजइ दोसा भवंतेते, किं खु घेत्तव्वयं ततो। समाहिट्ठावणट्ठाए, भण्णती सुण ता इमो। 123 / / यद्यते अनन्तरादिता दोषा भवन्ति ततः किं 'खु' समाधिस्थापनाय ग्रहीतव्यम् ? आचार्य आह-भण्यते-अत्रोत्तरं दीयते। तदेव तावदितोऽनन्तरमुच्यमानं शृणु। तदेवाहणियमा विजागहणं, ठातव्वं होइ दुविहदव्वं च / संजोगदिट्ठपाढी, असती गिहिअन्नतित्थीहिं।।१२४|| यया विद्यया अपमार्जन क्रियते तस्या अन्यासां च विद्यानामाचार्येण नियमात् ग्रहण कर्त्तव्यम्, तथा यदि करणतश्छिन्नमण्डपे स्थातव्यं भवति, ततो दीर्घपृष्ठविषविघाताय द्विविधं द्रव्यं ग्रहीतव्यम, तचाग्रे वक्ष्यते / तस्मादाचार्यः संयोगदृष्टपाठी भवेत्। संयोगान्-अनेकान व्यापार्यमाणान् यो दृष्टवान् यश्च तत्पाट पठितवान् स संयोगदृष्टपाठी / अथ स्वयं संयोगदृष्टपाटी न भवति, तर्हि तस्यासति गृहिभिः कार्यते चिकित्सा। तेषामप्यसत्यन्यतीर्थिभिः। यदुक्तं द्विविधं द्रव्यं ग्रहीतव्यं तदभिधित्सुराहचित्तमचित्तपरित्तम-णंत संजोइयं च इतरं च। थावरजंगमजलजं, थलजं चेमादि दुविहं तु // 125! / द्विविधंद्रव्यम्-सचित्तम्, अचित्तं वा / यदिवा-परीतम्, अनन्तकायिकं | वा। अथवा-संयोगिकम् अनेकसंयोगनिष्पन्नम्, इतरत्- असंयोगिकम / अथवा-स्थावर, जङ्गमम्। प्रत्युत्पन्ने कार्ये यदि स्थावरद्रव्यप्रयोगतः कथमपि गुणो न भवति तदा अनन्यगत्या जङ्गमद्रव्यं प्रयुज्यते। अथवा... द्विविधं द्रव्यम्-जलजम्, स्थलजं च / एवमादिद्विविधं द्रव्यं ग्रहीतव्यम्। इयं चिकित्सा दीर्घपृष्ठविषविघातायाभिहिता। ___ संप्रत्यतिदेशेनान्यरोगेष्वपि तामाहजह चेव दीहपिढे, विज्जा मंता य दुविहदव्वा य। एमेव सेसएसु वि, विजा दव्वा य रोगेसु॥१२६|| यथा चैव दीर्घपृष्ठदेशे (सर्पविषदूरीकरणाय- 'मोय' शब्दो दृष्टव्यः) विद्या मन्त्रा द्विविधानि च द्रव्याणि ग्रहीतव्यानि, एवमेव शेषेष्वपि रोगेषु विद्या द्रव्याणि च ग्राह्याणि। संयोगदिट्ठपाढी, न य धरती तम्मि चउगुरू हुंति। आणादिणो य दोसा, विराहणा(इ) मेहि ठाणेहिं / / 127 / / आचार्येण स्वयं संयोगदृष्टपाठिना भवितव्यम्। यदि पुनः सति शक्तिसंभव संयोगदृष्टपाठनधरति तर्हि तस्मिन् अधरति प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः, न केवलं प्रायश्चित्तं किंत्वाज्ञादयश्च दोषास्तथा विराधना एभिर्वक्ष्यमाणैः स्थानः। तान्येवाहउप्पण्णे गेलण्णे, जो गणधारी न जाणइ तिगिच्छं। दीसंततो विणासो, सुहदुक्खा तेण उचत्ता॥१२८|| उत्पन्ने ग्लानत्वे यां गणधारी चिकित्सां न जानाति तस्यं पश्यतः सतो ग्लानस्य विनाश इति; तेन सुखदुःखिनः- सुख-दुःखोपसंपन्नकाः स्वशिष्याः प्रतीच्छिकाश्च परित्यक्ताः। कथं पश्यतः सतो ग्लानस्य स्वशिष्यकाणां च विनाश इत्यत आहआउरत्तेण कायाणं, विसकुंभादिधायए। डाहच्छेज्जे य जे अण्णे, भवंति समुवद्दवा ||126 // एते पावइ, दोसे, अणागए अगहियाएँ वेजाए। असमाही सुयलंभ, केवललंमं तु वुक्के जा // 130 / / कस्यापि साधो विषकुम्भलूना, आदिशब्दाबाहादिपरिग्रहस्तस्मिन्नुत्थिते आतुरत्वेनाकुलत्वेन विषकुम्भादिघातकः कायानामुदकादीनामुपद्रव्यं कुर्यात् / तथाहि-विषकुम्भे दाहे वा समुपस्थिते आकुलीभूतः, स तु तं शीतलेनोदकेन सिचेत्, सचित्तेन वा कर्दमेन लिम्पेत्। तथा दाहच्छेदे च ये अन्ये भवन्ति समुपद्रवाः, एतान् दोषाननागतायामगृहीतायां विद्यायां प्राप्नोति / तथा तीव्रायां वेदनायामनुपशान्तायामसमाधिना-असमाधिमरणेन मियेन / तथा च सति दीर्घ संसारमनुपरिवर्तेत। चिरंच यदिजीवति तर्हि भूया संश्रुतलाभ प्राप्नुयात्, केवलज्ञानं चोत्पादयेत्। तथाइहलोगियाण परलो, गियाण लद्धीण फेडियो होइ। इहलोगा मोसादी, परलोगा ऽणुत्तरादीया।।१३१।।
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________________ वेयावच 1458 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वेयावच असमाधिमरणेनमरणतःसऐहलौकिकीनांपारलौकिकीनां च लब्धीनां स स्फेटितः-- त्याजितो भवति / तत्र इहलोके ऐहलौकिवयो लब्धयः-- आमोषध्यादयः। परलोके पारलौकिक्योऽनुत्तरादयोऽनुत्तरा लवसत्तमा देवाः / आदिशब्दात्-सुकुलप्रत्यायातिश्रुतलाभादिपरिग्रहः / असमाहीमरणेणं, एवं सव्वासि फेडितो होइ। जह आउगपरिहीणा, देवा लवसत्तमा जाया।।१३२।। पदम--- अमुना प्रकारेण सर्वासामैहिकीनां पारत्रिकीणां लब्धीनामसमाविपरोन स्फटितो भवति, यथा-आयुष्कपरिहीणा देवालवसप्तमा जाता, मातापरिहाण्या सिद्धिलाभतो भ्रष्टाः यथा देवा लवसप्तमा जाना इसथ: : (20) (लक्सप्तमदेवस्वरूपम् 'लवसत्तम' शब्देऽस्मिन्नेव उपसंहारमाहतम्हा उ सपक्खेणं, कायवें गिलाणगस्स तेगिच्छं। विवक्खेण न कारजा, एवं उदितम्मि चोदेति।१३४॥ यस्मद्विपक्षे दोषास्तस्मात्सपक्षण ग्लानस्य चिकित्साकर्म कर्त्तव्यं, विपक्षण पुनर्न कारयेत्। तदेष सम्बन्धस्ततः सूत्रव्याख्यालक्षणं तदन्याक्षेपपरिहारौ तत्प्रसक्त्याऽन्यदपि चाभिहितम् / सम्प्रति सूत्रव्याख्या क्रियते-निर्ग्रन्थं चशब्दान्निग्रन्थीं च रात्रौ वा विकाले वा दीर्घपृष्ठः-सप्पो लूपयेत् - दशेत्, तत्र स्त्री वा पुरुषस्य हस्तेन तं विषमपार्जयेत् पुरुषो वा स्त्रिया हस्तेन, एवं 'से' तस्य स्थविरकल्पिकस्य कल्पते स्थविरकल्पकस्यापवादबहुलत्वाद्। एवं चामुना प्रकारेणा-पवादमासेवमानस्य 'से' तस्य तिष्ठति पर्यायः, न पुनः स्थविरकल्पात् परिभृश्यति येन छेदादयः प्रायश्चित्तविशेषास्तस्य न सन्ति, परिहारं च तपो न प्राप्नोति कारणेन यतनया प्रवृत्तेः, एष कल्पः स्थविरकल्पिकानाम् / एवममुना प्रकारेण सपक्षण विपक्षण वा वैयावृत्यकारापणं से तस्य जिनकल्पिकस्य न कल्पते केवलोत्सर्गप्रवृत्तत्वात्तस्येति भावः / एवमपवादसेवनेन 'से' तस्य जिनकल्पपर्यायो न तिष्ठति, जिनकल्पात्पततीत्यर्थः / परिहार च तपोविशेष न परिपालयति, एष कल्पो जिनकल्पिकानाम्। एवं सूत्रे व्यवस्थिते यदाचार्येण प्रागुदितं सपक्षण वैयावृत्यं कारयितव्यं न परपक्षेणेति तत्र चादयति-ब्रूते। परः यदुक्तवांस्तदाहसुत्तम्मि अणुण्णाई, इह ई पुण अत्थतो निसेहेइ / कायव्व सपक्खेणं, चोयग ! सुत्तं तु कारणियं / / 135 / / सूत्र विपक्षणापि वैयावृत्यकारापणमनुज्ञातम्, इह-इदानीम्, इ. पादपुरणे, पुनरर्थता यूयं परपक्षेण वैयावृत्यकारापण निषेधयत कर्त्तव्य सपक्षणे' ति वचनात्, ततः सूत्रभवद्व्याख्यानयोर्विरोधः। अत्राचार्य आह-- न विराधो यता हे चोदक ! सूत्रमिदं कारणिकं-कारणापेक्षम्। तदेव कारणमाहविजसपक्खाणऽसती, गिहिपरतित्थी उतिविहसंबंधी। एमेव असंबंधी, असोयवादेतरा सव्वे / / 236 / / सपक्षाणां वैद्यानामसति-अभावे गृही तत्पिता भ्राता-स्वजनो वा स्थविरादिभेदतस्त्रिविधो यः संबन्धी स वैयावृत्यं कारणीयः। तदभावे असंबन्धी स्थविरमध्यमतरुणभेदतस्त्रिभेदः पूर्वपूर्वालाभे उत्तरोत्तरः कारणीयः, तस्याऽप्यभावे परतीर्थिकः पितृभ्रात्रादिसंबन्धेन संबन्धी स्थविरादितविभेदः पूर्वपूर्वालाभे उत्तरोत्तरः कारणीयः / तस्यालाभे असंबन्धयपि स्थविरादिभेदतस्त्रिविधः उक्तक्रमेण कारयितव्यः / एते सर्वेऽपि द्विविधा अशौचबादा वा इतरे च। तत्र प्रथमतः सर्वत्राप्यशौचवादः कारयितव्यस्तदसंभवे इतरोऽपि। एएसिं असतीए, गिहि(भ) गिणिपरतिस्थिगी तिविहभेया। एएसिं असतीए, समणी तिविहा करे जयणा / / 137 / / एतेषा-प्राग्गाथानिर्दिष्टानां सर्वेषामसति अभावे गृहस्था माता भगिनी, तदभावे स्वजनाः स्थविरमध्यमतरुणभेदतस्त्रिविधाः पूर्वपूर्वालाभे उत्तरोत्तराः कारयितव्याः। तदभावे असंबन्धिनी स्थविरादिभेदतरित्रविधा प्राक क्र मेण कारयितव्या / तस्या अलाभे परतीथिकाः स्थविराभेदतस्त्रिप्रकाराः पूर्वपूर्वालाभे उत्तरोत्तराः कारयितव्याः। एतेषा च भेदानां सर्वेषाभप्यसत्यलाभे श्रमणी त्रिविधास्थविरादिभेदतस्विप्रकारा पूर्वपूर्वालाभे उत्तरोत्तरा यतनया करोति / तामेव यतनामाहदूती अद्दाइ वत्थे, अंतेउरिया य दन्भतो भेया। वियणे य तालवेंटे, चवेडओ मजणा जयणा ||138 / / काचिद् दूतविद्या भवति, तेया च दूतविद्यय यो दूत आगच्छति तस्य दंशस्थानमपमाय॑ते तेनेतरस्य देशस्थानमुपशाम्यति, 'अद्दाह' त्ति अपरा आदर्शविद्या तयाआतुर आदर्श प्रतिबिम्बितः अपमाय॑ते आतुरः प्रगुणो जायते। अन्या विद्या वस्त्रविषया भवति, यया परिजपितेन वस्त्रेण वाऽपमृज्यमानः आतुरः प्रगुणो भवति / अपरा विद्या अन्तःपुरे आन्तःपुरिकी विद्या भवति, यया आतुरस्य नाम गृहीत्वा आत्मनोऽङ्गमपमार्जयति आतुरश्च प्रगुणो जायते सा आन्तःपुरिकी। अन्या दर्भे दर्भविषया भवति विद्या, यया दर्भरपमृज्यमान आतुरः प्रगुणो भवति। 'वियणे' ति व्यजनविषया विद्या, यया, व्यजनमभिमन्यते तेनाऽऽतुरोऽपमृज्यमानः स्वस्थो भवति सा व्यजनविद्या। एवं तालवृन्तविद्याऽपि भावनीया / चपेटा-चापेटी विद्या यया अन्यस्य चपेटायां दीयमानायामातुरः स्वस्थीभवति सा चापेटी। तत्र पूर्व दूत्या विद्ययाऽपमार्जनं कर्त्तव्यं, तदभावे आदर्शिक्या, एवं तावद्यावदन्ते चापेट्या। एषा अपमार्जनायतना। एतदेव स्पष्टतरमाहदूयस्स पमाइजइ, असती अद्दागपरिजवित्ताणं। परिजवियं वत्थं वा, पाउजइ तेण वोमाए // 13 // एवं दडभादीसु, ओमाएऽसंफुसंतों हत्थेणं / चावेडीविजाए, ओमाएँ चवेडयं देंतो॥१४०।।
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________________ वेयावच्च 1456 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वेयावच्च दूत्या विद्यया दूतस्थागतस्याङ्गममाय॑ते, तस्या विद्याया असति आदर्श संक्रान्तमातुरप्रतिबिम्ब परिजप्यातुरः प्रगुणीकर्तव्यः / तदभावे वस्त्रविद्यया परिजपितं वस्त्रे प्रावार्यते, तेन वा परिजपितेन वस्त्रेणातुरोपमाय॑ते / एवं दर्भादिभिः परिदर्भविद्यादिभिहस्तेनासंस्पृशन्नपमार्जयेत् / चापेट्या वा विद्यया; अन्यस्य चपेटा ददन्नन्योऽपमाय॑ते एतास्तु विद्याः प्रायः पुरुषेषु भवन्ति। एष यतनागमो निर्ग्रन्थानां वेदितव्यः। एष एव यतनागमो निर्ग्रन्थीनामपि भवति। तथा चाहएसेव गमो नियमा, निग्गंथीणं पि होइ नायव्वो। विज्जादी मुत्तूणं, सकुसलऽकुसले य करणं वा / / 141 / / एष एवानन्तरोदितो यतनागमो नियमात् निर्ग्रन्थीनामपि ज्ञातव्याः, तदा निर्ग्रन्थीनां विद्यादि न दातव्यं मुक्त्यापूर्वगृहीतमसाधनं मन्त्रम्, स हि कदाचिद्दीयते न कश्चिद्घोषः / तथा यदि निर्ग्रन्थोऽकुशलो भवति निन्धी च कुशला तत्र करणं निर्ग्रन्थ्या निर्ग्रन्थी कारयेदित्यर्थः / "विजादी मुत्तूण" मित्येतदेव व्याख्यानयतिमंतो हविज विजा-ओ कोइ ससाहणान दायव्वा / तुच्छा गारवकरणं, पुव्वाहीया उ कारेज्जा / / 142 / / तस्मादगौरमात्मनोऽपि जायते तेन न कुर्यात् / या तु पूर्वाऽधीता पूर्वगृहीता विद्या तो प्रागुक्तयतनाक्रमेण कुर्यात्। अजाणं गेलन्ने, संथरमाणा सयं तु कायव्वं / वोचऽत्थ मासचउरो, लहुगुरुगा थेरए तरुणे।।१४३॥ आर्यिका यदि ग्लानप्रयोजने स्वयं समस्तितः स्वयमेव ताः कुवन्ति, एवं निर्गन्था अपि भावनीयाः / यदि पुनर्विपर्यिसः क्रियते, यथानिर्गन्धाना ग्लानत्वे रास्तरति निन्थ्यो यदि कुर्वन्ति, निर्ग्रन्थीनां ग्लानत्व संस्तरति निन्थ्यो यदि कुर्वन्ति, निर्ग्रन्थीनां वा यदि निर्ग्रन्था इति तदा तरिमन्विपर्यासे स्थविरे कारके प्रायश्चित्तं चत्वारो लघुकाः, तरुणे चत्वारो गुरुकाः। संप्रति कल्पे नानात्वं भावयतिजिणकप्पिए न कप्पइ, दप्पेणं अजयणाए थेराणं। कप्पइय कारणम्मि, जयणा गच्छे स साविक्खो॥१४४|| जिनकल्पिके स्वपक्षण परपक्षण वा वैयावृत्यकारापणं न कल्पते, तथाकल्पत्वात्। स्थविराणा-स्थविरकल्पिकानां पुनर्दप्र्पण निष्कारणमयतनया च न कल्पते, कारणे यतनया पुनः कल्पते, यतो गच्छे स सापेक्ष इति। चिट्ठइ परियाओ से, तेणं छेदाइया न पावेंति। परिहारं च न पावइ, परिहारतवो त्ति एगहुँ / / 14 / / यतः 'से' तस्य पर्यायस्तिष्ठति तेन कारणेन छेदादिकास्तस्य न प्राप्नुवन्ति न भवन्तीत्यर्थः / परिहारमपिचन प्राप्नोति, कारण यतनया कारापणात्। परिहारः, तपइत्येकार्थम्। व्य०५ उ०। (आचार्यस्योपा- 1 ध्यायस्य च वैयावृत्यकरणम् इच्छया भवतीति, तत्फलं च 'अइसेस' / शब्दे प्रथमभाग 17 पृष्ठे गतम्।) (ग्लानवैद्ययोःयावृत्यकरणम् 'गिलाण' शब्दे तृतीयभागे 886 पृष्ठे गतम्।) जइह जच्चवाहलाणं, अस्साणं जणवएसु जायाणं / सयमेव खलिणगहणं, अहवा वि बलाभिओगेणं / आव०१ अ०॥ (इति 'इच्छमार' शब्दे द्वितीयभागे 517 पृष्ठे व्याख्यातम्।) (यादृशं वैयावृत्यकरं स्थापनाकुले प्रवेशयेत् तादृगुक्तः 'ठवणाकुल' शब्दे चतुर्थभागे 1686 पृष्ठे / ) स्वयमभुजानेनापि आचार्याद्यर्थमाहारो गृहीत्वाऽऽनेतव्यः। पुरिसं तस्सुवयारं, अवयारं चऽप्पणो य नाऊणं। कुञा वेआवडिअं, आणं काउं निरासेसो।।५४०|| पुरुषम्- आचार्यादिं तस्योपकार-स्वाध्यायवृद्धि सत्त्वोपदेशादिम्, अपकारंच-वीर्यह्रासश्लेष्मचर्यादिम्, आत्मनश्चोपकारमपकारं च ज्ञात्वा, उपकारोज्ञानादेरुपष्टम्भः गुरुगुरुजननियोगान्निर्जराव्यत्ययादपकारः। अथवा--ग्लानाद्यपेक्ष-योपकारापकारौ वाच्यौ / एवं कुर्यात् वैयावृत्यम् अशनदानादि, 'आज्ञा कृत्वा' - आगमप्रामाण्यान्निराशंसोविहितानुष्ठानबद्धो वेतिगाथार्थः। अस्यैव गुणमाहभरहेण वि पुव्वभवे, वेयावच्चं कयं सुविहियाणं / तस्स फलविवागेणं, आसी भरहाहिवो राया // 541 / / भरतेनापि चक्रवर्तिना पूर्वभये-अन्यजन्मनि वैकावृत्यं कृतं सुविहिताना–साधूनाम् / तस्य वैयावृत्यस्य फलविपाकेन सातवेदनीयोदयेन आसीद्भरताधिपो राजा चक्रवर्तीति गाथार्थः। भुंजित्तु भरहवासं, सामन्नमणुत्तर अणुचरित्ता। अट्ठविहकम्ममुक्को, भरहनरिंदो गओ सिद्धिं / / 542 / / स च भरतः भुक्त्वा भरतवर्ष षट्खण्डं तदनु-श्रामण्यमनुत्तरं प्रधानमनुचरित्वा केवलिविहारेणाष्टविधकर्ममुक्तः सन् चरमकाले भरतनरेन्द्रो महात्मा गतः सिद्धिं-सर्वोत्तमामिति गाथार्थः / पासंगिअभोगेणं, वेयावचम्मि मोक्खफलमेव / आणाआराहणओ, अणुकंपादित्ति बिसयम्मि||५४३|| प्रासङ्गिकभोगेन हेतुभूतेन वैयावृत्यविषयमेवं मोक्षफलमेव पारंपर्येण। अत्रोपपत्तिः आज्ञाया आराधनात् तीर्थकरवचनाऽऽराधनादनुकम्पादय इव, विषये, आदिशब्दादकामनिर्जरादिपरिग्रहः / निदर्शनमेतदिति गाथार्थः। इहैव भावार्थमाहसुहतरुछायाइजुओ, अह मग्गो होइ कस्सइ पुरस्स। एको अण्णो णेवं, सिवपुरमग्गो वि इअणेओ // 544|| शुभतरुच्छायादियुक्तः, आदिशब्दात्पुष्पफलपरिग्रहः, यथा-मार्गः-- पन्था भवति कस्यचित्पुरस्य-वसन्तपुरादेः- एक एवंभूतः, अन्यो नैवंभूतः आप तु-विपर्ययवान्। शिवपुरमार्गोऽप्येवं द्विविध एव ज्ञेय इति गाथार्थः।
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________________ वेयावच्च 1460- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वेरदत्त विशेषतो द्वैविध्यमाह वेर-न०(वैर) वीरस्य भावः अण्। विरोधे, विद्वेषे, वाच० / वजे, कर्मविरोधे अणुकंपा पाविओं पढमओ, सुहपरगामीण सोजिणाईणं। च। सूत्र०२ श्रु०५ अ०। ज्ञा०। आतु०। पूर्वोपार्जितद्वेषबन्धने, उत्त०४ तयजत्ततो उ इअरो, सदेव सामन्नसाहूणं / / 545 / / अ०। प्रश्न० / अनुशयानुबन्धे, प्रश्न० 2 संव० द्वार। परस्परमसहनतया अनुकम्पावैयावृत्यप्राप्तो मार्गः शिवपुरस्य प्रथमकः स च जिनादीनां हिंस्यहिंसकभा-वाध्यवसाये, "कलुसं तिवा वेज ति वा वेर त्ति वा पंको ज्ञेयः। सुखपरंपरागामिना तदयत्नतस्त्यनुकम्पा-द्ययत्नेन, इतरो मार्गों त्ति वा मलो त्ति वा एगट्ठा।" जी० 3 प्रति० 4 अधि० / प्रव० / जं० / नि० यः, सर व सदैव सामान्यसाधूना ज्ञेयः, आत्मार्थपराणामिति चू० / मातापित्रादिवधोत्थे राज्यापहारादिभवे (आतु०) परस्पररागमाया:: 02 द्वार। द्वेषोद्भवे (दर्श०१ तत्त्व। (पुरुषादिवधसमुत्थे, (आचा०१ श्रु०३ अ०२ वैयावृत्यफलमाह उ०।) अभिमानसमुत्थेवा अमर्षावेशपरापकाराध्यवसाये, स०३४ सम० वेयावचे जीवे किं जणयइ ? वेयावच्चेणं 1 वैरहेतुत्वाद् गौणमैथुने, प्रश्न० 4 आश्र० द्वार। तित्थयरनाभाय फम्भ निबंधेइ॥४३।। वेरंगिय-पुं०(वैरङ्गिक) संविग्रे, "आबाल्यादिपि यः प्रसिद्धमहिमा हे भगवान दावृत्येन आहारादिसाहाय्येन जीवः किं जन-यति? | वैरभि कग्रामणीः, पृष्टः शाब्दिकपड्क्तिषु प्रतिभटैर्जय्यो न यस्तातदा गुरुरा... हे शिष्य ! वैयावृत्येन तीर्थकरनामगोत्रं कर्म निबध्नाति, र्किकैः।" कल्प०३ अधि० 6 क्षण। सावृत्यं मुर्थन् तीर्थकरनामगोत्रं कर्म बध्नातीत्यर्थः / उत्त० 26 अ०। वेरंझाण-न०(वैरध्यान) वैरं मातापित्रादिवधोत्थं राज्यापहारा-दिभव यावत्य संभोगो भवतीति संभोग' शब्दे वक्ष्यते।) वा तस्य ध्यानं वैरध्यानम्। पशुरामसुभौमादीनामिव दुर्व्याने, आतु०। धेयावधकम्मपडिमा--स्त्री०(वैयावृत्यकर्मप्रतिमा) भक्तपानादिभिरुपष्ट वेरग्ग-न०(वैराग्य) तथाविधरागाभावो वैराग्यम्। आव० 4 अ० / विरागभक्रियाविषयेषु अभिग्रहविशेषे, स०। स्य भावः / अभिष्वङ्गाभावे, अष्ट० 13 अष्ट० / (वैराग्यस्य 'मुणि' एकाणउइ परवेयावच्चकम्मपडिमाओ पण्णत्ताओ। (सू०६१)। शब्देऽस्मिन्नेव भागे 306 पृष्ठे विशेषतो व्याख्या गता।) "या वशीकार०' न परषामात्मव्यतिरिक्तानां वैयावृत्यकर्माणि भक्तपानादिभिरुप- (8) इत्यादिश्लोकैः वैराग्यवक्तव्यता 'जोग' शब्दे चतुर्थभागे 1622 पृष्ठे भक्रियास्तद्विषयाः प्रतिमाः- अभिग्रहः विशेषाः परवैयावृत्यकर्म- उक्ता।) विरागतायाम्, द्वेषाभावाविनाभूतत्वाद् वैराग्यस्य विगतद्वेषता। रिमाः। एतानि च प्रतिमात्वेनाभिहितानि क्वचिदपि नोपलब्धानि केवलं हा०२४ अष्ट०। पं०व०। औदासीन्ये, अष्ट० 16 अष्ट० / कषायनयवैयावृत्यभेदा एते संभवन्ति। स०६१ सम०। निग्रहे, औ०। व्यवचगर-पुं०(वैयावृत्यकर) प्रवचनार्थ व्यापृतभावे. गोमुखयक्षा वेरग्गकर-न०(वैराग्यकर) वैराग्यजनके उत्तराध्ययनादौ. बृ० 1 उ०३ प्रतिचक्राप्रभृतौ, ध०२ अधि०। "वेयावचगराणं संतिगराणं सम्महि प्रक० / नि० चू०। ट्टिसमाहिगराणं करेमि काउस्सग्ग" ल०। वेरगकहा-स्त्री०(वैराग्यकथा) विषयेष्वनभिष्वङ्ग कारिकायां कथायाम, वेयावचुचिय-पुं०(वैयावृत्योचित) भक्ताद्युपष्टम्भयोग्ये, गच्छाश्रित आव० 4 अ०। बालग्लानादिके, पञ्चा० 18 विव०। वेरग्गभावणा-स्त्री०(वैराग्यभावना) अनित्यत्वादिभावनारूपायां विषयेष्ववेयावडिय-न०(वैयावृत्य) व्यावृतभावो वैयावृत्यम्। अन्नादिसम्पादने, रक्तताभावनायाम्, आचा०२ श्रु०३ चू०। दश०३ अ०। भक्तपानवेषग्रहणतः साधुभ्यो दाने, स्था० 5 ठा०२ उ०। अड़मर्दनादिके, आचा०१ श्रु०८ अ०३ उ० / आव०। वेरचाग-पुं०(वैरत्याग) सहजविरोधिनामप्यहिनकुलादीनां हिंस्रत्व परिहारे, "अहिंसाप्रतिज्ञायां तत्संनिधौ वैरत्यागः" / द्वा० 21 द्वा०। जक्खा हु वेयावडियं करेंति, तम्हा उ एए निहया कुमारा / गन यक्षाः वैयावृत्य साधुतर्जकनिवारणां साधुभक्तिं कुर्वन्ति तस्मात् वेरज्ज-न०(वैराज्य) विरुद्धराज्ये, 'वेरं जत्थ उ रज्जे, वेरं जाय व जत्थ र' इति निश्चयेन एते कुमाराः यक्षैनिहताः / उत्त० 12 अ० / (गृहिणो रज्जया। जं च विरजइ रज्जे, ण विगयरायं च वेरजं / / 620 / / " वृ०१ उ० नपावत्यम् अणायार' शब्दे प्रथमभागे 312 पृष्ठे व्याख्यातम्।) 3 प्रक० / नि० चू० / आचा०। (इह विहार' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 1306 पृष्ठे विरुद्धराज्ये गमनाऽगमनप्रस्तावे उक्तम्।) वेयावत्त त्रि०(श्यावृत्त) जीर्णे, "जंभियगामस्स नगरस्स वहिया उज्जुवालियाए नईए तीर वेयावत्तस्स चेइयरस अदूरसामते॥" कल्प०१ अधि० वेरत्तिय पुं०(वैरक्तिक) कालविशेषे, ध०३ अधि०। सू० प्र०। ६क्षण। वेरदत्त-पु०(वैरदत्त) श्रीनेमिनाथतीर्थकृतः प्रथमे गणधरे, ति०।
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________________ वेरदिट्टि 1461 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वेरियता मिच्छादसणसल्ले, अट्ठारस अभिग्गहे एस॥ दार वेरदिट्ठि-स्त्री० (वैरदृष्टि) वैरप्रधाना दृष्टिवैरदृष्टिः / वैरबुद्धौ, प्रश्न० 3 आश्र० द्वार। वेरबहुल-त्रि० (वैरबहुल) वैरानुबन्धप्रचुरे, दशा०६ अ०। सूत्र० / वेरमण-न० (विरमण) सामान्येन रागादिविरतौ, उत्त०२ अ०। भ०। स० / निवृत्ती, पा०। औचित्येन रागादिनिवृत्तौ, भ० 2 श०५ उ०। असयमादिभ्यो निवर्तन,००। सम्यग्ज्ञानश्रद्धानपूर्वकसर्वथा निवर्त्तने, दश० 4 अ० 1 प्राणेभ्यो जीवस्य व्युपरतौ, प्रश्न०१ आश्र० द्वार। वेरमणकप्प-पुं० (विरभणकल्प) द्रव्यतो भावतश्च विरमणस्यैव साध्यतायाम्, पं० भा०। दंसणणाणचरित्ते, तवपवयणसचसमितिहिं गुत्तो। हतरागदोसनिम्मम-खमदमणियमट्ठितो णिचं। भावकप्पे त्ति गयं। दारतदुभयकप्पो अहुणा, एते चिय दव्वभावकप्पा तु। दोहि वि मिलिया एते, तदुभयकप्पो इमो सो य॥ आहारे अट्ठविहे, सेज्जोवहियं च पंचगविसोही। दंसणचरित्तगुत्तो, तवसमितिगुणेहिँ सोहेति।। असणादीतो चउहा, उवकारि चउव्विहो स तस्सेव। एसऽढविहाऽऽहारो, परूवणा तस्स्मिा होति।। असणं तु ओदणादी, तस्सुवकारी उ खीरकुसणादी। पाणं तु पाणमेव तु, कप्पूराऽऽदी तु उवकारी / / खाइम फलाइयं तु, मूलादी होति तदुवकारी तुल / साइम तंबोलादी, तुण्हादी तदुवकारी तु! एवं आहारादी, उग्गमउप्पायणेसणासुद्धं / उप्पाएँ दंसणादीहिँ,जुत्तो अहवातदद्वाए।। दारंविरती अ अविरती य, विरयाविरतीय विविहकरणं तु। एक्के क्कं होति, दुहा, ओहे य अभिग्गहे चेव।। विरतीकरणं आहे, पंचेव महव्वया भवंती तू। होति अभिग्गहकरणं, पिंडविसुद्धादिऽणेगविहं / / अहवा ओहे संजमों, विभागतो होति सत्तरसभेद्रो। दारंअविरतिअसंजमोहे, अट्ठारस अभिग्गहे इणमो ! पाण्णातिवातमोसे, अदत्तमेहुणपरिग्गहे चेव। कॉहमाणामायलोभे, पेजे दोसे तहेव कलहे य / / अब्भक्खाण सुन्ने, अरतिरती चेव मायमोसे वा। विरताविरतीए पुण, ओहेण अणुव्वता भवे पंच। उत्तरगुण अभिग्गहे, हवंति सिक्खावता सत्त।। एत्थं पुण अहिगारो, विरतीकरणेण होति दुविहेणं / जह तेसु य अतियारो, ण होति तह आययतियव्वं / / दारंउज्जमे रक्खियाणं, महव्वयाणं कओ हवति पीला। भण्णतिऽऽहारादीहिं, तिहि पीडा होतिऽसुद्धेहिं / / उज्जमउज्जोतो खलु, एतेणं रक्खिताण तु वयाणं / पीला उवघातो खलु, भवति कहं पुच्छती सीसो।। भण्णति आहारोवहि-सेज्जासंथारए य एतेहिं। उग्गमदोसादीहिँ तु, पीला संजायति वयाणं / / तम्हा तु उग्गमादी-हिँ विसुद्धाहारिमादयो कुज्जा। वेरमणकप्पो एसो। पं०भा० 5 कल्प। इयाणि वेरमणकप्पो। दुविह वेरमणकप्प-ओहे अभिग्गहे या ओहेअवविरइ पंच महव्वयाणि अभिग्गहे-उत्तरगुणे पिंडस्स जा विसोही। अविरइ ओहेण असंजमो अभिग्गहेण कोहाई विरयाविरई। ओहे पंच अणुव्वया, अभिग्गहे उत्तरगुणा सत्त सिक्खावयाणि गाहाउजुमनुब्रुणामउद्यमः प्रयत्न इत्यर्थः, उज्जमेण रक्खियाण वयाणं कओ पीला भवइ ? उच्यते - आहारसेल्जोवहीहि य ताहिं असुद्धाहिं पीला भवइ, उग्गमुप्पायणेसणाहिं सुद्धाहिं निष्पत्तिः निर्वाणमार्गस्य भवति / एस बेरमणकप्पो पं० चू०५ कल्प। वेरसेणा-स्त्री० (वैरसेना) नन्दनवने सागरचित्रकूटदेव्याम्, स्था०६ ठा० 3 उ०। वेरागर-पुं० (वैराकर) वज्र रत्नोत्पत्तिभूमौ, ज्ञा० 1 श्रु०१६ अ० / वेराणुगिद्ध-त्रि० (वैरानुगृद्ध) येन केन कर्मणा परोपतापरूपेण वैरमनु बध्यते-जन्मान्तरशतानुयायि भवति। तत्र गृद्धे, सूत्र० 1 श्रु०१० अ०। वेराणुबंधि-त्रि० (वैरानुबन्धिन) वैरमनुबध्नन्ति तच्छीलानि च वरानु बन्धीनि। जन्मशतसहस्रदुर्मोचेषु, सूत्र०१ श्रु०१० अ०। वेराणुबद्ध त्रि० (वैरानुबद्) पूर्वोपार्जितद्वेषबन्धनबद्धे, उत्त० 4 अ० / स्था०। वेरायतण-न० (वैरायतन) वैरानुबन्धे, सूत्र०२ श्रु०२ अ०। वेरि(ण)-त्रि० (वैरिनद्ध) वैरमस्यास्तीति वैरी। सजीवोप-मर्दकारिणि, सूत्र०१ श्रु०८ अ०। सानुबन्धशत्रुभावे, ज्ञा० 1 श्रु०२ अ०। वेरियता स्त्री० (वैरिकता)शत्रुभावानुबन्धयुक्ततायाम्, भ०१२श०८ उ०।
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________________ वेरुलिय 1462- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वेला वेरुलिय--न० (वैडूर्य) "वैडूर्यस्य वेरुलियम्" / / 8 / 2 / 133 / / इति नादिमभवे मनोव्यलीकतादिस्वरूपे काव्यरसे, अनु० / वैडूर्यशब्दस्य' वेरुलिय' आदेशः / प्रा० / नीलमणी, उत्त०३४ अ०। अथ व्रीडारसं हेतुतो लक्षणतश्वाऽऽहकल्प० / सूत्र० आ० भ० / प्रज्ञा०1 औ० ! रा०द्वी०। संथा० आव०। विणओवयारगुज्झगु-रु दारमेरावइक्कमुप्पण्णो। वैडूर्य रत्नमये, त्रि० / रा०। "वेरुलियरुइरक्खंभा'" वैडूर्यरत्नमया वेलणओ नाम रसो, लज्जासंकाकरणलिंगो।।१०। रुचिराः स्तम्भा यस्य तद्। वैडूर्यरत्न-रुचिरस्तम्भम, जी० 3 प्रति०४ वेलणओ रसो जहाअधि०। "वेरुलियमणिफलिहपडलपचोयडाओ य त्ति' वैडूर्यमणि किं लोइअ करणीओ, लज्जणीअतरं लज्जयामि / मयानि-स्फाटि-कपटलमयानि प्रत्यवतटानितटसमीपवर्तियोऽभ्युन्न वारिजम्मि गुरुयणो, परिवंदति जं बहुप्पोत्तं / / 11 / / तप्रदेशा यासांता वैडूर्यमणिस्फटिकपटलप्रत्यवतटाः। जी०३ प्रति० विनयोपचारगुह्यगुरुदारमर्यादानांव्यतिक्रमः स्थितिलघनं तदुत्पन्नो 4 अधि०। वीडनको नाम रसो भवति / तत्र विनयार्हाणां विनयोपचारय्यतिक्रमे वेरुलियकडं-न०(वैडूर्यकाण्ड) रत्नप्रभायाः पृथिव्या वज्रमये प्रथम शिष्टस्य पश्चात् व्रीडा प्रादुरस्ति, पश्यत मया कथं पूज्यपूजाव्यतिक्रमः काण्डे, स्था० 10 ठा० 3 उ०। कृत इति / तथा गुह्यरहस्ये तस्य च व्यतिक्रमेऽन्यकथनादिलक्षणे, वेरुलियकूड न० (वैडूर्यकूट) महाहिमवतो वर्षधरपर्ततस्य वैडूर्यमये कूटे, व्रीडारसः प्रादुर्भवति। तथा गुरवः पितृव्यकलाग्राहकोषाध्यायादयस्तस्था० 2 ठा० 3 उ०। हारैश्च सहाऽब्रह्मसेवा-दिलक्षणे मर्यादाव्यतिक्रमे कृते लजारसः प्रादुर्भववेरोज्जा-स्त्री० (वैरोद्या) श्रीमल्लिजिनस्य शासनदेव्याम्, सा च कृष्णवर्णा तीति, एवमन्योऽपि द्रष्टव्यः / किंलक्षणः ? इत्याह लजाशजयोः करणं - पद्मासना चतुर्भुजा वरदाक्षसूत्रयुक्तदक्षिणपाणिद्वया बीजपूरकशाक्ति- विधानं लिङ्गं यस्य स तथा, तत्र शिरसोऽधोऽवनमनं गात्रसंकोचादिका युक्तवामपाणिद्वया च। प्रव० 26 द्वार। लज्जा मान क्वचिद् कश्चिद् किंचिदणिष्यतीति सर्वत्राभिशद्धितत्वं शङ्केति। वेरोयण-पुं०(वैरोचन) बलिपालिते भवनपतिविशेषे, आ० म० 1 अ० / अत्रोदाहरणम्-'किं लोइय' गाहा-इह क्वचिद्देशेऽयं समाचारो यदुतवेरोवरय-पुं० (वैरोपरत) अभिमानसमुत्थोऽमविशपरापकाराध्यव अभिनवबध्याः स्वभा यत्प्रथमयोन्युद्भदे कृते शोणितचर्चितं तन्निवसनम् अक्षतयोनि-रियं न पुनरग्रऽप्यासेवितानाचारेति संज्ञापनर्थ प्रतिगृहं सायो वैरं तस्माद् उपरतः वैरोपरतः। शत्रुभावमती ते, आचा०१ श्रु०३ भ्राम्यते, सकलजनसमक्षं च श्वश्रूश्वशुरादिस्तदीयगुरुजनः सतीत्वअ०१उ०। ख्यापनार्थे तद्वन्दत इति एवं व्यवस्थिता सखीपुरतो वधूभणति- 'किं वेलंधर-पुं०(वेलन्धर) वेलां लवणसमुद्रशिखामन्तर्विशन्ती बहिर्वा लोइयकरणीओ त्ति करणीक्रिया ततश्च लौकिकक्रियाया लौकिककर्त्तयान्तीमग्रशिखां च धारयन्तीति संज्ञात्वाद् वेलन्धराः। लवण-समुद्र व्यात्सकाशात् किमन्यल्लज्जनीयतरं; किंचिदित्यर्थः / इत्यतो लजिताऽहं शिखापातनिवारकेषु नागराजेषु, स्था० 4 ठा०२ उ01 (वेलन्धर भवामि, किमिति यतो 'वारेजोविवाह स्तत्र गुरुजनो वन्दले 'बहुप्पोत्त' वक्तव्यता 'लवणसमुद्द' शब्देस्मिन्नेव भागे 643 पृष्ठे गता) ति-वधूनिवसनमिति। अनु०। वेलंधरोववाय-पु० (वेलन्धरोपपात) संक्षेपितदशानां नवमेऽध्ययने, वेलव-धाo-उपालभ-उप-आ-लम्-दूषणे, "उपालम्भेसिपचारस्था० 10 ठा०३ उ०। यत्परावर्त्तयतः श्रमणस्य वेलन्धरो नाम नागराज वेलवाः'' ||4|144|| उपालम्भेर्वेलवादेशः / वेलवइ। उपालभते। उपतिष्ठते, वरदानाभिमुखश्च भवति। अरुणोपपातशब्दवदत्र भावयि प्रा०४ पाद। तव्यम्। पा०। व्य०। वेलव-धा० (पञ्च) वञ्चने, 'वञ्चेर्वेहव-वेलव-जूरवो-मच्छाः / / 8 / 4 / 63 // वेलंब-स्त्री० (वेलम्ब) दाक्षिणात्यानां वायुकुमाराणामिन्द्रे, भ० 3 श०८ इति वचतेर्वेलवादेशः / वेलवइ। वञ्चइ / वञ्चति / प्रा० 4 पाद / उ०। दी। स्था०। स० यूपकाख्यमहापातालकलशदेवे, स्था०४ ठा० | वेलवण-न० (वेलपन) आक्रीडने, व्य०५ उ०। 2 उ०। प्रक०। वेलवासि(ण)-पुं० (वेलावासिन) समुद्रवेलासन्निधिवासिनि वानप्रस्थे, वेलंबग-पुं०(विडम्बक) विदूषके, औ० / ज्ञा० / कल्प० / नि० चू०। भ०११ श०६ उ० / नि०। औ०। प्रश्न० / रा०। वेला-स्त्री०(वेला) जलवृद्धिलक्षणायाम् (नं० स्था०।) उदकशिखावेलंबगलिंग-न०(विडम्बकलिङ्ग) भण्डादिलक्षणे, आव० 3 अ०। याम, स्था० 10 ठा०३ उ० / जलप्रवाहे, अष्ट० 22 अष्ट० / बेलंबसुहय-पुं०(वेलम्बसुखद) पुं० न० 1 वेलम्बस्य वायुकुमारेन्द्रस्य लवणसमुद्रशिखायाम, उत्त०२ अ०। प्रज्ञा० स्वाध्यायकरणप्रस्तावे, संबन्धिनि मानुषोत्तरपर्वतस्य दक्षिणापरस्यां दिशि रत्नोच्चयकूटे, स्था० उत्त०२ अ०1 उचिते काले, नि० चू०१ उ०1 अवसरे, विपा०२ श्रु० 4 ठा०२ उ01 1 अ०1 मर्यादायाम्, सूत्र०१ श्रु०६ अ०। आचा०।वारायाम, पञ्चा० वेलणअ--पुं० (वीडनक) व्रीयति लज्जामुत्पादयतीति लज्जनीयवस्तुदर्श- | 12 विव०॥
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________________ वेलागय 1463 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वेसमणप्पभ वेलागय-पुं० (वेलागत) लोमपक्षिभेदे, जी०१ प्रतिः। ||८राशा इति शेषस्य षस्यन द्वित्वम्। प्रा०। विशेषतोऽभिलषणीये, वेलुकं-(देशी)-विरूपार्थे, देना० 7 वर्ग 63 गाथा। व्य०३ उ०। वेषोचिते, भ०२श०५ उ०॥ वेलू-वेणु-पुं०। "वेणौ णो वा'" ||8/1 / 203 // इति णस्य लः / वेलू। | खेल | द्वेष्य-त्रि० / अप्रीतिकरे, विशे०। आ० म०। वेणू / प्रा० / स्थलवंशे, नि० चू०१ उ०। आ०चू०। प्रज्ञा०। वेसइय-पुं० (वैषयिक) विषयरूपे आधारभेदे, मोक्षे इच्छास्तीत्या - वेलूणा-देशी-लज्जायाम्, दे। ना०७ वर्ग 65 गाथा। दीन्यस्योदाहरणानि। आ० म० 1 अ०। वेलोचिय-त्रि० (वेलोचित) पाकातिशयतो ग्रहणकालोचिते, दश०१७ | वेसण-न० (वेशन) चणकपिष्टे, बृ० 1702 प्रक०। ल० प्र०। अ०1 आचा० वेसता-स्त्री० (द्वेष्यता) शत्रुभावे, भ०१२श०७ उ०। वेल्ल-धा०(रम्) क्रीडायाम, "रमेःसंखुडु-खेड्डोभाव-किलिकिच- वेसमण-पुं० (वैश्रमण) इन्द्रादीनामुत्तरदिग्लोकपाले, जी०३ प्रति 4 कोटुम-मोट्टाय-णीसर-वेल्लाः " ||8||4|168 / / इति रमधातोर्वे- अधि० / भ० / (वक्तव्यता 'लोगपाल' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 720 पृष्ठे ल्लादेशः / रमइ। रमते / प्रा० 4 पाद। गता।) यक्षनायके कुवेरे, अनु० / आ० म०। ज्ञा० / स०। "दाणसूरे वेव-पुं० (वेप) वातसमुत्थे शरीरावयवानां कम्पे, ''प्रकामं वे पते यस्तु, वेसमणे'' स्था० 4 ठा०३ उ० / ब्रह्मदत्तचक्रिभार्यायाः श्रीमत्याः पितरि, कम्पमानस्तु गच्छति / कलापखजं तं विद्यान्मुक्तसन्धिनिबन्धनम् उत्त० 13 अ० / चतुर्दशेऽहोरात्रमुहूर्त, नपुं०। स०३० सम०। जं०1 चं० // 1 // " इति / आचा० 1 श्रु०६ अ० 1 उ०। प्र०। ज्यो०। वेवंत-त्रि० (वेपमान) "वेपेरायम्बायज्झौ' ||8|4147 / / इति आदेशा- | वेसमणकाइय-पुं० (वैश्रवणकायिक)। वैश्रवणस्याज्ञावर्तिनि देवे, भ० भावेशतृप्रत्यये। "शत्रानशः" // 83181 / / शतृआनश् इत्येतयोः / प्रत्येकं ३श०७ उ०। न्त माण इत्येतावादेशावितिशतुःन्ताऽऽदेशः / प्रा०। कम्पमाने, पिं०। | वेसमणकुंडधारि(ण)-पुं०(वैश्रवणकुण्डधारिन्) वैश्रवणस्य-धनदस्य वेवज्झ-न (वैवाहा) विवाह एव तत्कर्म वा वैवाह्यम्। परिणयने, ध०१ / कुण्डम्-आयतता तां धारयन्तीति / कुवेरस्वामिकेषु जृम्भकदेवेषु, अधि०॥ कल्प०१ अधि० 4 क्षण। देवस्सय-पु. (वैवस्वत) विवस्वतः पुढे यमे, अहरहर्नयमानो गामश्वपुरुष | वेसमणकुमार--पुं० (वैश्रवणकुमार) कनकपुरराजस्य प्रियचन्द्रस्य पुत्रे, पश वैवस्तवो न तृप्यति, सुराया इव दुर्मदी। गा०। विषा०२ श्रु०६ अ०। ('धणवई शब्दे चतुर्थभागे 2657 पृष्ठे वक्तव्यता वेविय-त्रि० ( वेपित) कम्पिते, ज्ञा० 1 श्रु०१ अ०। गता।) वेवियंऽगी-रत्री० (वेपिताङ्गी) कम्पितगात्रायाम्, ज्ञा० 1 श्रु०१ अ०। वेसमणकूड-न० (वैश्रवणकूट) वैश्रवणलोकपालनिवासभूतं कूटं वैश्रवण कूटम्। ज०१ वक्ष० / क्षुद्रहिमवद्वर्षधरपर्वतस्य वैश्रवणदेवावासे अष्टमकूट, वेविर-त्रि० (वेपिन्) "शीलाद्यर्थस्येरः ||8 / 2 / 145 / / शीलधर्मसाध्वर्थे स्था० 2 ठा० / 3 उ० / जं० / जम्बूद्वीपे मन्दरस्य सीताया महानद्या विहितस्य हर इत्यादेशः / कम्पनशीले, प्रा०॥ दक्षिणकूले वक्षस्कारपर्वते, स्था०४ ठा०२ उ०1 जम्बूद्वीपे मन्दरस्य वेव्व-अव्य०। आमन्त्रणे, "वेव्व वेव्वे च आमन्त्रणे।।।२।।१६४। वेव्व दक्षिणे रुचकवरपर्वतस्य कूटे, स्था० 8 ठा०३ उ०। सर्वेषां भरतैरवतवेब्वे च आमन्त्रणे प्रयोक्तव्ये। वेव्व गोले। प्रा०। विजयक्षेत्रदीर्धवैताळ्यानां वैश्रवणदेवावासकूटेषु, स्था०६ ठा०३ उ०। वेव्वे अव्य०-आमन्त्रणे, प्रा०२ पाद। वेसमणदत्त-पुं० (वैश्रवणदत्त) रोहीडकनगरराजे पुष्पनन्दीकुमारवेस-वेश-पुं०। नेपथ्ये, औ०। रा०। पितरि, विपा० 1 श्रु०६ अ०। वेश्य-त्रि० / वेशे साधौ, औ०। वेसमणदास-पुं० (वैश्रवणदास) सिंहसेनाचार्यदाहकरिष्टामात्यसेविते वैस्य--पुं०। ऋषभदेवोपदेशादग्न्युत्पत्तावयस्कारादिशिल्पवाणि-ज्यवृत्त्या | उज्जयिनीराजे, संथा। वेशनाद् वैश्यः। माणिज्यवृत्ती तृतीयवर्णे, आचा०६ श्रु०१ अ०१ उ०। वेसमणदेवकाइय-पुं० (वैश्रवणदेवकायिक) वैश्रवणसामानिकदेववेष-पुं० वस्त्राभरणादिभोगे, ध०१अधि०। स्था०। धबलाकारे, औ०। परिवारभूतेषु देवेषु, भ०३ श०७ उ०। निर्मलवस्त्रधारणे, जी०१ प्रति०। नेपथ्ये, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०नि०। | वेसमणप्पभ-पुं० (वैश्रवणप्रभ) रतिकरपर्वतसमवक्तव्यताके वैश्रवणव्येष्य-० / विशेषत एष्यमेषणीयम् / यलोपे "न दीर्धानुस्वारात्' | देवावासपर्वते, द्वी०। स्था०।
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________________ वेसमणभद 1564 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वेसासिय वेसमणभद्द-पुं० (वैश्रवणभद्र) स्वनामख्यातेऽनगारे, (यं प्रतिलाभ्य शाखाविभागेषु अन्तरेमध्ये समुद्रस्य द्वीपाः, अथवा-अन्तरं कौशाम्ब्यां धनपाल उत्तरभवे विजयपुरे वासवदत्तस्य नृपस्य पुत्रो भूत्वा परस्परविभागस्तत्प्रधाना दीपा अन्तरद्वीपाः, तत्र पूर्वोत्तरायामेकोरकासिद्धः।) विपा०२ श्रु० 4 अ०। भिधानो योजनशतत्रयायामविष्कम्भो द्वीपः एवमाभाषिकवैषावेसमणोववाय-पुं० (वैश्रवणोपपात) संक्षेपिकदशानां दशमेऽध्ययने, णिकलाडूलिकदीपा अपि क्रमेणाग्नेयीनईतीवायव्यास्विति, चतुर्विधा स्था० 10 ठा०३ उ०। यत्परावर्तयतः श्रमणस्य वैश्रवणो देवो वरार्थ इति समुदायापेक्षया न त्वेकैकस्मिन्निति, अतः क्रमेणैते योज्याः / मुपतिष्ठते। पा०। द्वीपनामतः पुरुषाणां नामान्येव, ते तु सर्वाङ्गोपाङ्गसुन्दरा दर्शन मनोरमाः वेसवण-पुं० (वैश्रवण) यक्षनायके कुवेरे, ज्ञा०१ श्रु०८ अ०। रा०। स्वरूपतो,नकोरुचकादय एवेति। स्था०४ ठा०।२ उ०। इह जम्बूद्वीपे भरतस्य हैमवतस्य च क्षेत्रस्य सीमाकारी भूमिनिमग्नपञ्चविंशतियोजनो वेसवडियगण-पुं०(वेश्यपाटिकगण) स्थविरशाखाया अर्द्धनिर्गत गणे, योजनशतोच्छ्यपरिमाणो भरतक्षेत्रापेक्षया द्विगुणविष्कम्भो हेममयकल्प०२ अधि०८ क्षण। श्वीनपट्टवर्णो नानावर्णविशिष्टद्युति-मणिनिकरपरिमण्डितोभयापार्श्वः वेसविहार-पुं०(वेश्याविहार) वेश्यामन्दिरे, ज्ञा०१ श्रु०१६ अ०॥ सर्वत्र तुल्यविस्तारो गगनमण्डलोल्लेखिरत्नमयैकादशकूटोपशोभिवेससामंत-पु० (वेश्यासामन्त) गणिकागृहसमीपे, दश० 5 अ०। तोवजमयतल विविधणिकनकमण्डिततटभागदशयोजनावगाढपूर्व(भिक्षुर्वेश्यागृहसमीपे भिक्षार्थेन गच्छेदिति गोयरवरिया' शब्दे तृतीय पश्चिम-योजनसहस्रायामदक्षिणोत्तरपञ्चयोजनशतविस्तारः पद्महदभागे 182 पृष्ठे गतम्।) शोभितशिरोमध्यभाग सर्वतः कल्पपादपश्रेणिरमणीयः पूर्वापरपर्य - वेसा-स्त्री० (येश्या) वेशजीवायां गणिकायाम्, वेश्येव निराशंसो गृहवास न्तान्या लवद्धार्णवजलसंस्पर्शी हिमवन्नामा पर्वतः (प्रज्ञा०१ पद।) पालयतीति सप्तदशे भावश्रावके, ध००। तस्येव हिमवतः पश्चिमायां दिशि पर्यन्तादारभ्य दक्षिणपश्चिमायांवेश्येव निराशंसो गृहवासं पालयतीति नैर्ऋतको ण इत्यर्थः, त्रीणि योजनशतानि लवणसमुद्रमवगाहा दंष्ट्राया सप्तदशं भेदं व्याख्यानयन्नाह उपरि यथोक्तप्रमाणो वैषाणिकनामा द्वीपः / प्रज्ञा०१ पद। उत्त०। जी०। वेस व्व निरासंसो-अजं कल्लं चयामि चितंतो। वेसायण-पुं० (वैश्यायन) वैश्यनामर्षिगोत्रापत्ये, कल्प० / प्रभुः कूर्म परकीयं पिव पालइ० गेहावासं सिढिलभावो // 76 / / ग्रामगतस्तत्र च वैश्यायनतापस्य आतापनाग्रहणाय मुत्कलमुक्तजटावेश्या-पण्याङ्गना तद्वन्निराशंसः-परित्यक्तास्थाबुद्धिः। यथाहि-वेश्या मध्ये यूकाबाहुल्यदर्शनात् गोशालो यूकाशय्यातर इति तं वारं वार निर्द्धनकामुकाद्विशिष्टलाभमसंभावयन्ती किचिल्लभमाना चाद्य श्चो वैनं हसितवान् / ततस्तेन क्रुद्धेन तेजोलेश्या मुक्ता० तां च कृपारत्यजामीति मन्दादरा तमुपचरतिभावश्रावकोऽप्येमवेवाद्य श्वो मोक्तव्योऽयं साम्भोधिर्भगवान् शीतलेश्यया निवार्य गोशाले रक्षितवान् / कल्प०१ मयेति मनोरथवान् परकीयसिवान्यसत्कमिव पालयतिगृहवासं कुतोऽपि अधि० क्षण भ०। आ० म०। आच० चू० वैश्यायनऋषेरुत्पत्तिः 'वीर' हेतोः परित्यक्तुमशक्नुवन्नपि शिथिलभावो-मन्दादरः सन्। स हि किल शब्देऽस्मिन्नेव भागे 1376 पृष्ठे गता।) 'पुथ्यासाढा वेसायणसगोत्ता' व्रताप्राप्तावपि कल्याणमवाप्रोति वसुश्रेष्ठिसुतसिद्धवत् / ध० र०२ चं० प्रा० 10 पाहु01 अधि० / (वसुश्रेष्ठिसुतकथा 'वसु' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 1052 पृष्ठे गता।) वेसालिय-त्रि० (वैशालिक) विशाल एव वैशालिकः / बृहच्छरीरे, सूत्र० / वेसागार-न० (वेश्यागार) वेश्याभवने, ज्ञा० 1 श्रु०२ अ०। "विशाला जननी यस्य, विशालं कुलमेव वा। विशालं वचनं चास्य, तेन वेसाणिय-पुं० (वैषाणिक) लवणसमुद्रमध्येऽन्तीपभेदे, "वेसाणी चेव वैशालिको जिनः॥१॥" इत्युक्तलक्षणे वीरजिने, सूत्र०१ श्रु०२ अ० नंगूली" नं०। स्था०। प्रव० / कर्म०। प्रज्ञा०। जी०। उत्त०। 3 उ०। जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्सदाहिणेणं चुल्लहिमवंत-स्स देसालियसावग-पु० (वैशालिकश्रावक) भगवतो महावीरस्य श्रावके, वासहरपव्वयस्स चउसु विदिसासु लवणसमुई तिन्नि तिन्नि भ०१श० 10 उ०। जोयणसयाई ओगाहित्ता एत्थ णं चत्तारि अंतरदीवा पण्णत्ता,तं वेसाली-स्त्री० (वैशाली) नगरीभेदे, यत्र वीरजिनेन्द्र एकादशं वर्षारात्रं जहा-एगोरुयदीवे आभासियदीवे वेसाणितदीवे णंगोलियदीवे। कृतवान् / आ० म०१ अ०। आ०चू० 1 कल्प० / 'इतो वैशालिकातेसुणं दीवे सु चउविहा मणुस्सा परिवसंति, तं जहा-एगोरुता पुरि। 'चेटको हैहयफुलः, क्षमापोऽन्योन्यपि योद्भवाः / / 12 / / पुत्रिकाः आभासिता वेसाणिता णंगोलिया। (सू०३०४४) सप्त तस्यासन्' आ० क०४ अ०। आव०। आ० म०। ('कुलबालग' 'चउसु विदिसासु' ति विदिक्षु पूर्वोत्तराद्यासु लवणसमुद्रं त्रीणि त्रीणि शब्दे तृतीयभागे 636 पृष्ठे अशोकचन्द्रेण वैशालिकाग्र हणमुक्तम्।) योजनशतान्यवगाह्य-- उल्लल्य ये शाखाविभागा वर्तन्ते एन्थ' ति एतेषु | वेसासिय-न० (वैश्यासिक) विश्वासः प्रयोजनमस्येति वै
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________________ वेसासिय 1465 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वेस्स श्वासिकम्। औ०। विश्वासस्थाने, भ०६श०३३ उ०। ज्ञा०। तं०। अन्त्याः, स्वाश्रयविशेषकत्वाद् विशेषाः। विनाशाऽऽम्भरहितेषु नित्यद्रविश्वासस्थानीकृते, विश्वासे भवानि योग्यानि वैश्वासिकानीति व्येष्वण्वाकाशकालदिगाऽऽत्म-मतस्तु-प्रतिद्रव्यमेकैकशो वर्तमाना व्युत्पत्तेः / व्य० 3 उ० / विश्वासप्रयोजने, स्था० 5 ठा०३ उ० / अत्यन्तव्यावृत्तिबुद्धिहे तवः / यथाऽस्मदादीनां गवादिष्वश्वादिभ्यस्तुविश्वसनीये, नि०१ श्रु०१ वर्ग 1 अ01 विपा०। ज्ञा० / अत्र ल्याऽऽकृ तिगुणक्रियाऽवयवोपचयाऽवयव विशेषसंयोगनिमित्ता लप्स्येऽहमिति विश्वासप्रयोजने। निश्चित, कल्प०३ अधि० 6 क्षण / प्रत्यव्यावृत्तिर्दृष्टा--गौः शुक्ल : शीघ्रगतिः पीनः ककुद्यानन महाघण्ट इति, वेसाहट्ठाण-न० (वैशाखस्थान) योधस्थानेभेदे, यद्धि पाणी अभ्य- तथाऽस्मद्विशिष्टानां योगिनां नित्येषु तुल्याऽऽकृतिगुणक्रियेषु परमाणुषु, न्तराभिमुखे कृत्वा समश्रेण्या करोति अग्रिमतले बहिर्मुखे ततो युध्यते मुक्तात्ममनः सुचाऽन्यनिमित्ताऽसम्भवाद्। येभ्यो निमित्तेभ्यः प्रत्याधारं तत् / व्य० 1 उ०। नि० चू०। विलक्षणोऽयं विलक्षणोऽयमिति प्रत्ययव्यावृत्तिः, देशकालविप्रकृष्ट च वेसाहिल-पुं०(वैशाखिल) काव्यसाहित्यशास्त्रकारे लौकिकों, स्था० परमाणौ स एवायमिति प्रत्यभिज्ञानं च भवति, तेऽन्त्या विशेषाः" इति। 7 ठा०३ उ०। अमी च विशेषरूपा एव, न तु द्रव्यत्वादिवत् सामान्यविशेषोभयरूपाः, व्यावृत्तेरेव हेतुत्वात् / तथा अयुतसिद्धानामाधार्याऽधारभूतानामिहवेसित्थी-स्वी० (वेश्यास्त्री) सर्वसाधारणवनितायाम्, बृ०४ उ० / प्रत्ययहेतुः सम्बन्धः समवाय इति / अयुतसिद्धयोः परस्परपरिहारेण ('हत्थकम्म' शब्दे विस्तरतस्तदागमने तदवारणे प्रायश्चित्तादि दर्श पृथगाश्रयानाश्रितयोराश्रयाश्रयिभावः इह तन्तुषु पटः' इत्यादेः प्रत्यययिष्यते।) स्थासाधारणं कारणं समवायः; यदशात् स्वकारणसामादुपजायमानं वेसिय-त्रि० (व्येषित) विशेषेण विविधैा प्रकारैरेषितं व्येषितम्। पटाद्याधार्य तन्त्वाद्याधारे सम्बध्यते; यथा-छिदिक्रिया छेद्येनेतिः सोऽपि ग्रहणेषणाप्रासैषणाविशोधिते. भ०७ श०१ उ०। द्रव्या-दिलक्षणवैधात् पदार्थान्तरमिति षट्पदार्थाः / साम्प्रतमक्षरार्थों वैषिख-त्रि० / वेषो-मुनिनेपथ्यं स हेतुलाभो यस्य तद् वैषिकम्, भ०७ व्याक्रियते- सतामपीत्यादि-सतामपि सद्बुद्धिवेद्यतया साधारणाना श०१०। रजोहरणादिवेषमात्राल्लब्धे उत्पादनादिदोषरहिते, आचा० मपि, षष्णा पदार्थानां मध्ये, क्वचिदेव-केषुचिदेव, पदार्थेषुः सत्ता-- 2 श्रु०१चू०११०३ उ०। आ०म०। सूत्र०। सामान्ययोगः, स्याद्-भवेत् न सर्वेषु / तेषामेषा वाचोयुक्तिः- सदिति, वैशिक-पुं० मायाप्रधाने कलोपजीविनि वणिजे, सूत्र०१ श्रु०६ अ०। यतो-'द्रव्यगुकर्मसु सा सत्ता' इति वचनाद्यत्रैव यत्प्रत्ययस्तत्रैव सत्ता; आचा० / कामशास्त्रे, न०पुं० / सूत्र०१ श्रु० 4 अ० 1 उ०। सत्प्रत्ययश्चद्रव्यगुणकर्मस्वेव, अतस्तेष्वेव सत्तायोगः / सामान्यादिपवेसिया-स्त्री० (वेश्या) गणिकायाम्, आ० म० 1 अ०। दार्थत्रये तु नः तदभावा-त्। इदमुक्तं भवति- यद्यपि वस्तुस्वरूपम्वेसियाकरंडग-पुं० (वेश्याकरण्डक) वेश्यासत्कजतुपूरितस्वर्णाभरणा अस्तित्व सामान्यदित्रयेऽपि विद्यते; तथापि तदनुवृत्ति प्रत्ययहेतुर्न दियुक्ते करण्डके, स्था० 4 ठा० 4 उ०। भवचि: य एव चानुवृत्तिप्रत्ययः स एव सदिति प्रत्यय इति, तदभावाद्न सत्तायोगस्तत्र / द्रव्यादीनां पुनस्त्रयाणां षट्पदार्थसाधारण वस्तुस्वरूपवेसेसिय–पुं० (वैशेषिक) विशेष वेद वैशेषिकः। कणादशिष्ये, स्या०। अस्तित्वमपि विद्यते, अनुवृत्तिप्रत्ययहेतुः सत्ता-सम्बन्धोऽप्यस्ति, तन्मतम् (स्या०) अथ सत्ताऽभिधानं पदार्थान्तरम्, आत्मन श्व निःस्वरूपे शशविषाणादौ सत्तायाः समवायाभावात्। सामान्यऽऽदित्रिके व्यतिरिक्तं ५शनाख्यं गुणम्, आत्मविशेषगुणोच्छेदस्वरूपां च मुक्तिम्, कथं नानुवृत्तिप्रत्ययः ? इति चेद् / बाधकसद्भावादिति ब्रूमः / तथाहिअज्ञानादङ्गीकृतवतः परानुपहसन्नाह सत्तायामपि सत्तायोगाङ्गीकारे -अनवस्था। विशेषेषु पुनस्तदभ्युपगमेसतामपि स्यात् क्वचिदेव सत्ता, व्यावृत्तिहेतुत्वलक्षणतत्स्वरूपहानिः। समवाये तुतत्कल्पनायां सम्बन्धचैतन्यमौषाधिकमात्मनोऽन्यत् / न्धाऽभावः, केन हि सम्बन्धेन तत्र सत्ता सम्बध्यते ? समवायान्तरानसंविदानन्दमयी च मुक्तिः, ऽभावात्। तथा च प्रामाणिकप्रकाण्डमुदयनः- "व्यक्तेस्भे दस्तुल्यत्वं, सुसूत्रमासूत्रितमत्वदीयैः / / सङ्करोऽथानवस्थितिः / रूपहानि-रसंबन्धो, जातिबाधकसंग्रहः / / 1 // ' वैशेषिकाणां द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषसमवायाख्याः षट् पदार्थारत्त्य इति / ततः स्थित-मेतत्सतामपि स्यात् क्वचिदेव सत्तेति / तथा, तयाऽभिप्रेताः, तत्र पृथिव्यापस्तेजो वायुराकाशः कालो दिगात्मा मन चैतन्यमित्यादि, स्या० (चैतन्य-ज्ञानम्, इति ‘णाण' शब्दे चतुर्थभागे इति नव द्रव्याणि / (स्या०1) (गुणाश्चतुर्विंशतिस्ते च 'गुण' शब्दे 1658 पृष्ठे गतम्।) सत्तासमवायादिशब्देषु च व्याख्यास्ते!) तृतीयभागे 606 पृष्ठे दर्शिताः) कर्माणि पश्च, तद्यथा-उत्क्षेपणम वेसेसियगुण-पुं० (वैशेषिकगुण) विशेषे भवा वैशेषिकास्ते च ते गुणाश्च वक्षेपणमाकुञ्चनं प्रसारणं गमनमिति। गमनग्रहणाद्-भ्रमणरेचनस्यन्द- वैशेषिकगुणाः / बुद्धिसुखदुःखेच्छद्वेषप्रयत्नरूपेषु आत्मनोऽसाधारणनाद्यविरोधः / (सामान्य 'सामण्ण' शब्दे दर्शयिष्यते।) (स्या०) तथा गुणेषु, "वैशेषिकगुणरहितः, पुरुषोऽस्यामेव भवति तत्त्वेन'। षो० 15 विशेषाः- नित्यद्रव्यवृत्तयः, अन्त्याः -अत्यन्तव्यावृत्तिहेतवः, ते द्रव्या- विव०॥ दिवैलक्षण्यात् पदार्थान्तरम् / तथा च प्रशस्तकर:- "अन्तेषु भवा | वेस्स-पुं०(वैश्य) वाणिज्योपजीविनि तृतीयवर्णे, सूत्र०१ श्रु०६०।
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________________ वेस्स 1466 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वोज्झ वेष्य-त्रि० वेषोचिते. सू० प्र०२० पाहु० ! वॉडय-त्रि०(वोण्डज) वोण्ड वनीफलं तस्माजातं वोण्डजम् / कासिद्वेष्य-त्रि० अनिष्टे, "वेस्सा अकामतो निजरा मरिऊण वंतरी जाता" कसूत्रादौ, विशे० / अनु०। वृ०६ उ० / स्था०। वॉडसमुग्गय-न०(वोण्डसमुद्रक) वोण्ड-कापसीफलं तस्य समुद्रकंवेस्साउर-न(वेश्यापुर) गणिकावासे, आ० क०१ अ०। संपुटमभिन्नावस्थम्। कार्पासीफले, ज्ञा० 1 श्रु०१७ अ०। वेहम्म-न०(वैधर्म्य) विपरीतभावे, आव० 4 अ01 विपक्षे, विशे०। वोक-धा०(विज्ञापि) निवेदने, विज्ञपेर्वोकावुकौ / / 8 / 4 / 38 // इति विपूर्वस्य जानातेय॑न्तस्य वोक्कादेशः / वोक्काई। विज्ञपयति / प्रा० वे हल्ल-पुं०(विहल्ल) राजगृहे श्रेणिकस्य राज्ञः पुत्रे, अणु०। 4 पाद! स्था०। (सच वीरान्तिके प्रव्रज्य षण्मासान् श्रामण्यं परिपाल्य संलेखनया वोकत-त्रि०(व्युत्क्रान्त) "ओत्संयोगे" // 8/11116 / / इत्यादेरुत मृत्वा सिद्ध इति अन्तकृदृशानां तृतीयवर्गे दशमे अध्ययने सूचितम्।) ओत्वम्। निष्कृष्ट, प्रा०१ पाद। वेहव-धा०(वञ्च) प्रलम्भने, 'वर्वेहव-वेलव-जूरखोमच्छाः " वोक्कस-पुं०(वोक्कस) अनार्यदेशभेदे, तत्र जाते म्लेच्छभेदे च / सूत्र० 1 ||6|3|63 इति वञ्चतेर्वेहवाऽऽदेशः / वेहवइ। वञ्चति। प्रा०४ पाद! श्रु०६ अ०। प्रज्ञा० / प्रव०॥ वेहव्व-न०(वैधव्य) "ऐत एत्"141१1१४८॥ इति ऐकारस्यैत्वम् प्रा०। वोक्कसिज्जमाण-त्रि०(व्यपकृष्यमाण) अपकर्षण गच्छति, भ०५ श०६ मृतभर्तृकत्वे, पञ्चा० 5 विव०। उ० आचा०। वेहाणस-न०(वेहायस) विहायस्याकाशे भवं वृक्षशाखाधुबन्धनेन / | वोग्गडा-स्त्री०(व्याकृता) प्रकटार्थायाम, प्रज्ञा० 11 पद। लोकप्रतीतयत्तन्निरुक्तवशाद् वैहायसम्। बालमरणभेदे, भ०२ श०१ उ०। शब्दार्थाया भाषायाम, भ० 10 श०३ उ०। वैहानस-न० प्राकृतत्याद वेहाणसं। स्था० 2 ठा० 4 उ० / उक्तलञ्चने, वोच्छिदमाण-त्रि०(व्यवच्छिन्दत) परित्यजति, स्था० 6 ठा० 3 उ०। व्य०७ उ०। आचा०। बालमरणभेदे, नि० चू०११ उ०। वोच्छिज्जमाण-त्रि०(व्यवच्छिद्यमान) निवारणं गच्छति, स्था० 3 ठा० वेहाणसिग-त्रि०(वैहा(ण)यसिक) विहायसि-आकाशे तरुशाखा 1 उ०। दावात्मन उल्लम्बनेन यन्मरणं भवति तद्वैहानसम् / तत्र भवाः वोच्छिन्न-त्रि०(व्यवच्छिन्न) त्रुटिते, कल्प०१ अधि० 6 क्षण। आचा०। वैहानसिकाः। "वेहाणसिया" वैहायसाख्यबालमरणेन मृतेषु, औ०। खण्डिते, आचा०२ श्रु०१चू०७ अ० 2 उ०। अनुदिते. भ०७ श०१ वेहास-न०(विहायस) आकाशे, भ० 13 श० 3 उ०।स्था०।अन्तराले, उ० / नि० चू० / जीवरहिते, आचा०२ श्रु०१ चू० 1 अ० 1 उ० / ज्ञा०१ श्रु०८ अ०। सिद्धे, सं०। वेहासमरण-न०(वैहायसमरण) वृक्षशाखाद्युबद्धत्वेन मरणे, स०१७ | वोच्छिण्णदोहला-स्त्री०(व्यवच्छिन्नदोहृदा) त्रुटितवाञ्छायाम, भ०११ सम०। ('मरण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 106 पृष्ठे व्याख्या।) "उब्बंधणाइ श०११ उ०। वेहास'' ति उत्- ऊर्ध्व वृक्षशाखादौबन्धनमुन्धनं तदादिर्यस्य | वोच्छिण्णमडंब-न०(व्यवच्छिन्नमडम्ब) ग्रामाभ्यन्तरवर्त्ति ग्रामतरुगिरिभृगुप्रपातादेरात्मजनितस्य मरणस्य तदुद्न्धनादि / 'वेहास' घोषादिरहिते, "वोच्छिण्णमडबं णाम जत्थ दुजोयणब्भतरे गामघोसादि ति प्राकृतत्वात् यलोपे वैहायसम् / उद्रद्धस्य हि विहायस्येव भवनमिति। णऽस्थि' नि० चू०१ उ०। उत्त० 4 अ०। वोच्छित्ति-स्त्री०(व्यवच्छित्ति) उच्छित्ती, पं० सू० 1 सूत्र / आ० म०। वो-(युष्मान्-युष्मद्-शस्) "वो तुज्झ तुब्भे तुम्हे उरहे भे शसा' | स्था०। ।।८।३३६३इति शसा सह युस्मदो 'वो' इत्यादेशो वा / वो। तुभे। / वोच्छित्तिणय-पुं०(च्यवच्छित्तिनय) व्यवच्छित्तिप्रतिपादनपरो नयो बहुत्वे कर्मतामापन्ने युष्मच्छब्दार्थे, प्रा०३ पाद। व्यवच्छित्तिनयः / पर्यायास्तिकनये, नं०। दोंड-न०(वोण्ड) अविकासितावस्थे कमले, विशे० / आ० म०। वोच्छेय-पुं०(व्यवच्छेद) उच्छेदे, ति० (वीरतीर्थे केवल्यादिव्युच्छेदः कापासीफले. ज्ञा० 1 श्रु०१७ अ० / फले, जी०३ प्रति०४ अधि०।। 'तित्थुग्गालिय' शब्दे चतुर्थभागे 2316 पृष्ठे विशेषत उक्तः।) तं०1 औ०। वोज्ज-धा०(वस्) उद्वेगे, "बसेर्डर-वोज-वजाः / / 8 / 4 / 168 // इति वॉडकप्पास-न०(बोण्डकार्पास) वोण्डं-वनी तस्य फल पक्ष्माणि सधातोः वोजादेशः / वोजइ। त्रस्यति / प्रा० 4 पाद। कल्पनीयानि कासः। रूते, नि० चू०३ उ०। | वोज्झ-त्रि०(उह्य) नेये, "णासाणीसासवोज्झं" झा०१ श्रु०१ अ०।
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________________ वोत्तव्व १४६७-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वोसट्ठतिट्ठाण - वोत्तव्य-त्रि०(वक्तव्य) "वचो वोत्" ||84211 / / इति वच धातोस्त- | उत्त० 12 उ० / परिकर्मवर्जनतस्त्यक्तशरीरे, स्था० 6 ठा० 3 उ० / ध्यप्रत्यये वोदादेशः / कथनीये, प्रा०४ पाद। आ० म० / भ० / कल्प०। सूत्र०। आचा०। प्रव०। व्य०। वोत्तु-अव्य०(वक्तुम्) वच्- तुमुन् / 'वचो वोत्' / / 8 / 4 / 211 / / इति इदानीं नित्यं 'व्युत्सृष्टाकाय' इति पदं व्याख्यायते। वचधातोर्वोदादेशः / प्रा० / गदितुमित्यर्थ, जीवा० 14 अधि० / निचं दिया व रातो, पडिमा कालो व जत्तिओ भणितो। वोत्तूण-अव्य०(उक्त्वा ) वच- त्वा। ''वचो वोत्' / 8 / 4 / 211 / / इति दव्वम्मि य भावम्मि य, वोसटुं तत्थिमं दवे / / 6 / / वोदादेशः / गदित्वेत्यर्थे, प्रा०४ पाद। नित्यम्- सदा दिवा रात्रौ च / अथ वा यावान् प्रतिमाकालो भणितवोदाण-न (व्यवदान) -विशेषेण अवदान कर्म शुद्धिर्यवदान' / उत्त० स्तावान् कालो व्युत्सृष्टकायः। तच व्युत्सृष्ट द्विधाद्रव्ये, भावे च। तत्र द्रव्ये 26 अ० / दार-- लवने, अथवा-दैप शोधने. इति वचनात् / इतो वक्ष्यमाणम्। पूर्वकृतकर्मवनगहनस्य लवने, प्राकृतकर्मकचवरशोधने, भ०२ श०५ तदेवाऽऽहउ०। स्था० / पूर्वकर्मक्षपणे, प्रव०२ द्वार। पञ्चा०। कर्मनिर्जरणे, भ०२ असिणाण भूमिसयणा, अविभूसाकुलवधू पउत्थधवा। श०५ उ०। उत्त। रक्खइ पतिस्स सेजं, अणिकामा दव्वदोसट्ठा / / 7 / / वोदाणेणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? वोदाणेणं अकिरियं कुलवधूः- प्रोषितधवा अस्नाना भूमिशयना अकृतविभूषा / एवं जणयइ, अकिरियाए भवित्ता तओ पच्छा सिज्झइ बुज्झइ मुचइ द्रव्यव्युत्सृष्टा अनिकामा सकामा पत्युः शय्या रक्षति। एतद्रव्यव्युत्सृष्टम्। परिनिव्वायइ सव्वदुक्खाणमंतं करेइ॥२८|| भावव्युत्सृष्टमाहहे भदन्त! व्यवदानेन जीवः किं जनयति ? गुरुराह हे शिष्य ! व्यवदानेन वातियपित्तियसिंभिय-रोगायंकेहिँ तत्थ पुट्ठोऽवि। जीवोऽक्रिय जनयति / न विद्यते क्रिया यस्मिन् सः अक्रियस्तम्, अक्रियं न कुणइ परिकम्मं सो, किंचि वि वोसट्ठदेहो उ / / 8 / / व्यपरतक्रियाख्यं शुक्लध्यानस्य चतुर्थं भेदजनयति। अक्रियको भूत्वाव्यपरतक्रियाख्यशुक्लध्यानवर्ती भूत्वा ततः पश्चात् सिद्धिं व्रजति / तत्र यवमध्यायां वजमध्यायां वा चन्द्रप्रतिमायां स्थितो वा तिकपैबुध्यते-ज्ञानदर्शनाभ्यां सम्यक् वस्तुवेत्ता भवति, मुच्यते-संसारात्मुक्तो त्तिकश्लैष्मिकरोगातरैः स्पृष्टोऽपि स व्युत्सृष्टदेहो न किंचिदपि परिकर्म भवति, परिनिर्वाति-परिसमन्तात् निर्वाति काग्निं विध्याप्य शीतलो करोति / व्य०१० उ०। स्था०। भवति, सर्वदुः- खानाम् अन्तं करोति। उत्त० 26 अ० / हरितवन निन्थ्या व्युत्सृष्टकायिकया न भवितव्यम्स्पतिभेदे, ग्रा०॥ नो कप्पति निग्गंथीए वोसट्ठकाइयाए होत्तइ॥२१॥ वोम-न०(व्योमन्) विशेषेणावनात्-व्योम। भ०२० श०२ उ०। आकाशे, नो कल्पते निर्ग्रन्थ्याः व्युत्सृष्टकायिकायाः- परित्यक्तदेहाया भवितुविशे०। द्वा० / दर्श०। आव०। अम्बरे, अनु०। आ० क०।"धोमाइप- मिति सूत्रार्थः। इहाणे," व्योमादिप्रतिष्ठानमित्यत्र च प्रतिष्ठितिः प्रतिष्ठानं भावे ल्युट्। अत्र भाष्यम्व्योम--आकाशः। आदिशब्दाबाह्यादिपरिग्रहः / व्योमादौ प्रतिष्ठानम वोसट्टकायपेल्लण-तरुणाई गहणदोस ते चेव। स्येति व्योमादिप्रतिष्ठानः / दर्श०४ तत्त्व। दव्वाई अगिणिम्मि य, सावयभयबोहिए वितियं // 264 / / वोयसिज्जमाण-त्रि०(व्यवकृष्यमाण) हीयमाने, भ०१ श०७ उ०। व्युत्सृष्टकायिका नाम-दिव्याधुपसर्गा मया सोढव्या इत्यभिग्रहं गृहीत्वा वोलट्टमाण-त्रि०(व्युल्लठत) विशेषत उल्लठतीव। अत्युल्लण्ठे, जी० शरीरं व्युत्सृज्य समयप्रसिद्धनाभिभवेकायोत्सर्गेण स्थितायाश्चो३ प्रति० 4 अधि० दीर्णमोहे-प्रेरणतरुणग्रहणादयस्त एव दोषा मन्तव्याः। द्वितीयपदे तु वोलित्ता-अव्य०(अतिक्रम्य) उल्लङ्घयेत्यर्थे, "अडविं सपचवायं बोलेत्ता द्रव्याग्निमन्त्रस्तेनस्वापदभये बोधिकभये वा गाढतरे उपस्थिते व्युत्सृष्टदेसओवएसेणं'' आव० 1 अ०। कायिकाऽपि भवेत्। बृ०५ उ०। वोलीण-त्रि०(अतिक्रान्त) 'बलेनाष्फुण्णादयः'' ||8 / 4 / 258 / / वोसट्टचत्तदेह-पुं०(व्युत्सृष्टत्यक्तदेह) व्युत्सृष्टः-परिकर्माभावेन त्यक्तो इत्यतिक्रान्तस्थाने वोलीणादेशः / गते, प्रा०४ पाद / ममत्वत्यागेन देहः कायो येन स तथा। निष्प्रतिकर्मशरीरे, निर्ममे, पञ्चा० वोसट्ठ-त्रि०(व्युत्सृष्ट) त्यक्ते, स्था०६ ठा० 3 उ०। (व्युत्सृष्ट रजोहरण न / 5 विव०। धारणीयमिति 'रओहरण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 474 पृष्ठ उक्तम्।) वोसट्ठतिट्ठाण-त्रि०(व्युत्सृष्टत्रिस्थान) व्युत्सृष्टानि परित्यक्तानि त्रीणि वोसट्टकाय-पुं०(व्युत्सृष्टकाय) विविधैरुपायैः, विशेषेण वा परीषहोप- | स्थानानि ज्ञानादिरूपाणि येन स व्युत्सृष्टत्रिस्थानः / पार्श्वस्थे, ग०१ सर्गसहिष्णुलक्षणेनोत्सृष्टस्त्यक्तः-कायः शरीरमनेनेति व्युत्सृष्टकायः। / अधिo1
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________________ वोसट्ठदेह 1468 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 वासु वोसट्टदेह-पुं०(व्युत्सृष्टदेह) व्युत्सृष्टो- भावप्रतिबन्धाभावेन त्यक्तश्च दोसिरण-न०(व्युत्सृजन) परित्यागे, आव०४ अ०। दशा० / संस्काराविभूषाकरणेन देहः-शरीरं यस्य स तथा। द्वा०२६ द्वा०। परीषहोप- दिव्यापारकारणेन परित्यागे, आ० चू०५ अ० आत्मनो दुष्टकर्मकारिणसर्गसहने कल्पितकाये. उत्त०१२ अ०। स्तदनुमतित्यागे, आव०३ अ०। ('वोसिरामि' इत्यस्यार्थः-'सामाइय' वोसट्ठमाण-त्रि०(व्युत्सृजत्) जलप्राचुर्यादव विकसति स्फारी-भवति। शब्दे वक्ष्यते।) मुहुर्मुहुः पुरी-षोत्सर्गविधाने, ओघ०। पं०व०। वर्द्धमाने, भ० 12 106 उ० / परिपूर्णभूततया उल्लुटति, जी०३ | वोसरियव्व-त्रि०(व्युत्सृष्टव्य) त्यक्तव्ये, बृ०३ उ०। प्रति०४ अधि०॥ वासु-पुं०(व्यास) "अभूतोऽपि क्वचित्" / / 8 / 4 / 366 / / इत्यपभ्रशे वोसरिय-त्रि०(व्युत्सृष्ट) कृतपुरीषप्रश्श्रवणोत्सर्गे, ओघ०। रेफागमः / कृष्णद्वैपायने, "वासु महारिसि एउ भणइ" प्रा०। इति श्रीसौधर्मबृहत्तपोगच्छीय-कलिकालसर्वज्ञकल्पप्रभु-श्रीमद्भधारकजैनश्वेताम्बराऽऽचार्यश्री 1008 श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वर विरचिते “अमिधानराजेन्द्रे" वकाराऽऽदिशब्दसङ्कलनं समाप्तम् // तत्समाप्तौ च समाप्तोऽयं षष्ठो भागः /