________________ महिसी २३०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 महुर उ०।"सेरिही महिसी' पाइ० ना०२१६ गाथा। तथाविधलब्धिवशान्मधुतुल्यं वचनं वदन्ति।आ०चू०१ अ०। आ०म०। महिहर पुं० (महीधर) पर्वते, "(76) सेलो असलो भद्दी सिलोचयो | महुकरसम त्रि० (मधुकरसम) भ्रमरतुल्ये, दश०१ अ०। महिहरो धरो सिहरी" पाइ० ना०५० गाथा। महुकरी स्त्री० (मधुकरी) भ्रमर्याम्, औ०। मही स्त्री० (मही) पृथिव्याम्, उत्त०२७ अ० / बृ० / आ०म० / मनः- | महुकुंभ पुं०(मधुकुम्भ) मधुनः क्षौद्रस्य कुम्भो मधुकुम्भः, मधुभृतं मध्वेव शिलायाम, जै०गा०। भुवि, दश०५ अ०१ उ०। सूत्र०।महावातोत्क्षि- | कुम्भः मधुकुम्भः / मधुपूरिते घटे, स्था०४ ठा०४ उ०। ससचित्तपृथिव्याम्, विशे०। रत्नप्रभादिपृथिवीषु, आव०४ अ० / महुकेटभ पुं० (मधुकैटभ) चतुर्थे प्रतिवासुदेवे, प्रव०२११ द्वार / समुद्रगते महानदीभेदे, स्था०४ ठा०२ उ०। जै० गा०॥"वसुहा वसुन्धरा आव० / ति०! वसुमई मही मेइणी धरा धरिणी' पाइ० ना०२६ गाथा। महुगुलिया स्त्री० (मधुगुटिका) क्षौद्रवर्तिकायाम्, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। महीरह पुं० (महीरुह) वृक्षे, "साही विडवी वच्छो महीरुहो पायवो दुमोय महुघाय पुं० (मधुधात) मधुग्राहकेषु, प्रश्न०१ आश्र० द्वार। तरू" पाइ० ना०५४ गाथा। महुतण न० (मधुतृण) तृणविशेषे, प्रज्ञा०१ पद। महीवलय न० (महीवलय) समस्तधरणीतले. दर्श०३ तत्त्व। महुप्पल न० (महोत्पल) शतपत्रे कमले, "अंबुरुहं सयवत्तं, सरोरुह महीहर पुं० (महीधर) चम्पायां नगयां कालीनामपर्वतस्थाधोभागे- पुंडरीअ-मरविदं।राईवं तामरसं, महुप्पलं पंकयं नलिणं॥१०॥" पाइ० . ण्डनामसरोवरे हस्तियूथाधिपतौ हस्तिनि, ती०१४ कल्प। प्रसन्नचन्द्र- ना०१० गाथा। भूपालपुत्रे, द्वी०। आ०क०। महुप्पिय पुं० (मधुप्रिय) सिद्धार्थपुरे विमलश्रेष्ठिनः तिक्रकटुकषायादिषु महु न० (मधु) अतिशायिशर्करादिमधुरद्रव्ये, विशे० / आ०म०। क्षौद्रे, लम्पटे पुत्रे, ग०२ अधि०। स्था०४ ठा०४ उ०। प्रव०। ज्ञा०। उपा०नि०चू०। पुष्पोद्भवे मद्ये, | महुप्पिहाण त्रि०(मधुपिधान) मधुभृतंमध्वेव वा पिधानं स्थगनं यस्यासौ उत्त०१६ अ०। पञ्चा०। कुसुमसम्भवे काले, स्था०७ ठा०।"मधूणि- मधुपिधानः / मधुना पिहिते, स्था०४ ठा०४ उ०। तिन्निमच्छियं पोत्तियं भामरं च" आ०चू०६अ। माक्षिकपोत्तिकभ्रमरभेदं महुमहपुं०(मधुमथ) उपेन्द्रे,"सउरी दसारनाहो, वइकुंठो महुमहोउविंदो त्रिधा मधु / पं० व०२ द्वार विपा० / दश० / ध०। आ०चू० / स्था०। य" पाइ० ना०२१ गाथा। मद्यविशेषे, जी०३ प्रति०४ अधि०। पञ्चा० जी०नि० चू० / औ०। महुमहण पुं० (मधुमथन) मधुदैत्यनाशके विष्णौ, विशे० / स्था० / निका "इदुतोः दीर्घः" |83|16|| महहिं / प्रा०। "मइरेअं महुवारो __ आ०म०। " सीहू सरओ महुं अवक्करसो" / पाइ० ना०६४ गाथा। मधुनि, न०। महुमुह (देशी) पिशुने, देना०६ वर्ग०१२२ गाथा। "सारहं महुं" पाइ० ना०२२४ गाथा। वसन्ततॊ, पुं०। "सुरही महू | महुमेह पुं० (मधुमेह) वस्तिरोगे, आचा०१ श्रु०६ अ०१ उ०। वसंतो'' पाइ०ना०१५६ गाथा। "मजे महुम्मि मंसंमि, नवणीयंमि महुमेहिय त्रि० (मधुमेहिक) मधुमेहो विद्यते यस्यासौ मधुमेही / चउत्थए / उप्पजंति असंसाया, तव्वणा तत्थ संतुवो // 1 // " इत्यत्र मधुतुल्यप्रस्त्राववति, आचा०१ श्रु०६ अ०१ उ० / मधुवर्णभूत्रामद्यादिचतुष्के ये जीवा उत्पद्यन्ते ते कियदिन्द्रिया इतिप्रश्ने, उत्तरम्- नवरतप्रस्त्राविणि, आचा०१ श्रु०६ अ०१ उ० प्रश्न०। विपा०। रा०। मद्ये मधुनि नममीसे च द्वीन्द्रियाः, मांसे एकेन्द्रिया बादरभिगोदरूपा आ०क०। द्विखुरजीवविशेषे, औ०। द्वीन्द्रियाश्च, मनुष्यमांसे तु एकेन्द्रिया बारभिगोदरूपा द्वीन्द्रियाः महुयर पुं० (मधुकर) भ्रमरे, ज्ञा०१ श्रु०१६ अ०। आ०म०। मधुकरैर्मदसम्बच्छिनमनुष्यपधेन्द्रियरूपाश्च / सम्मूर्च्छन्तीति ज्ञासादुसारेण ___जलगन्धाकृष्टः-कृतमन्धकारं यस्य स तथा। औ०। संभाव्यत इति 67 प्र० / सेन०२ उल्ला०। महुर त्रि० (मधुर) श्रुतिपेशले, सूत्र०१ श्रु०१६ अ०। ज्ञा०। मत्तकोकिमड्ढच्च न० (मचूक) मचूके वा !॥८।१।१२सा इति ऊत उद्या / महुआ लारुतवन्मधुरस्वरे, अनु० स्था०। भाषयाकोमले, ज्ञा०१ श्रु० अ०1 महू। 'महुआ' नामकवृक्षभेदे, प्रा० / श्रीदामख्यपक्षिभागधयोः, दे० शर्कराद्याश्रिते, अनु०ाक्षीरदध्यादिषु, ताखण्डशर्कराद्याश्रितेरसभेदे, ना०६ वर्ग 144 गाथा। कर्म०१ कर्म० / कोमले, औ०। विशे० आह्वादनबृंहणकृति, स्था०। महुअर पुं० (मधुकर) भ्रमरे, कल्प०१अधि०२ क्षण। फल्लंधुआ रसाऊ, एगे महुरे (सूत्र) स्था०१ ठा०। भिंगा भसलाय महुअरा अलिणो। इंदिदिरा दुरेहा, धुअगाया छप्पया मध्वादिके, दश०५ अ०५ अ०१ उ० / "पित्तं वातं कर्फ हन्ति, भमरा // 11 // पाइ० ना०११ गाथा। धातुवृद्धिकरो गुडः / जीवनक्लेशकृद्वालवृद्वक्षीणौजसां हितः।।१।।" महुआसव पुं० (मध्वासव) मधु किमप्यतिशायिशर्करादिमधुरद्रव्यं, जं०२ वक्ष० / ज्ञा० / अनु०। ओत्रप्रिये, रा०। अकठोरे, भ०६ मध्विव वचनमाश्रवन्तीति मध्वाश्रवाः / लब्धि विशेषकलितेषु, ये हि श०३३ उ०। कोकिलारुतवन्मधुरस्वरे, जं०१ वक्ष०। रा०। मधुरं