________________ मरण 45 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मरण कत्थइ दुविहिएहि, रक्खसवेयालभूयरूवेहि। मिलिओ वहिओ य अहं, मणुस्सजम्मंमि निस्सारो॥५६१।। पयड़ कुडिलम्मि कत्थइ, संसारे पाविऊण भूयत्तं / बहुसो उब्वियमाणो, मए विवीहाविया सत्ता / / 16 / / तिरसं आरसगाणो, कत्थई रण्णे सुधाइओसह यं / सावयगहणंमिवणे, भयभीरूखुमियचित्तोऽहं / / 3|| पत्तं विचित्तविरसं, दुक्खं संसारसागरगएणं। रसियं च असरणेणं, कयं तदंतंतरगएणं / / 564|| तइया कीस न हायइ, जीवो जइया सुसाणपारिशिदं / भल्लुंकिकंकवायस-सएसु ढोकिजए देहं / / 565 / / ता तं णिजिणिऊण, देहं मुत्तूण वचए जीनो। सो जीवो अविणासी, भणिओ तेलुक्कदंसीहिं / / 566 / / तं जइ ताव न मुचइ, जीवो मरणस्स उब्वियंतोऽवि। तम्हा मज्झन जुज्जइ, दाउण भयरस अप्पाणं / / 567 / / एवमणुचिंतयंता, सुविहिय ! जरमरणभावियमईया। पावंति कयपयत्ता, मरणरागाहिं महाभागा / / 568|| एवं भावियचित्तो, संथारतरंभि सुविहिरा ! सयाऽवि। भावेहि भावणाओ, बारराजिणंवराणदिवाओ॥५६६|| इह इत्तो चउरंगे, चउत्शमग सुसाहुधग्मंमि। बन्ने भावणाओ, वारशिमो वारसंगविऊ // 570 / / समणेण सावएण य, जाओ निचं पि भावणिजाओ। दढसंवेगकरीओ, विसेसओ उत्तमदगि / / 571 / / पढम अणिचभावं, असरण यं एगयं च अन्नत्तं / संसारमसुभयाऽविय, विविहं लोगस्सहावं च / / 572 / / कम्मरस आसवं संवरं च निजरणमुत्तमे य गुणे / जिणसासणामि यो हि, च दुल्लह चिंतए मइगं॥५७३।। राव्वट्ठाणाइ असा सयाइं इह चेव देवलोगे य। सुरअसुरनराईणं, रिद्धिविरोसा सुहाइ वा 1574|| मायापिईहिं सहतडिएहि मित्तेहिं पुत्तदारेहिं। एगयओ सहवासो, पीई पणओऽवि अ अणिचो // 575 / / भवणेहिं व वणेहि य, सयणाऽऽसणजाणवाहणाईहिं। संजोगो वि अणिचो, तह परलोगेहिं सह तेहिं / / 576 / / बलवीरियरूवजोव्वण, सामग्गिसुभगया वपूसोभा। देहस्स य आरुग्गं, असासयं जीवियं चेव / / 577 / / जम्मजरामरणभये, अभिवए विविहवाहिसंतत्ते / लोगम्मि नऽत्थि सरणं, जिणिंदवरसासणं मुत्तुं / / 578|| आसेहि य हत्थीहि य, पव्वयमित्तेहिँ निचमित्तेहिं / सावरणपहरणेहि य, बलवयमत्तेहिं जोहेहिं / / 576 / / महया भडचडगरपह-करेण अवि चक्कवट्टिणा मच्चू / न य जियपुव्वो केणऽइ, नीइबलेणाऽवि लोगंभि // 580 / / विविहेहि मंगलेहि य, विज्जामंतोसहीपओगेहिं। न वि सक्का तारेउं, मरणाणऽविरुण्णसोएहिं / / 581 // पुत्ता मित्ताय पिया, सयणो बंधवजणो अ अत्थो य! न समत्था ताएउं, मरणा सिंदाऽवि देवगणा / / 5821 // सयणस्स य मज्झगओ, रोगामिहओ किलिस्सइ इहेगी। सयणोऽवि य से रोगं, न विरिंचइ नेव नासेइ!।५८३।। मज्झमि बंधवाणं, इक्को मरइ कलुणरुयंताणं / न यणं अनेति तओ, बंधुजणो नेव दाराइं॥५८४|| इको करेड़ कम्म, फलमवि तस्सेक्कओ समणुहवई। इक्को जायइ मरइ य, परलोयं इक्कओ जाइ / / 585|| पत्तेयं पत्तेयं, नियगं कम्मफलमणुहवंताणं / कोकस्स जए सयणो? को कस्सव परजणो भणिओ? 586 / को केण समं जायइ, को केण समं च परभवं जाइ। को वा करेइ किंची, कस्स व को कं नियत्तेइ ? ||17|| अणुसोअइ अण्णजणं, अन्नभवं तरगयं तु बालजणो। न वि सोयइ अप्पाणं, किलिस्समाणं भवसमुद्दे / / 588|| अन्नं इमं सरीरं, अन्नोऽहं बंधवाऽविमे अन्ने। एवं नाऊण खमं, कुसलस्स न तं खमं काउं? // 586 // हा! जह मोहियमइणा, सुग्गइमग्गं अजाणमाणेणं / भीमे भवकंतारे, सुचिरं भमियं भयकरम्मि // 560 / / जोणिसयसहस्सेसु य, असयं जायं मयं वऽणेगासु / संजोगविप्पओगा, पत्ता दुक्खाणि य बहूणि // 561|| सग्गेसु य नरगेसु य, माणुस्से तह तिरिक्खजोणीसुं। जायं मयं च बहुसो, संसारे संसरंतेणं // 562 / / निन्भत्थणाऽवमाणण, वहबंधणरुंधणा घणविणासे। ऽणेगा य रोगसोगा, पत्ता जाईसहस्सेसुं // 563 / / सो नऽत्थि इहोगा सो,लोए वालऽग्गकोडिमित्तो वि। जम्मणमरणाऽबाहा, अणेगसो जत्थ न य पत्ता ||564|| सव्वाणि सव्वलोए, रूवीदव्वाणि पत्तपुव्वाणि / देहोवक्खरपरिभो-गयाइ दुक्खेसु य बहूसुं / / 565|| संबंधिबंधवत्ते, सव्वे जीवा अणेगसो मज्झं। विविहवहवेरजणया, दासासामी य मे आसी।।५६६|| लोगसहावो धी धी, जत्थ व मायामया हवइ घूया। पुत्तोऽविय होइ पिया, पियाऽवि पुत्तत्तणमुवेइ // 567|| जत्थ पियपुत्तगस्सऽवि, माया छाया भवंतरगयस्स। तुट्ठा खायइ मंसं, इत्तो किं कट्ठयरमन्नं ? ||568|| धी संसारोजहियं, जुवाणओ परमरूवगव्वियओ। मरिऊण जायइ किमी, तत्थेव कलेवरे नियए / / 566| बहुसो अणुभूयाई, अईयकालम्मि सव्वदुक्खाई। /