________________ मरण 150 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मरण. कत्थइ तिरियसरिच्छं,माणुसजाई बहुविचित्ता॥६४०॥ एयं मरणविभत्तिं, मरणविसोहिं च नाम गुणरयणं / दणऽवि अप्पसुहं, माणुस्संगदोससंजुत्तं / मरणसमाहीतइयं, संलेहणसुयं चउत्थं च // 661 / / सुदऽवि हियमुवइडं, कजं न मुणेइ मूढजणो॥६४१|| पंचम भत्तपरिणा, छटुं आउरपञ्चक्खाणं च / जह नाम पट्टणगओ, संते मुल्लंमि मूढभावेणं / सत्तम महपचक्खाणं, अट्ठम आराहणपइण्णो // 662 / / न लहंति नरा लाहं, माणुसभावं तहा पत्ता / / 642 / / इमाओ अट्ट सुयाओ, भावा उ गहियंमि लेस अत्थाओ। संपत्ते बलविरिए, सब्भावपरिक्खणं अजाणता। मरणविभत्तीरइयं, बियनाम मरणसमाहिं च / / 663 / / न लहंति बोहिलाभ, दुग्गइमग्गं च पावंति // 643|| इति सिरिमरणविभत्तीपइण्णयं संमत्तं // 8 // अम्मापियरो भाया, भजा पुत्ता सरीर अत्थो य। द०प०१० प्रक०। (केन प्रकारेण म्रियमाणो जीवो वर्धते हापयति भवसागरंम्मि घोरे, म हुँति ताणं च सरणं च // 644 // चेति 'खंदग' शब्दे तृतीयभागे गतम्)। (न केचिदकाले नियन्ते, इति नऽवि माया नऽविय पिया, न पुत्तदारा न चेव बंधुजणो। हिंसा न दोषावहेति 'हिंसा' शब्दे निराकरिष्यते) न वि य धणं न वि धनं, दुक्खमुइन्नं उवसर्मेति // 645|| चोद्दसरजूलोए, गोयम ! बालऽग्गकोडिमित्तं पि। जइयासयणिजगओ, दुक्खत्तो सयणबंधुपरिहीणो। तं नऽत्थिपएसं जत्थ, अणंतमरणे न संपत्ते // 1 // उव्वत्तइ परियत्तइ, उरगो जह अग्गिमज्झम्मि॥६४६|| महा०५ अ०॥ असुइ सरीरं रोगा, जम्मणसयसाहणं छुहा तण्हा। ण य संसारंमि सुहं, जाइजरामरणदुक्खगहियस्स। उण्हं सीयं वाओ-पहाभिघाया यऽणेगविहा॥६४७।। जीवस्स अत्थि जम्हा, तम्हा मोक्खो उवाएउ ||1|| सोगजरामरणाइं, परिस्समोदीणयाय दारिहं। महा०६ अ०। (मरणभेदाः "भरणविभत्ति" शब्दे) तह य पियविप्पओगा, अप्पियजणसंपओगाय॥६७६|| मरणंत पुं० (मरणान्त) मरणरूपोऽन्तो मरणात्नः / स०३२ सम० / एयाणि य अण्णाणि य, माणुस्से बहुविहाणि दुक्खाणि। यावच्चरमोच्छवासः / ध०२ अधि० / चरमकाले, दश०५ अ०२ उ०। पचक्खं पिक्खंतो, को न मरइ तं विचिंतंतो? // 646 / / "मरणते वीति" (36 गाथायाः व्याख्या 'मन' शब्दे गता) लभ्रूण वि माणुस्सं, सुदुल्लहं केइ कम्मदोसेणं / मरणकाल पुं० (मरणकाल) मरणेन विशिष्टः कालो मरणकालः / सायासुहमणुरत्ता, मरणसमुद्देऽवगाहिंति // 650 / / अद्धकालज एव, मरणमेव वा कालो, मरणस्य कालपर्यायत्वान्मतेण उ इहलोगसुहं, मुत्तूणं माणसंसियमईओ। रणकालः। तृतीये कालभेदे, भ०। विरतिक्खमणभीरू, लोगसुइकरण दोगुंछी // 651 / / से किं तं मरणकाल ? मरणकाले दुविहे पण्णत्ते / तं दारिहदुक्खवेयण, बहुविहसीउण्हखुप्पिवासाणं। जहा-जीवो वा सरीराउ / सरीरं वा जीवाउ / सेत्तं अरइभयसोगसामिय-तक्करदुभिक्खमरणाइं॥६५२|| मरणकाले (सूत्र-२४४) एएसिं तु दुहाणं जं पडिवक्खं सुहंति तं लोए। (जीवो वा सरीरेत्यादि)जीवो वा शरीरात्, शरीरं वा जीवात् वियुज्यत जं पुण अचंतसुहं, तस्स परुक्खा सया लोया / / 653 / / इति शेषः / श्रीशब्दौ शरीरजीवयोरवधिभावस्येच्छानु-सारिता जस्स न छुहान तण्हा, न य सीउएहं न दुक्खमुक्टुिं / प्रतिपादनार्थाविति। भ०११ श०११ उ०। नय असुइयं सरीरं, तस्सऽसणाईसु किं कजं? // 65 // | मरणंजयज्झवसियन०(मरणजयाध्यवसित) सुभटभावतुल्ये, मर्त्तव्यं जह निंबदुमुप्पन्नो, कीडो कडुयंऽपि मन्नए महुरं। वा जयो वा प्राप्तव्य इति प्रवृत्तसवुभटाध्यवसायसदृशे, (गाथा-५२०) तह मुक्खसुहपरुक्खा , संसारदुहं सुहं बिंति॥६५५।। पं०व०२ द्वार। जे कडुयदुमुप्पन्ना कीडा, वरकप्पपायवपरुक्खा। मरणदुक्खपडिकूल पुं० (मरणदुःखप्रतिकूल) मरणलक्षणस्य दुःखस्य, तेसिं विसालवल्ली, विसं व सग्गो य मुक्खो य / / 656|| मरणदुःखयोर्वा प्रतिकूलाः प्रतिपन्थिनः / मरणक्लेशपरिपन्थिषु, तह परतित्थियकीडा, विसयविसंकुरविमूढदिट्ठीया। प्रश्न०१आश्र० द्वार। जिणसासणकप्पतरु-वरपारुक्खरसा किलिस्संति / / 657 / / मरणदेसकाल पुं० (मरणदेशकाल) मरणप्रस्तावे, (गाथा-११) तं०। तम्हा सुक्खमहातरु,सासयसिवफलयसुक्खसत्तेणं। (व्याख्या 'धम्म' शब्दे चतुर्थभागे गता) मुत्तूण लोगसण्णं, पंडियमरणेण परियध्वं // 658 / / मरणमय न० (मरणभय) मरणमायुष्कक्षयलक्षणं तदेव भयं मरणभयम्। जिणमयभाविअचित्तो, लोगसुई मलविरेयणं काउं। भयस्थानभेदे, (सूत्र-७) स०६ सम० स्था०। धम॑मि तओझाणे, सुक्के य मई निवेसह // 656 / / मरणविभत्ति स्त्री० (मरणविभक्ति) मरणानि-प्राणत्यागलक्षणानि / तानि च सुणह-जह जिणवयणाम-य भावियहियएण झाणवावारो। द्विधा-प्रशस्तानि अप्रशस्तानि च / तेषां विभजनपार्थक्येन स्वरूपप्रकटनं करणिओ समणेणं,जं झाणं जेसु झायव्वं // 660 // यस्यांग्रन्थपद्धतौसामरणविभक्तिः।नं० आगमबाह्योत्कालिकद्वार्विशेश्रुतभेदे,