________________ विजयसूरि 1145 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विजया विजयसूरि-पुं०(विजयसूरि) सुरत्नविजयविष्ये,' श्रीवीरपट्टाधिपति बभूव, सूरिः सुरत्नद्विजयो यशस्वी। यस्मिन् समुद्रे विविशुः समग्रा, विद्याः सुनद्यश्च चतुर्दशापि" ||1|| द्रव्या० 15 अध्या०। विजयसेट्ठि-पुं०(विजयश्रेष्ठिन) स्यनामख्याते श्रेष्ठिनि, ध०२०। तत्कथा चैवम"इह विजयवद्धणपुरे, अस्थि विसालु त्ति विस्सुओ सिट्ठी। कयकोहजोहविजओ, विजओ नामेण से पुत्तो।।१।। सो उज्झायमुहाओ, कयाइ आणन्नई इमं वयणं / अप्पहिएण नरेणं, खमापहाणेण होयव्यं / / 2 / / खंती सुहाण मूलं, मूलं कोहा दुहाण सव्वाणं। विणओ गुणाण मूलं, मूलं माणो अणत्थाणं / / 3 / / जिणजणणी रमणीणं, मणीण चिंतामणी जहा पवरो। कप्पलया य लयाणं, तहा खमा सव्वधम्माणं // 4 // इह इक्कं चिय खंति, पडिवज्जिय जियपरीसहकसाया। सायाणंतमणंता, सत्ता पत्ता पयं परमं // 5 // पीऊसवरिससरिसं,तंसो संगिणइ तत्तबद्धीए। जाओ बिउसो कमसो, पत्तोय सुतारतारुन्नं / / 6 / / पियरेहि वसंतपुरे, सागरसिट्ठिस्स गोसिरिं धूयं / परिणाविओ तर्हि चिय, मुत्तु पियं नियपुरं पत्तो // 7 // ससुरगिहाउ कयाइ वि, चित्तु पियं नियगिहम्मि सो इंतो। अद्धपहे पडिभजिओ, नियपियरुक्कंठियपियाए|| वाहइ तिसापिसाई, भिसं ममं नाह! तो इमो तुरियं / पत्तो कूवे सद्धिं, णुभग्गलग्गाइ दइयाए॥६॥ जा कड्डइ वादि तओ, ता अवडे तं खिवित्तु सा पत्ता। जयणगिहे भणइ अहं, न तेण नीया असउणत्ता / / 10 / / निवडतोस तदुभव-तरुम्मिलग्गिय विणिग्गओतत्तो। चिंतइ सहावसोमो, किं तीइ अणुलिओ अहयं / / 11 / / हुनायं पियगिहगमण-पवणचित्ताइ ता अरे जीव!। मा कुणसुतीइ उवरि, रोसं सोसंच देहस्स।।१२।। सव्वो पुव्वकयाणं, कम्माणं पावए फलविवागं। अवराहेसु गुणेसु य, निमित्तमित्तं परो होई // 13 // जइ खमसि दोसवंते, ता तुह खंतीइ होइ अवयासो। अह न खमसि तो तुह अवि, सया अखंतीइ वावारो॥१४॥ इह चिंतिय नियगेहं, पत्तो जणणीइ पुच्छिओ भणइ। अवसउणकारणा मे, सुणहा नो आणिया अंब।।१५।। बहुआ बहुआणयणे, पिऊहि भणिओ वि सोन उच्छहइ। तो तीइवराईए, काहिइ दुक्खं ति काऊणं॥१६॥ कइया वि भिसं मित्तेहि, पेरिओ सो गओ ससुरगेहे। ठाऊण कइवयदिणे, चित्तुं पियं सगिहमणुपत्तो॥१७॥ पियरेसु उवरएसुं, जायं तेसिं गिहस्स सामित्तं / पिम्मपराण कमेणं, चउरो तणया समुप्पन्ना / / 18|| पयई सोमसहावो, विचओ पाएण हणिय बहुपावो। जाओ सुसेवणिज्जो, परियणसुहिसयणपभिईण // 16 // तस्ससग्गिवसेणं, पसमिक्कधणो घणोजणो जाओ। जं संगाउ जियाणं, गुणा गुणा हुंति भणियं च // 20 // " काव्यम्संतप्तायसि संस्थितस्य पयसो नामापि न ज्ञायते, मुक्ताकारतया तदेव नलिनीपत्रस्थितं राजते। स्वातौ सागरशुक्तिसंपुटगतं तज्जायते मौक्तिकं, प्रायेणाधममध्यमोत्तमगुणः संसर्गतो दृश्यते // 21 // "निव्वुइदाणपहाणं, खमागुणं मुणियसुहमणो विजओ। जइ नियइ कं पि कलह, तयं तओ भणइ इय वयणं / / 22 / / विलसिरपरमपमोया, खमापहाणा भवेह भो लोया !! मा कुणह कह वि कोह, ओहं पि व भवसमुदस्स॥२३॥ धम्मत्थकाममुक्खा-ण हारणं कारणं दुहसयाणं। कलह कलहंसा इव, कलुसजलं चयह भो भविया // 24 // सव्वस्साविहिलीयं, अजंपियं जंपिया उ वरमिहायं। निउणमइस्स परस्स वि, अपुच्छियं पुच्छ्यिाउ वरं / / 25 / / इय पइदिणमुवएस, दितं जणयं भणेइ जिट्ठसुओ। किं ताय! तुमं पुणरु-तमेमुवइससि सव्वेसिं॥२६॥ विजओ जंपइ अणुहव-सिद्धमिणं वच्छ! मज्झसो आह। कह णु भणइ तो सिट्ठी, अजंपियं जंपिया उवरं / / 27 / / गाढायरेण तणए–ण,पभणिओ अह भणेइ सिट्ठी वि। तुह जणणीइ पुराहं, पणुल्लिओ वियडअवडम्मि॥२८|| नयतं तीए विमए, कहियं जातं सुहावहं जायं। तुमए वितओ एयं, कहियव्वं नेव कस्सावि॥२६॥ हसिऊण ऊणमइणा, तेणं पुढें कयाइ किं अम्मो। सबमिणं जंताओ, तुमए कूवम्मि पक्खित्तो // 30 // कह नायमिणं तीए, वढे सो आह ताय वयणाओ। तं सुणिय लज्जिया सा, हिययं फुडियं धस त्ति मया / / 31 / / एयं नाउं विजओ, अप्पं अप्पासयं ति निंदतो। सोयभरभरियहियओ, करेइ दइआइमयकिचं // 32 // संवेगरंगियमणो, कयावि सिरिविमलसूरिपासम्मि। निरवजं पव्यज्ज, सज्जो पडिवजए विजओ॥३३॥ सामन्नं बहुवरिसे, परिपालिय चइय पाटवं देह। लहिउंच अमरगेहं, कमेण पाविहि य सिद्धिपि // 34 // " इति निशम्य सुसाम्य निबन्धनं, विजयवृत्तमुदारमनुत्तरम् / प्रकृतिसौम्यगुणं गुणशालिनः, श्रयत भव्यजना जननच्छिदे 35 इति विजय श्रेष्ठिकथा। ध००१ अधि० 3 गुण / विजयसेण-पुं०(विजयसेन) अङ्गारमर्दकाचार्यस्य रुद्रदेवस्य अभव्यत्व परीक्षके गर्जनकपुरसमवसृते आचार्ये पञ्चा०३ विव०ा हीरविजयसूरिशिष्ये,ध०३ अधि०। ('मानविजय' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 242 पृष्ठेऽस्य वृत्तं गतम्।) "श्रीविजयसेनसूरि-प्रमुखैमुनिपुङ्गवैर्विगतदोषैः / सेवितपदारविन्दाः, श्रीगुरवस्ते जयन्तितराम्॥७२॥" ग०३ अधि०। स्वनामख्याते चन्द्रकान्तानगरीराजे, कल्प० 10 अधि०१ क्षण। एकोनविंशे अहोरात्रमुहूर्ते, चं० प्र० 10 पाहु०नागेन्द्रगच्छीये कलि-कालगौतमविरुद्धवतो हरिभद्रसूरेः शिष्ये, धर्माभ्युदयग्रन्थकृति उदयप्रभस्य गुरौ, अयं 1250 संवत्सरे विद्यमान आसीत्। जै० इ०। विजया-स्त्री० (विजया) पूर्वरुचकवास्तव्यायां दिक्कुमार्याम्, स्था० 8 ठा० 3 उ० / आ० चू० / जं० / द्वी० / आ० म० / ति० / आ० क० / पक्षस्य सप्तमतिथिरात्रौ, चं० प्र० 10 पाहु०।