________________ विमल 1208 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 विमल विमलस्सणं अरहओ अडसहि समणसाहस्सीओ उकोसिया / समणसंपया होत्था। (सू०६८+) स०६८ सम०। पुरुषाः सिद्धाःविमलस्सणं अरहओणं चउआलीसं पुरिसजुगाइं अणुपिडिं सिद्धाइं० जाव प्पहीणाइं। (सू०४५+) स०४४ सम०।। पञ्चमे भारतातीतजिने, प्रव०७द्वार / ति०। भारते वर्षे उत्सर्पितां भविष्यतिमल्लीपर्याये द्वाविंशे तीर्थकरे, सति०। (विमल-स्यार्हतः शिष्यसन्तानेन सुमङ्गलेनानमारेण गोशालकजीवो विमलवाहनराजो भस्मीकृत इति 'गोसालग' शब्दे तृतीयभागे 1034 पृष्ठे गतम्।) भारते भविष्यति दशमे चक्रवर्तिनि, ती०२० कल्प० एरवते वर्षे भविष्यति एकविंशे, तीर्थकरे, स०। द्वितीयतीर्थकरस्याजितस्वामिनः पूर्वभवजीवे, स०।स्वनामख्याते कुवलयचन्द्रवेष्ठिनः सुते, ध०२०। तत्कथानकञ्चैवम्सिरिनंदणं समयरं, अत्थिकुसत्थलपुरं मयणसरिणं / तत्थ य कुवलयचंदो, चंदो व्व जणप्पिओ सिट्ठी||१|| गयदंदा गंदसिरी, सिरीव पुरिसुत्तमस्स से भञ्जा। विमलसहदेवनामा, ताणं पुत्ता सया भत्ता ||2|| पगईऍ पावभीरू, जिट्टो विवरीयओ कणिट्ठो उ। कइया वि कीलिउ ते, उज्जाणगया नियति मुणिं / / 3 / / तस्स कमकमलममलं. सुठुपहिट्ठानमित्तु उवविठ्ठा। साहू वि कहइ धम्म, ताणुचियं सयलजीवहियं / / 4 / / हयसयलकम्मलेवो, देवो गुरुणो विसुद्धगुणगुरुणो। धम्मो दयाइरम्मो, भुवणे रयणत्तलं एयं / / 5 / / इय सुणिउंतुट्टेहिं, गहिओ सम्मत्तमाइ गिहिधम्मो। असमत्थेहिं तेहिं, दुद्धरजइधम्मधुरधरणे।।६।। ते अन्नदिणे चलिया, गहिउंपणियाइपुव्वदेसम्मि। केण वि पहिएण इमं, अद्धपहे पुच्छिओ विमलो // 7 // भो कहसु पंजलपहं, घणइंधणनीरनीरणाइजुयं / विमलो वि दंडभीरू, जंपइ अहयं न याणामि॥८॥ पभणेइ पुणो पहिओ, गामे नयरे व कत्थ गंतव्वे। सिट्ठीं तए सो साहइ, अग्घिस्सइजत्थ नणु पणियं / / 6 / / पुण पहिएणुल्लविय, नियनयरं कहसुजत्थ तुं वससि। स भणइ निवहाणीए, नय नयरं अत्थि मम ह किंचि।।१०|| जइपभणसि विमल ! तुम, तए समं एमि तेण इय वुत्ते। सो आह सइच्छाए, इंताण तुमाण के अम्हे / / 11 / / अह पत्तो पुरवाहिं, पागत्थं जाव जालए जलणं। विमलो तापहिएणं, भणिओ अप्पणु मह दहणं // 12 // सो वि पयंपइ तं पइ, मह पासे जिमसु अवि य भो पहिय!! नय अगणिपमुहदाणं, तुकप्पए समयपडिसेहा // 13 // तथाहिमहुमज्जमसभेस-जमूलसत्थग्गिजंतमंताई। न कया वि हुदायव्वं, सड्डेहिं पावभीरूहिं॥१४॥ अन्यत्राप्युक्तम्न ग्राह्याणि न देयानि, पञ्च द्रव्याणि पण्डितैः। अनिर्विषं तथा शस्त्रं, मद्यं मांसं च पञ्चमम्॥१५॥ तो सो कुविउ व्व अरे, रे चिट्ठ! निकिट्ठ! दुट्ठधम्मिट्ठ! बधुत्तराइँ पकुणसि, मह पुरओ विमल इय भणिउं / / 16 / / उत्तासियसयलजणो, कसिणतणुंतह य बडिउंलग्गो। जह तस्स किंचि भीयं, वउ वरिहुत्तं गयं गयणं // 17 // तह जंपइ विमलं पइ, रे पागकए महग्गिमप्पेसु। जं भुक्खि उम्हि वाद, इहरा ते नासिहं पाणे॥१८॥ इयरो वि भणइ जललव-चलाण पाणाण कारणा भद्द!! को नाम पावभीरू, इय एरिसपावमावहई // 16 // अथिरेहि थिरो समले-हि गयमलो परवसेहि साहीणो। पाणेहि जइ विढप्पइ, धम्मो ता किं न खलु पतं // 20 // जंजाणसि तं पकुणसु, न उण निरत्थं करेमि पावमहं। तो सो संहरिय तणू, नियरूवं काउमाह तयं // 21 // विमल ! अइविमलगुणगण!, धन्नो सि तुम तुम चिय सपुन्ने। जं सक्को विपसंसइ, तुह पयडं पावभीरुतं // 22 // सावजवयणवज्जण-पचलनिच्चलसुधम्मवर सुवरं। सो भणइतए दिन्नं, दितेण सदसणं सव्वं // 23 // वरदाणपरे अमरे, पुणो विजंपइ इमो अहो भद्द!। निययमणं अइपउणं, करेसु गुणिजणगुणग्गहणे॥२४॥ अह तम्मि अइनिरीहे, सप्पविसुच्छायणं मणिं सुमणो। बंधिय तदुत्तरीए, बलावि पत्तो सयं ठाणं / / 25 / / विमलो करेइ सद, सहदेवाईण ते वि तो पत्ता। पुच्छंति पहियचरियं, जहट्ठियं, सोऽविसाहेइ॥२६॥ जिणमुणिसुमरणपुव्वं, ते भुत्तुं अह गया नयरमज्झे। ता तत्थ पुरे वणिए-हि आवणा लहु पिहिज्जति / / 27|| चउरंगबल पबलं, इओ तओ भमइ समरसज्जं वा। मालिज्जइ पायारो, दिव्यं ति य गोयरकवाडे ||28|| तं असरिच्छे पिच्छिय, विमलेणं कोऽवि पुच्छिओ पुरिसो। भीयं पिव पुरमेयं, किं दीसइ भद्द ! सयलं पि॥२६॥ तो विमलसवणमूले, ठाऊण भणेइ सो विजह इत्थ। बलिबंधुकरो पुरिसु--त्तमु व्व पुरिसुत्तमो राया // 30 // इको चिय से पुत्तो, अरिमल्लो नाम विजिय अरिमल्लो। सो अज्ज केलिभवणे, सुत्तो डसियो भुयंगेणं / / 31 / / तप्पणइणी गाढं, पुक्करिए परियणेण मिलिएण। अइनिउणं पिगविट्ठो, न य दिट्ठो विसहरो दुट्ठो॥३२॥ पत्तो निवो वितहियं, मयं व कुमरं निए विरुत्तिगओ। मुच्छमतुच्छंपवणा-इएहि जाओ पुणो पउणो॥३३॥ किरियाओं बहुविहाओ, नरिंदविंदारएहिं बिहियाओ। न य जाओ को व गुणो, तत्तो भणियं निवेण इमं // 34 // जइ कह वि किं पि कुमर-स्स मंगुलं जायए अमच्चवरा !! तो मज्ज वि नणु, सरणं, जलणो जालाभरियगयणो // 35 // तो बुत्तो परिवारो, रुयंति अंतेउरी उकरुणसरं। सामंता वि विसन्ना, खलभलिओ सयलपुरलोओ // 36|| अह दाविओ पडहओ, निवेण आउलमणेण इय नयरे। जो जीवावइ कुमर, तस्स अहं देमि रज्जद्धं // 37 / / तं सुणिय भणइ विमलं, सहदेवो भाय ! कुणसु उवयारं। ओहलिय मणिं छंटसु, कुमरं जं जियइ लहु एसो॥३८॥ गरुयं अहिगरणमिणं, बंधव ! को रज्जकारणे कुणइ। इय विमलेणं वुत्ते, सहदेवो भणइ भो भाय !||36 // उज्जीविऊण कुमरं, अम्ह कुलस्स वि दलेसुदालिहं। कइय विजीविओ किर, करिज कुमरो वि जिणधम्मं // 4 //