________________ मणुस्सखेत्त 66 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 मणोदुहिया तेसिं कलंबुयापुप्फसंठिता होति तावक्खेत्तपहा। सानुक्रोशतयासदयतया मत्सरिकतापरगुणासहिष्णुता तत्प्रतिषेधोऽमअंतो य संकुया बा-हि वित्थडा चंदसूराणं / / 15 / / त्सरिकता तयेति / स्था०४ ठा०४ उ०। केणं वड्डति चंदो, परिहाणी केण होति चंदस्स। मणुस्सलोय पुं० (मनुष्यलोक) मनुष्य क्षेत्रे यावदयं मानुषोत्तरः कालो या जोण्हा वा, केणऽणुभावेण चंदस्स? ||16|| पर्वतस्तावदरिंमल्लोक इति / अयं मनुष्यलोक इति / जी०३ प्रति०४ किण्हं राहुविमाणं, णिचं चंदेण होइ अविरहियं / अधि० / सू०प्र०। चउरंगुलमप्पत्तं, हेहाचंदस्स तं चरति॥१७।। तिहिं ठाणेहिं देविंदा माणुसं लोग हटवमागच्छंति / तं जहावावर्हि वावडिं, दिवसे दिवसे तु सक्कपक्खस्स। अरिहंतेहिं जायमाणेहिं, अरिहंतेहिं पव्वयमाणेहिं, अरिहंताणं जं परिवड्डइ चंदो, खवेति तं चेव कालेण ||18|| णाणुप्पायमहिमासु / एवं सामाणिया तायत्तीसगा लोगपाला देवा पण्णरसइभागेण य, पुणो वितं चेवऽतिक्कमति / / 16 / / अग्गमहिसीओ देवीओ परिसोववनगा देवा अणीयाहिवई देवा एवं वडति चंदो, परिहाणी एव होति चंदस्स। आयरक्खा देवा माणुसं लोगं हवमागच्छति। (सूत्र-१३४)। कालो वा जोण्हा वा, तेणऽणुभावेण चंदस्स // 20|| स्था०३ ठा०१ उ०। चउहिं ठाणेहिं देविंदा माणुसं लोगं हव्वअंतो मणुस्सखेते, हवंति चारोवगा य उववण्णा। मागच्छंति एवं जहा तिठाणे० जाव लोगंतिता देवा माणुसं लोगं पंचविहा जोतिसिया, चंदा सूरा गहगणा य॥२१।। हव्वमागच्छेजा। तं जहा-अरहंतेहिं जायमाणेहिं० जाव अरिहंतेण परं जे सेसा, चंदाइचगहतारणक्खत्ता। ताणं परिणिव्वणमहिमासु। (सूत्र-३२४) स्था०४ ठा०३ उ०। णत्थि गती णवि चारो, अवट्टिता ते मुणेयव्वा / / 22 / / मणुस्सवग्गुरा स्त्री० (मनुष्यवागुरा) मृगवन्धने, विपा०१ श्रु०२ अ०। दो चंदा इह दीवे, चत्तारिय सायरे लवणतोये / मणुस्ससेणिपापरिकम्म न० (मनुष्यश्रेणिकापरिकर्मन्) दृष्टिवादस्य घायइसंडे दीदे, बारस चंदा य सूरा य / / 23 / / परिकर्मसूत्रभेदे, स०१२ अङ्ग। दो दो जंबुद्दीवे, ससिसूरा दुगुणिया भवे लवणे। मणुरिंसद पु० (मनुष्यन्द्र) मनुष्येषु परमेश्वरत्वात्ाजनि, औ० / रा०। लावणिगा य तिगुणिगा, ससिसूरा धायईसंडे॥२४॥ ''सणंकुमारो मणुरिंसदो, चकवट्टी महिड्डिओ। पुत्तं रज्जे ठवेऊण, सो वि धायइसंडप्पभिई, उद्दिट्ठतिगुणिता भवे चंदा। राया तब चरे।।१।।" उत्त०१८ अ० स्था०। आइल्लचंदसहिता, अणंतराणंतरे खेत्ते / / 25 / / मणुस्सी स्त्री० (मनुषी) मनुष्यस्त्रियाम्, जी०३ प्रति०४ अधि० / स्था० रिक्खग्गहतारग्गं, दीवसमुद्दे जहिच्छसे णाउं। (उत्तरकुरुमनुजीनां वर्णकः उत्तरकुरा' शब्दे द्वितीयभागे 758 पृष्ठे गतः) तस्स ससीहिं गुणितं, रिक्खग्गहतारगाणं तु / / 26 / / मणू स्त्री० (मनू) मनुपूर्वकाणां वैतादयविद्याधराणां विद्यायाम्, आ० चू० चंदातो सूरस्स य, सूरा चंदस्स अंतरं होति / 1 अ०। पण्णाससहस्साइं, तु जोयणाणं अणूणाई / / 27 / / मणूस पुं० (मनुष्य) "कगचज०" ||8 / 1 / 177 / / इति यलोपः। सूरस्स य सूरस्स य, ससिणो ससिणो य अंतरं होति। "लुप्त-य-र-व-श-ष-सां,श-ष-सां-दीर्घः"||८1१।४३| इति माणुसनगस्स बहिया, उ जोयणाणं सयसहस्सं // 28 // यलोपे उतो दीर्घः / प्रा०१ पाद। मनुजे, उत्त०१० अ०। सूरंतरिया चंदा, चंदंतरिया य दिणयरा दित्ता। मणूसजक्ख पुं० (मनुष्ययक्ष) यक्षमेदे, प्रज्ञा०१ पद। चित्तंतरलेसागा, सुहलेसा मंदलेसा य॥२६।। मणे अव्य० (मणे)"मणे विमर्श" ||8 / 2 / 207 / / मणे' इति विमर्श अट्ठासीइं च गहा, अट्ठावीसं च हों ति णक्खत्ता। प्रयोक्तव्यम् / मणे शूरः / प्रा०२ पाद। एगसीपरिवारो, एत्तो ताराण वोच्छामि।।३०।। मणोगय त्रि० (मनोगत) मनस्येव यो गतो, न बहिर्वचनेन, अप्रकाशनात् / छावट्ठिसहस्साई, णव चेव सयाइं पंचसयराइं। भ०२ श०१ उ० / कल्प० / रा० / मनसि चेतसि गतं स्थितं मनोगतम् / एगससरीपरिवारो, तारागणकोडिकोडीणं / / 31 / / उत्त०१ अ० / मनसि स्थिते, उत्त०१ अ० / अबहिःप्रकाशिते, भ०६ माणुसनगस्स बहिया, तु चंदसूराणऽवहिता जोगा। श०३३ उ० / मनोविकारे, नि०१ श्रु०३ वर्ग 4 अ० / विपा० / ज्ञा० / चंदा अभिईजुत्ता, सूरा पुण हों ति पूसेहिं // 32 // "मणोगए संकप्पे समुप्पञ्जित्था।" विपा०१ श्रु०१ अ०।मनोगतो मनसि (सूत्र-१७७) जी०३ प्रति०। व्यवस्थितो नाद्यापि वचसा प्रकाशितस्वरूप इत्यर्थः। आ०म०१ अ०। (आसा व्याख्या 'जोइसिय' शब्दे 1562 पृष्ठे गता) विपा०। मणुस्सता स्त्री० (मनुष्यता) मनुष्यभावे, स्था०। मणोज त्रि० (मनोज्ञ)"ज्ञोः " चाश८३॥ इति ज्ञःसम्बन्धिणनो चउहिं ठाणेहिं जीवा मणुस्सताए कम्मं पगरे ति / तं जहा- ___ जरय लुग्वा भवति / मणोजम् / मणोण्णं / प्रा०२ पाद / मनोऽनुकूल पइगभद्दयाए, पगतिविणीययाए, साणुक्कोसयाए, अमच्छरियाए। सुन्दरे, प्रज्ञा०१ पद। (सूत्र-३७३) मणोऽणुकूल न० (मनोनुकूल) मनसोऽभिलषिते, बृ०३ उ०। प्रकृत्या स्वभावेन भद्रकता परानुपतापिता या सा प्रकृतिभद्रकता तया | मणोदुहिया स्त्री० (मनो दुःखिता) मनसो मनसा वा दु: